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जीवस्थान-अधिकार
संज्ञि-पञ्चेन्द्रिय के अपर्याप्त-अवस्था में आठ उपयोग माने गये हैं। अत: इस प्रकार- तीर्थङ्कर तथा सम्यक्त्वी देव-नारक आदि को उत्पत्ति-क्षण से ही तीन ज्ञान और दो दर्शन होते हैं तथा मिथ्यात्वी देव-नारक आदि को जन्मसमय से ही तीन अज्ञान और दो दर्शन होते हैं। मनःपर्यय आदि चार उपयोग न होने का कारण यह है कि मनःपर्ययज्ञान, संयमवालों को हो सकता है, परन्तु अपर्याप्त अवस्था में संयम सम्भव नहीं है; तथा चक्षुर्दर्शन, चक्षुरिन्द्रिय के व्यापार की अपेक्षा रखता है, जो अपर्याप्त-अवस्था में नहीं होता। इसी प्रकार केवलज्ञान और केवलदर्शन, ये दो उपयोग कर्मक्षय-जन्य हैं, किन्तु अपर्याप्त-अवस्था में कर्म-क्षय का सम्भव नहीं है। संज्ञि-पञ्चेन्द्रिय के अपर्याप्त अवस्था में आठ उपयोग कहे गये, वह करण-अपर्याप्त की अपेक्षा से; क्योंकि लब्धि-अपर्याप्त में मतिअज्ञान, श्रुत-अज्ञान और अचक्षुर्दर्शन के अतिरिक्त अन्य उपयोग नहीं होते। ___इस गाथा में अपर्याप्त चतुरिन्द्रिय, अपर्याप्त असंज्ञि-पञ्चेन्द्रिय और अपर्याप्त संज्ञि-पञ्चेन्द्रिय में जो-जो उपयोग बतलाये गये हैं, उनमें चक्षुदर्शन परिगणित नहीं है, सो मतान्तर से; क्योंकि पञ्चसङ्ग्रहकार के मत से उक्त तीनों जीवस्थानों में, अपर्याप्त-अवस्था में भी इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण होने के बाद चक्षुर्दर्शन होता है। दोनों मत के तात्पर्य को समझने के लिये गा. १७वीं का नोट देखना चाहिये।।६।।
को अज्ञान रूप न मानकर ज्ञान रूप ही मानते हैं। देखिए, गा. ४९वीं। अतएव उनके मतानुसार द्वीन्द्रिय आदि उक्त चार अपर्याप्त-जीवस्थानों में अचक्षुदर्शन, मति-अज्ञान, मतिज्ञान और श्रुतज्ञान, ये पाँच उपयोग और सूक्ष्म एकेन्द्रिय आदि उपर्युक्त दस जीवस्थानों में से द्वीन्द्रिय आदि उक्त चार के सिवाय शेष छह जीवस्थानों में
अचक्षुर्दर्शन, मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान, ये तीन उपयोग समझने चाहिये। १. इसका उल्लेख श्रीमलयगिरिसूरि ने इस प्रकार किया है
'अपर्याप्तकाछह लब्ब्यपर्याप्तका वेदितव्याः, अन्यथा करणापर्याप्तकेषु चतुरिन्द्रियादिष्विन्द्रियपर्याप्तौ सत्यां चक्षुर्दर्शनमपि प्राप्यते मूलटीकायामाचार्येणाभ्यनुज्ञानात्।' (पञ्च सं. द्वार १, गा. ८ की टीका)
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