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श्रेष्ठिचतुर्भुज
११००
श्रौतदान
पूज्य, समादरणीय। ०भद्र, महायश। (दयो० १/१४) श्रेष्ठिचतुर्भुज (पुं०) चतुर्भुत नामक सेठ। आचार्य ज्ञानसागर
के गृहस्थ जीवन के पिता। ब्र० भूमामल के पिताश्री। श्रीमान् श्रेष्ठिचतुर्भुजः स सुषुवे भूरामलोपाह्वयं वाणीभूषण वर्णिनं घृतवरी
देवी च यधीचयम्। (जयो० २/पृ०१३०) वीरो जयोदय के प्रत्येक सर्ग के अंत में उक्त पंक्तियां दी गई
श्रोणि बिम्बं (नपुं०) नितम्ब चक्र, श्रेष्ठ वर्तलाकार नितम्ब
बिम्ब। (जयो० ११/७) श्रोणिबिम्बे भूभुजां दुर्गस्थाने। श्रोणिभार्ययोः इति विश्वलोचनः (जयो०७० ११/७)
०कमरपट्टा, करधनी, कंदौर। श्रोणिसूत्रं (नपुं०) मेखला, करधनी। श्रोणी (स्त्री०) नितम्ब, कूल्हा, कटिपुर भाग। श्रोतस् (नपुं०) [श्रु+असुन् तुट् च
०कर्ण, कान, श्रवण। (जयो०७० २७/१६) ०हस्तिसुंड। ज्ञानेन्द्रिय।
सरिता, प्रवाह। श्रोत (पुं०) [श्रु+तृच] छात्र, शिष्य, विद्यार्थी सुनने वाला।
(वीरो० १/१)
श्रोता।
श्रेष्ठिपदं (नपुं०) सेठ पद। (समु० ४/३) श्रेष्ठिवर्य (वि०) सेठ, उत्तम सेठ, नगर सेठ। (सुद० २/१) ___ श्री श्रेष्ठिवर्यो वृषभस्य दासः। श्रेष्ठिसत्तम (वि०) श्रेष्ठिवर्य। (सुद० ३/४७) श्रेष्ठोक्ति (स्त्री०) कुलकोक्ति-'कुलकरस्तु कुलश्रेष्ठे इति
विश्वलोचन:' (जयो०वृ०. ४/१६) श्रे (सक०) पकाना, उबालना। पसीना निकालना, स्वेद आना। श्रोण (सक०) एकत्र करना, ढेर लगाना। श्रोण (वि०) [श्रोण+अच्] विकलांग, लगड़ा। श्रोणः (पुं०) एक रोग विशेष। श्रोणा (स्त्री०) [श्रोण+टाप्] कांजी।
श्रवण नक्षत्र। श्रोणिः (स्त्री०) [श्रोण+इन्] कटी, कमर। (जयो०१० २१/३१)
कूल्हा, नितम्ब, चूतड़। (जयो०वृ० )
कटिरपुरभाग। (वीरो० ३/२२) 'श्रोणौ विशालत्वमथो धराया'
वृक्ष विशेष। श्रोणि नामक वृक्ष। (जयो०१० २१/३०) श्रोणिकरधनी (स्त्री०) कूल्हे पर करधनी। श्रोणिगत (वि०) नितम्ब युक्त। श्रोणिबद्ध (वि०) नितम्ब पर बंधी हुई, कूल्हे पर स्थित।
'श्रोणिवद्धसुरसासमन्वितः' (जयो० २४/३१) 'कटः श्रोणो शयेऽत्यल्पे किलिञ्जगजगण्डयो इति कटी स्यात्कटिभागध्यो' इति विश्वलोचनः (जयोवृ० २१/३१) ० श्रोणिश्च वृक्ष विशेषस्तेन बद्धा। (जयो०वृ० २१/३१) 'श्रोणौ वा संकटीप्रदेशे वा बद्धा। (जयो०७० २१/३१)
श्रोतृजनः (पुं०) श्रोताजन।
श्रिये जिनः सोऽस्तु यदीयसेवा,
समस्त संश्रोतृजनस्य सेवा। (वीरो० १/१) श्रोतृषूत्तम (वि०) श्रोताओं में उत्तम। (वीरो० १५/१६) श्रोता (वि०) सुनने वाला। (समु० १/३५) श्रोतुः (ष०ए० श्रेतृ०) क्रोता के वक्तु श्रोतुः क्षेमहेतवे' (समु०
३/३१) श्रोत्रं (नपुं०) [श्रूयतेऽनेन-श्रु-करणे ष्ट्रन] कर्ण, कान, श्रवण,
श्रवणेन्द्रिय। (जयो०वृ० २७/१६) श्रोत्रदेशः (पुं०) कर्णवाली। (जयो०वृ० २७/१६) श्रोत्रमूलं (नपुं०) कान की जड़। श्रोत्रिय (वि०) [छन्दो वेदमधीयते वेति वा छन्दस्+घ-श्रोत्रादेशः]
वैदिक ब्राह्मण। 'श्रोत्रिया इव नित्य होत्रिणो वैदिक ब्राह्मणा इव' (जयो०१०
३/१६) श्रौत (वि०) [श्रुतौ विहितं अण]
वेद से सम्बन्धित।
कर्ण से सम्बन्धित। श्रौतं (नपुं०) वेद विहित कर्म, याज्ञिक अनुष्ठान, क्रिया
खण्ड। श्रौतकर्मन् (नपुं) वैदिक क्रिया। श्रौतगत (वि०) अनुष्ठान को प्राप्त हुआ। श्रौतजन्म (वि०) याज्ञिक क्रिया की उत्पत्ति। श्रौतदान (वि०) याज्ञिक दान वाला।
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