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महाकवि आ० ज्ञान सागर
बृहद्
संस्कृत-हिन्दी शब्द कोष
उदयचन्द जैन
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महाकवि आ० ज्ञान सागर
बृहद्
संस्कृत-हिन्दी शब्द कोष
भाग-३ (य से ह)
प्रो० उदयचन्द्र जैन
न्यू भारतीय बुक कॉर्पोरेशन
दिल्ली
(भारत)
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इस पुस्तक का कोई भी भाग किसी भी रूप में या किसी भी अर्थ में प्रकाशक की अनुमति के बिना प्रकाशित नहीं किया जा सकता। सर्वाधिकार प्रकाशक के अधीन हैं।
प्रकाशक : न्यू भारतीय बुक कॉर्पोरेशन ५८२४, (समीप शिव मंदिर) न्यू चन्द्रावल, जवाहर नगर, दिल्ली-११०००७ फोन : २३८५१२९४, २३८५०४३७ ५५१९५८०९ E-mail : newbbe@indiatimes.com.
प्रथम संस्करण : २००६
आई.एस.बी.एन. : ८१-८३१५-०४८-९ (set)
मुद्रक : जैन अमर प्रिंटिंग प्रेस दिल्ली-७
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विषय सूची
आत्म कथ्य
(v) (xi)
संक्षेपिका
१-१२५०
वर्ण असे ह तक
१२५१-१२५८
पारिभाषिक शब्द
१२५९-१२६३
भौगोलिक शब्द
१२६४-१२८३
नामवाचक शब्द
१२८४-१२९६
विशिष्ट शब्द
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आत्म कथ्य
पंचविधमाचारं चारंति चारयन्तीत्याचार्याः चतुर्दशविद्यास्थानपारगाः एकादशाङ्गधरा।
पांच प्रकार के आचार का जो आचरण करते हैं, उनके अनुसार चलते हैं, वे आचार्य हैं। वे चौदह विद्या स्थानों में पारगामी एवं ग्यारह अंगों के धारी होते हैं। वे ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य से परिपूर्ण बौद्धिक एवं आध्यात्मिक विचारधारा से युक्त सूत्र का व्याख्यान करते हैं। स्वयं स्वाध्याय में लीन दूसरों को भी स्वाध्याय की ओर लगाते हैं। उनके श्रुत से प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग के विषय प्रकाश में आते हैं, जो श्रुत कहलाते हैं। वे श्रुत
जिन्हें आगम. जिनवाणी. सरस्वती. आप्त वचन. आज्ञा. प्रज्ञापना, प्रवचन, समय, सिद्धांत आदि कहा जाता
श्रुत के धारण करने वाले श्रुतधराचार्य कहलाते हैं। वे प्रबुद्ध होने से प्रबुद्धाचार्य, उत्तम अर्थ के ज्ञाता होने से सारस्स्वताचार्य आदि कहलाते हैं। उनकी रचनायें तीर्थ बन जाती हैं। क्योंकि वे तीर्थंकर की वाणी हैं जिन्हें आचार्य गुणधर, आचार्य धरसेन, आचार्य पुष्प दन्त, आचार्य भूतवलि, आचार्य मंछू, आचार्य नागहस्ती, आचार्य वज्रयस, आचार्य कुन्दकुन्द,
६ वट्टकेर, शिवार्य, स्वामी कार्तिकेय आदि प्राकृत मनीषियों के साथ-साथ संस्कृत के सूत्रकार, काव्यकार, कथाकार, पुराण काव्य प्रणेता आदि ने सारस्वत मूल्यों की स्थापना की।
तावार्थसूत्र के सूत्रकर्ता उमास्वामी ने दस अध्यायों में वीतराग वाणी के समग्र पक्ष को प्रस्तुत कर दिया। आचार्य समन्तभद्र की भद्रता के आचार विचार आदि के साथ-साथ दार्शनिक मूल्यों की स्थापना के लिए आप्तमीमांसा जैसे ग्रंथ को लिखकर संस्कृत दार्शनिक साहित्य को पुष्ट किया। उन्होंने स्वयंभूस्त्रोत, स्तुतिविद्या, युक्त्यानुशासन, रत्नकरण्डश्रावकाचार जैसे सारगर्भित ग्रन्थों की रचना की। वे कवि हृदय सारस्वताचार्य हैं जिन्होंने ई० सन् द्वितीय शताब्दी में जीवसिद्धि, प्रमाणसिद्धि, तावविचार, कर्म आदि पर पर्याप्त प्रकाश डाला। आचार्य सिद्धासेन ने अनेकान्तसिद्धि के लिए सन्मतिसूत्र ग्रंथ की रचना की और उन्हीं ने कल्याण मंदिर स्त्रोत काव्य की रचना की। वे नय और प्रमाण की व्यापक दृष्टि को लिए हुए उक्त ग्रंथों को मूल्यवान् बनाते हैं।
आचार्य पूज्यपाद को आचार्य देवनंदी भी कहा गया वे एक कुशल व्याकरणकार हैं। उन्होंने जैनेन्द्र व्याकरण की सूत्रबद्ध रचना की। उनकी तावार्थ सूत्र पर लिखी गई वृत्ति सर्वार्थसिद्धि के नाम से प्रसिद्ध है वे योग, समाधि, आदि के विषय को आधार बनाकर समाधितन्त्र एवं इष्टोपदेश की रचना करते हैं। पात्र केशरी का पात्र केशरी स्त्रोत भावपूर्ण है। आचार्य जोइन्दु प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश के काव्यकार हैं, उनका परमात्म प्रकाश (अपभ्रंश) योगसार, श्रावकाचार, आध्यात्मसंदोह, सुहासिततंत्र जैसे संस्कृत रचनाएं भी प्रसिद्ध हैं। आचार्य मानतुंग का भक्तामर स्त्रोत जन-जन में प्रिय है। आचार्य विमल सूरि का प्राकृत का काव्य पउमचरियं रामायण के विकास में योगदान प्रदान करता है। आचार्य रविसेन ने भी राम से संबंधित पद्म चरित्र नामक ग्रंथ की रचना की, जो संस्कृत में सर्वबद्ध है। आचार्य जहानदीना वरांगचरित्र भी चरित्रकाव्य की परंपरा का सुन्दरतम् अलंकृत ग्रन्थ हैं।
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(vi)
आचार्य अकलंकदेव न्यायशास्त्र के विशेषज्ञ माने जाते हैं। जिन्होंने जैन न्याय की यथार्थता को संस्कृत में प्रस्तुत किया। उनके प्रसिद्ध ग्रंथ इस बात के प्रमाण हैं। लघीयस्त्रय (स्वोपज्ञवृत्तिसहित) न्यायविनिश्चय (स्वोपज्ञवृत्तियुक्त) सिद्धिविनिश्चयसवृत्ति, प्रमाण संग्रहसवृत्ति, तत्त्वार्थवार्तिक सभाष्य, अष्टशती (देवागम-विवृत्ति) आचार्य वीरसेन की ध वला टीका, जय धवला टीका, सभी दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। आचार्य जिनसेन ने भगवान ऋषभदेव से संबंधित जो रचना की है वह आदि पुराण के नाम से प्रसिद्ध है। उन्होंने संस्कृत में पार्वाभ्युदय नामक महाकाव्य की रचना की है यह नवीं शताब्दी का
आचार्य विद्यानंद परीक्षा प्रधानी आचार्य माने जाते हैं जिन्होंने दर्शन के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य किया। आप्तपरीक्षा, प्रमाण परीक्षा, पत्र परीक्षा, सत्यशासनपरीक्षा विद्यानंद महोदय, श्रीपुर पार्श्वनाथ स्त्रोत, तावार्थ श्लोक वार्तिक अष्टसहस्त्री युक्त्यनुशासनालंकार आदि जैसे दार्शनिक ग्रंथों का महत्वपूर्ण स्थान है। आचार्य देवसेन का दर्शनसार भावसंग्रह, आराधनासार, तावसार, लघुनयचक, आलापपद्धति आदि ग्रंथ संस्कृत साहित्य के विकास में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। जैन संस्कृत काव्य परम्परा
संस्कृत काव्य परम्परा राष्ट्रीय मानवीय और सांस्कृतिक मूल्यों से जुड़ी हुई परम्परा है। जिसमें वैदिक परंपरा और श्रवण परंपरा इन दोनों ही परंपराओं का महत्वपूर्ण स्थान है। वेद उपनिषद् आदि के उपरान्त, रामायण, महाभारत आदि महाप्रबंधों की रचना हई. जिन्होंने विषय. भाषा. भाव. छन्द, रस. अलंकार आदि के साथ-साथ मल कथा को गतिशील
ग, महाभारत आदि के महाप्रबंध को जो काव्य शैली प्रदान की उसे कवि भाष अश्वघोष, कालिदास, भारती, माघ, राजशेखर आदि ने काव्य-शैली को गति प्रदान की। उनके प्रबंध महाप्रबंध बने। संस्कृत काव्य परंपरा का संक्षिप्त विभाजन
१. आदिकाल-ई० पू० से ५ ई० प्रथम शती तक। २. विकासकाल-ई० सन् की द्वितीय शती से सातवीं शती तक। ३. हासोन्मुखकाल-ई० सन् की आठवीं शती से बारहवीं शती तक।
संस्कृत काव्य परंपरा के विविध चरणों में माघ, हर्षवर्धन, वाणभट्ट, मल्लिनाथ, आदि कवियों के काव्यों ने प्रकृति का सर्वस्व प्रदान किया। उनके कवियों ने अनेक महाप्रबंध लिखे, तथा महाकाव्य भी अनेक लिखे हैं। इसी तरह चरित काव्य, खण्ड काव्य, कथा-काव्य, चम्पूकाव्य आदि ने काव्य गुणों को जीवन्त बनाया। जैन संस्कृत काव्य परम्परा
महावीर के पश्चात् सर्वप्रथम जैन मनीषियों ने आगम ग्रंथों की रचना की जो प्राकृत में है। प्राकृत के साथ जैनाचार्यों ने संस्कृत में भी अनेक रचनायें की हैं। जो कवि प्राकृत में रचना करते थे वे संस्कृत के भी जानकार थे परंतु उन्होंने संस्कृत में रचनायें प्राय: नहीं की, परंतु जो संस्कृत कवि थे उन्होंने प्रायः संस्कृत में ही रचनायें की, और कुछेएक रचनायें प्राकृत में की, प्रारंभिक में बारह अंग, उपांग, चौदह पूर्व, जैसी रचनाएं प्रसिद्ध हुई इसके अनंतर संस्कृत के प्रथम सूत्रकार आचार्य उमा स्वामी ने संस्कृत की सूत्र परंपरा को गति प्रदान की जो काव्य जगत् में कवियों के मुखारबिन्द की अनुपम शोभा बनी। आचार्य समन्तभद्र जैसे सारस्वताचार्य ने संस्कृत में न्याय, स्तुति और श्रावकों के आचार योग्य काव्यों की रचना की। इसके अनन्तर संस्कृत में ही आचार्य पूज्यपाद, आचार्य योगेन्द्र, आचार्य मानतुंग, आचार्य जिनसेन, आचार्य विद्यानन्द, आचार्य देवसेन, आचार्य अमितगति, आचार्य अमरचन्द्र, आचार्य नरेन्द्रसेन आदि ने जो धारा प्रवाहित की वह
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(vii)
काव्य परम्परा को गतिशील बनाने में सहायक हुई। पुराणकाव्य और महाकाव्य दोनों ही जहां विकास को प्राप्त हुये वही अनेक चरित काव्य भी काव्य की रमणीयता से युक्त पौराणिक और ऐतिहासिक क्वेिचन को करने में समर्थ हुये।
डॉ० नेमीचन्द्र शास्त्री ने काव्य-विकास यात्रा के तीन चरण प्रतिपादित किये हैं। (क) चरितनामांत महाकाव्य (ख) चरितनामांत एकान्त काव्य (ग) चरितनामांत लघु काव्य
चरित्रनामांत नाम से युक्त अनेक काव्य रचनायें हुई, जटासिंह नन्दी का वरांगचरित, रविसेण का पद्मचरित, वीरनंदी का चन्द्रप्रभुचरित, असग कवि का शान्तिनाथ चरित, वर्धमान चरित, महाकवि वादिराज का पार्श्वनाथ चरित, महाकवि महासेन का प्रद्युम्नचरित, आचार्य हेमचन्द्र का कुमारपाल चरित, गुणभद्र का धन्यकुमार चरित, उत्तर जिनदत्त चरित, नेमिसेन का धन्यकुमार चरित, धर्मकुमार का शाभद्रचरित, जिनपाल उपाध्याय का सनत कुमार चरित, मलधारी देवप्रभ का पांडवचरित, मृगावतीचरित, माणक चन्दसूरि का पार्श्वनाथ चरित, शान्तिनाथ चरित, सर्वानंद का चंद्रप्रभुचरित, पार्श्वनाथ चरित, विनयचंद्र का अजितनाथ चरित, पार्श्वचरित, मुनिसुव्रतचरित आदि कई ऐसे महाकाव्य हैं जो चरित प्रधान
विक्रम की चौदहवीं शताब्दी में मलधारी हेमचंद्र ने अनेक चरित ग्रंथों की रचना की। जिनमें नेमिनाथ चरित प्रमुख है। इसी तरह भट्टारक वर्धमान का वरांगचरित, कमलपभ का पुंडरीकचरित, भावदेवसूरि का पार्श्वनाथचरित, मुनिभद्र का शांतिपथचरित एवं चन्द्र तिलक का अभयकुमार चरित, शास्त्रीय महाकाव्य के लक्षणों से युक्त हैं जो पुराण कथा से परिपूर्ण प्रबंध की काव्यगत विशेषताओं को लिये हुए है।
संस्कृत काव्य की परंपरा में अकलंक, गुणभद्र, समन्तभद्र, मिमरचंद, काव्य महाभारत के कवि का काव्यत्व अनुपम है। इसके अतिरिक्त भी अनेक काव्य महाकाव्य लिखे गये। महाकवि हरिश्चंद्र का धर्मशर्माभ्युदय वैदिक परंपरा के संस्कृत काव्य रघुवंश, कुमारसंभव एवं किरात् आदि उस समय का प्रतिनिधित्व करते हैं। कवि हरिचंद्र का जीवंधर चंपू महाकवि असग का वर्धमान चरित भी महत्त्वपूर्ण है। वादीभसिंहसूरि की क्षत्रचूणामणि सूक्ति शैली का काव्य हैं। जिनसेन का आदिपुराण, हरिवंश पुराण आदि भी महत्वपूर्ण है। शिशुपालवध की शैली पर आधारित जयंतविजय का भी महत्वपूर्ण स्थान है। वस्तुपाल ने स्तुति काव्यों की विशेष रूप से रचना की आदिनाथ स्त्रोत, अंबिका स्त्रोत, नेमिनाथ स्त्रोत, आराधना गाथा आदि भक्ति प्रधान रचनायें हैं। इसमें कवि भारती के निरात आजुनेय की काव्य शैली भी है।
संधान ऐतिहासिक और स्तुति अभिलेख आदि काव्य भी लेन परम्परा में लिखे। द्विसंधान में कवि धनंजर ने कथा और काव्य दोनों का समावेश किया जो महाकाव्य की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। सप्तसंधान के रचनाकार मेघ विलयमणि है उनकी अन्य रचनाएँ भी है, जिनमें देवनन्द महाकाव्य, शांतिनाथ चरित, दिग्विजय महाकाव्य, हस्तसंजीवन के साथ-संस्कृत युक्ति प्रबोध नाटक मिलते हैं। नेमिदूत समस्यापूर्ति काव्य है। जैन मेघदूत कवि मेरुगुप्त की प्रसिद्ध रचना है। इसी तरह शीलदूत चरित्रगणि की रचना है। प्रबंध दूत के रचनाकार वादिसूरी हैं।
जैन काव्य परम्परा में द्वितीय, तृतीय शताब्दी से लेकर अब तक अनेक रचनाएं लिखी जा रही है। बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में जैन जगत् के प्रसिद्ध महाकवि ज्ञानसागर् ने अनेक प्रकार की रचनाएं की। उनमें जयोदय, वीरोदय, सुदर्शनोदय, भद्रोदय जैसे महाकाव्य दयोदयचम्पू, सम्यक्त्वसारशतक, मुनि मनोरंजनाशीति, भक्तिसंग्रह, हितसम्पादक आदि कई काव्य हैं।
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(viii)
महाकवि ज्ञानसागर सिद्धांतवेदता के साथ-साथ प्रबंध काव्य में निपुण एवं सुलझे हुए महाकवि हैं उनके काव्यों की संस्कृत साहित्य के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका मानी जाती है क्योंकि उनमें संस्कृत काव्य कला के पक्ष आदि विद्यमान हैं। उनकी ज्ञान-साधना में सिद्धांत एवं प्रबंध का महत्वपूर्ण स्थान है।
संस्कृत काव्य के आलोक में संस्कृत नाटकों का भी महत्वपूर्ण योगदान है। जैन जगत में विक्रांत कौरव जैसा नाटक प्रसिद्ध है। उसी संस्कृत में भास, कालिदास का शाकुन्तलम्, चन्द्रोदय, अविमारक, उत्तररामचरित, प्रतिमानाटकम् आदि अनेक नाटक संस्कृत और प्राकृत का प्रतिनिधित्व करते हैं। काव्य की रमणीयता में उनके शब्द क्या है उनका अर्थ क्या है एवं उनके क्या महत्व है यह तो ज्ञान-संस्कृत हिन्दी कोष से ही ज्ञात हो सकेगा। इस ज्ञान-संस्कृत शब्द-कोष में जैन संस्कृत काव्यों एवं वैदिक संस्कृत काव्यों के कुछ एक उद्धरण भी दिये गये हैं।
यह महाकवि आ० ज्ञान सागर संस्कृत हिन्दी शब्द-कोष सभी दृष्टियों से महत्वपूर्ण बनाया गया है। इसमें अधिक से अधिक ज्ञान के आधारभूत शब्दों को सम्मलित किया गया है। यह वैदिक एवं जैन दोनों ही विद्याओं के शब्दों से संबंधित कोश ग्रंथ है। इसे साहित्य के अनेक विषयों के साथ जोड़ने का प्रयास किया गया परन्तु यह सीमित शब्दों का शब्द कोश केवल शब्द कोष नहीं है अपितु विविध शब्दार्थ का शब्द-कोष भी है। कुछ स्थानों पर शब्द चयन के साथ-साथ व्युत्पत्ति, परिभाषा, शब्द विश्लेषण, अर्थ गाम्भीर्य आदि को भी उचित स्थान दिया गया, जिससे इसकी उपादेयता अवश्य ही शब्द के अर्थ में सहायक बनेगी। इस कोश में सामान्य शब्द के अर्थ के साथ-साथ विशिष्ट अर्थ बोधक शब्दों को भी महत्व दिया गया। शब्द संकलन
संस्कृत के स्वर और व्यंजन दोनों ही को क्रमबद्ध रखकर उन्हें उपयोगी बनाया गया है। इसमें सीमित शब्दों के उपरांत भी शब्द योजना को विशिष्टत अर्थों के साथ उद्धरण शब्द, पर्यायवाची शब्द आदि भी संख्याक्रम के अनुसार दिये गये है। यद्यपि संस्कृत में कई कोश ग्रंथ प्रकाशित हुए हैं। उनका अपना महत्वपूर्ण स्थान है। उनके कम युक्त शब्द में आचार्य के वों काव्य के शब्द संस्कृत हिन्दी शब्द कोश में समाहित हो गये हैं। इसे आवश्यक एवं अधिक उपयोगी बनाने के लिए वैदिक और जैन दोनों ही संस्कृतियों के शब्दों को स्थान दिया गया है। यहां यह ध्यान देने योग्य विचार है कि इसमें विस्तार की अपेक्षा संक्षिप्त में ही विषय विवरण को दिया गया है। इसके शब्द संग्रह में प्रायः प्रचलित शब्दों को स्थान दिया गया।
कोश का शब्द प्रवष्टियां एवं भाषागत विशेषताएं भी कुछेक संकेत के साथ ही दिये गये हैं। संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया, कृदन्त, विशेषण, तद्धित आदि कितने ही प्रयोग कोश को महत्वपूर्ण बनाते हैं। इसलिए आवश्यकतानुसार कुछ ही स्थानों पर शब्द और अर्थ के चयन में उनकी सहायता दी गई है।
___ ज्ञान संस्कृत-हिन्दी शब्द कोश में आचार्य ज्ञानसागर के परम शिष्य आचार्य विद्यासागर और आचार्य विद्यासागर के ही प्रबुद्ध विचारक मुनि पुंगव सुधासागर जी, क्षुल्लक गंभीर सागर, क्षुल्लक धैर्यसागर एवं अन्य प्रबुद्ध विचारकों के परम आशीष से इस शब्द कोष को गति दी गई। यह कहते हुए मुझे अत्यंत गौरव का अनुभव हो रहा है कि जिन शब्द कोशकारों के शब्द और अर्थ के चयन करने में सहयोग मिला वह अत्यंत ही उपकारी है। जैनेन्द्र सिद्धांत कोश, जैन लक्षणावली, संस्कृत-हिन्दी शब्द कोश, राजपाल हिन्दी शब्दकोश, प्राकृत हिन्दी शब्द कोश आदि के संपादकों का मैं अत्यंत आभारी हूं। इसके तैयार करने में मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय उदयपुर के दर्शन विभाग के प्रोफेसर के० सी० सोगानी, जैन विद्या एवं प्राकृत विभाग में प्रोफेसर प्रेम सुमन जैन, सह आचार्य हुकुमचन्द्र जैन एवं अन्य विभागीय
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(ix)
सहयोग से इसे इस रूप में प्रस्तुत किया गया। जिन्होंने प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप में इसे गतिशील बनाया उनका मैं हृदय से आभारी हूं।
___ संस्कृत जगत् के वे सभी काव्यकार पूज्य हैं जिनकी विविध कृतियों को देखने का अवसर प्राप्त हुआ। मैं उनके शब्द सागर में प्रवेश नहीं कर पाया। परंतु यदा कदा जो कुछ भी उनसे ग्रहण किया या उन ग्रंथ कर्ताओं या उन संपादकों के पाठों को स्थान दिया। इसलिए मैं इस सहायता के लिए हृदय से आभार व्यक्त करता हूं। ___आभारी हूं हितैषियों का, सहयोगियों का और अत्यंत आशीष को प्राप्त हुआ मैं आचार्य विद्यानंद के चरणों में बारंबार नमोस्तु करता हूं और यही भावना व्यक्त करता हूं कि उनका आशीष तथा मुनि पुंगव सुधासागर की सुधामयी वाणी इस महाकवि आ० ज्ञान सागर संस्कृत हिन्दी शब्द कोश की ज्ञान गंगा को गतिशील बनाये रखेगी। विशेष आभार है उन व्यक्तियों का जिन्होंने मुझे बहुत सम्मान दिया और उत्तम सुझाव भी दिये। इस शब्द में गागर से सागर तक की यात्रा गृह आंगन में ही हुई जिसमें सहयोगी बने घर के सदस्य ही। श्रीमती डॉ० माया जैन ने गृहणी के उत्तरदायित्व के साथ-साथ इसे उपयोगी बनाने में भी सहयोग किया। पुत्री पिऊ जैन एम- एस. सी०, बी० एड०, एवं प्राची जैन के अक्षर विन्यास ने भी गति प्रदान की। मैं इस शब्द-कोश के प्रकाशक श्री सुभाष जैन, न्यू भारतीय बुक कारपोरेशन, दिल्ली का भी आभार व्यक्त करता हूं। जिन्होंने इसे छापकर जनोपयोगी बनाया। मैं, साहित्य मनीषियों से निवेदन करता हूं कि वे अपने सुझावों से इसे उपयोगी बनाने का प्रयत्न करेंगे ताकि आगे आने वाले संस्करण में यदि उनको समावेश किया गया तो अत्यंत प्रसन्नता का अनुभव करूंगा।
२ अप्रैल, २००५
-डॉ० उदयचंद्र जैन
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संक्षेपिका
अमर० जयो जयो० म० तत्त्वा० त०वा० त०वा० श्लोक दयो० धव०पु० न्या० प्रमे० भ० सं मू० मूला०
अमरकोष जयोदय महाकाव्यम् जयोदय महाकाव्यम् तत्त्वार्थसूत्र तत्त्वार्थ राजवार्तिक तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक दयोध्यम् धवला पुस्तक १ से १६ न्यायदीपिका प्रमेयरत्नमाला भक्तिसंग्रह भगवती आराधना मुनिरञ्जनासीति मूलाचार विश्वलोचन कोष वीरोदयम् सुदर्शनोदय समुद्रदत्त चरित्र सम्यक्त्वशतकम् सर्वार्थसिद्धि हितसंपादक
मुनि
मू०/मूला० वि० लोचन वीरो
सुद०
समु० सम्य० स०सि० हि०सं०
मूल शब्द
नपुं०
स्त्री०
क्रि०वि० वि० अव्य०
पुलिंग नपंसुकलिंग स्त्रीलिङ्ग क्रिया विशेषण विशेषण अव्यय अकर्मक सकर्मक
अक०
सक०
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८६५
यज्ञमंत्रं
यः (पुं०) अन्तस्थ स्थान। यकार। (सुद०१ जयो० १/६६) यः (पुं०) [या+ड] गाड़ी, यान।
०वायु, हवा। यश। जौव। यो वातयशसोः पुंसि इति च विश्वलोचनः।
यशः कीर्ति, प्रेम। (जयो० ) यकन् (नपुं०) जिगर। यकृत् (नपुं०) [यं संयमं करोति कृ क्विप् तुक् च] जिगर। यकृतकोषः (पुं०) जिगर को ढकने वाली झिल्ली। यकृतात्मिका (स्त्री०) एक कीट विशेष। यकृतोदरं (नपुं०) जिगरकी वृद्धि। यक्षः (पुं०) [यक्ष्यते-यक्ष+घञ] ०देव जाति, देव प्रकार।
(वीरो० १३/२०)
व्यन्तदेवों का एक भेद, व्यन्तरा किन्नर किं पुरुष महोरगः गांधर्वयक्ष-राक्षस-भूत-पिशाचाः। (त०सू० ४/११)
लोभ की प्रचुरता वाले। लोभभूयिष्ठाः भाण्डागारे नियुक्ताः
यक्षाः। (धव० १३/३९१) यक्षकर्दमः (पुं०) कपूर, लेप। यक्षग्रहः (पुं०) यक्ष बाधा। यक्षधूपः (पुं०) गूगल, लोबान। यक्षरसः (पुं०) मादक पेय। यक्षराज् (पुं०) कुबेर। यक्षरात्रिः (स्त्री०) दीपावली। यक्षवित्तः (पुं०) कुबेर सदृश धन। यक्षिणी (स्त्री०) [यक्ष+इनि+ङीप्] यक्ष जाति की स्त्री। ०कुबेर की पत्नी।
एक अप्सरा। यक्षी (स्त्री०) यक्षिणी। यक्षेन्द्रः (पुं०) इन्द्र। (जयो० २६/६४) ०देवाधिपति। यक्ष्मः (पुं०) [यक्ष मन्] क्षयरोग राजरुक, राजरोग।
(जयो०वृ०६/७५) यक्ष्मन् देखो ऊपर। राजयक्ष रोग। ०क्षयरोग। यक्ष्मग्रहः (पुं०) क्षय रोग का आक्रमण। यक्ष्मग्रस्त (वि०) क्षयरोगी। यक्ष्मणं (नपुं०) राजरुक्, राजरोग। (जयो० ६/७५) यक्ष्मरुज् (नपुं०) क्षयरोग। यक्ष्मिन् (वि०) [यक्ष्म इनि] क्षयरोग से पीड़ित।
यज् (अक०) पूजा करना, सम्मान करना।
आहूति देना। अचर्ना करना, यज्ञ करना। यजः (पुं०) याम, याग, यज्ञ, पूजा। 'यज' इति व्यत्पयेन
विपर्ययेणाथवा कृत्वापि स 'यज' इत्येव भवति तस्मात् सा
यजनेतत्पराभूदिति। (जयो० २२/५८) यजत्रः (पुं०) [यज+अत्र] अग्निहोत्री। पुरोहित। यजनं (नपुं०) [यज्+ल्युट्] यज्ञ, याग, पूजा, अर्चना।
(जयो० ११/३१)
यज्ञ भूमि, पूजास्थल। यजमान (पुं०) [यज्+शानच्] क्रतुकी, यज्ञकर्ता, आतिथेयी,
संरक्षक। (जयो० १२/७२) यजिः (स्त्री०) [यज्+इनि] यज्ञकर्ता, यज्ञक्रिया। यजुस् (नपुं०) [यज्+उसि] मन्त्रपाठ। यजुर्विद् (वि०) यज्ञ ज्ञाता, यज्ञ की पद्धति जानने वाला। यजुर्वेदः (पुं०) चार वेदों में द्वितीय वेद। (दयो० २४)
(जयो० २९) यजर्वेदाध्यायः (पुं०) यजुर्वेद का अध्याय। (दयो० २९) यज्ञः (पुं०) [यज् भावे नङ्] याग, मख।
०हवन। (दयो० २९)
पूजा कार्य। (वीरो० २२/१६) यज्ञकर्तृ (वि०) इष्ट समागम कर्ता इष्टिमान्। (जयो० ३/१४) यज्ञकर्मन् (वि०) यज्ञकार्य वाला। यज्ञकल्प (वि०) यज्ञ की प्रकृति। यज्ञकीलकः (पुं०) यज्ञ की खूटी। यज्ञकुण्डं (नपुं०) हवनकुण्ड। (जयो०वृ० १६/८२) यज्ञकृत् (वि०) यज्ञकर्ता, अनुष्ठान करने वाला। यज्ञक्रतु (वि०) यज्ञकार्य वाला। यज्ञघ्नः (पुं०) यज्ञ में बाधा। यज्ञदक्षिणा (स्त्री०) पूजक के लिए उपहार/भेंट। यज्ञदीक्षा (स्त्री०) यज्ञ का अनुष्ठान। यज्ञद्रव्यं (नपुं०) यज्ञ की वस्तु। यज्ञपति (पुं०) यजमान, पूजन कराने वाला। यज्ञभागः (पुं०) यज्ञोपहार। यज्ञभुज् (पुं०) देव, देवता। यज्ञभूमिः (स्त्री०) यज्ञ स्थान। यागवनि। (जयो०वृ० १२/२५) यज्ञभृत् (पुं०) विष्णु। यज्ञभोक्तृ (पुं०) विष्णु। यज्ञमंत्रं (नपुं०) हवनमन्त्र, यागसूत्र।
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यज्ञयष्टिः
८६६
यत्किञ्चित्
०तत्पश्चात्। (सुद० १००)
जो कि, जो भी, जैसा। (समु० १/२०) यतात्मन् (पुं०) संयतात्मा। (वीरो० १८) यतिः (पुं०) साधु, श्रमण। (मुनि० ९१) दुर्भावं प्रयतेत रोहुमिति
यो रौद्रं तथार्तं यति। (मुनि० ३३) ०संयत (जयो० १/८०) संयमी। (जयो० २७/५३)
यते प्रयत्ने संयम-योगेषु यतमानः प्रयत्नवान् यति। (जैन० ९४) यतिर्यतिनिपुंसि स्त्री पाठ भेद विकारयोरिति। (जयो०
६/२५)
यज्ञयष्टिः (स्त्री०) पवित्र यष्टि। यज्ञवल्लिः (स्त्री०) सोम को लता। यज्ञशाला (स्त्री०) हवनस्थान, पूजास्थल। यज्ञसिद्धिः (स्त्री०) यज्ञपूर्ति, पूजा की पूर्ति, पूजन समाप्ति। यज्ञसूत्रं (नपुं०) पवित्रसूत्र। (सुद० ३/१३) यज्ञोपवीत।
(वीरो० १८/४०) यज्ञस्थलः (नपुं०) पूजन स्थान अष्टवटभूवि। (जयो०२/२५) यज्ञाझं (नपुं०) यज्ञ भाग। यज्ञार्थ (वि०) यज्ञ के निमित्त। (वीरो० १/३०) यज्ञानुष्ठान (नपुं०) यज्ञ क्रिया। (जयो० ८/२) यज्ञानुष्ठायिन् (वि०) यज्ञ कर्ता। (वीरो० १४/३) यज्ञिका (वि०) यज्ञ सम्बंधी, यज्ञपरक। यज्ञिकः (पुं०) देव। यज्ञिकदेशः (पुं०) यज्ञस्थान। यज्ञीय (वि०) यज्ञ सम्बंधी। यज्ञोपकरणं (नपुं०) यज्ञपात्र, पूजा की थाली। यज्ञोपवीतं (नपुं०) जनेऊ (समु० ३/४२) यज्ञसूत्र।
यज्ञोपवीतेऽपि सति, व्रतं पाल्यं मुमुक्षुणा। (हित० २९) यज्वन् (वि०) [यज्+क्वनिप्] यज्ञ करने वाला, पूजा करने
वाला, अर्चना करने वाला, अनुष्ठाता, अनुष्ठान कर्ता। यत् (अक०) यत्न करना, प्रयत्न करना। यतते (जयो०११/६८)
०प्रयास करना, उद्योग करना।
आतुर होना।
० श्रम करना, उद्योग करना। यत् (सक०) सताना, दु:ख देना, परेशान करना।
०लौटाना, फेर देना। यत (भू०क०कृ०) [यम्+क्त] ०दमन किया हुआ, नियंत्रित,
पराभूत।
०सीमित, संयत, मर्यादित। यतं (नपुं०) एड़ लगाना। यतनं (नपुं०) [यत्+ ल्युट्] चेष्टा, प्रयत्न। यतं (नपुं०) जो। यतर (वि०) जो। यतस् (अव्य०) [यद् तसिल्] ० जहां से, जो कि, जिस जगह
यतिः (स्त्री०) प्रबंध, रोक, नियंत्रण।
रोकना, ठहरना, आराम।
दिग्दर्शन, विश्राम। (जयो० १/९४) यतिचरित्रं (नपुं०) एक देवालय। (जयो० ९/५२) यतित (वि०) [यत्+क्त] चेष्टा की गई, यत्न किया गया।
(सुद० १/२२) यतित्व देखो ऊपर। प्रयत्न किया गया। यतिस्थितिः (स्त्री०) मुन्याचारपालक। (जयो० २१/७)
श्रमणोचित स्थिति। यतिदोषः (पुं०) विश्रान्ति विच्छेद। यतिधर्मः (पुं०) आगम निर्दिष्ट अनुष्ठान। यतिनायकः (पुं०) योगीश्वर। (सुद० १२६) ०आचार्य। यतिपति (पुं०) मुनिनायक, मुनिराज, (जयो० १/९५१)
यतेर्विश्रामस्य पतिः क्रियारहितः। (जयो० १/९४) यतिराड (पुं०) आचार्य। योगीश्वर, ०यतीश्वर। यतिराज् (पुं०) मुनिराज। (भक्ति०६) यतीन्द्रः (पुं०) मुनिन्द्र, ऋषिवर। ऋतीशः (सुद० ११५)
(जयो० १८/१०) यतीन्द्रभूपः (पुं०) मुनराज। (सुद० १२०) ०आचार्य। यतीश्वरः (पुं०) आचार्य मुनिराज। (सुद० ४५) यतोऽत्र (अव्य०) क्योंकि। (सुद० १३०) यत् (सर्व०) यः, स्त्री, या, नपुं यं देवी च यं धीयचयम्।
(सुद० ६८) 'ये ये रणन्नूपुरसाररसा' (वीरो० ) सुदमनोऽपि यस्य वो जातु। (सुद० १३२) यस्या मुखे कौसुमसंविकास (सुद० २/८) या नाम पात्री। (सुद० २/१०) यस्मिन् (सुद० १/२६) यया (सुद० ३/२०) येषां
(सुद० ११७) यत्किञ्चित् (अव्य०) जो कुछ भी। (सुद० ८३) (वीरो०
४/२६. समु० ३/३९)
चाहे जहां से। कि (समु० ३/३२) क्योंकि, चूंकि, इसलिए। (सुद० ८१) सहजा स्फुरति यतः समुनस्ता (वीरो० १५/५८)
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यत्किल
८६७
यथामुखीन
यत्किल (अव्य०) जो कि। (दयो० ३५) (जयो० १/२२) यत्तु (अव्य०) जो भी। (जयो० २/१०) यत्नः (पुं०) [यत् भावे नङ्] प्रयत्न (सुद० ३/४९,
सुद०८/१८) ०चेष्टा प्रयास। असम्भवोऽपि सम्भाव्य सता यत्नेन जायते। (दयो० ४६)
मनोयाग, दत्तचित्त, मेहनत। ०श्रम, परिश्रम, उद्योग।
०पीड़ा. कष्ट। यत्नगत (वि०) प्रयत्न को प्राप्त हुआ। यत्नजाति (वि०) पीडा जनक उत्पत्ति। यत्नतापस् (वि०) उद्योगशील तपस्वी। ०तपस्यारत साधक। यत्नवती (वि०) प्रत्यत्नशील। (जयो० २१/४६) उद्यमशील। यत्नवान् (वि०) उद्यमशील, श्रम युक्त। (वीरो० ७/४) यत्प्रयुक्तिः (स्त्री०) उद्यमशीलता। (वीरो० २२/१३) यत्र (अव्य०) [यद्+त्रल्] जहां, जिस स्थान पर, जिस जगह।
'यत्र गीयते गीतं प्रायः' (सुद० १३८) यत्र गंधोदसंसिक्ता (जयो० ३/८३) ०जब, जैसा कि-यत्र मनाङ्न कला। (सुद० ७६)
चूंकि, क्योंकि। 'यत्रोदयं याति किलायेमायः' (भक्ति०२५) यत्रत्थ (वि०) [यत्र त्यप्] जिस स्थान का, जिस स्थान पर
रहता हुआ। यत्र तत्र तु (अव्य०) जहां तहां भी। (सुद० ९४) यत्र न (अव्य०) जिस स्थान पर नहीं। (सुद० १९) यत्राथ (अव्य०) जहां इस तरह से। (जयो०८/२७) यत्रापि (अव्य०) जहां भीः (वीरो०१८/४३) यत्रैतादृक् यत्रापि (अव्य०) जहां वैसा ही। यत्रैव (अव्य०) जहां भी, जिस स्थान पर ही। (सुद० ११७) यथा (अव्य०) [यद् प्रकारे थाल] जैसा कि-जैसे (सुद०
२/४९) जिस भांति का। जिस तरह का।
जैसी, जिस तरह की-बन्धो यथा स्यात्स्थिति भागमंच। (सम्य० १००)
उदाहरण, दृष्टान्त रूप में प्रयुक्त होने वाला अव्यय।
यौवनेनाद्भुतं तस्याः स्यात्कारेण यथा गिराः। (जयो० ३/४३) यथाकदापि (अव्य०) जब कभी भी। (समु० ३/२१) यथाकालः (पुं०) ठीक समय, उचित समय।
यथाकृत (वि०) जैसा मान लिया गया। यथाक्रमं (अव्य०) ठीक क्रम, परम्परानुसार से, अनुक्रम से।
(समु० ६/३५) यथाक्रमेण (अव्य०) उचित नियम से। यथाख्यातचरितं (नपुं०) छद्म अस्थ जिन का चरित्र। (सम्य०
१३१) यथाक्षम (अव्य०) अपनी शक्ति के अनुसार, जितना संभव। यथाजात (वि०) तद्प उत्पन्न हुआ।
अज्ञानी, जड, दिगम्बर। (समु० ३/१) यथाजातपदः (पुं०) दिगम्बर वेश (समु० ६/३६) 'यथाजातो
बाह्यभ्यन्तरपरिग्रह चिन्ताव्यावृतः' (जैन० ९४०) यथाज्ञानं (अव्य०) बुद्धि के अनुसार। यथाज्येष्ठं (अव्य०) पद के अनुसार, वरिष्ठता के अनुसार। यथातथ (वि०) सत्य, सही, परिशुद्ध, खरा, सम्यक्, समीचीन। यथातथं (नपुं०) व्याख्यान, विवरण, सूक्ष्म कथन। यथातिथिः (स्त्री०) मरणासन्न। (जयो०७/१६) यथादिक् (अव्य०) सभी दिशाओं में। यथानिर्दिष्ट (वि०) वास्तविक निर्देश युक्त। यथान्यायं (अव्य०) उचित पद्धति से, यथार्थ नीति से। यथापद (अव्य०) यथास्थान। (जयो० २/८५) यथापूरं (अव्य०) जैसा कि पहले था, जैसा कि पूर्व अवसरों
पर था। यथापाक (वि०) यथा भाव विपाक। (जयो० २८/७०) यथापूर्व (वि०) पहले जैसा। यथापूर्वकं (अव्य०) क्रम से, परम्परा से। यथाप्रतीति (वि०) वास्तविक प्रतीति, यथासमय, ___ यथासम्भव। (जयो० २/१२०) यथाप्रदेशं (अव्य०) उपयुक्त स्थान में, उचित स्थान में। यथाप्रधान (अव्य०) स्थिति के अनुसार। यथाप्राप्त (वि०) अनुरूप, परस्थिति के अनुकूल। यथाप्रार्थितं (अव्य०) प्रार्थना के अनुकूल। यथाबलं (नपुं०) अत्यधिक शक्ति के साथ/शक्ति के अनुरूप। यथाभागं (अव्य०) प्रत्येक अंश में, समस्त प्रदेशों में। यथाभाग्यविपाक (वि०) यथापाकलि। (जयो० २८/७०) यथाभिरुचिः (स्त्री०) स्वेच्छानुसार, अपनी इच्छा के अनुरूप। यथाभूतं (अव्य०) जो कुछ हो चुका उसके अनुसार। सत्यतः
यथार्थतः। यथामुखीन (वि०) ठीक सामने वाला।
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यथायथं
८६८
यद्
यथायथं (अव्य०) यथा योग्य, जैसा कि यथोचित, नियमित,
क्रम से। यथायुक्तं (अव्य०) यथायोग्य, यथोचित, शक्ति के अनुसार। यथायोग (अव्य०) यथोचित, नियमित, उचित, सही। यथारुक् (अव्य०) रुचि के अनुसार। यथारुचं (अव्य०) रुचि के अनुकूल। (सुद० २१) यथारूचि (अव्य०) स्वेच्छानुसार। यथारूपं (अव्य०) रूप के अनुसार, दर्शन के अनुरूप। यथार्थ (वि०) वास्तविक, स्वाभाविक। (जयो० १६/४२) यथार्थतः (अव्य०) स्वाभाविकतः। 'संपद्येत यथार्थतो जनुषि
सत्येवं मुदा मध्यते। (मुनि० ३१) यथावत् (अव्य०) ठीक ठीक, ज्यों का त्यों, यथोचित। (वीरो०
२२/८) विधि, नियम के अनुसार। सम्यक् प्रकारेण (जयो० १/४४) श्रीविग्रह स्निग्धतनोर्य थावत्सो ऽन्त :
स्थसम्यग्वलिनोऽनुभावः। (सुद० २/४३) यथावसर (अव्य०) यथानुरूप। (जयो० २/१००) यथाविधि (अव्य०) विधि के अनुसार, ठीक ठीक, यथोचित।
(सुद० ११४) यथाविभवं (अव्य०) अपनी आय के अनुपात से। यथावृत्त (वि०) जैसा कि हो चुका। किया गया। यथाशक्यं (अव्य०) यथासंभव। (दयो० १/२५) यथाशक्ति (अव्य०) शक्ति के अनुसार, यथासंभव। (दयो०
४८) 'निरीहत्वमनुध्यायेद्यथाशक्त्यर्तिहानये' (सुद० १२५) परोपकरणं पुण्याय पुनर्न किमिति यथाशक्ति सञ्चरतु।
(सुद० १००) यथाशक्त्या (अव्य०) शक्ति के अनुसार। यथा शास्त्रं (अव्य०) ०धर्मशास्त्रों के अनुसार, जैसा कि ध
र्मशास्त्रों में कहा गया। यथाश्रुतं (अव्य०) जैसा सुना गया। यथाश्रुति (अव्य०) श्रुति के अनुसार, परम्परानुसार। यथासंख्यं (अव्य०) ०संख्यानुसार। ०(नपुं०) अलंकार विशेष।
(जयो०वृ० ३/१) यथासंख्येन (अव्य०) संख्या के अनुरूप। यथासंभव (वि०) शम्य, समर्थ, यथाप्रतीति। (सम्य० १३५,
जयो०१० २/१२०) यथासमय (अव्य०) उचित समय पर, समयानुसार। (दयो०६१) यथासुखं (अव्य०) इच्छानुसार, आराम से, सुखपूर्वक,
परिस्थितियों के अनुकूल।
यथास्थानं (अव्य०) सही, उचित स्थान। यथास्थित (वि०) वास्तविकता को प्राप्त हुआ। यथास्यात् (अव्य०) जैसा हो। (जयो०७० १५/४९) यथास्वं (अव्य०) अपने अपने क्रम से। यथास्वशक्ति (अव्य०) शक्ति के अनुरूप। (समु० १/१०) यथेच्छ (अव्य०) इच्छानुसार, चाहा गया हो जैसा। यथेच्छा (अव्य०) कामना के अनुसार, चाहा गया हो। (जयो०
१/२०) इच्छानुसार (वीरो० ५/२१) ०इष्टं, प्रिय, मनोज्ञ। (जयो०१० ३/१६)
अभिप्राय सहित। (दयो० ९५) जितनी आवश्यकता हो उतना। (जयो० १/६६)
०मन भरकर, अभिप्रेत। यथेष्ट (अव्य०) पर्याप्त बहुत सा। (समु० ९/२५) यथेष्टवस्तु (वि०) पर्याप्त सामग्री। (जयो० १/१७) यथैव (अव्य०) जैसा कि-जिस प्रकार। (सुद० १/९) यथोक्त (वि०) पूर्वोक्त, जैसा कि कहा गया। यथोक्तकाल (वि०) काल के अनुसार प्रतिपादित। (दयो० २२) यथोज्झित (वि०) विधिवत् त्यागा गया। (मुनि० १७) यथोचितं (अव्य०) उपयुक्त, उचित, योग्य, ठीक ठीक,
उपयुक्त, ०यथाशम्य (जयो० २/९१) न्यायोपार्जित।
(जयो० २/९१) यथोत्तरं (अव्य०) उत्तरोत्तर। (सुद० २/४६) यथोत्तरं
पीवरसत्कुचोरः स्थलम्। (सुद० २/४६) नियमित क्रम से, यथाक्रम से। (सुद० ११/८०) (वीरो० २/४६)
अग्रेऽन, आगे आगे। (जयो० ५/९३) यथोत्तरं शक्ततया विचित्रं (भक्ति० १०) नमामि तत्पञ्चविधं चरित्रम्।
(भक्ति० १०) यथोत्साहं (अव्य०) अपनी शक्ति के अनुसार, पूरी शक्ति से। यथोदय (अक०) समुद्य काल, पूर्वोक्त समय। (जयोल
१५/२) यथोचित। (जयो०२/७७) यथोद्देश्यं (अव्य०) संकेतित पद्धति से, विशेष रीति से। यथोपजोषं (अव्य०) मन के अनुसार, इच्छानुसार। यथोपयोगं (अव्य०) कार्य की दृष्टि से। यद् (सर्व०) जो, जो कुछ।
जैसा कि, जो कोई। पश्चात्, तदनंतर। ० चूंकि, क्योंकि, इसलिए, लेकिन।
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यद् तदा
८६९
यमः
जिस कारण, जिस हेतु।
यन्त्र (सक०) नियंत्रण करना, रोकना। फिर भी।
०बांधना, कसना। (जयो० ११/५८) यद् तदा (अव्य०) स्वेच्छया। (जयो० ९/६८)
०दमन करना, जकड़ना। यदकिञ्चित् (अव्य०) जो कुछ भी नहीं। (जयो० २३/३८) | यन्त्र (नपुं०) [यन्त्र+अच] ०थूणी, खंभा, स्तम्भ। यदन्तिक (अव्य०) पार्श्व भाग में (जयो० २४/९)
०पेटी, बेल्ट, कमरबन्द। यदपि (अव्य०) जो भी, जो कुछ भी। (जयो० १/९८)
चटकनी, कुंडी, ताला। फिर भी। (जयो० ९/१३)
नियंत्रण, बल। यद्वा (अव्य०) कल्पनान्तरे, अथवा, या तथा। (जयो० ११/३६) यन्त्रकः (पुं०) [यन्त्र+ण्वुल्] यांत्रिक, यन्त्र में कुशल। जैसा कि। (सुद० १११)
यन्त्रकं (नपुं०) पट्टी। ०जो कि, इसलिए। (सुद०८९)
यन्त्रकस्थिति (स्त्री०) मन्त्राक्षर। (वीरो० ६/३०) यदा (अव्य०) जब, उस समय। (जयो० २२/४०) जबकि | यन्त्रण (नपुं०) नियंत्रण।
(सुद० ३/४०) 'नवयौवनभूषिता यदा' (समु० २/११४) ०दमन, रोकथाम। यदाकिल (अव्य०) जो कि चूंकि, क्योंकि, जबकि। प्रतिबन्ध, कसना, बांधना। सुदर्शनभुजाश्लिष्टा यदा किल धरातले। (सुद० ८५)
०बल, निग्रह, कष्ट, पीड़ा। यदि (अव्य०) [यद्+णिच् इन्] अगर, जो, ऐसा। (सुद० ०अभिरक्षा।
२/२२) 'प्रत्ययमत्ययकरविद्धि यदि वृद्धि नरत्वम्। जाल, ढांचा। (जयो० २५/२०) (जयो० २/१५४)
यन्त्रणी (स्त्री०) [यन्त्रण+ङीप्] छोटी साली। ०चाहे, तो भी।
यन्त्रभ्रमं (नपुं०) ची घुमाना, पतंग की डोरी। (वीरो० १२/२५) यदिङ्गणं (नपुं०) समुद्गमन। (जयो० १३/२४) उछलते हुए यन्त्रिन् (वि०) नियन्त्रिक।
०सताने वाला। यदिङ्गवशी (वि०) उसके वश में होने वाला। कामोऽपि | यन्त्रिक (वि०) नियन्त्रिक। (जयो० १०/४०) नामास्तु यदिङ्गवश्यः। (सुद० २/४)
यम् (सक०) नियंत्रण करना, दमन करना, बांधना, कसना। यदीदृक् ( अव्य०) ऐसा ही है। (दयो०६९)
०ठहराना। यदीयस् (अव्य०) जिसका यह है, ऐसा जो है। 'यस्य
प्रदान करना, देना अर्पण करना। सम्बंधी यदीयः' (जयो० १/१९, वीरो० १/१)
०थामना, दबाना। यदीयसेवा (स्त्री०) जिसकी ऐसी सेवा। यस्येयं यदीया सा ०उठाना, उन्नत करना। चासौ सेवा चेति। (वीरो० १/१)
०प्रयास करना, घेरना। यदीया (अव्य०) जिसकी। (जयो० १/३०)
०शासन करना, प्रबन्ध करना। यदुः (पुं०) एक अधिपति, यादव वंश का प्रवर्तक।
०पकड़ना, ग्रहण करना। यदुत्कृत् (वि०) अपराध करने वाला। हे सुदर्शन मया यदुत्कृतं रोकना। क्षम्यतामिति विमत्युपार्जितम्। (सुद० ११०)
यमः (पुं०) [यम्+घञ्] संयत करना, नियंत्रित करना। यदेकदा (अव्य०) एक बार। (समु० ४/१४)
नियंत्रण, संयम। (सुद० ३७) यदृच्छा (अव्य०) [यद्+ऋच्छ+अ+टाप्] ०मनपसंद करना, जीवन पर्यन्त का नियम। यावज्जीवं यमो ध्रियते-'यमस्तत्र स्वेच्छा, मनभावी। (सम्य० ७०)
यथा यावज्जीवनं प्रतिपालनम्' (जैन०ल०९४५) संभोग, घटना।
'तदङ्गनाऽहो ध्रियते यमेन तृणवणालीव समीरणेन' यन्तु (पुं०) [यम्+तृच्] निदेशक, शासक।
(दयो० ३८) ०राज्यपाल।
०यमराज। (जयो०वृ० ६/४७) ०चालक. कोचवान, सारथि।
उष्ट्रदेश का राजा। (वीरो० १५/२९)
गमन।
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यमकः
८७०
यवनि
यमकः (पुं०) [यम् स्वार्थे कन्] प्रतिबन्ध, रोक, नियंत्रण। | यमभागिनी (स्त्री०) यमुना नदी। .
यमक अलंकार। अर्थ परिवर्तन शब्द पुनरावृत्ति के साथ। यमभागिनी (स्त्री०) यम की पत्नी। (वीरो० ९/४०) समुदङ्गः समुद्गाद् मार्गलं मार्गलक्षणम्' नरराट् परराड्वैरी न यामिनीयं यमभामिनीति। (वीरो० ९/४०) सत्वरं सत्त्वरञ्चितः।। (जयो० ३/१०९)
यमभूपतिः (पुं०) यमराजा (समु० ७/२) युगल, दो। मध्यादि दानीं यमकस्नुभाजोः सीतेव सम्यक् यमयातना (स्त्री०) भीषण कष्ट। परिपूरिताजो।। (जयो० ११/३९)
यमराट् (पुं०) यमराज। (समु० ७/५) यमकं (नपुं०) युगल पट्टी।
यमराज् (पुं०) देखो ऊपर। यमकालङ्कारः (पुं०) यमक अलंकार। (जयो०७० ३/१०९) यमल (वि०) जुड़वा, युगल उत्पन्न हुआ।
(जयो० २५/४१, २४/८०) स्यात्पादपदवर्णानामावृत्तिः यमसभा (स्त्री०) यमराज की सभा। संयुतायुता।
यमसात् (अव्य०) यम की शक्ति में। यमकं भिन्नवाच्यानामादिमध्यान्तगोचरम्।। (वाग्भट्टल० यमसूर्यं (नपुं०) भवन की आकृति, जिनमें दो कमरे हो एक ४/२८) जहां भिन्न अर्थ वाले पाद, पद और वर्ण की का मुंह पश्चिम की ओर और दूसरे का मुख उत्तर की संयुक्त या असंयुक्त रूप से आवृत्ति हो वहां यमक होता
ओर। है। यह श्लोक के आदि मध्य या अन्त में भी हो | यमस्थली (वि०) यमभूमि, पीड़ा जनक भूमि। अहो पशूनां सकता है।
ध्रियते यतो बलिः श्मसानतामञ्चति देवतास्थली। पाद-श्लोक का चतुर्थांश
यमस्थली वाऽतुलरक्तरञ्जिता विभाति, पद-विभक्तियुक्त शब्द।
यस्याः सततं हि देहली।। (वीरो० ९/१३) वर्ण- अक्षर।
यमारातः (पुं०) कालशत्रु, यम के शत्रु, मृत्यु। (जयो०७/३५) संयुक्त और असंयुक्त।
यमाशायुग्म (वि०) यमपुर को प्राप्त। (वीरो० २१/३) आदि मध्य अन्त आदि मध्य अन्त,
यमित (वि०) ०संयमित, नियंत्रित। यम, ध्यान की विधि। पद संयुक्त असंयुक्त।
(जयो० २८/३१) आदि मध्य अन्त आदि मध्य, अन्त
यमी (वि०) संयमधर, संयमी। (जयो० २६/३७) संयत। वर्णगत संयुक्त असंयुक्त।
___(मुनि०२) आदि मध्य अन्त आदि मध्य अन्त।
यमुना (स्त्री०) कालिन्दी। (जयो०वृ० ६/४३) अन्तस्तले स्वामनुभाव यन्तस्त्रुटिं बहिर्भावुकतां नयन्ताः। ___ जमुना नदी। (जयो० ६/१०६) तस्थुः सशल्याघ्रिदशां वहन्तः हृदार्त्तिमेतामनुचिन्तयन्तः।। यमुनाभिधानं (नपुं०) यमुना नदी नाम। (जयो०८/४०) (वीरो० १४/१४)
ययातिः (पुं०) एक वंश विशेष। यमकिङ्करः (पुं०) यम का सेवक।
ययावरः (पुं०) वंशा यमकीलः (पुं०) विष्णु।
ययुः (पुं०) प्राप्त हुए। (वीरो० ५/१३) यमज (वि०) युगल उत्पत्ति, जुड़वा।
यर्हि (अव्य०) [यद्+हिल्] जब, जबकि। यमदूतः (पुं०) यमराज। (समु० ७/१)
यवः (पुं०) [यु+अच्] जौ।। काक, कौवा।
समुदाय (सुद० १/३७) भुवि वरं पुरमेतदियं मतिः प्रवितता यमद्वितीया (स्त्री०) ०कार्तिक शुक्ला दूज, भाई दूज, खलु यव सतां ततिः।। (सुद० १/३७) __०भातृद्वितीया।
०माप, नाप, लम्बाई का एक पैमाना। यमधामः (पुं०) यम का स्थान।
यवक्षारः (पुं०) जवाखार, शोरा, सज्जी। यमन (वि०) संयत, संयमी।
यवनः (पुं०) युवन जाति, मुसलिम जाति। यमनुमा (वि०) यम नाम वाला। (समु० ७/११)
यवनानी (वि०) यवन लिपि, उर्दू, फारसी। यगपाशः (पुं०) चाण्डाल। (वीरो० १७/३९)
यवनि (स्त्री०) पर्दा, आवरण। (समु०८/३)
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यवनिका
८७१
याच्
यवनिका (स्त्री०) परदा, संवृतिका। (जयो० २४/३७) यवनी (स्त्री०) [यु-ल्युट्+ङीप्] यवन स्त्री। यवसम् (नपुं०) [यु+असच्] घांस, चारा। यवागु (स्त्री०) [यूयते मिश्रयते यु-आगु] खिचड़ी। (दयो० ९३)
कांजी, चावलों का मांड। यवानिका (स्त्री०) [दुष्टो यवो यवानी यवङीष] अजवायन। यविष्ट (वि०) [युवन्+इष्ठन्] कनिष्ठ, सबसे छोटा। यवीयस् (वि०) [युवन्+ईयसुन्] छोटा बच्चा। यशस् (नपुं०) [अश् स्तुतौ असुन् धातोः युट् च्] ०यश,
प्रतिष्ठा, कीति, प्रसिद्धि। (जयो० २/२१) । प्रशस्ति। (जयो०वृ० १/१५) गौरीकृतं किन्तु यशोमयेन। विश्रुत, ख्याति। (सम्य० १५४) 'परिकलितः किल यशसा राशि:( (सुद० १/४४) यशसा
विधुमात्मतेजसाऽर्कमपाकर्तुमुतास्थितो रसात्। (समु० २/११) यश:किणः (पुं०) कीर्ति से परिपूर्ण। अथ जन्मनि सन्मनीक्षिण
प्रससाराप्यभितो यशः किणः। (वीरो० ७/१) यशःप्रयस् (नपुं०) धवल दूध। (सुद० ३/१८)
कीर्ति का विस्तार-अभितोऽपि भवस्तलं यशः
पयसाऽलङ्कृतवान्निजेन सः। यशःप्रकाशित (वि०) कीर्ति से मंडित। (सुद० ३/११) यशःप्रशस्तिः (स्त्री०) कीर्ति लाभ, (वीरो० १८/३१) प्रशस्ति __ की प्राप्ति। (जयो० ६/६६) यशःप्रसारः (पुं०) कीर्तिकलाप-'गर्भार्भकस्येव यशः प्रसारैः'
(वीरो०६/३) यशःशरीरं (नपुं०) प्रशस्तदेह, उज्ज्वलशरीर, कान्तिमान देह।
(जयो० १/३३) यशःस्फूर्तिः (स्त्री०) कीर्ति का विस्तार, प्रतिष्ठा गान। यशसः
स्फूर्तिरुद् भूति। (जयो० ६/६५) यशस्कर (वि०) यशस्वी, कीर्ति प्रदाता। यशस्काम (वि०) प्रसिद्धि की कामना करने वाला। यशस्कायं (नपुं०) कान्ति युक्त शरीर, प्रभावान् देह, देदीप्यमान
शरीर। यशस्तिलकः (पुं०) सोमदेव रचित एक जैन संस्कृत चम्पूकाव्य। ___यशस्तिलकचम्पू (जयो० २२/८५) यशस्य (वि०) कीर्ति स्थापत करने वाला। यशस्विन (वि०) [यशस+विनि] प्रसिद्ध. विख्यात. विश्रत।
सहजकीर्तिमान् (जयो० २३/६९) यशोद (वि०) कीर्तिकर।
यशोदा (स्त्री०) नन्द की पत्नी, कृष्ण को पालन वाली।
(दयो० ५८) यशोधन (वि०) प्रसिद्धि प्राप्त, कीर्ति के धन को प्राप्त हुआ।
__'यश एवं धनं यस्याः सा यशोधनाः' (जयो० १७/३९) यशोधरा (स्त्री०) अलकापुरी के राजा दर्शक एवं रानी श्रीधरा
की पुत्री। (समु० ५/२१)
राजा सूर्यावर्त की रानी। (समु०५/२१) यशोनिरुपिणी (वि०) कीर्ति स्थापन करने वाली। यशसः
कीर्तेनिरुपपिणी,प्ररूपणाकारिणी। (जयो० १३/६१) यशोपटहः (पुं०) कीर्ति निनाद। यशोभिरामः (पुं०) कीर्ति प्राप्त। (वीरो० १३/१२) यशोलाभः (पुं०) कीर्तिलाभ। (जयो०१० ३/१३) यशोवितानं (नपुं०) यश मंडप। (वीरो० १३/१०) यशोविशिष्ट (वि०) प्रख्यात, कीर्तियुत। (जयो०३/२३) यशोवृष (वि.) कीर्तियुक्त। (समु० ३/३४) यष्टिः (स्त्री०) लकड़ी, लाठी, छड़ी।
०सोटा, गदा। ०खंभा, स्तम्भ, तना। (जयो० १४/३३) ०डंठल, वृन्त।
०शाखा, टहनी। यष्टिग्रहः (पुं०) गदाधर। यष्टिनिवासः (पुं०) मयूरवास। यष्टिप्राणः (पुं०) शक्तिहीन। यस् (अक०) प्रयास करना, प्रयत्न करना। या (सक०) जाना, प्राप्त होना। यामि गच्छामि (जयो०
१६/७२) प्रयाण करना। याम एव सदसीह (जयो० ४/२८) यान्ति (सुद० ९०) यातु, याति (सुद०८८)
यास्यामि-जाऊंगा- (समु० ३/९) या (अक०) चलना-यास्यतीव हि भवान् (जयो० ४/१०)
यामि यात यदिवश्चिदुदेदि भूपवित्तु जनतावशगेति यातुम्। (जयो० ४/११) यास्यसि (सुद० ४/२७)
नष्ट होन, ओझल होना। या (सर्व स्त्री०) यस्या सा काशी। रुचिरा पुरी। (जयो०
३/३०) यागः (पुं०) [यज्+घञ्] यज्ञ, आहूति, उपहार, हवन। (जयो०
१६/२५)
प्रार्थना करना, अनुरोध करना। (जयो० ६/७७) अनुनय विनय करना।
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याचकः
८७२
यानजः
याचकः (पुं०) [याच्+ण्वुल] भिक्षुक, भिखारी, आवेदक। । यातना (स्त्री०) वेदना, पीडा, कष्ट, दु:ख। दीनता। (वीरो० १२/४१)
प्रतिशोध, क्षतिपूर्ति। यागगुरुराट् (पुं०) पुरोहित। (जयो० १२/२७)
०संताप, संपीडन। यागगुणाभिषेकः (पुं०) विप्रवर, पुरोहित, यज्ञकर्ता। 'यागस्य यातन्त (वि०) प्रकरणान्त, मार्गान्त। (जयो० ३/८४) हवनस्य गुणे वृद्धिकरणेऽभिषेको दीक्षाप्रयोगो यस्य यज्ञकर्ता
| यातुः (पुं०) यात्री, बटोही। विप्रवर! (जयो० १६/२५)
०हवा, पवन। यागविभूति (स्त्री०) सुवृत्त, गोलाकार कुण्ड, यज्ञकुण्ड।
०भूतप्रेत, पिशाच, राक्षस। (जयो०वृ० १०/८०)
यात् (स्त्री०) [यत्+कन्] जेठानी, देवरानी। यागावनि (स्त्री०) यज्ञ भूमि। (जयो० १२/२५)
यात्रा (स्त्री०) [या+ष्ट्न्+टाप्] गति, जाना, प्रयाण, गमन। याचनं (स्त्री०) [याच्+ल्युट] ०मांगना, निवेदन करना।
(जयो० ३/९१) 'म्लायन्ति तद्वधूनां मुखारविंदानि यात्रासु' प्रार्थना, अनुरोध।
(जयो० ६/५३) याचनकः (पुं०) [याचन् कन्] भिखारी, भिक्षुक, अभियोक्ता,
तीर्थाटन, भ्रमण। (जयो० ३/८६) आवेदक। याचना (स्त्री०) मांगना, प्रार्थना करना।
उत्सव, पर्व, संस्कार। ०अनुनय करना।
रीति, पद्धति, उपाय। ०अभ्यर्थना (जयो० १२/१४४)
०प्रथा, प्रचलन। याचित (भू०क०कृ०) [याच्+क्त] निवेदन किया गया, मांगा
यात्रिक (वि०) यात्रा करता हुआ। गया।
प्रचलित, प्रथानुकूल। याचितकं (नपुं०) [याचित+कन्] मांगी गई वस्तु।
यात्रिकः (पुं०) यात्री, बटोही। याचिवान् (वि०) मांगी गई वस्तु। (जयो० १/९२)
यात्रिकं (नपुं०) प्रयाण, अभियान, चढ़ाई, प्रस्थान। याञ्चा (स्त्री०) [याच्+न+टाप्] प्रार्थना, अनरोध, निवेदन। | यात्री (पुं०) यात्री, बटोही, देशाटनी। (जयो० १८/६०) (जयो० १/७२)
याथातथ्यं (नपुं०) [यथातथ+ष्यञ्] वास्तविकता, सच्चाई, याचना। (जयो० १४/३५)
यथार्थता। मांगना।
औचित्य। याजकः (पुं०) [यज्+णिच्+ण्वुल्] पुरोहित, यज्ञ कराने वाला। याथार्थ्यं (नपुं०) सही प्रकृति, सच्चा चरित्र। याजनं (नपुं०) [यज्+णिच्+ ल्युट्] यज्ञ का संचालन, अनुष्ठान।
यादवः (पुं०) [यदोरपत्यं-अण] यदुवंशी। याज्ञसेनी (स्त्री०) [यज्ञसेन+अण+ङीप] द्रौपती का पितृपरक
यादस् (नपुं०) [यान्ति वेगेन-या असुन] समुद्री जन्तु, विशाल नाम।
जन्तु, दानव। याज्ञिक (वि०) [यज्ञाय हितं, यज्ञः प्रयोजनस्य वा ठक्] यज्ञ
यादृक् (वि०) जिस प्रकार का, जैसाकि। सम्बन्धी।
यादृक्ष (वि०) जिस प्रकार का, जिसके समान। (सम्य० ७/८) ०वेदानुयायी। (वीरो० २२/१६)
(जयो० १६/३२) याज्ञिकः (पुं०) पुरोहित।
यादृच्छिक (वि.) ऐच्छिक-आकस्मिक। याज्य (व०) [यज्+ण्यत्] त्याग करने योग्य।
यादृश् (वि०) जैसा ही, जिस तरह का। यात (भू०क०कृ०) गया हुआ, प्रयात, दूरगत। (जयो० ११/४४) यातं (नपुं०) गति, चाल।
यादृशी (वि०) जैसी-यादृशी भवतामिच्छा। (दयो० ७४) ०बीतता, चला गया। (सुद० १०८)
यानं (नपुं०) [या भावे ल्युट्] जाना, चलना। प्रयाण, गमन।
०अभियान, गमन। यातनं (नपुं०) [यत्+णिच् ल्युट्] ०प्रतिहिंसा, प्रतिरोध, बदला। ०यात्रा प्रयाण। कष्ट, पीड़ा, दुःख देना।
०वाहन, सवारी, गाड़ी। यानजः (पुं०) निहार, गमन। (सुद० ८६)
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यानबन्धं
८७३
युक्तपद्धति
यानबन्धं (नपुं०) गति बन्ध, छन्द की विशेषता। (वीरो०
२२/३८) यानपात्रं (नपुं०) नाव, नौका, जहाज। यानभङग् (पुं०) जहाज टूटना। यानि (अव्य०) जबकि, जो कि। (सुद० ९९) यानमुखं (नपुं०) गाड़ी का अगला भाग। यानवाहकः (पुं०) चालक, सारथी। (जयो० ६/६३) यान्त (वि०) आत्मवर्ग, स्वपक्षीय। (जयो० १३/८२) यान्यजनः (पुं०) शिविका वाहक, कहार। (जयो०६/२६) यापनं (नपुं०) जाने देना, निकालना।
निष्कासन, हटाना। सहारा, आश्रय, आधार।
प्रचलन, अभ्यास। यापित (वि०) व्यतीत। (जयो० १८/३२) याप्य (वि०) हटाए जाने योग्य निकालने योग्य। याप्ययानं (नपुं०) शिविका, पालकी। यामः (पुं०) नियंत्रण, विरोध।
धैर्य।
प्रहर, दिन का आठवां भाग। यामघोष (पुं०) मुर्गा। यामलं (नपुं०) [यमल+अण्] जोड़ी, मिथुन। यामवृत्तिः (स्त्री०) पहरा देना। यामवती (स्त्री०) रात। यामि (स्त्री०) बहन। यामिकः (पुं०) पहरेदार, चौकीदार। यामिका (स्त्री०) रात्रि, रजनी। यामिकापतिः (स्त्री०) रजनी। यामिकापतिः (स्त्री०) चन्द्रमा।
०कपूर। यामुन (वि०) यमुना से सम्बन्धित। यामुनेष्टकं (नपुं०) [यमुना+इष्टकम्] सीसा, रांगा। याम्य (वि०) दक्षिणी। याम्या (स्त्री०) दक्षिणीदिशा। यायावरः (पुं०) संत, साधक, परिव्रज्याशील साधु। यावः (पुं०) [यु+अच्+अण] जौ से। तैयार पदार्थ।
०लाख।
लाल रंग, महावर। (जयो० १६/४२) यावकः (पुं०) ०लाख, ०महावर, रक्तवर्ण।
यावकालः (पुं०) प्रभातकाल। (सुद० १०४) यावच्छरीरं (नपुं०) विस्तृत देह। (सुद० १३०) यावत् (वि०) [यद्+वतुप] जितना, जितने। 'यावच्चावच्च
साकल्येऽवधौ मानवधारणे' इत्यमरः। (जयो० १४/३३) 'यावदागमयतेऽथ नरेन्द्रान्' (जयो० ४/१)
जैसे जैसे। (सुद० १०१) सब, समस्त, सम्पूर्ण। जितना बड़ा, जितना विस्तृत।
०जबकि, उसी समय तक। (सुद० २/४४) (सम्य० ४१) यावत्तावत् (वि०) जितना उतना। (दयो० ९५) । यावत्तु (वि०) जैसे जैसे (सुद० १०१) जिस तरह से. जैसे ही।
(जयो०वृ० १२/११९) । यावद्दिन (वि०) जितने दिन तक। (दयो० ४१) दिनमनापि।
(जयो०वृ० १५/१४) (जयो०वृ० ५/१६) यावबलं (अव्य०) अपनी शक्ति के अनुसार। यावमात्रं (अव्य०) इतना बड़ा, इतना विस्तृत।
नगण्य, तुच्छ। यावशक्यं (अव्य०) जहां तक संभव हो। यावसः (पुं०) घास का ढेर।
०चारा।
०खाद्य सामग्री। याशिका (स्त्री०) अभिलाषा। (जयो०० ७/६३) याष्टीक (वि०) लाठी से सुसज्जित। याष्टीकः (पुं०) यष्टि योद्धा। लाठी से लड़ना। यास्कः (पुं०) निरुक्तार। युः (अक०) सम्मिलित होना, मिलना। यु (सक०) बांधना, जकड़ना। युक्त (भू०क०कृ०) [युज्+क्त] ०सम्मिलित, मिला हुआ,
संयुक्त। (वीरो० ५)
सुव्यवस्थित, सहिना ०अञ्चित। (जयोवृ० २/६)
योग्य, उचित, ठीक, उपयुक्त। ०भरा हुआ, तर्क संगत। (सुद० १/२७) युक्तं (नपुं०) युगल जोड़ी। युक्तकर्मन् (वि०) कर्त्तव्य में नियुक्त किया गया। युक्तदण्ड (वि०) उचित दण्ड देने वाला। युक्तन्याय (वि०) समुचित न्याय वाला। युक्तपद्धति (स्त्री०) व्यवस्थित रीति।
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युक्तपाठक
युक्तपाठक (वि०) वाचक । (जयो० १८ / १ ) युक्तमनस् (वि०) सावधान मन वाला। युक्तमनुज (वि०) मनुजता सहित । युक्तरीति (स्त्री०) संयुक्त पद्धति । युक्तार्थधर (वि०) युक्तियुक्त वाणी वाला ।
युक्तिः (स्त्री० ) [ युज् + क्तिन्] ०उपाय, योजना। (सुद० २/४२)
सामंजस्य । (सम्य० १२) संगति,
० व्यवहार, प्रचलन ।
० औचित्य, योग्यता, उपयुक्तता ।
० क्रमबद्धता, रचना।
० संभावना, परिस्थिति ।
० तर्कशक्ति, तर्कना, दलील । 'युक्त्यागमाभ्यामविरुद्धकोष !' (जयो० २६ / ९९ ) ० अनुमान, निगमन, हेतु, कारण । शिरो गुरुत्वान्नतिमापभक्तितुलास्थितं चेत्युचितैक युक्ति: । (वीरो० ५/२५) युक्तिकथनं (नपुं०) हेतुओं का वर्णन । युक्तिकर (वि०) उपयुक्त, योग्य ।
युक्तिगत ( वि०) तर्क संगत। (दयो० २२ / १३) युक्तिज्ञ (वि०) आविष्कार, कुशल ।
युक्तिबलं (नपुं०) उपाय की शक्ति ।
युक्तियुक्त (वि०) उपयुक्त, योग्य, युक्ति गत। (वीरो० २२/१३) युक्तिसंगत (वि०) तर्क संगत, योग्य, उपयुक्ता (वीरो० २२/१३) युग् (वि० ) [ युनक्तीति युग् एतादृगपि लसति] युक्त। (जयो० १/९६)
युगं (नपुं०) [युज्+घञ् ] जुआं खच्चर, घोड़ा आदि के कांधे पर रखा जाने वाला। गाड़ी या हल का भाग। युग: (पुं०) जोड़ा, युगल, संयुक्त, युग्म । (जयो०वृ० १ / ३३ ) ० श्लोकार्थ, जिसमें दो चरण होते हैं।
० मिथ, सम्बन्ध। (जयो० ८/४५) भुजयोर्बाहुदण्डयोः युग-युगलं (जयो० ५/४७) वाच्य वाचकयोर्युगं द्वितीयं धरति (जयो० ५/४५) कुचयुगम्। (जयो०वृ० ५/४५) ० कालविशेष, पांच वर्षों का एक युग । पंचेहिं वरिसेहिं जुगं ( ति०प०४ / २९० ) युगत ( वि०) सम संख्या ।
८७४
युगतातिरेक (वि०) सम संख्या का अतिरेक । (जयो० १ / १९) युगदोष: (पुं०) युग/जूआ से पीड़ित । कायोत्सर्ग का एक दोष,
युग से पीड़ित बैल के समान जो गर्दन को फैलाकर कायोत्सर्ग में स्थित होता है। वह कायोत्सर्ग के युगदोष से दूषित होता है।
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युगनद्ध ( वि० ) [ युगमि नद्धो युगनद्धः ] 'युगं वृषभस्कंध योरारोपितं वर्तते तद्वत्, योगोऽपि यः प्रतिभाति स युगनद्ध इत्युच्यते । (जैन०ल० ९४८ )
युगन्धरः (पुं०) गाड़ी की जोड़ी, जुआं का भाग। युगपद् । (अव्य० ) [ युग्+पद्+क्विप्] एक साथ, एक ही समय | युगलं (नपुं०) [युज् + कलच्] ०मिथुन, जोड़ा, दम्पत्ति । (जयो० १२/७४)
युगलकं (नपुं०) जोड़ा, युग्म, दो श्लोक | युगादिभर्तृ (पुं०) ऋषभनाथ तीर्थंकर ।
• प्रथम तीर्थंकर । 'युगादिभर्तुः श्री ऋषभनाथतीर्थङ्करस्य सदसः सभायाः सदस्यः' (जयो० १/४३ ) युगादिभास्करः (पुं० ) ० आदीश्वरसूर्य ० प्रथम तीर्थंकर * आदिनाथरूपी सूर्य। ० आदीश्वर भगवान । (जयो० २६/५८) ०युग के प्रथम सूर्य । प्रथम सूर्यवंशी । युगान्तस्थायिन् (वि०) अनन्तकाल व्यापी । (जयो० ७/५) युग्म (वि० ) [ युज् + मक्] युगल, मिथुन, जोड़ा। (सुद० ४ / ३१) ध्रियते द्रुतमेव पाणिसत्तलयुग्मे स्म हितैषिणो हि सः । (सुद० ३/२४)
०सम, समान, सदृश, एक सा। 'जुम्मं सममिदि एयट्ठो'
( धव० १० / २२)
० संगम, मिलाप ।
युज्
युग्मधारा ( स्त्री०) संयुक्त प्रवाह, सम प्रवाह । युग्मनिरूपः (नपुं०) युगल विवेचन। युग्मं तस्य निरूपो निरूपणमिव। (जयो०वृ० ५ / ४७)
युग्मनीति (स्त्री०) समान नीति, सदृश पद्धति, एक सी नियम पद्धति ।
युग्मपादः (पुं०) युगल चरण ।
युग्मभाव: (पुं०) संयुक्त भाव । युग्ममनुजः (पुं०) दम्पत्ति।
युग्मश्लोकः (पुं०) दो श्लोक, एक अर्थ के लिए दो श्लोक
देना।
युग्य ( वि० ) [ युगाय हितः यत्] जोतने के योग्य । युग्यः (पुं०) जुता हुआ।
युज् (अक० ) सम्मिलित होना, मिलना, अनुरक्त होना । ० संबद्ध होना, जुड़ना ।
युज् (सक० ) जोतना, नियुक्त करना ।
० रखना, स्थिर करना ।
० स्थापित करना (युज्यते० सुद० ४ / ३८ )
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युज
८७५
युवतिपाशः
पूछना, प्रश्न करना। ०कहना, बोलना।
तैयार करना। ०चखना, उपभोग करना। युज् (वि०) जुड़ा हुआ, संबद्ध। (सम्य० ४७) युज्जानः (पुं०) [युज्+शानच्] रथवान, सारथि, वाहक, चालक। युत (भू०क०कृ०) [युत+क्त] सम्मिलित, जुड़ा हुआ। युतकं (नपुं०) [युत कन्] संयुक्त, मिलाप, मिलन।
युगल। संगमा
मित्रता, मैत्री। युतिः (स्त्री०) [युक्तिन्] संगम, मिलन, मिलाप, भेंट।
जोड़, योग। समीपता, संयोग। सामीप्यं संयोगो वा युतिः। (धव० १३/३४८)
संयुक्ति, स्पष्ट योग। युद्धं (नपुं०) [युध्+क्त] संग्राम, समर, लड़ाई। (सम्य०६५)
संघर्ष, द्वन्द्व। (सम्य० ७६)
भिडन्त, आपसी संघर्ष। युद्धकारिन् (वि०) संग्रामशील, लड़ाई करने वाला। युद्धकार्य (नपुं०) संग्राम का कार्य। (जयो०वृ०८/२) युद्धगत (वि०) संग्राम को प्रात। युद्धघोषः (०) संग्राम की घोषणा। युद्धजनित (वि०) युद्ध में संलग्न। (जयो०८/१३) युद्धटंकारः (पुं०) संग्राम की गूंज युद्धदण्डः (पुं०) संग्राम पद्धति। युद्धपटहः (पुं०) युद्ध घोष। (जयो० ८२२) युद्धभय (वि०) लड़ाई से डरने वाला, संषर्घ से डर। युद्धभीति (स्त्री०) संघर्ष से डर। युद्धभू (स्त्री०) रणक्षेत्र, संग्राम स्थल। युद्धभूमि (स्त्री०) युद्धस्थल, संग्राम क्षेत्र। युद्धरङ्गः (पुं०) रणक्षेत्र, लड़ाई का मैदान। युद्धवीरः (पुं०) योद्धा, शूरवीर, जांबाज़, रणबांकुर। युद्धसंलग्न (वि०) युद्ध में लीन, संग्राम में तत्पर। (जयो०
८/१३) युद्धसूचक (वि०) युद्ध घोष करने वाला, संग्राम की घोषणा/रण
की सूचना देने वाला। (जयो०व०८/३) युद्धस्थलं (नपुं०) संग्राम स्थान, रणस्थान, रणभूमि। (जयो०
८/४) रणांगण युद्धभू, युद्धधरा। (वीरो० २/४१) अद्य
युद्धस्थले धैर्य दृश्यतेऽमुष्य तेजसः। मम वा यमवाक्
सन्धाकारयाऽऽयुधधारया।। (जयो० ७/२७) युद्धागत (वि०) युद्ध में आया हुआ। युद्धाचरणं (नपुं०) युद्ध का आचरण। (जयो० १२/१०७) युद्धाभिलाषिन् (वि०) युद्धार्थिन्, युद्ध की इच्छा करने वाला।
(जयोवृ० ३/१००) युद्धाभ्यासः (पुं०) संग्राम की शिक्षा, संग्राम का अध्ययन। युद्धार्थिन् (वि०) युद्धाभिलाषी, युद्ध का इच्छुक। युद्धेच्छुक (वि०) युद्ध चाहने वाला। युध् (अक०) लड़ना. संघर्ष करना, युद्ध करना, द्वन्द्व करना।
(जयो०वृ० १/१८) युधानः (पुं०) [युध्+आनच्] योद्धा, बहादुर, रणवीर, रणबांकुरे। युधिष्ठिरः (पुं०) पाण्डुपुत्र, पाण्डु की अग्रज सन्तान। ___(जयो० १/१८) युधिष्ठिर (वि०) युद्ध में स्थिर रहने वाला। युन् (सक०) ग्रहण करना लेना, युनक्ति, गृहणाति। (जयो० २/७) युप (सक०) मिटा देना, नष्ट करना। युयुः (पुं०) घोड़ा, अश्व। युयुत्सा (वि०) [युध्+सन्+अङ्+टाप्] लड़ने की इच्छा,
विरोधी इरादा। युयुत्सु (वि०) लड़ने की इच्छा वाला। युवकः (पुं०) कुमार, तरुण। (जयो०५/११) युवगणः (पुं०) तरुण समूह। (जयो० ५/२५) ईदृशे युवगणेऽथ
विदग्धे का क्षती रतिपतावपि दुग्धे। (जयो० ५/२५) युवतिः (स्त्री०) तरुणी। [युवत्+ति+ङीप्] ०तलुनी/तरुणी
(जयो०वृ० ३/८२) (सुद० ७/३४) ०अंगना, स्त्री।
नायिका। (जयो०वृ० ४/५५) ०महिला (सुद० ८८) काठिन्यमेवं कुचयोर्युवत्याः कण्ठे ठकत्वं न पुनर्जगत्याम्। (सुद० १/३४)
योषा-जो मनुष्य को दुःख से योजित करती है। 'नरं
दुःखेन योजतीति युवतिर्योषा च। (भ०आ०टी० ९७९) युवतिकालः (पुं०) तरुणी काल, तरुणाई का समय। युवतिगतिः (स्त्री०) मंथन गति, तरुणी की तरह मन्द मन्द गति। युवतिनयनं (नपुं०) चपल नयन, तरुणी के नेत्र। युवतिपाश: (पुं०) तरुणीपाश। (जयो० २/१५७)
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युवतिभुजः
८७६
योगक्षेमः
तरह से। (सर
] डोरी
: (पुं०)
युवतिभुजः (पुं०) स्त्री का भुजा, मांसल बाहु। (जयो०
२/१५७) साक्षात्कुरुते हन्त युवतिभुजपाशनिवद्धकिञ्चाङ्गाति-गमोहनिगडवर्तितमपि न स्वंवेत्ति विकारी।
(जयो० २/१५७) युवतिरलं (नपुं०) स्त्री रत्न। युवति रत्नमयत्नमवाप्यते तदधि ___ कं तु शमाय समाप्यते। युवतीर्थः (पुं०) युवावस्था। (वीरो० ८/७६) (जयो० ९/२३) युवनृपः (पुं०) युवराज। (जयो० ९/११) युवभावः (पुं०) ०तरुणभाव। चपल विचार। युवमनसी (स्त्री०) तरुण भावो। (जयो० ५/७४) युवामनस्विनी।
(जयो० ५/७४) युवभावः (पुं०) तरुण भाव। (सुद० ३/३३) युवराज् (पुं०) युवनृप, राजकुमार। (समु० ४/१७) युवा (वि०) यौवन प्राप्त, युवावस्था को प्राप्त व्यक्ति।
(जयो० ५/४) युवाधिराजः (पुं०) राजकुमार। (वीरो० ११/१३) युवान्त (वि०) तरुणान्त। (जयो० १२/१३२) युष्मद् (सर्व०) तू, तुम। त्वम् (सुद० १/१६) (सम्य० १५)
तस्माद् (सुद० ९१) त्वदीयाम् (सुद० ४/१७) वरिस्यति त्वं तु सतीति (जयो० ३/८८) तस्य (सम्य० ३/३८) 'तव सम्मुखमस्यहं पिपासुः' (जयो० १२/११९) युवाभ्याम् (सुद० ४/४५) त्वयि (सुद० ४/३८) युष्मत्पदप्रयोगेण, सम्भवेदुत्तमः पुमान्। आदेशशोभवतामस्ति, न परप्रत्यवायकृत्।। (समु० ७/३३)
युष्मद् पद का प्रयोग मध्यम पुरुष के लिए होता है। युस्मादृश् (वि०) तुम्हारी तरह। युस्माकम् (वि०) तुम्हारे के लिए। यूतिः (स्त्री०) मिश्रण, मेल, मिलाप। यूथं (नपुं०) [यु+थक्] भीड़, टोली, समुदाय, झुण्ड। ___रेवड़, लहंडा। यूथिका (स्त्री०) जूही, बेला। यून् (पुं०) कामी युवक। (सुद० १०१) युवक (जयो० १/५९) यूना (पुं०) तरुण, युवक, युवा। (जयो० ११/२६) तरुणानां
यूनानामपि हृदये (जयो० ५/२९) यूनुः (पुं०) पुत्र, सुत। (जयो० ) यूपः (पुं०) यज्ञ की लकड़ी। यूषः (पुं०) [यूष्+क] रसा, झोल, रस, सूप। येन (अव्य०) जिससे, जिसके द्वारा, जिसलिए, जिस कारण से।
चूंकि, क्योंकि।
येन केन प्रकारेण (अव्य०) जिस किसी तरह से। (सुद०१०४) योक्त्रं (नपुं०) [युज्+ष्ट्रन्] डोरी, रस्सी, धागा, रज्जू। योगः (पुं०) [युज् भावादौ घञ्] ०जोड़ना, मिलाना।
संयुक्त, संयोग, मिलान। ०संपर्क, स्पर्श। मिलान। योग एक इह मानवतायामेवमुद्वरितुमस्तु अपायत्। भोगतो गमयतः पुनरेतां किं भवेदनुभवेद् दृढ़चेता।। (समु०५/५) शरीर निग्रह। (जयो० २७/११) आत्मपरिस्पंद-मनोवचः कायकृतात्मचेष्टात्मकं तु योगं स किलोपदेष्टा। शुभाशुभप्रायतया जगाद, द्वेधा जिनो यस्य वदोऽभिवाद:।। (समु०८/२५)
प्रयोग (सुद० १३३) स्वर्णत्वं रसयोगतोऽत्र लभते लोहस्य लेखा यतः। (सुद० १३३)
कारण, निमित्त। हेतु। वदाद्य का दशा ते स्यान्मदीयकर योगतः। (सुद० १३४) ०व्यवहार-त्वमिमां शोचनीयास्थामाप्तो नैष्ठ्ययोगतः।। (सुद० १३४) योग नाम एकाग्रचिन्तानिरोधकम्। (जयो० २८/१४) सम्बन्ध। (सुद० १/३०) 'स्वतोऽधरं पूर्णमिदं सुयोगैः' (सुद० १/३०) तल्लीनता। (सुद० ७०) योग-भोगयोरन्तर खलु नासा दृशा समस्या एकता, समुदाय, सामञ्जस्य। (सम्य० ८४) समय। वर्षायोग हिसारस्य श्रीसमाजानुरोधतः। (सम्य० १५६)
सन्निकटता। (योग आत्मनि सम्पन्नो दशमाद्गुणतः परम्। (सम्य० १४२) नियम, विधि। उपाय, योजना। ०व्यवसाय, कार्यपद्धति।
औचित्य, योग्यता। कोशिश, उत्साह। ०फल, परिणाम।
पद्धति, रीति, क्रम। योगक्षेमः (पुं०) समीचीन सुरक्षा, उचित उपाय। (जयो०वृ० २/२)
०सम्पत्ति की सुरक्षा। दुर्घटनाओं से सम्पत्ति को सुरक्षित रखने का शुल्क।
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योगक्षेमार्थ
८७७
योगीश्वरः
०बीमाकरण।
कुशलक्षेम, कल्याण, सम्पत्ति लाभ। योगक्षेमार्थ (वि०) कल्याणार्थ-सम्पूर्ण प्रबन्ध के लिए।
प्रजोपयोगिवस्तूनामाम-व्यय-निबन्धनाम्। विधाय योग-क्षेमार्थं, यतिश्च मषिरित्यसौ।।
(हित० सं०९) योगचूर्णं (नपुं०) वशीकरण चूर्ण। योगछाया (स्त्री०) ध्यान की छाया। (जयो० २८/३३) योगतारका (स्त्री०) नक्षत्रों का योग। योगत्रय (वि०) मन, वचन, और काम का योग। (भक्ति०१४) योगदानं (नपुं०) सिद्धान्त का संचारण। योगदृष्टिः (स्त्री०) निग्रहदृष्टि। (वीरो० २०/१०) योगधारणा (स्त्री०) सतत चिंतन। योगनिद्रा (स्त्री०) सचेतनता, जागरण, अर्धनिद्रा। योगनिमित्तं (नपुं०) योग का कारण। योगपदं (नपुं०) उचित स्थान। योगफलं (नपुं०) नियम पालन का फल। योगभक्तिः (स्त्री०) इन्द्रिय निरोध की भक्ति, मन, वचन
और काय की भक्ति। यथैति दूरेक्षणयन्त्रशक्त्या चन्द्रादिलोक किम योगभक्त्या।। (वीरो०९) समस्त विकल्पों का अभाव। निर्विकल्प समाधि।
योजित कारण। योगबलं (नपुं०) त्रिविध योग की शक्ति। योगमाया (स्त्री०) सम्मोहन क्रिया, जादुई शक्ति। योगरङ्गः (पुं०) नारंगी। योगरुढ (वि०) निर्वचनमूलक अर्थ वाले शब्द। योगवर्तिका (स्त्री०) स्निग्ध बत्ती। योगवक्रता (वि.) मन, वचन और काय की कुटिलता। योगवाही (स्त्री०) रेह, सज्जी।
०मधु।
पारा। योगविक्रयः (पुं०) छल से बिक्री। योगशास्त्रं (नपुं०) हेमचन्द्रचार्य विरचित एक ग्रन्थ। योगसत्यं (नपुं०) मन, वचन और काय की याथर्थता का नाम। योगसंक्रान्तिः (स्त्री०) उपयुक्त ध्यान का संचार। योगसमाधिः (स्त्री०) आत्म तल्लीनता।
योगसारः (पुं०) एक ग्रंथ विशेष, अपार नाम परमात्म
प्रकाश। योगसेवा (स्त्री०) ध्यानाराधना, योगेन्द्र देवकृत। योगिकलः (पुं०) यति समूह। (वीरो० २/४९) योगिन् (वि०) [योग+इनि] न्युक्त, संयुक्त, संलग्न, योग से
सहित। योगिन् (पुं०) योगी, संन्यासी।
मुनीन्द्र, निर्मल स्वभावी मुनि। योगि तदन्यभेदेन द्वेधा भवति साधकः' (हित० ३) यति। (वीरो० ९/१९) परिव्राजक, तपस्वी। (दयो० २४) संयमी। 'रहस्यमङ्गीकुरुतेऽत्र योगी' (जयो० २७/६)
०सन्यास-आश्रम। (जयो० २/१७) योगिभक्तिः (स्त्री०) एक भक्ति पद, मुक्तियों की ध्यानाराध
ना। आचार्य कुन्दकुन्द, पूज्यपाद जैसे पुराविद रचित भक्ति। आचार्य ज्ञानसागर ने योगिभक्ति से सम्बंधित पांच श्लोक संस्कृत में लिखे हैं। जो भक्तिसंग्रह में संकलित
है। (भक्ति० सं० १४) योगिकरः (पुं०) योगिराज। (सुद० २/२२) योगिभूपः (पुं०) मुनिराज, योगिराज। (भक्ति० २९) योगिराट् (पुं०) मुनिराज। (मुनि० १२) 'विश्वस्य किन्तु
साम्राज्यमधिगच्छति योगिराट्' (वीरो० १६२२९) योगिराज (पुं०) मुनिराज, मुनीन्द्र, आचार्य। (समु० ३/३०,
९/२५) योगिहृदयानन्दः (पुं०) मुनिराज के हृदय का आरम्भा
(मुनि० २५) योगी (पुं०) मुनि, तपस्वी, साधक, योग धारक व्रती। योगं यः
परमात्मनाऽभिलषते योगीत्यसौ संमतः। (मुनि० ३३) जो परमात्मा के साथ सम्बन्ध की अभिलाषा रखते हैं वे
योगी हैं। योगीतरः (पुं०) साधक। (हित० ३) तपस्वी। योगीन्द्रः (पुं०) मुनिराज। योगीन्द्रस्य समन्ततोऽपि तु
पुनर्भेदोऽयमेतादृशः। (वीरो० १६/२८) योगीन्द्रपद। मुनिपद
(वीरो० ११/२३) योगीय (अक०) आचरण करना, निग्रह करना। योगीयते _ 'योगीवाचरति योगीव निश्चेष्टतया' (जयो० १८/५३) योगीश्वरः (पुं०) यतिनायक, मुनिराज। (सुद० १२६)
आचार्य।
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योगेष्टं
८७८
यौगिक
योगेष्टं (नपुं०) सीसा, रांगा। योग्य (वि०) [योगमर्हति यत्, यज+ण्यत् वा] उचित, समुचित,
लायक, उपयुक्त। (सुद० १११) ०सक्षम, उपयोगी। सेवा करने योग्य। अर्हन्, समर्थ। (जयो०१० ४/४०)
* शक्य। (जयो०७० २/१६) योग्यः (पुं०) युक्ति, उपाय। योग्यं (नपुं०) यान, वाहन, सवारी। योग्यता (स्त्री०) [योग्य+तन्+टाप्] ०सामर्थ्य, सक्षमता।
अनुरूपता, समीचीनता। (जयो० २/१०१) दानमुज्झतु भवार्णवसेतु योग्यतैव सुकृताय तु हेतुः। (जयो० २/१०१)
०औचित्य, उपयुक्तता। योग्यत्व (वि०) उचितत्व, सामर्थ्यता। (सुद० ७६) योग्यदेशः (पुं०) उचित स्थान, समीचीन प्रदेश। (सुद० १३०)
कृतोऽपि कुर्यान्न मनः प्रवृत्तिमयोग्यदेशे प्रशमैकवृत्तिः। ।
(सुद० १३०) योग्यधनं (नपुं०) उचित धन, समुचित सम्पत्ति। योग्यधारा (स्त्री०) उचित प्रवाह। योग्यपदं (नपुं०) उचित स्थान, अच्छा पद। योग्यफलं (नपुं०) उपयोगी फल। योग्यभावः (पुं०) समुचित भाव। योग्यभेदः (पुं०) उपयुक्त विवरण। योग्ययोगः (पुं०) योग की उपयुक्तता। (वीरो० २२/१३) योग्यवरः (पुं०) श्रेष्ठ दूल्हा। (जयो०७० ३/६६) योग्यसङ्गमः (पुं०) योग्य सम्बन्ध। (जयो० ३/८८) योग्यसमागमः (पुं०) उचित समागम। (जयो० ५/८७) योज (वि०) नियोजित करना, नियुक्त करना। (जयो०० ।
१/९९) योजनं (नपुं०) [युज् भावादौ ल्युट्] ०विधान। (जयो० ८/३८)
जोड़ना, मिलाना, जोतना। प्रयोग, मिलाना, स्थिर करना।
तैयारी, व्यवस्था (जयो० २/३४) लेखन, प्रतिपादन। | 'योजनं हि जिननामतः पुनः स्वोक्तकर्मणि समस्तु वस्तुनः' (जयो० २/३४)
चार कोस की दूरी का माप। 'चतुः कोशात्मकप्रमाण' (जयो० २८/१०) चतुर्गव्यूतं योजनम्। (त०वा० ३/३८) 'अट्ठहिं दण्डसहस्सेहि जोयणं' (धव० १३/३३९)
योजनपृथकत्व (वि०) योजन को आठ से गुणा करना। योत्रं (नपुं०) रज्जू, रस्सी। योधः (पुं०) [युध+अच्] सैनिक, योद्धा, शूरवीर, जाबाज़,
रणबांकुरे। (जयो० ८/८) संग्राम, लड़ाई, युद्ध। योधगर्भः (पुं०) सैनिक धर्म, सैन्य कर्त्तव्य। योधनं (नपुं०) [युध भावे ल्युट्] युद्ध, संग्राम, लड़ाई। योधिन् (पुं०) [युध्+णिनि] योद्धा, सैनिक, बहादुर। योनिः (पुं०/स्त्री०) स्थान, स्थल, जगह। (जयो० १९/४)
गर्भाशय, बच्चादानी। ०जन्मस्थान, मूलस्थान।
आवास, घर, आधार। कुल, गोत्र, वंश। उत्पत्ति-जीव उत्पत्ति स्थान। 'योनयो जीवोत्पत्तिस्थानानि' (मूला० टी० १२/३) 'यूयते भवपरिणत आत्मा यस्मामिति
योनिर्भवाधारः' (मूलान्टी० १२/५८) योपनं (नपुं०) [युप्+ल्युट्] मिटाना, विलुप्त करना, नष्ट
करना।
० उत्पीड़न, अत्याचार, ध्वंस, नाश। योषा (स्त्री०) तरुणी, स्त्री, बालिका। (जयो० १७/१२९) योषाजनः (पुं०) स्त्रीजन। (जयो० १८/७) 'योषाजनस्य
परिवर्तितनाभिदध्ने' (जयो० १८/२७) योषास्यत् (नपुं०) स्त्रीमुख। 'योषाया आस्यतः स्त्रीमुखात्'
(जयो० २/१४४) योषित (वि०) चेष्टित, चेष्टा युक्त। (जयो० २/१३१) योषित् (स्त्री०) स्त्री, नारी। योषिता (स्त्री०) स्त्री, नारी, महिला। 'योषितां तु जघनं
भवेत्तथा ह्यामपात्रमिव तोयतो यथा। (जयो० २/४२) यौक्तिक (वि०) [युक्तित आगतः-] ०उपयुक्त, योग्य, उचित।
तर्कसंगत, समीचीन, तर्क पर केन्द्रित। तयं, अनुमेय।
प्रचलित, प्रथानुकूल। यौक्तिकः (पुं०) राजा का आमोदप्रिय साथी। योगः (पुं०) योग दर्शन का अनुयायी। यौगिक (वि०) [योग+ठक्] उचित, समीचीन, उपयुक्त।
तर्कसंगत। ०प्रचलित, व्युत्पन्न। उपचार परक। योग सम्बंधी।
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यौतक
८७९
रक्तजिह्वः
यौतक (वि०) [युते विवाहकाले अधिगतं वण] किसी एक
व्यक्ति की सम्पत्ति। यौतकं (नपुं०) निजी सम्पत्ति, अपना वैभव।
स्त्रीधना यौतवं (नपुं०) [योतु+अण्] एक माप विशेष। यौध (वि०) लड़ने वाला, संग्राम करने वाला। यौन (वि०) [योनितः योनि सम्बन्धात् वा आगतः अण] सोदर।
वैवाहिक यौनं (नपुं०) विवाह, मिथुन। यौवतं (नपुं०) [युवतीनां समूह-अण्] युवतीनां समूहो योक्तं
तस्मिन् (जयो० १६/५६) तरुणी समुदाय, युवति समूह।
(जयो० १४/६) यौवति (स्त्री०) यौवनं (नपुं०) [यूनो भावः अण] तारुण्य, जवानी, तरुणाई।
(जयो० ३/४३) नव यौवन रूप-यौवनादिमसरिद्भवः (जयो० ४/१९) वयस्कता, सम्पन्नता। क्रमाच्च सा वाल्यमतीत्य 'यौवनमवाप शापादिव पुण्यमात्मनः। (समु० ४/२६) निधानकुम्भाविव यौवनस्य परिप्लवो कामसुधारसस्य।
(सुद० १००) यौवनगत (वि०) युवावस्था को प्राप्त। यौवनपादपः (पुं०) सम्पन्नता युक्त वृक्ष, कोपलादि से समृद्ध
वृक्षा (समु० ६/२३) समृद्ध वृक्ष। ०हरित वृक्षा यौवनवती (स्त्री०) तरुणी, युवा स्त्री, तारुण्ययुक्त स्त्री।
(वीरो०३/३२, जयो० ३/४२) यौवनवयः (पुं०) युवावस्था (वीरो० २२/८) यौवनहानिः (स्त्री०) युवावस्था की क्षति। (दयो० ५४) यौवनारम्भः (पुं०) तरुण अवस्था का प्रारम्भ। (जयो० ३/५५)
यौवनरूप। (जयो०वृ० ११/१०) यौवनारामः (पुं०) तरुणिमोद्यान, तरुण उद्यान, पुष्पों से समृद्ध
बगीचा। (सुद० ८६) (जयो० ११/९८) यौवनाश्वः (पुं०) युवनाश्व का पुत्र मान्धाता। यौवराज्यं (नपुं०) [युजराज+ष्यञ्] युवराज पद, युवराज का
अधिकार। यौष्माक (वि०) तुम्हारा, आपका।
वाचक है। ह्रीकार मध्ये यो रकारः स रक्तवर्णः (जयो०वृ० १९/५१)
कामानल, वह्नि-'रस्तु कामानल वह्रौ' इति विश्वलोचनः। (जयो०१५/५४) 'रकारेण कामानलेन सहितः' (जयो०७० १५/५४) रान्त, सुरा। (जयो०वृ० १६/४९) गर्मी, उष्णता। ०प्रेम, इच्छा, वाञ्छा, कामना।
गति, चाल। रंह (अक०) जल्दी करना, वेग से चलना। रंह् (अक०) ०बहाना, जाना।
०बोलना। रंहतिः (स्त्री०) [रंह+श्तिप्] वेग, गति। रंहस् (पुं०) [रंह+असुन्] गति, वेग।
०आतुरता, प्रचण्डता, उत्कटता, उग्रता।
गृहस्थाश्रामजनिज। (जयो०२४/१४४) रक्त (भू०क०कृ०) [रा करणे क्तः] रंगा हुआ, रागिमा
युक्त, लालिमा सहित, लिप्त, सना हुआ। ०अनुरक्त, अनुराग, सानुराग। प्रेमासक्त, स्निहिल। प्रिय, वल्लभ, सराग। (सम्य० १२३)
सुहावना, आकर्षक, मधुर, सुखद। रक्तः (पुं०) लाल वर्ण, लाल रंग।
०कुसुम्भ। रक्तं (नपुं०) रुधिर, खून। लोहित वर्ण (जयो० १५/२)
०तांबा, केसर। रक्तक (वि०) लाल।
०अनुराग युक्त। रक्तकण्ठ (वि०) मधुर कण्ठ वाला। रक्तकण्ठिन् (वि०) माधुर्यपूर्ण कण्ठ वाला। रक्तकंदः (पुं०) मूंगा, प्रवाल। रक्तकंदलः (पुं०) प्रवाल, मूंगा। रक्तकमलं (नपुं०) लाल कमल, अरविंद। (जयो०वृ० १५/१) रक्तचंदनं (नपुं०) लाल चन्दन।
०केसर। रक्तचूर्णं (नपुं०) सिन्दूर। रक्तछर्दि (स्त्री०) रुधिर युक्त वमन, खून की उल्टी। रक्तजिह्वः (पुं०) सिंह।
र: (पुं०) खर प्रतृयाहार का एक वर्ण, इसका उच्चारण स्थान
मूर्धा है। इसे अन्तस्थ में गिना जाता है। रः (पुं०) रकार। रः (पुं०) [रा+ड] ०आग, अग्नि।
०लाल रंग-हींकार में जो 'र' है वह रक्त लाल रंग का
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रक्ततुण्डः
८८०
रक्षणतातिः
रक्ततुण्डः (पुं०) शुक, तोता।
रक्तशीर्षकः (पुं०) सारस। रक्तदृश् (पुं०) कबूतर।
रक्तसन्ध्यकं (नपुं०) लाल कमल। रक्तधातुः (पुं०) गेरु, हरताल, तांबा।
रक्तसारं (नपुं०) लाल चंदन। रक्तपः (पुं०) पिशाच, भूत प्रेत।
रक्ता (स्त्री०) ०लाख। रक्तपल्लवः (पुं०) अशोक तरु।
___०गुंजा का पौधा। रक्तपा (स्त्री०) प्यासा। (समु० १/१९)
रक्ताक्षः (पुं०) भैंसा। ०जोंक।
०कबूतर। रक्तपातः (पुं०) नरहत्या।
रक्ताक्षिका (पुं०) भैंस। (सुद० ४/२८) रक्तपाद (वि०) रक्त पैरों वाला।
अनुराग युक्त नेत्रवाली। (जयो०वृ० ११/८२) रक्तपादः (पुं०) तोता। ०शुक, कीर।
रक्तांगः (पुं०) खटमल। ०युद्धस्था
मंगलग्रह। ०हस्ति।
रक्ताधिमंथः (पुं०) आंखों की सूजन। रक्तपायिन् (पुं०) खटमल।
रक्तांबरः (पुं०) लाल वस्त्रधारी। रक्तपायिनी (स्त्री०) जोंक।
रक्ताम्बरं (नपुं०) लाल वस्त्र। रक्तपिण्डं (नपुं०) लाल फुसी।
रक्तांबरता (स्त्री०) आकाश की लालिमा। (जयो० १८/५९) रक्तप्रकोपः (पुं०) कोपदेश, क्रोध स्थान। (जयो० १८/२२) 'नानाप्रसक्तिरिति यज्जडेषु तेन रक्ताम्बरत्वमितमर्कमहोदयेन। रक्तप्रभा (स्त्री०) गैरिकाली। (जयो०० १८/६३) गेरुकी (जयो० १८/५९) रक्ताम्बरत्वमाकाशस्यारुणत्वमुत धूलि, लालप्रभा।
चार्कमहाशयेन रक्तांबरत्वं रक्तवस्त्रधारकसम्प्रदायित्वम्। रक्तप्रमेहः (पुं०) मूत्र में रक्त आना।
(जयो०वृ० १८/५९) रक्तप्रमोक्षणं (नपुं०) खून बहाना। (वीरो० १६/३) रक्तार्बुदः (०) रसौली। रक्तभवं (नपुं०) मांस।
रक्ताशोकः (पुं०) लाल फूलों वाला अशोक। रक्तमोचनं (नपुं०) रुधिर आना।
रक्ताशयः (पुं०) रक्त के आधार युक्त। रक्तमृत्तिका (वि०) गैरिक मिट्टी। (वीरो० १६/३)
रक्तिका (पुं०) गुंजा। रक्तयुक्त (वि०) अनुरक्त, ०अनुराग सहित, स्नेहिल। रक्तिमन् (पुं०) राग। (जयोवृ० १६/४०) ललाई। अनुराग, (जयो०वृ० ६/९३)
प्रसन्नता। (जयो० ५/१३) [रक्त इमनिच] रक्तरहित (वि०) अनुराग रहित। (जयो० १६/९३) ०लालिमा | रक्ष (अक०) रक्षा करना, पोषण करना, राज्य करना। रक्षतासि विहीन। ०क्षीण कान्ति वाला।
(समु० ४/२२) रक्षत (४/४१) रक्तवटी (स्त्री०) चेचक।
रक्ष (सक०) बचाना। आपदर्ते धनं रक्षेद्दारान् रक्षेद्धनैरपि रक्तवत् (वि०) अनुरक्त, (जयो० वृ०५/९३) राग सहित। । (दयो० २/४) रक्तवर्गः (पुं०) ०लाख।
रक्षक (वि०) [रक्ष+ण्वुल] रक्षा करने वाला, चौकसी करने ०अनार का वृक्षा
वाला, पालन-पोषण करने वाला। (दयो० १/२१) रक्तवर्णः (पुं०) लाल रंग।
रक्षकः (पुं०) संरक्षक, पालक, अभिभावक। रक्तवर्णम् (नपुं०) स्वर्ण, सोना।
पहरेदार, चौकीदार, संधारक (जयो० ८/१०४) रक्तवर्णा (वि०) दिवानुरागिणी। (जयो० १०/११६) रक्षण (नपुं०) [र+ल्युट्] संधारण, अभिरक्षा, सुरक्षा, बचाव, रक्तवसन (वि०) गेरुए वस्त्र वाला, लाल वस्त्र धारण चौकसी। (जयो० ११/९५) 'कोः पृथिव्या रक्षणे उद्यन्ते' करने वाला।
(जयो० १/४५) रक्तवसनं (नपुं०) लाल वस्त्र। गेरिक वस्त्र।
रक्षणतातिः (स्त्री०) संरक्षण परम्परा, संधारण रीति। रक्तशासनं (नपुं०) सिन्दूर।
(जयो० १३/१०२)
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रक्षस्
८८१
रचनं
रक्षस् (स्त्री०) [रक्ष भावे अ+टाप्] ०सुरक्षा, अभिरक्षा।
०चौकसी, पहरा।
रक्षासूत्र, रक्षाबन्धन। ०भस्म, राख।
०दण्डनायक। रक्षाकरणं (नपुं०) सुरक्षा करना। (वीरो० १४/३७) रक्षागृहं (नपुं०) प्रसूति गृह। रक्षाधिकृतः (पुं०) अधीक्षक, शासक। रक्षापेक्षकः (पुं०) द्वारपाल, पहरेदार। रक्षापात्रः (पुं०) भोजपत्र। रक्षापालः (पुं०) पहरेदार, चौकीदार, रक्षक, द्वारपाल। रक्षाभूषणं (नपुं०) ताबीज। रक्षामणि (स्त्री०) ताबीज। रक्षाहारः (०) ताबीज। रक्षित (वि०) बचाने वाला। रक्ष्य (वि०) रक्षा करने वाला। रक्ष्यरक्षकः (पु०) पिशाच से रक्षा करने वाला।
(जयो०वृ० १५/६३) रघुः (पुं०) [लंघति, ज्ञानसीमान प्राप्नंति-लंघ+कु] एक सूर्यवंशी
नृप, दिलीप, पुत्र, अज का पिता। रघुकुलः (पुं०) सूर्यवंश। रघुनंदनः (पुं०) राम। रघुपतिः (पुं०) राम। रङः (वि०) [रमते तुष्यति-रम-का अधम. नीच।
गरीब, निर्धन। (जयो० २/१३१) अभागा, बेचारा, असह्यय। (जयो० २/१५७) ०दयनीय।
मन्थर। रङ्कः (पुं०) भूखा, व्याकुल। रङ्कः (पुं०) हरिण, कुरंग, कृष्णसार, मृग। रङ्ग (पुं०) [रञ् भावे घञ्] ०वर्ण, लेप, रोगन।
रांगा। (जयो० १५/८१) मण्डप (जयो०१२/७६) रंगमंच, नाट्यशाला, नाट्यगृह, आमोदस्थल। (जयो०; सु० १२८) ०सभा भवन।
सुरत स्थल। (जयो०० ६/६८) रङ्गं (नपुं०) रांगा, टिन। रङ्गकारः (पुं०) चित्रकार।
रङ्गकर्मी (पुं०) चित्रकार, चितेरा। रङ्गजीवकः (पुं०) चित्रकार, रंगवेपक। रङ्गचुरः (पुं०) अभिनेता, नाटक का पात्र। रङ्गजं (नपुं०) सिन्दूर। रतत्त्वं (नपुं०) रात्रिवृत्त। (जयो० १७/११५) रागतत्त्व। रङ्गद्वारं (नपुं०) रंगशाला का द्वार, नाटक की प्रस्तावना,
मंगलगीत। रङ्गधरः (पुं०) चित्रकार। रङ्गधर (वि०) रागधारण करने वाला। 'रङ्ग शरीरगत-रङ्गधरं
चकार' रङ्गप्र (वि०) रूप रंग प्रतिष्ठायुक्त। (वीरो० १७/२८) रङ्गप्रासादः (पुं०) उच्च भवन, सौधा (जयो०वृ० ११/४९)
(सुद० १३६) रङ्गभू (स्त्री०) नाट्यगृह, नाटकघर, रंगभूमि, रंगमंच। (सुद० ४/९) रङ्गभूमिः (स्त्री०) रंगमंच, नाट्यशाला, अभिनय केन्द्र। (दयो०८)
(जयो० ५/६०)
०रणक्षेत्र, रणस्थला रङ्गमण्डपः (पुं०) रंगशाला, नाट्यशाला। रङ्गमातृ (स्त्री०) महावर।
कुटनी, दूती। रङ्गय (सक०) आलिंगन करना, सजाना। (जयो० १४/८९) रङ्गवाटः (पुं०) अखाड़ा, रंगमंच। रङ्गशाला (स्त्री०) रंगमंच। कला मंडप। रङ्गस्थलं (नपुं०) सुरतस्थल, प्रेम स्थान। (जयो०वृ० ६/६८)
रंगमंच, रंगशाला, रंगभूमि। (सुद० १२२) 'नमस्तु
रङ्गस्थलम्' (समु० ८/३) रङ्गिणी (स्त्री०) मनोरञ्जिका। (जयो०वृ० ९/६७) रच् (सक०) सुसज्जित करना, विभूषित करना, व्यवस्थित
करना।
बनाना, निर्माण करना। (रचित (जयो० ५/२३) रचयितुं-सम्पादयितुम् (जयो०वृ० ५/२३) ०सम्पादन करना, ग्रहण करना। लिखना, रचना करना।
अलंकृत करना, सजाना।
रखना, स्थिर करना। रचनं (नपुं०) विन्यास, तैयारी।
०सन्निवेश, सर्जन करना, उत्पन्न करना। ०सम्पन्नता, पूर्ति, निष्पत्ति। सृजन, निर्माण, संरचना।
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रचना
८८२
रञ्जनव्रती
रचना (स्त्री०) [रच्+युच स्त्रियां टाप्] सृजन, निर्माण, संरचना, ०हृदय। कृति।
०आत्मा। सन्निवेश। (जयो०वृ० १/११)
रजः समूहः (पुं०) धूलि का ढेर। (वीरो० १६/५) सम्पन्नता, पूर्ति, निष्पत्ति।
रजस्पुत्रः (पुं०) लोलुपता, लालच। उत्पन्न करना, बनाना।
रजस्बंध: (पुं०) रजोधर्म बन्द होना। रचनापाटवः (पुं०) सृजन कला, संरचना विशेषता। | रजस्वल (वि०) [रजस्+वलच] मैला, ०धूल से भरा हुआ, (जयो० १११)
धूल धूसरित। रचनानुरक्त (वि०) मनोनुरक्त, प्रसन्न। (जयो०वृ० १६/६४)
रजस्वला (स्त्री०) रेणुबहुला, धूलि की प्रमुखता। (जयो० रचित (वि०) सन्निवेशित, (सम्य० १५६) सृजित। १३/९२) (जयो० ११/१०) ०अभिनिर्मित, संरचित।
०मासिकधर्मवती, मासिकधर्मयुक्ता, रजोधर्मयुक्ता। रजकः (पुं०) धोबी।
(जयो० ८/१०) (जयो०१० २१/९) (दयो० २/६) रजका (स्त्री०) धोबन, धोबिन। (सुद० ४/२८)
रजांसि (वि०) धूलिकण युक्त, पराग परिपूर्ण। (जयो० १/५३) रजकी (स्त्री०) ०धोबिन, ०धोबी की भार्या।
रजोगुणकः (पुं०) रजधोना।
धोबी। (जयो० २५/५२) रजत (वि०) उज्ज्वल, सफेद रंग का, धवलता युक्त। दुर्वण। (जयो० ३/७)
रज्जुः (स्त्री०) रस्सी, डोरी, धागा, सूत। रजतं (नपुं०) चांदी।
रज्जुगुणं (नपुं०) ०सूत्र, रस्सी, धागा। (जयो० १२/१३)
(सम्य०७३) ०माला।
रज्जूवत् (वि०) रस्सी की तरह। यथावलं बुद्धिरुदेतिजन्तोरज्जू रुधिर।
वदस्योद्वलितुं समन्तोः। (सम्य०७३) ०हाथी दांत।
रंज् (अक०) चमकना, रंगना, लाल होना। ०तारा समूह।
०मुग्ध होना, प्रेमासक्त होना। रजताचलः (पुं०) रजतपर्वत। (वीरो० ११/२५)
प्रसन्न होना, संतुष्ट होना। रजनि (स्त्री०) रात्रि, रात। (सुद०९९) चमकाने वाली, पीली।
सुशोभित होना। (जयो० ३/१०९) (दयो० १/१७)
रञ्जकः (पुं०) [रंजयति-रंज्+णिच-ण्वुल] चित्रकार, रंगरेज। रजनी (स्त्री०) निशा, शशिता, तमस्विनी।
उत्तेजक, उद्दीपक, रोचक। (जयोवृ० १२/१२८) रजनीकरः (पुं०) चन्द्र, शशि।
रञ्जक (वि०) रंज करने वाला, शोक करने वाला। रजनीचरः (पुं०) पिशाच, बेताल।
रञ्जकं (वि०) लाल चन्दन। रजनीजलं (नपुं०) ओस, बेताल।
सिन्दूर। रजनीजनं (नपुं०) ओस, हिमकण, धुंध।
रञ्जनः (पुं०) रंगरेज। (समु० ९/१८) रजनीपतिः (पुं०) चन्द्र, शशि।
रञ्जनं (नपुं०) [रज्यतेऽनेन रञ्ज करणे ल्युट्] रंग करना, रजनीप्रबन्धः (पुं०) निशासत्त्व। (जयो० १८/३)
हल्का करना, लेप करना, रगना। रजनीमुखं (नपुं०) सन्ध्या, प्रदोष। (जयो० १५/८)
०वर्ण, रंग। रजनीशः (पुं०) चन्द्र। हिमांशु, निशाशु।
०प्रसन्न, खुश, संतुष्ट, तृप्त। रजनीशकला (स्त्री०) चन्द्रकिरण। (जयो० ५/६७)
रञ्जनकृत् (वि०) रंजन करने वाला, मनोरंजन करने वाला। रजस् (पुं०) [रञ्ज+असुन्] धूली, रज, रेणु, गर्द। (समु० जनकसुतादिकवृत्तवचस्तु जनरञ्जनकृत्केवलमस्तु। (सुद० ३/१६) (सुद० १२५)
८८) ०अन्धकार, तमस्।
रञ्जनव्रती (वि०) प्रसन्न करने वाला, खुश करने वाला। न गुण विशेष।
क्षलमेत्यपि समरी यावज्जन रञ्जनव्रती समरीन। रजसानु (पुं०) मेघ, बादल।
(जयो०६/९३)
स०
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रञ्जनार्थ
८८३
रततालिन्
रञ्जनार्थ (वि०) रागार्थ। (जयो०वृ० १२/१३५) सुतृप्ति के रणमुखं (नपुं०) युद्ध का अग्रभाग। लिए। प्रसन्नतार्थ।
रणमूर्धन् (पुं०) लड़ाई का मुख्य क्षेत्र, सेना का मूलस्थान। रञ्जनी (स्त्री०) [रञ्जन्+ङीप्] नील, का पौधा।
रणरंकः (पुं०) हस्ति दंत के मध्य की दूरी। ०मदिरा रोचनी।
रणरंगः (पुं०) मच्छर। रञ्जित (वि०) सुशोभित। (जयो० ३/१०७)
रणरणकः (पुं०) चिन्ता, बेचैनी, खेद, व्याकुलता। रञ्जनी नीलिका शुण्डा मञ्जिष्ठा रोप नीष्वपि इति विश्लो। रणरेणु (स्त्री०) संग्राम रजा (जयो० ६/३८) (जयो० १६/७६)
रणवाद्यं (नपुं०) युद्ध विगुल। रज्यमान (वि०) राज्य करने वाला। (सुद० ४/८)
रणशिक्षा (स्त्री०) युद्ध की शिक्षा, सैन्यविज्ञान का अभ्यास। रट् (वि०) रटना, चिल्लाना।
रणसंकुलं (नपुं०) घोर युद्ध, घमासान युद्ध। दहाड़ना, चीखना, चीत्कार करना।
रणसज्जा (स्त्री०) युद्ध सामग्री। ०क्रन्दन करना।
रणसहायः (पुं०) युद्ध का सहभागी। उद्घोषणा करना, पुकारना।
रणसिद्धि-शिङ्गः (पुं०) रणसिद्धि में उन्मत्त। (जयो०८/१५) उच्चारण करना-पुनः पुनरुच्चारण। (जयो० २३/६१) रणस्तम्भः (पुं०) विजय स्तम्भ, विजयस्मारक। रटनं (नपुं०) [रट्+ल्युट्] चिल्लाना, उच्चारण करना, चीत्कार रणस्थलं (नपुं०) युद्ध क्षेत्र। ०संग्रामस्थल। करना।
रणस्थली (स्त्री०) युद्ध भूमि। (जयो० ११/२७) घोघकना, स्मरण करना।
रणाङ्गणं (नपुं०) युद्ध स्थल। (जयो० ८/१०) रटनकारक (वि०) रट लगाने वाला। (दयो०३४)
रणाग्रं (नपुं०) युद्ध स्थान का अग्रभाग। रण (अक०) ध्वनि करना, झुनझुनाना, टनटनाना, शब्द करना। रणातोद्यं (नपुं०) युद्धवाद्य, संग्राम विगुल। रणः (पुं०) [रण+अप्] युद्ध, संग्राम, लड़ाई।
रणापेत (वि०) भगोड़ा, युद्ध से भागने वाला। ०शब्द, शोर, कोलाहल।
रणारम्भपरा (वि०) युद्धारम्भार्थ सन्नद्ध। प्रतियोगिता। (जयो० ११/९६) मृक्षणं म्रदिमलक्षणे रणे रणिज् (वि०) खनखनाहट। (जयो० ८/५३) काद्रवेयमपि वक्रिमक्षणे। (जयो० ९१/९६) भूमिकोण-रणः रणेच्छु (वि०) युद्ध की इच्छा करने वाला। (जयो० ७/५१) कोणे क्वणे युद्ध।' इति विश्वलोचनः' (जयो०७० २३/४०) रणोत्थशर्म (वि०) युद्धजनित सुख, युद्ध करने वाले का (१६/३०)
जोश। (जयो० ८/१३) ०कलह, ईर्ष्या। (जयोवृ० १६/३०)
रणोत्सुक (वि०) युद्धाभिलाषी। (जयो० ३/१००) रणकी (वि०) कलह करने वाली। (जयो०वृ० १/७) रंडः (पुं०) बंजर। रणक्षितिः (स्त्री०) युद्धस्थल। रणस्थल, संग्राम भू-भाग। रत (भू०क००) [रम्+क्त] निमग्न। (जयो० ३/३) रणक्षेत्रं (नपुं०) युद्धभूमि।
०लीन, तल्लीन, प्रवृत्ति (जयो०वृ० १२/११५) रणतुलं (नपुं०) युद्धघोष, संग्राम बिगुल। (वीरो० ४/६३) तत्पर। (जयो० २/४८) (जयो०१/४०) रणतूर्यं (नपुं०) युद्ध दुन्दुभि, युद्ध घोष।
०खुश, प्रसन्न, तृप्त। (सुद० ८८) रणत्कारः (पुं०) रण रण के शब्द।
निरत। (सुद० १३५) रणदुंदुभिः (स्त्री०) युद्ध घोष, युद्ध विगुल।
०व्यस्त, संलग्न ।(जयो०वृ० १/२२) रणधुरा (वि०) युद्ध में अग्रणी।
चिरपरिचित। (जयो० २३/६८) रणन्नूपुरः (पुं०) रण रण झुनझुन करने वाले नूपुर। ये ये | रतं (नपुं०) संभोग, मिथुन, रतिक्रीड़ा। सहेत विद्वानपदे कुतो
रणन्नूपुरसाररासा यूनां तु चेतः पततां सुभासाः। रतम् (जयो० २/१४०) (वीरो० ९/३८)
रतकूजि (नपुं०) कामासक्त की सीत्कार। रणभूमिः (स्त्री०) आजि, रणक्षेत्र, युद्ध स्थान। (जयो०वृ०६/८०) रतज्वरः (पुं०) काक, कौवा। रणमत्तः (पुं०) हस्ति, हाथी।
रततालिन् (पुं०) कामासक्त, स्वेच्छाचारी।
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रतनारीचः
८८४
रत्नत्रयसंसूचक
रतनारीचः (पुं०) कामदेव, मदन।
०श्वान, कुत्ता। रतबन्धः (पुं०) मैथुन, संभोग। रतहिंडकः (पुं०) बलात्कारी, कामुक, विलासी। रता (स्त्री०) रतिक्रीड़ा, कामक्रीड़ा। अनुरक्ति। रताङ्गी (स्त्री०) कोमलाङ्गी। लतावत्सुकोमलशरीरा। (जयो०
११/९४) रतिः (स्त्री०) [रम्+क्तिन्] ०आनंद, हर्ष, खुशी, संतोष।
मैथुन, संभोग, सहवास, रतिक्रीड़ा, सुरत। प्रेम, स्नेह। रति-कामदेव स्त्री, रतिदेवी। (सुद०१/४१) कुचौ स्वकीयो विवृतो तयाऽत: रतेरिवाक्रीडधरो स्म भातः।। (सुद० १००) 'अनङ्गस्य स्त्री रति' (जयो० ३/८८) शर्मपात्री रतिः।
(जयो०७० ३/८७) रतिकर (वि०) प्रीतिकर, राग सम्पादक। (जयो०वृ० ३/१२) रतिका (स्त्री०) लतिका कामलता। रतिकेतनं (नपुं०) रतिगृह। (मुनि० २, जयो० २२/४६)
कामकेलि स्थल, सुरत-रति मंडल। रति कौतुक (वि०) नाम की उत्सुकता। रतिकौतुकः (पुं०) रति और कामदेव। (सुद० २/२६) रतिगृहं (नपुं०) क्रीड़ागृह, रतिक्रीड़ा भवन। रतितस्करः (पुं०) व्यभिचारी पुरुष, कामासक्त। रतितुलित (वि०) रतितुल्य रूप। (जयो० ६/१६) रतिदूती (स्त्री०) प्रेम संदेशिनी। रतिनाथः (पुं०) महादेव।
____०कामदेव। (जयो० ५/२४) रतिपतिः (पुं०) कामदेव। (जयो०वृ० १/७८) (जयो०वृ०
३/२१) स्मर (जयो०वृ० ३/४९) 'ईदृशे युवगणेऽथ विदग्ध
का क्षति रतिपतावपि दग्धे। (जयो० ६/२५) रतिप्रतिमा (स्त्री०) काममूर्ति। (जयो० ६/७३) ०रतिबिम्ब। रतिप्रभः (पुं०) रतिप्रभ नामक सर्प, नागराज। (जयो०वृ०
२/१५८) रतिप्रियः (पुं०) कामदेव। रतिरमणः (पुं०) कामदेव। रतिरसप्रसरः (पुं०) रतिक्रीड़ा समूह। (जयो० १८/२५) रतिराड् (पुं०) कामदेव, स्मर। (जयो० २/१५७) 'रतिराट्
चापाल्लालितगात्रः' (जयो० २/१५७) रतिरासः (पुं०) सुरतक्रीड़ा। (जयो० १८/१०)
रतिलपट (वि०) कामासक्त, कामी, विनाशी। रतिवरः (पुं०) रतिवर नामक कबूतर। रतिवरः कपोतः। (जयो०
२३/४५) रतिषेणा (स्त्री०) रतिषेणा नामक कपोति, कबतरी। (जयो०
२३/४५) रतीन्द्रः (पुं०) कामदेव। (जयो० ६/५०) रतीन्द्रवरः (पुं०) रतिवर। ०कामदेव, मदन। रतीशः (पुं०) कामदेव, स्मर। (जयो० १/६१) (जयो० १६/४७) रतीशकेतुः (स्त्री०) कामदेव की पताका। (सुद० १०१) रतीशमतिः (स्त्री०) कामदेव की बुद्धि। 'रतीशस्य कामदेवस्य ____ मतिरिव' (जयो० ६/७३) रतीशयज्ञः (पुं०) कामयज्ञ। (जयो०२३/६) रतीशशासनप्रवर्तक (वि०) स्मरादेशकर। (जयो०वृ० १६/४७) रतीश्वरः (पुं०) कामदेव, स्मर। (जयो० १६/५) राजाधि
राजस्य रतीश्वरस्य रतिर्यथाप्रीतिकरीह तस्य। (समु० ६/११) रत्नं (नपुं०) [रमतेऽत्र, रम्+न तान्तादेश:] मणि, मुक्ता,
आभूषण।
मूल्यवान् पदार्थ, श्रेष्ठतम वस्तु। जिनोक्ततत्त्वाध्ययने प्रयत्नं कुर्याद्यदिष्टप्रविधायि रत्नम्। (सम्य० ७२) ०अत्यधिक प्रिय। भोग उत्तमतमो भुवि दारास्तेष रत्नमियमेव
ससारा। (जयो० ५/१६) रत्नकंदलः (पुं०) मूंगा। रत्नखचित (वि०) रत्नजटित। (जयो० १५/८१) रत्नगर्भः (पुं०) रत्नाकर, समुद्र। रत्नगुलिका (स्त्री०) रत्नपोटली, रत्नपिटक। (समु० ३/४३) रत्नजूटः (पुं०) रत्नसमूह। (वीरो० २/१८) रत्नत्रयं (नपुं०) तीन रत्न। (भक्ति० २९) दर्शन, ज्ञान और
चारित्र। (सम्य० ३०) ०खनिज। (हीरा पन्ना) जलज। (सीप-मोती)
प्राणिज। (गजमुक्ता ) (सुद०पृ० ४३) रत्नत्रयमार्गी (वि०) मोक्षमार्गी, मोक्षमार्ग के सम्यग्दर्शन,
सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का अनुसरण करने वाला। रत्नत्रयसंसूचक (वि०) मोक्षमार्ग के तीन गुणों का सूचक।
(जयो० ६/१३०) यत्पादयोः पतित्वाऽन्यभूपकरकुड्मलं व्रजति बाले। रत्नत्रयसंसूचकचित्रिकरुचिमवनितल भाले।। (जयो० ६/३०)
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रत्नत्रयाराधनकारिन्
रथस्थिति.
रलत्रयाराधनकारिन् (वि०) तीन महारत्नों के धारण करने
वाले। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की आराधना करने वाले। रत्नत्रयाराधनकारिणा वा प्रस्पष्ट
मुक्तोचितवृत्तभावा। (सुद० २/३०) रत्नदीपः (पुं०) रत्नजटित दीपक।। रत्नप्रदीपः (पुं०) प्रदीप्त दीपक, प्रज्वलित दीपक। रत्नद्वीपः (पुं०) एक समुद्री द्वीप। (समु० ३/१७) रत्ननिकरः (पुं०) वसुमार, रत्नसमूह। (जयो०वृ० १२/६६) । रत्नपरीक्षकः (पुं०) मणिकार, जौहरी। (जयो० ७/८) रलभूपः (पुं०) प्रमुख राजा। (सुद० २/३९) रलमाला (स्त्री०) तिलकनगर के राजा अतिवेग की रानी
प्रियकारिणी की पुत्री। (समु०६/२५) रत्नमुख्यं (नपुं०) हीरा। रत्नराशिः (स्त्री०) रत्नसमूह। सुगुणैरमलैर्गुणितो रत्नैरिव
रत्नराशिरिह रम्यः।। (वीरो० ४/५५) रत्नवृष्टिः (स्त्री०) रत्नवर्षा (दयो०९) रत्नसमर्पक (वि०) रत्न प्रदाता। (जयो० १२/५४) रत्नसानु (पुं०) मेरुपर्वत। रत्नसू (स्त्री०) पृथ्वी, धरा, भू, भूमि। रलसूति (स्त्री०) भू, भूमि, ०धरणी, धरत्री। रत्नाकारः (पुं०) समुद्र। रत्नाकरः (पुं०) ०रत्नों की खान। ०समुद्र। रत्नाञ्चित (वि०) रत्नखचित। रलान्वेषणकारि (वि०) रत्नत्रय का अनुसंधान करने वाला।
(मुनि० ८) रत्नायुधः (पुं०) नाम विशेष, वज्रायुध कुमार की भार्या
रत्नमाला का पुत्र। (समु० ६/२९) रत्नालोकः (पुं०) मणि कान्ति। रत्नावली (स्त्री०) रत्नसमूह। रत्नांशकः (पुं०) रत्ननिर्मित। रत्नों से बना। (वीरो० १९/५) रलिः (स्त्री०) कोहनी। २४ अंगुल का एक हाथ। रत्नोचितद्वीपः (पुं०) रत्नद्वीप। व्यापारकार्यार्थमचिन्त्य धाम,
रत्नोचित द्वीप मतो व्रजाम:। (समु० १/३२) रत्यादयिणी (वि०) रति की तरह आदर वाली। (जयो०
१७/३५) रथः (पुं०) यान, वाहन, गाड़ी। (दयो० २८)
गमनचिह्न, गति। (जयो०६/२८) वेग, गति। (जयो० ६/९८)
वेतस्। (जयो० १३/७४) 'रथस्तु स्यन्दने कार्य वेतसे चरणेऽपि चेति' विश्वलोचन: (जयो०वृ० १३/७४) ०अवयव, भाग, अंश, हिस्सा।
नायक। ०चरण।
स्यन्दन! (जयो०वृ०१३/७४) रथकट्या (स्त्री०) रथ समूह। रथकारः (नपुं०) बढ़ई, सुधार। रथकुटुम्बिन् (पुं०) सारथि, वाहक। रथकूबरः (पुं०) गाड़ी की शहतीरी। रथकूबरं (नपुं०) देखो ऊपर। रथकेतुः (नपुं०) रथ की ध्वजा। रथक्षोभः (पुं०) रथ का हिलना, हिचकोले लेना। रथगर्भकः (पुं०) पालकी, डोली। रथगुप्तिः (स्त्री०) रथ का रक्षा कवच। रथचरणः (पुं०) पहिया, चक्र। रथचर्या (स्त्री०) रथ का संचरण, रथ का घूमना। रथधुर् (स्त्री०) रथ की धुरी। रथधुरी (स्त्री०) यानधुरी। (जयो० ६/१२)
०वाहक। (जयो०६/१२) रथनाभिः (स्त्री०) रथधुरी। रथनीडः (पुं०) रथ का भीतरी भाग। रथबन्धः (पुं०) रथ का साज-समान। रथमण्डलं (नपुं०) रथ समूह। (जयो० १३/३५) 'रथानां
मण्डलं समूहः।' रथमण्डलनिस्वनः (पुं०) रथ समूह की ध्वनि। रथानां मण्डलं
समूहस्तस्य निस्वनैश्चीत्कारैः' (जयो० १३/३५) रथमहोत्सवः (पुं०) रथोत्सव। रथयात्रा। रथयात्रा (स्त्री०) रथोत्सव। रथयुद्धं (नपुं०) रथ में बैठे हुए युद्ध करना। रथरेणु (स्त्री०) आठ त्रसरेणु का एक रथरेणु। रथवर्मन् (नपुं०) राजमार्ग; मुख्यपथ। रथवाहकः (पुं०) सारथि, चालक। (दयो० ७९) रथवीथिः (स्त्री०) राजमार्ग। रथशक्तिः (स्त्री०) यान शक्ति। रथशाला (स्त्री०) गाड़ीघर, यानशाला। रथस्थलं (नपुं०) यानस्थान। (जयो०१० १/१८) रथस्थितिः (स्त्री०) यान की स्थिति, वाहन की स्थिति।
(जयो० २१/२०)
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रथाक्षः
८८६
रमणीक
रथाक्षः (पुं०) रथ की धुरी।
०बलहीन स्थल। रथाग्रणी (पुं०) सारथि, वाहक। (जयो० १३/५)
त्रुटि, दोष, कमी। रथाङ्गं (नपुं०) रथचक्र, रथ का पहिया। (जयो० ८/५८, दयो० रन्ध्रवधु (स्त्री०) मूषक, चूहा। १/१९)
रन्ध्रवंशः (पुं०) पोला बांस। रथाङ्गिन् (वि०) चक्री युक्त, चक्रवर्ती, चक्रधारी। (जयो० रभ् (सक०) प्रारंभ करना शुरू करना, वर्णन, करना।
९/५६) रथाङ्गिनं बाहुबलिः स एकः जिगाय पश्चात्त (जयो० ८/७४) (जयो० ६/१०२) सांश्रिये कः। (वीरो० १८/३)
रभस् (नपुं०) [नभ्+असुन्] ०प्रचण्डता, उत्साह। रथानिवद्ध (वि०) चक्री युक्त। (वीरो० १३/६)
०बल, सामर्थ्य। रथिक (वि०) रथ की सवारी करने वाला।
रभस (वि०) [रभ्+असच्] ०वेग, गति, प्रवाह। (जयो० रथिन् (वि०) [रथ-इनि] रथ में सवारी करने वाला। रथेन २६/५०) ___गमनशीला रथगामी। (जयो० १३/१२)
प्रबल, गहन, उत्कट, शक्तिशाली, तीक्ष्ण, तीव्र। रथिन् (पुं०) रथ का नायक, रथ का स्वामी।
प्रचण्डता, भीषणता, उग्रता। रथारुढ। (जयो० )
साहसिकता। रथ्यः (पुं०) [रथं वहति-यत्] रथाश्व. रथ का घोड़ा।
क्रोध, आवेश। रथ्या (स्त्री०) मार्ग, राजपथ। रथ्या रजांसीह किरन-समीर- ०खेद, शोक, खिन्नता। उन्मत्तकल्पो भ्रमतीत्यधीरः। (वीरो० १२/२२)
०हर्ष, आनन्द, खुशी। रद् (सक०) खुरचना, साफ करना।
रभसात् (अव्य०) शीघ्रमेव। (जयो० २६/३०) ___०फाड़ना, विदीर्ण करना।
रभसोदयी (वि०) अतिशीघ्र। रदः (पुं०) दांत, खुरचना, दन्त। (जयो०५/८८)
रम् (अक०) खुश होना, प्रसन्न होना। (वीरो० ८/१७) रदखण्डनं (नपुं०) दांत से काटना।
०खेलना, क्रीड़ा करना। रदचक्र (नपुं०) दंतमण्डल। (जयो०वृ० १३/३६)
०रहना, ठहरना। रदछदः (पुं०) ओष्ठ, होंठ।
रम् (सक०) सन्तुष्ट करना, प्रसन्न करना। रदनः (पुं०) [रद्+ल्युट्] दांत, दन्त।
रम (वि०) [रम्+अच्] सुहावना, आनन्दप्रद, संतोष जनक। रदनखण्डित (वि०) दन्त खण्डित, दांत से टूटने वाला। रमः (पुं०) प्रेम, प्रीति, स्नेह, कामदेव, पति। __ (जयो० ७/९६)
रमण (वि०) सुहावना, प्रिय, मनोहर। रदरोचिषा (स्त्री०) दन्तप्रभा, दांतों की चमक। 'रदानां दन्तानां रमणः (पुं०) कान्त, प्रेमी, पति। (जयो० २/१४८) रोचिषा किरणेन दन्तकान्तिः' (जयो० १७/१२९)
०कामदेव, मदन, स्मर। रदवासस् (पुं०) अधर, ओष्ठ। (जयो० १२/७८, ११/९९) गधा। रदालिः (स्त्री०) दंत पंक्ति। (वीरो० ५/२०)
अण्डकोष। रदांशपुष्पाञ्जलिः (स्त्री०) दन्तकिरण का समर्पण। (सुद० । रमणं (नपुं०) क्रीड़ा करना, प्रेमालिंगन। २/१२)
रति, मैथुन। रदांशु (नपुं०) दन्तप्रभा।
हर्ष, उल्लास। रध (सक०) चोट पहुंचाना, मार डालना, नष्ट करना।
०कूल्हा, पुट्ठा। ०संताप देना, कष्ट देना।
रमणा (स्त्री०) [रमण+टाप्] सुंदर स्त्री। रन्तु (स्त्री०) [रम्+तुन्] रास्ता, मार्ग।
रमणी (स्त्री०) कामिनी। (जयो० ३/३६) ०नदी।
०कान्ता, प्रिया, तरुणी। (जयोवृ० ६/३५) रन्धनं (नपुं०) [रध्+ल्युट] क्षति पहुंचाना, सन्ताप देना। रमणीक (वि०) सुंदर, मनोहर। 'रमण्या इमं रमणीकमधरं' रन्धं (नपुं०) विवर, छिद्र, छेद, गर्त, गड्ढा , खाई, दरार। (जयो० १७/११८)
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रमणीधाम
८८७
रविप्रभः
रमणीधामं (नपुं०) तरुणी तेज, कान्तास्थान। (जयो० १०/११९) | रम्यफलं (नपुं०) अच्छे फल। रमणीमणि (स्त्री०) स्त्रीरत्न। (जयो० ३/६४)
रम्यभावः (पुं०) मनोहर परिणाम। रमन्ते (वर्त०) रमण करते हैं।
रम्यशाला (स्त्री०) सुंदर क्रीड़ा स्थल। रममाण (रम्+शानच्) क्रीड़ा करने वाले। कालक्षेपं चकारासौ रय् (सक०) जाना, पहुंचना। रममाणो निजेच्छया। (वीरो० ८/१३)
रयः (पुं०) नदी प्रवाह। रमा (स्त्री०) [रमयति-रम्+अच+टाप्] ०पत्नी, स्त्री, स्वामिनी। ०बल, सैन्य। लक्ष्मी। (दयो० २७) (सुद० ३/३८) ।
गति, वेग। (जयो० ६/१०६) (जयो० ६/२२) शोभा, कान्ति, प्रभा, आभा। (जयो० ११/५९)
रय। वर्णन, विवेचन (जयो० ४/६५) कौशरस्य समुपेत्य ०धन-सम्पत्ति।
शुचित्वं शारदोदयरयेऽस्तु कवित्वम्। रमाकान्तः (पुं०) विष्णु।
उत्साह, उत्कण्ठा। रमानाथः (पुं०) विष्णु।
रयात् (अव्य०) शीघ्रमेव। (जयो० ९/६२) रमारती (वि०) अर्थ काम पुरुषार्थी। 'रमा च रतिश्च रमारती रल्लकः (पुं०) [रमणं रत्-इच्छा तां लाति ला+क-रल्ल+कन्] ____ अर्थकामपुरुषार्थों' (जयो० २/१०) ।
कम्बक, ऊनी वस्त्र। रमासमाजः (पुं०) स्त्री समूह। (जयो० १/६३)
रवः (पुं०) (रु+अप्) क्रन्दन, चीख, चीत्कार, चिंघाड़। रमितुं (रम्+तुमुन्) रमण करने के लिए। (सुद० ११३)
०शब्द, कोलाहल, झनझनाहट। रम्भा (स्त्री०) कदली, केला। (सुद० ७२) (सुद० ७१) घंटा, भूषण, चाप।
(जयो० १०/९३, १२/२५) 'जितापि रम्भा विधुजन्मदात्री' रवण (वि०) क्रन्दन करने वाला, चिंघाड़ने वाला। (जयो० ५/८१)
ध्वन्यात्मक, शब्दायमान। स्वर्ग अप्सरा।
तीक्ष्ण, तप्त। रम्भाजिता (वि०) रम्भा नामक अप्सरा को जीतने वाली। चंचल, अस्थिर।
'तरुणी रम्भा तरुणवयस्का रम्भा नाम स्वर्वेश्यापि जिता रवण: (पुं०) ऊंट। पराजिता' (जयो०वृ० ११/२१)
रवणं (नपुं०) पीतल, कांसा। रम्भातरु (पुं०) कदलीवृक्ष। (जयो० ११/२१)
रविः (पुं०) [रु+इ] सूर्य, दिनकर, भानु। (सुद० ३/१) रम्भाव्यञ्जनं (नपुं०) कदली शाक। (जयो० १२/३०)
* अर्क (जयो० ४/२५) 'सुमहोऽभिकलितलोको रविरिव रम्य (वि०) [रम्यतेऽत्र यत्] सुखद, रमणीय, लुहावना। वा केवलालोकः' (वीरो० ४/४२) आनन्दप्रद। (सुद० ८७)
अर्ककीर्ति राजा, रविकीर्ति राजा। (जयो० ४/२५) सुन्दर, प्रिय, मनोहर।
रविकरः (पुं०) सूर्यकिरण। (जयो० ५/२२) रम्यः (पुं०) चम्पक वृक्ष।
रविकलः (पुं०) सूर्यकिरण, भानुकला। (सुद०) रम्यकः (पुं०) जम्बूद्वीप स्थित चौथा क्षेत्र।
रविकान्तः (पुं०) सूर्यकान्तमणि। रम्यगत (वि०) रमणीयता को प्राप्त।
रविकीर्ति (पुं०) अर्ककीर्ति राजा, अकंपन देश का राजा। रम्यजातिः (स्त्री०) सुंदर उत्पत्ति।
रविजः (पुं०) शनिग्रह। रम्यतरु (पुं०) लुहावने वृक्ष।
रवितनयः (पुं०) शनिग्रह। रम्यदर्शन (नपुं०) सुदर्शनी, देखने में अत्यन्त प्रिय। (जयो० रविदिनं (नपुं०) रविवार। १३/६६)
रविधामं (नपुं०) सूर्य का स्थान। रम्यधारा (स्त्री०) सुरम्य प्रवाह।
रविपुत्रः (पुं०) शनिग्रह। रम्यनारी (स्त्री०) सुंदर स्त्री।
रविप्रसादः (पुं०) सूर्य रूपी दीपक। (सुद० ११७) रम्यपद (नपुं०) उचित स्थान।
रविप्रभः (पुं०) एक देव, सौधर्म सभा का एक देव। (जयो० रम्यपादपः (पुं०) सुंदर वृक्षावली।
२४/१०१)
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रविप्रभव्योमयानं
८८८
रसपरित्यागः
रविप्रभव्योमयानं (नपुं०) रविप्रभविमान। (समु० ४/३६) रविभासः (पु०) सूर्यप्रभा, सूर्यकान्त। (समु० ५/१०) रविरीतिः (पुं०) अर्ककीर्ति राजा। (जयो० ४/५) रविवारः (पुं०) रविवार, आदित्यवार। रविवासरः (पुं०) देखो ऊपर। सूर्यवार। रविसंक्रान्तिः (स्त्री०) सूर्य की एक राशि। रशना (स्त्री०) रस्सी, डोरी, धागा।
०रास, लगाम।
कटिबंध, कंदौरा, कमरबंध करधौनी, करधानी। रश्मिः (स्त्री०) डोर, डोरी, रस्सी।
लगाम, रास। किरण, चन्द्रकला, प्रकाश, आभा।
०कान्ति, प्रभा। रश्मिवेशः (पुं०) राजा सूर्यावर्त का पुत्र, यशोधरा रानी का ___ नंदन। (समु० ५/२३) रस् (सक०) भोजन करना, चखना, स्वाद लेना, खाना।
'रसति-भोजनं भुञ्जाने' (वीरो० ४/२४) ०देखना, अवलोकन करना। रसति-पश्यति, प्रेम्णावलोकयति
(जयो० १०/११९) रसः (पुं०) सार। फलों का रस। (सुद० ४/३९)
०शृंगार। (जयो० ३/४०) (जयो० १/४)
प्रसाद, जल, वारि, नीर। (जयो० ११/३३) ०तरल द्रव्य, तरल पदार्थ, द्रव, बहाव। (जयो०वृ० १ २/७) मदिरा। 'रसं रसित्वा भ्रमतो वसित्वा' (वीरो० ४/२४) रसायन। (वीरो०१/११) गन्धरस। (जयो० १२/७) ०पंच रस। खट्टा, मीठ, कडुवा, चरपरा और कसौला। स्नेह, प्रेम।
आनंद, प्रसन्नता, खुशी। ०लावण्य, अभिरुचि, सौंदर्य। ०धातु। (जयो०वृ० १२/७) (जयो०वृ० १२/७)
शरीर। (जयोवृ० १२/७) विष। (जयो०वृ० १२/७) काव्य के नव रस।
स्वादिष्ट पदार्थ। रसकः (पुं०) चर्मपात्र। (जयो० २/५) कूपले च रसकोऽप्युपेक्षतेः'
(जयो० २/१६)
रसकूपिका (स्त्री०) रसभरी बावड़ी। 'रसस्य कूपिकेव
रसकूपिका' (जयो० ३/४७) रसकेलि (स्त्री०) रसक्रीड़ा, रसोद्वेलन। (जयो० २२/७१)
(जयो० २०/४२) रसस्य केलिरापि (जयोवृ० २२/७१) रसकेसरं (नपुं०) कपूर। रसगन्धः (पुं०) लोबान, खुशबूदार गोंद। रसगुल्लुला (स्त्री०) रसगुल्ला। 'अधरलता रसगुल्गुलेति'
रसगुल्गुला नाम खाद्यं सरसत्वादेवं कृत्वा स्मितरूपेण'
(जयो० ३/६०) रसग्रह (वि०) रस ज्ञाता, प्रसन्नता व्यक्त करने वाला। रसजः (पुं०) राब, शीरा। रस (नपुं०) रुधिर। रसज्ञ (वि०) रस का पारखी, रसायन शास्त्र का ज्ञाता। रसज्ञः (पुं०) भावुक, कवि। रसज्ञा (स्त्री०) जिह्वा, जीभ, रसनेन्द्रिय। (वीरो० ५/२०)
(जयो०वृ० २४/८७) ०रसना। रसतारतम्यफालि (स्त्री०) गुड़, मिष्टमधुरगुण वाला गुड। रसतेजस् (नपुं०) रुधिर, रक्त। रसदः (पुं०) वैद्य, चिकित्सक। रसधातु (नपुं०) पारा। रसनं (नपुं०) [रस्+ल्युट्] ०स्वाद, रस।
आस्वादन। (वीरो० १/१) कोलाहल करना, टनटन करना। ०क्रन्दन करना, शोर मचाना।
गड़गड़ाहट, गरजन। रसना (स्त्री०) काञ्ची, मेखला। रसनया काञ्च्या।
(जयो०१०६/४६) ०आस्वादन। (जयो०६/४६) जिह्वा, जीभ, रसनेन्द्रिय। (सुद०८६) (जयो० १/७) रसभरी। (सुद० ८६) एवं रसनया राज्याश्चित्ते रसनयात्तया।
(सुद०८६) रसनाकलापच्छल (नपुं०) काञ्चीदाममिष, करधनी के बहाने।
(जयो० ११/२३) रसनाग्रवर्तिः (स्त्री०) जीभ के अग्रभागवर्ती. जिह्वाग्रवर्ती।
(समु० १/११) रसनालिका (स्त्री०) काव्य रस, विवाह वर्णनात्मक काव्यरस।
(जयो० १०/२) रसपरित्यागः (पुं०) विविध रसों का त्याग।
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रसप्रबन्धः
८८९
रसिक
रसप्रबन्धः (पुं०) रस से परिपूर्ण काव्य।
रसात्मक (वि०) रस से परिपूर्ण। रसप्रसन्ना (वि०) श्रृंगार से प्रसन्न। आह्लादकारिण-'रसेन | रसादित (वि०) रस क्रिया युक्त, सरसता से परिपूर्ण। (सुद० शृंगारेण प्रसन्ना' (जयो० १४/४७)
१२३) रसफलः (पुं०) नारिकेल तरु।
रसाधिका (पुं०) प्रभूतजलवती नदी। रसभङ्गः (पुं०) रसावरोध।
रसाधिकारः (पुं०) नवरस विवेचन। (जयो० १/४) (जयो० रसभवं (नपुं०) रुधिर।
२०/४७) रसमय (वि०) आनन्द के वेग से युक्त. शृंगार से परिपूर्ण। | रसाभासः (पुं०) रस की प्रतीति। (सुद० ७२) (जयो० ९/६६)
रसायनं (नपुं०) रस विज्ञान, रस पद्धति। (जयो०१० २६/५३) रसयोगः (पुं०) रसायन प्रयोग। (सुद० १३३)
श्रेष्ठस्य वस्तुनो रसायनस्य योगतः प्रसङ्गतो गरं विषम्' रसराजः (पुं०) श्रृंगार रस। (जयो० ५/७७) संसारे रसराज (जयो०१० २६/५३) 'रसायनं काव्यमिदं श्रयामः' (वीरो० एत्यतिथि सान्नित्यं प्रतिष्ठापन। (वीरो० १/३७)
१/२२) 'रसानां शृङ्गारादीनामयनं स्थानम्' (वीरो०वृ० १/२२) ०पारा।
रसायनाधीट् (पुं०) चिकित्सक, भिषग, वैद्य। रसलीन (वि०) रसासक्त। (सम्य० १५२)
रसायनाधीश्वरः (पुं०) चिकित्सक, वैद्य, वैद्यराज। (जयो० रसवती (स्त्री०) रसोई, भोजनसामग्री। 'रसवत्यपि पायसस्मिता १६/१८) 'रसायनाधीश्वर वैद्य इव भाति। तथाहि-रसस्य
वा घृतवद्-व्यञ्जनशालिनी स्वभावात्। (जयो० १२/१२३) जलस्यायनं प्रवर्तनं, पक्षे रसस्य पारदाख्य धातोरयनं रसवती (वि०) शृंगार रूप युक्ता। स्मितपयसा मधुरेण रसवतीय उपयोगकरणं तस्याधीश्वरोऽधिकारी। (वीरो०वृ०४/४)
बहुगम्या' (जयो० ३/६०) 'रसवती। शृंगाररसयुक्ता' रसालः (पुं०) आम्र, आम। (दयो०५३) 'सद्रसालसहितोऽमुना (जयो०वृ० ३/६०)
पथा राजते' (जयो०वृ० २१/३१) रसवतीकरः (पुं०) सूपकार, रसोइया। (जयो० २०८०) रसाल (वि०) शृंगार रस से अलसाए हुए। (जयो०७० २१/३१) रसवश (वि०) प्रेमयुक्त, प्रेमभाव से परिपूर्ण। (जयो० ५/१८( शृंगार रस से परिपूर्ण। (जयो० ३/३०) सुमना मनुजो यस्यां रसवशिन् (वि०) शृगांराख्य अभिलाषी। ० श्रृंगार रस का महिलासारसालया। (जयो० ३/३०) 'रसालया
इच्छुक। (जयो० ६/९९) 'रसः शृङ्गाराख्यो जलात्मकश्च' शृंगाररसपरिपूर्णा' (जयो०वृ० ३/३०) (जयो०७० ६/९९)
सरस, रस सहित। (वीरो० १/१२) 'उपद्रुतोऽपयेष तरुरसालं रसविक्रयः (पुं०) मद्यविक्रय, शराब बिक्रीकेन्द्र।
फलं श्रणत्यङ्गभृते त्रिकालम्। (वीरो० १/१२) रसशास्त्र (नपुं०) रसायनशास्त्र। ०काव्य रस ग्रन्थ।
रसालकोटकः (पुं०) आम के बौर। (दयो० ५३) रससारः (पुं०) अनुराग का सार। (जयो०१४/८९)
रसालता (वि०) आम्रफल तुल्यता। (वीरो० ३/२८) आनन्दसार। (जयो० १०/१९)
रसालदलं (वि०) आम्रपल्लव। (वीरो० ६/३०) रससिद्ध (वि०) काव्य सम्पन्न, रसवेत्ता।
रसाल-रसिक (वि०) आम्र के रस के रसिक। रसालानामम्राणं रससिद्धिः (स्त्री०) रसायन की सिद्धि, रसकला की प्रवीणता। रसिकाः। (जयो०वृ० ६/६९) अधर-स्वादिष्ट, अधर के रसस्थलं (नपुं०) जलस्थान। 'रसस्य स्थलं-जलस्थानम्' (जयो० पान का इच्छुक। (जयो० ६/६९) ११/३०)
रसाला (स्त्री०) जिह्वा, रसना, जीभ। रसस्थितिः (स्त्री०) सरसता की परिणति। (वीरो० १)
०रसपरिपूर्ण बाला। (जयो०वृ० १७/६) रसा (स्त्री०) [रस्+अच्+टाप] जिह्वा, जीभा (समु०७/४) रसभरी। इमां रसालां सरसां वाचा' (जयो०वृ० ४/६) (जयो० १/३२)
रसिक (वि०) [रसोऽस्त्यस्य ठन्] स्वादिष्ट रस से परिपूर्ण। ०रसना। (जयो० ३/२२)
आस्वादनशील। (जयो० ६/६९) निम्नतर, रसातल, निम्नस्थल, नरक।
स्वादयुक्त, गुणग्राही। नाटकीय प्रवेश।
विवेचका रसातलं (नपुं०) पाताललोक। (समु० २/४) नरक, अधोभाग। सुन्दर, ललित, प्रिय। (जयो० ३/९) (जयो० ५/९०)
आनन्द देने वाला, प्रसन्नता अनुभव करने वाला।
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रसिकः
८९०
रागः
रसिकः (पुं०) रसिया, प्रेमी।
गुणग्राही। रसिका (स्त्री०) प्रेमवती। (जयो० ६/११)
०ईख रस, इक्षुरस। ०राव
जिह्वा, रसना, जीभा। रसित (भू०क०कृ०) [रस्+क्त] ०ललित, प्रेम युक्त।
आस्वादित, स्वाद को चखा गया।
मनोगत, इष्ट, प्रिया रसितं (नपुं०) मद्य। ०मधु, शहद।
०क्रंदन, चीत्कार। रसिता (वि०) आस्वादिता। (जयो०१० ३/२९) रसिति (अव्य०) शीघ्र, तुरन्त, जल्दी। 'वै रिषन् रसिति
वैरिसंग्रमव्यथेऽकथि' शत्रु समूह रसिति शीघ्रं रिषन्-मारयन्'
(जयो०७० ३/६) रसितुं (रस्+तुमुन्) देखने योग्य। अवलोकयितुम्। (जयो०३०
१२/१३१) रसिन् (पुं०) रसिक पति-प्रीतिकर। कठिनस्तनस्थले वनितायाः
सिक्तं रसिना दग्धुमथायात्। (जयो० १४/७३) रसेष्टित (वि०) रस से प्रिय-रसः शरीरं तस्येष्टौ रसः स्वादेऽपि
तिक्तादौ शृङ्गारादौ द्रवे विषं। पारदे धातुवीर्याम्बुरागे गन्धरसे
तनौ।। इति वि०। (जयो०वृ० १२/७) रसोत्करिणी (वि०) सौन्दर्यधारिणी। (जयो० ११/९७) रसोदकं (नपुं०) रस से परिपूर्ण जल, रस एवं जलयुक्त।
(सुद०) रसोदयः (पुं०) शृंगार का अभ्युदय। रसोद्वेलनं (नपुं०) रसकेलि। (जयो० १२/७२) रसोनः (पुं०) [रसेनैकेन ऊनः] लहसुन। रसोल्लसित (वि०) रस से प्रसन्नचित्त। (सुद० ३/४६) रसौघदात्री (वि०) रस समूह को प्रदान करने वाली। (वीरो०
४/१०) रस्य (वि०) रस वाला, स्वादिष्ट, रुचिकर। रह (सक०) ०छोड़ देना, त्यागना तिलांजलि देना। रहणं (नपुं०) [रह ल्युट्] त्यागना, छोड़कर भागना, अलग
__ हो जाना। रहस् (नपुं०) [रहल्युट्] त्यागना, छोड़कर भागना, अलग ____ हो जाना। रहस् (नपुं०) [रह ल्युट] निर्जनता, एकान्तता. अकेलापन।
(सम्य० १५३) ०भेद की बात, रहस्य। ०मैथुन, संभोग। •चुपचाप, मौन, गुप्त। ०एकान्त। (सुद० २/४७)
रहस्य। (जयो०६/३१) रहस्य (वि०) [रहसि भव: यत्] ०गुप्त, प्रच्छन्न।
भेद पूर्ण, रहस्ययुक्त। रहस्यं (नपुं०) भेद, कौतुक, उत्सुकता।
गुह्य, गोपनीय। रहस्यभावः (पुं०) कौतुक भाव। (सुद० २/२१) रहस्यवादः (पुं०) गुप्त कथन, प्रच्छन्नवाद। (जयो० २६/६०) रहस्यवृत्ति (स्त्री०) रहस्यपूर्ण वृत्ति। (जयो० २६/६०) रहस्यफुटि (स्त्री०) रहस्यपूर्ण अभिव्यक्ति। (सुद० ११६) रहःकृत (वि०) स्त्रीसम्पर्क। (जयो० १७/२) रहित (वि०) अभाव, छोड़ा गया।
०परित्यक्त, वियुक्त, मुक्त। ०हीन, वंचित। (सम्य० १३५)
अकेला, एकाकी। (जयो०वृ० १/२२) रहोनीतिः (स्त्री०) रहस्यवाद। (जयो० २६/६०) रहस्यवृत्ति। रा (सक०) देना, समपर्ण करना, प्रदान करना।
अनुदान देना। (जयो० २/११४) राका (स्त्री०) [रा+क+टाप्] पूर्णिमा। राक्षस (वि०) [रक्षस इदं अण] दैत्य, पिशाच, भूतप्रेत,
बेताल। 'राक्षसाशन-मद्य-मांसादिरूपभोजनम्' (जयो० २/१०९) ०दानव, भीषण-रूपविकरणप्रियाः राक्षसाः' ०देव जाति।
ज्योतिष विषयक योग। रागः (पुं०) आसक्ति। (जयो० १२/७९)
अनुराग, प्रीति, स्नेह, प्रेम व्यत्नेन योऽम्भोजदृशां महीयान रागो दशोः प्रीततम प्रतीयान्। (जयो० १६/४०) ०देह सेवा। 'रागः कियानस्ति स देह-सेवः' (वीरो०५/३०) ०काम-वासना, विषयासक्ति। (सम्य० १४७)
विभाग परिणति, विकार। (सम्यः ४१) ०रुचि। (सम्य० १०८)
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रागकर्मन्
८९१
राजगृहं
वर्ण, रंग, रंजक वस्तु।
रागायास्वादित (वि०) राग को प्रकट करने वाला, लालिमा ०लालिमा, लाल रंग।
या स्नेह व्यक्त करने वाला। (जयो० १२/१३५) प्रेम, प्रणयानन्द।
रागार्थ (वि०) अनुरञ्जनार्थ। (जयो० ८/२७) ०हर्ष, आनन्द।
रागिषि (वि०) रक्तवर्णा, रागयुक्ता। (जयो० ६/६४) स्वैरिणी, क्रोध, रोष।
पुंश्चली। प्रियता, सौन्दर्य।
रागित्वं (वि०) राग से परिपूर्ण, अनुराग सहित। (सम्य० ११०) ०खेद, शोक
रागिन् (वि०) [रग+इनि] रंगीन, रंगा हुआ। ०लालच, ईर्ष्या।
प्रेमपूर्ण, स्नेहिला माया-लोभ-हस्स-रदि-तिवेदाणं दव्वकम्मोदयजणिदपरिणामो ०कामासक्त, स्वेच्छाचारी। रागो (धव० १२/२८३)
प्रेमी, स्नेही। प्रीतिलक्षणो रागः। (जैन०ल० ३५७)
स्नेहशील, अभिलाषी। लोहितत्त्व, लालिमा। (जयोवृ० ११/५७)
राघवः (पुं०) [रघोर्गोत्रापत्यम्] रघुवंशी, रघु की संतान। गान्धार राग। (जयो० ११/५७)
राज् (अक०) चमकना, शोभित होना, (सुद० १२४) जगमगाना ० भैरवी मल्हार आदि राग। (वीरो० १६/१२)
रराज (जयो० ३/१९) देदीप्यमान होना। स्वयम्वरीभूततमा रागकर्मन् (वि०) आसक्तिजन्य कर्म वाला।
रराज मुक्तिश्रिय:श्रीजिनदेवराज। (वीरो० १२/३९) 'रराज रागकारिन् (वि०) अनुराग शील।
मातुरुत्सङ्गे महोदारविचेष्टित' (वीरो० ८/८) 'वर्षेण रागखण्डं (नपुं०) प्रेमांश। ०अनुराग, आसक्ति।
पूर्णोद्दारिणी रराज' (वीरो०६/२) राजते (जयो० ३/३७) रागचूर्णः (पुं०) खैरवृक्षा
राज् (पुं०) राजा, नृप, युवराज। रागज (वि०) राग को उत्पन्न करने वाला।
राजकः (पुं०) [राजन्+कन्] राणा, राजा, नृप। रागतरु (पुं०) राग रूपी वृक्षा (सम्य० १४७) ०खैर। राजकं (नपुं०) राजाओं का समूह। रागद (वि०) रागोत्पत्ति वाला। (वीरो० ६/३३)
राजकरः (पुं०) राजशुल्क। रागद्रव्यं (नपु०) रंग, लेप।
राजकार्य (नपुं०) राज्य का काम। (दयो० ६५) राग-द्वेष (वि०) राग और द्वेष युक्त।
राजकन्या (स्त्री०) राजकुमारी, राजपुत्री। (दयो० ११०) राग-द्वेषरहित (वि०) राग-द्वेष से रहित। (सुद०७०) राजकुमारः (पुं०) युवराज, राजपुत्र। रागनिवाहिनी (पुं०) राग संधारिणी। (जयो० ८/३३) राजकुमारी (स्त्री०) राजपुत्री। (दयो० १०८) रागपादः (पुं०) रक्तवर्ण वाले चरण।
राजकीय (वि०) राजकार्य सम्बंधी, राजपरिवार से सम्बंधित। रागपादपः (पुं०) रक्तिमवृक्ष।
(जयो० २८/२) रागबन्धः (पुं०) राग से बन्ध।
प्रशासकीय, शासकीय, राजसत्ता से सम्बंधित। रागभावः (पुं०) राग परिणाम।
(जयो० वृ० २८/१) रागमंद (वि०) राग की मंदता।
राजकीयसदनं (नपुं०) राजभवन, राजप्रासाद। (जयो०४/२६) रागयुज् (पुं०) लाल।
राजकुलः (पुं०) राजवंश, क्षत्रियकुल। रागयोगः (पुं०) अनुराग का संयोग।
राजकलोचितः (०) राजवंश के अनकल। (वीरो० ६/५) रागरञ्जित (वि०) राग से अनुरक्त। (दयो० १८)
राजगणः (पुं०) चन्दकुटुम्ब। (जयो० ११/९१) रागरुष (वि०) प्रणयविद्वेष। (जयो० २४/२५)
राजगामिन् (वि०) राज्याधीन। रागसम्पादक (वि०) प्रीतिकर, रतिकर। (जयो०० ३/१२) | राजगोपालः (पुं०) राजगोपालाचार्य। (जयो० १८४८३) रागसभागः (पं०) प्रीतिभाव-'गान्धारादिगीतस्य प्रीतिभावस्य | राजगहं (नपं०) शासकीय निवास. राजभवन। च सुभागस्य। (जयो० ११/५७)
राजगृह नामक, क्षत्रिय कुल के प्रसिद्ध शासक सिद्धार्थ रागसूत्रं (नपुं०) रंगीन सूत्र।
कुल का एक गणराज्य।
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राजगृहाधिराजः
८९२
राजलक्षण
राजगृहाधिराजः (पुं०) राजगृह का अधिपति। (वीरो० १५/१६) राजघः (पुं०) राजाधिराज-'राज्ञ एव समर्थानेवानीतिवर्तिनो
हन्तीति राजघः' (जयो० २३/४) राजचिह्न (नपुं०) राजशक्ति, राजकुल का प्रतीक। राजतत्त्वं (नपुं०) राजसभा। (जयो०वृ० ३/७) राजतत्त्वः (पुं०) पृथिवीपालक। (जयो०वृ० २८/१) राजतत्त्व (वि०) गदी युक्त। (वीरो० १३/६) राजतत्त्वविशारदः (पुं०) राजनीतिज्ञ। (जयो० ३/७) राजतुक् (पुं०) राजपुत्र, स्वामीपुत्र। (जयो० ९/३, भूपतिबालक।
(जयो० ६/१३) किं राजतुक्तोद्वाहेन प्रजायाः सेवया तु
सा' (वीरो०८/४३) राजतुज् (पुं०) राजकुमार, राजपुत्र। राजतालः (पुं०) सुपारी का पेड़। राजदण्डः (पुं०) राजशासन, राजसत्ता। राजदन्तः (पुं०) आगे का दांत। राजता (वि०) शोभता। (जयो० ४/३६) राजदुहितु (स्त्री०) राजपुत्री, राजकन्या। (दयो० ११०) राजदूतः (पुं०) राजा का प्रतिनिधि। राजद्रोहः (पुं०) राजा के प्रति विद्रोह, राजा के प्रति
विश्वासघात। राजद्वारं (स्त्री०) राजमहल। राजद्वारं (नपुं०) राजप्रासाद का प्रधान तोरण। (जयो० १०/८४) राजद्वारिकः (पुं०) राज पहरेदार, डयोढ़ीवान्। राजधर्मः (पुं०) राजकर्तव्य, राजनियम। राजधानं (नपुं०) राजप्रासाद। राजधुरा (स्त्री०) शासन का उत्तरदायित्व। राजनयः (पुं०) राजनीति। राजनीति (पुं०) राजनय, शासन नियम। राजनेतृ (पुं०) राजनेता, राजनायक। (जयो० १९/८१) राजनेत्री (स्त्री०) सरोजिनी नायडू जैसे राजाधिकारिणी। (जयो०
१८/२३) राजन् (पुं०) नृप, राजा, अधिपति। (जयो०वृ० १/३) (सुद०
१/४३) राज्ञे।
नायक, प्रधान पुरुष, भूपति, चन्द्र। राजा प्रभौ नये चन्द्र यूक्षे क्षत्रिय शक्रयोः इति वि (जयो०० १५/४८) उच्चाधिकारी। मेदिनीरमण। (जयो०वृ० १८/११) पृथिवीपालक। (जयो०७० २८/५)
शोभनशरीर। (जयो०७०२८/५) सदाचारविहीनोऽपि सदाचारपरायणः। स राजापि तपस्वी सन् समक्षोऽप्यक्षरोधकः।।
(जयो०वृ० २८/५) राजन्य (वि०) [राजन्+यत्] शाही, राजकीय। राजन्यः (पुं०) राजकीय यक्ति राजन्वतिषत्तनं (नपुं०) नरपनि नगर। (जयो० १२४८५) राजपथः (नपुं०) राजमार्ग। ( जयो० १०/५८) राजपण्डितः (पुं०) राजा का विद्वान्। (दयो० ३१) राजपद्धतिः (स्त्री०) राजनीति, राजविधि। राजपट्टः (पुं०) राज्याधिकार। राजपुत्री (स्त्री०) राजकुमारी। राजपुरुषः (पुं०) सिपाही, सैनिक मन्त्री। राजप्रिया (स्त्री०) राजरानी, महारानी। (जयो० २/१५१) राजप्रेष्यः (पुं०) राजसेवक। राजभृतः (पुं०) सिपाही, सैनिक। राजभृत्यः (पुं०) राजसेवक, सचिव, मन्त्री। राजमतिः (स्त्री०) राजुल, एक राजकुमारी। (सुद० १३६)
भोजवंशीय राजा उग्रसेन की पुत्री। राजमान (राज्+शानच्) शोभायमान्। (जयो० ५/२७) राजमार्गः (पुं०) राजपथ। राजमुद्रा (स्त्री०) राजा की मोहर। राजमुनि (पुं०) प्रमुख मुनि। (वीरो० १७/३८) राजयक्ष्मम् (स्त्री०) क्षयरोग, तपेदिक, टी० बी० रोग। (जयो
२६/२६) राजयानं (नपुं०) राजवाहन, रथ। राजयोगः (पुं०) राजसत्ता का योग। राजरङ्ग (नपुं०) रजत, चांदी। राजराजः (पुं०) राजाधिराज, चक्रवर्ती। (जयो० २५/१)
०चन्द्रमा। राजराजिः (स्त्री०) राजाओं की पंक्ति। राजाओं की बहुलता।
(जयो० ४/३६) राजरुक् (पुं०) राज्ञश्चन्द्रस्य रुचिं कान्तिं विजयते प्रहरतीति
राजरुग्विजयी क्षयरोगः। तपेदिक, क्षयरोग। (जयो० १८/२२) राजरुज् राजकओ यक्ष्मण, तपेदिक। (जयो० ६/७५) राजरुम (पुं०) चन्द्ररुचि। (जयो०वृ० ६/७५) राजर्षि (पुं०) राज ऋषि। राजलक्षणं (नपुं०) राजचिह्न।
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राजलक्ष्मी
८९३
राज्यधुरा
राजलक्ष्मी (स्त्री०) राजसमृद्धि, राजवैभव, राजसम्पत्ति। राजवंशः (पुं०) राजकुल। (जयो० ५/१) राजवंशावली (स्त्री०) राजकुल की परम्परा। राजवर्गः (पुं०) राजवंश। (वीरो० १५/५०) राजवर्मन (नपुं०) राजमार्ग। प्रधानमार्ग। (जयो० ५/९) राजवार्तिकं (नपुं०) तत्त्वार्थसूत्र की टीका। (जयो० १८।८३) राजविद्या (स्त्री०) राजनीति। राजविहारः (पुं०) राजकीय शिक्षालय। राजश्रेष्ठी (पुं०) राजसेठ, प्रमुख सेठ। (दयो० १/१४) राजशासनं (नपुं०) राजा का अनुशासन। राजस (वि०) राजाज्ञा। तमोगुण, रजोगुण। (जयो० २८/१५) राजसंसद् (स्त्री०) राजकीय दण्ड व्यवस्था का स्थान। राजसभा। राजसत्त्वः (पुं०) रजोगुण। (जयो० २८/१५) राजसत्र (नपुं०) चन्द्रछल। 'राज्ञश्चन्द्रमसः सत्रं छद्म' (जयो०
१५/५९) राजसदनं (नपुं०) राज प्रासाद, राजभवन। (जयो०७०१०/१५) राजसर्षपः (पुं०) काली सरसों। राजसायुज्यं (नपुं०) प्रभुसत्ता। राजसारसः (पुं०) मयूर, मोर। राजसिंहासन (नपुं०) नपासन, राजपीठ। (जयो० ३/१९) राजसुता (स्त्री०) राजपुत्री, राजकन्या। (जयो० ६/१०२) राजसुराजः (पुं०) नृप श्रेष्ठ। (जयो० ९/६३) राजस्कंधः (पुं०) घोड़ा, अश्व। राजस्थानं (नपुं०) राजस्थान प्रदेश, राजपूतों का प्रान्त। (दयो०
१०५) राजस्वं (नपुं०) राजकीय सम्पत्ति। राजहंसः (पुं०) श्वेत हंस, मराल। (भक्ति० ६)
भूपवर। (जयो०७० ३/८) 'राजान् एव हंसास्तैर्निषेव्यम्' (जयो०वृ० ३/७६) राजहंसी (स्त्री०) मराली, हंसी। (वीरो० ३/७) ___राजकुमारी, राजपुत्री, राजकन्या। (जयो० १/७४) राजहस्तिन् (पुं०) राजहस्ती, राजकीय सवारी वाला हाथी। राजाग्र (वि०) राजाओं में अग्रणी। राजाग्रशब्दः (पुं०) राजाग्र शब्द, राजाओं के प्रमुख शब्द।
(वीरो० ११/२६) राजानं (नपुं०) राज दरबार का व्यक्ति, राज्याधिकारी। राजाधिकारिन् (पुं०) राज्याधिकारी, राजकीय व्यक्ति, मन्त्री,
सचिव।
राजाधिकृतः (पुं०) राजकीय व्यक्ति, राजा द्वारा नियुक्त
किया गया व्यक्ति। राजाधिराजः (पुं०) प्रमुख राजा, प्रधान अधिपति, राजराज। राजाध्यरोधी (वि०) राजमार्ग के प्रतिकूल। (जयो० १८/४)
(जयो० २०/१) राजानकः (पुं०) लघु राजा, छोटे राज्य का शासक। राजापसदः (पुं०) अयोग्य राजा, तुच्छप्रवृत्ति वाला राजा। राजाभिषेकः (पुं०) राजा का अभिषेक। राजाह (नपुं०) चंदन, अगर। कण्ठीकृतामोदमयनजान्तु स्तनेषु
राजाहपरिप्लवानाम्। (वीरो० १२/२९) राजाहणं (नपुं०) राजकीय सम्मान। राजिः (स्त्री०) पंक्ति, रेखा। राजित (विच०) सुशोभित, प्रशंसित। (जयो० ३/८१) राजिका (स्त्री०) [राजि+कन्+टाप] ०पंक्ति, रेखा, कतार।
०खेत।
पीली सरसों। राजिलः (पुं०) [राज्+इलच्] सर्प जाति विशेष। राजीवः (पुं०) हरिण, सारस।
०हस्ति । राजीव (नपुं०) नील कमल। राजीवकुलः (पुं०) कमलसमूह। (जयो० ६/१७) राजीवहक् (नपुं०) कमलनयन। (जयो० १/८४) राजीवमधुरा (स्त्री०) कमलिनी। (जयो० १६/५९) राजीविनी (स्त्री०) कमलवल्ली। (जयो० १५/१९) राजेन्द्रप्रसादः (पुं०) भारत के प्रथम राष्ट्रपति (जयो०१८/५) राज्ञी (वि०) रानी। राज्ञी माता मह्यम्। (सुद० ११०)
[राजन्+ङीप्] महारानी। एवं रसनया राज्याश्चित्ते रसनयात्तया' (सुद०८६) सन्निशम्य वचो राज्ञयाः पण्डिता
खण्डिता हृदि। (सुद० १०४) राज्यं (नपुं०) [राज्ञो भावः, कर्म वा राजन्+यत्] राज्य,
(जयो० १/५) साम्राज्य, प्रभुसत्ता, प्रान्त। (जयो० १/१९) ०अधिकार, शासन। हत्तु मोहतमसा समावृतं त्वं हि गच्छ
कुरु राज्यमप्यतः। (सुद० ११०) राज्यकरः (पुं०) शासकीय शुल्क। राज्यकालः (पुं०) शासनकाल। (वीरो० २९/११) राज्यच्युत (वि०) राजसत्ता से पतित। राजतन्त्रं (नपुं०) शासनविज्ञान, प्रशासन पद्धति। राज्यधुरा (स्त्री०) शासन भार।
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राज्यभङ्गः
८९४
रामदत्ता
राज्यभङ्गः (पुं०) राजसत्ता का विनाश।
राद्ध (भू०क०कृ०) [राध् कर्तरि कर्मणि वा क्त] आराधित। राज्यभारः (पुं०) शासन का उत्तरदायित्व।
कार्यान्वित, सम्पन्न, निष्पन्न। राज्यभितः (पुं०) राज्यशासन, शासन का उत्तरदायित्व। (दयो०८) प्रसादित। राज्यमोदः (पुं०) राज्यसत्ता का प्रयत्न।।
०अनुष्ठित। राज्य व्यवहारः (पुं०) प्रशासन, शासकीय कार्य।
सफल, सौभाग्यशाली, प्रसन्न। राज्यसम्मतः (पुं०) शासन से मान्य। (दयो० १७)
०पकाया हुआ, रांधा हुआ। राज्यसिंहासनं (नपुं०) ०शासनासन, राजसत्ता का पद। | राध् (सक०) प्रसन्न करना, खुश करना। (दयो०८)
०अनुष्ठान करना, निष्पन्न करना। राज्याङ्गं (नपुं०) प्रभुसत्ता का अधिकार।
०प्रस्तुत करना, तैयार करना। राज्यापहरणं (नपुं०) राज्य छीनना।
नष्ट करना, समाप्त करना। राज्यार्ध (वि०) अर्ध राज्य। (दयो० १०८)
०क्षय करना, विघात करना। राढा (स्त्री०) आभा।
०उखाड़ना, उन्मूलन करना। राट् (पुं०) राजा। (सुद० ७८) 'नृराडास्तां विलम्बेन' (सुद०७८)
राध् (अक०) सफल होना, समृद्ध होना, तैयार होना। रात्रिः (स्त्री०) [रातिं सुखं भयं वा, रा+त्रिप्] रजनी, रात्रि
०आराधना करना। (जयो० २/४१)
राधा (स्त्री०) ०समृद्धि, सफलता, गोपिका। राज नाम रात, पुरोष। (सम्य० १/१)
विशेष। निशा-'रात्रिः स्वतो घोरतमो विधात्री' (भक्ति० २५)
राधाकृष्णः (पुं०) राधा और कृष्ण। (जयो० ६/२०) ०प्रदोषभाव। (जयो० १५/२१)
राम (वि०) [रम् कर्तरि घञ्, ण वा] ०प्रिय, इष्ट, सुहावना। अन्धकार पूर्णा तमिस्रा। (जयो० ३/८७)
(जयो०वृ० २/१४८) रात्रिकरः (पुं०) चन्द्र, शशि।
सुंदर, अभीष्ट, मनोरम, रमणीय। (जयो० १५/६६) रात्रिंचरः (पुं०) निशाचर, चोर, डाकू।
मलिन, धूमिल, काला। ०आरक्षी, पहरेदार।
रामः (पुं०) [रम्+घञ्] राम, दशरथ पुत्र। (जयो० १५/६६) पिशाच, भूत-प्रेत, बेताल।
(सम्य०६२) (जयो० १७/५९) रात्रिचर्या (स्त्री०) रात्रि में भ्रमण।
०जमदाग्नि पुत्र, परशुराम। रात्रिजं (नपुं०) तारा, नक्षत्र।
०वसुदेव पुत्र बलराम। 'सती सीतेव रामस्य यया भाति रात्रिजलं (नपुं०) ओस।
भवानमा' (सुद० ४/३७) रात्रिजागरः (पुं०) रात्रि में जागना।
०शुद्धात्मा, काम की सम्पदा से रहित। (जयो० १६/३) रात्रितरा (स्त्री०) अर्धरात्रि।
परमात्मा। रात्रिंदिवं (नपुं०) अहोरात्र्य। (जयो० १८/५)
रामगत (वि०) सौंदर्य को प्राप्त। रात्रिपुष्पं (नपुं०) कुमुदिनी।
रामचन्द्रः (पुं०) दशरथपुत्र राम, कौशल्या नन्दन. रघुवंश का रात्रियोगः (पुं०) निशागमन।
पुरुषोत्तम पुरुष राम। (दयो० ८) रात्रिरक्षः (पुं०) अन्धकार।
रामठः (पुं०) हींग। रात्रिवायस् (नपुं०) अन्धकार।
रामणीक (वि०) सौंदर्य। (जयो०७० ३/८६) रात्रिविगमः (पुं०) रात्रि की समाप्ति, दिन का प्रारंभ। पौ रामणीयक (वि.) [रम्+णीय ठञ्] प्रिय, सुंदर, सुखद। फटना।
(जयो० ३/९०) रात्रिवेदः (पुं०) मुर्गा।
रामणीयकं (नपुं०) प्रियता, सौंदर्य। (जयो० १/९०) रात्रिवेदिन् (पुं०) कुक्कुट, मुर्गा।
रामदत्ता (स्त्री०) सिंहसेन की प्रिया। राजीह नाम्रा भुवि रामदत्ता, रात्रिसंचारिन् (पुं०) निशाचर। (वीरो० १८/३६)
निसर्गत: शीलगुणैक सत्ता। (समु० ३/२०) सिंहपुर के आरक्षी।
राजा सिंहसेन की प्रिया रामदत्ता।
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रामा
८९५
रिपुः
रामा (स्त्री०) [रमनेऽनया रम् मरणे घञ्] सुंदर स्त्री, | राष्ट्रियः (पुं०) नृप, अधिपति, शासक। कामिनी. तरुणी। (जयो० ४/९६)
गस् (अक०) शब्द करना, चिल्लाना, किल किलाना। प्रिया, पत्नी, गृहस्वामिनी। (जयो० १७/४९)
गसः (पुं०) [रास्+घञ्] कोलाहल, शब्द, ध्वनि। सिन्दूर।
०एक नृत्य विशेष। हींग।
रासक (वि०) क्रीड़ा कारक। रामाजनः (पुं०) स्त्रीजन। (सुद० ८३)
रासकं (नपुं०) अभिनय का छोटा अंश। रामाभिधा (स्त्री०) स्त्री स्मरण।
रासकर (वि०) क्रीड़ा करने वाला। (जयो० २५) ०शुद्धात्मा, परमात्मा, कामसम्पदा। (जयो०वृ० १६/३) । राजक्रीड़ाकरी (वि०) गोचारक क्रोडाः रामाविभूषित (वि०) स्त्री से सुशोभित, प्रिया के सौंदर्य से रासभः (पुं०) [रासे: अभाच्] गर्दभ, गधा। परिपूर्ण। (जयो० १७/११३)
राहुः (पुं०) [रह्+उण्] एक ग्रह नक्षत्र। (वीरो० २/२९) रामोपयोगिनी (स्त्री०) विवाहयोग्य। (वीरो०८/७२)
(जयो०८/३४) राम्भः (पुं०) [रम्भा अण्] सन्यासी की लकड़ी।
राक्षस। राव: (पुं०) [रु+घञ्] क्रन्दन, चीत्कार।
विप्रचित। चिंघाड़, दहाड़।
राहुग्रसनं (नपुं०) चन्द्र या सूर्य ग्रहण। शब्द, ध्वनि। (जयो० ५/७०)
राहुग्रहणं (नपुं०) राहुग्रसन। रावण (वि०) [रावयति भीषयीति सर्वान् रु+णिच् ल्युट्] राहुदर्शनं (नपुं०) राहुग्रहण। क्रन्दन करने वाला, चीखने वाला।
राहुसूतकं (नपुं०) राहुग्रहण सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण। रावणः (पुं०) लंकाधिपति रावण। (सम्य० ६२) (दयो० ८५) रि (सक०) जाना, पहुंचना। रावणिः (पुं०) इन्द्रजित, रावण का पुत्र।
रिक्त (भू०क०कृ०) [रिच्+क्त] ०खाली, शून्य, अभाव। राशिः (स्त्री०) [अश्नुते व्याप्नोति+अश+इञ्] ०ढेर, संग्रह, साफ किया गया, छोड़ा गया। समुच्चय, समुदाय।
रिक्तं (नपुं०) खाली स्थान, छोड़ा गया स्थल। ०संख्या विशेष।
रिक्तपाणि (स्त्री०) खाली हाथ वाला। (दयो० २०) नाना समूह। (सुद० १२१)
रिक्तहस्त (पुं०) खाली हाथ वाला। ०भण्डार। (सुद० १/४४)
रिक्ता (स्त्री०) चन्द्रमास के पक्ष की चतुर्थी। राशिचक्रं (नपुं०) तारामण्डल।
रिक्तार्थिका (स्त्री०) रिक्तातिथि। (जयो०६/८८) राशिवयं (नपुं०) त्रैराशिक गणित।
रिक्तोदरः (पुं०) भूखे पेट। (दयो० ३४) राशिफलं (नपुं०) नाम राशि फल।
रिक्थं (नपुं०) [रिच+थक्] वैभव, धन सम्पत्ति। राशिभागः (पुं०) किसी राशि का अंश।
उत्तराधिकार में प्राप्त सम्पत्ति। राशिभोगः (पुं०) सूर्य, चन्द्र।
रिक्थहरः (पुं०) उत्तराधिकारी। राशिमण्डल (नपुं०) राशिचक्र।
रिङ्ग (अक०) रेंगना, सरकना, पेट के बल चलना, दवे पांव राष्टुं (नपुं०) [राज्+ष्ट्रन्] राज्य, देश, साम्राज्य। जिला. चलना। प्रदेश, मण्डल।
रिङ्गणं (नपुं०) [रिङ्ख+ल्युट्] रेंगना, चलना, गमन, अधिवासी, जनता, प्रजा।
क्रियाशील, गति। (जयो० १३/२४) राष्ट्रः (पुं०) सार्वजनिक कष्ट।
रिच् (सक०) निर्मल करना, साफ करना। राष्ट्रकण्टवः (पुं०) राष्ट्र का कांटा। (सुद० १०५)
०बढ़ाना, विस्तार करना। राष्ट्रनेतृपरिकर (वि०) राष्ट्र के नेताओं का समूह। (जयो० ०वियुक्त करना, छोड़ना, त्यागना। १८८४) राष्ट्र नायक समूह।
रिटिः (स्त्री०) [रि+टिन्] वाद्य विशेष। राष्ट्रिय (वि०) [राष्ट्रभवः] राज्य से सम्बंधित।
रिपुः (पुं०) शत्रु, प्रतिपक्षी दुश्मन।
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रिपुसम्पदः
८९६
रुच/रुचा
कमजोर, हीन, क्षीण।
बलहीन, शक्तिरहित। रिपुसम्पदः (पुं०) शत्रु सम्पत्ति। (जयो० ६/५९) रिपुसारः (पुं०) वैरिशिरोमणि। (जयो० ६/२४) रिफ् (अक०) कलंक लगाना। रिष् (सक०) क्षति पहुंचाना, चोट पहुंचाना।
नष्ट करना, मार डालना। (रिषन्-मारयन्) (जयो०३/६)
संहार करना (जयो० ३/५) रिषन्-संहरन्। रिष्ट (भू०क०कृ०) [रिष+क्त] क्षतिग्रस्त, चोटग्रस्त।
अभागा। (जयो० ६/१३२) रिष्टं (नपुं०) उत्पात, क्षति, ठेस। __०दुर्भाग्य, विनाश, हानि।
०सौभाग्य, समृद्धि। रिष्टिः (पुं०) [रिष्+क्तिन्] असि, तलवार। री (अक०) टपकना, गिरना, रिसना, बहना, पसीजना। री (स्त्री०) कर्ण, कान। (श्रोतरि भुवि स्त्रियामिति)
(जयो० ५/९५) रीज्या (स्त्री०) निन्दा, झिड़की।
कलह, ईर्ष्या। रीढकः (पुं०) मेरु दण्ड, रीढ की हड्डी। रीढा (स्त्री०) [रीह+क्त+टाप्] अनादर, तिरस्कार, अपमान। रीण (भू०क०कृ०) [री+क्त] टपका हुआ, रिसा हुआ, झरता
हुआ। रीणा (स्त्री०) उदासीनता, उदासीना। 'रीणात्युदासीना सती
मुहः' (जयो० ११/४७) 'जिता हरिण्यो द्रुताश्च रीणाः'
(जयो० १४/५०) रीतिः (स्त्री०) [री+क्तिन्] ०पद्धति, क्रम। ०प्रणाली, ढंग, मार्ग, शैली, विधा, प्रक्रिया।
नीति। (जयो० १/२१) ०प्रथा, प्रचलन। (सुद० १०२) ०वाक्यविन्यास। ०आरकट, पीतल-रीतिः स्यन्दे प्रचारे च लोहकिट्टारकूटयो इति वि० (जयो० २८/४३) हसोऽभ्यवापि काकस्य रीतिः सौवर्ण्य भागिति। प्रतिलोमविचारेण सोऽहमित्यनुवादिना।। (जयो०७० ३/४) ०प्रकार-शीतिरीतिमपि तच्छ्रुत्वा' (जयो० २/६०) विचार-समन्ताद्भद्र विख्याता श्रियो भूराप्तपथरीतिः। (सुद० ८३)
रीतिकरी (वि०) विचार करने वाली। (जयो० १५/३८) रीतिसृद्धिः (स्त्री०) पदरीति। शब्द शक्ति। रीतिज्ञ (वि०) रीति जानने वाला। पद्धति विचारक। रीतिधर (वि०) पित्तलयुक्तं (जयो०८/६६) ___रीकार सहित। (जयो०वृ० ८/६६) रु (अक०) बोलना, चिल्लाना, शब्द करना।
रोना, शोर करना। रुक (स्त्री०) रुचि, शोभा, कान्ति। (जयो० ६/७५, ५/८१) रुक्कर (वि०) रुचिकर। (सुद०८९) रुक्म (वि०) [रुच्+मन्] उज्ज्वल, स्वच्छ, धवल। रुक्मः (पुं०) स्वर्णाभूषण। रुक्म (नपुं०) स्वर्ण सोना।
०लोहा। रुक्मकारकः (पुं०) सुनार। रुक्मिन् (पुं०) [रुक्म् इनि] रुक्मिणी का भाई। रुक्मिणी (स्त्री०) [रुक्मिन्+ङीप] विदर्भ शासक भीष्मक
की पुत्री। रुक्ष (वि०) रुखा, बालुकामय। रुक्षु (अक०) चढ़ना, आरुढ़ होना। (अरुक्षत्) (जयो०८/६०) रुखं (नपुं०) निर्भय होना। रोर्भयस्य खं शून्य नाशरूपं
निर्भयनिवासस्थानं सम्भवति' (जयो० ११/५१) दृग्व्यापार
(जयो०वृ० ११/५०) सदृश (सुद० १०२) रुग् (पुं०) रोगी। (सुद० १०१) रोग (सम्य० ४६) रुग्ण (भू०क०कृ०) [रुज्+क्त] ०रोगी, ज्वर ग्रस्त, व्याधि
पीड़ित। ०व्यथीकृत, वकीकृत। ०क्षतिग्रस्त, टूटा हुआ। 'जो बुखार आदि के वश होकर अपना धन्धा न कर पाए। (हित०सं० ४९) (जयो०
१४/८५, जयो० ११/५२) रुच् (अक०) चकमना, जगमगाना।
०पसंद करना, सुहावना करना।
प्रसन्न होना। ०रुचना, अच्छा लगना। 'न रोचते चेदमुकास चौरतुजे'
(समु० १/१६) रुच/रुचा (स्त्री०) कान्ति, प्रभा, प्रकाश। (जयो० १०/३)
आपं चैव हलतानां यथा वाच। निशा दिशा। रंग, छवि। इत्युक्ते रुच् शब्दादाप् प्रत्यय। (जयो० २ २/१४)
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रुचक
८९७
रुद्
अभिरुचि, इच्छा। (सुद० १०२)
रुचिरं (नपुं०) केसर। शोभना (जयो० १/९३) अच्छा लगना।
रुचिरता (वि०) मधुरता, ललितपना, मनोहरता। 'रुचिरतामिति रुचक (वि०) रुचिकर. सुखद, आनंदप्रद।
कोकिकपित्सतां सरसभावभृतां मधुरारवैः' (वीरो०६/३५) ०क्षुधावर्धक।
रुचिरुचिता (स्त्री०) तल्लीनता की विशेषता, अभिरुचि की ०चरपरा, तीक्ष्णः
इच्छा। (सुद० ९१) रुचकः (पुं०) नींबू।
रुचिवेदनं (नपुं०) इच्छाज्ञान। (वीरो०५/३४) ०उचित संवेदन। कबूतर
रुचिहेतु (पुं०) रुचि का कारण। 'जल इव तृडपहारिणीशे तु रुचक (नपुं०) दांत।
स्वादु तेव सासीद्रुचिहेतुः। (जयो० २२/६०) ०हार, माला।
रोचमान (रुच्+शानच्) प्रिय लगने वाला। (सुद० १२५) ०काला नमक।
रोचिष्णु (वि०) रुचिकर लगने वाला। (जयो० २७/४०) रुचात्मन् (वि०) अभिरुचिपूर्ण। (जयो० १४/२९)
रुच्य (वि०) उज्ज्वल, साफ, स्वच्छ, प्रिय, सुंदर, मनोज्ञ। रुचामय (वि०) कान्तिमय। (जयो० १०/३)
रुच्यर्थ (वि०) उत्तमता, अच्छा लगने वाला। (सुद० १०२) रुचिः (स्त्री०) [रुच्+कि] कान्ति, प्रकाश आभा, प्रभा।
रुज् (सक०) नष्ट करना, ध्वंस करना। (सुद० १२०)
०दु:ख देना। (जयो० २/७०)
०पीड़ा देना, रोगग्रस्त होना। ० उज्ज्वलता। छवि, रंग।
रुज्/रुजा (स्त्री०) भंग।
०पीड़ा, संताप, यातना, वेदना। (जयो० ९/६३) स्वाद, आनंद, अभिरुचि। 'रुच्या न जातु तमृते सकला
रोग। (जयो० २/२८) समस्या'। (सुद० २६)
अस्वास्थ्यकर। (जयो० ११/४३) शोभामनुरक्ति (जयो० ४/६०)
बाधा, विघ्न। 'शत्रुसम्पत्तीनां मध्ये रुजां प्रजातिः' (जयो० लवलीनता, तल्लीनता। (सुद० ५/३)
१/५२) ०कामना, खुशी। 'फलतीष्टं सतां रुचि।' (सुद० ३/४३)
०बीमारी, व्याधि। रुचिकर (वि०) स्वादिष्ट, रोचक। (जयो०व०१२/१२८)
०थकावट, श्रम, प्रयत्न, कष्ट। चमकोला। शोभायमान। (समु० ७/१)
रुजप्रतिक्रिया (स्त्री०) रोग की चिकित्सा। रुचिकरी (वि०) इष्टकरी, आनंदायी। (जयो०वृ० ३/६३)
रुजभेषजं (नपुं०) औषध। रुचिकारक (वि०) सुरुचिपूर्ण। (जयो० १/९४) (जयो०
रुजसद्मन् (नपुं०) विष्ठा, मल। १/१७) कान्तिपूर्ण। गुणवती। (जयो० ३/६१)
रुजि (स्त्री०) वेदना, रोग। (सम्य०५१) रुचित (वि०) सौंदर्यपूर्ण, अभिरुचि युक्त। (जयो० २/१५५)
रुण्डः (पुं०) [रुण्ड्+अच्] कबन्ध, धड़, सिर रहित शरीर। रुचिदा (वि०) रुचिकर। (समु० १/१४)
रुतं (नपुं०) [रु+क्त] क्रन्दन विपलन, विलाप। (जयो० रुचिधुरी (वि०) यशस्वी। (समु०५/२२)
९/२०) रुचिभर्तृ (पुं०) सूर्य, दिनकर।
०किलकिलाना, दहाड़ना। ०चन्द्र।
०सूजना, शब्द करना। रुचिमल्ल (वि०) शोभा युक्त। (समु० २/१)
रुतज्ञः (पुं०) भविष्यवक्ता, ज्योतिषी। रुचिर (वि०) [रुचिं राति ददाति-रुच्+किरच्] मनोज्ञा । रुतव्याजः (पुं०) कुट क्रन्दन, स्वांग। (जयो० ६/९४)
रुद् (अक०) रोना, विलाप करना, क्रंदन करना। (सुद० ० उज्ज्वल, कान्तिमय, रुचिकर।
३/२६) रौति (जयो० २५/७१) रुदति (जयो० ९/७) ०मधुर, ललिता
(सुद० ४/१०) ०क्षुधावर्धक, भूख बढ़ाने वाला।
०शोक मनाना, आंसू बहाना, दहाड़ना, चिल्लाना। ०पुष्टिदायक, बलवर्धक।
फूट फूटकर रोना।
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रुदनं
८९८
रूपं
रुदनं (नपुं०) [रुद्+ल्युट्] कंदन. विलाप, शोक करना। रुषान्वित (वि०) सरोष, कोप सहित। (जयो० ७/६१) (जयो० ३/२६)
रुषारुणं (नपुं०) क्रोध से लाल। (जयो० ११/१५) रुदित (वि०) [रुद्+क्त] क्रदित, विलापित, शोकाकुल हुआ। रुषःस्थली (स्त्री०) कोपवती। (जयो० १७/१०३) (सुद० १०९)
रुष्टा (वि०) क्रोधित हुआ. कुपित हुआ। (जया० २०६८) रुद्ध (भू०क०कृ०) [रुध्+क्त] अवरुद्ध, बाधा युक्त, रुका रुह् (अक०) उगना, फूटना. अंकुरित होना। (मुद० २.३३) हुआ विरोधी।
०उपजना, विकसित होना, बढ़ना। घिरा हुआ। (सुद० २/)
उठना, उन्नत होना, चाहना। (जयो०० ८/६०) रुद (वि०) [रोदिति-रुद्र क्] भयंकर, भयानक, डरावना, स्वस्थ होना। भीषण।
रुहू (सक०) रखना, उठाना, निदेशित करना, आरोपित करना। रुद्रः (पुं०) आदि देव, शिव।
नियुक्त करना। रुद्रपक्षः (पुं०) भीषण पक्षा (जयो० १/२( (जयो० १/१५) रु/रुह (वि०) अंकुरित हुआ, उत्पन्न हुआ। रुद्राक्षः (पुं०) रुद्राक्ष नामक वृक्षा
रुद्धा (स्त्री०) [रुह्+टाप्] दूर्वा, घास, दूबड़ा। रुद्राक्षमाला (स्त्री०) रुद्राक्षमा। (जयो० २४/८३)
रुक्ष (वि०) [रुक्ष्+अच्] खुरदरा, रुखा, कठोर। रुद्राणी (स्त्री०) पार्वती, गौरी। (दयो०१/१६)
०कसैला। रुद्रावासः (पुं०) कैलास पर्वत, हिमालय।
असम, कठिन, कर्कश। ०श्मशान।
दूषित, मलिन, मैला। रुध् (सक०) अवरुद्ध करना, रोकना, विरोध करना।
क्रूर, निर्दय। विघ्न डालना, बाधा डालना।
नीरस, सूखा, शुष्क। ०थामना, संधारण करना।
रुक्षणं (नपुं०) [रुक्ष् ल्युट्] सुखाना, पतला करना। बांधना, बन्द करना।
रुढ (भू०क०कृ०) [रुह्+क्त] ०अंकुरित, उगा हुआ, उपजा ०सीमित करना, घेरना। छिपाना, ओझल करना।
विकसित, वृद्धि को प्राप्त। ०गुप्त करना।
विस्तृत, विकीर्ण, बृहद्। आज्ञा मानना, स्वीकार करना।
०स्थूलकाय। नियंत्रण करना।
विदित, ज्ञात। रुधिरं (नपुं०) [रुध्+किरच्] ०लहू, खून।
०व्यापक। मंगलग्रह।
०आरुढ़। (सम्य० १२६) रुरुः (पुं०) हरिण। मृग।
शब्द रुढ़। रुवर्णाभावः (पुं०) 'रु' वर्ण का अभाव। (जयोवृ० ११/५२) । रुढिः (स्त्री०) [रुह+क्तिन्] ०परम्परा, प्रथा, रिवाज। रुश् (सक०) नष्ट करना, मारना, घायल करना।
प्रसिद्धि, ख्याति। रुशत् (रुश्+शत्) घायल करने वाला, चोट पहुंचाने वाला, उगना, उपजना। नष्ट करने वाला।
वृद्धि, विकास, वर्धन। रुष (अक०) रुषना, नाराज होना।
प्रचलित अर्थ। ___०क्षुब्ध होना, रोष करना। (जयो० ७/८२)
रुप (सक०) गढ़ना, बनाना। रुष्ट होना, क्रोधित होना। (सुद० १०८)
विचार करना, निश्चित करना। रुष् (स्त्री०) क्रोध, कोप, गुस्सा, रोष।
०ढूंढना, खोजना, अन्वेषण करना। रुषा (स्त्री०) क्रोध, कोप, गुस्सा, रोष। (जयो० ३/५)
परीक्षा करना, अनुसंधान करना। रुषाङ्कित (वि०) क्रोध से युक्त, रोष सहित। (जयो० २४/२८) | रुपं (नपु०) ०आकृति, शक्ल।
हुआ।
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रुपक:
८९९
रेखा
०रूपता, प्रकार। 'निवृत्तिरूपं चरणं मुदे वा' (सम्य० रुपदानं (नपुं०) रुपये का दान। १३०) सद्वृत्तिरूपं चरणं श्रुतं च। (सम्य० १२८) रुपदात्री (वि०) स्वरूप प्रतिपादन करने वाली। ०स्वरूप, वस्तु स्वभाव।
रुपधुरी (स्त्री०) रूप युक्त। (सुद० १२०) प्रकार, भेद, जाति।
रुपनिधिः (स्त्री०) सौंदर्य सिन्धु। प्रतिबिम्ब, प्रतिच्छाया।
रुपमाला (स्त्री०) सौंदर्य परम्परा। (जयो० २२/८६) (जयो० सादृश्य समरूपता।
११/९२) रमणीय स्रग। ०ध्वनि, शब्द।
रुपया (स्त्री०) चमेली। ० धातुरूप, शब्द रूप।
रुपराशिः (स्त्री०) सौंदर्य समूह। (जयो० ३/६३) रुपकः (पुं०) [रूप्+ण्वुल] रुपया, सिक्का। नगर कलदार। रुपरेखा (स्त्री०) वर्णन प्रक्रिया। (वीरो० १/२९) रुपकं (नपुं०) शक्ल, आकृति।
रुपवत् (वि०) मनोहर, सुंदर। चिह्न, चेहरा-मोहरा।
शारीरिक सौंदर्य युक्त। प्रकार, जाति।
रुपवती (स्त्री०) सौंदर्यशाली। (जयो० ६/४१) ०रूपक नाट्य विशेष। 'दृश्यं तत्राभिनेयं तद्रूपारोपात्तु रूपकम्' रुपसम्पदि (स्त्री०) रूप-चेष्टा (जयो० ४/९८) (सुद० १/४१) (साहित्य दर्पण)
सौंदर्य भाव, रमणीयता। रूपक अलंकार-जिसमें उपमेय को उपमान के ठीक | रुपसुधासवित्री (वि०) रूप सुधा को जन्म देने वाली। समनुरूप वर्णित किया जाता है।
(जयो० १/६४) ०रूप सौंदर्य। रूपकं यत्र साधादर्थयोरभिदा भवेत्।
रुपाचलं (नपुं०) एक पर्वत। (भक्ति० ३६) सम्स्तं वा समस्तं वा खण्डं वाखण्डमेव वा।।
रुपाजीवा (स्त्री०) वेश्या। (सुद० ११९) (वाग्भटालंकार ४/६४) जहां धर्मसाम्य के कारण उपमेय रुपान्तूपासकाधिपः (पुं०) श्रावक शिरोमणि। (सुद० १३४) और उपमान में भेद ही न रह जाय, वहां 'रूपक' रुपाभृत (वि०) रूप वाला। (सुद० ३/९) अलंकार होता है।
रुपिणी (वि०) मनोहारिणी। (जयो० १०/३८) ०समासयुक्त।
रुपी (स्त्री०) रूप, रसादि युक्त। समास रहित।
रुप्य (वि०) [रूप+यत्] सुंदर, ललित। अपूर्ण और पूर्ण। अपूर्ण को निरङ्ग और पूर्ण को रुप्यं (नपुं०) चांदी, रुपया। साङ्गरूपक कहते हैं। (वीरो० ५/२५, जयो००० २५/२) रुप्यकः (पुं०) नाणक। (जयो० १५/४२) रुपया। हिमालयोल्लासि गुण स एव द्वीपाधिपस्येव धनु विशेषः। रुष् (सक०) अलंकृत करना, सजाना, विभूषित करना। ०रूपकयुक्तसमाभसो क्ति, रूपकयुक्तापहृति। ०पोतना, चुपड़ना, मण्डित करना, लीपना। (वीरो० २/५७) (जयो० १४/६९) रूपक श्लोषानुप्राणित रुषित (भू०क०कृ०) [रुष्+क्त] अलंकृत। (जयो०वृ० ७/६४) वाराशिवंशस्थितिरातिविभाति भोः! पाठका बिछाया हुआ। क्षात्रयशोऽनुपाती। (वीरो० २/७) (जयोवृ० ३/२३, जयो० ०खुरदरा, सूखा, रूक्ष। २१/७५, जयो० २६/६९, ६/१०४, ८/९, ८/३५, रे (अव्य०) [रा+के] सम्बोधनात्मक अव्यय, अरे, अये. ८/४२, ८/५८) संसदीह नियतो नृपासने सोऽजयज्जयनृपः (सुद०८८) (सुद० १३५) रे सम्बोधने। (जयो० १३/७९) कृपाशने। दुर्मदाचलभिद: सदा स्वतो धारक: रेकहा (स्त्री०) भंकाहर, नीचवृत्ति परिहारक। (जयो०वृ०२१/३६) क्षणलसच्चमत्कृतः।। (जयो० ३/१९)
रे रेः (अव्य०) अरे, अये। (समु०३/२९) 'रे रे कियज्जल्पसि रुपकरणं (नपुं०) रूपोद्योतन। (जयो० ४/६६)
कोऽसि' (समु० ३/२९) रुपणं (नपुं०) [रूप+ल्युट] गवेषण, परीक्षा।
रेखा (स्त्री०) [लिख्+अच्+टाप् लस्य र:] ०पंक्ति, लकीर, आलंकारिक वर्णन।
श्रेणी। रेखैकिका नैव लघुर्न गर्वी लध्व्याः परस्या भवति रुपता (वि०) स्वरूपता। (सम्य० १४४)
स्विदुर्वी। (वीरो० १९/५)
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रेखांकन
९००
रोचनं
चित्रांकन, रेखांकन, आलेखन. विलेखन।
रेवटः (पु०) [रेव+अटच्] सूकर, सूअर, बांस की छड़ी। अंश, भाग।
०बवंडर। रेखांकनं (नपुं०) चिह्न। प्रतीक. ०रेखा चित्र, लेखसंकेत। | रेवतः (पुं०) [रेव+अतच्] नींबू वृक्षा रेखाङ्कित (वि०) पंक्तिबद्ध। (जयो०८/६६)
रेवती (स्त्री०) नक्षत्र विशेष। रेखात्रयं (पुं०) तीन रेखाएं। स्वर्गात् सुरद्रो सलिलान्नलस्य रेवा (स्त्री०) रेवा नदी, नर्मदा नदी।
लताप्रतानस्य भुवोऽपकृष्य। सारं किलालङ्कृत एष हस्तो ०रति, रुचि। रेवा नीली स्मरस्त्रियो इति विश्वलोचना: रेखात्रयेणेत्यथवा प्रशस्तः।। (जयो० १/५०)
(जयो० २७/७) रेखात्रित्रयं (नपुं०) त्रिसूत्री। (जयो०१० ५/५०)
रेवारसः (पुं०) आनन्द रस। 'रेवाया रते रस आनन्दः' (जयो० रेखागणितं (नपुं०) ज्यामिति। रेखाओं से गणना।
२/१२३) रेखानुबिद्ध (वि०) रेखांकित। (वीरो० ८/३)
रेष् (अक०) दहाड़ना, चिल्लाना। रेखापरम्परा (स्त्री०) अंकपाली। (जयो०७० २३/२५) रेषणं (नपुं०) [रेष्+ल्युट] दहाड़ना, चिल्लाना। रेखाव्याप्त (वि०) रेखा की व्यापकता युक्त। (जयो०१० रै (पुं०) [राते: डै:] धन, सम्पत्ति, वैभव। ६/१०५)
रैवतः (पुं०) [रेवत्या अदूरो देश:) रैवतक पर्वत। रेचक (वि०) [रेचयति रिच णिच्+ण्वुल] रिक्त करने रैवतकः (पुं०) रैवतकगिरि। वाला।
रोक (नपुं०) [रु+कन्] छिद्र। रेचकः (पुं०) श्वसन, श्वांस।
०नाव, नौका, जहाज। रेचकं (नपुं०) दस्त, विरेचन।
निःसंकोच-'रोकस्तु रोचिषी 'ति विश्वलोचन' (जयो०१० रेचनं (नपुं०) [रिच्+ल्युट्] ०रिक्त करना।
१/८४) ०घटाना।
रोकारः (पुं०) रोज, प्रतिदिन। (जयो० १७/११७) श्वास बाहर निकालना, मल बाहर निकालना।
रोगः (पुं०) [रुज्+घञ्] रोग, व्याधि, पीड़ा, कष्ट। रेचित (वि०) [रिच्+णिच्+क्त] साफ किया गया, विरेचित। नरकादि दुःख, संयुतोऽपि समञ्जसि भोगानात्मनाऽनुभवितुं श्वसित।
किल रोगान्। (समु० ५/३) रेज् (अक०) सुशोभित होना। (जयो० ३/१०१)
रहस्य (सुद० १०७) रेणुः (स्त्री०/पुं०) धूल, रजकण. रेतल। धूली, पांशु। (जयो०० रोगकरी (वि०) रोग युक्त, व्याधि वाला। (वीरो० १७/४) १/१०४) (मुनि० २२, जयो० ३/११)
रोगगत (वि०) दुःख से प्राप्त हुआ। ०पराग, पुष्परज।
रोगग्रस्त (वि०) दु:ख से पीड़ित। रेणुका (स्त्री०) परशुराम की माता।
रोगस्थानं (नपुं०) व्याधि से पीड़ित रेणुगत (वि०) पांशुगत।
रोगहर (वि०) पीड़ा नाशक। रेणुभारः (पुं०) धूलि पुञ्ज। (जयो० १३/१०३)
रोगहारिन् (वि०) चिकित्सा विषयक। रेतस् (नपुं०) वीर्य, धातु। (सुद० १००)
रोगिणी (स्त्री०) रोगग्रस्त स्त्री। (जयो० १६/१८) रेप (वि०) तिरस्करणीय, नीच, अधम, निम्न।
रोगी (वि०) रोगग्रस्त व्यक्ति। रेपः (पुं०) कूर, निष्ठुर।
रोचक (वि०) [रुच्+ण्वुल] ०रुचिकर, रंजक, सुखद। (जयो० रेफ (वि०) [रिफ+अच्] निम्न, अधम।
१२/१२८) निन्दित। रेको निन्दितो' (जयो०७० २४/१३९)
० भूख बढ़ाने वाला, उत्तेजक। क्षुधोत्तेजक। मञ्जुल (जयो० २४/१४१) भयंकर। (जयो० ७/२५) रोचकं (नपुं०) भूख। रेफः (पुं०) 'र' वर्ण।
रोचनं (नपुं०) सुंदर, प्रिय, इष्ट। रेफो 'र' वर्ण पुंस्येवकुत्सिते.
०लाल कमल, रक्तकमल। कूटशाल्मलीवृक्षा रोचनो त्वभिधेयवत् इति विश्वलोचनः।
रक्तकहलारेकूट शाल्मलि-शाखिनि इतिवि (जयो० २१/८६) (जयो०वृ० २४/१४१)
० उज्ज्वल, आकाश, अन्तरिक्ष।
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रोचना
९०१
रोषः
रोचना (स्त्री०) [रोचन+टाप्] सुंदर स्त्री।
रुचिकरी। (जयो० ३/६३)
उज्ज्वल आकाश, स्वच्छ अन्तरिक्ष। रोचनकारक (वि०) रुचिकर। (जयो०१/२०) (सुद० १२७) रोचमान (वि०) [रुच्+शानच्] उज्ज्वल, स्वच्छ, साफ।
कान्तिमान, प्रभावान्। रोचित (वि०) रुचिकर, प्रिय। रोचिष्णु (वि०) [रुच्+इष्णुच्] चमकीला, उज्ज्वल, चमकदार।
देदीप्यमान। प्रफुल्लवदन।
क्षुधावर्धक। रोचिस् (नपुं०) [रुचे: इसिः] प्रकाश, आभा, कान्ति, प्रभा। रोदनं (नपुं०) [रुद्+ल्युट्] रोना, (जयो० १/११) क्रंदन |
करना। (जयो० १४/६१, दयो० १६) रोदस् (नपुं०) [रुद्+असुन्] आकाश और पृथ्वी। रोदित (वि०) कलकलकरण। (जयो० १८/४५) रोधः (पुं०) [रुध्+घञ्] अवरोध, गतिरोध, बाधा, विघ्न।
(मुनि०३) ०दबाना, प्रतिबन्ध लगाना. पकड़ना, रोकना। (सुद०९२)
०बन्द करना, घेरना। रोधनः (पुं०) [रुध्+घञ्] बुधग्रह। रोधनं (नपुं०) [रुध्+ल्युट्] रोकना, ठहराना।
निरोध, अवरोध, गतिरोध, नियंत्रण, बाधा। रोधकरणं (नपुं०) निरोध करना, रोकना। (सुद० ९२) रोधवशः (पुं०) रोध का कारण, अवरोधवश। (सुद० १३३)
गतिरोधवशेनासावेतस्योपरि रोषणा। (सुद० १३३) रोधस् (नपुं०) [रुध्+असुन] ०बांध, पुल, तटबन्ध।
किनारा, ऊंचा गतिरोधा रोधः (पुं०) [रुध्+रन्] लोध्रवृक्ष। रोधं (नपुं०) पाप, अपराध, क्षति। रोपः (पुं०) उगाना, बौना, रोपना! ___ पौध लगाना।
छिद्र, गह्वर। रोपणं (नपुं०) रोपना, उगाना।
०जमाना, उठाना।
पौंध लगाना। रोमकः (पुं०) रोम नामक नगर। रोमकूपः (पुं०) चमडी के ऊपर छिद्र।
रोमकेशरं (नपुं०) चंवर, मुरछल। रोमगर्तः (पुं०) रोम छिद्र। रोमन् (नपुं०) रोम, शरीर के छोटे-छोटे बाल। रोमन्थः (पुं०) जुगाली, चर्वण। रोमपङ्क्तिः (स्त्री०) लोमाली। (जयो० १६/८२) रोमपुलकः (पुं०) हर्षातिरेक, रोंगटे खड़ा होना। रोमभार (पुं०) रोमाञ्चपन। (वीरो० १२/४५) रोमभूमिः (स्त्री०) बालों का स्थान। रोमरन्धं (नपुं०) रोमकूप। रोमराजिः (स्त्री०) रोमावली। रोम समूह। रोमलता (स्त्री०) रोम समूह। रोमविकारः (पुं०) पुलक, रोमाञ्च। रोमविक्रिया (स्त्री०) पुलक, रोमाञ्च। रोमविभेदः (पु०) पुलक, रोमाञ्च, हर्ष। रोमहर्षः (पुं०) रोमों का खड़ा होना। रोमहर्षणः (पुं०) बहेडा, विभीतक। (जयो० २१/३५) रोमाङ्कः (पुं०) ०रोम चिह्न। रोमाणी (वि०) रोमाञ्चित, हर्षित। (वीरो० १५/१४) रोमाञ्चः (पुं०) हर्ष, खुशी, पुलक, आनंद। (जयो० ३/८३) ___ 'सूचीव रोमाञ्चततीप्यहो सकृत्' (वीरो० ९/२०)
अञ्चन (जयो०१० ३/३४) रोमाञ्चकारिणी (वि०) रोमाञ्च को उत्पन्न करने वाली.
आनन्दकारिणी। 'यत्कथा खलु धीराणामपि रोमाञ्चकारिणी। रोमाञ्चनं (नपुं०) आनंद, खुशो, पुलकभाव। (जयो० २२/२१) रोमाञ्चनतः (वि०) रोमाञ्चकारी। (सुद० ७९) रोमाञ्चभर (वि०) हर्ष से परिपूर्ण, आनन्द युक्त। (जयो०१८४८) रोमाञ्चित (वि० ) हर्षित, अंकुरित। (जयो० ३/९३) पुलकित
उत्कण्ठित। (जयो०वृ० ११८९) रोमावली (स्त्री०) रोमपंक्ति. रोमराजि। ( वीरो० ३/२१) रोमोद्गम (वि०) परिपुष्ट। (जयो०१० १०/६०) रोरुदा (स्त्री०) [रुद्+यङ्+अ+टाप] प्रचण्डक्रदन, अत्यन्त
विलाप। रोलम्बः (पुं०) [रो+लम्ब्+अच्] भौंरा, भ्रमर। रोलम्बकुलः (पुं०) षट्पद समूह, भ्रमरसमूह। रोलम्बः षट्पदो
भृङ्गश्चञ्चरीकोऽलिरित्यापि' इति कोष (जयो० १४/६४) रोषः (पुं०) [रुष्+घञ्] कोप, क्रोध, गुस्सा। (सुद० २/४७)
जनेषु वा रोषमितेऽपि भूपे। (सुद० १०७) क्रोधनस्य पुंसूक्तीव्रपरिपणामो रोषः। (नि०स०७०६)
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रोषकर
९०२
उपसर्ग (सुद०१३३) गतिरोधवशेनासावेतस्योपरि रोषणा। (सुद० १३३) तमस्। (जयो०वृ० ४/२५) द्वेष। भूरागस्य न वा रोषस्य न, शान्तिमयी सहजा वा।
(सुद०७४) रोषकर (वि०) गुस्सा करने वाला। रोषकारक (वि०) कोप को बढ़ाने वाला। रोषगत (वि०) उपसर्ग को प्राप्त। रोषगात्र (वि०) कुपित शरीर वाला। रोषजन्य (वि०) क्रोधजन्य। रोषताप (वि०) क्रोध से पीड़ित। रोषभावः (पुं०) क्रोध भाव। रोषशील (वि०) द्वेष शील। रोषहर (वि०) क्रोध को जीतने वाला। रोषाग्नि (स्त्री०) क्रोध रूपी अग्नि। रोषारूणं (नपुं०) प्रभातिकमरूणिमा, प्रात:कालीन लालिमा।
(जयो० १८/३६)
०कोपासण, क्रोध से तमतमाया हुआ। (जयो० १३/१०७) रोहः (पुं०) [रुह्+अच्] गहराई, ऊंचाई।
०बुद्धि विकास।
०कली. बौर, अंकुर। रोहणः (पुं०) [रुह ल्युट्] एक पर्वत नाम। रोहणं (नपुं०) आरोहण, सवार होना। रोहणद्गुमः (पु०) चन्दन तरु। रोहन्तः (पुं०) वृक्ष। रोहन्ती (स्त्री०) लता। रोहिः (पुं०) [रुह इनि] हरिण।
०धर्मात्मा व्यक्ति। ०वृक्षा
०बीज। रोहिणी (स्त्री०) [रुह्इनन् ङीष्] ०लाल रंग की गाय।
नक्षत्र विशेष, चतुर्थ नक्षत्र। एक प्रसिद्ध रानी।
०बलराम की मातुश्री। रोहिणीपतिः (पुं०) चन्द्र। रोहिणीप्रियः (पुं०) चन्द्र। रोहिणीरमणः (पुं०) चन्द्र। रोहित (वि०) लाल रंग।
रोहितः (पुं०) लोमड़ी, रोहित मछली। (दयो० १४) रोहितं (नपुं०) रुधिर।
केसर। रोहिताश्वः (पुं०) अग्नि, आग। रोहिषः (पुं०) [रुह इषन्] रोहित मछली। रौक्ष्यं (नपुं०) [रुक्ष् ष्यन्] कठोरता, रुखापन।
कर्कशता, क्रूरता। रौद्र (वि०) चिड़चिड़ा, गुस्से वाला।
भीषण, बर्बर, भयानक। रौद्रं (नपुं०) जोश, उमंग, क्रूर, कोप। रुद्रः क्रूराशयः तस्य
कर्म तत्र भवं वा रौद्रम्।
निरन्तर प्राणवधादिक चिन्तन। ० भीम, भयानक। 'रुद्राशयभवं भीमपि' रोदयते प्राणिन
इति रुद्रो हिंस्त्रो रुद्रेभवं रौद्रम्' (जैन०ल० ९६४) रौद्रध्यानं (नपुं०) रुद्र परिणामों से युक्त ध्यान। (समु०
४/३७) क्रूरमनुष्य का ध्यान। अन्येषां हतये मृषोक्तिकृत्ये चौर्यप्रयोगाय वा. वित्ताद्यर्जन हेतवे च य इमे चित्तानुरक्तिस्तवाः। (मुनि० २१) ०मानसिक अनुराग। (समु०८/३६) हिंसानंदी, मृषानन्दी, मौर्यानन्दी और परिग्रहानन्दी ये चार मनुष्य के क्रूरभाव है,
इनका चिन्तन रौद्रध्यान है। (मुनि० २१) रौद्रपरिणामः (पुं०) रौद्रभाव। (समु० ४/३७) रौद्रमानसः (नपुं०) रौद्रध्यान। (समु० ५/३४) रौप्य (वि०) चांदी से संबंधित, चादी से निर्मित। रौरवः (पुं०) बर्बर, कठोर. दुःखपूर्ण। नरक विशेष। (वीरो०
११/१९) (समु० १/३४) रौरव (वि०) [रुक+अण्] मृग की खाल से निर्मित। रौरवनरकः (पुं०) रौरव नामक नरक। (वीरो० ११/१९) रौहिणः (पुं०) चंदन तरु, वटवृक्षा रौहिणेयः (पुं०) बछड़ा, वत्स।
०बुध ग्रह। रौहिणेयं (नपुं०) पन्ना, मरकतमणि। रौहिष् (पुं०) हरिण। रौहिषः (पुं०) हरिण। रौहिषं (नपुं०) तृण विशेष।
लः (पुं०) अन्त:स्थ वर्ण इसका उच्चारण स्थान दन्त्य है।
(दयो० १४/८४)
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९०३
लक्ष्मीः
लः (पुं०) इन्द्र।
०ह्रस्वमात्रा। लक् (सक०) स्वाद लेना, चखना।
०ग्रहण करना, प्राप्त करना। लकः (पुं०) [लक्+अच्] मस्तक, सिर। लकचः (पुं०) बडहर तरु। लकुचाञ्चित (वि०) लीची वृक्ष से युक्त। (वीरो० ७/२५) लकुटः (पुं०) [लक्+उटन्] मुद्गर, सोंटा, दण्ड। लक्तकः (पुं०) लाख, महावर।
चिथड़ा, लत्ता, जीर्ण वस्त्र। लक्तिका (स्त्री०) [लक्तक+टाप्] छिपकली। लक्ष (सक०) प्रत्यक्ष करना, जानना, समझना।
०अवलोकन करना, देखना। निरंतर, परखना, ज्ञात करना। ०अंकित करना, चिह्नित करना।
प्रकट करना, मनोनीत करना। लक्षं (नपुं०) [लक्ष्+अच्] सौ हजार. लाख। (समु० २/२०)
चिह्न, संकेत, निशान।
छद्मवेश। लक्षक (वि०) [लक्ष्+ण्वुल] गौण रूप से अभिव्यक्त करने
वाला। लक्षकं (नपु०) लाख। लक्षणं (नपुं०) विवक्षित वस्तु को भिन्नता का बोध।
परस्परव्यतिकरे सति येनान्यत्वं लक्ष्यते तल्लक्षणम्। (त०वा०
२/८) लक्षणं (नपुं०) [लक्ष्यतेऽ नेन लक्ष करणे ल्युट्] चिह्न-'मष्टे
शुभलक्षणं सुतम्' (सुद० ३/१) विशेषता, खूबी, आकृति। (जयो० ६/१३) शरदं भुवि वर्षणात् पुनःक्षणवल्लक्षणमेत्य वस्तुनः। (सुद० ३/३२)
स्वरूप, परिभाषा, यथार्थ वर्णन। 'तस्मात् सम्यक्त्वमेक स्यादर्थात्तल्लक्षण। दपि' (सम्य० १२२) बोधक चिह्न, संकेत, निशान। (सम्य०८४) नाम, पद, स्थान, अभिधान। कारण, हेतु। चिह्न। (जयो० १/५३) (जयो० २/६)
०बहाना। लक्षणहीन (वि०) विलक्षण। (जयो०७० ६/५४) ०संकेत
रहित।
लक्षणा (स्त्री०) उद्देश्य, ध्येय।
०शब्द का परोक्षप्रयोग।
गौण सार्थकता। ० शब्द की एक शक्ति! मुख्यार्थ वाधे तद्योगे रुढितोऽथप्रयोजनात् अन्योऽर्थो लक्ष्यते यत्सा लक्षणारोपित
क्रियाः।। (काव्य ५) लक्षणान्वित (वि०) शुभलक्षणों से युक्त। लक्षणान्विति (स्त्री०) शुभ लक्षण की प्रतीति। सदनेक
सुलक्षणान्वितितनयेनाथ, लसत्तमस्थितिः। (वीरो०६/४०) लक्षण्य (वि०) [लक्षण+यत्] शुभ लक्षण वाला। लक्षशस् (अव्य०) [लक्ष+शस्] लाख लाख संख्या में, बड़ी
संख्या में। लक्षाधिपः (पुं०) लखपति। (सम्य० १००) लक्षित (भू०क०कृ०) [लक्ष्+क्त] ०अवलोकित, दर्शित।
चिह्नित, अंकित। उद्दिष्ट, परिभाषित।
परीक्षित। लक्षीकृत् (वि०) प्रत्यक्षीकृत, परीक्षित। (दयो०६०) लक्ष्मण (वि०) शुभ लक्षण युक्त, सौभाग्यशाली, समृद्धिशाली। लक्ष्मणः (पुं०) राम का अनुज लक्ष्मण, दशरथ पुत्र, सुमित्रा
तनुज। (समु० ४/१०) (सम्य० ६५) एक औषधि। (जयो०वृ० १३/५९)
सारस। लक्ष्मणा (स्त्री०) हंसिनी। लक्ष्मन् (पुं०) [लक्ष्+मनिन्] चिह्न, निशान, विशेषता।
अंकन, परिलक्षण।
सारस पक्षी। लक्ष्माधर्म (वि.) अधर्म के स्वरूप वाला। (सुद० ४/१२) लक्ष्मीः (स्त्री०) [लक्ष्+ई, मुट्+च] विष्णु पत्नी। (सुद०
२/११ हरि रामा (जयोवृ० १४/८८) 'तयोरेका सुता लक्ष्मीरिवाभूदब्धिवेलयोः' (दयो० १/१७)
सौभाग्यवती, समृद्धि, धनदेवी, (जयो० ७) सौभाग्य। ० श्री। (जयो०वृ० १२/१३) इन्दिरा। (जयो०१० ५/८७) मोती। हल्दी। प्रियता, लावण्य, सौंदर्य। ०दानस्वभावी, त्यागलक्षणा। 'लक्ष्मीति शब्दस्य प्रथमैकवचने
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लक्ष्मीक्षः
९०४
__ लघु
सम्प्राप्तस्य विसर्गाभावस्य लोपो न भवति, यथा नद्यादिशब्दस्य
भवति' (जयो० १३/३५) लक्ष्मीक्षः (पुं०) विष्णु।
०आम्र तरु। ०अहकार।
०भाग्यशाली व्यक्ति। लक्ष्मीकान्तः (पुं०) विष्णु। नृप। लक्ष्मीगत (वि०) धनकोष प्राप्त। लक्ष्मीगृहं (नपुं०) रक्त कमल, पद्म। लक्ष्मीनाथः (पुं०) विष्णु। लक्ष्मीनिवासः (पुं०) धनदेवी का वास। (जयो० ६/१२९) |
(जयो० १/४९) लक्ष्मीपतिः (पुं०) विष्णु। ___ सुपारी का पेड़। लक्ष्मीपुत्रः (पुं०) कामदेव, धनिक, धनवान्। लक्ष्मीपुष्पः (पुं०) लाल। लक्ष्मीपूजनं (नपुं०) धन की पूजा। लक्ष्मी अर्चना। लक्ष्मीपूजा (स्त्री०) लक्ष्मी अर्चना। लक्ष्मीफलः (पुं०) बिल्व तरु। लक्ष्मीमति (स्त्री०) सेनापति गङ्गराज की पत्नी। (वीरो०
१५/५०) लक्ष्मीरमणः (पुं०) विष्णु। लक्ष्मीवसति (स्त्री०) लक्ष्मी का निकास, पद्म निवास। लक्ष्मीवारः (पुं०) बृहस्पतिवार। लक्ष्मीवेष्टः (पुं०) तारपीन। लक्ष्मीसहजः (पुं०) चन्द्र। लक्ष्य (सं०कृ०) [लक्ष+ ण्यत्] ०दृश्य, पश्य, देखने योग्य। ।
०ज्ञातव्य, प्राप्त। चिह्नित, अंकित।
संकेतित, अभिज्ञेय। लक्ष्यं (नपुं०) उद्देश्य, चिह्न, निशाना। (सुद० १३५) लक्ष्यक्रम (वि०) प्रत्यक्षज्ञेय। लक्ष्यभेदः (पुं०) निशाना लगाना। उद्देश्य पूर्ति। लक्ष्यवलना (स्त्री०) शरण्य परम्परा, बाणों का लक्ष्य।
(जयो०१४/३१) लक्ष्यसुप्त (वि०) उद्देश्यविहीन सोया हुआ, असत्य सोया
हुआ। निद्रा की भूमिका वाला। लग् (अक०) लग जाना, चिपकना, मिलना, सम्मिलित होना।
लगतु (सुद ५/३) ०लगना, प्राप्त होना। (जयो० १०/२३)
लगड (वि०) प्रिय, रमणीय, मनोहर। लगवणं (नपुं०) व्यञ्जन। (जयो०१० २८/३४) लगदलि (पुं०) भ्रमर, भौंरा। (वीरा० ६/३८) लगित (भू०क०कृ०) [लग+क्त] संबद्ध, अनुसक्त, प्राप्त,
उपलब्ध। लगुडः (पुं०) मुद्गर, लाठी, लकड़ी। (दयो० ९७) (समु०
२/३१) दण्ड, डण्डा। (जयो० २५/४४) लग्न (भू०क०कृ०) [लग्+क्त] जड़ा हुआ, चिपका हुआ।
अनुषक्त, संबद्ध। (सम्य० ९०) लग्नः (पुं०) भाट, चारण। लग्नं (नपुं०) संपर्क बिन्दु, शुभ दिन का मुहूर्त। (सम्य० ९०) लग्नकुण्डलकः (पुं०) लग्नस्थान। (जयो०वृ० १७/५६) लग्नदिनः (नपुं०) शुभदिन। लग्ननक्षत्रं (नपुं०) शुभनक्षत्र। लग्न गवत् (वि०) भुंगचिह्न युक्त। (सुद० ३/१६) लग्नमण्डलं (नपुं०) राशिचक्र। लग्नमासः (पुं०) शुभ महीना। लग्नविधि (वि०) शुभविधि। (दयो० ६९) मंगल प्रसंग। लग्नशुद्धिः (स्त्री०) मंगल प्रसंग। लग्निका (स्त्री०) [लग्न कन्+टाप्] लग्नक्रिया। लघिमन् (पुं०) [लघु+इमनिच्] ०हलकापन।
कम करना, घटाना, धीमा करना, न्यून करना। तिरस्कार करना, घृणा करना।
०लघुता, नगण्यता। लधिमा (स्त्री०) लघुता, स्वल्पीभाव। (जयो० ४/६१) एक
ऋद्धि विशेष, जिस ऋद्धि से वायु के समान अतिशय लघु शरीर किया जा सके। 'वायोरपि लघुतरशरीरता
लघिमा' (त०वा० ३/३६) लघिष्ठ (वि०) [अयमेषामतिशयेन-लघु+इष्ठन्] हलके से
हलका, बहु लघु। लघीयस् (वि०) [अयमनयो अतिशयेन लघुः ईयमुन] अत्यन्त
हलका, बहुत हलका। लघु (वि०) हल्का, अल्प।
०न्यून, तुच्छ, कम। ०हस्व, संक्षिप्त, सामासिक। ०क्षुद्र, तृणप्राय, नगण्य, महत्त्वहीन।
नीच, अधम। ०अशक्त, दुर्बल, ओछा।
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लघुकाय
९०५
लञ्जः
०चुस्त, फुर्तीला, चपल।
प्रिय, मनोहर, सुंदर. रमणीय। लघुकाय (वि०) हलके शरीर वाला। लघुक्रम (वि०) जल्दी चलने वाला। लघुखट्विका (स्त्री०) खटोला। लघुगोधूमः (पुं०) छोटी जाति का गेहूं। लघुचित्त (वि०) हलके मन वाला। लघुचेतस् (वि०) हलके चित्त वाला। लघुजङ्गलः (पुं०) लवा पक्षी। लघुता/लघुत्व (वि०) हलकापन, लाघव। (जयो० २०/६३)
अल्पत्व (जयो० २०।८१) (वीरो० २२/३२) ममाऽमृदुगुरङ्कोऽयं सोमत्वादतिवर्त्यपि। विकासयतु पूषेव मनोऽम्भोज मनस्विनाम्।। (वीरो०२२/३२) नगण्यता, महत्त्वहीनता, तिरस्कार। ०अपमान, निरादर। संक्षेप, संक्षिप्तता। सुगमता, सुविधा।
निरर्थकता, स्वेच्छाचारिता। लघ्वी (स्त्री०) [लघु+डीष] हलकी, अल्प, लघुतरा।
कोमलांगी स्त्री। लङ्का (स्त्री०) लंका, रावण की राजधानी। लङ्कार्थ (वि०) व्यभिचारिणीनार्थ। (वीरो० ) लाधिपः (पुं०) रावण। लङ्काधीशः (पुं०) रावण। (सुद०८८) लङ्कापति (देखो ऊपर)। लकनी (स्त्री०) लगाम की बल्गा। लङ्गः (पुं०) लंगड़ापन। लङ्गलं (नपुं०) लांगूल जंगली पशु। लङ्ग (अक०) उछलना, मूदना, छलांग लगाना। (जयो०१/७३)
चढ़ना, सवारी करना। ०आक्रमण करना, झपट्टा मारना। उल्लंघन करना, अतिक्रमण करना। उपवास करना।
०अवज्ञा करना। लङ्घनं (नपुं०) उपवास, संयमा अनशन, तप का भेद।
(जयो० २९/१०) छलांग, उछाल, कूदना।
०चढ़ना, उठना। ०हानि, अपमान।
०अनिष्ठ, क्षति। लङ्गनाशय (वि०) मार्गातिक्रम। (जयो०७० ३/१५) उल्लंघन
का अभिप्राय। लवित (भू०क०कृ०) [लङ्घ+क्त] ०उपवासित।
०अवज्ञात। ०अपमानित, अनाहत।
उल्लंघन किया गया। ०पार किया गया। लड़ितवती (वि०) अतिक्रमावती (जयो० २२/१०) लछ् (सक०) चिह्न लगाना, देखना। लज् (सक०) छिपाना, ढकना। लज्ज (अक०) लज्जित होना, कलंकित होना, शर्मिंदा होना।
(जयो०० ६/१२०) 'कामो न तु लज्जेति' (जयो०वृ०
६/१२०) लज्जा (स्त्री०) [लज्ज्+अ+टाप्] शर्म, त्रपा। (जयो०६/४८)
०लज्जा नामक स्त्री (जयो० १७/२०) शर्मीलापन, शर्मिंदगी।
छुईमुई का पौधा। लज्जाकर (वि०) शर्म को प्राप्त हुआ। लज्जाधर (वि०) विनय धारक। लज्जायवती (स्त्री०) लज्जाशीला। (जयो० १७/९२) लज्जालु (वि०) विनयशील, शर्मीला। लजाया हुआ। लज्जालुता (वि०) ह्रीणता, लज्जायुक्त हुआ। (जयो०वृ०
१७/२८) लज्जालुभावः (पुं०) अपत्रपा। (जयो० २४/२३) लज्जाविहीन (वि०) लज्जारहित, विनयहीन। (जयो० १७/२०) लज्जासरि (स्त्री०) त्रपापगा। (जयो० १७/७४) लज्जास्पदः (पुं०) लज्जायुक्त। (सुद०८७) लज्जित (भू०क०कृ०) [लज्ज+क्त] विनयशील, शर्मीला।
०लजाया हुआ, शर्मिंदा। लङ्ग (सक०) कलंक लगान, निन्दा करना।
०भूनना, तलना।
मारना, नष्ट करना। ०कहना।
०प्रहार करना। लञ्जः (पुं०) [लञ्ज+अच्] पांव, पैर।
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लञ्जा
० पूंछ ।
० कच्छा, धोती की लांग ।
लञ्जा (स्त्री०) [लख+टाप्] ०कच्छा (जयो० ७/४३)
०धार।
० व्यभिचारिणी स्त्री ।
० लक्ष्मी।
० निन्द्रा |
लञ्जिका (स्त्री०) [लञ्ज+ण्वुल्+टाप्] ० रण्डी, वेश्या
(जयो० १३/४०)
लट् (अक० ) तुतलाना, क्रंदन करना, रोना । लटः (पुं०) [लट्+अच्] मूर्ख, बुद्ध । ० त्रुटि, दोष । ● लुटेरा |
लटकः (पुं०) [लट् + क्वुन् ] ०ठग, धूर्त, छली । लटभ (वि०) सुंदर स्त्री, तरुणी
।
● लावण्यमय मनोहर, प्रिय
लट्ट (पुं०) दुष्ट, बदमाश । लव (पुं०) [लटे: क्वन्] घोड़ा, अश्व
०नट।
० अलक। ० गैरेया |
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लड् (अक० ) खेलना, क्रीड़ा करना। लड् (सक०) फेंकना, उछालना।
०कलंक लगाना।
०जीभ लपलपाना, दुलारना, पुचकारना, सताना । लड्डुः (पुं०) लड्डू, मोदक (जयो० ६/ १२१) (जयो० ४/५१) लड्डुकः (पुं०) देखो ऊपर।
लड्डुकं (नपुं०) मोदकानि लड्डुकानि च। (दयो० ९५, जयो०वृ० ४/५ ) (जयो०वृ० १२ / ११३ ) लड्डुभक्तिः (स्त्री०) मोदक भक्षण (जयो० २६ / ३८ ) लण्ड् (सक० ) ऊपर उछालना, फेंकना।
लण्डं (नपुं० ) [ लण्ड्+घञ् ] विष्ठा, मल। लण्डू (पुं०) लंदन।
लता (स्त्री०) [लत+अच्+टाप्] ०बल्ली, बेल, वल्लरी (जयो० १ / ९१ ) ( सुद० ८१) 'जयस्य वाग्वाण्येव वल्लरी लता पल्लविता' (जयो०वृ० १ / ९) ० नवपल्लव युक्त वल्लरी नवपल्लवतो यथा लता शुशुभे साऽऽशु शुभेन वा सता । (वीरो० ६ / ३९ )
९०६
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लतागृहं (नपुं०) लतामण्डप, लताकुंज ।
लताग्रबुः स्थाङ्घ्रिता (वि०) लता पर चढ़ी हुई। लताग्रे दुष्टतया तिष्ठति स दुःस्थ स चासार्योघ्रतया (जयो०वृ० १४/२७) लताङ्गी (स्त्री०) लता से समान सुकुमार अंगो वाली (जयो० २१/७८)
लताजिह्नः (पुं०) सर्प, सांप।
लतातरु ( पुं०) साल वृक्ष, नांरगी का पेड़। लतापनसः (पुं०) तरबूज ।
लताप्रतानं (नपुं०) लतातन्तु, लताविस्तार । (जयो० १/५० ) ० वल्लरी संलग्न (वीरो० ९/४२)
• लता झुरमुट - 'लतानां प्रताने गता' (जयो० १४/२५) लताभवनं (नपुं०) लताकुंज।
लतामणि: (स्त्री०) मूंगा।
लब्ध
लतामण्डप (पुं०) लताकुंज, लतागृह । ०लताभवन, ० शीतगृह ।
लतामय (वि०) अंकुर ।
लतावल (नपुं०) लता सहित (सुद०२/२५)
लतामृग: (पुं०) वानर, बन्दर । लतायावकं (नपुं०) लतागृह, लताकुंज।
लतावृक्ष: (पुं०) नारियल का पेड़ ।
लतावेष्टः (पुं०) रतिबंध, संभोग का एक प्रकार । लतावेष्टनं (नपुं०) आलिंगन, संभोगजनक स्थिति । लतासदनं (नपुं०) लताकुंज ।
० ज्ञान प्राप्त किया।
० अवशेष |
लति (स्त्री०) आश्रय । ( सुद० ७९ )
लतिका ( स्त्री० ) [ लता + कन्+टाप्] छोटी लता, बेल, वल्लरी। ० मोतियों की लड़ी।
लत्तिका (स्त्री०) छिपकली ।
लप् (नपुं०) बोलना, वार्तालाप करना, कानाफूसी करना। ०दिखलाना, बतलाना। ( सुद० १३६ )
० दुहराना, बार-बार बोलना।
० मुकरना, मेंटना, झूठ बोल जाना।
,
लपनं (नपुं० ) [ लप् + ल्युट् ] बोलना, कथन, प्रतिपादन, वार्ता । ० मुख (जयो० १३/५, १३/४०) लपनोमानं (वि०) सुख साधन (सुद० १/२४) लपित (भू०क०कृ० ) [ लप्+क्त] कहा हुआ, बोला हुआ। लब्ध (भू०क० कृ० ) [ लभ्+क्त] ० प्राप्त किया, ग्रहण किया। ०उपलब्ध किया, स्वीकार किया।
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लब्धघात
९०७
लम्बोदरजा
लब्धघात (वि०) प्राप्तघात। (जयो० ८/२९)
लम्ब (अक०) लटकना, दोलायमान होना, हिलना। लब्धफलं (नपुं०) प्राप्त फल। (जयो० ३/९१)
०अनुषक्त होना। लब्धबाहु (वि०) अनावश्यक। (वीरो० २२/२२)
०पड़ना, पिछड़ना। लब्धविषय (वि०) विषय को प्राप्त। (जयो० २/२)
लम्ब् (सक०) उठाना। 'बहुशैत्यमितीरयंल्ललम्बे' (जयो० लब्धिः (स्त्री०) जीव समागम, ऋद्धि प्राप्ति, प्राप्ति, शक्ति १२/१२०)
आश्रय। (वीरो० ) एका दुरितस्य तादृक् क्षयोपशान्तिः ०ठहराना, आश्रय देना, दूर करना, बड़ा करना। ललम्बे लब्धि अस्ति।
(जयो० ८/१४) अर्थग्रहण शक्ति। (सम्य० ४२)
०हराना, बिछाना। ०क्षपोपशमविशेष लब्धि।
०थामना, संभालना। लम्भनं लब्धि अभिग्रहण, प्राप्ति।
लम्ब (वि.) [लम्ब्+अच्] दीर्घ। (जयो०वृ० १/२५) तप विशेष से प्राप्त ऋद्धि।
०लम्बमान, झूलता हुआ, लटकता हुआ। (सुद० ७८) लब्धिस्थानं (नपुं०) समस्त चारित्रस्थान की प्राप्ति 'सव्वाणि फैला हुआ, विस्तृत। (जयो० १/२५)
चेव चरित्तट्ठाणानि लद्धिट्ठणाणि' (कसाय पा० ६७२) ०बड़ा, विस्तार युक्त। लब्धिं (नपुं०) प्राप्त, अवाप्त, उपलब्ध।
चम्पू लम्ब। ०अध्याय, सर्ग। लब्बा (सं०) प्राप्त कर, पहुंचकर। (सम्य० ४३)
लम्बकः (पुं०) लंबरेखा अक्षांशरेखा। (जयो० १८/५३) लभ् (सक०) प्राप्त करना, ग्रहण करना। लभ्यनिष्ठति | लम्बकर्णः (पं०) गर्दभ। प्रातव्यवस्तु, अलब्धवान्। (सुद० १०१)
बकरा। अधिकार करना, स्वीकार करना। (सुद० १३३)
०हस्ति। जानना, सीखना।
०बाज, शिकरा। उपलब्ध करना, अवाप्त करना। (समु०८/१६)
पिशाच, राक्षस। समझना, प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त करना। (सम्य० ८९) लम्बजठर (वि०) मोटे पेट वाला, लम्बोदर। ०पहुंचना, (सम्य० ४३) लब्धा पदं तट्टति किञ्चशस्यैः' लम्बनः (पुं०) [लम्ब्+ल्युट्] शिव, शंकर। (वीरो०५/८)
कफ प्रधान प्रकृति। लभनं (नपुं०) [लभ ल्युट्] प्राप्त करना, ग्रहण, अवाप्त लम्बनं (नपुं०) झालर, लटकन। स्वीकार।
__उतरना, नीचे आना। जानना, सीखना।
लम्बपयोधरा (स्त्री०) लटकते स्तन वाली। ०पहुंचना।
लम्बबाहु (पुं०) लम्बी भुजा। (वीरो० ३/११) लभसः (पुं०) धन, वैभव, सम्पत्ति।
लम्बा (स्त्री०) लक्ष्मी, दुर्गा। लभसं (नपुं०) घोड़े की रस्सी।
लम्बिका (स्त्री०) [लम्ब्+ण्वुल्+टाप्] कोमल तालुका, लभ्य (वि०) [लभ कर्मणि यत्] ०प्राप्त होने के योग्य।
उपजिह्वा। गल कण्ठ का कौवा। ०पहुंचने योग्य, मिलने योग्य।
लम्बित (भू०क०कृ०) [लम्ब+क्त] लटकता हुआ, झूलता हुआ। ०योग्य, उपयुक्त, उचित।
___ अनुषक्त, सहारा लिए हुए। लमकः (पुं०) प्रेमी।
लम्बितालका (स्त्री०) लम्बे लटकते हुए बालों वाली। लम्पटः (पुं०) दुश्चरित्त, स्वेच्छाचारी।
(जयो० २१/६२) लम्पट (वि०) लालची, लोलुप, लालायित।
लम्बुषा (स्त्री०) लम्बा हार, सात लड़ियों का हार। विषयी, विलासी, कामुक, व्यसनी, इन्द्रियपरायण। लम्बोदर (वि०) स्थूलोदार, मोटे पेट वाला, तोंदवाला। लम्फः (पुं०) [लम्फ्-घञ्] कूद, उछाल, छलांग।
लम्बोदरः (पुं०) गजानन, गणपति, गणेश। (दयो०५४) लम्फनं (नपुं०) [लम्फ ल्युट्] कूदना, उछलना।
लम्बोदरजा (वि०) भयवर्जित, पीड़ा नाशक। (जयो० १९/४९)
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लम्बोष्ठ
९०८
ललिताप्सरस्
लम्बोष्ठ (पुं०) ऊंट, ऊष्ट्र।
ललनं (नपुं०) [लल्ल्यु ट्] क्रीड़ा, खेल, आमोद-प्रमोद, लम्भः (पुं०) [लभ+घञ्+नुम्] सिद्धि, अवाप्ति।
रंगरेली। मिलन।
ललना (स्त्री०) [लल+णिच्+ल्युट्टाप] कामिनी, स्त्री, तरुणी। ०पुनः प्राप्ति।
___(सुद० १/२५) (जयो० ६/१२८) ०लाभ।
ललनाकलः (स्त्री०) नारी समूह, ललनैतत्कलं मनोहर। (जयो० लम्भनं (नपुं०) [लभ+ ल्युट्+नुम्] प्राप्ति, अवाहित, ग्रहण १३/९) स्वीकार। (मुनि० १४)
ललनिका (स्त्री०) [ललना+का+टाप] छोटी सी। लम्भित (भू०क०कृ०) [लभ्+क्त, नुम्] उपार्जित, गृहीत, | ललन्तिका (स्त्री०) [लल्+शत ङीप्+कन्+टाप] लम्बी माला। प्राप्त हुआ, दत्त, हासिल।
छिपकली। नियुक्त, प्रयुक्त, संजोया गया।
ललाकः (पुं०) [लल्+आकन्] जननेन्द्रिय। सम्बोधित, कहा गया।
ललाटं (नपुं०) मस्तक, माथा। (जयो० ११/६४) लम्भितपार (वि०) पारगत। उस पार गया हुआ।
'ललाटमिन्दुचितमेन तासाम्' (वीरो० ५/२१) लय् (सक०) जाना, पहुंचना।
ललाटतट (नपुं०) माथा। लयः (पुं०) [ली+अच्j कीर्तन कला। (जयो० २/६०) ललाटपट्टिका (स्त्री०) सिरमोर। चिपकना, मिलाप, लगाव।
ललाटलतिका (स्त्री०) मस्तक रेखा। (जयो० २९/८२) प्रच्छन्न, ढका हुआ।
ललाटरेखा (स्त्री०) मस्तकरेखा। संगलन, पिघलना, घोल।
ललाटिका (स्त्री०) [ललाट+कन्+टाप्] टीका, सिरमोर, मत्थे ०अदर्शन, विघटन, बुझाना, विनाश।
का आभूषण। मन की लीनता, गहन एकाग्रता।
ललान्त (वि०) पुष्पान्तर। (जयो० ९/९२) संगीत में विश्राम, विराम, गति।
ललाम (वि०) सुंदर, प्रिय, मनोहर। (जयो० १६/९०) आवास, निवास। (सुद० १/२७)
'आसीत्तदाराम-ललाममञ्चमहो' (जयो० १/४९) अभाव। (जयो०वृ० १/३९) विनाश, नाश।
०दर्शनीय, रमणीय। (जयो० १३/४०) सुरक्षात्मक उपाय। (जयो० १५/९)
ललामसारः (पुं०) सुंदर उद्देश्य। (जयो० १७/१२) ०बहाना, चढ़ाना-'बाराधारा विसर्जनेन तु पदयोजिनमुद्रायाः' ललित (वि०) [लल्+क्त] सुंदर, प्रिय, श्रृंगार युक्त, रमणीय। लयोऽस्तु कलङ्ककलायाः। (सुद० ७१)
(जयो० ५/४६) लयकालः (पुं०) प्रलयकाल।
प्रांजल, सुहावना, लावण्यमय, रुचिकर। लयक्रिय (वि०) लयक्रिया, विनाश। (जयो० ३/२३)
०अभीष्ट, मृदु, कोमल, आकर्षण। लयगत (वि०) विघटित, पिघला हुआ। ०आवास युक्त। ललितं (नपुं०) क्रीड़ा, रंगरेली, खेल, विनोद, प्रीतिभाव। लयजन्य (वि०) संगलित हुआ।
ललिततम (वि०) सुंदरतम। (सुद० ८२) लयनं (नपुं०) [ली+ल्युट्] जुड़ना, चिपकना।
ललितपद (वि०) श्रृंगार युक्त रचना, प्रांजल काव्यपद। लयपुत्री (स्त्री०) नटी, अभिनेत्री।
ललितप्रहारः (पुं०) मृदु आघात। लल् (सक०) खेलना, इठलाना, क्रीड़ा करना।
ललिता (स्त्री०) [ललित+टाप] सुंदर स्त्री, तरुणी, कामिनी। प्रेमालिंगन करना।
०स्वेच्छाचारिणी स्त्री। ०लपलपाना।
०कस्तूरी। लल् (वि०) क्रीड़ासक्त, विनोद प्रिय, लालसा युक्त।
ललिताक्षरं (नपुं०) कोमलाक्षर, प्रांजलाक्षर। अभिलाषी, इच्छुक।।
ललिताभावती (स्त्री०) मृदु अक्षर से युक्त स्त्री। (जयो०३/३५) ललजिह्वा (वि०) लपलपाती जीभ वाला।
ललितान्तरङ्ग (वि०) सुंदर अंतरंग वाले (समु० १/२८) ललत् (वि०) [लल्+शतृ] खेलने वाला, लपलपाता हुआ। | ललिताप्सरस् (स्त्री०) सुंदर अप्सरा। (दयो० ४)
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ललितावर्तः
ललितावर्त (पुं०) भंवर, जलावर्त (जयो० १४/५३) ललित्व (वि०) शृंगार युक्त प्रियत्व, मनोहरत्व (सम्य०१५५) लब: (पुं०) उत्पाटन, लल्लुंचन कटाई, लावनी ।
० अनुभाग, हिस्सा, अंश। (वीरो० २/१४) (जयो० १ / ९२ ) ०ग्रास, टुकड़ा, खण्ड ।
०कण, बिन्दु, अल्पमात्रा, अनुभाग (जयो० ६/५९) ० लेश, पल्लव | (जयो० १/४७ )
०हानि विनाश (सात श्लोक का एक लव)
,
० राम पुत्र लव। (जयो० १३ / ५९ )
लवकुशाख्य (वि०) लव और कुश सहित पुत्रयोगेन सहित ।
।
(जयो० १३/५९)
लवङ्गः (पुं० ) [लू+अङ्गच्] लौंग का पौधा । लवङ्गं (नपुं०) लौंग।
लवङ्गकं (नपुं० ) [ लवङ्ग+कन् ] लौंग ।
लवङ्गि (वि०) लताङ्गि (वीरो० ६/३२) लवण (वि०) ०क्षारीय, नमकीन । ०सुंदर, प्रिय, मनोहर |
लवण: (पुं०) खारा, नमक का पानी, नमकीन, लवणसमुद्र । लवणं (नपुं०) नमक, खारा। (जयो० २ / १५३) लूण, नोन। ०कटक, छावनी (जयो० १२ / १२४ )
लवणपूर्ण (वि०) कान्तियुक्त । लवणातिगत ( वि०) नमकीनपने को प्राप्त, लवण वाला। (जयो०वृ० १२/१२५)
० कान्तिहीन । (जयो०वृ० १२ / १२५ )
लवणात्मता (वि०) खारापन, नमकीनपना (वीरो० १०/२० ) लवणाधिक (वि०) लवण से परिपूर्ण कान्तियुक्त। (जयो०वृ० १२ / १२८)
लवणापरिणाम (वि०) कान्ति प्रसार युक्त, कान्ति युक्त परिणाम वाला (जयो० ५ / २६ )
लवणाब्धि (पुं०) लवण समुद्र । लवणाम्बुराशि (स्त्री०) लवण समुद्र । लवणाम्भस् (पुं०) लवणोदधि ।
९०९
लवणालयः (पुं०) लवण सागर ।
लवणिमा (वि०) लावण्य, सौंदर्य। (जयो० २६ / ५)
।
लवणोत्तमं (नपुं०) सेंधा नमक, यवक्षार लवणोदकः (पुं०) क्षीर समुद्र । लवणोदधिः (पुं०) लवण समुद्र ।
लवनं (नपुं०) [लृ भावे कर्मणि च ल्युट् ] ० लुनाई, काटना, लावनी, कटाई । (दयो० ३६ )
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लहरिप्रियः
लवनं (नपुं०) दरांती, हंसिया, काटने का साधन । लवली (स्त्री० ) [ लव+ला+क + ङीष् ] लता विशेष । लवित्रं (नपुं०) [लूयतेऽनेन+लू इत्र] दरांती, हंसिया लशू (सक०) अभ्यास करना, कला सीखना। लशुनः (पुं०) लहसुन।
लष् (सक०) चाहना, इच्छा करना।
लषित (भू०क० कृ० ) [ लष् +क्त] वाञ्छित, इच्छित, चाहा
गया।
लव (पुं० ) [ लघु-वन् ] नट, अभिनेता।
लष्वः
लस् (अक० ) चमकना, दमकना, देदीप्यमान होना। (जयो ०१ / ५६)
० प्रकट होना, उगना। (सुद० ८१ )
०क्रीड़ा करना, खेलना, उदित होना ।
०बन जाना, होना ( इवैरण्डबीजवज्जगतिलसतिवै) (सम्य० १४९)
लसत्प्रसाद (वि०) सुशोभित राज भवन (सुद० ४ / २५) लसत्सुवास (वि०) सुंदर आभूषण (सुद० २ / १२) लसन्त ( लस् + शतृ) शोभायमान । ( सुद० १/२४)
० चमकता हुआ।
०उगता हुआ (सुद० १/२२ )
लसन्निधानं (नपुं०) शोभा निधान (जयो० १ / ११२) लसा ( स्त्री०) [लस्+अच्-टाप्] केसर हल्दी।
लसिका (स्त्री०) [लस्+अच्+कन्+टाप्] थूक, लार लसित (भू०क०कृ० ) [लस्+क्त] देदीप्यमान हुआ, सुशोभित। लसीका ( स्त्री० ) [ लस्+ ङीष् + कन्+टाप् ] थूक ०पीप ।
० इक्षुरस |
० टीके का रस ।
लज् (अक० ) शर्मिन्दा होना, लज्जित होना, शर्माना, लजाना। लस्त (वि०) [तस्+क्त] आलिंगित,
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०दक्ष, कुशल, निपुण।
लस्तकः (पुं० ) [लस्त+कन् ] धनुष का मध्यभाग । लस्तकिन् (पुं० ) [ लस्तक इनि] धनुष
+
लहरि: (स्त्री० ) [ लेव इन्देण इव ह्रियते ऊर्ध्वगमनाय ल+हइन् ] लहर, जलकल्लोल (जयो० २५/४ ) तरंग | ० स्वेच्छाचारिणी स्त्री ।
० जिह्वा ।
लहरिप्रियः (पुं०) कदंब तरु ।
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लहरिमति
९१०
लाञ्छ
लहरिमति (स्त्री०) समुत्कण्ठावती, उत्कण्ठित बुद्धि वाली। लागुडिक (वि०) यष्टि विभूषित। (जयो० १७/२५)
लाथ् (अक०) बराबर होना, पर्याप्त होना, सक्षम होना। लहरियुक्त (वि०) भूरिवलिबद्ध। (जयो०वृ० २०/२)
लाघवं (नपुं०) [लघोर्भावः अण्] ०अल्पता, क्षुद्रता, लघुता। लहरी (स्त्री०) [ल+ह+इन+ङीष] तरंग, जलकल्लोल। ०हल्कापन, नगण्यता। (वीरो०७/२४)
०अनादर, घृणा, अपमान, अप्रतिष्ठा। ला (सक०) ग्रहण करना, प्राप्त करना, लेना, लाना। | फुर्ती, चुस्ती, वेग। (जयो०१/७) लाति-गृह्णातीति
क्रियाशीलता, दक्षता, तत्परता। लान्ति। (जयो०१/३९) (जयो० १/७२)
संक्षेप, अल्पमात्रा। लघो वो लाघवं-लोभनिवृत्ति। ला (स्त्री०) समागम, दान, देना। गौ पुमान् वृषभे स्वर्गे
०दक्षता- व्यसनोपनिपात। खण्डवज्रहिमांशुषु। ला तु दाने किलाश्लेष इति कोषात्
०शुचिता-कुशलता। व्याख्या कार्या। (जयो०व०० ३/३९)
लाङ्गलं (नपुं०) [लङ्ग+कलच] ०हल। ०लाभ। (जयो०वृ० १९/३६)
ताडवृक्ष।
शिश्न। लाकुटिक (वि०) [लकुटः प्रहरण मस्य ठक्] लाठी से सुशोभित, दण्ड से विभूषित।
लिंग। लाकुटिकः (पुं०) संतरी, पहरेदार, द्वारपाल।
लाङ्गलग्रहः (पुं०) किसान, कृषक, हाली। लाक्षकी (स्त्री०) सीता।
लाङ्गलदण्डः (पुं०) हलस, हल का दण्ड। लाक्षणिक (वि०) [लक्षणया बोधयति ठक्] विशिष्ट, संकेतित,
लागलपद्धतिः (स्त्री०) खूड, हल की रेखा। चिह्नित।
लाङ्गलफाल: (पुं०) हल्की फाली।
लाङ्गलिन् (पुं०) [लाङ्गल+इनि] ०बलराम। ०पारिभाषिक, गौण, निकृष्ट।
नारिकेल तरु। लाक्षणिकः (पुं०) पारिभाषिक शब्द।
लाङ्गली (स्त्री०) [लाङ्गल+अच्+ङीष्] नारिकेल तरु। लाक्षण्य (वि०) [लक्षणं वेत्ति-व्य] संकेत सम्बंधी, परिभाषा
लाङ्गलीषा (स्त्री०) हलस, हल की मूठ। सम्बन्धी।
लागुलं (नपुं०) पूंछ। चिह्न युक्त, लक्षण और चिह्नों की व्याख्या करने योग्य।
शिश्न। लाक्षा (स्त्री०) [लक्ष्यतेऽनया लक्ष्+अच्] ०लाख, जतुपरिणति
लिंग। (जयो०१२/१०६)
लागृलं (नपुं०) पूंछ, शिश्न। महावर, वीरबहूटी।
लिंग। लाक्षातरु (पुं०) पलास, ढाकतरु।
०बंदर। (दयो० १६) लाक्षाप्रसादः (पुं०) लोध्रवृक्षा
लाङ्गुलिन् (पुं०) [लाङ्गल+इनि] वानर, बन्दर, लंगूर। लाक्षाप्रसाधनः (पुं०) लोध्रवृक्ष।
लालिकाफलं (नपुं०) नालिकेर, नारियल। (जयो० २५/११) लाक्षारंगः (पुं०) यावक, लाक्षारस। (जयो० १८/९९)
लाज् (सक०) कलंक लगाना, निन्दा करना। लाक्षारक्त (वि०) लाख से रंगा हुआ। ०लाख से लिपटा
भूनना, तलना। हुआ।
लाजः (पुं०) [लाज+अच्] गीला धान। लाक्षारसः (पुं०) लाल रंग, महावर, आलक्त। (जयो० १६/५१) लाजा (स्त्री०) लाजे, खील, धान्य के फूले हुए लाजा। लाक्षावाणिज्यं (नपुं०) लाख का व्यापार।
(जयो० १२/७१, सुद० ३/१५) भ्रष्टव्रीही (जयो० १३/१०) लाक्षिक (वि०) [लाक्षा+ठक्] लाख से सम्बंध रखने वाला, धान्य लावा। (जयो० १०/१०३) लाख से बना हुआ।
लाजि (स्त्री०) राजि, पंक्ति। (जयो० ३/४७) लाख (अक०) सूख जाना, नीरस होना।
लाञ्छ् (सक०) सजाना, अलंकृत करना। ०सक्षम होना, पर्याप्त होना।
०भेद करना, विशिष्ट बनाना।
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लाञ्छनं
९११
लालित
लाञ्छनं (नपुं०) [लाञ्छ् कर्मणि ल्युट्] चिह्न, निशान।
(वीरो० १०/७) (जयो० १/१४) ०नाम, अभिधान। ०धूम। (जयो० १०/८०)
दाग, धब्बा, कलंक। (जयो० १५/५८) लाञ्छनयुक्त (वि०) कलंकित। (जयो० १५/५८) लाञ्छनेशः (पुं०) चंद्र। (जयो० १५/६८) लाञ्छित (भू०क०कृ०) [लाञ्छ+क्त] चिह्नित, निशान युक्त,
अन्तरयुक्त। ०कलंकित, कलंकयुक्त। (जयो० ३/५४)
सुसज्जित, विभूषित। लाटः (पुं०) लाट देश। लाटानुप्रासः (पुं०) शब्द और शब्दों की पुनरावृत्ति। लाटिका (स्त्री०) रचना, एक विशेष शैली। लाड् (सक०) दुलारना, पुचकारना, प्रेम करना।
कलंकित करना, निन्दा करना। ०फेंकना, उछालना। लाण्ठनी (स्त्री०) व्यभिचारिणी, कुल्टा स्त्री। लात (भू०क०कृ०) [ला+क्त] लिया, ग्रहण किया। लात्वा (सं०कृ०) लाकर, ग्रहणकर। (सुद० ७१) लानित (वि०) लाया, ग्रहण किया, लिया। (जयो० ६/४७) लान्तकः (पुं०) लान्तव स्वर्ग। (वीरो० ) लापः (पुं०) [लप्+घञ्] बोलना, बाते करना।
किलकिलाना, तुतलाकर बोलना।
०लपर-लपर करना, लत्वी बोलना, बातूनी। लावः (पुं०) बटेर पक्षी। [लु+घञ्] लावकः (देखो ऊपर) लाबुः (पुं०) लौकी, आल, अलाबु, नूमड़ी। लाभः (पुं०) [लभ+घञ्] ०फायदा, नफा।
प्राप्ति, आवाप्ति, उपलब्धि, अभिलषितार्थ की प्राप्ति, इच्छित प्राप्ति।
०इच्छा, लोलुपता, लालच। लाभकः (पुं०) फायदा. मुनाफा। लाभमान (लभ+शानच्) लाभ होने वाला। लाभान्तरायः (०) लाभ में बाधा, इच्छा में रुकावट/विघ्न।
'लाभस्य विघ्नमृदन्तरायः' लाभालाभः (पुं०) लाभ-हानि। (दयो० १०७) लामञ्जकं (नपुं०) सुगंधित घास।
लाम्पट्य (वि०) [लम्पट+ष्यञ्] लम्पटता, कामुकता,
भोगासक्ति। (सुद० १२८) 'स्वार्थस्येयं पराकाष्ठा जिह्वलामपट्यपुष्ट्ये। अन्यस्य जीवनमसौ संहरेन्मानवो भवन्।।
(सुद० १२८) लाल् (सक०) दुलार करना, प्यारा करना। ०लालन करना।
स्नेह करना। (लाल्यते जयो० १२/७९) लालः (पुं०) लार, थूक, थुत्कधारा। (जयो० २७/३५) निष्ठीवन।
(जयो० ३/२९) लालनं (नपुं०) [लल् ल्युट्] ०प्यार, लाड, दुलारना, पुचकारना. स्नेह करना। (दयो० ५४)
आत्मरंजन, मनोरंजन, सम्भालना। (जयो० २१/१९) लालनीय (वि०) [लल्+अनीयर्] दुलार योग्य, 'प्यार योग्य। ___ 'लालनीयः स्तनन्धपः अबोध बालकः' (हित सं०११) लालस (वि०) लालसा, इच्छुक, वाञ्छा युक्त, लालायित,
* आनंद देने वाला।
०अनुरक्त, भक्त, रागी, तल्लीन, तन्मयता। लालसकर (वि०) इच्छावर्धक। (जयो० १६/८५) लालसा (स्त्री०) [लस् स्पृहायाँ यङ् लुक् भावे अ] ०इच्छा,
अभिलाषा, उत्सुकता. वाञ्छा। (जयो० १५/१) ०याचना, निवेदन, अनुनय, अभ्यर्थना।
०खेद, शोक। लालसीक (नपुं०) चटनी। लाला (स्त्री०) [लल+णिच्+अच+टाप] लार, थूक, निष्ठीवन,
थूत्कार। (दयो० ११०) लालाटी (वि०) माथा, मस्तक। लालायित (वि०) इच्छुक, वाञ्छाशील, उत्कण्ठित।
(जयो०१६/३१) लालालाम (वि०) लार युक्त। लालावित (वि०) लार से भरा हुआ। (सुद० १०२)
स्त्रियां मुखं पद्मरुखं ब्रुवाणा, भवन्ति किन्नाथ विदेकशाणा। लालाविक शोणितकोणितत्त्वात्,
जातु रुच्यर्थमिहैमि तत्त्वात्।। (सुद० १०२) लालिकः (पु०) [लाला+ठञ्] भैंसा। लालित (भू०क०कृ०) [लल्+णिच्+क्त] ०स्वीकृत।
(जयो० २/१५७) ०पालित। प्यार किया गया, दुलार किया गया। (सुद० ३/२३) अवस्थित, स्थित। करपल्लवलालिते सुधा-लतिकाया
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लालितक:
९१२
लिङ्घ
अवनावहो बुधाः। (सुद० ३/१७)
लावण्यवती (स्त्री०) सौंदर्यशालिनी स्त्री। (समु०६/१३) ०पालन क्रिया गया, स्नेहित।
लावण्यसुमनोलता (स्त्री०) सौंदर्य रूप पुष्पों की लता। अभिलषित, इच्छित, अभीषित।
लावण्यं सौंदर्य तदेव सुमनसः पुष्पाणि तेषां लता वल्लीरूपं लालितकः (पुं०) [लालित कन्] ०लाडला, प्यारा, दुराला, (जयो० ३/३९) प्रिया
लावण्याङ्कः (पुं०) मधुर, लावण्यगृह। (जयो० ६/५४) ०स्नेहपात्र, वात्सल्य भाजन।
लावण्यस्य सौंदर्यस्याङ्को भवन्। (जयो०व०६/५४) लालित्य (वि०) प्रियता, लावण्य, सौंदर्य, आकर्षण, माधुर्य, लावण्यासारः (पुं०) सुंदरता का सार 'लावण्यस्य सौंदर्यस्य रमणीयता, अभीष्टता।
आसारः प्रसारः' (जयो०वृ० ६/५१) लालिन् (वि०) [लल्+णिच्+णिनि] बहकाने वाला, फुसलाने लावनं (नपुं०) उच्छेदन। (जयो० २४/७३) वाला।
लाविकः (पुं०) [लाव्+ठक्] भैंसा। लालिनी (स्त्री०) [लालिन्+ङीप] स्वेच्छाचारिणी स्त्री. कामिनी। लाषुक (वि०) [लष्+उकञ्] लोलुप, लालची, लोभ। लालुका (स्त्री०) माला, हार।
लासक (वि०) [लण्+ण्वुल्] खेलने वाला, किल्लोल करने लाव (वि०) [लू कर्तरि घञ्] काटने वाला, धुनाई करने वाला। वाला।
लासकः (पुं०) नर्तक। उल्लासक, ०अभिनयक। लावः (पुं०) काटना, लुनाई करने वाला।
मयूर, मोर। ०लाव पक्षी।
आलिंगन। लावकः (पुं०) [लू+ण्वुल] लवा पक्षी, बटेर।
लासकं (नपुं०) चौबारा, बुर्ज। लावक (वि०) लावनी, काटने वाला, एकत्र करने वाला। लासकी (स्त्री०) नर्तकी। लावण (वि०) [लवणं संस्कृतं अण] ०नमकीन, खारा। लासनिवासः (पुं०) नृत्य शाला, रंगमंच। (जयो० २६/६५) लावणिक (वि०) [लवणे संस्कृतं ठण] नमकीन, नमक से लासिका (स्त्री०) [लासक ङीष्] नर्तकी। निर्मित।
लास्य (नपुं०) [लस्+ण्यत्] नृत्य, नाच, नाचना। (जयो० प्रिय, सुंदर, मनोहर।
१/३२, २/२९) लावण्य (वि०) [लवण+ष्यञ्] सौंदर्य, सलोनापन, मनोहरता, | लिक्षा (स्त्री०) ल्हीक, लीख।
रमणीयता। ('लावण्य' का सरल अर्थ सौंदर्य है, पर सूक्ष्म लिक्षिका (स्त्री०) [लिक्षा+कन्+टाप् त्वम्] लीख। दृष्टि से विचार किया जाये तो इसका अर्थ शरीर की वह लिखु (सक०) लिखना, उत्कीर्ण करना, अंकन करना। लिलेख। चमक है, जिसमें सामने स्थिति वस्तु प्रतिबिम्बति हो। (जयो० ६/१२३) आलिखत् (जयो० ७/८३) आलेखन (जयो० हि० ११/४२)
करना, चित्रित करना, रङ्ग भरना। (दयो० ७६) लावण्य-सौंदर्यम्, लावण्यं-लवणभावम, लावण्यं- ०पीस डालना, खोदना। क्षारभूतम् (जयो०वृ० ६/९४)
लिखनं (नपुं०) [लिख्+ल्युट] लिखना, लेखन, अंकन, लावण्यकरः (पुं०) सौंदर्य को बहाना, लावण्य का पूर, सौंदर्य चित्रांकना
की धारा। 'लावण्यस्य पू झरः' पूरो बभौ' (जयो०७० लेख, हस्तांकन। चित्रण, निरूपण। १२/७८)
लिखित (भूक०कृ०) [लिख्+क्त] लिखा हुआ, चित्रित, लावण्यखचित (वि०) लावण्ययुक्त, सौंदर्य से परिपूर्ण-लावण्येन समङ्कित। (जयो० ११/५८) सौंदर्येन खचितः परिपूर्णः
लिखितं (नपुं०) लेख, लेखन, अंकन। लवण भाव से परिपूर्ण-लवण भावेन खचितः परिपूर्णः। __०रचना, काव्य रचना। (जयो० ६/८१)
लिगुः (पुं०) [लिंग+कु] ०हरिण। लावण्यमय (वि०) [लावण्य+मयट्] सौंदर्य युक्त, रमणीयता से परिपूर्ण।
लिङ्घ (अक०) जाना, हिलना-डुलना।
मूर्ख।
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लिङ्ग
९१३
लीलातामरसं
लिङ्ग (सक०) आलिंगन करना, परिभ्रमण करना, परिरमरण लिप्सुरसौ त्वदाज्ञां सुरीगणः स्यात्सफलोऽपि भाग्यात्। करना, रंग भरना, चित्रित करना।
(वीरो० ५/५) लिङ्ग (नपुं०) (लिङ्ग अच्] चिह्न निशान, संकेत, लक्षण। लिबिः (स्त्री०) लिपि। प्रतीक. प्ररूप, प्रतिबिम्ब।
लिम्प (सक०) लीपना, पोतना मूर्ति।
___ कलंक लगाना, मलिन करना, कलुषित रहना। लिङ्गधारिन् (वि०) वेषधारी, लक्षणयुक्त।
लिम्पः (पुं०) लेप, मालिश। लिङ्गनाशः (नपु०) आलिंगन।
लिम्पट (वि०) कामासक्त, विषयाभिलाषी। लिङ्गपरामर्शः (पुं०) चिह्न विचारना, लक्षण सोचना। लिम्पटः (पुं०) दुश्चरित्र, व्यभिचारी। लिङ्गपुराणः (पुं०) एक पुराण का नाम।
लिम्पाकः (पुं०) नींबू, चकोतरा। लिङ्गप्रतिष्ठा (स्त्री०) पिण्ड स्थापन, मूर्तिस्थापना।
लिम्पाकं (नपुं०) नींबू। लिड़वर्धन (वि०) उत्तेजना पैदा करने वाला।
लिम्पितुं (लिम्प्+तुमुन्) लीपने के लिए। (जयो० ९/९३) लिङ्गवेदी (वि०) लक्षण का ज्ञाता।
लिलिङ्ग (वि०) आलिङ्गितवती। (जयो० १९/१६) लिङ्गिन् (वि०) [लिङ्गमस्त्यस्य इति] विशेषता युक्त, लक्षण लिश् (सक०) जाना, चोट पहुंचाना। सहित, ०छद्मवेशी, पाखंडी, सूक्ष्म शरीरधारी।
लिष्ट (भू०क०कृ०) [लिश्+क्त] न्यून हो गया। लिङ्गिन् (पुं०) ब्रह्मचारी।
लिष्वः (पुं०) नर्तक, अभिनेता। लिपिः (स्त्री०) [लिप्+इक्] लिपि विशेष।
लिहू (सक०) चाटना, चखना। ०ब्राह्मी लिपि, खर्राष्ट्रीलिपि-देवनागर लिपि।
०चबाना, खाना। लिखना, लेख, लिखितवर्ण, वर्णमाला, लिखने की | ली (सक०) पिघलना, टपकना, विघटित होना। कला।
चिपकना, लेटना, विश्राम करना। ०लीपना पोतना।
०लीन होना, अनुरक्त होना। लिपिकः (पुं०) ०लेखक, लिपिक, अंकेक्षक।
लीक्का (स्त्री०) लीख, यूकांड। लिपिकरः (पुं०) लेखक, लिपिक, नक्काशी वाला। लीढ (भू०क०कृ०) [लिह्+क्त] चखा गया, चाटा गया, लिपिकारः (पु०) लेखक, लिपिक।
खाया गया। लिपिज्ञ (वि०) लिखने वाला।
लीन (भू०क०कृ०) [ली+क्त] चिपका हुआ, जुड़ा हुआ, लिपिन्यास (पुं०) नकल करने की कला।
संयुक्त, तल्लीन। लिपिफलकं (नपुं०) लिखने का पट्ट।
प्रच्छन्न, आवृत्त, आच्छादित। (सम्य० १५२) लिपिशाला (स्त्री०) पाठाशाला। विद्या केन्द्र।
०संलग्न (समु० ६/१२) लुप्त, ओझल। लिपिसज्जा (स्त्री०) लिखने का उपकरण।
लीला (स्त्री०) [लियंलाति-ला+क] खेल, क्रीड़ा, विनोद, लिप् (सक०) लीपना, पोतना। (जयो० २/७८)
मनोरंजन, आनन्द। लिप्त (भू०क०कृ०) [लिप्त वत] संलग्न, आसक्त, लगा विलास। (सुद० १/२५) यस्मिन् पुमांस: मुरसार्थलीला: हुआ।
(सुद०१/२५) ०सना हुआ, ढका हुआ, लीपा हुआ।
०केलि। (जयो० १६/८१) संयुक्त, मिला हुआ, जुड़ा हुआ।
सौन्दर्य, लावण्य, लालित्य। लिप्तहस्तकवती (वि०) संयुक्त हाथों वाली, लिपटे हुए हाथों छाप्रवेश, ढोंग, बनावट। वाली। (मुनि० ११)
लीलागृहं (नपुं०) क्रीड़ा स्थल, रमणभवन। लिप्सा (स्त्री०) [लभ् सन् भावे अ] अभिलाषा, वाञ्छा, प्राप्त लीलागेहं (नपुं०) देखो ऊपर। ० रंग शाला। करने की इच्छा । (सुद० ४/४५)
लीलाकमलं (नपुं०) मनोरंजन, केलिकमल। लिप्सु (वि०) [लभ+सन्+उ] प्राप्त करने का इच्छुक। 'शक्रज्ञया लीलातामरसं (नपुं०) केलिकमल, पराग। (जयो० १६/८१)
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लीलामात्रं
९१४
लुलित
लीलामात्रं (नपुं०) क्रीडामात्र। लीलारति (स्त्री०) मनोविनोद। लीलावत् (वि०) क्रीड़ामय, खिलाड़ी। लीलावती (स्त्री०) लावण्यमयी स्त्री। लुक् (अव्य०) लुक् प्रत्यय। लुञ्च (सक०) तोड़ना, लोंचना, खींचना, छीला, काटना,
उखाड़ना। लुञ्चेत्। (जयो० २७/४०) लुञ्चः (पुं०) उखाड़ना, लोंच करना। लुञ्चित (भू०क०कृ०) [लुञ्च+क्त] उखाड़ा हुआ, निकाला
गया, खींचा हुआ। लुट् (सक०) मुकाबला करना, विरोध करना, उठाना, चमकना।
कष्ट उठाना, बोलना।
अपहरण करना। लुट (अक०) पछाड़ना, बदलना, देदीप्यमान होना, चमकना
(जयो० ३/१०४) लेटना। लुठन् भुवीह प्रणनाम दण्डवज्जिनं
यथासौ शरणागतः स्मरः। (जयो० २४/६७) लुठित (भू०क०कृ०) [लुठ्+क्त] लौटाया हुआ, लुड़कता
हुआ।
लुड (सक०) क्षुब्ध करना, बिलोना आलोडित करना।
०ढकना। लुण्ट (सक०) चुराना, जाना। ___०लूटना, खसोटना लुण्टकः (पुं०) चोर, लुटेरा। लुण्टाकः (पुं०) चोर, डाकू, लुटेरा। (जयो०वृ० १/३०,
सुद० ९७) लुण्ठ (सक०) जाना, गति देना, क्षुब्ध करना।
०लूटना, खसोटना। लुण्ठकः (पुं०) [लुण्ठ्+ण्वुल्] चोर, डाकू, लुटेरा। लुण्ठनं (नपुं०) [लुण्ठ्+ ल्युट्] लूटना, चुराना। लुण्ठा (स्त्री०) [लुण्ठ्+अ+टाप्] लूट, खसोट।
लुड़ना। लुण्ठाकः (पुं०) लुटेरा, चोर, डाकू। लुण्ठिः (स्त्री०) लूटना, चुराना, डकैती डालना। लुण्ड् (स्त्री०) लूटना, चुराना, डकैती डालना। लुण्डिका (स्त्री०) गेंद, कंदुक गोल पिड।
उचित चाल चलन। लुन् (सक०) अपहरण करना, छीनना। लुनीते (जयो० ३/८२)
(दयो० ९८)
लुन्थ् (सक०) प्रहार करना, मारना, कष्ट उठाना। लुप् (सक०) विस्मित करना, आश्चर्य करना, घबड़ा देना। ०अपहरण करना, छीनना, ठगना, लूटना।
उल्लंघन करना, अपकार करना, उपेक्षा करना। लुप्त (भू०क०कृ०) अदृश। (वीरो०) ०भग्न टूटा हुआ,
०क्षतिग्रस्त, नष्ट, ०वञ्चित, सोया हुआ, ०ठगा गया,
०लूटा गया। . ०ओझल हुआ, ०लोप हुआ, उपेक्षित, ०अप्रयुक्त। लुप्तकिरण (वि०) अदृश किरण। लुप्तधन (वि०) छिपा हुआ धन। लुप्तधर्म (वि०) धर्म से वञ्चित हुआ। लुप्तधाम (वि०) नष्ट स्थान वाला। लुप्तपद (वि०) पदविहीन। लुप्तपादप (वि०) वनस्पति का अभाव। लुप्तफल (वि०) फल रहित। लुप्त बन्धु (वि०) बन्धुओं का अभाव। लुप्तभाव (वि०) भाव रहित। लुप्तमोह (वि०) क्षीण मोह। लुप्तयत्न (वि०) प्रयत्न से रहित। लुप्तयान (वि०) नष्ट मन वाला। लुप्तराशि (वि०) धन की क्षीणता वाला, निर्धन। लुप्तशील (वि०) शीलमुक्त। लुब्ध (भू०क०कृ०) [लुभ+क्त] लोभ, लालची, उत्सुक,
लालायित। लुब्धः (पुं०) लम्पट, शिकारी, व्याध। (जयो० २४/१०७) लुब्धकः (पुं०) लालची, ०लम्पट, शिकारी। लुब्धकता (वि०) उत्सुकतावश। लुब्धकताबलेन कीटादिनाम्।
(वीरो०१४/२७) लुभ् (अक०) लालच करना, लोभ करना, उत्सुक होना।
भटकना, ललचाना। लुम्ब् (सक०) सताना, तंग करना। लुम्बिका (स्त्री०) एक वाद्ययंत्र। लुल् (सक०) घूमना, लुड़कना, लोटना। हिलाना, ०क्षुब्ध
करना, ०दबाना, कुचलना। (जयो० ३/७४) लुलित (भू०क०कृ०) गुदगुदाया। (सुद० १०३) oहिलाया (जयो० ३/७४) लुढकाया हुआ।
अव्यवस्थित, छितराया हुआ। ०दबाया हुआ, कुचला हुआ।
गुना
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लुलिता
९१५
लेप्यं
लुलिता (स्त्री०) चंचला, चपला। (जयो० २१/५) लुष् (सक०) चोट पहुंचाना, नष्ट करना। लुषभः (पुं०) उन्मत्त हस्ति। लुहू (अक०) लालच करना, उत्सुक होना, लोभ होना।
लालायित होना। लू (सक०) काटना, कतरना, वियुक्त होना। विध्वंस करना,
नष्ट करना। लूकाकृत (वि०) मर्कटिकार्थ, मकडी के प्रयोजनार्थ। (जयो०
२०/३०) लूता (स्त्री०) [लू+तक+टाप्] मकड़ी।
०चींटी। लूतातन्तु (पुं०) मकड़ी का जाल। लून (भू०क०कृ०) काटा गया, छांटा गया, वियुक्त किया गया,
चुना गया, नष्ट किया गया। लूनं (नपुं०) पूंछ। लूमं (नपुं०) [लू+मक्] पूंछ। लूमशिखा (स्त्री०) जहरीली पूंछ। लूव् (सक०) चोट पहुंचाना, क्षतिग्रस्त करना।
०लूटना, चुराना, डकैती डालना। लेखः (पुं०) [लिख+घञ्] लिखना, लिखावट। ___ प्रशस्ति। (जयो०वृ० ११/३२)
अभिलेख, शिलालेख, कूटलेख। लेखकः (पुं०) [लिख्+ण्वुल्] लिपिक, लिपिकार, चितेरा
(दयो० ६३, जयो० २/१३) लेखन (वि०) लिखने वाला, चितेरा। लेखनः (पुं०) हिसाब, लिपिकार। (जयो० २/१३) लेखनं (नपुं०) लिखना, प्रतिलिपि करना, खुरचना, छीलना,
पतला करना। लेखनप्रमादः (पुं०) लिखने में प्रमाद। (दयो०६५) लेखनिकः (पु०) [लेखन्+ठन्] पत्रवाहक। लेखनी (स्त्री०) कलम।
०चम्मच। लेखपत्रं (नपुं०) पत्र, लेख, लिखावट, संदेश। लेखपत्रिका (स्त्री०) चिट्ठी, पत्र, संदेश। लेखलेशः (पुं०) तिलक। लेखस्य लेशस्तिलक रूप। (जयो०
१८/३५) लेखसंदेशः (पुं०) लिखित संदेश। लेखहरः (पुं०) दूत, संदेशवाहक। (जयो० ९/६२)
लेखहारः (पुं०) पत्रवाहक। लेखहारिन् (पुं०) चिट्ठिदशा, डाकिया, पत्रवाहक। लेखा (वि०) [लिख्+अ+टाप्] रेखा, धारी, लकीर, शलाका,
सलाई। (सुद० १३३) रेखांकन, लिखावट, चित्रांकन, चित्रण। आकृति, छाप, निशान, गोट, किनारी, अंचल, झालर। ०चोरी। लेखाकृत (वि०) अङ्गुलीकृत। (जयो० १९/२) लेखाङ्कित (वि०) रेखाङ्कित, लेख से अंकित। 'लेखेनाङ्कितं
तथा व्यक्ताभिलेखाभिराङ्कितं' (जयो० ११/५८) लेखातिगः (पुं०) लेखिनी, कमल। (समु० ६/२) लेखावितय (वि०) तीन रेखाए। (जयो० ११/४८) । लेखिनी (स्त्री०) [लेख+ल्युट्+ङीप] कमल। समुल्लेखकी।
(जयो० १२।८१) लेख्य (वि०) [लिख्+ण्यत्] अंकित किये जाने योग्य, चित्रित
करने योग्य। लेख्यं (नपुं०) लिखना, अंकित करना, प्रतिलिपि, चित्रण,
रेखांकन। लेख्यकृत (वि०) लिखा गया। लेख्यगत (वि०) चित्रित, लिखित, अंकित। लेख्यचूर्णिका (स्त्री०) कूची, तूलिका। लेख्यपत्रं (नपुं०) लेख, पत्र, संदेश पत्र। लेख्यप्रसङ्गः (पुं०) दस्तावेज। लेख्यस्थानं (नपुं०) लिखने का स्थान। लेण्डं (नपुं०) विष्टा, मला लेतः/लेतं (पुं०/नपुं०) आंसू, अश्रु। लेप् (सक०) जाना, पहुंचना। लेपः (पुं०) [लिप्+घञ्] लीपना, पोतना।
उपटन, मालिश। लेपकः (पुं०) लीपना, पोतना। स्वच्छ करना। सफाई
करना। लेपकरः (०) पोतने वाला, चुनाई करने वाला। लेपनः (पुं०) [लिप्+घञ्] धूप, लोबान। लेपनं (नपुं०) पोतना, लींपना। (जयो० ११/४) लेपनी (स्त्री०) चूना, सफेदी। लेप्य (वि०) [लिप्+ण्यत्] लीपे जाने योग्य। लेप्यं (नपुं०) लीपना, पोतना।
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लेप्यकृत्
९१६
लोकत्रयहित
सांप।
१०५)
लेप्यकृत् (पुं०) प्रतिमाकार, मूर्तिकार। ०बेलदार।
लोक (सक०) अवलोकन करना. देखना, निहारना, प्रत्यक्ष लेप्यमयी (स्त्री०) [लेप्य+मयट्+ङीप्] पुत्तालिका, गुड़िया, ज्ञान करना। लोकयति (जयो० २/१५३) पुतली।
जानना, मानना, समझना। लेलिहः (पुं०) [लिह+यङ्, लुक् द्वित्वादि ततः अच] ०सर्प, अभिवादन करना, बधाई देना।
लोकः (पुं०) लोग, मनुष्य (समु० २/३१) (जयो० १/५१) लेलिहानः (पुं०) सर्प, सांप।
वारा वस्त्राणि लोकानां क्षालयामास या पुरा (सुद० ४/३६) शिव।
संसार, जगत्, विश्व। (जयो० १/११) (सम्य० ९७) लेशः (पुं०) अल्प, थोड़ा, अंश, कण। (सुद० १/९) हिस्सा, समुदाय, समिति, समूह। (वीरो० १/२०) अणु।
०क्षेत्र, स्थान, प्रान्त, प्रदेश। (सुद० ११०) बिन्दु। (जयो०)
दृष्टि, प्रचलन, परम्परा। (सम्य० ६१) समय माप, गुण।
०दृष्टि, दर्शन। ०लेश अलंकार-जिसमें इष्ट का अनिष्ट के रूप में और लोक जीवन। (सुद० १२०)
अनिष्ट का इष्ट के रूप में वर्णन विद्यमान होता है। लोककण्टकः (पुं०) दुष्ट पुरुष, दुर्जन। लेशमात्रं (नपुं०) कणिकामात्र। (जयो०व०० २/१३३)। लोकख्याति (स्त्री०) लौकिक प्रसिद्धि। (जयो० १/८९) लेश्या (स्त्री०) दुर्भावना। (सुद० १०५) राजा जगाद न हि लोककथा (स्त्री०) जन प्रचलित कथा। दर्शनमस्य मे स्यादेतादृशीह परिणामवतोऽस्ति लेश्याः। (सुद० लोककर्तृ (वि०) संसार का रचयिता। सृष्टिकर्ता।
लोककृत देखों ऊपर। आकुल भाव। (जयो०१० २७/३२)
लोकख्यातः (पुं०) लोक प्रसिद्ध। (जयो०१० १/२५) ०प्रकाश, प्रभा, रोशनी।
लोकगाथा (स्त्री०) जन सामान्य की प्रचलित कहानी। लोकगान कषाय की रंजना, कषाय योग।
लोगों में गाया जाने वाला गान। जिससे प्राणी कर्म से बंधता है।
लोकचक्षुस् (पुं०) सूर्य, दिनकर, रवि। लेश्यागत (वि०) लेश्या को प्राप्त हुआ।
लोकचमत्कारक (वि०) जन-जन को आश्चर्य उत्पन्न करने लेश्यागेहं (नपुं०) लेश्या स्थान।
वाला। (भक्ति० २१) लेश्यापरिणति (स्त्री०) लेश्या की स्थिति, शुभ स्थिति, | लोकचारित्र (नपुं०) लोक व्यवहार। अशुभस्थिति।
लोकजननी (स्त्री०) ०लक्ष्मी, जगत् माता। लेश्याभावः (पुं०) लेश्या परिणाम।
लोकजित (पुं०) जिनदेव, जिनप्रभु। (जयो० ९/५३) । लेश्यावान् (वि०) लेश्या वाला।
लोकज्येष्ठः (पुं०) जिनदेव, जितेन्द्रिय पुरुष। लेश्यावलम्बनं (नपुं०) लेश्या का आधार। (सम्य० ११५) लोकज्ञ (वि०) संसार को जानने वाला। लेश्याविशुद्धिः (स्त्री०) निराकुल भाव। (जयो० २७/३२) लोकज्ञता (वि०) लोकविदता। (जयो०वृ० १९/४४) लेष्टुः (स्त्री०) मिट्टी/मृत्तिका, ढेला।
लोकतत्त्वं (नपुं०) जन-जन का ज्ञान। लेसिकः (पुं०) हस्ति पर आरुढ।
लोकतन्त्र (नपुं०) जनतन्त्र। लेहः (पुं०) [लिह+घञ्] चाटना, चखना।
लोकतिलकः (पुं०) जन-जन का पूजा स्थल, देवालय। ___ चाट, चटनी, अवलेह।
जिवालय (वीरो० १५/३६) लेहनं (नपुं०) चाट, चटनी, चाटना।
लोकतुषारः (पुं०) कपूर। लेहिनः (पुं०) सुहागा।
लोकत्रयं (नपुं०) तीन लोक. उर्ध्वलोक, मध्यलोक और लेह्य (वि०) चाट, अवलेह।
अधोलोक। (वीरो० ६/९) लेां (नपुं०) [लिङ्ग-ठण] किसी चिह्न से सम्बन्धित, अनुमित। | लोकत्रयहित (वि०) तीनों लोकों का हितकारी। (जयो० लैङ्गिकः (पुं०) मूर्तिकार, प्रतिमाकार।
१/९७)
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लोकत्रयी
९१७
लोकाग्रहः
लोकत्रयी (नपुं०) तीनों लोक। लोकत्रयीतिलकः (वि०) तीनों लोकों का मुख्य स्थान।
(सुद० १/३६) लोकद्वारं (नपुं०) स्वर्ग स्थान। लोकधर्मः (पुं०) जनता का धर्म। (वीरो० २२/१६) लोकधातु (पुं०) संसार की श्रेष्ठ वस्तु। लोकधातु (पुं०) आदि ब्रह्म, शिव, विधाता। (वीरो० १८/१७) लोकधैर्य (वि०) लोगों की धीरता। लोकनाथः (पुं०) आदि प्रभु, शिव। लोक निर्गत (वि०) संसार से निकलता हुआ। (जयो० २/१७) लोकनेतृ (पुं०) आदीश्वर, शिव। लोकनिन्दालयः (पुं०) जनापवाद। (जयो०वृ० १/६७) लोकपः लोकपालः (पुं०) दिक्पाल। राज, प्रभु। लोकपतिः (पुं०) ब्रह्मा। राजा, प्रभु। नरशिरोमणि (जयो०७०
१/८३) लोकपथः (पुं०) संसार पद्धति, विश्व की परम्परा। (सम्य०
६१)
लोकपद्धतिः (स्त्री०) लोक रीति। लोकपितामहः (पुं०) ब्रह्मा। लोकप्रान्तः (पुं०) सर्व प्राप्त। (वीरो० १४/४६) लोकप्रकाशनः (पुं०) सूर्य। लोकप्रख्यान: (पुं०) लोक प्रसिद्ध। (वीरो० १५/१६) लोकप्रवादः (पुं०) एक पूर्व विशेष। सर्वसाधारण में प्रचलित
बात। लोकप्रवाहः (पुं०) जनसमूह। (दयो० ८१) लोकबन्धु (पुं०) सूर्य, दिनकर, भानु। लोकबाह्य (वि०) समाज से बहिष्कृत्। लोकमातृ (स्त्री०) लक्ष्मी। लोकमार्गः (पुं०) लोक सम्मत प्रथा, जनप्रचलित पथ।
(जयो० १) लोकमार्गदशिन (वि०) जन-जन की वास्तविकता को दिखलाने
वाला। लोकमूढता (स्त्री०) लोक में अन्ध विश्वास। (जयो० २/८७) लोकमूर्खता देखो ऊपर। लोकयात्रा (स्त्री०) लोक व्यवहार, जीवनचर्या, आजीविका,
वृत्ति। (वीरो० १८/४०) लोकरक्षः (पुं०) नृप, राजा, प्रभु। लोकरञ्जनं (नपुं०) सर्व साधारण का अनुरञ्जन।
लोकरवः (पुं०) जनश्रुति, सर्वमान्य चर्चा। लोकरीतिः (स्त्री०) लोक पद्धति। (जयो० २/६) लोकलोचनं (नपुं०) सूर्य, रवि। लोकलो पिन् (वि०) लोकोत्तर, अनु पम।
'लोकलोपिलवणापरिणाम:' (जयो०५/२६) लोकवचनं (नपुं०) किंवदन्ती, लोकवाता, जनश्रुति। लोकवर्मन् (नपुं०) लोक प्रचलित मार्ग। (जयो० २/१७)
संसारिक मार्ग। (सुद० १३२) लोकवादः (पुं०) जनचर्चा, जनप्रवाद। लोकविधिः (स्त्री०) लोक प्रचलित क्रिया। लोकवित्त (वि०) लोक की जानकारी। (जयो० १९/४४) लोकविपरीत (वि०) संसार से भिन्न, लोगों की मान्यता से
पृथक्। (जयो० २/१५) लोकवृत्तं (नपुं०) लोक व्यवहार। ०लोक चर्चा, जनवाद। लोहव्यवहारः (पुं०) लोकरीति, लोक परम्परा। (वीरो० १९/२१) लोकश्रुतिः (स्त्री०) जनश्रुति। ०जनप्रवाद। लोकसंकरः (पुं०) लोक की अव्यवस्था। लोक के एकमात्र
गुरु ऋषभदेव। (जयो० २/९०) लोकसंग्रहः (पुं०) लोककल्याण। शिव, ब्रह्म। लोकसमयः (पुं०) लोकशास्त्र। (जयो०वृ० १/१९)
लोक सिद्धान्तः (दयो० १/८) लोकसम्प्रदायः (पुं०) जनसमूह। (दयो० २०) लोकसमयख्यातिः (स्त्री०) लोकशास्त्र में प्रसिद्ध।
- (जयोवृ० १/५) ०जनप्रवाद, लोकबिंदुसार। लोकसिद्ध (वि०) लोक प्रचलित। लोकस्थिति (स्त्री०) संसार का संचालन, संसारिक अस्तित्व। लोकहास्य (वि०) जन परिहास। लोकहित (वि०) जन जीवन का कल्याण। लोकहितैकलोपी (वि०) संसार हित का एकमात्र नाशक। ___ (वीरो० १८/१८) लोकाकाशः (पुं०) धर्मादिद्रव्य से युक्त प्रदेश, लोक से
सम्बंधी आकाश। (सम्य० १९) लोकाख्यानं (नपुं०) लोक का उद्देश्य। लोकाग्रः (पुं०) लोक का अग्रभाग। (भक्ति० २) जहां तक
छह द्रव्य का अन्तिम भाग है। (सम्य० ५८) लोकाग्रशिखामणिः (स्त्री०) सिद्धशिला। (भक्ति० ३४) ___ सिद्धस्थान। लोकाग्रहः (वि.) वर्णन का आग्रह। (जयो० १०/११९)
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लोकाचारः
९१८
लोभः
लोकाचारः (पुं०) व्यवहार। (जयो०५/४७) जन-व्यवहार।
०लोकविधि। लोकाचारखेदित्व (वि०) व्यवहार के आचरण के प्रति
खिन्नता प्रकट करने वाला। (जयो० १९/४४) लोकातिग (वि०) असाधारण, अतिप्राकृतिक। लोकातिशय (वि०) असाधारण, संसार के लिए श्रेष्ठ। लोकाधिपः (पुं०) नृप, राजा। लोकाधिपतिः (पुं०) नृप, राजा। लोकानुप्रेक्षा (पुं०) संसारानुप्रेक्षा। लोकानुरागः (पुं०) लोकरुचि, जनरुचि। लोकान्तरं (नपुं०) लोगों के बीच। ०लोक के मध्य।
(सुद० २/३३) लोकान्तिकः (पुं०) लोकान्तिक देव। लोकापवादः (पुं०) जनापवाद। ०जन श्रुति का अपवाद। लोकाभ्युदयः (पुं०) लोककल्याण, जनकल्याण। लोकायितकः (पुं०) लोकवाद को महत्त्व देने वाला चार्वाक
दर्शन। (दयो० ४१) अनात्मवादी। नास्तिक,
०भूततत्त्ववादी। लोकालोकः (पुं०) लोक और अलोक। लोकाकाश और
अलोकाश। लोकाश्रयः (पुं०) संसार का आधार। (हित० ३) लोकोत्तरः (पुं०) अनुपम, श्रेष्ठ। (वीरो० ३/८) लोकोत्तरकान्तिः (स्त्री०) अनुपम सौंदर्य। (जयो० १४/७५) लोकोत्तरगुण: (पुं०) उन्नत गुण, सर्वश्रेष्ठ गुण। (जयो०
५/५३) लोकोत्तरमहिमा (स्त्री०) महती प्रभावना। (भक्ति० ३) लोकोत्तररूपः (पुं०) लोकातिशायी रूप, अनुपम सौंदर्य। |
(जयो० ११/८५) लोकोत्तरवृत्तिः (स्त्री०) विसर्ग परिणाम। (जयो० १८/५५) लोकोत्तरसौंदर्य (वि०) विशेष सुंदरता। (जयो० १/४६) लोकोपकारी (वि०) जन जन का उपकार करने वाला। | ___(वीरो० १८/१५) लोकोपकृत (वि०) जनोपकारी। ०लोकहितकारी। लोच (सक०) देखना, अवलोकन करना। निरीक्षण करना,
सोचना, विचारना। लोचं (नपुं०) अश्रु, आंसु। लोचकः (पुं०) [लोच्+ण्वुल] मूर्ख पुरुष, धूर्त। लोचो मौर्व्या
भ्रश्लथ धर्मणि इति वि (जयो०८/५१) आंख की पुतली।
केंचुली।
०मोमपिण्ड। निरीक्षक, ०दर्शक। लोचनः (पुं०) नाम विरूप। (सुद० १/३२) लोचनं (नपुं०) [लोच्ल्यु ट्] नेत्र, नयन। (सुद० १३७)
अवलोकन, दर्शन, देखना। (दयो०६५) लोचनता (वि०) नयनरूपता। (जयो० १६/६९) लोचनापथः (पुं०) दृष्टिक्षेत्र। लोट् (अक०) मूर्ख होना, पागल होना मदहोश होना, उन्मत्त
होना। लोठः (पुं०) [लुठ+घञ्] लोटना, लुड़कना। लोड् (अक०) पागल होना, मूर्ख होना, मूछित होना।
विलोडित करना। (जयो० २१/५) लोडनं (नपुं०) अशान्त करना, उद्विग्न करना। लोणारः (पुं०) नमक। लोत् (पुं०) [लू+तन्] अश्रु, आंसू।
चिह्न, संकेत। लोत्रं (नपुं०) चुराई गई सम्पत्ति, लूटा गया धन। लोध/लोधः (पुं०) लाल, रक्त। ___ लोध्रवृक्ष। लोपः (पुं०) [लुप्-भावे घञ्] ०लोप, क्षति, हानि, अभाव,
समाप्ति। (जयो०वृ० १/६२) प्रकृति प्रत्ययादि लोप (जयो०वृ० १/३१) उन्मूलन, अपाकरण, उत्साधन, अन्तर्धान, अप्रचलन, उल्लंघन, अतिक्रमण। ०अनुपस्थिति।
अदर्शन, वर्णलोप। लोपनं (नपुं०) अतिक्रमण, उल्लंघन।
०अभाव, हानि, क्षति करना। ___०छूट देना। लोपमित (वि०) व्यलोपि। (जयो० १/६२) लोपयति (व०क०) लोप करता है। (जयो० ५/४) लोपा (स्त्री०) अगस्त्य मुनि की पत्नी। लोपाकः (पुं०) गीदड, शृंगाल। लोपिन् (वि०) [लुप् णिनि] हानि पहुंचाने वाला, लोप करने
वाला। (सम्य० ६१) लुप्त होने वाला। लोभः (पुं०) [लुभ्+घञ्] लालच, लोलुपता, लालसा।
लोभात्क्रोधः प्रभवति, लोभात्कामा, प्रजायते। लोभान्मानश्च माया च लोभः अपस्य कारणम्।। (जयो०
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लोभगत
९१९
लोहित
८२)
आसक्ति, इच्छा, वाञ्छा, चाह। ०लोभकषाय।
बाह्य पदार्थ की इच्छा। ०ममकार बुद्धि।
उत्कण्ठा। लोभगत (वि०) लोभ कषाय को प्राप्त। लोभजन्य (वि०) लालसा युक्त। लोभद्रव्य (वि०) द्रव्य का आकांक्षी। लोभपिण्ड (वि०) आहारलोलुपी। पिण्ड इच्छुक। लोभभक्त (वि०) भोजन का इच्छुक। ०आहारासक्त। __भोजन भट्ट। लोभित् (वि०) लोभ करने वाला। (मुनि० १८) लोमः (पुं०) पूंछ।
दल, समूह। (जयो० २६/१८) रोम, शरीर के रोम समूह। (जयो० १६/८२)
मृदुल। (जयो० १/५८) लोमक (वि०) रोमाञ्चित, हर्षित, प्रफुल्लित। (जयो०५/२१) लोमकिन् (पुं०) एक पक्षी विशेष। लोमतति (स्त्री०) रोमराजि। (जयो०११/३१) लोमन् (नपुं०) रोम, शरीरगत बाल। लोमकीटः (पुं०) जूं, लीख। लोमकूपः (पुं०) रोम के छिद्र। लोमगर्तः (पुं०) रोम छिद्र। रोम रंध्र। लोमपंक्ति (स्त्री०) रोमसमूह। लोमरन्धं (नपुं०) रोमछिद्र। लोमराजिः (स्त्री०) रोम समूह। (जयो० ११/३१) लोमलाजिः (स्त्री०) रोम समूह। लोमसृष्टिः (स्त्री०) रोम उत्पत्ति। (जयो० ११/३३) रोमाभाव (वि०) निलोम। (जयो०वृ० ११/१८) लोमालिक (स्त्री०) रोमपंक्ति। (जयो० १६/८२) लोमाली (स्त्री०) रोमपंक्ति। रोमावलि। लोमावलिः (स्त्री०) रोम समूह। (जयो० ११/३२) लोमाशः (पुं०) गीदड़, मृगाल। लोल (वि०) [लोड्+अच् उस्य ल लुल्+घञ्] कांपता हुआ, हिलता हुआ, दोलायमान।
विक्षुब्ध, अशान्त, व्याकुल, बेचैन। ०चंचल, चपल, अस्थिर, आतुर, उत्सुक। अस्थायी, नश्वर।
लोलता (वि०) चंचलता। (जयो० १३/२९) लोलाक्षिका (स्त्री०) चंचल नेत्र वाली स्त्री। लोलाञ्चता (स्त्री०) चंचला स्त्री। लोलं चञ्चलमञ्चलं यस्याः
सा (जयो० ८/३६) लोलुप (वि०) [लुभ्+यङ्+अच् भस्य प:] उत्सुक, इच्छुक
लोभवशंगत। (जयो० १६/४८) लाल सागत।
लालची, लोभी। लोलपा (स्त्री०) लालची, लोभी, लालसा, उत्कण्ठा। लोलुभ (वि०) अत्यन्त लालसा युक्त, लालसाशील,
उत्कण्ठाजन्य। लोष्ट (सक०) ढेर लगाना, संग्रह करना। लोष्टः (पुं०) [लुष्+तन्] मिट्टी का ढेला। लोष्टं (नपुं०) मृत्तिका पिण्ड। लोष्टुः (स्त्री०) मृत्तिका पिण्ड। लोष्ठः (पुं०) पत्थर, पाषाण। (जयो० ९/२९५) लोह (वि०) [लूयतेऽनेन, तू+ह] ताम्रमय, तांबे से युक्त। लोहः (पुं०) लोहा, अयस्क, एक धातु। (सुद० ४/३०,
सम्य०६१)
इस्पात, धातु, अस्त्र, हथियार। लोहकण्टकः (पुं०) वंशी, बडिरा। (जयोवृ० २५/७७) लोहकारः (पुं०) लुहार। लोहकिट्ट (नपुं०) लोहे की जंग। लोहकीलकः (पुं०) ०लोहे की कील, ०शलाका।
(जयो०वृ० ३/१७) लोहखण्डः (पुं०) अयस्क समूह। लोहचूर्ण (नपुं०) लोहभस्म। लोहजं (नपुं०) कांसा। लोहजालं (नपुं०) कवच। लोहदण्डः (पुं०) लोहे की छड! (सम्य०६१) लोहद्राविन् (पुं०) सुहागा। लोहबद्ध (वि०) लोहे से युक्त। लोहमुक्तिका (स्त्री०) लाल मोती। लोहरजस् (नपुं०) लोहे की जंग, मोर्चा। लोहराजकं (नपुं०) चांदी, रजत। लोहल (वि०) लोहे से निर्मित। लोहशंकु (स्त्री०) लोहे की कीला लोहिका (स्त्री०) [लोह+ठन्+टाप्] लोहे का पात्र। लोहित (वि०) लाल रंग का, ताम्र निर्मित।
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लोहितः
९२०
वंशनाडिका
लोहितः (पुं०) एक वृक्ष विशेष।
लाल रंग, मंगल ग्रह।
सर्प। लोहितं (नपुं०) तांबा।
०रुधिर।
केसर, जाफरान। लोहितवर्णः (पुं०) आरक्तवर्ण। (जयो० १५/२) लोहितकल्माष (वि०) लाल धब्बों वाला। लोहितक्षय (वि०) रुधिर नाश। लोहिनी (स्त्री०) रक्तवर्ण वाली स्त्री। लौकान्तिकः (पुं०) सुर ऋषि। ०देव विशेष। (भक्ति० ३२) लौकिक (वि०) [लौके विदितः प्रसिद्धो हितो वा ठण]
सांसारिक, भौतिक, पार्थिव। (जयो० २६/१००)
सामान्य, साधारण, प्रचलित। लौकिक-कल्याणं (नपुं०) सांसारिक हित। (जयो० २७) लौकिकाचरणं (नपुं०) सांसारिक हित। (जयो० २/७) लौकिकज्ञ (वि०) लोक व्यवहार जानने वाला। लौम्य (वि०) [लौके भव:-लोक ष्यञ्] सांसारिक, भौतिक। लौड् (अक०) पागल होना। लौल्य (वि०) [लोलस्य भावः ष्यञ्] चापल्य। (जयो० २३/२८)
तरलता। (जयो० १४/७६) लौह (वि०) लोहे से निर्मित। लौहं (नपुं०) लोहा, अयस्क। लौहजं (नपुं०) लोहे की जंग। लौहबन्ध (पुं०) लोहे की बेड़ी, जंजीर। लौहभाण्डं (नपुं०) लोहपात्र। ल्पी (अक०) मिलना, सम्मिलित होना। ल्वी (सक०) जाना, पहुंचना।
अस्मद् शब्द के षष्ठी एकवचन में :' वः युस्माकं वः श्रीवधमानो भुवि देवदेवः (वीरो०६/१) हमारी, हमारा
अर्थ निकलता है। वं (नपुं०) वरुण, कुम्भ वः कुम्भे वरुणे 'ति' विश्वलोचन
(जयो०वृ० १/१५) व (अव्य०) अथवा, यथा, तदह, जैसा कि। वंशः (पुं०) [वमति उगिरति वम्। श् तस्य नेत्वम्] ०बांस,
वेणु (जयो०वृ० ८४) ०हस्तिकुम्भस्थल। (जयो० ६/८०)
मानदण्ड। (जयो० ६/४०) ०कुल, परिवार, जाति, कुटुम्ब, परम्परा। वंशस्य जाति कनस्य मातुः पिता (सुद० २१) (वीरो० ७७/६) (सुद० १/४२) संग्रह, समूह, समुदाय, संघात, समुच्चय। रीढ़ की हड्डी । ०सालवृक्षा यत्राप्यहो लोचनमैमि वंशे तत्रैव तन्मौक्तिकमित्यशंसे। श्रीदेवकी यत्तनुजापिदूने कंसे भवत्युग्रहीपसून।।
(वीरो० १७/५४) वंशकठिनः (पुं०) बांसों का झुरमुट। वंशकुट (वि०) वंक्ष स्थापक, वंश चलाने वाला, कुल प्रवर्तक। वंशकर्पूररोचना (स्त्री०) वंशलोचन, तवाशीर। वंशकृत् (पुं०) कुल संस्थापक, कुलप्रवर्तक। वंशक्रमः (पुं०) वंशपरम्परा, कुल परम्परा। वंशक्षीदी (स्त्री०) वंसलोचन। वंशगत (वि०) परम्परा को प्राप्त हुआ। वंशगति (स्त्री०) कुलरीति, वंश व्यवस्था। वंशचरितं (नपुं०) कुलपरिचय। परम्परागत परिचय। वंशचिन्तक (वि०) वंश जानने वाला, कुल परम्परा का
चिन्तक। वंशछेत्तु (वि०) कुल का अंतिम व्यक्ति। वंशज (वि०) पूर्वज, कुल परम्परा के। वंशजः (पुं०) सन्तान, प्रजा, पवित्रकुलोत्पन्न। (जयो० १२/१३) वंशजं (नपुं०) वंशलोचनं। वंशज्योति (स्त्री०) कुल परम्परा की प्रभा। वंशतत्त्वं (नपुं०) बांस का सार। वंशनर्तिन् (पुं०) नट, विदूषक। वंशनाडिका (स्त्री०) बांसुरी।
व
वः (पुं०) इसका स्थान अन्तस्थ है। वकार (जयो०१० २/१५)
आभ्यन्तर ईषत् स्पृष्ट। वः (पुं०) पवन, वायु, हवा। ०भुजा, वरुण। (समु० १/४)
समाधान, सम्बोधन, मांगलिक कार्य। निवास, आवास। ०सागर। ०व्याघ्र।
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वंशनाथ:
९२१
वक्वेन्द्र
वंशनाथः (पुं०) वंश प्रमुख, कुलनायक। वंशनिर्माता (पुं०) कुलकर। (जयो०वृ० २।८) वंशनेत्रं (नपुं०) बांस का पत्ता। वंशपत्रकः (पुं०) नरकुल।
पौंड्रा। वंशपत्रक (नपुं०) हरताल। वंशपरम्परा (स्त्री०) कुलरीति, वंशानुक्रम। (जयो०वृ० २/१२४) वंशपूरक (नपुं०) इक्षुमूल, गन्ने की जड़। वंशभागः (पुं०) कुलांश। वंशभेदकर (वि०) गोत्रभिद। (जयो०७० १/४१) वंशभोज्य (वि०) आनुवंशिक। वंशभोज्य (नपुं०) वंश परम्परा की सम्पत्ति। वंशमहीरुहः (पुं०) वेणुवृक्ष, कुलपादप। (जयो० २५/३०) वंशरीति (स्त्री०) कुल परम्परा। वंशलक्ष्मी (स्त्री०) कुल का सौभाग्य। वंशलोचनं (नपुं०) औषधि विशेष। (वीरो० १७/३४) वंशवाद्यं (नपुं०) बांसुरी, वंशे महरे कुतो वंशवाद्यस्यतु समुद्भवः।
(दयो० ४८) वंशविततिः (स्त्री०) परिवार, संतान। वंशशर्करा (स्त्री०) बंसलोचन। वंशशलाका (स्त्री०) बांस की खूटी। वंशस्थिति (स्त्री०) कुल की धारा। वंशिका (स्त्री०) बांसुरी। वंशिवरः (पुं०) गृहस्था (जयो०वृ० १२/१) वंशी (स्त्री०) [वंश+अच्+ङीष्] वाद्य विशेष। (जयो० १२/७७)
बांसुरी, मुरली।
०व्याध, शिकारी। (जयो०) वंशीधरः (पुं०) कृष्ण, वासुदेव।
बंसी बजाने वाला। वंशीधरिन् (पुं०) कृष्ण, वासुदेव, मुरलीधर। वश्य (वि०) [वंशे भवः यत्] कुल परम्परा से सम्बंधित,
मेरुदण्ड से सम्बन्धित। वंश्यः (पुं०) पूर्वज, कुलज, वंशज।
परिवार का सदस्य।
०शहतीर। वकुशः (पुं०) वकुशमुनि, जो उत्तरगुणों को भी अच्छी तरह
नहीं समझ पाया। (सम्य० १४०) वक (पुं०) बगुला।
ठग, धूर्त।
०एक राक्षस, बकासुर। वकिक् (नपुं०) वणिकपथ, ०हारस्थान, विक्रय केन्द्र।
(जयो०२१/७६) वक्क् (सक०) जाना, पहुंचना। वक्तव्य (सं०कृ०) [वच्+तव्यत्] कहे जाने योग्य, कहने
योग्य, प्रकथन योग्य। गर्हणीय, निन्दनीय। दुषणीय। नीच, दुष्ट।
०कवित्वसामर्थ-'वक्तव्यतोऽलंकृति दूरवृत्ते' (वीरो० १/२६) वक्तव्यं (नपुं०) भाषण, कथन, प्रतिपादन।
विधि, नियम, सिद्धान्त, वाक्य। 'सज्ज्ञानेकविलोयन!
