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________________ मार्गणास्थान- अधिकार ९३ भावार्थ सिद्ध अनन्त हैं और वे सभी केवलज्ञानी हैं, इसी से केवलज्ञानी विभङ्गज्ञानियों से अनन्तगुण हैं। वनस्पतिकायिक जीव सिद्धों से भी अनन्तगुण हैं और वे सभी मति - अज्ञानी तथा श्रुत- अज्ञानी ही हैं। अतएव मति- अज्ञानी तथा श्रुत- अज्ञानी, दोनों का केवलज्ञानियों से अनन्तगुण होना संगत है। मति और श्रुतज्ञान की तरह मति और श्रुत- अज्ञान, नियम से सहचारी हैं, इसी से मतिअज्ञानी तथा श्रुत- अज्ञानी आपस में तुल्य हैं। सूक्ष्मसम्पराय चारित्री उत्कृष्ट दो सौ से नौ सौ तक, परिहारविशुद्ध चारित्री उत्कृष्ट दो हजार से नौ हजार तक और यथाख्यात चारित्री उत्कृष्ट दो करोड़ से नौ करोड़ तक हैं। अतएव इन तीनों प्रकार के चारित्रियों का उत्तरोत्तर संख्यातगुण अल्प-बहुत्व माना गया है || ४१ ॥ छेयसमईय संखा, देस असंखगुण णंतगुण अजया । थोवअसंखदुणंता, ओहिनयणकेवलअचक्खू ।। ४२ ।। छेदसामायिकाः संख्याः, देशा असंख्यगुणा अनन्तगुणा अयताः । स्तोकाऽसंख्यद्व्यनन्तान्यवधिनयनकेवलाचक्षूंषि । । ४२ ।। अर्थ-छेदोपस्थापनीयचारित्र वाले यथाख्यात चारित्रियों से संख्यातगुण हैं। सामायिकचारित्र वाले छेदोपस्थापनीय चारित्रियों से संख्यातगुण हैं। देशविरति वाले सामायिक चारित्रियों से असंख्यातगुण हैं। अविरति वाले देशविरतों से अनन्तगुण हैं। अवधिदर्शनी अन्य सब दर्शनवालों से अल्प हैं। चक्षुर्दर्शनी अवधिदर्शनवालों से असंख्यातगुण हैं । केवलदर्शनी चक्षुर्दर्शनवालों से अनन्तगुण हैं। अचक्षुर्दर्शनी केवलदर्शनियों से भी अनन्तगुण हैं। भावार्थ - यथाख्यातचारित्र वाले उत्कृष्ट दो करोड़ से नौ करोड़ तक होते हैं; परन्तु छेदोपस्थापनीयचारित्र वाले उत्कृष्ट दो सौ करोड़ से नौ सौ करोड़ तक और सामायिकचारित्र वाले उत्कृष्ट दो हजार करोड़ से नौ हजार करोड़ तक पाये जाते हैं। इसी कारण यें उपर्युक्त रीति से संख्यातगुण माने गये हैं । तिर्यञ्च भी देशविरत होते हैं; ऐसे तिर्यञ्च असंख्यात होते हैं। इसी से सामायिकचारित्र वालों से देशविरतिवाले असंख्यातगुण कहे गये हैं । उक्त चारित्र वालों को छोड़ अन्य सब जीव अविरत हैं, जिनमें अनन्तानन्त वनस्पतिकायिक जीवों का समावेश है। इसी अभिप्राय से अविरत जीव देशविरतिवालों की अपेक्षा अनन्तगुण माने गये हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001895
Book TitleKarmagrantha Part 4 Shadshitik
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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