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परिशिष्ट
१८९
को कषाय- हेतुक और एक के बन्ध को योग-हेतुक बतलाया है। अविरति के अनन्तानुबन्धिकषाय-जन्य, अप्रत्याखनावरणकषाय-जन्यं और प्रत्याख्यानावरणकषाय-जन्य, ये तीन भेद किये हैं। प्रथम अविरति को पच्चीस के बन्ध का, दूसरी को दस के बन्ध का और तीसरी को चार के कारण दिखाकर कुल उन्तालीस के बन्ध को अविरति हेतुक कहा है । पञ्चसंग्रह में जिन अरसठ प्रकृतियों के बन्ध को कषाय-हे - हेतुक माना है, उनमें से चार के बन्ध को प्रत्याख्यानावरणकषाय-जन्य अविरति हेतुक और छ: के बन्ध को प्रमाद - हेतुक सर्वार्थसिद्धि में बतलाया है; इसलिये उसमें कषाय- - हेतुक बन्धवाल अट्ठावन प्रकृतियाँ ही कही हुई हैं।
परिशिष्ट 'फ'
पृ. २०६, पङ्गि १४ के 'मूल भाव' पर
गुणस्थानों में एक-जीवाश्रित भावों की संख्या जैसी इस गाथा में है, वैसी ही पञ्चसंग्रह के द्वार २ की ६४वीं गाथा में है; परन्तु इस गाथा की टीका और टब्बा में तथा पञ्चसंग्रह की उक्त गाथा की टीका में थोड़ा-सा व्याख्या - भेद है।
टीका - टबे में 'उपशमक' - 'उपशान्त' दो पदों से नौवाँ, दसवाँ और ग्यारहवाँ, ये तीन गुणस्थान ग्रहण किये गये हैं और 'अपूर्व' पद से आठवाँ गुणस्थानमात्र। नौवें आदि तीन गुणस्थानों में उपशमश्रेणि वाले औपशमिक सम्यक्त्वी को या क्षायिक सम्यक्त्वी को चारित्र औपशमिक माना है। आठवें गुणस्थान में औपशमिक या क्षायिक किसी सम्यक्त्व वाले को औपशमिक चारित्र इष्ट नहीं है, किन्तु क्षायोपशमिक । इसका प्रमाण गाथा में 'अपूर्व' शब्द का अलग ग्रहण करना है; क्योंकि यदि आठवें गुणस्थान में भी औपशमिक चारित्र इष्ट होता तो 'अपूर्व' शब्द अलग ग्रहण न करके उपशमक शब्द से ही नौवें आदि गुणस्थान की तरह आठवें का भी सूचन किया जाता। नौवें और दसवें गुणस्थान के क्षपक श्रेणि गत- जीव-सम्बन्धी भावों का व चारित्र का उल्लेख टीका या टबें में नहीं है।
पञ्चसंग्रह की टीका में श्रीमलयगिरि ने 'उपशमक' - 'उपशान्त' पद से आठवें से ग्यारहवें तक उपशमश्रेणि वाले चार गुणस्थान और 'अपूर्व' तथा 'क्षीण' पद से आठवाँ, नौवाँ, दसवाँ और बारहवाँ, ये क्षपकश्रेणि वाले चार गुणस्थान ग्रहण किये हैं। उपशमश्रेणि वाले उक्त चारों गुणस्थान में उन्होंने
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