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________________ मार्गणास्थान-अधिकार यथाख्यातचारित्र में अन्तिम चार गुणस्थान माने जाने का अभिप्राय यह है कि यथाख्यातचारित्र, मोहनीयकर्म का उदय रुक जाने पर प्राप्त होता है और मोहनीयकर्म का उदयाभाव ग्यारहवें से चौहदवें तक चार गुणस्थानों में रहता है।।२०।। मणनाणि सग जयाई, समइयछेय चउ दुन्नि परिहारे। केवलदुगि दो चरमा, जयाइ नव मइसुओहिदुगे।।२१।। मनोज्ञाने सप्त यतादीनि, सामायिकच्छेदे चत्वारि वे परिहारे। केवलद्वि के द्वे चरमेऽयतादीनि नव मतिश्रुतावधिद्विके।।२१।। अर्थ-मनः पर्यायज्ञान में प्रमत्तसंयत आदि सात गुणस्थान, सामायिक तथा छेदोपस्थापनीय-संयम में प्रमत्तसंयत आदि चार गुणस्थान, परिहारविशुद्धसंयम में प्रमत्तसंयत आदि दो गुणस्थान, केवल-द्विक में अन्तिम दो गुणस्थान, मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिद्विक, इन चार मार्गणाओं में अविरतसम्यग्दृष्टि आदि नौ गुणस्थान हैं।॥२१॥ भावार्थ-मनः पर्यायज्ञान वाले, छठे आदि सात गुणस्थानों में वर्तमान पाये जाते हैं। इस ज्ञान की प्राप्ति के समय सातवाँ और प्राप्ति के बाद अन्य गुणस्थान होते हैं। सामायिक और छेदोपस्थापनीय, ये दो संयम, छठे आदि चार गुणस्थानों में माने जाते हैं, क्योंकि वीतराग-भाव होने के कारण ऊपर के गुणस्थानों में इन सराग-संयमों का संभव नहीं है। परिहारविशुद्धसंयम में रहकर श्रेणि नहीं की जा सकती, इसलिये उसमें छठा और सातवाँ, ये दो ही गुणस्थान समझने चाहिये। केवलज्ञान और केवलदर्शन दोनों क्षायिक हैं। क्षायिक-ज्ञान और क्षायिकदर्शन, तेरहवें और चौदहवें गणस्थान में होते हैं, इसी से केवल द्विक में उक्त दो गुणस्थान माने जाते हैं। - मतिज्ञान, श्रृतज्ञान और अवधि-द्विक वाले, चौथे से लेकर बारहवें तक नौ गुणस्थान में वर्तमान होते हैं; क्योंकि सम्यक्त्व प्राप्त होने के पहले अर्थात् पहले तीन गुणस्थानों में मति आदि अज्ञानरूप ही हैं और अन्तिम दो गुणस्थान में क्षायिक-उपयोग होने से इनका अभाव ही हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001895
Book TitleKarmagrantha Part 4 Shadshitik
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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