वक्तव्यं श्रीमता च तद्भवता। (वीरो० ४/३६) वक्ता (वि०) बोलने वाला। (समु०३/२२) वक्तु (वि०) वक्ता, कहने वाला। (समु० ९/३१) वक्ति (वि०) सूचक। (जयो० ३/१०६) वक्तृ (वि०) [वच्+तृच्] वक्ता, बोलने वाला, कहने वाला।
वाक्पटु, प्रवक्ता। वक्तृ (पुं०) विद्वान् पुरुष, अध्यापक, व्याख्याता।
"सत्यमसत्यं ब्रवीतीति वक्ता' (धव० ९/२२०) वक्त्रं (नपुं०) [वक्ति अनेन वच् करणे ष्ट्रन्] ०मुख, मुह,
बदन। ०थूथन, (जयो०८/६) प्रोथ, चोंच।
आरंभ। ०बाण की नोंक। वक्त्रखुरः (पुं०) दन्त, दांत। वक्त्रजः (पुं०) ब्राह्मण, विप्र। वक्त्रतालं (नपुं०) मुख से बजाया जाने वाला वाद्ययन्त्र। वक्त्रदलं (नपुं०) तालु। वक्त्रपट: (पुं०) परदा, आच्छादन। वकारन्ध (नपुं०) मुखछिद्र, मुख विवर। वक्त्रभेदिन ( ) चरपरा, तीक्ष्ण। वक्त्रवासः (पुं०) संतरा, मौसमी। वक्त्रशोधनं (नपुं०) मुखा साफ करना।
नींबू, चकोतचरा। वक्त्रशोधिन् (पुं०) नींबू, चकोतरा। वक्वेन्द्र (स्त्री०) मुखेन्द्र। (सुद० २/३५)
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वक्र
९२२
वक्ष
वक्र (वि०) [व +रन्] ०कुटिल, तिर्यग्।
टेढा, झुका हुआ, चक्करदार। (सुद० २/४६) गोलमोल, मण्डलाकार। ०कूट, धातक, नाशक, विध्वंसक। वक्रः (पुं०) शनिग्रह, मंगलग्रह। वर्क (नपुं०) नदी का मोड़।
प्रतिगमन, बहाव। वक्रकण्टः (पुं०) बेर का पेड़। वक्रकण्टकः (पुं०) खैर तरु। वक्रखङ्गः (पुं०) कटार, तलवार। वक्रगति (स्त्री०) टेढ़ी चाल, तिर्यक् गति। (सुद० १०५)
दर्पवतः सर्पस्येवास्य तु वक्रगतिः सहसाऽवगता। (सुद०
१०५) वक्रगामिन् (वि०) कुटिल गति वाला, टेढ़ी चाल चलने वाला,
जालसाज, बेईमान। वक्रग्रीवः (पुं०) ऊँट, उष्ट्र। वक्रचञ्च (स्त्री०) तोता, शुक्र। वक्रतुण्डः (पुं०) गणपति, गणेश। वक्रदंष्ट्रः (पुं०) सूकर, सूअर। वक्रदृष्टि (स्त्री०) तिरछी चितवन वाला, भँगा, कुटिलता युक्त
आंख वाला। वक्रदृष्टिः (स्त्री०) तिरछी अक्षि, तिर्यग् नेत्र। वक्रता (वि०) कुटिलता, वक्रिमा (जयो०वृ० ११/९६) वक्रतावस्था (स्त्री०) वक्रिमक्षण, कुटिल भाव की स्थिति।
(जयो०वृ० ११/८) वक्रत्व (वि०) कुटिलता, तिर्यग् गति युक्त। (वीरो० २/४८)
अहीनत्व किमादायि त्वया वक्रत्वमीयुषा। (वीरो० १०/२२)
कौटिल्यक। (जयो० २/१४६) वक्रनकः (पुं०) शुक, तोता। वक्रनासिकः (पुं०) उल्लू। वक्रपुच्छ:/वक्रपुच्छकः (पुं०) श्वान, कुत्ता। वक्रपुष्पः (पुं०) ढाक वृक्षा वक्रबालधिः (पुं०) श्वान, कुत्ता। वक्रभावः (पुं०) टेढ़ापन, कुटिलभाव। वक्रभू (पुं०) कुटिल भौंह। (जयो० २२/६५) वक्रलता (स्त्री०) झकी हई लता. मण्डलाकार बल्लरी। वकलांगूलः (पुं०) कुत्ता, कुक्कुट, श्वान। वक्रवक्रः (पुं०) सूकर, सूअर।
वक्रवाक्यं (नपुं०) कुटिलवाक्य, घुमावदार कथन। (जयो०
१६/५२) वक्रिन् (वि०) [वक्र+इनि] कुटिल (जयो० ११/९६) कुटिल
गामी, वक्रता। (सुद० १/४२) चापलतेव च सुवंशजाता
गुणयुक्तक पि वक्रिकख्याता। (सुद० १/४२) वक्रिमन् (पुं०) [वक्र+इमनिच्]०कुटिलता, वक्रता, टेढ़ापन। ०चक्कर, घुमाव।
धूर्तता, चलाकी, ठगी, छलभाव। वक्रिमक्षणं (नपुं०) वक्रतावस्था, कुटिलता का समय। (जयो०
११/९६) वक्रिमकल्पः (पुं०) कुटिल विचार। 'वक्रस्य भावो वक्रिमा
तस्य कल्पः समुत्यादः' (वीरो० १/३८) वक्रोष्टिः/वक्रोष्टिका (स्त्री०) [व] ओष्ठो यस्याम्] मृदु
मुसकान, मन्द-मन्द हास्यता। वक्रोक्ति (स्त्री०) [वक्र: उक्ति यस्याम्] ०वक्रकथन, कुटिल
प्रतिपादन। (जयो० ७/६६) ०वक्रोक्ति नामक अलंकार। जिसमें टालमटोल युक्त कथन श्लेष के साथ कहा जाता है। प्रस्तुतादपरं वाच्यमुपादायोत्तरप्रदः। भङ्गश्लेषमुखेनाह यत्र वक्रोक्तिरेव सा। (वाग्भट्टालंकार ४/१४) कुमाराद्य यमाराते जातुचिन्नात्र संशयः। मुक्त्वा क्षमामिदानीं तु जयं जयसि जित्वरः।। (जयो० ७/३५) (जयो० १४/३०, २६/७६, ५/१८, २२/७०,
२२/६८, २२/४७, वीरो० १/१०) वक्रोक्तिश्लेषः (पुं०) वक्रोक्ति युक्त श्लेष। (जयो०७०
२२/१०) वक्रोक्तिर्दृष्टान्तः (पुं०) वक्रोक्ति पूर्ण दृष्टान्त।
रजो यथा पुष्पसमाश्रयेण किलाऽऽबिलं मद्वचनं च येन। वीरोदयोदारविचारचिह्न सतां गलालाङ्करणाय किन्न।।
(वीरो० १/१०) वक्रोडुपः (पुं०) स्वकीय मुखचन्द्र मुख। वक्रोडुपे
किंपुरुषाङ्गनाभिः क्लृप्तावलोक्याथ च राहुणा भी:। (जयो०
८/३४) वक्ष (अक०) वृद्धि को प्राप्त होना, बढ़ना, कहना। (जयो०
३/५५) शक्तिशाली होना। ० क्रुद्ध होना। संचित होना।
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वक्षस्
९२३
वज्र
वक्षस् (नपुं०) [वह+असुन्+मुच च] छाती, वक्षस्थल, हृदय, दुहराना, पाठ करना, घोषणा। सीना। वक्षसो हृदयस्य स्फुरणं। (जयो०वृ० १४/३८)
वाक्य, वाणी, नियम, विधि। (सुद० ४/४२) वक्षजा (स्त्री०) स्त्री का वक्षस्थल।
एकवचन, बहुवचन। वक्षरुहा (स्त्री०) देखो ऊपर।
वचनकर (वि०) आज्ञाकारी, आदेश पालक। उपदेशक। वक्षणं (नपुं०) सम्पत्तिकर। पूर्णकलश, मंगलकलश। वचनकारिन् (वि०) आज्ञाकारी, वचन पालक। (जयो०२६/१)
वचनक्रमः (पुं०) प्रवचन, धारावाह निरूपण। वक्षस्थलं (नपुं०) छाती, उरस्थल।
वचनग्राह्नि (वि०) आज्ञाकारी, अनुवर्ती। वक्षस्फुरणं (नपुं०) हृदय स्फुरण। (जयो० १४/३८) वचनपटु (वि०) कहने में अतुर। वक्षारः (पुं०) वक्षारपर्वत। (भक्ति० ३६)
वचनप्रचारः (पुं०) दिव्यध्वनि (भक्ति० ३३) वक्षागिरि (पुं०) वक्षारपर्वत। (जयो० २४/१४)
वचनविरोधः (पुं०) पाठ विरोध। वख् (सक०) जाना, पहुंचना।
वचनबलं (नपुं०) वचन विषयक व्यापार। वगाहः (पुं०) अवगाह।
वचनामृतं (नपुं०) अमृत रूप वाणी। (वीरो० १३/३३) वकः (पुं०) [वक+अच] नदी का मोड़।
वचनीयर (वि०) [वच्+अनीयर्] कथनीय, निरूपणीय, वङ्का (स्त्री०) [वङ्क+टाप्] मेढ़ी।
प्रवचनीय, कहने योग्य, प्रतिपादित करने योग्य। वकिलः (पुं०) [व+इलच्] कांटा।
निन्दनीय, दूषणीय। वििक्र (स्त्री०) एक वाद्य यन्त्र।
वचनीयं (नपुं०) कलंक, निन्दा। वग् (सक०) जाना, लंगड़ाना।
वचनोच्चारणं (नपुं०) वाक्योच्चारण।(जयो०७० २३/३१) वङ्गरः (नपुं०) वङ्गवासी।
वचरः (पुं०) कुक्कुट, मुर्गा। वङ्गा (पुं०) कपास, बैंगन का पौधा।
निम्नव्यक्ति। वङ्गं (नपुं०) सीसा। रांगा।
०ठग, धूर्त, वाचारल, मुखरी। वङ्गाजः (पुं०) ०पीतल, सिन्दूर।
वचस् (वच्+असुन्) भाषण, वचन, कथन, विधि, आज्ञा, वङ्गजीवनं (नपुं०) चांदी, रजत।
उपदेश, विवेचन। (सुद० ७८)। वङ्गदेशः (पुं०) बंगाल का राजा।
वचसाम्पतिः (स्त्री०) [वचसा वाचां पतिः षष्ठ्या अलुक्] वङ्गदेशनृपः (पुं०) बंगाल का राजा। (जयो० ६/६६)
बृहस्पति, गुरु गृह। वङ्गाधिपतिः (पुं०) वंग अधिपति। (जयो० ६/६५)
वचस्ततिः (स्त्री०) वचनमाला, (सुद०८८) वाक्यावलि। वङ्गाधिपतिः (पुं०) वंग देश का राजा। (जयो० ६/५५) वचस्तम्भः (पुं०) वचन कीलित। (जयो० १९/७२) वच् (सक०) कहना, बोलना, प्रतिपादन करना।
वचोधिदेवता (स्त्री०) सरस्वती, भारती। (जयो० १२/२) वर्णन करना, बखान करना। (सुद० ८४) वाचयेत् वचोधृत (वि०) वचन धारक। (दयो० २/७) (दयो०७६)
वज्र (सक०) जाना, पहुंचना। समाचार देना, संदेश देना।
व्रजः (पुं०) इन्द्र अस्त्र, वज्रायुध, हीरक (सुद० १/२८) घोषणा करना, पुकारना।
वजं (नपुं०) मुदगर, ०इन्द्र अस्त्र। (समु० ६/३९) वचः (पुं०) [वच्+अच्] तोता, शुक।
हीरमणि, विद्युत। (सम्य० ७७) सूर्य दिनकर।
वज्रः (पुं०) सैन्य व्यूह, सैन्य रचना, सैन्य सुरक्षा की पद्धति। वचं (नपुं०) कथन, बात। (सम्य० १२१) वंचन। (जयो० | वज्रं (नपुं०) अभ्रक। ७/८) हि० २१) उपदेश, संदेश। (वीरो० १०/८)
०इस्पात। वचनं (नपुं०) [वच्+ल्युट्] बोलना, कहना।
०कठोर, कठिन। ०उच्चारण, बात, प्रकथन, उक्ति, उद्गार।
आंबलक। ०भाषण, प्रवचन, उद्घोष। (सम्य० ४/)
०बच्चा, बालक।
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वज्रकंटकः
९२४
वञ्चक
वज्रकंटकः (पुं०) वज्रकील। वज्रकङ्करः (पुं०) हनुमान। वज्रकाण्ड (नपुं०) वज्रकाण्डसन्धान। (जयो० ८/४३) वज्रकीलः (पुं०) वज्र निर्मित कील, दृढकील।
बिजली। वज्रक्षारं (नपुं०) वज्र मिट्टी, श्वेत कंकण। ०क्षेत्र/खेत कंकर। वज्रखण्डं (नपुं०) हीरकखण्ड। (जयो० १९/७) वज्रगोपः (पुं०) वीस्वधूटी। वजचञ्चः (पुं०) गिद्धपक्षी। वनचर्मन् गौंडा। वज्रजित् (पुं०) गरुड पक्षी। वज्रज्वलनं (नपुं०) विद्युत, बिजली। वज्रज्वाला (स्त्री०) बिजली। वज्रतुण्डः (पुं०) गिद्ध।
मच्छर। व्रजनाराचसंहननं (नपुं०) वज्रमयी हड्डी। वज्रर्षषनाराचसंननं (नपुं०) अभेद्य हड्डियों का संचय।
डांस मच्छर।
गरुड़। वज्रतुल्यं (नपुं०) नीलम मणि। वज्रदंष्ट्रः (पुं०) एक कीट विशेष। वज्रदन्तः (पु०) मूषक।
०सूकर! वज्रदशन: (पुं०) मूषक, चूहा। वज्रदेह (वि०) दृढ शरीरी। वजदेति (वि०) शक्ति सम्पन्न, शक्तिशाली देह। वजदृढ़ (वि०) वज्र की तरह मजबूत, वज्र की तरह शक्तिशाली।
(दयो० ७७) वज्रधरः (पुं०) इन्द्र। वज्रनाभः (पुं०) कृष्णचक्र, सुदर्शन चक्र। वग्रनिर्घोषः (पुं०) बिजली की चमक, विद्युत्तडक। वज्रपाणि: (पुं०) इन्द्र। वज्रपातः (पुं०) विद्युत् पतन, बिजली गिरना, बिजली का
आंघात। (दयो० ४३) वज्रपुष्पं (नपुं०) तिल का पुष्प। व्रजभृत् (३०) इन्द्र। 'वज्रमणिः (स्त्री०) हीरक मणि। 'वज्रमुष्टिः (पुं०) इन्द्र।
वजरदः (पुं०) सूकर, सूअर। वज्रलेपः (पुं०) दृढ़लेप, सीमेन्ट आदि का प्लास्तर। वज्रलोहकः (पुं०) चुम्बक। वज्रव्यूहः (पुं०) सैन्य व्यूह, सैन्य सुरक्षा विधि। वज्रशल्यः (पुं०) सेही जानवर। वज्रसार (वि०) पत्थर की भाति कठोर। वज्रसूचि (स्त्री०) हीरक सुई। वज्रषेणः (पुं०) साकेत नगरी का राजा। (वीरो० ११/२८) वज्रसेनः (पुं०) महाकच्छ का एक राजा, जो अत्यंत दुराचारी
था। (समु० २/२८) वज्रहृदयं (नपुं०) कठोर हृदय, दृढ़ हृदय। वज्राकारः (वि०) वज्र तुल्य आकार वाला। वज्रायुधः (पुं०) चक्रायुध राजा का पुत्र। (समु० ६/२८) वजिन् (पुं०) इन्द्र, शक्र, पुरन्दर, ०देव इन्द्र। (समु० २/१७)
०ऊलूक, उल्लू। वञ्च् (संक०) ठगना, धोखा देना।
०जाना, भागना, हटना। वञ्चक (वि०) [वञ्च+णिच्+ण्वुल्] ०ठग्, धूर्त, चालाक,
मक्कार।
०धोखेबाज, छली। वञ्चकः (पुं०) ठग, धूर्त।
गीदड़। (दयो० ३७) ०छछूदर।
०पालतू नेवला। वञ्चकता (वि०) ठगीपना, धूर्तता। (दयो० ३५, सुद० १०५,
३/२२) वञ्चतिः (स्त्री०) अग्नि, आग। वञ्चथः (पुं०) [वञ्च+अथ:] ठगना, धोखा देना, चालाकी।
०ठग, धूर्त, बदमाश, उचक्का ।
कोयल। वञ्चनं (नपुं०) [वञ्च ल्युट्] ०ठगा, धोखा देना, धूर्त, ठग। वञ्चना (स्त्री०) माया, छल, भ्रम। (सुद० ७५)
ठगी, चालाकी, धूर्तता। (जयो० २/५७)
०क्षति, हानि, अभाव। वञ्चित (भू०क०कृ०) [वञ्च+क्त] ०ठगा गया, धोखा खाया
गया। किमन्यैरहमप्यस्मिवञ्चितो माययाऽनया। (वीरो०१०/६)
०असमर्थ। (जयो० ९/७२) प्रतारित। वञ्चुक (वि०) छल से परिपूर्ण, धोखे से युक्त।
०ठगी, धोखा देने वाला।
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वञ्चुकः
९२५
वण्ट्
वडभः (पुं०) संकुचित हाथ-पांव वाला मनुष्य। वडवा (स्त्री०) [बलं वाति-बल+वा+क+टाप्] घोड़ी। ०वेश्या, रण्डी।
अग्निा वडवाग्निः (स्त्री०) वडवानल, अरण्य अग्नि। (जयो०७/७२)
समुद्राग्नि। वडवानलं (नपुं०) अरण्याग्नि, समुद्र की अग्नि। वडवामुखः (पुं०) समुद्र के अंदर रहने वाली आग। वडा (स्त्री०) [वड्+अच्+टाप्] बड़ा, दाल की बनी हुई बांटी। वडिशं (नपुं०) [बलिनो मत्स्यान् श्यति नाशयति] ०वंशी
'मीनोऽसौ वडिशस्य मांसमुपयन्मृत्यु समापद्यते।
(सुद० १२७) . वण (सक०) शब्द करना, ध्वनि करना। वणिज (पुं०) [पणायते व्यवहरति पण इजि पस्य वः] व्यापारी,
सौदागर। वणिक्कर्मन् (नपुं०) व्यापार कर्म। वणिक्कर्मार्यः (पुं०) बहुमूल्य वस्तुओं की बिक्री करने वाला
व्यापारी।
वञ्चकः (पुं०) गीदड़! वञ्जलः (पुं०) [वञ्च+इलच्] बेंत, नरकुल।
एक पक्षी विशेष। ०अशोक वृक्ष!
रम्य, सुंदर। (जयो० ७/९८) वञ्जुलद्रुम (पुं०) अशोक वृक्ष। वट् (सक०) घेरना।
०कहना, बांटना, विभाजन करना, घेरा डालना। वटः (पुं०) [वट्+अच्] बड़ का पेड़। (सुद० १२९, हित०
४७) कौड़ी। गोलिका. छोटी गेंद, अंटी, वटिका।
डोरी, रस्सी। वटकः (पुं०) नमकीन।
०बड़ा चुम्बन। (जयो० १२/१२४)
[वट+कन्] बाटी, एक गोल, आटे से निर्मित बाटी।
०छोटा पिंड, गेंद, वटिका। वटपत्रं (नपुं०) चमेली पुष्प। वटरः (पुं०) [वट्+अरन्] मुर्गा, कुक्कुट।
चटाई। •पगड़ी। चोर, लुटेरा।
सुगन्धित घास वटाकरः (पु०) डोरी, रस्सी। वटिकः (पुं०) [वट्+इन् कन्] शतरंज का मोहरा। वटिका (स्त्री०) [वट+इन्+कन्+टाप्] टिकिया, गोली। वटिन् (वि०) [वट्+इन्] डोरीदार. मंडलाकार. गोलाकार। वटिन् (पुं०) वटिक, गेंद, कन्दुक। वटी (स्त्री०) [वट्+अच्+ ङीष्] ०डोरी, रस्सी, धागा।
वटिका। वटीवलनं (नपुं०) रज्जुसम्पादन, रस्सी बांटना। (जयो० २६/६८) वटुः (पुं०) [वटति अल्पवस्त्र-वट+उ] ०लड़का, बटुक, किशोर।
ब्रह्मचारी। वटुकः (पुं०) [वटु+कन्] लड़का, छोकरा, किशोर, बालक। वठ् (अक०) मोटा होना, शक्तिशाली होना। वठर (वि०) मन्द बुद्धि वाला। वठरः (पुं०) मूढ, मूर्ख, बुद्धिहीन। 'निभालयामो' वठरं ।
जगज्जनम्' (वीरो० ९/१) वैद्य, चिकित्सक। जलपात्र।
वणिक्क्रिया (स्त्री०) क्रय-विक्रय व्यापार। वणिजनः (पुं०) व्यापारी, व्यवसायी, व्यवहारी। वणिजनः (पुं०) व्यापारी वर्ग, निगम। (जयो० २/११३) वणिक्तुजः (पुं०) वैश्य बालक। (समु० ४/३) वणिक्पथः (पुं०) व्यापार, क्रय विक्रय. विपणि प्रदेश, बाजार
(सुद० १/३२) व्यापार केन्द्र, विपणिस्थान। (वीरो० २/१७)
सौदागर, (वीरो० २/२६) आपणिका, दुकान। वणिकवश (पुं०) सौदागर, सेठ। (सुद० २/४) वणिकवृत्तिः (स्त्री०) व्यापारिक क्रिया, व्यापार, सौदागर।
(वीरो० २२/२६) वणिक्सार्थः (पुं०) व्यापारी वर्ग। वणिगीसः (पुं०) वैश्यपति, सेठ। (सुद० ३/३४) वणिज् (पुं०) [पणायते व्यवहरति पण+इज पस्य वः] व्यापारी,
सौदागर। वणिजः (पुं०) [वणिज्+अच्] सौदागर, व्यापारी। ___ तुलाराशि। वणिजकः (पुं०) सौदागर, व्यापारी। वणिज्यं (नपुं०) व्यापार, क्रय विक्रय। वण्ट (सक०) बांटना, विभाजित करना।
०बनाना, हिस्सा करना।
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वण्ट:
९२६
वधक्रिया
वण्टः (पुं०) [वण्ट्+घञ्] हिस्सा, भाग, खण्ड, अंश।
कुंआरा व्यक्ति। वण्टकः (पुं०) [वण्ट्+घञ् स्वार्थे क] बांटने वाला. * वितरण
करने वाला। विभाजन।
वितरक, हिस्सा, अंश, भाग। वण्टनं (नपुं०) [वण्ट+ ल्युट्] विभाजन, विभक्त करना,
बांटना, हिस्सा करना। वण्टालः (पुं०) [वण्ट्+अलच्] ०कुदाल, खुर्पा। ०नाव। वण्ठ् (सक०) एकाकी जाना। वण्ठ (वि०) [वण्ठ्+अच्] विकलांग। ___०अविवाहित। वण्ठः (पुं०) कुआरा व्यक्ति, सेवक, ठिगना। वण्ठरः (पुं०) [वण्ड्+अरन्] ०बांस का आवेष्टन।
रस्सी। ०कुत्ता, श्वान। वण्ड् (सक०) बांटना, हिस्से करना, घेरना, आवेष्टित करना। वण्ड (वि०) [वण्ड्+अच्] अपांग, विकलांग अपाहिज। ___अविवाहित, कुंआरा।। वण्डः (पुं०) जननेन्द्रिय की कमी। वण्डरः (पुं०) [वण्ड्। अरन्] कंजूस।
हिजड़ा। वत् (वि०) संज्ञा शब्दों के साथ लगने वाला प्रत्यय। वतेति खेद
(जयो० ९/८०) वतायं खेदोऽस्ति (जयो० १३/८८) वतेति खेदे (जयो० १२/१४१) 'दुग्धाब्धिवदुज्ज्वले तथा कं' (सुद० ९८) कौमुदं तु परं तस्मिन् कलावति कलावति।
(सुद० ९०) वतंसः (पुं०) [अवतंस्-अच् वा घञ्] मुकुट (जयो० ११/१४)
शिरोमणि (जयो० ६/११२) सिर आभूषण। 'दिगम्बरीभूय
सतां वतंस: ययो महाशुक्रसुवालयं स (वीरो० ११/१४) वतोका (स्त्री०) [अवगत लोक यस्याः अवस्था अकार लोप:]
बांझ स्त्री, नि:संतान स्त्री। वत्सः (पुं०) [वद्+स:] बछड़ा, गाय का बच्चा।
०लड़का, पुत्र। (सुद० ४/ ) (सुद० ३/२२) वत्सं (नपु०) छाती, वक्षस्थल, हृदय। (सम्य० ९६) वत्सकवत् (वि०) बछड़े की तरह। (जयो० ९/७१) वत्सराजः (पुं०) वत्सदेश का राजा। तत्पशााला (स्त्री०) गौशाला। वत्सल (वि०) प्रिय, अतिस्नेही, दयालु, अनुरागी।
वत्सलं (नपुं०) प्रेम, स्नेही। वत्सलताभिलाषी (वि०) स्नेह का इच्छुक। (सुद० १/२१) वत्सा (स्त्री०) [वत्स्+टाप्] बछिया। बहड़ी। वत्सिमन् (पुं०) [वत्स्+इमनिच्] बचपन, कौमार्य, जवानी। वत्सीयः (पुं०) गोप, ग्वाला। वद् (सक०) बोलना, कहना, उच्चारण करना। अवदत् (सुद०
८५) वदामः (सुद० २/२३)
घोषणा करना, समाचार देना, संदेश देना। (वीरो० ५/७) ०संकेत करना, आभास देना। (सम्य० १००)
उद्योग करना, चेष्टा करना। ०लुभाना, फुसलाना, मनाना। संबोधित करना, पुकारना। वक्तुं (सुद० २/२२) अंकित करना, निर्धारित करना। (सुद०८८) विवाद करना। पीयूष कुम्भाविति हन्त कामी वदत्यहो
सम्प्रति किम्वदामि।। (सुद० १०२) वद (वि०) [वद्+अच्] बोलने वाला, कहने वाला। वदनं (नपुं०) [वद्+ल्युट] मुख, चेहरा। (जयो० ६/४८)
(सुद० ११३)
छवि, दर्शन, शरीर। (सुद० ३/२८) वदनैकविद्धि (वि०) सच्चा वक्ता। (समु० १/३५) वदन्ती (स्त्री०) [वद्+झच ङीष] भाषण, प्रवचन। वदन्य (वि०) प्रवाही वक्ता। वदालः (पुं०) बवण्डर, भंवर, तूफान। वदावद (वि०) [अत्यंत वदति-वद्+अच्] अधिक बोलने
वाला, वाक्पटु, बातूनी, वाचाल। वदान्य (वि०) [वद्+आन्य] प्रवाही वक्ता। वदान्यः (पुं०) उदार, दानशील, दाता, अत्युदार व्यक्ति। वदि (अव्य०) चन्द्रमास, कृष्णपक्ष। वद्य (वि०) [वद्। यत्] कहने योग्य। वद्यं (सक०) मारना, प्रवचन, कथन। वधः (पुं०) मारना, हत्या, घात, विनाश, आघात, प्रहार।
प्राणवियोग-'आयुरिन्द्रियबलप्राणवियोगकरणं वधः। (स०सि०६/११)
प्राणी पीड़ा, ताडन, हनन। वधकः (पुं०) जल्लाद, कातिल, हत्यारा। वधकर्माधिकारिन् (वि०) जल्लाद, फांसी देने वाला। वधक्रिया (स्त्री०) घातक क्रिया।
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वधकोपदेशः
९२७
वनधेनुः
वधकोपदेशः (पुं०) संहारक व्यक्तियों के लिए उपदेश।
स्थान। (जयो० १५/७३) (सुद०४/२) वधजीविन् (पुं०) शिकारी, कसाई।
विपिन। (जयो०व०१३/४७) काननः (जयो० ३/११३) वधत्रं (नपुं०) अस्त्र, हथियार।
वनकणा (स्त्री०) पिप्पली। वधदण्डः (पुं०) शारीरिक दण्ड, दैहिक यातना।
वनकदली (स्त्री०) जंगली केला। वधपरीषहजयः (पुं०) विकारों का शान्तिकपूर्वक सहन करना। वनकारिन् (पुं०) जंगली हाथी। मारपीट सहना। (त०सू० १४६)
वनक्रीड़ा (स्त्री०) जलक्रीड़ा। वन विहार, अरण्य परिभ्रमण। वधातिवर्ति (स्त्री०) नित्य रूप-सुकारप्रणाशः स्यात्तेन वधातिवर्ति। (जयो०१० २०१८९) (जयो०वृ० ११/५४)
वनकुञ्जरः (पुं०) जंगली हाथी। वधित्रं (नपुं०) कामोन्मत्त, कामदेव।
वनकुक्कुटः (पुं०) जंगली मुर्गा। वधुः (स्त्री०) पुत्रवधु, स्नुषा, युवति, स्त्री।
वनक्षेत्र (नपुं०.) वनतानित, अरण्यस्थल। (जयो० १३/७५) वधूः (स्त्री०) [डह्यते पितृगेहात् पतिगृहं वह ऊधक्] दुलहिन, वनखण्डं (नपुं०) जंगल का भाग। पत्नी, भार्या।
वनगजः (पुं०) जंगली हाथी। महिला, स्त्री, परिणीता, विवाहिता स्त्री। (जयो० १४८१) वनगवः (पुं०) जंगली बैल। ___'पुरिसं वधमुवणेदित्ति होदि' (भ०आ० ९७७)
वनगहनं (नपुं०) झुरमुट, सघनवन क्षेत्र। वधूजनः (पुं०) स्त्री समूह। (जयो० २/५६)
वनगुप्तः (पुं०) भेदिया, जासूस। वधूटी (स्त्री०) [वधू+टि+ङीष्] अल्पवयस्का वधूः। पुत्रवधू। वनगुल्मः (पुं०) जंगली झाड़ी।
नवोढा, तरुणी स्त्री, नवयौवना, (जयो० १२/११४) नवाङ्गी। वनगोचर (वि०) अरण्य को जानने वाला। वन क्षेत्र को 'नवप्रसङ्गे परिहस्टचेता नवां वधूटीमिष कामि एताम्' समझने वाला। (वीरो० ६/२०)
वनगोचरः (पुं०) अरण्य, जंगल। वधूदोषः (पुं०) कायोत्सर्ग में सिर नीचा करना एक दोष है। । वनचंदनं (नपुं०) देवदारु का वृक्ष। वधवतिनी (स्त्री०) विधवा नियमवती। (जयो० ६/८६) वचचन्द्रिका (स्त्री०) चमेली। वध्य (वि०) [वधमर्हति वध्+यत्] मारे जाने योग्य, हत्या वनचम्पकः (पुं०) जंगली चम्पा। किये जाने योग्य।
वनचर (वि०) वनवासी, अरण्यचर। वध्यः (पुं०) शिकार, हनन।
वनचर्या (स्त्री०) अरण्यवास, जंगल में आवास। वध्यपटहः (पुं०) मृत्युदण्ड का घोष।
वनछागः (पुं०) जंगली बकरा। वध्यभूमिः (स्त्री०) मृत्युदण्ड का स्थल।
वनजः (पुं०) हस्ति, हाथी। वध्यमाला (स्त्री०) मृत्युदण्ड के समय पहनाई जाने वाली एक घास विशेष। माला।
वनजा (स्त्री०) जंगली अदरक। वध्यस्थल (नपुं०) मृत्युदण्ड का स्थान।
वनजीविन् (वि०) वनवासी, अरण्यवासी। वध्या (स्त्री०) [वध्य+टाप्] वध, हत्या, कातिल।
वनततिः (स्त्री०) वनराजि, वनसम्पदा। (दयो० ९) वधं (नपुं०) चमड़े की पट्टी।
वनतानितः (पुं०) वन विस्तार-वनस्य तानिते विस्तारे-वनक्षेत्रं वन् (सक०) सम्मान करना, पूजा करना।
___(जयो० ३/७६) ०याचना करना, प्रार्थना करना।
वनदः (पुं०) बादल, मेघ। ०अनुग्रह करना, सहायता करना।
वनदाहः (पुं०) दावानल, दावाग्नि। विनाश करना, नष्ट करना।
वनदेवता (पुं०) वनदेवता, वनरक्षक। वनं (नपुं०) [वन्+अच्] जल। (जयो० १४/७९)
वनदुमः (पुं०) जंगली वृक्षा ०भुवन, जन-जीवनं भुवनं वनं इत्यमरः (जयो० १४/४७) वनधारा (स्त्री०) वृक्षावलि, छायादार मार्ग। अरण्य, जंगल, वृक्षदल।
वनधेनुः (स्त्री०) गाय, गवय।
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वननिवासकरः
९२८
वनिता
वननिवासकर: (पुं०) दावैकनाथ। (जयो०वृ० १/३७) वनपजातः (पुं०) मालिपुत्र, मालाकारतनय। (जयो० ६/७१) वनपाठः (पुं०) वनरक्षक, (जयो०वृ० १/९०) मालाकार,
माली। (जयो० १/७८) वनपांसुलः (पुं०) शिकारी। वनपाल (नपुं०) वनप्रदेश, अरण्यक्षेत्र। वनपुष्पं (नपुं०) जंगली फूल। वनप्रवेशः (पुं०) तपस्वी जीवन में प्रवेश। वनप्रस्थः (पुं०) पठार, सघन वन क्षेत्र। वनप्रियः (पुं०) कोयल। ___०दाल चीनी का वृक्षा वन बहिणः (पुं०) अरण्य मयूर। वनभूः/वनभूमिः (वि०) ०वनभूमि ०अरण्यभू, गहनावनि। |
(जयो० १३/४२) वनभूमिरुपागत (वि.) अरण्य क्षेत्रगत। वनमक्षिका (स्त्री०) गोमक्षी, डांस।। वनमल्ली (स्त्री०) जंगली चमेली। वनमाला (स्त्री०) वृक्षावली, सघन वृक्ष पंक्तियां। वनमालिन् (पुं०) कृष्ण। वनमालिनी (स्त्री०) द्वारिका पुरी। वचमुच् (वि०) जल डालने वाला। वनमूतः (पुं०) मेघ, बादल। वनमुद्गः (पुं०) अरण्य मूंग। वनमोच (स्त्री०) अरण्य कदली। वनरक्षकः (पुं०) वनपालक। वनराजः (पुं०) सिंह। वनरुहं (नपुं०) कमल का फूल। वनलक्ष्मी (स्त्री०) अरण्य शोभा।
०कदली, वनश्री। (दयो०७०) वनलता (स्त्री०) जंगली बेल। वनवह्निः (स्त्री०) दावानल, दावाग्नि। वनवासः (पुं०) वन में निवास। वन वासनः (पुं०) गंधबिलाव।
०वानप्रस्थ आश्रम। (जयो० २/११७) वनवासिन (पु०) वनवासी (दयो० ४६) कमल।
(जयो०वृ० १८/४७) वनविचरणं (नपुं०) वन में भ्रमण। (सुद०८८) वनव्रीहि (स्त्री०) अरण्य धान्य।
वनशोभनं (नपुं०) कमल। ०अरविंद। वनश्वन् (पुं०) गीदड़, व्याघ्र गंध बिलाव। वनश्री (स्त्री०) वनदेवी, वनलक्ष्मी। (दयो० ७०) अरण्य
शोभा। वनसंकटः (पुं०) मसूर। वनसद् (पुं०) वनवासी। वनसरोजिनी (स्त्री०) जंगली कपास। वनस्थः (पुं०) हरिण।
०तापस। (जयो० १/३८) वनस्थली (स्त्री०) वन सम्पदा समूह। (वीरो० ६/१३)
आधुनिक शिक्षा केन्द्र। वनस्पति (स्त्री०) वन सम्पदा, सजीव वृक्ष। (मुनि० ९) वनस्पतिकायिकः (पुं०) वनसम्पदा, जिनका शरीर वनस्पति
होता है। (वीरो० १९/३१) 'वनस्पतिः कायः येषां ते वनस्पतिकाय: वनस्पतिकाया एव वनस्पतिकायिकाः (धव०
३/३५७) वनस्पतिजीवः (पुं०) वनस्पति जीव, जो जीव वनस्पतिकाय
नामकर्म के उदय से युक्त होता है। वनाखुः (पुं०) खरगोश। वनाग्निः (स्त्री०) दावानल। वनाजः (पुं०) जंगली बकरा। वनान्तः (पुं०) अरण्यप्रदेश, जंगली सीमा। (सुद० ४/२३)
'हिंसामहं प्रोज्झितवानथान्ते प्राणांश्च संन्यासितया वनान्ते'
(वीरो० ११२२३) वनान्तरं (नपुं०) उपवन, अरण्य का पृथक् भाग। वनापगा (स्त्री०) अरण्यसरित, जंगली नदी। वनारिष्टा (स्त्री०) जंगली हल्दी। वनाका (स्त्री०) जंगली अदरक। वनालक्तं (नपुं०) लाल मिट्टी, गेरुक। वनालिका (स्त्री०) सूरजमुखी। वनावनिः (स्त्री०) काननभूमि। (जयो० ३/११३) वनाश्रमः (पुं०) जंगल में आश्रम, वानप्रस्थ आश्रम, एकान्त
वास। वनाश्रमिन् (पुं०) वानप्रस्थी, संन्यासी, तपस्वी। वनाश्रयः (पुं०) वनवासी। वनिः (स्त्री०) [वन्+इ] कामना, इच्छा, वाञ्छा, चाह। वनिका (स्त्री०) [वनीकन्+टाप] उपवन, छोटा जंगल। वनिता (स्त्री०) [वन+क्त+टाप्] वनीजनी। (वीरो० ६/१३)
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वनिताकथा
९२९
वन्ध
स्त्री, महिला।
आराधना करना, पूजा करना, प्रशंसा करना, स्तुति पत्नी, गृहिणी, गृहस्वामिनी, पतिपरायण स्त्री, कान्ता। करना। (जयो०वृ० १/११२) (दयो० १/८) योषिता (जयो० ३/६५) वन्दकः (पुं०) [वन्द्+ण्वुल] प्रशंसक, चारण, भाट, स्तुतिकर्ता। वनिताकथा (स्त्री०) स्त्री सम्बंधी कथा, स्त्रियों के विषय में ०पूजक, अर्चक, स्तुतिकर्ता। चर्चा।
वन्दनं (नपुं०) [वन्द्+ल्युट्] ०नमन, प्रणाम, नमस्कार। वनिताक्षणी (पू०) श्री लक्षणा। (जयो० ३/३) वनिताविलास। ०अभिवादन, प्रणाम, स्तुति।
वनिता स्त्रियस्तासां क्षणो विलासविभ्रमादिलक्षण। ०आराधना, अर्चना, गुणानुवाद। (जयो० ३/३)
प्रशंसा, कीर्तन। वनिताजनः (पुं०) स्त्री समूह।
वन्दनमाला (स्त्री०) वन्दनवार, स्वागत द्वार। (जयो०१४/२३) वनिताद्विष् (पुं०) स्त्री से घृणा करने वाला।
वन्दन वारण, मत्तवारण (जयो० १०/४७) वनिताधामं (नपुं०) गृहिणीकक्ष।
वन्दनमालिका देखो ऊपर। वनितानन्द (वि०) स्त्री सम्बंधी आनन्द।
वन्दनवारः (पुं०) मत्तवारण। (जयो० ३/८१) वनितानूपुरः (पुं०) स्त्री के नुपूर।
वन्दना (स्त्री०) पूजा, स्तुति, आराधना। 'वन्दना त्रिशुद्धि वनितापादः (पुं०) स्त्री के पैर।
द्वयासना चतु:शिरोऽवनति, द्वादशावर्तना। (त०वा० ६/२४) वनितामोदः (पुं०) स्त्रियों में आमोद।
साधुओं के छह आवश्यक कर्म में तीसरा आवश्यक वनितालावण्यः (पुं०) स्त्रियों की छवि।
कर्म। वनितास्नेहः (पुं०) स्त्रीप्रेम।
आवर्त पूर्वक सिर झुकाना। वनितासौन्दर्य (वि०) स्त्रियों का सौंदर्य।
०कायोत्सर्ग पूर्वक नमन। वनिन् (पुं०) [वन+इनि] वृक्ष, तरु।
तीर्थकर स्तवन। सोमलता।
वन्दनार्थ (वि०) पूजनीय। (जयो० १/७९) अर्चनार्थ। वानप्रस्था
(समु०५/३१) वनिष्णु (वि०) [वन्+इष्णुच्] मांगने वाला, याचना करने | वन्दनी (स्त्री०) पूजा, अर्चना, आराधना, स्तुति। वाला।
वन्दनीय (वि०) प्रशंसनीय, प्रणम्य योग्य, सत्कार योग्य। वनी (स्त्री०) [वन ङीष्] जंगल, अरण्य, गुल्म, झुरमुट। __(हित० १८) वनीजनी (स्त्री०) वनिता, स्त्री। (वीरो० ६/१३) ।
वन्दनीया (स्त्री०) हरताल, गौरोचना। वनीयकः (पुं०) [वनि याचनामिच्छतिवनि+क्यच्+ण्वुल] | वन्दा (स्त्री०) [वन्द्+अच्+टाप्] भिक्षुणी, सन्यासिनी, आराधक। भिक्षुक, साधु।
(भक्ति०७) वनेकिंशुकः (पुं०) जंगल में किंशुक।
वन्दारु (वि०) [वन्द्+आरु] श्रद्धालु, विनीत, शिष्ट। वनेचर (वि०) जंगल में रहने वाला।
वन्दित (भू०क०कृ०) [वन्द्+क्त] आराधित। (जयो० १२/१) वनेचरः (पुं०) वनवासी।
पूजित, अर्चित, प्रशंसित। तपस्वी, सन्यासी।
वन्दित्वा (सं०कृ०) [वन्द्+क्त्वा] पूजकर, स्तुति करके। ०वन्यपशु।
(वीरो० ५/६) ०वनदेवता, वनमानुष, पिशाच।
वन्दिन् (पुं०) [वन्द्+इन्] स्तुति गायक, चारण, भाट। ०अरण्यजाति, शवर, भील।
वन्दी (वि०) [वन्दि+डीष्] बन्दीगृह। वनेज्य: (पुं०) आम की जाति।
वन्दीपालः (पुं०) काराध्यक्ष, जेलर। वन्द् (सक०) प्रमाण करना, वन्दना करना, नमन करना। | वन्द्य (वि०) [वन्द्+ण्यत्] पूज्य, सत्कार योग्य, माननीय,
(सम्य० ५८) भूरा जी शान्तये वन्दुितुं पादौ लगतु विरागभृतः सम्मानीय, प्रशंसनीय, नमस्करणीय। (सुद० ५/३) 'वन्दे तमेव सततम्' (सुद० ९८)
०स्तुत्य, श्लाघ्य, प्रशंसा का पात्र।
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वन्द्रः
९३०
वमथुच्छलं
वन्द्रः (पुं०) [वन्दु रक्] भक्त, पूजा करने वाला।
वपुष्मती (वि०) दिव्यदेह सम्पन्न। (जयो० २/४४) वन्दं (नपुं०) समृद्धि।
वपुस् (नपुं०) [वप्+उसि] शरीर, देह। (सुद० ९८) वन्ध्या (स्त्री०) बांझ स्त्री। (सम्य० ११६)
०रस, प्रकृति, सौन्दर्य, छवि। वन्धुरा (वि०) शोभायमान। (जयो० १३/५४)
०तनु (जयो०१/४७, जयो० २/४६) 'न वपुषि अशस्ताः ' वन्ध्यासुतः (पुं०) वन्ध्यापुत्र, बांझ का पुत्र, एक दार्शनिक (सुद० १/२९)
दृष्टान्त है, जिसमें पूर्ण अभाव के लिए ऐसा कथन किया वपुस्गुणः (पुं०) रूप की श्रेष्ठता। शरीर सौष्ठव। जाता है। 'खपुष्पैः कुरुते मूढः स वन्ध्यासुतशेखरम्।' वपुस्थ (वि०) शरीरस्थ, देहगत। (भक्ति० ३२) वपुषि तिष्ठतीति (सम्य० ११६)
वपुःस्थ शरीरवर्ती। (जयो० १३/९९) वन्य (वि०) [वने भवः यत्] जंगल से सम्बन्ध रखने वाला। वपुःस्थ (वि०) शरीरवर्ती, ०देहजन्य। वन्यः (पुं०) जंगली जानवर।
वप्त (पुं०) [वप्+तच] पिताश्री, वाप। वप्ता. पिता। वन्यं (नपुं०) जंगली उपज।
(जयो० ३/११६) वन्यगजः (पुं०) जंगली हाथी।
कवि। वन्यगत (वि०) अरण्य को प्राप्त हुआ।
वप्त (वि०) बोने वाला, पादप लगाने वाला। वन्यजातिः (स्त्री०) अरण्य जनसमूह।
वप्रः (वि०) [उप्यते अत्र वप्+रन] दुर्गप्राचीर, प्राकार, परकोटा। वन्यपादय (पुं०) अरण्य वन सम्पदा।
(वीरो० २/२४) वन्यप्राणी (स्त्री०) जंगली पशु-पक्षी।
दीवार, टीला, भित्ति, तटबन्ध। वन्य भिल्लः (पुं०) वनवासी।
नदीतट, पार्श्व, किनारा। वन्यवनस्पतिः (स्त्री०) जंगली वनस्पतियां।
०भवन की मूल नींव। वन्या (स्त्री०) [वन्य+टाप्] वन समूह, झुरमुट।
०खाई, खातिका। जलराशि, बाढ़, जलप्रलय।
वप्रक्रिया (स्त्री०) प्रहारक क्रिया। वप् (सक०) बोना, बिखेरना, लगाना, रोपना। (जयो०० | वप्रक्रीड़ा (स्त्री०) तटबन्ध पर भ्रमण की स्थिति। नदी तट २/३१)
पर परिभ्रमण। ०मूढ़ना, कांटना।
वप्रच्छल (नपुं०) परकोटे के बहाने। (वीरो० १३/८) ०तट वपः (पुं०) बीज बोना,
बन्ध का भोग। ___ मूंडना, बुना।
वप्रशिखर: (पुं०) परकोटा, खतिका का ऊपरी भाग। (सुद० वपनं (नपुं०) [वप्+ल्युट्] बोना, मूड़ना, कांटना।
१/३६) ०बुनना। ०वीर्य, शुक्र, बीज।
वप्रि (पुं०) [वप्+किन्] खेत, समुद्र। वपनी (स्त्री०) नाई की दुकान क्षौर शाला।
वप्री (स्त्री०) [वप्रि+ङीष] मिट्टी का टीला, पहाडी भाग, __०तन्तु शाला।
ऊँचा भाग। वपा (स्त्री०) चर्वी, वसा।
वभ्र (सक०) जाना, पहुंचना, प्राप्त होना। छिद्र, रन्ध्र, गत।
वम् (सक०) वमन करना, थूकना। (जयो० १४८२) ०बमी, दीमक का टीला।
०बाहर निकालना, उड़ेलना, उत्सर्जन करना। वपाकृत् (पुं०) वसा, मज्जा।
अस्वीकृत करना, छोड़ना। वपिल: (पुं०) [वप्+इलच्] प्रजापति, वाप, पिताश्री। वमः (पुं०) [वम्+अप] वमन करना, कै करना, छोडना. वपुनः (पुं०) सुर, देवता।
विसर्जन करना। वपुष्मत् (वि०) [वप्+उसि+मतुप्]
वमथुः (पुं०) [वम्+असुच्] थूकना, वमन करना, उद्वमन, ०सुन्दर, मनोहर
थूत्कर, फूत्कार। शक्तिशाली। (समु० २/१८)
वमथुच्छलं (नपुं०) थूत्कार व्याञ, फूत्कार के छल से।
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वमनं
९३१
वरदा
(जयो० १३/१००) मतङ्गजैस्तैर्वम थुच्छलेन तदेतदेवो
द्वलितं बलेन। (जयो० ३/१००) वमनं (नपुं०) [वम ल्यट] कै. उल्टी। (जयो०व०६/१०)
०बाहर निकालना, फेंकना। (जयो०७० २६/७९) वमनः (०) गांजा। वमनी (स्त्री०) जोंक। वमनीया (स्त्री०) मक्खी। वमिः (स्त्री०) [वम् इनि] अग्नि, आग।
०बीमारी, जी मिचलाना। वमिः (पुं०) ठग, छली व्यक्ति। वमिहेतु (पुं०) वमन का कारण। (वीरो० २२/९०) वमितवंत [वम् शत्] वमन करने वाला। (जयो०वृ० १/८२) वमी (स्त्री०) [वमि ङीष] उलटी करना। वंभाखः (पुं०) रंभाने की आवाज। वभ्रः (स्त्री०) चिंडटी। वभ्रकूटं (नपुं०) बॉबी, बिल। वय् (सक०) जाना, पहुंचना। वयनं (नपुं०) [वि+ल्युट्] बुनना। वयनकीटः (पुं०) मकड़ी, ऊर्णनाम। (जयो० २५/७२) वयस् (नपुं०) आयु, जीवन, यौवन, बाल्यकार।
०अवस्था, वय, जवानी। वयस्तु यौवने बाल्यप्रभृतौ वया
इति वि (जयो० १४/१६) वयस् (पुं०) काक, कौवा। वयस्कर (वि०) स्वास्थ्य देने वाला, आयु बढ़ाने वाला। वयस्गत (वि०) वयस्क, वयोवृद्ध। वयस्थ (वि०) परिपक्वावस्था। वयस्था (स्त्री०) सखि। सहेली, समान वयस्का। वयस्य (वि०) [वयसा तुल्यः यत्] समवस्क, मित्र, साथी।
(समु० ३/१२) समान अवस्था वाला। (सुद०३/३५) वयः सन्धि (स्त्री०) तारुण्यमूर्ति। (जयो०वृ० १६/२) वयस्यवर्गः (पुं०) मित्र समूह। (समु० १/३१) वयुनं (नपुं०) ज्ञान, विवेक, प्रत्यक्षज्ञानशक्ति। वयोधस् (पुं०) [वयो यौवनं दधाति-वयस्+धा+असि] युवा,
प्रौढ़ व्यक्ति। वयोभियुक्त (वि०) पक्षियों सहित, वयसा नवयौवनेनाभिव्युक्ता,
वदोभि, पक्षिभिरभिर्युक्ता। वयोरंग (नपुं०) [वयसो रंगमिव] सीसा, दर्पण। वयोवद्धः (पुं०) वय में अधिक। (जयो० २०६८१, दयो०५९)
वर् (सक०) मांगना, चुनाना, छांटना, वरण करना, वरिष्यति
(जयो० ३/८८) वर (वि०) [वृ-कर्मणि अप्] श्रेष्ठ, प्रधान, प्रमुख, उत्तम,
अच्छा। (सुद० १/३७)
दूल्हा, पति। (दयो०७९) वरमन्वेषयेद्विद्वान् कन्यायै सर्व सम्मत। (दयो० ७९) याचना, अनुरोध, अनुनय, विनती, प्रार्थना। (सुद०९३)
जमाता, जमाई, कुंवर सा। ०कामुक, कामासक्त।
तीक्ष्ण। (जयो०१० ५/९५) ०कामना, इच्छा, वाञ्छा, चाह।
उत्तम भाग। ० बल (जयो० ) वरेत्यत्र रलयोरभेदाद बला बलवती।
(जयो०) वरं (नपुं०) केसर, जाफरान। वरंग (वि०) उत्तम अंग। वरंगः (पुं०) हस्ति, हाथी।
सिर, मस्तका वरंगना (स्त्री०) कमनीय स्त्री। वरणं (नपुं०) प्राकार, परकोटा। (जयो० २६/५७) कोट
(वीरो० २/२९) वरचंदना (नपुं०) देवदारु, चीड़ की लकड़ी। वरणं (नपुं०) ग्रहण करना, लेना, स्वीकार करना। (जयो०वृ
५/९५) वरटः (पुं०) हंस। वरटापतिः (पुं०) हंस। (जयो० २५/५२) वरणार्थ (वि०) वरण करने के लिए। (जयो०वृ० ५/९५) वरतनु (वि०) सुन्दर शरीर वाला। वरतनु (स्त्री०) सुन्दर स्त्री, कामिनी। वरतन्तु (पुं०) एक ऋषि विशेष। वरद (वि०) मंगलप्रद, अभीष्टदायक, वरदायक, वरदेने वाला।
(जयो० १२/३) वरदरङ्गः (पुं०) यथेष्ट वरदान का स्थान। वरं ददातीति वरदो
यो रङ्गः स्थानम्। (जयो० ७/६५) वरदर्शन (वि०) सुदर्शन, सुन्दर दर्शन, वरदायक, वरदान। वरदा (स्त्री०) पुत्री, कन्या, कुमारी कन्या। 'वरं वल्लभं
ददातीति वरदा' (जयो०५/१४) वरं यथेष्टं ददातीति यावत् (जयो० ५/१४)
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वरदान
९३२
वराहमिहिरः
वरदान (वि०) वर प्रदान करने वाला।
आंवला। वरदायक (वि०) वर प्रदाता।
सुगंधित द्रव्य। वरदे/वरदेवः (पुं०) उत्तम देव। (जयो० ८/८७) सुदेव।
०हल्दी। वरद्गुमः (पुं०) अगर का वृक्षा उत्तम जाति का वृक्ष। वराक (वि०) बेचारा, दयनीय। वृद्धो वराको जडधी रयेण। वरनिर्वाचनं (नपुं०) वरचयन। (जयो० ३/६६)
(वीरो० ४/२३) असहाय, आर्त, पीड़ाजन्य स्थिति वाला, वरपक्षः (पुं०) दुल्हे का पक्ष।
अभागा, दुःखी, त्रस्त, व्याकुल। (वीरो० ४/२३) वरप्रस्थानं (नपुं०) विवाह के लिए दूल्हे का प्रस्थान। वराकः (पुं०) शिव, संग्राम। वरफलः (पुं०) नारिकेल तरु।
युद्ध। वर बाह्निकं (नपुं०) केसर, जाफरान।
वराकी (स्त्री०) दीन। बेचारी, ०अभागिन्। वरमाल्य (स्त्री०) वरमाला, वरण करने की माली, स्वीकारोक्ति | चकवी। (वीरो० ४/२५) माला। (जयो० ६/१२६)
वराङ्गं (नपुं०) सिर, मस्तक। वराङ्गमूर्धगुह्ययो' इत्यमर (जयो० वरमाला (स्त्री०) वरणमाला।
१७/४०) वराङ्गमस्तके योतैः इति वि (जयो० १७/४०) वरयात्रा (स्त्री०) विवाह के लिए दुल्हे का प्रस्थान। वराङ्गिन् (वि०) सुंदर देह वाली रूपवती। (वीरो० ४/६३) वरयात्रिकर (वि०) बराती, दूल्हे के साथ चलते वाले व्यक्ति। वराटः (पुं०) [वरमल्य मटति-अट्+अण्] ०कपर्दिका। (जयो०वृ० १२/२८)
०कौड़ी, वरयातकसमूहः (पुं०) बराती। (जयो० १०/५५)
रस्सी, डोरी। वरयानं (नपुं०) विवाह योग्य वाहन। (जयो० १०/५५) वराटकः (पुं०) कमल, कोड़ी। वरयानसमूहः (पुं०) वरयात्रा समूह। (जयो० १०/५५)
०डोरी, रस्सी। वररुचिः (पुं०) प्राकृत व्याकरण का रचनाकार।
वराटिका (स्त्री०) [वराट् कन्+टाप्] कौड़ी। वरतु (स्त्री०) श्रेष्ठ ऋतु, श्रेष्ठ कान्ति। (जयो० ५/९५) वराणः (पुं०) इन्द्र। वरलः (पुं०) बरी।
वराणसी (स्त्री०) बनारस नगरी। वरुणा और अस्सी नदी का हंसिनी।
स्थान। वरलब्ध (वि०) वरदान को प्राप्त।
वरारकं (नपुं०) हीरक मणि। वरलब्धः (पुं०) चम्पक वृक्ष।
वरार्थ (वि०) वरण योग्य। (जयो० ५/९५) वरवत्सला (स्त्री०) चम्पक वृक्ष।
वराह (वि०) वर के योग्य। (जयो० ४/४०) वरवत्सला (स्त्री०) सासू।
वरालः (पुं०) लौंग, लवण। वरवर्णं (नपुं०) स्वर्ण, सोना।।
वराशिः (स्त्री०) [वरं आवरणमश्नुते वर+अश्+इन्] [वरैः वरवर्णशासिका (वि०) श्रेष्ठ रूपधारिणी, वरवर्णिनी, श्रेष्ठैः अस्यते क्षिप्यते-वर+अस्+इन्] मोटा कपड़ा, स्थूल उत्तमकामिनी (जयो० २/५७)
वस्त्र। वरवर्णिनी (स्त्री०) रूपिणी स्त्री, सुन्दर स्त्री, कामिनी। वरासिराट् (पुं०) श्रेष्ठखड्ग। (जयो० ७/१०६) लक्ष्मी।
वराह। (पुं०) [वराय अभीष्टाय मुस्तादिलाभाय आहन्ति-भूमिन् दुर्गा, सरस्वती।
आ+हडि] सूकर। वरवेशधारक (वि०) सुंदर रूप का धारण करने वाला। मैंदा, बैल, बादल। (जयो० ९/९)
वराहकंदः (पुं०) वराहीकन्द, एक खाद्य पदार्थ। वरसन्नयः (पुं०) वनयात्रिक, बराती। (जयो० १०/५५) वराहकर्णः (पुं०) एक बाण विशेष। वरभ्रजः (पुं०) वरमाला, दूल्हे के वरण की माली, पतिचयन वराहकर्णिका (स्त्री०) एक अस्त्र विशेष। की माला।
वराहकल्पः (पुं०) वराहावतार का समय। वरा (स्त्री०) [वृ+अच्+टाप्] त्रिफला-हरड़, बहेड़ा और | वराहमिहिरः (पुं०) ज्योतिर्वेत्ता।
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वराहशृंगः
९३३
वर्गशस्
वराहशृंगः (०) शिव, शंकर। वरिमन् (पुं०) श्रेष्ठता, सर्वोपरिता, प्रमुखता। वरिवसित (वि०) पूजा गया, अर्चित, सम्मनित, सत्कृत। वरिवस्या (स्त्री०) [वरिवस: पूजायाः करणं, वरि
वस्+क्यप्+अ+टाप्] पूजा, अर्चना, प्रार्थना, सम्मान, सत्कार, |
भक्ति । वरिष्ठ (वि.) [वर। उरुर्वा उरु+इष्ठन] सर्वोत्तमता. अत्यन्त
श्रेष्ठ, अत्यन्त पूज्य। (वीरो० ) ०पूज्य, प्रमुख।
अत्यन्त विशाल, अत्यन्त विस्तृत। वरिष्ठः (पुं०) तीतर पक्षी।
संतरे का वृक्षा वरिष्ठं (नपुं०) तांबा।
मिर्च। वरी (स्त्री०) [वृ+अच्+ङीष] सूर्य की पत्नी छाया, शतावरी
का पौधा। वरीतुम् (वरी+कुमुन्) वरण करने के लिए। (जयो० ५/२) वरीयस् (वि०) [वर: उरुर्षा उरु+ईयसुन्] ०अधिक समीचीन,
उत्तमोत्तम। अत्युच्चै (जयो० १३/३) ०अत्युत्तम, बहुत
अच्छा, अच्छे रूप में प्रवर्तित। (वीरो० ९/३५) वरीवर्तिन (वि०) उत्तमोत्तम। अच्छे रूप में प्रवर्तित। वरीवर्दः (पुं०) बैल, सांड। वरीषुः (पुं०) [वरः श्रेष्ठः इषु यस्य] कामदेव। वरुटः (पुं०) म्लेच्छ जाति। वरुडः (पुं०) एक जाति विशेष। वरुणः (पुं०) आदित्य, सूर्य।
०वृक्ष-सुखाशो राजतिनिशे वरुणे सुमनोरथ इति विश्वलोचनः। (जयो० २१/३२)
अन्तरिक्ष, समुद्र। वरुणपाशः (पुं०) घड़ियाल। वरूथं (नपुं०) बख्तर, कवच। वरोचितः (वि०) वरयोगय, वरण योगय, विवाह करने योग्य।
(दयो०७०) वरेण्य (वि.) [+एन्य] ०वान्छनीय, सर्वोत्तम, श्रेष्ठ, प्रमुख,
पूज्यमत। वरोटः (पुं०) [वराणिश्रेष्ठानि उटानि दलानि यस्य] मकवे का |
पौधा। वरोटं (नपुं०) बर्र, भिड़।
वर्करः (पुं०) [वृक्+अरन्] मेमना। ०बकरा, पालतू जानवर।
आमोद, क्रीड़ा विहार, मनोरंजन। वर्कराटः (पुं०) [वर्करं परिहासं अटति गच्छति
वर्कर+अट्+अण] कटाक्ष, तिरछी नजर। वर्कुटः (पुं०) कील, अर्गला, चटखनी। वर्गः (पुं०) [वृञ्+घञ्]० श्रेणी, विभाग।
एक राशि, अविभागप्रतिच्छेद। ०समूह समुदाय, समन्वय, एक रूपता। (जयो०५/२०)
अनुभाग, अध्याय, परिच्छेद, ग्रन्थ का एक अनुच्छेद/हिस्सा। कर्म प्रदेश के अनुभाग। प्रवर्ग, टोली, पक्षा भाग। (जयो० १/३) कवर्ग आदि का समूह। त्रिवर्ग भावात्प्रतिपत्तिसार: स्वयं चतुर्वर्णविधिं चकार। जनोऽपवर्ग स्थितये भवेऽद: स नाऽभिज्ञत्वममुष्य वेद।। (वीरो० ३/९) 'क-च--ट वर्गाणां भावात्सद्भावाद् ज्ञानान्तरं यः स्वयमेव चतुर्थी वर्णानां
त-थ-द-धां विधिं चकार। (जयो०७० ३/९) वर्गघनः (पं०) वर्ग का घनफला वर्गजात (वि०) समन्वय को प्राप्त हुआ। वर्गणा (स्त्री०) समूह, समुदाय, संख्या योग। (सम्य० ३४)
सब जीवों के अनन्तवें भाग प्रमाण वर्गों के समूह-वर्गसमूहलक्षणां' वर्गाणां समहो वर्गणा भण्यते। (जैन०ल० ९८३) ०असंख्यात लोक प्रमाण योगाविभाग प्रतिच्छेदों की एक
वर्गणा होती है। वर्गणाप्रदेशः (पुं०) वर्गणा नाम, वर्गणा प्रदेश। वर्गनिसर्गः (पुं०) वर्ग की रचना। (जयो० १/३) वर्गपदं (नपुं०) वर्गमूल, संख्या निकालने की पद्धति। वर्गफलः (पुं०) घनफल। वर्गबन्धः (पुं०) अनुच्छेद में विभक्त। वर्गभावः (पुं०) अनुभाग, अध्याय। वर्गमण्डित (वि०) त्रिवर्ग से सुशोभित। कु-चु-टुनामेव
समूहसेवितः, (जयो०७० ३/२०)
अपवर्ग विचारक। (जयो० ३/२०) . वर्गमूलं (नपुं०) वर्गमूल, वर्गपद। वर्गशस् (अव्य०) समूहवार।
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वर्गशब्दः
९३४
वर्णनं
वर्गशब्दः (पुं०) प्रत्येक वर्ग शब्द, कवर्ग, चवर्ग, आदि के
शब्द। (जयो०वृ० १/२४) शब्द संग्रह। (जयो०वृ० १/२४) 'वर्गशब्दस्य जात्यर्थकत्वात्'
(जयो०वृ० १/२४) वर्गशिरः (पुं०) समूह में अग्रणी। वर्गः समूहस्तस्य शिरांसि
मस्तकानि। (जयो०वृ० १/६९) वर्गीय (वि०) [वर्ग+छ] प्रवर्ग से सम्बन्धित, समूह से जुड़ा
हुआ। वर्य (वि०) [वर्गे भवः यत्] एक ही श्रेणी का। वर्यः (पुं०) सहयोगी, सहपाठी। वर्च् (अक०) चमकना, प्रकाशित होना, कान्तिगत होना। वर्चस् (नपुं०) [व+असुन्] ०शक्ति, बल, वीर्य।
०प्रभा, कान्ति, आभा। रूप, आकृति।
विष्ठा, मल। वर्चस्कः (पुं०) [वर्चस्+कन्] प्रभा, कान्ति, प्रकाश, आभा,
तेज।
०वीर्य, बलु, शक्ति। वर्चस्मिन् (वि०) [वर्चस्+विनि] ओजस्वी, शक्तिशाली, सक्रिय।
तेजस्वी, प्रकाशवान्, उज्ज्वल। वर्जः (पुं०) [वृ+घञ्] त्याग, परित्याग, छोड़ना। वर्जनं (नपुं०) [वृ+ल्युट्] त्याग, परित्याग, छोड़ना, विसर्जन, ।
परिमुंचन। तिलांजलि, बहिष्करण। ०क्षति, हानि, चोट, हत्या।
वैराग्य। वर्ज (अव्य०) निकालकर, त्यागकर, बाहर करके, निष्क्रान्त। वर्जित (भू०क०कृ०) [वृज्+क्त] विसर्जित, नि:सरित। ०परित्यक्य, उत्सृष्ट, बहिष्कृत।
वंचित, विरहित।
०हीन, निम्न। वर्ण्य (वि०) [वृज्+ण्यत्] छोड़ने योग्य, बहिष्कृत किये जाने
योग्य। वर्ण (सक०) वर्णन करना, व्याख्यान करना, प्रतिपादित
करना, चित्रित करना। ०कथन करना, निरूपण करना। 'वर्णी वर्णयते किलाक्ष
विषयान्' (मुनि० ३३) वर्णः (पुं०) वर्ण, शब्द, अक्षर।
०ककार, कवर्ग। (जयोवृ० १/४८)
ब्राह्मणादिवर्ण (जयो०वृ० १/४८) वर्णानां ब्राह्मणादीनाम्' (जयो०वृ० १/५१) ० श्रेणी, जाति, वर्ग। ०वंश, प्रकार, जातिभेद।
ख्याति, प्रसिद्धि, कीर्ति, विभूति। प्रशंसा, यश। रूप, आकृति, छवि। (जयो०वृ० ११/९६) रंग, रोगन। ०सौंदर्य, लावण्य। ०सजावट, वेशभूषा। अक्षर, ध्वनि, कवर्गादि वर्ण।
आवरण, चादर, दुपट्टा। ०ढक्कन, चपनी।
गुण, धर्म। वर्ण (नपुं०) केसर, जाफरान। वर्णक (वि०) श्रेणीगत, वर्ग गत। वर्णकर (वि०) ब्राह्मणादि वर्ण करने वाला। वर्णकालः (पुं०) वर्णनकाल। प्रस्तुति समय। वर्णकूपिका (स्त्री) दबात, स्याहीपात्र। वर्णक्रमः (पुं०) परम्परागत, एक वर्ण युक्त, वर्ण व्यवस्था। वर्णवृति (पुं०) चित्रकार, कलाकार।
०वर्णमाला, कवर्ग क्रम। वर्णचारकः (पुं०) चितेरा। वर्णचारिन् (वि०) वर्ण के अनुसार विचरण करने वाला, वर्ण
व्यवस्था का अनुसरण करने वाला। वर्णचेष्टा (स्त्री०) रूपसम्पदा की इच्छा। (जयो० ११/९६) वर्णज्येष्ठः (पुं०) वर्ण में प्रमुख। वर्णतूलिः (स्त्री०) कूची, तूलिका, रंगकर्मी की कूची। वर्णद (वि०) रंग साज। वर्णदं (नपुं०) दारु लकड़ी। वर्णदात्री (स्त्री०) हल्दी, हरिद्रा। वर्णदूतः (पुं०) पत्र, संदेश। वर्णधर्मः (०) विशिष्ट कर्त्तव्य। वर्णनं (नपं०) [वर्ण+ल्यूट] वर्णन. कथन.विवेचन, निरूपण
प्रतिपादन, विवेचन। (जयो० ६/८५) रूपं प्रविघ्नमिति तस्य च वर्णने कः (सुद० १३४) चित्रण, आलेखन, चित्रांकन।
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वर्णनपर
९३५
वर्णिका
प्रशंसा, स्तुति।
जाती है। ० वक्तव्य, उक्ति, विचार।
सम् अर्धसम विषम वर्णनपर (वि०) वर्णनपरक, वाचक, विवेचक। (सुद०१/४६) इन्द्रवज्रा, भुजंगप्रपात
देशादे पतेश्च वर्णनपरः सर्गोऽयमद्योऽनकः। (सुद० १/४६) यगण, मगण, तगण, रगण, जगण, वर्णनीय (वि०) प्रशंसनीय, अक्षरांकन से युक्त। (जयोवृ० भगण, नगण, सगण युक्त छन्द। १/२९)
वर्ण व्यवस्थितिः (स्त्री०) वर्ण व्यवस्था, वर्णविभाग। वर्णपदं (नपुं०) अक्षरमाला।
वर्णशिक्षा (स्त्री०) वर्णमाला, की शिक्षा, लिपिज्ञान, अक्षरज्ञान। वर्णपातः (पुं०) अक्षरलोप।
वर्णसंकरः (पुं०) अर्न्तजातीय विवाह के कारण उत्पन्न वर्ण। वर्णपुष्पं (नपुं०) पारिजात का फूल।
(हित० २४) यदि जन्म संस्काराभ्यां, कौलीन्यमिति कथ्यते। वर्णपुष्पकः (पुं०) पारिजात पुष्प।
नादीणां किल संस्काराभावातः काऽस्य संगति।। (हित० वर्ण प्रकर्षः (पुं०) रंगों की महनीयता।
२३२ श्लोक ७२) वर्णप्रसादनं (नपुं०) अगर की लकड़ी।
०वर्णों का सम्मिश्रण। वर्णप्रेमिन् (वि०) सौंदर्य का इच्छुक।
वर्णसंघातः (पुं०) वर्णमाला। वर्णभङ्गिन् (वि०) वर्णभेद वाला। (वीरो० १७/२८) वर्णसार्य (वि०) वर्ण मिश्रित। (जयो० ३/८०) वर्णमातृ (स्त्री०) कूचिका, कूची।
वर्णाङ्कः (पुं०) लेखनी, कलम। ०लेखनी, निर्झरणी, प्रसादिनी।
वर्णागमः (पुं०) वर्गों का जोड़ना। ०अक्षर समागम। प्रमार्जनी।
सन्धि। बर्णमातृका (स्त्री०) भारती, सरस्वती।
वापसदः (पुं०) जातिच्युत। वर्णमाला (स्त्री०) अक्षरमाला। (जयो० १२/३७) वर्णनां | वर्णापेत (वि०) जातिशून्य। माला-वर्णक्रमा (जयोवृ० १/४८)
वर्णाश्रमः (पुं०) विविध आश्रम, ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्राम, वर्णमालाक्रमः (पुं०) अक्षरमाला के वर्ग का क्रम। (जयो० वानप्रस्थाश्रम और संन्यासाश्रम। (जयो०० २/११८) १/४८)
वर्णी-गेहि-वनवासि-योगी। (जयो०वृ० २/११८) वर्णयोगः (पुं०) सौंदर्य का संयोग। ०अक्षर संयोग।
०आर्यप्रवृति, सुन्दर। (जयो०वृ० ११/६) वर्णराशिः (स्त्री०) अक्षर माला।
वर्णाश्रमपद्धतिः (स्त्री०) समान वर्ण व्यवस्था। वर्णवर्ति (स्त्री०) तूलिका, कूची।
आसावर्ण विवाहश्च प्रभवत्यार्षसम्मतः। वर्णवर्तिका (स्त्री०) कूची। तूलिका।
समाचारविचारेद्धाऽतो वर्णाश्रमपद्धतिः।। वर्णलोपः (पुं०) अक्षरलोप। (जयो० १/३०)
(हित० सं० १९) विस्तार के लिए हित सम्पादक हिन्दी वर्णलोपवती (स्त्री०) वर्णलोप ।
पृ० १९। वर्णविधिः (स्त्री०) वर्णस्थापना।
वर्णिकछन्द (पुं०) वर्णवृत्त, यगण, मगण आदि गण युक्त नक्षत्ररीतिरधुना नभसो न भाति,
काव्य रचना। जात्या वृत्तेनापि लसन्तो. गुप्तोऽप्युलूकतनस्य तथा सजातिः।
सालंकारतया खलु सन्तौ। विप्राप्तवंसदनतो नरपामरत्वं,
सार्द्धविरामायच्च जम्पती, केषाञ्चिदुद्धरति वर्णविधेर्महत्त्वम्।। (जयो० १८/५०)
श्रीछन्दसी गुणेन सम्प्रति।। वर्ण विलासिनी (स्त्री०) हल्दी, हरिद्रा।
(जयो० २२/८१) 'वृत्तेनेति मात्रिक छन्दो जातिर्वर्णिक वर्णविलोडक (वि०) अक्षरों की चोरी करने वाला, साहित्यक छन्दश्च वृत्तमिति। (जयो०वृ० २२।८१) चोर।
वर्णिका (स्त्री०) लेखनी, कमल. निर्भरणी। १. कची, वर्णविशेधिनी (स्त्री०) संशोधकत्री। (जयो० १२/९६)
तूलिका। रंगलेप। वर्णवृत्तं (नपुं०) वर्णिक छन्द, जिसमें वर्गों की गणना की स्याही, मसि।
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वर्णित
९३६
वर्तरुकः
वर्णित (भू०क०कृ०) [वर्ण+क्त] चित्रित, लिखित, रचित, | वर्तनं (नपुं०) वृत्ति, व्यवसाय, जीविका, जीवन निर्वाह। खचित।
(हित० १३) ब्रह्मचर्य योग्य।
वर्तनं कस्यचित्कोऽपि, कदाचित् कर्तुमर्हति। वर्णन की गई, प्रशंसति।
(हित० १३) वर्णिन् (वि०) [वर्णोऽस्त्यस्य इनि] चित्रवाला, लेख युक्त, चलना, प्रवर्तन, जाना, गमन। (दयो०६१) चाल चलन, रचित।
व्यवहार, आचरण। ०व्यापार, क्रय-विक्रय। ०वर्ण से सम्बन्धित, जातिगत वर्ण से युक्त। .
०पात्र, भाण्ड। 'वर्तनानां पात्राणाम्' (जयो०७० २४/७१) वर्णिन् (पुं०) [वर्ण+इनि] वर्णी, ब्रह्मचारी।
वर्तनादि परिणामतो हितम्। (जयो० २/७७) गृहस्थवान्, प्रस्थषिनामकाः। ब्रह्मचर्य को प्राप्त। (जयो०७० गोलक, गेंद। १८/४५)
वर्तना (स्त्री०) कालाश्रित वृत्ति, परिवर्तित होना, कालाश्रया वर्णि आश्रम, ब्रह्मचर्याश्रम (जयो० २/११७) वृत्ति। वाणीभूषणवर्णिनं घृतवरी देवी च यं धीचयम् (सुद० पुनरभ्यसन, परिणमन। 'वृतेर्णिजन्तात् कर्मणि भावे वा १/४६) 'वर्णि वर्णयते किलाक्षविषयान्स्वप्नेपमा नित्यतः' युटि स्त्रीलिंगे वर्तनेति भवति, वर्त्यते वर्तनमात्रं वा वर्तना-इति (मुनि० ३३) जो इन्द्रिय सम्बन्धी विषयों को स्वप्न के (स०सि० ५/२२) अपनी सत्ता को स्वीकार करते हुए हर समान वर्णित करते हैं, बताते हैं वे वर्णी हैं।
एक द्रव्य की समय-समय पर होने वाले परिवर्तन को वर्णिनी (स्त्री०) [वर्णिन ङीष] स्त्री, वनिता। एक वर्ण की वर्तना कहते हैं। (तत्त्वार्थ सूत्र० पृ० ७८) स्त्री।
प्रवर्तना, परावर्तन, पलटना। ०हल्दी।
वर्तनिः (पुं०) [वर्तन्तेऽस्यां जनाः, वृत+निः] सूक्त, प्रशंसा, वणुः (पुं०) [वृ+णुः नित्] दिनकर, भानु, सूर्य।
सूक्ति, स्तुति। वर्णोघः (पुं०) अक्षर समूह। (जयो० ३/२३)
वर्तनिः (स्त्री०) मार्ग, पथ, रास्ता। वर्ण्य (वि०) [वर्ण+ण्यत] वर्णन करने योग्य, विवेचन करने | वर्तनी (स्त्री०) पथ, रास्ता, मार्ग। योग्य।
०पीसना, चूर्ण बनाना। वयं (नपुं०) केसर, जाफरान।
जीना, जीवन। वर्यभावः (पुं०) वर्णनीयता के भाववर्णन करने योग्य ०कर्म, गति। विचार। (जयो० ५/३५)
वर्तमान (वि०) [वृत्+शानच्] विद्यमान, स्थित। जीने वाला, वर्तः (पुं०) [वृत्+घञ्] वृत्ति, जीविका।
ठहरने वाला। वर्तक (वि०) [वृत्+ण्वुल्] वर्तमान, विद्यमान, अवस्थित, ०मुड़ना, चक्कर काटना। स्थित, जीवित।
परिणत होने वाला, परिवर्तन होने वाला। संघ प्रर्वतक।
वर्तमानः (पुं०) वर्तमान काल, अद्यतनकाल। चलने वाला वर्तकः (पुं०) बटेर, लबा।
काल। (सम्य० १३७) प्रत्युत्पन्न। घोड़े का सुम।
वर्तमानकालः (पुं०) सम्प्रतिकाल। (भक्ति० १८) वर्तकं (नपुं०) पित्तल, कांसा।
___ वर्तमान स्थिति से सम्बन्धित काल। वर्तका (स्त्री०) बटेर, लबा।
वर्तमानगतिः (स्त्री०) आधुनिक गति, सम्प्रतिकाल की क्रिया। वर्तकी (स्त्री०) बटेर, लबा।
वर्तमानदृष्टिः (स्त्री०) आधुनिक दृष्टि। परिणत दृष्टि। वर्तन (वि०) [वृत्+ल्युट्] स्थिर रहने वाला, विद्यमान रहने वर्तमान पथः (पुं०) प्रवर्तन का मार्ग। वाला, टिकाऊ रहने वाला।
वर्तमान स्थितिः (स्त्री०) आधुनिक परिस्थिति। स्थिर, विद्यमान, वर्तमान।
वर्तरुकः (पुं०) [वर्त+रा+ऊक] ०पोखर, जोहड़, गर्त, गड्ढा। वर्तनः (पुं०) ठिगना, बौना।
०जलावर्त, भंवर।
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वर्तिः
९३७
वर्धमानं
वर्तिः (स्त्री०) [वृत्+इन] दशालोचन। (जयो० १०/११४) वर्त्मभू (स्त्री०) मार्ग स्थान, भूभाग। (जयो० ३/११५) पत्राली, बही।
वर्त्मविरोधिन् (वि०) मार्गविरोधी। (जयो० १३/१३) उबटन, लेप, कज्जल।
वर्त्मसद् (नपुं०) सदाचरण का मार्ग। 'वर्त्म सदाचारमार्गोऽस्ति' अंगराग, मल्हम।
(जयो० २।८) दीपक की बत्त।
वर्त्मसम्बलः (पुं०) पथ का कलेवा, मार्ग का पाथेय। (समु० ०झालर, किनारी।
४/३१) पाथेय पथ्य, पाथेय पिण्ड। वर्तित (वि० भू०क०कृ०) प्रवर्तित। (जयो० २/१५७) वर्द्धमान (वि०) बढ़ते हुए, विकास करते हुए, बृद्धि को प्राप्त। वर्तिन् (वि०) प्रवर्तित होने वाला, स्थित रहने वाला।
(समु०१/२ दयो० १/३) उद्वर्धनशील। (जयो०१८/३७) गतिशील, परिवर्तनशील।
वर्द्धमानः (पुं०) सिद्धार्थ पुत्र, त्रिशलानन्दन। युक्त। (जयो०वृ० १/११०)
कुण्डग्राम का राजकुमार, जो वैराग्य धारण कर घोर अनुष्ठाता, अभ्यास करने वाला।
तपस्वी बना और केवल ज्ञान को प्राप्त कर तीर्थंकर ०व्यवहारी, व्यापारी।
महावीर भी कहलाए। वर्तिरः (पुं०) बटेर, लबा।
वर्द्धमानस्वामिन् (पुं०) देखो ऊपर। (जयो० १९/२१) वर्तिष्णुः (वि०) [वृत्+उलच्] गतिशील रहने वाला, परिवर्तन | वर्ध (सक०) काटना, छेदना, विभक्त करना।
करने वाला, प्रवर्तित होने वाला, चलने वाला, चक्कर ०मूंड़ना, बांटना। लगाने वाला।
०पूरा करना। ०वर्तुलाकार।
वर्धः (पुं०) [वर्ध+अच्] काटना, बांधना। वर्तमान, विद्यमान।
०बढ़ाना, समृद्धि करना। वर्तुल (वि०) [वृष उलच्] गोल, कुण्डालाकार, मण्डलाकार। ०वृद्धि, बढ़ोत्तरी। वर्तुलः (नपुं०) वृत्त।
वर्धकः (पुं०) [वृध+ण्च्+िण्वुल्] बढ़ई। वर्तुलः (पुं०) मटर।
वर्धन (वि०) [वृध+णिच्+ल्युट] ०बढ़ने वाला, उगने वाला। वर्तुलभङ्ग विभङ्गाकारः (पुं०) जवलेविका, जलेबी, जो
आवर्धन, समृद्धि करने वाला। गोलाकार तीन चार घेरों से युक्त होती है। (जयो० वर्धनः (पुं०) शिव। ३/६०)
वर्धनं (नपुं०) उगना, बढ़ना, शिक्षा देना, उल्लास, उन्नति। वर्तुलाकृतिः (स्त्री०) सुवृत्त, अत्यन्त गोलाकार आकृति। वर्धनी (स्त्री०) बुहारी, झाडू। (जयो०० २४/११)
वर्धनशील (वि०) बर्धिष्णुक। (जयोवृ० ८/५२) वर्त्मन् (नपुं०) [वृत्+मनिन्] पथ, रास्ता, मार्ग। (सुद० ३/१०) वर्धमान (वि०) [वृध+शानच] बढ़ने वाला, गतिशील होने
मनोऽपि यस्य नो जातु संसारोचित वर्त्मनि। (सुद० १३२) वाला, वृद्धि कारक। रीति, पद्धति, विधि।
श्रिया सम्वर्धमानन्तमनुक्षणमपि प्रभुम्। प्रचलनक्रम, पूर्वानुक्रम।
श्रीवर्धमाननामाऽयं तस्य चक्रे विशाम्पतिः।। (वीरो०८/६) ०धार, किनारा।
वर्धमानः (पुं०) एक जिले का नाम। मर्यादा सन्निवेद्य च कुनङ्करैः कुलान्येतवाचरणामिङ्गितं अन्तिम तीर्थंकर महावीर के जीवन का प्रारंभिक नाम। बलात्। आचरेत् स्वकुल सक्तिमानियद्वर्त्मसद्भिरूपतिष्ठितं ० श्रीवर्धमाननामाऽयं तस्य चक्रे विशाम्पति' (वीरो०८/६) हि यत्।। (जयो० २।८)
वर्धमानस्य अर्हतोऽभिधानतस्तनामोच्चारणपूर्वकं अभिजनं वर्त्मनि (स्त्री०) रास्ता, मार्ग।
स्वजन्मस्थानं सम्प्राताः। (जयो० ८/२३) वर्त्मबन्धः (पुं०) पलक रोग।
अर्हत् वर्धमान, तीर्थंकर वर्धमान। वर्द्धित (भू०क०कृ०) संल्ललित. पालित। (जयो० १३/२२) | वर्धमानं (नपुं०) ढक्कन, तश्तरी। निरादरीकृत् (जयो० २१/७)
रहस्यमय रेखाचित्र।
साश
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वर्धमानकः
९३८
वर्षवरः
वर्धमानकः (पुं०) एक पात्र विशेष, ढक्कन, चपनी। वर्धमानत (वि०) बढ़ते हुए, विकास करते हुए। (सुद०३/२७) वर्धय (अक०) प्रसार करना, विकास करना, फैलाना विस्तृत
होना। (सुद०३/१३) 'जगदाह्लादको बालचन्द्रमाः समवर्धत'
(वीरो०८/७) वर्धयत् (वि०) बढ़ते हुए, विकास करते हुए-इङ्गितेन निजस्याथ
- वर्धयन्मोदवारिधिम्। (वीरो० ८/७) वर्धयन्त (वर्धय्+शतृ) बढ़ते हुए, प्रसार करते हुए। वर्धस्व (वि०) बधाई। (जयो०वृ० २६/२८) वर्धापनं (नपुं०) [वर्ध छेदं करोति-वृध्-णिच् आप ततो भावे
ल्युट्] ०काटना, बांटना। .
छेदन करना, भेदन करना। वर्धित (भू०क०कृ०) [वृध+णिच+क्त] बढ़ता हुआ, विकास
करता हुआ। विस्तृत किया हुआ, फैला हुआ।
विशाल बनाया हुआ। वर्धिष्णु (वि०) [वृध+इष्णुच] .वर्धनशील. विकासशील।
फलने फूलने वाला। उमड़ने वाला, वृद्धिशील। बर्द्धिष्णुरधुनाऽऽनन्दवारिधिस्तस्य तावता। (जयो०वृ० १/१०२) 'गुण समुद्रो
वर्धिष्णुः वृद्धिशीलोऽभवत्' (जयो०वृ० १०२) वर्धिष्णुक (वि०) वर्धनशील, बढ़ती हुई, वृद्धिगत। तेजोनिधौ
सोमसुते प्रतीपा वर्धिष्णुके मृत्युमुखे समीपात्। (जयो०
८/५२) व (नपुं०) [वृध्+रन्] पट्टी, बेल्ट।
०सीसा, दर्पण। वधिका (स्त्री०) [वर्ध+ङीष् कन्+टाप] चमड़े की पट्टी,
कमरबन्द। वर्मन् (नपुं०) [आवृणेति अंग-वृ-मनिन्] ०कवच।
०छाल, वल्कल। (जयो०८/१३) वर्मणः (पुं०) नारंगी तरु। वर्मिः (पुं०) वामी मछली, मत्स्य विशेष। वर्मित (वि०) [वर्मन्+इतच्] कवच युक्त, कवचधारी। (जयो०
३/१००) वर्मितं (वर्म तमन) कवचित. कवच करने के लिए।
(जयो०२१/४) वर्य (वि०) [वृ+यत्] सर्वोत्तम, उत्कृष्ट।
मुख्य, प्रधान, प्रमुख।
वर्याः (पुं०) कामदेव, मदन। वर्या (स्त्री०) वरण करने वाली कन्या। वर्वरः (पुं०) वर्वर जाति, भील जाति।
बुद्ध, प्रलापी, मूर्ख।
जाति च्युत, बहिष्कृत। वर्वर (वि०) [वृ+अरच्] बल खाता हुआ, हकलाने वाला। वर्वरकं (नपुं०) [वर्वर+कन] चन्दन लकड़ी। वर्वरं (नपुं०) पीला चंदन।
सिंदूर। वर्वरा (स्त्री०) मक्खी।
वनतुलसी। वर्वरीकः (पुं०) [वृ+ईकन्] धुंघराले बाल। . वर्षः (पुं०) [वृष भावे घञ् कर्तरि अच् वा] द्वन्दसमासे वर्षम्।
वर्षा, बारिश। मुमुदे समुदीक्ष्य ततपतिर्भुवि वर्षामिव चातकः सतीम् (सुद० २/३०)
छिड़कना, सींचना, फेंकना, उत्सरण, बौछार। वर्षः (पुं०) वर्ष, साल, वर्ष (नपुं०) भारतवर्ष। (जयो०वृ० १/६) वत्सर, संवत्सर।
०क्षेत्र, स्थान। (भक्ति० ३४) (जयो० १/६) वर्षक (वि०) बरसने वाला, गिरने वाला। वर्षकरः (पुं०) मेघ, बादल। वर्षकोषः (पुं०) ०मास, महीना।
ज्योतिषी, निमित्तशास्त्री। वर्षगिरि (पुं०) वर्ष पर्वत, वर्षधर पर्वत। वर्षज (वि०) बरसात से उत्पन्न। वर्षणं (नपुं०) [वृष ल्युट्] वर्षाकाल वृष्टि, वर्षा। (वीरो०
१२/३३) (जयो०८/६२) (सुद० ३/३२)
सिंचन, बौछार। वर्षधरः (पुं०) मेघ, बादल। वर्षधरगिरि (पुं०) वर्षधर पर्वत। (त०स०५१) तद्धिभाजिनः
पूर्वापरायता हिमवन् महाहिमवन्निषध नील-रुक्मि
शिखरिणो वर्षधरपर्वताः। (त०सू० ३/११) वर्षपूगः (पुं०) वर्षों का समुच्चय। वर्षप्रतिबन्धः (पुं०) अनावृष्टि, सूखा, अकाल। वर्षाभाव। वर्षप्रियः (पुं०) चातक पक्षी, चक्रवाक। वर्षयन्त (वृष्+शतृ) बरसते हुए। 'अखण्डरूपेण जगज्जनेभ्यो
ऽमृतं समन्तादपि वर्षयन्तम्। (वीरो० १३/२४) वर्षवरः (पुं०) हिजड़ा, अन्तःपुर रक्षक।
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वर्षवृद्धिः
९३९
वलित
वलग्नः (पुं०) [अवलग्न इत्यत्र भागुरिमतेर अकरलोपः]
कमर। वलग्नं (नपुं०) कमर, कटि। वलनं (नपुं०) [वल् भावे ल्युट्] ०घूमना, चक्कर काटना,
मुड़ना।
९२ पास
वर्षवृद्धिः (स्त्री०) जन्मदिन। वर्षशतं (नपुं०) सौ वर्ष। वर्षसहस्रं (नपुं०) एक हजार वर्ष। वर्षा (स्त्री०) [वृष्+अच्+टाप्] वर्षाकाल। (वीरो० ६/२)
०वर्षाऋतु-पत्रशाकं च वर्षासु नाऽऽहर्तव्यं हयावता। (सुद० १२९)
मेघवृष्टि, वर्षा, बरसात, वर्षा होना। (सुद० २/५०)। 'वर्षायां तु न निर्ब्रजेत् पथि पुनर्वर्षयत्सुमेधेषु च। (मुनि०९) वर्षाऋतु (स्त्री०) वर्षा का समय, पयोदकाल (भक्ति १४)
बरसात का समय। (भक्ति० १४) वर्षाकालः (पुं०) पयोदकाल, वर्षा का समय। (वीरो०६/२)
(वीरो० २/१५) वर्षाक्लेशः (पुं०) वर्षाभाग का कष्ट। (जयो० ७० २२/१२) वर्षान्तर (पुं०) क्षेत्र के बीज, स्थान के मध्य। (भक्ति० ३४) वर्षान्तर पर्वतः (पुं०) क्षेत्रों के मध्य आए हुए कुलाचल।
(भक्ति० ३४) वर्षोषु वर्षान्तर, नन्दीश्वरे यानि च मन्दरेषु।
(भक्ति०३४) वर्षाभू (पुं०) मेंढक। वर्षाम्बु (नपुं०) चातुर्मास, वर्षाकाल का संयोग। (सम्य०
१५६) * श्रावण कृष्ण प्रतिपदा से कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा तक। "पञ्चम्या नभसः प्रकृत्यभवतादूर्जस्विनी या क्षमा, तावद्ध सशतावधौ निवसतादेकत्र लब्ध्वा समां। एतस्मिन्भवति स्वतोऽवनिरियं प्राणिव्रजैराकुला, संजायेत ततोऽर्हतां सुमनो
सावुज्जजृम्भे तुला। (मुनि० ७) वर्षार्चिस् (पुं०) मंग्रलग्रह। वर्षावसरसमयः (पुं०) शरद काल। (जयो० ४/९) वर्षावसारः (पुं०) बौछार, दृष्टि। कलि लिफल। (वीरो०
४/६) वर्षिका (स्त्री०) वर्षाकत्री। (जयो० १५/२४) वर्षितं (नपुं०) [वृष्+क्त] वर्षा, वृष्टि। वर्षिष्ठ (वि०) [अतिशयेन वृद्ध] अत्यन्त वृद्ध, बहुत बूढ़ा। वर्षीयस् (वि०) अधिक बड़ा। वर्षक (वि०) [वृष्+उकञ्] जलमय, बरसने वाला, देह। वर्मन् (नपुं०) शरीर, देह। वर्हः (पुं०) मयूर। (समु० ७/२५) वल् (सक०) जाना, पहुंचना, ठकना, घेरना। वल् (अक०) मुंडना, आकृष्ट होना, अनुरक्त होना।
०गोलाकार, मण्डलाकार, वर्तुलाकार। वलभी (स्त्री०) छज्जा। (जयो० १०/६१) वलभी (स्त्री०) एक नगरी, स्थान विशेष। श्वेताम्बर जैनागमों
की एक वाचना वलभी वाचना के रूप में प्रसिद्ध है। यह वाचना महावीर निर्वाण के ९८० में देवर्धिगणी की अध्यक्षता
में हुई थी। वलभीतलं (नपुं०) छज्जा। (जयो० १०/६१) वलयः (पुं०) [वल्+अयन्] कंगन, कड़ा, हाथ के आभूषण।
गोलाकार कंकण। श्री वीरमातुर्वलयानि तानि माणिक्यमुक्तादिविनिर्मितानि। (वीरो० ५/१५) ०छल्ला, कुंडल।
वृत्त, परिधि, मण्डल। (जयो० ५/८६, ९/६९) ०बाड़, घेरा, झाड़बन्दी।
गलगण्ड रोग। वलयस्वनं (नपुं०) कंकणशब्द, कंगनध्वनि। (जयो० १४/२५) वलयाकारः (पुं०) वर्तुलाकार। वलयावारकंकणं (नपुं०) गोल कंगन। वलयाकारकुंडल (नपुं०) गोलाकार कुण्डल। वल्याकारगिरि (पुं०) मण्डलकार पर्वत। वल्याकारपृथिवी (स्त्री०) गोल भूभाग। वलयाकुल (वि०) कङ्कणसहित व्याकुल। (जयो० १७/८५) वलयाङ्कित (वि०) कंगनाङ्गित (जयो० १८/१००) वलयेन
कटकेन अङ्कितः (जयो०वृ० १८/१००) वलयित (वि०) [वलय+इतच्] घिरा हुआ, परिवृत्त, चारों
ओर लपेटा गया। वलारि (स्त्री०) इन्द्रपुरी। (जयो०व० २४/२९) वलायमरणं (नपुं०) संयमहीन मरण। वलाहकः (पुं०) मेघा, बादल। (जयो० ५३) वलिः (स्त्री०) [वल+इन्] शिकन, झरी, सिकुड़न। वलिकः (पुं०) छत का किनारा। वलित (भू०क०कृ०) [वल्+क्त] तिरछी, टेढ़ी, तिर्यक्। (जयो०
१३/२६)
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वलित्रय
९४०
वल्लरं
घिरा हुआ, लिपटा हुआ। झुर्रियों युक्त, झुरींदार।
गतिशील, प्रवाहमान। वलित्रय (वि०) तीन रेखाओं वाली। (वीरो० ६/७) वलिन् (वि०) झुरींदार, आकुंचित। वलिर (वि०) [वल+किरच्] भैंगी आंख वाला। वलिशं (नपुं०) मछली पकड़ने का कांटा। वलीकं (नपुं०) [वल्+कीकन्] ओलती, छप्पर का किनारा,
मुंडेर। वलूकः (पुं०) पक्ष विशेष। वलूकं (नपुं०) कमलनाल। वलूल (वि०) [वल्+लच्] बलवान, शक्तिमान्, हृष्ट पुष्ट। वल्म् (सक०) बोलना, कहना। वल्कः (पुं०) वृक्ष की छाल। (सम्य० ४९) वल्कं (नपुं०) वृक्ष की छाल। ०भाग, खण्ड, अंश, हिस्सा। वल्कतरु (पुं०) वृक्ष, तरु, छाल वाला पेड़। वल्कलः (पुं०) [वल्+कलच्, कस्य नेत्वम्] ०वल्कल, छाल
का वस्त्र। (सम्य० १४९) वल्कलं (नपुं०) देखो ऊपर। वल्कवन् (वि०)पपडी युक्त मछली। वकलसंवीतः (पुं०) छालवस्त्र धारण करने वाला। वल्किलः (पुं०) [वल्क्+इलच्] कांटा। वल्कुटं (नपुं०) छाल, वल्कल। वल्ग (सक०) उछलना, इधर-उधर जाना।
छलांग मारना, कुलांच भरना, चौकडी भरना।
कूदना। वल्गनं (नपुं०) [वल्ग्ल्यु ट्] उछलना, कूदना, दौड़ना, चौकड़ी
भरना। लगाम। (दयो० ४०) वल्गा (स्त्री०) [वल्ग+अच्+टाप्] ०लगाम, रास। . वल्गित (भू०क०कृ०) [वल्ग्+क्त] ०उछला हुआ, कूदा हुआ।
गतिशील किया गया, नचाया गया। वल्गितं (नपं०) दौड, चलना. नाचना. कदना। वल्गुन्न (वि०) [वल संवरणे उ गुक् च] प्रिय, रमणीय,
मनमोहक, सुंदर, मनोज्ञ।
आकर्षक, लुभावना, मधुर, श्रेष्ठ। मूल्यवान।
वल्गुः (पुं०) बकरा, अज। वल्गुक (वि०) [वल्गु+कन्] प्रिय, मनोहर, रमणीय। वल्गुकं (नपुं०) चंदन।
०मूल्य।
०लकड़ी। वल्गुलः (पुं०) [वल्ग+उल] गीदड़। वल्गुलिका (स्त्री०) [वल्गुल कन्+टाप्] तैल चोर।
०पेटी।
डिब्बा। वल्भ् (सक०) खाना, निगलना, आस्वादन करना, चखना। वल्मी (स्त्री०) [वल्+अच्+ङीष] चिऊँटी, चींटी। वल्मीकं (नपुं०) वामी। वल्मीकूटं (नपुं०) वामी, दीमक निर्मित मिट्टी का ढेर, कुटी।
(दयो० २२/ ) वल्युल् (सक०) काट डालना। वल्ल् (सक०) ढकना। आच्छादित करना। वल्लः (पुं०) चादर, आवरण, ढक्कन, प्रवारण।
भार विशेष, तीन गुंजाओं का तौल।
प्रतिषेध। वल्लकिका (स्त्री०) ०वीणा, एक वाद्य विशेष। वल्लकी (स्त्री०) [वल्ल्+क्वुन्+ङीष्] वीणा। (जयो० १०/८)
(सुद० २/१२) वल्लभ (वि०) [वल्ल्+अभच्] प्रिय, मनोज्ञ, प्यारा, इष्ट,
प्रेय। (जयो० १/९६)
०सर्वोपरि, अभिलषित। वल्लभः (पुं०) प्रेमी, स्नेही, प्रिय. पति।
०कृपापात्र, दयागत।
अधीक्षक, अध्यवेक्षका वल्लभता (वि०) मनोज्ञ, प्रियता, रमणीयता। (वीरो० २१/१)
'शिवश्रियं यः परिणेतुमिद्धः समाश्रितो वल्लभतां प्रसिद्धः' वल्लभभाई पटेलः (पुं०) बीसवीं शताब्दी के नेता, जो
मृदुस्वभाषी थे। (जयो० १८८१) वल्लभाचार्यः (पुं०) वैष्णव सम्प्रदाय के प्रवर्तक। वल्लभायितं (नपुं०) [वल्लभ+क्य+क्त] रति बन्ध, सुरत
क्रीड़ा की पद्धति। वल्लरं (नपुं०) [वल्ल्+अरन्] अगर की लकड़ी।
निकुंज। ०झुरमुट।
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वल्लरी
९४१
वष्कयः
वशवर्तिन् (पुं०) सेवक, भृत्य, प्रिया। वशवर्तिन् (पुं०) सेवक, भृत्य, अनुचर। (सद० १२१, जयो०
१६/६३, सुद० ३/४२) वशा (स्त्री०) [वश्+अच्+टाप्] अबला, वनिता, नारी,
कन्या, नारी। 'वशास्त्रियां सुतायाञ्चेति' विश्वलोचनः' (जयो० १३/२०)
पत्नी, भार्या, प्रिया। •पुत्री, ननद।
गाय।
वल्लरी (स्त्री०) [वल्ल्+अरि+ङीष्] बेल, लता।
मञ्जरी। (दयो० ११२) वल्लवः (पुं०) ग्वाला, गोपाल। वल्लिः (स्त्री०) लता, बेल, गुल्म। ____०भू, भूमि, धरा। वल्ली (स्त्री०) लता, बेल। (जयो० १४/१७) गुल्म। __ (जयो०३० ३/३९) वल्लीलं (नपुं०) मिर्च। वल्लीवृक्षः (पुं०) सालतरु। वल्लुरं (नपुं०) [वल्ल+उरन्] निकुंज, पर्णशाला।
मंजरी। ०अरण्य। रेगिस्तान।
सूखा मांस। बल्लू (अक०) प्रमुख होना, सर्वोत्तम होना। वल्ह् (सक०) बोलना, कहना।
०चोट पहुंचाना, ढंकना।
०मार डालना, नष्ट करना। वश (सक०) चाहना, इच्छा करना, अभिलाषा करना, लालसा
करना। ०अनुग्रह करना।
०चमकना। वश (वि०) [वश् कर्तरि अच् भावे अप् वा] ०आधीन, .
प्रभावगत, नियंत्रणगत। (सुद० ७२) पुण्याशयवशाज्जातं शुद्धलेश्यावलम्बनात्। (सम्य० ११५) अभिलाषा, वाञ्छा, चाह, इच्छा। (जयो० ६/९९)
शक्ति, प्रभाव, स्वामित्व, अधिकार। वशंकर (वि०) आधीन युक्त। (जयो० १३/९९) वशकृत (वि०) वशीगत। (जयो० ४/४८) वसंगत (वि०) वशवर्तिता को प्राप्त, अधिकार को प्राप्त
हुआ। अनेकविघ्नप्रकरेऽत्र येन, सन्मानसोत्साह वशंगतेन।
(सम्य० ९५) वशङ्ग (वि०) लोलुपी। (सुद० १२७) वशंवद (वि०) [वश+वद+खच] ०आज्ञाकारी, समझदार।
(जयो० २/६५) अनुवर्ती, विनीत, आधीन, प्रभावित।
(समु० ३/७) वशका (वि०) आज्ञाकारिणी भार्या, प्रिया। वशग (स्त्री०) वशवर्ती, आज्ञाकारी। (सुद० ११२)
०हथिनि। वशिः (स्त्री०) आधीनता, सम्मोहन। वशिक (वि०) [वश्+ठन्] शून्य, रहित। वशिताभृत (वि०) जितेन्द्रिय। 'वशी सुगतशक्रयोरि' ति कोषसद्
भावात्' (जयो०१० ३/२९) वशिन् (वि०) [वशः अस्त्यस्य इनि] ०शक्तिशाली, बलशाली।
विज्ञ, पाठक। (जयो० ७/१०२)
आधीन, वशीभूत। ०विनीत, नम्र, जितेन्द्रिय। (जयो० १२/१) वशिनिन्दित (वि०) संयमधारिघृणित। (जयो० २६/२३) वशिनी (स्त्री०) [वशिन्+ङीप्] शमीवृक्षा वशिरः (पुं०) [वश्+किरच] एक प्रकार का मिर्च। वशिरं (नपुं०) समुद्री नमक। वशीगत (वि०) आधीनता को प्राप्त हुआ। (जयो० ४/४८) वशेन्द्रियत्व (वि०) जितेन्द्रियत्व। (वीरो० १६/१५) वश्य (वि०) वशीभूत, आधीनता युक्त। (सुद० १/३२) वश्यः (पुं०) सेवक, भृत्य, अनुचर। आधीन-कुतोऽस्य वश्यः न हि तत्त्वबुद्धि। (वीरो० ५/३१)
साधक का दोष, मंत्र-तन्त्र के उपदेश से दाता को
आधीन करना। वश्यका (स्त्री०) [वश्य कन्+टाप्] आज्ञाकारिणी पत्नी, विनम्रा,
विनीता। वष् (सक०) मारना, नष्ट करना,
०क्षति पहुंचाना, वध करना। वषद (अव्य०) [वह उषटि] आहूति के समय उच्चरित होने
वाला शब्द। वष्क् (सक०) जाना, पहुंचना। वष्कयः (पुं०) [वष्क्+अयन्] छोटा बछड़ा, एक वर्ष का
बछड़ा।
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वष्कयणी
९४२
वष्कयणी (स्त्री०) [वष्कय+नी+क्विप्+ङीष] चिर प्रसूता वसन्तजा (स्त्री०) माधवी लता, वसन्तोत्सव। गाय, बहुत दिनों से ब्याही हुई गाय।
वसन्ततिलकः (पुं०) वसन्त की शोभा, वसन्त ऋतु का वस् (अक०) रहना, ठहरना, निवास करना।
अलंकरण। स्थित होना, खड़े होना।
वसन्तदूतः (पुं०) कोकिल, कोयल, कुहू कुहू शब्द। विद्यमान होना।
चैत्रमास। ०अवस्थित रहना। (सुद० ९८) 'किमुशर्करिले वसति वसन्तदूती (स्त्री०) शृंगवल्ली का पुष्प। हतत्वाद्। (सुद०९८)
वसन्तद्गु (पुं०) आम्र तरु। स्थिर होना, सीधा होना।
वसन्तद्रुमः (पुं०) आम्र तरु। वसतिः (स्त्री०) [वस्+अति वा ङीष] ०रहना, स्थित होना, वसन्तपंचमी (स्त्री०) ऋतु की पञ्चमी। ठहरना।
वसन्तबन्धुः (पुं०) कामदेव, मदन। नगर, पुर। (मुनि० १९)
वसन्ततु (स्त्री०) वसन्त का समय। घर, आवास, निवास, स्थान।
वसन्तऋतु (स्त्री०) वसन्तमास। (वीरो० ६/३६) वन्योमधो ०आधार, आश्रय, आशय, पात्र।
पाणिधृतिस्तदुक्तं पुस्कोकिलैर्विप्रवरैस्तु सूक्तम्। (वीरो० शिविर, पड़ाव, छावनी, डेरा।
६/१४) वसनं (नपुं०) [वस्+ल्युट्] ०रहना, ठहरना, रुकना, निवास। वसन्तश्री (स्त्री०) वसंत शोभा। वेणी वसन्तश्रिय एव रम्याऽसौ घर, आवास, स्थल।
श्रृंखला कामगजेन्द्रगम्या' (वीरो० ६/२६) प्रसाधन करना, धारण करना, पहनना।
वसन्तसम्राटूः (पुं०) वसन्त राज, वसन्त ऋतु, ऋतुराज ०वस्त्र, कपड़ा, परिधान। (जयो० १२/९९) 'वसनेभ्यश्च वसन्त। (वीरो० ४/५) तिलाञ्जलिमुक्त्वा ' आह्वयति तु दैगम्वर्यन्तत्। (सुद० ८१) वसन्तसम्पदा (स्त्री०) वसन्तश्री। (समु० २/१४) वेष। (सुद० ७५)
वसन्तसेना (स्त्री०) वसन्त सेना वेश्या, जो आर्यिका बनकर करधनी, कंदौरा, कमरबन्द। तगड़ी।
तप पूर्वक स्वर्ग को प्राप्त हुई। वसनगत (वि०) वस्त्र सहित।
एक पण्याङ्गना (दयो० ६९) सर्वार्थासिद्धिं खलु सोम वसनजात (वि०) परिधान सुसज्जित।
आप वसन्तसेना च विषा निरापत्। (दयो० १२५) वसनताटंकः (पुं०) वस्त्राभूषण।
वसा (स्त्री०) [वस्+अच्+टाप्] मेद, चर्बी, मज्जा। वसनत्यक्त (वि०) वस्त्र त्याग करने वाला, निर्गन्थ, दिगम्बर। वसाढ्यः (पुं०) सूंसा वसनधर (वि०) वस्त्रधारक।
वसापायिन् (पुं०) कुत्ता, श्वान। वसनमुक्त (वि०) निर्ग्रन्थ।
वसि (नपुं०) [वस्+इन्]ि वस्त्र, परिधान। वसनाभरणं (नपुं०) वस्त्राभरण। (जयो० १३/७६)
निवास, आवास। वस्त्राभूषण (सद०७५) वसनाभरणैरादरणीयाः सन्तु मूर्तयः | वसित (भू०क००) [वस्+णिच्+क्त] स्थित, रहता हुआ, किन्तु न हीयान्। (सुद० ७५)
धारण किए हुए। वसन्तः (पुं०) वसन्त ऋतु, ऋतुराज। (सुद० ४/१) (जयो० निवास युक्त।
४/४) (जयो० १/७३) 'स वसन्तः स्वीक्रियतां सन्तः वसिष्ठः (पुं०) एक मुनि, तापस। सवसन्तः' (सुद० ८१) स वसन्त आगतो हे सन्तः। स वसुः (पुं०) कौशला पुरी निवासी गणधर अचल के पिता श्री, वसन्तः।
___ नवें गणधर के पिता। वसुः पिताऽम्बाऽस्य वभौ च नन्दा चैत्रमास, वसन्तोत्सव।
सा कौशलाऽऽख्या नगरीत्यमन्दा। (वीरो० १४/१०) वसन्त (वस्-शत) रहते हुए। (सुद० १/२७)
कुबेर, अग्नि, शिव, सरोवर, तालाब। वसु राजा। वसन्तकालः (पुं०) वसन्त का समय।
वसु (नपुं०) [वस्+उन्] धन, सम्पत्ति, वैभव। वसन्तघोषिन् (पुं०) कोयल।
०मणि, रत्न, स्वर्ण। (समु० ३/३०)
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वसुकः
९४३
वस्तु
जल, वारि। ०वस्तु द्रव्य। .
व्हाटक। (जयो० ३/७८) वसुकः (पुं०) आक पादप। वसुकं (नपुं०) रत्न, मणि। भो भो! भट्टिनि भद्रमित्र वसुकं,
भारं तु मे देहि तत्। (समु० ३/४४) समुद्री नमक।
शिलीभूत नमक, लोडी नमक। वसुकसारा (स्त्री०) प्रकाश, किरण।
___०अमरावती, अलकापुरी। वसुकीटः (पुं०) भिक्षुक। वसुकृमि देखो ऊपर। वसुदा (स्त्री०) भूमि, भू, धरा। वसुदेवः (पुं०) कृष्ण के पिता।
०वसुदेव राजा। (वीरो० १७/१८) वसुदेव्या (स्त्री०) घनिष्ठा नक्षत्र। वसुधा (स्त्री०) भू, धरा, पृथ्वी। (जयो० ६/४)
भूतल, भू भाग। (जयो० ११/५२) वसुधातिवर्तिः (स्त्री०) स्वर्गीय सुख। ०परमानन्द। 'यतो
वसुधामतीत्य वर्तते सुधातिवर्ति' (जयो० ११/५२) वसुधामं (नपुं०) रत्न स्थान, मणिमुक्ताओं का स्थान। वसूनां
रत्नानां धाम स्थानभूता' (जयो० १२/५) वसुधालयः (पुं०) धरानिवासी 'न सुधा वसुधालयैस्तु
पीतोत्तममस्यास्तु हवि: कवीन्द्र गीतौ। (जयो० १२/७०) वसुधावलयः (पुं०) भूतल। (वीरो० २२/८) वसुधावसु (नपुं०) पृथिवी रत्न, भूरत्न। वसुधायाः पृथिव्यां
वसुरूपां रत्नतुल्याम्' (जयो०वृ० ५/७) वसुधासुधानिधानं (नपुं०) पृथ्वी के सुधाकर। 'वसुधायाः
पृथिव्याः सुधानिधाने चन्द्रमसीव' (जयो०६/५०) वसुधैवकुटुम्बिन् (पुं०) पृथ्वीमात्रस्य बन्धु, भू भाग रूप
वसुभूति (पुं०) मगध देशान्तर्गत गोबर ग्राम निवासी वसुभूति ___ब्राह्मण (वीरो० १४/४) वसुमत् (वि०) [वसु+मतुप्] धनवान, वैभवसम्पन्न। वसुमती (स्त्री०) धरणी, धरती, धरा, पृथ्वी। (जयो० २१/१४) वसुमतीवलयः (पुं०) महीमण्डल, भूभाग। (जयो० ५/२७) वसुराजा (स्त्री०) न्यायधीश वसुराजा। (वीरो० १८/५०)
(पुं०) आग, अग्नि। वसुर्वाग्विवश (वि०) वसुराजा के वचन से विवश हुआ। __ 'न्यायाधिपः प्राह च पार्वतीयं वचो वर्सर्वाग्विवशो महीयम्।
(वीरो० १८/१५) वसुलः (पुं०) [वसु+ला+क] अमर, देव, देवता। वसुसारः (पुं०) रत्ननिकट, रत्नसमूह। (जयो० १२/६६)
पृथ्वी खनिज सम्पदा। वसूपयुक्तभूति (पुं०) वसुभूति ब्राह्मण, मगध देशान्तर्गत गोबर
निवासी ब्राह्मण। (वीरो० १४/४) वसूरा (स्त्री०) [वस्+अरच्+टाप्] गणिका, वेश्या, रण्डी। वस्क् (सक०) जाना, पहुंचना, प्राप्त होना। वस्कराटिका (स्त्री०) बिच्छू, वृश्चिक। वस्त् (सक०) क्षति पहुंचना, नाश करना।
मांगना, याचना करना। वस्त् (नपुं०) आवास, निवास। वस्तः (पुं०) बकरा, अज। वस्तकं (नपुं०) [वस्त+कै+क] कृत्रिम लवण। वस्तिः (स्त्री०) [वस्+नि] आवास, निवास, रहने का स्थान,
जहां लोगों का परिकर हो।
उदर। ०पेटू।
मूत्राशय। ०एनीमा, पिचकारी। वस्तिकर्मन् (नपुं०) एनीमा कार्य। वस्तिमलं (नपुं०) मूत्र। वस्तिशिरस् (नपुं०) एनीमा की नली। वस्तिशोधनं (नपुं०) मूत्र बढ़ाने वाली दवा। वस्तु (नपुं०) [वस्+तुन्] पदार्थ, द्रव्य, वस्तु, सामग्री, मामला।
(सुद० ४/५) 'अनित्यतैवास्ति न वस्तुभूताऽसौ नित्यताऽप्यस्ति यतः सुरतम् (वीरो० १२/४२)
समुत्पत्तिस्थान। (जयो० ११/२१) ०वास्तविकता, विद्यमान चीज।
कुटुम्बी।
वसुन्धरा (स्त्री०) [वसूनि धारयति वसु+धृ+णिच्+खच्+टाप्]
० नाना रत्नधारिणी, भूमि, पृथ्वी, ०धरिणी,
०धरती। (वीरो० ४/११) वसुप्रणाशः (पुं०) रत्न हड़पना, रत्न ले लेना। *भूमि को
छीनना। * ममर्तादीनस्य वसुप्रणाशात, किं शाम्यता तेऽपधियो
दुराशा। (समु० ३/३६) वसुभानु (पुं०) नररत्न। (जयो० ४/३८) नरेंद्र, नृप।
०सज्जना
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वस्तुजाति
९४४
वस्नसा
सामान्य विशेषात्मक वस्तु।
पुरा' (सुद० ४/३६) ०धन सम्पत्ति-'वस्तुमेणाक्षीणां मनस्युदारे (सुद० ८८) ०अनेक, वस्त्र। जलेन क्षालनादिक्षालितमंशुकं वस्त्रमनक मूलस्थिति, द्रव्य की स्थिति। (सम्य०७४)
मलवर्जित परिपठ्यते। (जयो०वृ० २।८०) 'मामकीन वस्त्रं योजता, रूपरेखा।
मह्यं न ददासि तर्हि कस्यै दास्यसि?' (जयो० १७/१३१) ०अवस्था। (सुद० ३/३२)
वस्त्रकुट्टिम (नपुं०) तम्बू, डेरा। ०माल, चीज। (जयो० २/११३)
वस्त्रगृहं (नपुं०) तम्बू, डेरा, दूष्यक। (जयो०वृ० १३/७१) वस्तुजाति (स्त्री०) पदार्थ की उत्पत्ति, द्रव्य उत्पत्ति। वस्त्रग्रन्थिः (स्त्री०) धोती या साड़ी की गांठ। नीवि, नाड़ा। ___ 'त्रयात्मिकाऽतः खलु वस्तुजातिः' (वीरो० १९/३) वस्वनिर्णेजकः (पुं०) धोबी, वस्त्रपरिक्षालक। वस्तुतः (अव्य०) स्वभावतः, यथार्थतः, तत्त्वतः, वाकई। 'वस्तुस्तु वस्त्रपगृहं (नपुं०) पटविरचित स्थान, पाण्डाल तम्ब। मदमात्सर्याद्याः' (सुद० ११०)
(जयो० ६/१३२) वस्तुतं (अव्य०) वास्तव में, अनिवार्यता, यथार्थ में, वाकई, वस्त्रपरिक्षालकः (पुं०) धोबी। मूलतः।
वस्त्रपरिधानं (नपुं०) कपड़े पहनना, वस्त्रधारण करना। वस्तुतत्त्वं (नपु०) पदार्थ तत्त्व, द्रव्य का रूप। वस्त्रपूतः (पुं०) वस्त्र से छना। (हित०४८, सुद० १/४३) 'अनेकशक्त्यात्मकवस्तुतत्त्वम्' (वीरो० १९/८)
जलाशयस्य के वस्त्रपूतं कृत्वाऽथ बह्निना। वस्तुत्व (वि०) वस्तु का गुण-वस्तु में जो सामान्य और सन्तप्य तदुपादानं प्रशस्तमभिधीयते।। (हित० १/८)
विशेषरूपता होती है यही वस्तु का वस्तुत्व है। वस्त्रपुत्तिका (स्त्री०) पुतली, कपड़े की गुड़िया।
सामान्य-विशेषात्मकत्वं वस्तुत्वलक्षणम्। (अष्टशती० १९) वस्त्रभेदकः (पुं०) दर्जी, नामदेव। वस्तुत्वधर्मः (पुं०) जो सर्वथा साथ रहता है, स्वभावगतधर्म। वस्त्रभेदिन् (पुं०) दर्जी, नामदेव।
(वीरो० १९/४०) समस्ति वस्तुत्वमकाट्यमेतन्नोचेत् वस्त्रयुग्मं (नपुं०) युगल वस्त्र। (सुद० ४/३१) किमाश्वासनमेतु चेतः। (वीरो० १९/४०)
वस्त्रयोनिः (स्त्री०) कपड़े की उत्पत्ति, कपास। वस्तुपरिच्छदं (नपुं०) पदार्थ संचरण, वस्तु परिभ्रमण। 'बाह्य वस्त्ररंजनं (नपुं०) कुसुंभ।
वस्तुपरिच्छदं न तु कनागप्यत्र तद्वानसि' (मुनि० २५) । वस्त्रव्यपेतः (पुं०) निर्ग्रन्थ, वस्त्रत्यागी, दिगम्बर। वस्तुसंविदः (पुं०) तत्त्वविचारकवृत्ति। (जयो० २८/४४)
शिशूपमा ये खलु निर्विकाराः, वस्तुसत्त्वं (नपुं०) वस्तु का यथार्थ रूप, उत्पाद, व्यय और विश्वप्रमोदाय कृतप्रचाराः। ध्रुव इन तीन रूप वस्तु की यथार्थ रूपता है।
वस्त्रव्यपेतोत्तमसम्प्रदाया स्ते सन्तु, स्यूतिः पराभूतिरिव ध्रुवत्वं
नित्यं गुरवः सहायाः।। (भक्ति० १६) पर्यायतस्तस्य यदेकतत्त्वम्।
वस्त्रसंक्षालकः (पुं०) रजक, धोबी। (जयो०१० २८) नोत्पद्यते नश्यति नापि
वस्त्राभरणं (नपुं०) वस्त्राभूषण। वस्तुसत्त्वं सदैत द्विदधत्समस्तु।। (वीरो० १९/१६) वस्त्राभ्यन्तरं (नपुं०) चीवरान्तर। (जयो० १३/२७) वस्तुस्वभावः (पुं०) पदार्थ का स्वभाव।
वस्नं (नपुं०) [वस्+न] भाड़ा, किराया, मजदूरी। रेखैकिका नैव लघुर्नगुर्वी,
०आवास, घर, निवासस्थल। लव्याः परस्या भवति स्विदुर्वी।
०धन, वैभव, सम्पत्ति, द्रव्य। गुर्वी समीक्ष्याथ लघुस्तृतीयां,
वस्त्र, आभरण। वस्तुस्वभावः सुतरामितीयान्। (वीरो० १९/५)
०मूल्य। वस्तुस्थितिः (स्त्री०) पदार्थ की स्थिति। (मुनि० १३)
मृत्यु। वस्त्यं (नपुं०) [वस्ति+यत्] आवास, निवास, घर, स्थान। | वस्ननं (नपुं०) करधनी, कंदौरा, तगड़ी, पटका। वस्त्रं (नपुं०) [वस्+ष्ट्रन्] परिधान, पहनावा, वेषभूषा, पोशाक। वस्नसा (स्त्री०) [वस्नपं चर्म सीव्यति-सिव+ड+टाप] कण्डरा,
(सुद० ७/९४) वारा वस्त्राणि लोकानां क्षालयामास या स्नायु।
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वस्वौकसारा
९४५
वह्निसंज्ञकः
वस्वौकसारा (स्त्री०) कमलिनी-'वस्वौकसारा श्रीदस्य वहंतः (पुं०) [वह्+अच्] पवन।
नलिन्यामलकापुरि' इति विश्वलोचन:' (जयो०१० वहभारः (पुं०) पंखों का भार। (जयो० १३/८६) ११/११७)
वहितं (नपुं०) [वह इत्र] डोंगी, नाव, किश्ती। वंह (सक०) उज्ज्वल करना, चमकाना, कान्तिमय करना। वहिरास्थित (वि०) बाह्य स्थित। (समु० २/३१) वह (सक०) ले जाना, धारण करना, ग्रहण करना। (जयो० वहिष्कः (वि०) [वहिस्कन्] बाहरी।
६/१०१) दिगपि गन्धवहं ननु दक्षिणा वहति विप्रियनिश्वसनं वहेडकः (पुं०) विभीतक तरु, बहेड़ा का वृक्ष। त्वाम्। (वीरो० ६/३७)
वहेडुकः (पुं०) बहेडा का वृक्षा परिवहन करना, वहन करना। तस्थु सशल्यांघ्रिदशां वहन्तः। वह्निः (पुं०) [वह्+निः] आग, अग्नि। (सम्य०७) (वीरो० १४/१४)
तेज, ज्वाला। नेतृत्व करना, निकलना। (सुद० २/३६)
वह्नि देव, लौकान्तिक देव की एक जाति। ०ढोना, चलाना, धकेलना।
०हविरासन् (जयो०वृ० १८/४४) सहारा देना, आश्रय देना, थाम लेना, धारण करना। पाचनशक्ति, आमाशय का रस। (जयो० १/६४)
०हाजमा, भूख लगना। ०वहना, फैलना। (जयो० २/९३) (जयो० १/८) वह्निकणं (नपुं०) अङ्गारकभाव। (जयो०वृ० १६/२४) ०हांकना, ठेलना, पारगमन करना।
वह्निकायिकः (पु०) अग्निकायिक जीव। नान्यत्र छोड़ना, त्यागना, तिलाञ्जलि देना। (सुद०७०)
सम्मिश्रणकृत्प्रशस्ति र्वह्निश्च सञ्जीवनभृत्समस्ति। (वीरो० घटाना, प्रयोग करना, उपयोग करना।
१०/३०) संभालना, ऊँचे उठाना, संधारण करना।
वह्निकाष्ठं (नपुं०) चन्दन की लकड़ी, अगर लकड़ी। उपक्रम करना, आरंभ करना। (जयो० २/५३) । वह्निगंधः (पुं०) धूप, लोबान। वहः (पुं०) [वह कर्तरि अच्] वहन करने वाला, ले जाने वह्निगर्भः (पुं०) बांस। वाला, धारण करना।
शमीवृक्षा ०हवा, पवन।
वह्निज्वाला (स्त्री०) अन लार्चि। (जयो० १२/५६) नद, नाला।
वह्निदीपका (स्त्री०) कुसंभ तरु। माप विशेष।
वह्निभोग्यं (नपुं०) घृत। वहतः (पुं०) [वह+अतच्] ०यात्री।
वह्निमित्रः (पुं०) पवन, हवा, वायु। बैल, वृषभ, बलिवर्द।
वह्निरेतस् (नपुं०) शिव। वहतिः (पुं०) बैल, बलिवर्द।
वह्निलोहं (नपुं०) तांबा। पवन, वायु।
वह्निवर्ण (नपुं०) लाल रंग का कुमुद, रक्तोपल। मित्र।
वह्निवल्लभः (पुं०) राल। ०परामर्श दाता, सलाहकार।
वहिवाधानिवृत्ति (स्त्री०) अग्निबाधा की शान्ति। (जयो०७० वहती (स्त्री०) नदी, सरिता।
९/७३) वहतु (पुं०) बैल, बलिवर्द।
वह्निबीज (नपुं०) स्वर्ण, सोना। वहनं (नपुं०) [वह ल्युट्] व्यान, वाहन, नाव, डोंगी। ___ चूना। ०ले जाना, धारण करना।
वह्नि शिखं (नपुं०) केसर, कुसुंभ। ०ढोना, सहारा देना।
वह्निशिखा (स्त्री०) अग्निज्वाला। अंगार, लौ। ०वहना, प्रवहमान होना।
वह्निसखः (पुं०) पवन, वायु, अनिल। वहनक्रिया (स्त्री०) सधारण क्रिया, पाणिपीडन क्रिया। (जयो० वह्निसमूहः (पुं०) अग्निपुंज। (वीरो० ४/५६) १४/७)
वह्निसंज्ञकः (पुं०) चित्रक तरु।
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वह्निस्फुलिङ्ग
९४६
वाक्यमोहिनी
वह्निस्फुलिङ्ग (पुं०) अंगार, लौ, ज्वाला। (जयो० ७/१८) शांत करना। वहन्यपकल्पि (वि०) ०अग्नि पक्व, आग में पका हुआ। ०सान्त्वना देना, आराम पहुंचाना। (सुद०४/३४)
वाः (पुं०) वारि, जल। वारि के पयोऽम्भोऽम्बु इति धनज्जय वां (नपुं०) [व यत्] वाहन, यान, सवारी, गाड़ी, गमनागमन नाममाला। (जयो० १७/९४) का साधन।
वाकं (नपुं०) [वक्+अण्] सारस समूह, उड़ान। वा (अव्य०) [वा+क्विप्] विकल्प बोधक अव्यय
वाक् (स्त्री०) वाणी। वाक् सत्कविसमुदिता वाणी। (जयो०वृ० अथवा- विधोः कला वा। (सुद० २/६)
३/११५) वाज् नामक सरणी। (जयो० ६/२७) ०और, तथा (जयो०वृ० १/५)
वाक्कधेनुः (स्त्री०) वाणी रूपी कामधेनु गाय। लतेव मृद्धी मृदुपल्लवा वा,
(समु० १/२६) कादम्बिनी पीनपयोधरा वा।
वाक्चपल (वि०) वाक्पटु। समेखलाभ्युन्नमन्नितम्बा,
वाक्छल (नपुं०) गोलमोल कथन। तटी स्मरोत्तानगिरेरियं वा।।
वाक्कौशलं (नपुं०) चातुर्य-वाचां वाणीनां कौशलं चातुर्यम् (सुद० २/५)
(जयो० ६/१४३) मानो, क्यों (सुद० ३/७)-'सरोवरे वा हृदि कामिजेतुविरेजतुः वाक्प्रलापः (पुं०) वचनालाप। ०पटुवचन। सम्प्रसरच्छरे तु। (सुद० २/४५)
वाक्सरिता (स्त्री०) वचन प्रवाह, वाणी रूपी नदी। ०एव, तरह-वा शब्दोऽत्रेवार्थ योऽभ्येति मालिन्यमहो (वीरो० (जयो० ९/६४) ०धारावाहिक कथन। १/२०) न जाने काव्ये दिने वा प्रतिभासमाने। (वीरो० वासुगङ्गा (स्त्री०) जिनवाणी। (भक्ति० ४) १/२०)
वाक्यं (नपुं०) [वच्+ण्यत् तस्य कः] ०कथन, उक्ति, विचार, ०अर्थात्-'पीयूषमीयुर्विबुधा बुधा वा नाद्याप्युपायान्त्य- वक्तव्य। (सुद० २/२८) निमेषभावात्। (वीरो० १/२२)
०बात, वार्तालाप। तथा-तृष्णातुराय वाऽमृतसिद्धिं श्रणतीति संसारे। (वीरो० तर्क, अनुमान। ४/४८)
वाक्यखण्डनं (नपुं०) तर्क युक्त निराकरण। पादपूर्ति अव्यय-'किं दुष्फला वा सुफलाऽफला वा। वाक्यगत (वि०) विचारगत, वक्तव्य को प्राप्त। (सुद० २/३५) 'वा' अव्यय बहुधा विकल्प के रूप में वाक्यगतिः (स्त्री०) कथन पद्धति। होता है, परन्तु कहीं सम्भावना, कहीं वाक्यपूर्ति, कहीं दो वाक्यगीतः (पुं०) उक्ति युक्त गीत। वाक्यों के जोड़ने रूप एवं कहीं प्रश्नवाचक आदि के रूप वाक्यतत्त्वं (नपुं०) विचार तत्त्व। में प्रयुक्त होता है। 'शस्यवृत्तिमभिवीक्ष्य सदा वा। (जयो० वाक्यतर्कः (पुं०) तर्कसंगत कथन। २७/७) युक्त पंक्ति में 'वा' विशेषता को व्यक्त करता वाक्यदानं (नपुं०) विचार-विनिमय।
वाक्यनन्दः (पुं०) रचना शोभा, कथन की सुकुमारता। निशो जिवृत्तौ स्विदुषो गतं वा रुषो विधिं पूर्वदिशोऽविलम्बात्' वाक्यपदं (नपुं०) कथन युक्त पद। (जयो० २४/२३) उक्त पंक्ति में 'वा' का प्रयोग, पर, वाक्यपद्धतिः (स्त्री०) कथनपद्धति। परन्तु, किन्तु के लिए हुआ है। और (जयो० १/६) या वाक्यपदीयं (नपुं०) भर्तृहरि द्वारा रचित एक संस्कृत ग्रंथ। (जयो०वृ० १/५) वा अथवा, तथा, किन्तु, परन्तु, इव, वाक्यपूरणार्थ (वि०) वाक्यपूर्ति के लिए। (जयो० १०/८३) एव आदि के अतिरिक्त अन्यथा कुछ-कुछ, यदि के रूप वाक्यप्रबन्धः (पुं०) वाक्य प्रवाह, वाक्य रचना, रचना शैली। में भी होता है।
वाक्यप्रयोगः (पुं०) भाषा उपयोग, प्रबन्ध, रचनाधर्मिता, वा (अक०) वहना, चलना। (जयो० २।८३) वा आपकी कथन की सार्थकता। (वीरो० १९/१४) (सुद० २/१८)
वाक्यभेदः (पुं०) उक्ति भेद, कथन में भिन्नता। वा (सक०) प्रहार करना, चोट पहुंचाना, फूंक मारना, बुझाना, | वाक्यमोहिनी (स्त्री०) वाचनिक चतुराई।
है।
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वाक्ययोगः
९४७
वाग्यत्
वाक्ययोगः (पुं०) वाक्य संयोग, रचना प्रयोग।
वाग्दरिद्र (वि०) वचनों में कमी, कम बोलने वाला। वाक्यरचना (स्त्री०) शब्द क्रम, अक्षर विन्यास।
वाग्दलं (नपुं०) ओष्ठ। वाक्यरीतिः (स्त्री०) रचना पद्धति।
वाग्दानं (नपुं०) सगाई, वचनदान। (जयो०७० १४/९) आपसी वाक्यशुद्धिः (स्त्री०) वचनशुद्धि। (हित० ५१)
वचन बद्धता। वाक्य विन्यासः (पुं०) शब्द योजना, प्रबन्ध योजना। वाग्दुष्प्रणिधानं (नपुं०) अर्थ का बोध न होना। वाक्यशेषः (पुं०) किसी बात का अवशिष्ट भाग। वाग्दुष्ट (वि०) अश्लील भाषा, निंदक। वाक्संयमः (पुं०) वचन समय।
वाग्देवता (स्त्री०) सरस्वती। (समु० १/११) वाक्यसुरभिः (स्त्री०) शब्द सौरभ।
वाग्दोषः (पुं०) वचन दोष, वाक्य अशुद्धि। वाक्यावली (स्त्री०) वचनावली। (वीरो० १८/५३)
वाग्निबन्धन (वि०) वचनों पर आश्रित रहने वाला। वाग् (नपुं०) वाग देना, आवाज करना। (सुद० ३/४१) वचन वाग्बली (स्त्री०) कथनबल बुद्धि। (सुद० २/२७)
वाग्मित (वि०) भाषणपटु। (जयो० ३/२७) विचारवान्। वागरः (पुं०) [वाचा इयर्ति गच्छति-वाच+ऋ+अच] ऋषि, (जयो० १४/७२) मुनि, पुण्यात्मा।
वाग्युद्ध (नपुं०) वाद विवाद, चर्चा, आपसी वचनिक कलंक। विद्यार्थी।
वाग्योगः (पुं०) वचन वर्गणा का आलम्बन। शूरवीर, योद्धा।
वाग्वजं (नपुं०) कठोर शब्द, कठिन व्यवहार। ०सान, सिल्ली।
वाग्विदग्ध (वि०) वाक्यपटु, बोलने में चतुर। ०बाधा, रुकावट।
वाग्विदग्धा (स्त्री०) मधुर भाषिणी। वागलंकरणं (नपुं०) वचन शोभा। (जयो० २/५४) वाक् | वाग्विभवः (पुं०) वचन वर्गणा, वचनशील, वर्णनपद्धति, आभरण।
विवेचन कुशलता। वागा (स्त्री०) वल्गा, लगाम।
वाग्विलासः (पुं०) प्रांजल भाषा। ०वचन कौशल। वागधिष्ठात्री (स्त्री०) सरस्वती। (जयो० २/४१)
वाग्विशुद्धिः (स्त्री०) वचनशुद्धि। (जयो० २/२५) वागाडम्बरः (पुं०) वचनसमूह, शब्दजाल, वाक्चातुर्य, वाक्पटु। वाग्व्यवहारः (पुं०) विचार विमर्श। ०उचित वचन व्यापार। वागात्मन् (वि०) वचन युक्त, शब्द सहित।
वाग्व्ययः (पुं०) शब्द ह्रास। ०वचनिक त्रुटि। वागाश्रित (वि०) सगाई। (जयो० १४/९) वाग्दानात्मिक। वाग्व्यापारः (पुं०) वचन पद्धति। (जयो० १४/७)
वागुरा (स्त्री०) [वा हिंसने उरच् गन् च] पिंजला, जाल, वागीशः (पुं०) वाक्यपटु, चतुर, होशियार।
फंदा, रस्सी। (जयो० ३/३९) बन्धनवध्री (जयो० ३/३९) सुवक्ता।
०बहेलिया, शिकारी। ०ब्रह्मा।
वागुरिकः (पुं०) [वागुरा+ठक्] बहेलिया, शिकारी। वागीश्वरः (पुं०) वाक्यपटु।
वाग्भटः (पुं०) वाग्भट्टाचार्य, अष्टांगहृदयग्रन्थकार, आयुर्वेद ____०ब्रह्मा।
शास्त्रनिर्माता। (सम्य० ३/१६) वागृषभः (पुं०) वाक्पटु।
वाग्मिन् (वि०) [वाच् अस्त्यर्थे ग्मिनि: चस्य कः] ०वचनचातुर्य, वाग्गुप्तिः (स्त्री०) वचनगुप्ति, असत्य वचनों का परित्याग। वाक्पटु। वाग्जाल (नपुं०) शब्दाडम्बर, कथन समूह।
बातूनी। तर्कसंगत विचार।
वाग्मिन् (पुं०) प्रवक्ता, सुवक्ता। वाग्जीवी (स्त्री०) वैतालिक, स्तुतिपाठक।
वाग्य (वि०) [वाचं यच्छति-यम् ड] मितभाषी। वाग्डम्बरः (पुं०) निस्सार उक्ति। .
सत्य बोलने वाला। (सुद० १/१) वाग्दण्डः (पुं०) भर्त्सना पूर्ण युक्ति।
वाग्यः (पुं०) विनय, नम्रता। वाग्दत्त (वि०) प्रतिज्ञात, संबद्ध, वचन सम्मति।
वाग्यत् (वि०) मौनी।
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वाकः
९४८
वाच्य
वाकः (पुं०) समुद्र। उदचि।
वाचना (स्त्री०) निरूपण, कथन, विवेचन, अध्यापन, व्याख्यान। वाग्वल्लरी (स्त्री०) वचन जाल, वाक्पटुता। (जयो० १/९१) (वीरो० १८/५६) वाक्ष (अक०) अभिलाषा करना, इच्छा करना।
वाचनिक (वि०) [वचनेन निर्वृत्तम्-वच्+ठक्] मौखिक, वानिश्चयः (पुं०) वाग्दान, वचनबद्धता।
वचन से सम्बन्धित। वाङ्मय (वि०) [वाच्+मयट्] वचन से सम्बन्धित, वाणी से | शब्दों की अभिव्यक्ति। परिपूर्ण। (जयो०वृ० ६/११०)
वाचस्पतिः (पुं०) [वाचः पति षष्ठ्यलुक्] वचन का अधिपति, ०वाक्यपटु, वचन चतुराई।
वाणी का स्वामी। ०अलंकारपूर्ण, वाग्विदग्ध।
- बृहस्पति। वाङ्मयं (नपुं०) शास्त्र, सिद्धान्त। रमयन् गमयत्वेष वाङ्मये वाचस्पत्यं (नपुं०) [वाचस्पति+ष्यञ्] वक्तृता, वाक्पटुता। समयं मनः। (वीरो० २२/३७)
वाचा (स्त्री०) [वाक्+आप्] भाषण, कथन, वचन, वाणी। ०वाणी, भाषा, वचन, कथन।
'वाचां रोतिमिति प्रसङ्गकरणे' (सुद० १०२) ०परस्पर वाच्य-वाचक से समन्वय युक्त शास्त्र।
०पाठ सूत्र। वाङ्मयी (स्त्री०) सरस्वती, भारती।
शपथ। वाङ्मुखं (नपुं०) प्रस्तावना, प्रारम्भिकी।
वाचाऊँ (नपुं०) वचन और अंग। (मुनि० १७) वाच् (स्त्री०) [वच्+क्विप्] ०शब्द, वचनावली, पदावली।। वाचाट (वि०) [वाच्+आटच] मुखरी, व्यर्थ का बोलने ०भाषा, वाणी। (सुद० १०२)
वाला। ०वचन, बात, कथन। (सुद० १०९)
०वाचाल। ०रचना, काव्य।
वाचाल (वि०) [वाच्+आलच्-चस्यनक:] ०मुखरी, प्रलापी, ०वक्तव्य, कहावत, लोकोक्ति। भवन्ति वाचः सुत! ते । व्यर्थ बोलने वाला। पवित्रः। (समु० ३/१०)
बकवास करने वाला, बातूनी। प्रतिज्ञा, भरोसा।
०वारिद, मुखरी। (जयो०१० २०/७२) वाचः (पुं०) [वच्+णिच्+अच्] ०एक मछली विशेष।
वाग्बहुलता (जयो० ८/६) वाचालानि वाग्बहुलानि वाचंयम (वि०) [वाचो वाक्यात् यच्छति विरमति (जयो०वृ०८/६)
वाच्+यम्+खच्] जिह्वा पर नियंत्रण रखने वाला, मौनी, शब्दायमान, कोलाहल, क्रन्दनशील। शान्तचित्त साधक।
वाचि (स्त्री०) भाषिणी, कथनी। (सुद० २/९) (सम्य० १५५) वाचक (व०) [वक्ति अभिधावत्या बोधयति-वच+ण्वल] वाचिक (वि०) [वाचाकृतं वाच्+ठक्] वचन सम्बन्धी, शाब्दिक प्रवाचक, प्रवक्ता। द्वादशाङ्गविद् वाचक:
प्रतिवेदन। उद्घोषक, भाषक।
वाचिकं (नपुं०) ०शाब्दिक प्रतिवेदन। मौखिक कथन। बोलने वाला, कहने करने वाला।
०समाचार, बातचीत, वार्ता। अभिव्यक्त करने वाला, अर्थ बतलाने वाला, समझाने वाचोयुक्ति (वि०) [वाचो युक्ति यस्य]०वाक्पटु, वचन की वाला।
कुशलता। व्याख्याकार, वृत्तिकार, विवेचनकर्ता।
वाचोयुक्तिः (स्त्री०) अभिभाषण, प्रतिवेदन, कथन, विवेचन। वाचकः (पुं०) वक्ता, पाठक, अध्यापक।
घोषणा, उद्भाषण। वाचकत्व (वि०) वाचकता, वचन सम्बंधी। (जयो०० वाच्य (वि.) [वच-कर्मणि ण्यत] कहे जाने योग्य, संबोधित ३/११५)
किये जाने लायक। वाचनं (नपुं०) [वच्+णिच्+ल्युट] ०वाचना, घोषणा, निरूपणा।
अभिधानीय, गुणवाचक विशेषण। प्राक्कथन, उच्चारण, प्रबोधन।
अभिव्यक्त, कथित। ०पठन, अध्यापन। प्रकथन, प्रवचन।
०दूषणीय, निन्दनीय।
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वाच्यं
९४९
वाडवः
वाच्यं (नपुं०) कलंक, निन्दा।
वाजीकरण (वि०) शक्ति विशेष, कामक्रीड़ा से उत्तेजित। अभिव्यक्त अर्थ जो अभिधा द्वारा ज्ञात हो। लक्ष्य, व्यंग। शरीर पुष्टि के लिए प्रयुक्त प्रयोग। (वीरो०८/३५) ०वाच्यवैचित्र्यप्रतिभासादेव चारुताप्रतीतिः। (काव्य प्रकाश | वाञ्छ (सक०) चाहना, अभिलाषा करना, इच्छा करना। १०)
(जयो० वीरो० ९/७१) (सुद० १३१) विधेय-क्रिया की वाच्यता।
वाञ्छक (वि०) इच्छुक। (मुनि० २४) वाच्यता (स्त्री०) वचन योग्यता। (जयो०वृ० ११/८३) वाञ्छनं (नपुं०) चाह, इच्छा, कामना, अभिलाषा। (सुद० ४/४२) निन्दा, कलंक, अपमान। (जयो०वृ० ११/८३, जयो०
वाञ्छा (स्त्री०) इच्छा, चाह। (जयो०७० ४/४१) अभिलाषा, १/१८)
कामना। (सुद० १२६) तृष्णा, पिपासा (जयो०६/८१) ०अभिधेय, अभिधानीय, गुणवाचक विशेषण। नकुलस्य
वाञ्छिका (स्त्री०) इच्छा, अभिलाषा। (जयोवृ० १२/२०) वाच्यता अभिधेयः।
वाञ्छित (वि०) [वाञ्छ+क्त] अभिलाषित। (जयो० १७/२७) सार्थका। (जयो० ११/१३)
इच्छित, अभीष्ट, अभिलषित, ईहित (जयो० ३/६३) वाच्यत्व (वि०) वचन विशेषता। (सम्य० १४२)
(जो० २/९३) वाच्य-वाचकः (पुं०) वाच्य और वाचक। (जयो०५/४५)
वाञ्छितं (नपुं०) इच्छा, चाह। साध्य साधन, लक्ष्य-लक्षी।
वाञ्छितदायिनी (वि०) कामदा। (जयो० ११/९४) वाजः (पुं०) [वज्+घञ्] बाजू, डैना।
वाञ्छाकत्री (स्त्री०) तृषा करने वाली। (जयो०वृ० २२/५) ०पंख, बाज पक्षी।
वाञ्छापूर्ति (स्त्री०) आकांक्षा की पूर्ति, कामनापूर्ति। (सुद०९२)
वाञ्छारहित (वि०) कामना रहित। (जयो०वृ० १६/४४) ०बाण का पंख।
वाञ्छितार्थ (वि०) इच्छार्थ। (वीरो० ९/५). युद्ध, संग्राम।
वाञ्छितप्राप्ति (स्त्री०) इच्छापूर्ति। (जयो० १९/६८) ०ध्वनि।
___ अभीष्टसिद्धि। (जयो०वृ० २३/३५) वाजं (नपुं०) घृत, स्त्री।
वाञ्छिन् (वि०) [वाञ्छ्+णिनि] ०अभिलाषी, इच्छुक। ___ जल, वारि।
वाञ्छैकसम्भावना (स्त्री०) इच्छा की अद्वितीय सम्भावना। वाजपेयः (पुं०) यज्ञ मंत्र।
(जयो० १७/१२) वाजसनेयिन् (पुं०) शुक्लयजुर्वेद का अनुयायी।
वाटः (पुं०) [वट्+घञ्] बाड़ी, घेरा, वाजिन् (पुं०) [वाज+इनि] अश्व, घोड़ा। (जयो० ३/११४)
०श्मशान। (जयो० ३/२७) (दयो० २८)
उद्यान, उपवन, वाटिका, बगीची। ०बाण।
वाटिका (स्त्री०) बगीची, उपवन, पक्षी, बाजपक्षी।
उद्यान, उपवन, रम्य भूखण्ड। वाजिकञ्चकः (पुं०) थामना। (जयो० १३/३८)
०आरामगृह, फलोपवन। वाजिपृष्ठः (पुं०) गोल सदाबहार।
वाटी (स्त्री०) [वाट ङीष] वाटिका, बगीची। (समु०५/१८) वाञ्छिनिष्पत्ति (स्त्री०) इच्छापूर्ति।
उपवन, आरामस्थल, विश्राम स्थल। वाजिभक्षः (पुं०) छोटी मटर, बठरा।
०आवास, निवास भू-भाग। वाजिभोजनः (पुं०) लोबिया।
०सड़क, राजपथ। वाजिमेधः (०) अश्वमेध यज्ञ।
पानी रोकने के लिए बांध, वरबन्ध। वाजियोग्यः (पुं०) जीतने योग्य। (वीरो० १७/१४)
०मोटे आटे से निर्मित गोलाकार रोटी। वाजिशाला (स्त्री०) अस्तबल, घुड़साल।
वाद्या (स्त्री०) अतिवला नामक पौधा। वाजिराजि (स्त्री०) घोड़ों का समूह। (जयो० १३/२३) वाड् (अक०) स्नान करना, नहाना, डुबकी लगाना। वाजीकर (वि०) [वाज+त्त्वि+कृ+अच्] कामक्रीड़ा से पीड़ित। | वाडवः (पुं०) [वडवाया अपत्यं वडवानां समूहो वा अण्]
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वाडवं
९५०
वातापिः
|
वड्वानल।
विप्र, ब्राह्मण। (वीरो० १/२२) वाडवं (नपुं०) अश्व समूह। वाडवधूमकेतुः (पुं०) वडवानल। (जयो० २०/२७) वाडवाग्निः (स्त्री०) समुद्री ज्वाला। वाडवानिलः (पुं०) समुद्री आग। वाडवेयः (पुं०) [वडवा+ढक्] ०सांड,
घोड़ा, अश्व। वाडव्यं (नपुं०) [वाडव+यन्] विप्र समूह। वाढं (अव्य०) हां! वाढमिति सत्य प्रतीतिकमेव। (जयो०
१६/३२) बढ़ती हुई। (मुनि० १४) वाणं (नपुं०) बाण, तीर। वाणि: (स्त्री०) [वण+इण] बुनना, जुलाहे की खड्डी।
०करघा। वाणिजः (पुं०) [वणिज्+अण] व्यापारी, सौदागर। वाणिज्यं (नपुं०) [वणिज्+ष्यज्] वैश्यकार्य, व्यापार लेन-देन
क्रय-विक्रय। वाणिज्य वाणिजा कर्म (महा०पु० १६/८२)
इतस्ततस्तत्प्रक्षेप्तुं, क्रमो वाणिज्यमिष्यते। (हि०सं०९) वाणिनी (स्त्री०) [वण+णिनि ङीष] चतुर स्त्री, नर्तकी,
अभिनेत्री।
०शृंगारप्रिया, स्वेच्छाचारिणी। वाणी (स्त्री०) [वण्+इण्+ङीप्] ०वचन, कथन, भाषण।
(जयो० ११/३३) (सुद० ७८) । ०भाषा, साहित्यिक कृति। वाणी कृपाणीव च वर्म भेत्तुम्। (वीरो० १/३८) भारती, सरस्वती, विद्या अधिष्ठात्री। वाणी नामक सखी। (जयो० ६/३४)
प्रशंसा। (जयो० १७/३३) वाणीभूषणं (नपुं०) वाक्पटु। (सुद० १/४६) वाण्टवत् (वि०) बांटे की तरह, पशु आहार की तरह।
(जयो० २/२०) वात् (सक०) हवा करना, पंखा करना।
०प्रसन्न करना। वात (भू०क०कृ०) [वा+क्त] ०बही हुई, इच्छित। वातः.(पुं०) पवन, वायु, हवा। (जयो० १५/९३) (सुद० ११९)
मठिवात्, सन्धिवात। जोड़ों की पीड़ा। वातकः (पु) [वात्+कन्] जार, प्रेमी। वातकर्मन् (नपुं०) पाद मारना, पैर पटकना।
वातकुंडलिका (स्त्री०) मूत्ररोग, बूंद बूंद मूत्र आना। वातकुंभः (पुं०) गण्डस्थल, हस्तिकुम्भस्थल। वातकुमारः (पुं०) देव, जो तीर्थंकर के बिहार मार्ग को शुद्ध
करते हैं। वातकेतुः (पुं०) धूल। वातकेलिः (स्त्री०) कानाफुसी, प्रेमालाप।
प्रेमी, प्रेक्षिका। वातगजः (पुं०) वातगुल्मः (पुं०) अंधड़, आंधी।
गठियारोग। वातज्वरः (पुं०) मलेरिया, वायु प्रदूषण से उत्पन्न रोग। वातततिः (स्त्री०) वायुवृत्तिः। (जयो०२१/९०) वातनिसर्गः (पुं०) अपान से वायु निकलना। वातपुत्रः (पुं०) हनुमान, पनवनपुत्र, मारुती। वातपोथः (पुं०) पलाश वृक्ष, ढाक तरु। वातपेरित (वि०) वायु प्रभावित। (जयो०५/३) वातमंडली (स्त्री०) भंवर, जलावर्त। वातमृगः (पुं०) तेज दौड़ने वाला हिरण। वातर (वि०) वेगशील, झंझामय, तूफानी। वातरक्तं (नपुं०) गठियावात। वातरंग (पुं०) गूलर का वृक्ष। वातरायणः (पुं०) ०बाण।
०चोरी, शिखर।
०सरल वृक्ष। वातरुपः (पुं०) प्रचण्ड वायु वेग, तीव्र वेग युक्त वायु।
आंधी, तूफान। ०इन्द्रधनुष।
रिश्वत। वातरोगः (पुं०) गठिया रोग। वातल (वि०) तूफानी, वेगशील। वातवसनता (वि०) दिगम्बरता। वातवसनता साधुत्वायेति। (वीरो०
१३/३१) वातव्याधिः (स्त्री०) गठियावात रोग। वातवृद्धिः (स्त्री०) अंडकोष की सूजन। वातशीष (नपुं०) पेडू। वातशूलं (नपुं०) उदर पीड़ा, अफारा, अजीर्ण। वातसारथिः (पुं०) अग्नि, आग। वातापिः (पुं०) एक राक्षस विशेष।
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वातायनं
९५१
वान
वातायनं (नपुं०) गवाक्ष। (जयो० २४/८६) वातिः (पुं०) [वा+क्तिच्] सूर्य, दिनकर।
०पवन, वायु।
०चन्द्र, शशि। वातिक (वि०) वातपीड़ित, सन्धिवात युक्त। वातिकः (पुं०) वायु प्रदूषण से उत्पन्न ज्वर। वातीय (वि०) [वात+छ] हवादार। वातीयं (नपुं०) चावल की मांड। वातुल (वि०) [वात+उलच्] गठियावात से पीड़ित, वायु
प्रकोप युक्त।
०पागल। वातुलिः (स्त्री०) [वा+उलि+तु] चमगादड़। वातृ (पुं०) [वा+तृच्] पवन, हवा। वात्या (स्त्री०) [वातानां समूह यत्] ०अंधड़, भंवर, वायुप्रलय,
झंझावात। वात्सकं (नपुं०) बछड़ों का समूह। वात्सल्यं (नपुं०) [वत्सलस्य भावः ष्यञ्] स्नेह, प्रीति, अनुराग,
सुकुमारता, प्राणिवर्ग पर अनुराग, धर्मी पर स्नेह।
०लाडप्यार। वात्स्यायनः (पुं०) [वत्सस्य गोत्रापत्यं वत्स+यज्+फक्] कामसूत्र
प्रणेता, न्यायसूत्र के भाष्यकार। वादः (पुं०) [वद्+घञ्] वचन, बात, पक्ष प्रस्तुति। * अभीष्ट
साध्य की सिद्धि के लिए कथन। भाषण, कथन, विवेचन, आलाप। (जयो०व० १/३) ०वक्तव्य, उक्ति, आरोप। वर्णन, वृत्त, समविवेचन। विचार, निरूपण, प्ररूपण। तर्क, प्रस्तुतीकरण। विवृति, व्याख्या। उपसंहार, सिद्धान्त।
विवरण, टिप्पणी। वादक (वि०) बजाने वाला। गीत-प्रबन्धगति-विशेषवादक ___चतुर्विधातोद्य प्रचार कुशलो वादक। (नीश्ते वा १४/२५) वादकण्डूपः (पुं०) वाद की अभिलाषा, कथन की इच्छा।
(दयो० ९१) वादकर (वि०) विवाद करने वाला, वार्तालाप करने वाला। वादकृत् (वि०) विवाद करने वाला, पक्ष रखने वाला। वादग्रस्त (वि०) विवादग्रस्त, आपसी मतभेद युक्त।
वादनं (नपुं०) [वद्+णिच्+ल्युट्] बाजा, वाद्य।
०बजाना, ध्वनि करना। वादनार्थ (वि०) मुररीकृ, बजाने के लिए। (जयो०१० २२/६१)
फूत्कृतेर्विचारादुत किल मुररी वंशीमुररीचकार, वादनार्थमिति
शेषः। (जयो०वृ० १२/७६) । वादर (वि.) [वदरायाः कार्पस्याः विकारः वादरा+अण] कपास
से निर्मित। वादरं (नपुं०) सूती वस्त्र। वादरंगः (पुं०) [वादर+खच्+डित्] पीपल तरु।
गूलर वृक्षा वादि (वि०) [वादयति व्यक्तमुच्चारयति वद्+णिच् इञ्]
विद्वान्, कुशल, बुद्धिमान।
पक्ष प्रस्तुत करने वाला। वादिकरया (वि०) कुशल। (जयो०वृ० १/६) वादित (भू०क०कृ०) [वद्+णिच्+क्त] ०बजाया गया, घोषित
कराया गया।
उच्चरित कराया गया, बुलवाया गया। वादित्व (वि०) अभिमत तत्त्व वाला। वादित्रं (नपुं०) वाद्य, संगीत। (जयो०८/६२) (जयो०वृ०१/१९) वादिन् (वि०) [वद्+णिनि] बोलने वाला, अभिव्यक्त करने
वाला। विपक्षी, तर्क-वितर्क कर्ता। (जयोवृ० ३/१२)
व्याख्याता, अभियोक्ता, अध्यापक। वादिशः (पुं०) विद्वान्, ऋषि, साधक। वादी (वि०) पक्ष प्रतिपादक व्यक्ति। वाद्यं (नपुं०) [वद्+णिच्+क्त] बाजा (जयो० ५/५०)
'घन-सुषितर-तत-आनद्धरूपाणि चतुर्विधवाद्यन्यवाद्यन्त अमरकोश। (जयोवृ० १०/१६) सघनं घनमेतदास्वनत् सुषिरं चाशु शिरोऽकरोत्स्वनम् स ततेन ततः कृतो ध्वनिः
सममानद्धममानमध्वनीत्।। (जयो० १०/१६) वाद्यकर (वि०) संगीतज्ञ। वाद्यभाण्डं (नपुं०) वाद्ययन्त्र समूह, स्वराञ्जलि पूर्ण। वाद्यमान (वि०) बजाए जाते हुए। वाद्यवादनं (नपुं०) परिवाद्य। (जयो० १५/७०) (जयो० १०/११) वाधूक्यं (नपुं०) विवाह, परिणय। वाधीणसः (पुं०) गैंडा। वाध्यता (वि०) परित्यागता। (मुनि० १६) वान (वि०) [वन+अण] खिला हुआ, पुष्पित। . ०शुष्क, सूखा हुआ।
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वानं
९५२
वामभाग:
वानं (नपुं०) सूखा फल।
(जयो० १/५८), (समु० ६/२१) कापीव वापी सरसा ० चलना।
सुवृत्ता मुद्रेव शाटीव गुणैकसत्ता। (सुद० २/६) जीना लुढ़कना।
दीर्घिका (जयो० ३/४८) विर्धिर्येनाभ्युपायेन नाभिवापी गंधा
निखातवान् (जयो० ३/४८) वानप्रस्थः (पुं०) [वाने वनसमूहे प्रतिष्ठते-स्था-क] वानप्रस्थ वापीतटः (पुं०) वापिका तट। (जयो० २१/८८)
साधु, वैरागी, मुनि (जयो० ) 'वानप्रस्थस्तु मध्यमम्' वाबिन्दु (नपुं०) जल की बूंद। (सुद० ४/३०) कान्ताप्रसङ्गरहिता (दयो० ११८) जो संसार के सभी झंझटों से दूर तथा खलु चक्रवाकी वापीतटेऽप्यहनि ताम्यति सा वराकी। ध्यान-अध्ययन में लीन रहते हैं वे वानप्रस्थ आश्रम वाले (वीरो० २/४५) यति हैं। 'वानप्रस्था अपरिगृहीतजिनरूपा वस्त्रखण्डधारिणो वाम (वि०) [वम्+ण, वा+मन्] ०बांया ०बाई ओर। प्रजया निरतिशयतपः समुद्यताः' (सागर ध०टी० ७/२०)
परिपूर्यते पुरस्तादिति वामे क्रियते स्म सा तु शस्ता। ०मधूक वृक्षा
(जयो०१२/८९) ०पलाश वृक्ष, ढाका
०दक्षिण। (तनया तावदवाममेव हस्तम्) (जयो० १२/६१) धार्मिक जीवन के तृतीय आश्रम में प्रविष्ट व्यक्ति।
दक्षिण भाग। प्रथमं भुवि सज्जनैर्वत इति वामोऽपि वानरः (पुं०) [वानं वनसम्बंधि फलादिकं राति गृह्णति रा+क, सदक्षिणीकृतः। (जयो० १२/७४) वा विकल्पेन नरो वा] बंदर, लंगूर।
सुंदर-वामोऽपि सुंदरोऽपि (जयो०वृ० १२/७५) वानरप्रियः (पुं०) खिरनी वृक्ष।
विपरीत, उलटा, विरुद्ध, विरोधी। वानराक्षः (पुं०) जंगली अज।
प्रतिकूल। (जयो० ३/९१) वानरावातः (पुं०) लोध्र वृक्ष।
प्रिय, सुंदर, लावण्ययुक्त, मनोहर। वाम मनोहरं रूपं वानरेद्रः (पुं०) सुग्रीव, हनुमान।
यस्य तस्य। (जयो०वृ० १/४६) वानल: (पुं०) [वानं वनसम्बन्धि वनभावं निविडतां लाति दुष्ट, दुर्वृत्त, अधम, नीच, कमीना। ला+क] तुलसी पादप।
कुटिल, वक्रगति, युक्त, दुराग्रही। वाना (स्त्री०) बटेर, लवा।
वामः (पुं०) सजीव प्राणी, जन्तु। वानायुः (पुं०) एक देश।
०कामदेव। वानास्पत्यः (पुं०) [वनस्पति+ष्यञ्] आम्र तरु। .
सर्प। वानीरः (पुं०) [वन+ईरन्+अण्] बेंत।
औड़ी, ऐन। वानीरकः (पुं०) [वानीर+कन्] मुंज नामक घास।
वामं (नपुं०) सम्पत्ति, वैभव। वानेयं (नपुं०) [वन+ढञ्] नागर मोथा, सुगन्धित घास। वामदृश् (स्त्री०) मनोहर दृष्टि। वान्त (भू०क०कृ०) [वम्+क्त] वमन, उद्गीर्ण। (जयो०८/३०) वामन (वि०) ठिगना, बौना। (जयो० २/१४८) प्रक्षिप्त, उगला हुआ, उंडेला हुआ।
वामदेवः (पुं०) कामदेव। वान्ति (स्त्री०) [वम्+क्तिन्] वमन, कै।
महादेव, शिव। (जयो० २६/१०२) वान्तिकृत् (वि०) वमन करने वाला।
वामनपुराणः (पुं०) एक पुराण विशेष। वान्या (स्त्री०) [वन+यत्+टाप्] अरण्य समूह।
वामनसंस्थान (नपुं०) हस्त पादादिहीन होना। वापः (पुं०) [वप्+घञ्] बीज बोना।
वामपथः (पुं०) विपरीत मार्ग, कुटिल मार्ग। ०बुनना।
वामपरम्परा (स्त्री०) वामा मनोहर परम्परा यस्याः सा (मनोहर ०बाल मूंडना।
परम्परा) (जयो० ११/९) वापदण्डः (नपुं०) [वप्+णिच्+क्त] बोया हुआ, मुंडा हुआ। वामपादः (पुं०) बांया पैर। वापि (अव्य०) और भी, फिर भी। (सुद० २/१६)
वामबोधः (पुं०) प्रतिकूल ज्ञान। वापि (स्त्री०) [वप्+इञ् वा ङीप्] बावड़ी, कुंआ, वापिका | वामभागः (पुं०) बाईं तरफ, बाईं ओर। (दयो०७५) किंवा
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वामयोगः
९५३
वायुमण्डलं
वात-तातयोर्ग्रन्थौ- इति वि। (जयो० २५/३०) प्राण, अपान, व्यान, उदान वायु।
०वातरोग, वायु प्रकोप। वायुकायः (पुं०) वायु के शरीर वाला जीव। वायुकायिकः (पुं०) वायु के शरीर को धारण करने वाला
जीव।
रतिः परिकरोति किलानुरागं श्रीरेव भूषयति या मम
वामभागम्। (दयो० १०९) वामयोगः (पुं०) सुंदर योग। वामरीतिः (स्त्री०) अच्छी परम्परा, सुयोग्य पद्धति। वामलूरः (पुं०) बांबी, दीमकों द्वारा निर्मित मिट्टी का ढेर। वामलोचना (स्त्री०) सुंदर नेत्र वाली स्त्री, सुनयना। वामशील (वि०) वक्र प्रकृति। वामस्कन्धः (पुं०) बांया कंधा। (समु० २/३२) वामा (स्त्री०) [वामति सौंदर्यम् वाम्+अण्+टाप्] सुंदर स्त्री,
लावण्यवती तरुणी। अर्धाङ्गिनी (जयो० १२/९३) कमनीय कामिनी युवती। (वीरो० २/४९) ० श्री (जयो० ५/९९) लक्ष्मी, गौरी। सरस्वती। अमावस्या। (जयो००५/९९) विरुद्धा। (जयो० २/१५०) ०वक्रा, कुटिला, प्रतिकूला, (जयो० १७/१४) (जयो००
१२/९३) वामा रूपः (पुं०) अर्धाङ्गिनी, वामास्त्री। (सुद० ९८) वामास्तनं (नपुं०) नवोढा स्तन। (वीरो० १२/६६) वामिल (वि०) [वाम+इलच्] सुंदर, रमणीय, सुभग, मनोहर,
लावण्ययुक्त। घमण्डी, अहंकारी, अभिमानी।
चालाक, धूर्त, छली-कपटी। वामी (स्त्री०) [वाम ङीष्] घोड़ी, गधी।
०हथिनी। वामेता (वि०) पार्श्वभाग। (जयो०वृ० १२/९५) वाम्बूलः (पुं०) बबूल। (वीरो० १९/११) वायः (पुं०) [वे+घञ्] बुनना, सीना। वायकः (पुं०) [वे+ण्वुल्] जुलाहा। ___ढेर, समुदाय, संग्रह, समुच्चय।। वायनं (नपुं०) [वे+णिच्+ल्युट्] नैवेद्य, वायना, पकवान। वायव (वि०) वायु से सम्बन्धिता वायवीय (वि०) हवा से सम्बन्ध रखने वाला। वायव्य (वि०) हवा से सम्बन्धित। वायस् (पुं०) [वयोऽसच् णित्] काक, कौवा। सुगन्धित
लकड़ी। अगर की लकड़ी। (जयो० ४/६६) वायु (पुं०) पवन, हवा, अनिल, ईरण, समीर। (जयो० २।८३) __'वायु वायुमात्रं वायुरुच्यते' सन्तति पालनबुद्धिः वायु वा
वातं तथा तं सहजप्रयातं सचित्तमाहाखिलवेदितात:। स्यात्स्पर्शनं हीन्द्रियमेतकेषु यत्प्रासुकत्वाय न चेतरेषु।। (वीरो० १९/३४) वायु ही है, जिनका शरीर ऐसे जीव वायुकायिक हैं। सहज स्वभाव से बहने वाली वायु को सर्वज्ञ देव ने सचित्त
कहा है। सभी वायुकायिक जीव एक स्पशनेन्द्रिय हैं। वायुकुमारः (पुं०) पवनकुमार। वायुकेतुः (पुं०) धूल, रंज। वायुकोणः (पुं०) पश्चिमोत्तरी कोना। वायुगण्डः (पुं०) अपचन, वायुविकार, अफारा। वायुगुल्मः (पुं०) आंधी, तूफान, बवंडर, भंवर। वायुगोचरः (पुं०) पवन की प्रतीति, हवा का स्पर्श। वायुग्रस्त (वि०) वातरोग से पीड़ित, गठियावात युक्त। वायुचारणा (स्त्री०) एक ऋद्धि, जिसके प्रभाव से वायु में
चला जाता है। वायुजात (वि०) हवा से उत्पन्न। वायुजातः (पुं०) हनुमान। वायुजीवः (पुं०) वायु रूप जीव। वायुतनयः (पुं०) पवनपुत्र, हनुमान। वायुतातिः (स्त्री०) वायुवेग, हवा की गति। (नशोषपेत्तं भुवि
वायुतातिः) (वीरो० १२/३४) वायुनन्दनः (पुं०) हनुमान। वायुनिघ्न (वि०) वातपीड़ित। गठियावात से पीड़ित। वायुपुत्रः (पुं०) पवनपुत्र, हनुमान। वायुपुराणः (पुं०) अठारह पुराणों में एक वायुपुराण। (दयो०३१) वायुफल (नपुं०) ओला, हिमखण्ड।
०इन्द्रधनुष। वायुभक्षः (पुं०) योगी। वायुभूति (पुं०) तृतीय गणधर। (वीरो० १४/२) 'वायुभूतिस्तृतीयः
सफलोकृताऽऽयुः' (वीरो०१४/२) वायुमण्डलं (नपुं०) पवन दल। जो आकार में गोल, बिन्दुओं
से व्याप्त, काले अंजन रूप, मेघ के समान चंचल, पवन
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वायुरथः
९५४
वाराही
।
मा
से सहित एवं जो देखने में न आने वाले हों, उसे
वायुमण्डल कहा जाता है। वायुरथः (पुं०) विजया पर्वत का राजा, पुण्डरीक नगर का __ शासक। (जयो० २३/५२) वायुरोगः (पुं०) वातरोग। वायुरोषा (स्त्री०) रात्रि, रजनी। वायुरुग्ण (वि०) वात रोग से पीड़ित। वायु वर्त्मन् (पुं०/नपुं०) आकाश, अन्तरिक्ष, आकाश पथ। वायुवाहः (०) Wआ। वायुवाहिनी (स्त्री०) शिरा, धमनी। वायुवृत्तिः (स्त्री०) वाततति, पवन वेग। (जयो०वृ० २१/७०) वायुवेगः (पुं०) वाततति-पवन गति। वायुसंवर्द्धिनी (स्त्री०) थोकनी, भस्त्रा। (जयो० ११/६८) वायुसखः (पुं०) अग्नि, आग। वायुसेवनं (नपुं०) हवा खोरी। (दयो० ८९) वार् -निवारण करना। (जयो० २/२१) वार् (नपुं०) [वृ+णिच्+क्विप्] जल, पानी। वा:किटिः (स्त्री०) संस। वाःदरं (नपुं०) मेघ, बादल, जिमूच। वाःपुष्पं (नपुं०) लवंग, लौंग। वा:सदनं (नपुं०) जलाशय, हौंज, जलकुण्ड। वा:स्थानं (नपुं०) जल में स्थान। वारः (पुं०) [वृ+घञ्] संसचूक ०जयवारय *वारसम्पदा
परिषत् सा परिसंचरन्मदा। (जयो० २६/१८) आवरण, आच्छादन, परदा, चादर। (सुद० ४/३६) बालक। (जयो०वृ० ६/६८) समूह, समुच्चय, समुदाय, संग्रह। रेवड़, लंहगा। कुब्ज वृक्ष। (जयो०२१/३४)
समय, वारी, दिन। वारं (नपुं०) मदिरा, शराब, मद्य। वारकीरः (पुं०) पत्नी का भाई, साला।
कंघी।
वारंगः (पुं०) तलवार की मूठ। वारजनी (स्त्री०) वेश्या, गणिका। (वीरो० ६/३३) वारटं (नपुं०) खेत, खेत समूह। वारण (वि०) निवारण, हटाने वाला, विरोध करने वाला।
(जयो०वृ० १९/७४) वारणं (नपुं०) रुकावट, विरोध, विघ्न, बाधा, निवारण।
लोकोऽयं वृषभावतोऽपि सुतरां दुष्कर्मणां वारणं। (मुनि०३९)
आवरण, पर्दा, आच्छादन। ०ढकना, ढक्कन।
प्रतिरोधक, प्रतिरक्षा, सुरक्षा। वारणः (पुं०) हस्ति, गज, हाथी। (जयो० २१/२२) 'पथि
सादिवरः कृतेक्षणः कृतवानास्तरणं तु वारणे' वारणावतं (पुं०) एक नगर विशेष। वारत्रं (नपुं०) चमड़े की पट्टी। वारंवार (अव्य०) [वृणमुल्] प्रायः बहुधा, बार बार, फिर-फिर
__(मुनि० १३) वारयात्रिकः (नपुं०) जन्यजन, बाराती लोग। मृदुलड्डकुचा
प्रियेव शस्तैरूपभुक्त्वा बहु वारयात्रिकैस्तैः (जयो० १२/१२३) वारय् (सक०) निवारण करना। (जयो० २/१२१) वारयितुं (वार+तुमुन्) निवारण करने के लिए। (सुद० १२०) वारला (स्त्री०) [वार+ला+क+टाप्] बर्र, भिड़।
हसिनी। वारा (स्त्री०) शिविका, पालकी। (जयो० ६/४०) वाराकर-वारः (पुं०) नवोढा का कर निवारण। (जयो० १) वाराणसी (स्त्री०) [वरुणा च असी तयोः नद्योरदूरे भवा
इत्यर्थ-अण+ङीप्] वाराणसी नगरी, बनारस, काशी।
(जयो० ९/९२) वाराणसीशः (पुं०) वाराणसी का राजा। (जयो० २०/३९)
राजा अकम्पन्न। (जयो० २०/३९) वारानिधि (पुं०) [वारिनिधिं चुलकीचकारागस्त्य इति जनश्रुतेः]
समुद्र, वारिधि। (जयो० १७/८) वाराशि (पुं०) लवणसमुद्र। (वीरो० २/७) वाराह (वि०) शूकर से सम्बन्धित। वाराहः (पुं०) शूकर, एक वृक्ष विशेष। वाराहकल्पः (पुं०) वर्तमान युग। वाराहपुराणं (नपुं०) पुराण का नाम। वाराही (स्त्री०) [वाराह+ङीप्] शूकरी।
०पृथ्वी। माप विशेष।
०अश्व। (युद्ध अश्व)। वारक (वि०) रुकावट डालने वाला। वारकः (पुं०) अश्व।
बालक, लड़का, शिशु। (जयो०१७/११४) कर प्रचार। (जयो०वृ० १७/११४)
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वाराहीकंदः
९५५
वारिमुक्ता
वाराहीकंदः (पुं०) महाकंद। वारि (नपुं०) ०जल, पानी, क्षीर। (सुद० १००) (सुद०
४/१५) अम्बु, पयस्, अम्भ। (वीरो० २/३१) वार्वारिक
पयोऽम्भोऽम्बु इति धनञ्जयो (वीरो० २/३१) ०क, वा। वारिः (स्त्री०) गजबन्धनी, शृंखला, सांकल। (जयो० १३/११०)
वारी गजबन्धनी येन स स्तम्भं बन्धनस्थूलमुत्खायातितराम्' (जयो० १३/११०)
सरस्वती, भारती। ०बंदी, कैदी।
जलपात्र। वारिकर्पूरः (पुं०) मछली विशेष। वारिका (स्त्री०) असि, तलवार। (जयो० १६/७६) संस्फुरत्तरल
वारिकां हि (जयो० १६/७६) तरलश्चञ्चले खड्गे इति
विश्वलोचनः। वारिकायिकः (पुं०) जलकायिक जीव। (वीरो० १०/२९) वारिकुब्जकः (पुं०) सिंघाड़ा, श्रृंगाटक। वारिक्रिमी: (स्त्री०) जोंक। वारिचत्वरः (पुं०) जलाशय, बावड़ी। वारिचर (वि०) जलचर जीव। मीनादयो वारिचरा जन्तवो'
(जयो० २०/७)
मछली, मगर आदि। वारिचरी (स्त्री०) सरस्वती, बुद्धिमती। (जयो० १२/३४) 'सरस्वत्यां चरतीति वारिचरी' (जयो०१० १२/३४)
मछली, मीन। वारिचरी मत्स्यिकेव धीवरतो बुद्धिमतो
मीनग्रहिणो' (जयो०वृ १२/३४) वारिज (वि०) जल में उत्पन्न होने वाला। वारिजः (पुं०) पङ्कज, कमला (जयो० ४/५६) वारिजं (नपुं०) कमल, पद्म। नमक।
गौरसुवर्ण।
लवंग, लौंग। वारिजतुल (वि०) कमल सदृश। (जयो० ३/१३) वारिजराज (वि०) कमल सदृश। (जयो० २४/७४) वारिजातः (पुं०) कमल। 'कुमुदं कैरवे क्लीवं कृपणे ___कुमुदन्यवदिति कोषः। वारित (वि०) निवारित, हटाया। (जयो०वृ० ६/९६) वारितस्करः (पुं०) मेघ, बादल। वारितापक्रमः (पुं०) जल रहित। (जयो० २८/५३) वारित्रा (स्त्री०) छतरी, छाता।
वारिदः (पुं०) मेघ, बादल। (वीरो० २/३३) 'वारिं जलं
ददातीति वारिदोमेघस्तेन' (जयो०७० १७/२१)
सरस्वती। ०वचनोच्चारण। 'वारिं सरस्वती वाचं ददातीति वारिदस्तेन' (जयो०वृ० १७/२१) वारिं सरस्वती देव्यां वारिहीवेदनीरयो
इति विश्वलोचनः। (जयो० १७/२१) वारिदः (पुं०) आप्त पुरुष-वारिं धर्मोपदेशं ददातीति वारिदा
आप्तपुरुषाः' (जयो०वृ० ३/५) वारिदगणः (पुं०) मेघाडम्बर, मेघ समूह। (जयो० ३/५) वारिदवारिदक्षः (पुं०) मेघ जल देने में प्रवीण। अभिलाषी।
वारिदस्य मेघस्य वारिजले वक्षरूपोऽभिलाषी। (जयो०
१२/८६) वारिद्रः (पुं०) चातक पक्षी। वारिधरः (पुं०) मेघ, बादल। वारिधारा (स्त्री०) जलप्रवाह, बौछार। (जयो० ६/१०७) वारिधाराधारिणी (वि०) जलप्रवाह युक्ता। (दयो० ११२)
जल के प्रवाह में चलने वाली। वारिधाराधारिणी (स्त्री०) नदी, सरिता। वारिधि (पुं०) समुद्र, सागर। वारिनाथः (पुं०) समुद्र, सागर।
मेघ, बादल। वारिनिधि (पुं०) समुद्र, सागर, जलोदधि। (समु० ६/२०)
'वारि सैव निधिर्यस्य सः' (जयो०७/५७) वारिनिवर्षा (स्त्री०) जल वर्षा। वचन रूप वर्षा-'वारेर्वाचो
निवर्षेः' वर्षाभिः' (जयो० ३/९२) वारिपथः (पुं०) जल यात्रा, नौका विहार, जल क्रीड़ा। वारिपूरः (पुं०) जलपूर, जलप्रवाह। (जयो० ४/३५) वारिप्रवाहः (पुं०) झरना, जलप्रपात। वारिभरिता (स्त्री०) बटलोई, जल भरने का पात्र। (दयो०९३) वारिभवं (नपुं०) कमल। (जयो० १९/५) वारिभवोज्जवलः (पुं०) जल के सद्भाव से उज्ज्वल।
'वारिभवोज्ज्वलेन वारिभवं कमलं तद्वदुज्ज्वलेन। यद्वा वारिणो
भवः सद्भावस्तेनोज्ज्वलः' (जयो० १९/५) वारिमुक्ता (स्त्री०) जल बिन्दु, जलस्राविता, वारिमुक्तामथ च
वारिणो जलस्य मुक्तां बिन्दुम्। (जयो०वृ० १६/१९) ०वचनमुक्ता-वारिं वाचं मुञ्जतीति तस्य भावस्तां वारिमुक्ताम्' (जयो०वृ० १६/१९)
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वारिमुग्
९५६
वार्धक्यापन्न
-
वारिमुग् (पुं०) जलद, मेघ, वारिद। (वीरो० २/३०, जयो०
१२/५१) वारिमुच् (पुं०) मेघ, जलद। वारियन्त्रं (नपुं०) जल घटिका, रहट। वारिरथः (पुं०) नाव, डोंगी, जलयान। वारिराशिः (स्त्री०) समुद्र।
तालाब, सरोवर। वारिरुहं (नपुं०) कमल, अरविन्द। वारिवासः (पुं०) कलाल, शराब बेचने वाला। वारिवाहः (पुं०) मेघ, बादल। वारिविलासि (स्त्री०) निर्मलजलधारा। (जयो० २४/६०) वारिशः (पुं०) शिव, शंकर। वारिसंभवः (पुं०) लवंग, लौंग।
०खश की सुगन्धित जड़। वारिसमुन्नयः (पुं०) जलप्रवाह। (जयो० ९/६६) वारिहारित (वि०) जलाहरण। (जयो० १०/२६) वारीटः (पुं०) हस्ति, हाथी। वारु (पुं०) [वारयति रिपून् वृ+णिच्+उण्] विजय हस्ति,
जयकुंजर। वारुठः (पुं०) अरथी, शव ले जाने की अरथी। वारुण (वि०) वरुण सम्बंधी। वारुणः (पुं०) वारुणखण्ड एक क्षेत्र विशेष। वारुणः (नपुं०) जल, पानी। वारुणिः (पुं०) [वरुण+इञ्] अगस्त्य मुनि। वारुणी (स्त्री०) पश्चिम दिशा।
०मदिरा। ०मेतार्य गणधर की माता, श्रीदत्त की भार्या।
दशवें गणधर की माता। मेतार्यवाक् तुङ्गिकसन्निवेश-वासी, पित्तादत्त इयान् द्विजेशः। माताऽस्य जाता वरुणेति नाम्ना, गणीत्युपान्त्यो निलयः स धाम्नाम्।। (वीरो० १४/११)
कौशलदेश के वृद्ध गांव के मृगायण ब्राह्मण की पुत्री वारुणी। मृगायणी कोशलेदशसन्धिज, प्रवृद्धनाम्नीह जनाश्रये द्विजः। यदङ्गनाऽऽसीन्मधुराऽनयोः,
सुताऽथवारुणीनामसुरूपसंस्तुता।। (समु० ४/२४)
नक्षत्र विशेष। आर्य व्यक्त गणधर की माता। (वीरो०१४/५) वारुंडः (पुं०) नाग जाति। वार्णिकः (पुं०) [वर्ण+ठ] लिपिकार, लेखक। वार्ता (स्त्री०) बातचीत, नीति। (वीरो० ५/३७)
विनोदवार्तामनुसम्विधात्री समं तयाऽगाछनकैः सुगात्री।। ०बात, कथन, आपसी विचार-विमर्श। वार्ताऽप्यदृष्टश्रुतपूर्विका वः यस्यान केनापि रहस्यभावः। (सुद०२/२१)
'स्त्रियास्तु वार्तापि सदैव हेया' (वीरो०१८/२९) वार्ताकः (पुं०) बैंगन का पौधा। वार्ताजीविन् (पुं०) वैश्य, वणिक। (जयो० २/१११) वार्तिका (स्त्री०) बटेर, लवा। वार्त्त (वि०) [वृत्ति+अण] नीरोग, तन्दुरुस्त, स्वस्थ।
०व्यवसायी, व्यवहारी।
०सारहीन, कमजोर। वार्तं (नपुं०) कल्याण, हित।
भूसी, चूरी। वार्ता (स्त्री०) [वार्त्त टाप्] ठहरना, स्थित होना, रहना।
समाचार, संदेश, बात, कथन।
आजीविका, वृत्ति, व्यवसाय, खेती। वार्तारंभः (पुं०) व्यापारिक उपक्रम। वार्तावहः (पुं०) दूत, संदेशवाहका
०अंगराग। वार्तावृत्तिः (स्त्री०) खेती से आजीविका चलाने वाला। वार्ताव्यतिकरः (पुं०) सामान्य विवरण। वार्ताहरः (पुं०) दूत, संदेशवाहक। वार्त्तिक (वि०) व्याख्यात्मक, विवरणात्मक।
समाचार लाने वाला। वार्तिकः (पुं०) दूत, संदेशवाहक, भेदिया। वार्तिकं (नपुं०) व्याख्या, वृत्ति, विवरण। वाजः (पुं०) अर्जुन। वार्द्धकं (नपुं०) [वृद्धानां समूहः तस्य भावः कर्म वा] स्थिविर,
थेर, वृद्धावस्था, बुढ़ापा। (जयो० २३/६०) वार्द्धक्यं (नपुं०) वृद्धत्व, बुढ़ापा। (जयो० २३/६०)
वृद्धत्वे सत्ययाति धी इत्यादि। (जयोवृ० २०/२९)
(हित०२) वार्धक्यापन्न (वि०) मरणासन्न (जयो०व०७/१६) वृद्धापन,
(जयो० ९/७२)
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वार्दुष्यं
९५७
वासक
वार्दुष्यं (नपुं०) सूद, ब्याज। वादलः (पुं०) ०बादल, मेघ। वार्दकुलः (पुं०) मेघ, बादल। (वीरो० १९/२२) (वीरो०४/१३) वार्धि (पुं०) समुद्र, सागर। (जयो० १२।८, वीरो० ३/२) वार्ध (नपुं०) चमड़े की पट्टी। वार्मणं (नपुं०) कवच युक्त। वार्य (नपुं०) [वृ+ण्यत्] आशीष, शुभ कामना।
०वरदान।
०सम्पत्ति, वैभव। वार्वणा (स्त्री०) [वर्वणा+अण+टाप] नीले रंग की मक्खी। वार्ष (वि०) [वर्ष+अण्] ०वार्षिक।
०वर्षा से सम्बंध रखने वाला। वार्षिक (वि०) [वर्ष+ठक्] वर्ष सम्बंधी।
०वर्षा सम्बंधी। (जयो० २/३३)
सलाना, प्रतिवर्ष का।। वार्षिला (स्त्री०) [वार्जाताशिला] ओला, हिमखण्ड। वार्ष्णेयः (पुं०) [वृष्णि+ठक्] वृष्णि की संतान।
नल के सारथि का नाम।
कृष्ण। वाहेः (पुं०) बालक। वालवः (पुं०) अजगर। वालबालक (पुं०) अजगर का बालक। (जयो० १३/४५) वालिः (स्त्री०) वानर राज। वालुका (स्त्री०) [वल्+उण्+कन्+टाप्] ०रेत, बजरी।
चूर्ण। ०कपूर।
ककड़ी। वाल्क (वि०) [वल्क+अण] वृक्षों की छाल से निर्मित। | वाल्कल (वि.) [वल्कल+अण] वृक्षों की छाल से बना
हुआ। वाल्कलं (नपुं०) वल्कल वस्त्र, छाल से बने परिधान। वाल्मीकिः/वाल्मीकिः (पुं०) [वल्मीके भवः अण इञ् वा]
विख्यात मुनि, रामायण के प्रणेता।
०वामी। (दयो० ३९) वाल्लभ्यं (नपुं०) [वल्लभ+ष्यञ्] वल्लभता, प्रिय होने का
भाव। वावदूक (वि०) [पुनः पुनरतिशयेन वा वदति वद्+यङ् लुक्] |
बातूनी, मुखर, वाक्पटु।
वावयः (पुं०) [वय्+यङ्-लुक्] तुलसी। वाविलः (पुं०) बाईविल, ईसाई धर्म का प्रसिद्ध धार्मिक ग्रन्था
(वीरो० १९/१०) वावुटः (पुं०) नाव, नौका, डोंगी। वावृत् (सक०) छांटना, चुनना, चयन करना। __प्रेम करना, पसंद करना। वावृत्त (वि०) [वावत्+क्त] छांटा गया, चयन किया गया। वाश् (सक०) दहाड़ना, चिल्लाना। . चीत्कार करना, ध्वनि करना।
०हू हू करना, गुनगुनाना।
०बुलाना, पुकारना। वाशक (वि०) [वाश्+ण्वुल] चिल्लाने वाला, पुकारने वाला।
दहाड़ने वाला, मुखर, निनादी। वाशकं (नपुं०) [वाश्+ल्युट्] ०दहाड़ना, चिंघाड़ना, गुर्राना।
आक्रोश करना। ०चहचहाना, कूकना, भिनभिनाना। वाशिः (पुं०) [वाश्+इञ्] अग्नि, आग। वाशितं (नपुं०) कलरव, चहचहाना। वाशिता (स्त्री०) [वाशित+टाप् ]०हथिनी।
स्त्री, वनिता। वाश्रः (पुं०) [वाश्+रक्] दिन। वाथ (नपुं०) आवास स्थान, घर।
०चौराहा।
गोबर। वाष्पः (पुं०) भाप, अश्रु। वाष्यं (नपुं०) देखो ऊपर। वाष्याम्बुपूरः (पुं०) नेत्रजलप्रवाह। (जयो० १६/६) वाष्पिन् (वि०) भाप युक्त। (वीरो० १९/४३) वास् (सक०) सुगन्धित करना, सुवासित करना, धूप देना।
सिक्त करना, भिगोना। वासः (पुं०) सुगंन्ध। निवास, आवास। (सम्य०७०)
घर, स्थान, जगह। सद्भाव। (जयो० १/३) वस्त्र, परिधान, कपड़े। (जयो०२/५०.) (सुद० २/१२) अथ प्रभाते कृतमङ्गला सा हृदेकदेवाय लसत्सुवासः। (सुद०
२/१२) वासक (वि०) सुगन्धित करने वाला, धूप देने वाला, आबाद
करने वाला।
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वासक
९५८
वास्तुविद्या
वासकं (नपुं०) वस्त्र, परिधान। वासकणी (स्त्री०) प्रतियोगिता स्थल। वासगत (वि०) निवास को प्राप्त हुआ। वासज (वि०) सुगन्धित। वासतः (पुं०) गधा, गर्दभ। वासताम्बूलं (नपुं०) सुगन्धित पान। वासतेय (वि०) निवास करने योग्य। वासनन् (नपुं०) [वास ल्युट] सगन्धित करना. धप देना।
निवास करना, रहना, स्थित होना, पात्र, आधार। वासना (स्त्री०) [वास्+णिच्+युच्+आप] कामेच्छा।
०मिथ्याविचार, कुभावना, कुअभिलाषा।
०आदर, रुचि। वासन्त (वि०) वसंतकालीन। वासभवनं (नपुं०) निवासस्थान, घर। वासमन्दिरं (नपुं०) निवासस्थल, घर, मकान। वासयष्टिः (पुं०) सुगन्धित चूर्ण। वासरः (पुं०) दिवस, दिन। (वीरो० ४/२५, वीरो० १/२१) वासरं (नपुं०) देखो ऊपर। वास सज्जा (स्त्री०) घर की शोभा। वासस् (नपुं०) [वस् आच्छादने असि णिच्च] वस्त्र परिधान,
पोशाक, कपड़ा। (जयो० १३/६४) वासस्थितिः (स्त्री०) वस्त्र स्वरूप। (सुद० ११७) वासिः (पुं०/स्त्री०) [वस्+इञ्] छेनी, बसूला।
निवास, आवास, गृह, घर। वासित (भू०क०कृ०) [वास्+क्त] सुगन्धित, सुवासित, गंध
युक्त हुआ, तर किया गया। •वस्त्र धारक, परिधानयुक्त।
विख्यात, प्रसिद्ध, विश्रुत। वासितं (नपुं०) कलरव, गुनगुन, कूजना। वासिनी (स्त्री०) निलयभूता, परिशोधकारिणी। (जयो०१३/५८) वासिष्ठ (वि०) वशिष्ट सम्बंधी। वासिष्ठः (पुं०) वशिष्ट ऋषि की संतान। वासुः (पुं०) [सर्वोऽत्र वसति-वस्+उण] ०आत्मा।
परमात्मा।
विश्वेश्वर। वासुकिः (पुं०) एक नागराज। वासुदेवः (पुं०) वसुदेव की संतान कृष्ण। वासुपूज्यः (पुं०) बारहवें तीर्थकर वासुपूज्य। (भक्ति० १९)
वासुरा (स्त्री०) रात्रि, रजनी, रात। 'रात्रिरपिवान वासुरा न
रात्रिर्जाता' (जयो० १५/५४) पृथ्वी, भूमि। स्त्री। 'वासुरा वारितायास्यान्निशाभूम्याश्च वासुरा' इति
विश्वलोचन' (जयो०वृ० १५/५४) । वासू (स्त्री०) [वास्+ऊ] तरुणी, कुमारी, युवती। वास्तव (वि०) [वस्तु+अण्] सचमुच, यथार्थ में, सारयुक्त,
समीचीन।
निर्धारित, निश्चित। वास्तवा (स्त्री०) [वास्तव+टाप्] प्रभात, उषा, प्रात:काल,
अरुणोदय। वास्तविक (वि०) यथार्थ रूप, सारगर्भित, समीचीन।
स्वाभाविक, सच्चा। वास्तविकार्थ (वि०) तत्त्वार्थ। (जयोवृ० ३/६७) वास्तिकं (नपुं०) अज समूह। वास्तव्य (वि०) वास्तविक, यथार्थ, सचमुच, समीचीन। नो
चेत्परिस्खलत्येव वास्तव्यादात्मवर्त्मन:' (वीरो० ११/३९)
०[वस्+तव्यत्] निवासी, रहने वाला, रहने योग्य। वास्तव्यः (पुं०) आवासी, निवासी। गृही, गेही। वास्तव्यं (नपुं०) निवास, गृह, आवास।
०वसति, निवास स्थल। वास्तु (पुं०/नपुं०) गृह स्थान। 'वास्तु अगारम्' वास्तु च गृहम्
(त०७० ७/२९) घर बनाने का स्थल, भवनभूखण्ड। निवासस्थान। (जयो० १/५२)
०भूमि, गृह, आवास (जयो० ३/७१) वास्तुकलाः (स्त्री०) भूकला। भूमि पर निर्मित प्रासाद, भवन,
मन्दिर आदि की कला। वास्तुकः (पुं०) बथुआ, एक प्रकार की हरी सब्जी।
(जयो० २८/३४) वास्तुनीतिनिपुणः (पुं०) गृह निर्माण कला में प्रवीण। वास्तुविद।
(जयो० ३/७१) वास्तुमुखं (नपुं०) गृहमुख। 'वास्तुगृहं मुखं प्रधानम्'
(जयो० २/९७) वास्तुयागः (पुं०) घर का आधार शिला, वास्तु पद्धति। वास्तुवासस्थानं (नपुं०) निवास स्थल। (जयो०वृ० ३/६३) वास्तुविधानं (नपुं०) भूखण्ड सम्बंधी नियम। वास्तुविद्या (स्त्री०) गृह विद्या, यह एक ऐसी विद्या है जो गृह
निर्माण के सभी अंशों का खुलासा करती है।
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वास्तुशास्त्रं
९५९
विकथा
वास्तुशास्त्र (नपुं०) गृहनिर्माण शास्त्र। (जयो० २/६२)
विभाव, विकलता, विमोह विमान आदि में 'वि' अभाव वास्त्र (वि०) [वस्त्र+अण] वस्त्र से निर्मित।
को प्रकट करता है। वास्त्रः (पुं०) वस्त्राच्छादित यान।
कही कही पर 'वि' अव्यय वस्तु की विशेषता को व्यक्त वाह (अक०) उद्योग करना, प्रयत्न करना, चेष्टा करना। करता है। विशेष, विनियोजन, विकर्ष आदि। वाह (वि०) धारण करने वाला, ले जाने वाला।
'विः (पुं०/स्त्री०) [वा+इण] अश्व, घोड़ा। वाहः (पुं०) वाहन, यान, गाड़ी।
पक्षी। वीनां पक्षीणां भवेन सत्त्वेन (जयो० १८/४५, वाहकः (पुं०) कुली, भारवाहक।
भक्ति० १६) सहिता। (जयो०वृ० ३/११५) ०चालक, गाड़ीवान्, वाहक।
विंश (वि०) बीसवां। वाहनं (नपुं०) [वाह्यति-वह् णिच् ल्युट्] ०धारण करना, ले | विंशः (पुं०) बीसवां भाग। जाना।
विंशक (वि०) [विंशति+ण्वुन्] बीस। ०हांकना, ले जाना, ढोना, खींचना।
विंशत् (स्त्री०) बीस। सवारी, यान।
विंशतिः (स्त्री०) बीस, एक संख्या विशेष। आधार (सुद०११४) अश्वादि सवारी। (जयो०४/६३) विंशतिसर्गः (पुं०) बीसवां सर्ग। वाहसः (पुं०) [न वहति न गच्छति वह+असच्] ०जलमार्ग। विंशतिलक्षः (पुं०) बीस लाख। (समु० २/२०) ०अजगर।
विकम् (नपुं०) [विगतं कं जलं सुखं वा यत्र] व्याही गाय का वाहा (पुं०) बाहु, भुजा। (सुद० २/९)
दूध। वाहिकः (पुं०) [वाह ठक] बड़ा ढोल।
विकण्टकः (पुं०) [वि+कंक+अटन] एक वृक्ष विशेष। बैलगाड़ी।
विकच (वि०) [विकक+अच्] खिला हुआ, प्रफुल्लित, ०वाहका
फूला हुआ, विकसित। वाहितं (नपुं०) [वह+णिच्+क्त] भारी बोझ।
फैलाया हुआ, बखेरा हुआ। वाहित्थं (नपुं०) [वाह्नि-स्था+क] हाथी के लालट का निम्न विकचः (पुं०) केतु, बौद्ध भिक्षु। भाग।
विकट (वि०) [वि+कटच्] अत्यधिक, भयानक, भीषण, वाहिनी (स्त्री०) [वाहो अस्त्यस्या इनि+ङीप्] सेना, सैन्य डरावना, दुर्धर्ष। विकराल, कुरूप। समूह। (जयो० ७/९१)
विस्तृत, विस्तीर्ण, महान, विशाल। नदी, सरिता। (वीरो०४/२३) (जयो० १०८७) (जयो० ०प्रशस्त, व्यापक। ७/९८)
दारुण, खुंखार, वर्बर। वाहिनीनाथ (पुं०) समुद्र, सागर।
घमण्डी, अभिमानी, अहंकारी। वाहिनीश: (पुं०) समुद्र, रत्नाकर (दयो० १०४) ०सेनानी | विकटं (नपुं०) फोड़ा, घाव, अर्बुद, रसौली। (जयो० ६/११०)
विकत्थनं (नपुं०) [वि+कत्थ् ल्युट्] ०धौंस जमाना, मिथ्या वाह्य (वि०) बाहरी, बाहर का।
प्रशंसा। वाहिकः (पुं०) एक देश का नाम।
दर्पभाव, अहंकार पूर्ण कथन। वि (अव्य०) [वा+इण] यह धातु और संज्ञा शब्दों के पूर्व में | विकत्थन (वि०) आत्मप्रशंसक, स्वयं की प्रशंसा करने वाला,
जोड़ा जाता है। जिससे उसके अर्थ में परिवर्तन हो जाता __ अहंकारी, अभिमानी। है-विकीर्यते-में 'वि' उपसर्ग से फैलाने का अर्थ व्यक्त | विकत्था (स्त्री०) [वि+कत्थ्+अच्-टाप] मिथ्या प्रशंसा, झूठा होता है।
कथन, आत्मश्लाघा। विकथा-में प्रयुक्त 'वि' अव्यय से कथा का वह रूप ०व्यंग्योक्ति, दर्पोक्ति। सामने आ जाता है, जो विकार या उचित नहीं ऐसी | विकथा (स्त्री०) मिथ्या कथा, झूठी कथा, विरुद्ध कथा, संयम कथाएं आ जाती हैं।
विनाशक कथा। 'विरुद्धा संयमबाधकत्वेन कथा
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विकथानुयोगः
विकसः
निधारणा
वचनपद्धतिर्विकथा' (जैन०ल० ९९६) 'विरुद्धा विनष्टा । विकलचरणं (नपुं०) अणुव्रतादि का अपूर्ण पालन। वा कथा विकथा, सा च स्त्रीकथादिलक्षणा' | विकलता (वि०) विच्छिन्नता। (जयो० २३/६०) (जैन०ल. ९९६)
०दुःखमय अवस्था। विकथानुयोगः (पुं०) कामोत्तेजक कथाओं का प्रयोग।
किन्त्वद्यापि न वेत्सि तां विकलतां तन्नासि मोक्तं क्षमः। विकथाप्रपञ्चः (पुं०) विकथाओं का विस्तार, स्त्रीकथा, (मुनि० १९) भक्तकथा, राजकथा, चोरकथा आदि का विस्तार।
विकलप्रत्यक्षः (पुं०) परिमित ज्ञान होना, द्रव्य, क्षेत्र, काल अवादि कृत्वा विकथाप्रपञ्चं,
और भाव की अपेक्षा परिमितज्ञान होना। कौत्कुच्यमौखर्यकटूक्तिकं च।
विकलविकल्प (वि०) विकल्प से दूर। (वीरो० १७/४६) कुतः कदाचित् परिषत्क्रमे तत्,
विकला (स्त्री०) निर्धन, दरिद्र (जयो०५/१०७) अपरिपूर्णा सम्प्रार्थ्यते नाथा मृषा क्रियेत।। (भक्ति० ४६)
__ (जयो० २७/६१) विकम्प (वि०) [विशेषेण कम्पो यस्य] अधिक कांपने वाला,
विकला (स्त्री०) [विगतः कर्ता यस्याः] कला का साठवां भाग। अथिर चित्त वाला, चंचल, चलायमान।
विकलादेशः (पुं०) अंशों की कल्पना, साध्य विशेष का विकरः (पुं०) [विकीर्यते हस्तपादादिकमनेन वि+क+अप]
निर्धारण। विकार, रोग, व्याधि, बीमारी।
नयाधीन। विकलादेशः नयाधीनः। (स०स १/६) विकरणं (नपुं०) [वि+कृ+ल्युट] गणद्योतकचिह्न।
'निरंशस्यापि गुणभेदादंशकल्पना विकलादेशः'। (त०वा० विकरणपरिणामः (पुं०) जलदानलक्षण। (जयो०वृ० १५/४८)
४/४२) विकराल (वि०) भयानक, डरावना, भयपूर्ण। (दयो० ४०)
०बोधजनक वाक्य। विकर्णः (पुं०) [विशिष्टौ कौँ यस्य] एक कुरुवंशी राजकुंवर।
विकलित (वि०) व्यतीत, समाप्त। (वीरो० ६/३२) विकर्तनः (पुं०) [विशेषेण कर्तनं यस्य] ०सूर्य।
विकल्पः (पुं०) [वि+क्लप्+घब] ०भेद, प्रकार, विविधता। ०मदार पादप। विकर्मन् (वि.) [विरुद्ध कर्म यस्य] अनुचित रीति से कार्य
भूल, अज्ञान, अशुद्धि। करने वाला।
०कूटयुक्ति, मायाचार। ०पापकर्मी, निषिद्धकार्य वाला।
शंका, संदेह, अनिश्चय। विकर्मक्रिया (स्त्री०) अवैध कार्य, अनीतिपूण आचरण।
संकोच, हर्ष-विषाद रूप परिणाम। विकर्मगुणः (पुं०) अनैतिक गुण, दुराचरण।
विकल्पजालः (पुं०) अनिश्चयता का जाल, संदेह का जाल। विकर्मपद्धति (स्त्री०) दुश्चरण रीति।
(मुनि० २६) विकर्मस्थ (वि०) निषिद्ध कार्यों में रत।
विकल्पनं (नपुं०) [वि+क्लृप्+ल्युट्] ०संदेह में पड़ना, अनिश्चय विकर्षः (पुं०) [वि कृष्+घञ्] रेखांकन।
होना। तीर, बाण।
अनिर्णय की स्थिति, विशेष कल्पना, विशेष विचार। विकर्षणं (नपुं०) [वि+कृष्+ल्युट] रेखांकन, फेंकना, विक्षेपण।
प्रसूनबाणः स कुतो न वायुर्वेदी त्रिवेदीति विकल्पनायुः विकल (वि०) [विगतः कलो यत्र] ०दूर। (वीरो० १७/४६) (जयो० १/७६) रहित, शून्य, अभाव युक्त। (सम्य० ४१)
विकल्पना (स्त्री०) विशेष कल्पना। (वीरो० १७/२७) ०अपरिपूर्ण। (जयो० २७/६१)
विकल्पधी (स्त्री०) निर्णय रूप बुद्धि। विच्छिन्न, त्रस्त, डरा हुआ, भयभीत।
विकल्पबुद्धि (स्त्री०) संकल्प-विकल्प युक्त बुद्धि। (समु०३३) ०क्षीण, मुाया।
विकल्मषः (वि०) [विगतः कल्मषो यस्य] निष्पाप, विक्षुब्ध, क्लान्त, थका हुआ, कमजोर।
कलंकरहित, निर्दोष। विशुद्ध, ०पूर्णशुद्ध। ०उत्साहहीन, अवसन्न, हतोत्साह।
विकस् (अक०) विकसित होना, खिलना, हर्षित होना। सदोष, अधूरा। (दयो० ८८)
(सुद०८७) मनो विकसति नियति रेषा (सुद० १२४) ०अपाहिज, विकलांग।
विकसः (पुं०) [वि+कस्+अच्] चन्द्र, शशि।
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विकसित
९६१
विकिरणं
विकसित (भू०क०कृ०) [वि+कस्+क्त] प्रफुल्लित। प्रमुदित। उत्सुकता, उत्कण्ठा, हर्ष, आनन्द। (जयो० ३/९३), हर्षित।
एकान्तवास, एकाकीपन। उफुल्लित। (जयो०वृ० १४/८८)
विकाशक (वि०) विकसित करने वाला, प्रदर्शन करने वाला, विकाशील , हर्षयुक्त। खिला हुआ।
खिलने वाला। विकस्वर (वि०) [विकस्+वरच] खिला हुआ, विकासमान
विकाशनं (नपुं०) [वि+काश्+ल्युट्] प्रदर्शन, प्रकटीकरण। (जयो० १३/६१)
खिलना, प्रफल्लित होना। 'यदस्तुतच्चित्तसरोजसत्कलि०खुला हुआ, प्रफुल्लित।
विकाशनायार्कमहः किलाछलि। विकारः (पुं०) खोटा निमित्त। यतो मातुरादौ पयो भुक्तवान् तु
विकाशपरत्व (वि०) खिलने वाले। (समु० ७/२०) स न सिंहस्य चाहार एवास्ति मांस। विकारः पुनर्दुर्निमित्त
विकाशशील (वि.) खिलने वाले। (जयो० ९/१३) प्रभावात्समुत्थो न संस्थाप्यतां सर्वदा वा।। (वीरो० १६/२२)
विकाशिन् (वि०) [वि+काश+णिनि] दिखाई देने वाला, विकारः (पुं०) [वि+कृ+घञ्] विभाव परिणति।
चमकने वाला। विक्षोभ, उत्तेजना, उद्वेग।
खिलने वाला, प्रफुल्लित होने वाला। (जयो० ३/१३) विकृत परिणाम, राग-द्वेषादि भाव।
विकासः (पुं०) [वि+कस्+घञ्] खिलना, प्रफुल्लित होना, षडयन्त्र-'मनाङ्न भूपेन कृतो विचार: कच्चिन्महिष्याश्च
फूलना। भवेद्विकारः' (सुद०१०७)
खुलना, विकसित होना। (सुद० ७९) विषय-वासना, कामभाव। मनाङ् न चित्तेऽस्य पुनर्विकारः
विकासनं (नपुं०) [विकिस्+ल्युट्] फूलना, खिलना, खुलना। (सुद० ९९)
विकासयामास (वि०) विकास होने वाले। ०व्याधि, रोग, पीड़ा।
खिलने वाले, खुलने वाले। विकारकृत (वि०) वैचित्य पूर्ण। (जयो० १७/८२)
दिखने वाली। यूनो दृगाप्लावन हेतवे तु विकासयामास विकारगत (वि०) विक्षोभ को प्राप्त हुआ।
रतीशकेतुः। (सुद० १०१) विकारजन्य (वि०) विकृत परिणाम युक्त।
विकाससंकटी (वि०) विकास युक्त, खिलने वाले, हर्षित विकारविभी (वि०) विकारधारी। (जयो० ५/६६) विकारभावः (पुं०) विषय-वासना युक्त भाव। (भक्ति० २)
होने वाले। (समु० २/९) विकारशून्य (वि०) राग-द्वेषादि रहित।।
विकासिकुमाञ्जलि (स्त्री०) खिले हुए पुष्प समूह। (जयो० विकारि (वि०) व्याधिग्रस्त। (सुद० १०७)
३/१०७) विकारित (वि०) [वि+कृ+णिच+क्त] परिवर्तित, पथभ्रष्ट,
विकासिन् (वि०) हर्षित होने वाले, आनन्द को प्राप्त होने पतित, रोगी।
वाले, खिलने वाले। (जयो० ३/४९) विकारिन् (वि०) [वि+कृ+णिच्+णिनि] ०विकार युक्त,
विकासिहास (वि०) निकली हुई हंसी, प्रकट हुई हंसी। * पतित हुआ, राग-द्वेषादि (जयो० २/१५७) परिणामों (जयो० १३/९१) तत् सङ्गमोत्पन्नसुखानुभूत्या वाला।
विकासिहासच्छुरितेव तावत्। (जयो० १३/९१) 'विकासी ०संवेग युक्त। (सम्य० १९)
प्रकटतामाप्तो यो हासस्तेन' (जयो०वृ० १३/९१) विकालः (वि०) [विरुद्धः कालः] सन्ध्या।
विकिरः (पुं०) [वि कृ+अप्] बिखरा हुआ। दिनावसान, अस्ताचल।
गिरा हुआ, टूटा हुआ, पतित हुआ। ०काल को छोड़ना।
कुंआ। विकालिका (स्त्री०) [विज्ञातः कालो यया] समय का अभाव। विकाशः (पुं०) [नि+कश्+घञ्] खिलना, फूलना, विकसित | विकिरणं (नपुं०) [वि+वृ+ल्युट्] बिखेरना, फेलाना, होना। (जयो० ३/१३)
छितराना। प्रकटीकरण, प्रदर्शन।
ज्ञान, बोध।
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विकीर्ण
९६२
विक्रान्तिः
विकीर्ण (भू०क०कृ०) फैलाया हुआ। 'केशान् विकीर्णानपरा | विकेश (वि०) [विकीर्णाः केशा यस्य] बिखरे हुए बालों
प्रधर्तुम्।। (वीरो० ५/३९) बिखेरा गया, छितराया गया। वाला, गंजा। टूटना। (जयो० ८/३०)
विकेशी (स्त्री०) खले केशों वाली स्त्री। ०प्रसूत, उत्पन्न।
गंजी। विख्यात, प्रसिद्ध।
विकोश (वि०) [विगतः कोशो यस्य] ०म्यान रहित, बिना विकीर्णकेश (वि०) बिखरे हुए बालों वाला।
आधार का। विकीर्णमूर्धज (वि०) बालों को नोंचने वाला।
भूसी रहित, अनाच्छादित। विकीर्य (वि०) फैलाए हुए, बिखेरे हुए। (वीरो० ९/१५) विक्कः (पुं०) [विक्+कै+क] युवा हाथी, तरुण हस्ति। विकुण्ठः (पुं०) विगता कुंठा यस्य।
विक्रमः (पुं०) [वि+क्रम्+घञ्] ०शौर्य। (जयो० ६/८) स्वर्ग, परमधाम, ब्रह्मस्थान।
विक्रमादित्य। (वीरो० २२/१५) विकुर्वाण (वि०) [वि-कृ+शानच] परिवर्तित होने वाला।
पराक्रम, शक्ति प्रदर्शन, वीरता, बहादुरी। प्रसन्न, खुश, हर्ष, हृष्ट।
विक्रम संवत्। (वीरो० १५/४७) विकुस्रः (पुं०) चन्द्र, शशि।
०कदम, क्रम, परम्परा, डग भरना। निकूजनं (नपुं०) [वि+कुज्+ल्युट्] कूजन ०गुनगुनाना, विक्रमकर्मन् (नपुं०) पराक्रम का कार्य। कलरव करना। ०शब्द करना।
विक्रमणं (नपुं०) [विक्रम ल्युट्] चलना, कदम, डग भरना। ०चहचहाना।
विक्रमाङ्गित (वि०) साहसयुक्त। (जयो० २१/३८) विकूणनं (नपुं०) [वि+कूण+ल्युट्] तिरछी चितवन, कटाक्ष।
विक्रमातिशयः (पुं०) सहज पराक्रम संयुत। (जयो० २१/२९) विक् (सक०) बिखेरना, फैलाना-विकरोमि (जयो०४/३१)
विक्रमादित्यः (पुं०) उज्जैनी का प्रसिद्ध राजा। (सम्य०७/६)
विक्रमिन् (वि०) [विक्रमणिनि] ०पराक्रमी, शूरवीर बहादुर। विकृत (भू०क०कृ०) [वि+कृ+क्त] विकार युक्त। (जयो०
विक्रमिन् (पुं०) सिंह। ११/८५)
नायक। आक्रोशात्मक। (जयो० १८/३६) रोग व्याधि, पीड़ा। (जयो० १८/१९)
विष्णु।
विक्रय (वि०) [वि+की+अच्] बिक्री, बेचना। (सम्य० १५५) ०परिवर्तित, बदला हुआ। विरूपित, क्षत-विक्षिप्त।
विक्रयपत्रं (नपुं०) बिक्री पत्र।
नामा वही। ०अपूर्ण, अधूरा। ०बीभत्स, अनोखा, पराङ्मुख।
विक्रयस्थानं (नपुं०) आपणिका। (जयो०१० २/१३३) ०असाधारण।
विक्रयानुशयः (पुं०) बिक्री का खण्डन। विकृतं (नपुं०) परिवर्तन, सुधार।
विक्रयिकः (पुं०) [बिक्री+इकन] ०व्यापारी, व्यवसायी, विक्रेता। अरुचि, अश्रद्धा, विकार।
विक्रमः (पुं०) [वि+कस्+रक्] चन्द, शशि। जुगुप्सा, ग्लानि।
विक्रान्त (भू०क०कृ०) [विक्रम्+क्त] शक्तिशाली, शूरवीर, विकृतिः (स्त्री०) [वि+कृ+क्तिन्] भङ्ग। (जयो० ६/१९)
पराक्रमी। अरुचि, अश्रद्धा, रोग, विकार।
विक्रान्तः (पुं०) शूरवीर, योद्धा, बहादुर, जाबाज़। उत्तेजना, उद्वेग, क्रोध, रोष।
___ सिंह, केसरी। (जयो० ६/१०३) विकृष्ट (भू०क०कृ०) [वि+कृष्+क्त] ०खींचा हुआ, बाहर विक्रान्तं (नपुं०) पद, डग। किया हुआ, घसीटा हुआ।
घोड़े की चाल। ०आकृष्ट।
०पराक्रम। विस्तारित, फैलाया हुआ, विस्फारित।
विक्रान्तिः (स्त्री०) [विक्रम+क्तिन्] ०बहादुरी, पराक्रम,
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विक्रान्त
९६३
विखानसः
शूरवीरता।
०भीगा हुआ, अत्यंत गीला। कदमचाल, पग बढ़ाना।
सूखा, पुराना। विक्रान्त (वि०) [वि+क्रम् तृच] विजयी, बहादुर।
विक्लिष्ट (भू०क०कृ०) [वि+क्लिष्+क्त] ०अत्यंत दु:खी, विक्रान्तृ (पुं०) सिंह।
व्याकुल, परेशान, संत्रस्त। ०शूरवीर।
घायल, परितापजन्य। विक्रिया (स्त्री०) [वि+कृ+श+टाप्] ०अनुचित कार्य। विक्षत (भू०क०कृ०) [वि+क्षण+क्त] ०घायल, क्षत-विक्षत, (हित०११)
चोट ग्रस्त। विकार, निवृति।
फाड़ा गया, विदीर्घ किया गया। माया (जयो०वृ० ३/६८) छल-कपट।
विक्षावः (पुं०) [वि+क्षु+घञ्] ०खांसी, छींक आना। विक्षोभ, उत्तेजना, उद्वेग, जोश।
०ध्वनि। ०क्रोध, आवेग, गुस्सा।
विक्षिप्त (भू०क०कृ०) [वि+छिप्+क्त] बिखेरा हुआ, फेंका ०अप्रसन्नता, हर्षाभाव।
हुआ, छितराया हुआ। अनिष्ट, उल्लंघन।
०पदच्युत किया हुआ। गुण सामर्थ्य, अणिमादिशक्ति। जिस शक्ति के माध्यम उन्मत्त। (मुनि० ११) से छोटा-बड़ा आदि रूप धारण किया जा सके।
चालाक। (समु० ३/३२) ०ऋद्धि। (सम्य० २२)
०भ्रान्त। अनेक प्रकार के रूप धारण करना।
०व्याकुल, विक्षुब्ध, निराकृत। विक्री (सक०) बेचना, विक्रय करना। विक्रीयते-निष्करुणैर्मगीव' | विक्षिप्तता (वि०) पागलपन। (दयो० ७६) (सुद० ३/४०) (वीरो० ९/७)
विक्षीणकः (पुं०) देवसभा। इन्द्र परिषद्। विक्रीण (वि०) बेचना, विक्रय करना। यः क्रीणाति ज्ञमर्घमितीदं विक्षीरः (पुं०) [विशिष्टं विगतं वा क्षीरं यस्य] मदार का पौधा। विक्रीणीतेऽवश्यम्। (सुद०९१)
विक्षेपः (पुं०) [वि+छिप्+घञ्]० फेंकना, बिखेरना, डालना। विक्रीत (वि०) पणयित, बेचा गया। (जयो०वृ० २५/८७५) भेजना, प्रेषण करना। विक्रेय (वि०) [वि+की+यत्] बेचने योग्य, विक्रय करने योग्य। ०ध्यान हटाना, विचलित होना। विक्रोशनं (नपुं०) [वि+क्रुश्+ल्युट्] ०चीत्कार, चिल्लाना, ०पागल। विज्ञोऽपि विक्षेपमितिप्रथा नः (वीरो० १७/१५) पुकार, ढेर।
०हड़बड़ाना, व्याकुल होना। गाली देना।
भय, बेचैनी, निराशा। विक्लप (वि०) विचार करने वाला, सोचने वाला। (दयो०५२६) | विक्षेपणं (नपुं०) [वि+क्षिप+ल्युट] फेंकना, डालना, निकाल विक्लव (वि०) [वि+क्लु+अच] ०त्रस्त, भयभीत, डरा हुआ। बाहर करना। ०व्याकुल। (जयो० १३/३८)
भेजना, प्रेषण। घबराना। (दयो० ९२)
बिखेरना, फैलाना। विह्वल। रथवेगवशेनविक्लव:' समभूत्तत्र वरः समुत्सवः।' | विक्षेपणीकथा (स्त्री०) स्वमत-परमत की कथा। (जयो० १३/६९)
विक्षोभः (पुं०) [वि+क्षुभ्+घञ्] ०दुःख, पीड़ा। दुःखी, कष्टग्रस्थ, संतप्त।
०द्वन्द्व, संघर्ष। रोगग्रस्त, परास्त।
हलचल, हिलाना, ध्यान हटाना। ०हकलाने वाले, लड़खड़ाने वाला।
विखु (वि.) [नासिकायाः ख] नासिका रहित, नाक रहित। विक्लिन्न (भू०क०कृ०) [वि+क्लिद्+क्त] ०मुझाया हुआ, विखण्डित (भू०क०कृ०) [वि+खण्ड्+क्त] विभक्त किया क्लान्त।
हुआ, पृथक् किया हुआ, विभाजित। ०थका हुआ।
विखानसः (पुं०) एक साधु।
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विखुरः
९६४
विगीत
विखुरः (पुं०) पिशाच, राक्षस। चोर। विख्यात (भू०क०कृ०) [वि+ख्या+क्त] प्रसिद्ध, विश्रुत।
(सुद० ८३) कीर्ति, यश युक्त।
०श्लाघ युक्त, प्रशंसा युक्त। विख्यातिः (स्त्री०) [वि+ख्या क्तिन्] आत्मश्लाघा।
(जयो० २७/२२)
कीर्ति, यश, प्रसिद्धि विगणनं (नपुं०) [वि+गण+ल्युट्] गिनना, संगणन, हिसाब
करना, गणना करना। विचारना, सोचना, चिन्तन करना।
विचार विनिमय करना। विगत (भू०क०कृ०) [वि+गम्+क्त] ०चला गया, पलायन
कर गया, प्रयाण कर गया। ०लुप्त, रहित, समाप्त, नष्ट, वियुक्त।
विरहित, शून्य, मुक्त।
०खोया हुआ, धुंधला, विलीन, अस्पष्ट। विगत-कल्मष (वि०) निष्पाप, पवित्र, पूत। विगतकषाय (वि०) कषाय रहित। विगतखेद (वि०) खेद मुक्त। विगतगति (वि०) विमुक्त गति, सिद्ध। विगतगेह (वि०) घर रहित, अनगार प्रवृत्ति वाला। विगतगोत्र (वि०) गोत्र विहीन। विगतजन्म (वि०) जन्म से मुक्त। विगततप (वि०) तप से शून्य। विगतदान (वि०) दान प्रवृत्ति से रहित। विगत दोष (वि०) दोष रहित। विगतधन (वि०) निर्धन, धनहीन। विगतधर्म (वि०) धर्म से रहित। विगतनयन (वि०) नेत्र विहीन। विगतपंथ (वि.) पंथ विहीन। विगतबन्ध (वि०) बन्धनमुक्त। विगतबुद्धिबल (वि०) विवेकहीनत्व। (जयो० ९/१७) विगतभाव (वि०) भाव/स्वभाव से हीन। विगतमोह (वि०) मोह रहित, निर्मोही। विगतयोग (वि०) मन, वचन एवं काय इन योगों से अलग। विगतराग (वि०) वीतरागी, राग रहित।। विगतविषाद (वि०) विषाद रहित, खेद रहित। (जयो० २/१३७) विगतशील (वि०) शील रहित।
विगताधिकार (वि०) अधिकार रहित। (वीरो० २१/९) विगन्धकः (पुं०) इंगुदी तरु। विगमः (पुं०) [वि+गम्+अप्] प्रस्थान करना, अन्तर्धान होना।
समाप्ति, क्षत, अन्त, नष्ट। (मुनि० ७७) परित्याग।
०हानि, विनाश, क्षति। विगरः (पुं०) नग्न रहने वाला।
०पर्वत।
०असन त्यागी। विगर्हणं (नपुं०) [वि+गर्ह ल्युट] निन्दा, कलंक, भर्त्सना। विगर्हणीय (वि०) निन्दनीय। (वीरो० १७/१९) विगर्हित (भू०क०कृ०) [वि+गह+क्त] निन्दित। (समु०२/३४)
तिरस्कृत, अपमानित। फटकारा गया. प्रतिषिद्ध।
निम्न, दुष्ट। विगर्हिन् (वि०) जुगुप्सित। (जयो० २५/८)
निन्दित, अपमाश्रित। विगल् (अक०) पिघलना, टपकना, रिसना, बूंद बूंद गिरना।
(जयो०वृ० ११/८६)
०द्रवित होना। (जयो २/१५२) विगलनं (नपुं०) बहना, झरना, टपकना, पिघलना। (जयो०व०
११/८६) वगलित (भू०क०कृ०) [वि+गल्+क्त] झरता हुआ, पिघलता
हुआ, टपकता हुआ।
निःसृत्, प्रवाहित, अधः पतित। विगानं (नपुं०) [विरुद्धं गानं] निन्दा, भर्त्सना।
०मानहानि, बदनामी, अपमान।
०परस्पर विरोधी उक्ति, विरोध, असंगति। विगाल्याम्बु (नपुं०) गालित जल। (वीरो० १८/३८) विगाहः (पुं०) [वि+गाह्+घञ्] स्नान, नहान। विगिलन् (वि.) टपकता हुआ। (जयो०७०) विगीत (भू०क०कृ०) [वि+गै+क्त] निन्दा/गर्दा/भर्त्सना करता
हुआ। विरोधी। निन्दिता ०अपमानित।
अयुक्ति जन्य। कथन में न आने वाला।
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विगीतिः
९६५
विघ्नः
विगीतिः (स्त्री०) [वि+गै+क्तिन्] निन्दा, गर्हा, भर्त्सना। विग्रहगृहं (नपुं०) रणक्षेत्र। (जयो०७/६५) (त०वा० २/२५) विरोधी कथन।
विघट (सक०) विनाश करना, विभक्त करना। विपरीत कथन।
विघटनं (नपुं०) [वि+घट्+ल्युट] विनाश, विध्वंस, क्षति हानि। विगुण (वि०) [विगतः विपरीतो वा गुणो यस्य] गुण रहित, विभक्त, पृथक्करण। शून्य भाव, चिंतन विहीन।
विरोध। (जयो० ९/४८) अल्पगुण। (जयो० २२/१३)
विघटिका (स्त्री०) [विभक्ता घटिका यया] समय का माप। निकम्मा, बुरा।
विघटित (भू०क०कृ०) [वि+घट्+क्त]०वियुक्त, विभक्त, विगूढ (भू०क०कृ०) [वि+गूह+क्त] ०गुप्त, रहस्य पूर्ण,
विभाजित। आच्छन्न।
विनष्ट, प्रणष्ट। (जयो० २/१४८) छिपा हुआ।
विघट्टनं (नपुं०) [वि+घट्ट ल्युट्] घर्षण, रगड़, स्पर्श। भेद।
विभाग। निन्दित, निर्भत्सित। विगृहीत (भू०क०कृ०) [वि+ग्रह+क्त] विभक्त, भग्न किया
विघट्टित (भू०क०कृ०) [वि+घट्ट+क्त] हिलाया हुआ, हुआ, विघटित।
विलोया गया। विश्लिष्ट किया हुआ।
चोट पहुंचाया हुआ, आघात किया गया। पकड़ा हुआ, निगृहीत।
विवृत किया गया, ढीला किया हुआ। ०सम्मुख किया हुआ, सामना किया हुआ।
वियुक्त किया हुआ, विभक्त किया हुआ। विरोध किया गया।
विघनः (पुं०) [वि+ह्र+अप्] घन, हथौड़ा, प्रहारक। विग्रहः (पुं०) [वि+ग्रह+अप्] ०देह, शरीर। (जयो० ११/१२,
विघसः (पुं०) जूठन, अर्ध चर्वण। ६/११४) (जयो० ११/२८) प्रजापतेर्यः शिशुभावमाप्तोऽस्या भोजन। विग्रहात्स प्रथमोऽपि भावः। (जयो० ११/१२) 'विग्रहात् विघसं (नपुं०) मोम। पलायते शरीरन्निर्गच्छति। (जयो०७० ११/१२)
विघसाशः (पुं०) भुक्त का अवशेष, जूठन। संग्राम, युद्ध, लड़ाई। (जयो०० ६/११४) विग्रहे संग्रामे
| विघात (वि०) [वि+ह्न+क्त] तिरस्कार। (जयो० ९/७) (जयोवृ० ६/११४) सर्वत्र विग्रहे योऽनन्यसहायो व्यभात् हवन किया गया, नष्ट किया गया। स चेह रयात्। तव विग्रहेऽद्य मदनं सहायमिच्छत्यधीरतया।। विधातः (पुं०) विघ्न, बाधा, रुकावट। (जयो० ६/११४) प्रथम विग्रह का अर्थ संग्राम और
विनाश, नष्ट क्षति, हानि। द्वितीय पंक्ति के विग्रह का अर्थ शरीर है।
प्रहार, मारना, क्षति पहुंचाना। विस्तार, फैलाव, विस्तीर्णता, प्रसार।
परित्याग करना, छोड़ना। रूप, आकृति, आकार, प्रतिमा।
विघूर्णित (भू०क०कृ०) [वि+घूर्ण+क्त] ०दोलायित, चलायमान। •पृथक्करण, विघटन, विश्लेषण, वियोजन।
लुढ़काया गया, विचलित किया गया। ०कलह, झगड़ा, विशद, मनमुटाव।
विघृष्ट (भू०क०कृ०) [वि+घष्+क्त] रगड़ा हुआ, घिसा हुआ। ०अनुगह।
०पीड़ित, व्याकुलित। ०भाग।
विघ्नः (पुं०) [वि+ह+क] ०बाधा, हस्तक्षेप, रुकावट। हिस्सा, अंश, प्रभाग। ०अपराधो विग्रहः। विजय की इच्छा वाला।
(सम्य० ९५) विग्रहगतिः (स्त्री०) जीव की गति, शरीर गत पर्याय, कर्म
कठिनाई, कष्ट। शरीर ग्रहण। शरीर की अवस्था, नवीन शरीर की प्राप्ति।
अन्तराल (जयो० १०/१५) 'विरुद्धो ग्रहो विग्रहो व्याघात इति वा'
विनाश-'दानादिविहननं विघ्नः'
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विघ्नकर
९६६
विचारः
विघ्नकर (वि०) विरोध करने वाला, बाधा उत्पन्न करने
वाला, अवरोध कारक। विघ्नकरण (वि०) बाधक। ०अवरोधक। विघ्नकारिन (वि०) बाधाकारी, कष्टदायी, व्याकुलता उत्पन्न
करने वाला। विघ्नकृत् (वि०) अन्तरायकृत्। (जयो० १७/८२) विघ्नगत (वि०) कष्ट को प्राप्त हुआ। विघ्नजन्य (वि०) बाधा जनक। विघ्नध्वंसः (पुं०) कष्ट दूर करने वाला। विघ्ननायकः (पुं०) गणपति, गणेश। विघ्ननाशक (वि०) बाधा नष्ट करने वाला, कष्ट दूर करने
वाला। विघ्नविन (वि०) विघ्न बाधाएं। (जयो० २/३७) विघ्नपाप (वि०) पाप जन्य बाधा। विघ्नप्रतिक्रिया (स्त्री०) बाधाओं को दूर करना। विघ्नप्रसंग (वि०) हारिकारक बान्धव। विघ्नमोह (वि०) मोह की बाधा वाला। विघ्नलोपिन् (वि०) बाधा नाशक। (वीरो० १/६) विघ्नविनायकः (पुं०) गणपति, गणेश। विघ्नसंग्रहः (पुं०) विघ्नामुपडवाणां संग्रहं विध्नतो निवारयः।
(जयो० १९/८६) विघ्नसिद्धिः (स्त्री०) कष्ट दूर करना। विघ्नहर (वि०) नष्ट नाशक। (जयो० १२/२४) विनित (वि०) [विघ्न+इतच] कष्ट सहित, बाधा जनित। विङ्खः (पुं०) अश्व खुर। विच् (सक०) विभक्त करना, बांटना, विभाजित करना,
पृथक् पृथक् करना। विवेचन करना, विवरण देना, निरूपण करना। ०वञ्चित करना, हटाना।
विभाग करना, भेद करना। विचकत्व (वि०) केशलोंच युक्त। (जयो० १८/४६) विचकिलः (पुं०) [विच्+क, किल्क ] चमेली, मदन तरु। विचक्षण (वि०) चतुर, विद्वान्, बुद्धिमान, धीमंत, धीमति।
०मनोहर सुंदर। (जयो०७० ३/३७)
स्पष्टदर्शी, दीर्घदर्शी, सावधान, सचेत। विचक्षणं (नपुं०) [वि+चक्ष् ल्युट्] चतुर, निपुण, तेज।
(सुद० ११९) विचक्षणा (स्त्री०) बुद्धिमति, प्रवीणा, प्रज्ञावंता।
विचक्षणः (पुं०) [वि+चक्ष्+घञ्] ज्ञानी पुरुष, धीमान व्यक्ति,
बुद्धिमंत पुरुष। विचक्षस (वि०) [विगतं विनष्टं वा चक्षुर्यस्य] दृष्टि हीन,
समदर्शी, अंधा, नेत्रहीन।
व्याकुल, खिन्न। विचचार (भू०) विचारा गया, सोचा गया। (जयो० ४/२०) विचयः (पुं०) [वि+च+अप्] ०खोजबीन, अनुसंधान, शोध।
विवेक, विचारणा-'विचयनं विचयो विवेको विचारण मित्यर्थः' (स०सि० ९/३६) 'विचितिर्विवेको विचरणं विचयः' (त०वा० ९/३६) ०ध्यानदृष्टि-आज्ञाविचय, अपायविचय और संस्थानविचय।
(सम्य० ७९) विचयनं (नपुं०) विवेक, विचार, शोध, अनुसंधान, विचारणा। विचर् (सक०) विचारना, सोचना, विचरण करना। (जयो०
४/४८) (वीरो० १०/५३) विचरण (नपुं०) विहार, घूमना। (सुद०८८) विचर्चिका (स्त्री०) विशेषेण चळते पाणिपादस्य त्वक्
विदार्यतेऽनया [वि+चर्च्+ण्वुल+टाप्] खुजली, कर्कन्दु,
खाज। विसर्पिका। विचल् (अक०) चलना, इधर, उधर घूमना। (जयो० ५/१५) विचल (वि.) [वि+चल्+अच] इधर-उधर घूमाने वाला,
हिलने वाला, चलित। चंचल, चपल।
अभिमानी। विचलनं (नपुं०) [वि+चल्+ल्युट्] स्पन्दन, हलन-चलन,
स्फुरण, व्यतिक्रम।
अस्थिरता, चंचलता, अभिमान। विचारः (पुं०) [वि+च+घञ्] चिन्तन, मनन, सोच। (सम्य०
४५) चन्द्रिका। (सुद० २/४५) एताहगुत्साहिविचारदृब्धिरुदेति, चित्तेऽस्य विशुद्धिलब्धिः । (सम्य० ४५) ०परीक्षा, निर्णय, गवेषणा, खोज। न्यथावस्थित वस्तु की व्यवस्था। विवेचन, निरूपण, विवेक, तर्कना। ०अर्थ, व्यञ्जनं और योग का परिवर्तन। निश्चय, निर्धारणं चयन विवेक (जयो० १/३६) संदेह, संकोच, दूरदर्शिता, सतर्कता।
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विचारक
९६७
विचित्रदेह
विचारक (वि०) चिन्तनशील। मनन युक्त (जयो० २१/१९) विचारकर्ता देखो ऊपर। विचारकारिन् (वि०) विचारशील। (जयो० १२/५, दयो०३८) विचारचतुरः (पुं०) चिन्तनशील। (हित० ) विचारजात (वि०) चिन्तन को प्राप्त हुआ। (सुद० १०७)
विचारजाते स्विदनेक रूप,
जनेषु वा रोषमितेऽपि भूपे। (सुद० १०७) विचारज्ञ (वि०) निर्णायक, निश्चय करने योग्य। विचारणं (नपुं०) [वि+च+णिच्+ल्युट्]
चिन्तन, निरूपण, परीक्षा। समीक्षा, पर्यालोचन, अन्वेषण।
सन्देह, संकोच। विचारणा (स्त्री०) [वि+च+णिच्युच्+टाप्]
* परीक्षण, पर्यालोचन, अन्वेषण। (दयो० ७१)
पुनर्विचार, चिन्तन-मनन, अनुचिन्तन। (जयो० १३/४३)
०अनुशीलन। विचारणीय (वि०) चिन्तनीय। (हित० १६) विचारतत्त्वं (नपुं०) निर्णयात्मक तत्त्व। विचारदेहिन (वि०) विचारशील। विचारदृष्ट (वि०) पूर्वा पर विचार दृष्टि। (जयो० २३/३) विचारधारा (स्त्री०) चर्चा, चिन्तन की परम्परा, (जयो०वृ०
१/२३) तत्त्वनिर्णय का विवेचन। (सुद० १०७) विचारपद्धतिः (स्त्री०) चिन्तन की परम्परा, समीक्षण धारा,
निर्णय का रीति। विचारभाज (वि०) विचारशील। (सुद० १२९) विचाररहित (वि०) विचारहीन। (सुद० ११२) विचारय (वि०) सोचने वाला। (जयो० २/१४२) विचारयामास (वि०) मानने वाला। (जयो० १/२१) विचारहीन (वि०) चिन्तन रहित। (सुद० १०१) विचारिणा (स्त्री०) मनस्विना। (जयो० १०/७३) विचारभावः (पुं०) चिन्तन भाव। विचारलोपिन विचारलोपी (वि०) चिन्तन को क्षीण करने वाला। पक्षियों के ___संचार का लोप वाला। (वीरो० ९/३५) विचारवान् (वि०) चिन्तनयुक्त। (सुद० २/२) विचारवृद्धि (स्त्री०) चयन में वृद्धि। सोच का विकास।
(वीरो० १२१) विचारवतं (वि०) विचारशील। (समु० ८/३४)
विचारशील (वि०) चिन्तन युक्त। (जयो० ४/२५) विचारसारः (पुं०) तत्त्ववधान। (जयो० ४/६२) विचारस्थल (नपुं०) मनन का स्थान। विचाराधीनः (पुं०) विचारने योग्य। (सुद० ८२) विचारित (वि०) चिन्तन योग्य, सोचा गया। निश्चित, निर्धारित।
परीक्षित। विचारितवती (स्त्री०) सोचने वाली स्त्री। (दयो० ५४) विचार्य (वि०) विचारने योग्य। (सुद० १५) (सम्य०६८) विचिः (स्त्री०/पुं०) [विच्+इन्] ०लहर, तरंग। विचारहारः (पुं०) हृदयालङ्कार। (दयो० १४८६) विचाला (वि०) विचार वाली। (दयो० ११२) विचिकित्सा (स्त्री०) रुचि न रखना।
० मति विभ्रम, संदेह।
निन्दा, ग्लानि। भूल, विभ्रम। विचित्पणं (वि०) मूल्य रहित। पणं मूल्यं विगत। (जयो०
१०/६५) विचित (भू०क०कृ०) [वि+चि+क्त] ०खोजा, अन्वेषित। विचितिः (स्त्री०) [वि+चिक्तिन्] ०अन्वेषण, अनुसंधान,
परिशोधन।
०खोज, ढूंढना, तलाश करना। विचित्र (वि०) [विशेषेण चित्रम्] विविध प्रकार, बहुविध।
(जयो० ३/८०) नाना प्रकार, अनेक प्रकार का।
आश्चर्य जन्य, विश्मयकारी। चमत्कार कारक। (जयो० १/१४) (भक्ति० १०) रंगलिप्त, अनुरक्त।
सुंदर, रमणीय, मनोहर। (जयो० २/१५७) विचित्रं (नपुं०) आश्चर्य, विश्मय। विचित्रकः (पुं०) [विचित्र कन्] भोजपत्र तरु। विचित्रकं (नपुं०) आश्चर्य, विश्मय। विचित्रगात्रं (नपुं०) विश्मय युक्त शरीर।
मनोहर देह, सुंदर शरीर। विचित्रजन्मन् (नपुं०) विविध जन्म। विविध गति, नाना
उत्पत्ति। विचित्रजाति (स्त्री०) नाना प्रकार की उत्पत्ति। विचित्रदेहं (नपुं०) सुंदर शरीर।
नापिन
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विचित्रध्यानं
९६८
विज
विचित्रध्यानं (नपुं०) शुभाशुभ रहित ध्यान। विशुद्ध ध्यान, विच्छर्दित (वि०) [वि+छुद्+क्त] उगला हुआ, वमित। शुक्ल ध्यान।
विच्छाय (वि०) [विगताछाया यस्य] निष्प्रभ, धुंधला, छाया विचित्रभावः (पुं०) आश्चर्य युक्त भाव, चमत्कारपूर्ण भाव।
रहित। (सुद० १/२५)
विच्छायः (पुं०) रत्न, मणि, मुक्ता। विचित्रमाला (स्त्री०) रमणीय हार, मनोहारी।
विच्छित्तिः (स्त्री०) [वि+छिद्+क्तिन्] काटना, विच्छेद करना, विचित्ररत्न (नपुं०) नाना प्रकार के रत्न।
भेदन करना। • विभाजन, गणितीय विभाग। विचित्रराशि (स्त्री०) विविध राशियां।
०लोप, विराम, अभाव। विचित्रयोग (वि०) नाना प्रकार योग वाला।
०अन्तर्धान, अनुपस्थिति। विचित्रवस्तुगेहं (नपुं०) अजायबघर। (जयो० १८/४९) विच्छिन्न (भूक०कृ०) [वि+छिद्+क्त] छिपा हुआ, विचित्रवर्गः (पुं०) विचित्र आकार। (वीरो० ४/२०)
आच्छादित हुआ। विच्छिन्न आत्मभुविरागनगो विचित्रसंयोगः (पुं०) सुनिश्चित योग।
विनेतुरन्तर्मुहूर्तत इयान् पुनरभ्युदेतु।। (सम्य० १४७) विचिन्वत्कः (पुं०) [वि+चि+शतृ+कन्] ०खोज, अन्वेषण,
विभक्त, वियुक्त, विभाग युक्त। अनुसंधान।
समाप्त किया गया, नष्ट किया गया। ०बहादुर, जाबाज।
गुप्त, रहस्यमय। विचीर्ण (वि०) [विगता चेतना यस्य] निर्जीव, चेतना | विच्छिन्नता (वि०) विकलता। (जयो० २३/६०) रहित, शून्यगत, मृतक।
विच्चरित (भू०क०कृ०) [विच्छूर+क्त] ०ढका गया, छिपाया प्राणविहीन।
गया। विचेतस् (वि०) [विगतं चेतो यस्य] अज्ञानी, मूढ़। मूर्ख।
जड़ा गया, पोता गया, लीपा गया। ०संज्ञारहित, चेतनाशून्य।
फैलाया गया। ०व्याकुल, उदास।
विच्छेदः (पुं०) [वि+छिद्+घञ्] ०काटना, छेदना, भेदना। विचेष्टित (भू०क००) [वि+चेष्ट्र+क्त] ०महान्, चेष्टायुक्त।
०तोड़ना, विभाग करना। (जयो० १२/१४२)
विराम, रोक, हस्तक्षेप। चेष्टा करने वाला, उद्यमशील।
प्रतिषेध, हटाना। संघर्ष किया गया।
परिच्छेद, अनुभाग, अंश, भाग, हिस्सा। परीक्षण किया गया. गवेषणा की गई।
०अंतराल, अवकाश। ०दुष्कृता
विच्छेदरहित (वि०) अखण्ड अनपायिनी। (जयो०७० २/३८) विचेष्टितं (नपुं०) कर्म, कार्य, काम।
व्यनपायी। (जयो० १३/२७) प्रयत्न, प्रयास, उद्यम। ..
