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चौथा कर्मग्रन्थ
देवों, नारकों तथा कुछ मनुष्य-तिर्यञ्चों को ही अवधिदर्शन होता है। इसी से अन्य दर्शनवालों की अपेक्षा अवधिदर्शनी अल्प हैं। चक्षुर्दर्शन, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञि-पञ्चेन्द्रिय और संज्ञि-पञ्चेन्द्रिय, इन तीनों प्रकार के जीवों में होता है। इसलिये चक्षुर्दर्शनवाले अवधिदर्शनियों की अपेक्षा असंख्यातगुण कहे गये हैं। सिद्ध अनन्त हैं और वे सभी केवलदर्शनी हैं, इसी से उनकी संख्या चक्षुर्दर्शनियों की संख्या से अनन्तगुण है। अचक्षुर्दर्शन सभी संसारी जीवों में होता है, जिनमें अकेले वनस्पतिकायिक जीव ही अनन्तानन्त हैं। इसी कारण अचक्षुर्दर्शनियों केवलदर्शनियों से अनन्तगुण कहा है। लेश्या आदि पाँच मार्गणाओं का अल्प-बहुत्व'
(दो गाथाओं से) पच्छाणुपुव्विलेसा, थोवा दो संख णंत दो अहिया।
अभवियर थोवणंता, सासण थोवोवसम संखा।।४३।। पश्चानुपूर्व्या लेश्याः, स्तोका द्वे संख्ये अनन्ता द्वे अधिके। अभव्येतराः स्तोकानन्ताः, सासादनाः स्तोका उपशमाः संख्याः।।४३।।
अर्थ-लेश्याओं का अल्प-बहुत्व पश्चानुपूर्वी से-पीछे की ओर सेजानना चाहिये। जैसे-शुक्ललेश्या वाले, अन्य सब लेश्या वालों से अल्प हैं। पद्मलेश्या वाले, शुक्ललेश्या वालों से संख्यातगुण हैं। तेजोलेश्या वाले, पद्मलेश्या वालों से संख्यातगुण हैं। तेजोलेश्या वालों से कापोतलेश्या वाले
१. लेश्या का अल्प-बहुत्व प्रज्ञापना पृ. १३५/१, १५२/१; भव्य-मार्गणा का
पृ. १३९/१, संज्ञिमार्गणा का पृ. १३९/१ और आहारकमार्गणा का पृ. १३२/१ पर है। अल्पबहुत्व पद में सम्यक्त्वमार्गणा का जो अल्प-बहुत्व पृ. १३६ पर है, वह संक्षिप्तमात्र है। गोम्मटसार-जीवकाण्ड की ५३६ से लेकर ५४१वीं गाथाओं में जो लेश्या का अल्प बहुत्व द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि को लेकर बतलाया गया है, वह कहीं-कहीं यहाँ से मिलता है और कहीं-कहीं नहीं मिलता। भव्यमार्गणा में अभव्य की संख्या उसमें कर्मग्रन्थ की तरह जघन्य-युक्तानन्त कही हुई है।
-जी.गा. ५५९। सम्यक्त्व, संज्ञी और आहारकमार्गणा का भी अल्प-बहुत्व उसमें वर्णित है।
-जी.गा. ६५६-६५८-६६२-६७०।
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