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सर्गक्रमः
११६९
सर्वाङ्गीणं
० छोड़ना, परित्याग करना।
सर्पिन (वि०) [सृप+णिनि] रेंगने वाला, सरकने वाला। ० सृष्टि रचना।
सर्पिविधानम् (नपुं०) घृत क्रिया। (जयो०१० २/१४) ० अनुभाग, अंश। ० अध्याय, अध्ययन।
सर्पिस् (नपुं०) [सृप्त इसि] घी, धृत। (सुद० ७२) ० निर्माण (वीरो० ४/२०) क्रम।
सर्पिष्मत् (वि०) [सर्पिस्+मतुप्] घी युक्त, घृत युक्त। सर्गक्रमः (पुं०) सृष्टिक्रम, अनुक्रम।
सर्ब (सक०) जाना, पहुंचना। सर्गपरिणामः (पुं०) पर्यटन भाव। (जयो० १८/५५) सर्मः (पुं०) चाल. गति। स (सक०) अवाप्त करना. प्राप्त करना, उपलब्ध करना, ० आकाश। उपार्जन करना। (सुद० २/३६)
सर्व (सक०) चोट पहुंचाना, घायल करना। सर्जक (वि०) स्रष्टा (जयो०७० ७/३३)
सर्व (वि०) (सर्वनाम) सभी जगत्, सर्वत्र (जयो० २१/१७) सर्जः (पुं०) [सृज्+अच्] सालवृक्ष। (जयो० १४/१५)
सब, प्रत्येक। (जयो०१/२५) सर्जकः (पुं०) साल वृक्षा
० समस्त अवयव। (सुद० १/११) सर्जनम् (नपुं०) [सृ+ल्युट्] परित्याग, छोड़ना।
सर्वषः (पुं०) दुष्ट, दुर्जन। सर्जवृक्षः (पुं०) सालवृक्षा (जयो० १४/१५)
सर्वकांक्षा (वि०) सभी तरह की आकांक्षा। सर्जिका (वि०) [सर्जि+कन्+टाप्] सज्जीखार।
सर्वग (वि०) सर्वव्यापक। सर्जुः (पुं०) व्यापारी।
सर्वगत (वि०) व्यापक। (हित० १४) सर्पः (पुं०) [सृप्+घञ्] नाग, अहि, सांप, काद्रवेय (जयो० । सर्वगामिन् (वि०) सर्वव्यापक, पूर्ण व्याप्त, सभी जगह पहुंचने ११/९६) भुजंग। (दयो० २५/६९) (सुद० १०५) (सुद०
वाला। १/३०)
सर्वदेवमय (वि०) सबसे प्रमुख, देव युक्त। (दयो० १०६) ० खिसकना, गमन, अनुसरण।
सर्वदैव (अव्य०) सदा ही, हमेशा ही। (जयो०० १/४२) सर्पछत्रम् (नपुं०) कुकुरमुत्ता।
सर्वज्ञात (वि०) सब कुछ जानने वाला। (वीरो० २०/५) सर्पणम् (नपुं०) [सृप्+ल्युट्] रेंगना, सरकना।
सर्वज्ञ (वि०) सब कुछ जानने वाला। सकलज्ञ। (जयो०वृ० ० वक्रगति. कुटिलगति।
८1८८) अखिलार्थसाक्षात्कारी। (सम्य० ९५) लोकोलोक सर्पतृणः (पुं०) नेवला।
के समस्त पदार्थों को जानने वाला। सर्पदंश (वि०) भुजग भुक्त। (जयो०वृ० २५/६७)
० दोषवृत्ति रहित सर्व ज्ञापक। सर्पदंष्टः (पुं०) दर्प दांत।
सर्वज्ञः (पुं०) जिन, वीतराग प्रभ। विश्वभर. त्रिलोकनाथ। सर्पधारकः (पुं०) सपेरा।
मोहवर्जित सर्वज्ञः। (जयो०वृ० १६/९५) सर्पभुज् (पुं०) ० मयूर,
सर्वजित् (वि०) विजयी, विजेता, सर्वजयी। ० सारस।
सर्वपरिस्तवः (पुं०) सर्वज्ञस्तुति। (वीरो० १८/३०) ० अजगर।
सर्वज्ञचूडामणि (पुं०) वीरप्रभु। (वीरो० १२/५३) सर्पमणिः (पुं०) नागमणि।
सर्वज्ञजिनः (पुं०) वयोऽस्तु सर्वज्ञजिनस्यचेति-वीतराग प्रभु। सर्पराजः (पुं०) वासुकि।
(वीरो०१४/१७) ___० शेषनाग। (जयो०वृ० ११/३१)
सर्वज्ञदेवः (पुं०) जिनदेव। (मुनि० २९) सर्पसरोवरः (पुं०) सर्पस्थान। (जयो० २३/७१) . सर्वज्ञवाक् (नपुं०) सर्वज्ञ वचन। (मुनि० ३१) सर्वज्ञवाणी। सर्पशिरोलम् (नपुं०) नागमणि। (जयो०वृ० २/१६)
(भक्ति० १३) सर्पिणी (स्त्री०) [सृप्+णिनि+ङीप्] पन्नगी। (जयो०१० ३/५५) सर्वविद (वि०) सब कुछ जानने वाला। (जयो०वृ० १/१)
सांपनी, अहिनी, नागिन। भुजरीचरा (जयो० २०/६८) सर्वसात् (वि०) सकल जनादीन। (जयो० २/१३३) ० जड़ी, बूटी।
सर्वाङ्गसुंदर (वि०) अविकलित सुंदर। (जयो०१० २२/५) सर्पिन् (वि०) व्यापिन् । (जयो० ५/५७)
सर्वाङ्गीण (वि०) पूर्णतः, पूर्ण रूप से। (सुद० १०२)
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