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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्वादिष्ठता १२३२ स्वामीदयानन्दः स्वादिष्ठता (वि०) माधुर्य पूर्ण। (जयो० २२/६०) स्वादीयस् (वि.) [स्वादु+ईयसुन्] बहुत मीठा, अधिक मधुरता युक्त। स्वादु (वि०) [स्वद्+उण] मधुर, मीठा, रस युक्त। (वीरो० २२/३४) ० रुचिकर, चखने में मधुर। ० सुखद, पसंद करने योग्य। • मनोहर, सुंदर, प्रिय। स्वादुता (वि०) रुचिकर, पसंद करने योग्य, माधुर्य युक्त। (जयो० २२/६०) स्वादुमूलं (नपुं०) गाजर। स्वादुरसा (स्त्री०) द्राक्षा। ० मदिरा। ० अंगूर। ० काकोली मूल। ० शताबरी पादप। स्वादुशुद्ध (नपुं०) सेंधा नमक। ___० समुद्री नमक। स्वाधारः (पुं०) स्व प्राणाधार। (जयो० १०/११९) स्वाधीन (वि०) स्वतंत्र। • दैवीधीन। (दयो० १०७/ ) आत्माधीन। (सम्य० ८४) स्वाधीनवृत्तिः (स्त्री०) स्वतंत्रता की प्रवृत्ति। (जयो० २४/४१) स्वाध्यायः (पुं०) ज्ञान भावना। ० प्रशस्त अध्यवसाय, शोभन हित, आत्म हित। ० निरंतर ज्ञानाभ्यास, ०सम्यगध्ययन (मुनि० १९) ० आत्मचिन्तन। (जयो० २८/९) स्वानः (पुं०) [स्वन्+घञ्] ध्वनि, कोलाहल। स्वान्त (वि०) प्रसन्न, खुश, हर्षयुक्त। (जयो० ११/८०) ० स्वमनस्। (जयो० २७/५३) ० व्याप्त (सुद० ८३) ० मन, चित्त। (जयो० ५/७२) स्वान्तपत्रिणी (स्त्री०) मन रूपीपक्षी। (जयो० ५/७२) स्वान्तं चित्तमेव पत्री। (जयो० ५/७२) स्वान्तरङ्गम् (नपुं०) अपना हृदय, अन्तरंग। (जयो० २३/८२) स्वान्वयः (पुं०) स्व-कर्म निरत। (जयो० २/११८) ० कुलक्रमागत। (जयो० २/११६) ___० स्ववंश। (जयो० २/१०४) स्वान्दुरत्नम् (नपुं०) निजभूषण रत्न। (जयो० ५/६५) स्वापः (पुं०) [स्वप्+घञ्] निद्रा, शयन। ० स्वप्न। ० आलस्य। इन्द्रियात्ममनोमरुतां सूक्ष्मावस्था स्वापः। (नीतिवाक्यामृत २५२) ० स्वप्नावस्था। स्वापतेयम् (नपुं०) [स्वपते रागतं ढब] धन, वैभव, सम्पत्ति। स्वाभाविक (वि०) प्रकृति गत, सहजरूप, अन्तर्हित। (जयो०वृ० २/११२) स्वाभाविकज्ञानम् (नपुं०) सहजज्ञान। (भक्ति० १) आत्मगत ज्ञान, स्वतः उत्पन्न हुआ ज्ञान। स्वाभाविकार्य क्रिया (पुं०) अपनी सहज रूप की अर्थक्रिया। (सम्य० २२) स्वाभाविकी (स्त्री०) सदानुकूला। (जयो०वृ० ९/५८) सहजगता (जयो०वृ० ६/५२) स्वाभावोक्ति (स्त्री०) एक अलंकार स्वाभाविक कथन। (जयो० १३/७२) अनकृष्य च नकलावलिं नमयन्नात्मवपुः पुरस्तराम्। उपवेशयति स्म तद्गतः सहसा सादिवरः क्रमलेकम्।। (जयो० १३/७३) स्वाभीष्ट (वि०) अनुकूलता। (जयो०वृ० २/१४९) स्वाभ्युदयः (पुं०) निजोत्कर्ष-आत्मोन्नति। (जयो० १/१) स्वामिता/स्वामित्व (वि०) [स्वामी+तल+टाप् त्व वा] प्रभुत्व, आधिपत्य। स्वामिन् (वि.) [स्व अस्त्यर्थे मिनि] अधिकार युक्त, प्रभुता युक्त। स्वामात्यः (पुं०) आत्म रूप मन्त्रि। (जयो०७० ३/६६) स्वामिन् (पुं०) प्रभु, मालिक। (सुद० ९२) ० गुरु, अर्हत्प्रभु। (सुद० ७३) ० धव। (जयो०वृ० १३/२०) पुनरपि न जाने कुतो न समायाति स्वामी। (दयो० २/७) ० पति। (जयोवृ० १/२०) स्वामि-उपकारकः (पुं०) अश्व, घोड़ा। स्वामिकार्यम् (नपुं०) प्रभु का कार्य। स्वामिजनः (पुं०) प्रभु। (सुद० ९२) स्वामिनि (स्त्री०) मालकिन, रानी साहिबा। (सुद० ८७) स्वामिभावः (पुं०) मालिक भाव, प्रभुभाव। स्वामिभाषित (वि०) प्रभु द्वारा कथित। (जयो० ४/१२) स्वामीदयानन्दः (पुं०) प्रसिद्ध आर्य समाजी, विचारक। (वीरो०८/५७) For Private and Personal Use Only
SR No.020131
Book TitleBruhad Sanskrit Hindi Shabda Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherNew Bharatiya Book Corporation
Publication Year2006
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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