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चौथा कर्मग्रन्थ
फिर चाहे विकासगामी आत्मा ऊपर की किसी भूमिका से गिर भी पड़े तथापि वह पुन: कभी-न-कभी अपने लक्ष्य को-आध्यात्मिक पूर्ण स्वरूप को प्राप्त कर लेती है। इस आध्यात्मिक परिस्थिति का कुछ स्पष्टीकरण अनुभवगत व्यावहारिक दृष्टान्त के द्वारा किया जा सकता है।
जैसे, एक ऐसा वस्त्र हो, जिसमें मल के अतिरिक्त चिकनाहट भी लगी हो। उसका मल ऊपर-ऊपर से दूर करना उतना कठिन और श्रम-साध्य नहीं, जितना कि चिकनाहट दूर करना। यदि चिकनाहट एक बार दूर हो जाय तो फिर बाकी का मल निकालने में किंवा किसी कारणवश फिर से लगे हुए गर्दे को दूर करने में विशेष श्रम नहीं पड़ता और वस्त्र को उसके असली स्वरूप में सहज ही लाया जा सकता है। ऊपर-ऊपर का मल दूर करने में जो बल दरकार है, उसके सदृश 'यथाप्रवृत्तिकरण' है। चिकनाहट दूर करनेवाले विशेष बल व श्रम-के समान 'अपूर्वकरण' है। जो चिकनाहट के समान राग-द्वेष की तीव्रतम ग्रन्थि को शिथिल करता है। बाकी बचे हुए मल को किंवा चिकनाहट दूर होने के बाद फिर से लगे हुए मल को कम करनेवाले बल-प्रयोग के समान 'अनिवृत्तिकरण' है। उक्त तीनों प्रकार के बल-प्रयोगों में चिकनाहट दूर करनेवाला बल-प्रयोग ही विशिष्ट है।
___ अथवा जैसे; किसी राजा ने आत्मरक्षा के लिये अपने अङ्ग रक्षकों को तीन विभागों में विभाजित कर रक्खा हो, जिनमें दूसरा विभाग शेष दो विभागों से अधिक बलवान् हो, तब उसी को जीतने में विशेष बल लगाना पड़ता है। वैसे ही दर्शनमोह को जीतने के पहले उसके रक्षक राग-द्वेष के तीव्र संस्कारों को शिथिल करने के लिये विकासगामी आत्मा को तीन बार बल-प्रयोग करना पड़ता है। जिनमें दूसरी बार किया जानेवाला बल-प्रयोग ही, जिसके द्वारा रागद्वेष की अत्यन्त तीव्रता रूप ग्रन्थि भेदी जाती है, प्रधान होता है। जिस प्रकार उक्त तीनों दलों में से बलवान् द्वारा दूसरे अङ्गरक्षक दल के जीत लिये जाने पर उस राजा का पराजय सहज होता है, इसी प्रकार द्वेष की अतितीव्रता को मिटा देने पर दर्शनमोह पर जयलाभ करना सहज है। दर्शनमोह को जीतते ही पहले गुणस्थान की समाप्ति हो जाती है।
ऐसा होते ही विकासगामी आत्मा स्वरूप का दर्शन कर लेती है अर्थात् उसकी अब तक जो पर-रूप में स्व-रूप की भ्रान्ति थी, वह दूर हो जाती है। अतएव उसके प्रयत्न की गति उलटी न होकर सीधी हो जाती है। अर्थात् वह विवेकी बन कर कर्तव्य-अकर्तव्य का वास्तविक विभाग कर लेता है। इस दशा
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