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चौथा कर्मग्रन्थ
विवक्षित हैं; पर इस गाथा में वर्तमान की तरह भावी वचनयोग वाले भी वचनयोग के स्वामी माने गये हैं; इसी कारण वचनयोग में वहाँ पाँच और यहाँ आठ जीवस्थान गिने गये हैं।
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वचनयोग में पहला, दूसरा दो गुणस्थान, औदारिक, औदारिकमिश्र, कार्मण और असत्यामृषावचन, ये चार योग; तथा मतिअज्ञान, श्रुत- अज्ञान, चक्षुर्दर्शन और अचक्षुर्दर्शन, ये चार उपयोग हैं । २२, २८ और ३१वीं गाथा में अनुक्रम से वचनयोग में तेरह गुणस्थान, तेरह योग और बारह उपयोग माने गये हैं। इस भिन्नता का कारण वही है। अर्थात् वहाँ वचनयोग सामान्य मात्र लिया गया है, पर इस गाथा में विशेष — मनोयोगरहित । पूर्व में वचनयोग में समकालीन योग विवक्षित है; इसलिये उसमें कार्मण - औदारिकमिश्र, ये दो अपर्याप्तअवस्था भावी योग नहीं गिने गये हैं। परन्तु इस जगह असम - कालीन भी योग विवक्षित है। अर्थात् कार्मण और औदारिकमिश्र, अपर्याप्त अवस्था - भावी होने के कारण, पर्याप्त अवस्था - भावी वचनयोग के असम-कालीन हैं तथापि उक्त दो योगवालों को भविष्यत् में वचनयोग होता है। इस कारण उसमें ये दो योग गिने गये हैं।
कुल चार
काययोग में सूक्ष्म और बादर, ये दो पर्याप्त तथा अपर्याप्त, जीवस्थान; पहला और दूसरा दो गुणस्थान; औदारिक, औदारिकमिश्र, वैक्रिय, वैक्रियमिश्र और कार्मण, ये पाँच योग तथा मति- अज्ञान, श्रुत- अज्ञान और अचक्षुर्दर्शन, ये तीन उपयोग समझने चाहिये । १६, २२, २४ और ३१वीं गाथा में चौदह जीवस्थान, तेरह गुणस्थान, पन्द्रह योग और बारह उपयोग, काययोग में बतलाये गये हैं। इस मत-भेद का तात्पर्य भी ऊपर के कथनानुसार है । अर्थात् वहाँ सामान्य काययोग को लेकर जीवस्थान आदि का विचार किया गया है, पर इस जगह विशेष । अर्थात् मनोयोग और वचनयोग, उभयरहित काययोग, जो एकेन्द्रिय मात्र में पाया जाता है, उसे लेकर ॥ ३५ ॥
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