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चौथा कर्मग्रन्थ
को विषय करनेवाला होने से अल्प-विषयक सिद्ध होगा, जिससे उसका शास्त्र कथित अनन्त-विषयकत्व नहीं घट सकेगा। (ङ) केवली का भाषण, केवलज्ञानकेवलदर्शन-पूर्वक होता है, यह शास्त्र - कथन अभेद - पक्ष ही में पूर्णतया घट सकता है। (च) आवरण- भेद कथञ्चित् है; अर्थात् वस्तुतः आवरण एक होने पर भी कार्य और उपाधि-भेद की अपेक्षा से उसके भेद समझने चाहिये इसलिये एक उपयोग-व्यक्ति में ज्ञानत्व - दर्शनत्व दो धर्म अलग-अलग मानने चाहिये । उपयोग, ज्ञान- दर्शन दो अलग-अलग मानना युक्त नहीं; अतएव ज्ञान- दर्शन दोनों शब्द पर्यायमात्र (एकार्थवाची) हैं।
उपाध्याय श्री यशोविजय ने अपने ज्ञानबिन्दु पृ. १६४ / १ में नय - दृष्टि से तीनों पक्षों का समन्वय किया है — सिद्धान्त - पक्ष, शुद्ध ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा से; श्रीमल्लवादी जी का पक्ष, व्यवहारनय की अपेक्षा से और श्रीसिद्धसेन दिवाकर का पक्ष संग्रहनय की अपेक्षा से जानना चाहिये। इस विषय का सविस्तार वर्णन, सन्मतितर्क; जीवकाण्ड गा. ३ से आगे; विशेषावश्यकभाष्य, गा. ३०८८३१३५; श्रीहरिभद्रसूरिकृत धर्मसंग्रहणं गा. १३३६-१३५६; श्रीसिद्धसेनगणिकृत तत्त्वार्थटीका अ. १, सू. ३१, पृ. ७७ / १; श्रीमलयगिरिनन्दीवृत्ति पृ. १३४-१३८ और ज्ञानबिन्दु पृ. १५४ - १६४ से जान लेना चाहिये । दिगम्बर-सम्प्रदाय में उक्त तीन पक्ष में से दूसरा अर्थात् युगपत् उपयोगद्वय का पक्ष ही प्रसिद्ध है
जुगवं वट्टइ णाणं, केवलणाणिस्स दंसणं च तहा । दिणयरपयासतापं, जह वट्टइ तह मुणेयव्वं । । १६० ।।
सिद्धाणं सिद्धगई, केवलणाणं च दंसणं खयियं । सम्मत्तमणाहारं, उवजोगाणक्कमपउत्ती । । ७३० ।। '
दंसणपुव्वं णाणं, छदमत्थाणं ण दोण्णि उवउग्गा । जुगवं जम्हा केवलि - गाहे जुगवं तु ते दो वि । । ४४ ।। '
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