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चौथा कर्मग्रन्थ
अपर्याप्त अवस्था में औपशमिक सम्यक्त्व पाया जा सकता है, यह बात पञ्चसंग्रह में भी है। पृ. ७०, नोट देखें।
पुरुषों से स्त्रियों की संख्या अधिक होने का वर्णन पञ्चसंग्रह में है। पृ. १२५, नोट देखें।
पञ्चसंग्रह में भी गुणस्थानों को लेकर योगों का विचार है । पृ. १६३, नोट
१९८
देखें।
गुणस्थान में उपयोग का वर्णन पञ्चसंग्रह में है। पृ. १६७, नोट देखें। बन्ध हेतुओं के उत्तर-भेद तथा गुणस्थानों में मूल बन्ध-हेतुओं का विचार पञ्चसंग्रह में है । पृ. १७५, नोट देखें।
सामान्य तथा विशेष बन्ध-हेतुओं का वर्णन पञ्चसंग्रह में विस्तृत है। पृ. १८१, नोट देखें।
गुणस्थानों में बन्ध, उदय आदि का विचार पञ्चसंग्रह में है। पृ. १८७, नोट देखें।
गुणस्थानों में अल्प - बहुत्व का विचार पञ्चसंग्रह में है । पृ. १५२, नोट । कर्म के भाव पञ्चसंग्रह में हैं। पृ. २०४, नोट देखें।
उत्तर
र- प्रकृतिओं के मूल बन्ध हेतु का विचार कर्मग्रन्थ और पञ्चसंग्रह में भिन्न-भिन्न शैली का है। पृ. २२७ देखें।
एक जीवाश्रित भावों की संख्या मूल कर्मग्रन्थ तथा मूल पञ्चसंग्रह में भिन्न नहीं है, किन्तु दोनों की व्याख्याओं में देखने योग्य थोड़ा-सा विचार - भेद है। पृ. २२९ देखें।
परिशिष्ट नं. ४
ध्यान देने योग्य कुछ विशेष - विशेष स्थल
जीवस्थान, मार्गणास्थान और गुणस्थान का पारस्परिक अन्तर। पृ. ५ देखें। परभव की आयु बाँधने का समय-विभाग अधिकारी- भेद के अनुसार किसकिस प्रकार का है? इसका खुलासा । पृ. २५, नोट देखें।
उदीरणा किस प्रकार के कर्म की होती है और वह कब तक हो सकती है ? इस विषय का नियम । पृ. २६, नोट देखें।
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