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मार्गणास्थान-अधिकार
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(६) कषाय मार्गणा के भेदों का स्वरूप (१) 'क्रोध' वह विकार है, जिससे किसी की भली-बुरी बात सहन नहीं की जाती या नाराज़गी होती है। (२) जिस दोष से छोटे-बड़े के प्रति उचित नम्रभाव नहीं रहता या जिससे ऐंठ हो, वह 'मान' है। (३) 'माया' उसे कहते हैं, जिससे छल-कपट में प्रवृत्ति होती है। (४) 'लोभ' ममत्व को कहते हैं।
(७) ज्ञानमार्गणा के भेदों का स्वरूप (१) जो ज्ञान इन्द्रिय के तथा मन के द्वारा होता है और जो बहुतकर वर्तमानकालिक विषयों को जानता है, वह 'मतिज्ञान है। (२) जो ज्ञान, श्रुतानुसारी है जिसमें शब्द-अर्थ का सम्बन्ध भासित होता है-और जो मतिज्ञान के बाद होता है; जैसे—'जल' शब्द सुनकर यह जानना कि यह शब्द पानी का बोधक है अथवा पानी देखकर यह विचारना कि यह, 'जल' शब्द का अर्थ है, इस प्रकार उसके सम्बन्ध की अन्य-अन्य बातों का विचार करना, वह 'श्रुतज्ञान' है। (३) 'अवधिज्ञान' वह है, जो इन्द्रियों और मन की सहायता के बिना ही उत्पन्न होता है जिसके होने में आत्मा की विशिष्ट योग्यताभाव अपेक्षित है-और जो रूपवाले विषयों को ही जानता है। (४) 'मन: पर्यायज्ञान' वह है, जो संज्ञी जीवों के मन की अवस्थाओं को जानता है और जिसके होने
प्रकरण छठा। यह नियम नहीं है कि द्रव्यवेद और भाववेद समान ही हों। ऊपर से पुरुष के चिह्न होने पर भी भाव से स्त्रीवेद के अनुभव का सम्भव है। यथा
'प्रारब्ये रतिकेलिसंकुलरणारम्भे तथा साहस प्रायं कान्तजयाय किञ्चिदुपरि प्रारम्भि तत्संभ्रमात् । खिन्ना येन कटीतटी शिथिलता दोर्वल्लिरुत्कम्पितम्, वक्षो मीलितमौक्षि पौरुषरसः खीणां कुतः सिद्ध्यति ।।१७।।'
-सुभाषितस्त्रभाण्डागार-विपरीतरतक्रिया। इसी प्रकार अन्य वेदों के विषय में भी विपर्यय से सम्भव है, तथापि बहुत से द्रव्य
और भाव वेद में समानता-बाह्य चिह्न के अनुसार ही मानसिक-विक्रया-पाई जाती है। गोम्मटसार-जीवकाण्ड में पुरुष आदि वेद का लक्षण शब्द-व्युत्पत्ति के अनुसार किया
है। -गा.२७२-७४ १. काषायिक शक्ति के तीव्र-मन्द-भाव की अपेक्षा से क्रोधादि प्रत्येक कषाय के
अनन्तानुबन्धी आदि चार-चार भेद कर्मग्रन्थ और गोम्मटसार-जीवकाण्ड में समान हैं। किन्तु गोम्मटसार में लेश्या की अपेक्षा से चौदह-चौदह और आयु के बन्धाबन्ध की अपेक्षा से बीस-बीस भेद किये गये हैं; उनका विचार श्वेताम्बरीय ग्रन्थों में नहीं देखा गया। इन भेदों के लिये देखिये, जीव. गा. २९१ से २९४ तक।
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