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________________ प्रथमाधिकार के परिशिष्ट परिशिष्ट 'क' पृष्ठ ५ के 'लेश्या' शब्द पर १. लेश्या के (क) द्रव्य और (ख) भाव, इस प्रकार दो भेद हैं। (क) द्रव्यलेश्या, पुद्गल-विशेषात्मक है। इसके स्वरूप के सम्बन्ध में मुख्यतया तीन मत हैं। (१) कर्मवर्गणा-निष्पन्न, (२) कर्म-निष्यन्द और (३) योग-परिणाम। पहले मत का यह मानना है कि लेश्या-द्रव्य, कर्म-वर्गणा से बने हुये हैं; फिर भी वे आठ कर्म से भिन्न ही हैं, जैसा कि कार्मणशरीर। यह मत उत्तराध्ययन, अ. ३४ की टीका, पृ. ६५० पर उल्लिखित है। दूसरे मत का आशय यह है कि लेश्या-द्रव्य, कर्म-निष्यन्दरूप (बध्यमान कर्म-प्रवाहरूप) है। चौदहवें गुणस्थान में कर्म के होने पर भी उसका निष्यन्द न होने से लेश्या के अभाव की उपपत्ति हो जाती है। यह मत उक्त पृष्ठ पर ही निर्दिष्ट है, जिसको टीकाकार वादिवैताल श्रीशान्तिसूरि ने 'गुरवस्तु व्याचक्षते' कहकर लिखा है। पूरा मत श्रीहरिभद्रसूरि आदि का है। इस मत का आशय श्रीमलयगिरिजी ने पन्नवणा पद १७ की टीका, पृ. ३३० पर स्पष्ट बतलाया है। वे लेश्याद्रव्य को योगवर्गणा-अन्तर्गत स्वतन्त्र द्रव्य मानते हैं। उपाध्याय श्रीविजयविजय जी ने अपने आगम-दोहनरूप लोकप्रकाश, सर्ग ३, श्लोक २८५ में इस मत को ही ग्राह्य ठहराया है। (ख) भावलेश्या, आत्मा का परिणाम-विशेष है, जो सक्लेश और योग से अनुगत है। सक्लेश के तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम, मन्द, मन्दतर, मन्दतम आदि अनेक भेद होने से वस्तुत: भावलेश्या, असंख्य प्रकार की है तथापि संक्षेप में छह विभाग करके शास्त्र में उसका स्वरूप दिखाया है। देखिये, गा. १२वीं। छह भेदों का स्वरूप समझने के लिये शास्त्र में नीचे लिखे दो दृष्टान्त किये गये हैं - न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001895
Book TitleKarmagrantha Part 4 Shadshitik
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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