विच्युत (भू०क०कृ०) [वि+च्यु+क्त] ०अधः पतित, नीचे उद्योग, साहसिककार्य।
गिरा हुआ। संवेदना, षड़यन्त्र, प्रबन्ध।
विस्थापित, व्यतिक्रान्त, परित्यक्त। विच्छ (सक०) जाना, पहुंचना।
विच्युतिः (स्त्री०) [वि+च्यु+क्तिन] ०अधःपतन, स्खलन, विच्छन्दः (पुं०) [विशिष्टः छन्दोऽभिप्रायो यस्मिन] ०अनेक
वियोग। खण्ड वाला प्रसाद, उच्च प्रासाद।
बिछोह, क्षय, छति, हानि, विनाश। विच्छर्दकः (पुं०) [वि+छ्द्+ण्वुल्] प्रासाद, महल, उच्चभवन
विचलन, असफलता। राजभवन।
विज् (सक०) विभक्त करना, वियुक्त करना, भेद करना, विच्छर्दनं (नपुं०) [वि+छ्द्+ल्युट्] वमन, कै करना।
अन्तर पहचानना। उगलना।
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विज्
९६९
विजितं
विज् (अक०) विक्षुब्ध होना, कांपना, डरना।
दुःखी होना, कष्ट ग्रस्त होना। विजन (वि०) [वि गतो जनो यस्मात्] एकाकी, अकेला,
सेवानिवृत्त। विजनं (नपुं०) एकान्त स्थान, सुनसान शून्य स्थान। (जयो०
१३/६५) (वीरो० २१/२०) निर्जन। (जयो० २५/८६) विजनं स विरक्तात्मा गत्वाऽप्यविजनाकुलम्' (वीरो०
१०/२४) विजननं (नपुं०) [वि+जन् ल्युट्] जन्म, प्रसव, प्रसूति, उत्पत्ति। विजन्मन् (वि०) [विरुद्धं जन्म यस्य] विरुद्ध उत्पन्न होने वाला।
विजातीय उत्पत्ति वाला। विजपिल (नपुं०) [विज्+क, पिल+क] पंक, कीचड़, मल।
गारा। विजयः (पुं०) [वि+जि+घञ्] ०जीतना, हराना, परास्त करना।
जीत, फतह, जय यात्रा। •पोदनपुरी के राजा प्रजापति एवं रानी जया का पुत्र। विशाख भूतिर्नभसोऽत्र जातः प्रजापतेः श्री विजयो जयातः। मृगावतीतस्तनयस्त्रिपृष्ठनाम्नाऽप्यहं पोदनपुर्यथातः। (वीरो०
११/१७) विजयकरणं (नपुं०) शास्त्रार्थ विषय। (जयो०३० २२।८६) विजयकुंजरः (पुं०) लड़ाई का हाथी, जय हस्ति। विजगीषु (वि०) जीतने की इच्छा वाला। (जयो० १९/१६) विजयछन्दः (पुं०) एक हार विशेष। विजयडिडिमः (पुं०) सेना का विशाल ढोल। विजयता (वि०) विजय प्राप्त होने वाला। (सम्य० १५४)
विजयशील। (वीरो०१६/३०) विजयंतः (पुं०) इन्द्र। विजयनं (नपुं०) जय, जीत, विजय। (जयो० ७/१) विजयनगर (नपुं०) एक नगर विशेष। विजया (स्त्री०) मौर्यपुत्र की माता, सातवें गणधर की माता,
जय नामक तीसरी तिथि। (जयो०वृ०८/८८) मण्डिक गणधर की माता। पिताऽस्य नाम्ना धनदेव आसीत् ख्याता च माता विजया शभाशीः। (वीरो०१४/७)
विजयान्वित (वि०) जयेनान्वित, जय से पूर्ण हुआ।
(जयो० ८८८९) विजयार्द्धः (पुं०) विजयार्द्ध पर्वत। (जयो०७० २३/५) विजयिन् (पुं०) [वि+जि+इनि] विजेता, जीतने वाला। (सुद०
१३०) विजयिनी (वि०) जयकारिणी। (जयो० १८/५२) विजरं (नपुं०) [विगता जरा यस्मात्] वृक्ष का तना। विजरति (वि०) अतिवृद्धा (जयो० ३/५३) विजरत् (वि०) ज्वाला, लौ। (जयो० १३/५०) विजल्पः (पुं०) [वि+जल्प+घञ्] ऊट-पटांग, मूर्खतापूर्ण
बात, मुखरी वचन।
व्यर्थ प्रलाप, विद्वेषपूर्ण भाषण। विजल्पित (भू०क०कृ०) [वि+जल्प+क्त] ०कथित, प्रतिपादित,
निरूपित।
भाषित, कही गई बात। विजात (भू०क०कृ०) [विरुद्धं जातं जन्म यस्य] नीच
कुलोत्पन्न, वर्णसंकर।
उत्पन्न हुआ, जन्म को प्राप्त हुआ। विजातिः (स्त्री०) [विभिन्ना जाति] भिन्न प्रकार की जाति,
विषम, असमान। भिन्नवर्ण।
अन्य जन्म में उत्पत्ति। विजातीय (वि०) असमान, विषम, अन्य जाति वाला। विजिगीष (वि०) [वि+जि+सन+3] जीत का इच्छक, विजय
की इच्छा वाला। नीति एवं पराक्रम की इच्छा वाला। ०योद्धा, शूरवीर।
प्रतिद्वन्द्वी, प्रतिपक्षी। विजिगुषुकथा (स्त्री०) जय-पराजय संबंधी कथा। विजिज्ञासा (स्त्री०) [विज्ञा+सन्+आ] स्पष्ट जानने की
दुर्गा।
विजित (सक०) जीतना, विजय प्राप्त करना, परास्त करना,
हटाना। 'दैवं किन्तु निहत्य यो विजयते तस्यात्र संहारकः'।
(वीरो० १६/३०) विजित (भू०क०कृ०) जीता हुआ, विजय को प्राप्त हुआ,
हराने वाला, पराजित, निषेध (जयो० २/१२७) जितेन्द्रिय।
विजयादशमी-दशहरा। विजयोत्सव।
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विजितः
९७०
विज्ञानिक
विजितः (पुं०) [वि+ज+क्तिन्] विजय, जीत, फतह। विजित्य (सं०कृ०) जीतकर। (सुद० २/४८) विजिनः (पुं०) चटनी। विजिह्य (वि०) कुटिल, वक्र, मुड़ा हुआ। विजुलः (पुं०) [विज्+उलच्] शाल्मलि तरु, सेमलवृक्ष। विजृम्भ (अक०) जम्भाई लेना, उबासी लेना। (वीरो० ६/१२) विजृम्भणं (नपुं०) [वि+जृम्भ+ल्युट्] जम्भाई लेना, मुंह
खोलना, आलस्य चिह्न। (जयो०वृ० ६/३९) खिलाना, मुकुलित होना, उन्मुक्त होना। दिखलाना, प्रदर्शन करना, खोलना, फैलाना। मनोरंजन, आमोद-प्रमोद, रंगरेलियां मनाना।
अरुचिधारिणी। (जयोवृ०६/३९) विजृम्भित (भू०क०कृ०) [वि+जृम्भ+क्त] ०जंभाई ली।
विकसित फैलाया।
प्रदर्शित, दिखाया गया। विजृम्भितं (नपुं०) मनोरंजन क्रीड़ा, खेल प्रदर्शन * अभिलाषा,
वाञ्छा, चाह।
०कृत्य कार्य, कर्म, आचरण। विजेतुं (वि०+जि+तुमुन्) जीतने के लिए। (वीरो० २२/३३) विज्जनं (नपुं०) एक प्रकार की चटनी।
तीर, बाण। विज्जुलं (नपुं०) दालचीनी। विज्ञ (वि.) [विज्ञा+क] प्रज्ञ, विज्ञान।
जानकार, समझने वाला, सोचने वाला, समझदार। (दयो० १/९) निपुण, चतुर, प्रवीण, जानकार लोग। (सुद० १०७) ज्ञानी, मनीषी, विचारज्ञ। विज्ञो न सम्पत्तिषु हर्षमेति
(सुद० १११) विज्ञः (पुं०) बुद्धिमान् पुरुष। 'धर्मात्मतां विज्ञ उपेति' (सम्य०७०) विज्ञतुक (पुं०) विज्ञ का पुत्र। (वीरो० १७/३५) विज्ञप्त (भू०क०कृ०) [विज्ञप्+क्त] कथित, प्रार्थित, निरूपित। विज्ञा (वि०) चतुरा, विज्ञाय विज्ञा रुचिवेदने ताः। (वीरो०५/३४) विज्ञप्तिः (स्त्री०) [विज्ञप्+क्तिन्] प्रार्थना, अनुरोध, समाचार।
तर्कसंगत पदार्थ का ज्ञान। ०सादर उक्ति, घोषणा।
विज्ञभाषित (वि०) विद्वान् द्वारा कथित-विज्ञेन विदुषो भाषितं ___ कथितमिदम्' (जयो० ४/२५) विज्ञवर (वि०) श्रेष्ठज्ञानी। (वीरो० १२/४४) विज्ञात (भू०क०कृ०) [वि+ज्ञा+क्त] विदित, ज्ञात, जानकारी।
कलित। (जयो०वृ०८/९२) ज्ञान किया गया, अनुभूत।
विख्यात, प्रसिद्ध, विश्रुत। विज्ञानं (नपुं०) [वि+ज्ञा+ल्युट्] ०ज्ञान, अनुभूति, अनुभव,
(दयो० १०) प्रतीति, जानकारी, आत्म-ज्ञान। (दयो० ५९) परमात्म प्रतीति, वस्तु तत्त्व ज्ञान। (सम्य० १०६) ०भेद विज्ञान, वस्तुज्ञान, परमात्मज्ञान, विशुद्धात्म, प्रतीति (सम्य० १०७) ०अनध्वसाय, संदेह और विपरीत्ता से रहित ज्ञान।
स्व-पर-विषयक प्रतिभास। विशेषस्य ज्ञात्याद्याकारस्य ज्ञानमवबोधनं निश्चयो यस्य तद्विज्ञानम्' (जैन०ल० १००) ०व्यवसाय, प्रयोजन, नियोजन।
विवेचन, निरूपण, प्रतिपादन। विज्ञानगत (वि०) भेद विज्ञान को प्राप्त।
कैवल्यविशिष्ट ज्ञान (वीरो० ५/३३) विज्ञानगति (स्त्री०) ज्ञान की अवस्था। परमात्म ज्ञान की
स्थिति। विज्ञानज्योति (स्त्री०) भेद विज्ञान की प्रतीति। विज्ञानतत्त्वं (नपुं०) परमात्म तत्त्व, विशेष ज्ञान तत्त्व, सम्यग्ज्ञान
की विशेषता। विज्ञानधामं (नपुं०) परमज्ञान का स्थान। विज्ञानभातृकः (पुं०) बुद्ध। विज्ञानवादः (पुं०) बौद्ध सिद्धांत की एक शाखा। विज्ञानविद्या (स्त्री०) आध्यात्मविद्या (दयो०१०) विज्ञानविधायिन (वि०) अध्यात्म विधा युक्त। कथमस्तु ।
जडप्रसङ्गताऽखिविज्ञानविधायिना सता। (वीरो० ७) विज्ञानसंतुलित (वि०) भेद विज्ञान की एक रूपता वाली दृष्टि।
वीरस्तु धर्ममिति यं परितोऽनपायं, विज्ञानतस्तुलितमाह जगद्धिताय। तस्यानुयायिधृतविस्मरणादि दोषा,
द्याऽभूद्दशा क्रमगतोच्यत इत्यहो सा।। (वीरो० २२/१) । विज्ञानार्थ (वि०) विशेष ज्ञान के लिए। (जयो०वृ० २/४९) विज्ञानिक (वि०) [विज्ञान+ठन्] विद्वान्, ज्ञायक, जानकर।
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विज्ञापकः
९७१
विडम्बित
विज्ञापकः (पुं०) [वि+ज्ञा+णिच्+ण्वुल्] ०अध्यापक, शिक्षक, इत्युक्त। (वीरो०० ६/२७) उपदेशक।
शाखा, टहनी। प्रतिभाषक, संदेशक।
०झाड़ी, झुरमुट। विज्ञापनं (नपुं०) [वि+ज्ञा+णिच्+ल्युट्] सूचना, वर्णन, संदेश, विस्तार। जानकारी।
०कामुक, कामीजन। (जयो०वृ०३/११३) (जयो०१६/२२) वस्तु विशेषता का उल्लेख, शिष्ट कथन।
विटपत्व (वि०) शाखित्व। (जयो०८/३५) (जयो० २०/६२) प्रसारण, प्रचारण पद्धति।
विटपप्रपञ्चः (०) वृक्ष रूप विभाग, वक्ष की शाखाएं विज्ञापित (भू०क०कृ०) [वि+ज्ञा+णिच्+क्त] सूचित, प्रदर्शित, (सुद० १३२) कथित।
विटपविधानं (नपुं०) वृक्ष विधान। 'विटपानां वृक्षाणां विधानं प्रार्थित।
यत्र' (जयो०वृ०२०/६१) अनुरोध किया गया।
कामुक विधान। विटपानां कामिनां विधानम्'। (जयो०१० विज्ञाप्ति (वि.) [वि+ज्ञा+णिच+क्तिन] विज्ञप्ति, सूचना,
२०/६१) अनुरोध, प्रार्थना।
विटपिन् (पुं०) [विटप+इनि] वृक्ष समूह, वट वृक्ष, गूलर विज्ञाप्यं (नपुं०) [विज्ञा+णिच् यत्] सूचना, संदेश, प्रार्थना, तरु। अनुरोधा
विटपिभृगः (पुं०) बंदर, लंगूर। विज्ञाविज्ञ (वि.) ज्ञानी-अज्ञानी। (जयो० १९)
विटसङ्गः (पुं०) कब्ज, कोष्ठबद्धता। विज्वरः (वि०) [विगतो ज्वरो यस्य] ज्वरमुक्त, व्याधि रहित।
विटसारिका (स्त्री०) मैना। विंजामरं (नपुं०) आंखों की सफेदी, श्वेत भाग युक्त नयन।
विठङ्क (वि०) अधम, निम्न, नीच, बुरा। विंजोलिः (स्त्री०) रेखा, पंक्ति।
विठर (पुं०) बृहस्पति। विद् (सक०) ध्वनि करना, शब्द करना।
विड् (सक०) अभिशाप देना, दुर्वचन कहना, चिल्लाना। दुर्वचन कहना, निन्दा करना।
विडं (नपुं०) कृषिकर्म, खेती। निगद्यविड्भ्यः कृषिकर्म अभिशाप देना।
चायमिहार्थशास्त्रं नृपसंस्तवाय। (वीरो० १८/१४) विटः (पुं०) विष्ठा, पुरीष। (जयो०१० २५/२१)
कृत्रिम नमक, समुद्री नमक। प्रेमी, यार।
विडंगः (पुं०) वायविडंग, कमिनाशक औषधि। लम्पट, कामुक, कामीजन।
विडंग (नपुं०) वायविडंग। ०धूर्त, ठग, छली।
विडमक्ष्यवस्तुं (नपुं०) विष्टा रूप अभक्ष वस्तु। (वीरो० १९/४) मूषक।
विडम्बः (पुं०) [विडम्ब+अप्] दुःखी करना, संताप देना, नारंगी तरु।
कष्ट देना। विट्कारिका (स्त्री०) एक पक्षी विशेष।
विडम्बनं (नपुं०) [विडम्ब+ल्युट्] नकल, छद्मवेश, बनावटी विटङ्कः (पुं०) [विशेषेण टक्यते बध्यते इति-वि+टंक+घञ्] अजायब घर, चिड़ियाघर।
धोखेबाजी, छल-प्रपञ्च। कलश, कंगूरा, छत के ऊपरी भाग की चोटी।
क्लेश, कष्ट, संताप। चिह्न, मुद्रा।
०दुःख देना, निराश करना। विटङ्कित (वि०) [वि+टंक्+क्त] चिह्नित, मुद्रांकित।
उपहार, हंसी उड़ाना। विट्चरः (पुं०) पालतू सूअर।
विडम्बित (भू०क०कृ०) [विडम्ब+क्त] अनुकरण किया गया, विटपः (पुं०) [विटं विस्तारं वा पाति-पीबति-पा+क] वृक्ष,
परिहास किया गया। तरु-विटं कामिनं पाति रमतीति विटपोऽयं च विटपो वृक्ष' ।
वेश।
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विडशनं
(९७२)
वितान
-
* ठगा गया, छल किया गया।
वितंतुः (पुं०) अश्व, श्रेष्ठ जाति का घोड़ा। * कष्ट पहुंचाया गया।
वितरणं (नपुं०) पार जाना, अलग होना, छोड़ना। * अधम, निम्नता।
* वितरण करना, उपहार देना, दान, प्राभृत, भेंट। विडशनं (नपुं०) पुरीषभाषण। (जयो० २५/२१)
* तिलाञ्जलि देना, त्याग देना। विडारकः (पुं०) [विडाल+कन्, लस्य र:] बिलाब, बिल्ली। | वितरणचेष्टा (स्त्री०) त्याग प्रवृत्ति। (जयो०वृ० १२/११८) विडालः (पुं०) बिलाव, औतुन। (जयो० २३/५५)
वितर्कः (पुं०) [वि-त+अच्] युक्ति, तर्कसंगत कथन, विडालकः (पुं०) देखो ऊपर।
निश्चित विवेचना। (सम्ब० १४८) विडालजातः (पुं०) विलाब पुत्र। (जयो० २०/३०)
* विभङ्ग। (जयो०१० ३/१०) विडीजं (नपुं०) [वि+डी+क्त] पक्षियों की उड़ान।
* चिन्तन, समझ, विचार। 'किं करोमीति वितर्कमाप्त, विडुलः (पुं०) [विड्+कुलन्] बेंत।
(जयो०० २४/९०) विडूरज (नपुं०) [विज्र+जन्+ड] वैडूर्यमणि, नीलम।
* श्रुत ज्ञान, द्वादशांग रूप ज्ञान। सम्यक् रूप से ग्रहण विडोजस् (पुं०) [विट व्यापक अजो यस्य] इन्द्र।
किया गया विवेचन। विडोजस् देखो ऊपर।
विशेषेण विशिष्टं वा तर्कणं सम्यग्ग्रहणं वितर्कः श्रुतज्ञानम्।' वितंसः (पुं०) [वि+तंस्+घञ्] पिंजरा।
(जैन० १००) * रस्सी, श्रृंखला, सांकल।
* सन्देह, वस्तु में निर्णयात्मकता की कमी। * जाल।
वितर्ककारकः (पुं०) विवेचन का विषय। (जयो०वृ० १/२४) वितंडः (पुं०) [वितंड+टाप्] आक्षेप, छिद्रानुवेषण, दोषपूर्ण वितर्कगतः (पुं०) युक्ति युक्त, तर्कसंगत।
आलोचना, दार्शनिक कथन में निरर्थक तर्क-वितर्क। वितर्कणं (नपुं०) तर्क करना, विवेचन, निष्पादन। * चम्मच, सुवा।
वितर्कणा (स्त्री०) निरूपणा, विवेचना, व्याख्या, कथन। * गुगुल, धूप।
(वीरो०वृ० ३/६) वितत (भू०क०कृ०) [वि+तन्+क्त] * आयत, विशाल, वितर्कदृष्टिः (स्त्री०) विवेचन की दृष्टि। व्यापक, विस्तीर्ण, विस्तृत।
* संदेह की दृष्टि। * बिछाया हुआ, फैलाया हुआ।
वितर्कधरः (वि०) चिंतन युक्त। * निमग्न। (सुद० ९२)
वितर्कपात्रं (नपुं०) कल्पना पात्र। * चिन्तन शील। * सम्पन्न, निष्पन्न, कार्यान्वित।
वितर्कभावः (पुं०) विभङ्ग भाग। * विचार-परिणाम। * विस्तारित। (जयो० १३/४९)
वितर्कमतिः (स्त्री०) विचारशील बुद्धि। * आच्छादित, प्रच्छन्न, ढका हुआ।
वितर्कविधात्री (वि०) तर्क पैदा करने वाली। (जयो० ५/७४) विततः (पुं०) पटह शब्द, भेरी ध्वनि, सुघोष।
वितर्क विषयः (पुं०) अनुमान का विषय। (जयो० २/४९) विततिः (स्त्री०) [वि+तन्+क्तिन] * रेखा, पंक्ति। वितर्कसत्त्वं (नपुं०) न्यायशास्त्र। * परिमाण, संग्रह।
* वितर्कणा का विषय। (वीरो० ३/६) * गुल्म, लताझुण्ड।
वितर्दिः (स्त्री०) [वि+त+इन्] छज्जा, बरामदा। * विस्तार, प्रसार, फैलाव।
* चौकोतरा चबूतरा। वितथ (वि०) [वि+तन्+क्थन्] मिथ्या, झूठ, अलीक युक्त। वितलं (नपुं०) [विशेषेण तलम्] विशेष खण्ड, पृथ्वी का भाग। * निरर्थक, निष्प्रयोजन।
वितस्ता (स्त्री०) नदी। वितत्थ (वि०) [वितथ्यत्] मिथ्या, सारहीन, असत्य युक्त, वितस्ति: (स्त्री०) [वि+तस्+ति] बारह अंगुल का माप। दो निरर्थक।
__ पैर की दूरी-द्वाभ्यां पादाभ्यां वितस्तिः (जैन०ल० १०१) वितद्वः (स्त्री०) झेलम नदी।
वितान (वि०) फैलाना, विस्तार करना, प्रसार। वितनु (वि०) अनङ्ग, शरीर रहित। (जयो० ३/८८)
___ * चादर। (सुद० ११७)
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वितानकः
(९७३)
* चंदोबा, छत, छज्जा, बरामदा। (दयो० २/१०)
१/३८) विभव। (जयो०७० ३८) * संग्रह, परिमाण, समवाय, समूह।
प्राणादपीष्टं जगतां तु वित्तं, * यज्ञ, आहूति।
हर्तुळपायि स्वयमेव चित्तम्। * अवकाश, आराम, विश्राम।
स्वनिर्मितं गर्तमिवाशु मत, वितानकः (पुं०) प्रसार, फैलाव, विस्तार।
चौर्यं तदिच्छेत् किल कोऽत्र कर्तुम्।। (जयो० २/१३५) वितानकं (नपुं०) प्रसार।
समर्जितुं वित्तमथात्मनीनदोर्ष्यामिदानीं समभूत्प्रवीणः। * ढेर, समुच्चय, समुदाय, संग्रह, राशि।
(समु० ३/१) * शामियाना, चंदोबा, छत।
वित्तंसः (पुं०) पैसा, धन सम्पत्ति। (दयो० ८२) * वृक्ष विशेष।
वित्तगत (वि०) धन युक्त। वितीर्ण (भू०क०कृ०) [वि+त+क्त] अर्पित, समर्पित, दत्तवान,
वित्तद (वि०) दानी, दाता। दिया हुआ। (जयो० ३/९४)
वित्तदानं (नपुं०) धनदेना। * वितरण करता हुआ, देता हुआ।
वित्तमात्रा (स्त्री०) सम्पत्ति, सम्पदा। * अवतरित, नीचे आया हुआ।
वित्तयोगः (पुं०) धन का कारण।
वित्तवर्त्मन् (नपुं०) अर्थाजन, धन कमाना। (जयो० ३/१०) * पार किया हुआ, पास से गुजरा हुआ। * ढोया हुआ, लिया हुआ, ग्रहण किया हुआ।
वित्तविधि (स्त्री०) सम्पत्ति विधि। (सुद० ४/२४)
वित्तागमः (पुं०) धन का अधिग्रहण। वितीर्णवान् (वि०) दत्तवान्, देने वाला। (जयो०वृ० ३/९४)
वित्ति (स्त्री०) चिन्तन, निर्णय, ज्ञान, विवेचन। वितुन्नं (नपुं०) [वि+तुद्+क्त] सेवारघास, शैवाल।
वित्तीशः (पुं०) कुबेर। वितुन्नकं (नपुं०) [वितुन्न कन्] * धनिया।
वित्तोपार्जनं (नपुं०) धन अधिग्रहण। * तूतिया।
वित्रासः (पुं०) [वि+त्रस्+घञ्] भय, संकट, कष्ट, संताप। वितुष्ट (भूक०कृ०) [वि+तुष्+क्त] * असंतुष्ट, अप्रसन्न,
वित्सनः (पुं०) सांड, बलिवर्द। ___ संतोष रहित, आनन्द रहित।
विथ (अक०) निवेदन करना, प्रार्थना करना। वितृ (सक०) [वि+तृ] पहनाना। (जयो० १२/१२)
विथुरः (पुं०) राक्षस। * प्रयत्न करना। (सुद० ९२)
* चोर। * वितरण करना, देना, प्रदान करना। (जयो०१० ५/७५)
विद् (सक०) जानना, समझना, सोचना। विद्धि-जानीहि (जयो० * दान करना। (जयो० ९/१२)
२/८४) * बांटना। (वितरीतुं (जयो०५/२)
* चिंतन करना, ज्ञात करना, मालूम करना। वितृष्ण (वि०) [विगता तृष्णा यस्य] तृष्णा रहित, इच्छाओं
* विचार करना। त्व ब्राह्मणोऽसि स्वयमेक विद्धि। (वीरो० से मुक्त।
१४/३५) * संतुष्ट, प्रशान्त, व्याकुलता रहित।
* अनुभव करना, मानना। वित्त (सक०) उपहार देना, भेंट देना, समर्पित करना, प्रदान
* अवगत करना, बतलाना। (सुद० २/३४) करना।
* व्याख्या करना, निरूपण करना। वित्त (भू०क०कृ०) [विद् लाभे क्त] * लब्ध, प्राप्त, गृहीत। * सावधान करना, सूचित करना। (सुद० ९७) * परीक्षित, अनुसंहित।
* उपलब्ध करना, प्राप्त करना। * विख्यात, प्रसिद्ध, विश्रुत।
* निवेदन करना, कहना, प्रकथन करना। (जयो० ) * पाया, प्राप्त किया।
विद् (वि०) ज्ञान, समझ, बोध। (जयो० १/९५) वित्तं (नपुं०) धन, सम्पत्ति, वैभव। एकैकया कपर्दिकया खल * विद्वान् पुरुष, बुद्धिमान, विवेक। (सम्य० ५८)
वित्तं बहुविचित्रम्। (जयो०२३/५९) धन, वस्तु। धात्रीफलं | विद् (पुं०) बुधग्रह। केवलमश्नुवानः कौपीनवित्तोऽरिरिवेशिता नः। (जयो० * विद्वान, विज्ञ।
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विदः
९७४
विदृति
विदः (स्त्री०) ज्ञान, बुद्धि, प्राज्ञ।
* बुधग्रह। (सम्य० १०७) विदग्ध (भू०क०कृ०) [वि. दह+क] * जला हुआ, भस्म
हुआ, जली हुई। (जयो० ५/२५) * नष्ट हुआ, समाप्त हुआ। * चतुर, निपुण, कुशल, कुशाग्रबुद्धि। * सूक्ष्मदर्शी, तत्त्वदर्शी।
* भस्मीभूत। (जयो० १२/७०) विदग्धः (पुं०) कलाविद्, विद्याभ्यासी। विदग्धकषायिन् (वि०) कषाय को नष्ट करने वाला। विदग्धक्षोभ (वि०) क्षोभ नाशक। विदग्धचेतना (वि०) चेतनाशून्य, निष्प्राण। विदग्धजन (वि०) कुशाग्रजन, बुद्धिमान। विदग्धपरिकर (वि.) चारों ओर से जलने वाला। (दयो०६६) विदग्धनीति (स्त्री०) अच्छी नीति। विदग्धवन (वि०) जलता हुआ अरण्य। विदग्धारण्य (वि०) देखो ऊपर। विदथः (पुं०) [विद्कथच्] विद्वान्, नीतिज्ञ, विद्याभ्यासी।
___ * यति, मुनि। विदधत् (भ०) तपाया हुआ। (सुद० ३/१४) विदरः (पुं०) [वि+दृ+अप्] तोड़ना, काटना।
* विदीर्ण करना। विदरं (नपुं०) कंकरी तरु। विदर्भः (पुं०) विदर्भक्षेत्र।
* मरुभूमि। विदर्भजा (पुं०) विदर्भ राजपुत्री। विदल (वि०) [विघट्टितानि दलानि यस्य-वि+दल-एक] टुकड़े
टुकड़े हुए। खुला हुआ, खिला हुआ। विदलः (पुं०) विभक्त करना, अलग करना। विदलमं (नपुं०) [वि+दल ल्युट्] फाड़ना, चीरना, अलग
अलग करना।
* विभक्त करना, विभाग करना। विदाननं (नपुं०) सरस्वती मुख। (जयो० ) विदारः (पुं०) [वि+दृ+घञ्] फाड़ना, चीरना।
* भेदना, विभक्त करना।
* संग्राम, युद्ध, लड़ाई। विदारकः (पुं०) [वि+ट्ट+ण्वुल्] चट्टान।
विदारक (वि०) भेदक, फाड़ने वाला, टूक-टूक करने वाला। ___ (दयो० ६४) विदारणः (पुं०) नदी के मध्य स्थित चट्टान। विदारणं (नपुं०) फाड़ना, चीरना, मारा जाना। (जयो० २/११२)
* भेदन। (जयो० २/५) विदारणा (स्त्री०) युद्ध, संग्राम। ___ * कष्ट, संताप, दु:ख।
* वध, हत्या। विदारयेत्-विदीर्ण करना चाहिए। (सम्य० ९९) विदारित (वि०) विदीर्ण, खण्डित, विभाजित। (जयो० १३/२६) विदारु (स्त्री०) छिपकली गृहकोकिला। विदित (भू०क०कृ०) [विद्+क्त] * ज्ञात, समझा हुआ,
सीखा हुआ। * सूचित संदेशित।
* विश्रुत, विख्यात, प्रसिद्ध। विदितः (पुं०) विद्वान् पुरुष। विदिश (स्त्री०) [दिग्भ्यो विगता] दो दिशाओं का मध्यवर्ती
बिंदु। विदिशा (स्त्री०) दशार्ण प्रदेश की राजधानी, भेलसा। विदीर्ण (वि०) [वि+दु+क्त] * खण्डित. विदारित. विस्फालित।
* भेदित, फैलाया गया।
* खोला गया, फाड़ा गया। विदुः (पुं०) हस्ति ललटा। * विद्वान्। 'उषसि दिगनुरागिणीति ___पूर्वा रविपि हृष्टवपुर्विदो विदुर्वा' (जयो० १०/११६) विदुर (वि०) बुद्धिमान्, विद्वान्। विदुरः (पुं०) पाण्डु के छोटे भाई का नाम। विदुलः (पुं०) [वि+दुल्+क] बेंत। विष (वि०) विद्वान्, बुद्धिमान्। (हित०१४) (सुद०८०)
'येन सधर्मो विदुषामत:' गतं न शोच्य विदुषा समस्तु।
(वीरो० १४/३४) विदुषी (वि०) बुद्धिमति। (जयो०वृ० ११/२०) विदूषक (वि०) [विदूषयति स्वं परं वा-वि+दूष्+णिच्+ण्वुल्]
दूषित करने वाला। मलिन करने वाला।
* रसिक, मसखरा, ठिठोलिया। (वीरो० ६/३७) विदूषकः (पुं०) ०हंसोड़ा, भांड, रसिक व्यक्ति परिहासक। विदूषणं (नपुं०) [वि+दृष्+ल्युट] *दुर्वचन, दुर्व्यवहार, परिवाद। _ * दोष लगाना, भ्रष्ट करना। विदृति (स्त्री०) सन्धिा
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विदेशः
९७५
विद्यार्थिन
विदेशः (पुं०) [विप्रकृष्टो देशः] परदेश, अन्य प्रान्त, दूसरा
देश।
विदेशीय (वि०) परदेशी, अन्य देश वाला। विदेहः (पुं०) जो शरीर संस्कार से रहित है।
* नष्ट शरीर वाले मुनियों के विदेह होता है। पूर्वापर
विदेहक्षेत्र। (जयो० २४/७) विदेहक्षेत्रं (नपुं०) विदेह स्थान। (वीरो० ११/२५) विदेहजनपद (पुं०) विदेह नामक जनपद। विदेहदेशः (पुं०) जम्बूद्वीप का एक स्थल। विदेहनिष्ठ (वि०) पूर्व विदेह में स्थित। (वीरो० ११/२५) विदेहभावः (पुं०) शरीर का विकारी भाव। (वीरो० २/९) विदेहा (स्त्री०) मिथिला नगरी। (सम्य० ९३) विद्ध (भू०क०कृ०) [व्यध्+क्त] बींधा हुआ, चुभा हुआ।
विद्धेय (सुद० १०४) * घायल। (सुद० १०५)
* निदेशित, प्रेषित। विद्धं (नपुं०) घाव। विद्धकर्ण (वि०) छिदे हुए कान वाला। समझें। विद्यः (स्त्री०) विद्या ऋद्धि। (जयो० २३/८६) विद्या (स्त्री०) [विद्+क्यप्+टाप्] वृत्त, शास्त्रसार। (जयो०७०
२४/१४४) * शिक्षा, ज्ञान, अवगम, बोध। (जयो० १/६) विद्वद्भिः का सा बन्धा। (जयो० २८/१०७) * शास्त्रोपजीवन, साधितसिद्धि। * यथार्थ ज्ञान, अध्यात्म ज्ञान, त्रयी वार्ता।
* वाद, विचार। (जयो० वृ० १/६) विद्यमान (वि०) वर्तमान। विद्यमातत्व (वि०) वर्तमान में स्थित। (हित० १४) विद्याकर्मन् (नपुं०) असि, मषि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प और
विद्या ये छह विद्या कर्म हैं। (हित०१०) विद्याकर (पुं०) विद्वान्, पुरुषा विज्ञजन। विद्याकार्यः (पुं०) बहत्तर कलाओं में निपुण पुरुष एवं
चौसठ कलाओं में प्रवीण नारी। विद्याचारणा (स्त्री०) विद्या शक्ति। विद्यादानं (नपुं०) ज्ञानदान, शिक्षा देना, ज्ञानाभ्यास कराना। विद्यादेवी (स्त्री०) सरस्वती, विद्याधारी।। विद्यादोषः (पुं०) विद्या/ज्ञान में दोष, ज्ञान को दूषित करना। विद्याधनं (नपुं०) ज्ञानधन, ज्ञानसम्पत्ति।
विद्याधरः (पुं०) देवयोनिगत विद्या विषयक ज्ञानी।
* अम्बरचारी (जयो०७० ६/१२) विजया पर्वत पर
रहने वाले मनुष्य। विद्याधरलोकः (पुं०) विद्याधरों का क्षेत्र। (समु० २/५) विद्याधरी (स्त्री०) विद्याधर की भार्या। विद्याधृत् (पुं०) विद्याधर, खेचर। (जयो० ८/४५) विद्याध्ययनं (नपुं०) विद्या प्राप्ति। (दयो० ९१) विद्यानन्दः (पुं०) आचार्य विद्यानन्द, अष्ट सहस्त्री के रचनाकार।
(जयो० ६/५) (जयो० २२/८४) * आधुनिक २०वीं एवं २१वीं शताब्दी में प्रविष्ट आचार्य विद्यानन्द जिनकी आयु
७८ वर्ष की भी है। विद्यानन्दसत्कृति (स्त्री०) विद्यानन्द द्वारा रचित अष्ट सहस्त्री
(जयो० २२/८४) विद्यानन्दविवर्णिता (वि०) विद्यानन्द द्वारा रचित अष्टसहस्त्री।
(जयो० ३/८७७) विद्याया आनन्देन विकीर्णता अष्टसहस्री। विद्यानन्दि (०) आचार्य विद्यानन्दि। विद्यानुयोगः (पुं०) विद्याभ्यास। (वीरो० १८/३२० विद्यानुवादः (पुं०) परिज्ञान विद्या, विद्यानुप्रवाद, विद्यानुयोग
आदि। जिस श्रुत में समस्त विद्याओं, आठ महानिमित्तों, उनके विषय, राजुराशि के विधान, क्षेत्र, श्रेणी, लोकस्थिति, संस्थान और समुद्घात का कथन किया जाता है। 'ओं णमो दसपुवीणं सद्भयो विधानुवादतः। णमो चोदसपुव्वीणं श्रुतज्ञानेन सम्भृतः। (जयो० १९/६७) विद्यानुवादत्योऽपि विद्यानुवादस्य पूर्वस्य परिज्ञानाद्विद्यानां रोहिण्यादीनामनुवादतः।
(जयो०वृ० १९/६७) विद्यानुयोगः (पुं०) दशम पूर्वश्रुत। विद्यापदं (नपुं०) ज्ञान पद। विद्यापिण्डं (नपुं०) विद्या का मन्त्र तन्त्रादि का प्रयोग करके
आहार प्राप्त करना। विद्याप्राप्तिः (स्त्री०) ज्ञान की उपलब्धि। विद्याभ्यासः (पुं०) ज्ञानाभ्यास। (दयो० ५५) विद्यामदं (नपुं०) विद्या का अभिमान। विद्यमानं (नपुं०) विद्या/ज्ञान का सम्मान। * ज्ञान का अहंकार। विद्यमोदः (पुं०) विद्याओं से आनंद। विद्यायोगः (पुं०) ज्ञान योग। विद्यारत्न (नपुं०) * उत्कृष्ट विद्या, * उत्तम विद्या। विद्यानुरागः (पुं०) शिक्षा के प्रति अनुराग। विद्यार्थिन् (वि०) विद्या का इच्छुक। (जयो०वृ० १५/२५)
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विद्यालयः
९७६
.
विद्वेषणं
विद्यालयः (०) शिक्षा केन्द्र, यत्र नास्ति कोऽपि विद्यालयः विद्योतन (वि०) [वि+द्युत्+णिच् ल्युट्] प्रकाश करने वाला, समस्ति किलैको गुरुयो।
चमकाने वाला। विद्यालाभः (पुं०) ज्ञानलाभ में, श्रुतलाभ, प्रवचन लाभ। विद्रः (पुं०) [व्यध्+रक्] फाड़ना, विदीर्ण करना, खण्ड __ आगम के प्रति रुचि।
खण्ड करना। विद्यावान् (वि०) विद्या प्राप्ति वाला, विद्वान्, प्रज्ञ पुरुष।
* दरार, छिद्र, विवर। विद्याशील (वि०) विद्या युक्त। * ज्ञान वेत, * विचारक। विद्रधिः (स्त्री०) [विद्+रुध्+कि] पीपयुक्त, फोड़ा, मवादयुक्त विद्यसरित् (स्त्री०) विद्यारूपी नदी। (समुः ५/३०) फोड़ा। * प्रवाहिनी विद्या।
विद्रवः (पुं०) [वि+द्रु+अप्] उड़ान, प्रत्यावर्तन। * गतिशील विद्या।
* आतंक। विद्यासिद्धः (पुं०) विद्याओं का अधिपति।
* प्रवाह। विद्युत् (स्त्री०) [विशेषेण द्योतते-विद्युत्+क्विप्] अशनि * पिघलना, गलना, बहना।
(जयोवृ० ५/३६) बिजली, चपला। रत्त-धवल- | विद्राण (वि०) [विद्रा+क्त] उबुद्ध, जागृत, सचेत।। समवण्णाओ तेजब्भहियाओ कुवियभुजंगोव्व चलंतसरीरा विद्रावणं (नपुं०) [विद्रु+णिच्+ल्युट्] उद्बुद्ध करना, जागृत मेहेसु उवलब्भभाणाओ विज्जुओ णाम। (धव० १४/३५) करना। जो रक्त, धवल एवं श्याम वर्ग से संयुक्त चंचलप्रभा * खदेड़ना, भगाना। उत्पन्न होती है उसे विद्युत कहते हैं। जो कोप रूपी भुजंग * परास्त करना, दूर करना। के मेघ से उत्पन्न होती है।
* गलाना, पिघलाना, बहाना। विद्यत्वरः (पुं०) पूर्वक्षणे चौरतयाऽतिनिंद्यः स एव विद्रुमः (पुं०) [विशिष्टो द्रुम] मूंगा, प्रवाल। (जयो० ३/२५) पश्चाज्जगतोऽभिवन्धः। (वीरो० १७/२)
(वीरो० ३/३१) * किसलय, कोंपल, पराग। विधुच्चोरः (पुं०) विद्युत नामक चोर, जिसने अपना चौर्यकर्म विगुमच्छायः (पुं०) प्रवालच्छाय। (जयो० ९१/५९)
छोड़कर जम्बू कुमार के साथ पांच सौ साथियों सहित विदूमता (वि०) किसलयता, कोंपल रूपता। (जयो०५/८८) श्रमणदीक्षा धारण कर ली थी। (जयो० २३/७०) विद्रुमलता (स्त्री०) मूंगे की शाखा। हिरण्वमुनि और प्रभावती आर्यिका का शत्र। विद्रुमलतिका (स्त्री०) विद्रुम लता। (जयो० २७/७०)
विद्वस् (वि०) [विद्+क्वसु] विद्वान्, विज्ञ, जानकार, ज्ञानी। विद्युच्चोरोऽप्यतः पञ्चशतसंख्यैः स्वसार्थिभिः।
विद्वज्जनः (पुं०) प्रज्ञा पुरुष। समं समेत्य श्रामण्यमात्मबोधमगादसौ।। (वीरो० १५/२६) विद्वत्कल्प (पुं०) अल्पज्ञानी, थोड़ा पढ़ा हुआ। विधुज्ज्वाला (स्त्री०) बिजली की चमक।
विद्वद्देश्य (वि०) अल्पज्ञानी। विद्युज्ज्योति (स्त्री०) * विद्युत प्रभा, * प्रकाश, * आभा। विद्ववर (वि०) ज्ञानी, बुद्धिमान्। (जयो० ३/२३) विद्युत्द्योतः (पुं०) बिजली की प्रभा।
विद्वान् (वि०) ज्ञानी, जानकर, प्रज्ञ, विवेकी, ज्ञातवान्। (जयो० विद्युत्तावः (पुं०) बिजली का संताप।
३/८५) विद्युद्दानं (नपुं०) बिजली की कड़क।
विद्वानपद (वि०) अयोग्य स्थान। (जयो० २/१४०) विद्युत्प्रभा (स्त्री०) नाम विशेष। * विद्युज्योति।
विद्विष् (वि०) [वि+द्विष्+क्विप्] शत्रु, दुश्मन। * बिजली की चमक। रत्नपुर के राजा पिंगलागान्धार की विद्विण्ट (वि०) घृणित, निन्दित, कुत्सित, अनीप्सित। पुत्री (जयो० २४/१०५)
विद्वेषः (पुं०) [वि+द्विष्+घञ्] * शत्रुता, घृणा, कुत्सा, द्वेष, विद्युत्प्रियं (नपुं०) कांसा।
ग्लानि। विद्युल्लता (स्त्री०) बिजली का प्रकाश।
* गर्दा, तिरस्कार भाव। विद्युल्लेखा (स्त्री०) बिजली की रेखा, प्रकाश किरण। विद्वेषणं (नपुं०) [वि+द्विष ल्युट] घृणा, ग्लानि, गर्ला। विद्युत्वत् (वि०) बिजली की तरह।
* विरोध। (जयो० १९/८८)
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विद्वेषणः
९७७
विधिज्ञ
विद्वेषणः (पुं०) शत्रु, दुश्मन। विद्वेषणा (स्त्री०) घृणा करने वाली स्त्री। विद्वेषिन् (वि०) [वि+द्विष्+णिनि] घृणा करने वाला, गर्दा
युक्त।
* विधायक। (सुद० ९२)
रात्रिः स्वतो घोरतमो विधानी। विधातुं (वि+धा+तुमुन्) * बनाने के लिए। (जयो० ८/६३)
* निर्माण करने के लिए। (जयो० ३/९०)
* स्त्री करने के लिए। (जयो० १/७८) विधानं (नपुं०) [विधा+ल्युट्] * अनुकरण। (सुद० २/११)
* विधि। (सुद० १/१६) (सुद० १/४२) * नियम, पद्धति, रीति, उपदेश। (सम्य० १५२) * अध्यदेश, आज्ञा। * प्रतीति। (सुद० १/१३) * उपयोग, प्रयोग, नियोजन।
* नियत करना, आदेश देना। विधानकं (नपुं०) [विधान+कन्] दुःख, कष्ट, पीड़ा। विधाप् (सक०) बनाना, रचना, निर्माण करना। (जयो० २/१४) विधायक (वि०) [वि+धा+ण्वुल] बिलौना।
* विधान सभा का सदस्य, जो जन प्रतिनिधि भी कहलाता
विद्वेषिन् (पुं०) शत्रु, घृणक, दुश्मन, परिहासिन्। (जयो०३०
२/१०२) * विरोधक। (जयोवृ० ८/९६) विधः (पुं०) [विध+क] प्रकार, तरह, किस्म, विविधा, बहुलता।
(जयो० ११/७७) * ढंग, रीति, रूप। (सम्य० १/८) * त्रिविधा
* समृद्धि। विधनरः (पुं०) सुंदर पुरुष, लावण्युक्त व्यक्ति। (हन्ता भुवि
या भवद्विधनरं सन्त्यक्त्वत्यस्तु सा (सुद० ९८) विधवनं (नपुं०) [वि+धू+ल्युट्] हिलाना, क्षुब्ध करना, दुःखी
करना।
* कपकपाना, थरथराना। विधवा (स्त्री०) [विगतो धवो यस्याः सा] रांड, बेवा, पतिशून्य। विधस् (पुं०) ब्रह्मा। विधा (स्त्री०) [वि+धा+क्विप] * ढंग, रीति, रूप, आकृति।
* प्रकार, पद्धति। (जयो० ३/९०) * काव्य विद्या, काव्यकला। * छेद करना। * किराया। * मजदूरी। विगतो धाकारो यस्यास्तां विधामेव। (जयो०१६)
* आदत। (न तुममायं कुविधामनुष्यादेकेति (सम्य०६८) विधातृ (पुं०) [वि+धा+तृच्] स्रष्टा, विधाता। (जयो० ८/९१)
* निर्माता * प्रदाता, अनुदाता। * भाग्य, दैव। * विश्वकर्मा। * कामदेव। * विधायक। (सुद० ९७) * मघ, मदिरा।
* अङ्कति। (जयो०वृ० १०/४४) विधाता (पु०) ब्रह्मा, सृष्टा। (वीरो० १८/१५) ऋषभदेव
जगत् के विधाता/ब्रह्मा, सृष्टा। विधात्री (वि.) विधानकत्री। (जयो० ३/५७) विधान करने
वाली। (भक्ति० २५)
* व्यवस्थित करने वाला, नियम बनाने वाला।
* कार्यान्वित करने वाला, निर्धारित करने वाला। विधायिका (स्त्री०) व्यवस्थित करने वाली, निर्धारित करने
वाली, प्रख्यातिभी प्रख्यात करने वाली। (जयो०१०
१२/३७) विधायिन् (वि०) निर्धारण करने वाली। (सुद० ७९) विधिः (स्त्री०) [विधा+कि] विधान, नियम। (जयो० ४/५)
* पद्धति, रीति, प्रणाली, साधन, ढंग। (सम्य० ९०) * कर्म। (विधीनां मवधा विभागः) (सम्य० १३२) तेनामृतेनेवरुगस्तु पूर्जितविधिः शीतहतस्तरुर्वा (सम्यक ४६) ब्रह्मा, धाता (जयो० ३/४८) (जयो० १/३५) "विधि: धाता अदृष्टविशेषो येन' (जयो० ३/४८) * दैव। फलवत्तां तु विधिर्विधातु। (सुद० ९२) * करने योग्य कार्य। 'भाव एव भविनां वरो विधिः' (जयो० २/८४) * विधान, साधन। (जयोवृ० १/४२) * रचना। (वीरो० २२/६)
* व्यवहार, आचरण। विधिकित्सनं (नपुं०) रीति-रिवाज। (वीरो० २२/१९) विधिगत (वि०) भाग्य को प्राप्त हुआ। विधिज्ञ (वि०) विधि वाला, विधि जानने वाला।
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विधिज्ञातृ
९७८
विधेय
विधिज्ञात (वि०) नियम ज्ञाता।
विधुननं (नपुं०) [वि+धु+णिच् ल्युट्] * हिलना, झूमना, विधिदृष्ट (वि०) नियत, विहित।
विक्षुब्ध होना। विधिद्वैधं (नपुं०) नियमों की विविधता।
* थरथराना, कंपकंपाना। विधिपूर्वकं (अव्य०) नियमानुसार, प्रणाली युक्त, पद्धति के | विधुन्तुदः (पुं०) [विधुं चन्द्रं तुदति त्रासयति-विधु+तुद्+ अनुसार।
___ खश्+मुम्] राहु। (जयो० ९/१५) विधिप्रयोगः (पुं०) भाग्यबल।
विधुन्वन्ती (वि०) [वि+धु+शतृ ङीप्] धुनती हुई, झलती विधिरेकतानः (पुं०) इतिहास। (वीरो० २०/२२)
हुई। (जयो० १२/१२१) विधिवधू (स्त्री०) सरस्वती।
विधुबिम्बं (नपुं०) चन्द्रमण्डल, शशिमण्डल। चन्द्र विधिवेदिन (पुं०) ब्रह्मा, विधाता। 'विधानज्ञेन विधिना' प्रतिबिम्ब-विधुबिम्बान् चन्द्रमण्डान्। (जयो०वृ०५/२३) (जयो०३/५०)
विधुमात्मन् (पुं०) चन्द्रमण्डल। (समु० २/११) विधिशायिन् (वि०) नियम से शाप युक्त हुआ। (सुद०१०९) विधुर (वि०) [विगता धूः कार्य भारो यस्मात्] शून्य रहित, विधिहीन (वि०) नियत रहित, साधन शून्य।
अभाव ग्रस्त। विधीय (सक०) बनाना, रचना विधीयते (जयो०१० २/११९) * शोकग्रस्त, पत्नि के अभाव वाला।
विधीयते-क्रियते (जयो०वृ० २/१६) विधीयन्ते (जयो०वृ० * व्याकुल, निराश। ४/६४)
* दयनीय, शोकाकुल, दुःखी। विधुः (पुं०) चन्द्र, शशि, चन्द्रमा। (सुद० ३/४४) (जयो० * वञ्चित, विरहित, विपद ग्रस्त।
१/५६) विधुरिव कौमुदमिह वा कलाधरो ह्येधयेत्किञ्च * शत्रु, विरोधी, बैरी। (वीरो० ४/४६) 'विधावित्येत्त् सम्यक्येकवचनमेव जानामि, विधुरं (नपुं०) खटका, भय, चिन्ता। किन्तु इकारान्त विधिशब्दस्य सप्तम्येकवचनं यद् भवति * शोकाकुल।. तस्य व स्मराम्यहं किल। (जयो० १६/७२) विधुः कलाभिः | * पनि वियोगी। परिवर्द्धकः सन्, पितुः प्रसक्तयै जगतोऽप्यलंसः। (समु०३/३) विधुरः (पुं०) रंडुवा। * ब्रह्मा, विष्णु।
विधुरा (स्त्री०) [विधुर+टाप्] मसाले युक्त दहि। * कपूर।
विधुवनं (नपुं०) [वि+धु+ल्युट्] हिलना, कांपना, थरथराना। * पिशाच, दानव।
विधूत (भू०क०कृ०) [वि+धू+क्त] * धुला हुआ। * सविता, विधवति।
* तरंगित, विक्षोभित। विधुकरं (नपुं०) चन्द्रकिरण।
* उखड़ा हुआ, मिटाया हुआ। विधुगौरवः (पुं०) ब्रह्मा की विशालता।
* थरथराया हुआ, कंपकंपाया हुआ। विधुक्षयः (पुं०) चन्द्रक्षय, कृष्ण पक्ष का समय।
विधूतिः (स्त्री०) हिलना, कांपना, थरथराना, विक्षोभ। विधुजन्मदात्री (स्त्री०) कर्पूर को जन्म देने वाली, कदली, विधूदयः (पुं०) चन्द्रोदय। (सुद० १३७)
केलातरु। 'विधोः कर्पूरस्य जन्मदात्री रम्भा कदल्यपि' विधृत (भू०क०कृ०) [वि+धृ+क्त] * पकड़ा हुआ, गृहीत, (जयो०वृ०५/८१)
सहारा प्राप्त हुआ। विधृताङ्गलि उत्थितः क्षणं समुपस्थाय विधुत (वि०) उत्सृष्ट, धुले हुए, सकम्प। (जयो० १२/३२) पतन् सुलक्षणः। (सुद० ३/२४) विधुताम्बुधारा (स्त्री०) उत्सृष्टाम्बुसार, हाथ धोने से बही हुई * बांधी गई, रोकी गई, नियन्त्रित की गई। जलधारा। (जयोवृ० १२/१३२)
* ममेतिकण्ठे विधृताऽसिपुत्री। (समु० ३/२२) विधुदीधिति (स्त्री०) चन्द्र किरण। विधेश्चन्द्रस्य दीधितिर्नाम् | विधेय (वि.) [वि+धा+यत्] किए जाने योग्य। * अनुष्ठेय। रश्मि' (जयो० १३/५४)
* नियत किये जाने योग्य। विधुन् (सक०) [वि+धुन्] धुनना, झलना, हिलाना, कंपकंपाना। * आश्रित, निर्भर। (जयो० १२/१२१)
* आधीन, प्रभावित, नियन्त्रित, दमित, परास्त किया
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विधेयं
९७९
विनयकर्मन्
गया। * आज्ञाकारी. शासनीय, अनुवर्ती।
* कर्ता के सम्बन्ध में कही जाने वाली बात। विधेयं (नपुं०) किये जाने योग्य, कर्तव्य।
* प्रतिज्ञा। (सुद०९५) विधेयज्ञ (वि०) कर्त्तव्य जानने वाला। विधेयपदं (नपुं०) उद्देश्यपद। विधेयभावः (पुं०) आधीनता का भाव। विधेयवादः (पू.) कर्तव्य निर्वाह। (सुद० ४/२५)
'यत्सूक्तिपूर्वकमुपारत्तविधेयवाद: व्यत्येति जीवनमथ स्म
लसत्प्रसादः' (सुद० ४/२५) विध्वंसः (पुं०) [वि+ध्वंस्+घञ्] * विनाश, नाश, क्षति,
हानि, घात।
* अपमान, अपराध। विध्वंसकारिन् (वि०) नाशित, हानिकारक। (जयो० ९/६)
* मारना, हनन करना। (दयो० ५२) विध्वंसिन् (वि०) [विध्वंस्+णिनि] नष्ट करने वाले। सर्वे
सन्तु निरामयाः सुखयुजः सर्वेऽघविध्वंसिनः; विद्वान्सोऽप्य
खिला भवन्तु सुतरामन्योऽन्यमाशंसिनः।। (मुनि० १६) विध्वस्त (वि०) [वि+ध्वंस्+क्त] * विनष्ट, समाप्त, क्षीण।
* गिरा हुआ, पतित।
* बिखरा हुआ, छितराया हुआ। विनत (भू०क०कृ०) [विनम्+क्त] * नम्र, नमनशील।
* झुका हुआ. नतमस्तक! * डूबा हुआ, अवसन्ना * कुटिल, वक्र। * विनीत, शिष्ट। * नमितागत। (जयो० १२/१४) * क्षमाप्रार्थी। विनतोऽस्मि पुरापयुक्तये ह्यनुमन्यध्वमबन्धयुक्तये (जयो० २६/३३) विनतोऽस्मि क्षमाप्रार्थी भवामि।
(जयो० २६/३३) विनता (स्त्री०) [विनत+टाप्] नम्रता, ०क्षान्तता विनयशीलता।
गरुड़। (सुद० ३/२८) विनताङ्गजः (पुं०) विनता सुत, वैनतेय, गरुड़। (सुद० ३/२८)
'विनताङ्गजवर्धमानता वदनेऽमुष्य सुधानिधानता। (सुद०
३/२८) विनतिः (स्त्री०) [वि+नम्+क्तिन] * प्रार्थना, स्तुति, अर्चना,
भक्तिभाव। (जयो० १८/१५) 'शृणु विनतिं मम दु:खिन:
श्री जिनकृपानिधान। (सुद० ७३) * प्रणाम, नमन। विनतिरस्ति समागमनाय. मे समुपामुपयामि तव क्रमे। (जयो० ९/४६)
* नम्रता, विनय, विनयभाव, आदरभाव, प्रणामाञ्जलि। विनमनं (नपुं०) [वि+नम् ल्युट्] झुकना, नमना, नतमस्तक
होना। विनमि (पुं०) विद्याधर पुत्र। (जयो० ६२६) विनम्र (वि०) [वि+नम्+र] विनम्र।
* नम्र, झुका हुआ, नमनशील। * नतमस्तक, विनीत, प्रणमगत।
* अवसन्न, डूबा हुआ। विनम्रानन (वि०) नतमुख, झुके हुए मुख वाला। (जयो०
१७/७३) विनय (वि०) [वि+नी+अक] अशिष्टाचारी, डाला हुआ,
फेंका हुआ, गुप्ता विनयः (पुं०) श्रद्धा, आस्था।
* नम्रता, विनीतभाव, नतभाव। * सदाचरण, शिष्टाचार। * नमस्कारादिगुण (जयो० ५/६) * मान-सम्मान। दानमानविनयैर्यथोचितंतोषयन्निह सधर्मिसंहतिम्' (जयो० २/७२) * कषाय और इन्द्रिय का दमन। * पूज्यों पर आदर। * मर्यादा, उपासना। * गौरव, श्रद्धा, भक्ति, प्रार्थना। 'विनीयते क्षिप्यतेऽष्टप्रकार कर्मानेनेति विनयः' * गुरुशुश्रूषा, वैय्यावृत्य भाव। * स्वाध्याय का एक भेद। प्रायश्चित्तं चकारैष विनयेन समन्वितम्। स्वाध्यायसहितं धीर: परिणामानुयोगवान्।। (जयो० २८/९) स्वाध्यायसहितं विनयेन नम्रताभावेन समन्वितम्। (जयो० २८/९) * जितेन्द्रिय, इन्द्रिय निग्रही।
* निर्देश, अनुशासन, अनुदेश। विनयकरण (वि०) विनयशील। (जयो०वृ० १/३) विनयकर्मन् (नपुं०) विनयभाव।
* संसार से मुक्त कराने वाला कर्म।
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विनयगत
९८०
विनिपातः
विनयगत (वि०) श्रद्धागत, विनयशील।
विनामक (वि०) वर्ण सहित। (जयो०वृ० ११/७०) विनयग्राह्नि (वि०) * आज्ञाकारी, * अनुवर्ती, * शासन विनामवाक् (वि०) काम का नहीं, पुरुषार्थहीन, नपुंसक। योग्य। * नम्रता को अंगीकार करने वाला।
(सुद० ९९) विनयता (वि०) नम्रता (जयो० २/११९)
विनायकः (पुं०) विशिष्टो नायकः। विनयनं (नपुं०) [वि+नी+ल्युट] हटना, दूर होना।
* गणपति, अर्हत्। (जयो० ८८६) (जयो० १३/३९) * शिक्षा होना।
* गरुड़। * शिक्षा, सीख।
* बुद्धधर्म का. देव। विनयपदं (नपुं०) श्रद्धापद, भक्तिपद, प्रार्थना के पुञ्ज।
* रुकावट, बाधा। विनयपदावली (स्त्री०) भक्ति पदावली। * श्रद्धागीत।
विनारि (पुं०) आजतशत्रु। * विना अभावं गता अरयो यस्य विनयपत्रिका (स्त्री०) संत तुलसीकृत काव्य। विनयभावः (पुं०) नम्रभाव। * उपासना युक्त भाव।
स विनारि। (जयो० १८/८१) विनयभृत (वि०) विनयवान्, नीतिजन्य। विनयभृदुन्नतवंशः
विनाशः (पुं०) [वि+श्+घञ्]* नांश, घात, क्षति, हानि। सुलक्षणोऽसौ विलक्षणोक्तनुः' (जयो० ६/५४) 'विगतः
(सुद०७२) प्रणष्टो नयो नीतिमार्ग:' 'विनयं नम्रत्वं बिभवर्तीति
* विध्वंस, समाप्ति, इतिश्री। विनयभूदिति'
* विनश्वर। (सुद० १२१) विनयशील (वि.) उन्नतशील, ऊपर उठा हुआ। विनाशनं (नपुं०) [वि+नश् णिच्+ल्युट्] * विनाश, क्षति, (जयो०वृ० १/५)
हानि। (समु० ९/८) विनयशुद्धि (स्त्री०) विनय पूर्वक भक्ति। (जयो०१०६/५४) * उन्मूलन। विनयसम्पन्नता (स्त्री०) गुरु आदि का सत्कार करना, सच्चे | विनाशिन् (वि०) नष्ट करने वाला, क्षय करने वाला। (सुद०
गुरु/वीतरागमार्ग प्रवर्तक गुरु आदि का आदर-सत्कार १८) विनश्वर। (भक्ति० २६) करना। 'ज्ञानादिषु तद्वत्सु चादरः कषायनिवृत्तिर्वा । | विनाहः (पुं०) [वि+नह+घञ्] कुएं को ढंकना। विनयसम्पन्नता।
विनिक्षेपः (पुं०) [वि+नि+क्षिप्+घञ्] फेंक देना, भेज देना। * तीर्थकर नामकर्म की प्रकृति। (तसू०प० ९३)
विनिग्रहः (पुं०) [वि+नि+ग्रह+अप] * वश में करना, दमन विनयसम्बिधानी (वि०) विनय का ध्यान रखने वाला।
करना, नियन्त्रित करना। (मुनि० ३०) (दयो०९८)
* निरोध, निग्रह, दमन, शमन। वि-नयाचारः (पुं०) शुद्ध परिणामों का आचरण। (भक्ति०८)
विनिद्र (वि०) [विगता निद्रा यस्य] * जागृत, सुमुप्ति रहित, विनयाधिगत (वि०) नयों से रहित। (जयो०२८/४१)
निद्रा विहीन। विनयान्वित (वि०) विनय युक्त, आदरशालिनी। (जयो०वृ०३/५)
* मुकुलित, खुला हुआ, पुष्पित। विनयाश्रित (वि०) नम्रताश्रित, विनयशील। देवतापि नुमया खल बुद्धिर्मस्तकेन विनयाश्रितशुद्धिः। (जयो० ५/३८)
विनिद्रनेत्र (वि०) हर्षित नयन, खुले हुए नेत्र। विनशनं (नपुं०) [वि+नश् ल्युट] * नाश, हानि, विनाश,
विनिन्दिनं (नपुं०) निन्दा। (दयो० २१) * श्रद्धा रहित।
विनिपत (सक०) आना, निकलना। (जयो० ९/४९) (जयो० लोप। विनष्ट (भू०क०कृ०) [वि+नश्+क्त] * उच्छिन्न, ध्वस्त।
१८/९२) * ओझल, लुप्त। (जयोवृ० १/२१)
विनिपातः (०) [वि+नि+पत्+घञ्] अधोगमन। (जयो०७० * बिगड़ा हुआ, भ्रष्ट।
१८/३२) अध: पतन। . विनस (वि०) [विगता नासिका यस्य] नासिका रहित, नाकरहित। * संकट, हानि, क्षति, विनाश। विना (अव्य०) बिना, सिवाय, इसके अतिरिक्त। धर्म एवाद्य * क्षय, मृत्यु, अवपात। आख्यातस्तं विनाऽन्ये न जातुचित्। (सुद० ४/४०)
* घटना, घटित होना। * अभाव, समाप्ति। (जयो ८/८१)
* पीड़ा।
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विनिमेषः
९८१
विनिहत
विनिर्वधः (पुं०) [वि+निर्बंध घञ्] आग्रह, दृढ़ता। * अनादर।
विनिर्माणः (पुं०) सृष्टि, निर्माणविधि। (जयो० ११/३०) विनिमयः (पुं०) [वि+नि+मी+अप्] * लेन-देन, क्रय-विक्रय, विनिर्मित (भू०क०कृ०) [वि+निर्+मा+क्त] * निर्माण किया आदान-प्रदान।
हुआ, बनाया हुआ। * अदला-बदली, आयात-निर्यात।
* निर्मित-तैयार किया हुआ। • न्यास, धरोहर, अमानत।
विनिर्मितस्थली (स्त्री०) निर्माण स्थल। (वीरो ७/९) विनिमेषः (पुं०) [वि+नि+मिष+घब] झपकना, आंखों में विनिर्वह् (सक०) निर्वाह करना, चलाना। (जयो० २७/६०) उदासी आना।
विनिवृत्त (भू०क०कृ०) [वि+नि+वृत्+क्त] * लौटा हुआ, विनियत (भू०क०कृ०) [वि+नि+यम+क्त] * नियंत्रित, प्रतिबद्ध, वापिस आया हुआ। (जयो०१० १/२२) विनियमित।
* ठहरा हुआ, थमा हुआ, रुका हुआ। * रोका गया, नियत किया गया।
* मुक्त हुआ, सेवा से हटा, विनिर्वतन। (जयो० ३/२८) विनियमः (०) [वि+नि-यम्+अच्] * नियंत्रण, प्रतिबन्ध, रोका | विनिवृत्तिः (स्त्री०) [वि+नि+वृत्+क्तिने] • अन्त, अवसान, * विराम, गति, प्रतिरोध, गतिरोध।
समाप्ति। विनियुक्त (भू०क०कृ०) [वि-नि+युज्+क्त] * विच्छिन्न, * निवृत्ति, विश्रान्ति, विराम, रोक। पृथक्। खुला हुआ। * स्पष्टगत।
* लौटना, वापिस आना। (सुद० १२६) * समादिष्ट, व्यवहृत, विहित।
विनिश् (सक०) सुनना, श्रवण करना। (जयो० ४/६) विनियोगः (पुं०) [वि+नि+युज+घञ] * विच्छिन्न होना, (समु० २/२३) अलग होना।
विनिश्चयः (पुं०) [वि+निस्+चि+अच्] * निश्चित करना, * प्रश्न करना। (जयो० ४/४४)
स्थिर करना, दृढ़ करना। * छोड़ना, त्यागना, तिलाञ्जलि देना।
विनिश्चन् (वि०) निश्चल, अचल, स्थिर। * कार्याधिभार, कर लगाना।
विनिश्चलावलिः (स्त्री०) निश्चलता को प्राप्त। * विवाही हुई स्त्री से व्याह करना। (दयो० ४१)
स्फटिकाश्मविनिर्मितास्थलीव च नाकस्य विनिश्चलावलि। * रुकावट, अड़चन, बाधा।
(वीरो० ७/९) विनिर्गतः (पुं०) [वि+निर्+गम्+अच्] * निकला, अलग | विनिवर्तत् (वि०) लौटा हुआ, वापिस आया हुआ। (समु०७/३१)
हुआ, बाहर आया। (दयो०४०) संसार-तापोज्जयिसामतोया- विनिवारक (वि०) परिहारक, रोकने वाला। (जयो० ९/५८) विनिर्गताऽर्हत्तुहिनाद्रितो या। (जयो० ४)
विनिविश (सक०) [वि+नि+विश] समीप रखना, पास पहुंचाना। विनिर्गताश्रु (स्त्री०) परिसुताश्रु, निकले हुए आंसु। (वीरो०७/९३) (जयो०१३/१०)
विनिवेद्य (वि०) प्रार्थित, कथित। * आमन्त्रित। विनिर्गतिः (स्त्री०) गमन करण। (जयो० २१/१)
विनिवेदित (वि०) प्रार्थित, कथित। (जयो० २६/३४) (सुद० विनिर्गमः (पुं०) प्रयाण, प्रस्थान। (जयो० १३/३)
११२) विनिर्जयः (पुं०) [वि+निर्-जि+अच] पूर्ण विजय। जितवान्। विनिवेश्य (संक०) समीप लाकर। (वीरो० ७/१३) (जयो०१/६९)
विनिश्वासः (पुं०) [वि+नि+श्वस+घञ्] * सांस लेना, आह विनिर्जित (भू०क०कृ०) [वि+निद्+जि+क्त] पराभूत, परास्त
भरना। किया, विजित हुआ। 'विनिर्जिता खण्डलशुण्डिशुण्डे' * गहरी श्वांस लेना। (जयो० १/२५)
विनिष्पेषः (पुं०) [वि+निस्+विप्+घञ्] * कुचलना, मर्दन विनिजेतुं [वि+निर्-जि+तुमुन्] जीतने के लिए। (जयो० १/६९) करना, मसलना। विनिर्णयः (पुं०) [वि+निर्+नी+अच्] * निश्चय, निर्णीत, * पीसना, चूर्ण करना। निश्चित नियम।
विनिहत (भू०क०कृ०) [वि+नि+ह+क्त] * आहत, घायल। * पूर्ण फैसला।
* मार डाला हुआ, पूरी तरह परास्त किया।
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विनिह्नवः
९८२
विपक्षः
विनिह्नवः (पुं०) निश्छल भाव। (जयो० १५/१००) विनोदवशः (पुं०) हर्षाधीन। (वीरो० २२१३) विनिहितः (पुं०) अपशकुन, धूमकेतु।
विनोदवशंगत (वि०) नर्मवश, विनोदप्रिय हुआ। (जयो०१४/२९) विनीत (भू०क०कृ०) [वि.नी+क्त] * नम्रीभूत, नम्रता युक्त। विनोदशील (वि०) आनन्दप्रिय, हर्षभाव युक्त। * शिष्ट, शालीन, सौम्यतापूर्ण।
विनोदिन् (वि०) विनोदरसिक। (जयो० १८/३८) * सुसंस्कृत, संस्कारयुक्त, सदाचरणशील, नम्रव्यवहारी। विन्द् (सक०) विभक्त होना, विभाजित होना। (सम्य० ४१) (सुद०४/४५)
विन्दल्लभमान (वि.) संदर, रमणीय, कान्तिमय। * सीधा, सरल, शांतचित्त।
(जयो०वृ० ११/१५) * प्रिय, इष्ट, मनोज्ञ, मनोहर।
विन्ध्यः (पुं०) [विदधाति करोति भयम] एक पर्वत विशेष, * आत्मसंयमी, जितेन्द्रिय।
विन्ध्यगिरि। विनीतः (पुं०) विनीत/सधा हुआ।
विन्ध्यकूटः (पुं०) विन्ध्यगिरि का शिखर। विनीतकं (नपुं०) [विनीत+कन्] * यान, वाहन, सवारी,
विन्ध्यगिरि (पुं०) विन्ध्याचल पर्वत। (सुद० ४/१७) गाड़ी।
विन्ध्याचलः (पुं०) देखो ऊपर। * मृदुलोपेत। (जयो० १/१००)
विन्ध्याटवी (स्त्री०) विन्ध्य महावन।
विन्न (भू०क०कृ०) [विद्+क्त] * ज्ञात, परिज्ञात, जाना * मृदुलता युक्त। * ले जाने वाला, वाहक।
हुआ। * शान्त, श्रान्त।
* स्थिर किया हुआ। विनीतत्त्व (वि०) विनम्रापन, नम्रशीलता। (दयो०७०)
विन्नकः (पुं०) [विन्न कन्] अगत्स्य ऋषि का नाम। विनून (वि०) नवीनता रहित। (जयो० २७/३०)
विन्नरः (पुं०) विद्वान् पुरुष। नहि किन्नर एष विन्नरो भवतां विनेतृ (पुं०) [वि+नी+तृच्] नेता, पथ प्रदर्शक।
येन सतामिहादरः (जयो० १०/७९) 'विन्नरोऽयं यतश्च * शिक्षक, अध्यापक।
सतां भवतामिहादरः' (जयो०वृ० १०/७९) * नायक।
विन्यस्त (भू०क०कृ०) [वि+नि+अस्+क्त] * निक्षिप्त, रखा * शासका
हुआ, निवेशित। (दयो० ८७) * प्रशासक।
* न्यास युक्त, धरोहर रूप। विनैव (अव्य०) इसके बिना ही। (सुद० ८६) इसके अतिरिक्त
* जुड़ा हुआ, सम्बंधित। ही। (जयो० १/३१)
* उपस्थित, प्रस्तुत। विनोदः (पुं०) आनन्द, मनोरंजन, खुशी।
विन्यासः (पुं०) [वि+न्यस्+घञ्] * धरोहर, अमानत, न्यास। * कौतुक (जयो० २/१३४) उत्सुकता, उत्कण्ठा।
* सौंपना, रखना, देना। (जयो०१/४)
* संग्रह, समवाय, संकलन। आमोद-प्रमोद, प्रसन्नता, परितृप्ति।
* आश्रय, आधार। _ * रतिबन्ध विशेष।
* क्रमपूर्वक निक्षेप करना। विनोदकृत् (वि०) हर्ष धारक, प्रसन्नता युक्त। (जयो० १८/१) | विपक्तिम (वि०) [वि+पच्+क्तृि+मप्] * परिपक्व, पका
'श्री युक्त पाठक! शृणूत विनोदकृत्ते' विनोदगत (वि०) प्रसन्नता युक्त।
* विकसित, खिला हुआ, पूर्णता को प्राप्त। विनोदगृहं (नपुं०) क्रीड़ा स्थान।
विपक्व (वि+पचू+क्त) परिपक्व, पका हुआ। विनोदनं (नपुं०) [वि+नुद्+ल्युट्] * मनोरंजन, आनंद, कौतुहल। ... * विकसित, प्रफुल्लित, खिला हुआ। * हटाना, निवारण करना।
विपक्ष (वि०) [विरुद्ध पक्षो यस्य] * प्रतिकूल, विरुद्ध, बैरी। विनोदपात्रं (वि०) आनंद का अधिकारी।
___ * परिवादी। विनोदबन्धः (पुं०) रतिबन्ध।
विपक्षः (पुं०) शत्रु, विरोधी, प्रतिद्वन्द्वि। विनोदभावः (पुं०) हर्षभाव, कौतुक। (जयो०वृ० १४८६) * परिवाद। (जयो० २८/३२)
हुआ।
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विपंचिका
९८३
विपर्णकः
विपंचिका (स्त्री०) [विपंची कन्+टाप] * बीणा।
* खेल, क्रीड़ा, मनोरंजन। (जयो० ६/७) विपंची (स्त्री०) वीणा।
* खेल, क्रीड़ा।
पञ्चभ्यो विहीना विपञ्चतीति। (जयो० ११/४७) विपणः (पुं०) [वि+पण्+घञ्] बिक्री।
* लघु व्यापार। विपणनं (नपुं०) [वि+पण ल्युट] * व्यापार। * बिक्री। विपणिः (स्त्री०) [विपण+इन्] * बाजार, हाट, मण्डी।
* माल, सामान, बिक्री योग्य वस्तु।
* वाणिज्य, व्यापार। (सुद० ९१) विपणिन् (पुं०) [विपण+इनि] व्यापारी, सौदागर, दुकानदार। विपणिस्थानं (नपुं०) वणिकपथ, बाजार। (वीरो० २/१०) विपण्ण (वि०) व्यापार युक्त। विपत्परिहारक (वि.) विपत्ति से बचाने वाला। विपत्परिहारकत्व (वि०) आपत्ति का विनाशक। विपत्प्रतीयः (वि०) निपत्ति नाशक। (दयो० ३) विपत्तिः (स्त्री०) [वि+पद्+क्तिन] क्षणादेव विपत्तिः स्यात्सम्पत्ति
अधिगच्छतः (वीरो० १०/२) * आपत्ति, कष्ट, दु:ख, अनर्थ। (सुद० १११) * दुर्भाग्य, संकट। * वेदना, यातना।
* विनाश, क्षति, हानि। विपत्तिकर (वि०) गुणहीन। (जयो० १६/७३) विपत्तिकरत्व (वि०) गुणों का अभाव वाला। विपत्तिकारिन् (वि.) आपत्ति करने वाला। (समु०७/२८)
(वीरो० १/१९) विपत्र (वि०) पत्र रहित। (सुद० ११८) (जयो० ३/३५) विपथः (पुं०) [विरुद्ध पंथ] कुमार्ग, कुपथ। विपद् (सक०) प्राप्त होना, (सुद० १२८) पाना। विपद्यते
(सुद० १२८) विपद (स्त्री० [वि+पद+क्विप] आपद. आपत्ति। (जयो०३/५५)
* बाधा, रुकावट। * असुंदर-परिणमन। (जयो० २/४९) * दुःख, कष्ट, व्यधान। (सुद० ८९)
* मृत्यु। (सुद० १०५) वि-पदः (पुं०) पक्षी कलरव, वाग्विन्यास। (जयो० १८/३०) विपदकालः (पुं०) संकट का समय।
विपदगा (स्त्री०) विरुद्धभाव, 'विरुद्धभावं गच्छतीति विपदगा'
(जयो० ९/११) विपदम्बुविधिः (स्त्री०) आपद रूपी-जलनिधि। (जयो० २०/५९) विपदा (स्त्री०) विपत्ति, आपत्ति, संकट, कष्ट। (सुद० १०३) विपदी (स्त्री०) विपत्ति, संकट। (मुनि० १६) । विपदोपहत (वि०) संकट ग्रस्त, कष्ट युक्त। (जयो०१८/३०) विपद्य (वि०) प्राप्त हुआ। (सुद० ११९)
* पदहीन, निष्किरण। (जयो० १५/१४) विपन्न (भू०क०कृ०) [विपद्+क्त] * लुप्त, नष्ट। * कष्टग्रस्त,
संकट युक्त। * दुःखी, पीड़ित। (सुद० ९०) * क्षीण, कृश।
* अयोग्य, अशक्त। विपन्नः (पुं०) सर्प, सांप। * अहि, * विषधर। विपन्नगी (स्त्री०) विपत्ति की स्थली। 'विपदामापदां नगीव
स्थलीव' (जयोवृ० ३/५५) वक्ष्यते वीक्षमाणेभ्यः पन्नगीव
विपन्नगी। (जयो.० ३/५५) विपन्नसमयः (पुं०) विपत्ति का समय। विपन्निपातः (पुं०) आपत्ति स्थान। (वीरो० १७/१०) (सुद०९०) विपन्निवारक (वि.) विपत्ति निवारक, कष्ट निवारण करने
वाला। (जयो०वृ० ३/३५) विपन्निवेशः (पुं०) विपत्तिस्थान। (वीरो० १७/१३) विपरिणमनं (नपुं०) [वि+परि+नम्+ल्युट्] परिवर्तन, बदलना,
रूपान्तरण।
* असुंदर परिणति। (जयो० २/४९) विपरिणामः (पुं०) [वि+परि+वृत्+ल्युट्] * मुड़ना, लुढ़कना,
परावर्तन करना, घूमना। * रूपान्तरण। विपरिवर्तनं (नपुं०) [वि+परि+वृत्+ल्युट्] परावर्तन, चुभना। विपरीत (वि०) [वि+परि+इ+क्त] प्रतिकूल विरोधी, प्रतिवर्ती,
औंधा। (जयो० ६/९७) * अशुद्ध, नियमविरुद्ध। * मिथ्या, असत्य। (दयो० ३५)
* अरुचिकर, अशुभ। विपरीतकर (वि०) विरुद्ध कार्य करने वाला, विरोधी,
विरुद्धगामी। विपरीतकार्यः (पुं०) अशुभकार्य। (वीरो० १९/३७) विपरीतचेतस् (वि०) विरुद्ध बुद्धि वाला, कुमति युक्त। विपर्णकः (पुं०) [विशिष्टानि पर्णानि यस्य] पलाशतरु, ढाक
का पेड़।
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विपर्ययः
विपुलमति
विपर्ययः (पुं०) [वि+परि+इ+अच] * विपरीत, प्रतिकूल,
व्यतिक्रम। * विलोमता। (जयो० २२/५८) * लोप, हानि, क्षति, विध्वंस। * त्रुटि, उल्लंघन, भूल। * संकट, दुर्भाग्य।
* शत्रुता, दुश्मनी। विपर्यस्त (भू०क०कृ०) [वि+परि+अस्+क्त] * परिवर्तित,
व्युत्क्रान्त, उलटा। * सीप में चांदी का आभास होना!
* विरोधी, प्रतिकूल। विपर्यायः (पुं०) [वि+परि+इ+घञ्] वैपरीत्य, प्रतिकूलता। विपर्यासः (पुं०) [वि+परि+अस्+घञ्] व्यतिक्रम, प्रतिकूलता।
___* विपरीत्ता, परिवर्तन। विपलं (नपुं०) [विभक्तं पलं येन] क्षण, समय का छोटा अंश। विपलायनं (नपुं०) [विशेषणं पलायनम्] पलायन करना,
भागना, अन्यत्र जाना। विपल्लव (वि०) भृष्टपत्र। (जयो० १४/२१) 'विकृतानां पदानां
ये लवास्ते विपल्लवा' (वीरो० १/२३) विपल्लवित्व (वि०) पत्र सहित्व का विनाश। विगतं विनष्टं
पल्लववित्वं पत्रसहितत्त्वं विपदां लवा अंशा विद्यन्ते यस्य
स विपल्लवी तस्य भावः। (जयो० १४/४०) विपश्चित् (वि.) [विप्रकृष्ट चिनो ति चेतति
चिन्तयति-वि+प्र+चि+क्विप्] * धीमत् (जयो०व० ४/३३) * विद्वान्। (भक्ति० ३१) * विचारशील-सूक्तानुशीलनेनात्र कालो याति विपश्चिताम्' (दयो० १०१) * पण्डितस्याङ्गशरा। (जयो० १९/१०) * बुद्धिमान, धीमान्, ज्ञानी। * हेयोपादेय का जानने वाला।
* विचक्षण, प्रतिभाशाली। (जयो० ५/२२) विपाकः (पुं०) [वि+पच्+घञ्] * पकना, पकाना, भोजन
पकाना। * पाचनशक्ति, परिपक्वता, परिपाक। * परिणाम, फल, परिणति, कर्मस्थिति। * शुभाशुभ परिणाम। * अवस्थापरिवर्तन-कर्म की अनुभाग शक्ति। * कठिनाई, कष्ट, विपत्ति, संकट।
विपाकगत (वि०) परिपक्वता को प्राप्त। विपाकजा (स्त्री०) स्थिति पूर्ण होने पर पकने पर फल देना। विपाकपटुक (वि०) फल काल में सुखद। (जयो० २७/६४) विपाकविचयः (पुं०) कर्मों का अनुभवन। (समु०८/३९) विपाकसूत्र (नपुं०) एक जैन अंगागम। * शुभ-अशुभ विपाक
के फल का प्रतिपादक अङ्ग आगम सूत्र। विपाटनं (नपुं०) [वि+पट्+णिच्+ल्युट्] * उखाड़ना, अपहरण।
* खण्ड खण्ड करना, फाड़कर खोलना। विभाजन करना। विपाठः (पुं०) लम्बा तीर।। विपाण्डु (वि०) पीला, विवर्ण। विपादिका (स्त्री०) विवांई, पैर फटना। विपाश् (स्त्री०) व्यास नदी। विपिनं (नपुं०) [वेपन्ते जनाः अत्र, वेप्+इनन्] अरण्य (जयो०
१८/४८) * कानन। (जयो० १३/५०) वन (जयो० १३/५४) * जंगल। * वाटिका। * लतागृह, * लता मण्डप।
* लताकुंज, झुरमुट। विपिनकंदः (पुं०) काननकंद। विपिनधनं (नपुं०) अरण्य सम्पत्ति। * वन सम्पदा। विपिनशोभा (स्त्री०) वन शोभा। (जयो० १८९) विपिनश्री (स्त्री०) अरण्य गरिमा, वन सौंदर्य। विपुल (वि०) [विशेषेण पोलति वि+पुल्क] विस्तृत, विशाल,
अधिक, पर्याप्त। * प्रशस्त, आयत। * अतिविशाल, मोटी। (जयो०० ६/७) * अनल्प। (जयो० २/१४९)
* अगाध, गहरा। विपुलः (पुं०) विपुलाचल पर्वत, मेरु पर्वत। विपुलकर्म (वि०) गम्भीर परिणाम। विपुलकार्य (वि०) अत्यधिक काम। विपुलकौतुकः (पुं०) पर्यात उत्सुकता। विपुलकौमुदी (स्त्री०) विस्तृत चांदनी, फैली हुई चांदनी। विपुलगामिन् (वि०) सम्माननीय। विपुल गेहं (नपुं०) विशालघर, बड़ा भवन। विपुलछाय (वि०) सघन छाया। विपुलमति (स्त्री०) मनोगत पदार्थ को जानने वाली बुद्धि।
* मनीषी, प्रज्ञावान्।
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विपुलमतिज्ञानं
९८५
विप्रलापः
* मन पर्यय ज्ञान का भेद-जो बात किसी के मन में अभी * असमहति, आपत्ति। हो और पहले आ चुकी हो या आगे आने वाली हो, उस * परिचय, पहचान। बात के बारे में भी जो जान सकता है वह विपुल मति विप्रतिपन्न (भू०क०कृ०) [वि+प्रति+पद्+क्त] * विरोधी, है। (त०सू०प० २२)
परस्पर विरुद्ध। विपुलमतिज्ञानं (नपुं०) मनः पर्यय ज्ञान का एक नाम-'सर्वत्र * व्याकुल, शोकाग्रस्त। णमो विउलमदीणं मनः सम्भवेत्तरामरीणम्।
* परस्पर सम्बद्ध। येन श्रुतसंग्रहे प्रवीणं, पापाचारादपि, प्रहीणम्।।
विप्रतिषेधः (पुं०) [वि+प्रति+सिध+घब] * निषेध, नियम (जयो० १९/६)
विरुद्ध। (मुनि० ३) विपुलरसः (पुं०) गन्ना, इक्षु, ईख।
* प्रतिरोध, प्रतिवर्तन। विपुलशक्ति (स्त्री०) अपूर्व बल।
विप्रतिसारः (पुं०) [वि+प्रति+सृ+घञ्] * क्रोध, कोप, गुस्सा। विपुलसिद्धि (स्त्री०) प्रशस्त सिद्धि।
* पछतावा। विपुला (पुं०) पृथ्वी।
* दुष्टता, शत्रुता। विपूत (वि०) [विशेषेण पूता पवित्रा विपूता] निर्मल, पवित्र (जयो० ८/९०)
विप्रदुष्ट (भू०क०कृ०) [वि+प्र+दुष्+क्त] * दूषित, विकृत, विपूयः (पुं०) [वि+पू+क्यप्] एक घास विशेष, मंजु घास। मलिन। विप्रः (पुं०) [वप्रन्] ब्राह्मण, द्विजन्मन् (जयोवृ० २/१११) * भ्रष्ट, पतित, गिरा हुआ।
- विप्र:कृषौ प्रवृत्तोऽपि, विप्र एवाभिधीयते। (हित०सं० १३) | विप्रनष्ट (भू०क०कृ०) [वि+प्र+नश्+क्त] * लुप्त, खोया हुआ। विप्रकर्षः (पुं०) [वि+प्र+कृष्+घञ्] * दूरी, फासला, अधिकता। ___ * व्यर्थ, निरर्थक। विप्रकारः (पुं०) [वि+प्र+कृ+घञ्] * अपमान, कटु व्यवहार, विप्रबुद्धिः (स्त्री०) ब्राह्मण बुद्धि। (वीरो० १४/४७) दुर्वचन।
विप्रमुक्त (भू०क०कृ०) [वि+प्र+मुच्+क्त] * छोड़ा हुआ * क्षति, अपराध।
परित्यक्त। * रहित शून्य, * अभाव, विमुक्त। *दुष्टता, विरोधा
* निशाना बनाया हुआ। * प्रतिक्रिया. प्रतिहिंसा।
विप्रयुक्त (भू०क०कृ०) [वि+प्र+युज्+क्त] * वियुक्त, विप्रकीर्ण (वि०) [वि+प्रकृ+क्त] * फैला हुआ, बिखरा हुआ। विच्छिन्न, पृथक् किया हुआ। * प्रसारित, विस्तृत, विस्तीर्ण।
___ * मुक्त किया हुआ, परित्यक्त। * व्यापक।
* वञ्चित, विरहित। विप्रकृत (वि०) [वि+प्रकृ+क्त] * आहत, घायल. आघात। । विप्रयोगः (पुं०) [वि+प्र-युज+घब] * वियोग, विछोह, अलगाव। विप्रकृतिः (स्त्री०) क्षति, आघात।
* कलह, असमहति। * अपमान, अपशब्द, कटुव्यवहार।
* अनैक्य, पार्थक्य। * प्रतिहिंसा, बदला।
विप्रराट् (पुं०) श्रेष्ठ ब्राह्मण। (सुद० ३/३५) विप्रकृष्ट (भू०क०कृ०) [वि+प्र+कृष्+क्त] * हटाया गया, | विप्रलब्ध (भूक०कृ०) [वि+प्र+लभ+क्त] * धोखा दिया खींचा गया।
गया, ठगा गया। * विस्तारित, विस्तीर्ण, फैलाया गया।
* निराश किया गया, चोट पहुंचाया गया। विप्रतिकारः (पुं०) [वि+प्रति+कृ+घञ्] * विरोध, निवारण, * क्षतिग्रस्त, ध्वस्त रोकना।
विप्रलम्भः (पु०) [वि+प्र+लम्भ+घञ्] * छल, चालाकी. धोखा। * प्रतिहिंसा।
* कलह, असहमति। विप्रतिपत्तिः (स्त्री०) [वि+प्रति+पद+क्तिन] * पारस्परिक __ * अनैक्य, पार्थक्य, विछोह, वियोग। असंगति, संघर्ष, विरोध।
विप्रलापः (पुं०) [वि+प्र+लप्+घञ्] * बकवास, व्यर्थ का
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विप्रलापः
९८६
विबोधः
प्रलाप।
* निरर्थक बात, विरोध जन्य कथन। विप्रलापः (पुं०) [विशेषेण प्रलयः] विघटन, विनाश, क्षय।
* आघात, हानि। विप्रलापिनी (वि०) प्रलाप करने वाली। (जयो० १३/५२) विप्रलुप्त (भू०क०कृ०) [वि+प्र+लुप्+क्त] * अपहत, छीना
हुआ। * अपहरण किया गया।
* बाधा युक्त, समाप्त किया गया। विप्रलोभिन् (पुं०) [वि+प्र+लुभ+णिच्+णिनि] अशोकवृक्ष,
किंकिरात तरु। विप्रवरः (पुं०) पक्षी। (सुद०८१)
* ब्राह्मण। (सुद० ५/२) विप्रवासः (पुं०) [वि+प्र+वस्+घञ्] * प्रवासगत, विदेश
गया, बाहर जाना।
* अपने स्थान से दूर होना। विप्रश्निका (स्त्री०) [विशेषेण प्रश्नो यस्याः]
[वि+प्रश्न+नप्-टाप्] प्रश्न करने वाली स्त्री, भाष्यपूर्वक
कथन करने वाली स्त्री, ज्योतिषी स्त्री। विप्रहीण (वि०) [वि+प्र+हा+क] वञ्चित, रहित। विप्राणी (स्त्री०) ब्राह्मणी-इत्यतः प्रत्युवाचापि विप्राणी
प्राणितार्थिनी। (सुद० ८५) विप्राप्त (वि०) पक्षियों को प्राप्त हुआ। 'विभ्यः पक्षिभ्यः
प्राप्तः' (जयो० १८/५०) विप्रिय (वि.) [वि+प्री+क-इयङ] * प्रिय वियोग, प्रिय
विछोह। (वीरो० ६/३३)
* अरुचिकर, अनिष्टकर। विप्रियं (नपुं०) अपराध, बाधा, रोग, अरुचि। विपुष (स्त्री०) [वि+पृष्+क्विप्] * चिह्न, संकेत, धब्बा बिन्दु। विप्रोषित (भू०क०कृ०) [वि+प्र+वस+क्त] * निर्वासित, देश
निकाला प्राप्त।
* विसर्जित, अन्यत्र गया हुआ। विप्लवः (पुं०) [वि+प्लु+अप] * विनाश, नाश, क्षति
(जयो०वृ०५/२३) (सम्य० ११०) * दूसरे का संयोग। (हित० १७) * हानिकारक-'विप्लवाय भवत्यत्र विजात्योः कर-पीडनम' (हित० २१) * विरोध, वैपरीत्य। * उपद्रव। (जयो० २२/७७)
* व्याकुलता, आकुलता। * आपदा, संकट, बाधा। (मुनि० )
* बहना, इधर-उधर घूमना। विप्लववधू (वि०) आपातकालीन लघु नौका। (जयो० २२/७३) विप्लवभूत (वि०) हानिकारक, सन्तापकारी। (जयो०वृ०२६/२५) विप्लवल (वि०) आपदा युक्त। (जयो० ४/६७) क्षोदकर। विप्लावः (पुं०) [वि+प्लु+घञ्] जलप्लावन, बाढ़।
* उपद्रव विप्लुत (भू०क०कृ०) [वि+प्लु+क्त] * निमग्न, डुबा हुआ,
विध्वस्त, उजड़ा हुआ। * लुप्त, समाप्त। * विरूपित, विपरीत। * अपमानित, अनात।
* तिरोहित, ढका हुआ। (हित० ) विफल (वि०) [विगतं फलं यस्य] व्यर्थ, बेकार, अनुपयोगी।
निष्फल। (जयो० ११/६१) * प्रभावशून्य, प्रभावरहित। (दयो० २/२६)
* निरर्थक। विफलत्व (वि०) विफलता, असफलता। (सुद० १२३) विफलीकृत (वि०) उन्मस्कृत। (जयो०वृ० १२/१३२) विबन्ध (पुं०) [वि+बन्ध+घञ्] * कोष्ट बद्धता।
* परकोटा। विबाधा (स्त्री०) [विशिष्टा बाधा] * वेदना, पीड़ा, संताप।
* मानसिक व्याधि। विबुद्ध (भू०क०कृ०) [वि+बुध+क्त] * जागृत, सचेत।
* चतुर, कुशल, प्रवीण। * जगाया हुआ, उठाया हुआ। बुधः (पुं०) [विशेषेण बुध्यते-बुध नक] * विद्वान् पुरुष। * ब्रह्मा। (जयो० ५/२३) * देवता, देव, सुर। (जयो० १०/१२)
* बुद्धिमान्। (जयो० ५/२३) विबुधद्विष् (पुं०) राक्षस, पिशाच। विबुधाधिपतिः (पुं०) इन्द्र। विबुधानः (पुं०) [वि+बुध+शानच्] बुद्धिमान पुरुष। विबुधेन्द्रः (पुं०) इन्द्र। विबोधः (पुं०) [विबुध्+घञ्] * जागरण, जागते रहना।
* प्रत्यक्ष ज्ञान। * बुद्धि, प्रतिभा। * सचेत भाव।
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विभक्त
९८७
विभावना
विभक्त (भू०क०कृ०) [वि+भज्+क्त] * विभाजित की गई, | विभा (स्त्री०) [वि+भा+क्विप्] प्रतीत होना। (सुद० १०७) बांटी गई।
* कान्ति, प्रभा, आभा, प्रकाश। (जयो०वृ० १/१२) * विभिन्न, विविध।
* किरण। * अप्रभा। (जयो०वृ० १/१२) ___* नियमित, सममित।
विभाकरः (पुं०) * सूर्य, दिनकर। (जयो० ५/१७) विभक्तवान् (वि०) विभाजित करने वाला।
* मदार पादप, * चन्द्र। विभक्तिः (स्त्री०) [वि+भज+क्तिन] * विभाजन, विभाग, विभाकरमूर्तिः (स्त्री०) सूर्य बिम्ब। (जयो० ५/७१) बांटना।
विभागः (पुं०) * विभाजन, बांटना। * प्रभाग, पार्थक्य।
* अलग-अलग करना, * अंश, अनुभाग, हिस्सा। * कारक चिह्न।
* भेद-विधीनां नवधा विभागः (सम्य० १३२) विभक्षित (वि०) भुंजित। (समु० ४/९) * खाया हुआ।
* भिन्न-भिन्न-चैगुप्यं जडरूपतां च दधतोः कृत्वा विभागम्' विभंगः (पुं०) [वि+भंज्+घञ्] * टूटना, भग्न होना,
(सम्य० १४४) खंडित होना।
विभागकल्पना (स्त्री०) अंश नियत करना। * अवरोध, रुकावट, विराम।
विभागगामिन् (वि०) अंश देने वाला। * झुर्रा, शिकन।
विभागधर्मः (पुं०) धर्म विभाजन। * फूट पड़ना, प्रकटीकरण।
विभागपत्रिका (स्त्री०) पत्र का एक अंश। * सिकोड़ना।
विभागभाज् (पुं०) बंटी हुई सम्पत्ति का भागीदार। विभज (अक०) बांटना, विभक्त करना। (सुद० ३०)
विभाजनं (नपुं०) [वि+भज्+णिच् ल्युट्] वितरण करना, विभङ्गज्ञानं (नपुं०) विपरीत अवधिज्ञान, मिथ्यात्व युक्त
बांटना। अवधिज्ञान। 'विपरीतो भंगः परिच्छित्तिप्रकारो यस्य तद्विभङ्गम,
विभाज्य (वि.) [वि+भज+ण्यत] विभक्त किये जाने योग्य. तच्च तत्।
विभजनीय। विभङ्गदेशिनी (वि०) विपरीत ज्ञान की देशना वाली।
विभातं (नपुं०) [वि+भा+क्त] * प्रभात, प्रात:काल होना। * नाना प्रकार के ज्ञान को प्रदर्शित करने वाली। (जयो०
(जयो० ८४८९, जयो० ५/२२) पौ फटना, अरुणोदय। विभग्न (वि०) त्रुट्यत्व। (जयो० ११/३४)
विभातनामषडरचक्रबन्धः (पुं०) एक छन्द की रचना। (जयो० विभवकृत् (वि०) सम्पत्ति की। (जयो० १०/९७) ज्ञानं च
१८/१०३) विभङ्गज्ञानम्। (जैन०ल० १०११)
विभान्ती (वि०) शोभमान। (जयो० १२/४३) विभज्य (सं०कृ०) विभक्तकर, विभाजितकर। (सम्य० २४)
विभामूर्तिः (स्त्री०) प्रकाश पुंज। (जयो० ८८८९) विभवः (पुं०) [वि+भू+अच्] धन, सम्पत्ति,
विभावः (पुं०) [वि+भू+घञ्] * विपरीत भाव, विकारी भाव। * ऐश्वर्यानन्द। (जयो० १२/१३७)
* अशाश्वतभाव (जयो० १३/५५) * वैभव, * शक्ति, पराक्रम, बड़प्पन।
* मिथ्याभाव, कुभाव। * प्रभाव (जयो०५/२४) * क्रान्तिमत्व। (जयो०११/१५) * आत्म-स्वरूप के प्रतिकूल भाव। * उन्नत अवस्था, पद प्रतिष्ठा। * समूह (जयोवृ० * प्रलय (जयो० १८/५२) ३/१३)
विभागगुणं (नपुं०) विपरीत गुण, विकारी गुण। * कटाक्ष (जयो० १/१२०) आनन्द (जयो० ३/४५) विभावनं (नपुं०) [वि+भू+णिच्+ल्युट] * विवेक, निर्णय। * मुक्ति निर्वाण।
* विचार, चिन्तन-मनन। विभवमयसम्पत्तिशाली (वि०) सम्पत्ति से पूर्ण। (जयो०२२/४) __ * गवेषण, परीक्षण। विभवाश्रयः (पुं०) काव्य रचना में चतुर। (जयो० )
* प्रत्यय, कल्पना। विभा (अक०) सुशोभित होना, सेवन करना। (जयो० ३/१) | विभावना (स्त्री०) सम्बुद्धि विशेष भावना। (जयो० १/१४) विभाति (सम्य०१३२)
एक अलंकार विशेष, जिसमें बिना कारण के कार्य का
३/१०)
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विभावान्वयि
९८८
विभूषणं
वर्णन किया जाता है। विना कारणसद्भावं यत्र कार्यस्य दर्शनम्।
नैसर्गिक गुणोत्कर्ष-भावनात्सा विभावना।। (वाग्भ० ४/९६) विभावान्वयि (वि०) विभाव के साथ नियम से अन्वय वाला।
(सम्य० १३०) विभावसूचिन् (वि०) विभावपरिणाम को सूचित करने वाला।
(वीरो० १०/३८) विभावपर्यायः (पुं०) चतुर्विध अलग-अलग पर्याय, मनुष्य,
देव, नारक और तिर्यंच ये विभावपर्याय हैं। विभावरी (स्त्री०) [वि+भा+वनिप+ङीप] * रात्रि, रजनी,
रात। (जयो० ३/५७) * हल्दी । * कुटनी। * वेश्या ।
* मुखरा स्त्री, बातूनी स्त्री। विभावरीक़त् (वि०) विकृतभावस्य विभावस्य रीतिश्चेष्टा
प्रलयमेति विनश्यति। (जयो० १८/५२) ०राचिकृत। विभावित (भू०क०कृ०) [वि+भू+णिच्+क्त] * निर्णीत,
विवेचित, वर्णित, कथित। * संकेत्ति, निर्देशित, प्रकटीकृत।
* निश्चित किया गया। विभाविह (वि०) शत्रु नष्ट करने वाला। (जयो०३० २४/४) विभाव्यते -ग्रहण करता है। (जयो० ५/७६) । विभाषा (स्त्री०) [वि+भाष्+अ+टाप्] * सूत्र सूचित अर्थ की
व्याख्या। * विवरण, विवेचन, विशेष कथन।
* नियम की विकल्पता, ईप्सित वस्तु का विकल्प। विभासा (स्त्री०) [वि+भास्+अ+टाप] * प्रभा, कान्ति, आभा,
प्रकाश। * चमक, दीप्ति। विभासुर (वि०) कान्तियुक्त। (जयो० ) विभिद्य (वि०) भिन्न। (सुद० १३३) विभिन्न (भू०क०कृ०) [वि+भिद्+क्त] भेद किया हुआ,
विभाजित किया हुआ, विभागयुक्त। (सुद० २/३३) * विविध, नानाविध, बहुविध।
* मिश्रित, मिलाया हुआ। विभिन्नजः (पुं०) महादेव, शिव। विभिन्नविपणित्व (वि०) जुदी जदी दुकान वाले। (वीरो०
२२/२७)
विभिन्नशैवालदलम् (नपुं०) नाना प्रकार के शैवाल दल।
(जयो० १४/४९) विभीतः/विभीतकः (पुं०) बहेडा, हरीतकी। विभीषक (वि.) [विशेषेण भीषयते वि+भी+णिच्+ण्वुल]
संत्रास युक्त, भयप्रदायी। विभीषण (वि०) भयदायक। (जयो० ८/७) विभीषिका (स्त्री०) [वि+भी+णिच्+ण्वुल+टाप्] डर, भय,
डरावना, भयावह स्थिति, कठिनपरिस्थिति। विभु (वि०) [वि+भू-डु] * शक्तिसम्पन्न, बलशाली।
* प्रभावशाली, स्वामिन्। (सुद० २/१३) * प्रमुख, सर्वोपरि, प्रधान। (सर्वज्ञ० सुद० १२९) * योग्य, समर्थ।
* सर्वव्यापी, सर्वगत, व्यापक। विभु (पुं०) प्रभु, स्वामी, नृप। (सम्य० ११०) त्वद्विभुर्विभुषु
(जयो० ४/४०) * आकाश। * व्यापक, विशाल। * काल। अवकाश। * आत्मा। * सेवक। * ब्रह्मा।
* राजा। (जयो० ४/३२) विभुग्न (वि०) [वि+भुज्+क्त] कुटिल, तिरछा, वक्र। * झुका हुआ। * कुण्ठभाव। (जयो० १७/५२) विभूतिः (स्त्री०) [वि+भू+क्त] * समृद्धि, वैभव, सम्पत्ति।
* घर। * कल्याण, हित। * भवाभावात्मिकश्री (जयो० २३/७१) * प्रतिष्ठा, उच्चपद। * महिमायुक्त।
* भस्म। (सुद० ११२) विभूतिभागः (पुं०) विराग भाव। (सुद० १११) विभूतिमत्त्व (वि०) वैभव युक्त। (जयो०वृ० १/३०) (वीरो०
३/१३) वैभववान् (जयो० १८/१६) ___ * भस्म रूप। (जयो० १६/१५) वैभवसंयुक्त। (जयो०
३/२९) भस्माधिकारी। (जयो० ६/२९) विभूतिमान् (वि०) ऐश्वर्य युक्त। * धन-सम्पत्ति वाला। विभूषणं (नपुं०) [वि+भूष+ल्युट्] * अलंकरण, सजावट।
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विभूषा
९८९
विमर्दः
(सुद० ८४) * अलंकार, * सौंदर्य साधन।
विभ्रान्त (भू०क०कृ०) [वि+भ्रम्+क्त] * विक्षुब्ध, व्याकुल, * आभूषण, आभरण। * प्रसाधन।
परेशान। विभूषा (स्त्री०) [वि+भूष+अ+टाप] * अलंकार, सजावट। * भ्रम युक्त, आशंकाशील। ___ * प्रकाश, कान्ति, सौंदर्य, गरिमा। * शोभा।
* अव्यवस्थित, हड़बड़ाया हुआ। विभूषित (भू०क०कृ०) अलंकृत, सुशोभित। (जयो० १/३८) * चक्कर में पड़ा हुआ। विभृ (सक०) धारण करना। (जयो० २/११५) (वीरो० ९/२८) * उन्मत्त, मदहोश। विभूत (भूक०कृ०) [वि+भृ+क्त] * आश्रय दिया गया, I विभ्रान्तिः (स्त्री०) [वि+भ्रम क्तिन] * चक्कर, फेरा, आशंका, सहारा दिया गया।
संदेह। * संधारित, संपोषित, संरक्षित।
* उतावली, हड़बड़ी। विभ्रंशः (पुं०) [वि+भ्रंश+घञ] * क्षति, हानि, नाश।
* त्रुटि, भूल। * गिरना, टूटना।
| विमत (भू०क०कृ०) [वि+मन्+क्त] * असहमत, असम्मत। * चट्टान।
* विषम, असंगत। विभ्रंशित (भू०क०कृ०) [वि+भ्रंश+क्त] * वंचित, ठगा
. * अनाहत, अपमानित, उपेक्षित। गया, बहकाया गया।
विमति (वि०) [विरुद्धा विगता वा मतिर्यस्य] * मुर्ख, मढ, * फुसलाया गया।
अज्ञानी। विभ्रमः (पुं०) [वि+भ्रम्+घञ्] * भ्रमण, घूमना, टहलना।
विमतिः (स्त्री०) असम्मति, असहमति। चलभाव। (जयो० ३/८२)
* अरुचि, जड़ता, मूर्खता। * भ्रम होना, भ्रान्ति होना, संदेह, आशंका। (वीरो०
विमतिन् (वि०) अन्यधर्मावलम्बि। (जयो० २/७२) असहमति २०/१५)
वाला। * विक्षेप, किलिकिञ्चित। * आवर्त। (जयो० ७/२०)
विमत्युपार्जित (वि०) कुबुद्धि के वश। (सुद० ११०)
विमत्सरं (नपुं०) [विगतः मत्सरो यस्य] ईर्ष्या रहित, द्वेष * अंगचेष्टित। (जयो०५/२९)
रहित। * अनासक्ति, मनोदोष। (जयो० ३/३) * उन्मनीभाव (जयो० ६/३५)
विमद (वि०) [विगता मदो यस्य] * मद रहित, * मोह * जातसन्देह। (जयो० ६/३५)
विमुक्त, उन्मत्तता रहित। * त्रुटि, भूल, गलती। (सम्य० ११५)
* हर्षशून्य, ईर्ष्यालु। * अव्यवस्था।
विमध्या (वि.) [विकारो मध्ये यस्याः सा] पतली कमल * नेत्रविकार। (जयो० १६/२०)
वाली स्त्री। * कामकेलि, आमोद-प्रमोद।
विमनस् (वि०) [विरुद्धं मनो यस्य] (जयो० २२/४४) * विलास। (जयो० ३/११३) * क्रीडाभाव।
* उदास, खिन्न, विषण्ण, अवसन्न। विभ्रमपुंस् (पुं०) भ्रान्ति युक्त पुरुष। (जयो० १६/५४)
* अनमना, उदासीन, परेशान, व्याकुल। विभ्रमा (स्त्री०) [वि+भ्रम्+अच्+टाप्] बुढ़ापा, वृद्धापन।
* अप्रसन्न, हर्ष विगत। विभ्रष्ट (भू०क०कृ०) [वि+भ्रंश्+क्त] * पतित, गिरा हुआ। | विमन्यु (वि०) [विगता मन्यूर्यस्य] * क्रोध रहित, शोक * क्षीण, लुप्त।
विहीन। * ओझल, अन्तर्हित।
* क्षमाशील, मृदुस्वाभावी। * अलग हुआ।
विमयः (पुं०) [वि+मी+अच्] विनिमय, लेन-देन, आदान-प्रदान। विभ्राज् (वि०) [वि+भ्राज्+क्विप्] * कान्तिमान्, देदीप्यमान्। विमर्दः (पुं०) [वि+मृद्+घञ्] कुचलना, कूटना, मर्दन करना, (जयो० १८/५४) * सौंदर्य से परिपूर्ण।
मसलना। * चमकीला, प्रभायुक्त।
* रगड़ना, घिसना, संमर्दन करना।
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विमर्दक
९९०
विमुख
***"1*11*
* उपटन लगाना।
जलधिं विमानं निधूमवह्निं च न तद्विदा नः। (सुद० २/३४) * संग्राम युद्ध लड़ाई।
* व्योमयान, आकाशगामी यान। (जयो० २०/७१) * विनाश, उजाड़।
'विशेषणात्मस्थान सुकृतिनो मानयन्तीति विमानानि' * ग्रहण, संयोग, मेल।
(स०सि०४/१६) विमर्दक (वि०) पीसने वाला, चूर्ण करने वाला।
* सौधर्मादि कल्पों के देवों के विमान। * मर्दन करने वाला, मसलने वाला।
विमानगत (वि०) मान रहित हुआ। * अहंकार परिशून्य। विमर्दकः (पुं०) सूर्य ग्रहण, चन्द्रग्रहण।
__* विमान/यान को प्राप्त हुआ। विमर्दनं (नपुं०) [वि+मृद्+ल्युट्] कसना। (दयो० ३२) विमानजः (पुं०) वैमानिक देव। * कुचलना, मसलना, रगड़ना।
विमानदर्शनं (नपुं०) विमान देखना। (भक्ति० ३५) * रौंदना, मर्दन करना।
विमानदीप्ति (स्त्री०) यान की प्रभा। * नशन। (जयो० २७/१३)
विमानता (स्त्री०) अनादर, अपनाम। * उपटन लगाना, चुपड़ना।
विमानप्रस्तारः (पुं०) प्रकीर्णक नामक विमान। विमर्शः (पुं०) [वि+म+घञ्] * विचार, विचारविनिमय। विमानभूमि (स्त्री०) समवसरण स्थान। (वीरो० १३/२७) * अधीरता, असहिष्णुता।
विमानवत् (वि०) विमान की तरह। (सुद० २/३९) * असंतोष, अप्रसन्नता।
विमानसुयानं (नपुं०) गमन साधन। (जयो० ५/५८) विमर्षणं (नपुं०) रोष में आना, असंतुष्ट होना।
विमानारुढं (पुं०) विमान में स्थित। विमर्षणः (पुं०) विमर्षण नामक मनुष्य।
विमानिता (वि०) व्योमयानिता। विमल (वि०) [विगतो मलो यस्मात्] विगतोमलो विमल:- * मानरहिता। (जयो० ९)
* निर्मल, स्वच्छ, धवल, शुभ्र। विगतो विनष्ये मलो यस्य विमानिनीय (वि०) मानरहित। (जयो० २९/७९) * उज्ज्वल, कान्तिमय।
विमानिसमूहः (पुं०) मानहीनता, स्वाभिमानरहित-'विमानेन विमलं (नपुं०) * कलई, सफेदी, तालक, छुई। * सेलखड़ी, गमनशीलानां विमानानि स्वर्गिगामपि समूहः' (जयो०वृ० चूना, खडिया मिट्टी।
५/१८) विमलः (पुं०) विमलनाथ तीर्थंकर। तेरहवें तीर्थंकर का नाम। विमार्गः (पुं०) [विरुद्धो मार्गः] * कुपथ, दुराचरण, विरुद्ध मार्ग। (भक्ति० १९)
विमार्गगामिन् (वि०) दुराचरण पर चलने वाला। * विमल नामक योगीश्वर। (सुद० ११४)
विमार्गचारिन् (वि०) सदाचरण से रहित मार्ग का अनुगामी। जिनेश्वरस्याभिषवं सुदर्शन: प्रसाध्य पूजां स्तवनं दयाधनः। । विमार्गणं (नपुं०) [वि+मार्ग ल्युट्] * ढूंढना, खोजना, तलाश अथात्र नाम्ना विमलस्य वाहनः, ददर्श योगीश्वरमात्मसाधनम्।। करना। (सुद० ११४)
विमिश्रित (वि०) [वि+मिश्र+अच्] * संयुक्त, मिला हुआ, विमलधी (स्त्री०) निर्मल, बुद्धि। * धवल मति।
स्पर्शित किया गया। विमलनाथः (पुं०) तीर्थंकर विमलनाथ, तेरहवें तीर्थंकर का नाम। * एकमेक किया गया। विमलवाहनः (पुं०) विमलवाहन नामक योगीश्वर। (सुद०११४) विमुक्त (भू०क०कृ०) [वि+मुच्+क्त] * परित्यक्त, छोड़ा विमलशील (वि०) निर्मलाचार युक्त। (जयो० ७/७७)
गया, त्यागा गया। (जयो० ५/५) विमला (स्त्री०) एक व्यभिचारिण स्त्री। (वीरो० १७/५७) * स्वतंत्र, स्वाधीन। विमातृ (स्त्री०) [विरुद्धा माता] सौतेली मां।
* बंधन मुक्त, अपराध मुक्त किया गया। विमातृजः (पुं०) सौतेली मां का पुत्र।
विमुक्तिः (स्त्री०) [वि+मुच+क्तिन्] * मुक्ति, मोक्ष, निर्वाण। विमान (वि०) मान रहित, अहंकार विहीन। (सुद० ७३) _ * वियोग, विछोह, छूटना। ___अभिलषितं वरमाप्तवान् लोकः किन्न विमान। (सुद०७३) - विमुख (वि०) [विरुद्धमननुकूलं मुखं यस्य] * पराङ्मुख, विमानः (वि०) विमान, देवयान। (सुद० २/३९) मेरुं सुरर्बु विरुद्ध। * अननुकूल, * स्वभाव से विपरीत।
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विमुग्ध
९९१
वियोगिनी
* उदासीन। * खिन्न मन वाला, व्याकुल। * विरोधी, डराने वाले का विरोधी। भीरुभ्यो विमखो भूत्वा, सर्वेभ्योऽप्यभयप्रदः। (समु०९/६) * रहित, शून्य, विहीन। * जगत् के प्रति लगाव नहीं रखने वाला। जगतां विमुखेनापि सतां मार्गे सपक्षता। (जयो० २२/३२)
* शत्र, प्रतिपक्षी। विमुग्ध (वि०) [वि+मुह+क्त] आसक्त, विषयभावनागत,
मूछित, मोहासक्त। * अत्यधिक मोह को प्राप्त।
* व्याकुल, निराश। विमुच (वि०) ग्रहण करने वाला, छोड़ने वाला नहीं। विमुद्र (वि०) [विगता मुद्रा यस्य] मुद्रा रहित, चिह्न रहित,
पहचान शून्य।
* खुला हुआ, मुकुलित। विमुद्रित (भू०क०कृ०) [वि+मुद्र+क्त] निमीलित। (जयो०१०
१५/४९)
* मुद्रा रहित हुआ, चिह्न वियुक्त। विमूढ (भू०क०कृ०) [वि+मुह्+क्त] * मुग्ध, आसक्त हुआ।
* व्याकुल, घबड़ाया हुआ।
* बैचेन, उदासीन, विमुग्ध। विमूढमन (वि०) [विमूढो मनो यस्य] * जडान्त करण,
जड़शील। (जयो० २/१४२)
* मूढ बुद्धि माला। विमृष्ट (भू०क०कृ०) [वि+मृ+क्त] * साफ किया गया,
पोंछा गया। * मद्रित किया गया, प्रक्षालिता प्रमार्जित. प्रशोधित।
* चिन्तन किया गया, सोचा गया। विमोक्षः (पुं०) [वि+मोक्ष+घञ्] * मुक्ति, छुटकारा,
बन्धनविहीन। विमोक्षणं (नपुं०) [वि+मोक्ष ल्युट्] * मुक्त करना, छोड़ना।
* मुंचन, परित्यक्तन। विमोचनं (नपुं०) [वि+मुच्+ल्युट्] * खोलना, छोड़ना, त्यागना।
* छुटकारा, मुक्ति। विमोचिन (भू०क००) [वि+मुच्+क्त] * फेंके गए, छोड़े
गए, त्यागे गए। * परित्यक्त-'धनिना विमोचित माढ्यपरित्यक्तं पदादि'।
(जयो०७० २/२८) विमोह (वि०) मुग्ध किया हुआ, आसक्त किया हुआ।
विमोह्र (नपुं०) [वि+मुह+णिच्+ ल्युट्] * रिझाना, * प्रलोभन
देना। * मोहित करना, अपनी ओर आकर्षित करना। * आसक्त करना।
* आकृष्ट करना, प्रभावित करना। विमोहित (वि०) आकर्षित। (समु० ७/१८) विमोहिनी (स्त्री०) स्नेहकर्मी। (जयो० १२/५२) विम्बटः (पुं०) [विब्+अट्+अच्] राई का पौधा। वियत् (नपुं०) [वियच्छति न विरमति-वि+यम् क्विप्] अन्तरक्षि,
आकाश, गगन, नभ। (जयो० १८/२२) वियत्गंगा (स्त्री०) आकाश गंगा, स्वर्ग गंगा। वियत्गामिन् (पुं०) आकशगामी, विद्याधर। वियत्चारिन् (पुं०) पक्षी, गृद्ध पक्षी। वियत्भूतिः (स्त्री०) अंधकार, तम, अंधेरा। वियत्मणिः (पुं०) सूर्य, दिनकर। वियतिः (पुं०) पक्षी, गमन। (जयो० १३/२४) वियमः (पुं०) [वि+यम् अप्] प्रतिबन्ध, रोक, विराम, गतिरोध।
नियंत्रण, बन्धन। वियात (वि०) [विरुद्ध निन्दा यातः] धृष्ट, निर्लज्ज, ढीठ। वियुक्त (भू०क०कृ०) [वि+युज्+क्त] * पृथक्, अलग। ___* विच्छिन्न, परित्यक्त।
* जुदा हुआ, वंचित। वियुक्तिः (स्त्री०) परित्याग। (हित० ४२;) वियुज् (अक०) बिछुड़ना, अलग होना। (जयो० १२/१०)
*दुःख, कष्ट, पीड़ा, वेदना, व्याधि। वियुत (भू०क०कृ०) [वि+यु+क्त] * पृथक, भिन्न-भिन्न। ___* वञ्चित, शून्य, विरहिता वियोगः (पुं०) [वि+युज+घञ्] * विछोह, विच्छेद, जुदाई।
* सम्बन्ध विच्छेद। (समु०८/६)
* अभाव, हानि, क्षति। वियोगज (वि०) वियोग को प्राप्त होने वाला। (मुनि० ८) वियोगिन् (वि.) [वियोग+इनि] वियुक्त।
* चक्रवाक् पक्षी। वियोगिचित्तं (नपुं०) वैराग्यशील। (जयो० १७/९) (जयो०
वियोगिनी (स्त्री०) [वियोगिन् ङीष] वियुक्त स्त्री, विरहिणी,
पतिवियोग युक्त। छाया वृक्षत्वं विदधाति तावद्वियोगिनीयं। (वीरो० १२/५) * एक छन्द का नाम।
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वियोगिवर्गः
९९२
विरसः
वियोगिवर्गः (पुं०) साधक समूह। (वीरो० ६/२३) विरञ्चिभू (पुं०) विधाता, ब्रह्मा। (जयो० ) वियोजित (भूक०कृ०) [वि+युज+णिच+क्त] परित्यक्त, विरटः (पुं०) अगुरु, कृष्णचंदन। छोड़ा गया।
विरणं (नपुं०) [विशिष्टो रणो मूलं यस्य] सुगन्धित घास। * वञ्चित।
विरत (वि०) [वि+रम+क्त] * रहित, विहीन। (मुनि० २५) वियोनिः (स्त्री०) [विविधा विरुद्धा वा योनि] नाना जन्म, भो! भोगाद् विरतो रतो भगवतः संचेतने धीश्वर! विविध पर्याय, अलग-अलग जन्म।
* विश्रान्त, थका हुआ, क्लान्त। * कुयोनि, कुजन्म।
* उपसंहत, समाप्त। विरक्त (भू०क०कृ०) [वि+रंज्+क्त) * लालसा विहीन, | विरतिः (स्त्री०) [वि+रम्+क्तिन्] * बंद करना. रोकना, इच्छा रहित।
ठहरना। * विराग युक्त, राग रहित, वीतरागता पूर्ण। (जयो० * विश्राम, अवसान, यति। १७/८२) विरुद्धाचरण (जयो० ६/९२)
* विराग, संयम में प्रवृत्ति। * संन्यासी। (जयो० ६/२३, * रक्तरहित (जयो० १६/९३) विरदावली (स्त्री०) वंशावली। * वंशपट्टावली। (वीरो० विरक्त (स्त्री०) [वि+रञ्ज+क्तिन] * चित्तवृत्ति में परिवर्तन, ९/२६, दयो० ५२) असंतोष।
विरम् [वि+रम्] * छोड़ना, त्यागना। (सुद० ८७) विरम विरम * उदासीनता, विलगाव, बिछोह, वियोग।
भो स्वामिमि त्वम्। * आसक्ति मुक्त, विराग, वीतरागभाव।
* विराम करना, चिरस्थिर करना। परहिताय जयेज्जनता विरचनं (नपुं०) [वि+र+ल्युट] * संरचना, काव्यप्रणयन। नवं विरम भो विरमेति सुमानव।। (जयो० ९/७०) 'विरम * निर्माण करना, सृजन करना।
विरम चिरं स्थिरो भवेत्यर्थः' (जयो० २९/७०) * संकलन करना, संग्रह करना।
विरम् (अक०) विरत होना, चुप होना। (जयो० २५/६) दूर विरचित (भू०क०कृ०) [वि+र+क्त] *निर्मित, * बनाया, होना। (जयो० ३/९२) गया प्रणयन किया गया।
विरमः (पुं०) रोक, विश्राम, विराम। * संरचित, प्ररूपित, निरूपित।
* छिपना, अदृश होना। * सृर्जित, गठित।
विरल (वि०) [वि+रा+कलन] अन्तराल युक्त, कोई कोई। * परिष्कृत किया गया, तैयार किया गया।
(जयो० ९/८६) * धारण किया गया, पहनाया गया।
* पतला, कोमल, मृदु। * जड़ा गया, बैठाया गया।
* ढीला, विस्तृत। विरज् (सक०) अनुराग करना, प्रेम करना, प्रसन्न करना। * निराला, दुर्लभ, अनूठा।
खुश करना। (सुद०४/१०) रज्यमानोऽत इत्यत्र परस्मात्तु * थोड़ा, कम। विरज्यते। (सुद०४/८)
* दूरवर्ती, लम्बा। * विरक्त रहना। (सुद० १३२)
विरलं (नपुं०) दही, जमाया हुआ दूध। विरज (वि०) [विगतं रजो यस्मात्] * रज विहीन, धूल विरलं (अव्य०) * कठिनाई से, कभी कभी, * नहीं के बराबर रहित।
(जयो० ९/८६) विरजस् (वि०) [विगतं रजं यस्मात् यस्य] * राग रहित, विरलभावः (पुं०) मृदुभाव। अनुराग विहीन। * आसक्ति रहित।
विरव (वि०) विशिष्ट शब्द। (जयो०८/२०, १३/३) * धूल रहित। * कर्म परमाणुओं से विगत।
विरस (वि०) [विगताः रसो यस्य] * नीरस, स्वाद रहित। विरञ्चः (पुं०) [वि+रच्+अच्] ब्रह्मा। (जयो० २४/१०) __ * अप्रिय, अरुचिकर। विरचि (पुं०) ब्रह्मा।
___ * क्रूर, निर्दय। विरञ्चिपुत्रः (पुं०) नारद। (जयो० २४/१०)
| विरसः (पुं०) पीड़ा, कष्ट, दु:ख।
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विरहः
९९३
विरुदावली
-
विरहः (पुं०) [वि+रह+अच्] विछोह, वियोग। (जयो०० | विराद्ध (भू०क०कृ०) [वि+राध्+क्त] * विरुद्ध, प्रतिकूल।
१५/२९) पाणिग्रहणादि भूत्वा पश्चान्मे विरहो न स्यादिति' * कुपित, क्षतिग्रस्त। (जयो०वृ० ११/५१)
* घृणापूर्वक, व्यवहता * छोड़ना। (जयो० १६/७२) त्यागना।
विराधः (पुं०) [वि+राध्+घञ्] * विरोध, प्रतिरोध, विवाद। * अभाव।
सताना। (समु० २/१३) विरहगत (वि०) वियोग को प्राप्त हुआ।
* संतप्त, दु:खी, पीड़ित। विरहज्वरः (पुं०) वियोग वेदना।
विराधक (वि०) सताने वाला। 'विराधकः सन्नखिप्रजाया, विरहपीड़ा (स्त्री०) बिछोह का दुःख।
अवादि वृद्धैर्नरकं स यायात्' (समु० २/३३) विरहाग्निनान्त (वि०) विरह रूपी अग्नि से जलने वाला। | विराधनं (नपुं०) [वि+राध्+ल्युट] * विरोध करना, चोट (जयो० १६/१६)
पहुंचाना, सताना। विरहानलः (पुं०) विरहाग्नि।
* कष्ट देना, पीड़ित करना। विरहाविरहाशा (वि०) विरह का खेद। (जयो० १३/७७) । विराधना (स्त्री०) संताप, पीडा, दुःखी। विरहासहा (वि०) वियोगमसहमाना, वियोग को सहने वाला विराधिन् (वि०) विराधना करने वाला। कुर्वन्वृथाज्ञस्स्वधियो (जयो० २१/१४)
विराधी, सम्पन्नतामेत्वमधुना समाधिः। (भक्ति० २७) विरहात (वि०) विरह से पीड़ित।
विरामः (पुं०) [वि+रम्+घञ्] रोकना, बन्द करना, समाप्त विरहावस्था (स्त्री०) वियोगजन्य दशा।
करना। विरहिणी (स्त्री०) वियोगिनी। (वीरो० ६/३६)
* विश्राम। (जयो० २२/८१) विरहित (वि०) परित्यक्त, छोड़ा हुआ।
* अन्त, समाप्ति, उपसंहार। विरहोत्कण्ठ (वि०) वियोग का कष्ठ भोगने वाला।
* यति, रुकावट, ठहराव। विरहोत्सुक (वि०) विछोय युक्त।
विरावः (पुं०) [वि+रु+घञ्] ध्वनि, कोलाहल, आवाज। विराग (वि.) [वि+रञ्ज+घञ्] * विरक्ति, सांसरिक कारणों | विराविन् (वि०) [वि+राव+इनि] रोने वाला, चीखने वाला, से निवृत्ति, विषयाभाव।
चिल्लाने वाला। * अरुचि। * गृह परिवार भोगादि से निवृत्ति। (जयो०६/१००) विराविणी (स्त्री०) चिल्लाने वाली, रोने वाली। * इच्छा रहित।
विरिक्तक (वि०) खाली, रीता हुआ। (जयो० १२/७९) * वृत्तिपरिवर्तन, असंतोष।
विरिंचः (पुं०) [वि+रिंच इन्] ब्रह्मा। विरागभृत (वि०) विरक्ति से परिपूर्ण। (सुद० ५/९) विरुग्ण (भू०क०कृ०) [वि+रुज्+क्त] * रोग ग्रस्त। विरागिन् (वि०) विरक्ति युक्त, विषयवासना रहित। (सुद०१२२) * विनष्ट हुआ।
इत्येवं प्रत्युत विरागिणं समनुभवन्तं स्वात्मनः किणम्। * झुका हुआ। * ढूंठ। (सुद० १२२)
विरुत (भू०क०कृ०) [वि+रु+क्त] * चीखा हुआ, चिल्लाया विराज् (पुं०) [वि+राज्+क्विप्] * कान्ति, आभा, शोभा, हुआ। प्रभा। (जयो० १/९७) (समु० ६/१)
* चीत्कारपूर्ण, गुंजायमान। विराजित (भू०क०कृ०) [वि+राज्+क्त] सुशोभित, देदीप्यमान, विरुतं (नपुं०) चिल्लाना, चीखना, दहाड़ना। प्रकाशित। (जयो० १/९७)
___* चिल्लाहट, ध्वनि, घोषणा। * प्रदर्शित, प्रकटीकृत।
__* कूजना, गुनगुनाना, भिनभिनाना। विराटः (पुं०) [विशेषो राटो यत्र] विराट नामक राजा, जहां | विरुदः (पुं०) घोषणा करना, चिल्लाना। पांडवों ने छद्मवेश में निवास किया था।
विरुदं (नपुं०) ध्वनि करना। विराटकः (०) [विराट कन्] अल्प प्रमाण वाला हीरा। विरुदावली (स्त्री०) यश प्रशस्ति, गुणगान गीतिका। (वीरो० विराणिन् (पुं०) हस्ति, हाथी।
९/१२, जयो० ६/६०)
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विरुदितं
९९४
विरोधनं
विरुदितं (नपुं०) [वि+इतच्+क्त] विलाप करना, जोर से विरूपकरणं (नपुं०) सौंदर्य विहीन होना, लावण्यता से रहित चिल्लाना।
___होना। विरुद्ध (वि०) [विरुध्+क्त]
विरूपगत (वि०) कुरूपता को प्राप्त हुआ। * विपरीत, उलटा, असम्बद्ध, असंगत।
विरूपगामी (वि.) कुमार्ग गामी, काम-वासना ज़नित। * बाधित, रोका गया, विरोध किया गया।
विरूपधारी (वि०) कुरूपता युक्त। * प्रतिकूल, विरोधी।
विरूपिन् [विरुद्धं सरूपमस्ति अस्य] कुरूप, लावण्यहीन। * अनुकूल, अनुपयुक्ता
विरेकः (पुं०) [वि+रिच्+घञ्] विरेचक, जुलाब, मलाशय * प्रतिषिद्ध, वर्जित, त्याज्य योग्य।
स्वच्छ करना। * अशुद्ध, अनुचित।
विरेचनं (नपुं०) [वि+रिच्+ल्युट्] दस्त, मलोत्सर्ग। विरुद्धं (नपुं०) विरोध, वैपरीत्य, शत्रुता। (सम्य० ९३)
(जयो० २६/७९) * असहमति, असंगति।
* जुलाब, मलाशय स्वच्छ करना। (समु० ९/२८) (जयो० विरुद्धकथन (वि०) विपरीत कथन, मिथ्या कथन। (जयो०० १/२९)
विरेचित (वि०) मल्लोत्सर्जित, मल का उत्सर्ग करने वाला। विरुद्धगमनं (नपुं०) दोषों का प्रसंग। 'अयनमयोगमनं प्रत्ययो विरेफः (पुं०) [विशिष्टो रेफो यस्य] * नदी, सरिता, प्रवाहिनी। विरुद्ध गममम्'
विरोकः (पुं०) [वि+रुच्+घञ्] छिद्र, सुराख। विरुद्धगाम (वि०) चौरलुण्टाक (जयो० १/२०) (जयो०१/५१) __ * दरार। विरुद्धता (वि०) * विपरीतता, विरोधिपना, * अनुपयुक्तता, विरोचनः (पुं०) [विशेषेण रोचते-वि+रुच्ल्यु ट्] * सूर्य। प्रतिकूलता।
* चन्द्र। विरुद्धताकारक (वि०) वैचित्रता का कारक, प्रतिकूलता का ____ * अग्नि। (दयो० २०)
कारक। 'य एव हेतुः प्रकल्प्येत स ततोऽन्य इति | विरोधः (पुं०) [विरुध्+घञ्] प्रतिरोध, रुकावट, ठहराव। विरुद्धताकारकः स्यात्' (जयो०वृ० २६/८६)
* आवरण, ढक्कन। विरुद्धदानं (नपुं०) अनुचित दान।
* कलह, संकट, असहमति। (जयो० १/१२) विरुद्धपानं (नपुं०) विपरीत पान योग्य पदार्थ।
* अन्तर्कलह, शत्रुतापूर्ण व्यवहार। विरुद्धभावः (पुं०) विपरीत भाव। 'जनैरुपादायि विरुद्धभाव * विरोधाभास अलंकार। (जयो०१० ३/५) इवाशुवंशैर्विपिनेऽपि दावः' (दयो० ३८)
विरोधकर (वि०) प्रतिरोध करने वाला, गतिरोध करने वाला। विरुद्धभोज्य (वि०) निषिद्ध भोजन वाला। (भक्ति० ४०) | (जयो०वृ० २/६८) विरुद्धराज्यातिक्रमः (पुं०) राज्य के विरुद्ध कार्य करना, I विरोधकारिणी (वि०) गतिरोध उत्पन्न करने वाली। राजाज्ञा का उल्लंघन करना।
(सुद०११२) विरुक्षणं (नपुं०) [वि+रुक्ष् ल्युट्] * कलंक, दोष, निन्दा। विरोधकारिन् (वि०) कलह करने वाला, संकट उत्पन्न करने * अभिशाप, कोसना।
वाला। * रुखा करना।
विरोधकृत् (पुं०) शत्रु। विरूप (वि०) [विकृतं रूपं यस्य] * कुरूप, विकृत, असुंदरता विरोधकृत् (वि०) कलहकारी, झगड़ालु। युक्त।
विरोधगत (वि०) शत्रुता को प्राप्त हुआ। * रूप विहीन, लावण्य रहित, गुणहीन। (जयो०वृ०१६/७३) विरोधगामिन् (वि०) प्रतिकूल चलने वाला। * काम वृत्ति। (जयो०वृ० १/४६)
विरोधजन्य (वि०) कहलपूर्ण। * विपत्तिका। (जयो० १६/७३)
विरोधनं (नपुं०) [विरुध्+ल्युट्] * कलह। विरूपक (वि०) सौंदर्य विहीन, पूतिगन्धयुक्त। (जयो०वृ० * बाधा, संकट, रोक। ६/७६)
* विग्ध करना, बाधा डालना। (वीरो० २०/१३)
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विरोधभासः
९९५
विलम्बः
* घेरा डालना।
विलक्षणता (वि०) विलाप भाव वाली, प्रतिकूल स्वभाव * प्रतिरोध करना।
वाली। (दयो० १६) * असहमति, असंगति।
* असाधारण। विरोधभासः (पुं०) विरोधाभास अलंकार, विरोध की प्रतीति । विलक्षणत्व (वि०) बनावटी, बिना लक्षण वाली। (जयो०१० होना। (जयो०वृ० १/१२)
१/३५) (हित० १८) आपाते हि विरुद्धत्वं यत्र वाक्ये न तत्त्वतः।
विलक्षणभावः (पुं०) विनाश भाव। (सुद० १०३) शब्दार्थकृतमाभाति स विरोध स्मृतो यथा। (वाग्भट्टलंकार | विलक्षित (भू०क०कृ०) [वि+लक्ष्+क्त] * विकलता गत, ४/२०) 'जिस वाक्य के कहने या सुनने से तत्काल ही व्याकुल होता हुआ। कमलमेत्य पुनः शशिना धृतो शब्द और अर्थ में विरोध उत्पन्न हो, परन्तु वास्तव में मधुकरोऽतिविरौति विलक्षितः।। (जयो०१० २५/२५) किसी प्रकार का भी विरोध न हो वहां विरोधाभास * विश्रुत, प्रसिद्ध, ख्यात। अलंकार होता है।
* प्रत्यक्षीकृत, दृष्ट, आविष्कृत। अनङ्गरम्योपि सदङ्गभावादभूत् समुद्रोऽप्यजडस्वभावात्। * विवचेनीय। न गोत्रभित्किन्तु सदा पवित्रः स्वचेष्टितेनेत्थमसौ विचित्रः।। * उद्विग्न। (जयो० १/४१) (जयो०१० ३/३५, २३/३, ६/९३, ८/३६, * विह्वल, व्याकुल। ३/१०८) (वीरो०१/२, १/५, ३/३२)
* प्रकोपी, क्रोधित। विरोधाभासालंकारः देखो ऊपर।
विलक्षिन (वि०) सर्वसाधारणता (सुद०१/१९) सन्तो विलक्ष्या विरोधिता (वि०) शत्रुता, प्रतिकूलता (जयो० २/७०)
हि भवन्ति लाभ्यः सत्र प्रपास्थापनभावनाभ्यः। विरोधिन् (वि०) [विरुध+णिनि] * प्रतिरोध करने वाला. विलग (अक०) अलग होना। (सम्य० १५४) (सुद० १/१९) रोकने वाला। (सुद० ४/३५)
विलग्न (वि०) [वि+लस्+क्त] * संलग्न, अवलम्बित, * मिथ-मिथ्या। (जयो०वृ० २/१९)
आधारित, आश्रित। * शत्रुतापूर्ण, प्रतिकूल, विरुद्ध प्रकृति वाला।
* लगा हुआ, चिपका हुआ, चिपटा हुआ। * प्रतिद्वन्द्वि, असंगत, विरोधी।
* निर्दिष्ट, स्थिर किया हुआ। विरोधिन् (पुं०) शत्रु, प्रतिपक्षी।
* पतला, सुकुमार। विरोपणं (नपुं०) [वि+रुह ल्युट्] * घाव भरना। विलग्नं (नपुं०) कूल्हा।
* रोपना।
* कमर।
विल् (सक०) ढकना, छिपाना।
* आच्छादित करना, आवरण करना। * तोड़ना, बांटना, फेंकना।
* धकेलना। विलक्ष (वि०) [विलक्ष अच्] * लक्षण रहित, चिह्न विहीन।
* व्याकुल, विह्वल। * आश्चर्यान्वित, अचम्भे युक्त।
* लज्जित, शर्मिन्दा युक्त। विलक्षणं (नपुं०) [विगतं लक्षणं यस्य] * सर्वसाधारण।
(जयोवृ०६/५४) * भेद युक्त। (जयो०वृ० १/१५) * असाधारण। * भिन्न, इतर। (सम्य० ८४)
विलंघनं (नपुं०) [विलंघ् ल्युट्] * अतिक्रमण करना, लांघ
जाना।
* अपराध, अतिक्रमण, शांत, क्षति, हानि। विलंधित (भू०क०कृ०) [वि+लंघ+क्त] * अतिक्रान्त, व्यतीत, - बीता हुआ।
* आगे गया, आगे बढ़ा हुआ।
* परास्त, पराजित। विलज्ज (वि०) [विगता लज्जा यस्य] निर्लज्ज, बेशर्म। विलप (अक०) रोना, विलाप करना। (जयो०वृ० ९/७) विलपनं (नपुं०) [वि+लप्+क्त] रोता हुआ, विलाप करता
हुआ। विलम्बः (पुं०) [वि+लम्ब्+घञ्] * लटकना, झूलना,
ढोलायमान होना।
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विलम्बनं
९९६
विलिप्त
* देरी, विलम्ब करना-भूरास्तामिह जातुचिदहो सुंदल न विलम्बस्य' (सुद० ९४) नृराडास्तां विलम्बेन भुवि लम्बेन
कर्मणा। (सुद० ७८) विलम्बनं (नपुं०) [वि+लम्ब्+ल्युट] * लटकना, झूलना।
* देरी, विलम्ब करना। (जयो० ९)
* लटकी हुई। (जयो० ५/१५) विलम्बिका (स्त्री०) कब्जी, कोष्ठबद्धता। विलम्बित (भ०क०क०) [विलम्ब णिनि] * नीचे लटकता
हुआ, झूलता हुआ।
* देरी करने वाला, टालमटोल करने वाला। विलम्भः (पुं०) [वि+लभ्+घञ्] उदारता, भेंट, उपहार, पुरस्कार। विलयः (पुं०) [वि+ली+अच] विघटन।
* पिघलना। * विनाश, मृत्यु, अन्त।
* नष्ट। (मुनि० १४) विलीन। विलयनं (नपुं०) [वि+ली+ल्युट] * प्रलय, विनाश।
* पिघलना, क्षीण होना।
* विघटन, विनाशा विलयाह्वय (वि०) * पक्षियों को सुरक्षा प्रदान करने वाला।
'वीना-पक्षीणां लयाह्वयं गुप्तिकारकम्' (जयो०वृ० १५/९)
कालं समयं विलोक्य (जयो०वृ० १५/९) विलब्धपूर्णा (वि०) विपरीतता को धारण करने वाला।
(वीरो० १४/३०) विलस (अक०) चमकता होना, कोंधना, लहराना, उज्ज्वल
होना। (सुद० ८४ विलसतु। (विलसत् (जयो० ३/१७) विलसत् (स्त्री०) चमकना, उज्ज्वल, प्रभा, सुंदर, प्रिय।
(सुद०३/३) विसलत्तनु (पुं०) शोभायमान शरीर, सुंदर देह। अवालभावतो
जङ्ग्रे सुवृत्ते, विलसत्तनोः' (जयो० ३/४६) 'विलसत्तनोः
सुंदरशरीरायाः'। विलसत्तमालः (पुं०) सुंदर तमाल तरु। (सुद० १३६) । विलसन (नपुं०) [वि+लस्+ल्युट] चमकना, सुंदर, सुभग, प्रिय।
* मनोज्ञ। * सुशोभित, प्रभायुक्ता
* जगमगाना, क्रीड़ा करना। विलसित (भू०क०कृ०) [वि+लस्+क्त] * चमकता हुआ,
सुशोभित। * प्रकटीकृत, प्रकट हुआ। * क्रीड़ाप्रिय, स्वेच्छाचारी।
विलसितं (नपुं०) विलास, लीला, क्रीड़ा।
* चमक, प्रभा। विलाप (सक०) तपाना, बिलौना। (जयो०१० २/१४) विलापः (वि.) [विलिप्+घञ्] * रोना, क्रंदन, रुदन,
कराहना। विलापी (वि०) रुदन करने वाला। विलालः (पुं०) [वि+लल्+घञ्] विलाव,
* उपकरण, यन्त्र। विलासः (पुं०) [वि+लस+घञ] नेत्रविभ्रम (जयो० ३/५८)
* लीला, क्रीड़ा, खेला * ललित, अनुराग, कामुकता। (जयो० १/१४) * लालित्य, सौंदर्य, चारुता। लावण्य। (सुद० २।८) * आसक्ति। (जयो०२/७१) * मनोविनोद, मनोरंजन।
* अभिनय। (जयो० ११/८४) विलासगति (स्त्री०) लीला का संचालन। विलासगेहं (नपुं०) रतिगृह, कामक्रीड़ा स्थल। विलास-तत्परः (पुं०) विषय में संलग्न। (जयो० २/२०) विलासनं (नपुं०) [विलास+णिच+ल्युट] * क्रीड़ा, मनोरंजन,
मनोविनोद। * आसक्ति, वासना, कामना।
* कामुकता। विलासनीतिः (स्त्री०) कामप्रवृत्ति। विलासवासिन् (वि०) आरम्भ परिग्रहासक्त। (जयो० २/७१) विलासविभ्रमः (पुं०) काम-विभ्रम। (जयो० ३/३) विलासिन् (वि.) कामासक्त हुआ, विलासशाली।
(जयो०३/१३) विलासिनी (स्त्री०) पण्यस्त्री, वेश्या। (जयो० १५/५३)
* वरवर्णिनी। (जयो० ९/७८) विलासिनी-नीतिः (स्त्री०) कुटल स्त्री की प्रवृत्ति। विलासिभ्यो
विलासिनीनां वा नीतिः प्रवृत्तिः' (जयो० १५/८) विलिखु (सक०) लिखना, कुदेरना, गूंदना। विलिखनं (नपुं०) [वि+लिख्+ल्युट्] लिखना, कुदेरना,
खुरचना। विलिप् (सक०) लींपना, साफ करना। विलिप्त (भू०क००) [वि+लिए+क्त] संसक्त, लिपटे हुए,
सने हुए (जयो० १२/७६) लीपा हुआ, चुपड़ा हुआ, पोता हुआ।
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विलीन
९९७
विलोभनं
विलीन (भूक००) विलिप्त, अनुषक्त, लिपटा हुआ, | विलोकनं (नपुं०) देखना, अवलोकन करना। चिपकने वाला।
* ढूंढना, खोजना-'मम सहचरी यस्यै वर* संसक्त, लीन, मिला हुआ।
विलोकनोत्कण्ठाम्' (दयो० ६५) * अन्तर्हित, विनष्ट, ओझल, समाप्त।
* दर्शन। (जयो०वृ० १/१०६) विलुंच (सक०) लोंच करना, उखाड़ना।
* दृष्टि, निरीक्षण। (जयो० ११/३) विलुंचनं (नपुं०) [वि+लुच्+ल्युट्] * उखाड़ना, लोंच करना।
विलोकनीय (वि०) [विलोक्+अनीयर] * दर्शनीय, निरीक्षण विलुंठनं (नपुं०) [वि+लुंठ ल्युट] लूटना, डाका डालना, ठगना।
योग्य, देखने योग्य। (जयो० १२/४५) विलुप्त (भू०क०कृ०) [वि+लुप्+क्त] * नष्ट, समाप्त।
विलोकयत् देखता हुआ, निरीक्षण करता हुआ। * फाड़ा गया, तोड़ा गया।
विलोकयल्लोकपतिः (वि०) लोकपति को देखने वाला। * पकड़ा गया।
'लोकपति नरशिरोमणिं मुनिं विलोकयन् सस्नेहं पश्यन्' विलुम्प (अक०) विलुप्त होना, नष्ट होना।
(जयो०वृ० १/८३) विलुम्पकः (पुं०) चोर, डाकू।
विलोकित (वि०) निरीक्षित, दृष्टिगत हुआ।
विलोक्य (सं००) देखकर, अवलोकन करके, निरीक्षण * अपहर्ता, लुटेरा।
करके। (जयो०, सुद० १०८) विलुम्पन्त (वि-लुप्+शतृ) ओझल होता हुआ, नष्ट होता
विलोचनं (नपुं०) [वि+लोच् ल्युट्] नेत्र, नयन, अक्षि। हुआ। 'वृषं विलुम्पन्तमहो सनातन यथात्म विष्वकृतनुभृन्नि
विलोचनाम्बु (नपुं०) अश्रु, आंसू। मालनम्' (वीरो० ९/१)
विलोडनं (नपुं०) [वि+लोड् ल्युट्] * मंथन, बिलौना, मथना। विलुलित (भू०क००) [वि+लुल्+क्त] * लुढ़का हुआ।
(जयो० २३/८५) __* अस्थिर हुआ, हिला हुआ।
* विक्षुब्ध होना, झूलना। * क्रमरहित, क्रमशून्य।
विलोडित (भू०क०कृ०) [वि+लोड्+क्त] * मथित, बिलोया विलून (भू०क००) [वि+लू+क्त] कटा हुआ, चीरा हुआ।
हुआ, मथा हुआ। * छिन्न। (जयो० ८/५१)
* हिलाया हुआ। विलेखनं (नपुं०) [वि+लिख्+णिच् ल्युट्] * गोदना, लिखना।
विलोपः (पुं०) [विलुप्+घञ्] * लोप, हानि, क्षति, * खोदना।
विनाशघात। (सुद० १०२) * खुरचना, कुदेरना।
* पकड़ना, लूटना, अपहरण करना। * उखाड़ना।
* अदर्शन। विलेपः (पुं०) [वि+लिप्+घञ्]
विलोपन (नपुं०) [वि+लुप्+ल्युट] * लोप, हानि, विनाश, क्षति। * उबटन, मल्हम।
* नष्ट करन, क्षति करना। * लिपाई, पुताई।
* अपहरण। विलेपनं (नपुं०) [वि+लिप्+ल्युट्] * लींपना, पोतना। विलोपिन् (वि०) नाश करने वाला, क्षति पहुंचाने वाला। * उबटन लगाना।
(समु० ६/३२) * सुगन्धित पदार्थ रगड़ना। घिसे गए सुगन्धित पदार्थ का विलोभः (पुं०) [वि+लुभ्+घञ्] * प्रलोभन, लुभाना, आकर्षित लेप।
करना। विलेपनी (स्त्री०) [विलेपन+ङीप्] उपटन युक्त स्त्री, अलंकृत * अपनी ओर खींचना, आकृष्ट करना। स्त्री। * सुवेशा, सुंदरी।
विलोभनं (नपुं०) [वि+लुभ्+णिच् ल्युट] * लुभाना, आकर्षित विलेपिका (स्त्री०) चांवल का मांड। विलेप्यशङ्का (स्त्री०) चित्रोल्लिखित की शङ्का। (वीरो० २/१३) * ललचाना, आकृष्ट करना। विलोक् (सक०) * देखना, अवलोकन करना।
* प्रलोभन। * निहारना, परखना, दृष्टि डालना।
* खुशामद, प्रशंसा।
करना।
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विलोम
९९८
विवर्तः
विलोम (वि०) [विगतं लोमं यत्र] * विपर्यय। (जयो०२२/५८)
* प्रतिकूल, विपरीत, प्रतिलोम। * हर्ष रहित, लोम रहित-विलोमेनैव सर्वाञ्जनांनुल्लंघ्य विलोम प्रक्रिया' (जयो०वृ० १२/११८)
* विरुद्ध, पिछड़ा हुआ। विलोमः (पुं०) विपरीत क्रम, प्रतिलोम।
* कुत्ता, सर्प, वरुण। विलोम (नपुं०) रहट, पानी निकालने का यन्त्र। विलोमगामिन् (वि०) विपरीत पाठ वाला। (जयो० २८/२१)
* विपरीत चलने वाला। विलोमज (वि०) लोमाभाव, हर्ष का अभाव। (वीरो० २/४८)
* निर्लोमता। (जयो० ११/१८) * विपर्यय। (जयो० २२/५८) वैपरीत्य। (जयो० २/२३)
* विपरीतता। (जयो० २४/९१) विलोमविधिः (स्त्री०) प्रतिकूल कर्म। विलोल (वि०) [विशेषेण लोल:] * चञ्चल, चपल। (जयो०
१७/१३०) * ढोलायमान, चलायमान, थरथर करने वाला।
* ढीला, विपर्यस्त, बिखरा हुआ। विलोलनं (नपुं०) चञ्चल, परिचालन। (जयो० ५/८५) विलोहितः (पुं०) रुद्र। विल्बः (पुं०) बिल्बफल। ___ * श्रीफल। (जयो० १२४३) विल्वफल (नपुं०) बेल का फल। (जयो०वृ० १४/९) विवक्षा (स्त्री०) [वच+सन्+अ+टाप्] * अभिलाषा, कामना,
चाह, इच्छा।
* अर्थ, आशय, प्रयोजन। विवक्षित (वि०) [विवक्षा+इतच] * अभिप्रेत, कहे जाने योग्य।
* अर्थ युक्त, प्रयोजनभूत। * अभिप्राय युक्त, उद्देश्यपूर्ण।
* आशय युक्त। विवक्षितं (नपुं०) आशय, अभिप्राय, प्रयोजन। विवक्षु (वि०) [वच्+सन्+3] बोलने की इच्छा वाला। विवत्सा (स्त्री०) [विगताः वत्सो यस्याः] बिना बछड़े वाली
गाय, वत्स विहीन गाय। विवद् (सक०) निवेदन करना, बोलना, कहना। (मुनि० ३) विविधः (पुं०) [विवधो विगतो वा वध, हननं गतिर्वा यत्र]।
*जूआ-बैलों के कांधे पर रखा जाने वाला जूआ।
* मार्ग। * बोझ।
* भार। विवधिक (वि०) [विवध+ठन] बोझ ढोने वाला, भारवाहक।
* फेरी वाला। विवरं (नपुं०) [वि+व+अच्] * छिद्र, रन्ध्र, सुराग, बिल।
(सुद० १/३७) * दरार, खोखलापन। (जयो० १३/४३) * एकान्त स्थान। * विच्छेद। * दोष, त्रुटि।
* घाव। विवरणं (नपुं०) * प्रदर्शन, * अभिव्यंजन * स्पष्ट। * व्याख्यान
करण। (जयो० ५/९५) * गणना, * निरूपण। विवरनालिका (स्त्री०) बंसरी, बंसी, मुरली। विवरप्रयोगः (पुं०) छेद-छिद्र। (समु० ६/७) विवर्जनं (नपुं०) [वि+र+ल्युट] छोडना, निकाल देना,
परित्याग करना। विवर्जित (भू०क०कृ०) [वि+रज+क्त] * परित्यक्त, विसर्जित।
(सम्य० ९३) * छोड़ा गया। * प्रदत्त, दिया गया।
* परिहृत, वञ्चित। विवर्ण (वि०) [विगतः वर्णो यस्य] * निष्प्रभ, पाण्डु, फीका,
भदरंगा। * वर्ण रहित।
* अज्ञानी, मूढ, निरक्षर। विवर्णः (पुं०) जाति बहिष्कृत। विवर्णता (वि०) कान्तिहीनता। (वीरो० १९/२२) विवर्णिका (स्त्री०) व्याख्या, भाष्य। विवर्णिता (स्त्री०) व्याख्या, भाष्य। (जयो०१० ३/७७) विवर्तः (पुं०) [वि+वृत्+घञ्] * आवर्त, परावर्तन, परिभ्रमण,
घूमना। * चक्कर लगाना, आगे पीछे होना। * अवस्थन, अनेक प्रकार का। (जयो० १३/४१) * बदलना, सुधारना। * पर्याय। (जयो० २१/१३)
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विवर्तनं
९९९
विविध
विवर्तनं (नपुं०) [वि+वृत्-ल्युट्] * परार्तन, परिभ्रमण, घूमना। विवारः (पुं०) [वि+वृ+घञ्] मुंह। * प्रवेश द्वार। * चक्कर काटना, लौटना।
* छिद्र। विवर्तवार्ता (स्त्री०) अवस्थान वार्ता, पथिकगतवार्ता। |
विवासः (पुं०) [वि+वस्+णिच+घञ्] * निष्कासन, देश (जयो०१३/४१)
निकाला। विवर्धनं (नपुं०) विस्तार, वृद्धि, विकास।
विवासित (भू०क०कृ०) [वि+वस्+णिच्+क्त] * निर्वासित, ___ * अभ्युदय, उत्थान।
निस्वासित, निकाला गया। विवर्धिन (भू०क०कृ०) [वि+वृध+क्त] * बढ़ा हुआ, वृद्धिगत,
* सुगन्धित। विकासशीला
विवाहः (पुं०) [वि+व+घञ्] ब्याह, परिणय, शादी। (समु० * प्रगत, प्रोन्नत, आगे बढ़ाया हुआ।
५/२०) (जयोव० ३/९०) (हित०१०) दर्शकोऽधिपतिरत्र * संतुष्ट, तृप्त।
गतयाः सन्मनुष्यवसतरेलकायाः।। विवलित (वि०) मोड़ा गया, व्यामोडित। (जयो० १८/९५)
तेन सार्द्धमभवत्तु विवाहः प्रेमतत्त्वत्त्मनयोः समुदाह।। विवश (वि०) [वि+वश्+अच्] * लाचार, असहाय, आश्रयहीन।
त्रिवर्गश्रियः आधारो, विवाहोऽथामुनोदितः। * अनियन्त्रित, विषयाधीन। (जयो० २३/१६)
विचारपूर्वकं कार्यः, कन्ययाऽन्य कुलोत्थया।। (हित० १०) विवसन (वि०) [विगतं वसनं यस्य] वस्त्र रहित, निर्वस्त्र।
विवाहकर्मन् (नपुं०) परिणय क्रिया। (समु०५/२०) विवस्वत् (पुं०) [विशेषेण वस्ते आच्छादयति-वि+वस+
विवाहकार्यः (पुं०) विवाह का कार्य। क्विप्+मतुप्] * दिनकर, सूर्य।
विवाहगामिन् (वि०) परिणय के मार्ग पर चलने वाला। * मनु।
विवाहपूजा (स्त्री०) वैवाहिक कार्य पद्धति। (जयो०२/३३) * मदार पादप। (जयो० २४/३४)
विवाहयोग्यः (पुं०) परिणय योग्य। विवहः (पुं०) [वि+व+अच्] अग्निजिह्वा।
विवाहलग्नः (पुं०) विवाह की शुभ बेला। (जयोवृ० १०/५३) विवहनक्रिया (स्त्री०) विवाह क्रिया। (जयो० १४/७)
विवाहवीक्षा (स्त्री०) वैवाहिक संस्कार। विवाकः (पुं०) [विशिष्टो वाको यस्य] न्यायधीश, निर्यायक
विवाहसमयः (पं०) वैवाहिक काल। (जयो०७० २/३३)
विवाहसम्बन्धः (पुं०) वैवाहिक संस्कार, वैवाहिक वीक्षा। विवादः (पुं०) [वि+वद्+घञ्] * प्रतिपक्ष वचन, वार्तालाप। * शास्त्रार्थ, परस्पर विचार विनिमय।
(जयो० ७/८३) * कलह, संघर्ष।
विवाहित (भू०क०कृ०) परिणित, परिणय किया हुआ, ब्याह * तर्क, चर्चा, वार्ता।
हुआ। (वीरो० ११/२९) * आदेश, आज्ञा।
विवाह्यः (पुं०) [वि+व+ण्यत्] * जमाई, दूल्हा, कुंवर साब। * विसंवाद। (जयो० १८/६१)
विविक्त (भू०क०कृ०) [वि+विच्+क्त] * वियुक्त, पृथक् वि-वादः (पुं०) पक्षी कलरव, खगध्वनि। (जयो०७० १८/६१)
किया गया। विवादकारिन् (वि०) विसंवाद युक्त।
* अकेला, एकाकी, विवृत्त, विलग्न। विवादगत (वि०) संघर्ष को प्राप्त।
* प्रभिन्न, विवेचन। विवाद पदं (नपुं०) कलहस्थान।
* पवित्र, निर्दोष। विवादभावः (पुं०) संघर्ष भाव।
विविक्तं (नपुं०) एकान्त स्थान। विवादमति (स्त्री०) निर्णायक बुद्धि।
* अकेलापन। विवादवस्तु (नपुं०) विचारणीय विषय।
विविक्ता (स्त्री०) दुर्भगा, भाग्यहीन स्त्री, असहाय स्त्री। विवादस्थानं (नपुं०) विचार-विमर्श का स्थान।
विविग्न (वि०) [विशेषेण विग्नः वि+विज+क्त] अत्यन्त, विवादिन् (वि०) [विवाद-इनि] कलह करने वाला, तर्कप्रिय, व्याकुल, क्षुब्ध। कलकारी।
विविध (वि०) [विभिन्ना विधा यस्य] नाना प्रकार का * पक्ष प्रस्तुत करने वाला।
०अनेक प्रकार का।
पुरुष।
० ७/८३)
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विवीतः
१०००
विशद
विवीतः (पुं०) [विशिष्टं वीतं] चरगाह स्थान। बाड़ा घेरा। विवेकपदवी (स्त्री०) चिन्तन, विचार। विवुधः (पुं०) देवता (वीरो० १/२२) * बुद्धिहीन। (वीरो० विवेकवान (वि०) बुद्धिमान्। (सुद० ४/२) १/२२)
विवेकशाणा (स्त्री०) विवेक की कसौटी। (सुद० १०२) विवृक्त (स्त्री०) [विवृक्त+टाप्] दुर्भगा स्त्री, पति के प्रेम से विवेकशाली (वि०) विद्वान्, ज्ञानी। (जयो०वृ० ३/८४) रहित स्त्री।
विवेकशील (वि०) विद्वान्, बुद्धिमान्। विवृत (वि०) कहा गया, बतलाया गया, प्रतिपादित किया विवेकाञ्चिता (वि०) विवेक शालिनी, प्रौढ़ा स्त्री। गया। (जयो० १४ ) (जयो० ५/५३)
विवेकिन् (वि०) विवेकी, ज्ञानी, बुद्धिमान्। (सुद० १२१) विवृत (भू०क०कृ०) [वि+व+क्त] * अभिव्यक्त, प्रदर्शित, विवेकिना (स्त्री०) मनस्विना। (जयो० १३/६३) प्रकटीकृत।
विवेकिनी (स्त्री०) विवेकशीला स्त्री। बुद्धिमति। (समु०८/१३) * निराच्छादन (जयो २४/३७)
विवेक्त (पुं०) न्यायकारी। * स्पष्ट, * उद्घोषित।
विवेचक (वि०) पृथक्करणशील, व्याख्याकार, निरूपक, * व्याख्यायित, विस्तारित। (सम्य० १५४)
भाष्यकार। (जयो०६/३७) विवृति (स्त्री०) [विo+व+क्तिन्] * विस्तार, ०फैलाव। रहित, | विवेचनं (नपुं०) [वि+विच्+ल्युट्] * कथन, निरूपण, प्ररूपणा। अभाव। (सुद० १००)
(समु० ४/१) * प्रदर्शन, प्रकटीकरण।
* विचार, चिन्तन। (जयो० ५/१९) * अनावरण, व्यक्तिकरण।
* प्रतिपादन, व्याख्यान। * भाष्य, टीका, वृत्ति, व्याख्या।
विवेचना (स्त्री०) प्ररूपणा, कथन। (सम्य. १२४) विवृत (भू०क०कृ०) [वि+वृत्+क्त] मुड़कर आया हुआ, विश (अक०) प्रविष्ट होना, घुसना। (जयो० १४/२३) आना,
मुड़ा हुआ, घूमा हुआ। (जयो०वृ० १/२२) चक्कर काटा पड़ाव डालना, डेरा लगाना। हुआ। भंवर, चक्कर।
विश् (अक०) लिख देना, उत्कीर्ण करना। विवृत्तिः (स्त्री०) चक्कर, परावर्तन, परिभ्रमण। ___* सौंपना, देना, प्रदान करना। निवृतोक्त (वि०) जीवनोपयोगी कथन। (वीरो० ११/३) विश् (पुं०) वैश्य, वणिक्। (सुद० ३/३) विवृद्ध (भू०क०कृ०) [वि+वृध्+क्त] * बढ़ा हुआ, विकास | विश् (स्त्री०) पुत्री, प्रजा, राष्ट्र। को प्राप्त हुआ।
विशं (नपुं०) कमल नाल। * तीव्र, विपुल, विशाल, प्रचुर।
* सद्मन, दिव्यभवन। (जयो० ३/७१) (समु०५/२०) विवृत्ति (स्त्री०) [वि+वृध+क्तिन] निकास, बढ़ना, वर्धना।
प्रासाद। * समृद्धि।
* वस्तु। (जयो० २/३०) विवेकः (पुं०) [वि+विक्+घञ्] * बोध, ज्ञान, बुद्धि, प्रज्ञा। | विशङ्कट (वि०) [वि+शक्+अटच्] * बड़ा, विशाल, वृहत्। (सम्य० ७५).
* दृढ़, मजबूत, प्रचंड, शक्तिशाली। * हेयोपादेयज्ञान।
विशङ्का (स्त्री०) [विशिष्टा विगता वा शङ्का] आशंका, भय, * विचार, गवेषणा, अनुशीलना (जयो०वृ० १/३६) ___ * प्रबोध, वस्तु तत्त्व की निर्णायक। (सम्य० १२२) । विशजित (वि०) प्रजा को जीतने वाला। * शक्ति, विशेष अभिव्यक्ति।
विशद (वि०) [वि+शद्+अच] निर्मल। * स्पष्ट। विवेककुल्यु (वि०) बुद्धिमान्। (सम्य० ९६)
* विशुद्ध, निर्मल, स्वच्छ। (वीरो० ४/३१) विवेकगम्य (वि०) ज्ञानी आत्मा। (सम्य० १२२)
* विशद, निर्मल, प्रख्यात। (जयो० ३/६) विवेकज्ञ (वि०) विचारज्ञ, प्रज्ञ अज्ञ, विज्ञ।।
* निर्दोष। (जयो० २/९) विवेकज्ञानं (नपुं०) उचित ज्ञान, अच्छा ज्ञान।
* समुज्ज्व ल। (जयो० १७/४९) विवेकधामः (पुं०) ज्ञान स्थान। चैतन्यधाम। (सुद० १३३) * उज्ज्व ल, सुंदर, रमणीय।
डर।
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विशद-कामना
१००१
विशालतरु
* शुद्ध। (जयो० ६/६६)
विशसनः (पुं०) कटार, असि, तलवार। * स्पष्ट, प्रकट। * पवित्र।
विशस्त (भू०क०कृ०) [वि+शस्+क्त] * घातित, हनित, * शान्त, निश्चिन्त।
विस्फारित, फाड़ा गया। विशद-कामना (स्त्री०) पवित्र कामना।
* उजड्ड, अशिष्ट। विशदगति (स्त्री०) शांत अवस्था।
* प्रशस्त, प्रख्यात, विश्रुत। विशदचित (वि०) निर्मल चित्त वाला। स्वच्छ हृदय वाला। विशस्तु (पुं०) चाण्डाल, वधक। विशद प्रभा (स्त्री०) उज्ज्वल कीर्ति।
विशस्त्र (वि०) [विगतं शस्त्र यस्य] शस्त्रविहीन, अस्त्र रहित। विशदप्रमाणं (नपुं०) स्पष्ट प्रमाण।
विशाखः (पुं०) [विशाखानक्षत्रे भव:-विशाखा+अण] विशदभावना (स्त्री०) निर्दोष भावना। विशदा भावना। कार्तिकेया (जयो०वृ० २/९१)
* भिक्षुक, आवेदक। विशदमतिः (स्त्री०) शुद्ध धी। (जयो० ६/६६) * निर्मल
* तकुवा। बुद्धि, सुमति।
विशाख (वि०) शाखा विहीन, ढूंठ। विशदस्वभावः (पुं०) समुज्ज्वल रूप। (जयो० १७/४९) विशाखजः (पुं०) नारंगी तरु। विशदांश (नपुं०) उज्ज्वल किरण, स्वच्छकिरण। (वीरो०४/३१) विशाखा (स्त्री०) [विशिष्टा शाखा प्रकारो यस्य] विशाखा विशदांशुक (वि०) श्वेत वस्त्रधारी, धवल परिधान युक्त। नक्षत्र, नक्षत्रों के भेद में सोलहवां नक्षत्र। (समु०६/१९) (जयो० २६/१३)
विशाम्पति (पुं०) एक राजा, महाराज। (जयो० ३/१०५, विशदांशुकः (पुं०) चन्द्र किरण। विशदा अंशुकाः किरणा वीरो०८/६) यस्य स विशदांशुकः। (जयो० १०/८२)
विशाम्वरः (पुं०) वैश्य, वणिक् श्रेष्ठ। (सुद० २/३३) * स्वच्छ वस्त्र। विशदान्यंशुकानि वस्त्राणि यस्य सः (जयो०० विशायः (पुं०) [वि+शी+घञ] * पहरा देना, बारी बारी से १०।८२)
शयन करना। विशदाक्षता (वि०) पवित्रात्मत्व, उज्ज्वल अक्षत युक्त, प्रसन्न | विशारणं (नपुं०) [वि+श+विच्+ल्युट] * फाड़ना, विदीर्ण
खण्ड युक्त। 'विशदाक्षतया पवित्रात्मत्वेन यातमन्तं स्वरूपं करना, नष्ट करना। यस्याः सा पवित्रात्मरूपवती सुलोचना' (जयो०१० ३/८४) * खण्ड खण्ड करना।
विशारद (वि०) विशाल+दा+क लस्य र:] चतुर, दक्ष, यस्याः सा प्रसन्नाखण्डाधिकारवती' (जयो०० ३/८४) प्रवीण। विज्ञ, जानकार। "विशदमसङ्कीर्णमक्षतमत्रुटितं च या तस्य मार्गस्यान्तं यस्यां * साहसी। सा' (जयोवृ० ३/८४) 'विशदैरुज्ज्वलैरक्षतैस्तण्डुलैतिं * विद्वान्, बुद्धिमान्। लब्ध प्रान्तं यस्याः सा' (जयो०७० ३/८४)
* प्रसिद्ध, ख्यात। विशदाननं (नपुं०) स्वच्छ मुख। (जयो० ११/४४)
विशारदा (स्त्री०) बकुलवृक्ष, मौलसिरि तरु। विशदीक (वि०) स्पष्ट करने वाला। (जयो० ८/९०) विशारदा (स्त्री०) विदुषी, प्रज्ञ-स्त्री। (वीरो०४/१३) विशयः (पुं०) [वि+शी+अच्] सन्देह, अनिश्चयता। ___ * शरदागम रहित। (वीरो० ४/१३) * शरण, सहारा।
विशाल (वि०) [वि+शालच्] बड़ा, बहुत, लम्बा, अत्यधिक। विशरः (पुं०) [वि+शृ+अप्] * फाड़ना, चीरना।
* प्रशस्त, व्यापक, विस्तीर्ण। * वध, हत्या, विनाश।
* उन्नत (जयो०वृ० १/१३) वृहिण (जयो० १९/५०) विशल्य (वि०) [विगतं शल्यं यस्मात्] सुरक्षित, चिन्तामुक्त। (सुद० १/२८) समृद्ध, परिपूर्ण। विशल्या (स्त्री०) लक्ष्मण की मूर्छा अवस्था को ठीक करने * प्रमुख, महान्, उत्तम। (सुद० १/२५) वाली एक नारी। (दयो० ९३)
विशाल: (पुं०) * एक हरिण विशेष। विशसनं (नपुं०) [वि+शस्+ल्युट] * वध, हनन, घात, हत्या। विशालतरु (पुं०) उन्नत वृक्ष।
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विशालदानं
१००२
विशुद्धाश्रय
विशालदानं (नपुं०) परिपूर्ण दान। विशालधनं (नपुं०) अत्यधिक वैभव। विशालनन्दि (पुं०) राजगृहनगर के एक ब्राह्मण का पुत्र।
__ (वीरो० ११/१२) विशालभूति (पुं०) राजगृहनगर का एक ब्राह्मण। (वीरो०
११/१२)
विशालमति (स्त्री०) प्रशस्त बुद्धि। विशालयोगः (पुं०) उत्तम संयोग। विशालवक्षः (पुं०) विस्तीर्ण वक्षस्थल। विशालहृदयः (पुं०) बृहत्मन (जयो० ७/५९) (जयो० ६/६०) विशाला (स्त्री०) उज्जयिनी नगरी का एक नाम। विशाला (वि०) शाला रहित। (जयो० ३/७८) विशिख (वि०) [विगता शिखा यस्य] मुकुटरहित, बिना चोटी
का। * अस्तित्व हीन। कूट रहित। * नग्न।
* शिखावर्जित। (जयो० ९/२५) विशिखा (स्त्री०) [विशिख+टाप्] फाबड़ा। * नकुवा।
* सुईया पिन। * तीक्ष्ण बाण। * राजमार्ग।
* नापित भार्या। विशित (वि०) [वि+शो+क्त] * तीव्र, तीक्ष्ण। * प्रवीण, इष्ट। विशित (वि०) देवालय, मंदिर।
* आवासस्थल, गह, निवासस्थान। विशिष्ट (भू०क०कृ०) [वि+शिष्+क्त] * विशेष, असाधारण,
असामान्य। (जयो० १/) * प्रशस्त। (सम्य० ८४) मनोरम, रमणीय। * अतिशय, अधिक। (जयो०५/५७)
श्रेष्ठ, सर्वोत्तम, प्रमुख, उत्कृष्ट, परम। (जयो०१० १/१२) विभा (जयो० १/१३) महान्, उन्नत, समीचीन। * बढवारी। (समु० १/८) ।
* विशेष लक्षण युक्त, विलक्षण। विशिष्टगीतः (पुं०) प्रशस्त गीत, मनोरम गीत। विशिष्टजाति: (स्त्री०) उन्नत जाति। विशिष्टज्योतिः (स्त्री०) पवित्र ज्योति। विशिष्ट ज्ञानी (वि०) असामान्य ज्ञानी। विशिष्ट तपः (पुं०) अतिशय तप। - विशिष्तालः (पुं०) परमशोभन ताल-विशिष्टतां लातीति। विशिष्टदानं (नपुं०) सर्वोत्तम दान।
विशिष्टदाता (वि०) प्रमुख देने वाला। विशिष्टधी (स्त्री०) प्रकृष्ट बुद्धि, महान बुद्धि। विशिष्टपुण्यबन्धः (पुं०) प्रशस्त शुभ बन्ध। (सम्य० ८४) विशिष्टप्रभा (स्त्री०) विशेष कान्ति। विशिष्टभावः (पुं०) अतिशय भाव। (जयो० ६/५७) विशिष्टमतिः (स्त्री०) उत्तम बुद्धि। विशिष्टयोगः (पुं०) परम योग। विशिष्टरलं (नपुं०) विलक्षण रत्न, उन्नत रत्न। विशिष्ट शब्दं (नपुं०) पक्षी कलरव। (जयो०वृ० १३/३) विशिष्टाद्वैतवादः (पुं०) रामानुज का एक सिद्धांत। विशिष्टि (वि०) विशेषता। लोको निन्दतु पूजतादुत ततस्ते का __विशिष्टः प्रभो? (मुनि० १४) विशीर्ण (भू०क०कृ०) [वि+ऋ+क्त] * खण्डित, त्रुटित,
बाधित। * छिन्न-भिन्न हुआ, मुझाया हुआ।
* संकुचित, सिकुड़ा हुआ। विशीर्णपर्णः (पुं०) नीम का वृक्ष। विशीर्णमूर्ति (स्त्री०) खण्डित मूर्ति। विशुद्ध (वि०) [वि+शुध्+क्त] * स्वच्छ, पवित्र, निर्मल,
विमल। (जयो०७० ३/२४) * निर्दोष, दोष विमुक्त।
* उन्नत, सर्वोत्तम, अतिशय। विशुद्धकामना (स्त्री०) उन्नत कामना। * प्रबुद्ध विचार। विशुद्धगात्रं (नपुं०) स्वच्छ शरीर। विशुद्धभावना (स्त्री०) निर्दोष भावना। विशद्धभोजनं (नपुं०) सात्त्विक भोजन। विशुद्धपाणी (स्त्री०) निर्दोष एड़ियां, चरणपृष्ठदेश।
(जयो० ११/१७) विशुद्धमतिः (स्त्री०) निर्मल बुद्धि। * प्रकर्ष मति। विशुद्धयोगः (पुं०) सर्वोत्तम योग। विशुद्धरत्नत्रय (वि०) विशुद्ध रत्नत्रय युक्त, सम्यग्दर्शन,
सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय से युक्त। विशुद्धवृत्तं (नपुं०) विमल आचरण। 'विशुद्ध निर्दोषं विमलं
च वृत्तमाचरणं यस्य' (जयो०० ३/२४) विशद्धाचरणं (नपुं०) विमल आचरण, निर्दोष आचरण। विशुद्धात्मन् (वि०) पवित्र आत्मावाला। विशुद्धाधार (वि०) अतिशय आधार युक्त। विशुद्धाश्रय (वि०) अच्छे आश्रय वाला।
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विशुद्धाहारः
१००३
विशोधनं
विशुद्धाहारः (पुं०) सात्त्विक आहार, पवित्र भोजन। । विशेषणं (नपुं०) [विशिष् ल्युट्] विवेचन, विभेदन, प्रभेदन, विशुद्धि (स्त्री०) [वि.शुध्+क्तिन्] * पवित्रता, निर्मलता, निरूपण। निर्दोषता।
* अन्तर, विशेषता। * विमलता, सात्त्विकता।
* चिह्न, लक्षण। * पवित्रीकरण, निर्मलीकरण।
* जाति, प्रकार। * परिष्कार। भैक्ष्ययापि विशद्धये प्रतिवहेद् बुद्धिं भवादुन्मनाः' * गुणवाचक शब्द-जो वस्तु की विशेषता को प्रकट (मुनि० ३)
करता है। विशुद्धिगतं (वि०) पवित्रता को प्राप्त हुआ।
विशेषज्ञ (वि०) जानकार, विज्ञ। विशुद्धि देवी (स्त्री०) नाम विशेष (वीरो० १४/४) विशेषतम् (अव्य०) [विशेष तस] विशेष रूप से-प्रकृष्टरूपेण। विशुद्धिधर (वि०) निर्दोषता को धारण करने वाला। विशेषदर्शनं (नपुं०) सांख्य, वैशेषिकदर्शन। (जयो०६/२०) विशुद्धिभावः (पुं०) निर्मलता से परिपूर्ण भाव।
(जयो०वृ० २/२३) विशद्धिलब्धिः (स्त्री०) वैचारिक कोमलता, कर्मचेष्टा से | विशेषय (सक०) कहना, विवेचन करना। 'केचित्परे तु यतयेऽपि विमुक्ति की उपलब्धि। 'चित्तेऽस्य विशुद्धिलब्धिः'
विशेषयन्ति' (वीरो० २२/२२) विशुद्धिविधिः (स्त्री०) क्षमापन। (जयो० १/९२) (सम्य० विशेषरसः (पुं०) श्रृंगार रस। (जयो० १/७४) ४५) * निर्दोषता युक्त विधि।
विशेषाद्वनी (वि०) विशेष रूप से निर्मित। (जयो० २४/११८) विशूल (वि०) [विगत शूलं यस्य] त्रिशूल रहित, बी रहित, विशेषित (भू०क०कृ०) [वि+शिष्+णिच्+क्त] विलक्षण, भाला विहीन।
परिभाषित। विशृंखल (वि०) [विगता श्रृंखला यस्य] अनियंत्रित, अप्रतिबद्ध, । विशेषोऽलंकारः (०) विशेष अलंकार, विशेषताओं को निरंकुश।
विवेचित करने वाला अलंकार* बंधनों से मुक्त।
मतङ्गजानां गुरुगर्जितेन जातं प्रहृत्यष्यद्धयगर्जितेन। * लम्पट।
अथो रथानामपि चीत्कृतेन छन्नः प्रणादः पटहस्य केन।। विशेष (वि०) [विगत शेषो यस्मात्] * विशिष्ट, अच्छा, उचित। (जयो० ८/२३) विशेषः (पुं०) * प्रभेद, भेद, अन्तर, प्रकार।
विशेष्य (वि०) [वि+शिष्+ण्यत्] * विलक्षण होने योग्य, * जैन दर्शन में वस्तु विवेचन की एक पद्धति, जिसमें मुख्य, प्रमुख। विशेष-भेद की प्रमुखता होती है। पर्याय विशेष।
* उत्तम, श्रेष्ठ। * विविध उद्देश्य, नानाविध वस्तु।
विशेष्यं (नपुं०) वह शब्द जिससे विशेषण द्वारा सीमित कर * उत्तमता, श्रेष्ठता, प्रमुखता। (सुद० १/४२)
दिया गया हो। * उत्तम, पूज्य, प्रमुख, उत्कृष्ट।
* वह पदार्थ जो किसी दूसरे शब्द द्वारा परिभाषित कर * विशिष्ट चिह्न, पहचान। विशिष्यते विशिष्टिा विशेषः दिया गया हो। 'विशेष्यं नाभिषा गच्छेत्क्षीणशक्तिर्विशेषणे' (त०वा० ६/८)
(काव्य० २) * विवेचन, भेदीकरण।
विशोक (वि०) [विगतः शोको यस्य] शोक से रहित, हर्ष विशेषक (वि०) [वि+शिष्+ण्वुल्] प्रभेदक, नाना विध, वस्तु युक्त, प्रसन्न। (जयो० ५/६७) विवेचक।
विशोकः (पुं०) अशोक तरु। विशेषकं (नपुं०) तिलक, मस्तिष्क पर टीका, रेखांकन। विशोधनं (नपुं०) [वि+शुध ल्युट] * शुद्ध करना, प्रक्षालन, (जयो० २२/८०)
प्रमार्जन। (जयो० १७/३९) विशेषाकायानुमतः (पुं०) तिलक के लिए स्वीकृत। 'विशेषकाय * दोष रहित, पवित्र। तिलकाय नामानुमतं मानितम्' (जयो० २२/८०)
* अन्वेषण। (जयो० २/४५) * विशिष्ट शरीर सहित। (जयो०वृ० २२/८०)
* प्रायश्चित्त, परिशोधन।
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विशोधिन्
१००४
विश्लेषित
सौंपा गया।
विशोधिन् (वि.) [विशेषेण शोधिर्विशोधि:] प्रायश्चित्त वाला। (दयो० १८) * अवरोध, * गति विराम। विशोधिनी (स्त्री०) नाशिनी, प्रक्षालिनी। (हस्त० ५७) । * बन्द किया गया, रोका गया। विशोध्य (वि०) [वि+क्षुध्+ण्यत्] पवित्र किये जाने योग्य, * रुकावट। (जयो० १/११) __ शुद्ध किये जाने योग्य।
विश्रान्तिः (स्त्री०) [वि+श्रम्+क्तिन्] * आराम, विश्राम, विराम, विशोषणं (नपुं०) [वि+शुष्+ल्युट्] सुखाना, शुद्ध करना, रोक। (वीरो० ५/३४) प्रमार्जन करना।
* क्रिया रहित। (जयो०वृ० १/९४) विशोषय् (सक०) सुखाना. शुद्ध करना। (जयो० १२/२८) | विश्रान्तिगृहं (नपुं०) आराम गृह। विश्रणनं (नपुं०) [वि+श्रण+ल्युट्] * प्रदान करना, समर्पण | विश्रान्तिशून्यः (वि०) अविराम, गति युक्त। (जयो०१० २३/६१) करना, सौंपना।
विश्रामः (पुं०) [वि+श्रम्+घञ्] क्रिया रहित। (जयो० १/९४) * उपहार, दान, भेंट।
* आराम, विराम, रुकना, ठहरना। (जयो०७० ७/४६) विश्रब्ध (भू०क०कृ०) [वि+श्रम्भ+क्त] * बन्द किया गया, * केलि, क्रीड़ा।
* शान्ति, सौम्यता, एकाग्रता, स्थिर होना, थकान दूर * विश्वस्त, निडर।
करना। (मुनि०६) - * निश्चल. सौम्य, शान्त।
विश्रामगृहं (नपुं०) आराम गृह। * दृढ़ स्थिर
विश्रामशैलः (पुं०) क्रीड़ापर्वत, केलिगिरि। (वीरो० २/११) * नम्र, विनीत।
प्राच्याः प्रतीची व्रजतोऽब्जपस्य विश्रामशैला इव भान्ति विश्रब्धं (नपुं०) विश्वासपूर्वक, निर्भीकता के साथ।
तस्य। (वीरो०२/११) विश्रम् (अक०) ठहरना, रुकना, विराम लेना। (जयो० २/१२३) | विश्रावः (पुं०) [वि+श्रु+घञ्] * बहना, टपकना, झरना। विश्रमः (पुं०) [वि+श्रम्+अप] आराम, विश्रान्ति।
___ * ख्याति, कीर्ति। * विराम. विश्राम।
विश्रुत (भू०क०कृ०) [वि+श्रु+क्त] * प्रसिद्ध, प्रख्यात, यशस्वी, विश्रम्भः (पुं०) [वि+श्रम्भ+घञ्] * विश्वास, भरोसा।
प्रतिष्ठित। (जयो० २१/६५) * नम्रता, क्रीड़ा कलह, केलिकलह। 'नम्रतायामुत * आकर्णित। (जयो० ६/६२) क्रीडाकलहे परायणाम् विश्रम्भः केलिकहले विश्वासे प्रणये * प्रसन्न, आनन्दित, हर्ष युक्त। वधे' इति विश्वलोचनः' (जयो० १०/४)
विश्रुतगुणं (नपुं०) उन्नत गुण। (सुद० ३/६) * विराम, विश्रान्त।
विश्रुतिः (स्त्री०) [वि+श्रु+क्तिन्] प्रसिद्ध, ख्याति, कीर्ति, * आराम, विश्राम।
यश, प्रतिष्ठा। • स्नेह युक्त।
विशलथ (वि०) [विशेषण श्लथः] शिथिल, ढीला, खुला हुआ। * रहस्य।
* स्फूर्ति रहित। * वध, हत्या, हनन।
* निष्प्रभ, कान्तिहीन। विश्रम्भभाषणं (नपुं०) गुप्त वार्तालाप।
विश्लिष्ट (भू०क०कृ०) [वि+श्लिष्+क्त] वियुक्त, पृथक्कृत, विश्रम्भ भूमिः (स्त्री०) विश्वास करने योग्य स्थान।
अलग हुआ। विश्रम्भस्थानं (नपुं०) विश्वस्त, विश्वसनीय व्यक्ति। विश्लेषः (पुं०) [वि+श्लिष+घब] * अलगाव, वियोजन। विश्रयः (पुं०) [वि+श्रि+अच्] * शरण, आश्रय, आधार * वियोग, विछोह। भूतस्थल।
- * अभाव, हानि, क्षति। विश्रवस् (पुं०) पुलस्त्य के पुत्र का नाम, रावण के पिता। * छिद्र, दरार। विश्राणित (भू०क०कृ०) [वि+श्रण+णिच्+क्त] समर्पित, प्रदत्त | विश्लेषणं (नपुं०) भिन्न-भिन्न करना। (वीरो० १८/२२) दिया गया।
विश्लेषित (भू०क०कृ०) [वि+श्लिष् णिच्+क्त] वियुक्त, विश्रान्त (भू०क०कृ०) [वि+श्रमृ+क्त] * विश्राम, आराम पृथक्कृत, अलग किया हुआ।
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विश्व
१००५
विश्वम्भरः
विश्व (वि०) [विश्व] * सम्पूर्ण, समग्र, * समस्त, पूर्ण, विश्वधारिन् (पुं०) शिव, आदीश्वर। सारा।
विश्वनाथः (पुं०) आदीश्वर, ऋषभदेव। * प्रत्येक, हरेक।
* शिव। विश्वं (नपुं०) लोक, संसार, जगत्।
विश्वनन्दी (पुं०) राजगृह नगर के विश्वभूति ब्राह्मण एवं जैनी * लोकसमूह (जयो० ३/५४)
नामक ब्राह्मणी का पुत्र-भूत्वा परिव्राट् स गतो महेन्द्रस्वर्ग *षद्रव्य समूह-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश ततो राजगृहेऽपकेन्द्रः' जैन्या भवामि स्म च विश्वभूतेस्तुक'
और काल का समूह विश्व है-'एवं तु षड्द्रव्यमयीय- विश्वनन्दी जगतीत्यपूते।। (वीरो० ११/११) . मिष्टिर्यतः समुत्था स्वयमेव सृष्टिः' (वीरो० १९/३८) विश्वपथप्रदर्शकः (पुं०) दिनेश, सूर्य। 'विश्वस्स संसारस्य * लोक (विश्वं सुदर्शनमयं विभूव (सुद०८६)
पथप्रदर्शको मार्गनिर्देशक एष दिनेश, (जयो०१० ४/६२) विश्वंकरः (पुं०) अक्षि, आंख।
विश्वपा (पुं०) सूर्य। विश्वकद् (वि०) दुष्ट, नीच, अधम।
* चन्द्र। विश्वकर्मन् (पुं०) सूर्य।
* अग्नि । विश्वकृत् (वि०) सब प्राणियों का सृष्टा।
विश्वपालनपर (वि०) विश्व के पालन में तत्पर। विश्वस्य विश्वकृत् (पुं०) ब्रह्मा, शिव, * आदीश्वर।
पालने सम्भालने परस्तत्परो भवादृशो नरो यतः (जयो०१० विश्वकेतु (पुं०) अनिरुद्ध।
७/५८) विश्वगंधः (पुं०) प्याज, लोबान।
विश्वपावनी (स्त्री०) तुलसी का पौधा। विश्वगंधा (स्त्री०) पृथ्वी, भू, धरा।
विश्वपितुः (पुं०) जगत् पिता, आदीश्वर जिन। 'विश्वपितः विश्वजनं (नपुं०) मानव जाति।
जिन एव सविता' (जयो० ८।८९) विश्वजनसौहद (वि०) समस्त लौकिक जनों पर मैत्री। विश्वचासौ विश्वपूजिता (स्त्री०) तुलसी पादप।
जन इति विश्वजनस्तस्य सौहदं तस्मात् समस्तलौकिक- विश्वप्रणयप्रदा (स्त्री०) सरस्वती। * वाग्देवी। जनमैत्री भावादेव संभवति' (जयो०वृ० २/२१)
विश्वस्य जगन्मात्रस्य यः खलु प्रणयः प्रेमभावस्तं प्रददातीति विश्वजनीन् (वि०) प्राणीमात्र के लिए उपयोगी।
सरस्वती (जयो० १९/३४) विश्वजन्य (वि०) समस्त प्राणिायों के लिए उपयोगी। विश्वप्रबन्धक (वि०) विश्वनियामक। (वीरो० १९/४३) विश्वजयिन (वि०) विश्व को जीतने वाले। (मनि०३) विश्वप्सन् (पुं०) देव, अमर, सुर। विश्वजित् (पुं०) जितेन्द्रिय प्रभु।
- *सूर्य। विश्वतस् (अव्य०) [विश्व-तसील] सब ओर, सर्वत्र, सब * चन्द्र। जगह, चारों ओर। (सुद० २/३२)
विश्वभुज् (पुं०) इन्द्र। विश्वतत्त्वज्ञ (वि०) समस्त जगत् के तत्त्व ज्ञाता, विश्वभर के विश्वभूति (पुं०) राजगृह नगर का एक ही ब्राह्मण। (वीरो०
पदार्थ एक साथ, झलकने वाले। 'युगपद्विश्वतत्त्वज्ञ ११/११) प्रध्वस्तान्तर्मलवन्त्वः' (हित०सं० ५५)
विश्वभूषणं (नपुं०) जगद्विभूषण। (जयो० १८/७६) विश्वतोमदा (वि०) सबको हर्ष देने वाली मुद्रा। विश्वतःसर्वेषा विश्वभेषजं (नपुं०) सोंठ, सुंठि, सूखा अदरक। मुदं हर्ष राति-ददात्येवंभूता। (जयो० २/११४)
विश्वमात्मसात् (वि०) विश्व को अपने समान मानता हुआ। विश्वतोरोचनः (पुं०) श्रीधराचार्य विरचित विश्वलोचन कोष (सुद० ४/६) (जयो० १/१७)
विश्वमात (वि०) विश्व की माता। (सुद०३/२) विश्वदेवः (पुं०) जगत् पिता।
विश्वमूर्ति (वि०) सर्वव्यापी। विश्वदृश्वा (वि०) समस्त जगत को देखने वाले। (वीरो० | विश्वमोहनः (वि.) संसार को वश में करने वाला मोहन। २०/२१)
विश्वस्य संसारस्य वशीकरणमस्तीति। (जयो० २/६०) विश्वधारिणी (स्त्री०) भूमि, पृथ्वी। .
विश्वम्भरः (पुं०) जगत्पाल। (वीरो० ५/२३)
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विश्वयोनिः
१००६
विषदः
१४८)
विश्वयोनिः (पुं०) ब्रह्मा।
विश्वासः (पुं०) [वि+श्वस्+घञ्] * निष्ठा, श्रद्धा, आस्था। विश्वराज् (पुं०) विश्वप्रभु।
* प्रत्यय, विश्रम्भ। (जयो०२/१५१) विश्वरोचनः (पुं०) विश्वलोचनकोष। (जयो०वृ० १/१७) * भेद, रहस्य, गुप्त समाचार। विश्ववस्तविद् (वि०) सकल पदार्थों का ज्ञायक। (सम्य० * धारणा, निश्चय, अस्था। 'विश्वासमसाद्य जिनोक्तवाचि
वालेन तत्त्वार्थ मियादसाचि। (सम्य० ७२) विश्ववित्त (वि०) विश्वप्रसिद्ध। (जयो० ६/१०८) विश्वासगत (वि०) आस्थागत, श्रद्धा को प्राप्त हुआ।
विश्वस्मिल्लोके वित्तं प्रसिद्धम्। (जयो०वृ०६/१०८) विश्वासघातः (पुं०) धोखा देना, द्रोह रखना। विश्वविद् (वि०) जगत् ज्ञाता, सर्वज्ञ। (सम्य० ५८) विश्वासघातिन् (वि०) द्रोही, धोखे देने वाला। विश्वविदेकधामः (पुं०) विश्वविद का एकमात्र स्थान। विश्वासजन्य (वि०) आस्थायोग्य। (सम्य० १८)
विश्वासपात्रं (नपुं०) विश्वसनीय स्थान। विश्वविधान (नपुं०) जगत् का विधान। (सम्य० १५२) । विश्वासभंगः (पुं०) विश्वासघात। विश्वविपदः (पुं०) प्रजा की विपत्ति। (जयो० २/११३) विश्वासभूमि (स्त्री०) आस्था स्थल। विश्वविश्वसन (वि०) सम्पूर्ण विश्वास योग्य। (जयो० २/५१) विश्वास योग्य (पुं०) आस्था योग्य, श्रद्धा का आधार। विश्वविश्वासकारिन् (वि०) जगत् में विश्वास करने योग्य। (दयो०६०) (दयो० ७१)
विश्वासवाज्जनगणः (पुं०) विश्वास युक्त जनसमूह। (वीरो० विश्ववेद (वि०) विश्वज्ञाता। (दयो० २९)
२२/१२) विश्ववैरिन (पुं०) प्राणिमात्र का शत्र। 'विश्वस्य प्राणिवर्गस्य । विश्वासशील (वि०) निष्ठावान्। वैरिणः शत्रून्' (जयो० २/५४)
विश्वासस्थानं (नपुं०) विश्वसनीय स्थल। विश्वशिरोमणि (स्त्री०) जगत् तिलक। (जयो०७० १४/२९) विश्वोत्तभः (पुं०) लोक में उत्तम। (वीरो० ९/२५) विश्वसनीय (सं०क०) [वि+श्वस+अनीयर] विश्वास किये विश्वोपकी (वि०) जगत् निर्माता। (मुनि०८) जाने योग्य।
विष् (सक०) घेरना, आवृत्त करना। विश्वसम्माननीय (वि०) भुवनमानिनी। (जयोवृ० २२/७८) * फैलाना, विस्तार करना। विश्वसात् (वि०) विश्वहित की पवित्र भावना वाला। (जयो० * वियुक्त करना, पृथक् करना।
२/९१) विश्वस्य सम्पूर्णसमाजस्य हितं स्यादिति विश्वसाद् * उड़ेलना।
विशदा भावना निर्दोष भावना तस्यां परः (जयो०वृ० २/९१) विष् (स्त्री०) [विष+क्विप] मल, विष्ठा। विश्वसित् (वि०) विश्वास करने योग्य। (जयो० २/१४२) * फैलाना, विस्तार करना। विश्वसेनः (पुं०) त्रिलोकीनाथ विश्वंभर। (जयो०१०/९५) | विषं (नपुं०) जहर, हलाहल। विषस्यागदं प्रतीकारो विषमेव विश्वस्रष्टुः (वि०) विश्वनिर्माता। (जयो०८/३७)
भवतीति। (जयो० १४/३९) * जल, (जयो० १४/७९) विश्वस्त (भू०क०कृ०) [विश्वस्+क्त] विश्वास करने योग्य, (वीरो० २/२४) * लोबान, * रस गन्ध। विश्रब्ध, निडर, साहसी।
विषकुम्भः (पुं०) जहर से परिपूर्ण कलश। विश्वहितः (पुं०) जगत् कल्याण। (सुद० ११८) विषकृमिः (स्त्री०) जहर का कीड़ा। विश्वात्मता (वि०) सर्वजनहितकारिता। (जयो० २७/२२) । विषच्छल (वि०) कमलनालच्छलयुक्त। (जयो० १३/१०२) विश्र्वाधायस् (पुं०) [विश्वं दधाति पालयति-विश्व+ विषज्वरः (पुं०) भैंसा। धा+णिच्+असुन्] देवता, अमर।
विषज्वहरणं (नपुं०) विष के ज्वर का निवारण। (जयो०७० विश्वानरः (पुं०) सूर्य।
१९/७६) विश्वामित्रः (पुं०) एक ऋषि।
विषण्ण (भू०क०कृ०) दुःखी, हताश, व्याकुल। विश्वावसु (पुं०) एक गन्धर्व विशेष।
विषण्णचित्त (नपुं०) खिन्नचित्त, अनमन। (जयो०वृ० २/१४९) विश्वाश्रयिन (वि०) लोक के आधार भूत। (जयो० १८/५२) विषदः (पुं०) * मेघ, बादल, * तूतिया।
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विषता
१००७
विषादः
विषता (वि०) विषरूपता। (जयो० २६/६)
* देश, राष्ट्र, प्रदेश, मण्डल, साम्राज्य। विषदन्तकः (पुं०) सर्प, सांप।
* इन्द्रिय, आनन्द। * सम्बंध (सुद० ८५) विषदर्शनः (पुं०) चकोर पक्षी।
विषयइच्छा (स्त्री०) इन्द्रिय अभिलाषा। (जयो०वृ० २५/१७) विषधरः (पुं०) सर्प, सांप, अहि, शेषनाग। (दयो० १०५) विषयतर्षपाशिन् (वि०) तृषारूप रज्जु बद्ध। (जयो० २०७१) विषमसंख्यत्व (वि०) विषम संख्या वाला। (जयो०वृ० १/१९) विषयाणां तर्ष एव पाशोऽस्ति येषाम्। विषमाशुगः (पुं०) पञ्चबाण, तीक्ष्ण वायु। (जयो० २२/२१) | विषयातिशयः (पुं०) [विषयस्य देशस्यातिशय] देश की विशेषता विषमीकृत् (वि०) ऊबड़-खाबड़ किया हुआ। विषम | (जयो० १३/४४) नीचोच्चीकृत। (जयो० १३/२६)
विषयाभिलाषा (स्त्री०) सांसारिक भोगों की आकांक्षा। विष निलयः (पुं०) सर्प बिल।
विषयाशयः (पुं०) विषयवाञ्छा। (जयो० २५/१५) विषपुष्पं (नपुं०) नीलकमला
विषयासक्त (वि०) विषय लोलुपी, विलासी। विषसापः (पुं०) जलवेग। (वीरो० ४/)
विषयासक्ति (स्त्री०) कामासक्ति। विषप्रयोगः (पुं०) जहर देना।
विषरूपता (वि०) विष युक्ता। (जयो० २६/६) विषभिवन
विषलः (पुं०) जहर, हलाहल। विषभक्षक (वि०) विष शान्त करने वाला। (जयो० १/३५) विषलक्ष्मी (स्त्री०) दुर्भाग्य। विषभीत (वि०) विष से परिपूर्ण। (दयो० ४०)
विषसार (वि०) अप्रसन्नता (जयो० २६/६) विषशिषज् (पुं०) वैद्य, सर्प चिकित्सक। (समु० ७/१५) विषलः (पुं०) जहर, हलाहल। विषम (वि०) [विगतो विरुद्धो वा सम] असमान, अनिमित। विषविकारः (पुं०) विष की हानि। (जयो०१० २५/६१) * ऊबड़-खाबड़, असम।
विषस्थ (वि०) दुर्गम स्थिति। * कठिन, अगम्य, दुर्गम।
विषसंहरणार्थ (वि०) विष शान्ति हेत। (जयो० १९/७१) * कुटिल (जयो० १२/८२)
विषह्य (वि०) [वि+सह+क्त] सहने करने योग्य। * दृढ़, मजबूत, उत्कट।
* संभव, शम्य। * खतरनाक, भ्यानक।
विषा (स्त्री०) [विष्+अच्+टाप] गुण पाल राजा गुणश्री रानी * प्रतिकूल, विरुद्ध, विपरीत। (वीरो० १०/१९)
की पुत्री। (दयो० ४३) विषम (नपुं०) दुर्गमस्थान, कठिनस्थल। ऊबड़-खाबड़-जगह। * विष्ठा, मल। (सुद० ७८)
* प्रतिभा। * विरुद्ध (जयो० वृ० १/३०, कामचेष्टा (जयो० १/३०) * ज्ञान, समझ। * वैरी, शत्रु (जयो० ३/९६)
विषाणः (पुं०) सींग। (जयो०१३/५१) * एक अलंकार, जिसमें कार्य कारण के बीच में अनोखा विषरणं (नपुं०) सींग। सम्बंध दर्शाया जाता है।
विषाणडम्बरः (पुं०) सींगों का बोझ। (जयो० १३/५१) विषमः (पुं०) विष्णु।
___ विषणानां डम्बरः समूहस्त। विषमत्व (वि०) वक्रत्व, टेढ़ापन। (जयो० २/५४)
विषाणिन् (वि०) [विषाण-इनि] सींगों वाला। विषमन्त्रः (पुं०) सपेरा, बाजीगर।
* दांतों वाला। विषमय (वि०) विष से परिपूर्ण। (जयो०वृ० १४६) विषाणिन् (पुं०) हस्ति, हाथी। विषलक्ष्मी (स्त्री०) दुर्भाग्य।
* बाहर निकले हुए दांत वाला। विषविभागः (पुं०) अभागा, सम्पत्ति में असमान वितरण।
* सांड। विषयः (पुं०) पदार्थ, वस्तु, द्रव्य। * प्रयोजन (जयो० १/३) विषान्नभोजनं (नपुं०) विष युक्त भोजन। (दयो० १०३) * व्याख्येय प्रसंग, प्रस्तुतीकरण।
विषादः (पुं०) [वि+सद्+घञ्] दु:ख, खेद, भिन्नता, व्याकुलता। * इन्द्रिय विषय। (सुद० १२८)
__ (सम्य० १३५)
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विषाददायकः
१००८
विष्णुवर्धनः
* पक्षी।
* तीतर। विष्टपः (पुं०) [विष्+कपन्] लोक, संसार, भुवन। (जयो०
१/६६) विष्टपं (नपुं०) संसार, लोक, भुवन। विष्टपहारिन् (वि०) लोक को हर्षित करने वाला। विष्टब्ध (भू०क०कृ०) [वि स्तंभ्+क्त] * आश्रित, आधारित,
सहारा दिया गया। * अवरुद्ध, बाधा युक्त।
* गतिहीन। विष्टंभः (पुं०) [वि+स्तंभ्+घञ्] अवरोध, रुकावट, बाधा,
गतिरोध। (जयो० १९/७७)
* लकवा, ठहरना। उपद्रव। विष्टंभनिवारण (नपुं०) उपद्रव निवारण। विष्टरः (पुं०) [वि+स्तृ+अप] आसन, तह, परत।
* विस्तर।
* वृक्षा
* शोक, विष भक्षण परिणाम। (जयो०७० ३/१३) * निराशा, हताशा, नैराश्या विषादायैव तत्पश्चान्नश्यदेव प्रपश्यते। (वीरो० १०/३) * थकान, म्लान। * अवस्था ।
* मन्दता, जड़ता, संज्ञाहीनता। विषाददायकः (पु०) कष्टदायक, निराशाजनक।
(जयो०० ८/८३) विषादिन् (वि०) [विषाद+इनि] खिन्न, उद्विग्न।
* उदास, विषण्ण। (जयो० १/३५)
* विष खाने वाला। (सुद० ११२) विषादिदुर्गा (स्त्री०) दु:ख गम्या दुर्गा, रुद्ररूप दुर्गा।
(जयो० ३/८७) विषारः (पुं०) [विष+स्+अच्] सर्प, सांप। विषालु (वि०) [विष+आलच] विषैला, जहरीला। विषु (अव्य०) [विष् कु] * भिन्नतापूर्वक।
* समान, सदृश।
* दो सदृश भागों में। विषुपं (नपुं०) [विषु पा+क] विषुवत् रेखा। विषुवं (नपुं०) मेषराशि या तुलाराशि में प्रवेश होना। विषूचिका (स्त्री०) [वि+सूच्+ण्वुल टाप्] हैजा एक महामारी। विषोपयोगः (०) विष का उपयोग। (दयो० १२३) विष्क् (सक०) मारना, हनन करना वध करना, मात करना।
* देखना, प्रत्यक्ष करना। विष्कन्दः (पुं०) [वि+स्कन्द्+अच] * तितर बितर होना,
* जाना, गमन। विष्कम्भः (पुं०) [वि+स्कंभू+अच] * अवरोध, रुकावट,
बाधा। * सांकल, चटकनी।
* थूणी, स्तम्भ। विष्कम्भः (पुं०) अवान्तर कथा। विष्कम्भकः (पुं०) नाटक की कथावस्तु का स्थापन।
* विस्तार, लम्बाई। विष्कम्भित (वि०) [विष्कंभ इतच्] अवरुद्ध, बाधायुक्त। विष्कभिन् (पुं०) [विष्कभ+इनि] अर्गला, सांकल, चटखनी। विष्किटः (पुं०) [वि+कृ+क] इधर-उधर बखेरना, फाड़
डालना। * मुर्गा।
विष्टरभाज् (वि०) आसन पर बैठा हुआ। विस्टरश्रवस् (पुं०) विष्णु, कृष्ण। विष्टिः (स्त्री०) [विष्+क्तिन] व्याप्ति। (सम्य० ११०)
* कर्म, व्यवसाय।
* भाड़ा, मजदूरी। विष्ठलं (नपुं०) दूरवर्ती स्थल, दूरी वाला स्थान। विष्ठा (स्त्री०) [वि स्था+क+टाप्] * मल, पाखाना, लीद।
(मुनि० १३) विष्णुः (पुं०) विष्णु नाम विशेष। (दयो० ३१)
* अग्नि।
* पुण्यात्मा। विष्णुक्रमः (पुं०) विष्णु के पैर।। विष्णुगुप्तः (पुं०) चाणक्य। विष्णुचन्द्रः (पुं०) एक राजा का नाम। (वीरो० १५/४९) विष्णुतैलं (नपुं०) एक औषधि विशेष। विष्णुदैवत्या (स्त्री०) चान्द्रमास की एकादशी। विष्णुपदं (नपुं०) आकाश, अन्तरिक्षा विष्णुपदी (स्त्री०) गंगा। विष्णुपुराणं (नपुं०) अठारह पुराणों में एक पुराण। (दयो०३१) विष्णुरथः (पुं०) गरुड। विष्णुवर्धनः (पुं०) एक राजा। (वीरो० १५/४६)
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विष्णुवल्लभा
१००९
विसारः
विष्णुवल्लभा (स्त्री०) लक्ष्मी। विष्णुवाहनः (पुं०) गरुड पक्षी। विष्पन्दः (पुं०) [विस्पन्द+घञ्] * धड़कन, स्यन्दन, कंपन। विष्कारः (पुं०) [वि+स्फुर+णिच्] धनुष की टंकार, कंपन। विष्य (वि०) [विशेण वध्य] विष देकर मारे जाने योग्य। विष्यन्दः (पुं०) [वि+ष्यन्द्+घञ्] बहना, रिसना, झरना, टपकना,
चूना। विष्व (वि०) पीड़ादायक, कष्टजन्य।
* उत्पातकारी, हारिकारक। विष्वक् (वि०) सर्वत्र। (वीरो० २१/१५) विष्वग्भू (पुं०) राजा। (वीरो० २२/१४) विष्वच् (वि०) [विषु अञ्चति-विष्+अच्+क्लिन्] सर्वव्यापक,
पूर्ण व्याप्त। ___* भिन्न-भिन्न, पृथक्-पृथक्। विष्वणनं (नपुं०) [वि+स्वन् ल्युट्] भोजन करना, आहार
लेना। विष्वद्रयच् (स्त्री०) सर्वत्र, सर्वव्यापक। विस (सक०) डालना, फेंकना, भेजना। विसंयुक्त (भू०क०कृ०) [वि+सम्+युज्+क्त] पृथक् पृथक्
किया हुआ, वियुक्त किया हुआ। विसंयोगः (पं०) वि+सम्+यज+घना बिछोह. वियोग, अला
अलग होना। विसंवादः (पुं०) [वि+सम्+वद्+घञ्] * धोखा, छल, विवाद।
(जयो०वृ० २/१८७) * निराशा, असंगति, असंबद्धता। * असमञ्जस। (जयो० १२/१८) * असहमति।
* वचनविरोध। विसंवादिन् (वि०) [विसंवाद+इनि] * असहमति व्यक्त
करने वाला, विवाद करने वाला। * असंगत, विरोधात्मक। * धूर्तता, जालसाजी।
* असहमत, धोखा देने वाला। विसंष्ठुल (वि०) [वि+सम्+स्था+उलच] अस्थिर, विक्षुब्ध।
* असम। विसंकट (वि०) [विशिष्टः संकटो यस्मात] भयानक, डरावना। विसंकटः (पुं०) सिंह।
* इंगुदी वृक्षा
विसंगत (वि०) [वि+सम्+गम्+क्त] अयोग्य, असम्बद्ध, बेमेल। विसंधिः (स्त्री०) [विरुद्धः सन्धि] सन्धि अभाव, विग्रह युक्त। विसरः (पुं०) [वि+स+अप] * जाना, फैलाना, विस्तार
करना। (जयो० २३/६७) * भीड़, समुच्चय, समुदाय।
* ढेर, राशि। विसर्गः (पुं०) [वि+सृज्+घञ्] * खोटा धंधा। (सुद०१/२३)
* उत्सर्जन, परित्याग, विसर्जन। (जयो०८/६७) * गिराना, उड़ेलना, फेंकना। * अन्तिमावस्था। (जयो० २६/१)
भेंट देना, दान, उपहार। * जुदाई, बिछोह, वियोग। * प्रकाश, ज्योति, बिन्दु, निर्दिष्ट। (जयो० ३/४९) * लिखने में एक प्रतीक, जो स्पष्ट रूप से महाप्राण है तथा दो बिन्दु (:) लगाकर प्रकट किया जाता है।
(जयो०वृ०८/४९) विसर्गपरिणामः (पं०) लोकोत्तरवत्ति। (जयो०८/५५) विसर्गलोपः (पुं०) त्याग लक्षण। (जयो० १९/३५) विसर्जनं (नपुं०) [वि+स+ल्युट] * परित्याग, छोड़ना, भेजना।
(वीरो० १५/५०) (सुद० १०३) * विदा करना, प्रेषण करना। (सुद०७१) * भेंट, दान, उपहार, प्राभृत। * उद्गार, उड़ेलना।
* पलायन। (जयो० ७/२३) विसर्जनीय (वि.) [वि+सृज+अनीयर] परित्यक्त किये जाने
योग्य, प्रेषण करने योग्य, उपहार योग्य।
* विसर्ग युक्तता। विसर्जित (भू०क०कृ०) [वि+सृज्+णिच्+क्त] * उद्गीर्ण,
परित्यक्त, त्यागा गया।
* प्रदत्त, दिया गया। ___ * प्रेषित, भेजा गया। विसर्पः (पुं०) [वि+सप+घञ्] * रेगना, सरकना।
* फैलाव, संचार, प्रवाह। विसर्पणं (नपुं०) [वि+सप+ल्युट्] * रेंगना, सरकना, चलना। ___* प्रसारण, फैलात, विस्तारण।। विसस्थितः (पुं०) कमलदलान्त। (जयो० २५/३७) विसामकरणं (नपुं०) सामनीति का प्रयोग। (जयो० ७/८०) विसारः (पुं०) [वि+स+घञ्] * प्रसारण, फैलाना, बिछाना।
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विजृम्भित
१०१०
विस्फारित
* रेंगना, सरकना।
* मछली, मीन। (जयो० ३/३१) विसारसन्तति (स्त्री०) मीन संतान। (जयो० ३/३१) विसारिन् (वि०) [वि+स+णिनि] * प्रसार करने वाला, फैलाने
वाला।
* रेंगने वाला, सरकने वाला। विसिनी (स्त्री०) कमलिनी । (दयो०२/७) विसूचिका (स्त्री०) [वि+सूच्+ण्वुल्+टाप्] हैजा। विसूरणं (नपुं०) [वि+सूर+ल्युट] दुःख, शोक। विसूरितं (नपुं०) पश्चात्ताप, दुःख शोक। विसूरिता (स्त्री०) ज्वर, बुखार। विसृज् (सक०) छोड़ना, त्यागना, विसर्जन करना। (सुद०७०) विसृत (भू०क०कृ०) [वि+सृ+क्त] * फैलाया हुआ, प्रसारित
किया हुआ।
* विस्तारित, कथित। विसमर (वि०) [वि+सृ+क्वरप्] रेंगने वाला, सरकने वाला,
व्याप्त होने वाला। चलने वाला। विसष्ट (भू०क०कृ०) [वि+सृज्+क्त] उद्गीर्ण, उगला हुआ।
* उत्पन्न, निःसृत। * टपकाया हुआ, झराया हुआ। * फेंका गया, बाहर किया गया।
* परित्यक्त, उन्मुक्त। विस्टरतवरः (पुं०) सिंहासन। (दयो० १०६) विस्तरः (पुं०) [वि+स्तृ+अप्] * विस्तार, फैलाव, प्रसार।
* वैपुल्य, विपुलता। (जयो०वृ० ६/१०२) * विस्तरा, आसन। * वितान। (जयो०वृ० १/५०) * विस्तर, बिछौना (दयो० ८९)
* बहुतायत, परिमाण, समुच्चय। विस्तरिणी (पुं०) बिछौना। (सुद० ८२) विस्तारः (पुं०) [वि+स्तृ+घञ्] * प्रसारण, फैलाव, विकास।
* विपुलता, विशालता। (सुद० १२४) * आयाम, चौड़ाई। * परिणाह। (जयोवृ० १७/५३) * परिणाम। * विवरण, ब्यौरा, विरचेन। * कयास
* झाड़ी। विस्तारिणी (स्त्री०) सारिणी, पंक्ति। (जयो०७० ३/४१)
रेखा। सारिणी विस्तारिणी चन्द्रलेखेव भाति। * उत्तरोत्तर विस्तरण शीला (वीरो० २/२०)
विस्तीर्ण (भू०क०कृ०) [वि+स्तृ+क्त] * विशाल, व्यापक,
बृहद्, बड़ा। * चौड़ा, फैला हुआ। * सघना * बिछाया गया, फैलाया गया।
* विस्तार किया गया। विस्तीर्ण जलप्रपातः (पुं०) फैला हुआ जल स्रोत। विस्तीर्ण ज्योति (स्त्री०) व्यापक ज्योति। विस्तीर्णपर्णं (नपुं०) जड़, मानक। विस्तीर्णपत्रं (नपुं०) सघन पत्र। विस्तीर्णमाला (स्त्री०) बड़ी माला। विस्तीर्ण सरिता (स्त्री०) व्यापक क्षेत्र वाली नदी। विस्तीर्ण स्थानं (नपुं०) चौड़ा स्थान। विस्तीर्णारण्य (नपुं०) सघन वन क्षेत्र। विस्तृत (भू०क०कृ०) [विस्तृ+क्त] * सुपरिणाह, व्यापक।
(जयो० २२/६०) * व्यापन्न। (जयो०७० ३/८४) * चौड़ा। * प्रसारित, फैलाया गया।
* विपुल, सघन, अधिक। विस्तृत चरितं (नपुं०) व्यापक चरित्र। 'विस्तृतं सुपरिणाहं
चरितं यस्य' (जयोवृ० २२/६०) विस्तृतश्रृंखला (स्त्री०) सघन माला। विस्तृतशाखा (स्त्री०) फैली हुई शाखाएं। विस्तृतिः (स्त्री०) [विस्तृ+क्तिन्] * विस्तार, फैलाव। ___ * चौड़ाई, फासला।
* विशालता।
* व्यापकता। विस्पष्ट (वि०) [विशेषेण स्पष्ट] * सुबोध, सरल, सीधा।
* स्पष्ट, व्यक्त, प्रत्यक्ष। विस्फारः (पुं०) [वि+स्फुट्+घञ्] * कम्पन, धड़कन।
* हलन चलन।
* धनुष की टंकार। विस्फारित (भूक०कृ०) [विस्फार+इतच्] * प्रकम्पमान,
चलायमान। * विस्तृत किया हुआ, फैलाया हुआ। * प्रकटित, प्रदर्शित। * टंकार युक्त, ध्वनित।
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विस्फारिन्
१०११
विहङ्गः
विस्फारिन् (वि०) प्रलम्बमान, लटका हुआ, फैलाया हुआ, | विस्मित (भू०क०कृ०) [वि+स्मि+क्ति] * अदभुत, चकित, (वीरो० २/३) विस्तृत हुआ।
आश्चर्यान्वित, आश्चर्यचकित। (जयोवृ० १५२५) (जयो० विस्फालित (वि०) फैलाया हुआ। (वीरो० २१/६)
२०/८२) विस्फुर् (अक०) चमकना, प्रकाशित होना। (सुद० ८१) * भौचक्का, हक्काबक्का। विस्फुलिंगः (पुं०) [वि+स्फुर+डु] * चिनगारी, ज्योति तरंग। * कार्य के प्रति विपरीतता। * विष विशेष।
विस्मितमित (वि०) ग्लानि युक्त। (मुनि०१३) विस्फूर्जथः (पुं०) [वि+स्फूर्ज+अथुच्] दहाड़ना, गरजना,
विस्म (सक०) भूलना, स्मरण नहीं रहना। (सुद० ९९) कड़कना।
विस्मृत (भू०क०कृ०) [वि+स्मृ+क्त] * भूला हुआ, * आन्दोलित होना, हिलना।
स्मरणविहीन हुआ। * लहरों का उठना।
विस्मृतिः (स्त्री०) [वि+स्मृक्तिन्] अस्मरण, भूलना, याद न विस्फूर्जितं (नपुं०) दहाड़, चीत्कार, चिल्लाहट।
रहना। * फल, परिणाम।
विस्मेर (वि०) [वि+स्मि+रन्] * विस्मय युक्त, आश्चर्य विस्फूर्तिमान् (वि०) चहल-पहल, आन्दोलित, प्रकंपित।
चकित। (जयो० १८/२२)
* भौचक्का, हड़बड़ाया हुआ। विस्फोटः (पुं०) [वि+स्फुट्+घञ्] * फोड़ा, अर्बुद, रसौली।
विसंसः (पुं०) क्षत होना, गिरना। लुड़कना, पतित होना। __* चेचक, शीतला।
* शैथिल्य, कमजोरी, निर्बलता। विस्फोटव (पुं०) चेचक, शीतला रोग। (जयो०वृ० १८/१९)
विप्रेसन (वि०) [वि+संस्+ल्युट्] * पतन, बहना, टपकना। विस्फोटकनामरोगः (पुं०) चेचक। * शीतला रोग।
* खोलना, ढीला करना। विस्फोटा (स्त्री०) घाव, फोड़ा, अर्बुद, रसौली।
* रेचक, विरेचन। विस्मयः (पुं०) [वि+स्मि+अच्] * आश्चर्य, अचम्भा, अचरज।
विनब्ध (वि०) क्षत, क्षय, घात। (जयो०१२/८५)
विनसा (स्त्री०) [वि+संस+क+टाप] * क्षय, गिरना, अध:पतन। * अद्भुत। (जयो०३० २०/८९) सुरतानुसारिसमयैर्वा मानवविस्मयायाऽमी' (जयो०६/९)
___ * निर्बलता, जर्जरता। * अभिमान, अहंकार, घमण्ड। (समु० ६/४३)
विसस्त (भू०क०कृ०) [वि+संस्+क्त] ढीला किया हुआ। नभोगत्तवातिगतश्च-विस्मयः
___* दुर्बल, बलहीन। * अनिश्चय, संदेह।
विसवः (पुं०) [वि++अप्] बहना, टपकना, रिसना, चूना। विस्मयंगम (वि०) [विस्मयं गच्छति-विस्मय+गम्+खश+मुम्]
विसावणं (नपुं०) [वि+सु+णिच्+ल्युट्] रक्त बहना, रिसना। विस्मयकर/विस्मयकरी (वि०) आश्चर्यजनक।
विमुतिः (स्त्री०) [वि+मुक्तिन्] रिसना, गिरना, झरना, टपकना। अद्भुत (जयो०१० २०/८९) आश्चर्य को उत्पन्न करने
विस्वर (वि०) [विरुद्धः विगतो ता वरो यस्य] स्वर विहीन, वाली। (जयो० २२/१५७)
बेसुरा। विस्मयोत्पादक (वि०) आश्चर्यकर, विस्मयकर। (जयो०८७३) विहगः (पुं०) [विहायसा गच्छति-गम्+ड] * पक्षी। ___* अदभुत कार्यकारी।
* बादल। विस्मरणं (नपुं०) [वि+स्मृ+ल्युट्] विस्मृति, भूल जाना, याद
न रहना। विस्मापनं (वि०) [वि+स्मि+णिच् ल्युट] आश्चर्य उत्पन्न * चन्द्र। करना, विस्मय होना।
* नक्षत्र। विस्मापनः (पुं०) कामदेव।।
विहङ्गः (पुं०) [विहायसा गच्छति-गम्+खच्] * पक्षी। * छल, धोखा। विस्मापनो हरिश्चन्द्रपुरे वा कुहने स्मरः * बादल। 'इत्यभिधानात्' (जयो० ११/६२)
* बाण।
बाण।
सूर्य।
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विहङ्गमः
१०१२
विहेठनं
* सूर्य।
विहारः (पुं०) [वि+ह+घञ्] गमन, पर्यटन। (जयो० १/५८) * चन्द्र। (जयो० १५/२०)
* भ्रमण, परिभ्रमण, सैर करना। विहङ्गमः (पुं०) पक्षी।
गमन। (सुद०८४) विहङ्गरात (पुं०) पक्षी राज, गृद्ध, गरुड़।
क्रीडा, खेल, मनोविनोद, मनोरञ्जन, आमोद-प्रमोद। विहङ्गेन्द्रः (पुं०) पक्षी-गरुड़ पक्षी।
* वाटिका, आरामगृह, उद्यान, उपवन। विहत (भू०क०कृ०) [वि+ह्र+क्त] पूर्ण आहत, घायल। * आश्रम। * बध युक्त।
विहारिन् (वि०) गमनशीला (जयो० ९/२५) ___ * चोट ग्रस्त।
* मनोविनोदी, मनोरंजन युक्त। * अवरुद्ध, विरोध किया गया।
विहित (भू०क०कृ०) [वि+धा+क्त] प्रस्तुत, प्रकाशित। विहतिः (स्त्री०) [वि+हन्+क्तिच्] सखा, साथी, मित्र।
(जयो०४/१६) विहननं (नपुं०) [वि+हन्+ल्युट्] * हनन्, ०घात, * क्षति, * अनुष्ठित, कृत, बनाया हुआ। ०हानि।
* निर्मित, समादिष्ट, आदिष्ट। * हत्या, वधा
* संचरित, रक्खा हुआ। * अवरोध, रुकावट, अड़चन।
* सुसज्जित। विहरः (पुं०) [वि+ह+अप] * अपहरण करना, छीनना, * वितरित। हटाना।
विहितिः (स्त्री०) अनुष्ठान, क्रिया, कार्य। * वियोग, बिछोह।
* व्यवस्था। विहरणं (नपुं०) अपहरण करना।
विहीन (भू०क०कृ०) [वि+हा+क्त] * रहित, अभाव, परित्यक्त, ___ * टहलना, घूमना।
त्यागा गया। विहरन्त [वि+ह्य+शत्] विचरण करता हुआ।
* शून्य, वञ्चित। * अपहरण करता हुआ। (विहरत (जयो० ९/६८) विहरन्त। * अधम, निम्न, नीचा। (सम्य० १५३) (सुद० २/१८)
विहीनगेह (वि०) घर रहित। विहरन्ती (वि+ह शतृ ङीप्) विचरण करती हुई। (सुद०१३३) विहीनजाति (वि०) हीन जाति वाला। विहरन्तु (विचरण करें (सुद० ७६)
विहीनवादी (वि०) यथार्थवादिता रहित। विहर्त (पुं०) [वि+ह तृच] भ्रमणशील, लुटेरा।
भो गोमयादाविह वृश्चिकादिविहर्षः (पुं०) [विशिष्टो हर्षः] उल्लास, प्रसन्नता।
श्विच्छक्ति रायाति विभो अनादि। विहसम (नपुं०) [वि+हस्+ल्युट्] मुस्कान, मंद हंसी। . जनोऽप्युपादान विहीनवादी, विहस्त (वि०) [विगतः हस्तो यस्य] हस्तरहित।
वह्निं च पश्यन्नरणे प्रमादी।। (जयो० २६/९४) * व्याकुल, पराभूत, शक्तिहीन।
विहीनशक्ति (वि०) शक्तिशून्य, बल रहित। * छाया रहित। अशक्त, अक्षम।
विहृत (भू०क०कृ०) [वि+ह+क्त] खेला हुआ, खिलाया विहा (अव्य०) स्वर्ग।
हुआ। विहापित (भू०क०कृ०) [वि+हा+णिच्+क्त-पुकागमः] * विहृतिः (स्त्री०) [वि+ह+क्तिन्] हटाना, दूर रहना। परित्यक्त कराया गया, छुड़ाया गया।
* क्रीड़ा, मनोविनोद। विहायस् (नपुं०/पुं०) [वि+ह्य+असुन] आकाश, अंतरिक्ष, मेघ। (सुद० २/१८)
* प्रसार। * पक्षी।
विहेठक (वि०) [वि+हे+ण्वुल्] क्षति पहुंचाने वाला। विहायसा (वि०) गमनशीला। (जयो०२४/४) * आकाशीय। । विहेठनं (नपुं०) [वि+हे+ल्युट्] * क्षति पहुंचाना, घात विहायसदनं (नपुं०) आकाशगृह।
करना।
* विहार।
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विह्वल
१०१३
वीतिः
* पीसना, रगड़ना, मसलना।
* कष्ट देना, पीड़ा, दु:ख। विह्वल (वि०) [वि+ह्वल्+अच्] विक्षुब्ध, अशान्त, व्याकुल,
घबराया हुआ। * डरा हुआ, विक्लव। (जयो०वृ० १३/६९) * कष्टग्रस्त, दुःखी। * विषादपूर्ण।
* पिघला हुआ। वी (सक०) जाना, पहुंचना।
* लाना। * उपभोग करना, प्राप्त करना।
* जन्म लेनाः वी (पुं०) पक्षी, विहग। (वीरो० २/१४) (जयो० ३/११३) वीकः (पुं०) पक्षी, विहग।
* वायु, पवन।
* मना वीकासजुष (वि०) विकासोन्मुखी। (वीरो० ९/४२) वीक्षं (नपुं०) [वि+ईश्+अच्] आश्चर्य, अचम्भा, अद्भुत। वीक्षणं (नपुं०) [वि+ईक्ष ल्युट्] अवलोकन। (जयो० ९/६८)
देखना, निहारना, दृष्टि डालना। वीक्षमाण (वि०) दर्शक, देखने वाला। (जयो० ३/५५) वीक्षा (स्त्री०) दृष्टि, दर्शन, देखना। वीक्षाकारिणी (स्त्री०) प्रतिष्ठादायिनी (जयो०७० २३/४) वीक्षितं (नपुं०) [वी+ईक्ष् क्त] दृष्टि, झलक। अवलोकित।
(जयो० ९/६९) वीक्ष्य (वि०) [वि+ईश्+ण्यत्] देखे जाने योग्य, दृश्य।
* दृष्टिगोचर। वीक्ष्यः (पुं०) अभिनेता, नायक, नर्तक।
* पात्र, नट। वीक्ष्यं (नपुं०) दृश्यमान पदार्थ।
* आश्चर्य, अचम्भा। वीला (स्त्री०) [वि+इस+अ+टाप्] * प्रगति, गति, गमन। वीचारः (पुं०) अर्थ, व्यञ्जन और योग परिवर्तन। वीचिः (स्त्री०) [व+ईचि] तरंग, लहर।
* सुख, अवकाश-अवकाश सुखे वीचिः इति वि। (जयोवृ० १५/६) * असंगति, विचारशून्यता, आनंद, प्रसन्नता। * विश्राम, अवकाश। * प्रकाश किरण।
वीचिचक्र (नपुं०) तरंग घेरा। (जयो० १६/२१) वीजन (नपुं०) [वीज+ल्युट्] गुल्ली, गिल्ली। बीज, पंखा,
तालवृन्त, वायुसम्पतकर (जयो० २२/४९) एकान्विता
वीजनमेवकर्तुम् (वीरो० ५/३९) वीजय (सक०) हिलाना। (जयो० ७/१०७) वीटिः (स्त्री०) पान की बेल, पान लगाना।
* बंधन, गांठ, ग्रन्थि। वीटिका (स्त्री०) नाश। (जयो० २०/४०) वीणा (स्त्री०) [वेति वृद्धिमात्रामपगच्छति] विपञ्ची (जयो०वृ०
६/७) सारंगी, वीणा, एक वाद्य विशेष। वीणादण्डः (पुं०) वीणा की गर्दन। (जयो० १२/७७) कोलम्ब।
वीणादण्डस्तु कोलम्बः इत्यमरः (जयो० १२/७७) (जयो०
१०/२०) वीणावादकः (पुं०) वीणा बजाने वाला। वीणावती (स्त्री०) एक अप्सरा। (जयो० २२/६७) वीत (भू०ककृ०) [वि+इ+क्त] बीत गया, चला गया।
* अन्तर्हित, तिरोहित। * अतीत, पूर्वगत, तिरोहित।
* उन्मुक्त, छोड़ा गया। वीतभय (वि०) शोक रहित। (मुनि० ३४) वीतराग (वि०) राग रहित, * अनुराग विहीन। (सम्य० १४०) वीतरागकथा (स्त्री०) वस्तु स्वरूप की कथा।
* वीतराग प्रभु के गुणों का कथन। वीतरागचरितं (नपुं०) वीतरागी का कथानक। वीतरागवृत्तिः (स्त्री०) वीतराग की प्रवृत्ति
* पक्षियों का कलरव-विभि, पक्षिभिरितस्य सम्प्राप्तस्य रागस्य सुस्वरोच्चारणस्य वृत्ति सुस्वरोच्चारः। (जयो०७०
१८/५३) वीतरागस्तवं (नपुं०) वीत राग प्रभु का गुणगान। (भक्ति०२५) वीतमय (वि०) निभ्रय। (वीरो० १८/६) वीतंसः (पुं०) [विशेषेण बहिरेव तस्यते भूष्यते-वि+तंस्+घञ्]
* पीजरा, जाल, कटघरा।
* चिड़ियाघर। वीतहेतु (स्त्री०) विधिमुख से जो साध्य को सिद्ध किया जाना
वह सांख्यमानुसार वीतहेतु है। वीतिः (स्त्री०) गति, चाल, गमन।
* उपज, पैदावार। * प्रकाश, कान्ति।
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वीथिः
१०१४
वीरविक्रमादित्यः
वीथिः (स्त्री०) मार्ग, पथ, रास्ता।
कुर्यात् क्वापि कदापि जन्म, * पंक्ति , कतार।
च निजं पश्येदिदं साधिकम्।। * हाट, आपणिका।
वीरचामुण्डराज् (पुं०) नृप विशेष। (वीरो० १५/४०) * नाटक का एक भेद।
(मुनि०२८) * राजा चामुण्डराज। वीथिका (स्त्री०) [वीथि+कन+टाप] * मार्ग, पथ, रास्ता। वीरजयन्तिका (स्त्री०) रणनृत्य, रणोत्वन। * चित्रसारिणी, चित्रशाला, कलामंच।
___ * संग्राम, युद्ध। वीध (वि०) [विशेषेण इन्धते-वि+इन्ध्+क्रन्] निर्मल, स्वच्छ, । वीरता (वि०) शौर्य, पराक्रम, शक्तिसम्पन्नता। (जाये० ९/८९) साफ, शुभ।
वीरता शक्तिभावश्चेद्रीरुता किं पुनर्भवेत। (वीरो० १०/२९) वीधं (नपुं०) * आकाश, वायु, हवा, अग्नि।
चिन्तिं हृदये तेन वीरं नाम वदन्ति माम्। वीनत (वि०) तत्पर। (सुद० १०९)
किं कदैतन्मयाऽबोधि कीदृशीमपि वीरता।। वीनतः (पुं०) वैनतय, गरुड़, कृष्ण का वाहन। (सुद० १०९) * तिथि विशेष। (जयो० ६/८८) (वीरो० १०/२८) वीप्सा (स्त्री०) [वि+अप+सन्+अ+टाप्] परिव्याप्ति, शब्द, वीरतरु (पुं०) अर्जुनवृक्षा पुनरावृत्ति।
वीरदेवः (पुं०) महावीर। (वीरो० १९/१) वीना (स्त्री०) पक्षी।
वीरधन्वन् (पुं०) कामदेव। वीभ (अक०) डींग मारना, शेखी मारना।
वीरपट्टः (पुं०) युद्धपट्ट, पराक्रम पट्ट। (जयो० ७/२८) वीर (वि०) [अजेः रक् वीभावश्च] विशेषेण ईरयति क्षिपति वीरपुरुषः (पुं०) शूरवीर व्यक्ति। (जयो०वृ० १/१६)
कर्माणीति वीरः (जैन०ल० १०२१) योद्धा, शूरवीर, वीप्रतिवेदन (नपुं०) महावीर की देशना। (वीरो० १४/४४) शक्तिशाली, बलवान्, विक्रान्त।
वीरप्रभुः (पुं०) तीर्थकर वीरप्रभु, चौबीसवें तीर्थंकर महावीर वीरः (पुं०) वीर, योद्धा।
का अपर नाम। (मुनि० ३४) (वीरो० १३/२०) (सुद० * अभिनेता।
१/१) (वीरो० १६/३६) किन्तु वीरप्रभुर्वीरो हेलया तानतीतवान् * अग्नि। वीरो० १/५) विशिष्टा मां लक्ष्मी मुक्तिलक्षणा (वीरो० १०/३६) मभ्युदयलक्षणां वा रातीति वीरः।
वीरभगवन (पं०) वीरप्रभ. तीर्थकर महावीर। (वीरो०१/९) * तीर्थंकर महावीर का अपर नाम, चौबीसवें तीर्थंकर का वीरभक्ति (स्त्री०) वीरप्रभु की शक्ति। नाम-निजगाद स विस्मयो गिरा भवि वीरोऽयमितीह देवराट्। वीरभावः (पुं०) सिंहवृत्ति। * वीरता युक्त स्वभाव (वीरो० (वीरो० ७/३१)
२२/५१) वीर! त्वमानन्दभुवामवीरः मीरो गुणानां जगताममीरः। वीरभास्वत (वि०) वीरप्रभु रूपी किरण वाला। (वीरो० १५/५३) एकोऽपि सम्पातितममनेक लोकाननेकान्तमतेन नेक।। वीरमति (स्त्री०) पुष्कलदेश के छब्रपुरी के राजा की रानी। (वीरो०१/५)
__ (वीरो० ११/३५) वीरकुञ्जरः (पुं०) वीर शिरोमणि, शूरवीर। (जयो० १३/२७) वीर मनुजः (पुं०) शक्तिशाली मनुष्या वीरकीटः (पुं०) निम्न सैनिक।
वीरमार्गानुयायिन् (वि०) महावीर के मार्ग का अनुसरण वीरगर्भः (पुं०) वीरप्रभु का गर्भ में प्रवेश।
___ करने वाले। ( वीरो० १५/५८) वीरस्य गर्भेऽभिगमप्रकार आषाढमासः शुचिपक्षसारः। वीरमुद्विका (स्त्री०) पैर का छल्ला, बिछुड़ी। तिथिश्च सम्बन्धवशेन षष्ठी, ऋतुः समारब्धपुनीतवृष्टिः।। वीररसः (पुं०) वीरता से परिपूर्ण भाव। (वीरो० ४/२)
वीररजस् (पुं०) सिंदूर। वीरचर्या (स्त्री०) आर्यिकाओं के लिए निषिद्ध एक चर्या। वीरराट समनुदायिन (वि०) वीर प्रभु के अनुयायी। (मुनि० २८)
वीरवल्लालः (पुं०) एक राजा का नाम। (वीरो० १५/४१) भूत्वा पूर्ववदाचारेत् सुचरितं,
वीरवाचि (वि०) श्रुतकेवली। (वीरो० २२/३) नो वीर्यचर्यादिकम्।
वीरविक्रमादित्यः (पुं०) नृप विशेष। (वीरो० २२/१५)
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वीरविभुः
१०१५
वृक्षचरः
-
वीरविभुः (पुं०) वीरप्रभु। (सुद० १/४)
वीर्यानुप्रवादः (पुं०) एक पूर्वग्रंथा वीरवीरः (पुं०) वीरता में अग्रणी। (वीरो० १६/३०) वीर्यानुवादः देखों ऊपर। बीरवक्षः (पुं०) अर्जुनवृक्षा (वीरो० १५/२१, १५/५३-५५) वीर्यान्तरायः (पुं०) शक्ति में अन्तराय। वीर्य बलं औरमी (स्त्री०) बललक्ष्मी, शौर्यश्री। (जयो० ८/२४)
शुक्रमित्येकोऽर्थः' 'अन्तरमेति गच्छतीत्यन्तरायः' वीर्यस्य रदिशः वीर प्रभु की देशना। * (वीरो० १४/१)
विघ्नकृदन्तरायः वीर्यान्तरायः' (जैन ल० १०२२) औरसैन्य (नपं०) लहसन।
वीवधः (पुं०) बहंगी, बोझ वाहन। बीरस्कन्धः (पुं०) भैंसा।
___* अनाज संचयन, * मार्ग, पथ। वीर (पुं०) विष्णु।
वृची (स्त्री०) भयसूचक शब्द। (जयो० २/६५) वीरा (स्त्री०) वीराङ्गना, * पत्नी, भार्या।
वृण (सक०) छांटना, चुनना, चयन करना, पसंद करना। __ * जननी, गृहिणी। * गद्य! * अगरलकड़ी।
* घेरना, लपेटना। वीरधिन् (नपुं०) वीर प्रभु के चरण। (वीरो० १५/२२) वृंहण/वृहिण (नपुं०) दावानल दववतेविषेषणं स्यात। (जयो० बीरवर्मन् (नपुं०) वीरप्रभु का मार्ग। (वीरो० १५/५९)
१३/५०) वीरासन (नपुं०) एक आसन विशेष, दोनों जंघाओं के ऊपर रोहित (वि०) गर्जित, चिंघाड़। (जयो० १३/३५) दोनों पांवों को रखना।
वृक् (सक०) पकड़ना, लेना, ग्रहण करना। वीरुध् (स्त्री०) शाखा, अंकुर, * बेंत, लता, झाड़ी। वृकः (पुं०) भेडिया, लकड़बग्घा। (वीरो०१४/५९) वीरोक्त (वि०) वीर द्वारा कथित। (सुद० १३७)
* गीदड़। वीरोदयः (नपुं०) वीरोदय नामक महाकाव्य, (वीरो०१४/४९) * काका
आचार्य ज्ञानसागर द्वारा संस्कृत का एक महाकाव्य। * उल्लू। वीरोदयं यं विदधातुमेव न,
* लुटेरा। शक्तिमान् श्रीगणराजदेवः।
* क्षत्रिया दधाम्यहं तम्प्रति बालसत्त्वं
* एक राक्षस। वहन्निदानीं जलगेन्दुतत्त्वम्। (वीरो० १/७)
वृकदंशः (पुं०) कुत्ता, श्वान। वीरोदयोदार विचारचिह्न
वृकधूपः (पुं०) तारपीन, मिश्रगन्ध। सतां गलालङ्करणाय किन्न।। (वीरो० १/१०)
वृकधूर्तः (पुं०) गीदड़ा वीरोदित (वि०) वीर द्वारा कथित। वीरस्य श्रीवर्धमान वृकारातिः (पुं०) कुत्ता। तीर्थकर्तुरुदिते संवदिते। (जयो० १८/४५)
वृकारिः (पुं०) श्वान, कुत्ता। बीर्य (नपुं०) [वीर+यत्] शक्ति, बल, पराक्रमा (सम्य०९२) वृक्कः (पुं०) हृदय, गुर्दा
* पुंस्त्व, * ऊर्जा, * द्रव्य की स्वशक्ति विशेष। * दृढ़ता, वृक्ण (भू०क०कृ०) [वृश्च्+क्त] कटा हुआ, बांटा हुआ, * साहस क्षमता।
फाड़ा हुआ। * शुक्र, वीर्य, * गौरव, महिमा।
वृक्त (भू०क०कृ०) [वृज्+क्त] स्वच्छ किया गया, साफ वीर्यप्रवादः (पुं०) एक विवेचन युक्त पूर्वग्रंथ, जिसमें आत्म किया गया, निर्मल किया गया। विवेचन हो। (जयो०)
| वृक्ष (सक०) स्वीकार करना, चयन करना, अंगीकार करना। वीर्यवत् (वि०) [वीर्य+मतुप्] दृढ़, शक्तिशाली, शक्ति से * ढकना। सम्पन्न।
वृक्षः (पुं०) पेड़, तरु, पादप, रुख। वीर्यसंज्ञितः (पुं०) अनन्तवीर्य। राजा जयकुमार का पुत्र।
* अनोहकट। (वीरो०२/१९, जयो०१४/६) 'वीर्यपदं तेन संज्ञितोऽनन्तवीर्यनामा' (जयो० २६/२) वृक्षकुक्कुटः (पुं०) जंगली मुर्गा। वीर्याचारः (पुं०) स्वशक्ति निगूहन वृत्ति।
वृक्षखण्डः (पुं०) निकुंज, वृक्ष समूह। * स्वसामर्थ्यनिगूहन वृत्ति
वृक्षचरः (पुं०) वानर, बंदर।
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वृक्षछाया
१०१६
वृत्तफलः
* लौटना।
वृक्षछाया (स्त्री०) तरुतल, वृक्ष के नीचे। (सुद० ११८)
* अनुसरण करना। वृक्षधूपः (पुं०) तारपीन।
* अनुरंजन करना। वृक्षनाथः (पुं०) वटवृक्षा वृक्षनिवासी (स्त्री०) नगौकस, खग, पक्षी। 'नगौकसी | वृत (भू०क०कृ०) [वृ+क्त] छाटा गया, चुना गया। वृक्षनिवासिनः सन्ति' (जयोवृ० ६/८)
___* समाच्छादित। (जयो०१३/६८) घेरा गया, लपेटा गया। वृक्षपत्रं (नपुं०) अगदल, वृक्षों के पत्ते। (जयो०वृ० १४/४) |
वृतिः (स्त्री०) [वृ+क्तिन्] छांटना, चुनना, स्वीकार करना। वृक्षपाकः (पुं०) वटवृक्षा
__ * घेरना, लपेटना। वृक्षभिद् (स्त्री०) कुल्हाड़ी।
* अनुरोध, प्रार्थना, अनुनय। वृक्षकर्मटिका (स्त्री०) गिलहरी।
वृतिका (स्त्री०) वर्तुलाकार। (जयो० १६/६७) वृक्षमूलः (पुं०) वृक्षभाग, वृक्षतल। (दयो० २२)
वृत्त (भू०क०कृ०) [वृत्+क्त] * दृढ़, विद्यमान, अनुष्ठित। वृक्षवाटिका (स्त्री०) उद्यान, आराम, उपवन।
* कृत, किया गया। वृक्षशः (पुं०) छिपकली।
* गोल, गोलाकार। वृक्षशायिका (स्त्री०) गिलहरी।
वृत्तं (नपुं०) चारित्र, आचरण, सम्यक्चरित्र। (जयो०२/६९)
(भक्ति० ३०) ज्ञानेन वृत्तेन किलेत्यनेनः (सम्य० १२४) वृच् (सक०) चयन करना, छांटना।
* बात, घटना। * स्वीकार करना।
* समाचार। वृज् (सक०) टालना, कतराना, परित्याग करना।
* प्रवर्तन। (सुद० ८६) चुनना, चयन करना।
* प्रवृत्ति, पेशा, व्यवसाय, परिचय। (जयो० ५/५३) * नष्ट करना, समाप्त करना।
* आचरण, व्यवहार, रीति। (सम्य० १२०) (सम्य० * उड़ेलना, फेंकना।
१३७) वृजनः (पुं०) [वृजे+क्युः] धुंघराले बाल।
* छन्द-मात्राओं की गणना वाला छन्द। (सुद० २/३०) वृजनं (नपुं०) पाप।
* नियम, पद्धति, विधान, गोलाकार। (सुद० २/३०) * संकट।
* छन्द-मुदुनीव खेः पद्मे पीठे वृत्ते कवेरिव' (दयो० * आकाश।
१०६) * घेरा, बाड़ा।
* षडरचक्रात्मवृत्त। (जयो०वृ० ६/१३२) वृजिन (वि०) [वृजे: इनज् कित् च] * वक्र, कुटिल, झुका * पद्यावली। (जयो० २०/३१)
* वृतान्त। (सुद० ११६) * अधम, नीच, निम्न, पतित। (जयो०० ८७)
वृत्तकर्कटी (स्त्री०) तरबूज, सरदा। वृजिनः (पुं०) धुंघराले बाल।
वृत्तकुबल (पुं०) गोल गोल मुक्ता। कुवलं तूप्पले मुक्ताफलेऽपि वृजिनं (नपुं०) पाप। वृजिनं कलुषे क्लीवं केशे वा कुटिले त्रिषु बदरी फले इति वि (जयो० २२/३१) __इति वि (जयो०वृ० २८७)
वृत्तगन्धि (नपुं०) छन्दानुबद्धता। * दुःख, कष्ट, पीड़ा।
वृत्तचूड (नपुं०) मुंडित। व्रण (सक०) उपभोग करना, खाना, वरण करना। (जयो०४/६)
वृत्तजातिः (स्त्री०) छन्द रचना। वृजिनोपमा (स्त्री०) पाप से उपमा।
वृत्तपुष्पः (पुं०) बेत, वानीर। ___ * केश से उपमा। (जयो० २८७)
- * सिरस तरु, कदम्बवृक्ष। वृणीत्व (वि०) अंगीकृत। (जयो० ६/७)
वृत्तप्रेषणं (नपुं०) संदेशपत्र, पत्र। (जयो० १/६७) वृणीष्क (वि०) स्वीकार करने योग्य। (जयो०वृ० ६७) वृत्तफलः (पुं०) बेर। वृत् (सक०) चयन करना, स्वीकार करना, पसंद करना।
* उन्नाव तना। * अभ्यास करना, अनुष्ठान करना।
हुआ।
* अनार।
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वृत्तभावः
१०१७
वृद्धाम्बुधि
वृत्तभावः (पुं०) आचरण भाव।
दानवशक्रादि ध्वान्तवारिदवैरिषु इति विश्वलोचनः (जयो०वृ० * वर्तुलाकारत्व। (जयो० ५/४६)
१८/७४) वृत्तमुखः (पुं०) गगन मुख। (सुद० )
वृथा (अव्य०) [वृ+थाल+किच्च] व्यर्थ का, निष्प्रयोजन वृत्तमोहः (पुं०) चारित्रमोह, (सम्य० १२०) किं वृत्तमोहाऽस्तु युक्त। (सुद० ४/१०) (समु० ७/१०) दृशे किलारिः।
* अनावश्यक रूप से, आलस्य पूर्णता से, अनुचित रूप में। वृत्तरत्नाकरः (पुं०) छन्दशास्त्र का नाम।
* मिथ्या, आलसी। वृत्तवचः (पुं०) वृतान्त, समाचार। (सुद० ८८)
वृथाकथा (स्त्री०) व्यर्थ का जन्म, सार्धकता रहित जन्म। वृत्तशास्त्रं (नपुं०) छन्द शास्त्र।
वृथाकारः (पुं०) मिथ्या रूप। वृतशास्त्रज्ञ (वि०) छन्दशास्त्रज्ञ।
वृथाजन्मन् (नपुं०) व्यर्थ का जन्म, सार्धकता रहित जन्म। वृत्तसरूपः (पुं०) सुंदर वृतान्त। (रूप। (जयो० ५/४७) वृथादानं (नपुं०) अन्यथा दान। निष्फल दान। वृत्ताधिगमिन् (वि०) कथानक को प्राप्त। (वीरो० ११/१) वृथाभिमानं (नपुं०) निष्प्रयोजन अहंकार। (वीरो० २०/२३) वृतान्त (वि०) उदन्त, कथन। (जयोवृ० २/१४१) वृथामतिः (स्त्री०) दुर्बुद्धि, मूर्ख। वृत्तिः (स्त्री०) [वृत्+क्तिन्] कार्य, गति, कृत्य, क्रिया। वृथामांसं (नपुं०) अनिष्ट योग्य मांस। सवृत्तिरूपं चरणं श्रुतं च। (सम्य० १२८)
वृथावादिन् (वि०) मिथ्या भाषी। * साधन।
वृथाश्रमः (पुं०) व्यर्थ चेष्टा। * प्रवृत्ति। (सम्य० ४०) (समु० १/२३)
वृद्ध (वि०) [वृध्+क्त] वरिष्ठ, ज्येष्ठ, वृद्धिगत, बढ़ा हुआ। * अस्तित्व, सत्ता।
जिसकी बुद्धि इन्द्रियों एवं कर्मेन्द्रियों का कार्य शिथिल पड़ * अवस्था, दशा।
गया हो। जिसके हाथ, पैर अवस्था विशेष के कारण * स्वभाव। (सुद० २/२)
शिथिल होने से समुचित काम न कर सके। (हित० ४९) * क्रम, प्रणाली। (सुद० ७३)
* बड़ा, महत्, विशाला * सदाचरण, चारित्तदशा, कार्यपद्धति।
* बुद्धिमान्, विद्वान्। * रचना शैली। (सुद० १२४)
वृद्धः (पुं०) ०बूढ़ा व्यक्ति, योग्य व्यक्ति, आदरणीय व्यक्ति। * मजदूरी, भाड़ा।
(सुद० १/१८) * भाष्य, टीका, विवेचन, टिप्पणिका। (जयो० १८/६१) वृद्धं (नपुं०) गुग्गुल। महावृत्ति (सुद०८२)
वृद्धकाकाकः (पुं०) पर्वतीय कोवा। वृत्तिपरिसंख्यानं (नपुं०) आजीविका के साधनों में सीमाकरण। वृद्धद्वारा (पुं०) वृद्धपुरुष। (जयो० ६/१०५)
* तप विशेष।* बाह्य तप का एक भेद, जिसमें आजीविका वृद्धनाभिः (स्त्री०) स्थूलकाय, मोटे पेट वाला। के साधनों पर भी विराम लगाया जाता है।
वृद्धपरम्परा (स्त्री०) तीर्थसम्भव। (जयो०७० ३/१०) वत्तिकषित (वि.) जीविका से दःखी।
वृद्धभावः (पुं०) बुढ़ापा, वृद्धापन। वृत्तिचक्रं (नपुं०) राजचक्र।
वृद्धवाहनः (पुं०) आम्र तरु।। वृत्तिछेदः (पुं०) जीविका विहीन व्यक्ति।
वृद्धशशकः (पुं०) बूढा खरगोश। (दयो० ४६) वृत्तियुत (वि०) जीविका सहित। (दयो० ११३)
वृद्धशासनं (नपुं०) वृद्धजन की आज्ञा। वृत्तिवैकल्य (नपुं०) जीविका का अभाव।
वृद्धश्वश्रू (स्त्री०) बूढ़ी सास। (दयो० १७) वृत्तिस्थ (वि०) सदाचारी।
वृद्धसमयः (पुं०) काव्यशास्त्र। (जयो० २/३४) वृत्तिसंख्यानं (नपुं०) तप का एक भेद। (जयो० २८/११) वृद्धसूत्रकं (नपुं०) कपास का गाला, इन्द्रतूल। वृत्रः (पुं०) [वृत्+रक्] राक्षस विशेष। * दानव। (जयो०१० वृद्धा (स्त्री०) [वृद्ध+टाप्] बूढी स्त्री। १८/७४)
वृद्धानुपेयः (पुं०) वृद्धों की सेवा। (वीरो० १७/८) * मेघ, ०तम, अंधकार, ०ध्वनि, गिरि पर्वत। वृत्रो | वृद्धाम्बुधि (पुं०) वृद्ध समुद्र। (सुद० १/१८) श्रयन्ति
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वृद्धावस्था
१०१८
वृषः
पत्ता
वृद्धाम्बुधिमेव गत्वा ता निम्नगा एव जडाशयत्वात्।। (सुद० । वृद्धिस्थानं (नपुं०) वृद्धिपद 'वृद्धिस्थाने रास्थाने गुणादेशात् १/१८)
रकारविधानाद्' (जयोवृ० ७/९) वृद्धावस्था (स्त्री०) बुढ़ापा, वृद्धपना। (जयो० १/३६)
वृध् (अक०) बढ़ना, विकसित होना। वृद्धावस्थापन्न (वि०) धवल, कर्चक। (जयोवृ० २/१५३)
* फलना, समृद्ध होना। वृद्धिः (स्त्री०) [वृध्+क्तिन्] उत्कर्षभुवि धुतोऽग्रविधिगुणवृद्धिमान् * चमकना। सपदि तद्धितमेव कृतं भजन्। (जयो० वृ०१/९५)
वृधसान: (पुं०) [वृधेः छन्दसि असानच्] मनुष्य। * विकास, उन्नति, प्रगति, परिवर्धन।
वृधसानुः (पुं०) [वृध्+असानुच्] * मनुष्य। * लाभ, वस्तुगत अंशलाभ। * सम्वर्धन, बढ़ोत्तरी।
* कर्म, कार्य। * सूद, सूदखोरी।
वृन्तं (नपुं०) डंठल, डंडी, बौंडी, अग्रभाग। * कलावृद्धि, चन्द्रवृद्धि। * समृद्धि।
वृन्ताकः (पुं०) [वृन्त+अक्+अण] बैंगन का पौधा। * समुदय, समुच्चय, ढेर।
वृन्तिका (स्त्री०) [वृन्त+कन्+टाप् इत्वम्] डंठल। * स्वरो की वृद्धि-अ+इ=ए,
वृन्दं (नपुं०) सम्प्रदाय। (वीरो० ३/४) आ+ए-ऐ, आदि। 'गुण एव अदेङ, वृद्धिरेप् आदैग, तयो * समुच्चय, समुदाय, समूह, ढेर, परिमाण। (वीरो०२१/२५) सिद्धिरपि (जयोवृ० १/३१)
वृन्दगत (वि०) समुच्चय युक्त। * समूह युक्त। अ+ए-ए- तव+एव-तवैव
वृन्दचम् (वि०) सैन्यसमूह। * चतुर्विध सैन्य समुदाय। आ+ए ऐ तथा+एव-तथैव।
वृन्दा (वि०) [वृन्द+टाप्] तुलसी पौधा। अ ऐ ऐ देव+ऐश्वर्यम्-देवैश्यम्।
वृन्दार (वि०) अधिक, बड़ा, भारी। आ+ऐ ऐ महा+ऐश्वर्यम्-महैश्वर्यम्।
___ * प्रमुख, श्रेष्ठ, उत्तम, आदरणीय। अ+ओ=औ उष्ण+ओदनम्-उष्णौदनम्।
वृन्दादक (वि०) देखो ऊपर। आ+ओ=औ गंगा+ओघ: गंगोषः।
वृन्दारण्यं (नपुं०) गोकुल का क्षेत्र। अ+औ=औ कृष्ण औतकण्ठ्य म्,
वृन्दावनं (नपुं०) गोकुल क्षेत्र। * नगर विशेष। कृष्णौतकण्ठ्यम्।
वृन्दिष्ठ (वि.) सुंदरतम, पवित्रतम। अत्यन्त बड़ा। आ+औ=औ महा+औषधम् महौषधम्।
वृन्दीयस् (वि०) सम्माननीय, पूजनीय, आदरणीय, * मनोहर, * 'पाणिनीयव्याकरणसमुक्त्वामक्षरशो' (जयो० २०/७४)
सुंदर, उत्तम 'गुणश्च वृद्धिश्च गुणवृद्धी व्याकरणशास्त्रोक्तोक्ते संज्ञो
वृश् (सक०) छांटना, चुनना। तद्वान् उक्तिविदां वैयाकरणानां पूज्यपात्रामाचार्यवर्यो
वृशः (पुं०) [वृश्+क] चूहा। जैनेन्द्रव्याकरणकर्ता महाशय इव कथितः' (जयो०वृ०१/९५)
वृशं (नपुं०) अदरक। वृद्धिंगत (वि०) वृद्धिको प्राप्त हुआ। 'वृद्धिंगतत्वात्पलितोज्ज्वला
वृशा (स्त्री०) एक औषधि, अडूमा। द्यकीर्तिर्भुजङ्गस्य गृहं प्रसाद्य' (जयो० १/३६) वृद्धिजीवनं (नपुं०) साहूकारी, सूदखोरी।
वृश्चिकः (पुं०) [वश्चकिकन्] बिच्छू। (जयो०३० २३/४१) वृद्धिद (वि०) समृद्धि को उन्नत करने वाला।
___ * केंकड़ा, कनकजूरा। वृद्धिपत्रं (नपुं०) उस्तरा।
वृश्चिकराशिः (स्त्री०) वृश्चिकराशि। वृद्धिमान् (वि०) उत्कर्षशील।
वृष (अक०) बरसना, गिरना, उछालना, उड़ेलना। वृद्धिशोल (वि०) बढ़ने वाला। (जयो०वृ० १/१०२)
* बौछार करना, फुहार करना। वृद्धिसंधि (स्त्री०) संधि का एक भेद, जिसमें ह्रस्व अ, दीर्घ
___ * अनुदान देना, अर्पण करना। आ के पश्चात् ए या ऐ होने पर 'ऐ' और ह्रस्व 'अ' एवं * तर करना। दीर्घ 'आ' बाद ओ या ओ होने पर 'औ' हो जाता है। | वृषः (पुं०) [वृष्+क] * सांड, वृषभ, बैल, बलिवर्द। 'वृद्धिरेप, आदैग्' (जयो०वृ० १/३१)
* वृषराशि।
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वृषचक्रः
१०१९
वृषाङ्कविभवः
* उत्तम दल, समुदाय।
४/१३) तमाश्विनं मेघहरं श्रितस्तदाऽधियोऽपि दासो वृषभस्य * धर्म-वृषं धर्ममपेक्ष्य (जयो०व०२/२०) नासौ नरो या सम्पदाम्। (सुद० ४/१४) न विभाति भोगी, भोगोऽपि नासा वृषप्रयोगी। वृषो न वृषभावः (पुं०) धर्मभाव, नीतिपूर्ण व्यवहार। सोऽसख्यसमर्थितः स्यात्साख्यं च तन्नात्र कदापि न स्यात्।। * वलीवर्द (वीरो० ३/३६) 'लोकोऽयं वृषभावतोऽपि (वीरो० २/३८)
सुतरां दुष्कर्मणां वारणम्' (मुनि० ३३) * कामदेव।
* बलीवर्द रूप। (जयो० २८/५८) * सदाचारी व्यक्ति।
वृषभावना (स्त्री०) धर्मभावना। (दयो० १/१२) * उत्तम * शत्रु, विपक्षी। (वीरो० २/३८)
चिन्तन। * नैतिकता, न्याय।
वृषभी (वि०) [वृषभ ङीष्] विधवा, कवच्। * उत्तम, श्रेष्ठ, सुंदर। (सुद० १३२)
वृषभृत् (वि०) आगम गत नियम पालक। (जयो० २/११७) वृषचक्रः (पुं०) धर्मचक्र। (जयो० १२/४)
वृषलः (पुं०) [वृष्+कलच्] * शूद्र। (जयो०वृ० १/४०) ___* बैल युक्त।
* धर्माचार में तत्पर-वृषं लातीति वृषलो धर्माचरणतत्परश्च' वृषचक्राह्वयत (वि०) वृष चक्र का धारक। (जयो० २६/६४)
(जयो०वृ० १/४०) वषचिन्तामणिः (स्त्री०) धर्मचिन्तामणि। (जयो० २८५८५)
* पृथुल-शूद्र। (जयो०वृ० १/४०) वृषदंशः (पुं०) विलाव।
* चाण्डाल- (जयो०वृ० १/४०) वृषधर (वि०) वृषभ/बैल के चिह्न को धारण करने वाले
* दास (जयो० २५/२५) 'यस्यानुकम्पा हृदि तूदियाय स ऋषभदेव, आदि तीर्थंकर ऋषभदेव। (जयो० ९/८२)
शिल्पकल्पं वृषभलोत्सवाय। सेवा परायण शूद्रों की नाना वृषध्वजः (पुं०) वृषचिह्न।
प्रकार की शिल्पकलाएं हैं। (वीरो० १८/१४) 'सवृत्तभावाद * नाभेयतीर्थंकर, महादेव। 'वृषो नाम बलीवर्दो ध्वजे यस्य
वृषलोऽपि वन्द्याः '। (वीरो० १७/१७) स वृषध्वजो नाभेय तीर्थकर महादेवोऽपि। (जयो० १९/२२)
वृषलक (वि०) तिरस्कार योग्य शूद्र। * सद्गुणी, धर्मात्मा, पुण्यशाली।
वृषलपालित (वि०) दास द्वारा पोषण किया गया। (जयो० वृषपतिः (पुं०) नाभेय तीर्थंकर, महादेव। वषपर्वन (पुं०) ऋषभदेव, प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव।
२५/६५) * महादेव।
वृषली (स्त्री०) [वृषल+ङीष्] रजस्वला स्त्री। * वर, भिरड।
* शूद्रस्त्री । वृषप्रयोगिन् (वि०) धर्माचारी। (वीरो० २/३८)
वृषलीपतिः (पुं०) शूद्रस्त्री का पति। वृषभः (पुं०) बैल, बलीवर्द, सांड। (समु० ६/४३)* ऋषभदेव,
वृषवः (पुं०) धर्मस्थान, धर्मशाला। (जयो० २५/३९) प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ नाभिराजा का पुत्र। (वीरो०
वृष-वत्सलत्व (वि.) बैल एवं बछडे की वात्सल्यता। (जयो० २/२, दयो० ३०) (सुद० ४/१४) वृषभ देव। (जयो०९/८२)
२१/४४) गो प्रीति युक्त। * धर्म भावना। (जयो०वृ० ७/६५)
वृषवास्तुवः (पुं०) धर्म रूप मकान। करोतु धर्मग्रहणं न वा * हस्तिकर्णी
प्रभो! समादिशेदं वृषवास्तुवप्रभोः! (समु० ४/२१) * देवालय। * कर्ण विवर।
वृषवृद्धिः (स्त्री०) वृषभवृद्धि, बैलों की वृद्धि। (सुद० २/२९) * वृषभ स्वप्न, बैल का देखना
वृषसंयोजनः (नपुं०) बलीवर्द संयोग। (जयो० १२/११२) मूलगुणादिसमन्वित-रत्नत्रयधर्मकटन्तु।
वृषाङ्कः (पुं०) महादेव, वृषभ, प्रथम तीर्थंकर वृषभदेव, मुक्तिपुरीमुपनेतुं धुरन्धरो वृषवदयन्तु।। (वीरो० ४/४२) ऋषभनाथ। (जयो० ५/२४) वृषभदत्तः (पुं०) उज्जयिनी का एक राजा। (दयो० १/१२) * रुद्र (जयोवृ०५/२४) 'वृषाङ्कस्य रुद्रस्य उत नाभेयस्य वृषभदत्ता (स्त्री०) उज्जयिनी के राजा की रानी। (दयो० १/१३) प्रथमतीर्थंकरस्य' (जयोवृ०५/२४) वृषभदासः (स्त्री०) वृषभ देव का दास, वृषभदास सेठ (सुद० । वृषाङ्कविभवः (पुं०) भस्मीकरण रूप, भस्मधरी। 'वृषाङ्कस्य
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वृषाधिरुढः
१०२०
वेण
विभवेन भस्मीकरणसार्थ्यन उपद्रुतस्य
छत्तीस संख्या। कामस्य प्राणनाशो नाभूत्' (जयो०वृ० ५/२४) .
दुपट्टा, आवरण। वृषाधिरूढः (पुं०) वृषराशि पर आरुढ़।
वृहन्निह (वि०) बहुत बड़ा, विशालतम्। (समु० २/५) वृषायण: (पुं०) शिव, गौरेया पक्षी। (वीरो० १२/१) वृहस्पतिः (पुं०) नाम विशेष। वृषाश्रयः (पुं०) धर्माश्रय, धर्माधार, धर्म का सहारा। (समु० वृहस्पतिवारः (पुं०) गुरुवार, एक दिन विशेष। (दयो० ६९)
४/३२) "इतीरितः प्राह मुनिर्महाशयः, स्वपूर्वजन्मश्रवणाद् वे (सक०) ०बुनना, गूंथना, सिलना। वृषाश्रयः" (समु० ४/२२)
०बनाना, रचना, निर्माण करना। वृषिन् (पुं०) मोर।
नत्थी करना, इकत्रित करना। ०धर्मी, धर्मात्मन्।
जमाना, संग्रह करना। वृषिबोधिन् (वि०) धर्मात्माओं के जानने योग्य। | वेकटः (पुं०) जौहरी, पारिख।
"वृषिभिर्धर्मात्मभिः सज्जनैर्बोध्यमनुमननीयम्" (जयोवृ० ०युवा व्यक्ति। १२/१)
०हसोकड़ा। वृषी (स्त्री०) ब्रह्मचारी की शय्या, आसन, कुशासन। वेगः (पुं०) तेजी, गतिशीलता, आवेग। (जयो० १/१९) वृषोपयोगः (पुं०) धर्म का उपयोग।
गति, शीघ्रता। वृषोपयोगी (वि०) धर्म को भावना युक्त। नरो न यो यत्र न प्रचण्डता, प्रबलता, प्रमुखता।
भाति भोगी, भोगो न सोऽस्मिन्न वृषोपयोगी। (समु०६/३) ०प्रवाह, धारा, झरना। वृष्ट (भू०क०कृ०) बरसा हुआ, झरता हुआ।
शक्ति, बल, वीर्य, औजस्विता, क्रियाशीलता। वृष्टिः (स्त्री०) बारिश, बरसात, बौछार।
०संचार। वृष्टिगतक्षेत्रं (नपुं०) बारिश युक्त स्थान।
विक्षोभ। वृष्टिजीवन (वि०) सिंचित प्रदेश।
वेगजित् (वि०) कोप की प्रबलता को जीतने वाला। 'वेगान् वृष्टिभूः (पुं०) मेंढक।
मानसिक-शारीरिकोपद्रवान् जयतीति वेगजिदपि' (जयो० वृष्टिमत् (वि०) [वृष्टि+मतुप्] बरसने वाला, बरसाती।
२३/३) बादल, मेघ।
वेगनाशनः (पुं०) श्लेष्मा, कफ। वृष्णि (वि०) [वृषेः हि किच्च] ०पाखण्डी, धर्मच्युत। वेगपूर्वक (वि०) संवेग पूर्वक। ०कुपित, अभिमानी।
वेगयुक्त (वि०) गतिशीलता युक्त। (जयो०वृ० ५/३) वृष्णिः (पुं०) कृष्ण के पूर्व वंशज।
वेगवाहिन् (वि०) स्फूर्ति, तेजी। गतिशीलता। ०अग्नि।
वेगविधारणं (नपुं०) गति रोकना। ०इन्द्र।
वेगसरः (पुं०) खच्चर। मेंढक।
वेगानिलः (पुं०) आंधी प्रवाह, तीव्र पवन वेग। मेघ।
वेगिन् (वि०) [वेग+इनि] तेज, स्फूर्ति युक्त, द्रुतगामी, गतिशील, वृष्णिगर्भः (पुं०) कृष्ण।
प्रवाहमयी। (जयो० ५/३) वृष्णिपुत्रः (पुं०) कृष्ण।
प्रचण्ड, तीव्र। वृष्य (वि०) [वृष्+क्यप्] कामोद्दीपक, बाजीकर, पुंस्त्व बढ़ाने वेगिन् (पुं०) बाज। वाला।
०हरकारा। ०बौंछार युक्त।
वेगिनी (स्त्री०) नदी। वेग युक्त प्रवाहिनी, सरिता। वृह (वि०) बहुत, बड़ा, महत्त्वपूर्ण।
वेङ्कटः (पुं०) वेंकटाचलं, पर्वत विशेष। वृहती (स्त्री०) [वृहः अति ङीष्] नारद की वीणा का नाम। वेचा (स्त्री०) [विच्+अच्+टाप्] भाड़ा, मजदूरी। मिष्ठान्न विशेष। (जयो०३/६०)
वेण् (सक०) जाना, पहुंचना।
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वेण:
१०२१
वेदकः
०जानना, पहचानना, प्रत्यक्ष करना। ०सोचना, विचार-विमर्श करना।
०ग्रहण करना, स्वीकार करना। वेण: (पुं०) [वेण्+अच्] गायक जाति। वेणा (स्त्री०) नदी विशेष। वेणि/वेणी (स्त्री०) कवरां, चोटी, गुथे हुए बाल। (जयो०
१२/११) वेणीयमेणीदृश एव भायाच्छ्रेणी, सदा मेकल-कन्यकायाः। हरस्य हाराकृतिमादधाना, यूनां मनोमोहकरी विधानात्।। (जयो० ११/७०)
केशतति, केशपाश। श्रेणीति कालबालानां वेणी चेणीदृशो भृशम्' वक्ष्यते वीक्षमाणेभ्यः पन्नगीव विपन्नगी।। (जयो० ३/५५) प्रवाह, धारा, गति।
नदी नाम विशेषा वेणीकृत ( वि०) केशपाश वाली। वेणीगत (वि०) गुथे हुए बालों को प्राप्त हुई। वेणीबन्धः (पुं०) मीढी, केशपाश। वेणीवेधिनी (स्त्री०) ०जोंक, कंघी। केश/बाल शृंगार
प्रसाधिनी। वेणीसंहारः (पुं०) ०केश गुंफन, केशबन्ध।
भट्टनारायणकृत एक संस्कृत नाटक। वेणुः (वेण+उण्) बांस वृक्षा (जयो० २१/३४)
बांसुरी, मुरली, बंसी। वेणुक (वि०) वेणूत्पन्न, वेणु से उत्पन्न। वेणुकः (पुं०) बांसुरी, बंसी। (जयो० १०/२१) वेणुकं (नपुं०) [वेणु+कन्] बांस की मूठ वाला अंकुश। वेणुजः (पुं०) बांस का बीज। वेणुदण्डः (पुं०) बांस की लकड़ी। (जयो०वृ० १/३२) वेणध्मः (पुं०) बंसीवादक। वेणुनिस्रुतिः (स्त्री०) इक्षु, गन्ना, ईख। वेणुयष्टिः (स्त्री०) बांस की लकड़ी। वेणुर्वाद्यः (पुं०) बांसुरी, मुरली। (जयो०वृ० १०/२०) वेणवादः (पुं०) बांसुरी बजाने वाला। वेणुवादकः (पुं०) बांसुरी बजाने वाला। बंसी वादक। वेणुवादनं (नपुं०) बांसुरी, मुरली।
वेणूत्पन्नः (पुं०) बांसुरी, मुरली। (जयो०वृ० १०/२१) वेणूदित (वि०) मुरली सम्पादित। (जयो० २२) वेतंडः (नपुं०) हस्ति, हाथी। वेतनं (नपुं०) [अज्+तनन् वीभावः] किराया, मजदूरी, तनख्वाह,
वृत्ति।
अजीविका, जीवनयापन का साधन। वेतनादानं (नपुं०) वृत्ति न देना। वेतसः (पुं०) [अज्+असुन्+तुक् च वीभावः] ०नरकुल, नरसल,
बेंत। वेतसी (स्त्री०) [वेतरु+ङीष] नरकुल। वेतस्वत् (वि०) [वेतस्+] नरकुल की बहुलता वाला स्थान। वेतालः (पुं०) [अज्+विच्-वी आदेशः तल्+घञ्] भूतयोनि,
प्रेतात्मा।
०अधिकार रखने वाला भूत। वेत्तु (पुं०) ज्ञाता, जानकार, मुनि साधक।
०पति। वेत्र: (पुं०) बेंत, नरसल।
०लाठी, छड़ी। वेत्रवती (स्त्री०) द्वारपाल स्त्री। वेत्रासनं (नपुं०) बेंत का आसन, गद्दी। वेत्रिन् (पुं०) [वेत्र+इनि] द्वारपाल, दरबान, चौकीदार, पहरेदार। वेथ् (सक०) प्रार्थना, प्रतिपादन करना, कहना, निवेदन करना। वेदः (पुं०) [विद्+घञ्] [वेधत इति वेद:] ज्ञान, बोध,
जानना-'वेद्यं यदा वेदकमेष वेदः' (भक्ति०३०) ०वेदन, अनुभव। (सम्य० १०७) मृदन्तरा बीजवदीष्यतेऽदः पुनः किलास्पष्टसदात्मवेदः। (सम्य० १०७)
जो अनुभव में आत्मा है वह वेद है। सुख-दुःख का अनुभवन। ०जीव का पर्यायवाची शब्द। ० श्रुत के वाचक ४१ नामों से एक। अशेशपदार्थान् वेत्ति वेदिष्यति अवेदीदिति वेदः सिद्धान्तः (धव० १३/२८६) सिद्धान्त। ०वेदग्रन्थ, वेदशास्त्र-ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अर्थवेद। 'वेदमेतन्नाम शास्त्रमतीत्य समुपेक्ष्यान्यत एव व्रजति'
(जयो०वृ० ४/६७) वेदक (वि०) वेदना वाला, दु:ख युक्त अनुज्ञात। (जयो०
२३/४०) जानने वाला। (भक्ति० ३१) वेदकः (पु०) वेदक सम्यक्त्व का नाम है।
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वेदकसम्यक्त्वं
१०२२
वेदिका
-
वेदकसम्यक्त्वं (नपुं०) वेदक सम्यक्त्व। दर्शन मोहनीय कर्म वेदबाह्य (वि०) वेद से विपरीत। (दयो०२४) (दयो० २६) के क्षयोपशम से वेदक सम्यक्त्व होता है।
वेदमातृ (स्त्री०) वैदिक मन्त्र। वेदगर्भः (पुं०) वेद ज्ञाता।
वेदमूढता (स्त्री०) पापजन्य उपदेश। वेदग्रन्थः (पुं०) वेद। (वीरो० २०/११) ०वेदशास्त्र। वेदवचनं (नपुं०) वेदवाक्य, ज्ञानसूत्र, आत्म कल्याणकारी वेदत्रयं (नपुं०) तीन वेद कर समूह।
शब्द व्यवहार। वेदध्वनि (स्त्री०) आत्म कल्याणकारक ध्वनि, द्रव्यानयोगशास्त्र वेदवाक् (नपुं०) ज्ञान वचन, सिद्धांत निरूपण, वेदज्ञान। __की ध्वनि। महर्षि पठित वाक्य। (जयो० १९८७) वेदवाक्यं (नपुं०) बोध जन्य वाक्य। (वीरो० १३/२१) वेदनं (नपुं०) [विद्+ल्युट] ०परिज्ञान, बोध।
आत्मकल्याणकारी वचन। 'सा देवता, तत्र गतो भवान्' हे छिन्नमोह जनमोदनमोदनाय,
इत्यादिभिर्वेदवाक्यैः कामोत्पादकवचनैः' (जयो०१० २४/३३) तुभ्यं नमोऽशमन संशमनोदमाय।
वेदविद् (पुं०) वेदशास्त्र प्रवीण व्यक्ति, वेदविशारदा (दयो०२४) निर्वृत्यपेक्षित निवेदन-वेदनाय,
वेदविहित (वि०) वेद निरूपित, आगम प्रतिपादित। सूर्याय मे हृदरविन्दविनोदनाय।। (जयो० १०/९६) वेदवेदाङ्ग (वि०) वेद-पुराणादि का ज्ञाता। इत्येवमेतस्य सती वेद ज्ञान। (वीरो० ३/५)
विभूतिं स वेद-वेदाङ्गविदिन्द्रभूतिः' (वीरो० १३/२५) ०दु:ख, वेदना। (जयो० १/५९, वीरो० ३/५) वेदवेदाङ्ग-पारङ्गत (वि०) वेद और वेदपङ्गों में निपुण। (दयो० भावना, संवेदन, पीडा, क्लेश, कष्ट। (सम्य० २४)
९१) ०अधिग्रहण।
वेदवेदाङ्गविद् (वि०) वेद-वेदाङ्ग का ज्ञाता। (वीरो० १३/२५) वेदना (स्त्री०) दुःख, पीड़ा, संताप, खेद। (सुद० ३/२८) वेदव्यासः (पुं०) एक वेद विचारक, जिसने वेदों के वर्तमान वेदनागत (वि०) दु:खित, पीड़ित, व्याकुल।
रूप को प्रस्तुत किया। वेदनाजन्य (वि०) कष्ट युक्त, पीड़ा सहित।
वेदसूत्रं (नपुं०) वेदपद! (वीरो० १४/३) ज्ञानसूत्र। वेदनाजन्यः (पुं०) आर्तध्यान के निदान, वेदनाजन्य, वेदानुयायिन् (वि०) हिन्दु जन, वेदशास्त्र के नियमों का
अनिष्टसंयोगज और इष्टवियोजग ये चार भेद हैं, उनमें पालक। (जयो० १४/७९) (वीरो० २२/१६) दूसरा भेद वेदनाजन्य है। (मुनि० २१)
न्याज्ञिक। (वीरो० २२/१६) ज्ञानविज्ञ, वेदविज्ञ। वेदनाधारः (पुं०) दुःख का कारण, व्याकुलता का मूल वेदाम्बुधिः (पुं०) वेदशास्त्र रूपी समुद्र। (वीरो० १३/२६) आधार।
वेद रहस्य। वेदनीय (वि०) सुख-दुःख का कारण रूप कर्म, पीड़ा, कष्ट। वेदार्थः (पुं०) वेदों का अर्थ। वेद रहस्य, ०वेदज्ञान। धूर्तेः वेदनीयकर्मन् (पुं०) वेदनीयकर्म, आठ कर्मों में तीसरा समाच्छादि जनस्य सा दृक् वेदस्य चार्थः समवादि तादृक्।
कर्म-तेद्यत इति वेदनीयम्, अथवा वेदयतीति वेदनीयम्। (वीरो०१/३२) वेदनाप्राप्त (वि०) दु:खित, पीड़ित।
वेदिः (पुं०) विद्वान्, प्राज्ञ, विज्ञ, ज्ञ, ऋषि, ज्ञानी पुरुष। वेदनाभयः (पुं०) अज्ञानता पूर्ण भय।
वेदिः (स्त्री०) वेदी, कटनी, मूर्ति स्थापना के लिए बनाई गई वेदनाभावः (पुं०) परिज्ञान भाव।
कमर के ऊपर तक ऊँचा स्थान, जो मांगलिक प्रातिहार्यों वेदनामुक्त (वि०) आकुलता रहित।
एवं सुंदरता से युक्त होती है। वेदनायुक्त (वि०) रुग्णता युक्त, आधि-व्याधि सहित। मंदिर/देवालय का उच्चासन। (जयो०वृ० ११/८५)
०सरस्वती। वेदनिन्दक (वि०) पाखण्डी, श्रद्धाहीन।
मुद्रा। वेदनिन्दा (स्त्री०) पाखण्ड, अविश्वास, ज्ञाननिन्दा।
०अंगूठी। वेदपदं (नपुं०) वेदसूत्र। वेद ऋचा। (वीरो० १४/३)
०चबूतरा, चौकोर स्थान। (जयो०१० २/७८) वेदपाठी (वि०) वेद पढ़ने वाला, आत्म ज्ञान करने वाला। | वेदिका (स्त्री०) [वेदि+कन्+टाप्] ०वेदी, चबूतरा, आसन। वेदपारगः (पुं०) वेदों में निपुण।
०लतामण्डप, निकुंज।
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वेदिकी
१०२३
वेलारण्य
वेदिकी (वि०) ज्ञानवती, वेदिनी, वेदज्ञातृ। (जयो०वृ० १४/९) वेधसं (नपुं०) हथेली का भाग। वेदिन (पुं०) [विद् णिनि] ज्ञाता, प्राज्ञ।
वेधात्मक (वि०) संवेदन लाने योग्य। (सम्य०३१) व्याख्याकार, विवेचक।
| वेधित (भू०क००) [वेध+इतच] छिद्रित, बींधा हुआ, छेदा वेदिन् (पुं०) ज्ञानी पुरुष, ०माहण, ब्राह्मण।
गया। वेदिनी (वि०) संवेदन कत्री। ज्ञात करने योग्य।
वेप् (अक०) कांपना, हिलना। वेपते (जयो० २५/७१) घबराना, वेदिसः (पुं०) एक द्रव्य विशेष। (जयो० ६/३१)
डरना (जयो०वृ० ६/२४) 'स्वार्थक प्रत्ययः सत्प्रकम्पवती' वेदिलिम्पनं (नपुं०) चबूतरा का लिम्पन, आंगन का लींपना। (जयो० १७/३०)
गोमयेन खलु वेदिलिम्पनप्रायकर्म लभतामितो जनः । वेपथुः (स्त्री०) [वेप्+अथुच] प्रकम्पन। (जयो० १७/३०, (जयो० २/७८)
१२/७६) वेदी (स्त्री०) वेदी, मूर्तियुक्त स्थान, अर्हत् विराजित उच्च ०थरथरी, कंपकपी।
आसन। 'वेदी मनोहरतमा समगान्नवीनामालोकितुं दृगमुकस्य ०कंपन। मुदामधीना। (जयो० १०/९४) ..
