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चौथा कर्मग्रन्थ
इन छ: पर्याप्ति में से पहली चार पर्याप्ति के अधिकारी एकेन्द्रिय ही हैं। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञि - पञ्चेन्द्रिय जीव, मनः पर्याप्ति के अतिरिक्त शेष पाँच पर्याप्तियों के अधिकारी हैं। संज्ञि-पञ्चेन्द्रिय जीव छहों पर्याप्तियों के अधिकारी हैं। इस विषय की गाथा, श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणकृत बृहत्संग्रहणी में है
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'आहारसरीरिंदिय, - पज्जत्ती आणपाणभासमणो ।
चत्तारि पंच छप्पिय, एगिंदियविगलसंनीणं । । ३४९ । । '
यही गाथा गोम्मटसार - जीवकाण्ड में ११८वें नम्बर पर दर्ज है। प्रस्तुत विषय का विशेष स्वरूप जानने के लिये ये स्थल देखने योग्य हैं
नन्दी, पृ. १०४ - १०५; पञ्चसं, द्वा. १, गा. ५ वृत्ति; लोकप्र., स. ३, श्लो. ७-४२ तथा जीवकाण्ड, पर्याप्ति अधिकार, गा. ११७-१२७/
परिशिष्ट 'च' |
पृष्ठ २१ के 'क्रमभावी' शब्द पर
छद्मस्थ के उपयोग क्रमभावी हैं, इसमें मतभेद नहीं है, पर केवली के उपयोग के सम्बन्ध में मुख्य तीन पक्ष हैं
(१) सिद्धान्त - पक्ष, केवलज्ञान और केवलदर्शन को क्रमभावी मानता है। इसके समर्थक श्रीजिनभद्रगणि क्षमाश्रमण आदि हैं।
(२) दूसरा पक्ष, केवलज्ञान - केवलदर्शन, उभय उपयोग को सहभावी मानता है। इसके पोषक श्रीमल्लवादी तार्किक आदि हैं।
(३) तीसरा पक्ष, उभय उपयोगों का भेद न मानकर उनका ऐक्य मानता है। इसके स्थापक श्रीसिद्धसेन दिवाकर हैं।
तीनों पक्षों की कुछ मुख्य दलीलें क्रमशः नीचे दी जाती हैं
१. (क) सिद्धान्त ( भगवती - शतक १८ और २५ के ६ उद्देश, तथा प्रज्ञापना- पद ३० ) में ज्ञान दर्शन दोनों का अलग-अलग कथन है तथा उनका क्रमभावित्व स्पष्ट वर्णित है। (ख) निर्युक्ति (आ.नि.गा. ९७७-९७६) में केवलज्ञान-केवलदर्शन दोनों का भिन्न-भिन्न लक्षण, उनके द्वारा सर्व विषयक ज्ञान
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