Book Title: Agam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Part 06
Author(s): Bhadrabahuswami, Chaturvijay, Punyavijay
Publisher: Atmanand Jain Sabha
Catalog link: https://jainqq.org/explore/002515/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || अहम् ।। श्री आत्मानन्द-जैन-ग्रन्थरलमाला-रत्नम् ९ नियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्युपेत बृहत् कल्पसूत्रम् षष्ठो विभागः : प्रकाशक श्री जैन आत्मानन्द सभा खारगेट, भावनगर-३६४००१ (सौ.)। DOATSATTARToKATRA Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआत्मानन्द-जैनग्रन्थरलमालायाः नवतितम रलम् (९०) स्थविर-आर्यभद्रबाहुस्वामिप्रणीतस्वोपज्ञनिर्युक्तयुपेतं बृहत् कल्पसूत्रम् श्री सङ्घदासगणिक्षमाश्रमणसङ्कलितभाष्योपबृंहितम् । जैनागम-प्रकरणाधनेकग्रन्थातिगूढार्थप्रकटनप्रौढटीकाविधानसमुपलब्ध ‘समर्थटीकाकारे'तिख्यातिभिः श्रीमद्भिर्मलयगिरिसूरिभिः प्रारब्धया वृद्धपोशालिकतपागच्छीयैः श्रीक्षेमकीर्त्याचार्यैः पूर्णीकृतया च वृत्त्या समलङ्कृतम् । तस्याय षष्ठो विभागः षष्ट उद्देशः समग्रग्रन्थसत्कत्रयोदशपरिशिष्टप्रभृतिभिरलङ्कृतश्च तत्सम्पादकौसकलागमपरमार्थप्रपञ्चप्रवीण-बृहत्तपागच्छान्तर्गतसंविग्नशाखीय-आद्याचार्यन्यायाम्भोनिधि-श्रीमद्विजयानन्दसूरीश (प्रसिद्धनामश्रीआत्मारामजी महाराज) शिष्यरत्नप्रवर्तक-श्रीमत्कान्तिविजयमुनिपुङ्गवानां शिष्य-प्रशिष्यौ चतुरविजय-पुण्यविजयौ । प्रकाशं प्रापयित्रीभावनगरस्था श्रीजैन-आत्मानन्दसभा । प्रथम आवृत्ति : वीर संवत २४६८, ईस्वीसन - १९४२, विक्रम संवत १९९८, आत्मसंवत ४६, प्रत - ५०० द्वितीय आवृत्ति : वीर संवत २५२८, ईस्वीसन - २००२, विक्रम संवत २०५८, आत्मसंवत १०५, प्रत - ६०० Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक : बृहत् कल्पसूत्रम् । मूल्य : रू. २५०/ प्रकाशक : " प्रमोदकांत खीमचंद शाह - प्रमुख श्री जैन आत्मानंद सभा भावनगर - ३६४ ००१.० धन्य भक्ति धन्य दाता * दादर जैन पौषधशाला ट्रस्ट आराधना भवन, दादर, मुंबई श्री हीरसूरीश्वरजी जगद्गुरु श्वे. मू. पू. तप. जैन संघ ट्रस्ट, मलाड, मुंबई * गोवालिया टेंक जैन संघ, मुंबई सारंगपुर तळीयानी पोळ जैन संघ, अहमदाबाद PRINTERS Tejas Printers 403, Vimal Vihar Apartment, 22, Saraswati Society, Nr. Jain Merchant Society, Paldi, AHMEDABAD - 380 007. Ph.: (079) 6601045 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (अर्पण) जैन छेद आगमोना प्रकाशननी महत्ताने समजनार अने ए आगमोना गम्भीर रहस्योने उकेलनार विद्वान् मुनिगणना करकमलमां लि. मुनि चतुरविजय तथा मुनि पुन्यविजय Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्पण सतत ज्ञानोपासना ए जेमनुं प्रिय जीवनसूत्र छे, प्राचीन जैन साहित्य, आगमो अने पुरातन लिपि ज्ञानना एक सिद्धहस्त संशोधक तरीके जेमनी ख्याति भारतवर्ष अने विदेशमां जैन - जैनेतर विद्वानोमा सुप्रसिद्ध छे. हस्त लिखित प्राचीन भंडारोनो उद्धार ए जेमनो प्रिय व्यवसाय छे, जैन दर्शनना प्राण समा आगमसाहित्य ना अपूर्व संशोधन माटे जेओ श्री निरंतर भगीरथ प्रयत्न करी रह्या छे अने ताजेतरमा ज अविश्रान्त श्रमपूर्वक जेसलमेरना प्राचीन जैन आगम, साहित्य भंडारोनो अद्यतन शैलिए उद्धार करी जेओए ज्ञानी महामूली सेवा बजावी छे; तेमज आ सभा तरफथी प्रकाशन पामेला वसुदेव हिन्दी आदि अनेक अपूर्व प्राकृत- संस्कृत साहित्य ग्रंथोना संशोधन संपादन वगेरे कार्यो करी जेओ आ सभा उपर अनुपम महान उपकार करी रह्या छे, ते परम कृपाळु गुरुदेव श्री पुण्यविजयजी महाराजना करकमळमां तेओ श्रीना ज श्रमथी सर्जायेल आ बृहत् कल्पसूत्र छट्टो विभाग ग्रंथ समर्पण करतां अमो कृतज्ञतानो अपूर्व आनंद अनुभवीए छीये. श्री आत्मकान्ति ज्ञानमंदिर (श्री आत्मानंद भवन) सं० २००९, ज्ञानपंचमी. सदानी आभारी श्री जैन आत्मानंद सभा, भावनगर. Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જૈન શાસ્ત્રોના મહાના ઉદ્ધારક, સંશોધક, સાક્ષરશિરોમણિ પૂજ્ય મુનિરાજશ્રી પુણ્યવિજયજી મહારાજ. (જે મહાપુરૂષે જેસલમેરના પ્રાચીન જ્ઞાનભંડારોનો અનુપમ ઉદ્ધાર, સંરક્ષણ, વ્યવસ્થા વગેરે કરી જૈન સમાજ ઉપર મહાન ઉપકાર કર્યો છે.) Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ઉનલણાવતા શિવમસ્તુ સર્વજગતઃ ચરમ તીર્થપતિ શ્રી મહાવીરવામિને નમઃ શ્રી આત્મ-વલ્લભસૂરીશ્વરજી ગુરુભ્યો નમ: પૂ. પ્રવર્તક મુનિરાજ શ્રી કાંતિવિજયજી મ. સાહેબનાં શિષ્ય પ્રશિષ્ય પૂ. મુનિરાજ શ્રી ચતુરવિજયજી મ. તથા પૂ. મુનિરાજ શ્રી પુણ્યવિજયજી મહારાજે આજથી ૬૯ વર્ષ પહેલાં પૂર્ણ કાળજીથી સંપાદન કરેલ બૃહત્ કલ્પસૂત્રનાં ભાગ ૧ થી ૬ અમારી સંસ્થાએ છપાવેલ તે ઘણાં વખતથી અપ્રાપ્ય હતા. તેનું પુનર્મુદ્રણ પૂજ્યોની કૃપાથી અનેક સંઘોનાં સહકારથી અમે કરી રહ્યાં છીએ તેનો અમને અપૂર્વ આનંદ છે. બૃહત્ કલ્પસૂત્રની આ આવૃતિમાં દરેક ભાગમાં જે શુદ્ધિ પત્રક હતું તે અને છઠ્ઠા ભાગમાં છ એ ભાગનું શુદ્ધિપત્રક હતું. તે બંને શુદ્ધિપત્રકની શુદ્ધિઓ ઉમેરી છે. ઉપરાંત, પ્રથમ આવૃતિ પ્રગટ થયા પછી આગમ પ્રભાકર મુનિ શ્રી પુણ્યવિજયજીએ અન્ય હસ્તપ્રતોના આધારે છાપેલી નકલમાં જ અનેક સ્થળોએ શુદ્ધિવૃદ્ધિ કરી હતી તે નકલો અમદાવાદ સ્થિત લાલભાઈ દલપતભાઈ ભારતીય સંસ્કૃતિ વિદ્યામંદિરમાં સુરક્ષિત છે તેના આધારે પણ અહીં શુદ્ધિ પત્રક ઉમેરવામાં આવ્યું છે. તેથી જિજ્ઞાસુઓને અધ્યયનમાં સરળતા રહેશે. શુદ્ધિવૃદ્ધિયુક્ત નકલો ઉપલબ્ધ કરાવી આપવા બદલ અમે ઉપર્યુક્ત સંસ્થાના આભારી છીએ. આ ગ્રંથનાં વાચનથી પૂજ્યો સંયમમાર્ગનાં વધુ જાણકાર બને અને મુક્તિપંથમાં આગળ વધે એ જ પ્રાર્થના. • શ્રી જેન આત્માનંદ સભા ભાવનગર Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पसूत्रसंशोधनकृते सङ्ग्रहीतानां प्रतीनां सङ्केताः । भा० पत्तनस्थभाभापाटकसत्कचित्कोशीया प्रतिः । डे० अमदावादडेलाउपाश्रयभाण्डागारसत्का प्रतिः। मो० पतनान्तर्गतमोंकामोदीभाण्डागारसत्का प्रतिः । ले० पत्तनसागरगच्छोपाश्रयगतलेहेरुवकीलसत्कज्ञानकोशगता प्रतिः । कां० प्रवर्तकश्रीमत्कान्तिविजयसत्का प्रतिः । तामू० पत्तनीयश्रीसङ्घभाण्डागारसत्का ताडपत्रीया मूलसूत्रप्रतिः । ताटी० पत्तनीयश्रीसङ्घभाण्डागारसत्का ताडपत्रीया टीकाप्रतिः । ताभा० पत्तनीयश्रीसङ्घभाण्डागारसत्का ताडपत्रीया भाष्यप्रतिः। प्रकाश्यमानेऽस्मिन् ग्रन्थेऽस्माभिर्येऽशुद्धाः पाठाः प्रतिषूपलब्धास्तेऽसत्कल्पनया संशोध्य ( ) एताहग्वृत्तकोष्ठकान्तः स्थापिताः सन्ति, दृश्यतां पृष्ठ १० पति २६, पृ० १७ ५ ३०, पृ० २५ पं० १२, पृ० ३१ पं० १७, पृ० ४० पं० २४ इत्यादि । ये चास्माभिर्गलिताः पाठाः सम्भावितास्ते [ ] एतादृक्चतुरस्रकोष्ठकान्तः परिपूरिताः सन्ति, दृश्यतां पृष्ठ ३ पंक्ति ९, पृ० १५५० ६, पृ० २८ पं० ५, पृ० ४९ पं० २६ इत्यादि । Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुयो ० आचा० श्रु० अ० उ० आव० हारि० वृत्तौ आव० नि० गा० आव० निर्यु० गा० आव० मू० भा० गा० उ० सू० उत्त० अ० गा० ओघनि० गा० कल्पबृहद्भाष्य गा० चूर्णि जीत० भा० गा० तत्त्वार्थ० दश० अ० उ० गा० दश० अ० गा० दशवै० अ० गा० दश० चू० गा० देवेन्द्र० गा० नाट्यशा० पञ्चव० गा० पिण्डनि० गा० टीकाकृताऽस्माभिर्वा निर्दिष्टानामवतरणानां स्थानदर्शकाः सङ्केताः । प्रज्ञा० पद प्रशम० आ० मल० महानि० अ० विशे० गा० विशेषचूर्णि य० भा० पी० गा० यव० उ० भा० गा० ७ अनुयोगद्वारसूत्र आचाराङ्गसूत्र श्रुतस्कन्ध अध्ययन उद्देश आवश्यकसूत्र हारिभद्रीयवृत्तौ आवश्यकसूत्र निर्युक्ति गाथा आवश्यकसूत्र मूलभाष्य गाथा उद्देश सूत्र उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन गाथा नियुक्ति गाथा बृहत्कल्पबृहद्भाष्य गाथा बृहत्कल्पचूर्णि जीतकल्पभाष्य गाथा तत्त्वार्थाधिगमसूत्राणि दशवैकालिकसूत्र अध्ययन उद्देश गाथा दशवैकालिकसूत्र अध्ययन गाथा दशवैकालिकसूत्र चूलिका गाथा' देवेन्द्र-नरकेन्द्रप्रकरणगत देवेन्द्रप्रकरण गाथा भरतनाट्यशास्त्रम् पञ्चवस्तुक गाथा पिण्डनिर्युक्ति गाथा प्रज्ञापनोपाङ्गसटीक पद प्रशमरति आर्या मलयगिरीया टीका महानिशीथसूत्र अध्ययन विशेषावश्यकमहाभाष्य गाथा बृहत्कल्पविशेषचूर्णि व्यवहारसूत्र भाष्य पीठिका गाथा व्यवहारसूत्र उद्देश भाष्य गाथा Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श० उ० शतक उद्देश श्रु० अ० उ० श्रुतस्कन्ध अध्ययन उद्देश सि० । सिद्ध सिद्धहेमशब्दानुशासन सि० हे० औ० सू० सिद्धहेमशब्दानुशासन औणादिक सूत्र हैमाने० द्विख० हैमानेकार्थसङ्ग्रह द्विखरकाण्ड .. ___ यत्र टीकाकृम्रिन्थाभिधानादिकं निर्दिष्टं स्यात् तत्रास्माभिरुल्लिखितं श्रुतस्कन्ध-अध्ययन-उद्देश-गाथादिकं स्थानं तत्तद्वन्थसत्कं ज्ञेयम् , यथा पृष्ठ १५ पं० ९ इत्यादि । यत्र च तन्नोल्लिखितं भवेत् तत्र सामान्यतया सूचितमुद्देशादिकं स्थानमेतत्प्रकाश्यमानबृहत्कल्पसूत्रग्रन्थसत्कमेव ज्ञेयम् , यथा पृष्ठ २ पंक्ति २-३-४ पृ० ५ ५० ३, पृ० ८ पं० २७, पृ० ११ पं० २७, पृ० ६७ पं० १२ इत्यादि । प्रमाणत्वेनोद्धृतानां प्रमाणानां स्थानदर्शक ग्रन्थानां प्रतिकृतयः। . शेठ देवचन्द लालमाई जैन पुस्खकोद्धार फंड सुरत। रतलाम श्रीऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था । शेठ देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फण्ड सुरत । आगमोदय समिति। रतलाम श्रीऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था । आगमोदय समिति । अनुयोगद्वारसूत्रअनुयोगद्वारसूत्र चूर्णीअनुयोगद्वारसूत्र सटीक (मलधारीया टीका) 5 आचारागसूत्र सटीकआवश्यकसूत्र चूर्णी. आवश्यकसूत्र सटीक (श्रीमलयगिरिकृत टीका) - आवश्यकसूत्र सटीक (आचार्य श्रीहरिभद्रकृत टीका) आवश्यक नियुक्तिओघनियुक्ति सटीककल्पचूर्णिकल्पबृहद्भाष्यकल्पविशेषचूर्णिकल्प-व्यवहार-निशीथसूत्राणि आगमोदय समिति । आगमोदय समिति प्रकाशित हारिभद्रीय टीकागत । आगमोदय समिति हस्तलिखित । जैनसाहित्यसंशोधक समिति । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवाभिगमसूत्र सटीक- दशवकालिक नियुक्ति टीका सह- दशाश्रुतस्कन्ध अष्टमाध्ययन । (कल्पसूत्र) देवेन्द्रनरकेन्द्र प्रकरण सटीकनन्दीसूत्र सटीक ? (मलयगिरिकृत टीका) नाट्यशास्त्रम्निशीथचूर्णिपिण्डनियुक्तिप्रज्ञापनोपाङ्ग सटीकबृहत्कर्मविपाकमहानिशीथसूत्रराजप्रश्नीय सटीकविपाकसूत्र सटीकविशेषणवतीविशेषावश्यक सटीकव्यवहारसूत्रनियुक्ति भाष्य टीकासिद्धप्रामृत सटीकसिद्धहेमशब्दानुशासनसिद्धान्तविचारसूत्रकृताङ्ग सटीकस्थानान्सूत्र सटीक आगमोदय समिति । शेठ देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फण्ड सुरत । शेठ देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फंड सुरत । श्रीजैन आत्मानन्दसभा भावनगर । आगमोदय समिति । निर्णयसागर प्रेस मुंबई। हस्तलिखित । शेठ देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फंड सुरत । आगमोदय समिति । श्रीजैन आत्मानन्द सभा भावनगर । हस्तलिखित । आगमोदय समिति । रतलाम श्रीऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था । श्रीयशोविजय जैन पाठशाला बनारस । श्रीमाणेकमुनिजी सम्पादित । श्रीजैन आत्मानन्द सभा भावनगर । शेठ मनसुखभाई भगुभाई अमदावाद । हस्तलिखित । आगमोदय समिति। ___ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० Rocomoso । Writes अर्हम् २0000000000 "0000coooor 'CEODOOOD 0000000mmmm.-- १ प्रातःस्मरणीय गुणगुरु पुण्यधाम पूज्य गुरुदेवनुं हार्दिक पूजन 000000000000000mmomooooooommeronment 08:mmmmon पूज्यपाद प्रातःस्मरणीय गुणभंडार पुण्यनाम अने पुण्यधाम तथा श्रीआत्मानंद जैन ग्रन्थरत्नमालाना उत्पादक, संशोधक अने सम्पादक गुरुदेव श्री १००८ श्रीचतुरविजयजी महाराज वि. सं. १९९६ ना कार्तिक वदि ५नी पाछली रात्रे परलोकवासी थया छे, ए समाचार जाणी प्रत्येक गुणग्राही साहित्यरसिक विद्वानने दुःख थया सिवाय नहि ज रहे। ते छतां ए वात निर्विवाद छे के-जगतना ए अटल नियमना अपवादरूप कोई पण पाणधारी नथी। आ स्थितिमा विज्ञानवान् सत्पुरुषो पोताना अनित्य जीवनमा तेमनाथी बने तेटलां सत्कार्यों करवामां परायण रही पोतानी आसपास वसनार महानुभाव अनुयायी वर्गने विशिष्ट मार्ग चिंधता जाय छे । पूज्यपाद गुरुदेवना जीवन साथे स्वगुरुचरणवास, शास्त्रसंशोधन अने ज्ञानोद्धार ए वस्तुओ एकरूपे वाई गई हती । पोताना लगभग पचास वर्ष जेटला चिर प्रव्रज्यापर्यायमा अपवादरूप,-अने ते पण सकारण,-वर्षो बाद करीए तो आखी जिंदगी तेओश्रीए गुरुचरणसेवामांज गाळी छे । ग्रंथमुद्रणना युग पहेलां तेमणे संख्याबंध शास्त्रोना लखवा-लखाववामा अने संशोधनमां वर्षों गाळ्यां छे । पाटण, वडोदरा, लींबडी आदिना विशाळ ज्ञानभंडारोना उद्धार अने तेने सुरक्षित तेम ज सुव्यवस्थित करवा पाछळ वर्षो सुधी श्रम उठाव्यो छे । श्रीआत्मानंद जैन प्रन्थरत्नमाळानी तेमणे बराबर त्रीस वर्ष पर्यंत अप्रमत्तभावे सेवा करी छ । आ. जै. प्र. र. मा.ना तो तेओश्री आत्मस्वरूप ज हता । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ पूज्यपाद गुरुदेवना जीवन साथे छगडानो खूब ज मेळ रह्यो छे । अने ए अंकथी अंकित वर्षोमां तेमणे विशिष्ट कार्यो साध्यां छे। तेओश्रीनो जन्म वि. सं. १९२६मां थयो छे, दीक्षा १९४६ मां लीधी छे, (हुं जो भूलतो न होउं तो) पाटणना जैन भंडारोनी सुव्यवस्थानुं कार्य १९५६ मां हाथ धयुं हतुं, " श्रीआत्मानंद जैन ग्रन्थरत्नमाला" ना प्रकाशननी शरुआत १९६६ मा करी हती अने सतत कर्तव्यपरायण अप्रमत्त आदर्शभूत संयमी जीवन वीतावी १९९६ मा तेओश्रीए परलोकवास साध्यो छे । अस्तु, हवे पूज्यपाद गुरुदेव श्रीमान् चतुरविजयजी महाराजनी इंक जीवनरेखा विद्वानोने जरूर रसप्रद थशे, एम मानी कोई पण जातनी अतिशयोक्तिनो ओप आप्या सिवाय ए अहीं तद्दन सादी भाषामां दोरवामां आवे छे। जन्म-पूज्यपाद गुरुदेवनो जन्म वडोदरा पासे आवेल छाणी गाममा वि. सं. १९२६ ना चैत्र शुदि १ ने दिवसे थयो हतो। तेमनुं पोतानुं धन्य नाम भाई चुनीलाल राखवामां आव्युं हतुं । तेमना पितानुं नाम मलुकचंद अने मातानुं नाम जमनाबाई हतुं । तेमनी ज्ञाति वीशापोरवाड हती। तेओ पोता साथे चार भाई हता अने त्रण बहेनो हती । तेमनुं कुटुंब घपुंज खानदान हतुं । गृहस्थपणानो तेमनो अभ्यास ते जमाना प्रमाणे गूजराती सात चोपडीओ जेटलो हतो । व्यापारादिमां उपयोगी हिसाब आदि बाबतोमां तेओश्री हुशियार गणाता हता। धर्मसंस्कार अने प्रवज्या-छाणी गाम स्वाभाविक रीतेज धार्मिकसंस्कारप्रधान क्षेत्र होई भाई श्रीचुनीलालमां धार्मिक संस्कार प्रथमथी ज हता अने तेथी तेमणे प्रतिक्रमणसूत्रादिने लगतो योग्य अभ्यास पण प्रथमी ज को हतो। छाणी क्षेत्रनी जैन जनता अतिभावुक होई त्यां साधु-साध्वीओ- आगमन अने तेमना उपदेशादिने लीधे लोकोमा धार्मिक संस्कार हम्मेशां पोषाता ज रहेता । ए रीते भाई श्रीचुनीलालमां पण धर्मना दृढ संस्कारो पड्या हता। जेने परिणामे पूज्यपाद प्रातःस्मरणीय अनेकगुणगणनिवास शान्तजीवी परमगुरुदेव श्री १००८ श्रीप्रवर्तकजी महाराज श्रीकान्तिविजयजी महाराजश्रीनो संयोग थतां तेमना प्रभावसम्पन्न प्रतापी वरद शुभ हस्ते तेमणे डभोई गाममां वि. सं. १९४६ना. जेठ वदि १० ने दिवसे शिष्य तरीके प्रव्रज्या अंगीकार करी अने तेमर्नु शुभ नाम मुनि श्रीचतुरविजयजी राखवामां आव्युं । विहार अने अभ्यास-दीक्षा लीधा पछी तेमनो विहार पूज्यपाद गुरुदेव श्रीप्रवर्तकजी महाराज साथे पंजाब तरफ थतो रह्यो अने ते साथे क्रमे क्रमे अभ्यास पण आगळ वधतो रयो। शरुआतमा साधुयोग्य आवश्यकक्रियासूत्रो अने जीवविचार आदि प्रकरणोनो अभ्यास कों। ते वखते पंजाबमां अने खास करी ते जमानाना साधुवर्गमां व्याकरणमा मुख्यत्वे Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ सारस्वत पूर्वार्ध अने चन्द्रिका उत्तरार्धनो प्रचार हतो ते मुजब तेओश्रीए तेनो अभ्यास कर्यो. अने ते साथ काव्य, वाग्भटालंकार, श्रुतबोध आदिनो पण अभ्यास करी लीधो । आ रीते अभ्यासमां ठीक ठीक प्रगति अने प्रवेश थया बाद पूर्वाचार्यकृत संख्याबन्ध शास्त्रीय प्रकरणो - जे जैन आगमना प्रवेशद्वार समान छे, -नो अभ्यास कर्यो । अने तर्कसंग्रह तथा मुक्तावलीनुं पण आ दरम्यान अध्ययन कर्यु । आ रीते क्रमिक सजीव अभ्यास अने विहार बन्ने य कार्य एक साथे चालतां रद्यां । उपर जणाववामां आव्युं तेम पूज्यपाद गुरुदेव श्रीचतुरविजयजी महाराज कमे क्रमे सजीव अभ्यास थया पछी ज्यां ज्यां प्रसंग मळ्यो त्यां त्यां ते ते विद्वान् मुनिवरादि पासे तेम ज पोतानी मेळे पण शास्त्रोनुं अध्ययन वाचन करता रहा । भगवान् श्री हेमचन्द्राचार्ये कधुं छे के - " अभ्यासो हि कर्मसु कौशलमावहति " ए मुजब पूज्यवर श्रीगुरुदेव शास्त्रीय वगेरे विषयमा आगळ वधता गया अने अनुक्रमे कोईनीये मदद सिवाय स्वतंत्र रीते महान् शास्त्रोनो अभ्यास प्रवर्त्तवा लाग्यो । जेना फलरूपे आपणे " आत्मानंद जैन ग्रन्थरत्नमाला " ने आजे जोई शकीए छीए । - शास्त्रलेखन अने संग्रह — विश्वविख्यातकीर्ति पुनीतनामधेय पंजाब देशोद्धारक न्यायांभोनिधि जैनाचार्य श्री विजयानंदमूरियरनी अवर्णनीय अने अखूट ज्ञानगंगाना प्रवाहनो वारसो एमनी विशाळ शिष्यसंपत्तिमां निराबाध रीते वहेतो रह्यो छे । ए कारणसर पूज्यप्रवर प्रातःस्मरणीय प्रभावपूर्ण परमगुरुदेव प्रवर्तकजी महाराजश्री १००८ श्रीकान्तिविजयजी महाराजश्रीमां पण ए ज्ञानगंगानो निर्मळ प्रवाह सतत् जीवतो वहेतो रह्यो छे । जेना प्रतापे स्थान स्थानना ज्ञानभंडारोमांत्री श्रेष्ठ श्रेष्ठतम शास्त्रोनुं लेखन, तेनो संग्रह अने अध्ययन आदि चिरकाळथी चालु हतां अने आज पर्यंत पण ए प्रवाह अविच्छिन्नपणे चालु ज छे । उपर जणावेल शास्त्रलेखन अने संग्रहविषयक सम्पूर्ण प्रवृत्ति पूज्यपाद गुरुवर श्रीचतुरविजयजी महाराजना सूक्ष्म परीक्षण अने अभिप्रायने अनुसरीने ज हम्मेशां चालु रह्यां तां । पुण्यनामधेय पूज्यपाद श्री १००८ श्रीप्रवर्त्तकजी महाराजे स्थापन करेला वडोदरा अने छाणीना जैन ज्ञानमंदिरोमांना तेओश्रीना विशाळ ज्ञानभंडारोनुं बारीकाईथी अवलोकन करनार एटलं समजी शकशे के, ए शास्त्रलेखन अने संग्रह केटली सूक्ष्म परीक्षापूर्वक करवामां आव्यो छे अने ते केवा अने केटला वैविध्यथी भरपूर छे । शास्त्रलेखन एशी वस्तु छे ए बाबतनो वास्तविक ख्याल एकाएक कोईने य नहि आवे । ए बाबतमां भलभला विद्वान् गणाता माणसो पण केवां गोथां खाई बेसे छे एनो ख्याक प्राचीन Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ ज्ञानभंडारोमांना अमुक अमुक पुस्तको तेम ज गायकवाड ओरिएन्टल इन्स्टीट्युट आदिमांना नवां लखाएल पुस्तको जोवाथी ज आवी शके छे । खरुं जोतां शास्त्रलेखन ए वस्तु छ के-तेने माटे जेम महत्त्वना उपयोगी ग्रंथोर्नु पृथक्करण अति झीणवटपूर्वक करवामां आवे एटली ज बारीकाईथी पुस्तकने लखनार लहियाओ, तेमनी लिपि, ग्रंथ लखवा माटेना कागळो, शाही, कलम, वगेरे दरेके दरेक वस्तु केवी होवी जोईए एनी परीक्षा अने तपासने पण ए मागी ले छे । ज्यारे उपरोक्त बायतोनी खरेखरी जाणकारी नथी होती त्यारे घणीवार एवं बने छे केलेखको ग्रंथनी लिपिने बराबर उकेली शके छे के नहि ! तेओ शुद्ध लखनारा छे के भूलो करनारा वधारनारा छे ! तेओ लखतां लखतां वचमाथी पाठो छूटी जाय तेम लखनारा छे के केवा छे ! इरादापूर्वक गोटाळो करनारा छे के केम ! तेमनी लिपि सुंदर छे के नहिं ! एक सरखी रीते पुस्तक लखनारा छे के लिपिमां गोटाळो करनारा छे ! इत्यादि परीक्षा कर्या सिवाय पुस्तको लखाववाथी पुस्तको अशुद्ध, भ्रमपूर्ण अने खराब लखाय छ। आ उपरांत पुस्तको लखाववा माटेना कागळो, शाही, कलम वगेरे लेखननां विविध साधनो केवां होवां जोईए एनी माहिती न होय तो परिणाम ए आवे छे के--सारामां सारी पद्धतिए लखाएलां शास्त्रोपुस्तको अल्प काळमां ज नाश पामी जाय छे । केटलीक वार तो पांचपचीस वर्षमां ज ए ग्रंथो मृत्युना मोमां जई पडे छे। पूज्यपाद गुरुवर्यश्री उपरोक्त शास्त्रलेखनविषयक प्रत्येक बाबतनी झीणवटने पूर्णपणे समजी शकता हता एटलं ज नहि, पण तेओश्रीना हस्ताक्षरो एटला सुंदर हता अने एवी सुंदर अने स्वच्छ पद्धतिए तेओ पुस्तको लखी शकता हता के-भलभला लेखकोने पण आंटी नाखे । ए ज कारण हतुं के, गमे तेवा लेखक उपर तेमनो प्रभाव पडतो हतो अने गमे तेवा लेखकनी लिपिमांथी तेओश्री कांई ने कांई वास्तविक खांचखंच काढता ज । पूज्यपाद गुरुदेवनी पवित्र अने प्रभावयुक्त छाया तळे एकी साथे त्रीस त्रीस, चालीस चालीस लहियाओ पुस्तको लखवानुं काम करता हता। तेओश्रीना हाथ नीचे काम करनार लेखकोनी सर्वत्र साधुसमुदायमा किम्मत अंकाती हती। ढूंकामां एम कहेवू पडशे के जेम तेओश्री शास्त्रलेखन अने संग्रह माटेना महत्त्वना ग्रंथोनो विभाग करवामां निष्णात हता, ए ज रीते तेओश्री लेखनकलाना तलस्पर्शी हार्दने समजवामां अने पारखवामां पण हता। पूज्यपाद गुरुवरनी पवित्र चरणछायामां रही तेमना चिरकालीन लेखनविषयक अनुभवोने Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाणीने अने संग्रहीने ज हुं मारो "भारतीय जैन श्रमणसंस्कृति अने लेखनकला" नामनो ग्रंथ लखी शक्यो छु । खरुं जोतां ए ग्रंथलेखननो पूर्ण यश पूज्य गुरुदेवश्रीने ज घटे छ । शास्त्रसंशोधन-पूज्यपाद गुरुवरश्रीए श्रीप्रवर्तकजी महाराजश्रीना शास्त्रसंग्रहमांना नवा लखावेल अने प्राचीन ग्रंथो पैकी संख्याबंध महत्त्वना ग्रंथो अनेकानेक प्राचीन प्रत्यन्तरो साथे सरखावीने सुधार्या छ । जेम पूज्य गुरुदेव लेखनकळाना रहस्यने बराबर समजता हता एज रीते संशोधनकळामां पण तेओश्री पारंगत हता। संशोधनकळा, तेने माटेनां साधनो, संकेतो वगेरे प्रत्येक वस्तुने तेओश्री पूर्ण रीते जाणता हता । एमना संशोधनकळाने लगता पांडित्य अने अनुभवना परिपाकने आपणे तेओश्रीए संपादित करेल श्रीआत्मानंद-जैनअन्थरत्नमाळामा प्रत्यक्षपणे जोई शकीए छीए । जैन ज्ञानभंडारोनो उद्धार-पाटणना विशाळ जैन ज्ञानभंडारो एक काळे अति अव्यवस्थित दशामां पड्या हता। ए भंडारोनुं दर्शन पण एकंदर दुर्लभ ज हतुं, एमांथी वाचन, अध्ययन, संशोधन आदि माटे पुस्तको मेळववां अति दुष्कर हतां, एनी टीपो-लीस्टो पण बराबर जोईए तेवी माहिती आपनारां न हतां अने ए भंडारो लगभग जोईए तेवी सुरक्षित अने सुव्यवस्थित दशामां न हता। ए समये पूज्यपाद प्रवर्तकजी महाराज श्रीकान्तिविजयजी (मारा पूज्य गुरुदेव) श्रीचतुरविजयजी महाराजादि शिष्यपरिवार साथे पाटण पधार्या अने पाटणना ज्ञानभंडारोनी व्यवस्था करवा माटे कार्यवाहकोनो विश्वास संपादन करी ए ज्ञानभंडारोना सार्वत्रिक उद्धार- काम हाथ धर्यु अने ए कार्यने सर्वांगपूर्ण बनाववा शक्य सर्व प्रयत्नो पूज्यपाद श्रीप्रवर्तकजी महाराजश्रीए अने पूज्य गुरुदेव श्रीचतुरविजयजी महाराजश्रीए कर्या । आ व्यवस्थामा बौद्धिक अने श्रमजन्य कार्य करवामां पूज्यपाद गुरुदेवनो अकल्प्य फाळो होवा छतां पोते गुप्त रही ज्ञानभंडारना उद्धारनो संपूर्ण यशः तेओश्रीए श्रीगुरुचरणे ज समर्पित कर्यो छे । लीम्बडी श्रीसंघना विशाळ ज्ञानभंडारनी तथा वडोदरा-छाणीमा स्थापन करेल पूज्यपाद श्रीप्रवर्तकजी महाराजश्रीना अतिविशाळ ज्ञानभंडारोनी सर्वांगपूर्ण सुव्यवस्था पूज्य गुरुवरे एकले हाथे ज करी छे । आ उपरांत पूज्यप्रवर शान्तमूर्ति महाराजश्री १००८ श्रीहंसविजयजी महाराजश्रीना वडोदरामांना विशाळ ज्ञानभंडारनी व्यवस्थामां पण तेमनी महान् मदद हती। श्रीआत्मानंद जैन ग्रन्थरत्नमाला-पूज्य श्रीगुरुश्रीए जेम पोताना जीवनमां जैन ज्ञानभंडारोनो उद्धार, शास्त्रलेखन अने शास्त्रसंशोधनने लगतां महान् कार्यो कर्या छे ए ज रीते तेमणे श्रीआ. जै. ग्रं. र. मा.ना सम्पादन अने संशोधन- महान् कार्य पण हाथ धर्यु हतुं । Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ आ ग्रंथमाळा आज सुधीमां बधा मळीने विविध विषयने लगता नाना मोटा महत्वना नेवुं ग्रंथ प्रकाशित थया छे, जेमांनां घणाखरा पूज्य गुरुदेवे ज सम्पादित कर्या छे । 1 आ ग्रंथमाळामां नानामां नाना अने मोटामां मोटा अजोड महत्त्वना प्रन्थो प्रकाशित थया छे । नानां- मोटां संख्याबंध शास्त्रीय प्रकरणोनो समूह आ ग्रन्थमाळामां प्रकाशित थयो छे ए आ ग्रन्थमाळानी खास विशेषता छे । आ प्रकरणो द्वारा जैन श्रमण अने श्रमणीओने खूब ज लाभ थयो छे । जे प्रकरणोनां नाम मेळववां के सांभळवां पण एकाएक मुश्केल हता ए प्रकरणो प्रत्येक श्रमण- श्रमणीना हस्तगत थई गयां छे । आ ग्रन्थमालामां एकंदर जैन आगमो, प्रकरणो, ऐतिहासिक अने औपदेशिक प्राकृत, संस्कृत कथासाहित्य, काव्य, नाटक आदि विषयक विविध साहित्य प्रकाश पाम्युं छे । आ उपरथी पूज्यपाद गुरुदेवमां केटलं विशाळ ज्ञान अने केटलो अनुभव हतो ए सहेजे समजी शकाय तेम छे। अने ए ज कारणसर आ ग्रन्थमाळा दिनप्रतिदिन दरेक दृष्टिए विकास पामती रही छे । छेल्लामां छेल्ली पद्धतिए ग्रन्थोनुं संशोधन, संपादन अने प्रकाशन करता पूज्यपाद गुरुदेवे जीवनना अस्तकाळ पर्यंत अथाग परिश्रम उठाव्यो छे । निशीथसूत्रचूर्णि, कल्पचूर्णि, मलयगिरिव्याकरण, देवभद्रसूरिकृत कथारत्नकोश, वसुदेवहिंडी द्वितीयखंड आदि जेवा अनेक प्रासादभूत ग्रन्थोना संशोधन अने प्रकाशनना महान् मनोरथोने हृदयमां धारण करी स्वहस्ते एनी प्रेसकोपीओ अने एनुं अर्धसंशोधन करी तेओश्री परलोकवासी थया छे । अस्तु । मृत्युदेवे कोना मनोरथ पूर्ण थवा दीधा छे !!! | आम छतां जो पूज्यपाद गुरुप्रवर श्रीप्रवर्त्तकजी महाराज, पूज्य गुरुदेव अने समस्त मुनिगणनी आशीष वरसती हशे-छे ज तो पूज्य गुरुदेवना सत्संकल्पोने मूर्त स्वरूप आपवा अने तेमणे चालु करेली ग्रन्थमाळाने सविशेष उज्ज्वल बनाववा यथाशक्य अल्प स्वल्प प्रयत्न हुं जरूर ज करीश । गुरुदेवनो प्रभाव - पूज्यपाद गुरुदेवमां दरेक बाबतने लगती कार्यदक्षता एटली बधी इती के कोई पण पासे आवनार तेमना प्रभावथी प्रभावित थया सिवाय रहेतो नहि । मारा जेवी साधारण व्यक्ति उपर पूज्य गुरुदेवनो प्रभाव पडे एमां कहेवापणुं ज न होय; पण पंडितप्रवर श्रीयुत् सुखलालजी, विद्वन्मान्य श्रीमान् जिनविजयजी आदि जेवी अनेकानेक समर्थ व्यक्तियो उपर पण ते ओश्रीनो अपूर्व प्रभाव पड्यो छे अने तेमनी विशिष्ट प्रवृत्तिनुं सजीव बीजारोपण अने प्रेरणा पूज्यपाद गुरुदेवना सहवास अने संसर्गथी प्राप्त थयां छे । जैन मंदिर अने ज्ञानभंडार वगेरेना कार्य माटे आवनार शिल्पीओ अने कारीगरो पण • Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगुरुदेवनी कार्यदक्षता जोई तेमना आगळ बाळभावे वर्चता अने तेमना कामने लगती विशिष्ट कळा अने ज्ञानमां उमेरो करी जता । __ पूज्यपाद गुरुश्रीए पोताना विविध अनुभवोना पाठ भणावी पाटणनिवासी त्रिवेदी गोवर्धनदास लक्ष्मीशंकर जेवा अजोड लेखकने तैयार करेल छ । जे आजनां जमानामां पण सोना चांदीनी शाही बनावी सुंदरमा सुंदर लिपिमा सोनेरी किम्मती पुस्तको लखवानी विशिष्ट कळा तेमज लेखनकळाने अंगे तलस्पर्शी अनुभव धरावे छ। ___पाटणनिवासी भोजक भाई अमृतलाल मोहनलाल अने नागोरनिवासी लहिया मूळचंदजी व्यास वगेरेने सुंदरमा सुंदर प्रेसकोपीओ करवानुं काम तेम ज लेखन संशोधनने लगती विशिष्ट कळा पण पूज्य गुरुदेवे शीखवाड्यां छे, जेना प्रतापे तेओ आजे पंडितनी कोटीमा खपे छे। एकंदर आजे दरेक ठेकाणे एक एवी कायमी छाप छे के पूज्यपाद प्रवर्तकजी महाराज अने पूज्य गुरुदेवनी छायामां काम करनार लेखक, पंडित के कारीगर हुशियार अने सुयोग्य ज होय छ । उपसंहार-अंतमां हुं कोई पण प्रकारनी अतिशयोक्ति सिवाय एम कही शकुंछ केपाटण, वडोदरा, लीम्बडीना ज्ञानभंडारोना पुस्तको अने ए ज्ञानभंडारो, श्रीआत्मानंद जैन ग्रन्थरलमाळा अने एना विद्वान् वाचको, अने पाटण, वडोदरा, छाणी, भावनगर, लीबडी वगेरे गाम-शहेरो अने त्यांना श्रीसंघो पूज्यपाद परमगुरुदेव श्रीचतुरविजयजी महाराजना पवित्र अने सुमंगळ नामने कदीय भूली नहि शके । लि० पूज्य गुरुदेव श्रीचतुरविजयजी महाराजना पवित्र चरणोनो अनुचर अने तेओश्रीनी साहित्यसेत्रानो सदानो सहचर मुनि पुण्यविजय Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ जयन्तु वीतरागाः॥ आमुख बृहत्कल्पसूत्रनो पांचसो भाग बहार पड्या पछी घणे लांबे गाळे आजे तेनो छट्ठो भाग विद्वानोना करकसलमा उपहृत करवामां आवे छे । आ विभाग साथे आखो बृहत्कल्पग्रंथ संपूर्ण थाय छे । प्रस्तुत महाशास्त्रनुं सांगपूर्ण संशोधन मारा परमपूज्य शिरश्छत्र परमाराध्य गुरुदेव श्री १००८ श्रीचतुरविजयजी महाराज अने में, एम अमे गुरु-शिष्ये मळीने कयु छे । परन्तु आजे प्रस्तुत विभागर्नु प्रकाशन जोवा तेओश्री संसारमा विद्यमान नथी । तेम छतां प्रस्तुत महाशास्त्रना संशोधनमां आदिथी अंत सुधी तेओश्रीनो वधारेमा वधारे हिस्सो छे, ए सत्य हकीकत छे । प्रस्तुत विभागनी प्रस्तावनामा नियुक्तिकार अने तेमना समय विषे प्रमाणपुरस्सर घणी लांबी चर्चा करीने जे निर्णयो रजू करवामां आठया छे ते विषे जे महत्त्वनी नवी हकीकतो मळी आवी छे तेनो उल्लेख अहीं करी देवो अति आवश्यक छ । प्रस्तुत छट्ठा विभागनी प्रस्तावनाना चोथा पृष्ठमां " नियुक्तिकार चतुर्दशपूर्वधर स्थविर आर्यभद्रबाहुस्त्रामी छे " ए मान्यताने रजू करता जे उल्लेखो आपवामां आव्या छे तेमां सौथी प्राचीन उल्लेख आचार्य श्रीशीलांकनो छे। परन्तु ते पछी आ ज मान्यताने पुष्ट करतो भगवान् श्रीजिनभद्र गणि क्षमाश्रमणनो एक उल्लेख विशेषावश्यक महाभाष्यनी स्वोपज्ञ टीकामांथी मळी आव्यो छे। नियुक्तिओ, तेनुं प्रमाण अने रचनासमय. ' नियुक्तिकार श्रीभद्रबाहुस्वामी, वाराहीसंहिताना प्रणेता श्रीवराहमिहिरना नाना भाई हता' ए जातनी किंवदन्तीने लक्षमा राखी श्रीवराहमिहिरे पोताना पंचसिद्धान्तिका ग्रन्थना अंतमा उल्लेखेली प्रशस्तिना आधारे में मारी प्रस्तावनामा नियुक्तिकार अने नियुक्तिओनी रचना विक्रमना छट्ठा सैकामां थयानी कल्पना करी छे ए बराबर नथी, ए त्यारपछी मळी आवेली वीगतोथी निश्चित थाय छे, जे आ नीचे आपवामां आवे छे । खरतरगच्छीय युगप्रधान आचार्य श्रीजिनभद्रसूरिसंस्थापित जेसलमेरना प्राचीनतम ताडपत्रीय ज्ञानभंडारमाथी स्थविर आर्य वज्रस्वामिनी शाखामां थएल स्थविर श्रीअगस्त्य. सिंहविरचित दशवैका लिकसूत्रनी प्राचीन चूर्णि मळी आवी छे । आ चूर्णी, आगमोद्धारक Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मामुख १८ पूज्य श्रीसागरानन्दसूरि महाराजे प्रसिद्ध करेल चूर्णी करतां जुदी अने प्राचीनतम होवा उपरांत जैन आगम साहित्य अने तेना इतिहासमां भात पाडनार तेम ज केटलीये महत्त्वनी हकीकतो उपर प्रकाश नाखनार छ । सौ करतां अतिमहत्त्वनी वात तो ए छे के-स्थविर आर्य देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमणे वल्लभीमां वीर संवत् ९८० अथवा ९९३ मां जे अंतिम सूत्रव्यवस्था अने पुस्तकलेखनरूप आगमवाचना करी ते पहेलां आ चूर्णी रचाएली छे । अने ए ज कारणसर प्रस्तुत चूर्णीमां, दशवकालिकसूत्रमा आपणी चालु परिपाटी करतां घणा घणा गाथाभेदो अने पाठभेदो छे के जे पाछळथी रचाएली दशवैकालिकसूत्रनी नवीन चूर्णीमां के याकिनीमहत्तरापुत्र आचार्य श्रीहरिभद्रनी टीकामां नथी । आचार्य श्रीहरिभद्रसूरिए तो पोतानी टीकोमा जणावी ज दीधुं छे के " कइ हं, कया हं, कह " इत्यादि अदृश्य-अलभ्य पाठभेदोने जता करी दृश्य-लभ्य पाठोनी ज व्याख्या करवामां आवे छे। आनो अर्थ ए थयो के-बार वरसी दुकाळ आदि कारणोने लई छिन्नभिन्न थई गएला आगमोना पाठोए निर्णीत पाठन स्वरूप लीधुं न हतुं त्यांसुधी तेना उपर व्याख्या लखनार व्याख्याकारो पोता पासे जे पाठपरंपरा होय तेने ज मुख्य मानीने काम लेता अने तेना उपर व्याख्याग्रंथो रचता हता । स्थविर श्रीअगस्त्यसिंह. विरचित प्रस्तुत दशकालिकचूर्णिग्रंथ ए जातनो अलभ्य-दुर्लभ्य ग्रंथ छे के जे वल्लभीमां श्रीदेवर्द्धिगणि क्षमाश्रमणे संघ एकत्र करी पाठनिर्णय कर्यो ते पहेलाना प्राचीन काळमां जैन आगमोना पाठोमां केवी विषमता थई गई हती तेनो आछोपातळो ख्याल आपणने आपे छ । आजे पण बृहत्कल्पसूत्र, निशीथसूत्र, भगवतीसूत्र वगेरेना प्राचीन आदर्शो जे आपणा समक्ष विद्यमान छे ते जोता आपणने पाठभेदोनी विविधता अने विषमतानो तथा भाषास्वरूपनी विचित्रतानो ख्याल आवी शके छे । अस्तु दशवैकालिकसूत्र उपरनी स्थविर श्रीअगस्त्यसिंहनी चूर्णी जोतां आपणने ख्याल आवी जाय छे के वल्लभी पाठनिर्णय थवा अगाउ जैन आगमो उपर व्याख्याग्रंथो अथवा वृत्ति-चूर्णीग्रंथो रचावा शरू थई चूक्या हता । स्थविर श्रीअगस्त्यसिंह पण पोतानी चूर्णिमां अनेक स्थळे प्राचीन वृत्तिपाठोनो उल्लेख करे छे । आ उपरांत " हिमवंतर्थरावली "मां नीचे प्रमाणेनो उल्लेख छ १ प्रस्तुत चूर्णिने आचार्य श्रीहरिभद्रे दशवकालिकमूत्रनी पोतानी टीकामा "वृद्धविवरण "ना नामथी ज ओळखावी छे, जेने पूज्य श्रीसागर नंदसूरिए संशोधन करीने छपावी छे ।। २ " कहं गु कुज्जेत्यादि । अस्य व्याख्या-इह च संहितादिक्रमेण प्रतिसूत्रं व्याख्याने ग्रन्थगौरवमिति तत्परिज्ञाननिबन्धनं भावार्थमात्रमुच्यते । तत्रापि 'कत्यहं. कदाऽइं, कथमहं' इत्याद्यदृश्यपाठान्तरपरित्यागेन दृश्यं व्याख्यायते ।" दशव० हारि० वृत्ति पत्र ८५-१ ॥ ३ " एत्थ इमातो वृत्तिगतातो पदुद्देसमेतगाथाओ । तंजहा-“दुक्खं च दुस्समाए." इत्यादि रतिवक्कचूलिकायाम् ॥ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मामुख __" आयरेवतीनक्षत्राणां आर्यसिंहाख्याः शिष्या अभूवन् , ते च ब्रह्मद्वीपिकाशाखोपलक्षिता अभूवन् । तेषामार्यसिंहानां स्थविराणां मधुमित्रा-ऽऽयस्कन्दिलाचार्यनामानौ द्वौ शिष्यावभूताम् । आर्यमधुमित्राणां शिष्या आर्यगन्धहस्तिनोऽतीव विद्वांसः प्रभावकाश्चाभूवन् । तैश्च पूर्षस्थविरोत्तंसोमास्वातिवाचकरचिततत्त्वार्थोपरि अशीतिसहस्रश्लोकप्रमाणं महाभाष्य रचितम् । एकादशाङ्गोपरि चार्यस्कन्दिलस्थविराणामुपरोधतस्तैर्विवरणानि रचितानि | यदुक्तं तद्रचिताचाराङ्गविवरणान्ते यथा "थेरस्स महमित्तस्स, सेहेहिं तिपुवनाणजुत्तेहिं । मुणिगणविवंदिएहिं, क्वगयरागाइदोसेहिं ॥१॥ बंभद्दीवियसाहामउडेहिं गंधहत्थिविबुहेहिं । विवरणमेयं रइयं दोसयवासेसु विक्कमओ ॥२॥" अर्थात् "आर्यरेवतीनक्षत्रना आर्यसिंहनामे शिष्य हता, जे ब्रह्मद्वीपिकशाखीय तरीके ओळखाता हता । स्थविर आयसिंहना मधुमित्र अने आर्यस्कन्दिल नामे बे शिष्यो हता। आर्यमधुमित्रना शिष्य आर्यगंधहस्ती हता, जेओ घणा विद्वान् अने प्रभावक हता। तेमणे वाचक उमास्वातिकृत तत्त्वार्थ उपर एंसी हजार श्लोकप्रमाण महाभाष्यनी रचना करी हती अने स्थविर आर्यस्कन्दिलना आग्रहथी अगीआर अंगो उपर विवरणो रच्यां हतां । जे हकीकत तेमणे रचेला आचारांगसूत्र - विवरणना अंतभागथी जणाय छे । जे आ प्रमाणे छे. " स्थविर आर्यमधुमित्रना- शिष्य, मुनिगणमान्य, त्रण पूर्वनुं ज्ञान धरावनार ब्रह्म द्वीपिकशाखीय स्थविर गंधहस्तीए विक्रमथी बसो वर्ष वीत्या बाद आ ( आचारांगसूत्रनुं ) विवरण रच्यु छ ।” जो के उपर हिमवंतर्थरावलीमा जणावेल अगीआर अंगनां विवरणो पैकी एक पण विवरण आजे आपणा सामे नथी, ते छतां आचार्य श्रीशीलांके पोतानी आचारांगसूत्र उपरनी टीकाना प्रारंभमां " शस्त्रपरिज्ञाविवरणमतिबहुगहनं च गन्धहस्तिकृतम् । " एम जणाव्युं छे ते जोतां हिमवंतर्थरावलीमांनो उल्लेख तरछोडी नाखवा जेत्रो नथी। अस्तु । आ वस्तु विचारता तेमज उपलब्ध थए ठी स्थविर अगस्त्यसिंहनी दशवैकालिकनी चूर्णी अने तेमां आवतो प्राचीन वृत्तिनो उल्लेख जोतां गद्य विवरणग्रंथो रचावानी शरुआत वल्लभीमां सूत्रव्यवस्थापन थयुं तेथी य वे त्रग सैका पूर्वनी होवानुं साबित थाय छे । स्थविर अगस्त्यसिंहनी चूर्णिनो रचनासमय विक्रमनी त्रीजी सदीथी अर्वाचीन होवानो संभव जरा य नथी अने तेथी पहेलांनो पण संभवित नथी । स्थविर अगस्त्यसिंहे पोतानी चूर्णिना अंतमां नीचे मुजबनी प्रशस्ति आपी छे. Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख वीरवरस्स भगवओ तित्थे कोडीगणे सुविपुलम्मि । गुणगणवइराभस्सा वेरसामिस्स साहाए ॥ १॥ महरिसिसरिससभावा भावाऽभावाण मुणितपरमत्था । रिसिगुत्तखमासमणो( णा ? )खमासमाणं णिधी आसि ॥२॥ तेसिं सीसेण इमा कलसभवमइंदणामधेजेण । दसकालियस्स चुण्णी पयाण रयणातो उवण्णत्था ।। ३ ॥ प्रस्तुत प्रशस्ति जोता अने स्थविर अगस्त्य सिंह, भगवान् श्रीवत्रस्वामिनी शाखामां थएल होई ओछामा ओछु बीजी त्रीजी पेढीए थएला होवानो संभव होवाथी, तेम न तेमणे पोतानी चूमिां प्राचीन वृत्तिनो उल्लेख करेलो होई विक्रमनी त्रीजी सदीमां तेमर्नु होवू अने चूर्णीनुं रचवू संगत लागे छे. ___ उपर जणाव्या मुजर आजे आपणा सामे प्राचीन कोई पण विवरण, वृत्ति के व्याख्याग्रंथ नथी, तेम छतां प्रस्तुत अगस्त्यसिंहकृत चूर्णि के जे आजे उपलब्ध थता गद्यव्याख्याग्रंथोमां सौथी प्राचीन होवा उपरांत स्थविर श्रीदेवर्द्धिगणि क्षमाश्रमणनी आगमव्यवस्था अने ग्रंथलेखन पूर्वे रचाएल छे तेमां नियुक्तिपंथने समावीने व्याख्या करवामां आवी छे, एटले मारी प्रस्तावनामां में नियुक्तिरचनानो समय विक्रमनो छटो सैको होवानी जे संभावना करी छे तथा ते साथे वल्लभीवाचनाना सूत्रव्यवस्थापन थया बाद नियुक्तिओ रचावानी संभावना करी छे, ए बन्नेय विधानो बराबर नथी, परंतु नियुक्तिओनी रचना विक्रमना बीजा सैका पूर्वेनी छे । प्राचीन काळथी जे एक प्रवाह चाले छे के नियुक्तिकार चतुर्दशपूर्वधर स्थविर आर्य भद्रबाहुस्वामी छे ' एनो खरो अर्थ अत्यारे घराबर समजातो नथी, तेम छतां संभव छे के तेमणे कोई विशिष्ट नियुक्तिओनु संकलन कयु होय जेना अमुक अंशो वर्तमान नियुक्तिग्रंथोमा समावी लेवामां आव्या होय ! । आजे आपणा सामे जे नियुक्तिओ छे तेमां तो उत्तरोत्तर वधारो थतो रह्यो होई एना मौलिक स्वरूपने नक्की करवानुं कार्यअतिदुष्कर छे अने एना प्रणेता के व्यवस्थापकनुं नाम नक्की करवु ए पण अति अघरं काम छे। आपणा वर्तमान नियुक्तिग्रंथोमां पाछळथी केटलो उमेरो थयो छे, ए जाणवा माटे स्थविर अगस्त्यसिंहनी चूर्णि अति महत्त्व- साधन छ । स्थविर अगस्त्यसिंहनी चूर्णिमा दशवैकालिकना प्रथम अध्ययननी नियुक्तिगाथाओ मात्र चोपन छे, ज्यारे आचार्य श्री. हरिभद्रनी टीकामा प्रथम अध्ययननी नियुक्तिगाथाओ एक सो ने छप्पन जेटली छे । आखा दशवैकालिकसूत्रनी नियुक्तिगाथानो विचार करीए तो आचार्य हरिभद्रनी टीकामां लगभग गाथासंख्या बेवडी करतां पण वधारे थई जाय । अहीं एक बात ए ध्यानमां Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ आमुख राखवा जेवी छे के-पूज्य श्रीसागरानन्दसूरिजीए प्रसिद्ध करेली दशवैकालिक चूर्णी, के जे वल्लभीसूत्रव्यवस्थापन पछी रचाएली छे तेमां सूत्रपाठ वल्लभीवाचनासम्मत होवा छतां नियुक्तिगाथाओ अगस्त्यसिंहनी चूर्णीमा छे तेटली एटले के मात्र चोपन ज छे । आ उपरथी समजाशे के समयना वहेवा साथे नियुक्तिग्रंथोमां पाछळथी घणां घणां परि. वर्तन अने वृद्धि थयां छ । आ बधुं विचारतां जो के नियुक्तिमंथो कोना रचेला ? तेनुं मौलिक स्वरूप केवु ? वगेरे प्रश्नो अणउकल्या रहे छे, ते छतां जैन भागमो उपर नियुक्तिओ रचावानो प्रारंभ घणो प्राचीन छ । भगवान् श्रीमल्लवादीए पण पोताना नयचक्र ग्रंथमा नियुक्तिगाथाओनां उद्धरणो आपेला छे । जेमानुं उदाहरण तरीके एक उद्धरण आपवामां आवे छे । " एकेको य सतविधो त्ति शतसङ्कथं प्रभेदमेवम्भूतं व्याप्नोति एतल्लक्षणम् । तत्सा. क्षीभूतं तत्संवादि " नियुक्ति " लक्षणमाह-" वत्थूणं संकमणं होति अवत्थू णये समभिरूढे ।" इति । इत्यादि। भगवान् श्रीमल्लवादिनो सत्तासमय विक्रमनी पांचमी सदी अने वल्लभी सूत्रव्यव. स्थापनवाचना पहेलांनो छ । नन्दीसूत्र वगेरे मौलिक आगमोमां पण नियुक्तिमंथनी गाथाओ होवार्नु मानवामां आवे छे । अंतमां एटलुंज निवेदन छ के-घणा वर्षोंने अंते एक महाशानने बनी शके तेटला व्यवस्थित स्वरूपमा विद्वान् मुनिगण आदि समक्ष हाजर करवामां आवे छे । प्रस्तुत महाशास्त्र जैन गीतार्थ स्थविरोनी महाप्रसादी छे। श्रमण वीर-वर्द्धमान परमात्माना अतिगंभीर अने अनाबाध धर्ममार्गनी सूक्ष्म सूक्ष्मतर सूक्ष्मतम व्यवस्था अने तेनी समालोचनाने रजू करतुं आ एक महाशास्त्र छ। एनुं अध्ययन सौने वीरपरमात्माना शुद्ध मार्गनुं दर्शन करावनार बनो। लि. मुनि पुण्यविजय Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ ॥ अहम् ।। ग्रन्थकारोनो परिचय। प्रस्तुत बृहत्कल्पसूत्र महाशास्त्र, जेनुं खरं नाम कप्पो छ तेना संपादन साथे तेना उपरनी नियुक्ति, भाष्य अने टीकार्नु सम्पादन करेल होई ए बधायना प्रणेताओ कोण छे-हता तेने लगतो शक्य ऐतिहासिक परिचय आ नीचे कराववामां आवे छे. छेदसूत्रकार अने नियुक्तिकार जैन संप्रदायमा घणा प्राचीन काळथी छेदसूत्रकार अने नियुक्तिकार तरीके चतुर्दशपूर्वधर स्थविर आर्य भद्रबाहुस्वामी जाणीता छे. आ मान्यताने केटलाय प्राचीन ग्रंथकारोए तेमना प्रथोमा जणावी छे, अने ए ज मान्यता आजे जैन संप्रदायमा सर्वत्र प्रचलित छे, परंतु नियुक्ति, चूर्णि वगेरे प्राचीनतम ग्रंथोनुं सूक्ष्म अध्ययन करतां तेमां आवता उल्लेखो तरफ ध्यान आपतां उपरोक्त रूढ सांप्रदायिक मान्यता बाधित थाय छे. एटले आ परिचयमा उपर जणावेली चालु सांप्रदायिक मान्यतानी बन्नेय पक्षनां साधकबाधक प्रमाणो द्वारा समीक्षा करवामां आवे छे. " छेदसूत्रोना प्रणेता चतुर्दशपूर्व विद् भगवान् भद्रबाहुस्वामी ठे" ए विषे कोई पण जातनो विसंवाद नथी. जो के छेदसूत्रोमा तेना आरंभमां, अंतमां अगर कोई पण ठेकाणे खुद ग्रन्थकारे पोताना नाम आदि कशायनो उल्लेख कों नथी, तेम छतां तेमना पछी थएल ग्रन्थकारोए जे उल्लेखो कयां छे ते जोतां स्पष्ट रीते समजी शकाय छे के-छेदसूत्रकार, चतुर्दशपूर्वधर स्थविर आर्य भद्रबाहुस्वामी ज छे. दशाश्रुतस्कंधसूत्रनी नियुक्तिना प्रारंभमा नियुक्तिकार जणावे छे वंदामि भद्दबाहुं, पाईणं चरिमसगलसुयनाणिं ।। सुत्तस्स कारगमिसिं, दसासु कप्पे य ववहारे ॥ १॥ अर्थात्-"प्राचीनगोत्रीय, अंतिम श्रुतकेवली तेम ज दशाश्रुतस्कंध, कल्प अने व्यवहारसूत्रना प्रणेता, महर्षि भद्रबाहुने हुं नमस्कार करुं छं." आ ज प्रमाणेनो उल्लेख पंचकल्पनी आदिमां पण छे. आ बन्नेय उल्लेखो जोता तेमज बीजुं कोई पण बाधक प्रमाण न होवाथी स्पष्ट रीते कही शकाय के- छेदसूत्रोना निर्माता चतुर्दशपूर्वधर अंतिम श्रुतकेवली स्थविर आर्य भद्रबाहुस्वामी छे अने तेमणे दशा, कल्प १. दशा श्रुतस्कंध, कल्प ( बृहत्कल्पसूत्र ), व्यवहार, निशीथ ( आचारप्रकल्प ), महानिशीथ अने पंचकल्प आ छ ग्रन्थोने ‘छेदसूत्र' तरीके ओळखवामां आवे छे. प्रस्तुत लेखमां छेदसूत्रकार साथे संवन्ध धरावनार प्रथमनां चार सूत्रो ज समजवानां छे. २. आवश्यकसूत्र, दशवै कालिकसूत्र आदि शास्त्रो उपरनी गाथाबद्ध व्याख्याने नियुक्ति तरीके ओळखवामां आवे छे. Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ बृहत्कल्पसूत्रनी प्रस्तावना अने व्यवहार ए व्रणेय छेदसूत्रोनी रचना करी छे.' आ उल्लेखमा नियुक्तिरचना करवाने लगतो तेमज तेओश्री "नैमित्तिक-स्थविर" होवाने लगतो कशोय उल्लेख नथी ए ध्यानभां राखवा जेवू छे. ___ उपर अमे जे गाथा टांकी छे तेना उपर पंचकल्पमहाभाष्यकारे जे महाभाष्य कर्यु छे तेमां पण नियुक्तिग्रन्थोनी रचना कर्याने लगतो कशोय उल्लेख नथी. पंचकल्प महाभाष्यनी ए गाथाओ आ नीचे आपवामां आवे छे-- कप्पं ति णामणिप्फण्णं, महत्थं वत्तुकामतो।। णिज्जूहगस्स भत्तीय, मंगलट्ठाए संथुतिं ॥ १॥ तित्थगरणमोकारो, सत्यम्स तु आइए समक्खाओ। इह पुण जेणऽज्झयणं, णिज्जूढं तस्स कीरति तु ॥ २ ॥ सत्थाणि मंगलपुरस्सराणि सुहसवणगहणधरणाणि । जम्हा भवंति जंति य, सिस्सपसिम्सेहिं पचयं च ।। ३ ॥ भत्ती य सत्थ कत्तरि, तत्तो उगओग गोरवं सत्थे । एएण कारणेणं, कीरइ आदी णमोकारो ॥ ४ ॥ 'वद ' अभिवाद-श्रुतीए, सुभसद्दो णेगहा तु परिगीतो । वंदण पूयण णमणं, थुणणं सक्कारमेगट्ठा ।। ५ ।। भई ति सुंदरं ति य, तुल्लत्थो जत्थ सुंदरा बाहू । सो होति भद्दयाहू, गोण्णं जेणं तु बालत्ते ॥ ६ ॥ पाएण ण लक्खिज्जइ, पेसलभावो तु बाहुजुयलस्स । उववण्णमतो णामं, तस्सेयं भद्दबाहु त्ति ॥ ७ ॥ अण्णे वि भद्दवाहू विसेसणं गोण्णगहण पाईणं । अण्णेसिं पऽविसिट्टे, विसेसणं चरिमसगलसुतं ॥ ८ ॥ चरिमो अपच्छिमो खलु, चोदसपुव्वा तु होति सगलसुतं । सेसाण वुदासट्ठा, सुत्तकरऽज्झयणमेयस्स ॥ ९ ॥ किं तेण कयं तं तू, ज भण्णति तस्स कारतो सो उ । भण्णति गणधारीहिं, सव्वसुयं चेव पुवकयं ॥ १० ॥ तत्तो च्चिय णिज्जूढं, अणुग्गहट्ठाए संपयजतीणं । तो सुत्तकारतो खलु, स भवति दशकप्पववहारे ॥ ११ ॥ आ उल्लेखमां महाभाष्यकारे चतुर्दशपूर्वधर स्थविर आर्य भद्रवाहुस्वामीने मात्र सूत्रकार तरीके ज जणाव्या छे ए नवमी गाथाना उत्तरार्धथी स्पष्ट थाय छे. ___ उपर नियुक्ति, भाष्य अने महाभाष्यना उल्लेखमा चतुर्दशपूर्वधर स्थविर आर्य भद्रबाहुस्वामीने दशा, कल्प, व्यवहार ए त्रण छेदसूत्रोना ज रचयिता जणाववामां आव्या छे; Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ग्रंथकारोनो परिचय परंतु पंचकल्पभाष्यनी चूर्णिमा तेओश्रीने निशीथसूत्रना प्रणेता तरीके पण जणाव्या छे. ए उल्लेख अहीं आपवामां आवे छे" तेण भगवता आयारपकप्प-दसा कप्प-ववहारा य नवमपुष्पनीसंदभूता निज्जूढा।" पंचकल्पचूर्णी पत्र १ ( लिखित ) अर्थात्-ते भगवाने ( भद्रबाहुस्वामीए ) नवमा पूर्वमाथी साररूपे आचारप्रकल्प, दशा, कल्प अने व्यवहार ए चार सूत्रो उद्धयाँ छे-रच्यां छे. ___ आ उल्लेखमां जे आयारपकप्प नाम छ ए निशीथसूत्रनुं नामान्तर छे. एटले अत्यारे गणातां छ छेदसूत्रो पैकी चार मौलिक छेदसूत्रोनी अर्थात् दशा, कल्प, व्यवहार अने निशीथसूत्रनी रचना चतुर्दशपूर्वधर स्थविर आर्य भद्रबाहुस्वामीए करी छे. तित्थोगालिय प्रकीर्णक,-जेनी रचना विक्रमनी पांचमी शताब्दिनी शरूआतमां थएली होवानुं विद्वद्वर्य श्रीमान् कल्याणविजयजी “ वीरनिर्वाण संवत् और जैन कालगणना" (पृ० ३०, टि. २७ )मां सप्रमाण जणावे छे,-तेमां नीचे प्रमाणे जणान्यु छ सत्तमतो थिरबाहू जाणुयसीसुपडिच्छिय सुबाहू । नामेण भद्दबाहू अविही साधम्म सद्दोत्ति ( ? ) ॥ १४ ।। सो वि य चोद्दसपुवी बारसवासाइं जोगपडिवन्नो । सुतत्तेण निबंधइ अत्थं अज्झयणबंधस्स ॥ १५ ॥ तीर्थोद्गारप्रकीर्णकना प्रस्तुत उल्लेखमां चतुर्दशपूर्वधर भगवान् भद्रबाहुस्वामीने सूत्रकार तरीके ज वर्णव्या छे, परंतु तेथी आगळ वधीने 'तेओ नियुक्तिकार' होवा विष के तेमना नैमित्तिक होवा विषे सूचना सरखीये करवामां आवी नथी. ___ उपर ढूंकमा जे प्रमाणो नोंधायां छे ए उपरथी स्पष्ट रीते समजी शकाशे के-छेद. सूत्रोना प्रणेता, अंतिम श्रुतकेवली स्थविर आर्य भद्रबाहुस्वामी ज छे. आ मान्यता विषे कोईने कशो य विरोध नथी. विरोध तो आजे ' नियुक्तिकार कोण ? अथवा क्या भद्रबाहुस्वामी ?' एनोज छे, एटले आ स्थळे ए विषेनी ज चर्चा अने समीक्षा करवानी छे. ___ जैन संप्रदायमा आजे एक एवो महान् वर्ग छे अने प्राचीन काळमां पण हतो, जे " नियुक्तिओना प्रणेता चतुर्दश पूर्वविद् छदसूत्रकार स्थविर आर्य भद्रबाहुस्वामी ज छे" ए परंपराने मान्य राखे छे अने पोपे छे. ए वर्गनी मान्यताने लगतां अर्वाचीन प्रमाणोने-निरर्थक लेखनुं स्वरूप मोटें थई न जाय ए माटे-जता करी, ए विषेना जे प्राचीन उल्लेखो मळे छे ए सौनो उल्लेख कर्या पछी “ नियुक्तिकार भद्रबाहुस्वामी, चतुर्दशपूर्वधर स्थविर आर्य भद्रबाहुस्वामी नथी पण ते करतां कोई जुदा ज स्थविर छे. " ए प्रामाणिक मान्यताने लगतां प्रमाणो अने विचारसरणी रजू करवामां आवशे. १. प्राचीन मान्यता मुजब दशाश्रुतस्कंध अने कल्पने एक सूत्र तरीके मानवामां आवे अथवा कल्प भने व्यवहारने एक सूत्ररूपे मानो लईए तो चारने बदले त्रण सूत्रो थाय, Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पसूत्रनी प्रस्तावना अमे अहीं अमारी नवीन छतां प्रामाणिक मान्यताने अंगे जे प्रमाणी अमनीषचारोी रजू करीए छीए तेने विद्वानो ध्यानपूर्वक विचारे अने तेनी साधक-बाधकताने लगता विचारो तेमज प्रमाणोने सौम्यताथी प्रगट करे. अहीं नोंधवामां आवती नवीन विचारसरणीने अंगे कोई पण महाशय प्रामाणिक दलीलो तेमज ऐतिहासिक प्रमाणोद्वारा ऊहापोह करशे तो अमे तेना उपर जरूर विचार करीशु. अमारी मान्यता विद्वद्वर्गमा चर्चाईने तेनो वास्तविक निर्णय न आवे त्यां सुधी अमे एना उपर निर्भर रहेवा नथी इच्छता. अने ए ज कारणथी ' छेदसूत्रकार भद्रबाहुस्वामी' करतां नियुक्तिकार आचार्य तदन भिन्न होवानी अमारी दृढ मान्यता होवा छतां अमे अमारा तरफथी प्रकाशन पामेला प्रस्तुत बृहत्कल्पसूत्र ग्रन्थनां शीर्षकोमा लांबा वखतथी चाली आवती रूढ मान्यता मुजब पूज्यश्रीभद्रबाहुस्वामिविनिर्मितस्वोपज्ञनियुक्त्युपेतं वृहत्कल्पसूत्रं ए प्रमाणे ज लख्युं छे. हवे अमे अमारी प्रतिज्ञा अनुसार प्रारंभमां " नियुक्तिकार चतुर्दशपूर्वधर स्थविर आर्य भद्रबाहु स्वामी छे ” ए मान्यताने लगता प्राचीन उल्लेखो आपीए छीए. १. “ अनुयोगदायिनः-सुधर्मस्वामिप्रभृतयः यावदस्य भगवतो नियुक्तिकारस्य भद्रबाहुस्वामिनश्चतुर्दशपूर्वधरस्याचार्योऽतस्तान् सर्वानिति ॥ " आचाराङ्गसूत्र शीलाङ्काचार्यकृत टीका-पत्र ४. २. " न च केषाश्चिदिहोदाहरणानां नियुक्तिकालादाक्कालाभाविता इत्यन्योक्तत्वमाशङ्कनीयम् , स हि भगवाँश्चतुर्दशपूर्ववित् श्रुतकेवली कालत्रयविषयं वस्तु पश्यत्येवेति कथमन्यकृतत्वाशङ्का ? इति ।" उत्तराध्ययनसूत्र शान्तिसूरिकृता पाइयटीका-पत्र १३९. ३. “ गुणाधिकस्य वन्दनं कर्त्तव्यम् न त्वधमस्य, यत उक्तम्- "गुणाहिए वंदणयं'। भद्रबाहुस्वामिनश्चतुर्दशपूर्वधरत्वाद् दशपूर्वधरादीनां च न्यूनत्वात् किं तेषां नमस्कारमसौ करोति ? इति । अत्रोच्यते-गुणाधिका एव ते, अव्यवच्छित्तिगुणाधिक्यात् , अतो न दोष इति ।” ओधनियुक्ति द्रोणाचार्यकृतटीका-पत्र ३. ४. " इह चरणकरणक्रियाकलापतरुमूलकल्पं सामायिकादिषडध्ययनात्मकश्रुतस्कन्धरूपमावश्यकं तावदर्थतस्तीर्थकरैः सूत्रतरतु गणधरैर्विरचितम् । अस्य चातीव गम्भीरार्थतां सकलसाधु-श्रावकवर्गस्थ नित्योपयोगितां च विज्ञाय चतुर्दशपूर्वधरेण श्रीमद्भद्रबाहुनैतव्याख्यानरूपा " आभिणिबोहियनाणं." इत्यादिप्रसिद्धग्रन्थरूपा नियुक्तिः कृता।" विशेषावश्यक मलधारिहेमचन्द्रसूरिकृत टीका-पत्र १. ५. " साधूनामनुग्रहाय चतुर्दशपूर्वधरेण भगवता भद्रबाहुस्वामिना कल्पसूत्रं व्यवहारसूत्रं चाकारि, उभयोरपि च मूत्रस्पर्शिकनियुक्तिः।” बृहत्कल्पपीठिका मलय गिरिकृत टीका-पत्र २. ६. " इह श्रीमदावश्यकादिसिद्धान्तप्रतिबद्धनियुक्तिशास्त्रसंसूत्रणसूत्रधारः......श्री Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रंथकारोनो परिचय भद्रबाहुस्वामी.........कल्पनामधेयमध्ययनं नियुक्तियुक्तं नियंढवान् । " बृहत्कल्पपीठिका श्रीक्षेमकीर्तिसूरिअनुमन्धिता टीका-पत्र १७७ । ___ अहीं जे छ शास्त्रीय उल्लेखो आपवामां आव्या छे ए बधाय प्राचीन मान्य आचार्यवरोना छे अने ए " नियुक्तिकार चतुर्दशपूर्वविद् भगवान् भद्रबाहुस्वामी छे " ए मान्यताने टेको आपे छे. आ उल्लेखोमां सौथी प्राचीन उल्लेख आचार्य श्रीशीलांकनो छे. जे विक्रमनी आठमी शताब्दिना उत्तरार्धनो अथवा नवमी शताब्दिना आरंभनो छे. आ करतां प्राचीन उल्लेख खंतपूर्वक तपास करवा छतां अमारी नजरे आवी शक्यो नथी. उपर नोंधेल छ उल्लेखो पैकी आचार्य श्रीशान्त्याचार्यसूरिनो उल्लेख बाद करतां बाकीना बधा य उल्लेखोमा सामान्य रीते एटली ज हकीकत छे के-" नियुक्तिकार चतुर्दशपूर्वविद् भद्रवाहुस्वामी छे-हता " पण श्रीशान्त्याचार्यना उल्लेखमां एटली विशेष हकीकत छे के" प्रस्तुत ( उत्तराध्ययनसूत्रनी ) निर्यक्तिमा केटलांक उदाहरणो अर्वाचीन अर्थात् चतुर्दशपूर्वधर नियुक्तिकार भगवान् भद्रबाहुस्वामी करतां पाछळना समयमा थएला महापुरुषोने लगतां छे, माटे ' ए कोई बीजानां कहेलां-उमेरेला छे' एवी शंका न लाववी; कारण के भगवान् भद्रबाहुस्वामी चतुर्दशपूर्वविद् श्रुतकेवळी होई त्रणे काळना पदार्थोने साक्षात् जाणी शके छे. एटले ए उदाहरणो कोई वीजानां उमेरेला छे एवी शंका केम थई शके ?" नियुक्ति आदिमां आवती विरोधास्पद धावतोनो रदियो आपवा माटेनी जो कोई मजबूतमा मजवून दलील कहो के शास्त्रीय प्रमाण कहो तो ते आ एक श्रीशान्त्याचार्य आपेल समाधान छे. अत्यारे मोटे भागे दरेक जण मात्र आ एक दलीलने अनुसरीने ज संतोष मानी ले छ, परंतु उपरोक्त समाधान आपनार पूज्य श्रीशान्तिसूरि पोते ज खरे प्रसंगे उंडा विचारमा पडी घडीभर केवा थोभी जाय छ ? अने पोते आपेल समाधान खामीवाळु भासतां केवा विकल्पो करे छे, ए आपणे आगळ उपर जोईशं. उपर छ विभागमा आपेल उल्लेखोने अंगे अमारे अहीं आ करतां विशेष काई ज चर्चवानुं नथी. जे कांई कहेवानुं छे ते आगळ उपर प्रसंगे प्रसंगे कहेवामां आवशे. हवे अमे उपरोक्त अर्थात् " नियुक्तिकार चतुर्दशपूर्वविद् भद्रबाहुस्वामी छे " ए मान्यताने बाधित करनार प्रमाणोनो उल्लेख करी ते पछी तेने लगती योग्य चर्चा रजू करीशुं. १. ( क ) मूढणइयं सुयं कालियं तु ण णया समोयरंति इहं । अपुहुत्ते समोयारो, नत्थि पुहुत्ते समोयारो ॥ ७६२ ॥ जावंति अजवइरा, अपुहुत्तं कालियाणुओगे य । तेणाऽऽरेण पुहुत्तं, कालियसुय दिट्टिवाए य ॥ ७६३ ॥ * Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ वृहत्कल्पसूत्रनी प्रस्तावना (ख) तुंबवणसन्निवेसाओ, निग्गयं पिउसगासमल्लीणं । छम्मासि छसु जयं, माऊय समन्नियं वंदे ॥ ७६४ ॥ जो गुज्झएहिं बालो, निमंतिओ भोयणेण वासंते । च्छइ विणीयविणओ, तं वइररिसिं णमंसामि ॥ ७६५ ॥ उज्जेणीए जो जंभगेहिं आणक्खिऊण धुयमहिओ । अक्खीणमहाणसियं सीह गिरिपसंसियं वंदे || ७६६ ॥ जस्स अण्णा वायगत्तणे दसपुरम्मि णयरम्मि | देवेहिं का महिमा, पयानुसारिं णमंसामि || ७६७ ॥ जो कन्नाइ घणेण य, णिमंतिओ जुव्वणम्मि गिहवइणा । नयरम्मि कुसुमनामे, तं वइररिसिं णमंसामि || ७६८ ॥ जेणुद्धरिआ विज्जा, आगासगमा महापरिण्णाओ | वंदामि अजरं, अपच्छिमो जो सुयहराणं ॥ ७६९ ॥ * ( ग ) अपुहुत्ते अणुओगो, चत्तारि दुवार भासई एगो । पुहुताणुओगकरणे, ते अत्थ तओ उ वोच्छिन्ना || ७७३ ॥ देविंदवं दिएहिं, महाणुभागेहिं रक्खि अज्जेहिं । जुगमासज्ज विभत्तो अणुओगो तो कओ चउहा ॥ ७७४ ॥ माया य रुसोमा, पिया य नामेण सोमदेव त्ति । भाया य फग्गुरक्खिय, तोसलिपुत्ता य आयरिआ || ७७५ || निज्जवण भद्दगुत्ते, वीसुं पढणं च तस्स पुव्वगयं । पव्वाविओ य भाया, रक्खिअखमणेहिं जणओ य ॥ ७७६ ॥ * (घ) वहुरय पएस अव्वत्त समुच्छ दुग तिग अबद्धिगा चेव । सत्ते हिगा खल, तित्थम्मि उ वद्धमाणस्स ॥ ७७८ ॥ बहुर जमालिपभवा, जीवपएसा य तीसगुताओ । अव्वत्ताऽऽसाढाओ, सामुच्छेयाऽऽसमित्ताओ || ७७९ ॥ गंगाओ दो किरिया, छलगा तेरासियाण उप्पत्ती । थेरा य गोट्टमाहिल, पुट्ठमबद्धं परुविंति ॥ ७८० ॥ सावत्थी उसभपुरं, सेयविया मिहिल उल्लुगातीरं । पुरिमंतरंज दसपुर, रहवीरपुरं च णयराई ॥ ७८१ ॥ चोद्दस सोलस वासा, चोद्दस वीसुत्तरा य दोणि सया । अट्ठावीसा यदुवे, पंचेव सया उ चोयाला ॥ ७८२ ॥ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रंथकारोनो परिचय पंचसया चुलसीया, छ च्चेव सया णवोत्तरा हुँति । णाणुप्पत्ती य दुवे, उप्पण्णा णिन्दुए सेसा ॥ ७८३ ॥ मिच्छादिट्ठीयाणं, जं तेसिं कारियं जहिं जत्थ । सव्वंपि तयं सुद्ध, मूले तह उत्तरगुणे य ।। ७८८ ।। पाडलिपुत्त महागिरि, अन्जसुहत्थी य सेट्टि वसुभूती । वइदिस उजेणीए, जियपडिमा एलकच्छं च ॥ १२८३ ।। आवश्यकनियुक्ति। अरहंते वंदित्ता, चउदसपुव्वी तहेव दसपुव्वी । एक्कारसंगसुत्तत्थधारए, सव्वसाहू य ॥ १ ॥ ओहेण उ णिज्जुति, वुच्छं चरणकरणाणुओगाओ । अप्पक्खरं महत्थे, अणुग्गहत्थं सुविहियाणं ।। २ ॥ ओघनियुक्ति । अपुहुत्त-पुहुत्ताई, निद्दिसिउं एत्थ होइ अहिगारो । चरणकरणाणुओगेण तस्स दारा इमे हुँति ॥ १ ॥ ___ दशवैकालिकनियुक्ति ॥ जह जह पएसिणी जाणुगम्मि पालित्तओ भमाडेइ । तह तह सीसे वियणा, पणस्सइ मुरुंडरायस्स ॥ ४९८ ।। नइ कण्ह-विन्न दीवे, पंचसया तावसाण णिवसंति । पव्वदिवसेसु कुलवइ, पालेवुत्तार सक्कारे ।। ५०३ ।। जण सावगाण खिसण, समियक्खण माइठाण लेवेण । सावय पयत्तकरणं, अविणय लोए चलण धोए । ५०४ ॥ पडिलाभिय वच्चंता, निबुड्ड नइकूलमिलण समियाओ। विम्हिय पंच सया तावसाण पधज साहा य ॥ ५०५ ।। पिण्डनियुक्ति । ५. (क) भगवं पि थूलभद्दो, तिक्खे चंकम्मिओ न उण छिन्नो । अग्गिसिहाए वुत्थो, चाउम्मासे न उण दड्ढो ।। १०४ ।। उज्जेणि कालखमणा सागरखमणा सुवण्णभूमीए । इंदो आउयसेसं, पुच्छइ सादिबकरणं च ।। १२० ।। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पसूत्रनी प्रस्तावना " (ख) उत्तराध्ययन सूत्रना चातुरंगीय अध्ययनमां ' बहुरय पएस अन्वत्त समुच्छ० इत्यादि-( निर्युक्ति गाथा १६४ थी गाथा १७८ सुधी ) मां सात निह्नवो अने दिगंबरमतनुं, - आवश्यक-निर्युक्ति गाथा. ७७८ थी ७८३ मां छे ते करतां, - विस्तृत वर्णन छे. (ग) रहवीपुरं नयरं, दीवगमज्जाण अज्जकण्हे य । सिवभूइस्सुवहिम्मि, पुच्छा थेराण कहणा य ॥ १७८ ॥ उत्तराध्ययनसूत्रनिर्युक्ति । २९ ६ एगभविए य बद्धाउए य अभिमुहियनामगोए य । एते तिनि विदेसा, दवम्मि य पोंडरीयस्स ॥ १४६ ॥ वृत्तिः – 'एगेत्यादि । एकेन भवेन गतेन अनन्तरभव एव यः पौण्डरीकेषु उत्पत्स्यते स एकभविकः । तथा तदासन्नतरः पौण्डरीकेषु बद्धायुष्कः । ततोऽप्यासन्नतमः 'अभिमुखनामगोत्रः' अनन्तरसमयेषु यः पौण्डरीकेषु उत्पद्यते । 'एते' अनन्तरोक्ताः त्रयोऽप्यादेशविशेषा द्रव्यपौण्डरीकेऽवगन्तव्या इति ॥ सूत्रकृतांगनिर्युक्ति श्रुत० २, अध्य० १, पत्र २६७-६८ । € आ विभागमां आपेल आधारो 'नियुक्तिकार चतुर्दशपूर्वधर स्थविर आर्य भद्रबाहुस्वामी' होवानी मान्यतानो विरोध करनारा छे. जे खुद निर्युक्ति अने चूर्णिग्रन्थोमांना छे एटले जनहि पण निर्युष्किकार 'चतुर्दशपूर्वधर भद्रबाहुस्वामी ' होवानी मान्यताने लगता प्रथम विभागमां आपेला पुरावाओ करतां वधारे प्राचीन तेमज विचारणीय छे. हवे अमे आ प्रमाणोनी चर्चा करती विचारसरणी रजू करीए छीए. नियुक्तिकार भद्रबाहुस्वामी, ए जो चतुर्दशपूर्वविद् भद्रबाहुस्वामी ज होय तो तेमणे रचेला निर्युक्तिग्रंथोमां नीचेनी बाबतो न ज होवी जोईए, जे अत्यारे निर्युक्तिग्रंथोमां प्रत्यक्षपणे जोवामां आवे छे. - १. (क) आवश्यक नियुक्ति गाथा ७६४ श्री ७७६ सुधीमां स्थविर भद्रगुप्त ( वज्रस्वामीना विद्यागुरु), आर्य सिंहगिरि, श्रीवत्रस्वामी, तोसलिपुत्राचार्य, आर्यरक्षित, फल्गुरक्षित आदि अर्वाचीन आचार्योने लगता प्रसंगोनुं वर्णन. ( जुओ उल्लेख १ ख ). (ख) पिंड नियुक्ति गाथा. ४९८ मां पादलिप्ताचार्यनो प्रसंग अने गाथा ५०३ थी ५०५ मां वज्रस्वामीना मामा आर्य समितसूरिनो संबंध, ब्रह्मद्वीपिक तापसोनी प्रव्रज्या अने ब्रह्मद्वीपिक शाखानी उत्पत्तिनुं वर्णन ( जुओ उल्लेख ४ ). (ग) उत्तराध्ययननियुक्ति गाथा १२० मां कालिकाचार्यनी कथा (जुओ उल्लेख ५ क ) . २. ओघनियुक्ति गाथा. १ मां चौदपूर्वधर, दशपूर्वघर अने अगियार अंगज्ञाताओ सामान्य नमस्कार कर्यो छे, ए पूज्य श्रीद्रोणाचार्ये जगान्युं छे तेम अणघटतो नथी पण आव० नि० गाथा ७६४ थी ७६९ सुवीमां दशपूर्वघर श्रीवत्रस्वामीने नाम लईने नमस्कार करवामां आव्यो छे ते उचित नथी. ( जुओ उल्लेख १ तथा २ ख ). Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रंथकारोनो परिचय ३० ३. (क) आव०नि० गाथा ७६३ अने ७७४ मां जणाव्यु छे के-आर्य वज्रस्वामीना जमाना सुधी कालिकसूत्रादिनी जुदा जुदा अनुयोगरूपे वहेंचणी थई न हती पण ते बाद ए वहेचणी थई छे, अने ए देवेंद्रवंदित भगवान् आर्यरक्षिते काळ अने पोताना दुर्बलिकापुष्यमित्र नामना विद्वान् शिष्यनी स्मरणशक्तिना हासने जोईने करी छे. (जुओ उल्लेख १ क अने ग). (ख) दशवकालिकनियुक्ति गाथा ४ मां अनुयोगना पृथक्त्व अपृथक्वनो उल्लेख छ, तेमां जणाव्युं छे के-आ शास्त्रनो समावेश चरणकरणानुयोगमां थाय छे. (जुओ उल्लेख ३). (ग) ओघनियुक्ति गाथा २ मां एनो पोतानो समावेश चरणकरणानुयोगमा होवार्नु जणाव्यु छे. ( उल्लेख २). ४. आव०नि० गाथा ७७८ थी ७८३ मां अने उत्त० नि० गाथा १६४ थी १७८ सुधीमा सात निह्नवो अने आठमा दिगंबरमतनी उत्पत्ति अने तेमनी मान्यताओगें वर्णन करवामां आव्यु छे, जेमांना घणाखरा चतुर्दशपूर्वधर भद्रबाहुस्वामी पछी थएला छे. अर्थात् एकंदर श्रमणभगवान महावीरना निर्वाण पछीना सात सैका सुधीमां बनेल प्रसंगो आ बन्ने नियुक्तिग्रंथमा नोधाएला छे. ( जुओ उल्लेख १ घ तथा ५ ख ). ५. सूत्रकृतांगनियुक्ति गाथा १६४ मां द्रव्यनिक्षेपने लगता त्रण आदेशो अर्थात् त्रण मान्यताओनो उल्लेख छे, जे चतुर्दशपूर्वधर भगवान् भद्रबाहु पछी थएल स्थविर आर्य सुहस्ती आदि अर्वाचीन स्थविरोनी मान्यतारूप होई तेनो उल्लेख नियुक्तिग्रन्थमां संगत न होई शके ( उल्लेख ६). उपर जणावेल बाबतो चतुर्दशपूर्वविद् भद्रबाहुकृत नियुक्तिप्रन्थोमां होय ए कोई पण रीते घटमान न कहेवाय. पूज्य श्रीशांत्याचार्यना कहेवा प्रमाणे : नियुक्तिकार त्रिकाळज्ञानी हता एटले नियुक्तिमां ए बावतोनो उल्लेख होवो अयोग्य नथी' ए वातने आपणे मानी लईए तेम छतां नियुक्तिग्रन्थोमा नाम लईने श्रीवत्रस्वामीने नमस्कार, अनुयोगनी पृथक्ता, निवादिनी उत्पत्ति, पोताना पछी उत्पन्न थएल आचार्योनी मान्यताओनो संग्रह आदि बाबतोनो उल्लेख कोई पण रीते संगत मानी शकाय नहि; कारण के (क) कोईपण महान् व्यक्ति “ नमो तित्थस्स, नमो आयरियाणं, नमो उवज्झायाणं, नमो सव्वसाहूगं" इत्यादि वाक्यो द्वारा धर्म प्रत्येनो अथवा गुणो प्रत्येनो आदर प्रगट करवा माटे सामान्य नमस्कार करे ए अयोग्य नथी, पण एज व्यक्ति पोता करतां लघु दरजे रहेल व्यक्तिने नाम लईने नमस्कार करे ए तो कोईपण रीते उचित न गणाय अने एम बनी शके पण नहि. चौद पूर्वधर भगवान् भद्रबाहुस्वामी, ओघनियुक्तिना मंगलाचरणमां कयुं छे तेम गुणो प्रत्ये बहुमान दर्शाववा खातर दशपूर्वधर आदिने के सामान्यतया साधुसमुदायने नमस्कार करे एमां अणघटतुं कशुंज नथी; पण तेओश्री स्थविर आर्य वनस्वामीने “ तं वइरिसिं नमसामि, वंदामि अजवरं” ए रीते साक्षात् नाम लई Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृहत्कल्पसूत्रनी प्रस्तावना नमस्कार करे अथवा पोताना शिष्यने " भगवं पि थूलभदो एम व्यक्तिगत नाम लई " भगवं" तरीके लखे ए क्यारे पण बनी न शके अने ए पद्धति विनयधर्मनी रक्षा खातर कोई पण शास्त्रकारने के श्रुतधरने मान्य न ज होई शके. ३१ ܕܪ (ख) चतुर्दश पूर्वविद् भगवान् भद्रबाहुस्वामी, जेमणे अनुयोगनी अपृथक् दशामां निर्युक्तिग्रंथोनी रचना कर्यानुं कहेवामां आवे छे तेओश्री १ पोता पछी लगभग चार सैका बाद बननार अनुयोगपृथक्त्वनी घटनानो उल्लेख करे, २ तेमना पोताना पछी थनार स्थवि - रोनी जीवनकथा अने मान्यताओनी नोंध ले अने ३ केटलाक निह्नवो अने दिगंबरमत, जे तेमना पोतानाथी केटलेय काळांतरे उत्पन्न थएला छे तेमनी उत्पत्ति अने मान्यताओने निर्युक्तिग्रंथोमां वर्णवे ए कोई पण प्रकारे स्वीकारी के कल्पी शकाय तेम नथी. जो उपर्युक्त घटनाओ बन्या अगाउ ज तेनो उल्लेख निर्युक्तिग्रंथोमां करी देवामां आवे तो ते ते मान्यता के मत अमुक पुरुषथी रूढ थयानुं कहेवामां आवे ए शी रीते कही शकाय ?. (ग) जे दश आगमो उपर निर्युक्तिओ रचायानो उल्लेख आवश्यक निर्युक्तिमा छे, ए पैकीनां आचारांग अने सूत्रकृतांग ए वे अंगआगमो चौदपूर्वधर आर्य भद्रबाहुस्वामीना जमानामां जैन साम्प्रदायिक मान्यतानुसार अतिमहान् अने परिपूर्ण हतां, तेमज एना प्रत्येक सूत्र पर एकी साथै चार अनुयोग प्रवृत्त हता, ए स्थितिमां उपरोक्त अंगआगमो उपर गूंथा - एल निर्युक्तिग्रन्थो अति विशाल अने चार अनुयोगमय होवा जोईए, तेमज वीजा आग - मग्रन्थो उपर निर्माण करेल निर्युक्तिग्रन्थो पण चार अनुयोगमय अने विस्तृत होवा जोईए, अने ते उपरांत एमां उपर निर्देश करेल अनुयोगनी पृथक्तानो के अर्वाचीन स्थविरोनी जीवकथा साथै संबंध धरावती कोई पण बाबतनो उल्लेख सदंतर न होवो जोइए. आ कथन सामे ' निर्युक्तिकार चतुर्दशपूर्वघर श्रीभद्रबाहुस्वामी होवा 'नी मान्यता तरफ वलण धरावनारा विद्वानोनुं कहेतुं छे के - " नियुक्तिकार, चतुर्दशपूर्वविद् भद्रबाहु - स्वामी ज छे. तेओश्रीए ज्यारे नियुक्तिग्रंथोनी रचना करी त्यारे ए नियुक्तिग्रंथो चार अनुयोगमय अने विशाळ ज हता; पण ज्यारे स्थविर आर्यरक्षिते पोताना दुर्बलिका पुष्यमित्र नामना विद्वान् शिष्यनी विस्मृतिने तेमज तेमनी पाछळ भविष्यमां थनार शिष्य - प्रशिष्या दि संततिनी अत्यन्त मंदबुद्धिने ध्यानमा लई अनुयोगने पृथक् कर्या त्यारे उपरोक्त चार अनुयोगमय नियुक्तिप्रन्थोने पण पृथग् अनुयोगरूपे व्यवस्थित करी लीधा. 77 जो के, जेम स्थविर आर्यरक्षित भगवाने अनुयोगने पृथक् कर्याना तेमज आर्यस्कंदिल आदि स्थविरोए माथुरी प्रमुख भिन्न भिन्न वाचनाओ द्वारा आगमोनी पुनर्व्यवस्था कर्याना १ आवस्यस्स दसकालियस्स तह उत्तरज्झमायारे । सूयगडे पिज्जुत्तिं वोच्छामि तहा दसाणं च ॥ ९४ ॥ कप्पस य णिज्जुत्तिं ववहारस्सेव परमनिउणस्स | सूरियपण्णत्तीए, वुच्छं इसिभा सिआणं च ॥ ९५ ॥ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ ग्रंथकारोनो परिचय अथवा ए आगमोनी वाचना चालु कर्या आदिने लगता विविध उल्लेखो मळे छे, तेम नियुक्ति. ग्रन्थोने व्यवस्थित करवाने लगतो एक पण उल्लेख मळतो नथी; तेम छतां उपरोक्त समाधानने आपणे कबूल करी लईए तो पण ए समाधान सामे एक विरोध तो ऊभो ज छे के स्थविर आयरक्षितना जमानामां आचारांग अने सूत्रकृतांग ए बे अंगआगमोनुं प्रमाण ते ज हतुं जे चतुर्दशपूर्वधर स्थविर आर्य भद्रबाहुस्वामीना जमानामा हतुं, एटले ए नियुकिग्रंथो चार अनुयोगमय होवाने बदले भले एक अनुयोगानुसारी हो, परंतु ए नियुक्तिग्रंथोनुं प्रमाण तो सूत्रग्रंथोनी विशाळताने अनुसरी विशाळ ज होवू जोईए; पण तेम नहोता आपणा सामे विद्यमान नियुक्तिग्रन्थो माथुरी आदि वाचनाओ द्वारा अतिसंस्कार पामेल अने जैन साम्प्रदायिक मान्यतानुसार अति ढूंकाई गएल अंतिम सूत्रसंकलनाने ज आबाद अनुसरे छे. अनुयोगनी पृथक्ता आदिने लगती बाबतो विषे कदाच एम कहेवामां आवे के"ए उल्लेखो स्थविर आर्य रक्षिते निर्यक्तिग्रंथोनी पुनर्व्यवस्था करी त्यारे उमेरेल छे" तो पण नियुक्तिग्रन्थोमां गोष्ठामाहिल निह्नव अने दिगंबरमतनी उत्पत्तिने लगती हकीकत नियुक्तियन्थमा क्याथी आवी ? के जे बन्नेयनी उत्पत्ति स्थविर श्रीआर्यरक्षित भगवानना स्वर्गवास पछी थएल छे. आ बाबतने उमेरनार कोई त्रीजा ज स्थविरने शोधवा जवू पडे एवं छे. वस्तुतः विचार करवामां आवे तो कोई पण स्थविर महर्षि प्राचीन आचार्यना ग्रंथने अनिवार्य रीते व्यवस्थित करवानी आवश्यकता ऊभी थतां तेमां संबंध जोडवा पुरतो घटतो उमेरो के सहज फेरफार करे ए सह्य होई शके, पण तेने बदले ते मूळ ग्रंथकारना जमा. नाओ पछी बनेली घटनाओने के तेवी कोई बीजी बावतोने मूळ ग्रंथमां नवेसर पेसाडी दे एथी ए ग्रंथ, मौलिकपणुं, गौरव के प्रामाणिकता जळवाय खरां ? आपणे निर्विवादपणे कबूल करवू जोईए के मूळ ग्रंथमां एवो नवो उमेरो क्यारे य पण वास्तविक तेमज मान्य न करी शकाय. कोई पण स्थविर महर्षि अणघटतो उमेरो मूळ ग्रंथमां न ज करे अने जो कोई करे तो तेवा उमेराने ते ज जमानाना स्थविरो मंजूर न ज राखे. अने तेम बने तो तेनी मौलिकतामां जरूर ऊणप आवे. अही प्रसंगवशात् एक वात स्पष्ट करी लईए के, चतुर्दशपूर्वधर भगवान् भद्रबाहुना जमानाना नियुक्तिग्रंथोने आर्यरक्षितना युगमा व्यवस्थित कराय अने आर्यरक्षितना युगमां व्यवस्थित कराएल नियुक्तिग्रंथोने ते पछीना जमानामां व्यवस्थित करवामां आवे, एटलं ज नहि पण ए नियुक्तिग्रंथोमां उत्तरोत्तर गाडां ने गाडां भरीने वधारो घटाडो करवामां आवे, आ जातनी कल्पनाओ जराय युक्तिसंगत नथी. कोई पण मौलिक ग्रंथमां आवा फेरफारो कर्या पछी ए ग्रंथने मूळ पुरुषना नामथी प्रसिद्ध करवामां खरे ज एना प्रणेता मूळ पुरुषनी तेमज ते पछीना स्थविरोनी प्रामाणिकता दूषित ज थाय छे. उपर जणाववामां आव्युं ते सिवाय निर्यक्तिग्रन्थोमां व्रण वाबतो एवी छे के जे निर्यक्तिकार चतुर्दशपूर्वधर होवानी मान्यता धरावतां आपणने अटकावे छे. Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३ बृहत्कल्पसूत्रनी प्रस्तावना १ उत्तराध्ययनसूत्रमा अकाममरणीय नामना अध्ययनमां नीचे प्रमाणेनी नियुक्ति गाथा छेः सव्वे एए दारा, मरण विभत्तीइ वण्णिया कमसो । सगलणि उणे पयत्थे, जिण चउदसपुन्वि भासंति ॥ २३३ ॥ अर्थात्-मरणविभक्तिने लगतां बधां द्वारोने अनुक्रमे वर्णव्यां, (परंतु) पदार्थोने संपूर्ण अने विशद रीते जिन एटले केवळज्ञानी अने चतुर्दशपूर्वी ( ज ) कहे छे-कही शके छे. __ आ गाथामां एम कहेवामां आव्युं छे के- पदार्थोने संपूर्ण अने विशद रीते केवळज्ञानी अने चौदपूर्वधर ज कहे छे" जो नियुक्तिकार पोते चौदपूर्वी होय तो गाथामां " चउदसपुव्वी " एम न लखे. श्रीमान् शान्त्याचार्ये परीषहाध्ययनना अंतमा जणाव्युं छे के-" भगवान् भद्रबाहुस्वामी चतुर्दशपूर्वविद् श्रुतकेवलो होई त्रणे काळना पदार्थोने साक्षात् जाणी शके छे माटे अर्वाचीन उदाहरणो जोई एने माटे बीजानां करेला हशे एम शंका न करवी" परंतु आ प्रमाणे समाधान आपनार पूज्यश्री शान्त्याचार्यने उपरोक्त गाथानी टीका करतां घडीभर विचारमग्न थवा साथे केवु मूंझावु पड्युं छे ए आपणे नीचे आपेला एमनी टीकाना अंशने ध्यानमां लेतां समजी शकीए छीए " सम्प्रत्यतिगम्भीरतामागमस्य दर्शयन्नात्मौद्ध त्यपरिहारायाह भगवान् नियुक्तिकारः सव्वे एए दारा० गाथाव्याख्या-' सर्वाणि' अशेषाणि 'एतानि' अनन्तरमुपदर्शितानि 'द्वाराणि' अर्थप्रतिपादनमुखानि 'मरणविभक्तेः' मरणविभक्त्यपरनाम्नोऽस्यैवाध्ययनस्य ' वर्णितानि' प्ररूपतानि, मयेति शेषः, ' कमलो 'त्ति प्राग्वत् क्रमतः । आह एवं सकलाऽपि मरणवक्तव्यता उक्ता उत न ? इत्याह-सकलाश्व-समस्ता निपुणाश्व-अशेषविशेषकलिताः सकलनिपुणाः तान् पदार्थान् इह प्रशस्तमरणादीन् जिनाश्च-केवलिनः चतुर्दशपूर्विणश्च-प्रभवादयो जिनचतुर्दशपूर्विणो ' भापन्ते ' व्यक्तमभिदधति, अहं तु मन्दमतित्वान्न तथा वर्णयितुं श्रम इत्यभिप्रायः । स्वयं चतुर्दशपूर्वित्वेऽपि यचतुर्दशपूर्युपादानं तत् तेपामपि पट्रस्थानपतितत्वेन शेषमाहात्म्यख्यापनपरमदुष्टमेव, भाष्यगाथा वा द्वारगाथाद्वयादारभ्य लक्ष्यन्त इति प्रेर्यानवकाश एवेति गाथार्थः ।। २३३ ॥” उत्तराध्ययन पाइयटीका पत्र. २४०. उपरोक्त टीकामा श्रीमान् शान्त्याचार्ये वे रीते समाधान करवा प्रयत्न कर्यो छे-" १. नियुक्तिकार पोते चौदपूर्वी होवा छतां "चउदमपुवी" एम लख्यु छे ते चौदपूर्वधरो आपस आपसमां अर्थज्ञाननी अपेक्षाए पट्स्थानपतित अर्थात् ओछावत्ती समजवाळा होवाथी पोताथी अधिकनुं माहात्म्थ सूचववा माटे छे. २. अथवा द्वारगाथाथी लईने अहीं सुधीनी बधीये भाष्यगाथा होवी जोईए एटले शंकाने स्थान नथी." आबुं वैकल्पिक अने निराधार समाधान ए क्यारेय पण वास्तविक न गणाय. तेमज Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रंथकारोनो परिचय आ समाधानने चूर्णकारनो टेको पण नथी. ज्यारे कोइ पण स्थळे विरोध जेवु आवे त्यारे तेने स्वेच्छाथी " भाष्यगाथा छ” इत्यादि कही निराधार समाधान आपवाथी काम चाली शके नहि. एटले पूज्य श्री शान्ति सूरिजीनुं उपरोक्त वैकल्पिक समाधान,-जेना माटे खुद पोते पण शंकित छ,-मान्य राखी शकाय नहि. २. सूत्रकृतांगसूत्रना बीजा श्रुतस्कंधना पहेला पुंडरीकाध्ययनमा — पुंडरीक ' पदना निक्षेपोर्नु निरूपण करतां द्रव्यनिक्षेपना जे त्रण आदेशोनो नियुक्तिकारे संग्रह को छे ए बृहत्कल्पसूत्रचूर्णिकारना कहेवा प्रमाणे स्थविर आयमंगु, स्थविर आर्यसमुद्र अने स्थविर आर्यसुहस्ती ए त्रण स्थविरोनी जुदी जुदी त्रण मान्यतारूप छे. चूर्णिकारे जणावेल वात साची होय,-बाधित होवा माटेगें कोई प्रमाण नथी,-तो आपणे एम मानवं जोईए के चतुर्दशपूर्व विद् भद्रबाहुकृत नियुक्तिपंथोमा तेमना पछी थएल स्थविरोना आदेशोनो अर्थात् एमनी मान्यताओनो उल्लेख होई ज न शके. अने जो ए स्थविरोना मतोनो संग्रह नियुक्तिग्रंथोंमां होय तो 'ए कृति चतुर्दशपूर्वधर भद्रबाहुनी नथी पण कोई बीजा ज स्थविरनी छे' एम कहे, जोईए. जो पाछळथएल स्थविरोनी कहेवाती, मान्यताओनो संग्रह चतुर्दशपू. र्वधरनी कृतिमा होय तो ए मान्यताओ आर्यमंगु आदि स्थविरोनी कहेवाय ज नहि. जो कोई आ प्रमाणे प्रयत्न करे तो ए सामे विरोध ज ऊभो थाय. अन्तु, नियुक्तिमा पाछळना स्थविरोना उपरोक्त द्रव्यनिक्षेपना त्रण आदेशो जोतां नियुक्तिकार चतुर्दशपूर्वधर भद्रबाहुस्वामी होवानी मान्यता बाधित थाय छे. ३. उपर अमे जे वे प्रमाण टांकी आव्या ते करतां त्रीजुं प्रमाण वधारे सबळ छे अने ए दशाश्रुतस्कंधनी नियुक्तिनुं छे. दशाश्रुतस्कंधनी नियुक्तिना प्रारंभमां नीचे प्रमाणे गाथा छे वंदामि भद्दबाहुं, पाईणं चरिमसगलसुयनाणिं । सुत्तस्स कारगमिसिं, दसासु कप्पे य ववहारे ॥ १ ॥ ___ दशाश्रुतस्कंधनियुक्तिना आरंभमां छेदसूत्रकार चतुर्दशपूर्वधर स्थविर भद्रबाहुने उपर प्रमाणे नमस्कार करवामां आवे ए उपरथी सौ कोई समजी शके तेम छ के-" नियुक्तिकार चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहुस्वामी होय तो पोते पोताने आ रीते नमस्कार न ज करे.' एटले आ उपरथी अर्थात ज एम सिद्ध थाय छे के-नियुक्तिकार चतुर्दशपूर्वधर भद्रबाहुस्वामी नथी पण कोई वीजी ज व्यक्ति छे. १. गणहरथेरकयं वा, आएसा मुकवागरणतो वा । धुवच लक्सेिसतो वा, अंगाऽणंगेसु णाणत्तं ॥ १४४ ॥ चूर्णि:- किं च आएसा जहा अजमंगू तिविहं संखं इच्छति-एगभवियं बद्धाउयं अभिमुहनामगोत्तं च । अजसमुद्दा दुनिहं-बद्धाउयं अभिमुहनामगोनं च । अन्जनहत्थी एग-अभिभुनामगोयं इच्छति ॥ कल्पभाग्यगाथा अने चूर्णि ( लिखित प्रति ) Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ बृहत्कल्पसूत्रनी प्रस्तावना ___ अहीं कोईए एम कहेवान साहस न कर, के-" आ गाथा भाष्यकारनी अथवा प्रक्षिप्त गाथा हशे " कारण के-खुद चूर्णिकारे ज आ गाथाने नियुक्तिगाथा तरीके जणावी छे. आ स्थळे सौनी जाणखातर अमे चूर्णिना ए पाठने आपीए छीए चर्णि-तं पुण मंगलं नामादि चतुर्विधं आवस्सगाणुकमेण परूवेयव्वं । तत्थ भावमंगलं निजृत्तिकारो आह-बंदामि भहबाहुं, पाईणं चरिमसगलसुयणाणिं । सुत्तस्स कारगमिसिं, दसासु कप्पे य ववहारे ॥ १ ॥ चूर्णि:-भद्दवाहू नामेणं । पाईणो गोत्तेणं । चरिमो अपच्छिमो । सगलाई चोदसपुव्वाइं। किंनिमित्तं नमोकारो तस्स कजति ? उच्यते-जेण सुत्तस्स कारओ ण अत्थस्स, अत्थो तित्थगरातो पसूतो । जेण भण्णति-अत्थं भासति अरहा० गाथा। कतरं सुत्तं ? दसाओ कप्पो ववहारो य । कतरातो उद्धृतम् ? उच्यते-पञ्चक्खाणपुवातो । अहवा भावमंगलं नन्दी, सा तहेव चउव्विहा ।। -दशाश्रुतस्कंधनियुक्ति अने चूर्णि ( लिखित प्रति ) अहीं अमे चूर्णिनो जे पाठ आप्यो छे एमां चूर्णिकारे " भावमंगल नियुक्तिकार कहे छे” एम लखीने ज " वंदामि भद्दबाहुं " ए मंगलगाथा आपी छे एटले कोईने बीजी कल्पना करवाने अवकाश रहेतो नथी. ____ भगवान् भद्रबाहुनी कृतिरूप छेदसूत्रोमां दशाश्रुतस्कंधसूत्र सौथी पहेलं होई तेनी नियुक्तिना प्रारंभमां तेमने नमस्कार करवामां आव्यो छे ए छेदसूत्रोना प्रणेता तरीके अत्यंत औचित्यपात्र ज छे. ____ जो चर्णिकार, निर्यक्तिकार तरीके चतुर्दशपूर्वधर स्थविर आर्य भद्रबाहुने मानता होत, तो तेओश्रीने आ गाथाने नियुक्तिगाथा तरीके जणाववा पहेलां मनमा अनेक विकल्पो ऊठ्या होत. एटले ए वात निर्विवादपणे स्पष्ट थाय छे के-" चतुर्दशपूर्वधर भद्रबाहुस्वामी नियुक्तिकार नथी" अमने तो लागे छे के नियुक्तिकारना विषयमा उद्भवेलो गोटाळो चूर्णिकारना जमाना पछीनो अने ते नामनी समानतामांथी जन्मेलो छे. ___ उपर अमे प्रमाणपुरःसर चर्चा करी आव्या ते कारणसर अमारी ए दृढ मान्यता छे के-आजना नियुक्तिग्रंथो नथी चतुर्दशपूर्वधर स्थविर आर्य भद्रवाहुस्वामीना रचेला के नथी ए, अनुयोगपृथक्त्वकार स्थविर आयरक्षितना युगमा व्यवस्थित कराएल; परंतु आजना आपणा नियुक्तिग्रंथो उपराउपरी पडता भयंकर दुकाळो अने श्रमणवर्गनी यादशक्तिनी खामीने कारणे खंडित थएल आगमोनी स्थविर आर्यस्कंदिल, स्थविर नागार्जुन आदि स्थविरोए पुनःसंकलना अथवा व्यवस्था करी तेने अनुसरता होई ते पछीना छे. उपर अमे जणावी आव्या ते मुजब आजना आपणा नियुक्तिप्रन्थो चतुर्दशपूर्वविद् स्थविर आर्य भद्रबाहुस्वामिकृत नथी-न होय, तो एक प्रश्न सहेजे ज उपस्थित थाय छे Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रंथकारोनो परिचय ३६ त्यारे ए नियुक्तिग्रन्थो कोणे रचेला छे ? अने एनो रचनासमय कयो होवो जोईए ? आ प्रश्नने लगतां लभ्य प्रमाणो अने अनुमानो अमे आ नीचे रजू करीए छीएछेदसूत्रकार चतुर्दशपूर्वघर भगवान् श्रीभद्रबाहुस्वामी ए ज नियुक्तिकार छे' ए भ्रान्त मान्यता जो समान नाममांथी जन्मी होय, -अने ए प्रकारनी नामसमानतानी प्रान्तिमांथी स्थविर आर्य कालक, आचार्य श्रीसिद्धसेन, आचार्य श्रीहरिभद्र वगेरेना संबंधमां जेम अनेक गोटालाभरी भ्रान्त मान्यताओ ऊभी थई छे तेम तेवो संभव ज वधारे छे, तो एम अनुमान कर अयोग्य नहि मनाय के छेदसूत्रकार करतां कोई बीजा ज भद्रबाहु नामना स्थविर नियुक्तिकार होवा जोइए - छे. " आ अनुमानना समर्थनमां अमे एक बीजुं अनुमान रजू करीए छीए-दशा, कल्प, व्यवहार अने निशीथ ए चार छेदसूत्रो, आवश्यकादि दश शास्त्र उपरनी निर्युक्तिओ, उवसहर स्तोत्र अने भद्रबाहुसंहिता मळी एकंदर सोळं ग्रन्थो श्रीभद्रबाहुस्वामीनी कृति तरीके श्वेतांबर संप्रदायमां सर्वत्र प्रसिद्ध छे. आमांनां चार छेदसूत्रो चतुर्दशपूर्वधर स्थविर आर्य भद्रबाहुकृत तरीके सर्वमान्य छे, ए अमे पहेलां कही आव्या छीए. नियुक्तिप्रन्थो अमे अनुमान कर्यु छे ते मुजब 'छेदसूत्रकार श्रीभद्रबाहुस्वामी करतां जुदा ज भद्रबाहुस्वामीए रचेला छे.' ए अमारुं कथन जो विद्वन्माय होय तो एम कही शकाय के - दश नियुक्तिग्रन्थो, उपसर्गहरस्तोत्र अने भद्रबाहुंसंहिता ए बारे ग्रंथो एक ज भद्रबाहुकृत होवा जोईए. आ भद्रबाहु बीज कोई नहि पण जेओ वाराहिसंहिताना प्रणेता ज्योतिर्विद् वराहमिहिरना पूर्वाश्रमना सहोदर तरीके जैन संप्रदायमां जाणीता छे अने जेमने अष्टांगनिमित्त अने मंत्रविद्याना पारगामी अर्थात् नैमित्तिकै तरीके ओळखवामां आवे छे, ते छे. एमणे भाई साथे धार्मिक स्पर्धामां आवतां भद्रवाहुसंहिता अने उपसर्गहरस्तोत्र जेवा मान्य ग्रन्थोनी रचना करी हती अथवा ए ग्रंथो रचत्रानी एमने अनिवार्य रीते आवश्यकता जणाई हती. भिन्नभिन्न संप्रदायना उपासक भाईओमां संहितापदालंकृत ग्रंथ रचवानी भावना जन्मे ए पारस्परिक स्पर्धा सिवाय भाग्ये ज संभवे . १. ओघनिर्युक्ति, पिंडनिर्युक्ति अनं पंचकल्पनिर्युक्ति आ त्रण निर्युक्तिरूप ग्रंथो अनुक्रमे आवश्यकनिर्युक्ति, दशवैकालिकनियुक्ति अने कल्पनिर्युक्तिता अंशरूप होई तेनी गणतरी अमे आ ठेकाणे जुदा ग्रंथ तरीके आपी नथी. संसक्तनिर्युक्ति, प्रहशान्तिस्तोत्र, सपादलक्षवसुदेवहिंडी आदि ग्रंथो भद्रवाहुस्त्रामिकृत होत्रा सा अनेक विरोध होई ए ग्रंथोनां नामनी नोंध पण अहीं लोधी नथी. २. भद्रबाहु संहिता ग्रंथ आजे लभ्य नथी. आज मळतो भद्रबाहुसंहिता ग्रंथ कृत्रिम छे एम तेना जाणकारो कहे छे. ३. पावयणी १ धम्मकही २ बाई ३ णेमित्तिओ ४ तवस्सी ५ य | विज्जा ६ सिद्धो ७ य कई ८ अट्ठेव पभावगा भगिया ॥ ॥ अजरक्ख १ नंदिसेणो २ सिरिगुत्तविणेय ३ भद्दबाहू ४ य । खवग ५ जखवुड ६ समिया S दिवायरो ९ वा इहाऽऽहरणा ॥ २ ॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृहत्कल्पसूत्रनी प्रस्तावना नियुक्तिकार अने उपसर्गहरस्तोत्रादिना रचयिता एक ज भद्रबाहु अने ते पण नैमित्तिक भद्रबाहु होवानुं अनुमान अमे एटला उपरथी करीए छीए के-आवश्कनियुक्तिमा गाथा १२५२ थी १२७० सुधीमां गंधर्व नागदत्तनुं कथानक आपवामां आव्युं छे तेमां नागनुं विष उतारवा माटे क्रिया करवामां आवी छे अने उपसर्गहरस्तोत्रमा पण विसहरफुलिंगमंतं इत्यादि द्वारा नागनो विषोत्तार ज वर्णववामां आव्यो छे. ए समानता एककतमूलक होय एम मानवाने अमे स्वाभाविक रीते प्रेराइए छीए. नियुक्तिग्रन्थमा मंत्रक्रियाना प्रयोग साथे ' स्वाहा' पदनो निर्देश ए तेना रचयिताना ए वस्तु प्रत्येना प्रेमने अथवा एनी जाणकारीने सूचवे छे अने एवा अष्टांगनिमित्त अने मंत्रविद्याना पारगामी नैमित्तिक भद्रबाहु ज्योतिर्विद् वराहमिहिरना भाई सिवाय वीजा कोई जाणीता नथी. एटले एम अनुमान करवाने कारण मळे छे के-उपसर्गहरस्तोत्रादिना प्रणेता अने नियुक्तिकार भद्रबाहु ए एक ज व्यक्ति होवी जोईए. नियुक्तिकार भद्रबाहु नैमित्तिक होवा माटे ए पण एक सूचक वस्तु छ के-तेमणे आवश्यकसूत्र आदि जे मुख्य दश शास्त्रो उपर नियुक्तिओ रची छे तेमां — सूर्यप्रज्ञप्ति' शास्त्रने सामेल राखेल छे. आ उपरथी आपणे नियुक्तिकारनी ए विद्या विपेनी कुशळता अने प्रेमने जोई शकीए छीए अने तेमना नैमित्तिक होवानुं अनुमान करी शकीए छीए. आ करतां य नियुक्तिकार आचार्य नैमित्तिक होवानुं सबळ प्रमाण आचारांगनियुक्तिमांथी आपणने मळी आवे छे. आचारांगनियुक्तिमा ' दिक् ' पदना भेदो अने ए भेदोनुं व्याख्यान करतां नियुक्तिकार 'प्रज्ञापक दिशानी व्याख्या नीचे प्रमाणे आपे छे जत्थ य जो पण्णवओ, कस्स वि साहइ दिसासु य णिमित्तं । जत्तोमुहो य ठाई, सा पुव्वा पच्छओ अवरा ॥ ५१ ॥ अर्थात् --ज्यां रहीने जे प्रज्ञापक-व्याख्याता जे दिशामा मुख राखीने कोईने " निमित्त " कहे ते तेनी पूर्व दिशा अने पाछळनी बाजुमा पश्चिमदिशा जाणवी. १. गंधवनागदत्तो, इच्छइ सप्पेहिं खिल्लिउं इहयं । तं जइ कहंचि खजइ, इत्थ हु दोसो न कायबो ॥ १२५२ ।। एए ते पावाही, चत्तारि वि कोहमाणमयलोभा । जेहि सया संसतं, जरियमिव जयं कलकलेइ ।। १२६२ ॥ एएहिं अहं खइओ, चउहि वि आसीबिसेहिं पावेहिं । विसनिग्घायणहेउं, चरामि विविहं तवोकन्म ।। १२६४ ।। सिद्धे नमंसिऊण, संसारत्या य जे महाविजा । वोच्छामि दंडकिरियं, सव्वविसनिवारणिं विजं ॥ १२६९ ।। सव्वं पाणइवायं, पच्चक्खाई मि अलियवयणं च । सवमदत्तादाणं अब्बंभ परिग्गरं स्वाहा ॥ १२७० ।। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ ग्रंथकारोनो परिचय आ गाथामा नियुक्तिकारे " कस्सइ साहइ दिसासु य णिमित्तं " एम जणाव्युं छे ए उपरथी आपणने खात्री थाय छे के तेना प्रणेताने निमित्तना विषयमां भारे शोख हतो. नहितर आवा आचारांगसूत्र जेवा चरणकरणानुयोगना तात्विक ग्रन्थनुं व्याख्यान करतां बीजा कोई तात्त्विक पदार्थनो निर्देश न करतां निमित्तनो निर्देश करवा तरफ तेना प्रणेतानुं ध्यान जाय ज शी रीते ? __ केटलाक प्राचीन विद्वानो छेदसूत्र, नियुक्ति, भद्रबाहुसंहिता, उपसर्गहरस्तोत्र ए बधायना प्रणेता चौदपूर्वधर भद्रबाहुस्वामी छे ए कहेवा साथे एम पण माने छे के एओश्री वाराहीसंहिता आदिना प्रणेता ज्योतिर्विद् वराहमिहिरना सहोदर हता, परंतु आ कथन कोई रीते संगत नथी. कारण के वराहमिहिरनो समय पंचसिद्धान्तिकोना अंतमां पोते निर्देश करे छे ते प्रमाणे शक संवत ४२७ अर्थात् विक्रम संवत ५६२ छट्ठी शताब्दि उत्तरार्ध निर्णीत छे. एटले छेदसूत्रकार चतुर्दशपूर्वज्ञ भद्रबाहु अने उपसर्गहरस्तोत्रादिना रचयिता तेमज ज्योतिर्विद् वराहमिहिरना सहोदर भद्रबाहु तद्दन भिन्न ज नक्की थाय छे. उपसर्गहरस्तोत्रकार भद्रबाहु अने ज्योतिर्विद् वराहमिहिरनी परस्पर संकळाएली जे कथा चौदमी शताब्दिमां नोंधपोथीने पाने चढेली छे ए सत्य होय तेम संभव छ एटले उपसर्गहरस्तोत्रकार भद्रबाहुस्वामीने चतुर्दशपूर्वधर तरीके ओळखाववामां आवे छे ए बराबर नथी. तेम ज भद्रबाहुसंहिताना प्रणेता तरीके ए ज चतुर्दशपूर्वधरने कहेवामां आवे छे ए पण वजूददार नथी रहेतुं. कारणके भद्रबाहुसंहिता अने वाराहीसंहिता ए समाननामक ग्रन्थो पारस्परिक विशिष्ट स्पर्धाना सूचक होई बन्नेयना समकालभावी होवानी वातने ज वधारे टेको आपे छे. आ रीते वे भद्रबाहु थयानुं फलित थाय छे. एक छेदसूत्रकार चतुर्दशपूर्वधर स्थविर आर्य भद्रबाहु अने वीजा दश नियुक्तिओ, भद्रबाहुसंहिता अने उपसर्गहरस्तोत्रना प्रणेता भद्रबाहु, जेओ जैन संप्रदायमां नैमिचिक तरीके जाणीता छे. आ बन्नेय समर्थ ग्रंथकारो भिन्न होवार्नु ए उपरथी पण कही शकाय के-तित्थोगा. लिप्रकीर्णक, आवश्यकचूर्णि, आवश्यक हारिभद्रीया टीका, परिशिष्टपर्व आदि प्राचीन मान्य ग्रन्थोमां ज्यां चतुर्दशपूर्वधर स्थविर आर्य भद्रबाहुनुं चरित्र वर्णववामां आव्युं छे त्यां बारवरसी दुकाळ, तेओश्रीनु नेपाळ देशमां वसवू, महाप्राणध्यान- आराधन, स्थूलभद्र आदि मुनिओने वाचना आपवी, छेदसूत्रोनी रचना करवी इत्यादि हकीकत आवे छे पण वराहमिहिरना भाई होवानो, नियुक्तिग्रन्थो, उपसर्गहरस्तोत्र, भद्रबाहुसंहिता आदिनी रचना करवी आदिने लगतो तेमज तेओ नैमित्तिक होवाने लगतो कशोय उल्लेख नथी. आथी एम सहेजे ज लागे के-छेदसूत्रकार भद्रबाहुस्वामी अने नियुक्ति आदिना प्रणेता भद्रबाहुस्वामी बन्ने य जुदी जुदी व्यक्तिओ छे. १. सप्ताश्विवेदसंख्यं, शककालमपास्य चैत्रशुक्लादौ । अर्धास्तमिते भानौ, यवनपुरे सौम्यदिवसाये ॥ ८ ॥ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पसूत्रनी प्रस्तावना नियुक्तिकार भद्रबाहु ए विक्रमनी छठी सदीमां थएल ज्योतिर्विद् वराहमिहिरना सहोदर होई नियुक्तिग्रंथोनी रचता विक्रमना छट्ठा सैकामां थई छे ए निर्णय कर्या पछी अमारा सामे एक प्रश्न उपस्थित थाय छ के-पाक्षिकसूत्रमा सूत्रकीर्तनन। प्रत्येक आलापकमां अने नंदीसूत्रमा अंगप्रविष्ट श्रुतज्ञानना निरूपणमां नीचे प्रमाणेना पाठो छ--- " ससुत्ते सअत्थे सगंथे सनिज्जुत्तिए ससंगहणिए " पाक्षिकसूत्र. ___“ संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ संखेज्जाओ संगहणीओ" नंदीसूत्र. अहीं आ बन्ने य सूत्रपाठो आपवानो आशय ए छे के-आ बन्ने य सूत्रो, जेनी रचना विक्रमना छट्ठा सैकाना आरंभमां ज अथवा पांचमी शताब्दिना उत्तरार्धमा थई चूकवानो संभव वधारे छे, तेमां नियुक्तिनो उल्लेख थएलो छे. उपर जणाववामां आव्युं छे तेम जो नियुक्तिकार विक्रमना छठा सैकाना पहेला चरण के वीजा चरण लगभग थया होय तो ते पहेलां गूंथाएल आ बन्ने य सूत्रोमा नियुक्तिनो उल्लेख केम थयो छे ? ए प्रश्ननुं समाधान नीचे प्रमाणे थई शके छे पाक्षिकसूत्र अने नंदीसूत्रमा नियुक्तिनो जे उल्लेख करवामां आव्यो छे ए अत्यारे आपणा सामे वर्तमान दश शास्त्रनी नियुक्तिने लक्षीने नहि किन्तु गोविंदनियुक्ति आदिने ध्यानमा राखीने करवामां आव्यो छे. नियुक्तिकार, स्थविर भद्रबाहुस्वामी थयानी वात सर्वत्र प्रसिद्ध छे परंतु एमना सिवाय बीजा कोई नियुक्तिकार थयानी वातने कोई विरल व्यक्तिओ ज जाणती हशे. निशीथचूर्णिना ११ मा उद्देशामां' ज्ञानस्तेन' नुं स्वरूप वर्णवतां भाष्यकारे जणाव्युं छे के"गोविंदजो नाणे-अर्थात्-ज्ञाननी चोरी करनार गोविंदाचार्य जाणवा." आ गाथानी चूर्णिमां चूर्णिकारे गोविंदाचार्यने लगता एक विशिष्ट प्रसंगनी ढूंक नोंध लीधी छे, त्यां लख्यु छे के-“ तेमणे एकेंद्रिय जीवने सिद्ध करनार गोविंदनियुक्तिनी रचना करी हती." आ उल्लेखने आधारे स्पष्ट रीते जाणी शकाय छे के-एक वखतना बौद्ध भिक्षु अने पाछळथी प्रतिबोध पामी जैन दीक्षा स्वीकारनार गोविंदाचार्य नामना स्थविर नियुक्तिकार थई गया छे. तेओश्रीए कया आगम उपर नियुक्तिनी रचना करी हशे ए जाणवा माटेनें आपणा सामे स्पष्ट प्रमाण के साधन विद्यमान नथी; तेम छतां चूर्णिकारना उल्लेखना औचित्यने ध्यानभां लेता श्रीमान् गोविंदाचार्य बीजा कोई आगम ग्रंथ उपर नियुक्तिनी रचना करी हो या गमे तेम हो, ते छतां आचारांगसूत्र उपर खास करी तेना शस्त्रपरिज्ञानामक प्रथम अध्ययन उपर तेमणे नियुक्ति रची होवी जोईए. शस्त्रपरिज्ञा अध्ययनमा मुख्यतया पांच स्थावरो--एकेंद्रिय जीवोनुं अने त्रस जीवोनु ज निरूपण छे. अत्यारे आपणा समक्ष गोविंदाचार्यकृत गोविंदनियुक्ति ग्रंथ नथी तेमज निशीथभाष्य, निशीथचूर्णि, कल्पचर्णि आदिमा आवता गोविंदनिज्जुत्ति एटला सामान्य नामनिर्देश सिवाय कोई पण चूर्णि आदि प्राचीन ग्रंथोमा ए नियुक्तिमांनी गाथादिनो प्रमाण तरीके उल्लेख थएलो जोवामां नथी Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० ग्रंथकारोनो परिचय आव्यो; एटले अमे मात्र उपरोक्त अनुमान करीने ज अटकीए छीए. अहीं अमे सौनी जाण खातर उपरोक्त निशीथचूर्णिनो पाठ आपीए छीए. गोविंदजो नाणे, दंसणे सुत्तत्थहेउअट्टा वा । पावंचियउवचरगा, उदायिवधगादिगा चरणे ॥ गोविंद० गाहा-गोविंदो नाम भिक्खू । सो य एगेण आयरिएण वादे जितो अट्ठारसवारा । ततो तेण चिंतितं-सिद्धंतसरूवं जाव एते सिं नो लब्भति तावेते जेतुं ण सकेंति । ताहे सो नाणहरणट्ठा तस्सेवाऽऽयरियस्स सगासे निक्खंतो। तस्स य सामायियादिपढंतस्स सुद्धं सम्मत्तं । ततो गुरुं वंदित्ता भणति-देहि मे वते । आयरिओ भणाति-नणु दत्ताणि ते वताणि । तेण सब्भावो कहिओ । ताहे गुणा दत्ताणि से वताणि । पच्छा तेण एगिदियजीवसाहणं गोविंदनिज्जुत्ती कया । एस नाणतेणो । निशीथचूर्णि उद्देश ११ भावार्थ-गोविंद नामे बौद्ध भिक्षु हतो. ते एक जैनाचार्य साथे अढार वखत वादमा हार्यों. तेणे विचायु के-ज्यां सुधी आमना सिद्धांतना रहस्यने जाण्युं नथी त्यां सुधी आमने जीती शकाशे नहि. ते भिक्षुए ज्ञाननी चोरी करवा माटे ते ज आचार्य पासे दीक्षा लीधी. सामायिकादि सूत्रोनो अभ्यास करतां तेने शुद्ध सम्यक्त्व प्राप्त थयु. तेणे गुरुने को के-मने व्रतोनो स्वीकार करावो. आचार्ये कह्य के-तने व्रतोनो स्वीकार कराव्यो ज छे. तेणे पोतानो आशय जणाव्यो. गुरुए तेने पुनः व्रतो आप्यां. तेणे एकेंद्रिय जीवोने साबित करनार गोविंदनियुक्तिनी रचना करी." गोविंदनियुक्तिने निशीथचूर्णि आदिमां दर्शनप्रभावकशास्त्र तरीके जणाववामां आवेल छे णाणट्ठ० गाथा-आयारादी गाणं, गोविंदणिज्जुत्तिमादी देसणं, जत्थ विसए चरित्तं ण सुज्झति ततो निग्गमणं चरित्तट्ठा ॥ निशीथचूर्णि उ० ११ सगुरुकुल-सदेसे वा, नाणे गहिए सई य सामत्थे । वच्चइ उ अन्नदेसे, दंसणजुत्ताइ अत्थो वा ॥ २८८० ।। चूर्णि:-सगुरु० गाहा । अप्पणो आयरियस्स जत्तिओ आगमो तम्मि सम्वम्मि गहिए स्वदेशे योऽन्येषामाचार्याणामागमस्तस्मिन्नपि गृहीते दसणजुत्तादि अत्थो वत्ति गोविंदनिर्युक्याद्यर्थहेतोरन्यदेशं ब्रजति ॥ कल्पचूर्णि पत्र. ११६.-पाटण संघना भंडारनी ताडपत्रीय प्रति ॥ 'दसणजुत्ताइ अत्थो व ' ति दर्शनविशुद्धिकारणीया गोविन्दनियुक्तिः, आदिशब्दात् सम्मतितत्त्वार्थप्रभृतीनि च शास्त्राणि तदर्थः तत्प्रयोजनः प्रमाणशास्त्रकुशलानामाचार्याणां समीपे गच्छेत् ॥ कल्पटीका पत्र ८१६. __ गोविंदनियुक्तिप्रणेता गोविंदाचार्य मारी समज प्रमाणे वीजा कोई नहि पण जेमने नंदीसूत्रमा अनुयोगधर तरीके वर्णववामां आव्या छे अने जेओ युगप्रधानपट्टावलीमां अट्ठावीसमा युगप्रधान होवा साथे जेओ माथुरी वाचनाना प्रवर्तक स्थविर आर्य स्कंदिलथी चोथा युग Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ बृहत्कल्पसूत्रनी प्रस्तावना प्रधान छे ते ज होवा जोईए. एओश्री विक्रमना पांचमा सैकाना पूर्वार्धमा विद्यमान हता. एमणे रचेल गोविंदनियुक्तिने लक्षीने ज पाक्षिकसूत्र तथा नंदीसूत्रमा नियुक्तिनो उल्लेख करायो छे एम मानवू मने वधारे संगत लागे छे. मारुं आ वक्तव्य जो वास्तविक होय तो पाक्षिकसूत्र अने नंदीसूत्रमा थएल नियुक्तिना उल्लेखने लगता प्रश्ननुं समाधान स्वयमेव थई जाय छे. _____ अंतमां अमे अमारु प्रस्तुत वक्तव्य समाप्त करवा पहेलां ढूंकमां एटलुं ज जणावीए छीए के छेदसूत्रकार अने नियुक्तिकार स्थविरो भिन्न होवा माटेना तेमज भद्रबाहुस्वामी अनेक थवा माटेना स्पष्ट उल्लेखो भले न मळता हो, ते छतां आजे आपणा सामे जे प्राचीन प्रमाणो अने उल्लेखो विद्यमान छे ते उपरथी एटलुं चोकस जणाय छे के-छेदसूत्रकार स्थविर अने नियुक्तिकार स्थविर एक नथी पण जुदा जुदा ज महापुरुषो छे. आ वात निर्णीत छतां छेदसूत्रकार अने नियुक्तिकार ए बन्नेयना एककर्तृत्वनी भ्रान्ति समान नाममाथी जन्मी होय, अने एवो संभव पण वधारे छे एटले आजे अनेकानेक विद्वानो आ अनुमान अने मान्यता तरफ सहेजे ज दोराय छे के-छेदसूत्रकार पण भद्रबाहुस्वामी छे अने नियुक्तिकार पण भद्रबाहुस्वामी छे. छेदसूत्रकार भद्रबाहु चतुर्दशपूर्वधर छे अने नियुक्तिकार भद्रबाहु नैमेत्तिक आचार्य छे. अमे पण अमारा प्रस्तुत लेखमां आ ज मान्यताने सप्रमाण पुरवार करवा सविशेष प्रयत्न कर्यो छे. भाष्यकार श्रीसंघदासगणि क्षमाश्रमण. प्रस्तुत कल्पभाष्यना प्रणेता श्रीसंघदासगणि क्षमाश्रमण छे. संघदासगणि नामना बे आचार्यो थया छे. एक वसुदेवहिंडि-प्रथम खंडना प्रणेता अने बीजा प्रस्तुत कल्पलधुभाष्य अने पंचकल्पभाष्यना प्रणेता. आ बन्नेय आचार्यो एक नथी पण जुदा जुदा छे, कारण के वसुदेवहिंडि-मध्यमखंडना कर्ता आचार्य श्रीधर्मसेनगणि महत्तरना कथनानुसार वसुदेवहिंडि -प्रथम खंडना प्रणेता श्रीसंघदासगणि, 'वाचक' पदालंकृत हता ज्यारे कल्पभाष्यप्रणेता संघदासगणि 'क्षमाश्रमण ' पदविभूपित छे. उपरोक्त बन्नेय संघदासगणिने लगती खास विशेष हकीकत स्वतंत्र रीते क्यांय जोवामां नथी आवती एटले तेमना अंगेनो परिचय आपवानी वातने आपणे गौण करीए तो पण बन्नेय जुदा छे के नहि तेमज भाष्यकार अथवा महाभाष्यकार तरीके ओळखाता भगवान् श्रीजिनभद्रगणि क्षमाश्रमण करतां पूर्ववर्ती छे के तेमना पछी थएला छे ए प्रश्नो तो सहज रीते उत्पन्न थाय छे. भगवान् श्रीजिनभद्रगणिए तेमना विशेषणवती ग्रंथमां वसुदेवहिंडि ग्रंथना नामनो उल्लेख अनेक वार कर्यो छे एटलं ज नहि किन्तु बसुदेव हिंडि-प्रथम खंडमां आवता ऋषभदेवचरित्रनी संग्रहणी १ सुव्वइ य किर वसुदेवेणं वाससतं परिभमंतेणं इमम्मि भरहे विजाहरिंदणरवतिवाणरकुलवंससंभवाणं कण्णाणं सतं परिणीतं, तत्य व सामा-विययमादियाणं रोहिणीपज्जवसाणाणं गुणतीस लंभता संघदासवायएणं उणिवद्धा वसुदेवहिंडी मध्यमखंड उपोद्धात ॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ ग्रंथकारोनो परिचय थाओ बनावीने पण तेमा दाखल करी छे एटले वसुदेवहिंडि . प्रथम खंडना प्रणेता श्रीसंघदासगणि वाचक तो निर्विवाद रीते तेमना पूर्वभावी आचार्य छे. परंतु भाष्यकार श्रीसंघदासगणि क्षमाश्रमण तेमना पूर्वभावी छे के नहि ए कोयडो तो अणउकल्यो ज रही जाय छे. आम छतां प्रासंगिक होय के अप्रासंगिक होय तो पण आ ठेकाणे ए वात कहेवी जोईये के भाष्यकार आचार्य एक नहि पण अनेक थई गया छे. एक भगवान् श्रीजिनभद्रगणि क्षमाश्रमण बीजा श्रीसंघदासगणि क्षमाश्रमण जीजा व्यवहारभाष्य आदिना प्रणेता अने चोथा कल्पबृहद्भाष्य आदिना कर्ता, आ प्रमाणे सामान्य रीते चार भाष्यकार आचार्य थवानी मारी मान्यता छे. पहेला बे आचार्यों तो नामवार ज छे. चोथा कल्पवृहद्भाष्यना प्रणेता आचार्य, जेमनुं नाम जाणी शकायुं नथी ए आचार्य तो मारी धारणा प्रमाणे कल्पचूर्णिकार अने विशेषचूर्णिकार करता य पाछळ थएला आचार्य छे. तेनुं कारण ए छे के-मुद्रित कल्पलघुभाष्य, जेना प्रणेता आचार्य श्रीसंघदासगणि क्षमाश्रमण छे, तेनी १६६१ मी गाथामा प्रतिलेखनाना काळy-वखतनुं निरूपण करवामां आव्युं छे. तेनुं व्याख्यान करतां चूर्णिकार अने विशेषचर्णिकारे जे आदेशांतरोनो अर्थात् पडिलेहणाना समयने लगती विध विध मान्यताओनो उल्लेख कर्यो छे ते करता य नवी नवी वधारानी मान्यताओनो संग्रह कल्पबृहद्भाष्यकारे उपरोक्त गाथा उपरना महाभाष्यमां को छे; जे याकिनीमहत्तरासूनु आचार्य श्रीहरिभद्रसूरि विरचित पंचवस्तुक प्रकरणनी स्वोपज्ञवृत्तिमां उपलब्ध थाय छे आ उपरथी ए वात निश्चित रीते कही शकाय के कल्पबृहद्भाष्यना प्रणेता आचार्य, कल्पचूर्णि-विशेषचूर्णिकार पछी थएला छे अने याकिनीमहत्तरासूनु आचार्य श्रीहरिभद्रसूरिथी कांईक पूर्ववर्ती अथवा समसमयभावी छे. आ उपरथी एक बीजी वात उपर सहेजे प्रकाश पडे छे के-याकिनीमहत्तरासूनु आचार्य श्रीहरिभद्र भगवानने अति प्राचीन मानवानो जे आग्रह राखवामां आवे छे ते प्रामाणिकताथी दूर जाय छे. आटलुं जणाव्या पछी एक वात ए कहेवी बाकी छे के-व्यवहार भाष्यना प्रणेता कोण आचार्य छे ते क्यांय मळतुं नथी; तेम छतां ए आचार्य एटले के व्यवहारभाष्यकार, श्रीजिनभद्रगणि क्षमाश्रमणथी पूर्वभावी होबानी मारी दृढ मान्यता छे. तेनुं कारण ए छे के-भगवान श्रीजिनभद्रगणि क्षमाक्षमणे पोताना विशेषणवती ग्रंथमां सीहो सुदाढनागो, आसग्गीवो य होइ अण्णेसि । सिंहो मिगद्धओ ति य, होइ वसुदेवचरियम्मि ॥ ३३ ॥ १ प्रतिलेखनाना आदेशोने लगता उपरोक्त कल्पचूर्णि. विशेषचूर्णि, महाभाष्य अने पंचवस्तुक स्वोपज्ञ टीकाना उल्लेखो जोवा इच्छनारने प्रस्तुत मुद्रित सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिसहित वृहत्कल्पसूत्र द्वितीय विभाग पत्र ४८८-८९ गाथा १६६१ नो टीका अने ते उपरनी टिप्पणी जोवा भलामण छे. Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ बृहत्कल्पसूत्रनी प्रस्तावना सीहो चेव सुदाढो, जं रायगिहम्मि कविलबड्डुओ ति । सीसइ यवहारे गोयमोवसमिओ स णिक्खंतो ॥ ३४ ॥ आ बे गाथा पैकी बीजी गाथामा व्यवहारना नामनो उल्लेख को छे, ए विषय व्यवहारसूत्रना छट्ठा उद्देशाना भाष्यमां सीहो तिविट्ट निहतो, भमिउं रायगिह कवलिबडुग ति । जिणवर कहणमणुवसम, गोयमोवसम दिक्खा य ।। १९२ ॥ आ प्रमाणे आवे छे. आ उपरथी : श्रीजिनभद्रगणि करतां व्यवहारभाष्यकार पूर्ववर्ती छे' एमां लेश पण शंकाने स्थान नथी. आ उपरांत बीजं ए पण कारण आपी शकाय के-भगवान् श्रीजिनभद्रनी महाभाष्यकार तरीकेनी प्रसिद्धि छे ए तेमना पूर्ववर्ती भाष्यकार अथवा लघुभाष्यकार आचार्योने ज आभारी होय. ___ आजे जैन आगमो उपर नीचे जणाव्या प्रमाणेना भाष्यग्रन्थो जोवामां तेमज सांभळवामां आव्या छे. १-२ कल्पलघुभाष्य तथा कल्पबृहद्भाष्य, ३ महत् पंचकल्पभाष्य, ४-५ व्यवहार. लघुभाष्य तथा व्यवहारबृहद्भाष्य, ६-७ निशीथलघुभाष्य तथा निशीथबृहद्भाध्य, ८ विशेषावश्यकमहाभाष्य, ९-१० आवश्यकसूत्र लघुभाप्य तथा महाभाष्य, ११ ओघनिर्यु. क्तिभाष्य १२ दशवैकालिकभाष्य, १३ पिंडनियुक्तिभाष्य. आ प्रमाणे एकंदर बार भाष्यग्रंथो अत्यारे सांभळवामां आव्या छे. ते पैकी कल्पबृहद्भाष्य आजे अपूर्ण ज अर्थात् बीजा उद्देश अपूर्ण पर्यंत मळे छे. व्यवहार अने निशीथ उपरना बृहद्भाष्य ग्रंथो क्यांय जोवामां आव्या नथी. ते सिवायनां बधांय भाष्यो आजे उपलब्ध थाय छे जे पैकी महत्पंचकल्पभाष्य, व्यवहारलघुभाष्य अने निशीथ लघुभाष्य बाद करतां बांय भाप्यो छपाई चूक्यां छे. अहीं आपेली भाष्योनां नामोनी नोंध पैकी फक्त कल्पलघुमाष्य, महत् पंचकल्पभाष्य अने विशेषावश्यक महाभाष्यना प्रणेताने ज आपणे जाणीए छीए. ते सिवायना भाष्यकारो कोण हता ए वात तो अत्यारे अंधारामां ज पडी छे. आम छतां जो के मारा पासे कशुं य प्रमाण नथी. छतां एम लागे छे के कल्प, व्यवहार अने निशीथ लघुभायना प्रणेता श्रीसंघदासगणि क्षमाश्रमण होय तेवो ज संभव वधारे छे. कल्पलघुभाष्य अने निशीथलघुभाष्य ए वेमांनी भाष्यगाथाओगें अति साम्यपणुं आपणने आ बन्ने य भाष्यकारो एक होवानी मान्यता तरफ ज दोरी जाय छ । अंतमां भाष्यकारने लगतुं वक्तव्य पूर्ण करवा पहेला एक वात तरफ विद्वानोनुं लक्ष्य दोरवु उचित छे के-प्रस्तुत बृहत्कल्पलघुभाष्यना प्रथम उद्देशनी समाप्तिमां भाष्यकारे" उदिण्णजोहाउलसिद्धसेणो, स पत्थिवो णिज्जियसत्तुसेणो ।" (गाथा ३२८९) आ गाथामां, के जे आग्र्यु प्रकरण अने आ गाथा निशीथलघुभाष्य सोळमा उद्देशामां Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रंथकारोनो परिचय ४४ छे, तेमां लखेला · सिद्धसेणो' नाम साथे भगवान् श्रीसंघदासगणि क्षमाश्रमणने कोई नामान्तर तरीकेनो संबंध तो नथी ? जो के चूर्णिकार, विशेषचूर्णिकार आदिए आ संबं. धमां खास कशुं ज सूचन कर्यु नथी, तेम छतां । सिद्धसेन ' शब्द एवो छ के जे सहज. भावे आपणुं ध्यान खेंचे छे. एटले कोई विद्वानने कोई एवो उल्लेख वगेरे बीजे क्यांयथी मळी जाय के जे साथे आ नामनो काई अन्वय होय तो जरूर ध्यानमा राखे. कारण के सिद्धसेनगणि क्षमाश्रमणना नामनी साक्षी निशीथचूणीं पंचकल्पचूर्णि आवश्यक हारि. भद्री वृत्ति आदि ग्रंथोमां अनेक वार आवे छे. ए नामादि साथे भाष्यकारनो शिष्य. प्रशिष्यादि संबंध होय अथवा भाष्यकार- कोई नामांतर होय. अस्तु, गमे ते हो विद्वानोने उपयोगी लागे तो तेओ आ बाबत लक्षमा राखे. टीकाकार आचार्यों. प्रस्तुत बृहत्कल्पसूत्र महाशास्त्र उपर बे समर्थ आचार्योए मळीने टीका रची छे. ते पैकी एक प्रसिद्ध प्रावनिक अने समर्थ टीकाकार आचार्य श्रीमलयगिरिसूरि छे अने बीजा तपोगच्छीय आचार्य श्रीक्षेमकीर्तिसूरि छे. आचार्य श्रीमलयगिरिसूरिवरे प्रस्तुत महाशास्त्र उपर टीका रचवानी शरुआत करी छे परंतु ए टीकाने तेओश्री आवश्यकसूत्र. वृत्तिनी जेम पूर्ण करी शक्या नथी. एटले आचार्य श्रीमलयगिरिजीए रचेली ४६०० श्लोक प्रमाण टीका ( मुद्रित पृष्ठ १७६ ) पछीनी आखाए ग्रंथनी समर्थ टीका रचवा तरीकेना गौरववंता मेरु जेवा महाकार्यने तपोगच्छीय आचार्य श्रीक्षेमकीर्तिसूरिए उपाडी लीधुं छे अने टीकानिर्माणना महान कार्यने पांडित्यभरी रीते सांगोपांग पूर्ण करी तेमणे पोतानी जैन प्रावचनिक गीतार्थ आचार्य तरीकेनी योग्यता सिद्ध करी छे. अहीं आ बन्नेय समर्थ टीकाकारोनो ढूंकमा परिचय कराववामां आवे छे. आचार्य श्रीमलयगिरिसूरि ___ गुणवंती गूजरातनी गौरववंती विभूतिसमा, समग्र जैन परम्पराने मान्य, गूर्जरेश्वर महाराज श्रीकुमारपालदेवप्रतिबोधक महान् आचार्य श्रीहेमचन्द्रना विद्यासाधनाना सहचर, भारतीय समग्र साहित्यना उपासक, जैनागमज्ञशिरोमणि, समर्थ टीकाकार, गूजरातनी भूमिमां अश्रान्तपणे लाखो श्लोकप्रमाण साहित्यगंगाने रेलावनार आचार्य श्रीमलयगिरि कोण हता ? तेमनी जन्मभूमी, ज्ञाति, माता-पिता, गच्छ, दीक्षागुरु, विद्यागुरु वगेरे कोण हता ? तेमना विद्याभ्यास, ग्रन्थरचना अने विहारभूमिनां केन्द्रस्थान कयां हतां ? तेमने शिष्यपरिवार हतो के नहि ? इत्यादि दरेक बाबत आजे लगभग अंधारामां ज छ, छतां शोध अने अवलोकनने अंते जे काई अल्प-स्वल्प सामग्री प्राप्त थई छे तेना आधारे ए महापुरुषनो अहीं परिचय कराववामां आवे छे । ____ आचार्य श्रीमलयगिरिए पोते पोताना ग्रन्थोना अंतनी प्रशस्तिमां " यदवापि मलपगिरिणा, सिद्धिं तेनाश्रुतां लोकः ॥” एटला सामान्य नामोल्लेख सिवाय पोता अंगेनी Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ बृहत्कल्पसूत्रनी प्रस्तावना बीजी कोई पण खास हकीकतनी नोंध करी नथी । तेम ज तेमना समसमयभावी के पाछळ थनार लगभग बधा य ऐतिहासिक ग्रन्थकारोए सुद्धा आ जैनशासनप्रभावक आगमज्ञधुरन्धर सैद्धान्तिक समर्थ महापुरुष माटे मौन अने उदासीनता ज धारण कयाँ छ । फक्त पंदरमी सदीमां थयेला श्रीमान् जिनमण्डनगणिए तेमना कुमारपालप्रबन्धमां 'आचार्य श्रीहेमचन्द्र विद्यासाधन माटे जाय छे' ए प्रसंगमां आचार्य श्रीमलयगिरिने लगती विशिष्ट बाबतनो उल्लेख कर्यो छे; जेनो उतारो अहीं आपवामां आवे छे " एकदा श्रीगुरूनापृच्छयान्यगच्छीयदेवेन्द्रसूरि मलयगिरिभ्यां सह कलाकलापकौशलाद्यर्थ गौडदेशं प्रति प्रस्थिताः खिल्लूरग्रामे च त्रयो जना गताः। तत्र ग्लानो मुनियावृत्यादिना प्रतिचरितः । स श्रीरैवतकतीर्थे देवनमस्करणकृतार्तिः । यावद् प्रामाध्यक्ष श्राद्धेभ्यः सुखासनं प्रगुणीकृत्य ते रात्रौ सुप्तास्तावत् प्रत्यूषे प्रबुद्धाः स्वं रैवतके पश्यन्ति । शासनदेवता प्रत्यक्षीभूय कृतगुणस्तुतिः ‘भाग्यवतां भवतामत्र स्थितानां सर्वं भावि' इति गौडदेशे गमनं निषिध्य महौषधीरनेकान् मन्त्रान् नाम-प्रभावाद्याख्यानपूर्वमाख्याय स्वस्थानं जगाम । ____ एकदा श्रीगुरुभिः सुमुहूर्ते दीपोत्सवचतुर्दशीरात्रौ श्रीसिद्धचक्रमन्त्रः साम्नायः समुपदिष्टः । स च पद्मिनीस्वीकृतोत्तरसाधकत्वेन साध्यते ततः सिध्यति, याचितं वरं दत्ते, नान्यथा । xxxxx ते च त्रयः कृतपूर्वकृत्याः श्रीअम्बिकाकृतसान्निध्याः शुभध्या. नधीरधियः श्रीरैवतकदैवतदृष्टौ त्रियामिन्यामाह्वाना.ऽवगुण्ठन-मुद्राकरण-मन्त्रन्यास-विसर्ज. नादिभिरुपचारैर्गुरूक्तविधिना समीपस्थपद्मिनीस्त्रीकृतोत्तरसाधकक्रियाः श्रीसिद्धचक्रमन्त्रमा साधयन् । तत इन्द्रसामानिकदेवोऽस्याधिष्ठाता श्रीविमलेश्वरनामा प्रत्यक्षीभूय पुष्पवृष्टिं विधाय · स्वेप्सितं वरं वृणुत' इत्युवाच । ततः श्रीहेममूरिणा राजप्रतिबोधः, देवेन्द्रसरिणा निजावदातकरणाय कान्तीनगर्याः प्रासाद एकरात्रौ ध्यानबलेन सेरीसकग्रामे समानीत इति जनप्रसिद्धिः, मलयगिरिसूरिणा सिद्धान्तवृत्तिकरणवर इति । त्रयाणां वरं दत्वा देवः स्वस्थानमगात् ।" जिनमण्डनीय कुमारपालप्रबन्ध पत्र १२-१३ ॥ भावार्थ-आचार्य श्रीहेमचन्द्र गुरुनी आज्ञा लई अन्यगच्छीय श्रीदेवेन्द्रसूरि अने श्रीमलयगिरि साथे कळाओमां कुशळता मेळववा माटे गौडदेश तरफ विहार कर्यो । रस्तामां आवता खिल्लूर गाममा एक साधु मांदा हता तेमनी त्रणे जणाए सारी रीते सेवा करी । ते साधु गिरनार तीर्थनी यात्रा माटे खूब झंखता हता । तेमनी अंतसमयनी भावना पूरी करवा माटे गामना लोकोने समजावी पालखी वगेरे साधननो बंदोबस्त करी रात्रे सूई गया । सवारे ऊठीने जुए छे तो त्रणे जणा पोतानी जातने गिरनारमा जुए छे । आ वखते शासनदेवताए आवी तेमने कह्यु के-आप सौनुं धारेलु बधुं य काम अहीं ज पार पडी जशे, हवे आ माटे आपने गौडदेशमा जवानी जरूरत नथी। अने विधि नाम माहात्म्य कहेवापूर्वक अनेक मन्त्र, औपधी वगेरे आपी देवी पोताने ठेकाणे चाली गई। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रंथकारोनो परिचय ___ एक वखत गुरुमहाराजे तेमने सिद्धचक्रनो मंत्र आम्नाय साथे आप्यो, जे काळी चौदशनी राते पद्मिनी स्त्रीना उत्तरसाधकपणाथी सिद्ध करी शकाय | x x x x xत्रणे जणाए विद्यासाधनाना पुरश्चरणने सिद्ध करी, अम्बिकादेवीनी सहायथी भगवान् श्रीनेमिनाथ सामे बेसी सिद्धचक्रमंत्रनी आराधना करी।मन्त्रना अधिष्ठायक श्रीविमलेश्वरदेवे प्रसन्न थई त्रणे जणाने कर्दा के-तमने गमतुं वरदान मागो। त्यारे श्रीहेमचन्द्रे राजाने प्रतिबोध करवानु, श्रीदेवेन्द्रसरिए एक रातमां कान्तीनगरीथी सेरीसामां मंदिर लाववानुं अने श्रीमलयगिरिए जैन सिद्धान्तोनी वृत्तिओ रचवानुं वर माग्युं । त्रणेने तेमनी इच्छा प्रमाणेनुं वर आपी देव पोताने स्थाने चाल्यो गयो।" ____ उपर कुमारपालप्रबन्धमाथी जे उतारो आपवामां आव्यो छे एमां मलयगिरि नामनो जे उल्लेख छ ए बीजा कोई नहि पण जैन आगमोनी वृत्तिओ रचवार्नु वर मागनार होई प्रस्तुत मलयगिरि ज छे । आ उल्लेख टूको होवा छतां एमां नीचेनी महत्त्वनी बाबतोनो उल्लेख थएलो आपणे जोई शकीए छीए-१ पूज्य श्रीमलयगिरि भगवान् श्रीहेमचन्द्र साथे विद्यासाधन माटे गया हता। २ तेमणे जैन आगमोनी टीकाओ रचवा माटे वरदान मेळव्युं हतुं अथवा ए माटे पोते उत्सुक होई योग्य साहाय्यनी मागणी करी हती। ३ ' मलयगिरिमरिणा' ए उल्लेखथी श्रीमलयगिरि आचार्यपदविभूषित हता। ___ श्रीमलयगिरि अने तेमन सूरिपद-पूज्य श्रीमलयगिरि महाराज आचार्यपदभूषित हता के नहि ? ए प्रश्नो विचार आवतां, जो आपणे सामान्य रीते तेमना रचेला ग्रन्थोना अंतनी प्रशस्तिओ तरफ नजर करीशुं तो आपणे तेमां तेओश्री माटे " यदवापि मलयगिरिणा" एटला सामान्य नामनिर्देश सिवाय बीजो कशो य खास विशेष उल्लेख जोई शकीशु नहि । तेमज तेमना पछी लगभग एक सैका बाद एटले के चौदमी सदीनी शरुआतमा थनार तपागच्छीय आचार्य श्रीक्षेमकीर्तिमूरिए श्रीमलयगिरिविरचित वृह. कल्पसूत्रनी अपूर्ण टीकाना अनुसन्धानना मंगलाचरण अने उत्थानिकामां पण एमने माटे आचार्य तरीकेनो स्पष्ट निर्देश कयों नथी । ए विपेनो स्पष्ट उल्लेख तो आपणने पंदरमी सदीमा थनार श्रीजिनमण्डनगणिना कुमारपालप्रवन्धमा ज मळे छ । एटले सौ. १ बृहत्कल्पसूत्रनी टीका आचार्य श्रीक्षेमकीर्तिए वि. सं. १३३२ मां पूर्ण करी छ । २ " आगमदुर्गमपदसंशयादितापो विलीयते विदुषाम् । यद्वचनचन्दनर सैमलयगिरिः स जयति यथायः ॥ ५ ॥ श्रीमलयगिरिप्रभवो, यां कर्तुमुपाक्रमन्त मतिमन्तः । सा कल्पशास्त्रटीका, मयाऽनुसन्धीयतेऽल्पधिया ॥ ८ ॥ ३ -चर्णिकृता चूर्णिरासूत्रिता तथापि सा निविडजडिमजम्बाल जटालानामस्मादृशां जन्तूनां न तथाविधमवबोधनिबन्धनमुपजायत इति परिभाव्य शब्दानुशासनादिविश्वविद्यामयज्योतिःपुञ्जपरमाणुघटितमूर्तिभिः श्रीमलयगिरिमुनीन्द्रपिपादैः विवरणमुपचक्रमे ॥ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पसूत्रनी प्रस्तावना कोईने एम लागशे के तेओश्री माटे आचार्य तरीकेनो स्पष्ट निर्देश करवा माटे आचार्य श्रीक्षेमकीत्ति जेवाए ज्यारे उपेक्षा करी छे तो तेओश्री वास्तविक रोते आचार्यपदविभूषित हशे के केम ? अने अमने पण ए माटे तर्क-वितर्क थता हता । परंतु तपास करतां अमने एक एवं प्रमाण जडी गयुं के जेथी तेओश्रीना आचार्य पदविभूषित होवा माटे वीजा कोई प्रमाणनी आवश्यकता ज रहे नहि । ए प्रमाण खुद श्रीमलयगिरिविरचित स्वोपज्ञशब्दानुशासनमांनुं छे, जेनो उल्लेख अहीं करवामां आवे छे “ एवं कृतमङ्गलरक्षाविधानः परिपूर्णमल्पग्रन्थं लघूपाय आचार्यो मलयगिरिः शब्दानुशासनमारभते । 19 ४७ आ उल्लेख जोया पछी कोइने पण ते ओश्रीना आचार्यपणा विषे शंका रहेशे नहि । श्रीमलयगिरिरि अने आचार्य श्रीहेमचन्द्रनो सम्बन्ध — उपर आपणे जोई आव्या छीए के श्रीमलयगिरिसूरि अने भगवान् श्रीहेमचन्द्राचार्य विद्याभ्यासने विकसाववा माटे तेमज मंत्रविद्यानी साधना माटे साथ रहेता हता अने साथै विहारादि पण करता हता । आ उपरथी तेओ परस्पर अति निकट सम्बन्ध धरावता हता, ते छतां ए संबंध केटली हद सुधीनो हतो अने तेणे केवुं रूप लीधुं हतुं ए जाणवा माटे आचार्य श्रीमलयगिरि पोतानी आवश्यकवृत्तिमां भगवान् श्रीहेमचन्द्रनी कृतिमांनुं एक प्रमाण टांकतां तेओश्री माटे जे प्रकारनो बहुमानभर्यो उल्लेख कर्यो छे ते आपणे जोइए । आचार्य श्रीमलयगिरिनो ए उल्लेख आ प्रमाणे छे " तथा चाहुः स्तुतिषु गुरवः अन्योन्यपक्षप्रतिपक्षभावाद्, यथा परे मत्सरिणः प्रवादाः । नयानशेषानविशेषमिच्छन्, न पक्षपाती समयस्तथा ते 11 "" हेमचन्द्रकृत अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका श्लोक ३० ॥ आ उल्लेखमां श्रीमलयगिरिए भगवान् श्रीहेमचन्द्रनो निर्देश "गुरवः " एवा अति बहुमानभय शब्दथी कर्यो छे । आ उपरथी भगवान् श्रीहेमचन्द्रना पाण्डित्य, प्रभाव अने गुणोनी छाप श्रीमलयगिरि जेवा समर्थ महापुरुष पर केटली ऊंडी पडी हती एनी कल्पना आपणे सहेजे करी शकीए छीए । साथे साथे आपणे ए पण अनुमान करी शकीए के - श्रीमलयगिरि श्रीहेमचन्द्रसूरि करतां वयमां भले नाना मोटा होय, परंतु व्रतपर्याय मां तो तेओ श्रीहेमचन्द्र करतां नाना ज हता । नहि तो तेओ श्रीहेमचन्द्राचार्य माटे गमे तेलां गौरवतासूचक विशेषणो लखे पण 35 गुरवः एम तो न ज लखे । मलयगिरिनी ग्रन्थरचना - आचार्य श्रीमलयगिरिए केटला ग्रन्थो रच्या हता ए विपेनो स्पष्ट उल्लेख क्यांय जोवामां नथी आवतो | तेम छतां मळे छे, तेमज जे ग्रन्थोनां नामोनो उल्लेख तेमनी कृतिमां मळता नथी, ए बधायनी यथाप्राप्त नोंध आ नीचे आपवामां आवे छे । 66 तेमना जे ग्रन्थो अत्यारे मळवा छतां अत्यारे ए Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ नाम. ० ० ० ००० ० ० ० ० मुद्रित ग्रंथकारोनो परिचय मळता अन्धो 'ग्रन्थश्लोकप्रमाण. १ भगवतीसूत्र द्वितीयशतकवृत्ति ३७५० २ राजप्रश्रीयोपाङ्गटीका ३७०० मुद्रित ३ जीवाभिगमोपाङ्गटीका १६००० मुद्रित ४ प्रज्ञापनोपाङ्गटीका मुद्रित ५ चन्द्रप्रज्ञप्त्युपाङ्गटीका ९५०० ६ सूर्यप्रज्ञप्युपाङ्गटीका ९५०० मुद्रित ७ नन्दीसूत्रटीका ७७३२ मुद्रित ८ व्यवहारसूत्रवृत्ति ३४००० मुद्रित ९ बृहत्कल्पपीठिकावृत्ति-अपूर्ण ४६०० मुद्रित १० आवश्यकवृत्ति-अपूर्ण १८००० मुद्रित ११ पिण्डनियुक्तिटीका ६७०० मुद्रित १२ ज्योतिष्करण्डकटीका ५००० १३ धर्मसंग्रहणीवृत्ति १०००० मुद्रित १४ कर्मप्रकृतिवृत्ति मुद्रित १५ पंचसंग्रहवृत्ति १८८५० . मुद्रित १६ षडशीतिवृत्ति मुद्रित १७ सप्ततिकावृत्ति ३७८० मुद्रित १८ बृहत्संग्रहणीवृत्ति १९ बृहत्क्षेत्रसमासवृत्ति ९५०० २० मलयगिरिशब्दानुशासन ५००० (?) अलभ्य ग्रन्थो १ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति टीका २ ओघनियुक्ति टीका ३ विशेषावश्यक टीका ४ तत्त्वाधिगमसूत्रटीको ५ धर्मसारप्रकरण टीका ६ देवेन्द्रनरकेन्द्रप्रकरण टीका अहीं जे ग्रन्थोनां नामोनी नोंध आपवामां आवी छे तेमांथी श्रीमलयगिरिशब्दानु१ अहीं आपवामां आवेली श्लोकसंख्या केटलाकनी मूळग्रंथ सहितनी छे ।। २" यथा च प्रमाणबाधितत्वं तथा तत्त्वार्थटीकायां भावितमिति ततोऽवधार्यम् " प्रज्ञापनासूत्रटीका ॥ ३ ॥ यथा चापुरुषार्थता अर्थकामयोस्तथा धर्मसारटीकायामभिहितमिति नेह प्रतायते । " धर्मसंग्रहणीटीका ॥ ४ ॥ वृत्तादीनां च प्रतिपृथिवि परिमाणं देवेन्द्रनरकेन्द्रे प्रपञ्चितमिति नेह भूयः प्रपन्च्यते " संग्रहणीवृत्ति पत्र १०६ ॥ ० ० ० ० ० ० ० ० मुद्रित मुद्रित Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९ बृहत्कल्पसूत्रनी प्रस्तावना शासन सिवायना बधा य ग्रन्थो टीकात्मक ज छ। एटले आपणे आचार्य मलयगिरिने प्रन्थकार तरीके ओळखीए ते करतां तेमने टीकाकार तरीके ओळखवा ए ज सुसंगत छ । __ आचार्य श्रीमलयगिरिनी टीकारचना-आज सुधीमां आचार्य श्रीहरिभद्र, गंधहस्ती सिद्धसेनाचार्य, श्रीमान् कोट्याचार्य, आचार्य श्रीशीलाङ्क, नवाङ्गीवृत्तिकार श्रीअभयदेवमूरि, मलधारी आचार्य श्रीहेमचन्द्र, तपा श्रीदेवेन्द्रसूरि आदि अनेक समर्थ टीकाकार आचार्यों थई गया छे ते छतां आचार्य श्रीमलयगिरिए टीकानिर्माणना क्षेत्रमा एक जुदी ज भात पाडी छे । श्रीमलयगिरिनी टीका एटले तेमना पूर्ववर्ती ते ते विषयना प्राचीन ग्रन्थो, चूर्णी, टीका, टिप्पण आदि अनेक शास्त्रोना दोहन उपरांत पोता तरफना ते ते विषयने लगता विचारोनी परिपूर्णता समजवी जोईए। गंभीरमां गंभीर विषयोने चर्चती वखते पण भाषानी प्रासादिकता, प्रौढता अने स्पष्टतामां जरा सरखी पण ऊणप नजरे पडती नथी अने विषयनी विशदता एटली ज कायम रहे छ । __ आचार्य मलयगिरिनी टीका रचवानी पद्धति ट्रंकमां आ प्रमाणेनी छे-तेओश्री सौ पहेला मूळसूत्र, गाथा के श्लोकना शब्दार्थनी व्याख्या करता जे स्पष्ट करवानुं होय ते साथे ज़ कही दे छे । त्यारपछी जे विषयो परत्वे विशेष स्पष्टीकरणनी आवश्यकता होय तेमने " अयं भावः, किमुक्तं भवति, अयमाशयः, इदमत्र हृदयम्” इत्यादि लखी आखा य वक्तव्यनो सार कही दे छ । आ रीते प्रत्येक विषयने स्पष्ट कर्या पछी तेने लगता प्रासंगिक अने आनुषंगिक विषयोने चर्चवानुं तेमज तद्विषयक अनेक प्राचीन प्रमाणोनो उल्लेख करवानुं पण तेओश्री चूकता नथी। एटलुंज नहि पण जे प्रमाणोनो उल्लेख को होय तेने अंगे जरूरत जणाय त्यां विषम शब्दोना अर्थो, व्याख्या के भावार्थ लखवार्नु पण तेओ भूलता नथी, जेथी कोई पण अभ्यासीने तेना अर्थ माटे मुझावु न पंडे के फांफां मारवां न पडे। आ कारणसर तेमज उपर जणाववामां आव्यु तेम भाषानी प्रासादिकता अने अर्थ तेमज विषयप्रतिपादन करवानी विशद पद्धतिने लीधे आचार्य श्रीमलयगिरिनी टीकाओ अने टीकाकारपणुं समग्र जैन समाजमां खूब ज प्रतिष्ठा पाम्यां छ । आचार्य मलयगिरिनुं बहुश्रुतपणु-आचार्य मलयगिरिकृत महान् ग्रन्थराशिनुं अवगाहन करतां तेमां जे अनेक आगमिक अने दार्शनिक विषयोनी चर्चा छे, तेमज प्रसंगे प्रसंगे ते ते विषयने लगतां तेमणे जे अनेकानेक कल्पनातीत शास्त्रीय प्रमाणो टांकेलां छे; ए जोतां आपणे समजी शकीशु के-तेओश्री मात्र जैन वाङ्मयनु ज ज्ञान धरावता हता एम नहोतुं, परंतु उच्चमा उच्च कक्षाना भारतीय जैन-जनेतर दार्शनिक साहित्य, ज्योतिर्विद्या, गणितशास्त्र, लक्षणशास्त्र आदिने लगता विविध अने विशिष्ट शास्त्रीय ज्ञाननो विशाळ वारसो धरावनार महापुरुष हता। तेओश्रीए पोताना ग्रन्थोमा जे रीते पदार्थोनुं निरूपण कयु छे ए तरफ आपणे सूक्ष्म रीते ध्यान आपीशुं तो आपणने लागशे के ए महापुरुष विपुल वाङ्मयवारिधिने घुटीने पी ज गया हता। अने आम कहेवामां आपणे जरा पण Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० ग्रंथकारोनो परिचय अतिशयोक्ति नथी ज करता । पूज्य आचार्य श्रीमलयगिरिसूरिवरमां भले गमे तेटलुं विश्वविद्याविषयक पांडित्य हो ते छतां तेओश्री एकान्त निर्वृतिमार्गना धोरी अने निवृति. मार्गपरायण होई तेमने आपणे निर्वृतिमार्गपरायण जैनधर्मनी परिभाषामां आगमिक के सैद्धान्तिक युगप्रधान आचार्य तरीके ओळखीए ए ज वधारे घटमान वस्तु छे ।। आचार्य मलयगिरिनु आन्तर जीवन-वीरवर्द्धमान-जैन-प्रवचनना अलंकारस्वरूप युगप्रधान आचार्यप्रवर श्रीमलयगिरि महाराजनी जीवनरेखा विषे एकाएक काई पण बोलवू के लखवू ए खरे ज एक अघळं काम छे ते छतां ए महापुरुष माटे ट्रंकमां पण लख्या सिवाय रही शकाय तेम नथी । आचार्य श्रीमलयगिरिविरचित जे विशाळ ग्रन्थराशि आजे आपणी नजर सामे विद्यमान छे ए पोते ज ए प्रभावक पुरुषना आन्तर जीवननी रेखा दोरी रहेल छ । ए प्रन्थराशि अने तेमां वर्णवायला पदार्थों आपणने कही रह्या छे के-ए प्रज्ञाप्रधान पुरुष महान ज्ञानयोगी, कर्मयोगी, आत्मयोगी अगर जे मानो ते हता। ए गुणधाम अने पुण्यनाम महापुरुषे पोतानी जातने एटली छूपावी छ के एमना विशाळ साहित्यराशिमां कोई पण ठेकाणे एमणे पोताने माटे " यदवापि मलयगिरिणा" एटला सामान्य नामनिर्देश सिवाय कशुं य लख्युं नथी । वार वार वन्दन हो ए मान-मदविरहित महापुरुषना पादपद्मने !!! । आचार्य श्रीक्षेमकीर्तिसूरि आचार्य श्रीक्षेमकीर्तिसूरि तपागच्छनी परंपरामां थएल महापुरुप छे. एमना व्यक्तित्व विषे विशिष्ट परिचय आपवानां साधनोमां मात्र तेमनी आ एक समर्थ ग्रंथरचना ज छे. आ सिवाय तेमने विशे बीजो कशो ज परिचय आपी शकाय तेम नथी. तेमज आज सुधीमा तेमनी बीजी कोई नानी के मोटी कृति उपलब्ध पण थई नथी. प्रस्तुत ग्रंथनी-टीकानी रचना तेमणे वि. सं. १३३२ मां करी छे ए उपरथी तेओश्री विक्रमनी तेरमी-चौदमी सदीमां थएल आचार्य छे. तेमना गुरु आचार्य श्रीविजयचंद्रसूरि हता, जेओ तपगच्छना आद्य पुरुप आचार्य श्रीजगचंद्रसूरिवरना शिष्य हता अने तेओ बृहत्पोशालिक तरीके ओळखाता हता. आचार्य श्रीविजयचन्द्रसूरि बृहत्पोशालिक केम कहेवाता हता ते विषेनी विशेष हकीकत जाणवा इच्छनारने आचार्य श्रीमुनिसुंदरसूरिविरचित त्रिदशतरंगिणी-गुर्वावली श्लोक १०० थी १३४ तथा पंन्यास श्रीमान् कल्याणविजयजी संपादित विस्तृत गूर्जरानुवाद सहित तपागच्छ पट्टावली पृष्ठ १५३ जोवा भलामण छे. Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१ वृहत्कल्पसूत्रनी प्रस्तावना बृहत्कल्पसूत्रनी प्रतिओनो परिचय । आजे विद्वान् मुनिगणना पवित्र करकमलोमा बृहत्कल्पसूत्र महाशास्त्रनो छट्ठो भाग उपहाररूपे अर्पण करवामां आवे छे । आ भाग साथे ४२००० श्लोकप्रमाण नियुक्तिभाष्य-वृत्तियुक्त कल्प महाशास्त्र समाप्त थाय छे । आ महाशास्त्रना संपादन अने संशोधन मादे अमे तेनी नीचे जणाव्या प्रमाणे सात प्रतिओ एकत्र करी हती ।। १ ता० प्रति-पाटण-श्रीसंघना भंडारनी ताडपत्रीय प्रति खंड बीजो तथा त्रीजो। २ मो० प्रति-पाटण मोदीना भंडारनी कागळनी प्रति खंड चार संपूर्ण । ३ ले० प्रति-पाटण लेहरु वकीलना भंडारनी कागळनी प्रति खंड चार संपूर्ण । ४ भा० प्रति-पाटण भाभाना पाडाना भंडारनी कागळनी प्रति खंड त्रण संपूर्ण । ५ त० प्रति-पाटण तपगच्छना भंडारनी कागळनी प्रति खंड प्रथम द्वितीय अपूर्ण । ६ डे० प्रति-अमदावाद डेलाना भंडारनी कागळनी प्रति एक विभागमां संपूर्ण । ७ कां० प्रति-वडोदरा-प्रवर्तक श्रीकान्तिविजयजी महाराजना भंडारनी कागळनी नवीन प्रति एक विभागमा संपूर्ण । प्रस्तुत महाशाखना संशोधनमां अमे उपर जणाव्या प्रमाणेनी सात प्रतिओनो साद्यन्त उपयोग कर्यो छे । आ सात प्रतिओ पैकी भाभाना पाडानी प्रति सिवायनी बधीये प्रतिओमां विविध प्रकारना पाठभेदो होवा छतां य ए बधीय प्रतिओने एक वर्गमां मूकी शकाय । तेनुं कारण ए छे के आ छ प्रतिओमां,-जेमां ताडपत्रीय प्रतिनो पण समावेश थाय छे,-तेमां एक ठेकाणे लेखकना प्रमादथी ५० श्लोक जेटलो अति महान् ग्रंथसंदर्भ पडी गयेलो-लखवामां रही गएलो एक सरखी रीते जोवामां आवे छे, ज्यारे मात्र भा० प्रतिमा ए आखो य ग्रंथसंदर्भ अखंड रीते जळवाएलो छ । प्रस्तुत संपादनमां अमे जे सात प्रतिओनो उपयोग कर्यो छे ते उपरांत पाटण आदिना भंडारनी बीजी संख्याबंध प्रतिओने अमे सरखावी जोई छे । परंतु ते पैकीनी एक पण प्रति अमारा जोवामां एवी नथी आवी जे अखंड पाठपरम्परा धरावनार भा० प्रति साथे मळी शके । आ रीते उपर जणावेली सात प्रतिओना बे वर्ग पडे छे। परन्तु आथी आगळ वधीने उपर्युक्त प्रतिओना विविध पाठो अने पाठभेद तरफ नजर करीए तो संशोधन माटे एकत्र करेली अमारी सात प्रतिओ सामान्य रीते चार विभागमां वहेंचाई जाय छे-एक वर्ग ता. मो० ले० प्रतिओनो, बीजो वर्ग त० डे० प्रतिओनो, त्रीजो वर्ग भा० प्रतिनो अने चोथो वर्ग कां० प्रतिनो । आ १ जुओ मुद्रित चोथा विभागना १००० पत्रनी २४मी पंक्तिथी १००२ पत्रनी २०मी पंक्ति सुधीनो अर्थात् २६०१ गाधानी अर्धी टीकाथी ३६०७ गाथानी अर्धी टीका सुधीनो हस्तचिह्नना वचमा रहेलो पाठ । आ समग्र टीका अंश, जेमां बीजा उद्देशानुं सोळमुं सूत्र पण समाय छे, ए आजना जैन ज्ञानभंडारोमांनी लगभग बधीए टीका प्रतिमाओमां पडी गएलो छे; जे. फक्त पाटण-भाभाना पाडानी प्रतिमां ज अखंड रीते जळवाएलो मळ्यो छे ।। - -- - Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ प्रतिओनो परिचय चार वर्ग पैकी भा० प्रति मोटे भागे त. डे० प्रति साथे मळतापणुं धरावे छे ज्यारे कां० प्रति मोटे भागे मो० ले० प्रति साथे मळती थाय छे । आम छतां ए वस्तु खास ध्यान राखवा जेवी छे के-भा० प्रतिमां अने कां० प्रतिमा टीकाना संदर्भोना संदर्भो वधाराना-वधारे पडता जोवामां आवे छे । ज्यारे भा० प्रति कोई पाठभेद आपती होय छे त्यारे कां० प्राते मोटे भागे बीजी बधी प्रतिओ साथे मळती थई जाय छे । अने ज्यारे कां० प्रति पाठभेद आपती होय छे त्यारे भा० प्रति बीजी प्रतिओ साथे मळी जाय छे । भा० प्रति अने कां० प्रति परस्पर मळी जाय एबुं तो कोई विरल विरल स्थळे ज बनवा पाम्युं छे। उपर जणावेली सात प्रतिओ उपरांत प्रस्तुत कल्प महाशास्त्रना संशोधन माटे अने तुलना आदि माटे अमे नीचे जणावेली प्रतिओने पण सामे राखी हती १ पाटण श्री संघना भंडारनी मूलसूत्रयुक्त कल्पभाष्यनी ताडपत्रीय प्रति । २ पाटण श्रीसंघना भंडारनी कागळनी कल्पबृहद्भाष्यनी अपूर्ण प्रति । ३ पाटण श्रीसंघना भंडारनी मूलसूत्रयुक्त कल्पचूर्णीनी ताडपत्रीय प्रति । ४ पाटण मोंका मोदीनां भंडारनी कल्पचूर्गीनी कागळनी प्रति । ५ पाटण लेहरु वकीलना भंडारनी कल्पविशेषचूर्णीनी कागळनी प्रति । प्रस्तुत महाशास्त्रना संशोधनमा उपर जणावेली नियुक्ति-भाष्य-वृत्तियुक्त कल्पनी सात प्रतिओ अने सूत्र, भाष्य, महाभाष्य, चूर्णी, विशेषचूर्णीनी पांच प्रतिओ मळी एकंदर बार प्रतिओनो अमे साचंत परिपूर्ण रीते उपयोग कर्यो छे । अने आ. रीते उपरोक्त बधीये प्रतिओनो सांगोपांग उपयोग करी आ आखा महाशास्त्रमा विविध पाठभेदो आपवामां आव्या छे, स्थाने ए पाठभेदोनी चूर्णी, विशेषचूर्णी अने बृहद्भाष्य साथे तुलना पण करवामां आवी छे । आ बारे प्रतिओ अने तेना खंडो वगेरेनो विस्तृत परिचय कल्पशास्त्रना मुद्रित पांच भागोमां यथास्थान आपवामां आवेलो छ । एटले आ विभागमा जे विशेष वक्तव्य छे ते ज कहेवामां आवशे ।। वधाराना पाठो, पाठभेदो आदि-प्रस्तुत बृहत्कल्पसूत्रना मुद्रित प्रथम भागमा जेम भा० त० डे० प्रतिमां वधाराना पाठो, पाठभेदो अने अवतरणो आवतां रह्यां छे ए ज रीते आगळना दरेक विभागोमां मो० ले० प्रतिमां,-के जे प्रतिओ ता० प्रति साथे मळती छे तेमां,- घणे ठेकाणे वधाराना पाठो, पाठभेदो अने अवतरणो आवतां रह्यां छे,-जे मो० ले० प्रति सिवाय बीजी कोई प्रतिमां नथी,-ते दरेक पाठ आदिने अमे < II आवा चिह्नोना वचमा मूकी तेनो ते दरेक स्थळे अमे टिप्पणीमां निर्देश करेलो छे । ए ज रीते त० डे० प्रतिमा केटलाक वधाराना पाठो छे, जे बीजी कोई प्रतिमां नथी, अने भा० प्रतिमां अने कां० प्रतिमां पण एक बीजाथी तद्दन स्वतंत्र प्रकारना अनेक वधाराना पाठो अने पाठभेदो आवे छे ए बधाय पाठो अमे यथायोग्य मूळमां के टिप्पणमां आप्या छे अने ते दरेक स्थळे अमे ते ते प्रतिओना नामनो निर्देश पण करेलो छे । आ बधा पाठ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३ बृहत्कल्पसूत्रनी प्रस्तावना भेदो पैकी केटलाक पाठो चूर्णीने अनुसरता अने केटलाक पाठो विशेषचूर्णीने अनुसरता होई ते दरेक पाठोनी तुलना माटे ते ते स्थळे चूर्णी अने विशेषचूर्णीना पाठी पण अमे टिप्पणीमां आपेला छे । भा० प्रतिमां अने कां० प्रतिमां एटला बधा पाठभेदो आवता रह्या छे, जेथी आ ठेकाणे एम कहीए तो जरा य वधारे पडतुं नहि गणाय के - आ आखो य ग्रंथ मोटे भागे भा० प्रति अने कां० प्रतिमां आवता पाठोभेदोथी ज भरेलो छे; खास करी पाछळना विभागो जोईए तो तो कां० प्रतिना पाठभेदोथी ज मुख्यत्वे भरेलो छे । आ बे प्रतिओना पाठभेद आदि विषे अमने एम लाग्युं छे के भा० प्रतिना दरेक पाठो, पाठभेदो आदि बुद्धिमत्ताभरेला अने विशद छे ज्यारे कां० प्रतिमांना केटलाक वधाराना पाठो ग्रन्थना विषयने विशद अने स्पष्ट करता होवा छतां केटलाय पाठो अने पाठभेदो पुनरुभिर्या अने केटलीक वार तो तद्दन सामान्य जेवा ज छे; एटलं ज नहि पण केटलीक वार तो ए पाठोमां सुधारो - वधारो करनारे भूलो पण करी छे, जे अमे ते ते स्थळे टिप्पणमां पाठो आपी जणावेल छे । आ ठेकाणे कां० प्रतिना पाठभेदोने अंगे अमारे बे बाबतो खास सुचववानी छे । जे पैकी एक ए के कां० प्रतिना केटलाक अतिसामान्य पाठभेदोनी अमे गंध लीधी. नथी । अने बीजी ए के प्रस्तुत ग्रंथना संपादननी शरुआतमां प्रतिओना पाठभेदोने अंगे जोईए तेवो विवेक नहि करी शकवाने लीघे कां प्रतिना केटलाक वधाराना पाठो अमे मूळमां दाखल करी दीधा छे, जे मूळमां आपका जोईए नहि । अमे ए दरेक पाठोने 4D आवा चिह्नना वचमां आपीने टिप्पणीमां सूचना करेली छेटले प्रस्तुत महाशास्त्रना वांचनार विद्वान् मुनिवर्गने मारी विज्ञप्ति छे के-तेमणे आ पाठोने मूळ तरीके न गणतां टिप्पणीमां समजी लेवा | प्रस्तुत नियुक्ति - भाष्य - वृत्तिसमेत बृहत्कल्प महाशास्त्राना संशोधन माटे एकत्र करेली सात प्रतिओमां आवता वधाराना पाठो अने पाठभेदादिने अंगे केटलीक वस्तु जणाच्या पछी ए वस्तु जणाववी जोईए के उपरोक्त सात प्रतिओमां पाठादिने अंगे एवी समविषमता छे के जेथी एनी मौलिकतानो निर्णय करवामां भलभला बुद्धिमानो पण चकराई जाय । केटलीक वार अमुक गाथानां अवतरणो त०डे०क० प्रतिमां होय तो ए अवतरणो भा० मो०० प्रतिमां न होय, केटलीक वार अमुक गाथानां अवतरणो मो०ले०कां० प्रतिमां होय तो ए अवतरणो भा०त०डे० प्रतिमां न होय, केटलीक वार त०डे० प्रतिमां होय तो बीजी प्रतोमां न होय केटलीक वार मो०० प्रतिमां होय तो ते सिवायनी बीजी प्रतिओमां न होय, केटलीक वार भा० प्रतिमां के कां० प्रतिमां अमुक अवतरणो होय तो ते सिवायनी बीजी प्रतिओमां ए न होय । आज प्रमाणे आ ग्रंथनी प्रतिओमां पाठो अने पाठभेदोने लगती एवी अने एटली बधी विषमताओ छे, जेने जोई सतत शास्त्रव्यासंगी विद्वान् मुनिवरो पण पाठोनी मौलिकतानो निर्णय करवामां मुझाई जाय । आ उपरांत आ ग्रंथमां एक मोटी विषमता गाथाओना निर्देशने अंगे छे । ते ए Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिओनो परिचय ५४ प्रकारनी के-टीकानी ज अमुक प्रति के प्रतिओमां अमुक गाथाओने नियुक्तिगाथा तरीके जणावी छे, त्यारे अमुक प्रतिओमां ए ज गाथाओने पुरातनगाथा, संग्रहगाथा, द्वारगाथा के सामान्यगाथा तरीके जणावी छे । ए ज रीते अमुक प्रति के प्रतिओमां अमुक गाथाओने पुरातनगाथा तरीके जणावी छे त्यारे एज गाथाओने बीजी प्रति के प्रतिओमां नियुक्तिगाथा, संग्रहगाथा आदि तरीके जणावी छ । आ रीते आ आखा य ग्रंथमा गाथाओना निर्देशना विषयमां खूब ज गोटाळो थयो छे । आचार्य श्रीक्षेमकीर्तिसूरिवरना जमाना पहेला लखायेली कल्पलघुभाष्य अने महाभाष्यनी प्राचीन प्रतिओमां तेमज चूर्णी-विशेषचूर्णीमां पण नियुक्तिगाथा आदिनो जे विवेक करवामां आव्यो नथी अथवा थई शक्यो नथी, ए विवेक आचार्य श्रीक्षेमकीर्तिसूरिवरे शाना आधारे कर्यो ए वस्तु विचारणीय ज छे । भगवान् श्रीमलयगिरि महाराजे तो एम ज कही दीधुं छे के "नियुक्ति अने भाष्य ए बन्ने एकग्रंथरूपे परिणमी गयां छे.” ज्यारे आचार्य श्रीक्षेमकीर्तिसूरिवरे नियुक्तिगाथा, भाष्यगाथा आदिना विवेकमाटे स्वतंत्र प्रयत्न कर्यो होई एमनी टीका शरू थाय छे त्यांथी अंतपर्यन्त आ निर्देशोनो गोटाळो चाल्या ज को छे ( आ माटे जुओ प्रस्तुत विभागने अंते आपेलुं चोथु परिशिष्ट ) । खलं जोतां आ विषे आपणने एम लाग्या सिवाय नथी रहेतुं के आचार्य श्रीक्षेमकीर्ति महाराजे पूज्य आचार्य श्रीमलयगिरि सूरिवरना दीर्घदृष्टिभर्या राहने छोडीने प्रस्तुत ग्रंथमा नियुक्तिगाथा आदिने जुदी पाडवानो जे निराधार प्रयत्न कर्यो छे ए जरा य औचित्यपूर्ण नथी । ए ज कारण छे के-प्रस्तुत टीका प्रतिओमां गाथाओना निर्देश अंगे महान् गोटाळो थयो छे। आ उपरांत पूज्य आचार्य श्रीमलयगिरिसूरिकृत टीकाविभागमां वधाराना पाठो के पाठभेद आदि खास कशु य नथी, ज्यारे आचार्य श्रीक्षेमकीर्तिसूरिकृत टीकामां विषम पाठभेदो, विषम गाथानिर्देशो, विषम गाथाक्रमो, ओछीवत्ती गाथाओ अने टीकाओ विगेरे घणु ज छे । ए जोतां एम कहेवु जरा य अतिशयोक्तिभयुं नथी के प्रस्तुत ग्रंथनी टीकामां खुद पंथकारे ज वारंवार घणो घणो फेरफार कर्यो हो। अमालं आ कथन निराधार नथी, परंतु प्रस्तुत सटीक बृहत्कल्पसूत्रनी ग्रंथकारना जमानाना नजीकना समयमा लखा येली संख्याबंध प्राचीन प्रतिओने नजरे जोईने अमे आ वात कहीए छीए । संपादनपद्धति अने पाठभेदोनो परिचय प्रस्तुत सटीक बृहत्कल्पसूत्र महाशास्त्रना संशोधन माटे उपर जणाव्युं तेम नियुक्तिलघुभाष्य-टीकायुक्त प्राचीन अर्वाचीन ताडपत्रीय अने कागळनी मळीने सात प्रतिओ उपरांत केवळ सूत्र, केवळ लघुभाष्य अने केवळ चूर्णीनी ताडपत्रीय प्रतिओ तेम ज विशेषचूर्णी अने महाभाष्यनी कागळ उपर लखेली प्राचीन प्रतिओने, पूर्ण के अपूर्ण जेवी मळी तेवीने, आदिथी अंतसुधी अमे अमारा सामे राखी छे। आम छतां सौने जाणीने आश्चर्य थशे के Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृहत्कल्पसूत्रनी प्रस्तावना पाटण, अमदावाद, सुरत, वडोदरा, लीबडी, जैसलमेर विगेरे संख्याबंध स्थळोना ज्ञानभंडारो अने तेमांनी संख्याबंध ताड़पत्रीय प्रतिओने तपासवा छतां गलितपाठ विनानी कहीए तेवी एक पण प्रति अमने मळी नथी। परंतु कोईमा क्यांय तो कोईमां क्याय, ए रीते दरेके दरेक प्रतिमां सेंकडो ठेकाणे पाठोनी अशुद्धिओनी वातने तो आपणे दूर राखीए, पण पंक्तिओनी पंक्तिओ अने संदर्भोना संदर्भो गळी गया छे । आ गळी गयेला संदर्भोनी पूर्ति अने अशुद्ध पाठोना सांगोपांग परिमार्जन माटे उपर जणावेल साधन-सामग्रीनो अमे संपूर्णपणे उपयोग कयों छे, एमां अमे केटला सफळ थया छीए, ए परीक्षार्नु कार्य गीतार्थ मुनिवरो अने विद्वानोने ज सोंपीए छीए । आम छतां प्रस्तुत ग्रंथना संशोधनमा अमे जे पद्धति स्वीकारी छे अने अमने जे सम-विषमताओनो अनुभव थयो छे तेनो समप्रभावे अहीं उल्लेख करवो ए समुचित लागे छे, जेथी गंभीरतापूर्ण संशोधनमा रस लेनार विद्वानोने प्रत्यंतरोनी महत्ता, पाठभेदोनुं विभजन, संशोधनने लगती पद्धति अने विविध सामग्री आदिनो ख्याल आवी शके । १ अमारा संशोधनमा प्रतिओने साधन्तोपान्त तपासीने ज तेना वर्ग पाड्या छे । आ रीते जे जे प्रति अमने जुदा वर्गनी अथवा जुदा कुलनी जणाई छे ते दरेके दरेक प्रतिने अमे आदिथी अंत सुधी अक्षरशः मेळवी छे । आ रीते प्रस्तुत संशोधनमा अमे ताटी० मो० डे० भा० कां० आ पांच प्रतिओने आदिथी अंतसुधी अक्षरशः मेळवी छे, अने एमांना विविध पाठभेदोनी योग्य रीते संपूर्णपणे नोंध लीधी छे । २ ज्या ज्यां अमुक प्रतिओमां अमुक पाठो अशुद्ध जणाया के लेखक आदिना प्रमादथी पडी गएला अर्थात् लखवा रही गएला लाग्या, ए बधाय पाठोर्नु परिमार्जन अने पूर्ति अमे अमारी पासेनां प्रत्यंतरोने आधारे अने तदुपरांत चूर्णी, विशेषचूर्णी, बृहद्भाष्य अने बीजां शास्रोने आधारे करेल छे । प्रस्तुत मुद्रित कल्पशास्त्रमा एवां संख्याबंध स्थळो छे के ज्यां, नियुक्ति-लघुभाष्य-टीकायुक्त बृहत्कल्पसूत्रनी प्रतिओमां पाठो पडी गएला छे अने अशुद्ध पाठो पण छे, तेवे स्थळे अमे चूर्णि, विशेषचूर्णि आदिना आधारे पाठपूर्ति अने अशुद्धिओर्नु परिमार्जन कयु छे । दरेक अशुद्ध पाठोने स्थाने सुधारेला शुद्ध पाठोने अमे ( ) आवा गोळ कोष्ठकमा आप्या छे अने पडी गएला पाठोने [ ] आवा चोरस कोष्ठकमा आप्या छे अने ए पाठोना समर्थन अने तुलना माटे ते ते स्थळे नीचे पादटिप्पणीमां चूर्णी विशेषचूर्णी आदिना पाठोनी नोंध पण आपी छे । ३ सूत्र अने नियुक्ति-लघुभाष्यने लगता पाठभेदो चूर्णी, विशेषचूर्णी अने टीकामां आपेला प्रतीको अने तेना व्याख्यानने आधारे मळी शके ( जुओ परिशिष्ट ८ मुं) ते करतां य वधारे अने संख्याबंध पाठभेदो, स्वतंत्र सूत्रप्रतिओ अने स्वतंत्र लघुभाष्यनी Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिओनो परिचय ५६ प्रतिओमांथी उपलब्ध थया छे । ते पैकी विशिष्ट अने महत्वना पाठभेदोनी नोंध अमे ते ते स्थळे पादटिप्पणीमां आपी छे । ४ टीकामां आवता अनेकानेक पाठभेदोनुं समर्थन चूर्णी, विशेषचूर्णी के उभयद्वारा थतुं होय त्यां ते ते चूर्णी आदिना पाठोनी नोंध अमे अवश्य आपी छे । तेम ज चूर्णी आदिमा विशिष्ट व्याख्याभेद, विशिष्ट पदार्थनुं वर्णन आदि जे कांई जोवामां आव्यं ते दरेकनी नोंध अमे पादटिप्पणीमां करवा चूक्या नथी । ५ कया पाठने मौलिक स्थान आपवुं ? ए माटे अमे मुख्यपणे ग्रंथकारनी सहज भाषाशैली अने प्रतिपादनशैलीने लक्षमां राख्यां | परंतु ज्यां लेखकना प्रमादादि कारणने लई पाठो गळी ज गया होय अने अमुक एकाद प्रति द्वारा ज ए पाठनुं अनुसंधान थतुं होय त्यां तो जे प्रकारनो पाठ मळी आव्यो तेने ज स्वीकारी लेवामां आव्यो छे । ६ पाठभेदोनी नोधमां लिपिभेदना भ्रमथी उत्पन्न थरला पाठभेदो, अर्थभेदो अने प्राकृतभाषा प्रयोग विषय पाठभेद आदि आपवा अमे प्रयत्न कर्यो छे । ७ प्रस्तुत शास्त्रना संपादन माटे अमे जे अनेक प्रतिओ एकत्र करी छे तेना खंडो सळंग एक ज कुलना छे एम कद्देवाने कशुं य साधन अमारा सामे नथी । कारण के केटलीक वार एम पण बनवा संभव छे के अमुक प्रतिना लखावनारे प्रस्तुत शास्त्रना अमुक खंडो अमुक कुलनी प्रति उपरथी लखाव्या होय अने अमुक खंडो जुदा कुलनी प्रति उपरथी लखाव्या होय । ए गमे ते हो, वे छतां अमारा सामे जे रूपे प्रतिओ विद्यमान छे तेना वर्त्तमान स्वरूप अने विभागोने लक्षीने ज वर्ग के कुल पाडवामां आवेल छे । ८ प्रस्तुत नियुक्तिभाष्यवृत्तिसहित कल्पशास्खना संशोधन माटे अमे जे चार जुदा जुदा कुलनी प्रतिओ एकत्र करी छे तेमांनी ताडपत्रीय प्रति पंदरमा सैकाना उत्तरार्धमां लखाएली छे । बाकीनी कां० सिवायनी बधीए प्रतिओ सोलमा -सत्तरमा सैकामां कागळ उपर लखायेली छे । अमारा प्रस्तुत मुद्रण बाद आ ग्रंथनी बीजी ऋण ताडपत्रीय प्रतिओ जोवामां आवी छे । जेमांनी एक पूज्यपाद सूरिसम्राट् आचार्य भगवान् श्रीविजयने मिसूरीश्वरजी महाराजना ज्ञानभंडारमां छे अने बे नकलो जेसलमेरना किल्लाना श्रीजिनभद्रसूरिज्ञानभंडामां छे । आत्रणेय नकलो विक्रमना पंदरमा सैकाना उत्तरार्धमां लखायेली छे अने ए अमे पाडेला कुल के वर्ग पैकी मो० ले० ताटी० कुलनी ज प्रतिओ छे । आ उपरांत उप युक्त जेसलमेरना भंडारमां विक्रम संवत् १३७८ मां लखाएल एक प्रथम खंडनी प्रति छे, जे आजे मळती प्रस्तुत ग्रंथनी नकलोमां प्राचीनमां प्राचीन गणाय । आ प्रतिने अमे अमारी मुद्रित नकल साथै अक्षरशः मेळवी छे अने तेथी जणायुं छे के आ प्रतिमां अमुक अमुक पाठोमां सविशेष फरक होवा छतां एकंदर ए प्रति उपर जणावेल मो० ले० ताटी ० Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७ वृहत्कल्पसूत्रनी प्रस्तावना कुलनी ज प्रति छे । अमे पण अमारा प्रस्तुत संपादनमा मुख्यत्वे करीने आ कुलने ज आदिथी अंत सुधी स्थान आप्यु छे अने मौलिक कुल पण आ ज छे। आम छतां भा० प्रति के जेमा टीकाना संदर्भोना संदर्भोर्नु वधारेपणुं, व्याख्याभेदो, गाथाओर्नु ओछावत्तापणुं होवा छतां जेमा संख्याबंध स्थळे पाठोनी अखंड परंपरा जळवायेली छे के जे परंपरा अमारी पासेनी भा० सिवायनी वधीये प्रतिओमां तेम ज उपर जणावेली श्रीविजयनेमिसूरि म० अने जेसलमेरना श्रीजिनभद्रीय जैन ज्ञानभंडारनी ताडपत्रीय प्रतिओ सुद्धामां नथी, जेनी नोंध अमे आगळ उपर आपीशु, ए प्रतिनुं कुल पण प्राचीन छे । जो के अमारा पासे जे भा० प्रति छे ते संवत् १६०७ मां लखायेली छे, तेम छतां अमारा प्रस्तुत मुद्रण बाद पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यभगवान् श्रीसागरानंदसूरिप्रवरना सुरतना जैनानंद ज्ञानभंडारने जोतां तेमांथी विक्रमना चौदमा सैकाना उत्तरार्धमा अथवा पंदरमा सैकाना प्रारंभमां लखाएली नियुक्तिभाष्यटीकायुक्त बृहत्कल्पनी प्रतिनो एक खंड मळी आव्यो छे जे भा० कुलना पूर्वज समान प्रति छ। आ प्रति भा० प्रति साथे अक्षरशः मळती छे, एटले आ कुलनी प्रतिमां मळती पाठोनी समविषम परंपरा अति प्राचीन छ । आ ज प्रमाणे डे० त० प्रतिनी परंपरा अर्वाचीन तो न ज गणाय अने कां० प्रतिनी परंपरा पण अर्वाचीन नथी । आ हकीकत विचारतां आटलं बधुं विषमताभर्यु परिवर्तन प्रस्तुत टीकामां शा कारणे थयुं ? कोणे कयु ? विगेरे प्रश्नो अणउकल्या ज रही जाय छे । ___ संपादनपद्धति अने प्रतिओना परिचय विषे उपलक दृष्टिए आटलं जणाव्या पछी ए प्रतिओनी विविध विषमतानो ख्याल आपवो सविशेष उचित छे । जेथी विद्वानोने ग्रंथना संशोधनमा प्रत्यंतरोनुं शुं स्थान छे ? ए समजाय अने पाठोनो विवेक केम करवो तेनुं मार्गदर्शन थाय। सूत्रविषयक पाठभेदो। प्रस्तुत प्रकाशनमा कल्पनुं (बृहत्कल्पसूत्रनुं ) मूळ सूत्र छपाएलु छे। जेनी अमारा सामे उपर जणावेल कल्पलघुभाष्य अने कल्पचूर्णीनी ताडपत्रीय प्रतिओ पाछळ लखाएली वे प्रतिओ छे । आनी अमे तामू० अथवा ता० संज्ञा राखी छे । एमां अने नियुक्तिभाष्यटीकायुक्त बृहत्कल्पसूत्रनी दरेक प्रतिओमा मुद्रितना क्रम प्रमाणे सत्र लखाएलुं छे एमां, तथा कल्पभाष्य, कल्पचूर्णी अने कल्पविशेषचूर्णीमां जे समविषम सूत्रपाठभेदो छे तेनी नोंध आपवामां आवे छे । १ तामू० माथी मळेल सूत्रपाठभेद-पृ. १०२३ टि. १ (विचू० सम्मत) । २ भाष्यकारे नोंघेल सूत्रपाठभेद-पृ. ३४१ दि. १। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिओनो परिचय ३ टीकाप्रतिओमाथी मळतो सूत्रपाठभेद-पृ. ९२३ टि. ४ । आ ठेकाणे भा० सिवायनी टीका प्रतिओमां जे टीकापाठभेद छे तेने अनुसरतो सूत्रपाठ मात्र डे० प्रतिमा छे अने बीजी प्रतिओमां जे सूत्रपाठ छे तेने अनुसंरती टीका फक्त भा० प्रतिमां ज छे । आनो अर्थ ए थयो के डे० प्रति अने भा० प्रतिमां बे प्रकारनो सूत्रपाठ छे तेने ज अनुसरती टीका छे, परंतु बीजी प्रतिओमां सूत्रपाठ जुदो छे अने टीका जुदी छे । ४ भा० प्रतिमा सूत्रपाठभेद-पृ. ११३७ टि. १-४ । ११४८ दि. १। भा० प्रतिमा टीका पण आ पाठभेदने अनुसरती ज छ । ५ कां० प्रतिमा सूत्रपाठभेद-पृ. १३९९ दि. ३। १५६० टि. २ । १५६३ टि. ४। १५७८ टि. २ । १५८३ टि. २। १५८७ टि. ३ । कां० मा टीका पण आ पाठभेदने अनुसरती ज छे।। ६ कां० प्रतिमां शुद्ध सूत्रपाठ अने टीका-पृ. १५८३ टि. १ । ७ कां० प्रतिमा पूर्ण सूत्रपाठ-पृ. ९०६ टि. १ । ८ टीका प्रतिओमा पूर्ण सूत्रपाठ अने मूळ सूत्रप्रतिओमां अपूर्ण-पृ. ९७० टि. ९ । ९ टीकाप्रतिओमा सूत्रपाठ अपूर्ण अने मूळ सूत्रप्रतिओमां पूर्ण-पृ. ९७० टि. १० । पृ. १४५६ सूत्र २७ । आ ठेकाणे टीका प्रतिओमां सूत्र अपूर्ण छे अने अमे पण प्रमादथी सूत्रने अधूलं ज छपाव्युं छे; एथी विद्वानोए पत्र १४५६ नी १८ मी पंक्तिमां "उदिसावित्तए" पछी" ते य से वितरंति एवं से कप्पति जाव उद्दिसावित्तए । ते य से णो वितरंति एवं से नो कप्पति जाव उदिसावित्तए" आटलो पाठ ऊमेरी लेवो। १० टीकाकार, चूर्णिकार अने विशेषचूर्णिकार ए ऋणेये मान्य करेल सूत्रपाठ क्यायथी मळ्यो नथी-पृ. ११२८ दि. २-३-४ । ११ भा० प्रतिमां सूत्रनी बे विभागे व्याख्या अने व्याख्याभेद-पृ. ८४८ टि. १-३ । पृ. ११४८ टि. १ ( चू. विचू. सम्मत )। भाष्यविषयक पाठभेदो प्रस्तुत संपादनमां कल्पलधुभाष्य छपाएलुं छे । ए भाष्यनी स्वतंत्र ताडपत्रीय अने कागळनी प्रतिओमां, जेनी अमे तामा० अथवा ता० संज्ञा राखी छे तेमां तेमज चर्णी विशेषची अने वृत्तिनी प्रतिओमां भाष्यगाथाओने लगता जे स्वतंत्र तेमज वृत्ति, चर्णि, विशेषचर्णि आदिने अनुसरता पाठभेदो, गाथाभेदो, ओछीवत्ती गाथाओ अने गाथाक्रमभेदो छे तेनी नोंध आ नीचे आपवामां आवे छे । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९ बृहत्कल्पसूत्रनी प्रस्तावना भाष्यना स्वतंत्र पाठभेदो १ स्वतंत्र कल्पभाष्यनी प्रतिओमांथी उपलब्ध थएला स्वतंत्र भाष्यपाठभेदो-पृष्ठ ५ टि. २ । ६ टि. ३-४ । ७ टि. १-३ । ८ टि. ६ । ९ दि. ३ । पृ. १६ टि. ५ । २० टि. १ । २२ टि. १ । २८ टि. १ । ३० टि. ३ । ३३ टि. २ । ३४ टि. १-४ । पृ. ३५ दि. १ । ३६ टि. ३ । ६४ टि. ८ । ६६ टि. १ । ७० टि. १-२-४ । ७६ टि. १ । ८३ टि. ५ । ९४ टि. ६ । १०४ टि. १ थी ५। ११९ टि. २ । १३३ टि. २ । १३९ टि. १। १४३ टि. १।१४४ टि. १-२ । १४९ टि. १-२ । १५० टि. १-२-३ । १५८ टि. २ । १६५ टि. १। १६६ टि. १-२-३ । २०३ टि. ३ । २६४ टि. १ । २६५ टि. २ । ३२१ टि. १ । ३२६ टि. १ । ३५५ टि. २ । ३६७ टि. ३ । ३८५ टि. १ । ३८९ टि. १-२ । ४०५ टि. १। ४१७ टि. १। ४२७ टि. १-२ । ४५५ टि. २ । ४५८ टि. २। ६०३ टि. ६ । ६७३ टि. २। ८०७ टि. ४ । ८६५ टि. १। ८९५ टि. ५। ९७८ टि. १ । १००६ टि. २ । १०३२ टि. ३ वृभा० सम्मत । १०३७ टि. २ । १०४९ टि. १ । १०६० टि. १ । १०६३ टि. १ । १०६४ टि. १। १०७० टि. १ । १०९० दि. २ । १११६ दि. १-२ । ११४१ टि. १-२-३-४-६ । ११४२ टि. १ । ११४४ टि. १। १३०७ टि. ५ । १३७९ टि. १-३-४ । १३९० दि. २ । १४२५ टि. ४ । १४२६ टि. १-२। १४३२ टि. ४ । १४५८ टि. १ । १४६३ टि. २ चू० विचू० मान्य । १४७० दि. २। १४७७ टि. १ । १५०५ टि. २। १५०९ टि. ३। १५१३ टि. १। १५२८ टि. २-४ । १५२९ टि. १ । १५३६ टि. ३ । १५४४ टि. २ । १५६१ टि. ४-५ । १५७० टि. १ । १५८२ टि. १ । १५८४ टि. ३ । १५८५ टि. १-२ । १५९३ टि. १। १५९६ टि. ३ । १५९७ टि. २ । १६१६ टि. २-३ । १६२० टि. १ । १६२६ टि. २ । १६३५ टि. १ । १६४१ दि. १ । १६४७ दि. १ । १६५१ टि. १ । १६७० टि. १ । २ भा० त० डे० मो० ले० प्रतिओमाथी भाष्यगाथाओमां मळेलो स्वतंत्र पाठभेद-पृ० ९०१ दि. २। ३ भा० तामा० प्रतिओमांथी भाष्यगाथाओमां मळेला स्वतंत्र पाठभेदो-पृ. ५२८ दि. १ । ११४८ टि. ४ । १२०२ टि. १ । ४ मो० ताटी० प्रतिओमाथी भाष्यगाथाओमां मळेलो स्वतंत्र पाठभेद-पृ. ११२५ टि. ३। ५ डे० प्रतिमाथी भाष्यगाथामां मळेल स्वतंत्र पाठभेद-पृ. ५३९ टि. १ । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमोनो परिचय ६ मो० डे० प्रतिओमाथी भाष्यगाथाओमां मळेल स्वतंत्र पाठभेद-पृ. १३०७ टि. २ । ७ कां० प्रतिमांथी भाष्यगाथाओमां मळेला स्वतंत्र पाठभेदो-पृ. १५६३ टि. १ । १५८१ दि. २। 'स्वतंत्र पाठभेदो' एम कहेवानो आशय ए छे के-जे पाठभेदो विष भाष्यकार, वृहद्भाष्यकार, चूर्णीकार के वृत्तिकारो कशुं य व्याख्यान के सूचन न करता होय तेवा पाठभेदो। वृत्ति चूर्णी आदिने अनुसरता भाष्यपाठभेदो १ भा० प्रतिमाथी मळेला एक ज भाष्यगाथामां बे पाठभेदो-पृ. १०४५ टि. ३-४ । २ कां० प्रतिमाथी मळेला एक ज भाष्यगाथामां बे पाठभेदो-पृ. १६८४ टि. १-२। ३ चूर्णीकार तथा विशेषचूर्णीकारे दर्शावेला एक ज गाथामां बे पाठभेदो-पृ. १४६३ टि. २। ४ बृहत्कल्पसूत्रवृत्तिनां प्रत्यन्तर आदिमांथी भाष्यगाथाने लगता उपलब्ध थएला त्रण त्रण पाठभेदो पृ. ५६५ टि. ५ ( १ त० डे०, २ मो० ले०, ३ भा० को०)। पृ. १०७३ टि. २ ( १ तामा० ताटी०, २ भा० डे०, ३ मो० ले० त०)। पृ. १३०८ टि. २ (१ ताटी० मो० ले. भा० त० डे०, २ तामा०, ३ को०)। पृ. १५९१ टि. २ । (१ मो० ले० त० डे० कां, २ तामा०, ३ भा० )। पृ. १६१७ टि. १ । ( १ सर्व टीकाप्रति, २ तामा०, ३ चू० विचू० )। पृ. १६७४ टि. १ । (१ कां० विना चू० विचू०, २ का०, ३ तामा० )। ५ बृहत्कल्पसूत्रवृत्तिनां प्रत्यंतर आदिमांथी भाष्यगाथामां मळी आवेल पांच पाठभेदो-पृ. ११२१ टि. ३ (१ तामा०, २ मो० त०, ३ भा० डे०, ४ ताटी० कां०, ५ बृभा० )। ६ लिपिभेदजनित भाष्यपाठभेदो-पृ. १००५ टि. १ । १५०९ टि. ३ ( श्रीहेमचंद्राचार्य स्वीकारेल उम्भे तुम्मे प्रयोग). ७ स्वतंत्र भाष्यप्रतिमांथी मळेला टीकाकारमान्य भाष्यपाठो-पृ. ६ टि. १ । १९ दि. ४ । ६४ दि. ४ । ८४ टि. १। ६७८ दि.१ । ७११ टि. ३ । ९६० टि २ । पृ. १००४ टि. १ । १०३८ टि. २ । ११०० टि. ४ । १२४९ टि. १ । ८ तामा० कां० प्रतिमांथी मळेल वृत्तिकारमान्य भाष्यपाठ-पृ. १६१९ टि. १। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पसूत्रनी प्रस्तावना ९ टीकाकारमान्य भाष्यपाठोनी अनुपलब्धि-पृ. ४० टि. २ । २५९ टि. १ । ३०६ टि. १ । पृ. ३१६ टि. १ । ३४७ टि. ५ । ३९९ टि. ५ । ६५२ टि. ५ । ६७८ दि. १ । पृ. १०५३ टि. २ । १२७५ टि. २ । १३२५ टि. २ । १३५१ टि. २-३ । १४१४ टि. ३ । पृ. १६८४ टि. १ । आ स्थळोमां वृत्तिकारे जे पाठ मानीने व्याख्या करी छे ते पाठ कोई प्रतिमांथी मळ्यो नथी. १० स्वतंत्र भाष्यप्रतिमाथी उपलब्ध थएला चर्णिकारसम्मत भाष्यपाठो-पृ. ९ टि. १ । १४ टि. ३ । पृ. २४ टि. २ । *२६ टि. २ । २८ टि. ८ । ३८ टि. ७ । पृ. ५१ टि. २। ६० टि. २। ६३ टि. ४ । * ६५ टि. ४ । ३१५ टि. १ । ३८७ टि. २ । पृ. ८५८ टि. ५ । ९०५ टि. १ । ९६९ दि. ८ । १०२५ टि. १ । १५९५ टि. १ । १६६० टि. १ । ११ स्वतंत्र भाष्यप्रतिमांथी मळी आवेला विशेषचूर्णिकारसम्मत भाष्यपाठो-पृ. ६२४ टि. २ । ७२९ टि. ४ । ९७७ टि. २। १२ स्वतंत्र भाष्यप्रतिमांथी मळी आवेला चूर्णी-विशेषचर्णिकारसम्मत भाज्यपाठोपृ. ५०४ टि. १ । ८५८ टि. ५ । १००५ टि. १ । १२७३ टि. १ । १५६९ टि. २ । १५८१ टि. २। भाष्यगाथाओनी अधिकता अने न्यूनता लघुभाष्य, बृहद्भाष्य, चूर्णी, विशेषचूर्णी अने वृत्तिनी जुदी जुदी प्रतिओमां गाथाओ अने तेनी व्याख्यानुं आधिक्य अने न्यूनता छ, जेनी नोंध आ नीचे आपवामां आवे छे १ चूर्णीमां अधिक गाथा-पृ. २४ टि. ३ । पृ. १२३ टि. १। २ विशेषचूर्णीमां अधिक गाथा-पृ. ६४१ दि. ३ । पृ. ४९० ( १६६४ गाथानी टीकामां) ३ त० डे० मो० ले० चर्णिमां अधिक गाथा-पृ. ७९१ टि. ४ । आ गाथा भा० कां० विशेषचूर्णि अने बृहद्भाध्यमां नथी। ४ भा० तामा० मां अधिक गाथा-पृ. ७२४ टि. ३ । ५ चूर्णीमां न्यूनगाथा-पृ. २६ टि. ३ । १३४ टि. १ । १४२ टि. ५ । २८२ टि. १ । पृ. ३१७ टि. १ । ७११ टि. १।। ६ विशेषचूर्णिमां न्यून गाथा-पृ. ३५५ टि. १। ३६१ टि. ३-४ । ४४२ टि. १ । पृ. ४४३ टि. १ । ५३६ टि. २ । * आ निशानीवाळां स्थळो अतिमहत्वना छ। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ प्रतिओनो परिचय ८ चूर्णी-विशेषचूर्णी उभयमां न्यूनगाथा-पृ. ३६८ टि. १। ६५१ टि. १ । ९ भा० चूर्णी अने विशेषचूर्णीमां न्यूनगाथा-पृ. ५६६ टि. ३ । ५७४ टि. ७ । पृ. ६११ टि. ३ । ९६७ दि. २ आ गाथा बृहद्भाष्यमा छ । १० चू० विचू० बृभा० मां न्यून गाथा-पृ. ५५८ टि. ३ । ११ कां० चूर्णी, विशेषचूर्णी अने बृभा० मां न्यून गाथा-पृ. ८७३ टि. ३ । १२ भा० प्रतिमां न्यून गाथा-पृ. ८७४ टि. १ । लघुभाष्यनी गाथाओना पाठभेदो. ( क ) चूर्णीमां गाथाना पाठभेदो-पृ. ९ टि. १ । २६ टि. २ । ६५ टि. ४ । १४६ दि. १ । ३६० टि. २ । ( ख ) विशेषचूर्णीमां गाथापाठभेद-पृ. ३६० टि. २ । (ग ) चूर्णी-विशेषचूर्णीमां गाथापाठभेद-पृ. ३६० टि. ३-४ । भाष्यगाथाक्रमभेद आदि-टीका, लघुभाष्य, चूर्णी अने विशेषचूर्णीमां आवतो एकमेकथी जुदो पडतो भाष्यगाथाओनो क्रमभेद अने तेने लीधे थता अर्थभेद अने टीकाभेदने दर्शावतां स्थळोनी नोंध अहीं आपवामां आवे छ । (क) चूर्णीमां गाथाक्रमभेद-* पृ. २३ टि. ३ । २५ टि. ३ । ३६ टि. १ । * ९२ टि. २ । * ९४ टि. २-६ । * ११९ टि. १ । १५३ टि. १ । १६५ टि. १। २७७ टि. २। * ५७२ टि. १। ६५१ टि. ४ । ७०४ टि. २ । (ख) विशेषचूर्णिकारनो गाथाक्रमभेद-पृ. ४४३ टि. २ । ५१७ टि. १ । ६४० टि. ८ । ७५४ टि. ३ । (ग) चर्णिकार अने विशेषचूर्णिकार उभयमान्य गाथाक्रमभेद पृ. ५४९ टि. १ । १५२५ टि. १। (घ) भा० प्रति अने चूर्णि उभयमान्य गाथाक्रमभेद पृ. ५१८ टि. ३ । ५२० टि. १। ५७२ टि. १। ६६३ टि. २ । ७१२ टि. १ । ७२४ टि. ३ । (ङ) भा० विचू० उभयमान्य गाथाक्रमभेद-पृ. ७११ टि १ । (च) भा० प्रतिमां गाथानो क्रमभेद अने टीकाभेद-पृ. ८१३ टि. २। ९४७ टि. ३॥ (छ) टीका, चूर्णि अने विशेषचूणि ए त्रणेमां गाथाक्रमभेद-पृ. ५१८ टि. ३ । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पसूत्रनी प्रस्तावना (ज) ताडपत्रीय भाष्यप्रतिमां गाथाक्रमभेद--पृ. ७२४ टि. ३ । (झ) टीकाकार-चूर्णिकारमान्य गाथाक्रमनी कोई पण प्रतिमाथी अप्राप्ति-पृ.६४ टि.२॥ भाष्यपाठभेदो अने व्याख्याभेदो वृत्ति, चूर्णी, विशेषचूर्णी आदिमां भाष्यगाथामा जे पाठभेदो भने व्याख्याभेदो छे तेनी नोंध अहीं आपवामां आवे छे(क) चूर्णीमाथी मळेला भाष्यगाथामां पाठभेदो अने व्याख्याभेदो-पृ. २५ टि. । ३८ टि. ७ । ६० टि. २। ६३ टि. ४ । ३१५ टि. १। ३८७ टि. २ । १५९५ टि. १-२ । ( ख ) चूर्णी अने विशेषचूर्णीमांथी मळेला भाष्यगाथामां पाठभेदो अने व्याख्याभेदो पृ. १००४ टि. १ । १००५ टि. १ । १२७३ टि. १ । १४६३ टि. २ । (ग) भा० चूर्णीमांथी मळेला भाष्यगाथामा पाठभेद अने व्याख्याभेद-पृ. ३०६ टि.१ । (घ) भा०माथी मळेला भाष्यगाथापाठभेदो अने व्याख्याभेदो-पृ. ३१२ टि. ३ । ३४४ टि. ४-६ । ९४४ टि. १-२ । ९६३ टि. ३-४ । ११५७ टि. १ । (क) मो०मांथी मळेलो भाष्यगाथापाठभेद अने व्याख्याभेद-पृ. १३२१ टि.२-४ । टीकाना पाठभेदो जेम प्रस्तुत कल्पशास्त्रनी मूळ, सूत्र, लघुभाष्य, बृहद्भाष्य, चूर्णी अने विशेषचूर्णीनी स्वतंत्र लिखित प्रतिओ मळे छे ते रीते कल्पवृत्तिनी स्वतंत्र हस्तलिखित प्रतिओ छे ज नहीं । परन्तु वृत्तिनी दरेके दरेक प्रतिओ, प्रस्तुत प्रकाशन पामता बृहत्कल्पना भागोनी जेम सूत्र, नियुक्ति, लघुभाष्य अने वृत्ति साथेनी ज मळे छे। वृत्तिनी आ प्रतिओने अमे वृत्तिप्रत्यन्तरो तरीके ओळखावी छे । आवी सात प्रतिओ अमे अमारा संशोधन माटे अमारा सामे राखी छे, जे जुदा जुदा चार वर्गमां वहेंचाई जाय छे । एमां अनेकविध पाठभेदो उपरांत सेंकडो ठेकाणे जुदी जुदी जातना टीकासंदर्भो पण उपलब्ध थाय छे; एटलं ज नहीं पण सेंकडो ठेकाणे ए प्रतिओमां, ताडपत्रीय प्राचीन प्रतिओ सुद्धांमां, पाठोना पाठो खंडित थई गया छे, जे अमने अमुक प्रति के प्रतिओमाथी मळी आव्या छ । तेमज केटले य ठेकाणे अवतरणोनी न्यूनाधिकता अने व्याख्यान्तरो वगेरे पण छे । आ बधी विविधतानी नोंघ अमे अमारा मुद्रणमां पादटिप्पणीओमां ते ते ठेकाणे नोंधी छे, जेनी यादी आ नीचे क्रमशः आपवामां आवे छे । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिभोनो परिचय अवतरणोनी न्यूनाधिकता। नीचे जणावेलां स्थळोमा टीकानी सात प्रतिओ पैकी छ प्रतिओमां अवतरण होवा छता फक्त भा० प्रतिमा ए अवतरण नथी-पृष्ठ ५७८ टि० १। ६१८ टि. २ । ६२३ टि. ७ । ६२५ टि. ६ । ६२६ टि. २ । ६३४ टि. १-२ । ६४१ टि. २ । ६४९ टि. ४। ६९७ टि. ३ । ७१५ दि. ४ । ७३० टि. ४ । ८३३ टि. २ । ८६६ टि. ५। ८७१ टि. ४ । ८७२ टि. २ । ८७३ टि. १ । ९२५ टि. ३ । ९२९ टि. ५। ९३२ टि. २। ९३४ टि. १ । ९३८ टि. २ । ९५५ टि. १। ९७५ टि. ३ । ९८६ टि. ५-७ । ९८७ टि. २ । १०४८ टि. ३ । १०८८ टि. १ । १०९१ टि. २-४ । १०९३ टि. १ । १०९५ दि. २ । ११०० टि. ३-५ । ११५५ टि. १ । ११५९ टि. २ । ११८५ टि, २। ११८६ टि. २ । ११८७ टि. २ । ११९४ टि. ५ । १२०६ टि. १ । १२३४ टि. १ । १२४० टि. १ । १२४८ टि. २। १२५४ टि १ । १२५९ टि. १ । १२६८ टि. १ । १३१५ टि. १-२ । टीकानी पांच प्रतिओमां अवतरण होवा छतां फक्त भा० कां० प्रतिमां अवतरण नथी-पृ. ९७५ टि. ३ । १३१८ टि. १ । भा० मो० ले० प्रतिओमा अवतरण नथी-पृ. ६२७ टि. १ । भा० त० डे० प्रतिओमा अवतरण नथी-पृ. ६९३ टि. २-३ । ७१५ दि. ५ । ७९४ टि. १ । ८०० टि, २ । ८२२ टि. ५। ८२५ टि. १ । ८३५ टि. १। ८३९ दि. १। ८५५ टि. ३ । ८८१ दि. ३ । ८९२ टि. ३ । ८९५ टि. ४ । ८९६ टि. २। भा० प्रतिमां ज अवरतण छे-पृ. ५११ टि. १ । १३५८ टि. ३ । भा० कां० प्रतिमा ज अवतरण छे-७५९ टि. ५ । ७९१ टि. १ । १२४२ टि. २ । आ स्थळोमा मात्र भा० का० प्रतिओमां ज अवतरण छे, बीजी प्रति ओमां नथी। कां० प्रतिमा ज अवतरण छे-पृ. ६८५ टि. १ । ६८६ टि. ३ । ७०७ टि. २। ७२६ टि. १-२ । ७२८ टि. ४ । ७३३ टि.१ । ७६० टि.१ । ७८४ टि. १ । ७९२ टि. ३ । ८०८ टि. ५ । ८१५ टि. ६ । ८१६ टि. ३ । ८२३ टि. २ । ८३५ टि. २॥ ८४४ टि. १। ८४६ टि. ३ । ८४९ टि. १। ८५१ टि. ५ । ८५४ दि. २ । ८६९ टि. २ । ८७० टि. ५ । ८७१ टि. ४ । ८७७ टि. ५ । ८८७ टि. ५-७ । ८९१ टि. २। ८९७ टि. १। ८९९ टि. १-२। ९०० टि. ७ । ९०४ टि. ६। १३३७ टि. ५। १३५४ टि. २। १४२७ टि. २ । १४३२ टि. १ । १४३८ टि. २। १४४० टि. १। १४४३ टि. १ । १४४७ टि. १। १४४८ टि. १ । १४४९ टि. १-३ । १४५८ टि. ३ । १४७० टि. १। १४९३ टि. ४ । १५०४ टि. १-४ । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पसूत्रनी प्रस्तावना १५११ टि. १ । १५४० दि. ३ । १५४८ टि. १। १५५२ टि. ५। १५५८ टि. २ । १५७१ टि. १ । १५८८ टि, २-३ । १५९८ टि. १-५। १५९९ टि. २ । १६३० टि. ४ । १६६७ टि. १ । १६८५ टि १ । १६९९ टि. २ । १७०० टि. ५। आ स्थळोमां कां० सिवायनी छ प्रतिओमां अवतरण नथी। आ अवतरण पैकी जे अवतरणो अमने योग्य लाग्या छे ते अमे मूळमां स्वीकार्या छे अने बाकीनां पादटिप्पणीमां नोंध्यां छ । भा० प्रतिमां असंगत अवतरण -पृ. १०५८ टि. २ । डे० मां अवतरण भिन्न-३७१ टि. २ । खंडित-अखंडित टीकापाठो प्रस्तुत महाशास्त्रना संशोधन माटे अमे जे प्रतिओ सामे राखी छे ते पैकीनी दरेके दरेक प्रतिमा सेंकडो ठेकाणे नाना मोटा टीकापाठो अने टीकासंदर्भो पड़ी गया छे । ए दरेक खंडित पाठोनी पूर्ति अमे अमारा पासेनी जुदा जुदा वर्गनी प्रतिओना आधारे करीने प्रस्तुत महाशास्त्रने अखंड बनाव्युं छे। एटले कया कया वर्गनी प्रतिओमांथी केवा सम अने विषम रीते अखंड पाठो मळी आव्या छे ते समजवा माटे तेनी यादी आ नीचे आपवामां आवे छ । भा० प्रतिमांथी मळी आवेला अखंड टीकापाठो अने संदर्भो-पृ. ५६२ दि. ४ । ५८४ टि. १४*७३० टि. ३ । ७५२ टि. २ । ७६७ टि. १ । *१००० टि. ४ । (अति महान् टीका संदर्भ) १०११ टि. १ । १०३८ टि.७ । १०४६ टि. २-३ (चू. सम्मत)। *१०९० दि. १। ११०५ टि. २ । ११५७ टि. ४ । *१२८३ टि. ३ । १३४० दि. १ । १३५१ टि. ३ ( चू० विचू० सम्मत ) । १३६८ टि. ५ । १४५२ टि. १ । १४७४ टि. १ । *१४८५ टि, २ । ___ भा० प्रतिमां खंडित पाठो-पृ. ५५२ टि. २ । ५५७ टि. १ । ५५८ दि. २ । ५६२ टि. २ । ५८९ टि. १ । ६१२ टि. ५ । ६२० टि. ५। ६३० टि. १ । ६४१ टि. १ । ६४७ टि. ५। ६४९ टि. १ । ६५३ टि. १-२-३-५। ६५८ टि. ५ । ६७१ दि. ३ । ६७३ टि. ३ । ६७७ टि. १-२ । ६७७ टि. ३ ( चूर्णीअनुसारी)। ६९७ दि. ३ । ७१७ टि. ४ । ७४६ टि. १ । ७५२ टि. ५ । ७८० दि. २। १८०३ टि. १। ८०९ दि. १ । ८१३ टि. ३। ८२४ टि. २ । ८४२ टि. २ । ८६९ टि. ७ (चू. विचू. अनुसारी)। ८६९ टि. ११-१२ (चू. विचू. अनुसारी)। ८७१ टि. फूलडीवाळां स्थळो खास ध्यान खेंचनारा छे. Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिओनो परिचय ६६ ५ । ८८९ टि. २ । ९२६ टि. ३-४ ( चू. विचू. सम्मत ) । * ९३० टि. ३ । ९४२ टि. १ । ९४३ टि. ३ । ९४९ टि. १ । ९५१ टि. २-३-४ ( चू. विचू. सम्मत ) ९६७ टि. २ । ( चू. विचू. सम्मत ) । ९६८ टि. ४ । ९७० टि. २-३ । ९७१ टि. १ । ९७२ टि. १-२ । ९७६ टि. २-३ । ९७९ दि. ५ । ९८५ टि. ३ । ९९८ टि. १ । ९९९ टि. २ । १०१० टि. १ । १०१६ टि. १ । १०६५ टि. १ । १०६६ टि. १ । १०६७ टि. १ । १०७२ टि. २ । १११२ टि. २ । ( चू. विचू, सम्मत ) । ११२९ टि. १-२ । ११३३ टि. २ । ११३४ टि. १ । ११३८ टि. १ । *११३९ टि. ३ (चू. विचू. सम्मत) । ११६१ टि. २ - ३ | ११६८ टि. . ३-४ । ११७० टि. ३ । ११७५ टि. ४ । १९८३ टि. ५ । ११८४ टि. १ । ११९४ टि. २ । ११९६ टि. १ । ११९८ टि. २ । १२०१ टि. १-२ । * १२३९ टि. १ । १२७३ टि. ३ । १३११ टि. २ । १५३० टि. १ । कां० प्रतिमांधी उपलब्ध थएला अखंड टीकापाठो - पृ. ६६७ टि. ४ । ६७१ टि. ५ । ६९७ टि. १ । ६९८ टि. २ । ७२३ टि. २ । ७३५ टि. १ । ७४१ टि. १ । ७४२ टि. १ । ७४५ टि. १ । ७४८ टि. २ । ७५६ टि. २ । ७६४ टि. १ । ७७१ टि. १-४ । ७७५ टि. ३-४ । ८२० टि. १ । ८२१ टि. ५। ८२७ टि. ६-७ । ८२८ टि. १ । ८३३ टि. ३ । ८३६ टि. १ । ८४२ टि. ३-४-५-७ । ८४६ टि. १ । ८६९ टि. ५ । ८७९ टि. ५। ८८१ टि. ४ । ८८३ टि. २ । ८९४ टि. १ । ९०८ टि. ८ । ९२८ टि. ५ । ९५७ टि. २ ( चू. अनुसारी) । ९९० टि. १ । १३१९ टि. ३-५ । १३२९ टि. २ । १३३२ टि. २ । १३४२ टि. १ । १३५९ टि. १ । १३६१ टि. २ । १३७० टि. १ । १३७४ टि. २ १३८३ टि. २ । १३८९ टि. ४ । १३९६ टि. ५ । १४०३ टि. १ । १४३२ टि. ५ । १४३३ टि. १-२ । १४७० टि. ४ । १४७८ टि. १ । १५११ टि. ३ । १५२३ टि. १ । १५८९ टि. ३ । १६५३ टि. १ । । भा० कां०मांधी मळी आवेला अखंड टीकापाठो-पृ. ६७८ टि. ५ । ६९८ टि. १ । ७४५ टि. ३ ( चू. विचू. सम्मत ) । ७४७ टि. ३ । ७५० टि. ४ । ७५५ टि. २-४ । ७८९ टि. १ । ८२७ टि. ३ । ८३६ टि. ३ । ८४० दि. ६ । ८४२ टि. ६ । ८४७ टि. १ । ८६८ टि. १-७ । ८६९ टि. १-६ ( चू. विचू. सम्मत ) । ८७० टि. २ । ८७५ टि. । ८७६ टि. १ । ८८२ टि. २-४ । ८८३ टि. ३ । ८८५ टि. ३ । ९०४ टि. १ । ९०६ टि. ४ । ९८६ टि. ४ । १००७ टि. २ । १०३८ टि. ६ । १०३९ टि. २ । १०५७ टि. २-३ । १०६९ टि. १-४ । १०८३ टि. ६ । १०८४ टि. २ (चू. विचू. अनुमारी) । १०८५ दि. २ । १०८६ टि. १ । १०९४ दि. ४ । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ बृहत्कल्पसूत्रनी प्रस्तावना १०९५ टि. १ । १०९७ टि. १। ११०९ टि. १। १११० टि. ३। ११२१ टि. १। ११२५ टि. २ । ११६५ टि. १-२ । ११६६ टि. १.४.५ । ११६७ टि. २ । ११६८ टि. १-२ । *११७४ टि. १ । ११८३ टि. २ । ११९४ टि. ६ । १५२६ टि. ५ । १५३४ टि.८ । भा० कां० मां खंडित टीकापाठो-पृ. ५४६ टि. २। ५५७ टि. २। ६१२ टि. १ । ६७४ टि. २-३ । ६७८ टि. ५। ६८६ टि. ४ । ६९८ टि. १ । ९६९ टि. ४ । १३०८ टि. १ । १३१९ टि. ४ । १३२० टि. ५-८ । १३२२ टि. ३। १३२५ टि. १ । १३२६ टि. १ । १३२७ टि. १-३ । १३२९ टि. १-४ । १३३२ टि. २ । १३३९ टि. १-२ । १३४० टि. २-३ । १३४८ टि. ३ । १३५२ टि. १ । १३५३ टि. २-३। भा० त० प्रतिमांथी मळेला अखंड टीकापाठो-*पृ. २३० टि. ४ । *२३१ टि. ७ । २३५ टि. ३-५ । २३६ टि. १ । त० डे० प्रतिमाथी मळेला अखंड टीकापाठो-पृ २३२ टि. १। २३३ टि. ५ । २३७ टि. १ । ५२६ टि. ३ । ६६० टि. ११ । त० कां० प्रतिमांथी मळेलो अखंड टीकापाठ-अपृ. २१२ टि. १० । मो० ले० प्रतिओमांथी मळेला अखंड टीकापाठो-*पृ. २४४ टि. ३ । *२४५ टि. ३ । *पृ. २९४ टि. १ । ३८३ टि. ५। *४९९ टि. २। ५६९ टि. ५-६ । ५७५ टि.५-६ । ५७६ टि. २ । ५८० टि. १। ५८२ टि. १-२ । ५८३ टि. २-३ । ५८५ टि. १। ५८६ टि. ३। ५९३ टि. ३ । ५९४ टि. २। ५९५ टि. १-२ । ५९८ टि. १ । ५९९ टि. १। ६०४ टि. ४ । ६०५ टि. १ । ६०९ टि. २ । ६५१ टि. ३ । ६७० टि. २ । ६७९ टि. ४ । ___ भा० त० डे० प्रतिमाथी प्राप्त थएला अखंड टीकापाठो-*पृ. २०७ टि. ७ । २०९ । २१० । २२१ । २२२ । २२३ । २२४ । २२५ । २२६ । *२२८ (चूर्णी अनुसारी महान् टीकासंदर्भ जुओ टि. २ )। *२३१ ( चूर्णी अनुसारी जुओ टि. २)। २३२ । २३३ । २३६ । २४० । *२४१ । पृष्ठ २०७ थी पृष्ठ २४१ सुधीना आ पाठो हस्तचिह्नना वचमां आपेला छे । ६४९ टि. ३ । ९६० टि. ३ । ताटी० भा० त० डे० प्रतिओमां खंडित अने मो० ले०कां० प्रतिओमां अखंडित टीकापाठो-पृ. २६१ टि. ६ । ५४२ टि. १। ६५९ टि. १ । ६६० टि. ५-७-८-९१०।६६५टि.५१७१४ टि. १। ७२० टि. २-४-५ ७२१ दि. ३ । ७४३ टि.६। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिओनो परिचय ७७२ टि. १ । ७८१ टि. ४-५ । ८०४ टि. २ । ८१६ टि. २ । ८१८ टि. ३ । ८२३ टि. ४ । ८२४ दि. ३ । ८२६ टि. ५। ८२७ टि. ४-५। ८३१ टि. २-४ । ८३२ टि. २-३ । ८५५ टि. १ । ८५७ टि.१ । ८५८ टि. ४ । ८६२ टि. ३ । ८६३ टि. ४-५ । ८६९ टि. ८ । ८७८ टि. १-२ । ८८० टि. २-३-५ । ८८१ दि. ३ । ८८५ टि. १ । ८८९ टि. ३ । ८९३ टि. ४ । ९०० टि. ३-४ । ९०४ टि. ३ । ९०७ टि. २। ____ भा० त० कां० प्रतिओए पूरा पाडेला अखंड टीकापाठो--*पृ. २११ टि. ३ । *२२३ टि. ३ (चूर्णी अनुसारी पाठ)। २३३ टि. ८ । २४१ टि. १ । ११११८ टि. ३ । भा० मो० ले० प्रतिमांथी उपलब्ध थएला अखंड टीकापाठो-पृ. २४६ दि. २ । ३१३ टि. १ । ५२६ टि. २ । ५६५ दि. १ । ५७४ टि. ६ । ५८५ टि. ४ । ५८७ टि. २।६०० टि. २। भा० मो० ले० प्रतिओमां खंडित टीकापाठो-पृ. ६३३ टि. १-२ । ६३७ टि. ३ । मो० ले० त० डे० मा खंडित पाठो-पृ. ८७९ टि, ५ । टीकासंदर्भना पूर्वोत्तर अंशोनी खंडितता प्रस्तुत प्रन्थनी टीकाप्रतिओमा केटलीक वार टीकासंदर्भनो पूर्वाश अमुक प्रतिओमां होय तो उत्तर अंश अमुक प्रतिओमां होय छे । ज्यारे पूर्णपाठ कोई एकादमां ज होय छे तेवां स्थळो-पृ. १०३० दि. २ । १०३१ टि. १ । ( आ स्थळे पूर्व अंश भा० प्रतिमा नथी अने उत्तर अंश ताटी० त० डे० मो० ले० प्रतिओमां नथी, ज्यारे अखंड पाठ फक्त कां० प्रतिमा छे ) । १०६१ टि. १-३ ( अहीं पूर्व अंश भा०मां नथी अने उत्तर अंश ताटी० मो० ले० डे० मां नथी, ज्यारे पूर्ण पाठ त० कां० मा छे )। १०९० टि. १ ( आ स्थळे संपूर्ण पाठ मात्र भा० प्रतिमां छे, कां० प्रतिमा खंडित स्वरूपे एक जुदो ज पाठ छे, ज्यारे बीजी प्रतिओमां आ पाठ सर्वथा छे ज नहीं )। शुद्ध अने अशुद्ध टीकापाठो प्रस्तुत शास्त्रनी वृत्तिमा जेम अनेक स्थळोए पाठभेदो छे तेम ज लेखकोना प्रमादादि कारणोने लई पाठो गळी गया छे अथवा लखवा रही गया छे ते ज रीते टीकानी जुदी जुदी प्रतिओमां पाठो अशुद्ध पण थई गया छे । ए पाठोनी शुद्ध परंपरा कोई अगम्य कारणने लई अमुक एकाद प्रतिमां जळवाई रही छे । एवां स्थळोनो निर्देश आ नीचे करवामां आवे छे। भा० प्रतिमांथी मळेला शुद्ध पाठो पृ. ६८ टि. ४ । ७१ टि. ३ । ८६ टि. ४ । १७९ टि. २-३ । १९२ टि. ६ । १९३ टि. १ । ३५३ टि. २ । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पसूत्रनी प्रस्तावना कां० प्रतिमां शुद्ध पाठ-पृ. ९२९ टि. १ । मो० प्रतिमांथी मळलो शुद्ध पाठ-पृ. ३५० टि. १ । डे. मो० प्रतिमांथी मळेलो शुद्ध पाठ-पृ. १०९ टि. १ । भा० कां० प्रतिओमां शुद्ध पाठ-पृ. ८८१ टि. २ । १०६३ टि. २ । बधीय प्रतिओमा अशुद्ध टीकापाठ-१२८८ दि. १ । टीकाकारे प्रमाण तरीके उद्धरेला ग्रन्थान्तरोना पाठोनी अनुपलब्धि अने रूपांतरतापृ. ३९ टि. २ । २९७ टि. ४ । ४९५ टि. १ । ५०५ टि. १ । वृत्तिप्रत्यन्तरोमां जुदा जुदा टीकासंदर्भो प्रस्तुत महाशास्त्रनी वृत्तिनां प्रत्यन्तरोमां नाना पाठभेदो तो हजारोनी संख्यामां छे, परन्तु सेंकडो ठेकाणे टीकाना संदर्भोना संदर्भो पण पाठभेदरूपे छे । आ रीतना पाठभेदो मोटेभागे ए प्रकारना छे के कोई अमुक कुलनी प्रति के प्रतिओमां अमुक पाठभेद होय तो बीजो पाठभेद अमुक कुलनी प्रति के प्रतिओमां होय; आम छतां केटलीक वार एम पण बन्युं छे के अमारा संशोधन माटे परीक्षापूर्वक एकत्र करेली जुदा जुदा कुलनी प्रतिओमाथी त्रण त्रण अने चार चार प्रकारना संदर्भरूप टीकापाठभेदो पण मळी आव्या छे । आ बधानी नोंध अहीं आपवामां आवे छे __ भा० प्रतिमा टीकासंदर्भमां भिन्नता-पृ. १८६ टि. २ । 'पृ. २०६ टि. ३ । २०७ टि. ५ । २०८ टि. १-८ । २११ टि. ५ । २१२ दि. १। २१४ दि. १ । २१७ टि. २। २२२ टि. २ । २२४ टि. ७ । २२५ टि. ६ । २२६ टि. ४ । २२८ टि. १ । २३५ टि. ५ । २७३ टि. १. । २७९ टि. २-३। ३०२ टि. ३ । ३०४ टि. १ । ३०५ टि. ३ । *३३४ टि. २। ३८० टि. २ । ३९८ टि. ४ । ४३० टि. २ । ४५५ टि. १। ४८२ टि. २-३ । ४८६ टि. ३ । *५२० टि. १ । *५२१ दि. २ । *५२२ टि. ६ । ५४३ टि. ४ । *५८७ टि. १ । ५९० टि. ३ । ५९१ टि. ४ । ६०२ टि. २ । *६०३ टि. १०।६०४ टि. २ । ६२२ टि. १ । ६५६ टि. ६ । ६५९ टि.३। *६६० टि. ११ । ६७२ टि. २ । ७१० टि. १-३ । *७१२ टि. १-४ । ७४४ टि.५। ७५४ टि. २ । ८२५ टि. ३ । ८२६ टि. ३ । ८७४ टि. १ । ९२४ टि. ३ । ९६० टि. १ । ११९५ टि. १ । १२१२ टि. । १३२६ दि. ३ । १५१६ टि. १ । कां० प्रतिमा टीकासंदर्भमा भिन्नता-पृ. ७३७ टि. २ । ८७१ टि. ६ । १३६५ टि.१-२।१३८६ टि. १ । १३९६ टि. १-२-३-४ । १४०० टि. १ । १४२५ टि. १। १४५४ टि. १ । १५२९ टि. २।१५३५ टि. २। १५५४ दि. १ । १५६८ टि. २ । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमोनो परिचय ७० १५७२ टि. २ । १५७३ टि. २ । १५७४ टि. २ । १५८७ टि. ६ । १५८८ टि. ४ । १५९० टि. २ । १५९७ टि. ४ । १६७५ टि. १ । १६८२ टि. १ ( भाष्यगाथानी स्पष्ट व्याख्या)। मो० ले० कां० डे० प्रतिओमा संदर्भमां भिन्नता-पृ. २१६ टि. ३ । मो० ले० त० डे० कां० प्रतिओमा टीकासंदर्भमा भिन्नता-पृ. ७३३ टि. ४ । टीकानां जुदा जुदा प्रत्यन्तरोमां एक ज गाथानी व्याख्यामां उपलब्ध थतां त्रण त्रण पाठभेदवाळा स्थळो-पृ. १८९ टि. १ ( १ भा० ले. कां० २ त० मो० ३ डे०)। पृ. १९९ टि. २ ( १ डे० त० २ भा० ३ मो० ले० कां० )। २०. टि. १ (१ मो० ले. कां. २ डे० त० ३ भा०)। २०४ टि. ३ ( १ मो० ले० कां० २ डे० त० ३ भा० ) । २०८ टि. ७ ( १ डे० त० २ मो० ले० ३ भा० )। २०९ टि. ९-१० ( १ डे०त० २ मो० ले० का० ३ भा० )। २१० टि. २ (१ डे० त० २ मो० ले० कां. ३ भा० )। २११ टि. २ (१ डे० त० २ मो० ले० का ३ भा०)। २१२ टि. ३ (१ डे० त० २ मो० ले० कां. ३ भा०)। २१४ टि. ७ (१ डे० त० २ मो० ले० ३ भा० )। २२९ टि. ६ (१ डे० त० २ मो० ले० कां० ३ भा० )। २३१ टि. ६ (१ डे० मो० ले० कां० २ त० ३ भा०)। २४१ टि. ३ ( १ त० २ भा० ३ डे०) टि. ५ (१ त० २ भा० ३ डे. मो. ले० कां०)। २४५ टि. ६-७ (१ डे० त० कां० २ ले. मो० ३ भा०)। ३०७ टि. ४ ( १ मो० ले० २ भा० त० डे० ३ को०)। ३१४ टि. १ ( १ मो० ले० २ भा० ३ त० डे, कां० )। ३२८ टि. १ (१ भा० २ त० ३ मो० ले० कां० )। ३९२ टि. १ (१ त० डे० कां० २ मो० ले. ३ भा०)। ४३१ टि. २ (१ मो० ले० २ भा० ३ त० डे० को०)। ४३४ टि. १ ( १ त० डे० २ भा० ३ मो० ले०), टि. २ ( १ मो० ले० त० डे. २ भा० ३ को०)। ४५२ टि. ४-५ (१ मो० ले० २ त० डे० कां० ३ भा०)। * ४८० टि. ६ ( १ मो० ले० २ भा० चू. विचू. अनुसारी ३ त० डे० कां०)। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१ वृहत्कल्पसूत्रनी प्रस्तावना ५४७ टि. ३ (१ मो० ले० कां० २ त० डे० ३ भा०) ५६१ टि. ४ (१ मो० ले० २ त. डे० कां० ३ भा०)। ५९१ टि. २-३ (१ मो० ले० २ भा० ३ त० डे० कां०)। ६१६ टि. ३ (१ ताटी० मो० ले० २ त० डे० कां० ३ भा०)। ६४७ टि. ३ ( १ मो० ले० २ त० डे० कां० ३ भा० )। ६५२ टि. १ (१ मो० ले० २ त० डे० ३ भा०)। ६५६ टि. ३ (१ मो० ले०, २ भा०, ३ त० डे० )। * ६६० टि. १ ( १ मो० ले० २ त० डे० ३ भा० चू. विचू. अनुसारी । ७३७ दि. १ ( १ त० डे० मो० ले० २ भा० चू. विचू. अनुसारी ३ कां० । ७५६ टि. ३ (१ त० डे० मो० ले० २ भा० ३ कां०)। ८६६ टि. ३ (१ मो० ले० २ भा० त० डे० ३ कां० )। ८९७ टि. ३ ( १ ताटी० त० डे० मो० ले० २ भा० ३ कां०)। ९०० टि. २ ( १ ताटी० त० डे० मो० ले० २ भा० ३ कां० )। ९०८ टि. २ (१ ताटी० त० डे० मो० ले० २ भा० ३ कां० )। ९०९ टि. ३ ( १ भा० २ ताटी० मो० कां० ३ त० डे० ले०)। ९३७ टि. १ ( १ मो० ले० २ त० डे० ३ ताटी० भा० कां०)। ९४० टि. २ (१ ताटी. कां. २ त० डे० मो० ले० ३ भा० )। ९८५ टि. २ ( १ भा० कां० २ मो० ले० ३ ताटी० त० डे० )। ९८८ टि. ४. ( १ ताटी० भा० कां० २ मो० ले० डे० ३ त०)। . ९९७ टि. १ ( १ भा० कां० २ त० ३ ताटी० मो० ले० डे०)। ९९९ टि. ३ (१ मो० ले० त० डे० २ भा० कां० चूर्ण्यनुसारी ३ ताटी०)। १००९ दि. ६ ( १ ताटी० कां० मो० ले० २ भा० ३ त० डे०)। १०२१ टि. १ ( १ मो० ले० २ त० डे० ३ भा० कां०)। १०३३ टि. १ (१ भा० कां० २ मो० ले० ३ त० डे०)। १०५५ टि. २ ( १ ताटी० भा० २ मो० ले० ३ त० डे० कां० )। १०६७ टि. २ ( १ भा० ताटी० २ त० डे० मो० ले० ३ को०)। १०८२ टि. ३ ( १ कां० २ मो० ले० ताटी० त० डे० ३ भा० )। १२७८ टि. ३ (१ कां० २ भा० ३ ताटी० मो० डे० )। १२८४ टि. २ ( १ भा० २ कां० ३ ताटी० मो० डे०)। १३१७ टि: ५ (१ भा० २ ताटी० मो० डे० ३ कां०)। १३२० टि. ३-६ ( १ ताटी. मो० डे० २ भा० ३ कां०)। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिओनो परिचय ७२ १३३५ टि. ४-५-६ ( १ नाटी० मो० डे० २ भा० ३ कां०)। १३५३ टि. १ ( १ ताटी० मो० डे, २ भा० ३ को०)। १६६९ टि. ३ ( १ ताटी० डे० २ मो० ले० ३ भा० कां०)। टीकाप्रतिओमां एक ज गाथानी व्याख्यामां उपलब्ध थतां चार चार पाठभेदवाळां स्थळो-पृ. ९०४ टि. ४ ( १ मो० ले० कां० २ ताटी० ३ त० डे० ४ भा०)। पृ. १०१२ ( १ भा० २ त० डे० मो० ले० ३ कां० ४ ताटी०)। पृ. १०६४ टि. २ (१ भा० २ कां० ३ मो० ले० ४ ताटी० त० डे०)। टीकापाठभेदो साथे चूर्णी-विशेपचूर्णीनी तुलना प्रस्तुत ग्रंथना संशोधन माटे अमे वृत्तिनां जे प्रत्यन्तरो एकत्र कयां छे तेमां नाना मोटा अने संदर्भरूप विविध पाठभेदो छ । ए पाठभेदो पैकीना केटलाक पाठभेदो चूर्णीकारनी व्याख्याने अनुसरता छे अने केटलाक विशेषचूर्णीने अनुसरता छ, ज्यारे केटलाक पाठभेदो चर्णी विशेषचूर्णी उभयने अनुमरता छ । आ दरेक स्थळोए अमे तुलना माटे चर्णी विशेषचीना पाठो पादटिप्पणीमां ते ते पाठभेदादि साथे आपेला छे, जेनी यादी आ नीचे आपवामां आवे छेचूर्णी साथे तुलना भा० प्रतिना टीकापाठभेद अने संदर्भभेदनी चूर्गी साथे तुलना-१९३ दि. १ । २०० टि. ६ । २०८ दि. ८ । २०९ दि. २ । २२३ दि. ६ । २३१ दि. ८ । २४५ टि. १ । २४६ टि. ३ । ३०० दि. १ । ३०६ टि. १-२। ३१३ दि. २ । ३१९ टि. ३ । ॐ ३२० टि. २ । ( टिप्पणी ३१९ थी चालु )। ४७२ टि. १ । *५६३ टि. १ । ६७९ टि. १ । ७७३ टि. ३ । ७७५ टि. २ । १०४६ टि. २-३ । १२८१ दि. ३ । कां० प्रतिना पाठभेदनी चूर्णी साथे तुलना-पृ. ७७१ टि. ३ । ८९५ टि. ३ । भा० कां० प्रतिना टीकापाठभेद अने संदर्भभेदनी चूर्णी साथे तुलना-पृ. ८१४ टि. ४ । ९९९ टि. ३ । १३१० टि. २ । भा० त० कां० प्रतिओना पाठभेदनी चूर्णी साथे तुलना-पृ. २२३ टि. ३ । २३१ टि.२। मो० ले० त० डे० कां० प्रतिओना पाठभेदनी चूर्णी साथे तुलना-पृ. २३५ टि. ६। ७८० टि. ५। विशेषचूर्णी साथे तुलना भा० प्रतिना पाठभेद आदिनी विशेषचूर्णी साथे तुलना-पृ. ५०७ टि. ३। ६०३ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३ बृहत्कल्पसूत्रनी प्रस्तावना दि. ४। ६४२ टि. १। ६५८ टि. १। * ७१२ टि. १ । ७८० टि. १ । ८४३ टि. १, मो० ले० प्रतिना टीकापाठभेदनी विशेषचूर्णी साथे तुलना-पृ. ५९५ टि. २ । मो० ले० त० डे० कां० प्रतिओना पाठभेदनी विशेषचूर्णी साथे तुलना पृ. ५०७ दि. ३ । ५७३ टि. ३ । मो० ले. भा० कां० ना पाठभेदनी विशेषचूर्णी साथे तुलना-पृ. ६२५ टि. ३ । भा० त० डे० का० प्रतिओना पाठभेदनी विशेषचूर्णी साथे तुलना-पृ. १०९४ टि. २ । चूर्णी विशेषचूर्णी उभय साथे तुलना--- भा० प्रतिना टीकापाठभेद अने संदर्भभेदनी चूर्णी विशेषचूर्णी ए उभय साथे सरखामणी-पृ. ३४१ टि. ४ । ३४७ टि. ५ । ३९१ टि. २। ३९२ टि. ३-५ । ४५२ टि. ३ । ४६७ टि. १ । * ४७२ टि. १ । ४७४ टि. ६ । * ४८० टि. ६ । ४९९ टि. १ । ५०४ दि. ३ । ५१० टि. २ । * ५१८ टि. ३ । * ५६६ टि. ३ । ५७३ टि. ७ । ५७४ टि. ७ । ६१२ टि. ६ । * ६३० टि. ४ । ६४५ दि. ९। * ६६१ टि. १ । ६६२ टि. ६ । ६७९ टि. ६। ७४४ टि. ४ । ८३५ टि. ७ । ९०१ टि, ३ । १०५५ टि. ३। कां० प्रतिना टीकापाठोनी चूर्णी विशेषचूर्णी साथे तुलना-पृ. ४३४ टि. २ । १३२० टि. ३ । १३९४ टि. ३ । त० डे० कां० प्रतिओना पाठभेदनी चूर्णी विशेषचूर्णी साथे तुलना-पृ. ५७३ टि.५ । भा० मो० ले० प्रतिओना पाठभेदनी चूर्णी विशेषचूर्णी साथे तुलना-पृ. ६४६ टि. ३ । ताभा० भा० त० डे० कां० प्रतिओना पाठभेदनी चूर्णी विशेषचूर्णी साथे तुलना--- पृ. ६४० टि. ७ । १०९४ टि. २ । मो० ले० भा० त० डे० प्रतिओना पाठभेदनी चूर्णी विशेषचूर्णी साथे तुलनापृ. १३१९ टि. २ । १३५२ टि. २ । १४५९ टि. १ । १५५९ दि. १। १५९७ टि. ३ । मो० ले० त० डे० कां० प्रतिओना पाठभेदनी चूर्णी विशेषचूर्णी साथे तुलनापृ. ४१४ टि. २ । ८६५ टि. ७ । _जुदा जुदा कुलनां प्रत्यन्तरोमांथी मळी आवता जुदा जुदा पाठभेदो पैकी अमुक पाठभेद चूर्णी साथे सरखामणी धरावतो होय छे, ज्यारे बीजो पाठभेद विशेषचूर्णी साथे तुलना धरावे छे । आ जातना पाठोनी तुलना माटे ते ते स्थळे पादटिप्पणीमां चूर्णी Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ प्रतिओनो परिचय विशेषचूर्णीना पाठो आपवामां आव्या छ । आ प्रकारना पाठभेदोने दर्शावतां स्थळोनी नोंध आ नीचे आपवामां आवे छे-पृ. ६२४ टि. १ ( भा० पाठ विशेषचूर्ण्यनुसारी, मो०ले० त० डे० कां० पाठ चूर्ण्यनुसारी )। पृ. ७११ टि. १ ( भा० पाठ विचू० अनुसारी, मो. ले० त० डे० कां० पाठ स्वतन्त्र, चूर्णीपाठ त्रीजा ज प्रकारनो)। ८४२ टि. ९ (भा० पाठ वि० सम्मत, त० डे० कां० मो० ले० पाठ चूर्णीबृहद्भाष्यसम्मत ) । ९६२ ( भा० कां० पाठ चूर्णीसम्मत, ताटी० मो० ले० त० डे० पाठ विशेषचूर्णीसम्मत )। टीकाना अशुद्ध के खंडित पाठोने सुधारवामां चू० विचू० नो आधार-पृ. ११०३ टि. १ । ११६१ टि. ४ । महत्वनी पादटिप्पणीओ प्रस्तुत बृहत्कल्प महाशास्त्रमा विषयने स्पष्ट करवा माटे अथवा अर्थ के वस्तुवर्णनमां नवीनतानी दृष्टिए स्थाने स्थाने जे चूर्णी, विशेषचूर्णी के उभयना पाठोनी अमे पाद. टिप्पणीमां नोंध आपी छे तेवां स्थळोनी यादी अहीं आपवामां आवे छे । चूर्णीपाठोना स्थळो-पृ. २ टि. १ । ७ टि. ४ । ११ टि. १ । १४ दि. १ । १५ टि. ३ । १६ टि. १ । १७ टि. ५-६ । २१ दि. ३ । २२ टि. २ । * २३ टि. १-२-६ । * २४ टि. ३ । * २५ टि. ३ । * २६ टि. २ । २७ टि. १ । * २८ टि. ४ । ४९ दि. १-२ । ६१ टि. २ । ६८ टि. ९ । ७५ टि. २ । ८२ टि. १। ८३ टि. २-४ । * ८५ टि. २ । ८६ दि. ३ । * ८७ टि. १ । * ९३ दि. १-३-४ । * ९४ टि. २ । * ९५ टि. १ । १०३ टि. ३ । * १२८ टि. १ । १३३ टि. १। १४१ टि. ३ । * १८४ टि. ३ । १९४ टि. १ । * २०१ टि. ३ । २०५ टि. १ । २३२ टि. ४ । २४१ दि. २ । २४२ टि. २ । * २५३ टि. १ । * २६० टि. १-२। २६२ टि. २ । * २६६ टि. १ । २७९ टि, १ । २८८ टि. १ । २८९ टि. १ । २९७ टि. ४ । २९८ दि. २ । ३०३ टि. २ । ३०८ टि. २ । * ३२५ दि. १-२ । ३३० टि. २ । ३४३ टि. १ । ३५६ टि. २ । ३६६ टि. १ । ३६८ टि. ४-५। ३८३ टि. ४ | ३८४ टि. १ । ३९९ टि. १ । ४१३ टि. १ । ५०५ टि. १ । * ५९३ टि. ५। ६०० टि. १ । ६३८ टि. २ । ८७० टि. ३ । ९७१ टि. ९ । १२३२ टि. १ । १३४१ टि. १ । १५७७ टि. २ । १६१० टि. ३ । विशेषचूर्णीपाठोनां स्थळो-पृ. ३६८ टि. ७ । ३९९ टि. २ । ४०७ टि. ४ । ४३९ टि. १ । ४४२ टि. १ । ४४३ दि. १ । ४८८ टि. १ । ५३४ टि. १ । ५९६ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृहत्कल्पसूत्रनी प्रस्तावना टि. ४ । ६५४ टि. १ । ६७५ टि. ३ । * ७२६ टि. ३ । ७८४ टि. ३ । ९१७ टि. १ । ९१९ दि. १ । १०९० टि. ३ । १०९३ टि. २ । १२३२ टि. २ । १४९३ टि. १ । चूर्णी-विशेषची उभयपाठोना स्थळो -पृ. ३४२ टि. १ । ३४३ टि. १ । ३४९ टि. २ । ३६८ टि. २-७ । ३६९ टि. १-२ । ३७६ टि. १ । ३८१ टि. १ । ३८४ टि. २ । ३९२ टि. ४ । ३९७ टि. १ । ३९९ दि. ५। ४०८ टि. २ । ४३३ टि. ३ । ४७१ टि. २ । ४९७ टि. १ । ५०५ टि. २ । ५०८ टि. ६ । ५१० टि. १ । ५२१ टि. १ । ५३४ टि. १ । ५५६ टि. ५। ५७३ टि. ५-७ ।* ६१६ टि, ५ । ६३८ टि. १ । ६६६ दि. २ । ६७५ टि. १ । ७५३ टि. ४ । ७८१ टि. ९ । ८४३ टि. ५। ९०६ टि. २ । ९२६ टि. ३-६-७ । ९२८ टि. ३ । ९८३ टि. २-३ । ९८४ टि. २ । १०१८ टि. २। १०३२ टि. १ । १०८९ टि. ३ । ११५८ टि. १ । ११६९ टि. १ । ११७५ दि. ३ । १२३२ टि. १ । १३८१ टि. २ । १३९७ टि. ७ । १४८४ टि. २ । १५५७ टि. २ । १५६० टि. १ । १५७० टि. २ । १५७५ टि. १ । १६०१ टि. १ । १६१० टि. १ । १६१२ टि. १ । १६३६ दि. २ । बृहद्भाध्यना पाठोना स्थळो-पृ. ४८८ टि. १।६११ टि. ३ । ११६९ टि. २ । ग्रन्थ परिचय। ग्रंथकारो अने ग्रंथनी प्रतिओ विषे लख्या पछी प्रस्तुत ग्रंथना बाह्य अने अंतरंग स्वरूप विषे थोडं बतावी देवू अहीं उचित मनाशे । प्रस्तुत बृहत्कल्पसूत्र अने तेना उपरनी व्याख्याओ वगेरेनो परिचय आपवा पहेलां, प्रस्तुत शास्त्र छेद आगमोमांगें एक होई छेद आगम साहित्य केटलं छे एनो उल्लेख करवामां आवे छे। सामान्य रीते जैन आगमोनी संख्या पीस्तालीसनी गणाय छे । . ए पीस्तालीस आगमोमां छेदआगमोनो समावेश थई जाय छे अने ए छेदआगमो छ छे । तेना उपर जेटलुं व्याख्यासाहित्य रचायु छे अने आजे जेटलुं उपलब्ध थाय छे ते आ नीचे जणाववामां आवे छे । छेदआगम साहित्यनाम कर्ता श्लोकसंख्या. १ दशाश्रुतस्कन्ध भद्रबाहुस्वामी २१०६ नियुक्ति गा. १४४ चर्णी २२२५ ब्रह्मर्षि पार्श्वचन्द्रीय ३१०० , स्तबक (भाषानुवाद) वृत्ति Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रंथ-परिचय २ कप्पो ( बृहत्कल्पसूत्र ) भद्रबाहुम्वामी ३७५ ,, नियुक्ति-लघुभाष्य भाष्य-संघदासगणि क्षमाश्रमण गा. ६४९० श्लो. ७५०० बृहद्भाव्य अपूर्ण चूर्णी ११००० ३५००० विशेषचूर्णी वृत्ति अवचूरी स्तबक पंचकल्पमहाभाष्य मलयगिरि-क्षेमकीर्ति सौभाग्यसागर व्यवहार सूत्र भाष्य संघदासगणि क्षमाश्रमण गा. २५७४ श्लो. ३१३५ ३२४५ भद्रबाहुस्वामी ६८८ गा. ४६२९ श्लो. ५७८६ १०३६० मलयगिरि २९००० " " चूर्णी वृत्ति , स्तबक ४ निशीथसूत्र भद्रबाहुस्वामी " भाष्य ८२५ गा. ६५२९ श्लो. ७५०० २८००० , विशेषचूर्णी जिनदास महत्तर , ,, विशोद्देशकव्याख्या श्रीचन्द्रसूरि ,, स्तबक ५ महानिशीथसूत्र ४५४४ " स्तबक , चूर्णी पिनक ६ जीतकल्पसूत्र जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण गा. १०३ " भाष्य गा. २६०६ सिद्धसेनाचार्य , टिप्पनक श्रीचन्द्रसूरि ११२० तिलकाचार्य १८०० कल्पबृहद्भाष्य-अहीं जे छ छेदग्रंथोने लगती नोंध आपवामां आवी छे तेमां "कल्पवृहद्भाष्य अपूर्ण" एम जणाव्युं छे तेनुं कारण ए छे के-पाटण, जेसलमेर, भाण्डारकर इन्स्टीटयुट पूना विगेरे दरेक स्थळे आ ग्रंथनी हस्तप्रतिओ अधूरी ज मळे छे । जेसलमेरमा ताडपत्र उपर लखाएली बे नकलो छे पण ते बन्ने य प्रथमखंड छ । " वृत्ति Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७ बृहत्कल्पसूत्रनी प्रस्तावना बीजो खंड क्यांय जोवामां आव्यो नथी। आचार्य श्री क्षेमकीर्त्तिए बृहत्कल्पनी टीका रची त्यारे तेमना सामे आ बृहद्भायनी पूर्ण नकल हती ए तेमणे टीकामां आपेलां बृहद्भाष्यनां उद्धरणोथी निश्चितपणे जाणी शकाय छे । कल्पची अने विशेषचूर्णी-कल्पचूर्णी अने कल्प विशेषचूर्णीनी जे बे ताडपत्रीय प्राचीन प्रतीओ आजे मळे छे तेमां लखावनाराओनी गरबडथी एटले के चूर्गी-विशेषचूर्णीना खंडोनो विवेक न करवाथी केटलीक प्रतिओमां चूर्णी-विशेषचूर्णी- मिश्रण थई गयुं छे । पंचकल्पमहाभाष्य--पंचकल्पमहाभाष्य ए ज पंचकल्पसूत्र छे । घणाखरा विद्वान् साधुओ एवी भ्रमणामां छे के-पंचकल्पसूत्र उपरनुं भाष्य ते पंचकल्पभाष्य अने ते उपरनी चूर्णी ते पंचकल्पचूर्णी, परंतु आ तेमनी मान्यता भ्रान्त अने भूलभरेली छे । पंचकल्प नामर्नु कोई सूत्र हतुं नहीं अने छे पण नहीं। बृहत्कल्पसूत्रनी केटलीक प्राचीन प्रतिओना अंतमां "पंचकल्पसूत्रं समाप्तम्" आवी पुष्पिकामात्रथी भूलावामां पडीने केटलाको एम कहे छे के-में अमुक भंडारमा जोयुं छे पण आ भ्रान्त मान्यता छ । खरी रीते, जेम पिंडनियुक्ति ए दशवकालिकनियुक्तिनो अने ओघनियुक्ति ए आवश्यकनियुक्तिनो पृथक् करेलो अंश छे, ते ज रीते पंचकल्पभाष्य ए कल्पभाष्यनो एक जुदो पाडेलो विभाग छे; नहीं के स्वतंत्र कोई सूत्र । आचार्य श्रीमलयगिरि महाराज अने श्रीक्षेमकीर्तिसूरि महाराज प्रस्तुत बृहत्कल्पसूत्रनी टीकामां वारंवार आ रीते ज उल्लेख करे छे । निशीथविशेषची-आजे जेने सौ निशीथचूर्णी तरीके ओळखे छे ए निशीथसूत्र उपरनी विशेषचूर्णी छे। निशीथचूर्णी होवी जोईए परंतु आजे एनो क्यांय पत्तो नथी । आजे तो आपणा सामे निसीहविसेसचुण्णी ज छ । छेद आगमसाहित्यने जाण्या पछी आपणे ग्रंथना मूळ विषय तरफ आवीए । ग्रंथर्नु मूळ नाम प्रस्तुत — बृहत्कल्पसूत्र 'र्नु मूळ नाम ‘कप्पो' छे । तेनी प्राकृत-संस्कृत व्याख्याटीकाओने पण कप्पभासं, कप्पस्स चुण्णी आदि नामोथी ज ओळखवामां आवे छे । एटले निष्कर्ष ए थयो के-आ ग्रंथर्नु · बृहत्कल्पसूत्र' नाम पाछळथी शरू थयुं छे । तेनुं कारण ए छे के दशाश्रुतस्कंधना आठमा अध्ययनरूप पर्युषणाकल्पसूत्रनी जाहेर वाचना वध्या पछी ए कल्पसूत्र अने प्रस्तुत कल्पशास्त्रने अलग अलग समजवा माटे एकनुं नाम कल्पसूत्र अने प्रस्तुत कल्पशास्त्रनुं नाम बृहत्कल्पसूत्र राख वामां आव्युं छे । आजे जैन जनतानो मोटो भाग ' कल्पसूत्र' नामथी पर्युषगाकल्पसूत्रने ज समजे छे, बल्के 'कल्पसूत्र' नाम पर्युषणाकल्पसूत्र माटे रूढ थई गयुं छे। एटले आ शास्त्रने भिन्न समजवा माटे 'बृहत्कल्प Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रंथ-परिचय ७८ सूत्र' नाम आप्यु छे ते योग्य ज छ । प्रस्तुत सूत्र प्रमाणमां नानुं एटले के मात्र ४७५ श्लोकप्रमाण होवा छतां एमां रहेला गांभीर्यनी दृष्टिए एने एक महाशास्त्र ज कवू जोईए । आ एक प्राचीनतम आचारशास्त्र छे अने जैन धर्मशास्रोमा तेनुं स्थान घj ऊंचु छ । तेमांय जैन श्रमणो माटे तो ए जीवनधर्मनु महाशास्त्र छ । आनी भाषा प्राचीन प्राकृत अथवा अर्धमागधी होवा छतां जेम वीजां जैन आगमो माटे बन्युं छे तेम आनी भाषाने पण टीकाकार आचार्य श्रीमलयगिरि अने श्रीक्षेमकीर्तिसूरिए बदली नाखी छे । खरूं जोतां आq परिवर्तन केटले अंशे उचित छ ए एक प्रश्न ज छे तेम छनां साथे साथे आजे ए पण एक मोटो सवाल छ के-ते ते आगमोनी प्राचीन प्राचीनतम विविध प्रतिओ के तेनां प्रत्यन्तरो सामे राखीए त्यारे तेमां जे भाषा अने प्रयोगो विषयक वैविध्य जोवामां आवे छे ते, समर्थ भाषाशास्त्रीने गळे पण डचुरो वाळी दे तेवां होय छे । तेमां पण नियुक्ति, भाष्य, महाभाष्य, चूर्णी, विशेषचूर्णी वगेरे व्याख्याकारोना अपरिमित अने संख्यातीत पाठभेदो अने पाठविकारो मळे त्यारे तो चक्कर आवी जाय तेवु बने एवी वात छ । आ परिस्थितिमां अमुक जवाबदारी लईने बेठेला टीकाकार आदि विषे आपणे एकाएक बोलवा जेवू कशुं य नथी रहेतुं । व्याख्यासाहित्य कल्पमहाशास्त्र उपर व्याख्यानरूपे नियुक्ति-भाष्य, चर्णी, विशेषचर्णी, बृहद्भाष्य, वृत्ति, अवचूरी अने स्तवक ग्रंथोनी रचना थई छे। ते पैकी आ प्रकाशनमा मूळसूत्र, नियुक्तिभाष्य अने वृत्तिने प्रसिद्ध करवामां आवेल छे, जेनो परिचय अहीं आपवामां आवे छे । नियुक्ति-भाष्य-- ____ आवश्यकनियुक्तिमां खुद नियुक्तिकारभगवाने " कप्पस्स उ णिज्जुत्ति" (गाथा ९५) एम जणावेल होवाथी प्रस्तुत कल्पमहाशास्त्र उपर नियुक्ति रचवामां आवी छे । तेम छता आजे नियुक्ति अने भाष्य, ए बन्ने य परस्पर भळी जईने एक ग्रंथरूप थई जवाने लीधे तेनुं पृथक्करण प्राचीन चूर्णीकार आदि पण करी शक्या नथी। टीकाकार आचार्य श्रीमलयगिरिए पण " सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिर्भाष्यं चैको ग्रन्थो जातः" एम जणावी नियुक्ति अने भाष्यने जुदा पाडवानुं जतुं कयु छे; ज्यारे आचार्य श्रीक्षेमकीर्त्तिए ए प्रयत्न कर्यो छ । तेम छतां तेमां तेओ सफळ नथी थया बल्के एथी गोटाळो ज थयो छ । एज कारण छे के टीकानां प्रत्यन्तरोमां तथा चूर्णी-विशेषचूर्णीमा ए माटे विविध निर्देशो मळे छे (जुओ परिशिष्ट चोथु)। स्वतंत्र प्राचीन भाष्यप्रतिओमां पण आ अंगेनो कशो विवेक नजरे नथी आवतो । आ कारणसर अमे अमारा प्रस्तुत प्रकाशनमा नियुक्ति-भाष्य Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृहत्कल्पसूत्रनी प्रस्तावना ग्रंथनी गाथाओना अंको सळंग ज राख्या छे । अने ए रीते वधी मळीने ६४९० गाथाओ थई छ । प्राचीन भाष्यप्रतिओमां अनेक कारणसर गाथाओ बेवडावाथी सेम ज अस्तव्यस्त गाथाओ अने गाथांको होवाथी तेनी गाथासंख्यानी अमे उपेक्षा करी छ । अमारो गाथाक्रम अति व्यवस्थित, प्रामाणिक अने अति सुसंगत छ। भाषादृष्टिए प्राचीन भाष्यप्रतिओनी नाथानी भाषामा अने आचार्य श्रीमलयगिरि-क्षेमकीर्त्तिए आपेली भाष्यगाथानी भाषामां घणो घणो फरक छे; परंतु अमारे टीकाकारोने न्याय आपवानो होवाथी तेमणे पोतानी टीकामा जे स्वरूपे गाथाओ लखी छे तेने ज प्रमाण मानीने अमे काम चलाव्युं छे । आम छतां स्थाने स्थाने अनेकविध महत्त्वना पाठभेदो वगेरे नोधयामा अमे आळस कयुं नथी। भाष्यनी भाषा मुख्यत्वे प्राकृत ज छे, तेम छतां घणे स्थळे गाथाओमां मागधी अने शौरसेनीना प्रयोगो पण जोवामां आवे छे । केटलीक गाथाओ प्रसंगवश मागधी के शौरसेनी भापामां पण रचायली छ । छंदनी दृष्टिए आ भाष्य प्रधानपणे आर्याछंदमां रचायुं छे, तेम छतां संख्याबंध स्थळे औचित्य प्रमाणे वीजा बीजा छंदो पण आवे छे । वृत्ति प्रस्तुत महाशास्त्रनी वृत्तिनो प्रारंभ आचार्य श्रीमलयगिरिए कयों छे अने तेनी समाप्ति लगभग सवासो वर्ष बाद तपा आचार्यप्रवर श्रीक्षेमकीर्तिसूरिए करी छ । वृत्तिनी भाषा मुख्यत्वे संस्कृत होवा छतां तेमां प्रसंगोपात आवती कथाओ प्राकृत ज छे । वृत्तिनुं प्रमाण सूत्र-नियुक्ति-भाष्य मळीने ४२५०० श्लोक लगभग छे, एटले जो आमांथी सूत्र नियुक्तिभाष्यने बाद करीए तो वृत्तिनुं प्रमाण ३४५०० श्लोक लगभग थाय छे । आमांथी लगभग ४००० श्लोकप्रमाण टीका आचार्य श्रीमलयगिरिनी छे अने बाकीनी आखीए टीका आचार्य श्रीक्षेमकीर्तिप्रणीत छ । चूर्णी-विशेषचूर्णी चूर्णी अने विशेषचूर्णी, ए बृहत्कल्पसूत्र उपरनी प्राचीन प्राचीनतम व्याख्याओ छ । आ व्याख्याओ संस्कृतमिश्रित प्राकृतप्रधान भाषामां रचाएली छे । आ व्याख्याओनी प्राकृतभाषा आचार्य श्रीहेमचन्द्रादिविरचिरा प्राकृतव्याकरणादिना नियमोने वशवर्ती भाषा नथी, परंतु एक जुदा कुलनी ज प्राकृतभाषा छ । आ व्याख्याओमा आवता विविध प्रयोगो जोतां एनी भाषानुं नाम शुं आपq ए प्रश्न एक कोयडारूप ज छ । हुं मार्नु छ के आने कोई स्वतंत्र भाषामुं नाम आपq ते करतां "मिश्रप्राकृतभाषा" नाम आपQ ए ज पधारे संगत वस्तु छ । भापाना विषयमा रस लेनार प्रत्येक भाषाशास्त्रीने माटे जैन आगमो अने तेना उपरना नियुक्ति-भाष्य-चूर्णी-विशेषची ग्रंथोनुं अध्ययन अने अव. लोकन परम आवश्यक वस्तु छे । