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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सर्गक्रमः ११६९ सर्वाङ्गीणं ० छोड़ना, परित्याग करना। सर्पिन (वि०) [सृप+णिनि] रेंगने वाला, सरकने वाला। ० सृष्टि रचना। सर्पिविधानम् (नपुं०) घृत क्रिया। (जयो०१० २/१४) ० अनुभाग, अंश। ० अध्याय, अध्ययन। सर्पिस् (नपुं०) [सृप्त इसि] घी, धृत। (सुद० ७२) ० निर्माण (वीरो० ४/२०) क्रम। सर्पिष्मत् (वि०) [सर्पिस्+मतुप्] घी युक्त, घृत युक्त। सर्गक्रमः (पुं०) सृष्टिक्रम, अनुक्रम। सर्ब (सक०) जाना, पहुंचना। सर्गपरिणामः (पुं०) पर्यटन भाव। (जयो० १८/५५) सर्मः (पुं०) चाल. गति। स (सक०) अवाप्त करना. प्राप्त करना, उपलब्ध करना, ० आकाश। उपार्जन करना। (सुद० २/३६) सर्व (सक०) चोट पहुंचाना, घायल करना। सर्जक (वि०) स्रष्टा (जयो०७० ७/३३) सर्व (वि०) (सर्वनाम) सभी जगत्, सर्वत्र (जयो० २१/१७) सर्जः (पुं०) [सृज्+अच्] सालवृक्ष। (जयो० १४/१५) सब, प्रत्येक। (जयो०१/२५) सर्जकः (पुं०) साल वृक्षा ० समस्त अवयव। (सुद० १/११) सर्जनम् (नपुं०) [सृ+ल्युट्] परित्याग, छोड़ना। सर्वषः (पुं०) दुष्ट, दुर्जन। सर्जवृक्षः (पुं०) सालवृक्षा (जयो० १४/१५) सर्वकांक्षा (वि०) सभी तरह की आकांक्षा। सर्जिका (वि०) [सर्जि+कन्+टाप्] सज्जीखार। सर्वग (वि०) सर्वव्यापक। सर्जुः (पुं०) व्यापारी। सर्वगत (वि०) व्यापक। (हित० १४) सर्पः (पुं०) [सृप्+घञ्] नाग, अहि, सांप, काद्रवेय (जयो० । सर्वगामिन् (वि०) सर्वव्यापक, पूर्ण व्याप्त, सभी जगह पहुंचने ११/९६) भुजंग। (दयो० २५/६९) (सुद० १०५) (सुद० वाला। १/३०) सर्वदेवमय (वि०) सबसे प्रमुख, देव युक्त। (दयो० १०६) ० खिसकना, गमन, अनुसरण। सर्वदैव (अव्य०) सदा ही, हमेशा ही। (जयो०० १/४२) सर्पछत्रम् (नपुं०) कुकुरमुत्ता। सर्वज्ञात (वि०) सब कुछ जानने वाला। (वीरो० २०/५) सर्पणम् (नपुं०) [सृप्+ल्युट्] रेंगना, सरकना। सर्वज्ञ (वि०) सब कुछ जानने वाला। सकलज्ञ। (जयो०वृ० ० वक्रगति. कुटिलगति। ८1८८) अखिलार्थसाक्षात्कारी। (सम्य० ९५) लोकोलोक सर्पतृणः (पुं०) नेवला। के समस्त पदार्थों को जानने वाला। सर्पदंश (वि०) भुजग भुक्त। (जयो०वृ० २५/६७) ० दोषवृत्ति रहित सर्व ज्ञापक। सर्पदंष्टः (पुं०) दर्प दांत। सर्वज्ञः (पुं०) जिन, वीतराग प्रभ। विश्वभर. त्रिलोकनाथ। सर्पधारकः (पुं०) सपेरा। मोहवर्जित सर्वज्ञः। (जयो०वृ० १६/९५) सर्पभुज् (पुं०) ० मयूर, सर्वजित् (वि०) विजयी, विजेता, सर्वजयी। ० सारस। सर्वपरिस्तवः (पुं०) सर्वज्ञस्तुति। (वीरो० १८/३०) ० अजगर। सर्वज्ञचूडामणि (पुं०) वीरप्रभु। (वीरो० १२/५३) सर्पमणिः (पुं०) नागमणि। सर्वज्ञजिनः (पुं०) वयोऽस्तु सर्वज्ञजिनस्यचेति-वीतराग प्रभु। सर्पराजः (पुं०) वासुकि। (वीरो०१४/१७) ___० शेषनाग। (जयो०वृ० ११/३१) सर्वज्ञदेवः (पुं०) जिनदेव। (मुनि० २९) सर्पसरोवरः (पुं०) सर्पस्थान। (जयो० २३/७१) . सर्वज्ञवाक् (नपुं०) सर्वज्ञ वचन। (मुनि० ३१) सर्वज्ञवाणी। सर्पशिरोलम् (नपुं०) नागमणि। (जयो०वृ० २/१६) (भक्ति० १३) सर्पिणी (स्त्री०) [सृप्+णिनि+ङीप्] पन्नगी। (जयो०१० ३/५५) सर्वविद (वि०) सब कुछ जानने वाला। (जयो०वृ० १/१) सांपनी, अहिनी, नागिन। भुजरीचरा (जयो० २०/६८) सर्वसात् (वि०) सकल जनादीन। (जयो० २/१३३) ० जड़ी, बूटी। सर्वाङ्गसुंदर (वि०) अविकलित सुंदर। (जयो०१० २२/५) सर्पिन् (वि०) व्यापिन् । (जयो० ५/५७) सर्वाङ्गीण (वि०) पूर्णतः, पूर्ण रूप से। (सुद० १०२) For Private and Personal Use Only
SR No.020131
Book TitleBruhad Sanskrit Hindi Shabda Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherNew Bharatiya Book Corporation
Publication Year2006
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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