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मार्गणास्थान-अधिकार
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(५)-मार्गणाओं में लेश्या छसु लेसासु सठाणं, एगिंदिअसंनिभूदवणेसु। पढमा चउरो तिन्नि उ, नारयविगलग्गिपवणेसु।।३६।। षट्सु लेश्यासु स्वस्थानमेकेन्द्रियासंज्ञिभूदकवनेषु। प्रथमाश्चतस्रस्तिस्रस्तु, नारकविकलाग्निपवनेषु।।३६।। __ अर्थ-छह लेश्या मार्गणाओं में अपना-अपना स्थान है। एकेन्द्रिय, असंज्ञिपञ्चेन्द्रिय, पृथ्वीकाय, जलकाय और वनस्पतिकाय, इन पाँच मार्गणाओं में पहली चार लेश्याएँ हैं। नरकगति विकलेन्द्रिय-त्रिक, अग्निकाय और वायुकाय, इन छह मार्गणाओं में पहली तीन लेश्याएँ हैं।।३६।।
भावार्थ-छह लेश्याओं में अपना-अपना स्थान है, इसका मतलब यह है कि एक समय में एक जीव में एक ही लेश्या होती है, दो नहीं। क्योंकि छहों लेश्याएँ समान काल की अपेक्षा से आपस में विरुद्ध हैं; कृष्णलेश्या वाले जीवों में कृष्णलेश्या ही होती है। इसी प्रकार आगे भी समझ लेना चाहिये।
एकेन्द्रिय आदि उपर्युक्त पाँच मार्गणाओं में कृष्ण से तेजः पर्यन्त चार लेश्याएँ मानी जाती हैं। इनमें से पहली तीन तो भवप्रत्यक्ष होने के कारण सदा ही पायी जा सकती हैं, पर तेजोलेश्या के सम्बन्ध में यह बात नहीं; वह सिर्फ अपर्याप्त-अवस्था में पायी जाती है। इसका कारण यह है कि जब कोई तेजोलेश्या वाला जीव मरकर पृथ्वीकाय, जलकाय या वनस्पतिकाय में जन्मता है, तब उसे कुछ काल तक पूर्व जन्म की मरण-कालीन तेजोलेश्या रहती है।
नरकगति आदि उपर्युक्त छह मार्गणाओं के जीवों में ऐसे अशुभ परिणाम होते हैं, जिससे कि वे कृष्ण आदि तीन लेश्याओं के सिवाय अन्य लेश्याओं के अधिकारी नहीं बनते॥३६॥
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