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संश्रु
१११३
संसार:
संश्रु (अक०) सुनना, संयुक्त होना। (सुद० २/३५) (जयो०
१८/४३) संश्रूयते। संश्रुत (भू०क०कृ०) [सम्+श्र] प्रतिज्ञात, भलीभांति सुना
हुआ। संश्रुतापादपः (पुं०) प्रसिद्ध वृक्ष-महात्मनां संश्रुतपाद पाना
पत्राणि जीर्णानि किलेतिमावात। (वीरो० ९/३४) संश्रोतृ (वि०) श्रोता। (वीरो० १/१) संथखडल ( वि०) श्रृंखला सहित. सांकल यक्त. जंजीर
सहित। (जयो० १३/११०) संश्लिष्ट (भू०क०कृ०) [सम्+श्लिष्+क्त]
संयुक्त, मिला हुआ, जुड़ा हुआ।
श्लाघ्य, प्रशंसनीय। (जयो०वृ० १/७९) 'महर्षि संश्लिष्टाशायां जगाम, वन्दनार्थमित्यर्थः' (जयो०७० १/७९) सश्लिष्ट श्लाघ्यं बभूव। (जयो०वृ० १/६१)
सुसज्जित।
०संस्पर्शी, आलिंगित। संश्लेषः (पुं०) [सम्+श्लिष्+घञ्] आलिंगन, परिरंभण, मिलाप
सम्बंध, सम्यक। (जयो० १७/७७) संश्लेषजन्य (वि०) हर्षजन्य। (जयो०वृ० १२/६६) संश्लेषणं (नपुं०) [सम्+श्लिष्+ल्युट्] आलिंगन, भींचना,
दबाना। संसक्त (भू०क०कृ०) [सम्+सञ्+क्त]
० जुड़ा हुआ, मिला हुआ। संलग्न, आसक्त, सटा हुआ। आसन्न, निकट। ०प्रयुक्त। (जयो० ६/६७)
मिश्रित, संपन्न, प्रतिबद्ध। संसक्तिः (स्त्री०) [सम्+स+क्तिन्]
संगम, मिलन, मिलाप। ०बांधना, घनिष्टता।
आपसी मेलजोल। संसज् (अक०) द्रवीभूत होना। (मुनि० २८) संसद् (स्त्री०) [सम्+सद्+क्विप्]
०सभा, सम्मिलन, मंडल। (जयो० ३/९२) (सुद० २/१)
परिषद। समिति। (जयो० १०/२) इत्थं वारिविवषैरङ्करयन् संसदे तथैव रसैः। (जयो० ३/९२) संसमान (वि०) प्रस्खलित हुआ। (जयो० २४/३५) संसरणं (नपुं०) [सम्+ऋ+ल्युट्]
०प्रगति, जाना। ०देशान्तरगमन। (जयोवृ० १/२२) संसार, लौकिक जीवन, सांसारिक। (जयो०वृ० १/९५) जन्म-जमान्तर। (जयो० १/२२)
निर्बाध कूच। प्रयाण। संसरणनिवृत्तिः (स्त्री०) संसार से हटना, सांसारिक कार्यों से
अलग होना। (जयो०वृ० १/९५) संसर्गः (पुं०) [सम्+ऋज्+घञ्] संगम, मिलन, मिश्रण।
संगति, सम्पर्क, साहचर्य। परिचय, मेल-जोल। सामीप्य, संस्पर्श। मैथुन, संभोग।
०प्रसक्ति। (वीरो० २/१२) संसर्गप्रभवः (पुं०) संसर्ग से उत्पन्न। (मुनि० २८) ससर्गविधा (स्त्री०) संगति प्रधान नीति। (सुद० १/२३)
विसर्गमात्मश्रिय ईहमानः
स साधुसंसर्गाविधानिधानः। (सुद० १/२३) संसर्गिन् (वि.) [संसर्ग-इनि] संयुक्त, मिश्रित, मिला हुआ,
सम्बंधित। संस्पर्शित। संसर्गिन् (पुं०) सहचर, साथी। संसर्जनं (नपुं०) [सम्+ऋ+ल्युट्]
परित्याग करना, छोड़ना, विसर्जन करना।
०अलग करना, पृथक् करना, हटाना। संसर्पः (पुं०) [सं+सृप+ल्युट्] सरकना, रेंगना। संसर्पणं (नपुं०) [सम्+सृप ल्युट्] सरकना। संसर्पिन् (वि०) [संसर्प इनि] सरकने वाला, रेंगने वाला। संसादः (पुं०) [सम्+सद्+घञ्] सभा, समिति। संसाधनं (नपुं०) उचित साधना। (दयो० २/२६) संसाध्य (वि०) प्राप्त करने योग्य। (मुनि० १६) संसारः (पुं०) [सम्+ऋ+घञ्] लोकः, विश्व।
संसरण, परिभ्रमण, गति, प्रगति। गुणोऽस्ति जीवस्य किलोपयोगस्तेनाप्य जीवेन समं योगः। ततो हि संसार इयानिहास्ति, वियोग एवास्तु शिवाश्युपास्ति। (समु० ८/६)
संसृति-प्रापय यामपि तु तामसारतां संसृतिस्त्यजति तामसारताम्। (जयो० ११/९४) ०आवागमन, पुनरागमन, पुनर्जन्म। ०परम्परा, रीति।
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