वेपथुकारिक (वि०) कम्पन उत्पन्न करने वाली। (भक्ति०१४) ०वेदी देवाधिकरण भूता परिष्कृता भूमिः' (जयो०वृ० वेपथुनिमित्तं (नपुं०) कम्पका कारण। (जयो०७० ७/२०) १०/९३)
वेपनं (नपुं०) कांपना, थरथराना। वेद्य (वि०) [विद्+ण्यत्] जानने योग्य। (दयो० ३१) वेमन् (पुं०/नपुं०) करघा, खंड्डी ।
वेदनीय (सम्य० ८४) 'क्षान्ति शौचमिति सदवेद्यस्य' वेमपाक (वि०) ओजस्विता का परिणाम। (जयो० ३/१७) (सम्य०८४)
वेरः (पुं०) शरीर। ०व्याख्येय, शिक्षणीय।
०केसर। (जयो० ५/२०) विवाह योग्य, परिणय योग्य।
०बैंगन। वेधः (पुं०) [विध्+घञ्] छेद करना, बींधना। नासिकादि बेधन। | वेरम् (नपुं०) ०देह काय। केशर, बैंगन। छिद्रयुक्त बनाना।
वेरटः (पुं०) क्षुद्र व्यक्तिा गर्त, गड्ढा ।
वेल् (सक०) जाना, पहुंचना। गहराई।
वेल् (अक०) कांपना। ०समय का माप।
वेलं (नपुं०) उद्यान, वाटिका, उपवन, आरामगृह। वेधकः (पुं०) [विध्+ण्वुल्] नरक के एक प्रभाग का नाम। वेला (स्त्री०) समय, अवसर। (सुद०७३) ०कपूर।
ऋतुकाल, मौसम। (सुद०७८) वेधकं (नपुं०) छेद।
०अवकाश, अन्तराला वेधनं (नपुं०) [विध ल्युट्] छेदन, बीधना।
०लहर, प्रवाह, धारा। शून्यीकरण।
०समुद्र तट। ०चुभोना, घायल करना।
०सीमा, हदबन्दी। वेधनिका (स्त्री०) [वेधनी+कन्+टाप्] अस्त्र विशेष, नुकीला भाषण, प्रवचन। शस्त्र। ०वर्मा, छेद करने का उपकरण।
वेलाकलं (नपुं०) ताम्रलिप्त क्षेत्र। वेधनी (स्त्री०) [वेधन+ङीप्] छेद करने का उपकरण, वर्मा। वेलातट (नपुं०) समुद्री तट। छेदनी।
वेलातिग् (वि०) वेलामति गच्छतीति। अतिकांत तट। (जयो० वेधस् (पुं०) [विधा+असुन] धाता, विधाता (जयो०७० ३/६२) ११/३९) उद्वेलित किनारा। स्रष्टा, ब्रह्मा। (वीरो० १/३६)
वेलामूलं (नपुं०) समुद्री किनारा। सीमा, ०धारा का उद्गम सूर्य।
स्थला मदार पादप। विज्ञ पुरुष।
वेलारण्यं (नपुं०) समुद्र तटीय अरण्य।
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वेल्ल्
१०२४
वेष्यः
वेल्ल् (सक०) जाना, पहुंचना। वेल्ल् (अक०) कांपना, हिलना, घूमना, चक्कर काटना।
(जयो० १९/९०) वेल्लः (पुं०) [वेल्ल्+घञ्] हिलना, कांपना।
गतिशील होना, अग्रणी होना। वेल्लत (वि०) प्रलुण्ठत, घूमते हुए। (जयो० १३/९०) वेल्लनं (नपुं०) [वेल्ल्+ल्युट] हिलना, कांपना। वेल्लहल: (पुं०) लम्पट, लालची। वेल्लिः (स्त्री०) [वेल्ल्+इन्] लता। वेल्लित (भू०क०कृ०) [वेल्ल+क्त] ०कंपायमान, हिलाया
हुआ।
टेढ़ा-मेढ़ा। वेवी (सक०) जाना, प्राप्त करना, ग्रहण करना। गर्भधारण
करना। ०व्याप्त करना।
डाल देना, फेंकना। ०लाना। वेशः (पुं०) [विश्+घञ्] ०प्रवेश, घुसना जाना, ०पहुंचना, ०अंदर होना।
घर, आवास, निवास स्थल। ०चकला।
०परिधान, वेशभूषा, वस्त्र, कपड़े। वेशकः (पुं०) [विश्+कन्] गृह, घर। आवास। वेशन्तः (पुं०) [विश्+अच्] पोखर, तालाब। वेशवार: (पुं०) मिर्च, लवणादि मसाला। (जयो० १२/३०) वेशिन् (नपुं०) शृंगार, अलंकरण। (जयो० १०/७१) वेशरः (पुं०) खच्चर, गधा। वेशवान् (वि०) ललितवस्त्राभूषण विहित। (जयो० ५/२६) वेशिनी (पुं०) प्रकशिनी। (जयो० २/४३) वेश्मन् (नपुं०) [विश्+मनिन्] घर, निवास स्थल।
भवन, आवास। वेश्मकर्मन (नपं०) घर निर्माण, गह बनाना। वेश्मकलिंगः (पुं०) एक पक्षी। वेश्म नकुलः (पुं०) छछूदर। वेश्मभू (स्त्री०) भूखण्ड, गृहभूमि। वेश्यं (नपुं०) [विश्+ण्यत्] चकला, वेश्यालय। वेश्या (स्त्री०) [वेशेन पण्ययोगेन जीवति-वेश+यत्+टाप]
गणिका, पण्यइच्छुका। ०कामुका, रण्डी।
वेश्याचार्यः (पुं०) भडुवा, लौंडा, गांडू। वेश्याश्रयः (पुं०) वेश्यालय, चकला। वेश्यावशी (वि०) वेश्या के आधीन। (सुद० २१) वेश्यायगासीत (वि०) वेश्या के द्वारा सेवित। (वीरो० १७/२१) वेश्यासुता (पुं०) वेश्या की पुत्री। (वीरो० १७/१८) वेषण (नपुं०) [विष्+ल्युट] स्वामित्व, आधीनता। वेषम्य (वि०) विषमता। (सुद० २/३) 'दृशो न वेषम्यमगात्कुतोऽपि
स पाशुपत्यं महदाश्रितोऽपि। (सुद० २/३) वेष्ट (सक०) घेरना, लपेटना।
मरोड़ना, वस्त्र पहनाना। वेष्टः (पु०) घेरा, लपेटना।
०बाड़।
०पगड़ी। वेष्टकः (पुं०) बाड़, बाड़ा, घेरा। ___०लौकी। वेष्टकं (नपुं०) पगड़ी।
०चादर।
गोंद, रस।
०तार पीन। वेष्टनं (नपुं०) [वेष्ट्+ल्युट्] ०लपेटना, घेरना। ०अंगूठी।
ओढ़नी। ०संदूक। ०पगड़ी। ०बाड़ा, घेरा। ०तगड़ी, कमरबन्द। ०पट्टी। ०गुग्गुल।
० नृत्य की एक मुद्रा। वेष्टनकः (पुं०) [वेष्टन्+कन्] संभोग की एक स्थिति।
मिथुन क्रीड़ा। वेष्टित (भू०क०कृ०) [वेष्ट्+क्त] आवृत्त। (जयो० ३/३६)
घेरा हुआ, बांधा हुआ, लपेटा हुआ। लिपटा हुआ। रोका हुआ। विघ्न डाला हुआ।
सुसज्जित किया हुआ। वेष्यः (पुं०) जल, वारि, पानी।
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वेसरः
१०२५
वैजयन्तः
वेसरः (पुं०) खच्चर, गधा। वेसवारः (पुं०) [वेस्+व+अण] गर्म मसाला। वेहाणसमरणं (नपुं०) फंदा लगाकर मरना। वेहार: (पुं०) विवाद क्षेत्र। वेहल् (सक०) जाना, पहुंचना। वै (अक०) सूखना, शुष्क होना।
म्लान, निढाल, अवसन्न। वै (अव्य०) निश्चयात्मक अव्यय, स्वीकृतिजन्य अव्यय।
(सुद० ३/२०) नि:संदेह, सचमुच, यथार्थ में ही, एव। धर्मेण वै संध्रियतेऽत्रवस्तु, न वस्तुसत्त्वं तमृते समस्तु। (सम्य० ७१) कभी कभी यह 'वै' सम्बोधन अर्थ में भी प्रयुक्त होता
बैंशतिक (वि०) बीस में खरीदा हुआ। वैकक्षं (नपुं०) [विशेषेण कक्षति व्याप्नोति] उत्तरीय, अंगोछा, ___ओढ़नी, योग। वैकटिकः (पुं०) जौहरी, पारिख। वैकर्तनः (पुं०) कर्ण का नाम। वैकल्प (वि०) [विकल्प+अण] विकल्पता, ऐच्छिकता।
संदिग्धता, अनिश्चय, असमंजस।
संशय, संदेह। वैकल्पिक (वि०) [विकल्प+ठक] ०ऐच्छिक, विकल्प युक्त।
अनिर्णीत, संदिग्ध, संशय। वैकल्यं (नपुं०) [विकल+ष्यञ्] विकलता, नि:सारता। (जयो०
२८/२६)
त्रुटि, कमी, अभाव। अस्तित्वाभाव।
०अक्षमता, विक्षोभ। (सम्य० १/६) वैकारिक (वि०) [विकार+ठक] विकृत, विकार विषयक। वैकालः (पुं०) [विकाल+अण] तीसरा प्रहर, मध्याह्नोत्तरकाल,
सायंकाला वैकालिक (वि०) सायंकाल सम्बन्धी। वैकुण्ठः (पुं०) विष्णु।
०इन्द्र। वैकुण्डं (नपुं०) स्वर्ग।
०अभ्रका वैकुण्ठलोकः (पुं०) स्वर्ग स्थान। वैकृत (वि०) परिवर्तित, बिगड़ा हुआ, बदला हुआ। वैकृतं (नपुं०) परिवर्तन, अरुचि!
०अपशकुन, अनिष्ट सूचक घटना।
वैकृतिक (वि०) [विकृति+ठक्] परिवर्तित, संशोधित।
विकृति सम्बंधी। वैकृत्यं (नपुं०) [विकृत+ष्यज] परिवर्तन। वैक्रान्तं (नपुं०) रत्न विशेष। वैक्रिया (स्त्री०) एक ऋद्धि विशेष, जिसमें शरीर को सूक्ष्म
से सूक्ष्म या बड़े से बड़ा किया जा सकता है। 'अष्टगुणैश्वर्ययोगादेकानेकाण-महच्छरीरविविध-करणं
विक्रिया' (स०सि० २/३६) वैक्रियिकं (नपुं०) विक्रिया का प्रयोजन। 'विक्रिया प्रयोजन
वैक्रियिकम्' (त०वा० २/२६) विविधर्धिगुणयुक्तविकार
लक्षणं वैक्रियिकम्' (त०वा० २/४९) वैक्रियिककाययोगः (पुं०) ऋद्धि के आश्रय से आत्मप्रदेशों
में परिस्पन्दन होना। वैक्रियिकशरीरः (पुं०) विक्रिया ऋद्धि युक्त शरीर। वैक्लेव्ययत (वि०) नपंसकता रहित। (सद० ८४) वैखरी (स्त्री०) [विशेषेणं खं राति-रा+क+अण+ङीप्] स्पष्ट
उच्चारण, ध्वनि उत्पादन। ०वाशक्ति।
०वाणी, भाषण। वैखानस (वि.) [वैखानसस्य इदम+अण] संयासी योगी से
सम्बंधित। वैखानखः (०) वैरागी, वानप्रस्थ। वैगुण्य (वि०) [विगुण+ष्यञ्] सद्गुण का अभाव, गुण विहीनता।
त्रुटि, दोष, कमी। वैचक्षणं (नपुं०) [विचक्षण+ष्यञ्] ०प्रवीणता, कुशलता.
निपुणता। वैचित्य (वि०) मानसिक विकलता, मन के भावों का अभाव,
शोक। वैचित्र्यं (नपुं०) [विचित्र+ष्यज] विविधता, विभिन्नता।
नाना प्रकार।
आश्चर्यजनक। (हित० १५) वैचित्र्यसंदेशक (वि०) नाना प्रकार का संदेश देने वाला। वैजननं (नपुं०) [विजनन+अच] गर्भ का अन्तिम महिना।
(जयो० २३/७५) वैजयन्तः (पुं०) ध्वज, पताका,
घर, भवन, महल। ०इन्द्र भवन, वैजयन्तदेव। (त०सू०पृ० ६६)
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वैजयन्तिका
१०२६
वैद्यः
वैजयन्तिका (स्त्री०) ध्वज, पताका, झण्डा मुक्ताहार। वैजयन्ती (स्त्री०) [विजयन्त+अण+ङीप] पताका, ध्वजा। (जयो० ३/८६, सुद० २/२०) चिह्न, प्रतीक। उपहार भेंट। ०माला, कण्ठाहार। वैजात्य (वि०) जाति की भिन्नता, वर्ण की भिन्नता।
जातिबहिष्कृत, स्वेच्छाचारिता। वैज्ञानिक (वि०) [विज्ञान+ठक्] विचारक, कुशल, चतुर।
अनुसंधान कर्ता। वैडूर्यं (नपुं०) एक मणि विशेष। (जयो०वृ० १०।८६) ___ विमान विशेष। (समु० ५/१५) वैणः (पुं०) [वेणु+अण-उकारस्य लोपः] बांस का कार्य
करने वाला। वैणव (वि०) बांस से निर्मित। वैणव (नपुं०) बांस का डंडा। वैणवं (नपुं०) बांस का बीज। वैणविकर (वि०) बांसुरी वादक। वैणविन् (वि०) शिव, महादेव। वैणिकः (पुं०) वीणा वादक। वैतंसिकः (पुं०) मांस विक्रेता। वैतण्डिकः (पुं०) वितण्डावादी। छिद्रान्वेषी। वैतनिक (वि०) वेतन पाने वाला। वैतनिकः (पुं०) श्रमिक, मजदूर। वैतरणिः (स्त्री०) [वितरेण दानेन लंध्यते वितरण+अण+ङीष]
नरक नदी। वैतस् (वि०) वेंत से सम्बंधित।
• घुटने टेकने वाला। वैताढ्यः (पुं०) वैताढ्य पर्वत। (वीरो० २।८) वैतान (वि०) [वितान+अण] यज्ञ सम्बंधी, पवित्र। वैतानं (नपुं०) यज्ञकार्य। आहुति। वैताली (स्त्री०) वैताली छन्द जिसके प्रथम एवं तृतीय चरण
में चौदह मात्रा, द्वितीय, चतुर्थ में सोलह मात्राएं हो,
पदान्त में रगण, लघु और गुरु का प्रयोग हो। वैदः (नपुं०) [वेद+अण] बुद्धिमान व्यक्ति। वैदग्ध (वि०) विदग्धता, क्षीणता।
बुद्धिमत्ता, कौशल, चतुराई। (जयो० ११/४०) निपुणता, स्फूर्ति, दक्षण, कुशलता।
वैदग्ध्य देखो ऊपर। वैदर्भः (पुं०) विदर्भ का राजा।
* रचना शैली, दमयन्ती, ० रुक्मणी। वैदर्भी (स्त्री०) एक काव्य रचना की शैली, वैदर्भी रीति। वैदल (वि०) [विदलस्य विकारः, विदल+अण] बेंत निर्मित,
टहनियों से निर्मित। वैदलः (पुं०) एक रोटी विशेष। वैदली (स्त्री०) डलिया, टोकरी, बांस से बनी हुई टोकरी। वैदिक (वि०) [वेदं वेत्त्यधीते वा ठञ् वेदेषु विहितः वेद+ठक्]
वेद सम्बन्धी, ज्ञान सम्बंधी।
०वेदविहित, पवित्र। आर्ष। (जयो० २/४) वैदिकः (वि०) आर्य, वेद ज्ञाता ब्राह्मण। वैदिक (वि०) अनुभव करने वाला। वैदिकजनः (पुं०) वेद ज्ञान के ज्ञाता लोग।
वैदिक मान्यता वाले लोग। (वीरो० २२/१३) वैदिकधर्मः (पुं०) वेद वेत्ताओं का धर्म। (वीरो० १५/५७) वैदिकनियमः (पुं०) आषरीति। (जयो०वृ० २/४) वैदिकसम्प्रदाय (पुं०) वैदिक मान्यता के सम्प्रदाय। (वीरो०
२२/१६) वैदिकसम्प्रदाय-मान्य (वि.) वैदिक सम्प्रदाय द्वारा मानी गई
स्नान, आचमन आदि विधि। (वीरो० २२/१६) वैदिकसम्प्रदायिन् (वि०) वैदिक मान्यता वाले।
अत्युद्धतत्त्वमित वैदिक सम्प्रदायी प्राप्तोऽभवत्
कुवलये वलयेऽभ्युपायी। (वीरो० २२/१४) वैदुषी (स्त्री०) [विद्वस्+अण्+ङीप्] ज्ञान, अधिगम, बुद्धिमत्ता। वैदूर्य (वि०) [विदूर+ष्यञ्] विदूर से उत्पन्न। वैदूर्य (नपुं०) वैदूर्यमणि, नीलम। वैदेशिक (वि०) दूसरे देश से सम्बन्ध रखने वाला, विदेशी, - परदेशी। वैदेशिकः (पुं०) [विदेश+ठञ्] विदेशी व्यक्ति, परदेशी जन। वैदेश्य (वि०) [विदेश+ष्यञ्] विदेशीपन। वैदेहः (पुं०) [विदेह+अण] विदेह देश का राजा। ____०व्यापारी, वैश्या वैदेहकः (पुं०) व्यापारी। वैदेहिकः (पुं०) सौदागर। वैद्य (वि०) [वेद्+यत्] वेद सम्बन्धी, ज्ञान जन्य, आध्यात्मिक।
आयुर्वेद सम्बन्धी, आयुर्वेद विषयक। वैद्यः (पुं०) [विद्या अस्ति, अस्य-विद्या+अण] प्राणाचार्य
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वैद्यकः
१०२७
वैमुख्यं
(जयो०६/१०) चिकित्सक, निदानक, भैषजज्ञा (जयो०वृ० ६/७५) (मुनि० ३१)
विद्वान् पुरुष, बुद्धिमान व्यक्ति। वैद्यकः (पुं०) [वैद्य+कन्] चिकित्सक, वैद्य। वैद्यकं (नपुं०) चिकित्सा पद्धति, औषध विज्ञान। वैद्युत (वि०) [विद्युत+अण्] बिजली से उत्पन्न। वैद्युतवह्निः (स्त्री०) बिजली की अग्नि। वैधुताग्निः (स्त्री०) बिजली से उत्पन्न आग। वैद्यतानलः (पुं०) बिजली से प्राप्त होने वाली ऊर्जा। वैद्योपक्रमः (पुं०) प्राणाचार्य उपक्रम।
रोगी। (जयो०६/१०) वैधः (पुं०) नीति, व्यवहार, लोकाचार। (जयो० ५/४७) वैधयं (नपुं०) [विधर्म+ष्यञ्] भिन्नता, असमानता।
वैपरीत्य। अवैधता। अनौचित्य। ०अन्याया
०पाखण्ड। वैधवेयः (पुं०) [विधवा+ ढक्] विधवा का पुत्र। वैधव्य (वि०) [विधवा+ष्यञ्] विधवापन, पति विहीनता
युक्त। वैधुर्यं (नपुं०) [विधुर+ष्यञ्] विक्षोभ, सिहरन, कंपकंपी।
०व्याकुलता, आकुलता।
शोकावस्था। वैधेय (वि०) [विधि+ढक्] ०मूर्ख, मूढ, जड़, बुद्ध।
नियमानुकूल, विहित।
प्रतिपादित, कथित। वैधेयः (पुं०) मूढ। वैनतेयः (पुं०) [विनता+ढक्] गरुड़ पक्षी। (जयो०वृ० १/४४) वैनयिक (वि०) [विनय ठक्] शिष्टता, "विनयेन चरन्तीति
वैनयिका" सौजन्य, सदाचरण। विनय को स्वीकार करने
वाले। वैनयिकः (पुं०) सामरिक रथ, युद्ध रथ। वैनयिकवादः (पुं०) विनय को स्वीकार करने वाले मिथ्यादृष्टि। वैनायक (वि०) [विनायक+अण] गणधर सम्बंधी, गणेश
सम्बंधी। वैनायिकः (पुं०) [विनायं खण्डनमधिकृत्य कृतो ग्रन्थः
विनाय+ठक्] बौद्धमत का एक दार्शनिक सम्प्रदाय।
वैनाशिकः (पुं०) [विनाश+ठक्] दास। ०मकड़ी।
ज्योतिष। ०बौद्धसिद्धांत। वैपरीत्य (वि०) विपरीतता, विरोधिता। (दयो० १२२)
* निर्लोमता (जयो०वृ० ११/१८)
असंगति। (सम्य०६)
विपरीत वृत्ति। वैफुल्यं (नपुं०) [विपुल ष्यञ्] विस्तार, विशालता।
पुष्कलता, ०बहुलता, ०अधिकता। वैपुल्यं (नपुं०) [विफल+ष्यञ्] निष्फलपना, निरर्थकता,
विफलता। (समु० ६/६) वैबोधिकः (पुं०) [विबोध+ठक] चौकीदार, पहरेदार, जागति
एवं सजगता उत्पन्न करने वाला गश्ती। वैभवं (नपुं०) [विभु+अण्] बड़प्पन, यश, महिमा।
सम्य० ४१) 'दूरारूढचरित्रवैभवबलां चञ्चच्चिदर्चिर्मयीम्' (सम्य० ४१) वैभाविकी (स्त्री०) वैभाविकी शक्ति, जीव द्रव्य और पुद्गल
द्रव्य इन दोनों में एक वैभाविकी शक्ति होती है। दूसरे से मिलने पर उसके प्रभाव को स्वीकार करना और अपना प्रभाव उस पर दिखाना। (सम्य० २३) एकोन्यतः सम्मिलतीति, यावद्वैभाविकी शक्तिरुदेति तावत्। तयोरथैकाकिताऽन्वये तु, शक्तिः पुनः सा खलु मौनमेतुः।।
(सम्य० २९) वैभ्राज्यं (नपुं०) [विभ्राज+अण] स्वर्गीय उपवन, स्वर्गीय
आराम। रमणीय बगीचा। वैमत्यं (नपुं०) [विमत+ष्यञ्] ०मतभेद।
विचारभेद। ०अनबन।
अरुचि। वैमनस्य (नपुं०) [विमनस्+ष्यञ्] ०शोक, उदासी, मानसिक
वेदना, बैचेनी। वैमात्रः (पुं०) सौतेली मां का बेटा। वैमानिक (वि०) [विमान+ठक] विमान में आसीन। वैमानिकः (पुं०) विमानवासी देव। 'विमानेषु भवा वैमानिकाः' वैमुख्यं (नपुं०) [विमुख+ष्यञ] विमुखता। मुंह मोड़ना,
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वैमेयः
१०२८
वैरीशः
पलायन, प्रत्यावर्तन। वैमुख्यमप्यस्त्वभिमानिनीनामस्तीह' वैरकर (वि.) वैर विरोध करने वाला, शत्र विरोध करने (वीरो० ९/३९)
वाला। 'आत्मीयजन शत्रुत्व विधायकः' (जयोवृ० ९/८१) ०अरुचि।
'स्वजनेषु वैरं करोतीति स्वजनवैरकर'। जुगुप्सा।
वैरकारः (पुं०) शत्रुता का भाव। वैमेयः (पुं०) [विमेय+अण्] विनिमय, बदला।
प्रतिहिंसा। वैयग्रं (नपुं०) [व्यग्र+अण] व्यग्रता, बैचेनी, आकुलता, वैरकृत् (पुं०) शत्रु, द्रोह। व्याकुलता।
वैरक्तं (नपुं०) [विरक्त+अण] ०इच्छा का अभाव, सांसारिक ०तल्लीनता, अनन्यभक्ति।
आसक्तियों के प्रति उदासीनता। वैयर्थ्य (नपुं०) [व्यर्थ+ष्यञ्] व्यर्थता, अनुत्पादकता। (वीरो० वैरगत (वि०) शत्रुता युक्त, विरोध को प्राप्त हुआ।
१३/१३) वैयर्थ्य मावेदयितुं स्वमेष समीपमेति स्म सुद्रुदेशः। वैरजन्य (वि.) विरोध स्वरूप। (वीरो० १३/१३)
वैरङ्गिकः (पुं०) [विरङ्ग विरागं नित्यमर्हति ठक] * विरागी। वैयधिकरण्यं (नपुं०) [व्यधिकरण+ष्य] भिन्न स्थानों में | सन्यासी, सद्मार्गी। होने वाला भाव।
वैरनिर्यातनं (नपुं०) प्रतिहिंसा, विरोध भाव। वैया (स्त्री०) सेवा। वैयावृत्ति। (सम्य० ९२)
वैरभावः (पुं०) विरोध भाव। वैयाकरणं (नपुं०) [व्याकरणमधीते वेत्ति वा अण] व्याकरण वैररक्षणं (नपुं०) विरोध की रक्षा। विषयक, व्याकरण सम्बंधी। (जयो० १/३१)
वैरल्यं (नपुं०) [विरल+ष्यञ्] न्यूनता, विरलता, ढीलापन। वैयाकरणमतिः (स्त्री०) व्याकरण सम्बंधी दृष्टि। (दयो० ४) मृदुता। वैयाघ्र (वि०) [व्याघ्र+अज] चीते की तरह।
वैरहरणमंत्र (नपुं०) शत्रुहरण मन्त्र। (जयो० १९/६३) वैयात्यं (नपुं०) [वियात+ष्यञ्] साहस।
वैराग्यं (नपुं०) [विरागस्य भाव+-ष्यब] विरक्ति, विरागी की निर्लज्जता।
अवस्था। अविनय।
० संसार-शरीर-भोगेषु निर्वेदलक्षणम्' 'भवांग-भोग वैयावृत्तिः (स्त्री०) सेवा, मुसुसा। प्रीतिभाव पूर्वक धर्मात्मा विरतिर्वैराग्यम्'
की सेवा। गुणानुरागात्तु करोतु वैयावृत्तयप्रणीति रुचयेऽस्तु उदासीनता, अरुचि, असंतोष। वैया' (सम्य० ९२)
रंज, शोक। वैयावृत्यकर (वि०) सेवा करने वाला। (जयो० २८/४१) वैराग्यभर्तुः (पुं०) वैराग्य स्वामी। (मुनि०५) वैयावृत्तियक्रिया (स्त्री०) सेवा भाव। (वीरो० ३/६) वैराटः (पुं०) इन्द्रगोप नामक क्रीड़ा। वैयावृत्यतपः (पुं०) वन्दनादि रूप उपकार का भाव। वैरात्रिक (वि०) रात्रि के पश्चात्, आधी रात पश्चात् दो घड़ी वैयावृत्त्ययोगः (पुं०) वैयावृत्त्य में लगना। 'व्यापृते यत्क्रियते बीतने क समय विरात्री, उसका काल वैरात्रिक। तद्वैयावृत्त्यम्' तस्य योगः'।
वैरिन् (वि०) [वैर+इनि] विरोधी, शत्रुतापूर्ण। वैयासिकः (पुं०) [व्यासस्य अपत्यं, व्यास इञ्] व्यास का पुत्र। वैरिन् (पुं०) शत्रु, नाशक। (जयो० वृ० ३/१०९) दुश्मन, वैरं (नपुं०) [वीरस्य भावः] विरोध, शत्रुता, कलह, द्वेष। प्रतिपक्षी। प्रताप, शत्रु (जयो०वृ० १/४०) (समु० ४/११)
वैरिसंग्रहः (पुं०) शत्रुसमूह। (जयो० ३/६) मनमुटाव, ईर्ष्या।
वैरिआननं (नपुं०) वैरिमुख। निन्दा, ग्लानि। (जयो० १/७३()
वैरिमुखं देखो ऊपर। द्रोह, वैमनस्य। (सुद० १/१६)
वैरिनिवारक (वि०) विरोध शान्त करने वाला। (जयो०२०/१९) घृणा, प्रतिहिंसा।
वैरूप्यं (नपुं०) [विरूप+ष्यत्र] विरूपता, कुरूपता। ०रूपों ०पराक्रम।
की विभिन्नता। ०शूरवीरता, बहादुरी।
| वैरीशः (पुं०) अरिनृप, शुत्रराजा। (जयो०१० ३/२७)
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वैरोचनः
१०२९
वैषम्यमित
वैरोचनः (पुं०) विरोचन का पुत्र। वैलक्षण्यं (नपुं०) [विलक्षस्य भावः ष्यब] आश्चर्य
विपरीतता, विरोध, ०अन्तर, भेद। वैलक्ष्य (वि०) [विलक्ष+ष्यञ्] उलझन, गड़बड़ी। ___विरूपता, (सुद० ७८) कृत्रिमता, लज्जा। वैलोक्यं (नपुं०) [विलोम+ष्यब] विरोध, व्युत्क्रम, वैपरीत्य। वैवधिकः (पुं०) [विवध+ठक्] फेरी वाला, आवाज लगाकर
वस्तु बेचने वाला। वैवयं (नपुं०) [विवर्णस्य भाव-ष्यञ्] निष्प्रभता, विविधता।
विभिन्नता, विरूपता। (सुद० ७९) वैवस्वतः (पुं०) [विवस्वतोऽपत्यम्-अण] अन्तक, यमराज।
(जयो०७० २/१३४) वैवस्वती (स्त्री०) [वैवस्वत डीप] दक्षिण दिशा। यमुना
नदी।
वैवाहिक (वि०) विवाह सम्बंधी। वैवाहिकं (नपुं०) परिणय, शादी। वैवाहिकः (पुं०) पुत्रवधु का श्वसुर, दामाद का श्वसुर।। वैशद्यं (नपुं०) [विशद+ष्यञ्] 'वैशा कुद्धेः ज्ञानस्य।
विशदता, स्वच्छता, निर्मलता। सफेदी। धवलता।
शान्ति, स्थिरता। वैशसं (नपुं०) [विशस्+अण] ० वध, विनाश, हत्या।
०दुःख, सन्ताप, कष्ट, पीड़ा।
०कठिनाई। वैशस्त्रं (नपुं०) [विशस्त्र+अण] ०असुरक्षा, शस्त्रविहीनता,
राजकीय शासन। वैशाखः (पुं०) [विशाख+अण] चान्द्रवर्ष का दूसरा माह।
वैशाखमास। वैशाख (नपुं०) एक बाण चलाते समय की स्थिति। वैशाखस्थानं (नपुं०) एक आसन विशेष, जिसमें एड़ियों पर
जोर दिया जाता है। वैशाखी (स्त्री०) वैशाख मास की पूर्णिमा। वैशिक (वि०) [विशैन जीवति-वेश+ठक्] वैश्याओं की
वैशेषिकं (नपुं०) वैशेषिक दर्शन, जिसके प्रणेता कणाद ऋषि
माने जाते हैं। वैशेष्यं (नपुं०) [विशेष+ष्यज] विशेषता, श्रेष्ठता, प्रधानता,
प्रमुखता। वैश्यः (पुं०) खेतीहर एवं वाणिज्य कर्ता। (हित०)
दूसरे के कार्यों में सहयोग करने वाले। वैश्यावाणिज्ययोगतः। (हरि०वृ० ९/३९) ०वणिजोऽर्थार्जनान्यात्। (महा०पु० ३८/४६) प्रयोजनं परेषां तु, सम्पादितुमुद्यतान्। जंघा वलेन तानुक्त्वा, वैश्या इत्येतदाख्यया।।
(हित०सं०८) वैश्यकर्मन् (नपुं०) वैश्य का कर्म, व्यवसाय, वाणिज्य करना। वैश्यकुलावतंसः (पुं०) वैश्य कुल का आभूषण। (सुद०२/१)
अथोत्तमो वैश्यकुलावतंसः सदेकसंसत्सरसीसुहसः।।
(सुद० २/१) वैश्यजाति (स्त्री०) वैश्य सम्प्रदाय। वैश्यत्व (वि०) वणिकपना। सैवाऽऽगतोऽस्ति वणिजामहहाधहस्ते,
वैश्यत्ववर्मव हृदयेन सरन्त्यदस्ते। (वीरो० २२/२६) वैश्यवर्गः (पुं०) वैश्य समूह। (वीरो० २२/२६) वैश्यवर्णः (पुं०) वैश्यजाति। (जयो०वृ० १८/५०) वैश्यवृत्तिः (स्त्री०) वैश्य का व्यवसाय, वैश्य की आजीविका। वैश्रवणः (पुं०) [विश्रवणस्यापत्यम्] कुबेर, धनपति।
०रावण। वैश्यागारः (पुं०) आपणक, दुकान। वैश्याधारः (पुं०) वैश्य का आधार। वैश्व (वि०) वार्ताजीवि। (जयो०वृ० २/१११) वैश्वानरः (पुं०) [विश्वानर+अण] अग्नि, आग, बह्नि। (वीरो०
१/७) वैश्वासिक (वि०) [विश्वास+ठक] विश्वसनीय, गोपनीय। वैषम्यं (नपुं०) [विषम+ष्यत्र] असमता, कठोरता।
अन्याय। विपत्ति। संकट।
आपत्ति। ०कठिनाई। वैषम्यमित (वि०) विषमता। (वीरो० ३/१३) ०कठोरता,
कठिनाई।
आपत्ति, संकट। कालेन वैषम्यमिते नवर्गे क्रौर्य पशूनामुपयाति सर्गे। (वीरो० ११/४)
कला।
वैशाली (स्त्री०) बिहार प्रान्त में स्थित एक नगर-जिसका
शासक राजा चेट कथा। एक गणराज्य का नाम। 'वैशाल्या
भूमिपालस्य चेटकस्य समन्वयः' (वीरो० १५/१९) वैशिष्ट्य (वि०) [विशिष्ट+ष्यञ्] ०भेद, अन्तर, विशेषता।
विशिष्टिता, प्रधानता, अनुकूलता। (मुनि० १४) ०श्रेष्ठता, अच्छाई।
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वैषयिक
१०३०
व्यचलत्
वैषयिक (वि०) [विषय+ठक्] विषयों से सम्बन्ध रखने वाला। वैषयिकः (पुं०) कामुक, वासनाजन्य व्यक्ति। वैष्टुः (पुं०) [विश+ष्ट्रन्] ०अंतरिक्ष। ०वायु, पवन।
लोक, विश्व। वैष्णवः (पुं०) एक सम्प्रदाय, जो शिव या विष्ण का भक्त
होता है। वैसारिणः (पुं०) [विशेषेण सरति विसारी मत्स्यः स
एवं-विसा+रिन्+अण्] मछली, मत्स्य। वैहायस (वि०) [विहायस्+अण्] पवन, हवा। वैहार्य (वि.) [विशेषेण ह्रियते-वि-हृ+ ण्यत्+अण] उपहास ___ करने योग्य व्यक्ति। साला आदि। वैहासिकः (पुं०) [विहासं करोति-विहास+ठक] विदूषक।
हंसोकड़ा, मजाकिया। वोदृ (पुं०) कुली, भार वाहक।
०पति।
नेता, नायका वोढा (स्त्री०) नव विवाहिता। वोढा नवोढामिव भूमिजातरछाया
मुपान्तान्त जहात्यथानः। (वीरो० ) वोढारः (०) उद्यत, तैयार। (वीरो० १६/४) वोद्धार (वि०) समझाया गया। (जयो० १६/६८) वोटः (पुं०) डंठल, वृन्त। वोधुर (वि०) झुकने वाला। (जयो० २/१३८) वोद (वि०) तर, गीला, आर्द्र। वोरकः (पुं०) लेखक, लिपिकार। वोलः (पुं०) [वुल्+अच्] गुग्गुल, रसगन्ध। वोल्लाहः (पुं०) अश्व विशेष। वौषट् (अव्य०) आहूति शब्द। व्यंशाकः (पुं०) [विशिष्टः अंशो यस्य] पर्वत, पहाड। व्यंशुकः (वि०) [विगतं अंशुकं यस्य] ०वस्त्रहीन, निर्वस्त्र,
नग्न। व्यंसकः (पुं०) [वि+अंस्+ण्वुल्] ०धूर्त, ठग। . व्यसनं (नपुं०) [वि+अंस्+ल्युट्] ठगना, धोखा देना। व्यकसत् (भू०) विकास भाव को प्राप्त हुआ। (जयो० १/८४) व्यक्त (भू०क०कृ०) [वि+अज्ज+क्त] कथित, प्रतिपादित, विवेचित। (सम्य० १३५) प्रकटीकृत, प्रदर्शित। विकसित, रचित।
०स्पष्ट, साफ, स्वच्छ, सरल।
विशिष्ट, श्रेष्ठ, उत्तम।
०ख्यात, प्रसिद्ध। व्यक्तं (अव्य०) स्पष्ट रूप से। व्यक्तगेयं (नपुं०) अक्षर एवं स्वर की स्पष्टता। व्यक्तमङ्गलं (नपुं०) अभिव्यक्त मंगल। (जयो० ३/८४) व्यक्ताव्यक्तं (नपुं०) कथित-अकथित, निरूपित-अनिरूपित।
(सम्य० १३५) 'व्यक्ताव्यक्तस्वभावेनेहापूर्वकमिष्टानिष्ट'
(सम्य० १३५) व्यक्ताश्रयः (पु०) संभाषण युक्त। (मुनि० २) व्यक्तेश्वरनिषिद्ध (वि०) एक उत्पादन दोष, आहार क्रिया में
लगने वाला दोष।
व्यक्त ईश्वर के द्वारा रोके गए आहार को ग्रहण करना। व्यक्तिः (स्त्री०) [वि+अञ्ज+क्तिन्] ०अभिव्यक्ति, कथन, विवेचन।
प्रकटीकरण। विशद प्रत्यक्षज्ञान।
पुरुष। व्यग्र (वि०) [विरुद्ध अगति-वि+अग्+रक्] व्याकुल, संवेग
युक्त, दुःखित, पीड़ित।
०भयभीत, शंकित, आतङ्कित। व्यग्रताविहीन (वि०) अनाकुल, आकुलता रहित।
(जयो० २३/६) व्यङ्ग (वि०) [विगतं वा अङ्ग यस्य] ०अपंग, अंगहीन।
विरूप, अपाहिज।
०कटाक्ष, हंसी। व्यङ्गः (पुं०) लुञ्जा।
मेंढक। व्यङ्गता (वि०) कटाक्षता, हंसी। (जयो०वृ० १२/२५) ___ 'व्यङ्गतयाऽवदत्-यद् हे आर्ये यत्त्वोक्तं भोक्तमारभेथाः
(जयो०वृ० १२/१२५) व्यङ्गलं (नपुं०) अंगुल का ६०वां अंश। लम्बाई का अत्यंत
छोटा माप। व्यङ्गय (वि०) [वि+अञ्+ण्यत्] ध्वनित, व्यञ्जना शक्ति द्वारा
कथित। परोक्षसंकेत द्वारा सूचित। व्यङ्ग्यं (नपुं०) उपलक्षित संकेत। व्यच् (सक०) ठगना, धोखा देना। व्यचलत् (भू०) विचलित हुआ। (सुद० १२३)
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व्यच्छादि
१०३१
व्यतिरेकः
व्यच्छादि (वि०) आच्छादित। (जयो० १५/७३)
•साफ किया गया, संकेतित। व्यजः (पुं०) [वि+अज्+घञ्] विजन, बीजना, पंखा।
चिह्नित, चित्रित, अभिव्यक्त। व्यजनं (नपुं०) [वि+अ+ल्युट्] ०पंखा, हवा करने का | व्यडम्बकः (पुं०) अरण्ड़ पेड़। उपकरण।
व्यतिकरः (पुं०) [वि+अति+कृ+अप] संज्ञापरिवर्तन, व्यञ्जक (वि०) [वि+अ+ण्वुल] संकेतित, प्रकटित,
अदला-बदली। (जयो० ११/५७) स्पष्ट भाव को प्राप्त। उपलक्षित।
मिश्रण, इकट्ठा मिला देना। व्यञ्जकः (पुं०) नाटकीय भाव, हाव-भाव, हास-परिहास।
सम्मिलन, मिलाप, सम्पर्क। संकेत।
०रगड़ना। प्रतीक।
घटना। व्यञ्जनं (नपुं०) [वि+अञ्ज ल्युट्] व्यञ्जन अक्षर-कवर्ग से
०सम्भूति। लेकर पवर्ग तक। स्वर रहित अक्षरों या अवयवों का वर्ग
०वृत्तान्त। (जयो० ३/४९)
०अवसर।
संकट। संकेत, प्रकट करना। चिह्न, निशान, स्मृति चिह्न।
व्यतिकीर्ण (भू०क०कृ०) [वि+अति कृ+क्त] मिश्रित, मिला छद्मवेश, परिधान।
हुआ, संयुक्त।
व्यतिक्रमः (पुं) [वि+अति+क्रम+घब] ०अतिक्रमण, विचलन, लिंगबोधक चिह्न।
उल्लंघन मिष्ठान्न। (जयो०१० ३/६०)
०भंग विनाश। खाद्य पदार्थ, विविध प्रकार के पकवान। (दयो० ९५,
अवहेलना, उपेक्षा, भूल। जयो०वृ० १२/१११) शाकादि पकवान।
वैपरीत्य, उलट। ०व्यञ्जनं वास्तुकोद्भूतलक्षणं तत्र सम्मतम्। (जयो०२८/३४)
विपर्यस्ता ०तालवृन्त, पंखा। (जयो०वृ० १२/२२)
०बीता हुआ, गुजरा हुआ। व्यञ्जनचित्रं (नपुं०) एक अलंकार, जिसमें समस्त श्लोक की
ग्रहण करने में दोष लगना, अतिचार आना। 'विशेषेण रचना में एक व्यञ्जन को चित्रित किया जाता है।
पद भेदकारणतोऽतिक्रमो व्यतिक्रमः' (जैन०ल० १०३७) व्यञ्जनदलं (नपुं०) खाद्य समूह। (सुद०७२)
व्यतिक्रमणं (नपुं०) विषयोपकरण में प्रवृत्ति, उपेक्षा भाव की शब्द प्रकाशन।
वृत्ति। व्यञ्जनवयः (पुं०) शब्द के भेद से वस्तु का ग्रहण, वस्तु भेद
व्यतिक्रान्त (भू०क०कृ०) [वि अतिक्रम+क्त] ०वियुक्त, का अध्यवसाय।
भिन्न, पृथक्। व्यञ्जननिमित्तं (नपुं०) तिल, मशादि से सुख का कारण, चिह्न
अतिक्रमण, उल्लंघन। ___का हेतु। ०प्रतीति का कारण।
उपेक्षित, बीता हुआ। व्यञ्जनपर्यायः (पुं०) चक्षु से ग्रहण करने योग्य पर्याय, सामान्य
व्यतिरिक्त (भू०क०कृ०) [वि+अति+रीच्+क्त] ०वियुक्त ज्ञान का विषय।
भिन्न। (हित० १८) व्यञ्जनशद्धि (स्त्री०) व्यञ्जनाक्षर में शुद्धि।
प्रत्याहृत, रोका हुआ। व्यञ्जनसंक्रान्तिः (स्त्री०) श्रुतवचन का आलम्बन।
व्यतिरेकः (पुं०) [वि+अति+रिच+घञ्] ०भेद, अन्तर। व्यञ्जनाचार: (पुं०) प्राप्त अर्थ का ग्रहण। 'व्यञ्जनमव्यक्तं वियोग।
शब्दादिजातम्' तस्यावग्रहो (जैन०ल० १०२६) 'पत्तत्थगहणं निष्कासन, अपवर्जन। वंजणावग्गहो' (धव० १/३५५)
वैषम्या व्यञ्जित (भू०क०कृ०) [वि+अञ्ज+क्त] ०ध्वनित, व्यक्त, ०असमानता। प्रकट हुआ।
०अनन्वया
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व्यतिरेकदृष्टान्तः
१०३२
व्यथित
एक अलंकार (जयो०० १/३) जिसमें किसी विशेष दशाओं में उपमान की अपेक्षा उपमेय को श्रेष्ठतम बताया जाता है। (जयो०व०१/३) 'उपमानाद्यदन्यस्य व्यतिरेकः स एव सः' (काव्य० १०) केनचिद्यत्र धर्मेण द्वयोः संसिद्धसाम्ययोः भवत्येकतराधिक्यं व्यतिरेकः स उच्यते।। (वाग्भटालंकार ४/८३) 'गुप्तिभागिह च कामवत्तुः न, पक्षपाति च शीतरश्मिवत्पुनः। (जयो० ३/१५) भिन्न संतान, जो विसदृशता रूप अवस्था है।
कारण के अभाव में जो कार्य का भी अभाव है। (वीरो० १९/२०)
अन्वय के साथ कार्य-कारण का भाव। (हित० सं०१६) व्यतिरेकदृष्टान्तः (पुं०) साध्य के अभाव में साधन का
अभाव जहां कहा जाता है। 'साध्याभावे साधनाभावो यत्र
कथ्यते स व्यतिरेकदृष्टान्तः' (परीक्षा ३/४४) व्यतिरेकिन् (वि०) [व्यतिरेक इनि] ०आगे बढ़ जाने वाला,
आगे निकल जाने वाला। अपवर्जन करने वाला।
अभाव दर्शाने वाला। व्यतिरेकोपमा (स्त्री०) व्यतिरेक अलंकार और उपमा।
(जयो० ३/१५) व्यतिषक्त (भू०क०कृ०) [वि+अति+शञ्ज+क्त] पारस्परिक
सम्बन्धयुक्त, आपस में मिला हुआ, संसक्त, मिश्रित। व्यतिषंगः (पुं०) [वि+अति+शञ्ज+घञ्] ०संयोग, मिलाप।
पारस्परिक सम्बंध।
अन्योन्य सम्बन्ध, एकनेकता। व्यतिहारः (पुं०) [वि+अति+ह+घञ्] विनिमय।
लेन-देन।
अदला-बदली। व्यतीत (भू०क०क०) [वि+अति+इ+क्त] ०बीता हुआ हुआ।
समाप्त। (समु०४/१९) यापित। (जयो०वृ० १८८२)
विसर्जित, परित्यक्त, छोड़ा गया। व्यतीति (वि०) व्यपगम। (जयो० १८/) व्यतीत्य (वि०) हितकर। (जयो० १/६) (सुद० ११६) व्यतीपातः (पुं०) [वि+अति+पत्+घञ्] ०अनादर, अपमान,
तिरस्कार। पूर्ण प्रयाण, अति गतिशीलता। सम्पूर्ण विचलन।
व्यत्य (वि०) समाप्त। (सुद० १/४६) व्यत्ययः (पुं०) [वि+अति+इ+अच्] ०पार करना।
उस पार होना। ०अभिप्राय। (जयो० २२/५८) ०व्युत्क्रान्ति। अन्तः परिवर्तन, (जयो० ६/६९) रूपान्तरण। अवरोध, अड़चन। विरोधा
०विपर्यस्त, वैपरीत्य। व्यत्यस्त (भू०क०कृ०) [वि+अति+अस्+क्त] व्युत्क्रान्त,
विपर्यस्त। विपरीत, विरोधी। असंगत।
विकीर्णगत। व्यत्यासः (पुं०) [वि+अति+अस्+घञ्] ०विरोध, असंगत
विपरीतता।
०व्युत्क्रान्त। व्यथ् (अक०) व्यथित होना, व्याकुल होना।
०दु:खी होना, कष्ट होना। शोकाक्रान्त होना, अशान्त होना। खिन्न होना, म्लान होना।
०कांपना, भयभीत होना। व्यथक (वि०) [व्यथ् णिच्+ण्वुल] ०दु:खद, कष्टकर,
व्याकुलित। व्यथनं (नपुं०) [व्यथ्+ ल्युट्] सताना, पीड़ा देना। व्यथा (स्त्री०) [व्यथ्+अङ्-टाप] पीड़ा, कष्ट, वेदना। (जयो०
२/४८) ०भय, चिंता, व्याकुलता। विक्षोभ, अशांति।
रोग। व्यथाकथा (स्त्री०) व्यर्थ कथा। व्यथाकथामेष कुतः प्रयातु।
(वीरो० १२/३४) व्यथाकर (वि०) व्यथां करोतीति व्यथाकरः, बाधाकारक।
(जयो० २/२६) व्यथित (भू०क०कृ०) [व्यथ्+क्त] ०पीड़ित, दुःखी, कष्ट
युक्त। (जयो० १४८)
आतङ्कित। विक्षुब्धा ०अशान्त।
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व्यध
१०३३
व्यभिचार:
व्यध् (सक०) बींधना, कष्ट पहुंचाना। प्रहार करना, मारना, छल (जयो० ५/४५) सूचना, निरूपण। घात करना।
नाम, अभिधान। छिद्र करना, खोदना।
उपाय, प्रयत्न गर्त बनाना।
व्यपदेष्ट्र (पुं०) [वि+अप+दिश+तृच्] छलिया, ठग। व्यधः (पुं०) [व्यध्+अच्] बींधना, प्रहार करना, नष्ट करना, व्यपरोपणं (नपुं०) [वि+अप्रुह् णिच्+ ल्युट्] ०उन्मूलन, घात करना।
उखाड़ना, घायल करना।
०हटाना, भगाना छिद्र करना।
फाड़ना, काटना। व्यधिकरणं (नपुं०) [वि+अधि+क+ल्युट्] भिन्न आधार, व्यपहारः (पुं०) आहार सम्बंधी दोष। पृथक् आश्रय।
व्यपाक् (सक०) निकाल देना, बचाना। (मुनि० ६) व्यध्यः (पुं०) [व्यध्+ ण्यत्] निशाना, लक्ष्य।
व्यपाकृतिः (स्त्री०) [वि+अप+अ+कृ क्तिन्] निष्कासन, व्यनक्तिः (स्त्री०) प्रकटीकरण। (जयो० ११/१३)
दूरीकरण, निकाल देना। व्यनपायि (वि०) विच्छेदरहित, अखण्ड। (जयो० १३/२७) व्यपायः (पुं०) [वि+अप+इ+घञ्] ०अन्त, समाप्ति, अभाव व्युनुनादः (पुं०) प्रतिध्वनि, ऊँची गूंज।
नाश, विनाश, क्षति। व्यन्तरः (पुं०) (विशिष्टः अन्तरो यस्य] पिशाच, यक्ष। ०लोप।
अनेक प्रकार के निवास युक्त देव। (भक्ति० ३५) व्यपायि (वि०) अपाययुक्त। (जयो०वृ० २/१३५) 'विविधदेशान्तराणि येषां निवासास्ते व्यन्तरा। "व्यन्तर जाति भयभीत। (जयो०वृ० २/१३५) के देव। 'व्यन्तरा किन्नर किं पुरुष-महोरग-गन्धर्व'
व्यपाश्रयः (पं०) [वि+अप+आ+श्रि+अप] ०शरण लेना, यक्ष-राक्षस-भूत-पिशाचा (त०सू० ४/११)
सहारा लेना, आश्रय लेना। चार निकायों के देवों में द्वितीय व्यन्तरदेव। (त०सू०प०५६) विश्वास करना। व्यन्तरी (स्त्री०) यक्षिणी। (सुद० १३३) देवी (सुद० ११६) व्यपेक्षा (स्त्री०) [वि+अप्+ईक्ष् अङ्कटाप्] ०आशा, इच्छा, व्यप् (सक०) फेंकना।
वाञ्छा। ०घटाना।
०विचार, व्यवहार, सम्बन्ध। ०दूर हटाना।
व्यपेत (भू०क०कृ०) [वि+अप्+इ+क्त] वियुक्त, रहित। ०अलग करना।
(भक्ति० १६) व्यपकृष्ट (भू०क०कृ०) [वि+अप्+कृष+क्त] ०हटाया हुआ, विसर्जित, परित्यक्त। दूर किया हुआ।
व्यपोढ (भू०क०कृ०) [वि+अप+वह क्त] विपरीत, विरोधी। व्यपगत (भू०क०कृ०) [वि+अप+गम+क्त्] विसर्जित, प्रदर्शित, बतलाया। * हटाया गया, दूर किया गया।
प्रकटीकृत। अन्तर्हित।
व्यपोहः (पुं०) [वि+अप्+ऊह+घञ्] दूर करना, अलग व्यपगमः (पुं०) [वि+अप्+गम+अप्] विसर्जन, अन्तर्धान। करना, निकालना। व्यपत्रय (वि०) [विगता अपत्रया यस्य] निर्लज्ज, ढीठ, लज्जा व्यभिधरित (वि०) विलक्षण होता हुआ, समझा जाता, रहित।
०दिखाई पड़ता है। (हित० १८) व्यपदिष्ट (भू०क०कृ०) [वि+अप्+दिश्+क्त] नामांकित किया | व्यभिचारः (पुं०) [वि+अभि+ चर्+घञ्] कुकर्म, कुशील,
कुसेवन। प्रस्तुत किया गया।
०कुमार्गनुसरण, दुराचरणा व्यपदेशः (पुं०) [वि+अप-दिश्+घञ्] व्याजता (वीरो० ६/३६) दुःशीलाचरण। (जयो० १/४०) ०संदेश।
अतिक्रमण, उल्लंघन।
गया।
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व्यभिचारभृत
१०३४
व्यवच्छेदः
मारण कर्म। (जयो०वृ० १/४०)
व्ययित (भू०क०कृ०) [व्यय्+ क्तु] व्यय किया गया, खर्च विच्छेद्यता, अनास्था, अविश्वास।
किया गया, क्षय ग्रस्त। अभक्ति, अशुद्धि, पाप।
०हानियुक्त, विनाश युक्त। असंगति, अनियमितता, अपवाद।
व्ययिनी (वि०) हानिकी। (जयो० १५/३७) हेत्वाभास, साध्य के न होने पर भी हेत की विद्यमानता। व्ययीकरणं (नपुं०) विनाश रूप। (जयो०वृ० ९/१) विलक्षणत्वादिव्यत्र. व्यभिचारः पुरादिना। (हित०१८) व्यर्थ (वि०) [विगतोऽर्थो यस्मात्] निरर्थक. विफल, अर्थ व्यभिचारभृत (वि०) अनियमित्ता होना। पदत्वाद् ब्राह्मण पदमद्वैते हीन, निष्प्रयोजन ( जयो० २/७१) प्रयोजन रहित। व्यर्थमेव व्यभिचारभृत्।
गुरुताप्रकाशिनः के श्रयन्तु किल शर्मनाशिनः (जयो० व्यभिचारलीन (वि०) व्यभिचार में तत्पर। (जयो० १/४०) २/७१) __ (हित० सं० १८)
व्यर्थता (वि०) निष्प्रयोजनता, निरर्थकता। (हित० १५) व्यभिचारिणी (स्त्री०) व्यभिचारिणी स्त्री, सतित्व विहीन गोत्ववत् सदृशाकारं, विप्रत्वमिति चोदितम्। स्त्री, पररमणरती स्त्री।
__ तथा प्रतीत्यभावेन, व्यर्थतामेव गच्छति।। (हित० १५) व्यभिचारिन् (वि०) [व्यभिचार+इनि] ०अनियमित, असंगत। व्यर्थीकृत (वि०) बेकार किया हुआ, निरर्थक हुआ. निष्प्रयोजन असत्य, मिथ्या।
को प्राप्त हुआ। (वीरो० १४/३३) दुःशीलाचरण। (जयो०वृ० १/४०)
व्यलीक (वि०) [विशेषेण अलति-वि+अल+कीकन] मिथ्या, ०पथभ्रष्ट, भ्रान्त।
झूठ, असत्य। श्रद्धाहीन, परस्त्रीगामी पुरुष।
०कुत्सित, असुखद, अनभिमत। व्यभिचारिभावः (पुं०) असंगत भाव, मिथ्याभाव, रस के व्यलीकं (नपुं०) अप्रिय, दुःखद। विभाव, अनुभाव और व्यभिचारि भाव।
०पीड़ा शोक, दुःख, संताप। नियमित रूप से किसी रस के साथ न रहने से ०व्याकुलता।
व्यभिचारिभाव है। संचारी भाव का नाम व्यभिचारि भाव है। झूठ, असत्य। व्यय (सक०) जाना, पहुंचना। ०व्यय करना, प्रदान करना, | व्यलीकिन् (वि०) असत्य बोलने वाला, झूठ बोलने वाला। अर्पण करना।
व्यलीकिनोऽप्रत्ययसम्विधाऽतः प्रोत्पादयेस्तं न कदापि मातः। ०फेंकना, डालना, छोड़ना।
व्यलोक (वि०) देखा गया। (दयो० ५६) (समु० १/९) ०हांकना।
व्यलोपिन् (वि०) हरण करने वाला, लोपमि। (जयो० १/६२) व्यय (वि.) [वि+इ+अच] विनाश, लोप, हानि। (भक्ति०४) 'लुप्तप्राया जातेत्यर्थः' (जयो० ३/३२) परिवर्तनशील, परिणमन युक्त।
व्यवकलनं (नपुं०) [वि+अव+कल+ल्युट] वियोग, विछोह. ०क्षय, ह्रास, अध:पतन।
घटाना, एक राशि से दूसरी राशि को कम करना। सर्च, परिव्यय, विनियोग। (जयो० २/११३)
व्यवक्रोशनं (नपुं०) [वि+अव+क्रुश ल्युट] ०तू तू मैं मैं अपव्यय। 'पूर्व भावविगमो व्ययनं व्ययः'
करना, गाली-गलौच करना। पूर्व पर्याय का विनाश।
व्यर्थ में विवाद करना। व्ययनं (नपुं०) [व्यय् ल्युट्] खर्च करना, विनाश करना, व्यवच्छिन्न (भू०क०कृ०) [वि+अव+छिद+क्त] ०वियुक्त, हानि करना।
विभक्त, विभाजित। व्ययस्थान (नपुं०) नाशस्वरूप, राहुग्रहनाश रूप। (जयो०
अंकित, चिह्नित। १५/६९)
०अवरुद्ध, बाधित। व्ययार्थ (वि०) [व्यगतोऽर्थो यस्य तद् व्ययार्थम्] अन्यथा ०काट डाला गया, फाड़ा गया। बात, निष्प्रयोजन। (जयो० १२/१४६)
व्यवच्छेदः (पुं०) [वि+अव+छिद्+घञ्] विभाजन, वियोजन, विनाशनार्थ, खर्च हेतु।
विनाश, घात।
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व्यवधा
१०३५
व्यवहारः
विभेदक. भिन्न भिन्न करना। वैषम्य, विपरीतता।
ग्रन्थ का परिच्छेद, अनुभाग। व्यवधा (स्त्री०) [वि+अव+धा+अङ्+टाप्] ०परदा, व्यवधान,
रोक, आवरण। व्यवधानं (नपुं०) रोक, आवरण, परदा। (जयो० १७/२५)
अवरोध, हस्तःक्षेप, वियोग। छिपाना, अन्तर्धान, व्यशन।
अवकाश, अन्तराल। व्यवधायक (वि०) [वि+अव+धा+ण्वुल्] ०आवरण, रोक, ढकना।
अवरोध, अन्तर्धान। व्यवधिः (स्त्री०) [वि+अव+धा+कि] ०आवरण, हस्तक्षेप,
गतिरोध। व्यवसाय: (पुं०) [वि+अव+सो+घञ्] प्रयत्न, व्यापार, चेष्टा।
उद्योग, वाणिज्य, व्यवहार। अवाय, अनुष्ठेय के अनुष्ठान में उत्साह रखना। ०कृत्य, कर्म, क्रिया। (जयो०वृ० ३/१७)
नौकरी, धन्धा, प्रवृत्ति। व्यवसायगत (वि०) प्रयत्नशील। व्यवसायघोषः (पुं०) वाणिज्य संघ। व्यवसायचेष्टा (स्त्री०) उद्योग की चेष्टा। (समु० १/३१) व्यवसायजन्य (वि०) व्यवहार युक्त। व्यवसायहीन (वि०) प्रयत्न रहित, उद्योग से विमुख।
(समु० १/३३) व्यवसायिन् (वि०) [व्यवसाय+इनि] उद्योगी, परिश्रमी,
ऊर्जाशील। ०चेष्टायुक्त, प्रयत्नशील।
०दृढ़ संकल्पी, धैर्यगत। व्यवसित (भू०क०कृ०) [वि+अव+सो+क्त] संकल्पित,
धैर्ययुक्त, प्रयत्नशील, उद्यमवान्। निश्चित, निर्धारित, आयोजित।
प्रयास किया गया। व्यवस्था (स्त्री०) [वि+अव-स्था+अ+टाप] स्थिरता,
निश्चितता। दृढ़ता, धैर्यता। विभाग, विभाजन। (वीरो० १८/१३) ०क्रम स्थापन।
नियम पद्धति। (सम्य० १२५) ०सहमति, स्वीकृति। ०अवस्था, दशा। वीक्ष्येदृशीमङ्गतामवस्थां तेषां महात्मा कृतवान् व्यवस्थाम्। (वीरो० १८/१३) विभज्य तान् क्षत्रिय-वैश्य-शूद्रभेदेन मेधा-सरितां समुद्रः।। (वीरो०
१८/१३) व्यवस्थापनं (नपुं०) [वि+अव+स्था ल्युट्] ०क्रमबन्धन,
समाधान, निर्धारण। नियम, विधान, निश्चय। स्थिरता। दृढ़ता, धैर्य।
वियोग। व्यवस्थापक (वि०) [वि+अवस्था णिच्+ण्वुल]०व्यवस्था
करने वाला, प्रबन्धक।
संयमक। व्यवस्थापनं (नपुं०) [वि+अव+स्था+णिच् ल्युट] निर्धारण, निश्चयकरण। (जयो०० २/२)
स्थिर करना, दृढ़ करना, नियमित करना। व्यवस्थापित (भू०क०कृ०) [वि+अव स्था+णिच्+क्त]
०क्रमबद्ध, निश्चित।
अवस्थित, दृढ़ता युक्त। व्यवस्थित (भू०क०कृ०) [वि+अव स्था+क्त] निश्चित,
अवस्थित, स्थिर। निर्धारित, नियमित। अवलम्बित, आधारित।
वियुक्त, क्रम युक्त किया गया। व्यवस्थिति (स्त्री०) स्थिरता। (जयो० २/२) व्यवहूर्त (पुं०) [वि+अव+ह-तृच] ०प्रबन्धकर्ता, व्यवस्थापक।
न्यायधीश।
नियमन कर्ता, निर्धारण करने वाला व्यक्ति। व्यवह (अक०) घूमना, चलना, परिभ्रमण करना। (समु०२/२०) ___ व्यवहारन-संचरन् (जयो०१० २/१८) व्यवहारः (पुं०) [वि+अव+ह+घञ्] ०वृत्ति, प्रवृत्ति।
व्यवसाय। (जयो०वृ० १३/९) . आचरण, क्रिया, कर्म। (सम्य० १२६) 'विधिपूर्वकमवहरणं व्यवहारः' (जैन०ल० १०३९)
रीति, पद्धति, नियम। ०प्रचलन, प्रथा, प्रशासन।
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व्यवहारज्ञ
१०३६
व्यसनसङ्कुलः
विशेष का कथन करने वाला, विकल्प प्रतिपादक। सवृत्तिरूपं चरणं श्रुतं च तथैव नाम व्यवहारमंचत्। (सम्य० १२८) ०वस्तु विवेचन/स्वरूप विवेचन की पद्धतिश्रद्धानाधिगमोपेक्षाः याः पुनः स्युः परात्मनाम्।
सम्यक्त्वज्ञानवृत्तात्मा, स मार्गो व्यवहारतः।। (सम्य० ८३) व्यवहारज्ञ (वि०) व्यवसाय को समझने वाला, विशेष भेदादि
का ज्ञायक। व्यवहारतन्त्रं (नपुं०) आचरणक्रम। व्यवहारतन्तुः (पुं०) मोक्षमार्ग, व्यवहार से सम्बन्धित मोक्षमार्ग।
(सम्य० १२६) व्यवहार दर्शनं (नपुं०) आचरण प्रधान दर्शन।
०व्यवहार से श्रद्धाभाव। व्यवहारध्यानं (नपुं०) जिस ध्यान में आत्मा के अति अन्य
का आवलम्बन होना। व्यवहारनयं (नपुं०) सामान्य के अभाव के लिए सब द्रव्यों में
जो प्रवृत्त होता है। संग्रहनय ने द्वारा ग्रहण किये गए पदार्थों का भेद
व्यवहार-नय है। व्यवहारपदं (नपुं०) व्यवहार का विषय। व्यवहारपरमाणु (पुं०) आठ सन्ना सन्न द्रव्यों का एक
व्यवहार परमाणु होता है। व्यवहारपल्यं (नपुं०) एक प्रमाण विशेष, प्रमाणांगुल से
निष्पन्न योजन प्रमाण चौड़े, लम्बे और गहरे तीन गढ्डे
करें। उसमें वालाग्र से भरना व्यवहारपल्य है। व्यवहारमातृका (स्त्री०) कानूनी प्रक्रिया। व्यवहारविधिः (स्त्री०) विधि संहिता. कानून नियम। व्यवहारविषयः (पुं०) कानून योग्य विषय। व्यवहारसत्यं (नपुं०) लोक व्यवहार से सम्मत सत्य, जैसे-रोटी
पकाओ। व्यवहार सूर्यः (पुं०) सौभाग्यसूर्य। व्यवहारहिंसा (स्त्री०) शस्त्रादि से हिंसा। व्यवहारिन् (वि०) व्यवहार अनुष्ठान में प्रवृत्त। व्यवहित (वि०) अन्तर्हित हेतु विषयक कथन, अलग-अलग
रखना हुआ, बाधित, रोका गया। व्यवहतिः (स्त्री०) व्यवहार। (जयो० २/५) अभ्यास, प्रक्रिया। व्यवहारिका (स्त्री०) प्रथा. पद्धति, रीति। व्यवायः (पुं०) [अव+अय्+अच्] ०सम्भोग, मैथुन, सुरत। ।
व्यवसायः सुरतेऽन्त? इति विश्वलोचनः। (जयो०७० २७/१२) विश्लेषण, पृथक्करण, वियोजन। विघटन।
आवरण, आच्छन्न, आवृत्त।
०हस्तक्षेप, अंतराल, व्यवधान। व्यवायं (नपुं०) आभा, कान्ति, दीप्ति। व्यवायिन् (पुं०) [व्यवाय+इनि] ०कामुक व्यक्ति, भोगाकांक्षी
पुरुष।
कामोद्दीपक। व्यवेत (भू०क०कृ०) [वि+अव+इ+क्त] वियोजित. विश्लिष्ट।
पृथक् भिन्न। व्यशेषन् (भू०) भरा हुआ। (जयो० १/२६) व्यष्टि (स्त्री०) एकाकीपन, वैयक्तिकता।
वितरण शील विस्तार। व्यसनं (नपुं०) [वि+अस्+ल्युट्] ०बुरी आदत, बुरी लत।
०अनुपसेव्य का सेवन, अभक्ष का भक्षण, अखाद्य का उपयोग।
अपेय का पीना। क्षौद्रं किलाक्षुद्रमना मनुष्यः किमु सञ्चरेत्। भङ्गातमाखुसुलफादिषु व्यसनितां हरेत्।। (सुद० १३०) अभ्यास-खस्तस्य व्यसनमभ्यासस्तस्य आपद्विपत्तिर्यस्य (जयो०वृ० १/७५) ०पाप। (जयो०वृ० १/१०९) विपत्स्थान, कष्टमयस्थान। (जाये०६/४९) कल्याणमार्ग को भ्रष्ट करने वाला, श्रेयस्कर मार्ग घातक। विपत्ति, आधि, रोग, कष्ट। ०अनिष्ट, संकट, अभाग्य। ०पतन, पराजय, दोष, विविध कष्ट। (जयो०वृ० २/१२५) ०हानि, विनाश, क्षति, आघात। ० जुटना, संलग्न होना।
०हवा, वायु, पवन। व्यसनगत (वि०) व्यसन को प्राप्त हुआ। व्यसनभाव (पुं०) दोष भाव। व्यसनसङ्कलः (वि०) व्यसन समूह युक्त, विविध कष्टों से
घिरा हुआ। 'व्यसनैर्विविधकष्टैः संकुला व्याप्ता भवेदिति' (जयो०वृ० २/१२५)
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व्यसनिन्
१०३७
व्याख्याप्रज्ञप्ति
द्यूत--मांस-मदिरा-पराङ्गनापण्यदार-मृगयाचुराश्च ना। नास्तिकत्वमपि संहरेत्तरामन्यथा व्यसनसङ्गला धरा।।
(जयो० २/१२५) व्यसनिन् (वि०) [व्यसन इनि] दुव्यसनी। (दयो० ४१)०अभागा,
भाग्यहीन, दुश्चरित्र शील। व्यसु (वि०) [विगताः असवः प्राणाः यस्य] मृतक, निर्जीव,
अचेतन। व्यस्त (भू०क०कृ०) [वि+अस्+क्त]०वियुक्त, विभक्त।
विक्षुब्ध, कष्टमय, अव्यवस्थित। क्रमहीन, क्रमरहित, विश्रृंखिल। विक्षिप्त, डाला हुआ, फेंका गया।
बिखेरा हुआ, हटाया हुआ। . व्यस्तारः (पु०) गंडस्थल से मद झरना। व्याकरणं (नपुं०) [व्याक्रियन्ते व्युत्पाद्यन्ते शब्दाः येन-वि+
आ+कृ+ल्युट्] विग्रह, विश्लेषण। ०एक ग्रन्थ, जिसमें संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया, कृदन्त, तद्धित, समास, सन्धि आदि का स्पष्टीकरण होता है। (जयो०७० १५/३५) (जयो०वृ० १/९५) 'धातुतो भू प्रभृतेरग्रे पुरतो विधिविधान प्रत्ययादिप्रदानलक्षणं येन सः। गुणश्च वृद्धिश्च गुणवृद्धी व्याकरणशास्त्रोक्ते संज्ञे तद्वान्, पुनस्तद्धितं संज्ञातः
संज्ञान्तरकरणार्थं प्रत्ययविधानम्। (जयो०वृ० १/९५) व्याकरणाज्ञानं (नपुं०) शब्द प्रक्रिया का बोध। (जयो०१०१/९५) व्याकरणशास्त्र (नपुं०) व्याकरण ग्रन्थ। (जयो०वृ० ५/४२) व्याकारः (पुं०) [वि+आ+कृ+घञ्] रूपान्तरण, रूपपरिवर्तन।
विरूपता, विवर्णता। व्याकीर्ण (भू०क०कृ०) [वि+आ+कृ+क्त] बिखेरा हुआ, फैला हुआ. विस्तृत किया हुआ।
अस्तव्यस्त किया।
न्यत्र तत्र विक्षिप्त। व्याकुल (वि०) [विशेषेण आकुल:] ०आकुल, खेदयुक्त, विक्षुब्ध। उत्कल। (जयो०वृ० २१/९) घबराया हुआ, दु:खी. पीड़ित। किंकर्त्तव्य विमूढ़, शोकाकुल। (जयो० १२/१२९) आतंकित, उद्विग्न, भयभीत, भयाक्रान्त।
संलग्न, तत्पर, व्यस्त। व्याकुलित (वि०) [वि+आ+कुल+क्त] आतंकित, उद्विग्न,
शोकग्रस्त।
०भयभीत, घबराया हुआ। व्याकुलीभूत (वि०) घबराया हुआ। (जयो०वृ० १/५९) व्याकतिः (स्त्री०) धोखा, छल, छद्मवेश। व्याकृ (सक०) बिगाड़ना, विकृत करना, रूप परिवर्तन करना।
स्पष्ट करना। (जयो०वृ० २/४३)
०स्पष्ट करना, व्याख्या करना। व्याकृत (भू०क०कृ०) [वि+आ+कृ+क्त] विश्लिष्ट, व्याकृष्ट।
०व्याख्यात, कथित, निरूपित। स्पष्ट किया गया, समझाया गया।
विकृत, बिगाड़ा गया, विरूपित। व्याकृतिः (स्त्री०) व्याकरण शास्त्र। व्याकृतिं व्याकरणं
(जयो०१० २/५५) 'व्याकृतेर्व्याकरणस्य सत्क्रिया प्रतिभाति'
(जयो०वृ० १५/३५) व्याक्रोश (वि०) [वि+आ+ क्रुश्+अच्] ०पुष्पित, प्रफुल्लित, खिला हुआ।
मुकुलित, विकसित।
०विकास युक्त। व्याक्षेपः (पुं०) [वि+आ+क्षिप्+घञ्] उछालना, ऊपर फेंकना.
इधर-उधर विकीर्ण करना। अवरोध, गतिरोध, रुकावट।
विलम्ब, उलझन। व्याख्या (स्त्री०) [वि+आ+ख्या+अ+टाप] स्फुटिक्रिया प्राप्त
टीका। (जयो० ३/३६)
स्पष्टीकर, व्याख्या, वृत्ति, टीका, विवरण, टिप्पण, भाष्य।
०वृतान्त, वर्णन। व्याख्यात (वि०) [वि+आ+ख्या+क्त] ०कथित, निरूपित,
प्ररूपित। ०वर्णित, विवेचित।
स्पष्टीकरण युक्त, विवृत, भाष्य युक्त। व्याख्यानं (नपुं०) [वि+आ+ख्या+ल्युट] भाषण. प्रवचन,
उपदेश। (जयो०वृ० १/५५) ०सूचना, वर्णन, कथन।।
स्पष्टीकरण, विवृति, अर्थ निरूपण। व्याख्याकरणं (नपुं०) विवरण, विवेचन। (जयो०१० ५/९५) व्याख्याप्रज्ञप्ति (स्त्री०) एक आगम, जिसमें आठ हजार
प्रश्नों का निरूपण है।
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व्याख्याय
१०३८
व्यापद्
व्याख्याय (सक०) व्याख्यान करना, उपदेश करना।
(भक्ति० ३२) व्याघट्टनं (नपुं०) [वि+आ+घट्+ल्युट्] ०मथना, रगड़ना।
बिलोना, मंथन क्रिया।
घर्षण करना, माजना। व्याघातः (पुं०) [वि+आ+हन्+क्त] प्रहार, विघ्न, बाधा,
विघात, रुकावट।
०वचन अवरोध, आघात। व्याघ्रः (०) [व्याजिघ्रति-वि+आ+घ्रा+क] ०बाघ, चीता। ____०मुख्य, प्रधान, प्रमुख। व्याघ्रनायकः (पुं०) गीदड़। व्याघ्रि (स्त्री०) मादा चीता, बाघिन। (दयो० २०) अनेन
चिन्तातुरमानसा तु सा, विपद्य च व्याघ्रि अभदहो रुषा।
(समु० ४/८) व्याघ्री (स्त्री०) चीता, बाघिन। व्याच्छन्न (वि०) कृशीकरण, तंग, क्षीणता युक्त। (जयो०७०
१३/६७) व्याजः (पु.) [व्यजति यथार्थव्यवहारात् अपगच्छति
अनेन-वि+अज्+घञ्] ० धोखा, छल, जालसाजी। छद्मभाव। (जयो० ७/४) ०बहाना, व्यपदेश, आभास।
कूटयुक्ति , कूटवचन।
०छल। (जयो०वृ० १/३३) व्याजनिन्दा (स्त्री०) छल पूर्वक निन्दा। व्याजस्तुतिः (स्त्री०) एक अलंकार जिसमें किसी कारण के
स्पष्ट फल का जानते हुए भी कोई अन्य कारण प्रतिपादित किया जाए, जहां वास्तविक भावना को कोई दूसरा कारण बताकर छिपा लिया जाता है। त्रिवर्गसम्पत्तिमतोऽत्र मन्तुमदक्षराणां कलनाः क्व सन्तु। न वेति वार्थान्निधयो भवन्तु तस्येतिवार्तास्तु लयं व्रजन्तु।।
(जयो० १/३९) व्याडः (पुं०) [वि+आ+अड्+अच्] मांस भक्षी जानवर।
गुण्डा, बदमाश। व्याङि (पुं०) एक वैयाकरण। व्यात्त (भू०क०कृ०) [वि+आ+दा+क] विस्तृत, विस्तीर्ण,
फैला हुआ। फुलाया गया। व्यात्युक्षी (स्त्री०) [वि+आ+अति-उक्ष णिच+अज+ङीष्]
जलक्रीड़ा, जलविहार।
व्यादानं (नपुं०) [वि+आ+दा+ल्युट्] उद्घाटन, खोलना। व्यादिशः (पुं०) [विशेषणे आदिशति स्वे स्वे कर्मणि नियोजयति
वि+आ+दिश्क] विष्णु, हरि। व्याधः (पुं०) [व्यध्+ण] शिकारी, वहेलिया। (समु०४/३८) व्याधकुलज (वि०) शिकारी के कुल में उत्पन्न हुआ। (जयो००
२/१३०) व्याधभीत (वि०) शिकारी से डरा हुआ। व्याधभीतः (पुं०) हरिण, मृग। व्याधिः (स्त्री०) [वि+आ+धा+कि] ०रोग, शारीरीक अवस्था,
रुजा। शारीरिक रोग (जयो० २६/१०१)
०दुःख, आतंक, शोक, चिन्ता। व्याधिकर (वि०) अस्वास्थ्यकर, रोगजनक। व्याधिगत (वि०) रोग ग्रस्त। व्याधिजात (वि०) आतंक को प्राप्त हुआ। व्याधित (वि०) [व्याधिः सञ्जातोऽस्य] रोगाक्रान्त, दु:खी।
बीमार। (दयो० ४८) । व्याधिप्रतीकारक (वि०) आयुर्वेद विज्ञान विज्ञ। चिकित्सक,
वैद्य। (जयो०७० १/७६) आयुर्वेदी स एवात्मन: परस्य च
व्याधिप्रतीकारकः। व्याधूत (भू०क०कृ०) [वि+आ+धू+क्त] कांपता हुआ, घबराता
हुआ, डरता हुआ। व्यानः (पुं०) [व्यानिति सर्वशरीरं व्याप्नोति] [वि+आ+अच्+
अच्] प्राण तत्त्व की व्यापकता।
जो वायु समस्त शरीर को व्याप्त करती है। व्यानतं (नपुं०) [वि+आ+नम्+क्त] रतिबन्ध, मैथुन पद्धति। व्याप् (सक०) [वि+अच्] विस्तृत होना, फैलना। (दयो०३६) व्यापकं (वि०) [विशेषेण आप्नोति-वि+आप+ण्वुल] विस्तृत,
विस्तीर्ण।
फैला हुआ, प्रसारित।
०बहुमुखी। व्यापकः (पुं०) अन्तर्हित गुण, सहवर्ती गुण। व्यापत्तिः (स्त्री०) [वि+आ+पद्+क्तिन्] ०आपत्ति, संकट,
दुर्भाग्य।
०मरण, मृत्यु, हनन। व्यापद् (स्त्री०) [वि+आ+पद्+क्विप्] संकट, कष्ट, दुष्ट।
दुर्भाग्य। रोग, विशृंखलता।
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व्यापाद्यमान
१०३९
व्यामिश्र
चित्त विक्षेप।
मृत्यु, मरण, निधन। व्यापाद्यमान (वि०) मरण को प्राप्त। (जयो०२३/५५) व्यापन्नं (नपुं०) विनाश, हानि, नाश, क्षय, क्षति।
०फैलना, सर्वत्र फेलना। व्यापन्न (भू०क०कृ०) [वि+आ+पद्+क्त] क्षत किया गया,
मारा गया। (दयो० ८६) खिन्न, खेद, दु:ख। (जयो०व० ३/१९०) विस्तृत, फैला हुआ, (जयोवृ० ३/८४) व्यापक। (हित०
४७)
व्यापारः (पुं०) [वि+आ++घञ्] व्यवसाय, धन्धा, व्यवहार।
* आरम्भ (जयो०१/१०) 'ग्रन्थारम्भसमये परिग्रहव्यापाररूपे'
चेष्टा, प्रयत्न, उद्योग, कार्य शैली। 'मनोवचनकाव्यव्यारकरणम्' (सम्य० १३५) नियोजन, संलग्नता, तत्परता, उद्यमशीलता।
वाणिज्य, काम, कृत्य, प्रभाव। व्यापारकार्यार्थ (वि०) व्यवसाय कार्य के लिए। (समु०१/३२) व्यापारक (वि०) भाग लेना, प्रभाव डालना। व्यापारगत (वि०) प्रयत्नशील, उद्यमशील। व्यापाजन्य (वि०) चेष्टा युक्त। व्यापारधर्मन् (पुं०) व्यवहार धर्म। व्यापारधर्मिन् (पुं०) व्यवसाय धर्म करने वाला। व्यापारमन्त्रं (नपुं०) उद्योग क्रिया। व्यापारवन्त (वि०) उद्यमशीलता। (जयो० १२/१३३) व्यापारित (भू०क०कृ.) [वि+आ+दृ+णिच्+क्त] नियोजित,
चेष्टा युक्त, कार्य में लगाया हुआ। स्थापित, नियुक्त। रक्खा हुआ।
निश्चित। व्यापारिन् (पुं०) [व्यापार+इनि] व्यवसायी, व्यापारी, विक्रेता। व्यापार्थ (वि०) व्यर्थ व्यय करने के लिए। (वीरो० १९/४२) व्यापिन् (वि०) [वि+आप+णिनि] ०व्याप्त होने वाला,
सर्वव्यापक। (वीरो० १९/३२)
०अधिकार करने वाला। व्यापृत (भू०क०कृ०) [वि+आप+क्त] व्यस्त, नियोजित।
___ स्थापित, स्थिर किया हुआ। व्यापृतः (पुं०) कर्मचारी, सचिव, मन्त्री।
व्यापृतिः (स्त्री०) [व्यापृ+क्तिन्] व्यवसाय, व्यापार।
कार्य, कर्म। ०चेष्टा, प्रयत्न
उद्यम, उद्योग। व्याप्त (भू०क०कृ०) [वि+आप+क्त] ०व्यापक, फैला हुआ,
विस्तृत। (सुद० १/३०) ०परिपूर्ण, भरा हुआ।
स्थापित, जमाया हुआ। ०प्राप्त किया हुआ। अधिकृत। सम्मिलित। प्रसिद्ध, विख्यात, ख्यात, तान्त। (जयो०० १२/७९) कीर्ण। (मुनि० २९)
प्रसरित। (जयोवृ० १/२३) व्याप्तता (वि०) व्यापकता। (जयो०वृ० १/२३) व्याप्तिः (स्त्री०) [वि+आप+क्तिन] ०प्रसार, फैलाव, विस्तार।
०सार्वजनिक नियम, विश्वव्यापकता। ०पूर्णता।
प्राप्ति। ०साध्य और साधन में अविनाभाव होना। व्याप्तिर्हि
साध्य-साधनयोरविनाभावः। (जैन०ल० १४४) व्याप्तिकी (वि०) आप्तकर्ती, व्यापकता प्रकट करने वाला।
(जयो०वृ० १६/४९) व्याप्तिज्ञानं (नपुं०) साध्य-साधन का ज्ञान, किसी एक पदार्थ
में दूसरे पदार्थ का पूर्ण रूप से मिला होने का ज्ञान। साहचर्य नियम का बोध-यत्र यत्र धूमः तत्र अग्निरिति
साहचर्य नियमो व्याप्तिः। व्याप्तिदोषः (पुं०) साध्य-साधक में दोष। (हित०१७) व्याप्तिमती (वि०) सर्वत्र गमनशील। (जयो०७० १३/५४) व्याप्य (वि०) [वि+आप+ ण्यत्] व्यापकता युक्त, पूर्णता
युक्ता
०भरे जाने योग्य। व्याप्यं (नपुं०) अनुमान प्रक्रिया का चिह्न। (हेतु, साधन) व्याप्यत्व (वि०) नित्यता। व्यामः (पुं०) एक माप विशेष। व्यामनं (नपुं०) माप विशेष। व्यामिश्र (वि०) [वि+आ+मिश्र+अच] मिश्रित, मिला हुआ।
एकमेक किया हुआ।
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व्यायोडित
१०४०
व्यासक्त
व्यायोडित (वि०) मोड़ा गया, विवलित (जयो०१० १८४८५) व्यामोहः (पुं०) [वि+आ+मुह+घञ्] ०व्याकुलता, आकुलता,
परेशानी।
उन्माद, प्रणयमद। व्यायत (भू०क०कृ०) [वि+आ+यम्+क्त] विस्तृत, विस्तीर्ण,
लम्बा, फैला।
अधिकृत, दृढ़, गहन। ०व्यापक, अत्यधिक।
गहरा, शक्तिपूर्ण, बलिष्ठ। व्यायतत्त्वं (नपुं०) [व्यायत+त्व] पुट्ठों का पुष्ट होना, फैलना। व्यायामः (पुं०) [वि+आ+यम्+घञ्] ०फैलाना, विस्तार करना। ०कसरत, श्रम, थकान, उद्यम, प्रयत्न।
चेष्टा, संघर्ष। शरीरयासजननी क्रिया व्यायामः। (जैन०ल० १०४४)
अभ्यास, मल्यादिकला शिक्षा। व्यायामभूमिः (स्त्री०) अखाड़ा। (जयो०१० २५/७४) व्यायामिक (वि०) [व्यायाम+ठक] शारीरिक श्रम सम्बंधी
कार्य, मल्यविद्या विषयक सीख सीखने वाला। व्यायोगः (पुं०) [वि+आ+युज्+घञ्] नाट्यसाहित्य की एक
पद्धति। व्याल (वि०) [वि+आ+अल्+अच्] दुष्ट, व्यसनी।
अधम, नीच।
कूर, पापी। व्यालः (पुं०) सप्र, सांप। (जयो० १०१) बाघ, चीता।
__०ठग, छली। व्यालग्राहिन् (पुं०) सपेरा। व्यालनखः (पुं०) एक जड़ी बूटी। व्यालमृगः (पुं०) शिकारी, जंगली जानवर। व्यालम्बः (पुं०) एरंड पादप। व्यालोल (वि.) [वि+आ+लोड+अच] कंपनशील, अव्यवस्थित,
अस्त व्यस्त। व्यावकलनं (नपुं०) [वि+आ+अ+कल्ल्यु ट्] घटना, कम
करना। व्यावक्रोशी (वि०) [वि+आ+अवशि +णिच+अञ्+डी[]
दुर्वचन कहना, कुवचन बोलना। व्यावर्तः (पुं०) [वि+आ+खत+घञ्] घेरना, लपेटना,
क्रान्ति परिभ्रमण ०चक्कर लगाना।
व्यावर्तक (वि.) [वि+आ+वत् णिच्+ण्वुल] लपेटने वाला,
घेरने वाला। ०अपवर्जन करने वाला, वियुक्त करने वाला।
मुड़ने वाला। व्यावर्तनं (नपुं०) [वि+आ+वृत्+ल्युट्] घेरना, लपेटना।
घूमना, मुड़ना।
०पट्टी, गोल लपेट। व्यावर्ण्य (वि०) निवेद्य। (जयो० २३/८३) व्यावलिगत (भू०क०कृ०) [वि+आ+वल्ग+क्त] द्रवित,
विक्षुब्ध, पसीजा हुआ। व्यावहारिक (वि०) [व्यवहार+ठक्] प्रयोगात्मक, व्यवहार
नय सम्बंधी। (जयो०७० २/३)
कानूनी, वैध। ०प्रथागत, प्रचलित।
० भ्रमात्मक। व्यावहारिकः (पुं०) मन्त्री, परामर्शदाता। व्यावहारी (वि०) व्यवसायी, व्यापारी। व्यावहासी (वि०) [वि+आ+अव्+हस्+णिच्+अञ्+ङीप्]
पारस्परिक अवज्ञा। व्यावृत्तिः (स्त्री०) [वि+आ+वृत्+क्तिन्] आवरण, परदा,
डालना।
निकाल देना, निष्कासन। व्यावृत्त (भूक०कृ०) [वि+आ+वृत्+क्त] हटाया गया, अलग किया गया। वियुक्त किया गया। निकाला हुआ। लपेटा हुआ, घिरा हुआ। ०रुका हुआ।
उपरत। व्यासः (पुं०) [वि+अस्+घञ्] वितरण, विभाजन, विश्लेषण
०पृथकता, अलगाव। ०प्रसार, फैलाव। (वीरो०८/२०) ०वृत्त का व्यास, फैलाव, विस्तार। (जयो० १/६१) ०व्यवस्था, संकलन। ०व्यवस्थापका
व्यास ऋषि। व्यासक्त (भू०क०कृ०) [वि+आ+सञ्ज+क्त] संयुक्त, जुटा
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व्यासङ्गः
१०४१
व्युपशमः
हुआ, लगा हुआ, व्यस्त।
०अव्यवस्था। नियुक्त, अलग किया हुआ।
व्युत्क्रान्त (भू०क०कृ०) [वि+उत्+क्रम्+क्त] व्यासङ्गः (पुं०) [वि+आ+सञ्+घञ्]
०अतिक्रान्त, उलंघित। प्रसंग। (दयो०६५)
विसर्जित। ध्यान।
परित्यक्त, छोड़ा गया। भक्ति ।
बिदा किया गया। एकाग्रता, संयोग, तल्लीनता।
व्युत्थानं (नपुं०) [वि+उत्+स्था ल्युट्] महान् क्रिया कलाप, व्यासपिन् (पुं०) व्यास ऋर्षि। पाण्डवों के दादा।
रुकावट। व्यासर्षिणाथो भविता पुनस्ताः,
स्वतंत्र कर्म। प्रयत्नतः सङ्कलिताः समस्ताः।
व्युत्थित (वि०) आनन्दित, हर्षित। (जयो० २३/१५) यथोचितं पल्लविताश्च तेन,
व्युत्पत्तिः (स्त्री०) [वि+उत्+पद्+क्तिन्] •मूल उत्पत्ति. मूल सङ्कल्पने बुद्धिविशारदेन।।
कथन। (वीरो० १८/५४)
विवेचन, व्युत्पादन, पूर्ण विवरण। (दयो० १/९)
०पूर्ण जानकारी, शब्द संज्ञा, क्रियादि की विवेचना पूर्वक व्यासिद्ध (भू०क०कृ०) [वि+आ+विध्+क्त] निषेधित।
ज्ञान। प्रतिषिद्ध, वर्जित। व्यासोपसंग्रहीत (वि.) वेद व्यास जी द्वारा संकलित। (वीरो०
व्युत्पन्न (भू०क०कृ०) [वि+उत्+पद्+क्त] विद्वान्, ज्ञानी,
प्रज्ञा (सुद० ४/३८) प्रवीण। ८/२०)
निरुक्त, निर्वचन द्वारा प्रतिपादित। व्याहत (भू०क०कृ०) [वि+हन्आ+हन्+क्त] अवरुद्ध, रोका
०व्याकरण के नियम द्वारा निष्पन्न। हुआ।
०पूरा किया गया, सम्पन्न किया गया। हटाया हुआ, पीछे किया हुआ।
व्युत्त (भू०क०कृ०) [वि+उन्द्+क्त] क्लिन्न, आर्द्र, भिगोया विफल किया हुआ।
हुआ। निराश।
व्युत्सर्गः (पुं०) छोड़ना, त्यागना, ममत्व त्याग, व्युत्सर्ग समिति। व्याकुल, घबड़ाया हुआ, आतंकित।
व्युदस्त (भू०क०कृ०) [वि+उद्+अस्+क्त] अस्वीकृत, तिरस्कृत, व्याहरणं (नपुं०) [वि+आ+ह+ल्युट्] बोलना, उच्चारना करना।
दूर किया हुआ। प्ररूपण, कथन, प्रतिपादन, निरूपण।
व्युदासः (पुं०) [वि+उद्+अच्+घञ्] अस्वीकृत, निष्कृति। वर्णन, व्याख्यान।
निकाला गया। व्याहारः (पुं०) [वि+आ+ह+घञ्]०कथन, प्रवचन, व्याख्यान। उपेक्षा, उदासीनता। भाषण, उपदेश।
घात, विनाश, क्षति। स्वर, ध्वनि, गूंज।
व्युपदेशः (पुं०) [वि+उप+दिश्+घञ्] ब्याज, बहाना। व्याहृत (भू०क०कृ०) [वि+आ+ह-क्त] कहा हुआ, बोला व्युपरत (वि०) निवर्तित, रहित।
हुआ, उच्चारण किया हुआ, कथित। (जयो०वृ० २/३७) व्यपरतः (पुं०) क्रिया निवर्ति ध्यान का भेद। (भक्ति० ३३) प्रतिपादित, निरूपित।
व्युपरतक्रियावृत्तिः (स्त्री०) क्रिया से रहित ध्यान, चौथा व्याहृति (स्त्री०) [वि+आ+ह+क्तिन्] उच्चारण, कथन, विवेचन। शुक्लध्यान। 'विशेषेणापरता निवृत्ता क्रिया यत्र तद्, व्युच्छित्तिः (स्त्री०) [वि+उत्+छिद्+क्तिन] ०उन्मूलन, विनाश। व्युपरतक्रियां च तनिवृत्ति चानिवर्तकं च तद्व्युपरतक्रिया०पृथक् करण, विभाजन।
निवृत्तिसंज्ञं चतुर्थं शुक्लध्यानम्। (जैन०ल० १०/४६) व्युत्क्रमः (पुं०) [वि+उत्+क्रम्+घञ्] अतिक्रमण, विचलन, | व्युपरमः (पुं०) [वि+उप+रम्+अप्] यति, समाप्ति, पूर्णता, उल्लंघन।
विराम। वैपरीत्य, उलटाक्रमा
व्युपशमः (पुं०) [वि+उप+शम्+अच्] ०अशान्ति।
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व्युष्ट
१०४२
व्रणकृत्
०अभाव, विराम।
व्योमनाशिका (स्त्री०) बटेर, लवा। ०अलगाव।
व्योमभंजरं (नपुं०) ध्वजा, पताका। व्युष्ट (भू०क०कृ०) [वि+उष्+क्त] प्रज्ज्वलित किया हुआ, व्योममण्डलं (नपुं०) ध्वजा, पताका। उज्ज्वल किया हुआ।
व्योममुद्गरः (पुं०) पवन का वेग, वायु प्रवाह। प्रभात, पौफटी।
व्योमयानं (नपुं०) विमान, आकाशयान, हवाई जहाज व्युष्टं (नपुं०) पौ फटना, प्रभात।
____ वायुयान। (समु० ४/३६) (जयो० १०/८६) व्युष्टिः (स्त्री०) [वि+वस्+क्तिन्] प्रभात, प्रात:काल, पौ व्योमसद् (पुं०) देव, सुर, गन्धर्व, फटना।
भूतप्रेत, पिशाच, राक्षस। समृद्धि, प्रशंसा।
व्योमसर्सिणी (वि०) आकाश व्यापिनी। (जयो० ३/५७) ०फल परिणाम।
व्योमस्थली (वि०) गगनचुम्बी. आकाश को छ जाने वाली। व्यूढ (भू०क०कृ०) [वि+वह्+क्त] विशाल, विस्तृत, व्यापक। व्रज् (सक०) जाना, चलना, प्रगति करना। (सुद० २/२४) ०फुलाया हुआ, विकसित।
०पधारना, पहुंचना। व्रजिष्यासि (दयो०६०२, जयो०१/३९) * व्यवस्थित, क्रमहीन।
आना-'अपि निर्भयमास्थिताः कथं व्रजतीतः खलु वाजिनां व्यूत (वि०) [वि+वे+क्ता] अन्तर्बलित, सीया हुआ।
व्रजः। (जयो० १३/१४) व्रजः समूहो व्रजति व्यूतिः (स्त्री०) [वि+वे+क्तिन्] बुनाई, सिलाई।
अनुगमन करना-विपदि वज्रायते सत्वाद् (सुद० १२४) व्यूहः (पुं०) [वि+ऊ+घञ्] सैनिक रचना, सैन्य प्रक्रिया। | व्रजः (पुं०) समूह, समुच्चय, समुदाय। (जयो०५/८, जयो० शत्रु को घेरने की पद्धति।
१३/१४) वज्रः समूहो व्रजति (जयो०वृ० १३/१४) सेना, समूह, दल।
चरगाह स्थान, गौशाला, गोष्ठ। ०समवाय, समुच्चय, संग्रह, समुदाय।
आवास, आरामगृह, विश्रामालय। शोध।
०पथ, मार्ग, रास्ता, सड़क। ० भाग, अंश, उपशीर्ष।
०मथुरा के समीपस्थ स्थान। ०संरचना, निर्माण।
व्रजनं (नपुं०) [व्र+ल्युट्] घूमना, विचरण करना, हिंडन, ०तर्कना, तर्क।
भ्रमण, परिभ्रमण। व्यूहनं (नपुं०) [वि+ऊ ल्युट] सेना को व्यवस्थित करना, फिरना, टहलना। सेना को क्रमबद्ध करना।
निर्वासन, देश निकाला। व्यद्धिः (स्त्री०) [विगता ऋद्धि] समृद्धि का अभाव। व्रज्या (स्त्री०) [व्रज्+क्यप्+टाप्] प्रवजित होकर घूमना। व्ये (सक०) ढकना, सिलना, सिलाई करना।
०प्रस्थान, गमन। व्योकारः (पुं०) [व्ये मनिन्] आकाश, अंतरिक्ष, गगन, नभ ०आक्रमण। (जयो० ३/१११)
समुदाय, ओघ, सम्प्रदाय। जल।
रंगभूमि, नाट्यशाला। सूर्यमन्दिर।
व्रण (अक०) ध्वनि करना, शब्द करना। ०अभ्रक।
०चोट पहुंचाना, घायल करना। व्योमकेशः (पुं०) शिव, महादेव।
व्रणः (पुं०) [व्रण+अच्] दाग, चिह्न, कलंक। (जयो० १५/५६) व्योमकेशिन् (पुं०) शिव।
घाव, चोट। (मुनि० ३१) व्योमचारिन् (पुं०) पक्षी, खग।
०व्रणसद्भाव। (जयो० ११/६३) ___०तारा, नक्षत्र।
फोड़ा, नासूर। व्योमतलं (नपुं०) आकाश भाग। (वीरो० २१/७)
वणकृत् (वि.) घाव करने वाला। व्योमधूमः (पुं०) मेघ, बादल।
व्रणकृत् (पुं०) एक वृक्ष विशेष।
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व्रणविरोपण
१०४३
व्रीहि-अगारं
व्रणविरोपण (वि०) घाव भरने वाला। व्रणशोधनं (नपुं०) फोड़ा साफ करना, पट्टी बांधना। वणहः (पुं०) एरंड पादप। व्रणारिः (स्त्री०) एक गन्ध विशेष। व्रणित (वि०) [व्रण+इतच्] घायल। व्रणित्व (वि०) घाव युक्त, चोट ग्रस्त। (जयो०७० २०/७०) व्रतः (पुं०) प्रतिज्ञा, नियम, साधना। व्रतं (नपुं०) ०संकल्प, दृढ़ता, निश्चय। (जयो० २८/१०७) ०संस्कार, अनुष्ठान, अभ्यास। आचरण, चर्या। कर्म, कार्य। प्रतिज्ञा, नियम, साधना। कर्तव्या हिंसादि से विरत होना। ०संकल्पक नियम का सेवन। (सम्य०८४) सार्वसावधयोग की निवृत्ति।
सर्वसंग/परिग्रह का त्याग। (सम्य० ९८) व्रतकारिन् (वि०) आचरण करने वाला। व्रतगत (वि०) अभ्यास को प्राप्त हुआ। व्रतग्रहणं (नपुं०) नियम लेना, संकल्प करना। व्रतचर्य (वि०) ०प्रतिज्ञाशील, ०अहिंसादि व्रतों का आचरण
करने वाला। व्रतचर्या (स्त्री०) नियम आचरण, साधना में तत्पर। व्रतजन्य (वि०) अनुष्ठान युक्त। व्रतति (स्त्री०) लता, बेल। व्रतधारणं (नपुं०) कर्तव्य पालन। (सुद० ९६) व्रतधारिन् (वि०) व्रत को धारण करने वाला। व्रतपरिरक्षणं (नपुं०) व्रत निर्वाह। व्रतपरिरक्षणमेव चात्मपरिक्षण
मतस्तदेव सम्भालनीयमितियतो (दयो० १६) व्रतपारणा (स्त्री०) व्रत-उपवास विधि की समाप्ति, व्रत
खोलना, व्रत समाप्त करना। व्रतपूर्वक (वि०) नियम सहित। तदुत्तमं यदव्रतपूर्वकं स ययौ
नन्दतटाकहंसः। (दयो० ४३) व्रतभङ्गः (पुं०) नियम भङ्ग, व्रत में अतिचार, व्रत में दोष, व्रत में शिथिलता, शिथलाचार।
प्रतिज्ञा तोड़ना। व्रतभिक्षा (स्त्री०) व्रत की याचना। व्रतलोपनं (नपुं०) प्रतिज्ञा तोड़ना। व्रतवैकल्पं (नपुं०) व्रत में अतिचार लगना, व्रतभङ्ग होना, व्रत ।
पूर्ण न होना।
व्रतसंयुज (वि०) व्रत/नियम में लगा हुआ, व्रताधीन। (सुद०९५) व्रताचरणं (नपुं०) व्रत पालन। व्रताचारः (पुं०) व्रताचरण, व्रत की प्रतिज्ञा का निर्वाह।
(वीरो० ८/३८) व्रतादेशः (पुं०) व्रत धारण, व्रत का संस्कार। व्रताश्रिति (स्त्री०) त्यागगत। (जयो० १/८१) वतित्व (वि०) व्रत वाला, नियम युक्त। (हित० १२) वतिन् (वि०) [व्रत्+इनि] व्रत पालक। व्रताभिसम्बन्धिनो व्रतिमः।
नियमधारी, दृढ़संकल्पी। (मुनि० ६) निशल्योव्रती (त०सू०७/१८) अन्तो भोगभुगुपरि तु योगो बकवृत्तिवृतिनो नियता।
(सुद० १०५) व्रतिनी (स्त्री०) विधवा स्त्री, पतिविहीन स्त्री।
नयनोत्पलवासिजलैः, प्रपां ददात्यरिवधूर्वतिनी। (जयो० ६/८६)
नियमवती, सती। (जयो०वृ० ६/८६) वश्च् (सक०) काटना, फाड़ना, चीरना।
०घायल करना। व्रश्चनं (नपुं०) [वश्च+ल्युट्] छोटी आरी, कररेंत, करोंत। वाजिः (स्त्री०) [व्रज्+इञ्] पवन प्रवाह। झंझावात, हवा का
झौंका।
व्रातः (पुं०) [वृ+अतच्] समूह, शोध। (जयो० )
० समुदाय, समुच्चय। वातं (नपुं०) शारीरिक श्रम। वातीन (वि०) [वातेम जीवति-व्रात+न] बेलदार, दैनिक मजदूरी
वाला। व्रात्यः (पुं०) [व्रातात्, समूहात् च्यवतियत्] अधम व्यक्ति। व्री (सक०) छांटना, चुनना, चयन करना। व्रीड् (अक०) लज्जित होना, शर्मिन्दा होना। • फेंकना, डालना। व्रीडा (स्त्री०) [व्रीड्+भ+टाप्] ०लज्जा, (दयो०५४)
विनयशीलता, नम्रता। वीडित (भू०क०कृ०) [वीड्+क्त] लज्जाशील, लज्जित किया
गया।
वीस् (सक०) क्षति पहुंचाना, घात करना, हनन करना। व्रीहिः (स्त्री०) [वी+हि] धान्य, चावल। (जयो० ३/८) व्रीहि-अगारं (नपुं०) धान्यागार, धान्य का कोठार।
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व्रीहिकाञ्चनं
१०४४
शकलित
व्रीहिकाशनं (नपुं०) मसूर की दाल। व्रीहिराजिकं (नपुं०) चना। बुड् (सक०) ढकना, आच्छादित करना।
डूबना, संचय करना। ब्ली (सक०) जाना, पहुंचना। ब्लेक्ष् (सक०) देखना।
शः (पुं०) यह उष्म ध्वनि है, इसका उच्चारण स्थान तालु है,
इसलिए इसे तालव्यी 'श' कहते हैं। श: (पुं०) शिव, महादेव।
शस्त्र। ०काटने वाला, कतरने वाला विनाशक। शं (नपुं०) आनन्द, हर्ष, कल्याण, मंगल। 'शं हिंसामटतीति
शाटी वधकर्ची' (जयो०० ३/३९) 'शमानन्दमटतीति शाटी शर्मसम्पन्नेत्यर्थः' (जयो०७०३/३९)
शस्य, प्रशंसनीय। (नास्ति दया तव शस्य) (सुद०९४) सुख स्थान। (जयो०१२/१०८)
शान्ति। (जयो०० ३/८७) 'शं शान्तिं पातीति शम्पा' (जयोवृ०३/८७)
सुख, शान्ति (जयो० १५/४१) (जयो० १८/४८) शंयु (वि०) [शं शुभं अस्त्यस्य-शम्+युस] प्रसन्न, समृद्ध,
सुख, आनन्द। शंवः (पुं०) [शम्+व] आनन्द, कल्याण, प्रसन्न, हर्ष।
०इन्द्र वज्र। शंस् (सक०) प्रशंसा करना, स्तुति करना।
कहना, बोलना, अभिव्यक्ति करना। संकेत करना, जताना। प्रशंसा करना। (जयो० २/१५८) ०क्षति पहुंचाना, चोट करना। विवरण देना, वर्णन करना।
अनुमोदन करना, सराहना करना। शंस (वि०) श्रद्धायुक्त। (जयोc २/१०६) शंसनं (नपुं०) [शंस ल्युट] प्रशंसा करना, कथन, निरूपण.
प्रतिपादन।
पाठ करना। शंसा (स्त्री०) श्लाघा. प्रशंसा। (समु० १/४) ०अभिलाषा. इच्छा, आशा, चाह। दोहराना, वर्णन करना, विवेचन करना।
शंसित (भू०क०कृ०) [शंस्+क्त] ०श्लाघित, प्रशंसित।
०अभिलषित, इच्छित, वाञ्छित। ०कथित, प्रतिपादित. विवेचित। निश्चित, निर्धारित, निरूपित, स्थापित. नियुक्त। ०बोला गया, कहा गया।
उक्त, घोषित। शंसिन् (वि०) [शंस्+इनि] ०श्लाघा करने वाला, प्रशंसा
करने वाला।
घोषित, निरूपित, प्रतिपादित। ०कथित, भाषित।
संकेतित, सूचित करने वाला। शक् (अक०) सक्षम होना, समर्थ होना, योग्य होना, सम्भव
होना। शक्यते (जयो० २/५८) शक्नोति (सुद० ९४)
०सहन करना, सहना, अमल करना। शकः (पुं०) [शक्+अच्] एक राजा।
०शक संवत्। शकटः (पुं०) गाड़ी, छकड़ा, भारी बोझ ले जाने में समर्थ।
(जयो०१० १३/३४) शकटः (पुं०) सैनिक व्यूह, सैन्य रचना।
एक तौल विशेष। ०एक राक्षस। शकटकर्मन् (पुं०) गाड़ी चलाकर जीविका चलाना। शकटाङ्गं (नपुं०) चक्रवाक पक्षी। (जयो० १०/८) शकटजीविका (स्त्री०) गाड़ी बनाकर जीविका चलाना। शकटिका (स्त्री०) [शकट ङीष् कन्+टाप्] छोटी गाड़ी,
बाल गाड़ी, मृच्छकटिका, मिट्टी की गाड़ी। शकटी (स्त्री०) गाड़ी। (जयो०वृ० ११/९०) शकन् (नपुं०) मल, विष्ठा, गोबर। शकनार्थनामधर शकनाभिमान (वि०) शक्ति का अभिमान करने वाला,
सामर्थ्य का अहंकारी। (जयो०७० २४/८६) तत्याज शक्रः शकनाभिमानं पुनीत यावत्तव कीर्तिगानम्। (जयो० २४/८६) शकनस्याभिमानं शक्रोऽपि
शकनार्थनामधरोऽपि' (जयो०१० २४।८६) शकलः (पुं०) [शक्+कलक्] भाग, अंश, खण्ड। (जयो०
६/२५)
हिस्सा, टुकड़ा। परत, छिलका। शकलित (वि.) [शकल-इतच] खण्ड-खण्ड किया हुआ।
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शकलिन्
१०४५
शक्य
शकलिन् (वि०) [शकल+इनि] मछली।
शकृतद्वारं (नपुं०) मलद्वार, गुदा। शकारः (पुं०) एक आदिवासी जाति।
शकृतपिण्डः (पुं०) गोबर का गोला। शूद्रक द्वारा रचित मृच्छकटिकम। नाटक का पात्र। । शक्करः (पुं०) बैल, सांड। शकुनः (पुं०) [शकृ+उनन्] पक्षी, गिद्ध. चील, बाज। शक्करी (स्त्री०) [शक्कर+ङीष्] नदी। शकुनं (नपुं०) सगुन, शुभ-अशुभ संकेत, चिह्न. शंका युक्त _____०करधनी, कंदौरा, मेखला। कारण। (समु० ३/१६)
शक्त (भू०क०कृ०) [शक्+क्त] ०सक्षम, योग्य, सामर्थ। शकुनज्ञ (वि०) सगुन जानने वाला, शकुन विशेषज्ञ।
* दृढ़, ताकतवर, समृद्धशाली। शकुनज्ञानं (नपु०) भवितव्यता का बोध, भविष्य ज्ञान, दृश्यगत सार्थक, अभिव्यञ्जक। वस्तु से भविष्य का आंकलन।
चतुर, प्रवीण, कुशल। शकुनशास्त्रं (नपुं०) शुभाशुभ शकुन का विवेचन करने वाला शक्तिः (स्त्री०) [शक्+क्तिन्] बल, वीर्य। शास्त्र। (वीरो० १५/६)
पराक्रम, योग्यता, धैर्य। (जयो० १/४०) शकुनिः (पुं०) धृतराष्ट्र की पत्नि गान्धारी का भ्राता। दुर्योधन ऊर्जा, ताकत, कार्यशीलता। का मामा।
एकोन्यतः सम्मिलतीति याव? शकुनिः (स्त्री०) पक्षी।
भाविकी शक्तिरूदैति तावत्। शकुनिप्रण (स्त्री०) पक्षियों की प्याऊ।
तयोरथैकाकिताऽन्वये तु, शकुनिवादः (पुं०) पक्षी कलरव, खग गुंजन।
शक्तिः पुनः सा खलु मौनमेतु।। (सम्य० २३/१३) शकुनिशास्त्र (नपुं०) पक्षी शास्त्र। (वीरो० १५/६)
शस्त्र विशेष, बी, भाला, कुंतल, त्रिशूल। (जयो० शकुनि समूहः (पुं०) पक्षी समूह, खगकुल। (जयो०७० ८/१५) १/८७)
शब्दसंकेत, अभिधा शक्ति। शकुनी (स्त्री०) गैरेया, एक पक्षी विशेष।
शक्ति नामक पुत्री। (जयो०वृ० १/४०) शकुन्तः (पुं०) पक्षी। नीलकण्ठ।
रचना कला, काव्यप्रतिभा। शकुन्तकः (पुं०) [शकुन्त+कन्+घञ्] पक्षी।
शक्तिकुण्ठनं (नपुं०) शक्ति को क्षीण करना। शकुन्तगणः (पुं०) पक्षी समूह। (जयो० १८/३) सूक्तिं प्रकुर्वति शक्तिग्रह (वि०) शक्तिधारी, भाला युक्त। शकुन्तगणेऽर्हतीव' (जयो० ७८/३)
शक्तिग्राहक (वि०) शब्द शक्ति को स्थापित करने वाला। शकुन्तला (स्त्री०) दुष्यंत भार्या। [शकुन्तैः लायते-ला घञर्थे शक्तिघातः (पुं०) शक्तिघात। (दयो० ९३) क+टाप्]
शक्तित्रयं (नपुं०) राज्यशक्ति के तीन घटक। शकुन्तिः (स्त्री०) [शक्+उन्नि] पक्षी।
शक्तिधर (वि०) शक्तिशाली, बलिष्ठ। शकुन्तिका (स्त्री०) [शक्+उन्ति कन्+टाप्] पक्षी, ट्डिडी, शक्तिपाणिः (पुं०) बीधारी। झींगुर।
शक्तिभृत् (पुं०) शक्तिधारक व्यक्ति। शकुलः (पुं०) [शक्र उलच्] मछली विशेष।
शक्तिपूजकः (पुं०) शाक्त। शकुलादनी (स्त्री०) एक जड़ी-बूटी, कटकी, कुटकी। शक्तिपूजा (स्त्री०) शक्ति अर्चना। शकुलार्भकः (पुं०) मत्स्यडिम्भ, मछली का बच्चा। (जयो० शक्तिवैकल्यं (नपुं०) शक्ति की क्षीणता, बल की कमी। ६/६७)
शक्तिशालिता (वि०) शक्ति युक्त। (जयो०वृ० १/४४) शकृत् (नपुं०) [शक्ऋ तन्] गोमय, गोबर। (जयो० २।८७) शक्तिहीन (वि०) बलहीन। (जयो० २२/७३) ०मल, विष्ठा।
शक्नुसारः (पुं०) स्ववश, अपनी शक्ति के अनुसार। (जयो०० शकृत्करिन् (पुं०) वत्स, बछड़ा।
२/८४) शकृत्करी (पुं०) वत्स, बछड़ा। शकृत्करिस्तु वत्सः स्यात् । शक्न (वि०) [शक्+न] मिष्ठभाषी, प्रियवादी, हितवादी। इत्यमरकोषे (जयो० २५/६८)
शक्य (सं०कृ०) [शक्+यत्] संभव, क्रियात्मक, किये जाने
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शक्यार्थ
१०४६
योग्य, समर्थ। (जयो० २/१६)
अभिहित, प्रतिपादित। शक्यार्थ (वि०) अभिहितार्थ। शक्रः (पुं०) [शक्+इक्] इन्द्र, पुरिन्दर। (जयो०वृ० ३/२९)
अर्जुन तरु। कुटल वृक्षा ०उल्लू।
ज्येष्ठा नक्षत्र। शक्रगोपः (पुं०) इन्द्रगोप, एक तरल क्रीड़ा। शक्रचापः (पुं०) इन्द्रधनुष। (जयो० ५/६५) शक्रजातः (पुं०) काक, कौवा। शक्रजित् (पुं०) मेघनाद। शक्रद्रुमः (पुं०) देवदारु का वृक्षा शक्रधनुष् (पुं०) शक्र की पताका, इन्द्र पताका। शक्रपदं (नपुं०) इन्द्रपद। शक्रपर्यायः (पुं०) कुटज वृक्ष। शक्रपादपः (पुं०) कुटज वृक्षा
०देवदारु का वृक्षा शक्रपुरं (नपु०) इन्द्र की नगरी। (समु०६/१) शक्रप्रस्थः (पुं०) इन्द्रप्रस्थ। शक्रभवनं (नपुं०) स्वर्ग, इन्द्रलोक। शक्रभुवनं (नपुं०) इन्द्रलोक। शक्रभिद् (पुं०) मेघनाद। शक्रलोकः (पुं०) इन्द्रलोक। ०शक्रभुवन। शक्रवासः (पुं०) स्वर्गपुरी। शक्रवाहनं (नपुं०) मेघ, बादल। शक्रशाखिन् (पुं०) कुटज तरु। शक्रसारथिः (पुं०) इन्द्र का यान चालक। शक्रसुतः (पुं०) जयन्त।
अर्जुन। ०बालि। शक्राणी (स्त्री०) [शक्र ङीष्-आनुक्] शचि, इन्द्राणी, इन्द्र
की भार्या। शक्रि (पुं०) मेघ, बादल।
०वज्र। हस्ति, हाथी।
पर्वत। शङ्क (अक०) संदेह होना, शंका होना, संकोच होना. संदिग्ध
होना। (शङ्कयन्ते (सुद० ९५) ०डरना, भय होना, त्रस्त होना। शङ्कयते हृदि (दयो०१०२) ०सोचना, विश्वास करना, उत्प्रेक्षा करना।
कल्पना करना, आक्षेप करना। शङ्कः (पुं०) [शङ्क+अच] कर्षक बैल, कठोर वृषभ। शङ्कर (वि०) [शं सुखं करोति] आनन्ददायक, सुख दायक।
०मङ्गलमय, आनन्दमय।
०शुभसूचका शङ्करः (पुं०) महादेव, शिव, ऋषभदेव।
०शङ्कराचार्य। शङ्करी (स्त्री०) पार्वती, गौरी, शिवा। शङ्का (स्त्री०) [शङ्क+अ+टाप्] आशंका, अविश्वास।
(सुद० २/१४) ०कण्टक, काटा। (जयो०वृ० १/८९)
आतंक, भय, डर। (सुद० १/६)
संदेह, दुविधा। शङ्काकारिन् (वि०) अविश्वास करने वाला। शागत (वि०) आतंक को प्राप्त हुआ, भययुक्त। शङ्काचर (वि०) दुविधाशील। शङ्काजात (वि०) आशंका को प्राप्त हुआ। शङ्कधर (वि०) संदेह धारक। शङ्काभावः (पुं०) भय-भाव। शङ्कामतिः (स्त्री०) आतंकित बुद्धि। शङ्कारहित (वि०) आंशका से मुक्त। (जयो० १३/४८) निर्भय। शङ्काशील (वि०) आशंका युक्त। शङ्काकृत (वि०) डर से युक्त। शङ्कित (भू०क०कृ०) [शङ्क्+क्त] सन्दिग्ध, संशय युक्त,
अविश्वासपूर्ण। ०भ्रान्त, विभ्रम युक्त, भययुक्त। (मुनि० ११)
आतंकिता शतिचित्त (वि०) भीरु. डरपोक, भयाक्रान्त, शंका से युक्त
हृदय वाला, शंकाकुल। शडिन् (वि.) [शङ्का+इनि] संदेह करने वाला, अविश्वास
करने वाला, शंकाशील। (जयो० २/५७) शङ्कः (स्त्री० [शङ्क्+उण्] कांटा, बर्ची, त्रिशूल। शल्य।
(जयो० ४/१३)
कील। (जयो०१३/६७) ०खूटा, खम्भा, स्तम्भ
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शङ्कला
१०४७
शण्ड:
०सरौंता।
०बाण का तीक्ष्ण भाग।
शची (स्त्री०) पुलोमजा, इन्द्राणी, शक्रिणी। (सुद० १/३०) विष।
(जयो०वृ० १२/९९) ०वामी।
शचीभतृ (पुं०) इन्द्र। राक्षस।
शचीन्द्रिरा (स्त्री०) शचि रूप लक्ष्मी। (वीरो० ७/१४) शङ्कला (स्त्री०) [शङ्क उलच्] ० चाकू।
शञ्च् (सक०) जाना, पहुंचना।
शट् (अक०) बीमार होना। शङ्कलाशोधननिभ (वि०) शल्योद्धरणकल्प, कांटा निकालने ०बांटना, वियुक्त करना। वाला। (जयो० ४/१३)
शट (वि०) [शट्+अच्] खट्टा, अम्ल, कसैला। शङ्कः (पुं०) घोंघा, शंख। ०एक द्वीन्द्रिय जलजीव।
शटा (स्त्री०) [शट+टाप्] जटाएं, बाल के झुण्ड। खङ्ख (नपुं०) शंख, घोंघा, कम्बल। (जयो०वृ० २४/५१) शटिः (स्त्री०) [शट्+इन्] कचूर पादप, आमा हल्दी।
'शङ्कस्तु प्रभाते देवालयादौ सहजमेव ध्वन्यते' (जयो०७० शट् (सक०) धोखा देना, ठगना, धूर्तता करना। १८४९)
०हनन करना। मस्तक की हड्डी।
०कष्ट उठाना। काशी का एक राजा। (वीरो० १५/२०)
०समाप्त करना, नाश करना। शङ्खकः (पुं०) शंख, कम्बुक, दो इन्द्रिय जीव।
शठ (वि०) [श+अच्] चालाक, धोखेबाज, कपटी, छली, ०कड़ा, कंगन।
बेईमान। शङ्खकारः (पुं०) एक नाम विशेष।
शठः (पुं०) ठग, धूर्त, मूर्ख। शङ्खचरिन् (पुं०) चन्दन का तिलक।
०मक्कार, झूठा। (जयो०२३/६४) (मुनि० २९) शङ्खचूर्ण (नपुं०) शंख का चूरा, शंखभस्म।
मूढ, बुद्ध। शङ्खत्व (वि०) शंखपना। (वीरो० २/४८)
०सुस्त, परिश्रमहीन, उद्यमहीन। शङ्खद्राव: (पुं०) शंख भस्म का घोल।
आलसी, प्रमादी, मोही, आसक्तजन। शङ्खध्मः (पुं०) शंख ध्वनि वाला, शंख बजाने वाला। शठं (नपुं०) केसर, जाफरान। शङ्खध्वनिः (स्त्री०) शंख की आवाज।
अयस्क, लोहा। शङ्खनकः (पुं०) छोटा शंख, धोंघा।
शठकार्यः (पुं०) धूर्ततापूर्ण कार्य। शङ्खनादः (पुं०) शंखध्वनि। (वीरो० ७/२)
शठगत (वि०) मूढता युक्त। शङ्खप्रस्थः (पुं०) चन्द्र कलक।
शठग्राहिन् (वि०) आलस्य को ग्रहण करने वाला, आलस्य शङ्खभृत् (पुं०) विष्णु।
की ओर अग्रसर होने वाला। शङ्खमुखः (पुं०) घड़ियाल, मगर।
शठजनः (पुं०) धूर्तजन, मूढव्यक्तिः (मुनि० २९) शङ्खश्वनः (पुं०) शंखध्वनि।
शठचारिन् (वि०) झूठ का सहारा लेने वाला, झूठ का शङ्खसद्ध्वनि (स्त्री०) शंखनाद (वीरो० ७/२)
आचरण करने वाला। शङ्खिन् (पुं०) सागर, समुद्र।
शठभावः (पुं०) ठगभाव, छलभाव। शंखवादक।
शठमतिः (पुं०) प्रमाद सहित प्रवृत्ति, प्रमाद का संयोग। शङ्खिनी (स्त्री०) [शजिन्+ङीप्] अप्सरा, परी, सुन्दरी, पदिनी। शठराज (पुं०) शठ शिरोमणि, धूर्तराज। (वीरो० ६/३४) शच् (सक०) बोलना, कहना, समझाना, बतलाना, बोधित शठशिरोमणि (पुं०) धूर्तराज। (वीरो० ६/३४) करना, ज्ञान कराना।
शणं (नपुं०) [शण+अच्] सन, पटसन। (समु० १/१७) शचिः (स्त्री०) [शच्+इन्] इन्द्राणी, शक्रिणी। इन्द्रभार्या।। शणसूत्रं (नपुं०) सन से निर्मित बोरी। रस्सियां, डोरिया। शचिपतिः (पुं०) इन्द्र-'निर्माता तु शचीपतेः प्रतिनिधिः श्रीमान् | शण्डः (पुं०) [शण्ड्। अच्] नपुंसक, हिंजड़ा। कुबेरोऽग्रणी (वीरो० १२/५३)
०सांड।
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शण्डं
१०४८
शतवर्ष
शण्डं (नपुं०) संग्रह, समुच्चय।
०खण्ड। शण्ढः (पुं०) [शाम्यति ग्राम्यधर्मात् शम्+ढ] हिजड़ा, नपुंसक।
०टहलुआ, अन्तःपुर का सेवक। ०सांड।
उन्मत व्यक्ति। शतं (नपुं०) [दश दशतः परिमाणस्य दशन् त, श आदेश:]
सौ, सौ की संख्या। (जयो० ३/९३) सञ्जातानि मनोहराणि शतशो मुक्ताफलानि स्वयम्। (जयो० ३/९३) शतानि
(सम्य० ३) शतक (वि०) [शत कन्] सौ से युक्त। शतकं (नपुं०) शताब्दी, सौ श्लोकों का संग्रह। 'नीतिशतकं,
वैराग्यशतकं, श्रमणशतकम्' शतकार्यः (पुं०) सैकड़ों कार्य। शतकेन्द्रः (पुं०) सौ केंद्र। शतकुम्भः (पुं०) सौ घट। शतकृत्यः (अव्य०) सौ गुणा। शतकोटि (स्त्री०) सौ करोड़। शतक्रतु (पुं०) इन्द्र। (जयो० २४/४०)
सैकड़ों यज्ञ में तत्पर। (जयो० २२/६६)
पूर्व दिक्पाल। (जयो० २२/६६) शतखण्डं (नपुं०) सोना, स्वर्ण। शतगु (वि०) सौ गायों का स्वामी। शतगुण (वि०) सौ गुणा। शतग्रन्थिः (स्त्री०) दूर्वाघास। शतघ्नी (स्त्री०) गले का रोग।
०एक शिला।
०एक अस्त्र विशेष। शतच्छदं (नपुं०) कमल। (जयो० १७/७१) शतजिह्वः (पुं०) शिवा। शततम (वि०) सौंवा। शततारका (स्त्री०) शतभिषा नक्षत्र। शतत्व (वि०) सौ संख्या वाला। (जयो० १/२६) शतदल (नपुं०) कमल, अरविंद, पद्म। शतदला (स्त्री०) सफेद गुलाब। शतधा (अव्य०) [शत+धाच्] सौ तरह से, सौ भागों से। शतधामन् (पुं०) विष्णु। शतधार (वि०) सौ का धारक।
शतधारं (नपुं०) वज्र। शतधृतिः (स्त्री०) ०इन्द्र।
०ब्रह्मा। शतपत्रं (नपुं०) कमल, पद्म। (जयो० २६/८१) खुटबढ़ई। शतपत्रकं देखो ऊपर। ०अरविंद, सरोज। शतपत्रनीति (स्त्री०) शतपत्र रूप कथन। पत्राणां शतं तदेवैकी
भूयं शतपत्रं कमलमिति कथन रूपा सत्या। दार्शनिक दृष्टि-अङ्ग और अङ्गी, अवयव और अवयवी में ऐक्य अभेद नहीं हैं, पृथक्ता ही है, ऐसा कहना ठीक नहीं जान पड़ता, परन्तु अभेद कथन शतपत्र के समान सत्य है। जैसे कि सौ पत्रों-कलिकाओं का समूह शतपत्र/कमल कहलाता है। यहां सौ पत्रों और कमल में भेद नहीं है, अभेद है, क्योंकि एक एक पत्र के पृथक् करने पर शतपत्र/कमल ही नष्ट हो जाता है। यही बात गुण और गुणी में है। प्रदेश भेद न होने से गुण-गुणी में अभेद है, क्योंकि गुणों के नष्ट होने पर गुणी भी नष्ट हो
जाता है। शतपद (वि०) सौ पैरों वाला। शतपक्ष (स्त्री०) कनखजूरा। शतपद्मं (नपुं०) सौ पत्रों वाला कमल, श्वेत कमल। शतपर्वन (पं०) बांस। आश्विन मास की पर्णिमा।
दूर्वाघास।
०कटुक पादप। शतमखः (पुं०) इन्द्र। शतमन्यु (पुं०) इन्द्र।
उल्लू। शतमुख (वि०) सौ द्वार वाला। शत यज्वन् (पुं०) इन्द्र। शतयज्ञ (वि०) सौ यज्ञ वाला। (सुद० ४/४७) पौलोमी
शतयज्ञतुल्यकथनौ कालं तकौ निन्यतुः। (सुद० ४/४७) शतरञ्जः (पुं०) शतरञ्ज, जिसमें वजीर, बादशाह, घोड़ा, हाथी
आदि की कल्पना करके खेला जाने वाला खेल।
(वीरो० १७/४) शतरञ्जतूर्णः (नपुं०) शतरंज का खेल। (वीरो० १७/१४) शतरञ्जाख्यखेलनं (नपुं०) शतरंज नामक खेल।
श्रुतमस्ति भवान् दक्षः, शतरआख्यखेलने,
भवता कलयिष्यामि, तदद्य गुण शालिना।। (समु० ३/४१) शतवर्ष (नपुं०) सौ वर्ष।
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शतशस्
१०४९
शनिप्रदोषः
शतशस् (अव्य०) [शत शस्] सैंकड़ों, सौ सौ करके। सौ । शत्रुजालं (नपुं०) प्रतिपक्षी का व्यूह।
बार। (जयो० ४१/२६) अनुभूता शतशो मयाऽहो दशा शत्रुञ्जयः (पुं०) एक तीर्थ, पालीताना में स्थिता परिभ्रमणस्य। (सुद०पृ० ९४)
०[शत्रु+जि+खच्] हस्ति, हाथी। शतसहस्रं (नपुं०) सौ हजार।
०एक पर्वत, गिरनार पर्वत। शतसाहस्र (वि०) सौ हजार से युक्त।
शत्रुत्व (वि०) शत्रुता, विरोधिता। (वीरो० १६/११, सुद०४/९) शतहृदा (स्त्री०) विद्युत, बिजली, चपला।
शत्रुदमन (वि०) शत्रुघातक। ०इन्द्र का वज्र।
शत्रुन्तप (वि०) [शत्रु+तप्+खच्] शत्रु को परास्त करने शतक्षी (स्त्री०) रात्रि, रजनी।
वाला, शत्रुजयी। दुर्गादेवी।
शत्रुपक्षः (पुं०) विरोधी का पक्ष। प्रतिपक्षी। शताग्रगण्य (वि०) सौ में अग्रणी। (वीरो० १८/४६)
शत्रुभूपः (पुं०) शत्रु नरटाट्। (जयो० ३/१०९) शताङ्गः (पुं०) गाड़ी, रथ, यान। (जयो० १३/२६) शत्रु विनाशन (वि०) विरोध नाशक। शताङ्ग (नपुं०) उन्नत अंग, समुन्नताङ्ग, (जयो०वृ० ८२५) शत्रुसदृश (वि०) शत्रु के समान। (जयो०वृ० १/३८) शताङ्गमाला (स्त्री०) [रथानां माला] रथपंक्ति, रथ तति। शत्रुसमूहः (पुं०) परचक्र। शत्रुदल। (जयो०३० २/१२१) (जयो० १३/२६)
शत्रुरूपी (स्त्री०) शत्रु की स्त्री। (जयो०वृ० १/२६) शतानीकः (पुं०) वृद्ध पुरुष, बूढ़ा व्यक्ति, सौ सिपाहियों का | शत्रुहत्या (स्त्री०) शत्रुघात। नायक।
शत्रुहन् (वि०) विरोधी का हनन। शतानकं (नपुं०) श्मशान।
शत्रुहानि (वि०) प्रतिपक्षी की समाप्ति। शतानन्दः (पुं०) जनकराज का पुरोहित।
शत्वरी (स्त्री०) रजनी, रात्रि, रात। शतायुस् (वि०) सौ वर्ष की आयु वाला।
शद् (अक०) पतन होना, नाश होना, क्षीण होना। शतावधानं (वि०) प्रहार बुद्धिशाला, तीव्र शक्तियुक्त. तीव्र मुझाना, म्लान होना। स्मरण
शद् (सक०) पहुंचाना, ठेलना, गिराना, फेंकना, डालना. वध शतवधानि (वि०) सौ का उदारक, सौ तक की संख्या का करना, नष्ट करना। ज्ञातक।
शदः (पुं०) [शद्+अच्] खाद्य, शाक भाजी, फल-सब्जी। शतावधिः (स्त्री०) सौ दिन की अवधि। (मुनि० ७) शद्रि (पुं०) [शद्+किन्] ०हस्ति, हाथी। मेघ (जयो० १५/२३) शतावर्तः (पुं०) विष्णु।
बादल। ०अर्जुन। शतिक (वि०) सौ से युक्त/सौ से प्रभावित।
शद्रिः (स्त्री०) विद्युत्, बिजली। शतिन् (वि०) [शत+इनि] सौ गुणा।
शुद्ध (वि०) [शद्+रु] गतिशील, प्रवाहमान। ०असंख्य।
०पतनशील, नश्वर, क्षीण होने वाला। शत्रिः (पुं०) [शद्+त्रिप्] हस्ति, हाथी।
शनकैः (अव्य०) [शनैः+अनच्] शनैः शनैः, धीरे धीरे, मंद शत्रुः (पुं०) [शद्+त्रुन्] वैरी, विरोधी, दुश्मन।
से मद। मन्दगत्या (जयो०वृ० १३/५१) प्रतिपक्षी। (सुद० ११८) शत्रुश्च मित्रं च न कोऽपि विनोदवार्तामनुसम्विधात्री लोके हृष्यज्जनोऽज्ञो निपतेच्च शोके। (सुद० ११०)
समं तयाऽगाच्छनकैः सुगात्री। (वीरो० ५/३७) शत्रुकर्षण (वि०) शत्रु का दमन करने वाला, शत्रु संहारक। शनकै! समितोऽपि तन्द्रिता शत्रुखण्डं (नपुं०) शत्रु समूह।
न शेते पुनरेष शायितः। (सुद० ३/२६) शत्रुगत (वि०) शत्रु भाव युक्त, दुष्ट भाव गत।
शनिः (पुं०) [शो+अनि] शनिग्रह। शत्रुजः (पुं०) सुमित्रा पुत्र, लक्ष्मण भ्राता।
सूर्यपुत्र। शनिवार! शत्रुनाशका
शनिपित (पुं०) सूर्य, दिनकर। (जयो० ६/३८) शत्रुचक्र (नपुं०) दुष्ट का चाक।
शनिप्रदोषः (पुं०) सन्ध्यार्चना।
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शनिप्रियं
१०५०
शब्दयोनिः
शनिप्रियं (नपुं०) नीलम। शनिवारः (पुं०) शनिवार का दिन। शनैस् (अव्य०) [शण+डैस्] धीरे से, चुपके से। मंद से मंद।
(जयो० १/८९)
उत्तरोत्तर, उपयुक्त कर्म से। प्रत्युक्तया शनैरास्यं
सनैराश्यमुदीरितम्' (सुद० ८४) शनैश्चरः (पुं०) शनिग्रह। शनैश्चर (वि०) धीरे-धीरे चलने वाली। मंद यामि। __ (जयो०५/९१) शनैःशनैः (अव्य०) धीरे धीरे, अहिस्ता, आहिस्ता। श्रयन्
गोपपति। प्राप गोपुरं स शनैः शनैः' (जयो० ८/१०७) शन्तनुः (पुं०) [शं मंगलात्मका तनुर्यस्य] एक वंशी नृप। शप् (सक०) शपथ लेना, प्रतिज्ञा करना, कोसना, विरोध
करना-शयन्ति क्षुद्रजन्मानो (वीरो० १०/३४) सौगन्ध उठाना। विश्वास को उत्पन्न करना। विशाखनन्दी शपति स्म भूरि
ततोऽगमं रोषमहं च सूरिः। (वीरो० ११/१५) शपः (पुं०) [शप्+अच्] अभिशाप, कोसना।
०शपथ, सौगन्धा शपथः (पुं०) [शप्+अथन्] प्रतिज्ञा. घोषणा।
सौगंध लेना। ०कोसना, अभिशाप।
आक्रोश, फटकार। शपथपूर्वक (वि०) सौंगन्धपूर्वक। (दयो०४७) शपन (नपुं०) [शप्+ल्युट्] शपथ, सौगन्ध, प्रतिज्ञा। शप्त (वि०) उष्ण। (वीरो० १२/८) शफः (पुं०) [शप्+अच्] वृक्ष की जड़। शर्फ (नपुं०) खुर। (जयो० ८/१६) शफरः (पुं०) [शफ-राति-रा+क] चमकीली मछली। शफरता (वि०) झषता, मछली युक्त-रसयोरभेदात् सफलता
झषेत वा कुत। (जयो० ९/१४) शफराजयः (पुं०) खुररेखा, खुरचिह्न। 'वैरीश-वाजि- |
शफराजिभिरप्यगम्याम्' (जयो० ३/२७) शबरः (पुं०) भीलजाति, आदिवासी व्यक्ति। भिल्ल। (जयो०
७/७८) शबरनायक (पुं०) म्लेच्छ राजा। (जयो० २१/४१)
शिव. शंकर। (जयो० २०/६०)
शबरी (स्त्री०) भीलनी, भील स्त्री। शबरालयः (पुं०) पर्वतीय स्थल। शबल (वि०) मिश्रित, मिला हुआ। (जयो० २३/५७) शब्द् (सक०) शब्द करना, ध्वनि करना, शोर करना। शब्द (सक०) बुलाना, पुकारना, आवाज देना। (जयो०वृ०१/३८) शब्दः (पुं०) [शब्द+घञ्] ध्वनि, स्वर, गूंज। (जयो०वृ०१/१९)
राव-रव (जयो० ५/७०) निश्वन। (जयो० १९/९३) ०वचन, सार्थक प्रयोग। ०कलरव, कोलाहल। •आकाश गुण। ज्ञानाचार का एक भेद-शब्दाचार। (भक्ति० ८)
शब्द-अर्थ को बतलाना। ० श्रोत्रेन्द्रिय की विषयभूत ध्वनि। ०शब्दनमभिधानम्। ० श्रवणेन्द्रियगोचर।
०वर्ण, पद एवं वाक्यात्मक ध्वनि। शब्द कोशः (पुं०) अभिघान, शब्दसंग्रह। ०ज्ञाननिलय, ___* शब्दागार, ०शब्दनिचय। शब्दगत (वि०) शब्द के अन्दर रहने वाला। शब्दग्रहः (पुं०) शब्द पकड़ना, श्रवण, श्रोत्र, कर्ण, करन। शब्दचातुर्यं (नपुं०) वाक्पटुता, वचन प्रवीणता। शब्दचित्रं (नपुं०) कर्णमधुर आभास। शब्दचोरः (पुं०) साहित्य चोर। शब्दच्छल (नपुं०) शब्द का कारण। (जयो०वृ० १/१५) शब्दतन्मात्र (नपुं०) ध्वनि का सूक्ष्म तत्त्व। शब्ददोषः (पुं०) मौन तोडकर बोलना। शब्दन (वि०) शब्द करने वाला, ध्वनि करने वाला। __ (वीरो०१५/६) शब्दनयः (पुं०) शब्दार्थ ग्राह्य नय। (त०सू० १/३३) शब्दपातिन् (वि०) शब्दवेधी, शब्द पर निशाना लगाने वाला। शब्दप्रमाणं (नपुं०) मौखिक प्रमाण। शब्दबोधः (पुं०) ध्वनि ज्ञान। शब्दब्रह्म (नपुं०) वेद, शब्द निहित आध्यात्मिक ज्ञान। शब्दभेदिन् (वि०) निशाने में प्रवीण, शब्दपूर्वक निशाना
साधने वाला। ०ध्वनि पर लक्ष्य साधने वाला। शब्दभेदिन् (पुं०) अर्जुन। शब्दयोनिः (पुं०) धातु, मूल शब्द।
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शब्दविद्या
१०५१
शमीगर्भः
शब्दविद्या (स्त्री०) शब्दशास्त्र, व्याकरण ग्रंथ।
निराकरण, लघुकरण। शब्दविरोधः (पुं०) शब्दों के प्रति विरोध।
प्रथम, प्रशांत, उन्नयन, प्रशमन। शब्दविशेष: (पुं०) ध्वनि भेद।
०कषायेन्द्रिय जय शब्दवृत्तिः (स्त्री०) शब्द प्रयोग।
निर्विकारमन। शब्दवेधिन् (वि०) ध्वनि सुनकर निशाना लगाने वाला। शमथः (पुं०) [शम्+अथच्] शन्ति, स्थिरता, धैर्य, प्रशान्त मुद्रा। शब्दवेधिन् (पुं०) अर्जुन।
शमनं (नपुं०) [शम-ल्युट्] प्रशमन, शान्त, निराकरण, उपशमन, शब्दव्युत्पत्ति (स्त्री०) सूक्त विग्रह। (जयो०वृ० १८/९१)
क्षय, शान्ति। (जयो०वृ० १८/९९) शब्दशक्तिः (स्त्री०) शब्दों का प्रयोग, स्थान, प्रयत्नादि पूर्वक ०बुझाना- लग्नस्य वाश्रयभुजः शमनेऽपि शापम्' (वीरो० प्रयोग। (जयोवृ० १०/५२)
२२/२४) शब्दशास्त्रं (नपुं०) व्याकरण शास्त्र। (जयो० २/५२)
प्रसन्न करना, निराकरण करना, उन्नयन करना। शब्दशुद्धि (स्त्री०) शब्दों की शुद्धि, प्रयत्नादि पूर्वक शुद्धि। स्थैर्य, स्थिरता, व्याकुलता का अभाव। (मुनि० १०) शब्दसंग्रहः (पुं०) शब्दकोश। (जयो०वृ० १/२४)
शमनः (पुं०) यमराज, अन्तक। शमनमेष शिरः स्थितमीक्षतां शब्दसञ्चारणं (नपुं०) पदरीति। (जयो०वृ० १/३१)
नहि पुनः कवलेऽपि रुचिस्तता। (जयो० २५/४०) बालोऽस्तु शब्दसौष्ठवं (नपुं०) पद लालित्य। प्राञ्जल शैली।
कश्चित्स्थविरोऽथवा तु न पक्षपातः शमनस्य जातु। शब्दाकुलित (वि०) शब्द की आलोचना करने वाला।
(सुद० १२१) शब्दातीत (वि०) अनिवर्चनीय, शब्दों से परे।
शमनी (स्त्री०) [शमन+ङीप्] रजनी, रात्रि। शब्दाधिष्ठानं (नपुं०) कर्ण, कान, श्रवणेन्द्रिय।
राक्षस, पिशाच, भूत-प्रेत। शब्दाध्याहारः (पुं०) शब्दपूर्ति।
शमलं (नपुं०) [शम्+कलच्] मल, विष्ठा, लीद। शब्दानुपात (पुं०) शब्द की मर्यादा तोड़ना।
गोमय, गोबर। शब्दानुशासनं (नपुं०) व्याकरणशास्त्र।
पाप, नैतिक मलिनता। 'शमलं च मलं शकृत् इत्यमरकोषे' शब्दार्थः (पुं०) शब्द और अर्थ।
(जयो०वृ० २५/२६) शब्दालंकारः (पुं०) एक अलंकार विशेष, जो शब्द सौंदर्य पर | शमश (वि०) कल्याण सहि-शम एव शो धर्मो यस्य स
निर्भर रहता। भ्रमन्ति ययं परितो मदोत्कटाः। कटा श्रयन्ते (जयो० २६/) ननु चेतनात्मनाम्। (जयो० २४/१८)
शमितं (भू०क०कृ०) [शम् णिच्+क्त] ०प्रशान्त किया गया, शब्दित (वि०) ध्वनित। उच्चरित, ०कथित।
प्रसन्न किया गया। शब्दोच्चारणं (नपुं०) संवेदन, प्रवचन, कथन। (जयो०७० ०समझाया गया। १८/५०)
विश्राम दिया गया। शम् (अव्य०) [शम्+क्विप्] ०कल्याण, आनंद, हर्ष, खुशी। सौम्य, शान्त। (जयो० ३/२२)
शमितविवाद (वि०) विसंवादरहित। (जयो०२/१३७) समृद्धि, मंगल कामना।
शमिन् (वि०) [शम्+इनि] सौम्य, शान्त। शम् (अक०) शांत होना, प्रसन्न होना, खुश होना।
०प्रशान्त। (सुद० १२४) ०थमना, ठहरना. विश्राम लेना, रुकना।
आत्मनियन्त्रित। प्रशान्त होना।
शमिना (स्त्री०) भूमि, भू, धरा, पृथ्वी। (मुनि० ६) ०धीरज रखना, सान्त्वना देना।
'संतापादिविवर्जितेन शमिनामीशेन संपश्यता' (मुनि०६) शमः (पुं०) [शम+घञ्] ०धैर्य, शान्ति, प्रसन्नता। | शमी (स्त्री०) [शम्+इन्+ङीप्] प्रशमभाव, प्रशान्त भाव शमाम्बुधिर्मेरुरिवेद्धधैर्य (भक्ति० २३)
(सुद० ११७) विश्राम, आराम, ठहराव।
फली, सेम, छीमी। ०शान्त। (जयो० ९/२३)
शमीगर्भः (पुं०) अग्निहोत्री ब्राह्मण।
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शमीन:
१०५२
शयालुः
शमीनः (पुं०) समत्वधारी व्यक्ति। समन्तातः समतां शमीनः |
(वीरो० १२/३३) शमीधान्यं (नपुं०) द्वि दल युक्त दाल। शमीशानः (पुं०) ऋषिराज, समता सम्पन्न, समत्व शिरोमणि।
(जयो० १९८७) शम्पा (स्त्री०) [शम्+पा+क] विद्युत बिजली। (जयो०८/८)
(वीरो० २/३३) 'शं शान्तिं पातीति शम्पा' (जयो० ३/८७) शम्फली (स्त्री०) सम्भली, विलासिनी। (जयो० २६/१७) शम्ब (सक०) जाना, पहुंचना। ___०संचय करना, एकत्रित करना। शम्ब (वि०) [शम्ब्+अच्] ०प्रसन्नता, खुशी, आनंद।
०भाग्यशाली, अभागा। शम्बः (पुं०) [शम्ब्+अरच्] एक राक्षस विशेष।
पर्वत, गिरि।
युद्ध, संग्राम। शम्बरं (नपुं०) जल, वारि।
मेघ, बादल। शम्बरी (स्त्री०) [शम्बर ङीष्] माया, जादू। जादूगरनी स्त्री। शम्बलः (पुं०) ०तट, किनारा। शम्बलं (नपुं०) ०पाथेय, मार्गव्यय।
स्पर्धा, ईर्ष्या। शम्बली (स्त्री०) कुटनी, दूती। शम्बु/शम्बुकः (पुं०) घोंघा। शंख। शम्भः (पुं०) [शम्भः ] इन्द्र वज्र। ०हर्षित व्यक्ति। शम्भली (स्त्री०) [शम्भल ङीष्] दूती, कुटनी। शम्भु (वि०) [शमृ+भू+डु] हर्षित करने वाला, आनन्द देने
वाला, कल्याणकर। (जयो० १/३०) शम्भुः (पुं०) शिव, महादेव, रुद्र। (जयो० १/३०) प्रजासु
शम्भुः कल्याणकरः, रुद्रश्च सन् महीभृतां राज्ञां शिरस्सु
(जयो०वृ० १/३०) शम्भुतनयः (पुं०) कार्तिकेण, गणेश। शम्भुनन्दनः (पुं०) गणपति, गणेश। शिवतनय। शम्भुप्रिया (स्त्री०) दुर्गादेवी। शम्भुवल्लभं (नपुं०) श्वेत कमल। शम्भुस्तुतः (पुं०) कार्तिकेय, गणेश। शम्मुक् (स्त्री०) दन्तकान्ति, दशनप्रभा। 'शमानन्दं मुञ्चतीति |
शम्मुक्'। (जयो०७० ३/२२) शम्या (स्त्री०) [शम्+यत्+टाप] छड़ी, डंडा, झाझ।
शय (वि०) [शी+अच्] शयन करने वाला, सोने वाला। शयः (पुं०) निद्रा, नींद।
०शय्या, आसन, विस्तरा।
हाथ। ०अजगर
अभिशाप।
हस्त (जयो०६/२०) (जयो० १/४७, ११/४१) शयण्ड (वि०) [शी+अण्डन्] निद्रालु। शयथ (वि०) [शी+अथच्] निद्रालु, आलसी। शयथः (पुं०) मृत्यु, मरण।
०अजगर। : ०मत्स्य, मछली। शयनं (नपुं०) [शी+ल्युट्] निद्रा, सोना, शयन करना, नींद
लेना। चकार शय्यां शयनाय तस्याः (वीरो० ५/३८) ०शय्या। (सुद० ९९)
संभोग, मैथुन। शयनगृहं (नपुं०) शयनकक्ष, निद्रालय, सोने का कमरा। शयनजन्य (वि०) निद्रा को प्राप्त। शयनभावः (पुं०) स्वप्न। (जयो० ५/१०) शयनविकल्पः (पुं०) स्वप्न। (जयो०वृ० २२/५८) शयनसखी (स्त्री०) शय्याकेली की सहेली। शयनसदनं (नपुं०) शय्यागृह, शयनकक्षा (जयो० १८/२४) शयनस्थानं (नपुं०) शय्या स्थल, शयन स्थल, सोने का स्थान। शयनार्थ (वि०) शय्यार्थ, शयन के लिए प्राप्त। (दयो० ८९) शयनावस्था (स्त्री०) शयनभाव। (जयो०वृ० ५/१०) शयनीय (वि०) [शय+अनीयर] शय्या को प्राप्त हुआ, शय्यागत।
(सुद० ३/२२) शयनीयं (नपुं०) शयन, बिस्तरा, बिछौना। शयप्रद (वि०) शय प्रदान करने वाला। (समु० ३/८)
* शय्याप्रदायक, आसनदायक। शयानकः (पुं०) [शी+शानच्+कन्] गिरगिट।
०सर्प, अजगर।
०शय्या। (सुद० ९८) शयाना (वि०) सोती हुई, शयन करती हुई। (सुद० २/१०) शयालीन्द्रियकुशेशयः (पुं०) भ्रमर रूप नेत्र। (वीरो० २१/६) शयालु (वि०) [शी+आलुच्] सोए हुए (सम्य० १/७) निन्द्रालु,
आलसी, तन्द्रालु। शयालुः (पुं०) सर्प, सांप, अजगर।
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शयित
१०५३
शरन्नवोढा
शयित (भू०क०कृ०) [शी+कर्तरि+क्त] सुप्त, सुसुप्त, सोया
हुआ।
०लेटा हुआ। शयु (पुं०) अजगर सर्प, सांप। (समु० ५/३२) शयोपचित (वि०) हाथ में स्थित, करगत, हस्त गत। (जयो०
१२/११) शयोभयोपयोक्त्री (वि०) दोनों हाथ जोड़ने वाली। खड़ी।
शययोरुभयस्य हस्तद्वयस्य उपयोक्ती भवामि।
(जयो०वृ० १२/३) शय्या (स्त्री०) [शी आधारे क्यप्+टाप्] आसन, बिछौना,
विस्तरा, संस्तर। (सुद० ७८) समदायि जनेश्वरेण मह्यामपि पद्माप्रणयेश्वराय शय्या।
यदहीनगुणैर्नरोत्तमाय विषदैः सङ्कघटितेऽपि सम्प्रदाय।। शय्यागारः (पुं०) शयन भवन, शय्यागृह। शय्यागृहं (नपुं०) शयन स्थान। (जयो० १५/७३) शय्यापालः (पुं०) नृप शय्या अधीक्षक। शय्यापालः (पुं०) नृप शय्या का अधीक्षक। शय्यामूलं (नपुं०) शय्यास्थान। (जयो० १८/९५) शय्यासदृशी (वि०) शयनके सदृश, शय्या के समान। (जयो०७०
१६/२४) शय्यास्थं (नपुं०) शय्यास्थान, शय्यागृह, शयनकक्ष।
(जयो० १८/९५) शय्योत्सङ्गः (पुं०) पलंग का पार्श्वभाग, पलंग का पीछे का
हिस्सा। शरः (पुं०) [शृ+अच्] बाण, तीर। (सुद०१/४०) तेजनक,
तीक्ष्ण। (जयो० ३/२७) ०पांच की संख्या। ०चोट, क्षति, घाव।
मलाई। शरटः (पुं०) [श+अटन्] गिरगिट।
०कुसुम्भ। शरणं (नपुं०) [शृ+ल्युट] ०आश्रय, सहारा, स्थान, विश्रामस्थल।
(भक्ति० २५) ०प्रतिरक्षा, सहायता, साहाय्य।
०ओट। शरण्डः (पुं०) [शृ+अंडच्] पक्षी, गिरगिट। ०ठग, धूर्त, छली।
लम्पट, स्वेच्छाचारी। ०एक आभूषण विशेष।
शरण्य (वि०) [शरणे साधुः यत्] प्रतिरक्षक, रक्षा करने
योग्य, बचाने योग्य।
आश्रय योग्य, आधार योग्य। शरण्यं (नपुं०) आश्रय स्थल, शरणगृह, प्रतिरक्षा, सुरक्षित
स्थान। शरण्युः (पुं०) प्रतिरक्षण, मेघ। शरत्कालः (पुं०) शरद ऋतु। (जयो०वृ० ४/५६) शरत्कालीन (वि०) शरद ऋतु सम्बंधी। शरत्सम्मुखः (पुं०) शरद ऋतु के समीप। (वीरो०२१/९) शरत्समनुयायिनी (वि०) शरद ऋतु का अनुसरण करती हुई।
शरदृतोरनुकरणशीला (जयो०७० ३/८) शरद् (स्त्री०) [शृ+अदि] शरत्काल, शीतकाल, आश्विन एवं
कार्तिक मास में होने वाली ऋतु। (सुद० ३/३२, जयो० ३/५७) (सुद० १/८)
शरं ददातीति शरदं-मुक्तावली सहित। ०हार देने वाली। (जयो०वृ० २२/२) ०वर्षावसान समय (जयो०४/९) पक्वबाल सहिता शरदेषा शालिकालिभिरुपाद्रियते वा। (जयो० ४/५७) भूरिधान्यहितवृत्तिमतीतन्निर्जरत्वधिगन्तुमपीतः। संविकाशयति वा जडजातमप्युदर्कमनुयात्यथवाऽतः।। (जयो० ४/५८) शरदि उज्ज्वलैर्विकाशिभिः जलोद्भवेः कमलैर्निष्ठं युक्तं तथा, प्रोल्लसत्तमेन परमप्रसक्तियुक्तेन मरालेन हंसेन विशिष्टं
नीरं सरोवरजलं तत् तस्य। (जयो०वृ० ४/५९) शरद्धरा (स्त्री०) शरत्काल की पृथ्वी। (वीरो० २१/३) शरर्दोघः (पुं०) शरद्कालीन बादल। शरदा (स्त्री०) [शरद्+टाप्] ०पतझड़। ०वर्ष। शरदिज (वि०) [शरदिजायते-जन्-ड सप्तम्या अलुक्] पतझड़
से संबंध रखने वाला। शरदीव (वि०) शरद ऋतु की तरह। (सुद० ७८) शरद्योगिसभा (स्त्री०) शरद ऋतु में रोगियों की सभा।
विलोक्यते हंसरवः समन्तान्मौनं पुनर्भोगभुजो यदन्तात्।। दिवं समाक्रामति सत्समूहः सेयं शरद्योगिसभाऽस्मदूहः।।
(वीरो० २१/५) शरधि (पुं०) तूणीर, तरकश। (वीरो० ८/१९) __०जलधि, समुद्र। (वीरो० ८/१९) शरन्नवोढा (स्त्री०) शरद ऋतु रूपी नवोढा बहु। (वीरो० २१/२)
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शरपुंखः
१०५४
शर्करायुक्त
शरपुंखः (पुं०) बाणों के पंख। शरप्रवृत्ति (स्त्री०) शरसंचालन की प्रवृत्ति, शीतकाल स्थिति।
(वीरो० ९/२८) शरभः (पुं०) [शृ+अभच्] हस्ति शावक!
टिड्डी।
ऊँट। शरयु (स्त्री०) [शृ+अयु:] सरयु नदी। शरलकं (नपुं०) पानी, जल। शरवर्षशतोत्तरि (वि०) पांच सौ वर्ष पीछे। (वीरो० २२/६) शरव्यं (नपुं०) [शरवे शरशिक्षायै हितं-शरु-यत] निशाना, लक्ष्य। शराग्रयः (पुं०) तीक्ष्ण तीर। शराक्षेपः (पुं०) बाण क्षेपण, बाणों की वर्षा। शराटिः (पुं०) पक्षी विशेष। शराधिकारि (पुं०) जल अधीक्षक, पानी की अधिकारी।
(समु०६/१०) शरारु (वि०) [शृ+आरु] अहितकर, कष्टकर, हानिकारक। शरार्पित शाप (वि.) बाणों से आबिद्ध। (जयो० ५/९) शरावः (पुं०) कोरा, कड़वका, सकोरा। शरावं (नपुं०) ०पात्र विशेष। मिट्टी का एक छोडा पात्र।
(जयो० ५/१०५) ०सकोरा। शरावती (स्त्री०) एक नगरी विशेष। शरिमन् (पुं०) [शृणाति यौवनं-श+इमन्] पैदा करना, जन्म
देना। शरीरं (नपुं०) [शृ+ईरन्] देह, काया, तनु। शीर्यन्त इति
शरीराणि। 'शरीरमेन्तमलमूत्रकुण्डं यत्पूतिमांसास्थिवसादिझुण्डम्। (सुद० १०१)
कलेबर (जयो०० २५/५८) जानाम्यनेकाणमितं शरीरं जीव: पुनस्ततप्रमितं च धीरः। (वीरो० १४/३०) भोगायतन, भोगस्थान। (सम्य० २४)
०औदारिक आदि शरीर। (सम्य० ४२) शरीरकर्तृ (पुं०) पिता, जनक। शरीरकर्मन् (नपुं०) शरीर का कार्य। शरीरकर्षणं (नपुं०) शरीर की कृषता। शरीरगत (वि०) देहगत। (सुद० १३६) शरीरच्छायः (पुं०) शरीर प्रतिबिम्ब, शरीर की परछाई।
(जयो०१२/१२०) शरीरजः (०) रोग, आधि, व्याधि।
०पुत्र, सन्तान। कामोद्दीपन।
शरीरतुल्य (वि०) देह सदृश। शरीरदण्डः (पुं०) देह दण्ड्, शारीरिक दण्ड। शरीरदेश: (पुं०) काय के प्रदेश (सुद० १२३) शरीरधारिन् (वि०) देह को प्राप्त षट् काय जीवादि। शरीरधृक् (वि०) शरीर धारक। शरीर नन्दिन् (वि०) देहगत आनन्द मनाने वाला। शरीरपतनं (नपुं०) मृत्यु, पौत, मरण। शरीरपर्याप्ति (स्त्री०) शरीर रूप परिणमन। शरीरपातः (पुं०) मरण, मृत्यु। शरीरबद्ध (वि०) शरीरी। शरीरबन्धः (पुं०) दैहिक रचना प्रक्रिया, शरीर की बनावट। शरीर भेदः (पुं०) शारीरिक अन्तर, शरीर वियोग मृत्यु, मरण। शरीरयष्टिः (स्त्री०) दैहिक क्षीणता, पतला शरीर, कृशकाय। शरीरयात्रा (स्त्री०) जीवन-यापन, देह पुष्टि का साधन। शरीरवर्गः (पुं०) संसारी जन। (जयो० १६/२५) शरीरवर्जित (वि०) अङ्गातिग, देह रहित। (जयो०१० २/१५३) शरीरविवेकः (पुं०) सुख-दुःखादि का विवेक। शरीरशोभा (स्त्री०) देहप्रभा, शरीर की चमक। (जयो०१/७०) शरीरसंघातः (पुं०) शरीरगत शुद्धि। शरीरसंलेखना (स्त्री०) आहारादि का त्याग करना। शरीरसंस्कारः (पुं०) देह को सजाना। शरीरस्थितिः (स्त्री०) देह पुष्टि। (दयो० ३४/ ) शरीरहानि (स्त्री०) क्षीण शरीर। (वीरो० १८/२४)
मरण, मृत्यु। शरीराङ्गोपाङनाम (पुं०) अंग-उपांग की उत्पत्ति, शरीर रचना। शरीरिन् (वि.) [शरीर+इनि] शरीरधारी, शरीर युक्त।
जीवित, चेतनामय, प्राणयुक्त। संचेत्यते यावदसंज्ञिकर्मफलं शरीरीपरिभिन्नमर्म। यतो नहि ज्ञानविधाथियकर्मकर्तुं तदा प्रोत्सहतेऽस्य नर्म।। (सम्य०४१) जिसके शरीर होता है-शरीरमस्यास्तीति शरीरी। (धव०
९/२२१) सरीरमेयस्स अस्थि त्ति सरीरी (धव० १/१२०) शर्करजा (स्त्री०) [शृ+कान्-जन्+ड+टाप्] मिश्री। शर्करा (स्त्री०) [शृ+का+टाप्] शक्कर खाण्ड।
०कंकड़ी, रोड़ी, बजरी। ०बालू से युक्त भूमि, रेत।
०ठींकरा। शर्करायुक्त (वि०) सिताश्रित, शर्करा मिश्रित, शक्कर युक्त।
(जयो०वृ० १६/९)
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शर्करिक
१०५५
शर्करिक (वि०) कंकर, कंकड़ी, बजरीयुक्त। (जयो० २७/४९) त्रियामायां हरिद्रायोषतोरपि' इति विश्वलोचन (जयो०७० किरकिरा, कंकरीला।
२२/१७) शर्करिल: (वि०) देखो ऊपर।
शल् (सक०) हिलाना, हरकत देना। शर्करी (स्त्री०) नदी।
०क्षुब्ध करना। ____करधनी, मेखला, कंदौरा।
०कांपना। शर्धः (शृध्+घञ्) अफारा, अपानवायु का छोड़ना, पदास, पादना। | शल: (पुं०) [शल्+अच्] सांग, चन्द्र। (जयो० २४/४९) बीं। दल, समूह।
मेख। सामर्थ्य, शक्ति।
ब्रह्मा। शलं तु शल्लकीलोक्नि शलो भुङ्गिगणे विधौ शर्धजह (वि०) [शर्ध+हा+खश] अफारा उत्पन्न करने वाला, इति वि वायु विकार वाला।
शलकः (पुं०) [शल+कन्] मक्कड़ मकड़ा। शर्धजहः (पुं०) [शर्ध+हा+वश्+घञ्] उड़द, माष।
शलक्ष (वि०) चिकना। शर्धनं (नपुं०) [शृध्+ल्युट्] पादना, उदास, वायु छोड़ना। शलक्षकेशः (नपुं०) चिकने केश। (सुद० २/७) शर्ब (सक०) जाना, पहुंचना।
शलङ्गः (पुं०) [शल्-अङ्गञ्] नृप, राजा। नाश करना, क्षतिग्रस्त करना।
प्रभु, स्वामी। शर्मकारि (वि०) सुख दायक।
शलभः (पुं०) [श्ल+अभच] पतंगा। (जयो० २५/२४) शर्मन् (पुं०) [शृ+मनिन्] दास, गुप्ता।
झषचातकशलभाशी: (सुद० १/४९) अनवयन्दहनं शर्मन् (नपुं०) प्रसन्नता, आनन्द, खुशी।
शलभोऽतति वडिशमांसमितश्च झषोऽमतिः। (जयो० आशीर्वाद।
२५/७७) आश्रय, आधार। स्त्री प्रसंगादि सुख (जयो० ३/१,) शलभपंक्तिः (स्त्री०) पतङ्गावलि। (जयो० १०/११५) कल्याण, सुख। (जयो० २/४४, १२/४८)
शलभसमूहः (पुं०) पतंग समूह। शर्मरः (पुं०) [शर्मन्+रा+क] वस्त्र विशेष, परिधान विशेष। शललं (नपुं०) [शल्-अलच्] साही का कांटा। शर्मलेखिनी (स्त्री०) आनन्द समुद लेखकी। (जयो० १२/८१) शलली (स्त्री०) छोटी साही। शर्मवत् (वि०) सुख सदृश। (जयो० ७/१००)
शलाका (स्त्री०) [शल्+आ+टाप्] छोटी खूटी, कील, शर्मवारि (नपुं०) सुखपूर्ण जन। स्वच्छ जल।
टुकड़ा, सींखचा। लोह कीलक (३/१७) शर्मसूक्ति (स्त्री०) कल्याणोत्पत्ति। (जयो० २३/२१)
सलाई, अंजन आंजने की तीली। शर्माज्झिति (स्त्री०) सुख त्याग। (मुनि० १७)
बाण, तीर। शर्मार्थ (वि०) शान्तिलाभार्थ। (जयो० २३/६९)
०सांग। शर्या (स्त्री०) [शृ+यत्+टाप्] रजनी, रात्रि।
०अंकुर, फुनगी, कोंपल। अंगुली।
दंत कुदेरनी, दंत प्रक्षालिनी। श (सक०) जाना, पहुंचना।
महत् व्यक्तिव युक्त पुरुष तत्व। (जयो० १/५९) ___ क्षति पहुंचना, मारना, घात करना।
विशिष्ट व्यक्ति, वीतरागानुगामी पुरुष। शर्वः (पुं०) विष्णु।
शलाकापुरुषः (पुं०) वीतरागानुगामी पुरुष। विशिष्ट पुरुष, शर्वरः (पुं०) [शृ+ष्वरच्] कामदेव।
तीर्थंकर, चक्रवर्ती बलदेव, वासुदेव आदि। शर्वरं (नपुं०) तम, अन्धकार।
एत्तो सलायपुरिसा, तेसट्ठी सयल-भुवण विक्खादा। शर्वरी (स्त्री०) तम, अंधकार।
जायेति भरखेत्ते णरसीहा पुण्णपाकेण।। (ति०प० ४/५१७) शर्वरी (स्त्री०) [शृ+वनिप् ङीष्] रजनी, रात्रि (जयो० १५/३४) | शलाटु (वि०) [शल्+आटु] अनपका, अपरिपक्व।
(जयो० ११/९३) 'शर्वरी तु त्रियामायां हरिद्रायोषितो रपि' शलोपल: (पुं०) चन्द्र कान्तमणि। (जयो०२४/४९) इति विश्वलोचनः (जयो० १८/४७) युवती शर्वरी तु | शल्कं (नपुं०) मछली।
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शल्कलिन्
१०५६
शशि भा
९बल्कल, छाल।
०भाग, अंश, खण्ड। शल्कलिन् (पुं०) [शल्कल इनि] मछली। शल्भ (सक०) प्रशंसा करना। शल्मलि: (स्त्री०) [शल्+मलच्+इन-] सेमल वृक्षा शल्यं (नपुं०) [शल+यत्] 'ऋणति हिनस्तीति शल्यं' (स०सि० । ७/१८) बाण।
अन्तर्निविष्ट परिणाम तीर। ०कांटा, कील। (जयो० २/१०)
शूल। (जयो० २/७०) ०खूटी, थूणी।
०कष्ट, दुःख, पीड़ा। शल्यः (पुं०) शल्यक्रिया, एक चिकित्सा विधि, जिसमें शरीर
भेदन कर पीड़ा को शान्त किया जाता है। शल्यकः (पुं०) सलाख, खपची, कांटा, फांस। शल्यक्रिया (स्त्री०) शल्यशास्त्री की क्रिया। शल्यलोमन् (नपुं०) साही का कांटा। शल्यशास्त्र (नपुं०) शल्यक्रिया सम्बंधी ग्रंथ। शल्यहर्तृ (पुं०) चिकित्सक, वैद्य। शल्लः (पुं०) [शल्ल्+अच्] मेंढक। शल्लं (नपुं०) वल्कल, छाल। शल्लकी (स्त्री०) [शल्लक ङीष्] साही। जीव विशेष। शल्लकीद्रवः (पुं०) धूप, लोबान। शल्वः (पुं०) एक देश विशेष। शव् (सक०) जाना, पहुंचना।
बदलना, परिवर्तन करना। शवः (पुं०) [शव्+अच्] लाश, मुर्दा, मृतक। (जयो० ८/३९) शवं (नपुं०) जल, वारि, पानी। शवकाम्यः (पुं०) श्वान, कुत्ता। शवगत (वि०) मृतक हुआ, मरा हुआ, मृत्यु को प्राप्त हुआ। शवभू (स्त्री०) श्मशान, भूमि, शवस्थल। (सुद० ९२) शवभूदा (स्त्री०) श्मशानस्थल। शवयानं (नपुं०) अरथी, मृतक यान। शरथः (पुं०) अरथी, शवयान। शवशिविका (स्त्री०) अरथी, परेतरथान्त। (जयो०व० २५/४७) शवसानः (पुं०) [शव+असानच] यात्री, पथ, मार्ग, रास्ता। शवसानं (नपुं०) श्मशानभूमि, शवस्थान, शवस्थल। शश् (अक०) समर्थ युक्त, शशाक। (सुद० ७६)
शशः (पुं०) [शश्+अच्] खरगोश, खरहा। (दयो० ७६)
०चन्द्र कलंक। शशकः (पुं०) खरगोश, खरहा। (दयो० ७६) शशकृत् (पुं०) खरगोश। (सुद० ९२) शशधरः (पुं०) चंद्रमा, चन्द्र, शशि। (दयो० ५४) शशभृत् (वि०) चुद्रतुल्य, चन्द्र सदृश। नर्मष्टिं सुमुखेट्टगेतु
शशभृत्कल्पे कथं नाथः नः' (जयो० ११/१००) शशभृत् (पुं०) शिव, महादेव। शशमूर्तिः (स्त्री०) चन्द्रमा, शशि। शशमौलिः (पुं०) महादेव, शिव, शंकर। शशलक्ष्मणः (पुं०) चंद्रमा, शशि। शशलाच्छनः (पुं०) चंद्रमा, शशि। चन्द्रचिह्न। (जयो० ९/९५)
तत्रासीच्छशलाञ्छनस्य रसनात् प्रारब्धपूर्णात्मनो' (जयोवृ०
९/९५) शशलेखा (स्त्री०) चन्द्रकला, चन्द्ररेखा। शशलोमन् (पुं०) खरगोश की रोम राजि। शशविषाणं (नपुं०) खरगोश के सींग। शशस्थली (स्त्री०) गंगा के बीच की भूमि। दोआबा। शशाङ्कः (पुं०) चन्द्र। ०कपूर। (सुद० १/४०) शशादः (पुं०) बीज, स्येन, पुरंजय के पिता का नाम। शशादनः (पुं०) बाज, स्येन। शशार्धमुख (वि०) अर्ध चन्द्र की आकृति युक्त बाण। शशिन् (पुं०) [शशोऽन्त्यस्य इनि] सर्वात्मना कमनीयत्वलक्षण
मन्नर्थमाश्रित्य चन्द्रः। चन्द्र, शशि, चन्द्रमा (सुद० ३/३) शशिना शुचिशर्वरीव सा दिनवच्छीर विणा महायशाः।
(सुद० ३/१६) शशिकला (स्त्री०) चन्द्ररेखा, चन्द्र प्रभा, चन्द्रकिरण। शशिकान्त (वि०) शुद्धतम, अतिस्वच्छ। (जयो० ३/६४) शशिकान्तः (पुं०) शशिकान्तमणि। शशिकान्तं (नपुं०) कमलिनी। शशिकान्ति (स्त्री०) चन्द्र प्रभा। शशिकोटिः (स्त्री०) चद्रशृङ्ग। शशिगृहं (नपुं०) चन्द्रग्रहण। शशिग्रहणं (नपुं०) चन्द्रग्रहण। शशिजः (पुं०) बुध। शशिनीत्थः (पुं०) शान्त अवस्था। (जयो० २६/२३) शशिप्रभा (स्त्री०) चन्द्र किरण। शशि भा (स्त्री०) आदित्य राजा की रानी। विजयार्ध पर्वत के
राजा की रानी। (जयो० २३/५१)
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शशिभृत्
१०५७
शस्त्रोत्तेतनपाषाणं
शशिभृत् (पुं०) महादेव, शिव। शशिमौलिः (पुं०) महादेव, शिव। शशिलेखा (स्त्री०) चन्द्र किरण। शशिशेखः (पुं०) महादेव, शिव। शशिहरः (पुं०) सूर्य, दिनकर, रवि। शशिहर (वि०) चन्द्रापहारक। (जयो० २५/३७) शश्वत् (अव्य०) [शश्व त्] लगातार, अनारत, निरन्तर। ।
(जयो०२३/५९)
सदा के लिए, सतत्, बार-बार, सदैव। (वीरो० २१/१५) बहुशः पुनः पुनः (सुद० १०२) शश्वतकृतिन् (स्त्री०) शाश्वतबुद्धि। (जयो० १/४२) शश्वत्कार्यः (पुं०) सदैव काम। प्राय कार्य करना। शश्वत्गतिः (स्त्री०) निरंतर गति। ०प्रगति, प्रतिगति। शश्वच्चारि (वि०) निरंतर गमनशील। ०जन्म जन्मान्तर। शश्वज्जन्म (वि०) पुनर्जन्म। शश्वत्प्रतिष्ठाश्रयः (पुं०) निरन्तर प्रतिष्ठा का पात्र। शश्वदपि (अव्य०) सदैव, बार बार भी, पुनरपि, फिर से भी।
(जयो०वृ० ५/१९) शष्कुली (स्त्री०) [शष्+कुलच्+ङीष] कान का विवर,
श्रवणमार्ग। चावल की कांजी।
कर्ण रोग। शष्यः ( पुं०) [शष्+पक्] प्रतिभाक्षय, बुद्धि वैशिष्ठ का अभाव।
तृण घास। (जयो०वृ० ८/९२) शष्पं (नपुं०) बुद्धि कौशल का अभाव। शस् (सक०) काटना, नष्ट करना। दिखना। शस्यते (जयो०
९/९५)
०हनन करना, मार डालना। शसनं (नपुं०) [शस्+ल्युट्] घायल करना, चोट पहुंचाना,
क्षत-विक्षत करना।
०बलि, मेघ। शस्त (भू०क०कृ०) प्रशंसा किया गया, स्तुति किया गया।
शुभ, आनन्द प्रद, सुंदर, रमणीय-मातुर्मुखं चन्द्रमिवैत्य हस्तौ सङ्गो चमाप्तौ तु सरोजशस्तौ। (वीरो० ५/२६) प्रशस्त। (जयो० २/४४) यथार्थ, सर्वोत्तम। (जयो०१/२०) प्रशंसनीय। (जयो० ६/३९, प्रशंसायोग्य। ०क्षतिग्रस्त, घायल। ०वध किया हुआ, घायल किया हुआ।
शस्तं (नपुं०) सुख, हर्ष, आनन्द।
०कल्याण, भद्र, मंगलमय। ०शरीर।
० अंगुलिप्राण। शस्तानुरागः (पुं०) ०प्रशस्तानुराग। ०स्तुत्य अनुराग।
(जयो० १८/३४) शस्तिः (स्त्री०) स्तुति, प्रशंसा। शस्त्रं (नपुं०) [शस्+ष्ट्रन्] आयुध, शस्त्र, हथियार।
उपकरण, औजार। शस्त्रकारः (पुं०) शस्त्रनिर्माता। शस्त्रकोषः (पुं०) म्यान, आवरण। शस्त्रग्रहणं (नपुं०) शस्त्रधारण। (वीरो० १०/२९) शस्त्रग्राहिन् (वि०) शस्त्र धारण करने वाला। शस्त्रजीविन् (पुं०) सैनिक, योद्धा, जाबाज, बहादुर, पराक्रमी। शस्त्रधर (वि०) शस्त्रधारक। शस्त्रन्यासः (पुं०) हथियार डाल देना। शस्त्रपाणि (वि०) हस्तगत अस्त्र वाला। शस्त्रपूत (वि०) शहीद, बहादुरी से लड़कर मरने वाला, शहीद
होने वाला, शहादत पर मर मिटने वाला। शस्त्रप्रहारः (पुं०) शस्त से आघात। शस्त्रभृत् (पुं०) योद्धा, सैनिक। शस्त्रमार्गः (पुं०) शस्त्रनिर्माता। ०आयुध शिक्षा। शस्त्रविद्या (स्त्री०) युद्धकला, आयुध चलाने का ज्ञान। शस्त्र वैद्य (वि०) आयुध ज्ञाता। (समु० ९/२९) शस्त्रशास्त्र (नपुं०) आयुध विद्या का ग्रंथ। ०असिज्ञान। शस्त्रशास्त्रविद् (वि०) शस्त्रविद्या का ज्ञाता। (जयो० ५/१) शस्त्रसंचालन (मुं०) शस्त्र चलाना। (वीरो० १०/२९) शस्त्रसंपातः (पुत्र) आयुध गिरना। शस्त्रसंहतिः (स्त्री०) शस्त्रसंग्रह, आयुधशाला, शस्त्रागार। शस्त्रहत (वि०) अस्त्र से मारा गया। शस्वहतिः (स्त्री०) शस्त्र की चोट, अस्त्र प्रहार से घायल।
हथियार की चोट। (समु० १/६) शस्त्रहस्त (वि०) आयुध धारी। शस्त्रिका (स्त्री०) [शस्त्रक्+टाप्] चाकू। शस्विभावः (पुं०) शस्त्रग्रहण का भाव। शस्त्री (स्त्री०) चाकू। ____ आयुधी। (जो०वृ० २/४१) शस्त्रोत्तेतनपाषाणं (नपुं०) शाण।
हा
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शस्त्रोपजीवित
१०५८
शाकिनी
शस्त्रोपजीवित (वि०) क्षत्रिय। (जयो० २/१११) (जयो०७०
२/४१) शस्त्रोपयोगिन् (वि०) शस्त्र उपयोग करने वाला।
शस्त्रोपयोगिने शस्त्रमयं विश्वं प्रजायते। शस्त्रं दृष्ट्वाऽप्यभीताय स्पृहयामि महात्मने।
(वीरो० १०/३३) शस्यं (नपुं०) [शस्+यत्] धान्य, अन्न (समु० १/७) (वीरो०२/६,
सम्य० ४७) शस्यात्म-सम्पत्समवायिनस्तान् स्वर्गप्रदेशान्मनुते
स्म शस्तान्। (सुद० १/३०) शस्य (वि०) भविष्य (सुद० २/२८)
०ख्यात, प्रसिद्ध। (जयो०१/७६) भालानलप्लुष्टमुमाधवस्य स्वात्मानमुज्जीव यतीति शस्यः।। (जयो० १/७६) शस्य:-ख्यात (जयो०वृ० १/७६) प्रशंसनीय-'स्याद्वाच्यता वा नकुलस्य यस्य ख्यातश्च सद्भि सहदेवशस्यः। (जयो०१/१८) देवैः शस्यः प्रशंसनीय सन्'
(जयो० १/१८) शस्यतम (वि०) प्रशस्ततम, श्रेष्ठतम्। अनुचानत्वमापन्ना स्त्रीषु
शस्यतमा मता (वीरो० ८/३९) शस्यतमस्वभावः (पुं०) प्रशंसनीय स्वभाव। (जयो० ११/७१) शस्यतिलाङ्क: (पुं०) प्रशस्त चिह्न, सामुद्रिक शास्त्रानुकूल
चिह्न। 'पश्यति शस्यतिलाङ्के नश्यतु तृष्णाप्यभुष्यारम्। (जयो० ६/२१) 'शस्यः सामुद्रिक शास्त्रानुकूल प्रशंसाहस्य।
तिलस्याङ्कश्चिह्नो यस्यः सा। (जयो०वृ० ६/२१) शस्यद्युतिः (स्त्री०) मनोहरकान्ति। (जयो० जयो०६/४२) शस्यपूर्णः (पुं०) धान्य से परिपूर्ण। (दयो० १६) शस्यभक्षक (वि०) धान्य भक्षक, अन्नाहारी, शाकाहार युक्त। शस्यमञ्जरी (स्त्री०) धान्य का बाल, धान्य के पुष्प गुच्छ। शस्यमालिन् (वि०) हरे भरे खेत वाला। शस्यवाक् (नपुं०) मञ्जुलवचन, शस्यवाक् (वि०) मञ्जुभाषिणी। (जयो० ११/५२) शस्यवृत्तिः (स्त्री०) प्रशंसनीय चेष्टा। (जयो० २२/७) धान्य
सहित वृत्ति। (जयो० वृ० २२/७) शस्यशालिन् (वि०) धान्य से परिपूर्ण। शस्यशूकं (नपुं०) धान्य भूषी। शस्यसंपद् (स्त्री०) धान्य सम्पदा, अनाज की व्यापकता। शस्यसंपन्न (वि०) धान्य से परिपूर्ण। शस्यशम्बरः (पुं०) शाल वृक्ष।
शस्याङ्करं (नपुं०) धान्य के अंकुर, घास के अंकुर। (समु०
१/२६) शस्यात्मसम्पद् (वि०) धान्य से सम्पन्न। (सुद० १/२०) शाकः (पुं०) [शक्यते भोक्तुं-शक्+घञ्] शाक, साग-सब्जी, ___ हरी सब्जिया। (जयो० १२/११५, सुद० ४/३४) शाकं (नपुं०) शाकः (पुं०) सामर्थ्य, शक्ति, ऊर्जा, बल।
सागौन वृक्ष, शिरीष वृक्ष। कर्कदू (जयो०वृ० ६/९६) शाकाहार। (दयो० ३८) समस्ति शाकैरपि यस्य पूर्तिर्दग्धोदरार्थे कथमस्तु जूर्तिः।
(दयो० ३८) शाकचुक्रिका (स्त्री०) इमली। शाकट (वि०) गाड़ी सम्बंधी। शाकटायनः (पुं०) एक वैयाकरण। शाकाटिक (वि०) गाड़ी सम्बंधी। शाकतरु (पुं०) सागौन। शाकपणः (पुं०) अल्प शाक-भाजी। शाकपार्थिवः (पुं०) नाम चलाने वाला व्यक्ति। शाकपिण्डः (पुं०) शाकाहार। (दयो० ३८) शाकप्रति (अव्य०) थोड़ा सी वनस्पति। शोकयोग्यः (पुं०) धनिया। शाकल (वि.) [शकल+अण] टुकड़े से सम्बन्धित। शाकलः (पुं०) ऋग्वेद की एक शाखा। शाकलप्रातिशाख्यं (नपुं०) ऋग्वेद का प्रातिशाख्य। शाकलष (वि०) शाक के टुकड़ों पर पेर भरने वाला।
'शाकस्य लवैः कतिपयैग्रासैरपि पर्यत परितं भवति'। (जयो०
२६/१६) शाकलशाखा (स्त्री०) ऋग्वेद का पाठ विशेष। शाकल्यः (पुं०) [शकलस्यापत्यम] एक प्राचीन वैयाकरण। शाकारी (स्त्री०) शकार द्वारा बोली गई भाषा। प्राकृत भाषा
का एक रूप, जिसमें र का ल एवं श-श, स-श एवं ष-श अर्थात् श, स, ष का श प्रयोग होता है। मृच्छकटिक'
में इनका प्रयोग विशेष रूप से हुआ है। शाकाहारः (पुं०) साग, फलादि का आहार। (दयो० ३८/ ) शाकिनं (नपुं०) [शाक+इनच्] शाक जैसा। शाकिनी (स्त्री०) [शाकिन्+ङीप्] साग-भाजी-का खेत।
एक पिशाचिनी।
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शाकुन
१०५९
शाठ्य
शाकुन (वि०) [शकुन+अण] पक्षियों से सम्बंध रखने वाला।
०सगुन सम्बंधी। शाकुनिकः (पुं०) [शकुनेन पक्षिवधादिना जीवति ठञ्] बहेलिया,
चिडिमार। शाकनिकं (नपुं०) शकुन का विवेचन। शकुनवक्ता। शाकुनेयः (पुं०) [शकुनि ढक्] छोटा उलूक, घूका। शाकुन्तलः (पुं०) [शकुन्तला+अण्] भरत का मां के नाम
से सम्बोधित शब्द। शाकुन्तलं (नपुं०) महाकवि कालिदास का प्रसिद्ध नाटक,
जिसमें राजा दुष्यंत और शकुन्तला के प्रेम प्रसंग एवं वियोग का मार्मिक चित्रण हुआ है। इसमें राजा दुष्यंत, मंत्री संस्कृत का प्रयोग करते हैं और अन्य जनसामान्य से जुड़े पात्र प्राकृत भाषा का प्रयोग करते हैं। शकुन्तला, उसकी सखियां शौरसेनी प्राकृत का प्रयोग करती हैं। लव
और कुश भी मातृ रूप शौरसेनी भाषा का प्रयोग करते हैं। मछुआरा मागधी प्राकृत का प्रयोग करता है। -'अभिज्ञानशाकुन्तलं नाम से प्रसिद्ध नाटक दृश्यकाव्य
की उच्चतम अभिव्यक्ति है। शाकुलिकः (पुं०) [शकुल+ठक्] मछुआरा, मल्लाह। शाक्करः (पुं०) [शक्कर+अण्] वृषभ, बैल, बलिवर्द। शाक्ति (स्त्री०) दिव्य शक्ति युक्त व्यक्ति। शक्तिकः (पुं०) [शक्ति+ठक्] शक्ति पूजक। शाक्तीकः (पुं०) [शक्ति ईकक्] भालाधारी, बीयुक्त व्यक्ति। शाक्तेयः (पुं०) शक्ति का उपासक। शाक्यः (पुं०) [शक्+घञ्] बुद्ध। शाक्यभिक्षुकः (पुं०) बौद्ध भिक्षु। शाक्यमुनिः (पुं०) बुद्ध, गौतमबुद्ध। शाक्री (स्त्री०) [शक्र+अण्+ ङीप्] शची, इन्द्राणी।
दुर्गादेवी। शाखा (स्त्री०) [शाखति गगनं व्याप्नोति शाख्+अच्+टाप]
डाली, शाखा, टहनी। (सुद०२/१५) 'समुच्छलच्छाखतयाऽय वीनां कलध्वनीनाभृशमध्वनीनान्। (सुद० १/१७) 'शाखा यथा कल्पमहीरहस्य' (समु० ६/१८) एकस्य वृक्षस्य भवन्ति शाखा, विधोरनेका अथवा विशाखा। (समु०६/१९) ० भुजा। ०दल, अनुभाग, हिस्सा।
उपभाग, सम्प्रदाय, पथ, परम्परा। ०वेद ऋचाओं का पाठ।
शाखानगरं (नपुं०) नगर परिसर, नगर का उपभाग। शाखाग्रभागः (पुं०) शाखा का कोंपल भाग। (जयो० ११)
वृक्ष की शाखा का अग्रभाग/ऊपरी भाग। शाखाचारः (पुं०) शाखाभाग। शाखाया आचरणं स्वकुलचरणरूप
निर्वहणं। (जयो० १२/१७) शाखापदं (नपुं०) दलभाग। शाखापित्तः (पुं०) कन्धादि भाग। शाखाभृत् (पुं०) वृक्षा शाखाभेदः (पुं०) शाखाओं में अंतर। शाखाभृगः (पुं०) लंगूर, वानर, बन्दर।
गिलहरी। शाखारण्डः (पुं०) पंथ को बदलना। शाखालः (पुं०) [शाखा+ला+क] बेंत, बानीर। शाखिन् (वि०) [शाखा इनि] शाखाधारी, पंथ धारी।
टहनीमय। शाखिनि-प्रवह्न (वि०) शाखाओं पर कुठार घात।
'शाखिनि-प्रवहन्नन्ते कुठारः केवलं करे।' (सम्य० १४२) शाखिपदं (नपुं०) वृक्षस्थान। 'दृष्ट्वा विवादमिह शाखिपदेषु
नाना' (जयो० १८/६१) 'शाखिनां वृक्षाणां पदेषु स्थानेषु
यद्वा' (जयो०वृ० १८/६१) शाखिशाखा (स्त्री०) वृक्ष की शाखा। (दयो० ११२) शाखोटः (पुं०) [शाख+ओटन] एक वृक्ष विशेष। शाखोटकः (पुं०) एक वृक्ष विशेष। शाङ्करः (पुं०) वृषभ, बैल। शाङ्करिः (पुं०) [शङ्कर+इञ्] कार्तिकेय, गणेश।
अग्नि । शङ्खिकः (पुं०) [शङ्ख+ठक्] शंखकार। शाटकः (पुं०) [शट्+कन्+घञ्] अधोवस्त्र। शाटकं (नपुं०) [शट+कन्+ल्युट्] साड़ी, वस्त्र, कपड़ा। (सुद०
४/३१) शाटिका (स्त्री०) साड़ी। शाटी (स्त्री०) साड़ी। (सुद० ४/३१) (समु०५/१८)
दुकूल, दुपट्टा। (जयो०१३/५६) बुर्का, आवरणवस्त्र। (जयो०१५/२७) कापीन वापी सरसा सुवृत्ता, मुद्रेव शाटीव
गुणैकसत्ता। (सुद २/६) शाटी (वि.) शर्मसम्पन्न, वधक:। (जयो० ३/३९) शाठ्य (वि०) [शठ+ष्यञ्] बेईमानी, छल, कपट, चालाकी,
जालसाजी। ०धूर्तता।
शारिला (जयो०११) 'शारिखपादमिह शाति
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शाठ्यकर्म
१०६०
शाद्वलावलि
शाठ्यकर्म (वि०) छलकर्म वाला। शाठ्यगत (वि०) कपट को प्राप्त हुआ। शाठ्यभावः (पुं०) धूर्तता का भाव। शाड्वलः (पुं०) हरित घास, दुर्वांकुर। (जयो० ३/४७) शाढक (वि०) सम्यङ् निगूढ, अच्छी तरह से आच्छादित।
(जयो० १७/१७) शाण (वि०) [शणेन निर्वृत्तम्+अण] सन से निर्मित, पटसन
से बना हुआ। शाणः (पुं०) कसौटी, सोने परखने का पत्थर। (जयो०
१०/२८) (सुद० १०२) ०आरा। •तोल।
०शस्त्रोत्तजन पाषाण। (जयो० २/४१) शाणं (नपुं०) मोटा कपड़ा।
द्योतन (वीरो० २१/१४) छुरी। (समु० १/१) शाणाजीवः (पुं०) वस्त्रनिर्माता, सिकलीगर। शाणिः (स्त्री०) [शण+इण] सन का पादप, पटुआ। शाणित (भू०क०कृ०) [शण+णिच्+क्त] सान पर रक्खा
हुआ, पीसा हुआ। शाणी (स्त्री०) [शण+ङीप] कसौटी, सान।
०आरा। ०सम वस्त्र। चिथड़ा।
०छोटा पर्दा। शाणीरं (नपुं०) [शण+ईरण्] शोण नदी का तट, शोण नदी
स्थल। शाणोपलः (नपुं०) उत्तेजक पाषाण। (जयो० २४/१११)
घर्षणपाषाण। (जयो० १५/९२) चकमक पत्थर, अग्नि
उत्पन्न करने वाला पत्थर। शाण्डिल्यः (पुं०) [शण्डिलायब] विधिशास्त्र निर्माता। * एक
ब्राह्मण, शाण्डिल्य ऋषि। बिल्ववृक्ष। शाण्डिल्य-पारा-शरिका द्वयस्य पुत्रोऽभवं स्थावर नामशस्य (वीरो० ११/१०) शाण्डिल्यगोत्रं (नपुं०) शाण्डिल्य ऋषि की परम्परा। शाण्डिल्यजात (वि०) शाण्डिल्य गोत्र में उत्पन्न हुए। शात (भू०क०कृ०) [शो+क्त] तीक्ष्ण किया हुआ, पैना किया
०दुर्बल। सुंदर, रमणीय।
प्रसन्न। शातः (पुं०) धतूरे का पौधा। शातं (नपुं०) विनोद, आनन्द, खुशी। (समु० ३/८) शातकर (वि०) प्रसन्नता दायक। (जयो० ४/२) शातकुम्भः (पुं०) [शतकुम्भे पर्वते भवं अण] ०सोना।
०धतूरा। शातकौम्भं (नपुं०) [शतकुम्भ+अण] स्वर्ण, सोना। शातद्युतिः (स्त्री०) विनोद छटा, हर्ष भाव की झलक।
हे तात! शातधुतिरेषजातमात्रस्थितिर्वारिनिधेः प्रयातः।
(समु०३/८) शातनं (नपुं०) [शो+णिच्+ल+ल्युट] पैना करना, तीक्ष्ण
करना, तेज करना। विनाशकर्ता, नाश करने वाला। नष्ट करना।
मुझाना। शातपत्रकः (पुं०) [शतपत्र+अण+कन्] चन्द्रप्रभा, चन्द्रकिरण। शातपत्रकी (स्त्री०) चन्द्रप्रभा। शातभीरुः (स्त्री०) [शाता: दुर्बलाः पान्थाः भीरवो यस्या)
मल्लिका पुष्प। शातमान (वि०) [शतमानेन क्रीतं अण] सौ में मोल लिया हुआ। शात्रव (वि०) [शत्रु+अण्] शत्रु सम्बंधी, विरोधी, प्रतिपक्षी। शास्त्रवः (पुं०) दुश्मन, शत्रु, बैरी। शास्त्रपूरग (वि०) शत्रु से पूर्ण। (समु० ७/२७) शानवीय (वि०) [शत्रु+छ] विरोधी, वैरी, शत्रुतापूर्ण, शत्रुसम्बंधी। शादः (पुं०) [शद्+घञ्] छोटी घास।
०कर्दम, कीचड़। शादहरितः (पुं०) हरित स्थल। शाद्वल (वि०) [शादाः सन्त्यत्र वलच्] दुर्वाङ्कर (जयो० १३/५६)
पुलिन-द्वितयाग्रवर्तिनी स्फुटशाटीसमयानुवर्तिनी। सरितः परितोष संस्कृतिः समभाच्छाद्वल सार-सन्ततिः।। (जयो० १३/५४) शाद्वलानां दुर्वाङ्कुराणां सारभूता या सन्ततिः। (जयो०वृ० १३/५६)
०हरा भरा, हरित घास युक्त, चरगाह स्थल। शाद्वलः (पुं०) हरियाली, चरगाह स्थान। शाद्वलं (नपुं०) हरियाली, चरगाह प्रान्त। शाद्वलावलि (स्त्री०) बाल तृण, हरी हरी घास। हरिताङ्कर।
(जयो० ३/४७)
हुआ।
पतला, कृश।
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शान्
१०६१
शान्तिसंवितान
शान् (सक०) तेज करना, पैना करना।
शान्तिक (वि०) [शान्ति+कन्] प्रायश्चित्तात्मक, सान्त्वनाप्रद, शानः (पुं०) [शान्+अच्] कसौटी, कस वट्टिका। एक तुष्टिकर। (जयो० १२/६५) पत्थर, जिस पर सोने को परखा जाता है।
शान्तिकर (वि०) शान्ति प्रदान करने वाला, धैर्य उत्पन्न करने शानं (नपुं०) रुचिदल। (जयो०२६/२१)
वाला। (जयो० १८/९३) शानवादः (पुं०) चंदनघर्षक शिल, परिजात पर्वत।
शान्तिकवारिं (नपुं०) शान्तिधारा का जल। (जयो० १२/६५) शान्त (भू०क०कृ०) [शम्+क्त] दमन किया गया, उपशमित, | शान्तिकृत (वि०) शान्तिकारक, सान्त्वक, प्रशामक, उपशमक।
प्रशान्त, धैर्यवान्, संतुष्ट किया हुआ। (दयो० २।८) (मुनि० ३०) विरत, उपरत, विराग युक्त।
शान्तिगृहं (नपुं०) विश्रामालय, विश्रामगृह, आरामघर। मौन, चुप, निस्तब्ध, मूक।
शान्तिजा (वि०) शान्ति को उत्पन्न करने वाला। 'शानिर्जाया ०सधाया हुआ, पाला हुआ।
प्रिया यस्य स शान्तिजार्मुनिर्निर्गतः शान्तेराश्रयः' (जयो० आवेश रहित, संतुष्ट।
२७/५८) शान्तचेतस् (वि०) सौम्य, शान्तमना, धीर, संतुष्ट।
शान्तिज्योतिः (स्त्री०) प्रशान्त ज्योति। प्रियभाव, उत्तम भाव। शान्तता (वि०) सकुशलता। शकारोऽन्त यस्य त्ततां शकारान्ततां शान्तिदायक (वि०) धैर्य भाव को प्रदान करने वाला। सकुशता। (जयो० १७२२३)
शन्तिदानी (वि०) निराकरण देने वाला। शान्ततोय (वि०) स्थिर जल युक्त।
शान्तिनाथः (पुं०) सोलहवें तीर्थंकर का नाम। शान्तनवः (पुं०) [शन्तनु+अण्] शन्तनु का पुत्र भीष्म। शान्तिप्रदायी (वि०) बधाई देने वाला। आशीर्वाद देने वाला। शांतमूर्तिः (स्त्री०) प्रशान्त मूर्ति। (दयो० ११४)
शान्तिप्रभु (पुं०) शान्तिनाथ, सोहलवें तीर्थंकर। शान्तरसः (पुं०) मौन भाव, मूकभाव। प्रशान्त स्वरूप। शान्तिपरिकर्ता (वि०) शान्ति, उत्पादक। (जयो० २३/४८) शान्तला (स्त्री०) शान्तला देवी, (वीरो० १५/४७) विष्णुवर्धन | शान्तिधारा (स्त्री०) दोष परिमार्जन हेतु धारा, परिरक्षण धारा। राजा की पट्टरानी।
शान्तिभक्तिः (स्त्री०) शान्तिप्रभु की भक्ति, सोलहवें तीर्थंकर विष्णुवर्धन भूपस्य शान्तला पट्टदेविका।
शान्तिनाथ प्रभु की अर्चना। (भक्ति० २४) श्रीप्रभाचन्द्रसिद्धान्त-देव शिष्यत्वमागता।।
शान्तिभावः (पुं०) प्रसन्नभाव, धैर्यभाव। (वीरो० १५/४६)
शान्तिमयी (वि०) तृप्तिमयी, संतुष्टियुक्त। (सुद० ७४) शान्त (स्त्री०) वस्त्र नाम विशेष, दशरथ पुत्री।
शान्तिलाभः (पुं०) शान्ति प्राप्ति। (मुनि० २७) शान्तिः (स्त्री०) [शम्+क्तिन्] ०शमन। (जयो० १३/९९) शान्तिवर्मन् (पुं०) श्रीधर राजा का ज्येष्ठ भ्राता, आचार्य
० धैर्य, प्रसन्नता, संतुष्टि (सुद० ५/३) भूराजी शान्तये समन्तभद्र-'शान्तिवर्मा नाम नृपस्य ज्येष्ठ भ्राता (जयो०७० वन्दुितं पादौ लगतु विरागभृतः। (सुद०पृ०६९)
३/६७) शान्तिवर्मा नाम समन्तभद्र आचार्यस्तस्य भावस्तया' निराकुलता। (जयो० १/११०)
(जयो०वृ० ३/६७) शान्त, विराम, निवृत्ति, बुझाना। (सुद० १२६)
स्वयंवर मंडप का एक रचनाकार। (जयो०वृ० ३/६७) सान्त्वना, ढाढस।
शान्तेर्वर्म कवचं तस्य भावस्तया। (जयो० ३/६७) प्रायश्चित्त अनुष्ठान, तृप्ति।
शान्तिविधात्री (वि०) शान्ति प्रदायक, शान्ति विधायक, धर्म ०सौभाग्य, मांगलिक आनंद।
का प्रकाश करने वाले। (सुद० ९७) कमेजनित संताप का उपशम।
भूरास्तां चन्द्रमसस्तमसो हन्त्री शान्तिविधात्री। उपशान्ता
सकलजनानां निजवित्तस्य च, लुण्टाकेभ्यस्त्रात्री-यमाताऽरमहो शान्तिनाथ तीर्थंकर, सोलहवें तीर्थंकर शान्तिनाथ। (भक्ति० कलिरात्रिः। (सुद०९७)
शान्तिविवृद्धिः (स्त्री०) शान्ति की वृद्धि। (जयो० १२/१०२) चारित्र चक्रवती आचार्य शान्तिसागर। (सुद० ३७) शान्तिसंवितान (वि०) शान्तिदायिनी। (जयो० २३/५४)
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शापः
१०६२
शारदः
TI
शापः (पुं०) [शप्+घञ्] अभिशाप, दुर्वचन, शपथोक्ति।
मिथ्यावचन। दुराशीष। (वीरो० ४/१२)
आक्रोश, अवक्रोश। (जयो० २३/४५) ० पाप-'लग्नस्य वाश्रय भुजः शमने ऽपि पापम्'
(वीरो० २२/२४) शापग्रस्त (वि०) अभिशाप ग्रस्त। शापजन्य (वि०) शाप से घिरा हुआ। शापमुक्त (वि०) अभिशाप मुक्त। शापमुक्तिः (स्त्री०) अभिशाप से छुटकारा। शापमोक्षः (पुं०) शाप से मुक्ति। शापयन्त्रित (वि०) अभिशाप से नियन्त्रित किया गया। शापल (वि०) दुराशिष। (जयो० २७/२४) शापान्तः (पुं०) अभिशाप का अन्त। ०दोषाभाव। शापावसानं (नपुं०) शाप से निवृत्ति। ०दोषों की समाप्ति। । शापाश्रिय (वि०) दुराशीष। (जयो० १६/३७) शापास्त्रः (पुं०) अभिशाप रूपी अस्त्र। शापित (वि०) सुलाया हुआ। (सुद० ३/२२) शापोत्सर्गः (पुं०) आक्रोश का उच्चारण। शाप देना। शापोद्धारः (पुं०) शाप से मुक्ति। शाफरिकः (पुं०) [शफरान् हन्ति-शफर-ठक्] मछली पकड़ने
वाला, मछुआरा। शाबर (वि०) असम्भ, आदिवासी। शाबरः (पुं०) अपराध, दोष। ०पाप, दुष्कर्म, अधम भाव।। शाबरी (स्त्री०) पहाड़ी बोली, प्राकृत की एक उपशाखा। शाब्द (वि०) [शब्द+अण्] शब्द सम्बन्धी, शब्द से व्युत्पन्न।
०ध्वनिगत। मौखिक। मुखरित। शाब्दः (पुं०) वैयाकरण। शाब्दबोधः (पुं०) प्रत्यक्षीकरण, शब्द ज्ञान। शाब्दव्यञ्जना (स्त्री०) व्यंग्योक्ति। शाब्दिक (वि०) [शब्द+ठक्] मौखिक, ०शब्द सम्बंधी। ___०जबानी, वचन से कथित। (जयो० २६/८५) शाब्दिकः (पुं०) वैयाकरण। शामनः (पुं०) [शमन+अण] यम, यमराज। शामनं (नपुं०) वध, हनन, घात।
शान्ति, सुख। नियंत्रण, उपशमन। ०कर्मावरण को हटाना।
शामनी (स्त्री०) दक्षिण दिशा। शामित्रं (नपुं०) [शम् णिच्+इत्रच्] यज्ञ करना। मेघ, बादल। शामिलं (नपुं०) [शमी+ष्लञ्] भस्म, रास। शामिली (स्त्री०) नुच्, सुवा, यज्ञ की भस्म। शाम्बरी (स्त्री०) [शम्बर+अण+ङीप्] जादूगरी, बाजीगर। शाम्बविकः (पुं०) [शम्बु+ठक्] शंखों का व्यापारी। शाम्बुक: (पुं०) घोंघा, शंख, द्वीन्द्रिय जल में उत्पन्न होने
वाला जीव। शाम्भव (वि०) [शम्भु+अण] शिव से सम्बन्धित। शाम्भवः (पुं०) शिव का उपासक।
०कपूर।
शिव पुत्र। शाम्भवं (पुं०) देवदारु का पेड़। शाम्यता (वि०) शान्त पना, धैर्यता। (समु० ३/३६) शायकः (पुं०) [शो+ण्वुल] बाण। तीक्ष्ण तीर।
तलवार। शायिनी (वि०) शयन की-सोने वाली। सोने के पश्चात्
सोती हुई। विश्वैकभानोरुत सप्तशायिनी। (जयो० २२।८८) शार् (सक०) कृश करना, क्षीण करना।
०पतला करना, दुर्बल करना। शार (वि०) चितकबरा, धब्बेदार, चित्तीदार, शवल। शारः (पुं०) पवन, वायु।
रंग-बिरंगा। ०शंतरज का मोहरा। शारङ्गः (पुं०) [शारं अङ्गं यस्य] मोर, मयूर। ०भ्रमर, भौंरा।
०हरिण। ०हस्ति, हाथी।
चातक पक्षी। शारङ्गी (स्त्री०) [शारङ्ग ङीष्] एक वाद्य विशेष। शारद (वि०) [शरदि भवं-अण] शरत्कालीन, पतझड़ से
सम्बंधित। शरद ऋतु से सम्बंधित। (वीरो० २१/१४) विनीत, शर्मीला।
नया, नूतन। शारदः (पुं०) वर्ष। ०संवत्सर।
०नूतन। ०शरत्कालीन। शरदोऽसौ शारदस्तद्वत् अस्ति यः किलानेकधार-बहुप्रकारेणान्यस्यार्थं (जयो० १९/२९) ०ते शारदा गन्ध वहा: सुवाहा। (वीरो० २१/१३)
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शारदा
१०६३
शालसारः
०लोबिया, उड़द।
शार्दूलविक्रीडितं (नपुं०) चीते की पीड़ा, शाशूलविक्रीडित ०बकुल वृक्षा
छन्द ०एकोनविंशत्यक्षर छन्द। ०'सूर्याश्वैर्मसजस्तताः समुरवः मौलसिरी।
शार्दूलविक्रीडितम्' शारदा (स्त्री०) सरस्वती, वाग्देवी, भारती। (जयो० १०/१००) | 555 (मगण), ।।s (सगण), ।। (जगण) ।।5 (सगण)
(सुद० ३/३१) वाणी (जयो०वृ० २/४१) हे शारदे! ऽऽ।ऽऽ। (तगण-तगण) और गुरु वर्ण जिसमें हों, उसे
शारदवत्तवायः समस्तु मेघस्य विनाशनाय। (जयो० १९/२९) शार्दूलविक्राडित छन्द कहते हैं। जयोदय एवं वीरोदय के शारदी (स्त्री०) कार्तिकमास की पूर्णिमा।
सर्गान्त में प्रायः इसी छन्द का प्रयोग हुआ है। शारदीय (वि०) आश्विनमास सम्बंधी। (वीरो० २१/११) 'श्रीमान् श्रेष्ठिचतुर्भुजः स सुषुवे भूरामरोपह्वयम्', पतझड़ सम्बंधी, शरद् ऋतु से सम्बन्ध रखने वाली।
वाणीभूषणवर्णिनं घृतवरी देवी च यं धीचयम्। शारिः (पुं०) [श+इञ्] शतरंज कर मोहरा, गोट।
तत्काव्यं लसतात् स्वयंविधिश्रीलोचनाया जयराजस्याभ्युदयं पांसा।
दधद् वसुट्टगित्याख्यं च सर्गं जयत्।। शारिः (स्त्री०) सारिका, मैना।
०वीरोदय काव्य में भी इसी पद्धति को अपनाया है। ०हस्ति झूल।
प्रारम्भिक दो चरण सभी काव्यों में समान हैं परन्तु शारिपट्टः (पुं०) शतरंज की बिछात।
अन्तिम दो चरण काव्यसूचक एवं सर्ग समाप्ति से युक्त हैं। शारिका (स्त्री०) सारिका, मैना।
शार्मण (वि०) सुखदायक। (जयो० २६/४४) गोटी, शतरंज का मोहरा।
शार्वर (वि०) रात्रि सम्बन्धी, रात से सम्बन्धित। (जयो० शारी (स्त्री०) मैना, सारिका।
१३/१०३) (समु०७/२७) शारीर (वि.) [शरीर+अण] शारीरिक, शरीर से सम्बन्धित। उपद्रवी, प्राणहर। (समु० ९/१)
तिमिर, अन्धकार। शरीरधारी, मूर्तिमान।
शार्वरी (स्त्री०) रजनी, रात्रि। (जयो० १८/१८) शारीरः (पुं०) शरीरधारी, जीव युक्त आत्मा।
शाल् (स्त्री०) प्रशंसा करना, चमकना, पूरित होना। ०सांड।
शाल: (पुं०) [शल्+घञ्] शालतरु, शालवृक्ष। एक औषधि विशेष।
०धान्य। (सुद० १/२५) शारीरिक (वि०) [शरीर+कन+अण] शरीर से सम्बन्धित। ०बाड़ा। दैहिक, भौतिक। (जयो० १२/९९)
एक मछली। शारुक (वि०) अनिष्टकर, उपद्रवी।
प्राकार, परकोटा। (जयो० ११/२३) शार्ककः (पुं०) [शर्क अण्+कन्] शक्कर, खांड। शालग्रामः (पुं०) शिवमूर्ति, प्रस्तर खण्ड। शार्करः (पुं०) शक्कर, चीनी। ०पपड़ी, मलाई कंकरीला। शालगिरि (पुं०) एक पर्वत। (जयो० १०/१०८)
शालजः (पुं०) सालवृक्ष की राव/गोंद। शार्कर (वि०) शक्कर से सम्बंधित।
शालनिर्यासः (पुं०) सालवृक्ष की राव/गोंद। शाङ्क (वि०) [शृङ्ग+अण्] सींग से निर्मित।
शालभञ्जिका (स्त्री०) पुत्तलिका, पुतली गुड़िया। शाङ्ग:/शार्ङ्ग (पुं०/नपुं०) धनुष।
___प्रतिमा, मूर्ति, बुत, पुतला। शार्ङ्गधरः (पुं०) धनुषधारक विष्णु।
शालभञ्जी (स्त्री०) पुत्तलिका, पुतली, गुड़िया, बुत, पुतला। शान् ि (पुं०) [शाङ्ग इनि] धनुर्धारी, तीरंदाज। विष्णु। शालवः (पुं०) [शाल+वल्+ड] लोध्र तरु। शार्दूलः (पुं०) [शृ+उलल्] व्याघ्र, तेदूंआ, चीता। प्रमुख, शालवेष्टः (पुं०) शाल से निकली गोंद। प्रधान, श्रेष्ठ।
शालशृङ्गः (पुं०) वप्रप्रांत, परकोटा। (वीरो० २/२७) ०पूज्य।
शालसारः (पुं०) शालवृक्षा शार्दूलवाः (पुं०) श्रेष्ठ व्यक्ति। (जयो० १७/१०)
०हींग।
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शाला
१०६४
शास्
शाला (स्त्री०) [शाल+अच्+टाप्] ०कक्ष, स्थल, बैठक,
प्रकोष्ठ। (सुद० २/९) ०मण्डपशाला। (जयो० ३/७७)
घर, आवास, आलय, निवास। ०वृक्ष की शाखा, वृक्ष का तना। शालाकः (पुं०) पाणिनि। शालाञ्जिरः (पुं०) मिट्टी का सकोरा। शालामृगः (पुं०) गीदड़। शालावृकः (पुं०) कुत्ता, श्वान, कुक्कर।
भेड़िया, हरिण। बिल्ली।
०वानर, बंदर। शालाकिन् (पुं०) [शालाक+इन्] बींधारी, भालायुक्त व्यक्ति।
गश्ती, पहरेदार।
०नाई। शालातुरीयः (पुं०) [शालातुर+छ] पाणिनि। शालारं (नपुं०) [शाला+स्+अण] सीढ़ी, जीना, पायदान।
पिंजरा। सोपान। शालिः (स्त्री०) [शाल+णिनि] धान्य, एक प्रकार का चावल। शालि-ओदन: (पुं०) शालिधान्य के चावल की भात। शालि ओदनं (नपुं०) देखो ऊपर। शालिकः (पुं०) शालीधान्य। (वीरो० २१/१०) शालिकः (पु०) [शालि+के+क] जुलाह, तन्तुकार। ०मार्गकर। शुक्ला
कृषक, किसान। (जयो० २/३१) (जयो० ४/५७) शालिगोपी (स्त्री०) शालिरक्षिका, धान्यखेत रक्षिका। शालिचूर्ण:/शालिचूर्ण (पुं०/नपुं०) चावल का आटा। शालिन् (वि०) सहित, युक्त, सम्पन्न।
चमकीला, चमकदार। शालिनी (स्त्री०) [शालिन् ङीप्] गृहिणी, मालकिन।
रमणीया। (जयो० १३/५२) ०एक छन्द का नाम, इस छन्द में ग्यारह वर्ण होते
हैं-555, 551, 551, 55 शालिपिष्टं (नपुं०) स्फटिक। शालिभवनं (नपुं०) धान्य खेत। धान्यागार शालिमालः (पुं०) धान्य समूह, धान्य की क्यारियां। (वीरो०
२१/१०)
शालिवाहनः (पुं०) एक प्रसिद्ध राजा। शालिहोत्रिन् (पुं०) अश्व, घोड़ा। शालीन (वि०) [शाला+खञ्] लज्जालु, विनीत, विनम्र, नत।
शालीनः (पुं०) गृहस्था | शालः (पुं०) [शाल+उण] मेंढक, दर्दुर।
शालु (नपुं०) कुमुदिनी की जड़। शालुकं (पुं०) कुमुदिनी की जड़, जायफल। शालुकः (पुं०) मेंढक, दर्दुश। शालूर (पुं०) [शाल्+ऊर्] मेंढक। शालेयं (नपुं०) [शालि+ढक्] धान्य क्षेत्र। शालोत्तरीयः (पुं०) पाणिनि। शाल्मलः (पुं०) सेमल तरु। शाल्मलिः (स्त्री०) सेमलतरु। (भक्ति० ३७) शाल्मलिस्थः (पुं०) गरुड़। शाल्मली (स्त्री०) सेमल तरु। नरक की भूमि। शाल्वः (पुं०) [शाल्+व] एक देश। शाव (वि०) [शव+अण] शव सम्बन्धी। मृत्यु से उत्पन्न। शावः (पुं०) शावक, पुत्र, जानवर का बच्चा। (जयो०६/४५) शावकः (पुं०) शावक, पुत्र बच्चा। जानवर का छोटा बच्चा। शाश्वत: (पुं०) महादेव, शिव।
सूर्य। शाश्वत (वि०) [शश्वद् भवः अण] निरन्तर, सदा ही।
नित्य, ध्रुव, चिरस्थायी। शाश्वतं (अव्य०) नित्य, निरन्तर. सदैव, सदा के लिए, फिर
से। शाश्वतबुद्धिः (स्त्री०) नित्यबुद्धि। (जयोवृ० १/४२) शाश्वतस्थितिः (स्त्री०) आनन्त्यदशा, नित्यदशा। (भक्ति०
पृ० २) प्राग् स्थिति। शाश्वतिक (वि०) [शाश्वत+ठक्] नित्य, स्थायी. सतत्,
__ * सनातन। शाश्वती (स्त्री०) [शाश्वत+ङीप्] पृथ्वी। शाष्कुल (वि०) मांस भक्षी। शाष्कुलिकं (नपुं०) [शष्कुली+ठक्] पूरियों का ढेर। शास् (सक०) पढ़ाना, लिखाना। (जयो० २/४२) ०अध्यापन
करना, शिक्षण प्रदान करना, प्रशिक्षित करना, सीख देना।
शासन करना, अनुशासित करना, नियंत्रित रखना। वारितं तु परचक्रमु द्यत:, साम-दाम-परिहार भेदतः। प्राभवाभिबलमन्त्रशक्तिमान् शास्ति सम्यगवनिं पुमानिमाम्।
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शासक
१०६५
शास्त्रदृष्ट
(जयो० २/१२१)
आदेशित। राज्य करना, आज्ञा देना, आदेश देना।
०दण्डित। शासक (वि०) शासन करने वाला, अनुशासक।
सम्बोधित। (जयो०वृ० १६/७५) शासकः (पुं०) नृपति, राजा। (जयो०७० २/११८)
शासित (वि०) [शासृ+तृच्] शासक, प्रशासक, राज्य करने शासनं (नपुं०) [शास्+ल्युट्] आज्ञापन, आज्ञा देना। (जयो०
वाला। ५/३८)
शास्ता (वि०) स्पष्टवक्ता। (जयो० १२/५) ०अनुशासन, प्रशासन, नियंत्रण।
शासक। (वीरो० २२/११) आज्ञा, आदेश, आग्रह, निवेदन। (दयो० ८१)
०प्रतिपालक। (वीरो० ३/१) ०प्रभाव। (जयो० ९/१०)
शास्तार (वि०) शास्त्रप्रणेतार, शास्त्रकार। (जयो० १७/९२) ०समय, प्रमाण। (जयो० १५/५९)
शास्ति (वि०) अल्पज्ञानी। (सुद० १/१) विधि, नियम-अधिनियम, राजाज्ञा। (जयो० २/१३९) | शास्तृ (वि०) अध्यापक, शिक्षक, शासक। नृप, राजा। 'प्राप्त शासनमगादगारिवाडात्म'
पिता, आचार्य, जैन श्रमण। ०आग्रह, प्रभुत्व। (सुद० ४/४४)
शास्त्रं (नपुं०) आप्त द्वारा उपदिष्ट वचन। शिक्षण, अध्यापन, अनुशासन। (जयो० ३/३३) हितकर प्रवचन। (सम्य०९३) आत्मसीख-विश्वस्य रक्षा प्रभवेदितीयद्वीरस्य सच्छासनम
आप्तोपज्ञमनुल्लंघ्यममदृष्टेष्ट विरुद्धवाक्। द्वितीयम्' समाश्रयन्तीह धरातलेऽसून्न कोऽपि भूयादसुखीति तत्त्वोपदेशकृत्सार्वं शास्त्रं कापथघट्टनम्।। तेषु। (वीरो० १६/१)
०समीचीन वाक्यसमूह रूप शास्त्र शासनकृत् (वि०) शासन करने वाला, शासक। (समु० २/११) शास्त्रमर्थयतु सम्पदास्पदं शासन-ख्यापक (वि०) समय प्रख्यापक, प्रमाण विवेचक। यत्प्रसङ्गजनितार्थदं पदम्।। (जयो० २/४२) (जयो०वृ० ५/५९)
[शिष्यतेऽनेन-शास्+ष्ट्रन्] शासनगतिः (स्त्री०) शिक्षण गति।
ग्रन्थ, सिद्धांत, आगम, वेद। शासनचारिन् (वि०) आज्ञा पालन करने वाला।
०वाङ्मय, श्रुत। (जयो०१० २/८१) शासनदायक (वि०) प्रभुत्व दायक।
धार्मिक ग्रन्थ, धर्मशास्त्र पुराणशास्त्र, नीतिशास्त्र आदि। शासनपत्रं (नपुं०) आज्ञापत्र, हुक्मनामा। (वीरो० १२/२४) शास्त्रकारः (पुं०) रचनाकार, शास्त्र प्रणेता। शासनप्रणाली (स्त्री०) अनुशासन पद्धति। शासनधारा। शास्त्रकृत् (पुं०) रचनाकार, शास्त्रप्रणेता, ग्रंथ रचयिता। (जयोवृ० १/४७)
शास्त्रकोविद (वि०) सिद्धांत निपुण, शास्त्रप्रवीण, शास्त्र शासनमन्त्रिन् (पुं०) आज्ञाकारी सचिव।
निष्णात। शासनविधि (स्त्री०) आज्ञाविधि, नियमविधान। (वीरो० १६/२७) शास्त्रगण्डः (पुं०) शास्त्र प्रदर्शक व्यक्ति, शास्त्र से अनभिज्ञ शासनशाला (स्त्री०) अध्यापन शाला, शिक्षण स्थल। (दयो० व्यक्ति। ११०)
शास्त्रचक्षुस् (नपुं०) व्याकरण शास्त्र। शासनहारिन् (पुं०) राजदूत, संदेशवाहक।
शास्त्रज्ञ (वि०) शास्त्रवेत्ता, आगम रहस्य ज्ञाता। विज्ञ, विद्वान्। शासनागारः (पुं०) शासनशाला।
शास्त्रज्ञानं (नपुं०) सिद्धांत बोध। शासनातीतिकृत (वि०) अवज्ञाकारिन्, आज्ञा नहीं मानने | शास्त्रज्ञान युक्तः (पुं०) ऋषिवर। (जयो०७० २/९६) वाला। (जयो० १६/५)
शास्त्रतत्त्वं (नपुं०) सिद्धांत विचार, शास्त्र रहस्य, आगमज्ञान शासनाधिपति (पुं०) नृपति, राजा।
की जानकारी। शासनाधीनः (पुं०) प्रशासन के आधीन।
शास्त्रदर्शिन् (वि०) सिद्धांत दृष्टा, आगम दर्शक। शासनाश्रयः (पुं०) शिक्षण का सहारा।
| शास्त्रदानं (नपुं०) ज्ञानदान, चार दानों में एक दान शास्त्रदान। शासित (भू०क०कृ०) [शास्+क्त] अनुशासित, आज्ञापित, | शास्त्रदृष्ट (वि०) सिद्धांत का अवलोकन कर्ता।
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शास्त्रदृष्टिः
१०६६
शिक्षापदं
शास्त्रदृष्टिः (स्त्री०) आगम ज्ञान दृष्टि।
०सावधान करना। शास्त्रपरीक्षा (स्त्री०) आगम परीक्षा।
तीक्ष्ण करना। शास्त्रप्रमाणं (नपुं०) आगम सम्मत, आगम प्रमाण। शिः (पुं०) [शि+क्विप] सौम्यता, शान्ति, धैर्य, स्वस्थता। शास्त्रभेदः (पुं०) शास्त्र के भेद शास्त्रं द्विविध-संहिता सूक्तश्च। शिव। विस्तार से देखें-जयोदय महाकाव्य। (२/४१-६७)
कल्याण। शास्त्रयोनिः (स्त्री०) आगम का मूल उद्गम स्थल। शिंशपः (पुं०) [शिवं पाति-शिव+पा+क] शीशमतरु। शास्त्र वार्तासमुच्चयं (नपुं०) एक न्याय ग्रंथ।
०अशोक वृक्षा शास्त्रविद् (वि०) शास्त्रज्ञ, आगमवेत्ता। (वीरो० १७/२४) शिंशपा (स्त्री०) शिप्रा नदी के किनारे स्थित गांव। (दयो०१०) शास्त्रविधानं (नपुं०) शास्त्रविधि, सिद्धांत नियम।
शिक्कु (वि०) [सिच्+कु] सुस्त, आलस्य, उदासीन, प्रमादी। शास्त्रविधिः (स्त्री०) शास्त्रीय नियम, धार्मिक नीति। शिक्थं (नपुं०) [सिच्+थक्] मोम। शास्त्रविप्रतिषेधः (पुं०) शास्त्र विरोध।
शिक्यं (नपुं०) छींका, झोला। शास्त्रविरोधः (पुं०) विरुद्ध आचरण।
शिक्षु (सक०) सीखना, अध्ययन करना, अभ्यास करना, ज्ञान शास्त्रविमुख (वि०) सिद्धांत विमुख।
__लेना। पढ़ाना। (जयो०० २४२) शास्त्रविरुद्ध (वि०) सिद्धांत के विपरीत कथन करने वाला। शिक्षकः (पुं०) शिक्षक, अध्यापक, गुरु। (जयो०वृ० ११/२६) शास्त्रव्युत्पत्तिः (स्त्री०) शास्त्र के विषय की व्याख्या, आगम शिक्षक (वि०) [शिक्ष+णिच+ण्वल] सीख देने वाला, ज्ञान रहस्य का शब्दशः स्पष्टीकरण।
कराने वाला। शास्त्रशिल्पिन् (पुं०) कलामर्मज्ञ।
शिक्षका (स्त्री०) अध्यापिका, गुरुणी। विशेषज्ञा। शास्त्रसारज्ञ (वि०) आगम रहस्य ज्ञाता। श्रुत सार को जानने शिक्षणं (नपुं०) [शिक्ष+ल्युट्] ०अधिगम, ज्ञान, बोध। वाला। (जयो०३०२/८१)
___०अध्यापन, सिखाना, पढ़ाना। (जयो० २/१३६) शास्त्रातिक्रमः (पुं) सिद्धान्त उल्लंघन, धर्मतत्त्व का अतिक्रमण। | शिक्षणकृता (स्त्री०) सरस्वती, वाग्देवी। शिक्षण करोतीति शास्त्रानुष्ठानं (नपुं०) शास्त्रनियम का पालन।
स्त्री, शिक्षण कन्तया वाग्देव्या। (जयो० ५/९४) प्रेमपात्री शास्त्रानुमोदित (वि०) शास्त्र की अनुमोदना करने वाला। | शिक्षणीय (वि०) [शिक्ष अनीयर] ०सीखाने योग्य, अध्यापन, (जयो०७० ३/६६)
कराने योग्य। ज्ञानार्जन योग्य। (जयो० २/१३६) शास्त्राभिज्ञ (वि०) शास्त्रों में निपुण, शास्त्रप्रवीण। ०श्रुतसार शिक्षमाणः (पुं०) [शिक्ष+शानच्] शिष्य, विद्यार्थी, में पारंगत।
* विद्याभिलाषि। शास्त्राम्बुनिधिः (स्त्री०) शास्त्र रूपी समुद्र। (दयो० १/५) शिक्षा (स्त्री०) [शिक्ष+ भाव+अ+टाप्] ०अध्ययन, अधिगम, शास्त्रार्थः (पुं०) आगम ज्ञान का विवेचन।'
ज्ञानाभ्यास। (जयो० ५/४०) शास्त्रिन् (पुं०) [शास्त्र+इनि] शास्त्र कुशल, शास्त्र प्रवीण। अध्यापन, शिक्षण, प्रशिक्षण। शास्त्रिन् (पुं०) शास्त्री, शास्त्रविशेष व्यक्ति। विद्वान्।
सीख, विनय, परीक्षा (सुद० ) शास्त्रीय (वि०) [शास्त्रेण विहितः छ] आगम में निरूपित, शिक्षाकरः (पुं०) शिक्षक, अध्यापक। वेदनिहित शास्त्रानुमोदित। ०श्रुत प्रतिपादित।
शिक्षागृहं (नपुं०) शिक्षा केन्द्र। विद्यालय, शिक्षण संस्थान। शास्य (वि०) [शास्+ण्यत्] उपदेश देने योग्य, शासित किये शिक्षागेहं देखो ऊपर। जाने योग्या
शिक्षाज्ञानकेन्द्रः (पुं०) शिक्षण संस्थान। ०दण्डनीय।
शिक्षादानं (नपुं०) ज्ञानदान। शि (सक०) तेज करना।
शिक्षादायक (वि०) शिक्षा देने योग्य। (जयो०० ७/९६) कृश करना, क्षीण करना।
शिक्षाधनं (नपुं०) विद्याधन। पतला करना।
शिक्षानिर्देशः (पुं०) शिक्षा की दिशा। ० उत्तेजित करना।
शिक्षापदं (नपुं०) शिक्षा स्थान।
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शिक्षाभेदः
शिक्षाभेदः (पुं०) विद्या के प्रकार । शिक्षालय : (पुं० ) विद्यालय ! शिक्षाशक्तिः (स्त्री०) विद्या प्रवीणता।
शिक्षित (भू०क०कु० ) [ शिक्ष+क्त] अधिगत, अहीत।
० अध्यापित सिखाया गया।
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• प्रशिक्षित, अनुशीलन ।
* प्रवीण, निपुण, योग्य ।
० विनीत, लज्जायुक्त।
शिखण्ड (पुं०) [शिखाममति अभ्ड] मुण्डन, ०काकपक्ष ० मयूर पंख ।
शिखण्डकः (पुं० ) [ शिखण्ड + इव+कन्] चोटी मुण्डन के समय छोटी शिखा । बलगुच्छा, शेखर, शेखर, चूडा। ० मयूर पुंच्छ ।
शिखण्डिन: (पुं० ) [ शिखण्डिन् +कै+क: ] मुर्गा | शिखण्डिन् (वि० ) [ शिखण्डोऽस्त्यस्य इनि] शिखाधारी, चोटी धारी ।
शिखण्डिमंडलं (नपुं०) मयूर समूह। (जयो० २४/२२) शिखिण्डन् (पुं०) मयूर, मोर। ०मुर्गा, ०बाण। (जयो०वृ०३/११) ० चमेली, ०विष्णु।
१०६७
शिखण्डिबाल (पुं०) मयूर बालक शिखिण्डनां केकिनां बालाश्चचुक्ञ। (जयो० ८/८ )
शिखण्डिवंशः (स्त्री०) सरस्वती शिखण्डिना मयूराणां वेशो दया सा सरस्वती। (जयो० १९ / २६ )
शिखण्डिनी (स्त्री० ) [ शिखण्डिन् + ङीप् ] मयूरी, मोरनी। ० द्रुपद पुत्री।
शिरवत्व (वि०) शिखर युक्त (सुद० १ / १६ )
शिखर: (पुं०)
शिखरं (नपुं०) चोटी, कूट, पर्वत का उन्नत भाग। (सुद०१ / ३६ ) ० सम्मेदशिखर जी, जो बिहार के गिरीडीह क्षेत्र में है। जैनों का प्रसिद्ध तीर्थ स्थल ।
० कलगी, चूडा।
शिखरत (वि०) उपरिष्ट। (जयो० १ / ९८ )
शिखराग्रः (पुं०) शिखर का उन्नत भाग। ( २/३४) शिखरावलि (स्त्री०) शिखर समूह (चीरो० २/५० ) शिखरिणी (स्त्री० ) [ शिखरिन् + ङीप् ] महिलारत्न ।
० श्रीखण्ड । मल्लिका, मालती। (जयो० २१ / ३५ ) स्त्रियां शिखरिणो वृत्तभेदेतकुभभेदेयोः स्त्रीरत्ने मल्लिकायां च रोमावल्यामपि स्मृता । इति विश्व०
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शिखावल:
० एक छन्द विशेष यह सत्तरह अक्षरों वाला छन्द हैरसै रुद्रैश्छिन्ना यमनसभला गः शिखरिणी' ( वृत्तरत्नाकर- ३ / ९० )
155 (यगण ) 555 (मगण) II (नगण) 115 (सगण), 511 (भगण) और (1) एक लघु और एक अन्त्य (5) गुरु युक्त शिखरिणी छन्द है ।
अभूद् दारासारेष्वखिलमपि वृत्तं त्वनुवदन्, समालीनः सम्यक् सपदि जनतानन्द जनकः । तदेतच्छ्रुत्वाऽसौ विघटितमनोमोहमचिरात्, सुरश्चिन्तांचक्रे मनसि कुलटाया कुटितताम् ।। (जयो० २ / १४३)
शिखरिन् (वि० ) [ शिखरमस्त्यस्य इनि] ०चोटी, ०वाला, ० शिखाधारी ।
नुकीला, तीक्ष्ण, ०शिखरयुक्त । शिखरिन् (पुं०) पर्वत, पहाड़। ० पहाड़ी दुर्ग, वृक्ष, ०टिटिहरी ।
शिखरिवरः (पुं०) पर्वतराज। (जयो० २ / १५४ ) ० हिमगिरि । शिखा ( स्त्री० ) [ शि+ खक् ] चोटी, शिखर । ० शाखा (जयो० १३/६८) शीर्षबिन्दु
०धार, नोक, तीक्ष्ण भाग ।
० चूलिका । (वीरो० २ / ११)
० अग्नि, ज्वाला ।
० प्रकाश किरण।
शिखाघर : (पुं०) मयूर पंख । शिखाजं ( नपुं०) मयूर पंख । शिखाधार: (पुं०) मोर, मयूर
।
शिखान्त (वि०) चोटी पर्यन्त, शिखर तक। (जयो० ११ / ९० ) शिखामणिः (स्त्री०) चूडामणि ।
शिखामूलं (नपुं०) गाजर। मूली । शिखालु (स्त्री०) मोर की कलगी।
शिखालुता (वि०) चूडायुक्त, चोटीधारी, सिक्ख । (जयो० २८/२९)
शिखावत् (वि०) [शिखा+मतुप् ] कलगीदार |
० ज्वाला युक्त।
शिखावर : (पुं०) कटहल का पेड़ ।
शिखावल: (पुं०) मयूर, मोर, मयूर गण (वीरो० २१ / ११ ) समेति निष्ठां सरसे शिखावलः साद्रनगालवाले (वीरो० १२/१२)
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शिखावृक्षः
१०६८
शिथिल
शिखावृक्षः (पुं०) दीपाधार, दीवट।
शिक्षु (सक०) टनटनाना, झनझनाना। शिखावृद्धिः (स्त्री०) बढ़ने वाला ब्याज।
०खड़खड़ाना। शिखावृत (वि०) शिखाभिर्वृक्षशाखाभिर्वृत-शाखाओं से | शिञ्जः (पुं०) [शिञ्ज+घञ्] टंकार, झनझनाहट।
आच्छादित वृक्षा (जयो०१३/६८) ०शाखा युक्त तरु। | शिञ्जञ्जिका (स्त्री०) कटिबंध, करधनी, कंदौरा। शिखिन् (वि०) [शिखा अस्त्यस्य इनि] शिखाधारी, चोटी | शिञ्जा (स्त्री०) [शिञ्ज+अ+टाप्] टंका, झंकार। युक्त, कलगीदार।
____०धनुष की डोरी। घमण्डी।
शिञ्जित (भू०क०कृ०) [शिञ्ज+क्त] टंकृत, झंकृत, ध्वन शिखिन् (पुं०) अग्नि, आग।
युक्त। मुर्गा।
शिञ्जिनी (स्त्री०) [शिञ्ज+णिनि+ङीप्] धनुष की डोरी। ०बाण। मयूर। (जयो० १२/५१)
____झांवर, नुपूर। ०वृक्ष, ०दीपक।
शिट् (सक०) घृणा करना, तिरस्कार करना, तुच्छ समझना। सांडा०अश्व।
शिडी (स्त्री०) उन्मत्त-शिडीति देश भाषायाम् (जयो०वृ० ०पर्वत। ब्राह्मण।
८/१५) साधु, केतु, चित्रक वृक्षा
शित (भू०क०कृ०) [शो+क्त] तेज किया हुआ, पैना किया शिखिकण्ठः (पुं०) तूतिया, नीला थोथा।
हुआ। शिखिग्रीषं (नपुं०) नीला थोथा।
०पतला, कृश, दुबला। शिखिजनः (पुं०) मयूरवर्ग। हिन्दू लोग। (जयो० ४/६७) कलुषित। (जयो० ९/६६) शिखिध्वजः (पुं०) कार्तिकेय। ०धुआं।
०क्षीण, बलहीन, दुर्बल। शिखिपत्रं (नपुं०) मोरपंख। (दयो० २५) (जयो० १३/४९) ०श्यामल। (जयो० ७/१०४) शिखिपुच्छं (नपुं०) ०दुम, मोर पुंच्छ।
शितद् (स्त्री०) सतलज नदी। शिखियूपः (पुं०) बारह सिंगा।
शिताग्रः (पुं०) कंटक, कांटा। शिखिवर्धकः (पुं०) लौकी-गोल लोकी।
शिति (स्त्री०) भुर्जवृक्षा शिखिवाहनः (पुं०) कार्तिकेय।
शिति (वि०) [शि+क्तिच्] ०श्वेत, शुभ्र, धवल। शिखिशिखा (स्त्री०) ज्वाला। अग्नि लौ। ०दीपक लौ। शितिकण्डः (पुं०) शिव, शंकर। ०मयूरकलगी।
०जल कुक्कुट। शिग्रु (स्त्री०) सागभाजी।
शितिकृत (वि०) श्यामलता। (जयो०१५/११) ०सहजन तरु।
शितिछदः (पुं०) हंसा शिव (सक०) जाना, पहुंचना।
शितिपक्षः (पुं०) हंस। प्राप्त होना।
शितिरत्नं (नपुं०) नीलम। शिङ्घ (सक०) सूंघना, गन्ध लेना।
शितिवायसः (पुं०) बलराम। शिवाण: (पुं०) [शिव+आणक] पपड़ी, झाग।
शिथिल (वि०) [श्लथ् किलच्] धीमा, ढीला। ०बलगम, कफ।
सुस्त, विश्रान्त। शिकणं (नपुं०) नाक का मैल।
खुला हुआ, मुक्त। ०लोहे की जंग।
निढाल, निश्शक्त, असमर्थ। ०शीशे का बर्तन।
दुर्बल, कृश, क्षीण, बलहीन। शिडाणकः (पुं०) [शिधु+अणक] नासिकामल, सिणक। पिलपिला, ढीलाढाला। शिवाणकं (नपुं०) कफ, बलगम।
मुाया हुआ। शिङ्ग (वि०) उन्मत्त, प्रोन्मत्त। (जयो० ८/१५)
निष्क्रिय, निरर्थक, व्यर्थ।
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शिथिलं
१०६९
शिलाजितः
शिथिलं (नपुं०) सुस्ती, आलस्य, उदासीनता।
शिरगृहं (नपुं०) चन्द्रशाला, अट्टालिका। शिथिलता, ढीलापन।
शिरग्रहः (पुं०) सिरदर्द, सिर पीड़ा, शिरो वेदना। शिथिलत्व (वि०) शिथिलता, ढीलापन। (जयो० १७/६२) शिरश्चालनं (नपुं०) अग्रभाग चालन। (जयो० १/८२, ३/६१) शिथिलित (वि०) [शिथिल+इतच] ढीला किया हुआ। शिरश्प्रदेशः (पुं०) मुख्य भाग। (समु०३/१५) ०उन्नत कूट, ०विश्रान्त, खोला हुआ।
उन्नत शिखर भाग। प्रविलीन।
शिरसिजः (पुं०) सिर के बाल। शिनिः (पुं०) [शी+निः] योद्धा।
शिरखी (वि०) शिरोमणि (समु० २/१३) शिपिः (स्त्री०) [शी+क्विप] किरण, प्रभा।
शिरस्कं (नपुं०) लोहे का टोप, पगड़ी, टोपी। ०त्वचा, चमड़ी।
शिरस्का (स्त्री०) [शिरस्क+टाप्] पालकी। शिविका। शिप्रः (पुं०) [शि+रक्] हिमालय स्थित सरोवर।
शिरस्तस् (अव्य०) [शिरस्+तस्] शिर सम्बंधी, सिर से। शिप्रा (स्त्री०) [शिंप्र+टाप्] शिप्रा नदी, उज्जयिनी नगर इसी । शिरस्तिर (वि०) मस्तक, झुका हुआ। (सुद० २/२५)
नदी के तट पर स्थित है। जिसे क्षिप्रा भी कहते हैं। शिरस्थित (वि०) सिर पर स्थित। (वीरो० ७/१८) शिफा (स्त्री०) रेशेदार जड़।
शिरस्य (वि०) [शिरसि भवः यत्] सिर सम्बंधी। ०कमल की जड़।
शिरस्वः (पुं०) सिर का टोप। (समु० ३/१६) ०मां, एक नदी।
शिराल (वि०) शिरायुक्त, स्नायवी। शिफाकः (पुं०) [शिफा+कन्] कमल जड़।
शिरि (पुं०) [श+कि] असि, तलवार। शिफाधरः (पुं०) शाखा।
०बाण। शिखारुहः (पुं०) वटवृक्ष।
टिड्डी। शिवि (वि०) शिकारी।
शिरीषः (पुं०) सिरस का पेड़। शिवि (पु०) भूर्जवृक्षा
शिरीषं (नपुं०) सिरस पुष्पा शिविका (स्त्री०) [शिवं करोति-शिव+णिच्+ण्वुल्] डोली, सिरीषकोषः (पुं०) शिरीष पुष्प समूह। (जयो० ३/२५) पालकी।
'शिरीषस्य कोषादपि। शिबिरं (नपुं०) [शेरते राजबलानि अत्र शी-किरच बुकागमः] शिरोधरा (स्त्री०) ग्रीवा, गर्दन। ___तम्बू, खेमा, पड़ाव, सैन्य विराम।
शिरोधार्य (वि०) स्वीकार। (दयो० ७०) शिम्बा (नपुं०) [शम्+ इम्बच्] फली, छीभी, सेम। शिरोमणिः (स्त्री०) चूडामणि रत्न। (जयो०वृ० १/७९) शिम्बिका (स्त्री०) [शिम्बा+कन्+टाप्] सेमफली, बालौर। शिरोमर्मन् (पुं०) सूकर, सूअर। शिम्बी (स्त्री०) फली, सेमफली, बालौर।
शिरोमालिन् (पुं०) शिव। शिरं (नपुं०) [शृ+क] सिर। पिप्परामूल, पीपल की जड़। शिरोरत्तं (नपुं०) चूडामणि रत्न। शिरः (पुं०) शय्या। ०अजगर।
शिरोरुजा (स्त्री०) सिर की वेदना। शिरस् (नपुं०) [शृ+असुन्] सिर, मस्तक।
शिरोरुह् (पुं०) सिर के बाल। ०खोपड़ी, शिखर,शृंग, चोटी। (जयो०वृ० २/३०) शिरोशूलं (नपुं०) सिरदर्द। ऊपरी भाग, उन्नत भाग। (सुद० पृ० ७०)
शिरोहारिन् (पुं०) शिव। भाल, ललाट। (सुद० १२५)
शिल् (सक०) इकट्ठा करना, पत्थर एकत्रित करना। ०कंगूरा, कलश, उच्चतम शिखर। (सुद० ११५) शिलः/शिलं (पुं०/नपुं०) [शिल्+क] बालें चुनना। मुख्य, प्रधान, प्रमुख, विशिष्ट। (जयो० १/६९) शिला (स्त्री०) [शिल+टाप्] चट्टान, पत्थर। वाद्य विशेष। (जयो० १०/१५)
०मैनशिल। कुम्भस्थल। (जयो०६/२२)
०कपूर। ०अग्रभाग, अगला हिस्सा।
शिलाजितः (पुं०) शिलाजीत। एक शक्तिवर्धक औषधि।
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शिलातलं
१०७०
शिवं
शिलातलं (नपुं०) प्रस्तरखण्ड। (जयो० २४/३८)
हस्तादि कौशलं शिल्पमाहवस्तुविभावने। शिलात्मकं (नपुं०) लोहा।
शूद्राणां वृत्तये साधु, साधनं स महीशिता।। शिलादद्गु (पुं०) शिलाजीत।
(हित०सं०पृ०९) शिलाधातुः (पुं०) खड़िया मिट्टी।
शिल्पकर्मन् (नपुं०) दस्तकारी, यान्त्रिक कला, कारीगर। शिलापट्टः (पु०) पत्थर की शिला, एक सा चौकोर प्रस्तर। शिल्पकारः (पुं०) दस्तकार, कलाविंद। शिलापुत्र (पुं०) सिल, मशाला पीसने की सिल।
शिल्पकारकः (पुं०) दस्तकार, कारीगर। कलाकार। कलाविद, शिलाप्रतिकृतिः (स्त्री०) प्रस्तरमूर्ति।
विद्यानिपुण। शिलाफलकं (नपुं०) प्रस्तर सिल।
शिल्पकारिन् (पुं०) शिल्पकार, कलाकार। शिलाभवं (नपुं०) शैलेयगन्धद्रव्य।
शिल्पकृत् (वि०) निर्मापक। (जयो० १७/५२) शिलाभेदः (पुं०) छैनो, टांकी।
शिल्पगत (वि०) दस्तकारी को प्राप्त हुआ। शिलामूलः (पुं०) प्रस्तर भाग। (जयो० १७/४७) शिलापट्ट। शिल्पशाला (स्त्री०) शिल्प विद्या केन्द्र, शिल्पग्रह. निर्माणकला शिलारसः (पुं०) धूप। शैलेयगन्धद्रव्य।
_ केंद्र। (जयो०८/३७) शिलावल्कलं (नपुं०) शिला पर जमी हुई काई।
शिल्पशास्त्रं (नपुं०) शिल्पविज्ञान, वास्तुकला, दस्तकारी आदि शिलावृष्टिः (स्त्री०) प्रस्तर वर्षा।
का शास्त्र। यान्त्रिक एवं ललितकला आदि का ग्रन्थ। शिलावेश्मन् (नपुं०) गुफा, दरार।
०अभियान्त्रिक ग्रन्थ। शिलाव्याधिः (स्त्री०) शिलाजीत।
शिल्पिन् (वि०) शिल्प+इनि] दस्तकारी, कलाकारी, कारीगरी। शिलासति (स्त्री०) शिलासंचालन-शिलायाः श्रुतिश्चालनं भवति कारू। (जयो०वृ० २/१११) (जयो० ५/५८)
शिल्पिन् (पुं०) विधाता, सृष्टा। (वीरो०वृ० ३/२९) शिलिः (स्त्री०) भुर्जवृक्षा
शिल्पिजन: (पुं०) शूद्रजन। यस्यां द्विजो बाहुज एव नासाद्वैश्योऽपि शिली (स्त्री०) [शिलि+ङीष] चौखट के नीचे की लकड़ी। वा शिल्पिजन: शुभाशी। (वीरो० १४/४८) भूकीट।
शिव (वि०) [श्यति पापं-शो+वन] शुभ, मांगलिक, श्रेष्ठ केंचुआ।
(जयो० १२/१) ०भाला।
स्वस्थ्य, प्रसन्न, समृद्ध, सौभाग्यशाली। ०बाण, गण्डूपद, मेंढकी।
शिवः (पुं०) महादेव, शंकर, आदिनाथ। नेमिनाथ, शिवोऽथैव शिलीमुखः (पुं०) भ्रमर, भौंरा।
नाम चन्द्रस्य वामन। (दयो० २९) ०बाण। (जयो० ८/१९) (जयो० १/९२, जयो० १४/५०) रुद्र। (वीरो० १७/२१) शिलीन्ध्रः (पुं०) [शिली धरति-धृ+क] मछली। ०वृक्ष विशेष। ०हस्तिनापुर के एक राजा का नाम। (वीरो० १५/२०) शिलीन्धं (नपुं०) कुकुरमुत्ता।
हस्तमागाधिपः शिवः। ___०सांप की छतरी। ०ओला।
वेग। शिलीन्ध्रकं (नपुं०) [शिलीन्ध्र-कन्] कुकुरमुत्ता, खुंद।
मोक्ष, मुक्ति। ०सांप की छतरी।
०कल्याण। शिलीन्ध्री (स्त्री०) [शिलीन्ध्र+ङीष्] मृत्तिका, मिट्टी।
गुग्गुल, पारा, काला धतूरा। शिलोच्चयः (पुं०) प्रस्तरखण्ड, प्रस्तरसमूह। (जयो० २४/४४) | शिवं (नपुं०) कल्याण, समृद्धि, मंगल, आनन्द, परमानन्द, शिलोत्तानिभ (वि०) प्रस्तर सदृश। (जाये० १७/५२)
मोक्ष। 'शिवं मोक्षे सुखे जले' इति विश्वलोचन (जयो०व० शिल्पं (नपुं०) [शिल्+पक्] कला, ललितकला, यान्त्रिक, १४/४६) कला।
सेंधा नमक। कारीगरी, कुशलता, पटुता। (जयो० ११/३७)
शुद्ध सोहागा। ०कृत्य, अनुष्ठान।
०जल। (जयो०वृ० ४/७९)
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शिवकः
१०७१
शिशिरकरः
१८४७)
शिवकः (पुं०) [शिव+कन्] खूटा। शिवकर (वि०) आनन्दप्रद, कल्याणकारक। शिवकीर्तनः (पुं०) भंगी।। शिवकेलिः (स्त्री०) जलकेलि। जलक्रीडाशिवस्य जलस्य या
केलि: क्रीडा। शिवगतिः (स्त्री०) मोक्ष गति। शिवघोषः (पुं०) शिवघोष नामक मुनि। शिवता (वि०) कल्याण। (सम्य० ३७) (जयो०२३/८८) शिवतातिः (स्त्री०) कल्याण परम्परा। (जयो० १२/५) (सुद०
१२३) भूरानन्दस्येयमतोऽन्या काऽस्ति जगति खलु शिवतातिः। शिवद्रमः (पुं०) बेल का वृक्षा (सुद० १२३) शिवधर्मजः (पुं०) मंगलग्रह। शिवधवनु (पुं०) पारा। शिवध्वन् (नपुं०) मोक्षमार्ग। (भक्ति० ४५) शिवपत्तनं (नपुं०) मोक्ष नगर, मुक्तिपुरी। (समु० ८/४१) शिवपक्षा (स्त्री०) कल्याण पथ का यात्री। (जयो० ६/२) शिवपुरं (नपुं०) मोक्षपुर, मुक्तिनगर। शिवपुरी (स्त्री०) मुक्तिपुरी। शिवपुराणं (नपुं०) अठारह पुराणों में एक पुराण शिवपुराण।
(दयो० ३१) शिवपूः (स्त्री०) काशी, मुक्ति, वाराणसी। शिवपौरुस (पुं०) चरम पुरुषार्थः (जयो० १२/२ (जयो०
३/११४) मोक्षा . शिवप्रापणं (नपु०) कल्याण प्राप्ति। (मुनि० ३१) शिवप्रियः (पुं०) धतूरा।
०स्फटिक। शिवमल्लकः (पुं०) अर्जुनवृक्ष। शिवमा (स्त्री०) मोक्षलक्ष्मी, सुख लक्ष्मी। शिवराजधानी (स्त्री०) वाराणसी, बनारस, काशी। शिवराज्यपदं (नपुं०) मोक्षपद। (वीरो० ४/५२) शिवरात्रिः (स्त्री०) फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि। शिवलिङ्गं (नपुं०) शिव पिण्ड। शिवलोकः (पुं०) कल्याणगृह, सुख स्थान, सुखागार। शिववल्लभ (पुं०) आम्र तरु। शिववाहनः (पुं०) सांड, वृषभ, नन्दी। शिवशेखरः (पुं०) चंद्र, धतूरा। शिवकी (स्त्री०) मोक्षलक्ष्मी। (सुद० ३/१९) 'सुमचया रुचया
च शिवश्रिया इव दृशां नभसो विभवाः प्रियाः। (जयो० १/३३)
शिवा (स्त्री०) उज्जैनी नगरी के राजा प्रद्योत की प्रिया
(वीरो०१५/२३) ०भंगाल, गीदड़। ०पार्वती।
आंवला, दूर्वाघास। दूव।
०हल्दी । शिवाक्ष (नपुं०) रुद्राक्षा शिवानी (स्त्री०) [शिव+ङीप] पार्वती, गौरी। शिवाप्तिः (स्त्री०) शिव प्राप्ति, कल्याण की प्राप्ति। (सुद०
१/३५) शिवाभ्युपं (नपुं०) कल्याण, भला। (समु० २/६) शिवायनं (नपुं०) शिवपथ, मोक्षमार्ग। (सुद० ८३) शिवारातिः (पुं०) कुत्ता, श्वान। शिवारि (पुं०) शिव का शत्रु। (जयो० १२/२) शिवारुत (वि०) गीदड़ के रोने की आवाज। शिवार्यः (पुं०) भगवती आराधना के रचयिता शिवार्य। (जयो०
२८/४७)
मोक्षनिमित्त, पार्वतीनिमित्त। (जयो०७० २८/४७) शिविका (स्त्री०) डोली, पालकी। (जयो० ६/९०) शिविकावंशः (पुं०) पालकी का मानदण्ड। (जयो०६/४०)
डोले के बांस। 'अंसोपरिस्थशिविकावंशैर्मितमिङ्गितञ्च वारायाः'
(जयो० ६/४०) शिविकावाहकः (पुं०) पालकी वाहक, कहार, वोढाजन।
(जयो० ६/९०)
न्यान्यजन। (जयो० ६/२६) शिविरः (पुं०) तम्बू, पटभवन। शिविराणि पटभवनानि। (जयो०
१३/६५) शिविरप्रगुणः (पुं०) तम्बुओं का रज्जूबल।
०तम्बुओं की सरलता-शिविराणामुपकार्याणां प्रगुणउपचय
स्तस्य रज्जूवलस्या (जयो० १३/६७) शिशिञ्ज (वि०) संशब्दित। (जयो० १७/७०) शिशिर (वि०) [शश+किरच्+नि] शीतल, ठंडा, सर्द। भूगर्भमन्ये
शिशिरं विशन्ति (वीरो० १२/१४) शिशिरं (नपुं०) ओस, तुषार, बर्फ, पाला।
सर्दी, सर्दी का मौसम।
ठंडक, शीतलता। शिशिरकरः (पुं०) चन्द्रमा, शशि।
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शिशिरकालः
१०७२
शीकरः
शिशिरकालः (पुं०) सर्दी के समय।
मुख्य, प्रमुख, प्रधान। (सुद० १२५) शिशिरकिरणः (पुं०) चंद्रमा, शशि।
उत्तम, योग्य, सज्जन, पूज्य। (समु० १/२१) शिशिरदीधितिः (स्त्री०) चन्द्र, शशि।
शिष्टः (पुं०) विशिष्ट व्यक्ति, सज्जन पुरुष। सभ्यजन। शिशिररश्मिः (स्त्री०) चन्द्र, शशि।
(जयो०वृ० १/३२) योग्य पुरुष (जयो०१२/१४२) 'किं शिशिरात्ययः (पुं०) सर्दी का अन्त, वसंत ऋतु।
वावशिष्टमिह शिष्टसमीक्षणीयम्' (जयो० १२/१४२) शिशिरापगमः (पुं०) सर्दी का अंत।
शिष्टसभा (स्त्री०) विद्वत्सभा, सज्जन सभा। राज्यसभा। शशिरांशुः (पुं०) चन्द्र, शशि। (जयो० १०/९)
शिष्टस्तवनं (नपुं०) श्रेष्ठ स्तवन। (समु० ४/४) शिशिरोचित (वि०) अनुष्णोचित। (वीरो० १५/७४, वीरो०९/२०) शिष्टाचारः (पुं०) सच्चरित्र, उत्तम आचरण। (जयो०वृ०२/४०) शिशुः (पुं०) [शो+कु-सान्वद्भावः, द्वित्वम्] (दयो०१७, सम्पादनीयानीति (जयो०वृ० ३/२२) (जयो०वृ०७/४७) भक्ति०१६)।
शिष्टात्मन् (पुं०) विशिष्ट व्यक्ति। (समु० १/३८) बालक।
शिष्टिः (स्त्री०) [शासक्तिन] राज्य, शासन। ०पुत्र। (जयो० १/५५) बाल। (जयो० २/३०)
आज्ञा, आदेश। छोटा बच्चा (हित० सं०४९) भान्ति क्रीडनकतो यतः ०सजा, दण्ड। शिशोः (जयो० २/३०)
शिष्यः (पुं०) [शास्+क्यप्] छात्र, चेला, विद्यार्थी। ०वत्स, बछड़ा, छौना।
शिष्यता (वि०) शिष्यत्व, शिष्यपना। ०स्तमंप। (जयो० १७/१५)
एवं पर्यटतोऽमुष्य देशं देशं जिनेशिनः। शिशुकः (पुं०) लघुतर बालक। (वीरो० १/८) (सुद० १/५) शिष्यतां जगृहु पा बहवश्चेतरे जनाः।। (वीरो० १५/१५) शिशुक्रन्दः (पुं०) बच्चे का रुदन।
शिष्यत्व (वि०) शिष्यपना। (वीरो०१५/४६) शिशुक्रन्दनं (नपुं०) बच्चे का रुदन।।
शिष्यपरम्परा (स्त्री०) शिष्यपना की विशेषता। (जयो० २/४२) शिशुपालः (पुं०) दमघोष का पुत्र, चेदि देश के राजा का छात्रपने की योग्यता। पुत्र।
शिष्यभावः (पुं०) छात्रभाव, विद्यार्थी रूप। (जयो०वृ० १/५५) शिशुभावः (पुं०) बाल रूप। (जयो० ११/१२)
शिष्यशिष्टिः (स्त्री०) छात्र अनुसंधान, छात्रचयन। शिशुमती (स्त्री०) छोटी बच्ची। (मुनि० ११)
शिष्यसंचालनं (नपुं०) छात्रानुशासन। शिशमारः (पुं०) संस नामक जन्तु।
शिष्या (स्त्री०) छात्रा (वीरो०१५/३८) शिशुवाहकः (पुं०) जंगली बकरा।
जाकियव्वे सत्तरस-नागार्जुनस्य भामिनी। शिश्नं (नपुं०) पुरुष की जननेन्द्रिय।
श्रीशुभचन्द्रसिद्धान्त-देवशिष्या बभूव या। (वीरो० १५/३८) शिश्विदान (वि०) [श्वित्+सन्+आनच्] सद्गुणी, पुण्यात्मा। | शी (अक०) शयन करना, आराम करना, लेटना, सोना, दुष्ट, पापी।
विश्राम करना। दर्भे शयानं (जयोवृ० ११/५०) दृग्यामितः शिष् (सक०) चोट पहुंचाना, मार डालना
पञ्चशरः स्मरोऽतिशेते विधिं तौ सफलीकरोति (जयो० बचा देना।
११/६५) 'क्वचित् स शेतेऽथ शुचेव तूर्णम्' (वीरो०१२/१७) शिष्ट (भू०क०कृ०) [शास्+क्त] छोड़ा हुआ, बचा हुआ। शी (स्त्री०) शयन, विश्राम, सोना। शान्ति। शिष्टाचार। (जयो० २/४०)
परस्त्री-शी स्त्रीषु स्व-परस्त्रीषु इति वि० (जयो० १६/६६) प्रशिक्षित, शिक्षित, अनुशिष्ट।
समान। (सुद० १/४३) अवशिष्ट, बाकी, बचा हुआ।
शीक् (सक०) तर करना, छिड़कना। प्रशंसनीय। (जयो० ३/२३)
आर्द करना, गीला करना। बुद्धिमान्, विद्वान्।
शीकरः (पुं०) [शीक्+अरन्] बौछार, तुषार। ०सभ्य। (जयो० १४/७)
जलकण, वृष्टिकण। (जयो०१३/१९) जलांश (वीरो० शिष्य, नम्र।
४/६६)
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शीकरं
१०७३
शीतालु
शीकर (नपुं०) साल वृक्षा
शीतभानुः (पुं०) चन्द्र, शशि। शीघ्र (वि०) [शिङ्घ रक्] त्वरित, जल्दी, सत्वर, फुर्तीला। शीनभीरू (स्त्री०) मल्लिका, चमेली। (जयो० १४/८९)
शीतमयूखः (पुं०) चन्द्र, शशि। शीघ्रः (पुं०) ग्रहयोग।
०कपूर। शीघ्रं (अव्य०) जल्दी से, शीघ्रता से। (जयो० १/२६) शीतमरीचि (पुं०) चन्द्र, शशि। शीघ्रकारिन् (वि०) चुस्त, फुर्तीला, गतिशील, शीघ्रता (दयो०७६) | शीतरश्मि (पुं०) चन्द्र, शशि। (जयो० ४/५०) (जयो० ३/१५) शीघकोपिन (वि०) क्रोधी, कोपी।
गुप्तिभागिह च कामवत्तु नः पक्षपाति च शीतरश्मिवत्पुनः। शीघ्रगामिन् (वि०) द्रुतगामी। (जयो०व० २१/१०)
(जयो० ३/१५) शीघ्रचेतनः (पुं०) श्वान, कुकुर, कुत्ता।
शीतरुच् (पुं०) चन्द्र, शशि। शीघ्रबुद्धिः (स्त्री०) तीक्ष्णबुद्धि।
शीतल (वि०) [शीतं लाति-ला+क] ठण्डा, सर्द। शीघ्रलङ्घन (वि०) तेज करने वाली, फुर्ती से।
शीतलः (पुं०) शीतलनाथ तीर्थंकर, ग्यारहवें तीर्थंकर शीतलनाथ शीघ्रवेधिन् (पुं०) तेज धनुर्धर।
(भक्ति०१८) शीघ्रिन (वि०) [शीर्घ+इनि] सत्वर. जल्दी. त्वरित।
०चन्द्र, शशि।
शीतलं (नपुं०) ठण्ड, सर्द। शीत् (अव्य०) आकस्मिक, पीड़ा।
०कमल। शीत (वि०) [श्यै+क्त] ठण्डा, शीतल, सर्द, (सम्य० ४६)
तूतिया। मन्द, आलसी, उदासीन।
मोती। सुस्ता
०चंदन। शीतः (पुं०) नीलवृक्षा
शीतलछदः (पुं०) चम्पक वृक्ष। ०शीत ऋतु।
शीतलजलं (नपुं०) कमल, पद्म। ०कपूर।
शीतलनाथः (नपुं०) ग्यारहवें तीर्थंकर का नाम। शीतं (नपुं०) ठण्डक, सर्दी।
शीतलप्रदः (पुं०) चंदन। ०जल।
शीतलप्रसादः (पुं०) एक बीसवीं सदी के जैन तत्त्व विचारक। दालचीनी।
शीतलषष्ठी (स्त्री०) माघ शुक्ला छठ। शीतक (वि०) [शात कन्] ठण्डा, सर्द।
शीतला (स्त्री०) [शीतल+टाप्] चेचक। ०शीतला माता, एक शीतकालः (पुं०) सर्दी का समय, ठण्ड का मौसम।
देवी। शीतकालीन (वि०) शीतऋतु सम्बंधी।
शीलपूजा (स्त्री०) शीतलादेवी की पूजा। शीतकृच्छ्रः (पुं०) शीत में की जाने वाली साधना।
शीतली (स्त्री०) चेचक। शीतगन्धं (नपुं०) सफेद चन्दन।
शीतवाधा (स्त्री०) सर्दी का प्रकोप। (जयो० १४/७१) शीतगुः (पुं०) चन्द्र, शशि।
शीतसमीरः (पुं०) ठण्डी हवा। (जयो० १४/७१) __०कपूर।
शीतकलित (वि०) ठण्ड से व्याकुल, सर्दी से पीड़ित। (वीरो० शीतचम्पकः (पुं०) दीपक।
९/२९) ०दर्पण।
शीताक्रमणं (नपुं०) शीत प्रकोप, सर्दी का प्रकोप। (वीरो० शीतदीधिति (पुं०) चन्द्र, शशि।
___९/३९) शीतानुयोगात्पुनरर्धरात्रेः। शीतधामा (पुं०) चन्द्रमा, शशि। (जयो० १६/१०) शीताति (स्त्री०) शीतपीड़ा, सर्दी का दुःख। शीतस्य शीतपुष्पः (पुं०) सिरस वृक्ष, शिरीष वृक्ष।
पीडामनुभवतेवामि शीतसमीर-भाज। (जयो० १४/७१) शीतपुष्पकं (नपुं०) शैलेय गन्धद्रव्य।
अतिशीतलवायु। शीतप्रभः (पुं०) कपूर।
शीताल (वि०) [शीतं न सहते-शीत-आलुच] ०शीत प्रकोप ०चन्द्र, शशि।
युक्त, सर्दी की पीड़ा वाला।
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शीधु
१०७४
शुंशुमार
शीधु (पुं०/नपुं०) अंगुर की शराब। शीधुगन्धः (पुं०) बकुलवृक्षा शीन (वि०) [श्यैक्त] धनीभूत, जमा हुआ। शीन: (पुं०) जड़, बुद्ध, मूर्ख। ०अजगर। दरिनोऽजगरमूर्खयो, ___ अवकाशे सुरके वीचि 'इति वि० (जयो० १५/६) शीभ् (सक०) बतलाना, कहना, समझाना।
शेखी बघारना। शीकयः (पुं०) सांड। (शिव) शीरः (पुं०) [शीङ् रक्] अजगर।
सूर्य। (वीरो० २/२२) शीरोचित (वि०) सूर्य के समान।
मदुक्तिरेषा भवतोः सुवस्तु समस्तु किन्नो वृषवृद्धिरस्तु। अनेकधान्यार्थमुपायकोंर्महत्सु
शीरोचित धम्मभों:। (सुद० २/२९) शीर्था (भू०क०कृ०) [शृ+क्त] मुाया हुआ, कुम्हलाया
हुआ। ०म्लान, क्लांत, सूखा, शुष्क। ०टूटा-फूटा, चूर-चूर हुआ।
०कृश, दुर्बल, क्षीण, कमजोर। शीर्धा (नपुं०) एक गन्ध विशेष। शीर्णपादः (पुं०) यम। शनिग्रह। शीर्णपर्णं (नपुं०) मुझया हुआ पत्ता, शुष्क पत्ता। शीर्षावृन्तं (नपुं०) तरबूज। शीर्णाङ्घिः (पुं०) यम। ०शनिग्रह। शीर्वि (वि०) [श+क्तिन्] विनाशकारी, अनिष्टकर, क्षतिकर, | ___ आघात युक्ता। शीर्ष (नपुं०) काला अगर।
सिर, उन्नत। शीर्षछेदः (पुं०) सिर काट डालना, मस्तक घात। शीर्षछेद्य (वि०) सिर काटने योग्य। शीर्षण्यः (पुं०) [शीर्षन्+यत्] साफ-सुथरा सिर। शीर्षन् (नपुं०) सिर, मस्तक। शीर्षरक्षकं (नपुं०) लोहे का टोप, सिरस्त्राण। शील् (सक०) सेना करना, सम्मान करना। पूजा करना।
* अभ्यास करना। ०अध्ययन करना, चिन्तन करना। ०ध्यान करना, ०धारण करना, पहनना।
शीलः (पुं०) [शील्+अच्] अजगर सर्प। शीलं (नपुं०) प्रकृति, स्वभाव, प्रवृत्ति, चरित्र, सदाचरण।
शीलस्य पालनेवैवमन्तरात्मा विशुद्धयति। यतो निश्चितरूपेण, पुमान्ह सद्गति भाग्भवेत्।। (हित०४३) वंशशील विभवादि वराणाम्। (जयो० ५/३७) ०रुचि, आदत, प्रथा, पद्धति. नियम। ०व्रतों, की रक्षा-पदपरिरक्खणं सील। (सुद० १३२) ०ब्रह्मचर्य, समाधि। सावद्ययोग का प्रत्याख्यान। व्रतों का परिपालन।
सद्गुण, सज्जीवन। शीलखण्डनं (नपुं०) सद्गुण का विनाश। शीलगत (वि०) सदाचरण को प्राप्त हुआ। शीलधारिन् (वि०) शील पालक। शीलनं (नपुं०) [शील् ल्युट्] ०समागमन। (वीरो० १/१७)
अनुशीलन, प्रयोग (सुद० १/९) यच्छीलनादेव निरस्तदोषा
पयस्विनी स्यात्सुकवेश्वच गौः सा (सुद० १/१) (समु०) शीलभू (वि०) शीलवती, शील वाली। हरे: प्रिया सा चपलस्व
भावा मृडस्य निर्लज्जतयाऽघदा वा। रतिस्त्वदृश्या कथमस्तु पश्य तस्याः समाशील भुवोऽत्र
शस्य।। (वीरो० ३/१७) शीलवंचना (स्त्री०) शील का उल्लंघन, शील विनाश, सद्गुणों
का घात। शीलवती (स्त्री०) साकेत अधिपति वज्रषेण की रानी। (वीरो०
११/२८) शीलसुगंधयुक्त (वि०) शील की सुरभि से युक्त, सदाचरण
की गन्ध से परिपूर्ण। (सुद० २/९) मालेव या शीलसुगन्ध
युक्ता शालेव सम्यक् सुकृतस्य सूक्ता। (सुद० २/९) शीलान्वित (वि०) शील युक्त। (समु० ६/४) शीलाधारः (पुं०) शील का आश्रय। शीलाश्रयः (पुं०) शील गुण। ०सदाचरण। शीलित (भू०क०कृ०) [शील्+क्त] ०युक्त, सहित, सम्पन्न।
०प्रयुक्त, प्रवृत्ति युक्त। ०शील सम्पन्न, शील पालक।
कुशल, प्रवीण। शीवन् (पुं०) [शीड्+क्वनिप्] अजगर। शीशः (पुं०) सिर, मस्तक। शंशुमार (पुं०) सूंस, एक जलजन्तु मगर की तरह।
गपाता
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शुक्
१०७५
शुक्षि
शुक् (सक०) जाना, पहुंचना।
शुक्रकर (वि०) वीर्य सम्बन्धी। शुकः (पुं०) [शुक्+क] तोता।
शुक्रल (वि०) वीर्य सम्बन्धी। शुक्र/वीर्य बढ़ाने वाला। सिर तरु, कीर। (जयो० १/६१)
शुक्रवार:/शुक्रवासरः (पुं०) शुक्रवार, जुमा। शुकं (नपुं०) वस्त्र, कपड़ा।
शुक्रशिष्यः (पुं०) राक्षस। लोहे की टाप।
शुक्ल (वि०) [शुच्+लुक्] उज्ज्वल, स्वच्छ, सफेद, विशुद्ध। ०पगड़ी, शिरस्त्राण।
धवल। (जयो० ३/११४) शुकतरु (पुं०) सिरस वृक्ष।
शुक्ल: (पुं०) धवल, शुभ्र। शुकद्रुमः (पुं०) सिरस वृक्ष।
__०शुक्लपक्ष। सुदी पक्षा (जयो० १/१०१) शुकदेव मुनिः (पुं०) शुकदेव नामक साधु। (जयो०वृ० १/६१)
शक्लं (नपुं०) रजत, चांदी, वर्ण। (जयो०७० ३/८०) शुकनास (वि०) तोते जैसी नाक वाला।
०ध्यान, निष्कषाय। (जयो० ३/११४) शुकनासिका (स्त्री०) तोते जैसी नाक।
शुक्ल ध्यान, शुक्ललेश्या। (भक्ति० ३२) शुकनासोपदेशः (पुं०) एक नाम विशेष।
शुक्लकण्ठकः (पुं०) सद्गुणी, शुद्धाचारी। शुकसन्निचयः (पुं०) वीरसमूह। (जयो० १३/६०)
शुक्लकुष्ठं (नपुं०) सफेद कोढ़। शुक्त (भू०क०कृ०) [शुंच्+क्त] उज्ज्वल, स्वच्छ, साफ,
शुक्लधातु (पुं०) सफेद मिट्टी। विशुद्ध।
शुक्लता (वि०) धवलीभाव वाला। (जयो० १५/६९) ०अम्ल, खट्टा।
शुक्लत्व (वि०) श्वेतत्व, शुभ्रता। (जयो० १/२५) ०विशुद्धत्व। कर्कश, खरखरा, कड़ा, कठोर। ०परित्यक्त, छोड़ा गया।
शुक्लध्यानं (नपुं०) शुचिगुण का योग, शुचित्व पूर्वक ध्यान।
चार ध्यानों में तृतीय ध्यान (भक्ति० ३२) ०संयुक्त. जुड़ा हुआ।
०कषायमलविच्छेद, निष्कषाय भाव। शुक्तं (नपुं०) मांस। ०कांजी।
०मलरहितात्मपरिणामोद्भवं शुक्लम्। ०खट्टा तरल पदार्थ।
शुक्लपक्षः (पुं०) मास का शुभ्रपक्ष, सुदी पक्ष, जिस पक्ष में शुक्तिः (स्त्री०) [शुच्+क्तिन] सीप। (सुद० २/४२)
चन्द्र क्रमश: बढ़ता हुआ पूर्णिमा/पूनम तक पहुंचता है। मोक्तिकोत्पादिकसीप। (जयो० ५/१०२)
(समु० १/३०) ०पुट्ठा। शंख, घोड़े की छाती।
कषायमलविच्छेद निष्कषायभाव। शुक्तिका (स्त्री०) [शुक्ति कनृ+टाप्] सीपी। मोती बनने
०मलरहितात्मपरिणामोद्भवंशुक्लम्। की सीप। (सुद०८४) ०दो इन्द्रिय जलचर जीव।
शुक्ललेश्या (स्त्री०) राग-द्वेष एवं मोह रहित होना, छह शुक्तिकोदरः (पुं०) सीप। (दयो० २/७)
लेश्याओं में अन्तिम लेश्या। शुक्तिजं (नपुं०) मोती, मुक्ताफल। मौक्तिक। शुक्तेर्जातं शुक्लवर्णः (पुं०) समुज्ज्वल, स्वच्छवर्ण। (जयो०१० ३/११२) शुक्तिज। (जयो० ९/६०)
शुक्लवस्त्रं (नपुं०) श्वेतवस्त्र। शुक्तिपुटं (नपुं०) सीप का पुट, सीप का खुला हुआ मुंह। शुक्लवायसः (पुं०) सारस। शुक्तिपेक्षी (स्त्री०) सीप पुट।
शुक्लस्थानं (नपुं०) शुभ्रस्थान। शुक्तिमुक्ता (स्त्री०) सीप का मोती। (जयो० ११/६०) शुक्ला (स्त्री०) [शुक्ल+टाप्] सरस्वती। शुक्तिवधूः (स्त्री०) मोती का सीप।
काकोली का पौधा। शुक्तिबीजं (नपुं०) मोती।
श्वेतवर्णा स्त्री। शुक्रः (पुं०) शुक्रग्रह। ०ज्येष्ठमास।
शुक्लिमन् (पुं०) [शुक्ल+इमनिच्] सफेदी, धवलता, स्वच्छता। अग्नि ।
शुक्लीकृत् (वि०) धवलता करने वाला। (जयो० १/१५) शुक्र (नपुं०) वीर्य।
शुक्लैकवस्त्रं (नपुं०) एक मात्र शुभ्र वस्त्र। (सुद० ११५) ०वस्तु का निचोड़, सत्। मज्जा से उत्पन्न वीर्य। | शुक्षि (स्त्री०) [शुस्+क्सि] हवा, वायु।
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शुगस्थानं
१०७६
शुण्डारः
प्रकाश, कान्ति।
शयनीयोऽसि किलेति क्षायितः। ०अग्नि।
(सुद०३/२२) शुगस्थानं (नपुं०) बाणासन।
शुचिरश्मिन् (पुं०) चन्द्र, शशि। (जयो० ११/४९) शुङ्गः (पुं०) बड़ का पेड़, पेबंदी बेर।
शुचिराट (पुं०) उत्तम राजा। (सुद० १००) शुङ्गा (स्त्री०) [शुङ्ग+टाप्] जौ की बाल, किशारु।
शुचिर्वाक्यं (नपुं०) हर्षयुक्त वाक्य, मन्दहास युक्त वचन। शुङ्गिन् (पुं०) [शुङ्गा+इनि] वट वृक्ष। बड़ का पेड़।
'शुचिरवदाता चेति मदीयमिदं वाक्यमस्तीति' (जयो० शुच् (अक०) खिन्न होना, दु:खी होना। शोक करना, विलाप
११/५३) करना। (जयो० ५/२३)
शुचिवारि (नपुं०) निर्मल जल। (जयो० १२/३२) ०पछताना, खेद करना।
पुनीतवाक्य। शुच्शुचा (स्त्री०) शोक, संताप। (सुद० १/४१)
शुचिव्रत (वि०) सद्गुणी, पुण्यात्मा। ०कष्ट, दु:ख, रंज।
शुचिशर्वरी (स्त्री०) चन्द्र से युक्त चांदनी रात। शुचमापन्न (वि०) दुःखी, कष्ट को प्राप्त। (जयो०७० १२/३) शुचिस् (नपुं०) प्रकाश, कान्ति। (सुद० ३/१६) शुचि (स्त्री०) सफेद, धवल, शुभ्र।
शुचिसन्निवेशः (पुं०) शुचिता का प्रवेश, पवित्रता का स्थान। शुचिनिशानमुदेति अदो बल्। (समु० ७/२)
(सुद० १/१५) विमल, विशुद्ध, निर्मल। (जयो० १/६)
शुचिस्मित (वि०) मधुर मुस्कान। निर्दोष, विशुद्ध। (जयो० २/८०)
शुचिहास (वि०) प्रेमस्मित, प्रेमपूर्ण हंसी। (जयो० १६/२०) सम्प्रपश्यति हि किन्न
शुचेव-चिन्तयेव (जयो० ) साधुचिद्वारिचारितमुदूखलं शुचि। (जयो० २/८०) शुच्य (सक०) स्नान करना, नहाना। निष्कलंक, निष्पाप, पवित्रात्मा। सद्गुणी।
०प्रक्षालन करना, धोना। पुनीत, पूत, सच्चा, निश्छल।
निचोड़ना, निकालना। ०मानस-शुद्ध।
अर्क सींचना। ०भद्रता, शुद्धता, यथार्थता।
शटीरः (पुं०) वीर, योद्धा। शुचिः (पुं०) सूर्य चन्द्र।
०नायक। ०अग्नि।
शुल् (अक०) लड़खड़ाना, लंगड़ा होना। शचिचित्तं (नपुं०) विशुद्ध चित्त। (समु० २/१६)
०बाधा डाला जाना। शुचिचित्रकः (पुं०) उत्तम चित्र, अच्छा चित्र। (जयो०१०/१०) | शुण्ठ् (सक०) पवित्र करना, शुद्ध करना। स्वच्छ-साफ एवं स्पष्ट चित्र।
सूखना। शचित्व (वि०) निर्दोषत्व, निर्मलत्व। (जयो० ४/६५) शुण्ठिः (स्त्री०) सोंठ, सूखा अदरक। (जयो०वृ० २८/२९) __०पवित्रत्व, पवित्रता। (जयो० १९/४४)
शुष्ठः (पुं०) [शुण्ड्+अच्] हाथी की सूंड। शुचिनाम्बरं (नपुं०) स्वच्छ वस्त्र-शुचिना पवित्रेण स्वच्छेन
उन्मत्त हाथी का मद। चाम्बरेण वस्त्रेण। (जयो०वृ० १९/११)
शुण्डकः (पुं०) शराब सींचने वाला कलाल शुचिनिशानं (नपुं०) सफेद निशान, सफेदी युक्त बालों के ०वाद्यमन्त्र। चिह्न। (समु० ७/२)
शुण्डा (स्त्री०) हाथी की सूंड। शुचिपक्षः (पुं०) शुक्लपक्ष। (वीरो० ४/२)
मद्यालय, मद्यपान गृह, मधुशाला। शुचिपात्रं (नपुं०) स्वच्छपात्र। (जयो० १२/११५)
वेश्या, रण्डी, कुटनी, दूती। शुचिबोधः (पुं०) उत्तम बोध, अच्छा ज्ञान। (सुद० ३/२२) ०कमन नाली सम्यग्ज्ञान।
शुण्डारः (वि०) शराब खींचने वाला, कलाल। शुचिबोधवदायतेऽन्वितः
हाथी की सूंड।
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शुण्डाल:
१०७७
शुद्धस्वभावः
शुण्डाल: (पुं०) हस्ति, हाथी। शुण्डावत् (पुं०) हस्ति, हाथी। (जयो० ८/६७) शुण्डिका (स्त्री०) [शुण्डा+कन्+टाप्] हस्ति, हाथी, सूंड। शुण्डिन् (पु०) [शुण्ड्+णिनि] कलाल।
०हस्ति, हाथी, बाज। शुण्डि-शुण्डः (पुं०) हस्ति सूंड, हाथी की सुंड। (जयो०
१/२५) शुद्ध (भू०क०कृ०) [शुव्+क्त]
विमल, निर्मल, स्वच्छ।
रागांश रहित। (सम्य० १०९) किन्तुपयोगो नहि शुद्ध एव
प्राहेति सम्यग् जिनराजदेवः। ०श्वेतरूप, कलुषतारहित, मात्सर्यादिरहित, पारदर्शकस्वभाव। (जयो०१९/०३) पुनीत, पवित्र, निष्कलंक। यथार्थ, वास्तविक, सही, स्वच्छ (जयो० २४/८२) विशुद्ध, श्रेष्ठतम, सित। (जयो०व० ३/२९) ०वीतराग स्वरूप। (सम्य० ११९) अर्थ एवं शब्दगत दोषों से रहित।
स्पष्ट। (जयो०२/१५) शुद्धकोपहितः (पुं०) संसर्ग से रहित अन्नादि। शुद्धचेतना (स्त्री०) ज्ञान का अनुभव।
जीवस्य ज्ञानानुभूतिलक्षणा शुद्धचेतना।( पंचा० अमृ०
शुद्धपरिहारः (पुं०) पंच महाव्रत रूप क्रिया। शुद्धपर्यायः (पुं०) स्पष्ट पर्याय। शुद्धप्रज्ञा (स्त्री०) श्रेष्ठ बुद्धि। शुद्धभावः (पुं०) विशुद्धभाव, आत्मगत परिणाम। (सुद०
२/९) श्री श्रेष्ठिनो मानसराजहंसीव। शुद्धभावा खलु वाचि वंशी।। (सुद० २/९)
हेयोपादेय से रहित परमोदासीन भाव। (सम्य०१०८) शुद्ध भावना (स्त्री०) उत्तम भावना, यथेष्ठ चिन्तन।
०पवित्राशय-सा शुद्ध भावनया पवित्राशयेन सहिता
बुद्धिनाम्नी साजी। (जयो०६/४) शुद्धमतिः (स्त्री०) निर्दोष बुद्धि।। शुद्धलेश्या (स्त्री०) विशुद्धतेश्या, शुक्ललेश्या। (सम्य० ११५) शुद्ध वचनं (नपुं०) पुनीत वचन, मधुर वचन, पवित्रवाणी। शुद्ध वाचनोच्चारणं (नपुं०) शुद्धार्थ प्रतिपादक वचन रूप
कथन। (जयो०वृ० २/५२) शुद्धवर्णः (पुं०) शुद्धजाति। (जयो० २४/१२५) शुद्धवर्णका (स्त्री०) स्वच्छ मणि, श्रेष्ठ भाषा। (जयो० २४/८२)
'शुद्ध स्वच्छो वर्ण एव वर्णको येषां ते'
(जयो०७० २४/८२) शुद्धसंग्रहः (पुं०) सत्ता सामान्य का विषय-शुद्ध संग्रहनय। शुद्धसंप्रयोगः (पुं०) परमेष्ठियों के प्रति भक्ति भाव। शुद्ध सर्पिषः (पुं०) शुद्ध घी, ताजा घी।
शुद्ध सर्दिषः कर्पूरस्याप्युत
माणिक्यकलायाः। (सुद० ७२) शुद्ध स्वभावः (पुं०) विशुद्ध स्वभाव, आत्म ज्ञान से समन्वित
स्वभाव। शुद्धात्मन् (वि०) समस्त दोषों से रहित आत्मा।
सुद्धो जीव सहावो जो रहिदो दव्वभावकम्मेहि सो सुद्धणिच्छवादो समासिओ शुद्धणाणीहिं।। (जैन वृ० १०६३) निकल परमात्मन्।
(सम्य० १०८) शुद्धात्मस्वरूपः (पुं०) शुद्ध आत्मा का स्वरूप। शुद्धस्वभावः (पुं०) विशुद्ध आत्मा का परिणाम।
वृ०१)
शद्धचेता (स्त्री०) शुद्ध चेतना, ज्ञानजन्य आत्मा। (वीरो०
१४/३५) शुद्धजाति (स्त्री०) उत्तम जाति। शुद्धजीविन् (वि०) सुजीवन वाला, अच्छे जीवन वाला।
(जयो०वृ० २/१०) शुद्धत्व (वि०) विशुद्धत्व, रागदि रहित पना। (सम्य० ११०) शुद्धद्रव्यं (नपुं०) यथार्थ द्रव्य, सही पदार्थ। शुद्धद्रव्यार्थिकनयः (पुं०) कर्मोपाधिरहित।
०द्रव्य की प्रमुखता करने वाला नय। शुद्धध्यानं (नपुं०) आत्म स्वरूप का ध्यान, ०आत्म ज्ञान
की प्राप्ति। शुद्धनयः (पुं०) द्रव्य की मूल, विशेषता वाला पय, शुद्धनीतिः (म्त्री०) श्रेष्ठतम नीति। शुद्धपदं (नपुं०) विशिष्ट पद, अच्छा स्थान।
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शुद्धिः
१०७८
शुभतपः
शुद्धिः (स्त्री०) विशुद्धि, चित्त का प्रसन्न रहना।
निर्मल ज्ञान और दर्शन का आविर्भाव। प्रायश्चित्त परिशोधन। समाधान, संशोधन। संकलकर्मोपाय।
चमक, कान्ति। शुद्धिसम्पादक (वि०) निर्मल करना, स्वच्छ करना। (जयो०
२/७७) शुद्धोदनः (पुं०) बुद्ध के पिता, गौतम बुद्ध के पिता। शुद्धोपयोगः (पुं०) विशुद्धोपयोग,
रागादि रहित उपयोग, रागित्वमुज्झित्य तदुत्तरत्र शुद्धत्वमाप्नोति गणनाष्टमादि, सूक्ष्मस्थलान्तं विभुनान्यगादि।
(सम्य० ११०) शुध् (अक०) पवित्र होना, शुद्ध होना।
०अनूकल होना, स्पष्ट होना। ०संदेह रहित होना।
शुभ होना। शुध् (सक०) पवित्र करना, स्वच्छ करना। निर्मल करना,
प्रक्षालन करना। ०धोना, प्रमार्जन करना।
०परिशोधन करना। शुन् (सक०) जाना, पहुंचना। शुनःशेपः (पुं०) एक ऋषि विशेष। शुनकः (पुं०) [शुन्+क] भृगुवंश में उत्पन्न ऋषि।
कुत्ता, श्वान। शुनाशीरः (पुं०) उल्लू।
०इन्द्र। शुनिः (पुं०) [शुन्+इन्] कुत्ता, श्वान। शनि (स्त्री०) कुत्ती, कूकरी, कुत्तिया। (वीरो० १७/३२) शुनीरः (पुं०) [शुनी+र] कुतियों का समूह। शुन्ध्युः (स्त्री०) हवा, वायु। शुभ् (अक०) शोभित होना, सुंदर होना, अच्छा लगना।
(सुद० ३/७) (जयो० ५/२६) शुभभे शुशुभे छविरस्य साऽन्विताऽरुण, माणिक्य-सुकुण्डलोदिता। (सुद० ३/१९)
० उपयुक्त होना, योग्य होना। शुभ् (सक०) सजाना अलंकृत करना, संवारना। चमकाना। शुभ (वि०) [शुभ+क] सुंदर, रमणीय, मनोहर, यथेष्ट,
अच्छा। मांगलिक, सौभाग्यशाली, प्रसन्नता। ०भद्र, सद्गुणी, प्रमुख।
०अनुकूल। शुभं (नपुं०) प्रशस्त। (जयो० १/१८)
उद्गम स्थान। अङ्गीकृता अप्यमुनाशुभेन पर्यन्तसम्पत्तरुणोत्तमेन। (सुद० १/१८)
अच्छी चेष्टा। (सुद०वृ०६९) दृढ़ मजबूत। (जयो० ३/३९) कल्याण। (जयो० २/१५८) ०पुण्य, मंगल।
सद्भावना। शुभकर (वि०) कल्याणकारी। आनंदवर्धक। शुभंकर देखो ऊपर। शुभगः (पुं०) सुंदर, मनोहर। (सुद० १०४) शुभगेहिनी (स्त्री०) उत्तम गृहिणी। शुभगेहिनी-नीति (स्त्री०) अच्छी गहिणी की नीति। (सुद०
१०४) सुभगे शुभगेहिनीतिसत्समयः
शेषमयः स्वयं निशः। (सुद० १०४) शुभग्रहः (पुं०) अनुकूल ग्रह। शुभचर (वि०) अच्छा आचरण करने वाला। शुभचर्या (स्त्री०) शुभ राग से युक्त चारित्र। अहरतादि के
प्रति गुणानुराग। शुभचारित्रं (नपुं०) प्रशस्तत्ररित्र। शुभचन्द्रः (पुं०) आचार्य शुभचन्द्र, जिन्होंने ज्ञानार्णव जैसे
योगशास्त्र की रचना की। (जयो० २८/४८) ज्ञानार्णवोदयायासीदमुष्य शुभचन्द्रता।
योगतत्त्व समग्रत्वभागजायत सर्वतः। (जयो० २८/४८) शभचन्द्रसिद्धांतः (पुं०) ज्ञानार्णवकर्ता। (वीरो० ३८) शुभतत्त्वं (नपुं०) यथार्थ तत्त्व। शुभ-तत्त्वार्थ (नपुं०) पदार्थों के अर्थ की अनुकूलता। (सुद०) शुभतपः (पुं०) श्रेष्ठतप।
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शुभतर
१०७९
.
