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________________ मार्गणास्थान-अधिकार मनोयोगरहित मिल जाता है। इसलिये वह मनोयोगरहित लिया जाता है। काययोग एकेन्द्रिय में मन-वचन उभय योगरहित मिल जाता है। इसी से वह वैसा ही लिया जाता है। मनोयोग में अपर्याप्त और पर्याप्त संज्ञी, ये दो जीवस्थान हैं, अन्य नहीं; क्योंकि अन्य जीवस्थानों में मनः पर्याप्ति, द्रव्यमन आदि सामग्री न होने से मनोयोग नहीं होता। मनोयोग में गुणस्थान तेरह हैं; क्योंकि चौदहवें गुणस्थान में कोई भी योग नहीं होता। मनोयोग पर्याप्त-अवस्था-भावी है, इस कारण उसमें अपर्याप्त-अवस्था-भावी कार्मण और औदारिकमिश्र, इन दो को छोड़ शेष तेरह योग होते हैं। यद्यपि केवलिसमुद्धात के समय पर्याप्त-अवस्था में भी उक्त दो योग होते हैं। तथापि उस समय प्रयोजन न होने के कारण केवलज्ञानी मनोद्रव्य को ग्रहण नहीं करते। इसलिये उस अवस्था में भी उक्त दो योग के साथ मनोयोग का साहचर्य नहीं घटता। मनवाले प्राणियों में सब प्रकार के बोध की शक्ति पायी जाती है; इस कारण मनोयोग में बारह उपयोग कहे गये हैं। १७वीं गाथा में मनोयोग में सिर्फ पर्याप्त संज्ञी जीवस्थान माना है, सो वर्तमान-मनोयोग वालों को मनोयोगी मानकर इस गाथा में मनोयोग में अपर्याप्तपर्याप्त संज्ञि-पञ्चेन्द्रिय दो जीवस्थान माने हैं; सो वर्तमान-भावी उभय मनोयोग वालों को मनोयोगी मानकर। मनोयोग सम्बन्धी गुणस्थान, योग और उपयोग के सम्बन्ध में क्रम से २२, २८, ३१वीं गाथा का जो मन्तव्य है, इस जगह भी वही है; तथापि फिर से उल्लेख करने का मतलब सिर्फ मतान्तर को दिखाना है। मनोयोग में जीवस्थान और योग विचारने में विवक्षा भिन्न-भिन्न की गयी है। जैसे—भावी मनोयोग वाले अपर्याप्त संज्ञि-पञ्चेन्द्रिय को भी मनोयोगी मानकर उसे मनोयोग में गिना है। पर योग के विषय में ऐसा नहीं किया है। जो योग मनोयोग के समकालीन हैं, उन्हीं को मनोयोग में गिना है। इसी से उसमें कार्मण और औदारिकमिश्र, ये दो योग नहीं गिने हैं। वचनयोग में आठ जीवस्थान कहे गये हैं। वे ये हैं-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञि-पञ्चेन्द्रिय, ये चार पर्याप्त तथा अपर्याप्त। इस जगह वचनयोग, मनोयोगरहित लिया गया है, सो इन आठ जीवस्थानों में ही पाया जाता है। १७वीं गाथा में सामान्य वचनयोग लिया गया है। इसलिये उस गाथा में वचनयोग में संज्ञिपञ्चेन्द्रिय जीवस्थान भी गिना गया है। इसके सिवाय यह भी भिन्नता है कि उस गाथा में वर्तमान वचनयोग वाले ही वचनयोग के स्वामी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001895
Book TitleKarmagrantha Part 4 Shadshitik
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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