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परिशिष्ट द्वितीयाधिकार के परिशिष्ट।
परिशिष्ट 'ज'। पृष्ठ, ५२, पङ्क्ति २३ के 'योगमार्गणा' शब्द पर
तीन योगों के बाह्य और आभ्यन्तर कारण दिखा कर उनकी व्याख्या राजवार्तिक में बहुत ही स्पष्ट की गई है। उसका सारांश इस प्रकार है
(क) बाह्य और आभ्यन्तर कारणों से होनेवाला जो मनन के अभिमुख आत्मा का प्रदेश-परिस्पन्द है, वह ‘मनोयोग' है। इसका बाह्य कारण, मनोवर्गणा का आलम्बन और आभ्यन्तर कारण, वीर्यान्तराय कर्म का क्षय-क्षयोपशम तथा नो-इन्द्रियावरणकर्म का क्षय-क्षयोपशम (मनोलब्धि) है।
(ख) बाह्य और आभ्यन्तर कारण-जन्य. आत्मा का भाषाभिमुख प्रदेशपरिस्पन्द 'वचनयोग' है। इसका बाह्य कारण पुद्गलविपाकी शरीर-नामकर्म के उदय से होनेवाला वचनवर्गणा का आलम्बन है और आभ्यन्तर कारण वीर्यान्तराय कर्म का क्षय-क्षयोपशम तथा मतिज्ञानावरण और अक्षरश्रुतज्ञानावरण आदि कर्म का क्षय-क्षयोपशम (वचनलब्धि) है।
(ग) बाह्य और आभ्यन्तर कारण-जन्य गमनादि-विषयक आत्मा का प्रदेशपरिस्पन्द 'काव्ययोग' है। इसका बाह्य कारण किसी-न-किसी प्रकार की शरीरवर्गणा का आलम्बन है और आभ्यन्तर कारण वीर्यान्तरायकर्म का क्षयक्षयोपशम है।
यद्यपि तेरहवें और चौदहवें, इन दोनों गुणस्थानों के समय वीर्यान्तराय कर्म का क्षयरूप आभ्यन्तर कारण समान ही है, परन्तु वर्गणालम्बन रूप बाह्य कारण समान नहीं है। अर्थात् वह तेरहवें गुणस्थान के समय पाया जाता है, पर चौदहवें गुणस्थान के समय नहीं पाया जाता। इसी से तेरहवें गुणस्थान में योग-विधि होती है, चौदहवें में नहीं। इसके लिये देखिये, तत्त्वार्थ अध्याय ६, सू. १, राजवार्तिक १०।
योग के विषय में शङ्का-समाधान
(क) यह शङ्का होती है कि मनोयोग और वचनयोग, काययोग ही हैं; क्योंकि इन दोनों योगों के समय, शरीर का व्यापार अवश्य रहता ही है और इन योगों के आलम्बनभूत मनोद्रव्य तथा भाषाद्रव्य का ग्रहण भी किसी-न-किसी
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