.
.
)
शभतर (वि०) अच्छे से अच्छा, श्रेष्ठतर। (सम० ९/१९) शुभदः (पुं०) बट वृक्षा शुभदंती (स्त्री०) सुंदर दांतों वाली, चमकीले दांतों वाली। शुभदानं (नपुं०) प्रशस्तदान, योग्यदान। शुभपरिणामः (पुं०) शुभ भाव, शुभफल अच्छे परिणाम।
(मुनि० २५) शभपरिणामिन् (वि०) सुवविपाकिन, अच्छे विपाक वाला।
(जयो० ४/३४) शुभफल-जनक (वि०) सुपरिणाम-लक्षण युक्त। (जयो० २/६) शुभभक्त (वि०) कल्याणकारी भक्त। (जयो० २/१५८) शुभभावः (पुं०) प्रशस्त परिणाम, अच्छे भाव। (समु०५/१५)
देवतामनुवभूव मुदा वैडूर्यनाम्नि खपदे शुभभावैः।
(समु० ३/१५) शुभभावनाकरी (वि०) अच्छी भावना आने वाला, प्रशस्त
भावना युक्त। (सुद० ११६) पाटलिपुत्रेऽभवद् व्यन्तरी प्राक् कदापि शुभभावनाकरी।
(सुद० ११६) शुभयोगः (पुं०) प्रशस्त योग। (जयो० १२/६३)
प्रशस्तपुण्यं शुभयोगभावाच्छुवोपद्येगेन भवेत् स्वा वा।
(जयो८/३०) शुभयोगवशः (पुं०) भाग्योदयवश। (जयो० २३/३०) शुभलक्षणं (नपुं०) उत्तम लक्षण, योग्य चिह्न। (सुद० ३/१)
सुहुवे शुभलक्षणं सुतं रविमैन्द्रीव हरित्सतीतु तम्।
(सुद०३/१) शुभलग्नः (पुं०) शुभलग्नं (नपु०) शुभ मुहूर्त, मंगल बेला, अच्छा अवसर। शुभ्रयशस् (पुं०) धवलकीति, स्वच्छ प्रभा। (जयो० ६/२९) शुभवती (स्त्री०) शुभशीला। (जयो० १६/६२) शुभवार्ता (स्त्री०) शुभ समाचार, अच्छे विचार। शुभवासनः (पुं०) सुगन्ध। शुभशंसिन् (वि०) शुभदायक, कल्याण सूचक, प्रशस्त
प्रतिपादक। शुभस्थली (स्त्री०) पूजास्थली, प्रशस्त स्थान, धर्मानुष्ठान युक्त
शुभा (स्त्री०) [शुभ+टाप्] प्रशस्ता, शुभयुक्त। (जयो० १५/१४)
कान्ति, प्रभा, प्रकाश। ०सौन्दर्य, गोरोचन, पीलारंग। शमीवृक्ष, ०देवसभा, पियंगुलता।
शोभनाङ्ग। (जयो० १८/१०३) शुभाक्षः (पुं०) शिव।। शुभांग (वि०) सुंदर, रमणीय, प्रशस्त अंगों वाली। शुभाङ्गी (स्त्री०) सुंदर स्त्री, कामिनी।
०रति, कामदेव की पत्नी। शुभाचार (वि०) सद्गुणी, सदाचरण वाला। सदाचारी। शुभाभिवादिन (वि०) सद्गुणों का अभिवादन करने वाला।
(समु०८/२८) शुभनना (स्त्री०) मनोरमा, रम्या स्त्री। शुभाया (स्त्री०) सुंदर गृहिणी, नि:शंकितगृहिणी। (जयो०
२२/) शुभाशंसन् (स्त्री०) आशी:। (जयो० ३/१४३)
आशी, आशीर्वाद। (जयो० १६/२) 'कस्यात्मन आशी: शुभाशंसनं वर्तते।
(जयो० ३/३०) शुभाशंमनं (नपुं०) शुभाशीर्वाद, मंगल कामना। (जयो०१०
३/३०) शुभाशंसा (स्त्री०) आशीष, शुभ-कामना। शुभाशिर्वादः (पुं०) शुभाशंसन् शुभकाना, मंगल आशीष।
(समु० ३/९) शुभाश्री (स्त्री०) शुभार्शिवाद, शुभकामना, शुभहृदया, प्रशस्त
कामना। (वीरो० १४/७) शुभाशयवाली। (वीरो०१४/५३)
अच्छी कामना वाली। (जयो०वृ० १२/१५) मातर्वयस्यैः सह यामि,
देशान्तरं शुभाशीर्भवतात्तु ते सा। (समु० ३/१२) शुभाश्रमं (नपुं०) शुभ कर्मों का आना। (जयो० ३/४) शभाकर्कनशर (वि०) शुभ कारण से। (सुद० ४/१८) शुभोपयोगः (पुं०) शुभ कर्मों का उपयोग।
प्रशस्त पुण्य का उदय। (समु०८/) शुभोगपयोगी (वि०) प्रशस्त परिणाम वाला। (समु०८/३७) शुभ्र (वि०) [शुभ्+रक्] श्वेत, धवल, सफेद।
उज्जल, कान्तिमय। शुभ्रः (पुं०) श्वेत रंग। चन्दन। शुभ्रं (नपुं०) रजत, चांदी।
०अभ्रक, ०कपास।
स्थान।
शुभहृदया (वि०) शुमाशी। (वीरो० १४/७)
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शुभ्रकरः
१०८०
शुषः
शुल्लं (नपुं०) [शुल्व्+अच्] सतली. रस्सी डोरी। ताम्र,
तांबा।
शुभ्रकरः (पुं०) चन्द्र, शशि।
०कपूर। शुभ्ररश्मिः (स्त्री०) शशि, चन्द्रमा। शुभा (वि०) [शुभ्र+टाप्] ०गंगा।
०वंशलोचन।
०प्फटिक। शुभ्रांश: (स्त्री०) शशि, चन्द्र। शुभ्रिः (स्त्री०) [शुभ+क्रिन्] ब्रह्मा। शुम्भ (अक०) चमकना, ०भासित होना, प्रकाशित होना।
(जयो० ११/७६) शुम्भः (पुं०) [शुभ+अच्] एक राक्षस विशेष। शुम्भ (अक०) आघात पहुंचाना, मारना। शुम्भत् (वि०) शोभायमान। (जयो० ११/७६) शुर् (सक०) चोट पहुंचाना, मार डालना। शुर् (सक०) दृढ़ करना, स्थिर करना, ठहराना। शुल्क् (सक०) लाभ उठाना, देना, प्रदान करना।
रचना करना। कहना, बोलना, वर्णन करना।
०छोड़ना, त्यागना, विसर्जन करना। शुल्कः (पुं०) [शुल्क+घञ्] कर, चुंगी। (जयो०वृ० २१) शुल्कं (नपुं०) शुल्क देना, सीमा कर देना।
विद्यादि के लिए शुल्क देना। फीस देना। उपहार देना, भेंट देना, वस्तु प्रदान करना।
विक्रय मूल्य। शुल्कग्राहक (वि०) ०शुल्कसंग्रह कर्ता कर अधीक्षक। शुल्कवाहिन् (वि०) शुल्क संग्रह कर्ता। शुल्कदः (पुं०) वाग्दान, वचनदान।
विवाह वचन। शुल्कवंत (वि०) कर वाले।
यदसङ्खाकरा नृपास्त्रपा, भुवि नीता बिभुनाऽमुना पुनः। क्व महस्तव तत्सहस्त्रिणो रविमश्वायुदधूयन् खुरैः।।
(जयो० १३/२८) शुल्कशाला (स्त्री०) चुंगीधर, करशाला, शुल्क स्थान। शुल्कस्थानं (नपुं०) चुंगीधर, करशाला। शुल्क समादानं (नपुं०) करपात-टेक्स लेना, टैक्स हासिल
करना। (जयो० १३/२७) किरणक्षेप। (जयोवृ० १३/२७)
शुल्व् (सक०) देना, प्रदान करना।
०भेजना, ०मापना।
इधर, उधर करना। शुल्वं (नपुं०) रस्सी, डोरा, धागा।
नियम, कानून, विधिसार। शशभाते-भूतकालिक क्रिया। शोभा को प्राप्त हुए।
धुहितदीप्तिमताङ्गजन्मना शुशुभाते जननी धनी च ना। शशिना शुचिशर्वरीव सा
दिनवच्छ्रीरविणा महायशः।। (सुद० ३/१६) शुश्रू (स्त्री०) [श्रुयङ लुक्] जननी, माता। शुश्रूषक (वि०) [श्रु+सन् द्वित्वादि ण्वुल] सावधान, आज्ञाकारी। शुश्रूषक (वि०) सेवक, अनुचर। शुश्रूषणं (नपुं०) [श्रु+सन् इत्यादि ल्युट्] सर्ववर्णानां सुश्रूषण
सेवन। ०सेवन। (जयो० २/११४) ०सेवा, परिचर्या। ये शुश्रूषणशीला स्तान् पुनः शुद्रेतिसंज्ञया। (हित० ८) ०श्रवणेच्छा, सुनने की अभिलाषा।
कर्तव्यपरायणता, आज्ञाभिवादन। ०आज्ञा मानना। शुश्रूषणशीला (स्त्री०) आज्ञाकारी, सेवार्थी। (हित०८) शुश्रूषा (स्त्री०) [श्रु+सन् द्वित्वादि+अच टाप्] श्रवणेच्छा।
सेवा, परिचर्या। (हित०८) ०सम्मान, समादर, विनम्रभाव।
बोलना, कहना। शुश्रूषु (वि०) [श्रु+सन्, द्वित्वादि-उ]
० श्रवणेच्छा वाला, परिचर्या वाला। सेवा करने वाला। आज्ञापालन। ०सजग, सावधान। शुश्रूषण: (पुं०) श्रोताजन।
शुश्रूषूणामनेका वाक् नानादेशनिवासिनाम्। अनक्षरायितं वाचा सार्वस्यातो जिनेशिनः।।
(वीरो० १५/८) शुषः (पुं०) [शुष्+क] सूखना, शुष्क होना।
बिल, भूरन्ध्र।
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शुषिः
१०८१
शद्रः
शुषिः (स्त्री०) [शुष्+कि] सुखाना।
रन्ध्र, छिद्र, विवर, बिल। शुषिर (वि०) [शुष्+किरच्] छिद्र युक्त, रन्ध्रमय विवरयुक्त। शुषिरः (पुं०) अग्नि, बह्नि, ज्वाला।
०चूहा, मूषक। शुषिरं (नपुं०) छिद्र, अन्तरिक्ष छिद्रयुक्त वाद्य, जो हवा
की फूंक से बजाता है। शुषिरा (स्त्री०) [शुषिर+टाप्] नदी।
एकगन्धद्रव्य विशेष। शुषिलः (पुं०) [शुष्+इलच्] पवन, वायु, हवा। शुष्क (भू०क०कृ०) [शुष्+क्त] सूखा, म्लान हुआ, मुझया
हुआ। (दयो० ३५) रिक्त, व्यर्थ, अनुपयोगी, अनुत्पादक। निराधार, निष्कारण। झुर्रा सहित, कृशता सहित। ०कठोर, कर्कश। शुष्ककलहः (पुं) निराधार झगड़ा, व्यर्थ की कलह। शुष्कगत (वि०) सूखे पने को प्राप्त। शुष्कघोषः (पुं०) व्यर्थ का उद्घोष। शुष्कजडः (पुं०) सूखी जड़। शुष्कज्योति (स्त्री०) निराधार ज्योति। शुष्कपादपः (पुं०) सूखा पेड़। शुष्कभावः (पुं०) कठोर भाव। शुष्कमाला (स्त्री०) म्लान माला, मुझाई हुई माला। शुष्कयात्रा (स्त्री०) संघर्षशील यात्रा। शुष्कयोजना (स्त्री०) निराधार योजना। शुष्क राग (वि०) राग रहित, ममत्व विहीन। शुष्कलः (पुं०) [शुष्क+ला+क] सूखा मांस। शुष्कवृक्षः (पुं०) सूखा वृक्षा शुष्क श्रीफलं (नपुं०) सूखा नारियल। शुष्कास्थियुक् (वि०) सूखी हड्डी चबाने वाला। (सुद०
१२१) शुष्मः (पुं०) [शुष्+मन्] सूर्य, रवि।
अग्नि, आग। पवन, हवा। ०पक्षी। शुष्मन् (पुं०) [शुष्+ङ्+मनिप्] ०अग्नि, आग। शुष्मन् (नपुं०) पराक्रम, बल, वीर्य, शक्ति।
०प्रभा, आग।
शुष्मन् (नपुं०) पराक्रम, बल, वीर्य शक्ति।
प्रभा, कान्ति, प्रकाश। शुष्मं (नपुं०) पराक्रम, बल, शक्ति। शुष्यत् (वि०) सूखी हुई। (जयो०वृ० २०/६३) शुष्यतसलिला (स्त्री०) सूखी नदी। शीलसहस्त्रांशतेजसेव शुष्यत्सलिलासा-सरिदेव।
(जयो०२०/६३) शूकः (पुं०) [श्वि+कक्] जौ की बाल।
०दयाभाव।
शूकः स्यादनुकम्पायाम्। इति। विलो० (जयो० २७/४०) शूकं (नपुं०) पौधों के रोएं। शूकं (नपुं०) नोट, अग्रभाग, सिरा, किनारा।
करुणा, कोमलता।
विषैला कीड़ा। शूककीकः (पुं०) रोएंदार कीड़ा। शूककीटकः शूकधान्यं (नपुं०) ढूंट से निकला धान्य। शूकरः (पुं०) [शू इत्यव्यक्तं शब्दं करोति- शू+कृ+अच्]
सूअर, सूकर। (जयो० २५/२१) शूकरेष्टः (पुं०) मोथा, नागरमोथा, एक घास विशेष। शूकल: (पुं०) [शूकवत् क्लेश ददाति- शूक+ला+क] अड़ियल
अश्वा शूद्रः (पुं०) [शुच्+रक्] संस्कार हीन।
ब्राह्मण्या अपि शूद्रत्व, संस्काराभावतोऽवन्तः। (हित०सं० २४) ०भ्रष्टाचार प्रहीण (जयो० ५/१०२) 'शूद्रो भ्रष्टाचारः प्रहीणोता जनः स' (जयो०वृ० ५/१०२) शिल्पकार, शिल्पी व्यक्ति, जो नक्कासी आदि करता
TIT
करकौशलेन च कलाबलेन कुंभादिनर्तनादिबला। शूश्रूषणं हि शूद्रा, जीवा खलु विश्वतो मुद्रा। (जयो० २/११४) 'कारु: शिल्पी कुशील वो नटस्तस्य कर्म नर्तनम्। एतद्विद्याकर्मण उपलक्षणम्। तस्मिन रतेषु शिल्पविद्योप,
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शूद्रकः
१०८२
शून्यघट
जीविशूद्रेषु संस्काधारा नास्ति।
शूद्राणी (स्त्री०) [शूद्र ङीष् पक्षे आनुक्] शूद्र की भार्या, परपरागत-गर्भाधानादिक्रिया न विद्यते। (जयो०वृ० २/१११) | शिल्पिनी। पिण्डशुद्धेरभावत्वान्मद्य-मांस-निवेषणात्।
शूद्रिका (स्त्री०) शूद्रभार्या, शूद्रा, शिल्पकारिणा। (जयो० न्यग्वृत्तेश्चाक्रियाचाराच्छूद्रेष्वमोक्षवर्मता।
__ २५/२५) (हित० सं० २४)
शूद्री (स्त्री०) शूद्रिका, शूद्राणी, शिल्पिनी। हस्तादिकौशलं हिल्पमहावस्तुविभावने।
शून (भू०क०कृ०) [श्वि+क्त] शूद्राणां वृत्तये साधु, साधनं स महीशिता।। (हित० सं०९) ०वर्धित, बढ़ा हुआ, समृद्ध। नृत्य-गान-वादित्रादि, विधिना वर्तनं पुनः।
सूजा हुआ। विद्येति नामतः ख्यातः तेषामेवामुना परम्।। (हित० १०)
शूना (स्त्री०) मृदुतालु, घंटी, उपजिह्विका। चार वर्णों में चतुर्थ वर्ण।
०बूचड़ खाना। •तुच्छ, अधम, परम्परा विहीन।।
चक्की, ओखली। शूद्रकः (पुं०) मृच्छकटिकं नाटक का प्रसिद्ध रचनाकार,
शून्य (वि०) [शूनायै प्राणिवधाय हितं रहस्य स्थानत्वात् यत्] जिसने जन-जीवन की यथार्थता का परिचय देने के लिए
रिक्त, खाली। (सुद० ९८) पात्रोचित भाषा का प्रयोग भी किया है। इस रचनाकार ने
०शून्य स्थान, निर्जन स्थान। शकारी, मागश्री, चाण्डाली शौरसेनी महाराष्ट्री आदि का
पारावार इव स्थितः पुनरहो प्रयोग बहुतायत किया है। इसमें जहां संस्कृत को। (१५
शून्ये श्मसाने तया। (सुद० ९८) से २०) ही स्थान मिल पाया है, वहां विविध प्राकृतो को
सूनी, एकाकी। (दयो० ३९) ८० प्रतिशत से ८५ प्रतिशत स्थान मिला है।
अविद्यमान। शूद्रकृत्यं (नपुं०) शूद्र कार्य, क्षुद्र कार्य।
अभाव, कमी। शूद्रजाति: (स्त्री०) शिल्पकला प्रवीण जाति। (वीरो० १७/२८)
अन्त, नाश, विनाश। शद्रत्व (वि०) सुच्छता, निम्न का सेवन। (वीरो० १७/२८) शूद्रधमः (पुं०) शूद्र का कर्तव्य।
विविक्त, वीरान, जनविहीन। शूद्रपात्रं (नपुं०) शिल्प युक्त पात्र, नक्कासी युक्त पात्र।
खिन्न, उदास, उत्साहहीन। शूद्रप्रियः (पुं०) शिल्पप्रिय।
वञ्चित, रहित, अभावयुक्त। शूद्रवर्णः (पुं०) पामर वर्ण।
निर्दोष, अर्थहीन। शूद्रवर्णत्व (वि०) पामरत्व।
शून्यं (नपुं०) खोललापन, रिक्त। 'शूद्राणामाधिक्या' (जयो०वृ० १८/५०)
बिन्दू। शूद्रा (स्त्री०) शूद्रा नामक दासी। (जयो०१० २५/२६) (पृ०
आकाश, अन्तरिक्षा ११६४)
शून्यवाद, क्षणिकवाद, प्रमाण और प्रमेद्य का विभाव एको दूरात्त्यजति मदिरां ब्राह्मणत्वाभिमाना
स्वप्न की तरह होना। दन्यः शूद्रः स्वयमहमिति स्नाति नित्यं तयैव।
अविद्यमानता, अस्तित्वहीनता। द्वावप्येतौ युगपदुदरान्निर्गतौ शूद्रिकायाः
शून्यकार्य (वि०) कार्यमुक्त, कर्तव्य पथ से विमुख। शूद्रौ साक्षादथ च चरतो जातिभेदभ्रमेण।।
शून्यकृत् (वि०) निरर्थक किया हुआ। (जयो०वृ० ११६४)
शून्यकोष (वि०) कान्ति विहीनता, कौमुदी/चन्द्र की चांदनी शूद्राजनी (स्त्री०) शूद्र स्त्री।
का अभाव। शूद्राजीवा (स्त्री०) शूद्र की आजीविका।
शून्यगत (वि०) अभाव को प्राप्त हुआ। सर्ववर्णानां शुश्रूषणं सेवनमित्यादि,
शून्यगेहं (नपुं०) सूनाघर, एकाकीघर। उजड़ा हुआ घर, शूद्राणामाजीवा जीविका विश्वतः
जर्जरगृह। सर्वेषां मुदं हर्ष राति। (जयो०० २/११४)
| शून्यघट (वि०) खाली घड़ा, रीता हुआ घट।
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शून्यघोष
१०८३
शूल
शून्यघोष (वि०) उद्घोष का निरर्थकता। शून्यचेतना (स्त्री०) चेतनता रहित। शून्यजीव (वि०) जीवों का अभाव हुआ। शून्यज्ञान (वि०) श्रुतज्ञान का अभाव। शून्यटंकार (वि०) अतिक्षय निर्जनता। (जयो० ५/२) शून्यतप (वि०) तप की कमी। शून्यतमता (वि०) अतिशय निर्जनता। (जयो० ५/२) शून्यता (वि०) क्षणिकता, अभावपना। शून्यदान (वि०) दान का अभाव। शुन्यदासत्व (वि०) दासता का अभाव वाला। शून्यदैन्य (वि०) दीनतात से रहित। शून्यधन (वि०) धन के अभाव वाला, निर्धन। शूनयधैर्य (वि०) धीरता की कमी। शून्यनन्दभावः (पुं०) आनन्द का भाव का अन्त। शून्यपत्रं (नपुं०) ट्रॅट, सूखा वृक्षा शून्यप्रीति (वि०) प्रीति का अभाव। शून्यप्रीति (वि०) प्रेम भाव से रहित। शून्यफल (वि०) फल की निरर्थकता। शून्यभक्ति (स्त्री०) भक्ति का अभाव। शून्यभाव (वि०) निराधार परिणाम। शून्यभावना (स्त्री०) चिन्तन की कमी। शून्यभेद (वि०) भेदों से रहित, विकल्प रहित। शून्यमति (स्त्री०) बुद्धि की कमी, मूढमति, अज्ञनता। शून्यमन्त्रं (नपुं०) मन्त्र का अभाव। शून्ययोनिः (स्त्री०) उत्पत्ति रहित। शून्ययौवन (वि०) क्षीण यौवन वाला। शून्यरहित (स्त्री०) रति/राग भाव से रहित। शून्यवादः (पुं०) बौद्ध की एक विचारधारा।
०शून्यवाद नाम यमतमुपयामि' (जयो०७० ५/४३) शून्यं वदतीति शून्यवादम्। (जयो०वृ० ५/४३) मुक्तिस्तुशून्यता दृष्टे: तदर्थ शेषभावना। (प्रमाणवार्तिक
१/२५६) ०वह वाद जो ईश्वर, जीवादि की सत्ता को स्वीकार
नहीं करता है। शून्यवादिन् (पुं०) नास्तिक। ०शून्यवाद का कथन करने वाले माध्यमिक मतानुयायी
बौद्ध। शून्यशाला (स्त्री०) निर्जन स्थान, एकान्त स्थल। शून्यागार।
शून्यस्थानं (नपुं०) एकाकी स्थान। शून्यहृदयं (वि०) अन्यमनरक, व्याकुलता युक्त। शून्या (स्त्री०) [शून्य+टाप्] बांझ स्त्री। शून्यागारः (पुं०) शून्य गृह, निर्जन स्थान, एकाकी स्थल।
(मुनि० २९) ०धर्मशाला। (दयो० ८८) विपीदामीव भो भार्ये शून्यागारप्रपालकः। (दयो०८८)
०सूना मुक्त मकान, देवस्थान। शून्यायतनं (नपुं०) शून्यागार। (भक्ति०१६) (दयो० २२) शूर् (अक०) प्रबल उद्यमी होना, शक्तिशाली होना, बलिष्ठता
युक्त होना। शूर (वि०) [शूर्+अच्] वीर, योद्धा, पराक्रमी। शक्तिशाली।
(सुद०१/२७) शूरः (पुं०) शूरवीर व्यक्ति, वीर पुरुष। (जयो०वृ० ५/९१)
०सूर्य, सिंह, सूअर, ०सालवृक्ष। ०कृष्ण के दादा।
०सूर्यग्रह। (जयो० ५/९१) शूरकीट: (पुं०) तिरस्कार योग्य योद्धा। शूरणं (नपुं०) [शूर्+ल्युट्] कन्दमूल, शूरण। शूरमानं (नपुं०) अहंकार, अभिमान। शूरशिरोमणि (पुं०) वीर कुञ्जर। (जयो०वृ० १३/२७) शूर्पः (पुं०) एक माप विशेष, दो द्रोण का एक तोल। शूर्प (नपुं०) [शृ+प+ अश्च नित्] छाज। शूर्पकर्षः (पुं०) हस्ति, हाथी, करि। शूर्पणखा (स्त्री०) रावण की बहन, रावण भगिनी। शी (स्त्री०) [शूर्प+ङीष्] ०पंखा, सोपडा, सूपड़ा, छोटा
छाज। शूर्मः (पुं०) [सुष्ठः ऊर्मि अस्ति अस्याः] लोह प्रतिमा,
अयस्क मूर्ति।
घन, निहाई। शूमिः/शूमिका (स्त्री०) घन, निहाई।
अयस्क प्रतिमा। शूल (अक०) ०बीमार होना, व्याधि ग्रसित होना, कोलाहल
करना, दु:खी होना।शुद्धिः (स्त्री०) विशुद्धि, चित्त का प्रसन्न रहना। निर्मल ज्ञान और दर्शन का आविर्भाव। ०प्रायश्चित्त परिशोधन।
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शुद्धिसम्पादक
१०८४
शृङ्गवत्
समाधान, संशोधन।
शूष (सक०) पैदा करना, उत्पन्न करना। संकलकर्मोपाय।
०जन्म देना, सृजन करना। ०चमक, कान्ति।
शृकालः (पुं०) गीदड़। शुद्धिसम्पादक (वि०) निर्मल करना, स्वच्छ करना। (जयो० | शृगालः [असृजं लाति-ला+क] गीदड़। २/७७)
०ठग, धूर्त, उचक्का । शूल: (पुं०) त्रिशूल। (जयो० ८/१५)
० भीरु, दुष्ट प्रकृति वाला। कटुभाषी। शूलं (नपुं०) [शूल+क] पैना, नुकीला।
०कृष्ण। त्रिशूल, तीक्ष्ण, बी, भाला।
शृगालकेलिः (स्त्री०) एक प्रकार का बेर। अयस्क शलाका।
शृगालजम्बु (स्त्री०) ककड़ी, खीरा। ०पीड़ा, कष्ट, व्याधि।
शृगालजम्बु गठिया, जोड़ा का दर्द।
शृगालिका/शृगाली (स्त्री०) [शगाल+ङीष्) गीदड़ी, लोमड़ी। झण्डा, ध्वजा।
०पलायन, प्रत्यावर्तन। शूलकः (पुं०) [शूल+कन्] घड़ियल घोड़ा।
शृङ्खलः (पुं०)शृङ्खला (स्त्री०) [शृङ्गात् प्राधान्यात् स्खल्यते शूलग्रन्थि (स्त्री०) एक घास विशेष, दूर्बा, दूब।
अनेन] शूलघातनं (नपुं०) लोह चूर्ण।
शृङ्खला (स्त्री०) ०करधनी, कंदौरा। शूलन (वि०) शामक औषधि, वेदनाहर।
श्रेणी, परम्परा। शूलधन्वन् (वि०) शिव, महोदव।
०सांकल। (वीरो० ६/२६) शूलधर देखो ऊपर।
शृङ्खलकः (पुं०) [शृङ्खल+कन्] जंजीर। शूलधारिन् (पुं०) महादेव, शिव।
ऊंट। शूलधृक् देखो ऊपर।
शृङ्खलित (वि०) [ शृङ्खला+इतच्] जंजीर में बंधा हुआ, शूलपाणि (पुं०) शिव, महादेव।
जकड़ा हुआ। शूलभृत् (पुं०) शिव, महादेव।
पंक्तिबद्ध। (जयो०१०/५५) शूलशत्रु (पुं०) एरण्ड।
शृङ्गं (नपुं०) [शृ+गन्] सींग। शूलस्थ (वि०) सूली पर स्थित।
शिखर, चोटी, कूट। (सम्य० ११६) शूलहन्त्री (स्त्री०) एक जौ विशेष।
'ग्रीष्मे गिरेः श्रङ्गमधिष्ठित्' (वीरो० १२/३५) शलहस्तः (पुं०) भालाधारी. बीधारी।
उत्तुंग भाग, ऊंचाई। शूला (स्त्री०) [शूल+टाप्] वेश्या।
उन्नत, सर्वोत्तम, सर्वोपरि। शूलाकृतं (नपुं०) [शूल+अच्-कृ+क्त] भुना हुआ मांस। ०अग्रभाग, नोक्त। शूलिक (वि०) [शूल+ठन्] शूलधारी, त्रिशूल युक्त। सलाक ०सानु शिखर। (जयो० १५/१३) पर भुना हुआ।
शृङ्गकः (पुं०) सींग। शूलिकः (पुं०) खरगोश, शश।
०चन्द्रचूडा। शूलिकं (नपुं०) भुना हुआ मांस।
शृङ्गकं (नपुं०) बाण। शूलिन् (नपुं०) [शूलमस्त्यास्य इनि] बींधारी, शूलधारक, शृङ्गकं (नपुं०) उदर शूल से पीड़ित।
शृङ्गजः (पुं०) बाण। शूलिन् (पुं०) खरगोश। शिव, महादेव।
शृङ्गप्रहारिन् (वि०) सींग से मारने वाला। शूलिनः (पुं०) [शूल+यत्] सूली पर स्थित।
शृङ्गप्रियः (पुं०) शिव, महादेव। सलाख पर भुना हुआ।
शृङ्गमोहिन् (पुं०) चम्पक वृक्ष। शूल्यं (नपुं०) भुना हुआ मांस।
शृङ्गवत् (वि०) चोटी वाला।
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शृङ्गवत्
१०८५
शेवलं
|
शृङ्गवत् (पुं०) पर्वत, गिरी। शृङ्गाट:/शृङ्गाटकः (पुं०) [शङ्गप्रधान्यं अटति-शृङ्ग+अट्+अण]
पर्वत, पहाड़।
०एक पौधा। शृङ्गागः (पुं०) शिखर प्रान्त। (वीरो० २/३३) शुङ्गाग्रसंलग्नः (वि०) शिखर के अग्र भाग से जुडी हई।
(सुद०१/३१) शृङ्गारः (पुं०) [ शृङ्ग कामोदेकमृच्छत्यनेन ऋ+अण्] प्रेम, प्रीति, प्रणय, संभोगेच्छा।
मैथुन, ललित प्रसंग।
चिह्न। शृङ्गारं (नपुं०) लौंग, लवंग।
सिंदूर। ०अदरक। शृङ्गारकः (पुं०) प्रेम। शृङ्गारकं (नपुं०) सिंदूर। शृङ्गारकृतः (नपुं०) काम भावना युक्त। शृङ्गारचेष्टा (स्त्री०) कामानुक्ति की भावना। शृङ्गारदेवी (स्त्री०) परमार वंश में उत्पन्न राजा धारावंश की ____ भामिनी। (वीरो० १५/५२) शुङ्गारभाषितं (नपुं०) प्रणयलीला की अभिव्यक्ति। प्रणयकथा। शृङ्गार भूषणं (नपुं०) सिंदूर/सुहाग। शृङ्गारयोनिः (स्त्री०) कामदेव। शृङ्गाररसः (पुं०) प्रणयरस, रस का एक भेद। शृङ्गारवादः (पुं०) सयसुरत बेला। (जयो० १५/५९) शृङ्गारविधिः (स्त्री०) प्रेमालाप। शृङ्गारवेशः (पुं०) प्रेमालाप का सहयोगी व्यक्ति। शृङ्गारित (वि०) [शृङ्गार+इतच्] प्रेमाविष्ट, प्रणयोन्मत्त।
सिंदूर से लाल।
०अलंकृत, सजा हुआ। शृङ्गारिन् (वि०) [शृङ्गार+इनि] प्रेमासक्त, प्रणयोन्मत्त शृङ्गारप्रिय। शृङ्गारिन् (पुं०) प्रणयोन्मत्त।
प्रेमी। ०प्रेमी, ०लाल, हस्ति, हाथी। ०वेशभूषा, सजावट।
सुपारी का वृक्षा ०पान का बीड़ा। शृङ्गिः (स्त्री०) सिंगी मछली। शृङ्गिकं (नपुं०) [शृङ्ग ठन्) विष विशेष।
शृङ्गिणी (स्त्री०) [शृङ्गिन् ङीष्] गाय, गऊ।
मल्लिका, मोतियां। शृङ्गिन् (वि०) [शृङ्ग+इनि] सींगों वाला।
शिखाधारी, चोटीवाला। शृङ्गिन् (पुं०) पर्वत, पहाड़, गिरि। ___हस्ति, शिव। शृङ्गी (स्त्री०) सिंगी मछली। शृङ्गीपात्त (वि०) शिखरों पर लगी हुई। (जयो० ३/७४) शृणिः (स्त्री०) [शृ+क्तिन्] अंकुश, प्रतोद। शृत (भू०क०कृ०) [शृ+क्त] पकाया हुआ, उबाला हुआ। शृध् (अक०) अपान वायु छोड़ना, पाद मारना।
आर्द्र करना, गीला करना। प्रयत्न करना, लेना, ग्रहण करना। ०अपमान करना, नकल करना। शृधु (स्त्री०) बुद्धि। गुदा। शेखरः (पुं०) [शिख्+अरन्] चूड़ा, कलगी, फूलों का गजरा।
किरीट, मुकुट।
चोरी, कूट, शिखर। ०शृंग। शेखरं (नपुं०) लवंग, लौंग। शेपः (पुं०) लिंग, पुरुष की जननेन्द्रिय।
अण्डकोष। शेफालि: (स्त्री०) [शेफाः शयनशलिनः अलयो यत्र] निर्गुण्डी,
नीलिका, नील पादप। शेमुली (स्त्री०) [शी+क्वि-शै: मोहः तं मुष्णाति-शे+मुष्+क+
ङीष् मति (जयो० २५/२७, जयो० ११/१८) बुद्धि, धी। (जयो० १६/३४) विवेक बुद्धि। (मुनि० ३३)
०प्रज्ञा, ज्ञान। (जयो० २।८१) शेल (सक०) जाना पहुंचना। शेवः (पुं०) [शुक्रपाते सति शेते-शी+वन्] ०सर्प, सांप,
विषधर। लिंग, उन्नत।
आनन्द, ०धन, सम्पत्ति, वैभव। शेवं (नपुं) लिंग।
आनन्द। शेवधिः (स्त्री०) मल्यवान, कोष। शेवलं (नपुं०) [शी+विच् तथा भूतः सन् वलते वल्+अच्]
पा
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शेवलिनी
१०८६
शैलतनया
एक पादप। कमल के साथ उगने वाली घास।
०पानी के ऊपर हरे रंग की रेशेदार घास। शेवलिनी (स्त्री०) नदी, सरिता। शेवालः (पुं०) घास, पानी के ऊपर हरे रंग की रेशेदार घास।
चोई (मुनि० ६) शेष (वि०) [शिष्+अच्] बाकी, बचा हुआ।
अवशिष्ट। (जयो० ३/८०) अवशेष, रिक्त, खाली। (सम्य० १८) ०समवशिष्ट। ०शेष अन्य। प्रणेभि शेषानपि तीर्थ भगवान्,
समस्ति येषां गुणर्गुणगाथा। (जयो० ११/४३) शेषः (पुं०) शेषनाग, सर्पराज। 'शेष: नागपतिः लोकख्यातः' (जयो० ११/४३)
परिणाम, प्रभाव। ०अन्त, समाप्ति, उपसंहार।
मृत्यु, विनाश। शेषं (नपुं०) चढ़ावे से बचा हुआ। शेषक्रिया (स्त्री०) क्रिया की समाप्ति। शेषकीर्तिः (स्त्री०) कीर्ति का विनाश। शेषखण्डं (नपुं०) अवशिष्ट हिस्सा। शेषगत (वि०) अवशिष्टता को प्राप्त। शेषग्रन्थिः (स्त्री०) गांठ की समाप्ति। शेषजरस् (स्त्री०) जन्म का शेष रहना। शेषजातिः (स्त्री०) उत्पत्ति का अन्त। शेषभागः (पुं०) शेष हिस्सा। शेषभोजनं (नपुं०) जूहन, अवशिष्ट आहार। शेषनागः (पुं०) ०शेषनाग, ०एक प्रसिद्ध साधिराज, सहस्त्र
कलीन्द्र। (वीरो० २/२३) शेषनागधारित्व (वि०) शेषनाग के नप को धारण करने ___ वाला। (जयो०वृ० १/३०) शेषमय (वि०) विशेषकर। (सुद० १०४) शेषयोनिः (स्त्री०) योनि का अन्त। शेषविद्वेषपरायणं (नपुं०) शेषनाग से विद्वेष करने में तत्पर।
(जयो० ७/८८) 'शेषस्य तस्यैव नागराजस्य विद्वेषणे विरोधे परायण इति' (जयो०११/४४)
शैक्षः (पुं०) [शिक्षां वेत्त्यधीते अण वा] शिक्षा को ग्रहण
करने वाला विद्यार्थी। मुनिचर्या में उद्यत शिष्य। शिक्षाशील। पठन बगैर शिक्षा पाना ही जिनका काम हो। (स.सू० ९/२४), (त०सू०पृ० १५२) 'अचिरप्रव्रजितः शिक्षायतव्यः शिक्षः, शिक्षामहतीति शैक्षो वा' (त०भा० ९/२४)
शास्त्राभ्यासी। ०अभिनव प्रव्रजित। शैक्षिकः (पुं०) [शिक्षा+ठक्] शिक्षा शास्त्र में निपुण। शैक्ष्यं (नपुं०) शिक्षाशील, शास्त्राभ्यासी।
अधिगम, प्रवीणता। [शिक्षा+यत्] शैध्रयं (नपुं०) [शीघ्र+ष्यञ्] स्फूति, तत्परता, शीघ्रता, सत्वरता। शैत्यं (नपुं०) [शीत+ष्यञ्] ठंडक, ठंडा। (जयो० १२/१२०)
शैत्यमुपेत्य सदाचरणेषुकलहमिते द्विजगणेऽत्र में शुक्। (वीरो० ९/४३) शैथिल्यं (नपुं०) [शिथिल+ष्यञ्]
०ढीलापन, शिथिलता, नरमी। (वीरो० २/४९)
मन्थरता, मंदता। ०कमजोरी, भीरुता। शैथल्य (वि०) शिथिलता। (वीरो० १२/९) शैलः (पुं०) [शिला+अण] गिरि, पर्वत, पहाड़।
०चट्टान, प्रस्तर खण्ड। (वीरो० २/३) शैलं (नपुं०) सुहागा, धूप, गुग्गुल।
शिलाजीत।
अंजन विशेष। शैलकं (नपुं०) [शैल+कन्] धूप, शैलेय गन्ध। शैलकटकः (पुं०) पर्वत ढलान, गिरि ढलान, पर्वत उतार। शैलकर्मन् (नपुं०) प्रस्तर कर्म, पत्थर पर उत्कीर्ण कार्य।
'सेलो पत्थरो, तम्हि घड़िदपउिमाओ सेलकम्म' (धव०
९/२४९) शैलगन्धं (नपुं०) एक चन्दन विशेष। शैलजं (नपुं) धूप, शैलयगन्ध।
शिलाजीत। शैलजा (स्त्री०) गौरी, पार्वता। शैलजात (वि०) पर्वत से उत्पन्न हुई। शैलतति (स्त्री०) पर्वत माला। (सुद० १/१३) शैलतनया (स्त्री०) गौरी, पार्वती, शिवाना।
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शैलधन्वन्
१०८७
शैलधन्वन् (पुं०) शिव, महादेव। शैलधरः (पुं०) कृष्ण, वासुदेव। शैलनिर्यासः (पुं०) शैलयगन्ध, शिलाजीत। शैलपत्रः (पुं०) बिल्वतरु। शैलपुत्री (स्त्री०) गौरी, पार्वती। शैलभित्तिः (स्त्री) टांकी, प्रस्तर छैनी। शैलभूपः (पुं०) गिरिराज। (जयो० १६/१४) शैलभेदक (वि०) पत्थर तोड़ने वाला। शैलमाला (स्त्री०) पर्वत श्रृंखला, गिरिकूट। शैलरन्ध्र (नपु०) गुफा, कन्दरा। शैलशिविरः (पुं०) समुद्र, सागर। शैलसारः (वि०) चट्टान की तरह दृढ़, अत्यंत कठोर। शैलसुता (स्त्री०) गौरी, पार्वती। शैलांशः (पुं०) एक देश का नाम। शैलाग्रं (नपुं०) पर्वत कूट। शैलाटः (पुं०) पहाड़ी, असम्भ व्यक्ति।
सिंह। शैलाधिपः (पुं०) हिमालय, हिमगिरि। शैलाधिराजः (वि.) हिमगिरि, हिमालय।
मेरु पर्वत। शैलानुकतु (वि०) पर्वत सदृश अनुकरण करने वाला।
'शैलं पर्वतमनुकरोतीति तस्य शैलानुकर्तुः' (जयो०वृ०
८/३५) शैलालिन् (पुं०) [शिलालिना मुनिना प्रोक्तं, नर सूत्रमधीयते
शिलालि-णिनि] नर्तक, नायक, अभिनेता। शैलिक्य (वि०) [गर्हितं शीलमस्त्यस्य-ठन्, शीलिक-ष्यञ्]
पाखण्डी , छल, धूर्त, ठग। शैली (स्त्री०) [शीलमेव स्वार्थ ष्यत्र डीपि य लोपः] अभिव्यक्ति,
विचार निरूपण की पद्धति, विवेचना का प्रकार। वृत्ति, विश्लेषण, व्याख्या।
निरूपण, कथन। शैलूषः (पुं०) [शिलूषस्यापत्यं-शिलूष+अण्] नर्तक, नायक,
नेता, अभिनेता। (सुद० १२८) शैलूषिक (वि०) [शैलूषं तवृत्तिं अन्वेष्टा-ठक्] अभिनय
का व्यवसायी। शैलेय (वि०) [शिलायां भव:, शिला+ठक] पर्वतीय, पहाड़ी। ___०पथरीला, प्रस्तर सदृश कठोर। शैलेयः (पुं०) सिंह। ०भ्रमर, भौंरा।
शैलेयं (नपुं०) पर्वत ग्रन्थ द्रव्य, धूप, सुगन्धित राल।
०सेंधा नमक। शैलेश (पुं०) मेरु पर्वत, 'सेलेसो किर मेरु' (जैन०ल०
१०६६) शैलेशी (वि०) शैलेश की तरह निश्चल रहने वाला, शील में
विशिष्ट। शीलानोमीश: शैलेश: तस्य भावः। (जेन०ल० १०६६) शीलनामष्टादश सहस्त्रसंख्यानामीशः
शैलेशः शैलेशस्य भावः शैलेशी' (जैन०ल० १०६६) शैलेश्य (वि०) पर्वत की तरह दृढ़ रहने वाला।
०शील में स्थिर रहने वाला। शैलोचितः (पुं०) पर्वत प्रदेश के उचित। (जयो० ६/२४) शैल्य (वि०) [शिला+ष्यञ्] पथरीला, पत्थरों से युक्त। शैलयं (नपुं०) कठोर, दृढ़। शैव (वि०) [शिवो देवताऽस्य-अण] शिवसम्बंधी, शिव को
मानने वाले।
कर्म की उपाधि से रहित।
कर्मोपाधि विनिर्मुक्तं तद्रूपं शैवमुच्यते' (जैन०ल० १०६६) शैवः (पुं०) शिवभक्त लोग। शैवं (नपुं०) अष्टादश पुराणों में से एक पुराण। शैवंकटी (स्त्री०) शिवकंटा रानी। (जयो० २६/२) शैवधर्मी (वि०) शिवभक्त। (वीरो० १५/४५) शैवल: (पुं०) [शी+बलच्] शैवाल, पानी की घास।
सेवाई, चोई, काई, मोक्ष। सेवार (जयो० ८/९१)
पद्म काष्ठ। शैवलं (नपुं०) सुगन्धित लकड़ी। शैवलपलं (नपुं०) काई समूह-जलमलानां दलस्य। (जयो०
१४/४९) शैवलिनी (स्त्री०) [शैवल+इनि+ङीष्] नदी, सरिता। शैवालः (पुं०) पानी की घारस, जलीय घास, सेवाई चोई।
(सुद० २/७) (जयो० १३/९२) काई, मोथा। शैवालदलं (नपुं०) जलीय घास समूह। (जयो० १३/९७) शैव्यः (पुं०) पाण्डु सेना का योद्धा। शैशवं (नपुं०) [शिशोर्भावः अण] बाल्यकाल। (जयो० २३/५७)
बाल्यावस्था, बचपन, सोलह वर्ष से नीचे का समय। शैशवयुक्त (वि०) बाल्यावस्था सहित। (जयो० ५/७१) शैशिर (वि०) [शिशिर+अण] सर्दी से सम्बंधित। शो (सक०) तेज करना, तीक्ष्ण करना। पैना करना।
०पतला करना, कृश करना।
९ पवता
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शोकः
१०८८
शोणितकः
शोकः (पुं०) [शुच्+घञ्] रंज, दुःख, कष्ट, विलाप, रुदन, |
वेदना। (सुद० ११०) विषाद। (जयो०वृ० ३/१४) ०अप्रसन्न। (सुद० १/१०) विरज्यतेऽतोऽपि किलैकलोकः स कोकवत्किन्वितरस्त्व शोकः।' (सुद० १/१०) ०संतप्त, व्याकुल (दया० ८७)
संताप। (जयो० १५/१९) ०पीड़ा, आकुलता-'शोकस्थानसहस्त्राणि' (सम्य० ३) चिन्ता-तथैव निवत्तिग हस्थलोक :, सदान्तरात्मन्यनुबद्धशोकः। (समु० २/३३) ०सम्बन्ध विच्छे से विकलता। ०गुणानुस्मरणपूर्वक विलाप। 'शोचनं शोकः, शोचयतीति शोकः' (जैन०ल०१०६६) ०खेद, खिन्नता, दुःखोत्कर्ष। शोकगत (वि०) वेद को प्राप्त हुआ। शोकजन्य (वि०) व्याकुलता युक्त। शोकनाशः (पुं०) अशोक वृक्षा शोकपरायण (वि०) शोक से पीड़ित। शोकप्रबन्धः (पुं०) शोक समूह। (वीरो० १३/१८) शोकमोहनीय (वि०) गुणानुस्मरण पूर्वक विलाप करने वाला। शोकलासक (वि०) शोकाकुल। शोकविकल (वि०) शोक युक्त। शोकसमूहः (पुं०) शोक प्रबन्ध। शोकस्थानं (नपुं०) दु:ख स्थान, वियोग का कारण, आकुलता
का स्थान। (सम्य० ३) शोकहर (वि०) पीड़ा नाशक। शोकाकुलः (पुं०) संताप से परिपूर्ण। (जयो० १५/९) शोकाग्निः (स्त्री०) वेदना जनक अग्नि। शोकातुरः (पुं०) विषाद से भरा। (समु० ४/३५) शोकानलः (पुं०) रंज दूर करना। शोकाभिभूत (वि०) कष्टग्रस्त, वेदनाग्रस्त। शोकोपहत (वि०) दुःख से परिपूर्ण। शोचनं (नपुं०) [शुच्+ ल्युट्] विलाप, शोक, रंज, दु:ख। शोचनीय (वि०) [शुच्+अनीयर] चिन्तनीय, विचारणीय।
विलाप करने योग्य, दुःखद। शोच्य (वि०) [शुच्+ण्यत्] शोचनीय, विलाप करने योग्य।
चिन्तनीय, दयनीय।
शोचिस् (नपुं०) [शुच्+इसि] ०कान्ति, प्रकाश, चमक,
उजाला, प्रभा। शोचिष्केशः (पुं०) अग्नि, आग। शोच्यते-चिन्तन करता है। शोटीर्य (नपुं०) [शुटीर+ष्यञ्] ०पराक्रम, ०बल, ०शक्ति, ०शौर्य, शक्ति।
शूरवीरता, बलिष्टता। शोठ (वि०) [शुल्+अच्] मूख, मूढ।
०धूर्त, छली, कपटी, ठग। ०अधम नीच।
आलसी, सुस्त। शोठः (पुं०) मूर्ख, अज्ञानी व्यक्ति।
आलसी, उद्यमहीन। शोण (सक०) जाना, पहुंचना।
लाल होना, तमतमाना। शोण (वि०) [शोण्+अच्] लाल गहरा रंग। शोणः (पुं०) लोहित वर्ण।
आनन्द भाव। शोणोधरस्तु बाले सरस्वती तन्मयं मुखं चाथ। ०अरुण, लाल। (जयो० १३/२९) ०रुवारुण। (जयो० ११/१५) ० अग्नि, आग।
लाल रंग। ०ईख, गन्ना। एक अश्व विशेष।
मंगल ग्रट। शोणं (नपुं०) रुधिर, सिंदूर, रक्त, लालिमा। शोणमणिः (स्त्री०) माणिक्य। (जयो० ६/५२) शोणरसनं (नपुं०) माणिक्य, पद्मरागमणि। शोणाननं (नपुं०) लालिमा युक्त मुख। (जयो० १५/४६) शोणाम्बु (पुं०) लालिमा युक्त बादल। शोणाश्मन् (पुं०) लाल पत्थर, माणिक्य। शोणित (वि०) [शोण+इतच्] रक्तिम्, लालिमा युक्त। (सुद०
१०२)
०लाल, लोहित। शोहितं (नपुं०) रुधिर, केसर। शोणितकः (पुं०) अरुणवर्ण। (जयो० १८/२२)
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शोलिचन्दनं
१०८९
शोभित
शोलिचन्दनं (नपुं०) रक्त चन्दन। शोणितप (वि०) रुधिर पीने वाला। शोणितपुरं (नपुं०) बाणासुर का नगर। शोणिताह्वयं (नपुं०) केसर, जाफरान। शोणितोपलः (पुं०) पद्मराग मणि। शोणिमृच् (पुं०) लाली, लालिमा। शोणोज्ज्वलः (पु०) अरुण एवं धवल। (जयो० १३/२९) शोणोधरः (पुं०) रक्त अधर, लाल लाल ओंठ। शोथ: (पुं०) [शु-थन्] सूजन, स्फीति। शोथन (वि०) सूजन दूर करने वाला। शोथजित् (वि०) सूजन हटाने वाला। शोथजिह्वः (पुं०) पुनर्नवा। शोथरोगः (पुं०) जलोदर रोग, श्वपथु, रतौंधी। (जयो०३०
१८/१८) शोथहत् (वि०) सूजन हटाने की औषधि। शोधः (पुं०) [शुध्+घञ्] संशोधन, समाधान।
०शुद्धि संस्कार। परिशोध। प्रतिहिंसा। ०प्रतिदान।
०बदला। शोधक (वि०) [शुध+णिच्+ण्वुल] शुद्ध करने वाला।
रेचक।
संशोधन करने वाला। शोधन (वि०) [शुध+णिच्+ण्वुल्] ०शुद्ध करने वाला, साफ
करने वाला। स्वच्छ करने वाला। शोधनं (नपुं०) उद्धरण, संशोधन। (जयो० १/१३) परिशोधन,
यथार्थ निर्धारण। प्रायश्चित्त, परिमार्जन, परिशुद्धि। प्रतिहिंसा, प्रतिदान, दण्ड। ०व्यकलन, तूतिया।
०मल विष्ठा। शोधनकः (पुं० ) [शोधन कन्] दण्ड न्यायालय का अधिकारी।
प्रायश्चित्त देना, दण्ड देना। शोधनकारिणी (वि०) परिशद्धि करने वाला। (जयो० २/१२२) शोधनी (वि०) बुहारी. झाडू। शोधयन्-प्रमाजित करने वाला। (मुनि० १२) शोधयन्तु-प्रमाजित करने वाला। (जयो० २/७७)
शोधयेत्-मार्जन करें। शोधित (भू०क०कृ०) [शुध्+णिच्+क्त] शुद्ध किया हुआ,
स्वच्छ किया हुआ। सुसंस्कृत, सुसंकारित।
संशोधित, समाहित, परिमार्जित।
०परिशोधित। शोध्य (वि०) [शुध् णिच्+यत्] शुद्ध किए जाने योग्य,
संशोधन योग्य। शोफः (पुं०) [शु+फन्] सूजन, अर्बुद, रसौली, शोथ। शोफाजित् (पुं०) भिलावे का पादप। शोभन (वि०) [शोभते-शुभ+ल्युट्]
चमकीला, रमणीय, उज्जवल। प्रभावान्, कान्तियुक्त, रमणीय। सुंदर, लावण्यमय। ०भद्र, शुभ, सौभाग्यशाली।
सदाचारी, पुण्यात्मा। शोभन: (पुं०) शिव, महादेव।
०ग्रह। शोभनं (नपुं०) सौन्दर्य, कान्ति, दीप्ति, प्रभा, आभा।
कमल। शोभनदन्ति (स्त्री०) सुदन्ति, स्वच्छ दांत। (जयो० १२/११७) शोभना (स्त्री०) हल्दी। शोभमान (वि०) [शुभ+शानच्] लसता, सुंदर प्रतीत होता
हुआ। कान्तिमान्, प्रभावान्। (जयो०वृ० १/५५) । शोभा (स्त्री०) [शुभ+अ+टाप] कान्ति, दीप्ति, प्रभा, आभा।
०सौंदर्य, लालित्य, चारुता। ०लावण्य, नैसर्गिक, चारुता।
छाया, अनातप। (जयो० ३/११३) ०सौभाग्य। अद्भुतां लभते शोभां सिन्दूरेणेव संस्कृता। (जयो० ३/५९)
स्वर्ण प्रतिमा। शोभाञ्जनः (पुं०) सौहजंना तरु। शोभाधारः (पुं०) सौभाग्य का आधार। शोभाननं (नपुं०) लावण्य युक्त वदन। शोभालयः (पुं०) लालित्य का गृह। शोभाश्रयः (पुं०) दीप्ति का आधार। शोभित (भू०क०कृ०) [शुभ+णिच्+क्त] अलंकृत्, चारु,
सौंदर्य युक्त।
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शोभा
१०९०
शौकल्य
०लावण्य से परिपूर्ण।
०सुंदर, प्रिय, रमणीय। शोभा (स्त्री०) कान्तिमया, सुमा। (जयो०वृ० ६/८७) शोषः (पुं०) [शुष्+घञ्] सूखना, कुम्हलाना, म्लान होना।
कृशता, क्षीणता। शोषक (वि०) म्लान करने वाला, कृश करने वाला।
अस्मिन्नहन्तयाऽमुष्य
पोषकं शोकं पुनः। (वीरो० १०/१०) शोषण (वि०) [शुष्+ल्युट] सुखना, शुष्क करना।
०कृश करना। शोषणः (पुं०) चूसना, कृश करना। रसाकर्षण, अवशोषण। शोषणं (नपुं०) [शुष्+ल्युट्] सूखना, शुष्क होना।
०क्षीण होना। कृशता। शोषायायास (भूतकालिका प्रयोग) सुखा दिया था। निःशेषयति ____ स्म। (जयो०वृ० १/२६) शोषयेत् (विधि० वि०) सुखाने योग्य।। ___'न शोषयेत्तं भुवि वायुतातिः' (वीरो० १२/३४) शोषिक (वि०) कृश करने वाली, क्षीण करने वाली। 'झणिका
शरीरस्य शोषिकाऽस्ति' (जयोवृ० २/१३३) शोषित (भू०क०कृ०) [शुष्+णिच्+क्त] सुखाया गया, कृश
हुआ, मुाया हुआ।
०परिश्रान्त। शोषिन् (वि०) [शुष्+णिच्+णिनि] सुखाने वाला, क्षीण करने |
वाला। शौच (वि०) शुचिता, पवित्रता, निर्मलता, रमणीयता। शौचदिग्दर्शनं (नपुं०) निर्मलता का कथन। शौचदृष्टिः (स्त्री०) निर्मल दृष्टि पवित्रावलोकन। शौचधर्मः (पुं०) दशधर्मो में एक धर्म। शौचपरायण (वि०) शौचधर्म युक्त। (जयो० २८/३६) शौचभावः (पुं०) शुचिता का भाव। शौचयोनिः (स्त्री०) स्वच्छ योनि। शौचार्थ (वि०) मल शुद्धि के लिए। (वीरो० १९/२८) ___पवित्रार्थ, निर्मलार्थ। (समु० ९/२) शौचेयः (पुं०) [शुचि ढक्] धोबी। शौट (अक०) अहंकारी होना, अभिमानी होना। शौटीर (वि०) [शौटे: ईरन्] अहंकारी, घमण्डी। शौटीरः (पुं०) मल्ल, योद्धा, शक्तिशाली। शौटीर्यं (नपुं०) घमण्ड, अभिमान, दर्प।
शौण्डिकः (पुं०) मद्य व्यवसायी, कलाल। [शुण्डा सुरा
पण्यमस्य ठक्]
०कल्पपाल-शौण्डिक कल्पपालः' (जैन०ल० १०६७) शौण्डिकी (स्त्री०) कल्पपाली, कलाली। शौण्डिकेयः (पुं०) राक्षस। शौण्डी (स्त्री०) गजपिप्पली, बड़ी पीपल। शौण्डीर (स्त्री०) [शुण्डा गर्वोऽस्ति अस्य-शुण्डा ईरन्+अण्]
घमण्डी, अभिमानी।
उत्तुंग, उन्नत, ऊंचा। शौद्धोदनिः (पुं०) [शुद्धोदन+इञ्] बुद्ध। शौद्र (वि०) [शूद्र+अण] शूद्र सम्बंधी। शौद्रः (पुं०) शूद्रा स्त्री का पुत्र। शौनं (नपुं०) [शूना+अण] मांस। शौनिकः (पुं०) [शूना प्राणिवधस्थानं प्रयोजनमस्य ठक्]
कसाई। बहेलिया, शिकारी।
शिकार, आखेट। शौभः (पुं०) [शौभायै हित शोभा+अण] देवता, दिव्यता।
सुपारी का पेड़। शौभाञ्जनः (पुं०) [शोभाञ्जन अण] एक वृक्ष विशेष। शौभिकः (पुं०) [शौभं व्योमपुरं शिल्पमस्य-शौभ+ठक्]
मदारी, बाजीगर।
शिकारी, बहेलिया। शौरसेनी (स्त्री०) [शूरसेन+अण्+ ङीष्] एक प्राचीन प्राकृत,
जिसका प्रयोग शिलालेखों, षट् खंडागम, धवला टीकाओं एवं कुन्दकुंदादि के ग्रंथों के अतिरिक्त संस्कृत में मान्य सभी नाटकों में इसका प्रयोग हुआ है। इसकी पहचान क्रिया में भणदि अर्थात् 'त' का 'द' होने पर होती है।
अन्यत्र थ का ध-अथवा अधवा आदि। शौरिः (पुं०) [शूर+इञ्] कृष्ण। शौक (नपुं०) [शुक्+अण] तोतों की लार। तोतों का झुण्ड। शौक्त (वि०) [शुक्ति+अण] अक्ल। खट्टा। शौक्तिक (वि.) [शुक्ति+ठक् शुक्ति कायां भवं] मौक्तिक।
(जयो० २।८२) मोती से सम्बन्धिं
०खट्टा। शौक्तिकेयं (नपुं०) [शुक्तिका+ठक्] मोती, मुक्ताफल। शौक्तिकेयः (पुं०) [शुक्तिका+ढक] एक प्रकार का विष। शौकल्य (वि.) [शुक्ल+ष्यञ्] स्वच्छ। (वीरो० १७/२८)
सफेदी, स्वच्छता, धवलता।
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शौक्ल्यजः
१०९१
श्याममूर्ति
शौक्ल्यजः (पुं०) विशद, स्पष्ट, स्वच्छ। (जयो० १३/६४) शौचं (नपुं०) [शुचेर्भावः अण] स्वच्छता, धवलता, निर्मलता,
पवित्रता। शुद्धि। (सम्य० ८४) आचारशुद्धि। शुचेर्भावः कर्म वा शौचम। लोभ निवृत्ति। ०शुचिता। शौचधर्म, दश धर्मों में एक शौचधर्म। लोभ को न बढ़ने
देना एवं संतोष धारण। (त०सू०महा० ९/६) शौचकल्पः (पुं०) शुद्धि संस्कार। शौचकूपः (पुं०) शौचालय। शौचगत (वि०) शुचिता को प्राप्त हुआ, पवित्रता को प्राप्त
हुआ। शौचजन्य (वि०) पवित्रता युक्त। शौर्य (नपुं०) [शूरस्य भावः ष्यब्]
पराक्रम, शूरता, वीरता, धीरता। सामर्थ्य, शक्ति। (जयो० १/१६)
विक्रम। (जयो० ६/८) शौर्यप्रशस्तितः (स्त्री०) शूर-वीरता की प्रशंसा।
शौर्यप्रशस्तौ लभते कनिष्ठा
श्रीचक्रपाणे: स गतः प्रतिष्ठाम्। (जयो० १/१६) शौल्कः (पुं०) [शुल्के तदादानेऽधिकृतः अण] चुंगी अधीक्षक,
कराधिकारी। शौल्विकः (पुं०) [शुल्व+ठक्] कसेरा। शौव (वि०) [श्वन्+अण] कुक्कुर सम्बंधी। शौवं (नपुं०) कुत्तों का झुण्ड। श्वान संतति। शौष्कलः (पुं०) मांस भक्षी, मांसजीवी। श्च्युत् (सक०) टपकना, रिसना, बहना, चूना। ____०उड़ेलना, फैलाना, बखेरना। श्च्योतः (पुं०) रिसना, बहना। श्मशानं (नपुं०) [श्मानः शया शेरतेऽत्र+शी+आनच्, डिच्च,
अथवा श्मन् शब्देन शवः प्रोक्तः तस्य शानं शंयनम्] शवस्थान, मशान, शवदाहस्थान, मारघट। (सुद० ९८) (दयो०२/९) 'शून्यागार-गुहा-श्मशान-निलयप्राये प्रतीतो मुदा' (मुनि०
श्मशानगत (वि०) मसान को प्राप्त हुआ। श्मशानकुक्करः (पुं०) श्मशान का कुत्ता। श्मशाननिवासिन् (पुं०) भूत-प्रेत। श्मशानभाज् (वि०) शिव, महादेव। श्मशानभूमिः (स्त्री०) मसान स्थल, शवस्थान दाहगृह। श्मशानवर्तिन् (पुं०) भूत-प्रेत। श्मशानवासिन् (पुं०) शिव, महादेव। श्मशानवेश्मन् (पुं०) शिव। भूत-प्रेत। श्मशानवैराग्यं (नपुं०) क्षणिक विरक्ति, अस्थाई वैराग्य,
व्याकुलता युक्त विराग। श्मश्रु (नपुं०) दाढ़ी, मूंछ। कूर्चतति। (वीरो० १/३४) श्मश्रुप्रवृद्धिः (स्त्री०) दाढ़ा का बढ़ना। श्मश्रुमुखी (वि०) दाढ़ी-मूंछ वाली स्त्री। श्मश्रुल (वि०) [श्मश्रु+लच्] दाढ़ी मूंछ वाला। श्मील् (सक०) आंख झपकना, आंख मारना, पलक झपकना। श्मीलनं (नपुं०) [श्मील+ल्युट] पलक झपकना, आंख बंद
होना, झपकी लगना। श्यान (भू०क०कृ०) [श्यै+क्त] गया हुआ, जमा हुआ।
पिण्डीभूत, धनीभूत। चिपगना।
०सूखा हुआ, म्लान। श्याम (वि०) [श्यै+मक्] काला, कृष्ण, गहरा, नीला, काले
रंग का।
०भूरा, गहरा रंग। श्यामः (पुं०) मेघ, बादल।
०कोयल। श्याम (नपुं०) समुद्रा नमक।
काली मिर्च। श्यामकण्ठः (पुं०) शिव, नीलकण्ठ। श्यामकर्णः (पुं०) अश्वमेघ यज्ञ के उपयुक्त घोड़ा। श्यामकल्याणरागः (पुं०) एक छन्द की लय।
जिनप परियामो मोदं तव मुख भासा। खिन्ना यदिव सहजकद्विधिना,
नि:स्वजनी निधिना सा।' (सुद०७४) श्यामपत्रः (पुं०) तमालवृक्ष। श्यामभास् (वि०) चमक युक्त कालिम्प। श्याममुखत्व (वि०) कृष्ण मुख वाला। (वीरो० ६/७) श्याममूर्ति (स्त्री०) कृष्ण छवि, कृष्ण प्रतिबिम्ब। (दयो० २६)
२९)
श्मशानगोचर (वि०) मसान में घूमने वाला।
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श्यामरुचि
१०९२
श्रद्धालु
श्यामरुचि (वि०० चमक युक्त कालिमा। श्यामल (वि०) [श्याम+लच्] काला, गहरा नीला। (जयो०७०
६/१०७) श्यामलः (पुं०) कृष्णवर्ण, धूर्मवर्ण। (जयो० ७/१०३) काला
रंग। ०काली मिर्च।
भ्रमर, भौंरा।
०बटवृक्षा श्यामलता (वि०) शिलीकृत। (जयो०वृ० १५/११) कृष्णवर्ण
युक्त। श्यामला (स्त्री०) कृष्णा, काला रंग। (जयो०७० ३/५५) श्यामलिका (स्त्री०) नील का पौधा। श्यामवर्णा (वि०) अन्धकार रूपिणी। (जयो०वृ० १५/२७)
तमोमयी। श्यामा (स्त्री०) [श्याम+टाप्] रजनी, रात्रि। (जयो० १५/४८)
स्त्री 'श्यामास्ति शीतकुलितेति मत्वा'। (वीरो० ९/२९) गाय, हल्दी, ०मादा कोयल, प्रियंगुलता। नील का पौधा।
यमुना नदी। श्यामाकः (पुं०) [श्याम+अक्+अण] धान्य विशेष, समा का
___ चांवल। श्यामालिः (स्त्री०) धान्य। श्यामाशयः (वि०) कृष्णपक्ष, कलुष परिणाम। श्यामिका (स्त्री०) [श्याम+ठञ् भावे] कालिमा, कृष्णा।
मलिनता, कृष्णता। श्यामित (वि०) [श्याम+इतच] कृष्ण किया हुआ, काला __ किया हुआ। कलूटा। श्यालः (पुं०) [रयै+कालन्] साला।
०पत्नी का भाई। श्यालकः (पुं०) [श्याल कन्] साला, पत्नी का भाई। श्यालकी (स्त्री०) साली, पत्नी की बहन। श्याव (वि०) [श्यै+वन्] ०काला, गहरा भूरे रंग का, धूसर
धूमल, धुंधला। श्यावः (पुं०) भूरा रंग। श्यावतैलः (पुं०) आम्रतरु। श्येत (वि०) [श्यै+इतच्] सफेद, धवल। श्येनः (पुं०) [श्यै+इतच्] सफेद रंग।
०सफेदी, धवलता।
हिंसा, प्रचण्डता।
बाज, शिकरा। श्येनकरणं (नपुं०) पृथक् शवदाह करना। श्येलकरणिका (स्त्री०) बाज की भांति झपटना। श्येतचित् (पुं०) बाज को पकड़कर बेचने वाला। श्येतनीविन् (पुं०) श्रङ्क (सक०) जाना, फेंकना। श्रङ्गः (सक०) जाना, पहुंचना। श्रण (सक०) प्रदान करना, देना, सौंपना। ग्रहण करना। (मुनि० ११), बिखेरना (जयो० २/१५५)
अर्पण करना। श्रणत (वि०) मुक्त हस्त। (जयो० १२/८७) श्रणनं (नपुं०) दान। (जयो० ९/८२) श्रणनाद (वि०) अंक में गया हुआ। (सुद०३/२१) श्रणता (वि०) पथक। (सुद० ९९) श्रत् (अव्य०) [श्री+डति] उपसर्ग धातु से पूर्व लगने वाला। श्रथ् (सक०) चोट पहुंचाना, घायल करना। ०खोलना, ढीला करना, स्वतन्त्र करना।
मुक्त करना।
०(अक०) प्रयत्न करना, निर्बल होना। श्रथनं (नपुं०) [श्रथ् ल्युट्] मारना, विनाश करना, खोलना।
०प्रयत्न, चेष्टा। ०बांधना।
मुक्त करना। श्रद्धा (स्त्री०) [श्रत्+धा+अङ+टाप]
आस्था, विश्वास, निष्ठा, भरोसा। (जयो०१/६६, जयो०७० १/१६)
आदर, सम्मान, तत्त्वार्थाभिमुखी बुद्धि। (सुद० ७१) ०प्रबल इच्छा, विज्ञातार्थरुचि। (जयो० २/१४८)
शान्ति, मन की स्वस्थता। (जयो० ४/६५)
०दोहद, गर्भशीलता की आकांक्षा। श्रद्धानं (नपुं०) आस्था, विश्वास, रुचि। (सम्य०८२) श्रद्धाविधिः (स्त्री०) सम्मान विधि। (वीरो० २२/१५) श्रद्धापरिणामः (पुं०) समादर, श्रीगुण परिणाम। श्रद्धाभावः (पुं०) समाद भाव। श्रद्धालु (वि०) [श्रद्धा+आलुच्]
निष्ठावान्, सम्मानशील। ०इच्छुक, अभिलाषी। विश्वास करने वाला।
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श्रद्दधता
१०९३
श्रमणाधारः
श्रद्दधता (वि०) श्रद्धा रखने वाले। (जयो० १/६८) श्रन्थ् (अक०) ०दुर्बल होना, विश्रान्त होना, ०थकना,
उदास होना। श्रन्थः (पुं०) [श्रन्थ्+घञ्] ढीला करना, स्वतन्त्र करना। श्रन्थनं (नपुं०) [श्रथ्+ल्युट्] मारना, विनाश करना, निर्बल
होना। ०प्रयत्न, चेष्टा। ०बांधना।
०मुक्त करना। श्रद्धा (स्त्री०) [श्रत्+या+अ+टाप्]
oआस्था, विश्वास, निष्ठा, भरोसा। (जयो० १/६६, जयो०वृ० १/१६)
आदर, सम्मान, तत्त्वार्थाभिमुखी बुद्धि। (सुद०७१) ०प्रबल इच्छा, विज्ञातार्थरुचि। (जयो० २/१४८)
शान्ति, मन की स्वस्थता। (जयो० ४/६५) ०दोहद, गर्भशीला की आकांक्षा। श्रद्धानं (नपुं०) आस्था, विश्वास, रुचि। (सम्य ८२) श्रद्धाविधि: (स्त्री०) सम्मान विधि। (वीरो० २२/१५) श्रद्धापरिणामः (पुं०) समादर श्री गुण परिणाम। श्रद्धाभावः (पुं०) समादर भाव। श्रद्धालु (वि०) [श्रद्धा+आलुच्]
निष्ठावान्, सम्मानशील। ०इच्छुक, अभिलाषी।
विश्वास करने वाला। श्रद्दधता (वि०) श्रद्धा रखने वाला। (जयो० १/६८) श्रन्थ् (अक०) दुर्बल होना, विश्रान्त होना, थकना, उदास
होना। श्रन्थः (पुं०) [श्रन्थ्+घञ्] ढीला करना, स्वतन्त्र करना। श्रन्थनं (पुं०) [श्रथ् ल्युट्]
०ढीला करना, खोलना। ०चोट पहुंचाना, मारना।
विनाश करना, बांधना। श्रपणं (नपुं०) [श्रा+णिच् ल्युट्] गरम करना, उबालना,
खोलाना। श्रपित (भू०क०कृ०) [श्रा+णिच्+क्त] गरम किया गया,
उबलाया गया। श्रपिता (स्त्री०) मांड, कांजी। श्रम (अक०) चेष्टा करना, उद्योग करना, प्रयत्न करना। |
परिणाम करना। (जयो० १८/३२) ०परिश्रम करना, मेहनत करना। ०ताश्चर्या करना, इन्द्रिय दमन करना। ० श्रान्त होना, थकना। दु:खी होना, म्लान होना, खिन्न होना।
विश्राम करना। (जयो० २७/५८) श्राम्यति-विश्रामं करोति। श्रमः (पुं०) [श्रम्+घञ्] परिश्रम, चेष्टा प्रयत्न। (जयो०
३/८१) ०थकान, श्रान्त, परिभान्ति। (दयो० ३९) ०कष्ट, दु:ख। तपस्या, साधना। (वीरो० ) इन्द्रियदमन।
व्यायाम। (जयो० ३/८२) श्रमकर्मिन् (वि०) मेहनती, परिश्रमी। श्रमकषित (वि०) थकाहारा। श्रमगतः (वि) परिश्रम को प्राप्त हुआ। श्रमजनित (वि०) परिनि:स्विन्न। (जयो० १३/७१) श्रमजलं (नपुं०) पसीना। श्रमण (वि०) [श्रम्+युच्] परिश्रमी, मेहनती। श्रमणः (पुं०) साधु, अनगार। संयती।
त्यागी-क्षमायामस्तुविश्रामः श्रमणानां तु भो गुण! सुराजा राजते वंश्यः स्वयं माञ्चकमूर्धनि।। (जयो० ७/४६) समो सव्वत्थ मणो जस्स भवइ स समणो। सर्वग्रन्थविनिर्मुक्त, तपोनिष्ठ। श्रमणाः श्रमहन्तारं सत्त्वानां सन्ति साम्प्रतम। (दयो०
श्रमणकर्मिन् (वि०) तपस्वी कर्म वाला। श्रमणगत (वि०) साधुपने को प्राप्त हुआ। श्रमणचर्या (स्त्री०) संयती की चर्या। श्रमणतपश्चर्या (स्त्री०) महाव्रती की तपाराधना। श्रमणधीरत्व (वि०) श्रमण की धीरता। श्रमण संघः (पुं०) साधु संघ। श्रमणसूक्तं (नपुं०) श्रमण सम्बंधी विचार। (दयो०) श्रमहन्तार (वि०) थकान दूर करने वाला। (दयो० १/१६) श्रमणाचारः (पुं०) संयत के आचार-विचार। श्रमणाधारः (पुं०) श्रामणों का अवलम्बन।
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श्रमणिडा
१०९४
श्रान्तः
श्रमणिडा (स्त्री०) श्रमणी, सन्यासिनी। (मुनि० ११) श्रमभारः (पुं०) थकावट, थकान। (जयो० १३/७५) श्रमलवः (पुं०) पसीने की बूंद। (जयो० ६/५९) श्रमपारिषातित (वि०) प्रस्वेद युक्त। (जयो० ७३/७७) श्रमहा (वि०) श्रमहर्जी, थकान दूर करने वाली। (जयो०
२२/४२) श्रमी (स्त्री०) परिश्रमी। (वीरो० १८/५७) श्रमणाभासः (पुं०) संयत होता हुआ भी वस्तु तत्त्व से प्रति
अश्रद्धानी। श्रमणी (स्त्री०) साध्वी, आर्यिका। भिक्षुणी, सन्यासिनी। श्रमनीरनिर्झरः (पुं०) स्वेद जल पुर, पसीने की धारा। (जयो०
१३/७६) श्रमारम्भः (पुं०) स्वेद जल। (जयो० १९/९९) श्रम्भू (अक०) उपेक्षक होना, असावधान होना, उपेक्षा
करना। लापरवाह होना। श्रयः (पुं०) [श्रि+अच्] शरण, आश्रय, आधार, सहारा। श्रयणं (नपुं०) [श्रि+ल्युट्] शरण, सहारा, आश्रय, आधार। श्रणणीय (वि०) ग्रहण करने योग्य। (जयो० २८/१०६) श्रयंतु (विधि) चाहे, सेन को। (जयो० २/७१) श्रयेत् (वि०) अध्ययन करे। श्रवः (पुं०) [श्रु+अप्] सुनना, श्रवण करना। श्रवणः (पुं०) कर्ण, कान। श्रवणं (नपुं०) सुनने की क्रिया। (समु०४/२२) ____ ख्याति, प्रसिद्धि, कीर्ति। श्रवणकुमारः (पुं०) एक मातृ-पितृ भक्त कुमार। श्रवणकार्यः (पुं) सुनने का कार्य। श्रवणगत (वि०) कर्णभाग को प्राप्त हुआ। श्रवणगोचर (वि०) कर्णभाग में समाहित। श्रवणगोचरः (पुं०) सुनाई देने की सीमा। श्रवणपथः (पुं०) कर्णपथ। श्रवणपथागत (वि०) कर्णमार्ग का आया हुआ। (जयोवृ०
१/६४) श्रवणपालिः (स्त्री०) कर्ण भाग, कान का हिस्सा। श्रवणपूरः (पुं०) कर्ण से उत्पन्न, कर्णपथा श्रवणसम्भव।
(जयो०६/८९) श्रवणपूरमुपेत्य विलासिनी
हृदयमाशु ददावकनाशिनी। (जयो० ९/७८) श्रवणविषयीकृत (वि०) कर्ण प्रान्त गत। (जयो० १/६९) ।
श्रवणशील (वि०) सुनने वाला। (जयो०वृ० १/२६) श्रवणसन्निहित (वि०) कर्णप्रानल में समाहित। (वीरो०२/१३) श्रवणसुभग (वि०) कर्णप्रिय। । श्रवणासुभग (वि०) सुनने में बुरा। (दयो० ६४) श्रवःसुचः (पुं०) कर्णपात्र। (जयो० २७/१९) श्रवस् (नपुं०) [श्रु+असि] कर्ण, कान। (वीरो० ३/१४) __ ख्याति, प्रसिद्धि।
०धन, वैभव। श्रवसोस्तृप्तिः (स्त्री०) कर्णतृप्ति वदत्यपि जनस्तस्यै
श्रवसोस्तप्तिकारणम। (वीरो०८/३६) श्रवस्यं (नपुं०) [श्रवस्+यत्] कीर्ति, यश, प्रसिद्धि, ख्याति। श्राविष्ठा (स्त्री०) [श्रवः ख्याति:, अस्ति अस्याः
श्रव+मतुप्-इष्ठनि मतुवो लुक्] घनिष्ठा नक्षत्र
० श्रवणा नक्षत्र। श्रव्य (वि०) [श्रु+यत्] सुनने योग्य। (वीरो०१८/३१) श्रा (अक०) पकाना, उबालना, परिपक्व करना।
०भोजना बनाना। श्राण (वि०) [श्रा+क्त] पकाया हुआ। परिपक्व किया हुआ। ____ ०आर्द्र, गीला, तर। श्राणा (स्त्री०) [श्राण+टाप्] कांजी, यवागू। श्राद्ध (वि०) [श्रद्धा हेतुत्वेनास्त्यस्य अण्] निष्ठावान्, श्रद्धावान्,
विश्वास करने वाला। ____० श्रद्धापूर्वक आदि देने वाला। (जयो० १८/५) श्राद्धं (नपुं०) अनुष्ठेय संस्कार। (जयो० २।८८) श्राद्धकर्मन् (नपुं०) अन्त्येष्ठि संस्कार। (वीरो० १५/६१) श्राद्धक्रिया (स्त्री०) अन्त्येष्ठि संस्कार। श्राद्धकृत् (स्त्री०) अन्त्येष्ठि संस्कार करने वाला। श्राद्धदः (पुं०) श्राद्ध का उपहार। श्राद्धदिन् (पुं०) सम्मान दिवस, पुण्यतिथि। श्राद्धदिनं (नपुं०) पुण्यतिथि। श्राद्धदेवः (पुं०) अष्ठिात्री देव। श्राद्धिक (वि०) श्राद्ध सम्बंधी। (वीरो० २०/२२) श्राद्धीय (वि०) श्राद्ध संबंधी। श्रान्त (भू०क०कृ०) [श्रम्+क्त]
०थका हुआ, परिश्रम युक्त। ०क्लान्त, परिश्राक्त। (दयो० १८)
शन्त, सौम्य। श्रान्तः (पुं०) संयत, श्रमण, साधु।
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श्रान्ततार
योग्य।
श्रान्ततार (वि०) आलस्य भाव युक्त। (जयो० २१/१९)
श्राविका धनवत्यभूतः। (वीरो १५/२९) श्रान्तिः (स्त्री०) [श्रम् क्तिन्] ०क्लान्ति, परिश्रन्ति। (दयो० उपासिका, जो शक्ति के अनुसार मूल गुण और उत्तर ६२)
गुण का पालन करती है। ०थकान, थकावट।
श्राव्य (वि०) [श्रु+णिच् यत्] सने जाने योग्य, श्रवण करने श्रान्तिवशः (वि०) थका हुआ। (दयो०६२) श्रामः (पुं०) [श्राम्+अच्] समय, काल।
सुनने में स्पष्ट। अस्थायी, ०छाजन।
श्रि (सक०) शरण लेना, सहारा लेना, आश्रय लेना। (सुद० श्रामण्यकर्मन् (पुं०) जिनदीक्षा। (वीरो० ११/३)
१/१८) श्रयन्ति। श्रामण्यात्मबोधः (पुं०) श्रमणपना अंङ्गीकार का ज्ञान। (वीरो० चाहना, सेवन करना, इच्छा करना। (जयो०१० २/७१) १५/२६)
अध्ययन करना, शिक्षा लेना। (जयो०७० २/४७) श्रायः (पुं०) [श्रि+घञ्] आश्रय, आधार, सहारा, शरण, मानना, स्वीकार करना। (सुद० १२१) संरक्षण।
जाना, पहुंचना, धारण करना। श्रावः (पुं०) [श्रु+घञ्] सुनना, कर्णदेना, कान लगाना।
निवास करना, वसना। श्रावकः (पुं०) [श्रु+ण्वुल्] व्रती, अणुव्रत, धारक व्यक्ति, ०सम्मान करना, सेवा करना। बारह व्रत पालक व्यक्ति।
०पूजा करना, अर्धना करना। सप्त व्यसवत्यागी पुरुष।
०चुनना, चयन करना, छांटना। सुदृढोपयोग व्यक्ति। (जयो०वृ० ७/३४)
०कहना, बोलना। (जयो० १५/१२) उपासक। (जयो०वृ० १/१३३)
०ग्रहण करना। (जयो० ३/१०७) ० श्रोता।
श्रित (भू०क०कृ०) [श्रि+क्त] गया हुआ, (जयो० १३/१२) शिष्य छात्र।
संबद्ध। श्रावण (वि०) [श्रवण+अण] कर्ण सम्बंधी।
आच्छादित. बिछाया हुआ। ०श्रवण नक्षत्र में उत्पन्न।
०युक्त, पूरित। श्रावणमासः (पुं०) सावन मास। (वीरो० १३/२९) वि०सं० ०सहित, सम्पन्न। (सुद० ४/१४)
१९८३ के सावन मास की सुदी पूर्णिमा में जयोदय श्रिताडिम्बः (पुं०) विप्लव। (जयो० ५/२३) महाकाव्य की रचना की गई।
श्रितवान् (वि०) गया हुआ। (सुद० ३/८) श्रावणमासमितिं प्रति याति पूर्ण
श्रिता (वि०) पालिता। (सुद० ४/३३) निजपरहितैक जाति। (जयो० २८/१०९)
श्रितिः (स्त्री०) [श्रि+क्तिन्] आश्रय, आधार, शरण, अवलम्ब। श्रावणिक (वि०) श्रावण मास सम्बंधी।
०पहुंच। श्रावणिकः (पुं०) सावन मास।
श्रिस् (सक०) जलाना, प्रज्वलित करना। श्रावणी (स्त्री०) [श्रवणेन नक्षत्रोण युक्ता | श्री (स्त्री०) [श्री+क्विप्] धन, सम्पत्ति, वैभव, सम्पदा,
मौर्णमासी-श्रवण+अण+ङीप] श्रज्ञवण मास की पूर्णिमा। समृद्धि। (सम्य० १५६) श्रावस्ति (स्त्री०) श्रावस्ती नामक नगर, गंगा नदी के उत्तर में ०ऐश्वर्य, राजसत्ता, सम्प्रभुता। (सम्य०६७) स्थित एक नगर।
सौन्दर्य, चारुता, लालित्य, कान्ति। श्राविका (स्त्री०) व्रती गृहिणी। व्रत पालन करने वाली स्त्री। ०शोभा, आभा, प्रभा। (सुद० १३६) (वीरो० १५/२९)
उत्तम, श्रेष्ठ। (सुद० ८३) सुधर्मस्वामिनः पार्श्व
लक्ष्मी, विष्णुप्रिया। उष्ट्रदेशाधियो यमः।
श्री लक्ष्मी भारती शोभा प्रभासु सरलद्रुमे इति विश्वलोचनः। दीक्षा जग्राह तत्पत्नी
(जयो० १५/१५)
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श्रीकदः
१०९६
श्रीफला
श्रीदेव भूषयति या मम वामभागम्। (दयो० १०९)
नाम। गुण, श्रेष्ठता, बृद्धि, समझ।
'ज्ञियं धरतीति श्रीधर इत्येवमुक्तः' (जयो०वृ० १२/५४) श्रीकदः (पुं०) लक्ष्मी के हाथ। विष्णु।
०श्रीराचार्य-विश्वलोचनकोश कर्ता। (जयोवृ० १/१७) श्रीकर (वि०) शोभा दायक। (सुद० १३६)
श्रीधरपुत्रिका (स्त्री०) अकम्पन राजा की पुत्री सुलोचना। श्रीकरण (वि.) शोभाधारक। (वीरो० ६/२५)
(जयो० ८/६३) श्रीकरणं (नपुं०) लेखनी, कलम, निझरणी।
श्रीधरसन्निवेशः (पुं०) भाण्डागार। (जयो० १/१७) श्रीकशः (पु०) जल से परिपूर्ण कुम्भा (जयो०१५/७१) ०श्री सम्पन्न। श्रीकान्तः (पुं०) विष्णु।
राजा का परिवेश। कुबेर की सम्पन्नता। (सुद० १/३२) श्रीकारिन् (पुं०) बारहसिंहा।
श्रीधरा (स्त्री०) अलकापुरी के राजा दर्शक की रानी। (समु० श्रीखण्ड (पुं०) श्रीखण्ड, एक खाद्य पदार्थ, जो दही एवं ५/२१) धरणी तिलक नगर के राजा आदित्यवेग। सुलक्षणा शर्करा के मिश्रण से बनता है।
दासी की पुत्री, श्रीधरा। (समु० ५/१९) श्रीखण्डं (नपुं०) चन्दन की लकड़ी।
श्री नगरं (नपुं०) श्रीनगर। श्रीगदितं (नपुं०) लघु नाटिका।
श्रीनन्दन (पुं०) राम। श्रीगर्भः (पुं०) विष्णु, तलवार।
श्रीनिकेतनः (पुं०) विष्णु। श्रीगुणः (पुं०) क्षमा गुण। (जयो० १/११३)
श्रीनिवासः (पुं०) विष्णु। श्रीग्रहः (पुं०) पानी पिलाने की कुण्डी।
श्रीपट्टदमहादेवी (स्त्री०) गंगहेमाण्डिमान्धाता की सहधर्मिणी। श्रीधनं (नपुं०) खट्टा दही।
___(वीरो० १५/४४) श्रीचकू (नपुं०) भूमण्डल, भूचक्र।
श्रीपञ्चशास्त्रः (पुं०) हस्त। कल्पद्रुम। (जयो० १/५१) श्रीचक्रपाणि (स्त्री०) भरत चक्रवर्ती का विशेषण। (जयो० श्रीपतिदर्शनं (नपुं०) जिनदर्शन। (जयो० १९/२३)
श्रीपद (नपुं०) गुरचरण। (जयो० २७/१३) श्रीजः (पुं०) काम, इच्छा, वासना।
श्रीपथः (पुं०) राजमार्ग, मुख्य सड़क। (सुद० ३/४०) श्रीजिनः (पुं०) अर्हत् प्रभु। (सुद० ७०)
श्रीपद्मखण्डः (पुं०) एक नगर विशेष। (समु० १/२९) श्रीजिनकृष्णा (स्त्री०) जिनदेव की कृपा। (सुद० ७३) श्रीपर्णं (नपुं०) कमला श्रीजिनामोच्चारणं (नपुं०) जिनदेव के नाम का उच्चारण। श्रीपर्वतः (पुं०) एक पर्वत विशेष। (सुद० ८६) जिनप्रभु का स्मरण।
श्रीपादपः (पुं०) कल्पवृक्ष, फलशाली वृक्ष। (सुद० १/१७ श्रीजिनराजः (पुं०) अर्हत प्रभु। (सुद० २/२३)
भक्ति १३) श्रीछान्दसी (स्त्री०) अनुकूल स्वभावी।
श्रीपाद पपः (पुं०) चरणाविर। (जयो० १/६८) शोभन छंद वाला। (जयो० २२/८१)
श्रीपादपीठः (पुं०) सिंहासन। (जयो० २०/१७) श्रीतिलकः (पुं०) सौभाग्य सूचक तिलक। (जयो० १२/१४) श्रीपिष्टः (पुं०) तारपीन। पुष्प (जयो० १४/२९)
श्रीहिताश्रवः (पुं०) तपस्वी। (समु० ६/३१) श्रीदः (पुं०) कुबेर, धनपति।
श्रीपुष्पं (नपुं०) लवंग। श्रीदत्तः (पुं०) उज्जयिनी का एक सार्थवाह। (दयो० १/२०) श्रीपालः (पुं०) श्रीपाल नामक राजा, जो कुष्ठ रोगी था, बाद श्रीडयितः (पुं०) विष्णु।
में मैनासुंदर की भक्ति एवं सेवा/श्रद्धा से पूर्ण सुंदर हो श्रीदेवादि (पुं०) सुमेरु पर्वत। (सुद० ९७)
गया। (सम्य०६७) श्रीधरः (पुं०) श्रीधर नामक देव। (समु० ४/३६)
श्रीप्रमाणदेवी (वि०) व्याकरणज्ञ। (जयो० ५/५२) विष्णु, ०श्रीधर नामक राजा। (जयो० ७/८८)
श्रीफलः (पुं०) बेल तरु। बिल्ववृक्ष। नारियल (जयो०७० कुबेर (जयो० ३/३०) एतन्नामकः कुबेरः'
१२/१०९) ०श्रीधर नामक राजा। (जयो० ३/३७) अकम्पन का | श्रीफला (स्त्री०) नील का पौधा। आंवला, आमली। आमलकी।
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श्रीशाज्
श्रीशाज् (पुं०) श्रीमन् । ( सुद० ११०)
श्रीभूति (पुं०) राजा सिंहसेन का मंत्री (समु० ३ / २१)
श्रीभ्रातृ (पुं०) चन्द्र । ० अश्व |
श्रीमत् (वि० ) [ श्री + मतुप् ] श्रीमंत ।
० श्रीसहित । (जयां० १ / १११ )
० सम्भसत। (जयो० ३ )
० आपकी । (दयो० ७३)
० भाग्यशाली, महाभाग (सुद० ३/४५)
० महापुरुष । (जयो० २/४६ )
॰लक्ष्मीवान्, धनवान्।
० सुखी, सौभाग्यशाली, शोभा युक्त। (सुद० २/७)
० सुंदर, सुहावना, सुखद ।
० विख्यात, प्रसिद्ध, प्रतिष्ठित ।
श्रीमत् (पुं०) कुबेर । ० विष्णु ।
० शिव । ० अर्हत् । ० तिलकवृक्ष |
श्रीमता (वि०) अर्हता । (जयो० २/७५) श्रीमती (स्त्री०) कान्तिमति । (जयो० २/४१ )
सौभाग्यशालिनी श्री । (सुद० ९४ )
श्रीमत्तरङ्गिणी (स्त्री०) श्रीमती तां तरंगिणी रांगाभुक्त।
० गंगा नदी ।
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श्रीमत्तोरणं (नपुं०) शोभनीय । (जयो० २०/४६) तोरण द्वार । (जयो० ३/८१)
श्रीमद (वि०) श्रीमन्, श्रीमान् ।
० धनवान्, भाग्यवान् ।
श्रीमद्भागवतः (पुं०) एक पुराण ग्रन्थ । भगवत् गीता | (जयो०
३०)
श्रीमान् स जीयात्समितिप्रसारः । (सुद० १३२)
० शव्यात्मन् । दास्यासऽदर्शि सुदर्शनो मुनिरिव
श्रीमान् दृशा सूत्कया । (सुद० ९८ )
१०९७
श्रीमदहीन (वि०) लक्ष्मी मद से रहित। (जयो० १/३०) वैभव मद से हीन ।
श्रीमन्त ( वि०) श्रेष्ठ जन, विशिष्ठ जन। (जयो० ३/८६) श्रीमस्तकः (पुं०) लहसुन।
श्रीमुद्रा (स्त्री०) तिलक विशेष ।
श्रीमान् (वि०) भद्र! (सुद० १३२)
धर्माख्यकल्पद्रुमवरोऽभ्युदराः
१/४३)
हंसः स्ववंशोरूसरोवरस्य
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० महाशय । (दयो० ६७)
'श्रीमान् यः खलु पूर्वपरिचित इव । ' (दयो० ६७) श्रीमानमूच्छ्री (स्त्री०) श्री रूपी पृथ्वी की श्री । (जयो०
श्रीशः
श्रीमानभूच्छ्रीसुहृदां वयस्यः ' श्रीमूर्तिः (स्त्री०) लक्ष्मी की मूर्ति ।
श्रीयुक्त (वि०) भाग्यशाली, महाशय। महादश (जयो० ३ / १०१ ) शोभा सहित (जयो० ३ / १३)
श्रीरङ्गः (पुं०) विष्णु ।
श्रीरस: (पुं०) तारपीन। ०राल ।
श्रीरोद् (स्त्री०) पृथ्वी, भू, धरा । ( सुद० १ / ३१)
श्रीवत्सकिन् (पुं०) अश्व चिह्न युक्त ।
श्रीवनञ्चानुकुर्वत (वि०) वनरक्षक, वनपाल, माली । (जयो०
१/८८)
श्रीवरः (पुं) जिनवर। (सुद० ७४) ० श्रीमन्त। (जयो० २ / ९६ ) ० विष्णु |
श्रीवल्लभः (पुं०) विष्णु ।
श्रीवामरूप (वि०) महादेव रूप। (जयो० १/४६ ) ० शोभा से रमणीय रूप वाला।
श्रीवासः (पुं०) विष्णु। शिव, ०कमल, ०तारपीन। श्रीवासस् (पुं०) तारपीन ।
श्रीवासुपूज्यः (पुं०) बारहवें तीर्थंकर का नाम। (सुद० १ / ३५ ) श्रीविभु (पुं०) श्रीप्रभु। (वीरो० १९ / ३३ ) श्रीवी: (वि०) श्रेष्ठ पक्षी । (जयो०वृ० १/४४ )
श्रीवीर : (पुं०) वीर प्रभु, महावीर, चौबीसवें तीर्थंकर महावीर का अपर नाम। (जयो० १/४४ )
श्रीवीरदेवः (पुं०) तीर्थंकर महावीर । श्री वीरदेवस्य यशोभिरामं,
वप्रं तपो राजतमाश्रयामः । (वीरो० १३ / १२ ) श्रीवृक्षः (पुं०) बिल्व तरु ।
श्रीवेष्टः (पुं०) तारपीन । ०राल |
श्रीश (वि०) श्रीमत् महायश, सौभाग्यशाली। (जयो० २६/५६ ) श्री श्रुतसागरः (पुं०) आचार्य शिरोणि श्रुतसागर । (वीरो० ११/३०)
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श्री श्रेष्ठिन् (वि०) लक्ष्मी विभूषित श्रेष्ठी । (सुद०२ / ३६ ) श्रीशः (पुं०) श्री के ईश, जिनेन्द्र देव । (जयो० २४/७५)
० विष्णु
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श्रीशरणं
श्रीशरणं (नपुं०) समवशरण । वृत्तं तथा योजनमात्र महं सार्द्धद्वय क्रोश समुन्नतं च । ख्यातं च नाम्ना समवेत्य यत्र ययुर्जनाः श्रीशरणं तदत्र ।। (वीरो० श्री श्रेष्ठिन् (पुं०) श्री वृषभदास सेठ श्रीसंज्ञं (नपुं०) लवंग, लाँग।
श्रीसद्भः (पुं०) काश रोग, खांशी, श्वांस रोग। (जयो०
१३ / १ ) (सुद० २/९ )
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श्रुतमश्रुतपूर्वमिदं तु कुतः
कपिले त्वया स चैक्लैव्ययुक्तः (सुद० ८४) 'सुज्ञात, प्रसिद्ध, विख्यात, विश्रुत।
श्रुतं (नपुं०) शास्त्र, धर्म विवेचन। (जयो० २/१४० )
० आप्तवचन निबन्धन।
● आगम सिद्धांत (जयो० २/५६)
० अस्पष्ट ज्ञान ।
० विख्यात (जयो० २६/४० )
१८/२२)
श्रीसहोदर : (पुं० ) चन्द्र ।
श्रीसुंदरी (स्त्री०) कामसुंदरी ( सम्य० ६७ )
श्रीसवला (वि०) प्रमोद सहिता आनन्द युक्ता श्रीबलमुत्सवे लातीति धीसबला (जयो० १५/५४)
श्रीसमागमः (पुं०) सौभाग्य प्राप्ति ।
श्रियः सौभाग्यसम्पत्तेः समागमः प्राप्तिः' (जयो० ३ / ११५) 'श्रीयुक्तः सम्यगागम आप्तोपज्ञो ग्रन्थ' (जयो०वृ० ३/११५) श्रीसरिता (स्त्री०) उत्तम सरिता (वीरो० २/१५) श्रीसुमन (वि०) कुसुम युक्त (जयो० १७७) श्रीसूक्तं (नपुं०) एक वैदिक ग्रंथ।
श्री स्थिति (स्त्री०) बिल्वफल (जयो०० २८/३० ) श्रीहर (वि०) शोभापहारक (जयो० १२ / ६४) श्रीहरि (पुं०) विषु ।
श्रु (सक०) जाना, पहुंचना ।
० सुनना, श्रवण करना। (वीरो० १४) श्रुणु (जयो०वृ० १/२६)
० अधिगम करना, अध्ययन करना । ० समाचार देना।
श्रुत (भू० क० कृ० ) [ श्रु+क्त] शृणोति श्रवणमात्र का श्रुनम् । सुना हुआ, श्रवण किया हुआ (जयो० २/४०) (समु० ३/४१)
१०९८
श्रुताधिगम्य
० श्रुत ज्ञान के भेदों में द्वितीय ज्ञान। (जयो० १ / ३ ) ' मतिज्ञान के विषयभूत पदार्थ से सम्बन्ध रखने वाले किसी दूसरे पदार्थ का जानना (त० सू० पृ० १७) श्रुतकीर्तिः (पुं०) एक आचार्य विशेष श्रुतकेवली (वि०) जो श्रुत द्वारा शुद्धात्मा को जानता है। जो
सुदाणं सव्वं जाणादि सुदकेवलिं । (सम०पा० ९/१०) श्रुतज्ञानं (नपुं०) ज्ञान का द्वितीय भेद । मति पूर्वक जाना गया ज्ञान। (सम्य० १३०)
श्रुतज्ञान विभाव के साथ नियम से अन्वय वाला होता है। 'श्रुतं विभावान्वयि' (सम्य० १३० )
श्रुतज्ञानमंत्र (नपुं०) 'णमो चोदसपुब्वीण' ऐसा श्रुतज्ञान मंत्र है।
श्रुतदेवी (स्त्री०) सरस्वती, भारती । श्रुतधरः (वि०) आगम श्रावक ।
श्रुतधर्म (पुं०) श्रुत/शास्त्र के स्वभाव का बोधा श्रुतभक्तिः (स्त्री०) द्वादशांग भक्ति (भक्ति०वृ०५) श्रुतप्रमाणं (नपुं०) आगम प्रमाण ।
श्रुतप्रान्तगत (वि०) श्रवण विषयकृत, कर्ण प्रान्त को प्राप्त हुआ। (जयो० १ / ६९ )
श्रुतरचारिन् (वि०) श्रुतरसज्ञ, शास्त्र में रुचि लेने वाला। (जयो० २/८१)
श्रुतवत् (वि०) [ श्रुत्मतुप्] वेदज्ञ, वेदज्ञाता श्रुतज्ञाता, शास्त्रज्ञ, सिद्धान्तज्ञ ।
० आगम प्रवीणता युक्त
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श्रुतवाक् (नपुं०) आगम वचन, सिद्धांत वचन। (मुनि० ८) श्रुतवाचनं (नपुं०) आगम वचन। (मुनि०८) श्रुतविनयं ( नपुं०) सूत्रार्थ का ग्रहण |
श्रुतसंहरहः (पुं०) श्रुत प्रवीण शास्त्र में चतुर. ० आगम प्रवीण (जयो० १९/६६ )
श्रुतसार: (पुं०) श्रुतसागर आचार्य । आचार्य शिरोमणि श्रुतसागर । दिगम्बरीभूय तपस्तपस्ममायमात्मा श्रुतस्मपमस्यन् (वीरो० ११ / ३१ ) श्रुतस्थविर (पुं०) श्रुतधारक स्थविर श्रुता (वि०) सुना गया। (सुद० ३/४१ ) श्रुताज्ञान (वि०) निरर्थक आदेश वाला। श्रुतातिचार (वि०) श्रुत पढ़ने में दोष
श्रुताधिगम्य (वि०) श्रुत पढ़ने की ओर लगने वाला (वीरो०
२०/१८)
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श्रुताराम
१०९९
श्रेष्ठिन्
श्रुताराम (वि०) तत्त्वार्थ शास्त्र पर आधारित। (जयोवृ०
१८/४) श्रुतावर्णवादः (पुं०) श्रुत की जाने वाली मिन्दा। श्रुतिः (स्त्री०) आगम, वेद। (जयो० २७/४८)
शास्त्र। (जयो० २/९५) ० श्रवणश्रुति सूयते वा। ० श्रवणपथ आगत। (जयो० १/६४)
सुनना, धर्म प्रतिपादक शास्त्र श्रवण। (जयो० ३/१५) श्रुतिदेशः (पुं०) कर्णप्रदेश। (जयो० ४/२०) श्रुतिपान्तगत (वि०) कर्ण भाग को प्राप्त हुआ। (सुद० २/८) श्रुतिपुत्री (वि०) सुनने वाला। (दयो० ८२) श्रुतिलचनोत्सुकः (पुं०) अध्यात्म शास्त्र का उल्लंघन।
(जयो० १६/८०) श्रुती (स्त्री०) कर्ण, कान। (वीरो० ५/१३, जयो० १०/३८) श्रेष्ठि (स्त्री०) गणनांग। श्रेणिः (स्त्री०/पुं०) [श्रि-णि] रेखा, पंक्ति, शृंखला।
०प्रवाह। (जयो० ११/७०) ०दल, संचय, समूह।
०एक प्रमाण विशेष। (सम्य० १०८) श्रेणिकः (पुं०) श्रेणिक राजा, राजगृह नगर का अधिराज।
राजगृहाधिराजो यः श्रेणिको नाम भपतिः। लोक प्रख्यातातिमायातो बभूव श्रोतृषज्ञमः।। (वीरो०
१५/१६) श्रेणिका (स्त्री०) [श्रेणि+कन्+टाप्] तम्बू, खेमा, डेरा, पड़ाव। श्रेष्ठिपृष्ठपदं (नपुं०) मध्य भाग। (जयो०वृ० १३/९५) श्रेणी (स्त्री०) पंक्ति, रेखा, शृंखला।
श्रेणी समन्ताद्विलसत्पलीनां
पान्थोपधोराय कशाप्यदीना।। (वीरो०६/२६) श्रेयम् ( वि०) [अतिशयेन प्रशस्यं ईयसुन्] श्रेष्ठतर, अपेक्षाकृत,
अच्छा, वरीयस्। सकल दुःख निवृत्तिः। (त० लो०) कल्याण। (जयो० ७/५२) सर्वोत्तम, श्रेष्ठतम, आनन्ददायक।
मोक्ष, मुक्ति, शुभ अवसर। श्रेयसभा (वि०) कल्याणकारी। (मुनि० ३३) श्रेयांसः (०) ग्यारहवें तीर्थंकर का नाम। ०श्रेयांसनाथा ।
(भक्ति० १९) श्रेयांसकुमारः (पुं०) जयकुमार का चाचा। (जयो०७० ९/८२)
दान देने अग्रणी। 'दानेऽनृणीजयपितृव्यञ्जनः
श्रेयासंकुमारोऽस्ति। (जयो०वृ० ९/८२) श्रेयार्थी (वि०) कल्याणार्थी। (मुनि० २७) श्रेयोमार्गनेता (वि०) मोक्ष मार्ग का नेता। श्रेष्ठ (वि०) [अतिशयेन प्रशस्य:]
उत्तम, श्रेष्ठ, अच्छा। ०समृद्ध, उन्नत।
०अत्यंत प्रिय। श्रेष्ठः (पुं०) आर्य। (जयो०वृ० २२/८३)
०कुलकर, कुलश्रेष्ठ। कुलकरस्तु कुलश्रेष्ठे इति विश्वलोचनः। (जयो०० ४/१६)
विज्ञ, प्रज्ञ, विद्वान्, सज्जन कुमार। श्रेष्ठज्ञानी (वि०) विज्ञवर। (वीरो० १२/४४) श्रेष्ठगतिः (स्त्री०) उत्तम गति। श्रेष्ठजन्मन् (वि०) उत्तम जन्म वाला। श्रेष्ठचारित्र (वि०) अच्छे चारित्र वाला, सदाचरण युक्त। श्रेष्ठदानं (नपुं०) उत्तम दान, पात्रोचित दान। श्रेष्ठदानी (वि०) उत्तम दान देने वाला। श्रेष्ठधनी (वि०) परिपूर्ण धन से युक्त। श्रेष्ठनायिका (स्त्री०) उत्तम नायिका। अभिनय में परिपूर्ण ___ अभिनेतृ। श्रेष्ठपदं (नपुं०) उचित स्थान। श्रेष्ठफल (नपुं०) रुचिकर फल। श्रेष्ठभक्तिः (स्त्री०) उत्तम भक्ति। श्रेष्ठभावः (पुं०) उचित परिणाम। श्रेष्ठयोनिः (स्त्री०) उत्तम जन्म। श्रेष्ठ यौवनं (नपुं०) परिपूर्ण यौवन। श्रेष्ठरत्नं (नपुं०) श्रेष्ठ रत्न, सर्वोत्तम रत्न। श्रेष्ठ राशिः (स्त्री०) उत्तम राशि। श्रेष्ठसमागम (वि०) अच्छा योग। श्रेष्ठाचार (वि०) सद्गुणी। श्रेष्ठरधार (वि०) उचित आधार वाला। श्रेष्ठार्थक (वि०) उत्तमार्थक। (जयोवृ० २/२५) श्रेष्ठिकुमारः (पुं०) सेठ पुत्र। (दयो० २६) श्रेष्ठिन् (वि०) [श्रेष्ठं धनादिकमस्त्यस्य इनि]
सेठ, धनी। (इति श्रेष्ठिसमाकृतं निशक्याऽऽयनीश्वरः (सुद० ४/९)
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श्रेष्ठिचतुर्भुज
११००
श्रौतदान
पूज्य, समादरणीय। ०भद्र, महायश। (दयो० १/१४) श्रेष्ठिचतुर्भुज (पुं०) चतुर्भुत नामक सेठ। आचार्य ज्ञानसागर
के गृहस्थ जीवन के पिता। ब्र० भूमामल के पिताश्री। श्रीमान् श्रेष्ठिचतुर्भुजः स सुषुवे भूरामलोपाह्वयं वाणीभूषण वर्णिनं घृतवरी
देवी च यधीचयम्। (जयो० २/पृ०१३०) वीरो जयोदय के प्रत्येक सर्ग के अंत में उक्त पंक्तियां दी गई
श्रोणि बिम्बं (नपुं०) नितम्ब चक्र, श्रेष्ठ वर्तलाकार नितम्ब
बिम्ब। (जयो० ११/७) श्रोणिबिम्बे भूभुजां दुर्गस्थाने। श्रोणिभार्ययोः इति विश्वलोचनः (जयो०७० ११/७)
०कमरपट्टा, करधनी, कंदौर। श्रोणिसूत्रं (नपुं०) मेखला, करधनी। श्रोणी (स्त्री०) नितम्ब, कूल्हा, कटिपुर भाग। श्रोतस् (नपुं०) [श्रु+असुन् तुट् च
०कर्ण, कान, श्रवण। (जयो०७० २७/१६) ०हस्तिसुंड। ज्ञानेन्द्रिय।
सरिता, प्रवाह। श्रोत (पुं०) [श्रु+तृच] छात्र, शिष्य, विद्यार्थी सुनने वाला।
(वीरो० १/१)
श्रोता।
श्रेष्ठिपदं (नपुं०) सेठ पद। (समु० ४/३) श्रेष्ठिवर्य (वि०) सेठ, उत्तम सेठ, नगर सेठ। (सुद० २/१) ___ श्री श्रेष्ठिवर्यो वृषभस्य दासः। श्रेष्ठिसत्तम (वि०) श्रेष्ठिवर्य। (सुद० ३/४७) श्रेष्ठोक्ति (स्त्री०) कुलकोक्ति-'कुलकरस्तु कुलश्रेष्ठे इति
विश्वलोचन:' (जयो०वृ०. ४/१६) श्रे (सक०) पकाना, उबालना। पसीना निकालना, स्वेद आना। श्रोण (सक०) एकत्र करना, ढेर लगाना। श्रोण (वि०) [श्रोण+अच्] विकलांग, लगड़ा। श्रोणः (पुं०) एक रोग विशेष। श्रोणा (स्त्री०) [श्रोण+टाप्] कांजी।
श्रवण नक्षत्र। श्रोणिः (स्त्री०) [श्रोण+इन्] कटी, कमर। (जयो०१० २१/३१)
कूल्हा, नितम्ब, चूतड़। (जयो०वृ० )
कटिरपुरभाग। (वीरो० ३/२२) 'श्रोणौ विशालत्वमथो धराया'
वृक्ष विशेष। श्रोणि नामक वृक्ष। (जयो०१० २१/३०) श्रोणिकरधनी (स्त्री०) कूल्हे पर करधनी। श्रोणिगत (वि०) नितम्ब युक्त। श्रोणिबद्ध (वि०) नितम्ब पर बंधी हुई, कूल्हे पर स्थित।
'श्रोणिवद्धसुरसासमन्वितः' (जयो० २४/३१) 'कटः श्रोणो शयेऽत्यल्पे किलिञ्जगजगण्डयो इति कटी स्यात्कटिभागध्यो' इति विश्वलोचनः (जयोवृ० २१/३१) ० श्रोणिश्च वृक्ष विशेषस्तेन बद्धा। (जयो०वृ० २१/३१) 'श्रोणौ वा संकटीप्रदेशे वा बद्धा। (जयो०७० २१/३१)
श्रोतृजनः (पुं०) श्रोताजन।
श्रिये जिनः सोऽस्तु यदीयसेवा,
समस्त संश्रोतृजनस्य सेवा। (वीरो० १/१) श्रोतृषूत्तम (वि०) श्रोताओं में उत्तम। (वीरो० १५/१६) श्रोता (वि०) सुनने वाला। (समु० १/३५) श्रोतुः (ष०ए० श्रेतृ०) क्रोता के वक्तु श्रोतुः क्षेमहेतवे' (समु०
३/३१) श्रोत्रं (नपुं०) [श्रूयतेऽनेन-श्रु-करणे ष्ट्रन] कर्ण, कान, श्रवण,
श्रवणेन्द्रिय। (जयो०वृ० २७/१६) श्रोत्रदेशः (पुं०) कर्णवाली। (जयो०वृ० २७/१६) श्रोत्रमूलं (नपुं०) कान की जड़। श्रोत्रिय (वि०) [छन्दो वेदमधीयते वेति वा छन्दस्+घ-श्रोत्रादेशः]
वैदिक ब्राह्मण। 'श्रोत्रिया इव नित्य होत्रिणो वैदिक ब्राह्मणा इव' (जयो०१०
३/१६) श्रौत (वि०) [श्रुतौ विहितं अण]
वेद से सम्बन्धित।
कर्ण से सम्बन्धित। श्रौतं (नपुं०) वेद विहित कर्म, याज्ञिक अनुष्ठान, क्रिया
खण्ड। श्रौतकर्मन् (नपुं) वैदिक क्रिया। श्रौतगत (वि०) अनुष्ठान को प्राप्त हुआ। श्रौतजन्म (वि०) याज्ञिक क्रिया की उत्पत्ति। श्रौतदान (वि०) याज्ञिक दान वाला।
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श्रौतभाव
११०१
श्लिष्टोपमा
श्रौतभाव (वि०) याज्ञिक भाव वाला।
सेवा, वैयावृत्य। श्रौत सूत्रं (नपुं०) वेदसूत्र संचय।
०कामना, इच्छा, वाञ्छा, चाह। श्रौत्रं (नपुं०) [श्रोत्र स्वार्थे अण्] कर्ण, कान। वेद प्रवीणता। | श्लाधित (भू०क०कृ०) [श्लाज+क्त] प्रशंसा किया गया, श्रौषट् (अव्य०) आहूति सम्बंधी उच्चारण, पूजन के समय स्तुति किया गया। आह्वान पर बोला जाने वाला शब्द।
प्रशंसित, स्तुत्य, प्रशस्य। श्लक्ष्ण (वि०) [श्लिष्+कस्न] मृदु, कोमल, सौम्य, | श्लाघ्य (वि०) [श्लाघ्+ण्यत्] स्निग्ध।
प्रशस्य, स्तुत्य। (जयो० १/५५) चिकना, चमकदार।
प्रशंसनीय, महनीय। (जयो० १८/९६) स्वल्प सूक्ष्म, पतला, सुकुमार।
प्रशस्त, धन्य। (जयो०वृ० १/१०७) ०सुंदर, लावण्य युक्त।
संश्लिष्ट। (जयो०वृ० १/६१) श्लक्ष्णकं (नपुं०) [श्लक्ष्ण+कन] सुपारी, पूगीफल।
शिलकु (वि०) कामुक, लंपट, लालची। श्लक्ष्णत्व (वि०) सचिक्कणता, चिकनापन। (वीरो० ३/३२)
०दास, आश्रित। श्लक्ष्णदेहं (नपुं०) स्निग्ध शरीर। कृश शरीर, पतला शरीर।
श्लिक (नपुं०) नक्षत्र विद्या, फलित ज्योतिष। श्लक्ष्णभावः (पुं०) मृदुभाव, कोमल परिणाम।
श्लिक्युः (वि०) लंपट, सेवक। श्लक्ष्णशरीरः (पुं०) स्निग्धतनु। (जयो०वृ० १३/८)
श्लिष् (अक०) जलना, तप्त होना। श्ल ङ्क् (सक०) जाना, पहुंचना।
श्लिष् (सक०) आलिंगन करना, गले लगाना।
ग्रहण करना, लेना, समझना। श्लङ्ग (सक०) शिथिल होना, ढीला होना। बल होना।
०अंगीकार करना। चोट पहुंचना, क्षति पहुंचाना।
जोड़ना, सम्मिलित करना। मिलाना। श्लथ (वि०) [श्लथ्+अच्] शिथिल, ढीला, थकान युक्त।
श्लिषा (स्त्री०) [श्लिष्+अ+टाप्] ०खुला हुआ, फिसला हुआ।
आलिंगन, भेंट, मिलन। ०जकड़ा हुआ।
चिपकना, जुड़ना। ०बिखरा हुआ।
श्लिष्ट (भू०क०कृ०) [श्लिष्+क्त] श्लघीकृत् (वि०) आश्लेष, शिथिल हुआ। (जयो० १८/९२)
श्लिष्टिः (स्त्री०) [श्लिष्+क्तिन्] आलिंगन, परिरभण। श्लाख (अक०) व्याप्त होना, प्रविष्ट होना।
श्लिष्टोपमा (स्त्री०) श्लिष्टोपमा नामक अलंकार। जहां दो श्लाघ् (सक०) प्रशंसा करना, स्तुति करना, पूजा करना,
अर्थों की संभावना के साथ उपमा हो। अर्चना करना।
यत्रास्ति व्यर्थानां च संभावयहेव त।। गुणगान करना, कीर्तन करना, सराहना करना।
उपमा सादृशं अपि, श्लिष्टोपमा च उच्यते।। (जयो० वृ० श्लाघनं (नपुं०) [श्लाघ्+ल्युट] प्रशंसा करना, पूजा करना,
३/७७, ३/७६, ३/७५, ७९, ८/३२, ८/३३, १३/५८) गुणगान करना।
कर्बुरासारसम्भूतं पद्मरागगुणान्वितम्। कीर्तन, सराहना।
राजहंसनिषेव्यं च रमणीयं सरो यथा।। (जयो० ३/७६) श्लाघनीय (वि.) [श्लाघ+अनीयर] प्रशंसनीय। (दयो० ३१)
कधुर सुवर्णस्य य आमारः प्रशस्य (जयो० १८/४१)
प्रसारस्तेन सम्भूतं सम्पन्नम्। श्लाघा (स्त्री०) [श्लाघ्+अ+टाप्]
वह मण्डप सरोवर के समान रमणीय है, क्योंकि सरोवर प्रशंसा, स्तुति, सराहना। (जयो० २/१५८)
में तो कर्बुर अर्थात् जल का आसार/समूह होता है तो ०प्रशस्ति। (जयो०वृ० १/१६)
मण्डप भी कर्बुर या सुवर्ण से बना हुआ है। ०सर्वप्रिया। (वीरो० १/१६)
सरोवर में पद्म/कमल होते हैं तो यह मण्डप भी पद्मराग साधुर्गुणग्राहक एष आस्तां
मणि से युक्त है। सरोवर में राजहंस होते हैं तो यह मण्डप श्लाघा ममारादसतस्तु तास्ताः'
भी श्रेष्ठ राजाओं से सेवित है।
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श्लीपदं
११०२
श्लोकः
हो।
श्लीपदं (नपुं०) [श्री युक्तं वृत्ति युक्तं पदम् अस्मात्] सूजी (जयो० ५/२८, ७/८५) हुई टांग, एक रोग विशेष।
राजमाप इव चारघट्टतो श्लील (वि०) [श्री अस्ति अस्य+लच्] भाग्यशाली, समृद्ध। भेदमाप कटकोऽपि पट्टतः। श्लेषः (पुं०) [श्लिष्+घञ्]
यस्ततस्तु दररूपधारकः आलिंगन मिलन, चिपकना।
सम्भवन्निह स सूपकारकः।। (जयो० ७/८५) ०जुड़ना, संलग्न होना।
श्लेषात्मकोत्प्रेक्षा (स्त्री०) श्लेष सहित उत्प्रेक्षा। (जयो० मिलाप, संपर्क, सम्बन्ध, संगम।
८/७) श्लेषालंकार, अनेकार्थ शब्द प्रयोग, किसी भी शब्द या श्लेषमिश्रितोत्प्रेक्षा (स्त्री०) अलंकार का नाम, जहां श्लेष वाक्य में दो या दो से अधिक अर्थों की संभावना होती है। सहित उत्प्रेक्षा हो। (वीरो० २/२८) (जयो०वृ० ३/४६, ३/३०)
श्लेषानुप्राणित-रूपकालझरः (पुं०) श्लेष समन्वित रूपक पदैस्तैरेव भिन्नैर्वा
अलंकार। (जयो० ७/८४) वाक्यं वक्त्येकमेव हि।
तस्य शुद्धतरवारिसञ्चरे अनेकमर्थं यत्रासौ
शौर्यसुंदरसरोवरे तरेः। श्लेष इत्युच्यते यथा। (वाग्भट्टालंकार ४/१२७)
ईक्षितुं श्रियमुदस्फुरद्भुजा जहां उन्हीं पदों से अथवा भिन्न पदों से एक ही वाक्य शौचवम॑नि गुणेन नीरजा। (जयो० ७/८४) अनेक अर्थों को व्यक्त करता है वहां श्लेष अलंकार | श्लेषोऽनुप्रासः (पुं०) श्लेष सहित अनुप्रास का प्रयोग जहां होता है।' संसदी तवर्गमण्डितेऽथा
मुहुर्नुबद्ध बद्धाञ्जलिरेष दासः पवर्गपरिणामपण्डिते।
सदा सील! प्रार्थयते सदाशः। श्रीत्रिवर्गपरिणायके तथा
कुतः पुनः पूर्णपयोधरा वा तिष्ठतीष्टकृदसाव भूत्कथा।। (जयो०३/२०, ७/८१, ७/८६ न वर्तते सत्करकस्वभावा।। (जयो० १६/१३) (जयो०वृ० १६/१६, २४/१२८, ३/४, ५/२१) (वीरो० श्लेषोममा (स्त्र०) श्लेष युक्त उपमा अलंकार। (जयो०७० २/३७)
३/५९, २१/४३) ३/१०, ३/७, ५/२७, ३/८४, ३/८०, श्लेष-गर्भोत्प्रेक्षा (स्त्री०) श्लेष सहित उत्प्रेक्षा। (जयो०वृ० वीरो० १/१४, २/४४) ३/४२)
सुवृत्तभावेन समुल्लसन्तः श्लेषगर्भो वक्रोक्त्यारः (पुं०) श्लेष सहित वक्रोक्ति अलंकार। मुक्ताफलत्वं प्रतिपादयन्तः। (वीरो० ३/३)
गुणं जनस्यानुभवन्ति सन्तस्तत्रा, श्लेषपूर्वक-उत्प्रेक्षा (स्त्री०) श्लेष सहित उत्प्रेक्षा अलंकार। दरत्वं प्रवहाम्यहं तत्। (वीरो० १/१४) (जयो०१० ३/५६)
श्लेष्मक (वि०) [श्लेष्मन् कन्] कफ वाला, बलगम युक्त। इङ्गितेनोभयोः श्रेयस्करीहामुत्र पक्षयोः।
श्लेष्मकः (पुं०) कफ, बलगम। दुहिता द्विहिता नामैतादृशीपुण्यपाकतः।। (जयो०वृ० ३/५६) श्लेष्मघ्नी (स्त्री०) मल्लिका, केतकी, केबड़ा। श्लेषरूपकः (पुं०) श्लेष सहित रूपक अलंकार।
श्लेष्मज (वि०) [श्लेष्मन्+लच्] कफ से उत्पन्न, कफ रूपामृतस्रोतस एव कुल्यामिमा
मूलक। मतुल्यामनुबन्धमूल्याम्।
श्लेष्मन् (पुं०) [श्लेष्मन्+लच्] कफ की प्रकृति का बलगमी। लब्ध्वाऽक्षिमीन-द्वितयी नृपस्य,
श्लेष्मातः (पुं०) एक वृक्ष विशेष।। सलालसा खेलति सा स्म तस्य।। (जयो० ११/१, जयो०७० श्लेष्मोजस् (नपुं०) कफ की प्रवृत्ति। २२/१९)
श्लोकः (पुं०) [श्लोक्+अच्] श्लेषपूर्वोपमालङ्कारः (पुं०) श्लेषपूर्वक उपमा अलंकार। ०प्रबन्ध, छन्दोबद्ध रचना।
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श्लोकरचना
११०३
श्वाविध
०पद्य, कविता, काव्य। स्तोत्र, स्तुति, प्रशंसा।
ख्याति, प्रसिद्धि, विश्रुति, यश। श्लोकरचना (स्त्री०) काव्य मय प्रस्तुति।
प्रशंसात्मक रचना। श्लोकवार्तिकः (पं०) कुमारिक भट्ट का व्याख्या, मीमांसक
मत का एक ग्रन्थ। (वीरो० १९/१७) श्लोकसङ्कलितः (पुं०) प्रबन्ध काव्य। (जयो० ५/५) श्लोण (सक०) एकत्र करना, इकट्ठा करना, संग्रह करना।
बीनना, चयन करना, चुनना। श्लोण: (पुं०) [श्लोण+अच्] विकलांग, लंगड़ा। श्व (अव्य०) आगामी काल। (जयो० २१/५६) श्व ङ्क् (सक०) जाना, पहुंचना। श्वच् (सक०) निन्दा करना, अलंकृत करना। श्वण्ठ (सक०) निन्दा करना। श्वन् (पुं०) [श्वि+कनिन्] कुत्ता, कुक्कुर। (सुद० १२१,
__जयो, २/१३१, समु० २/३४) श्वनक्रीडिन् (पुं०) पालतू कुत्ता। श्वनगणिका (पुं०) शिकारी, बहेलिया। श्वन्धूर्तः (पुं०) गीदड़। श्वन्नरः (पुं०) नीच व्यक्ति, अधम पुरुष। श्वन्निशं (नपुं०) कुत्ते के भौंकने की रात। श्वन्पच्ः (पुं०) चाण्डाल, अधम। श्वन्पदं (पुं०) कुत्ते का पैर। श्वभ्र (सक०) जाना, पहुंचना।
०बींधना, मिलना।
छिद्र करना। श्वभ्रं (नपुं०) [श्वभ्र+अच्] रन्ध्र, छिद्र, विवर। श्वयः (पुं०) [श्वि+अच्] शोथरोग, सूजन।
०वृद्धि। श्वयथु (पुं०) सूजन, शोथरोग। स्थूलत्व, रतौंधी। (जयो०
१८/१८) श्वयौंची (स्त्री०) रतौंधी, रोग। श्वल् (अक०) दौड़ना, भागना। जाना। श्वल्ल (अक०) दौड़ना, भागना। श्वशुरः (पुं०) [शु आशु अश्नुते आशु+अश्+उरच्] ससुर, |
पति का पिता। (जयो० १२/२०) श्वशुराश्वसुराजिरेषका मे मनसे किन्न भवेद् भसद्यवामे। (जयो० १२/२०)
श्वशुरकः देखो ऊपर। श्वशुरालवर्तित् (वि०) वल्लभपक्षीय, पति पक्ष वाला, ससुराल।
श्वशरालवर्तिनो निजे पतितां दृग्भ्रमरी मुखाम्बुजे। (जयो०
१०.७०) श्वशुर्यः (पुं०) [श्वशुरस्यापत्यं श्वशुर+यत्] साला, पत्नी का
भाई। श्वश्रुः (स्त्री०) [श्वशुर+ऊ] सासू। (दयो० १७) सास,
पति की मां या पत्नी की मां। (दयो० १०७) श्वस् (सक०) श्वांस लेना, सांस निकालना।
आह भरना, हांपना, फूत्कार करना।
०सांत्वना देना, आराम देना, प्रसन्न करना। श्वस् (अव्य०) पवन, वायु, हवा। श्वसनं (नपुं०) श्वांस, सांस लेना। ०आह भरना।
स्वादिष्ट। (भक्ति० १७) श्वासनाशनः (पुं०) सर्प, सांप। श्वसनीश्वरः (पुं०) अर्जुन वृक्ष। श्वसनोत्सुकः (पुं०) सर्प, सांप। श्वसित (भू०क०कृ०) [श्वसृ+क्त] सांस लिया हुआ, आह
भरी हुई। श्वसितं (नपुं०) सांस लेना। श्वस्तन (वि०) ०भावी, ०भविष्यत्काल सम्बंधी। आने वाला
समय। श्वस्तावत् (वि०) अनागत-दिवस पर्यन्त, आने वाले दिन से
सम्बन्धित। (जयो० २१/५६) श्वा (पुं०) कुक्कुट, कुत्ता। (जयो० १७/४२) श्वाकर्णः (पुं०) [शुन: कर्ण:] कुत्ते के कान। श्वागणिक (वि०) कुत्ते को गिगने वाला। श्वादन्तः (पुं०) कुत्ते के दांत। श्वानः (पुं०) [श्वन+अण-न टिलोप:]
कुत्ता। (सुद० १२१) श्वापद (वि०) [शुन इव आपद अस्मात्] बर्बर, हिंस। श्वापदः (पुं०) [शवन्+आपद्+अच्] जंगली जानवर।
०बाघ, चीता। श्वापुच्छः (पुं०) कुत्ते की दुम। श्वापुच्छ (नपुं०) श्वान् पूंछ। श्वाविध् (पुं०) [शुना आविध्यते श्वन्+आ+व्यध् क्विप्]
साही, शल्यक।
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श्वासः
११०४
श्वासः (पुं०) [श्वस्+घञ्] सांस लेना, ०आह, हांपना।
निश्वास, आश्वास। बाह्यस्य वायोरामनं श्वासः' (योगशास्त्र स्वो०५/४) ०दमा रोग, इसके लिए आचार्य ज्ञानसागर ने यह मन्त्र दिया'णमो पादाणुसारीणं
आं ह्रीं अहं सम्भिन्नसोहाराणम्। (जयो० १९/६३) श्वासोच्छवासः (पुं०) प्राण तत्व। (जयो०वृ० १९/१३) शिव (सक) विकसित होना, बढ़ना, सूजना,
०फलना-फूलना। समृद्ध होना। श्वित् (अक०) श्वेत होना, स्वच्छ होना, सफेद होना। श्वित (वि०) [श्वित्+क] सफेदी। धवलता, स्वच्छता। शिवतिः (स्त्री०) [श्वित्+इन्] सफेदी, धवलता। श्वित्य (वि०) [श्वित्+यत्] सफेदी, धवलता, स्वच्छता। श्वित्रं (नपुं०) [श्वित् रक्] सफेद कोढ़, कुष्ठ रोग। शिवत्रिन् (पुं०) कोढ़ी। श्वेत (वि०) [श्वित्+घञ्] धवल, शुभ्र, सफेद। श्वेतः (पुं०) धवल, शुभ्र, सफेद रंग।
०कौड़ी। रति पादप। ०जीरा।
०पर्वतश्रेणी। श्वेतं (नपुं०) रजत, चांदी। श्वेतक (पुं०) [श्वेत+कन] कौड़ी। श्वेतकं (नपुं०) रजत, चांदी। श्वेतकमलं (नपुं०) सफेद कमल। श्वेतकुञ्जरः (पुं०) ऐरावत हाथी। श्वेतकुष्ठः (नपुं०) सफेद कोढ़। श्वेतकेतुः (पुं०) श्रमण साधु। श्वेतकेश (नपुं०) पलित केश। (जयो०वृ० १८/४१) सफेद
बाल। श्वेतकेशैरुज्ज्वलः (पुं०) पतितोज्जवल। (जयो०वृ० १/३६) श्वेतगजः (पुं०) सफेद हाथी, ऐरावती हाथी। श्वेतगरुत् (पुं०) हंस पक्षी। श्वेतछन्दः (पुं०) हंस पक्षी।
सफेद तुलसी। श्वेतजलं (नपुं०) शुभ्रजल। (जयो०वृ० ६/१०७) श्वेतता (वि०) शुक्लता, शुभ्रता। (जयो०वृ० १५/५८)
श्वेतद्विपः (पुं०) एक महाद्वीप। श्वेतधामन् (पुं०) चन्द्र, शशि। (जयो० २०/२६)
०कपूर, समुद्रफेन। श्वेतनीलः (पुं०) मेघ, बादल। श्वेतपत्र (पुं०) हंसा श्वेतपाटला (पुं०)श्रृंगवल्ली का पुष्प। श्वेतपिङ्गः (पुं०) सिंह, शेर। श्वेतमरिचं (नपुं०) सफेद मिर्च। श्वेतमालः (पुं०) मेघ, बादल। श्वेतभृत्तिका (स्त्री०) धवल मिट्टी। (जयो०वृ० ७९) श्वेतरक्तः (पुं०) गुलाबी रंग। श्वेतरञ्जनं (नपुं०) सीसा। श्वेतरथः (पुं०) शुक्रग्रह। श्वेतरोचिस् (पुं०) गरुड़ा श्वेतवल्कलः (पुं०) गूलर तरु। श्वेतवाजिन् (पुं०) चन्द्र, ०अर्जुन। श्वेतवाह् (पुं०) इन्द्र। श्वेतवाहः (पुं०) अर्जुन। ०इन्द्र। श्वेतवाहनः (पुं०) अर्जुन। ०इन्द्र। श्वेतवाहिन् (पुं०) ०अर्जुन, ०इन्दु। श्वेतश्रङ्गः (पुं०) जौ। श्वेसरोजः (पुं०) पुंडरीक, सफेद कमल। (जयो० १३/६३) श्वेता (स्त्री०) [श्वित्+अच्+टाप्]
स्फटिक। ०वंशलोचन।
०कोड़ा, कपर्दिका। श्वेताम्बरः (पुं०) जैन परम्परा का एक पंथ। श्वेतांशु (नपुं०) श्वेत किरण। (सु० ८७) श्वेतौही (स्त्री०) [श्वेताह ङीष्] शचि, इन्द्राणी। श्वेत्रं (नपुं०) सफेद कोढ़। श्वैत्यं (नपुं०) [श्वेत+ष्यञ्] सफेदी धवलता।
षः (पुं०) उष्म ध्वनि, इसका उच्चारण स्थान मूर्धा है।
षत्व-सकार गर्विष्टत्व सकारत्वेन। (जयो० ९/२५) षः (वि०) सर्वोत्तम, सर्वोत्कृष्ट। षः (पुं०) हानि, विनाश। ०अन्त। शेष, अवशिष्ट।
मुक्ति, मोक्ष।
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षकार:
११०५
षण्ड:
षकारः (पुं०) श्रेष्ठ, उत्तम, षकाररस्तु मतः श्रेष्ठो सकारो | षट्चरणस्थितिः (स्त्री०) छ: कर्मोके परिपालन की स्थिति। ज्ञाननिर्णये इतिकोष (जयो० १८)
(सुद० ९७) षट् (वि०) छह। (समु० २/१७)
'षट्चक्रं (नपुं०) शरीर के छः चक्र। षट्क (वि०) [षड्भिः क्रीतं-षष्कन्] छ: गुना। विचक्राय षट्पदः (पुं०) भ्रमर, भौंरा। ___झों क्रौं अप्रतिचक्र फट। (जयो० १९/५५)
'षडभिः परित्यस्मात्पूर्वमपि' षट्कं (नपुं०) ०छह की समष्टि। मंत्र विशेष। (जयो०वृ०
षट्कर्म-षट्कर्माणि दिने दिने गृहस्थ कर्म। (जयो०७० १९/५५)
१२/३२) कौतुकपरिपूर्णतया याऽसौ षट्पदमतगुञ्जाभिमता। षट्खण्डागमः (पुं०) जैन सिद्धांत का एक प्राचीन ग्रन्थ, जो (सुद० ८२) शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध है। पुष्पदंत भूतबलि आचार्य
षट्पदच्छायः (पुं०) भ्रमर की छाया। कलंक (जयो०व० की प्रसिद्ध सूत्र रचना है। (हित०सं० २६)
२०/३७) षट्खण्डं (नपुं०) छहखण्ड।
षट्त्रिंशत् (स्त्री०) छत्तीस। षट्कर्मविधिः (स्त्री०) छहकर्म की विधि, छह आवश्यक
षट्पदराजिः (स्त्री०) भ्रमर समूह। (जयो० २४/१०८) कर्म विधि।
षट्पदी (स्त्री०) भ्रमरी। (वीरो० ३/३३) ०छः आजीविका के उपाय-असि, मषि, कृषि, वाणिज्य,
षट्परमस्थानं (नपुं०) छः उत्कृष्ट स्थान। (हित० सं० २९) शिल्प और कला।
षट्स्थानवृद्धि (स्त्री०) छः स्थानपतित वृद्धि रूप। प्रज्ञासु आजीवनिकाम्भुपाय,
षट्स्थानहानि (स्त्री०) छ: स्थानपतित हानि। मस्यादिषट्कर्मविधिं विधाय।
षड्गवं (नपुं०) छः बैलों की जोड़ी।
षड्गुण (वि०) छ: गुना। षट्कायिक (वि०) षडावश्यक कर्म सम्बंधी। षडावश्यक
षड्ग्रन्थि (वि०) पिप्परामूल। कर्म सम्बंधी। (प्रव० १४७)
षड्विकायः (पुं०) छः जीव निकाय। षट्वोणः (वि०) छ: कोनों वाला।
षड्रसमयी (वि०) छः रस मयी। षट्खण्डक (वि०) छः खण्ड वाला।
यतः सौभाग्यं भायात्षट्खण्डकः (पुं०) चक्रवर्ती।
षड्रसमय-नानाव्यञ्जन षट्खण्ड भूमीश्वरः (पुं०) चक्रवर्ती। (वीरो० ११/३३)
दलमविकलमपि च सुधायाः। षट्खण्डविभूतिजन्य (वि०) छः खण्ड की विभूतियों से
षड्दर्शनं (नपुं०) छ: दर्शन-चार्वाक, बौद्ध, जैन न्याय, वैशेषिक, युक्त। (मुनि० १५)
____सांख्य योग, मीमांसक। (सुद० १३२) खट्खण्डिन् (पुं०) चक्रवर्ती। चक्राधिपति। (जयो०१३/४६)
षधिमाला (स्त्री०) भ्रमरतति। (जयो० २४/८३, सुद० 'षट्खण्डिबलाधिराडितः' (जयो०वृ० १३/४६)
__७२) अलि समूह। षट्खण्डिनश्चक्राधिपतेर्बलस्याधिराट्।
घडरचक्रबन्धः (पुं०) एक छन्द की विशेष योजना। खट् खण्डाधिपतिः (पुं०) चक्रवर्ती द्वात्रिंशत्सहस्त्रराजस्वामी
प्रातः सन्ध्यामधिकुर्यादेवभवन्ध्यां छः खण्डभूत भरतक्षेत्र का स्वामी, जिसके आधीन बत्तीस
तत्त्वार्थाध्ययनेकुशलस्तस्मादाविः। हजार मुकुटबद्ध राजा रहते हैं।
सम्भूयाच्च हरेत् कुवासनाया वादं षट्चर (वि०) मुनि के छः आवश्यक कर्म का आचारण दम्भप्रायं तदसम्बन्ध्यात्मविषादम्।। (जयो०वृ० १९/९५, करने वाले।
जयो०वृ० २१/९२) असि, मषि, कृषि आदि कर्म वाले।
षण्डः (पुं०) [सन् ड] ०सांड, बलीवर्द। गृहस्थ के आवश्यक कर्म आदि। (सुद० ८२)
नपुंसक। (सुद० १/७) दिगन्तव्याप्तकीर्तिमयः
'निवेषमाणो मयियस्तु षण्डः' प्रथिषट्चरण सङ्गीतिः। (सुद० ८२)
स केवलं स्यात् परिफुल्लगण्डः। (सुद०१) षट्चरण
०समूह, समुच्चय, संग्रह, ढेर, राशि।
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षण्डक्
११०६
संयत्
षण्डक् (पुं०) नपुंसक, हिजड़ा। षण्डाली (स्त्री०) [षण्ड+अल+अच्+ङीष्] सरोवर, तालाब,
जोहड़।
०व्यभिचारिणी। ०असती स्त्री। षण्ढः (पुं०) [सन्+ढ] नपुंसक, हिजड़ा। षष् (संख्या वा०वि०) छः। षष्टि (वि०) [षड्गुणिता दशतिः] साठ। षष्ठिभागः (पुं०) शिव। षष्टिमत्तः (पुं०) साठ वर्ष की आयु का हस्ति। षष्ठ (वि०) छठा, छटवां। (सुद० ९३) (दयो० ७६) षष्ठसत (वि०) षष्ठांश युक्त। (जयो० २५/८) षष्ठसर्ग (वि०) छठा सर्ग। षष्ठांशः (पुं०) छठा भाग। (जयो० २५/८) छठा हिस्सा।
(जयो०वृ० ११/३८) षष्ठाक्षरं (नपुं०) छठा अक्षर युक्त छन्द। (जयो०० २४/१४४)
जग्मुर्निवृतिसत्सुखां समधिकं निर्देशतातीतिपं' (जयो०वृ०२७/६६) षष्ठी (स्त्री०) [षष्ठ+ङीप्] छठी विभक्ति। षष्ठीतत्पुरुषः (पुं०) तत्पुरुष समास का भेद। षष्ठीपूजनं (नपुं०) छठी देवी का पूजन। षहसानु (पुं०) मयूर, मोर। ० यज्ञ। षाटु (अव्य०) [सह+ण्वि] सम्बोध संबंधी अव्यय। षाट्कौशिक (वि०) [षट्कोश+ठक्] छः परतों में लिपटा
षोडशं (नपुं०) [संख्या०वि०] सोलह। (जयो० १९/३१) षोडशकलः (पुं०) चन्द्र, शशि। षोडशकारणं (नपुं०) सोलह कारण भावना। (जयो० २४/८) षोडशगत (वि०) सोहल को प्राप्त हुआ। षोडशब्धि (पुं०) सोलह समुद्र। षोडशभावना (स्त्री०) सोलह कारण भावना। षोडशभुजा (स्त्री०) दुर्गा की मूर्ति। षोडशमातृका (स्त्री०) सोलह दिव्य माताएं। षोडशयामः (पुं०) सोलह प्रतर। (सुद० ९६) षोडशवर्षिका (स्त्री०) सोलह वर्ष वाली स्त्री। (जयो० १५/४८) षोडशसर्गः (पुं०) सोलहवां सर्ग। षोडशस्वर्गपतिः (पुं०) सोलह स्वर्ग का पति। अच्युतेन्द्र देव।
(जयो० २८/६९) षोडशस्वप्नं (नपुं०) सोलह स्वप्न। (वीरो० ४/२७) षोडशी (स्त्री०) सोलह वर्ष की स्त्री। (वीरो० ४/३५) षोडशिक (वि०) सोलह भागों से युक्त। षोठा (अव्य०) छह प्रकार से। ष्ठिव् (अक०) थूकना, खखारना।
प्रक्षेपण करना। ष्ठीवनं (नपुं०) [ष्ठिव्+ ल्युट्] थूकना। ०लाट, ०खखार। ष्वक्क् (सक०) जाना, पहुंचना।
हुआ।
षाडवः (पुं०) [षड्+अव+अच्] ततः स्वार्थ अण। राग,
मनोयोग। संगीत स्वर। गीत। षागुव्यं (नपुं०) [षड्गुण+ष्यब] छ: गुणों की समष्टि। छः
उपाय। षाड्गुण्यप्रयोगः (पुं०) राजनीति के छ: उपाय। पाण्मातुरः (पुं०) [षणां मातृणाम् अपत्यम्, षण्मात्+अण-उत्व
रपर] छ: माताओं वाला। कार्तिकेय। पाण्मासिक (वि०) [षण्मास+ठक्] छमाही, अर्धवार्षिक। षायात् (विधि काल) रक्षा करे। (सुद० ७५) षाष्ठ (पुं०) छठा। षिड्गः (पुं०) [सिट+गन्] विलासी, कामुक।
___०असंगत, प्रेमी। षुः (स्त्री०) [सु+डु] प्रसूति, प्रजनन। षोडश (वि०) सोलहवां। (वीरो० ३/३०)
सः (पुं०) यह उष्म ध्वनि है, इसका उच्चारण स्थान दन्त्य है।
स-(सर्वनाम शब्द तत्) स (अव्य०) क्रिया विशेषण बनाने के लिए शब्द से पूर्व स
उपसर्ग लगाने पर के साथ, मिलाकर, संयुक्त होकर, सहित, सह, सम, तुल्य आदि का अर्थ व्यक्त होता है। 'सलक्षण (जयो० १५/६६) लक्षणयुक्त। सदोष-रात्रि सति।
(जयो० १५/८५) सः (पुं०) सर्प, सांप। पवन, वायु, हवा।
०पक्षी, षड्ज स्वर।
शिव, शंकर। संधृ (सक०) धारण करना। (दयो० ३९) संधूप (अक०) धुंआ देना, संधूपयित्वा। (जयो०वृ० १९/७६) संधृत (वि०) धारण किया गया। (वीरो० १/८) संयः (पुं०) [सम्+यम् ड] कंकाल, पंजर। संयत् (स्त्री०) [सम्+यम्+क्विप्] युद्ध, संग्राम, लड़ाई।
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संयत
११०७
संयोगज
संयत (भू०क०कृ०) [सम्+यम्+क्त] संयमित, दमित, दबाया
हुआ, वश में किया हुआ। (जयो०वृ० १/२)
०बन्दी, कैदी। संयतः (वि०) कर्म को वश में किए हुए। संयतगतिः (स्त्री०) नियन्त्रित गति। संयतचेतस् (वि०) नियन्त्रित मन वाला। संयतमनः परावर्तनं (नपुं०) मन स्थिर करना। संयतवाक् (वि०) मूक, मौन। संयतवाक् परावर्तनं (नपुं०) अरहंत पद का उच्चारण करना। संयतासंयतः (पुं०) जो हिंसादिक से देशतः निवृत्त है। संयतीदोषः (पुं०) व्रत में दोष होना। संयत्त (वि०) [सम्+यत्+क्त] तत्पर, सन्नद्ध, तैयार, उद्यत।
०सावधान, सतर्क। संयमः (पुं०) [सम्य म्+अप्] धारण, पालन, निग्रह, त्याग।
(सम्य०८४)
योगनिग्रह। आस्रवद्वार रहित। इन्द्रियदमन। (जयो० २८/३७) विषय कषाय उपरत। नियन्त्रण, प्रतिबन्ध, रोक। ०अनुप्रवर्तन। ०धर्म प्रयत्न। संयम धर्म। (जयो० २८/३७)
सकलेन्द्रिय व्यापार परित्याग। ०मन की एकाग्रता।
०तपससाधना। संयमनं (नपुं०) [सम्+यम् ल्युट्]
निरोध, निग्रह, रोक, प्रतिबन्ध। शान्तेस्तथा संयमनस्य नेता (वीरो० १४/३६)
०बांधना, रोकना। संयमनः (पुं०) शासक, नियामक। संयमधर्मः (पुं०) समितियों में प्रवर्तन।
दश धर्मों में छठा धर्म। संयमयुक्त (वि०) संयम सहित। संयमविराधना (स्त्री०) किसी का घात। संयमस्थानं (नपुं०) यम, नियम आदि के लिए प्रयत्न। संयमा संयमः (पुं०) स्थूल प्राणातिपात से निवृत्ति। त्रस-स्थावर
का रक्षण। संयमित (भू०क०कृ०) [संयम+णिच्+क्त] नियन्त्रित, संयत।
०बद्ध, जकड़ा हुआ।
निरुद्ध, रोका हुआ। संयम युक्त, इन्द्रिय निग्रह से
परिपूर्ण। (भक्ति० २४) संयमिन् (वि०) [सम्+यम् णिनि] दमन करने वाला, नियन्त्रित
करने वाला।
संन्यस्त, वैरागी। संयमी (सुद० ११८) संयमिनामधारिन् (वि०) संयमी नाम धारक। (वीरो० १९/२९) संयम्य (सं०कृ०) वश में करके-संयम्य योग परिशाधश्च।
(समु०८/४०) संयानः (पुं०) [सम्+या+ल्युट्] सांचा। संयानं (नपुं०) यात्रा करना, प्रगति करना।
ले जाना। संयामः (पुं०) संयम। संयावः (पुं०) [सम्+यु+घञ्] हलुवा। संयुत (वि०) सहित, युक्त। (सम्य० १५५) (समु०५/३) संयुक्त (भू०क०कृ०) [सम्+युञ्+क्त]
मिला हुआ, जुड़ा हुआ। (जयो०वृ० १३/१२) सम्मिलित, सम्मिश्रित। मिली हुई, सहित, युक्त। ०सम्पन्न, अन्वित।
०बना हुआ। संयुगः (पुं०) [सम्+युज+क]
०संयोजन, मिलाप, मिश्रण।
०युद्ध, संघर्ष, संग्राम, लड़ाई। संयुञ् (सक०) समागम करना, बुलाना। (जयो० ३/८७) संयुज् (वि०) [सम्+युज्+क्विन्] संबद्ध, सम्बन्ध रखने वाला। संयुत (भू०क०कृ०) [सम्+यु+क्त]
०मिला हुआ, संबद्ध। मिला हुआ, मिश्रित।
संपन्न, सहित।
०भरा हुआ। (जयो० ४/५३) संयोगः (पुं०) [सम्+युज्+घञ्]
संयोजन, मिलाप, मिश्रण। (जयो०वृ० १/२२) ०संगम, मिलान। (जयो०७० ३/६२) यथौदनस्य शोभा सूपसंयोगे भवति। (जयो० ३/६२)
जोड़, पृथक् भूत पदार्थों के मेल का नाम। ०समुच्चय। संयोगगति (स्त्री०) निमित्त से उत्पन्न गति। संयोगज (वि०) संयोग सहित। (मुनि० २१)
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संयोगिन्
११०८
संलग्न
संयोगिन् (वि.) [संयोग+इनि]
सम्मिलित, मिलाया हुआ।
मिलने वाला। संयोजनं (नपुं०) [सम्+युज्+ल्युट्]
मिलाप, मिश्रण, योग।
संगम, जोड़ना। ०मैथुन, संयोग। संयोजनक (वि०) मेल, योग।
सहोपयोगेनशुभेन शस्यं
योगस्यसंयोजनकं समस्य। (समु०८/३८) संयोजना (स्त्री०) संसार से संयुक्त करना। संरक्त (भू०क०कृ०) [सम्+र+क्त]
आवेशपूर्ण, कामुक वासना से दग्ध। मुग्ध, मोहित। लावण्य-सुंदर
रंगीन, लाल। संरक्षः (पुं०) प्ररक्षण, देखभाल, संधारण। संरक्षणं (नपुं०) [सम्+रक्ष ल्युट्]
प्ररक्षण, संधारण। (जयो०वृ० ३/१) ०उत्तरदायित्त, सुरक्षा प्रदान।
०रक्षा भाव। संरब्ध (भू०क०कृ०) [सम्+रम्भ+ क्त]
उत्तेजित, विक्षुब्धा प्रज्ज्वलित, भयानका ०वर्धित, बढ़ा हुआ।
अभिभूत। संरम्भः (पुं०) [सम्+र+घञ्]
०आरम्भ, विक्षोभ, हिसा। संकल्प ०प्रभाद प्रयत्नावेश।
उत्तेजना, रोष, क्रोध, कोप। संरश्मिन् (वि०) [संरम्भ इनि]
उत्तेजित, विक्षुब्ध, क्रुद्ध।
रोषयुक्त, क्रोधित। संरस (वि०) रसत्व, स्वाद/रस युक्त। (समु० २/२७)
किं पश्यस्ययि संरसेरऽपि न किं
नो रोचकं व्यञ्जनम्। (जयो० १२/१२८) संरागः (पुं०) [सम्+रञ्ज+घञ्]
प्रणय प्रसंग, रतिभाव।
रागभाव, अनुराग, अनुरक्ति।
रोष, क्रोध, कोप। संराधनं (नपुं०) [सम्+राध्ल्युट्]
०प्रसन्न करना, खुश करना।
०हर्ष उत्पन्न करना, तुष्ट करना। संरावः (पुं०) [सम्+रु+घञ्]
०शोरगुल, हल्लागुल्ला।
०कोलाहला संरुग्ण (भू०क०कृ०) [सम्+रुज्+क्त]
०बाधित, रोका गया। भरा हुआ, वेष्टिता उपरुद्ध, आवृत। छिपाया गया, आवरण युक्त किया गया।
अस्वीकृत, अटकाया हुआ। संरुढ (भू०क०कृ०) [सम्+रुह्+क्त]
०साथ-साथ उगा हुआ। ०फूटा हुआ, अंकुर निकाला हुआ। ०मुकुलित, विकसित।
उत्पन्न हुआ, उपजा हुआ।
०साहसी, भरोसे का। संरोधः (पुं०) [सम्+रुध्+घञ्]
विघ्न, बाधा, अड़चन। रोक, अवरोध। ०बन्धन, घेरा, रुकावट। ०बेड़ी, हथकड़ी।
० फेंकना, डालना। संरोधनं (नपुं०) [सम्+रुध्+ल्युट्]
०रुकावट, अवरोधा
रोकना, घेरना। संरोधिन् (वि०) रोकने वाला, अवरोध उत्पन्न करने वाला।
(जयो० २८/६२) संलक्षणं (नपुं०) [सम्+लक्ष ल्यूट] चित्रण करना, वर्णन
करना
०बतलाना, प्रतिपादन करना। संलग्न (भू.क.कृ.) [सम्+लग्+क्त] समासक्त।
(जयो०१७/५५) संयुक्त, मिश्रित, मिला हुआ। तत्पर, तैयार, उद्यमशील।
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संलग्नकथा
० संहत, जुड़ा हुआ। (सुद० १ / ३१ ) ० घनिष्ट |
संलग्नकथा ( स्त्री० ) [ सम्+ली+अच्] ० लेटना, शयना करना, सोना। ०घुल जाना, मिलना।
संलप् (सक०) बोलना, कहना, समझाना। (जयो० ७ /६१) संलभ् (सक० ) थाना, ग्रहण करना। (जयो० ४ / ३९) संलयनं (नपुं० ) [ सम्+ली+ ल्युट् ]
०जुड़ना, मिलना, चिपकना । ०घुलना, संयुक्त होना।
संललित (भू०क० कृ० ) [ सम् + लल्+क्त] ० स्नेहित, प्रिय, प्यार किया हुआ ।
संलापः (पुं० ) [ सम्+लप्+घञ् ] ०बातचीत, वार्तालाप ।
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० प्रवचन, उपदेश । ( मुनि० ३) ● स्वाद, अन्योन्य वार्ता।
११०९
० सम्भाषण |
संलापक: (पुं० ) [ संलाप+कन्] उपरूपक, संवादात्मक विचार | संलापादिवर्जित (वि०) वार्तालाप आदि रहित (मुनि० ६) संलीढ (भू०क०कु० ) [ सम्-लिह+क्त]
० चाटा हुआ, अवलेहित किया।
संलीन (भू०क० कृ० ) [ सम् + लीरुक्त] चिपका हुआ, जुड़ा
हुआ।
● मिलाया हुआ, छिपाया हुआ।
संलिखु (सक०) लिखना, समाचार होना। (जयो० २/१३) संलेखना ( स्त्री०) शरीर कृश करना, अच्छी तरह अपना प्रमार्जन करना।
संलोडनं (नपुं०) (सम्+लोइ ल्युट् ] बाधा डालना, व्यधान। ० अवरोध |
संल्लग्नता (वि०) अनुयोग से युक्त । मिला हुआ, संयुक्त हुआ।
संल्लभ् (सक० ) प्राप्त होना, ग्रहण होना ।
सं शब्दस्य इह अप्रशस्तार्थे ग्रहणं महत्तरवत्' (जयो०वृ० १२/२४)
संलमालित (भू०क०कु० ) (सम्+लाल+क्त] वर्द्धित, बढ़ाया हुआ, पालित, संरक्षित।
संवत् (अव्य० ) [ सम्+वय्+क्विप्]
० वर्ष, साल
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संवत्सरः (पुं० ) [ संवसंत ऋतवोऽत्र संवस्-सरम्] वर्ष, साल, अब्द। (जयो० २२/२९ )
०दो अयन या छह-छह माह का एक संवत्सर । संवत्सरतुल्यः (पुं०) अब्दप्रमाण, लवर्तमान (जयो० २२ / २९) संवदनं (नपुं०) [सम्+वद् + ल्युट् ]
० संवाद, वार्तालाप, शब्दोच्चारण) (जयो० १८/५०) ० परीक्षण, समाचार देन
संवरः (पुं० ) [ सम् + वृ+अप् वा अच्]
० निरोध, संपीडन, संकोचन । ०बांध, सेतु पुल
० रोकना, आत्मनियन्त्रण करना ।
० सहनशीलता, छिपाव ।
०रुक जाना, न होना। (त०सू०पृ० १३८)
० संवरण- कर्म संवरण।
● मिथ्यादर्शनादि परिणाम का निरोध।
० इन्द्रिय- नो इन्द्रिय गोपन
संवरकारक (वि०) इन्द्रिया निग्रह करने वाला (भक्ति० १५)
संवरणं (नपुं०) [सम्बृ+ल्युद्]
।
० आवरण, आच्छादन, संपीडन ० निरोध, रोक।
संवरानुप्रेक्षा ( स्त्री०) संवर के गुणों का विचार संवर्जनं (नपुं० ) [ सम्+ वृज् + ल्युट् ] ० रोकना, निरोध करना। ० आत्मसात्करण, संभुजन। संवर्त: (पुं० ) [ सम्+ वृत्+घञ् ]
० मुड़ना, घुलना।
० विनाश, क्षय, नाश।
संवर्धित
० मेघ, बादल ।
० वर्ष, संग्रह, समुदाय, समुच्चय। संवर्तकः (पुं० ) [ सम्+ वृत्+ णिच्+ण्वुल्]
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० प्रलयाग्नि, बडवानल। संवर्तकिन् (पुं०) बलराम ।
संवर्तिका ( स्त्री० ) [ सवर्तक+टाप्] कमलपर्ण, पारकुड़ी। संवद (सक०) कहना, समझना (जयो० ४/३०, ३/२३) संवर्धक (वि० ) [ सम्+ वृध्+ णिच्+ण्वुल् ]
०बढ़ने वाला वृद्धि करने वाला। संवर्धित (भू०क०कु० ) [ सम्+ वृध्+ णिच्+क्त]
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संवलित
१११०
संविधानं
०बढ़ाया हुआ, पालित, संरक्षित।
संविग्न (वि.) [सम्+विज्+क्त] संवलित (भू०क०कृ०) [सम्+वल्+क्त]
विक्षुब्ध, उत्तेजित, व्याकुल। मिश्रित, मिलाया हुआ।
अशान्त, उद्विग्न। संबद्ध, संयुक्त, तर किपा हुआ।
त्रस्त, भयभीत। संवल्गित (वि०) [सम्+वल्ग्+क्त] पद दलित किया हुआ, संविज्ञात (भू०क०कृ०) [सम्+वि+ज्ञा+ क्त] सर्वसम्मत, रौंधा गया।
पूर्वाज्ञान। संवशिन् (वि०) जितेन्द्रिय, मन निग्रहकर। (जयो००० २५/५७) संविचार्य (वि०) अच्छी तरह समझकर। (जयो० २/४२) संवश (वि०) वश में रहने वाला। (जयो० २/७३) संवितानं (नपुं०) शान्दिायिनी। (जयो० २३/५४) ___'सम्यग्वशीभूताऽस्तु।'
संवित्तत्व (वि०) पाण्डित्यपूर्ण। (जयो०वृ० २८/६०) संवसथः (पुं०) [सम्+वस्+अथच्] ग्राम, बस्ती खेड़ा। संवित्तिः (स्त्री०) [सम्+विद्+क्तिन्] ज्ञान, चेतना, बुद्धि संवहः (पुं०) [सम्+व+अच्] प्रवाह। वायुवेग।
समझ। समस्त विकल्प नाशक। लक्षण के आश्रय में संवादः (पुं०) [सम्+वद्+घञ्]
अपने लक्ष्य का अनुभव करना। ०वार्तालाप, कथोपकथन।
०पहचान, प्रत्यास्मरण। चर्चा, वाद-विवाद, आपस में कथन।
संविक्षिभज (वि०) ज्ञानी। (मुनि० १७) सूचना, समाचार। स्वीकृति, सहमति।
संविद् (स्त्री०) [सम्+विद्+क्विप्] ज्ञान, बुद्धि, समझ, प्रज्ञा। ०समानुरूपता, समानता।
प्रतिज्ञा, अनुबन्ध। •सादृश्यता।
स्वीकृति, सहमति। संवारः (पुं०) [सम्+वृ+घञ्] आवरण, आच्छादन।
नाम अभिधान, संकेत, चिह्न। संरक्षण, संवाराण।
सहानुभूति, साथ देना। संवासः (पुं०) [सम्+वस+घञ्] समुदाय, मण्डली।
०वार्तालाप, कथोपकथन, संवाद। ०घर, आवास, निवास।
युद्ध, संग्राम, लड़ाई। (जयो० ७/९०) संवासानुमति (स्त्री०) आरंभ की अनुमति।
संविदम्बरं (नपुं०) युद्ध रूपी गगन। संवाहः (पुं०) [सम्+व+घञ्]
संविदोरणस्याम्बरे रसे गगने वा' (जयो०वृ० ७/९०) ०पर्वतादि का स्थान।
रणे सम्भाषणे-तथा अम्बरं रसे कार्पासे इति च। विश्वलोचन। मालिश, संमर्दन, दबाना।
(जयो०वृ० ७/९०) मुट्ठी भरना, दबोचना।
संविदा (स्त्री०) [संविद्+टाप्] प्रतिज्ञा, अनुबन्ध। संवाहकः (वि०) मालिश करने वाला।
संविदात (वि०) जानने वाला। प्रतिभशाली। संवाहनं (नपुं०) [सम्+व+णिच्+ल्युट्] बोझा ढोना, मालिश | संविदित (भू०क०कृ०) [सम्+विद्+क्त] करना।
ज्ञात, समझा हुआ, पहचाना हुआ। निपीडन। (वीरो० ५/३८)
सुविदित, विश्रुत। ०अन्वेषित। संमर्दन, दबाना।
उपदिष्ट, समझाया हुआ। संवाहन योग्यः (पुं०) संर्दन योग्य, ढोने योग्य। (जयो० । संविध (स्त्री०) [सम्+वि+धा+अङ्कटाप्] ११/८०)
व्यवस्था, उपक्रमण, आयोजन। संविकास (वि०) अच्छी तरह विकसित। (सुद० २।८)
०सम्यग् विधानकारण। (जयो० १३/१७) संविकाशफ (सक०) प्रसन्न पना। (जयो० ४/५८)
रीति, अनुष्ठान। अनुपमेय (जयो० १९/१७) संविक्त (वि.) [सम्+विज्+क्त]
संविधानं (नपुं०) [सम्+वि+धा+ल्युट्] ०अलग किया हुआ, विभक्त।
प्रबन्ध, व्यवस्था। सौभाग्य। (जयो० १/५१) विभाजित।
आयोजन, समायोजन, सम्भावन। (वीरो० २/१०)
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संविधानकं
०रीति, पद्धति, विधि।
० कारण । (जयो० २३/४९)
संविधानकं (नपुं० ) [ संविधान+कन्] घटनाक्रम, कथावस्तु
क्रम।
• अद्भुतकर्म, असाधारण घटना ।
संविभजनीय (वि०) परिहारयोग्य (जयो० ६ / २५) संविभाग (पुं०) (सम्+विभर्ज्घञ्]
० विभाजन, बांटना, पृथक् करना। ०भाग, अंश, हिस्सा।
संविभागिकृत (वि०) सहज में लगाया गया, सम्यक् - कथा करने वाला (जयो० २ / ११० ) संविभागिन् (पुं० ) [ संविभाग + इनि] सहभागी, हिस्सेदार, साझीदार।
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++
संविरागिणी (स्त्री०) सम्यक विरक्ता स्त्री (२३/४३) संविरोधिन् (वि० ) ० विपरीत। (जयो० २ / १८) ० अवरोधक (जयो० २४/४६) ० अधिक रोध युक्त ।
११११
संविवेचनं (नपुं०) पृथक्करण, अनुसन्धान। (जयो० ४ / ३८ ) संविष्ट (भू०क० कृ० ) [ सम् + विश् + क्त ]
सोता हुआ, लेटा हुआ।
,
2
o प्रविष्ट, घुसा हुआ।
संविह् (सक०) छोड़ना, त्यागना। (जयो० ४ / २६ )
संवीक्षणं (नपुं० ) [ सम् + वि + ईक्ष् + ल्युट् ] पूर्ण रूप से देखना, अवलोकन करना परीक्षण करना।
० जांचना, परखना।
संवीत (भू०क० कृ० ) [ सम्+व्ये+क्त] वस्त्रों से सुसज्जित,
परिधान युक्त ।
० आवृत, ढका हुआ।
० अलंकृत, आच्छादित, परिवेष्टित ।
० अभिभूत लिपटा हुआ।
संवृक्त (भू०क० कृ० ) [ सम्+ वृज्+क्त] ०उपभुक्त खाया
हुआ। ० नष्ट |
संवतुं (नपुं०) गुप्त स्थानं, एकान्त स्थल |
०गोपनीयता ० दुरुपलक्ष
सम्यग्वृतः संवत इति दुरुपक्ष (त०वा० २/३२) संवृतयोनि (स्त्री०) दुरुपलक्षणयोनि ।
संवृति: (स्त्री० ) [ सम्वृक्तिन्] आवरण, अच्छादन। ० छिपाव, दबाना । गुप्त रखना, ढांकना। संवृतिसत्य (नपुं०) वचन व्यवहार वाला सत्य।
संशब्दित
संवृत्त (भू०क०कृ०) (सम्+ कृत्+क्त] घटा, घटित हुआ। ० भरा गया। सम्पन्न । ०संचित, एकत्रित ० ढका हुआ।
संवृत्तिः (स्त्री० ) [ सम्+ वृत्+क्तिन्] [+
०होना, घटित होना ।
० निष्पन्नता।
० आवरण, आच्छादन ।
संवृद्धिः (स्त्री०) वृद्धि, प्रसार । संवृद्धि (भू०क० कृ० ) [ सम्+ वृष्+क्त] ०पूर्ण विकसित, बढ़ा हुआ। ० वृद्धिगत, समृद्धिशाली ।
संवेगः (पुं०) (सम्+ विज्+घञ् ]
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० संसार भीरुत्व विक्षोभ, हड़बड़ी, उत्तेजना। ०भीति, भय ।
० प्रचण्डगति तीव्रता, प्रचण्डता । ० अभिलाषा, इच्छा। संवेजनीकथा (स्त्री०) तप प्रधान कथा संवेदः (पुं० ) [ सम् + विद्+घञ् ]
० प्रत्यक्षज्ञान, स्पष्ट ज्ञान ।
J
० अनुभव, ज्ञान, चेतना, जानकारी । • अनुभूति, आत्मसमर्पण।
संवेश: (पुं०) (सम्+ विश्+घञ् ]
० विश्राम, आराम।
० निन्द्रा, नींद।
० स्वप्न, आसन ०मैथुन ।
संवेशनं (नपुं० ) [ सम् + विश् + ल्युट् ] ०मैथुन, संभोग, रतिबन्ध। संव्रज् (सक०) चलना, जाना। (जयो० ५/८) संव्यवहारः (पुं०) समीचीन व्यवहार, समीचीन प्रवृत्ति ।
समीचीन प्रवृत्तिरूपो व्यवहारः संव्यवहारः (जयो० ) संव्यानं (नपुं० ) [ सम्+व्ये+ ल्युट् ] आवरण, आच्छादन, पर्दा,
परिवेष्टन ।
०वस्त्र, कपड़ा, परिधान। (जयो० १८ ) ०उत्तरीय वस्त्र
संशनकृत् (वि०) प्रशंसा करने वाला (भक्ति० ४३ ) संशप्तकः (पुं० ) [ सम्यक् शप्तमङ्गीकारो यस्य कप्] शपथ युक्त व्यक्ति।
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संशब्द (वि०) अप्रशस्तार्थ । (जयो०वृ० १/२४) संशब्दित (वि०) विशिज (जयो०वृ० १७/७०)
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संशयः
०शंका, शक- ० अनिर्णय की स्थिति । ० अनवस्थित कोटि |
|
संशय: (पुं०) [सम्+शी+अच्] संदेह, अनिश्चितता, संकोच ० मिथ्या (जयो० २/८६)
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१११२
संशयगत ( वि०) शंका को प्राप्त हुआ। संशयछेदः (पुं०) आशंका का निवारण | संशयनिवारक (वि०) संदेह प्रतिकारी (जयो०वृ० ३ / ९६ ) संशयमिध्यात्वं (नपुं०) वस्तु स्वरूप का निश्चय न होना- सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः किं भवेन्नो
वा।
संशयवचनीभाषा (स्त्री०) संदिग्ध वचन युक्त भाषा संशयान् (वि०) [सम्+शी+ शानच् संशय+आलुच् ] संदेहपूर्ण, अस्थिर, अनिश्चित, चंचल ।
संशयालंकारः (पुं०) संशय अलंकार। जिसमें धर्मसाम्य के कारण अमुक वस्तु यह है कि यह है इस प्रकार जब संशय की उद्भावना होती है तब संशय अलंकार होता है। इदमेतदिदं वेति साम्याद् बुद्धिर्हि संशयः । हेतुभिर्निश्चयः सोऽपि निश्चयान्तः स्मृतोयण । (वाग्भट्रा ०४ /७८)
धान्यस्थली पालक-बालिकानां
गीतश्रुतेर्निश्चलतां दधानाः । चित्तेऽध्वनीनस्य विलेप्यशङ्का
मुत्पादयन्तीह कुरङ्गरङ्का ।। (वीरो० २ / १३) संशयित (वि०) शंका से युक्त संशयितमिथ्यात्वं (नपुं०) संशयपूर्वक श्रद्धान होना ।
संशरणं (नपुं०) [सम् + शृ + ल्युट् ] आक्रमण, युद्ध का आरम्भ । ० चढ़ाई, धावा ।
संशायिन (वि०) शयन भाव युक्त। (जयो० १७/१८) संशित (भू० क० कृ० ) [ सम्+शो+क्त]
तेज, तीक्ष्ण।
संशुद्ध (भू० क० कृ० ) [ सम्+शुभ् +क्त]
निर्णीत सुनिश्चित, निर्धारित निश्चित | ०क्रियान्त्रित पूर्ण किया गया।
संशीर (पुं०) संत (वीरो० १२/१४)
संशुच् ( अक० ) सोचना, विचारना - संशोच्यताम् । (जयो०
१८/४१)
० विशुद्ध, पवित्र, श्रेष्ठ। (जयो०वृ० १/१५)
० सुसंस्कृत, अभीष्ट ।
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संचित
संशुद्धि (स्त्री० ) [ सम्+शुभ् क्तिन्] विशुद्धि, परिशुद्धि, विशेष शुद्धि, पूर्णनिर्मलता, स्वच्छता।
० परिशोधन, संशोधन, समाधान
'आग संशुद्धये राजा सुदर्शनमहात्मनः' (सुद० १०९ ) संशुध् (सक०) पवित्र करना, स्वच्छ करना, संशोधन करना। निर्मल करना संशोधयेमुर्दभत्सदारीञ्जना (वीरो० १७/१५) ०प्रतिक्रमण करना।
'तदर्थं प्रतिक्रमणं करोतीत्यर्थः ' (जयो० २७/५१) ० साफ करना, परिमार्जित करना (जयो०वृ० १३ / १६) संशोधयेत् । ( मुनि० १२ )
संशोचनीय (वि०) विचारणीय (वीरो० ९/४५) संशोधनं (नपुं० [सम्-शुभ् + ल्युट् ] ० समन्वेषण । (जयो० २४/९८ ) ० पवित्रीकरण, स्वच्छ, शुद्ध ।
० परिमार्जन, प्रक्षालन (मुनि० १३) संशोधनकर्त्री (स्त्री०) विशोधिनी, परिमार्जित करने वाली स्त्री । (जयो० १२ / ९६ )
संशोधित (भू०क० कृ०) परिमार्जित । (वीरो० २२/४ ) स्वच्छता युक्त संशोधितं में भवताच्चरित्रम् । ( भक्ति० ४९ ) संश्चत् (नपुं०) [सम्+श्चु+डति] दाव पेंच, जादूगरी, इन्द्रजाल, मरीचिका ।
संश्यान (भू०क०कु० ) (सम्+श्यै+क्त] संकुचित, सिकुड़ा हुआ । ०जमा हुआ, ठिकुरा हुआ, ०लपेटा हुआ, ० अवसन्न। संश्रत (वि०) आरुढ़ । (मुनि० ३)
संश्रयः [सम्+ श्रि+अच्] आवास स्थल, निवास स्थान, आरामगृह, विश्राम स्थल । (सुद० १ / १५ )
तदेकदेशः शुचिसन्निवेशः
श्रीमान् सुधीमानवसंश्रये सः (सुद० १ / १५ )
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० आश्रय, आधार, शरण, आश्रम
।
संश्रवः (पुं० ) [ सम् + श्रु+अप्] प्रतिज्ञा । (जयो० १३ / २० ) वचनबद्धता । ध्यानपूर्वक सुनना ।
संश्रवणं (नपुं०) [सम्+श्रु+ल्युट्] सुनना। ०कर्ण, कान। निशमन । (जयो० ६/३९)
संश्रि (सक०) आश्रय देना (जयो० ३/६५)
संश्रित (भू०क० कृ० ) [ सम् + श्रि+क्त] आश्रय दिया हुआ, सहारा दिया हुआ।
० शरण में गया।
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संश्रु
१११३
संसार:
संश्रु (अक०) सुनना, संयुक्त होना। (सुद० २/३५) (जयो०
१८/४३) संश्रूयते। संश्रुत (भू०क०कृ०) [सम्+श्र] प्रतिज्ञात, भलीभांति सुना
हुआ। संश्रुतापादपः (पुं०) प्रसिद्ध वृक्ष-महात्मनां संश्रुतपाद पाना
पत्राणि जीर्णानि किलेतिमावात। (वीरो० ९/३४) संश्रोतृ (वि०) श्रोता। (वीरो० १/१) संथखडल ( वि०) श्रृंखला सहित. सांकल यक्त. जंजीर
सहित। (जयो० १३/११०) संश्लिष्ट (भू०क०कृ०) [सम्+श्लिष्+क्त]
संयुक्त, मिला हुआ, जुड़ा हुआ।
श्लाघ्य, प्रशंसनीय। (जयो०वृ० १/७९) 'महर्षि संश्लिष्टाशायां जगाम, वन्दनार्थमित्यर्थः' (जयो०७० १/७९) सश्लिष्ट श्लाघ्यं बभूव। (जयो०वृ० १/६१)
सुसज्जित।
०संस्पर्शी, आलिंगित। संश्लेषः (पुं०) [सम्+श्लिष्+घञ्] आलिंगन, परिरंभण, मिलाप
सम्बंध, सम्यक। (जयो० १७/७७) संश्लेषजन्य (वि०) हर्षजन्य। (जयो०वृ० १२/६६) संश्लेषणं (नपुं०) [सम्+श्लिष्+ल्युट्] आलिंगन, भींचना,
दबाना। संसक्त (भू०क०कृ०) [सम्+सञ्+क्त]
० जुड़ा हुआ, मिला हुआ। संलग्न, आसक्त, सटा हुआ। आसन्न, निकट। ०प्रयुक्त। (जयो० ६/६७)
मिश्रित, संपन्न, प्रतिबद्ध। संसक्तिः (स्त्री०) [सम्+स+क्तिन्]
संगम, मिलन, मिलाप। ०बांधना, घनिष्टता।
आपसी मेलजोल। संसज् (अक०) द्रवीभूत होना। (मुनि० २८) संसद् (स्त्री०) [सम्+सद्+क्विप्]
०सभा, सम्मिलन, मंडल। (जयो० ३/९२) (सुद० २/१)
परिषद। समिति। (जयो० १०/२) इत्थं वारिविवषैरङ्करयन् संसदे तथैव रसैः। (जयो० ३/९२) संसमान (वि०) प्रस्खलित हुआ। (जयो० २४/३५) संसरणं (नपुं०) [सम्+ऋ+ल्युट्]
०प्रगति, जाना। ०देशान्तरगमन। (जयोवृ० १/२२) संसार, लौकिक जीवन, सांसारिक। (जयो०वृ० १/९५) जन्म-जमान्तर। (जयो० १/२२)
निर्बाध कूच। प्रयाण। संसरणनिवृत्तिः (स्त्री०) संसार से हटना, सांसारिक कार्यों से
अलग होना। (जयो०वृ० १/९५) संसर्गः (पुं०) [सम्+ऋज्+घञ्] संगम, मिलन, मिश्रण।
संगति, सम्पर्क, साहचर्य। परिचय, मेल-जोल। सामीप्य, संस्पर्श। मैथुन, संभोग।
०प्रसक्ति। (वीरो० २/१२) संसर्गप्रभवः (पुं०) संसर्ग से उत्पन्न। (मुनि० २८) ससर्गविधा (स्त्री०) संगति प्रधान नीति। (सुद० १/२३)
विसर्गमात्मश्रिय ईहमानः
स साधुसंसर्गाविधानिधानः। (सुद० १/२३) संसर्गिन् (वि.) [संसर्ग-इनि] संयुक्त, मिश्रित, मिला हुआ,
सम्बंधित। संस्पर्शित। संसर्गिन् (पुं०) सहचर, साथी। संसर्जनं (नपुं०) [सम्+ऋ+ल्युट्]
परित्याग करना, छोड़ना, विसर्जन करना।
०अलग करना, पृथक् करना, हटाना। संसर्पः (पुं०) [सं+सृप+ल्युट्] सरकना, रेंगना। संसर्पणं (नपुं०) [सम्+सृप ल्युट्] सरकना। संसर्पिन् (वि०) [संसर्प इनि] सरकने वाला, रेंगने वाला। संसादः (पुं०) [सम्+सद्+घञ्] सभा, समिति। संसाधनं (नपुं०) उचित साधना। (दयो० २/२६) संसाध्य (वि०) प्राप्त करने योग्य। (मुनि० १६) संसारः (पुं०) [सम्+ऋ+घञ्] लोकः, विश्व।
संसरण, परिभ्रमण, गति, प्रगति। गुणोऽस्ति जीवस्य किलोपयोगस्तेनाप्य जीवेन समं योगः। ततो हि संसार इयानिहास्ति, वियोग एवास्तु शिवाश्युपास्ति। (समु० ८/६)
संसृति-प्रापय यामपि तु तामसारतां संसृतिस्त्यजति तामसारताम्। (जयो० ११/९४) ०आवागमन, पुनरागमन, पुनर्जन्म। ०परम्परा, रीति।
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संसारकर्मन्
१११४
संसृष्ट
हुआ।
चार गतियों में परिभ्रमण।
संसारोदयवर्तिन् (वि०) संसार के मध्य रहने वाले। ०ग्रन्थानुबन्धी।
सोऽयं जन्मजरान्तकत्रयभवं सन्तायमुन्मूलयन्। गर्भादिसंचराण
संसारोदय्वर्तिनां तनुभृतां शान्तिं च सम्पादयन्।। (मुनि०७) भवान्तर प्राप्तिा
संसिक्तः (वि०) छोड़ी गई। (जयोवृ० १२/६५) ०भवानुभूति।
संसिद्ध (भू०क०कृ०) [सम्+सिध्+क्त] सर्वथा निष्पन्न, पूर्ण कर्मकलाप युक्त।
तैयार हुआ। 'भवः पवित्रसारहितः संसारः' (जयो० १/१५)
०पकाए गए। (वीरो० २२/२३) संसारकर्मन् (नपुं०) सांसारिक क्रिया।
मुक्त, विमुक्त, सिद्धि को प्राप्त हुए। संसारखिन्न (वि०) संसार से उदासीन।
संसिद्धि (स्त्री०) [सम्+सिध्+क्तिन्] संसारगत (वि०) संसार को प्राप्त।
मुक्ति, मोक्षा (जयो० २४/९६) संसारगति (स्त्री०) संसार परिभ्रमण।
कैवल्य, परमगति, सिद्धगति। संसारजन्य (वि०) संसरण को प्राप्त।
प्रकृति, नैसर्गिक वृत्ति। संसारतत्वं (नपुं०) परिभ्रमण शील तत्त्व।
संसूच् (सक०) प्रकट करना, सूचित करना, सिद्ध करना।
०संकेत करना, भेद खोलना। संसारधृत (वि०) संसार को पकड़ने वाला। संसारपरीत (वि०) संसार को परिमित करने वाला।
०भर्त्सना, झिड़कना!
संसूचक (वि०) प्रतिपादक, निवेदक। (जयो० ६/३०) संसारपार (वि०) संसार को पार करने वाला।
संसूचका (स्त्री०) विजय सूचक ध्वनि। (जयो०१० २६/१८) संसारबन्ध (वि०) संसार में बंधने वाला।
संसूचनं (नपुं०) [सम्+सूच+ ल्युट्] संसारभावः (पुं०) संसार का कारण।
०सूचित करना, समाचार देना। संसारसिन्धु (पुं०) संसार सागर। (मुनि० ३४)
०संकेत करना, निर्देश देना। संसारस्फीतिः (स्त्री०) संसार से छूटना।
निर्देशन, प्रवेदन। संसारमोक्षः (पुं०) योनिक जीवन से छूटना।
०कथन, प्रतिपादन। संसारसागः (पुं०) संसार रूपी समुद्र। (जयो० १/१०३)
०भर्त्सना, झिड़कना। संसारात्तरणं (नपुं०) संसार से पार। (मुनि० ५)
०भेद खोलना, रहस्य प्रकट करना। संसारभावः (पुं०) संसार का अभाव।
संसूय (अक०) उत्पन्न होना। (जयो० १८.४३) संसारानुप्रेक्षा (स्त्री०) संसार भावना।
संसूयित्री (स्त्री०) संकेत करने वाली। (जयोवृ० १६/७५) संसारिन् (वि.) [संसार+इनि] लौकिक, ऐहिक, संसार से
संसृतिः (स्त्री०) संसार, जगत, विश्व। संसारचक्र, लौकिक सम्बन्धित। संसार में परिभ्रमण करने वाले।
जीवन। (दयो० ८, जयो० १९/९४, २/१२) निजेङ्गिताङ्गविशेषभावात्।
०मार्ग, पथ, ०धारा, प्रवाह, आवागमन। संसारिणोऽमी ह्यचराश्चरा वा।
संसृतिनापकः (पुं०) यमराज। (समु० ७/१०) तेषां श्रमो नारकदेवमर्त्यतिर्यक्त्या
संसृतिवत् (वि०) संसारवत्, संसरण की तरह। तावदितः प्रवर्त्यः। (वीरो० १९/२६)
संसृतिविलासवासिन् (वि०) विविध सांसारिक आरंभ-परिग्रह संविदन्नपि संसारी स नष्टो नश्यतीतरः (वीरो० १०/५) में आसक्ता () संसारिजन् (पुं०) परिभ्रमणशील, शुभाशुभ परिणाम जन्य 'संसृतेर्विलासास्तेषु वसन्ति तान् जीव।
विविधारम्भ-परिग्रहासकान' (जयो० २१) संसारीतावस्था (स्त्री०) मुक्ति/मोक्ष अवस्था। (जयो०१८/३) | संसृष्ट (भू०क०कृ०) [सम्+सृज्+क्त] मिश्रित, मिला हुआ, संसारोचितवर्मन् (नपुं०) संसार के अनुकूल मार्ग।
सम्मिलित किया हुआ। मनोऽपियस्य नो जातु
प्रशान्त, पुनर्युक्त, निर्मित, बनाया हुआ। संसारोचितवद्मनि। (सुद० १३२)
परिष्कृत् संस्कारित। (जयो०वृ० २/७७)
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संसृष्टता
१११५
सांस्थ
संसृष्टता (वि०) [सम्+सृज्+क्त] समाज, संध। संसृष्टत्व देखों ऊपर। संसृष्टिः (स्त्री०) [सम्+सृज्+क्तिन्]
०सम्बंधी, जोड़, मिलाप, मिलन। साहचर्य, सहभागिता, साझीदारी।
संग्रह, संचय करना, जोड़ना। संस्रवत (वि०) भरता हुआ, प्रच्यवत। (जयो० १०/६१) संसेकः (पुं०) [सम्+सिच्+घञ्] तर करना। (वीरो० १३/१५) संसेवमान् (वि०) सेवा करने वाला। छिड़कना। संम्रोतर (वि०) उक्ति प्रवाह। (जयो० ३/९३) संस्कृ (सक०) संस्कारित करना, योग्य बनाना। (सुद०३/१२) संस्कर्त (पुं०) [सम्+कृ+तृच] संस्कारित करना, बनाना,
तैयार करना। संस्कारः (पुं०) [सम्+कृ+घञ्] संस्कृति। (जयो० २२/८३)
०सजावट। (मुनि० ३) शिक्षा, अनुशासन, सीख, प्रशिक्षण। ०सत्क्रिया। अलंकरण।
अन्त:शुद्धि, पवित्रीकरण। पुनीतकार्य, अच्छे भाव। रश्मि, आशा। (जयो०वृ० ४/४३) ०प्रमार्जन, प्रक्षालन।
प्रत्यास्मरण शक्ति, संस्मरण। संस्कारधारा (स्त्री०) परम्परागत धारा। (जयो०२/१११) संस्काराभाव: (पुं०) संस्कार का अभाव, अनुशासन की
कमी। (हित० २४) संस्कृत् (भू०क०कृ०) [सम्+कृ+क्त]
परिष्कृत्, परिमार्जित।
संस्कारित, संस्कार युक्त किया गया। ०अनुभावित। (जयो० ३/५९)
सुनिर्मित, सुसम्पादित, सुरचित। विधिवत् घटित, अच्छी तरह व्यवस्थि किया गया। ०व्याकरण निष्ठ बनाया गया। ०भासित। (जयो० १०/८९) अर्थसंस्कृतकुड्येषु संक्रातप्रतिमा नराः। विलोक्यते स्फुटं यत्र चित्राङ्का इव मञ्जुलाः। (जयो० १०/८९)
'संस्कृतस्य जगतो देववाणी। (जयोवृ० २२/८६) संस्कृतिः (स्त्री०) संस्कारित विधि, परिष्कृत विधि, जिसमें
संस्कारों में बल दिया जाता है। संस्कार (जयो० २२/८३)
यस्मात् गेहिभिन्नसंस्कृति
विधौ नाना त्रुटि ह्रीऋषिः। (मुनि० ३१) संस्क्रिया (स्त्री०) संस्कार युक्त क्रिया। (सुद० १/३१) शुद्धि
संस्कार, परिमार्जित, क्रिया, अनुशासत्मक क्रिया। संस्तम्भः (पुं०) [सम्+स्तम्भ+घञ्]
०आश्रय, आधार, सहारा। टेक। दृढ़ करना, सबल बनाना।
विराम, यति। ०जड़ता। संस्तपनः (पुं०) सूर्य, रवि-संस्तापितः संस्तपनस्य पादैः पथि
प्रजन् पांशुभिरुत्कृदङ्गः (वीरो० १२/११) संस्तरः (पुं०) [समृ+स्तृ+अप्] शय्या, पलंग, आसन, बिछौना,
बिस्तर। संस्तरणं (नपुं०) बिछाना, फैलाना।
०शय्या, पलंग। संस्तवः (पुं०) [सम्+स्तु+अप्] प्रशंसा, स्तुति, पूज्य। (समु०
२/१४) ०सम्मान योग्य, समाददिरत। ०रक्षण करना, स्तवन करना। (जयो० ३७) जान-पहचान, घनिष्टता। प्रार्थना, विनय, भक्ति। (मुनि० २७) मुक्तात्मभावोदरिणी जवेन
समर्हणीया गुणसंस्तवेन। (जयो० २/४२) | संस्तवनं (पुं०) [सम्+स्तु+घञ्] प्रशंसा, ख्याति।
स्तुतिपाठ, प्रार्थना। संस्तुत (भू०क०कृ०) [सम्+स्तु+क्त] प्रशस्त, प्रशंसित।
०पूजित, अर्जित। (समु० ४/२४) (वीरो० १०/२, समु० २/१९)
महिमा युक्त, प्रसिद्ध। (सुद० ३/६) ०सम्मत, सम्वादी।
घनिष्ट, परिचित। संस्तुतिः (स्त्री०) [सम्+स्तु+क्तिन्] प्रशांस, स्तुति, गुणगान। संस्त्यायः (पुं०) [सम्+स्त्ये+घञ्] संचय, राशि, संघात,
सामीप्य।
प्रसार, विस्तार।
०घर, आवास, निवास। सांस्थ (वि०) [समृ स्था+क] स्थित रहने वाला, ठहरने
वाला। विद्यमान, मौजूद, उपस्थित।
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संस्थः
१११६
संहरणं
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०समाप्त, मृत, नष्ट। स्थिर, अचल।
सूख गया। (वीरो० १२/३१) संस्थः (पुं०) निवासी, वास्तव्य पड़ौसी, स्वदेशी। ०गुप्तचर। संस्था (स्त्री०) [सम्+स्था+अङ्कटाप्]
सभा, समुदाय, समूह, समिति। ०परिषद्। ०धन्धा, व्यवसाया ०अन्त, पूर्ति, क्षति, नाश।
०प्रलय, राजकीय आज्ञा। संस्थान (नपुं०) [सम्+स्था ल्युट्]
संचय, राशि। ०आकार-प्रकार। (सुद० ८३) ०आकृति विशेष।
विन्यास, अनुकृति। ०रूप, आकृति, दर्शन, सूरत। संरचना, निर्माण, संस्थिति। निशान, चिह्न। ० नाश।
समचतुरस्रनादिलक्षण, औदारिक शरीर का आकार। संस्थानविचयः (पुं०) द्रव्य, क्षेत्र आकारादि का चिंतन।
(समु० ८/३९) संस्थापनं (नपुं०) [सम्+स्था+णिच+ल्युट] निर्धारण, जमाना, बिठाना, स्थपित करना। नियंत्रण करना, दमन करना।
संचय करना, संग्रह करना। संस्थापना (स्त्री०) नियंत्रण, दमन। संस्थापकार्थ (वि०) मारणानार्थ, उपनिवेश, रोकने के लिए। __ (जयो० ८/५४) . संस्थित (वि०) स्थित, विद्यमान।
संचित, स्थापित, रखा हुआ। मृत, उपरत।
निष्पन्न समाप्त। संस्थितिः (स्त्री०) [सम्+स्था+क्तिन्]
निवासस्थान, आवासस्थल, विश्रामगृह। निकटता, समीपता। संचय, ढेर। ०अवधि, कालावधि।
अवस्थान, स्थिति, जीवन की दशा।
प्रतिबंधा संस्पर्शः (पुं०) [सम्+स्पृश्+घञ्] ०संपर्क, छूना, सम्मिलन,
मिश्रण।
०संवेदन, प्रत्यक्षज्ञान। संस्पर्शी (स्त्री०) [समृ+स्पृश्+अच+ङीष] गंध युक्त पौधा। संस्पृत्यालु (वि०) अभिलाषी। (जयो० २७/२३)। संस्फालः (पुं०) [सम्यक् स्फाल स्फुरणं यस्य] ०मेंढा।
मेघ, बादल। संस्पुरं (सक०) प्रकट करना, व्यक्त करना। (जयो० १६/७६) संस्फेटः (पुं०) संग्राम, युद्ध लड़ाई। संस्मरणं (नपुं०) [सम्+स्म् ल्युट्] याद करना, मन में लाना,
विचारना, चिन्तन करना। (जयो० २७/५५) संस्मारक (वि०) स्मरण। (जयो० १९/२) संस्मृ (सक०) चिन्तन करना, याद करना, स्मरण करना।
(जयो० ४/६२) स्मरण (मुनि० १७) संस्मृत (वि.) [समृ+स्मृ+क्त] याद किया हुआ।
स्मरित, स्मरण किया हुआ। (दयो० ३९) संस्मृति (स्त्री०) स्मरण, याद चिंतन, (जयो० ४/६२) विचार।
(जयो० ९/४८)
'स्वं यशोऽग्रजननाम संस्मृतिः' (जयो०२/१०५) संस्रवः (पुं०) [सम्+मु+अप्] बहना, टपकना, रिसना, झरना।
०सरिता। संहत (भू०क०कृ०) [सम्+हन्+क्त] ०बन्द, अवरुद्ध।
०समुदित, एकत्रित। (जयो० २/२०) ०सम्पृक्त, संबद्ध, युक्त, जुड़ा हुआ।
संघात, संचित। संहतता (स्त्री०) [संहत+तल+टाप्] मेल, मिलन, संहति।
०संपर्क, घनिष्ट मेल।
०संयोजन, सहमति, एकता। संहतिः (स्त्री०) [सम्+हन्+क्तिन्] संपर्क, मेल।
०संचय, समुदाय, ढेर।
पिण्ड, समवाय। संहननं (नपुं०) [सम्+हन्+ल्युट्]
सघनता, दृढ़ता, सामर्थ्य शक्ति।
अस्थि-निबन्धन, हड्डियों की बनावट। ०हड्डियों का संचय। ०देह रचना। संहरणं (नपुं०) [समृ+हल्युट] लेना, ग्रहण करना।
मिलाना, संचय करना।
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संहर्तृ
१११७
सकलजनः
संहर्तृ (पुं०) [सम्+ह+ तृच्] विनाशक, नष्ट करने वाला। ०लेना, ग्रहण करना, पकड़ना। संहर्षः (पुं०) [सम्+हरु+घञ्] आनन्द, हर्ष, खुशी।
प्रतिबन्ध, संचय। ०रोमांच।
संहृष्ट (भूक०कृ०) [समृ+हृष्+क्त] हर्षित, रोमांचित, ०पवन, वायु। ०रगड़ना।
पुलकित। संहातः (पुं०) [सम्+हन्+घञ्] संघात।
संहादः (पुं०) [सम्+हृद्+घञ्] चीत्कार, कोलाहल, होहल्ला। संहारः (पुं०) [सम्ह+घञ्] संकोचन, भींचना, संक्षेपण, संहीण (वि०) [सम्+ही+क्त] लज्जालु, शर्मीला, विनयशील। प्रतिबन्ध लगाना।
सकं (नपुं०) सुख, आनंद, हर्ष। ०विनाश, समाप्ति। उपसंहार।
'इत्येवं सकं सुखं ददातीति तत्प्रकार:' (जयो० ११/४३) संघात, समूह।
सकः (पुं०) अर्ककीर्ति राजा। (जयो० ८/७४) संहारक (वि०) विनाशक, घातक। (जयो० ६/६८) । सकज्जलं (वि०) [कज्जलेन सहति] कज्जल सहित। कालिमा ०संघातकाय (जयो०वृ० १/९४)
युक्त। (जयो० ७/९९) संहारकः (पुं०) महादेव, शिव। (जयो०१० ३/५४)
सकट (वि०) [कटेन अशुचिना शवादिना सह वर्तमानः] संहारकृत् (वि०) विनाश करने वाला, घातक। (वीरो० ९/४०) दुष्ट, बुरा, कुत्सित। संहार्यमतिः (स्त्री०) असमीचीन बुद्धि।
सकण्टक (वि०) [कण्टेन सह] कांटेदार, चुभने वाला। संहित (भू०क०कृ०) [सम्+धा+क्त हि आदेश:]
(दयो० २/९) ०संयुक्त, मिला हुआ, समाहित।
०कष्ट प्रद भयानका संचित, अन्वित, सहित, युक्त।
सकण्टकः (पुं०) शेवाल जलीय घास। सहमत, समनुरूप, अनुकूल।
सकन्दल (वि०) [कन्दलेन कलहेन सहितं] कलह सहित। संहिता (स्त्री०) [संहित+टाप] सम्मिश्रण, समायोजन।
आघात (जयो० १३/७०) ०संचय, संकलन, संग्रह।
सकम्प (वि०) ०कम्पेन सह, ०कांपता हुआ, ०कम्पमान। नियम, विधि।
(जयो० ८1८) डरता हुआ, ०थरथराता हुआ। संहिता शास्त्र-सूत्र की व्याख्या।
सकम्पन (वि०) [कम्पनेन सह] कांपता हुआ, थरथराता ०पद विन्यास, उच्चारण की विशेषता।
हुआ। शस्तमस्तु तदुताप्रशस्तकं
स-करुण (वि०) करुणया सह, करुणा युक्त, कोमल, व्याकरोति विषयं सदा स्वकम्।
दयालु। पारवश्यक विचारवेशिनी
सकर्ण (वि०) [कर्णेन सह] कान सहित, सकर्मक क्रिया। संहिता हि सकलाङ्गदेशिनी।। (जयो० २/४३)
जिसमें कर्ता के साथ कर्म को महत्त्व दिया जाता है। संहितासद्भावः (पुं०) कार्य प्रारम्भ। (जयो० ३/७१)
कर्म से युक्त, कर्म रखने वाला। ०संगठित शक्ति।
सकल (वि.) [कलया कलेन सह वा] संहितत्व (वि०) परम्परा युक्त। (वीरो० ११/२४)
समग्र, सम्पूर्ण, सब, समस्त। (जयो० १८/१६) संहूतिः (स्त्री०) [सम्+ ह्वे-क्तिन्] चीखना, चिल्लाना, शोरगुल भूरानन्दमयीयं सकला। (सुद० ८१) (जयो० २/१६) करना।
०कृत्स्नं। (जयो० १८/१६) संह (सक०) खींचना, दबाना।
०कोई भी-विश्वं सुदर्शनमयं विवभूव तस्या। नियंत्रण करना। नष्ट करना। (सुद० १२८)
रुच्या न जातु तमृते सकला समस्या।। (सुद०८६) संहृत (भू०क०कृ०) [सम्+ह+क्त] ०संचित, संगृहित।
कला सहित। (सुद० १/२८) ०पकड़ा हुआ। दबाया हुआ।
०भागो सहित, अंश युक्त। संहतिः (स्त्री०) [सम्+ह+क्तिन] सिकुड़न, भींचना।
सब अंकों से युक्त। विनाश, हानि, क्षति, संहार। (वीरो० ९/५) | सकलजनः (पुं०) सम्पूर्ण व्यक्ति, समस्त मानव। (सुद०९७)
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सकलज्ञ
१११८
सक्तिः
सकलजनानां निजवित्तस्य च
लुण्टाकेभ्यस्त्रात्री-यमायाताऽरमहो कलिरात्रि। (सुद०९७) सकलज्ञ (वि०) सर्वज्ञ, भगवान्।
सकलशं सर्वत्रं भगवन्तं
सम्प्रार्थयितुमाप्तवान्' (जयो० ८।८८) सकलज्ञता (वि०) सर्वज्ञता, सर्व वस्तु जानने वाला।
व्याख्याति तत्त्वं सकलज्ञतात:
बहिर्न किञ्चिद्यदुपेयतात:। (भक्ति० ३२) सकलङ्क (वि०) [कलङ्क सहितः] कलंक सहित।
सकलङ्कः पृषदङ्ककः
स क्षय सहितः सहजेन। (सुद० ८७) सकलजाति: (स्त्री०) सम्पूर्ण जाति। सकल-तापस् (वि०) समस्त तपस्वी। सकलदत्ति कारकत्व (वि०) महादान के दाता। (जयो०७०
१/१०८) सकलदानं (नपुं०) समग्रदान। सकलदोषः (पुं०) सम्पूर्ण सम्पत्ति। सकलधनं (नपुं०) समस्त धर्म। सकल परमात्मन् (पुं०) सकल परमात्मा। सकलभावः (पुं०) सम्पूर्ण परिणाम। सकलभेदः (पुं०) समस्त भेद। सकलयोनिः (स्त्री०) सम्पूर्ण उत्पत्ति स्थान। सकलराशिः (पुं०) समस्त राशिः सकलविद्या (स्त्री०) समस्त विद्याएं।
कुशल सद्भावनोऽम्बुधिवत्,
सकलविद्या सरित्सचिवः। (सुद० ३/३०) सकलव्यञ्जनं (नपुं०) समस्त पकवान्।
सकलानि व्यञ्जनानि। (जयो० १२/११५) सकलसम्मत (वि०) जनमान्य। (दयो० १/१४) सकलाङ्गदेशिनी (वि०) सांगोपांग वर्णन करने वाली।
सकलान्यङ्गनि दिशतीति
साङ्गोपाङ्गनिर्देशिनी भवति। (जयो० २/४३) सकलादेशः (पुं०) प्रमाण वृत्ति। (जयो० २८/४४) सकलाधर (वि०) कलायुक्त। (दयो० १०४) सकलित (वि०) सम्पादित। (जयो० १२/१३२) सकलेन्द्रियः (पुं०) समस्त इन्द्रियां, पंचेन्द्रिय।
यामि चेत्तु सकलेन्द्रियभोगभोगिनोनुरिह कोऽस्तु नियोगः। (समु० ५/७)
सकरङ्कः (वि०) कन्यादानार्थ कर झारी, शंङ्गारक। झारी युक्त
हस्त। (जयो० १२/५३) सकल्प (वि०) [कल्पेन सहितं] कल्प/क्रिया सहित। सकाम (वि०) [कामेन सह] कामना युक्त, कामी, लब्ध
काम, तुष्ट, तृप्त। सकामनिर्जरा (स्त्री०) निर्जरा का एक भेद। सकाय (वि०) [कायेन सह ) शरीर सहित, शरीरधारी। (जयो०
१५/३९) सकाल (वि०) [कालेन सहित:] काल सहित। ऋतु के
अनुकूल। समयोचित। सकालं (अव्य०) कालानुरूप, समय से पूर्व, ठीक समय पर। सकावशस्य (वि०) कंकर सहित धान्य। (जयो० २/१७) सकाश (वि०) [काशेन सह] दृश्य, प्रस्तुत निकटवर्ती।
'सकाशात् प्रतिष्ठां गतः' (जयोवृ० १/१६) सकाशः (पुं०) उपस्थिति, पड़ौस, सामीप्य।
निकट। सकुक्षि (वि.) [सह समानबुद्धि:] सहोदर, एक ही माता से
जन्म लेने वाले। सकुल (वि०) [कुलेन सह] कुल से सम्बंध रखने वाला। एक ___ही परिवार सका, सपरिवार। सकुलः (पुं०) सम्बंधी जन, निकटवर्ती लोग। सकुल्यः (पुं०) [समाने कुले भाव:] ०एक ही परिवार
सम्बंधी जन। सकूर्चक (वि०) [सहित सकूर्चक] दाढ़ी-मूंछ युक्त। (जयो०
२/१५३) सकृत् (अव्य०) एक बार, एक समय, एक अवसर, पहले
दफा का।
०साथ-साथ। (जयो० ४/४९) सकैतव (वि०) [कैतवेन सह] धोखा देने वाला, जालसाज। सकैतवः (पुं०) ठग, धूर्त। सकोप (वि०) [कोपेन सह] क्रोधित, क्रुद्ध, कुपित। सकोपं (अव्य०) क्रोधपूर्वक, गुस्से से। सकौतुक (वि०) जिनोदभाव युक्त। (जयो० १/८६) सक्त (भू०क०कृ०) [सज्+क्त] चिपका हुआ, संसक्त,
० जुड़ा हुआ। ०भक्त, अनुरक्त, आसक्त।
०सम्बन्ध रखने वाला। संलग्न। (सुद० १२७) सक्तिः (स्त्री०) [सञ्ज+क्तिन्] संपर्क, स्पर्श, मेल, सङ्गम। ___०अनुराग, आसक्ति, भक्ति। (जयो० २/२)
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सक्तु
१११९
सङ्कलित
सक्तु (पुं०) सत्तू, जौ का सत्तू।
सग्धिः (स्त्री०) साथ-साथ, भोजन करना। सक्थि (नपुं०) [सञ्ज+क्थिन्] जंघा।
सघन (वि०) अतिगम्भीर। रथपुट। (जयो० २३/१३) (जयो० ०हड्डी।
१०/१६) गाड़ी का लट्ठा।
सघनः (०) मोथा। (जयो०२१/३४) सक्रिय (वि०) [क्रियया सह] गतिशील, तत्पर, उद्यमशील। सघनीभूत (वि०) गाढता युक्त। (जयो० १३/४८) गढ़ी। सक्षण (वि०) [क्षणेन सह] अवकाश वाला। समय युक्त। सङ्कट (वि०) [सम्+कटच्] [सम्+कट्+अच्] कठिनाई, सखि (पुं०) [सह समानं ख्यायते ख्या+डिन्] मित्र, सहचर, डर, जोखिम। साथी। (सुद० ७०, ९०)
संकीर्ण, अभद्या सखिराजन् (पुं०) राज राजेश्वर। (वीरो० ३/८) मित्रकर, सङ्कटं (नपुं०) भय, आपत्ति, व्याधि। (जयो० ४/३६)
०कष्टमयी। (सुद० ९४) सखी (स्त्री०) सहेली, सहचरी, संगिनी, सहभागिनी।
०कष्ट परम्परा। (जयो०१० २/१२६) सखीकृत् (वि०) आत्मसात्कृत्, मैत्रीकृत। (जयो० ३/५१) 'सङ्कटघटोपटोपिणी' सखिसमूहः (पुं०) सहेली वर्ग। आलिमण्डल। (जयो०७० सङ्ककृत (वि०) कष्टकारि। (जयो०१२/१२४) १२/५८)
सङ्कटगत (वि०) कष्ट को प्राप्त हुआ। सख्यं (वि०) मित्रंता, मैत्री, घनिष्टता। (वीरो० २/३८) सङ्कटबहुल (वि०) कष्ट की अधिकता। (जयो०वृ० १/१०९) सखैर (वि०) साहसपूर्वक।
सङ्कटसमाहित (वि०) कष्ट से परिपूर्ण। सखायमीरयति-सखैरः
सङ्कथ (वि०) मनोरथ, अंतरंगाभिप्राय। (जयो० २६/२०) सखं बुद्धिसहितमीरयति। (जयो०८)
सङ्कथा (स्त्री०) [सम्+कथ्+अ+टाप्] कीर्तिवार्ता, प्रासंगिक सख्यः (पुं०) मित्र, सहचर, साक्षी।
कथा, विशेष कथन। (जयो० ५/२६) समालाप। सगणय (वि०) [गणेन सह] गण सहित, दल-बल सहित। बातचीत, वार्तालाप। सगणः (पुं०) शिव, महादेव।
सङ्करः (पुं०) [सम्+कृ+अप] सम्मिश्रण, मिलावट, मेल। सगदेव (स्त्री०) रोगिणी की तरह। (सुद० ८४)
मिश्रण। सगर (वि०) [गरेण सह] विषैला, विषयुक्त। सगर-नगरं ० धूल, रजकण, बुहारन्।
त्यक्त्वा विषभेऽपि सर्भरसः, जहरीला। (वीरो० १०/१९) | सङ्कर्षणं (नपुं०) [सम्+कृष्+ल्युट्] खींचना, आकर्षण। (सुद० ९०)
सिकुड़ना सगरः (पुं०) एक राजा।
सङ्कल् (सक०) [समृ+कल्] संग्रह करना, इकट्ठा करना, सगरी (वि०) (दे) सारी, समस्त। (जयो० ३/७८)
संचना करना। सङ्कलित। (जयो० २/६५) सगरोदनः (वि०) विष सहित जल। (सुद० ९०)। सङ्कल (वि.) [सम्+कल्+अच्] व्याप्त, पूर्ण, भरा हुआ। सगर्भः (पुं०) [सह समानो गर्भो यस्य] सहोदर भाई।
(जयो०वृ० २/१२५) सगुण (वि०) [गुणेन सह] गुणों से युक्त, सद्गुणी। सङ्कलः (पुं०) [सम्+कल्+अच्] संग्रह, संचय, एकत्र ०डोरी से युक्त, रस्सी सहित।
करना। ज्यायुक्त।
सङ्कलनं (नपुं०) [सम्+कल ल्युट] सम्पर्क, संगम। ०साहित्यिक गुणों से परिपूर्ण।
०संचय, संग्रह। सग्रन्थः (वि०) गांठ सहित, हृदय ग्रन्थि युक्त। (सुद० १/१६) योग, जोड़। सग्रंथकन्था (स्त्री०) फटी हुई गुदड़ी। (वीरो० ९/२५)
पकड़ा गया, हाथ में लिया गया। सगोत्र (वि.) [सह समानं गोत्रमस्य] बन्धु, कुटुम्बी, एक ही सङ्कलित (भू०क०कृ०) [सम्+कल्+क्त] संचित किया गया, गोत्र में उत्पन्न हुआ।
एकत्रित किया गया। (दयो० ६५) संग्रही। द्वात्रिंशद्वर्णात्मकसगोत्रः (पुं०) परिवार, कुल, वंश।
वृत्तविशेष सकंलनम्। (जयो० ६/४)
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सङ्कलितुम्
११२०
सङ्कोचः
संपादित। (जयो० ३/६)
जोड़ा गया, मिलाया गया, संकलन किया गया। सङ्कलितुम् [सम्+कल्+तमुन्] संकलन करने के लिए। (वीरो०
१६/१६) सङ्कल्पः (पुं०) [सम्+कृप्+घञ्]
उद्देश्य, विचार, उत्प्रेक्षा। ०इच्छाशक्ति, प्रबल भावना। (भक्ति० ५०)
दृढ़ता, बलवती इच्छा। सङ्कल्पता (वि०) संकल्प शीलता। (सुद०३/२९) सङ्कल्पजः (पुं०) कामदेव, मदन। सङ्कल्पकारिन् (वि०) विचारशीलता। (जयोवृ० १/४२) सङ्कल्पजन्मन् सङ्कल्परूपः (पुं०) ऐच्छिक भाव। सङ्कसुक (वि०) [सम्+कस्+उकञ्] अस्थिर, चंचल,
परिवर्तनशील। ०अनिमित, अनिश्चित।
संदिग्ध, दुष्ट, बुरा, अहितकर। ०बलहीन, शक्ति रहित। सङ्कारः (पुं०) [सम्+कृ+घञ्] धूल, बुहारन, कूड़ाकरकट। सङ्कारी (स्त्री०) [सङ्कार+ङीष्] नई दुलहन। सङ्काश (वि.) [सम् + काश्+अच्] सदृश, समान,
मिलता-जुलता। (सुद० २।८)
निकट, समीप, पास। सङ्काशः (पुं०) दर्शन, उपस्थिति।
पड़ौस। सङ्किल: (पुं०) [सम्+किल्+क] मशाल, जलती हुई लकड़ी। सङ्कीड (वि०) साथ में खेलने वाला। (समु० ३/४२) सङ्कीर्ण (भू०क०कृ०) [सम्+कृ+क्त] अव्यवस्थित।
बिखरा हुआ। •तुच्छ, संकुचित, कुंठित।
सङ्कीर्तित (वि०) वर्णित। (जयो०३० २८/३९) सङ्कच् (अक०) संकुचित होना, संकीर्ण होना। संकोच करना।
(जयो० १७/५८) सङ्कुचति, सङ्कोचमञ्चति। (जयो० ११/२५) सङ्कुच (वि०) दृढद्व कुच। (जयो० ३/६०) सङ्कचता (स्त्री०) संकुचित रहना। (सुद० ७/४) सङ्कुचित (भू०क०कृ०) [सम्+कुच्+क्त] सिकोडता हुआ,
संक्षिप्त किया हुआ, संकुचित किया हुआ। ०ढका हुआ, बन्द किया हुआ। ०आवृत, आवरण।
हीन, तुच्छ। सचितत्व (वि०) संक्षिप्तिकरण। (वीरो०९/४३) सङ्कल (वि०) [सम्+कुल्+क] व्याप्त, पूर्ण, भरा हुआ।
(जयो० १३/७४) ०आकीर्ण, परिपूर्ण। (वीरो० १/३९) ०संकीर्ण। (जयो० १०/६०)
०अव्यवस्थित, विकृत। सङ्कलं (नपुं०) भीड़, जमघट। संग्रह, छत्ता झुण्ड। समूह।
रणसंकुल। असंगत। सङ्कष्ट (वि०) खींची गई। (जयो० ११/२९) सङ्केतः (पुं०) [सम्+कित्+घञ्] इंगित, इशारा।
चिह्न, निशान। (सुद० २/३२) ०प्रतीक, अंकन। मुद्रा।
०प्रतिबन्ध, शर्त। सङ्केतकः (पुं०) [सङ्केत कन्] अहमति, सम्मिलन।
नियुक्ति, निर्देशन। सङ्केतकालः (पुं०) सम्मिलन का समय। (जयोवृ० १२/१२९) सङ्केतगृहं (नपुं०) निर्दिष्ट स्थान। सङ्केतनिकेतनं (नपुं०) चिह्नित घर। सङ्केतित (वि०) [सङ्केत+इतच्]
निर्धारित, निर्देशित, चिह्नित। ०ठहराया हुआ, निर्दिष्ट। (जयो०वृ० ६/२०)
आमन्त्रित, बुलाया हुआ। सङ्कोचः (पुं०) [सम्+कुच्+घञ्]
लज्जा। (वीरो०५/२१, २२/२३) ०कुड्मली भाव। (वीरो० ५/२६)
संक्षेपण, न्यूनीकरण, ०सीचना, त्रास, भय। ०बंद करना, मूंदना, बांधना। .
तंग।
सङ्कीर्णः (पु०) संकर जाति का व्यक्ति। सङ्कीर्णजातिः (स्त्री०) वर्णसंकर। सङ्कीर्णधारा (स्त्री०) तुच्छ धारा। सङ्कीर्णयोनि (वि०) वर्णसंकर युक्त योनि। सङ्कीर्णयुद्धं (नपुं०) अव्यवस्थित लड़ाई। रणसंकुल। सङ्कीर्तनं (नपुं०) [सम्+कृत्+णिच्+ल्युट]
प्रशंसा करना, गुणगान करना। ०सराहना, स्तुति।
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सङ्कोचं
११२१
सङ्ख्या
-
उपभोग।
सङ्कोचं (नपुं०) केसर, जाफरान।
सञ्जयः (पुं०) [सम्+क्षि+अच्] विनाश, घात, हानि, क्षय। सङ्कोचकरणं (नपुं०) न्यूनीकरण। (दयो० ६१) सङ्कोचतती (वि०) लज्जालुता । (जयो० १७/१२)
०अन्त, प्रलय। सङ्कोचदशा (स्त्री०) मुद्रितदशा।
सञ्जालन् (नपुं०) धोना। (जयो० २७/९) ___'वनवासिषु सङ्कोचदशा सा' (सुद० ९७)
) संघसङ्गामात्। (सुद०४/२९) सङ्कोचनं (नपुं०) निमीलन। (जयो०वृ० १५/४९)
सङ्गिरा (स्त्री०) ओष्ठ वचन। (जयो० ५/५५) सङ्कोचशलि (पुं०) लज्जालु। (जयो० १६/४५)
सङ्गिन् (वि०) [सञ्ज+घिनुण्] सङ्कोचशील (वि०) विनम्रीभूत, समेटते हुए। (जयो० १/१००) संयुक्त, मिला हुआ। सङ्कोचवर्जित (वि०) निर्लज्जता। (जयो० )
०अनुरक्त, स्नेहशीला सङ्ककृतिः (स्त्री०) संकटनामक दोष। (जयो० २६/८२)
०संगम युक्त, संगत सहित। सङ्क्रन्दनः (पुं०) [कृष्ण]
सङ्गीत (भू०क०कृ०) [सम्+गै+क्त] सहगान, सामूहिक गान, सङ्क्रमः (पुं०) [सम्+क्रम्+घञ्]
मिलकर गाया गया गान। सहमति, संगमन।
सङ्गीतं (नपुं०) सामूहि ज्ञान/गायन, गान, मधुर तान। संक्रान्ति, यात्रा।
गोष्ठी, सहसंगीत। 'समीचीनशामित क्रमः शक्लौपरिपाटयाम् इति वि० (जयो० | सङ्गीतगुणः (पुं०) नीचे का गुण, गायन की विशेषता। (जयो० ५/७७)
२८/२९) स्थानान्तरण, प्रगति। गमन। (जयो० २३/३६)
सङ्गीतशाला (स्त्री०) गायन शाला। सङ्क्रम (नपुं०) कठिन मार्ग, संकरा मार्ग।
सक्षिप्तपदं (नपुं०) लघुमंदचरणक्षेप। (जयो० २४/५२) सेतु, पुल।
सङ्कक्षिप्तिः (स्त्री०) [सम्+शिप्+क्तिन्] ०संक्रमण। (समु० ८/१५)
० भींचना, संक्षेपण। सङ्क्रमणं (नपुं०) [सम्+कम्+ल्युट्]
०फेंकना, भेजना। संक्रान्ति, प्रगति, गमन, यात्रा।
सक्षेपः (पुं०) [सम्+क्षिप्+घञ्] संगमन, सहमति।
छोटा करना। ०एक बिन्दु से दूसरी बिन्दु पर जाना।
०लाघव, संहृति, ह्रास। सङ्क्रमित (वि०) चलायमान। (जयो० ५/७३)
निचोड़, सरांश। सङ्क्रमोदित (वि०) प्रसिद्धि प्राप्त हुई। (जयो० २२/२०) ०फेंकना, भेजना। सङ्क्रान्त (भू०क०कृ०) [सम्+क्रम्+क्त]
०अपहरण करना। संगमन, मेल, मिलान।
सक्षेपणं (नपुं०) [सम्+ष्विप्+ल्युट्] ०हस्तान्तरण, स्थानान्तरण।
०लघुकरण, छोटा करना। ०प्रतिमा, प्रतिबिम्ब।
ह्रस्वीकरण, संक्षिप्तिकरण। सङ्क्रीडनं (नपुं०) [सम्+क्रीड्+ल्युट] साथ में खेलना, एक सक्षोभः (पुं०) [सम्+क्षुभ्+घञ्] साथ कीड़ा करना।
०आंदोलन, कपकंपी। सङ्क्रीणं (नपुं०) खरीदना। (जयो० ३/६१)
०बाधा, हलचल। सङ्क्ले दः (पुं०) [सम्+क्लिद्+घञ्] तरी, नमी।
०अहंकार, अभिमान। सङ्क्रशित (वि०) क्लेश सहित। (जयो० २/१२७)
०दु:ख, व्याकुलता, कष्ट। सङ्क्ले श (पुं०) दु:ख। (वीरो० १८/११)
सङ्ख्यं (नपुं०) [सम्+ख्या+क] संग्राम, युद्ध, लड़ाई। सङ्क्लेशकृतत्व (वि०) क्लेश करने वाला। (सुद० २/२६) सङ्खननं (नपुं०) खुदवाना। (वीरो० २२/२४) सङ्क्लेशदेशः (पुं०) कष्टभाव। (जयो० २६/९७) सङ्ख्या (स्त्र) [सम्+ख्या+अ+टाप्]
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सङ्ख्यात
११२२
सङ्करः
गणना, गिनती। जोड़, संग्रह, गुणन। ०हेतु, समझ, प्रज्ञा।
रीति, पद्धति, विचार, विमर्श। सङ्ख्यात (भू०क०कृ०) [सम्+ख्या+क्त] गिना हुआ, गणना
किया हुआ।
गणित किया गया।
०संख्या का क्रम। सङ्ख्यातं (नपुं०) अंक, गिनती। सङ्ख्याति (स्त्री०) प्रसिद्धि, प्रशंसा। (जयो० ११/८८) सङ्यातीत (वि०) असंख्य, अनगिनत। अगणित। (जयो०वृ०
१/९४) सङ्ख्यावाचकः (पुं०) संख्याबोधक अंक। सङ्गः (पुं०) [सञ्ज+मात्रे घञ्] संसर्ग। (जयो० १२/७६)
सम्मिलन, संगम स्थान। संस्पर्श। मेल, मिलान। संगति, साहचर्य, मैत्री, अनुराग, प्रीति। अनुरक्ति। (जयो०वृ० १/२०)
आसक्ति। मुठभेड़, लड़ाई। सङ्गकृत (वि०) प्रसंग कर्ता। (जयो० १७/२४) सङ्गच्छन् (वि०) साथ चलने का इच्छुक। (सुद० १२३) सङ्गजगं (वि०) गजाकार। (जयो० ८/११) सङ्गडः (पुं०) साधन। (जयो० २/५८) सड़तहा (वि०) रोग देने वाली। संगं ददातीति (जयो० १४/४३) सङ्गणिका (स्त्री०) [सम्+अण्+ण्वुल्+टाप्] श्रेष्ठ प्रवचन,
अनुपम उपदेश। सङ्गत (भू०क०कृ०) [सम्+गम्+क्त] मिला हुआ, जुड़ा हुआ।
स्पर्शित। संसर्गित, सम्मिलित।
संचित, संयोजित, एकत्रित। सङ्गतं (नपुं०) [सम्+गम्+क्त] सम्मिलन, मिलाप, मेल।
०वर्णित। (जयो०वृ० १/११३) ०समन्वित। (जयो० १९/८३) ०समाज, मण्डली। परिचय, मित्रता घनिष्टता।
सुसंवत वाणी। सङ्गतदृष्टि (स्त्री०) आसक्त दृष्टि। (वीरो० २१/२२) सङ्गतात्मन् (वि०) संश्लिष्टात्मन्। (जयो० २४/१९)
सङ्गतिः (स्त्री०) [सम्+गम्+क्तिन्]
०संगम, मेल, मिलना। (सुद० ९१)
संसर्ग, सहयोगिता, साहचर्य। वारीणां किल संस्काराभावतः काऽस्य संगतिः (हित० २३)
मैथुन, संभोग। ०सहावस्थान। (जयो० २/४७) ०दुर्घटना, दैवयोग, आकस्मिक घटना। ०संगत, सम्बंध
०दर्शन करना, बारबार जाना। सङ्गम् (सक०) पहुंचना, जाना-सङ्कमिष्यासि। (दयो० १०४)
आगमन् (जयो० ६/१२९) सङ्गमः (पुं०) [सम्+गम्+अप] मिलना, मेल। (जयो० १३/९१) ०साहचर्य, संगति, सहभागिता। (सुद० ८६)
सहकारिता, परस्परिक सम्बंध। ०संयोग। (जयो० १०/२४) ०संपर्क, स्पर्श। ०मैथुन, रति क्रिया।
योग्यता, अनुकूलन। 'लोपेऽपि गङ्गा-यमुना-सरस्वतीनां सङ्गमः प्रयाग इति सुप्रसिद्धम्' (जयो० ६/१०७)
०अनुरक्ति, अनुराग। (जयो० ४/५५) सङ्गमतीर्थः (पुं०) प्रयागराज। (जयो०वृ० ६/४३) सङ्गमनं (नपुं०) [सम्+गम्+ल्युट्]
मिलना, मेल, संगति। ०साहचर्य। (भक्ति० ९)
संगत, सम्बन्ध। (सुद० ११९) सङ्गमात्तर (वि०) संगम युक्त। (जयो०वृ० ४/५५) सङ्गमान्तरवती (वि०) संगम वाली।
'सङ्गभान्तरं द्वितीयसङ्गमोऽस्या..
अस्तीति सङ्गभान्तरवती युवती। (जयो०७० ४/५५) समित (वि०) प्रशंसा योग्य। संगम के योग्य। (जयो०
५/६१) सङ्गरः (पुं०) [सम्+गृ+अप्] ०प्रतिज्ञा, करार। कलह-नारी-नरयोश्च सङ्गरः। (वीरो० ९/८) रणकार्य। (जयो० ८८६) संग्राम, युद्ध, लड़ाई। (जयो० १/७)
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सङ्गराश्रयः
११२३
सङ्घटनं
०स्वीकृति।
दुर्भाग्य, संकट। विष। सङ्गराश्रयः (पुं०) युद्धाश्रय। (जयो० २१/३८) सङ्गरलेकमूर्ति (स्त्री०) पूर्ण विषभरी मूर्ति। (जयो० १/७) सङ्गरल (वि०) रण करने वाला। (जयो० १/७) सड़वः (पुं०) [संगता गावो दोहनाय अत्र] चरगाह का समय। सङ्गसुखं (नपुं०) गृहवास सुख। (जयो० २५/३१) सङ्गाढसंदेशिन् (वि०) सुदृढ़संदेशकारी। (जयो० २३/२८) सङ्गादः (पुं०) [सम्+गद्+घञ्] प्रवचन, वार्तालाप, समालाप। सङ्गामः (पुं०) समागमा
तत्रास्याः पुण्ययोगेनाप्यार्यिका। सङ्गालित (वि०) छाते हुए। सङ्गलिते वारिणि जीवजन्तु।
(वीरो० १९/२१ सङ्गीतशास्त्र (नपुं०) गायनशास्त्र। सङ्गीति (स्त्री०) विचारगोष्ठी, श्रुताचार्य की विचार गोष्ठी,
वाचना, आगम-विचार गोष्ठी। (सुद०८२)
उदय। (जयो० १४/६) दिगन्तव्याप्तकीर्तिमयः
प्रथिमतषट्चरण सङ्गीतिः। (सुद० ८२) सङ्गीतिपरायणः (पुं०) गोष्ठी में निपुण। (सुद० १२३) सङ्गीर्ण (भू०क०कृ०) [सम्+गु+क्त]
०सम्मत, स्वीकृत।
प्रतिज्ञात। समर्थित। (जयो० १/६९) युक्त। (जयो०
३/३९) सङ्गणित (वि०) पूर्वापेक्ष गुणवत्। (जयो०वृ० ११/१०) सङ्गप्त (वि०) निग्रहयुक्त। आवृत। (सुद० ७७) सङ्गष्ट (वि०) अंगुष्ट सहित। सङ्ग्रहः (पुं०) [सम्+ग्रह+अप्]
०समूह। (जयो० २१/५)
संचया (जयो० २/८२) 'को न संवदति सङ्गहे पुनर्मो, घृणोद्धरणमात्रवस्तुनः। (जयो० २/८२) उत्तम ग्रह। (जयो०वृ० ५/५१) सभासंघ-करसौम्यमूर्तिर्मम कौमुदाश्रयोऽस्मिन् सङ्ग्रहे स्यात्तु शनैश्चरात्यहम्। (जयो० ५/९१) ०भरना, संचय करना, संग्रह करना। ०अवधारणा, संकलन। सारांश, सार, संक्षेपण।
० जोड़, राशि। ०प्रयत्न, चेष्टा।
उल्लेख, संकेत। सङ्ग्रहणं (नपुं०) [सम्+ग्रह् ल्युट]
०संलन, संचय। (जयो० १/१६) ०मंढना, जड़ना। ०आशा स्वीकार। ०स्वीकार करना।
मैथुन, स्त्रीसंभोग ०व्यभिचार। ०पकड़ना, लेना। ०सहारा देना।
प्रोत्साहित करना। सङ्ग्रहणता (वि०) जकड़े रहने वाला। सङ्ग्रहिन् (वि०) संग्राहक। (जयो०वृ० २/२१, जयो० २/१०७) सङ्ग्रहीतृ (पुं०) [सं+ग्रह तृच] सारथि। सङ्ग्रहणानुरागः (पुं०) उपचर्याकरणानुराग। (जयो० २७०७) सङ्गणित (वि०) गुण सहित। (जयो० ११/१०) सङ्ग्रामः (पुं०) [सङ्ग्राम्+अच्] रण, युद्ध। (जयो० ६/३८)
०समाहव/युद्ध। (जयो०१०/३२) सनामकर (वि०) युद्ध करने वाला। (जयो० ७/११३) साहः (पुं०) [सम्+ग्रह्+घञ्] ग्रहण करना। पकड़ना, ले
लेना।
हाथ डालना। सङ्ग्राहक (वि०) ग्रहण करने वाला। (सम्य० ९६) सङ्ग्राहिन् (वि०) पकड़ने वाला, छीनने वाला।
संग्रहण तल्लीन, संगृह्णातीति संग्राही। (जयो०० २८/४५) सङ्ग्राहिणी (वि०) ग्रहण करने वाली।
'कविता च सम्यग्रूपाणां सुप्तिङन्तानां
पदानां शब्दानां सङ्ग्रहिणी' (जयोवृ० ३/४१) सङ्घः (पुं०) [सम्+हन्+अप्] समूह, समुदाय, संगठन,
झुण्ड, ०समुच्चये, ०संग्रह, चतुर्विध संघ। सङ्घगत (वि०) समूह युक्त। सङ्घचारिन् (वि०) साथ में चलने वाला। सङ्घटनं (नपुं०) समुदाय, समुच्चय, समूह, एकता, सामञ्जस्य।
(जयो० ५/९०) निर्माण। (जयो० ११/७५) पदयोर्निर्माणकाले संघटनेसमये' (जयो०वृ० ११/७५)
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सङ्घटना
११२४
सजनः
सङ्टना (स्त्री०) सम्मेल, सम्मिलन।
सचकित (वि०) विस्मित, आश्चर्यजनक। एकता, एकरूपता।
भयभीत। सङ्घटित (वि०) [सम्+घत्+णिच्+क्त]
सचकितं (अव्य०) चौकन्ने होकर, विस्मित होकर। ०सम्मिलित, एकत्रित, समूहगत।
सचिः (पुं०) [षच्+इन्] मैत्री, मित्र। 'स्वाहितार्थमेव धर्माचरणे सङ्घटिता भवन्ति। (जयो०१० | सचित्त (वि०) सजीव, चेतनतन युक्त। २/२०)
धूलिः पृथिव्याः कणशः सचित्तास्तत्कायिकैराहतसूक्तवित्तात्। सङ्घटिता (वि०) घटित होती हुई।
(वीरो० १९/२८) उद्धृलिता धूलिरहस्करा याप्यपेत्य
सचिल्लक (वि०) [सह क्लिन्ने, सहस्य स+कप्] चकाचौंध सा मूर्ध्नि नुरस्त्विलायाः।
युक्त अक्षिा इमां सदुक्ति वलये प्रसिद्धा
सचिवः (पुं०) [सचिवा+क] ०मन्त्री। (समु० ३/२१), मुपैति मे संघटिता सुविद्धा।। (दयो० ९६)
(जयो०वृ० ३/१४) परामर्शदाता। सङ्घट्टः (पुं०) [सम्+घट्ट+अच्]
मित्र, सहचर, अनुगामी। ०टक्कर, मुठभेड़।
तत्र तस्य सचिवेन सदक्तं वाच्यमेव समये खलु युक्तम्। ०संघर्ष, भिडंत।
(जयो० ४/२२) ०सम्मिलन, मेल, मिलन।
०सम्पन्न। (सुद० ३/३०) आलिंगन, भेंट।
सचिहितकृत (वि०) मैत्री पूर्ण व्यवहार करने वाला। (दयो०) सट्टनं (नपुं०) [सम्+घट्ट ल्युट्]
सचेतन (वि०) जीवधारी, प्राणवान्। (मुनि० २५) ०संघर्षण, रगड़ना।
विवेकपूर्ण। संपर्क, मेल।
सचेतस् (वि०) [सह चेतसा] प्रज्ञावान्। विचाशील (जयो० ०पारस्परिक चिपकना।
१४/३५) मिलना।
भावुक, ०एकमत। चेतनायुक्त। सङ्घतः (पुं०) [सम्+हन्+घञ्] हत्या, वध।
जाग्रत। ०समुदाय, समुच्चय, समूह।
सचेता (स्त्री०) विचारशीला स्त्री। (जयो० १४/३५) संघ, मिलाप, समाज।
सचेल (वि.) [सह चेलेन] वस्त्रों में सुसज्जित, वस्त्र सहित। सङ्घशस् (अव्य०) [संघ+शस्] झुंडों में, दल बनाकर। सचेलकत्व (वि०) सचेकता, वस्त्र सहित। सङ्घर्षः (वि०) [सम+घृष्+घञ्]
सचेष्टः (पुं०) [सच्+अच्, तथा भूतः सन् इष्टः] आम्र वृक्षा ०टक्कर, भिडंत, जूझना।
सचेष्ट (वि०) चेष्टा सहित। लड़ना, भिड़ना।
सच्चमरीचय (वि०) अरण्य गाय के संग्रह युक्त। प्रतिद्वन्द्विता, प्रतिस्पर्धा।
सतीना चमरीणां वनगवां च यस्य संग्रहस्य। (जयो० २४/२४) ०होड़।
सच्चवचा (स्त्री०) सत्यवादी। (समु० ६/३७) ०ईर्ष्या, डाह।
सच्चाक्ष (वि०) सत्काम। (जयो० १०/४५) सङ्घाटिका (स्त्री०) [सम्+घट्+णिच्+ण्वुल्+टाप्] जोड़ा, | सच्चितत्त्व (वि०) सौमनस्य। (जयोवृ० ११/७४) सम्पत्ति।
सच्चिदानन्दः (पुं) सम्यक् आनन्द रूप आत्मा। (सुद० ४/१) दूती, कुटनी।
सच्छिर (वि०) शिरसहित। (जयो० २/१३८) सङ्घधाणकः (पुं०) नाक का मल, सिणक।
सच्छिद्रकर (वि०) मन्दफल। (जयो०वृ० १२/१३१) सङ्घृणा (स्त्री०) निरादर। (जयो० २१/७९)
सच्छकुन (वि०) शोभन लक्षण। (जयो० ३/८६) सङ्घर्ण (अक०) हिलना। (जयो० १८/९१)
सजन (वि०) [सह जनेन] प्राणियों सहित। सधूर्णमान (व०कृ०) हिलता हुआ। (जयो० १८/४१) सजनः (पुं०) बन्धु, कुटुम्बीजन, पारिवारिक लोग।
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सजन्य
सजन्य (वि०) मातृ सहित।
०प्रिय, अनुरक्ता
०मित्र, साथी, सम्बंधी ।
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जन्यया मुदा सहितः सजन्यो
जन्या मातृसखीमुदो' इति वि (जयो० २७)
०जन समुदाय युक्त।
सजप (वि०) जपा सहितेषु सजपेषु जपा कुसुम सहित । (जयो० ६ / ६४ )
सजल (वि० ) [ सह जलेन] जल युक्त, जल सहित । ० आर्द्र, गीता तर
सजाति (वि० ) [ समान जातिः अस्य] एक ही जाति का, एक ही वर्ग का ।
सजातिसमूह (पुं०) कुटुम्बीजन, जाति के लोग परिवार। (जयो०वृ० ५/३)
सजातीय (वि०) समान वर्ग के एक से एग वर्ग के सजीव (वि०) चेतनता सहित। सजीववेश: (पुं०) दिगम्बर वंश जन्माज बालक का वेष (भक्ति० ४४ )
सजुष् (वि० ) [ सह जुषते - जुष् + क्विप् सहस्य स ]
भोसंसृतिशरीरानि, स्पृहा । तत्त्ववर्त्मनिरता यतः
११२५
सजुष् (अव्य०) सहित युक्त। सज्ज (वि०) [सस्ज्+अच्] तत्पर तैयार किया हुआ । ०वस्त्रों से सुसज्जित |
० समयानुकूल, परिपूर्ण, प्रशस्य। (जयो० ७/५७) सज्जघनं (नपुं०) सुश्रोणी श्रेणी पुरभाग सज्जानि धनानि च तानि । (जयो० ३७/ ११३) सज्जङ्घभाव: (पुं०) तल्लीनता के भाव ।
० दृढ़ जंघा युक्त सती समीचीना चासौ जङ्घा च तस्या भावं भजतो धारयतः ' सुदृढजङ्घावत इत्यर्थ: । (जयो०वृ० १ / ४८ ) सज्जनः (पुं०) भद्र व्यक्ति, उत्तम व्यक्ति (जयो० १/१८) (सुद ८२) सत्पुरुष । (जयो० २ / १२)
'सन्ति गेहिषु च सज्जना अहा,
सुचित्प्रस्तरेषु मणयोऽपि हि क्वचित्। (जयो० २/१२) सज्जनं (नपुं० ) [ सस्ज्+ णिच् + ल्युट् ]
०बांधना, जकड़ना, धारण करना । ० सुसज्जित करना।
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० चौकीदार, पहरेदार |
०घाट।
सज्जक्रमकर (वि०) सज्जनक्रम पर चलने वाला। (जयो० ६/८१)
सज्जनता (वि०) भद्रता, समीचीनता, श्रेष्ठता । समी समीचीना चासौ जनता तया
सञ्चयः
पक्षे सज्जनस्य भावः सज्जनता तया । (जयो० १४/४० ) सज्जनपति: (पुं०) शिरोमणि (जयो० १/१०५) सज्जनपालकः (वि०) सत्पुरुष पालक (समु० ४ / २३) ०नृप, राजा।
सज्जनपुरुष: (पुं०) नृराट्, नृपराज। (जयो०वृ० २/५९) सज्जनसहवासित्व (वि०) सत्समागत युक्त (जयो०वृ० ३/४ )
० नक्षत्र सहित (जयो०वृ० ३/४ )
सज्जनोह: (पुं०) सज्जनों का ज्ञान। (सम्य० ११० ) सज्जवाणी (स्त्री०) समयानुकूल वाणी (जयो०वृ० ७५७) सज्जल (वि०) उत्तम जल (जयो० ३/१० जयो० १/३० ) सज्जा (स्त्री० ) [ सस्ज्+अ+टाप्] सजावट, चित्रकारी। १० वेशभूषा |
० कवच, सैन्य सुरक्षा कवच ।
सज्जाति (वि०) उत्तम जाति वाला (जयो०वृ० १२/७३) विशुद्ध जाति ।
सज्जित (वि० ) [ सज्जा + इतच् ] सजाया हुआ, वस्त्र धारण किये हुए।
०तैयार किया हुआ।
० संवारा गया, सुसज्जित किया गया।
सज्जीकरणं (नपुं० ) [ सत्क्रिया] उत्तम कार्य। (जयो०वृ० २१/४)
सज्जीकृत (वि०) सम्यक् सम्पादित (जयो० ३ / १०२ ) सज्य (वि० ) [ सहज्यया-सहाय सः ] धनुष की डोरी सहित । डोरी से कसा हुआ।
सज्योत्स्ना ( स्त्री० ) [ सह ज्योत्स्नया ] चांदनी रात, स्वच्छ
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रजनी ।
साद (वि०) कथित कहा, सञ्गाद (सुद० ११०) सच (पुं०) [ संचीयते अत्र सम्: + चि+ह] पत्र संग्रह | सञ्चत् (पुं०) [सम्+चत् + क्विप्] ठग, धूर्त, दगाबाज । सञ्चयः (पुं० ) [ समृ + चि+अच्]
०ढेर, राशि समूह, मण्डन (सुद० १०७) ० संग्रह। ० निश्चित। (जयो० २३ / ५९ )
• एकत्र करना, इकट्ठा करना।
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सञ्चयनं
सञ्चयनं (नपुं० ) [ समृ+चि+ ल्युट् ]
० चयन चुनना, इकट्ठा करना ।
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सञ्चर (अक० ) ०घूमना, ०यात्रा करना, ०पर्यटन करना। (जयो० ७ / २) ० व्यवहार करना। (जयो० २/१८)
०गमन करना (जयो० २ / ३२)
सञ्चरः (पुं० ) [ सम्+चर्+क] ०पथ रास्ता, मार्ग |
० संकरा मार्ग, संकीर्ण पथा
० प्रवेश द्वार
० शरीर, देह।
सञ्चरणं (नपुं०) ( सम् चर ल्युट् ] ०गमन, गति, ०जाना।
(जयो० १/५८)
(सुद० १०७ )
० संग्रह |
० निचित (जयो० २३/५९)
११२६
० प्रस्थान करना, यात्रा करना।
सञ्चरितपदं (नपुं०) समीचीन चरित पद
समीचीनं चरितं ददादीति सञ्चारितपदं (जयो० १४ / ९६ ) सघृण (वि०) घृणोपादक (जयो० २५/२६)
सङ्घटनं (नपुं०) समुदाय, समुच्चय, समूह, एकता, सामञ्जस्य । (जयो० ५/९०)
सञ्चल (वि०) [ सम् +अल्+अच्]
सञ्गद् (वि०) कथित, कहा सञ्जगाद । (सुद० ११० ) सः (पुं०) [ संचीयते अत्र सम्-चि+ड] पत्र संगह। सञ्चत् (पुं०) [सम्+ यत् क्विप्] उग, धूर्त, दगाबाज़। सञ्चयः (पुं० ) [ सम्+ चि+अच्] ०ढेर, राशि, समूह, भंडार
।
० एकत्र करना, इकट्ठा करना।
सायनं (नपुं० ) [ सम्• चि+ ल्युट् ] ० चयन चुनना, इकट्ठा
सञ्चरः (पुं०) (सम्+चर्+क] ०पथ, रास्ता, मार्ग । ०संकरा मार्ग, संकीर्ण पथ
।
० प्रवेश द्वार
करना।
सञ्चर (अक० ) ०घूमना, व्यात्रा करना ०पर्यटन करना। (जयो० १२/२)
० शरीर, देह ।
सञ्चरणं (नपुं० ) [ सम्+चर् + ल्युट् ] गमन, गति, जाना। (जयो०वृ० १/५८)
० प्रस्थान करना, यात्रा करना।
सञ्चिति:
सञ्चरितपदं (नपुं०) समीचीन चरितपद । समीचीनं चरितं ददादीति सञ्चरितपदं । (जयो० १४ / ९६ )
सञ्चल (वि०) (सम्+चल+अच्] ०कांपने वाला, चलायमान होने वाला।
सञ्चलता (वि०) आवेल्लता (जयो०वृ० ३/११२) सञ्ज्ञाय्य: (पुं०) [सम्+ चिण्यत्] एक यज्ञ विशेष सञ्चार (पुं०) (सम्+चर्+घञ्] गमन, गति, यात्रा।
।
० पारणा ।
।
०पथ रास्ता, मार्ग ०दर्रा, सड़क।
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०गतिमान् करना।
० संक्रमण, स्पर्शसंचार (जयो०वृ० १७ / ५९) ० मार्गदर्शन करना ।
० कठिनाई, दुःख
सञ्चारक (वि० ) [ सम्+चर् + ण्वुल्] संक्रमण करने वाला। ० नेतृत्व प्रदान करने वाला।
सञ्चारकः (पुं०) नेता, पथ प्रदर्शक ।
सञ्चारणं (नपुं० [सम्+चर् णिच् + ल्युट्] गतिशील होना, संप्रेषण, भेजना।
०नेतृत्व करना आगे होना (जयो० १ / ३१)
,
सञ्चारिका (स्त्री० ) [ सम् + र् + ण्वुल्+टाप्] दूती, कुटनी ।
० संदेशवाहिका ।
० दम्पत्ती |
सञ्चारिन् (वि० ) [ सम्+चर्+ णिनि ] ०गतिशील, गमनीय।
० पर्यटन, भ्रमण
० परिवर्तनशील,
० अस्थिर, चंचल
० दुर्गम, अगम्य | ०क्षण भंगुर ।
० आनुवांशिक, परम्परागत।
सञ्चारिन् (पुं०) पवन, वायु, हवा । ०धूप।
सञ्चाली (स्त्री० ) [ सम्+चल् + ण+ङीप् ] गुंजों की झाड़ी। सञ्चित (भू०क० कृ० ) [ सम् + चि+क्त] संगृहीत, एकत्रित, इकट्ठा किया गया, रक्खा गया, जमाया गया।
० जोड़ा गया, गिना गया।
० युक्त, सहित, सुसम्पन्न ।
०बाधित अवरुद्ध, भरा हुआ।
"
सञ्चिति: (स्त्री० ) [ सम् + चिन्त् + ल्युट् ] विचार विमर्श ।
*
अनुचिन्तन ।
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सञ्चेतना
११२७
ससे
सञ्चेतना (स्त्री०) ज्ञानचेतना। (सम्य० ४१, ११७)
सञ्जयोतिर्धामः (पुं०) परम ज्योति के धाम। भुवि देवा बहुशः सञ्चूर्ण (नपुं०) [सम्+चूर्ण ल्युट्] चूर चूर करना, खण्ड स्तुता भो सञ्जर्यातिर्धाम' (सुद० ७३) खण्ड करना, पीसना, मसलना।
सज्वल (अक०) जलना, दाह होना। (सम्य० १०५) सञ्चेत्ये-चेतना को प्राप्त होता है। (सम्य० ४१)
सञ्चलनं (नपुं०) जलन, दाह, पीड़ा। सञ्छन्न (भू०क०कृ०) [सम्+छद्+क्त] लिपटा हुआ, ढका ०सज्वलन कषाय। हुआ, छिपा हुआ।
सञ्ज (वि.) [सम्+ज्ञा+क] चेतना युक्त, सचेतना। होश ०वस्त्र धारित।
प्राप्त। सञ्छादनं (नपुं०) [सम्+छद्+णिच्+ ल्युट्] ढकना, छिपाना। सझं (नपुं०) सुगन्धित काष्ठ। (वीरो० ५/१४)
सञ्जपनं (नपुं०) [सम्+ज्ञा+णिच्+ल्युट्] हत्या, वध, घात। सञ्छादनवृत्ति (स्त्री०) छिपाने की प्रवृत्ति। (जयो० २३) सञ्ज्ञा (स्त्री०) [सम्+ज्ञा+अ+टाप्] चेतना, होश। चैतन्य संञ्चेत सह चेतनातया। चेतना सहित (सम्य० ४०)
शक्ति । सञ्ज (अक०) संलग्न होना, जुड़े रहना, चिपके रहना।
जानकारी, समझा ०अच्छा होना। (जयो० २/२)
०बुद्धि, मन। सञ्जायते-तत्पर रहना। (जयो० १९/९४) * उद्यत होना। ०संकेत, इंगित, इशारा, निशान, चिह्न। (मुनि० २२/ )
०नाम, पद, अभिधाना सञ्ज (सक०) जकड़ना, फेंकना, रखना, मिलाना, जोडना। ०संज्ञा शब्द विशेष-व्याकरण शास्त्रोक्ते संज्ञो तद्वान्
(सुद० १०३) सञ्जायते झरना-सञ्जातातानि (जयो० ३/९०) (जयो०वृ० १/९५) प्रेरित करना, निर्दिष्ट करना। (मुनि० १८)
सज्ञाकरणार्थ (वि०) संज्ञा शब्द बनाने के लिए। सञ्जः (पुं०) [सम्+जन्+उ] ब्रह्मा। शिव।
(जयोवृ० १/९५) सञ्जय (वि०) जीतना, (सुद० १०४) ०जय, विजय। सज्ञात (वि०) सज्ञात्मक शब्द वाले। सञ्जयः (पुं०) [सम्+जि+अच्] धृतराष्ट्र के सारथि का नाम। सज्ञात्मक (वि०) सञ्ज्ञाशब्द युक्त। सञ्जल्पः (पुं०) [सम्+जल्प्+घञ्] ०वार्तालाप, बातचीत। सञ्ज्ञानं (नपुं०) जानकारी, समझ। शोरगुल, हंगामा।
सज्ञान्तरकरणार्थ (वि०) सञ्ज्ञा शब्दों की विधि बतलाने वाले। सञ्जवनं (नपुं०) [सम्+जु+ल्युट्] चतुःशाल, आंगन युक्त गृह। सज्ञापनं (नपुं०) [सम्ज्ञा+णिच्+ल्युट] ०वध, घात, हत्या। सञ्जा (स्त्री०) [सञ्ज+टाप्]
अध्यापन, शिक्षणा सञ्जात (वि०) उत्पन्न हुआ। (सुद० ३/३०)
०सूचना। सञ्जीविता (स्त्री०) अपहृता, अपहरण की गई। (सुद०८८) | सज्ञापत् (वि०) [सज्ञा+मतुप्] नाम वाला, नामक, नामधारी। सञ्जीवनं (नपुं०) [सम्+जी+ल्युट] जीवनाधार भूत। सज्ञिन् (वि०) नाम वाला, जिसका नाम रखा जाए। अथ (जयो० २६/७५)
सागरदत्त संज्ञिनः (सुद० ३/३४) ०मन वाले जीव। समनस्क सञ्जीवनभृत् (वि०) जीवन दान देने वाला। (वीरो० १९/३०) (त०सू०पृ० ३४) सञ्जजीवनी (स्त्री०) एक औषधि, जीवन दान देने वाली सञ्ज (वि०) [संहते जानुनी यस्य] जिसके घुटने चलने पर औषधि।
टकराते हो। सञ्जजीवनीयः (पुं०) जीवनदायक औषधि 'जीवनदं जीवनदायक सञ्चरः (पुं०) [सम्+ज्व+अप्] अतिताप, ज्वर, बुखार। सञ्जीवनीयमौषधं' (जयो०वृ० ६/७५)
गर्मी, संताप। सञ्जीविनी (स्त्री०) एक औषधि, अमृतत्व युक्त औषधि। ०कोप, क्रोध। सञ्जीविनीव सा शक्तिर्विषा ज्योत्स्नेव मे विधो।
सञ्चल (वि०) देदीप्यमान। (जयो० २४/४९) समभाति जगन्मान्या किन्त्वियं तु प्रसन्नता।।
सञ्सेज (सक०) मानना, स्वीकार करना। (वीरो० ९/८) (दयो० ११०)
ज्योऽतियुक्तिर्गुरुभिश्चं संसेजत् (वीरो० ९/८)
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सज्ञापत्
११२८
सत्कुलं
सज्ञापत् (वि०) [सञ्ज्ञा+मतुप] नाम वाला, नामक, नामधारी। | सत् (नपुं०) सत्ता, अस्तित्व, सर्व निरपेक्ष सत्ता, वस्तुतः, ज्योऽतियुक्तिर्गुरुभिश्चं संसेजत् (वीरो० ९/८)
सच्चाई। (सम्य० ११०) सट् (सक०) बांटना, भाग बनाना।
०वस्तु का तादात्म रूप। सटं (नपुं०) जटा, बालों का समूह। शिखा, चोटी।
उत्पाद-व्यय ध्रौव्ययुक्तं सत् (स०सू० ३/३०) सटङ्कः (पुं०) सिंह।
०सत् द्रव्य का स्वरूप (विस्तार से देखें (जयो० सटा (स्त्री०) जटा-बालों का समूह। (जयो०२४/१०) केशर २६/८०-८८) सद् द्रव्यलक्षणम् (त०सू० ५/२९) न वाली (जयो०१३/७२) (वीरो० ९/१५)
सामान्यात्मनो देति न व्येति व्यक्तमन्वयात् व्येत्युदेति विशेषात्ते सट्ट (सक०) चोट पहुंचाना, घात करना, मार डालना।
सहैकत्रोदयादि सत् (त०सू०पृ० ८४) ०देना। ग्रहण करना।
सत्कटकानुकारिन् (वि०) उत्तम सेना का अनुकरण करने सट्टकं (नपुं०) [सट्ट+ण्वुल्] एक उपरूपक जो प्राकृत वाला। (जयो० १२४/१५)
भाषा में निबद्ध किया जाता है। जिसमें अभिनय की | सत्कन्धरात्मन् (वि०) शोभनग्रीव युक्त। शोभजलधर। प्रधानता के साथ-साथ नृत्यादि के माध्यम से शृंगार रस (जयो०७/२३) को बढ़ाया जाता है। इसके पात्र काल्पनिक होते हैं।
०अच्छे कन्धों वाला। सो सट्टओ त्ति भण्णदि दूरं जो णाडिआए अणुहरदि।
शोभ जल को धारण करने वाला। धारापातस्तु दूरेऽस्तु किं पुण पवेसअ-विक्खम्भआइ इह केवलं णत्थि।।
यन्मे सत्कन्धरात्मनः (कर्पूरमंजरी १/६)
सत्कन्यका (स्त्री०) उत्तम कन्या (जयो०१२/१४२) (जयो० सट्वा (स्त्री०) एक वाद्य यन्त्र।
७/२३) सत् (सक०) समाप्त करना, पूरा करना, पूर्ण करना।
सत्करणं (नपुं०) सत्कार, सम्मान, आदर, समादर। जाना, पहुंचना।
(दयो०५८) ०अलंकृत करना।
सत्कर्त्तव्य (वि०) सत्कार्य। (वीरो० १६/२०) सुशोभित करना, विभूषित करना।
सत्कर्मन् (नपुं०) पुण्यकार्य, सद्गुण गुणयुक्त। सड्ड्म रु (स्त्री०) एक वाद्य विशेष, डमरु। (जयो० ८)
सत्कर्माख्य (वि०) पुण्यकर्म नाम वाला। (मुनि० १) सणं (नपुं०) सन।
सत्काण्डः (पुं०) चील, बाज पक्षी। सणसूत्रं (नपुं०) सन् की बनी हुई रस्सी।
सत्कायः (पुं०) सुंदर शरीर (सुद० ८२) सण्डिशः (पुं०) चिमटा, संडासी।
सत्कारः (पुं०) सम्मान, आदर, समादर। (सुद० ३/४४) सण्डीनं (नपुं०) [सम्+डी+क्त] पक्षियों की उड़ान।
०पूजा-प्रशंसात्मक वंदन, स्तव, पूजा। (दयो० ५८) सत् (वि०) [अतीस्+शत् अकार लोप] वर्तमान, विद्यमान।
आतिथ्यपूर्ण व्यवहार। सकल पदार्थाभिगत भाव।
०अभ्यर्चन। ०वास्तविक, यथार्थ, सत्य। (सुद० २/४१)०कुलीन, योग्य,
०देखभाल, ध्यान।
सत्कार्यसाधिका (स्त्री०) सत्तासिद्धिदायक। (जयो० २३/८१) उचित। सर्वोत्तम, श्रेष्ठ, उत्तम, महान्। (जयो० २/१०२)
सत्कारपुरस्कारपरीषजयः (पुं०) एक परीषह का नाम। मनोहर, रमणीय, सुंदर।
(त० सू०)
सत्काराचरणं (नपुं०) सत्प्रवृत्तियों का आचरण (जयो०७० ०दृढ़, स्थिर।
३/११६) सत् (पुं०) सज्जन, भद्रपुरुष, विद्वान्। (जयो० १/१८) (जयो०
सत्कुचः (पुं०) उन्नत स्तन। (जयो० ५/४२) पुष्ट कुच। १/१६, सुद० २/२४) (सुद० १/१६)
(सुद० २/४६) ०बुद्धिमान, ज्ञानी।
सत्कुलं (नपुं०) उन्नत कुल, उत्तम कुल, समीचीन कुल भुवि वरं पुरमेतदियं मतिः प्रवितता खलु यव लतां ततिः।
(जयो०वृ० १/९१) 'सत् समीचीनं कुलं समूहः' (जयो०वृ० (सुद० १/३१)
१/९२)
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सत्कुलीन
११२९
सत्तारक
सत्कुलीन (वि०) उच्च कुल वाला। कुलीन।
सतिका (स्त्री०) सती, साध्वी, साधिका। सत्कुलोत्पन्न (वि०) अच्छे कुल में उत्पन्न हुआ, कुलीन। | सती (स्त्री०) [सत्+ङीप्] साध्वी, श्रमणी सन्यामिनी। (जयो०वृ० १/६७)
सदाचारणी स्त्री। सज्जन स्त्री (जयो०२/११२) (वीरो० सत्कृष (सक०) [सत्+कृ] सत्कार करना, आदर करना, ४/३२) (सुद० ४/३७) सेठानी (सुद० २/५०) सुशीला सम्मान करना।
(जयो० १/२०) सेवा करना। सत्करोमि यत्पदयुगं सन्निधिरयमिह नाम। सतीत्व (वि०) सतीपन, सदाचारत्व। (जयो० ११/११) (जयो० २०/८८) चरणयुगलं सत्करोमि सेवयामि। सतीनः (पुं०) [सती+नी+ड] मटर। सत्कृत (वि०) पूज्य, प्रतिष्ठित, सम्मानित।
०बांस। पूजित, अलंकृत।
सतीर्थः (पुं०) [समानः तीर्थः गुरुर्यस्य] तीर्थ में सहभागी। ०स्वागत किया गया।
ब्रह्मचारी। सत्कृतपंक्तिः (स्त्री०) पुण्यपरिणाम। (जयो० ५/६३)
साथ में अध्ययन करने वाला। सत्कृतलता (स्त्री०) पुण्यकृतलता, सत्कारविषयी बल्लरी।
सतीलः (पुं०) [सता+लक्ष् ड] बांस। (जयो० ३/९)
०पवन, वायु। सत्कृतशेमुषी (स्त्री०) उत्तम बुद्धि, श्रेष्ठ बुद्धि। (जयो०
०मटर, दाल। १२/१०२)
सनुष (वि०) सदोष (जयो० २/१३) (वीरो० २२/४) सत्कृति (स्त्री०) अतिथि सत्कार। (जयो० १२/१४१)
सतेरः (पुं०) भूसी, चोकर। सत्कृतिक (वि०) उत्तम कार्य करने वाले। 'लोकोऽखिलः
सतृष्णा (स्त्री०) पिपासा, पिपासिना। (जयो० ११/५१) सत्कृतिकः पुनस्ताः ' (सुद० १/२९)
सत्कृ (अक०) वर्णन कना-सत्क्रियते व्यावर्ण्यते (वीरो० २/९) ०मृतिका नक्षत्र सहित।
सत्कर्मन् (वि०) अच्छे कर्म वाला। (जयो० १/१०) सक्रिया (स्त्री०) सत्कर्म, पुण्यकार्य। (जयो० ९/१०)
सत्त (वि०) [सत्+क्त] बुनी हुई, गुम्फित। (सुद० २/६) शिष्टाचार, अभिवादन।
सत्तनु (वि०) उत्तम शरीर।। आतिथ्यपूर्ण स्वागत, सत्कार। (सु० १२४)
सत्तनु (स्त्री०) सुलोचना का नाम। (जयो०वृ०४/२८) सज्जीकरण। (जयो० २१/४)
सत्तनुपित (पुं०) सुलोचना के पिता। 'सत्तनोः सुलोचनाया: सतत् (वि०) [सम्+तन्+क्त] निरंतर, नित्य, शाश्वत। (जयो०१० १/४२)
पिता' (जयो०वृ० ४/२८) सततं (अव्य०) लगातार, अविच्छिन्न रूप से, नित्य, सदा
सत्तम (वि०) सज्जन-सज्जनोत्तम। (जयो० ३/८८) हमेशा। (दयो० २/४) (मुनि० १७) (सुद० ११२)
०श्रेष्ठ (जयो० ४/४५) सत्तमैर्नृपसुत्तां तु वरीतुम् (जयो० सततगमनं (नपुं०) पवन, वायु।
५/२) सज्जनोत्तम (जयो० २४/१३१) सततगति (स्त्री०) वायु, हवा।
सत्तरङ्ग (वि०) चंचलता युक्त। सन्तश्च ते तरङ्गास्त इव सततभुक्तिः (स्त्री०) निरंतर आहार। (जयो० १/९५
तरलाश्चन्चलास्तै हयवेरेवश्वश्रेष्ठैः (जयो०व०५/१७) सततोदयः (पुं०) सदायक, सन्मार्ग। (जयो०वृ० १/१०८) सत्तरलाञ्चल (वि०) वायु से चंचल, पवन से खिले हुए। सतर्क (वि०) [तर्केण सह] सचेत, सावधान, सजग, जाग्रत। (जयो०२१/६३) सतानिकः (पुं०) कौशाम्बी का राजा। (वीरो० १५/२२) सत्तरसनागार्जुनः (पुं०) नाम विशेष। (वीरो० १५/२८)
कौशम्ब्या नरनाथोऽपि नाम्ना शेऽसौ सतानिकः' (वीरो० सत्ता (स्त्री०) [सत्+तल्+टाप्] अस्तित्व, विद्यमानता। १५/२२)
०वस्तुस्थिति, वास्तविकता। (जयो०वृ० १/४२) सतारा (स्त्री०) [तारया युक्ता सतारा] नयन पेक्षणिका, तारा, सत्तारक (वि०) तारा सहित, नक्षत्र सहित। (वीरो० २१/८) आंख की पुतली। (जयो० १६/६२)
सत् स्वरूप की उपस्थिति। (जयो०१० २६/८०) सतिः (स्त्री०) [सम्+क्तिन्] अन्त, विनाश, घात, नाश।
उत्तमता, श्रेष्ठता। (सुद०पृ० ९६) उपहार, भेंट, दान।
०वस्तु का अस्तित्व गुण।
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सत्तागत
११३०
सत्य
०मन, प्राणशक्ति।
सभी एकेन्द्रिय प्राणी-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति जीव। सामर्थ्य, शक्ति, बल, ऊर्जा। (जयो० ३/१०९) तत्त्वार्थ, पदार्थ, वस्तु, सम्पत्ति। ० भूत, प्रेत, पिशाच। ०प्राणी। (जयो० ७/९७) ०संज्ञा, नाम।
गर्भ।
सत्तागत (वि०) सत्ता को प्राप्त। (समु०८/१५) सत्तलोकः (पुं०) सत्त्व सामान्य का निर्विकल्पक ग्रहण। सत्त्रं (नपुं०) सद्गुण, उदारता। सदाव्रत (सुद०१/१९)
आवरण, धन-दौलत। ०अरण्य, वन। तालाब, पोखर।
शरणगृह, आश्रम। ०आश्रयस्थान। सत्रयी (वि०) त्रिवली युक्त। सत्त्रयी तु वलिपर्वविचारा।
वेदानां सत्त्रयी ऋग्यजुः-सामत्रयीव (जयो०वृ० ५/४३) सत्रा (अव्य०) [सद्+त्रा] के साथ, मिलकर, सहित। सत्रिः (पुं०) [सद्+त्रि] हस्ति, हाथी।
मेघ, बादल। सत्रिन् (पुं०) कर्मगत गृहस्था कार्यरत गृहस्थ। सत्पत्रं (पुं०) कमलपत्र। सत्पथः (पुं०) सन्मार्ग, श्रेष्ठमार्ग। संश्चासौ पन्था सत्पथः
(जयो० २/४८). ०कर्तव्यपथ, पुण्याचरण।
०यथेष्टमार्ग। (सम्य० ९४) शुद्धाचरण। (समु० २/२२) | सत्पथप्रवृत्त (वि०) सन्मार्गचर, सन्मार्ग में लगा हुआ।
(जयो०वृ० १८/७६) सत्पथशाण (वि०) प्रसादनकर। (जयो० ५/२६)
आकाशचारी। (जयो०वृ० १८/७६) सत्परिखा (स्त्री०) उत्तम परिखा (सुद०१/२५) स्वच्छपरिखा। । सत्परिग्रहः (पुं०) ग्रहण करने योग्य दान। सत्पशुः (पुं०) उत्तम पशु, श्रेष्ठ जाति का पशु। सत्पात्रं (नपुं०) योग्य व्यक्ति, पुण्यात्मा। (जयो०वृ० २/१०४) सत्पुत्रः (पुं०) तनयरत्न। (जयो०वृ० १८/४३) सत्पुष्पतल्पः (पुं०) उत्तम फूलों की शय्या। (सुद० ८६) सत्पुण्यसम्पत् (वि०) उत्तम पुण्य को प्राप्त। (सुद० ४/४७) सत्प्रयत्न (वि०) उत्तम यत्न। (सुद० २/४०) सत्फलता (वि०) सफलता (सुद० ११८) सत्व (वि०) सहित, युक्त। (सुद० १/३५) सत्त्व (नपुं०) [सतो भावः सत् त्व] सत्, अस्तित्व। (सुद०
४/३०) ०अस्तित्व, सत्ता, वस्तु की यथार्थता। ०प्रकृति, मूलतत्त्व। स्थिति। (जयो० १/२४) जीवन, जीव, प्राण, चेतना। (सुद० ९९)
सत्त्वगुणरक्षक (वि०) यथार्थ गुणों का रक्षण। सत्त्वप् (जयो०१०
१/११३) सत्त्वगुण के रक्षक। प्राणिरक्षक। सत्त्वगत (वि०) प्राणशक्ति युक्त। सत्त्वजात (वि०) यथार्थता को प्राप्त, वस्तु के यथार्थ स्वरूप
को प्राप्त। सत्त्वधर (वि०) प्राणवान्। सामर्थ्ययुक्त, शक्ति सम्पन्न। सत्त्वप (वि०) सत्त्वगुण रक्षक। (जयो०वृ० १/११३) सत्त्प्रतिबोधक (वि.) प्राणिमात्र को बोध देने वाले।
(भक्ति०२१) सत्त्वप्रतिष्ठाक्षमः (पुं०) प्राणिमात्र पर आदर भाव-सत्त्वानां
प्रतिष्ठायां क्षमो वर्तेत्। (जयो०वृ० ४/६८) सत्त्वरञ्जित (वि०) बल सुशोभित। 'सत्त्वेन बलेन रञ्जितः
शोभितः। (जयो०१० ३/१०९) सत्त्वलक्षणं (नपुं०) गर्भ के लक्षण, गर्भ के चिह्न। सत्त्वविप्लव: (पुं०) चेतना की क्षति, प्राणतत्त्व का विनाश। सत्त्वविहित (वि०) प्राकृतिक, सद्गुणी, पुण्यात्मा, सज्जन,
सामर्थ्य युक्त।
शक्तिशाली। सत्त्वसञ्चयः (पुं०) प्राणिवर्ग। (जयो० ७/९७) सत्त्वसंशुद्धिः (स्त्री०) प्रकृति की शुभ्रता, स्वच्छ पर्यावरण। सत्त्वसंहारः (वि०) प्राण घात। (दयो० ४९) सत्त्वसम्पन्न (वि०) सद्गुणी, श्रेष्ठ गुणों से युक्त। सत्त्वसंप्लवः (पुं०) शक्तिक्षीणता, बल की क्षति।
प्रलय, विश्वसंहार। सत्त्वसारः (पुं०) शक्तिशाली, शक्तिसम्पन्न। सत्त्वस्थ (वि०) प्रकृतिस्थ, स्वभावगत।
०सत्त्वगुण युक्त, विशिष्ठ, उत्तम, श्रेष्ठ। सत्त्वहीन (वि०) सामर्थ्य रहित, बलहीन। (जयो०वृ० १/७१) सत्य (वि.) [सत्सु साधु वचनं, सत्यर्थे भवः वचः सत्यम्]
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सत्यं
११३१
सत्यानृत
-
* सच्चा, यथार्थ, वास्तविक, जैसे का तैसा। (जयो० और सत्यवचन, सत्य के भेदों को प्रतिवादन करने वाला ५/४६) (जयो० १/२५)
ग्रंथा सद्गुण, सम्पन्न, निष्ठावान्।
सत्यभावः (पुं०) सम्यग्भाव, उचित परिणाम। सुंदर-'सत्याः सुबालभावं लभते सुदत्या' (जयो०११/६७) सत्यभामा (स्त्री०) सत्राजित की पुत्री, कृष्ण की पत्नी। सत्यं (नपुं०) सत्यधर्म, साधु वचन, प्रशस्त वचन, सम्यग्वाद। (सुद० ११२) सत्यभामा महिषी। (जयो० २२/३७)
तथ्यात्मक कथन, (सुद०४/३३) सत्यमेवोपयुज्जाना। सत्यमनोयोगः (पुं०) समीचीन पदार्थ युक्त मन। सद्भूतार्थ प्रतिपत्ति।
सत्यमहाव्रतं (नपुं०) मृषावाद विरमणव्रत, असत्यवचन का असावद्यकथन।
पूर्ण परित्याग। महाव्रती का एक महाव्रत। (मुनि०३) मृषावाद विरमण, असत्य परिहार।
सत्यमार्गः (पुं०) सम्यग्मार्ग। (भक्ति०१) सत्याणुव्रत, सत्यमहाव्रत।
सत्यमोषमनोयोगः (पुं०) सत्य और मषा दोनों का योग। सत्येन लोके भवति प्रतिष्ठाः, सत्येन लक्ष्मीर्भवताद्विशिष्ठा। सत्य युगं (नपुं०) सत् युग। अवसर्दिीकाल। (वीरो०१८/९) सत्येन वाचः सफल त्वमस्तु, सत्यं समन्तान्महदस्तिवस्तु।। सत्यवचस् (वि०) सत्यवादी, सत्यनिष्ठ। (समु० १४८)
सत्यवचनयोगः (पुं०) सत्यवचन का आश्रय। सत्यः (पुं०) सत्य लोक।
सत्यवस्तुपरिशोधन (नपुं०) यथार्थ वस्तु शुद्धि। (जयो० २/३०) सत्यकामः (पुं०) सत्य का प्रेमी, सत्य का इच्छुक व्यक्ति। सत्यवादी (वि०) सत्य बोलने वाला। (मुनि० २२)
सत्यव्रतः (पुं०) एक धूर्त ब्राह्मण वेषधारी व्यक्ति। सत्यगत (वि०) सम्यग्वाद को प्राप्त हुआ।
सत्यवतिन् (वि०) सत्यव्रत पालन। (दयो० ४५) सत्यघोषः (पुं०) कपट वेशधारी साधु। (सुद० ३/२३) सत्यशंसा (स्त्री०) सत्यप्रशंसा। (समु० १/१४) सत्यतारक (वि०) प्रशस्ततारक। (जयो० ५/४१)
सत्यसंदेशः (पुं०) ऊहोपोह रहित भाव। सत्यतावं (नपुं०) यथार्थ तत्त्व (वीरो० १३/९६)
___ सत्यसंदेशसंज्ञप्त्यै प्रसादं कुरु भो जिन। (वीरो० १३/३२) सत्यदर्शिन् (वि०) यथार्थ का प्रतिपादक, वस्तु की प्रामाणिकता सत्यसम्पत् (स्त्री०) सत्य की महिमा। (समु० १/४) प्रदर्शित करने वाला।
सत्यसम्मत (वि०) सत्य स्वरूप संबंधी। (वीरो० २९/१) सत्यंधरः (पुं०) एक राजा का नाम, जिसका पुत्र जीवन्धर सत्या (स्त्री०) पातिक्षात्य धर्मा। (सुद०८८) सीता। कुमार हुआ।
सत्यागामाश्रयः (पुं०) जैनाश्रय, जिनागम का आधार। (जयो० सत्यधर्मन् (नपुं०) सत्यधर्म, चौथा उत्तम सत्यधर्म। (त०सू०९/६) | १६/९९)
(जयो०१० २८/३७) जिसे विज्ञ और अज्ञ सभी स्वीकार करें | सत्याख्यः (पुं०) सत्युग, अवरूपिणी काल। (वीरो० १८/९) सत्यधन (वि०) सत्य गुण से समृद्ध।
सत्यागुणव्रत (नपुं०) श्रावक का दूसरा व्रत, स्थूल मृषा/असत्य सत्यधर्ममय (वि०) सम्यगनुष्ठान में तत्पर। (जयो०वृ० १/१०८) वचन का त्याग। सत्यधर्म के पालक।
स्थूलमलीक न वदति न परान् सत्यधृति (वि०) परम सत्यवादी।
वादयति सत्यमपि वदते।। (रत्नकाण्ड० ३/९) सत्यपथगामिन् (वि०) सन्मार्गगामी।
सत्याधारः (पुं) सत्य का आश्रय। (दयो० ७३) सत्यपालः (पुं०) एक राजा।
सत्यानुयायिन् (वि०) सत्यानुगामी, सत्य के मार्ग पर चलने सत्यपुरं (नपुं०) उत्तम लोक।
वाला। (वीरो० १३/३२) (वीरो० २२/२८) सत्यपूत (वि०) यथार्थ में पवित्र, परम पवित्र।
अहिंसा वर्त्म सत्यस्य त्यागस्तस्याः परिस्थितिः। सत्यपूर्णः (वि०) सत्ययुक्त, सत्य समाहित। (समु० ५/११) सत्यानुयायिना तस्मात्संग्राह्यस्त्याग एव हि।। सत्यप्रतिज्ञ (वि०) सत्य प्रतिपादक।
(वीरो० १३/३६) सत्यप्रतिज्ञा (स्त्री०) सत्य प्रतिपादन। (समु० १/२८) सत्यानुगत (वि०) सत्यधर्म युक्त। (जयो० २८/३७) सत्यप्रवादः (पुं०) सत्यप्रवाद नामक एक पूर्व ग्रन्थ, संयम | सत्यानृत (वि०) सत्य और मिथ्या।
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सत्यानुगत
११३२
सद्
-
सत्यानुगत (वि०) अनेकान्तमार्ग युक्त। (वीरो० २०/२३) सत्यवर्मन् (नपुं०) सत्यमार्ग-मुहुः प्रयतमानोऽपि सत्यवम न सत्यान्वित (वि०) सत्य युक्त। (समु० ३/७)
विन्दति। (वीरो० १०/१६) सत्यापिर (अव्य०) ससि स्त्री। (सुद० ८८)
सद्धयान (वि०) उत्तम ध्यान वाला, प्रशस्त ध्यान युक्त। सत्याभिसन्धिः (वि०) निष्कपट, अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने (सम्य० ११५) वाला।
सद्वाक्यं (नपुं०) सदाचरण युक्त वचन। ज्ञनाद्विना न सद्वाक्यं सत्यारम्भः (पुं०) समीचीनारम्भ। (जयो० २३/९०)
ज्ञानं नैराक्ष्यमञ्चतः। (वीरो० २०/२४) सत्यार्थता (वि०) अन्वर्थता, यथार्थता। (जयो० १८/९) । सद्विधुबिम्ब (नपुं०) शरच्चन्द्रबिम्ब। (वीरो० २२/३५)
5 (वि०) सत्य के रहस्य को प्रकट करने | सवृत्तभावः (पुं०) सदाचारण का भाव। वाला। (जयो० १८/६४)
विप्रोऽपि चेन्मांसभुगस्ति निन्द्यः सवृत्तभावाद् सत्याशंसा (स्त्री०) सत्य भामा सती। (सुद० ११२) कृष्ण वृषलोऽपि वन्द्यः। (वीरो० १७/१७) की अर्धांगिनी।
सवृत्तिः (स्त्री०) सदाचरण। (सम्य० १२८) कृतकं सभयं सततमिङ्गितं यस्य बभूव धरायाम्। सवंशजः (पुं०) कुलीन। (जयो०वृ० ६/३३) इह सत्याशंसा पायात्।। (सुद० ११२)
सत्त्वरं जितभावान (वि०) सत्त्व गुण से अनुरक्त मनोवृत्ति सत्येश्वरधामः (पुं०) पुण्य धाम। (मुनि० ३) सत्य रूप वाले। सन् सत्त्वेन नामगुणेन रञ्जिता भावना मनोवृत्तिर्यस्य परमेश्वर का स्थान।
सः' (जयो०वृ० २८/१५) सत्योत्कर्षः (पुं०) सत्य की प्रमुखता।
०शीघ्र ही नक्षत्रों के रक्षण को जीतने वाला-सत्त्वेन सत्योद्य (वि०) सत्य बोलने वाला, सत्यभाषी।
शीघ्रमेव जितं भानां नक्षत्रामाभवनं रक्षणं येन सः' (जयो०७० सत्योपयाचन (वि०) प्रार्थना पूर्ण करने वाला।
२८/१५) सत्र (वि०) मौन (जयो० १९/३१) छदम् सत्रं यज्ञे सदादनि । सत्वरं (अव्य०) शीघ्र, जल्दी से, तुरन्त-शीघ्र ही, (जयो० कैतवे बसने पने इति विश्व। (जयो० १५/५९)
१२/१३२) नरराट् पररावैरी सत्वरं सत्त्वरञ्जितः। (जयो० सत्रप (वि०) [सह त्रपया] लज्जाशील, विनयी।.
