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श्लीपदं
११०२
श्लोकः
हो।
श्लीपदं (नपुं०) [श्री युक्तं वृत्ति युक्तं पदम् अस्मात्] सूजी (जयो० ५/२८, ७/८५) हुई टांग, एक रोग विशेष।
राजमाप इव चारघट्टतो श्लील (वि०) [श्री अस्ति अस्य+लच्] भाग्यशाली, समृद्ध। भेदमाप कटकोऽपि पट्टतः। श्लेषः (पुं०) [श्लिष्+घञ्]
यस्ततस्तु दररूपधारकः आलिंगन मिलन, चिपकना।
सम्भवन्निह स सूपकारकः।। (जयो० ७/८५) ०जुड़ना, संलग्न होना।
श्लेषात्मकोत्प्रेक्षा (स्त्री०) श्लेष सहित उत्प्रेक्षा। (जयो० मिलाप, संपर्क, सम्बन्ध, संगम।
८/७) श्लेषालंकार, अनेकार्थ शब्द प्रयोग, किसी भी शब्द या श्लेषमिश्रितोत्प्रेक्षा (स्त्री०) अलंकार का नाम, जहां श्लेष वाक्य में दो या दो से अधिक अर्थों की संभावना होती है। सहित उत्प्रेक्षा हो। (वीरो० २/२८) (जयो०वृ० ३/४६, ३/३०)
श्लेषानुप्राणित-रूपकालझरः (पुं०) श्लेष समन्वित रूपक पदैस्तैरेव भिन्नैर्वा
अलंकार। (जयो० ७/८४) वाक्यं वक्त्येकमेव हि।
तस्य शुद्धतरवारिसञ्चरे अनेकमर्थं यत्रासौ
शौर्यसुंदरसरोवरे तरेः। श्लेष इत्युच्यते यथा। (वाग्भट्टालंकार ४/१२७)
ईक्षितुं श्रियमुदस्फुरद्भुजा जहां उन्हीं पदों से अथवा भिन्न पदों से एक ही वाक्य शौचवम॑नि गुणेन नीरजा। (जयो० ७/८४) अनेक अर्थों को व्यक्त करता है वहां श्लेष अलंकार | श्लेषोऽनुप्रासः (पुं०) श्लेष सहित अनुप्रास का प्रयोग जहां होता है।' संसदी तवर्गमण्डितेऽथा
मुहुर्नुबद्ध बद्धाञ्जलिरेष दासः पवर्गपरिणामपण्डिते।
सदा सील! प्रार्थयते सदाशः। श्रीत्रिवर्गपरिणायके तथा
कुतः पुनः पूर्णपयोधरा वा तिष्ठतीष्टकृदसाव भूत्कथा।। (जयो०३/२०, ७/८१, ७/८६ न वर्तते सत्करकस्वभावा।। (जयो० १६/१३) (जयो०वृ० १६/१६, २४/१२८, ३/४, ५/२१) (वीरो० श्लेषोममा (स्त्र०) श्लेष युक्त उपमा अलंकार। (जयो०७० २/३७)
३/५९, २१/४३) ३/१०, ३/७, ५/२७, ३/८४, ३/८०, श्लेष-गर्भोत्प्रेक्षा (स्त्री०) श्लेष सहित उत्प्रेक्षा। (जयो०वृ० वीरो० १/१४, २/४४) ३/४२)
सुवृत्तभावेन समुल्लसन्तः श्लेषगर्भो वक्रोक्त्यारः (पुं०) श्लेष सहित वक्रोक्ति अलंकार। मुक्ताफलत्वं प्रतिपादयन्तः। (वीरो० ३/३)
गुणं जनस्यानुभवन्ति सन्तस्तत्रा, श्लेषपूर्वक-उत्प्रेक्षा (स्त्री०) श्लेष सहित उत्प्रेक्षा अलंकार। दरत्वं प्रवहाम्यहं तत्। (वीरो० १/१४) (जयो०१० ३/५६)
श्लेष्मक (वि०) [श्लेष्मन् कन्] कफ वाला, बलगम युक्त। इङ्गितेनोभयोः श्रेयस्करीहामुत्र पक्षयोः।
श्लेष्मकः (पुं०) कफ, बलगम। दुहिता द्विहिता नामैतादृशीपुण्यपाकतः।। (जयो०वृ० ३/५६) श्लेष्मघ्नी (स्त्री०) मल्लिका, केतकी, केबड़ा। श्लेषरूपकः (पुं०) श्लेष सहित रूपक अलंकार।
श्लेष्मज (वि०) [श्लेष्मन्+लच्] कफ से उत्पन्न, कफ रूपामृतस्रोतस एव कुल्यामिमा
मूलक। मतुल्यामनुबन्धमूल्याम्।
श्लेष्मन् (पुं०) [श्लेष्मन्+लच्] कफ की प्रकृति का बलगमी। लब्ध्वाऽक्षिमीन-द्वितयी नृपस्य,
श्लेष्मातः (पुं०) एक वृक्ष विशेष।। सलालसा खेलति सा स्म तस्य।। (जयो० ११/१, जयो०७० श्लेष्मोजस् (नपुं०) कफ की प्रवृत्ति। २२/१९)
श्लोकः (पुं०) [श्लोक्+अच्] श्लेषपूर्वोपमालङ्कारः (पुं०) श्लेषपूर्वक उपमा अलंकार। ०प्रबन्ध, छन्दोबद्ध रचना।
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