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मार्गणास्थान-अधिकार
अनन्तगुण हैं। कापोतलेश्या वालों से नीललेश्या वाले विशेषाधिक हैं। कृष्णलेश्या वाले, नीललेश्या वालों से भी विशेषाधिक हैं।
अभव्य जीव, भव्य जीवों से अल्प हैं। भव्य जीव, अभव्य जीवों की अपेक्षा अनन्तगुण हैं।
सासादनसम्यग्दृष्टि वाले, अन्य- सब दृष्टि वालों से कम हैं। औपशमिक सम्यग्दृष्टि वाले, सासादन सम्यग्दृष्टि वालों से संख्यातगुण हैं।।४३।।
भावार्थ-लान्तक देवलोक से लेकर अनुत्तरविमान तक के वैमानिक देवों को तथा गर्म-जन्य संख्यातवर्ष आयुवाले कुछ मनुष्य-तिर्यश्चों को शुक्ललेश्या होती है। पद्मलेश्या, सनत्कुमार से ब्रह्मलोक तक के वैमानिक देवों को और गर्म-जन्य संख्यात वर्ष आयुवाले कुछ मनुष्य तिर्यञ्चों को होती है। तेजोलेश्या, बादर पृथ्वी, जल और वनस्पतिकायिक जीवों को, कुछ पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च-मनुष्य, भवनपति और व्यन्तरों को, ज्योतिषों को तथा सोधर्म-ईशान कल्प के वैमानिक देवों को होती है। सब पद्मलेश्या वाले मिलाकर सब शुक्ललेश्या वालों की अपेक्षा संख्यातगुण हैं। इसी तरह सब तेजोलेश्या वाले मिलाये जायें तो सब पद्मलेश्या १. लान्तक से लेकर अनुत्तरविमान तक के वैमानिकदेवों की अपेक्षा सनत्कुमार से लेकर ब्रह्मलोक तक के वैमानिकदेव, असंख्यातगुण है। इसी प्रकार सनत्कुमार आदि के वैमानिक देवों की अपेक्षा केवल ज्योतिषदेव ही असंख्यात-गुण हैं। अत एव यह शङ्का होती है कि पद्मलेश्यावाले शुक्ललेश्यावालों से और तेजोलेश्यावाले पद्मलेश्यावालों से असंख्यातगुण न मानकर संख्यातगुण क्यों माने जाते हैं? इसका समाधान इतना ही है कि पद्मलेश्यावाले देव शुक्ललेश्यावाले देवों से असंख्यातगुण हैं सही, पर पद्मलेश्यावाले देवों की अपेक्षा शुक्ललेश्यावाले तिर्यञ्च असंख्यातगुण हैं। इसी प्रकार पद्मलेश्यावाले देवों से तेजोलेश्यावाले देवों के असंख्यातगुण होने पर भी तेजोलेश्यावाले देवों से पद्मलेश्यावाले तिर्यञ्च असंख्यातगुण हैं। अत एव सब शुक्ललेश्यावालों से सब पद्मलेश्यावाले और सब पद्मलेश्यावालों से सब तेजोलेश्यावाले संख्यातगुण ही होते हैं। सारांश, केवल देवों की अपेक्षा शुक्ल आदि उक्त तीन लेश्याओं का अल्प-बहुत्व विचारा जाता, तब तो असंख्यातगुण कहा जाता; परन्तु यह अल्प-बहुत्व सामान्य जीवराशि को लेकर कहा गया है और पद्मलेश्यावाले दवों से शुक्ल लेश्यावाले तिर्यञ्चों की तथा तेजोलेश्यावाले देवों से पद्मलेश्यावाले तिर्यञ्चों की संख्या इतनी बड़ी है; जिससे कि उक्त संख्यातगुण ही अल्पबहुत्व घट सकता है। श्रीजयसोमसरि ने शक्ललेश्या से तेजोलेश्या तक का अल्प-बहत्व असंख्यातगण लिखा है; क्योंकि उन्होंने गाथा-गत 'दो संख्या' पद के स्थान में 'दोऽसंखा' का पाठान्तर लेकर व्याख्या की है और अपने टबे में यह भी लिखा है कि किसी-किसी प्रति में 'दो संख्या' का पाठान्तर है, जिसके अनुसार संख्यातगुण का अल्प-बहुत्व समझना चाहिये, जो सुज्ञों को विचारणीय है।
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