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आन्तर परिचय बृहद्राष्य निर्युक्ति, भाष्य अने बृहद्भाष्य ए त्रणे य जैन आगम उपरना व्याख्यामंत्री हम्मेशां पद्यबंध ज होय छे । प्रस्तुत बृहद्भाष्य पण गाथाबंध छे । टीकाकार आचार्य श्री क्षेमकीर्तिमहाराज सामे प्रस्तुत बृहद्भाष्य संपूर्ण होवा छतां आजे एने संपूर्ण मेळवावा असे भाग्यशाळी थई शक्या नथी । आजे ज्यां ज्यां आ महाभाष्यनी प्रतिओ छे त्यां प्रथम खंड मात्र छे । जेसलमेर दुर्गना श्रीजिनभद्रसूरि जैन ज्ञानभंडारमां ज्यारे आ मंथना बे खंडो जोया त्यारे मनमां आशा जन्मी के आ ग्रंथ पूर्ण मळ्यो, पण तपास करतां निराशा साथै जोयुं के बन्ने य प्रथम खंडनी ज नकलो छे । आनी भाषा पण प्राचीन मिश्र प्राकृतभाषा छे अने मुख्यत्वे आर्या छंद होवा छतां प्रसंगोपात बीजा बीजा पण छंदो छ । अवचूरी ८० बृहत्कल्पसूत्र उपर एक अवचूरी ( अतिसंक्षिप्त टीका ) पण छे । एना प्रणेता श्री सोभाग्यसागरसूरि छे अने ए १५०० श्लोकप्रमाण छे । मूळ ग्रंथना शब्दार्थने स्पष्ट रीते समजवा इच्छनार माटे आ अवचूरी महत्त्वनी छे अने ए, टीकाने अनुसरीने ज रचाएली छे । प्रस्तुत अवचूरीनी प्रति संवत् १६२८ मां लखाएली होई ए ते पहेलां रचाएकी छे । आन्तर परिचय 1 प्रस्तुत बृहत्कल्प महाशाखना आन्तर परिचय माटे अमे दरेक भागमां विस्तृत विषयानुक्रमणिका आपी छे, जे बधा य भागोनी मळीने १५२ पृष्ठ जेटली थाय छे, ते ज पर्याप्त छे । आ अनुक्रमणिका जोवाथी आखा ग्रंथमां शुं छे ते, दरेके दरेक विद्वान् मुनिवर आदि सुगमताथी जाणी- समजी शकशे । तेम छतां प्रस्तुत महाशास्त्र ए, एक छेदशास्त्र तरीके ओळखातुं होई ते विषे अने तेना अनुसंधानमां जे जे खास उचित होय ते अंगे विचार करवो अति आवश्यक छे । छेद आगमो छेद आगमो बधां मळीने छनी संख्यामां छे, जेनो उल्लेख अने तेने लगता विशाळ व्याख्या साहित्यनी नोंध अमे उपर करी आव्या छीए । आ छेदआगमोमां, मनसा वाचा कर्मणा अविसंवादी जीवन जीवनार परमज्ञानी तीर्थंकर, गणधर, स्थविर आदि महर्षिओए जगतना मुमुक्षु निर्बंथ - निर्मथीओने एकांत कल्याण साधना माटे जे मौलिक अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रहव्रतादिरूप मार्ग दर्शाव्यो छे ते अंगे ते ते देश, काळ तेम ज ते ते युगना मानवोनी स्वाभाविक शारीरिक अने मानसिक वृत्तिओ अने वळणने ध्यानमलई बाधक नियमोनुं विधान करवामां आव्युं छे; जेने शास्त्रीय परिभाषामा Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१ गृहत्कल्पसूत्रनी प्रस्तावना अपवाद कहेवामां आवे छे । आ अपवादो अर्थात् बाधक नियमो उत्सर्ग एटले के मौलिक मार्गना विधान सामे होवा छतां ए, मौलिक मार्गना बाधक न होतां तेना साधक छ । आथी समजाशे के छेदआगमोमा अतिगंभीर भावे एकान्त आत्मलक्षी बनीने मौलिक अहिंसादि नियमो अंगे ते ते अनेकविध वर्तमान परिस्थितिने लक्षमा लई बाधक नियमो अंगे विधान अने विचार करवामां आव्या छे। तात्त्विक दृष्टिए विचारता एम कही शकाय के जैन छेदआगमो ए, एकान्त उच्च जीवन जीवनार गीतार्थ जैन स्थविरो अने आचार्योनी सूक्ष्मेक्षिका अने तेमनी प्रौढ प्रतिभानो सर्वोच परिचय आपनार महान शास्त्रो छ । उत्सर्ग अने अपवाद प्रस्तुत इत्कल्पसूत्र, ए छेदआगमोमांनु एक होई एमां उत्सर्ग अने अपवाद मार्गनुं अर्थात् साधक-बाधक नियमोनुं विधान करवामां आव्युं छे । ए उत्सर्ग-अपवादो कया केटला अने कई कई बाबत विषे छे ? ए ग्रंथर्नु अवलोकन करनार जोई जाणी शकशे । परंतु ए उत्सर्ग अने अपवादना निर्माणनो मूळ पायो शो छ ? अने जीवनतत्त्वोनुं रहस्य समजनारे अने तेनुं मूल्य मूलवनारे पोताना जीवनमां तेनो उपयोग कई रीते फरवानो छे-करवो जोईए ? ए विचार, अने समजवु अति आवश्यक छ। आ वस्तु अति महत्त्वनी होई खुद नियुक्ति-भाष्यकार भगवंतोए अने तदनुगामी प्राकृत-संस्कृत व्याख्या. कारोए सुद्धा प्रसंग आवतां ए विष घणा ऊंडाणथी अनेक स्थळे विचार कर्यो छे । जगतना कोई पण धर्म, नीति, राज्य, प्रजा, संघ, समाज, सभा, संस्था के मंडळो,त्यागी हो के संसारी,-ए तेना एकधारा मौलिक बंधारण उपर नभी के जीवी शके ज नहि; परंतु ए सौने ते ते सम-विषम परिस्थिति अने संयोगोने ध्यानमा राखीने अनेक साधक बाधक नियमो घडवा पडे छे अने तो ज ते पोताना अस्तित्वने चिरकाळ सुधी टकावी राखी पोताना उद्देशोने सफळ के चिरंजीव बनावी शके छे। आम छतां जगतना धर्म, नीति, राज्य, प्रजा, संघ, समाज वगेरे मात्र तेना नियमोना निर्माण उपर ज जाग्या जीव्या नथी, परन्तु ए नियमोना प्रामाणिक शुद्ध एकनिष्ठ पालनने आधारे ज ते जीव्या छे अने जीवनने उन्नत बनाव्युं छे । आ शाश्वत नियमने नजर सामे राखीने, जीवनमां वीतरागभावनाने मूर्तरूप आपनार अने ते माटे एकधारो प्रयत्न करनार जैन गीतार्थ महर्षिओए उत्सर्ग-अपवादनुं निर्माण कर्यु छ । 'उत्सर्ग' शब्दनो अर्थ 'मुख्य' थाय छे अने ' अपवाद' शब्दनो अर्थ गौण' थाय छ । प्रस्तुत छेदआगमोने लक्षीने पण उत्सर्ग-अपवाद शब्दनो ए ज अर्थ छ । अर्थात् उत्सर्ग एटले आन्तर जीवन, चारित्र अने गुणोनी रक्षा, शुद्धि के वृद्धि माटेना मुख्य नियमोनुं विधान अने अपवाद एटले आन्तर जीवन आदिनी रक्षा, शुद्धि के वृद्धि Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आन्तर परिचय माटेना बाधक नियमोनुं विधान । उत्सर्ग-अपवादना घडतर विशेना मूळ उद्देश तरफ जोता बन्नेयतुं महत्त्व के मुख्यपणुं एक समान छे । एटले सर्वसाधारणने सहजभावे एम लाग्या विना नहि रहे के एक ज हेतु माटे आq द्वैविध्य केम १ । परंतु जगतनुं सूक्ष्म रीते अवलोकन करनारने ए वस्तु समजाया विना नहि रहे के-मानवजीवनमा सहज भावे सदाने माटे जे शारीरिक अने खास करीने मानसिक निर्बळताए अधिकार जमाव्यो छे ए ज पा द्वैविध्यनु मुख्य कारण छ । आ परिस्थितिने प्रत्यक्ष जोया जाण्या पछी धर्म, नीति, संघ, समाज, प्रजा आदिना निर्माताओ पोतानी साथे रहेनार अने घालनारनी बाम अने आंतर परिस्थितिने ध्यानमा न ले अने साधक-बाधक नियमोनुं विधान न करे तो ए धर्म, नीति, राज्य, प्रजा, संघ वगेरे वहेलामां वहेला ज पडी भागे । आ मौलिक सूक्ष्म वस्तुने लक्षमा राखी जैन संघर्नु निर्माण करनार जैन स्थविरोए ए संघ माटे उत्सर्गअपवादनुं निर्माण करी पोताना सर्वोच्च जीवन, गंभीर ज्ञान, अनुभव अने प्रतिभानो परिचय आप्यो छे । उत्सर्ग-अपवादनी मर्यादामांथी ज्यारे परिणामिपणुं अने शुद्ध वृत्ति परवारी जाय छे त्यारे ए उत्सर्ग अने अपवाद, उत्सर्ग-अपवाद न रहेतां अनाचार अने जीवनना महान् दूषणो बनी जाय छ। आ ज कारणथी उत्सर्ग-अपवादनुं निरूपण अने निर्माण करवा पहेलो भाष्यकार भगवंते परिणामी, अपरिणामी अने अतिपरिणामी शिष्यो एटले डे अनुयायी. मोनुं निरूपण कयु छे (जुओ गाथा ७९२-९७ पृ. १४९-५०) अने जणाव्यु छ केयथावस्थित वस्तुने समजनार ज उत्सर्गमार्ग अने अपवादमार्गनी आराधना करी शके छ । तेम ज आवा जिनाज्ञावशवर्ती महानुभाव शिष्यो-त्यागी अनुयायीओ ज छेद आगमज्ञानना अधिकारी छे अने पोताना जीवनने निराबाध राखी शके छे । ज्यारे परिणामिभाव अदृश्य थाय छे अने जीवनमा शुद्ध सात्त्विक साधुताने बदले स्वार्थ, स्वच्छंदता अने उपेक्षावृत्ति जन्मे छे त्यारे उत्सर्ग अपवादनुं वास्तविक ज्ञान अने पवित्र-पावन वीतरागधर्मनी आराधना दूर ने दूर ज जाय छे अने अंते आराधना करनार पडी भागे छ । आटलो विचार कर्या पछी आपणने समजाशे के उत्सर्ग अने अपवादनु जीवनमा शुं स्थान छे अने एनुं महत्त्व केवु, केटलुं अने कई दृष्टिए छे ? । प्रस्तुत महाशास्त्रमा अनेक विषयो अने प्रसंगोने अनुलक्षीने आ अंगे खूब खूब विचार करवामां आव्यो छे । आंतर के बाह्य जीवननी एवी कोई पण बाबत नथी के जे अंगे उत्सर्ग-अपवाद लागु न पडे । ए ज कारणथी प्रस्तुत महाशास्त्रमा कहेवामां आव्यु छे के " जेटला उत्सर्गों-मौलिक नियमो छे तेटला अने ते ज अपवादो-बाधक नियमो छे अने जेटला बाधक नियमो-अप. वादो छे तेटला अने ते ज मौलिक नियमो-उत्सों छे' (जुओ गा० ३२२)। आज Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३ बृहत्कल्पसूत्रनी प्रस्तावना हकीकतने सविशेष स्पष्ट करता भाष्यकार भगवते जणाव्युं छे के-“उत्सर्गना स्थानमा एटले के उत्सर्गमार्गना अधिकारी माटे उत्सर्ग ए उत्सर्ग छे अने अपवाद ए अपवाद छे, परंतु अप. वादना स्थानमा अर्थात् अपवाद मार्गना अधिकारी माटे अपवाद ए उत्सर्ग छे अने उत्सर्ग ए अपवाद छ । आ रीते उत्सर्ग अने अपवाद पोत-पोताना स्थान अने परिस्थिति परत्वे श्रेयस्कर, कार्यसाधक अने बळवान् छ " (जुओ गा० ३२३-२४)। उत्सर्ग अपवादनी. समतुलानुं आटलं सक्ष्म निदर्शन ए, जैनदर्शननी महान् तत्त्वज्ञता अने अनेकान्त. दर्शननी सिद्धिनुं विशिष्ट प्रतीक छ । उत्सर्ग अपवादनी समतुलानु निदर्शन कर्या पछी तेने एकधारुं व्यापक अने विधेय मानी लेवु जोईए नहि, परंतु तेमां सत्यदर्शिपणुं अने विवेक होवा जोईए । एटला ज मादे भाष्यकार भगवंते कह्यु छे के ण वि किंचि अणुण्णायं, पडिसिद्धं वा वि जिणवरिंदेहि । एसा तेसिं आणा, कजे सच्चेण होतवं ॥ ३३३० ॥ अर्थात-जिनेश्वरोए कशाय माटे एकांत विधान के निषेध कर्यों नथी । तेमनी आज्ञा एटली ज छे के कार्य प्रसंगे सत्यदर्शी अर्थात् सरळ अने राग-द्वेषरहित थQ जोईए । स्थविर श्रीधर्मदासगणिए उपदेशमालाप्रकरणमां पण आज आशयनी वस्तु कही छे तम्हा सवाणुना, सबनिसेहो य पवयणे नत्थि । आयं वयं तुलिज्जा, लाहाकखि व वाणियओ ॥ ३९२ ॥ अर्थात्-जिनागममां कशाय माटे एकान्त आज्ञा के एकान्त मनाई छ ज नहि । फक्त दरेक कार्य करता लाभनो विचार करनार वाणिआनी माफक आवक अने खर्चनी एटले के नफा-टोटानी सरखामणी करवी । उपर जणाववामां आव्युं ते उपरथी समजी शकाशे के उत्सर्ग अपवादनी मूळ जीवादोरी सत्यदर्शिता छ । ज्यां ए चाली जाय के तेमां ऊणप आवे त्यां उत्सर्ग ए उत्सर्ग नथी रहेतो अने अपवाद ए अपवाद पण नथी रही शकतो । एटलं ज नहि, परंतु जीवनमाथी सत्यनो अभाव थतां पारमार्थिक जीवन जेवी कोई वस्तु ज नथी रहेती। आचा. रांगसूत्र श्रु० १ अ० ३ उ० ३ मां कहेवामां आव्युं छे के-“ पुरिसा! सञ्चमेव समभिजाणाहि, सच्चस्स आणाए उवट्ठिए से मेहावी मार तरइ-अर्थात् हे आत्मन् ! तुं सत्यने बराबर ओळख, सत्यनी मर्यादामा रही प्रयत्न करनार विद्वान ज संसारने पार करे छे"। आनो अर्थ ए छे के-उत्सर्ग-अपवादस्वरूप जिनाज्ञा के जिनप्रवचननी आराधना करनारनुं जीवन दर्पण जेवू स्वच्छ अने स्फटिकनी जेम पारदर्शी होवू जोईए । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आन्तर परिचय उत्सर्ग-अपवादना गांभीर्यने जाणनारे जीवनमा तलवारनी धार उपर अथवा अजमार्गमा (जेनी बे बाजु ऊंडी खीणो आवी होय तेवा अति सांकडा पहाडी मार्गमां) चालवं पडे छ । जीवनना द्वैधीभाव के स्वार्थने अहीं जरा जेटलं य स्थान नधी । उत्सर्ग-अपवादना शुद्ध संपूर्ण ज्ञान अने जीवननी एकधारता, ए बन्नेयने सदा माटे एक साथे ज चालवानुं होय छे । उपर आपणे उत्सर्ग-अपवादना स्वरूप अने मर्यादा विषे जे विचार्य अने जाण्यु ते उपरथी आ वस्तु तरी आवे छे के-उत्सर्गमार्ग जीवननी सबळता उपर ऊभो छ, न्यारे अपवादमार्गनुं विधान जीवननी निर्वळताने आभारी छे । अहीं दरेकने सहज भावे ए प्रश्न थया विना नहि रहे के-जैन गीतार्थ स्थविर भगवंतोए अपवादमार्गनुं विधान करीने मानवजीवननी निवळताने केम पोषी ? । परंतु खरी रीते ए वात एम छे ज नहि । साची हकीकत ए छे के-जेम पगपाळा मुसाफरी करनार भूख, तरस के थाक वगेरे लागतां रस्तामां पडाव नाखे छे अने जरूरत जणातां त्यां रात्रिवासो पण करे छे; ते छतां जेम ए मुसाफरनो रात्रिवास ए एना आगळ पहोंचवामां अंतरायरूप नथी, परंतु जलदी आगळ वधवामां सहायरूप छे । ते ज रीते अपवादमार्गर्नु विधान ए जीवननी भूमिकाने निर्बळ बनाववा माटे नथी, पण बमणा वेगथी आगळ वधारवा माटे छे । अल. बत जेम मार्गमा पडाव नाखनार मुसाफरने जंगल जेवां भयानक स्थानो होय त्यारे सावधान, अप्रमत्त अने सजाग रहे, पडे छे, तेम आंतर जीवनना मार्गमा आवतां भयस्थानो. मां अपवादमार्गर्नु आसेवन करनार त्यागी निर्गन्थ-निर्ग्रन्थीओने पण सतत सावधान अने सजाग रहेवार्नु होय छे । जो आन्तर जीवननी साधना करनार आ विषे मोळो पडे तो तेना पवित्रपावन जीवननो भुक्को ज बोली जाय, एमां बे मत ज नथी । एटले ज अपवादमार्ग- आसेवन करनार माटे “पाकी गयेला गुमडावाळा माणस"उदाहरण आपवामां आवे छे । जेम गुमडुं पाकी गया पछी तेमांनी रसी काढता ते माणस पोताने ओछामा ओछु दरद थाय तेवी चोक्कसाईपूर्वक साचवीने दबावीने रसी काढे छे, ते ज रीते अपवादमार्ग- आसेवन करनार महानुभाव निम्रन्थ निग्रन्थीओ वगेरे पण पोताना संयम अने व्रतोने ओछामा ओछु दूषण लागे के हानि पहोंचे तेम न-छुटके ज अपवादमार्गर्नु आसेवन करे। प्रस्तुत बृहत्कल्पसूत्र छेदआगममा अने बीजां छेद आगमोमां जैन निर्ग्रन्थनिम्रन्थीओना जीवनने स्पर्शता मूळ नियमो अने उत्तरनियमोने लगता प्रसंगोने लक्षीने गंभीरभावे विविध विचारणाओ, मर्यादाओ, अपवादो वगेरेनुं निरूपण करवामां आव्युं छे । ए निरूपण पाछळ जे तात्त्विकता काम करी रही छे तेने गीतार्थो अने विद्वानो आत्मलक्षी थईने मध्यस्थ भावे विचारे अने जीवनमां ऊतारे । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पसूत्रनी प्रस्तावना निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीसंघ प्राचीन काळमां जैन साधु-साध्वीओ माटे निर्मन्थ निम्रन्थी, भिक्षु भिक्षुणी, यति यतिनी, पाषंड पापंडिनी वगेरे शब्दोनो प्रयोग थतो। आजे आ बधा शब्दोनुं स्थान मुख्यत्वे करीने साधु अने साध्वी शब्दे लीधु छ । प्राचीन युगना उपर्युक्त शब्दो पैकी यतिशब्द यतिसंस्थाना जन्म पछी अणगमतो अने भ्रष्टाचारसचक बनी गयो छे । पाषण्डशब्द पण दरेक सम्प्रदायना मान्य आगमादि ग्रन्थोमां वपरावा छतां आजे ए मात्र जैन साधुओ माटे ज नहि पण दरेक सम्प्रदाय माटे अपमानजनक बनी गयो छ । निर्मन्थ निग्रन्थीसंघनी व्यवस्था अने बंधारण विषे, भयंकर दुष्काळ आदि कारणोने लई छिन्नभिन्न दशामां आवी पडेलां आजनां मौलिक जैन आगमोमां पण वैज्ञानिकढंगनी हकीकतोनां जे बीजो मळी आवे छे अने तेने पाछळना स्थविरोए विकसावीने पुनः पूर्ण रूप आपवा जे प्रयत्न कयों छे, ए जोतां आपणने जणाशे के ते काळे निम्रन्थनिर्मन्थी संघनी व्यवस्था अने बंधारण केटलां व्यवस्थिन हतां अने एक सार्वभौम राजसत्ता जे रीते शासन चलावे तेटला शुद्ध निर्ग्रन्थताना गौरव, गांभीर्य, धीरज अने दमामपूर्वक तेनुं शासन नभतुं हतुं । आ ज कारणथी आजनां जैन आगमो श्वेतांबर जैन श्रीसंघ,-जेमा मर्तिपूजक, स्थानकवासी अने तेरापंथी त्रणेयनो समावेश थाय छे,-ने एक सरखी रीते मान्य अने परम आदरणीय छ । ___ दिगंबर जैन श्रीसंघ "मौलिक जैन आगमो सर्वथा नाश पामी गयां छे" एम मानीने प्रस्तुत आगमोने मान्य करतो नथी । दिगंबर श्रीसंघे आ आगमोने गमे ते काळे अने गमे ते कारणे जतां कयां हो; परंतु एथी तेणे घणुं खोयुं छे एम आपणने सहज भावे लागे छे अने कोई पण विचारकने एम लाग्या विना नहि रहे । कारण के जगतनी कोई पण संस्कृति पासे तेना पोताना घडतर माटेनू मौलिक वाङ्मय होवु ए अनिवार्य वस्तु छ । एना अभावमा एना निर्माणनो बीजो कोई आधारस्तंभ ज न बने । आजे विगंबर श्रीसंघ सामे ए प्रश्न अणउकल्यो ज पडयो छे के जगतभरना धर्मों अने संप्रदायो पासे तेना आधारस्तंभरूप मौलिक साहित्य छिन्न-भिन्न, अपूर्ण के विकृत, गमे तेवा स्वरूपमा पण विद्यमान छे, ज्यारे मात्र दिगंबर संप्रदाय पासे तेमना मूल पुरुषोए एटले के तीर्थकरभगवंत अने गणधरोए निर्मित करेल मौलिक जैन आगमनो एक अक्षर सरखो य नथी रह्यो । आ जातनी कल्पना बुद्धिसंगत के युक्तिसंगत नथी एटलं ज नहि, पण गमे तेवा श्रद्धालुने पण अकळामण पेदा करे के मुझवी मके तेवी छ । कारण के समग्र जैनदर्शनमान्य अने जैनतत्त्वज्ञानना प्राणभूत महाबन्ध (महाधवल सिद्धान्त) वगेरे महान् ग्रंथोनुं Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आन्तर परिचय निर्माण जेना आधारे थई शके एवा मौलिक ग्रंथोर्नु अति प्रभावित ज्ञान अने तेनुं पारम्पर्य ते जमानाना निग्रंथो पासे रह्यं अने जैन आगमोनुं ज्ञान एकी साथे सर्वथा नाश पामी गयुं, तेमांना एकाद अंग, श्रुतस्कंध, अध्ययन के उद्देश जेटलुं य ज्ञान कोई पासे न रह्यु, एटलं ज नहि, एक गाथा के अक्षर पण याद न रह्यो; आ वस्तु कोई पण रीते कोईने य गळे ऊतरे तेवी नथी । अस्तु । दिगंबर श्रीसंघना अग्रणी स्थविर भगवंतोए गमे ते कारणे जैन आगमोने जतां कया होय, ते छतां ए वात चोकस छे के तेमणे जैन आगमोने जतां करीने पोतानी मौलिक ज्ञानसंपत्ति खोवा उपरांत बीजं घj घणुं खोयुं छे, एमां बे मत नथी। आजनां जैन आगमो मात्र सांप्रदायिक दृष्टिए ज प्राचीन छे तेम नथी, पण ग्रंथनी शैली, भाषाशास्त्र, इतिहास, समाजशास्त्र, ते ते युगनी संस्कृतिनां सूचन आदि द्वारा प्राचीनतानी कसोटी करनारा भारतीय अने पाश्चात्य विद्वानो अने स्कोलरो पण जैन आगमोनी मौलिकताने मान्य राखे छे । अहीं एक वात खास ध्यानमा राखवा जेवी छे के आजनां जैन आगमोमां मौलिक अंशो घणा घणा छ एमां शंका नथी, परंतु जेटलुं अने जे काई छ ए बधु य मौलिक छे, एम मानवा के मनाववा प्रयत्न करवो ए सर्वज्ञ भगवंतोने दूषित करवा जेवी वस्तु छ । आजनां जैन आगमोमां एवा घणा घणा अंशो छे, जे जैन आगमोने पुस्तकारूढ करवामां आव्यां त्यारे के ते आसपासमां ऊमेराएला के पूर्ति कराएला छे, केटलाक अंशो एवा पण छे के जे जैनेतर शास्त्रोने आधारे उमेराएला होई जैन दृषिथी दूर पण जाय छे, इत्यादि अनेक बाबतो जैन आगमना अभ्यासी गीतार्थ गंभीर जैन मुनिगणे विवेकथी ध्यानमा राखवा जेवी छ । निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीसंघना महामान्य स्थविरो आपणा राष्ट्रीय उत्थान माटेनी हीलचालोना युगमा जेम हजारो अने लाखोनी संख्यामा देशना महानुभावो बहार नीकळी पड्या हता, ए ज रीते ए पण एक युग हतो ज्यारे जनतामांनो अमुक मोटो वर्ग संसारना विविध त्रासोथी उभगीने श्रमग-वीर-वर्धमान भगवानना त्यागमार्ग तरफ वल्यो हतो । आथी ज्यारे निर्ग्रन्थसंघमां राजाओ, मंत्रीओ, धनाढ्यो अने सामान्य कुटुंबीओ पोताना परिवार साथे हजारोनी संख्यामां दाखल थवा लाग्या त्यारे तेमनी व्यवस्था अने नियन्त्रण माटे ते युगना संघस्थविरोए दीर्घदर्शितापूर्वक संघना नियंत्रण माटेना नियमोनुं अने नियन्त्रण राखनार महानुभाव योग्य व्यक्तिओ अने तेमने विषेना नियमोनुं निर्माण कयु हतुं। आ विषेनुं विस्तारथी विवेचन करवा माटे एक स्वतंत्र पुस्तक ज लखवु जोईए, परंतु अयारे तो अही प्रसंगोपात मात्र ते विषेनी स्थूल Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पसूत्रनी प्रस्तावना रूपरेखा ज आपवामां आवे छे । प्रारंभमां आपणे जाणी लईए के निग्रंथ-निर्ग्रन्थीसंघना व्यवस्थापक महामान्य स्थविरो कोण हता ? एमने कये नामे ओळखवामां आवता अने तेमना अधिकारो अने जवाबदारीओ शां शां हतां ? । निग्रंथ-निग्रंथीसंघमा जवाबदार महामान्य स्थविरो पांच छे-१ आचार्य, २ उपाध्याय, ३ प्रवर्तक, ४ स्थविर अने ५ रत्नाधिक । आ पांचे जवाबदार स्थविरमहानुभावो अधिकारमा उत्तरोत्तर उतरता होवा छतां तेमनुं गौरव लगभग एकधारुं मानवामां आव्युं छे । आ पांचे संघपुरुषो संघव्यवस्था माटे जे कांई करे ते परस्परनी सहानुभूति अने जवाबदारीपूर्वक ज करी शके, एवी तेमां व्यवस्था छ । खुद आचार्यभगवंत सौथी विशेष मान्य व्यक्ति होवा छतां महत्त्वना प्रसंगमा पोतानी साथेना उपाध्याय आदि स्थविरोनी सहानुभूति मेळव्या विना कशुं य करी न शके, एवी आमां योजना छ । एकंदर रीते जैन संघव्यवस्थामा व्यक्तिस्वातंत्र्यने ओछामा ओर्छ अथवा नहि जेवू ज स्थान छे; खरी रीते 'नथी' एम कहीए तो खोटुं नथी । आ ज कारण छे के जैन धार्मिक कोई पण प्रकारनी संपत्ति कदि व्यक्तिने अधीन राखवामां नथी आवी, छे पण नहि अने होवी पण न जोईए । १ आचार्यभगवंतनो अधिकार मुख्यत्वे निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीसंघना उच्चकक्षाना अध्ययन अने शिक्षाने लगतो। २ उपाध्यायश्रीनो अधिकार साधुओनी प्रारंभिक अने लगभग माध्यमिक कक्षाना अध्ययन अने शिक्षाने लगतो छ। आ बन्नेय संघपुरुषो निग्रंथ-निग्रंथीसंघनी शिक्षा माटेनी जवाबदार व्यक्तिओ छे। ३ प्रवर्चकनो अधिकार साधुजीवनने लगता आचार-विचार-व्यवहारमा व्यवस्थित रीते अति गंभीरभावे निग्रंथ-निग्रंथीओने प्रवृत्ति कराववानो अने ते अंगेनी महत्त्वनी शिक्षा विषेनो छे । ४ स्थविरनो अधिकार जैन निग्रंथसंघमां प्रवेश करनार शिष्योने-निग्रंथोने साधुधर्मोपयोगी पवित्र आचारादिने लगती प्रारंभिक शिक्षा अध्ययन वगेरे विपेनो छे । त्रीजा अने चोथा नंबरना संघस्थविरो निग्रंथ-निग्रंथीसंघनी आचार-क्रियाविषयक शिक्षा उपरांत जीवन. व्यवहार माटे उपयोगी दरेक बाह्य सामग्री विषेनी एटले वस्त्र, पात्र, उपकरण, औषध वगेरे प्रत्येक बाबतनी जवाबदारी धरावनार व्यक्तिओ छे । पहेला बे संघस्थविरो निग्रंथनिग्रंथीसंघना ज्ञान विषेनी जवाबदारीवाळा छे अने बीजा वे संघस्थविरो निम्रन्थ-निग्रंथीसंघनी क्रिया-आचार विषेनी जवाबदारीवाळा छे । निग्रंथ-निर्ग्रन्थीसंघमां मुख्य जवाबदार आ चार महापुरुषो छ । एमने जे प्रकारनी जवाबदारी सोपवामां आवी छे तेनुं आपणे पृथक्करण करीए तो आपणने स्पष्टपणे जणाई आवशे के श्रमण वीर-वर्धमान भगवाने जे ज्ञान-क्रियारूप निर्वाणमार्गनो उपदेश कर्यो छे तेनी सुव्यवस्थित रीते आराधना, रक्षा अने पालन थई शके-ए वस्तुने लक्षमा राखीने ज प्रस्तुत संघस्थविरोनी स्थापना करवामां आवी छ। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आन्तर परिचय ५ रत्नाधिक ए निग्रंथ-निपंथीसंघमांना विशिष्ट आगमज्ञानसंपन्न, विज्ञ, विवेकी, गंभीर, समयसूचकता आदि गुणोथी अलंकृत निग्रंथो छ । ज्यारे ज्यारे निग्रंथ-निग्रंथी. संघने लगतां नानां के मोटां गमे ते जातनां विविध कार्यो आवी पडे त्यारे तेनो निर्वाह करवाने आचार्य आदि संघस्थ विरोनी आज्ञा थतां आ महानुभावो इनकार न जतां हम्मेशाने माटे खडे पगे तैयार होय छ। वृषम तरीके ओळखाता बळयान् अने धैर्यशाळी समर्थ निग्रंथो के जेओ गंभीर मुश्केलीना प्रसंगोमा पोताना शारीरिक बळनी कसोटीद्वारा अने जीवनना भोगे पण आखा निग्रंथ-निग्रंथीसंघने हम्मेशा साचववा माटेनी जवाबदारी धरावे छे, ए वृषभोनो समावेश आ रत्नाधिक निर्ग्रथोमां ज थाय छे । ____ उपर सामान्य रीते संघस्थविरोनी जवाबदारी अने तेमनी फरजो विपे ढूंकमा उल्लेख करवामां आव्यो छे, ते छतां कारण पडतां एकबीजा एकमेकने कोई पण कार्यमा संपूर्ण जवाबदारीपूर्वक सहकार आपवा माटे तैयार ज होय छे अने ए माटेनी दरेक योग्यता एटले के प्रभावित गीतार्थता, विशिष्ट चारित्र, स्थितप्रज्ञता, गांभीर्य, समयसूचकता आदि गुणो ए प्रभावशाळी संघपुरुषोमां होय छे-होवा ज जोईए । उपर आचार्यने माटे जे अधिकार जणाववामां आव्यो छे ते मात्र शिक्षाध्यक्ष वाचनाचार्यने अनुलक्षीने ज समजवो जोईए । एटले वाचनाचार्य सिवाय दिगाचार्य वगेरे बीजा आचार्यों पण छे के जेओ निग्रंथ-निग्रंथीओ माटे विहारप्रदेश, अनुकूळ-प्रतिकूळ क्षेत्र वगेरेनी तपास अने विविध प्रकारनी व्यवस्थाओ करवामां निपुण अने समर्थ होय छे । गच्छ, कुल, गण, संघ अने तेना स्थविरो मात्र गणतरीना ज निर्ग्रन्थ-निर्गन्थीओनो समुदाय होय त्यारे तो उपर जणाव्या मुजबना पांच संघस्थविरोथी काम चाली शके । परंतु ज्यारे हजारोनी संख्यामां साधुओ होय त्यारे तो उपर जणावेला मात्र गणतरीना संघपुरुषो व्यवस्था जाळवी न शके ते माटे गच्छ, कुल, गण अने संघनी व्यवस्था करवामां आवी हती अने ते दरेकमां उपर्युक्त पांच संघस्थविरोनी गोठवण रहेती अने तेओ अनुक्रमे गच्छाचार्य, कुलाचार्य, गणाचार्य अने संघाचार्य आदि नामोथी ओळखाता। ___ उपर जणावेला आचार्य आदि पांच संघपुरुषो कोई पण जातनी अगवड सिवाय नेटला निर्ग्रन्थ-निग्रंथीओनी दरेक व्यवस्थाने जाळवी शके तेटला निम्रन्थ-निम्रन्थीओना संघने गच्छ कहेवामां आवतो । एवा अनेक गच्छोना समूहने कुल कहेता । अनेक कुलोना जूथने गण अने अनेक गणोना समुदायने संघ तरीके ओळखता । कुल-गण-संघनी जवाबदारी धरावनार आचार्य उपाध्याय आदि ते ते उपपदनामथी Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पसूत्रनी प्रस्तावना अर्थात् कुलाचार्य कुलोपाध्याय कुलप्रवर्त्तक कुलस्थविर कुलरत्नाधिक आदि नामथी ओळखाता । गच्छो अने गच्छाचार्य आदि कुलाचार्य आदिने जवाबदार हता, कुलो गणाचार्य आदिने जबाबदार हतां, गणो संघाचार्य आदिने जबाबदार हता | संघाचार्य ते युगना समग्र निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीसंघ उपर अधिकार धरावता अने ते युगनो समस्त निर्मन्थ-निर्ग्रन्थीसंघ संघाचार्यने संपूर्णपणे जवाबदार हतो । जे रीते गच्छ कुल गण संघ एक बीजाने जवाबदार हता ते ज रीते एक बीजाने एक बीजानी जवाबदारी पण अनिवार्य रीते लेवी पडती हती अने लेता पण हता । ८९ उदाहरण तरीके कोई निर्ग्रन्थ के निर्बंथी लांबा समय माटे बीमार रहेता होय, अपंग थई गया होय, गांडा थई गया होय, भणता - गणता न होय के भणवानी जरूरत होय, आचार्य आदिनी आज्ञा पाळता न होय, जड जेवा होय, उल्लंठ होय, निर्मन्थनिर्ग्रन्थीओमां झगडो पडयो होय, एक बीजाना शिष्य - शिष्याने नसाडी गया होय, दीक्षा छोडवा उत्सुक होय, कोई गच्छ आदिए एक बीजानी मर्यादानो लोप कर्यो होय अथवा एक बीजाना क्षेत्रमां निवासस्थानमां जबरदस्तीथी प्रवेश कर्यो होय, गच्छ आदिना संचालक संघपुरुषो पोतानी फरजो बजावी शके तेम न होय अथवा योग्यताथी के फरजोथी भ्रष्ट होय, इत्यादि प्रसंगो आवी पडे ते समये गच्छ, कुलने आ विषेनी जवाबदारी सोंपे तो ते कुलाचायें स्वीकारवी ज जोईए । तेम ज प्रसंग आवे कुल, गणने आ जातनी जवाबदारी भळावे तो कुलाचार्ये पण ते लेवी जोईए । अने काम पडतां गण, संघने कहे त्यारे ते जवाबदारीनो नीकाल संघाचार्ये लाववो ज जोईए । निर्ग्रन्थीसंघनी महत्तराओ - जेभ श्रमण वीर-वर्धमान भगवानना निर्ग्रन्थसंघमां अग्रगण्य धर्मव्यवस्थापक स्थविरोनी व्यवस्था करवामां आवी छे ए ज रीते ए भगवानना निर्बंथीसंघ माटे पण पोताने लगती घणीखरी धर्मव्यवस्था जाळववा माटे महत्तराओनी एटले निर्ग्रन्थीसंघस्थविराओनी व्यवस्था करवामां आवी छे । अहीं प्रसंगोपात महत्तराशब्द विषे जरा विचार करी लईए । निर्ग्रन्थीसंघनी वडील साध्वी माटे महत्तरापद पसंद करवामां आत्र्युं छे, महत्तमा नहि-ए सहेतुक छे एम लागे छे अने ते ए के श्रमण वीर - वर्धमानप्रभुना संघमां निर्ग्रन्थीसंघने निर्ग्रन्थसंघी अधीनतामा राखवामां आव्यो छे, एटले ए स्वतंत्रपणे क्यारे य महत्तम गणायो नथी, के तेने माटे ' महत्तमा ' पदनी व्यवस्था करवामां आवे । ए ज कारण छे केनिर्मन्थसंघनी जेम निर्ग्रन्थीसंघमां कोई स्वतंत्र कुल-गण-संघने लगती व्यवस्था पण करवामां नथी आवी । अहीं कोईए एवी कल्पना करवी जोईए नहि के -' आ रीते तो Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० आन्तर परिचय निम्रन्थीसंघने पराधीम ज बनाववामां आव्यो छे'। कारण के खरु जोतां श्रमण वीरवर्धमान भगवंतना संघमां कोईने य माटे मानी लीधेली स्वतंत्रताने स्थान ज नथी-ए उपर कहेवाई गयुं छे । अने ए ज कारणने लीधे निर्ग्रन्थसंघमांना अमुक दरज्जाना गीतार्थ माटे पण महत्तरपद ज मान्य करवामां आव्युं छे । निर्ग्रन्थीसंघमां प्रवर्तिनी, गणावच्छेदिनी, अभिषेका अने प्रतिहारी-आ चार महत्तराओ प्रभावयुक्त अने जवाबदार व्यक्तिओ मनाई छ । निर्ग्रन्थसंघमा आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक अने स्थविर अथवा रत्नाधिकवृषभनो जे दरज्जो छे ते ज दरजो निर्मन्थीसंघमा प्रवर्तिनी, गणावच्छेदिनी, अभिषेका अने प्रतिहारीनो छ । प्रवर्तिनीने महत्तरा तरीके, गणावच्छेदिनीने उपाध्याया तरीके, अभिषेकाने स्थविरा तरीके अने प्रतिहारी निर्मन्धीने प्रतिश्रयपाली, द्वारपाली अथवा ढूंके नामे पाली तरीके ओळखवामां आवती हती। आ चारे निर्गन्ध-निम्रन्थीसंघमान्य महानुभाव पदस्थ निन्थिीओ निर्ग्रन्थ. संघना अग्रगण्य संघस्थविरोनी जेम ज ज्ञानादिगुणपूर्ण अने प्रभावसंपन्न व्यक्तिओ हतीए वस्तुनो ख्याल प्रस्तुत कल्पभाष्यनी नीचेनी गाथा उपरथी आवी शकशे । कारण उवचिया खलु पडिहारी संजईण गीयत्था । परिणय भुत्त कुलीणा अभीय वायामियसरीरा ॥ २३३४ ॥ __ आ गाथामां बतावेला प्रतिहारी-पाली निर्ग्रन्थीना लक्षण उपरथी समजी शकाशे के निर्मन्थीसंघ विषेनी सविशेष जवाबदारी धरावनार आचार्या प्रवर्तिनी वगेरे केवी प्रभावित व्यक्तिओ हती ? । निर्ग्रन्थीसंघमां अमुक प्रकारना महत्त्वनां कार्यों ओछामा ओछां होवाथी अने ए कार्यों विषेनी नचाबदारी निर्ग्रन्थसंघना अग्रगण्य आचार्य आदिस्थविरो उपर होवाथी, ए संघमां स्थविरा अने रत्नाधिकाओ तरीकेनी स्वतंत्र व्यवस्था नथी । परंतु तेने बदले वृषभस्थानीय पाली-प्रतिहारी साध्वीनी व्यवस्थाने ज महत्व आपवामां आव्यु छ। आ पाली-प्रतिहारी साध्वीनी योग्यता अने तेनी फरजनुं प्रसंगोपात जे दिग्दर्शन कराववामां आव्यु छे (जुओ कल्पभाष्य गाथा २३३४ थी ४१ तथा ५९५१ आदि ) ते जोतां आपणने निर्ग्रन्थीसंघना बंधारणना घडवैया संघस्थविरोनी विशिष्ट कुशलतानुं भान थाय छे । उपर जणाव्या प्रमाणे निर्ग्रन्थीसंघनी महत्तरिकाओनी व्यवस्था पाछळ महत्वनो एक ख्याल ए पण छे के निपंथी संघनी अंगत व्यवस्था माटे तेमने डगले ने पगले परवशता न रहे । तेम ज दरेक बाबत माटे एक बीजाना सहवासमां के अतिप्रसंगमा आवQ न पड़े । अहीं ए वस्तु ध्यानमा रहे के-जैन संस्कृतिना प्रणेताओए निर्गन्थसंस्था Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पसूत्रनी प्रस्तावना अने निर्मन्थीसंस्थाने प्रारंभथी ज अलग करी दीधेल छे अने आजे पण बन्ने य अलग ज छ । खास कारणे अने नियत समये ज तेमने माटे परस्पर मळवानी मर्यादा बांधवामां आवी छे । ब्रह्मव्रतनी मर्यादा माटे आ व्यवस्था अतिमहत्त्वनी छे अने आ जातनी मर्यादा, जगतनो इतिहास जोता, जैन श्रमणसंघना महत्तरोनी दीर्घदर्शिता प्रत्ये मान पेदा करे तेवी वस्तु छ । आटलं जाण्या पछी आपणे ए पण समजी लेवु जोईए के निर्ग्रन्थसंघना महत्तरोनी व्यवस्था जेम ज्ञानक्रियात्मक मोक्षमार्गनी आराधना, रक्षा अने पालन माटे करवामां आवी छे ते ज रीते निम्रन्थीसंघनी महत्तरिकाओनी व्यवस्था पण ए ज उद्देशने ध्यानमां राखीने करवामां आवी छे। तेम ज निग्रंथसंघ अने संघमहत्तरो जे रीते एक बीजाने पोतपोतानी फरजो माटे जवाबदार छे ते ज रीते निर्मन्थीसंघ अने तेनी महत्तराओ पण पोतपोतानी फरजो माटे परस्परने जवाबदार छे । अहीं ए ध्यानमा रहे के श्रमण वीर. वर्धमान भगवानना संघमां स्त्रीसंघने जे रीते जवाबदारीभर्या पूज्यस्थाने विराजमान करी अनाबाध जवाबदारी सोपवामां आवी छे तेम ज स्त्रीसंघमाटेना नियमोनू जे रीते निर्माण करवामां आव्युं छे ते रीते स्त्रीसंस्था माटे जगतना कोई पण संप्रदायमा होवानोभाग्ये ज संभव छ। उपर निग्रंथ-निग्रंथीसंघना अप्रगण्य पांच स्थविर भगवंतो अने स्थविराओनो संक्षेपमां परिचय कराववामां आव्यो छे, तेमनी योग्यता अने फरजो विषे जैन आगमोमां घj घणुं कहेवामां आव्यु छे । ए ज रीते निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीसंघ विषे अने तेमनी योग्यता आदि विषे पण घj घणुं कहेवामां आव्युं छे । निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीसंघ श्रमण भगवान महावीरना निर्मन्थ-निम्रन्थीसंघमां ते ते योग्यता अने परिस्थितिने लक्षीने तेमना घणा घणा विभागो पाडवामां आव्या छे । तेम ज तेमनी योग्यता अने पारस्परिक फरजो विषे पण कल्पनातीत वस्तुनी व्यवस्था करवामां आवी छे । बाल, वृद्ध, ग्लान, तपस्वी, अध्ययन अध्यापन करनारा, वैयावृत्य-सेवा करनारा, निर्मन्थनिम्रन्थीसंघनी विविध प्रकारनी सगवडो जाळववानी प्रतिज्ञा लेनार आभिप्रहिक वैयावृत्यकरो, गच्छवासी, कल्पधारी, प्रतिमाधारी, गंभीर, अगंभीर, गीतार्थ, अगीतार्थ, सहनशील असहनशील वगेरे अनेक प्रकारना निग्रंथो हता। उपर जणाव्या प्रमाणेना श्रमण महावीर भगवानना समस्त निर्मन्थनिम्रन्थीसंघ माटे आन्तर अने बाह्य जीवनने स्पर्शती दरेक नानी-मोटी बाबतो प्रस्तुत महाशास्त्रमा अने व्यवहारसूत्र आदि अन्य छेदग्रन्थोमा रजू करवामां आवी छे । जेम के-१ गच्छ-कुल Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आन्तर परिचय गण-संघना स्थविरो-महत्तरो-पदस्थोनी योग्यता, तेमनुं गौरव अने तेमनी पोताने तेम ज निर्ग्रन्थनिर्घन्धीसंघने लगती अध्ययन अने आचार विषयक सारणा, वारणा, नोदनादि विषयक विविध फरजो, २ संघमहत्तरोनी पारस्परिक फरजो, जवाबदारीओ अने मर्यादाओ, ३ निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीसंघनी व्यवस्था जाळववा माटे अने उपरवट थई मर्यादा बहार वतनार संघस्थविरोथी लई दरेक निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीना अपराधोनो विचार करवा माटे संघसमितिओनी रचना, तेनी मर्यादाओ-कायदाओ, समितिओना महत्तरो, जुदा जुदा अपराधोने लगती शिक्षाओ अने अयोग्य रीते न्याय तोलनार अर्थात् न्याय भंग करनार समितिमहत्तरो माटे सामान्य शिक्षाथी लई अमुक मुदत सुधी के सदाने माटे पदभ्रष्ट करवा सुधीनी शिक्षाओ, ४ निम्रन्थनिम्रन्थीसंघमां दाखल करवा योग्य व्यक्तिओनी योग्यता अमे परीक्षा, तेमना अध्ययन, महाव्रतोनी रक्षा अने जीवनशुद्धिने साधती तात्त्विक क्रियाओ, ५ निम्रन्थनिम्रन्थीओनी स्वगच्छ, परगच्छ आदिने लक्षीने पारस्परिक मर्यादाओ अने फरजो। आ अने आ जातनी संख्याबंध बाबतो जैन आगमोमां अने प्रस्तुत महाशास्त्रमा झीणवटंथी छणवामां आवी छे; एटलं ज नहि पण ते दरेक माटे सूक्ष्मेक्षिका अने गंभीरताभर्या उत्सर्ग-अपवादरूपे विधान पण करवामां आव्यु छे अने प्रायश्चित्तोनो निर्देश पण करवामां आव्यो छे । उल्लंठमां उल्लंठ अने पापीमां पापी निम्रन्थो तरफ प्रसंग आवतां संघमहत्तरोए केवी रीते काम लेवू ? केवी शिक्षाओ करवी ? अने केवी रहेम राखवी ? वगेरे पण गंभीरभावे जणाववामां आव्यु छ । प्रस्तुत महाशानने स्थितप्रज्ञ अने पारिणामिक बुद्धिथी अवलोकन करनार अने विचारनार, जैन संघपुरुषो अने तेमनी संघबंधारणविषयक कुशलता माटे नरूर आह्लादित थशे एमां लेश पण शंका नथी। ___ उपर निम्रन्थ-निर्ग्रन्थीसंघना बंधारण विपे जे काई ट्रंकमा जणाववामां आव्युं छे, ए बधी प्रकाशयुगनी नामशेष वीगतो छे । ए प्रकाशयुग श्रमण महावीर भगवान् बाद अमुक सैकाओ सुधी चाल्यो छ । एमां सौ पहेलां भंगाण पड्यानुं आपणने स्थविर आर्यमहागिरि अने स्थविर आर्यसुहस्तिना युगमां जाणवा मळे छ । भंगाणनुं अनुसंधान तुरत ज थई गयुं छे परंतु ते पछी धीरे धीरे सूत्रवाचना आदि कारणसर अमुक सदीओ बाद घणुं मोटुं भंगाण पडी गयु छ । संभव छे के-घणी मुश्केली छतां आ संघसूत्र-संघबंधारण ओछामा ओछु, छेवटे भगवान् श्रीदेवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण आदि स्थविरोए आगमोने पुस्तकारूढ करवा निमित्ते वल्लभी-वळामा संघमेलापक कयों त्यां सुधी काईक नभ्युं होय (?) । आ पछी तो जैनसंघर्नु आ बंधारण छिन्नभिन्न अने अस्तव्यस्त थई गयुं छे । आपणने जाणीने आश्चर्य थशे के-आ माटे खुद कल्पभाष्यकार भगवान् श्रीसंघदासगणि क्षमाश्रमणे पण पोताना जमानामां, जैन संघमां लगभग अति नालायक घमा घणा संघमहत्तरो ऊभा थवा माटे फरियाद करी छे । तेओश्रीए जणाव्युं छे के Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पसूत्रनी प्रस्तावना आयरियत्तणतुरितो, पुवं सीसत्तणं अकाऊणं । हिंडति चोप्पायरितो, निरंकुसो मत्तहस्थि व ।। ३७३ ।। अर्थ-पोते पहेलां शिष्य बन्या सिवाय ( अर्थात् गुरुकुलवासमा रही गुरुसेवापूर्वक जैन आगमोनो अभ्यास अने यथार्थ चारित्रनुं पालन कर्या विना ) आचार्यपद लेवाने माटे तलपापड थई रहेल साधु ( आचार्य बन्या पछी ) मदोन्मत्त हस्तीनी पेठे निरंकुश थईने चोक्खा मूर्ख आचार्य तरीके भटके छे ॥ ३७३ ॥ छन्नालयम्मि काऊण, कुंडियं अभिमुहंजली सुढितो । गेरू पुच्छति पसिणं, किन्नु हु सा वागरे किंचि ।। ३७४ ।। अर्थ-जेम कोई गैरूकपरिव्राजक त्रिदंड उपर कुंडिकाने मूकीने तेना सामे वे हाथ जोडी ऊभो रही पगे पडीने कांई प्रश्न पूछे तो ते कुंडिका कोई जवाब आपे खरी ? । जेवू आ कुंडिकानुं आचार्यपणु छे तेवू ज उपरोक्त आचार्यनु आचार्यपणुं छे ॥ ३७४ ॥ सीसा वि य तूरंती, आयरिया वि हु लहुं पसीयंति । तेण दरसिक्खियाणं, भरिओ लोओ पिसायाणं ।। ३७५ ।। अर्थ-[ मानभूख्या ] शिष्यो आचार्य आदि पदवीओ मेळववा माटे उतावळा थाय छे अने जिनागमोना मर्मोनो विचार नहि करनार आचार्यों एकदम शिष्योने मोटाईनां पूतळां बनाववा महेरबान थई जाय छ । आ कारणथी कशु य नहीं समजनार अनघड जाचार्यपिशाचोथी आखो लोक भराई गयो छे ॥ ३७५ ॥ प्रस्तुत भाष्यगाथाओथी जणाशे के भाष्यकारना जमाना पहेला ज जैन संघबंधा. रणनी अने निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीओना ज्ञाननी केवी दुर्दशा थई गई हती ? । इतिहासनां पानां उथलावतां अने जैन संघनी भूतकालीन आखी परिस्थितिनुं दिग्दर्शन करतां जैन निग्रंथोनी ज्ञानविषयक दुर्दशा ए अतिसामान्य घरगथ्थु वस्तु जेवी जणाय छ । चतुर्दशपूर्वधर भगवान् श्रीभद्रबाहुस्वामी अने श्रीकालिकाचार्य भगवान् समक्ष जे प्रसंगो बीती गया छे, ए आपणने दिग्मूढ बनावी दे तेवा छे । भगवान् श्रीभद्रबाहुस्वामी पासे विद्याध्ययन माटे, ते युगना श्रीसंघनी प्रेरणाथी "थूलभहस्सामिपमुक्खाणि पंच मेहावीणं सताणि गताणि " अर्थात् स्थूलभद्रस्वामी आदि पांच सो बुद्धिमान् निर्ग्रन्थो गया हता, परंतु आवश्यक पूर्णिमा पूज्यश्री जिनदासगणि महत्तरे जणाव्या मुजब " मासेण एके ग दोहिं तिहिं ति सव्वे ओसरिता" ( भा. २, पत्र १८७ ) एटले के एक, वे अने त्रण महिनामां तो भावी संघपुरुष भगवान् श्रीस्थलभद्रने बाद करतां बाकीना बधा य बुद्धिनिधानो पलायन थई गया । भगवान् श्रीभद्रबाहुस्वामीने “ जो संघस्स आणं अतिकमति तस्स को दंडो ? " पूछनार जैनसंधे Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ आन्तर परिचय उपरोक्त बुद्धिनिधानोनो जवाब लीधानो क्यांय कशो य उल्लेख नथी। अने आटला मोटा वर्गने पूछवा जेटली संघनी गुंजायश कल्पवी पण मुश्केल छ । २ स्थविर आर्यकालक माटे पण कहेवामां आवे छे के तेमना शिष्यो तेमनी पासे भणता नहोता, ए माटे तेओ तेमने छोडीने पोते एकला चाली नीकळ्या हता। ३ आ उपरांत भाष्यकार भगवाने पण भाष्यमा पोताना जमानाना निम्रन्थोना ज्ञान माटे भयंकर अपमानसूचक " दरसिक्खि. याणं पिसायाणं " शब्दथी ज आखी परिस्थितिनुं दिग्दर्शन कराव्युं छे । ४ वल्लभीमां पुस्तकारूढ थयाने मात्र छ सका थया बाद थनार नवांगवृत्तिकार पूज्यश्री अभयदेवाचार्य महाराजने अंगसूत्रो उपर टीका करती वखते जैन आगमोनी नितान्त अने एकान्त अशुद्ध ज प्रतिओ मळी तेम ज पोताना आगमटीकाग्रंथोनुं संशोधन करवा माटे जैन आगमोनुं विशिष्ट पारम्पर्य धरावनार योग्य व्यक्ति मात्र चैत्यवासी श्रमणोमांथी भगवान् श्रीद्रोणाचार्य एक ज मळी आव्या । आ अने आवी बीजी अनेक ऐतिहासिक हकीकतो जैन निम्रन्थोनी विद्यारुचि माटे फरियाद करी जाय छे । आ परिस्थिति छतां जैन निर्मथसंघना सद्भाग्ये तेना नामने उज्ज्वल करनार अने सदीओनी मलिनता अने अंधकारने भूसी नाखनार, गमे तेटली नानी संख्यामा छतां दुनिआना कोई पण इतिहासमा न जडे तेवा समर्थ युगपुरुषो पण युग-युगांतरे प्रगट थता ज रया छे, जेमणे जैन निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीसंघ माटे सदीओनी खोट पूरी करी छे । जैननिर्मन्थनिम्रन्थीसंघ सदा माटे ओपतो-दीपतो रह्यो छे, ए आ युगपुरुषोनो ज प्रताप छ । परंतु आजे पुनः ए समय आवी लाग्यो छे के परिमित. संख्यामा रहेला जैन निम्रन्थनिर्ग्रन्थीओनुं संघसूत्र अहंता-ममता, असहनशीलता अने पोकळ धर्मने नामे चालती पारस्परिक ईर्ष्याने लीधे छिन्नभिन्न, अस्तव्यस्त अने पांगळु बनी गयुं छे । आपणे अंतरथी एवी शुभ कामना राखीए के पवित्रपावन जैन आगमोना अध्ययन आदिद्वारा तेमांनी पारमार्थिक तत्त्वचिन्तना आपणा सौनां महापापोने धोई नाखो अने पुनः प्रकाश प्राप्त थाओ । प्रकीर्णक हकीकतो प्रस्तुत महाशास्त्र अमुक दृष्टिए जैन साम्प्रदायिक धर्मशास्त्र होवा छतां ए, एक एवी तात्त्विक जीवनदृष्टिने लक्षीने लखाएलुं छे के--गमे ते सम्प्रदायनी व्यक्तिने आ महाशाखमाथी प्रेरणा जाग्या विना नहि रहे । आ उपरांत बीजी अनेक बाह्य दृष्टिए पण आ ग्रंथ उपयोगी छे । ए उपयोगिताने दर्शावनार एवां तेर परिशिष्टो अमे आ विभागने अंते आप्यां छे, जेनो परिचय आ पछी आपवामां आवशे । आ परिशिष्टोना अवलोकनथी विविध विद्याकळानुं तलस्पर्शी अध्ययन करनारे समजी ज लेवू जोईए के प्रस्तुत ग्रंथमां ज Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पसूत्रनी प्रस्तावना नहि, दरेक जैन आगममा अथवा समग्र जैन वाङ्मयमा आपणी प्राचीन संस्कृतिने लगती विपुल सामग्री भरी पडी छे । अमे अमारा तेर परिशिष्टोमा जे विस्तृत नोंधो अने उतारा आप्या छे ते करतां पण अनेकगुणी सामग्री जैन वाङ्मयमा भरी पडी छे, जेनो ख्याल प्रस्तुत ग्रंथना दरेके दरेक विभागमा आपेली विषयानुक्रमणिका जोवाथी आवी जशे । परिशिष्टोनो परिचय प्रस्तुत प्रन्थने अंते ग्रन्थना नवनीतरूप तेर परिशिष्टो आप्यां छे, जेनो परिचय आ नीचे आपवामां आवे छे १ प्रथम परिशिष्टमां मुद्रित कल्पशास्त्रना छ विभागो पैकी कया विभागमा क्याथी क्यां सुधीनां पानां छे, कयो अर्थाधिकार उद्देश आदि छे अने भाष्य कई गाथाथी क्या सुधीनी गाथाओ छे, ए आपवामां आवेल छे, जेथी विद्वान् मुनिवर्ग आदिने प्रस्तुत शास्त्रना अध्ययन, स्थानअन्वेषण आदिमां सुगमता अने अनुकूळता रहे । २ बीजा परिशिष्टमां कल्प ( प्रा. कप्पो) मूळशास्त्रनां सूत्रो पैकी जे सूत्रोने नियुक्ति, भाष्य, चूर्णी, विशेषचूर्णी के टीकामां जे जे नामथी ओळखाव्यां छे तेनी अने तेनां स्थळोनी नोंध आपवामां आवी छ । ३ त्रीजा परिशिष्टमा आखा य मूळ कल्पशास्त्रनां बधां य सूत्रोना नामोनी, जेनां नामो नियुक्ति-भाष्यकारादिए आप्यां नथी ते सुद्धांनी योग्यता विचारीने क्रमवार सळंग नोंध आपवामां आवी छे । तेम ज साथे साथे जे जे सूत्रोनां नामोमां अमे फेरफार आदि करेल छे तेनां कारणो वगेरे पण आपवामां आव्यां छे । ४ चोथा परिशिष्टमां कल्पमहाशास्त्रनी नियुक्तिगाथाओ अने भाष्यगाथाओ एकाकार थई जवा छतां टीकाकार आचार्य श्रीक्षेमकीर्तिसूरिए ते गाथाओने जुदी पाडवा माटे जे प्रयत्न कर्यो छे तेमां जुदां जुदा प्रत्यन्तरो अने चूर्णी विशेषचूर्णी जोतां परस्परमां केवी संवादिता अने विसंवादिता छे तेनी विभागशः नोंध आपी छे। ५ पांचमा परिशिष्टमां कल्पभाष्यनी गाथाओनो अकारादिक्रम आप्यो छे । ६ छट्ठा परिशिष्टमां कल्पटीकाकार आचार्य श्रीमलयगिरि अने श्रीक्षेमकीर्तिसूरिए टीकामा स्थाने-स्थाने जे अनेकानेक शास्त्रीय उद्धरणो आप्यां छे तेनो अकारादिक्रम, ते ते ग्रंथोना यथाप्राप्त स्थानादिनिर्देशपूर्वक आपवामां आव्यो छे । ७ सातमा परिशिष्टमां भाष्यमा तथा टीकामां आवता लौकिक न्यायोनी नोंध आपवामां आवी छे । ए नोंध, निर्णयसागर प्रेस तरफथी प्रसिद्ध थएल " लौकिकन्याया Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टोनो परिचय अलि” जेवा संग्रहकारोने उपयोगी थाय, ए दृष्टिए आपवामां आवी छ । केटलीक वार आवा प्राचीन ग्रथोमां प्रसंगोपात जे लौकिक न्यायोनो उल्लेख करवामां आव्यो होय छे ते उपरथी ते ते लौकिक न्यायो केटला प्राचीन छ तेनो इतिहास मळी जाय छे । तेम ज तेवा न्यायोनुं विवेचन पण आवा ग्रंथोमांथी प्राप्त थई जाय छ । ८ आठमा परिशिष्टमां वृत्तिकारोए वृत्तिमां दर्शावेला सूत्र तथा भाष्यविषयक पाठभेदोनां स्थळोनी नोंध आपवामां आवी छ । ९-१० नवमा दशमा परिशिष्टोमां वृत्तिकारोए वृत्तिमा उल्लिखित प्रन्थ अने प्रन्थकारोनां नामोनी यादी आपवामां आवी छ । ११ अगीआरमा परिशिष्टमां कल्पभाष्य, वृत्ति, टिप्पणी आदिमां आवतां विशेषनामोनो अकारादिक्रमथी कोश आपवामां आव्यो छ । १२ बारमा परिशिष्टमां कल्पशास्त्रमा आवतां अगीयारमा परिशिष्टमां आपेला विशेषनामोनी विभागवार नोंध आपवामां आवी छ । १३ तेरमा परिशिष्टमां आखा कल्पमहाशास्त्रमा आवता, पुरातत्वविदोने उपयोगी अनेकविध उल्लेखोनी विस्तृत नोंध आपवामां आवी छ । आ परिशिष्ट अतिउपयोगी होई एनी विस्तृत विषयानुक्रमणिका, ग्रन्थना प्रारंभमां आपेल विषयानुक्रममा आपवामां आवी छे। आ परिशिष्टने जोवाथी पुरातत्त्वविदोना ध्यानमां ए वस्तु आवी जशे के जैन आगमोना विस्तृत भाष्य, चूर्णी, विशेषचूर्णी, टीका वगेरेमा तेमने उपयोगी थाय तेवी ऐतिहासिक, भौगोलिक, सामाजिक, सांप्रदायिक तेम ज विविध विषयने लगती केवी अने केटली विपुल सामग्री भरी पडी छे। अने कथासाहित्य भाषासाहित्य आदिने लगती पण घणी सामग्री छ । प्रस्तुत परिशिष्टमां में तो मात्र मारी दृष्टिए ज अमुक उल्लेखोनी तारवणी आपी छे । परंतु हुं पुरातत्त्वविदोने खात्री आपुंछ के आ महाशास्त्ररत्नाकरमा आ करताय विपुल सामग्री भरी पडी छे । अंतमां गीतार्थ जैन मुनिवरो अने विद्वानोनी सेवामा प्रार्थना छे के–अमे गुरु-शिष्ये प्रस्तुत महाशानने सर्वांग पूर्ण बनाववा काळजीभर्यो प्रयत्न कर्यो छे ते छतां अमारी समजनी खामीने लीधे जे जे स्खलनाओ थई होय तेनी क्षमा करे, सुधारे अने अमने सूचना पण आपे । अमे ते ते महानुभावोना सदा माटे ऋणी रहीशुं । संवत् २००८ कार्तिक शुदि १३ । ले० गुरुदेव श्रीचतुरविजयजीमहाराजचरणसेवक बीकानेर ( राजस्थान ) । मुनि पुण्यविजय Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ६०६०-६१२८ ६०६०-६२ ६०६३-६१२८ ६०६३ ६०६४-४७ ६०६४ ६०६५ ६०६६-८७ ६०८८-८९ ९७ ॥ अर्हम् ॥ बृहत्कल्पसूत्र षष्ठ विभागनो विषयानुक्रम । ६०९० ६०९१-९८ ६०९९-६११४ ६०९९-६१०१ षष्ठ उद्देश । विषय वचनप्रकृत सूत्र १ निर्मन्थ-निर्ग्रन्थीओने अलीकवचन, हीलितवचन, खिंसितवचन, परुषवचन, अगारस्थितवचन अने व्यवशमितोदीरणवचन एछ प्रकारनां अवचनो - दुर्वचनो बोलवां कल्पे नहि वचनप्रकृतनो पूर्वसूत्र साथै सम्बन्ध वचनसूनी व्याख्या वचनसूनी विस्तृत व्याख्या छ प्रकारां अवक्तव्य वचनो अलीकवचननुं स्वरूप अलीकवचनना व्याख्यानविषयक द्वारगाथा अलीकवचनना वक्ता अने वचनीयअलीकवचनना विषयरूप आचार्य आदि अने तेमने लक्षीने प्रायश्चित्तो अलीकवचननां १ प्रचला २ आर्द्र ३ मरुक ४ प्रत्याख्यान ५ गमन ६ पर्याय ७ समुद्देश ८ संाडी आदि सत्तर स्थानो, ए स्थानोनुं स्वरूप अने तेने लगतां प्रायश्चित्तो हीलित, खिंसित आदि अवचनने लगतां प्रायश्चित्तो हीलितवचननुं स्वरूप खिंसितवचननुं स्वरूप अने तद्विषयक यथाघोष श्रुतग्राहक साधुनुं दृष्टान्त परुषवचननुं स्वरूप लौकिकपरुषवचननुं स्वरूप अने ते अंगे व्याध अने कौटुंबिक पुत्रीओनुं दृष्टान्त पत्र १६०१-१९ १६०१-२ १६०२ १६०२ - १९ १६०२ १६०३-९ १६०२ १६०३ १६०३-९ १६०९ १६०९ १६१०-११ १६११-१६ १६११-१२ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ६१०२-४ ६१०५-११ ६११२-२० ६१२१-२८ ६१२९-६२ ६१२९ ६१३०-३२ ६१३३ ६१३४-४१ ६१४२-४८ ६१४९-५२ ९८ बृहत्कल्पसूत्र षष्ठ विभागनो विषयानुक्रम । विषय लोकोत्तर परुषवचननुं स्वरूप, तेना आलप्त, व्याहृत आदि पांच स्थानको अने ते विषे चण्डरुद्राचार्यनुं दृष्टान्त लोकोत्तरपरुषवचनना तुष्णीक, हुड्कार आदि पांच प्रकार, तेने लगतां प्रायश्चित्तो अने ते प्रायश्चित्तोनी अलीकभाषी अने अलीकभाषणीय आचार्य, उपाध्याय, भिक्षु, स्थविर अने क्षुल्लक ए पांच निर्मन्थपुरुषो तेमज प्रवर्तिनी, अभिषेका, भिक्षुणी, स्थविरा अने क्षुल्लिका ए पांच निर्मन्थीओने आश्री चारणिका निष्ठुर- कर्कश, अगारस्थित अने व्यवशमितोदीरणवचननुं स्वरूप अने तद्विषयक प्रायश्चित्तो छ प्रकारनां अवक्तव्य वचनने लगतो अपवाद यतनाओ प्रस्तारप्रकृत सूत्र २ साध्वाचारविषयक छ प्रस्तारोनुं - प्रायश्चिसरचनाना प्रकारोनुं निरूपण प्रस्तारप्रकृतनो पूर्वसूत्र साथै संबंध प्रस्तारसूत्रनी व्याख्या प्रस्तारसूत्रगत 'प्रस्तार' अने 'सम्मं अपडिपूरेमाणे' पदनी व्याख्या छ प्रस्तार दो प्राणवधवाद विषयक प्रायश्चित्तप्रस्तारो अने तद्विषयक दर्दुर, शुनकादि दृष्टान्तो मृषावाद अने अदत्तादानवादविषयक प्रायश्चित्तप्रस्तार अने ते षिषे अनुक्रमे संखडि अने मोदकां दृष्टान्तो अविरतिवाद विषयक प्रायश्चित्तप्रस्तार पत्र १६१२ १६१३-१५ १६१६-१७ १६१८-१९ १६१९-२७ १६२० १६२० १६२०-२१ १६२१ १६२१-२३ १६२३-२४ १६२४-२५ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पसूत्र षष्ठ विभागनो विषयानुक्रम । गाथा विषय पत्र ६१५३-५६ ६१५७-६१ ६१६२ अपुरुषवादविषयक प्रायश्चित्तप्रस्तार दासवादविषयक प्रायश्चित्तप्रस्तार प्रस्तारविषयक अपवादो १६२५-२६ १६२६ १६२७ - ६१६३-८१ ६१६३-६५ ६१६६-८१ कण्टकायुद्धरणप्रकृत सूत्र ३-६ १६२७-३३ निम्रन्थ-निर्ग्रन्थीविषयक कण्टकायुद्धरण आश्री सूत्रचतुष्टय कण्टकायुद्धरणसूत्रनो पूर्वसूत्र साथे संबंध १६२७-२८ कण्टकाद्युद्धरणसूत्रचतुष्कनी व्याख्या १६२८-३३ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी आश्री कण्टकााद्धरणविषयक उत्सर्गमार्ग, तेना विपर्यासथी उद्भ वता दोषो, ते दोषोनुं स्वरूप, प्रायश्चित्तो, . अपवाद अने यतनाओ - ६१८२-९३ १६३३-३६ ६१८२ दुर्गप्रकृत सूत्र ७-९ निम्रन्थीविषयक दुर्गसूत्र पंकसूत्र अने नौसूत्र दुर्गादिसूत्रनो पूर्वसूत्र साथे संबंध दुर्गादिसूत्रोनी व्याख्या दुर्गादिसूत्रोनी विस्तृत व्याख्या, तद्विषयक प्रायश्चित्त अने यतना १६३३ १६३३ ६१८३-९३ १६३४-३६ ६१९४-६३१० ६१९४-६२४० ६१९४ क्षिप्तचित्तादिप्रकृत सूत्र १०-१८ १६३६-६५ १० क्षिप्तचित्तासूत्र १६३६-४६ क्षिप्तचित्तासूत्रनो पूर्वसूत्र साथे संबंध क्षितचित्तासूत्रनी व्याख्या १६३७ क्षिप्तचित्तासूत्रनी विस्तृत व्याख्या १६३७-४६ क्षिप्तचित्त थवानां कारणो १६३७ लौकिकक्षिप्तचित्त अने तेने लगतां सोमिलब्राह्मण आदिनां दृष्टान्तो १६३७ ६१९५-६२४० ६१९५ ६१९६ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० बृहत्कल्पसूत्र षष्ठ विभागनो विषयानुक्रम । गाचा विषय ६१९७-९९ . १६३७ ६२००-९ १६३८-४० ६२१०-४० ६२४१-५५ ६२४१-५५ ६२४१-४२ ६२४३-४९ १६४०-४६ १६४७-५० १६४७-५०. १६४७ १६४७-४९ ६२५०-५५ ६२५६-६२ ६२५६-५७ ६२५८-६२ लोकोत्तरिकक्षिप्तचित्ता अने ते विषे राजाल्लिकार्नु दृष्टान्त विविध कारणोने लई क्षिप्तचित्त थएल निम्रन्थीने समजाववाना प्रकारो-युक्तिओ क्षिप्तचित्ता निर्ग्रन्थीनी सारसंभाळनो विधि, तेम नहि करनारने प्रायश्चित्तो, दोषो अने ते अंगेनी यतनाओ ११ दीप्तचित्तासूत्र दीप्तचित्तासूत्रनी विस्तृत व्याख्या दीप्तचित्त थवानां कारणो लौकिकदीप्तचित्त अने ते विषे राजा शालिवाहन- दृष्टान्त लोकोत्तरिक दीप्तचित्ता अने ते अंगेनी यतनाओ १२ यक्षाविष्टासूत्र यक्षाविष्टासूत्रनो पूर्वसूत्र साथे संबंध यक्षाविष्ट थवानां कारणो, ते विषे १ सपत्नी २ भृतक अने ३ सज्झिलकनां दृष्टान्तो अने ते अंगेनी यतनाओ १३ उन्मादप्राप्तासूत्र उन्मादना प्रकारो, तेनुं स्वरूप अने ते अंगेनी यतनाओ १४ उपसर्गप्राप्तासूत्र उपसर्गप्राप्तासूत्रनो पूर्वसूत्र साथे संबंध दिव्य, मानुषिक अने आभियोग्य ए त्रण प्रकारना उपसर्गनुं स्वरूप अने उपसर्गप्राप्तानी रक्षा न करवाने लगतां प्रायश्चित्तो १५ साधिकरणासूत्र साधिकरणासूत्रनो पूर्वसूत्र साथे संबंध अने अधिकरण-केशवें उपशमन आदि १६४९-५० १६५१-५२ __ १६५१ १६५१-५२ १६५३-५४ ६२६३-६७ ६२६३-६७ १६५३-५४ ६२६८-७६ ६२६८ ६२६९-७६ १६५४ १६५४-५६ १६५६-५७ ६२७६-७८ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्र गाथा ६२७९-८० १६५७ १०१ बृहत्कल्पसूत्र षष्ठ विभागनो विषयानुक्रम । विषय १६ सप्रायश्चित्तासूत्र सप्रायश्चित्तासूत्रनो पूर्वसूत्र साथे संबंध अने तेने लगती यतना १७ भक्तपानप्रत्याख्यातासूत्र भक्तपानप्रत्याख्यातासूत्रनो पूर्वसूत्र साथे संबंध भक्तपानप्रत्याख्यातासूत्रनी व्याख्या १८ अर्थजातासूत्र अर्थजातासूत्रनो पूर्वसूत्र साथे संबंध अर्थजातासूत्रनी विस्तृत व्याख्या अर्थजाताने छोडाववाना उपायो, यतना वगेरे ६२८१-८४ ६२८१ १६५७-५८ १६५८ १६५८ ६२८२-८४ ६२८५-६३१० ६२८५ ६२८६-६३१० १६५९-६५ १६६६-७६ ६३११-१३ ६३१४-४८ ६३१४-१६ ६३१७-२० १६६७ १६६७-७६ १६६७-६८ परिमन्थप्रकृत सूत्र १९ साध्वाचारना छ परिमन्थो-व्याघातो परिमन्थप्रकृतनो पूर्वसूत्र साथे संबंध परिमन्थसूत्रनी व्याख्या परिमन्थसूत्रनी विस्तृत व्याख्या परिमन्थपदना निक्षेपो कौकुचिक, मौखरिक, चक्षुर्लोल अने तितिणिक पदनी व्याख्या, भेद, प्रायश्चित्त अने दोषो स्थानकौकुचिकनुं स्वरूप अने तेने लगता दोषो शरीरकौकुचिकनुं स्वरूप भाषाकौकुचिकनुं स्वरूप, तेने लगता दोषो अने ते अंगे श्रेष्ठी, मृत अने सुप्तनां दृष्टान्तो मौखरिकनुं स्वरूप, दोषो अने तेने लगतुं लेखहारकनुं दृष्टान्त चक्षुर्लोलनुं स्वरूप, दोष आदि तिन्तिणिकनुं स्वरूप साध्वाचारना छ परिमन्थने लगता अपवाद आदि १६६८-६९ १६६९ १६६९ ६३२१-२२ ६३२३ ६३२४-२६ १६७० ६३२७-२८ १६७१ १६७१ ६३२९-३१ ६३३२-३४ ६३३५-४८ १६७२ १६७२-७६ Fore v ermometeroily Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ बृहत्कल्पसूत्र षष्ठ विभागनो विषयानुक्रम । पत्र ६३४९ गाथा विषय ६३४९-६४९० कल्पस्थितिप्रकृत सूत्र २०. १६७६-१७०७ साधुओना छ कल्पो कल्पस्थितिप्रकृतनो पूर्वसूत्र साथे संबंध १६७६ कल्पस्थितिसूत्रनी व्याख्या ६३५०-६४९० कल्पस्थितिसूत्रनी विस्तृत व्याख्या १६७७-१७०७ ६३५०-५६ 'कल्प' अने स्थिति' पदनी व्याख्या १६७७-७८ ६३५७ पविध कल्पस्थिति १६७८ ६३५८-६२ १ सामायिककल्पस्थितिनुं निरूपण १६७८-७९ ६३६३-६४४६ २ छेदोपस्थापनीयकल्पस्थितिनुं निरूपण १६८०-९७ छेदोपस्थापनीयसंयतनी कल्पस्थितिनां दश स्थित स्थानो १६८० ६३६५-७४ १ आचेलक्यकल्पद्वार १६८०-८२ अचेलकनुं स्वरूप, तीर्थकरोने आश्री अचेलक-सचेलकपणानो विभाग, वस्रोनुं स्वरूप, वस्त्र धारण करवाना विधिविपर्या सने लगतां प्रायश्चित्तो ६३७५-७७ २ औदेशिककल्पद्वार १६८२-८३ ६३७८-८० ३ शय्यातरपिण्डकल्पद्वार १६८३-८४ ६३८१-९७ ४ राजपिण्डकल्पद्वार १६८४-८७ ६३८१ राजपिण्डकल्पविषयक द्वारगाथा १६८४ ६३८२-८३ राजानुं स्वरूप १६८४ ६३८४ आठ प्रकारनो राजपिण्ड १६८४ ६३८५-९५ राजपिण्ड लेवाने लगता दोषो १६८५-८६ राजपिण्ड ग्रहण करवाने लगतो अपवाद अने यतना १६८७ ६३९८-६४०१ ५ कृतिकर्मकल्पद्वार १६८७ निम्रन्थ-निर्ग्रन्थी आश्री वन्दनव्यवहार विषयक कल्प ६४०२-७ ६ व्रतकल्पद्वार १६८८-८९ चोवीस तीर्थकरोना निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीने आश्री पंचवतात्मक अने चतुर्वतात्मक धर्मनी व्यवस्था अने तेनां कारणो ६४०८-२४ ७ ज्येष्ठकल्पद्वार १६८९-९२ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ६४२५-३० ६४३१ ६४३२-३६ ६४३७-४१ ६४४२-४६ ६४४७-८१ ६४८२-८४ ६४८५-८६ ६४८७-८८ ६४८९-९० १०३ बृहत्कल्पसूत्र पष्ठ विभागनो विषयानुक्रम । विषय चोवीस तीर्थकरना निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीने आश्री कृतिकर्मविषयक ज्येष्ठ - लघुत्व व्यवहार, छेदोपस्थापनचारित्रारोपणने लगता त्रण आदेशो अने ए त्रणे आदेशोनुं वर्णन ८ प्रतिक्रमण कल्पद्वार ९ मासकल्पकल्पद्वार १० पर्युषणाकल्पद्वार दशविध कल्पविषे प्रमाद करनार ने लागता दोषो स्थापनाकल्प अने तेना अकल्पस्थापनाकल्प अने शैक्षस्थापनाकल्प ए वे भेदोनुं व्याख्यान ३ निर्विशमान अने ४ निर्विष्टकायिक कल्पस्थितिनुं निरूपण परिहारविशुद्धि कल्पनुं निरूपण ५ जिनकल्पस्थितिनुं निरूपण ६ स्थविर कल्पस्थितिनुं निरूपण कल्पाध्ययनोक्त विधिना विपर्यासथी अने तेना पालनथी थता हानि अने लाभ कल्पाध्ययनशास्त्रना अधिकारी अने अनधिकारीनुं निरूपण ज्ञाननय अने क्रियानयनुं निरूपण अने कल्पशास्त्री समाप्ति कल्पवृत्तिना अनुसंधानकार अने पूर्ण करनार आचार्य श्री क्षेमकीर्त्तिसूरिवरनी प्रशस्ति परिशिष्टानि १ प्रथमं परिशिष्टम् मुद्रितस्य नियुक्ति-भाष्य-वृत्त्युपेतस्य वृह - त्कल्पसूत्रस्य विभागाः २ द्वितीयं परिशिष्टम् बृहत्कल्पसूत्रस्य निर्युक्ति-भाष्य- चूर्णि - विशेष - चूर्णि वृत्तिकृद्भिर्निर्दिष्टानां प्रकृतनानां सूत्रनानां चानुक्रमणिका ३ तृतीयं परिशिष्टम् समग्रस्य बृहत्कल्पसूत्रस्य प्रकृतनाम्नां सूत्र पत्र १६९२-९३ १६९४ १६९४ - ९५ १६९५-९६ १६९६-९७ १६९७-१७०४ १७०४-५ १७०५ १७०५-६ १७०६ १७०७-९ १७१०-१२ १-१९८ १ २-६ ७-१७ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ गाथा पत्र १८-२७ २८-११७ ११८-१३० १३१ १३१ बृहत्कल्पसूत्र षष्ठ विभागनो विषयानुक्रम । विषय नाम्नां तद्विषयस्य चानुक्रमणिका ४ चतुर्थ परिशिष्टम् बृहत्कल्पसूत्रचूर्णि-विशेषचूर्णि-वृत्तिकृद्भिर्विभागशो निर्दिष्टानां नियुक्तिगाथा-सङ्ग्रहगाथापुरातनगाथादीनामनुक्रमणिका ५ पञ्चमं परिशिष्टम् बृहत्कल्पसूत्रस्य नियुक्ति-भाष्यगाथानामकारादिवर्णक्रमेणानुक्रमणिका ६ षष्ठं परिशिष्टम् बृहत्कल्पसूत्रवृत्त्यन्तः वृत्तिकृयामुद्धृतानां गाथादिप्रमाणानामनुक्रमणिका ७ ससमं परिशिष्टम् बृहत्कल्पसूत्रभाष्य-वृत्त्यन्तर्गता लौकिकन्यायाः ८ अष्टमं परिशिष्टम् बृहत्कल्पसूत्रस्य वृत्तौ वृत्तिकृद्भ्यां निर्दिष्टानि सूत्र-भाष्यगाथापाठान्तरावेदकानि स्थलानि ९ नवमं परिशिष्टम् वृहत्कल्पसूत्रवृत्त्यन्तर्गतानां ग्रन्थकृतां नामानि १० दशमं परिशिष्टम् बृहत्कल्पसूत्रभाष्य-वृत्त्यन्तः प्रमाणत्वेन निर्दिष्टानां प्रन्थानां नामानि ११ एकादशं परिशिष्टम् बृहत्कल्पसूत्र-नियुक्ति-भाष्य-वृत्ति-टिप्पण्याधन्तर्गतानां विशेषनानामनुक्रमणिका १२ द्वादशं परिशिष्टम् बृहत्कल्पसूत्र-तनियुक्ति-भाष्य-वृत्त्याद्यन्तर्गतानां विशेषनाम्नां विभागशोऽनुक्रमणिका १३ त्रयोदशं परिशिष्टम् बृहत्कल्पसूत्र-तनियुक्ति-भाष्य-टीकादिगताः पुरातत्त्वविदामुपयोगिनो विभागशो विविधा उल्लेखाः १३२ १३३-१३५ १३६-१४६ १४७-१५२ १५५-१९८ For Private & Personal use only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५ ।। अर्हग ।। त्रयोदशपरिशिष्टस्य विषयानुक्रमः [१ वृत्तिकृतोर्मङ्गलादि] । [७ वानमन्तर-यक्षादि] (१) श्रीमलयगिरिसृरिकृतं मङ्गलमुपोद्धातग्रन्थश्च (१) ऋषिपालो वानमन्तरः (२) श्रीक्षेमकीर्तिसूरिकृतं मङ्गलमुपोद्घातग्रन्थश्च । (२) कुण्डलमेण्ठो वानमन्तरः (३) घण्टिकयक्षः [२ वृत्तिकृतः श्रीक्षेमकीः प्रशस्तिः] (४) भण्डीरयक्षः [३ जैनशासनम्] (५) सीता हलपद्धतिदेवता [४ जैनचैत्य-धर्मचक्र-स्तूपादि] [८ विद्यादि] (१) साधर्मिक-मङ्गल-शाश्वत-भक्तिचैत्यानि १) आभोगिनी विद्या (२)धर्मचक्रम् (२) अश्व-महिष-दृष्टिविषसोत्पादनादि (३) यन्त्रप्रतिमा (४) जीवन्तखामिप्रतिमाः [९ जनपद-ग्राम-नगरादिविभागः] [५ जैनस्थविराचार्या राजानश्व] (१) आर्या-ऽनार्यजनपद-जात्यादि (१) श्रेणिकराजः (२) मण्डलम् (२) चण्डप्रद्योतराजः (३) जनपदप्रकारौ (३) मौर्यपदव्युत्पत्तिः चन्द्रगुप्तश्चाणक्यश्च (४) ग्राम-नगर-खेट-कर्बट-मडम्ब-पत्तना-ऽऽकर(४) मौर्यचन्द्रगुप्त-बिन्दुसारा-ऽशोक कुणाल द्रोणमुख-निगम-राजधानी-आश्रम-निवेशसम्प्रतयः सम्बाध-घोष-अंशिका-पुटभेदन सङ्कराः (५) सम्प्रतिराजः आर्यमद्दागिरि-आर्यसुहस्तिनौ च । (५) सूत्रपातानुसारेण ग्रामस्य प्रकाराः (६) आर्यसुहस्तिः आर्यसमुद्र आर्यमङ्गुश्च (६) प्राकारभेदाः तत्स्थानानि च (७) आर्यवज्रखामी (७) भिन्न भिन्नजनपदेषु धान्यनिष्पत्तिप्रकाराः (८) कालकाचार्याः तत्प्रशिष्यः सागरश्च (८) पणितशाला भाण्डशाला कर्मशाला पचनशाला (९) कालकाचार्या गर्दभिल्लश्च इन्धनशाला व्याघरणशाला च (१०) शालवाहननृपः (११) पादलिप्ताचार्याः [१० विशिष्टग्राम-नगर-जनपदादि] (१२) मुरुण्डराजः (१) अन्ध्र जनपदः (१३) सिद्धसेनाचार्याः (२) अवन्तीजनपदः (१४) लाटाचार्यः (३) आनन्दपुरम् (४) उज्जयिनी नगरी [६ वारिखलादिपरिव्राजकादयः] (५) उत्तरापथः (१) वारिखलपरिव्राजका वानप्रस्थतापसाश्च (६) कच्छदेशः (२) चक्रचरः (७) काञ्चीनगरी (३) कर्मकारभिक्षुकाः (८) काननद्वीपः (४) उडङ्कर्षिः ब्रह्महत्याया व्यवस्था च (१) कुणालाजनपदः Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ त्रयोदशपरिशिष्टस्य विषयानुक्रमः । (१०) कुणालानगरी (११) कुसुमनगरम् (१२) कोङ्कणदेशः (१३) कोण्डलमिण्ठपुरम् (१४) कोशलापुरी (१५) गोल्लविषयः (१६) चीनाजनपदः (१७) डिम्भरेलकम् (१८) ताम्रलिप्तीनगरी (१९) तोसलिदेशः (२०) तोसलिनगरम् (२१) दक्षिणापथः (२२) द्रविडजनपदः (२३) द्वारिकापुरी (२४) द्वीपवेलाकुलम् (२५) धर्मचक्रभूमिका (२६) नेपालविषयः (२७) पाटलीपुत्रनगरम् (२८) पाण्डुमथुरा पाश्चात्यजनपदश्व (२९)पूर्वदेशः (३०) प्रतिष्ठानपुरम् (३१) प्रभासतीर्थम् (३२) भिल्लमालदेशः (३३) मृगुकच्छपुरम् (३४) मगधाजनपदः (३५) मथुरानगरी (३६) मलयदेशः(३७) महाराष्ट्रदेशः (३८) यवनविषयः (३९) राजगृहनगरम् (४०) लाटविषयः (४१) शैलपुरम् (४२) सिन्धुदेशः (४३) सिन्धुसौवीरदेशः (४४) सुमनोमुखनगरम् (४५) सुराष्ट्रादेशः (४६) स्थूणानगरी _[११ गिरि-नदी-सरः-तडागादि] (१) अर्बुदपर्वतः (२) इन्द्रपदः-गजाग्रपदगिरिः (३) उज्जयन्तगिरिः सिद्धिशिला धारोदकं च (४) ऐरावती नदी (५) गङ्गा-सिन्धू नद्या (६)प्राचीनवाहः सरखती च (७) बन्नासा-महिरावणनद्यौ (८) ऋषितडागं सरः (९) भूततडागम् (१०) ज्ञातखण्डम् [१२ सङ्खडी-यात्रा-अष्टाहिकामहादि] (१) सङ्घडिशब्दस्यार्थः (२) देशविदेशेषु जैनेतरदर्शनसङ्खडि-यात्रादि (३) देशविदेशेषु जैनदर्शनसङ्खडि-यात्रादि (४) आवाहमह-पर्वतमह-विवाहमह-तडागमह. नदीमा-भण्डीरयक्षयात्रा-थूभमहाः [१३ आपणाः-हट्टाः] (१) पणि-विपणी (२) कुत्रिकापणाः तत्र च मूल्य विभागादि ३) कौलालिकापण:-पणितशाला (४) रसापणः (५) कोट्टकम् [१४ नाणकानि-सिक्ककाः] [१५ वस्त्रादिसम्बद्धो विभागः] (१) वस्त्रपञ्चकम् (२) सुरायाः प्रकाराः (३) सहस्रानुपातिविषम् [१६ प्राकृतव्याकरण विभागः] [१७ मागधभाषामयानि पद्यानि ] [१८ लौकिका न्यायाः]] (१) को ठुकचक्रपरम्परन्यायः (२) छागलन्यायः (३) वणिग्न्यायः [१९ आयुर्वेदसम्बद्धो विभागः] (१) महावैद्यः अष्टाङ्गायुर्वेदस्य निर्माता च (२) रोग-औषधादि [२० शकुनशास्त्रसम्बद्धो विभागः] [२१ कामशास्त्रसम्बद्धो विभागः] [२२ ग्रन्थनामोल्लेखाः] Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अहम् ॥ पूज्यश्रीभद्रवाहुखामिविनिर्मितखोपज्ञनियुक्त्युपेतं बृहत् कल्पसूत्रम् । श्रीसङ्घदासगणिक्षमाश्रमणसूत्रितेन लघुभाष्येण भूषितम् । आचार्यश्रीमलयगिरिपादविरचितयाऽर्धपीठिकावृत्त्या तपाश्रीक्षेमकी-- चार्यवरानुसन्धितया शेषसमग्रवृत्त्या समलङ्कृतम् । षष्ठ उद्देशकः समग्रग्रन्थसत्कानि त्रयोदश परिशिष्टानि च । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ ॥ अहम् ॥ पष्टोद्देशप्रकृतानामनुक्रमः। सूत्रम् प्रकृतनाम पत्रम् वचनप्रकृतम् प्रस्तारप्रकृतम् कण्टकाद्युद्धरणप्रकृतम् दुर्गप्रकृतम् क्षिप्तचित्तादिप्रकृतम् परिमन्थप्रकृतम् कल्पस्थितिप्रकृतम् १६०१-१९ १६१९-२७ १६२७-३३ १६३३-३६ १०-१८ १९ १६६६-७६ १६७६-१७१२ - Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीमद्विजयानन्दसूरिवरेभ्यो नमः॥ पूज्यश्रीभद्रबाहुखामिविनिर्मितखोपज्ञनियुक्त्युपेतं बृहत् कल्पसूत्रम् । 5 श्रीसङ्घदासगणिक्षमाश्रमणसूत्रितेन लघुभाष्येण भूषितम् । तपाश्रीक्षेमकीर्त्याचार्यविहितया वृत्त्या समलङ्कृतम् । Aurषष्ठ उद्देशकः। व च न प्र कृतम् व्याख्यातः पञ्चमोद्देशकः, सम्प्रति षष्ठ आरभ्यते, तस्येदमादिसूत्रम् नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा इमाई छ अवयणाई वइत्तए । तं जहा-अलियवयणे हीलियवयणे खिंसियवयणे फरुसवयणे गारत्थियवयणे विओसवित्तए वा पुणो उदीरित्तए १ ॥ . अथास्य सूत्रस्य कः सम्बन्धः ? इत्याह कारणे गंधपुलागं, पाउं पलविज मा हु सक्खीवा । इइ पंचम-छट्ठाणं, थेरा संबंधमिच्छति ॥ ६०६० ॥ - कारणे कदाचिदार्यिका गन्धपुलाकं पीत्वा सक्षीबा सती मा अलिकादिवचनानि प्रलपेत् , अत इदं सूत्रमारभ्यते । 'इति' एवं पञ्चम-षष्ठोद्देशकयोः सम्बन्धं 'स्थविराः' श्रीभद्रबाहु-10 खामिन इच्छन्ति ॥ ६०६० ॥ अथ प्रकारान्तरेण सम्बन्धमाह दुचरिमसुत्ते वुत्तं, वादं परिहारिओ करेमाणो । बुद्धी परिभूय परे, सिद्धतावेत संबंधो ॥६०६१ ॥ १ "णो कप्पति उभयस्स वि इमाई छ सुत्ताई उच्चारेयवाई। उद्देसामिसंबंधो-कारण. गाथात्रयम् ।' इति चूर्णी । “णो कप्पइ इमाइं छ सुत्तं उच्चारेयव्वं । उद्देसामिसंबंधो-कारण• गाधात्रयम् ।" इति विशेषचूर्णी ॥ २ अलिक-हीलितादि का॥ ३°योः यथाक्रममन्तिमा-ऽऽदिसूवविषयं सम्ब कां•॥ ४ बुद्धि परि तामा० ॥ बृ. २०२ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 १६०२ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ वचनप्रकृते सूत्रम् १ पञ्चमोद्देशके द्विचैरिमसूत्रे इदमुक्तम् — 'परिहारिकः' प्रवचनवैयावृत्यमवलम्बमानो वादं कुर्वन् 'परस्य' वादिनो बुद्धि 'परिभूय' पराजित्य ' सिद्धान्तापेतं ' सूत्रोत्तीर्णमपि ब्रूयात्, परमिमानि षडप्यवचनानि मुक्त्वा । एष प्रकारान्तरेण सम्बन्धः || ६०६१ ॥ अथवादिव्वेहिँ छंदिओ हं, भोगेहिं निच्छिया मए ते य । इति गारवेण अलियं, वइज आईय संबंधो ॥ ६०६२ ॥ पञ्चमोद्देशकस्यादिसूत्रं उक्तम् — “देवः स्त्रीरूपं कृत्वा साधुं भोगैर्निमन्त्रयेत्,” स च तान् भुक्त्वा गुरुसकाशमागत आलोचयेत् — दिव्यैर्भोगैः 'छन्दितः' निमन्त्रितोऽहं परं मया ते भोगा नेप्सिताः ‘इति’ एवं गौरवेण कश्चिदलीकं वदेत् । अत इदं षष्ठोद्देशकस्यादिसूत्रमारभ्यते । एष उद्देशकद्वयस्याप्यादिसूत्रयोः परस्परं सम्बन्धः ॥ ६०६२ ॥ 10 अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या - "नो कप्पइ" त्ति वचनव्यत्ययाद् नो कल्पन्ते निर्मन्थानां वा निर्मन्थीनां वा 'इमानि' प्रत्यक्षासन्नानि 'षड्' इति षट्सछ्याकानि 'अवचनानि ' नञः कुत्सार्थत्वाद् अप्रशस्तानि वचनानि 'वदितुं' भाषितुम् । तद्यथा — — अलीकवचनम्, हीलितवचनम्, खिंसितवचनम्, परुषवचनम्, अगारस्थिताः - गृहिणस्तेषां वचनम्, 'व्यवश - मितं वा' उपशमितमधिकरणं 'पुनर' भूयोऽप्युदीरयितुं न कल्पत इति प्रक्रमः, अनेन 15 व्यवशमितस्य पुनरुदीरणवचनं नाम षष्ठमवचनमुक्तमिति सूत्रसङ्क्षेपार्थः ॥ अथ भाष्यकारो विस्तरार्थमभिधित्सुराह— छ च्चैव अवत्तव्वा, अलिगे हीला य खिंस फरसे य । गारत्थ विओसविए, तेसिं च परूवणा इणमो ॥ ६०६३ ॥ षडेव वचनानि 'अवक्तव्यानि साधूनां वक्तुमयोग्यानि । तद्यथा - अलीकवचनं हीलित20 वचनं खिंसितवचनं परुषवचनं गृहस्थवचनं व्यवशमितोदीरणवचनम् । 'तेषां च' षण्णामपि यथाक्रममियं प्ररूपणा ||६०६३॥ तामेव प्ररूपणां चिकीर्षुरलीकवचनविषयां द्वारगाथामाहवत्ता वणिजो या, जेसु य ठाणेसु जा विसोही य । जे य भणओ अवाया, सप्पडिपक्खा उ णेयव्त्रा ।। ६०६४ || यः 'वक्ता' अलीकवचनभाषकः, यश्च 'वचनीयः' अलीकवचनं यमुद्दिश्य भण्यते, येषु च 25 स्थानेष्वलीकं सम्भवति, यादृशी च तत्र 'शोधिः प्रायश्चित्तम्, ये चालीकं भणतः 'अपायाः ' दोषास्ते 'सप्रतिपक्षाः' सापवादा अत्र भणनीयतया ज्ञातव्या इति द्वारगाथासमासार्थः॥६०६४॥ १ °चरिमे-उपान्त्यसूत्रे कां० ॥ २ वादं कर्तुं गच्छेत्, स च वादं कुर्वन् भा० ॥ ३°मानि अलीकादीनि पड° कां० ॥ ४ 'त्- 'दिव्यैः' देवसम्बन्धिभिः भोगैः कां० ॥ ५ इदं तत्प्रतिषेधकं प्रस्तावात् तज्जातीयहीलिताद्येव वचनपञ्चकप्रतिषेधकं च षष्ठो कां० ॥ ६ अनेनानेकविधेन सम्ब कां० ॥ ७ नम् अगारस्थ' कां० ॥ ८ °मपि वचनानां यथा कां• ॥ ९° कीर्षुः प्रथमतोऽलीकवचनविषयां तावद् द्वार° कां० ॥ १० 'वादाः । एतानि द्वाराणि अत्र भणनीयतया ज्ञातव्यानि इति द्वारगाथासमासार्थः ॥ ६०६४ ॥ साम्प्रतमेनामेव विवरीषुः प्रथमतो वक्ता वचनीयो वेति द्वारद्वयं युगपद् विवृणोति - आय° कां० ॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ६०६२-६८] षष्ठ उद्देशः। १६०३ साम्प्रतमेनामेव विवृणोति आयरिए अभिसेगे, भिक्खुम्मि य थेरए य खुड्डे य । गुरुगा लहुगा गुरु लहु, भिण्णे पडिलोम बिइएणं ॥६०६५.॥ इहाचार्यादिर्वक्ता वचनीयोऽपि स एवैकतरस्तत इदमुच्यते-आचार्य आचार्यमलीकं भणति चतुर्गुरु, अभिषेकं भणति चतुर्लघु, भिक्षु भणति मासगुरु, स्थविरं भणति मासलघु, क्षुल्लक भणति भिन्नमासः । "पिडिलोम बिइएणं" ति द्वितीयेनाऽऽदेशेनैतदेव प्रायश्चित्तं प्रतिलोमं वक्तव्यम् । तद्यथा--आचार्य आचार्यमलीकं भणति भिन्नमासः, अभिषेकं भणति मासलघु, एवं यावत् क्षुल्लक भणतश्चतुर्गुरु । एवमभिषेकादीनामप्य लीकं भणतां खस्थाने परस्थाने च प्रायश्चित्तमिदमेव मन्तव्यम् । अभिलापश्चेत्थं कर्तव्यः-अभिषेक आचार्यमलीकं भणति चतुर्गुरु, अभिषेकं भणति चतुर्लघु इत्यादि ॥६०६५॥ तच्चालीकवचनं येषु स्थानेषु सम्भवति 10 तानि सप्रायश्चित्तानि दर्शयितुकामो द्वारगाथाद्वयमाह पयला उल्ले मरुए, पञ्चक्खाणे य गमण परियाए । [नि. ८८२] समुद्देस संखडीओ, खुड्डग परिहारिय मुहीओ ॥६०६६ ॥ अवस्सगमणं दिसासुं, एगकुले चेव एगदव्वे य । [नि. ८८३] पडियाखित्ता गमणं, पडियाखित्ता य भुंजणयं ॥ ६०६७ ॥ 15 प्रचलापदमार्द्रपदं मरुकपदं प्रत्याख्यानपदं गमनपदं पर्यायपदं समुद्देशपदं सङ्खडीपदं क्षुल्लकपदं पारिहारिकपदं "मुहीउ" ति पदैकदेशे पदसमुदायोपचाराद् घोटकमुखीपदम् ॥६०६६॥ अवश्यङ्गमनपदं दिग्विषयपदं एककुलगमनपदं एकद्रव्यग्रहणपदं प्रत्याख्याय गमनपदं प्रत्याख्याय भोजनपदं चेति द्वारगाथाद्वयसमासार्थः ॥६०६७॥ अथैतदेव प्रतिद्वारं विवृणोति पयलासि किं दिवा ण पयलामि लहु दुच्चनिण्हवे गुरुगो। 20 अन्नदाइत निण्हवे, लहुगा गुरुगा बहुतराणं ॥ ६०६८॥ कोऽपि साधुर्दिवा प्रचलायते, स चान्येन साधुना भणितः किमेवं दिवा प्रचलायसे; स प्रत्याह-न प्रचलाये; एवं प्रथमवारं निढुवानस्य मासलघु । ततो भूयोऽप्यसौ प्रचलायितुं प्रवृत्तस्तेन साधुना भणितः-मा प्रचलायिष्ठाः; स प्रत्याह-न प्रचलाये; एवं द्वितीयवारं निहवे मासगुरु । ततस्तथैव प्रचलायितुं प्रवृत्तस्तेन च साधुनाऽन्यस्य साधोर्दर्शितः, यथा- 25 । १°मुच्यते-आचार्येऽभिषेके भिक्षौ च स्थविरे च क्षुल्लके वचनीये आचार्यादेरेव वक्तुर्यथाक्रमं गुरुका लघुका गुरुमासो लघुमासो भिन्नमासश्चेति प्रायश्चित्तम् । तद्यथाआचार्य का० ॥ २ भिन्नमासः । अभिषेकादीनामाचार्यापेक्षया यथाक्रमं प्रमाणतायां हीन हीनतर-हीनतमा-ऽत्यन्तहीनतमत्वात् । “पडिलोम कां ॥ ३ शुरु । अत्र चादेशे इदं कारणमागमयन्ति वृद्धाः-शिटैरात्मना समानेन सह वक्तव्यम् नासमानेनेति विद्वत्प्रवादः, अतो यथा यथाऽऽचार्य आचार्य आत्मनोऽसदृशं प्रत्यलीकं ब्रूते तथा तथा प्रायश्चित्तं गुरुतरम् सदृशं प्रति भणतः स्वल्पतरमिति । एवमभिषे का० ॥ ४ °लायसि कि दिवा तामा० ॥ ५ यते, उपविणः सन् निद्रायत इत्यर्थः, स चा का० ॥ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६०४ सनियुक्ति-लधुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [वचनप्रकृते सूत्रम् १ एष प्रचलायते परं न मन्यते; ततस्तेनान्येन साधुना भणितोऽपि यदि निहते तदा चतुर्लघु । अथ तेन साधुना 'बहुतराणां' द्वि-त्रादीनां साधूनां दर्शितस्तैश्च भणितोऽपि यदि निहते तदा चतुर्गुरु ॥ ६०६८॥ निण्हवणे निण्हवणे, पच्छित्तं वड्डए य जा सपयं । लहु-गुरुमासो सुहुमो, लहुगादी बायरो होति ॥ ६०६९ ॥ एवं निवने निहवने प्रायश्चित्तं वर्द्धते यावत् 'स्वपदं' पाराच्चिकम् । तद्यथा-पञ्चमं वारं निढुवानस्य षड्लघु, षष्ठं वारं षड्गुरु, सप्तमं छेदः, अष्टमं वारं मूलम् , नवममनवस्थाप्यम् , दशमं वारं निहुवानस्य पाराश्चिकम् । अत्र च प्रचलादिषु सर्वेष्वपि द्वारेषु यत्र यत्र लघुमासो गुरुमासो वा भवति तत्र तत्र सूक्ष्मो मृषावादः, यत्र तु चतुर्लघुकादिकं स बादरो मृषावादो 10 भवति ॥ ६०६९ ॥ गतं प्रचलाद्वारम् । अथाद्वारमाह किं नीसि वासमाणे, ण णीमि नणु वासविंदवो एए। भुंजंति णीह मरुगा, कहिं ति नणु सव्वगेहेसु ॥६०७० ॥ कोऽपि साधुर्वर्षे पतति प्रस्थितः, स चापरेण भणितः-किं 'वासमाणे' वर्षति निर्गच्छसि ?; स प्राह–नाहं वासन्ते निर्गच्छामि; एवं भणित्वा तथैव प्रस्थितः । तत इतरेण 15 साधुना भणितः-कथं 'न निर्गच्छामि' इति भणित्वा निर्गच्छसि ?; स प्राह-"वास शब्दे" इति धातुपाठात् 'वासति' शब्दायमाने यो गच्छति स वासति निर्गच्छति इत्यभिधीयते, अत्र तु न कश्चिद् वासति किन्तु वर्षबिन्दव एते तेषु गच्छामि । एवं छलवादेन प्रत्युत्तरं ददानस्य तथैव प्रथमवारादिषु मासलघुकादिकं प्रायश्चित्तम् । अथ मरुकद्वारम्-तत्र कोऽपि साधुः कारणे विनिर्गत उपाश्रयमागम्य साधून भगति-निर्गच्छत साधवः ! यतो भुञ्जते मरुकाः 20 एवमुक्ते ते साधव उद्घाहितभाजना भणन्ति-“कहिं ति" ति क ते मरुका भुञ्जते; इतरः प्राह-ननु सर्वेऽप्यात्मीयगृहेषु । एवं छलेनोत्तरं प्रयच्छति ॥ ६०७० ॥ ___ अथ प्रत्याख्यानद्वारमाह भुंजसु पच्चक्खातं, महं ति तक्खण प जिओ पुट्ठो । किं व ण मे पंचविहा, पच्चक्खाया अविरई उ॥६०७१ ॥ 25 कोऽपि साधुः केनापि साधुना भोजनवेलायां भणितः-'भुक्ष्व' समुद्दिश; स प्राह प्रत्याख्यातं मया इति; एवमुक्त्वा मण्डल्यां सत्क्षणादेव 'प्रभुक्तः' भोक्तुं प्रवृत्तः । ततो द्वितीयेन साधुना पृष्टः-आर्य ! त्वयेत्यं भणितं 'मया प्रत्याख्यातम्'; स प्राह-किं वा मया प्राणातिपातादिका पञ्चविधाऽविरतिर्न प्रत्याख्याता येन प्रत्याख्यानं न घटते ! ॥ ६०७१ ॥ ___ अथ गमनद्वारमाह १कं पाराश्चिकान्तं प्रायश्चित्तं स बाद का० ॥ २ °वारादिषु दशमवारान्तेषु मासलघुकादिकं पाराश्चिकान्तं प्रायश्चित्तम् । एवमुत्तरेष्वपि द्वारेषु मासलघुकादिका प्रायचित्तयोजना स्वयमेवानयैव रीत्या कर्तव्या । अथ मरुकद्वारम् का० ॥ ३ णति-भो भोः साधवः! मिर्गच्छत यतो .॥ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ६०६९-७५] षष्ठ उद्देशः । १६०५ वच्चसि नाहं वच्चे, तक्खण वच्चंति पुच्छिओ भणइ । सिद्धतं न विजाणसि, नणु गम्मइ गम्ममाणं तु ॥ ६०७२ ॥ केनापि साधुना चैत्यवन्दनादिप्रयोजने बजता कोऽपि साधुरुक्तः-किं त्वमपि व्रजसि !; आगच्छसि इत्यर्थः; स प्राह--नाहं व्रजामि; एवमुक्त्वा तत्क्षणादेव ब्रजितुं प्रवृत्तः, ततस्तेन पूर्वप्रस्थितसाधुना भणितः-कथं 'न व्रजामि' इति भणित्वा व्रजसि!; स भणति-सिद्धान्त न विजानीषे त्वम् , 'ननु' इत्याक्षेपे, भो मुग्ध ! गम्यमानमेव गम्यते नागम्यमानम् , यसिंश्च समये त्वयाऽहं पृष्टस्तस्मिन्नाहं गच्छामीति ।। ६०७२ ॥ अथ पर्यायद्वारमाह दस एयस्स य मज्झ य, पुच्छिय परियाग बेइ उ छलेण । मम नव पवंदियम्मि, भणाइ बे पंचगा दस उ ॥ ६०७३ ॥ __ कोऽपि साधुरात्मद्वितीयः केनापि साधुना वन्दितुकामेन पृष्टः- कति वर्षाणि भवतां 10 पर्यायः ? इति । स एवंपृष्टो भणति-एतस्य साधोर्मम च दश वर्षाणि पर्याय इति । एवं छलेन तेनोक्ते स प्रच्छकसाधुः 'मम नव वर्षाणि पर्यायः' इत्युक्त्वा 'प्रवन्दितः' वन्दितुं लमस्तत इतरश्छलवादी भणति-उपविशत भगवन्तः ! यूयमेव वन्दनीया इति । 'कथं पुनरहं वन्दनीयः ?' इति तेनोक्ते छलवादी भणति-मम पञ्च वर्षाणि पर्यायः, एतस्यापि साधोः पञ्च, एवं द्वे पश्चके मीलिते दश भवन्ति, अतो यूयमावयोरुभयोरपि वन्दनीया इति भणति ।।६०७३॥15 अथ समुद्देशद्वारमाह वट्टइ उ समुद्देसो, किं अच्छह कत्थ एस गगणम्मि । वटुंति संखडीओ, घरेसु णणु आउखंडणया ॥६०७४ ।। कोऽपि साधुः कायिकादिभूमौ निर्गत आदित्यं राहुणा अस्यमानं दृष्ट्वा साधून् खस्थानासीनान् भणति-आर्याः! समुद्देशो वर्तते, किमेवमुपविष्टास्तिष्ठथ ! ततस्ते साधवः 'नायमलीकं 20 ब्रूते' इति कृत्वा गृहीतभाजना उत्थिताः पृच्छन्ति-कुत्रासौ समुद्देशो भवति !; स पाहनन्वेष गगनमार्गे सूर्यस्य राहुणा समुद्देशः प्रत्यक्षमेव दृश्यते । अथ सङ्खडीद्वारम्-कोऽपि साधुः प्रथमालिका-पानकादिविनिर्गतः प्रत्यागतो भणति-प्रचुराः सङ्खड्यो वर्तन्ते, किमेवं तिष्ठथ ?; ततस्ते साधवो गन्तुकामाः पृच्छन्ति-कुत्र ताः सङ्खड्यः ?; स छलवादी भणतिननु खेषु खेषु गृहेषु सङ्खड्यो वर्तन्त एव; साधवो भणन्ति-कथं ता अप्रसिद्धाः सङ्खड्य 25 उच्यन्ते !; छलवादी भणति-"नणु आउखंडणय" ति 'ननु' इत्याक्षेपे, पृथिव्यादिजीवानामायूंषि गृहे गृहे रन्धनादिभिरारम्भैः सङ्खण्ड्यन्ते ते कथं न सङ्खड्यो भवन्ति ! ॥६०७४ ॥ अथ क्षुल्लकद्वारमाह खुड्डग ! जणणी ते मता, परुण्णों जियह त्ति अण्ण भणितम्मि । माइत्ता सव्वजिया, भर्विसु तेणेस ते माता ॥६०७५ ॥ कोऽपि साधुरुपाश्रयसमीपे मृतां शुनीं दृष्ट्वा क्षुल्लकं कमपि भणति-क्षुल्लक ! जननी तव . १°यूंषि खण्ड्यन्ते यकासु आरम्भपहृतिषु (?) ताः सङ्खड्य इति व्युत्पत्त्यर्थसम्भवाद् भवन्तीति भावः ॥ ६०७४ ॥ अथ कां०॥ . . Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६०६ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [धचनप्रकृते सूत्रम् १ मृता; ततः स क्षुल्लकः 'प्ररुदितः' रोदितुं लमः, तमेवं रुदन्तं दृष्ट्वा स साधुराह-मा रुदिहि, जीवति ते जननी; एवमुक्ते क्षुल्लकोऽपरे च साधवो भणन्ति-कथं पूर्व मृतेत्युक्त्वा सम्प्रति जीवतीति भणसि!; स प्राह-एषा शुनी मृता सा तव माता भवति । क्षुल्लको ब्रूते-कथमेषा मम माता !; मृषावादिसाधुराह-सर्वेऽपि जीवा अतीते काले तव मातृत्वेन बभूवुः। । तथा च प्रज्ञप्तिसूत्रम्- एगमेगस्स णं भंते ! जीवस्स सव्वजिया माइत्ताए पिइताए भाइत्ताए भजताए पुत्तत्ताए ●यत्ताए भूतपुव्वा ! हंता गोयमा ! एगमेगस्स जाव भूतपुत्वा ( शत० उ० )। तेनैव कारणेनैषा शुनी त्वदीया माता इति ॥ ६०७५ ॥ अथ पारिहारिकद्वारमाह ओसण्णे दद्णं, दिट्ठा परिहारिग त्ति लहु कहणे । कत्थुजाणे गुरुओ, वयंत-दिडेसु लहु-गुरुगा ॥६०७६ ॥ छल्लहुगा उ णियत्ते, आलोएंतम्मि छग्गुरू होति । परिहरमाणा वि कह, अप्परिहारी भवे छेदो ॥ ६०७७ ॥ किं परिहरंति णणु खाणु-कंटए सव्वे तुब्में हं एगो। सव्वे तुब्मे बहि पवयणस्स पारंचिओ होति ॥ ६०७८॥ 15 कोऽपि साधुरुद्याने स्थितानवसन्नान् दृष्ट्वा प्रतिश्रयमागत्य भणति-मया पारिहारिका दृष्टा इति; साधवो जानते यथा-शुद्धपारिहारिकाः समागताः; एवं छलाभिप्रायेण कथयत एव मासलघु । भूयस्ते साधवः (ग्रन्थाग्रम् ७००० । सर्वग्रन्थानम् -४०८२५ ।) पारिहारिकसाधुदर्शनोत्सुकाः पृच्छन्ति-कुत्र ते दृष्टाः ?; स प्राह-उद्याने; एवं भणतो मासगुरु । ततः साधवः पारिहारिकदर्शनार्थं चलिता व्रजन्तो यावद् न पश्यन्ति तावत् तस्य कथयत20 श्चतुर्लघु । तत्रगतैदृष्टेष्ववसन्नेषु कथयतश्चतुर्गुरु ॥ ६०७६ ॥ 'अवसन्ना अमी' इति कृत्वा निवृत्तेषु तेषु कथयतः षड्लघवः । ते साधव ईर्यापथिकीं प्रतिक्रम्य गुरूणामालोचयन्ति-विप्रतारिता वयमनेन साधुनेति; एवं ब्रुवाणेषु तस्य षड्गुरु । आचार्यैरुक्तम्-किमेवं विप्रतारयसि ?; स वष्टोत्तरं दातुमारब्धः-परिहरन्तोऽपि कथमपरिहारिणो भवन्ति !; एवं ब्रुवतश्छेदः ॥ ६०७७ ॥ 25 साधवो भणन्ति—किं ते परिहरन्ति येन परिहारिका उच्यन्ते ?; इतरः प्राह-स्थाणुकण्टकादिकं तेऽपि परिहरन्ति; एवमुत्तरं ददतो मूलम् । ततस्तैः सर्वैरपि साधुभिरुक्तःधृष्टोऽसि यदेवंगतेऽप्युत्तरं ददासीति; ततः स प्राह -सर्वेऽपि यूयमेकत्र भूता अहं पुनरेकोऽसहायो अतः पराजीये, न पुनः परिफल्गु मदीयं जल्पितम् ; एवं भणतोऽनवस्थाप्यम् । अथ ज्ञानमदावलिप्त एवं ब्रवीति-सर्वेऽपि यूयं प्रवचनस्य बाह्याः; एवं सर्वानधिक्षिपन् पारा30श्चिको भवति ॥ ६०७८ ॥ इदमेवान्त्यपदं व्याचष्टे १ धूयत्ताए सुण्हत्ताए सुहि-सयण-संबंध-संथुयत्ताए उववण्णपुव्वा ? हंता गोयमा ! पगमगस्स ण जीवस्स सव्वजीवा जाव उववण्णपुव्वा । अत एतेनैव कार' कां० ॥ २ ताः अतो वन्दनीयास्ते भगवन्तः; 'इति' एवं को० ॥ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा: ६०७६-८४] षष्ठ उद्देशः। . १६०७ किं छागलेण जंपह, किं मं होप्पेह एवजाणंता। बहुएहिं को विरोहो, सलभेहि व नागपोतस्स ॥ ६०७९ ॥ किमेवं छागलेन न्यायेन जल्पथ ?, बोत्कटवन्मूर्खतया किमेवमेव प्रलपथ ? इत्यर्थः । किं वा मामेवमजानन्तोऽपि "होप्पेह" गले धृत्वा प्रेरयथ ? । अथवा ममापि बहुभिः सह को विरोधः ? शलभैरिव नागपोतस्येति ॥ ६०७९ ॥ अथ घोटकमुखीद्वारमाह भणइ य दिट्ठ नियत्ते, आलोएँ आमं ति घोडगमुहीओ।... माणुस सव्वे एगे, सव्वे बाहिं पवयणस्स ॥ ६०८०॥ मासो लहुओ गुरुओ, चउरो मासा हवंति लहु-गुरुगा। छम्मासा लहु-गुरुगा, छेओ मूलं तह दुगं च ॥६०८१॥ एकः साधुर्विचारभूमौ गत उद्यानोद्देशे वडवाश्चरन्तीरवलोक्य प्रतिश्रयमागतः साधूनां 10 विसितमुखः कथयति-शृणुत आर्याः ! अद्य मया यादृशमाश्चर्य दृष्टम् ; साधवः पृच्छन्तिकीदृशम् ?; स प्राह-घोटकमुख्यः स्त्रियो दृष्टाः; एवं भणतो मासलघु । ते साधव ऋजुखभावाश्चिन्तयन्ति यथा-घोटकाकारमुखा मनुष्यस्त्रियोऽनेन दृष्टा इति; ततस्ते पृच्छन्ति-कुत्र तास्त्वया दृष्टाः ?; स प्राह-उद्याने; एवं ब्रुवतो मासगुरु । साधवः 'द्रष्टव्यास्ताः' इत्यभिप्रायेण व्रजन्ति तदानीं कथयतश्चतुर्लघु । दृष्टासु वडवासु चतुर्गुरु । प्रतिनिवृत्तेषु साधुषु षड्-15 लघु । गुरूणामालोचिते षड्गुरु । ततो गुरुभिः पृष्टो यदि भणति-आमम् , घोटकमुख्य एवैताः, यतो घोटकवद दीर्घमधोमुखं च मुखं वडवानां भवतीति; एवं ब्रवीति तदा छेदः । ततः साधुभिर्भणितः-कथं ताः स्त्रिय उच्यन्ते !; इतरः प्राह-यदि न स्त्रियस्तर्हि किं मनुष्याः; एवं ब्रुवाणस्य मूलम् । 'सर्वे यूयमेकत्र मिलिताः, अहं पुनरेक एव' एवं भणतोऽनवस्थाप्यम् । 'सर्वेऽपि प्रवचनस्य बाह्याः' इति भणतः पाराञ्चिकम् ॥ ६०८० ॥ ६०८१ ॥ अथान्त्यं प्रायश्चित्तत्रयं प्रकारान्तरेणाह सम्वेगत्था मूलं, अहगं इकल्लगो य अणवहो । सव्वे बहिभावा पवयणस्स वयमाणे चरिमं तु ॥ ६०८२ ॥ _ 'यूयं सर्वेऽप्येकत्र मिलिताः' इति भणतो मूलमेव । 'अहमेककः किं करोमि ! इति भण. तोऽनवस्थाप्यम् । 'सर्वेऽपि यूयं प्रवचनस्य बाह्याः' इति वदति पाराश्चिकम् ॥ ६०८२ ॥ 25 इदमेवान्त्यपदं व्याख्याति किं छागलेण जंपह, किं मं हंफेह एवऽजाणंता। बहुएहिं को विरोहो, सलभेहि व नागपोयस्स ॥ ६०८३ ॥ गतार्थी ॥ ६०८३ ॥ अथावश्यङ्गमनद्वारमाह गच्छसि ण ताव गच्छं, किं खुण जासि त्ति पुच्छितो भणति । 0 वेला ण ताव जायति, परलोगं वा वि मोक्खं वा ॥ ६०८४ ॥ कोऽपि साधुः केनापि साधुना पृष्टः-आर्य ! गच्छसि भिक्षाचर्याम् ?; स प्राह-अवश्यं १ होप्फेह ताभा० ॥ २ होप्पेह का० ॥ 20 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 १६०८ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [वचनप्रकृते सूत्रम् । गमिष्यामि; इतरेण साधुना भणितः-यद्येवं तत उत्तिष्ठ व्रजावः; स प्राह न तावदद्यापि गच्छामि; इतरेण भणितम्-किं "खुः" इति वितर्के 'न यासि न गच्छसि ? त्वया हि भणितम् -अवश्यं गमिष्यामि; एवंपृष्टो भणति-न तावदद्यापि परलोकं गन्तुं वेला जायते अतो न गच्छामि, यद्वा मोक्षं गन्तुं नाद्यापि वेला अतो न गच्छामि; "अपिः" सम्भावने, 5 किं सम्भावयति ? अवश्यं परलोकं मोक्षं वा गमिष्यामीति ॥ ६०८४॥ अथ "दिसासु" ति पदं व्याख्याति कतरि दिसं गमिस्ससि, पुव्वं अवरं गतो भणति पुट्ठो। किंवा ण होति पुव्वा, इमा दिसा अवरगामस्स ॥ ६०८५ ॥ एकः साधुरेकेन साधुना पृष्टः--आर्य ! कतरां दिशं भिक्षाचयाँ गमिष्यसि ?; स एवं10 पृष्टो ब्रवीति–पूर्वां गमिष्यामि । ततः प्रच्छकः साधुः पात्रकाण्युद्राह्यापरां दिशं गतः, इतरोऽपि पूर्व दिग्गमनप्रतिज्ञाता तामेवापरां दिशं गतः, तेन साधुना पृष्टः --'पूर्वां गमिष्यामि' इति भणित्वा कस्मादपरामायातः ?; स प्राह-किं वाऽपरस्य ग्रामस्येयं दिक् पूर्वा न भवति येन मदीयं वचनं विरुध्येत ? ॥ ६०८५ ॥ अथैककुलद्वारमाह अहमेगकुलं गच्छं, वच्चह बहुकुलपवेसणे पुट्ठो। भणति कहं दोणि कुले, एगसरीरेण पविसिस्सं ॥६०८६ ॥ ____ कश्चित् केनचिद् भिक्षार्थमुत्थितेनोक्तः-~-आर्य ! एहि व्रजावो भिक्षाम् ; स प्राह-व्रजत यूयं अहमेकमेव कुलं गमिष्यामि एवमुक्त्वा बहुषु कुलेषु प्रवेष्टुं लमः ततोऽपरेण साधुरा पृष्टः-कथम् 'एककुलं गमिष्यामि' इति भणित्वा बहूनि कुलानि प्रविशसि ?; स एवं पृष्टो भणति-द्वे कुले एकेन शरीरेण युगपत् कथं प्रवेक्ष्यामि ?, एकमेव कुलमेकस्मिन् काले प्रवेष्टुं 20 शक्यम् न बहूनीति भावः ॥ ६०८६ ॥ अथैकद्रव्यग्रहणद्वारमाह-- वच्चह एगं दव्वं, घेच्छं णेगगह पुच्छितो भणती । गहणं तु लक्खणं पोग्गलाण णऽण्णेसि तेणेगं ॥ ६०८७ ॥ कोऽपि साधुर्भिक्षार्थ गच्छन् कमपि साधु भणति-व्रजावो भिक्षायाम् ; स प्राह-व्रजत यूयम् , अहमेकमेव द्रव्यं ग्रहीप्यामि; एवमुक्त्वा भिक्षां पर्यटन अनेकानाम्-ओदन-द्वितीयाजा25 दीनां बहूनां द्रव्याणां ग्रहण कुर्वन् साधुभिः पृष्टो भणति-"गहणं तु" इत्यादि, गतिलक्षणो धर्मास्तिकायः, स्थितिलक्षणोऽधर्मास्तिकायः, अवगाहलक्षण आकाशास्तिकायः, उपयोगलक्षणो जीवास्तिकायः, ग्रहणलक्षणः पुद्गलास्तिकायः, एषां च पञ्चानां द्रव्याणां मध्यात् पुद्गलानामेव ग्रहणरूपं लक्षणम् नान्येषां धर्मास्तिकायादीनाम् , तेनाहमेकमेव द्रव्यं गृह्णामि न बहूनीति ॥६०८७॥ 39 व्याख्यातं द्वितीयद्वारगाथायाः (गा० ६०६७) पूर्वार्द्धम् । अथ “पडियाखित्ता गमणं, ___पडियाखित्ता य मुंजणय" ति पश्चाई व्याख्यायते-'प्रत्याख्याय' 'नाहं गच्छामि' इति प्रति १ ततो बहुकुलप्रवेशनेऽपरेण का ॥ २ पृष्टः-कथम् एकमेव द्रव्यं ग्रहीष्ये' इत्युक्त्वा बहूनि द्रव्याणि गृहासि; ततोऽसौ भणति-"गहणं तु" को० ॥ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 भाष्यगाथा: ६०८५-९०] षष्ठ उद्देशः । १६०९ विध्य गमनं करोति, 'प्रत्याख्याय च' 'नाहं भुले' इति भणित्वा मुझे अपरेण च साधुना पृष्टो ब्रवीति-गम्यमानं गम्यते नागम्यमानम् , भुज्यमानमेव भुज्यते नाभुज्यमानम् । अनेन च पश्चाद्धेन गमनद्वार-प्रत्याख्यानद्वारे व्याख्याते इति प्रतिपत्तव्यम् । इह च सर्वत्रापि प्रथमवार भणतो मासलघु । अथाभिनिवेशेन तदेव निकाचयति तदा पूर्वोक्तनीत्या पाराश्चिकं यावद् द्रष्टव्यम् ॥ तदेवं येषु स्थानेष्वलीकं सम्भवति यादृशी च तत्र शोधिस्तदभिहितम् । सम्प्रति 'येऽपाया । सापवादाः' (गा० ६०६४ ) इति द्वारम्-तत्राऽनन्तरोक्तान्यलीकानि भणतो द्वितीयसाधुना सहासङ्खडाद्युत्पत्तेः संयमा-ऽऽत्मविराधनारूपा सप्रपञ्चं सुधिया वक्तव्याः । अपवादपदं तु पुरस्ताद् भणिष्यते ॥ गतमलीकवचनम् । अथ हीलितादीन्यभिधित्सुः प्रथमतः प्रायश्चितमतिदिशति एमेव य हीलाए, खिसा-फरुसवयणं च वदमाणो । गारत्थि विओसविते, इमं च जं तेसि णाणतं ॥६०८८॥ एवमेव हीलावचनं खिसावचनं परुषवचनमगारस्थवचनं व्यवशमितोदीरणवचनं च वदतः प्रायश्चित्तं मन्तव्यम् । यच्च तेषां नानात्वं तद् इदं भवति ॥ ६०८८ ॥ आदिल्लेसुं चउसु वि, सोही गुरुगाति भिन्नमासंता। पणुवीसतो विभाओ, विसेसितो बिदिय पडिलोमं ॥६०८९॥ 16 'आदिमेषु चतुलपि' हीलित-खिसित-परुष-गृहस्थवचनेषु शोधिश्चतुर्गुरुकादिका भिन्नमासान्ता आचार्यादीनां प्राग्वद् मन्तव्या । तद्यथा-आचार्य आचार्य हीलयति चतुर्गुरु १ उपाध्यायं हीलयति चतुर्लघु २ भिक्षु हीलयति मासगुरु ३ स्थविरं हीलयति मासलघु ४ क्षुल्लक हीलयति भिन्नमासः ५। एतान्याचार्यस्य तपः-कालाभ्यां गुरुकाणि भवन्ति । एते आचार्यस्य पञ्च संयोगा उक्ताः, उपाध्यायादीनामपि चतुर्णामेवमेव पञ्च पञ्च संयोगा भवन्ति, सर्वसत्ययते 20 पञ्चविंशतिर्भवन्ति । अत एवाह-'पञ्चविंशतिकः' पञ्चविंशभङ्गपरिमाणो विभागोत्र भवति । स च तपः-कालाभ्यां विशेषितः कर्तव्यः । द्वितीयादेशेन चैतदेव प्रायश्चित्तं प्रतिलोमं विज्ञेयम् , भिन्नमासाद्यं चतुर्गुरुकान्तमित्यर्थः । एवं खिसित-परुष-गृहस्थवचनेष्वपि शोधिर्मन्तव्या ॥ ६०८९ ॥ अथ हीलितवचनं व्याख्याति गणि वायए बहुस्सुएँ, मेहावाऽऽयरिय धम्मकहि वादी। अप्पकसाए थूले, तणुए दीहे य मडहे य ॥ ६०९० ॥ इह गणि-वाचकादिभिः पदैः सूचयाऽसूचया वा परं हीलयति । सूचया यथा-वयं न गणि-वृषभा अतः को नाम गणि-वृषभैः सहास्माकं विरोधः । असूचया यथा-कस्त्वं गणीनामसि ? किं वा त्वया गणिना निष्पद्यते?; यद्वा-गणीभवन्नपि त्वं न किञ्चिद् जानासि, केन वा त्वं गणिः कृतः ? इति । एवं वाचकादिष्वपि पदेषु भावनीयम् । नवरम्-'वाचक: 30 पूर्वगतश्रुतधारी, 'बहुश्रुतः' अधीतविचित्रश्रुतः, 'मेधावी' ग्रहण-धारणा-मर्यादामेधाविभेदात् विधा, 'आचार्यः' गच्छाधिपतिः, 'धर्मकथी वादी च' प्रतीतः । “अप्पकसाए" ति बहुक १°दा द्वितीयवारादिषु मासगुरुकादारभ्य पूर्वो कां• ॥२'त्पतेःप्रवचन-संय का.॥ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 १६१० सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [वचनप्रकृते सूत्रम् १ पाया वयम् , को नामाल्पकषायैः सह विरोधः ? । "थूले तणुए" ति स्थूलशरीरा वयम् , कस्तनुदेहैः सह विरोधः । “दीहे य मडहे य" त्ति दीर्घदेहा वयं सदैवोपरि शिरोघट्टनं प्रामुमः, को मंडभदेहैः समं विरोधः । एषा सूचा । असूचायां तु-बहुकषायस्त्वम् , स्थूलशरीरस्त्वम् इत्यादिकं परिस्फुटमेव जल्पति । एवमसूचया सूचया वा यत् परं हीलयति तदेतद् हीलितवचनम् ॥ ६०९० ॥ अथ खिसितवचनमाह गहियं च अहाघोसं, तहियं परिपिडियाण संलावो । अमुएणं सुत्तत्थो, सो वि य उवजीवितुं दुक्खं ॥ ६०९१ ॥ एकेन सांधुना 'यथाघोषं' यथा गुरुभिरभिलापा भणिताः तथा श्रुतं गृहीतम् । स चैवंगृहीतसूत्रार्थः प्रतीच्छकादीन् वाचयति । यदा च प्रतीच्छक उपतिष्ठते तदा तस्य जाति10 कुलादीनि पृष्ट्वा पश्चात् तैरेव खिंसां करोति । इतश्च अन्यत्र साधूनां परिपिण्डितानां' खाध्यायमण्डल्या उत्थितानां संलापो वर्तते-कुत्र सूत्रार्थी परिशुद्धौ प्राप्येते ? । तत्रैकस्तं यथाघोषश्रुतग्राहकं साधुं व्यपदिशति, यथा-अमुकेन सूत्रार्थो शुद्धौ गृहीतो परं स 'उपजीवितुं' सेवितुं 'दुःखं' दुष्करः ॥ ६०९१ ॥ कथम् ? इत्याह जह कोति अमयरुक्खो, विसकंटगवल्लिवेढितो संतो। __ण चइजइ अल्लीतुं, एवं सो खिंसमाणो उ ॥ ६०९२ ॥ यथा कोऽप्यमृतवृक्षो विषकण्टकवल्लीभिर्वेष्टितः सन् 'आलीतुं' आश्रयितुं न शक्यते एव. मसावपि साधुः प्रतीच्छकान् खिंसन् नायितुं शक्यः ॥ ६०९२ ॥ तथाहि ते खिसणापरद्धा, जाती-कुल-देस-कम्मपुच्छाहिं। आसागता णिरासा, वचंति विरागसंजुत्ता ॥ ६०९३ ॥ 20 यस्तस्योपसम्पद्यते तं पूर्वमेव पृच्छति-का तव जातिः ? किंनामिका माता ? को वा पिता ? कस्मिन् वा देशे सञ्जातः? किंवा कृष्यादिकं कर्म पूर्व कृतवान् ?; एवं पृष्ट्वा पश्चात् तान् पठतो हीना-ऽधिकाक्षराघुच्चारणादेः कुतोऽपि कारणात् कुपितस्तैरेव जात्यादिभिः खिंसति । ततः 'ते' प्रतीच्छका जाति-कुल-देश-कर्मपृच्छाभिः पूर्व पृष्टाः ततः खिंसनया प्रारब्धाः-त्याजिताः सन्तः 'सूत्रार्थौ ग्रहीष्यामः' इत्याशयाऽऽगताः 'निराशाः' क्षीणमनोरथा विरागसंयुक्ताः "दिदा सिकसे "दिट्टा सि कसेरुमई, अणुभूया सि कसेरुमई । ___ पीयं च ते पाणिययं, वरि तुह नाम न दंसणयं ॥" इति भणित्वा खगच्छं व्रजन्ति ॥ ६०९३ ।। सुत्त-ऽत्थाणं गहणं, अहगं काहं ततो पडिनियत्तो। जाति कुल देस कम्म, पुच्छति खल्लाड धण्णागं ॥ ६०९४ ॥ 30 एवं तदीयवृत्तान्तमाकर्ण्य कोऽपि साधुर्भणति-अहं तस्य सकाशे गत्वा सूत्रार्थयोर्ग्रहणं करिष्ये, तं चाचार्य खिंसनादोषाद् निवर्तयिष्यामि । एवमुक्त्वा येषामाचार्याणां स शिप्यस्ते. १ "मडहं सिद्धत्थयमेत्तं” इति चूर्णौ विशेषचूगां च ॥ २ अल्लियतुं ताभा० ॥ ३ पीतं तुह पाणिययं, वरि तउ णामु ण दसणयं ॥ इति पाठः चूर्णौ ॥ 25 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ६०९१-९९ ] षष्ठ उद्देशः । १६११ षामन्तिके गत्वा पृच्छति — योऽसौ युष्माकं शिष्यः स कुत्र युष्माभिः प्राप्तः । आचार्याः प्राहुः - वइदिसनामकस्य नगरस्यासन्ने गोर्वरग्रामे । ततोऽसौ साधुस्ततः प्रतिनिवृत्तो गोरग्रामं गत्वा पृच्छति — अमुकनामा युवा युष्मदीये ग्रामे पूर्व किमासीत् ? । ग्रामेयकैरुक्तम् - आसीत् । ततः ― का तस्य माता ? को वा पिता ? किंवा कर्म : । तैरुक्तम् – “खल्लाड घण्णागं" ति नापितस्य धनिका नाम दासी, सा खल्वाटकोलिकेन सममुषितवती, तस्याः सम्बन्धी 5 पुत्रोऽसौ ॥ ६०९४ ॥ एवं श्रुत्वा तस्य साधोः सकाशं गत्वा भणति — अहं तवोपसम्पदं प्रतिपद्ये । ततस्तेन प्रतीच्छ्य पृष्टः -- कुत्र त्वं जातः ? का वा ते माता ? इत्यादि । एवंपृष्टोऽसौ न किमपि ब्रवीति । तत इतरश्चिन्तयति — नूनमेषोऽपि हीनजातीयः । ततो निर्बन्धे कृते स साधुः प्राहथामि पुच्छियमिह णु दाणि कहेमि ओहिता सुणधा । साहिसकस व इमाइँ तिक्खाइँ दुक्खाईं ॥ ६०९५ ॥ स्थाने भवद्भिः पृष्टे सति "ह णु दाणि" त्ति तत इदानीं कथयामि, अवहिताः शृणुत यूयम्, कस्यान्यस्य 'इमानि ' ईदृशानि तीक्ष्णानि दुःखानि कथयिष्यामि ? || ६०९५ ॥ वइदिस गोब्बर गामे, खल्लाडग धुत्त कोलिय त्थेरो । हाविय धणिय दासी, तेसिं मि सुतो कुणह गुज्झं ॥ ६०९६ ॥ दिसनगरासने गोर्वरग्रामे धूर्तः कोलिकः कश्चित् खल्वाटः स्थविरः, तस्य नापितदासी धनिका नाम भार्या तयोः सुतोऽस्म्यहम् ; एतद् गुह्यं कुरुत, मा कस्यापि प्रकाशयतेत्यर्थः ॥ ६०९६ ॥ जेडो मज्झ य भाया, गव्भत्थे किर ममम्मि पव्वइतो । तमहं लद्धसुतीओ, अणु पव्वइतोऽणुरागेण || ६०९७ ॥ मम ज्येष्ठो भ्राता गर्भस्थे किल मयि प्रत्रजित इति मया श्रुतम् । ततोऽहमेवं लब्धश्रुतिको भ्रातुरनुरागेण तमनु-तस्य पश्चात् प्रत्रजितः ॥ ६०९७ ॥ एवं सखिंसनकारी साधुः किं कृतवान् ? इत्याहआगार विसंवइयं तं नाउं सेस चिंधसंवदियं । 10 15 णिउणोवायच्छलितो, आउंटण दाणमुभयस्स || ६०९८ ॥ 25 'न मदीयस्य भ्रातुरेवंविध आकारो भवति' इत्याकारविसंवदितं ज्ञात्वा शेषैश्च - जात्यादि - भिश्चिहैः संवदितं ज्ञात्वा चिन्तयति - अहो ! अमुना निपुणोपायेन छलितोऽहम्, जयदेव - मन्यव्यपदेशेन मम जात्यादिकं प्रकटितम् । ततः 'आवर्तनं' मिथ्यादुष्कृतदानपूर्वं ततो दोपादुपरमणम् । ततस्तस्मै सूत्रार्थरूपस्योभयस्य दानं कृतमिति ॥ ६०९८ ॥ गतं खिंसितवचनम् । अथ परुषवचनमाह— दुविहं च फरुसवयणं, लोइय लोउत्तरं समासेणं । लोउत्तरियं ठप्प, लोइय वोच्छं तिमं णातं ॥ ६०९९ ॥ द्विविधं परुषवचनं समासतो भवति - लौकिकं लोकोत्तरिकं च । तत्र लोकोचरिकं स्थाप्यम्, --- 20 30 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [वचनप्रकृते सूत्रम् १ पश्चाद् भणिप्यत इत्यर्थः । लौकिकं तु परुषवचनमिदानीमेव वक्ष्ये । तत्र चेदं ज्ञातं भवति ॥६०९९॥ अन्नोन समणुरत्ता, वाहस्स कुटुंबियस्स वि य धूया । तासिं च फरुसवयणं, आमिसपुच्छा समुप्पण्णं ॥ ६१००॥ 5 व्याधस्य कुटुम्बिनोऽपि च "धूताः" दुहितरौ अन्योन्यं समनुरक्ते, परस्परं सख्यौ इत्यर्थः । तयोश्च परुषवचनमामिषपृच्छया समुत्पन्नम् ॥ ६१०० ।। कथम् ? इति चेद् उच्यते केणाऽऽणीतं पिसियं, फरसं पुण पुच्छिया भणति वाही। किं खू तुमं पिताए, आणीतं उत्तरं वोच्छं ॥६१०१॥ व्याधदुहित्रा पुद्गलमानीतम् , ततः कुटुम्बिदुहित्रा सा भणिता—केनेदं पिशितमानीतम् । 10 ततो 'व्याधी' व्याधदुहिता पृष्टा सती परुषवचनं भणति-किं खु? त्वदीयेन पित्राऽऽनीतम् । कुटुम्बिदुहिता भणति-किं मदीयः पिता व्याधः येन पुद्गलमानयेत् ! । एवं लौकिकं परुषवचनम् । अथ 'उत्तरं' लोकोत्तरिकं वक्ष्ये ॥ ६१०१ ॥ प्रतिज्ञातमेवाह फरुसम्मि चंडरुद्दो, अवंति लाभे य सेह उत्तरिए । आलत्ते वाहिते, वावारिय पुच्छिय णिसिट्टे ॥ ६१०२ ॥ 15 परुषवचने चण्डरुद्र उदाहरणम् , अवन्त्यां नगयों शैक्षस्य लाभः तस्य सञ्जात इति तदुदाहरणस्यैव सूचा कृता । एतल्लोकोत्तरिकं परुषवचनम् । एतच्चैतेषु स्थानेषूत्पद्यते-"आलत्ते" इत्यादि, 'आलप्तो नाम 'आर्य ! 'किं तव वर्तते ?' इत्येवमाभाषितः १, 'व्याहृतः' 'इत एहि' इत्येवमाकारितः २, 'व्यापारितः' 'इदमिदं च कुरु' इति नियुक्तः ३, 'पृष्टः' किं कृतं ? किं वा न कृतम् ?' इत्यादि पर्यनुयुक्तः ४, 'निसृष्टः' 'गृहाण, भुल, पिब' इत्येव20मादिष्टः ५। एतेषु पञ्चसु स्थानेषु परुषवचनं सम्भवति इति नियुक्तिगाथासमासार्थः ॥६१०२॥ अथैनी विवरीषुश्चण्डरुद्रदृष्टान्तं तावदाह ओसरणे सवयंसो, इन्भसुतो वत्थभूसियसरीरो। दायण त चंडरुद्दे, एस पवंचेति अम्हे त्ति ॥ ६१०३ ॥ भूति आणय आणीते दिक्खितो कंदिउं गता मित्ता । वत्तोसरणे पंथं, पेहा वय दंडगाऽऽउट्टो ॥ ६१०४ ॥ उज्जयिन्यां नगर्या रथयात्रोत्सवे 'ओसरणं' बहूनां साधूनामेकत्र मीलकः समजनि । तत्र सवयस्यो वस्त्रभूषितशरीरः इभ्यसुतः साधूनामन्तिके समायातो भणति-मां प्रव्राजयत । ततः साधवश्चिन्तयन्ति-एषः 'प्रपञ्चयति' विप्रतारयत्यस्मानिति । तैश्वण्डरुद्राचार्यस्य दर्शनं कृतम् "घृष्यतां कलिना कलिः" इति कृत्वा ।। ६१०३ ॥ १ "वाहधूताए पोग्गलं आणीतं । कुटुंबियधूताए भणिता-केण तं आणीतं ? । इतराए भणितं-कि तुमं आणेहि सि ? । कुटुंबियधूया भणति-किं अहं वाहधूया ? । एवं असंखडं जातम् ।" इति चूर्णी विशेष. चूर्णौ च ॥ २ किमनाबाधं वर्तते तव ?' इत्येवमाचार्यादिनाऽऽभाषि का० ॥ ३°नामेव भाष्यकारो विव का०॥ 28 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ६१००-८] षष्ठ उद्देशः । ततश्चण्डरुद्रस्योपस्थितः-प्रव्राजयत मामिति । ततस्तेनोक्तम्-'भूति' क्षारमानय । ततस्तेन भूतावानीतायां लोचं कृत्वा दीक्षितः । ततस्तदीयानि मित्राणि 'कन्दित्वा' प्रभूतं रुदित्वा खस्थानं गतानि । वृत्ते च समवसरणे चण्डरुद्रेण शैक्षो भणितः-पन्थानं प्रत्युपेक्षख येन प्रभाते बजामः । ततः प्रत्युपेक्षिते पथि प्रभाते पुरतः शैक्षः पृष्ठतश्चण्डरुद्रः "वय" ति व्रजति । स च शैक्षो गच्छन् स्थाणावास्फिटितः। ततश्चण्डरुद्रो रुष्टः 'दुष्टशैक्षः' इति भणन्। शिरसि दण्डकेन ताडयति । शैक्षो मिथ्यादुष्कृतं करोति भणति च–सम्यगायुक्तो गमिप्यामि । ततश्चण्डरुद्रस्तदीयोपशमेनावृत्तश्चिन्तयति-अहो ! अस्याभिनवदीक्षितस्यापि कियान् शमप्रकर्षः ? मम तु मन्दभाग्यस्य चिरप्रव्रजितस्याप्येवंविधः परमकोटिमुपगतः क्रोधः, इति परिभावयतः क्षपकश्रेणिमधिरूढस्य केवलज्ञानमुत्पेदे ॥ ६१०४ ॥ एवं चण्डरुद्रस्य 'दुष्टशैक्षः' इत्यादिभणनमिव परुषवचनं मन्तव्यम् । अथ 'आलप्तादिषु 10 पदेषु परुषं भवति' इति यदुक्तं तस्य व्याख्यानमाह तुसिणीए हुंकारे, किं ति व किं चडगरं करेसि त्ति । किं णिव्वुर्ति ण देसी, केवतियं वा वि रडसि त्ति ॥ ६१०५॥ आचार्यादिभिरालप्तो व्याहृतो व्यापारितः पृष्टो निसृष्टो वा तूष्णीको भवति, हुकारं वा करोति, 'किम् ?' इति वा भणति, "किं वा चटकर करोषि ?' इति ब्रवीति, 'किं निर्वृतिं न 15 ददासि ?' इति ब्रूते, 'कियद्वा रटिष्यसि ?' इति भणति । एते सर्वेऽपि परुषवचनप्रकाराः ॥ ६१०५॥ अथैतेष्वेव प्रायश्चित्तमाह मासो लहुओ गुरुओ, चउरो मासा हवंति लहु-गुरुगा। छम्मासा लहु-गुरुगा, छेदो मूलं तह दुगं च ।। ६१०६ ॥ लघुको मासो गुरुको मासश्चत्वारो मासा लघवश्चत्वारो मासा गुरवः षण्मासा लघवः 20 षण्मासा गुरवः छेदो मूलं तथा 'द्विकम्' अनवस्थाप्यं पाराञ्चिकं चेति ॥ ६१०६ ॥ एतदेव प्रायश्चित्तं चारणिकया गाथाद्वयेन दर्शयति आयरिएणाऽऽलत्तो, आयरितो चेव तुसिणितो लहुओ। रडसि त्ति छग्गुरुंतं, वाहितें गुरुगादि छेदंतं ॥ ६१०७॥ लहुगाई वावारित, मूलंतं चतुगुरुगाइ पुच्छिए णवमं । णीसह छसु पतेसू , छल्लहुगादी तु चरिमंतं ॥ ६१०८॥ आचार्येण आलप्त आचार्य एव तूष्णीको भवति मासलघु । अथ हुकारादिकं रटसीति पर्यन्तं करोति तदा षड्गुरुकान्तम् । तद्यथा-हुकारं करोति मासगुरु, 'किम् ?' इति भाषते न 'मस्तकेन वन्दे' इति ब्रवीति चतुर्लघु, 'किं चटकरं करोषि ?' इति ब्रुवाणस्य चतुर्गुरु, 'किं निर्वृतिं न ददासि ?' इति भाषमाणस्य षड्लघु, 'कियन्तं वा कालं रटसि ?' इति ब्रुवतः षड्गुरु । 30 १'राः । इह च परेणाभाषितस्य यत् तूष्णीकत्वं तत् तस्यासमाधाननिवन्धनतया परुषवचनमिव परुषवचनमित्युपमानाद् द्रष्टव्यम् ॥ ६१०५॥ अथै का० ॥ २°चार्यः 'आर्य ! वर्ततेऽनाबाधं भवताम्' इत्युक्तः सन् एव तूष्णी का० ॥ 25 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [वचनप्रकृते सूत्रम् १ व्याहृतस्य तूष्णीकतादिषु पदेषु मासगुरुकादारब्धं छेदान्तं ज्ञेयम् ॥ ६१०७॥ व्यापारितस्य चतुर्लघुकादारब्धं मूलान्तम् । पृष्टस्य चतुर्गुरुकादारब्धं 'नवमम्' अनवस्थाप्यम् । 'निसृष्टस्य' 'इदं गृहाण, भुङ्क्ष' इत्यायुक्तस्य 'षट्ख पि' तूष्णीकादिपदेषु षड्लघुकादारब्धं चरमं-पाराश्चिकं तदन्तं ज्ञातव्यम् ॥ ६१०८॥ एवमाचार्येणाचार्यस्यालप्तादिपदेषु शोधिरुक्ता। 5 अथाऽऽचार्येणैवालप्तादीनामुपाध्यायप्रभृतीनों शोधि दर्शयितुमाह एवमुवज्झाएणं, भिक्खू थेरेण खुड्डएणं च । आलत्ताइपएहिं, इक्विकपयं तु हासिज्जा ॥ ६१०९॥ 'एवम्' आचार्यवदुपाध्यायेन भिक्षुणा स्थविरेण क्षुल्लकेन च समं आलप्तादिपदैः प्रत्येक तूष्णीकतादिप्रकारषट्के यथाक्रममेकैकं प्रायश्चित्तपदं हासयेत् । तद्यथा-आचार्य उपाध्याय10 मनुरूपेणाभिलापेनालपति ततो यदि उपाध्यायस्तूष्णीक आस्ते तदा गुरुभिन्नमासः, हुकार करोति मासलघु, एवं यावत् 'किमेतावन्मात्रमारटसि ?' इति भणतः षड्लघु । व्याहृतस्यैतेष्वेव तूष्णीकादिषु पदेषु लघुमासादारब्धं षड्गुरुकान्तम्, व्यापारितस्य गुरुमासादिकं छेदान्तम् , पृष्टस्य चतुर्लघुकादिकं मूलान्तम् , निसृष्टस्य चतुर्गुरुकादिकम नवस्थाप्यान्तं द्रष्टव्यम् । एवमाचार्येणैव भिक्षोरालप्तादिपु पदेणु लघुभिन्नमासादारब्धं मूलान्तम् , स्थविरस्य गुरुविंशतिरात्रि15 न्दिवादारब्धं छेदान्तम् , क्षुल्लकस्य लघुविंशतिरात्रिन्दिवादारब्धं पङ्गुरुकान्तं प्रायश्चित्तं प्रति पत्तव्यम् ॥ ६१०९॥ एवं तावदाचार्यस्याचार्यादिभिः पञ्चभिः पदैः समं चारणि का दर्शिता । साम्प्रतमुपाध्यायादीनां चतुर्णामप्याचार्यादिपदपञ्चकेन चारणिकां दर्शयति आयरियादभिसेगो, एकगहीणो तदिकिणा भिक्खू । थेरो तु तदिक्केणं, थेरा खुड्डो वि एगेणं ॥ ६११० ॥ 20 आचार्याद् 'अभिषेकः' उपाध्याय आलापादिपदानि कुर्वाणश्चारणिकायामेकेन प्रायश्चित्तपदेन हीनो भवति । तद्यथा-उपाध्याय आचार्यमालपति क्षमाश्रमणाः! कथं वर्तते ?' इत्यादि, एवमालप्त आचार्यस्तूष्णीक आस्ते भिन्नमासो गुरुकः, हुकारं करोति मासलघु, एवं १ 'व्याहृतस्य तु' 'इत आगच्छत' इत्येवमाकारितस्य तूष्णीकतादिषु पदेपु मासगुरुकादारब्धं छेदान्तं ज्ञेयम् ॥ 'व्यापारितस्य' 'इदं कुरु इदं मा कुरु' इति नियुक्तस्य चतुलघुकादारब्धं मूलान्तम् । 'पृष्टस्य' 'किं कृतम् ? किं वा न कृतम्' इत्यादिपर्यनुयुक्तस्य चतगुरुकादारब्धं कां० ॥ २ °त्याद्यादिष्टस्य ‘प कां ॥ ३ ‘णालपितादेराचार्यस्य तूष्णीकतादिपदेषु कां० ॥ ४ °नां तूष्णीकतादिपदेषु शो कां ॥ ५°धु, 'क्रिम्' इति भापते मासगुरु । 'किं चटकरं करोपि?' इति त्रुवाणस्य चतुर्लधु । 'किं निवृतिं न ददासि ?' इति जल्पतश्चतुर्गुरु । 'किमेताव° कां० ॥ ६ °षु प्रत्येकं तूष्णीकतादिभिः पदैर्लघु का० ॥ ७ मासलघु, 'किम् ?' इति भाषते मासगुरु, 'किं चटकरं करोपि ?' इति भणति चतुर्लघु, "किं निवृतिं न ददासि ?' इति ब्रुवतश्चतुर्गुरु, 'कियद्वाऽऽरटसि ?' इति जल्पतः पडूलघु । एवं व्याहृत-व्यापारित-पृष्ट-निसृष्टपदेष्वपि यथाक्रमं मासलघु-मासगुरु-चतुलघु-चतुर्गुरुकप्रारब्धमनेनैव चारणिका' का ॥ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ६१०९-११] षष्ठ उद्देशः । १६१५ तेनैव चारणिकाक्रमेण तावद् नेयं यावद् उपाध्यायेनाचार्यस्य निसृष्टस्य 'किमेतावदारटसि ?' इतित्रुवाणस्यानवस्थाप्यम् । अथोपाध्याय उपाध्यायमालपति तत आलप्तादिषु पञ्चसु पदेषु तूष्णीकतादिभिः पद्भिः पदैः प्रत्येकं चार्यमाणैर्लघुभिन्नमासादारब्धं मूले तिष्ठति । एवमुपाध्यायेनैव भिक्षोरालप्तादिषु पदेषु तूष्णीकतादिभिरेव पदैर्गुरुविंशतिरात्रिन्दिवादारब्धं छेदान्तम् , स्थविरस्य लघुविंशतिरात्रिन्दिवादारब्धं पगुरुकान्तम् , क्षुल्लकस्य गुरुपञ्चदशरात्रिन्दिवादारब्धं । षड्लघुकान्तं द्रष्टव्यम् । यदा तु भिक्षुराचार्यादीनालपति तदा ततः-उपाध्यायादेकेन पदेन हीनो भवति, सर्वचारणिकाप्रयोगेण लघुपञ्चदशरात्रिन्दिवादारब्धं प्रायश्चित्तं मूले तिष्ठतीत्यर्थः । यदा तु स्थविर आलपति तदा ततः-भिक्षोरेकेन पदेन हीनो भवति, सर्वचारणिकाप्रयोगेण गुरुदशरात्रिन्दिवादारब्धं छेदे तिष्ठतीत्यर्थः । यदा तु क्षुल्लक आचार्यादीनालपति तदा सोऽप्येकेन पदेन हीनो भवति । तद्यथा-क्षुल्लक आचार्यमालपति यदि आचार्यस्तूष्णीका- 10 दीनि पदानि करोति तत आलप्तादिषु पञ्चसु पदेषु लघुविंशतिरात्रिन्दिवादारब्धं षड्गुरुके तिष्ठति । एवं क्षुल्लकेनैवोपाध्यायस्यालप्तादिषु पदेषु तूष्णीकतादिभिः षभिः पदैः प्रत्येकं चार्यमाणैर्गुरुपञ्चदशकादारब्धं षड्लघुकान्तम् , भिक्षोलघुपञ्चदशकादारब्धं चतुर्गुरुकान्तम् , स्थविरस्य गुरुदशकादारब्धं चतुर्लघुकान्तम् , क्षुल्लकस्य लघुदशकादारब्धं मासगुरुकान्तं प्रायश्चित्तं भवति । एवं सर्वचारणिकाप्रयोगेण लघुदशकादारब्धं षड्गुरुके तिष्ठतीति ॥ ६११० ॥ 13 एवं तावन्निर्ग्रन्थानामुक्तम् । अथ निर्ग्रन्थीनामतिदिशन्नाह भिक्खुसरिसी तु गणिणी, थेरसरिच्छी तु होइ अभिसेगा।। भिक्खुणि खुड्डसरिच्छी, गुरु-लहुपणगाइ दो इयरा ॥ ६१११॥ इह निर्ग्रन्थीवर्गेऽपि पञ्च पदानि, तद्यथा-प्रवर्तिनी अभिषेका भिक्षुणी स्थविरा क्षुल्लिका च। तत्र 'गणिनी' प्रवर्तिनी सा भिक्षुसहशी मन्तव्या। किमुक्तं भवति?-प्रवर्तिनी प्रवर्तिनी-20 प्रभृतीनां पञ्चानामन्यतमामालप्तादिभिः प्रकारैरालपति, सा चाऽऽलप्यमाना तूष्णीकादिपदषट्कं करोति ततो भिक्षावालपति यदाचार्यादीनां प्रायश्चित्तमुक्तं तत् तासां प्रवर्तिनीप्रभृतीनां मन्तव्यम् । अथाभिषेका प्रवर्तिन्यादीनामन्यतरामालपति सा च तूष्णीकादिपदानि करोति ततः स्थविरे आलपति यदाचार्यादीनां प्रायश्चित्तमुक्तं तत् तासां द्रष्टव्यम् , अत एवाहस्थविरसदृक्षा अभिषेका भवति । अथ भिक्षुणी प्रवर्तिनीप्रभृतिकामालपति सा च तुष्णी-25 कादीनि करोति ततः क्षुल्लके आलपति यदाचार्यादीनां प्रायश्चित्तमुक्तं तत् तासामपि यथाक्रम ज्ञेयम् , अत एवाह-भिक्षुणी क्षुल्लकसदृशी । अथ स्थविरा प्रवर्तिनीप्रभृतिकामालपति ततः प्रवर्तिन्यास्तूष्णीकादिपदषटकं कुर्वाणाया गुरुपञ्चदशकादिकं षड्लघुकान्तम् , अभिषेकाया लघुपञ्चदशकादिकं चतुर्गुरुकान्तम् , भिक्षुण्या गुरुदशकादिकं चतुर्लघुकान्तम् , स्थविराया लघुदशकादिकं मासगुरुकान्तम् , क्षुल्लिकाया गुरुपञ्चकादिकं मासलघुकान्तं ज्ञेयम् । अथ क्षुल्लिका 30 १ ताश्चालप्यमानास्तूष्णीकतादिपदपटकं कुर्वन्ति ततो भिक्षावालपति यदाचार्यादीनां प्रायश्चित्तमुक्तं तत् तासां द्रष्टव्यम् । अथाभिषेकया आलपितादिप्रकारपञ्चकेन प्रवर्तिनीप्रभृतयः पश्चापि जल्पिताः सन्तस्तूष्णीकतादिपदपद्धं कुर्वन्ति ततः स्थविरे कां ॥ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६१६ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ वचनप्रकृते सूत्रम् १ प्रवर्तिनी प्रभृतिका मालपति सा च तूष्णीकादीनि पदानि करोति ततः प्रवर्तिन्या लघुपञ्चदशकादिकं चतुर्गुरुकान्तम्, अभिषेकाया गुरुदशकादिकं चतुर्लघुकान्तम्, भिक्षुण्या लघुदशकादिकं मासगुरुकान्तम्, स्थविराया गुरुपञ्चकादिकं मासलघुकान्तम्, क्षुल्लिकाया लघुपञ्चकादिकं गुरुभिन्नमासान्तं मन्तव्यम् । अत एवाह -- "गुरु-लहुपणगाइ दो इयर" ति 'इतरे' स्थविरा - क्षुल्लिके तयोर्द्वयोरपि यथाक्रमं गुरुपञ्चकादिकं लघुपञ्चकादिकं च प्रायश्चित्तं भवति ॥ ६१११ ॥ इह परूपग्रहणेन निर-कर्कशे अपि सूचिते, ततस्तयोः प्रायश्चित्तं दर्शयितुं परुषस्य च प्रकारान्तरेण शोधिमभिधातुमाह लहुओ य लहुसगम्मि, गुरुगो आगाढ फरुस वयमाणे । रि-कक्कसवणे, गुरुगा य पतोसओ जं च ।। ६११२ ॥ 10 'लहुसके' स्तोके परुषवचने सामान्यतोऽभिधीयमाने मासलघु । आगाढपरुषं वदतो मासगुरु । निष्ठुरवचने कर्कशवचने चत्वारो गुरवः । यच्च ते परुषं भणिताः प्रद्वेषतः करिष्यन्ति तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम् ॥ ६११२ ॥ 15 अथ किमिदं निष्ठुरं ? किं वा कर्कशम् ? इत्याशङ्कावकाशं विलोक्याssह निव्वेद पुच्छितम्मि, उन्भामइल त्ति णिङ्कुरं सव्वं । मेहुण संस ककसाइँ णिव्वेग साहेति ।। ६११३ ॥ कयाऽपि महेलया कोऽपि साधुः पृष्टः - केन निर्वेदेन त्वं प्रत्रजितः ? । स प्राह - मदीया भोजिका ‘उद्भामिका' दुःशीला अतोऽहं प्रव्रजितः । एवमादिकं सर्वमपि निष्ठुरमुच्यते । तथा 'मैथुने 'संसृष्टं' विलीनभावं दृष्ट्वा प्रव्रजितोऽहम् । एवं निर्वेदं यत् कथयति तदेवमादीनि वचांसि कर्कशानि मन्तव्यानि ॥ ६११३ ॥ इदमेव व्याचष्टे - मयं व जं होह रयावसाणे, तं चिकणं गुज्झ मलं झरंतं । अंगेसु अंगाइँ णिगूहयंती, णिव्वेयमेयं मम जाण सोमे ! ॥ ६११४ ॥ सखेदणीसह विमुकगत्तो, भारेण छिन्नो ससई व दीहं । हीओ मि जं आसि रयावसाणे, अणेगसो तेण दमं पवण्णो ॥ ६११५॥ यद् रतावसाने मृतमिव भवति तदेवंविधं गुह्यं चिक्कणं मलं 'क्षरत् ' परिगलद्, भार्या 25 चात्मीयेष्वङ्गेषु आत्मीयान्येवाङ्गानि जुगुप्सनीयतया निगूहयन्ती मया दृष्टा, एतद् मे 'निर्वेदं ' निर्घेदकारणं हे सौम्ये ! जानीहि ॥ ६११४ ॥ तथा— सखेदं “नीसढुं” अत्यर्थं विमुक्तगात्रः शिथिलीकृताङ्गो भारेण 'छिन्नः' त्रुटितो भार - वाहको यथा दीर्घं निःश्वसिति तथाऽहमपि रतावसाने यदनेकश एवंविधः 'आसम् ' अभूवं तद् अतीव 'हीतः' लज्जितः, एतेन निर्वेदेन 'दमं' संयमं पाठान्तरेण व्रतं वा प्रपन्नोऽहम् ॥६११५॥ 20 १ 'वति ॥ ६१११ ॥ तदेवं दर्शितं परुषवचनविषयं प्रायश्चित्तनिकुरुम्बम् । इह च परुष' कां० ॥ २ 'नो व ससं व ताभा० ॥ ३ 'ण वतं प' ताभा० ॥ ४ स साधुस्तया पृष्टः सन् इत्थमात्मीयं निर्वेदमाह - यद् रता कां० ॥ ५ 'हमिति । एवमादिकं निर्वेदं यत् कथयति तत् कर्कशवचनं मन्तव्यम् ॥ ६११५ ॥ कां० ॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ उद्देशः । भाष्यगाथाः ६११२-२० ] गतं परुषवचनम् । अथागारस्थितवचनमाह अरें हरें बंभण पुत्ता, अंव्वो बप्पो त्ति भाय मामो ति । • भट्टिय सामिय गोमिय, लहुओ लहुआ य गुरुआ य ।। ६११६ ॥ अरे इति वा हरे इति वा ब्राह्मण इति वा पुत्र इति वा यदि आमन्त्रणवचनं ब्रूते तदा मासलघु । अवो बप्पो भ्रातर मामक उपलक्षणत्वाद् अम्ब भागिनेय इत्यादीन्यपि यदि वक्ति 5 तदा चतुर्लघु । अथ भट्टिन् स्वामिन् गोमिन् इत्यादीनि गौरवगर्भाणि वचांसि ब्रूते तदा चतुर्गुरुकाः आज्ञादयश्च दोषाः ॥ ६११६ ॥ संथवादी दोसा, हवंति धी मुंड ! को व तुह बंधू । मिच्छत्तं दिय वयणे, ओभावणता य सामिति ॥ ६११७ ॥ १६१७ भ्रातृ-मामकादीनि वचनानि ब्रुवाणेन संस्तवः - पूर्वसंस्तवादिरूपः कृतो भवति, ततश्च प्रति- 10 बन्धादयो बहवो दोषा भवन्ति । अम्ब तात इत्यादि ब्रुवतः श्रुत्वा लोकश्चिन्तयेत् — अहो ! एतेषामपि माता- पित्रादयः पूजनीयाः । अविरतिकाश्चामन्त्रयतो भूयस्तरा दोषाः । यद्वा स गृहस्थस्तेनासद्भूतसम्बन्धोद्धट्टनेन रुष्टो ब्रूयात् — धिग् मुण्ड ! कस्तवात्र 'बन्धुः ' स्वजनोऽस्ति येनैवं प्रलपसि ? । उपलक्षणमिदम्, अरे हरे इत्यादि ब्रुवतः परो ब्रूयात् त्वं तावद् मां न जानीषे कोऽप्यहमस्मि ततः किमेवम् अरे इत्यादि भणसि ? । एवमसङ्खडादयो दोषाः 115 ‘द्विजवचने च' ब्राह्मण इत्येवमभिधाने च मिथ्यात्वं भवति । खामिन् इत्याद्यभिधाने च प्रवचनस्यापभ्राजना भवति ॥ ६११७॥ गतमगार स्थितवचनम् । अथ व्यवशमितोदीरणवचनमाहखामित-वोसविता, अधिकरणाई तु जे उईरेंति । ते पावा णायव्वा, तेसिं च परूवणा इणमो ।। ६११८ ॥ क्षामितानि वचसा मिथ्या दुष्कृतप्रदानेन शमितानि, वोसवितानि - विविधमनेकधा मनसा 20 व्युत्सृष्टानि, क्षामितानि च तानि व्युत्सृष्टानि चेति क्षामित व्युत्सृष्टानि । एवंविधान्यधिकरणानि ये भूय उदीरयन्ति ते 'पापा : ' साधुधर्मबाह्या ज्ञातव्याः । तेषां च यं प्ररूपणा ॥ ६११८ ॥ उप्पायन उप्पण्णे, संबद्धे कक्खडे. य बाहू य । आवट्टणा य मुच्छण, समुघायऽतिवायणा चैव ॥ ६११९ ॥ लहुओ लहुगा गुरुगा, छम्मासा होंति लहुग गुरुगा य । छेदो मूलं च तहा, अणवटुप्पो य पारंची ॥। ६१२० ॥ साधू पूर्वं कलहं कृतवन्तौ, तत्र च क्षामित - व्युत्सृष्टेऽपि तस्मिन्नधिकरणेऽन्यदा तयोरेक एवं भणति — एवं नाम त्वया तदानीमहमित्थमित्थं च भणितः ; एष उत्पादक उच्यते, अस्य १ अतो बप्पो ताभा० । चूर्णौ अप्पो बप्पो इति दृश्यते ॥ २ अत्रान्तरे ग्रन्थानम् - ८००० कां० ॥ ३ 'वति, ब्रह्म चरतीति ब्राह्मण इति व्युत्पत्त्यर्थस्य तत्राघटनात् । स्वामिन् इत्याद्यभिधाने च प्रवचनस्यापभ्राजना भवति, अहो ! चाटुकारिणोऽमी इत्यादि ॥ ६११७ ॥ कां० ॥ ४ 'इयं' वक्ष्यमाणलक्षणा प्ररूपणा ॥ ६११८ ॥ तामेवाह - उप्पायग कां० ॥ ५ इह गाथाद्वयस्यापि पदानां यथासङ्ख्यं योजना कार्या । तद्यथा - द्वौ साधू कां० ॥ 25 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-लधुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [वचनप्रकृते सूत्रम् १ च मासलघु । इतरोऽपि ब्रूते-अहमपि त्वया तदानीं किं स्तोकं भणितः?; एवमुक्त उत्पादकः प्राह-यदि तदानीं त्वमभणिष्यस्तदा किमहमेवमेव त्वाममोक्ष्यम् !; एवमधिकरणमुत्पन्नमुच्यते, तत्र द्वयोरपि चतुर्लघु । सम्बद्धं नाम-वचसा परस्परमाक्रोशनं कर्तुमारब्धं तत्र चतुर्गुरु। कर्कशं नाम-तटस्थितैरुपशम्यमानावपि नोपशाम्यतस्तदा षड्लघु । "बाहु" ति रोषभरपर6वशतया बाहूबाहवि युद्धं कर्तुं लग्नौ तत्र षड्गुरुकाः । आवर्तना नाम-एकेनापरो निहत्य पातितस्तत्र च्छेदः । योऽसौ निहतः स मूच्र्छा यदि प्राप्तस्तदा मूलम् । मारणान्तिकसमुद्धाते समवहतेऽनवस्थाप्यम् । अतिपातना-मरणं तत्र पाराश्चिकम् ॥ ६११९ ॥ ६१२० ॥ अथ द्वितीयपदमाह पढम विगिचणट्ठा, उवलंभ विविंचणा य दोसु भवे । अणुसासणाय देसी, छटे य वगिचणा भणिता ॥ ६१२१ ॥ 'प्रथमम्' अलीकवचनमयोग्यशैक्षस्य विवेचनार्थं वदेत् । 'द्वयोस्तु' हीलित-खिसितवचनयोर्यथाक्रममुपालम्भ-विवेचने कारणे भवतः, शिक्षादानमयोग्यशैक्षपरित्यागश्चेत्यर्थः । परुषवचनं तु खरसाध्यस्यानुशासनां कुर्वन् ब्रूयात् । गृहस्थवचनं पुनः 'देशी' देशभाषामाश्रित्य भणेत् । 'षष्ठे च' व्यवशमितोदीरणवचने शैक्षस्य विवेचनं कारणं भणितम् । गाथायां स्त्रीत्वनिर्देशः 15 प्राकृतत्वादिति द्वारगाथासमासार्थः ॥ ६१२१ ॥ अथैनां विवरीषुराह कारणियदिक्खितं तीरियम्मि कजे जहंति अणलं तू । संजम-जसरक्खट्टा, होटं दाऊण य पलादी ॥ ६१२२ ॥ कारणे-अशिवादौ अनल:-अयोग्यः शैक्षो दीक्षितः, ततः 'तीरिते' समापिते तस्मिन् कायें तं अनलं 'जहन्ति' परित्यजन्ति । कथम् ? इत्याह--'संयम-यशोरक्षार्थ संयमस्य प्रवचनयशः20 प्रवादस्य च रक्षणार्थ 'होढं' गाढमलीकं दत्त्वा पलायन्ते, शीघ्रमन्यत्र गच्छन्तीत्यर्थः॥६१२२॥ यः पुनराचार्यः सामाचार्या सारणादिप्रदाने वा सीदति तमुद्दिश्येत्थं हीलितवचनं वदेत् केणेस गणि त्ति कतो, अहो! गणी भणति वा गणिं अगणि। एवं विसीतमाणस्स कुणति गणिणो उवालंभं ॥ ६१२३ ॥ केनासमीक्षितकारिणैष गणी कृतः ?, यद्वा अहो! अयं गणी, अथवा गणिनमप्यगणिनं 25 भणति । एवं गणिनः सामाचार्या शिक्षादाने वा विषीदत उपालम्भं करोति ॥ ६१२३ ॥ अगणिं पि भणाति गणिं, जति नाम पढेज गारवेण वि ता। एमेव सेसएसु वि, वायगमादीसु जोएज्जा ॥ ६१२४ ॥ यदि कोऽपि बहुशोऽपि भण्यमानो न पठति ततस्तमगणिनमपि गणिनं भणति यदि नाम गौरवेणापि पठेत् । एवमेव शेषेष्वपि वाचकादिषु पदेषु द्वितीयपदं 'योजयेत्' योजनां 50 कुर्यात् ॥ ६१२४ ॥ १ गतं व्यवशमितोदीरणवचनम् । अथ द्विती° इतिरूपमवतरणं का० ॥ २ ति नियुक्तिगाथासमासार्थः॥ ६१२१ ॥ अथैनामेव भाप्यकारो विवरीषु कां० ॥ ३ 'वाचकादिषु' वाचक-यहुश्रुत-मेधाविप्रभृतिषु पदेषु कां ॥ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ६१२१-२८] षष्ठ उद्देशः । खिसावयणविहाणा, जे चिय जाती-कुलादि पुवुत्ता। कारणियदिक्खियाणं, ते चैव विगिंचणोवाया ॥ ६१२५ ॥ __ खिसावचनविधानानि यान्येव जाति-कुलादीनि पूर्वमुक्तानि त एव 'कारणिकदीक्षितानां' अयोग्यानां कारणप्रव्राजितानां विवेचने-परिष्ठापने उपाया मन्तव्याः ॥ ६१२५॥ खरसझं मउयवई, अगणेमाणं भणंति फरुसं पि। 5 दव्वफरुसं च वयणं, वयंति देसि समासज्जा ॥ ६१२६ ॥ इह यः कठोरवचनभणनमन्तरेण शिक्षा न प्रतिपद्यते स खरसाध्य उच्यते, तं खरसाध्यं मृद्वीं वाचमगणयन्तं परुषमपि भणन्ति । यद्वा 'देशी' देशभाषां समासाद्य द्रव्यतः परुषवचनमपि वदन्ति । द्रव्यतो नाम-न दुष्टभावतया परुषं भणन्ति किन्तु तत्खाभाव्यात् , यथा मालवा परुषवाक्या भवन्ति ॥ ६१२६ ॥ भट्टि त्ति अमुगमट्टि, त्ति वा वि एमेव गोमि सामि ति। जह णं भणाति लोगो, भणाति तह देसिमासज्ज ॥ ६१२७ ॥ __ भट्टिन् इति वा अमुगभट्टिन् इति वा एवमेव गोमिन् इति वा खामिन् इति वा यथा यथा लोको भणति तथा तथा 'देशी' देशभाषामाश्रित्य साधवोऽपि भणन्ति ॥ ६१२७ ॥ खामिय-वोसवियाई, उप्पाएऊण दव्यतो रुट्ठो।। 15 कारणदिक्खिय अनलं, आसंखडिउ त्ति धाडेति ॥ ६१२८॥ यः कारणे अनलो दीक्षितस्तेन समं समापिते कार्ये क्षामित-व्युत्सृष्टान्यधिकरणान्युत्पाद्य 'द्रव्यतः' दुष्टभावं विना 'रुष्टः' कुपितः, बहिः कृत्रिमान् कोपविकारान् दर्शयन्नित्यर्थः, आसङ्खडिकोऽयं इति दोषमुत्पाद्य तमनलं शैक्षं 'धाटयति' गच्छाद् निष्काशयति॥६१२८॥ ॥ वचनप्रकृतं समाप्तम् ॥ 10 ७ प्रस्ता र प्रकृतम् सूत्रम् छ कप्पस्स पत्थारा पण्णत्ता, तं जहा-पाणाइवायस्स वायं वयमाणे, मुसावायस्स वायं वयमाणे, अदिण्णादाणस्स वायं वयमाणे, अविरड़वायं वयमाणे, अपुरिसवायं वयमाणे, दासवायं वयमाणे। १°लादिया बुत्ता ताभा० कां• विना ॥ २ °ति तं देसि ताभा० ॥ ३ इति वा “जह" त्ति इह उत्तरत्र च वीप्साया गम्यमानत्वाद् यथा यथा लोको भणति “णं" इति तद् वचनं ब्रवीति तथा तथा कां०॥ 25 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 १६२० अस्य सूत्रस्य सम्बन्धमाह - तुहिकरणा संखा, तुल्लहिगारो व वादिओ दोसो । अहवा अयमधिगारो, सा आवत्ती इहं दाणं ॥ ६१२९ ॥ 'द्वयोरपि' अनन्तर - प्रस्तुतसूत्रयोस्तुल्याधिकरणा सङ्ख्या, समानः षट्सयालक्षणोऽधिकार इत्यर्थः । यद्वा वाचिको दोषस्तुल्याधिकारः, उभयोरपि सूत्रयोर्वचनदोषोऽधिकृत इति भावः । अथवाऽयमपरोऽधिकार उच्यते - 'सा' पूर्वसूत्रोक्ता शोधिरापत्तिरूपा, इह तु तस्या एव शोधेर्दानमधिक्रियते ॥ ६१२९ ॥ 