SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 68
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जीवस्थान- अधिकार (१) जीवस्थान - अधिकार जीवस्थान इह सुहुमबायरेगिं, - दिवितिचउअसंनिसानपंचिदी । अपजत्ता पज्जता, पज्जता, कमेण चउदस जियट्ठाणा १ ।। २ ।। इह सूक्ष्मबादरैकेन्द्रियद्वित्रिचतुरसंज्ञिसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाः । अपर्याप्ताः पर्याप्ताः क्रमेण चतुर्दश जीवस्थानानि । । २ । । अर्थ - इस लोक में सूक्ष्म एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंक्षिपञ्चेन्द्रिय और संक्षिपञ्चेन्द्रिय, ये सातों भेद अपर्याप्तरूप से दो-दो प्रकार के हैं, इसलिये जीव के कुल स्थान (भेद ) चौदह होते हैं || २ ॥ 1 १५ भावार्थ-यहाँ पर जीव के चौदह भेद दिखाये हैं, सो संसारी अवस्था को लेकर। जीवत्व रूप सामान्य धर्म की अपेक्षा से समानता होने पर भी व्यक्ति की अपेक्षा से जीव अनन्त हैं, इनकी कर्म- जन्य अवस्थायें भी अनन्त हैं, इससे व्यक्तिशः ज्ञान-सम्पादन करना छद्मस्थ के लिये सहज नहीं। इसलिये विशेषदर्शी शास्त्रकारों ने सूक्ष्म ऐकेन्द्रियत्व आदि जाति की अपेक्षा से इनके चौदह वर्ग किये हैं, जिनमें सभी संसारी जीवों का समावेश हो जाता है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव वे हैं, जिन्हें सूक्ष्म नामकर्म का उदय हो। ऐसे जीव सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हैं। इनका शरीर इतना सूक्ष्म होता है कि संख्यातीत इकट्ठे हों तब भी इन्हें आँखें देख नहीं सकतीः अतएव इनको व्यवहार के अयोग्य कहा है। Jain Education International बादर एकेन्द्रिय जीव वे हैं, जिनको बादर नामकर्म का उदय हो। ये जीव, लोक के किसी-किसी भाग में नहीं भी होते; जैसे, अचित्त-सोने, चाँदी आदि वस्तुओं में। यद्यपि पृथिवी - कायिक आदि बादर एकेन्द्रिय जीव ऐसे हैं, जिनके अलग-अलग शरीर, आखों से नहीं दीखते; तथापि इनका शारीरिक परिणमन ऐसा बादर होता है कि जिससे वे समुदायरूप में दिखाई देते हैं। इसी से इन्हें ९. वही गाथा प्राचीन चतुर्थ कर्मग्रन्थ में ज्यों की त्यों है। २. ये भेद, पञ्चसं ग्रह द्वार २, गा. ८२ में है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001895
Book TitleKarmagrantha Part 4 Shadshitik
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy