________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
स्वप्न प्रपञ्च
१२२८
स्वरः
स्वप्न प्रपञ्च (पुं०) निन्द्राभय।
स्वयम् (अव्य०) [सु+अय्+अम्] अपने आप, निजात्मरूप स्वप्न विचारः (पुं०) स्वप्न फल पर चिन्तन।
से, (सुद०८३) स्वयं स्थाने परम शब्दो वास्तु (जयो०७/६२) स्वप्नशील (वि०) शयनशील।
० अनायास ही, अचानक ही (सुद० ३/२७) स्वप्नषोडशं (नपुं०) सोलह स्वप्न।
नित्यानन्दपदे निरन्तररतो भूया: स्वयं सर्वदा। (मुनि० १४) स्वप्नषोडशी (वि०) सोलह स्वप्न देखने वाली। (वीरो० ४/३५) स्वयंग्रहः (पुं०) बलात् ग्रहण करना। स्वप्नावलिः (स्त्री०) स्वप्नक्रम। (सुद० २/९०)
स्वयंजात (वि०) अपने आप उत्पन्न हुआ। स्वबाहुमूल (नपुं०) अपनी बाहु का भाग। (सुद० ११७) स्वयंदत्त (वि०) अपने आप दिया हुआ। स्वभट्टः (पुं०) अपने आप में योद्धा।
स्वयंप्रभा (स्त्री०) पुण्डरीक नगर के राजा की पत्नी। (जयो० स्वभा (स्त्री०) निजकान्ति (सुद० ८४)
२३/५३) स्वभावः (पुं०) प्रकृति, मूलभाव, मूलगुण। (सुद० ३४) स्वयंभुवः (पुं०) आदीश्वर ऋषभदेव। (मुनि० २) ० सहज भाव, प्राकृतिक भाव।
स्वयंभू (पुं०) ब्रह्मा, आदीश्वर तीर्थंकर का नाम। • निजकर्त्तव्य (वीरो० १६/१८)
० प्रकृति। (जयो० २४/२०) (जयो० ११/६८) ० आत्मीय परिणाम। (भक्ति० ३) मयोऽहमन्यो न हि मे स्वयम्भूराज (पुं०) नाम विशेष। ० ब्रह्मा, आदिनाथ। स्वभावः।
० स्वयं भू मण्डल। (सुद० १२४) ० आत्म तत्त्व। (जयो० ५/४२)
स्वयमिति (अव्य०) स्वयं ही, अपने आप ही। (सुद० १०८) ० निजभाव। (सम्य० ४१)
स्वयमेव (अव्य०) स्वयं ही, अपने आप ही। (सुद० ३/४३) ० भाव। (सम्य० ८४)
(समु०१/१) अनायासेनैव, अचानक ही। (जयो० ४/३५, ० मिलता, जुलता वर्णन।
२३/३५) स्वभाव-सम्भावनम् (नपुं०) अपने आत्म स्वभाव से निर्मल। | स्वयंवर (पुं०) इच्छानुसार वर का चयन, (जयो० ५/१) स्वयं (सुद० ११८)
बालामुखेनैव वरनिर्वाचनम्। (जयो०७०३/६६) स्वभावोक्तिः (स्त्री०) यथार्थ वर्णन।
स्वयंवरनुमा (स्त्री०) स्वयंवर शाला। (जयो० ४/६) स्वभावोक्तिरलङ्कारः (पुं०) एक अलंकार विशेष, जिसमें | स्वयंवरमण्डलम् (नपुं०) स्वयंवर स्थान। (जयो० ५/१२)
नाना प्रकार पदार्थों का साक्षात् रूप से वर्णन किया | स्वयंवरमहोत्समवः (पुं०) स्वयं वरण का विशाल उत्सव। जाता है।
(जयो० वृ० ५/२०) किं फलं विमलशीलशोचना द्रक्ष,
स्वयंवरविधानम् (नपुं०) स्वयं वरण का नियम। साक्षिकतया सुलोचनाम्।
हीनो वाऽस्तु कुलीनो वा, दीनो वा सधनोऽथवा। तं बलीमुखबलं बलैरलं,
स्वयंवरविधाने तु, बालावाञ्छा बलीयसी।। पाशबद्धमधुनेक्षतां खलम्।। (जयो० ७/७७)
(हित०सं० पृ० २१) यहां वानर के चपल स्वभाव का वर्णन होने से स्वभावोक्तिः स्वयश (वि०) अपनी कीर्ति। (जयो० २३/३५) अलंकार है।
स्वयोगः (पुं०) आत्मयोग। ० निज ध्यान योग। स्वभावोत्थः (पुं०) मनसोत्थ, मनसोत्पत्ति। (जयो० १९/८) | स्वयोगभूतिः (स्त्री०) अपना योग वैभव। स्वभाषा (स्त्री०) अपनी भाषा। (वीरो० १५/४)
वनाद्वनं सम्व्यचरत्सुवेशः स्वभिराम (वि०) मनोहर। (जयो० ५/६४)
स्वयोगभूत्या पवमान एषः।। (सुद० ११८) स्वभू (पुं०) ब्रह्मा।
स्वयोनि (वि०) मातृपक्ष सम्बंधी। स्वभूत (वि०) निजीय उत्पत्ति वाला। (जयो० २३/३३) स्वयोषित (वि०) विवाहित। (जयो०१६/३२) स्वमात्रम् (नपुं०) अपना ही कार्य। (वीरो० १६/१८) स्वर् (अक०) दोष निकालना, कलंक लगाना, निंदा करना। स्वमुरोऽम्बरः (पुं०) स्वकीय अञ्चल। (जयो० १२/११४) स्वर् (अव्य०) [स्वृ+क्च्]ि स्वर्ग सा, परलोक जैसा। स्वमूलि (नपुं०) स्वशिरस्, अपना मस्तक। (जयो० १८/३५) स्वरः (पुं०) [स्वर्+अच्] शब्द, आवाज, ध्वनि। (जयो०
For Private and Personal Use Only