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जीवस्थान-अधिकार
(३) जीवस्थानों में उपयोग। पर्याप्त संज्ञि-पञ्चेन्द्रिय में सभी उपयोग पाये जाते हैं; क्योंकि गर्भज-मनुष्य, जिनमें सब प्रकार के उपयोगों का सम्भव है, वे संज्ञिपञ्चेन्द्रिय हैं। उपयोग बारह हैं, जिनमें पाँच ज्ञान और तीन अज्ञान, ये आठ साकार (विशेषरूप) हैं और चार दर्शन, ये निराकार (सामान्य रूप) हैं। इनमें से केवलज्ञान और केवलदर्शन की स्थिति समयमात्र की और शेष छाद्मस्थिक दस उपयोगों की स्थिति अन्तर्मुहूर्त की मानी हुई है।
सभी उपयोग क्रमभावी हैं, इसलिये एक जीव में एक समय में कोई भी दो उपयोग नहीं होते।।५।।
पजचउरिंदिअसंनिसु, दुदंस दु अनाण दससु चक्खुविणा । संनिअपज्जे मणना,-णचक्खुकेवलदुगविहुणा ।।६।।
१. यह विचार, पञ्च सं. द्वा. १, गा. ८ में है। २. • छाद्यस्थिक उपयोगों की अन्तर्मुहूर्त-प्रमाण स्थिति के सम्बन्ध में तत्त्वार्थ-टीका में नीचे लिखे उल्लेख मिलते हैं'उपयोगास्थितिकालोऽन्तर्मुहूर्तपरिमाणः प्रकर्षाद्भवति।।
-अ. २, सू. ८ की टीका। 'उपयोगतोऽन्तर्मुहूर्तमेव जघन्योत्कृष्टाभ्याम्'।
-अ. २, सू. ९ की टीका 'उपयोगतस्तु तस्याप्यन्तर्मुहूर्तमवस्थानम्'।
-अ. २, सू. ९ की टीका। यह बात गोम्मटसारमें भी उल्लिखित है:
'मदिसुदओहिमणेहिं य, सगसगविसये विसेसविण्णाणं। अंतोमुत्तकालो, उपजोगो सो दु सायारो।।६।। इंदियमणोहिणा वा, अत्थे अविसेसि दूण जं गहणं। अंतोमुत्तकालो, उवजोगो सो अणायारो।।६७४।।'
-जीवकाण्ड। क्षायिक उपयोग की एक समय-प्रमाण स्थिति, 'अन्ने एगंतरियं इच्छंत सुओवएसेणं।' इस कथन से सिद्धान्त-सम्मत है। विशेष खुलासे के लिये नन्दी सू. २२, मलयगिरिवृत्ति पृ. १३४, तथा विशेष. आ. गा ३१०१ की वृत्ति देखनी चाहिये। लोकप्रकाश के तीसरे सर्ग में भी यही कहा है:_ 'एकस्मिन् समये ज्ञानं, दर्शनं चापरक्षणे।
सर्वज्ञस्योपयोगी दौ, समयान्तरितौ सदा।।९७३।।' ३. देखिये, परिशिष्ट 'च।
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