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सत्कुलीन
११२९
सत्तारक
सत्कुलीन (वि०) उच्च कुल वाला। कुलीन।
सतिका (स्त्री०) सती, साध्वी, साधिका। सत्कुलोत्पन्न (वि०) अच्छे कुल में उत्पन्न हुआ, कुलीन। | सती (स्त्री०) [सत्+ङीप्] साध्वी, श्रमणी सन्यामिनी। (जयो०वृ० १/६७)
सदाचारणी स्त्री। सज्जन स्त्री (जयो०२/११२) (वीरो० सत्कृष (सक०) [सत्+कृ] सत्कार करना, आदर करना, ४/३२) (सुद० ४/३७) सेठानी (सुद० २/५०) सुशीला सम्मान करना।
(जयो० १/२०) सेवा करना। सत्करोमि यत्पदयुगं सन्निधिरयमिह नाम। सतीत्व (वि०) सतीपन, सदाचारत्व। (जयो० ११/११) (जयो० २०/८८) चरणयुगलं सत्करोमि सेवयामि। सतीनः (पुं०) [सती+नी+ड] मटर। सत्कृत (वि०) पूज्य, प्रतिष्ठित, सम्मानित।
०बांस। पूजित, अलंकृत।
सतीर्थः (पुं०) [समानः तीर्थः गुरुर्यस्य] तीर्थ में सहभागी। ०स्वागत किया गया।
ब्रह्मचारी। सत्कृतपंक्तिः (स्त्री०) पुण्यपरिणाम। (जयो० ५/६३)
साथ में अध्ययन करने वाला। सत्कृतलता (स्त्री०) पुण्यकृतलता, सत्कारविषयी बल्लरी।
सतीलः (पुं०) [सता+लक्ष् ड] बांस। (जयो० ३/९)
०पवन, वायु। सत्कृतशेमुषी (स्त्री०) उत्तम बुद्धि, श्रेष्ठ बुद्धि। (जयो०
०मटर, दाल। १२/१०२)
सनुष (वि०) सदोष (जयो० २/१३) (वीरो० २२/४) सत्कृति (स्त्री०) अतिथि सत्कार। (जयो० १२/१४१)
सतेरः (पुं०) भूसी, चोकर। सत्कृतिक (वि०) उत्तम कार्य करने वाले। 'लोकोऽखिलः
सतृष्णा (स्त्री०) पिपासा, पिपासिना। (जयो० ११/५१) सत्कृतिकः पुनस्ताः ' (सुद० १/२९)
सत्कृ (अक०) वर्णन कना-सत्क्रियते व्यावर्ण्यते (वीरो० २/९) ०मृतिका नक्षत्र सहित।
सत्कर्मन् (वि०) अच्छे कर्म वाला। (जयो० १/१०) सक्रिया (स्त्री०) सत्कर्म, पुण्यकार्य। (जयो० ९/१०)
सत्त (वि०) [सत्+क्त] बुनी हुई, गुम्फित। (सुद० २/६) शिष्टाचार, अभिवादन।
सत्तनु (वि०) उत्तम शरीर।। आतिथ्यपूर्ण स्वागत, सत्कार। (सु० १२४)
सत्तनु (स्त्री०) सुलोचना का नाम। (जयो०वृ०४/२८) सज्जीकरण। (जयो० २१/४)
सत्तनुपित (पुं०) सुलोचना के पिता। 'सत्तनोः सुलोचनाया: सतत् (वि०) [सम्+तन्+क्त] निरंतर, नित्य, शाश्वत। (जयो०१० १/४२)
पिता' (जयो०वृ० ४/२८) सततं (अव्य०) लगातार, अविच्छिन्न रूप से, नित्य, सदा
सत्तम (वि०) सज्जन-सज्जनोत्तम। (जयो० ३/८८) हमेशा। (दयो० २/४) (मुनि० १७) (सुद० ११२)
०श्रेष्ठ (जयो० ४/४५) सत्तमैर्नृपसुत्तां तु वरीतुम् (जयो० सततगमनं (नपुं०) पवन, वायु।
५/२) सज्जनोत्तम (जयो० २४/१३१) सततगति (स्त्री०) वायु, हवा।
सत्तरङ्ग (वि०) चंचलता युक्त। सन्तश्च ते तरङ्गास्त इव सततभुक्तिः (स्त्री०) निरंतर आहार। (जयो० १/९५
तरलाश्चन्चलास्तै हयवेरेवश्वश्रेष्ठैः (जयो०व०५/१७) सततोदयः (पुं०) सदायक, सन्मार्ग। (जयो०वृ० १/१०८) सत्तरलाञ्चल (वि०) वायु से चंचल, पवन से खिले हुए। सतर्क (वि०) [तर्केण सह] सचेत, सावधान, सजग, जाग्रत। (जयो०२१/६३) सतानिकः (पुं०) कौशाम्बी का राजा। (वीरो० १५/२२) सत्तरसनागार्जुनः (पुं०) नाम विशेष। (वीरो० १५/२८)
कौशम्ब्या नरनाथोऽपि नाम्ना शेऽसौ सतानिकः' (वीरो० सत्ता (स्त्री०) [सत्+तल्+टाप्] अस्तित्व, विद्यमानता। १५/२२)
०वस्तुस्थिति, वास्तविकता। (जयो०वृ० १/४२) सतारा (स्त्री०) [तारया युक्ता सतारा] नयन पेक्षणिका, तारा, सत्तारक (वि०) तारा सहित, नक्षत्र सहित। (वीरो० २१/८) आंख की पुतली। (जयो० १६/६२)
सत् स्वरूप की उपस्थिति। (जयो०१० २६/८०) सतिः (स्त्री०) [सम्+क्तिन्] अन्त, विनाश, घात, नाश।
उत्तमता, श्रेष्ठता। (सुद०पृ० ९६) उपहार, भेंट, दान।
०वस्तु का अस्तित्व गुण।
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