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परिशिष्ट
परिशिष्ट 'छ' ।
पृष्ठ २२ के 'एकेन्द्रिय' शब्द पर
एकेन्द्रियों में तीन उपयोग माने गये हैं। इसलिये यह शङ्का होती है कि 'स्पर्शनेन्द्रिय- मतिज्ञानावरणकर्म का क्षयोपशम होने से एकेन्द्रियों में मति - उपयोग मानना ठीक है, परन्तु भाषालब्धि (नेकी शक्ति) तथा श्रवणलब्धि (सुनने की शक्ति) न होने के कारण उनमें श्रुत- उपयोग कैसे माना जा सकता है; क्योंकि शास्त्र में भाषा तथा श्रवणलब्धि वालों का ही श्रुतज्ञान माना है। यथा— 'भावसुयं भासासो, - यलद्धिणो जुज्जए न इयरस्स ।
भासाभिमुहस्स जयं, सोऊण य जं हविज्जाहि । । १०२ । । '
- विशेषावश्यक।
बोलने व सुनने की शक्तिवाले ही को भावश्रुत है, दूसरे को नहीं। क्योंकि 'श्रुतज्ञान' उस ज्ञान को कहते हैं, जो बोलने की इच्छावाले या वचन सुननेवाले को होता है।
इसका समाधान यह है कि स्पर्शनेन्द्रिय के अतिरिक्त अन्य द्रव्य ( बाह्य) इन्द्रियाँ न होने पर भी वृक्षादि जीवों में पाँच भावेन्द्रिय- जन्य ज्ञानों का होना, जैसा शास्त्र सम्मत है; वैसे ही बोलने और सुनने की शक्ति न होने पर भी एकेन्द्रियों में भावश्रुतज्ञान का होना शास्त्र सम्मत है । यथा
'जह सुहुमं भाविंदिय, नाणं दव्विंदियावरोहे वि।
तह दव्वसुयाभोव, भावसुयं पत्थिवाईणं । । १०३ ।।'
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- विशेषावश्यक ।
जिस प्रकार द्रव्य-इन्द्रियों के अभाव में भावेन्द्रिय-जन्य सूक्ष्म ज्ञान होता है, इसी प्रकार द्रव्यश्रुत के भाषा आदि बाह्य निमित्त के अभाव में भी पृथ्वीकायिक आदि जीवों को अल्प भावश्रुत होता है। यह ठीक है कि औरों को जैसा स्पष्ट ज्ञान होता है, वैसा एकेन्द्रियों को नहीं होता। शास्त्र में एकेन्द्रियों को आहार का अभिलाष माना है, यही उनके अस्पष्ट ज्ञान मानने में हेतु है ।
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आहार का अभिलाष, क्षुधावेदनीयकर्म के उदय से होनेवाला आत्मा का परिणाम- विशेष (अध्यवसाय) है। यथा—
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