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________________ परिशिष्ट १५७ तथा दर्शन का होना और युगपत् दो उपयोगों का निषेध स्पष्ट बतलाया है। (ग) केवलज्ञान-केवलदर्शन के भिन्न-भिन्न आवरण और उपयोगों की बारह संख्या शास्त्र में (प्रज्ञापना, २९, पृ. ५२५ / १ आदि में ) जगह-जगह वर्णित है। (घ) केवलज्ञान और केवलदर्शन अनन्त कहे जाते हैं, वह लब्धि की अपेक्षा से है, उपयोग की अपेक्षा से नहीं | उपयोग की अपेक्षा से उनकी स्थिति एक समय ही है; क्योंकि उपयोग की अपेक्षा से अनन्तता शास्त्र में कहीं भी प्रतिपादित नहीं है। (ङ) उपयोगों का स्वभाव ही ऐसा है, जिससे कि वे क्रमशः प्रवृत्त होते हैं। इसलिये केवलज्ञान और केवलदर्शन को क्रमभावी और अलग-अलग मानना चाहिये। - २. (क) आवरण-क्षयरूप निमित्त और सामान्य विशेषात्मक विषय, समकालीन होने से केवलज्ञान और केवलदर्शन युगपत् होते हैं। (ख) छाद्म स्थिक- उपयोगों में कार्य करता है या परस्पर प्रतिबन्ध्य - प्रतिबन्धक भाव घट सकता है, क्षायिक उपयोगों में नहीं; क्योंकि बोध स्वभाव शाश्वत आत्मा, जब निरावरण हो, तब उसके दोनों क्षायिक उपयोग निरन्तर ही होने चाहिये (ग) केवलज्ञान- केवलदर्शन की सादि - अपर्यवसितता, जो शास्त्र में कही है, वह भी युगपत् पक्ष में ही घट सकती है; क्योंकि इस पक्ष में दोनों उपयोग युगपत् और निरन्तर होते रहते हैं। इसलिए द्रव्यार्थिकनय से उपयोग-द्वय के प्रवाह को अपर्यवसित (अनन्त) कहा जा सकता है। (घ) केवलज्ञान - केवलदर्शन के सम्बन्ध में सिद्धान्त में जहाँ-कहीं जो कुछ कहा गया है, वह सब दोनों के व्यक्ति भेद का साधक है, क्रमभावित्व का नहीं। इसलिये दोनों उपयोग को सहभावी मानना है। ३. (क) जैसे सामग्री मिलने पर एक ज्ञान - पर्याय में अनेक घटपटादि विषय भासित होते हैं, वैसे ही आवरण-क्षय, विषय आदि सामग्री मिलने पर एक ही केवल - उपयोग, पदार्थों के सामान्य- विशेष उभय स्वरूपक जान सकता है । (ख) जैसे केवलज्ञान के समय, मतिज्ञानावरणादि का अभाव होने पर भी मति आदि ज्ञान, केवलज्ञान से अलग नहीं माने जाते, वैसे ही केवलदर्शनावरण का क्षय होने पर भी केवलदर्शन को, केवलज्ञान से अलग मानना उचित नहीं है। (ग) विषय और क्षयोपशम की विभिन्नता के कारण, छाद्मस्थिक ज्ञान और दर्शन में परस्पर भेद माना जा सकता है, पर अनन्त - विषयकता और क्षायिकभाव समान होने से केवलज्ञान - केवलदर्शन में किसी तरह भेद नहीं माना जा सकता। (घ) यदि केवलदर्शन केवलज्ञान से अलग माना जाय तो वह सामान्यमात्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001895
Book TitleKarmagrantha Part 4 Shadshitik
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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