________________
परिशिष्ट
१९९
द्रव्य - लेश्या के स्वरूप के सम्बन्ध में कितने पक्ष हैं ? उन सबका आशय क्या है? भावलेश्या क्या वस्तु है और महाभारत में, योगदर्शन में तथा गोशालक के मत में लेश्या के स्थान में कैसी कल्पना है ? इत्यादि का विचार पृ. ३३ पर देखें।
शास्त्र में एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदि जो इन्द्रिय-सापेक्ष प्राणियों का विभाग है, वह किस अपेक्षा से? तथा इन्द्रिय के कितने भेद-प्रभेद हैं और उनका क्या स्वरूप है ? इत्यादि का विचार पृ. ३६ पर देखें।
संज्ञा का तथा उसके भेद - प्रभेदों का स्वरूप और संज्ञित्व तथा असंज्ञित्व के व्यवहार का नियामक क्या है ? इत्यादि पर विचार पृ. ३८ पर देखें | अपर्याप्त तथा पर्याप्त और उसके भेद आदि का स्वरूप तथा पर्याप्ति का स्वरूप पृ. ४० पर देखें ।
केवलज्ञान तथा केवलदर्शन के क्रमभावित्व, सहभावित्व और अभेद, इन तीन पक्षों की मुख्य-मुख्य दलीलें तथा उक्त तीन पक्ष किस-किस नय की अपेक्षा से हैं ? इत्यादि का वर्णन पृ. ४३ पर देखें ।
बोलने तथा सुनने की शक्ति न होने पर भी एकेन्द्रिय में श्रुत-उपयोग स्वीकार किया जाता है, सो किस तरह? इस पर विचार पृ. ४५ पर देखें । पुरुष व्यक्ति में स्त्री-योग्य और स्त्री व्यक्ति में पुरुष - योग्य भाव पाये जाते हैं और कभी तो किसी एक ही व्यक्ति में स्त्री- - पुरुष दोनों के बाह्याभ्यन्तर लक्षण होते हैं। इसके विश्वस्त प्रमाण पृ. ५३ पर देखें, नोट ।
श्रावकों की दया जो सवा विश्वा कही जाती है, उसका स्पष्टीकरण पृ. ६१, नोट देखें।
मनः पर्याय उपयोग को कोई आचार्य दर्शनरूप भी मानते हैं, इसका प्रमाण पृ. ६२ पर देखें, नोट ।
जातिभव्य किसको कहते हैं? इसका स्पष्टीकरण पृ. ६५ पर देखें, नोट देखें।
औपशमिक सम्यक्त्व में दो जीवस्थान माननेवाले और एक जीवस्थान माननेवाले आचार्य अपने - अपने पक्ष की पुष्टि के लिये अपर्याप्त अवस्था में औपशमिक सम्यक्त्व पाये जाने और न पाये जाने के विषय में क्या-क्या युक्ति देते हैं ? इसका सविस्तर वर्णन । पृ. ७० पर देखें, नोट ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org