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चौथा कर्मग्रन्थ
द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञि-पञ्चेन्द्रिय, इन चार जीवस्थानों में पर्याप्त-अवस्था में व्यवहारभाषा-असत्यामृषाभाषा होती है; क्योंकि उन्हें मुख होता है। काययोग, उनमें औदारिक ही होता है। इसी से उनमें दो ही योग कहे गये हैं। ___बादर-एकेन्द्रिय को–पाँच स्थावर को, पर्याप्त-अवस्था में औदारिक, वैक्रिय और वैक्रियमिश्र, ये तीन योग माने हुये हैं। इनमें से औदारिक काययोग तो सब तरह के एकेन्द्रियों को पर्याप्त-अवस्था में होता है, पर वैक्रिय तथा वैक्रियमिश्र काययोग के विषय में यह बात नहीं है। ये दो योग, केवल बादरवायुकाय में होते हैं, क्योंकि बादरवायुकायिक जीवों को वैक्रियलब्धि होती है। इससे वे जब वैक्रियशरीर बनाते हैं, तब उन्हें वैक्रियमिश्र काययोग और वैक्रियशरीर पूर्ण बन जाने के बाद वैक्रियकाययोग समझना चाहिये। उनका वैक्रियशरीर ध्वजाकार माना गया है।
१. 'आधं तिर्यग्मनुष्याणां, देवनारकयोः परम्।
केषांचिल्लब्धिमद्वायु,-संज्ञितिर्यग्नृणामपि।।१४४।।' -लोकप्रकाश सर्ग ३। 'पहला (औदारिक) शरीर, तिर्यञ्चों और मनुष्यों को होता है; दूसरा (वैक्रिय) शरीर देवों, नारकों, लब्धिवाले वायुकायिकों और लब्धिवाले संज्ञी तिर्यञ्च-मनुष्यों को होता है।' वायुकायिक को लब्धिजन्य वैक्रियशरीर होता है, यह बात, तत्त्वार्थ मूल तथा उसके भाष्य में स्पष्ट नहीं है, किन्तु इसका उल्लेख भाष्य की टीका में है'वायोश्च वैक्रियं लब्धिप्रत्ययमेव' इत्यादि। -तत्त्वार्थ-अ. २, स. ४८ की भाष्य वृत्ति। दिगम्बरीय साहित्य में कुछ विशेषता है। उसमें वायुकायिक के समान तेज:कायिक को भी वैक्रियशरीर का स्वामी कहा है। तद्यपि सर्वार्थसिद्धि में तेज:कायिक तथा वायुकायिक के वैक्रियशरीर के सम्बन्ध में कोई उल्लेख देखने में नहीं आया, पर राजवार्तिक में है'वैक्रियिकं देवनारकाणां, तेजोवायुकायिकपञ्चेन्द्रियतिर्यग्मनुष्याणां च केषांचित्।'
(तत्त्वार्थ-अ. २, सू. ४९, राजवार्तिक ८) यही बात गोम्मटसार-जीवकाण्ड में भी है
'बादरतेऊबाऊ, पंचिदियपुण्णगा विगुव्वंति।
. ओरालियं सरीरं, विगुव्वणप्पं हवे जेसिं।। २३२।।' २. यह मन्तव्य श्वेताम्बर-दिगम्बर दोनों सम्प्रदायों में समान है
'मरुतां तद्ध्वजाकार, वैधानामपि भूरुहाम्। स्युः शरीराण्यनियत, संस्थानानीति तद्विदः।। २५४।।
___-लो.प्र., सं. ५। 'मसुरंबुबिंदिसूई, कलावधयसण्णिहो हवे देहो। पुढवी आदि चउण्हं, तरुतसकाया अणेयविहा।।२०।।'
-जीवकाण्ड।
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