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चौथा कर्मग्रन्थ तृतीयाधिकार के परिशिष्ट
परिशिष्ट 'प' पृ. १७९, पति १० के 'मूल बन्य-हेतु' पर
यह विषय, पञ्चसंग्रह द्वा. ४ की १९ और २०वीं गाथा में है, किन्तु उसके वर्णन में यहाँ की अपेक्षा कुछ भेद है। उसमें सोलह प्रकृतियों के बन्ध को मिथ्या-हेतुक, पैंतीस प्रकृतियों के बन्ध को अविरति-हेतुक, अरसठ प्रकृतियों के बन्ध को कषाय-हेतुक और सातावेदनीय के बन्ध को योग-हेतुक कहा है। यह कथन अन्वय-व्यतिरेक, उभय-मूलक कार्य-कारण-भाव को लेकर किया गया है। जैसे-मिथ्यात्व के सद्भाव में सोलह का बन्ध और उसके अभाव में सोलह के बन्ध का अभाव होता है; इसलिये सोलह के बन्ध का अन्वय-व्यतिरेक मिथ्यात्व के साथ घट सकता है। इसी प्रकार पैंतीस के बन्ध का अविरति के साथ, अरसठ के बन्ध का कषाय के साथ और सातावेदनीय के बन्ध का योग के साथ अन्वय-व्यतिरेक समझना चाहिये।
परन्तु इस जगह केवल अन्वय-मूलक कार्य:कारण-भाव को लेकर बन्ध का वर्णन किया है, व्यतिरेक की विवक्षा नहीं की है; इसी से यहाँ का वर्णन पञ्चसंग्रह के वर्णन से भिन्न मालूम पड़ता है। अन्वय-जैसे, मिथ्यात्वक समय, अविरति के समय, कषाय के समय और योग के समय सातावेदनीय का बन्ध अवश्य होता है; इसी प्रकार मिथ्यात्व के समय सोलह का बन्ध, मिथ्यात्व के समय तथा अविरति के समय पैंतीस का बन्ध और मिथ्यात्व के समय, अविरति के समय तथा कषाय के समय शेष प्रकृतियों का बन्ध अवश्य होता है। इस अन्वयमात्र को लक्ष्य में रखकर श्री देवेन्द्रसूरि ने एक, सोलह, पैंतीस और अरसठ के बन्ध को क्रमशः चतुर्हेतुक, एक-हेतुक, द्वि-हेतुक और त्रि-हेतुक कहा है। उक्त चारों बन्धों का व्यतिरेक तो पञ्चसंग्रह के वर्णनानुसार केवल एक-एक हेतु के साथ घट सकता है। पञ्चसंग्रह और यहाँ की वर्णन-शैली में भेद है, तात्पर्य में नहीं।
तत्त्वार्थ-अ. ८ सू. १ में बन्ध के हेतु पाँच कहे हुए हैं, उसके अनुसार अ. ९ सू. १ की सर्वार्थसिद्धि में उत्तर प्रकृतियों के बन्ध-हेतु के कार्य-कारणभाव का विचार किया है। उसमें सोलह के बन्ध को मिथ्यात्व-हेतुक, उन्तालीस के बन्ध को अविरति-हेतुक, छह के बन्ध को प्रमाद-हेतुक, अट्ठावन के बन्ध
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