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________________ १४ चौथा कर्मग्रन्थ वे किसी-न-किसी गुणस्थान में वर्तमान होते ही हैं। गुणस्थान के बाद उपयोग के निर्देश का तात्पर्य यह है कि जो उपयोगवान हैं, उन्हीं में गुणस्थानों का सम्भव है; उपयोग-शून्य आकाश आदि में नहीं। उपयोग के अनन्तर योग के कथन का आशय यह है कि उपयोग वाले बिना योग के कर्म-ग्रहण नहीं कर सकते जैसे-सिद्ध। योग के पीछे लेश्या का कथन इस अभिप्राय से किया है कि योग द्वारा ग्रहण किये गये कर्म-पुद्गलों में भी स्थितिबन्ध व अनुभागबन्ध का निर्माण लेश्या ही से होता है। लेश्या के पश्चात् बन्ध के निर्देश का मतलब यह है कि जो जीव लेश्या-सहित हैं, वे ही कर्म बाँध सकते हैं। बन्ध के बाद अल्पबहुत्व का कथन करने से ग्रन्थकार का तात्पर्य यह है कि बन्ध करनेवाले जीव, मार्गणास्थान आदि में वर्तमान होते हुए आपस में अवश्य न्यूनाधिक हुआ करते हैं। अल्पबहुत्व के अनन्तर भाव के कहने का मतलब यह है कि जो जीव अल्पबहुत्व वाले हैं, उनमें औपशमिक आदि किसी-न-किसी भाव का होना पाया ही जाता है। भाव के बाद संख्यात आदि के कहने का तात्पर्य यह है कि भाववाले जीवों का एक-दूसरे से जो अल्पबहत्व है, उसका वर्णन संख्यात, असंख्यात आदि संख्या के द्वारा ही किया जा सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001895
Book TitleKarmagrantha Part 4 Shadshitik
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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