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जीवस्थान-अधिकार
में पहला, दूसरा और चौथा, ये तीन गुणस्थान हो सकते हैं। पर्याप्त संज्ञिपञ्चेन्द्रिय में सब गुणस्थानों का सम्भव है। शेष सात जीवस्थानों में-अपर्याप्त तथा पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय, पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय, पर्याप्त असंज्ञिपञ्चेन्द्रिय और पर्याप्त विकलेन्द्रिय त्रय में पहला ही गुणस्थान होता है।।३।।
भावार्थ-बादर एकेन्द्रिय, असंज्ञिपञ्चेन्द्रिय और तीन विकलेन्द्रिय, इन पाँच अपर्याप्त जीवस्थानों में दो गुणस्थान कहे गये हैं; पर इस विषय में यह जानना चाहिये कि दूसरा गुणस्थान करण-अपर्याप्त में होता है, लब्धि-अपर्याप्त में नहीं; क्योंकि सास्वादनसम्यग्दृष्टिवाला जीव, लब्धि-अपर्याप्त रूप से पैदा होता ही नहीं। इसलिये करण अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय आदि उक्त पाँच जीवस्थानों में दो गुणस्थान और लब्धि-अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय आदि पाँचों में पहला ही गुणस्थान समझना चाहिये।
बादर एकेन्द्रिय में दो गुणस्थान कहे गये हैं सो भी सब बादर एकेन्द्रियों में नहीं; किन्तु पृथिवीकायिक, जलकायिक और वनस्पतिकायिक में। क्योंकि तेज:कायिक और वायुकायिक जीव, चाहे वे बादर हों, पर उनमें ऐसे परिणाम का सम्भव नहीं जिससे सास्वादन सम्यक्-युक्त जीव उनमें पैदा हो सके। इसलिये सूक्ष्म के समान बादर तेज-कायिक-वायुकायिक में पहला ही गुणस्थान समझना चाहिये।
इस जगह एकेन्द्रियों में दो गुणस्थान पाये जाने का कथन है, सो कर्मग्रन्थ के मतानुसार; क्योंकि सिद्धान्तो में एकेन्द्रियों को पहला ही गुणस्थान माना गया है।
अपर्याप्त संज्ञि-पञ्चेन्द्रिय में तीन गुणस्थान कहे गये हैं, सो इस अपेक्षा से कि जब कोई जीव चतुर्थ गणस्थान-सहित मर कर संज्ञिपञ्चेन्द्रियरूप से पैदा होता है तब उसे अपर्याप्त अवस्था में चौथे गुणस्थान का सम्भव है। इस प्रकार जो जीव सम्यक्त्व का त्याग करता हुआ सास्वादन भाव में वर्तमान होकर संज्ञिपञ्चेन्द्रिय रूप से पैदा होता है, उसमें शरीर पर्याप्ति पूर्ण न होने तक दूसरे गुणस्थान का सम्भव है और अन्य सब संज्ञि-पञ्चेन्द्रिय जीवों को अपर्याप्त अवस्था में पहला गुणस्थान होता ही है। अपर्याप्त संज्ञि-पञ्चेन्द्रिय में तीन १. देखिये ४९ वाँ गाथा की टिप्पणी। २. गोम्मटसार में तेरहवें गुणस्थान के समय केवलिसमुद्धात-अवस्था में योग की अपूर्णाता
के कारण अपर्याप्तता मानी हुई है, तथा छठे गुणस्थान के समय भी आहारकमिश्रकाय योग-दशा में व्याहारकशरीर पूर्ण न बन जाने तक अपर्याप्तता मानी हुई है। इसलिये गोम्मटसार (जीव. गा. ११५-११६) में निर्वृत्वपर्याप्त और (श्वेताम्बरसम्प्रदाय-प्रसिद्ध
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