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________________ (८ ) निवेदन इस पुस्तक का लेखक मैं हूँ, इसलिये इसके सम्बन्ध में दो-चार आवश्यक बातें मुझको कह देनी हैं। करीब पाँच साल हुए यह पुस्तक लिखकर छापने को दे दी गई, पर कारणवश वह न छप सकी। मैं भी पूना से लौटकर आगरा आया। पुस्तक न छपी देखकर और लेखन विषयक मेरी अभिरुचि कुछ बढ़ जाने के कारण मैंने अपने मित्र और मण्डल के मन्त्री बाबू डालचंदजी से अपना विचार प्रकट किया कि जो यह पुस्तक लिखी गई है, उसमें परिवर्तन करने का मेरा विचार है। उक्त बाबूजी ने अपनी उदार प्रकृति के अनुसार यही उत्तर दिया कि समय व खर्च की परवा नहीं, अपनी इच्छा के अनुसार पुस्तक को नि:संकोच भाव से तैयार कीजिये। इस उत्तर से उत्साहित होकर मैंने थोड़े से परिवर्तन के स्थान पर पुस्तक को दुबारा ही लिख डाला। पहले मैंने सन्दर्भ नहीं दिये थे, पर पुनर्लेखन में कुछ नोटें लिखने के उपरान्त भावार्थ का क्रम भी बदल दिया। एक तरफ छपाई की उचित सुविधा न हो सकी और दूसरी तरफ नवीन वाचन तथा मनन का अधिकाधिक अवसर मिला । लेखन कार्य में मेरा और मण्डल का सम्बन्ध व्यापारिक तो था नहीं, इसलिये चिन्तन और लेखन में मैं स्वस्थ ही था और अब भी हूँ। इतने में मेरे मित्र रमणलाल आगरा आये और सहायक हुए। उनके अवलोकन और अनुभव का भी मुझे सविशेष सहारा मिला। चित्रकार चित्र तैयार कर उसके ग्राहक को जब तक नहीं देता, तब तक उसमें कुछन-कुछ नयापन लाने की चेष्टा करता ही रहता है। मेरी भी वही दशा हुई | छपाई में जैसे-जैसे विलम्ब होता गया, वैसे-वैसे कुछ-न-कुछ सुधारने का, नवीन भाव दाखिल करने का और अनेक स्थानों में क्रम बदलते रहने का प्रयत्न चलता ही रहा। अन्य कार्य करते हुए भी जब-कभी नवीन कल्पना हुई, कोई नई बात पढ़ने में आई और प्रस्तुत पुस्तक के लिये उपयुक्त जान पड़ी, तभी उसको इस पुस्तक में स्थान दिया। यही कारण है कि इस पुस्तक में अनेक सन्दर्भों और अनेक परिशिष्ट विविध प्रासङ्गिक विषय पर लिखे गये हैं। इस तरह छपाई के विलम्ब से पुस्तक पाठकों के समक्ष आने में बहुत अधिक समय लग गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001895
Book TitleKarmagrantha Part 4 Shadshitik
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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