३/१०९) सत्राजित् (पुं०) निघ्न का पुत्र, सत्य भामा के पिताश्री। सत्वाद (वि.) सात्विक। (सुद० १२४) सतृष (वि०) पिपासित। (जयो० १२/१११)
सत्सङ्गः (पुं०) सत्संगति, सहवास। (दयो० २/१) सत्सङ्गत सतृणाशिन् (वि०) तृण भक्षण युक्त। (जयो० २/२०)
प्रहीणोऽपिपूततामेति भूतले। सत्व (वि०) सत्, चित् और आनंद रूप। (सुद० १३३) सत्सङ्गतः (वि०) अभिराम, मनोज्ञ। (जयो०वृ० १/२७) सत्वर (वि.) [सहत्वरया] द्रुतगामी, शीध्रगामी, चुस्त। सत्समयः (पुं०) उत्तम समय, योग्य समय। (जयो०१४/८९) शीघ्रता (जयो० २१/१)
सत्समागमः (पुं०) सज्जन सहवास। (सुद० १०४) इत्थमाह समनीकिनीश्वरो गत्वरसमयातिसत्वरः।
सत्सम्प्रयोगः (पुं०) सन्त प्रयोग। (सुद० ४/३०) सन्तजनो का सत्वरः शीघ्रताकरः।
संयोग-सत्सम्प्रयोगवशतोऽङ्गवतां महत्त्वं सम्पद्यते सपदि सत्याग्रह (पुं०) सत्य पर दृढ़ होना। (वीरो० ११/३९) तद्वदभीष्टकृत्वम्। (सुद०४/३०)
सत्याग्रहप्रभावेण महात्मात्वनुकूलयेत्। (वीरो० १०/३४) सत्सुरतः (पुं०) देवभाव, दिव्य आभास। (जयो० २०/८७) सत्यानुकूलः (पुं०) सत्य के अनुकूल।
सत्सुलता (स्त्री०) उत्तम लता-'सम्येषु लता ख्याता वल्लरी सत्यानुकूलं मतयात्मनीनं कृत्वा समन्ताद् विचरन्नदीनः। प्रसिद्धा' (जयो० ११/९५) (वीरो० १७/२३)
सत्सुषमा (स्त्री०) सुश्री। (जयो० ५/११) सत्यसमूहः (पुं०) सज्जन समूह। (वीरो० २१/५)
सत्सौधसमूहयुक्त (वि०) उत्तम सौध युक्त। (सुद० १/२७) सत्सामान्यः (पुं०) सत्सामान्य, वस्तु की सामान्य सत्ता। जो सस्थितिः (स्त्री०) सौस्थ्य, स्वस्थता। (जयो०वृ० १/३०)
वस्तु सत्सामान्य की अपेक्षा एक प्रकार की है, वही चेतन | सद् (सक०) बैठना, स्थित होना, रहना, बसना, निवास और अचेतन से दो प्रकार की है।
करना, स्थिर होना। (सुद० ९२)
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सद्गजः
११३३
सदम्भा
सद्गजः (पुं०) ऐरावत हाथी। (जयो० ७/१०१)
सदक्षिणा (वि०) दक्षिण पार्श्वस्य। 'दक्षिणया गौरवेण ०लेटना, आराम करना।
समर्पितोपहारेण सहिता सा बुद्धिः सदक्षिणाऽतिकुशला' ०खिन्न होना, दु:खी होना, निराश होना।
(जयो०वृ० ६/३) ०म्लान होना, नष्ट होना।
सदङ्कपातिन् (वि०) सज्जन समर्थक। (जयो० १२/१४५) सद्गात्रलता (स्त्री०) सुंदर काय रूपी लता। (जयो० ११/८) सताभके महतां मध्ये पततीति सङ्कपाती-'सत्सु भृङ्गीवदृग्धस्तिपुराधिपस्यावगाह्य सद्गात्रलतां च तस्याः।
प्रशंसायोग्येष्वङ्केषु ककरादिषु पतति' (जयोवृ० (जयो०११।८) 'सुलोचनायाः गात्रस्य शरीरस्य लतां यद्वा १२/१४५) गात्रमेव लता। (जयोवृ० ११/८)
सदशक्ति (स्त्री०) सुदर-शरीर शक्ति। (जयो० १६/४) सद्गुण (वि०) श्रेष्ठ गुण वाला।
सदङ्कर (नपुं०) सदाचार, रूपी अंकुर। जगत्यमृतापमानेभ्यः सद्गुणगान (वि०) उत्तम गुण गीति। (सुद० २/३९)
सदङ्करमीक्षमाणेभ्यः। (सुद० १२४) सद्गुणाम्वेषिणी (स्त्री०) गुणैषणा। (जयो० ७२/४३)
सदङ्ग (वि०) लावण्य युक्त शरीर वाली। (जयो० १/४४) सद्गुणगणिनी (वि०) गणनकीं। (जयो० )
सदञ्जनः (वि०) गाढ-मालिन्य (जयो० ६/१३१) सद्गृहीयस्व (वि०) उत्तम गृहस्थ वाला। (जयो०वृ० २/७३)
सदनं (नपुं०) [सद्+ल्युट] भवन, गृह, सदने गृहेऽपि। (जयो० सदृष्टि (स्त्री०) सम्यक् दृष्टि (सम्य० १३३)
२/१२३) घर।
०आवास, निलय। सद्गलनालः (पुं०) कण्ठकन्दल। (जयो० ५/५२) सद्भावः (पुं०) उचित भाव, अच्छा विचार। (सुद० ९५)
कुञ्ज, निकुञ्ज।
स्थान। (जयो० ३/७८) सद्भावधृत (वि०) उत्तम भाव वाला। (सुद०८२)
०म्लान होना, उदासीन होना, क्षीण होना। सद्भावना (स्त्री०) उत्तम कामना, अच्छा विचार। (सुद०९५)
०अवसार, श्रान्ति, क्लान्ति, हानि। सद्भाव वृद्धिः (स्त्री०) उच्छिति, सद्भावना की जागृति।
सदनकक्षं (नपुं०) गृहकक्ष। सदविषय (वि०) अच्छे विचार वाला। (सुद० ९१)
सदनगत (वि०) श्रान्ति युक्त, दुःख को प्राप्त हुआ। (जयो० २/१०५)
आवाज को प्राप्त हुआ। सद्हारगङ्गा (स्त्री०) उत्तम आधार भूत गंगा
सध्यानम् (नपुं०) उत्तम ध्यान। (भक्ति० ३०) 'सन् चासौ हारो गलभूषणमेव गङ्गा धारतीति
सदनस्थित (वि०) घर में रहता हुआ। तं तथैव सती धारा यस्यास्तां गङ्गा'
सदनाश्रमः (पुं०) गृहस्थाश्रम। (वीरो० १०/२१) (जयो० सद्विभव (पुं०) प्रसन्नभाव। (जयो० २१/१)
१२/१४२) सदृकन्यकां प्रददता भवता प्रपज्ये दत्तस्त्रिवर्ग सद्विहारः (पुं०) वन विहार, वनक्रीडा।
सहितः सदना श्रमश्चेत्। सदः (पुं०) [सद्+अच्] वृक्ष का फल।
सद्नाश्रयः (पुं०) आधारभूत, सदन स्थान। (जयो० ३/१०८) सदंशकः (पुं०) [दंशेन सह] केकड़ा।
(जयो० १२/१४२) सदंशवदनः (पुं०) [सदंशं वदनं यस्य] कंक पक्षी, बगुला का |
सदनग्रहः (पुं०) अनुरोध, निवेदन, कथन, आज्ञा। नाम।
कुरुतात् सदनुग्रहं हि तु स्वयमारोहणतः परीक्षितुम्। सदंसा (वि०) शोभन स्कंधवती। (जयो० १०/११३)
(समु०२/२३) सदक्ष (वि.) [दक्षेण सह] दक्षता युक्त, प्रवीणता, सहित। | सदधीति (स्त्री०) रची गई। (सुद०८२) सदक्ष (वि०) [इन्द्रियेन सह] इन्द्रिय सहित।
सदन्दुः (स्त्री०) अलंकृत स्त्री। 'सती समीचीना अदुरलङ्कृतिसदक्षर (वि०) सुस्पष्टाक्षर। (जयो० १७/५४)
यस्यास्तस्या सदन्दोः स्त्रियाः' (जयो० १७/५२) सदक्षला (स्त्री०) निर्दोष इन्द्रियवती। (जयो० ११४८३) | सदन्दुवसनं (नपुं०) वस्त्राभूषण। (जयो० १७/५२)
समीचीनान्यक्षाणि लालीति सदक्षला। निर्दोषइन्द्रियवती' सदपत्य (वि०) सज्जनात्मज। (जयो० ६/६४) (जयो०वृ० ११/८३) 'समीचीनाक्षक्षरवती-रलयोरभेदात्' सदम्भा (स्त्री०) मायाविनी स्त्री। 'दम्भेन छलेन सहिता सदम्भा (जयो०वृ० ११/८३)
मायाविनी सा रम्भां। (जयो०० २४/१०२)
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सदय
११३४
सदेकसंसत्
सदय (वि०) [सह दयया] कृपालु, सुकुमार, दयापूर्ण, दयान्वित।
(जयो० १२/१०२) सदयं (अव्य०) कृपा करके, दया करके। सदर्चिष (वि०) जठराग्नि जन्य। सदर्थिनी (स्त्री०) शोभनाभिप्रायवती, सम्यग्वाच्यवती।
(जयो०३/१८) सदस् (स्त्री०) सभा। स्वयं वर मण्डप। (जयो० ४/२२) सदर्प (वि०) अहंकार युक्त। (सुद० १/२०) सदसत् (वि०) स्वच्छ-मलिन, सत्य, असत्य। 'सच्च असच्च
सदसमुखमीयते' (जयो० २/४६) सदश्वराज (वि०) श्रेष्ठ अश्वराज। (जयो०८/१६) सदस्यः (पुं०) [सदसि साधु वसति वा यत्] सभा का चयनित ___ व्यक्ति, सभासद्। (जयो० ४/५६) (जयो० १/४३) । सदा (अव्य०) [सर्वस्मिन् काले-सर्व-दाच सादेशः] हमेशा,
निरंतर, नित्य। (सुद० ९९) सदागतिः (स्त्री०) शाश्वत प्रगति, नित्य प्रगति। सदागतिशील (वि०) प्रगति युक्त। सदाचरणं (नपुं०) उत्तम आचरण, श्रेष्ठ चरित्र-कार्यसिद्धि
मुपयात्वसौ गृही नो सदाचरणतो व्रजन बहिः। (जयो०२/३५) सदाचरणशील (वि०) सुवृत्त। (जयो०७० ३/४६) सदाचरणवृत्तिः (स्त्री०) उत्तम आचरण पूर्वक प्रवृत्ति करना। सदाचारः (पुं०) ध्यान, स्वाध्यायादि युक्त आचरण। (सम्य०९८) | सदाचारपर (वि०) सदाचार में तत्पर। (सुद० १३०) सदाचारजन्य (वि०) उत्तम आचरण युक्त। सदाचारभुत् (वि०) समीचीनचरणशील। (जयो० १७/६) सदाचारपरायणः (पुं०) ध्यान स्वाध्यायादिलक्षणे परायणः
तत्परे। (जयो० २८/५) सदाचारविहीन (वि०) निरंतर भ्रमण रहित। सदा निरंतरं
यश्चारः पर्यटनं व्यर्थं भ्रमणं तेनविहीनः' (जयो०वृ० २८/५) सदाचारवृत्तिः (स्त्री०) सुरीति । (जयो०वृ० ११/८८) सदाज्ञः (पुं०) स्वामी आज्ञा, (सुद० ९२) दासस्यास्ति
सदाज्ञस्यासौ स्वामिजनान्वितिरिति चरणेन। सदात्मन् (वि०) सम्यङ्मनोवत् (जयो० २३/५२) सदादान (वि०) सदैव दान देने वाला, निरंतर उपहार देने वाला।
निरंतर मद बहाने वाला। सदादानः (पुं०) गन्धद्विज, उन्मत्त हस्ति। सदारम्भः (पुं०) पूर्ण रूप से आरम्भ। (सुद० ४/३२) सदानन्द (वि०) पूर्णानन्द युक्त। (जयो० १८/९६)
सदानन्दा (स्त्री०) सर्वदा आन्ददायिनी, मधुरा। (सुद० १०९)
(जयो० ६/८८) सदानुरागिणी (वि०) सदा लालिमा सहित। (जयो० २२।८८) सदापि (अव्य०) सर्वदैव। (जयो० २२/४५) सदाफल (वि०) हमेशा फैलने वाला। सदाफलः (पुं०) बिल्व तरु। ०कटहल। गूलर।
नारिकेल। सदायक (वि०) माप का उत्पादन। (जयो० २४/५५) सदामलक्षण (वि०) सदैव माला के लक्षण से युक्त- सा च
बाला तस्य वक्षः स्थलं सदामलक्षणं-दाम्ना माल्येन सहितं सदाम, तदेव लक्षणं यस्य तत्तथा-सदैवामलं शुद्ध प्रकाशरूपं
क्षणं यत्र तं दिवसमिव पवित्रम्।। सदायक (वि०) सन्मार्ग दायका (जयो० १/१०८) (जयो०१०
१७/११९) सदालिः (स्त्री०) [सज्जनानामालिः पंक्तिः] सज्जन समूह।
(जयो० १०) सदाशिवावति (स्त्री०) उत्तम अभिलाषा युक्त। (जयो० २३/३८) सदिन्दीवरः (पुं०) समुत्कृष्टनीलोत्पल, उत्तम नीलकमल।
(जयो०१५/६५) सदिष्टशकुनं (नपुं०) अभीष्ट सूचक विघ्न, अभीष्ट शकुन।
(जयो० १३/८९) सदीशः (पुं०) श्रेष्ठ चक्रवर्ती। (जयो० १९/८९) सदीशगौ (स्त्री०) चक्रवर्ती की वाणी-'सदीशस्य श्रेष्ठचक्रवर्तिनो
गौर्वाणी' (जयो०१० ९/६६) सदृक्ष (वि.) [समानं दर्शनमस्य] तुल्य, समान। सदृश/सदृशी (वि०) तुल्य! (जयो० २/१२)
•तुल्य, समान, एक सा। तुलित। (जयो०वृ० ६/१०) योग्य, उपयुक्त, समानरूप।
ठीक, उचित, संतोषप्रद। सदृशस्थ (वि०) समानता युक्त। (जयो० ६/२) सद्रससागरः (पुं०) शृंगार सागर। (जयो० ११/३) सद्रसस्य
शृंगारस्य सागरे समुल्वणे वृद्धि गते सति' (जयो० ११/३) सदुपदेश (वि०) श्रेष्ठ उपदेश। सदुवी (स्त्री०) प्रसन्नता युक्त। (जयो० २८/५) सदपापः (पुं०) उचित उपाय। (सुद० ७५) सदेकसंसत् (स्त्री०) सज्जन सभा। (सुद० २/१)
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सदेश
११३५
सनातन
सदेश (वि०) [सह देशेन] किसी देश का स्वामी। एक ही
स्थान से सम्बंध रखने वाला।
आसनवर्ती, पड़ौसी। सदेशतत्परः (वि०) समीपभाव में तल्लीन। (जयो० २१/४) सद्देशचरः (पुं०) कामदेव-'सन् देशः स्थानं तस्मिन् चरतीति
तस्य' सन् देशस्तस्मिन् चरतीति यस्य कामदेवः' (जयो०वृ०
१६/२२) सदैव (अव्य०) निरन्तर ही, नित्य ही, हमेशा ही। (जयो०
२७/५६) महोदया अस्ति सुरम्पदैवं युस्माभिरस्माकमहो
सदैव' (जयो० १२/१४०) सदोकः (पुं०) परम्परा, क्रमबद्ध। सुखमुपलभाव एष लोकः
सम्बभूव शिवकेलिसदोकः। . सदोष (वि०) त्रुटिपूर्ण। दोषयुक्त। (जयो० ६/६०) दूषणवाली।
(समु० १/१४) सद्दय (वि०) दयाशील। (जयो० ७/५९) (जयो० १४/४६) सद्यन् (नपुं०) [सीदत्सस्मिन्-सद्+मनिन्] ०घर, गृह, आवास, निवास। (समु० ५/११) स्थान, स्थल। मंदिर, भवन। (दयो० २/९)
०वेदी, जल। सद्मोदरः (पुं०) गृहस्थान, आवास स्थल। (जयो० १७/१२०) सद्यस् (अव्य०) आज, उसी दिन। (वीरो०८/३८) ०सदा। (जयो० १२/१) जयो० २७/५६)
अतिजवेन (जयो० २१/५) शीघ्र, तुरंत, तत्काल। (जयो० २/१२४) दोषा योषास्यतः सद्यः प्रभवन्ति मृषादयः। (जयो० २/१४४) ०स्वयं। (सुद० १३३)
पूर्व से पहले से-त्यक्त्वैक खलु वज्रसेनवचः सद्योऽनुलग्नः
कले:' (समु० २/२८) सद्यकालः (पुं०) वर्तमान काल। आधुनिक काल। सद्यकालीन (वि०) हाल ही का। सद्यजात (वि०) तत्काल उत्पन्न हुआ। सद्यजातः (पुं०) बछड़ा, वत्स। सद्यपातिन् (वि०) नश्वर, शीघ्र नाश होने वाला। सद्यशुद्धिः (स्त्री०) नित्य शुद्धि, तत्क्षण की गई पवित्रता। सद्यशौचं (नपुं०) बिस्तर की जाने वाली पवित्रता। सद्यस्तनम् (नपुं०) अभिनव कुच। (जयो० ११/११३) सद्यस्क (वि.) [सद्यस्+कन्] नवीन, नूतन, अभिनव।
तात्कालिका
सद्यस्मित (वि०) मन्दहास्य युक्त। (जयो० ११/८९) सद्याजात (वि०) शोभा युक्त, सद्भाव सहित। (जयो० २०/१३) सद् (वि.) [सद्+रु] विश्राम करने वाला, ठहरने वाला।
०जाने वाला। सद्वन्द्व (वि०) [सह द्वन्द्वेन] झगड़ालू, कलहप्रिय।
विवाद युक्त। सद्भावः (पुं०) समीचीन परिणाम। (सुद० ७१) सद्ववसथ: (पुं०) [सद्+वस्+अथच] ग्राम, गांव। सद्धर्मभवना (स्त्री०) नीतिमार्ग की भावना। (२३/९०) सद्भुलि: (स्त्री०) चरणरेणु, चरण रज। (जयो० ८/८) सधरणी (स्त्री०) उत्तम पृथ्वी। (जयो० ५/४) सधर्मन् (वि०) [समानो धर्मोऽस्य-सधर्म+अनिच्] समान
गुण युक्त, समान पद्धति वाला। सधर्मिणी (स्त्री०) सधर्मचारिणी। तुल्यविचारवती। (जयो०२२/)
(वीरो० १५/४४) पत्नी (जयो० १/१) सधर्मिन् (वि.) [सहधर्माऽस्ति अस्य सधर्म इनि] समान धर्म
वाला। (सम्य० ७६) समान धर्मसील। (जयो० २/१००) सधर्मिसंहतिः (स्त्री०) धार्मिक जनसमूह। (जयो० २१७२) सधिस् (पुं०) [सह इसिन् हस्य ध:] बैल, सांड, बलिवर्द। सधीची (स्त्री०) [सध्यच् ङीष्] सखी, सहेली, सहचरी। सधीचीन (वि०) सहचर, साथ चलने वाला। सध्यञ्च (वि०) [सहाञ्चति सह+अञ्च+क्विन्] सध्रिआदेश।
सहचर, साथ, साथ चलने वाला। सध्यञ्चः (पुं०) सहचर, पति। सन् (सक०) प्रेम करना, प्रीति करना।
०पसंद करना, पूजा करना, सम्मान करना।
०प्राप्त करना अधिगत करना। (जयो० २७/२२) सनः (पुं०) [सन्+अच्] हस्थिकर्ण फड़फड़ाहट।
एक ध्वनि विशेष। सनत्कुमारः (पुं०) एक चक्रवर्ती।
०सनत्कुमार नामक देव। (त०सू०पृ० ६६) सनभोभ्रुव (वि०) नासिका युक्त। (जयो० १/ ) सनसूत्रं (नपुं०) सन की रस्सी। सना (अव्य०) हमेशा, नित्य, निरंतर। सनागपाशः (पुं०) बाण विशेष। (जयो०८/७७) सनात् (अव्य०) हमेशा, निरंतर, नित्य। सनातन (वि०) [सदा-ट्युल, लुट् वि दस्य र:] ०पूर्वकालीन,
प्राचीन, पुरातन।
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सनातनः
११३६
सन्तमस्
नित्य, निरंतर, शाश्वत्।
सन्त (वि०) निकटस्थ, अक्रान्त। सन्तमसारि: सूर्य एव शशभे स्थायी।
(जयो० ८/८१) सनातनः (पुं०) पुरातन पुरुष। 'वृष् विलुम्पन्तमहो सनातन' समीप। (सुद० १/१९) (वीरो० ९/१)
सन्तक्षणं (नपुं०) [सम्+त+ल्युट्] ताना, व्यंग्य। सनातनरीति (स्त्री०) पुरातन पद्धति, सानातनी। (जयो०१० सन्तत (भू०क०कृ०) [सम्+तन्+क्त] विस्तारित, फैलाया २०/२८)
हुआ। सनाथ (वि०) [सह नाथेन] स्वामी वाला, प्रभु वाला, नायक नियमित, परम्परागत। सहित। (वीरो० ५/६)
नित्य, शाश्वत, स्थायी। ०परिजन सहित, पितृ-मातृ युक्त।
विघ्नरहित, अनावरत, अनवच्छिन्न। ०सम्पन्न, सहित, युक्त, पूर्ण।
०बहुत, अनेक, नानाविध। सनाभिः (पुं०) [समाना नाभिर्यस्य] सहोदर, एक ही माता के | सन्ततं (अव्य०) शाश्वत, नित्य, सदैव, हमेशा, निरंतर, लगातार, उदर से जन्म लेने वाले।
क्रमशः। समान मिलता-जुलता।
सन्ततिः (स्त्री०) [सम्+तन्+क्तिन्] ०आली, पंक्ति, पम्परा बन्धु, भाई, कुटुम्बी परिजन।
(जयो० ११/३३) जातीय, जातिगत। (जयो०वृ० ८/६१) द्विपं द्वि पक्षा ०धारक, प्रवाह, प्रसार। द्विरदोष्विव मेदिनीयतिष्वभिमुख्यः
यतघण्टिकाभिः सुघोषमुत्तोषवतां सनाभिः। (जयो०८/६१) शुचिचित्तसन्ततिः' (समु० २/१६) सनाभ्यः (पुं०) [सनाभि+यत्] वंश परम्परागत, एक ही कुल ० श्रेणी। में उत्पन्न हुआ।
०कुल, वंश, परिवार। सनिः (स्त्री०) [सन्+इन्] सेवा, पूजा।
०संतान, प्रजा। उपहार, भेंट, प्राभृत, दान।
०समुच्चय, समुदाय, समूह। सनिद्रभाव (वि०) निद्रापन्न, निद्रायुक्त।
०ढेर, राशि। दीपेऽभिवीक्ष्य बहुकौतुकतोऽधुना वा
सन्ततिभित (वि०) ०परम्पराछेदक सन्तानोच्छेदकारक। (जयो० संघूर्णमानशिरसीह सनिद्रभावात्। (जयो० २८/७)
१/७१) सनी (स्त्री०) [सनि+ङीष्] विनम्र निवेदन।
सन्तन् (सक०) प्रकट करना, व्यक्त करना। सन्तनोति (जयो० दिशा, शब्द विशेष। सनीड (वि.) [समानं नीडमस्त्यस्य] एक ही घोंसले में | सन्तपनं (नपुं०) [सम्+तप्ल्यु ट] ऊष्म, उष्ण, गर्म। (जयो०७० स्थित।
१२/१२२) निकटस्थ, समीपवर्ती।
०प्रज्वलन, जलन। सन्ग्राह्य (वि०) आश्रय करने योग्य। (वीरो० १३/३६)
०संताप, कष्ट, दु:ख। सन्तः (पुं०) [सन्+क्त] अञ्जलि। सत्पुरुष। (सम्य० ३१) सन्तप्त (भू०क०कृ०) [सम्+तप्+क्त] ०दुःखी, व्याकुल,
सज्जन पुरुष-सन्तं तं (सुद० १/२७) जयकुमारं साक्षीकृत्य अशान्त। (जयो०वृ० १०/११७)
तपा हुआ, गरम किया गया। महात्मा। पीडाकरोऽन्यो विरहे परन्तु, सन्तोऽत्र ०प्रज्ज्वलित, प्रदीप्त। माध्यस्थ्यमिता भवन्तु' (समु० १/२५)
सन्तप्त-जन (वि०) दु:खी लोग। सत्पुरुष-लसन्ति सन्तोऽप्युपयोजनाय, रसैः सुवर्णत्वमु- सन्तप्त ज्वाला (स्त्री०) प्रदीप्त अग्नि। पैत्यथायः' (वीरो० १/११)
सन्तप्त सूर्यः (पुं०) ऊष्मा युक्त सूर्य। तेजस्वी सूर्य। ०सन्तजन-गुणं जनस्यानुभवन्ति सन्तस्तत्रादरत्वं प्रवहाम्यह सन्तमस् (नपुं०) [सन्ततं तमा] सर्वव्यापी तम, पूर्ण अंधकार। तत्। (वीरो० १/१४) ०सन्तश्चिदानन्दममुं श्रयन्तु' (सुद० ९७) (सुद०१२१)
०घोर अंधकार, प्रगाढ़ अन्धकार। (जयो०१५/६६)
V
)
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सन्तमसारिः
११३७
सन्दर्भः
सन्तमसारिः (पुं०) सूर्य, दिनकर। शुशुभेऽप्यशुभेन चक्रितुक्
तत्तमसा सन्तमसारिरेव भुक्तः। (जयो० ८/८१) सन्तरणं (नपुं०) पार (समु० १/६) सन्तर्जनं (नपुं०) [सम्+त+ल्युट्] डांटना, फटकारना, दण्ड
देना। सन्तर्पक (वि०) [सम्+तृप्+कन्] सन्तुष्ट करने वाला। सन्तर्पणं (नपुं०) [सम्+तृप्+ल्युट्] ०संतुष्ट करना, तृप्त
करना।
०खुश करना, प्रसन्न करना। सन्तर्पणभृत् (वि०) प्रसादनकर, सन्तर्पक। सन्त्रस्त (वि०) भयभीत। (जयो० २८/३३) सन्ताड् (सक०) प्रताहित करना, कष्ट देना, पछाड़ना। कन्दुः
कुचारकारधरो युवत्या सन्ताड्यते वेस्यनुगोनाधारि। (वीरो० ३/३७) स्मरस्य सन्तर्पणभृत्तदीयधूमोच्छितिर्लोमततिः सतीयम्।
(जयो० ११/३१) सन्तानः (पुं०) [सम्+तन्+घञ्] ०परम्परा, ०प्रवाह। सन्तानं (नपुं०) [सम्+तन्+ल्युट्] ०अविच्छिन्न, प्रवाह, परम्परा
(जयो० ३/१०३) विस्तार, फैलाव, प्रसार। (जयो० १०/३७) बिछाना, फैलाना, विस्तृत करना। प्रवाह, धारा, परम्परा। प्रजा, परिवार, वंश, कुल।
सन्तति, सन्तान, बाल बच्चा। (दयो० ५९) सन्तानकः (पुं०) [सन्तान+कन] एक वृक्ष विशेष, स्वर्ग
सम्बंधी तरु। सन्तानिका (स्त्री०) [सम्+तन्+ण्वुल्+टाप्] छाग, फेन।
मकड़ी का जाला। ०चाकू, तलवार। सन्तापः (पुं०) [सम्+तप्+घञ्] ०गर्मी, ऊष्मा, उष्णता।
(सुद० १२७) तपन, जलन। दुःख, पीड़ा, कष्ट, वेदना, व्यथा। ०सताना, दु:ख देना।
आवेश, रोष, क्रोध, कोप। तमतमाना।
०पश्चाताप, तपस्या। (सुद० ७८) सन्तापकर (वि०) पीड़ादायक। (समु० ३/३) सन्तापकलापः (पुं०) [सन्तापस्तस्य कलापः समूह:] कष्ट
समूह, व्याधि समुच्चय। (जयो० १३/९९)
| सन्तापकृत् (वि०) वेदना उत्पन्न करने वाला। (सुद० ८७)
सन्तप्पनं (नपुं०) जलन, दाह। सन्तापयुक्त (वि०) अनुतप्त, संवेदना युक्त। (जयो०वृ० ९/४३) सन्तापित (भू०क०कृ०) [सम्+तप्+णिच्+क्त] ०पीड़ित,
दु:खित, व्याधिग्रस्त। ०कष्टयुक्त।
संतप्त किया हुआ। सन्तप्तता (वि०) संताप युक्त। (वीरो० २१/३) सन्तिः (स्त्री०) [सन्+क्तिन्] विनाश, अन्त, समाप्ति।
उपहार, भेंट। संतुल् (सक०) तोलना। (जयो० ८/९६) सन्तुष्टता (वि०) सन्तोष जनक। (समु०४/३) सन्तुष्टभावः (पुं०) सुपरितोष भाव। सन्तोषणं (नपुं०) प्रसन्न करना। (जयो०वृ० १/९९) सन्तोषदायक (वि०) संतुष्टि प्रदायक, परितोष उत्पन्न करने
वाला। (जयो०७० ४/४६) सन्तोषदायी (वि०) तुष्टिदायी, इच्छापूर्तियुक्त। (दयो० ५७) सन्तोषभावः (पुं०) प्रसन्न भाव, हर्षभाव। सन्तोषवारि (नपुं०) सन्तोष रूपी जल। (वीरो० २०/२) सन्तोषशील (वि०) सन्तुष्टि युक्त। सन्तोषामृतधारिणी (स्त्री०) सन्तोष रूपी अमृत धारण करने
वाली। (सुद० ४/३३) सन्तोषी (वि०) सन्तोष रखने वाला। सन्त्यजनं (नपुं०) [सम्+त्यज्+ल्युट्] छोड़ना, त्याग देना,
परित्याग करना। सन्त्रासः (पुं०) भय, डर, आतंक। सन्दद् (वि०) दत्तवती। (जयो०५/१५) सन्दधता (वि०) स्पर्शकर्ता। (जयो० २२/५०) सन्दधनी (वि०) सुशोभित होने वाली। (जयो० १/६८) सन्दंशः (पुं०) [सम्+दंश्अच्] ०सन्डासी, चिमटा।
०दांत भींचना। संदा (सक०) देना-संददत् (जयो० ३/३५) सन्दर्शकः (पुं०) [संदृश्+कन्] चिमटा, सन्डासी। सन्दर्भः (पुं०) [सम् दृश्+घञ्] ०सन्तति, सम्बन्ध, संलग्नता।
०आत्म परिचय। ०क्रम करना, मिलाना। मिश्रण, संग्रह। संरचना, निबन्ध।
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सन्दर्शनं
११३८
सन्देहः
हुआ।
सन्दर्शनं (नपुं०) [सम्+दृश् ल्युट] ०अवलोकन, परिलोकन, | सन्दिशत्-प्रकट किया गया। (जयो० २१/२६) ०देखना, ताकना, टकटकी लगाना।
सन्दी (स्त्री०) [सम्+दो+ड ङीष्] खटिया, खाट। ०ध्यान।
सन्दीपनं (नपुं०) [सम्+डीप्+णिच+ल्युट] प्रज्वलित करना, दृष्टि ।
सुलगाना। ०दर्शन।
सन्दीपनः (पुं०) कामदेव का एक बाण, सन्दानं (नपुं०) [सम्+दा+ल्युट्] ०रस्सी, डोरी, रज्जू। सन्दीप्त (वि.) [सम्+डीप्+क्त] प्रज्वलित किया हुआ, ___शृंखला, बेड़ी, बंधनी।
सुलगाया हुआ। सन्दानः (पुं०) गण्डस्थल।
उत्तेजित, उद्दीपित। सन्दानित (वि.) [सन्दान+इतच्] बद्ध, आबद्ध, कसा हुआ। ०भड़काया हुआ, उकसाया हुआ। शृंखलित, बेड़ी में जकड़ा हुआ, आवेष्ठित।
सन्दुःख (वि०) दु:ख युक्त। (जयो० ४/११३) सन्दानिनी (स्त्री०) [सन्दानं बन्धनं गवां अत्र-सन्दान+ सन्दुष्ट (भू०क०कृ०) [सम्+दुष्+क्त] कलुषित किया हुआ, इनि+ङीप्] गोष्ठ, गोशाला।
मलिन किया हुआ। सन्दावः (पुं०) [सम्+दु+घञ्] प्रत्यावर्तन, परिभ्रमण, परावर्तन, दुष्ट, दुर्जन। भगदड़।
सन्दूषणं (नपुं०) [सम्+दूष्+णिच् ल्युट्] दोष, दूषण। सन्दाहः (पुं०) [सम्+द+घञ्] दाह, जलन, उष्णता।
मलिनता, मल। उपभोगता।
०भ्रष्ट करना, विषाक्त करना। सन्दिग्ध (भू०क०कृ.) [सम्+दिह्+क्त] ०सना हुआ, ढका | संदृश (सक०) देखना, भली प्रकार से अवलोकन करना।
(जयो० ६/६०) ०आच्छादित, आवृत।
सन्देशः (पुं०) [सम्+दिश्+घञ्] सूचना, समाचार। ०भ्रामक, सन्देहात्मक, अनिश्चितता। (जयो०१४/६६) (दयो० ६२) भ्रान्त
ज्ञातव्यपलेश। (जयो० २३/३५) सशंक, सन्देहास्पद, सन्देहयुक्त।
आज्ञा, आदेश। असुरक्षित,
रहस्य निवेदन। (जयो० २४/९६) विषाक्त।
सन्देशनः (पुं०) दूत, संवाहक। (जयो० १८/६२, १८/१०) सन्दिग्धादिग्ध (वि०) सन्दिग्ध और असन्दिग्धपना। (जयो० सन्देशगत (वि०) आदेश को प्राप्त हुआ। १४/६६)
शन्देशदायक (पुं०) सन्देश देने वाला, समाचार देने वाला, सन्दिष्ट (भू०क०कृ०) [सम्+दिश+क्त] ०इंगित, इशारा किया
सूचक। गया, संकेतित।
सन्देशपदं (नपुं०) वृत्त प्रेषण, प्रेम प्रेषण। (जयो० १/६७) निर्दिष्ट।
प्रेम परक सूचना। उक्त, वर्णित, कथित।
सन्देशवाच् (पुं०) समाचार, वृत्तप्रेषण। ज्ञात, परिज्ञात।
सन्देशहरः (पुं०) दूत, संदेशवाहक। ०सूचित।
सन्देशिन् (वि०) समाचार देने वाला, वृत्तप्रेषण करने वाला। सन्दिष्टः (पुं०) सन्देशवाहक, दूता
(जयो० २३/२८) ०हल्कारा।
सन्देहः (पुं०) [सम्+दिह+घञ्] संशय, शंका। सन्दिष्टं (नपुं०) सूचना, समाचार, खबर।
संदेहालंकार-जिसमें दो समान वस्तुओं की घनिष्टता के सन्दित (वि०) [सम्+दो+क्त] बद्ध, आबद्ध, जकड़ा हुआ। कारण भ्रान्ति से एक वस्तु को अन्य वस्तु समझ लिया ___ ०शृंखलित, बेड़ी युक्त।
जाता है। 'ससंदहेस्तु भेदोक्तौ तदनुक्तौ च संशयः' सन्दिश (वि०) सन्देशदायक। (जयो० २६/२३)
(काव्य०१०)
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सन्देहधारि
सन्देहधारि (वि०) संशय धारक, शंका धारक । (जयो० ३ / ९६) ० अच्छी शरीर का धारक समित्तिसम्यग्रूपस्य देहस्य शरीरस्य धारकेणेति' (जयो०वृ० ३ / ९६ )
सन्देहप्रतिकारि (वि०) संशय निवारक । (जयो० ३ / ९६ ) सन्देहालङ्कारः (पुं०) सन्देह अलंकार (जयो०वृ० ५/८७) (वीरो० २ / ३४ ) संशय अलंकार
इदमेतदिदं वेति साम्याद्बुद्धिर्हि संशयः ।
हेतुभिर्निश्चयः सोऽपि निश्चयान्तः स्मृतो यथा ।।
(वाग्भटालङ्कार ४/७८)
किमिन्दिराऽसौ न तु साऽकुलीना,
कला विधोः सा नकलङ्कहीना।
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दुहना ।
o
● किसी वस्तु की समष्टि, समुच्चय ।
रतिः सतीयं न तु सा त्वदृश्या
प्रतर्कितं, राजकुलैः स्विदस्याम्।। (जयो० ५/७८) सन्दोहः (पुं०) [सम्+दुह्+घञ् ] ०दुहना, निकालना, दूध
११३९
०ढेर, राशि, संघात, समूह
|
०सन्दोहन, प्रकटन (जयो० १७/७५)
सन्द्राव (पुं०) [सम्दु पञ्] प्रत्यावर्तन, भगदड़, परावर्तन | संघ (सक०) सन्धान करना। (जयो० २ / १३६) संधारणशील (वि०) धारण करने वाले (जयो०वृ० १/३२) सन्धा (सक०) धारण करना सन्दधत् (वीरो० १९ / ३९) सन्धा (स्त्री० [सम्+ धा+अ+टाप्] ० साहचर्य, मिलाप, मेल। ० प्रगाढ़ सम्बन्ध |
।
०स्थिति, दशा ०सीमा।
करना।
०मिश्रण, संगत, योग।
० मुख। (मुनि० २६)
० जोड, ग्रन्थि।
● प्रतिज्ञा । ० स्थिरता, धैर्य ।
० सन्ध्या ।
० मद्यसंधान ।
सन्धानं (नपुं० ) [ सम्+ धा+ ल्युट् ] ० जोड़ना, मिलाना, योग
० आचार आदि बनाना । ( सुद० १२९ ) सन्धानकः (पुं०) अचार, मुरब्बा। (हित० १ / ६ ) सन्धानित ( वि० ) [ सन्धान+इतच् ] मिलाया हुआ, मिश्रण
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किया हुआ,
संगमित।
० बांधा हुआ, कसा हुआ।
सन्धारण ( वि०) भारोद्वहन, बोझा (जयो०वृ० १३/८३) सन्धारक (वि०) रक्षक, रक्षा करने वाला। (जयो०वृ० ६ / १०४) सन्धिः (स्त्री० ) [ सम्+ धा+कि] ०संधान, जोड़, योग, मेल। ० संगम, सम्मिश्रण, सम्बन्ध।
० मित्रता, मैत्री, संघट्टन ।
० अन्तराल, विश्राम।
० पर्व, ग्रन्थि। (जयो० ३ / ४० )
०पद मेल पार्थक्य ।
सन्ध्याकालः
०छेद, विवर, छिद्र ० सुरंग, सेंध ।
वर्ण विकार, ध्वनि परिवर्तन की प्रवृत्ति । सन्धिकः (पुं० ) [ सन्धि+कन् ] एक ज्वर विशेष । सन्धिका ( स्त्री० ) [ सन्धिक+टाप्] आसवन । सन्धित (वि० ) [ सन्धा+इतच् ] बद्ध, मिला हुआ,
० समाहित, आवद्ध ।
० प्ररक्षित |
मिश्रित ।
० अचार डाला गया।
सन्धिदूषण (नपुं०) प्रस्ताव भंग, शान्ति भंग। वार्तालाप में
गतिरोध ।
सन्धिनी (स्त्री० ) [ सन्धा + इनि + ङीप् ] गर्भिन गाय, गर्भिणी गाय । सन्धिला ( स्त्री० ) [ सन्धि ला+क+टाप्] भित्तिछिद्र । ० नदी, ०मदिरा ।
|
सन्धुक्षणं (नपुं०) (सम्+धुश् + ल्युट्] सुलगना, प्रज्वलित होना। ० उद्दीपन, उत्तेजित करना।
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सन्धूप (वि०) उत्तम धूप (वीरो० २/३३)
सन्धृत (वि०) लिपटा हुआ। (हित० ४७ )
सन्धेय (वि० ) [ सम्+ धा+यत्] जोड़े जाने योग्य मिलाए जाने
,
योग्य।
+
सन्ध्या (स्त्री० [सन्धि + यत्+टाप् सम्ध्यै अङ्+टाप् वा] सायंकाल, सन्धिवेला। शशिनाऽऽप विभुस्तु वाञ्चनकलशाली सह सन्ध्यया पुनः । (वीरो० १/३४) सांझ का समय । (सुद० १११)
० उचित ध्यान, प्रार्थना |
० चिन्तन-मनन ।
सन्ध्याकालः (पुं०) सायंकाल, सांझ का समय (जयो०वृ० १५/१२)
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सन्ध्यान
११४०
सन्निधानं
सन्ध्यान (वि.) पर्व आदि पर ध्यान करने वाला।
सन्मार्ग। (सुद० १३६) सन्ध्यानपरायणत्व (वि०) सन्ध्यासु सन्ध्यानपरायणत्वादेन च पृष्ठभाग।
पर्वण्युपवास-मृतत्वात्। (वीरो० ११/२९) सन्ध्याकालीन | संन्यासित् (वि०) संन्यास युक्त। (वीरो० ११/२४) कर्त्तव्य में परायण रहने वाला।
सन्नहनं (नपुं०) [सम्+नह ल्युट्] उद्यम, परिश्रम, उद्योग, सन्ध्यानुचरी (वि०) सन्ध्या के पीछे पीछे चलने वाली। प्रयत्न। (दयो० १११)
०सन्नद्ध होना, सुसज्जित होना। सन्ध्यारुणिमा (स्त्री०) सन्ध्या कालीन लालिमा। (जयो०० ०कवच। १५/१३)
सन्नहनकः (पुं०) कवच, उरश्छद, वक्षस्थलावरणक। (जयो० सन्ध्यावन्दना (स्त्री०) सन्ध्याकालीन ध्यान, सामायिकादि की ७/९३) क्रिया। आलोचना करना। (जयो०वृ० १५/७)
सन्नहनरोधि (वि०) कवच धारण में बाधक। (जयो०७/९५) ०सदाचरण प्रवृत्ति। (जयो०वृ० १/७८)
कवच धारणे बाधकंसन्ध्यावन्दनकारिन् (वि०) सन्ध्या वन्दन करने वाले। (जयोवृ० । सन्नाहः (पुं०) [सम्+नह+घञ्] कवचित होना, युद्ध के लिए १५/३१)
तैयार होना, सुसज्जित होना। (जयो०८/५७) सन्ध्यासमयः (पुं०) सन्ध्याकालीन समय। सांझ का समय। सन्नाहकः (पुं०) कवच पहनना। (दयो० १२०) तेभ्योऽतिवर्तनं (दयो० २/५) आप्रदोष (जयो०वृ० २/१२२)
कस्मात् त्यागसन्नाहकं विना। सन्न (भू०क०कृ०) [सद्+क्त] आसीन, स्थित, बैठा हुआ। सन्नाह्यः (पुं०) [सम्+नह+ण्यत्] युद्ध का हाथी। खिन्न, दुःखी, व्याकुल, उदास।
सन्निकर्षः (पुं०) [सम्+नि+कृष+घब] समीप लाना, निकटस्थ विश्रान्त, थका हुआ, म्लान।
करना। ०क्षीण, दुर्बल।
सम्बन्ध, इन्द्रिय विषय से सम्बन्धित। नष्ट, लुप्त।
उत्कर्ष-अनुत्कर्ष का विचार करना, एक वस्तु में किसी गतिहीन, स्थिर।
एक धर्म के विवक्षित होने पर शेष धर्मों के उसमें सत्त्वसन्न: (पुं०) पियाल तरु।
असत्त्व का विचार करना। ०चारोली तरु।
०पड़ौस, सामीप्य। सन्नं (नपुं०) अल्पमात्रा, थोड़ा सा।
सन्निकर्षणं (नपुं०) [सम्+नि+कृष्+ल्युट्] निकटस्थ करना, सन्नक (वि०) [सन्न+कन्] नाटा, छोटे कद का।
समीप लाना। सन्नत (भू०क०कृ०) [सम्+नम्+क्त] नम्रीभूत, नत, पहुंचना, आना। झुका हुआ।
०सामीप्य करना। ०प्रणत।
सन्निकृष्ट (भू०क०कृ०) [सम्+नि+कृष्+क्त] ०सींचा हुआ, सन्नतर (वि०) [सन्न+टाप्] विषण्ण, अपेक्षाकृत धीमा।
आकृष्ट किया हुआ। सन्नतिः (स्त्री०) [सम्+नम्+क्तिन्] प्रणति, अभिवादन, नमन। समीपवर्ती, सटा हुआ। ०सादर प्रणम्यभाव, सम्मान।
निकटस्थ, समीपस्था ०ध्वनि, कोलाहल।
सन्निग्रहणं (नपुं०)[सम्+नि+ग्रह ल्युट्] अच्छी तरह निग्रह सन्नद्ध (भू०क०कृ०) [सम्+न+क्त] ०कटिबद्ध, उद्यत, करना, भली-भांति निग्रह करना। हृषीकसन्निग्रहाणैकवित्ताः तत्पर।
स्वभाव सम्भावनमात्रचित्ताः। (सुद० ११८) सुसज्जित, सुव्यवस्थित।
सन्निचयः (पुं०) [सम्+नि+चि+अच्] ०संग्रह, संचय। निकटस्थ, सीमावर्ती।
सन्निधातु (पुं०) [सम्+नि+धा+तच] निकट लाने वाला, सन्नपि (अव्य०) होने पर भी। (जयो० १/१२)
जमा करने वाला। सन्नयः (पुं०) [सम्+नी+अच्] ०संचय, समुच्चय, परिमाण। | सन्निधानं (नपुं०) [सम्+नि+धा+ल्युट] सामीप्य, पडौस!
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सन्निधाय्
०उपस्थिति दृष्टिगोचर होना।
०ग्रहण करना।
"
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०उत्तमविधान भण्डार (सुद० ४०४) ०सम्मिश्रण, समष्टि।
सन्निधाय् (सक०) स्थापित करना, उपस्थित करना। (जयो० २/३१)
सन्निधिः (स्त्री०) (सम्+नि+धाइक] ०धनराशि (जयो० २१/५३)
० निकटवर्ती (जयो० २०/८८ )
० समागम । (दयो० ७२ )
० दर्शन करना। यद्यसि शान्ति समिच्छकस्त्वं सम्भज सन्निधिमस्य । (सुद० ७१ )
सन्निपातः (पुं० ) [ सम्+नि+पत्+घञ् ] 'संसारे पतनं सन्निपातः '
(जयो० २ / ६८)
० गिरना उतरना, नीचे आना। ०सम्पर्क, संघर्षण, टकराहट। ०मिश्रण, मेल, संचय |
० संघात, समुच्चय, संग्रह ।
० रोग विशेष बात, पित्त और कफ इन तीनों के योग से जो दोष उत्पत्ति होती है वह विषम ज्वर रूप होता है। सन्निबन्ध: (पुं० ) [ सम्+नि+बन्ध्+घञ् ] ०आसक्ति, लगाव, जोड़ मेल
११४१
० सम्बन्ध, कस कर बांधना।
सन्निबध्य (वि० ) [ सम्+नि+बन्ध् + ण्यत् ] बन्धन योग्य, जोड़ने योग्य (जयो० ११ / २६)
सन्निनादः (पुं०) कडकड शब्द (जयो० ८/१२) सन्निभ (वि०) [सम्+नि+भा+क] समान, सदृश, तुल्य। (जयो० ६/१८) स्मर चापसन्निभः कटुकं परमकंदलजातिः । (जयो० ६/१८)
सन्नियोगः (पुं० ) [ सम्+नि+युज्+घञ् ] ० नियुक्ति,
० परस्परिक योग, मेल।
सन्निभा (वि०) सादृशी । (जयो० १९ / ४६ ) सन्निमेष: (पुं०) सन्तो निमेषा यस्यां सा तया सन्निमेषकदृशा । (जयो०वृ० ५ / ६९) अनुराग रखने वाली दृष्टि, निश्चल दृष्टि |
० अनुराग ।
०बीच, मध्यस्थ। (जयो० २१ / ७) सन्निरोधः (पुं०) (सम्+नि+रुध्+घञ्] अड़चन, रुकावट।
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संयासः
सन्निविष्ट (वि०) उपस्थित। (जयो० १३/६३)
सन्निर्वृतः (पुं०) समीचीन निधि ।
सन्निवृत्तिः (स्त्री० [सम्+ निविश्+घञ्] ०रचना ०संरचना
(जयो०वृ० १/१७)
सन्निवेश: (पुं० ) [ सम्- विविश्+घञ् ] ०भाण्डागार (जयो०
+
१/१७)
० अवयव आखण्डलोऽयमथवा
सन्निवेषु (सक०) बिठाना, ठहराना (जयो० ५ / २२ ) सन्निहित (भू०क०कृ० ) [ सम् निधा+क्त] उपस्थित ०ताडित। (जयो० ९/१२)
सन्मङ्गलार्थ (वि०) उचितमंगल के लिए। (वीरो० ४ / ३७ ) सन्मति (वि०) महावीर का अपर नाम सन्मतिभा ( स्त्री०) यशोदा । (जयो० )
सन्मतिसंसद् (स्त्री०) विचारशील सभा सन्मतीनां विचारशीलानां या संसदि सभायां पतत्येव' (जयो० २५/४०) सन्मतिसम्प्रदाय: (पुं०) वीर प्रभु का सम्प्रदाय (वीरो० १५/६१) मृदुसन्निवेश (दयो० १०८)
● अनुराग, उत्कृष्ट भक्ति।
० स्थान, स्थल |
० अवस्था ।
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० रूप, आकृति ।
सन्मन ( वि० ) [ एतां मनः] सत्पुरुष का मन (जयो०वृ० २/६६) सतां विदुषां मनश्चित्तम्' (जयो० २ / ५२ ) शुद्धिचित्त गृही (जयो० २ / ९५)
सन्मार्ग: (पुं०) मुक्ति पथ ।
सन्मार्गगामी (वि०) मुक्तिपथगामी। (वीरो० १८/४२) सन्मार्गदर्शक (वि०) मुक्तिपथदर्शक |
सन्मार्गप्ररूपण (वि०) उचित मार्ग का कथन। (जयो०१८/८६) सन्मार्गप्रवृत्तिः (स्त्री०) मुक्ति पथ की प्रवृत्ति। (जयो० १८/८७) सन्मुख (वि०) सामने ( भक्ति० १४ )
सन्मञ् (सक० ) पोंछना, साफ करना। (वीरो० ५ / ११) सन्मार्जित (वि०) प्रमार्जित ।
सन्यसनं (नपुं०) [सम्+नि+अप् + ल्युट् ] ० विरक्ति, वैराग्य, त्याग । ० सौंपना, प्रदान करना ।
नीचे
सन्यस्त (भू०क० कृ० ) [ सम्+नि+अस्+क्त] डाला हुआ, रखा हुआ त्यागा हुआ।
संवासः (पुं० ) [ सम्+नि+अस्+घञ् ] छोड़ना, त्यागना।
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सन्यास-आश्रमः
११४२
सप्तधातु
वैराग्यभाव, विरक्ति परिणाम। ०धरोहर, निक्षेप।
योगी। (जयो० २/११७) सन्यास-आश्रमः (पुं०) योगी आश्रम। (जयो० २/११७)
(जयो०वृ० १८/४८) सन्यासाश्रमः (पुं०) योगी आश्रम, तपस्वी स्थल। सन्यासिन् (पुं०) त्यागी, विरक्ति। (जयो० २६/१०३)
विरागी (दयो० २५) सन्यासोपनिषद् (वि०) सन्यास सम्बंधी उपनिषद। (दयो० २५) सन्योगुणः (पु०) सज्जन गुण। (समु०१/२४) सन्विहर (वि०) साथ में विहार करने वाला। (समु० ३/८) सप् (अक०) सम्मान करना, पूजा करना। सपक्ष (वि०) पक्षेण सह-पंखों वाला।
०पक्षवाला, दलवाला।
०बन्धु, सदृश, समान। सपक्षः (पुं०) समर्थक, अनुगामी, पक्षपाती।
सजातीय, सम्बंधी। सपक्षता (वि०) पक्षपना-रुचि। (जयो० २८/३२) सपक्षयुक्तता (वि०) पक्षसहितपन। (जयो० २८/३२) सपत्नः (पुं०) [सह एकार्थे पतति पत् न सहस्य सः] शत्रु, |
विरोधी। सपत्नी (स्त्री०) [समानः पतिः यस्याः]
०अपनी भार्या, निजाङ्गना। (जयो०८/६४) प्रतीयत्नी-सौत। (जयो० १४/३०)
सहपत्नी, सौत। सपत्नीक (वि०) [सपत्नी+कप्] पत्नी सहित। सपत्नीगणः (पुं०) स्त्रीसमूह। (जयो०१० २३/२७) सपत्राकरणं (नपुं०) [सह पत्रेण सपत्र+डाच्+कृ+ल्युट्]
अत्यंत पीड़ाजनक। कष्टदायी। सपत्राकृतिः (स्त्री०) [सपत्र+डाच्+कृ+क्तिन्] वेदना, पीड़ा,
सन्ताप, दु:ख। सपदि (अव्य०) [सह+पद्+इन् सहस्य सः] इस समय, अब
(सुद०८१) (जयो० १/९५) ०अधुना। (जयो० ५/४) (जयो० ३/५)
शीघ्र, तुरंत। (सुद० ४/३०)
०तत्काल, तत्क्षण। सपर्ण (वि०) पर्ण सहित-पत्र सदश। (जयो०८/४१) सपर्या (स्त्री०) [सपर+यक+अ+टाप] पर्युपासना (जयो०
२२/३६)
अर्चना, पूजा, प्रार्थना। (वीरो० ५/६)
०सम्मान, आदर। सपर्यापर (वि०) पूजा में तत्पर। (वीरो० ५/६) सपाद (वि०) [सहपादन] पैरों वाला। एक चौथाई बड़ा हुआ। सपिक्ष (वि०) पिक्ष सहित-पार्श्व पिच्छया मयूर पक्ष निर्मिता
(जयो० २१/२८) सपिण्डः (पुं०) [समानः पिंडा मूलपुरुषो निवापो वा यस्य]
पिण्डदान देने वाला। सपिण्डिकरणं (नपुं०) पिण्डदान करना। सपीतिः (स्त्री०) [सह एकत्र पीति:-पानं+पा+क्तिन] सहपान,
मिलकर पान करना। सपूत (वि०) पुत्र युक्त। (समु० ९/२) सप्रकाशकर (वि०) स्व प्रकाशक। (हित० ४३) सप्त (नपुं०) सात। (जयो० १/१९) सप्तक (वि०) [सप्तानां समूह:] सातवां, सात की संख्या वाला। सप्तकी (स्त्री०) [सप्तभिः स्वरैः इव कायति शब्दायते
सप्तन्+कै+क+ङीष] 'करधनी 'ति प्रसिद्धा मेखला। (जयो०
१५/४६) करधनी, कंदौरा, तगड़ी। सप्ततिः (स्त्री०) [सप्तगुणिता दशतिः) सत्तर। सप्तधा (अव्य०) [सप्तन्+धाच्] सात प्रकार से, सात गुणा। सप्तन् (सं०वि०) [सदैव बहुवचनान्त] सात, सात संख्या।
(सुद० १०८) सप्तचत्वारिंशत् (स्त्री०) सैंतालीस। सप्तच्छ्रदः (पुं०) सप्तपर्ण। (वीरो० १३/११) सप्तच्छदगन्धवाहः (पुं०) सप्तपर्ण वृक्षों की सुगन्ध-ते शारदा
गन्धवहाः सुवाहा वहन्ति सप्तच्छदगन्धवाहाः। (वीरो०
२१/२४) सप्तजिह्वः (पुं०) आग, अग्नि। सप्तज्वालः (पुं०) आग, अग्नि। सप्ततत्त्व (नपुं०) सात तत्त्व। जीवाजीवादि ज्ञान। सप्तत्रिंशत् (स्त्री०) सैंतीस। सप्तदशन् (वि०) सत्रह। सप्तदीधितिः (स्त्री०) अग्नि, आग। सप्तद्वयोदारः (पुं०) चौदह। (वीरो० ११/५) सप्तद्वीपा (स्त्री०) पृथ्वी। सप्तधातु (पुं०) सात प्रकार की शारीरिक धातुएं। अन्नरस,
रुधिर, मांस, चर्बी, हड्डी, मज्जा और वीर्य।
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सप्तनवतिः
११४३
सभा
सप्तनवतिः (स्त्री०) सत्तानवे। सप्तनाडीचक्रं (नपुं०) ज्योतिष सम्बंधी रेखा। सप्तपर्णः (पुं०) सप्तच्छदवृक्ष। (वीरो० ४/१८) सप्तपलाशकीयः (पुं०) सप्तपर्ण। (वीरो० २१/१८) सप्तपदी (स्त्री०) सात पग चलना, वैवाहिक क्रिया का एक
रूप जिसमें दूल्हा एवं दुल्हन को सात वचन साक्षी पूर्वक
ग्रहण करने को कहे जाते हैं। सप्तपरिक्रमा (स्त्री०) सात प्रदक्षिणा, सात फेरे। (जयो०१२/७३) सप्तप्रवृत्तिः (स्त्री०) सात अंग। सप्तप्रकारः (पुं०) सात भेद, सप्त भंग। (वीरो० १९/७) सप्तप्रकारत्व (वि०) सात भंग वाले। सप्तप्रकारत्वमुशन्ति
भोक्तुः फलानि च त्रीण्यधुनोपयोक्तुम्। (वीरो० १९/७) सप्तभङ्गात्मक (वि०) सप्त भंग रूप। (भक्ति० ९) सप्तभद्रः (पुं०) सिरस तरु। सप्तभूमिक (वि०) सात खण्ड वाला। सप्तभौम (वि०) सात खण्ड वाला। सप्तम (वि.) [सप्तानां पूरण: सप्तन्+डट्] सांतवां। (सम्य०
१२८) सप्तमक (वि०) सांतवा। (सम्य० १४०) सप्तमलम्बका (नपुं०) सांतवां लम्ब। ०चम्पूकाव्य में प्रयुक्त
सांतवां अध्याय। सप्तरात्र (नपुं०) सात रात का समय। सप्तर्षि (पुं०) एक ऋषि विशेष। सप्तला (स्त्री०) चमेली। सप्तविंशतिः (स्त्री०) सत्ताईस। सप्तविध (वि०) सात गुना, सात प्रकार का। सप्तशतं (नपुं०) सात सौ। सप्तसप्तिः (पुं०) सूर्य। सप्तस्वरं (नपुं०) सात स्वर-निषाद, ऋषभ, षड्ज, गान्धार,
मध्यम, पञ्चम और धैवत। (जयो०वृ० ११/४७) सप्ताङ्ग (वि०) सप्त प्रकृति। सप्तार्चिस् (वि०) सात जिह्वा वाला। अशुभ दृष्टि वाला। सप्तार्चिस् (पुं०) अग्नि, आग।
शनि। (जयो०७/२४) सप्ताशीतिः (स्त्री०) सतासी। सप्ताश्रमः (पुं०) सतकोन, सात कोने। सप्ताश्वः (पुं०) सूर्य, दिनकर। (जयो०वृ० १५/१६) सप्ताश्वकः देखो ऊपर।
सप्ताहः (पुं०) एक सप्ताह। सप्तिः (पुं०) अश्व, घोड़ा। (जयो० ३/११०) सप्तिसमूहः (पुं०) अश्व समूह। (जयो० २/११०) सप्रणय (वि.) [सह प्रणयेन] स्नेहपूर्ण, मित्रतापूर्ण। सप्रतिपत्तिक (वि०) विश्वास उत्पन्न करने वाला-प्रतिपत्या
सहित, विश्वासुत्पाद्य। सप्रत्यय (वि०) [प्रत्ययेन सह] विश्वस्त, विश्वास योग्य।
निश्चित। सप्रीति (वि.) प्रीति युक्त। (सुद० ८२) सफरः (पुं०) चमकीली मछली।
सफल। (जयो० ४/१५) सफरसमूहः (पुं०) मछली समूह। (दयो० ९) सफल (वि.) [सह फलेन] सम्पन्न, पूर्ण, पूरा किया हुआ।
(जयो० ४/१५) फलवान् (जयो० १६/१५) ०फलों से परिपूर्ण।
उपजाऊ। सफलता/सफलत्व (वि०) सम्पन्नता, पूर्णता। (सुद० ७२,
समु० १/२) सफलीकृत (वि०) सफलता युक्त। (जयो० २६/८१) सफल प्रयत्नः (पुं०) कृतार्थ। (जयो०वृ० १२/४७) सबन्धु (वि०) [सह बन्धुना] मित्रयुक्त, मित्रता से परिपूर्ण।
०परिजन सहित। सबन्धुः (पुं०) बन्धुवर्ग, परिजन। माता-पितादि सहित। सबन्धुवर्गः (पुं०) माता-पितादि सहित। स्थातुं समिच्छामि __सबन्धुवर्ग: पुरेऽत्रतत्सम्भविनो भवन्तु। (समु० ३/२५) सबला (स्त्री०) लक्ष्मी। (जयो०१५/५४) ०धनश्री। सबलिः (पुं०) [सह बलिना] सन्ध्याकालीन समय, गोधूलिबेला। सबहुमान (वि०) सम्मान रहित। (दयो० १०८) सबाध (वि०) [सह+बाधया] आघातपूर्ण, ०पीड़ाजनक,
कष्टदायक, बाधायुक्त। सब्रह्मचर्यम् (नपुं०) [समानं ब्रह्म आत्मज्ञानग्रहणकारिन् व्रतं
चरति-चर+णिनि] सहपाठी, साथ में अध्यन करने वाला। सभ (वि०) कान्ति युक्त, प्रकाश सहित, नक्षत्र सहित।
(जयो० ३/४५) सभय (वि०) भय सहित। (सुद० ११२) सभया (स्त्री०) त्रपा, लज्जा। सभायां लज्जा न कार्या विद्वद्धिरिति
(जयो०१७/३३) सभा (स्त्री०) [सह भान्ति अभीष्ट निश्चयार्थमेकत्र यत्र गृहे]
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सभा
११४४
समक्षता
शोभावती (जयो० १०/११४) परिषद्, समिति, संगठन। सभ्य (वि.) [सभायां साधु:-यत्] सुसंकृत, संस्कारयुक्त, पक्षति (जयो०१० ३/७)
परिष्कृत। गोष्ठी (जयो०वृ० १/१२) सदस। (जयो०वृ० १/४३)
सुशील, विनम्र, शिष्ट। सभाज् (सक०) प्रणाम करना, नमस्कार करना।
विश्वस्त, विश्वसनीय। ०अर्पित करना, बधाई देना।
सभ्मनिकायः (पुं०) सुसंस्कृत समूह। (जयो० १४/४५) ०पूजा करना, आदर देना।
सभ्यता (स्त्री०) [सभ्य:+तल्+टाप्] विनम्रता, सुसंस्कारित, ०अलंकृत करना, सुशोभित करना।
सुशीलता, कुलीनता। (सम्य०७०) कष्ट सहन सभ्यतयैति सभाजनं (नपुं०) [सभा+ल्युट]०प्रणाम करना, अभिवादन वासः। (दयो० ६१) करना।
सम् (अक०) विक्षुब्ध होना, अव्यवस्थित होना। ०स्वागत करना, बधाई देना।
___खिन्न होना, उदासीन होना। सभामण्डपम् (नपुं०) सभास्थल, सभावनि। (जयो० ५/९०) सम् (अव्य०) [सो+उमु] धातु या कृदन्त शब्दों से पूर्व लगने सभामध्य (वि०) सभा के बीच के। (समु० ३/३९)
वाला प्रत्यय। सभावनः (पुं०) [सह भावनेन] शिव, शंकर।
०बहुत, अधिक, अत्यंत। (सम्य० ५३) सभाव (वि०) भाव सहित। (जयो०व०५/९०)
उत्कृष्ट, उत्तम। (जयो० १/१३) सभावनि (स्त्री०) सभा मण्डप। (जयो० ५/९०)
निकट, समीप। परम। (सुद० २/४२) सभासमारोहः (पुं०) परिषद का आयोजन। (जयो०५/२६) पूर्व जैसा। समयुक्त। (सम्य०८८) समङ्कित (वि०) व्याप्त। (वीरो० २/२९)
समः (पुं०) समभाव। 'सन्तः सदा सभा भान्ति मर्जूमतिनुतिप्रिया। समङ्गनावर्गः (पुं०) समीचीन अंगना समूह। (जयो० १/६९) (वीरो० २२/४०) समञ्च् (सक०) प्रदान करना, फैलाना। तयोरुदङ सुरभि समञ्चत् । सम (वि०) [सम्+अच्] समभाव, समान। समं समन्ता दुपयोगि। (सुद० २/२८)
(सम्य० ४, वीरो० १७/८) एक जैसा। समञ्चनक्षत्रपतिः (पुं०) समीचीन गति से युक्त नक्षत्र स्वामी। निष्पक्ष, तर्कसंगत, न्याय संगत
सम्यगञ्चनमाचरणं यस्य तस्य क्षत्रपतेः क्षत्रियशिरोभागे: मित्र-बांधवभाव। (जयो० ३/९६) सम संख्या विशेष। (जयो०वृ० १९/६) सम्यगञ्चनं येषां तानि समञ्चनानि, (जयो०वृ० १/१९) तानि च तानि नक्षत्राणि तेषां पतिः स्वामी तस्य' (जयो०व० ०सब, प्रत्येक, सारा, सम्पूर्ण। स्वयं। (सुद० ९६) १९/६)
समः (पुं०) समभाव प्रथम भाव। (जयो० २८/३३) सभानिवेद्वणः (पुं०) सभापति। (जयो०० ६/२३)
समं (अव्य०) के साथ, मिलकर। समं समालोच्य (जयो०७० सभानिवासिन् (वि०) सभा में रहने वाला। (जयो० ३/१३) ३/६६) सादृश्यता। (जयो० ३/४३) सभापति (पुं०) अध्यक्षा
समकन्या (स्त्री०) उपयुक्त कन्या, विवाह योग्य कन्या। सभाशा (स्त्री०) आशा, अभिलाषा। (सुद० ११५)
समकर्णः (पुं०) चतुष्कोण। सभासदः (पुं०) सदस्य। (जयो०वृ० ४/५०)
समकारि (वि०) यथावत् स्थिर रहने वाला। (वीरो० २२/८) सभाह (भूतकालिक प्रयोग) उत्तर दिशा। (सुद० ३/३२) समकालः (पुं०) सही समय, वही काल। सभासारः (पुं०) सभासा रजन्या निशाया सारः। (जयो० समकालं (अव्य०) उसी समय, युगपत्। १७/४)
समकालीन (वि०) समसामायिक। सभिकः (पुं०) [सभा द्यूतं प्रयोजनमस्य] जुआ खेलने वाला। समकोलः (पुं०) सर्प, अहि। सभामण्डपः (पुं०) स्वयम्बर मण्डप। (जयो० ३/७१) समक्ष (वि०) [अक्ष्णो समीपम-समक्ष अच] दर्शनीय। सभिद (वि०) भेद सहित। (जयो० २३/ )
प्रत्यक्षा (वीरो० ७१/३९) सभीति (वि०) भयपूर्ण। (जयो०१/३५) भान्वित। (जयो० । समक्षः (पुं०) वर्तमान। सर्वसाधारणांतर गोचरः यद्वा सम्यक्। २७/६१)
समक्षता (वि०) साक्षात्कारी। (जयो० २०/८०)
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समगाल
११४५
समनस्क
समन्ततोऽस्मिन् सुमनस्त्वमस्तु पुनीतयाकन्दविधायिवस्तु। (जयो० २१/७५) अतिक्रमण, उल्लंघन। (वीरो० ६/२४)
भूल, विस्मृति। समगाल (वि०) अनुभव करने वाला। (वीरो० ५/३६) समतिक्रमरोधः (पुं०) सीमातिक्रमणनिवारण। (जयो० २१/७५) समक्षेत्रं (नपुं०) नक्षत्र क्रम।
समतिलोत्तमा (स्त्री०) तिलोत्तमा के समान। (सुद० ४/३८) समगन्धकः (पुं०) धूप।
समतीत (वि०) [सम्+अति+इ+क्त] बीता हुआ, गया हुआ। समगसः (पुं०) कारण। (समु० ७/१४)
समत्व (वि०) समत्व युक्त। समभाव सहित। समगेय (वि०) स्वरादि से संयुक्त गेय।
समत्वहेतु (वि०) तुल्यभाव के कारण वाला। (जयो० १६/३३) समग्र (वि०) [समं सकलं यथा स्यात्तथागृह्यते-सम्+ग्रहन्+ड] | समत्तु-भोजन करने योग्य। (जयो० २/१०७) समस्त, पूर्ण, सम्पूर्ण, पूरा। (सुद० १/३१)
समद (वि.) [सह मदेन] मद युक्त, मदहोश। समङ्कित (वि०) लिखित। (जयो० ११/५८) आरोपित। (जयो० । समदत्ति (स्त्री०) श्रद्धापूर्वक पृथ्वी आदि देना। १५/१५, ३/२४) पूरित |
समदर्शन (वि०) समदर्शी, निष्पक्ष, समभाव का दर्शन करने समचतुरस्त्र (वि०) समभुज, चतुष्कोण।
वाला। समचतुरस्त्रसंस्थानं (नपुं०) अंग-उपांग अधिकृत अवयवों से | समदर्शिका (स्त्री०) समभू। (जयो० २४/१३०) समभाव परिपूर्ण।
दर्शिका। शरीरगत अवयवों की रचना।
समदर्शिन् (वि०) समदीर्श, निष्पक्षी। समचतुर्भुजा (पुं०) विषमकोण।
समदाग्जिन (वि०) प्रकट हुए जिन। (वीरो० ७/१४) समचित्त (वि०) प्रशान्तचित्त, प्रसन्नचित्त।
समदुःख (वि०) सहानुभूति रखने वाला। समञ्च (अक०) पूजना, पूजा करना। अञ्चगतिपूजनयो। (सम्य० समदृश् (वि०) पक्षपात रहित। ४/०)
समदृष्टसारः (पुं०) उत्तमसारभूत दृश्य। (सुद० २/१९) समजः (पुं०) [सम्+अज्+अप्] पशुओं का झुण्ड, रेबड़। समदृष्टिः (स्त्री०) समदर्शी, निष्पक्ष दृष्टा। समजं (नपुं०) अरण्य, जंगल।
समद्धित (वि०) ऋद्धि युक्त। (मुनि० १५) समजाय (वि०) समानता को उत्पन्न हुई। (जयो०६/१२९) | समधारी (वि०) समत्वधारी, समभाव युक्त। (सुद० ३/२१) समजाति (वि०) समान जाति।
समधिगम्य (सं०कृ०) पहुंचकर। (जयो० २/१५८) समज्या (स्त्री०) [सम्+अज्+क्यप्+टाप्]
समधिक (वि०) [सम्यक् अधिक] ०अत्यधिक, अत्यंत, ०सभा, परिषद।
विशाल। ०ख्याति, यश, कीर्ति।
०व्यापक, परिपूर्णता युक्त। समज्ञा (स्त्री०) ख्याति, प्रसिद्धि।
समधिकवेशशालिन् (पुं०) समपूर्वक विचरण करने वाला। समञ्जस (वि.) [सम्यक्+अञ्जः औचित्यं यत्र] उचित, | __ अधिकवेग युक्त। (जयो० २१/२१) तर्कसंगत, ठीक।
समधिगमनं (नपुं०) [सम्+अध+गम्+ल्युट्] आगे बढ़ना, ०यथार्थ, सत्य।
अग्रगामी होना, अग्रसर होना। स्पष्ट।
०जीत लेना, पार कर लेना। न्यायोचित।
समधिरुह (वि०) आरुढ़, सवार हुआ। (जयो० २१/६) ०अभ्यस्त, अनुभूता।
समधी (वि०) समत्व बुद्धि वाला, प्रशस्त व्रतों से युक्त। समञ्जसं (नपुं०) औचित्य, योग्यता, यथार्थता।
अहंकार रहित। समता (स्त्री०) [सम्+तल+टाप] सम रूपता, साम्यभाव, | समध्व (वि०) [समानः अध्वः यस्य] साथ-साथ चलने समभाव।
वाला, साथ साथ यात्रा करने वाला। ०मध्यस्थ भाव।
समनस्क (वि०) [संज्ञिनः समनस्का:] सम्प्रधारणं संज्ञायां समतिक्रमः (पुं०) [सम्+अतिक्रम्+घञ्] सीमातिक्रमण संज्ञिनो जीवाः समनस्काः भवन्ति। संज्ञा युक्त।
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समनस्कः
११४६
समयः
-
समनस्कः (पुं०) संज्ञी जीव। मनसहित जीव।
(जयो० १३/१२) सम्बद्ध (दयो० १/१९) आबद्ध। समनीकिनीश्वरः (पुं०) सेनानायक, सेनापति। (जयो० २१/१) ०अनुगत सार्धम्। (जयो०वृ० १/५५) समानभावः (पु०) बोध करना। (जयो० २।५९)
०सहित, युक्त, परिपूर्ण, पूरित, भरा हुआ। (जयो०३/७५) समनुकूलित (वि०) अनुकूल करते हुए। (जयो० ४/४४) समन्वयालङ्कार (पुं०) एक अलंकार विशेष। (वीरो० २/३८) समनुयापिनी (वि०) अकुरणशीला। (भक्ति० )
नासौ नरो यो न विभाति भोगी भोगोऽपि नासौ न वृषप्रयोगी समनोज्ञ (वि०) ज्ञानादि सहित, रमणीयता युक्त, अत्यंत प्रिय। वृषो न सोऽसख्यासमर्थितः स्यात् सख्यं च तन्नात्र कदापि सम्भोग सहित।
न स्यात्।। (वीरो० २/३८) समन्त (वि०) [सम्यक्+अन्तो यत्र] पूर्ण, व्याप्त, पूरा, समस्त। समपूज् (अक०) पूजा करना, अर्चना करना। (सुद० ३/२) समन्तः (पुं०) व्यापक, सीमा, मर्यादा। 'समन्तम्, समन्ततः समभावत (वि०) सुशोभित होते हुए। (वीरो० ८/१०)
समन्तात्' (जयो०वृ० ३/७४) (जयो० ११/९०) (सुद० समभिप्लुत (भू०क०कृ०) [सम्+अभि+प्लु+क्त] ०बाढ़ग्रस्त। १/२९) क्रिया विशेषण के रूप में प्रयुक्त होते हैं। ____०ग्रहण युक्ता (दयो० ३१)
समभिव्याहारः (पुं०) [सम्+अभि+वि+आ+ह+घञ्] ०साहचर्य, समन्तभडः (पुं०) आचार्य समन्तभद्र। (वीरो० १/२४)
समन्वित, साथ। समन्तभद्र (वि०) समन्ताद्भद्र-कुशलं तस्मै समस्तु भवतु (वीरो० ०सामीप्य। १/२४) *
समभिसरणं (नपुं०) [सम्+अभि+स+ल्युट्] ०पहुंचना, जाना। समरस: (पुं०) पवित्र रस। (जयो० २५/६६)
०प्राप्त होना। समन्तभद्र (वि०) सभी तरह से योग्य। (जयो०वृ०४/९०) ०खोज करना, कामना करना। समन्तभद्रः (पुं०) शान्तिवर्मा। (जयो०७० ३/६४) आचार्य समभिहारः (पुं०) [सम्+अभि+ह+ज] साथ साथ ले जाना। समन्तभद्र। (समु०१/११)
आवृत्ति। शान्तिवर्मा नाम समन्तभद्रः। देवागम स्तोत्र रचनाकार। ० अतिरिक्त। (सुद०८२)
समभू (वि०) समदर्शिका। (जयो०७० २४/१३०) हो गए। समन्तमार्गः (पुं०) चतुष्कपथ, चौराहा। (जयो०वृ० ४/४) (१२३) विचारना (सुद० १०८) (जयो०वृ० ३/५४)
समभूत (वि०) सुन्दरतम। (जयो०५/२०) समभूत् (वि०) हुआ। (जयो०वृ० २६/१)
प्रसन्न रहने वाला। (सुद० २/१) । समभूतरक्षणम् (नपुं०) समस्त जीवों का संरक्षण। समानां | समभूमिलनम् (नपुं०) निर्दोष सम्मिलन। (वीरो० २२/४)
सर्वेषां भूतानां रक्षणं यत्र (जयो०वृ० २६/१) सदृक् | समभ्यर्चनम् (नपुं०) [सम्+अभि+अ+ ल्युट्] पूजा करना,
सर्वमान्येषु च समं त्रिषु इति विश्वलोचने (जयो०पृ० ११७४) अर्चना करना। समन्तरी (स्त्री०) समादरणीयस्थान। (जयो० २४/३)
०समादर करना। समन्तरीय (वि०) सुप्रशस्त अधोवस्त्र। (जयो० १७/७४) समभ्याहारः (पु०) [सम्+अभि+आ+ह+घञ्] साहचर्य, साथ। समन्यु (वि०) [सह मन्युना] शोकाकुल, रोषपूर्ण, रुष्ट। । समय (अक०) विलीन होना। समयतो प्राप्नोत् (जयो० ९/४४) समन्वयः (पुं०) [सम्+अनु+इ+अच्] पारस्परिक सम्बन्ध। समय (वि०) समान रूप से स्थित होने वाला। (सुद०१/१५) (जयो०१० ११/७६)
समयः (पुं०) [सम्+इ+अच्] काल, ०समकक्षभाव, सम्मेलन (जयो० ६/७६) अनुक्रम युक्त। ०अवसर। (सम्य० ८८) ०संयोग।
उपयुक्त समय। (सुद० ७१) . समन्वयानन्दः (पुं०) सब लोगों को होने वाला आनन्द। सिद्धान्त, विचार। (समु० १/५)
०आचार आचरण। (जयो० १२/११०) समपादि (वि.) बनाई गई, निर्मित की गई। (दयो०१६)
सहज, स्वाभाविक। (जयो० १/१९) समन्वित (भू०क०कृ०) [सम्+अभि+प्लु+क्त] समुदाय सहित । ०आत्म सार।
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समयक्रिया
११४७
समर्थनम्
शास्त्र। (जयो०वृ० २/५४) समूह। (जयो० १९/८५) ०रुढ़ि, प्रथा संस्थापित नियम। सम्प्रदाय। (जयो० २/२५) संस्कार। संकेत। (जयो० ३/७) ०शास्त्र। (जयो०वृ० १/५) नियम, ०संकेत, इंगित, इशारा।
उपहार, भेंट। समयक्रिया (स्त्री०) नियम पालन। नियमबद्धता। समयपरिरक्षणम् (नपुं०) समय पालन। समयरीतिः (स्त्री०) काल नियम। (जयो० २/४७) समयसारः (पुं०) आचार्य कुन्दकुन्द की एक प्रसिद्ध प्राकृत
रचना, जो आत्मा के विशुद्ध स्वभाव को कथन करने
वाली है। समया (अव्य०) [सम्+इ+आ] अनुकूल, ठीक समय पर,
निश्चित समय पर। ०बीच में, अंदर।
निकट। समयानुवर्तिनी (स्त्री०) समयानुसार। (जयो० १३/५६) समयानुसारः (पुं०) समयानुकूल। (जयो०वृ० १३/५६)
(वीरो० ४/३९) समयी (वि०) स्वामी। (जयो० ४/५१) समयोचित (वि०) समय योग्य। समरः (पुं०) [सम्+ऋ+अप्] युद्ध, संग्राम। समरम (नपुं०) लड़ाई। समरक्षेत्रम् (नपुं०) रणक्षेत्र। समरभूमिः (स्त्री०) युद्धस्थल। समरमूर्धन् (पुं०) संग्राम का अग्रभाग। समरस (वि०) साम्य भाव। (सुद० १२३) ०समत्व शक्ति युक्त। समशिरस् (पुं०) संग्राम का अग्रभाग। समरसङ्ग (वि०) युद्ध कुशल। (सुद० १/३९) समराङ्गणम् (नपुं०) रणभूमि। (१७/११३) समरसङ्गमित (वि०) युद्ध करने वाला। (समु० ७/२९) समरी (वि०) युद्धकुशल, सत् प्रतिज्ञावान्। (जयो० ६/९३) समरूप (वि०) समान दृष्टि वाले। (सुद० ११९) समल (वि०) [मलेन सह] मल सहित। (जयो०० १/३८) समलङ्कृत (वि०) विभूषित। (जयो० १/३८) समर्थनम् (नपुं०) अनुवाद रूप, संकल्प रूप। (जयो० १२/१६)
०कथनस्यानुकथन, हां में हां मिलाना। (जयो० १२/३१)
समर्पितभावः (पुं०) अनन्यसेवा भाव। (भक्ति० १२) समवर्ष (अक०) बरसाना, वर्षा करना। (जयो० १०/४६)
(जयो० १२/१३३)। समवलोक्य (सं०कृ०) सम्यक् प्रेक्षा। (जयो० २/५३) समवाप् (सक०) [सम् + अ + आप्] उपहार देना।
(जयो० ३/९४) समवादसूक्ता (स्त्री०) सदा ही समदर्शिना। सत्तेव नित्यं
समवादसूक्ता द्राक्षेव याऽऽसीन्मताप्रयुक्ता। (वीरो० ३/१९) समर्जनं (नपुं०) कमाना। (समु० ३/४) समर्त्यनागः (पुं०) सुदर्शन सेठ, पुरुष शिरोमणि सुदर्शन।
(सुद० १०१) समरूपः (पुं०) समान रूप। समान रूपं येषां ते (जयो००
३/१२) समरोपयत् (वि०) आरोपित किया। समरोपयदेष सम्मतं
पुनरैरावणवारणस्य तम्। (वीरो० ७/१६) समर्चनम् (नपुं०) [सम्+अर्च् ल्युट्] बढ़ाई, स्तुति। (दयो०
२/९) आराधना, पूजा, अर्चना। समर्चिन् (पुं०) समीचीनौ यो हवमाग्निः (जयो०१२/६९)
हवनाग्नि समर्ज (अक०) समर्थन करना। (जयो०८/६५) भ्रमण करना
(जयो० २४/३) समर्ज (वि०) सरल, ऋजुता युक्त। (जयो० २४/५०) समर्जनिश्रेणिः (पुं०) सरल खर्जर वृक्षा (जयो० २४/५०) समर्ण (वि.) [सम्+अ+क्त] पीडित, दुःखित, कष्टजन्य।
घायल। समर्तुक (वि०) सुंदरकान्ति धारक। (जयो० ९/९२) समर्थ (अक०) समर्थ होना, शक्तिशाली होना, सार्थक करना
(जयो० १/११) समर्थताम् (सुद० २/२२) ०सम्पन्न, वैभव युक्त, योग्य।
असाधारण, शक्तिमान्, प्रभूतवित्तयुक्त। (जयो०वृ०१/७२) समर्थः (पुं०) सार्थक शब्द, क्रय मूल्य। (सुद० ७१) ईश्वर,
प्रभु (जयो०वृ० ५/५) समर्थक (वि०) पक्ष होने वाला। (जयो०वृ० २६/७९) समर्थकम् (नपुं०) [सम्+अर्थ+ण्वुल] अगर लकड़ी। चंदन ___ की लकड़ी। समर्थनम् (नपुं०) [सम्+अर्थ+ल्युट्] पुष्टि (मुनि० १७)
व्यर्थ च नार्थाय समर्थनं तु पूर्णी यतः। (जयो० १/१७) चिंतन करना, विचार करना।
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समर्थनार्थ
११४८
समस्तं
निर्णय करना।
ऊर्जा, बल, शक्ति। समर्थनार्थ (वि०) पूजनार्थ। (जयो०वृ० २७/२२) समर्थिन् (वि०) समर्थक, पक्ष वाला। (जयो० २६/७९) समर्थित (वि०) कार्यों वाली। (समु०३/२०) प्रशासित (जयो०७०
१९/३८) समर्थनक्रिया (वीरो० १/२) स्तुत (जयो० ५/५६) समर्धक (वि०) [सम्+रुध्+ण्वुल्] वर प्रदाता, वरदान देने
वाला। समर्प (सक०) देना, सौंपना। समपयिष्टति (जयो० ११/३८) समर्पणम् (नपुं०) सौंपना, देना, हस्तान्तरण करना। समर्पित (वि०) प्रदत्त, दी गई, पकड़ा दिया। (दयो० १८)
(समु० ७/११) (सुद० ११५) समर्पितदृष्टिः (स्त्री०) निक्षिप्तदृष्टि। (जयो० ५/१९) समर्पक (वि०) समर्पण। (जयो००० १२/५४)। समर्याद (वि.) [सह+मर्यादया] सीमित, बंधा हुआ।
निकटवर्ती, समीपवर्ती।
शिष्ट। समल (वि०) [मलेन सह] मैला, गन्दा। समर्हण (वि०) मान्य। (जयो०१२/७३) समर्हित (वि०) श्लाघनीय। (जयो० २०/३२) समवकृप (सक०) लेना, ग्रहण करना। (जयो० ५/५०) समयस्क (वि०) समान वय वाहक, मित्र। (वीरो० ६/१२) समवयस्कता (वि०) समान अवस्था वाला। (दयो० ७०) समशिष्ट (वि०) शेष, अवशेष। (जयो०१० ११/४३)
मलिम, दूषित। ०अपवित्र। समलक (सक०) सुशोभित करना। (वीरो०६/२३. जयो०
१०/११९) समलं (नपुं०) पुरीष, मल, विष्ठा। समलि (वि.) अली सदृश, भ्रमर सदृश। (जयो० ७/१०३) समवकारः (पुं०) [सम्+अच्+कृ+घञ्] नाटक का भेद। समवतारः (पुं० [सम्+अव्+तृ+घञ्] ०उतार, समलम्बित (वि०) बंधा हुआ। आबद्ध। (दयो०६३) समवभास् (अक०) प्रतीत होना। (दयो० ४) समवस्था (स्त्री०) [समा तुल्या अवस्था वा सम्+अवस्था+क्त+
अङ्कटाप्] निश्चित अवस्था, सदृश अवस्था, समान स्थिति। समवसरणं (नपुं०) अहंदुषाश्रय, अर्हत् सभा मण्डप। (जयो०
२६/५७) अरहंत की दिव्य देशना का स्थल।
समवस्थित (भू०क०कृ०) [सम्+अवस्था +क्त] स्थिर रहता
हुआ, दृढ़भूत। समवाततित् (नपुं०) फैलाया। ('वीरो० १५/५४) समवादः (पुं०) समाचार, संदेश। (जयो०१० २१/३) समवाप्तिः (स्त्री०) [सम्+अव+आप+क्तिन्] प्राप्ति, अभिग्रहण। समवाय (पुं०) [सम्+अव+इ+अच] ०सम्बन्ध, मिश्रण, मिलाप।
०संयोग, समष्टि, संयुक्त (सुद० १/४२)
प्राप्त। (सुद० ३/३२) ०संख्या, समूह, समुच्चय।
अविच्छिन्न संयोग। ० परस्पर सम्मेल। (वीरो० १/१३)
अभेद्य सम्बंध। ०वैशेषिक द्वारा मान्य एक पदार्थ। समवायहेतु (पुं०) परस्पर सम्मेल का कारण (वीरो० १/१३) समवायसम्बन्धः (पुं०) वैशेषिक मान्यता। (जयो० २६/८२) समवायिन् (वि०) [समवाय इनि] बुद्धिमन्त। (जयो०१२/१२५)
०प्रगाढ़ सम्बन्ध युक्त, दृढ़ संबद्धता। समवेत (भू०क०कृ०) [सम्+अव+इ+क्त] सम्मिलित, एकत्रित,
मिले हुए, जुड़े हुए। ०अन्तर्भूत, संयुक्त।
समाविष्ट।
०इकठे। (जयो० १३/४५) समवेत्य (सं०कृ०) [सम्+अव+इयत्] देखकर, अवलोकन
कर। स्त्रियां यदङ्गं समवेत्य गूढमानन्दितः सम्भवतीह मूढः।
(सुद० १०२) समश्वन् (वि०) आस्वादन। (जयो० २७/१४) समष्टिः (स्त्री०) [सम्+अश्+क्तिन्] संग्रह। (वीरो० १७/२१)
(सम्य० १४) समुच्चयात्मक व्याप्ति, पूर्णता। समष्टिकर्ता (वि०) संग्रहकर्ता। (वीरो० १७/२१) समस् (अक०) विचारना, सोचना। समस्यते (जयो० ९/७५) समसनम् (नपुं०) [सम्+अस्+ल्युट्] सम्मिश्रण, संयुक्त
करना, मिलाना।
०समास युक्त करना। समस्या (वि०) निजीर्ण करने वाला। (सुद० ११९) विषय
(जयो० १/४२) समस्तं (भू०क०कृ०) [सम्+अस्+क्त] ०पूर्ण, पूरा, सम्पूर्ण,
भरा हुआ। संक्षिप्तिकरण. संकुचित।
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समस्तजनहितकारिन्
११४९
समाच्छादित
समस्तजनहितकारिन् (वि०) सम्पूर्ण लोगों का हित करने
वाली। (वीरो०२२/२१) समस्तविद्यैकविभूति (वि०) समस्त विद्याओं के एकमात्र
अधिपति। (वीरो० १८/१८) समस्तिः (स्त्री०) समुत्पत्ति। ऋषभ मुदिन्दिरामङ्गलदीपकल्पः
समस्तिमस्तिब्कवतां सुजल्पः। (सुद० १/१२)
समान। (जयो० १/१४) अङ्गाभिधान समयः समस्ति
यस्यासकौ पुण्यमयी प्रशस्तिः। समस्तिवृत्ति (स्त्री०) अजीविका युक्त। (समु० ६/८) (सुद०
१/१५) समस्तु (वि०) समर्थ। (सुद० १३४) समस्तोपधिः (वि०) समस्त परिग्रह। (सुद० ११५७) समस्या (स्त्री०) [सम्+अस्+क्यप्+टाप्] समाचार।
(जयो० ४/१९) ०कठिनाई, पीड़ा, वेदना। (सुद० १०७) (सुद० ८६) मनोरमाया तु कथं सरस्यां सुदर्शनस्येथमभूत्समस्या। (सुद०४/१५) ० भाग पूर्ति, चरण पूर्ति।
घटना (जयो० ११/२०) समस्यावश (वि०) संग्रहणवश। (जयो० ११/१६) समहोत्सवः (पुं०) बड़ा महोत्सव। (सुद० २/२१) समा (स्त्री०) [सम्+अच्+टाप्] वर्ष, संवत्सर, समय।
(सुद० १०९) समा (अव्य०) से, साथ, मिलाकर। समांसमीना (स्त्री०) [समां समां विजायते प्रसूते] प्रतिवर्ष
ब्याने वाली गाय। समाकर्षणार्थ (वि०) [सम्+आ+कृष्+णिनि] आकर्षण, प्रसार
करने वाला। समाकीर्ण (वि०) व्याप्त, फैला हुआ। (सुद० १२८) समाकुल (वि०) [सम्यक्-आकुल:] आकीर्ण, भरा हुआ,
व्याप्त, पूर्ण। ०युक्त। (जयो० १४/८९)
०व्याकुल, क्षुब्ध, खिन्न, उद्विग्न। समाकूतः (पुं०) अभिप्राय। (सुद० ४/५) समाख्या (स्त्री०) [सम्+आ+ख्या+अ+टाप्] यश, कीर्ति,
प्रसिद्धि, ख्याति। (मुनि० २२)
नाम, अभिधान। समाख्यात (भू०क०कृ०) [सम्+आ+ख्या+क्त] ०विख्यात,
प्रसिद्ध
मिला हुआ, मिश्रित, सम्मिलित।
०वर्णित, प्रकथित, प्रतिपादित। समाख्यानं (नपुं०) प्रकथन। (जयो० १२/१४७) समागत (भू०क०कृ०) [सम्+आ+गम्+क्तिन्] मिलाप, साथ
साथ आना। ०पहुंचना, प्राप्त होना।
उपगमन। समागत्य (सं०कृ०) आकर। (सुद० १०८) समागमः (पुं०) [सम्+आ+गम्+घञ्] समागम करना, मेल
करना, मिलना। (सुद० २/२२) विनतिरस्ति समागमनाय मे समुपधामुपयामि तव क्रमे। (जयो० ९/४६) सम्मिलन। (समु० २/१८) संयोग, संगति, साहचर्य, संसर्ग। (जयो० ३/३२)
उपगमन, पहुंच। समागमन (नपुं०) अवतार।
नियोजिनी। (जयो० २०/३४) इन्दुनियोगनी चन्द्रस्यैव समागमनयोग्य। 'तुण्डीरूप-जलाशयेऽवतारः समागमनमपि'
(जयो० ११/५) समाग्निलद्ध (वि०) परस्पर संयोग, एक दूसरे से मिला हुआ।
(जयो० १०/२) समतलतया संयोगं गच्छद्धः। समाघातः (पुं०) [सम्+आ+हन्+घञ्] ०वध हत्या।
०संग्राम, युद्ध, लड़ाई। समाचयनम् (नपुं०) [सम्+आ+चि+ल्युट्] ०चयन करना,
बीनना, चुनना। समाचर् (सक०) आचरण करना, ०अभ्यास करना, पालन
करना। (भक्ति० ३६) समाचर (अक०) व्याप्त होना। (जयो० ६/१३२) समाचरणम् (नपुं०) [सम्+आ+च+ल्युट्] आचरण करना,
पालन करना, अभ्यास करना। समाचार (वि.) [सम्+आ+चर+घञ्] गति, गमन।
अभ्यास, आचरण, व्यवहार।
सूचना, विवरण, वार्ता। समादरशील (वि०) सम्माननीय (जयो० २२/४६) समाचाराधारः (पुं०) पत्र। (जयो०वृ० ३/३५) समाच्छादि (वि०) संयमशील। (वीरो० १/३२) समाच्छादित (वि०) आवृत, ढका हुआ। (जयो० १३/६८)
करना
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समाज:
११५०
समापनम्
समाजः (पुं०) [सम्+अ+घञ्] ०सभा, सम्मेलन।
मण्डल, गोष्ठी। (सम्य० १५६) ०समूह (जयो० १/५३)
समिति, परिषद् ०संग्रह, समुच्चय।
०दल, संगठन। समाजमान्य (वि०) समुदाय द्वारा मान्य। (वीरो० १/२१) समाजराजिब्याज (वि०) भ्रमर समूह के बहाने। (वीरो०२१/१६) समाजादुत्थित (वि०) समाज का अनुशासन। (हित० ५) समाजिकः (पुं०) सभा सद। समाजीजनः (पुं०) सामाजिक व्यक्ति। (जयो०१० ११/१९) समाज्ञा (स्त्री०) [सम्+आ+दा+ल्युट्] ०आसक्ति (सुद० १०२)
उपहार लेना, समीचीन ग्रहण।
विरति के प्रति अभिमुखता। 'समादानं समीचीनग्रहणे नित्यकर्मणि इति विश्वलोचने' (जयो०७० २१/५९)
नित्यकर्म, देवपूजनादिकर्म। 'समादानं नित्यकर्म देवपूजादि' समादरः (पुं०) उदार आशय, मनोऽभिलषित भाव। (जयो०३/९४) समादरणम् (नपुं०) आदर, सम्मान। (जयो० ४/२१) समादिश (अक०) आज्ञा देना। (समु० २/२१) (जयो०२७/५९) समादेशः (पुं०) [सम्+आ+दिश्+घञ्] ०आज्ञा, निर्देश। समाहत (वि०) बुलवाया हुआ। (समु० ४/१२) सम्मानित।
(जयो० १/२३) समाधा (स्त्री०) [सम्+आ+धा+अ+टाप्] समाधान। समाधानम् (नपुं०) [सम्+आ+धा+ल्युट्] निवारण, समस्या निदान। (वीरो० ११/१६)
गहनचिन्तन। ०प्रतिज्ञा करना। समाधारः (पुं०) उचित आश्रय। (जयो० ३/७५) समाधिः (स्त्री०) आत्म तल्लीनता, साम्यभाव। (जयो० ७/५२)
तपस्या, साधना, चित्त की एकाग्रता। 'मुनिगणतपः संधारणं समाधि' (त०वा० ६/२४) ०दर्शन, ज्ञान और चारित्र में स्थित होना। ०आत्म तल्लीनता। (भक्ति० २६)
समाधान, विशेष मनन-चिंतन (सम्य० १४०) 'निमज्य, निर्गुन्तुमशक्त इत्यतः समाधिमेव प्रवबन्ध संरसात्। (समु०४/३४)
मनोयोग, केन्द्रीकरण, (सुद० ४/२५) प्रतिक्षा, स्वीकार, अंगीकार।
समाधिगत (वि०) साधना रत। समाधिमरणं (नपुं०) एकग्रचित्त होकर मरण प्राप्त करना। समाधिवश (वि०) समाधि के कारण। (समु० ५/१४) समाधि-सिन्धु (पुं०) समाधि के समुद्र। (सुद० १/३) समाध्यात (भू०क०कृ०) [सम्+आ+धरा+क्त] ०फूंक मारा हुआ।
फुलाया हुआ। ०प्रफुल्लित, स्फीत, हवा युक्त। समाध (सक०) [सम्+धृ] धारण करना। समादधाना विबभौ
गृहाश्रमे। (वीरो० ५/४०) समान (वि.) [सम्+अन्+अण] सदृश, तुल्य, एक सा, एक
रूप, सवर्ण।
सामान्य, साधारण। समानः (अव्य०) समान रूप से, सदृश। समानमेवेति मतिप्रपंचः
(सम्य० ८५) समानकालः (पुं०) सदृश समय। •तुल्य काल। समानकालीन (वि०) सदृश, रूप, समकालीन, एक कालिक। समानगोत्रः (पुं०) एक ही गोत्र का। समानजातीय (वि.) एक अवस्था वाली। समानता (स्त्री०) सदृशता, ०एक रूपतप्ररसज्जलसन्ततिः
सतां हृदये चद्रिकया समानताम्। (वीरो० ७/३४) समानदयिः (स्त्री०) समान धर्मों के लिए। समानबुद्धि (स्त्री०) सदृशबुद्धि (सुद० ११७) समानभावः (पुं०) सदृशभाव, तुल्यभाव, समादर भाव।
(जयो० ४/६६) (वीरो० १८/६) समानयनम् (नपुं०) [सम्+आ+नी+ल्युट्] संचालन, संग्रह
करना, साथ लाना। समानवंशः (पुं०) तुल्यकुल। (जयो० २३/२५) समापः (पुं०) [समा आपो यस्मिन् ] आहूति देना। समापतत् (सम्+आ+पत्) गिरना। समापत्तिः (स्त्री०) [सम्+आ+पद+क्तिन्] ०मिलना, प्राप्त
होना।
दुर्घटना, घटना।
० मुठभेड़। समापद् (अक०) प्राप्त होना। (सुद० १२७) समापनम् (नपुं०) [सम्+आप+ल्युट्] ०उपसंहार, समाप्ति,
पूर्ति। ०अभिग्रहण।
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समापन्न
११५१
समारोपित
०अनुभाग।
समायत (भू०क०कृ०) [सम्+आ+यम्+क्त] लंबा किया हुआ, ०अध्याय।
बढ़ाया हुआ। नष्ट करना, हनन करना।
समायसमयः (पुं०) समुचित अवसर। समापन्न (भू०क०कृ०) [सम्+आ+पद+क्त] ०प्राप्त, अवाप्त, ०माया युक्त चेष्टा के शास्त्र। (जयो० ३/४) घटित हुआ।
समाययु। एकत्रित हुए। समागत, आया हुआ, आघात, पहुंचा हुआ। समायात् (वि०) आगतवान्, आया हुआ। (जयो० ३/६८) ०पूर्ण, समाप्त, सम्पन्न।
(सम्य० ७५) ०दु:खी, व्याकुल, कष्टयुक्त।
समायुक्त (भू०क०कृ०) [सम्+आ+युज्+क्त] संयुक्त, संबद्ध, समापदनम् (नपुं०) [सम्+आ+पद्+णिच् ल्युट्] सम्पन्न
संलग्न। करना।
सज्जित, तैयार किया हुआ। पूर्ण करना, मूर्त रूप देना।
नियुक्त किया हुआ। समापित (वि०) समाप्त। (सुद० ४/२५)
समायुज् (सक०) जोड़ना, संग्रह करना। (सुद० २/२०) समाप् (सक०) समाप्त होना। (सुद०१३७) पुण्यादहं समाप्नोमि
समायुत (भू०क०कृ०) [सम्+आ+यु+क्त] संयुक्त, संबद्ध, समाप्त (भू०क०कृ०) [सम्+आप+क्त] ०पूर्ण किया हुआ,
संलग्न। पूरा किया हुआ। (सुद० १३७)
०सहित, युक्त, अन्वित। उपसंहृत, समेटा हुआ।
समायुक्त (वि०) सहित। (सुद० ४/३) समाप्तकल्पः (पुं०) परिपूर्ण, सहाय युक्त कल्प।
समायोगः (पुं०) [सम्+आ+युज्+घञ्] सम्बंध, संयोग, समाप्ताल: (पुं०) [समाप्ताय अलति पर्याप्नोति-समाप्त+अल्+
मेल। (दयो० ७१) उम्प्रयोग (जयो० २३/४२) अच्] ०प्रभु, स्वामी। पति।
•संग्रह, ढेर, समुच्चय। समाप्तिः (स्त्री०) [सम्+आप+क्तिन्] ०उपसंहार, अंत, पूर्ति।
कारण, प्रयोजन, उद्देश्य। पूरा करना, पूर्ण करना। समाप्तिक (वि०) [समाप्ति ठन्] समापक,
समायोजनम् (नपुं०) समायोग। (सुद० १०२) ०अन्तिम, निष्पन्नता युक्त, समाप्त करने वाला।
समारब्धः (पुं०) आरब्ध। (जयो० २/११६) प्रारम्भ। समाप्लुत (भू०क०कृ०) [सम्+आ+प्लु+क्त] ०बाढ़ ग्रस्त,
(जयो०१५/८) बाढ़ में डूबा हुआ।
समारम्भः (पुं०) [सम्+आ+र+घञ्] प्रतिसार। ०आरम्भ ०पूरित, भरा हुआ।
शुरु। (सुद० ११२) (जयो० १०/१) समाभाषणम् (नपुं०) [सम्+आ+भाष ल्युट्] वार्तालाप, संवाद,
Pकार्य प्रारम्भ, उत्तरदायित्वप्राणव्यपरोपण, पूर्ण कार्य। कथोपकथन।
०परितापकारी व्यापार। जीवापमर्द। समाम्नानम् (नपुं०) [सम्+आ+म्ना+ ल्युट] ०आवृत्ति, उल्लेख।
०परितापन। गणना।
समाराध् (सक०) आराधना करना। (मुनि० १६) समाम्नायः (पुं०) [सम्+आ+ना+य] म्ना अभ्यासे समापूर्वः समाराधनम् (नपुं०) [सम्+आ+राध्+ल्युट्] प्रसन्न करना, भावे घजि।
सन्तुष्ट करना। ०अनुश्रुति, परम्परागत।
समारुह (अक०) [सम्+आ+रुह्] आरुढ़ होना। (जयो०११/६) ०पाठ, सस्वर पाठ।
समालोचनम् (नपुं०) समीक्षा। (जयो० ५/४०) निर्देशन।
सम्परोपणम् (नपुं०) [सम्+आ+रुह् णिच्+ ल्युट्] रखना, समष्टि, संग्रह।
अवस्थित करना। समायः (पुं०) [सम्+आ+इ+अच्] ०पहुंचना, आना।
सौंपना, देना।
| समारोपित (भू०क०कृ०) [सम्+आ+रह+णिच्+क्त] आरोपित, ६/३) क्वापि बाधा समायाता। (सुद० १०९)
आरूढ़ किया गया, चढ़ाया हुआ।
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समारोहः
११५२
समास्वादनम्
रक्खा गया, प्रतिष्ठित, किया हआ। (जयो० ३/९७)
निश्चित, स्थिर किया हुआ, बिठाया हुआ। रौंदा गया।
छीना हुआ, पराभूत। समारोहः (पुं०) [सम्+आ+रुह्+घञ्] अभिनायक। (जयो०वृ० | समावृत्त (भू०क०कृ०) [सम्+आ+वृ+क्त] आच्छादित, ४/१३)
आवृता ०अभिनय, सभासङ्घटन।
पर्दे से युक्त, ढका हुआ। उत्सव (जयो० ५/२६) 'अस्मिन्नभिनये समारोहे सच्चित्तेन समावृत्तं च गुरुणाऽचित्तेन वा संवृतम्।' सभासङ्घटने (जयो०वृ०६/२०)
(मुनि०११) ०बढ़ना, आरुढ़ होना।
गुप्त, छिपाया हुआ। संचरण करना। (जयो०वृ० २/१३२)
समाव्रज् (सक०) आना, पहुंचना। (जयो० १३/१४) सवारी करना, समहत होना।
समावेशः (पुं०) [सम्+आ+विश्+घञ्] ०साहचर्य, मिलना, समार्द्र (वि०) स्नेह युक्त। (जयो० २४/९९)
प्रविष्ट होना। समार्दता (स्त्री०) स्निग्धता। (जयो० ९/४०)
०सम्मिलित करना। समालम्बनम् (नपुं०) [सम्+आ+लम्ब+ल्युट] आश्रय लेना
समावृत (वि०) लुप्त हो गई। (सुद० १०१) घिरा हुआ। सहारा लेना।
(सुद० ११०) समालम्बिन् (अव्य०) [सम्+आ+लभ+घञ्] ००पकड़ना,
समाश्रमः (पुं०) समताश्रम, त्यागमार्ग। (जयो० २७/५४) छीनना, ग्रहण करना।
समाश्रयः (पुं०) [सम्+आ+श्रि+अच्] ०शरण, आश्रय, आधार। समालिङ्गित (भू०क०कृ०) [सम्+आ+लिङ्ग+क्त] आलिंगन
घर, आवास, निवास स्थान। की गई। (दयो० १७/७३)
समाश्लिष्ट (वि०) स्पष्ट। (जयो० ३/८२) समालिङ्गनम् (नपुं०) [सम्+आ+लिङ्ग+ल्युट्] आलिंगन,
समाश्लेषः (वि.) [सम्+आ+श्लिष्+घञ्] प्रगाढ़ आलिंगन। परिरम्भ। (जयो०वृ० १०/६४)
समाश्वनम् (नपुं०) आश्वासन, धैर्य देना। समालोक्य (सं०कृ०) देखकर। (सुद० ९९)
समाश्वासः (पुं०) [सम्+आ+श्वस्+घञ्] सुख चैन, राहत, समालोकि (वि०) समदर्शी। (जयो० १०)
तसल्ली। समालोकत्व (वि०) अच्छी तरह देखने वाला। सम्यक् प्रकारेण दर्शकत्वं दधति अनुरागपूर्वकं पश्यति। (दयो० २२। )
समासीन (वि०) उपविष्ट, बैठा हुआ, (जयो० २/१४३) समालोच्य विचार करके। (जयो० ३)
समासोक्तिलंकारः (पुं०) अलंकार विशेष (जयो० ७/९०) समावर्तनम् (नपुं०) [सम्+आ+वृत्+ ल्युट्] वापसी, लौटना,
(जयो०२४/७९, ८/२४, ८/४७, ५१, ५०.८/५४, ५३) प्रत्यावर्तन करना।
(वीरो०६/१२) समवर्तित (वि०) रहता हुआ। (दयो० १०)
उच्यते वक्तुमिष्टस्य प्रतीतिजनने क्षमम्। समावायः (पुं०) [सम्+आ+अव+इ+अच्] ०साहर्च, सम्बन्ध।
सधर्म यत्र वस्त्वन्यत् समासोक्तिरियं यथा।। (वाग०४/९४) समष्टि।
विवक्षित अर्थ में प्रीति उत्पन्न करने के लिए जिस एक दूसरे से सम्बन्ध।
अलंकार में उसके योग्य समान धर्म वाले किसी अन्य समवायरीतिः (स्त्री०) परस्परिक सम्बन्ध की पद्धति।
अर्थ की उक्ति की जाती है उसे समासोक्ति अलंकार (वीरो० १७/५) समावासः (पुं०) [सम्+आ+वस्+घञ्] निवास स्थान, आवास वीर श्रियं तावदितो वरीतुं भर्तुळपायादथवा तरीतुम्। भवन।
भटाग्रणी: प्रागपि चन्द्रहास यष्टिं गलालङ्कृतिमाप्तवान् समाविष्ट (भू०क०कृ०) [सम्+आ+विश्+क्त] व्याप्त, पूर्ण, सः।। (जयो० ८/२४) भरा हुआ।
समास्वादनम् (नपुं०) अच्छा स्वाद होना, चूसना। (जयो०वृ० प्रविष्ट, समाहित।
१२/१२७) परिचुम्बन (जयो० १२/७८)
कहते हैं।
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समास्वाद्य
११५३
समितिः
समास्वाद्य (वि०) चखने योग्य, स्वाद लेने योग्य। समागाज्जगाम्
'समाता समास्वाद्य रसं तदीयम्' (वीरो० ५/३६) समास्थित (वि०) प्रतीत होने वाला."ज्ञान होने वाला।
(वीरो० २/२४) समाश्वासनम् (नपुं०) [सम्+आ+श्वस्+ णिच् + ल्युट्]
प्रोत्साहन, ढाढस बंधाना। सान्त्वना। (भक्ति० १२) विचार करना-अयं नरः सखाय समाश्वासनहेतवेऽह किलाद्यादौ' (जयो० २७/५५) समाश्वासनावस्था (स्त्री०) आशा। (जयो०वृ० २३/६५) समाश्वसि (वि०) आश्वासित, धैर्य बंधाया गया। जनतां च
नतां समाश्वसेः स्वमनस्यमा नैव विश्वसे:' (जयो० २६/२४) 'सदाचारधारिणीं विनीतां जनतां समाश्वसेः आश्वासनेन
सम्भावये' (जयो०वृ० २६/२४) समासः (पुं०) [सम्+अस्+घञ्] समष्टि, मिलाप, सम्मिश्रण।
शब्दरचना, समाहार। संक्षिप्तरूपाप्रदीपयुक्ता मृदुदारभावा, समासतस्तद्धितकृत् प्रभावा' (जयो० १५/३५)
संक्षिप्तिकरण, समाष्टि। सिकुड़न, संहृति। समास नाम। (जयो०वृ० १५/३५) द्वयोर्बहूनां पदानां
सम्मेलनं समासः' समासक्त (वि०) संलग्न, सम्बंधित। (जयो० १७/५५) समासक्तवार्ता (स्त्री०) संलग्न कथा। (जयो० १७/५५) समासक्तिः (स्त्री०) [सम्+आ+सञ्ज-क्तिन्] आसक्ति,
अनुरक्ति, प्रगाढ़, प्रेस अनुराग।
मिलाप, सम्मिलन। समासजन् (वि०) स्नान करने वाले। समासजन् स्नानकर्ता स
वीर: विज्ञान:नीरैर्विलसच्छरीरः' (वीरो० १२/४६) समासञ्जनम् (नपुं०) [सम्+आ+सञ्ज ल्युट्] ०मिलाना, संयुक्त
करना। जमाना, रखना। संपर्क, सम्मिश्रण।
सम्बंध, मेल। समासर्जनम् (नपुं०) [सम्+आ+सृज् + ल्युट्] पूर्ण त्यागना,
विसर्जन करना, हटाना। समासाद्य (वि०) प्राप्य, प्राप्त करने करने योग्य। (जयो०१/५) समासादमम् (नपुं०) [सम्+आ+णिच्+क्त] ०पहुंचना, प्राप्त करना, मिलना। निष्पन्न करना, कार्यान्वित करना।
समासादित (वि०) [सम्+आ+सद+णिच्+क्त] ०लभित, निपुण। समासोक्त्यलङ्कारः (पुं०) अलंकार नाम। (जयो० ७/८३) समासोक्त्यलङ्कारः (जयो०वृ० ३/११३) समाह (सक०) [सम्+आह] संचय करना, संयुक्त करना।
सम्मिश्रण करना। 'समाहरन् हैमकुलानुकूले ' (वीरो०९/३३) समाहरणं (नपुं०) [सम्+आ+ह ल्युट्] संयुक्त करना, संग्रह
करना, मिश्रण करना। समाहारः (पुं०) [सम्+आ+ह+घञ्] संग्रह, संघात, समविष्ट।
०अन्तर्भाव। (जयो०१० ३/१)
संक्षेपण, संकोचन, संहृति।
०प्रयोग (जयो०वृ० १/३९) सम्पत्ति (जयो०वृ० १/३९) समाहृत (भू०क०कृ०) मिलाया गया, संगृहीत, संचित। ०ग्रहण किया गया, स्वीकृत।
अंगीकार किया गया। समाहृतिः (स्त्री०) [सम्+आ+हृ+क्तिन्] संकलन, संक्षेपण। समाहू (सक०) [सम्+आ+ ह्वे] बुलाना। (सुद० १/१७,
जयो० ३/६७१) समाह्वः (पुं०) [सम्+आ+हे+घ] ललकार, चुनौती।
संग्राम, युद्ध। (जयो० २/९२) समाह्वयः (पुं०) [सम्+आ+हे+अच्] पुकारना, बुलाना।
संग्राम, युद्ध। समाह्वानम् (नपुं०) [सम्+आ+हे+ल्युट] ०संबोधन, बुलाना।
चुनौती देना। समि (वि०) योगी, ध्यानी। (जयो० २८/२) समिकम् (नपुं०) [समि+कन्+ल्युट] भाला, बल्लम, नुकीला
अस्त्र। समिच्छ (सक०) कहना-समिच्छन्ति (जयो० ३/६४) समिच्छन (वि०) समत्व चाहने वाले। (सुद०७१) समिच्छित (वि०) वाञ्छित, चाहा गया। (जयो० ३/९६) समित् (स्त्री०) [सम्+इ+क्विप्] ०युद्ध, संग्राम, लड़ाई। समित (वि०) वेष्टित, लपेटा हुआ। (सुद०५/२) (जयो०१०/९) समिता (स्त्री०) [सम्+इ+क्त+टाप्] गेहूं का आटा। समिता (वि०) संप्राप्ता। (जयो० २०/२९) समिताचारः (पुं०) सम्य आचार। समत्व आचरण। समितिः (स्त्री०) [सम्+इ+क्तिन] साहचर्य, मिलना, मिलाप।
सभा, परिषद।
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समितिप्रसारः
११५४
समुच्चय
संग्राम, युद्ध, लड़ाई।
समीचन (वि.) [सम्+अञ्च+क्विन्+ख] सही अच्छा। ०सादृश।
०सत्य, श्रेष्ठ। ०समानता, समभाव।
०योग्य, समुचित। सम्यक् अयन, सम्यक् प्रवृत्ति।
सुसंगत। प्रशस्त चेष्टा।
०औचित्य। आगम के अनुसार गमन। (त०सू० पृ० १४१) अच्छी समीचीनवाक्यसमूहः (पुं०) सम्पदास्पद, समुचित वाक्य समूह।
चाल चलन करना, जिससे किसी जीव को पीड़ा न हो। (जयो०१० २/४२) समितिप्रसारः (पुं०) पञ्च समितियों की छाया। (सुद० १३२) समीन (वि०) वर्ष सम्बन्धी। 'श्रीमान् स जीयात्समितिप्रसारः'
समीनिका (स्त्री०) [समां प्राप्य प्रसूते समा+ख कन्+टाप्] समितिभावः (पुं०) समानता का भाव, सम्यक् प्रवृत्ति का भाव। प्रतिवर्ष व्याहे वाली गाय। समीक्ष (वि०) प्रेक्षण, प्रतीक्षा करते हुए। (जयो० १२/२४) । समीप (वि.) [संगता आपो यत्र] निकट, नजदीक, पास, समिद्ध (भू०क०क०) [सम्+रन्ध्+क्त] जलाया हुआ, सुलगाया सटा हुआ। (जयो० १/४) (सुद० २/३३) हुआ।
समीपक (वि०) सन्निटकता (जयो० ९/२४) प्रज्वलित, उत्तेजित। (भक्ति०१)
समीपम् (नपुं०) सामीप्य, पड़ौस। (वीरो० ) निकटता, उपकण्ठ समिध् (स्त्री०) [सम्+इन्ध्+क्विप्] ईंधन, लकड़ी, समिधा। (जयो० वृ० १३/७)।
'समिधो यज्ञार्थं चन्दनादीनां काष्ठखण्डाः ' (जयो०७० समीरः (पुं०) [सम्+ई+अच] पवन, हवा। (सुद० १२०) १०/१०९)
(जयो० ९/४५) समिधः (पुं०) [सम्+इन्ध्+क] अग्नि, आग।
समीरणः (पुं०) पवन, हवा, वायु। (समु०६/३३) (दयो०३८) समिन्धनम् (नपुं०) [सम्+इन्ध्+ल्युट्] ईंधन, आग सुलगाना।
समीरित (वि०) प्रार्थित। (जयो०१२/५१) प्रेरित, आन्दोलित। समियत्-समागच्छत् (जयो० १०/६४)
समीरोत्थरजः (पुं०) समीरेणोत्तिष्ठति रजः। (जयो० १३/८९) समिरः (पुं०) पवन, वायु, हवा।
____०पवन से उठी धूली। समिष्टिवाक्यं (नपुं०) पूजा वाक्य, पजा पद्धति। (जयो०२/२९)
समीह (सक०) आकांक्षा, वाञ्छा करना, इच्छा करना। (वीरो० समी (वि०) समताभावी। (जयो० २४/८०)
९/६२) समीहमानः स्वयमेष। समीकम् (नपुं०) [सम्+ईकक्] संग्राम, युद्ध, लड़ाई।
समीहा (स्त्री०) [सम्+ईह+अ+टाप्] प्रबल इच्छा, वाञ्छा, समीकरणम् (नपुं०) [उत्तमः समः क्रियतेऽ नेन-सम+च्चि+
__ आकांक्षा, चाह। कृ+ल्युट्] पूरा अन्वेषण, समस्त खोजबीन।
समीहित (भू०क०कृ०) [सम्+ईह+क्त] इच्छित, अभिलषित, समीक्ष (सक०) अन्वेषण करना। (जयो० ११/८४)
अभीष्ट। समीक्षणीय (वि०) दर्शनीय, देखने योग्य। (जयो० १२/१४२)
समीहितम् (नपुं०) कामना, वाञ्छा, इच्छा, अभिलाषा। चाह। समीक्षा (स्त्री०) [सम् ईक्ष+अ+टाप्] उपदेश (सुद०७४)
समीह्य (वि०) अभिलाषा युक्त। (जयो० २१/१८) अनुसंधान, अन्वेषण, खोज।
समुक्तवान् (वि०) कहने वाला। (सुद० ११३) विचार, निरीक्षण, समालोचन।
समुक्षणम् (नपुं०) [सम्+उ+ल्युट्] ढालना, बहाव, प्रसार। ०मीमांसा पद्धति, विचार विश्लेषण।
समुच्च (वि०) समान उन्नत। (जयो०वृ० १/५) समीक्षकाम् (नपुं०) देखना, निरीक्षण करना। (सुद० १/१३)
समुच्चयालङ्कारः (पुं०) समुच्चय नामक अलंकार। (जयो०व० समीक्षित (भू०क०कृ०) [सम्+ईक्ष+ क्त] प्रत्यवेक्षित,
७/१००) समालोचित। (जयो०वृ० ५/४९)
समुचित (वि०) ०संकोचशील विनम्रशील। (जयो० समीचः (पुं०) [सम्+इ+चट] समुद्र। सागर, उदधि।
१/१००, २/८०) समीचकः (पुं०) [समीच कन्] रतिक्रिया, मैथुन। समीची (स्त्री०) [समीच्+ङीप्] हरिणी।
समुचितसमाधान (नपुं०) उद्धार करने वाला। (जयो० ३/६६)
समच्चय (वि०) [सम+उत+चि+अच] समदाय। (सुद० ४/९) प्रशंसा।
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समुच्चलच्चरणम्
११५५
समुत्पन्न
संग्रह, समूह, संघात, राशि, पुंज। (जयो० १३/७९) समुत्कर (वि०) उच्छिष्टांश। (जयो० ११/४३) ०अवशेष। ०शब्द संयोग।
समुत्कर्षः (पुं०) [सम्+उत्+कृष्+घञ्] ०समुन्नत प्रगति। ०अलंकार विशेष।
समुत्क्रमः (पुं०) [सम्+उत्+क्रम्+घञ्] समुच्चलच्चरणम् (नपुं०) समुच्चलन्ति चरणानि चलायमान ऊपर उठना, चढ़ाई करना। चरण। (जयो० १३/२६)
०सीमातिक्रमण। समुच्चरः (पुं०) [सम्+उत्+च+अच्] ०चढ़ना, आरुढ़ होना। | समुत्क्रोशः (पुं०) [सम्+उद्+क्रुश्+घञ्] चिल्लाना, गर्जरा, गमन करना, प्रयाण करना, प्रस्थान करना।
तीव्र आक्रोश करना। समुच्चल् (सक०) चलना, गमन करना। करद्वयी | समुत्थ (वि०) [सम्+उद्+स्था+क] उठता हुआ, जागृत होता
कुडमलकोमला सा समुच्चलापि तदैव तासाम। (वीरो० हुआ। ५/२५)
०जगा हुआ, प्रबोध गत। समुच्छ्व सन् (वि०) उच्छवास। (जयो० १३/४६)
उड़ती हुई। (जयो० ५/८) समुच्छल (वि०) उछलती हुई। (सुद० १/१७)
उत्पन्न, जन्मा। समुच्छेदः (पुं०) [सम्+उद्+छिद्+घञ्] समूलोन्मूलन, उखाड़ना, समुत्थरज (वि०) उड़ती हुई धूली। (जयो० ५/८) हटाना।
समुत्थात (वि०) उपस्थित हुआ। (सुद० ९६) समुच्छलतरंगः (वि०) उद्भूत तरंग। (जयो०१० ५/३४) समुत्थानम् (नपुं०) [सम्+उद्+स्था ल्युट्] ०उठना, जागना। समुच्छ्रयः (पुं०) [सम्+उद्+श्रि+] विरोध, शत्रुभाव।
जीवन प्राप्त करना, दूर हटना। (दयो० ६५) ____ उत्तुंगत, ऊंचाई।
परिश्रमशील होना, उद्यम करना। समुच्छ्रायः (पुं०) [सम्+ उद्+श्रि+घञ्] उत्तुंग, ऊंचाई। समुत्थित (भू०क०कृ०) [सम्+उद्+स्था+क्त] उर्ध्वगत (जयो० समुच्छ्वासितम् (नपुं०) [सम्+उत्+श्वस्+क्त] गहरी सांस १३/६६) उपस्थित हुआ, मच गया, व्याप्त हुआ। लेना, दीर्घ सांस लेना।
(जयो०वृ० १/५) अनुभूतमतः समुत्थित। समुज्जगर्ज (वि०) गर्जनायुक्त। (सुद० २/३६)
उत्थापितं (जयो०८/४) पुरि कोलाहल मा निवेदितम्। समुज्जवल (अक०) चमकना। (जयो० ११/६८)
(समु० २/२४) समुज्ज्वल (वि.) [सम् उत्+ज्वल] निर्दोष, निर्मल। (जयो० समुत्थापित (वि०) अभ्युदय, उत्पन्न हुआ। (जयो०वृ०
२।८१) शुक्लवर्ण। (जयो० ३/११२) 'सम्यक् १२/१२२) प्रकाशयुक्तम्' (जयो० वृ० ११/२)
सुमुत्तर (वि०) निकला हुआ, तीर्ण हुआ। (जयो०वृ० १२/१२२) समुज्ज्वलज्वालः (पुं०) बड़ी-बड़ी ज्वालाएं, उन्नत ज्वाला। ०संशोधन किया। (जयो० १३/१६) (सुद० २/१७)
सुदा सहितं समुदधिक: समुत् समुत्तर वर्तते। अधिक गुण समुज्ज्वलरूपः (पुं०) विशदस्वभाव। (जयो०वृ० १७/४९) वाली। (जयो० ५/८९) समुज्ज्वलाकारः (पुं०) निर्मलाकृति। (जयो० ५/९६) समुत्तरन्-संशोधयन (जयो० १३/१६) समुज्ज्वलाम्बरः (पुं०) परिरब्ध पूतवेष, मञ्जुलवेष, सुंदर परिधान। समुत्तरंती-पार करती हुई, निकलती हुई। (जयो०वृ० १४/८८) (जयो० १२/१२१)
समुत्तर्तुम् ( ) पार करने के लिए, पार पहुंचने के लिए। यैः समुज्झ (सक०) छोड़ना, त्यागना। 'मदं समुच्झंति हिमोदयेन शास्त्राम्बुनिधेः पारं समुत्तर्तुं महात्मभिः। (दयो० १/५) ___ तम्' (वीरो० ९/२७)
समुत्तानित (वि०) समुपलब्ध, व्याप्त हुए। (जयो० १७/५५) समुज्झित (वि०) [सम्+उज्झ्+क्त] ०त्यागा हुआ, छोड़ा समुत्पतनम् (नपुं०) [सम्+उदृ+पत्+ल्युट्] ०उठना, ऊपर हुआ। (जयो० ११/७५)
चढ़ना। विसर्जित, मुक्त, परित्यक्त। (जयो० १५/१२)
प्रयत्न, चेष्टा। समुत् (वि०) सहर्ष। (जयो० १/१११)
समुत्पत्तिः (स्त्री०) [सम्+उद्+पद्+क्तिन्] जन्म, उत्पत्ति। समुत्कण्ठित (वि०) उत्कण्ठा युक्त। (जयो० १/११) समुत्पन्न (वि०) उत्पन्न हुई। (जयो० ५/७७)
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समुत्पीन
,
समुत्पीन ( वि० ) प्रसन्नोन्नत। (जयो० समुत्सवः (पुं० ) [ सम् + उद्+सू+अप्] १३/६९ ) ( सुद० ५/२) महान् पर्व महोत्सव । समुत्सवक (वि०) सम्यगुत्सव कारक (जयो० १ / ११ ) समुत्सर्ग: (पुं० ) [ सम् + उद्+सृज् + घञ् ] ० विसर्जन, परित्याग, छोड़ना ।
० डालना, प्रदान करना, देना।
समुत्सय: (पुं०) शुभाशीर्वाद (सुद० १३३)
समुत्सह (वि०) उत्साह युक्त। 'सुमुत् सदा सम्यगुत्साहवती' समुन्सर् ( अक० ) सहर्ष चलना। (जयो० ३/३३) (जयो० ११/४० )
प्रचलन |
० प्रयोजन, रूपरेखा |
• उपयुक्त रीति ।
११५६
१६ / २८)
श्रेष्ठ उत्सव। (जयो०
समुत्सारणम् (नपुं० ) [ सम्+उद् + सृ+ णिच् + ल्युट् ] व्हांकना,
हटाना।
० पीछा करना, अनुसरण करना।
,
समुत्सक (वि० ) [ सम्यक् उत्सुकः] आतुर, अधीर, बैचेन । उत्कण्ठित, उत्सुक ।
समुदङ्गुर (वि०) रोमाञ्चित (जयो० १२ / ६१) ०हर्षित समुद्भावित (वि०) दिखलाए गए। (दयो० ४) समुत्सुक (वि०) उत्सुक होता हुआ। (समु० ९ ) समुत्सेध: (पुं० ) [ सम्+उद्+सिध+घञ्] ऊंचाई, उन्नति । समुदक्त (भू०क० कृ० ) [ सम् + उद् + अ +क्त] उठाया हुआ, ऊपर निकाला हुआ।
समुदग (वि०) उल्लंघन करने वाला पार करने वाला। (जयो० ३ / १०९)
समुदङ्ग (वि०) प्रफुल्लित शरीर वाला। (जयो० ३ / १०९) समुदय: (पुं०) [सम्+उद्+इ+अच्] ०उगता, उठना। (जयो०वृ० ६/४३)
० प्रदान, चेष्टा
० यशोलाभ। (जयो० ३/१३) ०संग्रह, समुच्चय, ढेर, राशि
समुदयप्रकाशिन् (वि०) यशोलाभ युक्त कीर्ति सहित ।
'समुदयो यशोलाभस्तस्य प्रकाशिनः' (जयो०वृ० ३ / १३) समुदागम: (पुं०) (सम्+उद् + आ + गम् + ल्युट् ] पूर्ण ज्ञान, विशेष
ज्ञान ।
समुदाचारः (पुं० ) [ सम्+उद्+आचर+घञ्] उचित व्यवहार,
समुद्गः
समुदाय: (पुं०) [सम्+उद्+अय्+घञ्] वर्ग (जयो०० ५/२० ) ० समूह, संघ, समुच्चय समिति। (सम्य० ४३ ) (जयो० ४/४)
०सभा, परिषद्, संगठन।
समुदायवस्तु (नपुं०) सामूहिक पदार्थ । ( सम्य० ४३ ) समुदायिन् (वि०) समुदाय युक्त (जयो० २२/८९) समुदाभावित्त (पुं०) शिष्य परिकर शिष्य समूह (वीरो० १४/१७) ० सभासद।
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समुदायवान् (वि०) समुदाय वीला । (सुद० ३ / ११) समुदारं (वि०) उदार चित्ता
समुदारमाया (वि०) उदार मा वाला प्रसन्नमातृ वाला।
० नित्य लक्ष्मी रूप वाला। (जयो०वृ० ११/५२) समुदारा 'मा' जाननी यस्यास्तस्यास्तदेतन्मुखं लपनं तावन्मुकारस्य 'खं' नाशेस्तस्मात्सदारमाया नित्यलक्ष्मी रूपाया' (जयो०वृ० ११/५२)
समुदासीनतामय (वि०) उदासीनता युक्त (सुद० ८७) समुदाहरणम् (नपुं० [सम्+उद्+ह+ ल्युट् ] ०उच्चारण करना, उद्घोषणा करना।
समुदारहृदयः (पुं०) महाशय। (जयो०वृ० ६/२०) समुदीक्ष्य (सं०कृ०) देखकर नरोऽपि नारी समुदीक्ष्य मञ्जुलाम् । (समु० २ / १९ ) ( वीरो० ९/१०)
समुदित (भू०क० कृ० ) [ सम्-उद्-इ+क्त] संहत, एकत्र, संयुक्त (जयो० २ / २० )
० ऊपर गया हुआ, उठा हुआ।
० प्रमुदित, सद्भावना युक्त। (सुद० ८२)
उगा, उत्पन्न हुआ।
० सहित सज्जित |
०समवायः (जयो० ११ / ९३ )
समुदितभावः (पुं०) समवायरूप (जयो० ११ / २३) समुदीरणम् (नपुं० ) [ सम्+उद्+ईर् + ल्युट् ] बोलना, अभिव्यक्त
करना, उच्चारण करना, दुहराना। समुदीर्णसारः (पुं०) उद्वेल भाव (जयो० १० १०२) समुद्घाट ( वि०) उखाड़ने वाला । कुचं समुद्घाटयति प्रिये स्त्रियः (चीरो० )
समुद्ग (वि० ) [ सम्+उद् गम्+ड] उगने वाला, व्याप्त होने
वाला।
० आवृत, ढक्कन सहित।
समुद्ग (पुं०) ढका हुआ संदूक ।
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समुद्गकः
११५७
समुन्नायक
समुद्गकः (पुं०) [समुद्ग+कन्] ०पेटी, संदूक।
समुद्र (वि०) [सह मुद्रया] मुद्रा सहित। मुद्रया सहितः (जयो० समुद्गमः (पुं०) [सम्+उद्+गम्+घञ्] उन्नत। (जयो० १७/५३) १२/५) मुद्रा भीरुप्यकादिभिः सहितोऽभूदिति। (जयोवृ० चढ़ाव, ऊंचाई वाला हिस्सा।
१/४) मुहर, युक्त। मुद्रांकित।। समुद्गमनम् (नपुं०) घदिङ्गण (जयो०वृ० १२/२४) समुद्रजा (स्त्री०) सरस्वती। (जयो०वृ० १९/३४) समुगिर् (सक०) कहना, बोलना। (जयो० ४/५) ऊंचाई समुद्रमेखला (स्त्री०) पृथ्वी, भूमि। की ओर गमन।
समुद्रान्त (वि०) [समुद्रेण अन्ता व्याप्ता] समुद्र पर्यन्त व्याप्त, समुगिरणय् (नपुं०) [सम्+उद्+गृ+ल्युट] उगलना, वमन समुद्र तक फैला हुआ। करना।
समुद्रान्तम् (नपुं०) समुद्रतट। समुदाहिय् (सक०) ०कहना। (जयो० ४/१) प्रतिभाषित
०जायफल। करना
समुद्रान्ता (स्त्री०) कपास का पौधा। समुद्दिश (अक०) लक्ष्य करना, निर्देश करना। (जयो० ३/७३) समुद्राम्बरा (स्त्री०) पृथ्वी, भूमि। समुदीक्ष्य (सं०क०) देखकर, अवलोकन कर। (सुद० २/९०) समुद्रारु (पुं०) मगरमच्छ। समुदैक्षत (वि०) रक्षित। (सुद० २/४९)
समुद्रोद्धारकारक (वि०) मुद्राओं का उद्धारक। (सुद० १/४४) समुद्गीतम् (नपुं०) [सम्+उद्+गै+क्त] उच्च स्वर में गाने समुद्भव (वि०) उत्पन्न हुआ। (जयो० ३/१२) __वाला।
समुद्वहः (पुं०) [सम+उद्+वह+अच] ढोना, भार वहन करना। समुद्रवत् (वि०) उड़ने वाला। (जयो० १३/८६)
समुद्वाहः (पुं०) [सम्+उद्+व+घञ्] अधिक व्याकुलता, समुद्देशः (पुं०) [सम्+उद्दिश+घञ्] निर्देश करना, विवरण आतंक। देना। (जयो० १७/१२)
समुद्वेगः (पुं०) [सम्+उद्+विज्+घञ्] अधिक व्याकुल, समुद्धत (भू०क०कृ०) [सम्+उत्+ह+क्त] उन्नत, ऊंचा आतंक, खिन्न, दुःख। हुआ।
समुद्वेलम् (अक०) उद्वेलित होना। (जयो०वृ० १०८२) उत्तेजित।
समुन्दनम् (नपुं०) [सम्+उन्द्+ल्युट] आर्द्रता, गीलापन, तरी। घमण्डी, अभिमानी।
समुन्न (वि०) [सम्+उन्द्+क्त] आर्द्र, गीला। ०अशिष्ट, असम्य।
समुन्नत (भू०क०कृ०) [सम्+उद्+नम्+क्त] अधिक ऊंचाई धृष्ट, ढीठ।
युक्त, उत्तुंगता प्राप्त, ऊंचा किया गया। (जयो० १/५) समुदह (सक०) स्वीकार करना। (जयो० २/१८)
(सुद० १/२४) समुद्धरणम् (नपुं०) [सम्+उद्+ह+ल्युट्] निवारण, उद्धार, समुन्नतत्व (वि०) उदारभाव युक्त। उन्नति युक्त। (वीरो० मुक्ति ।
३/१३) (जयो० ३/१२) ० भारोत्थापन, बोझ ढोना। (जयो० २/११५)
समुन्नतार्थ (वि०) ऊंचाई युक्त। उठाना, ऊपर करना।
समुन्नति (स्त्री०) प्रगति, अभ्युदय, विकास। सर्वतो विनयताऽसती समुद्धर्त (पुं०) [सम्+उद्+ह-तृच्] मुक्तिदाता।
सती भूरिशोऽभिनयता समुन्नतिम्। (जयो० २/११९) समुद्भवः (पुं०) जन्म, उत्पत्ति।
समुन्नद्ध (भू०क०कृ०) [सम्+उद्+न+क्त] बन्धन युक्त, समुद्यत (वि०) उद्यत हुआ, तत्पर हुआ। (सुद० १२०)
छुटा हुआ। समुद्यमः (पुं०) [सम्+उद्+यम्+घञ्] उपक्रम, समारम्भ, उन्नत, ऊंचा। कार्य प्रारम्भ।
समुक्ताङ्कः (पुं०) सम्यग्वर्णित अङ्क विधि। (जयो० ११/८८) समुद्योगः (पुं०) [सम्+उद+युज्+घञ्] सक्रिय चेष्टा, ऊर्जा | समुन्नयः (पुं०) [सम्+उद्+नी+अच] हासिल करना, प्राप्त शक्ति ।
करना। समुद्रः (पुं०) सागर, उदधि। पयोधि-पयोधि। (जयो० १२/१८) ०घटना, बात।
(जयो०वृ० १६/८२) नदीन (जयो०वृ० १४/८३) (सुद० समुन्नायक (वि०) प्रसत्तिकर, उन्नति करने वाला। (जयो० ३/४०)
११/१००)
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समुन्मत्ता
११५८
सम्पथ
समुन्मत्ता (स्त्री०) पगली। (सुद० ८४) समुन्मान्त (स्त्री०) रोगिणी स्त्री। (सुद० ८४) समुन्मूलनम् (नपुं०) [सम्+उद्+मूल्+ल्युट्] जड़ से उखाड़ना,
पूर्ण विनाश। समुप् (अक०) उपस्थित होना। (जयो०४/२४) समुप् (सक०) माना, समझना। 'हा हन्त किन्तु समुपैमि कले
प्रतापम्' (वीरो० २२/२५) समुपगम् (अक०) [सम्+उप्+गम्] समीप आना, निकट
पहुंचना। समुपगमः (पुं०) [सम्+उप+गम्+अप्] सम्पर्क, पहुंच। समुपजोषम् (अव्य०) [सम्+उप्+जुष्+अम्] प्रसन्नतापूर्वक,
इच्छानुसार। समुपभोगः (पुं०) [सम्+अप्+भुज+घञ्] संभोग, मैथुन। समुपदेशनम् (नपुं०) [सम्+उप्+विश्ल्युट्] आवास, निवास,
भवन, गृह, घर।
बिठाना, ठहराना। समुपभा (अक०) [सम्+उप्+भा] प्रतीत होना। (जयो०७०
१/९२) समुपादन (वि०) जूता युक्त, पादत्राण युक्त। (जयो० १७/११)
उपानयुक्त। समुपानहः (वि०) जूता, पादत्राण। (जयो०वृ० १३/११) समुपस्थ (वि०) उपस्थित होकर। विधृताङ्गुलि उत्थितः क्षणं
समुपस्थाय पतन् सुलक्षण:। (सुद० पृ० ५२) समुपस्थापनम् (नपुं०) [सम्+उप्+स्था-अङ्ल्यु ट्] निकटता,
समीपता।
०पहुंच, सम्पर्क। समुपस्थित (वि०) उपस्थित हुआ। (दयो० १०८) समुपह (सक०) उठाना। (जयो० १२/११९) समुपागम (वि०) समीप आना। (जयो० १५/९८) समुपार्जनम् (नपुं०) [सम्+उप्+अ+ल्युट्] अभिग्रहण, प्राप्त
करना। समुपाल (वि०) उपभोग करना। (सुद० ४/९९) समुपेत (भू०क०कृ०) [सम्+उप्+इ+क्त] ०सहित, युक्त।
___०एकत्रित, इकट्ठे हुए। समुपेत्य (सक०) आकर। (सुद० ३/१९) समुपोढ (भू०क०कृ०) [सम्+उप्+व+क्त] उठा हुआ, ऊपर
गया हुआ। समुल्लसन् (वि०) सुहावना। समुल्लसन्मानसवत्युदारा। |
(सुद०१/८)
अभिमानी, अहंकारी। समुल्लासः (पुं०) [सम्+उन्+लस्+घञ्] अधिक उत्साह।
०अधिक कान्ति, प्रभा, तेज। ०हर्ष, आनन्द। समुल्लासित (वि०) प्रसन्नतापूर्वक, हर्ष युक्त, आनन्दित।
(वीरो० १८/४०) समुल्वणम् (नपुं०) वृद्धि गते सति उद्वेलभाव। (जयो० ____ १६/२१) उद्वेलण। (जयो० ३/९३) (जयो० ७१/३) समुल्लेखनीय (वि०) उल्लेख करने योग्य। (जयो०२३/८६) समुवाच (वि०) कहा गया। (समु० २/२६) समुष्णीकृत् (वि०) प्रासुक किया गया। (वीरो० १९/२७) समूढ (भू०क०कृ०) [सम्+ऊह+क्त] संचित, संगृहीत
निकट लाया गया।
शान्त, वशीकृत।
०वक्र, झुका हुआ। समूरः (पुं०) [संगतौ ऊरु यस्य] हिरण। समूल (वि.) [सह मूलेन] जड़ सहित।
मुद्गर सहित। (जयो० ८) समूहः (वि०) [सम् ऊह्+घञ्] ०योग (जयो० १/२४)
समुच्चय, संग्रह, संघात। समूहगः (पुं०) समुच्चय। (जयो० १३/२) (सुद० २/१३) समूहनम् (नपुं०) [समूह+ल्युट्] संग्रह, समुच्चय, समुदाय। समूहनी (स्त्री०) बुहारी, झाडू। समूहमाणी (स्त्री०) समूह खान। (समु० १/५) समूह्यः (पुं०) [सम्+ऊह्+ण्यत्] यज्ञाग्नि। समृत्तिक (वि०) मृत्तिक सहित, मिट्टी युक्त। (जयो० १९/५) समृद्ध (भू०क०कृ०) [सम्+ऋध+क्त] ऐश्वर्यशाली। (जयो०
१/७१) ०सम्पन्न, पूर्ण वैभवयुक्त। सम्पत्कर (वि०) सम्पादन कर। (जयो०वृ० ११/३१) सम्पत्निधिः (स्त्री०) प्राप्त सम्पत्ति। (सुद० ४/४७) सम्पत्तिः (स्त्री०) [सम्+पद्+क्तिन्] ०धन, वैभव, सम्पदा।
(सुद० १११) समृद्धि, ऐश्वर्य, धन सम्पदा। सौभाग्य, आनन्द। ०सफलता। सम्पथ (वि०) सम्पन्था दस्यां सा-सन्मार्ग युक्त। (जयो०७०
२/१२)
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सम्पत्तिशाली
११५९
सम्पल्लवत्व
सम्पत्तिशाली (वि०) वैभव युक्त, श्रीपति (जयोवृ० १२/८६) | समोदन (वि०) मोद सहित। (जयो०३/६२) सम्यगोदन-भक्त हित, लाभ।
सहित। सद्गुण वृद्धि।
समोह (वि०) मोहसहित। (सुद० १२०) सम्पन्नता (वि०) पूर्णता। (भक्ति० २६)
सम्पद् (सक०) प्राप्त होना। [सम्+पद्] 'फलं सम्पद्यते सम्पन्निसर्गः (पुं०) सम्पदा प्राप्ति। (भक्ति० २६)
जन्तोर्निजोपार्जितकर्मणः' (सुद० १२५) (सम्य०८४) समेखला (स्त्री०) समस्थल। (सुद० २/५)
सम्पद् (स्त्री०) [सम्+पद्+क्विप्] वैभव, धन, सम्पत्ति। (जयो० समुपस्थित (वि०) खड़ी हुई। (दयो० ७५)
२१८५) गुणोत्कर्ष स्त्रियां सम्पद्गुणोत्कर्ष इति वि (जयो० सम्पत् (वि०) सुंदर/सुपरिणमन। (जयो० २/४९)
२३/३७) सम्पर्कजात (वि०) सहयोग से उत्पन्न हुआ। (वीरो० २२/१५)
समृद्धि, ऐश्वर्य। सम्पठित (वि०) पढ़ा गया। (वीरो० १३/३०)
सौभाग्य, आनन्द।
०लाभ, हित, इष्ट। सम्पठ् (सक०) अच्छी तरह पढ़ना। (जयो० २/४५)
सम्पदा (स्त्री०) सम्पत्ति, धन, वैभव। (वीरो० ७/१, सुद० सम्पत्तिकरिन् (वि०) सम्पत्ति को करने वाली। महीपतेर्धाम्नि
४/१४) निजेङ्कितेन सुरीति सम्पत्तिकरी हि तेन। (वीरो० ३/२४)
ध्यानाख्या निधिरेष एवं हि भवेद् हेतुश्चितः सम्पदाम् सम्पदादरकारिणी (स्त्री०) सम्पत्ति का आदर करने वाली।
(मुनि० २१) (जयो० ३/११)
सम्पदास्पद (वि०) समीचीन वाक्य समूह। (जयो० २/४२) सम्पदि (अव्य०) अब, बस, इस समय। सभवित्री समाहाहो
सम्पदिन् (वि०) सम्पत्ति शाली। (जयो० ९/४३) विपदाप्ताऽपि सम्पदि (सुद० १०३)
सम्पन्न (भू०क०कृ०) [सम्+पद्+क्त] ०वैभव युक्त, ऐश्वर्यवान्, सम्पादयितुम् (हेत्वर्थ कृदन्त) सम्पादन करने के लिए।
धनाढ्य। (हित०६)
० भाग्यशाली, सफल, प्रसन्न। सम्प्रथित (वि०) सम्पादित। (जयो० वृ० १/१०)
पूरा किया गया, निष्पन्न, पूर्ण। (सम्य० १४२) सम्दृश (वि०) संपश्य, अच्छी तरह से देखने वाला।
परिपक्व, पूर्ण विकसित। (सम्य० १३८)
०सहित, युक्त। सम्पत्तियुग्म (वि०) सम्पत्ति युक्त। (सुद० १११)
सम्परायः (पुं०) [सम्प रा+इ+अच्] ०पराजय ०संघर्ष, मुठभेड़। वैभव युक्त, धन संपन्न।
संग्राम, युद्ध। ०भाग्यशाली।
०पराभव, जीव परिभ्रमण स्थान। समद्धिः (स्त्री०) [सम ऋध क्तिन] वद्धि. सम्पन्नता।
संकट, दुर्भाग्य। सम्पत्ति, वैभव, धनसम्पन्नता।
भविष्य। हर्ष सम्पत्ति (जयो०वृ० ११/५३)
सम्परायकम् (नपुं०) संग्राम, युद्ध। शक्ति, बल, सर्वोपरिता।
सम्परायत्व (वि०) सूक्ष्म सम्पराय नामक दशम गुणस्थान समेत् (सक०) धारण करना, स्वीकार करना, लेना।
वाला। (जयो० २०/१८) समेत (भू०क०कृ०) [सम्+आ+इ+क्त] आंगत (जयो० १/८४)
सम्पर्कः (पुं०) [सम्+पृच्+घब] मेल, मिलन, मिलाप। संयुक्त, सहित।
(मुनि० ६) ०एकत्रित। (भक्ति० ४४)
०मैथुन, संभोग, संसर्ग, ग्रहण। (जयो०१२/६२) समेतान्वित (वि०) सहित। आर्यात्वं समेति पण्यललना दासी
शीलन। (समु० १/२६) समेतान्वितः (सु० १३३)
सम्पल्लव (वि०) अच्छे-अच्छे पत्रों वाला। (दयो० ७०)
सम्पल्लवत्व (वि०) उत्तम हरे-भरे पत्तों से युक्त। समेत्य (सं०कृ०) छोड़कर (सुद० १/२७)
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सम्पश्यन्ती
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सम्पश्यन्ती [ सम्+ पश्य् शतृ ङीप् ] समवलोकयंती (जयो०
१८/९४)
सम्पा (स्त्री० ) [ सम्यक् अतर्कितं पतति सम्+ पत्+उ+टाप् ] विद्युत, बिजली।
० लम्पट, विलासी
।
० थोड़ा, अल्प
सम्पाक (वि० ) [ सम्यक् पाको यस्य यस्मात् वा] तार्किक । बुद्धिशाली |
सम्पाकः (पुं०) परिपक्व होना।
सम्पाट (पुं०) (सम्पट्+ णिच्+घञ् ] ०तुकआ। ० त्रिभुज की रेखा
सम्पातः (पुं०) [सम्+ पत्+घञ्] भिड़ना। (समु० २ / २८ ) गिरना, एक साथ गिरना ।
० अध: पतन, उतरना । ० जाना, पहुंचना ।
सम्पातनम् (नपुं०) पतन, अधःपतन। (मुनि० २६ ) सम्पातिः (स्त्री०) (सम्+ पद- णिच्+इन्] पक्षी का नाम। सम्पाति (वि०) पड़े हुए, गिरे हुए ( भवान्धुसम्पातिजनैक) (सुद० १/३)
सम्पातित (वि०) गिरे हुए, पतित हुए। सम्पादः (पुं० ) [ सम्+ पद्+ णिच्+घञ् ] पूर्ति, निष्पन्नता । ० अभिग्रहण |
सम्पादनम् (नपुं० ) [ सम्पद् णिच् + ल्युट् ] निष्पादन, कार्यान्वयन ।
११६०
०पूरा करना, वलन (जयो० २८/६८)
० उर्जाजन करना, प्राप्त करना।
०सम्पत्ति (जयो०वृ० १/३९)
० स्वच्छ करना, उचित प्रस्तुतिकरण । सम्पादनार्थ (वि०) निष्पादन हेतु, पुण्यार्जनार्थ (जयो० १२ / १६४) (दयो० ६२)
सम्पादयितृ ( वि० ) कर्तृ । (जयो० ११/८५) सम्पादित (वि०) गुंफित, निष्पादित (सुद० ११५, दयो० ८४, जयो० १/९५)
सम्पण्डित (भू०क० कृ० ) [ सम् + पिण्ड् + क्त ] राशिकृत । ० सिकुड़ा हुआ, उत्पीडित ।
सम्पिीड: (पुं० ) [ सम्+ पीड+घञ् ] उत्पीड़न, पीड़ा, वेदना,
कष्ट, यातना, विक्षोभ, बाधा। ●हांकना, प्रणोदन |
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सम्पीडनम् (नपुं०) (सम्+ पीड् + ल्युट् ] दबाना, निचोड़ना । ० क्षुब्ध करना। (वीरो० २ / ४९ )
सम्पीति: (स्त्री० ) [ सम्पातिन् सहपान, मिलकर पीना। सम्पुट: (पुं० ) [ सम्+ पुट् + क] अञ्जली, गह्वर ।
०खोवा |
सम्प्रति
सम्पुटकः (पुं० ) [ सम्पुट+कन्] संदूक, रत्नपेटिका । सम्पुलकित (वि०) रोमाञ्चित (जयो० ६ / १२४) सम्पूर्ण (वि०) [सम्पूर्+क्त] भरा हुआ। सम्पूर्णज्ञानम् (नपुं०) परिपूर्ण ज्ञान ।
० पूर्ण, परिपूर्ण, समस्त, सारा । सम्पूर्णजाति: (स्त्री०) समस्त जाति । सम्पूर्णदातृ (वि०) सभी प्रकार का दान देने वाला । सम्पूर्ण पृथिवी (स्त्री०) समस्त भूमि (जयो०वृ० १/५७) सम्पूर्ण भारतवरः (पुं०) समस्त भारत वर्ष (वीरो० २२ / ११) सम्पूर्णरात्रम् (नपुं०) सायमारम्भ प्रभात पर्यन्त पूरी रात्रि।
'सम्पूर्णरात्रमुचितां रतिनामलीलाम्' (जयो० १८/ ७) सम्पूर्णवर्णः (पुं०) समस्त अक्षर कवर्ग, चवर्ग, टवर्ग, तवर्ग, पवर्ग य र ल व एवं श ष स ह वर्ण।
सम्पूर्ण शोभा ( स्त्री०) पूर्ण कान्ति । ०परिपूर्ण प्रभा । सम्प्लवाय् (वि०) अभिषिञ्च स्नान (जयो० ५/७८)
"
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सम्पृक्त (भू०क० कृ० ) [ सम्+ पृच् + क्त ] ०संयुक्त, सम्बद्ध । ० मिश्रित परिपूर्ण मिला हुआ।
सम्पृक्लृप्तिः (स्त्री०) संकलन करना। (सुद० १३१ ) सम्पोष्य (सं०वृ० ) पोषण कर । ( हित० ४९ ) सम्पोषय् (सक०) आनन्दित करना। (वीरो० ७/३८) सम्पोषयापि पुरप्रजा सुललिता
सम्पोपोषणम् (नपुं०) भरण पोषण ( हित० ४९ ) सम्प्रक्षालनम् (नपुं०) (सम्+ प्रक्षल्+ णिच् + ल्युट् ] पूर्ण मार्जन, ० स्नान, अभिषेक, प्रक्षालन।
सम्प्रणेतु (पुं०) (सम्प्रणीतृच्] शासक, न्यायधीश । सम्प्रति (अव्य०) अब इस समय (समु० १/४ (सुद० २/४१) चित्तवृत्तिविचारधारापि सम्प्रति का (जयो० ४/४३) इदानीम् (जयो० १३ / ५) तब
सम्प्रति (पुं०) राजा सम्प्रति (वीरो० २२/१२)
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सम्प्रतिकालः
पहुंच।
०उपस्थिति।
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सम्प्रतिकालः (पुं०) वर्तमान काल। (भक्ति० १८ ) सम्प्रतिपत्तिः (स्त्री० ) [ सम् + प्रति+पद् + क्तिन् ] उपगमन, प्राप्ति,
११६१
लाभ उपलब्धि
० सहयोग, साहचर्य ।
सम्प्रतिरोधकः (पुं० ) [ सम्+ प्रति + रुध्+घञ् कन् ] पूर्ण अवरोध, रोकथ, बाधा
०कैद, जेल |
सम्प्रतीक (पुं०) अवयव (जयो० १७/८४)
सम्प्रतीक्षा (स्त्री० [सम्प्रति ईअड्+टाप्] आशा लगाना, बांधना।
"
सम्प्रतीत (भू०क० कृ० ) [ सम्प्रति+इ+क्त] प्रमाणित, माना
हुआ।
० विश्रुत।
०सम्मान पूर्ण ।
सम्प्रतीति: (स्त्री० ) [ सम्+ प्रति + इ + क्तिन् ] ०ख्याति, प्रसिद्धि । ०कार्य पालन।
सम्प्रत्यमल (वि०) निर्मल स्वच्छ (जयो०वृ० १३ / ९३ ) सम्प्रत्ययः (पुं०) (सम्प्रति+इ+अच्] दृढ़ विश्वास (जयो०वृ० १२/११८)
सम्प्रद् (सक०) देना। (जयो० १२/८३ ) ०प्रदान करना । सम्प्रदा (स्त्री०) प्रदान। (समु० १/३)
सम्प्रदानम् (नपुं० ) [ सम्+ प्र+दा + ल्युट् ] ० उपहार देना, भेंट देना जिसको दान दिया जाए। (हित०सं० पृ० ४९) ० चतुर्थी विभक्ति का नाम। सम्प्रदानीयम् (नपुं०
[सम्प्रदा+अनीयर् ] ०भेंट, दान,
उपहार, प्राभृता
सम्प्रदायः (पुं० ) [ सम्+ प्र+दा+घञ्] ० समुदाय, परम्परा । (जयो०१२ / ३१) (हित० ५ ) यत्सम्प्रदाय उदितो वसनग्रहण सार्धं पुरोपवसनादिविधी रयेण (वीरो० २२/५) लोकोऽयं सम्प्रदायस्य (वीरो० १०/१६) गतानु गतिकत्वेन सम्प्रदायः प्रवर्तते वीरो० १०/१७)
० प्रचलित प्रथा प्रचलन ।
सम्प्रदाय श्रायिन् (वि०) सम्प्रदाय के आश्रित (वीरो० १८/५५) सम्प्रदायिन् (वि०) सम्प्रदाय वाले (वीरो० १५/५७) 'देवर्द्धिराय पुनरस्य हि सम्प्रदायी'
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सम्प्रहारः
सम्प्रदृश ( सक० ) स्वीकार करना। (जयो० २/८०) (वीरो०२२/६)
सम्प्रधानम् (नपुं० ) [ सम्+ प्र + धा+ ल्युट् ] निश्चय करना । सम्प्रधारणम् (नपुं०) [ सम्+ प्रधा+ णिच् + ल्युट् ] विचार । सम्प्रपदः (पुं०) (सम्+प्रपद्+क] भ्रमण, पर्यटन | सम्प्रबुद्ध (वि०) प्रकृष्टबोध युक्त । (जयो० १८/२७) सम्प्रभिन्न (भू०क०कु० ) [ सम्प्रभिद् क्त ] विदीर्ण हुआ, फटा हुआ ।
सम्प्रमोदः (पुं० ) [ सम्+ प्र+मुद्+घञ्] अति प्रसन्नता, अधिक हर्ष
सम्प्रमोष: (पुं० ) [ सम्+ प्रमुष्+घञ्] हानि, क्षति, विनाश। सम्प्रयाणम् (नपुं० [सम्+ प्र+या+ ल्युट् ] विदाई, प्रस्थान, विरक्ति पूर्वक गमन ।
सम्प्रयुक्त (वि० ) [ सम्यक् प्रकारेण प्रयुक्तम्] अच्छी तरह प्रयोग किए गए।
सम्प्रयोगः (पुं०) [सम्+प्र+युज्+घञ्] ०संयोग, मिलाप, संयोजन । (सुद० ४/३०) सत्सम्प्रयोगवशतोऽङ्गवतामस्वम् ० सम्पर्क सम्बंध
० मैथुन, संभोग
सम्प्रयोगिन् (वि० ) [ सम्+ प्र+युज् + घिनुण् ] संयोग वाला, मिलने वाला, सम्पर्क करने वाला ।
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सम्प्रविश् (अक० ) प्रवेश करना, घुसना (जयो० ५ / ९ ) सम्प्रवृत्त (वि०) संलग्न । ( मुनि० २१)
सम्प्रवृत्तिः (स्त्री०) समुचित प्रवृत्ति। (जयो० २ / १२२) (वीरो०१/४)
सम्प्रवृष्टम् (नपुं०) [सम्+ प्र+वृष्+क्त] उचित वर्षा, अच्छी वर्षा । सम्प्रश्न: (पुं० ) [ सम्यक् प्रश्न: ] पृच्छा, पृच्छना, पूछना। सम्प्रसरच्छर (पुं०) विशाल तालाब (सुद० २/४५ ) सम्प्रसादः (पुं०) [सम्+ प्र+सद्+घञ्] अनुग्रह, कृपा, संतुष्टि । ०शान्ति, सौम्यता
० विश्वास |
० संतुष्टिकरण, प्रसन्नता ।
सम्प्रसारणम् (नपुं० [सम्+ प्र+सृ + णिच् + ल्युट् ] विस्तार । सम्प्रसृतमूर्तिः (स्त्री०) अखण्ड प्रसार मूर्ति (जयो० ६ / ६५) सम्प्रहारः (पुं० ) [ सम्+ प्रह+घञ् ] ०संग्राम, युद्ध, लड़ाई।
० प्रहार.
घात ।
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सम्प्राप्त
११६२
सम्भ्रान्त
सम्प्राप्त (वि०) उपलब्ध। (मुनि० ४)
सम्भू (वि०) सम्पन्न। (जयो० ३/७६) पूर्ण, समस्त। सम्प्राप्तिः (स्त्री०) [सम्+प्र+आप+क्तिन] ०अभिग्रहण, निष्पत्ति। | सम्भूतिः (स्त्री०) [सम्+भू+क्तिन्] उत्पत्ति, जन्म। प्रतिग्रहण। (सुद०७०)
प्राप्ति। (जयो० ११/४) सम्प्रार्थित (वि०) समीरित। (जयो०१२/५१) प्रार्थना युक्त सम्भृत (भू०क०कृ०) [सम्+भृ+क्त] उद्यत, तैयार, अन्वित, __ (सुद०८५)
संलग्न। सम्प्रीतिः (स्त्री०) [सम्+प्री+क्तिन्] अनुराग, स्नेह।
०पूरित, भरा हुआ। (जयो० ३/१११) सद्भावना।
युक्त, सहित, जुड़ा हुआ। हर्ष, उल्लास, प्रसन्नता।
०लब्ध, अवाप्त। समप्रेक्षणम् (नपुं०) [सम्+प्र+ईक्ष ल्युट्] ०अवेक्षण, ०धृत। (जयो० १८/१०२) अवलोकन।
सम्भृतिः (स्त्री०) [समृ+भृ+क्तिन्] संग्रह। विचार करना, गवेषणा करना, चिन्तन करना।
उद्यत, तैयारी। मनन करना।
सम्भृष्ट (वि०) खण्डित। (सुद० १०३) सम्प्रेरित (वि०) प्रेरित हुआ। (सुद० २/३२)
सम्भेदः (पुं०) [सम्+भिद्+घन] संगम, मिलान, मेल। सम्प्रेषः (पुं०) [सम्+प्र+इष्+घञ्] ०भेजना, प्रेषित करना।
मिश्रण। सम्प्रोक्षणम् (नपुं०) [सम्+प्र+उ+ल्युट्] प्रमार्जन।
सम्भोक्ता (वि०) भोगने वाला। सम्भोक्ता भगवानमेयमहिमा सम्प्लवः (पुं०) [सम्+प्लु+अप्] जल प्रलय, प्लावन, बाढ़।
सर्वज्ञचूड़ामणि। (वीरो० १२/५३) सम्फालः (अक०) प्रफुल्लित होना, हर्षित होना। (जयो०
सम्भोगः (पं०) सरत. जिनशासन। सम्भोगो जिनशासने इति ३/९३)
लोचो मौ| भ्रश्लथचर्मणि च इति विश्वलोचनः' (जयो० सम्फुल्लता (वि०) अत्यंत हर्ष, प्रफुल्लित भाव। (सुद०११४)
८/५१) सम्फेटः (पुं०) क्रोध पूर्ण संघर्ष द्वन्द्व, युद्ध।
०व्यवाय-व्यवाय, सुरतेऽन्तौ इति विश्वलोचने (जयो०वृ० सम्भर्ता (वि०) सम्यक् पालक। (जयो० १२/१४७)
२७/१२) सम्भेदः (पुं०) दूर करना। (जयो० ५/१०१)
व्यायान् सम्भोगात् योजयति। सम्ब् (सक०) जाना, पहुंचना।
रतिरस, मैथुन, सहवास। __०संग्रह करना, संचय करना।
आनन्द। सम्बम् (नपुं०) [लम्ब्+अच्] खेत जोतना।
संसर्ग (जयो० १२/१२५) सम्बद्ध (भू०क०कृ०) [सम्+बन्ध्+क्त] ०संयुक्त, जुड़ा हुआ।
सम्भोजनम् (नपुं०) सामूहिक भोजन। (जयो०८/८)
सम्भोजय (सक०) खिलाना, भोजन कराना। सम्भोजयेत् ०अनुरक्त। संग्रथित।
(दयो० ५५)
सम्भ्रमः (पुं०) [सम्+भ्रम्+घञ्] आतंक, भय, डर। सम्भाष: (पुं०) [सम्+भाष्+घञ्] समालाप, भाषण, वार्तालाप। सम्भाषणम् (नपुं०) वार्तालाप, बातचीत। (मुनि० ७) कथन
त्रुटि, भूल।
उत्साह। (जयो० १/५) वृत्तान्त, निशम्य सम्भाषणमेतदेष। (समु० ३/१)
विक्षोभ, अव्यवस्था।
सम्भ्रमित (वि०) हलन चलन युक्त। (जयो० २४/२८) सम्भाषा (स्त्री०) प्रवचन, कथन, विचार, वार्तालाप, आपसी
सम्भ्रान्त (भू०क०कृ०) [सम्+भ्रम्+क्त] ०आवर्तित। विचार विमर्श
विक्षुब्ध, व्याकुल। सम्भुव (वि०) उत्पन्न हुआ। (सुद० ३/२)
०भ्रमित हुआ।
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सम्मत
११६३
सम्यक्त्वम्
सम्मत (भूक०कृ०) [सम्+मन्+क्त] ०मत (जयो० २/६९) |
सहमत, स्वीकृत। प्रिय। ०सम्बन्ध। (मुनि० ३३) अभिलाशा। ०मान्य, स्वीकार। (जयो० २/११) 'अहो विद्यालता सज्जनैः सम्मता' (सुद० ८२)
०आहत, सम्मानित, प्रतिष्ठित। सम्मतिः (स्त्री०) [सम्+मन्+क्तिन्] सहमति, समर्थन,
अनुमोदन। नाम्न्येनैव न शेमुषीश पुनरप्येषाऽहित मे सम्मतिः | (मुनि० ३३)
स्मरण, स्मृति। (जयो० १०/६२) समुत्तिष्ठ् (अक०) उठना। कथमिति समुत्तिष्ठेत्तस्य।
(दयो०८१) सम्मतिदात्री (वि०) सम्मति देने वाली, 'सम्मतिं ददातीत्यु
चितसम्मतिदात्री' (जयो०वृ० २२/३७) सम्मदः (पुं०) [सम्+मद्+अप्] ०आनन्द एतद्गुणानुवादादासादितसम्मदेव सा तनया (जयो० ६/७०) हर्ष (सम्मदेन सहसा समवापि) (जयो० ५/५५)
आनन्द विभोर। सम्मदाबुनिधि (पुं०) आनन्द रूपी समुद्र। निजबन्धुजनस्य
सम्मदाम्बुनिधिं स्वप्रतिपत्तितस्तदा (सुद० ३/२७) सम्मर्दः (पुं०) [सम्+मृद्+घञ्] घर्षण, मर्दन, घिसना।
कुचलना, रौंदना। ०जनसंघट्टन। (जयो०वृ० १३/१५)
संग्राम, युद्ध। सम्मादः (पुं०) [सम्मद्+घञ्] मद, दशा, पागलपन। सम्मानः (पुं०) [सम्+मन्+घञ्] आदर, प्रतिष्ठा।
विनय। (जयो०७० ६/१५) सम्मानजनक (वि०) आदर योग्य। सम्मानीय (वि०) पूजनीय, आदरणीय, पूज्य। (भक्ति० २३) | सम्मानपूर्वक (वि०) विनयपूर्वक। (समु० ३/४२) सम्मानभावः (पुं०) आदर भाव। सम्मानयामास-सम्मान क्रिया। (वीरो० १८/४७) सम्मानयुक्त (वि०) आदर सहित। सम्मानसुखदमंत्रम् (नपुं०) प्रतिष्ठा जनक मन्त्र। णमो
वड्ढमाणाणं, णमो लोए सव्वसिद्धायदणणं' (जयो०१९/८३)
सम्मानित (वि०) [सम्+मन्+क्त] पूजित, प्रतिष्ठित, आहत।
सन्धानकाले तु शरस्य तस्य सम्मानितोऽभूत् स्वहृदा स
वश्यः। (जयो०८/८०) सम्मार्जकः (पुं०) [सम्+मृज्+ण्वुल्] झाड़ने वाला, बुहारी
लगाने वाला।
सफाई करने वाला। सम्मार्जनम् (नपुं०) [सम्+मज+ल्यूट] बुहारना, मांजना
०साफ करना। सम्मार्जनी (स्त्री०) [सम्मार्जन+ङीप्] झाडू, बुहारी। सम्मित (भू०क०कृ०) [सम्+मान्+क्त] युक्त, सहित।
माप युक्त। सम्मिलनम् (नपुं०) सम्मेलन। (जयो० ४/४७) परस्पर मेल
(सम्य० २३) सम्मिश्र (वि०) [सम्+मिश्र+अच्] मिलाया हुआ, संयुक्त
किया गया। सम्मिश्रणम् (नपुं०) मिलाना, मिश्रण करना। (वीरो० १९/३०) सम्मिश्लः (पुं०) इन्द्र, पुरन्दर। सम्मीलनम् (नपुं०) [सम्+मील+ल्युट] बन्द होना, ढकना,
लपेटना। सम्मुख (वि०) सामने, अभिमुख, मुख की ओर। सम्मुखिन (वि०) सन्मुख, सामने। (जयो० १/७९) सम्मुखिन् (पुं०) [सम्मुखमस्य अस्ति सम्मुख-इनि] दर्पण,
शीशा। सम्मुख्य (वि०) निश्चय युक्त। (भक्ति० २९) सम्मुद (वि०) हर्ष युक्त, प्रसन्नता। (जयो० ९/३) सम्मूर्धनम् (नपुं०) [सम्+मूर्छ+ल्युट्] सम्यक (अव्य०) समञ्चतीत्येव हि सम्यगस्ति, तत्त्वं तु तदभाव
इति प्रशस्ति। (सम्य० ५/४) सम्यकभाषी (वि०) उचित बोलने वाला। (वीरो० २०/६) सम्यक्त्वम् (नपुं०) सम्यक्पना, आत्मा की शुद्ध अवस्था,
सर्वज्ञता, वीरतरागता। स सम्यक+त्वसम्यक्त्व'तद्दर्शन-ज्ञान-चरित्रभेदं, प्रणीयते पूर्णतया मयेदं। मुक्ते: स्वरूपं परथा तदध्वायतोऽभ्यधीता खलु तीर्थकृद् वाक्।। (सम्य०५) ०मूर्छा, बेहोशी।
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सम्मूर्छित
११६४
सम्यगञ्जलित्व
०पूर्ण व्याप्ति।
व्यथावत्, यथोचित। (जयो०वृ० १/२४) ऊंचाई।
उत्तम (सुद० २/९) शरीर की रचना विशेष।
वास्तव में, यथार्थ में समीचीन। (जयो० १२/१४६ ) सम्मूर्छित (वि०) मरणोन्मुखी। (जयो०७/१०९) मूर्छायुक्त। (सम्य० ५७) (दयो० ९३)
समञ्चतीत्येव हि सम्यगस्ति। (सम्य० १६) [सं+अञ्च] सम्मूछिमः (पुं०) सम्मूर्छिम जीव, जो जीव सब होर से
जो सहज स्वभाव में परिणमन हो-समञ्चति गच्छति पुद्गलों को ग्रहण कर उत्पन्न होते हैं।
व्याप्नोति सर्वान् द्रव्य भावानिति सम्यक्। सम्मृद् (सक०) [सम्+मृद्] पादमर्दन करना, पैर दबाना। सम्यक्-कथा (स्त्री०) समीचीन कथा-सम्यक् समीचीना कथा (जयो० २३/१६)
यस्य तं संविभागीकृतम्। (जयो० २/११०) सम्मृष्ट (भू०क०कृ०) [सम्+मृज्+क्त] प्रमार्जित, स्वच्छ सम्यक्-कल्याणकारी (वि०) उत्तम हित करने वाला। किया गया।
(जयो०वृ० २/१) सम्मेलनकः (पुं०) सम्मेलन, मिलाप, एकत्रित होना। (जयो० । सम्यकशुद्ध (वि०) शोभनरीति युक्त। सम्यक् शोभनरीत्या वरं ८/६५)
श्रेष्ठं मस्तकपर्यन्तमित्यर्थः। (जयो० १८/२६) सम्मेलनम् (नपुं०) सम्मेलन, मिलाप, एकरूप। परस्पर मिलन सम्यक्चारित्रम् (नपुं०) उत्तम चारित्र, सर्वसावध योग रहित __ (सम्य० २१) (जयो० २।८३)
चारित्र। सम्मोचनम् (नपुं०) स्वार्थवश। (दयो० ९९)
रागादि परिहरण रूप चारित्र। सं+अञ्च-अञ्चगतिपूजनयो:-इस आर्षवाक्यानुसार गमन | सम्यक्दर्शनम् (नपुं०) उचित श्रद्धान, वस्तु तत्त्व के प्रति पूर्ण करना/पूजन करना होता है।
श्रद्धा। (सम्य०६०) समञ्चति अर्थात् जो अच्छी तरह से गमन होता है अपने सम्यक्त्वम् (नपुं०) तत्त्वश्रद्धानभाव। (जयो० ६/८३) सहज स्वभाव में परिणमन कर रहा हो वह 'सम्यक्' ऐसे समाचतीत्येव हि सम्यगस्ति, तत्त्वं तु सद्भाव इति प्रशस्तिः। क्विप् प्रत्यय होकर शब्द बन जाता है। गत्यर्थक से जो (सम्य०४) पूर्ण रूप से सम्पूर्ण विश्वभर के पदार्थों को एक साथ ०सम्यक् पना (सम्य० ५९) सं अञ्च तद्भावस्तत्त्वम् जानता है वह सम्यक् है।
(सम्य०५) सम्मोहः (पुं०) [सम्+मुह+घञ्] आसक्ति, ०अत्यन्तमूढता, सम्यक्त्वक्रिया (स्त्री०) सम्यक्त्ववर्धिनी क्रिया। किं कर्त्तव्यत्व मूढत।
सम्यक्त्वबोधः (पुं०) सम्यक्त्व/सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान। मूर्छा, बेहोशी।
(भक्ति० १) ०मूर्खता।
सम्यक्त्वसारशतकम् (नपुं०) ग्रन्थ नाम-आचार्य ज्ञानसागर ०आकर्षण।
प्रणीत। सम्मोहदंशः (पुं०) मोह रूपी डांस मच्छर। (वीरो० २०/९) | सम्यक्त्वसारदीपकः (पुं०) आचार्य ज्ञान सागर का एक सम्मोहनम् (नपुं०) [सम्+मुह+णिच्+ ल्युट्] मंत्रमुग्ध करना, सम्यक्त्व से सम्बंधित शातक। मोहित करना। (दयो० १०८)
सम्यश्रद्धानम् (नपुं०) समीचीन श्रद्धान। (हित० २५) सम्मोहनः (पुं०) कामदेव का एक बाण।
सम्यकश्रुतम् (नपुं०) सर्वज्ञ प्रणीत शास्त्र। सम्मोद (वि०) रोमहर्ष युक्त। (जयो० १२/१२)
सम्यग्रीति (स्त्री०) उचित पद्धति। (जयो०वृ० १/१२) सम्मोहिनी (वि०) मनोमोहकारी। (जयोवृ० ११/७०) सम्यग्ज्ञानिन् (वि०) सम्यक् ज्ञानी। (जयो० १/१) सम्यक् (अव्य०) भली प्रकार, अच्छी तरह के साथ, अच्छा सम्यगुत्थानम् (नपुं०) उन्नतशाही। (जयो०वृ० १/७९) उचित रूप से। (सुद० १/३६)
सम्यगञ्जलित्व (वि०) हस्तसंयोगजन युक्त। (जयो०२०/७७)
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सम्यगनुष्ठानतत्परः
११६५
सम्विदित
सम्यगनुष्ठानतत्परः (पुं०) सत्यधर्ममार्ग में तत्पर। (जयो०वृ०
१/१०८) सम्यगनेकान्तः (पुं०) अस्तित्व-नास्तित्व के स्वरूप का निरूपक
सिद्धान्त। सम्यगर्थवान् (वि०) समर्थवान्। (जयो०वृ० १/७२) सम्यगाचार: (पुं०) समीचीन चारित्र। सम्यगागमः (पुं०) आप्तोपज्ञो ग्रन्थः। (जयो०७० ३/११५) सम्यगेकान्तः (पुं०) एक देश की प्रामाणिकता वाला कथन। सम्यग्गोलाकारः (पुं०) सुवृत्त। (जयो०७० ३/४६) सम्यग्ज्ञानम् (नपुं०) संशय. विमोह, विभ्रम रहित ज्ञान, उत्तम
ज्ञान। परमज्ञान। (त०लू०पृ० ७) । सम्यग्दर्शनम् (नपुं०) प्रशस्त दर्शन, तत्त्वार्थ श्रद्धान् (त०सू०७)
(सम्य० ८९) सम्यग्दृश (वि०) सम्यक् श्रद्धा वाला, सम्यक् दृष्टि वाला।
(सम्य० ७९) सम्यग्दृशाञ्चित (वि०) सम्यग् दृष्टा, सम्यक् दृष्टि वाला।
(जयो० १०/८४) सम्यग्दृष्टिः (स्त्री०) शोभन दृष्टि, सत्पदार्थावलोकिनी दृष्टि।
(सम्य० १२८) सम्यग्धुत (वि०) अच्छी तरह नष्ट हुआ। भो भो!
मोहमहातमस्ततिरितः किन्नैव सम्यग्धुता। (मुनि० १) सम्यग्वलिन् (वि०) अत्यन्त बलशाली। (सुद० २/४३) सम्यग् वाच्यवती (वि०) शोभनाभिप्रायवती (जयो०७०३/१८) सम्यग्वादः (पुं०) यथार्थ भाषण, वदनं वाद: राग-द्वेषपरिहारेण। सम्वपुष्य् (वि०) मूर्तिमान। (जयो० ११/१६) सम्वर्धामान (वि०) बढ़ते हुए। (वीरो०८/६) सम्वत् (अक०) होना। (मुनि० १) सम्वलः (पुं०) आधार, कलेवा। (समु० ४/३१) (समु०
३/१६) सम्यग्विभवः (पुं०) यथार्थ वैभव। 'जानन्ति सम्यग्विभवो रहस्ते'
(सुद०८/४) सम्च् (सक०) कहना, बोलना। हेऽवनीश्वरि सम्वच्मि सम्वच्मीति
न नेति सः। (सुद०८५) सम्वद् (अक०) कहना, समर्थन करना, बोलना। (जयो०
२।८२) चाहना (समु० २/२६) (समु० ३/१४) सम्वदा (स्त्री०) प्रतिज्ञा। (सुद० ९६)
सम्वयः (०) मित्र, तुल्यावस्था-सं समानं वय आयु-तुल्यावस्था
(जयो० १२/१३१) सम्वशा (वि०) सम्यग्वशीभूत। (जयो० २/७३) सम्वृतिका (स्त्री०) परदा, यवनिका, आवरण। (जयो० २४/३७) सम्वरखा (वि०) पानी के समान आकाश सहित।
निर्मल जल सहित। संवरं जलं तद्वत् खमाकाशं यस्याः संवरो जिन भगवानेव तद्वत् सं बुद्धिर्यस्याः सा-खमाकाशे दिवि सुखे, बुद्धौ संवेदने पुरे। संवरे सलिले मेघे, संवरोऽथ जिनान्तरे' इति विश्वलोचने
(जयो०३० २६/४९) सम्वर्द्धिनी (स्त्री०) बढ़ने वाली। (जयो०वृ० ११/६८) सम्वारित (वि०) निवारित, दूर किया हुआ। (जयो० १३/२१) सम्वत्लरः (पुं०) वर्ष, अब्द (जयो० २०/५) सम्वादः (पुं०) उत्तम वार्तालाप। (जयो०१/३) सम्वर्मित (वि०) विसर्जित। (सुद० १०३) सम्विधापिन् (वि०) धारक, धारण करने वाला। (सुद० १०७) सम्विषयः (पुं०) गंभीर विषय। (सुद० ११८) सम्व्यचर (अक०) विचरण करना। (सुद० ११८) सम्वरित (वि०) विनाशित। (जयो० १५/१५) सम्वश (वि०) वशीभूत। (सुद० १२७) सम्वाञ्छा (स्त्री०) प्रबल इच्छा। (सुद० ११३) सम्वादः (पुं०) शोभन वचन, वार्तालाप। सम्वादकरी (वि.) आशीर्वादसूचिनी। (जयो० १२/९७) सम्वादवादी (वि०) सम्वादपक्षपाती। (जयो० १५/६१) सम्वादविधि (स्त्री०) वार्तालाप पद्धति। परिचर्चा विधि
(वीरो० १७/६) (समु० ८/२९) सम्वाहनम् (नपुं०) पादचम्पन, पैर दबाना। (जयो० १७/४१) सम्वंश (वि०) स्वाधीन। (जयो० १०/६७) सम्वरोह (वि०) पापापहारक, पाप को नष्ट करने वाले।
सम्वराय पापावरोधाय ऊहो वितर्को यस्य सः। (जयो०१०
१०/९५) सम्विदा (स्त्री०) सम्यग्बुद्धि। (जयो० २।८४) सम्वित्तत्व (वि०) पाण्डित्यपूर्ण। (जयो० २८/६०) सम्विदित (वि०) अनुभूत। (जयो० ५/५५)
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सम्विसर्जनम्
११६६
सरट
-
पाटा
सम्विसर्जनम् (नपुं०) सम्प्रेषण। (सम्य० ८९) सम्विभागीकृत (वि०) बराबर विभाग करने वाला, (जयो०
२/११०) सम्विधाकार (वि०) सुव्यवस्थादायक। (जयो० २/१००) सम्विभूषणम् (नपुं०) उचित अलंकरण। (जयो० १४/८०) सम्विशः (पुं०) प्रवेश-विट् पुंसि वैश्ये मुनजे प्रवेशे सु पुनः
स्त्रियाम् इति वि। (जयो०१० २५/५१) सम्विद (वि०) जानने वाला। (सम्य०८९) सम्विघ्नवाधा (स्त्री०) सभी तरह की विघ्न बाधाएं।
(सुद० २/२३) सम्विघातिन् (नपुं०) नुकसान करने वाला, हानिकारक। (समु०
१/३४) सम्विधानम् (नपुं०) सभी नियम। (सुद० ११५) सम्विधि (स्त्री०) सुविधालक्षण, सहावनी। (जयो० १२/३८) सम्विभा (स्त्री०) समीचीन प्रभा। (जयो० २६/४८) सम्विभाज्य (वि०) विभागयोग्य। (जयो० १२/११७) सम्विभृर् (सक०) धारण करना। 'प्रपा पानः किल सम्विभर्तिः'
(वीरो०१२/२७) सम्विराग (वि०) विराग युक्त। (सुद० १०१) विराग सहित। सम्विलोडनम् (नपुं०) निर्मथन (जयो०२३/८५) सम्विलोपिन् (वि०) भागने वाला। (समु० ६/३२) सम्वेगः (पुं०) सम्यग्दर्शन का एक भेद, सम्यक्त्व भाव।
(सम्य० ७५) धर्म के प्रति तत्पर होना। (सम्य० पृ०७६) सम्व्यवहारः (पुं०) खरीद। (जयो० वृ० १३/८७) सम्विशिष्ट (वि.) अति विशिष्ट, विशेष रूप से।
दीनस्वरसम्विशिष्टाम्। (समु० ३/३७) सम्विसित (वि०) माना गया, समझा गया। (जयो० १४/७७) सम्विह (अक०) घूमना, परिभ्रमण करना। (समु० २/२२) सम्वेदकर (वि०) विश्वज्ञायक। (वीरो० १९/३७) सम्वेशिन् (वि०) सुंदराकार धारिन्। (जयो०वृ० २३/२८) सम्वेगधर (वि०) सुष्ठुवेगयुक्त। (जयो० २३/३) संवेगं धर्मानुरागं
धरतीति। सम्वेशभावः (पं०) विवेकशील। (सुद० १३१) सम्स्मृ (सक०) स्मरण करना। (सुद० २/२३)
सम्राज् (पुं०)[सम्यक् राजते-सम्+राज+क्विप्] सर्वोपरिप्रभु,
विश्वराट्। संहननम् (नपुं०) अस्थि बनावट। (मुनि० ३२) संहिता (स्त्री०) स्मृतिशास्त्र। (जयो० वृ० ३/१२) संहितार्थ (वि०) पवित्रार्थ। (जयो० ९/९०) हितामार्ग युक्त।
(जयो० २/४) संहति (स्त्री०) समूह। (सुद० १२३) सहतलिप्स (वि०) मिलनेच्छुक। (जयो० १६/५७) संहारकारक (वि०) बरबाद कारक, नष्ट कारक। (समु०
१/२३) (वीरो० ३/१३) संहारकर्ता (वि०) नष्ट करने वाला। सय् (सक०) जाना, पहुंचना। सयूक्ष्यः (पुं०) [सयूथ+यत्] एक ही वर्ग का, एक जाति का। सयोनिः (वि०) [समाना योनिर्यस्य] सहोदर, समान गर्भ से
उत्पन्न। सर (वि०) [सृ+अच्] गतिशील, जाने वाला।
०दस्तावर, रेचक। सरः (पुं०) बाण।
गति, जाना।
०लड़ी, हार। सरम् (नपुं०) सरोवर, तालाब, झील, तटाक। (जयो० ५/२२)
(सुद० ४/२५) (जयो० १२/१४०) सरकः (पुं०) [सृ+वुन्] पंक्ति।
मदिरा। (जयो० १६/२७, ११/७६) मद्य।
०प्याला, कटोरा। सरकम् (नपुं०) गति, जाना,
तालाब, सरोवर। सरधा (स्त्री०) मधुमक्खी, मक्षिका। (जयो०वृ० २/१३०) सरङ्गः (नपुं०) [ सृ+अङ्गच] चतुष्पाद, चौपाया।
०पक्षी। सरजस् (स्त्री०) रजस्वला स्त्री। सरट् (पुं०) [सृ+अटि:] पवन, वायु।
मेघ, बादल। छिपकली। ०मधुमक्खी ।
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सरट:
सरट: (पुं०) [सृ+अच्] ०पवन, वायु । ० छिपकली गिरगट (जयो० ५/१३)
"
।
सरटि (पुं०) (सु+अटिन् ] ०पवन, वायु सरण (वि०) [सु+ ल्युट्] गतिशील, जाने वाला, सरणम् (नपुं०) प्रगतिशील, गतिशील।
० लोहे की जंग |
सरणिः (स्त्री० ) [ ऋ + नि:] रास्ता, पथ, ० नसैनी, सीढ़ी। (जयो० १ / ८९ ) ० पंक्ति।
०कण्ठरोग।
सरंड: (पुं०) [सृ-अण्डच्] पक्षी ० धूर्त, लम्पट
० एक आभूषण
मार्ग।
० उग्र |
० क्रोधपूर्ण
० प्रसन्न ।
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सरण्य (पुं०) [सु+अन्युच्] ०पवन, वायु । ० मेघ, बादल।
सरलिः (स्त्री० / पुं०) एक हाथ का माप । सरथ (वि०) समानो रथो यस्य रथेन सह वा) एक ही रथ
पर सवार ।
,
सरन्धः (पुं०) गहर, गर्त छिद्र (जयो० २४/२७) सरभस् (वि०) [सहरभसेन] वेगवान्, फुर्तीला ।
० प्रचण्ड |
बहने वाला।
सरभसम् (अव्य०) अत्यन्त वेग
सरमा ( स्त्री० ) [ सृ + अम्+टाप्] एक नाम विशेष ।
सरयु (सृ+अयु) हरा, पवन, वायु
० (स्त्री०) सरयु नदी जिसके किनारे अयोध्या नगरी बसी हुई है। सरल (वि० ) [ सृ+अलच् ] सीधा, वक्रता रहित, ऋजु । (जयो०वृ० ८/४४ )
० निश्छल मनो वचः शरीरं स्वं सर्वस्मै सरलं भजेत्। (सुद० १२५)
० निष्कपट |
११६७
० सीधा-सादा।
० अनक निष्पाप । 'अनकं कष्टवर्जितं सरलमित्यर्थः ' (जयो०
१/१०९)
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सरल: (पुं०) सरल वृक्ष, चीड़ तरु । ० अग्नि ।
सरलत्व (पुं०) ऋजुता युक्त । ( हित० ४५ )
सरलपरिणामः (पुं०) ऋजुता के भाव (जयो०वृ० ८/०४४) सरस् (नपुं० [सृ+असुन्] तटाक, तालाब, सरोवर पोखर सरस (वि० ) [ सेन सह ] रसवती । (जयो० ३/४७)
०
०सरल (सुद० २/६)
० सजल (जयो०० ३/४७ )
०उत्तम (सुद० ७८) रसपूर्ण (जयो०वृ० १/४)
सरस्वती
सरसम् (नपुं०) झील, तटाक, तालाब
।
सरसता (वि०) रस सहित रस से परिपूर्ण
,
सरसत्व (वि०) सरसता से संयुक्त (जयो०वृ० १४/५१) नम्रता (जयो० १२/२७) निम्नगेव सरसत्वमुपेता' (सुद० १२२४३)
सरसभाव: (पुं०) स्वभाव / सरसतया सकामभावेन (जयो०वृ० ४/१७) ०पूर्ण रस सहित स्वभाव सरल परिणाम | सरसहास (वि०) प्रिय हास्य (जयो० ४/५३) सरसा (वि०) शृंगार रसवती (जयो० १०/११०)
सरसी (स्त्री० ) [ सरस्+ ङीष् ] सरोवरी, (सुद० २/१) तटाकी, पोखरी स्रोतो विमुच्य स्रवणं स्तनान्ताद यूनामिदानीं सरसीति कान्ता' (वीरो० १२/१३०)
"
सरसीरुहम् (नपुं०) कमल, सरोज ।
सरसलेश: (पुं०) माधुर्य स्थान (जयो० ६/४६) सरसेङित (वि०) शृंगारमयचेष्टा | (जयो० २२ / १८ ) सरस्वत् (वि० ) [ सरस्+ मतुप् ] सजल, जलयुक्त। ०रसीवा, रसयुक्त, स्वादिष्ट ।
सरस्वत् (पुं०) उदधि, समुद्र । (जयो० ९/६१)
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०सर, तालाब, नद। सागर
सरस्वती (स्त्री०) [सरस्वत् ङीप् ] ०भारती वाणी, पद्मासिनी। (जयो० १९ / २८) (जयो० २/४१)
०वचोऽभिदेवता (जयो०वृ० १२/२)
०गी (जयो०वृ० १२/१३ ) ०वागेश्वरी ० वागिनी ।
० अम्बा (जयो० १२/२) अम्बेश्वरी
० मयूरवाहिनी, चतुर्भुजावती,
० कलापिनाभी, कल्याणी ।
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सरस्वतीसंग्रह
११६८
सर्गः
शिखण्डिनीशिरोमणि। जिनवाणी। (जयो०वृ० १९, २४, २५, २६) शारदा (जयो० १९/२९) सिद्धिदा (जयो० १९/३२) नदी (जयो० ५/१०७, ५/११०) गाय।
श्रेष्ठ स्त्री। ०बोली, वचन। सरस्वतीसंग्रह (पुं०) सरस्वती का ग्रहण, काव्य रचना। (समु०
१/१२) सराग (वि०) [सह रागेण] राग युक्त, प्रेम से परिपूर्ण, मुग्ध,
आसक्त। राग परिणाम सहित, जो संसार के कारणों को छोड़ने
में उद्यत है पर छोड़ नहीं पाता। (सम्य०८६) (सुद०८४) सरागचर्या (स्त्री०) राग सहित चर्या।। सरागचारित्रम् (नपुं०) कषाय जन्य चारित्र, संज्वलन और नो
कषाय के उदय से जो चारित्र होता है। सरागसम्यक्त्वम् (नपुं०) जो तत्त्वार्थ श्रद्धान प्रशम, संवेगादि
गुणों से जाना जाता है। सरागसंयमः (पुं०) राग सहित संयम। सराव (वि.) [सह रावेण] शब्द करने वाला, कोलाहल
करने वाला। सरावः (पुं०) ढक्कन, आवरण।
०सकोरा, तश्तरी। सरिः (स्त्री०) [सृ+इन्] झरना। प्रवाह, स्रोत। सरित् (स्त्री०) [सृ+इति] नदी, सरिता। (सुद० १०४)
(जयो०१३/५६) प्रवाहिनी, कल्लोलिनी।
०धागा, सूत्र। सरित्सुवेशिनी (वि०) नदी रूपवती। (जयो०७० ३/१०)
विभङ्गदेशिनी, तरंगधारिणी (जयो०७०३/१०) सरिद्भवदुर्मी (स्त्री०) नदी में उत्पन्न तरंग। (जयो० १४/१९) सरित्भर्तृ (पुं०) समुद्र, उदधि। सरिवृत्तिः (स्त्री०) नदी तट। सरितो नद्या वृती चोभयपार्श्वतती
(जयो० १३/५७) सरिदवलम्बनामकचक्रबन्धः (पुं०) छन्द प्रतिपादन की एक
पद्धति। (जयो० १४/५६)
सरिमन् (पुं०) [स-ईमनिच्] गति, सरकना।
०पवन, वायु। सरिलम् (नपुं०) [सृ+इलच] जल। ०वारि, अप, आप। सरीसतिः (स्त्री०) शीत की अधिकता। (वीरो० ९/३५) सरीसृपः (पुं०) सर्प, सांप, रेंगने वाला जंतु। सरुः (पुं०) [स+उन्] तलवार की मूठ। सरूप (वि०) [रुषेन सह] रोष युक्त। (जयो० ६/६७) सरूप (वि०) रूप युक्त, समान रूप वाला। सरोजम् (नपुं०) कमल। (सुद० २/३२) सरोजराजि (स्त्री०) कमल समूह। (जयो० १०/११८) कमल
श्रेणी। (जयो० ५/७९) सरोजवीरुधा (स्त्री०) कमलिनी। (जयो० १७/७७) सरोजिनी (स्त्री०) कमलिनी/कमलवल्ली।
सरोजिनी नायडू। (जयो० १८४८३) सरोजिनी सौरभम् (नपुं०) कमलिनीगंधा (वीरो० १२/२२) सरोब्जवृन्दः (पुं०) कमल समूह। (जयो० १२/१४०) सरोगः (पुं०) तटाक, तालाबा मराल एवान्वयते सरोगः, परं
मुरल्यां विवरप्रयोगः। (समु० ६/७) सरोरुहम् (नपुं०) कमल। (सुद० २/३३) (जयो० १/९३) सरोवरः (पुं०) जलाशय, तालाब, (समु०५/१५) (सुद०२/४५)
(जयो० ३/२४, १/४३) सरोवरजलम् (नपुं०) जलाशय का जल। (जयो० ४/५९)
विशिष्टं नीरं सरोवरजलम्। सरोवरभङ्गः (पुं०) सरोवरस्य भङ्ग। (जयो० ४/५९) तरङ्ग। सरोवरी (स्त्री०) हंसिनी, तडांगी। (जयो० १३/१८) अधिपस्य
बभौ तनूदरी विलसद्धंसवयाः सरोवरी:। (सुद० ३/३)
तलैय्या (समु० ३/१३) सरोष (वि०) [सह रोषेण] रोषपूर्ण, क्रोधित, कुपित। सरोषदोषः (पुं०) रोषपूर्ण, दोष। (जयो० १७/५४) सर्कः (पुं०) [सृ+क] पवन, वायु, हवा।
०मन। सर्गः (पुं०) [सृज्+घञ्] निर्माण। (जयो० ११/४५) (जयो०
११/८४)
अध्याय-देशादेपतेश्च वर्णपरः सर्गोऽयमाद्योऽनकः। (सुद० पृ० ४७)
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सर्गक्रमः
११६९
सर्वाङ्गीणं
० छोड़ना, परित्याग करना।
सर्पिन (वि०) [सृप+णिनि] रेंगने वाला, सरकने वाला। ० सृष्टि रचना।
सर्पिविधानम् (नपुं०) घृत क्रिया। (जयो०१० २/१४) ० अनुभाग, अंश। ० अध्याय, अध्ययन।
सर्पिस् (नपुं०) [सृप्त इसि] घी, धृत। (सुद० ७२) ० निर्माण (वीरो० ४/२०) क्रम।
सर्पिष्मत् (वि०) [सर्पिस्+मतुप्] घी युक्त, घृत युक्त। सर्गक्रमः (पुं०) सृष्टिक्रम, अनुक्रम।
सर्ब (सक०) जाना, पहुंचना। सर्गपरिणामः (पुं०) पर्यटन भाव। (जयो० १८/५५) सर्मः (पुं०) चाल. गति। स (सक०) अवाप्त करना. प्राप्त करना, उपलब्ध करना, ० आकाश। उपार्जन करना। (सुद० २/३६)
सर्व (सक०) चोट पहुंचाना, घायल करना। सर्जक (वि०) स्रष्टा (जयो०७० ७/३३)
सर्व (वि०) (सर्वनाम) सभी जगत्, सर्वत्र (जयो० २१/१७) सर्जः (पुं०) [सृज्+अच्] सालवृक्ष। (जयो० १४/१५)
सब, प्रत्येक। (जयो०१/२५) सर्जकः (पुं०) साल वृक्षा
० समस्त अवयव। (सुद० १/११) सर्जनम् (नपुं०) [सृ+ल्युट्] परित्याग, छोड़ना।
सर्वषः (पुं०) दुष्ट, दुर्जन। सर्जवृक्षः (पुं०) सालवृक्षा (जयो० १४/१५)
सर्वकांक्षा (वि०) सभी तरह की आकांक्षा। सर्जिका (वि०) [सर्जि+कन्+टाप्] सज्जीखार।
सर्वग (वि०) सर्वव्यापक। सर्जुः (पुं०) व्यापारी।
सर्वगत (वि०) व्यापक। (हित० १४) सर्पः (पुं०) [सृप्+घञ्] नाग, अहि, सांप, काद्रवेय (जयो० । सर्वगामिन् (वि०) सर्वव्यापक, पूर्ण व्याप्त, सभी जगह पहुंचने ११/९६) भुजंग। (दयो० २५/६९) (सुद० १०५) (सुद०
वाला। १/३०)
सर्वदेवमय (वि०) सबसे प्रमुख, देव युक्त। (दयो० १०६) ० खिसकना, गमन, अनुसरण।
सर्वदैव (अव्य०) सदा ही, हमेशा ही। (जयो०० १/४२) सर्पछत्रम् (नपुं०) कुकुरमुत्ता।
सर्वज्ञात (वि०) सब कुछ जानने वाला। (वीरो० २०/५) सर्पणम् (नपुं०) [सृप्+ल्युट्] रेंगना, सरकना।
सर्वज्ञ (वि०) सब कुछ जानने वाला। सकलज्ञ। (जयो०वृ० ० वक्रगति. कुटिलगति।
८1८८) अखिलार्थसाक्षात्कारी। (सम्य० ९५) लोकोलोक सर्पतृणः (पुं०) नेवला।
के समस्त पदार्थों को जानने वाला। सर्पदंश (वि०) भुजग भुक्त। (जयो०वृ० २५/६७)
० दोषवृत्ति रहित सर्व ज्ञापक। सर्पदंष्टः (पुं०) दर्प दांत।
सर्वज्ञः (पुं०) जिन, वीतराग प्रभ। विश्वभर. त्रिलोकनाथ। सर्पधारकः (पुं०) सपेरा।
मोहवर्जित सर्वज्ञः। (जयो०वृ० १६/९५) सर्पभुज् (पुं०) ० मयूर,
सर्वजित् (वि०) विजयी, विजेता, सर्वजयी। ० सारस।
सर्वपरिस्तवः (पुं०) सर्वज्ञस्तुति। (वीरो० १८/३०) ० अजगर।
सर्वज्ञचूडामणि (पुं०) वीरप्रभु। (वीरो० १२/५३) सर्पमणिः (पुं०) नागमणि।
सर्वज्ञजिनः (पुं०) वयोऽस्तु सर्वज्ञजिनस्यचेति-वीतराग प्रभु। सर्पराजः (पुं०) वासुकि।
(वीरो०१४/१७) ___० शेषनाग। (जयो०वृ० ११/३१)
सर्वज्ञदेवः (पुं०) जिनदेव। (मुनि० २९) सर्पसरोवरः (पुं०) सर्पस्थान। (जयो० २३/७१) . सर्वज्ञवाक् (नपुं०) सर्वज्ञ वचन। (मुनि० ३१) सर्वज्ञवाणी। सर्पशिरोलम् (नपुं०) नागमणि। (जयो०वृ० २/१६)
(भक्ति० १३) सर्पिणी (स्त्री०) [सृप्+णिनि+ङीप्] पन्नगी। (जयो०१० ३/५५) सर्वविद (वि०) सब कुछ जानने वाला। (जयो०वृ० १/१)
सांपनी, अहिनी, नागिन। भुजरीचरा (जयो० २०/६८) सर्वसात् (वि०) सकल जनादीन। (जयो० २/१३३) ० जड़ी, बूटी।
सर्वाङ्गसुंदर (वि०) अविकलित सुंदर। (जयो०१० २२/५) सर्पिन् (वि०) व्यापिन् । (जयो० ५/५७)
सर्वाङ्गीण (वि०) पूर्णतः, पूर्ण रूप से। (सुद० १०२)
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सर्वज्ञत्व
सर्वज्ञत्व (वि०) सर्वज्ञपना (सम्य० ९३ )
+
"
सर्वज्ञासम्बन्धि (स्त्री०) सर्वज्ञ से सम्बन्धि (वीरो० २० / २३) सर्वतः (अव्य० ) [ सर्व तसित्] प्रत्येक दिशा से, (जयो० २/२७) सब ओर से चारो ओर से (सुद० ९१ ) सर्वदमन् (वि०) सब कुछ नष्ट करने वाला। सर्वनामन् (नपुं०) संज्ञा के स्थान पर प्रयुक्त होने वाले शब्द । सर्वत्र (अव्य०) [सर्वत्र] प्रत्येक स्थान पर सब जगह पर (सम्य० ९२, १३३ )
"
सर्वतोऽपि (अव्य०) सभी ओर से भी (जयो० ३/९) सर्वतोमुखम् (नपुं० ) ० जल ।
० चुम्बन सर्वतोमुखं जलम् अर्थाच्च सर्वभावेन तव मुखं (जयो०वृ० १२ / १२९)
० नाम विशेष। (जयो० १४ / ५६ )
सर्वतोभद्रकः (पुं०) सभामण्डप (जयो० ३/७१ ) सर्वतोमुखं (नपुं०) जल, वारि । (जयो० १२ / १११ ) सर्वथा (अव्य० ) [ सर्वथाल्] हर प्रकार से, सब तरह से, पूर्णता, पूर्ण रूप से ( मुनि० ३)
बिलकुल, नितान्त |
सर्वदा (अव्य०) (सर्व+ दात्र] सदैव (मुनि० १४ ) हमेशा सर्ववित्क (वि०) सर्ववेत्ता । (वीरो० २०/२१) सर्ववेत्ता (वि०) सर्वज्ञ ० सर्वज्ञायक (वीरो० २० / ११) ० परमात्मन् (वीरो० १६ / २६ )
०
+
·
सर्वशः (अव्य० ) [ सर्व शस्] पूर्णत: पूरी तरह से सर्वत्र सर्वशावकसन्तति (स्त्री०) सर्वकाल वाला। (जयो०वृ० ३ / ५५ ) सर्वसत्त्वः (पुं० ) प्राणिमात्र । (वीरो० १२/४३) हितं प्रकर्तुं प्रति सर्वसत्त्वम् ।
सर्वसम्मत (वि०) पूर्णमान्य, सभी लोगों द्वारा स्वीकृत | (जयो० २/४४)
O
सर्वसाधारणं (नपुं०) सामान्य (जयो०वृ० १/८६) सर्वस्यदायक (वि०) सब कुछ देने वाली (जयो०वृ० १२/८७ ) सर्वस्यविनाशन ( वि०) मूल हरण (जयो० २ / ११० ) सर्वात्मप्रियः (पुं०) सभी आत्मीय जनों के लिए प्रिय (वीरो०
१६/२७)
सर्वानुकम्पा (स्त्री०) सभी जीवों के प्रति दया। सर्वाधि-व्याधिनाशक (वि०) समस्त आधि एवं व्याधि को
नाश करने वाला (जयो० १९/८१ ) णमो मदु रसवीणं" सर्वारम्भ: (पुं०) सभी प्रकार का आरम्भ । (जयो० २० / ४१ ) सर्वार्थसिद्धिः (स्त्री०) तत्त्वार्थसूत्र की एक टीका ।
११७०
सलील
जो भी प्रकार के अभ्युदय से सिद्धि को प्राप्त है।
०
विशुद्धात्मस्वरूप की सिद्धि।
० वीतराग अवस्था की प्राप्ति ।
सर्वावधि (स्त्री०) जिसके विषय की अवधि समस्त विश्व है। सर्वं विश्वं कृत्स्नमवधिर्मर्यादा यस्य स बोधस्सर्वावधिः ' सर्वावधिज्ञानम् (नपुं०) सम्पूर्ण अवधि का बोध । (समु० ४/३१)
सर्वावधिबोध: (पुं०) सर्वावधिज्ञान (समु० ४/३१) सर्वावधिमरणम् (नपुं०) सर्व मर्यादा पूर्वक मरण, जो प्रकृति,
स्थिति, अनुभव एवं प्रदेश का उदय हो, वह बांधना । सर्वावयवः (पुं०) पूर्ण अवयव । (जयो०वृ० ३ / ७९ ) सर्वोदयतीर्थ (पुं०) निरपेक्ष तीर्थ सभी का कल्याणकारक
०
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का स्थान।
सर्वौषधिः (स्त्री०) एक ऋद्धि, जिसकी प्राप्ति पर समस्त औषधियां प्राप्त हो जाती हैं। सर्षपः (पुं०) सरसों
सल् (सक०) जाना, पहुंचना ।
सलम् (नपुं०) [सल्+अच्] जल, वारि
सलक्ष्मण (वि०) लक्ष्मण सहित । (जयो० १३/५९) अभिरामतया
सलक्ष्मणा ।
• लक्ष्मण नामक औषधि सहित। सलक्ष्मण, लक्ष्मणा नाम सारस्यस्ताभिः सहिता ।
• लक्ष्मणेन च सहिता । (जयो०वृ० १३/५९) सलज्ज (वि० ) [ लज्जया सह] लज्जशील, विनम्र ।
० सत्रप।
सललितगेय (वि०) श्रोत्रेन्द्रिय को प्रिय लगने वाला गीत। सलव (लवेन सह) विलास सहित (जयो० १३/५९) सलालसा (वि०) लालसा सहित। (जयो० ११ / १) सोत्कठा । सलिलम् (नपुं० ) [ सलति गच्छति निम्नम् सल् + इलच् ] जल, वारि । (जयो ० १ / ५० )
० पाताल (जयो०वृ० १/५०) सलिलक्रिया (स्त्री०) स्नान क्रिया । सलिलजम् (नपुं०) कमला
सलिलनिधिः (स्त्री०) समुद्र, वारिधि । सलिलाशय (पुं०) तालाब, सरोवर सलिलोद्भवः (पुं०) कमल। (जयो० १८/९) सलील (वि०) ( सहलीलया] क्रीड़ा शील, स्वेच्छाचारी लीलायुक्त, प्रणयवान् प्रेमासक्त विषयी |
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सलोकता
११७१
सव्याज
सलोकता (स्त्री०) [समानः लोको यस्य इति सलोकः तस्य | सविभव (वि०) [सत्त्वेन सह] प्राणियों सहित। भावः तल्+टाप्] एक ही लोक का होना।
आन्नदायिनी। (जयो० ३/११५) सल्लकी (स्त्री०) एक वृक्ष विशेष।
सवितानुकूलः (पुं०) सूर्यानुकूल। (वीरो० १२/२३) सल्लीन (वि०) मुग्धा (जयो०१० २३/५)
सवितृ (वि०) जनक, उत्पादक। जन्म देने वाली। (जयो०१/६४) सवः (पुं०) [सु+अच्] तर्पण, चढ़ावा।
सवितृ (पुं०) सूर्य, रवि। (जयो० ८।८९) ० स्तवन। (जयो० १/११)
सवित्री (स्त्री०) माता। ० गाय। ० सूर्य।
सविध (वि०) [सह विधया] विधि सहित। ० यज्ञ।
सविधम् (नपुं०) सामीप्य, पड़ोस। ० चन्द्र।
सविनयम् (अव्य०) विनयपूर्वक। सवर्णा (स्त्री०) सवर्ण संज्ञा। तुल्या वर्णनां यस्याः साऽसि वः । सविभावः (पुं०) सूर्य। (जयो० १३/१२)
सान्त्वनार्थे वर्तते, तेन सान्त्वनेन सहितः सवस्तस्मिन्नणं सविभूति (वि०) विभूति युक्त, भस्मधारक। विभूतिमत्त्वं कृपा यस्याः सा सवर्णाऽसिः। (जयो० ६/८५)
वैभवयुक्तता भस्मधारिता। (जयो०वृ० १/३०) सवल्गः (पुं०) खलीनसहित, लगाम। (जयो० २१/१९) | सविलास (वि०) हास भाव परक। (जयो० १०/११९) सवदर्शनम् (नपुं०) विवाहोत्सवावलोकन। (जयो० १०/१३) सविशेष (वि०) [सह विशेषेण] विशिष्टता युक्त। सवनम् (नपुं०) [सु+ल्युट्] ० यज्ञ।
० असाधारण। ० स्नान।
० प्रमुख, श्रेष्ठ। (सुद० ३/३१) ० जनन, प्रसव।
० विलक्षण। सवराज्यम् (नपुं०) राज्याभिषेक। (जयो० २६/१८)
सविस्तर/सविस्तार (वि.) [सह विस्तरेण] विवरण सहित, सवयस् (वि०) [समानं वयो यस्य] समवय वाला, समान विस्तार युक्त। (जयो० ४/६४) अवस्था युक्त।
सविस्मय (वि०) [सह विस्मयेन] आश्चर्यचकित, आश्चर्य सवयस् (पुं०) मित्र।
जनक, चकित, अचम्भे युक्त। (सुद० १०७) सवयस् (स्त्री०) सखी, सहेली, सहचरी।
सवृद्धिक (वि०) [सह वृद्ध्या] वृद्धि युक्त, ब्याज युक्त। सवरः (पुं०) जल। ० शिव।
सवेग (वि०) सरभ, सहसा। (जयो०८) सवर्ण (वि०) [समानो वर्णो यस्य] समान वर्ण वाला, एक ही सवेश (वि.) [सह वेशेन] अलंकृत वेश युक्त। __ रंग वाला। तुल्या वर्णानां यस्या साऽसि (जयो० ६/८५) सवेग (सह वेगेन) वेग युक्त, तीव्रता सहित। (जयो० १/१९) वर्ण श्रवणशील। (जयो० १/६२)
सवेगगमनम् (नपुं०) शीघ्र गमन। (जयो० १/१९) ० तुल्य वर्ण। (जयो० ६/८५)
सवेदन (वि०) ज्ञान सहित। ० उच्च वर्ण वाला। (हित० ९)
० वेदना सहित। (जयो० ११४८९) अलंकरण सहित, • एक ही जाति वाला।
वेशभूषा सहित। सवर्णसंज्ञा (स्त्री०) वर्गों का समान संज्ञा।
सव्य (वि०) [स्+य] बाया, वाम। (जयो० २४/१०) सवसंत (वि०) जड़ता का अन्त। (सुद० ८१)
० वाम। सविकल्प (वि०) [सह विकल्पेन] विकल्पयुक्त।
० दक्षिणी। ० संदिग्ध।
० विरोधी। (जयो० २५/६४) सविक्रिय (वि०) विकार युक्त। (जयो० ७/७३)
सव्यम् (अव्य) अपसव्य। सविग्रहः (वि.) [सह विग्रहेण] संघर्षरत।
सव्यपेक्ष (वि०) [व्यपेक्षया सहा संयक्त. निर्भर . सार्थक।
सव्यभिचारः (पुं०) [सह व्यभिचारेण] हेत्वाभास का एक सवितरः (पुं०) सूर्य। (दयो०५२) सवितर्ज (वि०) विचारवान्।
सव्याज (वि.) [सहव्याजेन] छलक पटी, चालाक।
भेद।
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सव्यपार
११७२
सहजप्रयातः
सव्यपार (वि०) [व्यापारेण सह] व्यस्त, व्यापृत, कार्य में
नियुक्त। सवीड (वि०) [वीडया सह] लज्जाशील। सव्येष्ठ (पुं०) [सव्ये तिष्ठति-सव्ये स्था+वरन्] सारथि। सशक्त (वि०) ताकतवर, सामर्थ्य युक्त। (भक्ति०पृ० १०) सशर्म (वि०) शान्ति सहित। (जयो०२३/५०) सशल्य (वि.) [सह शल्येन] कांटेदार, शल्य युक्त, पीड़ा
जनक। सशस्य (वि.) [सह शस्येन] अन्नोत्पादन सहित, धान्य से | ___ परिपूर्ण सशीकर (वि०) जलकण युक्त। (भक्ति० १४) सशमश्रु (वि०) [सह श्मश्रुणा] दाड़ी मूंछ वाला। सश्रीक (वि०) [श्रिया सह] लक्ष्मी सहित, समृद्धियुक्त।
प्रिय, सुंदर। सशुद्ध (वि०) शुद्धोपयोग युक्त। (सम्य० ११५) सस् (अक०) सोना, शयन करना। ससत्त्व (वि.) [सह सत्त्वेन] ओजस्वी, शक्तिशाली, प्राणवंत,
साहसी। ससन्देह (वि०) [सह सन्देहेन] संदेह युक्त, संशय युक्त,
संदिग्ध। ससन्देहः (पुं) संदेह अलंकार। ससनम् (नपुं०) [सस्+ल्युट्] शमन। ससन्थ्य (वि०) [सन्ध्या सह] सन्ध्या सहित, सायंकालीन। ससार (वि०) सारभूत। (जयो० २८/७१) सारेण सहित।
(जयो० ५/१६) ससित (वि०) सितया सहितं ससितः मिश्री युक्त। (जयो०
२/१५२) सस्पृहा (स्त्री०) साभिलाषा, इच्छा, वाञ्छा। (जयो०वृ० ।
३/४६,११) सस्पन्दनभावः (पुं०) स्फुरभाव। (जयो० १८/६) सस्मित (वि०) मन्द हास्य युक्त। (वीरो० ७/३६) ससुतः (वि०) पुत्र सहित। (सुद० ३/१२)
संस्तवः (पुं०) स्तवन करना, रक्षण करना। (जयो० ३/७) • सस्मर (वि०) कामात, काम से पीड़िता (सुद. ८६)
सस्यम् (वि०) अच्छे गुणों वाला। सस्वज (वि०) समालिविङ्गत । (जयो० १४/९१) सस्वेद (वि०) [सह स्वेदेन] पसीने से युक्त, स्वेद से तर। सह (सक०) संतुष्ट करना, झेलना। सहेरन् (सुद० २/४४)
० सहन करना।
० सामना करना। (जयो० १४८४) सह (वि.) [सह+अच्] सहन करने वाला, झेलनेवाला।
० धीर।
० योग्य। सह (अव्य०) के साथ, साथ साथ, सहित, युगपत। (सुद०
८८/ (जयो०वृ० १/१८) सहकारः (पुं०) सहयोग। (सुद० ८१) सहकार (पुं०) आम्र, (सुद०८१) आम्रवृक्ष (जयो० २२/४)
(वीरो० ६/२१)
आम्रस्य गुञ्जत्कलिकान्तरालेर्नीलीकमेतत्सहकारनाम्। सहकारगणः (पुं०) आम्रवृक्षा (वीरो० ६/३५) सहकारतरु (पुं०) आम्र किसलय। (जयो० १०/२६) सहकारिन् (वि०) सहायता करने वाला। (जयो० १४/६५) सहकारिता (वि०) सहयोगी। सहकारित्व (वि०) सहभाव, सहयोग। (जयो० वृ० ३/७०,
जयो० १/२९) सहायता। सहकारिकुण्डः (पुं०) सहयोगी कुण्ड। (जयो० ११/३०) सहकारिसत्ता (स्त्री०) सहकारी पना, सहयोगपना, सहभाविता,
सगभागिता। (जयो० ) सहकृत् (वि०) सहयोग देने वाला। सहकृत् (पुं०) सहकर्मी। सहगमनम् (नपुं०) साथ जाना। सहगामिन् (पुं०) अनुचर, सेवक। (भक्ति० २५) सहचर (वि०) साथ में जाने वाला, साथ रहने वाला। सहचरी (स्त्री०) सखी, सहेली (दयो० ६५) सहभागिनी
सहयोगिनी। (जयो०१० ५/७३)
भिण्डी का वृक्षा (जयो० २१/३९) सहचरित (वि०) सेवा में उपस्थित रहने वाला। सहचारिणी (स्त्री०) साथ चलने वाला। (सुद० २/३४) सहचारिन् (वि०) मित्र, यार। सहचेति (अव्य०) साथ ही। (वीरो० ७/३५) सहज (पुं०) नैसर्गिक, स्वाभाविक। (जयो० १/३) (सुद०८१)
० सरल (जयो० ४/३३) सहजक (वि०) स्वाभाविक, नैसर्गिक। (जयो० २/११२) सहजकवि (पुं०) सरल कवि, स्वाभाविक कवि। (सुद०७४) सहजक्रीर्तिमान् (वि०) यशस्वी। (जयो० २९/६७) सहजप्रयातः (पुं०) सहज स्वभाव। (वीरो० १९/३४)
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सहजभावः
११७३
सहायवत्
सहजभावः (पुं०) स्वाभाविक परिणाम। (सुद० ३/३०)
सहजभावेन सञ्जातः सुदर्शन एष भो भ्रातः। सहजमञ्जलप्रायः (वि०) सहज सुंदर स्वभाव वाली। ० प्रियांशुनी,
सम्भाषिनी। (सुद०७५) सहजमेषः (पुं०) निर्ग्रन्थ, दिगम्बर। (वीरो० २२/७) सहजात (वि०) सहजभाव गत। (जयो० १२/१३७) सहजेन
स्वभावेनायातासहता (स्त्री०) [सह तल+टाप] साहचर्य, मेल, मिलाप। सहत्व (वि०) साहचर्य युक्त। सहदार (वि०) विवाहित, सपत्नीक। सहदेवः (पुं०) पाण्डवों का एक भाई। (जयो० १/१८) सहधर्मः (पुं०) समान कर्त्तव्य। सहनम् (नपुं०) झेलना, सहन करना। सहपांशुक्रीडिन् (पुं०) मित्र, सखा। सहभावः (पुं०) सहकारिता (जयो० ३/७०) सहभाविन् (पुं०) मित्र, सखा, अनुचर। सहभू (वि०) सहजात, एक साथ उत्पन्न हुआ। सहमरणम् (नपुं०) सह गमन। सहयोगः (पुं०) [सहार्थेन योग:] सह भाव, सहकारिता।
(सुद० ११९) ० सहभागिता। सहयोगिनी (स्त्री०) सहधार्मिणी (हि०सं० १२, वीरो० १८/३२) सहर्ष (वि०) हर्षयुक्त। (जयो० १२/२२) सहवसतिः (स्त्री०) मिलकर रहना। • मिथुन क्रीड़ा। ० संभोग। सहवासः (पुं०) मिलकर रहना। सहस् (पुं०) [सह असि] मगसिर माह, सर्दी का समय।
० शक्ति, सामर्थ्य। सहस (वि०) हास युक्त। (सुद० २/३७) सहसा (स्त्री०) अनायास, अचानक, अकस्मात्। (जयो०
६/१२८) सहज (सुद० ८१) (जयो० ३/९८)
० तभी, तव (सहायेन सहसा) (सुद० ९५) सहसानः (०) [सह्+असानच्] ० मोर, मयूर।
० यज्ञ।
० आहूति। सहसान्धकारः (पुं०) दैत्य विशेष। सहसैव (वि०) एकाएक (दयो०७) (जयो० १८/३०, २२/४०) सहस्यः (पुं०) [सहसे बलाय हितः सहस्+यत्] पौष मास। सहस्रम् (नपुं०) हजार। (वीरो० ३/३) । सहस्रकरः (पुं०) सूर्य, दिनकर। (जयो० १५/३१)
सहस्रकिरणः (पुं०) दिवकान्त, सूर्य, भानु। सहस्रकाण्डः (पुं) सफेद दूब। सहस्रकृत्वम् (अव्य०) हजार बार। सहस्रद (वि०) उदार। सहस्रदीधितिः (पुं०) सूर्य। ० दिवाकर, दिनमणि। सहस्रधा (अव्य०) हजार प्रकार से। सहस्रधामन् (पुं०) सूर्य। ० दिनपति। सहस्रपत्रम् (नपुं०) कमल। (सुद० ४/१९) सहस्रपादः (पुं०) सूर्य, दिनकर। सहस्रबाहु (पुं०) नाम विशेष, एक राजा का नाम। सहस्रमरीचिः (पुं०) दिनकर, सूर्य। सहस्ररश्मिः (पुं०) सूर्य। (जयो० १५/९१) सहस्रवयस् (पुं०) हजार वर्ष। (सुद० १/४५) सहस्रशस् (अव्य०) [सहस्त्र+शस्] हजार हजार करके।
बहुसंख्यक। (जयो० २१/२१) सहस्रसंभुजः (पुं०) सहस्त्रबाहु। (वीरो० ७/३०) सहस्राब्दिन् (पुं०) एक हजार वर्ष। (वीरो० १५/३०) सहस्रारः (पुं०) स्वर्ग। (समु० ४/३६) (वीरो० ११/३४) सहस्रांशु (पुं०) सूर्य। सहस्रांशुककीर्तनः (०) रजक, धोबी। (जयो० ७/९) सहस्रंशुतेजस् (नपुं०) सूर्यप्रभा। (जयो० २०/६३) सहनिन् (वि०) [सह स्त्र+इनि] हजार से युक्त, हजार संख्या
तक। सहस्वत् (वि०) [सहस+मतुप्] समर्थ, शक्तिशाली। सहा (स्त्री०) [सह्+अच्+टाप्] पृथ्वी।
. केतकी पुष्प। सहाभिगम (वि०) समागम, संयोग। (जयो० २५/५५) सहायः (पुं०) [सह एति-सह+इ+अच्] ० मित्र, सखा,
साथी, सहयोगी। (जयो० ६/११४) ० अनुयायी, अनुगामी। ० सहायक। (भक्ति० १६ )
० अभिभावको सहायक (वि०) सहभागी। (सम्य० १५) सहायकर (वि०) सहकारि, सहभागी। (जयो०वृ० १४/६५) सहायता (स्त्री०) [सहाय+तव्+टाप्] मैत्री, मिलाप।
० सहायता, सहयोग। (दयो० ९१) सहायधी (स्त्री०) साधनबुद्धि। (जयो० २५/५) सहायवत् (वि०) [सहाय+मतुप] मित्रों सहित, मित्रता से
बंधा हुआ।
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सहायिन्
११७४
साकेतम्
सहायिन् (वि०) सहयोगी। (जयो० २/५६)
सांवत्सरिकः (पुं०) दैवज्ञ, ज्योतिष। सहारः (०) [सह+ऋ+अच्] आम्र तरु।
सांवादिक (वि०) [संवाद ठञ्] संवाद वाला, विवादग्रस्त। ० प्रलय, विनाश।
सांवृत्तिक (वि०) [संवृत्ति+ठक्] तत्त्वविषयक। सहावान (वि०) आह्वानन। (दयो० २८)
सांव्यवहारिक प्रत्यक्षम् (नपुं०) इन्द्रिय और मन के आश्रय सहास (वि.) [ससेन सहितं सहास्यं] मंदस्मित युक्त। (जयो० से होने वाला ज्ञान। 'सांव्यवहारिक इन्द्रियानिन्द्रियप्रत्यक्षम्' ११/४९)
(लघीय० स्वो०वि० ४/७४) समीचीनः प्रवृत्ति निवृत्तिरूपो सहासवक्त्रं (वि०) प्रसन्नमुखी, स्मेरमुखी। (जयो०वृ० १५/७२) व्यवहारः सांव्यवहारः, स प्रयोजनमस्येति सांव्यवहारिकसहित (वि०) युक्त, संयुक्त।
प्रत्यक्षम् (प्रमेयरत्नमाला २/५) सहितम् (अव्य०) साथ साथ।
सांशिः (पुं०) म्लेच्छ। (जयो० २/१३०) सहित (वि०) सहनशील।
सांशयिक (वि.) [संशय+ठक्] सन्दिग्ध, संदेह होना। सहिम (वि०) पाले सहित। क्वापि बाधा समायाता द्रुमाकीवेष्यते
अनिश्चित। सहिमा। (सुद० १०९)
सांशयिकमिथ्यात्वम् (नपुं०) सर्वत्र संदेह बना रहना। सहिष्णु (वि०) [सह+इष्णुच्] सहन करने योग्य, समर्थ,
सांसारिक (वि०) [संसार+ठक्] संसार सम्बंधी, लौकिक, ___ शक्तिशाली। (जयो० ८/३५) (वीरो० १७/२८)
भौतिक, इहलोक सम्बंधी। सहिष्णता (वि०) क्षमाशीलता (जयो०व० ११४८८ जयो०व०
सांसारिकसौख्यं (वि०) सातावेदनीयजन्य सुख। ५/३०) ० धैर्यवान्।
सांसिद्धिक (वि.) [संसिद्धि+ठन्] प्राकृतिक, सहज, सहिष्णुत्व (वि०) सहनशीलता युक्त। परोत्कर्षसहिष्णुत्वम्।
स्वाभाविक, अन्तर्हित। (सुद०४/४२)
सांस्थानिकः (पुं०) [संस्थान ठञ्] समानदेशीय, एक ही सहुरिः (पुं०) सूर्य (स्त्री०) पृथ्वी, भूमि।
देश का निवासी। सहृदय (वि०) [सहहृदयेन] कृपालु, करुणाशील।
सांस्राविणम् (नपुं०) [सम्+उ+णिनि+अण] सामान्य प्रवाह। सहृदयः (पुं०) सज्जन। सहल्लेख (वि०) [हृदयस्य लेखः] सह हल्लेखेन। सन्दिग्ध) |
० सरिता। सहेल (वि.) [सह हेलेन] केलियुक्त, क्रीड़ावान्।
साहनिक (वि०) [संहनन ठक्] शारीरिक, कायिक, शरीर सहोदरः (पुं०) सगा भाई। (दयो० ८६) सहोदरोऽनुसर्तव्यो
सम्बंधी। यदिनासित विक्रिया। (हित० ११)
साकम् (अव्य०) [सह+अकृति] समर्थ के साथ, साथ मिलकर। सह्य (वि०) सहन करने योग्य।
(सुद० ९८) (वीरो० ११/७) सा (स्त्री०) [सो+उ+टाप्] लक्ष्मी, पार्वती।
० संभव। (सुद० २२/२) सा (अव्य०) समान, सदृशा (सुद० ३/४०) 'सोम सा
० युगपत्, एक साथ, एक ही समय। अन्नेन नाधुद्विंदलेन कैरव-हारमुद्रा'।
साकनाम। सांख्यः (पुं०) सांख्यदर्शन। (जयो०वृ० ५/२०)
साकल्यम् (नपुं०) [सकल+ष्यञ्] समष्टि, सम्पूर्णता, समग्रता। सांख्यमतः (पुं०) सांख्यदर्शन का पक्ष। (दयो० ९३) साकल्यदाता (वि०) सम्पूर्ण देने वाला। प्रकृति करोति कार्यं सुमहदहङ्कारपूर्वक मानात्।
साकल्यभाज् (वि०) भव्य सामग्री, हवन सामग्री। (जयो०२३/६) पुरुषश्चेतयते पुनरेव समयोऽपि सांख्यानाम्।। (दयो० ९३) साकूत (वि०) [सह आकूतेन] साभिप्राय, सार्थक, अर्थयुक्त। सांख्यसम्पत (वि०) सांख्य परम्परा युक्त। (दयो० ४१)
० अभिप्राय युक्त। सांयात्रिकः (पुं०) [संयात्रा+ठञ्] समुद्रव्यापारी, पोतवाणिक्। ० प्रिय, सुंदर, यथेष्ट। सांयुगीन (वि०) [संयुगे साधु] युद्ध सम्बन्धी, रणकुशल। साकूतम् (अव्य०) भावुकता सहित, मार्मिकता पूर्ण। सांराविणम् (नपुं०) [संराविन्+अण] उच्च स्वर, तीव्र कोलाहल। साकेतम् (नपुं०) [सह आकेतेन] अयोध्या नगरी का नाम। सांवत्सर (वि०) वार्षिक, सालाना।
उत्तमानि आकेतानि भवनानि। (वीरो० ११/२८)
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साकेतकः
११७५
सातल
साकेतकः (पुं०) अयोध्या निवासी। साक्षमता (स्त्री०) होशियारी। (समु० ७/१३) साक्षरः (पुं०) कर्कन्दु। (जयो०वृ० ६/९६) साक्षरा (स्त्री०) यक्ष प्राप्त। (जयो० २६/७८) साक्षरा (स्त्री०) पाशकवती। (जयो० २०/७७) साक्षात् (अव्य०) [सह्+अश्+आति]
० सौभाग्य शाली। (जयो० २/१५७) ० सामने, दृश्य के सम्मुख। ० व्यक्तिशः, वस्तुतः।
० प्रत्यक्ष। (सम्य० ११६) साक्षात्कारितः (वि०) समक्षता। परिचय (जयो० ६/६) (जयो०
२०६८०) साक्षिक (वि०) अनुभवकर्ता। (जयो० २२/४) साक्षितिः (स्त्री०) पृथ्वी, भूमि। (समु० २/१०) साक्षिणि: (स्त्री०) गवाही, संज्ञापन। (जयो० १२/४०) साक्षिन् (वि०) [सह+अक्षि+अस्य, साक्षाद् द्रष्टा साक्षी वा]
देखने वाला, अवलोकन करने वाला। (जयो० २६/३७) साक्षिन् (पु०) साक्षी, गवाही, प्रमाणभूत। (वीरो० ६/१४)
साक्षी स्मराक्षीणहविर्भुगेष (वीरो०६/१४)
० अवेक्षक। साक्ष्यम् (नपुं०) [साक्षिन्+ष्यज] साक्षी, गवाही।
० सत्यापन। साक्षेप (वि०) [सह आक्षेपेण] व्यंग्य युक्त, दुर्वचनयुक्त। साखेय (वि०) [सखि ढञ्] मैत्रीपूर्ण, सौहार्दपूर्ण। साख्यम् (नपुं०) [सखि+ष्यञ्] मित्रता, सौहार्द्र। सागरः (पुं०) [सगरेण निर्वृतः] सागर, समुद्र, उदधि, वारिधि।
सरस्वत। (जयो०वृ० ९/६१) सागरतटः (पुं०) समुद्र का किनारा। सागरगा (स्त्री०) गंगा। सागरगामिनी (स्त्री०) सरिता, नदी। सागरदत्तः (पुं०) चम्पापुरी का एक सेठ। (सुद० ३/३४) सागरनेमि (स्त्री०) मेखला, करधनी। सागरमेखला (स्त्री०) पृथ्वी। सागरानुकूल (वि०) समुद्र के किनारे स्थित। सागरायः (पुं०) सागर दत्त सेठ। (सुद० ३/४५) सागरालयः (पुं०) वरुण। सागावेतम् (नपुं०) श्रावक व्रत। (हित०सं० ३१) साग्नि (वि.) [सह अग्निना] अग्नि सहित।
साग्निक (वि०) [सह अग्निना] अग्नि से सम्बद्ध। साग्र (वि०) [सह अग्रेण] • समस्त। अत्यधिक, अपेक्षाकृत
अधिक रखने वाला। सार्यम् (नपुं०) [सङ्कर+ष्यञ्] मिश्रण, मिलाया हुआ, घोल.
मिश्र। (जयो० ३/८०) साङ्कल (वि०) [सङ्कल+ष्यञ्] संलग्न, जोड़, मिलान। साधेश्यम् (नपुं०) कुशध्वज की राजधानी। साडर (वि०) अंकुरसहित, रोमाञ्चित। (जयो० ३/९३) साडेतित (वि०) [सङ्केत ठक] संकेतपरक, प्रतीकात्मक इंगित। साक्षेपिक (वि.) [संक्षेप+ठक्] संक्षिप्त, छोटा, लघुक,
छोटा किया हुआ। साङ्ख्य (वि०) [सङ्ख्या+अण] संख्या सम्बंधी, गणक।
० आकलन करने वाला। साङ्ख्यपरम्परा (स्त्री०) सांख्यमत की परम्परा। (दयो०४१) सांङ्ख्यमतः (पुं०) सांख्यदर्शन की विचारधारा। प्रकृतिः करोति
कार्यं समुहदहङ्कारपूर्वक मानात्।
पुरुषश्चेतयते पुनरेवं, समयोऽपि साङ्ख्यानाम्।। (दयो०९३) साङ्ख्यसम्पद् (स्त्री०) सांख्य परम्परा। (दयो० ४१) साङ्ग (वि०) [सह+अङ्गैः] अंगों सहित। प्रत्येक भाग में पूर्ण। साङ्गतिक (वि०) [सङ्गति-ठक्] साहचर्य युक्त, समुदाय से
सम्बन्धित। साङ्गमः (पुं०) [सङ्गम+अण्] मिलन, संयोग, जुड़ना। साङ्ग्रामिक (वि०) [संग्राम+ठञ्] युद्ध सम्बंधी, योद्धा,
सैनिक, सामरिक। साङ्गष्ठ (वि०) अंगूठा सहित। (जयो० ६/३२) साङ्गोपाङ्ग (वि०) सकल/सम्पूर्ण अंग युक्त। (जयो०२/४३) साचि (अव्य०) [सच्+इण्] तिर्यक, वक्रगति से, तिरछेपन से। साचिजल्पित (वि०) वक्रोक्तिपूर्ण कथन। (जयो० ७/६६) साचिनिरीक्षणम्: (नपुं०) तिर्यगवलोकन। (जयो० २३/३१) साचिव्यम् (नपुं०) [सचिव ष्यञ्] मंत्रालय, मंत्रित्व।
० मंत्रिमंडल। साजात्यम् (नपुं०) [सजाति+ष्यञ्] जाति, वर्ग, समुदाय, श्रेणी।
० समान वर्ण। साञ्जनः (पुं०) [सह अञ्जनेन] छिपकली। साट् (सक०) बतलाना, प्रकट करना। साटोप (वि०) [सह+आटोपेन] अहंकारी, अभिमानी। साडम्बर (वि०) आडम्बर सहित। (वीरो० २२/१६) सातल (वि०) आनन्द युक्त, हर्ष सहित।
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सातिरेक
११७६
साधर्म्यम्
सातिरेक (वि०) अत्यधिक (जयो०वृ० १/७८) सात् (अव्य०) एक तद्धित प्रत्यय। सात्क्रियता (वि०) काव्यकर्तापना। (समु० १/१६) सातत्यम् (नपुं०) [सतत्+ष्यञ्] निरंतरता, स्थायित्व। सातन (वि०) नाशक। (जयो०७० २/२२) सातपः (पुं०) ग्रीष्मऋतु। (जयो० २२/२)
० समतल। (जयो० ५/९०) सातल (वि०) आनन्द युक्त। सातिः (स्त्री०) [मन्+क्तिन्] भेंट, उपहार, प्राभृत, दान। सातिशयः (पुं०) एक खाद का नाम। (सम्य० १०७) सातीनः (पुं०) मटर। सात्त्विक (वि०) प्राकृतिक, सत्त्वगुण से युक्त शुद्धसित।
सहज स्वाभाविक। (जयोवृ०१२/१२२)। (जयो०१०
८/१४४) सात्त्विकसङ्गतिः (स्त्री०) सात्त्विक विचार। (दयो० ११८) सात्यकि (पुं०) सात्यकि नामक रुद्र।
० कृष्ण का सारथि। (जयो० २३/८६) सात्यवतः (पुं०) सत्यवती से उत्पन्न पुत्र, व्यास मुनि। सात्रम् (नपुं०) सदादान। (जयो० २७/४४) सात्वत् (पुं०) [सातयति सुखयति सात्+क्विप्] उपासक। सात्वतः (पुं०) विष्णु। सात्वती (स्त्री०) शिशुपाल की माता। सादः (पुं०) [सद्+घञ्] बैठना, रहना, निवास करना।
० क्लान्ति, थकावट, क्षीणता। ० ध्वंस, क्षय, लोप।
० आत्मशुद्धता। (सम्य०१५) सादनम् (नपुं०) [सद्+णिच्+ल्युट्] क्लान्त करना, थकाना।
० थकावट, क्लान्ति।
० घर, स्थान। . सादर (वि.) आदर पूर्वक (जयो०३/११६) प्रसन्नतापूर्वक।
(जयो० १०/१२८) सादरदृष्टिः (स्त्री०) सुदृकपथ। (जयो० २/९५) सादिन् (वि०) [सद्+णिच्+णिनि] बैठा हुआ। सादिन् (पुं०) घुड़सवार, आरोहण कारिन्। सादिवर (वि०) उष्ट्ररोही। (जयो० १३/७३) हस्तिपक, महावत।
(जयो०१३/४) (जयो० २१/२१) सादृश्यम् (नपुं०) [सदृश+ष्यञ्] ० समानता, समरसता, एक
रूपता। ० प्रतिलिपि, प्रतिमूर्ति।
सार्द्धद्वयद्वीपः (पुं०) अढ़ाई द्वीप। (भक्ति० ३५) साद्यन्त (वि.) [सह+आद्यन्ताभ्याम्] सम्पूर्ण, समस्त, पूर्ण, पूरा। साध् (सक०) पूरा करना, समाप्त कराना।
० सम्पन्न करना। ० जीतना। उपासना करना (जयो० २/३९) साधपत्यवगोचरं (सुद०) ० निष्पन्न करना, घटित करना।
० धारण करना, प्राप्त करना। साधक (वि.) [साध्+ण्वुल] सम्पन्न करने वाला, पूरा करने
वाला। ० दक्ष, प्रभावशाली। ० कुशल, निपुण। ० मददगार, सहायक। ० कार्य परिणत करने वाला-साध्योऽप्यहं साधक एवमस्मिन। (भक्ति० ३१) • योगी-साधना करने वाला। योगि तदन्यभेदेन, द्वेधा भवति साधकः।
आत्मनो हि भवेदाद्यः परस्यापीक्षकः परः।। (हित० ३) साधकता (स्त्री०) अभिलाषाओं की पूर्ति करने वाला।
सर्वस्यार्थकुलस्य साधकतया सार्थीकृतात्मप्रथं। (जयो० २/११०) 'अन्यार्थसाधकतया विचरन् सुवंशे' (जयो०
१२/१४५) साधन (वि०) [सिध+णिच् ल्युट्] निष्पन्न करने वाला, उपार्जन
करने वाला। (जयो० १/११३) साधनम् (नपुं०) पूरा करना, पूर्ण करना।
० उपकरण, आधार, सहारा (जयो० २/२१) गेहमेकमिह भक्तिभाजनं पुत्र तत्र धनमेक साधनम्। ० भोगकारण। (जयो०वृ० २/२१)
• किसी पदार्थ की पूर्ण अवाप्ति। (सम्य० ८२) साधनता (वि०) उद्देश्य पूर्ति। साधनत्व (वि०) उद्देश्य पूर्ति। साधना (स्त्री०) [सिध्+णिच्+युच्+टाप्] 0 आराधना, उपासना,
पूजा, अर्चना।
० पूर्ति, निष्पन्नता। साधनासरणिः (स्त्री०) साधना पद्धति। (वीरो० १३/३१) साधन्तः (पुं०) [साध्+क्षच्-अन्तादेश:] भिक्षुक।। साधर्म्यम् (नपुं०) [सधर्म+ष्यञ्] समानधर्मता, गुणों की
समानता।
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साधारण
११७७
साधीयस्
साधारण (वि०) [सह धारणया] समान, संयुक्त।
साधयेतृस्वयमितः साधुः। (मुनि० ३२) ० मामूली।
० योगीराज (सुद०वृ० ११५) ध्यानाध्ययनतत्परः। ० सार्वजनिक।
(सम्य०९४) ० सर्वव्यापी, विश्वव्यापी।
साधु (अव्य०) अच्छा, उचित, योग्य ठीक-ठीक। ० तुल्य, सादृश्य, समान।
साधुचित् (वि०) साधूनांचित्-सज्जनबुद्धि वाला। (जयो० २/८०) ० सार्वजनिक विधि।
साधुजनः (पुं०) सज्जन पुरुष, सत्पुरुष। (जयो०वृ० १/६३) साधारणम् (नपुं०) साधारण, सामान्य। (सुद० ४/४५) वनस्पति (जयो० ६/४९) का एक भेद। (वीरो० १९/३२) जातिगत।
साधुता (वि०) आत्म उपासना वाला-आत्मोपासितयैहिकेषु साधारण धनम् (नपुं०) समान धन, संयुक्त धन।
विषयेष्वाशाधुतासाधुता। (मुनि००१) (जयो० २४/१२९) साधारणभेदः (पुं०) साधारण भेद। सामान्य भेद। प्रत्येक- साधुसंसर्गः (पुं०) अच्छे आचरण। (जयो० १५/३५)
साधारण-भेदभिन्नं वनस्पतावेवमवेहि किन्न। (वीरो०१९/३१) साध्य (वि०) [साध+णिच्+यत्] निष्पन्न, होने योग्य। (जयो० साधारणतोकः (पुं०) जन साधारण। (जयो०वृ० ३/४५)
२८/३२) साधारणसम्पत्तिः (स्त्री०) संयुक्त धन, मिला हुआ धन, इष्टमबाधितमसिद्ध साध्यम्। (परीक्षा सुद० ३/१५) एकत्रित धन।
० जो किया जा सके, प्राप्त करने योग्य। साधारणी (स्त्री०) साधारण स्त्री। (सुद० १३४)
तत्राद्यः साध्यरूपस्याद् साधारण्यम् (नपुं०) [साधारण+ष्यञ्] समानता।
द्वितीयस्तस्य साधनम्' (सम्य० ८२) साधि (स्त्री०) मानसिक पीड़ा। (भक्ति० २६)
साध्योऽप्यहं साधक एवमस्ति। को बाधको सम्भवादिहास्मिन्। साधिका (स्त्री०) [सिध्+णिच्+ण्वुल्+टाप् इत्वम्] कुशल (भक्ति० ३१)
स्त्री, साधनाशीला, निपुण स्त्री। वाञ्छिता। (जयो० २३/८१) साध्यता (स्त्री०) [साध्य+तल+टाप्] सम्भावना, शक्यता। साधित (भू०क०कृ०) [साध+क्त] निष्पन्न, कार्यान्वित, अवाप्त, साध्यत्व (वि०) सिद्ध करने योग्य। पूर्ण, सम्पूर्ण हुआ।
साध्यत्वेन ननुष्यस्य समाह जगदीश्वरः। (हित०६) ० समाप्त, ० सिद्ध। ० प्राप्त, उपलब्ध।
साध्वी (स्त्री०) [साधु ङीप्] श्रमणी, जैन साध्वी। ० पवित्रता ० उन्मुक्त, वश में किया गया, दमन किया हुआ। युक्त स्त्री। चेतश्चुरा मनोहरा। (जयो० ११/७८) साधिमन् (पुं०) [साधु+इमनिच्] भद्रता, श्रेष्ठता, उत्तमता। ०-सती (जयो०वृ० १/२०) साधिष्ठ (वि०) [साधु+इष्ठन्] श्रेष्ठ, सर्वोत्तम्। उचिततम, सानन्द (वि०) [सह आनन्देन] हर्ष, खुशी। आनन्दयुक्त। अत्यन्त दृढ़, कठोर।
(समु० २/२९) साधीयस् (वि.) [साधु ईयसुन्] अत्यधिक उत्तम, श्रेष्ठतम्। सानसिः (पुं०) स्वर्ण, सोना। ० कठोरता युक्त, अधिक दृढ़।
सानातनी (वि०) सनातन रीति सम्बंधी। (जयो० २०/२८) साधु (वि०) ० उत्तम, श्रेष्ठ, गुणी। समीचीन (जयो० १/५६) सानिका (स्त्री०) [सन्+ण्वुल+टाप्] बांसुरी। सज्जन (जयो० १/५६)
सानु (पुं०/नपुं०) वनखण्ड, अरण्य। सानु शृंगेबुधेऽरण्ये वात्यायां ० योग्य, उचित, ० शुद्ध, पवित्र, गौरवपूर्ण।
पल्लवे पथि इति वि (जयो० २१/३२) (जयो० १५/२५) ० निर्मल (जयो० १/१००) अच्छा (सुद० १/२३)
० चोटि, शिखर, कूट, शृंगमाला। (जयो० १/१३) ० भद्र, कल्याणकारी। 'चिरप्रव्रजितः साधुः।
० बिन्दु, किनारा। ० सूर्य। • मनोहर (जयो० ३/१०५)
० पर्वत (जयो० ४/३८) (भक्ति० ४४) साधुः (पुं०) साधु पुरुष, मुनि, श्रमण, ऋषि, संत। (सुद० | सानुकूल (वि०) अनुकूलात्मक। (जयो० ४/११, ४/४७)
४/१३) (समु० १/३४) अभिलषिमर्थं साधयतीति साधुः सानुक्रोश (वि०) [अनुक्रोशेन सह] दयालु, करुणाशील। (जैन०ल० ११४७)
सानुमत् (पुं०) [सानु+मतुप्] पर्वत, पहाड़। सवृत्तः समभात्समुत्थितः। (दयो० ११६)
साधीयस् (वि.) [साधु+ईयसुन] अत्यधिक उत्तम,
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सानुग्रहः
११७८
सामाजिक
सानुग्रहः (पुं०) संग्रह, समूह। सानूनां शिखराण ग्रहः संग्रहः। | सापल्पः (पु०) सौतेली पत्नि का पत्र। (जयो० २८/३)
सापेक्ष (वि०) [सह अपेक्षया] अपेक्षा सहित, सहायता युक्त। सानुनय (वि.) [सह अनुनयेन] सभ्य, शिष्ट, विनीत।
(वीरो० २०/२०) सानुप्रास (वि०) अनुप्रास सहित। (जयो०वृ० ३/८२)
० निर्भर। सानुबन्ध (वि०) [सह अनुबन्धेन] क्रमबद्ध, अविच्छिन्न। साप्तपद (वि०) [सप्तपद+अण् खञ् वा] सात पैर चलने वाला। सानुराग (वि०) [सह अनुरागेण] आसक्त, राग युक्त, अनुरक्त।
साप्तपदम् (नपुं०) वैवाहिक विधि, जिसमें वर-वधू अग्निसाक्षी (सुद० ३/४६)
आदि पूर्वक प्रतिज्ञाशील होते। सान्तपनम् (नपुं०) [सम्+तप्+ल्युट्+अण्] उग्र तप, कठोर
साप्तपौरुष (वि.) [सप्त पुरुष+अण] सात पीड़ियों तक तपस्या।
फैला हुआ। सान्तानिक (वि०) फैलाने वाला, विस्तार करने वाला।
साफल्यम् (नपुं०) [सफल+ष्यञ्] सफलता, उपयोगिता। सान्त्वना (स्त्री०) ढाढस बंधाना, शान्त करना। समाश्वासन
(समु० ३/९) (जयो० १२/१९) (भक्ति०१२)
साफल्याभावः (पुं०) सफलता का अभाव। (दयो० ९३) सान्दीपिनिः (पुं०) एक ऋषि।
साभिधेय (वि०) अभिधान वाचक, वाच्य-वाचक का समन्वय। सान्दृष्टिक (वि०) तात्कालिक, देखते ही देखते होने वाला।
(जयो० २/५५) सान्द्र (वि.) [सह अन्द्रेण] आस पास, सटा हुआ, अन्तराल।
साभ्यसूय (वि०) [सह अभ्यसूयया] ईर्ष्यालु, ईर्ष्या करने वाला।
साम् (सक०) सान्त्वना देना, ढाढस बंधाना! ० घनीभूत (जयो० ५/६२) निविडत्व, भरा हुआ। (जयो०
सामः (पुं०) शान्ति, शीत, क्षेमपृच्छ। (जयो०५/६) २५/१९)
सामकम् (नपुं०) [समक अण्] मूल ऋण। ० घन, मोटा।
सामकः (पुं०) साण। ० प्रचुर, प्रबल, प्रचण्ड।
सामकरणम् (नपुं०) सामनीति प्रयोग। (जयो० ७/८०) ० स्निग्ध, मृदु, सौम्य। सुरम्य सन्द्रो स्थीपते हि महात्मना।
सामग्री (स्त्री०) [समग्रस्य भावः ष्यञ्] सकलकारककलारूपा (वीरो० १०/२०)
किल सामग्री। संघात, उपकरण, सामान। सान्द्रः (पुं०) राशि, ढेर।
सामग्रयम् (नपुं०) [समग्र+ष्यब्] समग्रता, पूर्णता। सान्द्रनगालवाल: (पुं०) आर्द्र क्यारी, गीली क्यारी।
सामञ्जस्यम् (नपुं०) [समञ्जस+ष्यञ्] संगति, मेल, एकता। (वीरो०२/१२)
० यथार्थता, शुद्धता। सान्धिकः (पुं०) [सन्धां सुराच्यावनं शिल्पं वेत्ति-ठक्] कलाल।
सामधामः (पुं०) परम शान्त स्थान। (दयो० २/१२) सान्धिविग्रहिकः (पुं०) [सन्धिविग्रह ठक्] विदेश मन्त्री।
सामन् (नपुं०) [सो मनिन्] शांत करना, आराम पहुंचाना। सान्ध्य (वि०) [सन्ध्या+अण] सन्ध्याकालीन।
सामन्त (वि०) [समन्त+अण] सीमावर्ती। सान्नहनिक (वि.) [सन्नहन्-ठक्] कवचधारी।
सामन्तः (पुं०) नेता, नायक। सान्नहनिकः (पुं०) कवचधारी।
सामन्तम् (नपुं०) पड़ोस। सान्निध्यम् (नपुं०) [सन्निधि+ष्यञ्] सामीप्य, पड़ोस। सामयिक (वि०) [समय+ठञ्] समय सम्बंधी, समय पर होने (सुद०११३)
वाला। नियत समय पर होने वाला। सान्निपातिक (वि०) कफ, पित्त और वायु, तीनों से विकृत सामायिकसंक्रम् (पुं०) सामायिक कृतिका (भक्ति० ४७) होने वाला।
सामर्थ्यम् (नपुं०) [समर्थ+ष्यञ्] ० शक्ति, बल। ___० जटिल।
(जयो०वृ० १/४२) सान्यासिक (वि) [सन्यासः-प्रयोजनमस्य ठक्] सन्यासधारी।
हित, लाभ। सान्वय (वि०) [सह अन्वयेन] आनुवंशिक।
सामवायिक (वि०) [समवाये प्रसृतः ठञ्] अटूट सम्बन्ध युक्त। सापत्न (वि०) [सपत्नी अण्] सौतेली पत्नी से उत्पन्न। सामाजिक (वि०) [समाजः सभावेशनं प्रयोजनमस्य ठञ्] सापल्पम् (नपुं०) [सपत्नी ष्यञ्] प्रतिद्वंद्विता, शत्रुता।
समाज से सम्बंधित, सभा से सम्बंधित।
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सामाजिकता
११७९
साम्प्रतः
सामाजिकता (स्त्री०) संग्रहणता। (जयो० २/१०७) सामानाधिकरण्यम् (नपुं०) [समानाधिकरण+ष्यञ्] एक ही
पदार्थ से सम्बंध रखने वाला। सामानिकः (पुं०) देव समूह का नाम, जो इन्द्र के समान
वैभवादि युक्त होते हैं। सामान्य (वि०) [समानस्य भावः ष्यञ्] ० समान, साधारण।
० सदृश, तुल्य। ० समस्त, सम्पूर्ण, वस्तु की समग्रता। ० समष्टि, समस्त रूप। (जयो० २६/९१) यो वस्तुनां समानपरिणाम: स सामान्यः (जैन० ल० ११५८) सर्वेऽपि प्राणिनोऽस्माभिः सम ज्ञान प्रवृत्तयः। अयं शत्रुरयं बन्धुरित्यज्ञानमयो हि धीः।। (हित०५८)
० गुण और पर्याय से संयुक्त तत्त्व। (वीरो० १९/१९) सामान्यरूपः (पुं०) वस्तु-तत्त्व की अभिव्यक्ति का एक
प्रकार। (हित०सं० १४) सामायिक (वि०) समभावता,
० सावधयोग विरतिमात्र। ० सुख दु:ख में मान्यता। आवश्यक कर्त्तव्य। ० साधु के आवश्यक कर्मों में एक कर्म।
• सामायिक व्रत। (सुद० ४/३३) सामायिककालः (पुं०) सामायिक विधि करने का समय-पूर्वाह्न,
मध्याह्न और अपराह्न। सामायिकक्षेत्र (नपुं०) सामायिक विधि के लिए उपयोगी स्थान। सामायिकचारित्रम् (नपुं०) समताभाव पूर्वक आचरण। सामायिकचिन्तनम् (नपुं०) समभाव का स्मरण। सामायिकचिन्तम् (नपुं०) समभाव का स्मरण
परमात्मा शरीरातिवत्येतीन्द्रिय चिन्मयः। शश्वद्रूपाद्यतीतत्वात्, तुल्योऽह स्वभावतः।।
(हित०सं०६५८) सामायिकप्रतिमा (स्त्री०) कायोत्सर्गपूर्वक आत्मस्वरूप का
स्मरण करना। सामायिकशिक्षाव्रतम् (नपुं०) समस्त प्राणियों पर समताभाव
पूर्वक चिंतन। सामायिकसमयः (पुं०) सामायिक का काल। सामायिकसंयमः (पुं०) सावधयोग से विरत होकर रहना। सामायिकस्थानम् (नपुं०) सामायिक का क्षेत्र। त्रैवर्गिक कार्यक्रम, संकोच्यैकान्तसुस्थले।' स्थित्वा प्रसन्नचित्तेन, कार्यं सामायिक हि तत्।। (हित० ५७)
सामायिकासनम् (नपुं०) सामायिक विधि की आसन।
कायोत्सर्गेण पल्यङ्कासनेनाथ निषीदता।
पूर्वोत्तरदिशास्थेन, सामायिकं तु साध्यताम्।। (हित०५७) सामासिक (वि०) समुच्यात्मक, समास सम्बन्धी। सामि (अव्य०) [साम्+इन्] अपूर्ण, आधा। सामिधेनी (स्त्री०) प्रार्थना मन्त्र। सामीची (स्त्री०) प्रार्थना, स्तुति। सामीप्यम् (नपुं०) [समीप+ष्यञ्] पड़ौस, निकटता, आसन्नता। सामीप्यः (पुं०) पड़ौसी। सामुद्र (वि०) [समुद्र+अण] समुद्र में उत्पन्न। सामुद्रः (पुं०) नाविक, समुद्रयात्री। सामुद्रम् (नपुं०) समुद्री नमक।
शारीरिक चिह्न। सामुद्रकम् (नपुं०) [सामुद्र+कन्] समुद्रीनमक। सामुद्रिक (वि.) [समुद्र+ठञ्] समुद्र से उत्पन्न।
० शारीरिक चिह्न से युक्त।। सामुद्रिकम् (नपुं०) हस्त रेखाओं से फलादेश। साम्पराय (वि०) [सम्पराय+अण] ० सामरिक, युद्ध सम्बन्धी।
० परलोक, लोक सम्बंधी। साम्परायम् (नपुं०) संघर्ष, झगड़ा, कलह।
० भवितव्यता। ० परलोक की प्राप्ति का उपाय। ० पृच्छा, गवेषणा। ० अनिश्चय। ० संसार, सं सम्यक् पर उत्कृष्टः अयो गतिः पर्यटन प्राणिना यत्र भवति स सम्पराय: संसार इत्यर्थः।
(जैन०ल० ११५५) साम्परायिकम् (नपुं०) आत्मा के पराभव को प्राप्त होना।
० संसार का प्रयोजन होना। 'सम्परायः प्रयोजनं यस्य कर्मणः तत् कर्म साम्परायिकं कर्म। ० संसार पर्यटन कर्म, संसार परिभ्रमण कर्म। 'संसार पर्यटन कर्म साम्परायिकमुच्यते' (त०वृत्ति ६/४) (जैन०ल० ११५५) ० कषाय सहित जीव का आस्रव या योग साम्परायिक। ० युद्ध, कलह, संघर्ष।
० आश्रव का एक भेद। साम्प्रतः (वि.) ० योग्य, उचित, उपयुक्त।
० संगत, तर्कयुक्त।
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साम्प्रतः
११८०
सारगन्धाः
साम्प्रतः (पुं०) नाम, स्थापना आदि का वाच्य-वाचक रूप ०दिन की समाप्ति। प्रसिद्ध शब्द।
० सान्ध्यकाल। साम्प्रतम् (अव्य०) तब, इस समय, तात्कालिक, ठीक तरह सायकः (पुं० [सो ण्वुल] बाण। (सुद०७/१०)
से। अधुना (जयो० ४/१२) इदानीम् (जयो० ११/९४) सायकम् (नपुं०) तलवार, अस्त्र। आज। (जयो० २/९३) (मुनि० १९)
सायनम् (नपुं०) [सोल्युट्] देशान्तर रेखा। साम्प्रतिक (वि.) [सम्प्रति+ठक] वर्तमान काल सम्बन्धी। ० बिंदु से मापी माने वाली रेखा। ० सही समय, उचित, योग्य।
सायन्तन (वि०) [सायम् ट्युल] सान्ध्यकाल सम्बंधी, साम्प्रदायिक (वि०) [सम्प्रदाय ठक्] ० परम्परागत प्राप्त सायंकालीन। (दयो० २०) सिद्धान्त।
सायम् (अव्य०) [सो+अमु] सायंकाल के समय। आशासिता ० क्रमागत।
सायमुपैति रोषान्। (वीरो० १२/२१) ० सम्प्रदाय/समूह से सम्बंधित।
सायंकालः (पुं०) संध्याकाल, दिनात्यय। (वीरो० १/२१) साम्भोगिक (वि०) सम्भोग से युक्त, ० परस्पर उपाधि से (जयो० २४/२७) सहित।
सायंविधि (स्त्री०) सान्ध्यवन्दनादिविधि। (जयो० २२/५७) साम्बः (पुं०) [सह अम्बया] शिव।
सायपर्यन्त (वि०) दिवान्त पर्यन्त। (जयो०वृ० १५/१४) साम्बन्धिक (वि०) [सम्बंध+ठक्] सम्बन्ध से उत्पन्न। सायमय (वि०) संध्याकाल युक्त। (जयो० ) साम्बन्धिकम (नपुं०) मित्रता, रिश्तेदारी, सम्बंध।। सायंश्रिय (वि०) सन्ध्याकालीन। (जयो० ३/९) साम्बरी (स्त्री०) [सम्बर+अण+ङीप्] जादूगरनी।
सायाख्या (स्त्री०) सन्ध्यारूपिणी। (जयो० १५/१३) साम्भवी (स्त्री०) [सम्भव+अण+ङीप्] शक्यता, सम्भावना। सायिन् (पुं०) [साय+इन] अश्वारोही, घुड़सवार। साम्यम् (नपुं०) [सम्ष्य ञ्] (जयो० २७/५१) ० समता, सायुज्यम् (नपुं०) [सयुज+ष्यञ्] समरूपता, प्रगाढ़ मेल।
समभाव, सामञ्जस्या साम्यं जना आशु समाचरन्ति। आपसी सम्बंधा (भक्ति० ३६)
सार (वि०) [सृ+घञ्, सार+अच् वा] उत्तम (जयो० २२/१) ० मोह एवं क्षोभ रहित आत्मा का परिणाम। (मुनि० ० सर्वोत्तम, उत्कृष्ट, श्रेष्ठ उच्चतम। १३)
० मनोहर, प्रिय। (जयो० १०/५७) ० निर्विकारभाव, जीव का आत्यन्तिक निर्विकारी भाव। ० वास्तविक, यथार्थ, सत्य, सच्चा। ० समानता। (जयो० ५/७९)
० दृढ़, मजबूत। ० तुल्यता, सादृश्य। (सुद० १३२)
० श्रेष्ठ। (जयो० १६/१५) साम्यभावः (पुं०) समताभाव। (भक्ति० ४)
० सिद्ध, पूर्णतः युक्त। साम्यभृत (वि०) समबुद्धियुक्त। (जयो० २४/१४१)
सारः (पुं०) देखो नीचे। साम्राज्ञी (स्त्री०) चक्रवर्तिनी। (जयो० ५/९२)
सारम् (नपुं०) सत्त्व, सत्। साम्राज्यम् (नपुं०) [सम्राज+ष्यञ्] ० प्रभुत्व, एकाधिपत्य, ० रस, रहस्य, निचोड़, प्रशस्त। (जयो० ५/४८) पूर्णाधिकार। (जयो० ५/७५)
० संक्षिप्तसार, संक्षेप, सारांश। संग्रह्य सारं जगतां तथात्राऽसौ ० सर्वोत्कृष्ट राज्य, सार्वभौमिक राज्य।
निर्मितासीद्धिधिना विधात्रा। (जयो० ५/८०) साम्राज्यक्रिया (स्त्री०) सर्वोत्कृष्ट राज्य की क्रिया, प्रभुत्व की ० सारभूत। (सुद० ७९) उपस्थिति।
० गुण। (जयो० १/१०) साम्राज्यपदं (नपुं०) सर्वोत्कृष्ट स्थान। (वीरो० २१/१८) ० मूल्य। ० वस्तु की वास्तविक स्थिति। विजयित्वप्रतिपादक। (जयो० ११/३२)
० सामर्थ्य, शक्ति, बल। साम्राज्यस्तुकः (पुं०) साम्राज्य स्थान। (जयो० ७/११३) सारघम् (नपु०) मधु, शहद। सायः (पुं०) [सो+घञ्] समाप्ति, अन्त, अवसान। | सारगन्धाः (पुं०) चन्दन दारु, चन्दन की लकड़ी।
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सारग्रीवः
११८१
सार्तवादिन्
सारग्रीवः (पुं०) शिव, शंकर।
सारवती (स्त्री०) सार युक्ता। (जयो०वृ० ३/४, ११/९४) सारङ्ग (वि०) [सृ+अङ्कच्+अण] चितकबरा, रंग-बिरंगा। सारवाक् (नपुं०) मनोहरवचन, प्रियवचन। (जयो० १०/५७) सारङ्गगः (पुं०) ० कुरंग, हरिण, मृग।
सारस (वि०) [सरस+इदम्+अण] सरोवर सम्बंधी। ० सिंह, हस्ति, भौंरा, कोयल।
सारसः (पुं०) ० हंस, सारसी पक्षी। ० सारस, राजहंस।
० चन्द्र (जयो० ५/३४) ० मयूर।
सारसम् (नपुं०) कमल। (जयो० २२/५२) (जयो० ८८१) ० छतरी, बादल मेघा
सारसकेलि (स्त्री०) ० रसक्रीड़ा, सरसकेलि। (जयो०वृ० ० परिधान।
२२/७१) ० शंख। ० कमल,
० सारस पक्षियों की क्रीड़ा। (जयो० २०/७१) ० कपूर, ० चंदन।
सारसविसः (पुं०) कमल मृणाल। (जयो०६/२२) ० आभूषण, स्वर्ण। ० रजनी।
सारसबन्धु (पुं०) सूर्य। (जयो० २२/१) सारङ्गिकः (पुं०) [सारङ्ग हन्ति ठक्] बहेलिया, चिडिमार। सा-रसाधिका (वि.) सा रसाधिका, प्रभतजलवती, अधिक सारङ्गी (स्त्री०) [सारङ्ग+ङीप्] एक वाद्ययन्त्र, सितार, वायलिन। जल वाली। ० चित्तीदार मृग।
सारसाक्षि (नपुं०) कमले सारसे रूपके इवाक्षिणी-सुलोचना। सारजन्मन् (वि०) पवित्र जन्म वाला। (जयो० )
(जयो० ८/८१) सारण (वि०) [सृ+णिच्] भेजना, फैलाना, प्रसारित करना। सारसाधिका (वि०) सारस पक्षियों की शोभा वाली। (जयो० सारण: (पुं०) पेचिसा
२०/४७) ० पेंबदी वेर।
सारसालय (पुं०) कमल स्थान। सारसं पङ्कजे क्लीवमिति सारणम् (नपुं०) एक प्रकार का सुगन्धित द्रव्य।
कोष। (जयो० ३/३०) सारणा (स्त्री०) [स+णिच्+युच्+टाप्] ० चेतना प्रवर्तना ० लक्ष्मीस्थान।
(जैन०ल० ११५६) धातु प्रक्रिया, पारे आदि धातुओं की सारस्वतः (पुं०) लौकान्तिक देव विशेष। (जैन०ल० ११५६) प्रक्रिया।
० सारस्वत व्याकरण, एक जैनाचार्य विरचित व्याकरणसारणि/सारणी (स्त्री०) कुल्या, नहर, पनाला।
अनुभूति स्वरूपाचार्य का उपकरण-६०० सूत्र। ० जलमार्ग।
सारस्वत (वि०) सरस्वती से सम्बंध रखने वाला। 0 वाक्पटु, छोटी सरिता।
विज्ञ, विद्वान्। सारण्डः (पुं०) [स+णिच्+अण्ड्] सांप का अण्डा। सारस्वतम् (नपुं०) भाषण, प्रवचन। सारतः (अव्य०) [सार-तसिल्] धन के अनुसार।
सारायण (वि०) आदरणीय। (दयो० ४२) बलपूर्वक।
सारालः (पुं०) [सार+आ+ला+क] तिल पादप। सारथिः (पुं०) रथवान्, साथी, सहायक। वाहक, रथाग्रणी। सारि: (स्त्री०) शतरंज की गोटी। (जयो०वृ० १३/५, १/१९) ० सामर्थवान्।
० सारिका पक्षी। सारथ्यम् (नपुं०) [सारथि+ष्यञ्] सारथी का पद, वाहक | सारिका (स्त्री०) [सरति गच्छति सृ+ण्वुल टाप् इत्वम्] मैना, नाम।
सारिका पक्षी। सारमयी (वि०) श्रेष्ठतम्। (जयो० १६/१५)
सारिणी (स्त्री०) कुल्या, नहर। (जयो० १७/११) सारमेयः (पुं०) [सरमा ढक्] श्वान, कुत्ता।
विस्तारिणी। (जयो० ३/४१) सारमेया (स्त्री०) [सारमेय+ङीप्] कुतिया।
सारिन् (वि०) [सृ+णिनि] जाने वाला, सहारा लेने वाला। सारयती (वि०) प्रसारितवती, प्रसार करने वाली। (जयो० ६/२०) | सारूप्य (वि०) सादृश्य रूप वाला, समानता युक्त। सारल्य (वि०) [सरल+ष्यञ्] सीधापन, सरलता।
सार्गल (वि०) [सह अर्गलेन] रोका हुआ, अवरुद्ध। सारवत् (वि०) [सार+मतुप्] तत्त्वमुक्त, रस सहित, भाव युक्त। | सार्तवादिन् (वि०) सज्जाति का कथन करने वाले। (हित २८)
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सार्थ
११८२
सावधान
सार्थ (वि०) [सह अर्थेन] सार्थक, समूह। (सुद० १/४) सार्वभौमः (पु०) सम्राट्, चक्रवर्ती। प्रयोजन भूत। ० अर्थ युक्त। (जयो० ३/१०९)
० कुबेर दिशा। सार्थः (पुं०) ० धनवान्, धनी पुरुष।
सार्वलौकिक (वि०) [सर्वलोक+ठक] सम्पूर्ण लोक में व्याप्त, सार्थक (वि०) अर्थयुक्त, अर्थपूर्ण। अर्थोऽनुरूप। (जयो०५/१२) सार्वजनिक, विश्वव्यापी। सार्थातिशयप्रभूति (स्त्री०) शिष्य मण्डली सहित। (वीरो० | सार्वकर्णिक (वि०) प्रत्येक वर्ग का, प्रत्येक जाति का। १४/१५)
प्रत्येक वर्ण वाला। ० समर्थन। (जयो०व० ३/१)
सार्वविभक्तिक (वि०) सभी विभक्तियों में घटने वाला। सार्थिक (वि०) प्रयोजन भूत। (मुनि०८)
सार्ववेदसः (पुं०) [सर्ववेदस्+अण्] सम्पूर्ण देने वाला व्यक्ति। सार्थिकः (पुं०) [सार्थ+ठक्] व्यापारी, सौदागर।
सार्षपम् (नपुं०) सरसों का तेला सार्द्र (वि.) [सह आम्रण] गोला, भीगा हुआ।
सालः (पुं०) [सल्+घञ्] एक वृक्ष नाम। सर्जवृक्षा (जयो० साईविरामः (पु०) स्वयं विश्राम। (जयो० २२।८१)
१४/७५) सालानां नाम वृक्षाणां काननं वन। (जयो० सार्ध (वि०) (सह अर्धेण] आधे से अधिक अढाई। (सुद० २१/४०) सागौन
० परकोटा, चार दिवारी, भीत। ० अर्धखण्डसहित। (जयो० १/५५)
सालकाननम् (नपुं०) सालवन, वृक्ष समूह। (समु० ६/२२, ० अर्थ सहित। (जयो० १/१३)
जयो० २१/४५) सार्धम् (अव्य) [सह ऋध्+अमु] साथ साथ, एक साथ
सालङ्कार (वि०) अलङ्कार सहित। (सुद० १/७) (जयो०वृ० १/५५) (सुद० ७१) ।
सालनम् (नपुं०) [सल्+णिच्+ल्युट्] साल वृक्ष की राल। ० समकाल (जयो०१/१३) सुवृत्तभावेन च पौर्णमास्य
सालसाक्षिन् (वि०) अलसाए नेत्र। (जयो० १८/९४) । सुधांशुना सार्धमिहोपमाऽस्य। (वीरो० २/४)
सालारम् (नपुं०) दीवार की खूटी। सार्धद्वयाब्दायुतपूर्व (वि०) अढाई हजार वर्ष पूर्व। (१/२९)
सालूरः (पुं०) मेंढक। सार्द्धम् (अव्य०) साथ साथ। (मुनि० २८)
सालेयम् (नपुं०) मैथी, सोआ। सार्पः (पुं०) [सर्पो देवताऽस्य सर्प+अण] अश्लेषा नक्षत्र।
सालोक्यम् (नपुं०) [सामानो लोकोऽस्य] उसी लोक का होना। सार्पिष्क (वि०) घी में तला हुआ।
साल्वः (पुं०) देश नाम विशेष। सार्व (वि०) सभी तरह (पतितोद्धारकस्यास्य सार्वस्य किमु
साल्विकः (पुं०) [साल्व+ठक्] सारिका, मैना। मानकाः' (वीरो० १५/१०)
सावः (पुं०) [सु+घञ्] तर्पण। सार्वकामिक (वि०) [सर्वकाम ठक्] समस्त कामनाओं को
सावक (वि०) [सु+ण्वुल्] उत्पादक, जन्म देने वाला। ___ पूरा करने वाला।
सावकः (पुं०) पशु बालक, जानवर का शिशु। सार्वकालिक (वि०) [सर्वकाल+ठक्] नित्य, शाश्वत, सदैव
सावकाश (वि.) [सह अवकाशेन] अवकाश सहित। रहने वाला।
० खाली, आकाश सहित। सार्वजनिक (वि०) व्यापक, लोक में व्याप्त। (जयो०१०४/१३)
सावग्रह (वि०) [अवग्रहेण सह] अवग्रहयुक्त, नियम सहित, सार्वज्ञम् (नपुं०) [सर्वज्ञ+अण] सर्वज्ञता, समस्त पदार्थों को
० चिह्न समन्वित। जानने वाला।
सावतीर्ण (वि०) बिखरे हुए। (जयो०८/४१) सार्वत्व (वि०) सर्वधर्मात्मकत्व। (वीरो १०/१२)
सावद्य (वि०) प्राण विघातक रूप। सार्वधातुक (वि०) सभी धातुओं में लगने वाला।
सावध (वि०) [अवद्येन सह संयमी द्वारा प्राप्त। सार्वभौतिक (वि०) [सर्वभूत+ठक] सभी प्राणवान् तत्त्वों से
सावद्ययोगः (पुं०) प्राणि हिंसा में द्धिपूर्वक उपयोग।
सावधान (वि०) [अवधानेन सह] चित्तैकाग्रता। (जयो०२/७४) सार्वभौम (वि०) [सर्वभूमि+अण] लोक व्याप्त, सम्पूर्ण क्षेत्र
दत्तचित्त, सचेत, ध्यान देने वाला। (जयो० २/८५) में व्याप्त।
'सावधानमनसा खलु शर्मकारणं' (समु० ५/२८) ० चक्री। (सम्य० ६४)
युक्त।
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सावधि
११८३
सिंहः
सावधि (वि०) [सह अवधिना] सीमित, सीमाबद्ध, समापिका। साष्टाङ्गम् (अव्य०) [सह अष्टाङ्गैः] लम्बायमान लेटकर, सावरः (पुं०) दोष, अपराध।
दण्डवत् सभी अंग घुमाकर। ० पाप, दुष्टता।
सास (वि०) [सह आसेन] धनुर्धारी। ० लोध्र वृक्षा
सासनम् (नपुं०) एक गुणस्थान। सम्यग्दृष्टि (दयो० ) मिथ्यात्व सावरण (वि०) [सह आवरणेन] गूढ, गुप्त, रहस्यपूर्ण।
से अभिमुख हुआ जीव। ० आवरण सहित, आच्छादित, ढका हुआ, पर्दा सहित। सासादनम् (नपुं०) एक गुण स्थान विशेष। सावलेप (वि०) [सह अवलेपेन] अभिमानपूर्ण, घमण्डी। सासासनम् (नपुं०) एक गुण स्थान का नाम। (समु० ३/२४) सावशेष (वि०) [सह अवशेषेण] अधूरा, शेष युक्त। सासुसु (वि०) बाण धारण करने वाला। सावष्टम्भ (वि.) [सह अवष्टम्भेन] प्रतिष्ठित, उत्कृष्ट। सासूय (वि०) [सह असूयया] ईर्ष्यालु। ० साहसी. दृढ़ी।
सासूयम् (अव्य०) डाह के साथ, रोषपूर्वक। सावष्टम्भम् (अव्य०) दृढतापूर्वक, साहस के साथ। सास्ना (स्त्री०) [सस्+न, णित् वृद्धि] गाय या बैल का गल सावसर (वि.) [सह अवसरेण] अवसर सहित. समय युक्त। कम्बल। सावहेल (वि०) [सह अवहेलया] घृणा करने वाला। साह (वि.) आक्षेप युक्त। आह क्षेपनियोगार्थ-इति (जयो० सावहेलम् (अव्य०) घृणा पूर्वक।
२०/६२) साविका (स्त्री०) [स्+ण्वुल्+टाप् इत्वम्] दाई, प्रसव परिचायिका। साहचर्यम् (नपुं०) [सहचर+ष्यञ्] साथ रहना, सहभागिता। ० सेवाभाविनी।
साहजिक (वि०) सहज, आसान। (सम्य० ४) 'नैव सावित्र (वि.) [सवित+अण] सूर्य सम्बंधी।
साहजिकमस्ति यदेषा' (जयो० ४/३८) सावित्रः (पुं०) सूर्य। ० भ्रूण।
साहनम् (नपुं०) [सह। णिच्+ ल्युट्] सहन करना, भुगतना। सावित्रसम्वत्सरः (पुं०) बारह मासों में एक सावित्रसम्वत्सर। साहसम् (नपुं०) [सहसा बलेन निर्वृत्तम् अण] क्रूरता, सावित्री (स्त्री०) ० प्रभा, आभा, कान्ति।
अत्याचार। ० पार्वती।
० उतावलापन। ० सत्यवान् की पत्नी।
० साहसिक कार्य। (सुद० ८५) साविष्कार (वि.) [सह आविष्कारेण] आविष्कार सहित। । साहसिक (वि०) निर्भीकता युक्त, शक्ति युक्त। ० घमण्डी, अहंकारी।
० क्रूर, निर्दय। साशंस (वि०) [सह आशंसया] इच्छुक, आशावान्। साहसित (वि०) उत्साहित। (जयो०८/२५) साशंसम् (अव्य०) आशा से, कामना से।
साहसिन् (वि०) [साहस इनि] प्रचण्ड, उग्र, भीषण। साशङ्क (वि०) [सह अशङ्कया] आशंका करने वाला। साहस्र (वि०) [सहस्र+अण] हजार से सम्बंध रखने वाला। ० डरने वाला।
साहायकम् (नपुं०) [सहाय+वुण] मैत्री, सौहार्द, सहचरत्व। साशयन्दकः (पुं०) छिपकली विशेष।
० मदद, सहयोग। साशिका (स्त्री०) आशावती, मंगधारिणी। (जयो० ३/८९) | साहाय्यम् (नपुं०) [सहाय+ष्यञ्] ० सहायता, मदद, सहकार। साशकः (पुं०) गलकम्बल, सास्ना। ० गौ की लटकती हई (दयो० ९१) सास्ना।
० सौहार्द, मैत्री। साश्चर्य (वि.) [सह आश्चर्येण] आश्चर्यजनक, विलक्षण। साहाय्यकरिन् (वि०) दानशीला। (वीरो० ५/२३) साश्चर्यम् (अव्य०) आश्चर्य के साथ, अद्भूत रूप से। साहित्यम् (नपुं०) [सहित+ष्यब] ० साहचर्य, भाईचारा। साश्र (वि०) [सह अश्रेण] ० कोणदार।
० आलंकारिक काव्य। ० अश्रु युक्त।
साह्यम् (नपुं०) [सह+ष्यञ्] संयोजन, सहयोग, साहचर्य। साश्रुधी (स्त्री०) [साश्रुध्यायति साश्रुध्यै क्विप्] सास, पत्नी सि (सक०) बांधना, कसना, जकड़ना। की मां।
सिंहः (पुं०) [हिंस+अच्] सिंह, शेर, मृगाधिपति। (सुद०३२)
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सिंहचन्द्रः
११८४
सिद्धि
सिंहचन्द्रः (पुं०) सिंहसेन राजा। (समु० ४/९) सिंहचिह्न (नपुं०) तीर्थंकर महावीर की पहचान का चिह्न। सिंहनलम् (नपुं०) अञ्जली। सिंहतुण्डः (पुं०) एक विशेष मछली। सिंहदर्प (वि०) शेर की भांति गर्जना। सिंहद्वारः (पुं०) मुख्य द्वार, प्रवेश द्वार। सिंहध्वनिः (स्त्री०) सिंह गर्जना। सिंहनादः (पुं०) सिंह गर्जना। सिंहपुरं (नपुं०) नगर विशेष। (समु० ३/१८) सिंहयशा (स्त्री०) कलिङ्ग देश के राजा खारखेल की रानी।
(वीरो० १५/३२) सिंहराशि (स्त्री०) राशि विशेष। (वीरो० २१/१३) सिंहपुरी (पुं०) बनारस के समीप स्थित एक नगरी। सिंहलम् (नपुं०) ० पीतल। ० बल्क।
० वृक्ष की छाल।
० लङ्काद्वीप। सिंहसेनः (पुं०) एक राजा का नाम। (समु० ३/१८) सिंहली (वि०) लंका निवासी। सिंहसमीक्षणं (नपुं०) सिंहावलोकन। (वीरो० ११/१) सिंहाङ्ग (वि०) सिंहरूप वाला। (वीरो० ११/२०) सिंहाणम् (नपुं०) नाक मल। सिंहावलोकनम् (नपुं०) सिंह की ओर देखना। सिहंवन्नरः (पुं०) सिंह की तरह मनुष्य। (समु० २/३४) सिताश्वः (पुं०) श्वेत अश्व। सिताश्रित (वि०) शर्करायुक्त, शक्कर सहित। (जयो० १६/९) सितासित (वि०) शुक्ल-कृष्ण सहित। (जयो० १५/६१) सितासितः (पुं०) बलराम। सिति (वि०) सफेद। सिताश्वादनम् (नपुं०) मिश्री का आस्वादन। (सुद० १११) सितेतर (वि०) श्वेत के भिन्न काला। सितोद्भवम् (नपुं०) सफेद चंदन। सितोपल: (पुं०) स्फटिक
. पुण्डरीक। (वीरो० ६/४) सितोपला (स्त्री०) मिश्री, चीनी। सिद्ध (भू०क०कृ०) [सिध्+क्त] सम्पन्न, कार्यान्वित, अनुष्ठित।
० प्रख्यात (सुद० २/६) अवाप्त, पूर्ण। ० निर्णीत। ० कृतकृत्य।
० सकल विषय रहित। ० जन्म मरण रहित। ० मुक्त हुआ, अष्ठकर्म रहित हुआ, कर्मकलंकरहित हुआ। • सर्वकर्मविमुक्त।
० भेद विज्ञान से सिद्ध। (सम्य० १०७) सिद्ध (पुं०) सिद्ध प्रभु, अष्टकर्ममुक्त परमात्मा। .
