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________________ xxii चौथा कर्मग्रन्थ हैं। चार में से पहले दो अशुभ और पिछले दो शुभ हैं। पौद्गलिक दृष्टि की मुख्यता से आत्म-विस्मृति के समय जो ध्यान होता है, वह अशुभ और पौद्गलिक दृष्टि की गौणता व आत्मानुसन्धान-दशा में जो ध्यान होता है, वह शुभ है। अशुभ ध्यान संसार का कारण और शुभ ध्यान मोक्ष का कारण है। पहले तीन गुणस्थानों में आर्त और रौद्र, ये दो ध्यान ही तर-तम-भाव से पाये जाते हैं। चौथे और पाँचवें गुणस्थान में उक्त दो ध्यानों के अतिरिक्त सम्यक्त्व के प्रभाव से धर्मध्यान भी होता है। छठे गणस्थान में आर्त और धर्म, ये दो ध्यान होते हैं। सातवें गुणस्थान में सिर्फ धर्मध्यान होता है। आठवें से बारहवें तक पाँच गुणस्थानों में धर्म और शुक्ल, ये दो ध्यान होते हैं। तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में सिर्फ शुक्लध्यान होता है। गुणस्थान में पाये जाने वाले ध्यानों के उक्त वर्णन से तथा गुणस्थानों में किये हुए बहिरात्म-भाव आदि पूर्वोक्त विभाग से प्रत्येक मनुष्य यह सामान्यतया जान सकता है कि मैं किस गुणस्थान का अधिकारी हूँ। ऐसा ज्ञान, योग्य अधिकारी की नैसर्गिक महत्त्वाकांक्षा को ऊपर के गुणस्थानों के लिये उत्तेजित करता है। दर्शनान्तर के साथ जैन दर्शन का साम्य जो दर्शन, आस्तिक, अर्थात् आत्मा, उसका पुनर्जन्म, उसकी विकासशीलता तथा मोक्ष-योग्यता माननेवाले हैं, उन सबों में किसी-न-किसी रूप में आत्मा के क्रमिक विकास का विचार पाया जाना स्वाभाविक है। अतएव आर्यावर्त के जैन, वैदिक और बौद्ध, इन तीनों प्राचीन दर्शनों में उक्त प्रकार का विचार पाया जाता है। यह विचार जैन दर्शन में गुणस्थान के नाम से, वैदिक दर्शन में भूमिकाओं के नाम से और बौद्ध दर्शन में अवस्थाओं के नाम से प्रसिद्ध है। गुणस्थान का विचार, जैसा जैन दर्शन में सूक्ष्म तथा विस्तृत है, वैसा अन्य दर्शनों में नहीं है, तो भी उक्त तीनों दर्शनों की उस विचार के सम्बन्ध में बहुतकुछ समता है। अर्थात् संकेत, वर्णनशैली आदि की भिन्नता होने पर भी वस्तुतत्त्व के विषय में तीनों दर्शनों का भेद नहीं के बराबर ही है। वैदिक दर्शन के १. इसके लिये देखिये, तत्त्वार्थ-अध्याय ९, सूत्र ३५ से ४०। ध्यानशतक, गा. ६३ और ६४ तथा आवश्यक-हारिभद्रीय टीका पृ. ६०२। इस विषय में तत्त्वार्थ के उक्त सूत्रों का राजवार्तिक विशेष देखने योग्य है, क्योंकि उसमें श्वेताम्बर ग्रन्थों से थोड़ा सा मतभेद है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001895
Book TitleKarmagrantha Part 4 Shadshitik
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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