स्वाभाविकज्ञानतया समिद्धाः' (भक्ति० १) सिद्धकूटः (पुं०) सिद्धशिला, सिद्धपर्वत के जिनाश।
(समु०५/२१) सिद्धगति (स्त्री०) जन्म मरण रहित अवस्था। सिद्धजलम् (नपुं०) कांजी। सिद्धनदी (स्त्री०) गंगा। सिद्धपक्षः (पुं०) तर्कसंगत पक्ष, निर्णीत पक्ष। सिद्धप्रभुः (पुं०) सिद्धभगवान्। सिद्धभक्तिः (स्त्री०) आचार्य कुंदकुंद प्रणीत एक भक्ति।
आचार्य ज्ञानसागर की रचना (भक्तिसंग्रह पृ० १) सिद्धयोगिन (पुं०) परमात्मा। सिद्धशिला (स्त्री०) सिद्धालय का स्थान। (सुद० १२२) सिद्धसेनः (पुं०) सन्मति तर्क प्रकरण के रचनाकार। सिद्धसौख्य (वि०) अनुपम सुख युक्त, परम सुख वाला। सिद्धार्थः (पुं०) कुण्डनपुर का शासक, भगवान महावीर के
पिता। (वीरो० ३/२) राजा सिद्धार्थ।
• सिद्धार्थ वृक्ष। (जयो० ६/४१) सिद्धात्मन् (पुं०) परमात्मा, कर्मयुक्त आत्मा। सिद्धान्तः (पुं०) तत्त्व विवेचन, परम तत्त्व निरूपण। सिद्धान्तविरोधिनि (वि०) सिद्धान्त विरोध वाला। (जयो०३/९७) सिद्धान्तशाली (वि०) अभिप्राय धारक। (जयो० ३/७९) सिद्धान्तशास्त्रम् (नपुं०) सिद्धान्तसूत्र। (जयो०वृ० ३/३६) सिद्धालयः (पुं०) सिद्धस्थान। परमस्थान। सिद्धासनम् (नपुं०) सिद्ध स्थान। सिद्धि (स्त्री०) स्वात्मोपलब्धि।
० लोकान्तक्षेत्र। (सम्य० १५) ० मुक्ति। (वीरो० २/२) सिद्धयन्ति निष्ठितार्था भवन्त्यस्यां प्राणिन इति सिद्धिः लोकान्तक्षेत्रलक्षणा:। ० निष्पन्नता, पूर्णता, निष्पत्ति। (जयो० ११/९८) ० कल्याण, शान्ति। ० मुक्ति। (हित० २)
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सिद्धिकरणं
११८५
सीतानकः
० कार्यनिष्पत्ति। (जयो० १०/८४) ० प्रसिद्धि, ख्याति। सिद्धान्तप्रसिद्धान् वसुकर्ममुक्तान् (सिद्ध भक्ति०९) ० समृद्धि। कार्य सिद्धि। (सुद० ९१) कार्य सम्पन्नता। (सम्य०१४) ० प्रयोजन। (दयो० ३२) ० प्रतीत, आभास। (सम्य० ११६)
० अनन्त ज्ञानादि स्वरूपोपलब्धिः। सिद्धिकरणं (नपुं०) सिद्धि प्रक्रिया। (जयो० १/३१) सिद्धिगत (वि०) प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ। सिद्धिदात्र (वि०) कल्याण देने वाला। सिद्धि प्रियः (पुं०) कल्याण प्रिय। (सम्य० १५) सिद्धिमार्गः (पुं०) मुक्तिपथ। (हित०२) सिद्धिवधू (स्त्री०) मुक्ति लक्ष्मी। (वीरो० २१/२२) सिद्धिवनिता (स्त्री०) मुक्तिवधू। (वीरो० २१/२४) सिद्धिश्री (स्त्री०) मुक्तिलक्ष्मी। (वीरो० २१/२०) सिधु (सक०) सिद्ध होना, मुक्त होना। (भक्ति०१) स्ववाञ्छितं
सिद्धयति येन तत्प्रथा। प्रयाति लोक! परलोकसंकथा। (वीरो० ९/११) ० सम्पन्न होना, पूर्ण होना।
० प्रमाणित होना। सिधाला (वि०) सुख देने वाला। (समु० १/२२) सिध्मम् (नपुं०) [सिध्+मन्] छाला, खुजली।
___० कोढ़, कुष्ठ ग्रस्त स्थान। सिध्यः (पुं०) [सिध्+णिच्+यत्] पुष्य नक्षत्र। सिनः (पुं०) [सि+नक्] ग्रास, कौर, कबल। सिमी (स्त्री०) गौर वर्ण की स्त्री। सिन्दुकः (पुं०) एक वृक्ष विशेष। सिन्दूरः (पुं०) एक प्रकार का वृक्ष। सिन्दूरम् (नपुं०) सिंदूर, लाल वर्ण का, जो सुहागिन स्त्रियों के
द्वारा अपनी मांग में भरा जाता है। सौभाग्य सूचक।
(जयो०३/५९) सिन्दूरकला (स्त्री०) सौभाग्यकला। (जयो० १४/८१) राग
परिणाम। (जयो० ११/११) सिन्दूलम् (नपुं०) सिंदूर। (जयो० १३/१०७) सिन्धुः (पुं०) [स्यन्द्-उद् संप्रसारणं दस्य धः] उदधि, सागर,
समुद्र, वारिधि। (सम्य० १२५) (जयो० ५/३४) (सुद०१/३) ० सिन्धु नदी। (वीरो० २।८, ४/१२)
सिन्धुकः (पुं०) एक वृक्ष विशेष। सिन्धुदेशाधिपति (पुं०) सिन्धुदेश का राजा। (जयो० ६/५८) सिन्धुनदः (पुं०) समुद्र। (सुद० १/१४) सिन्धुनदी (स्त्री०) सिन्धु नामक नदी। (जयो० ६/५८) सिन्धुनिर्मथनम् (नपुं०) समुद्र मंथन। (जयो० १४/८८) सिन्धुपति (पुं०) सिन्धु देश का राजा। ___० समुद्र। (जयो०वृ० ६/५८) सिन्धुरः (पुं०) [सिन्धु+र] हस्ति, हाथी, कटि। (जयो०१३/३२) सिन्धुवधू (स्त्री०) नदी रूप वधू। (जयो० १३/९६) सिन्व् (सक०) गीला करना, तर करना। सिप्रः (पुं०) पसीना, स्वेद, प्रस्वेदजल। (जयो० १३/७९)
(जयो० १२/१२२) ० निदाघसलिले सिप्रे' इति वि' (जयो० १४/९३)
० चन्द्र। सिप्रझर (वि०) पसीना झरना। (जयो० १४/९३) सिप्रभाग (वि०) पसीना बहने लगना। (जयो० १२/१२२) ___ 'जनस्तत्रौष्ठयसम्भावनयापि' (जयो० १२/२२) सिप्रशिवः (पुं०) प्रस्वेदजल, पसीना। (जयो० १३/७९) सिप्रा (स्त्री०) सिप्रा नामक नदी, जो उज्जैनी नगरी के समीप
बहती है।
० करधनी, कन्दौरा, तगड़ी। सिम (वि०) [सि+मन्] सम्पूर्ण, सब, समस्त। सिरः (पुं०) [सि+टक्] पीपलमूल। सिरा (स्त्री०) [सिर+टाप्] धमनी, नाड़ी।
हिस्सा। सिव् (सक०) सीना, रफू करना। सिवरः (पुं०) हस्तिी, हाथी। सिसृक्षा (स्त्री०) [सृज्+सन्+डा+टाप्] रचना भाव। सिहुण्डः (पुं०) सेहुंड नामक पौधा। सिहकः (पुं०) गुग्गुल, गन्धद्रव्य। सीक् (सक०) छिड़कना, बखेरना। सीकरः (पुं०) [सीम्यते, सिच्यतेऽनेन-सीक्+अरन्] फुहार,
जलकण। सीत्कृतिः (स्त्री०) सीतकार शब्द-सिसकारी। रदच्छदं
सीत्कृतिपूर्वक। (वीरो० ९/२३) सीता (स्त्री०) ० सीता नामक नदी, ० जनकात्मजा। (जयो०
१३/५३) ० सीता राम पनि। मिथिलानरेश की पुत्री। (जयो०६/१२०) ० हल की रेखा, खेत की खुदी हुई रेखा।
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सीताफलम्
सीतानकः (पुं०) मटर । सीताफलम् (नपुं०) सीताफल ।
सीताराम (पुं०) सीता और राम । (जयो० ६ / २० ) ० आदर सूचक शब्द |
सीदशित: (पुं०) आकाश (सुद० पृ० ३१) सीद्यम् (नपुं०) आलस्य, सुस्ती, शिथिलता । सीमन् (स्त्री० ) [ सि+गनिन्] सीमा, हद। सीमन्तः (पुं०) सीमारेखा, विभाजक रेखा । सीमन्तकम् (नपुं०) सिन्दूर ।
सीमन्तित (वि० ) [ सीमन्त+ णिच्+क्त] विभाजित, सीमाकरण। सीमन्तिनी (स्त्री० ) [ सीमन्त+ इनि + ङीप् ] स्त्री, महिला ।
• अंतिम सीमा (वीरो० ११ / ५) सीमा ( स्त्री०) हद, मर्यादा, किनारा।
० तट ।
सीमातिक्रमणम् (नपुं०) सीमातिक्रम, मर्यादा उल्लंघन । (जयो० १२/२५)
सीमातीत (वि०) असीम। (जयो० १२ / २१ ) सीमानिश्चयः (पुं०) सीमा रेखा ।
सीमाविवादः (पुं०) सीमा पर झगड़ा । सीमिक : (पुं०) बामी, चींटियों का घर । सीमोचितसूत्रम् (नपुं०) सीमाकरणसूत्र, विभागकारकरज्जु । (जयो० १२/१३)
सूर्य
० आक, मदार का पौधा ।
सीर : (पुं० ) ०
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सीरकः (पुं० ) [ सीर+कन्] सीर, आक पादप । सीरिन् (पुं० ) [ सीर + इनि] बलराम ।
सीलन्दः (पुं०) एक मछली विशेष ।
सीवनम् (नपुं० ) [सिव् + ल्युट् ] सीना, टांका लगाना, सिलाई। (जयो० २ / ५० )
जोड़, सन्धिरेखा ।
सीवनी (स्त्री० ) [ सीवन + ङीप् ] सुई । सु (सक०) जाना, प्राप्त होना ।
०
० भींचना, दबाना |
सु (अव्य० ) ० अच्छा, अद्वितीय। (सुद० २ / १ ) उत्तम, श्रेष्ठ विशेष | (जयो० २ / ५) शोभना (जयो० ) ० सुंदर, भला। (जयो० १ / १०) सभी ( सुद० १ / ३० ) ० अतिशय ।
०
०
कठोर, उचित। (जयो० २४/४३ )
अधिक, अत्यधिक। (जयो० २४/४३)
सुकृत् (वि०) ०भला करने वाला, ०उचित किया जाने वाला ।
० अच्छी तरह से किया गया।
११८६
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सुकृतम् (नपुं०) पुण्य (सुद०२/९, २/४७) ० स्वर्णमेव कलितं सुकृताय ।
सुकृत प्रवर्तिनी (स्त्री०) पुण्यस पादिका । सुकृतवत् (वि०) पुण्यकर्म सदृश । (जयो० ३/१४) सुकृतवित्ति (नपुं० ) ०पुण्यधन। (जयो० ३/६) ०शुभलाभ | सुकृतसंगीति: (स्त्री०) पुण्योदय। (जयो० १४/६ ) ०शुभोदय । सुकृता (वि०) सौन्दर्ययुक्त-सौन्दर्येण विहीता। (जयो० ८/८१) सुकृतांशः (पुं०) पुण्यसमय। (जयो० १२ / १०४) सुकृतांश: (पुं०) पुण्यलेश। (जयो० ६ / ५६ ) सुकृतांशु (नपुं०) स्वच्छ वस्त्र । (जयो०) सुकृतार्जनम् (नपुं०) पुण्यार्जन, पुण्य सम्पादन् । (वीरो० २/३५) सुकृतावलोकिन् (वि०) पुण्यशाली। (सुद०२/१५) सुकृति (स्त्री०) कृपा, सद्गुण। (जयो० १ / ५६) सुकृतोदयः (पुं०) पुण्यप्रसार, पुण्य योग। (जयो०वृ० ३ / ५६ ) (सुद०२/१०)
सुख
सुकृतोपयोगः (पुं० ) ०पुण्योपयोग, ० शुभोपयोग। (समु० ६ / २३) सुकारिन् (पुं०) नापित, नाई। शोभना कारिः क्रिया यस्यास्तस्याः वारिः क्रिया नापिताद्यो' इति वि' (जयो०वृ० १७/५१) सुकन्दः (पुं०) कं जलं ददातीवि कन्दो मेघः । मेघ, बादल । (जयो० ३/८७ )
सुकर्मन् (नपुं०) पवित्र कार्य। (जयो० २ / ८५ ) सुकीर्ति (वि०) उत्तम दशा । (जयो०१ / १० ) ० प्रशंसा । (जयो०वृ० १ / १० )
०
सुकुटुम्ब (वि०) परिवार सहित। (जयो० १२/४२) सुकृतवत् (वि०) पुण्यकर्मसदृश। (जयो० ३/१४) सुकुमार: (पुं०) नवयुवक, शोभनाः कुमाराः (जयो० ५ / १) सुकुमार (वि०) मृदु, कोमल ।
सुकुमारी (स्त्री०) अबला । (जयो०वृ० १/७१ )
सुकोमलः (पुं०) मृदु, अत्यन्त कोमल, सुकुमार । ( सुद० ३ / २३) (जयो० ११/८९)
सुकोमलत्व (वि०) मृदुता । (वीरो० २२ / ५ )
सुकाञ्चीगुणं (नपुं०) करधनी, रसतासूत्र । (जयो० ११/२४) सुकपोल: (पुं०) चिकने गाल। (सुद० ३/१९ )
सुकवि: (पुं०) उत्तम कवि, कुशल काव्यकार । (सुद० १/९) सुकुण्डलम् (नपुं०) विकसित कमल। (जयो० ६ / २० ) सुकेशि (वि०) शोभनकच वाला। (जयो० २ / ३१) मृदुलश्यामलकचवति (जयो० ६/८५)
सुख (वि०) [सुख+अच्] हर्ष, आनन्द । (सुद० १२४) ० मधुर, मनोहर, रमणीय, सुहावना, इष्ट, प्रिय। (सम्य० १५४)
योग्य, उपयुक्त ।
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सुखम्
सुखम् (नपुं०) आनन्द, हर्ष, सुखी । प्रसन्नता । 'सुखं पुनर्विश्वजनैकदृष्टैः' (जयो० ११ / ५१ )
इन्द्रियार्थनुभव, प्रीति परिणाम ।
• दुःख का उपशम।
• मन और इन्द्रिय का आनन्द ।
११८७
० इष्ट अनुभव।
'सुखमालभतां चित्तधारकः परमात्मनि' (सुद० १२८ ) सुखं तदात्मीयगुणं सुदृष्टम् (सुद० १२१ ) सुखम् (अव्य०) प्रसन्नतपूर्वक, हर्षपूर्वक । सुखकर (वि०) सुख देने वाला, सुखदायक। (जयो० ११ / ५१ ) सुखकार (वि०) सुखकर, सुखदायक।
सुखहेतु (पुं०) हर्ष का कारण । (सुद० ९२ ) सुखावह (वि०) सुखकर, सुखदायक। (सुद० ४/२९) (सुद०
१२४ )
सुखाशः (पुं०) वरुण वृक्ष। सुखाशेन वरुणनाम वृक्षेण संहतिः सुखाशानां वरुणानां संहतिर्गणो' (जयो० २१ / ३१) सुखाशयः (पुं०) सुख का अभिप्राय सुखमस्त्वित्यभिप्रायवान्' (जयो० १३ / ७)
० आनन्दवाञ्छा, स्वर्गाभिलाषा। (जयो० ६/४३) सुखिता (वि०) सुखमयी । ( सुद० १०० ) सुगतः (पुं०) बुद्ध, (जयो० २ / २६ )
'सर्वज्ञः सुगतो बुद्धा धर्मराजस्तथागत:' इत्यमरः (जयो०१४/२)
सुगतशक्रः (पुं०) स्वर्ग। (जयो० वृ० ३ / २९)
सुगन्ध (पुं०) चन्दन |
सुगन्धकः (पुं०) लाल तुलसी, संतरा, नारंगी । सुगंधगम्य (वि०) सुगन्धित, सुरभि युक्त, सुगन्ध को प्राप्त हुई। (जयो० ११ / ६१)
सुगन्धदायिन् (वि०) सुरभिदायक, सुगन्ध देने वाली । (दयो०३१) सुगन्धयुक्त (वि०) सुरभि सहित। (सुद० १ / ३५) सुगन्धाश्रयणम् (नपुं०) गन्दोदक। (जयो०वृ० ३/८३) सुगन्धि (वि०) मधुर गन्ध वाला ।
सुगन्धिक (पुं०) धूप, गन्धक।
सुगभीर (वि०) अत्यन्त गम्भीर । (जयो० २२ / ६९ ) सुगह्वरः (पुं०) महादेव । गहनस्तु गुहायां स्यात् गहने
कुञ्जदम्भ्योरिति वि (जयो० ६/४४)
सुग्रहित (वि०) अच्छी तरह से पकड़ा गया। सुगम (वि०) उत्तम मार्ग । सुष्ठु शोभनो गमा मार्गों (जयो०
१३/२४)
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सुगात्री (वि०) मनोज्ञदेहा । (वीरो० ५ / ३७ ) सुगुण (वि०) उत्तम गुण वाला। (सुद० ७५) सुगुणः (पुं०) शोभनरज्जू । (जयो० १३ / ६६ ) सुगुणवंश: (पुं०) उत्तम बांस ।
सुजात
सुगुणवती (वि०) परोपकारिणी । (जयो० १३४) सुगुणाश्रयः (पुं०) उत्तम गुणों का आश्रय । (सुद० १२२) सुगुणैकरूप: (पुं०) उत्तम गुणों का रूप । (समु० १ / १६ ) सुगुरु ( पुं०) उत्तम गुरु, वीतरागमार्गगामी गुरु | सुगुरु (वि० ) अत्यन्त भारी ।
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सुगुरुश्रेणिजुषः (पुं०) स्थूल नितम्ब । (जयो० १४ / ६५) सुगीति (स्त्री०) मधुर गीतिका (वीरो० २२/१०) सुगीतिरिति (स्त्री०) मधुर गीतों की पद्धति। (वीरो० २१ / १०) सुग्रीवः (पुं०) वालि का भाई, ० नायक, बहंस । सुगौरगात्री (वि०) सुंदरराङ्गी । (जयो० १० / ११८ ) सुगृहीत (वि०) अच्छी तरह से पकड़ा गया। सुचक्षुस् (वि०) दीर्घ नेत्र वाला, अच्छी आंखों वाला। सुचक्षुस् (पुं०) बुद्धिमान् व्यक्ति, विचारशील पुरुष । सुचरणानुयोगः (पुं०) चरणानुयोग । (जयो० २/४८) सुचरित (वि०) सदाचरण युक्त। (मुनि० २९) सुचित् (वि०) शोभन्। (जयो० २/१२) सुचित प्रस्तर (वि०) अच्छा पाषाण । (जयो० २ / १२) सुचित (वि० ) शुक्त शोभायुक्त। (वीरो० १/२५) सुचित्रकः (पुं०) राम चिरैया। सुचित्रा ( स्त्री०) नामक विशेष । ० लौकी । सुचित्क (वि०) सुचेता । ( वीरो० २० / ११ ) सुचिन्ता ( स्त्री०) गहन चिन्तन, गम्भीर विचार। सुचिरस् (अव्य०) लम्बे समय तक ।
सुचिरपरिचित (वि०) पुरातन पहचान। (जयो० १४ / ९४ ) सुचिरायुस् (पुं०) अमर, देवता ।
सुचेत (वि०) उत्तम चित्त वाला। (वीरो० २०/११ ) • समझदार । (वीरो० १७/३) सुजन: (पुं०) सज्जन, सद्गुणी । सुजनदृश् (पुं०) सज्जनों की दृष्टि । (समु० ६ / ४१ ) सुजनचक्र: (पुं०) जनसमुदाय। (जयो० ६/४८) सुजनी (स्त्री०) परिचारिका । (जयो० १२ / ११३) सुजमन्मन् (वि०) कुलीन, उच्चकुल वाला। सुजल्प: (पुं०) उत्तम वाणी, अच्छा कथन । स्वाभाविक विचारशील। (सुद० १/१२)
सुजात (वि०) सुंदर, प्रिय, रमणीय ।
• अच्छे कुल में उत्पन्न |
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सुजात
सुजाति (स्त्री०) प्रसूति। (जयो० १२ / ८४ )
सुजानु (वि०) शोभन जानु युक्त। (जयो० ११/१४) सुजीविन् (वि० ) शुद्ध जीवन। (जयो० २ / १०६) सुत (भू०क० कृ० ) [ सु+क्त] निकाला गया, निचोड़ा गया। पैदा किया गया।
०
० उत्पादित ।
११८८
सुतः (पुं०) पुत्र, वत्स । (सुद० ३/२३ ० राजा । (हित० ११, सुद०२ / ३९ )
सुतता (वि०) पुत्रपना । (जयो० २१ / ८३) सुतत्त्व (वि०) वास्तविकत्व। (जयो० २३/८४) सुतसंहृति: (स्त्री०) सुतसंहार। (वीरो० ९/६) सुतप:पदी (वि०) तपस्वी । (वीरो० १९ / ३० ) सुतनु (वि०) सुंदर शरीर वाला। (जयो० ४ / ३९ ) सुतरशुभम् (नपुं०) नितान्तपावन । (जयो० २३/८२ ) सुतवग्म (अव्य०) स्वयं (सुद० ९१) अत्यंत । ( भक्ति० ३१) स्वत: (सुद०३/१५, सहज (समु०१/२६) अतिशय (सम्य० १२२)
सुतसार: (पुं०) पुत्रभाव। (समु० ५ / २३ ) ) सुता (स्त्री०) पुत्री। (हित०११, जयो० १०/३०, सुद० ३/३४) कन्या (जयो० २०/२८)
सुतार्थ ( वि० ) पुत्र प्रयोजन। जाया सुतार्थं भुवि विस्फुरुमना कुर्यादजायाः सुतसंहृतिं च ना। (वीरो० ९/५) सुतिक्तकः (पुं०) मूंगे का वृक्ष ।
सुतीक्ष्ण (वि०) अत्यंत तीखा । तीव्र कष्टदायक । (जयो० ११/४६) अति पीड़ादायक |
सुतोष (वि०) सुखभाव युक्त-शोभनस्तोष: सुखभावोः (दयो० ११/८)
सुतोषा (वि०) संतोषवती । (जयो० १६ / ३५ ) सुतीर्थ (वि०) उत्तम तीर्थ, अतिशय तीर्थ ।
सुतुङ्ग (वि०) अति उन्नत, बहुत ऊँचा । सुदक्ष (वि०) अति उदार । ० अतिशय चतुरा। सुदक्षिणा (स्त्री०) एक राजकन्या । शोभना दक्षिणा नाम दिशा दया सा सुदक्षिणा । (जयो० १९ / २३) सुदण्डः (पुं०) बेंत |
सुदत्तः (पुं०) पद्मखण्ड नगर का एक वैश्यवर । (समु० १/२९)
सुदन्तः (पुं०) स्वच्छ दांत ।
सुददति (जयो० १२ / ११९, शोभनरदा । (जयो० ११ / १५ )
सुदामन्
सुदन्ती (स्त्री०) शोभना दन्ती, दन्तावती । (जयो० ५ / ४९ ) सुदन्तपालिः (स्त्री०) शोभना दन्तानां पालिः पक्तिः सुदर दन्त पंक्ति । (जयो० ११ / ७९)
सुदर्शन (वि०) इष्ट अवलोकन ।
• अच्छा दर्शन । ० पुण्याकारक दर्शन (सु० १५ )
• सम्यक् दर्शन । ( भक्ति० ७ )
० रम्य दर्शन। (सुद० ३/३०)
सुदर्शन (पुं०) सुदर्शन नामक सेठ ।
सुदर्शन चक्र । (जयो० २४/५ )
सुदर्शन नामक अन्तिम कामदेव ।
०
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०
सुदर्शनाख्यान्तिमकामदेव
कथा पथायातरथा मुदेः । (सुदशनोदय: १/४ ) सुदर्शन: (पुं०) चम्पापुरी के सेठ वृषभदास का पुत्र, जो श्रेष्ठ उपासक एवं शील पालन में श्रेष्ठ था। सुतदर्शनतः पुराऽसकौ जिनदेवस्य ययौ सुदर्शनम्।
इति तस्य चकार सुंदरं सुतरां नाम तदा सुदर्शनम् ।। (सुद० ३/१५)
सुदर्शन नामक मुनि (सुद० ९२) दास्याऽदर्शि सुदर्शनो मुनिरिव'
सुदर्शनमहोदयः (पुं०) सुदर्शनोदय काव्य। (सुद० १३७) सुदर्शनधनीशनादोय: (पुं०) सुदर्शनोदय काव्य । (जयो० १३७ ) सुदर्शनसमुद्गम (वि०) सुदर्शनोदय काव्य प्रणयन। सम्यग्दर्शन के उदय को प्राप्त होने वाला। सुदशिन् (वि०) सम्यगन्वेषकारी । (जयो० ३ / १४) सुदर्शनमहात्मन् (पुं०) महात्मा सुदर्शन । ( सुद० १०९ ) सुदर्शना ( स्त्री०) शोभना, रमणीया। (वीरो० २/२० ) ० आदेश ।
०
० आज्ञा ।
सुदर्शनान्वय (वि०) सुदर्शनमय। (सुद० ८६) सुदर्शनी (वि०) सम्यग्दर्शनयुक्त। (जयो० १३ / ६६ ) सुदर्शनोदयम् (नपुं०) आचार्य ज्ञान सागर प्रणीत काव्य । (सुद० १/४६ )
सुदर्शयन्ती (वि०) साक्षात् सुंदर दिखने वाली। (जयो०६/६) सुदा (वि०) यथेष्ट |
सुदाम् (वि०) सुंदर पुष्पहार। (जयो० १०/१) सुदामन् (वि०) उदारतापूर्वक देने वाला।
सुदामन् ( वि० ) ० मेघ, बादल ।
० पर्वत गिरि ।
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सुदारुण
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० समुद्र ।
०
कृष्णमित्र सुदामा । (दयो० ५८ )
सुदारुण (वि०) भयङ्कर । (जयो० ८ / १७ ) सुदायः (पुं०) मांगलिक उपहार, मांगलिक प्राभृत । सुदास (वि०) उत्तम दास । (जयो०वृ० १ / ३७ ) सुदिनम् (नपुं०) शुभ दिन, उत्तम दिवस । सुदीक्षित (वि०) उचित प्रव्रज्यागृहीत। (मुनि० ९ ) सुदीर्घ (वि०) विस्तृत, विस्तीर्ण, बड़ी। (समु० २/१५) सुदुर्लभ (वि०) विरल, अत्यन्त अप्राप्त। (सुद० ९८ ) दुष्प्राप्य । सुदूर (वि०) दूरवर्ती, अत्यधिक दूर।
सुदृक् (वि०) सुदृश्य, अत्यन्त दर्शनीय। (जयो० ३/८९) सुदृक्त्व (वि०) सम्यग्दृष्टिपना। (सम्य० १२३) सुदृक्पथः (पुं०) सादर दृष्टि, शोभनो दृशः पन्था तेन । (जयो० २/९६)
सुदृसिद्धान्त ( वि०) सुलोचना रूप ।
० उत्तम दृष्टि वाले, सिद्धान्त सज्जनों की दृष्टि वाले सिद्धान्त । (जयो० ३/९७)
सुदृक्सुदृक्षी (वि०) सुंदर नयना । (जयो० २३/१२) सुदृग् (वि०) अत्यंत दर्शनीय ।
सुदृग् कुसुमम् (नपुं०) सुंदर दृष्टि रूप पुष्प। (जयो० ३/९७) सुदृग्गुणानुसार: (पुं०) सौंदर्यादि गुणों के अनुकूल। (जयो०
३/९७)
सुदृगाप्ति (स्त्री०) प्रथम पहुंचने का प्रयत्न । (जयो० ५ / ९ ) सुदृढ (वि०) अत्यधिक शक्तिशाली ।
सुदृढजङ्ग (वि०) सज्जङ्ग, शक्तिशाली जंघा वाला। (जयो० १/४८) सुदृढजात (वि०) शक्ति को प्राप्त ।
सुदृढतपस्विन् (वि०) तीव्र तपस्वी, उग्र तपधारी । सुदृढधर्मिन् (वि०) उचित धर्म प्रवृत्ति वाला। सुदृढव्रतिन् (वि०) परमव्रती ।
सुदृढोपयोगः (पुं०) दृढ़ उपयोग वाला श्रावक । (जयो०१/३४) सुदृप्त (वि०) अति प्रखर, तीव्र । (जयो० १/ २६ ) सुदृश् (वि०) सुंदर आंखों वाली, सुदर दृष्टि युक्त । (जयो०
१/६६)
० मनोहर । (जयो० ४/१६)
सुदृशा (स्त्री०) सुलोचना स्त्री, शोभना स्त्री । (जयो० ५/८९) सुदृशीश्वर (वि०) आनन्ददायक । (जयो० ९/५७) सुदृष्टिः (स्त्री०) शोभननेत्र । (जयो० ३ / ७७)
० सम्यग्दृष्टि। (समु० ३/२४)
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सुधाधुन
सुदृष्टिचर: (पुं०) एक स्वर्णकार का नाम। (वीरो० १७/३७) सुदेव: (पुं०) परम देव, वीतरागी देव ।
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०
वृषभादि तीर्थंकर । (वीरो० २ / ६)
सुदेवता ( पुं०) परम देव, इष्टदेव, सर्वज्ञ। 'मच्चित्तभानामसुदेवतापि' त्वं येन लोकेष्विन् देवतापि ' (जयो० २०/८३) सुदेवपादः (पुं०) उत्तम देव के चरण (सुद० ७०) सुदेवमन्त्रम् (नपुं०) परमेष्ठिवाचक मन्त्र । (जयो० २४/८२ ) सुदेवसूनु (पुं०) उत्तम पुत्र - ' नाभेरसा वृषभ आस सुदेवसूनु' (दयो० ३०)
सुधर: (पुं०) स्वर्ग (समु० ६ / १) सुधर्मकीर्ति (पुं०) एक नाम विशेष, आचार्य नाम। (जयो०
१६/८०)
सुधर्मन् (वि०) कर्त्तव्य परायण ।
सुधर्मन् (पुं०) सुधर्मास्वामी पांचवा गणधर । (वीरो० ११ / ६ ) सुधर्मलोपिन् (वि०) धर्म का लोप करने वाला। (वीरो० ११ / २१ )
सुधर्मी (स्त्री० ) इन्द्रसभा ।
सुधा (स्त्री०) पीयूष, अमृत: । (जयो० १/७९) (सुद० १०४) सुधा (स्त्री०) [सुष्ठु धीयते पीयते] अमृत। (सम्य० ४३ ) ० उत्तम धारा, उत्तम अर्थ (जयो० १ / ३ )
सुधांशुः (पुं०) चन्द्र सुधाकर। (जयो० १० / २५७) (वीरो० २/४) चन्द्र की चन्द्रिका । (सुद० ४ / १३ ) सुधाकर: (पुं०) चूना, कलई । (जयो० १२/१३४) सुधाकिन् (वि०) सुख दायक - सुष्ठु धाकः प्रभावो यस्य तस्मै । सुधादिकन्तु (स्त्री०) चूना की कली । (वीरो० १९ / २८) सुधारणं (नपुं०) शुभ धारणा वाला। (जयो० ७/५६) सुधालम् (नपुं०) चूना, सफेदी ।
• अमृत किरण । (जयो० ११/७९) कलई इति देशभावायाम् तद्वल्लसंती (जयो० २२ / ५)
सुधाता (वि०) अमृत सदृश । (समु० १/२२) सुधाधारा (स्त्री०) श्वेत मृत्तिका का आधार । (जयो० ३ / ७९ )
सुधायाः श्वेतमृत्तिकाया आधारभूता सुधाया अमृतस्य धारा प्रवाही यस्यामेवम्भूता (जयो०वृ० ३ / ७९ )
सुधांशु (पुं०) चन्द्र, सुधाकर। (जयो० १/२५७, वीरो० २/४ ) ० चन्द्र की चन्द्रिका । (सुद० ४ / १३)
सुधाराधरा ( स्त्री० ) अमृतमयी। (जयो० २७/६८) सुधाधी (स्त्री०) चतुर, प्रज्ञावंत, विद्वान् । सुधाधरी (स्त्री०) पीयूषमयी ।
सुधाधुनी (स्त्री०) अमृतनदी, पीयूष सरिता (जयो० ५/७३) (जयो० ११/७४) अमृत बरसाने वाली। (सुद० १/१०)
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सुधानिधानम्
११९०
सुन्दरपथं
सुधानिधानम् (नपुं०) सुधाकर, चन्द्र। (जयो० ६/५०) (वीरो० सुधीजनः (पुं०) प्रज्ञाशील व्यक्ति। १२/३७)
सुधीन्द्र (पुं०) बुद्धिमान। (सम्य० ३१) सुधाप्रवाहः (पुं०) सुधासूति। (वीरो०८/३६) स्वकणयोः सुधीमान् (वि०) बुद्धिमान्। (सुद० १/१५) सुधासूति तद्वचः श्रोतुमिच्छति (वीरो०८/३६)
सुधीरः (पुं०) धैर्यवान्। (सुद० ११९) सुधारण (वि०) प्रशस्त धारणा शक्ति युक्त। सम्यक् धारण। सुधीवर (पुं०) प्रज्ञाशील व्यक्ति। (दयो० ७/२४) (जयो० २/११२)
सुधृ (सक०) चलाना, संचालन करना। (जयो० २/११८) सुधारवादिन् (वि०) सुधार करने वाला। (जयो० १८४८३) सुधौघधुर्यः (पुं०) अमृतवृष्टिकर/चन्द्र। (जयो०८/६९) सुधारसः (पुं०) अमृत (सुद० १/३९)
सुनन्दा (स्त्री०) दशवें शीतलनाथ की माता का नाम। सु-धारस (वि०) अच्छाई धारण करने वाला। (सुद० १/३९) सुनयः (पुं०) उत्तम नय, कथन करने की श्रेष्ठतम् शैली। सुधारसमय (वि०) चूना, कत्था और अमृत चूर्ण खदिरसार ० अच्छी नीति। ___ युक्त। (जयो० १२/१३५)
सुनयन (वि०) सुंदर नेत्रों वाली। सुधारसहित (वि०) सुधार करने वाला। (सुद० १/३९) सुनयना (स्त्री०) सुलोचना नामक रानी। (जयो० ९/८२) सुधारान्वया (वि०) प्रमोदयुक्त, प्रेम परिपूर्ण। (जयो० २२/६८) सुनाद (वि०) शोभनध्वनियुक्त। (जयो० २/१५७) सुधारिन् (पुं०) प्रजोन्नति विधायक, प्रजा हित करने वाला। सुनाभ (वि०) सुंदर नाभि वाला।
. शोभा वाला। (जयो० १/४७) विधायक (जयो० ९/६) सुनमि (पुं०) विद्याधर पुत्र दक्षिण-उत्तर के विद्याधर पुत्र का सुधालिन् (वि०) सुधारवादी। (जयो० १८/७३)
नाम। (जयो० ६/६) सुधाव (वि०) सुष्टु धावतीति सुधाव प्रसरणशील। (जयो० ० विद्याधरेश। (जयो० ८७२) ६/९६)
सुना (पुं०) परम पुरुष। (वीरो० २/२२) सुधावाक् (नपुं०) मधुर भाषण।
सुनाशीरः (पुं०) उत्तम पुरुष, इन्द्र (वीरो० २/२२, जयो० ० चूर्ण, कलई। (जयो० २३/५४)
१०/५२) सुना परम पुरुष शीरस्य सूर्यस्य। सुधालतिका (स्त्री०) अमृत लता। (सुद० ३/१७)
० प्रतापी। (दयो० १/११) सुधाशि (पुं०) देव, अमर। (जयो० १२/१)
० सूर्य तुल्य। (दयो० १/११) सुधाश्रयः (पुं०) स्वर्ग-सुधाया आश्रयं स्वर्गमेव। (जयो० १७/४०) | सुनासिका (स्त्री०) उत्तम नाक। (जयो० ११/६०) सुधाशिधामः (पुं०) स्वर्गधाम, देवस्थान। सुधाशिनां देवानां सुनिश्चित (वि०) नियमिता (दयो० १०३) जानना (सम्य०८२) ___धाम स्वर्ग। (जयो० ७/१०९)
___तत्त्वार्थानां सुनिश्चितम्। (सम्य० ८२) सुधासमृद्ध (वि०) अमृत से परिपूर्ण। (भक्ति० ७)
सुनिष्ठा (स्त्री०) श्रद्धा। (जयो० १०/९९) सुधासिक्त (वि०) पीयूष सिंचित। (सुद० २/१७)
सुनीति (स्त्री०) अच्छा आचरण, सदाचरण, शिष्टाचार। सुधासुरसः (पुं०) चूना। (जयो० १०/९)
(सुद० १२३) सुधासूतः (पुं०) चन्द्र, सुधाकर। (जयो० ८/९३)
सुनेत्र (वि०) सुंदर आंखों वाला। सुधास्रक् (पुं०) निर्मल चन्द्र। (जयो० १/१००)
सुनेत्रा (वि०) शोभनाक्षी। (जयो०वृ० ६/३२) सुधास्रोतः (पुं०) अमृतप्रवाह। (भक्ति० ८)
सुनोहरा (स्त्री०) महुआ। (जयो० १६/४९) सुधाकशिम्बः (पुं०) अमृतात्मक छत्र। (जयो० ८/१४) सुन्दः (पुं०) एक राक्षस का नाम। अमृतमयगुच्छक। (जयो० १५/६२)
सुन्दर (वि.) [सुन्द्+अरः] प्रिय, श्रेष्ठ, उत्तम, मनोहर, सुधास्वादकः (पुं०) भ्रमर, भौंरा। (जयो०वृ० १/४७)
रमणीय, आकर्षक, ललित। (जयो०वृ० ५/४६) (समु० सुधिः (स्त्री०) बुद्धि मति। (सुद० १३०)
२/१९) सुधी (वि०) चतुर, बुद्धिमान, प्रज्ञावंत, प्रज्ञाशील। (दयो० । सुन्दरतम (वि०) रमणीयतम्। (जयो० ५/२०) १२१, जयो० २/४१)
सुन्दरदेहं (नपुं०) आकर्षक शरीर। सुधीगत (वि०) बुद्धिमंत।
सुन्दरपथं (नपुं०) उत्तम मार्ग।
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सुन्दरपरिभ्रमणम्
११९१
सुबीज
सुन्दरपरिभ्रमणम् (नपुं०) ललितावर्त। (जयो०वृ० १४/५३) सुपर्ववाहिनी (स्त्री०) स्वर्ग गङ्गा, गगनगङ्गा। (जयो० १३/५३) सुन्दरप्रतिसारः (पुं०) महान् समारम्भ। (जयो० १०/१) सुपाण (पुं०) सुंदर पवन। सुष्ठु पस्य पवनस्याणः शब्दो यत्र सुन्दरभावः (पुं०) अच्छे परिणाम।
तस्मिन् सुपाणे। (जयो० २७/२७) सुन्दरमाला (स्त्री०) आकर्षण माला।
सुपात्रम् (नपुं०) उपयुक्त बर्तन। मनोहर पात्र। (जयो० सुन्दरवनम् (नपुं०) समृद्ध वन।
१२/११२). सज्जन। सुन्दरवेरम् (नपुं०) सुंदर शरीर।
० उत्तम पात्रता युक्त व्यक्ति, व्रतधारी जो सम्यग्दर्शनादि सुन्दराकार (पुं०) सौम्य आकार। (जयो०वृ० १२/११८) गुणों से युक्त होता है। सुन्दराकृति (स्त्री०) (जया०५/९१) उत्तम आकृति। (वीरो० सुपाद् (वि०) कोमल चरण वाली। ४/३१) ० सौम्याकार।
सुपार्श्वः (वि०) उत्तम समीपता युक्त। सुविशालेऽवनिललिते समुन्नते सुन्दराकारे। (वीरो० ४/३१) सुपिच्छल (वि०) कीचड़ युक्त। (वीरो० २१/१५) सुन्दराङ्गिन् (वि०) सुगौरगात्री, आकर्षक अंगों वाली। (जयो० सुपीन (वि०) पीनतर (जयो० १७/४४) अत्यधिक भरे हुए। १०/११८)
____ पुष्ट। (वीरो० ९/३९) सुन्दरी (स्त्री०) ऋषभ पुत्री, आदिनाथ की दो पुत्रियों में से सुपुण्यशाली (वि०) अत्यन्त पुण्यवान्। (जयो० १२।८६)
एक पुत्री सुंदरी-गणितविद्या प्रवीणा (वीरो० ८/३९) सुपुष्कराशय-तनु (वि०) कमलगर्भ शरीर युक्त। (सम्य०६७)
सुपुष्प (वि०) रमणीय पुष्प युक्त। ० चक्रपुर के अपराजित राजा की रानी सुंदरी। सा सुन्दरी सुपुस्तक (वि०) सुशास्त्र, अच्छी पुस्तक। (सुद० ३/३१)
नाम बभूव रामा वामासु सर्वास्वधिकाभिरामा। (समु०६/११) सुपूतः (पुं०) सुपुत्र। सुन्दर्यासक्त (वि०) सुंदरियों को आकर्षित करने वाला। सुन्दरीषु । सुपूतः (वि०) पुनीततर। (जयो० ५/३१)
युवतिषु आसक्तं संलग्नं मनो यस्य सः। (जयो० ६/१०८) सुपेशला (वि०) सुंदर रूपधारिणी। सुन्दल (वि०) सुंदर, ललित। (सुद० ९४)
सुप्त (वि०) [स्वप्+क्त] सोया, पीड़ाग्रस्त। (जयो० २१/९) सुपक्व (वि०) परिपक्व, पूर्ण पका हुआ।
(सुद० ७८) सुपत्नी (स्त्री०) भद्रपरिणामी पत्नी।
सुप्रतर्कः (पुं०) स्वस्थ विचार। सुपदम् (नपुं०) सुंदर शब्द। (जयो० ३/१७)
सुप्रतीक (वि०) सुंदर आकृति वाला। सुपथः (पुं०) सुमार्ग, सुंदर पथ। सुष्ठु पन्थाः सुपथः (वीरो०२/१४) सुप्रभ (वि०) यशस्वी, प्रतिभाशाली। सुपथिन् (पुं०) राजमार्ग, उत्तम मार्ग।
सुप्रभा (स्त्री०) पिंगह्व गान्धार की रानी। सूर्यवंशीराजा दशरथ सुपरिणमनं (नपुं०) सुंदर, परिणामी। (जयो० २/४३)
की रानी। (वीरो० १५/२७) (जयो० २४/१०४) सुपरिणामः (पुं०) शुभ फल। शोभनः परिणामः सुपरिणामः | सुप्रभाकुक्षित (वि०) रानी सुप्रभा की कुक्षी से उत्पन्न। (जयो० २/६)
(जयो० ३/३७) सुपरिणाह (वि०) विस्तृत। (जयो० २२/६०)
सुप्रभातम् (नपुं०) प्रातःकाल, सुबह, प्रारम्भिक बेला, प्राप्त सुपरितोषः (पुं०) संतुष्ट भाव। (जयो० १/९९)
शिष्टाचार। सुपर्ण (वि०) शोभन पत्र,
सुप्रयोगः (०) अच्छा प्रबन्ध। ० उत्तम पंख।
सुप्रसिद्ध (वि०) प्रथित। (जयो०१० ११/६०) सुपर्णकुमारः (पुं०) भवनवासी देव।
सुप्रिया (स्त्री०) एक रानी का नाम। सुपर्णशाला (स्त्री०) उत्तम कुटिया।
सुप् (पुं०) सुप् प्रत्यय। (जयो०वृ० १/३१) सुपर्व (वि०) हर्ष, आनन्द। (सुद० ३/१४)
सुबन्धः (पुं०) तिल। सपर्वणा (वि०) देव समागम युक्त। महोत्सव युक्त। सुबल (वि०) अत्यन्त बलशाली। __ (जयो० २४/२३)
सुबालभाव (वि०) शिशुत्वभाव। (जयो० ११/६७) • लड़कपन। सुपर्वपुरम् (नपुं०) स्वर्ग (समु० ५/३३)
सुबीज (वि०) उन्नत बीज। (जयो० २/१२४)
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सुबुद्धि
११९२
सुमनस्
।
सुबुद्धि (स्त्री०) सुधीकर (सुद० १/१)
० (पुं०) मंत्री का नाम। (समु० ३/१७) सुबोध (वि०) सम्यक् ज्ञान युक्त। सुभ (वि०) अत्यन्त भयङ्कर। (जयो०८/६) सुभग (वि०) सुंदर, मनोरम, रमणीक सुहावना, आकर्षक।
० सौभाग्यवती। (सुद० १०४) ० प्रिय, भाग्यशाली, पुण्यात्मन्। ० सम्माननीय, समादरणीय, महानुभाव।
० प्रीतिप्रभव। सौभाग्यदायक। सुभगनामकर्मन् (नपुं०) जो कर्म सौभाग्य को प्राप्त हो। सुभगा (वि०) भाग्यशालिनी, प्रियकारिणी। सुभङ्गः (पुं०) नारिकेल तरु। सुमडल-वेला (पुं०) माङ्गलिक अवसर। (जयो० ५/५३)
पुण्य काल। सुभटः (पुं०) योद्धा, वीर। (जयो० ६/४३) सुभटसूर्यः (पुं०) रतिवर के पिताश्री। (जयो० २३/५३) सुभव (वि०) सौभाग्यशाली। सुभावः (पुं०) परम भाव। (जयो० २/१२३) सुभाषित (वि०) सुकथित, सुंदर भाषण। सुभाषितम् (नपुं०) समुपयुक्तवचन, सारगर्भित वाणी, उपयुक्त
वाग्वैभव।
० नीतिपरक विचार। सुभगकोकः (पुं०) चकवापक्षी। (समु० ७/२८) सुभगतमपक्षी (पुं०) अति उत्तम पक्षी गरुड़। (सुद० १०९) सुभगत्व (वि०) सौभाग्य देने वाला। (समु० २/६४). सुभगसामर्थ्य (वि०) सुकृतं परिणाम युक्त। सुभागस्य
सुकृतपरिणामस्य टङ्कणस्य वा सामर्थ्य न। (जयो० ६/७४) सुभगा (स्त्री०) सुंदरी, सौभाग्यशालिनी। (जयो० ३/३९) सुभद्र (वि०) कल्याणकारी, भद्रपरिणामी। (जयो०४/३६) सुभद्रा (स्त्री०) चक्रवर्ती भरत की पत्नी। सुभद्रा भरतस्य
वल्लभा। (जयो० ३/८८) पट्टरानी। (जयो० २८/६९) सुभागा (वि०) सुभगाया भागशलिन्या सौभाग्यशालिनी। (जयो०
१४/३०) सुभासः (पुं०) सुभाष बोस। (जयो० १८/८१) सुभासः सूर्यदीप्त्याः
सती यासौ कीर्तिरभ्युदयमञ्चति कीर्तिर्यस्य स सुभाष--
महोदयोऽभ्युदयमञ्चति' (जयो० १८/८१) सुभामिनी (स्त्री०) उत्तमकामिनी। (समु० २/१२) सुभाषा (स्त्री०) उत्तमवचन। (जयो० ३/८४)
सुभोगः (पुं०) उत्तम योग। (जयो०वृ० १/२२) परिपूर्ण भोग।
(जयो० १/२२) सुभौमः (पुं०) सुभौम नामक चक्रवर्ती। (सम्य०६४) सुफलस्तन शालिनी (स्त्री०) उत्तम फल रूपी स्तन धारण
करने वाली स्त्री। 'सुफाल्येन स्तनाः पयोधरा यस्याः सा तैः
शालिनी रमणीया। (जयो० १३/५२) सुफला (स्त्री०) नशीला पदार्थ। (सुद० १३०) सुफेनिलः (पुं०) उत्तम साबुन। (जयो० २५/६६) सुभा (स्त्री०) शोभा, कान्ति। (जयो० १२/४४) सुभास (वि०) शोभन कान्ति युक्त। (जयो० १/३७) सुभिक्षम् (नपुं०) प्रबल धन-धान्य उत्तम धान्यावली, प्रचुर
धान्य। सुगमता से प्राप्त होने वाला धान्य। सुभृङ्गः (पुं०) सुशोभित भ्रमर। (सुद० २/४५) सुभ्रू (वि०) सुंदर भौंहे वाला। 'शोभने ध्रुवौ यस्याः' (जयो०९/७३) सुभ्रूः (स्त्री०) रमणीय स्त्री। सुमं (नपुं०) पुष्प। (जयो० ९/४३) (जयो० ५/९४) सुमता (वि०) प्राणधारि, सचेतन। सुमति (वि०) बुद्धिमान्, प्रज्ञाशील, विद्वान्, सद्बुद्धि, समीचीन
बुद्धि। (जयो० १/८०) सुमतिः (पुं०) सुमतिनाथ तीर्थंकर, पांचवें तीर्थंकर का नाम। __ (भक्ति० पृ० १८)
० सुमति नामक मंत्री। (जयो० ४/१२)
० अनुग्रह, उपहार, आशीष, प्रार्थना, कामना। सुमतिसुधाद (वि०) सद् बुद्धि रूपी सुधा देने वाला। सुमतिसुधादं
विगतविषादं शमितविवादं जयतु सुनादम्। (जयो० २/१३७)
सुमतिरेव सुधाऽमृतं तां ददातीति। सुमत्यवरोधिः (स्त्री०) सुमति ज्ञानावरण। (जयो० २५/१) सुमत्व (वि०) कुसुमत्व। (जयो० १२/७१) सुमदनः (पुं०) आम्र तरु। सुमध्य (वि०) पतली कमर वाली। सुमन (वि०) प्रिय, मनोज्ञ, श्रेष्ठ, संदर, रमणीय, आकर्षण,
विचारशील। (जयो० ४/२५) सुमनः (पुं०) ० गेहूं।
० धतूरा। सुनमस् (वि०) संतुष्ट, प्रसन्न। (सुद० ६९) (सुद०८२) सुमनस् (पुं०) देव, अमर, देवकुल। (दयो० १/११)
० सज्जन। (जयो० ३/४६) (जयो० ३/३०) ० पुष्प, कुसुम। (जयो० १/८५) भवानृषिवरः सुमनः समुदायवान्।
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सुमनस्ता
११९३
सुमर्मभित्
सुमनस्ता (वि०) विकासवृत्ति। (सुद०८) (सुद० ४/१) सुरकारु (पुं०) विश्वकर्मा। सुमनः समन्वित (वि०) सहृदय युक्त, सर्वतोऽपि सुमनोभिः सुरकार्मुकम् (नपुं०) इन्द्रधनुष। सहृदयैः समन्विताऽऽसीत् (जयो० ३/९)
सुरक्षणम् (नपुं०) सु लक्षण, प्रशस्त लक्षण। (जयो० १/४५) ० पुष्प युक्ता।
सुपदु रक्षाकर। (जयो० २३/४५) सुमनोज्ञा (वि०) अतिशय सुंदरी स्त्री, मनसोऽनुकूला। | सर-क्षणम् (नपुं०) सुराणां देवानां क्षण एव क्षण उत्सवो येषां (जयो० ६/२८)
तथा च। देवोत्सव। (वीरो० २/२२) (जयो० १/४५) . सुमार्गः (पुं०) सुपथ, उत्तम मार्ग। (सुद० ९७)
सुरगिरि (पुं०) सुमेरु। सुमातृ (स्त्री०) श्रेष्ठ जननी। (जयो० ३/८६)
सुरगुरुः (पुं०) बृहस्पति। सुभानिनी (स्त्री०) सौभाग्यवती। (जयो० १२/३५)
सुरग्रामणी (स्त्री०) इन्द्र। सुमान्य (वि०) माननीय, समर्थित। सुमनोभिः पुष्पैः सुमान्यां
सुरङ्गः (पुं०) भीतरी मार्ग, सेंध। समर्थिताम्। (जयो० ११/९०)
___० सुमुख। (समु० २/५) सुमायुध (पुं०) कामदेव। (जयो० २६/४५)
सुरङ्गयुग्मक (वि०) दो सुरङ्ग वाला, सुराख वाला। (समु०२/५) सुमाशयः (पुं०) पुष्प राशि। (वीरो० ६/३०)
सुरत (वि०) अच्छी तरह से लीन। मैथुन। (जयो० ६/९) समिता (स्त्री०) अयोध्यापति की रानी। (समु० ४/२५)
सुरतः (पुं०) [स्त्री-पुरुष मिलन, प्रेमालिंगन] सुमित्रा (स्त्री०) दशरथ पत्नी। ० पद्मखण्ड के वेश्य की पत्नी।
सुरतवारः (पुं०) स्त्री-पुरुष सङ्गम। (वीरो० ६/२८) (समु० १/२९)
सुरत-विचार (पुं०) समागम विचार। (जयो० १४/२) सुमुख (वि०) सुंदर आनन युक्त, रूपवान् मुख। (जयो०
सुरतस्थल (नपुं०) रङ्गस्थल। (जयो०वृ० ६/६८) ४/३७) सुमुखम (पुं०) अकम्पन राजा का एक दूत। (जयो० ९/५८)
सुरताङ्क: (पुं०) सुरत लक्षण सुरतस्याङ्को लक्षणम्। (जयो०
१६/८०) सुमुखिः (वि०) शुभानन, सुदर मुख, प्रियानानी।
सुरताभिसन्धिः (स्त्री०) संगमाभिलाषी। (जयो० २४/३७) सुमुवती (वि०) प्रशस्ति युक्त। (जयो० १५/३९) सुमृद्धरूपिणी (स्त्री०) कोमलरूप धारिणी। (जयो० २१/६)
सुरतार्थिन् (वि०) सुरतस्य रतेरर्थिभिः आराध्या सेव्या (जयो० सुमेधस् (वि०) समझदार, बुद्धिमान्।
१/१९) सुमेरु (पुं०) सुमेरु पर्वत। (सुद० १/११) कनकाद्रीन्द्र-(जयो०५०
सुरताश्रयः (पुं०) निकुञ्ज। (जयो० २१) १२/७४)
सुरतीर्थः (पुं०) हस्तिपुर, हस्तिनापुर। (जयो० २३/६) सुमेरुशीर्षः (पुं०) सेमुरु पर्वत। (वीरो० ४/४४)
सुरतोषकः (पुं०) कौस्तुभमणि। सुमेषः (पुं०) कामदेव। (जयो० ११/३२) (जयो० ११/७६)
सुरदारुः (पुं०) देवदारुवृक्षा सुमेषु
सुरदीर्धिका (स्त्री०) गङ्गा। सुमोच्चयः (पुं०) माला पहनना। (जयो० १२/१३)
सुरदुन्दुभी (स्त्री०) पवित्र तुलसी। सुयवसम् (नपुं०) चरागाह, सुंदर घास।।
सुरद्वियः (पुं०) ऐरावत हाथी। सुयानम् (नपुं०) सुंदर वाहन। (जयो० ५/५८)
सुरद्विष् (पुं०) राक्षस। सुयोधनः (पुं०) दुर्योधन।
सुरद्रि (पुं०) कल्पतरु। (जयो० १/५०) सुयोगः (पुं०) उत्तम योग। (सुद० ४/१०) सर्वयोग (सुद० सुरद्रुमः (पुं०) कल्पवृक्षा (जयो० १३/७६) १/३०)
सुरथः (पुं०) उच्चरथ। (जयो० १३/७) सुयोष (स्त्री०) युवति। (जयो० १४/८)
सुरधनुस् (नपुं०) इन्द्रधनुष। सुरः (पुं०) [सुष्ठु राति ददात्यभीष्टम्-सु+रा+क] अमर, देव। । सुरधूपः (पुं०) तारपीन, राल। (सुद० १/२७)
सुरनिक्नगा (स्त्री०) गङ्गा। ० स्वर। (सुद० १/२७)
सुमनोहर (वि.) अत्यंत प्रिय। (समु० ४/२६) ० सूर्य, ० ऋषि।
सुमर्मभित् (वि०) सुमर्मवेरि। (जयो० २६/४४)
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सुरतचेष्टा
सुरतचेष्टा ( स्त्री०) बीजग्रहण, शुक्रपर्यायवाची । (जयो०वृ० १६/३१)
सुरतवेला (स्त्री०) शृंगारवार। (जयो० १५/५९) सुरतश्रमः (पुं०) रतिक्रीड़ाजन्य परिश्रम । (जयो० २४ / १९ ) सुरतार्थ (वि०) सुरतं वाञ्छति-संभोग इच्छुक । (जयो० १५ / ९४ ) सुरतोपयोगिनी (स्त्री०) रति क्रीड़ा योग्य । (जयो० २४/१ ) सुरगिरि (पुं०) सुमेरु । (२/१४)
सुरभिस्थानम् (नपुं०) गोकुल स्थल, गौशाला। गाय समूह | (जयो० १०/१५)
सुरभिवत् (वि०) वसंत की तरह । (सुद० १२४) सुराङ्कः (पुं०) स्वर्ग। (सुद०२/१४)
सुराङ्गना (स्त्री०) देवाङ्गना। (सुद० ४ / १५ ) सुरोनोकहकः (पुं०) कल्पवृक्ष। (सुद०२/१५) सुराद्रि (पुं०) सुमेरु । (सुद० २/१४) (वीरो० ११/२७) सुरप: (पुं०) इन्द्र।
सुरपति: (पुं०) इन्द्र (वीरो० ७/३०) (जयो० ५ / ३१ )
(जयो०वृ० १/२६ )
सुरपथम् (नपुं०) आकाश, नभ।
सुरपर्वत: (पुं०) सुमेरु ।
सुरपादपः (पुं०) कल्पतरु ।
सुरप्रियः (पुं०) इन्द्र |
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सुरपुरलक्ष्मी (स्त्री०) स्वर्गश्री । (जयो०वृ० ३ / १०३) सुरभि (वि० ) [ सु+भ्+इन् ] मधुर गन्ध युक्त, सुगन्धियुक्त ।
(जयो० )
• सुहावना, मनोहर, प्रिय, विख्यात ।
० शोभा (जयो० १/४२)
सुरभि: (पुं०) सुगन्ध, सुवास ।
० जायफल। (सुद०२/२८) ० चम्पकवृक्ष ।
सुरभिः (स्त्री०) गाय |
११९४
सुरभिरीदृङ् (पुं०) वसन्त ऋतु। (वीरो० ६/१२) सुरभूयम् (नपुं०) देवग्रहण |
सुरभूरुहः (पुं०) देवदारु वृक्ष ।
सुरयुवतिः (स्त्री०) अप्सरा, देवाङ्गना । सुरर्षिः (पुं०) लौकान्तिक देव। (भक्ति० २२) सुरलासिका ( स्त्री०) बांसुरी, मुरली । सुरलोकः (पुं०) स्वर्ग |
सुरवरवंशम् (नपुं०) नन्दन वन, स्वरवंश (जयो० २२ / ५६ )
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सुरीगण
सुरवर्त्मन् (नपुं०) आकाश, नभ। सुरवल्ली (स्त्री०) पवित्र तुलसी । सुरविद्विष् (पुं०) दैत्य, असुर ।
सुरव्रजः (पुं०) देव समूह । (वीरो० ७ / १०) सुरस (वि०) सरसता युक्त, रस से परिपूर्ण। (जयो० ३/४४, सुद०१ / २६ )
रसीला । सुरसनमशनं लब्ध्वा रुचिरं सुचिरक्षुधितजनाशा (सुद० ७४)
० शोभनरस - उत्तम शृंगार- 'शोभनो रसः शृङ्गारो यस्याः सा तस्या: । (जयो० ३/६९)
सुरसरित् (स्त्री०) स्वर्ग गंगा। (जयो० ६/४३)
सुरसार्थ (वि०) सरसतार्थ, 'सुरसो रससहितो यो अर्थः ' (वीरो० १/२३)
सुरसार्थलीला (स्त्री०) देव समूह की क्रीड़ा, धन सम्पत्ति का प्रभाव। (सुद०१ / २६ )
सुसार्थिन् (वि०) रमणीयता का इच्छुक ।
सुरसाला (वि०) रस से परिपूर्ण । (दयो० ११० ) सुरसिन्धुः (स्त्री०) स्वर्ग गङ्गा, आकाश गंगा। (जयो० २६ / १६ ) सुरसुंदरी (स्त्री०) दिव्याङ्गना, अप्सरा ।
० एक राजकन्या । (सम्य० ६७ ) सुरस्रोतः (पुं०) गंगा प्रवाह । (जयो० १५/६४)
सुरा (स्त्री० ) [ सु + क्रन्+टाप्] शराब, मदिरा, मद्य। (मुनि०९) (सुद० १२७)
० पान पात्र, सुराही ।
सुराट (पुं०) महाराज । (जयो० ७ / ८७)
सुराजहंसः (पुं०) उत्तम राजहंस पक्षी (जयो० १४ / ५४) सुरापगा (स्त्री०) गङ्गानदी । (जयो० २४/३०) (जयो० १३ / ९४ ) सुरापाणम् (नपुं०) मदिरापान । (जयो०वृ० १६ / २५)
(वीरो० १३/१४)
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सुरापानम् (नपुं०) ० मद्यपान, शराब पीना। सुरर्षिः (पुं०) देवर्षि। (वीरो० १० / २२)
सुरालयः (पुं०) नागलोक। (सुद० १/२७ ) ० स्वर्ग । त्रिदिव - (वीरो० २ / १०)
सुराद्रि (पुं०) ० सुमेरु । (वीरो० २/२) ० कल्पवृक्ष। (दयो०४३) • देवालय । (जयो०वृ० ५/५०) सुराशि: (पुं०) समुद्र। (सुद०२/२५).
सुरी (स्त्री०) देवाङ्गना, देवी, अप्सरा । (समु० २ / ७) सुरीगण: (पुं०) देवाङ्गना समूह, देवलक्ष्मी समूह । (वीरो०
५/५)
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सुरीतिः
११९५
सुवर्णमूर्ति
सुरीतिः (स्त्री०) सम्यक् पद्धति, उचित परम्परा। (वीरो०२/२२) (जयोवृ०१/६६) पुत्री। ___ आगममोक्तविधि। (जयो० २४/८२)
० सुंदर स्त्री। सुरीतिसूक्तम् (नपुं०) उत्तमरीति के सूक्त/वचन। (सुद० १/२६) सुलोचनिका (स्त्री०) सुलोचना। (जयो० ४/१५) सुरीतिकी (वि०) दौर्गत्यकारिणी-सुरीते: शोभनस्य सुलोचनी (स्त्री०) सुदृशा स्त्री। (जयो०१० ५/८९) पित्तलस्यकर्तीतिविरोधे। (जयो० ११/८८)
सुलोहकम् ( नपुं०) पीतल। सुरीसुसारः (पुं०) देवाङ्गनाओं का उचित सार सुरीषु देवाङ्गनासु सुलोहित (वि०) गहरा लाल। ___ शोभन: सारस्तत्त्वार्थो विद्यते। (वीरो० ५/५)
सुवंशः (पुं०) शिविका दण्ड। (जयो० ६/५६) सुरुचिर (वि०) रुचिपूर्ण। (जयो० १/९४)
सुवधू (स्त्री०) उत्तम स्त्री। (जयो० १३/७) सुरूप (वि०) सुंदर रूप। (समु० ४/२४)
सुवक्त्रम् (नपुं०) सुंदर मुख। सुरेन्द्रः (पुं०) देवेन्द्र, अमरेन्द्र। (जयो०वृ० १२/७३) सुवचनम् (नपुं०) मधुर वचन, मृदु वचन। सुरेन्द्रकोणीपः (पुं०) पूर्वदिशा। (वीरो० ११/२५)
सुवर्चिकः (पुं०) सज्जी, क्षार, खार। सुरेशः (पुं०) देवेन्द्र, इन्द्र। (जयो० ७२।८)
सुवल्लभा (स्त्री०) प्यारी, प्रिया। (समु० ४/२५) सरोक (वि०) सम्यग्दीप्तिशाली-रोकस्त रोचिषीति विश्वलोचन। सुवर्ण (वि०) उत्तम अक्षर। (सम्य० ६१) (जयो० १८४)
० आकर्षक रंग युक्त। (जयो० ३/७२) सुरोचन (वि०) परम सुंदर। (जयो० ३/९०)
सुवर्णः (पुं०) सोना। (सम्य० ८९) सुरोचना (स्त्री०) राजकन्या, काशीनरेश, अकम्पन की पुत्री। सुवस्तु (वि०) ठीक-ठीक पदार्थ। (वीरो० २०/१५, २/२९)
(जयो० ३/९०) सूत्तमतया रोचना रुचिकरी। (जयो०७० सुवह (वि०) सहनशील, धैर्यवान्। ३/६३)
सुवाणी (स्त्री०) जिनवाणी। (सुद० १२२) सुरोचनाऽन्याय सुरोचनेति
सुवासं (नपुं०) उत्तम वस्त्र। (सुद० २/१२) समिच्छतः का पुनरम्भ्युदेति। (जयो० ३/९०)
सुवासिनी (स्त्री०) श्रेष्ठता से युक्त आवास वाली। सुलक्षण (वि०) भाग्यशाली, संदर लक्षणों वाली। (सुद० सुवाह (वि०) अच्छी तरह प्रवाहित। (वीरो० २१/१४) ३/२४)
सुविक्रान्त (वि०) साहसी, बलिष्ठ, बहादुर, शक्तिशाली। सुलक्षणसमन्वित (वि०) उत्तम लक्षणों से युक्त। (दयो०१/१९) सुरायोगः (पुं०) मदिरापान, मद्यपान। (जयो० १६/२५) सुलक्षणा (स्त्री०) एक राजकन्या। सौभाग्यवती। (जयो० सुरीतिकर्ता (वि०) सम्यक् रीति का प्रचारक। (जयो०१०१/१२) ९/७९)
सुवयःस्वरूपा (स्त्री०) लक्ष्मी समान श्री। (जयो० १/७४) सुलक्षणी (स्त्री०) शोभन लक्षण युक्त। (जयो० २२/४०) उत्तम अवस्था। (जयो० २/६९) सुलक्षणा (स्त्री०) आदित्यवेग नगर के राजा धरणी तिलक | सुवंशः (पुं०) उत्तम बांस। (सुद० ४/४) उत्तम कुल। ___की रानी। (समु० ५/१८)
सुवाच (वि०) उत्तम वाणी। (भक्ति० १२) सुलताङ्गी (स्त्री०) बल्लीतुल्याङ्गी। (जयो० १०/१४) सुवासिनी (स्त्री०) सौभाग्यवती। (जयो० १२/१०८) सुललित (वि०) अत्यंत प्रिय, बहुत सुंदर। (जयो० ४/७) सुवासिनीमहिला (स्त्री०) सौभाग्यवती स्त्री। (जयो० १२/१०८) सुलसत् (वि०) सुशोभित। (सुद० २/५०)
सुवर्णः (पुं०) सोना। (समु० ८/७) कनक (जयो० ३/७२, सुलभीकृत् (वि०) सुगमता को प्राप्त हुई। (जयो० १२/९६) शोभन। (जयो० वृ० ३/७२) सुलेख (वि०) आपुष्पकर्म रेखा। (जयो० १/५१)
सुवर्णकलित (वि०) उत्तम कुल जात। (जयो० ५/४५) सुलभ (वि०) सुप्राप्य, सुकर, सहजता से उपलब्धा सुविधाजन्य। सुवर्णकारः (पुं०) कला। (जयो० १६/७४) (जयो० ३/१५)
सुवर्णताति (स्त्री०) अच्छे वर्णों की पंक्ति। (जयो० ) सुलास्यः (पुं०) उत्कृष्ट नृत्य, शोभनं लास्यं नृत्यम्। सुवर्णपरिस्थितिः (स्त्री०) अच्छे वर्गों की स्थिति। (दयो०६८) सुलोचन (वि०) सुंदर नेत्र वाली।
सुवर्णय (सक०) बनाना, सोना तैयार करना। (जयो० ६/७४) सलोचना (स्त्री०) काशीनरेश अकम्पन की पत्री। | सवर्णमर्ति (स्त्री०) सक्ति युक्त वचन की प्रतिमा। (जयो०
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सुवर्णवर्णः
११९६
सुशेषावती
३/५९) उत्तम वर्ण (सुद० १/३५) शोभन रूपा।
(जयो० ४/१०) सुवर्णवर्णः (पुं०) अगुरुवृक्षा (जयो० २४/२६) सुवर्णस्तु
सुवर्णालौ कृष्णागुरुमयान्तरे 'इति वि। (जयो० २४/२६)
सुवर्णस्य हेम्नो वर्ण इव वर्णो यस्य सोऽपि (जयो० २४/२६) सुवर्णसूत्रम् (नपुं०) काञ्चीदाम। (जयो० १७/१२४) करधनी
(जयो० ११/६) सुवर्णानुगत (वि०) हेमघटितानुसारिणी। (जयो० ११/१८) सुवर्णोत्थपदम् (नपुं०) सुंदर वर्णों का स्थान।
० ललिताक्षरसम्पन्न शब्द। (जयो० ३/२८) सुवृत्तः (पुं०) अंगीकारक, शोभन वर्तुलाकार, सदाचारवान्।
(जयो० १०/८०) सुवृतत्त्व (वि०) शोभनं वृत्तमाचरणं यस्य तत्त्वात् तथा स्तम्भोऽपि।
(जयो० २२/८२) ० वर्तुलाकार। सुवृत्तभाज (वि०) सदाचारी। (जयो० ५/९९) सुवृत्तभावः (पुं०) सदाचारचेष्टा। (जयो० १८/५३) साध्वाचार
सम्पत्ति। (जयो० ५/८१) सुवर्तुलाकार। (वीरो० २/४) सुवर्ष (वि०) उत्तमवर्ष। (जयो० २२/५२) सुवर्षणः (पुं०) मेघ, बादल। (जयो० १७/२१) सुवर्षणशील (पुं०) अच्छी वृष्टि युक्त मेघ। (जयो० १७/२१) सुवर्षा (स्त्री०) सुवृष्टि। (जयो० १७/१०२) सुविधाकर (वि०) सुख से परिपूर्ण। (जयो० ११/७१) सुविधातृ (वि०) विधानकर्ता। (जयो०वृ० १२/११३) सुवासित (वि०) अनुभावित। (जयो० १३/९४) सुविकासिन् (वि०) विकसित, पूर्ण खिला हुआ। (सुद०३/३) सुविश्रमः (पुं०) अधिक विराम। (जयो० २४/४) सुविष्टर (वि०) मनोभिलषितासन। (जयो० २७/४३) सुविस्तृत (वि०) परिणाहपूर्ण। (जयो० १३/३४) अधिक विस्तार
वाला। सुविचारः (पुं०) उत्तम विचार। (जयो० २/१०३) सुविचारचेष्टित (वि०) अच्छे विचारों की चेष्टा युक्त।
(जयो० ७७/१३२) सुविज्ञ (वि०) जानकार। (सुद० १२२) सुविद् (वि०) बुद्धिमान्, प्रज्ञावंत। सुविपाकिन् (वि०) शुभ परिणामिन्। (जयो० ४/३९) सुविद्या (वि०) शोभना विद्या, उत्तम विद्या। (जयो० १/१३) सुविध (वि०) पुण्यात्मन्। (जयो० २४/१३२) सुविधम् (अव्य०) आसानी से, सहज में, सम्यक् प्रकार से।
(जयो० १/९८)
सुविधा (स्त्री०) सुख। (सम्य० १२३) सुविधाप्रबुद्धिः (स्त्री०) सन्तानोत्पत्ति। (जयो० २/१२४) सुविधिः (पुं०) तीर्थंकर सुविधिनाथ नवें तीर्थंकर का नाम,
जिन्हें तीर्थंकर पुष्पदन्त भी कहते हैं। __शोभनो विधिः सर्वत्र कौशलमस्येति सुविधि। सुविधिः (स्त्री०) उत्तम पद्धति। सुविनीत (वि०) विनयी, विनम्रशील। सुविस्तारयन् (वि०) सुविस्तृत करना। (मुनि० ७) सुविहितं (वि०) अच्छी तरह से रखा गया। सुवीर्य (वि०) शक्तिशाली, बलिष्ठ, शूरवीर, पराक्रमी। सुवृत्त (वि०) गुणी, सद्गुणी, सदाचरणशील, उत्तम आचरण।
(सुद० २/६)
० अच्छा गोल, पूर्ण गोलाकार। (सुद० २/६) सुव्रता (स्त्री०)पुष्कल देश के पुण्डरीक नगर के अधिपति
सुमित्र की रानी। (वीरो० ११/३२) सुवेल (वि०) ० शान्त, निश्चल।
० विनम्र, निस्तब्ध। सुवेशिनी (स्त्री०) रूपवती। (जयो० १३/१०) सुवेश (वि०) शोभनवेशवती। (जयो० ५/३८) प्रसारशील।
(जयो० ५/८) शोभनाकार। (जयो० ३/२४) सुवेशः (पुं०) मुनिवेश, निर्ग्रन्थ। सुवेशा (स्त्री०) शोभनवेशमती। सुशंस (वि०) प्रख्यात, प्रसिद्ध।
० यशस्वी, प्रशंसनीय। सुशक (वि.) आसान, सरल, सहज। (दयो० १२२) सुशाकम् (नपुं०) अदरक।
० उत्तमशाक। (जयो० २/१२८) सुशाखिन् (वि०) उत्तम शाखाओं वाला। (सुद० ८५) सुशासित (वि०) नियन्त्रित, पूर्ण शासन युक्त। सुशीलत्व (वि०) सदाचरण युक्त। सुशीला (स्त्री०) उत्तम आचरण वाली स्त्री। (सुद० १/२६) सुशिक्षित (वि०) प्रशिक्षित, सधा हुआ। सुशिखः (पुं०) अग्नि।
• मयूर शिखा। सुशील (वि०) मिलनसार, शीलवान्, अच्छे आचरण वाला। सुशुचि (स्त्री०) अति पावन। (जयो० २।८७) सुशुभङ्गणम् (नपुं०) शुभाङ्गण। (जयो० १२/४७) सशेषावती (स्त्री०) शुभाशीर्धारिणी। (जयो० २८/६९)
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सुश्रावकत्व
११९७
सुस्थ
सुश्रावकत्व (वि०) उत्तम श्रावपकना। (जयो० १८/४६) सुश्रुवः (पुं०) श्रवणमनोहर। (जयो० ९/८७) सुश्रान्त (वि०) प्रशस्त। (जयो० ८/१६) सुश्रुत (वि०) अच्छी तरह से सुना गया।
० उत्तम शास्त्र, श्रेष्ठ श्रुत/आगम। सुश्रुतः (पुं०) आयुर्वेद पद्धति। सुश्रुतसंहिता (स्त्री०) आयुर्वेद ग्रन्थ। सुश्रुतादरः (पुं०) सुश्रुतसंहिता का आदर। (जयो० ३/१६) सुश्लिष्ट (वि०) संयुक्त, क्रमबद्ध। सुश्लेषः (पुं०) मिलाप, मिलकर, आलिंगन। सुषभ (वि०) [सुष्ठु समं सर्वं यस्मात्] अत्यन्त प्रिय, इष्ट,
मनोज्ञ। सुषम-दुषमा (स्त्री०) काल का एक भेद, जिसका प्रमाण
कोडाकोडी माना गया। इस समय में दिव्य मनुष्य और
अप्सरा सदृश स्त्रियां होती हैं। सुषम-सुषमा (स्त्री०) उपद्रव रहित काल, इसका प्रमाण चार
कोडीकोडी सागर माना गया। सुषमा (स्त्री०) परम सौंदर्य, अत्यन्त रमणीय, शोभा। (वीरो०
३/२०) परम आभा, उत्कृष्ट कान्ति, तीव्र प्रभा। ० एक काल विशेष, इस काल का प्रमाण तीन कोडाकोडी सागरोपम माना गया। सुसमम्मि तिण्णि जलही उवमाणं होंति कोडकोडीओ (ति० प० ४/३१८) ० मौर्य चन्द्रगुप्तकी रानी-मौर्यस्य चन्द्रगुप्तस्य सुषमाऽऽसी
दथाऽऽर्हती। (वीरो० १५/३३) सुषमाभिमानम् (नपुं०) शोभाविषयक गर्व। (जयो० ११/१६) सुषवी (स्त्री०) [सु-सु+अच्+ङीष्] काला जीरा। सुषादः (पुं०) शिव का नाम। सुषिम (वि०) शीतल, ठण्डा। सुषिमः (पुं०) चंद्रकान्तमणि। सुषिर (वि०) [शुष्+किरच्] छिद्र युक्त, सरन्ध्र, खोखला। सुषिरम् (नपुं०) एक वाद्य विशेष, जो वायुवेग से बजता है।
(जयो० १०/१८) सुषीमः (वि०) सुशोभन। (जयो० २६/७४) सुषुप्तिः (स्त्री०) [सु+स्वप्+क्तिन्] प्रगाढ़ निन्द्रा, अधिक
निन्द्रा। सुषुम्णः (पुं०) सूर्य किरण का नाम। सुषुम्णा (स्त्री०) शरीर की एक नाड़ी का नाम। सुष्ठु (अव्य०) [सु+स्था+कु] सुंदरता के साथ, अच्छाई
युक्त। ० अत्यन्त, प्रगाढ़, दृढ़।
० सचमुच, यथार्थ, ठीक। सुष्ठुकार्यकृत् (वि०) उत्तम कार्य करने वाला। (जयो० २/६१)
शोभनकर्मकर। सुष्ठप्रकृतिः (स्त्री०) उत्तम प्रकृति, पूर्ण सुरक्षित प्रकृति।
(मुनि० २४) | सुहृदः (पुं०) तालाब, सरोवर। (जयो० १/४३)
० सज्जन। (जयो० १/४३)
• मित्र। (सुद० ३/५७) सुहृदि (वि०) सहदय। (सुद० ७७) ससंहित (वि०) एकत्रित। (समु०७/१३) सुहंसः (पुं०) अद्वितीय हंस। (सुद० २/१) सुहावनी: (वि०) प्रिय लगने वाली। (दयो० ११३) सुहासमय (वि०) ईषत्स्मितान्वित। (जयो० ३/१४) सुहित (वि०) हितेच्छुक। (जयो० ६/१०) सुस्नेहदशा (स्त्री०) प्रशस्त प्रेमावस्था।
० उत्तम स्नेही।
० तेल युक्त। चासौ दशा वर्तिका। (जयो० ६/१३) सुसमाधि (स्त्री०) उत्तम समाधि। (सम्य० १३९) सुसमादरः (पुं०) उचित सम्मान। (वीरो० २२/१७) सुसृणिः (स्त्री०) प्रशस्तांकुश। (जयो० १३/३६) सुहृदः (पुं०) मित्र, सख। (जयो० ४/४८) सुहेतु (पुं०)एक राजा का नाम। (जयो० ७/८८) सुस् (अक०) उत्पन्न होना। (सुद० १/४६) सुसंस्कृत (वि०) स्नेहजन्य, तेल से चुपड़ी हुई। (जयो०१३/५) सुसज्ज (वि०) हृष्ट-पुष्ट, तैयार। (जयो० १७/११३) सुसज्जनौका (स्त्री०) प्रशस्त नांव। (जयो०२२/७८) सुसज्जि (वि०) पूर्णरूप से तैयार हुई। (दयो० ६२) सुसन्तानं (नपुं०) उत्तम सन्तति। (समु०६/४) सुसमीक्षा (स्त्री०) सम्यक् समालोचन चेष्टा। (जयो०५/४०) सुसमीरः (पुं०) शुद्धवायु। (जयो० २/७६) सुसम्पदा (स्त्री०) सुखसम्पदा। (जयो० १२/१४०) सुसाफल्य (वि०) पूर्ण सफलता। (जयो० ) सुसारः (पुं०) उचित सार, रहस्यमय। (सम्य० ८८) सुस्वादु (वि०) स्वाद युक्त। (वीरो० २१/४) सुस्तनम् (नपुं०) पृथुल स्तन। (जयो० १२/१२४)
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सुस्थितिः
११९८
सूचिनी
सस्थितिः (स्त्री०) उत्तम स्थिति। (जयो० २/४७) शोभावस्था। सूक्ष्मबुद्धिः (स्त्री०) अतिशय बुद्धि, पदार्थज्ञान के करने में सू (सक०) उत्पन्न करना, जन्म देना।
प्रवीण बुद्धि। सू (वि०) [सू+क्विप्] पैदा करने वाला।
सूक्ष्मवस्तु (नपुं०) सूक्ष्म पदार्थ, अणुतत्त्व। (वीरो० २०/१०) सूकः (पुं०) [सू+कन्] ० बाण।
सूक्ष्मसाम्परायः (पुं०) सूक्ष्म कषाय का अस्तित्व। ० पवन, वायु।
सूक्ष्माङ्गिन् (स्त्री०) तन्वि, कृशाङ्गी स्त्री (जयो०वृ० १२/१२३) ० कमल।
सून (वि०) अति भयंकर। (जयो० ८/७४) सूकरः (पुं०) [सू+करन्] वराह, सूअर।
सूच (सक०) बोधना, इंगित करना, समझना। (जयो००६/४८) सूक्त (वि०) शोभन कथन। (जयो० २/४४)
बतलाना, प्रकट करना, सूचित करना। ० प्रेरित (जयो० १२/१२५) व्यक्त, कथित। (जयो०१/२२) ० सूचना देना-सूच्यन्ते (जयो०वृ० ६/१२८) ० उपयुक्त वचन (सुद० १२७)
सूचः (पुं०) [सूच+अच्] अंकुर का ऊपरी भाग। ० भण्डार। (सुद० २/९)
सूचक (वि०) संकेत परक, सूचित करने वाला, वक्ति। ० आगम वाक्य-सूक्तोद्घोषवरप्रयोजनंतयैकान्ते वसेद (जयो० ३/१०६) बुद्धिभृत्। (मुनि० ३०)
सूचकः (पुं०) वेधक। सूक्ता (वि०) निर्दिष्टा, कथिता। (जयो०५/१०३) ० कही हुई। ० राक्षस, पिशाच। सूक्तानुशीलनम् (नपुं०) उपयुकत वचन का मनन। (दयो० ० सुई। १०१) (वीरो० १३/३८)
० श्वाना० दुष्ट। सूक्तिमुभिद (वि०) शोभन कथन के भेद वाला। (जयो०२/५०) | सूचनम् (नपुं०) बतलाना, इंगित करना, ० संकेत करना, सूक्तामृतम् (नपुं०) वचनामृत। (सुद० १२४)
वर्णन करना। सूक्तिः (स्त्री०) आत्म बोधक कथन, उक्ति मंगल वचन सूचना (स्त्री०) इशारा, संकेत, भाव, अभिप्राय, बतलाना, विचार। (जयो० ५/१०२) ।
दिखलाना, दर्शाना। ० अगम्य विचार। (जयो० ४/३४)
सूचनात्मक (वि०) संकेतात्मक। (जयो०वृ० ३/३६) सूक्तिपरा (स्त्री०) मङ्गलवचन परायण। (जयो० ) सूचनायुक्त (वि०) वर्णन युक्त। (जयो० २१/७९) सूक्तिपूर्वकः (पुं०) विचार पूर्वक। (सुद० ४/२५)
सूचनावती (वि०) सूचित करने वाली। (जयो०१० २१/७९) सूक्ष्म (वि०) [सूक्+मन्] महीन, बारीक।
सूचा (स्त्री०) ०बींधना, भेंदना। ० स्वल्प, थोड़ा। (मुनि० १८)
० देखना। ० पतला।
० हाव-भाव, दृष्टि, इशारा, इंगित। ० तेज, तीक्ष्ण।
सूचिः (स्त्री०) [सूच्+इन् वा ङीप्] सूई। (जयो० १०/१११) सूक्ष्मः (पुं०) अणु।
० तीक्ष्ण, शंकु, स्तूप। । सूक्ष्मम् (नपुं०) सर्वव्यापक, सूक्ष्म तत्त्व।
सचिकः (पं०) [सचि+ठन] दर्जी, नामदेव। ० पुद्गल का एक भेद।
सूचिका (स्त्री०) सूई। ० शंकू। ० कार्मणस्कन्ध।
० सूंड। सूक्ष्मकायः (पुं०) प्रतिघात रहित शरीर।
० सूचना। (जयो० १३/३) सूक्ष्मक्रियाध्वानं (नपुं०) सूक्ष्म प्रतिपातिध्वनि। (भक्ति० ३३) | सूचिकाधरः (पुं०) हस्ति हाथी। सूक्ष्मजीवः (पुं०) अवरोध रहित जीव।
सूचिखातः (पुं०) शंकु। सूक्ष्मत्व (वि०) इन्द्रियगत ज्ञान का न होना, सूक्ष्मता। सूचित (वि०) बतलाई गई, कथित, इंगित। (सुद० ३/१) (भक्ति० ५३)
___० बेधी गई, बींधी गई। (जयो० १०/१११) सूक्ष्मदोषः (पुं०) स्वल्पदोष, किञ्चित्मात्र भी दोष। सूचिन् (वि०) छिद्र करने वाला, बींधने वाला। सूक्ष्मदृष्टिः (स्त्री०) पैनी दृष्टि। (वीरो० २०/१०)
सूचिनी (स्त्री०) सूई। ० रात।
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सूची
११९९
सूत्रसमम्
सूची (स्त्री०) तीक्ष्णाग्र, सुई। (जयो० १५/३३) सूच्य (वि.) [सूच्+ण्यत्] सूचित करने योग्य, इंगित करने
योग्य। सूत् (अव्य०) अनुकरणात्मक ध्वनि। सूतं (भू०क०कृ०) [सू+क्त] उत्पन्न, जन्मा हुआ. पैदा हुआ,
प्रसूत। (जयो० १०/११७)
० प्रेरित, उद्गीर्ण। सूतः (पुं०) सारथी। (जयो० १/१९) सूतकं (नपुं०) [सूत+कन्] • जन्म, उत्पत्ति।
० अशौच, जनन अशौच। (जयो० २८/३६) सूतकः (पुं०) पारा। सूतका (स्त्री०) [सूत+कन्+टाप्] सद्यः प्रसूता। सूता (स्त्री०) [सूत+टाप्] जच्चा स्त्री। सति (स्त्री०) [स+क्तिन] उत्पत्ति। (जयो० २३/७१) ०
जन्म, प्रसव, जनन। ० संतान। ० प्रजा,
० स्रोत। सूतिका (स्त्री०) [सूत+कन्+टाप् इत्वम्] प्रसूति (मुनि०११)
० जच्चा। सूतिकाग्रहम् (नपुं०) प्रसूतिग्रह, प्रसवस्थान। सूतिकागेहम् देखो ऊपर। सूतिकाभवनम् देखो ऊपर। सूतिगृहम् (नपुं०) प्रसूतिगृह, प्रसवघर। सूतिमासः (पुं०) प्रसवमास। सूत्कया (वि०) उत्सुकता। (सुद० ९८) सूत्थ (वि०) उत्थित। (जयो० ९/२७) सूत्थान (वि०) ० उत्पत्तिशाली। (जयो० १/१९) ० समुद्गान।
(जयो०६/३६) सूत्परम् (नपुं०) [सु+उद्+पृ+अप्] मदिरा खींचना। सूत्या (स्त्री०) [सू+क्यपटाप्] सोमरस निकालना। सूत्र (सक०) बांधना, कसना, नत्थी करना।
० सूत्र रूप करना, संक्षेप करना।
० योजना बनाना, क्रमबद्ध करना। सूत्रम् (नपुं०) [सूत्र+अच्] धागा, डोरी, रेखा, रस्सी. तार।
(सुद० ३/१३) ० रज्जू। (जयो० १२/१३) ० संक्षिप्त विधि, संक्षिप्त वाक्य रचना। ० सूचक। (जयो० ६/१२५) सूचना (जयो० १२/५८)
० प्ररूपणा, निरूपण, कथन।
० मांगलिक सूत्र। (जयो० ३/३६) सूत्रकण्ठः (पुं०) खंजन पक्षी।
सूत्रकर्मन् (नपुं०) बढ़ई का काम। | सूत्रकल्पित (वि०) सूत्र ग्रंथों का अध्ययन। सूत्रकृताङ्गम् (नपुं०) बारह अंग ग्रंथों में द्वितीय सूत्र-सूत्रकृत,
सूयगड, जिसमें ज्ञानविनय, प्रज्ञापना, कल्प्य-अकल्प्य, छेद उपस्थापना आदि का विवेचन हो। यह लोक, अलोक, परसमय एवं स्वसमय आदि की सूचना देने वाला दार्शनिक
ग्रंथ है। सूत्रकार (वि०) सूत्र रचने वाला। सूत्रकृत् (वि०) सूत्रकार, सूत्र रचने वाला। सूत्रकोण: (पुं०) डमरु, डुगडुगी। सूत्रगण्डिका (स्त्री०) धागा लपेटने की चरखी। सूत्रग्राहणविनयम् (नपुं०) विनयपूर्वक सूत्र का ग्रहण कराया
जाना। सूत्रणम् (नपुं०) क्रमबद्ध करना। सूत्रणक्रिया (स्त्री०) सीमाकरण, रेखांकन। समपूरि तु
सूत्रणक्रिया नयने वर्धयितुं वयः श्रिया। (जयो० १०/३६) सूत्रदरिद्र (वि०) झीण वस्त्र वाला। ० फटे वस्त्र वाला। सूत्रधरः (पुं०) रंगमंच प्रबन्धक। ० महेन्द्र दत्त नाम।
(जयो०५/६०) सूत्रधरः (पुं०) ० रंगमंच प्रबन्धक। सूत्रप्राभृतम् (नपुं०) आचार्य कुन्द कुन्द का एक सूत्र ग्रंथ। सूत्रपिटकः (०) बुद्धवचन का सारभूत सूत्रग्रन्था सूत्रपुष्पः (पुं०) कपास पादप। सूत्रप्रचालनं (नपुं०) राज्य तंत्र परिचालन। (जयो० १८४८२) सूत्रप्रयोगः (पुं०) संक्षिप्त प्रयोग। (जयोवृ० १/३१) सूत्रभिद् (पुं०) दर्जी। सूत्रभृत् (पुं०) सूत्रकार। सूत्रयन्त्रम् (नपुं०) ढरकी, खड्डी, धागा यंत्र। सूत्ररुचिः (स्त्री०) अंग सूत्रों के प्रति रुचि, सूत्र ग्रन्थों के प्रति
श्रद्धा। सूत्रण (वि०) स्वीकार करने योग्य। (सुद० ३/२५) सूत्रला (स्त्री०) [सूत्र ला+क+टाप्] तकली। सूत्रवेष्टनम् (नपुं०) जुलाहे की ढरकी। सूत्रसमम् (नपुं०) श्रुतकेवली का श्रुतज्ञान। जिन वचन से
निर्गत बीजपद। सुत्तं सुदकेवली, तेण समं सुदणाणं सुत्तसमं (धव० १४/८)
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सूत्रसंश्रयः
१२००
सूर्यः
सूत्रसंश्रयः (पुं०) श्रुत का विनयपूर्वक पठन। ०श्रुताधार। सूत्रसारः (पुं०) आगम सूत्र का सार। (वीरो० १/२४)
० श्रुत रहस्य। सूत्रार्थः (पुं०) तत्त्वार्थसूत्र नामक शास्त्र। (जयो० ६/५) सूत्रिका (स्त्री०) [सूत्र+ण्वुल्+टाप् इत्वम्] सेंवई, सीमी। सूत्रित (भू०क०कृ०) [सूत्र+क्त] क्रमबद्ध, क्रमानुसार,
पद्धतियुक्त। सूत्रिन् (वि.) [सूत्र+इनि] धागों वाला। सूद् (सक०) ० प्रहार करना, घायल करना।
० नष्ट करना, उड़ेलना। (जयो० २/२३)
० उकसाना, उत्तेजित करना। सूदः (पुं०) [सूद्+घञ् अच् वा] जनसंहार, विनाश, प्रतिघात।
० रसोइया, ० रसा, झोल। ० कीचड़, दलदल।
० पाप, दोष। सूद्घोष (वि०) सभी ओर घोषणा युक्त। (वीरो० १३/१०) सूदन (वि०) नाश करने वाला, विनाशक। सूदनम् (नपुं०) नष्ट करना, विनाश करना, संहार, प्रहार, घात। सून (भू०क०कृ०) [सू+क्त, क्तस्य नः] ० उत्पन्न, प्रसूत,
उत्पन्न हुआ। ० प्रफुल्लित, मुकुलित।
• रिक्त, खाली। सूनरी (स्त्री०) सुंदर स्त्री। सूनवती (स्त्री०) गर्भवती। (जयो० १३/५२) सूना (स्त्री०) [सुञः नः दीर्घश्च] बूचड़खाना, कत्लखाना।
० मारना, विनाश करना। ० वध करना।
० पुत्री। सूनिन् (पुं०) [सूना+इनि] कसाई, शिकारी, शृंगाल। सूनुः (पुं०) [सू+नुक्] पुत्र। ० शिशु। (दयो० ३०)
० पोता, दोहित्र।
० मदारपादप। ० सूर्य। सूनू (स्त्री०) [सूनु+ऊ] पुत्री। सूनृत (वि०) ० सुखद, ० कृपालु, ० निष्कपट।
० सुशील, सज्जन, शिष्ट। ० शुभ, सौभाग्यसूचक।
० प्रियतम, प्यारा, स्नेही। सूनृतम् (नपुं०) सत्य भाषण, सत्यवचन।
० प्रिय एवं सत्य। सत्यं प्रिय हितं चाहुः सुनृतं सुनृतव्रताः
(अन धर्म० ४/४२) सपः (पुं०) [सुखेन पीयते स+पा+घञर्थे क] ० व्यञ्जन।
(जयो० ७/८५) यूष, रस। ० रसोइया, चटनी। ० खाद्य। (जयो० ७/८५)
० पेय पदार्थ। ० कड़ाही, बर्तन। सूपकल्पित (वि०) सुष्ठुप्रकल्पित, सुपाख्यव्यञ्जता।
(जयो० ६/१२१) सूपकारः (पुं०) रसोइया, रसवतीकर। (वीरो० २२/३४) सूपं
व्यञ्जनं करोतीति सूपकारकः। सूपकारकः देखो ऊपर। सूपकारक (वि०) श्रेष्ठ उपकार-सुष्टु उपकारको मनसा
सहायकरः। (जयो०७० ७/८५) सूपकारिणी (स्त्री०) रसोइन। (दयो० १/१) ० रसाई बनाने
वाली। सूपधूपनम् (नपुं०) हींग। सूपमता (स्त्री०) दाल का संयोग। (दयो० ३/६२) सूपसंयोगः (पुं०) दालिकाख्य, सूपमता। (जयो० ३/६२) सूमः (पुं०) जल, पानी।
० दूध, आकाश। सूर (सक०) चोट पहुंचाना, मार डालना, वध करना। सूरः (पुं०) सूर्य, दिनकर, रवि।
० मदार पादप। ० सोम, ० बुद्धिमान।
० नायक, ० नृप। सूरणः (पुं०) [सूर+ल्युट्] सूरन, जमीकंद। सूरत (वि.) [सु+रम्+क्त] दयालु, कृपालु।
० मृदु, कोमल। ___० शान्त, धीर। सूरिः (पुं०) ० सूर्य। ० प्रज्ञावान्। ० आचार्य। प्रव्रज्यादायकः
सूरिः संयतानां निगीर्यते। (योगसारप्र० २/९) सूरिन् (वि०) बुद्धिमान्, प्रज्ञावंत। सूरिन् (पुं०) पण्डित, विज्ञ। सूरी (स्त्री०) कुंती। सूक्षु (अक०) आदर करना, सम्मान करना। सूर्यः (पुं०) [सरति आकाशे सूर्यः, यद्वा सुवति कर्मणि लोकं
प्रेरयति] [ सृ+क्यप्] दिनकर, रवि, सूरज। (सुद० १२५) (सम्य०७२) (दयो० १८)
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सूर्यकान्त
१२०१
सृतिः
० शनिपित। ० हिमनाशक। (जयो० २४/३४) (जयो० ५/३६) ० गभस्ति। (जयो०वृ० १/३३) ० अब्जय। (वीरो० २/११) ० शीर। (वीरो० २/२२) ० सवित्। (जयो० वृ० ८/८९) ० दिनकर। (जयो० १/१९) ० छ। (जयोवृ० २८/१) ० तपोधन। (जयोवृ० २८/३) ० दिनकान्तमणि (जयोवृ० १८/१८) ० सविभाव। (जयो०वृ० १३/१३) ० अर्यमा। (भक्ति० २५) ० तपन, तेजस्विन्। (जयो०वृ० ३/१०२) ० महस्कर। (दयो० १८) ० तरणि। (जयो०वृ० ५/२८) ० भास्वान्। (जयो० १७/२) ० दिन श्री, सप्ताश्वक। (जयो० १५/१६)
० अब्जनेतृ (जयो० १५/४) सूर्यकान्त (पुं०) एक तेजस्वी मणि। सर्यकिरणम् (नपुं०) सर्यरश्मि। (भक्ति० २१) सूर्यग्रहः (पुं०) सूर्य ग्रहण। ० राहु। सूर्यग्रहणम् (नपुं०) सूर्यग्रहण। सूर्यजः (पुं०) ० सुग्रीव, यम। ० शनिग्रह। सूर्यजा (स्त्री०) यमुना नदी। सूर्यतनयः (पुं०) कर्ण, ० सुग्रीव। सूर्यतेजस् (पुं०) गर्मी, ऊष्मा, तपन। सूर्यनक्षत्रम् (नपुं०) सूर्य नक्षत्र। सूर्यपर्वन् (नपुं०) पुण्यकाल। सूर्यप्रसव (वि०) सूर्य से उत्पन्न। सूर्यभक्त (वि०) सूर्य का उपासक। सूर्यमणिः (स्त्री०) सूर्य कान्तमणि। सूर्यमण्डलम् (नपुं०) सूर्य परिवेश। सूर्यमुखीपुष्पम् (नपुं०) बन्धुनिबन्ध। (जयो०वृ० ६/५८) सूर्ययन्त्रम् (नपुं०) सूर्य उपासक यन्त्र। सूर्यरश्मिः (स्त्री०) दिनकर प्रभा। (भक्ति० २१) सूर्यलोकः (पुं०) सूर्यलोक। सूर्यवंशः (पुं०) इक्ष्वाकुवंश। सूर्यवंशीय (वि०) सूर्यवंश वाले। (वीरो० १५/२७)
सूर्यवर्चस् (वि०) सूर्य की तेजस्विता। सूर्यसारथी (पुं०) अरुण। (जयो०वृ० १२।८२) सूर्या (पुं०) सूर्य की पत्नी। सूर्यातिशायी (वि०) सूर्य का महा प्रकाश। (वीरो० ५/१) सूर्याय॑म् (नपुं०) सूर्यपूजा। सूर्यावर्तः (पुं०) भास्करपुर का राजा। (समु० ३/२२) सूर्याश्मन् (पुं०) सूर्यकान्तमणि। सूर्यास्तम् (नपुं०) सूर्य का छिपना। (मुनि० १२) सूर्योत्थानम् (नपुं०) सूर्योदय। सूर्योदयः (पुं०) सूर्य का उदय होना, अर्कचार। (सम्य०
१/११) (जयो०वृ० १८/२), ० तिग्मकरोदय। (जयो०वृ० २०/८९)
० अधिपोदय। (जयो० १९/१) सूर्योदययुता (स्त्री०) पूर्व दिशा। (जयो०वृ० १७/११९) सूष् (सक०) फल उत्पन्न करना, उत्पन्न करना, जन्म देना। सूष (अक०) रहना, निवास करना। 'सर्वेमनुष्यैरिह
सूषितव्यमितीव' (वीरो० १३/८) सूषणा (स्त्री०) [सूष्+युच्+टाप्] माता। सूष्यती (स्त्री०) प्रसवोन्मुखी, आसन्न प्रसवा। सृ (अक०) जाना, पहुंचना, दौड़ना, चलना। सृकः (पुं०) [सृ+कक्] पवन, वायु, हवा।
. बाण, ० वज्र, ० कमल। ० रक्त। (हि० ४३) सकसमितः (वि०) रक्तरंजित। (जयो० ८/३६) सृकण्डु (स्त्री०) खुजली। सृकालः (पुं०) [सृ+कालन्] शृगाल। सृक्कन् (नपुं०) मुख का किनारा। सृगः (पुं०) [सृ+गक्] ० भिंदिपाल, तेज बाण। सृगालः (पुं०) शृगाल। सृङ्का (स्त्री०) मणियों का हार। सृज् (सक०) रचना, बनाना, तैयार करना।
० प्रसव करना, जन्म देना। ० उगलना, निकालना।
० फेंकना, छोड़ना। सृजिकाक्षारः (पुं०) शोरा, देह, सञ्जीसार। सृणिका (स्त्री०) [सृणि+कन्] लार। ० थूक। सृणिप्रकार (पुं०) अंकुश। (समु० ३/१९) सृतिः (स्त्री०) [स+क्तिन्] सरकना।
० संचालन। (जयो० २/५८) ० पथ, मार्ग, रास्ता।
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सृत्वर
१२०२
सृत्वर (वि०) सरणशील, जाने वाला।
० अभिषेक। सृत्वरी (स्त्री०) [सृ+ क्वरप्] नदी, सरिता, दरिया। ० माता। ० स्राव, छिड़काव। ० टपकना, ० रिसना। सृदरः (पुं०) सर्प, सांप।
सेचनी (वि०) डोलची। सृदारकः (पुं०) [सृ+काकु+दुकच्] पवन, हवा, वायु। सेटुः (पुं०) [सिट्+उन्] तरबूज। ० अग्नि, ० हरिण, ० इन्द्र का वज्र।
सेतिका (वि०) अयोध्या। सृदाकु (स्त्री०) नदी, सरिता।
सेतुः (पुं०) [सि+तुन्] पुल, बांध (समु० १/२) तटबंध सृप (अक०) रेंगना, सरकना, खिसकना, इधर-उधर घूमना। (भक्ति०१) सृपाटः (पुं०) एक माप विशेष।
० किनारा (सम्य० १२५) मेंड। सपाटिका (स्त्री०) [सृपाट+ङीष् कन्+टाप्] पक्षी का चोंच। ० दर्रा, संकीर्ण मार्ग। ० एक संहनन।
० दृढ़, सीमा, परिसीमा। सृप्रः (पुं०) [सृप्+कन्] चन्द्र, शशि।
सेतुकः (पुं०) [सेतु+क] पुल। ० समुद्रतट। सभ् (सक०) चोट पहुंचाना, घायल करना।
० दर्रा। समर (वि०) [सृ+क्मरच्] गमन करने वाला, जाने वाला। | सेतुबन्धः (पुं०) पुल का निर्माण। सृष्ट (भूक०कृ०) [सृज्+क्त] रचित, प्रतिपादित, ० परित्यक्त, ० एक प्राकृत का महाकाव्य। छोड़ा गया।
सेतुभेदिन् (वि०) बन्धन तोड़ने वाला। बाधा समाप्त करने ० निर्धारित, ० संयुक्त, संबद्ध।
वाला। ० अलंकृत, ० अधिक, बहुत, प्रचुर, पर्याप्त। सेत्रम् (नपुं०) बंधन, हथकड़ी, बेड़ी। सृष्टा (वि०) विधाता। (वीरो० १८/१५)
सेन (वि०) प्रभु सत्ता युक्त। ० नेतृत्व युक्त। सृष्टिः (स्त्री०) [ऋज्+क्तिन्] रचना, विनिर्माण। (जयो० सेना (स्त्री०) [सि+न+टाप] ध्वजिनी। (जयो० १३/३७) जिसमें ११/२९) सर्जक। (जयो० ७/३३)
__अनेक घोड़े, हाथी, पदाति एवं हथियार हो। लोकोक्तरकपि सृष्टैः पितामहो ब्रह्मा सर्जकः
सेना-मृगसेन की धीवर की धीवरी। (दयो० १०) ० प्रकृति रचना। ० भेंट।
सेनाचरः (पुं०) सैनिक, अनुचर वर्ग। (वीरो० १९/२) एवं तु षड्वव्यमपीयमिष्टिर्यतः
सेनानायकः (पुं०) सेनापति, समनीकिनीश्वर। (जयो० २१/१) समुत्था स्व्यमेव सृष्टिः। (वीरो० १९/३८)
सेना निवेशः (पुं०) सेना शिविर, पड़ाव। दृष्टिः सृष्टिरपूर्वैकृष्टिर्विश्वस्य
सेना की चौकी। ० सुरक्षा कर्मियों का पड़ाव। सृष्टितथेयं चिदचिद्विघात:। (समु०८/५)
सेनापतिः (पुं०) [सेनायाः प्रभु] सेनानायक, चमूपति। (जयो०वृ० सृष्टिकः (पुं०) पाक्षिक श्रावक। (जयो० २/१३)
२१/२) (वीरो० १५/५०) सृष्टिसम्पादकः (पुं०) प्रजापति। (जयो०वृ० ११/१२) सेनापरिच्छद (वि०) सेना से घिरा हुआ। सेक् (सक०) जाना, पहुंचना।
सेनापृष्ठम् (नपुं०) सेना का पिछला भाग। सेकः (पुं०) [सिच्+घञ्] छिड़कना, पानी देना, सींचना। सेनाभङ्गः (पुं०) सेना का विखराव। सैनिकों का तितर-बितर ० तपर्ण।
होना। सेकिमम् (नपुं०) [सेक+ठिम्] मूली।
सेनामुखम् (नपुं०) सेना की टुकड़ी। सेक्त (वि०) [सिच्+तृच्] सींचने वाला।
सेनायोगः (पुं०) सेना की सज्जा। ० चतुरंगिणी सेना समूह। सेक्त (वि०) पति।
सेनारक्षः (पुं०) सन्तरी, पहरेदार। सेक्त्रम् (नपुं०) [सिच्+ष्ट्रन्] ढोलची।
सेनास्तम्भनम् (नपुं०) सेना कीलन। (जयो० १९/७२) सेचक (वि०) सींचने वाला।
सेमन्ती (स्त्री०) [सिम्+झि ङीष्] सेवती, सफेद गुलाब। सेचकः (पुं०) मेघ, बादल।
सेरः (पुं०) माप, वस्तु क्रय-विक्रय का बांट। सेचनम् (नपुं०) [सिच्+ल्युट] सींचना, पानी डालना। सेव (अक०) सेवा करना, सम्मान करना। सेवामो यां वयं
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सेवक
भुवि। (वीरो० १७०४१)
• सेवन करना। (सुद० १२२) (जयो० २/१८, १/९५) ० आराधना करना । (जयो० ३/५, ३/१०८)
० संरक्षित करना (जयो० ३/५)
० पोषण करना (वीरो० ५/३०)
• अनुगमन करना, पीछा करना। अनुसरण करना । ० सहारा लेना, रहना।
• अभ्यास करना, अनुष्ठान करना। सेवक (वि०) [सेव्ण्वुल्] सम्मान करने वाला, सेवा करने
वाला।
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० आराधक । ( भक्ति० )
सेवकः (पुं०) दास, भक्त, पूजक (दयो० १०८) (जयो०वृ० १/१०८)
o
अनुजीविजन (जयो०१० १६/४३) सेवकस्य चेष्टा सुखहेतुः (सुद० ९२ )
० दर्जी, ० भृत्य (जयो० ४/१८) परिचारक (जयो०५/२०) सेवकता (वि०) सेवकपना। (वीरो० १५/४०) सेवकोत्कर्ष: (पुं०) सम्मान का उत्कर्ष । (जयो० ) सेवधि ( अव्य० ) सेवा भाव से ।
सेवनम् (नपुं०) [सेव् + ल्युट्] उपयोग करना, उपभोग करना।
० पूजा करना, सम्मान करना ।
० अनुगमन करना, अभ्यास करना।
सेवनी (स्त्री० ) [ सेवन + ङीप् ] सुई, सीवन ।
• संधिरेखा ।
सेवमान (सेव्+ शानच् ) सेवा करने वाला (वीरो० १५ / २३) सेवा ( स्त्री० ) [ सेव्+अ+टाप्] परिचर्या (वीरो० ५/५)
• सम्मान। (सुद० ७३ )
० संलग्नता, तत्परता।
० पूजा, भक्ति ।
० उपयोग अभ्यास।
• आश्रय लेना ।
सेवाकारक (वि०) परिचारक (जयो०वृ० २० /१९) सेवाकार (वि०) दासता युक्त
सेवाकाकु (स्त्री०) सेवा परिवर्तन ।
सेवापरायण: (पुं०) सेवा में तत्पर । (वीरो० १४/१८) सेवार्तसंहननम् (नपुं०) एक संहनन का नाम । सेवावृत (पुं०) कि कर्त्तव्यविमूढ (सुद०) सेवि (वि०) नपुं०) बेर सेव
o
१२०३
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सैमन्तिकम्
सेविका ( स्त्री०) परिणेत्री, परिचारिका । (जयो०वृ० १२ / १८ ) सेवित (भू०क० कृ० ) [सेव्+क्त] सेवा किया गया। ० अनुगत,
अभ्यस्त |
० उपभुक्त।
सेवितृ (पुं०) [सेव् + तृच्] सेवक, दास।
सेविन् (वि० ) [ सेव + णिनि] सेवा करने वाला, सम्मान करने वाला, पूजा करने वाला।
सेविनी (वि०) सेवाकारिणी (जयो० १/४)
सेव्य ( वि० ) [ सेव् + ण्यत् ] सेवनीय सेवा करने योग्य। ( वीरो ०५ / २१ ) (जयो० ५ / ४७ )
• सम्मान योग्य, पूजनीय, समादरणीय।
सै ( सक०) क्षीण होना, नष्ट होना।
सैकत (वि०) [सिकताः सन्त्यत्र अण् ] रेतीला, कंकरीला, ० बालुकामयी, ० धूलीप्राय सिकताया इदं सैकतम् (जयो० ११/५९)
सैकतलक्षणा (वि०) उत्तम अभिलाषा युक्त। एकं तलं तस्य क्षण उत्सवो यस्या उत्तमाभिलाषवती । (जयो० ११ / ५९ ) सैकतिक (वि०) [सैकत उन्] रेतीले तट वाला, कंकरीट युक्त सैकतिकः (पुं०) साधु ।
सैद्धान्तिक (वि० ) [ सिद्धान्त+ठक् ] सिद्धान्त सम्बन्धी । यथार्थ उद्घाटन करने वाला मत।
सैनापत्यम् (नपुं० ) [ सेनापति + ष्यञ् ] सेना की अध्यक्षता । सैनिक ( पुं०) सिपाही, फौजी, सुरक्षाकर्मी ।
० संतरी ।
सैन्धव (वि०) [सिन्धुनदीसमीपे देशे भवः अण् ] सिन्धु प्रान्त में उत्पन्न होने वाला।
०
सिन्धु नदी सम्बंधी।
सैन्धवः (पुं०) सैन्धव नमक, सेंधा नमक।
० प्रशंसनीय घोड़ा। (जयो० २१ / २२ )
सैन्धवक (वि०) [सैन्धव बुज्] सैन्धव से सम्बंध रखने
वाला।
सैन्यः (पुं० ) [ सेनायां समवैति वुञ् ] सैनिक, सिपाही, फौजी, संतरी ।
सैन्यम् (नपुं०) सेना की टुकड़ी, सैन्य समूह, सैनिक जत्था सैन्यभयः (पुं०) सेना का भय। (जयो० १३ / ५१)
सैन्यसागरः (पुं०) सेना रूपी समुद्र, सैन्य समूह। (जयो०१३/३२)
०
चतुरंगिणी सेना ।
सैमन्तिकम् (नपुं० ) [ सीमन्त ठक्] सिन्दूर
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सैरन्ध्रः
१२०४
सोमच्छल
सैरन्ध्रः (पुं०) [सीरं हलं धृति-सीर+धृ+क] किंकर, भृत्य।। सोन्माद (वि.) [सह उन्मादेन] मदविक्षिप्त, पागल, उन्मत्त, सैरन्धी (स्त्री०) किंकरी, दासी, परिचारिका, सेविका।
मदहोश। सैरिक (वि.) [सीर+ठक्] हल से सम्बंधित।
सोपकरण (वि०) [सह उपकरणेन] उपकरण युक्त, सुसज्जित। सैरिकः (पुं०) हाली, हल चलाने वाला बैल।
सोपद्रव (वि०) [सह उपद्रवेण] उपद्रव सहित, संकट ग्रस्त। सैष (अव्य०) वही-सैष इत्यत्र स चैष इति पादपूर्तीविधिः सोपध [सह उपधया] उपधा सहित, कपटी, छल से परिपूर्ण। (जयो० २७/६५)
सोपधि (वि.) [सह उपधिना] छली, कपटी, धूर्त। सो (अक०) ० वध करना, नाश करना, समाप्त करना।
सोपप्लव (वि०) [सह उपप्लवेन] संकटग्रस्त, आक्रान्त, ० परिणाम होना, निर्धारित होना, नष्ट होना, क्षीण होना।
भयाकुल। सोढ (भू०क०कृ०) [सह+क्त] सहन किया गया, भुगता गया।
सोपरोध (वि०) [सह उपरोधेन] अवरुद्ध, बाधायुक्त, अनुगृहीत। सोढुम्-अङ्गीकर्तुम् (वीरो० ६/७)
सोपसर्ग (वि०) [सह उपसर्गेण] उपद्रव युक्त, उपसर्ग युक्त, सोढ़ (वि०) [सह-तृच्] सहनशील, सहिष्णु।
संकट युक्त। ० शक्तिशाली, समर्थ, बलवान्।
सोपहारकरण (वि०) उपहार युक्त। (जयो० ) सोत्क (वि०) [सह उत्केन] अत्यन्त, उत्सुक, आतुर, आकुल,
सोपहास (वि.) [सह उपहासेन] व्यंगमय, उपलंभपूर्ण।
सोपहासम् (अव्य०) उपालंभपूर्वक। खिन्न। दुःखपूर्ण।
सोपाधि (वि०) [सह उपाधिना] उपाधि सहित। सोत्कण्ठ (वि०) उत्कण्ठा युक्त, उत्साहजन्य।
सीमित, मर्यादित। ० सलालसा। (जयो०वृ० ११/१)
सोपानम् (नपुं०) [उप+अन्+घञ्] उपानः उपरिगतिः सह ० आतुर, व्याकुल, खिन्न।
विद्यमान: उपान: येन। सीढी, जीना, पंक्ति। सोत्कण्ठम् (अव्य०) उत्साहपूर्वक।
सोपानततिः (स्त्री०) सोपान परम्परा। (सुद० २/१०) सोत्कण्ठमनस् (वि०) उत्साह युक्त मन वाला। (वीरो०१२/२६)
सोपानपंक्ति (स्त्री०) सीढ़ियां। (जयो० २४/७) सोत्प्रास (वि.) [सह उत्प्रासेन] व्यंगपूर्ण, अतिशयोक्तिपूर्ण।
सोपानपथः (पुं०) सीढ़ी, जीना। सोत्प्रासः (पुं०) अट्टहास, तीव्र ह्रास, व्यंगवचन।
सोपमार्गः (पुं०) देखो ऊपर। सोत्सव (वि०) [उत्सवेन सह] उत्सव युक्त, हर्ष से परिपूर्ण।
सोपानसम्पत्ति (स्त्री०) सीढ़ियां। (वीरो० ४/२७) सोत्साह (वि.) [सह उत्साहेन] प्रबल, सक्रिय, उत्साही,
सोपाहरत्व (वि०) अपहरण युक्त। (सुद० ९९) धीर। (सम्य० ९५) उत्साह सहित, उमंग से परिपूर्ण।
सोमः (पुं०) किरण, चन्द्र। सोत्सुक (वि०) आतुर, खिन्न, व्याकुल।
० पवन, वायु। सोमः समस्त्वेष सतां (जयो० १/३३) ० उत्कण्ठित, लालायित।।
वतंसः (जयो० ११/१४) सोत्सेध (वि०) [सह उत्सेधेन] उन्नत, ऊंचा, उत्तुंग।
० नाभि, चन्द्र। (सुद० ३/४०) सोदक (वि०) शीतल जल युक्त। (सुद० ८६)
० सोम राजा। (जयो० १/२५) जो जयकुमार के पिता थे। सोदर (वि०) [समानमुदरं यस्य] सहोदर, एक ही उदर से | सोम (वि०) यश, कीर्ति सौम्यता। उत्पन्न। (वीरो० ९/८)
सुन्दराकार। (जयो० १२/११८) (सुद०८७) सोदर्यः (पुं०) सहोदर भाई, सगा भाई।
सोमम् (नपुं०) आकाश, नभ, गगन। सोदाहरणप्रसिद्धिः (स्त्री०) उदाहरण सहित ख्याति। सोमकला (स्त्री०) चन्द्रकला। (जयो० ६/५६) (समु० १/३५)
सोमकान्तः (पुं०) चन्द्रकान्त मणि। सोद्योग (वि.) [सह उद्योगेन] परिश्रमी, उद्यमी, सक्रिय। सोमकुलप्रदीपः (पुं०) जयकुमार। (जयो० ६/१३१) धीर, मेहनती।
सोमक्षयः (पुं०) चन्द्रहास। सोद्वेग (वि०) [सह उद्वेगेन] आतुर, व्याकुल, शोक समन्वित, सोमग्रहं (नपुं०) सोमारस रखने का पात्र। दुःख से घिरा हुआ।
सोमच्छल (नपुं०) चन्द्र के ब्याज, शशि के बहाने। (जयो० सोनहः (पुं०) [सु+विच्+सो] लहसुन।
१/३३) सोमश्चन्द्रः तयोश्छलात् मिषात् (जयो० १/३३)
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सोमज
१२०५
सौगन्धिकः
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सोमज (वि०) चन्द्र से उत्पन्न। सोमजः (पुं०) जयकुमार का नाम। जो एक कुशल शासक था।
० बुधग्रह। सोमजोज्ज्वलः (पुं०) जयकुमार। (जयो० ७/८६) सोमजम् (नपुं०) दुग्ध, दूध, क्षीर। सोमदत्तः (पुं०) कोशाम्बिका का एक पंडित। (दयो० ९१) सोमदासः (पुं०) शिंशपावासीधीवर। (दयो० १०) सोमधारी (स्त्री०) गगन, आकाश, नभ। सोमनाथः (पुं०) ० अष्ठमतीर्थंकर चन्द्रप्रभु।
शिव। सोमप (वि०) सोमरस पान करने वाला। सोमपतिः (पुं०) चन्द्र, शशि। सोमपानम् (नपुं०) सोमरस का पान, अमृतपान। सोमपाथिन् (वि०) सोमदर पीने वाला। सोमपुत्रः (पुं०) बुध। ० सोमराजा का पुत्र।
. जयकुमार। (जयो०८/४६) सोमप्रवाकः (पुं०) सोमयज्ञ कर्ता। सोमबन्धुः (पुं०) कुमुद। सोमभूः (पुं०) बुध। सोमयज्ञः (पुं०) सोमरस से समन्वित यज्ञ। सोमयोनि (स्त्री०) चन्द्र योनि। सोमराजन् (पुं०) जयकुमार के पिताश्री। सोमलता (स्त्री०) गोदावरी नदी। सोमवंश (पुं०) चन्द्रवंश, इन्द्रवंश। (जयो० ७/९१) सोमवंशजात (वि०) सोमवश में उत्पन्न। (जयो० ७/९१) सोमवारः (पुं०) सोमवार, चन्द्रवार। सोमवासरः (पुं०) सोमवार, चन्द्रवार। सोमविचारः (पुं०) सोमस्य विचारो यत्र तत्सोमविचारम्
चन्द्रतुल्यमित्यर्थः। (जयो० ५/४१) ० सरल विचार। सोमवृक्षः (पुं०) सफेद खैर। सोमशकला (स्त्री०) एक ककड़ी का नाम। सोमशर्मन् (पुं०) सोमशर्मा नामक ब्राह्मण कोशाम्बिका नगरी
एक पण्डित। (दयो०९१) सोमशर्माङ्गनेवाहं साहाय्यं ते
तनोमि भो! सोमशिला (स्त्री०) चन्द्र शिला। (जयो० १/११) यशः प्रशस्ति। सोमशोभिन (वि०) चन्द्र शोभित। (जयो० ४/५९)
(जयो०वृ० १/१५) सोमसिन्धुः (पुं०) विष्णु।
सोमसुत् (पुं०) सोम खींचने वाला व्यक्ति। सोमसुतः (पुं०) जयकुमार। सोमसुता (स्त्री०) नर्मदा। सोमसूत्रम् (नपुं०) चन्द्र प्रवाह। सोमसूनु (पुं०) जयकुमार। (जयो० ७/२३, ५/२९) सोमा (स्त्री०) पार्वती। (जयो०वृ० ५/५९) सोमाङ्गजः (पुं०) सोमाख्य राज्ञः पुत्रः सोमराजा। का पुत्र।
(जयो० ६/११२) सोमात्मजः (पुं०) जयकुमार। (जयो० ७/१०) सोमोदयकारिन् (पुं०) सोमवंश का उदय-जयकुमार। (जयो०
८/५०) सोम्य (वि०) [सोम+यत्] सोम रस के योग्य, अमृत तुल्य।
० मृदु, सुकुमार, सरल, मिलनसार। सोरस्ताडम् (नपुं०) प्रशस्ति। (जयो० ६/६०) सोल्लुकण्ठः (पुं०) [उल्लुण्ठेन सह] ० व्यंग्य, ताना, उपहास।
चुटकी। सोष्मन् (वि०) [सह उष्मणा] गरम, तप्त। सौकर (वि०) सूकर सम्बन्धी। सौकर्यम् (वि०) सुअरपना।
० आसानी, सुविधा। (जयो० २३/७५) सौकान्त (वि०) कान्तियुक्त होना। सौकुमार्यम् (वि०) सुकुमारता, कोमलता, मृदुता, सरलता। सौक्ष्यम् (वि.) [सूक्ष्म+ष्यञ्] सूक्ष्मता, महीनता। सौख्यम् (वि०) [सुख ष्यत्र] संतोष, प्रसन्नता, हर्ष, खुशी।
आनन्द। मोहादहो पश्यति बाह्यवस्तुन्यङ्गीति सौख्यं
गुणमात्मनस्तु (सुद० १११) सौख्यपदम् (नपुं०) सुख स्थान। (समु० ४/२७) सौख्य-संसरणं (नपुं०) सुख पूर्वक परिभ्रमण। (जयो०वृ०२/१२) सौख्यसाधनम् (नपुं०) सुख-सुविधा। (जयो० २/५५) सौगतः (पुं०) [सुगत् अण्] बौद्ध, बुद्धप्रवर्तक। अविकल्पक
तोत्साहे सौगतस्येव दर्शने (वीरो० ८/२१) ० बौद्धमत।
(जयो०वृ० १८/६०) सौगत (वि०) अच्छी तरह। (जयो०० १८/६०) सौगन्तिकः (पुं०) [सुगत+ठक्] बौद्ध, बौद्ध भिक्षु। सौगन्ध (वि०) [सुगन्ध+अण्] सुगन्धित, सुरभि युक्त। सौगन्धिक (वि०) [सुगन्ध ठन्] सुरभित, सुगन्ध से परिपूर्ण।
सुगंधी जानने वाला। (वीरो० २०/८) सौगन्धिकः (पुं०) गन्धक द्रव्य।
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सौगन्धिकम्
१२०६
सौभाग्यम्
सौगन्धिकम् (नपुं०) सफेद कुमुद, नील कमल, घास विशेष। सौनिकः (पुं०) कसाई। सौगन्ध्यम् (नपुं०) सुवास, गन्ध, सुरभी। (जयो० २०/९५) सौंदर्यम् (वि०) [सुंदर+ष्यञ्] मनोहरता, रमणीयता, लावण्यता सौगन्ध्यवायु (पुं०) सुरभियुक्त पवन। (जयो० ३१)
सुंदरता। (जयो० २/१४८) (समु० ६/२५) लालित्य। सौचिकः (पुं०) दर्जी, नामदेव, नागर।
(सुद०वृ० १२०) सौजन्यम् (नपुं०) [सुजन+ष्यब] भलाई, महिमा, उदारता। ० सुरूप। (जयो० १४/२५) (जयो० १२/११, दयो० ९८)
सौन्दर्यगविष्ठ्य (वि०) लावण्य के गर्व/अहंकार से परिपूर्ण। ० कृपा, करुणा, अनुकम्पा।
वामाझ्या परिभर्त्तितः सौण्डी (स्त्री०) [शुण्डा+अण+डीप] गजपीपल।
स्ववपुषः सौन्दर्यगर्विष्ठया। (सुद० ९८) सौति (पुं०) कर्ण।
सौन्दर्यचर (वि०) रमणीयता युक्त। सौत्र (वि.) [सूत्र+अण्] सूत्र सम्बंधी, सूत्र में निर्दिष्ट। सौन्दर्यधारग (वि०) लावण्य को धारण करने वाला। सौत्रः (पुं०) ब्राह्मण का एक वर्ग।
सौन्दर्यमात्रा (स्त्री०) रमणीय सत्ता। (जयो० ३/८६) सौत्रान्तिकः (पुं०) बौद्धमत की एक विचारधारा।
सौन्दर्यमात्रारोपः (पुं०) सौन्दर्य मात्र का आरोपण। सौदर्यम् (नपुं०) [सोद+ष्यञ्] भ्रातृत्व, भाईपना।
(जयो० ३/४९) सौदामनी/सौदामिनी (स्त्री०) [सुदामा पर्वत भेदः तेन रमणीयतारोपणपरिणाम।
एकादिक्, सुदामन्+अण+डीप] विद्युत, तडित, बिजली। सौन्दर्यशालिन् (वि०) लावण्य युक्त। (दयो० १०८) (जयो० १७/१०२)
सौन्दर्यसमुद्रः (पुं०) सुरूपनिधि। (जयो० ४/४५) लावण्योदधि। सौदायिक (वि०) उपहारित वस्तु, दहेज।
(जयो० ३/६३) सौदाहवंशगत (वि.) स्वाभाविक प्रीति युक्ता सौदाहसहजप्रेम्णो सौन्दर्यसम्पत्तिः (स्त्री०) सुरूपराशि। (जयो० १४/२६) वशंगताभिः। (जयो० १९/८)
सौन्दर्यार्थिनि (वि०) रमणीयता इच्छुक। (जयो० ३/८६) सौध (वि.) [सुधया निर्मित रक्त वा अण्]
सौपर्णम् (नपुं०) [सुपर्ण+अण] सोंठ, सूखा अदरक। ० मरकत। ० अमृतमय, पीयूषसम। (जयो० ११/४९)
सौपर्गेयः (पुं०) [सुपाः विनतायाः अपत्यं सुपर्णी: ढक्] ० चूने से पुता, धवलित। शुभ्र (वीरो० ११/२७)
गरुड़ सौधम् (नपुं०) रङ्ग प्रासाद, राजमहल। (जयो०वृ० ११/४९) सौप्तिक (वि.) [सुप्ति+ठक्] निद्राजनक। ० हर्म्य। (जयो० १५/४५)
सौबलः (पुं०) [सुबल+अण्] शकुनि। ० भवन, प्रासाद। (सुद० ११७) ० विशाल भवन। सौबली (स्त्री०) [सौबल+ङीप्] धृतराष्ट्र की पत्नी गान्धारी। सौधकारः (पुं०) मकान बनाने वाला, भवन निर्माता। सौभम् (नपुं०) एक नगर का नाम। सौधकेतुः (पुं०) शुभ्रपताका। (वीरो०११/२७)
सौभगम् (नपुं०) [सुभग+अण] ० सौभाग्य। ० समृद्धि, धन, सौधगणग्रहीतिः (स्त्री०) प्रासाद परम्परा प्राप्ति। (जयो० वैभव। २०/३०)
सौभद्रः (पुं०) सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु। सौधपदम् (नपुं०) धवल भवन। (वीरो० २/३३)
सौभद्रेय (पुं०) अभिमन्यु। सौधशिरम् (नपुं०) छत, भवन का ऊपरी भाग।
सौभागिनेयः (पुं०) [सुभगा ढक्, इनङ् द्विपदवृद्धिः] सबसे 'सौधं हर्म्यं तस्य शिर उपरिभागम्' (जयो० १५/४५) प्रिय पुत्र। सौधसमूहः (पुं०) प्रासाद मण्डल। (सुद० १/२६)
सौभाग्यम् (नपुं०) [सुभगायाः सुभगस्य वा भाव-ष्यञ्, सौधसम्पद्दलम् (नपुं०) नागवल्ली-सुधायाश्चूर्णस्य सम्पद्यत्रतत् द्विपदवृद्धिः] ० सुलक्षण, उन्नत भाग्य, सुख-सुविधा। त्वं दलं (जयो० १२/१३४)
तस्याः प्रकृतेः प्रयोगवशतः सौभाग्यमिच्छुर्वत (मुनि० २४) सौधानः (पुं०) भवन का अग्रभाग। (वीरो० २/४५)
० संविधान। (जयो०वृ० १/५१) सौन (वि०) [सूना+अण्] कसाईपना।
० अनुग्रह। (जयो० ५/७९) सौनन्दिन् (पुं०) [सौनंद+इनि] बलराम।
० प्रसाद। (वीरो० २/३१)
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सौभाग्यकुसुमम्
• एक दूसरे के प्रति परस्पर स्नेह ।
• सुअवसर - 'यतः सौभाग्यं भयात्' (सुद० ७२) सौभाग्यकुसुमम् (नपुं०) पुण्य रूपी पुष्प। (जयो०वृ० २०/८१) सौभाग्यगुणानुयोगः (पुं०) सौभाग्य के गुण का अनुयोग, पारस्परिक प्रेम का कारण । सापीह सौभाग्यगुणानुयोगादनेन सार्द्धं सुकतोपयोगा । (समु० ६ / २३) सौभाग्यभृत् (वि०) सौभाग्यशालिनी । (जयो० १६/७) सौभाग्यवती (स्त्री० ) ० सुवासिनी। (जयो०वृ० १२ / १०८ ) सुमानिनी। (जयो०वृ० १२ / ३५ ) ० स्नही, प्रिया । • सुलक्षणा । (जयो०वृ० ९/९७) सौभाग्यशालिनी (स्त्री०) सुलक्षणा, गुणवती, स्नेही ।
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(दयो०१/१६)
• सुभगा, सुंदरी। (जयो०वृ० ३/३९) सौभाग्यसुमैकसृक्क (वि०) सौभाग्यकुसुमनिर्माणकारी। (जयो० २०/८१) ० माला बनाने वाली, मालिन ।
सौभ्रात्रम् (नपुं० [सुभ्रातृ + अण् ] भाईचारा, बंधुता । सौभिक: (पुं०) जादूगर, ऐन्द्रजालिक । सौमनस (वि० ) [ सुमनस्+अण्] भावनानुकूल, सुखद,
कृपायुक्त ।
सौमनस्यम् (नपुं० ) [ सुमनस् + ष्यञ् ] •
( भक्ति० ३६ )
• देवत्व, सच्चितत्त्व। (जयो० ११/७४) सौमनस्यायकी (स्त्री० ) [ सौमनस्य+अय + ल्युट् + ङीप् ] मालती लता की मंजरी ।
हर्ष, आनन्द ।
सौमायन: (पुं० ) [ सोम+ फक्] बुद्ध का एक नाम। सौमिक (वि० ) [ सोम + ठक् ] सोमरस सम्बंध, चन्द्र सम्बंधी । सौमित्र : (पुं० ) [ सुमित्रा+अण्] लक्ष्मण।
१२०७
सौमिल्लः (पुं०) एक नाटककार का नाम। सौमेचकम् (नपुं०) स्वर्ण, सोना ।
सौमेरुक (वि० ) [ सुमेरु+कञ्] सुमेरु सम्बंधी ।
सौमेरुकम् (नपुं०) स्वर्ण, सोना। सौम्य (वि० ) [ सोमो देवतास्य तस्येदं वा अण् ] चन्द्र सम्बंधी ।
० सुंदर, सुखद, शान्तभाव युक्त । ० प्रिय, मृदुल, कोमल, स्निग्ध ।
सौम्यः (पुं०) बुधग्रह | सौम्यगन्धी (स्त्री०) सफेद गुलाब । सौम्यकृच्छ्रः (पुं०) धर्मसाधना विशेष । सौम्यग्रह: (पुं०) सुखद ग्रह, शान्तिदायक ग्रह ।
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सौम्यधातुः (पुं०) कफ, श्लेष्मा । सौम्यनामन् (वि०) सुखद नाम वाला।
सौम्यमूर्ति ( स्त्री०) शान्त प्रकृति । (जयो० ५ / १०२ ) चन्द्र । (जयो० ५ / ९१ )
सौराष्ट्र
सौम्यवार: (पुं०) बुधवार ।
सौम्यवासरः (पुं०) बुधवाद ।
सौम्याकृतिः (स्त्री०) अरुद्र, उत्तम आकृति । (जयो० १२ / ५) सौर (वि०) [ सूर्+अण्] दिव्य, देव सम्बंधी, स्वर्ग। (सुद०२/३९) सौर: (पुं०) शनिग्रह। ० सौर्यमास । ० देव। (जयो० १८/५)
सौरथ: (पुं० ) [ सुरथ+अण्] वीर, योद्धा ।
सौरभ (वि०) [सुरभि +अण्] सुगन्धित । सुराणां भा तदर्थमस्तु (जयो० ११ / ९५)
० परिमल, गन्ध। (जयो० ११ / ९५) सौरभ (पुं०) देव। (जयो० २२ / १३ )
सौरभम् (नपुं०) सुगन्ध । (जयो० ९ / ९१ ) सुराणां सम्बंधी सौरश्चासौ भवश्च स यस्यास्तीति (जयो० १२ / ३२ ) विलसति सौरभे सुगन्धे। (जयो०वृ० १२ / ३२ ) सौरभत: (वि०) सुगन्धि युक्त । ( सुद० ९/२५) सौरभवः (पुं०) देव जाति - सुरस्यैष सौरः स चासौ भवश्च सौरभवो देवजातिस्तु (जयो० १८/५१)
०
स्वर्गवासी देव। (सुद०२ / ३९)
सौरभभाव: (पुं०) देवभाव - सुराणामसौ सौरः सौरभाव। (जयो०
२२/१३)
सौरभविग्रह: (पुं०) सुगन्ध की चाह, सुरभि - इच्छा। 'सौरभे सुगन्धे विग्रहः शरीरं यस्य' (जयो०वृ० १२ / ३२) सौरभाश्रयणम् (नपुं०) सौरभ युक्त । सूरस्याऽसौ सौरा सा
०
चासौ भा च तस्याः श्रयणमाशु नयन्तु । (जयो० ४ / १८ ) सौरम्भम् (नपुं० ) [ सुरभि + ष्यञ् ] ० सुगन्ध, मधुर गन्ध । रोचकता, सौंदर्य ।
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० सदाचरण, कीर्ति ।
सौरसेनी (स्त्री०) एक प्राचीन प्राकृत भाषा, जिसका उत्पत्ति स्थान शूरसेन/मथुरा के आसपास का क्षेत्र माना जाता है। सौरसैन्धव (वि०) [सुरसिन्धु+अण्] स्वर्ग गंगा सम्बंधी । सौराज्यम् (नपुं० ) [ सुराज्य+ ष्यञ् ] अच्छा प्रशासन, उत्कृष्ट
राज्य व्यवस्था ।
सौराष्ट्र (वि०) [सुराष्ट्र+अण्] सौराष्ट्र सम्बंधी, गुजरात का एक हिस्सा।
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सौराष्ट्रम्
१२०८
स्कन्धः
सौराष्ट्रम् (नपुं०) सौराष्ट्र प्रदेश। सौरिः (पुं०) [सूरस्यापत्यं पुमान् इञ्] शनिग्रह। सौरिक (वि०) दिव्य, स्वर्ग सम्बंधी।
आसवीय, मदिरा सम्बंधी। सौरिकः (पुं०) शनि। ० स्वर्ग।
० कलाल, ० मदिरा। सौरी (स्त्री०) सूर्य पत्नी। सौरीय (वि०) सूर्य सम्बधी। सूर्य के योग्य। सौर्य (वि०) सूर्य से सम्बंधित। सौलभ्यम् (नपुं०) [सुलभ+ष्यञ्] सुलभता, सुगमता। ० प्राप्ति की सुविधा। सौल्विकः (पुं०) [सुल्व+ठक्] ताम्रकार, कसेरा। सौव (वि०) स्वर्गीय, दिव्य।। सौवम् (नपुं०) आदेश, राजाज्ञा। सौवग्रामिक (वि०) गांव से सम्बन्धित। सौवर (वि०) एक ध्वनि विशेष, स्वर सम्बंधी। सौवर्चल (वि०) [सुवर्चल+अण] सुवर्चल नामक देश को
प्राप्त। सौवर्ण (वि०) [सुवर्ण+अण्] सुनहरी।
० स्वर्णमुद्रा के तुल्य। सौवर्ण्य (वि०) शोभनो वर्णो रूपं यस्य स-अच्छा वर्ण। सौवस्तिक (वि.) [स्वस्ति+ठक्] आशीर्वादात्मक। सौवाध्यायिक (वि.) [स्वाध्याय ठक्] स्वाध्याय सम्बंधी,
स्वाध्यायी। सौविदः (पुं०) [सु+विद्+क अण् सुष्ठु विदन्नृपः लं
लाति-ला+क+अण] कञ्चकी, अन्तःपुर का बृद्ध व्यक्ति।
(जयो० ५/६०) सौवीरम् (नपुं०) [सुवीर+अण] बेर फल।
० अंजन, सुरमा।
० कौजी। सौवीरकः (पुं०) [सौवीर-कन्] बेरी, बेर का पेड़। सौवीर्यम् (वि.) [सुवीर+ष्यञ्] विक्रम, वीरता। सौष्य (वि०) पराक्रम्प। सौशील्यम् (नपुं०) [सुशील+ष्यञ्] सदाचरण, नैतिक आचरण। सौश्रवसम् (नपुं०) [सुश्रवस+अण्] ख्याति, प्रसिद्धि, कीर्ति। सौष्ठवम् (नपुं०) परकौशल, पुष्टता, सौन्दर्य, लालित्य।
लोमोत्थितिः सौष्ठववैजयन्त्यां, सुमेषु साम्राज्यपदं लिखन्त्याम्। (जयो० ११/३२)
० सौन्दर्य, सुंदरता। (जयो० ११/९२) ० भलाई, चतुराई, श्रेष्ठता, रमणीयता। इहाङ्गसम्भावित
सौष्ठवस्य (जयो० १/४६) सौस्थ्य (वि०) सुस्थिति युक्त। (जयोवृ० १/३०) सौस्नातिकः (पुं०) [सुस्नात+ठक्] स्नान को पूछने वाला। सौहार्दः (पुं०) [सुहृद्+अण्] मित्र का पुत्र। सौहार्दम् (वि०) सरलभाव। (हित०५०)
० मैत्रीभाव-सौहार्दमणिमात्रे तु क्लिष्टे कारुण्यमुत्सवम्। (सुद० ४/३५) ० मित्रता। (दयो० ६२) ० सद्भाव, मैत्री, स्नेह।
० आश्वासन। (जयो०वृ० १३/१७) सौहार्दभावः (पुं०) सरलभाव। सौहार्दसूचक (वि०) आश्वासन युक्त। (जयो० १३/१७) सौहार्यम् (नपुं०) [सुहृद्+ष्यञ्] मित्रता, स्नेह, प्रेमभाव। सौहित्यम् (नपुं०) [सुहित+ष्यञ्] ० तृप्ति, संतुष्टि।
० सद्भावना। ० पूर्णता, पूर्ति।
० कृपालुता। सौहृद (वि०) सभ्यता, सद्भावना। (जयो० ४/४८) स्कन्द (अक०) कूदना, उछलना, गिरना, टपकना। स्कन्द् (सक०) उठाना, फैलाना। स्कन्दः (पुं०) उछना।
० कार्तिकेय का नाम। ० शिव।
० चतुर व्यक्ति। स्कन्दनम् (नपुं०) क्षरण, बहना, गिरना, रिसना। स्कन्दपुराणम् (नपुं०) अष्ठादश पुराणों में से एक पुराण। स्कन्ध् (सक०) एकत्र करना, चुनना, इकट्ठा करना। स्कन्धः (पुं०) [स्कन्ध्यते आरुह्यतेऽसौ सुखेन शाखाया वा
कर्मणि घञ्] ० कन्धा अक्षोपरिप्रदेश (जयो० १४/३६) ० वृक्ष का तना, शाखा, डाली, पेड़ी, तना। (सुद० १३२) ० परिच्छेद, अध्याय, खण्ड। ० पथ, मार्ग, रास्ता। ० संग्राम, युद्ध, लड़ाई। ० सम्पूर्ण अंशों से परिपूर्ण। स्कन्धं सर्वांशसम्पूर्णं भवन्ति। (गो०जी० ६०४) ० अनन्त प्रदेशों से युक्त, अन्तानन्त परमाणुओं से युक्त।
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स्कन्धचापः
१२०९
स्तननम्
० पुद्गल का एकभेद। (वीरो० १९/३६) ० स्निग्ध, रुक्षात्मक अणुओं का संघात। ० परिप्राप्त बन्ध परिणाम। (सम्य०८) स्थूलत्वेन ग्रहण निक्षेपणादि व्यापारं स्कन्धन्ति गच्छन्ति ये ते स्कन्धाः।
(त०वृति ५/२५) स्कन्धचापः (पुं०) बहंगी। स्कन्धतरु (पुं०) नारियल का पेड़। स्कन्धदेशः (पुं०) कंधा,
० स्कन्ध का अर्ध भाग।
तदर्ध देशः। (त०वा० ५/२५) स्कन्धपर्यन्त (वि०) कंधे तक। (जयो०७० २/६७) स्कन्धपरिनिर्वाणम् (नपुं०) कंधों का लोप। स्कन्धपुराणम् (नपुं०) अष्टादश पुराणों में एक नाम। (दयो०२६) स्कन्धप्रदेशः (पुं०) स्कन्ध के आधे से आधा भाग। स्कन्धफलः (पुं०) नारियल का पेड़। स्कन्धबन्धना (स्त्री०) मैथी, सोया। स्कन्धमल्लकः (पुं०) बगुला, कंकपक्षी। स्कन्धरुहः (पुं०) वट वृक्ष। स्कन्धशाखा (स्त्री०) मोटी शाखा, तना। स्कन्धशृङ्गः (पुं०) महिषी, भैंस। स्कन्धिकः (पुं०) सधा हुआ बैल। स्कन्धिन् (वि०) कंधों वाला। स्कन्न (भू०क०कृ०) [स्कन्द्+क्त] पतित गिरा हुआ।
० उतरा हुआ। ० सूख हुआ।
० फैलाया हुआ। स्कम्भ् (सक०) रोकना, रचना बनाना।
० अवरोध करना। दबाना, नियन्त्रित करना। स्कम्भः (पुं०) [स्कन्भ+घञ्] थूणी, टेक।
० आलम्ब, आधार। स्कम्भनम् (नपुं०) [स्कम्भ् ल्युट] टेक, सहारा, आश्रय,
आलम्बन। स्कान्द (वि०) स्कन्द सम्बंधी। स्कु (अक०) कूदकर चलना, उछलना। स्कुन्द् (सक०) कूदना। स्खद् (सक०) ० काटना। ० प्रताड़ित करना।
० नष्ट करना। ० टुकड़े करना। ० परास्त करना, शांत करना, कष्ट देना।
स्खदनम् (नपुं०) [स्खद्-ल्युट्] ० काटना, चोट पहुंचाना,
मारना।
० कष्ट देना, दु:खी करना। स्खल् (अक०) लड़खड़ाना, गिरना, पतित होना। (जयो०६/८९)
० डगमगाना, लहराना, इधर उधर होना। स्खलनम् (नपुं०) [स्खल+ल्युट्] लड़खड़ाना, फिसलना,
गिरना, डगमगाना। (जयो० २३/२८) ० हकलाना, रुकरुककर बोलना।
० निराशा, विफलता, असफलता। स्खलित (भू०क०कृ०) [स्खल्+क्त] भ्रष्ट। (जयो० ७/१२)
० पतित, गिरा हुआ, खिसका हुआ।
० डगमगाया हुआ, लड़खड़ाया हुआ। स्खलितेशुकम् (नपुं०) खिसके हुए वस्त्र। (जयो० १०/६२) स्खलितम् (नपुं०) ० त्रुटि, भूल, गलती।
० दोष, पाप, अतिक्रमण।
० धोखा, विश्वासघात। स्खलन्ती (वि०) लड़खड़ाती हुई। (जयो० २१/४) स्तक (अक०) टक्कर लेना, मुकाबला करना। स्तक (अक०) आवाज करना, शब्द करना, गूंजना। ० गरजना,
दहाड़ना, कराहना। स्तकम् (अव्य०) तत्काल, तुरन्त। (सुद० ३/१३) स्तन् (अक०) आवाज करना, शब्द करना, प्रतिध्वनि करना। स्तनः (पुं०) उरोज। (जयो० ११/४) पयोधर। (जयो० ११/९४)
० स्तन। (जयो० १०/६१) ० कुच। (जयो०वृ० १७/४३) थन। ० चुचूक, औड़ी।
० छाती, वक्षस्थल, स्त्रीविशेष का स्तन। (सुद० ५/४४) स्तनकः देखो ऊपर। स्तनकोरकः (पुं०) कुच कुङ्गल, कुच-कली, पयोधर। (जयो०
१७/४३) (जयो० ११/९०) स्तनगौरवः (पुं०) उन्नत पयोधर। (जयो०वृ० ११/३३) स्तनच्छलः (पुं०) पयोधर के वश। (जयो० ११/३७) स्तनजन्मन् (पुं०) दुग्ध, दूध। (सुद० ३/१८) स्तनतटः (पुं०) कुच भाग, उरोजतीर। (वीरो० १२/५) स्तनन्धय (वि०) स्तनपानशील। स्तनं धावतीति स्तनन्धय।
(जयो० १५/६९)
० स्तयपान। (जयो०वृ० १०/६१) स्तननम् (नपुं०) ध्वनन, कोलाहल।
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स्तनपः
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स्तनप: (पुं०) शिश, दुहमुहा | (जयो० १७ / १५ ) स्तनपान करने वाला शिशु ।
स्तनपायक (वि०) दूध पीने वाला शिशु । स्तनपायि (वि०) स्तन से दूध पीने वाला। स्तनप्रदेश: (पुं०) पयोधर, थन। (जयो० ११ / ९३) ० बादल (जयो० ११/३३)
स्तनफल: (पुं०) उन्नत कुच (जयो० ११ / ९५) स्तनभवः (पुं०) रतिबन्ध की प्रक्रिया, स्तन आलिंगन भाव। स्तनमुखम् (नपुं०) चुचूक, कुच का श्याममुख, स्तन भाग स्तनशिला (स्त्री०) चुचूक का अग्रभाग।
स्तनशैल (पुं०) उन्नत पयोधर (सुद० १/१३) समुन्नत कुच । स्तनसंदेश (पुं०) कुच निर्देश, पयोधर युग्म । (जयो० ३/४९) स्तनस्पर्धित (वि०) कुचाभोग। (जयो०वृ० ११/३७) छन्ना किलोच्चैः स्तनशैलमूले (जयो० ११ / ४९) अतिशयोन्नतश्चासौ शैलः ।
स्तनस्तवकः (पुं०) कुचगुच्छ (जयो० १७/११३) स्तनहैमकुम्भ: (पुं०) पयोधर रूपी स्वर्ण कलश | (जयो० ११ / ६८)
स्तनाङ्कः (पुं०) पयोधरा। (जयो०वृ० १२ / १२६ ) स्तनाननम् (नपुं०) स्तन का मुख, कुच कुड्मल भाग । (सुद० २/४४)
स्तनाभोगवश (पुं०) पयोधर के कारण (जयो० ११/३४) स्तनित (भू०क० कृ० ) [ स्तन् कर्तरि क्त] ध्वनित, शब्दायमान स्तनितकुमारः (पुं०) एक देव नाम।
स्तनितम् (नपुं०) मेघगर्जन, बिजली की गरज (जयो० ) स्तन्धयः (पुं०) अबोध बालक, शिशु (हित ) स्तन्यम् (नपुं०) मां का दूध ।
स्तन्यत्यागः (पुं०) मां का दूध छुड़ाना।
स्तबक: (पुं०) [स्तु+बुन् ] गुच्छा, झुण्ड । ( ( सुद० ८२ ) (जयो० १७/११३) (दयो० ५५)
१२१०
स्तबकगुच्छम् (नपुं०) एक नगर का नाम महाकच्छ के समीप का एक नगर सम्पातः समभूत्तयो स्तबकगुच्छोपकण्ठ स्थले । (समु०२/२८)
स्तबकोत्तरम् (नपुं०) स्तबक गुच्छ नगर का एक नाम। (समु० २ / १५ )
स्तब्ध (भू०क०कु० ) [ स्तम्भ् कर्तणि कर्तरि वा क्त] ० अवरुद्ध, रोका हुआ। ० सुन्न, जड़ीकृत।
० गतिहीन, अचल ।
स्तरी
स्तब्धता / स्तब्धत्व (वि० ) [ स्तब्ध + तत्+टाप् त्वा वा] जाड्य, असंवेद्यता ।
० दृढ़ता, कठोरता ।
स्तब्ध (स्त्री० ) [ स्तम्भू क्तिन्] स्थिरता, दृढ़ता।
० जड़ता, धृष्टता।
स्तम्बः (पुं०) [स्था अम्बच्] ० झुण्ड, गुच्छक, पुंज। ० गुल्म।
О
पूली, गट्ठर।
स्तम्बकरि (वि०) अनाज की पूली बनाने वाली । स्तम्बधन: (पुं०) खुरपा, घास खोदने का उपकरण। स्तम्बघ्नः (पुं०) दरांती, खुर्पा
स्तम्भू (सक०) रोकना, पकड़ना, जकड़ना, बांधना। ० टेक लगाना, सहारा लेना।
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स्तम्भ: (पुं० ) [ स्तम्भ + अच्] ० रोक, अवरोध, रुकावट । ० नियंत्रण, दमन, वशीकरण (जयो० १६/८३)
० खंभा, स्थूण । (सुद० २/१४)
० मूढ़ता, जड़ता ।
• जंघा (जयो० ३ /७२)
० टेक, सहारा, आलम्बन, आश्रय ।
स्तम्भकरिन् (वि०) वश में करने वाली (जयो० १२/११) खग्रहसुदृशः शयोपचिद्या द्विषते स्तम्भकरीव भाति विद्या (जयो० )
स्तम्भकिन् (पुं०) वाद्य विशेष ।
स्तम्भनम् (नपुं० ) [ स्तम्भ + ल्युट् ] दमन, वशीकरण, नियंत्रण । (जयो० १५/८३)
० शांत होना, दृढ़ करना।
स्तम्भनकारणम् (नपुं०) नियंत्रण हेतु । (जयो० ११ / ३४ ) स्तम्भनकारिणी (स्त्री०) वशीकरण विद्या (जयो० १२ / ११) स्तम्भनविद्या (स्त्री०) वशीकरण विद्या (जयो० १६/८३) स्तम्भनार्थ (वि०) वश में करने के लिए। (दयो० ६५) स्तर (वि०) (स्तु+घञ्) फैलाने वाला, विस्तार करने वाला, ढकने वाला।
स्तर (पुं०) तह, परत ।
० शय्या बिछावन।
स्तरणम् (नपुं०) [स्तु + ल्युट्] छितराना, बिछाना, फैलाना। स्तरि/स्तरी (स्त्री०) शय्या, बिछावन, पलंग ।
स्तरी (स्त्री०) बाष्प, धूम
० बछिया, ० बांझ गाय ।
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स्तवः
१२११
स्तेनप्रयोगः
स्तवः (पुं०) [स्तु+अप्] स्तुति, स्तोत्र,
० प्रार्थना। (जयो० ९/९) ० स्तुति करना। (सुद० ७३) जय रवे वरवेशतस्तव चरणयो रणयोघनयोः स्तव। (जयो० ३/९) ० प्रशंसा। (जयो० २/१५३)
० यशोगान। स्तवक (वि०) [स्तु+वुन्] प्रशंसक, अभ्यर्चक। स्तवकः (पुं०) ० स्तुति, स्तोत्र, गुणज्ञान।
० गुच्छा, मञ्जरी। (समु० २/१५) ० गुलदस्ता, कुसुमगुच्छ। ० परिच्छेद, पुस्तक का अनुभाग, अंश।
० समुच्चय, समुदाय। स्तवकस्तनी (स्त्री०) उन्नत स्तन वाली स्त्री। (वीरो०६/३२) स्तवनम् (नपुं०) [स्तु ल्युट्] गुणगान, प्रशंसा।
० भक्ति, मंगलपाठाजिनेश्वरस्याभिषवं सुदर्शनः प्रसाध्य पूजां स्तवनं दधानः। (सुद० ११४)
० अतिशय प्रशंसा। (जयो०वृ० १/९१) स्तावः (पुं०) [स्तु+ण्वुल] प्रशंसा, स्तुति, प्रार्थना। स्तावकः (वि०) प्रशंसक, स्तुतिकर्ता। स्ताविक (वि०) स्तुत्य, प्रार्थित। स्ताविकवर्त्मन् (नपुं०) स्तुत्यसत्यमार्ग। (भक्ति०१) स्तिघू (अक०) चढ़ना, धावा बोलना।
रिसना, टपकना। स्तिप् (अक०) टपकना, रिसना, झरना। स्तिभिः (स्त्री०) [स्तम्भ+इन्] ० अवरोध, रुकावट।
गुच्छा, गुल्म, पुंज। स्तिम् (अक०) गीला होना, स्थिर होना। स्तिमितु (वि०) गीला, तर, निश्चल, निश्चेष्ट, शांत। स्तिर् (अक०) झुकना, नमना। (सुद० २/२१) स्तीविः (पुं०) इन्दु। स्तु (अक०) प्रशंसा करना, प्रार्थना करना, गुणगान करना, ___भजन करना। (सुद० ७३, जयो० १/८२) स्तुकः (पुं०) ग्रंथि, चोटी। स्तुका (स्त्री०) [स्तुक+टाप्] ० कूल्हा, जंघा।
० बालों का चोटी। स्तुच् (अक०) उज्ज्वल होना, शुभ्र होना, चमकना। स्तुत (भू०क०कृ०) [स्तु+क्त] समर्थित। (जयो० ५/५६)
प्रशंसा किया गया, प्रशस्त। (जयोवृ० १/५०)
स्तुतवान् (वि०) प्रशंसावान (सुद० ३/९)
स्तुताञ्जन (वि०) आराधना करने योग्य। (सुद० १३५) | स्तुतिः (स्त्री०) [स्तु+क्तिन्] प्रशंसा, कीर्तन, स्तव,
पुण्यगुणोत्कीर्ति, गुणगान। ० श्लाघा, सराहना। स्तुतिकर्ता (वि०) प्रशंसक। स्तुतिगीतम् (नपुं०) सूक्त, सुभाषित गान, यशोगान। स्तुतिपदम् (नपुं०) प्रार्थना पद। स्तुतिपाठः (पुं०) स्तोत्र। स्तुतिपाठकः (पुं०) यशोगान कर्ता, कीर्तिगायक, मागध।
(जयो०वृ० १/६५) प्रशस्ति प्रस्तोता।
० चारण, भाट, बन्दीजन। (जयो०७० ६/१३२) स्तुत्य (वि०) [स्तु+क्यप्] प्रशंसनीय, श्लाध्य। (जयो० ११/९७) स्तुत्यसत्यमार्गः (पुं०) प्रशंसनीय पथा (भक्ति० १) स्तुनकः (पुं०) [स्तु+नकक्] बकरा, अज। स्तुभ् (अक०) प्रशंसा करना, गान करना, प्रार्थना करना।
० रोकना, दबाना। स्तुभः (पुं०) बकरा। [स्तुभृ+क] स्तुम्भ (सक०) निकाल देना, बाहर करना। स्तूप् (अक०) संचित करना, ढेर लगाना, एकत्र करना, खड़ा
करना, उठाना। स्तूपः (पुं०) [स्तूप्+अच्] ढेर, टीला।
० स्मारक। (दयो० ६५) स्तूपाकार (वि०) स्तूपित, स्मारक रूप। (वीरो० २/१८) स्तूपित (वि०) स्मारक। स्तु (सक०) फैलाना, छितराना, बिछाना, प्रसार करना, विकीर्ण
करना। ० लपेटना, ढांपना।
० प्रसन्न करना, तृप्त करना। स्तु (पुं०) [स्तृ+क्विप्] तारा। स्तुतिः (स्त्री०) [स्तृ+क्तिन्] ० फैलाना, बिछाना, प्रसार
करना। ___० ढकना, वस्त्र धारण करना। स्तेन् (सक०) चुराना, अपहरण करना, छीनना, लूटना। स्तेनः (पुं०) [स्तेन् कर्तरि अच्] चोर, लूटेरा। (दयो० २/६) स्तेनम् (नपुं०) चोरी करना, चुराना। स्तेनकृत (वि०) चुराई गई। (वीरो० ६/३७) स्तेनप्रयोगः (पुं०) चोरी की ओर उद्यत होना, चोरी की
अनुमोदना करना, चोर प्रेरणा। (भक्ति० ४०) ० अचौर्याणुव्रत का एक अतिचार।
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स्तेनानीतादानम्
स्तेनानीतादानम् (नपुं०) तदाहृतादान। स्तेनानुज्ञा (स्त्री०) स्तेन प्रयोग, अचौर्याणुव्रत का एक अतिचार । स्तेनानुबन्धी (वि०) चौर्यांनन्द, दूसरे के द्रव्य हरण की ओर चित्त रहने वाला।
स्तनित (वि०) चुराने का भाव वाला, छिपाने का भाव रखने
स्तेयिन् (पुं०) [स्तेय + इनि] चोरी, लुटेरा । स्तै ( सक० ) पहनना, अलंकृत करना । स्तैनम् (नपुं० [स्तेन+अण्] चोरी, लूट स्तैन्यम् (नपुं० ) [ स्तेनस्य भावः ष्यञ् चोरी, लूट। स्तैन्यः (पुं०) चोर, लुटेरा ।
स्तैमित्यम् (नपुं०) [स्तिमित+ ष्यञ् ] स्थिरता, कठोरता ।
वाला।
स्तेय् (अक० ) रिसना, टपकना, झरना। स्तेम: (पुं०) [स्तिन्+घञ्] नमी, गीलापन ।
स्तेयम् (नपुं० ) [ स्तेनस्य भावः यत् न लोपः ] ० बिना दी हुई वस्तु का ग्रहण, अदत्तादानं स्तेयम् (त०सू० ७/१५)
० प्रमाद योग से बिना दी गई वस्तु का ग्रहण | आदानं ग्रहणं अदत्तस्याऽऽदानं अदत्तादानं स्तेयमित्युच्यते (त०वा० २/१५) चोरी, लूट। (सुद० १३२) स्तेयत्यागवतम् (नपुं०) अचौर्याणुव्रत पर वस्तु के ग्रहण का भाव न रखना, चोरी का त्याग करना । स्तेनानन्द (वि०) स्तेनानुबन्धी, पर वस्तु का ग्रहण में आनन्द करने वाला । पर विषय हरणशील।
● जड़ता।
स्तोक (वि०) [स्तुच्+घञ् ] ० अल्प, थोड़ा। अल्प, कम। • छोटा, लघु।
०
स्तोकः (पुं०) स्वल्पमात्र, बूंदभर ।
० सात उच्छवास प्रमाण ।
स्तोकम् (अव्य०) जरा सा थोड़ा सा किञ्चित् भी। स्तोककाय (वि०) छोटे शरीर वाला, बौना, वामन, ठिगना । स्तोकशः (अव्य० ) [ स्तोक+शस्] थोड़ा थोड़ा करके, कमी के साथ।
स्तोतव्य (वि० ) [ स्तुतव्यत्] श्लाध्य, प्रशंसनीय स्तोतृ (पुं०) [स्तु+तृच्] प्रशंसक, स्तुतिकर्ता । स्तोत्रम् (नपुं०) [स्तु+ष्ट्रन्] स्तुति, स्तवन, स्तव, स्तवक, गुणानुवाद, अर्चना, भक्ति
० प्रशंसा पाठ।
स्तोभः (पुं० ) [ स्तुभ्+घञ् ] रोकना, अवरुद्ध करना ।
१२१२
प्रार्थना,
० विराम, यति, विश्राम।
० निरादर, तिरस्कार।
• सूक्त, प्रशस्ति।
स्तोमः (पुं० ) [स्तु+मन् ] स्तुति, प्रशस्ति । ० संग्रह, समुच्चय, समूह । (जयो० १ / ७४ ) ० संख्या, संघात, ढेर |
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०
स्तोम्य (वि०) स्तोम यत्) श्लाघ्य, प्रशंसनीय।
+
स्त्यान (वि० ) [ स्त्यै+क्त] ढेर के रूप में संचित ।
"
घनीभूत ठोस, स्थूल पिण्डीभूत |
० मृदु, स्निग्ध, कोमल, चिकना । स्त्यायतीति स्त्यानं स्तिमितचित्त ।
स्त्रीकथा
स्त्यानम् (नपुं० ) ० स्वप्न - स्त्याने स्वप्ने । सुप्त अवस्था ! • सघनता, ठोसपना।
०
• प्रतिध्वनि, गूंज ।
० चिकनाई, ढीलापन ।
स्त्यानगृद्धिः (स्त्री०) सुप्त अवस्था में विशेष सामर्थ्य स्त्याने स्वप्ने गृध्यते दीप्यते यदुदयात रौद्रं च बहु च कर्मकरणं सा स्त्यानगृद्धिः । (४०आ०वृ० २०५४)
सोते सोते ही, बेहोश अवस्था में ही जिससे बड़ी भारी ताकत प्रकट हो जाए ऐसी नींद को स्त्यानगृद्धि कहते हैं। स्त्यायति क्रिया के स्वाप अर्थ में ही गृद्धि / उत्तेजना होना । (त०सू० पृ० १२४, ८/७)
स्त्यायनम् (नपुंc) [स्त्यै + ल्युट् ] भीड़ लगाना, समूह बनाना । समष्टि ।
स्त्येन: (पुं०) [स्त्यै + इनच् ] ० अमृत, चोर | स्वागन्वेषयः (पुं०) मुनिधर्म । ( मुनि० ८)
स्त्री (स्त्री०) [स्त्यायेते शुक्रशोणिते यस्याम् स्त्यै+ड्रप् ङीप् ] महिला नारी औरत (जयो० २ / १४७, १४२, १४९ ) (सुद० १०२) दोषैरात्मानं परं च स्तृणति छादयतीति स्त्री । ( धव० २ / ३४०) प्रियोऽप्रियोऽथवास्त्रीणां कश्चनापि न विद्यते ।
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गावस्तृणमिवारण्येऽभिसरन्ति नवं नवम् ॥ (जयो० २ / १४७)
स्त्रियां सम्पद्गुणोत्कर्ष इत्यादि कोषात् (जयो०वृ० ६/५५) ० सहधर्मिणी, पत्नी। (जयो०वृ० १/१५) गौरी (जयो०वृ० १/१५) चेष्टा स्त्रियां काचिद (सुद० १०७) स्त्रीकथा ( स्त्री०) स्त्रियों सम्बंधी कथा । कथा के चार भेदों में
प्रथम |
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स्त्रीकामः
स्त्रीकाम: (पुं०) स्त्रीसंभोग का इच्छुक, पत्नी चाह । स्वीकार्यम् (नपुं०) नारी धर्म
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स्वीकुसुमम् (नपुं०) रज:स्राव, स्त्रियों का मासिक धर्म
स्त्रीक्षीरम् (नपुं०) माता का दूध । स्त्रीगवी (स्त्री०) दूध देने वाली गाय स्त्रीगुरु (स्त्री०) पुरोहितानी, पंडितानि । स्त्रीघोष: (पुं०) प्रभात प्रातः, पौ फटना । स्वीचिह्नम् (नपुं०) स्त्रीयोनि, स्त्रीत्वभाव। स्वीचौर : (पुं०) लम्पट स्त्री ।
|
स्त्रीजन (पुं०) स्त्री समूह (वीरो० २/४०) स्त्रीजननी (स्त्री०) कन्या जन्मदात्री | स्त्रीजाति: (स्त्री०) स्त्रीवर्ग, नारी समुदाय स्त्रीजित (वि०) नारियों को वश में करने वाला जोरु, गुलाम स्त्रीताडनम् (नपुं०) नारी उत्पीड़न । (जयो०वृ० १ / ८४ ) स्त्रीधनम् (नपुं०) स्त्री सम्पत्ति ।
स्त्रीधर्मः (स्त्री०) नारी कर्त्तव्य । ० रजः स्राव धर्म । स्त्रीधर्मिणी (स्त्री०) रजस्वला स्त्री ।
स्त्रीनाथ (वि०) गृह मालकिन, गृहस्वामिनी। स्त्रीबन्धनम् (नपुं०) नारी निबन्धन का कार्य क्षेत्र, गृहिणी मर्यादा । प्रायोऽस्मिन् भूतले पुंसो बन्धनं स्त्रीनिबन्धनम्। (वीरो० ९/३० )
स्त्रीपण्योपजीविन् (पुं०) स्त्री से वेश्यावृत्ति कराकर जीविका
चलाना।
स्वीपर (पुं०) लम्पट कामी ।
स्त्रीपरीषहसहनम् (नपुं०) वावीस परीषहों में एक परीषह
सहन।
स्वीपिशाची (स्त्री०) राक्षसी प्रवृत्ति वाली पत्नी । स्त्रीपुंसलक्षणा (स्त्री०) पुरुष के लक्षणों से युक्त स्त्री
मर्दाङ्गिनी |
स्त्रीप्रत्ययः (पुं०) स्त्रीलिंग के प्रत्यय
स्त्रीप्रसङ्गः (पुं०) संभोग ।
स्त्रीप्रसूः (स्त्री०) पुत्रियों को जन्म देने वाली ।
स्त्रीप्रिय (पुं०) आम्र तरु
स्वीभावः (पुं०) स्त्रीलिंग (जयो० ) स्त्रीपर्याय (वीरो०
२२/३३)
स्त्रीमात्रसृष्टिः (पुं०) सम्पूर्ण स्त्रियों की सृष्टि । (जयो० ११ / ८४) स्त्रीभोगः (पुं०) संभोग | स्त्रीमन्त्र: (पुं०) स्त्री कौशल ।
१२१३
स्त्रीमुतपः (पुं०) अशोक वृक्ष।
स्त्रीयन्त्रम् (नपुं०) कर्तव्य परायण स्त्री, अधिक कार्य करने वाली स्त्री ।
स्वीरञ्जनम् (नपुं०) पान, ताम्बूल
स्त्रीरत्नम् (नपुं०) रमणी मणि, उत्तम स्त्री । (जयो०वृ० ३/६३) स्वीराज्यम् (नपुं०) महिलाओं द्वारा शासित प्रदेश स्त्रीरूप: (पुं०) महिला स्वरूप (मुनि० ९) नारी सौंदर्य । स्त्रीलिङ्गम् (नपुं०) स्त्रीलिंग की विशेषता । ० स्त्रीयोनि । स्त्रीवश: (पुं०) नारी की आधीनता । स्त्रीविधेय (वि०) पत्नी द्वारा शासित |
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स्त्रीवेदः (पुं०) स्त्री के साथ विवाह । स्त्री के साथ परिणय । स्त्रीभङ्गभाव: (पुं०) स्त्री के प्रति कामभाव। (जयो०वृ०२/१०८) स्त्रीसंसर्ग: (पुं०) नारी संगति ।
स्त्रीसंस्थान (वि०) स्त्री की आकृति वाला।
स्त्री सम्बन्धः (पुं०) नारी से सम्बन्ध । दाम्पत्य जीवन, विवाह । परिणय |
स्थपतिः
स्त्रीस्वभाव: (पुं०) नारी की प्रकृति ।
स्त्रीहरणम् (नपुं०) नारी अपहरण |
स्वैण (वि० ) [ स्त्रिया इदम् नञ्] मादा, स्त्रीवाचक | स्थ (वि०) खड़ा होने वाला, ठहरने वाला। स्वकरणम् (नपुं०) सुपारी
स्थग् (सक०) ढांपना, छिपाना, गुप्त रखना । स्थग (वि०) (स्थग्+अच्) परित्यक्त, निर्लज्ज स्थगनम् (नपुं०) रद्द, छिपाना, गुप्त रखना। स्थगरम् (नपुं०) सुपारी।
स्थगिका ( स्त्री०) ( स्थग्ण्वुल्+टाप्] वेश्या, पण्णभोगी। स्थगित ( वि० ) [ स्थग्+क्त] छिपा हुआ, गुप्त, प्रच्छन्न, ढका हुआ, समाप्त, रद्द हुआ।
+
स्थगी (स्त्री० ) [ स्थग्क ङीप् ] पानदान, मचला। स्थगुः (पुं०) [स्थग्+उन्] कूबड़, कुब्ज। स्थण्डिलम् (नपुं० ) [ स्थल- इलच् लुक् लस्य ड] बंजर भूमि।
• वास्तुकार, रथकार ।
• बढ़ई, विश्वकर्मा |
० सारथि
० मध्यस्तूप (जयो० १० / ९०) स्थण्डिलं प्रासुकंस्थानम् । स्थपति: (पुं०) प्रभु राजा, स्वामी।
बृहस्पति ।
• अन्त: पुर रक्षक |
०
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स्थपुट
१२१४
स्थानम्
स्थपुट (वि०) सघन। (जयो० २३/१३) विपन्न, संकटग्रस्त। | स्थविरः (पुं०) वृद्ध, बूढ़ा। स्थल (अक०) स्थिर रहना, दृढ़ होना।।
० भिक्षुक। स्थविरो वृद्धः (जयो० १२/९) स्थविरो जरस! स्थलम् (नपुं०) [स्थल+अच्] भूमि, भूभाग। (सम्य० १०५) वृद्धशरीरः। बालोऽस्तु कश्चित्स्थविरोऽथवा। (सुद० १२१)
० स्थान, जगह (सुद० ७८) खेल, भूखण्ड। तदा प्रत्युत्तरं | स्थविरकल्पः (पुं०) निर्ग्रन्थ, महाव्रती होना। दातुं मृदङ्ग वचसः स्थले (सुद० ७८)
स्थविरत्व (वि०) वृद्धापना, बुढ़ापा। (दयो० १००) ० समूह, समुच्चय। (सुद०७२)
स्थविरा (स्त्री०) भिक्षुणी। ० गुणस्थान। (सम्य० १३२) 'स्थलं स्यामनर्घतायाः।'
___० बूढी स्त्री। ० प्रस्ताव, प्रसंग, विचारणीय वार्ता।
स्थविष्ठ (वि०) [अतिशयेन स्थूल: स्थूल इष्ठन् लस्य लोपः] स्थलकमलम् (नपुं०) पृथ्वी कमल, गुलाब।
हस्ट-पुष्ट, सबसे अधिक विस्तृत। स्थलगत (वि०) भू को प्राप्त।
स्थवीयस् (वि०) [स्थूल+ईयसुन्] बृहद्, सबसे बड़ा। स्थलचर (वि०) भूचर, चतुष्पादप पशु। वृक-व्याघ्रादयः
स्था (अक०) खड़ा होना, ठहरना, स्थित होना। (वीरो०२/३) स्थलचरा। (धव० १३/३९१) भूमि पर चलने वाले जीव
तिष्ठति। जन्तु।
० बैठना। (जयो० २।८३) स्थलच्युत (वि०) स्थानापन्न, स्थान से पतित, पदच्युत।
० रहना, बसना, रुकना। (समु० ३/२५) स्थलदेवता (स्त्री०) ग्राम्यदेवी।
० विद्यमान होना, अनुरूप होना। स्थलपद्मम् (नपुं०) गुलाब। (जयो०वृ० ३/७५)
० आश्रित होना, निर्भर होना। स्थलपद्मभर (वि०) भू के पद्मों से परिपूर्ण।
० निवास करना, टिकना। स्थलपद्यानां भराः समूह। (जयो० १३/६२)
० आ पड़ना, सचेत होना। त्यक्त्वा गृहमतः सान्द्रे स्थीयते स्थलपद्मिनी (स्त्री०) भू कमलिनी।
महात्मना (वीरो० १०/२०) ० लक्ष्मी।
स्थाणु (वि०) [स्था+नु] ढूंठ, खंभा, खूटा। (मुनि० २७) स्थलपयोजनवशं (नपुं०) धूल, रज। (वीरो०६/३४)
(भक्ति० १५) स्थलमार्गः (पुं०) सड़क, राजपथा स्थलवर्मन् (नपुं०) राजपथ, भूमार्ग, सड़क, पक्का रास्ता।
० अचल, गतिहीन, स्थिर। स्थलशुद्धि (स्त्री०) भू शुद्धि, भूपरिशोधन।
स्थाणुभ्रमः (पुं०) ढूंठ समझना, खंभे का भ्रम होना। स्थला (स्त्री०) [स्थल+टाप्] सूखा भू भाग।
स्थाणुवत् (वि०) स्थाणु की तरह (समु० ९/२२) स्थलान्त (वि०) स्थान तक। (सम्य० १३०)
स्थाण्डिलः (पुं०) भूखण्ड पर शयन करने वाला भिक्षु। स्थलिनी (वि०) स्थलवाली, भू वाली। (जयो० १३/६१) स्थातुम् (स्था+तुमुन्) ० बैठने के लिए। (जयो० २/८३) स्थली (स्त्री०) [स्थल+ङीप्] सूखा भूखण्ड।
० बसने के लिए (समु० ३/२५) ० नंगी-भू (जयो०वृ० ३/५५) भूमि (जयोवृ० २६/१७)
स्थानम् (नपुं०) [स्था+ल्युट्] रहना, खड़ा होना, ठहरना। स्थलीयम् (नपुं०) अवनि, भूमि। (जयो०वृ० २६/१७)
० स्थल, घर, निवास, जगह। स्थलीयमवनिः सैव शक्फली वा सम्भली वा विलासिनी। ० भूमि, भूभाग, संस्थिति, व्रज। (जयो०वृ० २६/१७)
० संस्थान, स्थिति, अवस्था, अवगाहन। स्थलेशय (वि०) [स्थले शेते-शी-अच्] भू भाग पर सोने ० देश, क्षेत्र।
० पद, दर्जा, प्रतिष्ठा। स्थलेशयः (पुं०) जानवर, स्थल या जल से सम्बंधित जानवर। • अवसर, कारण, प्रसंग। स्थविः (पुं०) [स्था+क्वि] जुलाहा, तन्तुवाय।
० उच्चारण स्थान। ० स्वर्ग।
० उचित पदार्थ स्थविर (वि०) [स्था+किरच स्थावादेशः] कठोर, दृढ़, स्थिर, ० प्रांगण, क्षेत्र। पक्का ।
० मुख्य भाग।
वाला।
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स्थानकम्
१२१५
स्थावरः
स्थानकम् (नपु०) प्रांगण, क्षेत्र, ठहरने का एकान्त भाग।
० अवस्था, स्थिति। ० उपाश्रय, स्वाध्याय शाला। ० शहर, नगर।
जैन संतों के ठहरने एवं उपासना करने के केन्द्र। स्थानक्रिया (स्त्री०) कायोत्सर्ग की स्थिति। स्थानचिन्तकः (पुं०) स्थान/शिविर के लिए चिंतन। स्थानच्युतः (पुं०) पदभ्रष्ट। स्थानपालः (पुं०) आरक्षी, रखवाला, पहरेदार। स्थानभूषणः (पुं०) स्वानुकूलपति। स्थानमेव स्वानुकूलपत्यादिरेव
भूषणमलङ्कारो यस्याः सा। (जयो० ३/६५) स्थानभ्रष्ट (वि०) विस्थापित, पद से हटाया गया, पदच्युत। स्थानमाहात्म्य (वि०) किसी स्थान का महत्त्व। स्थानयोगः (पुं०) उपयुक्त पद का योग। स्थानाङ्गम् (नपुं०) द्वादश अंग ग्रन्थों में तृतीय सूत्र। स्थानान्तरः (पुं०) अन्य स्थान। (जयो० ६/२६)० बाहर।
(दयो० ६४) स्थानारोहणम् (नपुं०) पद प्रदान, पद स्थापन। (जयो०१०
११/३) स्थानिक (वि०) [स्थान ठक्] किसी स्थान से सम्बंध रखने
वाला। स्थानिन् (वि०) [स्थानमस्यास्ति रक्ष्यत्वेन इनि] स्थान वाला
स्थैर्य सम्पन्न, स्थायी, अभिहित। ० कायोत्सर्ग जिस स्थान में हो। स्थानं उर्ध्वकायोत्सर्गः
तद्विद्यते येषां ते स्थानिनः। (योग०भ०टी० २०२) स्थानीय (वि०) उपयुक्त स्थान वाला, स्थान से सम्बंधित। स्थाने (अव्य०) उपयुक्त स्थान पर, सही ढंग से, सचमुच,
समुचित रीति से। स्थापक (वि०) [स्थापयति-स्था+णिच्+ण्वुल्] स्थापित करने
वाला, जमाने वाला, खड़ा करने वाला, वश में करने
वाला। (जयो०७/२२) स्थापकः (पुं०) निदेशक, रंगमंच प्रबंधक। स्थापत्यः (पुं०) [स्थपति+ष्यञ्] अन्त:पुर का रक्षक। स्थापत्यम् (नपुं०) भवननिर्माण की कला, वास्तु विद्या। स्थापनम् (नपुं०) [स्था+णिच्+ ल्युट्] ० स्थापित करना,
रखना, जमाना, लगवाना। (सुद० १/१९) ० ध्यान, धारण। 'सत्रपास्थापनबांछितानि' (वीरो० २/१९)
० निवास, आवास। स्थापन-स्थापनम् (नपुं०) गुणों की स्थापना।
स्थापना (स्त्री०) [स्था+णिच्+युच्+टाप्] ० अध्योराप, कल्पना।
० निक्षेप, नामकरण, द्रव्यनामकरण। ० अभिधान, प्रतिष्ठा स्थान। ० व्यवस्था, विनियमन। ० खड़ा करने की क्रिया।
० रंगमंच प्रबन्ध। स्थापय् (अक०) सन्निधान करना, रखना, आरोप करना।
(जयो०वृ० २/३१) स्थापित (भू०क०कृ०) [स्था णिच्+क्त] निदेशित, विनियमित,
अवस्थिता ० अंकित। (सुद० ८५) ० निविष्ट, निर्धारित।
० दृढ़, स्थिर, उठाया हुआ, खड़ा किया गया। स्थाप्य (वि०) [स्था+णिच्+ण्यत्] रखे जाने योग्य, जमा
किये जाने योग्य।
० अंकित करने योग्य, स्थिर करने योग्य। स्थामन् (नपुं०) [स्था+मनिन्] शक्ति, सामर्थ्य, स्थैर्य। स्थायिन् (वि.) [स्था+णिनि युक] स्थित रहने वाला, टिका
रहने वाला।
० स्थिर, दृढ़, पक्का , मजबूत, अचल। स्थायुक (वि.) [स्था+उकञ् युक] ठहरने वाला, स्थिर रहने
वाला।
० दृढ़, स्थिर, अचल। स्थालम् (नपुं०) [स्खलति तिष्ठति अन्नाद्यत्र आधारे घन]
० थाल, थाली, तस्तरी। ० बर्तन। स्थाली (स्त्री०) [स्थाल+ङीष] थाली, कलश, कारक आदि।
(जयोवृ० २४/७२) ० बटलोई। (दयो० ९३) कड़ाही।
० पाक करने का पात्र। स्थालीपुलाकः (पुं०) पकाया हुआ चांवल, पुलाव। स्थालीविलम् (नपुं०) पाक पात्र का भीतरी भाग। स्थावर (वि०) [स्था+वरच्] ० अचल, स्थिर, अचिर, दृढ़, जड़।
० नियमित, स्थापित। स्थावरः (पुं०) पर्वत, पहाड़, पृथ्वी आदि। स्थिर रहने वाले
पृथिवी आदि एकेन्द्रिय प्राणी। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु
और वनस्पति-'पृथिव्यप्तेजो वायुवनस्पतयः स्थावराः' (त०सू० २/१३) जो तिष्ठन्ति-ठहरे हुए हों (त०सू० २/१२)
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स्थावर नामकर्म:
०
० शाण्डिल्य ब्राह्मण और पाराशरिका नामक ब्राह्मणी का पुत्र स्थावर, जो पूर्वजन्म में महावीर की एक पर्याय का जीव था। जो राजगृह नगर में देवयोनी से च्युत होकर विश्वनन्दी ब्राह्मणी का पुत्र भी हुआ। (वीरो० ११ / १०, ११) स्थावर नामकर्म: (पुं०) एकेन्द्रिय का प्रादुर्भाव । स्थावरप्रतिमा ( स्त्री०) व्यवहार से पत्थर आदि की प्रतिमा को भगवान् मानना।
स्थाविर (वि०) दुढ़, शक्तिसम्पन्न, मोटा । स्थासकः (पुं०) [स्था+स+स्वार्थादौ क] सुगन्धित लेप करना, विलेपन करना।
स्थासु (नपुं० ) [ स्था+सु] दैहिक शक्ति |
स्वास्नु (वि०) (स्थास्नु] स्थिर, दृढ, शक्तिशाली।
स्थायी, नित्य ।
स्थित (भू०क०कु० ) ( स्था+क्त] खड़ा हुआ, ठहरा हुआ। पारावार इव स्थितः पुनरहो शून्ये श्मशाने तया । ( सुद०९८) ० अवस्थित (सुद० ३ / १२) गिरमर्थयुतामिव स्थितां ससुतां संस्कुरुते स्मं तां हिताम् । ( सुद० ३ / १२)
• ध्यानस्थ (सुद० ४/२३) मुनि हिमत द्रुममूल देशं स्थितं • रुका हुआ, दृढ़ता युक्त खड़ा हुआ।
निर्धारित अवधारण किए हुए अवधूतमात्र
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० सहमत, व्यस्त, निकटस्था
स्थितकल्प: (पुं० ) ० आचेलक्य आदि दश कल्पों / स्थानों में स्थित होने वाला साधु । ० ध्यानस्थ श्रमण | स्थितिः (स्त्री० ) [ स्था+क्तिन्] ० परिपालन (सुद० ९७)
परिस्थिति, दशा, अवस्था ।
० रहना, टिकना, खड़े होना । अघभूराष्ट्र- कण्टकोऽयं खलु विपदे स्थितिरस्याभिमता (सुद० १०५)
० अवस्था। (जयो० २/४७)
० पावन स्थान, स्थिर होना।
• यति, विराम, विरति ।
०
अध्यादेश, आज्ञप्ति निश्चित समय निर्धारण। ० अवस्थान, निष्ठापन। (जयो० ३/४७) स्तोत्रस्य स्थितिर्निष्ठापनम् । देवागमस्थिति, देवस्यागमनं देवागमस्तस्य स्थितिरवस्थानम् (जयो०वृ० ३/६७)
प्राकृति, स्वभाव- किं तेभ्यो वपुषा नास्ति भवतः सम्बंध एषा स्थितिः (मुनि० १७ )
• स्वरूप | ( सुद० ११७) ० निज भाव, आत्मभाव। ० सत्त्व (जयो०वृ० १/ २२४ ) वस्तु रहस्य |
०
१२१६
० कालपरिच्छेद।
० कालावस्थान । कालकृत व्यवस्था ।
० सत्ता (जयो० १/४२) ० पदार्थ की अवस्था । ० परिणाम ।
● अपने मार्ग में स्थित रहना। स्थितिकरणं (नपुं०) अस्थिर को स्थिर करना, दृढीकरण, सुमार्ग में संलग्न करना। (जयो०वृ० १८/४५)
• सम्यग्दर्शन से आठ अंगों में से एक अंग स्थितिकरण अंग ।
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स्थितिक्षयः (पुं०) काल क्षय ।
स्थितिबन्धः (पुं०) जो बांधा जाए, जिन परिणामों से स्थिति बंधती है। जो कर्म बांधा गया वह जब तक अपने कर्मपने को न छोड़े वही स्थितिबन्ध है। (त०सू० ८/३) स्थितिभोजनम् (नपुं० ) शुद्धस्थान पर स्थित होकर भोजन लेना। स्थितिविधिः (स्त्री० ) निर्वाह विधि, स्थितिकारीमार्ग ।
स्थितेर्निर्वाहस्य विधियंत्र (जयो०० २/९१)
स्थिर (वि०) [स्था+किरच्] ० दृढ़ शक्तिशाली, धैर्य युक्त। ० अचल, शान्त, प्रसन्न मे त्वं मनसि स्थिरा स्याः । (जयो०वृ० १९ / ३६)
० सचेत, सजग, निश्चल। (जयो० ११/७) (जयो०१/५) ० कठोर (जयो०वृ० १/५) ० सुस्थ, सुस्त ( भक्ति०३२) ० धीर, गम्भीर ।
स्थिरत्व (वि० ) योग स्थान का दृढ़ पालक । स्थिरा (स्त्री०) पृथ्वी, भू, भूमि ।
स्थिराशय: (पुं०) निश्चलपाति, अभिप्राय । (जयो० १३/५९) स्थूलम् (नपुं० ) [स्थुड्+अच्] लम्बा तम्बु, डेरा |
स्थूणा ( स्त्री०) स्तम्भ, खंभा, दण्ड । (जयो० १/२५) ० धन, लौह प्रतिमा।
स्थूणाकृतिः (स्त्री०) दण्डाकृति, शुण्ड, हस्ति शुण्ड । (जयो०वृ०
१/२५)
स्थूम (पुं०) प्रभा, कान्ति, प्रकाश ।
० चन्द्रमा शशि ।
स्थूर : (पुं० ) [ स्था+अरन्] सांड ।
०
स्थूल
● मनुष्या
स्थूल (वि०) [ स्थूल+अच्] मोटा, मांसल, पुष्टतर। (जयो०वृ० ४ / ६० ) ० प्रगाढ़ ।
विस्तृत, बड़ा, बृहत्, विशाल ।
बेडौल, भहा।
सम्पूर्ण साधारण ।
०
०
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स्थूलकाय
१२१७
स्नातकत्व
स्थलकाय (वि०) मोटी, मांसल, पुष्ट शरीर वाला। स्थूलक्षेड:/क्ष्वेडः (पुं०) बाण। स्थूलचापः (पुं०) धनुकी। स्थूलतनु (नपुं०) मोटा शरीर। (मुनि० ) स्थूलता/स्थूलत्व (वि०) भारीपन, विशालता, मुटापा। स्थूलतालः (पुं०) हिंताल। स्थूलधी (स्त्री०) मूर्ख, मूढ, बुद्ध। स्थूलनालः (पुं०) सरकंडा। स्थूलनास/स्थूलनासिका (वि०) मोटी नाक वाला। स्थूलपटम् (नपुं०) मोटा कपड़ा। स्थूलपट्टः (पुं०) कपास। स्थूलपाद (वि०) मोटे पैर वाला, सूजे हुए पैरों वाला। स्थूलपादः (पुं०) श्लीपद नामक रोग, पैरों में मुटापा नामक
रोग। ० हस्तिपद की तरह पैर होना। स्थूलफलः (पुं०) सेमल, शाल्मली। स्थूलभद्रः (पुं०) एक जैनाचार्य। (वीरो० २२/३) स्थूलभागः (पुं०) मोटा भाग। (जयो०वृ० ११/२०) स्थूलमति (वि०) बुद्ध, मूढ, मूर्ख। स्थूलमानम् (नपुं०) बड़ा हिसाब। ० विस्तृत प्रमाण।
० सम्पूर्ण हिस्सा। स्थूललक्ष (वि०) दानशील, उदार। स्थूलक्ष्य (वि०) लाभ-हानि ध्यान रखने वाला। स्थूलशङ्का (स्त्री०) बड़ी सी आशंका। स्थूलशरीरम् (नपुं०) नश्वर शरीर। स्थूल शाटकः (पुं०) मोटा कपड़ा। स्थूलशीर्षिका (स्त्री०) छुद्र पिपीलिका। स्थूलषट्पादः (पुं०) ० भ्रमर, भौंरा। स्थूलस्कन्धः (पुं०) लडुच वृक्ष, बड़हल तरु। स्थूलस्तम् (नपुं०) हस्ति शुण्ड। स्थूलान्त्रम् (नपुं०) बड़ी आंत। स्थूलास्यः (पुं०) सर्प, सांप। स्थूलिन् (पुं०) [स्थूल+इनि] ऊंट, उष्ट्र। स्थेय (वि०) [स्था+यत्] निर्धारित करने योग्य, रक्खे जाने
योग्या स्थेयः (पुं०) पंच, निर्णायक। स्थेयस् (वि०) दृढ़तर। स्थेष्ठ (वि०) [स्थिर+इष्ठन्] अत्यन्त दृढ़, बलवान्। स्थैर्यम् (नपुं०) [स्थिर+ष्यञ्] स्थिरता, दृढ़ता, अचलता।
निश्चलता, निरन्तरता। ० संकल्प, स्थायित्व।
० सहनशीलता, ठोसपना। स्थौणेयः (पुं०) एक गन्ध द्रव्य। स्थौरमः (नपुं०) [स्थूर+अण्] शक्ति, बल, दृढ़ता, सामर्थ्य। स्थौरिन् (नपुं०) [स्थौर+इनि] टैटू, बोझा ढोने वाला घोड़ा। स्थौल्य (वि०) विशालता, हृष्ट पुष्टता। स्थौल्यः (पुं०) उत्तरप्रान्त। (वीरो० २२/३) स्वपनम् (नपुं०) [स्ना+णिच्+ल्युट्]
० स्नान करना, नहाना, ढुबकी लगाना। ० छिड़कना, सिंचन करना।
० अभिषेक, अभिसिंचन। (मुनि० २८) स्नपनभावः (पुं०) अभिषेक। (जयो० ९/५४) स्नपित (वि०) अभिसिंचित, अभिषेक युक्त। (सुद०३/१४) स्नपनाः (पुं०) स्नान से गीला। (जयो० १४/९३) स्नपयति-स्नान करना। (जयो० २४/६०) स्नवः (पुं०) [स्नु+अप्] टपकना, गिरना, रिसना, झरना। स्नस् (अक०) बसना, ठहरना, रहना। स्ना (अक०) नहाना, स्नान करना। (भक्ति० ५)
श्रीपतिं जिनमिवार्चितुं पुरा स्नान्ति दिव्यतनरोऽपि ते सुराः। (जयो० २/४०)
० नहलाना, गीला करना, तर करना। स्नातक (वि०) कृत स्नान वाला, जल में डुबकी लगाने वाला।
(जयो०७० २८/२०) स्नातकः (पुं०) [स्ना+क्त+क] सम्पूर्ण घातिया कर्म को नाश
करके केवल ज्ञान को प्राप्त होने वाला मुनि। (तसू० ९/४५) प्रक्षीणप्पातिकर्माणः केवलिनो द्विविधाः स्नातकाः। (स०सि० ९/४८) ० अर्हत्। (जयो०वृ० २८/२०) ० सुसंस्कृत (जयो०वृ० २४/६०)
० अनुष्ठेय विधि को समाप्त करने वाला ब्रह्मचारी। स्नातकता (वि०) स्नातक दशा।
मनोरथा रूढतयाऽथवेत:
केनान्वितः स्नातकतामुपेतः। (वीरो० १२/३९) स्नातकत्व (वि०) ० कृत स्नान वाला। (जयो०१० २८/२०)
० अर्हतत्त्व को प्राप्त होने वाला। (जयो०० २८/२०) ० स्नातक पना। स्वान्तं हि क्षालयामास,
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स्नातकमन्त्रम्
स्नातकत्वे समुत्सुकः। पौद्गलिकस्य देहस्य,
धावन प्रोञ्छनातिगः ।। (समु० ९ / १७ )
स्नातकमन्त्रम् (नपुं०) सुसंस्कृत मन्त्र ।
• अर्हतमन्त्र। (जयो०वृ० २४ / ६० ) स्नात्वा (सं०कृ० ) [ स्नाक्त्वा ] स्नान करके। (भक्ति०) ० अभिषेक करके ।
स्नानम् (नपुं० [स्ना भावे ल्युट् ] ० स्नान, प्रमार्जन, प्रक्षालन । अभिषेक, अभिसिंचन ।
०
० मार्जन, सुसंस्कारित करना।
स्नानजलम् (नपुं०) अभिषेक जल (जयो०वृ०२/२८ ) स्नानजलं सतां शिरोमस्तकं
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पुनाति पवित्रीकरोतीत्यर्थः । (जयो०वृ० २ / २८) स्नानद्रोणी (स्त्री०) नहाने का बड़ा पात्र । स्नानत्याग: (पुं०) स्नान का त्याग। जैन मुनियों के मूल गुणों में स्नान त्याग नामक गुण भी है। स्नानं ज्ञानसरोवरे यतिपते र्वासांसि सर्वादिशः । ( मुनि० २० ) स्नानद्रव्यं (नपुं०) अभिसिंचन की सामग्री । स्नानपात्रम् (नपुं०) नहाने का पात्र । स्नानभावः (पुं०) अभिषेक भाव।
स्नानमकुर्वन् यावत् पुरा निपातयोर्लट् इति भूते लट् । (जयो०वृ० २/४० )
स्नानविधिः (स्त्री०) अभिसिंचन क्रिया, स्नानक्रिया, अभिषेक विधि, स्नाननियम ।
स्नानीय (वि०) प्रमार्जन योग्य, स्नान के योग्य । स्नापक: (पुं० ) [ स्ना + णिच् + ण्वुल् युक् ] स्नान कराने वाला भृत्य, ० अभिसिंचन शील मृत्य
स्नापनम् (नपुं० ) [ स्ना+णिच् + ल्युट् +पुक् ] स्नान कराना, अभिसिंचन कराना।
स्नायुः (स्त्री०) नस, मांसपेशी।
स्नाव: (पुं०) कंडरा, मांसपेशी, नस।
स्निग्ध (वि०) [स्निह् +क्त] ० चिकना, मसृण, तैलीय, तैलयुक्त,
चुपड़ा हुआ। 'स्निह्यते स्मेति स्निग्धः '
०
०
।
प्रिय, स्नेही, अनुरक्त, प्रेमी
गीला, तर
० शान्त ।
• कृपालु, मृदु, सौम्य, मिलनसार ।
१२१८
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0
मोहक, रुचिकर, कोमल (जयो० ११ / ९) ० कान्ति
स्निग्धः (पुं०) मित्र, हितैषी व्यक्ति ।
० चमक, आभा, प्रकाश । स्निग्धम् (नपुं०) तैल, ० मोम |
स्निग्धता (वि०) (स्निग्ध+तल+टाप् त्व वा] चिकनापन, सौम्यता, सुकुमारता ।
०
० स्नेह, प्रेम ।
स्निग्धत्व (वि०) चिकनापन |
"
स्निग्धच्छाया ( स्त्री०) पनी छाया कान्ति युक्त छाया (जयो० ३ / ११३)
स्निग्धतनु ( नपुं०) श्लक्ष्णशरीर, चिकना शरीर, आभा युक्त देह (जयो० १३/८)
0
स्नेह पूर्वम्
वृद्धि गत शरीर । ( सुद० २/४३)
स्निग्धा (स्त्री० ) [ स्निग्ध+टाप्] मज्जा, बसा । स्निग्धाङ्गी (स्त्री०) स्नेह भूमि (जयो० १५/८८) स्निह् (अक० ) स्नेह करना, प्रेम करना, अनुरक्त होना, प्रिय होना। दिनहोत वत्सं प्रति धेनुतुल्यां (सम्य० ९६ ) ० चिपचिपाना।
० सौम्य होना ।
स्नु (अक० ) टपकना, रिसना, झरना ।
० बहना, स्त्रवित होना, बूंद बूंद गिरना ।
,
स्नु (पुं०) (नपुं०) (स्ना+कु] भूखण्ड पर्वत श्रृंखला, सतह स्नु (स्त्री०) स्नायु कण्डरा, मांसपेशी । । स्नुषा ( स्त्री० ) [ स्नु+ सक्+टाप्] पुत्रवधू । स्नुह (अक० ) उलटी करना, कै करना।
स्नेहः (पुं० ) [ स्निह्+घञ्] प्रेम, अनुराग, आसक्ति, प्रीति । प्रेमभाव। (जयो० ३/४२)
० तैल। (जयो० ६ / १३१)
०
• चर्बी, नमी
स्नेहछेदः (पुं०) प्रेम विच्छेद ।
स्नेहच्युतः (पुं०) वात्सल्य का अभाव ।
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स्नेहदोष: (पुं०) समाधिकरण के समय का दोष । स्नेहनं (नपुं०) तैल स्नेहनमुत्तरितमवतार्य ।
त्रिवर्गवर्त्मनि गत्वोद्धार्यम् (जयो० १२ / १०८ ) स्नेह्नकर्मन् (नपुं०) प्रेमोत्पादन, स्निग्धत्वार्थ। (जयो० १६ / २३) स्नेह पूर्वम् (अव्य०) अनुराग पूर्वक ।
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स्नेह प्रत्ययः
स्नेह प्रत्यय: (पुं०) प्रेम का कारण । स्नेह प्रवृत्तिः (स्त्री०) प्रेम भाव, स्नेहभाव।
स्नेहप्रिय (वि०) अत्यधिक प्रिय ।
स्नेहबन्धनं (नपुं०) प्रेम प्रवाह । (जयो० १ / ७१)
स्नेहभाव (पुं०) आसक्ति परिणाम |
स्नेहामात्मन् (पुं०) स्नेहभाव, आत्मीय भाव। (सुद० १३५) स्नेहरङ्गः (पुं०) तिल |
स्नेहराग: (पुं०) पुत्रादि के प्रतिराग
वाला। (दयो० ९८ )
स्नेहव्यक्ति (वि०) स्नेह, प्रेमी
स्नेहरुद्र: (पुं०) स्नेहासक्ति । (वीरो० २२/२)
स्नेहवत् (वि०) वात्सल्य की तरह (जयो० १२/११९) स्नेहवर्तिका ( स्त्री०) वत्ती । स्नेहस्तैलं यत्र सा सुस्नेहा चासौ दशा वर्तिका । (जयो०वृ० ६ / १३१)
स्नेहविमर्दित (वि०) तैल चुपड़ने वाला प्रेम के भण्डार ।
स्नेहसन्निधानी (वि० ) ० प्रेम रखने वाला |
० प्रेम के भण्डार वाला (दयो० ९८)
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०
स्नेहित (भू०क० कृ० ) [ स्निह् + णिच्+क्त] • कृपालु, स्नेही, प्रिय । स्नेहिन् (वि० ) [ हिन्+ णिनि] अनुरक्त, स्नेह युक्त। स्नेहिन् (पुं०) चित्रकार लेप करने वाला। स्नेहः (पुं० ) [ स्निह् + उन्] शशि, चन्द्र। स्नै (अक० ) बांधना, लपेटना, परिवेष्टित करना। स्नैग्ध्य (वि० ) [ स्निग्ध+ ष्यञ् ] चिकनाहट, स्निग्धता । • सुकुमारता, प्रियता ।
स्पन्द् (अक० ) धड़कना, हिलना, कांपना, ठिठुरना। ० कंपकंपी, थरथराहट, गति।
स्पन्दनम् (नपुं० ) [ स्पन्द् + ल्युट् ] कांपना।
स्पन्दित (भू०क०कु० ) [ स्पन्द+क्त] कंपित, कप कपाया हुआ, ठिठुरा हुआ।
स्पर्द्धन (वि०) ईर्ष्याकरण । (जयो० १४/१३) स्पर्द्धाकारिन् (पुं०) प्रतिशत्रु, प्रतिपक्षी । (जयो०वृ० १६ / ३३ ) स्पर्द्धित (वि०) स्पर्धायुक्त । (जयो० २० / ७२) स्पर्थ (अक० ) स्पृहा करना, बराबरी करना, होड़ लगाना। ● प्रतियोगिता करना । ललकारना, उपेक्षा करना। स्पर्धन् (वि०) ईर्ष्याकरण, बराबरी करना। (वीरो० ३ / २६ ) स्पर्धा ( स्त्री० ) [ स्पर्ध- अङ्+टाप्] बराबरी, आपसी टक्कर। • प्रतियोगिता, होड़।
o
१२१९
चुनौती सामना |
ईर्ष्या, कुह ।
स्पष्टभेदः
हो
स्पर्धिन् (वि० ) [ स्पर्धा + इनि] प्रतिद्वन्द्विता करने वाला, करने वाला ।
० समानता करने वाला।
० सामना करने वाला।
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स्पर्धिन् (पुं०) प्रतियोगी ।
स्पर्श (अक० ) मिलना, लेना, संयुक्त होना।
० आलिंगन करना ।
स्पर्श: (पुं०) छूना, संपर्क करना ।
० आलिंगन, संयोग, सघर्ष
स्पर्शक (वि०) छूने वाला, स्पर्श करने वाला। (दयो० ३७) स्पर्शन (वि०) छूने वाला, हाथ लगाने वाला। स्पर्शनम् (नपुं० ) ०छूना, ०स्पर्श करना, ०संपर्क, ० संयोग ।
आत्मना स्पृश्यतेऽनेनेति स्पर्शनम् स्पृशतीति स्पर्शनम् । • स्पर्शन इन्द्रिय, स्पर्शजन्य ज्ञान । ( सुद० १२७ )
एकेन्द्रिय स्पर्शन इन्द्रिय ।
О
स्पर्शनकम् (नपुं०) त्वचा शरीर
।
स्पर्शवत् (वि० ) [ स्पर्श मतुप् ] स्पर्श किये जाने योग्य। स्पर्शनक्रिया (स्त्री०) चेतन अचेतन पदार्थ के स्पर्श का
चिंतन।
स्पशु (सक०) अवरुद्ध करना, रोकना।
० सम्पन्न करना।
० छूना ।
देखना, निहारना, भांपना, भेद करना । स्पश: (पुं० ) [ स्पश्+अच्] गुप्तचर । • युद्ध, संग्राम।
स्पष्ट (वि० ) [ स्पश्+क्त] साफ साफ, सरल, (सुद० १२५ )
o
स्वच्छ ।
स्पष्टम् (अव्य०) स्पष्ट रूप से, साहस पूर्वक स्पष्टं सुधासिक्त (सुद०२/१९)
स्पष्टगर्भा (वि०) गर्भ के चिह्न युक्त
स्पष्टता (वि०) वास्तविकता, सत्यार्थता (सुद० ९) (सम्य० १४२)
स्पष्टनिवेदनम् (नपुं०) असंदिग्ध कथन (जयो० २ / १३७) स्पष्टपरिभाषणं (नपुं०) स्पष्ट कथन, गर्जन (जयो०वृ० १२/४७)
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स्पष्टप्रतिपत्तिः (स्त्री०) स्पष्ट प्रतीति, वास्तविक ज्ञान । स्पष्टभाषिन् (वि०) साफ-साफ कहने वाला। स्पष्टभेदः (पुं०) यथार्थभेद । (वीरो० १६ / २६)
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स्पष्टवक्ता
१२२०
स्फिट्
स्पष्टवक्ता (वि०) शास्ता। (जयो०वृ० १२/२५९) स्पष्टदशासनविद (वि.) यथार्थ शासन को जानने वाला। __(वीरो० २२/४) (जयो०वृ० २०/३०) स्पष्टाभ (वि०) स्पष्टाच्चार शोभित। (जयो० २/१४७) स्पष्टी (वि०) स्पष्ट होने वाला। (हित० १७) स्पृ (सक०) उद्धार करना, मुक्त करना।
० अनुदान देना, अंशदान देना।
० प्रदान करना, ० रक्षा करना। स्पृक्का (स्त्री०) [स्पृश्+कक्] एक जंगली पौधा। स्पृश् (अक०) छूना। ० थपथपाना।
० संपर्क करना, संयोग करना। (सुद० १/२१) ० प्रभावित करना, पसीजना। ० संकेत करना, उल्लेख करना।
० छुपाना। स्पृश् (वि०) छूने वाला, स्पर्शित करने वाला। स्पृष्ट (भू०क०कृ०) [स्पृश्+क्त] छुआ हुआ, स्पर्शित किया
हुआ। सम्पर्क में सोया हुआ। स्पृष्टिः (स्त्री०) छूना, संपर्क, स्पर्श। स्मृह् (अक०) कामना करना, इच्छा करना। चाहना। (जयो०
३/६४) स्पृहयति। स्पृहणम् (नपुं०) [स्पृह्+ल्युट्] इच्छा, कामना। स्पृहणीय (वि.) [स्पृह+अनीयर] मन को भाने वाली,
अभिलषणीय। (जयो० ६/७१) वांछनीय, चाहने योग्य।
० मनोहर। (जयो० १४/७) स्पृहणीयता (वि०) आदरणीयता। (दयो० ५५) स्पृहदयालु (वि.) [स्पृह-णिच्+आलुच्] उत्सुक, उत्कठित,
वाञ्छावती। (जयो०वृ० १०/७५) स्पृहा (स्त्री०) [स्पृह अच्+टाप्] ० इच्छा, वाञ्छा, चाह,
अभिलाषा।
• लालसा, कामना। स्पृह्य (वि.) [स्पृह णिच् यत्] वांछनीय, चाहने योग्य। स्प्रष् (सक०) आलिंगन करना। (जयो० ) स्फट् (अक०) फूलना, विकसित होना। स्फट: (पुं०) [स्फट्+अच्] सर्प का फैला हुआ फण/फणा।
(जयो० १३/४५) स्फटयः देखो ऊपर। स्फटयोत्कट (पुं०) उच्च फण। (जयो० १३/४६) स्फटा (स्त्री०) [स्फट्+टाप्] फिटकरी।
स्फटिकः (पुं०) [स्फटि+कै+क] बिलौर, कांचमणि।
(जयो० ९/८६)
० स्फटिक मणि। आच्छ पाषाण (जयो० १२/११६) स्फटिकाश्मः (पुं०) स्फटिक मणि। (वीरो० ७/९) स्फटिकारी (स्त्री०) फिटकरी। स्फटिकी देखो ऊपर। स्फटिकोचितः (पुं०) स्फटिक निर्मित। (जयो० १२/११६) स्फण्ट् (सक०) फूलना, विकसित होना।
० मजाक करना, हंसी उड़ाना। स्फरणम् (नपुं०) [स्फर+ल्युट्] कांपना, थरथराना, धड़कना। स्फल् (अक०) कांपना, थरथराना, धड़कना। फड़फड़ाना,
छपछपाना। स्फाटिक (वि०) [स्फटिक+अण] कांचमणि मय, बिल्लौरमय। स्फाटिकं (नपुं०) बिल्लौर पत्थर 'जिनालय स्फाटिक सौधदेशे'
(वीरो० २/३५) स्फाटित (भू०क०कृ०) [स्फट् णिच्+क्त] फाड़ा हुआ, फूला
हुआ, विकसित हुआ।
० विदीर्ण किया हुआ। स्फाति (स्त्री०) [स्फाय+क्तिन्] सूजन, शोथ।
० वृद्धि। स्फाय (अक०) मोटा होना, स्थूल होना। विस्तृत होना, फैलना।
० सूजना, बढ़ना। स्फार (वि०) [स्फाय्रक्] विस्तृत, दीर्ध, फैला हुआ, बढ़ा
हुआ। ० अधिक, पुष्कल। ० उच्च, ऊंचा। ० उभार, गिल्टी। ० फुटकी, पपड़ी। स्पन्दन, धड़कन।
० टंकार। स्फारम् (नपुं०) प्रचुरता, आधिक्य। स्फारणम् (नपुं०) [स्फुर+णिच् ल्युट] कंपन, थरथराना।
० स्फुरण। स्फाल् (सक०) खोलना, उद्घाटनय करना। (दयो० ९५) स्फाल: (पुं०) धड़कन, कंपन, थिरकन हिंडन। स्फालनम् (नपुं०) [स्फाल्+ल्युट्] स्पन्दन, धड़कन।
० घिसना, फाड़ना। ० सहलाना, थपथपाना।
० आश्वासन, हाथ फेरना। (जयो० २१/१९) स्फिचर (स्त्री०) [स्फाय+डिच्] चूतड़, कूल्हा। स्फिट् (अक०) चोट पहुंचाना, मार डालना। क्षति ग्रस्त
करना। ० ढकना।
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स्फिर
१२२१
स्फुरत्
स्फिर (वि०) [स्फाय्+किरच्] • बहुत, प्रबल, प्रचुर, प्रभूत। स्फुटरूपक (वि०) स्पष्ट अर्थ करने वाली। नासीत्प्रसिद्धिः ___० असंख्य, विस्तृत, आयत।
___स्फुटरूपकायाः। (वीरो० १८/५६) स्फीत (भूक०कृ०) [स्फाय्+क्त] ० प्रशस्त, मोटा, बहुत, स्फुटशाटी (स्त्री०) हरी साड़ी। (जयो० १३/५६) अधिक, (जयो० ४/५४)
स्फुटहंसजनः (पुं०) धार्मिक जन। ० प्रबल, प्रचुर, पर्याप्त।
० उत्तम हंस समूह० सफल, समृद्ध, ० पवित्र।
स्फुटेन हंसजनेन हंसानां पक्षिणां स्फीतचन्द्रवदनीय (वि०) प्रशस्त चन्द्र वदन वाली।
पक्षे धार्मिक परमहंसानां जनेन समूहेन। (जयो०१३/५८) ० चन्द्रमुख की तरह।
स्फुटि:/स्फुटी (स्त्री०) फट जाना। स्फीतः प्रशस्तश्चन्द्र एवं वदनं मुखं यस्याः सा। (जयो०वृ० स्फुटिका (स्त्री०) [स्फुटि+कन्+टाप्] टूटा हुआ, खण्डित, ४/५४)
खण्ड, अंश। स्फीत्कारः (पुं०) अङ्गस्फालन, अङ्गविक्षेप। (जयो०२७/१८) | स्फुटित (भू०क०कृ०) स्फुट्+क्त] फटा हुआ, टूटा हुआ। स्फीतिः (स्त्री०) [स्फाय+क्तिन्] स्फूर्ति। (जयो० ८/७९) (जयो० १/५०) स्फुटितकुम्भदेव धिगस्तु न:
० प्रक्रम, पराक्रम। ० समृद्धि। स्फूर्ति। (जयो० २३/४७) ० स्पष्ट किया हुआ। ० प्रसन्न, खुश। (सुद० ७८)
स्फुटितकुम्भदेवं (नपुं०) फूटा घड़ा। ० प्राचुर्य, यथेष्टता, पुष्कलता।
स्फुटितभावः (पुं०) फूट-फूट होना, बिखर पड़ना। (सुद०९५) स्फीतिधरी (वि०) स्फूर्तिदायक। (समु० ६/२०)
स्फुटीकृत (वि०) स्पष्ट किया हुआ। अपि स्फुटीकृत विश्वविधान। स्फीतिमण्डित (वि०) आनन्द मंडित। (सुद० ८६)
(सम्य० १५२) स्फुट (अक०) फट जाना, विदीर्ण होना। दरार पड़ना, भंग स्फुटीभावः (पुं०) स्पष्ट भाव। (जयो०१० ३/५९) होना, टूटना।
स्फुट्ट (अक०) तिरस्कार करना, अपमान करना, निरादर ० खिलना, विकसित होना। (वीरो० ६/३९)
करना। ० कुसुमित होना, फूलना।
स्फुड् (सक०) ढकना, आच्छादित करना। ० भाग जाना, छलांग लगाना, तितर-बितर करना। स्फुण्ट (सक०) खोलना, फुलाना। उपहास करना, हंसी उड़ाना। ० प्रकट होना। (जयो० )
स्फुण्ड् (सक०) ढकना। ० बतलाना, स्पष्ट करना। (जयो० ५/५१)
स्फुत् (अव्य०) एक अनुकरण परक ध्वनि। स्फुट (वि०) [स्फुट्+क] स्पष्ट। (जयो० ५/५१)
स्फुर् (अक०) थरथराना, कांपना, फटकना। • खिले हुए, विकसित, कुसुमित, प्रफुल्लित। (वीरो०६/३९) ० खसोटना, संघर्ष करना, विक्षुब्ध होना। ० चमकती हुई (जयो०५/९६) ० प्रकट (जयो० १२) ० उछलना, उद्गत होना। ० स्पष्टता-सम्यग्दृशो भाव चतुष्कमेतत् पर्येत्यमीस्फुटमस्य ० चमकना, दमकना, जगमगाना। (जयो० ११/८९, जयो० चेतः (सम्य० ७९)
३/७१) शोभित होना (सुद० १/१४) ० साफ, स्पष्ट, श्वेत, शुभ्र, उज्ज्वल। (सम्य० १२१) । ० फैलना, प्रसरित होना। • फैले हुए, प्रसारित, विकीर्ण। (जैपो० ३/७४) स्फुरः (पुं०) [स्फुट् भावे घञ्] धड़कना, चमकना, देदीप्यमान • प्रत्यक्ष-उत्तमपद-सम्प्राप्तिमितीदं स्फुटमेव प्रवदाम।
होना। (सुद०७०)
स्फुरकान्तिः (स्त्री०) देदीप्यमान् प्रभा। (जयो० ३/१०४) निरंतर-जीवन्ति नः स्फुटम्। (दयो० १/४)
स्फुरणम् (नपुं०) [स्फुर् ल्युट्] चमकना, दमकना, देदीप्यमान स्फुटत्व (वि०) सुस्पष्ट। (जयो० १/२४)
होना। झलकना। स्फुटदन्तरश्मिः (स्त्री०) चमकती हई दन्त किरणावली। ० धड़कना, हिलना, कांपना। (जयो० ५/९६)
स्फुरत् (वि०) छलकने वाला। ० धड़कने वाला। स्फूर्ति स्फुटदुकूलः (पुं०) शुभ्र दुपट्टा। (जयो० १३/५६)
(जयो०८/५)
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स्फुरित
स्फुरित (भू०क० कृ०) (स्फुर्+क्त] कपित, प्रकम्पित, हिलता
हुआ।
० चमकता हुआ ।
स्फुरद्यश: (पुं०) विकसित तारुण्यकीर्ति (जयो० १०/६१) स्फुरायमाण- सुशोभित होता हुआ। (सुद० १/१४) स्फुरदिष्टि ( स्त्री०) भाग्यसत्ता, भाग्यवान्। (जयो० २८/ ७) स्फुच्छ्रे (अक० ) फैलना, विस्मृत होना ।
० भूल जाना, विस्मृत होना।
स्फुर्ज् (अक० ) गरजना, ध्वनि करना। विस्फोट होना, धड़धड़ाना। ० दहाड़ना। ० प्रकट होना
बोधः स्फूर्जाति चिद्गुणो भवति
यः प्रत्यामवेद्य सदा (मुनि० १४ ) स्फुल् (अक० ) कांपना, धड़कना लपकना मार डालना। स्फुलम् (नपुं० ) [ स्फुल् क ] तंबू, डेरा शिविर | स्फुलनम् (नपुं०) कांपना, फटकना, धड़कना । स्फुलिङ्गः (पुं०) चिनगारी, अग्निकण (सुद०२/१७)
o
विद्युत्, बिजली । (जयो० ६ / ३६ )
• तिलगा। (जयो० १६ / ६५ ) तल्लिङ्गानि तदानीं
स्फुलिङ्गनीति निरगच्छन् ।
स्फुलिङ्गम् (नपुं०) चिनगारी, अग्निकण ।
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स्फूर्ज: (पुं०) [स्फुर्ज्+घञ्] मेघ गर्जना ० इन्द्र वज्र स्फुर्जथुः (पुं०) मेघ गर्जना, गड़गड़ाहट । स्फुर्ति: (स्त्री० ) [ स्फुर्+क्तिन्] उत्कण्ठा। (जयो० २७/४६ ) ० उत्साह, उमंग।
० धड़कन, स्फुरण, थरथराहट ।
• छलांग, चौकड़ी प्रफुल्ल भाव ।
स्फुतिंकर (वि०) रोमांच योग्य (जयो०वृ० ११/८७) योगोऽनयोः स्फूर्तिकरो विशेषात् । (जयो० १७/८) स्फुर्तिमत् (वि० ) [ स्फूर्ति + मतुप् ] धड़कने वाला। विक्षुब्ध । ० कोमल हृदय।
स्फेयस् (वि० ) [ अतिशयेन स्फिर: ईयसुन्] प्रचुरतर, प्रबल, विस्तारजन्य
स्फेष्ठ (वि० ) [ स्फिर + इष्ठन् ] प्रबल, प्रचुरतर, अत्यन्त विस्तृत । स्फोट: (पुं०) [ स्फुट करणे घञ्] फूट निकलना, फूट पड़ना। • अभिव्यक्ति (जयो०वृ० ११ / ६० )
• विकास। ० सूजन, कौड़ा, रसौली ।
० शब्द व्यञ्जना ।
१२२२
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स्मरायुधः
स्फोटक : (पुं०) फोड़ा, पूति। (जयो०वृ० २/५) स्फोटन (वि०) प्रकट करने वाला, फूटने वाला, विकसित होने
वाला।
स्फोटनम् (नपुं०) फाड़ना ० विकसित होना, चटकना । ० फटका, विदीर्ण होना।
स्फोटनी (स्वी०) [स्फोटन ङीप्] बरमा, छिद्र करने का औजार स्फोटयितुम् - विकासवितुम् (जयो० १२८/३) स्फोटिका ( स्त्री० ) [ स्फुट् + ण्वुल्+टाप् इत्वम् ] एक पक्षी, कठफोड़ा पक्षी ।
स्म (अव्य० ) [ स्मि+ड] वर्तमान कालिक क्रियाओं का भूतकाल में परिवर्तित करने के लिए लगाया जाने वाला निपात पातालमूलमनुखातिकया स्म सम्यक् (सुदं० १ / ३६) स्मयः (पुं०) अभिमान, अहंकार, गर्व। ( सुद० १३४ ) (जयो० १७/११)
आश्चर्य, घमण्ड, विस्मय (जयो० १/६३)
स्मयकः (पुं०) अभिमान, अहंकार, गर्व-सा पदानि परिदृष्टवतीव प्रस्थितस्थ सहसा स्मयकस्य (जयो० १५/९९)
० रहस्य भाव, आश्चर्य-सम्पादयत्यत्र च कौतुकं नः करोत्यनूढा स्मयकौतुकं न । (सुद०२ / २१ ) स्मयलोपिन् (वि०) अभिमान नष्ट करने वाली-सम्बभूव वचनं नभसोऽपि निम्न रूपतस्तत्स्मयलोपि । (सुद० १०८) स्मयसद्मम् (नपुं०) आश्चर्य का स्थान स्मस्य आश्चर्यस्य सद्य स्थानं यत्र सा । (जयो०वृ० ५ / २८) स्मयसारिणी (स्त्री०) गर्वकुल्या (जयो० १७/११ ) स्मयोच्छेदपटु (वि०) दुरभिमान नष्ट करने में समर्थ- स्मयस्य दुरभिमानस्योच्छेदे निराकरणे पटु समर्थ (जयो० १६ / ३५ ) स्मर: (पुं० ) [ स्मृ भावे अप्] काम। (जयो० ३/४९)
० कामदेव, (जयो० १/४५, सुद० १/४०) स्मरस्य वागुरा वाला लावण्यसुमनोलता | (जयो० ३/३९) ० प्रत्यास्मरण, स्मरण, याद। स्मरकल्प: (पुं०) कामावस्था (सुद० १२२) स्मरक्रिया (स्त्री०) काम क्रिया, भोगसक्ति की भावना (जयो० १७/२७)
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स्मरकूपकः (पुं०) स्त्री की योनि भग स्मरागारम् (नपुं०) स्त्री की योनि ।
स्मरादेशकर (वि०) रतीश शासन प्रवर्तक। (जयो० १६/४७) स्मरायुधः (पुं०) वज्र, ० काम बाण (वीरो० ६ / २३) स्मरायुधैः पञ्चतया स्फुरद्भिः । (वीरो० ६ / २३)
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स्मरारिः
१२२३
स्मेरविष्किरः
स्मरारिः (पुं०) महादेव, शिव। (जयो० ११/६९)
स्मितांशु (पुं०) स्मित किरण, प्रफुल्लित किरण। (जयो०५/८२) स्मरार्थ (वि०) कामार्थः (जयो० ११/२३)
स्मितामृतम् (नपुं०) मन्दहास्य रूप अमृत। (वीरो० २/१२३) स्मरोत्तानम् (नपुं०) कामरूप उत्तान, कामश्री।
स्मितामृतांशुः (पुं०) चन्द्र (जयो० ११/५३) 'स्मितमेवालतेव मृद्वी मृदुपल्लवा वा कादम्बिनी पीनपयोधरा वा। मृतांशुश्चन्द्र' समेत्वलम्भुन्नतिमन्नितम्बा तटी स्मरोत्तानगिरेरियं वा।। ० परितोषभाव, संतोषभाव। (जयो० १७/४) (सुद० २/५)
स्मील् (अक०) झपकना, आंख से संकेत करना। स्मार (वि.) [स्मर+अण] काम सम्बंधी, स्मरण। स्मृ (अक०) प्रसन्न होना, संतुष्ट होना। (जयो० १८/१३)
० प्ररक्षा करना, सुरक्षा करना। स्मारक (वि०) स्मृति चिह्न, पूर्व पुरुष का यादगार स्तूप। ० याद करना, स्मरण करना, सोचना। (सुद० ८६) स्मारकम् (नपुं०) स्तूप, स्मरण स्थान।
(सुद० ४/३४) सदा सुखस्यैव तव स्मरामः। (वीरो०५/७) स्मारणम् (नपुं०) [स्मृ-णिच्+ल्युट्] स्मरण करना, याद ० चिंतन करना, ध्यान करना, याद करना। (जयो०४/४८) दिलाना।
० प्रकथन करना, जाप करना, उच्चारण करना। स्मार्त (वि०) स्मृति सम्बंधी, कामजन्य, स्मृति पर आधारित। | स्मृत (वि०) याद आई। (दयो०६५) (जयो०वृ० १६/८०) ।
स्मृतिः (स्त्री०) स्मरण, याद, बोध, चिंतन। स्मार्तः (पुं०) पंथ, सम्प्रदाय, अनुयायी।
० स्मृति ज्ञान। (वीरो० २०/१७) स्मार्तधर्मः (पुं०) स्मृति प्रतिपादिक धर्म। (जयो० १६/८०) ० स्मार्त (जयो०वृ० १६/८०) स्मासाद्य (वि०) आनन्दित करने वाले। (सुद० २/२८)
० स्मरण मात्र। (जयो० ११/८५) स्मि (सक०) मुस्कुराना, हंसना, अपहास करना। खिलना, ० संहिताख्य शास्त्र। (जयो० ३/१२) फूलना।
० प्रत्यक्ष को अन्वित करने वाली बुद्धि। स्मिट (अक०) अपमानित करना, घृणा करना।
० पूर्व अनुभूत विषय का स्मरण। प्रेम करना।
स्मृतिज्ञानम् (नपुं०) पूर्व अनुभूत विषय का ज्ञान। स्मरणं स्मित (भूक०कृ०) [स्मि+क्त हास्य मुस्कान युक्त, हंसी स्मृतिः सैव ज्ञानं स्मृतिज्ञानम्। (त०भा० १/१३)
युक्त। (जयो० १२/१२९) (जयो० १२/११२) (सुद० स्मृतिपथः (पुं०) स्मरण शक्ति। ३/४०)
स्मृतिप्रबन्धः (पुं०) स्मृतिशास्त्र। ० मन्दहास्य। (जयो २/१५५)
स्मृतिभव (वि०) कामाधिगत । (जयो० १८/६१) ० खिला हुआ, प्रफुल्लित।
स्मृतिभ्रंशः (पुं०) स्मृति का नष्ट होना। स्मितचेष्टा (स्त्री०) हास्यभाव। (जयो० १२/१२९) स्मृतिरोध (पुं०) स्मरण न रहना। स्मितम् (नपुं०) मंद हंसी, मुस्कान।
स्मृतिविभ्रमः (पुं०) याद न आना। स्तिमपयस् (नपुं०) स्तन, पयोधर। (जयो० ३/६०) स्मृति विरुद्ध (वि०) अज्ञानता, मूढता। स्मितपूर्वम् (अव्य०) मुस्कान के साथ, मंद हास्य से। स्मृतिविरोधः (पुं०) स्मृतियों का विरोध। स्मितपुष्पं (नपुं०) हास्य रूप कुसुम। (जयो० १२/११९) स्मृतिशास्त्रम् (नपुं०) संहिताख्य शास्त्र। (जयो० ३/१२) ० स्मितबाला (स्त्री०) हर्षित बालिका, हंसमुख बालिका।
धर्म शास्त्र, धर्मसंहिता। स्मितभावः (पुं०) हास्य भाव, मधुर मुस्कान।
स्मृतिशेष् (वि०) उपरत, मृत। ० अचेत। स्मितवारिमुक् (वि०) हंसी रूपी जल छोड़ने वाली। स्मितचेष्टा स्मेर (वि.) [स्मि+रन्] हंसने वाला, मुस्कराने वाला, प्रहास
वाली। स्मितमेव वारि मुञ्चतीति। (जयो०वृ० १२/१२९) युक्त, प्रसन्नगत। (जयो० १५/७२) स्मितसत्विषामय (वि०) सस्मितमय, हंसी के योग्य। (सुद० ___० फूला हुआ, खिला हुआ, प्राफुल्लित। __३/१०)
स्मेरमुखी (वि०) प्रसन्नवदना, (जयो० वृ० १५/७२) सहायवक्त्रा। स्मितसारजष्टिः (स्त्री०) प्रीतिपूर्वको उपलब्धिा (जयो० १६/४६) स्मेरविष्किरः (पुं०) मयूर, मोर, कलापी।
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स्यदः
१२२४
स्योतः
स्यदः (पुं०) [स्यन्द्+क] तीव्रगति, अतिवेग।
विधिचित्तरञ्जन:'। (हित०सं० १०) तद्व्यक्तावेव तत्त्वं स्यन्द् (अक०) टपकना, चूना, रिसना।
स्यान्न च शूद्रोऽस्ति सा यदि। (हित० १४) ० त्रविह होना, बूंद बूंद गिरना।
• है। सतां ततिः स्याच्छरदुक्तरीति। (सुद० १/८) ० अर्क निकालना, बहना।
० जो उभय धर्मों की व्यवस्था करने वाली है वह ० उड़ेलना, पिघलना।
'स्यात्' है। स्यन्दः (पुं०) [स्यन्द् भावे घञ्] बहना, रिसना, टपकना, अनेकशक्त्यात्मकवस्तु तत्त्वं तदेकया संवदतोऽन्यसत्त्वम्। छरना।
समर्थयत्स्यात्पदमत्र भाति स्याद्वादनामैवमिहोक्तिजातिः। ० जाना, चलना।
(वीरो० १९/८) ० निर्झर (जयो० ३/१०५) जल प्रवाह-'स्वर्णदी- स्यात्कार (वि०) अनेकान्तोद्योत्कार (जयो० ३/४३) सलिलस्यन्दः।
स्याद्वादः (पुं०) अनेकान्तात्मक वस्तु निरूपण, अनेक धर्म ० गाड़ी, रथ। (जयो० ७/१९) प्रत्यङमुखे सखे स्यन्दे के स्वभाव का कथन। कथञ्चिवादः, अनेकान्तवाद। (वीरो० रोषो मे प्रागिहोदितः।
१९/८) स्यन्दन (वि०) द्रुतगामी, प्रवाहशील, गतिमान।
० जिसमें विवक्षा की अपेक्षा से कथन होता है। विस्तार ० चुस्त, फुर्तीला।
के लिए वीरोदय का उन्नीसवां सर्ग दृष्टव्य है। स्यन्दनः (पुं०) सेना, रथ, वाहन, यान। (वीरो० ६/२९) घटः पदार्थश्च पटः पदार्थः शैत्यान्वितस्यास्ति घटेन नार्थः। (जयो० २१/२४, १०/१)
पिपासुरभ्येति यमात्मशक्त्या स्याद्वादमित्येतु जनोऽति ० वायु, पवन। ० तिनिश वृक्षा (जयो० २१/२५)
भक्त्या।। (वीरो० १९/१५) 'स्यात् कथञ्चित् प्रतिपक्षापेक्षया स्यन्दनम् (नपुं०) गति, प्रवाह, वेग।
वचनं स्याद्वादः। (जैन०ल० २०२) ० चलना, बहना।
स्याद्वादतत्परः (पुं०) स्याद्वाद सिद्धान्त में लीन। (जयो० ० रिसना।
१८/६५) स्यन्दनसञ्चपः (पुं०) रथ समूह। (जयो० १३/१४)
स्याद्वादभाक् (नपुं०) अनेकान्तवाद का कथन स्याद्वादमनेस्यन्दनिका (स्त्री०) [स्यन्दन ङीष् कन्+टाप्] गतिमान, रिसने कान्तवाद भजतीति। (जयो० १८/६०) वाला, झरने वाला, गतिशील, द्रतगामी।
स्यादवादमुद्रा (स्त्री०) चक्रनय व्यवस्था, स्याद्वाद की व्यवस्था। स्यन्दिनी (स्त्री०) लार, थूक।
मुमुक्षुभिस्तीर्थतया किलेष्टा स्यादवादमुद्राङ्कितचक्रचेष्टा स्यन्न (भू०क०कृ०) [स्यन्द+क्त] रिसा हुआ, टपका हुआ (भक्ति० ५) गिरा हुआ।
स्याद्वादविद्याधिपति (पुं०) वीरप्रभु, तीर्थंकर महावीर। स्यम् (अक०) शब्द करना, आवाज करना। ध्वनि करना। (वीरो० १३/१९) ० चीखना, चिल्लाना।
स्यूत (भू०क०कृ०) सिला हुआ, नत्थी किया गया। ० विचार करना, चिंतन करना।
स्यूतिः (सिव् भावे क्तिन्) सीना, टांकना, सिलना। स्यमन्तकः (पुं०) [स्यम्+अच्+कन्] मूल्यवान् माणिक्य, मोती। ० सन्तति-सन्ततौ सीव्यने स्यति इति विश्वलोचने। स्यमिमः (पुं०) मेघ, बादल।
(जयो०वृ० १४/२३) बामी।
० उत्पत्ति। (वीरो० १९/१६) स्यमिका (स्त्री०) [स्यमिक+टाप्] नील।
० वंशावली, कुल। स्यात् (अव्य०) शायद, कदाचित्। (सुद० १/६)
० थैला। कथञ्चित्, ऐसा भी, इस तरह से भी। ऐसा करने में भी- | स्यूनः (पुं०) सूर्य। किरण। 'लोकाश्रयो भवेदाद्यः, परः स्यादागमाश्रयः। (हित०सं०३) ___० थैला, बोरा। (जयो० १८०७५) स्यूनोऽर्के किरणे इति वि। ० अस् धातु के विधिलिङ्गः के प्रथम पुरुष एक वचन स्यूमः (पुं०) [सिव्+मक्] प्रकाश किरण। में-'स्यात्' का प्रयोग होता है। 'यतः स्यात् पौत्र-दौहित्रादि स्योतः (पुं०) थैला, बोरा।
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स्योन
१२२५
स्योन (वि०) सुंदर, सुखद।
० शुभ, कल्याणकारी। स्योनः (पुं०) सूर्य। ० आभा। स्योनम् (नपुं०) थैला, बोरा। संस् (अक०) गिरना, रिसना, झरना, बहना।
० लटकना, खिसकना। शिथिल होना। स्रंसः (पुं०) [संस्+घञ्] गिरना, खिसकना। स्त्रसनम (नपं० [स्रंस णिच+ल्यट] गिरना. झडना. खिसकना। संसिन् (वि०) [संस्+णिनि] गिरने वाला, खिसकने वाला,
लटकने वाला। स्त्रक्करी (स्त्री०) मालाकारिणी, मालिन। (जयो० १०/१११) स्रग्विन् (वि०) [स्रज्+विनि] माला युक्त, हारधारण किए
स्रज् (स्त्री०) [सृज्यते-सृज्+क्विन्] माला, हार, पुष्पहार। (सुद०) स्त्रज्दामन् (नपुं०) माला की गांठ। स्रधर (वि०) हार धारण करने वाला। स्रपुष्पम् (नपुं०) माला के फूल। स्रज्युक्त (वि०) हार सहित, माला युक्त। स्त्रजाक्षरम् (नपुं०) अक्षरमाला। (जयो० २०/७२) स्रज्चा (स्त्री०) [सृज् वा] रस्सी, डोरी, धागा। स्वधू (स्त्री०) अपान वायू सूत्र। सम्भ् (अक०) [स्रु+अप्] बहना, रिसना, चूना, टपकना।
बिंदु, प्रवाह। ० फुहार, झरना। स्रवणम् (नपुं०) [उ ल्युट्] ० बहना, चूना, रिसना।
० पसीना, ० मूत्र। ० झरना, गिरना-स्रोतो विमुच्य स्रवणं स्तनान्ताद्।
(वीरो० १२/३०) स्रवत् (वि०) [+शत] बहने वाला, रिसने वाला, टपकने
वाला। स्त्रवता (स्त्री०) [स्रवत्+ङीप्] प्रसरता। (जयो० २३/१३) स्रवन्ती (स्त्री०) नदी, सरिता। बहुधावलिधारणी स्रवन्तीं नितरां
नीरदभावमाश्रयन्तीम्। (जयो० २०/२) स्रष्टु (पुं०) [सृज्+तृच्] बनाने वाला, रचने वाला, ब्रह्मा। त्रस्त (भू०क०कृ०) [संस्+क्त] गिरा हुआ, खिसका हुआ,
नीचे आया हुआ।
० च्युत, पतित, लम्बित। स्त्रस्तरः (पुं०) [स्रस्+तरच्] पलंग, शय्या, आसन, बिछौना।
स्राक् (अव्य०) [स्रुक+ढाक्] फुर्ती से, तेजी से, शीघ्र से।
(जयो० ३/६८) सहालिभिः पार्श्वमुपागमि प्राक् ततः
शनैस्तेन तयैकया स्राक्। (जयो० १७/६) स्राक्-शीघ्रमेव स्रागालिलिङ्ग (वि०) गले से आलिङ्गित। (जयो० २०/१५) स्रावः (पुं०) [नु+घञ्] प्रवाह, झरना, निर्झर।
०रिसना, टपकनी। स्रावक (वि०) [स्नु+ण्वुल] बहाने वाला, गिराने वाला। स्राविणी (वि०) देने वाली। (दयो० ५३) त्रिभू (अक०) चोट पहुंचाना, मार डालना। स्त्रिम्भ देखो ऊपर। स्त्रिव (अक०) सूख जाना, म्लान होना, मुाना। त्रु (अक०) बहना, झरना, रिसना, टपकना। (सुद० ४/१०)
० चूना, छीनना, नष्ट होना।
० इधर-उधर होना, उड़ेलना, डालना, बखेरना। त्रुघ्नः (पुं०) एक जनपद। त्रुघ्नी (स्त्री०) [स्रघ्न+अच्+ङीष्] सज्जी, देह। स्रुच् (स्त्री०) [मु+क्विप् चिट् आगम] लकड़ी का चमचा। घुत् (वि०) [स्रु+क्विप्] बहने वाला, गिरने वाला, उडेलने
वाला। स्रुतिः (स्त्री०) [स्रुक्तिन्] बहना, रिसना टपकना, झरना,
चूना।
० राल, ० धारा, प्रवाह। (जयो० ९१/९) स्वः (पुं०) चमचा, लकड़ी का चमचा।
० झरना, निर्झर। स्रेक (अक०) गतिशील होना।
(अक०) उबालना, पकाना। स्रोतम् (नपुं०) धारा, प्रवाह, निर्झर झरना। (वीरो० १२/३०)
स्त्रोतो विमुच्य स्रवणं स्तनान्ताद् यूनामिदानीं सरसीति कान्ता।
(वीरो० १२/३०) स्रोतस् (नपुं०) [त्रु तसि] सरिता, नदी, धारा, निर्झर, झरना,
प्रवाह।
० लहर। स्रोतस्वः (पुं०) शिव, ० चोर। स्रोतस्वती (स्त्री०) नदी, सरिता। स्रोतस्विनी (स्त्री०) [स्रोतस+मतुप-विनि] (दयो० २३) सरिता,
नदी। स्व (वि.) [स्वन्+ड] अपना, निजी। (सुद० ४/७) तस्मिन्
पर: स्व आत्माः यस्य। (जयो० १/९८)
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स्वः
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"
० प्रधान (वीरो० २१/२४) विभेति मरणमिति श्रुत्वा स्वस्य सदा पुनः स्वं स्वं धाम ययुः समर्त्य (दयो० वीरो०७/३८) स्वः (पुं०) आत्मीयजन, कुटुम्बिजन, बांधव । स्वक (वि० ) [ स्व + अकच्] अपनी निजी । (समु० ७/७) परिवदेदिह कोऽयमजं स्वकम्।
स्वकम्पन् (पुं०) पवन, वायु
स्वकर (वि०) अपना हाथ - स्वकरे कुसुमस्रजः। (सुद० ४ / २) ० स्वकिरण, स्वकान्ति, स्वहस्त । (जयो० ११/७) स्वकर्त्तव्य-परायणाम् (नपुं०) अपने कार्य में निपुण । ( सुद० ९४ )
स्वकर्मन् (नपुं०) अपना कार्य (वीरो० १६ / १० ) स्वकर्मसत्ता (स्त्री०) अपनी कर्मशैली की प्रभुता (सुद० ५/२१) स्वकर्मिन् (वि०) स्वार्थी ।
स्वकार्यम् (पुं०) अपना काम ।
स्वकीय ( वि० ) [ स्वस्य इदं स्व-छ-कुक् आगम: ] अपने (दयो० ९) आत्मीय, निज अपना (जयो०वृ० १३/१२) (जयो० १ / ६८ )
"
स्वकीय- अज्ञानम् (नपुं०) आत्मतम । ( भक्ति० ३ ) स्वकीय कार्यम् (नपुं०) अपना काम ।
स्वकीयगृहम् (नपुं०) निजगृह ।
स्वकीयचेटी (स्त्री०) निजदासी (जयो० १२ / ११० ) स्वकीयदृष्टिः (स्त्री०) आत्मीय दृष्टि, आत्मदर्शन । स्वकीयमञ्चलम् (नपुं०) स्वमुरोऽम्बर (जयो०वृ० १२ / ११४ ) स्वकीयसाधना
स्वकीयहितम् (नपुं०) निज कल्याण । ( मुनि० ६ ) स्वकुलः (पुं०) अपना परिवार, आत्मज (जयो०वृ० १ / ३८ ) बन्धुवर्ग (जयो० १२ / ६५)
स्वकुलदेवता ( पुं०) अपना कुलदेवता । आत्रिकेष्टहरिहापनोद्यतः साधयेत् स्वकुलदैवताद्यतः। (जयो० २ / ३९) स्वकुलसक्ति (स्त्री०) अपने कुल की मर्यादा। स्वकृत (वि०) अपने द्वारा किए गए (जयो० २/२२)
(दयो० ८) स्वनिहित
स्वकृतदोष (पुं०) स्वकीय दोष / कष्ट (जयो० १ / ९२ ) स्वधातिस्पर्द्धिकः (पुं०) आत्मघाती गुण (सम्य० ६०) स्वकुले
१२२६
सक्तिरस्यास्तीति (जयो०वृ० २/८)
स्वकुशल (वि०) अपने आपमें परिपूर्ण, समृद्धशाली । स्वगति (पुं०) निज चेष्टा | (जयो० १४ / २८ ) स्वगनन्दिन् (वि०) आत्मानन्द स्वगमात्मगतं यन्नन्देः प्रसन्नताया (जयो०वृ० ६ / १२७)
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स्वगृहम् (नपुं०) अपना घर (जयो०वृ० १३ / १ ) स्वङग् (अक० ) जाना, पहुंचना । स्वङ्गः (पुं०) आलिंगन ।
स्वङ्गिन् (वि०) शोधनम यस्या सा स्वङ्गी (जयो० ५ / १०७) सुंदर शरीर वाली।
स्वतस्
स्वचक्षुस् (नपुं०) अपनी आंख, निज अक्षि (वीरो० ९/३) स्वचेष्टित (वि०) अपनी चेष्टा वाला। (वीरो० १०/१३) स्वच्छ (वि०) साफ, स्पष्ट, सुंदर, निर्दोष (सुद० ) स्वच्छः (पुं०) स्फटिक । स्वच्छं (नपुं०) मोती।
० पुत्र।
० स्वेद, पसीना ।
स्वच्छत्व (वि०) शुभ्रता (सुद० २/४७) ० सौंदर्य स्वच्छदरः (नपुं०) निर्दोष द्वारा । स्वच्छस्य निर्दोषस्य दरस्य द्वारस्य (जयो०वृ० ११ / ९५)
नाभिगर्त निर्दोष समुदाय ।
o
० निज पत्र (जयो० ११ / ९५)
स्वच्छन्द (वि०) स्वातन्त्र्य (जयो०वृ० १३/ ११०) स्वेच्छाचारी । स्वज (वि०) आत्मगत, अपने से उत्पन्न हुआ।
स्वजः (पुं०) रक्त-स्वज स्वेदे स्वजं रक्ते 'इति विश्वलोचन: ' (जयो०वृ० ७/९३)
स्वजम् (नपुं०) रुधिर ।
स्वजन (पुं०) आत्मीय लोग, कुटुम्बिजन, बंधु परिजन, पारिवारिक सदस्य, रिश्तेदार ।
स्वजनानुविधानम् (नपुं०) स्वजनों का मिलन | स्वजनानां पित्रादीनामनुविधानं सम्भालनम् (जयो०वृ० १३ / १ ) स्वजीवनम् (नपुं०) अपना जीवन ।
स्व (सक०) आलिंगन करना, भींचना, बांहों में लेना,
दबोचना ।
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० घेरना, मरोड़ना, आबिद्ध करना । स्वजन: (पुं०) आत्मीय परिजन । (जयो० ५ /१३) स्वट् (अक० ) नाश करना समाप्त करना। स्वतनयः (पुं०) उदरोद्भव पुत्र। (जयो०वृ० २/५२) स्वतस् (अव्य० ) [ स्व + तसिल् ] अपने आप, अचानक, अनायास
ही (सुद० १ / ३०) स्वयं यत्र स्वतो वा गुणवृद्धिसिद्धिः (जयो० १/३१) स्वत एव अनायासेनैव (जयो०वृ० १/३१) अनायास । (जयो० २/५८)
० आत्मना। (जयो०वृ० ३/१९ )
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स्वनिर्वाहिक
१२२७
स्वप्ननिकेतनम्
स्वनिर्वाहिक (वि०) निर्दोष प्रवृत्ति वाला। (मुनि० ८) स्वपक्षः (पुं०) ० आत्म पक्ष, ० अपना समूह। स्वनिवासयोग्यः (पुं०) राजकीय सदन। (जयो०वृ० ४/२६) ___ अपनी बात। (वीरो०वृ० २/१९) स्वतंत्र (वि०) आत्माश्रित, आत्मनिर्भर। स्वाधीन (जयो० २/६१) | स्वपक्षपरिरक्षणम् (नपुं०) अपने पक्ष का समर्थन, अपने
० पृथक्-पृथक् (सम्य० २१) जीवाश्च केचित्त्वणवः मत की सुरक्षा। (वीरो० २२/१९) स्वतन्त्राः।
स्वपदम् (नपु०) आत्म चरण। (जयो० ६/४८) ० अनियन्त्रित, स्वेच्छाचार।
स्वपरप्रकाशकः (०) स्व और पर को प्रकाशक करने स्वतन्त्रवृत्तिः (स्त्री०) आत्मनिर्भर प्रवृत्ति स्वाधीन वृत्ति, वाला। आत्मज्ञानपना, अपनी बोधता। (जयोवृ० १/८५)
आत्मधीन गति। स्वतन्त्रा वृत्तिर्व्यवहारो यस्य (वीरो० ०प्रमाणाश्रितविषयं, निर्णयात्मक, ०व्यवसाय। ४/५७) स्वतन्त्रवृत्तिः प्रतिभातुः सिंहवद्र मात्मवच्छ- स्वपरमण्डल (नपुं०) अपना और दूसरे का क्षेत्र। श्वदखण्डितोत्सवः। (वीरो० ४/५७)
स्वपाणि (नपुं०) अपना हाथ। (वीरो० १६/४) स्वतितारः (पुं०) उच्च स्तार, समुन्नत भाव। (जयो० १३/३५) स्वपुरं (नपुं०) अपना नगर। (जयो० ३/११६) स्वत्वम् (वि०) अपनी विद्यमानता, स्वामित्क।
स्वपूर्वजन्मन् (नपुं०) अपना पूर्वजन्म, पूर्वभव, पूर्व पर्याय। स्वद् (अक०) मधुर होना, रुचिकर होना।
(समु० ४/२२) ० स्वाद लेना, खाना।
स्वपुजः (पुं०) ज्ञातिजन-स्वं ज्ञातिजनं पुष्णातीति। (जयो० ० चखना, खाना।
६/२७) ० उपभोग करना।
स्वप्रकाश (वि.) स्वतः स्पष्ट, अपने आप प्रतिभासित। स्वदनम् (नपुं०) [स्वद+ल्युट्] चखना, स्वाद लेना, रसास्वदन | स्वप्रतिपत्तिः (स्त्री०) अपनी सुंदर चेष्टा। करना।
निजबन्धुजनस्य सम्मदाम्बुनिधि स्वदारा (स्त्री०) अपनी स्त्री। (सुद० १०८)
स्वप्रतिपत्तितस्तदा। (सुद० ३/२७) स्वदारसंतोव्रतम् (नपुं०) श्रावकव्रत का भेद, जिसमें श्रावक | स्वप्रयोगात् (अव्य०) अपने प्रयोग से निज प्रयत्न से। ___ एक पत्नी व्रतधारी होता है। (सुद० १११)
स्वप्राणेश्वरः (पुं०) पति। (सुद० ११३) स्वदित (भूक०कृ०) आस्वादित, चखा गया, खाया गया। स्व:पुरी (स्त्री०) एक नगरी। (दयो० १/१०) स्वदेशः (पुं०) जन्म स्थान, अपना देश, निज भूक्षेत्र। स्वप्रेष्ठ (वि०) परमप्रिय, अतिशय प्रेमाधिक्य। (जयो० ३/११६) स्वदृक् (नपुं०) अपने नेत्र। (सुद०६९)
स्वप् (अक०) सोना, शयन करना। स्वधर्मः (पुं०) अपना धर्म, आत्मनिष्ठा। (सम्य० १/३)
० लेटना, विश्राम करना, आराम करना। स्वधृत (वि०) अपने द्वारा धारण किया गया। (जयो० ९/४८) ० तल्लीन होना, ध्यानस्थ होना। स्वन् (अक०) शब्द करना, ध्वनि करना, शोर मचाना, स्वप्नः (पुं०) [स्वप्+नक्] शयन विकल्प। (जयो० २२/५८) कोलाहल करना। ० गाना।
० कदाचित्, निन्द्रागत होना। स्वनजित (वि०) कण्ठध्वनि से पराभूत, स्वर-माधुर्य तिस्कृत। ० आलस्य दशा, निन्द्राभाव। (सुद० ९९) (जयो०६/७)
क्षणभूरास्ताय न स्वप्नेऽप्युत। स्वनिः (स्त्री०) ध्वनि।
स्वप्नकर (वि०) निन्द्राजन्य। स्वनिक (वि०) [स्वन+ठक्] शब्द करने वाला, शोर मचाने स्वप्नकृत् (वि०) ०स्वप्नजन्य, निन्द्रा युक्त। वाला।
स्वप्नगृहम् (नपुं०) शयनकक्षा स्वनित (भूक०कृ०) ध्वनित, गुंजित, कूकित, कोलाहल स्वप्नजात (वि०) निन्द्रावस्थागत। जन्य।
स्वप्नदोषः (पुं०) शुक्रपात, शयन में होने वाला वीर्यक्षरण। स्वनिर्मित (वि०) अपने द्वारा बनाया गया। (जयो० २/१३५) स्वप्नधीगम्य (वि०) शयन में बुद्धिगत अनुभूति वाला। स्वनिभ (वि०) प्रसन्न, हर्षित। (जयो० १३/७४)
स्वप्ननिकेतनम् (नपुं०) शयनकक्ष शय्यागृह।
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स्वप्न प्रपञ्च
१२२८
स्वरः
स्वप्न प्रपञ्च (पुं०) निन्द्राभय।
स्वयम् (अव्य०) [सु+अय्+अम्] अपने आप, निजात्मरूप स्वप्न विचारः (पुं०) स्वप्न फल पर चिन्तन।
से, (सुद०८३) स्वयं स्थाने परम शब्दो वास्तु (जयो०७/६२) स्वप्नशील (वि०) शयनशील।
० अनायास ही, अचानक ही (सुद० ३/२७) स्वप्नषोडशं (नपुं०) सोलह स्वप्न।
नित्यानन्दपदे निरन्तररतो भूया: स्वयं सर्वदा। (मुनि० १४) स्वप्नषोडशी (वि०) सोलह स्वप्न देखने वाली। (वीरो० ४/३५) स्वयंग्रहः (पुं०) बलात् ग्रहण करना। स्वप्नावलिः (स्त्री०) स्वप्नक्रम। (सुद० २/९०)
स्वयंजात (वि०) अपने आप उत्पन्न हुआ। स्वबाहुमूल (नपुं०) अपनी बाहु का भाग। (सुद० ११७) स्वयंदत्त (वि०) अपने आप दिया हुआ। स्वभट्टः (पुं०) अपने आप में योद्धा।
स्वयंप्रभा (स्त्री०) पुण्डरीक नगर के राजा की पत्नी। (जयो० स्वभा (स्त्री०) निजकान्ति (सुद० ८४)
२३/५३) स्वभावः (पुं०) प्रकृति, मूलभाव, मूलगुण। (सुद० ३४) स्वयंभुवः (पुं०) आदीश्वर ऋषभदेव। (मुनि० २) ० सहज भाव, प्राकृतिक भाव।
स्वयंभू (पुं०) ब्रह्मा, आदीश्वर तीर्थंकर का नाम। • निजकर्त्तव्य (वीरो० १६/१८)
० प्रकृति। (जयो० २४/२०) (जयो० ११/६८) ० आत्मीय परिणाम। (भक्ति० ३) मयोऽहमन्यो न हि मे स्वयम्भूराज (पुं०) नाम विशेष। ० ब्रह्मा, आदिनाथ। स्वभावः।
० स्वयं भू मण्डल। (सुद० १२४) ० आत्म तत्त्व। (जयो० ५/४२)
स्वयमिति (अव्य०) स्वयं ही, अपने आप ही। (सुद० १०८) ० निजभाव। (सम्य० ४१)
स्वयमेव (अव्य०) स्वयं ही, अपने आप ही। (सुद० ३/४३) ० भाव। (सम्य० ८४)
(समु०१/१) अनायासेनैव, अचानक ही। (जयो० ४/३५, ० मिलता, जुलता वर्णन।
२३/३५) स्वभाव-सम्भावनम् (नपुं०) अपने आत्म स्वभाव से निर्मल। | स्वयंवर (पुं०) इच्छानुसार वर का चयन, (जयो० ५/१) स्वयं (सुद० ११८)
बालामुखेनैव वरनिर्वाचनम्। (जयो०७०३/६६) स्वभावोक्तिः (स्त्री०) यथार्थ वर्णन।
स्वयंवरनुमा (स्त्री०) स्वयंवर शाला। (जयो० ४/६) स्वभावोक्तिरलङ्कारः (पुं०) एक अलंकार विशेष, जिसमें | स्वयंवरमण्डलम् (नपुं०) स्वयंवर स्थान। (जयो० ५/१२)
नाना प्रकार पदार्थों का साक्षात् रूप से वर्णन किया | स्वयंवरमहोत्समवः (पुं०) स्वयं वरण का विशाल उत्सव। जाता है।
(जयो० वृ० ५/२०) किं फलं विमलशीलशोचना द्रक्ष,
स्वयंवरविधानम् (नपुं०) स्वयं वरण का नियम। साक्षिकतया सुलोचनाम्।
हीनो वाऽस्तु कुलीनो वा, दीनो वा सधनोऽथवा। तं बलीमुखबलं बलैरलं,
स्वयंवरविधाने तु, बालावाञ्छा बलीयसी।। पाशबद्धमधुनेक्षतां खलम्।। (जयो० ७/७७)
(हित०सं० पृ० २१) यहां वानर के चपल स्वभाव का वर्णन होने से स्वभावोक्तिः स्वयश (वि०) अपनी कीर्ति। (जयो० २३/३५) अलंकार है।
स्वयोगः (पुं०) आत्मयोग। ० निज ध्यान योग। स्वभावोत्थः (पुं०) मनसोत्थ, मनसोत्पत्ति। (जयो० १९/८) | स्वयोगभूतिः (स्त्री०) अपना योग वैभव। स्वभाषा (स्त्री०) अपनी भाषा। (वीरो० १५/४)
वनाद्वनं सम्व्यचरत्सुवेशः स्वभिराम (वि०) मनोहर। (जयो० ५/६४)
स्वयोगभूत्या पवमान एषः।। (सुद० ११८) स्वभू (पुं०) ब्रह्मा।
स्वयोनि (वि०) मातृपक्ष सम्बंधी। स्वभूत (वि०) निजीय उत्पत्ति वाला। (जयो० २३/३३) स्वयोषित (वि०) विवाहित। (जयो०१६/३२) स्वमात्रम् (नपुं०) अपना ही कार्य। (वीरो० १६/१८) स्वर् (अक०) दोष निकालना, कलंक लगाना, निंदा करना। स्वमुरोऽम्बरः (पुं०) स्वकीय अञ्चल। (जयो० १२/११४) स्वर् (अव्य०) [स्वृ+क्च्]ि स्वर्ग सा, परलोक जैसा। स्वमूलि (नपुं०) स्वशिरस्, अपना मस्तक। (जयो० १८/३५) स्वरः (पुं०) [स्वर्+अच्] शब्द, आवाज, ध्वनि। (जयो०
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स्वरग्रामः
१२२९
स्वर्णकायः
११/४७) अकारादि स्वर (जयो० ११/७८) अकारादिवर्ण
गच्छतिः। संगीत। (जयो० ११/४७) स्वरग्रामः (पुं०) स्वरसमूह, सप्तक स्वर। स्वरबद्ध (वि०) ताल एवं लय में बंधा हुआ। स्वरभक्तिः (स्त्री०) स्वर उच्चारण में र और ल अन्तर्निविष्ट
स्वर की ध्वनि जब इन अक्षरों के पश्चात् कोई ऊष्मवर्ण या कोई अकेला व्यञ्जन हो। संयुक्त ध्वनियों के उच्चारण में कठिनाई का अनुभव होने के कारण उच्चारण सौकर्म
के लिए उनके बीच में स्वरागम हो जाता है। सूर्य-सूर। स्वरभङ्गः (पुं०) स्वर का उच्चारण का स्खलन। स्वरमण्डलिका (स्त्री०) वीणा विशेष का नाम। स्वरलासिका (स्त्री०) बांसुरी, मुरली।।। स्वरशून्य (वि०) संगीत के ताल आदि स्वरों का अभाव या
हीनता। स्वरसः (पुं०) आत्म रस। (सम्य० १२) स्वरसंयोगः (पुं०) स्वर का मिलन। स्वसङ्क्रमः (पुं०) स्वरों के उतार-चढ़ाव का क्रम। स्वरसम्पत्तिः (स्त्री०) गाए जाने वाले वाले गीत।
वीणायाः स्वरसम्पत्तिं सन्निशम्यापि मानवाः। गायक एव जानामि।
रागोऽत्रायं भवेदिति।। (वीरो० १५/२) स्वरसन्धि (स्त्री०) स्वरों का पारस्परिक मेल। स्वराज्यः (पुं०) स्वाधीनता, आत्म राज्य। स्वराज्य प्राप्तये
धीमान् सत्याग्रह धुरन्धरः।
० सुंदर राज्य। (जयो० १८४८२) (वीरो० ११/३९) स्वरित (वि०) उच्चरित, ध्वनि युक्त।
. स्वर्ग सम्बंधी। (समु० ५/४) स्वरु (पुं०) धूप।
० व्रज, ० बाण। स्वरुचा (स्त्री०) अपनी कान्ति। (समु० २/३) स्वरूपः (पुं०) अपना स्वरूप, आत्म रूप। (सुद० ८४) स्वरूपकथनम् (नपुं०) सम्यक् कथा कथन। (जयो० ११/१००) स्वरूपाचरणम् (नपुं०) चारित्र का एक भेद। आत्मा के
यथार्थ स्वरूप में लीनता। स्वरूपे आसमन्ताच्चरणं..... स्वरूपाचरणं (भक्ति० ८०) चारित्र स्वसमय प्रवृत्तिरित्यर्थः (सम्य०१४३)
• शुद्धोपयोग के तीन नामों में प्रथम। (सम्य० १४३) स्वरोटिका (स्त्री०) अपनी आजीविका। (वीरो० ९/९)
| स्वर्गः (पुं०) [स्वरितं गीयते-गै+क, सु+ऋ+घञ्] स्वर्ग,
सुरपुट। (जयो० ५/१०३) ० दिव, देवस्थान, परमस्थान (जयो० ३/६८) (वीरो०२/६) (जयो० १/५०) तत्स्वर्गतो नान्यादि याद्वदान्य।
० आत्महस्त। (जयो०वृ० १२/१३४) (सुद० १२६) स्वर्गगिरि (पुं०) सुमेरु पर्वत। स्वर्गत (वि०) स्वर्गीय। (वीरो० १८/३९) स्वर्गद (वि०) स्वर्ग प्रदायक। स्वर्गद्वारम् (नपुं०) स्वर्ग स्थान। स्वर्गधामः (पुं०) स्वर्ग निलय। ० स्वर्ग स्थान। ० शुभ स्थल। स्वर्गपतिः (पुं०) इन्द्र, शक्र। स्वर्गपादपः (पुं०) कल्पतरु। स्वर्गप्रदेशः (पुं०) स्वर्गस्थान। (सुद० १/२०) (दयो०४) स्वर्गप्रमाणक्षणम् (नपुं०) स्वर्ग जाने का समय। (वीरो०
१८४८) स्वर्गप्रास्यभिलाषा (स्त्री०) सुखाशा। (जयो०६/४३) स्वर्गरमा (स्त्री०) मोक्षलक्ष्मी। (सुद० ७१) 'पतिः स्यां
स्वर्गरमायाः'। (सुद०७१) स्वर्गलक्ष्मी (स्त्री०) स्वर्ग श्री। (जयो० ६/१३०) ० शुभश्री। स्वर्गश्री (स्त्री०) सुरपुर लक्ष्मी। (जयो० ३/१०३) ० स्वश्री। स्वर्गसम्पदा (स्त्री०) सुरपुर का स्थान, सुरपुर का वैभव।
गजपादेनाध्वनि मृत्वाऽसौ स्वर्गसम्पदा यातः। (सुद० ११४) स्वर्गिन् (पुं०) [स्वर्गोऽस्त्यस्य भोगत्वेन इनि] देव, सुर, अमर,
देवता।
० मृतक, मरा हुआ पुरुष। स्वर्गिवत् (वि०) स्वर्ग में रहने वाले की तरह देव तुल्य। (सुद०
१/३९) स्वर्गीय (वि०) [स्वर्ग+छ यत् वा] दिव्य, दैवीय, दिव्य सम्बंधी।
(जयो० ११/९२) स्वर्गीयवनम् (नपुं०) नन्दन वन। (जयो० १४/५) स्वर्गोदार (वि०) स्वर्ग सदृश्य। (जयो० ४/६८) स्वर्णम् (नपुं०) [सुष्ठु अर्णो वर्णो यस्य] सोना, कनक।
(जयो० ७/१०२। __ ० हैम। (जयो० ११/१५) स्वर्णकः (पुं०) सोना, कथा (जयो० २/४३) स्वर्णकणः (पुं०) सोने के दाना। स्वर्णकणिका (स्त्री०) सोने का कण/एक हिस्सा। स्वर्णकायः (वि०) सुनहरी काया वाला, गौरवर्ण वाला।
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स्वर्णकारः
स्वर्णकारः (पुं०) सुनार, कलार (जयो०वृ० ६/७४) स्वर्णगौरिकम् (नपुं०) गेरु, लाल खड़िया । स्वर्णचूडः (पुं०) नीलकण्ठ ।
О
मुर्गा, कुक्कट।
स्वर्णजम् (नपुं०) रांगा ।
स्वर्णदा (वि०) आकाश गंगा (जयो० ७/ १०१ ) स्वर्णदी (स्त्री०) आकाश गंगा, व्योम गंगा (जयो० ३ / ११२)
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(जयो० १६/८२)
स्वर्णयोगः (पु० ) सोने का संयोग ।
स्वर्णरेखा (स्त्री०) सोने की लकीर, स्वर्णपंक्ति। स्वर्णवणिज् (पुं०) सोने का व्यापारी
० सर्राफ ।
स्वर्णत्व (वि०) सुवर्णपना (सुद० १३३) स्वर्णदीधिति: (स्त्री०) अग्नि, आग। स्वर्णदीपयस् (पुं०) स्वर्णदीप। (जयो० ७/१०१) स्वर्णदीसलिलम् (नपुं०) आकाशगंगा का जल । सुमेरुपर्वत शिलातल। (जयो० ३ / १०४)
o
स्वर्णपक्षः (पुं०) गरुड़ पक्षी । स्वर्णपाठकः (पुं०) सुहागा। स्वर्णपुष्प (पुं०) चम्पक वृक्ष । स्वर्णबन्धः (पुं०) सोना गिरवी रखना । स्वर्णभृङ्गारः (पुं०) स्वर्ण पात्र
स्वर्णमय (वि०) हैमतुल्य (जयो०वृ० ११ / १५)
स्वर्णमाक्षिकम् (नपुं०) स्वर्ण मक्खी ।
स्वर्णमेखला ( स्त्री०) सोने की करधनी, हेमसूत्रावली ।
स्वर्णवर्णा ( स्त्री०) हल्दी |
स्वर्णशैल: (पुं०) सुमेरु पर्वत (जयो० ३ / १०४ ) स्वर्णाक्षरम् (नपुं०) सोने के अक्षर। (जयो०वृ० २० / ७५) स्वर्द (अक० ) चखना, आस्वाद लेना।
स्वर्लोकः (पुं०) स्वर्ग लोक (जयो० ६ / १३२)
१२३०
स्वल् (अक० ) जाना, हिलना ठुलना। स्वल्प (वि०) [सुष्ठु अल्पं बहुत छोटा, बहुत कम। स्वल्प- कङ्कः (पुं०) एक पक्षी।
स्ववंश (पुं०) निजकुल। (जयो० १/४३) स्ववपुष (नपुं०) अपना शरीर (सुद० ९८ ) स्ववृत्तिः (स्त्री० ) अपनी आजीविका (वीरो० १७/९) स्ववार्तिकः (पुं०) श्लोक वार्तिक नामक न्याय ग्रन्थ मीमांसक कुमारभट्ट की वृत्ति (वीरो० १९ / १९) १९/१९)
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स्व-वासनाभिव्यक्ति (स्त्री०) अपनी वासना की अभिव्यक्ति ।
(जयो०वृ० १२ / ११४)
स्वशक्तिः (स्त्री०) आत्मबल (सुद० १११ )
स्वल्पकर (पुं० ) थोड़ा कर अल्पअंश दान।
1
स्वल्पखण्डः (पुं०) लघु भाग ।
स्वल्पघात (वि०) थोड़ी सी हानि। स्वल्पजात (वि०) अल्प उत्पत्ति वाला।
स्वशिष्यः
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स्वल्पतर (वि०) तनीयसी । (जयो० वृ० १३ / ४१ ) स्वल्पतप (वि० ) थोड़े तप वाला । स्वल्पदानम् (नपुं०) अल्पदान, किञ्चित् दान। स्वल्पधनम् (नपुं०) थोड़ा सा धन । स्वल्पधर्मन् (वि०) किंचित धर्म युक्त ।
स्वल्पनन्दिन् (वि०) अल्प हर्ष युक्त।
स्वल्प-पल्लवम् (नपुं०) अल्प पत्र (सुद० ११२) निष्फललतेव विचाररहिता स्वल्पपल्लवच्छाया। (सु० ११२ )
स्वल्पफलम् (नपुं०) किंचित् फल।
स्वल्पभाव: (पुं०) थोड़ा परिणाम । स्वल्पमति (स्त्री०) मूढमति । स्वल्पमोह (वि०) किंचित् मोह युक्त।
स्वल्पपलम् (नपुं०) थोडा प्रयत्न । स्वल्पयोगः (पुं०) योग की कमी। स्वल्पराग (वि०) किंचित् भी राग जन्य । स्वल्पलालिमा (स्त्री०) किंचित भी अनुराग । स्वल्पशरीर (वि०) ठिगने शरीर वाला। स्वस्वभाव: (पुं०) निज आत्म भाव। (जयो० २ / २९ ) स्वस्थानाङ्कित (वि०) अपने स्थान की पहचान करने वाला। (जयो० २ / १२३ )
स्वस्तिक्रिया (स्त्री०) शोभनक्रिया, स्वस्तिपाठ (जयो० १८/२) स्वल्पसंयोग (वि०) थोड़ा सा भी योग
स्वल्पिष्ठ (वि० ) [ स्वल्प + इष्टन् ] अत्यन्त सूक्ष्म । स्वल्पाभावः (पुं०) लघिमा | (जयो०वृ० ४ / ६६ ) स्वल्पीयस् (वि० ) [ स्वल्प+ईयसुन्] अपेक्षाकृत छोटा स्ववश (वि०) अपने आधीन (जयो० २ / ८४ ) स्ववाहिनीभूत (वि०) अपने वाहन पर स्थित (जयो० ११/२६) स्वव्यापिन् (वि०) अपने स्वभाव में व्याप्त (वीरो० १९/१९) स्वविभवः (पुं०) अपनी सम्पत्ति । (सुद० ४/४७) (मुनि०१५) स्वशय (वि०) अपने हाथों से सुलाई गई। (सुद०३/२३) स्वशिष्यः (पुं०) प्रधानशिष्य, प्रमुख शिष्य (वीरो० २१ / २४)
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स्वशुरः
१२३१
स्वादिष्ठ
स्वशुरः (पुं०) अपने पति का पिता या पत्नी का पिता। स्वश्री (स्त्री०) आत्म लक्ष्मी। (जयो० ३/७१) स्वसृ (स्त्री०) [सू+असृ+ऋन्] भगिनी बहिन। सासू (जयो०
२/१३२) स्वसार्थिन् (वि०) अपना साथी। (वीरो० १५/२६) स्वसृत (वि.) [स्वास+क्विप्] अपनी इच्छा से जाने वाला,
स्वतंत्र चलने-फिरने वाला। स्वस्थ (वि०) आनंद, क्षेमपूर्ण, कुशल। (सम्य० १३५)
(दयो० ३०) स्वस्थानम् (नपुं०) अपना स्थान। स्वस्थाननिवेश: (पुं०) अपने आवास में प्रवेश। (जयो०वृ०
६/१३२) स्वस्मात् अस्पृष्ट होना। (सुद० १०९) स्वस्वान्त (वि०) इन्द्रिय निग्रह युक्त। (वीरो० १८/२८) स्वस्ति (अव्य०) [सु+अस्+क्तिच] वा अस्तीति विभक्तिरूपकं
अव्ययम्। कल्याण हो, शुभ हो, अभिवंदनीय हो, नमन
योग्य हो, जयवंत हो। (दयो० २९) स्वस्तिकः (पुं०) [स्वस्ति शुभाय हितं क] (जयो० २४/९२)
एक मांगलिक चिह्न। अष्ठ प्रतिहार्यों में से एक मंगल प्रतीक। मंगलकारी। (जयो० २/३४)
० अष्टमंगल द्रव्य। (जयो० १२/७) स्वस्तिमुखः (पुं०) पत्र, मांगलिक पत्र।
. स्तुति पाठक। स्वस्थिताक्षमनस् (वि०) आत्मवशीभूतेन्द्रियचित्त। (जयो० २/२३) स्वस्त्रीयः (पुं०) [स्वस्+छ ढक् वा] भानजा, बह्नि का पुत्र। स्वस्त्रीया (स्त्री०) [स्वस्त्रीय+टाप्] भानजी, बहिन की पुत्री। स्वदृशा (वि०) स्वामी। (सुद० २/४९) । स्वहित (वि०) आत्महित, अपना कल्याण। (भक्ति० ३१) स्वहृदयदेशः (पुं०) हृदय का टुकड़ा। (दयो० ५५) स्वाकूतसाङ्केतः (पुं०) अपने अभिप्राय का संकेत। (सुद०
२/३२) स्वागतम् (नपुं०) [सु+आ+गम्+क्त] शुभागमन, शुभ अभिवादन।
(जयो० १२/१४३) उचित समागम, श्रेष्ठ भाव युक्त, आगमन। (जयो० ५/१८) ० प्रतिग्रह। (दयो० ११५) सम्मानजनक आगमन।
(दयो०१०५) स्वागतगानम् (नपुं०) शुभागमन का गीत। (दयो० १८) स्वागच्छम् (नपुं०) स्वागत, शुभागमन। (सुद० ७८)
स्वाङ्किकः (पुं०) [स्वाङ्क ठक्] ढोल बजाने वाला। स्वाचारसिद्धिः (स्त्री०) अपने इच्छा से कार्य करने की
अभिलाषा, स्वच्छंदता, स्वतंत्रता। स्वातन्त्रयम् (नपुं०) स्वतंत्रतापूर्वक। (जयो० ७/१५) स्वाधीनता।
स्वच्छन्द। (जयो० १३/११०) स्वातन्त्र्यप्राप्तिः (स्त्री०) स्वतंत्रता की उपलब्धि। (जयो०
१८४८१) स्वातिः (स्त्री०) [स्व+अत्+ इन्] सूर्य की पत्नी।
० स्वाति नक्षत्र। (सुद० )
० शुभ नक्षत्र पुंज। स्वातियोगः (पुं०) चन्द्रयोग। स्वात्मन् (पुं०) निजात्म। (सुद० १२२)
० आप। (जयो० ४/२३) ० अपना आत्मा। (सम्य० ८३) • अपने आप। स्वात्मानमुज्जीवयतीति शस्यः। (जयो०
१/७६) स्वात्मगत (वि०) आत्माधीन। स्वात्मजन्य (वि०) आत्मा से युक्त। स्वात्मपरिणतिः (स्त्री०) अपनी आत्मा परिणति। (जयो०७०
२३/७२) स्वात्मभावः (पुं०) अपने आत्मा का भाव। स्वात्मविचारणा (स्त्री०) आत्मानुभूति। (सुद० ९६) स्वात्मस्थित (वि०) निजात्मगत। (भक्ति० २३) स्वात्मीय (वि०) अपने आत्मगत। (मुनि० १८) स्वादः (पुं०) [स्वद्+घञ्] रस, चखना, खाना, स्वाद लेना
रसास्वादन करना। ० पसन्द करना।
० उपभोग करना। स्वादनम् (नपुं०) [स्वद्+ल्युट्] रस, चखना, खाना, आस्वाद
लेना। (जयो० २७/१४) ० पसंद करना।
० उपभोग करना। स्वादनवृत्ति (स्त्री०) स्वादुभोजन विचार। (जयो० २७/१४) स्वादिमन् (पुं०) [स्वाद इमनिच्] माधुर्य, रसभावता, आस्वादन
रूपता। स्वादिष्ठ (वि.) [स्वादु+इष्ठन्] सबसे माधुर्य युक्त, अत्यन्त
मधुर। ० श्वसन। (भक्ति० १५)
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स्वादिष्ठता
१२३२
स्वामीदयानन्दः
स्वादिष्ठता (वि०) माधुर्य पूर्ण। (जयो० २२/६०) स्वादीयस् (वि.) [स्वादु+ईयसुन्] बहुत मीठा, अधिक मधुरता
युक्त।
स्वादु (वि०) [स्वद्+उण] मधुर, मीठा, रस युक्त। (वीरो०
२२/३४) ० रुचिकर, चखने में मधुर। ० सुखद, पसंद करने योग्य।
• मनोहर, सुंदर, प्रिय। स्वादुता (वि०) रुचिकर, पसंद करने योग्य, माधुर्य युक्त।
(जयो० २२/६०) स्वादुमूलं (नपुं०) गाजर। स्वादुरसा (स्त्री०) द्राक्षा।
० मदिरा। ० अंगूर। ० काकोली मूल।
० शताबरी पादप। स्वादुशुद्ध (नपुं०) सेंधा नमक। ___० समुद्री नमक। स्वाधारः (पुं०) स्व प्राणाधार। (जयो० १०/११९) स्वाधीन (वि०) स्वतंत्र।
• दैवीधीन। (दयो० १०७/ ) आत्माधीन। (सम्य० ८४) स्वाधीनवृत्तिः (स्त्री०) स्वतंत्रता की प्रवृत्ति। (जयो० २४/४१) स्वाध्यायः (पुं०) ज्ञान भावना।
० प्रशस्त अध्यवसाय, शोभन हित, आत्म हित। ० निरंतर ज्ञानाभ्यास, ०सम्यगध्ययन (मुनि० १९)
० आत्मचिन्तन। (जयो० २८/९) स्वानः (पुं०) [स्वन्+घञ्] ध्वनि, कोलाहल। स्वान्त (वि०) प्रसन्न, खुश, हर्षयुक्त। (जयो० ११/८०)
० स्वमनस्। (जयो० २७/५३) ० व्याप्त (सुद० ८३)
० मन, चित्त। (जयो० ५/७२) स्वान्तपत्रिणी (स्त्री०) मन रूपीपक्षी। (जयो० ५/७२) स्वान्तं
चित्तमेव पत्री। (जयो० ५/७२) स्वान्तरङ्गम् (नपुं०) अपना हृदय, अन्तरंग। (जयो० २३/८२) स्वान्वयः (पुं०) स्व-कर्म निरत। (जयो० २/११८)
० कुलक्रमागत। (जयो० २/११६) ___० स्ववंश। (जयो० २/१०४) स्वान्दुरत्नम् (नपुं०) निजभूषण रत्न। (जयो० ५/६५) स्वापः (पुं०) [स्वप्+घञ्] निद्रा, शयन।
० स्वप्न। ० आलस्य। इन्द्रियात्ममनोमरुतां सूक्ष्मावस्था स्वापः। (नीतिवाक्यामृत २५२)
० स्वप्नावस्था। स्वापतेयम् (नपुं०) [स्वपते रागतं ढब] धन, वैभव, सम्पत्ति। स्वाभाविक (वि०) प्रकृति गत, सहजरूप, अन्तर्हित। (जयो०वृ०
२/११२) स्वाभाविकज्ञानम् (नपुं०) सहजज्ञान। (भक्ति० १) आत्मगत
ज्ञान, स्वतः उत्पन्न हुआ ज्ञान। स्वाभाविकार्य क्रिया (पुं०) अपनी सहज रूप की अर्थक्रिया।
(सम्य० २२) स्वाभाविकी (स्त्री०) सदानुकूला। (जयो०वृ० ९/५८) सहजगता
(जयो०वृ० ६/५२) स्वाभावोक्ति (स्त्री०) एक अलंकार स्वाभाविक कथन। (जयो०
१३/७२) अनकृष्य च नकलावलिं नमयन्नात्मवपुः पुरस्तराम्। उपवेशयति स्म तद्गतः सहसा सादिवरः क्रमलेकम्।।
(जयो० १३/७३) स्वाभीष्ट (वि०) अनुकूलता। (जयो०वृ० २/१४९) स्वाभ्युदयः (पुं०) निजोत्कर्ष-आत्मोन्नति। (जयो० १/१) स्वामिता/स्वामित्व (वि०) [स्वामी+तल+टाप् त्व वा] प्रभुत्व,
आधिपत्य। स्वामिन् (वि.) [स्व अस्त्यर्थे मिनि] अधिकार युक्त,
प्रभुता युक्त। स्वामात्यः (पुं०) आत्म रूप मन्त्रि। (जयो०७० ३/६६) स्वामिन् (पुं०) प्रभु, मालिक। (सुद० ९२)
० गुरु, अर्हत्प्रभु। (सुद० ७३) ० धव। (जयो०वृ० १३/२०) पुनरपि न जाने कुतो न समायाति स्वामी। (दयो० २/७)
० पति। (जयोवृ० १/२०) स्वामि-उपकारकः (पुं०) अश्व, घोड़ा। स्वामिकार्यम् (नपुं०) प्रभु का कार्य। स्वामिजनः (पुं०) प्रभु। (सुद० ९२) स्वामिनि (स्त्री०) मालकिन, रानी साहिबा। (सुद० ८७) स्वामिभावः (पुं०) मालिक भाव, प्रभुभाव। स्वामिभाषित (वि०) प्रभु द्वारा कथित। (जयो० ४/१२) स्वामीदयानन्दः (पुं०) प्रसिद्ध आर्य समाजी, विचारक।
(वीरो०८/५७)
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स्वाम्यम्
१२३३
स्वेदकण:
स्वाम्यम् (वि०) [स्वामिन्+ष्यञ्] स्वामित्व, प्रभुता, मालिकपना। • स्विदिति सन्देह द्योतकं पदम् (जयो० ५/८७) स्वायंभुव (वि०) ब्रह्मा से सम्बंधित।
० किन्तु (जयो० २/५७) स्वायंभुवः (पुं०) आदिनाथ, आदिब्रह्मा।
० श्वेत, शुभ्र। (मुनि० ९) स्वायंवरी (वि०) स्वयंवर से सम्बंधित। (जयो० २०/३०) ० क्या है? ऐसा भी हो सकता है। स्वारसिक (वि०) [स्वरस+ठक्] काव्यगत रस युक्त।
० प्रश्नात्मक अव्यय। स्वारस्य (वि०) श्रेष्ठता, लालित्य।
० पृच्छात्मक अव्यय। स्वारुक् (वि०) दिव्य रूप वाली। (जयो० ११/५२) स्विद् (अक०) स्वेद आना, पसीना आना। (जयो० ३/८३) स्वार्थः (पुं०) अपना निजी हित, लम्पटता, अपना कल्याण। ० विशुब्ध होना। (सुद०७५) स्वीकार करना। (जयो०१/५५) स्वार्थस्येयं पराकाष्ठा (सुद० १२८)
स्विदर्कः (पुं०) वास्तव में सूर्य। बभूव तच्चेतसि एष तर्कः स्वार्थकृत् (वि०) स्वार्थपूर्ति करने वाला। (सुद० १०५)
प्रतीयते तावदयं स्विदर्कः। (वीरो० १४/२३) स्वार्थता (वि०) स्वार्थ भावना जन्य। (दयो० ३७) स्विदपांशुल (वि०) शील व्रतधारिणी, स्विदपि पुनरपांशुलस्य, स्वार्थपर (वि०) स्वार्थ में तत्पर। (वीरो० १६/८)
न पांशु धूलि लाति स्वीकरोतीति (जयो० १९/१८) स्वार्थपरायणं (नपुं०) स्वार्थ से परिपूर्ण भाव। स्व-चक्षुषा स्विदहीन (वि०) रज रहित, शोभा युक्त। (जयो० १८/१९)
स्वार्थपरायणां स्थितिं निभालयामो जगतीदशीमिति। स्विन्नदशानुवर्तिन् (वि०) प्रस्वेददशानुवर्ती। (वीरो० १२/२७) (वीरो०८/३)
स्विन्ना (वि०) स्वेदन शीला, स्वेदयुक्ता। (जयो० २२/३२) ० स्वार्थी जन। (जयो० ५१)
स्वीकरणम् (नपुं०) स्वीकार करना, लेना, ग्रहण करना। स्वार्थपरायणत्व (वि०) अपने हित में लीनता। (सुद० १०८) ___० वाग्दान, पाणिग्रहण। (जयो० २/६५) स्वार्थभावः (पुं०) अपने कल्याण का भाव। (सुद० ११०) स्वीकार्यक (वि०) ग्रहण, लेना, अंगीकार करना, आप्य, प्राप्य। स्वार्थभृत (वि०) स्वार्थ युक्त। (जयो० १४/८३)
स्वीक्रिया (स्त्री०) ग्रहण करना। (सुद०८१) स्वार्थसमर्थनम् (नपुं०) स्वार्थपूर्ति की पुष्टि। (दयो० ११८) स्वीकृ (सक०) स्वीकार करना, पाणिग्रहण करना, अंगीकार स्वार्थसिद्धिः (स्त्री०) अपना उल्लू सीधा करना। (हित०सं०९) करना। (सुद० ७६) (जयो० ३/१०२) स्वार्थाच्चुतिः (स्त्री०) स्वार्थ से भ्रष्ट होना। 'स्वार्थाच्चुतिः (जयो० २/९५) स्थितः स्वीकुरुते स्म सेवाम्। (वीरो०१३/८) स्वस्य विनाशनाय' (वीरो० १७/११)
स्वीकृतवती (वि०) स्वीकार की गई। (जयो० ६/१२०) स्वालक्षणम् (वि०) विशेष लक्षण वाला।
स्वीकृतवान् (वि०) स्वीकार करने योग्य। (जयोवृ० १/३०) स्वाल्प (वि०) थोड़ा सा, अल्पमात्र।
स्वीकृतालङ्कारः (पुं०) ० शोभा युक्त आभूषण, अच्छे-अच्छे स्वास्थ्यम् (नपुं०) [स्वस्थ ष्यञ्] ० तन्दुरुस्ती, निरोगता। वस्त्राभूषण। ० कुशलक्षेम, सुख समृद्धि। (जयो०२)
स्वीकृति (स्त्री०) अनुमति। (जयो० २/१५) (जयो० ५/११) ० नीरुज। (जयो० ७/८४)
स्वीय (वि०) अपना, निज। (वीरो० ९/३) आत्मीय, निजीय। ० आत्मनिर्भरता, दृढ़ता।
(सुद०१/१) स्वास्थ्यप्राप्तिः (स्त्री०) लाभप्राप्ति, नीरुज भाव। स्वास्थ्यप्राति- स्वीयगुणार्जनम् (नपुं०) आत्मीय गुणों की प्राप्ति। (भक्ति० ४२)
रिवोच्यते बुधजनै वैद्यस्य हत्वा व्रणम्। (मुनि०३१) स्वीयम (वि०) आत्मीय, निज। (जयो० २३/७९, सुद० ४/४३) स्वालम्बनम् (नपुं०) आत्माधीन, अपने आप पर निर्भर, स्वृ (अक०) शब्द करना, कोलाहल करना। क्रियाशील, आत्मशक्ति का आश्रय। (सुद० ७४)
चोट पहुंचाना। स्वाहा (स्त्री०) [सु+आ+ह्वे+डा] आहूति। ० सन्तर्पण। स्वेक् (अक०) जाना, प्राप्त होना।
इत्यादिमयः स तृप्तिसार्थः सन्तर्पणकारकः। (जयो०७० | स्वेच्छाविहार (वि०) स्वतंत्र विचरण। एकाकी विहार। १२/७२)
(जयो० १३/१०८) स्वित्/स्विद् (अव्य०) थोड़ा, अल्प भी। (जयो० ४/१०) स्वेदः (पुं०) [स्विद् भावे घञ्] पसीना, श्रमबिन्दु। 'यास्यतीव हि भवान् स्विददीनं'
स्वेदकणः (पुं०) पसीने के कण, श्रमबिन्दु।
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स्वेदजलश्पूरः
१२३४
हजा/हंजे
स्वेदजलश्पूरः (पुं०) श्रमनीरनिर्झर। (जयो०व० १३/७८)
० विष्णु, ब्रह्मा। स्वेदनं (नपुं०) पसीना, श्रमनीर। (जयो० १२/१२९)
० पर्वत, गिरि। स्वेदमिष (वि०) पसीने के बहाने। (वीरो० १२/१५)
हंसकः (पुं०) [हंस+कन] मराल, कारंडव। स्वेदयुक्त (वि०) पसीने से सराबोर। (जयो०३/८३) हंसकान्ता (स्त्री०) हंसिनी, हंसी। स्वेदोदम/स्वेदोदकम् (नपुं०) पसीना, श्रयनीर, श्रमबिन्दु। हंसकीलकः (पुं०) रतिबंध की क्रिया। स्वेदोदबिन्दु (नपुं०) स्वेदकण। (जयो० १७/५०) हंसगति (स्त्री०) राजसी गति, मंद एवं स्थिरगति। स्वेचित (वि०) स्वयोग्य। (जयो० २/१७)
हंसगद्गदा (स्त्री०) मधुरालपिणी स्त्री। स्वोचितवृत्तिः (स्त्री०) निजकुल परम्परा का व्यवहार। (जयो० हंसगामिनी (स्त्री०) राजसी गति वाली स्त्री। २/११०)
हंसध्वनिनिर्बन्धनम् (नपुं०) हंस की ध्वनि का होना। स्वोच्चवर्गः (पुं०) सर्वप्रधानवर्ग। (वीरो० २।८)
(वीरो० २१/१८) स्वैर (वि०) [स्वस्य ईरम् ईद्+अच्] स्वच्छन्द, स्वेच्छाचारी, | हंसदाहनम् (नपुं०) अगर की लकड़ी। अनियंत्रित, निरंकुश।
हंसनादः (पुं०) हंस का कलरव। ० स्वतंत्र।
हंसनादिनी (स्त्री०) मधर संभाषिणी स्त्री। ० मंथर, मंद।
हंसपदं (नपुं०) हंस का स्थान। स्वैरम् (अव्य०) इच्छा के अनुसार।
हंसमाला (स्त्री०) हंसों की पंक्ति। स्वैरविहारिणी (वि०) आराम से, यथेष्छ गमनशील। हंसय् (अक०) हंस के समान प्रतीत होना। शशी विहायः (जयो०१/२०)
सरसि प्रसन्नो हंसायते मेचकं शैवलाशी। (जयो०१५/६५) स्वैरिणी (स्त्री०) स्वेच्छाचारिणी, असती, कुलटा, व्यभिचारिणी। हंसायते, हंस इव लक्ष्यते। स्वैरित (वि०) स्वेच्छाचार युक्त। (जयो० २/१३६) मनमानी हंसयुवन् (पुं०) युवा हंस। (जयो० २३/७१)
हंसरथः (पुं०) ब्रह्मा। स्वैरिन् (वि.) [स्वेन ईरितं शीलमस्य-स्व ईर-णिनि] हंसखः (पुं०) हंस का कलख। (वीरो० २१/५) स्वेच्छाचारी, मनमानी करने वाला।
हंसलोमशकम् (नपुं०) कासीस। स्वोरसः (पुं०) पसीने से तर।
हंसलोहकम् (नपुं०) पीतल। स्वोवशीयम (नपुं०) आनंद. समद्धि।
हंसवाक् (नपुं०) हंस वचन। (जयो० ६/१६) स्वौकः (पुं०) कल्याण में अद्वितीय, स्थान। स्वस्य परेषाञ्च हंसश्रेणी (स्त्री०) हंसों की पंक्ति। कल्याणानामेकमद्वितीयम ओक: स्थानमभूत्। (जयो० ३/२) हंसाङ्घिः (पुं०) सिंदूर।
हंसाधिगता (स्त्री०) भारती, सरस्वती। ह (अव्य०) बलबोधक निपात।
हंसाधिरुढा (स्त्री०) सरस्वती, भारती। हः (पुं०) आकाश नभ।
हंसिका (स्त्री०) हंसनी, हंसी। मादा हंस। (जयो०१/७४) ० जल, ० रुधिर।
हंसी (स्त्री०) हंसिनी। हंसः (पुं०) [हस्+अच्] मराल, मुर्गाबी। (सुद० ३/३) हंसः हंहो (अव्य०) [हम् इत्यव्यक्तं जहाति-हम-हा-डो] ० सम्बोधन सूर्यमरालयाः इति वि (जयो० १५/१२)
वाचक अव्यय। ० सूर्य। (जयो० २/५) हंस पक्ष्यात्सूर्येषु इत्यमरः ० नाटकों में प्रायः इसी तरह का बोध किया जाता है। (जयो०१५/१२)
हकारः (पुं०) ह व्यञ्जन। ० मानसपक्षी। (जयो०वृ० ३/६३)
हकारपर्यन्त (पुं०) अ से ह तक। (जयो० ११/८०) • जीवात्मा, परमात्मा।
हक्कः (पुं०) हस्ति आह्वान की एक शैली। ० वायु, पवन, वरटापति। (जयो० २५/५२)
हंजा/हंजे (अव्य०) दासी को बुलाने के लिए नाटक में यह ० सूर्य। (जयो० १५/१२)
प्रयोग होता है।
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हद्
दमकना ।
हट् (अक० ) चमकना, उज्ज्वल होना, हट्ट (पुं०) [ हट्+ट टस्य नेत्वम् हा, बाजार, मेला । हट्टपंक्तिः (स्त्री०) विपणि, दुकान का एक रूप होना । (जयो० १३/८९)
हट्टविलासिनी (स्त्री०) वारांगना, वेश्या, पण्डिका । हठ (पुं०) [हद्+अच्] दुराग्रह, बल, प्रचण्डता । (जयो० २/१९) जिद करना, अडिग होना- प्रसरन् बालहठेन भूतले (सुद० ३ / २५)
हठयोगः (पुं०) योग की एक विशेष पद्धति ।
विद्या ( स्त्री०) बलपूर्वक मनन करने का विज्ञान | हठवृत्तिः (स्त्री०) दुराग्रह की प्रवृत्ति । (जयो० १८/४५ ) 'एकान्तवादो हठवृत्तिस्तद्विनिवृत्तिया' (जयो०वृ० १८/४५) हडि (स्त्री०) काठ की बेड़ी।
हडिका ( स्त्री०) निम्न व्यक्ति, नीच व्यक्ति । हण्डा (अव्य० ) [हन् + डा] ० सम्बोधनात्मक अव्यय, ० निम्न श्रेणी की स्त्री को बुलाने का सम्बोधन । efusar (स्त्री० ) [ हण्डा+कन्+टाप्] हांडी, मिट्टी का बर्तन । हण्डे (अव्य०) सम्बोधनात्मक अव्यय ।
हत (भू०क०कृ० ) [हन्+क्त] ०मारा गया, ०वध किया गया, ० प्रहार किया गया। (वीरो० १६ / ३० ) ०आहत करना,
० मारना (सुद० १२७) ०क्षतिग्रस्त, ०घायल |
० वञ्चित, हीन, रहित। (समु० ७ / ९ )
हतक (वि० ) [हत् + कन्] दुःखी, कष्ट गत। • दुष्ट, निम्न, नीच ।
हतत्व (वि०) हताश (सुद० ९८ )
हतभागिन (वि०) अभागा, भाग्यहीन (सुद० ७३ ) हतिता (स्त्री०) लड़ाई (बीरो० २२ / २८ )
हति (स्त्री० ) [हन् + क्तिन्] ० विनाश, ०क्षति हानि। ० प्रहार
०घात ।
० प्रवञ्चना, धोखा। (जयो० २/५७) (मुनि० १८ ) त्रुटि, दोष ।
О
० नष्ट। (सुद० ७२)
हतिविरूप (वि०) बुरा हाल । (सुद० ९४) (दयो० १०६ ) हलुः (नपुं०) शस्त्र, रोग।
हत्या (स्त्री०) वध, मारना, ०घात करना ।
० संहार ।
हद् (अक० ) मलत्याग करना ।
हदनम् (नपुं०) [इद् + ल्युट् ] मलत्याग, मलोत्सर्ग।
१२३५
हयप्रियः
हन् ( अक० ) ० मारना, वध करना, ०नाश करना। हनन्ति हन्त मृगषाप्रसङ्गिन (जयो० २ / १३४) खड्गेनायसनिर्मितेन न हतो वज्रेण वै हन्यते (वीरो० १६ / ३० )
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० आहत करना, मारना (सुद० १२७)
० आघात करना, पीटना, प्रहार करना ।
० कष्ट देना, संताप देना, क्षति पहुंचाना। अहन्तुः (सुद० ८६)
०
7
हन् (वि०) वध करने वाला ०मारने वाला, पीटने वाला, ० प्रहार करने वाला ।
हन्: (पुं० ) [हन्+अच्] वध, हत्या, संहार, प्रहार, घात हननम् (नपुं०) [हन्+ ल्युट् ] वध करना, मारना, प्रहार करना, घात, विनाश।
हनुः (पुं०) शस्त्र ० रोग । मृत्यु | • एक औषधि विशेष ।
हनुग्रहः (पुं०) बन्द जबड़ा। हनुमत् (पुं०) अंजनापुत्र, पवनपुत्र । ० मारुति ।
हन्त (अव्य० ) [हन्+त] हर्ष, प्रसन्नता ।
० करुणा, दया, खेद, दु:ख, आदि, (समु० ७५) प्रकट करने में 'हन्त' अव्यय का प्रयोग होता है। खेद है। (सुद० १०२) हन्तेति खेदे (जयो० २ / १३४)
• अफसोस (सुद० ९८ ), शोक।
• शोक, ० हन्तेति खेदपूर्वक मुच्यते। (जयो० २१ / ३२) हन्तृ (वि० ) [हन् + तृच्] ० प्रहारकर्ता, वधकर्ता । (सुद० ८७) • चोर लुटेरा ।
हम् (अव्य०) [हा+डम्] क्रोध भाव से शिष्टाचार से उद्गार | हम्बा (वि०) गाय का रंभाना ।
हय ( अक० ) पूजा करना, अर्चना करना।
० शब्द करना।
० धक जाना।
हय (पुं०) [ह्य+अच्] अश्व, घोड़ा, घोटक (जयो० १/१९) वाजिन (जयो०वृ० १३/५)
हयकोविदः (पुं०) घोड़ों के प्रबन्ध, अश्व विज्ञान |
हयङ्कष: (पुं०) चालक रथवान् ।
हयज्ञ: (पुं०) अश्व विक्रेता । ० घुड़सवार, अश्वारोही। हयद्विषत् (पुं०) भैंसा | हयप्रियः (पुं०) जी।
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हयप्रिया
१२३६
हरितवर्णः
हयप्रिया (स्त्री०) खजूर का वृक्ष। हयमार:/हयमारकः (पुं०) कनेर, करवीर। हयमारणः (पुं०) पावन कनेर। हयमेधः (पुं०) अश्वमेध यज्ञ। हयराड (पुं०) अश्वराज। (जयो० २/८७) हयवरः (पुं०) श्रेष्ठ अश्व, उत्तम घोड़ा। (जयो० ५/१७) हयवाहनः (पुं०) कुबेर। हयशफाइति (स्त्री०) घोड़ों के खुरों की आहट। (जयो०
७/१०९) हयशाला (स्त्री०) अश्वशाला। हयशास्त्रम् (नपुं०) अश्व शिक्षा शास्त्र। हयसंग्रहणम् (नपुं०) लगाम लगाना, घोड़ों को रोकना। हयाननम् (नपुं०) अश्वमुख।
० व्यन्तरदेव। हयानामाननानीव आनमानि येषां ते सेवा
वर्गस्तथा व्यन्तरदेवसमूहश्च। (जयो० ५/१२) हयान्वयधर्ता (वि०) घोड़ा को रखने वाला। (समु०२/२२) हयायमाना (वि०) विपुल काम वासनावती। (जयो० २३/२२) हयी (स्त्री०) घोड़ी। हर (वि०) [ह+अच्] हरण करने वाला, (सुद०७३) अपहरण
करने वाला, खेदहर, शोकहर।
० अभ्यर्थी, दावेदार, अधिकारी। हरः (पुं०) महादेव, शिव, शंकर। (जयो० १/७३) यदाज्ञयार्धा
ङ्गितया समेति प्रियां हरो वैरपरोऽप्यथेति। (जयो० १/७३) ० कामारि, शंकर। (जयो०वृ० १६/१०) ० अग्नि । ० गर्दभ।
. भाजक, भाग देने पर भिन्न की संख्या। (तिलोय) हरगत (वि०) अपहरण शील। हरगौरी (स्त्री०) शिव की प्रिया गौरी। हरचन्दः (पुं०) शिव का चंद्र।, हरचूडामणिः (स्त्री०) चंद्रमा। हरणम् (नपुं०) ग्रहण, अभिग्रहण। हरतेजस् (नपुं०) पारा। हरसुनु (पुं०) स्कंद। हरारिः (पुं०) काम। (जयो० १७/१५) हरि (वि०) [ह+कन्] कपिल, खाकी रंग वाला, हरा पीला। हरिः (पुं०) ० विष्णु। (जयो०वृ० १/१३५) ब्रह्मा।
(जयो०वृ० १/३५)
• कृष्ण। (मुनि० २४) ० हरिश्चन्द्र मुनि। (समु० ५/२५) (जयोवृ० ४/६६) ० सिंह। (जयो० ७/११२) ० इन्द्र। ० यम। (जयो० २३/४९) ० सूर्य, ० चन्द्र, ० अग्नि, ० अश्व।
० सर्प, ० मयूर, ० मेंढक, तोता। हरिकः (पुं०) जुआरी, चोर, पीला घोड़ा। हरिकान्त (वि०) इन्द्र के लिए प्रिय। हरिकान्धः (पुं०) चन्दन, एक विशेष सुगन्धित चन्दन। हरिचन्दनः (पुं०) पीला चंदन। (जयो० २४/१६) हरिचन्दनद्रवः (पुं०) हरिचंदन का द्रव। (जयो० २४/७४) हरिचन्दनाञ्चित (वि०) हरिचन्दन नामक वृक्षों से युक्त।
(जयो० २४/६) हरिजनः (पुं०) हरिजन, मार्गादिमार्जनकरो जनः। (जयो०४/६७) हरिण (वि०) [ह+इनन्] फीका, पीला सा। हरिणः (पुं०) मृग। दरिणो हरिणा बलादमी तव धावन्ति मुधा
महीपते। (जयो० १३/४७) हरिणकलङ्कः (पुं०) चन्द्र, शशि। हरिणनयन (वि०) मृगनयनी, मृगाक्षी। (जयो० १८/९३) हरिणलोचन (वि०) हरिणाक्षी। हरिणहृदय (वि०) भीरु, भयभीत हृदय वाला। हरिणाङ्गना (वि०) मृगी, हरिणी। हरिणाङ्गनाखुरः (पुं०) मृगी खुर। (जयो० २५/१८) हरिणाक्षी (वि०) मृगाशी। हरिणी (स्त्री०) मृगी। (जयो० २२/६७) (जयो० १४/५६)
० एक अप्सरा विशेष। (जयो० २२/६७) हरित् (वि०) [ह+इति] हरा, हरितमायुक्त। (जयो० २१/७४)
० तृण सहित। (जयो० २१/७४)
० पीला सा, हरियाली युक्त। हरित् (पुं०) ० अश्व, घोड़ा। (जयो०३० २१/२४)
० इन्द्र। (समु० ६/४१) ० दिशा-हरतः ककुभिस्त्रियाम्। (जयो० ५/७) (जयो०वृ० २६/४६) इति विश्वलोचनः (जयो० २६/४६) ० सूर्य, ० विष्णु, ० सिंह।
० घास। (जयो० २१/७४) तृण। हरित (वि०) हरे रंग का। हरितः (पुं०) ० सिंह। हरितवर्णः (पुं०) हरवर्ण। (जयोवृ० १९/१८)
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हरिता
१२३७
हर्षण
-
हरिता (स्त्री०) दूर्वा, तृण, घास। (जयो०वृ० १/५८) हरिताङ्करं (नपुं०) हरित, अंकुर, दुर्वा। (जयो०वृ० १/५८)
० तृण, घास (शाड् वल) (जयो०वृ० ३/४७) हरितांशु (नपुं०) हरित अंकुर। (जयो०वृ० २२/४७) हरितोहित (वि०) इन्द्र की तरह कल्याणकारी। ० हरितवर्ण
युक्त। हरितो हरिद्वर्ण इत्येवमूहितस्य तर्कितस्येति। (जयो०व०
१९/१८) हरिद्विषः (पुं०) कामदेव। (जयो० २८/६८) हरिद्रा (स्त्री०) [हरिद्रु+ड टाप्] हल्दी-हरितो दिशा रातीति
हरिद्रा समन्ततः प्रख्यातमती अथ च 'हलदी' इति
देशभाषायाम्। (जयो० १५/३४, २७/५३) हरिद्राराग (वि०) हलदी के रंग वाला। हरिद्रावर्णः (पुं०) पीतवर्ण, पीलारंग। हरिनादः (पुं०) सिंहनाद, शेर की दहाड़। (वीरो० ७/२) हरिपीठः (पुं०) सिंहासन। (जयो० २६/९) मंगलपीठ, उत्कृष्ट
सिंहासन। हरिपीठगत्-सिंहासनस्थ। (जयो०१० २६/१३) पर्वत इव हरिपीठो प्राणेश्वर-पार्श्व-सङ्गता महिषी।
(वीरो० ४/३२) हरिप्रियः (पुं०) कदम्ब तरु।
० शंख।
हरिवाहनः (पुं०) गरुड़।
० इन्द्र। हरिविष्ठरः (पुं०) इन्द्र सिंहासन। (वीरो० ७/३) हरिश्चन्द्रः (पुं०) सूर्यवंश का एक राजा।
० धर्मशर्माभ्युदयमहाकाव्य के रचनाकार। हरिषेणः (पुं०) जोणिपाहुड कर्ता एक आचार्य, जो आयुर्वेद
काव्य रचयिता है। वृहत्कथाकार (जयो० १७/८९) ० साकेत नगरी के राजा वज्रषेण की रानी शीलवती का
पुत्र। (वीरो० ११/२८) हरिसुतः (पुं०) अर्जुन। हरिहयः (पुं०) इन्द्र।
सूर्य। हरिहूतिः (पुं०) चक्रवाक पक्षी। हरीतकी (स्त्री०) [हरिं पीतवर्णं फलाद्वारा इता प्राप्ता-हरि+ ___इक्त+कन् ङीष्] हरड़े का वृक्षा हरेणु (स्त्री०) नव यौवना। (जयो० १२/७८) हर्तृ (वि०) [हृ+तृच्] अपहरण करने वाला। (सुद० ९७)
० छीनने वाला, लूटने वाला। हर्तृ (पुं०) चोर। ___० लुटेरा। हर्ता (वि०) विनाशक। (जयो० २३/७६) (मुनि० २५) हर्ति (वि०) अपरहण करने वाला। ० विनाशक। हर्मन् (नपुं०) [ह+मनिन्] जंभाई लेना, मुंह खोलना। हर्मित (भू०क०कृ०) [हर्मन्+इतच्] जंभाई लेने वाला।
० फेंका गया, जलाया गया। हर्म्यम् (नपुं०) [ह+यत् मुट् च] प्रासाद, राजभवन, महल।
(जयो० )
० तंदूर, अंगीठी, चूल्हा। हावलिः (स्त्री०) प्रासादतति। (जयो० १६/६४) हर्ष (वि०) [हृष्+घञ्] आनन्द, (सुद० ९९) खुशी, प्रसन्नता,
रोमाञ्च, पुलक।
० उल्लास, आह्लाद, प्रमोद। हर्षक (वि०) [हृष्+णिच्+ण्वुल्] आनंदयुक्त। हर्षकर (वि०) समुद्दीपक, प्रसन्नताप्रदायक। (जयो०वृ० १/६३)
तृप्त करने वाला। हर्षजड (वि०) जडवत् हो जाने वाला। हर्षण (वि०) [हृष+णिच्+ल्युट] प्रसन्नता उत्पन्न करने वाला।
तृप्त करने वाला।
० मूर्ख।
हरिप्रिया (स्त्री०) लक्ष्मी, विष्णुप्रिया। (वीरो० २/१८)
० तुलसी का पौधा, औषधि नाम। (जयो० २१/८६)
० पृथ्वी , भू। हरिभुज् (पुं०) सर्प, सांप। हरिमन्थः (पुं०) मटर, चना। हरिमन्थकः (पुं०) मटर, चना। हरियः (पुं०) [हरि+या+क] पीत अश्व। हरियव्वरसी (स्त्री०) शान्तलादेवी की पुत्री।
हरियव्वरसिः पुत्री शान्तलाया जिनास्पदम्। कारयामास द्वादश्यां शताब्दयां विक्रमस्स सा।।
(वीरो० १५/४७) हरिरामा (स्त्री०) लक्ष्मी। (जयो० १४) हरिलोचनः (पुं०) केंकड़ा।
० उल्लू। हरिवल्लभा (स्त्री०) लक्ष्मी।
तुलसी। हरिवासरः (पुं०) एकादशी।
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हर्षणं
१२३८
हव्यमाहः
हर्षणं (नपुं०) आनंद, खुशी, प्रसन्नता।
हलिः (पुं०) हल। ० खूड। हर्षधारिन् (वि०) प्रसन्नता धारण करने वाला। (जयो० ८/५९) ० कृषि। हर्षप्रतिपद् (स्त्री०) हर्षयुक्त, प्रतिपदा। (सुद० २/११)
० बलराम। हर्षप्रद (वि०) प्रीतिद, आनंद प्रदाता। (जयो०वृ० २०/८९) हलिन् (पुं०) बलराम, ० कृषि, खूड। हर्षभावः (पुं०) मुदञ्चन, प्रमोदभाव। (जयो०वृ० १२/५७) हलिजनः (पुं०) किसान। ० चाण्डाल। हर्षवर (वि०) प्रसन्नता पूर्वक। (समु० ६/३२)
० कृषि बल। (जयो० ४/६७) हर्षसञ्जात (वि०) रोमाञ्च उत्पन्न करने वाला, म हलिनी (स्त्री०) [हलिन् ङीष्] हलों का समूह। (जयो०वृ० २१/४)
हलीनः (पुं०) [हलाय हितः हल+ख] सागौन का पेड़। हर्षसन्तति (स्त्री०) आनंद परम्परा। (वीरो० ७/३३) हलीषा (स्त्री०) [हलस्य-ईषा] हल का दण्ड, हलस।
जलमुच्चलमाप तावतेन्दुपुरं सम्प्रति हर्षसन्ततेः (वीरो० हल्य (वि०) [हल्+यत्] जोतने योग्य, हल चलाने योग्य। ७/३३)
० कुरुप, विकृताकृति। हर्षसर्गः (पुं०) आनंद भाग, प्रीति अंश। (समु० ६/१५) हल्लकम् (नपुं०) [हल्ल्+ण्वुल] रक्त कमल। हर्षस्वनः (पुं०) प्रसन्नता का भाव। आनन्द के स्वर। हल्लनम् (नपुं०) [हल्ल्+ल्युट्] लोटना, करवट बदलना। हर्षाङ्करम् (नपु०) हर्षभाव। (जयो०वृ० ३/८३)
हल्लीशम् (नपुं०) वर्तुलाकार नृत्य। हर्षाश्रु (स्त्री०) प्रमोदवाष्प। (दयो० १६/८१)
हवः (पुं०) [हु+अ, ह्वे+अप्] ० आहूति। ० यज्ञ, प्रार्थना, ० हषित (वि०) आह्लादित। (जयो० १/१०१)
आहावन। ० आनन्दित, प्रफुल्लित।
० आमन्त्रण। ० आदेश। ० चुनौतो। हर्षितमानस् (नपुं०) आह्लादितचित्त। (जयो०वृ० १/१०६) हवनम् (नपुं०) [हु भावे ल्युट्] आहूति। ० आह्वान, ० प्रार्थना, हषिताङ्गम् (नपुं०) रोमाञ्चित देह। (जयो० १/९०) परिपुष्ट ० आमंत्रण। वेष। (जयो० वृ० १/८५)
हवनकर्ता (वि०) हवन करने वाला, आहूति, देने वाला। हर्षुलः (पुं०) [हृष्+उलच्] हरिण।
__(जयोवृ० १५/६७) ० प्रेमी।
हवनीयम् (नपुं०) [हु+अनीयर्] आहूति देने योग्य। हर्षोकर्षः (पुं०) प्रमोद की वृद्धि। हर्षस्य प्रमोदस्योत्कर्षों हवनोचितः (पुं०) हवन के अनुरूप। (जयो०वृ० ७/८१) वृद्धिभावो। (जयो०वृ० ९/८३)
हवित्री (स्त्री०) [हु+इत्रन्+ङीप्] आहूति स्थान। हल् (अक०) हल चलाना, जोतना।
हविटासनम् (नपुं०) आग, अग्नि, होमान्नि, हवनाग्गि। (जयो हलम् (नपुं०) [हल् घञर्थे करणे क] लांगल, हल, खेत २८/४४) जोतने का उपकरण।
हविया (वि०) हवनाग्नि। (जयो० १२/६९) हलधर (वि०) हल धारक, हल चलाने वाला।
हविष्मत् (वि०) [हविस्+मतुप] आहूति वाला। हलधरः (पुं०) बलराम।
हविष्यम् (नपुं०) [हविषे हितं कर्मणि यत्] आहूति देने योग्य हलभृत् (पुं०) हाली, बलराम।
सामग्री। हलभूतिः (स्त्री०) किसानी, कृषिकर्म।
हविस् (नपुं०) [हूयते हु कर्मणि असुन्] होम, आहूति। हलभृति देखो ऊपर।
(जयो० १२/६९) हलहतिः (स्त्री०) खूड निकालना, जुताई, हल चलाना।
० घी। हविघुतमुत्तमस्तीति कारणम्। (जयो०वृ० १२/१८) हला (स्त्री०) [ह इति लीयते ह+ला+क+टाप्] सखी, सहेली। | हव्य (वि०) [हु कर्मणि+यत्] ० साकल्य, हवन में आहूति ० पृथ्वी।
देने योग्य पदार्थ। (जयो०वृ० २३/६) ० जल।
हव्यम् (नपुं०) घृत, घी। ० मदिरा।
० आहूति। हलाहलः (पुं०) विष।
हव्यमाहः (पुं०) अग्नि, हवनाग्नि।
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हव्यसामग्री
१२३९
हस्तिन्
हव्यसामग्री (स्त्री०) साकल्यभाज।
० हवन सामग्री। (जयो० २३/६) हस् (अक०) हसना, मुस्कराना, प्रसन्न होना। (जयो० ३/५३)
० उपहास करना। (सुद० ८५) ० खिलना, खुलना, हर्षित होना, प्रफुल्लित होना। (सुद०
४/१०) हस (वि०) हंसी, ठहाका।
० उपहास, आमोद-प्रमोद। ० प्रसन्नता।
० खुशी, ० हर्ष। हसनम् (नपुं०) [हस्+ल्युट] हंसना, उपहास, अट्टहास। हसनी (वि०) [हसन+ङीप्] चूल्हा, अंगीठी, कांगड़ी। हसन्ती (स्त्री०) मल्लिका. हंसती हुई। (वीरो० ५/३१) संतो
हसन्ती मृगशावनेत्रा कित्वा हसन्ती परिवारपूर्णाम्।
(वीरो०७/३१) ०चूल्हा, अंगीठी। हसिका (स्त्री०) [हस्+ण्वुल-टाप] उपहास, हंसी।
० अट्ठासा हसित (भू०क०कृ०) [हस्+क्त] उपहास करता हुआ, हंसता
हुआ।
० हर्षित। ० अट्टाहास युक्त। हसितवती (वि०) हंसने वाली स्त्री, प्रसन्नचित्त स्त्री।
(जयो०५/७०) हस्तः (पुं०) [हस्+तन्] हाथ, कर। (सुद०८०) (जयो० ११५)
(दयो० ४२) पाणि। (जयो०वृ० १४/३५) हस्तकः (पुं०) हाथ की अवस्थिति। हस्तकमलम् (नपुं०) हाथ रूपी कमल। कमल जैसा हाथ। हस्तकौशलम् (नपुं०) हाथ की दक्षता। हस्तक्रिया (स्त्री०) दस्तकारी, हाथ का काम। हस्तगत (वि०) हाथ में आया हुआ, अधिकार प्राप्त। हस्तगामिन् (वि०) अधिकार जन्य, हस्तगृहीत। हस्तग्राहः (पुं०) हाथ से पकड़ना। हस्तचापल्यम् (नपुं०) हस्त कौशल, दस्तकारी। हस्ततलम् (नपुं०) हथेली। (जयो० ४/४२) हस्तताल: (पुं०) हथेली बजाना, तालियां बजाना। हस्तदोषः (पुं०) हाथ से होने वाली भूल। हस्तधारणम् (नपुं०) हाथ का उपयोग। हस्तपादम् (नपुं०) हाथ और पैर। हस्तपुच्छम् (नपुं०) कलाई के नीचे का भाग।
हस्तपृष्ठम् (नपुं०) हथेली का पिछला भाग। हस्तप्रक्षालनम् (नपुं०) हाथ धोना। (जयोवृ० १९/५) हस्तप्राप्त (वि०) हाथ में आया हुआ, हस्तगत, उपलब्ध,
समागत।
० सुरक्षित, संरक्षित। हस्तप्राप्य (वि०) हाथ के पहुंचने योग्य। हस्तबन्धूरः (पुं०) शुण्ड, सूड, हाथी की सूड। (जयो० १३/३२) हस्तबिम्बम् (नपुं०) शरीर पर गन्ध लेपा हस्तमणिः (स्त्री०) हाथ कंगन, मणिवलय, रत्नाभूषण। हस्तयन्त्रम् (नपुं०) सिलाई मशीन, हस्तसीवन यन्त्र।
(जयो० २/५०) हस्तलाघवम् (नपुं०) हस्तकला, हाथ की सफाई, बाजीगरी। हस्तविनोदसाधनम् (नपुं०) कर क्रीडनक। (जयो०१० ३/६९) हस्तसंयोगः (पुं०) हाथ का योग, हाथ का प्रयोग। (जयो०
२०/६२) हस्तसंयोजनं (नपु०) सम्यगञ्जलित्व। (जयो०१० २०/१७) हस्तसंवाहनम् (नपुं०) हाथ मालिश, हाथ से दबाना। हस्तसिद्धिः (स्त्री०) मजदूरी, श्रम, परिश्रम। हस्तसूत्रम् (नपुं०) मंगलमय सूत्र, कंगन, कड़ा। हस्तस्थित (वि०) हाथ में रखा हुआ। (जयो०वृ० १/९) हस्ताग्रभागः (पुं०) पाणिलेश। (जयो०० १४/३७) हस्ताक्षरम् (नपुं०) दस्तखल, हस्त स्व नामाङ्कन। हस्तांगुलिः (स्त्री०) हाथ की अंगुली। हस्ताभ्यस्तः (पुं०) हाथ से कार्य करना। हस्ताम्बुकण: (पुं०) सूंड से जल उछालना। (जयो०८/२६) हस्तालम्बनम् (नपुं०) हाथ का सहारा। हस्तावलम्बिन् (वि०) हस्त आधारित। (सुद० १/३) हस्तावापः (पुं०) हस्तत्राण, हाथ पोश, दस्ताना। हस्ताहस्ति (वि०) दक्ष, कुशल, निपुण। हस्तिकम् (अव्य०) [हस्तैश्च हस्तैश्च प्रहत्य इदं युद्धं प्रवृत्तम्]
हाथापाई। हस्तिन् (वि०) [हस्तः शुण्डादण्डोऽस्त्यस्य इनि] सूंडयुक्त।
० करयुक्त। हस्तिन् (पुं०) हाथी। (जयो०वृ० १/२५) • गज।
० करेणु, दन्ति, दशनि। (जयो० १२८०) ० मतङ्गज, दन्तुर, दानधर, मदधर। (जयोवृ० ८/१९) ० करि। (जयो०वृ०६/२४) ० गणेश। (जयो० १/२) ० भद्र, सज्जन, कुशल, चतुर।
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हस्तिकक्ष्यः
१२४०
हारः
हस्तिकक्ष्यः (पुं०)० सिंह, ० बाघ।
हा (अक०) जाना, जुदा होना, चले जाना। हस्तिकर्णः (पुं०) एरण्ड पादप।
० छोड़ना, त्याग करना, भूल जाना। हस्तिन (वि०) हाथी को मारने वाला।
० घटना, कम होना, क्षीण होना। हस्तिचारिन् (पुं०) बलवान्, शूरवीर, बहादुर।
हाङ्गरा (स्त्री०) एक मछली। [हा विषादाय पीडायै वा अंग ० महावत।
राति-हा-अङ्ग+रा+क] हस्तिदन्तः (पुं०) हाथीदांत।
हाटक (वि०) [हाटक+अण्] सुनहरी। ० गजदन्तपर्वत। (भक्ति० ३६)
हाटकम् (नपुं०) सोना, कनक, कंचन। हस्तिदन्तकम् (नपुं०) मूली।
हाटकगिरि (पुं०) सुमेरु। हस्तिनखम् (नपुं०) मिट्टी का ढला।
हाटकपट्टिका (स्त्री०) आभूषण का नाम, स्वर्णाभूषण। हस्तिनागपुरं (नपुं०) हस्तिनापुर। (जयो० १/२)
(जयो० १०/३४) हस्तिनागाधिपः (पुं०) हस्तिनापुर का राजा। (वीरो० १/२०) | हात्रम् (नपुं०) [हा करणे त्रल] पारश्रमिक, मजदूरी, भाड़ा। हस्तिपुरम् (नपुं०) गजपत्तन। (जयो०वृ० १३/१)
हानम् (नपुं०) [हा+क्त] छोड़ना, त्यागना। हानि क्षति। हस्तिनी (स्त्री०) हथिनी, गरेणु। (जयो०वृ० १३/१०८)
० असफलता, अनुपस्थिति। हस्तिपः (पुं०) महावत, सादीवर। (जयो० १३/३६, १३/४) ० तिलांजलि। हस्तिपकः (पुं०) महावत, सादीवर।
० न्यूनता। ० कमी। हस्तिपंक्तिः (स्त्री०) गजराजि, हस्तिसमूह। (जयो० १३/१४) • पराक्रम, बल। हस्तिपुरम् (नपुं०) हस्तिनापुर। (जयो० १/५)
हानयोग्य (वि०) छोड़ने योग्य। (जयो० २/६५) हस्तिपुराधिपः (पुं०) हस्तिनापुर का राजा, जयकुमार विशेषा | हानिः (स्त्री०) [हा+क्तिन् तस्य निः] छुटकारा (सुद० १०४) (जयो० ११/८) (जयो० १/५)
० परित्याग। (सम्य० १०२) हस्तिपुराधिराजः (पुं०) हस्तिनापुर का राजा।
० असफलता, नुकसान। हस्तिमदः (पुं०) हाथी का मद।
० तिलांजलि। हस्तिमदादिहरणं (नपुं०) हस्तिमद आदि का नाश। (जयो० ० अत्यय। (जयो०वृ० २/१५४)
१९/६५) इसके लिए मंत्र दिया है- ओं ह्रीं अहँ णमो ० बर्बाद होना, नष्ट होना। बोहियवुद्धीणं (जयो० १९/६५)
० अवहेलना। हस्तिमौक्तिकः (पुं०) गजमुक्ता। (जयो०२१/४७)
० न्यूनता, कमी। हस्तिराजः (पुं०) गजेन्द्र, इभेन्द्र। (जयो० ८/७५)
हानिकर (वि०) अत्ययकर, अवहेलना करने योग्य। हस्तिसंचयः (पुं०) हस्तिसमूह।
हाप् (अक०) सेवन करना, उपभोग करना। (जयो० ३/१) हस्तिस्नानम् (नपुं०) गजस्नान।
हापन (वि०) नाशक, मारक। (जयो० २/२२) हस्तिहस्तः (पुं०) सूंड, शुण्ड।
हाप्य (वि०) छोड़ने योग्य। (जयो० २/६५) हस्त्य (वि०) [हस्त+यत्] हाथ से दिया गया।
हाफिका (स्त्री०) जंभाई, जृम्भा। हहलम् (नपुं०) [ह+हल्+अच्] हलाहल विष।
हामवत् (वि०) चण्डवत्। (सुद० ३/१०) हहा (पुं०) [ह+आ+क्विप्] हाहा नामक गन्धर्व।
हायनः (पुं०) वर्ष, सम्वत्सर। हा (अव्य०) [हा+का] हाय, आह, रे (सुद० ९४) अरे। हायनम् (नपुं०) शिखा, ज्वाला।
० खेद, उदासी, खिन्नता। हा खेदवार्ता। (जयो० ४/३९, हारः (पुं०) [ह+घञ्] वाहक. हलकारा। हेति खेदे। (जयो० २।८७) हा खेदप्रकाशने। (जयो० ० हटाना, पकड़ना, हराना। २७/५३, खेद प्रदर्शनार्थम्। (जयो० २५/७०) सुवृत्तभाजो ० अपकर्षण, अलगाव। ग्रहणाय वामां भुवीत्यपूर्वामपरस्य हा माम्।। (जयो० ५/९९) ० माला, हार, गजरा। (दयो० ५४, सुद० २/५०) ० आश्चर्य खेदे। (जयो० ५/१०४)
• कण्ठाभरण (जयो० ३/१०४) आभूषण। (जयो०
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हारक:
१२४१
हास्ययुक्त
१२/१२६)
० भाजका हारकः (पुं०) [ह+ण्वुल्] चोर, लुटेरा।
० ठग, धूर्त। ० मोतियों का हार।
• भाजक । हारकण्ठी (वि०) गले की माला। हारगत (वि०) विभाजित, भाग किया गया। हारमुट्ठी (स्त्री०) एक आकृति विशेष। (सुद० ३/४०) हारयष्टिः (स्त्री०) कण्ठाभूषण की लड़ी। (जयो० ११/३९)
० कण्ठाभरणावली। (जयो० १५/७७) हारि (वि०) [ह+णिच्+इन्] मनोहारि। (जयो० १६/४३)
० आकर्षक, मोहक, सुखकर। (जयो० ९/९४) हारिः (स्त्री०) पराजय।
० सार्थवाह।
० यात्रियों का समूह। हारिकण्ठः (पुं०) कोयल। हारिणिकः (पुं०) [हरिण+ठक्] शिकारी। हारित (भू०क०कृ०) [ह+णिच्+क्त] हरण कराया हुआ,
गृहीत, पकड़ा हुआ।
० आकृष्ट। हारिन् (वि०) ले जाने वाला, हरण करने वाला। हारिद्रः (पु०) [हरिद्रा+अण्] पीलारंग, कदंब तरु। हारिद्रवत्व (वि०) हल्दी का द्रव। हरिद्राथा इदं हारिद्रं तद्वत्त्वं
हारि मनोहरं च म् द्रवत्वत (वीरो०१/१३) हारिमृणालः (पुं०) कमल नाल। (सुद० २/७) हारीताः (पुं०) [ह+णिच्+ईतच्] धूर्त, ठग।
० कबूतर विशेष। हार्दम् (नपुं०) [हृदयस्य कर्म] स्नेह, प्रेम।
० कृपा, सुकुमारता। ० इच्छाशक्ति। ० अभिप्राय।
० अर्थ हार्दोचित (वि०) प्रेमोचित। (जयो० १६/४) हार्य (वि०) [ह+ण्यत्] हरण किये जाने योग्य। हार्यः (पुं०) सर्प, सांप। हालः (पुं०) हल। ० बलराम, ०हालकवि। हालकः (पुं०) पीले रंग का घोड़ा।
हाला (स्त्री०) घातक विष, गरल। (सुद० १०५)
० मदिरा, शराब। (जयो०६/३१) हालाहलम् (नपुं०) गरल, विष, घातक विष। (दयो० ६१) हालिकः (पुं०) कृषक, किसान। [हलेन सनति हल:
प्रहदरणमस्य तस्येदं वा ठक् ठञ् वा] हालिनी (स्त्री०) बड़ी छिपकली। हाली (स्त्री०) [हल्+इण्+डीप्] साली। हालुः (पुं०) दांत। हावः (पुं०) [ढे भावे घञ् हुकरणे घञ् वा]
० आमंत्रण, बुलाना। ० आह्वान। रंगरेली, मधुर आभूषण।
हावे च भावे धृतिक क्षदावे (सुद० १०३) ० सविलास। (जयो० १०/११९)
० विभ्रम विलास। (जयो० १६/४२) हाव-भावः (पुं०) मधुर सम्भाषण युक्त भाव। अहहाग्रह
हाव भावधात्री मम च प्रेमनिबन्धतैकपात्री। (जयो०१२/२१) हावादिगण (नपुं०) विभ्रम विलास। (जयो० १६/४२) हाव
आदिर्येषां ते हावादयस्तेषां गणः। हासः (पुं०) [हस्+घञ्] ठहाका, हंसी, मुस्कराहट।
० विकास। (जयो० ६/१२) हर्ष, खुशी, आनंद। ० हास्य ध्वनि, हास्य रस।
० खुलना, विकसित होना। हासगत (वि०) हंसी को प्राप्त हुआ। हासजन्य (वि०) हंसी योग्य। हासभासः (पुं०) हास्य विनोद। (जयो० ४/५३) हासवृत्तिः (स्त्री०) विकास लक्षण। (जयो० १८/६१) हासस्वरं (नपुं०) हंसी की गूंज। (जयो० ६/१२७) हासिका (स्त्री०) [हस्+ण्वुल्+टाप्] अट्टहास, हंसी ठहाका।
० आमोद, हर्ष, खुशी। हास्य (वि०) [हम्+ण्यत्] हास्यापद, हंसी योग्य।
• हसन, स्मित। (जयो०वृ० १२/११९) हास्यम् (नपुं०) हंसी, व्यंग्य, मज़ाक। हास्यकुसुमम् (नपुं०) स्मित पुष्प। (जयो०वृ० १२/११९) हास्यगत (वि०) हंसीगत, व्यग्ययुक्त। ० प्रफुल्लित पुष्प। हास्यपदवी (स्त्री०) खिल्ली, दिल्लगी। हास्यपरम्परा (स्त्री०) हसन परिणाम। (जयो० १७/४९) हास्यभावः (पुं०) स्मितभाव। ० हर्ष परिणाम। हास्ययुक्त (वि०) हंसी जनक। (जयो०वृ० १२/११५)
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हास्यरूपेन्द्रुः
१२४२
हिङ्गुलु
हास्यरूपेन्द्रः (स्त्री०) चन्द्रिका, कौमुपी। (जयो०१० ११/५३) ० दु:ख। हास्यविनोदः (पुं०) हंसी-मजाक। (जयोवृ० ३/१)
० प्राणहापन। हारवः (पुं०) हाहा कार के शब्द।
० प्राणच्छेद। हा हन्त (वि०) हाय। हा हंत किन्तु समुपैमि मले: प्रतापम्। ० क्षति, हानि। (जयो० २२/२५)
० वध, घात, विध्वंस। हाहा (पुं०) [हा इति शब्दं जहति हा हा क्विप्] • एक गन्धर्व। ० प्रहार, संहारभाव। (सुद० पृ० १२८) प्राणानां ० पीड़ा/शोक सम्बंधी उद्गार।
व्यपरोपणस्य करणं हिंसा प्रमादेन या (मुनि० ५) हाहाकारः (पुं०) शोक, विलाप, दुःख, रोना-धोना।
० गमनागमन का आरम्भ (वीरो० १६/७२) हाहान्धकारः (पुं०) हाय हाय! (जयो० १५/२४)
प्राणाः प्रणाशमुपयान्ति यथेति कृत्वा। हि (अव्य०) क्योंकि ही, हु, फिर भी, इसलिए, कि, निश्चय, कर्ता प्रमाद्यति यतः प्रतिभाति हिंसा।
ही। (सम्य० १८/९) (सुद० १०२) (सुद० २/५०) हीति पापं पुनर्विदधती जगते न किं सा।। (सुद० १२५) निश्चये (जयो० ५/४९) हयस्त्विति विचार्येत्यर्थः। हिंसाकर्मन् (नपुं०) कोई भी हानिकारक कर्म। (जयो० १३/६)
हिंसादानम् (नपुं०) वध हेतु दान। ० उत्प्रेक्षार्थ-हीत्युत्प्रेक्षायां समस्ति। (जयो० १३/७८) हिंसानन्दः (पुं०) हिंसानुबन्धी। हिंसायां रझं तीव्र हिंसानन्दं तु (जयो० १८४०)
नन्दितम्। (जैन०ल० १२/५) ० वाक्य पूरणार्थः। (जयो० १०/१९)
हिंसानन्दी (स्त्री०) हिंसानन्द का व्यापार। हि (अक०) भेजना, प्रेषित करना।
रौद्रध्यान की प्रमुखता। (मुनि० २२) ० चलाना, दागना।
हिंसानुबन्धी (स्त्री०) हिंसानन्दी नामक रौद्रध्यान। ० फेंकना, छोड़ना।
हिंसापरक (वि०) हिंसा जनक। (वीरो० १/३२) ० भड़काना, उकसाना।
हिंसाप्रदानम् (नपुं०) हिंसादान, वध हेतु दान। ० तृप्त करना, प्रसन्न करना।
हिंसारु (पुं०) बाघ, चीता। हिंस् (उभयपपी) हिंसा करना, मारना, घायल करना, प्रहार हिंसालु (वि०) [हिंसा+आलुच्] हानिकारक, हिंसा करने वाला। करना, नष्ट करना।
० घातकारी, आरंभी। ० कष्ट देना, संताप देना।
हिंसीरः (पुं०) [हिंस्+ईरन्] बाघ। ० आघात पहुंचाना, हानि करना।
० पक्षी। ० क्षति करना, नाश करना।
० उपद्रवी व्यक्ति। ० हत्या करना, आरम्भ करना।
हिंस्य (वि०) [हिंस्+ण्यत्] मारने योग्य, वध करने योग्य। ० प्रतिघात करना।
हिंस्त्र (वि०) [हिंस्+र] घातक, हानिकारक, क्रूर, भयंकर। हिंसक (वि०) [हिंस्+ण्वुल] घातक, मारक, प्रहारक। हिंस्रः (पुं०) क्रूर प्राणी, हिंसक जीव। ० क्षतिकर, हानिकारक।
हिंस्त्रपशु (पुं०) क्रूर जानवर। ० आरम्भिक क्रिया।
हिक्क् (अक०) अस्पष्ट उच्चारण करना, हिचकी लेना। हिंसकः (पुं०) शत्रु, शिकारी, घातक। दयते स्वकुटुम्बादौ (जयो० १९/६२) हिंसकादपि हिंसकः। (वीरो० १५/५९)
हिक्का (स्त्री०) हिचकी। हिंसनम् (नपुं०) [हिंस+ल्युट्] प्रहार करना, चोट पहुंचाना। हिङ्कारः (पुं०) हुंकार भरना, मन्द ध्वनि करना। __० वध करना।
हिङ्गु (पुं०/नपुं०) हींग का पौधा। हिंसा (स्त्री०) [हिंस्+अटाप्] जीववध, प्राणीघात, सत्त्वविनाश, हिङ्गलः (पुं०) ईंगुर, सिन्दूर। रक्तवर्ण, विशेष, ईंगुर इति प्राणव्यपरोपण, प्राणवियोग, प्राणवियोजक।
प्रसिद्ध (जयो० १८/३५) ० छेदन, भेदन, त्रास।
| हिङ्गुलु (पुं०) ईंगुर, सिंदूर।
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हिञ्जीर:
हिञ्जीर (पुं०) हाथी बांधने की जंजीर, रस्सी ।
हिडिम्ब : (पुं०) एक राक्षस ।
हिण्ड् (अक० ) जाना, घूमना, भ्रमण करना । हिण्डनम् (नपुं०) [हिण्ड् + ल्युट् ] घूमना, भ्रमण करना । • संभोग ।
• लेखन ।
हिण्डिकः (पुं०) [हिण्ड्+इन्-हिण्डि+कन् ] ज्योतिषी, निमित्तशास्त्री |
हिण्डिखण्ड: (पुं०) फेन। (जयो०वृ० १३ / ९० ) समुद्र झाग । हिण्डिर: (पुं०) [हिण्ड्+इन् + ङीप् ] दुर्गा। हित (वि० ) [ घा+क्त] हितकारी, उपयोगी, कल्याणकारी । • कृपालु, स्नेही, सद्वृत्त ।
शुभकर। (जयो ०२ / ३) आनंद प्रद । (सुद० ३ / ११)
• अच्छा, समुचित, लाभदायक। (सुद० ३ / १२ )
०
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हित: (पुं०) मित्र, सहभागी ।
हितम् (नपुं०) कल्याण, लाभ, उपकार, शुभ, क्षेम।
हितकर (वि०) कल्याणकारक ।
हितकरी (वि०) हित को करने वाला, हितं करोति । (जयो० ५ / ४० )
हितकाम (वि०) मंगल कार्य ।
हितकारिन् (वि०) हितकारक, कल्याण करने वाला, हितकर्मी (जयो० ३ / ९६ ) (जयो० २ / ६६ )
हितकारिन् (पुं०) परोपकारी व्यक्ति, सज्जन । (जयो० ३ / ९६ ) हितकारिणी (स्त्री०) परिणामिकी भावना, कल्याणकारक दृष्टि । (जयो० १०५ )
हितकृत् (पुं०) परोपकारी | जगतां हितकृद् भवेदिति हरिणाऽकारि विभो सवस्थिति। (वीरो० ७/२९)
हितप्रणी (पुं०) गुप्तचर ।
हितवृत्तिमति (स्त्री०) हित में तल्लीन बुद्धि। (जयो० ४/५८) हितसम्पादकः (पुं०) आचार्य ज्ञानसागर की एक संस्कृत
रचना।
हिंसाधनम् (नपुं०) आत्म साधन । (जयो० ३ / ९५) हिताङ्गः (पुं०) हित रूप परिणाम। (जयो० १ / ६६ )
० कल्याण भाव।
हितान्वित (वि०) कल्याण में तत्पर । (जयो० १३ / १ ) हितार्थिन् (वि०) शुभेच्छुक, कल्याण चाहने वाला। (दयो०
१२४३
१/१) हितावाञ्छक (वि०) अहितेच्छुक, अशुभेच्छुक । (समु०९/८)
हिमतैलम्
हितेच्छु (वि०) शुभेच्छु, कल्याणकारी। (जयो० ७ / ५१ ) हितैषिणी (वि०) स्वहितवाञ्छक (जयो० ३/५१)
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० कल्याणेच्छुक। (सुद० २/४२ )
हितोपदेश (वि० ) ०हितकर कथन, ० विचारपूर्ण कथन,
० सदाचरण सम्बंधी विचार, ०एक संस्कृत कथा का संकलनात्मक ग्रन्थ |
हिनहिनाहट : (पुं०) हेषा, घोड़े की ध्वनि । (जयो० १३ / ७२ ) हिन्तालः (पुं०) [हीनस्तालो यस्मात् ] एक खजूर का प्रकार । हिन्दू (वि०) आत्मचिंतन से परिपूर्ण । हिंसा दूषयन्तीति हिन्दच स्तेषां तातेन पूज्येन । (जयो०वृ० २८/२२) विशेष देखें (वीरो०२२/१३)
• वेद ज्ञाता । (जयो०वृ० १४ /७९ ) हिन्दुजन: (पुं०) वेदानुयायी। (जयो०वृ० १४/७९) हिन्दुस्तानम् (नपुं०) हिन्दुओं का क्षेत्र, वेदानुगामीजनों का स्थान (जयो० १९/८३) (वीरो० २२/१२) हिन्दुस्थानम् देखो ऊपर ।
हिन्दोल : (पुं०) [हिल्लोह+घञ् ] हिंडोला, झूला, ढोला । हिन्दोलक: (पुं० ) [ हिन्दोल+कन् टाप् वा] हिंडोला, झूला । हिम (वि० ) [ हि+मक्] ठंडा, शीतल, तुषार । हिम: (पुं०) सर्द ऋतु, शीत, सर्द। (जयो० १ / १० )
० चन्द्रमा ।
• हिमालय पर्वत ।
• उष्मापि भीष्मेन जितं हिमेन पुनस्तन्निखिलं क्रमेण । (वीरो० ९ / ३० )
• हेमन्त ऋतु। (जयो० ८ /६४)
० कपूर ।
० कमल ।
० रजनी ।
० ताजा मक्खन ।
हिमकर: (पुं०) चन्द्र, शशि ।
• शरदऋतु । चन्द्र किरण । (जयो० २० / ५७ ) ० कपूर, तुषाररुक। (जयो० ११ / ५२ ) हिमकूट : (पुं०) हिमगिरि, हिमालय । हिमच्छल (वि०) तुषार के बहाने । (जयो० २४ / ३६) हिमज: (पुं०) हिमालय ।
हिमजा ( स्त्री०) खिरनी का पेड़ ।
पार्वती, गौरी, शिवभार्या ।
o
हिमतैलम् (नपुं०) कपूर ।
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हिमदीधितिः
हिमदीधिति: (पुं०) चन्द्रमा । हिमद्रुहः (पु० ) सूर्य, दिनकर ।
हिमध्वस्त (वि०) पाले से युक्त, शीत से घायल । हिमप्रस्थ (पुं०) हिमाचल । हिमरश्मि: (पुं०) चंद्र, शशि । हिमराजः (स्त्री०) बर्फ, हिमखण्ड ।
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हिमर्तुः (पुं०) शरद । (वीरो० ९/३३)
हिमर्तिः (स्त्री०) हिमपात, तुषार, पाना। (सुद० ४/८०) हिमवत् (पुं०) हिमालय, हिमगिरि ।
हिमवान् (पुं०) ० हिमवान् पर्वत ०तुषाराद्रि, ०हिमगिरि । (जयो०
१३ / ५४ ) ० हिमालय ।
हिमवालुका ( स्त्री०) कपूर ।
हिमशीतल (वि०) बर्फ युक्त, शीतलता सहित |
हिमशैकः (पुं०) हिमालय ।
हिमसार: (पुं०) कपूर। (जयो० १२/७६) हिमस्य सार:- कर्पूर (जयो० १ / १० )
हिमसारगौर : (पुं०) कर्पूर से स्वच्छ। (जयो० १ / १० ) हिमा ( स्त्री० ) पाला। (सुद० १०९)
० बाधा।
हिमांशु ( पुं०) चन्द्र, शशि । (जयो० १८ /७०) हिमाक्रान्तः (पुं०) पाला, तुषार । (वीरो० १० / १) हिमाचल (पुं०) हिमगिरि हिमवान् । ( सुद० ३/७ ) हिमाद (वि०) शीतप्रहारक। (जयो० १५) हिमाद्रि (वि०) हिमगिरि । हिमवान पर्वत ( भक्ति० ४) हिमानिलः (पुं०) बर्फीली पवन, शीतल वायु । हिमान्वित (वि०) बर्फ सहित। ( भक्ति० १४ ) हिमाराति (पुं०) सूर्य, दिनकर । (जयो० २४/३४) हिमारि (पुं०) शरद, हिमऋतु ।
० मिनाशक |
हिमालय: (पुं०) हिमगिरि, हिमवान् । कैलाश पर्वत । (जयो०वृ० १३/५४) (जयो० ६/३३) हिमस्यालय: स्थानमस्येति (जयो० ४/३४)
१२४४
हिमालयपर्वत: (पुं०) हिमगिरि । (जयो० १७ / ४० ) हिमाहत (वि०) हिमपात । (दयो० ८७)
हिमोदय: (पुं०) हिमपात, बर्फ गिरना, पाला गिरना । (वीरो० ९/२७)
हिमानी (स्त्री०) बर्फ का ढेर, बर्फ समूह, हिम संहति । हियतः (अव्य० ) ठीक ही है (जयो० २/१२)
हिरणम् (नपुं० ) [ हृ + ल्युट् ] स्वर्ण, सोना। वीर्य, कौड़ी।
०
हिरण्यः (वि०) स्वर्ण निर्मित, सोने से बना हुआ । हिरण्यः (पुं०) ब्रह्मा।
हिरण्यम् (नपुं० ) [ हिरणमेव स्वार्थे यत् ]
०
स्वर्ण ।
०
०
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चांदी, रजत।
वीर्य, शुक्र ।
कौड़ी।
दौलत, सम्पत्ति
ही
सोना, कंचन,
०
हिरण्यकक्ष (वि०) सोने की करधनी वाली।
हिरण्यकपिशुः (पुं०) प्रह्लाद के पिताश्री एक राजा विशेष । हिरण्यकोश: (पुं०) सोना चांदी |
०
विष्णु ।
हिरण्यगर्भः (पुं०) ब्रह्मा, महादेव। (जयो० ३/२३) ऋषभदेव । हिरण्यनाभः (पुं०) सुमेरु, कैलाश पर्वत ।
हिरण्यबाहु ( पुं०) महादेव, शिव।
हिरण्यमय (वि०) स्वर्णमय, हैममय। (जयो० १४/८० ) हिरण्यरेतस् (पुं०) अग्नि, आग।
• सूर्य, चित्रक पौधा ।
हिरण्यवती (स्त्री०) अयोध्या के राजा की रानी सुमित्रा । हिरण्यवर्णा (स्त्री०) नदी नाम। (जयो० ४/२५ ) हिरण्यवर्मन् (पुं०) रतिवर कपोत का नाम । (जयो० २३/५० ) हिरण्यवर्मन् (पुं०) पुण्डरीकनगरी के राजा का पुत्र । (जयो०
२३/५३)
हिरण्यवाहः (पुं०) सोन दरिया । हिरण्यसम्मती (स्त्री०) आर्यिका का नाम। (समु० ४ / १६ ) हिरुक् (अव्य०) बीच के निकट । हिल ( अक० ) कामेच्छा प्रकट करना, आलिंगन करना, केलिक्रीड़ा करना ।
हिल्लः (पुं०) [हिल्+लम्] एक प्रकार का पक्षी । हिल्लोलः (पुं० ) [ हिल्लोल्+अच्] लहर, उर्मी, झाल।
० हिंडोल राग ।
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० धुन, ० सनक ।
• एक प्रकार का रतिबंध ।
हिसार : (पुं०) हिसार जिला। (सम्य० १५३ ) इसी में सम्यक्त्व कौमुदी की रचना की गई।
ही (अव्य० ) आश्चर्य बोधक अव्यय । ही विस्मय - विषादयो इति विश्वलोचन: (जयो० १७/१६)
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हीत
१२४५
हुण्डशरीरम्
० खेद प्रकाशने। (जयो० २७/३२)
० थकावट, उदासी, खिन्नता। हीत (वि०) सम्माननीय। (वीरो० १७/७) हीन (भू०क०कृ०) [हा+क्त, तस्य नः ईत्वम्] कम (सम्यक
४६) अल्प, छोटा। ० परित्यक्त, त्यागा हुआ। (जयो० ३/६) ० अभाव, रहित। (सुद० २/४९) विहीन। ० त्रुटिपूर्ण, सदोष। ० नीच, अधम।
० निम्न। हीनकुल (वि०) निम्नकुल वाला। हीनचारिन् (वि०) हीन आचरण वाला। (जयो०वृ० ११/२७) हीनज (वि०) नीच कुल में उत्पन्न होने वाला। हीनजनः (पुं०) तुच्छ लोग। निधिघटीं धनहीनजनो यथाऽधिपतिरेष
विशां स्वहशा तथा। (सुद० २/४९) हीनजाति (वि०) निम्न जाति में उत्पन्न हुआ।
० पतित, तुच्छता युक्त। हीनतप (वि०) अल्प तप, दोषपूर्ण तप। हीनदोषः (पुं०) वंदना दोष। हीनधन (वि०) निर्धन, कमधन वाला। हीनधर्म (वि०) धर्म च्युत। हीनधाम (वि०) आवास विहीन। हीननन्दिन् (वि०) हर्षविहीन। हीनबोध (वि०) समझ की कमी। हीनमन्त्रं (वि०) त्रुटिपूर्ण मन्त्र वाला। हीनमात्रा (वि०) अल्पमात्रा, मात्राओं की कमी। हीनमातृत्व (वि०) मातृत्व विहीन। हीनमोह (वि०) मोह की कमी वाला। हीनयन्त्र (वि०) दोषपूर्ण यन्त्र। हीनयम (वि०) यम/संयमन की कमी। हीनयोनि (वि०) योनि/जन्मस्थान में निम्नता। हीनयौवन (वि०) युवावस्था का अभाव। हीनवर्ण (वि०) रूप-सौंदर्य से विरूप। हीनवादिन् (वि०) दोषपूर्ण कथन करने वाला। हीनशस्त्र (वि०) शस्त्र रहित। हीनशास्त्र (वि०) सिद्धान्त विहीन। हीनसंयम (वि०) संयम का अभाव। हीनसाम्यभाव (वि०) समत्व की अल्पता।
हीनसेवा (वि०) तुच्छ लोगों की चापलूसी करने वाला। हीनाधिकमानोन्मानम् (नपुं०) अचौर्यव्रत का एक अतिचार,
कम-ज्यादा माप एवं प्रमाण आदि रखना, कम ज्यादा रखना, लोभ के वश होकर हलके बार से तोल देना और
भारी बाट से लेना। (त०सू०पृ० १०८) हीन्तालः (पुं०) [हीनस्तालो यस्मात्] छोटा खजूर वृक्ष, जो
प्रायः छोटे पोखर आदि के समीप होता है या जहां खुला स्थान भी कीचड़ युक्त हो, वहां ऐसा खजूर का पेड़ उग
जाता है। हीय (वि०) ० हीनता हीयमान अवधिज्ञान का भेद। हीरः (पुं०) [ह+क] ० हार, सिंह। ० सर्प।
० इन्द्र, वज्र। (जयो० १०/८८) हीरम् (नपुं०) हीरा, इन्द्र का वज्र एक बहुमूल्य धातु।
(जयो० ८/९९) हीरकः (पुं०) हीरा, रत्न विशेष। (जयो०वृ०८/९७) हीरवीरः (पुं०) श्रेष्ठतम् वज्र। (जयो० ३/२५) हीरा (स्त्री०) [हीर+टाप्] लक्ष्मी। ० चिऊंटी। हीलम् (नपुं०) [ही विस्मयं लाति-ला+क] वीर्य। ही ही (अव्य०) [ही+ही] आश्चर्य बोधक अव्यय।
. प्रसन्नता ज्ञापक अव्यय। हु (अक०) यज्ञ करना, आहूति देना।
० प्रस्तुत करना, सम्मान देना।
० अनुष्ठान करना। हुंकारधर (वि०) हुंकार लगाने वाला। (जयो० २७/२७) हुंकृतिः (स्त्री०) हुका (जयो० २१) हुड् (अक०) संचय करना, जाना। हुडः (पुं०) [हुड्क ] मेढा। कैदगृह, कारागृह।
० चोर रखने का स्थान। हुडकः (पुं०) वाद्य विशेष। (जयो०७०१०/२१) हुडुक्कः (पुं०) [हुड्+उक्क] एक पक्षी विशेष, दात्यूह।
___० दरवाजे की कुंडी। हुडुत् (नपुं०) [हुड्+उति] सांड की रंभाना। हुण्डः (पुं०) [हुण्ड्+क] व्याघ्र, मेंढा।
० ग्राम शूकर। हुण्डकसंस्थानम् (नपुं०) विरूप आकार, शरीर के अवयव
की बनावट में हीनाधिकता। 'अवच्छिन्नावयवं हुण्डसंस्थानं
नाम।' (जैन०ल० १२/७) | हुण्डशरीरम् (नपुं०) विरूप आकृति वाला शरीर।
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हुत
हुत (भू०क० कृ० ) [हु+क्त] आहुति युक्त, होम किया हुआ । भस्मीकृत (जयो०१२/८७ )
हुतम् (नपुं०) आहूति, होम, चढ़ावा । (जयो० २/१३) (मुनि०१) हुतजात (वि०) होम से उत्पन्न हुआ ।
हुतधूप: (पुं०) हवन धूप। (जयो० १२ / ६७ )
हुल् (अक० ) ढांपना, छिपाना।
हुलहुली (स्त्री०) अस्पष्टध्वनि। हु हु (पुं०) गन्धवं शब्द।
हुतभुज् (पुं०) अग्नि, आग।
हुतवह: (पुं०) अग्नि, आग।
हुम् (अव्य०) [हु-डुमि] स्मरण बोधक अव्यय रोष, अरुचि, भर्त्सना, स्मरण, दाहड़ना, चिल्लाना आदि के रूप में प्रयुक्त होने वाला अव्यय। (जयो०वृ० १ / ९० )
हुर्छ (अक० ) टेढ़ा होना, बंक होना ।
हूण: (पुं०) असम्भ, एक जाति विशेष । ० सोने का सिक्का ।
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हूत (भू०क० कृ० ) [ ह्वे+क्त] आहूत, निमन्त्रित, आमन्त्रित । बुलाया गया।
हूति: ( स्त्री०) आहूति । ० होम |
० निमंत्रण, बुलावा ।
0
चुनौती |
हूरव: (पुं०) [हू इति रयो यस्य ] गीदड़ ।
ह्र (सक०) लेना, पकड़ना, ग्रहण करना (सुद० ७२) ० हरण करना हरतीति । (जयो०वृ० १/७)
● अपहरण करना, छीनना। (जयो० २/२८) हरन्त (सुद० ७६) हर्तुम् (जयो० २ / १३५)
• उत्पन्न करना। (सुद० ३ / १ )
० प्रहार करना, आघात पहुंचना ।
हृज्ज (वि०) त्याग करने वाला। (दयो० २२)
हणीया (स्त्री०) [हुणी+यक्+अ+टाप्] निन्दा, भर्त्सना ।
० रखना, निक्षेप करना ।
० चुराना, लूटना। परं कलत्रं हियतेऽन्यतो। (वीरो० ९ / १५ ) • आकर्षित करना, लुभाना (जयो०वृ० ३/४६) हर्तुम्वशीकर्तुम् आकृष्टकर्तृम्।
• त्याग करना, छोड़ना ।
१२४६
० लज्जा । ० करुणा ।
हृत् (वि० ) ( ह+ क्विप्, तुक् ] ले जाने वाला, अपहरण करने
वाला ।
• हटाने वाला।
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०
हृतः (पुं०) हृदय- न तूर्यस्थलं एवं हृतः । (सम्य० १३७ ) चित्त (जयो० २७ / १८) (जयो० २ / ६१ )
हृदयज
हृतः (भू०क० कृ० ) [ह+क्त] अपहत, ले जाया गया, विभक्त।
हृत्कम्पकर (वि०) चित्त कम्पोत्पादक। (जयो० २७ / १८ ) हृत् प्रदीप (पुं०) मुदित दीपक (जयो० १७/६५) हृतसतत् (वि०) हृदय की विशेषता । (सुद० १२१ ) हृतान्धकार ( वि० ) अन्धकार हरण करने वाला। (जयो० ५/१०५)
हृद् (पुं० ) [ हृदयस्य हृदादेशो वा ] ० हृदय-संवेग भावो हृदयं प्रपुष्य। (सम्य० ७५)
० निजनिजान्तरङ्ग (जयो० ४/५०) 'सविद्धि सिद्धप्रिय भी हदा त्वं (सम्य० १५)
० चित्त, मन, इदोऽनुकूल। (जयो० ३ / ९४) पयोनिधिस्त्वद्
हृदि वाप्यवार (सुद०२/१६)
० छाती, सीना, यक्ष ।
o
० चेत- चित्त । (जयो० ९ / ४३ ) ० मानस । (जयो० १५/४९) हृद्कम्पः (पुं०) धड़कन, हृदयगति । हृद्गत ( वि०) मन में सोचा हुआ । हृदग्रन्थि (वि०) माया (जयो० १७/६९)
हृदनुतप्त (वि०) संताप युक्त हृद् हृदयं चेदनुतप्तं सन्ताप युक्तं (जयो० ९/४३)
८८, १०८)
हृदन्त (वि०) अन्तर्हृदय (जयो० २३ / ४० )
हृदब्जम् (नपुं०) मानस कमल 'हदेव अब्जं तस्मिन् मानसकमले ' (जयो० ९/४५)
हृदर्पणम् (नपुं०) प्रतिदान (जयो० १२ / ९० )
हृदयम् (नपुं०) [ह्र+कयन् ] चेतस्, मानस, मन, चित्त । (सुद०)
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०
सीना, छाती।
• वक्षस्थल (जयो० ५/४५)
हृदयकमलं (नपुं०) प्रफुल्लमन (जयो० १/४९)
।
हृदयकम्पः (पुं० ) ० चित्त धड़कन हृदयकम्पनम् (नपुं०) धड़कन, चितप्रकम्पन। ( सुद०१३४) हृदयग्राह्य (वि०) मन के योग्य (जयो०वृ० ३/३६) हृदयचोर : (पुं०) दिल चुराना।
हृदयछिद् (वि०) हृदय विदारक, मनस् पीड़ा युक्त। हृदयज (वि०) हृदय सम्बंधी
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हृदयङ्गम
१२४७
हृदयङ्गम (वि०) मर्म स्पर्शी. रोमाञ्चकारी।
हृषद (वि०) पूज्य। ० मधुर, आकर्षक, चित्तयोग्य।
हृष्यज्जन (वि०) हर्ष युक्त होने वाला। (सुद० ११०) ० सुखद, रुचिकर।
हृषित (भू०क०कृ०) [हृष्+क्त] खुश, प्रसन्न, आनन्दित, हृदयपयोधिः (पु०) विशाल हृदय, गहीर हृदय।
हर्षित, आह्लादित। रोमाञ्चित, प्रफुल्लित। हृदयपीड़ा (स्त्री०) मन की अशान्ति। (वीरो० १४/१४) | हृषीकम् (नपुं०) [हृष्+ईकक्] ज्ञानेन्द्रिय, इन्द्रिय। (सुद० (जयो० २०/३०)
११८) हृषीकाणि समस्तानि माघन्ति प्रमदाऽऽश्रयात्। हृदयभू (स्त्री०) चित्त रूपी भूभाग। (जयो० ६/१२५)
(वीरो० ८/९१) हृदयविध्/हृदयवेधिन् (वि०) हृदय को बींधने वाला।
हृषीकसुखं (नपुं०) इन्द्रिय सुख। (जयो० २५/८४) हृदयविदारक (वि.) चित्त को अशान्त करने वाला। चित्तघातक।
हृष्ट (भू०क०कृ०) [हृष्+क्त] हर्षयुक्त, हर्षित, श्लाघापरायण। (दयो०६४)
(वीरो० ४/१८) हृदयवृत्तिः (स्त्री०) चित्त की प्रवृत्ति, हृदय का स्वभाव।
हृष्टचित्त (वि०) मन से प्रसन्न, आनन्दित।
हृष्टमानस (वि०) प्रसन्नचित्त, आनन्दित। हृदयास्थानम् (नपुं०) वक्षःस्थल।
हृष्टरोमन (वि०) ० पुलकित, रोमाञ्चित। हृदयालङ्कारः (पुं०) हार, कंठाभरण। (जयो०वृ० १/८७)
० प्रफुल्लित, आनंदित। हृदयालु (वि०) [हृदय+आलुच] कोमल हृदय वाला, सरस
हृष्टवदन (वि०) प्रसन्नमुख, हर्षयुक्त मुख हंसमुख। चित्त युक्त।
हृष्टसंकल्प (वि०) संतुष्ट, खुशी। हृदयेश्वरः (पुं०) प्राणेश्वर। (जयो०वृ० १५/४८)
हृष्टिः (वि०) [हष्+क्तिन्] आनन्द, उल्लास। हृदयोपरूपिणी (स्त्री०) सब लोगों की अच्छी लगने वाली।
. हर्ष, खुशी। (समु०२/१३)
हृस्ट (वि०) सुसज्जित, सुसज्ज। (जयो० १२/१३) हृदानुवृत्तम् (नपुं०) हृदयस्थान। रमां समाराधयितुं प्रवृत्तः
हे (अव्य०) [हा+डे] सम्बोधन वाचक परक अव्यय। हे प्रसूनतुल्येन हृदानुवृत्तः। (जयो० १९/९१) हृदा चित्तेनानवत्तो
नाभिजातासि किलाभिजातः। (जयो० १३/१७) ईर्षा, डाह, युक्त आसीदीति।
द्वेष आदि प्रकट करने वाला अव्यय। हे विश्वभूषण! हृदार्तिः (स्त्री०) हृदय पीड़ा, चित्त की आकुलता।
विभाति दिनस्य भर्ता। (जयो० १८/७६) हृदाशिका (स्त्री०) हृदय की आशा, चित्ताशा। (जयो० १०/७६)
हे शारदे! शारदवत्तवायः। (जयो० १९/२९) हदिकः (पुं०) हृदय।
हेक्का (स्त्री०) हिचकी। हृदिस्पर्श (वि०) प्रिय, प्यारा, स्नेही।
हेठः (पुं०) [हेठ्+घञ्] बाधा, अवरोध, विरोध, रुकावट। ० रुचिकर, मनोहर, सुंदर।
क्षति, हानि। हृदीशः (पुं०) [हृदो ईशः] पति। (जयो० १/९३)
हेड् (अक०) तिरस्कार करना, अवज्ञा करना। हृदीशप्रतिबिम्बं (नपुं०) प्राणनाथ की परछाई-हृदि स्ववक्षः ० घेरना, वस्त्र लपेटना।
स्थले ईशस्य सम्मुखस्य प्राणनाथस्यैव यत् प्रतिबिम्बम्। हेतिः (स्त्री०/पुं०) [ह्न करणे क्तिन्] शस्त्र, अस्त्र। (जयो० १७/२८)
० आघात, क्षति। हृदीषाङ्गीकरणयोग्य (वि०) हृदय से स्वीकार करने योग्य। ___० प्रकाश, कान्ति, आभा। हृदेकदेवः (पुं०) हृदय का एक मात्र स्वामी। (सुद० २/१२) ० ज्वाला। हृदुदारः (पुं०) हृदय का प्रिय। (जयो० ४/३)
हेतुः (पुं०) [हि-तुन] कारण, निमित्त। (सुद० १०१) (सम्य० ४३) हृदोऽनुकूलः (पुं०) हृदयग्राह्य। (जयो० ३/९४)
० उद्देश्य। हृल्लवः (वि०) मनोरथ। (जयो० ५/१८)
० प्रयोजन-कारणभूत। (जयो० १७/५३) हृष् (अक०) खुश होना, हर्षित होना।
० सहायक-ममास्त्वमुष्मिंस्तरणाय हेतुरदृष्टपारे कविताभरे ० आनन्दित होना, प्रसन्न होना।
तु। (सुद० १/२) ० रोमांचित होना।
० फल-भृङ्गायते तन्मकरन्दहेतोः। (सुद० २/१३)
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हेतुक
१२४८
हेला
० साधन, उपकरण।
हेमकिञ्जल्कम् (नपुं०) नागकेशर पुष्प। ० तर्क, ० युक्ति। साध्याविनाभाविलिङ्गम्-साध्य के साथ | हेमकुम्भः (पुं०) स्वर्णपट। अन्वय-व्यतिरेक का होना।
हेमकूटः (पुं०) सुमेरु, एक पर्वत विशेष। हेतुक (वि०) [हेतु+कन्] तार्किक, तर्क शक्ति युक्त। हेमगन्धिनी (स्त्री०) रेणुका नामक गन्धद्रव्य। ० प्रामाणिक, युक्त, संगत।
हेमगिरिः (पुं०) सुमेरु। हेतुकः (पुं०) कारण, तर्क।
हेमगौरः (पुं०) अशोक वृक्ष। हेतुता/हेतुत्व (वि०) हेतुपना! 'बन्धस्य हेतुत्वमुपैत्यसौ' हेमघटम् (नपुं०) स्वर्णघट। (जयो० १७/४२) स्वर्ण कलश। (सम्य० २७)
हेमचन्द्रः (पुं०) सर्वविद्या प्रवीण आचार्य। हेतुमत् (वि०) [हेतु+मतुप्] सकारण, तर्कयुक्त।
हेमपुष्प (पुं०) अशोकवृक्ष, लोध्र वृक्ष, चम्पकवृक्ष। सर्वेभ्यः स्वपदं तहेद्धितविधेर्भूमावहो हेतुमत्। (मुनि० १५) हेमलः (पुं०) सुनार। ० कारण और कार्य की विद्यमानता।
हेममालिन् (नपुं०) दिनकर, सूर्य। हेतुवादः (पुं०) तर्क, वितर्क, शास्त्रार्थ। हेतु का निरूपण। हेमयूथिका (स्त्री०) सोमजूही।
तर्कशास्त्र (वीरो० २/९९) हिनोति गमयति परिच्छिनत्त्यर्थ- हेमरागिणी (स्त्री०) हल्दी। मात्मानं चेति प्रमाणपञ्चकं वा हेतुः स उच्यते कथ्यते हेमशंखः (पुं०) विष्णु।
अनेनेति हेतुवादः श्रुतज्ञानम्। (जैन०ल० १२/७) हेमसंजात (वि०) स्वर्णमय, सोने के समान। हेतुविचयः (पुं०) तर्क का आश्रय लेना।
हेमसत्त्वं (नपुं०) सोना, स्वर्ण, कंचन। हेतुकोत्प्रेक्षा (स्त्री०) हेतु द्वारा विवेचन।
हेमसहित (वि०) सोने से परिपूर्ण। एतत्कीर्तेरग्रे तृणायितं चन्द्ररश्मिभिश्च यतः।
हेमसूत्रं (नपुं०) स्वर्ण मेखला। जीवति किलैणशावोऽसावोजस्के तदङ्कगतः।
हेमसूत्रावली (स्त्री०) स्वर्ण मेखला, सोने की करधनी। (जयो० ६/४५)
हेमस्तम्भः (पुं०) स्वर्ण स्तम्भ। हेत्वलङ्कारः (पुं०) हेनु नामक अलंकार, जिस अलंकार में हेमाङ्ग (वि०) सुनहरा।
किसी अर्थ को उत्पन्न करने वाले कर्ता की योग्यता की हेमाङ्गः (वि०) गरुड़। युक्ति का प्रकाश किया जाता है।
सिंह, ० सुमेरु। यत्रोत्पादयतः किञ्चिदर्थं कर्तुः प्रकाश्यते।
हेमाङ्गदम् (नपुं०) बाजूवन्द। तद्योग्यतायुक्तिरसौ हेतुरुक्तो बुधैर्यथा।। (वाग्म० ४/१०४) हेमाण्डकः (पुं०) स्वर्ण कुश। (वीरो० २/३३) व्यञ्जनेष्विव सौन्दर्यमात्रारोपावसान को।
हेमाब्जिनी (नपुं०) स्वर्णारविंद, सोने का कमल। (जयो० विसर्गों स्तन सन्देशात् स्मरणेद्देशितावितः।। (जयो० ३/४३) १८/९५) हेत्वाभासः (पुं०) हेतु का आभास होना, जो हेतु किसी कार्य हेमाम्भोरुहम् (नपुं०) सुनहरा कमल।
का कारण न हो, परन्तु हेतु की तरह प्रतीत हो। अर्थात् हेय (वि०) [हा+यत्] छोड़ने योग्य, त्याज्य। स्त्रियास्तु वार्तापि जिसमें सव्यभिचार, अनैकान्तिक, विरुद्ध, असिद्ध, | सदैव हेया। (वीरो० १८/२९) सत्प्रतिपक्ष और बाधित भाव हो।
हेयोपादेय (पुं०) छोड़ने एवं ग्रहण करने योग्य। हेमम् (नपुं०) स्वर्ण, सोना। (जयो०वृ० ६/७४)
हेरम् (नपुं०) [हि+रन्] मुकुट विशेष। हेमः (पुं०) काले रंग का घोड़ा, हेमचन्द्राचार्या।
हेरक्बः (पुं०) ० गणेश। ० भैंसा। हेमन् (नपुं०) [हि+मनिन्] स्वर्ण, सोना।
हेरिकः (पुं०) [हि रक्-रुट आगमः] भेदिया, गुप्तचर। ० जल, बर्फ।
हेलनं (नपुं०) [हिल्+ल्युट्] अवज्ञा करना, निरादर करना। ० धतूरा, ० केसर पुष्प।
तिरस्कार करना, अपमान। हेमकंदलः (पुं०) प्रवाल, मूगा।
हेला (स्त्री०) तिरस्कार, अपमान, अनादर। हेमकट/हेमकार/हेमकर्त (वि०) सुनार, स्वर्णकार। (जयो० ० केलि, क्रीड़ा, प्रेमालिंगन। १५/१३)
० कौतुक। (जयो० ७/७८)
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हेलिः
१२४९
हेलिः (स्त्री०) सूर्य की स्त्री।
होमकुण्डम् (नपुं०) हवन कुण्ड। हेवाकः (पुं०) उत्कृष्ट इच्छा, उत्कण्ठा।
होमधान्यम् (नपुं०) तिल, जवादि। हेष (अक०) हिनहिनाहट, दहाड़ना, रेंगना
होमधूमः (पुं०) होमाग्नि का धुंआ। हेषः (पुं०) हिनहिनाहट। (जयो० १३/७२)
होमभस्मन् (नपुं०) हवन की राख। हेषिन् (पुं०) अश्व, घोड़ा।
होमरवः (पुं०) हवन स्वर, हवनमन्त्र। हेहे (अव्य०) सम्बोधन वाचक अव्यय।
ओं सत्यजाताय स्वाहा-इत्यादि (जयो०वृ० १२/७२) है: (अव्य०) सम्बोधनात्मक अव्यय।
होमवेला (स्त्री०) हवन का समय। हैतुक (वि०) [हेतु+ठक्] कारणमूलक, तर्क सम्बंधी, तर्कपूर्ण। होमशाला (स्त्री०) यज्ञशाला, यज्ञगृह। हैतुकः (पुं०) मीमांसक। ० तर्कवादी।
होमाग्निः (स्त्री०) होम की आग। हैम (वि०) [हिम+अण्] शीतल, ठंडा।
होमाभिधः (पुं०) हवनाक्षर। हवनमन्त्र। (जयो०० १९/५५) ० सुनहरी। स्वर्णमय। (जयो० २२/३) हेम्न इदं हैम, ओं ह्रां ह्रीं हूं ह्रौ ह्रः असि आ उ सा (जयो० ११/१५)
अप्रतिचक्रे फट् विचकाय क्रीं क्रौं स्वाहा। (जयो०७० ० हेमन्त ऋतु।
१९/५५) हैमनः (पुं०) शरदऋतु, हेम ऋतु।
होसि (नपुं०) नवनीत, मक्खन। ० जल, ० अग्नि। हैमन्तिक (पुं०) [हेमन्ते काले भाः ठ] ठंण्डा। ० सर्दी से | होमिन् (पुं०) यज्ञकर्ता, यजमान। उत्पन्न होने वाला।
होमीय (वि०) हवन सम्बंधी। हैमवत् (वि०) स्वर्ण की तरह। ० बर्फीला।
होरा (स्त्री०) [हु+र+टाप्] राशि का उदय। ० एक घण्टा। हैमवत् (पुं०) हैमवत् क्षेत्र, भरत क्षेत्र एवं ऐरावत क्षेत्र के
चिह्न, रेखा। अतिरिक्त हैमवत् क्षेत्र। (त०सू० ३/२९, त०सू०पृ०५८) । होलाका (स्त्री०) होलीमास, फाल्गुनमास। हैमवती (स्त्री०) पार्वती। ० गंगा।
होलिका (स्त्री०) होली का त्यौहार। • हरीतकी, हरड़े। ० अलसी।
हो हो (अव्य०) सम्बोधनात्मक अव्यय। हैयङ्गवीनम् (नपुं०) [हयो गोदोहान् भवं] नवनीत, मक्खन। होम्यम् (नपुं०) नवनीत, मक्खन, ० घी। (जयो०वृ० १/१००, १०/१५)
हनु (अक०) ले जाना, लूटना। हैरिकः (पुं०) [हिर+ठक्] चोर, तस्कर।
० छिपाना, ढकना, रोकना। हो (अव्य०) किसी व्यक्ति को बुलाने के लिए प्रयुक्त होने ह्यस् (अव्य०) बीता हुआ कल। वाला अव्यय।
ह्यस्तन (वि०) बीते हुए कल से सम्बंध रखने वाला। त्मन्यात्मा विलगत्य हो
ह्यस्त्य (वि०) कल से सम्बंधित। विजयतां सम्यक्त्वमेतत्सदा। (सम्य० १५४)
हृत् (वि०) विनष्ट, प्रणष्ट। (जयो० १६/३४) होड् (अक०) उपेक्षा करना, अनादर करना।
हृदः (पुं०) तालाब, सरोवर। होडः (पुं०) [होड्+अच्] बेड़ा, नाव।
० छिद्र, विवर, गर्त। होढाकृत् (वि०) शर्त लगाने वाला। (जयो० २/१२७) ह्रदिनी (स्त्री०) [हृद्+इनिङीप्] ० नदी, ० विद्युत। होतु (नपुं०) हवन, होम। (जयोवृ० १२/५६)
ह्रदोगः (पुं०) कुम्भराशि। होतृ (वि०) [हू+तृच्] हवन करने वाला, यममान। ह्रस् (अक०) ० शब्द करना, ध्वनि करना। होतृ (पुं०) यज्ञकर्ता।
० नाश होना, नष्ट होना। (जयो० ३/८) होतृगृहम् (नपुं०) यज्ञशाला। (दयो० २२)
हसिमन् (पुं०) [ह्रस्व+इमनिच्] हलकापुन। होत्रम् (नपुं०) [हु+ष्टुन्] यज्ञ, हवन में भस्म सामग्री।
० लघुता। होत्रीयः (पुं०) [होत्राय हितं होतुरिद वा छ] यज्ञकर्ता। ह्रस्व (वि०) [ह्रस्+वन्] लघु, अल्प, थोड़ा। होमः (पुं०) [हु+मन्] यज्ञ, हवन।
ह्रस्वः (पुं०) छोटा, ठिगना, बौना।
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ह्रस्वगर्भः
१२५०
ह्रस्वगर्भः (पुं०) कुश नामक घास। ह्रस्वमात्रा (स्त्री०) लघुमात्रा, छोटी मात्रा। ह्रस्वमूर्ति (स्त्री०) ठिगना, बौना। हाद (अक०) शब्द करना, कोलाहल करना। हादः (पुं०) [ह्राद्+घञ्] ध्वनि. शोर। हादिनिका (स्त्री०) विद्युत। (जयो० २४/२८) ह्रादिनी (स्त्री०) नदी, विद्युत, शल्लकी वृक्ष। ह्रासः (पुं०) [ह्रस्+घञ्] क्षय, अवनति, पतन, प्रनाश, नाश।
० शब्द, कोलाहल। ० घटी, कमी।
० छोटी संख्या। हीणीया (स्त्री०) [हिणी+यक+अ+टाप] भर्त्सना, निन्दा।
० शर्म, लज्जा । ह्री (अक०) लज्जित होना, शर्माना। ह्री (स्त्री०) [ह्वी+क्विप्] लज्जा, शर्माना।
० संकोच। (मुनि० १) (जयो० १२/११४, १६२)
० विनयभाव। (वीरो० २/४२) ह्रीं (पुं०) शिव, मंगल। (जयो० २१/१००)
ह्रींकारक (वि०) [ह्रींकार एव ह्रींकारक] स्वार्थक (जयो०
१९/५१) ह्रीण (वि०) लज्जित, लज्जा युक्त। (जयो० ५/९२) ह्रीणता (वि०) लज्जापन, लज्जा युक्त, लज्जालुता (जयो०
१७/२८) हीवेरम (नपं०) [ह्नियै लज्जायै वैरम] एक गन्ध द्रव्य विशेष। हृष (अक०) अश्व हिनहिनाना, रेंकना, शब्द करना। हृषा (स्त्री०) हिनाहिनाहट। हृग् (अक०) ढापना। हृत्तिः (स्त्री०) हर्ष, प्रसन्नता, खुशी। ह्लाद् (अक०) प्रसन्न होना, खुश होना। ० शब्द करना। ह्लादः (पुं०) हर्ष, खुशी, आनन्द। ह्रादनम् (नपुं०) खुशी, प्रसन्नता। ह्लादिन् (वि०) [ह्लाद् णिनि] खुश होने वाला। ह्ववल् (अक०) जाना। ० थरथराना। ० कापना। ह्वानम् (नपुं०) [हे ल्युट्] आमंत्रण, क्रन्दन। ह (अक०) कुटिल होना। ० ठगना। ० धोखा देना। ढे (सक०) बुलाना, पुकारना, आह्वान करना। प्रार्थना करना।
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.
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अ
अकर्म- अबन्धक स्थिति। अकषाय-राग द्वोष रहित अवस्था ।
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पारिभाषिक शब्द
अजीवक १ मूर्तिक २ अमूर्तिक चेतना रहित । अजीवक भेद - १ पुद्गल २ धर्म ३ अधर्म ४ आकाश और ५
काल ।
अक्ष आत्मा इन्द्रिय
अट्ट संख्या का प्रमाण
अणु-पुद्गल का सबसे छोटा अंश। इसमें एक वर्ण, एक रस, एक गन्ध और दो स्पर्श होते हैं। ०पुद्गल का अविभागी अंश ।
अणुव्रत - हिंसा, असत्य, चौर्य, कुशील और परिग्रह इन पांच पापों का एक देश स्थूल रूप से त्याग करना अणुव्रत है, ये पांच होते हैं।
अतिसार - व्रत का उल्लंघन करना।
अतिदुःषमा - अवसर्पिणी छठा काल। दूसरा नाम दु:षमा दुःषमा भी है।
अधःकरण- सप्तम गुण स्थान की श्रेणी चढ़ने के सम्मुख अवस्था इसमें जीव के परिणामरूप समय और भिन्न समय में समान और असमान दोनों प्रकार के होते हैं। अधर्म जो जीव और पुद्गल की स्थिति में सहायक हो । अनिवृत्तिकरण- नौवां गुणस्थान इसमें समसमयवर्ती जीवों के परिणाम समान और विषम समयवर्ती जीवों के परिणाम असमान ही होते हैं।
अनीक देवों का एक भेद
अनुकम्पन- सम्यग्दर्शन का एक गुण मोह तथा राग-द्वेष से पीड़ित जीवों को दुःख से छुटाने का दयार्द्र परिणाम होना।
अनुमननत्याग अन्तरंग परिषद् के सदस्य देव । अपूर्वकरण- आठवां गुणस्थान इसमें भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणाम भिन्न और समसमयवर्ती जीवों के परिणाम भिन्न तथा अभिन्न दोनों प्रकार के होते हैं। अपृथग्वक्रिया- अपने ही शरीर को नाना रूप परिणमाने की
शक्ति।
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अप्रतिबुद्ध- आत्मा को कर्म-नोकर्म समझने वाला । अप्रत्याख्यान- देश संयम को घातने वाली कषाय । अभब्य - जिसे मुक्ति प्राप्त न हो सके ऐसा जीव । अभिन्नदशपूर्विन् - उत्पाद पूर्व आदि दशपूर्वी के ज्ञाता मुनि । अमन्नांग - सब प्रकार के बरतन देने वाला एक कल्पवृक्ष। अमम संख्या का एक प्रमाण । अमृतश्राविन्-अमृतश्राविणी ऋद्धि के धारक मुनि । अम्बरचारण- चारण से ऋद्धि का एक भेद अर्हत्- अरहन्त चार घातियां कर्मों को नष्ट करने वाले जिनेन्द्र अर्हत्। अरहन्त कहलाते हैं।
अलोक लोक के बाहर का अनन्त आकाश जिसमें सिर्फ आकाश ही आकाश रहता है। अवधि-अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशम से प्रकट होने वाला देश प्रत्यक्ष ज्ञान, मर्यादित / सीमित ज्ञान । अवसर्पिणी- जिसमें लोगों के बल, विद्या, बुद्धि आदि का ह्रास होता है। इसमें दश कोड़ा कोड़ी सागर के सुषमा आदि छह काल हैं।
अष्टुण अणिमा, महिमा, गरिमा, लधिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व ये आठ गुण हैं। अष्टप्रातिहार्य-समदसरण में तीर्थ कर केवली के प्रकट होने वाले आठ प्रातिहार्य-१ अशोक वृक्ष, २. सिंहासन, ३. छत्रत्रय, ४. भामण्डल, ५. दिव्य ध्वनि, ६. पुष्पवृष्टि, ७. चौंसठ चमर, ८. दुन्दुभि बाजों का
बजना ।
अष्टांग- सम्यग्दर्शन के निम्नलिखित आठ अंग हैं- १. निः शक्ति, २. नि:कांक्षित, ३. निर्विचिकित्सित, ४. अमूढ दृष्टि, ५. उपगूहन अथवा उपबृंहण, ६. स्थितिकरण, ७. वात्सल्य, ८ प्रभावना ।
अस्तिकाय बहुप्रदेशी द्रव्य जीव पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश ये पांच अस्तिकाय हैं।
अहमिन्द्र सोलह स्वर्ग के आगे के देव अहमिन्द्र कहलाते हैं। अहः स्त्रीसंगवर्जन- दिवामैथुनत्याग नामक छठीं प्रतिमा संग रहित।
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बृहद् संस्कृत-हिन्दी शब्द कोश
१२५२
पारिभाषिक शब्द
आ आकर-जहां सोने-चांदी की खानें होती हैं। आकार-तद्-तद् पदार्थ के भेद से पदार्थ को ग्रहण करना।
रूप प्राप्त करना। आकाश-जो स्वमत का निरूपण करने वाली कथा, स्वपक्ष
की कथा। आगम-वीतराग सर्वज्ञदेव की वाणी, सच्चा शास्त्र। आचाम्लवर्धन-एक तप। आत्मरक्ष-इन्द्र के अंगरक्षक के समान देव। आत्मवाद-आत्मचिन्तन का कथन। आत्मा-ज्ञान-दर्शन स्वरूप जीव। आध्यात्मिक चेतना-आत्मा और ज्ञान का तादात्म्पभाव। आभियोगिक-पराधीनता। आभिनिवोधिक-अभिमुख और नियत पदार्थ को इन्द्रिया और
मन से जानना। आद्यशुक्लध्यान-पृथक्त्ववितर्क वीचार शुक्ल ध्यान। आनुपूर्वो-वर्णनीय विषय का क्रम, इसके ३ भेद हैं-पूर्वानुपूर्वी,
____ अन्तानुपूर्वी, यत्रतत्रानुपूर्वी। आभियोग्य-देवों का एक भेद। आमर्ष-एक ऋद्धि। आरम्भ परिच्युति-आरम्भ त्याग नामक आठवीं प्रतिमा,
इसमें व्यापार मात्र का त्याग हो जाता है। आराधना-समाधि, अर्चना, पूजा, भक्ति। आर्त्त-ध्यान का एक भेद। इसके चार भेद हैं-१. इष्ट
वियोगज, २. अनिष्टसंयोगज, ३. वेदनाजन्य और ४
निदान। ०पीड़ा, कष्ट। आस्तिक्य-सम्यग् दर्शन का एक गुण, आत्मा तथा परलोक
आदि का श्रद्धान होना। आहार-शरीर और पर्याप्तियों के योग्य पुद्गलों का ग्रहण
करना।
होती है, यह १० कोड़ा-कोड़ा सागर का होता है
इसके दुःषमा-दुःषमा आदि छह भेद हैं। उत्कर्षण-कर्म प्रकृति की स्थिति और अनुराग मे वृद्धि। उपक्रम-शास्त्र के नाम आदि का वर्णन, उपोद्घात-प्रस्तावना;
इसके पांच भेद हैं-आनुपूर्वी, नाम, प्रमाण. अभिध
ये, अर्थाधिकार उपपादशय्या-देवों के जन्म लेने का स्थान। उपयोग-१. ज्ञानोपयोग, २. दर्शनोपयोग। ०योग या अस्तित्व। उपशम श्रेणी-चारित्र मोहनीय। कर्म का उपशम करने वाले
आठवें से लेकर ११वें गण स्थानवी जीवों के
परिणाम। उपशान्त कषायता-ग्यारहवां गुणस्थान। उदय-कर्म-विपाक का प्रकट होना। उदीरणा-स्थिति और अनुभाग को न्यून करके फल देने के
लिए उन्मुख करना।
ऋ ऋजुमति-ऋजुमति मनःपर्यय ज्ञान नामक ऋद्धि के धारक
इस ऋद्धि का धारक सरल मन वचन काय से चिन्तित दूसरे के मन में स्थित रूपी पदार्थों को
जानता है। ऋजुसूत्र-वर्तमान समय मात्र को विषय करना।
क कथा-कथन-सत्कथा, धर्मकथा और विकथा। कनकावली-एक व्रत का नाम। कमल-संख्या का एक प्रमाण। करण-सम्यग्दर्शन प्राप्त कराने वाले भाव। इसके ३ भेद हैं-१
अध:करण, २. अपूर्व करण, ३. अनिवृत्तिकरण।
आत्मा का विशुद्ध परिणाम। करणानुयोग-शास्त्रों का एक भेद जिसमें तीन लोक का
वर्णन होता है। कल्प-उत्सर्पिणी और अत्रसर्पिणी को मिलाकर बीस कोड़ा-कोड़ी
सागर का एक कल्प काल होता है। कल्पपादप-कल्पवृक्ष, जिससे मनचाही वस्तुएं मिलती हैं। कामदेव-कामदेव पद का धारक (कुल २४ कामदेव होते हैं) कायगुप्ति-काय शरीर को वश में करना। कायबलिन्-कायबल ऋद्धि के धारक।
इन्द्र-देवों का स्वामी। ०इन्द्रिय विशेष। इन्द्रक-श्रेणीबद्ध विमानों के बीच का विमान। इन्द्रप्रस्थ-प्राचीन नगर जो दिल्ली नाम को प्राप्त है। इन्द्रिय-आत्मा की पहचान।
उत्कृष्टोपारुक स्थान-ग्यारहवीं प्रतिमा का धारक क्षुल्लक उत्सर्पिणी-जिसमें लोगों के बल विद्या, बुद्धि आदि की वृद्धि
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पारिभाषिक शब्द
१२५३
बृहद् संस्कृत-हिन्दी शब्द कोश
काल-वर्तना लक्षण से युक्त एक द्रव्य। एक प्रदेशी। घड़ी, घोष-जहां अहोर रहते हैं।
घण्टा, दिन, सप्ताह आदि। किल्विषिक-देवों का एक भेद।
चक्रवर्ती-चक्ररत्नका स्वामी, राजाधिराज। ये १२ होते हैं तथा कुमुद-संख्या का एक भेद।
भरत ऐरावत और विदेह क्षेत्र के छह खण्डों के केवली-ज्ञानावरण कर्म के क्षय से प्रकट होने वाला पूर्णज्ञान
स्वामी होते हैं। जिन्हें प्राप्त हो चुका है। उन्हें अहरन्तसर्वज्ञ अथवा
चतुर्थव्रतभावना-१. स्त्री कथा-त्याग, २. स्त्र्यालोक त्याग, ३. जिनेन्द्र भी कहते हैं।
स्त्रीसंसर्ग त्याग, ४. प्रागतस्मरण त्याग, ५. केशव-नारायण, ये नौ होते हैं।
वृष्येष्टरस-गरिष्ठ-उत्तेजक आहार का त्याग। कैवल्य-केवलज्ञान, संसार के समस्त पदार्थों को एक साथ
चतर्दश महाविद्या-उत्पाद पूर्व आदि चौदह पूर्व। जानने वाला ज्ञान। कोष्ठबुद्धि-कोष्ठबुद्धि ऋद्धि के धारक।
चरणानुयोग-शास्त्रों का एक भेद, जिसमें गृहस्थ मुनियों के
चारित्र का वर्णन रहता है। क्ष
चारण-आकाश में चलने वाले ऋद्धिधारी मनि। क्षीरस्राविन्-क्षीरस्राविणी ऋद्धि के धारक।
चारित्र के पांच भेद- १. ज्ञानाचार, २. दर्शनाचार, ३. क्षेत्र-लोक।
चारित्राचार, ४. तप आचार, ५. वीर्यावार। यह पांच क्ष्वेल-एक ऋद्धि।
प्रकार का आचार भी कहलाता है। चारित्र के पांच
भेद इस प्रकार भी हैं १. सामायिक, २. छेदोपस्थापना, खर्वट-जो सिर्फ पर्वत से घिरा हो ऐसा ग्राम।
३. परिहारविशुद्धि, ४. सूक्ष्म साम्पराय, ५. यथाख्यात खेट-जो नदी और पर्वत से घिरा हो ऐसा ग्राम।
चारित्र भावना-ईर्यादि समितियों में यत्न करना,
मनोगुप्ति आदि गुप्तियों का पालन और परिषह गणधर-तीर्थकरों के समवसरण में रहने वाले विशिष्ट मुनि।
सहन करना ये चारित्र भावनाएं हैं। ये चार ज्ञान के धारक होते हैं। गुणवत-जो अणुव्रतों का उपकार करें। ये तीन हैं-दिग्व्रत,
छ बाह्यतप-१. अनशन, २. अवमौदर्य, ३. वृत्तिपरिसंख्यान, देशव्रत और अनर्थदण्डव्रत, कोई-कोई आचार्य
४. रस परित्याग, ५. विविक्त शय्यासन, ६. काय भोगोपभोग। परिमाण को गुणव्रत और देशव्रत को
क्लेश। शिक्षा व्रत में शामिल करते हैं।
छेदोपस्थापना-चारित्र का एक भेद। गुणस्थान-मोह और योग के निमित्त से उत्पन्न आत्मा के
छह प्रकार का अन्तरंग नय-१. प्रायश्चित्त, २. विनय, ३. भावों को गुणस्थान कहते हैं, वे १४ हैं-१. मिथ्यादृष्टि,
वैय्यावृत्य, ४. स्वाध्याय, ५. व्यत्सर्ग, ६.ध्यान। २. सासादन, ३. मिश्र, ४. अविरत सम्यग्दृष्टि, ५. देशविरत, ६. प्रमत्तसंयत, ७. अप्रमत्तसंयत, ८. अपूर्वकरण, ९. अनिवृत्तिकरण, १०. सूक्ष्मसाम्पराय, जङ्घाचारण-चारण ऋद्धि का एक भेद। ११. उपशान्त मोह, १२. क्षीणमोह, १३. सयोग जलचारण-चारण ऋद्धि का एक भेद। केवली, १४. अयोगकेवली।
जल्ल-एक ऋद्धि। गृहांग-वह बस्ती जो बाड़ से घिरी हुई हो और जिसमें अधि जिनकल्प-मुनि का एकाकी विहार करना।
क तर शूद्र और किसान लोग रहते हों। बगीचा तथा जिनगुणर्द्धि-एक नया तालाब हो।
जिनेद्रगणसंपत्ति-एक वा का नाम विधि छठेपर्व के १४३-१४४ श्लेक मेंहै। घ
जीव-चेतना लक्षण से युक्त। ०ज्ञान-दर्शन उपयोग युक्त। घातिकर्म-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोह और अन्तराय ये चार | जीव के नामान्तर-जीव, प्राणी, जन्तु, क्षेत्रज्ञ, पुरुष, पुमान् कर्म घातिया कहलाते हैं।
अन्तरात्मा, ज्ञानी, यज्ञ, सत्त्व, प्रज्ञ। ०आत्मा, ज्ञ।
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जीव के पांच भाव- १. औपशमिक, २. क्षायिक, ३. क्षायोपशमिक ४. औदयिक, ५. पारिणामिक। ज्योतिरङ्ग प्रकाश को देने वाला एक कल्पवृक्षा
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ज्ञ ज्ञान पदार्थों को साकार सविकल्पक जानना । ज्ञानोपयोग के आठ भेद-१ मतिज्ञान २. श्रुतज्ञान, ३. अवधिज्ञान, ४ मन:पर्ययज्ञान, ५. केवलज्ञान, ६. कुमतिज्ञान, ७. कुश्रुत ज्ञान, ८. कुअवधि ज्ञान ।
त
तत्त्व- जीवादि पदार्थों का वास्तविक स्वरूप- १. जीव, २. अजीव । ० पदार्थ चिन्तन ।
तत्त्व भेद-१. मुक्त जीव, २. संसारी जीव ३. अजीवा तत्त्वार्थ- जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये छह तत्त्वार्थ हैं। इन्हीं को छह द्रव्य कहते हैं। जीवादि सात तत्त्व।
तन्तुधारण चारणऋद्धि का एक भेद।
तीर्थकृत् - धर्म के प्रवर्तक तीर्थंकर हैं, भरत और ऐरावत क्षेत्र में इनकी संख्या २४-२४ होती है, विदेह क्षेत्र में २० होते हैं।
तुटिकाशब्द-संख्या का एक प्रमाण ।
योग-बाजों को देने वाला एक कल्पवृक्ष
तृतीय व्रत की भावना -
१. मिताहार ग्रहण २. उचिताहार ग्रहण, ३. अभ्यनुज्ञात ग्रहण, ४. विधि के विरुद्ध आहार ग्रहण नहीं करना, ५. प्राप्त आहार पान में सन्तोप रखना।
त्र
त्रायस्त्रिंश-देवों का एक भेद ।
त्रिबोध- तीन ज्ञान, १. मतिज्ञान, २. श्रुतज्ञान और ३ अवधि ज्ञान । ये तीन ज्ञान तीर्थ करके जन्म से ही होते हैं।
त्रिमृढ़ता - देवमूढ़ता गुरुमूढ़ता, लोकमूढ़ता।
त्रिवर्ग-धर्म, अर्थ, काम
त्रिषष्टिपुरुष - २४ तीर्थकर, १२ चक्रवर्ती, ९ नारायण, ९ प्रतिनारायण, ९ बलभद्र ये त्रिषष्टि पुरुष ६३ शलाका पुरुष कहलाते हैं।
त्रिविध-तीन प्रकार का ।
त्रैकाल्य- भूत भविष्यत्, वर्तमान काल ।
द दण्ड- चार हाथ का एक दण्ड होता है। दर्शन-पदार्थों को अनाकार निर्विकल्प जानना । दर्शनमोह मोहनीयकर्म का एक भेद जो सम्यग्दर्शन गुण को घातता है।
१२५४
पारिभाषिक शब्द
दर्शनोपयोग १. चक्षुदर्शन, २. अचक्षुदर्शन ३ अवधिदर्शन, ४. केवलदर्शन |
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दीपांग- दीपकों को देने वाला एक कल्पवृक्ष । देशावधि- अवधिकज्ञान का एक भेद।
दुःषमा अवसर्पिणी पांचवां काल
द्वितीयव्रत भावना - १. क्रोध त्याग, २. लोभत्याग, ३. भयत्याग, ४. हासत्याग और ५ सूत्रानुगामी शास्त्र के अनुसार वचन बोलना ये पांच सत्य व्रत की भावना है।
-
,
,
द्रव्यलेश्या - शरीर एक रूप रंग। इसके ६ भेद हैं- १. कृष्ण, २. नील, ३. कापोत, ४. पीत ५ पद्म ६. शुक्ल । द्रव्यानुयोग - शास्त्रों का भेद, जिनमें द्रव्यों के स्वरूप का वर्णन रहता है।
द्रोणमुख जो नदी के किनारे बसा हो ऐसा ग्राम
ध
धनुष चार हाथ का एक धनुष होता है।
धर्म- जो जीव और पुद्गल की गति में सहायक हो, ०धर्म द्रव्य । धर्म वस्तु स्वभाव।
धर्मचक्र - तीर्थकरके केवलज्ञान हो चुकने पर प्रकट होने वाला देवोपनीत उपकरण इसमें एक हजार अर होते हैं और वह सूर्य के समान देदीप्यमान रहता है, बिहार के समय तीर्थ करके आगे-आगे चलता है। धर्म्यध्यान- ध्यान का एक भेद- १. आज्ञाविचय, २. अपायविचय, ३. विपाकविचय, ४. संस्थान विचय।
न
नय- जो वस्तु के एक धर्म (नित्यत्व-अनित्यव आदि) को विवक्षावश क्रम से ग्रहण करे, वह ज्ञान । यह द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिक, निश्चय, व्यवहार नय आदि के भेद से अनेक प्रकार का होता है।
नयुत - संख्या का एक भेद ।
नयुतांग संख्या का एक भेद। नलिन संख्या का एक प्रमाण।
नवकेवल लब्धियाँ-१ क्षायिक ज्ञान, २. क्षायिक दर्शन, ३.
क्षायिक सम्यक्त्व, ४ क्षायिक चरित्र ५. क्षायिक दान, ६. क्षायिक लाभ, क्षायिक भोग, ७०. क्षायिक उपयोग, ८. क्षायिक वीर्य ।
नवपदार्थ जीव, अजीव, आस्त्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुष्व और पाप थे नौ पदार्थ है।
निक्षेप नय और प्रमाण के अनुसार प्रचलित लोक व्यवहार ।
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पारिभाषिक शब्द
१२५५
बृहद् संस्कृत-हिन्दी शब्द कोश
प
निगोत ( निगोद)-- साधारण वनस्पति काय, जिसके आश्रित पूर्वकोटी-एक करोड़ पूर्व चौरासी लाख वर्ष का एक पूर्वांग अनन्त जीव रहते है। इसका दूसरा नाम निगोद
होता है और चौरासी लाख पूर्वांग का एक पूर्व होता प्रसिद्ध है। इसी प्रकार का एक निकोत शब्द भी
है। ऐसे एक करोड़ पूर्व। आता है जो कि सम्मूच्र्छन जीवों का वाचक है। पूर्वरंग-नाटक का प्रारम्भिक रूप। निर्यापक-सल्लेखना- समाधि की विधि कराने वाला-निर्देशक पृथकत्व-तीन से ऊपर और नौ से नीच के संख्या। निर्वेद-संसार -शरीर और भोगों में विरक्तता।
पृथक्त्वध्यान (पृथक्त्ववितर्क)-शुक्ल ध्यान का प्रथम पाया। निर्वेदिनी-वैराग्यवर्धक कथा।
प्रकीर्णक-फुटकर बसे हुए विमान। नैःषड़क व्रतभावना-बाह्याभ्यन्तर भेद से युक्त पंचेद्रिय सम्बन्धी प्रत्यय-सम्यग्दर्शन का पर्यायन्तर नाम। सचित अचित विषयों में अनासक्ति।
प्रत्येक बुद्ध-वैराग्य का कारण देख स्वयं वैरागय धारण करने
वाले मुनि। पञ्चास्तिकाय-१. जीव, २. पद्गल, ३. धर्म, ४. अधर्म, ५.
प्रथम व्रत भावन-१. मनोगुप्ति, २. वनचगुप्ति, ३. कायगुप्ति, आकाश,
४. ईर्या समिति ये पाँच अहिंसाव्रत की भावनाएँ हैं। पत्तन--जो समुद्र के पास बसा हो तथा जिसमें नावों से
प्रथमानयोग-शास्त्रों का एक भेद जिसमें सत्पुरूषों के कथानक उतरना-चढ़ना होता है।
लिखे जाते हैं भिषष्टि शलाका पुरूष चरित्र कथा पदानुसारिन्-पदानुसारी ऋद्धि के धारक।
का योग। पदार्थ-जीव अजीव, आस्त्रव, बन्ध, संवर, निजरा, मोक्ष,
प्रमाण-जो वस्तु के समस्त धर्मों (नित्यत्व-अनित्यत्व आदि) पुष्य, पाप ये नौ पदार्थ कहलाते हैं।
को एक साथ ग्रहण करे वह ज्ञान सर्वग्राही प्रमाण पद्य-संख्या का एक भेद।
होता है। परग्राम-जिसमें पाँच सौ घर हों तथा सम्पन्न किसान हों
प्रशम-सम्यग्र्दशन का एक गुण, कषाय के असंख्यात लोक - इसकी सीमा २. काश की होती है।
प्रमाण स्थानों में मन का स्वभाव से शिथिल होना। परमावधि-अवधिज्ञान का भेद।
प्रायोपणापगम (प्रायोपगम)-संन्यास। परमेष्टी-अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ये ५
प्रायोपगमन--संन्यास-सल्लेखना परमेष्ठी कहलाते हैं। जो परमपद में स्थित होते हैं।
प्रोषधव्रत-प्रोषधोपवास नामक चौथी प्रतिमा। इसमें प्रत्येक पर्यास-जिनके शरीर पर्याप्ति पूर्ण हो चुके है।
अष्टमी और चतुर्दशी को उपवास करना पड़ता है। पर्व-संख्या एक भेद। परिग्रहपरिच्युति-परिग्रह त्याग नामक नौवीं प्रतिमा, इसमें । फलचारण-चारण ऋद्धिका एक भेद। इस ऋद्धि के धारी आवश्यक वस्त्र तथा निर्वाहयोग्य बरतनों के सिवाय
वृक्षों में लगे फलों पर यपैर रखकर चलें फिर भी सब परिग्रहक त्याग हो जाता है।
फल नहीं टूटते हैं। पल्य-असंख्यात वर्षों का एक पल्य होता है। पारिषद- देवों का एक भेद।
बल-बलभद्र, नारायण आदि जब होते हैं। पुद्गल-वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से सहित द्रव्य जो पुरण,
बीजबुद्धि-बीजबुद्धि ऋद्धि के धारक। गलन स्वभाव आदि रूप होता है।
ब्रह्मचर्य-यह सातवीं प्रतिमा है, इसमें स्त्री मात्र का त्याग कर पुद्गलके छद भेद-१. सूक्ष्म सूक्ष्म, २. सूक्ष्म, ३. सूक्ष्मस्थूल,
पूर्ण ब्रह्मचर्य धारण करना पड़ता है। ब्रह्म/आत्म में ४. स्थूल सूक्ष्म, ५. स्थूल, ६. स्थूल-स्थूल।
रत होना। पुर-जो परिखा, गोपुर, कोट तथा अट्टलिका आदि से सुशोभित हो, बाग-बगीचे और जलाशय से सहित होता पुर
भव्य-जिसे सिद्धि-मुक्ति प्राप्त हो सके ऐसा जीव। (भ) पुष्चारण-चारणऋद्धिका एक भेद।
भावना-भवनवासी देव।
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बृहद् संस्कृत-हिन्दी शब्द कोश
१२५६
पारिभाषिक शब्द
व
भावलेश्या-कपाय के उदसये अनरंजित योगों की प्रवृत्ति। भुक्ति -भोग का क्षेत्र। भोजनांग-सब प्रकार का भोजन देने वाला एक कल्पवृक्षा
मोहना,
मढम्ब-जो पाँच सौ गाँवों से घिरा हो ऐसा नगर मघांग-एक कल्पवृक्ष, इससे अनेक रसों की प्राप्ति होती है। मधुस्वाविन्-मधुस्त्राविणी ऋद्धि के धारक। मनोगुसि-मनको वश में करना। मनोबलिन्-मनोबल ऋद्धि के धारक। मातृकापद-१. ईर्या, २. भाषा, ३. एषणा, ४. आदान निक्षेपण
और, ५. प्रतिष्ठापन ये पाँच समितियाँ तथा १. मनोगुप्ति, २. वचनगुप्ति और ३. कायगुप्ति ये तीन गुप्तियाँ ये आठ मातृकापद अथवा प्रवचनमातृ का
कहलाती है। मात्राष्टक भी यही हैं। मात्राष्टक-ईर्या, भाषा एषणा आदान निक्षेपण और प्रतिष्ठान
ये पाँच समितियाँ तथा मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और
कायगुप्ति ये ३ गुप्तियाँ। मार्गग्राएँ-१. गति, २. इन्द्रिय, ३. काम, ४, योग, ५. वेद, ६.
कषाय, ७. ज्ञान, ८. लेश्या, ९. दर्शन, १०. लेश्या, ११. भव्यत्व, १२. सम्यक्त्व, १३. संज्ञित्व और,
आहारका मुक्तावली-एक तप का नाम। मोक्ष-आत्म का कार्मों से सर्वथा सम्बन्ध छुट जाना।
वचोबलिन्-वचन बल ऋद्धि के धारक। वन (चतुर्विध)-१. भद्राशालबन, २. नन्दवान, ३. सौमनसवन,
४. पाण्डुकवन। वन्य-व्यन्तर देव, इनके किन्नर, किंपुरूष, महोरग, गन्धर्व,
यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच ये आठ भेद होते हैं। वाग्गुसि-वचन को वश में करना। वाग्विप्रुट्-एक ऋद्धि। विकृष्टग्राम-जिसमें सौ घर हो ऐसा ग्राम। इसकी सीमा १
कोश की होती है। विक्रियर्द्धि-एक ऋद्धि विशेष इसके आठ भेद है-अणिमा,
महिमा, गारिमा, लधिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व,
और वशित्व। विक्षेपिणी-परमतका निराकरण करने वाली कथा। विपुलमति-विपुलमतिमनः पर्यय-ज्ञान ऋद्धि के धारक। विभंग-मिथ्या अवधिज्ञान, विभंग ज्ञान। विभूषणांग-आभूषण देने वाला कल्पवृक्ष। वैराग्यस्थैर्यभावना-विषयोंमें अनासक्ति, कायके स्वरूपका
बार-बार चिन्तन करना और जागृत स्वभावका विचार करना। ये वेराग्यस्थैर्य भावनाएँ भावना-१. धृतिमत्ता-धैर्य धारण करना। २. क्षमावत्ता-क्षमा धारण करना। ३. ध्यानैकतानता-ध्यान में लीन रहना।
४. परीषहों के आने पर कार्य से च्युत नहीं होना। व्रतोद्योत-दूसरी व्रत प्रतिमा जिसमें ५. अणुव्रत ३. गुण-व्रत और ४. शिक्षाव्रत ये १२. व्रत धारण करने पड़ते हैं
श शिक्षाव्रत-जिनसे मुनिव्रत धारण करने की शिक्षा मिले। ये
चार हैं- सामायिक, प्राषधो-पवास, अतिथि संविभाग और संन्यास-सल्लेखना। कोई-कोई आचार्य सल्लेखना का पृथक् निरूपण कर उसके स्थान पर अतिथिसंविभाग व्रत अथवा वैयावृत्यका वर्णन करते
रज्जु-असंख्यात योजन की एक रज्जू-राजू होती है। रत्नावली-सम्यदर्शन, सम्यगज्ञान, सम्यक्चारित्र। रूचि-सम्यग्यर्शन पर्यान्तर। रौद्रध्यान-ध्यान का का एक भेद। इसके चार भेद है- १.
हिंसानन्द, २. मृषानन्द, ३. स्तेयानन्द, ४. विषयरंक्षणानन्द।
हैं।
लोक-जहाँ तक जीव, पुदगल, धर्म, अधर्म, आकाश और
काल ये छहो द्रव्य पाये जाते हैं उस १४ राजु ऊँचे
और ३४३ राजु धन फल वाले आकाश को लोक
कहते हैं लोक्यते लोकः। यह द्रव्य समूह का नाम। लोकपाल- देवों के एक प्रकार, ये देव कोतवाल समान
नगर-के रक्षक होते हैं।
शक्लध्यान-ध्यान का एक भेद इसके चार भेद होते हैं-१.
पृथक्त्व, वितर्क विचार, २. एकत्व वितर्क, ३. सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाति और ४ व्युपरतक्रिया निवर्ति।
श्रद्धा-सम्यग्दर्शन का पर्यायान्तर नाम।
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पारिभाषिक शब्द
१२५७
बृहद् संस्कृत-हिन्दी शब्द कोश
श्रमण संघ के चार भेद-१. ऋषि, २. मुनि, ३. यति, ४ । सल्लेखना-समाधिमरण। सम्यक् विधि का अभिलेखन। अनगार। श्रुत्-सूत्र, शास्त्र, सिद्धान्त, प्रवचन आगम है।
समभाव पूर्वक मरण। श्रुतकेवली-पूर्ण श्रुतज्ञान के धारक मुनि।
सामानिक-देवों का एक भेद जो कि इन्द्र के माता-पिता श्रुतज्ञान-एक ज्ञान का नाम, गतिपूर्वक होने वाला ज्ञान।
आदि के तुल्य होता है। श्रुतज्ञानविधि-एक तप।
सिद्ध-अष्ट कर्म से रहित त्रिलोक के अग्र भाग पर निवास श्रेणीचारण-चारण ऋद्धि का एक भेद।
करने वाले जीव। श्रेणीबद्ध-श्रेणी के अनुसार बसे हुए विमान।
सिद्ध के आठ गुण-१. सम्यक्त्व, २. दर्शन, ३. ज्ञान, ४. प
वीर्य, ५. सौक्ष्म्य, ६. अवगाहन, ७. अव्याबाध, ८. षद्रव्य-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये
अगुरुलघुता। छह द्रव्य हैं।
सुदर्शन-एक तप। सुष्ठु दर्शनं सुदर्शनम्। सुषमा-अवसर्पिणी का दूसरा काल।
सुषमासुषमा-अवसर्पिणी का पहला काल। सचित्तसेवाविरति-सचित्त त्याग नामक पांचवीं प्रतिमा। इसमें
सूक्ष्म-कार्मणस्कन्ध। सचित्त वनस्पति तथा कच्चे पानी का त्याग होता है।
सूक्ष्म-अणु स्कन्ध के भेदों की अपेक्षा व्यणुक। संख्याद्यनुयोग-१. सत्, २. संख्या, ३. क्षेत्र, ४. स्पर्शन, ४.
सूक्ष्मराग-दसवां गुणस्थान। काल, ६. अन्तर, ७. भाव, और ८. अल्प बहुत्व।
सूक्ष्मसूक्ष्म-अणु स्कन्ध के भेदों अपेक्षा व्यणुका सदर्शन-दर्शन प्रतिमा श्रावक की पहली प्रतिमा जिसमें आठ
सूक्ष्मस्थूल-जो आंखों से न दिखे पर अन्य इन्द्रियों से ग्रहण मूल गुणों के साथ सम्यग्दर्शन धारण करना पड़ता
में आये जैसे शब्द स्पर्श, रस, गन्ध।
संकल्प-विषयों में तृष्णा बढ़ाने वाली मन की वृत्ति को सप्तांग-कथा मुख के निम्नलिखित सात अंग हैं-१. द्रव्य, २.
संकल्प कहते हैं। इसी का दूसरा नाम दुष्प्रणिधान क्षेत्र, ३. तीर्थ, ४. काल, ५. भाव, ६. महाफल और
भी है। प्रकृत।
संग्रह-दस गांवों के बीच का बड़ा गांव। सप्ताम्बुधि-सात सागर।
संग्रह नय विशेष। समता-सामायिक नामक तीसरी प्रतिमा, इसमें दिन में ३ बार
संभिन्नश्रोतृ-संभिन्नश्रोतृ ऋद्धि के धारक। कम से कम दो-दो घड़ी पर्यन्त सामायिक करना
संवाह-जहां मस्तक पर्यन्त ऊंचे-ऊंच धान्य के ढेर लगे हों पड़ता है।
ऐसा ग्राम। समाहित-समाधि मरण से युक्त पुरुष।
संवेग-सम्यग्दर्शन का एक गुण-धर्म और धर्म फल में उत्साह सम्यक्चारित्र-मोक्षाभिलाषी एवं संसार से नि:स्पृह मुनि की
युक्त मन का होना अथवा चतुर्गतिके दुःखों से माध्यस्थ वृत्ति को सम्यक् चारित्र कहते हैं।
भयभीत रहना। सम्यक्त्वभावना-संवेग, प्रशम, स्थैर्य, असंमूढता, अस्मयगर्व नहीं
संवेदिनी-धर्म का फल वर्णन करने वाली कथा। करना, आस्तिक्य और अनुकम्पा ये सम्यक्त्व भावनाए हैं।
संसारी जीव के २ भेद-१. भव्य, २. अभव्य। सम्यग्ज्ञान-जीवादि पदार्थों की यथार्थत को प्रकाशित करने
सिंहनिष्क्रीडित-एक व्रत का नाम। वाला ज्ञान।
स्कन्ध-व्यणुक से लेकर लोकरूप महास्कन्ध तक का पुद्गल सम्यग्दर्शन-सच्चे देव-शास्त्र गुरु का श्रद्धान् अथवा जीवादि
प्रचल स्कन्ध कहलाता है। सात तत्त्वों का श्रद्धान।
स्थविर कल्प-मुनिव्रत का पालन करते हुए साथ-साथ विहार सर्पिः साविन्-घृतम्राविणी ऋद्धि के धारक।
करना स्थविर कल्प हैं सर्वतोभद्र-एक व्रत का नाम।
स्थूल-जो अलग करने पर अलग हो जाये और मिलने पर सर्वावधि-अवधि ज्ञान का एक भेद।
मिल जाये जैसे तेल पानी आदि। सौषधि-एक ऋद्धि।
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बृहद् संस्कृत-हिन्दी शब्द कोश
१२५८
पारिभाषिक शब्द
स्थूल-स्थूल-जो अलग करने पर अलग हो जाये और मिलाने | स्वयंबुद्ध-बाह्य कारणों के बिना स्वयं विरक्त होने वाले मुनि। पर न मिले जैसे पत्थर आदि।
स्वोद्दिष्टपरिवर्जन-उद्दिष्टत्याग नामक ग्यारहवीं प्रतिमा। इसमें स्थूल-सूक्ष्म-जो आंखों से दिखे पर पकड़ने में न आये जैसे
अपने उद्देश्य से बनाये हुए आहार का भी त्याग हो चांदनी आतप आदि।
जाता है। स्पर्श-सम्यादर्शन का पर्यायान्तर नाम।
स्त्रगङ्ग-सब प्रकार की मालाएं देने वाला कल्पवृक्ष।
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भौगोलिक शब्द
अ
उग्र (उण्ड)-एक देश। इन्द्रप्रस्थ-एक प्राचीन नगर। उज्जेनी-नगरी(म०प्र०)प्राचीन नगरी। उत्तर कुरू-विदेह क्षेत्र के अन्तर्गत एक प्रदेश जहाँ उत्तम
भोग भूमि है। उत्पलखेटक-विदेह क्षेत्र पुष्कलावती देश का एक नगर है। उदक्कुरू-उत्तर कुरू-मेरू पर्वत की उत्तर दिशा में वर्तमान
विदेह क्षेत्र का एक भाग जहाँ उत्तम भोग भूमि की
रचना है। उशीनर-एक देश। ऊर्मिमालिनी-विभंगा नदी।
ऋ ऋतु-सौधर्म स्वर्ग के प्रथम पटल का इन्द्रकविमान।
एशानकल्प-दूसरा स्वर्ग।
अक्षोम्य-एक नगर। अजयमेरु-अजमेर राजस्थान का एक नगर। अचलपुर-नगर विशेष। अग्निज्वाल-एक नगर। अङ्ग-भागलपुर का पार्श्वती प्रदेश। अच्युत-सोलहवां स्वर्ग। अंजनशैल-नन्दीश्वर द्वीपके अंजन गिरि। अंजना-स्रोथी पृथिवी, नरक भूमि। अधोग्रैवेयक-सोलह स्वर्गों के ऊपर नौ ग्रैवेयक विमान हैं। नीचे के तीन विमान अधोग्रैवेयक कहलाते हैं। अनुदिश-अच्युत कल्प का अनुदिश नामक विमान। अपराजित नगर-एक नगर। अमरावती-इन्द्र की नगरी। अम्बर तिलक-विदेह का एक पर्वत। अम्बर तिलक- एक नगर। अयोध्या-धात की खण्ड के पूर्व भागस्थ पश्चिम विदेह क्षेत्र
के गन्धिल देश की एक नगरी। अयोध्या-उत्तर प्रदेश की प्रसिद्ध नगरी। अर्जुनो-एक नगरी। अरजस्का -एक नगर। अरिंजय-एक नगर। अरिष्टपुर-पूर्व विदेह के महाकच्छ देश का एक नगर। अलका-विजयार्ध पर्वत की उत्तर श्रेणी पर स्थित एक नगरी। अवन्ती-एक देश। उज्जैन का पार्श्ववर्ती प्रदेश। अश्मक-एक देश। अशोका-एक नगर। आनर्त-एक देश। आन्ध्र-दक्षिण का एक देश। अभिसार-एक देश। आभीर-एक देश। आरट-एक देश।
कच्छ-एक देश। कनकाद्रि-सुमेरूपर्वत। कर्णाट-दक्षिण का एक देश। करहाट-एक देश। कलिंग-आधुनिक नाम उड़ीसा। कांचन-ऐशान स्वर्ग का एक विमान। काम्बोज-काबुल का पार्श्वतर्ती प्रदेश। काशी-एक देश। वाराणसी का पार्श्ववर्ती प्रदेश। अस्सी और
वरूण नदी का। काश्मीर-एक देश। किन्नोरगोत-एक नगर। किन्नामित-विजाया का एक नगर। किलिंकिल-एक नगरी। कुण्डग्राम-वैशाली गणराज्य का एक नगर, महावीर का
जन्मस्थल।
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बृहद् संस्कृत-हिन्दी शब्द कोश
कुण्डल - कुण्डलवर द्वीप में स्थित एक चूड़ी के आकार का पर्वत ।
कुण्डलपुर- दमोह ( म०प्र०) के पास स्थित तीर्थ ।
कुन्द - एक नगर ।
कुमुद - वि० उ० श्रेणी० का एक नगर । कुरु- एक देश । मेरठ का पार्श्ववर्ती प्रदेश । कुरुजांगल - हस्तिनापुर का पार्श्ववर्ती प्रदेश | केकय- एक देश |
केतुमाला- एक नगर
केरल - दक्षिण भारत का देश |
कैलास वारुणी- एक नगरी ।
कोंकण - एक देश । पूना का पार्श्ववर्ती प्रदेश । कोसल- अयोध्या का पाश्र्ववर्ती प्रदेश
क्ष
क्षेमपुरी - एक नगरी । क्षेमकर- एक नगर ।
खचराचल- विजयार्ध पर्वत । खेचराद्रि- विजयार्ध पर्वत । गगनचारी- एक नगर ।
गगनन्दन- एक नगर ।
गगनवल्लम-एक नगर ।
गरुडध्वज- एक नगर ।
गान्धार- एक देश
गिरिशिखर एक नगर। गोक्षीर- एक नगर ।
ग
गङ्गा-एक नदी जो हिमालय से निकली है।
गजदन्त मेरु पर्वत के कोणम स्थित चार गजदन्त नामक
पर्वत ।
गन्धर्वपुर- एक नगर ।
गान्धिला- विदेह का एक खण्ड ।
घर्मा-पहला नरक रत्नप्रभा ।
ख
चतुर्मुखी - एक नगर | चन्द्रपुर- एक नगर ।
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घ
च
१२६०
चन्द्रपुरी - वाराणसी के पास स्थित ।
चन्द्राभ- एक नगर ।
चमर- एक नगर ।
चारुणी - एक नगरी ।
चित्रकूट - एक नगर ।
चित्रांगद - ऐशान स्वर्ग का विमान ।
चूडामणि एक नगरी
चेदि एक देश चन्देरी का पार्श्ववती प्रदेश | चोल दक्षिण भारत का एक देश ।
ज
जगन्नाडी- लोकनाड़ी १४ राजु प्रमाण लोक के मध्य में स्थित एक राजु चौड़ी एक राजु मोटी और १४ ऊंची नाड़ी। इसे त्रसनाड़ी भी कहते हैं।
जय-एक नगर । जयन्ती एक नगर | जाबालि जबलपुर।
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जम्बू द्रुम-विदेह क्षेत्र का एक प्रसिद्ध वृक्ष जिसके कारण इस द्वीप का नाम जम्बू द्वीप पड़ा।
जम्बू द्वीप - पहला द्वीप।
त
तमः प्रभा - छठी पृथिवी (छटा नरक ) । तमस्तमः प्रभा सातवीं पृथ्वी
तिलका-एक नगर ।
तुरुष्क-एक देश - तुर्क। त्रिकूटा- एक नगर ।
भौगोलिक शब्द
धय- एक नगर
द
दशार्ण- आधुनिक विदिशा का पार्वती प्रदेश
दारू- एक देश
दुर्ग- एक नगर दुर्धर नगर |
देवकुरु विदेह क्षेत्र के अन्तर्गत एक प्रदेश जिसमें उत्तम भोग भूमि की रचना है।
देवाद्रि- सुमेरुपर्वत । द्युतिलक-एक नगर
तिलक- अम्बर तिलक पर्वत ।
ध
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भौगोलिक शब्द
१२६१
बृहद् संस्कृत-हिन्दी शब्द कोश
पाटलीग्राम-धात की खण्ड विदेह क्षेत्र गन्धिला देश का एक
नगर।
धारणी-एक नगर। एक नदी। धातकी खण्ड-इस नाम का दूसरा द्वीप इसका विस्तार ४
लाख योजन है। धान्यपुर-एक नगर। धूमप्रभा-पांचवीं पृथिवी। ध्यानचतुष्क-आर्तध्यान, रौद्र ध्यान, धर्म्यध्यान, शुक्ल ध्यान।
न नन्द-ऐशान स्वर्ग का विमान। नन्दन-मेरु पर्वत का एक वन। नन्दीश्वर-आठवां द्वीप जहां ५२ जिनालय है। नन्दोत्तरा-समवसरण की एक वापिका का नाम नन्दोत्तरा,
नन्दा, नन्दवती, नन्दघोषा ये चार वापिकाएं पूर्वमानस स्तम्भ की पूर्वादि दिशाओं में है। विजया, वैजयन्ती, जयन्ती और अपराजिता ये चार वापिकाएं दक्षिण मान स्तम्भ की पूर्वादि दिशाओं में
पाण्डुक-मेरु का वन। पाटाद्रि-प्रत्यन्त पर्वत। प्राग्विदेह-पूर्वविदेह। प्राणत-चौदहवां स्वर्ग। प्रीतिवर्द्धन-एक विमान। पुण्डू-आधुनिक बंगाल का उत्तरी भाग, अपर नाम गौड देश। पुण्डरीक-एक नगर। पुरंजय-एक नगर। पुरिमताल-एक नगर। पुष्कलावती-विदेह का एक देश। पुष्पचूल-एक नगरी। पूर्वमन्दर-पूर्वमेरु। पोदनपुर-प्राचीन नगर। बाहुबली द्वारा शासित।
भ
शोका, सुप्रतिबुद्धा, कुमुदा और पुण्डरीका ये चार | फेन-एक नगर। वापिकाएं पश्चिम मानस्तम्भ की पूर्वादि दिशाओं में है। हृदयानन्दा, महानन्दा, सुप्रबुद्ध और प्रभंकरी ये
बंग-बंगाल चार वापिकाएं उत्तर दिशा के मानस्तम्भ की पूर्वादि
बलाहक-एक नगरी। दिशाओं में हैं।
बहुकंतुक-एक नगर। नन्द्यावर्त-ऐशान स्वर्ग का एक विमान।
बहुमुखी-एक नगर। नरगीत-एक नगर। नित्यवाहिनी--एक नगर। नित्योद्योतिनी-एक नगर।
भद्रशाल-मेरु का एक वन। निमिष-एक नगर। .
भद्राश्व-एक नगर। निषध-एक कुलाचल जिस पर सूर्योदय और सूर्यास्त होते हैं।
भरत-भरत क्षेत्र। नील-एक एक कुलाचल।
भारत-हिमवत्कुलाचल और लवण समुद्र के बीच का क्षेत्र
जो कि ५२६-६/१९ योजन विस्तार वाला है।
भूमितिलक-एक नगर।। पंकप्रभा-चौथी पृथिवी। पञ्चमार्णव-क्षीरसागर। पञ्चाल-एक देश।
मगध-विहार प्रदेश राजगृही का पार्श्ववर्ती प्रदेश। पल्लव-दक्षिण का देश।
मधवी-छठीं पृथिवी। पलालपर्वत--धात की खण्ड विदेह क्षेत्र गन्धिला देश का
मंगलावती-विदेह क्षेत्र का एक देश। एक ग्राम।
मणिवज्र-एक नगर। प्रभा-दूसरे स्वर्ग का विमान।
मनोहर-एक उद्यान। प्रभाकर-ऐशान स्वर्ग का एक विमान।
मन्दर-मेरु पर्वत।
मन्दिर-एक नगर। प्रभाकरपुरी-पुष्करवर द्वीपस्थ विदेह की एक नगरी।
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बृहद् संस्कृत-हिन्दी शब्द कोश
१२६२
भौगोलिक शब्द
महाकच्छ-पूर्व विदेह का एक देश। महाकूट-एक नगर। महाज्वाल-एक नगर। महापूतजिनालय-एक मन्दिर का नाम। महाराष्ट्र-एक प्रदेश। महेन्द्रपुर-एक नगर। माधवी- सातवीं पृथिवी। मानुषोत्तर पर्वत-पुष्कर वर द्वीप के मध्य में स्थित चूड़ी के
आकार का एक पर्वत। मालव-एक देश। माहेन्द्र-चौथा स्वर्ग। मुक्ताहार-एक नगर। मेघकूट-एक नगर।
वसुमत्क-एक नगरी। वालुका प्रभा-तीसरी पृथिवी। वाह्रीक-एक देशा विचित्रकूट-एक कूट। विजयपुर-एक नगरी। विजयपुर-एक नगर। विजया-एक नगर। विजयार्द्ध-विजयार्द्ध पर्वत, इनकी अढाई द्वीप में १७० संख्या
य
यवन-एक देश (यूनान)।
रुचक-रुचकवर द्वीप में स्थित एक पर्वत। रतिकूट-एक नगर। रलपुर-एक नगर। रत्नप्रभा-पहली पृथवी (पहला नरक) रत्नसञ्चय-विदेह क्षेत्र मङ्गलावती देश का एक नगर। रत्नाकार-एक नगर। रथनूपुरचक्रवाल-एक नगर। रम्यक-एक देश। रुषित-दूसरे स्वर्ग का एक विमान। रौप्याद्रि-विजया पर्वत।
विदर्भ-बरार। विदेह-मिथिला का पार्श्ववर्ती एक देश। विदेह-जम्बूद्वीप का एक क्षेत्र। विद्युत्प्रभ-एक नगरी। विनीता-अयोध्या। उत्तर भारत का एक नगर। विनेयचरी-एक नगर। विपुलाद्रि-राजगृही का प्रथम पर्वत। विमान-देवों का निवास स्थान। विमुखी-एक नगर। विमोच-एक नगर। विरजस्का-एक नगर। विशोका-एक नगर। वीतशोका-एक नगर। वैजयन्ती-एक नगर। वैतरणी-नरक की नदी। वैश्रवणकूट-एक नगर। वंशा-दूसरा नगर नरक-शर्कराप्रभा। वंशाल-एक नगरीी।
श
लोहार्गल-एक नगर।
शक-एक देश।
शकटमुखी-एक नगर। वज्रपुर-एक नगर।
शत्रुञ्जय-एक नगर। वज्राढ्य-एक नगर।
शर्कराप्रभा-एक नगरी। वज्रर्गल-एक नगर।
शशिप्रभा-एक नगरीी। वत्स-एक देश।
शाल्मलि-विदेह क्षेत्र का एक प्रसिद्ध वृक्ष। वत्सकावती-पुष्कारार्ध के पश्चिम भागस्थ पूर्व विदेह का | शिला-तीसरी पृथिवी, इसका दूसरा रूढ़ि नाम मेघा भी है। एक देश।
शिवङ्कर-एक नगर। वनवास-दक्षिण भारत का एक देश।
शिवमन्दिर-एक नगर। वसुमती-एक नगर।
शुक्रपुर-एक नगर।
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भौगोलिक शब्द
१२६३
बृहद् संस्कृत-हिन्दी शब्द कोश
शूरसेन--एक देश, मथुरा के समीप स्थित।
श्र श्रीधर-एक नगर। श्रीनिकेत-एक नगर। श्रीप्रम-ऐशान स्वर्ग का एक विमान। श्रीप्रभ-एक पर्वत। श्रीप्रभ-एक नगर। श्रीवास-एक नगर। श्रीहर्म्य-एक नगर। श्वेतकेतु-एक नगर।
सुकोसल-एक देश। आधुनिक नाम मध्य प्रदेश अपर नाम
महाकोसल। सुगन्धिनी-एक नगर। सुदर्शन-एक नगर। सुप्रपिष्टित-एक नगर। सुमुखी-एक नगर। सुराद्रि-सुमेरू पर्वत। सुराष्ट-सौराष्ट्र देश गिरिनार का पार्श्ववर्ती प्रदेश। सुरेन्द्रकान्त-एक नगर। सुसीमानगर-जम्बूद्वीप-पूर्व विदेह क्षेत्र महात्सव देश का एक
नगर। सुह्म-एक देश। सूर्यपुर-एक नगर। सूर्याम-एक नगर। सौमनस-मेरू का एक वन। सौमनस-मेरू का एक वन सौवीर-एक देश। स्वपादिगिरि-प्रत्यन्त पर्वत (गजदन्त पर्वत) स्वर्यप्रभ-सौधर्म स्वर्ग का एक विमान। स्वयम्प्रभ-ऐशान स्वर्ग का एक विमान। स्वयंभूरमरण-अन्तिम द्वीप। स्वयम्भूरमणोदधि-अन्तिम समुद्र।
सज्जयन्ती-एक नगर। समुद्रक-एक देश। सर्वार्थसिद्धि-पञ्च अनुत्तर विमानों का मध्यवर्ती निकटवर्ती
एक नदी। साकेत-अयोध्या का नाम। सिद्धकूट-विजयार्धिका एक कूट। सिद्धार्थक वन-अयोध्या का निकटवर्ती एक वन जहाँ भगवान
___ आदिनाथ ने दीक्षा धारण की थी। सिद्धार्थक-एक नगर। सिद्धायतन-विजया पर्वत के सिद्धकूट सम्बन्धी चैत्यालय के
समीप। सिन्धु-एक देश १० सिन्धु नदी। सिंहध्वज-एक नगर। सिंहपुर-पश्चिम विदेह के गन्धिला देश का एक नगर।
सिंहपुरी वाराणसी के समीप स्थित नगर। सीतोदा--विदेह क्षेत्र की एक महा नदी।
हरिवर्ष-जम्बूद्वीप का दक्षिण दिशा सम्बन्धी तीसरा क्षेत्र। हंसगर्भ-वि०उ० श्रे० की एक नगरी। हास्तिनाख्यपुर-हस्तिनापुर। हेमकूट-एक नगर।
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नामवाचक शब्द
अ
अकम्पन-वज्रजच का सेनापति। अकंपन-नाथवंयश का नायक, वाराणसी का राजा जिसे
भगवान आदिनाथ ने स्थापित किया था दूसरा नाम
श्रीधर एक आचार्य। अक्ष्य्य-भगवान् के लक्षणोंमें एक लक्षण। अक्षय्य-भगवान् के नामों में एक नाम, न क्षेतुं शक्योऽक्ष्य्पः
अविनाशेत्यार्थः। अक्षय्य- भगवान् के नामों में एक नाम। अक्षर-भगवान् के नामों में एक नाम, न क्षरतीति अक्षरो
नित्यः। अक्षर-भगवान् के नामों में एक नाम। अक्षोभ्य भगवान् के नामों में एक नाम अखिलज्योतिस-भगवान्
के नामों में एक नाम अगण्य-भगवान् के नामों में एक नाम। अगाह्म-भगवान् के नामों में एक नाम। अगोचर-भगवान् के नामों में एक नाम। अग्रज-भगवान् के नामों में एक नाम। अग्रणी-भगवान् के नामों में एक नाम। अग्रिम-भगवान् के नामों में एक नाम। अग्रय-भगवान् के नामों में एक नाम। अवलस्थिति-भगवान् के नामों में एक नाम। अचल-भगवान् के नामों में एक नाम। अचिन्त्य-भगवान् के नामों में एक नाम। अचिन्त्यर्द्धि-भगवान् के नामों में एक नाम। अचिन्त्यवैभव-भगवान् के नामों में एक नाम। अचिन्त्यात्मन्-भगवान् के नामों में एक नाम। अच्छेद्य-भगवान् के नामों में एक नाम। अच्युत-भगवान अदिनाथ का पुत्र। अच्युत-भगवान् के नामों में एक नाम, अनन्तज्ञानादिभिगणैर्न
च्युत इत्यच्युतः।
अच्युत-भगवान के नामों में एक नाम, जन्मरहितत्वात् अजः
__ न जायते इति अजः। अज-भगवान के नामों में एक नाम एक राजा। अजन्मन्-भगवान के नामों में एक नाम। अजर-भगवान के नामों में एक नाम, न विघते जरा वार्धक्यं
यस्य सोऽजरः। अजर-भगवान के नामों में एक नाम। अजय-भगवान के नामों में एक नाम। अजात-भगवान के नामों में एक नाम। अजित-द्वितीय तीर्थकर। अजित-भगवान के नामों में एक नाम। अजितञ्जय-विदेह का एक चक्रवती। अजितेशी-अजितनाथ नामक दूसरे तीर्थंकर। अजितञ्जय-वत्सकावती सुमीमा नगर का राजा। अणिष्ठ-भगवान के नामों में एक नाम, अतिशयेन अणुः। अणीयस्-भगवान् के नामों में एक नाम अतिशयेन अणुः
अणीयान्। अणोरणीयस्-भगवान् के नामों में एक नाम। अतिगृध्र-प्रभाकरी पुरी का राजा। अतिबल-अलका नगरी का राजा एक विद्याधर। अतिबल-महाबल का पुत्र। अतिबल-धात की खण्ड विदेह क्षेत्र पुष्पकलावती देश
पुण्डरीकिणी नगरी के राजा धनंजय और रानी
यशस्वती का पुत्र (नारायण पद का धारक)। अतीन्द्र-भगवान् के नामों में एक नाम। अतीन्द्रिय-भगवान् के नामों में एक नाम। अतीन्द्रियार्थदृक्-भगवान के नामों में एक नाम अतुल-भगवान् के नामों में एक नाम। अधर्मधक (अधर्मदह)--भगवान् के नामों में एक नाम। अधारि--भगवान् के नामों में एक नाम। अधिक-भगवान् के नामों में एक नाम।
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नामवाचक शब्द
१२६५
बृहद् संस्कृत-हिन्दी शब्द कोश
अधिगुरु-भगवान् के नामों में एक नाम। अधिज्योति-- भगवान् के नामों में एक नाम, अधिक लोकोत्तर
ज्योतिः प्रभा केवलज्ञानं वा यस्य सः। अधिदेवता-भगवान् के नामों में एक नाम। अधिप-भगवान् के नामों में एक नाम। अधिप-- भगवान् के नामों में एक नाम। अधिप-- भगवान् के नामों में एक नाम। राजा, नृप। अधिष्ठान-भगवान् के नामों में एक नाम। अध्यात्मगम्य-भगवान् के नामों में एक नाम। अध्वर-भगवान् के नामों में एक नाम। अध्वर्यु-भगवान् के नामों में एक नाम। अनक्ष-भगवान् के नामों में एक नाम, न विद्यन्तेऽक्षाणि
इन्द्रियाणि यस्य सोऽनक्षः, क्षायिकज्ञानयुक्त्वेन क्षायो पशमिकज्ञानजनितभावेन्द्रियरहितत्वात् नाम्नः |
सार्थकत्वम्। अनक्षर--भगवान् के नामों में एक नाम, न विद्यते क्षरो नाशो
यस्मात् सोऽनक्षरः। अनघ-भगवान् के नामों में एक नाम। अनणु-भगवान् के नामों में एक नाम। अनत्यय-भगवान् के नामों में एक नाम। अनन्त-भगवान् के नामों में एक नाम, द्रव्यार्थिकनयापेक्षया न
विद्यतेऽन्तो यस्य सोऽनन्तः। अन्तरहितः। अनन्त-भगवान् के नामों में एक नाम। अनन्त-भगवान् के नामों में एक नाम। अनन्तग-भगवान् के नामों में एक नाम। अनन्तजित्-भगवान् के नामों में एक नाम। अनन्तजिद्-भगवान् के नामों में एक नाम, अनन्तः संसारस्तं
जयतीति अनन्त जिद्। अनन्तदीप्ति-भगवान् के नामों में एक नाम। अनन्तधामषि-भगवान् के नामों में एक नाम। अनन्तमति-आनन्द पुरोहित की मा। अनन्मति-नन्दिषेण राजा की स्त्री। एक शीलवती नारी। अनन्तमती-पुण्डरीकिणी के कुलेर दत्त वणिक् की स्त्री। अनन्तर्द्धि-भगवान् के नामों में एक नाम। अनन्तविजय--भगवान् ऋषभदेव का पुत्र। अनन्तशक्ति-भगवान् ऋषभदेव का पुत्र। अनन्तात्मन्-भगवान् के नामों में एक नाम। अनन्तौजस्-भगवान् के नामों में एक नाम।
अनलप्रभ-भगवान् के नामों में एक नाम। अनश्वर-भगवान् के नामों में एक नाम। अनादि-भगवान् के नामों में एक नाम, न विद्यते आदिर्यस्य स
अनादिः द्रव्यार्थिकयव्यपेक्षयानादित्वम्। अनादिनिधन-भगवान् के नामों में एक नाम। अनामय-भगवान् के नामों में एक नाम। अनामय-भगवान् के नामों में एक नाम। अनाश्वान्-भगवान् के नामों में एक नाम। अनिश्वर-भगवान् के नामों में एक नाम, न एतुं गन्तुं शीलं
यस्य स अनित्वरः। अनिद्रालु-भगवान् के नामों में एक नाम। अनिन्द्य-भगवान् के नामों में एक नाम। अनिन्द्रिय-भगवान् के नामों में एक नाम। अनीदृश-भगवान् के नामों में एक नाम। अनीश्वर-भगवान् के नामों में एक नाम। अनुत्तर-भगवान् के नामों में एक नाम। अनुन्धरी-भगवान् के नामों में एक नाम। अन्तकृत्-भगवान् के नामों में एक नाम। अपराजित-चौदह पूर्व के ज्ञाता एक मुनि। अपराजित-वज्रसेन और श्रीकान्ता का पुत्र (नकुल का जीव) अपराजित सेनानी-अकंपन सेनापति का नाम। अपार-भगवान् के नामों में एक नाम। अपारधी-भगवान् के नामों में एक नाम। अपारि-भगवान् के नामों में एक नाम, अपगता अरयो यस्य
स: अपारि। अपुनर्भव-भगवान् के नामों में एक नाम। अप्रात्मन्-भगवान् के नामों में एक नाम। अप्रतिघ-भगवान् के नामों में एक नाम। अप्रतिष्ट-भगवान् के नामों में एक नाम। अप्रमेयात्मन्-भगवान् के नामों में एक नाम। अबन्धन-भगवान् के नामों में एक नाम। अमध्य-भगवान् के नामों में एक नाम। अभयवोष-विदेह के एक चक्रवर्ती। अभयंकर-भगवान् के नामों में एक नाम। अभव-भगवान् के नामों में एक नाम। अभिचन्द्र-दसवां कुलकर। अभिनन्दन-चतुर्थ तीर्थंकर। अभिनन्दन-एक मुनि।
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बृहद् संस्कृत-हिन्दी शब्द कोश
१२६६
नामवाचक शब्द
अभिनन्दन-एक योगीन्द्र। अभिनन्दन-भगवान् के नामों में एक नाम। अभीष्ट-भगवान् के नामों में एक नाम। अभेद्य- भगवान् के नामों में एक नाम। अभ्यग्र-भगवान् के नामों में एक नाम। अभ्यर्च्य-भगवान् के नामों में एक नाम। अभ्यर्च्य-भगवान् के नामों में एक नाम। अमल-भगवान् के नामों में एक नाम। अमित-भगवान् के नामों में एक नाम। अमित-भगवान् के नामों में एक नाम। अमितगति-एक आचार्य। अभिततेजस्-वज्रदन्त चक्रवर्ती का पुत्र। अमितशासन-भगवान् के नामों में एक नाम। अमूर्त-भगवान् के नामों में एक नाम। अमूर्तात्मन्-भगवान् के नामों में एक नाम। अमृतचद्र-एक आचार्य। अमृतज्योतिस्-भगवान् के नामों में एक नाम। अमृतमति-अजितंजयका मन्त्री। अमृतात्मन्-भगवान् के नामों में एक नाम। अमृतोद्भव-भगवान् के नामों में एक नाम। अमृत्यु-भगवान् के नामों में एक नाम। अमेय-भगवान् के नामों में एक नाम। अमेयर्द्धि-भगवान् के नामों में एक नाम। अमेत्यात्मन्-भगवान् के नामों में एक नाम। अमोघ-भगवान् के नामों में एक नाम। अमोघवाच्-भगवान् के नामों में एक नाम। अमोघशासन-भगवान् के नामों में एक नाम। अमोघाज्ञ-भगवान् के नामों में एक नाम। अमोमुह-भगवान् के नामों में एक नाम। अयोनिज-भगवान् के नामों में एक नाम, योनो न जायते इति
अयोनिजः। अयोनिज-भगवान् के नामों में एक नाम। अर-अठारहवें तीर्थंकर। अरजस्-भगवान् के नामों में एक नाम, कर्मरजोरहित तत्वात्
अरजा:। अरजस्-भगवान् के नामों में एक नाम। अरविन्द-स्वयंबुद्ध के व्याख्यान में आगत एक विद्याधर राजा
महाबल का पूर्व वंशज।
अर्हत्-भगवान् के नामों में एक नाम। अर्हत्-भगवान् के नामों में एक नाम। अरहस्-भगवान् के नामों में एक नाम, न विद्यते रहोऽन्तरायकर्म
यस्य सोऽहाः। अरिञ्जय-एक मुनिराज। अरिञ्जय-भगवान् के नामों में एक नाम। अरिह्न-भगवान् के नामों में एक नाम। अरुण-सूर्य का सारयि-प्रातः काल के समय सूर्योदय के पूर्व
फैलने वाली लाली। अरुण-लोकान्तिक देवों का एक भेद। अलेप-भगवान् के नामों में एक नाम। अविज्ञेय-भगवान् के नामों में एक नाम। अव्यक्त-भगवान् के नामों में एक नाम। अव्यय-भगवान् के नामों में एक नाम। अव्याबाध-लोकान्तिक देवों का एक भेद। अशोक-भगवान् के नामों में एक नाम। असंगात्मन्-भगवान् के नामों में एक नाम। असंख्येय-भगवान् के नामों में एक नाम। असंभूष्णु-भगवान् के नामों में एक नाम। असंस्कृत (वैकल्पिक)-भगवान् के नामों में एक नाम। असंस्कृत सुसंस्कार-भगवान् के नामों में एक नाम। अहमिन्द्राज़-भगवान् के नामों में एक नाम। अरिष्ट-लौकान्तिक देवों का एक भेद।
आ आज्य-भगवान् के नामों में एक नाम। आत्मज्ञ-भगवान् के नामों में एक नाम। आत्मन्-भगवान् के नामों में एक नाम। आत्मभू-भगवान् के नामों में एक नाम, आत्मना भवतीति
आत्मभूः स्वयं बुद्धत्वेन नाम्ना सार्थकत्वम्। आत्मभू-भगवान् के नामों में एक नाम, ऋषभदेव। आदित्य-लोकान्तिक देवों का एक भेद।
आदिनाथ का एक नाम।
०सूर्य। आदित्यगति-एक मुनिराज। आदित्यवर्ण-भगवान् के नामों में एक नाम। आदिदेव-आदिनाथ, प्रथम तीर्थंकर। आदिदेव-भगवान् के नामों में एक नाम। आदिपुरुष-ऋषभदेव के नामों में एक नाम। आदिश्चासौ
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नामवाचक शब्द
आद्यकवि - भगवान् के नामों में एक नाम। आनन्द- वज्रजङ्घका पुरोहित । आनन्द- भगवान् के नामों में एक नाम।
—
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पुरुष: आदिपुरुषः कर्मभूमेः प्रथमव्यवस्थापकत्वात् आदिपुरुषत्वम् ।
० आनन्द श्रावक।
आप्त- भगवान् के नामों में एक नाम। आर्जवा अकम्पन सेनापति की माता।
अणीयस्-भगवान् के नामों में एक नाम अतिशयेन अणुः अणीयान् ।
ज
जगच्चडामणि- भगवान के नामों में एक नाम। जगज्जयेष्ट- भगवान के नामों में एक नाम। जगज्जयोतिष्- भगवान के नामों में एक नाम। जगज्जयोतिस् भगवान के नामों में एक नाम। जगत्पति- भगवान के नामों में एक नाम। जगत्पति- भगवान के नामों में एक नाम। जगत्पाल - भगवान के नामों में एक नाम। जगद्गर्भ- भगवान के नामों में एक नाम। जगदबंन्धु-भगवान के नामों में एक नाम। जगद्धर्तु- भगवान के १००८ नामों में एक नाम, हितामार्गदर्शकत्वात् जैगद् विभर्ति पालयतीति जगद्भर्ता ।
जगदादिज - भगवान के नामों में एक नाम। जगाद्धित- भगवान के नामों में एक नाम। जगद्धिभु भगवान के नामों में एक नाम। जगद्योनि- भगवान के नामों में एक नाम। जगन्नन्दन- एक मुनिराज ।
जगन्नाथ - भगवान के नामों में एक नाम। जटाचार्य भगवान के नामों में एक नाम। जम्बु- सुधर्म स्वामी के बाद होने वाले अनुबद्ध केवली ।
जम्बू- जम्बूस्वामी केवली।
जय - ग्यारह अङ्ग दर्शक पर्वक ज्ञाता एक मुनि ।
जयकुमार एक राजकुमार ।
जयकीर्ति चन्द्रकीर्ति मित्र ७१८।
१२६७
-
जयन्त वज्रसेन और श्रीकान्त का पुत्र ( वानर का जीव ) जयपाल - ग्यारह अङ्गके ज्ञाता एक मुनि । जयवर्मा सिंहपुर के राजा श्रीपेण और सुन्दरी रानी का श्रेष्ठ
पुत्र।
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बृहद् संस्कृत-हिन्दी शब्द कोश
जयवर्मा - गान्धिला देश अयोध्या नगरी का राजा।
जयसेन - रत्नसंचय नगर के राजा महाधर और रानी सुन्दरी का पुत्र शतधी मन्त्रौ का जीव जो नरक से निकलकर उत्पन्न हुआ।
,
जयसेन महासेन और वसुन्धरा का पुत्र ।
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जयसेन- नागदत्त और समुत्ति का पुत्र । जयसेन- एक पुरातन तपस्वी आचार्य ।
जयसेना - धातकी खण्ड विदेह क्षेत्र पुष्कलावती देश पुण्डरीकिणो नगर के राजा धनञ्जय की रानी । जरत्-भगवान के नामों में एक नाम। जागरूक - भगवान के नामों मे एक नाम। जातरूप - भगवान के नामों में एक नाम। जातरूपाभ - भगवान के नामों से एक नाम। जितकामारि भगवान के नामों में एक नाम। जितकाध - भगवान के नामों मे एक नाम । जितक्लेश- भगवान के नामों में एक नाम। जितजेय- भगवान के नामों में एक नाम। जितमन्मथ - भगवान के नामों में एक नाम। जिताक्ष - भगवान के नामों में एक नाम। जितानड़-भगवान के नामों में एक नाम। जितान्तक- भगवान के नामों में एक नाम। जितान्तक- भगवान के नामों में एक नाम। जितामित्र भगवान के नामों में एक नाम। जितेन्द्रिय- भगवान के नामों में एक नाम। जिस्वर - भगवान के नामों मे एक नाम, जेतुं शीली जित्वरः ।
जिन भगवान के नामों में एक नाम। जिन भगवान के नामों में एक नाम। जिनसेन - एक आचार्य विशेष । जिन्कुज्जर- भगवान के नामों में एक नाम। जिनसेन - महापुरण के कर्ता आचार्य । जिनेन्द्र - भगवान के नामों में एक नाम। जिनेश्वर भगवान के नामों में एक नाम। जिष्णु भगवान के नामों में एक नाम। जेतृ - भगवान के नामों में एक नाम, जेतुं शीलो जिष्णुः ।
जेतृ - भगवान के नामों में एक नाम ।
जोइन्दु - परमात्म प्रकाश के कर्ता ।
ज्येष्ठ भगवान के नामों में एक नाम। ०मास ज्योमूर्ति - भगवान के नामों में एक नाम ।
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बृहद् संस्कृत-हिन्दी शब्द कोश
१२६८
नामवाचक शब्द
ज्वलज्ज्वलनसप्रभ-भगवान के नामों मे एक नाम।
त्रिदशाध्यक्षचन्द्रपुर-भगवान के नामों में एक नाम। त्रिनेत्र-भगवान के नामों में एक नाम। त्रिपुरारि-भगवान के नामों में एक नाम। त्रिलोकाग्रशिखामणि-भगवान के नामों में एक नाम। त्रिलोचन--भगवान के नामों में एक नाम। त्र्यक्ष-भगवान के नामों में एक नाम। त्र्यम्बक-भगवान के नामों में एक नाम।
ज्ञानगर्भ-भगवान के नामों में एक नाम। ज्ञानचक्षुष-भगवान के नामों में एक नाम। ज्ञानधर्मदमप्रभु-भगवान के नामों में एक नाम। ज्ञाननिग्राह-भगवान के नामों में एक नाम। ज्ञानभावना-१. वाचना, २. पुच्छना, ३. अनुप्रेक्षेण, ४. परिवर्तन
__ और ५. सद्धर्मदशाना ये पाँच ज्ञानभावनाएँ हैं। ज्ञानसावर्ग-भगवान के नामों में एक नाम। ज्ञानात्मन्-भगवान के नामों मे एक नाम। ज्ञानात्मन्-भगवान के नामों में एक नाम। ज्ञानत्मन्-भगवान के नामों में एक नाम। ज्ञानाब्धि-भगवान के नामों में एक नाम।
तनुनिर्मुक्त-भगवान के नामों में एक नाम। तन्त्रकृद्-भगवान के नामों में एक नाम। तपनीयनीम-भगवान के नामों में एक नाम। तसजाम्बूनदधुति-भगवान के नामों में एक नाम। तसचामीकरच्छवि-भगवान के नामों में एक नाम। तमोऽरि-भगवान के नामों मे एक नाम, तमसोऽज्ञानान्त्रकारस्य
अरिः शत्रुरिति नाम्नः सार्थक्यम्। तीर्थकृत्-भगवान के नामों में एक नाम। तीर्थकर-सिहिघथ उपदेशक। तुङ-भगवान के नामों में एक नाम। तुषित-भगवान के नामों में एक नाम। तेजोमय-भगवान के नामों में एक नाम। तेजोराशि-भगवान के नामों में एक नाम। त्यागिन्-भगवान के नामों में एक नाम।
दक्ष-भगवान के नामों में एक नाम। दक्षिण-भगवान के नामों में एक नाम। दण्ड-महाबल विद्याधर का पूर्व वशंज एक विद्याधर। दमतीथेंश-भगवान के नामों में एक नाम। दमधर-एक मुनि। दमिन्-भगवान के नामों में एक नाम संयमी । दमीश्वर-भगवान के नामों में एक नाम, संयमी,योगी इन्द्रियजयी। दमीश्वर-भगवान के नामों में एक नाम, इन्द्रियजयी। दयागर्भ--भगवान के नामों में एक नाम। दयाघ्वज-भगवान के नामों में एक नाम। दयानिधि-भगवान के नामों में एक नाम। दयायाग-भगवान के नामों में एक नाम। दवीयस्-भगवान के नामों में एक नाम। दान्त-भगवान के नामों में एक नाम। दान्तात्मन्-भगवान के नामों में एक नाम। दिग्वासस्-भगवान के नामों में एक नाम। दिवाकरप्रभ-दूसरे स्वर्ग का एक विमान। दिव्य-भगवान के नामों में एक नाम। दिव्यभाषापति-भगवान के नामों में एक नाम। दिष्टि-भगवान के नामों में एक नाम। दीन-श्रीण, हीन व्यक्ति। दीप्त-भगवान के नामों में एक नाम। दीप्रकल्याणात्मन्-भगवान के नामों में एक नाम। दुर्ग-शत्रु विजय उद्योग। दुन्दुभिस्वन-भगवान के नामों में एक नाम। दुर्दान्त-महापूत जिनलायमें पण्डिता धायके प्रसारित प्रसारित
चित्रपट के कल्पिता ज्ञाता-धूर्त। दूराधर्ष-भगवान के नामों में एक नाम दुःषमासुषमा-अवसर्पिणी का चौथा काल। दुरदर्शन-भगवान के नामों में एक नाम।
त्रसु-दु:ख युक्त जीव। त्रातृ-भगवान के नामों में एक नाम। त्रिकालदर्शिन-भगवान के नामों में एक नाम। त्रिकालविषयार्थश्-भगवान के नामों में एक नाम। त्रिगदल्लम-भगवान के नामों में एक नाम। त्रिजगन्मंगलादेश-भगवान के नामों में एक नाम। त्रिजगतपतिपूज्याङघ्रि--भगवान के नामों में एक नाम। त्रिजगत्परमेश्वर-भगवान के नामों में एक नाम।
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नामवाचक शब्द
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देव भगवान के नामों में एक नाम।
देव - देवनन्दी अपर नाम पूज्यपाद आचार्य जैनेन्द्रव्याकरण
आदि के कर्ता।
देवदेव - भगवान के नामों में एक नाम।
देवराट् - इन्द्र ।
देवाधिदेव भगवान के नामों में एक नाम। देविल-पलाल पर्वत ग्राम का एक ग्रामक- पटेल। देवी- मरूदेवी ।
देवी - राज्ञी |
दैव - भगवान के नामों में एक नाम । घुम्नाभ- भगवान के नामों में एक नाम।
ध
धनञ्जयधात की खण्ड विदेह क्षेत्र पुष्पकलावती देश पुण्डरीकिणी नगर का राजा ०एक नाम मालाकार। शब्दकाशकार।
धनदत्त - धनमित्र सेठ का पिता ।
धनदत्ता धनमित्र सेठ की माता
धनमित्र वज्रजंध का सेठ ।
धनदेव-कुबेरदत्त वणिक् और अनन्तमती सठानी का पुत्र
( श्रीमती अथवा केशव का जीव )
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7
धर्म-पन्द्रहवें तीर्थकर
धर्मघोषण-- भगवान के नामों में एक नाम। धर्मचक्रायुध भगवान के नामों में एक नाम। धर्मचक्रिन भगवान के नामों में एक नाम। धर्मतीर्थकृत् - भगवान के नामों में एक नाम । धर्मदेशक- भगवान के नामों में एक नाम। धर्मध्वज भगवान के नामों में एक नाम। धर्मनायक- भगवान के नामों में एक नाम। धर्मनेम - भगवान के नामों में एक नाम। धर्मपति भगवान के नामों में एक नाम।
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१२६९
धनवती - हस्तिनापुर के सागरदत्त की स्त्री ।
धनश्री - पलालपर्वत ग्राम के देविल नामक पेटलकी सुमति स्त्रीसे उत्पन्न पुत्र।
धर्मयूप- भगवान के नामों में एक नाम। धर्मराज- भगवान के नामों में एक नाम। धर्मसामाज्यानक भगवान के नामों में एक नाम। धर्मसेन ग्यारह अंग दश पूर्वक जाता एक मुनि। धर्माचार्य भगवान के नामों में एक नाम।
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धर्मात्मन् - भगवान के नामों में एक नाम। धर्मादि- भगवान के नामों में एक नाम। धर्माध्यक्ष भगवान के नामों में एक नाम। धर्माराम भगवान के नामों में एक नाम। धर्म्य - भगवान के नामों में एक नाम। धाता - भगवान के नामों में एक नाम। धातु भगवान के नामों में एक नाम। धिषण- भगवान के नामों में एक नाम। धीन्द्र - भगवान के नामों में एक नाम। धीमत्-भगवान के नामों में एक नाम। धीर- भगवान के नामों में एक नाम। धीरधी - भगवान के नामों में एक नाम। धीश भगवान के नामों में एक नाम। धीश्वर - भगवान के नामों में एक नाम। धुर्य- भगवान के नामों में एक नाम। धृति - षट् कुमारी देवियों में से एक देवी । धृतिषेण - ग्यारह अंग दश पूर्वक ज्ञाता एक मुनि । ध्यातमहाधर्मन् - भगवान के नामों में एक नाम। ध्यानगम्य- भगवान के नामों में एक नाम। ध्येय- भगवान के नामों में एक नाम। ध्रुवसेन- ग्यारह अंग के ज्ञाता एक मुनि। ध्दधर्म- एक मुनि ।
ध्ढ़वर्मा - ललितांगदेव की स्वयं प्रभा देवो के अन्त परिषद - का सभासद एक देव ।
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ध्ढव्रत- भगवान के नामों में एक नाम।
ध्ढीयस्- भगवान के नामों में एक नाम।
न
नकुलार्य - नकुल का जीव जो कि भोगभूमि में आर्य हुआ। नक्षत्र- ग्यारह अंग के ज्ञाता एक मुनि। नन्द-भगवान के नामों में एक नाम।
नन्द-नागदत्त और सुमति का पुत्र । नमि-भगवान आदिनाथ के साले कच्छ राजा का पुत्र । नमि-इक्कीसवें तीर्थंकर ।
नयोत्तुंग - भगवान के नामों में एक नाम।
नागदत्त - धान्य पुर के कुबेर वणिक् और उसकी स्त्री सुदत्ता
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का पुत्र ।
नागदत्त पाटलीग्राम का एक अणिक् पुत्र । नागसेन ग्यारह अंग दश पूर्वक ज्ञाता एक मुनि ।
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बृहद् संस्कृत-हिन्दी शब्द कोश
१२७०
नामवाचक शब्द
निरूपप्लव-भगवान के नामों में एक नाम। निश्चल-भगवान के नामों में एक नाम। निष्कल-भगवान के नामों में एक नाम। निष्कलंक-भगवान के नामों में एक नाम। निष्कलंकात्मन्-भगवान के नामों में एक नाम। निष्टसकनच्छाय-भगवान के नामों में एक नाम। निष्किचन-भगवान के नामों में एक नाम। निष्क्रिय-भगवान के नामों में एक नाम। नि:सपत्न-भगवान के नामों में एक नाम। नीरजस्क-भगवान के नामों में एक नाम। नीलांजना-सुरनर्तकी। ०देव नृत्यांगना। नेतृ-भगवान के नामों में एक नाम। नेदीयस्-भगवान के नामों में एक नाम। नेमि-बाईसवें तीर्थकर। नैकधर्मकृत्-भगवान के नामों में एक नाम। नैकरूप-भगवान के नामों में एक नाम। नैकात्मन्-भगवान के नामों में एक नाम। न्यायशास्त्रकृत्-भगवान के नामों में एक नाम।
नानैकतत्त्वश्-भगवान के नामों में एक नाम। नन्दिमित्र-चौदह पूर्वक ज्ञाता एक मुनि। नामि-चौदहवाँ कुलकर। नामिज-भगवान के नामों में एक नाम। नामिनन्दन-भगवान के नामों में एक नाम। नामिराज-भगवान ऋषभदेव के पिता। नाभेय-भगवान के नामों में एक नाम। सुषभ। नित्य-भगवान के नामों में एक नाम। नित्य-भगवान के नामों में एक नाम। नन्दिषेण-विदेह का एक राजा। निमितेन्द्रिय-भगवान के नामों में एक नाम। निरक्ष-भगवान के नामों में एक नाम। निर्गुण-भगवान के नामों में एक नाम। निर्ग्रन्थेश-भगवान के नामों में एक नाम। निरंजन-भगवान के नामों में एक नाम। निर्द्वन्द्व-भगवान के नामों में एक नाम। निर्धतास्-भगवान के नामों में एक नाम। निर्नामा-नागदत्त और सुमतिकी छोटी पुत्री श्रीकान्ता का दुसरा
नाम। निर्निमेष-भगवान के नामों में एक नाम। निर्मद-भगवान के नामों में एक नाम। निर्मल-भगवान के नामों में एक नाम। निर्मोह-भगवान के नामों में एक नाम। निरम्बर-भगवान के नामों में एक नाम। निर्लेप-भगवान के नामों में एक नाम। निर्विन-भगवान के नामों में एक नाम। निरस्तैनस्-भगवान के नामों में एक नाम। निरावाध-भगवान के नामों में एक नाम। निराशंस-भगवान के नामों में एक नाम। निरास्वव-भगवान के नामों में एक नाम। निराहार-भगवान के नामों में एक नाम। निरूक्तवाच्-भगवान के नामों में एक नाम। निरूक्तोक्ति-भगवान के नामों में एक नाम। निरूत्तर-भगवान के नामों में एक नाम। निरूत्सक-भगवान के नामों में एक नाम। निरूद्धव-भगवान के नामों में एक नाम। निरूद्वव-भगवान के नामों में एक नाम। निरूपद्रव-भगवान के नामों में एक नाम।
पञ्जब्रह्ममय-भगवान के नामों में एक नाम पंचपरमेष्ठिमय। पण्डिता-श्रीमती की छात्री (धाय)। पण्डितिका-पण्डिता धाय (स्वार्थे कप्रत्ययः)। पति-भगवान के नामों में एक नाम। पद्मगर्भ-भगवान के नामों में एक नाम। पदानंदि-एक आचार्य। पानाभि-भगवान के नामों में एक नाम पद्मविष्टर-भगवान के नामों में एक नाम। पदाप्रभ-षष्ठ तीर्थकर। पद्मयोनि-भगवान के नामों में एक नाम। पद्मसम्भूति-भगवान के नामों में एक नाम। पद्मांग-सख्या का एक भेद। पद्मावती-एक आर्यिका। पोश-भगवान के नामों में एक नाम। पर-भगवान के नामों में एक नाम। परतत्त्व-भगवान के नामों में एक नाम, सर्वात्कृष्टजीव
तत्त्वरूपत्वात् परं तत्वम्। परतर-भगवान के नामों में एक नाम। परम-भगवान के नामों में एक नाम।
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नामवाचक शब्द ।
१२७१
बृहद् संस्कृत-हिन्दी शब्द कोश
परम-भगवान के नामों में एक नाम। परमज्योतिष्-भगवान के नामों में एक नाम। परमज्योतिष- भगवान के नामों में एक नाम, उत्कृष्ट
केवलज्ञानज्योतिः सहित-त्वात परमज्योति। परमात्मन्-भगवान के नामों में एक नाम, परा उत्कृष्टा या
लक्ष्मीर्यस्य स परम: परम आत्मा यस्य य परमात्मा। परमात्मन्-भगवान के नामों में एक नाम। परमानन्द-भगवान के नामों में एक नाम। परमानन्द-भगवान के नामों में एक नाम। परमेश्वर-वागर्थसंग्रह पुराण के कर्ता एक आचार्य। परमेश्वर-भगवान के नामों में एक नाम। परमेष्टिन्-भगवान के नामों में एक नाम, परमे सर्वोत्कुष्टे पदे
तिष्ठतीति परमेष्ठी अहेत्परमोष्ठरूप इत्यर्थः। परमेष्टिन- भगवान के नामों में एक नाम। परमोदय--भगवान के नामों में एक नाम। परात्मज्ञ-भगवान के नामों में एक नाम। परार्ध्य-भगवान के नामों में एक नाम। परापर (परात्पर)-भगवान के नामों में एक नाम। परिवढ-भगवान के नामों में एक नाम। परेज्योतिष्-भगवान के नामों में एक नाम। परंब्रह्मन्-भगवान के नामों में एक नाम। पवित्र-भगवान के नामों में एक नाम। पाण्डु--भगवान के नामों में एक नाम। पाण्डव पुत्र। पातृ-भगवान के नामों में एक नाम। पात्रकेसरी-एक पर्ववर्ती आचार्य। पापावग्रह--पापरूपी वर्षा का प्रतिबन्ध। पापत-भगवान के नामों में एक नाम। पारग-भगवान के नामों में एक नाम। पावन-भगवान के नामों में एक नाम। पार्श्व-भगवान के नामों में एक नाम। पार्श्वनाथ। पितामह--भगवान के नामों में एक नाम। पित-भगवान के नामों में एक नाम। पिहितास्त्रव-एक मुनि। पिहितास्त्रव-अजितंजय चक्री का दुसरा नाम। पिहितास्त्रव-एक मुनि पीठ-वजसेन और श्रीकान्ता का पुत्र (अकम्पन सेनापति का
जीव) पुण्डरीक-वजाबाहु के पुत्र अमित तेज का पुत्र।
पुण्डीकाक्ष-भगवान के नामों में एक नाम। पुण्डरीकिणी-विदेह को एक नगरी। पुण्य-भगवान के नामों में एक नाम पुष्यकृत्-भगवान के नामों में एक नाम: पुण्यगिर्-भगवान के नामों में एक नाम। पुण्यधी-भगवान के नामों में एक नाम। पुण्यनायक-भगवान के नामों में एक नाम। पुण्यनायक-भगवान के नामों में एक नाम। पुण्यराशि-भगवान के नामों में एक नाम। पुण्यशासन-भगवान के नामों में एक नाम। पुण्यापुण्यनिरोधक-भगवान के नामों में एक नाम। पुमस्-भगवान के नामों में एक नाम, पुनातीति पुमान्। पुराण-भगवान के नामों में एक नाम। पुराण-भगवान के नामों में एक नाम। पुराणपुरूष-भगवान के नामों में एक नाम। पुराणपुरूषात्तम-भगवान के नामों में एक नाम। पुराणाद्य-भगवान के नामों में एक नाम। पुरातन-भगवान के नामों में एक नाम। पुरू-भगवान ऋषभदेव। पुरू-भगवान आदिनाथ। एल-भगवान भगवान आदिनाथ। पुरू-भगवान भगवान के नामों में एक नाम। पुरू-भगवान के नामों में एक नाम। पुरूदेव-भगवान के नामों में एक नाम। पुरुष-भगवान के नामों में एक नाम। पुरुहूत-इन्द्र। पुष्कर-तीसरा द्वीप। पुष्करेक्षण-भगवान के नामों में एक नाम। पुष्कल-भगवान के नामों में एक नाम। पुष्पदंत-एक प्राचीन आचार्य। पृष्ट-भगवान के नामों में एक नाम। पुष्टिद--भगवान के नामों में एक नाम। पुष्पदन्त-नौवें तीर्थकर। पुजार्ह-भगवान के नामों में एक नाम। पूज्य-भगवान के नामों में एक नाम। पूत-भगवान के नामों में एक नाम। पूतशासन-भगवान के नामों में एक नाम। पूत-भगवान के नामों में एक नाम।
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बृहद् संस्कृत-हिन्दी शब्द कोश
१२७२
नामवाचक शब्द
पूतवाच्-भगवान के नामों में एक नाम।
प्रमाण-भगवान के नामों में एक नाम। पूतात्मन्-भगवान के नामों में एक नाम।
प्रवक्तृ-भगवान के नामों में एक नाम। पुतात्मन्-भगवान के नामों में एक नाम।
प्रशामाकर- भगवान के नामों में एक नाम। पूर्व-भगवान के नामों में एक नाम।
प्रशमात्मन्-भगवान के नामों में एक नाम। पृथिवीमूर्ति-भगवान के नामों में एक नाम।
प्रशान्त-भगवान के नामों में एक नाम। पृथु-भगवान के नामों में एक नाम।
प्रशान्तमदन-भगवान के नामों में एक नाम। पौरूहुती-भगवान के नामों में एक नाम।
प्रशान्तमदन-प्रभञ्जन और चित्रमालिनोका पुत्र नकुल का प्रकाशातमन्-भगवान के नामों में एक नाम।
जीव। प्रकृति-भगवान के नामों में एक नाम।
प्रशान्तमदन-भगवान के नामों में एक नाम। प्रक्षीरणाबन्ध-भगवान के नामों में एक नाम।
प्रशान्तात्मन्-भगवान के नामों में एक नाम। प्रजापति-भगवान के नामों में एक नाम। ब्रह्मा।
प्रशान्तारि-भगवान के नामों में एक नाम, प्रशान्ता अरयः प्रजाहित-भगवान के नामों में एक नाम।
कर्मशत्रवो यस्य सः। प्रज्ञापारमित-भगवान के नामों में एक नाम।
प्रशास्तृ-भगवान के नामों में एक नाम। प्रणत-भगवान के नामों में एक नाम।
प्रष्ट-भगवान के नामों में एक नाम। प्रणव-भगवान के नामों में एक नाम।
प्रसन्नात्मन्-भगवान के नामों में एक नाम, प्रसेनजित्-तरहवाँ प्रणिधि-भगवान के नामों में एक नाम।
कुलकर। प्रणेतृ-भगवान के नामों में एक नाम।
प्रहसित-वत्कावती सुसीमानगर के अमृतमति और सत्यभामा प्रतिश्रुति-भगवान के नामों में एक नाम।
का पुत्र। प्रतिष्टाप्रसव-भगवान के नामों में एक नाम।
प्राकृत-भगवान के नामों में एक नाम। एक भाषा। पुरा भाषा। प्रतिष्टित-भगवान के नामों में एक नाम।
प्राग्रहर-भगवान के नामों में एक नाम। प्रत्यग्र-भगवान के नामों में एक नाम।
प्राग्रय-भगवान के नामों में एक नाम। प्रत्यय-भगवान के नामों में एक नाम।
प्राज्ञ-भगवान के नामों में एक नाम। प्रथित-भगवान के नामों में एक नाम।
प्राण-भगवान के नामों में एक नाम। प्रायस-भगवान के नामों में एक नाम।
प्राणतश्वर-भगवान के नामों में एक नाम। प्रदीस-भगवान के नामों में एक नाम।
प्राणतेश्वर-भगवान के नामों में एक नाम। प्रधान-भगवान के नामों में एक नाम।
प्राणद-भगवान के नामों में एक नाम। प्रबुद्धात्मन्-भगवान के नामों में एक नाम।
प्रासमहाकल्याणपंचक-भगवान के नामों में एक नाम। प्रमंजन-विदेह का राजा
प्रांशु-भगवान के नामों में एक नाम। प्रभाकर-भगवान के नामों में एक नाम। ०एक न्यायवेता। प्रियदत्ता-राजा विभाीषण की स्त्री। प्रभाकर-एक देव, सेनापति का जीव।
प्रियसेन-जम्बद्वीप विदेह क्षेत्र पुष्कलावती देश पुण्डरी किणोनगरी प्रभावती-गन्धर्वनगर के राजा वासवक्री स्त्री।
का राजा। प्रभास्कर-भगवान के नामों में एक नाम।
प्रीतिंकर-एक मुनि (स्वयंबुद्ध का जीव) प्रभु-भगवान के नामों में एक नाम।
प्रीतिंकर-स्वयंबुद्ध मन्त्री का जीव मणिचूल देव प्रीतिंकर प्रभूतविभव-भगवान के नामों में एक नाम।
नामक पुत्र हुआ (प्रियसेन राजा और सुन्दरी रानी प्रभूतात्मन्-भगवान के नामों में एक नाम।
का पुत्र तपस्वी मुनि) प्रभूष्णु-भगवान के नामों में एक नाम, प्रभवितुं शीलः प्रभूष्णुः | प्रीतिदेव-प्रियसेन और सुन्दरी का छोटा भाई, जो तपस्वी मुनि समर्थः इत्यर्थः।
हुआ। प्रभूष्ण-भगवान के नामों में एक नाम।
प्रीतिवर्द्धन-एक राजा।
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नामवाचक शब्द
१२७३
बृहद् संस्कृत-हिन्दी शब्द कोश
प्रेष्ट- भगवान के नामों में एक नाम. अतिशयेन प्रियः। प्रोष्टिलाचार्य-ग्यारह अंग दश पूर्वक ज्ञाता एक मुनि।
बन्धमोक्ष-भगवान के नामों में एक नाम। बहालक-एक देव का नाम। बहि-लौकान्तिक देव का एक भेद। बहुश्रुत-भगवान के नामों में एक नाम। बालार्काभ-भगवान के नामों में एक नाम। बाहुबली-भगवान आदिनाथ का सुनन्दा स्त्री से उत्पन्न पुत्र। बुद्ध-भगवान के नामों में एक नाम। ०शुद्धोदन पुत्र। बुद्ध-भगवान के नामों में एक नाम। बुद्धघोष-नाम विशेष। बुद्धबोध्य-- भगवान के नामों में एक नाम। बुद्धसन्मार्ग-भगवान के नामों में एक नाम। बुद्धि-षटकुमारी देवियों में से एक देवी। बुद्धिमान्-भगवान के नामों में एक नाम। बंहिष्ट-- भगवान के नामों में एक नाम,अतिशयेन बहः। ब्रहातत्वज्ञ-भगवान के नामों में एक नाम। ब्रह्मान्-भगवान के नामों में एक नाम। ब्रह्मन-भगवान के नामों में एक नाम। ब्रह्मनिष्ट-भगवान के नामों में एक नाम। ब्रह्मयोनि-भगवान के नामों में एक नाम। बह्मापदेश्वर-भगवान के नामों में एक नाम। ब्रह्मबिद्-भगवान के नामों में एक नाम। ब्रह्मविदांध्येय-- भगवान के नामों में एक नाम। बह्मसम्भव-भगवान के नामों में एक नाम। ब्रह्मात्मन्- भगवान के नामों में एक नाम। बहोश-भगवान के नामों में एक नाम। बहोघाविद-भगवान के नामों में एक नाम, एक नाम ब्रह्मणा
वेदितव्यमावेत्तीति। ब्राह्मी-भगवान आदिनाथ की पुत्री।
भद्र-भगवान के नामों में एक नाम। भद्रकृत्-भगवान के नामों में एक नाम। भद्रबाहु-प्रथम अंग के ज्ञाता एक मुनि। भद्रबाहु-चौदह पूर्व के ज्ञाता एक मुनि। भरत-भगवान आदिनाथ का ज्येष्ठ पुत्र। भरतमुनि-एक प्रसिद्ध नाट्यशास्त्रकर्ता। भरत-प्रथम तीर्थकर ऋपभदेव का ज्येष्ठ पुत्र प्रथम चक्रवर्ती। भर्तृ-भगवान के नामों में एक नाम। भभीभ-भगवान के नामों में एक नाम। भव-भगवान के नामों में एक नाम। भवतारक-भगवान के नामों में एक नाम। भवान्तक-भगवान के नामों में एक नाम। भवान्तक-भगवान के नामों में एक नाम। भच्यपेटकनायक-भगवान के नामों में एक नाम। भव्यबन्धु-भगवान के नामों में एक नाम। भव्याब्जिनीबन्धु-भगवान के नामों में एक नाम। भव्यभस्कर-भगवान के नामों में एक नाम, भव्यानां भास्कर
इव भव्यभस्कर। भवोद्धव-भगवान के नामों में एक नाम,भवात् ससांराद् उद्गती
दूरी भूतो भव उत्पत्तिर्यस्य सः। भाव-भगवान के नामों में एक नाम। भास-एक कति विशेष। भास्वत्-भगवान के नामों में एक नाम। भिष्णवर-भगवान के नामों में एक नाम। भुवनैकपितामह-भगवान के नामों में एक नाम। भूतनाथ भगवान के नामों में एक नाम। भूतभव्यभवद्धर्तृ-भगवान के नामों में एक नाम। भूतभावन-भगवान के नामों में एक नाम। भूतभद्-भगवान के नामों में एक नाम। भूतात्मन्-भगवान के नामों में एक नाम भूरामल-बीसवीं शताब्दी का संस्कृत काव्य कार। भूष्णु-भगवान के नामों में एक नाम। भोगभूर्दश्य-भोग भूमि के सदृश। भ्राजिष्णु-भगवान के नामों में एक नाम।
म मखज्येष्ठ-भगवान के नामों में एक नाम। मखान-भगवान के नामों में एक नाम। मङ्गल-भगवान के नामों में एक नाम।
भगवन्-भगवान के नामों में एक नाम। भगवती-भगवान के नामों में एक नाम। भगवान्-भगवान आदिनाथ के नामों में एक नाम,भग ऐश्वर्य
विद्यते यस्य स। भट्टाकलंक-राजवार्तिक आदि के कर्ता। भदन्त-भगवान के नामों में एक नाम।
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बृहद् संस्कृत-हिन्दी शब्द कोश
१२७४
नामवाचक शब्द
मणिकुण्डली-एक देव जो कि वराह का जीव है। मणिचूल-सौधर्म स्वर्ग के स्वंय प्रभ विमान का एक देव,
सवयम्बुद्ध मन्त्री का जीव। मणिमाली-दण्ड विद्याधर का पुत्र। मतिवर-वज्रजङ्घ का महामन्त्री। मतिसागर-मतिवर मन्त्री का पिता। मतिसागर-एक मुनि। मदनकान्ता-नागदत्त और सुमति की पुत्री। मध्यम-भगवान के नामों में एक नाम। मनीषिन्-भगवान के नामों में एक नाम। मनु-कुलकर। मनु-भगवान् आदिनाथ का नाम। मनु-भगवान के नामों में एक नाम। मनोगति-मन्दरमाला और सुन्दरी का पुत्र। मनोज्ञाङ्ग-भगवान के नामों में एक नाम। मनोरथ-एक देव, जो कि नकलर्य का जीव है। मनोरमा-चक्रवर्ती अभयद्योष की पुत्री सुविधि कि स्त्री। मनोहर-एक देव जो कि वानरार्य का जीव है। मनोहर-रतिषेण ओर चन्द्रमती का पुत्र (वानरका जीव)। मनोहरा-अलका के राजा अति बल की स्त्री। मनोहर -- भगवान के नामों में एक नाम। मनोहरा-रत्नसंचय नगर के राजा श्रीधर की स्त्री। मन्त-भगवान के नामों में एक नाम। मन्त्रकृत्-भगवान के नामों में एक नाम। मन्त्रमूर्ति-भगवान के नामों में एक नाम। मन्त्रविद्-भगवान के नामों में एक नाम। मन्त्रिन्-भगवान के नामों में एक नाम। मन्दरमाली-गन्धर्वपुर का राजा विद्याधर। मन्दरस्थविर-एक मुनि। मरीचि-भगवान् आदिनाथ का पोता, भरत का लड़का। मरूदेव-बारहवां कुलकर। मलन-भगवान के नामों में एक नाम। मलहन्-भगवान के नामों में एक नाम। मल्लि-उन्नीसवें तीर्थकर। महत्-भगवान के नामों में एक नाम। महर्द्धिक-भगवान के नामों में एक नाम। महर्षि- भगवान के नामों में एक नाम। महसांधामन्-भगवान के नामों में एक नाम।
महसांपतिः-भगवान के नामों में एक नाम। महाकच्छ-भगवान आदिनाथ का साला। महाकर्मादिहन्-भगवान के नामों में एक नाम। महाकवि-भगवान के नामों में एक नाम। महाकान्ति-भगवान के नामों में एक नाम। महाकान्तिधर-भगवान के नामों में एक नाम। महाकारूणिक-भगवान के नामों में एक नाम। महाकीर्ति-भगवान के नामों में एक नाम। महाक्रोधरिपु-भगवान के नामों में एक नाम। महाक्षम-भगवान के नामों में एक नाम। महाक्षान्ति-भगवान के नामों में एक नाम। महाक्लेशाङ्कश-भगवान के नामों में एक नाम। महागुण-भगवान के नामों में एक नाम। महागुणाकर-भगवान के नामों में एक नाम। महाद्योष-भगवान के नामों में एक नाम। महाज्योतिष्-भगवान के नामों में एक नाम। महाज्ञान-भगवान के नामों में एक नाम। महातपस्-भगवान के नामों में एक नाम। महातेजस्-भगवान के नामों में एक नाम। महात्मन्-भगवान के नामों में एक नाम। महादम-भगवान के नामों में एक नाम। महादान्-भगवान के नामों में एक नाम। महादेव-भगवान के नामों में एक नाम। महाद्युति-भगवान के नामों में एक नाम। महाधामन्-भगवान के नामों में एक नाम। महाघृति-भगवान के नामों में एक नाम। महाधैर्य-भगवान के नामों में एक नाम। महाघ्यान-भगवान् के नामों में एक नाम। महाघ्यानपति-भगवान् के नामों में एक नाम। महाघ्वरधर-भगवान् के नामों में एक नाम। महान्-भगवान् के नामों में एक नाम। महानन्द-भगवान् के नामों में एक नाम। महानन्द-भगवान् के नामों में एक नाम। महानाद-भगवान् के नामों में एक नाम। महानाद-भगवान् के नामों में एक नाम। महानीति-भगवान् के नामों में एक नाम। महापराक्रम-भगवान् के नामों में एक नाम। महापीठ-वज्रसेन ओर श्रीकान्ता का पुत्र (धनमित्र सेठ का
जीव)।
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नामवाचक शब्द
१२७५
बृहद् संस्कृत-हिन्दी शब्द कोश
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महाप्रभ-भगवान् के नामों में एक नाम। महाप्रभु-भगवान् के नामों में एक नाम। महाप्राज्ञा-भगवान् के नामों में एक नाम। महाप्रातिहार्याधीश-भगवान् के नामों में एक नाम। महाबल-अलका के राजा अति बल और रानी मनोहर का
पुत्र। महाबल-धातकीखण्ड विदेह क्षेत्र पुष्कलावती देश पुण्डरी
किणी नगरी के राजा धनंजय और जय सेना रानी
का पुत्र (रामपदका धारक)। महाबल-भगवान् के नामों में एक नाम। महाबाहु-वज्रबाहु और श्री कान्ता का पुत्र (आनन्द पुरोहित
का जीव)। महबोधी-भगवान् के नामों में एक नाम। महाब्रह्मपति--भगवान् के नामों में एक नाम। महाब्रह्मपदेश्वर भगवान् के नामों में एक नाम। महाभवाधिसंतारिन्-भगवान् के नामों में एक नाम। महाभाग-भगवान् के नामों में एक नाम। महाभूति-भगवान् के नामों में एक नाम। महामख-भगवान् के नामों में एक नाम। महामति-भगवान् के नामों में एक नाम। महामति-राजा महाबल का मन्त्री। महामन्त्र-भगवान् के नामों में एक नाम। महामहपति-भगवान् के नामों में एक नाम। महामहस्-भगवान् के नामों में एक नाम। महामुनि-भगवान् के नामों में एक नाम। महामैत्रीमय-भगवान् के नामों में एक नाम। महामोहाद्रिसूदन-भगवान् के नामों में एक नाम। महामौनिन्-भगवान् के नामों में एक नाम। महायज्ञ-भगवान् के नामों में एक नाम। महायति-भगवान् के नामों में एक नाम। महायशस्-भगवान् के नामों में एक नाम। महायोग-भगवान् के नामों में एक नाम। महायोगीश्वर-भगवान् के नामों में एक नाम। महावपुष-भगवान् के नामों में एक नाम। महाविध-भगवान् के नामों में एक नाम। महावीर-अन्तिम तीर्थकर इस युग के अन्तिम तीर्थकर वध
'मान, वीर, अतिवीर, सन्मति। महावीर्य-भगवान् के नामों में एक नाम।
महाव्रत-भगवान् के नामों में एक नाम। महाव्रतपति-भगवान् के नामों में एक नाम। महाशक्ति-भगवान् के नामों में एक नाम। महाशील-भगवान् के नामों में एक नाम। महाशोकध्वज-भगवान् के नामों में एक नाम। महासत्व-भगवान् के नामों में एक नाम। महासम्पत्-भगवान् के नामों में एक नाम। महासेन-धात की खण्ड पूर्व विदेह वत्सकावती देश प्रभाकरी
नगरी का राजा। महितोदय-भगवान् के नामों में एक नाम। महिष्टवाच्-भगवान् के नामों में एक नाम। महीकम्प-महीधर का ज्येष्ठ पुत्र। महीधर-एक विद्याधर राजा। महीधर-गन्धर्व नगर के राजा वासव और रानी प्रभावती का
पुत्र। महीधर-रत्नसंचय नगर का राजा। महीयस्-भगवान् के नामों में एक नाम,अतिशयेन महान्
महीयान्। महीयित-भगवान् के नामों में एक नाम। महेज्य-भगवान् के नामों में एक नाम। महेन्द्र-भगवान् के नामों में एक नाम। महेन्द्रमहित-भगवान् के नामों में एक नाम। महेन्द्रवन्ध-भगवान् के नामों में एक नाम। महेशितृ-भगवान् के नामों में एक नाम। महेश्वर-भगवान् के नामों में एक नाम। शिव। महेश्वर-भगवान् के नामों में एक नाम। महोदय-भगवान् के नामों में एक नाम। महोदय-भगवान् के नामों में एक नाम। महोदर्क-भगवान् के नामों में एक नाम। महोपाय-भगवान् के नामों में एक नाम। महोमय-भगवान् के नामों में एक नाम। महौदार्य-भगवान् के नामों में एक नाम। मह्य-भगवान् के नामों में एक नाम। माणिक्यनंदि-एक दार्शनिक आचार्य। मारजिद्-भगवान् के नामों में एक नाम। मुक्त-भगवान् के नामों में एक नाम। मुनि-भगवान् के नामों में एक नाम। मुनिज्येष्ठ-भगवान् के नामों में एक नाम।
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मुनिसुव्रत- बीसवें तीर्थकर । मुनीन्द्र भगवान् के नामों में एक नाम। मुनीश्वर भगवान् के नामों में एक नाम। मुमुक्षु- भगवान् के नामों में एक नाम। मूर्तिमत्-भगवान् के नामों में एक नाम। मूलक भगवान् के नामों में एक नाम। मूलकारण भगवान् के नामों में एक नाम। मृत्युंजय भगवान् के नामों में एक नाम, अमर अजर तीर्थस्थान । मोहारिविजयिन्- भगवान् के नामों में एक नाम। मोहासुरारी भगवान् के नामों में एक नाम महोरूपी असुर के शत्रु ।
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यशस्वान्-कुलकर। यशोधर एक मुनि राज
यशोधर - एक योगिन्द्र ।
यशोभद्र - प्रथम अगं के ज्ञाता एक मुनि । यशोभद्र एक प्राचीन आचार्य ।
य यजमादात्मन् भगवान् के नामों में एक नाम। यज्ञपति भगवान् के नामों में एक नाम। याज्ञाङ्ग- भगवान् के नामों में एक नाम। यज्वन- भगवान् के नामों में एक नाम। यति - भगवान् के नामों में एक नाम। यतिवृषभ आचार्य का नाम। यतीन्द्र - भगवान् के नामों में एक नाम। यतीश्वर---भगवान् के नामों में एक नाम। यमधर एक मुनि ।
यमधर - एक मुनि |
यशस्वति धातकीखण्ड विदेह क्षेत्र पुष्कलावती देश पुण्डरी किणी नगरी के राजा धनंजय की रानी ।
यशस्वति भगवान आदिनाथ की पुत्री
याज्य- भगवान् के नामों में एक नाम।
युगज्येष्ठ भगवान् के नामों में एक नाम। युगन्धर विदेह क्षेत्र के एक तीर्थंकर ।
१२७६
युगन्धर - एक मुनिराज ।
युगन्धर- पुष्करार्ध के पूर्वार्ध विदेह के मंगलावती देशसम्बन्धी रत्नसंचय नगर के राजा अजितंजय और रानी वसुमती का पुत्र ( तीर्थंकर)।
युगमुख्य- भगवान् के नामों में एक नाम।
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युगादि भगवान् के नामों में एक नाम। युगादिकृत् भगवान् के नामों में एक नाम। युगादिपुरुष भगवान् ऋषभदेव । युगादिस्थितिदेशक- "युग / समय देशक युगान्धार भगवान् के नामों में एक नाम। योगाविद्-भगवान् के नामों में एक नाम। योगाविद्-भगवान् के नामों में एक नाम।
योगाविदांवर- भगवान् के नामों में एक नाम, योग के जानने वालों में श्रेष्ठ।
योगात्मन् भगवान् के १०८ नामों में एक नाम। योगात्मन् भगवान् के नामों में एक नाम। योगिन् भगवान् के नामों में एक नाम। योगिन् भगवान् के नामों में एक नाम। योगिवन्दित भगवान् के नामों में एक नाम। योगीन्द्र भगवान् के नामों में एक नाम एक आचार्य । योगीश्वराचिंत भगवान् के नामों में एक नाम।
र
रतिषेण - विदेह का एक राजा । रत्नगर्भ- भगवान् के नामों में एक नाम। राजर्षि - राजा श्रेणि राजगृही का राजा। राजशेखर- प्राकृत सट्टक के प्रथम रचनाकार । ल
के नामों में एक नाम।
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नामवाचक शब्द
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लक्षण्य- भगवान्
लक्ष्मण दशरथ पुत्र!
लक्ष्मी षट्कुमारी देवियों में से एक देवी ।
लक्ष्मीपति - भगवान् के नामों में एक नाम। लक्षमीमति पुण्डरीकिणी नगरी के राजा वज्रदन्तकी स्त्री । लक्ष्मीमती - हस्तिनापुर के राजा सोमप्रभ की स्त्री ।
लक्ष्मीवत् भगवान् के नामों में एक नाम। ललिताङ्ग एक देव श्रीवर्मा की माता मनोहरा का जीव ललिताङ्ग एक देव महाबल का
लोकचक्षुष- भगवान् के नामों में एक नाम। लोकज्ञ - भगवान् के नामों में एक नाम। लोकधातु भगवान् के नामों में एक नाम। लोकनाथ त्रिलोक के स्वामी । लोकपति भगवान् के नामों में एक नाम। - लोकवत्सल भगवान् के नामों में एक नाम। लोकाध्यक्ष - भगवान् के नामों में एक नाम।
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नामवाचक शब्द
१२७७
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लोकालोकप्रकाशक-भगवान के नामों में एक नाम। लोकेश-भगवान् के नामों में एक नाम। लोकोत्तर--भगवान् के नामों में एक नाम। लोलुप-सुप्रतिष्ठितनगर का हलवाई। लोहार्य-प्रथम अंग के ज्ञाता एक मुनि।
व वचन-आगम व्यवहार, कथन, प्रतिपादन। वचसामीश:-भगवान् के नामों में एक नाम। वनजङ-विदेहक्षेत्र पुष्कलावतीदेश-उत्पलखेटनगर के राजा
वज्रबाहु और रानी वसुन्धरा का पुत्र ललिताङ्ग का
जीव। वज्रजङ्गार्य-वज्रजंघ का जीव जो कि भोगभूमि में आर्य हआ
था। वज्रदन्त-वज्रनाभिका पुत्र। वजनाभि-पुण्डरीकिणी के राजा वज्रसेन और रानी श्री कान्ता
का पुत्र। वज्रबाहु-विदेहक्षेत्र पुष्कला वतीदेश उत्पलखेट नगर का राजा। वज्रसेन-जम्बूद्वीप पूर्व विदेह क्षेत्र पुण्डरीकिणी नगरी का
राजा। वदतांवर-भगवान् के नामों में एक नाम। वन्द्य-भगवान् के नामों में एक नाम। वर्तना-द्रव्यों की पर्यायों के बदलने में सहायक काल द्रव्य की
एक परिणति। प्रवर्तन, परिवर्तन। वरद-भगवान के नामों में एक नाम। वरदत्त-राजा विभीषण और रानी प्रियदत्ता का पुत्र, यह
शार्दूलका जीव है। वरप्रद-भगवान् के नामों में एक नाम। वर्य-भगवान् के नामों में एक नाम। वरवीर-भगवान् आदि नाथ का पुत्र। वर्षीयस्-भगवान् के नामों में एक नाम। वरसेन-नागदत्त और सुमतिका पुत्र। वरसेन-नन्दिषेण और अनन्तमती का पुत्र, यह शूकर का जीव
वश्येन्द्रिय-भगवान् के नामों में एक नाम। वसन्तसेना-विजयपुर के राजा महानन्द की स्त्री। वसुन्धरा-विदेहक्षेत्र पुष्पकला वतीदेश उत्पलखेटनगर के राजा
वज्रबाहु की स्त्री। वसुन्धरा-धातकी खण्ड पश्चार्ध भाग के पूर्वविदेहसम्बन्धी
वत्सकावती देश की प्रभा करीनगरी के राजा महासेन
की स्त्री। वस्त्राङ्ग-सर्वप्रकार के वस्त्र देने वाला एक कल्प-वृक्ष। वागीश्वर-भगवान् के नामों में एक नाम। वाग्मिन्-भगवान् के नामों में एक नाम। वाचस्पति-भगवान् के नामों में एक नाम। वाचस्पति-भगवान् के नामों में एक नाम। वातरशन--भगवान् के नामों में एक नाम। वादिसिंह-एक पूर्ववर्ती आचार्य। वानरार्य-वानर का जीव जो कि वानर के बाद भोगभूमि में
उत्पन्न हुआ। वायुमूर्ति-भगवान् के नामों में एक नाम। वासव-विजया के गन्धर्व नगर के राजा एक विद्याधर। वासव-महापूतजिनालय में पण्डिता धाय के द्वारा प्रसारित
चित्रपट के कल्पित ज्ञाता धूर्त। वासवादत्ता-एक प्रसिद्ध गणिका। वासुपूज्य-बारहवें तीर्थकर। विकलङ्क-भगवान् के नामों में एक नाम। विकल्मष-भगवान् के नामों में एक नाम। विकसित-वत्सकावती सुसीमा नगर का एक विद्वान् (प्रहसित
का मित्र)। विक्रमाङ्गदेवचरित्र-ग्रन्थ का नाम। विक्रमिन्-भगवान् के नामों में एक नाम। विघ्नविनायक-भगवान् के नामों में एक नाम। विजय-ग्यारह अङ्ग दर्शपूर्व के ज्ञाता एक मुनि। विजय-वज्रसेन और श्रीकान्ता का पुत्र (शार्दूलका जीव)। विजय-भगवान् के नामों में एक नाम। विजितान्तक--भगवान् के नामों में एक नाम। विजिष्णु-भगवान् के नामों में एक नाम, विशेषेण जेतुं शीलो
विजिष्णुः। विदांवर-भगवान् के नामों में एक नाम। विद्याघर-नाम विशेष। विद्यानिधि-भगवान् के नामों में एक नाम।
वराहार्य-वराह का जीव जो कि भोगभूमि में आर्य हुआ था। वरिष्ठधी-भगवान् के नामों में एक नाम। वरेण्य-भगवान् के नामों में एक नाम। वरेण्य--भगवान् के नामों में एक नाम। वशिन-भगवान् के नामों में एक नाम।
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बृहद् संस्कृत-हिन्दी शब्द कोश
१२७८
नामवाचक शब्द
विद्युल्लता-ललिताङ्ग देव की प्रधान देवी।
श्रिकर्मन-भगवान के नामों में एक नाम। विद्वस्-भगवान् के नामों में एक नाम।
विश्रकर्मा-भगवान के नामों में एक नाम। विधाता-भगवान् आदिनाथ का नाम। ०ब्रह्मा।
विश्रजिद्-भगवान के नामों में एक नाम। विधातृ-भगवान् के १०८ नामों में एक नाम, कर्मभूमेर्व्यवस्था विश्रज्योतिष-भगवान के नामों में एक नाम। विधानात विधाता। विदधातीति विधाता।
विश्रतःपाद-भगवान के नामों में एक नाम। विधि--भगवान के नामों में एक नाम।
विश्रतश्चक्षु--- भगवान के नामों में एक नाम। विनमि-भगवान आदिनाथ के साले महाकच्छ का पुत्र विश्रतोक्षमयज्योति--भगवान के १०८ नामों में एक नाम, विनयन्धर-एक मुनिराज।
विश्वतः समन्तात् अक्षमयं आत्मरूपं ज्योतिर्यस्य विनेतृ-भगवान के नामों में एक नाम।
सः। विनेयजनताबन्धु-भगवान के नामों में एक नाम।
विश्रतोमुख-भगवान के नामों में एक नाम। विनयात्मन्-- भगवान के नामों में एक नाम।
विश्वग्-भगवान के नामों में एक नाम। विपुलज्योतिसू-भगवान के नामों में एक नाम।
विश्वध्श्वन्-भगवान के नामों में एक नाम। विभय-भगवान के नामों में एक नाम।
विश्वनायक-भगवान के नामों में एक नाम। विभव-भगवान के नामों में एक नाम।
विश्वमावद्-िभगवान के नामों में एक नाम। विभावसु-भगवान के नामों में एक नाम।
विश्वभुज्-भगवान के नामों में एक नाम। विभीषण--श्रीधर और मनोरमा का पुत्र।
विश्वभुद्-भगवान के नामों में एक नाम, विश्वं बोधतीति विभीषण-विदेह क्षेत्र वत्सकावती देश का राजा।
विश्वभुद्। विभु-भगवान के नामों में एक नाम, विशेषण भवतीति विभुः। विश्वभू-भगवान के नामों में एक नाम। विभू-भगवान के १००८ नामों में से एक नाम।
विश्वभूतश-भगवान के नामों में एक नाम। विमल-तेरहवें तीर्थकर।
विश्वभृद्-भगवान के नामों में एक नाम। विमलवाह-विदेह एक तीर्थकर।
विश्वमूर्ति-भगवान के नामों में एक नाम। विमलवाहन-सातवाँ कुलकर।
विश्वयोनि-भगवान के नामों में एक नाम, विश्वेषां विमुकतात्मन्-भगवान के नामों में एक नाम।
गुणानामुत्पादकत्वाद् विश्वयोनिः। वियोग--भगवान के नामों में एक नाम, विगतो योग | विश्वयोनि-भगवान के नामों में एक नाम। __ आतमपरिष्पन्दो यस्य सः।
विश्वरीश-भगवान के नामों में एक नाम,विश्वरी पृथ्वी तस्या वियोनिक-भगवान के नामों में एक नाम, पुनर्जन्म रहितत्वाद
ईशाः । विगता योनिर्यस्य स वियोनिकः।
विश्वरूपात्मन्-भगवान् के नामों में एक नाम। विरजस्-- भगवान के नामों में एक नाम।
विश्वलोकेश-भगवान् के नामों में एक नाम। विरत--भगवान के नामों में एक नाम।
विश्वलोचन--भगवान् के नामों में एक नाम। ०एक संस्कृत विराग-भगवान के नामों में एक नाम।
कोश। विलीनाशेषकल्मष-भगवान के नामों में एक नाम। विश्वविद्-भगवान् के नामों में एक नाम। विवित्क-भगवान के नामों में एक नाम।
विश्वविद्यामहेश्वर-भगवान् के नामों में एक नाम। विवेद-भगवान के नामों में एक नाम।
विश्वविद्येश-भगवान् के नामों में एक नाम। विशाल-भगवान के नामों में एक नाम।
विश्वव्यापिन्-भगवान् के नामों में एक नाम,सर्वज्ञत्वेन विश्वं विशिष्ट-भगवान के नामों में एक नाम।
व्याप्नोतीति विश्व व्यापी। विशोक-भगवान के नामों में एक नाम।
विश्वव्यापिन्-भगवान् के नामों में एक नाम। विश्रुत-भगवान के नामों में एक नाम।
विश्वशीर्ष-भगवान् के नामों में एक नाम। विश्रकर्मन्-भगवान के नामों में एक नाम।
विश्वसृज्-भगवान् के नामों में एक नाम।
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नामवाचक शब्द
१२७९
बृहद् संस्कृत-हिन्दी शब्द कोश
विश्वात्मन-भगवान् के नामों में एक नाम। विश्वाराट्-भगवान् के नामों में एक नाम, विश्वस्मिन् राजते
शोभत इति विश्वा राट विश्वस्य वसुराटोः इति पूर्वपदस्य
दीर्घः। विश्वाशिष्-भगवान् के नामों में एक नाम। विश्वेट्-भगवान् के नामों में एक नाम, ईटटे ऐश्वर्य सम्पन्नो
भवतीति ईट्, विश्वेषामीट् इति विश्वेट। विश्वेड-ससार के स्वामी भगवान आदिनाथ। विश्वेश-भगवान् के नामों में एक नाम। विश्वेश-भगवान् के नामों में एक नाम। विष्टरश्रवस्-भगवान् के नामों में एक नाम। विष्णु-भगवान् के १०८ नामों में एक नाम, केवल ज्ञानापेक्षाया
व्यापकत्वाद् विष्णु। विष्ण-चौदह पूर्व के ज्ञाता एक मनि। विसाखाचार्य-ग्यारह अङ्ग दश पूर्व के धारक एक मुनि। विहतान्तक-भगवान् के नामों में एक नाम। वीतकल्मष-भगवान् के नामों में एक नाम। वीतमत्सर-भगवान् के नामों में एक नाम। वीतराग-भगवान् के नामों में एक नाम। वीतभी-भगवान् के नामों में एक नाम। वीर-भगवान् महावीर। वीर-भगवान आदिनाथ का पुत्र। वीर-भगवान् के नामों में एक नाम। वीरबाह-श्रीमती और वज्रजङ्ग का पुत्र। विसाखाचार्य-ग्यारह अङ्ग दश पूर्व के धारक विहतान्तक- भगवान् के नामों में एक नाम। वीतकल्मष-भगवान् के नामों में एक नाम। वीतमत्सर-भगवान् के नामों में एक नाम। वीतराग-भगवान् के नामों में एक नाम। वीतभी-भगवान् के नामों में एक नाम। वीर-भगवान् महावीर। वीर-भगवान आदिनाथ का पुत्र। वीर-भगवान् के नामों में एक नाम। वीरबाहु-श्रीमती और वज्रजङ्घ का पुत्र। वृष-भगवान् के नामों में एक नाम। वृषकेतु-भगवान् के नामों में एक नाम। वृषध्वज-भगवान् के नामों में एक नाम। वृषपति-भगवान् के नामों में एक नाम।
वृषभ-प्रथम तीर्थकर, इन्हें ऋषभ अथवा आदिनाथ भी कहते हैं। वृषभ-प्रथम तीर्थकर। स्वच्छ, शुद्ध, निर्मल। वृषभ-भगवान् आदिनाथ वृषेण धर्मेण भाति शोभत इति
वृषभः। -बैल। एक आचार्य वृषभसेन। वृषभ-भगवान आदिनाथ के नामों में एक नाम वृषेण ध
र्मेण भातीति वृषभः। वृषभ-भगवान् के नामों में एक नाम। वृषभध्वज-भगवान् के नामों में एक नाम, वृषभो वलीवर्दी
घ्वजो चिह्न यस्य सः। वृषभसेन–भगवान् ऋषभदेव का पुत्र। ०सक कवि विशेष। वृषभसेन-भगवान आदिनाथ का पुत्र जो कि पीछे चलकर
उन्हीं का गणधर हुआ। वृषभाङ्क- भगवान् के नामों में एक नाम। वृषाधीश-भगवान् के नामों में एक नाम। वृषायुध-भगवान् के नामों में एक नाम। वृषोद्धव-भगवान् के नामों में एक नाम। वेदविद्-भगवान् के नामों में एक नाम। वेदविद्-भगवान् के नामों में एक नाम। वेदवेध-भगवान् के नामों में एक नाम। वेदाङ्ग-भगवान् के नामों में एक नाम। वेद्य-भगवान् के नामों में एक नाम। वेधस-भगवान् के नामों में एक नाम। वैकृतान्तकृत-भगवान् के नामों में एक नाम। वैजयन्त-वज्रसेन और श्रीकान्ता का पुत्र (वराहका जीव)। व्यक्तवाच-भगवान् के नामों में एक नाम। व्यक्तशासन-भगवान् के नामों में एक नाम। व्योममूर्ति-भगवान् के नामों में एक नाम।
शक्त-भगवान् के नामों में एक नाम। शङ्कर-भगवान् के नामों में एक नाम, शं करोतीति शंकर। शङ्कर-भगवान् के नामों में एक नाम। शतबल-सहस्रवल का पुत्र। शतबल-महाबल विद्याधर का पितामह बाबा। शतमति-राजा महाबल का मन्त्री। शत्रुग्न-भगवान् के नामों में एक नाम। ०दशरथ पुत्र। शम्भव-भगवान् के नामों में एक नाम। शम्भव--भगवान् के नामों में एक नाम, शं सुख भवति
यस्मात् स शम्भुः। शमात्मन्-भगवान् के नामों में एक नाम
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१२८०
नामवाचक शब्द
शमिन-भगवान् के नामों में एक नाम। शरण्य-भगवान् के नामों में एक नाम, शरणे साधु शरण्य। शरण्य-भगवान् के नामों में एक नाम। शवत्-भगवान् के नामों में एक नाम। शंवद-भगवान् के नामों में एक नाम। शंवद-भगवान् के नामों में एक नाम, शं सुखं वदतीति शंवद। शयु- भगवान् के नामों में एक नाम, शं विधते यस्य सः शंयुः
मतुबर्थे प्रत्यय:। शान्त-- भगवान् के नामों में एक नाम। शान्त-भगवान् के नामों में एक नाम। शान्तारि-भगवान् के नामों में एक नाम। शान्ति--भगवान् के नामों में एक नाम। शान्ति-सोलहवें तीर्थकर। शान्तिकृत-भगवान् के नामों में एक नाम। शान्तिवद्-भगवान् के नामों में एक नाम। शान्तिनिष्ठ-भगवान् के नामों में एक नाम। शान्तिभाज्-भगवान् के नामों में एक नाम। शान्तिसार-आचार्य विशेष। शार्दुलार्य-शार्दूलार्य जीव जो भोग भूमि में आर्य हुआ था। शाश्वत-- भगवान् के नामों में एक नाम। शासित- भगवान् के नामों में एक नाम। शास्तृ-भगवान् के नामों में एक नाम। शांतकुम्भनिप्रभ-भगवान् के नामों में एक नाम। शिव--भगवान् के नामों में एक नाम। शिव-भगवान् के नामों में एक नाम। शिव-भगवान् के नामों में एक नाम। शिवकोटि-मूलाराधना के कर्ता शिवार्य। शिवताति-भगवान् के नामों में एक नाम। शिवप्रद-भगवान् के नामों में एक नाम। शिष्ट-भगवान् के नामों में एक नाम। शिष्टभुज-भगवान् के नामों में एक नाम। शिष्टेष्ट-भगवान् के नामों में एक नाम। शीतल-दसवां तीर्थंकर। शीलसागर-भगवान् के नामों में एक नाम। शुचि--भगवान् के नामों में एक नाम। शुचिश्रवस्-भगवान् के नामों में एक नाम। शुद्ध-भगवान् के नामों में एक नाम। शुद्ध-भगवान् के नामों में एक नाम।
शुभलक्षण-भगवान् के नामों में एक नाम। शुभंयु-भगवान् के नामों में एक नाम। शूर--भगवान् के नामों में एक नाम। शेषुषीश-भगवान् के नामों में एक नाम।
श्र श्रायसोक्ति-भगवान् के नामों में एक नाम। श्री-षट्कुमारी देवियों में एक देवी जो कि हिमवत्कुला चल
के सरोवर में रहती है। श्रीकान्ता-नागदत्त और सुमति की पुत्री। श्रीकान्ता-पुण्डरीकिणी नगरी के राजा वज्रसेन की स्त्री। श्रीगर्भ-भगवान् के नामों में एक नाम। श्रीधर-एक देव जो कि वज्रजंघ का जीव, भोगभूमि के बाद
ऐशान स्वर्ग के श्री प्रभविमान में उत्पन्न हुआ था। श्रीधर-विदेहक्षेत्र मङ्गालावती देश के रत्नसंचय नगर का
राजा। एक आचार्य। श्रीनिवास-भगवान् के नामों में एक नाम। श्रीपाल-एक पूर्ववर्ती आचार्य। ०एक राजा। श्रीमती-मतिवर मन्त्री की माता। श्रीमती-पुण्डरीकिणीनगरी के राजा वज्रदन्त और रानी लक्ष्मीपति
की पुत्री (ललितांग की स्त्री स्वयं प्रभा का जीव)। श्रीमान्-भगवान् के नामों में एक नाम। श्रीवर्मा-श्रीधर और मनोहरा का पुत्र। श्रीवर्मा-सिंहपुर के राजा श्रीषेण और सुंदरी का छोटा पुत्र। श्रीवीरसेन-जिनसेन के गुरु षट् खण्डागम के टीकाकार। श्रीवृक्षलक्षण-भगवान् के नामों में एक नाम। श्रीश-भगवान् के नामों में एक नाम। श्रीश्रितपादाब्ज-भगवान् के नामों में एक नाम। श्रीषेण-सिंहपुर का राजा। श्रीषेण-सिंहपुर का राजा। श्रुतकीर्ति-आनन्द पुरोहित का पिता। श्रुतात्मन्-भगवान् के नामों में एक नाम। श्रेणिक-राजगृही का राजा। श्रेयस्-हस्तिनापुर के राजा सोमप्रभ का छोटा भाई श्रेयान्स
जिसने भगवावन् ऋषभनाथ को सर्वप्रथम आहार
दिया था। श्रेयस्-भगवान् के नामों में एक नाम। श्रेयान-दानतीर्थ का प्रवर्तक हस्तिनापुर के राजा सोमप्रभ का
भाई, श्रीमती का जीव। श्रेयोनिधि-भगवान के नामों में एक नाम।
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नामवाचक शब्द
१२८१
बृहद् संस्कृत-हिन्दी शब्द कोश
श्रेष्ट-भगवान् के नामों में एक नाम। श्लक्ष्ण-भगवान् के नामों में एक नाम।
सगर-द्वितीय चक्रवर्ती सत्कृत्य-भगवान् के नामों में एक नाम। सत्य-भगवान् के नामों में एक नाम। सत्यपरायण-भगवान् के नामों में एक नाम। सत्यभामा-अमृतमति मन्त्री की स्त्री। सत्यवाच्-भगवान् के नामों में एक नाम। सत्यविज्ञान-भगवान् के नामों में एक नाम। सत्यशासन-भगवान् के नामों में एक नाम। ०एक ग्रन्थ
विशेष। सत्यसन्धान-भगवान् के नामों में एक नाम। सत्यात्मन्-भगवान् के नामों में एक नाम। सत्याशिष्- भगवान् के नामों में एक नाम। सदागति-भगवान् के नामों में एक नाम। सदातृप्त-भगवान् के नामों में एक नाम। सदाभाविन्-भगवान् के नामों में एक नाम। सदाभोग-भगवान् के नामों में एक नाम। सदायोग-भगवान् के नामों में एक नाम। सदाविद्य-भगवान् के नामों में एक नाम। सदाशिव-भगवान् के नामों में एक नाम। नाम विशेष। सदासौख्य भगवान् के नामों में एक नाम। सदोदय-भगवान् के नामों में एक नाम। सद्योजात-भगवान् के नामों में एक नाम। सनातन-भगवान् के नामों में एक नाम। सन्ध्याभ्रबभ्रु-भगवान् के नामों में एक नाम। सन्मति-चौबीसवें तीर्थंकर। सन्मति-दूसरा कुलकर। समग्रधी-भगवान् के नामों में एक नाम। समन्तभद्र-भगवान् के नामों में एक नाम। आचार्य नाम। समन्तभद्र-भगवान् के नामों में एक नाम। आचार्य नाम। समयज्ञ-भगवान् के नामों में एक नाम। समाधिगुप्त-एक मुनि। समाहित-भगवान् के नामों में एक नाम। समुन्मीलित कर्मारि-भगवान् के नामों में एक नाम। संभिन्नमति-राजा महाबल का मन्त्र। सयोग-भगवान् के नामों में एक नाम। सर्वक्लेशापह-भगवान् के नामों में एक नाम। सर्वग-भगवान् के नामों में एक नाम।
सर्वत्रग-भगवान् के नामों में एक नाम। सर्वदर्शन-भगवान् के नामों में एक नाम। सर्वदिक्-भगवान् के नामों में एक नाम। सर्वदोषहर-भगवान् के नामों में एक नाम। सर्वयोगीश्वर-भगवान् के नामों में एक नाम। सर्वलोकजित्-भगवान् के नामों में एक नाम। सर्वलोकातिग-भगवान् के नामों में एक नाम। सर्वलोकेश-भगवान् के नामों में एक नाम। सर्वलोकैकसारथि-भगवान के नामों में एक नाम। सर्ववित्-भगवान् के नामों में एक नाम। सर्वात्मन्-भगवान् के नामों में एक नाम। सर्वादि-भगवान् के नामों में एक नाम। सलिलात्मक-भगवान् के नामों में एक नाम। सहस्रपात्-भगवान् के नामों में एक नाम। सहस्रबल-महाबल विद्याधर के पिता के पितामह। सहस्राक्ष-भगवान् के नामों में एक नाम। सहिष्णु-भगवान् के नामों में एक नाम। संभव-तृतीय तीर्थंकर। साक्षिन्-भगवान् के नामों में एक नाम। सागरदत्त-हस्तिनापुर का वैश्य। सागरसेन-एक मुनि। साधु-भगवान् के नामों में एक नाम। सार्व-भगवान् के नामों में एक नाम। सारस्वत-लौकान्तिक देव का एक भेद। सिद्ध-भगवान् के नामों में एक नाम। सिद्ध-भगवान् के नामों में एक नाम। सिद्धशासन-भगवान् के नामों में एक नाम। सिद्धसंकल्प-भगवान् के नामों में एक नाम। सिद्धसाधन-भगवान् के नामों में एक नाम। सिद्धसाध्य-भगवान् के नामों में एक नाम। सिद्धसेन-जिनसेन से पूर्ववर्ती एक महाकवि। सिद्धात्मन्-भगवान् के नामों में एक नाम। सद्धात्मन्-भगवान् के नामों में एक नाम। सिद्धान्तविद्-भगवान् के नामों में एक नाम। सिद्धार्थ-भगवान महावीर के पिता। सिद्धार्थ-हस्तिनापुर के राजा सोमप्रभ का द्वार पाल। सिद्धार्थ-ग्यारह अगं दश पूर्व के ज्ञाता एक मुनि। सिद्धार्थ-भगवान् के नामों में एक नाम। सिद्धिद-भगवान् के नामों में एक नाम।
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बृहद् संस्कृत-हिन्दी शब्द कोश
१२८२
नामवाचक शब्द
सीता-विदेह क्षेत्र की एक नदी। राम की रानी। सीमन्धर-विदेह क्षेत्र के तीर्थकर। सीमंकर-पाँचवाँ कुलकर। सीमंधर-छठा कुलकर। सुकृतिन्-भगवान् के नामों में एक नाम। सुखद-भगवान् के नामों में एक नाम। सुखसादूत-भगवान् के नामों में एक नाम। सुगत-भगवान् के नामों में एक नाम। सुगति-- भगवान् के नामों में एक नाम। सुगुप्त--भगवान् के नामों में एक नाम। सुगुप्तात्मन-भगवान् के नामों में एक नाम। सुघोष-उत्तम ध्वनि। सुतनु-सुन्दर शरीर। सुत्रामपूजित-भगवान् के नामों में एक नाम। सुत्वन-भगवान् के नामों में एक नाम। सुदत्ता-धान्यपुर के कुबेर वणिक की स्त्री। सुदर्शन-सुदर्शन सेठ, शीलवती। सुदर्शना-एक आर्यिका। सुदष्टि-सुसीमा नगर का राजा। सुधर्म-एक मुनि। सुधर्म-गौतम के बाद होने वाले अनुवद्ध केवली। सुधर्म-एक मुनि। सधी-भगवान् के नामों में एक नाम। सुधी-(सुगी:) भगवान के नामों में एक नाम। सुधौतकलद्योतश्री-भगवान् के नामों में एक नाम। सुनन्दा-आदिनाथ की पटरानी। सुनय-एक नाम। सुनयतत्ववित्-भगवान् के नामों में एक नाम। सुन्दरनन्दा-मुसीमा नगर के राजा सुदृष्टि की स्त्री। सुन्दरी-सिहं पुर के राजा श्रीषेण की स्त्री। सुन्दरी-गर्वपुर के राजा मन्दरमाली की स्त्री। सुनदरी-राजा प्रियसेन की स्त्री। सुन्दरी-रत्नसचंय नगर के राजा महीधर की स्त्री। सुन्दरी-भगवान आदिनाथ की सुन्नदा स्त्री से उत्पन्न पुत्री। सुपार्श्व-सप्तम तीर्थकर। सुप्रभ-भगवान् के नामों में एक नाम। सुप्रभा-अयोध्या के राजा जय वर्मा की स्त्री। सुप्रसन्न-भगवान् के नामों में एक नाम। सुबाहु-वज्रसेन और श्रीकान्ता का पुत्र (मतिवर मन्त्री का |
जीव।
सुभग-भगवान् के नामों में एक नाम। सुभद्र-भगवान् के नामों में एक नाम। सुभुत्-(सुभृत) भगवान के नामों में एक नाम (सुष्ठु ज्ञाता)
(सुष्ठु पोपक:)। सुभग-भगवान् के नामों में एक नाम। सुभ्रद्र-प्रथम अङ्ग के ज्ञाता एक मुनि। सुभुत्-(सुभृत) भगवान के नामों में एक नाम (सुष्ठु पोपक:)। सुमति-पंचम तीर्थकर। सुमति-पाटलीग्राम के नागदत्त वणिकपत्र की स्त्री।। सुमति-पलालपर्वत ग्राम के देविल नामक पटेल की स्त्री। सुमुख-भगवान् के नामों में एक नाम। सुमेधस-भगवान् के नामों में एक नाम। सुयज्वन-भगवान् के नामों में एक नाम। सुरूप-भगवान् के नामों में एक नाम। सुलोचना-एक राज कन्या। सुवर्णवर्ण-भगवान् के नामों में एक नाम। सुवाच-भगवान् के नामों में एक नाम। सुविधि-सुसीमा नगर के राजा सुदृष्टि और रानी सुन्दरनन्दा
का पुत्र (वज्रजड़घ श्रीनगर देव का जीव)। सविधि-भगवान् के नामों में एक नाम। सुव्रत-भगवान् के नामों में एक नाम। सुश्रुत-भगवान् के नामों में एक नाम। सुश्रुत-भगवान् के नामों में एक नाम। सुषमादुःषमा-अवसर्पिणी का तीसरा काल। सुसंवृत-भगवान् के नामों में एक नाम। सुसंस्कार-(वैकल्पिक) भगवान् के नामों में एक नाम। सुसौभ्यात्मन-भगवान् के नामों में एक नाम। सुस्थित-भगवान् के नामों में एक नाम। सुस्थिर-भगवान् के नामों में एक नाम। सुहित-एक नामा सुहृत-एक नाम। सूक्ष्म-एक नाम। सूक्ष्म-एक नाम। सूक्ष्मदर्शिन-एक नाम। सूति-उत्पादक। सूनृतपूतवाच-एक नाम। सूर्यकोटिसमप्रभ-सर्वज्ञ। सूर्यमूर्ति-एक नाम दिव्य मूर्ति। सूरि-भगवान् के नामों में एक नाम।
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नामवाचक शब्द
१२८३
बृहद् संस्कृत-हिन्दी शब्द कोश
स्रष्ट्र-भगवान् के नामों में एक नाम, कर्मभूमिव्यव स्थायाः । स्वयंप्रभ-भगवान् के नामों में एक नाम: सर्जनात् स्रष्टा।
स्वयंप्रभ-भगवान् के नामों में एक नाम। स्रष्टा-भगवान आदिनाथ का नाम।
स्वयंप्रभा-ललिताङ्ग देव को ३-९ पल्यकी आयु बाकी रहने सोमदेव-एक आचार्य। एक कवि।
पर उत्पन्न होने वाली एक देवी। सोमप्रभ-कुरूवशं का राजा हस्तिनापुर जिसकी राजधानी थी। । स्वयंप्रभा-ललिताङ्ग देव की स्त्री। सोममूर्ति-भगवान् के नामों में एक नाम।
स्वयंभू-प्रथम तीर्थकर। सौम्य-एक नाम चन्डा।
स्वयंभू-भगवान् के नामों में एक नाम, स्वयं भवतीति स्वयंभू। स्तवनार्ह-भगवान् के नामों में एक नाम।
स्वयंभू-भगवान् के नामों में एक नाम। स्तुतीश्वर-भगवान् के नामों में एक नाम।
स्वयंभूष्ण-भगवान् के नामों में एक नाम स्तुत्य-भगवान् के नामों में एक नाम।
स्वर्णाम-भगवान् के नामों में एक नाम। स्थविर-एक नाम वृद्ध।
स्वसंवेद्य-एक नाम। स्थविष्ट-एक नाम, अतिशयेन स्थूलः स्थविष्ठ।
स्वस्थ-एक नाम। स्यवीयस्-भगवान् के नामों में एक नाम।
स्वास्थ्यभाज्- एक नाम। स्थवीयस्- भगवान् के नामों में एक नाम। स्थाणु-भगवान् के नामों में एक नाम।
हतदुर्नय-एक नाम। स्थावर-एक नाम।
हर-एक नाम, हरित कर्मशत्रूनिति हरः। स्थास्तु-एक नाम।
हरि (हरिकान्त)-हरिवंश का एक राजा जिसे सर्वप्रथम स्थास्न (स्थाणु)-भगवान् के नामों में एक नाम।
भगवान् आदिनाथ ने स्थापन किया था। स्थेयस्-भगवान् के नामों में एक नाम।
हरि-भगवान् के १०८ नामों में एक नाम। स्थेष्ट-भगवान् के नामों में एक नाम, अतिशयेन स्थिरः।
हरिचन्द्र-अरविंद विद्याधर का महाकाव्या धर्म शर्माभ्युदय। स्नातक-भगवान् के नामों में एक नाम।
एक जैल। स्पष्ट-भगवान् के नामों में एक नाम।
हरिवाहन-विजयपुर के राजा महानन्द की वसन्त सेना स्त्री से स्पष्टाक्षर-भगवान् के नामों में एक नाम।
उत्पन्न पुत्र। स्वष्ट-भगवान् के नामों में एक नाम।
हरिषेण-जोर्णि पाहुड के रचनाकार। स्वतन्त्र-भगवान् के नामों में एक नाम, सुष्टु अन्तो यस्य सः।
हविर्भुक्-भगवान् के नामों में एक नाम। स्वभू-भगवान् के नामों में एक नाम।
हविष्-भगवान् के नामों में एक नाम। स्वामिन्-भगवान् के नामों में एक नाम।
हव्य्-भगवान् के नामों में एक नाम। स्वयम्प्रभ-एक देव जो कि श्रीमती का जीव भोग भूमि के बाद
हाटकद्युत्-िभगवान् के नामों में एक नाम। स्वयम्प्रभ विमान में देव हुआ।
हिरण्यगर्भ-भगवान् के नामों में एक नाम, हिरण्यं गर्भे यस्य स्वयम्प्रभा-ललितांग देव की प्रधान देवी।
सः। गर्भकाले हिरण्यवृष्टित्वात्। स्वयम्बुद्ध-राजा महा बल का मन्त्री
हिरण्यर्ण-भगवान् के नामों में एक नाम। स्वयम्बुद्ध-भगवान् के नामों में एक नाम।
हृषीकेश-भगवान् के नामों में एक नाम। स्वयम्भू-भगवान् महावीर।
ह्री-षट्कुमारी देवियों में से एक देवी। स्वयंप्रभ-एक मुनि।
हेतु-भगवान् के नामों में एक नाम। स्वयंप्रभजिन-विदेह के तर्थकर।
हेमगर्भ-भगवान् के नामों में एक नाम। स्वयंप्रभ-एक देव जो कि वज्रजंघ की स्त्री श्रीमती का जीव
हेमाभ-भगवान् के नामों में एक नाम। था।
हेयादेयविचक्षण-भगवान् के नामों में एक नाम। स्वयंप्रभ-भगवान के नामों में एक नाम, स्वयं प्रभा यस्य सः
होतृ-भगवान् के नामों में एक नाम। स्वयंप्रभः।
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विशिष्ट शब्द
अकल्य-नपुंसक। अकारु-धोबी आदि से भिन्न। अकृत्त-अच्छिन्न। अकृष्टपच्य-बिना हल जोते बखरे अपने-आप पैदा होने
वाला धान्य। अक्ष-बहेड़ा। आत्मा ०इन्द्रिय। अक्षग्राम-इन्द्रियों का समूह। अक्षणनीय-अछेद्य। अगोष्पद-अत्यंत निर्जन जहां गायों का पहुंचना कठिन है ऐसे
दुर्गम वन। अग्रमहिषी-प्रधान देवी। अद्धिप-प्रधान देवी। अभृत्-प्राणी, पक्ष में द्वादशाङ्ग के धारी गणधर देव। अङ्गलास-शरीर की मोड़। अङ्गहार-अङ्ग विक्षेप नृत्यकाल में अङ्गों का विशेष रीति से
चलाना। अच्छोद्य-दृढ़तापूर्वक कहकर। अच्युतेन्द्र-सोलहवें स्वर्ग का इन्द्र। अच्युतेन्द्र-अविनाशी, श्रेष्ठ ऐश्वर्य से युक्त, पक्ष में भगवान
ऋषभ देव की सोलहवें स्वर्ग के इन्द्र की एक
पर्याय। अतिरुन्द्र-अत्यंत विस्तृत। अतिवर्ती-स्वच्छंद प्रवर्तने वाला। अनृजु-कुटिल। अत्युक्त-छन्दों की एक जाति। अदभ्र-विशाल। अदेवमातृक-मेघ की वर्षा पर निर्भर नहीं रहने वाले देश। अधर-शरीर के नीचे का भाग। औष्ठ। अधिश्रित-चूल्हे पर चढ़ाया हुआ। अधीती-अध्ययनकुशला
अध्वयोग-छन्द शास्त्र का एक प्रकरण-प्रत्यय। अनञ्जितासित-बिना काजल लगाये ही काले। अनन्तचतुष्ट-१. ज्ञान, २. दर्शन, ३. सुख, ४. वीर्य। अनसूया-ईर्ष्या का भाव। नाम विशेष। अनाराम-बगीचा के रहिता अनाशितम्भर-अतृप्तिकर। अनाशितम्भव-अस्थिर-विनाशशील। अनाशितम्भवम्-अतृप्तिकर। अनाशितम्भवम्-जिसके सेवन से तृप्ति न हो। ऐसा लगता रहे
कि और सेवन करूं, और सेवन करूं। अनाश्वान्-उपवास करने वाला। अनाश्वान्-अनशन करने वाला। अनीश्वर-असमर्थ। अनुक्षपम्-क्षपां क्षपामनु अनुक्षपम्, प्रत्येक रात्रि में। अनुजिघृक्षा-स्मरण। अनुमान-स्मरण पूर्वक ज्ञान। अनूप-जल की बहुलतास युक्त देश। अनेकप-हाथी। अनेनस्-निष्पाप। अनेहस्-काल। अन्तर्वनी-गर्भिणी। अन्धस्-भोजन। अन्वयिनिक-जामाता के लिए देव द्रव्य-दहेज। अन्वीपता-अनुकूलता। अपघन-अवयव। अपचिति-पूजा। अपवर्तिका-यष्टिहार का भेद जिसके बीच में निश्चित प्रमाण
के अनुसार स्वर्ण, मणि, माणिक्य और मोती बीच-बीच
में अन्तर देकर गंथे जाते है। अपुनर्भवता-मोक्षा अप्रतिपत्ति--ज्ञान। अब्द-दर्पण।
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विशिष्ट शब्द
१२८५
बृहद् संस्कृत-हिन्दी शब्द कोश
अब्द-वर्ष। अब्द-मेघ। अब्द-मेघ। अभिगम्य-सेवनीय। अभिजात-योग्य उचित। अभिज्ञान-पहचान। अभिरूप-मनोज्ञ। अभिष्टव-नाम। अभिसिसीर्षा-अभिसार-संभोग के लिए गमन की इच्छा। अभुत्-अज्ञानी। अभ्यस्त-गुणित। अभ्युदय-स्वर्गादिका। वैभव अमर-दिव्य, देव। अमा-साथ। अमा-साथ। अमेध्यादन-विष्ठा का भक्षण। अमृतपद-मोक्ष। अम्भोजवासिनी-लक्ष्मी। अयुक्छद-सप्तपर्ण। अयुत-दस हजार। अर्चा-प्रतिमा। पूजा। अर्चिष्-ज्वाला। अरण्यचरक-म्लेच्छों की एक जाति जो अधिकतर जंगलों में
घूमती है। अर्धमाणव-जिसमें दस लड़ियां हों ऐसा हार। अर्धगुच्छ-जिसमें चौबीस लड़ियां हों ऐसा हार। अर्धमागधी-प्राकृत भाषा का एक रूप। अर्धहार-जिसमें चौंसठ लड़ियां हो ऐसा हार। अराल-कुटिल। अरुष्करद्रव-भिलसाका तेल। अलीकविचरक्षण-झूठा बोलने में चतुर।। अवघाटकयष्टि-जिसके बीच में एक बड़ा और उसके
आजू-बाजू में क्रम से घटते हुए छोटे मोती लगे हों
ऐसी एक लड़बाली माला। अवघाटक-यष्टि नामक हार का एक भेद। अवधीक्षण-अवधिज्ञानी। अवनिप-राजा। अवपात-गर्त।
अवभृथ (मज्जन)-कार्य के अन्त में होने वाला स्नान। अवलग्न-मध्य भाग, कमर। अवावा (अवावन्)-दूर करने वाला, ओण अपनयने इत्यस्माद
धातोर्वनिपप्रत्ययः। अवृजिन-निष्पाप। अशनाया-भूखा अशोकमहाध्रिप-अशोक वृक्ष नाम का प्रातिहार्य जिस वृक्ष
के नीचे भगवान् को केवल ज्ञान होता है वह वृक्ष
कहलाता है। अश्वतरी-खच्चरी। असिधेनुका-छुरी। अस्पृश्यकारु-प्रजा के बाह्य रहने वाले चाण्डाल आदि। अस्वन्त-जिनका अन्त अच्छा नहीं। अहीन्द्र-धरणेन्द्र।
आ आगम-सूत्रग्रन्थ, आप्तवचन। आजुहुष-बुलाने का इच्छुक। आञ्जस-वास्तविक। आतोद्य-वादित्र। आत्मनीन-आत्मने हितम् आत्मनीनम्। आत्रिक-इस लोक सम्बन्धी। आधि-मानसिक व्यथा आप्तपाश-आप्ताभास कुत्सिताः आप्तपाशाः याप्येपाशप्। आप्यायन-सन्तोषपरक। आभिगाभिक-सब के अनुकूल। आमुत्रिक-पारलौकिक। आयुर्वेद-वैद्य विद्या। जीवन विज्ञान। आयुष्य-आयुवर्धक। आराम-शरीरादि पर्याय। आशा-दिशा। अभिलाषा। आशुशुक्षणि-अग्नि। आहार्य-आभूषण।
इक्षुधन्वा-कामदेव। इङ्गितकोविदा-चेष्टाओं के जानने में निपुण। इज्या-पूजा। इन-स्वामी। इन्द्र-देवराज।
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बृहद् संस्कृत-हिन्दी शब्द कोश
इन्द्रकोश- बुरज
इन्द्रगोप- बरसात में निकलने वाला लाल रंगा का एक कीड़ा बीरबहूटी। इन्द्रच्छन्द-हार विशेष ।
इन्द्रच्छन्द - जिसमें लड़ियां हों ऐसा हार। यह हार सबसे उत्कृष्ट हार है इसे इन्द्र, चक्रवर्ती तथा तीर्थकर पहनते हैं। इन्द्रच्छन्दमाणव- इन्द्रच्छन्द हार के बीच में एक मणि लगा देने पर इन्द्रच्छन्दमाणव कहलाता है। इन्द्रमह-कार्तिक का महीना।
इन्द्रवृषभ- इन्द्रश्रेष्ठ ।
इन्द्रस्तम्बेरम- इन्द्र का हाथी ऐरावत।
इषुधि - तरकश |
इष्टि - पूजा ।
उक्ता छन्दों की एक जाती।
उडुप- चन्द्रमा । उक्षन्- बैल !
ईडा-स्तुति | ईडा-स्तुति |
ईडिडियन् स्तुति करने की इच्छा करता हुआ। ईति - अतिवृष्टि, अनावृष्टि, मूषक, शलभ, शुक और निकटवर्ती राजा । ये छह ईतियां कहलाती है।
उ
उक्ष बैल
उत्कर- सूंड ऊपर उठाये हुए।
उत्प्रोथ - जिसकी नाक ऊपर की उठी हुई है।
उदय-प्रभात |
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उदन्या - प्यास ।
उद्गम पुष्प आगम द्वार
उद्व-प्रशस्त - श्रेष्ठ।
उद्वाह-विवाह ।
उद्रिक्त तीव्र उदय से युक्त ।
उद्बोधनालिका - प्रज्वलित करने वाली नदी ऐसी नली जिससे
सुनार लोग अग्नि को फूंकते हैं।
उपघ्न- आश्रय ।
उपनता उपस्थित
उपमा - एक अलंकार ।
उपशीर्षक- यष्टि नामक हार का एक भेद।
१२८६
विशिष्ट शब्द
उपशीर्षकयष्टि- जिसके बीच में क्रम-क्रम से बढ़ते हुए तीन मोती हों ऐसी एक लड़ी वाली माला ।
उपह्वर- एकान्त स्थान । उपधि-परिग्रह
उपायन-भेंट उपहार। उपालम्भ-दोष देना।
उपोद्धात प्रस्तावना उरसिल-चौड़े वक्षस्थल वाला । उम्र-किरण।
ऊर्ध्वकाय ऊंचा शरीर!
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-
ऊ
ए
एकचर्या - एक विहार, अकेले विहार करना । एकद्वित्रिधुक्रिया - छन्दशास्त्र का एक प्रकरण-प्रत्यय। एकध्य - एकपना ।
एकावली - यष्टि नामक हार का भेद, एक लड़ी माला जिसके बीच में एक बड़ा मणि लगता है।
एनस्- पाप ।
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ऐ ऐरावत सफेद वर्ण का हाथी ० इन्द्र का हाथी | ऐरावती ऐरावत हाथी सम्बन्धी ।
7
ओ
ओकस्- स्थान
औ
औदय-उदयाचल सम्बन्धी ।
औरभ्र- प्रातः काल सम्बन्धी ।
क
कणय- एक हथियार का नाम जिससे लकड़ी छीली जाती है। कण्ठीरव-सिंह।
कण्ठ्य - कण्ठ स्थान से उच्चारित।
कद- कुवचन बोलने वाले कुत्सितं वदन्तीति कद्रदाः ।
1
कनक स्वर्ण
कनकराजीव-स्वर्ण कमल ।
कपिशीर्ष-कोट का अग्रभाग कपोलशब्दक- गालरूपी दर्पण |
करक-झारी।
करक- ओला ।
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विशिष्ट शब्द
१२८७
बृहद् संस्कृत-हिन्दी शब्द कोश
करज-नख। करट-हाथी का गण्डस्थल। करण-इन्द्रिय अथवा शरीर। करण-करन्यास-नृत्य काल में हाथों का चलाना। करणग्राम-इन्द्रिय समूह। कर्णेजपत्व-चुगली। कापत्र-करोंत। करसंबाधा-टेक्स की पीड़ा। कलकण्ठी-कोकिला। कलत्र-नितम्ब। कलम्बित-मिश्रिता कलाधर-चन्द्रमा। कल्यदेहत्व-नीरोग। कल्याणी-पुण्यशालिनी। कशिपु-भोजन वस्त्र काचवाहजन-कांवर को उठाने वाले। काञ्चीयष्टि-मेखला। कादम्बिक-हलवाई। कान्ताधर-सुंदर ओंठों से युक्त। कान्तारचर्या-वन में ही आहारर्थ भ्रमण करने की प्रतिज्ञा। कापिल-सांख्यमत। कायमान-तम्बू। कार्पण्य-दीनता। कारु-शूद्रवर्ण काय एक भेद (धोबी आदि स्पृश्य शूद्र)। कालकालाभ-अत्यंत काले। काष्ठा-सीमा। किञ्जल्क-केशर। कुक्कुटसंपात्य-पास-पास में बसे हुए। कुणप-मुर्दा। कुतपन्यास-वाद्यों का न्यास। कुन्दकुन्द-आचार्य नाम। कुथार-हाथियों पर डालने की झूल। कुरव-खोटे-शब्द से युक्त। कुरुध्वज-कुरुवंश में श्रेष्ठ राजा सोमप्रभ और उनके, छोटे
भाई श्रेयान्स। कुरुशार्दूल-कुरुवंश में श्रेष्ठ हस्तिनापुर के राजा सोमप्रभ। कुलधर-कुलकर, ये तृतीय काल के अन्त में हुए हैं इनकी
संख्या १४ है।
कुलपत्र-ताम्रपत्र, जिसमें वंशावली आदि लिखी जाती है। कुलाय-घोंसला। कुलाल-कुम्भकार। कुविन्द-जुलाहा। कुवली-बेर। कुवलीफल-बैर। कुसुमेष-कामदेव। कूटनाटक-कपट से भरा नाटक। कृकवाकु-मुर्गा। कृकवाकूयित-मुर्गा के समान आचरण करने वाले। कृतयुगारम्भ-आषाढ़ मास के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा के दिन
भगवान् आदिनाथ ने कृतयुग का प्रारम्भ किया था। केशव-नारायण। केशाकेशि-बाल पकड़कर होने वाला युद्ध। कोकी-चकवी। कोण-भरी बजाने में काम आने वाला दण्ड। क्रमपल्लव-पल्लवों के समान कामल चरण। क्रमुक-सुपारी। क्षण-उत्सव। क्षणदा-रात्रि। क्षणदामुख-रजनीमुख-रात्रि का प्रारम्भ काल। क्षणप्रभा-बिजली। क्षतज-खून। क्षपग-एक महीना का उपवास। क्षामता-कृशता। क्षेम-प्राप्त वस्तु की रक्षा करना। क्ष्माज-वृक्षा क्ष्माज-वृक्षा
खरांश-सूर्य। खाता-परिखा। खातिका-खाई, परिखा। खात्कृत-खकारा हुआ।
गणरात्र-बहुत रात्रियां। गत्वरी-नाशशील। गमक-टीकाकार। गव्यूति-एक कोश।
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बृहद् संस्कृत-हिन्दी शब्द कोश
१२८८
विशिष्ट शब्द
गीर्वाणाधिप-इन्द्र। गुच्छ-जिसमें बत्तीस लड़ियां हों ऐसा हार। गुरु-पिता। गुरु-पिहितानवमुनि। गुरु-पिता। गुह्यक-देव विशेष। गृहकोकिल-छिपकली। गोक्षर-गोखुरु-कांटेदार एक वनस्पति। गोमक्षिका-गाय पर बैठने वाली एक खास प्रकार की मक्खी, जिसे ग्रामीण लोग बघही कहते हैं।
घ घनात्यय-शरत्कारला
जामी-बहन। जाल्म-नीच। जिघृक्ष-ग्रहण करने के इच्छुक। जिनजननसपर्या-जिनेन्द्र देव की जन्म कालीन पूजा। जीमूत-मेघ। जीव के २ भेद-१. मुक्त, २. संसारी। जीवक
अधिगम के उपाय-सत्, संख्या आदि अनुयोग, प्रमाण, नय और निक्षेप।
त
चक्रध्वज-चक्र के चिह्न से सहित ध्वजाएं। चक्राह्वा-चकवी। चतुरस्रिका-चार कोन वाली। चतुष्ट्य-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्
तप इन चार आराधना रूप। चरमाङ-अन्तिम शरीर धारण करने वाला-तद्भवमोक्षगामी। चषक-पानपात्र-कटोरा ग्लास आदि। चामीकर-सुवर्ण। चार्वी-सुंदरी। चित्तजन्मा-काम। चैत्यद्रुम-चैत्य वृक्ष-जिसके नीचे प्रतिमा विराजमान रहती है। चोद्यचुञ्चत्व-प्रश्न करने की निपुणता।
तनूनपाद-अग्नि। तरलप्रतिबन्धयष्टि-जिसमें सब जगह एक समान मोती लगे
हों ऐसी एक लड़वाली माला। तरलाप्रबन्ध-यष्टि नामक हार का एक भेद। तल्प-शय्या। तानव-कृशता। तान्त्र-तन्त्री सम्बन्धी, तन्त्र्या अयं तान्त्रः। तामिम्रपक्ष-कृष्णपक्षा तामिस्रेतरपक्ष-कृष्ण और शुक्ल पक्ष। तायिन्-रक्षक। तारवी-तरु-वृक्ष सम्बंधी। तारा-आंख की पुतली। तिरस्करिणी-परदा। तिरीट (किरीट)-मुकुट।। तीरिका-बाण। तुणव-वाद्य विशेष। तुष्टूषु-स्तुति करने का इच्छुक। तृण्या-तृणों का समूह। तोक-पुत्र। तौयान्तिकी-आकण्ठ जलपूर्ण। त्रिकूट-लंका का आधारभूत-पर्वत। त्रिदोष-वात, पित्त, कफ। त्रिरत्न-सभ्यग्ज्ञान और सम्यक्चरित्र। त्रिरूपमुक्त्यङ्ग-१. सम्यग्दर्शन, २. सम्यग्ज्ञान, ३. सम्यक्
चारित्र। त्रिवर्ग-धर्म, अर्थ, काम। त्रिवेद-तीन वेद-ऋग्वेद, अथर्ववेद, यजुर्वेद। त्रिसाक्षिकम्-आत्मा, देव और सिद्ध परमेष्ठी की साक्षीपूर्वक।
छान्दाविचित-छन्दों का समूह। छाया-कान्ति।
जगत्त्रय-ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक, अधोलाक। जनुप्यन्ध-जन्मान्धा जन्य-पुत्र। जलवाहिन्-मेघ। जलशया-जड़ अभिप्राय वाले, पक्ष में जल से युक्त। जल्पाक-वाचाल, बहुत बोलने वाला। जाङ्गल-जल की दुर्लभता से युक्त देश। जातुषी-लाख की बनी हुई। जानभूमि-देश।
दम-इन्द्रियों का वश करना। दम्य-बछड़ा।
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विशिष्ट शब्द
१२८९
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दोष-भुजा। दोष्-भुजा। दोहद-गर्भकालीन इच्छा। दौर्गत्य-दारिद्र्य। द्युम्न-सुवर्ण।
ध धनुर्वेद-शस्त्र विद्या। धनुष्-चार हाथ प्रमाण। धम्मिल-बालों का बंधा हुआ जूड़ा। धात्रीफल-आंवला। धारागृह-फव्वारा। धैनुक-गायों का समूह। धौरेय-श्रेष्ठ।
न
दम्य-बछड़ा। दम्यक-बछड़ा। दर-कुछ। दवथु-सन्ताप। दवीयसी-अत्यंत दूर रहने वाला। दशप्राण-काव्य के दस गुण। १. श्लेष, २. प्रसाद, ३. समता।
४. माधुर्य, ५. सुकुमारता, ६. अर्थव्यक्ति, ७, उदरता,
८. ओज, ९. कान्ति और १०. समाधि। दशा-बत्ती, पक्षे अवस्था। दशावतार-भगवान् ऋषभ देव के महाबल आदि १० पूर्व भव। दात्यूह-कृष्ण वर्ण का एक पक्षी। द्वादशगण-समवसरण में भगवान् के चारों ओर १२ सभा
मण्डप होते हैं जिनमें क्रम से-१. गणधरादि मुनिजन, २. कल्पवासिनी देवियां, ३. आर्यिकाएं और मनुष्यों की स्त्रियां, ४. भवनवासिनी देवियां, ५. व्यन्तरिणी देवियां, ६. ज्योतिष्क देवियां, ७. भवनवासी देव, ८. व्यन्तर देव, ९. ज्योतिष्कदेव, १०. कल्पवासी, ११. मनुष्य और १२ पशु बैठते हैं। यही द्वादशगण
कहलाते हैं। दाम-करधनी। ०माला। दिध्यासु-ध्यान करने के इच्छुक। दिव्य-स्वर्ग सम्बन्धी। ०देव सम्बंधी, व्यथेष्ठ। दिव्यचक्षुः-अवधि ज्ञान रूपी नेत्र को धारण करने वाले। दिव्यहंस-अहमिन्द्र भगवान् आदिनाथ का जीव। दिव्याष्टगुण-१. अनन्त ज्ञान, २. अनन्तदर्श, ३. अव्याबाध
त्व, ४. सम्यक्त्व, ५. अवगाहनत्व, ६. सूक्ष्मत्व, ७.
अगुरुलघुत्व, ८. अनन्त वीर्य। दिव्यास्थानी-समवसरणभूमि। द्विरूपोपयोग-१. ज्ञानोपयोग, २. दर्शनोपयोग। दीधितिमालिन्-सूर्य। दीर्घनिद्रा-मृत्यु। दुर्गत-दरिद्र। विक्षोभ। दूष्यकुटी-कपड़े की चांदनी। दृब्ध-रचित। देव-मेघ। देवच्छन्द-जिसमें मोतियों की इक्यासी लड़ियां हों ऐसा हार। देवधिष्ण्य-देवगृह-जिन मन्दिर। देवमातृक-मेघ कीवर्षा पर निर्भर रहने वाले।
नक्षत्रमाला-इस नाम का एक हार। नक्षत्रमाला-जिसमें २७ लड़ियां हों ऐसा हार। नदीन-समुद्र। नन्दन-पुत्र। नभस्वत्-वायु। नयचक्र-नीति से युक्त सुदर्शन चक्ररत्न (पक्ष में नैगमादि
नयों का समूह)। नलिन-कमल। नवकेवललब्धि-१. केवलज्ञान, २. केवलदर्शन, ३. क्षायिक
सम्यक्त्व, ४. क्षायिकचारित्र, ५. क्षायिकदान, ६ क्षायिकलाभ, ७. क्षायिकभोग, ८. क्षायिकउपभोग,
९. क्षायिक वीर्य। नवपुण्य-नवधाभक्ति-१. प्रतिग्रहण-पडिगाहूना। २. उच्च स्थान
पर बैठाना, ३. पैर धोना, ४. अष्टद्रव्य से पूजा करना, ५. नमस्कार करना, ६. मनशुद्धि, ७.
वचनशुद्धि, ८. कायशुद्धि और ९ अन्न जलशुद्धि। नष्ट-छन्दशास्त्र का एक प्रकरण प्रत्यय। नाभि-नाभि-उदरगत। नायक-हार के बीच का बड़ा मणि। नार्पत्य-राज्य, नृपतेभविः कर्म वा नार्पत्यम्। निकृति-कपट। निधुवन-सम्भोग। निभमात्र-छलमात्र।
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निर्णिक्ता पोषक (पक्ष में युद्ध )। निर्याण-अपांग प्रदेश आंख के कटाक्ष का निकटवर्ती प्रदेश,
दोह
निर्वापणी- सुखकारिणी संतोषदायिका ।
निर्विण्ण विरक्त
निर्वृत- समाप्त | निर्वृति निर्वाण मोक्ष
निवात- वायु के संचार से रहित ।
निशान तीक्ष्ण करना।
निर्वृति-सुख
निर्वृति-समाप्ति ।
निरारेका सन्देह रहित।
निरारेका संदेह रहित।
निरोति- अतिवृष्टि, अनावृष्टि, भूषण, शलभ, शुक और निकटवर्ती शत्रु राजा इन छह ईतियों से रहित ।
निलिम्प देव।
निःश्रेयस मोक्ष।
निःश्रेयस - मोक्ष |
निष्क्रम-निकलना।
निष्क्रमण-दीक्षा धारण करना। निषङ्ग-तरकश ।
निष्ठयूत थूका हुआ।
निष्ठा समाप्ति | आस्था
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निष्ठितायु- जिसकी आयु पूर्ण हो चुकी है मरणोन्मुख ।
निष्ठितार्थ- कृतकृत्य ।
निष्प्रवीचार- मैथुन रहित।
नीकाश सदृश ।
नीड-आश्रय
नीहारांशु चन्द्रमा नैगम वैश्य। ०नय विशेष
नैर्ग्रन्थी- दिगम्बर मुनि सम्बन्धी नै: संगी- दिगम्बर मुनि सम्बन्धी ।
प
पङ्कजवासिनी लक्ष्मी
पञ्चकल्याण- १. गर्भ, २. जन्म, ३. तप, ४. ज्ञान, ५. निर्वाण । पञ्चब्रह्मन्- १. अरहन्त, २. सिद्ध ३ आचार्य, ४ उपाध्याय, ५. साधु । पञ्चयन्ती विस्तार करती हुई।
१२९०
विशिष्ट शब्द
पञ्चाश्रर्य- १. रत्नवृष्टि, २ पुष्पवृष्टि, ३. गन्धोदकवृष्टि, ४. मन्दसुगन्धित पवन और ५. 'अहोदानं अहोदानं' की ध्वनि । *
पटवास- कपड़ों को सुवासित करने वाला चूर्ण | पटविद्या- विषा पहरण विद्या ।
पणव- वाद्य विशेष ।
पतत्पति-पक्षियों का स्वामी गरुड़
पतिब्रुव अपने को झूठ ही पति बतलाने वाले पत्र- पत्ते, पक्ष में वाहन । पत्रिन् पक्षो
पदशास्त्र-व्याकरणशास्त्र ।
पद्मविष्टर पद्मासन।
पद्मा लक्ष्मी
पद्माकर कमलों से सुशोभित तालाब कमलवन।
पयस्विनी - दूध देने वाली गाय ।
पयोधर - मेघ ।
परचक्र- परराष्ट्र । पर्जन्य- मेघ ।
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परासुना-मृत्यु |
परिक्रम- नृत्य काल में पाद विक्षेप अथवा फिरकी लगाना । परिक्रम- पदविन्यास ।
परिगति- प्रदक्षिणा ।
परिणत पके हुए।
परिणेता विवाह करने वाले अथवा परि उपसर्गपूर्वक नी ध
परिष्वक्त- आलिंगित ।
पल्वल - छोटा तालाब ।
तु का लुदलंकार का रूप विवाह करेंगे।
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पाकसत्त्व-क्रूर पशु ।
पाणविक - पणवाद्य को बजाने वाला।
पादात पैदल सैनिकों का समूह। पाप्मा-पापी
पार्थिव - वृक्ष, पक्ष में, राजा पृथिव्यां भवाः पार्थिवा वृक्षा: पृथिव्या अधिपाः पार्थिवा राजानः ।
पार्थिवकुंजर श्रेष्ठ राजा ।
पारदृश्वरी पार को देखने वाली।
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पार्वण - पूर्णिमा का । पार्ष्णि एडी। पिठर-स्थाली-बटलोई।
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विशिष्ट शब्द
पिण्डी- शरीर | पितृकल्प-पिता के तुल्य । पुद्धव- बड़ा बैल।
पुत्री- पुत्रयुक्त ।
पुरोगम-प्रधानपुरुष । पुलिन्द - म्लेच्छों की एक जाति ।
पुष्कर- वाद्य विशेष । ०एक सरोवर, ० एक द्वीप ।
पुष्कर - हाथी की सूंड का अग्रभाग ।
० क्षेत्र विशेष |
पुष्करार्ध कमल रूप पूजा की सामग्री । पुष्करिणी-कमलों से युक्त वापिका । पुष्पधन्वा कामदेव |
प्रजा पुत्र।
प्रणाम्या- असंमत-अप्रिय स्त्री ।
प्रतायिनी - विस्तारिणी ।
प्रतायिनी विस्तृत |
प्रतिक्रमण लगे हुए दोषों का प्रायश्चित्त लेना।
प्रतिच्छन्द- प्रतिनिधि | प्रतिपत्तृ-शिष्य श्रोता।
पुष्पवन्ती-सूर्य-चन्द्रमा पूषन्- सूर्य ।
पृथ्वी- विशाल
पोगण्ड - विकलांग |
पौलोमी इन्द्राणी।
प्रकाण्डक- यष्टि नामक हार का एक भेद प्रकाण्डकयष्टि-जिस के बीच में क्रम कम से बढ़ते हुए पांच मोती हों ऐसी एक लड़वाली माला ।
प्रकृति-प्रजा ।
-
प्रतियातना -- प्रतिबिम्ब ।
प्रतिशिष्टि प्रतिनिधि-तत्सदृश ।
प्रतीक्ष्य-पूज्य ।
प्रतीन्द्र-इन्द्र से नीचे का पद धारण करने वाला।
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प्रत्यय - ज्ञान ।
प्रमित्सु नापने के इच्छुक ।
प्रवीचार - मैथुन ।
प्रवीचार - मैथुन ।
प्रव्रज्या - दीक्षा | अभिनिष्क्रमण। प्रसत्ति प्रसन्नता।
१२९१
प्रसेन- गर्भस्थ बालक के ऊपर का आवरण- जेर।
प्रस्तर- छन्द शास्त्र का एक प्रकरण-प्रत्यय। -
प्रस्नुवाना दूध देती हुई।
प्राज्या- श्रेष्ठा ।
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प्राबोधिक- जगाने के कार्य में नियुक्त।
प्रालम्ब-हार विशेष ।
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प्रालेयांशु - चन्द्र
प्रावृषेण्य - वर्षा काल का ।
प्रांशु ऊंचा
प्रीतिंकर- प्रीति उत्पन्न करने वाला ।
फ फलकहार-अर्धमाणव हार के बीच में यदिसय मणि लगा हो तो उसे फलकहार कहते हैं।
ब
बठर-स्थूल
बद्धजीव - अष्ट कर्म से युक्त संसारी जीव ।
बन्ध आत्मा और कर्मों का नीर क्षीर के समान एक क्षेत्रावगाह
होना। बलाहकाकार-मेघ के आकार । बहुरूपक-अनेक भूमिकाओं से युक्त । बहुश्रेयान् अत्यंत कल्याण से युक्त ब्रह्मोद्या - ब्रह्म - सर्वज्ञ के द्वारा कही हुई । बीभत्सु - घृणित |
बुघ्न - मूल।
बुभुत्सा - जानने की इच्छा।
बुभुत्सु - जानने का इच्छुक । बोधि-रत्नत्रय
ब्रघ्न- सूर्य ।
ब्रध्न - सूर्य । ब्रह्मसूत्र - जनेऊ ।
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भ
भगण-नक्षत्रों का समूह ।
भव-कायर योद्धा
भरतात्मज - भरत चक्रवर्ती का प्रथम पुत्र अर्ककीर्ति ।
भागवत भगवान् सम्बन्धी । भागीरथी गंगा नदी।
भामह - काव्य-कला प्रतिपादक ।
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भिसमृणाल
भीमयोगी भयंकर सांप। भुजिष्या चेटी ।
भूतवादी पृथिव्यादी चार भूतों के द्वारा जीव की उत्पत्ति मानने वाला चार्वाक ।
भूतोपसृष्ट- जिसे प्रेत की बाधा है।
भोक्ता ( भोक्तु) भगवान् के १००८ नामों में एक नाम।
म
मकराकर - समुद्र ।
मङ्गलाष्टक - आठ मंगलद्रव्य । १. छत्र, २. ध्वज, ३. कलश, ४. चामर, ५. सुप्रतिष्ठक (ठौना ), ६. भृंगार (झारी), ७. दर्पण और ८. तालपत्र (पंख)
मणिसोपान - जिसमें नीचे सोने के पांच दाने लगे हों ऐसा
फलकहार।
मदनोत्कोचकारिन्- काम के उद्रेक को करने वाला । मधुकृत्- मधुमक्खियां ।
मधुव्रतं - भ्रमर, पक्ष में मद्यपायी । मध्येयवनिकम्-परदा के भीतर।
मनु- भगवान् आदिनाथ।
मनु- भगवान् वृषभदेव का पुत्र । मन्द्र- गम्भीर |
मम्मट-काव्य विचारक।
मन्मनालपित- अव्यक्त- तोतली बोली।
मन्वन्तर- एक कुलकर से दूसरे कुलकर के होने का मध्यवर्ती
काल ।
मरीमृजा :- बार-बार मार्जन करते हुए। मरुद्-देव।
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मरुमरीचिका- मृगतृष्णा ।
मसूण-स्निग्ध, चिकनी।
महत्तर- प्रधान पुरुष। महाङिद्ध्रप-कल्पवृक्ष। महाप्रज्ञ - बुद्धिमान |
महाप्रज्ञप्तिविद्या - विद्याधरों को सिद्ध होने वाली विद्याओं में से
एक प्रमुख विद्या
महाप्राव्राज्य- दैगम्बरी दीक्षा ।
महार्धक-महामूल्य।
महास्थपति- चक्रवर्ती का रत्नस्वरूप विश्वकर्मा । माणव - जिसमें २० लड़ियां हों ऐसा हार।
१२९२
माणवक-बालक । मातरिश्वा - वायु | मातुलिङ्ग-बिजौरा ।
मार्गद्वय - १. शब्दालंकार, २ . अर्थालंकार । मार्तिकै अच्छी मिट्टी से बने हुए।
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मारुति पवन कुमार ।
मित्रमण्डल- सूर्यविम्ब ।
मुक्त-अष्टकर्म से रहित शुद्ध जीव जिन्हें मोक्ष प्राप्त हो चुका होता है।
मुनीनेन मुनीन्द्र सूर्य मुनि-इन-इन ।
मुरज-मृदंगाकार शिखर ।
मूर्द्धज-बाल |
मूषासांचा (धातुओं के गलाने का पात्र ) ।
मृग- पशु ।
मृगयु- शिकारी ।
मृषा- झूठ ।
मेधाविनी अत्यंत बुद्धिमती । मैरवी मेरु सम्बंधी। मोच कदली।
मौख-मुख सम्बन्धी
य
यतिचर्या -मुनियों के आहार की विधि | यवीयस् - तरुण ।
यशस्य यश को बढ़ाने वाला।
यादस्-जलजन्तु। यामिनी रात्रि ।
यायजूक- पूजा करने वाले।
युग- जुंआरी ( चार हाथ प्रमाण) । युग्यक - पालकी । युतसिद्ध-पृथक् सिद्ध ।
योग- समाधिमरण । ० जोड़ मिलान ।
योग अप्राप्त प्राप्य वस्तु की प्राप्ति होना । योगबीज - ध्यान के निमित्त।
विशिष्ट शब्द
योगीन्द्र - राजा वज्रनाभि के पिता वज्रसेन महाराज मुनि होने पर योगीन्द्र कहलाये। ०एक कवि
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र रजस्वला पराग से सहित, पक्ष में रजस्वलाएं मासिक धर्म से युक्त स्त्रियां।
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विशिष्ट शब्द
१२९३
बृहद् संस्कृत-हिन्दी शब्द कोश
रत्नसमुद्गक-रत्नों का पिटारा।
वर्षधर-वृद्ध कञ्चकी अन्तःपुर के कर्मचारी। रत्नावली-रत्नों की वह माला जो सुवर्ण और मणियों से | वर्षवृद्धिदिन-जन्मोत्सव का दिन। चित्रित होती है। व्रत विशेष।
वर्षीयस्-वृद्ध। रथकड्या-रथसमूह।
वर्धन-प्रमाण, वर्ष देह प्रमाणयोः इत्यमरः। रथाङ्ग-गाड़ी का पहिया।
वराककः-दीनप्राणी-बेचारा। रश्मिकलाप-जिसमें ५४ लड़ियां हों ऐसा हार।
वरारोहा-उत्तम स्त्री। रसातल-नरक।
वरीभृष्टि-अतिपाक। राजक-राजाओं का समूह।
वरीवृष्टि-अतिछेदन। राजत-चांदी के बने।
वलिभ-वलि-नाभि के नीचे विद्यमान रेखाओं से युक्त। राजन्वती-योग्य राजा से युक्त।
वल्लभिका-प्रिय देवांगनाए। राजन्वती-योग्य राजा से युक्त पृथिवी।
वल्लूर-सूखा मांस। राजा-चन्द्रमा।
वसुन्धरा-पृथिवी। राम-बलभद्र।
वंशोचित-बांस के योग्य, पक्ष में कुल के योग्य। रिरंसा-रमण-क्रीड़ा की इच्छा।
वाग्मिन्-प्रशस्त वचन बोलने वाला। रूपक-नाटका
वाङ्मय-व्याकरण, छन्द और अलंकार शास्त्र के समुदाय को रेचक-भ्रमण, नृत्य करते-करते फिरकी लगाना।
वाङ्मय कहते हैं। रैधारा-धन की धारा।
वाचंयमत्व-मौनव्रत। रैराट-कुबेर।
वाजिवदन-किन्नर। रोदसी-आकाश और पृथ्विी का अन्तराल।
वातरशन-दिगम्बर। रौक्म-सुवर्ण सम्बन्धी।
वातवल्कला-दिगम्बर।
वादिन-शास्त्रार्थ करने वाले। लव-एक प्रमाण विशेष। राम का पुत्र।
वार्थ-वृक्ष सम्बन्धी वृक्षस्येदं वाक्षम्। ललिताङ-सुंदर, शरीर वाले, पक्ष में भगवान ऋषभदेव की
वालधि-पूंछ। एक देव-पर्याय का नाम।
वालधि-पूंछ। ललिताङ्गक-सुंदर शरीर का धारक।
वाल्लभ्यलाञ्छन-पतिपने का चिह्न। ललिताङ्गचर-पहले का ललितांग।
वास्तुविद्या-मकान बनाने की विद्या। लुब्धक-म्लेच्छों की एक जाति।
विकच-विकसित। लौकान्तिक-ब्रह्म स्वर्ग में रहने वाले देवों की एक जाति। विकृत्य-विक्रिया करके। लौकायतिकी-चार्वाक मत सम्बन्धी।
विचक्षण-विद्वान्। विचतुरक्रीडा-विशिष्ट चातुर्यपूर्ण क्रीडा।
विजयच्छन्द-जिसमें पांच सौ लडियां होती हैं ऐसा हार। इसे वज्रसङ्क-वज्र के समान सुदृढ़ जांघों वाले, पक्ष में भगवान् ऋषभदेव की पूर्वपर्याय का नाम।
नारायण तथा बलभद्र पहनते हैं। वजनाभि-वज्र के समान स्थिर नाभि से युक्त, पक्ष में भगवान्
वितनु-शरीर रहित।
वितस्ति-बारह अंगुल के एक वितस्ति होती। ऋषभदेव की पूर्वभवपरम्परा का एक नाम। वज्राकर-हीरे की खान।
विदेह-शरीर रहित मुनि। वज्री-इन्द्र।
विधुवीधः-चन्द्रमा के समान शुक्ल। वयस्या-तरुण अवस्था से युक्त।
विद्रुम-मूंगा। वर्ण-ब्राह्मणादिवर्ण, पक्ष में अक्षर।
विधियः (विधि)-बुद्धिहीन।
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१२९४
विशिष्ट शब्द
वैशाखस्थ-पैर फैलाकर खड़े हुए। व्यतिकर-कार्य। व्यलीक-असत्य। व्यातुक्षी-फाग। व्याधि-शारीरिक व्यथा। व्याहृति-वाणी-दिव्यध्वनि। व्युत्सृष्टकाय-जिसने शरीर से ममताभाव छोड़ दिया है ऐसा
मुनि।
विनेय-शिष्य। विप्रलब्ध-ठगा हुआ। विप्रलम्भक-वंचक-ठगने वाले। विभावरी-रात्रि। विमान-प्रमाण रहित-अत्यंत विस्तृत, विगतं मानंयस्य सः। विमान-प्रमाण करता हुआ। वियुत-दस लाख। वियुतासु-मृत। वियोग-नियम से करने योग्य कार्य। विछोह। विरूपक-निकृष्ट-नीच। विवक्षा-कहने की इच्छा, वक्तुमिच्छा विवक्षा। विवक्षु-वक्तुमिच्छुर्विवक्षुः, धारण करने का इच्छुक। विविक्ता-जानने के इच्छुक। विशङ्कट-विशाल। विशिख-बाणा विश्राणन-दान। विश्वजनीन-सर्वहितकारी। विश्वदिक्कम-सब दिशाओं में। विश्वनाथ-काव्यानुशासनकर्ता। विश्वभर्तृ-भगवान् वृषभदेव। विश्वरीश-विश्वरी-पृथिवी का ईश। विश्वास्या-विश्वतोमुखी, जिसके चारों तरफ गोपुरद्वार थे
(पक्ष जो प्रत्येक विषय का प्रतिपादन करने वाली
थी) विश्वाण-आहार। विष्वाण-भोजन। विष्टि-भोजन। विष्टिपुरुष-मजदूर। विसंस्थुलासनस्थ-नाना प्रकार की अटपटे आसनों से स्थित। वृत्रहन्-इन्द्र। वृषभकवि-श्रेष्ठ कवि। बृंहित-हाथी की गर्जना। वेणुध्मा-बांसुरी बजाने वाले। वेधस्-भगवान् वृषभदेव। वैदग्धी--शोभा। वैदग्धी-सौन्दर्य-शोभा। वैदग्ध्य-चतुराई। वैयात्य-धृष्टता-लज्जा!
शङ्ख-नौ निधियों में एक निधि। शतधीचर-शतधी मन्त्री का जीव। (भूतपूर्व चरट्) शतमख-इन्द्र। शताध्वर-इन्द्र। शयु-अजगर (दण्ड विद्याधर का जीव)। शरद्-वर्ष 'हायनोऽस्त्री शरत्समा'। शरीरान्वयिगुण-वपुः कान्तिश्च दीप्तिश्च लावण्यं प्रियवाक्यता।
कलाकुशलता चेति शरीरान्तवयिनो गुणाः। शल्क-खण्ड। शवर-म्लेच्छों की एक जाति। शाड्वल-हरी-हरी घास से युक्त। शातमातुर-सौ माताओं का पुत्र। शातित-तोड़े हुए, गिराये हुए। शार-विविध वर्णवाली। शार्वर-शर्वरी-रात्रि सम्बन्धी। शिखावल-मयूर। शिखावल-मयूर। शिल्लोच्चय--पर्वत। शिवा-शृगाल। शीतक-मन्द कार्य में देर करने वाला। शीतलिका-व्यंजन पंखा। शीर्षक-यष्टि नामक हार का एक भेद। शीर्षकयष्टि-जिसके बीच में एक बड़ा मोती लगा हो ऐसी
एक लड़की माला। शुचि-ग्रीष्म ऋतु-आषाढ़। पवित्र, ०शुद्ध। शुद्धांत-अन्तःपुर। शुभंयु-कल्याण से युक्त, शुभ मस्ति येषां ते शुभंयवः
'अहंशुभमोयुर्स' इति मतुवर्थ युप्रत्यय। शूद्रक-एक नाटककार।
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विशिष्ट शब्द
१२९५
बृहद् संस्कृत-हिन्दी शब्द कोश
श्रद्धादिगुणसम्पन्न-१. श्रद्धा, २. शक्ति, ३. भक्ति, ४..
विज्ञान, ५. अलुब्धता, ६. क्षमा और ७. त्याग इन
सात गुणों से युक्त। २०१८१, ८२, ८३, ८४। श्राद्ध-श्रद्धा से युक्त। श्रायंस-ग्यारहवें श्रेयान्सनाथ तीर्थंकर सम्बन्धी पुराण। श्रीधर-लक्ष्मी के धारक, पक्ष में भगवान् ऋषभदेव की
पूर्वभव परम्परा में एक देव पर्याय का नाम। कवि। श्रेयान् (श्रेयान्स)-कुरुजांगल देश हस्तिनापुर के राजा सोमप्रभा
का छोटा भाई। श्रोता के आठ गुण-१. शूश्रूषा, २. श्रवण, ३. ग्रहण, ४. धारण, ५. स्मृति, ६. ऊह,७. अपोह,८.
निर्णीत। शूना-स्थूल। श्वभ्र-नरक। श्वाभ्री-नरकगति। श्वेतभानु-चन्द्रमा।
षट्कर्म-असि, मषि, कृषि, शिल्प, वाणिज्य और विद्या-ये ।
छह कर्म हैं। षड्भेदभाव-१. जीव, २. पुद्गल, ३. धर्म, ४. अधर्म, ५.
आकाश, ६. काला षाड्गुण्य-सन्धि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव, आश्रय ये
छह गुण हैं।
सप्तकक्षा-हाथी, घोड़ा, रथ, पैदल, बैल, गन्धर्व, नर्तकी। सप्तनय-१. नैगम, २. संग्रह, ३. व्यवहार, ४. ऋजुसूत्र, ५.
शब्द, ६. समाभिरुढ़, ७. एवं भूत। सप्तार्चिष्-अग्नि। २।९। सप्तार्चिष्-अग्नि। सभवान्-पूज्य। सभावना-अहिंसादि व्रतों को पच्चीस भावनाओं से सहित। सभावना-सभाओं के रक्षक देव। समय समयसुन्दरगणि। समयसार, सिद्धान्त। समया-समीप २२।२०७। समवृत्त-जिसके चारों चरण एक समान लक्षण वाले हों ऐसा। समा-काल विभाग। समाहित-एकाग्रचित्त। समिद्ध-अत्यंत तेज। समीहा-चेष्टा। सर्पण-पृथिवी पर सरकना। सर्वज्ञोपज्ञ-सर्वज्ञ के द्वारा प्रथम उपदिष्ट। सर्वार्थसिद्धिनाथ-सब सिद्धियों के स्वामी, पक्ष में भगवान्
ऋषभदेव की पूर्वभव-परम्पराओं वे सर्वार्थसिद्धिनामक
अनुत्तर विमान के स्वामी हुए। सरस्वत्-समुद्र सलय-ताल से सहित। साकूता-अभिप्रायवती। साकेत-एक नगरी। साचिप्य-सहायता। सात्त्विकबल-आत्मबल। साधन-सेना। साधन-सेना। साधारण-देश का एक भेद। साध्वस-भय। सानुजन्मा-छोटे भाईयों से सहित। सामायिक-चारित्र का एक भेद। सामि-आधा। सारव-आरव-शब्द से सहित। सारव-सरयूनदी सम्बंधी। सार्व-सर्वहितकारी। सार्वभौमत्व-समस्त पृथिवी का स्वामित्व-चक्रवर्तीपना (सर्वस्या
भूमेरधिपः सार्वभौमस्तस्य भावस्तत्त्वम्)
स
संक्रन्दन-इन्द्र। सचार-पादविक्षेप से सहित। सजानि-स्त्री सहित। सजानि-स्त्री सहित (जायया-सहितः सजानि:) सत्त्यङ्कार-वयाना। सत्त्वानुषड़ीगुण-सत्यं शौचं क्षमा त्यागः प्रज्ञोत्साहो दया दमः।
प्रशमो विनयश्चेति गुणाः सत्त्वानुषङ्गिणः।। सदाद्य-सत् को आदि लेकर-सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन,
काल, अंतर, भाव, अल्पबहुत्व, निर्देश, स्वामित्व,
साधन, अधिकरण, स्थिति, विधान-ये अनुयोगद्वार। सधर्मा-समान। सध्रीची-सहचरी, श्रीमती। सनाभि-बन्धु। सपर्या-पूजा।
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बृहद् संस्कृत-हिन्दी शब्द कोश
१२९६
विशिष्ट शब्द
सारस-सर:-सरोवर सम्बंधी।
सौमुख्य-अनुकूलता। सासार-आसार-धाराप्रवाह वर्षा से सहित।
सौरभेय-वृषभ। सितच्छदावली-हंसपंक्ति।
सौरी-सूर्य सम्बंधी। सितांशुकप्रति-सफेद वस्त्र से ढका हुआ।
स्तन्य-दुग्ध पिलाने में। सुत्रामन्-इन्द्र।
स्तम्बेरम-हाथी सम्बन्धी (स्तम्बेरमस्येदं स्तम्बेरमम) सुत्रामा( सुत्रामन्)-इन्द्र सुदती-सुंदर दांतों वाली स्त्री। स्थानीय-राजधानी का दूसरा नाम। सुधाशी-देव।
स्नानद्रोणी-स्नान करने का अप। सुधासूति-चन्द्रमा।
स्पृश्यकारु-नाई आदि। सुपर्वा-उत्तम पौरों से सहित।
स्फाति-वृद्धि। सुरकुज-कल्पवृक्षा
स्फाति-विस्तार। सुरभि-कामधेनु।
स्व:प्रष्ठ-स्वर्ग श्रेष्ठ-इन्द्र। सुरसद्मन्-स्वर्ग।
स्वभ्यस्त-अच्छी तरह अभ्यास किया हुआ। सुराग-कल्पवृक्षा
स्वर्ग्य-स्वर्ग की प्राप्ति का साधक। सुराग-कल्पवृक्षा (सुर+अग
स्वरुद्भुतगन्ध-स्वर्ग में उत्पन्न गन्ध। सुराग-कल्पवृक्षा (सुर+अग)
स्वस्रीय-भानेज। सुरेभ-सु-उत्तम रेभ शब्द से युक्त।
स्वापतैयक-घन। सुरेभ-सुइभ देवों के हाथी।
स्वायंभुवी-आदिनाथ भगवान् की वाणी। सुविधि-उत्तम भाग्य से युक्त, पक्ष में भगवान् ऋषभदेव की | स्वायंभुव-स्वयंभू भगवान् वृषभ देव-द्वारा कहा गया। पूर्व पर्याय का एक नाम।
स्रग्धरा-माला को धारण करने वाली। सुवृत्त-गोला
एक छन्द नाम। सूक्ष्मादि-सूक्ष्म, अन्तरित, दूरवर्ती। सूति-मणिमघ्या यष्टि का एक भेद एक लड़की माला जिसमें
हरि-इन्द्र। बीच में नीचे एक मणि लगा रहता है।
हरित्-दिशा। सूत्रधार-शिल्पाचार्य-मकान आदि का नाम कराने वाला।
हरिविष्टर-सिंहासन। संख्या-छन्दशास्त्र का एक प्रकरण-प्रत्यय।
हरिभद्र-आचार्य नाम। संविग्न-संसार से भयभीत होकर वैराग्य में तत्पर रहने वाले
हरिषेण-एक आचार्य विशेष। पुरुष।
हार-यष्टि-लड़ियों के समूह से बनी माला हार कहलाती है। संवृति-भ्रान्ति।
हार-जिसमें एक सौ आठ लड़ियां हों उसे हार कहते हैं। संव्यान-उत्तरीयवस्त्र।
हारिन्-सुंदर, रमणीय, कान्तियुक्त। संस्त्याय-रचनाविशेष।
हारिन्-मनोहर। संहार-प्रलयकाल।
हिमानी-अत्यधिक बर्फ, महद् हिमं हिमानी। सोपान-फलक हार में नीचे यदि सोने के तीन दाने लगे हों
हिरण्मयी-सुवर्णमयी। तो उसे सोपान कहते हैं।
हृदिशय-कामदेव। सौगन्धिक-सुगन्धित पदार्थ।
हृषीक-इन्द्रिय। सौध-अमृत सम्बन्धी, सुधाया अयं सौवः।
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