30 सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ प्रस्तारप्रकृते सूत्रम् २ इच्चेते छ कप्परस पत्थारे पत्थरित्ता सम्मं प्पडिपूरेमाणे तट्ठाणपत्ते २ ॥ 10 अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या – कल्पः - साधुसमाचारस्तस्य सम्बन्धेन तद्विशुद्धिकारणत्वात् ‘प्रस्ताराः’ प्रायश्चित्तरचनाविशेषाः षट् प्रज्ञप्ताः । तद्यथा - प्राणांतिपातस्य 'वाद' वार्तां वाचं वा वदति साधौ प्रायश्चित्तप्रस्तारो भवतीत्येकः १ । एवं मृषावादस्य वादं वदति द्वितीयः । अदत्तादानस्य वादं वदति तृतीयः । अविरतिः - अब्रह्म, यद्वा न विद्यते विरतिरस्याः सा अविरतिका - स्त्री तद्वादं वदति चतुर्थः । अपुरुषः - नपुंसकस्तद्वादं वदति पञ्चमः । दासवादं 15 वदति षष्ठः । 'इति' इत्युपप्रदर्शने । एवंप्रकारानेतान् षट् कल्पस्य 'प्रस्तारान्' प्रायश्चित्तरचनाविशेषान् 'प्रस्तीर्य' अभ्युपगमत आत्मनि प्रस्तुतान् विधाय 'प्रस्तारयिता वा' अभ्याख्यानदाता साधुः सम्यग् ‘अप्रतिपूरयन्' अभ्याख्येयार्थस्यासद्भूततया अभ्याख्यानसमर्थनं कर्तुमशक्नुवन् तस्यैव-प्राणातिपातादिकर्तुरिव स्थानं प्राप्तस्तत्स्थानप्राप्तः स्यात् प्राणातिपातादिकारीव दण्डनयो भवेदिति भावः । अथवा प्रस्तारान् ' प्रस्तीर्य' विरचय्याऽऽचार्येणाभ्याख्यानदाता 20 ‘अप्रतिपूरयन्' अपरापर प्रत्ययवचनैस्तमर्थं सत्यमकुर्वन् तत्स्थानप्राप्तः कर्तव्य इति शेषः, यत्र प्रायश्चित्तपदे विवदमानोऽवतिष्ठते न पदान्तरमारभते तत् पदं प्रापणीय इति भावः । एष सूत्रार्थः ॥ अथ भाष्यकारो विषमपदव्याख्यामाह - पत्थारो उ विरचणा, सो जोतिस छंद गणित पच्छिते । पच्छित्त्रेण तु पगयं, तस्स तु भेदा बहुविगप्पा ॥ ६१३० ॥ 25 प्रस्तारो नाम विरचना, स्थापना इत्यर्थः । स च चतुर्द्धा – ज्योतिषप्रस्तारः छन्दः प्रस्तारो गणितप्रस्तारः प्रायश्चित्तप्रस्तारश्चेति । अत्र प्रायश्चित्तप्रस्तारेण प्रकृतम् । 'तस्य च ' प्रायश्चित्तस्यामी 'बहुविकल्पाः ' अनेकप्रकारा भेदा भवन्ति ॥ ६१३० ॥ तद्यथा--- उग्घातमणुग्घाते, मीसे य पसंगिं अप्पसंगी य । आवजण दाणाहं, पडुच्च वत्थं दुपक्खे वी ।। ६१३१ ॥ इह प्रायश्चित्तं द्विधा - उद्धातमनुद्धातं च । उद्धातं - लघुकम्, तच्च लघुमासादि । अनुद्वातिकं - गुरुकम्, तच्च गुरुमासादि । तदुभयमपि द्विधा - मिश्रं चशब्दाद् अमिश्रं च । मिश्र १गि होति अपसंगी । आव ताभा० ॥ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ६१२९-३५] षष्ठ उद्देशः । १६२१ नाम-लघुमासादिकं तपः-कालयोरेकतरेण द्वाभ्यां वा गुरुकम् , गुरुमासादिकं वा तपसा कालेन वा द्वाभ्यां वा लघुकम् । अमिश्रं तु लघुमासादिकं तपः-कालाभ्यां द्वाभ्यामपि लघुकम् , गुरुमासादिकं वा द्वाभ्यामपि गुरुकम् । उभयमपि च तपः-कालविशेषरहितं पुनरपि द्विधा-प्रसनि अप्रसङ्गि च । प्रसङ्गि नाम-यद् अभीक्ष्णप्रतिसेवारूपेण शङ्का-भोजिका-घाटिकादिपरम्परारूपेण वा प्रसङ्गेन युक्तम् , तद्विपरीतमप्रसङ्गि । भूयोऽप्येतदेकैकं द्विधा-आपत्ति-5 प्रायश्चित्तं दानप्रायश्चित्तं च । एतत् सर्वमपि प्रायश्चित्तं 'द्विपक्षेऽपि' श्रमणपक्षे श्रमणीपक्षे च वस्तु प्रतीत्य मन्तव्यम् । वस्तु नाम-आचार्यादिकं प्रवर्तिनीप्रभृतिकं च, ततो यस्य वस्तुनो यत् प्रायश्चित्तं योग्यं तत् तस्य भवतीति भावः । एष प्रायश्चित्तप्रस्तार उच्यते ॥ ६१३१ ॥ "सम्मं अपडिपरेमाणे" ति पदं व्याचष्टेजारिसएणऽमिसत्तो, स चाधिकारी ण तस्स ठाणस्स । 10 सम्मं अपूरयंतो, पचंगिरमप्पणो कुणति ॥ ६१३२ ।। 'यादृशेन' दर्दुरमारणादिनाऽभ्याख्यानेन 'सः' साधुः 'अभिशप्तः' अभ्याख्यातः स तस्य स्थानस्य 'नाधिकारी' न योग्यः अप्रमत्तत्वात् ; अतोऽभ्याख्यानं दत्त्वा सम्यग् 'अप्रतिपूरयन्' अनिर्वाहयन् आत्मनः प्रत्यङ्गिरां करोति, तं दोषमात्मनो लगयतीत्यर्थः ।। ६१३२ ॥ कृता विषमपदव्याख्या भाष्यकृता । सम्प्रति नियुक्तिविस्तर: 15 छ चेव य पत्थारा, पाणवह मुसे अदत्तदाणे य । अविरति-अपुरिसवाते, दासावातं च वतमाणे ॥ ६१३३ ॥ पडेव प्रैस्ताराः भवन्ति । तद्यथा--प्राणवधवादं मृषावादवादं अदत्तादानवादमविरतिकावादमपुरुषवादं दासवादं च वदति इति ॥ ६१३३ ।। तत्र प्राणवधवादे प्रस्तारं तावदभिघित्सुराह ददुर सुणए सप्पे, मूसग पाणातिवादुदाहरणा । एतेसिं पत्थारं, वोच्छामि अहाणुपुवीए ॥ ६१३४ ॥ प्राणातिपाते एतानि 'उदाहरणानि' निदर्शनानि भवन्ति-दर्दुरः शुनकः सों मूषकश्चेति । एतेषाम्' एतद्विषयमित्यर्थः 'प्रस्तारं' प्रायश्चित्तरचनाविशेषं यथानुपूर्व्या वक्ष्यामि ॥ ६१३४ ॥ तत्र दर्दुरविषयं तावदाह ओमो चोदिजंतो, दुपहियादीसु संपसारेति । अहमवि णं चोदिस्सं, न य लब्भति तारिसं छेटुं॥ ६१३५ ॥ 'अवमः' अवमरालिको रानिकेन दुःप्रत्युपेक्षितादिषु स्खलितेषु भूयो भूयो नोद्यमानः 'सम्प्रसारयति' मनसि पर्यालोचयति-अहमपि “णं" एनं रानिकं नोदयिष्यामि । एवं १°वानिष्पन्नेन शङ्का-भोजिका-घाटिकानिवेदनादिपरम्परानिष्पन्नेन वा प्रसङ्गमायश्चित्तेन युक्तम् , का० ॥ २ °ना वक्ष्यमाणलक्षणेनाऽभ्याख्या का० ॥ ३ 'प्रस्तारा' प्रायश्चित्तरचनाविशेषा भवन्ति, न पञ्च न वा सप्त इत्येवकारार्थः । तद्यथा का ॥ ४ प्रतिक्षातमेव निर्वाहयन् पर्दुरविषयं प्रस्तारं तावदाह इतिरूपमवतरणं का० ॥ 20 25 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२२ पर्यालोच्य प्रयत्नेन गवेषयन्नपि तादृशं छिद्रं रानिकस्य न लभते ॥ ६१३५ ॥ अनेण घातिए दद्दुरम्म दट्टु चलणं कतं ओमो । उद्दवितो एस तुमे, ण मि त्ति बितियं पि ते णत्थी ॥ ६१३६ ॥ अन्यदा च भिक्षादिपर्यटने अन्येन केनापि दर्दुरे घातिते रात्निकेन च तस्योपरि 'चलन' पादं कृतं दृष्ट्वाऽवमो ब्रवीति — एष दर्दुरस्त्वयाऽपद्रावितः । रात्रिको वक्ति न मयाऽपद्रावितः । अवमः प्राह - - 'द्वितीयमपि ' मृषावादेवतं 'ते' तव नास्ति ॥ ६१३६ ॥ एवं भणतस्तस्येयं प्रायश्चित्तरचना - वच्चति भणाति आलोय निकाए पुच्छिते णिसिद्धे य । साहु गिहि मिलिय सव्वे, पत्थारो जाव वयमाणे ॥ ६१३७ ॥ मासो लहुओ गुरुओ, चउरो लहुगा य होंति गुरुगा य । छम्मासा लहु-गुरुगा, छेदो मूलं तह दुगं च ॥ ६१३८ ॥ • स एवमुक्त्वा ततो निवृत्त्याऽऽचार्यसकाशं व्रजति मासलघु । आगत्य भणति यथा - तेन दर्दुरो मारितः, एवंभणतो मासगुरु । योऽसावभ्याख्यातः स गुरूणां सकाशमागतः, आचार्यैश्वोक्तम्- -- " आलोय" त्ति आर्य ! सम्यगालोचय, किं सत्यं भवता दर्दुरो मारित: ?; स 15 प्राह-न मारयामि, एवमुक्तेऽभ्याख्यानदातुश्चतुर्लघु । " निकाए" त्ति इतरो निकाचयति रात्रिकस्तु भूयोऽपि तावदेव भणति तदा चतुर्गुरु । अवमरात्रिको भणति -- यदि न प्रत्ययस्ततस्तत्र गृहस्थाः सन्ति ते पृच्छ्यन्ताम्, ततो वृषभा गत्वा पृच्छन्ति, पृष्ठे च सति षड्लघु । गृहस्थाः पृष्टाः सन्तः ‘“णिसिद्धं" निषेधं कुर्वन्ति – नास्माभिर्दर्दुरव्यपरोपणं कुर्वन् दृष्ट इति गुरु । " साहु" त्ति ते साधवः समागता आलोचयन्ति नापद्रावित इति तदा छेदः । 20‘“गिहि” ति अथासावभ्याख्यानदाता भणति — 'गृहस्थाः ' असंयता यत् प्रतिभासते तद् अलीकं सत्यं वा ब्रुवते, एवंभणतो मूलम् । अथासौ भणति – “मिलिय" ति गृहस्थाश्च यूयं चैकत्र मिलिता अहं पुनरेक इतिब्रुवतोऽनवस्थाप्यम् । सर्वेऽपि यूयं प्रवचनस्य बाह्या इतिभणतः पाञ्चिकम् । एवमुत्तरोत्तरं वदतः पाराञ्चिकं यावत् प्रायश्चित्तप्रस्तारो भवति ॥ ६१३७ ॥ ६१३८ ॥ अथेदमेव भावयति - 25 10 सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ प्रस्तारप्रकृते सूत्रम् २ किं आगओ सि णाहं, अडामि पाणवहकारिणा सद्धिं । सम्म आलोय त्तिय, जा तिण्णि तमेव वियडेति ॥ ६१३९ ॥ रात्रिकं विना स एकाकी समायातो गुरुभिरुक्तः - किमेकाकी त्वमागतोऽसि ? । स प्राह - नाहं प्राणवधकारिणा सार्द्धमटामि । एवमुक्ते रात्रिक आगतो गुरुभिरुक्तः सम्यगालोचय, कोsपि प्राणी त्वया व्यपरोपितः ? न वा ? इति । स प्राह-न व्यपरोपितः । 30 एवं त्रीन् वारान् यावदालोचाप्यते । यदि त्रिष्वपि वारेषु तदेव ' त्रिकटयति' आलोचयति तदा परिस्फुटमेव कथ्यते ॥ ६१३९ ॥ १ 'दविरतिलक्षणं व्रतं 'ते' तत्र नास्ति, न केवलं प्रथम मित्यपिशब्दार्थः ॥ ६१३६ ॥ कां• ॥ २ 'पेधनं निषिद्धं निषेधमित्यर्थः कुर्वन्ति कां० ॥ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२३ भाष्यगाथाः ६१३६-४३] षष्ठ उद्देशः । तुमए किर दहरओ, हओ त्ति सो वि य भणाति ण मए ति । तेण परं तु पसंगो, धावति एक्के व बितिए वा ॥ ६१४०॥ किल इति द्वितीयस्य साधोर्मुखादस्माभिः श्रुतम्-त्वया दर्दुरः 'हतः' विनाशितः । स प्राह-न मया हत इति । 'ततः परम्' एवंभणनानन्तरं 'प्रसङ्गः' प्रायश्चित्तवृद्धिरूपः 'एकस्मिन्' रानिके 'द्वितीये वा' अवमरानिके धावति । किमुक्तं भवति ?- यदि तेन रानिकेन । सत्येनैव दर्दुरो व्यपरोपितः ततो यदि 'सम्यगालोचय' इतिभण्यमानो भूयो भूयो निहते तदा तस्य प्रायश्चित्तवृद्धिः । अथ तेन न व्यपरोपितः ततः 'इतरस्य' अभ्याख्यानं निकाचयतः प्रायश्चित्तं वर्द्धते ॥ ६१४०॥ इदमेव भावयति एकस्स मुसावादो, काउंणिण्हाइणो दुवे दोसा । तत्थ वि य अप्पसंगी, भवति य एको व एको वा ॥ ६१४१॥ 10 'एकस्य' अभ्याख्यानदातुरेक एव मृषावादलक्षणो दोषः । यस्तु द१रवधं कृत्वा निहते तस्य द्वौ दोषौ-एकः प्राणातिपातदोषो द्वितीयो मृषावाददोष इति । 'तत्रापि च' अभ्याख्याने प्राणातिपाते वा कृतेऽपि 'एको वा' अवमरानिकः ‘एको वा' रानिको यदि अप्रसङ्गी भवति तदा न प्रायश्चित्तवृद्धिः । किमुक्तं भवति ?-यदि अवमरानिकोऽभ्याख्यानं दत्त्वा न निकाचयति यो वाऽभ्याख्यातः सोऽपि न रुष्यति तदा न प्रायश्चित्तवृद्धिः । अथाभ्याख्याता 15 भूयो भूयः समर्थयति इतरोऽपि भूयो भूयो रुष्यति तदा प्रायश्चित्तवृद्धिः । एवं दर्दुरविषयः प्रस्तारो भावितः । शुनक-सर्प-मृषकविषया अपि प्रस्तारा एवमेव भावनीयाः ॥ ६१४१॥ गतः प्राणातिपाति॑प्रस्तारः । सम्प्रति मृषावादा-ऽदत्तादानयोः प्रस्तारमाह मोसम्मि संखडीए, मोयगगहणं अदत्तदाणम्मि । आरोवणपत्थारो, तं चेव इमं तु णाणत्तं ॥ ६१४२ ॥ मृषावादे सङ्खडीविषयं निदर्शनम् । अदत्तादाने मोदकग्रहणम् । एतयोर्द्वयोरप्यारोपणायाः प्रायश्चित्तस्य प्रस्तारः स एव मन्तव्यः । इदं तु 'नानात्वं' विशेषः ॥ ६१४२॥ दीण-कलुणेहि जायति, पडिसिद्धो विसति एसणं हणति ।। जंपति मुहप्पियाणि य, जोग-तिगिच्छा-निमित्ताई ॥ ६१४३ ॥ __कस्यामपि सङ्खड्यामकालत्वात् प्रतिषिद्धौ साधू अन्यत्र गतौ, ततो मुहूर्तान्तरे रत्नाधिके-28 नोक्तम्-व्रजामः सङ्खड्याम् , इदानीं भोजनकालः सम्भाव्यते। अवमो भणति-प्रतिषिद्धोऽहं न व्रजामि । ततोऽसौ निवृत्त्याऽऽचार्यायेदमालोचयति, यथा-अयं दीन-करुणवचनैर्याचते. प्रतिषिद्धोऽपि च प्रविशति, एषणां च 'हन्ति' प्रेरयति, अथवा एष गृहं प्रविष्टो मुखप्रि १°तः। सोऽपि च रत्नाधिकः 'भणति' प्रतिबूते-न मया कां ॥ २ ख्यातः प्राणातिपातं वा कृतवान् सोऽपि यदि न रुष्यति न वा निद्भुते तदा कां ॥ ३ °ष्यति खापराधं निहते वा तदा कां० ॥ ४ तविषयः प्रस्ता' कां० ॥ ५ अयं रत्नाधिको दीन-करुणवचनैर्याचते, प्रतिषिद्धोऽपि च गृहपतिगृहं प्रायोग्यलम्पटतया भूयोभूयः प्रविशति, एषणां कां ॥ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 १६२४ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [प्रस्तारप्रकृते सूत्रम् २ याणि योग-चिकिस्सा-निमित्तानि जल्पति । एवंविधमृषावादवादं वदतः प्रायश्चित्तप्रस्तारो भवति ॥ ६१४३ ॥ स चायम् बच्चइ भणाइ आलोय णिकाए पुच्छिए णिसिद्धे य । साहु गिहि मिलिय सव्वे, पत्थारो जाय वदमाणे ॥६१४४ ॥ मासो लहुओ गुरुओ, चउरो लहुगा य होति गुरुगा य । छम्मासा लहु-गुरुगा, छेदो मूलं तह दुगं च ॥ ६१४५ ॥ गाथाद्वयमपि गतार्थम् (गा० ६१३७-३८) ॥ ६१४४ ॥ ६१४५ ।। अथादत्तादाने मोदकग्रहणदृष्टान्तं भावयति जा फुसति भाणमेगो, वितिओ अण्णत्थ लड्डते ताव । 'लभ्रूण णीति इयरो, ते दिस्स इमं कुणति कोई ॥ ६१४६ ॥ __एकत्र गेहे भिक्षा लब्धा, सा चावमेन गृहीता । यावद् असौ 'एकः' अवमरानिको भाजनं 'स्पृशति' सम्मार्टि तावद् 'द्वितीयः' रत्नाधिकः 'अन्यत्र' सङ्खड्यां लड्डुकान् लब्धवान् , लब्ध्वा च निर्गच्छति । 'इतरः पुनः' अवमः 'तान्' मोदकान् दृष्ट्वा कश्चिदीर्थ्यालरिदं करोति ॥ ६१४६ ॥ किम् ? इत्यत आह - वचइ भणाइ आलोय निकाए पुच्छिए निसिद्धे य । साहु गिहि मिलिय सव्वे, पत्थारो जाव वयमाणे ॥ ६१४७ ॥ मासो लहुओ गुरुओ, चउरो लहुगा य होति गुरुगा य । छम्मासा लहु-गुरुगा, छेदो मूलं तह दुगं च ॥ ६१४८॥ "वच्चइ" ति स निवृत्त्य गुरुसकाशं व्रजति । आगम्य च भणति आलोचयति-रत्नाधिकेना20 दत्ता मोदका गृहीता इति । शेषं प्राग्वत् (गा०६१३७-३८) ॥ ६१४७ ॥ ६१४८ ॥ अथाविरतिकावादे प्रस्तारमाह रातिणितवाइतेणं, खलिय-मिलिय-पेल्लणाएँ उदएणं । देउल मेहुण्णम्मि, अब्भक्खाणं कुडंगे वा ॥ ६१४९ ॥ कश्चिदवमरानिको रत्नाधिकेनाभीक्ष्णं शिष्यमाणश्चिन्तयति-एषः 'रत्नाधिकवातेन' 'रना25 धिकोऽहम्' इति गर्वेण मां दशविधचक्रवालसामाचार्यामस्खलितमपि कषायोदयेन तर्जयति, __ यथा-हे दुष्टशैक्षक ! स्खलितोऽसीति । तथा मां निम्नतरमपि पदं पदेन विच्छिन्नं सूत्रमुच्चारयन्तं 'हा दुष्टशैक्ष ! किमिति मिलितमुच्चारयसि ?' इति तर्जयति । तथा "पेल्लण" त्ति अन्यैः साधुभिर्वार्यमाणोऽपि कषायोदयतो मां हस्तेन प्रेरयति । अथवैषा सामाचारीरत्नाधिकस्य सर्व क्षन्तव्यमिति, ततस्तथा करोमि यथा एष मम लघुको भवति । ततोऽन्यदा 30 द्वावपि भिक्षाचर्यायै गतौ, तौ च तृषितौ बुभुक्षितौ चेत्येवं चिन्तितवन्तौ-अस्मिन् आर्या देवकुले 'कुडने वा' वृक्षविषमे प्रथमालिकां कृत्वा पानीयं पास्याम इति; एवं चिन्तयित्वा तौ तदभिमुखं प्रस्थितौ । अत्रान्तरेऽवमरनाधिकः परिव्राजिकामेकां तदभिमुखमागच्छन्ती Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ६९४४ - ५५ ] षष्ठ उद्देशः । १६२५ दृष्ट्वा स्थितः, 'लब्ध एष इदानीम्' इति चिन्तयित्वा तं रत्नाधिकं वदति - अहो ज्येष्ठार्य ! कुरु त्वं प्रथमालिकां पानीयं वा, अहं पुनः संज्ञां व्युत्क्ष्यामि || ६१४९ ॥ एवमुक्त्वा त्वरितं बसतावागत्य मैथुनेऽभ्याख्यानं दातुं यथा आलोचयति तथा दर्शयति जे जेण अकर्ज, सर्ज अजाघरे कयं अजं । 5 उवजीवितोय ते !, मए वि संसद्वकप्पोऽत्थ ॥ ६१५० ॥ ज्येष्ठार्येणाद्य ‘संद्यः' इदानीमार्यागृहे कृतं ' अकार्यं' मैथुनसेवालक्षणम्, ततो भदन्त ! तत्संसर्गतो मयाऽपि 'संसृष्टकल्पः' मैथुनप्रतिसेवा 'अत्र' अस्मिन् प्रस्तावे उपजी वितः ॥ ६१५०॥ अत्राप्ययं प्रायश्चित्तप्रस्तारः वच्चति भणाति आलोय निकाए पुच्छिए णिसिद्धे य । साहु गिहि मिलिय सव्वे, पत्थारो जाव वयमाणे ॥ ६१५१ ॥ मासो लहुओ गुरुओ, चउरो लहुगा य होंति गुरुगा ये । छम्मासा लहु-गुरुगा, छेदो मूलं तह दुगं च ।। ६१५२ ॥ अवमरालिको निवृत्त्य गुरुसकाशं व्रजति लघुमासः । आगम्य च गुरून् भणति - ज्येष्ठार्येण मया चाकृत्यमासेवितम्, अतो मम तावद् महाव्रतान्यारोपयत; एवं रत्नाधिकस्य लघूभवनाभिप्रायेण भणतो गुरुमासः । रत्नाधिक आगतः सूरिणा भणितः किं त्वया 25 संसृष्टकल्प आसेवितः ? स प्राह - नासेवितः, ततश्चतुर्लघु । इतरो निकाचयति चतुर्गुरु इत्यादि प्राग्वद् द्रष्टव्यम् ( गा० ६१३७-३८ ) ॥ ६१५१ ॥ ६१५२ ॥ गतोऽविरतिकावदः । अथापुरुषवादमाह ओत्ति कथं जागसि दिट्ठा णीया सें तेहि मी बुत्तो । वट्टति ततिओ तुब्भं, पव्वावेतुं मम वि संका ॥। ६१५३ ।। दीसति य पाडिरूवं, ठित - चंकम्मित - सरीर-भासाहिं । बहुसो अपुरिसवणे, सवित्थराऽऽरोवणं कुखा ।। ६१५४ ॥ कोऽपि साधुस्तथैव छिद्रान्वेषी भिक्षातो निवृत्त्य रत्नाधिकमुद्दिश्याऽऽचार्यं भणति - 'एष साधुः 'तृतीयः ' त्रैराशिकः । आचार्यः प्राह - कथं जानासि ? । स प्राह- - मयैतस्य निजका दृष्टाः तैरहमुक्तः - वर्तते युष्माकं तृतीयः प्रत्राजयितुम् ; ततो ममापि हृदये 25 शङ्का जाता ।। ६१५३ ॥ अपि च ――――― अस्य साधोः ‘प्रतिरूपं' नपुंसकानुरूपं रूपं स्थित चङ्क्रमित शरीर-भाषादिभिर्लक्षणैर्द्दश्यते । एवं बहुशः ‘अपुरुषवचने' नपुंसकवादे वर्तमानस्य सविस्तरौमारोपणां कुर्यात् ॥ ६१५४ ॥ तद्यथा वच्चति भणाति आलोय निकाए पुच्छिए निसिद्धे य । साहु गिहि मिलिय सव्वे, पत्थारो जाव वयमाणे ॥ ६१५५ ॥ १ 'नीमुपाय इति चिन्त' कां० ॥ २ वादविषयः प्रस्तारः । अथापुरुषवादे प्रस्तारमाह इतिरूपमवतरणं कां० ॥ ३ 'राम् 'आरोपणां' प्रायश्चित्तविरचनारूपां कुर्या कां० ॥ to 20 30 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ प्रस्तारप्रकृते सूत्रम् २ मासो लहुओ गुरुओ, चउरो लहुगा य होंति गुरुगा य । छम्मासा लहु गुरुगा, छेदो मूलं तह दुगं च ॥ ६१५६ ॥ स निवृत्त्य एकाकी प्रतिश्रयं व्रजति लघुमासः । आगतो गुरून् भणति - एष साधुराशिक एतदीयसज्ञातकैरुक्तः, अत्र गुरुमासः । शेषं प्राग्वत् ( गा० ६१३७-३८ ) ४ ।। ६१५५ ॥ ६१५६ ॥ अथ दासवादमाह 16 ११२६ खरओ त्ति कहं जाणसि, देहायारा कहिंति से हंदी ! | छिकोण उभंडो, णीयासी दारुणसभावो ।। ६१५७ ॥ कोsपि साधुस्तथैव रत्नाधिकमुद्दिश्याचार्यं भणति - अयं साधुः 'खरकः' दास इति । आचार्य आह—कथं जानासि ! । इतरः प्राह - एतदीयनिज कैर्मम कथितम् । तथा 'देहाकाराः ' 10 कुब्जतादयः "से" तस्य "हंदी" इत्युपप्रदर्शने दासत्वं कथयन्ति । तथा "छिक्कोवण" चि शीघ्रकोपनोऽयम्, “उब्भंडो नाम" असंवृतपरिधानादिः, 'नीचासी' नीचतरे आसने उपवेशनशील:, दारुणखभाव इति प्रकटार्थम् ॥ ६१५७ ॥ अथ " देहाकार" ति पदं व्याख्याति - देहेण वा विरूवो, खुजो वडभो य बाहिरप्पादो । फुडमेव से आयारा, कहिंति जह एस खरओ ति ॥ ६१५८ ॥ स प्राह - देहेनाप्ययं विरूपः, तद्यथा – कुब्जो वडभो बाह्यपादो वा । एवमादयस्तस्याssकाराः स्फुटमेव कथयन्ति, यथा - एषः 'खरकः' दास इति ॥ ६१५८ ॥ अथाऽऽचार्यः प्राह-केइ सुरूव दुरूवा, खुजा वडभा य बाहिरप्पाया । न हु ते परिभवियव्वा, वेयणं व अणारियं वोतुं ॥ ६१५९ ॥ 25 - इह नामकर्मोदयवैचित्र्यतः 'केचिद्' नीच कुलोत्पन्ना अपि दासादयः सुरूपा भवन्ति, 20 'केचित् तु' राजकुलोत्पन्ना अपि दूरूपाः भवन्ति, तथा कुब्जा वडभा बाह्यपादा अपि भवन्ति, अतः 'नहि' नैव ते परिभवितव्याः 'अनार्य वा वचनं' 'दासोऽयम्' इत्यादिकं वक्तुं योग्याः ॥ ६१५९ ॥ अत्रापि प्रायश्चित प्रस्तारः वच्चति भणाति आलोय निकाए पुच्छिए निसिद्धे य । साहु गिहि मिलिय सव्वे, पत्थारो जाव वयमाणे ॥ ६१६० ॥ मासो लहुओ गुरुओ, चउरो लडुगा य होंति गुरुगा य । छम्मासा लहु गुरुगा, छेदो मूलं तह दुगं च ॥ ६१६१ ॥ [ व्याख्या प्राग्वत् ] ॥ ६१६० ॥ ६१६१ ॥ गतो दासवादः । अथ द्वितीयपदमाह - १ रुक्तोऽस्मीत्यत्र गुरुमासः । शेषं प्राग्वत् ॥ ६१५५ ॥ ६१५६ ॥ उक्तोऽपुरुषवादे प्रस्तारः । अथ दासवादे प्रस्तारमभिधातुकाम इदमाह कां० ॥ २ वयणं अवगारियं वोत्तुं ताभा० ॥ ३ स निवृत्त्य एकाकी वसतिं व्रजति लघुको मासः । वसतिमागम्य गुरुणामन्तिके रक्षाधिकमुद्दिश्य भणति - अयं साधुर्दास इव लक्ष्यते इति भणतो गुरुमासः । इत्यादि प्रागुक्तनीत्या ( गा० ६१३७-३८) सर्वमपि यथायोग्यं वक्तव्यम् ॥ ६१६०॥६१६१॥ तदेवं दर्शिताः षडपि प्रस्ताराः । अथ द्वितीयपदमाह कां० ॥ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ६१५६-६३] षष्ठ उद्देशः। १५२७ बिइयपयमणामोगे, सहसा वोत्तूण वा समाउट्टे । जाणंतो वा वि पुणो, विविंचणट्ठा वदेजा वि ॥ ६१६२॥ द्वितीयपदे अनाभोगेन सहसा वा प्राणवधादिविषयं वादमुक्त्वा भूयः 'समावर्तेत' प्रत्यावर्तेत, मिथ्यादुष्कृतमपुनःकरणेन दद्यादित्यर्थः । अथवा जानन्नपि, पुनःशब्दो विशेषणे, स चैतद् विशिनष्टि-योऽयोग्यः शैक्षः प्रव्राजितस्तस्य विवेचनार्थ प्राणातिपातादिवादमपि वदेद् येनासावुद्वेजितो गणाद् निर्गच्छति ॥ ६१६२ ॥ ॥ प्रस्तारप्रकृतं समाप्तम् ॥ 10 18 क ण्ट का युद्ध र ण प्रकृतम् सूत्रम्निग्गंथस्स य हत्थंसि वा पायंसि वा कार्यसि वा खाणू वा कंटगे वा हीरे वा सक्करे वा परियावज्जेज्जा, तं च निग्गंथे नो संचाइच्चाएज्जा नीहरित्तए वा विसोहित्तए वा, तं निग्गंथी नीहरमाणी वा विसोहेमाणी वा नो अतिक्कमइ ३॥ निग्गंथस्स अच्छिसि पाणे वा बीए वा रए वा परियावज्जेज्जा, तं च निग्गंथे नो संचाएज्जा नीहरित्तए वा विसोहित्तए वा, तं निग्गंथी नीहरमाणी वा विसोहेमाणी वा नो अतिक्कमइ ४ ॥ निग्गंथीए हत्थंसि वा पायंसि वा कार्यसि वा खाणु वा कंटए वा हीरए वा सक्करे वा परियावज्जेज्जा, तं च निग्गंथी नो संचाइज्जा नीहरित्तए वा विसोहित्तए वा, तं च निग्गंथे नीहरमाणे वा विसोहेमाणे वा नाइक्कमइ ५ ॥ निग्गंथीए अच्छिसि पाणे वा वीए वा रए वा जाव निग्गंथे नीहरमाणे वा विसोहेमाणे वा नाइ. कमइ ६॥ अस्य सूत्रचतुष्टयस्य सम्बन्धमाह पायं गता अकप्पा, इयाणि वा कप्पिता इमे सुत्ता । आरोवणा गुरु त्ति य, तेण तु अण्णोण्ण समशुण्णा ॥ ६१६३ ॥ 30 6 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२८ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [कण्टका०प्रकृते सूत्रम् ३-६ 'प्रायः' प्रायेण 'अकल्पिकानि' 'नो कल्पन्ते' इति निषेधप्रतिपादकानि सूत्राणि इहाध्ययंने गतानि । 'इदानीम्' इत ऊर्द्धमिमानि कल्पिकसूत्राणि भण्यन्ते । 'वा' विभाषायाम् , सूत्रेणानुज्ञायार्थतः प्रतिषेधः क्रियते, एवं वैकल्पिकान्यनुज्ञासूत्राणीत्यर्थः । अथ किमर्थमत्र सूत्र एवानुज्ञा कृता ? इत्याह-"आरोवणा" इत्यादि । यदि कारणे निर्ग्रन्थस्य निम्रन्थी निम्रन्थ्या वा निर्ग्रन्थः कण्टकादिकं न नीहरति तदा चतुर्गुरु । एवमारोपणा 'गुरुका' महती तेन कारणेन 'अन्योन्यं' परस्परं समनुज्ञा सूत्रेषु कृता ।। ६१६३ ॥ आह-यदि सूत्रेणानुज्ञातं ततः किमर्थमर्थतः प्रतिषिध्यते ? इति अत आह जह चेव य पडिसेहे, होति अणुना तु सव्वसुत्तेसु । तह चेव अणुण्णाए, पडिसेहो अत्थतो पुव्वं ।। ६१६४ ॥ 10 यथैव कण्ठतः सूत्रपदैः प्रतिषेधे कृते सर्वसूत्रेप्वप्यर्थतोऽनुज्ञा भवति तथैव येषु सूत्रेषु साक्षात् 'अनुज्ञातम्' अनुज्ञा कृता तेषु पूर्वमर्थतः प्रतिषेधस्ततोऽनुज्ञा क्रियते ॥ ६१६४ ।। अथवा प्रकारान्तरेण सम्बन्धः, तमेवाह - तहाणं वा वुत्तं, निग्गंथो वा जता तु ण तरेजा। सो जं कुणति दुहट्टो, तदा तु तट्ठाणमावजे ॥ ६१६५ ॥ 15 अथवा 'तत्स्थानं' तस्य-प्राणातिपातादिकर्तुः स्थान प्रायश्चित्तं सम्यगप्रतिपूरयतोऽभ्या ख्यानदातुर्मवति इत्युक्तम् । अत्रापि निर्ग्रन्थः कण्टकादिकं यदा उद्धत 'न तरेत्' न शक्नुयात् तदा यदि निम्रन्थी तस्य कण्टकादिनीहरणं न करोति तदा स निर्ग्रन्थः 'दुःखार्तः' पीडितो यद् आत्मविराधनां संयमविराधनां वा करोति 'तत्स्थानं' तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तं सा निर्ग्रन्थी आपर्धते । अत इदं सूत्रमारभ्यते ॥ ६१६५ ॥ 20 अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या-निम्रन्थस्यै 'अधःपादे' पादतले स्थाणुर्वा कण्टको वा हीरो वा शर्करो वा 'पर्यापतेत्' अनुप्रविशेत् , 'तच्च' कण्टकादिकं निर्ग्रन्थो न शक्नुयात् 'नीहतुं वा' निष्काशयितुं वा 'विशोधयितुं वा' निःशेषमपनेतुम् , तद् निम्रन्थी नीहरन्ती वा विशोधयन्ती वा नातिकामति, आज्ञामिति गम्यते इति प्रथमसूत्रम् ॥ द्वितीयसूत्रे-निर्ग्रन्थस्य 'अक्ष्णि' लोचने 'प्राणा वा' मशकादयः सूक्ष्माः 'बीजानि वा' 35 सूक्ष्माणि श्यामाकादीनि 'रजो वा' सचित्तमचित्तं वा पृथिवीरजः 'पर्यापतेत्' प्रविशेत् , १ यने उद्देशषट्केऽपि गतानि । 'इदानीम्' इत ऊमिमानि 'वा' इति विकल्पेन कल्पिकानि सूत्राणि भण्यन्ते । सूत्रेणानुज्ञायार्थतः को० ॥ २ स्परं निम्रन्थस्य निर्ग्रन्थ्याश्च कण्टकोद्धरणादौ समनुज्ञा एतेषु चतुर्वपि सूत्रेषु का० ॥ ३ 'प्वपि 'अर्थतः' 'निर्युक्तौ भाष्ये वाऽनुज्ञा कां० ॥ ४ °द्यते । उपलक्षणमिदम् , तेन निर्ग्रन्थ्या अशक्नुवत्याः कण्टका यदि निर्ग्रन्थो न कुरुते तदा निग्रन्थी यत् परितापादिकमवाप्नोति तन्निष्पन्नं निर्ग्रन्थस्य प्रायश्चित्तम् इत्यत्र सूत्रचतुष्टयेऽभिधीयते ॥ ६१६५ ॥ अनेन कां० ॥ ५ °स्य, चशब्दोवाक्योपन्यासे, 'अधः का० ॥ ६°म् ॥ तथा-निर्घ कां० ॥ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ६१६४-६९] पष्ठ उद्देशः । १६२९ 'तच्च' प्राणादिकं निर्ग्रन्थो न शक्नुयान्नीहर्तुमित्यादि प्राग्वत् ॥ तृतीय-चतुर्थसूत्रे निर्माविषये एवमेव व्याख्यातव्ये । इति सूत्रचतुष्टयार्थः ।। अथ नियुक्तिविस्तरः पाए अच्छि विलग्गे, समणाणं संजएहि कायध्वं । समणीणं समणीहिं, वोचत्थे होंति चउगुरुगा ॥ ६१६६॥ । पादे अक्ष्णि वा विलग्ने कण्टक-कणुकादौ श्रमणानां संयतैर्नीहरणं कर्तव्यम् , श्रमणीनां पुनः श्रमणीभिः कार्यम् । अथ व्यत्यासेन कुर्वन्ति तदा चतुर्गुरवः ।। ६१६६ ॥ एते चापरे दोषाः अण्णत्तो च्चिय कुंटसि, अण्णत्तो कंटओ खतं जातं । दिलृ पि हरति दिदि, किं पुण अद्दिढ इतरस्स ॥ ६१६७॥ 10 संयतः संयत्याः पार्थात् कण्टकमाकर्षयन् कैतवेन यथाभावेन वा अपावृत उपविशेत् ततः सा तं तथास्थितं पश्यन्ती कण्टकस्थानादन्यत्रान्यत्र शल्योद्धरणादिना कुण्टयेत् , खन्यादित्यर्थः । ततः साधु—यात्-अन्यत एव त्वं कुण्टयसि कण्टकश्चान्यत्र समस्ति एवं मे क्षतं सञ्जातम् । सा प्राह-'इतरस्य' पुरुषस्य सम्बन्धि सागारिकं दृष्टमपि भुक्तभोगिन्याः स्त्रिया अनेकशो विलोकितमपि दृष्टिं हरति किं पुनरदृष्टमभुक्तभोगिन्याः?, तस्याः सुतरां दृष्टिं 15 हस्तीत्यर्थः । एवं भिन्नकथायां प्रतिगमनादयो दोषाः ॥ ६१६७ ॥ यदा तु निर्ग्रन्थो निर्ग्रन्थ्याः कण्टकमुद्धरति तदाऽयं दोषः कंटग-कणुए उद्धर, धणितं अवलंब मे भमति भूमी । सूलं च बत्थिसीसे, पेल्लेहि घणं थणो फुरति ॥ ६१६८ ।। काचिदार्यिका कैतवेनेदं ब्रूयात् - 'कण्टक-कणुके' पादे कण्टकं चक्षुषि च कणुकभुद्धर, 20 'धणियं' अत्यर्थं मामवलम्बस्व, यतो मम भ्रमिवशेन भूमिभ्रमति । शूलं वा बस्तिशीर्षे मम समायाति तेन स्तनः स्फुरति, अतो घनं प्रेरय। एवं भिन्नकथायां सद्यश्चारित्रविनाशः ॥६१६८॥ एए चेव य दोसा, कहिया थीवेद आदिसुत्तेसु ॥ अयपाल-जंबु-सीउण्हपाडणं लोगिगी रोहा ॥ ६१६९ ॥ 'एत एव' अनन्तरोक्ता दोषाः स्त्रीवेदविषयाः ‘आदिसूत्रेषु' सूत्रकृताङ्गान्तर्गतस्त्रीपरि-25 १°यान्निहर्तुं वा विशोधयितुं वा, निर्ग्रन्थी निर्हरन्ती वा विशोधयन्ती वा नातिकामत्याज्ञामिति द्वितीयसूत्रम् ॥ तथा निर्ग्रन्थ्याश्च 'अधःपादे' पादतले स्थाणा कण्टको वा हीरो वा शर्करो वा 'पर्यापद्येत' अनुप्रविशेत् 'तच्च' कण्टकादिकं निर्ग्रन्थी न शक्नुयात् निहर्तु वा विशोधयितुं वा, तद् निर्ग्रन्थो निर्हरन् वा विशोधयन् वा नातिक्रामतीति तृतीयसूत्रम् ॥ निम्रन्थ्याश्चाक्षिण प्राणा वा बीजानि वा रजो वा पर्यापद्येत, 'तच' प्राणादिकं निर्ग्रन्थी न शक्नुयाद् निर्हर्तुं वा विशोधयितुं वा, तं निर्ग्रन्थो निर्हरन् वा विशोधयन् वा नातिक्रामतीति चतुर्थसूत्रम् । इति सूत्रचतुष्टयार्थः कां० ॥ २ यतैरेव तस्य कण्टकादेरुद्धरणं कर्त्त का० ॥ ३ 'क्काः चकाराद अपरे च बहवो दोषाः कां० ॥ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६३० सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [कण्टका०प्रकृते सूत्रम् ३-६ ज्ञाध्ययनादिषु सविस्तरं कथिताः । अत्र चाजापालक-शीतोष्ण-जम्बूपातनोपलक्षिता लौकिकी रोहायाः कथा । तद्यथा रोहा नाम परिव्वाइया । ताए अयावालगो दि@ो । सो ताए अभिरुईओ । तीए चिंतियं-विन्नाणं से परिक्खामि । सो य तया जंबूतरुवरारूढो । तीए फलाणि पणईओ। 5 तेण भन्नई-किं उण्हाणि देमि ! उयाहु सीयलाणि ? ति । तीए भण्णइ उण्हाणि । तओ तेण धूलीए उवरि पाडियाणि, भणिया-खाहि त्ति । तीए फूमिउं धूलिं अवणेउं खइयाणि । पच्छा सा भणइ-कहं भणसि उण्हाणि । तेण भन्नइ-जं उण्हयं होइ तं फूमि सीयलीकज्जइ । सा तुट्ठा । पच्छा भणति माइट्ठाणेणं-कंटओ मे लग्गो ति । सो उद्धरिउमारद्धो । तीए सणियंसणियं हासियं । सो वि तुसिणीओ कंटगं पुलोएत्ता भणइ-न दीसइ कंटगो 10ति । तीए तस्स पण्ही दिण्णा । एवं सो कइयवकंटउद्धरणेणं तीए खलीकओ । एवं साहुणो वि एवंविहा दोसा उप्पज्जति ॥ ६१६९॥ किश्च मिच्छत्ते उड्डाहो, विराहणा फास भावसंबंधो। पडिगमणादी दोसा, भुत्तमभुत्ते य णेयव्वा ॥ ६१७०॥ मिथ्यात्वं नाम-निर्ग्रन्थ्याः कण्टकमुद्धरन्तं संयतं दृष्ट्वा लोको ब्रूयात्-यथा वादिनस्तथा 15 कारिणोऽमी न भवन्ति । उड्डाहो वा भवेत्-अहो ! यद् एवमियं पादे गृहीता तद् नूनमन्यदाऽप्यनयोः साङ्गत्यं भविष्यति । विराधना वा संयमस्य भवति, कथम् ! इत्याह'स्पर्शतः' शरीरसंस्पर्शनोभयोरपि भावसम्बन्धो भवति । ततो भुक्तभोगिनोरभुक्तभोगिनोर्वा तयोः प्रतिगमनादयो दोषा ज्ञातव्याः ॥ ६१७० ॥ अथ मिथ्यात्वपदं भावयति दिढे संका भोइय, पाडिग णाती य गामबहिया य ।। 20 चत्तारि छ च्च लहु गुरु, छेदो मूलं तह दुगं च ॥ ६१७१ ॥ आरक्खियपुरिसाणं, तु साहणे पार्वती तहा मूलं । अणवट्ठो सेट्ठीणं, दसमं च णिवस्स कधितम्मि ।। ६१७२ ॥ तस्याः कण्टकमुद्धरन् केनचिद् दृष्टः, तस्य च 'शङ्का' 'किं मन्ये मैथुनार्थम् !' इतिलक्षणा यदि भवेत् तदा चतुर्लघु । भोजिकायाः कथने चतुर्गुरु । घाटितनिवेदने षड्लघु । 25 ज्ञातिज्ञापने षड्गुरु । ग्रामाद् बहिः कथने च्छेदः ॥ ६१७१ ॥ मूलादित्रयं पुनरित्थं मन्तव्यम् आरक्षिकपुरुषाणां कथने मूलं प्रामोति । श्रेष्ठिनः कथितेऽनवस्थाप्यं भवेत् । नृपस्य कथने 'दशमं पाराश्चिकम् । एते संयतानां संयतीनां च परस्परं कण्टकोद्धरणे दोषा उक्ताः॥६१७२॥ एए चेव य दोसा, अस्संजतिकाहि पच्छकम्मं च । १ स्तरं परमगुरुभिः कथिताः। तदर्थिना सूत्रकृताङ्गटीकैवावलोकनीया। अत्र चाजा' कां० ॥२ वती भवे मूलं भा० विना ॥ ३ निर्ग्रन्थस्य निर्ग्रन्थी निर्ग्रन्थ्या वा निर्ग्रन्थः कण्टक मुद्धरन्तौ यदि केनचिद् दृष्टी, तस्य च कां० ॥ ४ अथाऽसंयतैरसंयतीभिश्च कण्टको. द्धरणं कारयतां दोषानाह इत्यवतरणं कां ॥ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ६१७०-७६] षष्ठ उद्देशः। १६३१ गिहिएहिँ पच्छकम्म, तम्हा समणेहिँ कायव्यं ॥ ६१७३ ॥ एत एव दोषा असंयतिकाभिः कण्टकोद्धरणं कारयतो मन्तव्याः, 'पश्चात्कर्म च' अप्कायेन हस्तप्रक्षालनरूपं तासु भवति । गृहिभिस्तु कारयतः पश्चात्कर्म भवति न पूर्वक्ता दोषाः। अतः श्रमणैः श्रमणानां कण्टकोद्धरणं कर्तव्यम् ॥ ६१७३ ॥ अत्र परः प्राह एवं सुत्तं अफलं, सुत्तनिवातो तु असति समणाणं ।। गिहि अण्णतिथि गिहिणी, परउत्थिगिणी तिविह भेदो॥६१७४॥ यदि संयंतीभिः न कारयितव्यं तत एवं सूत्रमफलं प्रामोति । सूरिराह-सूत्रनिपातः श्रमणानामभावे मन्तव्यः । तत्र च प्रथमं गृहिभिः कण्टकोद्धरणं कारणीयम् , तदभावेऽन्यतीर्थिकैः, तदप्राप्तौ गृहस्थाभिः, तदसम्भवे परतीर्थिकीभिरपि कारयितव्यम् । एषु च प्रत्येक त्रिविधो भेदः । तद्यथा गृहस्थस्त्रिविधः-पञ्चात्कृतः श्रावको यथाभद्रकश्च । एवं परतीर्थि-10 कोऽपि त्रिधा मन्तव्यः । गृहस्था परतीर्थिकी च त्रिविधा-स्थविरा मध्यमा तरुणी चेति । तत्र गृहस्थेन कारयन् प्रथमं पश्चात्कृतेन, ततः श्रावकेण, ततो यथाभद्रकेणापि कारयति । स च कण्टकाकर्षणानन्तरं प्रज्ञापनीयः-मा हस्तप्रक्षालनं कार्षीः । एवमुक्ते यद्यसावशौचवादी तदा हस्तं हस्तेनैव प्रोञ्छति प्रस्फोटयति वा ॥ ६१७४ ॥ अथ शौचवादी ततः जइ सीसम्मि ण पुंछति, तणु पोत्तेसु व ण वा वि पप्फोडे । 15 तो सि अण्णेसि असति, दवं दलंति मा वोदगं घाते ॥ ६१७५ ॥ यदि हस्तं शीर्षे वा तनौ वा 'पोतेषु वा' वस्त्रेषु न प्रोञ्छति न वा प्रस्फोटयति 'गृहे गतो हस्तं प्रक्षालयिष्यामि' इति कृत्वा, ततः "से" तस्य अन्येषाम् 'असति' अभावे प्राशुक. मात्मीयं द्रवं हस्तधावनाय ददति, मा 'उदकम्' अप्कायं घातयेदिति कृत्वा । गृहस्थानामभावे । परतीर्थिकेनापि कारयन् एवमेव पश्चात्कृतादिक्रमेण कारयेत् । तेषामभावे गृहस्थाभिरपि कार-20 येत् ॥ ६१७५ ॥ कथम् ? इत्याह माया भगिणि धूया, अज्जिय णत्तीय सेस तिविधाओ। आगाढ़े कारणम्मि, कुसलेहिं दोहि कायव्वं ॥ ६१७६ ॥ .. या तस्य निर्ग्रन्थस्य माता भगिनी दुहिता वा 'अर्यिका वा' पितामही 'नप्तका वा' पौत्री तया कारयितव्यम् । एतासामभावे याः 'शेषाः' अनालबद्धाः स्त्रियस्ताभिरपि कारयेत् । ताश्च 25 त्रिविधाः-स्थविरा मध्यमास्तरुण्यश्च । तत्र प्रथम स्थविरया, ततो मध्यमया, ततस्तरुण्याऽपि कारयितव्यम् । आगाढे कारणे कुशलाभ्यां द्वाभ्यामपि कण्टकोद्धरणं कर्तव्यम् , कारयितव्य. १ यतीभिः कण्टकोद्धरणं सूत्रेऽनुज्ञातमपि साधुभिः न कार° को० ॥ २ 'तः सूत्राव. तारः श्रमणानाम 'असति' अभावे कां०॥ ३ मा वा दगं ताभा० कां । एतदनुसारेणैव कां० टीका, दृश्यतां टिप्पणी ४ ॥ ४ तस्य 'अन्यस्य' अशौचवादिनः 'असति' अभावे प्रासुकमात्मीयं द्रवं हस्तधावनाय ददति, मा शौचवादितया गृहं गतः सन् 'दकम्' अकायं घातयेदिति कृत्वा । हन्त्यर्थाश्चेतिवदत्र(?) चौरादिको हन्धातुरवगन्तव्यः । तथा गृहस्थाना कां ॥ ५'आगाढे कारणे' अन्येनोद्धर्तुमशक्य-प्रबलव्यथाकारिकण्टकलक्षणे कुशलाभ्यां कां• ॥ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६३२ सनियुक्ति-लधुभाष्य-वृत्तिके वृहत्कल्पसूत्रे [ कण्टका०प्रकृते सूत्रम ३-६ मित्यर्थः ॥ ६१७६ ॥ के पुनस्ते द्वे ? इत्याह गिहि अण्ण तित्थि पुरिमा, इत्थी वि य गिहिणि अण्ण तित्थीया। संबंधि एतरा वा, वइणी एमेव दो एते ॥ ६१७७ ॥ गृहस्थपुरुषोऽन्यतीर्थिकपुरुषश्चेति द्वयम् , गृहस्थी अन्यतीर्थिकी चेति वा द्वयम् , सम्ब5न्धिनी 'इतरा वा' असम्बन्धिनी व्रतिनी एवं वा द्वयम् । एतेषां द्विकानामन्यतरेण कुशलेन आगाढे कारणे कारयितव्यम् ।। ६१७७ ॥ आह-'श्रमणानामभावे सूत्रनिपातो भवति' (गा० ६१७४ ) इत्युक्तम् , कदा पुनरसौ साधूनामभावो भवति ? इत्याह तं पुण सुण्णारण्णे, दुहारण्णे व अकुसलेहिं वा । कुसले वा दूरत्थे, ण चएइ पदं पि गंतुं जे ॥ ६१७८ ॥ 10 'साधवो न भवन्ति' इति यदुक्तं तत् पुनरित्थं सम्भवति–'शून्यारण्य' ग्रामादिभिर्वि रहिता अटवी, 'दुष्टारण्यं वा' व्याघ्र-सिंहादिभयाकुलम् , एतयोः साधूनामभावो भवेत् । उपलक्षणत्वाद् अशिवादिभिः कारणैरेकाकी सञ्जात इत्यपि गृह्यते । एषा साधुनामसदसत्ता । सदसत्ता तु सन्ति साधवः परमकुशलाः-कण्टकोद्धरणेऽदक्षाः, अथवा यः कुशलः सः 'दूरस्थः' दूरे वर्तते, स च कण्टकविद्धपादः पदमपि गन्तुं न शक्नोति ततः पूर्वोक्ता यतना कर्तव्या 15॥ ६१७८ ॥ अथ सामान्येन यतनामाह परपक्ख पुरिस गिहिणी, असोय-कुसलाण मोत्तु पडिवक्खे । पुरिस जयंत मणुण्णे, होंति सपक्खेतरा वा तू ॥ ६१७९ ॥ इह प्रथमं पश्चार्द्ध व्याख्याय ततः पूवार्द्ध व्याख्यास्यते । ये 'यतमानाः' संविमाः साम्भोगिकाः पुरुषास्तैः प्रथमं कारयेत् , तदभावे अमनोज्ञैः-असाम्भोगिकैः, तदभावे ये इतरे20 पार्श्वस्थादयस्तैर्वा कारयेत् । एषा स्वपक्षे यतना भणिता । अथैष खपक्षो न प्राप्यते ततः "परपक्खे"त्यादि पूर्वार्द्धम् –'परपक्षे' गृहस्था-ऽन्यतीर्थिकरूपे प्रथमं पुरुषैः, ततः 'गेहिनीभिः' स्त्रीभिरपि कारयेत् , तत्राप्यशौचवादिभिः कुशलैश्च कारापणीयम् । अत एवाह-अशौचवादि-कुशलानां 'प्रतिपक्षाः' ये शौचवादिनोऽकुशलाश्च तान् मुक्त्वा कारयितव्यम् । अथै तेऽपि न प्राप्यन्ते तदा संयतीभिरपि कारयेत् , तत्रापि प्रथमं मातृ-भगिन्यादिभिनीलबद्धाभिः, 25 तदभावेऽसम्बन्धिनीभिरपि स्थविरा-मध्यमा-तरुणीभिर्यथाक्रमं कारयेत् ॥ ६१७९ ॥ कथं पुनस्तया कण्टक उद्धरणीयः ? इत्याह सल्लुद्धर णक्खेण व, अच्छिव वत्थंतरं व इत्थीसु । भूमी-कट्ठ-तलोरुसु, काऊण सुसंवुडा दो वि ॥ ६१८० ॥ शल्योद्धरणेनै नखेन वा पादमस्पृशन्ती कण्टकमुद्धरति । अथैवं न शक्यते ततो · वस्त्रा30न्तरितं पादं भूमौ कृत्वा यद्वा काष्ठे वा तले वा ऊरौ वा कृत्वा उद्धरेत् । 'द्वावपि च' संयती-संयती सुसंवृतावुपविशतः । एषः 'स्त्रीषु' कण्टकमुद्धरन्तीषु विधिरवगन्तव्यः॥६१८०]] १ति "जे" इति पादपूरणे निपातो वाक्यालङ्कारे, ततः का० ॥ २ 'त् । 'तुः पादपूरणे । एषा का० ॥ ३°न “णक्खेण व" त्ति नखहरणिकया वा पाद° कां ॥ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . भाष्यगाथाः ६९७७-८२ ] षष्ठ उद्देशः । एमेव य अच्छिम्मि, चंपादितों णवरि नाणत्तं । निग्गंथीण तहेव य, णवरिं तु असंवुडा काई ॥ ६१८१ ॥ ऐवमेव अक्षिसूत्रेऽपि सर्वमपि वक्तव्यम् । 'नवरं' नानात्वं चम्पादृष्टान्तोऽत्र भवति । यथा किल चम्पायां सुभद्रया तस्य साधोश्चक्षुषि पतितं तृणमपनीतं तथाऽन्यस्यापि साधोचक्षुषि प्रविष्टस्य तृणादेः कारणे निर्ग्रध्याऽपनयनं सम्भवतीति दृष्टान्तभावार्थः । निर्मन्थी - 5 नामपि सूत्रद्वयं तथैव वक्तव्यम् । नवरम् - काचिदसंवृता भवति ततः प्रतिगमनादयः पूर्वोक्ता दोषा भवेयुः । द्वितीयपदे निर्मन्थस्तासां प्रागुक्तविधिना कण्टकादिकमुद्धरेत् ।। ६१८१ ॥ ॥ कण्टकाद्युद्धरणप्रकृतं समाप्तम् ॥ दुर्गप्रकृतम् सूत्रम् - निग्गंथे निग्गंथिं दुग्गंसि वा विसमंसि वा पव्वयंसि वा पक्खुलमाणि वा पवडमाणि वा गिण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा नाइकमइ ७ ॥ निग्गंथे निग्धं सेयंसि वा पंकंसि वा पणगंसि वा उदगंसि वा ओकसमाणिं वा ओवुज्झमाणिं वा गिण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा नाइकमइ ८ ॥ निग्गंथे निग्गंधिं नावं आरुभमाणि वा ओरुभमाणि वा गिण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा नातिक्कमइ ९ ॥ अस्य सूत्रत्रयस्य सम्बन्धमाह सो पुण दुग्गे लग्गेज कंटओ लोयणम्मि वा कणुगं । इति दुग्गसुतजोगो, थला जलं चेयरे दुविहे ।। ६१८२ ॥ यः पूर्वसूत्रे पादप्रविष्टः कण्टको लोचने वा कणुकं प्रविष्टमुक्तं स कण्टकस्तश्च कणुकं दुर्गे गच्छतः प्रायो लगेत्, अतो दुर्गसूत्रमारभ्यते । 'इति' एष दुर्गसूत्रस्य योगः -सम्बन्धः । दुर्ग च - स्थलं ततः स्थलाज्जलं भवतीति कृत्वा दुर्गसूत्रानन्तरम् 'इतरस्मिन् ' जलप्रतिबद्धे 'द्विविधे' पङ्कविषये नौविषये च सूत्रे आरम्भः क्रियते ॥ ६१८२ ॥ १६३३ १ यथा कण्टकोद्धरणसूत्रे उत्सर्गतोऽपवादतश्चोतं एवमेव कां० ॥ बृ० २०६ 10 25 अनेन सबन्धेनायातस्यास्य व्याख्या --- निर्मन्थो निर्ग्रन्थीं दुर्गे वा विषमे वा पर्वते वा "पक्खुलमाणि व" चि प्रकर्षेण स्खलद्गत्या गच्छन्तीम्, भूमात्रसम्प्राप्तां वा पतन्तीम्, 15 20 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६३४ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ दुर्गप्रकृते सूत्रम् ७-९ पतितुकामामित्यर्थः । “पवडमाणि व” ति प्रकर्षण-भूमौ सर्वैरपि गात्रैः पतन्तीम् । “गिहमाणे व" ति बाह्वादावङ्गे गृहन् वा, "अवलंबमाणे व" ति अवलम्बमानो वा' बाहादौ गृहीत्वा धारयन् ; अथवा 'गृह्यन' सर्वाङ्गीणां धारयन् , 'अवलम्बमानः' देशतः करेण गृहुन् , साहयमित्यर्थः । नातिकामति खाचारमाज्ञां वा इति प्रथमसूत्रम् ॥ । द्वितीयसूत्रमप्येवमेव । नवरम् --सेको नाम-पके पनके वा सजले यत्र निमज्यते तत्र वा, पङ्कः-कर्दमः तत्र वा, पनको नाम-आगन्तुकः प्रतनुद्रवरूपः कर्दम एव तत्र वा, उदकं प्रतीतं तत्र वा, "ओकसमाणिं व" त्ति 'अपकसन्तीं वा' पक-पनकयोः परिहसन्तीं "ओवुज्झमाणि व" त्ति 'अपोह्यमानां वा' सेकेन उदकेन वा नीयमानां गृह्णन् वा अवलम्बमानो वा नातिकामति ॥ 10 तृतीयसूत्रे निम्रन्थीमेव नावमारोहन्तीं वा अवरोहन्ती वा गृह्णानो वा अवलम्बमानो वा नातिकामति इति सूत्रत्रयार्थः ॥ सम्प्रति भाष्यकारो विषमपदानि व्याचष्टे तिविहं च होति दुग्गं, रुक्खे सावय मणुस्सदुग्गं च। णिकारणम्मि गुरुगा, तत्थ वि आणादिणो दोसा ॥ ६१८३ ॥ त्रिविधं च भवति दुर्गम् , तद्यथा-वृक्षदुर्ग श्वापददुर्ग मनुष्यदुर्ग च । यद् वृक्षैरतीव 16 गहनतया दुर्गमं यत्र वा पथि वृक्षः पतितः तद् वृक्षदुर्गम् । यत्र व्याघ्र-सिंहादीनां भयं तत् श्वापददुर्गम् । यत्र म्लेच्छ-बोधिकादीनां मनुष्याणां भयं तद् मनुष्यदुर्गम् । एतेषु त्रिष्वपि दुर्गेषु यदि निष्कारणे निर्यन्थीं गृह्णाति अवलम्बते वा तदा चतुर्गुरु, आज्ञादयश्च दोषाः ।। ६१८३ ॥ मिच्छत्ते सतिकरणं, विराहणा फास भावसंबंधो। पडिगमणादी दोसा, भुत्ता-ऽभुत्ते व णेयव्या ॥ ६१८४ ॥ निर्ग्रन्थी गृहन्तं तं दृष्ट्वा कोऽपि मिथ्यात्वं गच्छेत्-अहो! मायाविनोऽमी, अन्यद् वदन्ति अन्यच्च कुर्वन्ति । स्मृतिकरणं वा भुक्तभोगिनो भवति, अभुक्तभोगिनस्तु कुतूहलम् । ततश्च संयमविराधना । स्पर्शतश्च भावसम्बन्धो भवति । ततः प्रतिगमनादयो दोषा भुक्ता. नामभुक्तानां वा साधु-साध्वीनां ज्ञातव्याः ॥ ६१८४ ॥ अथ विषमपदं व्याख्याति तिविहं च होति विसमं, भूमि सावय मणुस्सविसमं च । तम्मि वि सो चेव गमो, णावोदग सेय जतणाए ॥ ६१८५ ॥ त्रिविधं च भवति विषमम्-भूमि विषमं श्वापदविषमं मनुष्य विषमं च । भूमि विषमं नामगर्ता-पाषाणाद्याकुलो भूभागः, श्वापद-मनुष्यविषमे तु श्वापद-मनुष्यदुर्गवद् मन्तव्ये । अत्र भूमिविषमेणाधिकारः । पर्वतपदं तु प्रतीतत्वाद् न व्याख्यातम् । 'तस्मिन्नपि' विषमे पर्वते वा 50 निम्रन्थीं गृह्णतश्चतुर्गुरुकप्रायश्चित्तादिरूपः स एव गमो भवति यो दुर्गे भणितः । तथा 'नावु. १ 'म् 'आरोहन्तीं वा' प्रविशन्तीम् 'अवरोहन्तीं वा' उत्तरन्तीं गृलानो का ॥ २र्थः ॥ अथ भाष्य भा० ॥ ३ 'रुकाः । तत्रापि' तादृशेऽपि दुर्गे निर्ग्रन्ध्या निष्कारणे ग्रहणेऽवलम्बने वा आज्ञादयो दोषाः ॥६१८३॥ अपरे चामी दोषाः-मिच्छत्ते का० ॥ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ६१८३-९१ ] षष्ठ उद्देशः । १६३५ दके सेकादौ च' वक्ष्यमाणस्वरूपे निर्ग्रन्थीं गृह्णतो निष्कारणे त एव दोषाः । " जयणाए " चि कारणे यतनया दुर्गादिषु गृह्णीयादवलम्बेत वा । यतना चाग्रतो वक्ष्यते ॥ ६१८५ ॥ अथ प्रस्खलन- प्रपतनपदे व्याचष्टे भूमीऍ असंपत्तं, पत्तं वा हत्थ - जाणुगादीहिं । पक्खुलणं णायव्वं, पवडण भूमीय गत्तेहिं ।। ६१८६ ॥ भूमावसम्प्राप्तं हस्त - जानुकादिभिः प्राप्तं वा प्रस्खलनं ज्ञातव्यम् । भूमौ प्राप्तं सर्वगात्रैश्व यत् पतनं तत् प्रपर्तनम् ॥ ६१८६ ॥ अहवा वि दुग्ग विसमे, थद्धं भीतं व गीत थेरो तु । सिचयंतरेतरं वा, गिण्हंतो होति निद्दोसो || ६१८७ ॥ 'अथवा ' इति प्रकारान्तरद्योतकः । उक्तास्तावद् निर्ग्रन्थी गृहतो दोषाः परं द्वितीयपदे 10 दुर्गे विषमे वा तां स्तब्धां भीतां वा गीतार्थः स्थविरः सिचयेन - वस्त्रेणान्तरिताम् इतरां वा गृह्णन् निर्दोषो भवति ॥ ६१८७ ॥ व्याख्यातं प्रथमसूत्रम् । सम्प्रति द्वितीयसूत्रं व्याख्याति - पंको खलु चिक्खल्लो, आगंतू पयणुओ दुओ पणओ । सो पुण सजलो सेओ, सीतिजति जत्थ दुविहे वी ॥ ६१८८ ॥ पङ्कः खलु चिक्खल्ल उच्यते । आगन्तुकः प्रतनुको द्रुतश्च पनकः । यत्र पुनः 'द्विविधेऽपि' 15 पक्के पनके वा “सीइज्जति" निमज्जते स पुनः सजल: सेक उच्यते ॥ ६१८८ ॥ पंक- पण नियमा, ओगसणं वुब्भणं सिया सेए । थिमियम्मि णिमञ्जणता, सजले सेए सिया दो वि ॥ ६१८९ ॥ पङ्क-पनकयोर्नियमाद् ‘अपकसनं' इसनं भवति । सेके तु " वुज्झणं" 'अपोहनं' पानीयेन हरणं स्यात् । स्तिमिते तु तत्र निमज्जनं भवेत् । सजले तु सेके 'द्वे अपि' अपवहन - निमज्जने 20 स्याताम् ॥ ६१८९ ॥ अथ तृतीयं नौसूत्रं व्याख्याति - ओयारण उत्तारण, अत्थुरण ववुग्गहे य सतिकारो । छेदो व दुवेगरे, अतिपिल्लण भाव मिच्छत्तं ॥ ६१९० ॥ कारणे निर्मन्थीं नावम् 'अवतारयन्' आरोपयन् उत्तारयन् वा यद्यास्तरणं वपुर्यहं वा करोति तदा स्मृतिकारो भुक्तभोगिनोस्तयोर्भवति । छेदो वा नखादिभिर्द्वयोरेकतरस्य भवेत् । अतिप्रेरणे 25 च 'भावः' मैथुनाभिलाष उत्पद्येत । मिथ्यात्वं वा तद् दृष्ट्वा कश्चिद् गच्छेत् ॥ ६१९०॥ ते नाद निर्ग्रन्थीं गृह्णतो दोषा उक्ताः । अथ लेपोपरि सन्तारयतो दोषानाहअंतोजले वि एवं, गुज्झंग फास इच्छऽणिच्छंते । मुचे व आयत्ता, जा होउ करेतु वा हावे ॥ ६१९१ ॥ 'अन्तर्जलेऽपि' जलाभ्यन्तरेऽपि गच्छन्तीं गृह्णत एवमेव दोषा मन्तव्याः । तथा गुझान - 30 स्पर्शे मोह उदियात्, उदिते च मोहे यदि इच्छति नेच्छति वा तत उभयथाऽपि दोषाः । १ पत्तं, संपत्तं वा वि हत्थ जाणूहिं ताभा• ॥ २° तनमिति ॥ ६१८६ ॥ अथ प्रथमसूत्रविषयं द्वितीयपद माह – अहवा कां० ॥ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६३६ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ क्षिप्तप्रकृते सूत्रम् १० यद्वा स उदीर्णमोहस्तां जलमध्ये मुश्चेत् , आयत्ता यस्माद् भवतु करोतु वा 'हावान्' मुखविकारानिति । कारणे तु नावुदके लेपोपरि वा अवतारणं उत्तारणं वा कुर्वन् यतनया गृहीयाद् अवलम्बेत वा ॥ ६१९१ ॥ अथ ग्रहणा-ऽवलम्बनपदे व्याख्याति सव्वंगियं तु गहणं, करेहिं अवलंबणेगदेसम्मि । जह सुत्तं तासु कयं, तहेव वतिणो वि वतिणीए ॥ ६१९२ ॥ __ ग्रहणं नाम सर्वाङ्गीणं कराभ्यां यद् गृह्यते । अवलम्बनं तु तद् उच्यते यद् एकस्मिन् देशे-बाहादौ ग्रहणं क्रियते । तदेवं यथा तासु निर्ग्रन्थीषु 'सूत्रं' सूत्रत्रयं कृतम् । किमुक्तं भवति !-यथा निम्रन्थो निर्ग्रन्थ्याः कारणे ग्रहणमवलम्बनं वा कुर्वन् नाऽऽज्ञामतिक्रामतीति सूत्रत्रयेऽपि भणितम् ; तथैवार्थत इदं द्रष्टव्यम्-'वतिनोऽपि' साधोरपि दुर्गादौ पादौ नावु10दकादौ वा प्रपततो बतिन्या कारणे ग्रहणमवलम्बनं वा कर्तव्यम् ॥ ६१९२ ॥ कया पुनर्यतनया ! इति चेद् अत आह जुगलं गिलाणगं वा, असहुं अण्णेण वा वि अतरंतं । गोवालकंचुगादी, सारक्खण णालबद्धादी ॥ ६१९३ ॥ 'युगलं नाम' बालो वृद्धश्च तद्वा, अपरं वा ग्लानम् अत एव 'असहिष्णुं दुर्गादिषु गन्तु15 मशक्नुवन्तम् , 'अन्येन वा ग्लानत्ववर्जेन कारणेन 'अतरन्तम्' अशक्तम्, गोपालकचुकादिपरिधानपुरस्सरं नालबद्धा संयती, आदिग्रहणेनानालबद्धाऽपि संरक्षति, गृहाति अवलम्बते वा इत्यर्थः ॥ ६१९३ ॥ ॥ दुर्गप्रकृतं समाप्तम् ॥ क्षित चि त्ता दि प्रकृतम् 20 सूत्रम् खित्तचित्तं निग्गंथि निग्गंथे गिण्हमाणे वा अव लंबमाणे वा नाइकमइ १०॥ अस्य सूत्रस्य सम्बन्धमाह ओवुझंती व भया, संफासा रागतो व खिप्पेजा। 25 संबंधत्थविहिण्णू, वदंति संबंधमेयं तु ॥ ६१९४ ॥ पानीयेनापोह्यमाना वा भयात् क्षिप्येत, क्षिप्तचित्ता भवेदित्यर्थः । यद्वा संस्पर्शतो यो राग उत्पद्यते तस्माद्वा तत्र साधावन्यत्र गते सति क्षिप्तचित्ता भवेत् । अतः क्षिप्तचित्तासूत्रमारभ्यते । एवं सम्बन्धार्थविधिज्ञाः सूरयोऽत्र सूत्रे एनं सम्बन्धं वदन्ति ॥ ६१९४ ॥ १ तदेवं व्याख्यातं तृतीयमपि सूत्रम् । सम्प्रति निम्रन्थानामेतदेव सूत्रत्रयमतिदिश. भाह-"जह सुत्तं तासु कयं" इत्यादि, यथा नि कां० ॥२ "जुगलं णाम संजतं गिलाणं संजति चं मिलाणि, अधवा चाल-वुद्धा" इति चूर्णी विशेषचूर्णौ च ॥ ३ यद्वा गृहतोऽवलम्बमानस्य वा निर्ग्रन्थस्य सम्बन्धी यः संस्पर्शः तस्माद् यो राग को० ॥ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ६१९२-९९] षष्ठ उद्देशः । १६३७ अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या-"खित्तचित्तं" ति क्षिप्तं-नष्टं राग-भया-ऽपमानैश्चित्तं यस्याः सा क्षिप्तचित्ता, तां निर्ग्रन्थीं निर्ग्रन्थो गृह्णानो वाऽवलम्बमानो वा नातिकामति आज्ञामिति सूत्रार्थः ॥ अथैनं भाष्यकारो विस्तरेण प्ररूपयितुमाह रागेण वा भएण व, अहवा अवमाणिया णरिंदेण । एतेहिँ खित्तचित्ता, वणिताति परूविता लोए ॥ ६१९५॥ रागेण यदि वा भयेनाथवा 'नरेन्द्रेण' प्रजापतिना, उपलक्षणमेतत्, सामान्येन वा प्रभुणा 'अपमानिताः' अपमानं ग्राहिताः, एतैः खलु कारणैः क्षिप्तचित्ता भवन्ति । ते च लोके उदाहरणत्वेन परूपिता वणिगादयः । तत्र रागेण क्षिप्तचित्ता यथा-वणिग्भार्या भर्तारं मृतं श्रुत्वा क्षिप्तचित्ता जाता ॥ ६१९५ ।। भयेनापमानेन च क्षिप्तचित्तत्वे उदाहरणान्याह भयओ सोमिलबडुओ, सहसोत्थरिया य संजुगादीसु। णरवतिणा व पतीण व, विमाणिता लोगिगी खेत्ता ॥ ६१९६ ॥ 'भयतः' भयेन क्षिप्तचित्तो यथा गजसुकुमालमारको जनार्दनभयेन सोमिलनामा 'बटुकः' ब्राह्मणः । अथवा 'संयुगादिषु' संयुगं-सङ्ग्रामस्तत्र, आदिशब्दात् परबलसमापतनादिपरिग्रहः, तैः, गाथायां सप्तमी तृतीयार्थे, 'सहसा' अतर्कितम् 'अवस्तृताः समन्ततः परिगृहीता मनुष्या भयेन क्षिप्तचिचा भवन्ति । एवं भयेन क्षिप्तचित्तत्वे उदाहरणमुक्तम् । सम्प्र-16 त्यपमानत आह-नरपतिना समस्तद्रव्यापहरणतः काचिद् विमानिता पत्या वा काचिन्म हेलाऽपमानिता क्षिप्तचिता भवेत् । एवमादिका लौकिकी क्षिप्तचिता मन्तव्या ॥ ६१९६ ॥ सम्प्रति लोकोत्तरिकी तामेवाह रागम्मि रायखुड्डी, जहाति तिरिक्ख चरिय वातम्मि । रागेण जहा खेत्ता, तमहं वोच्छं समासेणं ॥ ६१९७॥ 20 __ 'रागे' सप्तमी तृतीयार्थे रागेण क्षिप्तचित्ता यथा वक्ष्यमाणा राजक्षुल्लिका । भयेन यथा 'जड्डादीन्' हस्तिप्रभृतीन् तिरश्चो दृष्ट्वा । अपमानतो यथा चरिकया कयाचिद् वादे पराजिता सती काचिन्निम्रन्थी क्षिप्तचित्ता जायते । तत्र रागेण यथा राजक्षुल्लिका क्षिप्त चिचाऽभवत् तदहं वक्ष्ये समासेन ॥ ६१९७ ॥ जियसत्तू य णरवती, पवजा सिक्खणा विदेसम्मी।। काऊण पोतणम्मि, सव्वायं णिव्वुतो भगवं ॥ ६१९८॥ एका य तस्स भगिणी, रजसिरिं पयहिऊण पव्वइया। भातुयअणुराएणं, खेत्ता जाता इमा तु विही ॥ ६१९९ ॥ जितशत्रुर्नाम नरपतिः । तस्य प्रव्रज्याऽभवत्, धर्म तथाविधानां स्थविराणामन्तिके श्रुत्वा प्रव्रज्यां स प्रतिपन्नवानित्यर्थः । प्रव्रज्यानन्तरं च तस्य 'शिक्षणा' ग्रहणशिक्षा आसेव-30 नाशिक्षा च प्रवृत्ता । कालान्तरे च स विदेशं गतः । पोतनपुरे च परतीर्थिभिः सह वाद उपस्थितः । ततस्तैः सह शोभनो वादः सद्वादस्तं दत्त्वा महतीं जिनशासनप्रभावनां कृत्वा स भगवान् 'निर्वृतः' मुक्तिपदवीमधिरूढः ॥ ६१९८ ॥ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६३८ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे ८ क्षिप्त प्रकृते सूत्रम् १० एका च 'तस्य जितशत्रो राज्ञो भगिनी भातुरनुरागेण राज्यश्रियं प्रहाय जितशत्रुपत्रज्याप्रतिपत्त्यनन्तरं कियताऽपि कालेन प्रव्रजिता । सा च तं ज्येष्ठप्रातरं विदेशे पोतनपुरे कालगतं श्रुत्वा भातुरनुरागेण 'क्षिप्ता' अपहृतचित्ता जाता । तत्र च 'अयम्' अनुशिष्टिरूफ. स्तस्याः प्रगुणीकरणे विधिः ॥ ६१९९ ॥ तमेवाह - तेलोकदेवमहिता, तित्थगरा णीरता गता सिद्धि । थेरा वि गता केई, चरण-गुणपभावगा धीरा ॥ ६२००॥ तस्या पात्रादिमरणं श्रुत्वा क्षिप्तचित्तीभूताया आश्वासनार्थमियं देशना कर्तव्या, यथा--- मरणपर्यवसानो जीवलोकः । तथाहिये तीर्थकरा भगवन्तः त्रैलोक्यदेवैः-त्रिभुवननिवासिभिर्भवनपत्यादिभिः महितास्तेऽपि 'नीरजसः' विगतसमस्तकर्मपरमाणवः सन्तो गताः 10 सिद्धिम् । तथा स्थविरा अपि केचिन्महीयांसो गौतमखामिप्रभृतयः 'चरण-गुणप्रभावकाः' चरणं-चारित्रं गुणः-ज्ञानं ताभ्यां जिनशासनस्य प्रभावकाः 'धीराः' महासत्त्वा देव-दानवैरप्यक्षोभ्याः सिद्धिं गताः । तद् यदि भगवतामपि तीर्थकृतां महतामपि च महर्षीणामीहशी मतिस्ततः का कथा शेषजन्तूनाम् ! । तस्मादेतादृशीं संसारस्थितिमनुचिन्त्य न शोकः कर्तव्य इति ॥ ६२००॥ तथा बंभी य सुंदरी या, अन्ना वि य जाउ लोगजेट्ठाओ। ताओ वि अ कालगया, किं पुण सेसाउ अजाओ ॥ ६२०१॥ सुगमा (गा० ३७३८)॥ ६२०१॥ अन्यच्च न हु होति सोतियव्वो, जो कालगतो दढो चरित्तम्मि । सो होति सोतियन्बो, जो संजमदुब्बलो विहरे ॥ ६२०२ ॥ 20 "न हु" नैव स शोचयितव्यो भवति यश्चारित्रे दृढः सन् कालगतः । स खलु भवति शोचयितव्यो यः संयमे दुर्बलः सन् विहृतवान् ॥ ६२०२॥ कथम् ? इत्याह जो जह व तह व लद्धं, भुंजति आहार-उवधिमादीयं । समणगुणमुक्कजोगी, संसारपवड्डतो होति ॥ ६२०३ ॥ यो नाम यथा वा तथा वा, दोषदुष्टतया निर्दोषतया वा इत्यर्थः, लब्धमाहारोपध्यादिकं 25 'भुङ्क्ते' उपभोग-परिभोगविषयीकरोति स श्रमणानां गुणाः-मूलगुणोत्तरगुणरूपाः श्रमणगुणास्तैर्मुक्ताः-परित्यक्तास्तद्रहिता ये योगाः-मनो-वाकायव्यापारास्ते श्रमणगुणमुक्तयोगाः ते यस्य सन्ति स श्रमणगुणमुक्तयोगी संसारप्रवर्धको भवति । ततो यः संयमदुर्बलो विहृतवान् स एव शोच्यः, भवदीयस्तु प्रात्रादिः कालगतो दृढश्चारित्रे ततः स परलोकेऽपि सुगतिभागिति न करणीयः शोकः ॥ ६२०३ ॥ सम्प्रति "जड्डादितिरिक्ख" इत्यस्य व्याख्यानार्थमाह जहादी तेरिच्छे, सत्थे अगणीय थणिय विजू य । ओमे पडिभेसणता, चरियं पुव्वं परूवेउं ॥ ६२०४ ॥ जड्डः-हस्ती, आदिशब्दात् सिंहादिपरिग्रहः, तान् तिरश्चो दृष्ट्वा । किमुक्तं भवति ?गजं वा मदोन्मतं सिंहं वा गुञ्जन्तं व्याघ्र वा तीक्ष्णनखर-विकरालमुखं दृष्ट्वा काऽपि निर्ग्रन्थी 30 Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ६२००-७] षष्ठ उद्देशः। भयतः क्षिप्तचित्ता भवति । काऽपि पुनः 'शस्त्राणि' खगादीन्यायुधानि दृष्ट्वा, इयमत्र भावनाकेनापि परिहासेनोद्गीर्णं खड्गं कुन्तं क्षुरिकादिकं वा दृष्ट्वा काऽपि 'हा ! मामेष मारयति' इति सहसा क्षिप्तचित्ता भवति । एवम् 'अनौ' प्रदीपनके लग्ने 'स्तनिते वा' मेघगर्जिते श्रुते विद्युतं वा दृष्ट्वा भयतः क्षिप्तचित्ता भवेत् । एवंविधायां भयेन क्षिप्तचित्तायां को विधिः ? इत्याह'अवमा' तस्या अपि या लघुतरी क्षुल्लिका सा वक्ष्यमाणनीत्या तस्य सिंहादेः प्रतिभेषणांक करोति, तत इतरा भयं मुञ्चतीति । या तु वादे पराजिताऽपमानतः क्षिप्तचित्तीभूता तस्याः प्रगुणीकरणाथै यया चरिकया सा पराजिता तां पूर्व 'प्ररूप्य' प्रज्ञाप्य तदनन्तरं तया खमुखोचरितेन वचसा क्षिप्तचित्ततोत्तारयितव्या ॥ ६२०४ ॥ अथापमानतः क्षिप्तचित्ततां भावयति अबहीरिया व गुरुणा, पवत्तिणीए व कम्मि वि पमादे। वातम्मि वि चरियाए, परातियाए इमा जयणा ॥ ६२०५॥ 12 'गुरुणा' आचार्येणावधीरिता, अथवा प्रवर्तिन्या कस्मिंश्चित् प्रमादे वर्तमाना सती गाद शिक्षिता भवेत् ततोऽपमानेन क्षिप्तचित्ता जायेत । यदि वा चरिकया वादे पराजिता इत्यपमानतः क्षिप्तचित्ता स्यात् । तस्यां च भयेन क्षिप्तचित्तायामियं यतना ॥ ६२०५॥ कण्णम्मि एस सीहो, गहितो अह धारिओ य सो हत्थी। खुड्डुलतरिया तुझं, ते वि य गमिया पुरा पाला ॥ ६२०६॥ 15 इह "पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात्" "पाला" इत्युक्ते हस्तिपालाः सिंहपाला वा द्रष्टव्याः । तेऽपि 'पुरा' पूर्व 'गमिताः' प्रतिबोधिताः कर्तव्याः, यथा-अस्माकमेका क्षुल्लिका युष्मदीयं सिंहं हस्तिनं वा दृष्ट्वा क्षोभमुपागता, ततः सा यथा क्षोभं मुञ्चति तथा कर्तव्यम् । एवं तेषु प्रतिबोधितेषु सा क्षिप्तचित्तीभूता तेषामन्तिके नीयते, नीत्वा च तासां मध्ये या तस्या अपि क्षुल्लिकाया लघुतरी तया स सिंहः कणे धार्यते, हस्ती वा तया धार्यते । ततः सा29 क्षिप्तचित्ता प्रोच्यते-त्वत्तोऽपि या 'क्षुल्लकतरा' अतिशयेन लघुस्तया एष सिंहः कर्णे धृतः, अथवा हस्ती अनया धाटितः, त्वं तु बिभेषि, किं त्वमेतस्या अपि भीरुर्जाता !, धार्थ्यमवलम्ब्यतामिति ॥ ६२०६ ।। सत्थऽग्गी थंभेतुं, पणोल्लणं णस्सते य सो हत्थी। थेरी चम्म विकड्डण, अलायचकं तु दोमुं तु ॥ ६२०७॥ 25 यदि शस्त्रं यदि वाऽमिं दृष्ट्वा क्षिप्ता भवेत् ततः शस्त्रमग्निं च विद्यया स्तम्भित्वा तस्य पादाभ्यां प्रणोदनं कर्तव्यम् , भणितव्यं च तां प्रति-एषोऽस्माभिरमिः शस्त्रं च पादाभ्यां प्रणुन्नः, त्वं तु ततोऽपि बिभेषीति । यदि वा पानीयेनार्दीकृतहस्तादिभिः सोऽग्निः स्पृश्यते, भण्यते च एतस्मादपि तव किं भयम् ? । तथा यतो हस्तिनस्तस्या भयमभूत् स हस्ती स्वयं पराङ्मुखो गच्छन् दय॑ते, यथा-यतस्त्वं बिभेषि स हस्ती 'नश्यति' नश्यन् वर्तते ततः 30 कथं त्वमेवं भीरोरपि भीरुर्जाता है । तथा या गर्जितं श्रुत्वा भयमग्रहीत् तं प्रति उच्यतेस्थविरा नभसि शुष्कं चर्म विकर्षतिएवं चोक्त्वा शुष्कचर्मण आकर्षणशब्दः श्राव्यते, ततो भयं जरयति । तथा यदि अमेः स्तम्भनं न ज्ञायते तदा 'द्वयोः' अमौ विद्युति च भयं प्रप Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४० सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ क्षिप्त प्रकृते सूत्रम् १० नाया अलातचक्रं पुनः पुनरकस्माद् दयते यावदुभयोरपि भयं जीणं भवति ॥ ६२०७ ॥ अथ वादे पराजयादपमानतः क्षिप्तचित्तीभूताया यतनामाह एईऍ जिता मि अहं, तं पुण सहसा ण लक्खियं णाए । धिक्कतकतितव लजाविताए पउणायई खुड्डी ॥ ६२०८ ॥ तह वि य अठायमाणे, सारक्खमरक्खणे य चउगुरुगा। आणाइणो य दोसा, विराहण इमेहिँ ठाणेहिं ॥ ६२०९ ॥ यया चरिकया सा पराजिता सा प्रज्ञाप्यते यथोक्तं प्राक् । ततः साऽऽगत्य वदतिएतयाऽहं वादे जिताऽस्मि, 'तत् पुनः' स्वयंजयनमनया सहसा न लक्षितम् , ततो मे लोकस्य पुरतो जयप्रवादोऽभवत् । एवमुक्ते सा चरिका धिकृतं-धिक्कारस्तत्कैतवेन-तयाजेन 'लज्जाप्यते' 10 लज्जां प्रायते, लज्जां च ग्राहिता सती साऽपसार्यते । ततः क्षिप्ता भण्यते-किमिति खमपमानं गृहीतवती ! वादे हि ननु त्वयैषा पराजिता, तथा च त्वत्समक्षमेव एषा धिक्कारं ग्राहितेति । एवं यतनायां क्रियमाणायां यदि सा क्षुल्लिका प्रगुणीभवति ततः सुन्दरम् ॥ ६२०८ ॥ 'तथापि च' एवं यतनायामपि च क्रियमाणायाम् 'अनवतिष्ठति' अनिवर्तमाने क्षिप्तचित्तत्वे संरक्षणं वक्ष्यमाणयतनया कर्तव्यम् । अरक्षणे प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः, आज्ञादयश्च दोषाः, 16 विराधना चामीभिः 'स्थानः' प्रकारैर्भवति ॥ ६२०९॥ तान्येवाह छक्कायाण विराहण, झामण तेणे निवायणे चेव । अगड विसमे पडेज व, तम्हा रक्खंति जयणाए ॥ ६२१०॥ तया क्षिप्तचित्तया इतस्ततः परिभ्रमन्त्या षण्णां कायानां-पृथिवीकायिकादीनां विराधना क्रियते । 'ध्यामनं' प्रदीपनकं तद् वा कुर्यात् । यदि वा स्टैन्यम् , अथवा निपातनमात्मनः 20 परस्य वा विधीयते । 'अवटे' कूपेऽथवाऽन्यत्र विषमे पतेत् । तदेवमसंरक्षणे इमे दोषास्तस्माद रक्षन्ति 'यतनया' वक्ष्यमाणया ॥ ६२१० ।। साम्प्रतमेनामेव गाथां व्याचिल्यासुराह सस्सगिहादीणि दहे, तेणेज व सा सयं व हीरेजा। मारण पिट्टणमुभए, तद्दोसा जं च सेसाणं ॥ ६२११॥ सस्यं-धान्यं तद्धृतं गृहं सस्यगृहं तदादीनि, आदिशब्दात् शेषगृहा-ऽऽपणादिपरिग्रहः, 25 'दहेत्' क्षिप्तचित्ततयाऽमिप्रदानेन भस्मसात्कुर्यात् , एतेन ध्यामनमिति व्याख्यातम् । यदि वा 'स्तेनयेत्' चोरयेत् , अथवा सा खयं केनापि ह्रियेत, अनेन स्तैन्यं व्याख्यातम् । मारणं पिट्टनमुभयस्मिन् स्यात्, किमुक्तं भवति ?-सा क्षिप्तचित्तत्वेन परवशा इव खयमात्मानं मारयेत् पिट्टयेद्वा, यदि वा परं मारयेत् पिट्टयेद्वा, सा वा परेण मार्यते पिठ्यते वेति । "तदोसा जं च सेसाणं" इति तस्याः-क्षिप्तचित्ताया दोषाद् यच्च 'शेषाणां' साध्वीनां मारणं पिट्टनं वा । 30तथाहि-सा क्षिप्तचित्ता सती यदा व्यापादयति पिट्टयति तदा परे खरूपमजानानाः शेषसाध्वीनामपि घात-प्रहारादिकं कुर्युः तन्निमित्तमपि प्रायश्चित्तमरक्षणे द्रष्टव्यम् । शेषाणि तु स्थानानि सुगमानीति न व्याख्यातानि ॥ ६२११ ॥ १°ति भाष्यकृता न व्या का० ॥ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ६२०८-१५] षष्ठ उद्देशः। १६४१ यदुक्तं "तस्माद् रक्षन्ति यतनया" (गा० ६२१०) इति तत्र यतनामाह महिड्डिए उट्ठ निवेसणे य, आहार विविंचणा विउस्सग्गो । रक्खंताण य फिडिया, अगवेसणे होति चउगुरुगा ॥ ६२१२ ॥ महर्द्धिको नाम-ग्रामस्य नगरस्य वा रक्षाकारी तस्य कथनीयम् । तथा “उह निवेसणे य" त्ति मृदुबन्धैस्तथा संयतनीया यथा स्वयमुत्थानं निवेशनं च कर्तुं समर्था भवति । तथा यदि 'वातादिना धातुक्षोभोऽस्या अभूत्' इति ज्ञायते तदाऽपथ्याहारपरिहारेण स्निग्ध-मधुरादिरूप आहारः प्रदातव्यः । “विगिचण" ति उच्चारादेस्तस्याः परिष्ठापनं कर्तव्यम् । यदि पुनः 'देवताकृत एष उपद्रवः' इति ज्ञायते तदा प्राशुकैषणीयेन क्रिया कार्या। तथा “विउस्सग्गो" इति 'किमयं वातादिना धातुक्षोभः ? उत देवताकृत उपद्रवः ?' इति परिज्ञानाय देवताराधनार्थं कायोत्सर्गः करणीयः । ततस्तयाऽऽकम्पितया कथिते सति तदनुरूपो यत्रो यथोक्तखरूप: 10 करणीयः । एवंरक्षतामपि यदि सा कथञ्चित् स्फिटिता स्यात् ततस्तस्या गवेषणं कर्तव्यम् । अगवेषणे प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः । एष द्वारगाथासङ्केपार्थः ॥ ६२१२ ॥ साम्प्रतमेनामेव विवरीषुः प्रथमतो महर्द्धिकद्वारं विवृणोति अम्हं एत्थ पिसादी, रक्खंताणं पि फिट्टति कताई । सा हु परिरक्खियव्या, महिड्डिगाऽऽरक्खिए कहणा ॥ ६२१३ ॥ 16 'महर्द्धिके' ग्रामस्य नगरस्य वा रक्षाकारिण्यारक्षके कथना कर्तव्या, यथा-'अत्र' एतस्मिन्नुपाश्रयेऽस्माकं रक्षतामप्येषा 'पिशाची' ग्रथिला कदाचित् 'स्फिटति' अपगच्छति सा 'हु:' निश्चितं परिरक्षयितव्या, प्रतिपन्नचारित्रत्वादिति ॥ ६२१३ ॥ व्याख्यातं महर्द्धिकद्वारम् । अधुना "उट्ट निवेसणे य" इति व्याख्यानयतिमिउबंधेहिँ तहा णं, जमेंति जह सा सयं तु उद्वेति । 30 उव्वरग सत्थरहिते, बाहि कुडंडे असुन्नं च ॥ ६२१४ ॥ मृदुबन्धैस्तथा “णं" इति- तां क्षिप्तचित्तां 'यमयन्ति' बध्नन्ति यथा सा खयमुत्तिष्ठति, तुशब्दस्यानुक्तसमुच्चयार्थत्वाद् निविशते च । तथा सा तस्मिन्नपवरके स्थाप्यते यत्र न किमपि शस्त्रं भवति, यतः सा क्षिप्तचित्ततया युक्तमयुक्तं वाऽजानती शस्त्रं दृष्ट्वा तेनाऽऽत्मानं व्यापादयेत् । तस्य चापवरकस्य द्वार बहिः 'कुडण्डेन' वंशटोक्करादिना बध्यते येन न निर्गत्याप-25 गच्छति । तथा अशून्यं यथा भवति एवं सा वारेण वारेण प्रतिजागर्यते, अन्यथा शून्यमास्मानमुपलभ्य बहुतरं क्षिप्तचित्ता भूयात् ॥ ६२१४ ॥ उव्वरगस्स उ असती, पुन्यकतऽसती य खम्मते अगडो। तस्सोवरिं च चकं, ण छिवति जह उप्फिडंती वि ॥ ६२१५॥ अपवरकस्य 'असति' अभावे 'पूर्वकृते' पूर्वखाते कूपे निर्जले सा प्रक्षिप्यते। तस्याभावेऽवटो 30 नवः खन्यते, खनित्वा च तत्र प्रक्षिप्यते । प्रक्षिप्य च तस्यावटस्योपरि 'चक्र' रथाङ्ग स्थगनाय तथा दीयते यथा सा 'उत्स्फिटन्त्यपि' उल्ललयन्त्यपि तच्चकं 'न च्छुपति' न स्पृशति ॥६२१५॥ १ मउबंधेहिं तहा संजमंति ताभा० ॥ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६४२ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [क्षिप्त प्रकृते सूत्रम् १० साम्प्रतं "थाहार विगिचणा" इत्यादि व्याख्यानयति निद्ध महुरं च भत्तं, करीससेजा य णो जहा वातो। 'देविय धाउक्खोमे, णातुस्सग्गो ततो किरिया ॥ ६२१६ ॥ अद्रि 'वातादिना धातुक्षोभोऽस्याः सञ्जातः' इति ज्ञायते तदा भक्तमपथ्यपरिहारेण स्निग्धं मधुरं च तस्यै दातव्यम्, शय्या च करीषमयी कर्तव्या, सा हि सोष्णा भवति, उष्णे च बाल-श्रेष्मापहारः, यथा च वातो न लभ्यते तथा कर्तव्यम् । तथा किमयं 'दैविकः' देवेनभूतादिना कृत उपद्रवः । उत धातुक्षोभः ? इति ज्ञातुं देवताराधनाय 'उत्सर्गः' कायोत्सर्गः क्रियते । तसिंश्च क्रियमाणे यद् आकम्पितया देवतया कथितं तदनुसारेण ततः क्रिया कर्तव्या। यदि दैविक इति कथितं तदा प्राशुकैषणीयेन तस्या उपचारः, शेषसाध्वीनां तपोवृद्धिः, तदुपशमनाय च मन्त्रादिस्सरणमिति । अथ वातादिना धातुक्षोभ इति कथितं तदा स्निग्धमधुराग्रुपचार इति ॥ ६२१६ ॥ सम्प्रति "रक्खंताण य फिडिए"त्यादि व्याख्यानयति अगडे पलाय मग्गण, अण्णगणो वा वि जो ण सारक्खे। गुरुगा जं वा जत्तो, तेसिं च णिवेयणं काउं ॥ ६२१७ ॥ अगडे इति सप्तमी पञ्चम्यर्थे, ततोऽयमर्थः--'अवटात्' कूपाद् , उपलक्षणमेतद् , अप15 बरकाद्वा यदि पलायते कथमपि ततस्तस्याः 'मार्गणम्' अन्वेषणं कर्तव्यम् । तथा ये तत्राऽ. न्यत्र वाऽऽसन्ने दूरे वाऽन्यगणा विद्यन्ते तेषां च निवेदनाकरणम् , निवेदनं कर्तव्यमिति भावः । यथा-अस्मदीया एका साध्वी क्षिप्तचित्ता नष्टा वर्तते । ततस्तैरपि सा गवेषणीया, दृष्टा च सा सङ्ग्रहणीया । यदि पुनर्न गवेषयन्ति नापि संरक्षन्ति खगणवर्तिन्या अन्यगणवर्तिन्या वा तदा तेषां प्रायश्चित्तं चत्वारः 'गुरुकाः' गुरुमासाः । यच्च करिष्यति षड्जीवनिकायविराधनादिकं यच्च प्राप्स्यति मरणादिकं तन्निमित्तं च तेषां प्रायश्चित्तमिति ॥ ६२१७॥ छम्मासे पडियरित्रं, अणिच्छमाणेसु भुजयरओ वा। कुल-गण-संघसमाए, पुव्वगमेणं णिवेदेति ॥ ६२१८ ॥ पूर्वोक्तप्रकारेण तावत् प्रतिचरणीया यावत् षण्मासा भवन्ति । ततो यदि प्रगुणा जायते तर्हि सुन्दरम् । अथ न प्रगुणीमूता ततः 'भूयस्तरकमपि' पुनस्तरामपि तस्याः प्रतिचरणं 25 विधेयम् । अथ ते साधवः परिश्रान्ता भूयस्तरकं प्रतिचरणं नेच्छन्ति, ततस्तेष्वनिच्छत्सु कुल-गण-सङ्घसमवायं कृत्वा 'पूर्वगमेन' ग्लानद्वारोक्तप्रकारेण तस्मै निवेदनीयम् , निवेदिते च ते कुलादयो यथाक्रमं तां प्रतिचरन्ति ॥ ६२१८॥ ___ अथ सा राजादीनां सज्ञातका भवेत् तदा इयं यतना रनो निवेइयम्मि, तेसिं वयणे गवेसणा होति । ओसह वेजा संबंधुवस्सए तीसु वी जयणा ॥ ६२१९ ॥ ___ यदि राज्ञोऽन्येषां वा सा पुयादिका भवेत् ततो राज्ञः, उपलक्षणमेतद् , अन्येषां वा १ दिग्विय तामा० ॥ २ सोष्मा भ' कां० ॥ ३ °दनां कृत्वा स्थातव्यम् । निवेदना नाम-यथा अस्म का० ॥ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ६२१६-२३] षष्ठ उद्देशः । १६४३ खजनानां निवेदनं क्रियते, यथा-युष्मदीयैषा पुञ्यादिका क्षिप्तचित्ता जाता इति । एवं निवेदिते यदि युवते राजादयः, यथा-मम पुयादीनां क्रिया खयमेव क्रियमाणा वर्तते तत इहैव तामप्यानयत इति । ततः सा तेषां वचनेन तत्र नीयते, नीतायाश्च तत्र तस्या गवेषणा भवति । अयमत्र भावार्थः-साधवोऽपि तत्र गत्वा औषध-मेषजानि प्रयच्छन्ति प्रतिदिवस च शरीरस्योदन्तं वहन्ति । यदि पुनः 'सम्बन्धिन,' वजना वदेयुः-वयमौषधानि वैद्यं वा । सम्प्रयच्छामः, परमस्माकमासन्ने उपाश्रये स्थित्वा यूयं प्रतिवरथ । तत्र यदि शोभनो भावस्तदा एवं क्रियते । अथ गृहस्थीकरणाय तेषां भावस्तदा न तत्र नयनं किन्तु खोपाश्रय एव ध्रियते । तत्र च 'तिसृष्वपि आहारोपधि-शय्यासु यतना कर्तव्या। एष द्वारगाथास पार्थः ॥ ६२१९॥ साम्प्रतमेनामेव विवरीषुः प्रथमतः "रन्नो निवेइयम्मी" इत्येतद् व्याख्यानयतिपुत्तादीणं किरियं, सयमेव घरम्मि कोइ कारेति । 10 अणुजाणते य तहिं, इमे वि गंतुं पडियरंति ॥ ६२२० । यदि 'कोऽपि' राजाऽन्यो वा क्षिप्तचित्तायाः साध्व्याः खजनो गृहे 'स्वयमेव' साधुनिवेदनात् प्राग् आत्मनैव पुञ्यादीनां 'क्रिया' चिकित्सां कारयति तदा तस्मै निवेदिते-'युष्मदीया क्षिप्तचित्ता जाता' इति कथिते यदि तेऽनुजानन्ति, यथा-अत्र समानयत इति; ततः सा तत्र नीयते, नीतां च सतीम् ‘इमेऽपि' गच्छवासिनः साधवो गत्वा प्रतिचरन्ति ॥ ६२२० ॥15 ओसह विजे देमो, पडिजगह णं इहं ठिताऽऽसणं । तेसिं च णाउ भावं, णे देंति मा णं गिहीकुजा ॥ ६२२१ ।। कदाचित् खजना ब्रूयुः, यथा-औषधानि वैद्यं च वयं दद्मः, केवलम् 'इह' अभिन्नस्माकमासन्ने प्रदेशे स्थिताः "गं" इति एनां प्रतिजागृत । तत्र तेषां यदि भावो विरूपो गृहस्थीकरणात्मकस्ततस्तेषां तथारूपं भावमिनिताकारकुशला ज्ञात्वा न ददति, न तेषामासने 26 प्रदेशे नयन्तीति भावः । कुतः ? इत्याह-मा तां गृहस्थीकुर्युरिति हेतोः ॥ ६२२१॥ सम्प्रति "तीसु वी जयणे"त्येतद् व्याख्यानयति आहार उवहि सिजा, उग्गम-उप्पायणादिसु जयंति । [पि.नि. ६८] वायादी खोभम्मि व, जयंति पत्तेग मिस्सा वा ॥ ६२२२ ॥ आहारे उपधौ शय्यायां च विषये उद्गमोत्पादनादिषु, आदिशब्दाद् एषणादिदोषपरिग्रहः, 25 'यतन्ते' यत्नपरा भवन्ति, उद्मोत्पादनादोषविशुद्धाहाराद्युत्पादने प्रतिचरका अन्येऽपि च यतमानास्तां प्रतिचरन्तीति भावः । एषा यतना दैविके क्षिप्तचित्तत्वे द्रष्टव्या । एवं वातादिना धातुक्षोभेऽपि 'प्रत्येकं' साम्भोगिकाः 'मिश्रा वा' असाम्भोगिकैः सम्मिश्राः पूर्वोक्तप्रकारेण यतन्ते ॥ ६२२२ ॥ पुव्वुद्दिट्ठो य विही, इह वि करेंताण होति तह चेव । [ओ.नि. ६२८] 30 तेइच्छम्मि कयम्मि य, आदेसा तिण्णि सुद्धा वा ॥ ६२२३ ।।। १णं तहिं ठियं सन्नं । तेसिं भा० ताभा० ॥ २ ण णेति तामा० ॥ ३ तामित्येना भा० ॥ ४ जयंता भा० कां• तामा०॥ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 १६४४ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ क्षिप्त०प्रकृते सूत्रम् १० यः पूर्व-प्रथमोद्देशके ग्लानसूत्रे उद्दिष्टः-प्रतिपादितो विधिः स एव 'इहापि' क्षिप्तचितासूत्रेऽपि वैयावृत्यं कुर्वतां तथैव भवति ज्ञातव्यः । 'चैकित्स्ये च' चिकित्सायाः कर्मणि च 'कृते' प्रगुणीभूतायां च तस्यां त्रय आदेशाः प्रायश्चित्तविषया भवन्ति । एके ब्रुवते-गुरुको व्यवहारः स्थापयितव्यः । अपरे ब्रुवते-लघुकः । अन्ये व्याचक्षते-लघुखकः । तत्र तृतीय 5 आदेशः प्रमाणम् , व्यवहारसूत्रोक्तत्वात् । अथवा सा 'शुद्धा न प्रायश्चित्तभाक्, परवशतया राग-द्वेषाभावेन प्रतिसेवनात् ॥ ६२२३ ॥ एतदेव बिभावयिषुरिदमाह चउरो य हुंति भंगा, तेसिं वयणम्मि होति पण्णवणा । [आव.नि.१६१२] परिसाए मज्झम्मी, पट्टवणा होति पच्छित्ते ॥ ६२२४ ॥ ___ इह चारित्रविषये वृद्धि-हान्यादिगताश्चत्वारो भवन्ति भङ्गास्तेषां प्ररूपणा कर्तव्या । 'नोद10 कवचने च' 'कथं साऽप्रायश्चित्ती ?' इत्येवंरूपे 'प्रज्ञापना' सूरेः प्रतिवचनरूपा भवति । ततः पर्षदो मध्ये अगीतार्थप्रत्ययनिमित्तं 'प्रायश्चित्तस्य' लघुखकरूपस्य 'प्रस्थापना' प्रदानं तस्याः शुद्धाया अपि कर्तव्यमिति ॥ ६२२४ ॥ सम्प्रति चतुरो भङ्गान् कथयन् प्रायश्चित्तदानाभावं भावयति वड्ढति हायति उभयं, अवट्टियं च चरणं भवे चउहा। खइयं तहोवसमियं, मिस्समहक्खाय खेत्तं च ॥ ६२२५ ॥ कस्यापि चारित्रं वर्धते, कस्यापि चारित्रं हीयते, कस्यापि चारित्रं हीयते वर्धते च, कस्यापि 'अवस्थितं' न हीयते न च वर्धते, एते चत्वारो भङ्गाश्चारित्रस्य । साम्प्रतममीषामेव चतुर्णा भङ्गानां यथासङ्ख्येन विषयान् प्रदर्शयति-"खइयं" इत्यादि । क्षपकश्रेणिप्रतिपन्नस्य क्षायिकं चरणं वर्धते । उपशमश्रेणीतः प्रतिपतने औपशमिकं चरणं हानिमुपगच्छति । 20 क्षायोपशमिकं तत्तद्राग-द्वेषोत्कर्षा-ऽपकर्षवशतः क्षीयते परिवर्धते च । यथाख्यातं 'क्षिप्तं च' पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् क्षिप्तचित्तचारित्रं चावस्थितम् , यथाख्यातचारित्रे सर्वथा राग-द्वेषोदयाभावात् क्षिप्तचित्तचारित्रे परवशतया प्रवृत्तेः खतो राग-द्वेषाभावात् । तदेवं यतः क्षिप्तचित्ते चारित्रमवस्थितं अतो नासौ प्रायश्चित्तभागिति ॥ ६२२५॥ पर आह-ननु सा क्षिप्तचित्ताऽऽश्रवद्वारेषु चिरकालं प्रवर्तिता बहुविधं चासमञ्जसतया 25 प्रलपितं लोक-लोकोत्तरविरुद्धं च समाचरितं ततः कथमेषा न प्रायश्चित्तभाक् ? अत्र सूरिराह कामं आसवदारेसु वट्टियं पलवितं बहुविधं च । लोगविरुद्धा य पदा, लोउत्तरिया य आइण्णा ॥ ६२२६ ॥ न य बंधहेउविगलत्तणेण कम्मस्स उवचयो होति । लोगो वि एत्थ सक्खी, जह एस परव्वसा कासी ॥ ६२२७ ॥ 30 'कामम्' इत्यनुमतौ अनुमतमेतद् , यथा-तयाऽऽश्रवद्वारेषु चिरकालं वर्तितं बहुविधं च प्रलपितं लोकविरुद्धानि लोकोत्तरविरुद्धानि च पदानि 'आचीर्णानि' प्रतिसेवितानि ॥६२२६॥ तथापि 'न च' नैव तस्याः क्षिप्तचित्तायाः 'बन्धहेतुविकलत्वेन' बन्धहेतवः-राग-द्वेषादयस्तद्विकलत्वेन कर्मोपचयो भवति, कर्मोपचयस्य राग-द्वेषसमाचरिताद्यधीनत्वात् , तस्याश्च राग Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 15 भाष्यगाथाः ६२२४-३२] षष्ठ उद्देशः । १६४५ द्वेषविकलत्वात् । तस्याश्च राग-द्वेषविकलत्वं न वचनमात्रसिद्धं किन्तु लोकोऽपि 'अत्र' अस्मिन् विषये साक्षी, यथा-एषा सर्व परवशाऽकार्षीदिति । ततो राग-द्वेषाभावान्न कर्मोपचयः, तस्य तदनुगतत्वात् ॥ ६२२७ ॥ तथा चाह राग-दोसाणुगया, जीवा कम्मस्स बंधा होति । रागादिविसेसेण य, बंधविसेसो वि अविगीओ ॥ ६२२८॥ राग-द्वेषाभ्यामनुगताः-सम्बद्धा राग-द्वेषानुगताः सन्तो जीवाः कर्मणो बन्धका भवन्ति । ततः 'राग-द्वेषविशेषेण' राग-द्वेषतारतम्येन 'बन्ध विशेषः' कर्मबन्धतर-तमभावः 'अविगीतः' अविप्रतिपन्नः । ततः क्षिप्तचित्ताया राग-द्वेषाभावतः कर्मोपचयाभावः ॥ ६२२८ ॥ अमुमेवार्थ दृष्टान्तेन द्रढयति कुणमाणा वि य चेट्ठा, परतंता णट्टिया बहुविहातो। किरियाफलेण जुजति, ण जहा एमेव एतं पि ॥ ६२२९ ॥ यथा 'नर्तकी' यन्त्रनर्तकी काष्ठमयी 'परतन्त्रा' परायत्ता परप्रयोगत इत्यर्थः, 'बहुधा अपि' बहुप्रकारा अपि, तुशब्दोऽपिशब्दार्थः, चेष्टाः कुर्वाणा 'क्रियाफलेन' कर्मणा न युज्यते; 'एवमेव' अनेनैव प्रकारेण एनामपि क्षिप्तचित्तामनेका अपि विरुद्धाः क्रियाः कुर्वाणामकर्मकोपचयां पश्यत ॥ ६२२९ ॥ अथात्र परस्य मतमाशङ्कमान आह जइ इच्छसि सासेरा, अचेतणा तेण से चओ णत्थि। जीवपरिग्गहिया पुण, बोंदी असमंजसं समता ॥ ६२३० ॥ यदि त्वमेतद् इच्छसि' अनुमन्यसे, यथा-"सासेरा" इति देशीपदत्वाद् यन्त्रमयी नर्तकी अचेतना तेन कारणेन "से" तस्याः 'चयः' कर्मोपचयो नास्ति, 'बोन्दिः' तनुः पुनः 'जीवपरिगृहीता' जीवेनाधिष्ठिता, जीवपरिगृहीतत्वाचावश्यं तद्विरुद्धचेष्टातः कर्मोपचयसम्भवः,20 ततो या सासेरादृष्टान्तेन समता आपादिता सा 'असमञ्जसम्' अयुज्यमाना, अचेतनसचेतनयोर्दृष्टान्त-दान्तिकयोर्वेषम्यात् ॥ ६२३० ॥ अत्राऽऽचार्यः प्राह चेयणमचेयणं वा, परतंतत्तेण णणु हु तुल्लाई । [आव.नि.१४६६] ___ण तया विसेसितं एत्थ किंचि भणती सुण विसेसं ॥ ६२३१ ॥ इह वस्तु चेतनं वाऽस्तु अचेतनं वा, यदि परतन्त्रं तदा ननु 'हुः' निश्चितं 'परतन्त्रत्वेन' 25 परायत्ततया यतो द्वे अपि तुल्ये ततो न किञ्चिद् वैषम्यम् । पर आह-न त्वयाऽत्र परकर्मोपचयचिन्तायां 'किञ्चिदपि' मनागपि विशेषितं येन 'जीवपरिगृहीतत्वेऽप्येकत्र कर्मोपचयो भवति, एकत्र न' इति प्रतिपद्यामहे । अत्राचार्यः 'भणति' ब्रूते-शृणु भण्यमानं विशेषम् ॥ ६२३१ ॥ तमेवाहणणु सो चेव विसेसो, जं एकमचेतणं सचित्तेगं । 30 जह चेयणे विसेसो, तह भणसु इमं णिसामेह ॥ ६२३२ ॥ ननु ‘स एव' यत्रनर्तकी-खाभाविकनर्तकीदृष्टान्तसूचितो विशेषः-यद 'एकं शरी" १°गा भणिया ताभा०॥ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 जो पेल्लिओ परेणं, हेऊ वसणस्स होइ कायाणं । तत्थ न दोर्स इच्छसि, लोगेण समं तहा तं च ॥ ६२३३ ॥ अः परेण प्रेरितः सन् 'कायानां' पृथिव्यादीनां 'व्यसनस्य' सङ्घट्टन - परितापनादिरूपस्य ‘हेतुः' कारणं भवति ‘तत्र' तस्मिन् परेण प्रेरिततया कायव्यसनहेतौ यथा न त्वं दोषमिच्छसि, अनात्मवशतया प्रवृत्तेः । कथं पुनर्दोषं नेच्छामि ? इत्यत आह- 'लोकेन समं' लोकेन सह, 10 लोके तथादर्शनत इत्यर्थः । तथाहि – यो यत्रानात्मवशतया प्रवर्तते तं तत्र लोको निर्दोषमभिमन्यते । अत एव परप्रेरिततया कायव्यसनहेतुं निर्दोषमभिमन्यताम् । यथा च तं निर्दो - मिच्छसि तथा 'तामपि च' क्षिप्तचित्तां निर्दोषां पश्य तस्या अपि परायत्ततया तथारूपासु चेष्टासु प्रवृत्तेः ॥ ६२३३ ॥ एतदेव सविशेषं भावयति पसंतो वि य काए, अपचलो अप्पगं विधारेउं । जह पेल्लितो अदोसो, एमेव इमं पि पासामो ॥ ६२३४ ॥ यथा परेण प्रेरित आत्मानं 'विधारयितुं' संस्थापयितुम् 'अप्रत्यलः' असमर्थः सन् पश्यन्नपि 'कायान्' पृथिवीकायिकादीन् विराधयन् अनिकापुत्राचार्य इव 'अदोष:' निर्दोषः ; 'एवमेव ' मैव प्रकारेण परांयत्ततया प्रवृत्तिलक्षणेन ' इमामपि' क्षिप्तचित्तामदोषां पश्यामः ॥ ६२३४ ॥ इह पूर्वं प्रगुणीभूतायास्तस्याः प्रायश्चित्तदानविषये त्रय आदेशा गुरुकादय उक्ता अतस्ता20 नेव गुरुकादीन् प्ररूपयति 16 १६४६ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ क्षिप्त० प्रकृते सूत्रम् १० यंत्रनर्तकीसत्कं परायत्ततया चेष्टमानमप्यचेतनम्, 'एकं तु' खाभाविकनर्तकीशरीरं खायत्ततया प्रवृत्तेः 'सचित्तं' सचेतनमिति । पर आह— यथा एष चेतने विशेषो निःसन्दिग्धप्रतिपत्तिविषयो भवति तथा 'भणत' प्रतिपादयत । आचार्यः प्राह -- ततः 'इदं' वक्ष्यमाणं 'निरामय' आकर्णय || ६२३२ ॥ तदेवाह --- 25 30 गुरुगो गुरुगतरागो, अहागुरूगो य होइ ववहारो । लहुओ लहुयतरागो, अहालहूगो य ववहारो ॥ ६२३५ ।। लहुसो लहुसतरागो, अहालहूसो य होइ ववहारो । एतेसिं पच्छित्तं वोच्छामि अहाणुपुत्रीए ।। ६२३६ ॥ गुरुतो य होइ मासो, गुरुगतरागो य होइ चउमासो । अहगुरुगो छम्मासो, गुरुगे पक्खम्मि पडिवत्ती ॥ ६२३७ ॥ तीसा य पण्णवीसा, वीसा पन्नरसेव य । दस पंच य दिवसाई, लहुसगपक्खम्मि पडिवत्ती ॥ ६२३८ ॥ गुरुगं च अङ्कुमं खलु, गुरुगतरागं च होइ दसमं तु । आहागुरुग दुवालस, गुरुगे पक्खम्मि पडिवत्ती ॥ ६२३९ ॥ छट्ठे च चत्थं वा, आयंबिल एगठाण-पुरिमड्ढा | निव्वियगं दायचं, अहलहुसगगम्मि मुद्धो वा ।। ६२४० ॥ आसां षण्णामपि गाथानां व्याख्या पूर्ववत् ( गा० ६०३९ तः ४४ ) | नवरम् Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 भाष्यगाथाः ६२३३-४५] षष्ठ उद्देशः। इहागीतार्थप्रत्ययार्थ यथालघुखको व्यवहारः प्रस्थापयितव्यः ॥ ६२३५ ॥ ६२३६ ॥ ॥६२३७ ॥ ६२३८ ॥ ६२३९ ॥ ६२४०॥ सूत्रम्--- दित्तचित्तं निग्गथि निग्गथे गिण्हमाणे वा अवलंब माणे वा नाइकमइ ११॥ अस्य व्याख्या प्राग्वत् । नवरम्-दीप्तचित्ता-लाभादिमदेन परवशीभूतहृदया ॥ अथ भाष्यकारो विस्तरमभिधित्सुराह एसेव गमो नियमा, दित्तादीणं पि होइ णायव्यो। जो होइ दित्तचित्तो, सो पलवति णिच्छियव्वाइं ॥ ६२४१॥ 'एष एव' अनन्तरोक्तक्षिप्तचित्तानिर्ग्रन्थीसूत्रगत एव 'गमः' प्रकारो लौकिक-लोकोत्तरि-10 कभेदादिरूपः 'दीप्तादीनामपि' दीप्तचित्ताप्रभृतीनामपि निम्रन्थीनां नियमाद् वेदितव्यः । यत् पुनर्नानात्वं तद् अभिधातव्यम् । तदेवाधिकृतसूत्रेऽभिधित्सुराह-"जो होइ" इत्यादि, यो भवति दीप्तचित्तः सोऽनीप्सितव्यानि बहूनि प्रलपति, बहनीप्सितप्रलपनं तस्य लक्षणम् , क्षिप्तचित्तस्त्वपहृतचित्ततया मौनेनाप्यवतिष्ठत इति परस्परं सूत्रयोर्विशेष इति भावः ॥६२४१॥ अथ कथमेष दीप्तचित्तो भवति ? इति तत्कारणप्रतिपादनार्थमाह इति एस असम्माणा, खित्ता सम्माणतो भवे दित्ता। अग्गी व इंधणेणं, दिप्पति चित्तं इमेहिं तु ॥ ६२४२॥ 'इति' अनन्तरसूत्रोक्ता 'एषा' क्षिप्तचित्ता 'असम्मानतः' अपमानतो भवति । 'दीप्ता' दीप्तचित्ता पुनः 'सम्मानतः' विशिष्टसम्मानावाप्तितो भवति । तच्च चित्तं दीप्यतेऽमिरिवेन्धनैः 'एभिः' वक्ष्यमाणैर्लाभमदादिभिः ॥ ६२४२ ॥ तानेवाह लाभमएण व मत्तो, अहवा जेऊण दुजए सत्तू । दित्तम्मि सायवाहणों, तमहं वोच्छं समासेण ॥ ६२४३॥ __ लाभमदेन वा मत्तः सन् दीप्तचित्तो भवति, अथवा दुर्जयान् शत्रून् जित्वा, एतस्मिन्नुभयस्मिन्नपि 'दीप्ते' दीप्तचित्ते लौकिको दृष्टान्तः सातवाहनो राजा । 'तमहं' सातवाहनदृष्टान्तं समासेन वक्ष्ये ॥ ६२४३ ॥ यथाप्रतिज्ञातमेव करोति महुराऽऽणत्ती दंडे, सहसा णिग्गम अपुच्छिउं कयरं । तस्स य तिक्खा आणा, दुहा गता दो वि पाडेउं ॥ ६२४४ ॥ सुतजम्म-महुरपाडण-निहिलंभनिवेदणा जुगव दित्तो। सयणिज खंभ कुड्डे, कुट्टेइ इमाइँ पलवंतो ॥ ६२४५॥ गोयावरीए णदीए तडे अ पतिद्वाणं नगरं । तत्थ सालवाहणो राया । तस्स खरओ 30 अमच्चो । अन्नया सो सालवाहणो राया दंडनायगमाणवेइ-महुरं घेत्तूणं सिग्घमागच्छ । १ सुतजम्मण महुरापाडणे य जुगवं निवेदिते दित्तो ताभा० ॥ 20 25 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४८ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [क्षिप्त प्रकृते सूत्रम् ११ सो य सहसा अपुच्छिऊण दंडेहिं सह निग्गओ । तओ चिंता जाया-का महुरा घेत्तव्या ? दक्षिणमहुरा उत्तरमहुरा वा ? । तस्स आणा तिक्खा, पुणो पुच्छिउं न तीरति । तओ दंडा दुहा काऊण दोसु वि पेसिया । गहियाओ दो वि महराओ । तओ वद्धावगो पेसिओ। तेण गंतूण राया वद्धाविओ-देव ! दो वि महुराओ गहियाओ । इयरो आगओ5 देव ! अग्गमहिसीए पुत्तो जाओ। अण्णो आगतो-देव ! अमुगत्थ पदेसे विपुलो निही पायडो जातो। तओ उवरुवार कल्लाणनिवेयणेण हरिसवसविसप्पमाणहियओ परव्वसो जाओ। तओ हरिसं धरिउमचायतो सयणिजं कुट्टइ, खंभे आहणइ, कुड्डे विद्दवइ, बहूणि य असमंजसाणि पलवति । तओ खरगेणामच्चेणं तमुवाएहिं पडिबोहिउकामेण खंभा कुड्डा बहू विद्द. विया । रन्ना पुच्छियं—(ग्रन्थाग्रम्-८००० सर्वग्रन्थानम्-४१८२५) केणेयं विद्द10 वियं ? । सो भणेइ-तुठभेहिं । ततो 'मम सम्मुहमलीयमेयं भणति' रुट्टेणं रन्ना सो खरगो पाएण ताडितो । तओ संकेइयपुरिसेहिं उप्पाडिओ अण्णस्थ संगोवितो य । तओ कम्हिइ पओयणे समावडिए रण्णा पुच्छिओ-कत्थ अमच्चो चिट्ठति ? । संकेइयपुरिसेहि य 'देव! तुम्हं अविणयकारि' ति सो मारिओ । राया विसूरियुं पयत्तो-दुट्ट कयं, मए तया न किं पि चेइयं ति । तओ सभावत्थो जाओ ताहे संकेइयपुरिसेहिं विन्नतो-देव ! गवेसामि, जइ वि 15 कयाइ चंडालेहिं रक्खिओ होज्जा । तओ गवेसिऊण आणिओ । राया संतुट्टो । अमञ्चेण सब्भावो कहिओ । तुट्टेण विउला भोगा दिन्ना ॥ साम्प्रतमक्षरार्थों वित्रियते-सातवाहनेन राज्ञा मथुराग्रहणे "दंडि" ति दण्डनायकस्याज्ञप्तिः कृता । ततो दण्डाः सहसा 'कां मथुरां गृह्णीमः ?' इत्यपृष्ट्वा निर्गताः । तस्य च राज्ञ आज्ञा तीक्ष्णा, ततो न भूयः प्रष्टुं शक्नुवन्ति । ततस्ते दण्डा द्विधा गताः, द्विधा विभज्य एके 20दक्षिणमथुरायामपरे उत्तरमथुरायां गता इत्यर्थः । द्वे अपि च मथुरे पातयित्वा ते समागताः ॥ ६२४४ ॥ सुतजन्म-मथुरापातन-निधिलाभानां युगपद् निवेदनायां हर्षवशात् सातवाहनो राजा 'दीप्तः' दीप्तचित्तोऽभवत् । दीप्तचित्ततया च 'इमानि' वक्ष्यमाणानि प्रलपन् शयनीय-स्तम्भकुड्यानि कुट्टयति ॥ ६२४५ ॥ तत्र यानि प्रलपति तान्याह सच्चं भण गोदावरि !, पुव्वसमुद्देण साविया संती । साताहणकुलसरिसं, जति ते कूले कुलं अत्थि ॥ ६२४६ ॥ उत्तरतो हिमवंतो, दाहिणतो सालिवाहणो राया। सममारभरकता, तेण न पल्हत्थए पुहवी ॥ ६२४७॥ हे गोदावरि ! पूर्वसमुद्रेण 'शपिता' दत्तशपथा सती सत्यं 'भण' ब्रूहि-यदि तव 30 कूले सातवाहनकुलसदृशं कुलमस्ति ॥ ६२४६ ॥ __ 'उत्तरतः' उत्तरस्यां दिशि हिमवान गिरिः दक्षिणतस्तु सालवाहनो राजा, तेन समभारभराक्रान्ता सती पृथिवी न पर्यस्यति, अन्यथा यदि अहं दक्षिणतो न स्यां ततो हिमवगिरिभाराकान्ता नियमतः पर्यस्येत् ॥ ६२४७ ॥ 26 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ६२४६-५१] पष्ठ उद्देशः । एयाणि य अन्नाणि य, पलवियवं सो अणिच्छियव्याई । कुसलेण अमचेणं, खरगेणं सो उवाएणं ॥ ६२४८ ॥ 'एतानि' अनन्तरोदितानि अन्यानि च सोऽनीप्सितव्यानि बहूनि प्रलपितवान् । ततः कुशलेन खरकनाम्नाऽमात्येनोपायेन प्रतिबोधयितुकामेनेदं विहितम् ॥६२४८॥ किम् ? इत्याह-. विद्दवितं केणं तिव, तुम्भेहिं पायतालणा खरए । कत्थ त्ति मारिओ सो, दुट्ट त्ति य दरिसिते भोगा ॥ ६२४९ ॥ 'विद्रावितं' विनाशितं समस्तं स्तम्भ-कुड्यादि । राज्ञा पृष्टम्-केनेदं विनाशितम् ? । अमात्यः सम्मुखीभूय सरोषं निष्ठुरं वक्ति-युष्माभिः । ततो राज्ञा कुपितेन तस्य पादेन ताडना कृता । तदनन्तरं सङ्केतितपुरुषैः स उत्पाटितः सङ्गोपितश्च । ततः समागते कस्मिंश्चित् प्रयोजने राज्ञा पृष्टम्-कुत्रामात्यो वर्तते ? । सङ्केतितपुरुषैरुक्तम्-देव ! युष्मत्पादानाम- 10 विनयकारी इति मारितः । ततः 'दुष्टं कृतं मया' इति प्रभूतं विसूरितवान् । स्वस्थीभूते च तस्मिन् सङ्केतितपुरुषैरमात्यस्य दर्शनं कारितम् । ततः सद्भावकथनानन्तरं राज्ञा तस्मै विपुला भोगाः प्रदत्ता इति ॥ ६२४९ ॥ उक्तो लौकिको दीप्तचित्तः । अथ तमेव लोकोत्तरिकमाह महज्झयण भत्त खीरे, कंवलग पडिग्गहे य फलए य । पासाए कप्पट्ठी, वातं काऊण वा दित्ता ॥ ६२५० ॥ 15 'महाध्ययनं' पौण्डरीकादिकं दिवसेन पौरुष्या वा कयाचिद् मेधाविन्या क्षुल्लिकया आगमितम् , अथवा भक्तमुत्कृष्टं लब्ध्वा 'नास्मिन् क्षेत्रे भक्तमीदृशं केनापि लब्धपूर्वम्', यदि वा क्षीरं चतुर्जातकसम्मिश्रमवाप्य 'नैतादृशमुत्कृष्टं क्षीरं केनापि लभ्यते', यदि वा कम्बलरत्नमतीवोत्कृष्टम् अथवा विशिष्टवर्णादिगुणोपेतमपलक्षणहीनं पतद्हं लब्ध्वा, "फलगे य" त्ति यदि वा 'फलकं' चम्पकपट्टकादिकम् अथवा प्रासादे सर्वोत्कृष्टे उपाश्रयत्वेन लब्धे, “कप्पट्ठी"-20 ति ईश्वरदुहितरि रूपवत्यां प्रज्ञादिगुणयुक्तायां लब्धायां प्रमोदते, प्रमोदभरवशाच्च दीप्तचित्ता भवति । एतेन "लाभमदेन वा मत्तः” (गा० ६२४३) इति पदं लोकोत्तरे योजितम् । अधुना "दुर्जयान् शत्रून् जित्वा" (गा. ६२४३) इति पदं योजयति-वादं वा परप्रवादिन्या दुर्जयया सह कृत्वा तां पराजित्यातिहर्षतः 'दीप्ता' दीप्तचित्ता भवति ॥ ६२५० ॥ एतासु दीप्तचित्तासु यतनामाह 25 दिवसेण पोरिसीए, तुमए पढितं इमाऍ अद्धेणं । एतीऍ णस्थि गव्यो, दुम्मेहतरीऍ को तुझं ॥ ६२५१ ॥ दिवसेन पौरुष्या वा त्वया यत् पौण्डरीकादिकमध्ययनं पठितं तद् अनया दिवसस्य पौरुष्या वाऽर्द्धन पठितं तथाऽप्येतस्या नास्ति गर्वः, तब पुनर्दुमेधस्तरकायाः को गर्वः !, नैव युक्त इति भावः, एतस्या अपि तव हीनप्रज्ञत्वात् ॥ ६२५१ ॥ 30 तद्दव्वस्स दुगुंछण, दिर्सेतो भावणा असरिसेणं । १ दुष्टु कृ कां०॥ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 १६५० सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ क्षिप्तप्रकृते सूत्रम् ११ काऊण होति दित्ता, वादकरणे तत्थ जा ओमा ॥ ६२५२ ॥ यद् उत्कृष्टं कलमशाल्यादिकं भक्तं क्षीरं कम्बलरत्नादिकं वा तया लब्धं तस्य द्रव्यस्य जुगुप्सनं क्रियते, यथा-नेदमपि शोभनम् , अमुको वाऽस्य दोष इति । यदि वा 'दृष्टान्तः' अन्येनापीदृशमानीतमिति प्रदर्शनं क्रियते । तस्य च दृष्टान्तस्य भावना 'असदृशेन' शतभागेन । सहस्रभागेन वा या तस्याः सकाशाद् हीना तया कर्तव्या । या तु वादं कृत्वा दीप्ताऽभूत् तस्याः प्रगुणीकरणाय पूर्वं चरिकादिका प्रचण्डा परवादिनी प्रज्ञाप्यते, ततः सा तस्या वादाभिमानिन्याः पुरतस्ततोऽप्यवमतरा या साध्वी तया वादकरणे पराजयं प्राप्यते, एवमपभ्राजिता सती प्रगुणीभवति ॥ ६२५२ ॥ . . दुल्लभदव्वे देसे, पडिसेहितगं अलद्धपुव्वं वा । 10 आहारोवहि वसही, अक्खतजोणी व धूया वि ॥ ६२५३ ॥ यत्र देशे क्षीर-घृतादिकं द्रव्यं दुर्लभं तत्र तद् अन्यासामार्यिकाणां प्रतिषिद्धं' 'न प्रयच्छामः' इति दायकेन निषिद्धं 'अलब्धपूर्वं वा' कयाऽपि पूर्वं तत्र न लब्धं तत्र तद् लब्ध्वा दीप्तचित्ता भवतीति वाक्यशेषः, यद्वा सामान्येनोत्कृष्ट आहार उत्कृष्ट उपधिरुत्कृष्टा वा वसतिर्लब्धा अक्षतयोनिका वा 'दुहिता' काचिदीश्वरपुत्रिका लब्धा तत्रेयं यतना ॥ ६२५३ ॥ पगयम्मि पण्णवेत्ता, विजाति विसोधि कम्ममादी वा। __ खुड्डीय बहुविहे आणियम्मि ओभावणा पउणा ॥ ६२५४ ।। • 'प्रकृते' विशिष्टतरे भक्त-क्षीर-कम्बल-रत्नादिकेऽवमतरायाः सम्पादयितव्ये तथाविधं श्रावकमितरं वा प्रज्ञाप्य, तदभावे कस्यापि महर्द्धिकस्य विद्यां आदिशब्दाद् मन्त्र-चूर्णादीन् यावत् 'कर्मादि' कार्मणमपि प्रयुज्य, आदिशब्दः खगतानेकभेदसूचकः, ततः क्षुल्लिकतराया 20 गुणतः शतभाग-सहस्रभागादिना हीनाया विशिष्टमाहारादिकं सम्पादयन्ति । ततो विद्यादिप्रयोगजनितपापविशुद्धये 'विशोधिः' प्रायश्चित्तं ग्राह्यम् । एवं क्षुल्लिकया 'बहुविधे' क्षीरादिके आनीते सति तस्या अपभ्राजना क्रियते ततः प्रगुणा भवति ॥ ६२५४ ॥ अद्दिट्ठसड कहणं, आउट्टा अभिणवो य पासादो। कयमित्ते य विवाहे, सिद्धाइसुता कतितवेणं ॥ ६२५५॥ 25 यस्तया श्राद्धो न दृष्टः-अदृष्टपूर्वस्तस्यादृष्टस्य श्राद्धस्य 'कथनं' प्रज्ञापना, उपलक्षणमेतद्, अन्यस्य महर्द्धिकस्य विद्यादिप्रयोगतोऽभिमुखीकरणम् , ततस्ते आवृत्ताः सन्तस्तस्या लब्ध्यमिमानिन्याः समीपमागत्य ब्रुवते-वयमेतया क्षुल्लिकया प्रज्ञापितास्ततः 'अभिनव एव' कृतमात्र एव युष्माकमेष प्रासादो दत्त इति । तथा कैतवेन 'सिद्धादिसुताः' सिद्धपुत्रादिदुहितरः कृतमात्र एव विवाहे उत्पादनीयाः । इयमत्र भावना-सिद्धपुत्रादीनां प्रज्ञापनां कृत्वा तहुहितरः 30 कृतमात्रविवाहा एव व्रतार्थ तत्समक्षमुपस्थापनीयाः येन तस्या अपभ्राजना जायते । ततः प्रगुणीभूतायां तस्यां यदि तासां न तात्त्विकी व्रतश्रद्धा तदा शकुनादिवैगुण्यमुद्भाव्य मुच्यन्ते ॥ ६२५५॥ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्य गाथाः ६२५२-५९ ] सूत्रम् -- जक्खाइट्ठि निग्गंथिं निग्गंथे गिण्हमाणे वा २ नाइ कमइ १२ ॥ अस्य सम्बन्धमाह - षष्ठ उद्देशः । पोग्गल असुभसमुदयो, एस अणागंतुंगो व दोन्हं पि । क्खावेसेणं पुण, नियमा आगंतुको होइ ।। ६२५६ ।। 'द्वयोः' क्षिप्तचित्ता - दीप्तचित्तयोः 'एषः ' पीडाहेतुत्वेनानन्तरमुद्दिष्टोऽशुभपुद्गलसमुदयैः 'अनागन्तुकः' खशरीरसम्भवी प्रतिपादितः । यक्षावेशेन पुनर्यो यतिपीडा हेतुरशुभपुद्गल समुद्रयः स नियमादागन्तुको भवति । ततोऽनागन्तुका शुभपुद्गलसमुदयप्रतिपादनानन्तरमागन्तुकाशुभपुद्गलसमुदयप्रतिपादनार्थमेष सूत्रारम्भः ।। ६२५६ ॥ प्रकारान्तरेण सम्बन्धमाह अहवा भय-सोगजुया, चितद्दण्णा व अतिहरिसिता वा । आविस्सति जक्खेहिं, अयमण्णो होइ संबंधो ॥ ६२५७ ॥ ' अथवा ' इति प्रकारान्तरोपदर्शने । भय-शोकयुक्ता वा चिन्तार्दिता वा, एतेन क्षिप्तचित्ता उक्ता ; अतिहर्षिता वा या परवशा, अनेन दीप्तचित्ताऽभिहिता; एषा द्विविधाऽपि यक्षैः परवशहृदयतया 'आविश्यते' आलिङ्ग्यते । ततः क्षिप्त-दीप्तचित्तासूत्रानन्तरं यक्षाविष्टासूत्र - 15 मित्ययमन्यो भवति सम्बन्धः || ६२५७ ॥ अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या -- सा च प्राग्वत् ॥ सम्प्रति यतो यक्षाविष्टा भवति तत् प्रतिपादनार्थमाह — पुव्वभवियवेरेणं, अहवा राएण राइया संती | एतेहिँ जक्खड्ड्डा, सवत्ति भयए य सज्झिलगा ।। ६२५८ ॥ १६५१ 'पूर्वभविकेन' भवान्तरभाविना वैरेण अथवा रागेण रञ्जिता सती यक्षैराविश्यते । एताभ्यां द्वेष·रागाभ्यां कारणाभ्यां यक्षाविष्टा भवति । तथा चात्र पूर्वभविके वैरे सपत्नीदृष्टान्तो रागे भृष्टान्तः सज्झिलकदृष्टान्तश्चेति ॥ ६२५८ ॥ तत्र सपत्नीदृष्टान्तमाह 5 10 dear अकामतो जिराऍ मरिऊण वंतरी जाता । पुत्रवत्तिं खेत्तं, करेति सामण्णभावम्मि ।। ६२५९ ।। 23 एगो से । तस्स दो महिला । एगा पिया, एगा वेस्सा, अनिष्टेत्यर्थः । तत्थ जावे सा सा अकामनिज्जराए मरिऊण वंतरी जाया । इयरा वि तहारूवाणं साहुणीणं पायमूले पव्वइया । सा य वंतरी पुत्र्वभववेरेण छिड्डाणि मग्गइ | अन्नया पमत्तं दट्ठूण छलियाइया || अक्षरार्थस्त्वयम्—श्रेष्ठिसत्का 'द्वेप्या' अनिष्टा मार्याsकामनिर्जरया मृत्वा व्यन्तरी जाता । ततः पूर्वसपत्नीं श्रामण्यभावे व्यवस्थितां पूर्वभाविकं वैरमनुस्मरन्ती ' क्षिप्तां' याविष्टां कृत - 30 १ 'तुगो दुवेहं ताभा• ॥ २°यः जीवस्वीकृतमनोवर्गणान्तर्गताशुभदलिक विशेषरूपः 'अनागन्तुकः' कां० ॥ 20 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . १६५२ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ क्षिप्त प्रकृते सूत्रम् १२-१३ वती । गाथायां वर्तमाननिर्देशः प्राकृतत्वात् ॥ ६२५९ ॥ अथ भृतकदृष्टान्तमाह भयतो कुडंविणीए, पडिसिद्धो वाणमंतरो जातो। सामण्णम्मि पमत्तं, छलेति तं पुव्ववेरेणं ॥ ६२६० ॥ एगा कोडंबिणी ओरालसरीरा एगेण भयगेणं ओरालसरीरेणं पत्थिया । सो तीए 5 निच्छीओ । तओ सो गाढमज्झोववन्नो तीए सह संपयोगमलभमाणो दुक्खसागरमोगाढो अकामनिज्जराए मरिऊण वंतरो जाओ । सा य कोडुंबिणी संसारवासविरत्ता पव्वइया । सा तेण आभोइया । पमत्तं दट्टण छलिया ॥ अक्षरार्थस्त्वयम्-'भृतकः' कर्मकरः कुटुम्बिन्या प्रतिपिद्धो वानमन्तरो जातः । ततः श्रामण्यस्थितां तां प्रमत्तां मत्वा पूर्ववैरेण छलितवान् ॥ ६२६० ॥ 10 अथ सज्झिलक दृष्टान्तमाह जेट्ठो कणेहभजाएँ मुच्छिओ णिच्छितो य सो तीए । जीवंते य मयम्मी, सामण्णे वंतरो छलए ॥ ६२६१ ॥ एगम्मि गामे दो सज्झिलका, भायरो इत्यर्थः । तत्थ जेट्ठो कणिट्ठस्स भारियाए अज्झोववन्नो । सो तं पत्थेइ । सा नेच्छइ भणइ य-तुमं अप्पणो लहुबंधवं जीवंतं न पाससि ।। 15 तेण चिंतियं-जाव एसो जीवए ताव मे नत्थि एसा । एवं चिंतिता छिदं लभिऊण विससंचारेण मारिओ लहुभाया । तओ भणियं-जस्स तुमं भयं कासी सो मतो, इयाणिं पूरेहि मे मणोरहं । तीए चिंतियं-नूणमेतेण मारितो, धिरत्थु कामभोगाणमिति संवेगेण पव्वइया । इयरो वि दुहसंततो अकामनिज्जराए मओ वंतरो जातो विभंगेणं पुत्वभवं पासइ । तं साहुणिं दट्टण पुव्वभवियं वेरमणुसरंतो पम छलियाइओ॥ 20 अक्षरयोजना त्वियम्-ज्येष्ठः कनिष्ठभार्यायां मूर्छितः, न चासौ तया ईप्सितः किन्तु 'जीवन्तं स्वभ्रातरं न पश्यसि ?' इति भणितवती । ततः 'अस्मिन् जीवति ममैषा न भवति' इतिबुद्ध्या तं मारितवान् । मृते च तस्मिन् श्रामण्ये स्थितां तां व्यन्तरो जातः सन् छलितवान् ॥ ६२६१ ॥ अथैवंछलिताया यतनामाह __ तस्स य भूततिगिच्छा, भूतरवावेसणं सयं वा वि। णीउत्तमं च भावं, गाउं किरिया जहा पुध्वं ॥ ६२६२ ॥ ___ तस्या एवं 'भूतरवावेशनं' भूतरवैः-भूतप्रयुक्तासमञ्जसप्रलापैः आवेशनं-यक्षावेशनं मत्वा भूतचिकित्सा कर्तव्या । कथम् ? इत्याह-'तस्य' भूतस्य नीचमुत्तमं च भावं ज्ञात्वा । कथं ज्ञात्वा ? इत्याह-वयं वा' कायोत्सर्गेण देवतामाकम्प्य तद्वचनतः सम्यक् परिज्ञाय, अपि शब्दाद् अन्यस्माद्वा मात्रिकादेः सकाशाद् ज्ञात्वा । तस्याः क्रिया विधेया, यथा 'पूर्व' क्षिप्त30 चिचाया उक्ता ॥ ६२६२ ॥ इह यक्षाविष्टा किलोन्मादप्राप्ता भवति ततो यक्षाविष्टासूत्रानन्तरमुन्मादप्राप्तासूत्रमाह१°वान् । गाथायां वर्तमान निर्देशः प्राकृतत्वात् ॥ ६२६० ॥ अथ कां० ॥ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पठ उद्देशः । उम्मापत्तिं निग्गंथिं निग्गंधे गिण्हमाणे वा २ नातिकमइ १३ ॥ अस्य व्याख्या प्राग्वत् ॥ अथोन्मादप्ररूपणार्थं भाष्यकारः प्राह - भाष्यगाथाः ६२६०-६३ ] उम्मतो खलु दुविधो, जक्खाएसो य मोहणिजो य । जक्खाएसो बुत्तो, मोहेण इमं तु वोच्छामि ।। ६२६३॥ उन्मादः 'खलु' निश्चितं 'द्विविधः ' द्विप्रकारः । तद्यथा — यक्षावेशहेतुको यक्षावेशः, कार्ये कारणोपचारात् । एवं मोहनीय कर्मोदयहेतुको मोहनीयः । चशब्दौ परस्परसमुच्चयार्थो स्वगतानेकभेदसंसूचकौ वा । तत्र यः 'यक्षावेशः ' यक्षावेशहेतुकः सोऽनन्तरसूत्रे उक्तः । यस्तु 'मोहेन' मोहनीयोदयेन; मोहनीयं नाम - येनात्मा मुह्यति, तच्च ज्ञानावरणं मोहनीयं वा द्रष्टव्यम्, द्वाभ्यामप्यात्मनो विपर्यासापादनात् तेनोचरत्र "अहव पित्तमुच्छाए " 10 इत्याद्युच्यमानं न विरोधभाक् ; " इमो" ति अयम् - अनन्तरमेव वक्ष्यमाणतया प्रत्यक्षीभूत इव तमेवेदानीं वक्ष्यामि ॥ ६२६३ ॥ प्रतिज्ञातं निर्वाहयति रूवंगं दहूणं, उम्मतो अहव पित्तमुच्छाए । तदायणा णिवाते, पित्तम्मि य सकरादीणि ॥ ६२६४ ॥ रूपं च–नटादेराकृतिः अङ्गं च - गुह्याङ्गं रूपाङ्गं तद् दृष्ट्वा कस्या अप्युन्मादो भवेत् 115 अथवा 'पित्तमूर्च्छया' पिचोद्रेकेण उपलक्षणत्वाद् वातोद्रेकवशतो वा स्यादुन्मादः । तत्र रूपा दृष्ट्वा यस्या उन्मादः सञ्जातस्तस्यास्तस्य - रूपाङ्गस्य विरूपावस्थां प्राप्तस्य दर्शना कर्तव्या । या तु वातेनोन्मादं प्राप्ता सा निवाते स्थापनीया | उपलक्षणमिदम् तेन तैलादिना शरीरस्याभ्यङ्गो घृतपायनं च तस्याः क्रियते । 'पित्ते' पित्तवशादुन्मत्तीभूतायाः शर्करा - क्षीरादीनि दातव्यानि ॥ ६२६४ ॥ कथं पुनरसौ रूपाङ्गदर्शनेनोन्मादं गच्छेत् ? इत्याह 2 दण नडं काई, उत्तरवेउब्वितं मतणखेत्ता । तेणेव य रूवेणं, उडुम्मि कयम्मि निव्विण्णा ।। ६२६५ काचिदल्पसत्त्वा संयती नटं दृष्ट्वा, किंविशिष्टम् ? इत्याह-- ' उत्तरवैकुर्विकम् ' उत्तरकाल - भाविवस्त्रा-ऽऽभरणादिविचित्रकृत्रिम विभूषाशोभितम्, ततः काचिद् 'मदनक्षिप्ता' उन्मादप्राप्ता भवेत् तत्रेयं यतना— उत्तरवैकुर्वि कापसारणेन तेनैव स्वाभाविकेन रूपेण से नटस्तस्या 25 निर्ग्रन्ध्या दर्श्यते । अथासौ नटः खभावतोऽपि सुरूपस्ततोऽसौ ऊर्द्ध-वमनं कुर्वन् तस्या दर्श्यते, ततः तस्मिन्नद्धे कृते सति काचिदल्पकर्मा निर्विण्णा भवति, तद्विषयं विरागं गच्छतीत्यर्थः ॥ ६२६५ ॥ अन्यच्च २ पण्णवितो उ दुरूवो, उम्मंडिजति अ तीऍ पुरतो तु । रूववतो पुण भत्तं तं दिजति जेण छड्डेति ।। ६२६६ ॥ अमुमेवार्थ १ एतचिह्नान्तर्वतों पाठः कां० एवं वर्त्तते ॥ २ इत्यवतरणं कां० ॥ १६५३ सविशेषमाहं 5 20 30 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५४ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ क्षिप्त० प्रकृते सूत्रम् १४ अन्यच्च -- यदि नटः खरूपतो दुरूपो भवति ततः स पूर्वं प्रज्ञाप्यते, प्रज्ञापितश्च सन् 'तस्याः' उन्मादप्राप्तायाः पुरतः 'उन्मण्ड्यते' यत् तस्य मण्डनं तत् सर्वमपनीयते ततो विरूपरूपदर्शनतो विरागो भवति । अथासौ नटः खभावत एव रूपवान् - अतिशायिना उद्भटरूपेण युक्तस्ततस्तस्य भक्तं मदनफल मिश्रादिकं तद् दीयते येन भुक्तेन तस्याः पुरतः 'छर्दयति' उद्वमति, 5 उद्वमनं च कुर्वन् किलासौ जुगुप्सनीयो भवति ततः सा तं दृष्ट्वा विरज्यत इति ॥ ६२६६ ॥ गुज्झंगम्मि उ विडं, पजावेऊण खरगमादीणं । ताणे विरागो, तीसे तु हवेज दहूणं ।। ६२६७ ॥ यदि पुनः कस्यापि गुह्याङ्गविषय उन्मादो भवति न रूप- लावण्याद्यपेक्षः ततः 'खरकादीनां ' द्वयक्षरकप्रभृतीनां 'विकटं' मद्यं पाययित्वा प्रसुप्तीकृतानां पूतिमद्योद्गालखरण्टित सर्वशरीराणामत 10 एव मक्षिकाभिणिभिणायमानानां " तद्दायणे" त्ति तस्य - गुह्याङ्गस्य मद्योगालादिना बीभत्सी भूतस्य दर्शना क्रियते । तच्च दृष्ट्वा तस्या आर्यिकाया विरागो भवेत् ततः प्रगुणीभवति ॥ ६२६७ ॥ सूत्रम् — 15 उवसग्गपत्तं निग्गंथिं निग्गंथे गिण्हमाणे वा २ नातिक्कम १४ ॥ अस्य सम्बन्धमाह - मोहेण पित्ततो वा, आतासंवेतिओ समक्खाओ । एसो उ उवसग्गो, अयं तु अण्णो परसमुत्थो ।। ६२६८ ॥ 'मोहेन' मोहनीयोदयेनेत्यर्थः 'पित्ततो वा' पित्तोदयेन य उन्मत्तः सः 'आत्मसंवेदिकः ' आत्मनैवात्मनो दुःखोत्पादकः समाख्यातः, यच्चात्मनैवात्मदुः खोत्पादनमेष आत्मसंवेदनीय 20 उपसर्गः । ततः पूर्वमात्मसंवेदनीय उपसर्ग उक्तः । तत उपसर्गाधिकारादयमन्यः परसमुत्थ उपसर्गोऽनेन प्रतिपाद्यत इति ॥ ६२६८ ॥ अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या - सा च प्राग्वत् ॥ तत्रोपसर्गप्रतिपादनार्थमाहतिविहे य उवसग्गे, दिव्वे माणुस्सए तिरिक्खे य । दिव्वे य पुव्वभणिए, माणुस्से आभिओग्गे य ।। ६२६९ ॥ 25 त्रिविधः खलु परसमुत्थ उपसर्गः । तद्यथा - — दैवो मानुष्यकस्तैरश्चश्च । तत्र 'दैवः' देवकृतः ‘पूर्वम्' अनन्तरसूत्रस्याधस्ताद् भणितः, 'मानुष्यः पुनः' मनुष्यकृतः 'आभियोग्य ः ' विद्याद्यभियोगजनितस्तावद् भण्यते ॥ ६२६९ ॥ विजाए मंतेण व, चुण्णेण व जोतिया अणप्पवसा । अणुसासणा लिहावण, खमए मधुरा तिरिक्खाती ।। ६२७० ।। १ उन्मत्ततारूप उपसर्गः सः 'आत्मसंवेदिकः' आत्मसंवेदनीयनामा समाख्यातः । इदमुक्तं भवति - इह किल देव मानुष्यक तैरश्चा-ऽऽत्मसंवेदनीयभेदात् चतुर्विधा उप सर्गा भवन्ति । ततः पूर्वमात्म कां० ॥ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. भाष्यगाथाः ६२६७-७३] षष्ठ उद्देशः। १६५५ विद्यया वा मन्त्रेण वा चूर्णेन वा 'योजिता' सम्बन्धिता सती काचिदनात्मवशा भवेत् तत्र 'अनुशासना' इति येन रूपलुब्धेन विद्यादि प्रयोजितं तस्यानुशिष्टिः क्रियते, यथा-एषा तपस्विनी महासती, न वर्तते तव तां प्रति ईदृशं कर्तुम् , एवंकरणे हि प्रभूततरपापोपचयसम्भव इत्यादि । अथैवमनुशिष्टोऽपि न निवर्तते तर्हि तस्य तां प्रतिविद्यया विद्वेषणमुत्पाद्यते । अथ नास्ति तादृशी प्रतिविद्या ततः “लिहावण" त्ति तस्य सागारिकं विद्याप्रयोगतस्तस्याः पुरत . आलेखाप्यते येन सा तद् दृष्ट्वा 'तस्य सागारिकमिदमिति बीभत्सम्' इति जानाना विरागमुपपद्यते । “खमए महुरा" इति मथुरायां श्रमणीप्रभृतीनां बोधिकस्तेनकृत उपसर्गोऽभवत् तं क्षपको निवारितवान् , एषोऽपि मानुष उपसर्गः । तैरश्चमाह-"तिरिक्खाइ" ति तिर्यञ्चो ग्रामेयका आरण्यका वा श्रमणीनामुपसर्गान् कुर्वन्ति ते यथाशक्ति निराकर्तव्याः ॥६२७० ॥ साम्प्रतमेनामेव गाथां विवरीषुराह विजादऽभिओगो पुण, एसो माणुस्सओ य दिव्यो य । तं पुर्ण जाणंति कह, जति णामं गेहए तस्स ।। ६२७१ ॥ विद्यादिभिः 'अभियोगः' अभियुज्यमानता । एष पुनः द्विविधः' द्विप्रकारः, तद्यथामानुषिको देवश्च । तत्र मनुष्येण कृतो मानुषिकः । देवस्यायं तेन कृतत्वाद् दैवः । तत्र देवकृतो मनुष्यकृतो वा विद्यादिभिरभियोग एष एव यत् तस्मिन् दूरस्थितेऽपि तत्प्रभावात् सा 16 तथारूपा उन्मत्ता जायते । अथ 'तं' विद्याधभियोगं देवं मानुषिकं वा कथं जानन्ति ? । सूरिराह-तयोदेव-मानुषयोर्मध्ये यस्य नाम साऽभियोजिता गृह्णाति तत्कृतः स विद्याद्यमियोगो ज्ञेयः ॥ ६२७१ ॥ साम्प्रतं "अणुसासणा लिहावण" इत्येतद् व्याख्यानयति अणुसासियम्मि अठिए, विदेसं देंति तह वि य अठंते । जक्खीए कोवीणं, तीसे पुरओ लिहावेंति ॥ ६२७२ ॥ येन पुरुषेण विद्यादि अभियोजितं तस्यानुशासना क्रियते । अनुशासितेऽप्यस्थिते विद्याप्रयोगतस्तां विवक्षितां साध्वी प्रति तस्य विद्याधभियोक्तुर्विद्वेषं 'ददति' उत्पादयन्ति वृषभाः। तथापि च तस्मिन् अतिष्ठति 'यक्ष्या' शुन्या तदीयं कौपीनं तस्याः पुरतो विद्याप्रयोगतो लेहयन्ति येन सा तद् दृष्ट्वा तस्येदं सागारिकमिति जानाना विरज्यते ॥ ६२७२ ॥ सम्प्रति प्रति विद्याप्रयोगे हँढादरताख्यापनार्थमाह 25 विसस्स विसमेवेह, ओसहं अग्गिमग्गिणो । मंतस्स पडिमंतो उ, दुजणस्स विवजणं ॥ ६२७३ ॥ विषस्यौषधं विषमेव, अन्यथा विषानिवृत्तेः । एवमनेर्भूतादिप्रयुक्तस्यौषधमग्निः । मन्त्रस्य प्रतिमन्त्रः । दुर्जनस्यौषधं 'विवर्जनं' ग्राम-नगरपरित्यागेन परित्यागः । ततो विद्यादभियोगे साधु-साध्वीरक्षणाथ प्रतिविद्यादि प्रयोक्तव्यमिति ॥ ६२७३ ॥ 30 जइ पुण होज गिलाणी, णिरुन्भमाणी उ तो से तेइच्छं ।। १ एतदनन्तरं ग्रन्थाग्रम्-९००० कां० ॥ २त् स तथारूप उन्मत्तो जाय’ कां० विना ॥ ३ दृढतरता डे० मो० ले.॥ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५६ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके वृहत्कल्पसूत्रे [ क्षिप्त प्रकृते सूत्रम् १५-१७ संवरियमसंवरिया, उवालभंते णिसिं वसभा ॥ ६२७४ ॥ यदि पुनर्विद्याद्यभियोजिता तदभिमुखं गच्छन्ती निरुध्यमाना ग्लाना भवति ततः "से" 'तस्याः' साळ्याश्चिकित्सां 'संवृताः' केनाप्यलक्ष्यमाणाः कुर्वन्ति । तथा 'असंवृताः' येन विद्याद्यभियोजितं तस्य प्रत्यक्षीभूता वृषभाः 'निशि' रात्रौ तं उपालभन्ते भेषयन्ति पिट्टयन्ति 5 च तावद् यावद् असौ तां मुश्चतीति ॥ ६२७४ ॥ "खमए महुर" ति अस्य व्याख्यानमाह-- थूभमह सड्डिसमणी, बोहिय हरणं तु णिवसुताऽऽतावे । मज्झेण य अकंदे, कयम्मि जुद्धेण मोएति ॥ ६२७५ ॥ .महरानयरीए थूभो देवनिम्मितो । तस्स महिमानिमित्तं सड्डीतो समंणीहिं समं निग्गयातो। रायपुत्तो य तत्थ अदूरे आयावंतो चिट्ठइ । ताओ सड्डी-समणीओ बोहिएहिं गहियाओ तेणं. 10 तेणं आणियाओ । ताहिं तं साहुं दट्टणं अकंदो कओ । तओ रायपुत्तेण साहुणा जुद्धं दाऊण मोइयाओ। अक्षरगमनिका त्वियम् - स्तूपस्य 'महे' महोत्सवे श्राद्धिकाः श्रमणीभिः सह निर्गताः । तासां 'बोधिकैः' चौरैर्हरणम् । नृपसुतश्च तत्रादूरे आतापयति । बोधिकैश्च तास्तस्य मध्येन नीयन्ते । ताभिश्च तं दृष्ट्वाऽऽक्रन्दे कृते स युद्धेन तेभ्यस्ता मोचयति ॥ ६२७५ ॥ 15 उक्तो मानुषिक उपसर्गः । सम्प्रति तैरश्चमाह गामेणाऽऽरण्णेण व, अभिभूतं संजतिं तु तिरिगेणं । थद्धं पकंपियं वा, रक्खेज्ज अरक्खणे गुरुगा ॥ ६२७६ ॥ ग्राम्येणाऽऽरण्येन वा तिरश्चाऽभिभूतां संयती यदि वा 'स्तब्धां' तद्भयात् स्तम्भीभूतां 'प्रकम्पितां वा' तद्भयप्रकम्पमानशरीरां रक्षेत् । यदि पुनर्न रक्षति सत्यपि बले ततोऽरक्षणे 20प्रायश्चित्तं 'गुरुकाः' चत्वारो गुरुका मासाः ॥ ६२७६ ॥ सूत्रम् साहिगरणं निग्गंथिं निग्गंथे गिण्हमाणे वा २ नातिकमा १५॥ अस्य सूत्रस्य सम्बन्धमाह अभिभवमाणो समणिं, परिग्गहो वा से वारिते कलहो । किंवा सति सत्तीए, होइ सपक्खे उविक्खाए ॥ ६२७७ ॥ 'श्रमणी' साध्वीमभिभवन् गृहस्थो यदि वा "से" 'तस्य' गृहस्थस्य 'परिग्रहः' परिजनः, स चाऽभिभवन् वारितः कलहं श्रमण्या साद्धं कुर्यात् ततो य उपशामनालब्धिमान् साधुस्तेन कलह उपशमयितव्यः, न पुनरुपेक्षा विधेया । कुतः ? इत्याह-किं वा सत्यां शक्तौ 'स्वपक्षे' 30 स्वपक्षस्योपेक्षया ? नैव किञ्चिदिति भावः । केवलं स्वशक्तिनैफल्यमुपेक्षानिमितप्रायश्चित्तापत्तिश्च भवति, तस्मादवश्यं खशक्तिः परिस्फोरणीया । एतत्प्रदर्शनार्थमधिकृतसूत्रमारभ्यते ॥६२७७॥ १° पूर्वसूत्रोक्तनीत्या उपसर्गयन् गृह कां० ॥ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ६२७४-८०] षष्ठ उद्देशः । १६५७ अस्य व्याख्या प्राग्वत् ॥ अत्र भाष्यम् उप्पण्णे अहिगरणे, ओसमणं दुविहऽतिकम दिस्स । अणुसासण भेस निरंभणा य जो तीऍ पडिपक्खो ॥ ६२७८ ॥ संयत्या गृहस्थेन सममधिकरणे उत्पन्ने द्विविधमतिक्रमं दृष्ट्वा तस्याधिकरणस्य व्यवशमनं कर्तव्यम् । किमुक्तं भवति ?–स गृहस्थोऽनुपशान्तः सन् तस्याः संयत्याः संयमभेदं जीवित-b भेदं चेति द्विविधमतिक्रमं कुर्यात् तत उपशमयितव्यमधिकरणम् । कथम् ? इत्याह-यः 'तस्याः' संयत्याः 'प्रतिपक्षः' गृहस्थस्तस्य प्रथमतः कोमलवचनैरनुशासनं कर्तव्यम् , तथाऽप्यतिष्ठति 'भीषणं' भापनं कर्तव्यम् , तथाऽप्यभिभवतो 'निरुम्भणं' यस्य या लब्धिस्तेन तया निवारणं कर्तव्यम् ॥ ६२७८ ।। सूत्रम् 10 .. सपायच्छित्तं निग्गंथिं निग्गंथे गिण्हमाणे वा २ नातिकमइ १६ ॥ अस्य सम्बन्धमाह अहिगरणम्मि कयम्मि, खामिय समुपद्विताए पच्छित्तं । तप्पढमताए भएणं, होति किलंता व वहमाणी ॥ ६२७९ ॥ 1b . अधिकरणे कृते क्षामिते च तस्मिन् समुपस्थितायाः प्रायश्चित्तं दीयते, ततः साधिकरणसूत्रानन्तरं प्रायश्चित्तसूत्रमुक्तम् ॥ अस्य व्याख्या-प्राग्वत् ॥ सा सप्रायश्चित्ता 'तत्प्रथमतायां' प्रथमतः प्रायश्चित्ते दीयमाने 'भयेन' 'कथमहमेतत्.. प्रायश्चित्तं वक्ष्यामि ?' इत्येवंरूपेण विषण्णा भवेत् , यदि वा प्रायश्चित्तं वहन्ती तपसा क्लान्ता 20 भवेत् ॥ ६२७९ ॥ तत्रेयं यतना पायच्छित्ते दिण्णे, भीताएँ विसजणं किलंताए । अणुसहि वहंतीए, भएण खित्ताइ तेइच्छं ॥ ६२८० ॥ प्रायश्चित्ते दत्ते यदि बिभेति ततस्तस्या भीतायाः क्लान्तायाश्च विसर्जनम् , प्रायश्चित्तं मुत्कलं क्रियत इत्यर्थः । अथ वहन्ती क्लाम्यति ततस्तस्या वहन्त्या अनुशिष्टिीयते, यथा--मा भैषीः, 25 बहु गतम् , स्तोकं तिष्ठति, यदि वा वयं साहाय्यं करिष्याम इति । अथैवमनुशिष्यमाणाऽपि भयेन क्षिप्तचित्ता भवति ततस्तस्याः 'चैकित्स्य' चिकित्सायाः कर्म कर्तव्यम् ॥ ६२८० ॥ सूत्रम् भत्त-पाणपडियाइक्खियं निग्गंथिं निग्गंथे गिण्हमाणे वा २ नातिकमइ १७॥ . अस्य सूत्रस्य सम्बन्धमाह Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ क्षिप्त० प्रकृते सूत्रम् १८ पच्छित्तं इत्तिरिओ, होइ तवो वण्णिओ य जो एस । आवकथितो पुण तवो, होति परिण्णा अणसणं तु ॥ ६२८१ ॥ 'प्रायश्चित्तं' प्रायश्चित्तरूपं यद् एतत् तपोऽनन्तरसूत्रे वर्णितम् एतत् तप इत्वरं भवति, यत् पुनः परिज्ञारूपं तपोऽनशनं तद् यावत्कथिकम्, तत इत्वरतपः प्रतिपादनानन्तरं यावत्क - B थिकतपः प्रतिपादनार्थमधिकृतं सूत्रम् ॥ ६२८१ ॥ अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या - प्राग्वत् । नवरम् — भक्तं च पानं च भक्त पाने ते प्रत्याख्याते यया सा तथोक्ता । कान्तस्य परनिपातः सुखादिदर्शनात् ॥ अत्र भाष्यम्अटुं वा हेउं वा, समणीणं विरहिते कहेमाणो । मुच्छाऍ विपडिताए, कप्पति ग्रहणं परिण्णाए । ६२८२ ॥ 'श्रमणीनाम्' अन्यासां साध्वीनां 'विरहिते' अशिवादिभिः कारणैरभावे एकाकिन्या आर्यिकाया भक्त-पानप्रत्याख्याताया अर्थं वा हेतुं वा कथयतो निर्ग्रन्थस्य यदि सा मूर्च्छया विपतेत्, ततो मूर्च्छया विपतितायास्तस्याः “परिण्णाए" त्ति 'परिज्ञायाम्' अनशने सति करुपते ग्रहणम्, उपलक्षणत्वाद् अवलम्बनं वा कर्तुम् || ६२८२ ॥ इदमेव व्याचष्टेगीतsari असती, सव्वाऽसतीए व कारण परिण्णा । पाणग भत्त समाही, कहणा आलोत धीरवणं ॥ ६२८३ ॥ 10 15 १६५८ गीतार्थानामार्थिकाणाम् 'असति' अभावे यदि वाऽशिवादिकारणतः सर्वासामपि साध्वीनामभावे एकाकिन्या जातया 'परिज्ञा' भक्तप्रत्याख्यानं कृतम्, ततस्तस्याः कृतभक्त - पानप्रत्याख्यानायाः सीदन्त्या योग्यपानकप्रदानेन चरमेप्सितभक्तप्रदानेन च समाधिरुत्पादनीयः । 'कथनी' धर्मकथना यथाशक्ति खशरीरानाबाधया कर्त्तव्या । तथा 'आलोकम्' आलोचनां सा 20 दापयितव्या । यदि कथमपि चिरजीवनेन भयमुत्पद्यते, यथा-- नाद्यापि म्रियते, किमपि भविष्यति इति न जानीम इति; तस्या धीरापना कर्तव्या ॥ ६२८३ ॥ जति वाण णिव्वहेजा, असमाही वा वि तम्मि गच्छमि । करणिजं अण्णत्थ वि, ववहारो पच्छ सुद्धा वा ॥ ६२८४ ॥ " यदि वा प्रबलबुभुक्षावेदनीयोदयतया कृतभक्त - पानप्रत्याख्याना सा न निर्वहेत्, न याव25 त्कथिकमनशनं प्रतिपालयितुं क्षमा इति यावत् असमाधिर्वा तस्मिन् गच्छे तस्या वर्तते ततोऽन्यत्र नीत्वा यद् उचितं तत् तस्याः करणीयमिति । अथ पश्चादनशनप्रत्याख्यानभङ्गविषयस्तस्याः 'व्यवहारः' प्रायश्चित्तं दातव्यः । अथ खगच्छा समाधिमात्रेणान्यत्र गता ततः सा मिथ्या दुष्कृत प्रदानमात्रेण शुद्धेति ॥ ६२८४ ॥ सूत्रम् - 30 अजयम्म निग्गंथिं निग्गंथे गिण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा नो अतिक्कम १८ ॥ १ 'ना' यथाशक्ति स्वशरीरानावाधया धर्मकथा तस्याः पुरतः कथनीया । तथा कां० ॥ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५९ 10 भाष्यगाथाः ६२८१-८८] षष्ठ उद्देशः। अस्य सूत्रस्य सम्बन्धमाह वुत्तं हि उत्तमहे, पडियरणट्ठा व दुक्खरे दिक्खा । इंती व तस्समीवं, जति हीरति अट्ठजायमतो ॥ ६२८५ ॥ उक्तं 'हि' यस्मात् पूर्व पञ्चकल्पे-'उत्तमार्थे' उत्तमार्थ-प्राक्सूत्राभिहितं प्रतिपत्तुकामस्य "दुक्खरे" ति यक्षरस्य व्यक्षरिकाया वा दीक्षा दातव्या, यदि वा 'प्रतिचरणाय' 'एषा दीक्षिता मां ग्लानां सती प्रतिचरिष्यति' इतिनिमित्तं यक्षरिका दीक्षिता भवति, सा च पश्चाद् दायकैः प्रतिगृह्येत तस्या वोत्तमार्थप्रतिपन्नाया मूलं 'आयान्ती' आगच्छन्ती बोधिकादिना स्तेनेन यदि हियते अतस्तां प्रति अर्थजातसूत्रावकाशः ॥ ६२८५ ॥ ___ अनेन सबन्धेनायातस्यास्य व्याख्या-सा च प्राग्वत् ॥ साम्प्रतमर्थजातशब्दव्युत्पत्ति. प्रतिपादनार्थमाह अटेण जीऍ कजं, संजातं एस अट्ठजाता तु । तं पुण संजमभावा, चालिजंती समवलंबे ॥ ६२८६ ॥ 'अर्थेन' अर्थितया सञ्जातं कार्य यया यद्वा अर्थेन-द्रव्येण जातम्-उत्पन्नं कार्य यस्याः सा अर्थजाता, गमकत्वादेवमपि समासः । उपलक्षणमेतत् , तेनैवमपि व्युत्पत्तिः कर्तव्याअर्थः-प्रयोजनं जातोऽस्या इत्यर्थजाता । कथं पुनरस्या अवलम्बनं क्रियते ? इत्याह -'तां 15 पुनः' प्रथमव्युत्पत्तिसूचितां संयमभावात् चाल्यमानां द्वितीय-तृतीयव्युत्पत्तिपक्षे तु द्रव्याभावेन प्रयोजनानिष्पत्त्या वा सीदन्तीं 'समवलम्बेत' साहाय्यकरणेन सम्यग् धारयेत् , उपलक्षणत्वाद् गृह्णीयादपि ॥ ६२८६ ॥ अथ नियुक्तिकारो येषु स्थानेषु संयमस्थिताया अप्यर्थजातमुत्पद्यते तानि दर्शयितुमाह सेवगभजा ओमे, आवण्ण अणत्त बोहिये तेणे । एतेहि अट्ठजातं, उप्पजति संजमठिताए ॥ ६२८७ ॥ 'सेवकभार्यायां' सेवकभार्याविषयम् , एवम् 'अवमे' दुर्भिक्षे, "आवण्णे"ति दासत्वप्राप्तायाम् , "अणत्ते"ति ऋणार्तायां परं विदेशगमनादुत्तमर्णेनानाप्तायाम् , तथा 'बोधिकाः' अनार्या म्लेच्छाः 'स्तेनाः' आर्यजनपदजाता अपि शरीरापहारिणस्तैरपहरणे च, एतैः कारणैरर्थजातं संयमस्थिताया अपि उत्पद्यते । एष नियुक्तिगाथासङ्केपार्थः ।। ६२८७ ॥ 25 साम्प्रतमेनामेव विवरीषुः सेवकभार्याद्वारमाह पियविप्पयोगदुहिया, णिक्खंता सो य आगतो पच्छा । अगिलाणिं च गिलाणिं, जीवियकिच्छं विसजेति ॥ ६२८८ ॥ कोऽपि राजादीनां सेवकः, तेन राजसेवाव्यग्रेणात्मीया भार्या परिष्ठापिता, ततः सा प्रियविप्रयोगदुःखिता 'निष्क्रान्ता' तथारूपाणां स्थविराणामन्तिके प्रवजिता, स च पुरुषः पश्चात् 30 तयाऽर्थी जातस्ततस्तस्याः सकाशमागतः पुनरपि तां मार्गयति ततः को विधिः ? इत्याहअग्लानामपि तां 'ग्लानां' ग्लानवेषां कुर्वन्ति, विरेचनादीनि च तस्याः क्रियन्ते, ततोऽसौ १ जीत क° ताभा० ॥ २ °स्याः ग्रहणमवलम्बनं वा क्रि° का० ॥ 20 Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६० सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [क्षिप्तप्रकृते सूत्रम् १८ 'जीवितकृच्छ्रां' 'कृच्छ्रेणेयं जीवति' इतिबुद्धया विसर्जयति ॥ ६२८८ ॥ _अत्रैव द्वितीयमुदाहरणमाह--- अपरिग्गहियागणियाऽविसजिया सामिणा विणिक्खंता । बहुगं मे उव उत्तं, जति दिजति तो विसजेमि ॥ ६२८९ ॥ 5 न विद्यते परिग्रहः कस्यापि यस्याः साऽपरिग्रहा, सा चासौ गणिका चापरिग्रहगणिका, सा येन सममुषितवती स देशान्तरं गतः, ततस्तेन अविसर्जिता सती 'विनिष्क्रान्ता' प्रव्रजिता । अन्यदा च स खामी समागतो भणति-बहुकं 'मे' मदीयं द्रव्यमनया 'उपयुक्तम्' उपयोगं नीतम् , भुक्तमित्यर्थः, तद यदि दीयते ततो विसृजामि ॥ ६२८९ ॥ ___ एवमुक्ते यत् कर्तव्यं स्थविरैस्तदाह-- 10 सरभेद वण्णभेदं, अंतद्धाणं विरेयणं वा वि । वरधणुग पुंस्सभूती, गुलिया सुहुमे य झाणम्मि ॥ ६२९० ॥ गुटिकाप्रयोगतस्तस्याः खरभेदं वर्णभेदं वा स्थविराः कुर्वन्ति यथा स तां न प्रत्यभिजानाति । यदि वा ग्रामान्तरादिप्रेषणेन 'अन्तर्धानं' व्यवधानं क्रियते । अथवा तथाविधौषधप्रयोगतो विरेचनं कार्यते येन सा ग्लानेव लक्ष्यते, ततः 'एषा कृच्छ्रेण जीवति' इति ज्ञात्वा स तां 15मुञ्चति । अथवा शक्तौ सत्यां यथा ब्रह्मदत्तहिण्ड्यां धनुपुत्रेण वरधनुना मृतकवेषः कृतस्तथा निश्चला निरुच्छ्वासा सूक्ष्ममुच्छ्सनं तिष्ठति येन मृतेति ज्ञात्वा तेन विसृज्यते । यदि वा या पुष्यभूतिराचार्यः सूक्ष्मे ध्याने कुशलः सन् ध्यानवशात् निश्चलः निरुच्छासः स्थितः ( आवश्यके प्रतिक्रमणाध्ययने योगसङ्ग्रहेषु नियु० गा० १३१७ हारि० टीका पत्र ७२२) तथा तयाऽपि सूक्ष्मध्यानकुशलया सत्या तथा स्थातव्यं यथा स मृतेत्यवगम्य मुञ्चति ॥ ६२९०॥ 20 एतेषां प्रयोगाणामभावे अणुसिट्ठिमणुवरंतं, गति णं मित्त-णातगादीहिं।। एवं पि अठायंते, करेंति सुत्तम्मि जं वुत्तं ॥ ६२९१ ॥ __ अनुशिष्टिस्तस्य दीयते । तया यदि नोपरतस्ततस्तस्य पुरुषस्य यानि मित्राणि ये च ज्ञात. यस्तैः आदिशब्दाद् अन्यैश्च तथाविधैः स्थविरास्तं गमयन्ति' बोधयन्ति येन स तस्या मुत्क25 लनं करोति । एवमप्यतिष्ठति तस्मिन् यदुक्तं सूत्रे तत् कुर्वन्ति । किमुक्तं भवति !-अर्थजातमपि दत्त्वा सा तस्मात् पुरुषाद् मोचयितव्या । एतत् तस्याः सूत्रोक्तमवलम्बनं मन्तव्यम् ॥ ६२९१ ॥ गतं सेवकभार्याद्वारम् । अथावमद्वारमाह सकुडुंबो मधुराए, णिक्खिविऊणं गयम्मि कालगतो। ओमे फिडित परंपर, आवण्णा तस्स आगमणं ॥ ६२९२ ॥ 30 मथुरायां नगर्यां कोऽपि वणिक् सकुटुम्बोऽपि प्रविजिषुरव्यक्तां दारिकां मित्रस्य गृहे निक्षिप्य ततः प्रव्रज्यां प्रतिपद्यान्यत्र गतः । गते च तस्मिन् स मित्रभूतः पुरुषः काल १ पुस्समित्ते, गु तामा० । चूर्णिकृता एष एव पाठ आहतः । आवश्यक नियुक्ति-चूर्णिवृत्त्यादावप्ययमेव पाठ आदतोऽस्ति ॥ २ °था आवश्यके योगसङ्ग्रहोक्तः पुण्य कां० ॥ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाप्यगाथाः ६२८९-९५] पष्ठ उद्देशः । १६६१ गतः । ततस्तस्य कालगमनानन्तरं 'अवमे' दुर्भिक्षे जाते सति तदीयैः पुत्रैरनाद्रियमाणा सा "दारिका ततो गृहात् 'स्फिटिता' परिभ्रष्टा सती परम्परकेण दासत्वमापन्ना । तस्य च पितुर्य - थाविहारक्रमं विहरतस्तस्यामेव मथुरायामागमनम् । तेन च तत् सर्वं ज्ञातम् ॥ ६२९२ ॥ सम्प्रति तन्मोचने विधिमाह- अणुसासण कह ठवणं, भेसण ववहार लिंग जं जत्थ । दूessभोग गवेसण, पंथे जयणा य जा जत्थ ।। ६२९३ ॥ पूर्वमनुशासनं तस्य कर्तव्यम् । ततः कथाप्रसङ्गेन कथनं स्थापत्यापुत्रादेः करणीयम् । एवमप्यतिष्ठति यद् निष्क्रामता स्थापितं द्रव्यं तद् गृहीत्वा समर्पणीयम् । तस्याभावे निजकानां तस्य वा ‘भेषणं' भापनमुत्पादनीयम् । यदि वा राजकुले गत्वा व्यवहारः कार्यः । एवमप्यतिष्ठति यद् यत्र लिङ्गं पूज्यं तत्र तत् परिगृह्य सा मोचनीया । तस्यापि प्रयोगस्याभावे 10 दूरेण - उच्छिन्नखामिकतया दूरदेशव्यवधानेन वा यद् निधानं तस्याभोगः कर्तव्यः । तदनन्तरं तस्य ‘गवेषणं' साक्षान्निरीक्षणं करणीयम् । गवेषणाय च गमने 'पथि' मार्गे यतना यथा ओघनिर्युक्तौ उक्ता तथा कर्त्तव्या । या च यत्र यतना साऽपि तत्र विधेया यथासूत्रमिति द्वारगाथासङ्क्षेपार्थः ॥ ६२९३ ॥ साम्प्रतमेनामेव विवरीषुः प्रथमतोऽनुशासन-कथनद्वारे प्राहनिच्छिण्णा तुज्झ घरे, इसिकण्णा मुंच होहिती धम्मो | सेहो विचित्तं, तेण व अण्णेण वा णिहितं ॥ ६२९४ ॥ एषा ऋषिकन्या तव गृहेऽवमादिकं समस्तमपि निस्तीर्णा अधुना व्रतग्रहणार्थमुपतिष्ठते अतो मुञ्चैनाम्, तव भूयान् धर्मो भविष्यति । एतावता गतमनुशासनद्वारम् । तदनन्तरं कथनमिति स्थापत्यापुत्रकथा कथनीया- - यथा स स्थापत्या पुत्रो व्रतं जिघृक्षुर्वासुदेवेन महता निष्क्रमणमहिम्ना निष्क्राम्य पार्श्वस्थितेन व्रतग्रहणं कारितः एवं युष्माभिरपि कर्तव्यम् ॥ 20 अथ स्थापितद्वारम्–“सेहोवट्ट" इत्यादि । शैक्षः कश्चिदुपस्थितः तस्य यद् 'विचित्रं' बहुविधमर्थजातं क्वापि स्थापितमस्ति, यदि वा गच्छान्तरे यः कोऽपि शैक्ष उपस्थितः तस्य हस्ते यद् द्रव्यमवतिष्ठते तद् गृहीत्वा तस्मै दीयते । अथवा 'तेनैव' पित्रा 'अन्येन वा' साधुना निष्क्रामता यद् द्रव्यजातं कचित् पूर्वं 'निहितं' स्थापितमस्ति तद् आनीय तस्मै दीयते ॥ ६२९४ ॥ तदभावे को विधि: ? इत्याह 5 15 25 नीलगाण तस्स व भेसण ता राउले सतं वा वि । अविरिका मो अम्हे, कहं व लज्जा ण तुझं ति ॥ ६२९५ ॥ 'निजकानाम् ' आत्मीयानां खजनानां भेषणं कर्तव्यम्, यथा --- वयं 'अविरिक्ताः' अविभक्तरक्या वर्तामहे ततो मोचयत मदीयां दुहितरम्, कथं वा युष्माकं न लज्जा अभूत् यद् एवं मदीया पुत्रिका दासत्वमापन्नाऽद्यापि धृता वर्तते । अथवा येन गृहीता वर्तते तस्य भेषणं 30 विधेयम्, यथा—‍ - यदि मोचयसि तर्हि मोचय, अन्यथा भवतस्तं शापं दास्यामि येन न त्वं नेदं वा तव कुटुम्बकमिति । एवं भेषणेऽपि कृते यदि न मुञ्चति यदि वा ते खजना न १ 'चनावि' भा० ॥ २ तुम्हं ति ताभा० ॥ ३ यदि मुञ्चसि ततो मुञ्च, अन्य कां० ॥ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६२ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [क्षिप्त प्रकृते सूत्रम् १८ किमपि प्रयच्छन्ति तदा खयं राजकुले गत्वा निजकैः सह व्यवहारः करणीयः, व्यवहारं च कृत्वा भाग आत्मीयो गृहीत्वा तस्मै दातव्यः । यद्वा स एव राजकुले व्यवहारेणाकृष्यते, तत्र च गत्वा वक्तव्यम् , यथा-इयमृषिकन्या व्रतं जिघृक्षुः केनापि कपटेन धृताऽनेन वर्तते, यूयं च धर्मव्यापारनिषण्णाः, ततो यथा इयं धर्ममाचरति यथा चामीषामृषीणां समाधिरुपजायते 5 तथा यतध्वमिति ॥ ६२९५ ॥ ततः नीयल्लएहि तेण व, सद्धिं ववहार कातु मोदणता। जं अंचितं व लिंगं, तेण गवेसित्तु मोदेइ ॥ ६२९६ ॥ एवं निजकैस्तेन वा सार्द्व व्यवहारं कृत्वा तस्या मोचना कर्तव्या । अस्यापि प्रकारस्याभावे यद् यत्र लिङ्गमर्चितं तत् परिगृहाति । ततः 'तेन' अर्चितलिङ्गेन तल्लिङ्गधारिणां मध्ये ये 10 महान्तस्तत्पार्धाद् गवेषयित्वा तां मोचयन्ति ॥ ६२९६ ॥ अथ "दूराऽऽभोगे"त्यादिव्याख्यानार्थमाह पुट्ठा व अपुट्ठा वा, चुतसामिणिहिं कहिंति ओहादी । घेत्तूण जावदहूँ, पुणरवि सारक्खणा जतणा ॥ ६२९७ ॥ यदि वा 'अवध्यादयः' अवधिज्ञानिनः, आदिशब्दाद् विशिष्टश्रुतज्ञानिपरिग्रहः, पृष्टा वा 15 अपृष्टा वा तथाविधं तस्य प्रयोजनं ज्ञात्वा 'च्युतखामिनिधिम्' उच्छिन्नखामिकं निधि कथ यन्ति, तदानीं तेषां तत्कथनस्योचितत्वात् । ततः 'यावदर्थ' यावता प्रयोजनं तावद् गृहीत्वा पुनरपि तस्य निधेः संरक्षणं कर्तव्यम् । प्रत्यागच्छता च यतना विधेया, सा चाग्रे खयमेव वक्ष्यते ॥ ६२९७ ॥ ___ सोऊण अट्ठजायं, अटुं पडिजग्गती उ आयरिओ। 20 संघाडगं च देती, पडिजग्गति णं गिलाणं पि ॥ ६२९८॥ निधिग्रहणाय मार्गे गच्छन्तं तम् 'अर्थजातं' साधुं श्रुत्वा साम्भोगिकोऽसाम्भोगिको वाऽऽचायोऽथ प्रतिजागर्ति' उत्पादयति । यदि पुनः तस्य द्वितीयसङ्घाटको न विद्यते ततः सङ्घाटकमपि ददाति । अथ कथमपि स ग्लानो जायते ततस्तं ग्लानमपि सन्तं प्रतिजागर्ति न तूपेक्षते, जिनाज्ञाविराधनप्रसक्तेः ॥६२९८॥ यदुक्तमनन्तरं "यतना प्रत्यागच्छता कर्तव्या" तामाह25 ___ काउं णिसीहियं अट्ठजातमावेदणं गुरूहत्थे । दाऊण पडिक्कमते, मा पेहंता मिया पासे ॥ ६२९९ ॥ यत्रान्यगणे स प्राघूर्णिक आयाति तत्र नैषेधिकीं कृत्वा 'नमः क्षमाश्रमणेभ्यः' इत्यादि कृत्वा च मध्ये प्रविशति, प्रविश्य च यद् अर्थजातं तद् गुरुभ्य आवेदयति, आवेद्य च तदर्थजातं गुरुहस्ते दत्त्वा प्रतिक्रामति । कस्मान्न स्वपार्श्व एव स्थापयति ? इति चेद् अत 30 आह-मा 'प्रेक्षमाणाः' निरीक्षमाणा मृगा इव मृगा अगीतार्थाः क्षुल्लकादयः पश्येयुः, गुरुहस्ते च स्थितं न निरीक्षन्ते, अस्मद्गुरूणां समर्पितमिति विरूपसङ्कल्पाप्रवृत्तेः ॥ ६२९९ ।। सम्प्रति "जयणा य जा जत्थे"ति तद्व्याख्यानार्थमाह सण्णी व सावतो वा, केवतितो दिज अट्ठजायस्स । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 भाष्यगाथाः ६२९६-६३०३] षष्ठ उद्देशः । १६६३ पुव्वुप्पण्ण णिहाणे, कारणजाते गहण सुद्धो ॥ ६३०० ॥ यत्र 'संज्ञी' सिद्धपुत्रः श्रावको वा वर्तते तत्र गत्वा तस्मै स्वरूपं निवेदनीयं प्रज्ञापना च कर्तव्या । ततो यत् तस्य पूर्वोत्पन्नं प्रकटं निधानं तन्मध्यादसौ सिद्धपुत्रादिः प्रज्ञापितः सन् तस्य 'अर्थजातस्य' द्रव्यार्थिनः साधोः कियतोऽपि भागान् दद्यात् । अस्य प्रकारस्याभावे यद् निधानं दूरमवगाढं वर्तते तदपि तेन सिद्धपुत्रादिना उत्खन्य दीयमानमधिकृते कारणजाते। गृहानोऽपि शुद्धः, भगवदाज्ञया वर्तनात् ॥६३००॥ गतमवमद्वारम् । इदानीमापन्नाद्वारमाह थो पि धरेमाणी, कत्थइ दासत्तमेइ अदलंती। परदेसे वि य लब्भति, वाणियधम्मे ममेस ती॥ ६३०१॥ स्तोकमपि ऋणं शेषं धारयन्ती क्वचिद्देशे काऽपि स्त्री तद् ऋणमददती कालक्रमेण ऋणवृद्धया दासत्वम् 'एति' प्रतिपद्यते । तस्या एवं दासत्वमापन्नायाः खदेशे दीक्षा न दातव्या । 10 अथ कदाचित् परदेशे गता सती अज्ञातस्वरूपा अशिवादिकारणतो वा दीक्षिता भवति तत्र वणिजा परदेशे वाणिज्याथ गतेन दृष्टा भवेत् तत्रायं किल न्यायः-परदेशेऽपि वणिज आत्मीयं लभ्यं लभन्ते । तत एवं वणिग्धर्मे व्यवस्थिते सति स एवं ब्रूयात्-ममैषा दासी इति न मुञ्चाम्यमुमिति ॥ ६३०१ ॥ तत्र यत् कर्तव्यं तत्प्रतिपादनार्थ द्वारगाथामाह नाहं विदेसयाऽऽहरणमादि विजा य मंत जोए य। निमित्ते य राय धम्मे, पासंड गणे धणे चेव ॥ ६३०२॥ या तव दासत्वमापन्ना वर्तते न साऽहं किन्तु अहमन्यस्मिन् विदेशे जाता, त्वं तु सदृक्षतया विप्रलब्धोऽसि । अथ सा प्रभूतजनविदिता वर्तते तत एवं न वक्तव्यं किन्तु स्थापत्यापुत्राद्याहरणं कथनीयम् , यद्यपि कदाचित् तच्छ्रवणतः प्रतिबुद्धो मुत्कलयति । आदिशब्दाद् गुटिकाप्रयोगतः खरभेदादि कर्तव्यमिति परिग्रहः । एतेषां प्रयोगाणामभावे विद्या मन्त्रो योगो 20 वा ते प्रयोक्तव्या यैः परिगृहीतः सन् मुत्कलयति । तेषामप्यभावे 'निमित्वेन' अतीता-ऽनागतविषयेण राजा उपलक्षणमेतद् अन्यो वा नगरप्रधान आवर्जनीयो येन तत्प्रभावात् स प्रेर्यते । धर्मो वा कथनीयो राजादीनां येन ते आवृत्ताः सन्तस्तं प्रेरयन्ति । एतस्यापि प्रयोगस्याभावे पाषण्डान् सहायान् कुर्यात् । यद्वा यः 'गणः' सारस्वतादिको बलवांस्तं सहायं कुर्यात् । तदभावे दूराऽऽभोगादिना प्रकारेण धनमुत्पाद्य तेन मोचयेत् । एष द्वारगाथास पार्थः ॥६३०२॥ 25 साम्प्रतमेनामेव गाथां विवरीषुराह सारिक्खएण जंपसि, जाया अण्णत्थ ते वि आमं ति । बहुजणविण्णायम्मि, थावच्चसुतादिआहरणं ॥ ६३०३ ॥ यदि बहुजनविदिता सा न भवति, यथा-इयं तद्देशजाता इति; तत एवं ब्रूयात्अहमन्यत्र विदेशे जाता, त्वं तु सादृश्येण विप्रलब्ध एवमसमञ्जसं जल्पसि । एवमुक्ते 30 तेऽपि तत्रत्याः 'आमम्' एवमेतद् यथेयं वदतीति साक्षिणो जायन्ते । अथ तद्देशजाततया सा बहुजनविज्ञाता ततस्तस्यां बहुजनविज्ञातायां पूर्वोक्तं न वक्तव्यं किन्तु स्थापत्यापुत्राद्याहरणं १°समासार्थः डे० ॥ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६४ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके वृहत्कल्पसूत्रे [ क्षिप्तप्रकृते सूत्रम् १८ प्रतिबोधनाय कथनीयम् ॥ ६३०३ ॥ “आहरणमाई" इत्यत्रादिशब्दव्याख्यानार्थमाह सरभेद वण्णभेदं, अंतद्धाणं विरेयणं वा वि । वरधणुग पुस्सभूती, गुलिया सुहुमे य झाणम्मि ॥ ६३०४ ॥ गुटिकाप्रयोगतस्तस्याः खरभेदं वर्णभेदं वा कुर्यात् । यद्वा अन्तर्द्धानं नामान्तरप्रेषणेन वा व्यवधानम् । विरेचनं वा ग्लानतोपदर्शनाय कारयितव्या येन 'कृच्छ्रेणैषा जीवति' इति ज्ञात्वा विसर्जयति । यदि वा वरधनुरिव गुटिकाप्रयोगतः पुष्यभूतिराचार्य इव वा सूक्ष्मध्यानवशतो निश्चला निरुच्छ्वासा तथा स्याद् यथा मृतेति ज्ञात्वा परित्यज्यते । विद्या-मन्त्र-प्रयोगा वा तस्य प्रयोक्तव्या येन तैरभियोजितो मुत्कलयति । एतेषां प्रयोगाणामभावे राजा निमित्तेन धर्मकथया वाऽऽवय॑ते, ततस्तस्य प्रभावेण स प्रेर्यते ॥ ६३०४ ॥ 10 अस्याऽपि प्रकारस्याभावे को विधिः ? इत्याह पासंडे व सहाए, गिण्हति तुझं पि एरिसं अस्थि । होहामो य सहाया, तुब्भ वि जो वा गणो बलितो ॥ ६३०५॥ पाषण्डान् वा सहायान् गृह्णाति । अथ ते सहाया न भवन्ति तत इदं तान् प्रति वक्तव्यम्-युष्माकमपीदृशं प्रयोजनं भवेद् भविष्यति तदा युष्माकमपि वयं सहाया भविष्यामः । 15 एवं तान् सहायान् कृत्वा तद्बलतः स प्रेरणीयः । यदि वा यो मल्ल-सारस्वतादिको गणो बलीयान् तं सहायं परिगृह्णीयात् ॥ ६३०५ ॥ एएसिं असतीए, संता व जता ण होंति उ सहाया। ठवणा दूराभोगण, लिंगेण व एसिउं देति ॥ ६३०६॥ 'एतेषां' पाषण्डानां गणानां वा 'असति' अभावे यदि वा सन्तोऽपि ते सहाया न भवन्ति 20 तदा "ठवण" त्ति निष्कामता यद् द्रव्यं स्थापितं तेन सा मोचयितव्या । यदि वा 'दूराभोग नेन प्रागुक्तप्रकारेणैव अथवा यद् यत्र लिङ्गमर्चितं तेन धनम् 'एषयित्वा' उत्पाद्य ददति तस्मै वरवृषभाः ॥ ६३०६ ॥ गतमापन्नाद्वारम् । अथ ऋणार्तादिद्वाराण्याह एमेव अणत्ताए, तवतुलणा णवरि तत्थ णाणत्तं ।। बोहिय-तेणेहि हिते, ठवणादि गवेसणे जाव ॥ ६३०७ ॥ 25 'एवमेव' अनेनैव दासत्वापन्नागतेन प्रकारेण 'ऋणार्ताया अपि' प्रभूतं ऋणं धारयन्त्या अन्यदेशे दीक्षिताया मोक्षणे यतना द्रष्टव्या । नवरम् -अत्र धनदानचिन्तायां नानात्वम् । किं तत् ? इत्याह-तपस्तुलना कर्तव्या । तथा बोधिकाः स्तेनाश्च-प्रागुक्तखरूपास्तैर्हताया आर्यिकाया गवेषणं नियमेन कर्तव्यम् । तत्र च कर्तव्येऽनुशासनादिकं तदेव मन्तव्यं यावद् अर्थजातस्य स्थापना तया आदिशब्दाद् निधानस्य दूराभोगनादिप्रयोगेणापि सा मोचयितव्या । 30 अथ ऋणार्तायां या तपस्तुलनोक्ता सा भाव्यते-स द्रव्यं मार्गयन् वक्तव्यः-साधवस्तपोधना अहिरण्य-सुवर्णाः, लोकेऽपि यद् यस्य भाण्डं भवति स तत् तस्मै उत्तमर्णाय ददाति, अस्माकं च पार्श्वे धर्मस्तस्मात् त्वमपि धर्मं गृहाण ॥ ६३०७ ॥ एवमुक्ते स प्राह जो णातें कतो धम्मो, तं देउ ण एत्तियं समं तुलइ । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ६३०४ - १० ] पष्ठ उद्देशः । हाणी जावेगाहं, तावतियं विजथंभणता ॥ ६३०८ ॥ 5 योऽनया कृतो धर्मस्तं सर्वं मह्यं ददातु । एवमुक्ते साधुभिर्वक्तव्यम् — नैतावद् दद्मः, यतो नैतावत् समं तुलति । स प्राह - एकेन संवत्सरेण हीनं प्रयच्छतु; तदपि प्रतिषेधनीयः । ततो ब्रूयात् — द्वाभ्यां संवत्सराभ्यां हीनं दत्त; तदपि निषेध्यः । एवं तावद् विभाषा कर्तव्या यावद् 'एकेन दिवसेन कृतोऽनया धर्मस्तं प्रयच्छत' ततो वक्तव्यम् - नाभ्यधिकं दद्मः । किन्तु यावत् तव गृहीतं मुहूर्तादिकृतेन धर्मेण तोल्यमानं समं तुलति तावत् प्रयच्छामः । एवमुक्ते यदि तोलना ढौकते तदा विद्यादिभिस्तुला स्तम्भनीया येन क्षणमात्रकृतेनापि धर्मेण सह न समं तोलयतीति । धर्मतोलनं च धर्माधिकरणिक नीतिशास्त्रप्रसिद्धमिति ततोऽवसात - व्यम् । अथासौ क्षणमात्रकृतस्यापि धर्मस्यालाभात् तपो ग्रहीतुं नेच्छेत् ततो वक्तव्यम् - एषा वणिन्यायेन शुद्धा ॥ ६३०८ ॥ 10 स. प्राह – कः पुनर्वणिश्यायो येनैषा शुद्धा क्रियते ? साधवो ब्रुवते - वत्थाणाभरणाणि य, सव्वं छड्डेउ एगवत्थेणं । पोतम्मि विवण्णम्मि, वाणितधम्मे हवति सुद्धो ॥ ६३०९ ॥ यथा कोऽपि वाणिजः प्रभूतं ऋणं कृत्वा प्रवहणेन समुद्रमवगाढः, तत्र 'पोते' प्रवहणे विपन्ने आत्मीयानि परकीयानि च प्रभूतानि वस्त्राण्याभरणानि चशब्दात् शेषमपि च नाना - 15 विधं क्रयाणकं सर्वं 'छर्दयित्वा' परित्यज्य 'एकवस्त्रेण' एकेनैव परिधानवाससा उत्तीर्णः 'वणिग्ध' वणिग्न्याये 'शुद्धो भवति' न ऋणं दाप्यते । एवमियमपि साध्वी तव सत्कमा - त्मीयं च सारं सर्वं परित्यज्य निष्क्रान्ता संसारसमुद्रादुत्तीर्णा इति वणिग्धर्मेण शुद्धा, न धनिका ऋणमात्मीयं याचितुं लभन्ते, तस्माद् न किञ्चिदत्र तवाभाव्यमस्तीति करोत्विदानी - मेषा स्वेच्छया तपोवाणिज्यम्, पोतपरिभ्रष्टवणिगिव निर्ऋणो वाणिज्यमिति ॥ ६३०९ ॥ सम्प्रत्युपसंहारव्याजेन शिक्षामपवादं चाह 20 १६६५ तम्हा अपरायत्ते, दिक्खेज अणारिए य वज्रेञ्जा । अद्धा अणाभोगा, विदेस असिवादिसू दो वी ॥। ६३१० ॥ यस्मात् पयत्तदीक्षणेऽनार्यदेशगमने चैते दोषास्तस्मादपरायतान् दीक्षयेत् अनार्यांश्च देशान् बोधिक-स्तेनबहुलान् वर्जयेत् । अत्रैवापवादमाह - " अद्धाण" ति अध्वानं प्रतिपन्नस्य 25 ममोपग्रहमेते करिष्यन्तीति हेतोः परायत्तानपि दीक्षयेत्, यदि वाऽनाभोगतः प्रवाजयेत्, विदेशस्था वा स्वरूपमजानाना दीक्षयेयुः । अशिवादिषु पुनः कारणेषु “दो वि" ति 'द्वे अपि' परायत्त दीक्षणा-नार्यदेशगमने अपि कुर्यात् । किमुक्तं भवति ? - अशिवादिषु कारणेषु समुपस्थितेषु परायत्तानपि गच्छोपग्रह निमित्तं दीक्षयेत्, अनार्यानपि च देशान् विहरेदिति ॥ ६३१० ॥ ॥ क्षिप्तचित्तादिप्रकृतं समाप्तम् ॥ 30 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६६ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ परिमन्थप्रकृते सूत्रम् १९ परि मन्थ प्रकृतम् सूत्रम् छ कप्पस्स पलिमंथू पण्णत्ता, तं जहा-कोकुइए संजमस्स पलिमंथू १ मोहरिए सच्चवयणस्स पलि. मंथू २ चक्खुलोलए इरियावहियाए पलिमंथू ३ तितिणिए एसणागोयरस्स पलिमंथू ४ इच्छालोभए मुत्तिमग्गस्स पलिमंथू ५ भिजानियाणकरणे मोक्खमग्गरस पलिमंथू ६। सव्वत्थ भगवता अनियाणया पसत्था १९॥ 10 अस्य सूत्रस्य कः सम्बन्धः ? इत्याह दप्पेण जो उ दिक्खेति एरिसे एरिसेसु वा विहरे। तत्थ धुवो पलिमंथो, को सो कतिभेद संबंधो ॥ ६३११ ॥ 'दर्पण' कारणमन्तरेण य आचार्यः 'ईदृशान्' परायत्तान् दीक्षयति, यो वा 'ईदृशेषु' अनार्येषु देशेषु दर्पतो विहरति, तत्र 'ध्रुवः' निश्चितोऽवश्यम्भावी परिमन्थः, अतः कोऽसौ 16 कतिभेदो वा परिमन्थः ? इत्याशङ्कानिरासाय प्रस्तुतसूत्रारम्भः । एष सम्बन्धः ॥ ६३११ ॥ अहवा सब्बो एसो, कप्पो जो वण्णिओ पलंबादी। तस्स उ विवक्खभूता, पलिमंथा ते उ वजेजा ।। ६३१२ ॥ 'अथवा' इति सम्बन्धस्य प्रकारान्तरद्योतने । य एष षट्खपि उद्देशकेषु प्रलम्बादिकः 'कल्पः' समाचार उक्तः 'तस्य' कल्पस्य विपक्षभूताः 'परिमन्थाः' कौकुच्य-मौखर्यादयो 20 भवन्ति, अतस्तान् वर्जयेदिति ज्ञापनार्थमधिकृतसूत्रारम्भः ॥ ६३१२ ॥ अथवा वज्रमध्योऽयमुद्देशकः, तथाहि आइम्मि दोनि छक्का, अंतम्मि य छक्कगा दुवे हुंति । सो एस वइरमज्झो, उद्देसो होति कप्पस्स ॥ ६३१३ ॥ अस्मिन् षष्ठोद्देशके आदौ 'द्वे षट्के' भाषाषट्क-प्रस्तारषट्कलक्षणे भवतः अन्तेऽपि च द्वे 25 षट्के' परिमन्थषट्क-कल्पस्थितिषट्करूपे भवतः, ततः स एषः' कल्पोद्देशको वज्रमध्यो भवति, वज्रवदादावन्ते च द्वयोः षट्कयोः सद्भावाद् विस्तीर्णः मध्ये तु सङ्क्षिप्त इत्यर्थः । तत्राद्य षट्कद्वयं प्राग् अभिहितमेव, अथान्त्यं षट्कद्वयमभिधीयते। तत्रापि प्रथमं तावदिदम् ॥ ६३१३ ॥ १ कः प्रलम्बपरिहारादिरूपः 'कल्पः' का० ॥ २ द्वयोर्द्वयोर्वक्तव्यपदार्थषट्कयोः सद्भावाद् विस्तीर्णः मध्ये तु प्रतिसूत्रमेकैकस्य पदार्थस्य वक्तव्यतया सम्भवात् सक्रिप्त को०॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ६३११-१४] षष्ठ उद्देशः । अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या-'षड्' इति षट्सङ्ख्याः 'कल्पस्य' कल्पाध्ययनोक्तसाधुसमाचारस्य परिः-सर्वतो मनन्ति-विलोडयन्तीति परिमन्थवः, उणादित्वादुप्रत्ययः, पाठान्तरेण परिमन्था वा, व्याघातका इत्यर्थः, 'प्रज्ञप्ताः' तीर्थकरादिभिः प्रणीताः । तद्यथा-"कुकुइए" ति "कुचण अवस्पन्दने" इति वचनात् कुत्सितम्-अप्रत्युपेक्षितत्वादिना कुचितम्-अवस्पन्दितं यस्य स कुकुचितः, स एव प्रज्ञादिदर्शनात् खार्थिकाण्प्रत्यये । कौकुचितः; कुकुचा वा-अवस्पन्दितं प्रयोजनमस्येति कौकुचिकः; सः 'संयमस्य' पृथिव्यादिरक्षणरूपस्य 'परिमन्थुः' व्याघातकारी १ । “मोहरिए" त्ति मुखं-प्रभूतभाषणातिशायि वदनमस्यास्तीति मुखरः, स एव मौखरिकः-बहुभाषी, विनयादेराकृतिगणवाद् इकण्प्रत्ययः; यद्वा मुखेनारिमावहतीति व्युत्पत्त्या निपातनाद् मौखरिकः; 'सत्यवचनस्य' मृषावादविरतेः परिमन्थुः, मौखर्ये सति मृषावादसम्भवात् २। चक्षुषा लोल:-चञ्चलो यद्वा चक्षुः लोलं 10 यस्य स चक्षुलोलः, स स्तूप-देवकुलादीनि विलोकमानो व्रजति, ईर्या-गमनं तस्याः पन्था ईर्यापथस्तत्र भवा या समितिः सा ऐर्यापथिकी-ईयर्यासमितिस्तस्याः परिमन्थुर्भवति ३ । 'तिन्तिणिकः' आहाराद्यभावे खेदाद् यत्किञ्चनाभिधायी, स एषणा-उद्गमादिदोषविमुक्तभक्तपानादिगवेषणारूपा तत्प्रधानो यो गोचरः-गोरिव मध्यस्थतया भिक्षार्थ चरणं स एषणागोचरस्तस्य परिमन्थुः; सखेदो हि अनेषणीयमपि गृह्णातीति भावः ४ । इच्छा-अभिलाषः 15 स चासौ लोभश्च इच्छालोभः, महालोभ इत्यर्थः, यथा निद्रानिद्रा महानिद्रेति; स च इच्छालोभः-अधिकोपकरणादिमेलनलक्षणः 'मुक्तिमार्गस्य' मुक्तिः-निष्परिग्रहत्वम् अलोभतेत्यर्थः सैव निवृतिपुरस्य मार्ग इव मार्गस्तस्य परिमन्थुः ५। "भिज्ज" ति लोभस्तेन यद् निदानकरणं-देवेन्द्र-चक्रवादिविभूतिप्रार्थनं तद् 'मोक्षमार्गस्य' सम्यग्दर्शनादिरूपस्य परिमन्थुः, आर्तध्यानचतुर्थभेदरूपत्वात् । भिजाग्रहणेन यदलोभस्य भवनिर्वेद-मार्गानुसारितादिप्रार्थनं 20 तन्न मोक्षमार्गस्य परिमन्थुरित्यावेदितं प्रतिपत्तव्यम् ६ । ननु तीर्थकरत्वादिप्रार्थनं न राज्यादिप्रार्थनवद् दुष्टम् , अतस्तद्विषयं निदानं मोक्षस्य परिमन्थुन भविष्यति, नैवम् , यत आह"सव्वत्थे"त्यादि 'सर्वत्र' तीर्थकरत्व-चरमदेहत्वादिविषयेऽपि आस्तां राज्यादौ 'अनिदानता' अप्रार्थनमेव 'भगवता' समप्रैश्वर्यादिमता श्रीमन्महावीरस्वामिना "पसत्थ" ति 'प्रशंसिता' श्लाधिता । एष सूत्रार्थः ॥ अथ नियुक्तिविस्तरः __ पलिमंथे णिक्खेवो, णामा एगढिया इमे पंच । पलिमंथो वक्खेवो, वक्खोड विणास विग्यो य ॥ ६३१४ ॥ 'परिमन्थे' परिमन्थपदस्य निक्षेपश्चतुर्धा कर्तव्यः । तस्य चामूनि पञ्च एकाथिकानि भवन्ति–परिमन्थो व्याक्षेपो व्याखोटो विनाशो विघ्नश्चेति ॥ ६३१४ ॥ स च परिमन्थश्चतुर्दा-नाम-स्थापना-द्रव्य-भावभेदात् । तत्र नाम-स्थापने सुगमे । 30 द्रव्य-भावपरिमन्थौ प्रतिपादयति-- करणे अधिकरणम्मि य, कारग कम्मे य दव्यपलिमंथो । १ अथ भाष्यकारः परिमन्थुपदं विषमत्वाद् विवरीपुराह इत्यवतरणं का० ॥ 25 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्ति के बृहत्कल्पसूत्रे [ परिमन्थप्रकृते सूत्रम् १९ एमेव य भावम्मि वि, चउसु वि ठाणेसु जीवे तु ॥ ६३१५ ॥ _ 'करणे' साधकतमे ‘अधिकरणे' आधारे कारकः-कर्ता तस्मिन् तथा 'कर्मणि च' व्याप्ये द्रव्यतः परिमन्थो भवति । तथाहि-करणे येन मन्थानादिना दध्यादिकं मथ्यते, अधिकरणे यस्यां पृथिवीकायनिष्पन्नायां मन्थन्यां दधि मथ्यते, कर्तरि यः पुरुषः स्त्री वा दधि विलोड5 यति, कर्मणि तन्मथ्यमानं यद् नवनीतादिकं भवति, एष चतुर्विधो द्रव्यपरिमन्थः । एवमेव 'भावेऽपि' भावविषयः परिमन्थश्चतुर्वपि करणादिषु स्थानेषु भवति । तद्यथा-करणे येन कौत्कुच्यादिव्यापारेण दधितुल्यः संयमो मथ्यते, अधिकरणे यस्मिन् आत्मनि स मथ्यते, कर्तरि यः साधुः कौत्कुच्यादिभावपरिणतम्तं संयमं मनाति, कर्मणि यद् मथ्यमानं संयमादिकमसंयमादितया परिणमते । एष चतुर्विधोऽपि परिमन्थो जीवादनन्यवाद् जीव एव 10 मन्तव्यः ।। ६३१५ ॥ अथ करणे द्रव्य-भावपरिमन्थौ भाष्यकारोऽपि भावयति दव्यम्मि मंथितो खलु, तेणं मंथिजए जहा दधियं ।। दधितुल्लो खलु कप्पो, मंथिजति कोकुआदीहिं ।। ६३१६ ॥ द्रव्यपरिमन्थो मन्थिकः, मन्थान इत्यर्थः, 'तेन' मन्थानेन यथा दधि मथ्यते तथा दधितुल्यः खलु 'कल्पः' साधुसमाचारः कौकुचिकादिभिः प्रकारैर्मथ्यते, विनाश्यत इत्यर्थः 15।। ६३१६ ॥ तदेवं व्याख्यातं परिमन्थपदम् । सम्प्रति शेषाणि सूत्रपदानि कौत्कुचिकादीनि व्याचिख्यासुराह कोकुइओं संजमस्स उ, मोहरिए चेव सच्चवयणस्स । इरियाएँ चक्खुलोलो, एसणसमिईऍ तितिणिए ॥ ६३१७ ।। णासेति मुत्तिमग्गं, लोभेण णिदाणताए सिद्धिपहं । 20 एतेसिं तु पदाणं, पत्तेय परूवणं चोच्छं ।। ६३१८ ॥ ___कौकुचिकः संयमस्य, मौखरिकः सत्यवचनस्म, चक्षुलोल ईर्यासमितेः, तिन्तिणिक एषणासमितेः परिमन्थुरिति प्रक्रमादवगम्यते ॥ ६३१७ ।। लोभेन च मुक्तिमार्ग नाशयति, निदानतया तु सिद्धिपथम् । एतेषां पदानां प्रत्येक प्ररूपणां वक्ष्ये ॥ ६३१८ ॥ प्रतिज्ञातमेव करोति ठाणे सरीर भासा, तिविधो पुर्ण कुक्कुओ समासेणं । चलणे देहे पत्थर, सविगार कहकहे लहुओ ॥ ६३१९ ॥ आणाइणो य दोसा, विराहणा होइ संजमा-ऽऽयाए । १ मंथतो ताभा० मो० ले० ॥ २ मन्थकः मो० ले ॥ ३ °र्थः । ते भावतः परिमन्था उच्यन्ते ॥६३१६ ॥ तदेवं व्याख्यातं विषमत्वात परिमन्थपदं भाष्यकृता । सम्मति नियुक्तिविस्तरमाह-कोकु' का० ॥ ४ "लोमेण" त्ति पदैकदेशे पदसमुदायोपचाराद् इच्छालोमेन मुक्ति कां० ॥५पदानां सूत्रोक्तानां पण्णामपि 'प्रत्येकं' पृथक् पृथक् प्ररूपणां वक्ष्ये ॥ ६३१८ ॥ प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयन् कौकुचिकप्ररूपणां तावद् नियुक्तिकार एव करोति-ठाणे कां० ॥ ६°ण कोकुओ ताभा० ॥ 25 Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 भाष्यगाथाः ६३१५-२३] षष्ठ उद्देशः । १६६९ जंते व णट्टिया वा, विराहण मइल्लए सुत्ते ॥ ६३२० ॥ 'स्थाने' स्थानविषयः शरीरविषयो भाषाविषयश्चेति त्रिविधः समासेन कौकुचिकः । तत्र स्थानकौकुचिको यश्चलनम्-अभीक्ष्णं भ्रमणं करोति । देहः-शरीरं तद्विषयः कौकुचिको यः प्रस्तरान् हस्तादिना क्षिपति । यस्तु 'सविकारं' परस्य हास्योत्पादकं भाषते, 'कहक्कहं वा' महता शब्देन हसति स भाषाकौकुचिकः । एतेषु त्रिष्वपि प्रत्येकं मासलघु, आज्ञादयश्च दोषाः । संयमे आत्मनि च विराधना भवति । यन्त्रकवद् नर्तिकावद्वा भ्राम्यन् [ स्थान-शरीर ]कौकुचिक उच्यते । यस्तु महता शब्देन हसति तस्य मक्षिकादीनां मुखप्रवेशेन संयमविराधना शूलादिरोगप्रकोपेनात्मविराधना । “मएल्लए सुत्ति" ति मृतदृष्टान्तः सुप्तदृष्टान्तश्वात्र हास्यदोषदर्शनाय भवति, स. चोत्तरत्र दर्शयिष्यते ॥ ६३१९ ॥ ६३२०॥ अथैतदेव नियुक्तिगाथाद्वयं बिभावयिषुः स्थानकौकुचिकं व्याचष्टे 10 आवडइ खंभकुड्डे, अभिक्खणं भमति जंतए चेव । कमफंदण आउंटण, ण यावि बद्धासणो ठाणे ॥ ६३२१ ॥ इहोपविष्ट ऊर्द्धस्थितो वा स्तम्भे कुड्ये वा य आपतति, यन्त्रकमिव वाऽमीक्ष्णं भ्रमति, क्रमस्य-पादस्य स्पन्दनमाकुञ्चनं वा करोति, न च नैव 'बद्धासनः' निश्चलासनस्तिष्ठति, एष स्थानकौत्कुचिकः ॥ ६३२१ ।। अत्रामी दोषाः संचारोवतिगादी, संजमें आयाऽहि-विचुगादीया । दुब्बद्ध कुहिय मूले, चडफडते य दोसा तु ॥ ६३२२ ॥ सञ्चारकाः-कुड्यादौ सञ्चरणशीला ये उवइकादयः-उद्देहिका-मन्थुकीटिकाप्रभृतयो जीवास्तेषां या विराधना सा संयमविषया मन्तव्या । आत्मविराधनायामहि-वृश्चिकादयस्तत्रोपद्रवकारिणो भवेयुः, यदि वा यत्र स्तम्भादौ स आपतति तद् दुर्बद्धं मूले वा कुथितं भवेत् तत- 20 स्तस्य पतने परितापनादिका ग्लानारोपणा, “चडप्फडंते य" ति अभीक्ष्णमितस्ततो भ्राम्यतः सन्धिर्विसन्धीभवेदित्यादयो बहवो दोषाः । एवमुत्तरत्रापि दोषा मन्तव्याः ।। ६३२२ ।। अथ शरीरकौकुचिकमाह कर-गोफण-धणु-पादादिएहिँ उच्छुभति पत्थरादीए । भमुगा-दाढिग-थण-पुतविकंपणं णट्टवाइत्तं ॥ ६३२३ ।। कर-गोफणा-धनुः पादादिभिः प्रस्तरादीन् य उत्-प्राबल्येन क्षिपति स शरीरकौकुचिकः । भू-दाढिका-स्तन-पुतानां विकम्पनं-विविधम्-अनेकप्रकारैः कम्पनं यत् करोति तद् नृत्यपा १ भवति । तत्र स्थानकौकुचिकस्य यन्त्रवद् भ्राम्यतः शरीरकौकुचिकस्य तु नर्तकीवद् नृत्यतः षट्कायविराधना।भाषाकौकुचिकस्य पुनर्महता शब्देन प्रसारितवदनस्य हसतो मक्षिकादीनां मुखप्रवेशेन संयमविराधना परिस्फुटैव । तथा भ्राम्यतो नृत्यतो हसतश्च शूलादिरोगप्रकोपेनाऽऽत्मविराधना द्रष्टव्या। "मएलए का० ॥ २ °षुर्भाष्यकारः स्थानकौकुचिकं तावदाह-आव' का० ॥ ३ ताटी• डे• विनाऽन्यत्र-का-मधुकीटिका मो• ले । का-कुन्थु-कीटिका भा० का० ॥ ४ °नायां चिन्त्यमानायामहि कां०॥ ५नुत्तपा ॥ 26 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६७० सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ परिमन्थप्रकृते सूत्रम् १९ तित्वमुच्यते, नर्तकीत्वमित्यर्थः । एतेन "नट्टिया व" ति पदं व्याख्यातं प्रतिपत्तव्यम् ॥ ६३२३ ॥ गतः शरीरकौकुचिकः । अथ भाषाकौकुचिकमाह छलिय मुहवाइत्ते, जंपति य तहा जहा परो हसति । कुणइ य रुए बहुविधे, वग्घाडिय-देसभासाए ॥ ६३२४ ।। 5 यः सेण्टितं मुखवादित्रं वा करोति, तथा वा वचनं जल्पति यथा परो हसति, बहुविधानि वा मयूर-हंस-कोकिलादीनां जीवानां रुतानि करोति, वग्याडिकाः-उद्धट्टककारिणीः देशभाषा वा-मालव-महाराष्ट्रादिदेशप्रसिद्धास्तादृशीर्भाषा भाषते याभिः सर्वेषामपि हास्यमुपजायते, एष भाषाकौकुचिकः ॥ ६३२४ ॥ अस्य दोषानाह मच्छिगमाइपवेसो, असंपुडं चेव सेहिदिद्वंतो। दंडिय घतणो हासण, तेइच्छिय तत्तफालेणं ॥ ६३२५ ॥ __ तदीयभाषणदोषेण ये मुखं विस्फाल्य हसन्ति तेषां मुखे मक्षिकादयः प्राणिनः प्रविशेयुः, प्रविष्टाश्च ते यत् परितापनादिकं प्रामुवन्ति तन्निष्पन्नं तस्य प्रायश्चिचम् । हसतश्च मुखमसम्पुटमेव भवेद्, न भूयो मिलेदित्यर्थः । तथा चात्र श्रेष्ठिदृष्टान्त:___ कश्चिद् 'दण्डिकः' राजा, तस्य "घयणो" भण्डः । तेन राजसभायामीदृशं किमपि 'हासनं' 1Bहास्यकारि वचनं भणितं येन प्रभूतजनस्य हास्यमायातम् । तत्र श्रेष्ठिनो महता शब्देन हसतो मुखं तथैव स्थितं न सम्पुटीभवति । वास्तव्यवैद्यानां दर्शितो नैकेनापि प्रगुणीकर्तुं पारितः । नवरं प्राघुणकेनैकेन चैकित्सिकेन लोहमयः फालः तप्तः-अमिवर्णः कृत्वा मुखे दौकितः, ततस्तदीयेन भयेन श्रेष्ठिनो मुखं सम्पुटं जातम् ॥ ६३२५ ॥ ___ अथ प्रागुद्दिष्टं मृत-सुप्तदृष्टान्तद्वयमाह20 गोयर साहू हसणं, गवक्खें दटुं निवं भणति देवी । हसति मयगो कहं सो, त्ति एस एमेव सुत्तो वी ॥ ६३२६ ॥ एगो साहू गोचरचरियाए हिंडमाणो हसंतो देवीए गवक्खोवविट्ठाए दिट्ठो । राया भणिओ-सामि ! पेच्छ अच्छेरयं, मुयं माणुसं हसंतं दीसइ । राया संभंतो-कहं कहिं वा। सा साहुं दरिसेइ । राया भणइ-कहं मउ ? ति । देवी भणइ-इह भवे शरीर26 संस्कारादिसकलसांसारिकसुखवर्जितत्वाद् मृत इव मृतः ॥ एवं सुत्तदिद्रुतो वि भाणियव्वो ॥ अक्षरगमनिका त्वियम्-गोचरे साधोः पर्यटतः 'हसनं' हास्यं दृष्ट्वा देवी नृपं भणतिमृतको हसति । नृपः पृच्छति-कुत्र स मृतको हसति ? । देवी हस्तसंज्ञया दर्शयति-एष इति । एवमेव' मृतवत् सुप्तोऽपि मन्तव्यः, उभयोरपि निश्चेष्टतया विशेषाभावात् ॥ ६३२६ ॥ 30 गतः कौकुचिकः । सम्प्रति मौखरिकमाह मुहरिस्स गोण्णणामं, आवहति अरिं मुहेण भासंतो । .. लहुगो य होति मासो, आणादि विराहणा दुविहा ॥ ६३२७ ॥ १°हा जणो हस° ताभा० ॥ २ स-काकोलूकादी का० ॥ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ६३२४-३१] षष्ठ उद्देशः। १६७१ मौखरिकस्य 'गौणं' गुणनिष्पन्नं नाम 'मुखेन' प्रभूतभाषणादिमुखदोषेण भाषमाणः 'अरिं' वैरिणम् 'आवहति' करोतीति मौखरिकः । तस्यैवं मौखरिकत्वं कुर्वाणस्य लघुको मासः आज्ञादयश्च दोषाः। विराधना च संयमा-ऽऽत्मविषया द्विविधा । तत्र संयमविराधना मौखरिकस्य सत्यव्रतपरिमन्थुतया सुप्रतीता ॥ ६३२७ ॥ आत्मविराधनां तु दृष्टान्तेनाह - को गच्छेजा तुरियं, अमुगो ति य लेहएण सिहम्मि। सिग्घाऽऽगतो य ठवितो, केणाहं लेहगं हणति ।। ६३२८ ॥ एगो राया । तस्स किंचि तुरियं कजं उप्पन्नं ताहे सभामज्झे भणइ-को सिग्धं वच्चेजा है। लेहगो भणइ-अमुगो पवणवेगेणं गच्छइ ति । रन्ना सो पेसिओ तं कर्ज काऊण तदिवसमेव आगओ । रन्ना 'एसो सिग्धगामि' ति काउं धावणओ ठविओ। तेण रुटेणं पुच्छियं-केणाहं सिग्यो त्ति अक्खातो? । अन्नेण सिटुं-जहा लेहएणं । पच्छा सो 10 तेण तल्लिच्छेण छिदं लद्भूण उद्दविओ। एवं चेव जो संजओ मोहरियत्तं करेइ सो आयविराहणं पावेइ ति ॥ अक्षरार्थस्त्वयम् -'कस्त्वरितं गच्छेत् ?' इति राज्ञोक्ते लेखकेन शिष्टम्-अमुक इति। ततः स तत् कार्य कृत्वा शीघ्रमागतः। ततः 'स्थापितः' राज्ञा दौत्यकर्मणि नियुक्तः। ततः 'केनाहं कथितः ?' इति पृष्ट्वा 'लेखकेन' इति विज्ञाय लेखकं हतवान् । गाथायामतीतकालेऽपि 15 वर्तमानानिर्देशः प्राकृतत्वात् ॥ ६३२८ ॥ गतो मौखरिकः । अथ चक्षुर्लोलमाह आलोयणा य कहणा, परियऽणुपेहणा अणाभोए। लहुगो य होति मासो, आणादि विराहणा दुविहा ॥ ६३२९ ॥ स्तूपादीनामालोकनां कुर्वाणः 'कथनां' धर्मकथां परिवर्तनाम् अनुप्रेक्षां च कुर्वन् यदि 'अनाभोगेन' अनुपयुक्तो मार्गे ब्रजति तदा लघुमासः, आज्ञादयश्च दोषाः, द्विविधा च 20 विराधना भवेत् ॥ ६३२९ ॥ इदमेव भावयति आलोएंतो वच्चति, शुभादीणि व कहेति वा धम्म । परियट्टणाऽणुपेहण, न यावि पंथम्मि उवउत्तो ॥ ६३३०॥ 'स्तूपादीनि' स्तूप-देवकुला-ऽऽरामादीनि आलोकमानो धर्म वा कथयन् परिवर्तनामनुप्रेक्षा वा कुर्वाणो व्रजति । यद्वा सामान्येन 'न च' नैवोपयुक्तः पथि व्रजति एष चक्षुलोल उच्यते 25 ॥ ६३३० ॥ अस्यैते दोषाः छक्कायाण विराहण, संजमें आयाएँ कंटगादीया । आवडणे भाणभेदो, खद्धे उड्डाह परिहाणी ॥ ६३३१॥ अनुपयुक्तस्य गच्छतः संयमे षट्कायानां विराधना भवेत् । आत्मविराधनायां कण्टकादयः पदयोर्लगेयुः, विषमे वा प्रदेशे आपतनं भवेत् तत्र भाजनभेदः । 'खद्धे च' प्रचुरे 30 भक्त-पाने भूमौ छर्दिते उड्डाहो भवेत्-अहो ! बहुभक्षका अमी इति । भाजने च भिन्ने १°णा-ऽसमअसभाषणादि कां० ॥ २ कः, पृषोदरादित्वादिष्टरूपनिष्पत्तिः । तस्यै कां० ॥ ३ °पितोऽसौ राज्ञा डे० ॥ ४ पुनरमी दो का० ॥ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६७२ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ परिमन्थप्रकृते सूत्रम् १९ ‘परिहाणिः' सूत्रार्थपरिमन्थो भाजनान्तरगवेपणे तत्परिकर्मणायां च भवति ॥ ६३३१ ॥ गतश्चक्षुर्लोलः । अथ तिन्तिणिकमाह तितिणिऍ पुत्र भणिते, इच्छालोभे य उवहिमति रेगे । 6 लहुओ तिविहं व तर्हि, अतिरेगे जे भणिय दोसा ॥ ६३३२ ॥ तिन्तिणिक आहारोपधि-शय्याविषयभेदात् त्रिविधः, स च ' पूर्व' पीठिकायां सप्रपञ्चमुक्त इति होच्यते । स च सुन्दरमाहारादिकं गवेषयन्नेषणासमितेः परिमन्धुर्भवतीति । इच्छालोभस्तु स उच्यते यद् लोभाभिभूतत्वेनोपधिमतिरिक्तं गृह्णाति तत्र लघुको मासः । त्रिविधं वा तत्र प्रायश्चित्तम् । तद्यथा - जघन्ये उपधौ प्रमाणेन गणनया वाऽतिरिक्ते धार्यमाणे पञ्चकम्, मध्यमे मासलघु, उत्कृष्टे चतुर्लघु । ये चातिरिक्ते उपधौ दोषाः पूर्वं तृतीयोदेशके 10 भणितास्ते द्रष्टव्याः || ६३३२ ॥ अथ निदानकरणमाह अनियाणं निव्वाणं, काऊणमुट्ठितो भवे लहुओ । पावति धुवमायाति, तम्हा अणियाणया सेया ।। ६३३३ ॥ 'अनिदानं ' निदानमन्तरेण साध्यं निर्वाणं भगवद्भिः प्रज्ञप्तम्, ततो यो निदानं करोति तस्य तत् कृत्वा पुनरकरणेनोपस्थितस्य लघुको मासः प्रायश्चित्तम् । अपि च यो निदानं 15 करोति स यद्यपि तेनैव भवग्रहणेन सिद्धिं गन्तुकामस्तथापि 'ध्रुवम्' अवश्यम् ' आयातिं ' पुनर्भवागमनं प्राप्नोति, तस्मादनिदानता श्रेयसी ॥ ६३३३ ॥ इदमेव व्याचष्टे – इह-परलोग निमित्तं, अवि तित्थकरत्तचरिमदेहत्तं । सव्वत्थेसु भगवता, अणिदाणत्तं पसत्थं तु ।। ६३३४ ॥ इहलोकनिमित्तम्- 'इहैव मनुष्यलोकेऽस्य तपसः प्रभावेण चक्रवर्त्त्यादिभोगानहं प्राप्नुयाम्, 20 इहैव वा भवे विपुलान् भोगानासादयेयम्' इतिरूपम् परलोकनिमित्तं - मनुष्यापेक्षया देवभवादिकः परलोकस्तत्र ‘महर्द्धिक इन्द्रसामानिकादिरहं भूयासम् ' इत्यादिरूपं सर्वमपि निदानं प्रतिषिद्धम् । किं बहुना ? तीर्थकरत्वेन - आर्हन्त्येन युक्तं चरमदेहत्वं मे भवान्तरे भूयात् इत्येतदपि नाशंसनीयम् । कुतः ? इत्याह – 'सर्वार्थेषु' सर्वेष्वपि - ऐहिका - ऽऽमुष्मिकेषु प्रयोजनेषु अभिष्वङ्गविषयेषु भगवताऽनिदानत्वमेव ' प्रशस्तं ' श्लाघितम् । तुशब्द एवकारार्थः, स 25 च यथास्थानं योजितः || ६३३४ ॥ व्याख्याताः षडपि परिमन्थवः । साम्प्रतमेतेष्वेव द्वितीयपदमाह - बियपदं गेलणे, अद्धाणे चेव तह य ओमम्मि । मोत्तूर्णं चरिमपदं णायव्वं जं जहिं कमति ।। ६३३५ ॥ द्वितीयपदं ग्लानत्वे अध्वनि तथा अवमे च भवति, तच्च 'चरमपदं' निदान करणरूपं 30 मुक्तत्वा ज्ञातव्यम्, तत्र द्वितीयपदं न भवतीत्यर्थः । शेषेषु तु कौकुचिकादिषु यद् यत्र क्रमते तत् तत्रावतारणीयम् || ६३३५ ॥ एतदेव भावयति १ द्वितीयपदं क्रमते तत् तत्रावतारणीयम् । एषा निर्युक्तिगाथा ॥ ६३३५॥ अथैनामेव भाष्यकृद् व्याख्यानयति - कडि कां० ॥ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 भाष्यगाथाः ६३३२-४०] षष्ठ उद्देशः । १६७३ कडिवेयणमवतंसे, गुदागरिमा भगंदलं वा वि । गुदखील सक्करा वा, ण तरति वद्धासणो होउं ॥ ६३३६ ॥ कटिवेदना कस्यापि दुःसहा, 'अवतंसो वा' पुरुषव्याधिनामको रोगो भवेत् , एवं गुदयोः पाकोऽर्शासि भगन्दरं गुदकीलको वा भवेत् , 'शर्करा' कृच्छ्रमूत्रको रोगः स वा कस्यापि भवेत् , ततो न शक्नोति बद्धासनः ‘भवितुं' स्थातुम् । एवंविधे ग्लानत्वेऽभीक्ष्णपरिस्पन्दनादिकं । स्थानकौकुचिकत्वमपि कुर्यात् ।। ६३३६ ॥ उव्यत्तेति गिलाणं, ओसहकज्जे व पत्थरे छुभति । वेवति य खित्तचित्तो, वितियपदं होति दोसुं तु ॥ ६३३७ ॥ ग्लानम् 'उद्वर्तयति' एकस्मात् पार्श्वतो द्वितीयस्मिन् पार्श्वे करोति, 'औषधकार्ये वा' औषधदानहेतोस्तमेव ग्लानमन्यत्र सङ्क्राम्य भूयस्तत्रैव स्थापयति, यस्तु क्षिप्तचित्तः स परवश- 10 तया 'प्रस्तरान्' पाषाणान् क्षिपति वेपते वा, चशब्दात् सेण्टितं मुखवादित्रादिकं वा कैरोति । एतद् द्वितीयपदं यथाक्रमं 'द्वयोरपि' शरीर-भाषाकौकुचिकयोर्भवति ॥ ६३३७ ॥ मौखरिकत्वेऽपवादमाह तुरियगिलाणाहरणे, मुहरितं कुञ्ज वा दुपक्खे वी। __ ओसह विज्जं मंतं, पेल्लिज्जा सिग्घगामि त्ति ॥ ६३३८॥ त्वरितं ग्लाननिमित्तमौषधादेः आहरणे कर्तव्ये 'द्विपक्षे' संयतपक्षे संयतीपक्षे च मौखरिकत्वं कुर्यात् । कथम् ? इत्याह-एष शीघ्रगामी अत औषधमानेतुं विद्यां मन्नं वा प्रयोक्तुं "पेल्लिज' ति प्रेर्यताम् , व्यापार्यतामित्यर्थः ॥ ६३३८ ॥ अच्चाउरकजे वा, तुरियं व न वा वि इरियमुवओगो । विजस्स वा वि कहणं, भए व विस मूल ओमजे ॥ ६३३९ ॥ 20 अत्यातुरस्य वा-आगाढग्लानस्य कार्ये त्वरितं गच्छेत् , 'न वाऽपि' नैवेर्यायामुपयोगं दद्यात्, वैद्यस्य वा 'कथनं' धर्मकथां कुर्वन् गच्छेद् येन स आवृत्तः सम्यग् ग्लानस्य चिकित्सां करोति, भये वा मन्त्रादिकं परिवर्तयन् गच्छति, विषं वा केनापि साधुना भक्षितं तस्य मन्त्रेणापमार्जनं कुर्वन् , विषविद्या वा नवगृहीता तां परिवर्तयन् गच्छति, शूलं वा कस्यापि साधोरुद्धावति तदपमार्जयन् गच्छति ॥ ६३३९॥ तितिणिया वि तदट्ठा, अलब्भमाणे वि दव्वतितिणिता। वेजे गिलाणगादिसु, आहारुवधी य अतिरित्तो ॥ ६३४० ॥ _तस्य-ग्लानस्य उपलक्षणत्वाद् आचार्यादेश्वार्थाय 'तिन्तिणिकताऽपि' स्निग्ध-मधुराहारादिसं. योजनलक्षणा कर्तव्या । अलभ्यमाने वा ग्लानप्रायोग्ये औषधादौ 'द्रव्यतिन्तिणिकता' 'हा! १ यति, स एव ग्लानमितस्ततः कुर्वन् स्थापयन् वा स्थानकौकुचिकत्वं विदध्यादपि। तथा यस्तु क्षिप्तचित्तः उपलक्षणत्वाद् दीप्तचित्तादिर्वा स परवश कां० ॥ २ करोति महता शब्देन हसति वा । एत° कां० ॥ ३ अथ चक्षुर्लोलत्वे द्वितीयपदमाह इत्यवतरण का० ॥ ४ 'ग्ये पथ्यौषधादौ द्रव्ये-द्रव्यतश्चित्ताभिष्वङ्गमन्तरेण तिन्ति का० ॥ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६७४ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ परिमन्थप्रकृते सूत्रम् १९ कष्टं न लभ्यते ग्लानयोग्यमत्र' इत्येवंरूपा कार्या । इच्छालोभे पुनरिदं द्वितीयपदम् — वैद्यस्य दानार्थं ग्लानार्थं वा आहार उपधिश्चातिरिक्तोऽपि ग्रहीतव्यः, आदिशब्दाद् आचार्यादिपरिग्रहः, गणचिन्तको वा गच्छोपग्रह हेतोरतिरिक्तमुपधिं धारयेत् ॥ ६३४० ॥ एवं तावद् निदानपदं वर्जयित्वा शेषेषु सर्वेष्वपि ग्लानत्वमङ्गीकृत्य द्वितीयपदमुक्तम् । सम्प्रति तदेवाध्वनि दर्शयतिअवयक्खंतो व भया, कहेति वा सत्थिया ऽऽतिअत्तीणं । सुतं वा, खेद भदा वा अणाभोगा ।। ६३४१ ॥ विजं अध्वनि स्तेनानां सिंहादीनां वा भयादप्रेक्षमाण इतश्चेतश्च विलोकमानोऽपि व्रजेत् । यदि वा अध्वनि गच्छन् सार्थिकानाम् 'आयत्तिकानां वा' सार्थचिन्तकानां धर्मं कथयति येन ते आवृत्ताः सन्तो भक्तपानाद्युपग्रहं कुर्युः । अथवा विद्या काचिदभिनव गृहीता सा ' मा विस्म10 रिष्यति' इति कृत्वा परिवर्तयन्ननुप्रेक्षमाणो वा गच्छेत् । 'आदिश्रुतं' पञ्चमङ्गलं तद्वा चौरादिभये परावर्तयन् व्रजेत् । ' खेदो नाम' परिश्रमः तेन आतुरीभूतो भयाद्वा सम्भ्रान्त ईर्यायामुपयुक्तो न भवेदपि । “अणाभोग" ति विस्मृतिवशात् सहसा वा नेर्यायामुपयोगं कुर्यात् ॥ ६३४१॥ संजोयणा पलंबातिगाण कप्पादिगो य अतिरेगो । ओमादि वि विहुरे, जोइजा जं जहिं कमति ॥ ६३४२ ॥ 5 15 अध्वनि गच्छन्नाहारादीनां संयोजनामपि कुर्यात् । प्रलम्बादीनां विकरणकरणाय पिप्पलकादिकमतिरिक्तमप्युपधिं गृह्णीयाद् धारयेद्वा । अथवा परलिङ्गेन तानि ग्रहीतव्यानि ततः परलिङ्गमपिं धारयेत् । कल्पाः - और्णिकादयस्तदादिकः आदिशब्दात् पात्रादिकश्च दुर्लभ उपधिरतिरिक्तोऽपि ग्रहीतव्यः । तदेवमध्वनि द्वितीयपदं भावितम् । एवम् अवमं - दुर्भिक्षं तत्र आदिशब्दाद् अशिवादिकारणेषु वा 'विधुरे' आत्यन्तिकायामापदि पञ्चविधं परिमन्थुमङ्गीकृत्य 20 यद् यत्र द्वितीयपदं क्रमते तत् तत्र योजयेत् । एवं निदानपदं मुक्त्वा पञ्चखपि कौकुचिका - दिषु परिमन्धुषु द्वितीयपदमुक्तम् ॥ ६३४२ ॥ आह - निदाने किमिति द्वितीयपदं नोक्तम् ? उच्यते - नास्ति । कुतः ? इति चेद् अत आह— जा साबणसेवा, तं बीयपदं वयंति गीयत्था । आलंवणरहियं पुण, निसेवणं दप्पियं वेंति ।। ६३४३ ॥ 25 या ‘सालम्बनसेवा' ज्ञानाद्यालम्बनयुक्ता प्रतिषेवा तां द्वितीयं पदं गीतार्था वदन्ति, आलम्ब - नरहितां पुनः 'निषेवणां' प्रतिषेवां दर्पिकां ब्रुवते । तच्चालम्बनं निदानकरणे किमपि न विद्यते, “सव्वत्थ अनियाणया भगवया पसत्थे "ति वचनात् ॥ ६३४३ ॥' आह - भोगार्थं विधीयमानं निदानं तीत्रविपाकं भवतीति कृत्वा मा क्रियताम्, यत् पुनरमुना प्रणिधानेन निदानं करोति - मा मम राजादिकुले उत्पन्नस्य भोगाभिष्वक्तस्य प्रव्रज्या 30 न भविष्यतीत्यतो दरिद्र कुलेऽहमुत्पद्येयम्, तत्रोत्पन्नस्य भोगाभिष्वङ्गो न भविष्यति; एवं निदानकरणे को दोषः ? सूरिराह - १ अजितसुतं कां विना । अहियसुतं ताभा० । “ आदिसुतं पंचमंगलं, दंडपरिहारणिमित्तं अणु‘पेहंतो परियहंतो वा वच्चैज्ज” इति विशेषचूर्णो ॥ २ अत्रान्तरे ग्रन्थाग्रम् - ९५०० कां० ॥ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६७५ 10 भाष्यगाथाः ६३४१-४६] षष्ठ उद्देशः । एवं सुनीहरो मे, होहिति अप्प ति तं परिहरंति । हंदि । हुणेच्छंति भवं, भववोच्छित्तिं विमग्गंता ॥ ६३४४॥ 'एवम्' अवधारणे । किमवधारयति ? दरिद्रकुले उत्पन्नस्य 'मे' ममात्माऽसंयमात् 'सुनिर्हरः' सुनिर्गमो भविष्यति, सुखेनैव संयममङ्गीकरिष्यामि इत्यर्थः; 'इति' ईदृशमपि यद् निदानं तदपि साधवः परिहरन्ते । कुतः ? इत्याह-'हन्दि !' इति नोदकामन्त्रणे । हुः इति यस्मादर्थे । । हे सौम्य ! यस्माद् निदानकरणेन भवानां परिवृद्धिर्भवति, सर्वोऽपि च प्रव्रज्याप्रयत्नोऽस्माकं भवव्यवच्छित्तिनिमित्तम् , ततो भवव्यवच्छित्तिं विविधैः प्रकारैर्गियन्तः साधवो भवं नेच्छन्ति ॥ ६३४४ ॥ अमुमेवार्थ दृष्टान्तेन द्रढयति-- जो रयणमणग्धेयं, विकिजऽप्पेण तत्थ किं साहू । दुग्गयभवमिच्छंते, एसो च्चिय होति दिद्रुतो ॥ ६३४५॥ यः 'अनर्थ्यम्' इन्द्रनील-मरकतादिकं रत्नम् 'अल्पेन' खल्पमूल्येन काचादिना विक्रीणीयात् तत्र 'किं साधु' किं नाम शोभनम् ? न किञ्चिदित्यर्थः । 'दुर्गतभवं' दरिद्रकुलोत्पत्तिमिच्छत एष एव दृष्टान्त उपनेतव्यो भवति । तथाहि-अनयरत्नस्थानीयं चारित्रम् , निरुपमा-ऽनन्तानन्दमयमोक्षफलसाधकत्वात् ; काचशकलस्थानीयो दुर्गतभवः, तुच्छत्वात् । ततो यश्चारित्रविक्रयेण तत्प्रार्थनं करोति स मन्दभाग्योऽनर्ध्यरत्नं विक्रीय काचशकलं गृहातीति 15 मन्तव्यम् ॥ ६३४५॥ अपि च संग अणिच्छमाणो, इह-परलोए य मुञ्चति अवस्सं । एसेव तस्स संगो, आसंसति तुच्छतं जं तु ॥ ६३४६ ॥ इहलोकविषयं परलोकविषयं च 'सङ्गं' मुक्तिपदप्रतिपक्षभूतमभिष्वङ्गमनिच्छन्नवश्यं 'मुच्यते' कर्मविमुक्तो भवति । कः पुनस्तस्य सङ्गः ? इत्याह-एष एव तस्य सङ्गो यद् 20 मोक्षाख्यविपुलफलदायिना तपसा तुच्छकं फलम् 'आशास्ते' प्रार्थयति ॥ ६३४६ ॥ १ मन्तव्यम् । तथा च दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्-एवं खलु समणाउसो ! मए धम्मे पण्णत्ते, जस्स णं धम्मस्स निग्गंथे वा निग्गंधी वा सिक्खाए उवढ़िए इमं एयारूवं नियाणं करेजा-जइ इमस्स तव-नियम-वंभचेरवासस्स फलवित्तिविसेसे अत्थि तो वयमवि आगमिस्सा णं जाई इमाइं अंतकुलाणि वा तुच्छकुलाणि वा दरिद्दकुलाणि वा एएसि णं अन्नयरंसि कुलंसि पुमत्ताए पञ्चायामो एवं मे आया परियाए सुनीहरे भविस्सह । एवं खलु समणाउसो ! निग्गंथे वा निग्गंथी वा नियाणं किच्चा तस्स ठाणस्स अणालोइय अप्पडिकंते कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववजिता ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं ३ अणंतरं चयं चइत्ता अंत-तच्छ-दरिहकलेस पञ्चायाइ से णं भंते ! तहारूवाणं थेराणं अंतिए केवलिपन्नत्तं धम्म पडिसुणित्ता पव्वइजा? हंता! पव्वइजा । से णं भंते ! तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झिजा? नो इणटे समढे, एवं खलु समणाउसो! तस्स नियाणस्स पावए फलविवागे जं नो संचाएइ तेणेव भवग्गणेणं सिज्झित्तए ॥ यत एवमतो न विधेयं निदानम् ॥ ६३४५॥ अपि च कां ॥ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६७६ तद् भूयोऽपि निदानस्यैव पर्यायकथनद्वारेण दोषमाह - बंधोति णियाणं ति य, आससजोगो य होंति एगट्ठा । ते पुणण बोहिऊ, बंधावचया भवे बोही ।। ६३४७ ।। बन्ध इति वा निदानमिति वा आशंसायोग इति वा एकार्थानि पदानि भवन्ति । ' 5 पुनः' बन्धादयः 'न बोधिहेतवः' न ज्ञानाद्यवाप्तिकारणं भवन्ति, किन्तु ये 'बन्धापचया : ' कारणे कार्योपचारात् कर्मबन्धस्यापचयहेतवोऽनिदानतादयस्तेभ्यो बोधिर्भवति ॥ ६३४७ ॥ आह- यदि नाम साधवो भवं नेच्छन्ति ततः कथं देवलोकेषूत्पद्यन्ते ! उच्यतेनेच्छति भवं समणा, सो पुण तेसिं भवो इमेहिं तु । पुव्वतव - संजमेहिं, कम्मं तं चावि संगेणं ।। ६३४८ ॥ 10 'श्रमणाः' साधवो नेच्छन्त्येव भवं परं स पुनः 'भवः' देवत्वरूपस्तेषाममीभिः कारणैभवेत् । तद्यथा - पूर्वं - वीतरागावस्थापेक्षया प्राचीनावस्थाभावि यत् तपस्तेन, सरागावस्था भाविना तपसा साधवो देवलोकेषूत्पद्यन्ते इत्यर्थः एवं पूर्वसंयमेन - सरागेण सामायिकादिचारित्रेण साधूनां देवत्वं भवति । कुतः ? इत्याह – “कम्मं" ति पूर्वतपः- संयमावस्थायां हि देवायुदेवगतिप्रभृतिकं कर्म बध्यते ततो भवति देवेषूपपातः । एतदपि कर्म केन हेतुना बध्यते ? 15 इति चेद् अत आह—तदपि कर्म 'सङ्गेन' संज्वलनक्रोधादिरूपेणं बध्यते ॥ ६३४८ ॥ ॥ परिमन्धप्रकृतं समाप्तम् ॥ कल्प स्थिति प्रकृत म् छव्विहा कप्पट्टिती पण्णत्ता, तं जहा - सामाइयसंजय कप्पट्ठिती १ छेतोवट्टावणियसंजयकप्पट्टिती २ निव्विसमाणकष्पट्टिती ३ निव्विटुकाइयकप्पट्ठिती ४ जिणकरपट्टिती ५ थेरकप्पट्ठिति ६ त्ति बेमि २० ॥ 20 सूत्रम् 25 सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ कल्प० प्रकृते सूत्रम् २० अथास्य सूत्रस्य कः सम्बन्धः ? इत्याह - कप्पे य अवद्वाणं वदंति कप्पट्ठितिं थेरा ॥ ६३४९ ॥ अनन्तरसूत्रोक्तैः परिमन्थैर्विप्रमुक्तस्य साधोः 'अवस्थितः' सर्वकालभावी कल्पो नियमाद् भवति । यच्च कल्पेऽवस्थानं तामेव कल्पस्थितिं ' स्थविरा:' श्रीगौतमादयः सूरयो वदन्ति । अतः परिमन्थसूत्रानन्तरं कल्पस्थितिसूत्रमारभ्यते ॥ ६३४९ ॥ अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या - ' षड्विधा' पट्कारा कल्पे - कल्पशास्त्रोक्तसाधु१ 'यो गुणास्ततो वो कां० ॥ २ण कषायांशसम्पर्केण व कां० ॥ मिंथ विमुकस होति कप्पो अवट्ठितो णियमा । Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ६३४७-५२] पष्ठ उद्देशः । १६७७ समाचारे स्थितिः-अवस्थानं कल्पस्थितिः कल्पस्य वा स्थितिः-मर्यादा कल्पस्थितिः 'प्रज्ञप्ता' तीर्थकर-गणधरैः प्ररूपिता । तद्यथा' इति उपन्यासार्थः । 'सामायिकसंयतकल्पस्थितिः' समः-राग-द्वेषरहितस्तस्य आयः-लाभो ज्ञानादीनां प्राप्तिरित्यर्थः, समाय एव सामायिकं-सर्वसावद्ययोगविरतिरूपम् तत्प्रधाना ये संयताः-साधवस्तेषां कल्पस्थितिः सामायिकसंयतकल्पस्थितिः १ । तथा पूर्वपर्यायच्छेदेनोपस्थापनीयम्-आरोपणीयं यत् तत् छेदोपस्थापनीयम् , 6 व्यक्तितो महावतारोपणमित्यर्थः, तत्प्रधाना ये संयताम्तेषां कल्पस्थितिः छेदोपस्थापनीयसंयतकल्पस्थितिः २ । निर्विशमानाः-परिहारविशुद्धिकल्पं वहमानास्तेषां कल्पस्थितिः निर्विशमानकल्पस्थितिः ३ । निर्विष्टकायिका नाम-यैः परिहारविशुद्धिकं तपो व्यूढम् , निर्विष्टः-आसेवितो विविक्षितचारित्रलक्षणः कायो यैस्ते निर्विष्टकायिका इति व्युत्पत्तेः, तेषां कल्पस्थितिः निर्विष्टकायिककल्पस्थितिः ४ । जिनाः-गच्छनिर्गताः साधुविशेषास्तेषां कल्पस्थितिः जिन- 10 कल्पस्थितिः ५ । स्थविरा:-आचार्यादयो गच्छप्रतिवद्धास्तेषां कल्पस्थितिः स्थविरकल्पस्थितिः ६ । 'इतिः' अध्ययनपरिसमाप्तौ । 'ब्रवीमि' इति तीर्थकर-गणधरोपदेशेन सकलमपि प्रस्तुतशास्त्रोक्तं कल्पा-ऽकल्पविधि भणामि, न पुनः खमनीषिकया इति सूत्रस पार्थः ॥ सम्प्रति विस्तरार्थं विभणिषुर्भाष्यकारः कल्लास्थितिपदे परस्याभिप्रायमाशय परिहरन्नाह आहारो त्ति य ठाणं, जो चिट्ठति सो ठिइ त्ति ते बुद्धी। 15 ववहार पडुच्चेवं, ठिईरेव तु णिच्छए ठाणं ॥ ६३५० ॥ "कल्पस्थितिः" इति सूत्रे यत् पदं तत्र कल्पः-आधार इति कृत्वा स्थानम्, यस्तु तत्र कल्पे तिष्ठति स स्थितेरनन्यत्वात् स्थितिः, ततश्चैवं पृथग्नामा-ऽभिधेयत्वेन स्थिति-स्थानयोः परस्परमन्यत्वमापन्नमिति 'ते' तव बुद्धिः स्यात् तत्रोच्यते-'व्यवहारं' व्यवहारनयं प्रतीत्य 'एवं' स्थिति-स्थानयोरन्यत्वम् , 'निश्चयतस्तु' निश्चयनयाभिप्रायेण यैव स्थितिस्तदेव स्थानम् , 20 तुशब्दाद् यदेव स्थानं सैव स्थितिः ॥ ६३५० ॥ कथं पुनः ? इत्यत आह ठाणस्स होति गमणं, पडिवक्खो तह गती ठिईए तु । एतावता सकिरिए, भवेज ठाणं व गमणं वा ॥ ६३५१ ॥ सक्रियस्य जीवादिद्रव्यस्य तावदेतावदेव क्रियाद्वयं भवति-स्थानं वा गमनं वा । तत्र स्थानस्य गमनं प्रतिपक्षो भवति, तत्परिणतस्य स्थानाभावात् । एवं स्थितेरपि गतिः प्रतिपक्षो 25 भवति ।। ६३५१ ॥ ततः किम् ? इत्याह ठाणस्स होति गमणं, पडिपक्खो तह गती ठिईए उ। ण य गमणं तु गतिमतो, होति पुढो एवमितरं पि ॥ ६३५२ ॥ स्थानस्य गमनं प्रतिपक्षो भवति न स्थितिः, स्थितेरपि गतिः प्रतिपक्षो न स्थानम् , एवं स्थिति-स्थानयोरेकत्वम् । तथा 'न च' नैव गमनं गतिमतो द्रव्यात् 'पृथग्' व्यतिरिक्तं भवति, 30 एवम् 'इतरदपि' स्थानं स्थितिमतो द्रव्यादव्यतिरिक्तं मन्तव्यम् ॥ ६३५२ ।। ___ इदमेव व्यतिरेकद्वारेण द्रढयति १ ठिति चेव तु ताभा० ॥ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ कल्प०प्रकृते सूत्रम् २० जय गमणं तु गतिमतो, होज पुढो तेण सो ण गच्छेजा । जह गमणातो अण्णा, ण गच्छति वसुंधरा कसिणा ॥ ६३५३ ॥ यदि गमनं गतिमतः पुरुषादेः पृथग् भवेत् ततः 'असौ' गतिमान् न गच्छेत् । दृष्टान्तमाह-यथा गमनात् 'अन्या' पृथग्भूता 'कृत्स्ना' सम्पूर्णा वसुन्धरा न गच्छति । कृत्स्नाग्रहणं लेष्टुपमृतिकस्तदवयवो गच्छेदपि इति ज्ञापनार्थम् । एवं स्थानेऽपि भावनीयम् ॥ ६३५३ ॥ यत एवमतः स्थितमेतत् ठाण-द्विइणाणत्तं, गति-गमणाणं च अत्थतो णत्थि । वंजणणाणत्तं पुण, जहेव वयणस्स वायातो ॥ ६३५४ ॥ स्थान-स्थित्योर्गति-गमनयोश्वार्थतो नास्ति नानात्वम् , एकार्थत्वात् ; व्यञ्जननानात्वं पुनरस्ति । 10 यथैव वचनस्य वाचश्च परस्परमर्थतो नास्ति भेदः, शब्दतः पुनरस्तीति ॥ ६३५४ ॥ अथवा नात्र स्थितिशब्दोऽवस्थानवाची किन्तु मर्यादावाचकः । तथा चाह अहवा ज एस कप्पो, पलंबमादि बहुधा समक्खातो। छट्ठाणा तस्स ठिई, ठिति त्ति मेर त्ति एगट्ठा ॥ ६३५५ ॥ अथवा य एष प्रस्तुतशास्त्रे प्रलम्बादिकः 'बहुधा' अनेकविधः कल्पः समाख्यातः तस्य 15 षट्स्थाना' षट्प्रकारा स्थितिर्भवति । स्थितिरिति मर्यादा इति चैकार्थो शब्दौ ॥ ६३५५ ।। भूयोऽपि विनेयानुग्रहार्थ स्थितेरेवैकार्थिकान्याह पतिद्वा ठावणा ठाणं, ववत्था संठिती ठिती । अवट्ठाणं अवत्था य, एकट्ठा चिट्ठणाऽऽति य ॥ ६३५६ ॥ प्रतिष्ठा स्थापना स्थानं व्यवस्था संस्थितिः स्थितिः अवस्थानम् अवस्था च, एतान्येकार्थि20कानि पदानि । तथा "चिट्ठणं" ऊर्द्धस्थानम् आदिशब्दाद् निषदनं त्वग्वर्तनं च, एतानि त्रीण्यपि स्थितिविशेषरूपाणि मन्तव्यानि ॥ ६३५६ ॥ सा च कल्पस्थितिः षोढा, तद्यथा सामाइए य छेदे, निविसमाणे तहेव निबिडे । जिणकप्पे थेरेसु य, छव्विह कप्पट्टिती होति ॥ ६३५७ ॥ सामायिकसंयतकल्पस्थितिः छेदोपस्थापनीयसंयतकल्पस्थितिः निर्विशमानकल्पस्थितिः तथैव 25 निर्विष्टकायकल्पस्थितिः जिनकल्पस्थितिः स्थविरकल्पस्थितिश्चेति षड्विधा कल्पस्थितिः ॥ ६३५७ ॥ अथैनामेव यथाक्रमं विवरीषुः प्रथमतः सामायिककल्पस्थिति विवृणोति कतिठाण ठितो कप्पो, कतिठाणेहिँ अद्वितो। वुत्तो धृतरजो कप्पो, कतिठाणपतिद्वितो ॥ ६३५८ ॥ यः किल 'धुतरजाः' अपनीतपापकर्मा सामायिकसाधूनां 'कल्पः' आचारो भगवद्भिरुक्तः 30 स कतिषु स्थानेषु स्थितः ? कतिषु च स्थानेषु अस्थितः ? कतिस्थानप्रतिष्ठितश्चोक्तः ? ॥ ६३५८ ॥ सूरिराह १ 'म्बविधि-मासकल्पविधिप्रभृतिकोऽनेक का० ॥ २ वृण्वन् शिष्येण प्रश्नं कारयति-कति कां०॥ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ६३५३-६२] षष्ठ उद्देशः । १६७९ चउठाणठिओ कप्पो, छहिं ठाणेहिँ अडिओ। एसो धूयरय कप्पो, दसहाणपतिहिओ ॥ ६३५९ ॥ चतुःस्थानस्थितः कल्पः, षट्सु च स्थानेष्वस्थितः । तदेवमेष धुतरजाः सामायिकसयतकल्पो दशस्थानप्रतिष्ठितः, केषुचित् स्थित्या केषुचित् पुनरस्थित्या दशसु स्थानेषु प्रतिबद्धो मन्तव्य इत्यर्थः ॥ ६३५९ ॥ इदमेव व्यक्तीकरोति चउहिँ ठिता छहिँ अठिता, पढमा वितिया ठिता दसविहम्मि । वहमाणा णिव्विसगा, जेहि वहं ते उ णिविट्ठा ॥ ६३६०॥ 'प्रथमाः' सूत्रक्रमप्रामाण्येन सामायिकसंयतास्ते चतुषु स्थानेषु स्थिताः, षट्सु पुनरस्थिताः । गाथायां सप्तम्यर्थे तृतीया । ये तु 'द्वितीयाः' छेदोपस्थापनीयसंयतास्ते देशविधेऽपि कल्पे स्थिताः । पश्चार्द्धन तृतीय-चतुर्थकल्पस्थित्योः शब्दार्थमाह-"वहमाणा" इत्यादि । ये 10 परिहारविशुद्धिकं तपो वहन्ति ते निर्विशमानकाः । यैस्तु तदेव तपो व्यूढं ते निर्विष्टकायिका उच्यन्ते ॥ ६३६० ॥ आह–कानि पुनस्तानि चत्वारि षड् वा स्थानानि येषु सामायिकसंयता यथाक्रमं स्थिता अस्थिताश्च ? इति अत्रोच्यते सिजायरपिंडे या, चाउजामे य पुरिसजेटे य । कितिकम्मस्स य करणे, चत्तारि अवट्ठिया कप्पा ॥ ६३६१॥ 16 "सिज्जातरपिंडे" त्ति "सूचनात् सूत्रम्" इति शय्यातरपिण्डस्य परिहरणं चतुर्यामः पुरुषज्येष्ठश्च धर्मः कृतिकर्मणश्च करणम् । एते चत्वारः कल्पाः सामायिकसाधूनामप्यवस्थिताः । तथाहि-सर्वेऽपि मध्यमसाधवो महाविदेहसाधवश्च शय्यातरपिण्डं परिहरन्ति, चतुर्यामं च धर्ममनुपालयन्ति, 'पुरुषज्येष्ठश्च धर्मः' इति कृत्वा तदीया अप्यार्यिकाश्चिरदीक्षिता अपि तदिनदीक्षितमपि साधु वन्दन्ते, कृतिकर्म च यथारानिकं तेऽपि कुर्वन्ति । अत एते चत्वारः कल्पा-30 अवस्थिताः ॥ ६३६१ ॥ इमे पुनः षडनवस्थिताः __ आचेलकुद्देसिय, सपडिकमणे य रायपिंडे य । मासं पज्जोसवणा, छऽप्पेतऽणवद्विता कप्पा ॥६३६२॥ आचेलक्यमौदेशिकं सप्रतिक्रमणो धर्मो राजपिण्डो मासकल्पः पर्युषणाकल्पश्चेति षडप्येते कल्पा मध्यमसाधूनां विदेहसाधूनां चानवस्थिताः । तथाहि-यदि तेषां वस्त्रप्रत्ययो रागो द्वेषो 25 वा उत्पद्यते तदा अचेलाः, अथ न रागोत्पत्तिस्ततः सचेलाः, महामूल्यं प्रमाणातिरिक्तमपि च वस्त्रं गृहन्तीति भावः । 'औद्देशिकं नाम' साधूनुद्दिश्य कृतं भक्तादिकम् आधाकर्मेत्यर्थः, तदप्यन्यस्य साधोरर्थाय कृतं तेषां कल्पते, तदर्थं तु कृतं न कल्पते । प्रतिक्रमणमपि यदि अतिचारो भवति ततः कुर्वन्ति अतिचाराभावे न कुर्वन्ति । राजपिण्डे यदि वक्ष्यमाणा दोषा १ 'चतुःस्थानस्थितः' वक्ष्यमाणनीत्या शय्यातरपिण्डपरिहारादौ स्थानचतुष्टये निय. मेन कृतावस्थानः कल्पः, 'बटस च स्थानेष' आचेलक्यादिष वक्ष्यमाणनीयवास्थितः । तदेव को० ॥ २ 'दशविधेऽपि' वक्ष्यमाणलक्षणे कल्पे 'स्थिताः' अवश्यन्तया कृतावस्थानाः। पश्चा कां० ॥ ३ °काः । “जेहि वहं ते उ निविट्ट" त्ति प्राकृतत्वाद् यैस्तु का.॥ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८० सनियुक्ति-लघुमाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे ( कल्प०प्रकृते सूत्रम् २० भवन्ति ततः परिहरन्ति अन्यथा गृह्णन्ति । मासकल्पे यदि एकक्षेत्रे तिष्ठतां दोषा न भवन्ति ततः पूर्वकोटीमप्यासते, अथ दोषा भवन्ति ततो मासे पूर्णेऽपूर्ण वा निर्गच्छन्ति । पर्युषणायामपि यदि वर्षासु विहरतां दोषा भवन्ति तत एकत्र क्षेत्रे आसते, अथ दोषा न भवन्ति ततो वर्षारात्रेऽपि विहरन्ति ॥ ६३६२ ॥ । गता सामायिकसंयतकल्पस्थितिः । अथ च्छेदोपस्थापनीयसाधूनां कल्पस्थितिमाह दसठाणठितो कप्पो, पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स । एसो धुतरत कप्पो, दसठाणपतिहितो होति ॥ ६३६३ ॥ दशस्थानस्थितः कल्पः पूर्वस्य च पश्चिमस्य च जिनस्य तीर्थे छेदोपस्थापनीयसाधूनां मन्तव्यः । तदेवमेष भुंतरजाः कल्पो दशस्थानप्रतिष्ठितो भवति ॥ ६३६३ ॥ 10 तान्येव दश स्थानानि दर्शयति आचेलकुद्देसिय, सिजायर रायपिंड कितिकम्मे । [मलाराधना गा. ४२१] वत जेट्ट पडिक्कमणे, मासं-पज्जोसवणकप्पे ॥ ६३६४ ॥ आचेलक्यम् १ औद्देशिकं २ शय्यातरपिण्डो ३ राजपिण्डः ४ कृतिकर्म ५ व्रतानि ६ "जे?" ति पुरुषज्येष्ठो धर्मः ७ प्रतिक्रमणं ८ मासकल्पः ९ पर्युषणाकल्पश्च १० इति द्वार15 गाथासमासार्थः ॥ ६३६४ ॥ साम्प्रतमेनामेव विवरीषुराह दुविहो होति अचेलो, संताचेलो असंतचेलो य । तित्थगर असंतचेला, संताचेला भवे सेसा ॥ ६३६५ ॥ द्विविधो भवत्यचेलः-सदचेलोऽसदचेलश्च । तत्र तीर्थकरा असदचेलाः, देवदूष्यपतनानन्तरं सर्वदैव तेषां चीवराभावात् । 'शेषाः' सर्वेऽपि जिनकल्पिकादिसाधवः सदचेलाः, जघ20 न्यतोऽपि रजोहरण-मुखवस्त्रिकाँसम्भवात् ॥ ६३६५॥ आह-यद्येवं ततः कथममी अचेला भण्यन्ते ? उच्यते सीसावेढियपुत्तं, णदिउत्तरणम्मि नग्गयं चेति । जुण्णेहि णग्गिया मी, तुर सालिय! देहि मे पोत्तिं ॥ ६३६६ ॥ जलतीमनभयात् शीर्षे-शिरसि आवेष्टितं पोतं-परिधानवस्त्रं येन स शीर्षावेष्टितपोतस्तम्, 25 एवंविधं सचेलमपि 'नद्युत्तरणे' अगाधायाः कस्याश्चिद् नद्या उत्तरणं कुर्वन्तं दृष्ट्वा नग्नकं ब्रुवते, 'नमोऽयम्' इति लोके वक्तारो भवन्तीत्यर्थः । यथा वा काचिदविरतिका परिजीर्णवस्त्रपरिधाना प्राक्समर्पितवेतनं तन्तुवायं शाटिकानिष्पादनालसं ब्रवीति, यथा-जीर्णैर्वस्त्रैः परिहितैग्निकाऽहमस्मि ततस्त्वरख 'हे शालिक !' तन्तुवाय ! देहि मे 'पोतिका' शाटिकाम् ॥ ६३६६ ॥ अथात्रैवोपनयमाह30 जुन्नेहिँ खंडिएहिं य, असव्वतणुपाउतेहिं ण य णिचं । संतेहिं वि णिग्गंथा, अचेलगा होति चेलेहिं ।। ६३६७ ॥ . १°यसंयतकल्प' कां ॥ २'धुतरजाः' प्रक्षालितसकलपापमलपटलः कल्पो का० ॥ ३°कालक्षणोपकरणद्वयसम्भ° कां०॥ ४°या मि, तुर तामा० ॥ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ६३६३-७१ षष्ठ उद्देशः। १६८१ एवं 'जीर्णैः' पुराणैः, 'खण्डितैः' छिन्नैः, 'असर्वतनुप्रावृतैः' स्वल्पप्रमाणतया सर्वस्मिन् शरीरेऽप्रावृतैः प्रमाणहीनैरित्यर्थः, न च 'नित्यं सदैव प्रावृतैः किन्तु शीतादिकारणसद्भावे, एवंविधैश्चेलैः 'सद्भिरपि' विद्यमानैरपि निर्ग्रन्था अचेलका भवन्ति ॥ ६३६७ ॥ अत्र पराभिप्रायमाशय परिहरति एवं दुग्गत पहिता, अचेलगा होति ते भवे वुद्धी । ते खलु असंततीए, धरैति ण तु धम्मवुद्धीए ॥ ६३६८ ॥ यदि जीर्ण-खण्डितादिभिर्वस्त्रैः प्रावृतैः साधवोऽचेलकास्तत एवं दुर्गताश्च-दरिद्राः पथिकाश्च-पान्था दुर्गत-पथिकास्तेऽपि अचेलका भवन्तीति 'ते' तव बुद्धिः स्यात् तत्रोच्यते'ते खलु' दुर्गत-पथिकाः 'असत्तया' नव-व्यूत-सदशकादीनां वस्त्राणामसम्पत्त्या परिजीर्णादीनि वासांसि धारयन्ति, न पुनर्धर्मबुद्ध्या, अतो भावतस्तद्विषयमूर्छापरिणामस्यानिवृत्तत्वान्नैते 10 अचेलकाः; साधवस्तु सति लाभे महाधनादीनि परिहृत्य जीर्ण-खण्डितादीनि धर्मबुद्ध्या धारयन्तीत्यतोऽचेला उच्यन्ते ॥ ६३६८॥ यद्येवमचेलास्ततः किम् ? इत्याह आचेलको धम्मो, पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स । ___ मज्झिमगाण जिणाणं, होति अचेलो सचेलो वा ॥ ६३६९ ॥ अचेलकस्य भाव आचेलक्यम् , तदत्रास्तीति आचेलक्यः, अभ्रादेराकृतिगणत्वादप्रत्ययः ।। एवंविधो धर्मः पूर्वस्य च पश्चिमस्य च जिनस्य तीर्थे भवति । मध्यमकानां तु जिनानामचेल: सचेलो वा भवति ॥ ६३६९ ॥ इदमेव भावयति पडिमाएँ पाउता वा, णातिकमंते उ मज्झिमा समणा। पुरिम-चरिमाण अमहद्धणा तु भिण्णा इमे मोत्तुं ॥ ६३७० ॥ 'मध्यमाः' मध्यमतीर्थकरसत्काः साधवः 'प्रतिमया वा' नमतया 'प्रावृता वा' प्रमाणा-30 तिरिक्त-महामूल्यादिभिर्वासोभिराच्छादितवपुषो नातिकामन्ति भागवतीमाज्ञामिति गम्यते । पूर्व-चरमाणां तु प्रथम-पश्चिमतीर्थकरसाधूनां 'अमहाधनानि' खल्पमूल्यानि 'भिन्नानि च अकृत्लानि, प्रमाणोपेतान्यदशकानि चेत्यर्थः, परमिमानि कारणानि मुक्तवा ॥ ६३७० ॥ तान्येवाह आसज्ज खेत्तकप्पं, वासावासे अभाविते असहू। काले अद्धाणम्मि य, सागरि तेणे व पाउरणं ॥ ६३७१ ॥ 'क्षेत्रकल्प' देशविशेषाचारमासाद्याभिन्नान्यपि प्रात्रियन्ते, यथा सिन्धुविषये तादृशानि प्रावृत्य हिण्ड्यते । वर्षावासे वा वर्षाकल्पं प्रावृत्य हिण्ड्यते । 'अभावितः' शैक्षः कृत्लानि प्रावृतो हिण्डते यावद् भावितो भवति । असहिष्णुः शीतमुष्णं वा नाधिसोढुं शक्नोति ततः कृत्स्नं प्रावृणुयात् । 'काले वा' प्रत्यूषे भिक्षार्थं प्रविशन् प्रावृत्य निर्गच्छेत् । अध्वनि वा प्रावृता 30 गच्छन्ति । यदि सागारिकप्रतिबद्धप्रतिश्रये स्थितास्ततः प्रावृताः सन्तः कायिकादिभुवं गच्छन्ति । स्तेना वा पथि वर्तन्ते तत उत्कृष्टोपधिं स्कन्धे कक्षायां वा विण्टिकां कृत्वा उपरि १°स्तेऽपि जीर्ण-खण्डितादिवस्त्रपरिधायितया अचेल का ० ॥ २ वद्धे उपाश्रये भा०॥ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८२ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ कल्प ० प्रकृते सूत्रम् २० सर्वाङ्गीणं प्रावृता गच्छन्ति । एतेषु कारणेषु कृत्स्नस्योपधेः प्रावरणं कर्तव्यम् ॥ ६३७१ ॥ तथानिरुवer लिंगभेदे, गुरुगा कप्पति तु कारणजाए । गेलण्ण लोय रोगे, सरीरवेतावडितमादी ।। ६३७२ ॥ निरुपहतो नाम-नीरोगस्तस्य लिङ्गभेदं कुर्वतश्चतुर्गुरुकाः । अथवा निरुपहतं नाम-यथाB जातलिङ्ग तस्य भेदे चतुर्गुरु ॥ तस्य च लिङ्गभेदस्येमे भेदाः खंधे दुवार संजति, गरुलसे य पट्ट लिंगदुवे | लहुगो लहुगो लहुगा, तिसु चउगुरु दोसु मूलं तु ॥ ६३७३ ॥ स्कन्धे कल्पं करोति मासलघु । शीर्षद्वारिकां करोति मासलघु । संयतीप्रावरणं करोति चतुर्लघु । गरुडपाक्षिकं प्रावृणोति, अर्धसकृतं करोति, कटीपट्टकं बध्नाति, एतेषु त्रिष्वपि 10 चतुर्गुरु । गृहस्थलिङ्गं परलिङ्गं वा करोति द्वयोरपि मूलम् || ६३७३ || द्वितीयपदे तु – कारणजाते लिङ्गभेदोऽपि कर्तुं कल्पते । कुत्र ? इत्याह — ग्लानत्वं कस्यापि विद्यते तस्योद्वर्त्तनमुपवेशनमुत्थापनं वा कुर्वन् कटी पट्टकं बध्नीयात् । लोचं वाऽन्यस्य साधोः कुर्वाणः कटीपट्टकं बध्नाति । " रोगि" त्ति कस्यापि रोगिणोऽसि लम्बन्ते द्वौ भ्रातरौ वा शूनौ स कटपट्टकं बध्नीयात् । "सरीरवेयावडियं" ति मृतसंयतशरीरस्य वैयावृत्यं -नीहरणं 15कुर्वन्, आदिग्रहणात् प्रतिश्रयं प्रमार्जयन् अलाबूनि वा विहायसि लम्बमानः कटीपट्टकं बध्नीयात् ॥ ६३७२ ॥ गृहिलिङ्गा - ऽन्यलिङ्गयोरयमपवादः - स्वपक्षप्रान्ते आगाढे अशिवेऽन्यलिङ्गं कृत्वा तत्रैव कालक्षेपं कुर्वन्ति, अन्यत्र वा 20 गच्छन्ति । एवं 'राजद्विष्टे' राज्ञि साधूनामुपरि द्वेषमापन्ने, 'वादिद्विष्टे वा' वादपराजिते क्वापि वादिनि व्यपरोपणादिकं कर्तुकामे, एवंविधे आगाढे कारणेऽन्यलिङ्गम् उपलक्षणत्वाद् हिलिङ्गं वा कृत्वा कालक्षेपो वा गमनं वा विधेयम् ॥ ६३७४ ॥ गतमाचेलक्यद्वारम् । अथौदेशिकद्वार माह 25 असिवे ओमोरिए, राहुडे व वादिदुट्ठे वा । आगाढ अनलिंगं, कालक्खेवो व गमणं वा ॥ ६३७४ ॥ आहा अधे य कम्मे, आयाहम्मे य अत्तकम्मे य । [पि.नि. १२९] तं पुण आहाकम्मं, कप्पति ण व कप्पती कस्स ।। ६३७५ ॥ १ इह पूर्वार्द्ध पश्चार्द्धपदानां यथासङ्ख्यं योजना कार्या । तद्यथा - स्कन्धे चतुष्पलं मुत्कलं वा कल्पं करोति लघुको मासः । शीर्षद्वारिकां कल्पेन शिरःस्थगनरूपां करोति लघुक एव मासः । संयतीवदुभावपि बाहू आच्छाद्य प्रावृणोति चतुर्लघुकाः । गरुडपाक्षिकम् एकत उभयतो वा स्कन्धोपरि कल्पाञ्चालानामारोपणरूपं प्रावृणोति, अर्धासकृतम् - उत्तरासङ्गलक्षणं करोति, कटीपट्टकं वध्नाति एतेषु त्रिष्वपि प्रत्येकं चतुर्गुरु । गृहस्थलिङ्गं परलिङ्गं वा करोति द्वयोरपि मूलम् ॥ ६३७३ ॥ अथात्रैव द्वितीयपदमाह - "कप्पर उ कारणजाए" इत्यादि अर्द्धव्याख्यातप्राक्तनगाथायाः शेषम् । द्वितीयपदे तु कारणजाते कां० ॥ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 भाष्यगाथाः ६३७२-७९] षष्ठ उद्देशः । १६८३ आधाकर्म अधःकर्म आत्मघ्नम् आत्मकर्म चेति औद्देशिकस्य-साधूनुद्दिश्य कृतस्य भक्तादेश्चत्वारि नामानि । 'तत् पुनः' आधाकर्म कस्य कल्पते ? कस्य वा न कल्पते ॥६३७५॥ __एवं शिष्येण पृष्टे सूरिराह संघस्सोह विभाए, समणा-समणीण कुल गणे संघे । कडमिह ठिते ण कप्पति, अहित कप्पे जमुद्दिस्स ॥ ६३७६ ॥ अस्यां व्याख्या सविस्तरं तृतीयोदेशके कृता अतोऽत्राक्षरार्थमात्रमुच्यते-ओघतो वा विभागतो वा सङ्घस्य श्रमणानां श्रमणीनां कुलस्य गणस्य सङ्घस्य वा सङ्कल्पेन यद् भक्तपानादिकं कृतं तत् 'स्थितकल्पिकानां' प्रथम-पश्चिमसाधूनां न कल्पते । ये पुनरस्थितकल्पे स्थिताः तेषां यमुद्दिश्य कृतं तस्यैवैकस्य न कल्पते अन्येषां तु कल्पते ॥ ६३७६ ॥ द्वितीयपदे तु स्थितकल्पिकानामपि कल्पते । यत आह आयरिए अभिसेए, भिक्खुम्मि गिलाणगम्मि भयणा उ । तिक्खुत्तण्डविपवेसे, चउपरियट्टे ततो गहणं ॥ ६३७७ ॥ आचार्येऽभिषेके भिक्षौ वा ग्लाने सञ्जाते सति आधाकर्मणो 'भजना' सेवनाऽपि क्रियते । तथा अटवी-विप्रकृष्टोऽध्वा तस्यां प्रवेशे कृते यदि शुद्धं न लभ्यते ततः त्रिकृत्वः शुद्धमन्वेषितमपि यदि न लब्धं ततश्चतुर्थे परिव आधाकर्मणो ग्रहणं कायेम् ॥ ६३७७॥ 15 गतमौदेशिकद्वारम् । अथ शय्यातरपिण्डद्वारमाह तित्थंकरपडिकुट्ठो, आणा अण्णात उग्गमों ण सुज्झे । अविमुत्ति अलाघवता, दुल्लभ सेजा विउच्छेदो ॥ ६३७८ ॥ आद्यन्तवर्जेमध्यमैर्विदेहजैश्च तीर्थकरैराधाकर्म कथञ्चिद् भोक्तमनुज्ञातं न पुनः शय्यातरपिण्डो अतस्तैः प्रतिक्रुष्ट इति कृत्वा वर्जनीयोऽयम् । “आण" ति तं गृह्णता तीर्थकृतामाज्ञा 20 कृता न भवति । "अण्णाय" ति यत्र स्थितस्तत्रैव भिक्षां गृह्णता अज्ञातोञ्छं सेवितं न स्यात् । "उम्गमो न सुज्झे" त्ति आसन्नादिभावतः पुनः पुनस्तत्रैव भिक्षा-पानकादिनिमित्तं प्रविशत उद्गमदोषा न शुध्येयुः । खाध्यायश्रवणादिना च प्रीतः शय्यातरः क्षीरादि स्निग्धद्रव्यं ददाति, तच्च गृह्णता 'अविमुक्तिः' गााभावो न कृतः स्यात् । शय्यातर-तत्पुत्र-भ्रातृव्यादिभ्यो बहूपकरणं स्निग्धाहारं च गृह्णत उपकरण-शरीरयोर्लाघवं न स्यात् । तत्रैव चाहारादि गृह्णतः शय्या-25 तरवैमनस्यादिकरणात् शय्या दुर्लभा स्यात् , सर्वथा तयवच्छेदो वा स्यात् । अतस्तत्पिण्डो वर्जनीयः ॥ ६३७८ ॥ अथ द्वितीयपदमाह- . दुविहे गेलण्णम्मि, निमंतणे दबदुल्लमे असिवे । ओमोदरिय पओसे, भए य गहणं अणुण्णातं ।। ६३७९ ॥ 'द्विविधे' आगाढा-ऽनागाढे ग्लानत्वे शय्यातर पिण्डोऽपि ग्राह्यः । तत्रागाढे क्षिप्रमेव 30 अनागाढे पञ्चकपरिहाण्या मासलघुके प्राप्ते सतीति । 'निमन्त्रणे च' शय्यातरनिर्बन्धे सकृत् तं गृहीत्वा पुनः पुनः प्रसङ्गो निवारणीयः । दुर्लभे च क्षीरादिद्रव्येऽन्यत्रालभ्यमाने तथाऽशिवेs. १°ताः मध्यमसाधवो महाविदेहवर्तिसाधवश्च तेषां कां० ॥ २ °तृ-वन्ध्वादि डे० ॥ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८४ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [कल्प०प्रकृते सूत्रम् २० वमौदर्ये राजप्रद्वेषे तस्करादिभये च शय्यातरपिण्डस्य ग्रहणमनुज्ञातम् ॥ ६३७९ ॥ अत्र दुर्लभद्रव्यग्रहणे विधिमाह तिक्खुत्तो सक्खेत्ते, चउद्दिसि जोयणम्मि कडजोगी। दव्वस्स य दुल्लभता, सागारिणिसेवणा ताहे ॥ ६३८० ॥ । त्रिकृत्वः खक्षेत्रे चतसृषु दिक्षु सक्रोशयोजने गवेषितस्यापि घृतादेव्यस्य यदा दुर्लभता भवति तदा सागारिकपिण्डस्य निषेवणं कर्तव्यम् ॥ ६३८० ॥ गतं सागारिकपिण्डद्वारम् । अथ राजपिण्डद्वारमाह केरिसगु त्ति व राया ? भेदा पिंडस्स? के व से दोसा?। केरिसग्गम्मि व कज्जे कप्पति? काए व जयणाए? ॥ ६३८१॥ 10 कीदृशोऽसौ राजा यस्य पिण्डः परिहियते ? इति । के वा 'तस्य' राजपिण्डस्य भेदाः ।। के वा "से" तस्य ग्रहणे दोषाः ? । कीदृशे वा कायें राजपिण्डो ग्रहीतुं कल्पते । कया वा यतनया कल्पते । एतानि द्वाराणि चिन्तनीयानि ॥६३८१॥ तत्र प्रथमद्वारे निर्वचनं तावदाह मुइए मुद्धभिसित्ते, मुतितो जो होइ जोणिसुद्धो उ । अभिसित्तो व परेहिं, सतं व भरहो जहा राया ॥ ६३८२ ॥ 15 राजा चतुर्दा–मुदितो मूर्धाभिषिक्तश्च १ मुदितो न मूर्धाभिषिक्तः २ न मुदितो मूर्धाभिषिक्तः ३ न मुदितो न मूर्धाभिषिक्तः । तत्र मुदितो नाम-यो भवति 'योनिशुद्धः' शुद्धोभयपक्षसम्भूतः, यस्य माता-पितरौ राजवंशीयाविति भावः । यः पुनः 'परेण' मुकुटबद्धेन पट्टबद्धेन राज्ञी प्रजया वा राज्येऽभिषिक्तः । यो वा 'स्वयं' आत्मनैवाभिषिक्तो यथा भरतो राजा एष __ मूर्धाभिषिक्त उच्यते ॥ ६३८२ ॥ एषु विधिमाह पढमग भंगे वजो, होतु व मा वा वि जे तहिं दोसा। सेसेसु होतऽपिंडो, जहिँ दोसा ते वि वज्जति ॥६३८३॥ प्रथमे भङ्गे राजपिण्डः 'वर्यः' परित्यक्तव्यः, ये 'तत्र' राजपिण्डे गृह्यमाणे दोषास्ते भवन्तु वा मा वा तथापि वर्जनीयः । 'शेषेषु' त्रिषु भङ्गेषु 'अपिण्डः' राजपिण्डो न भवति तथापि येषु दोषा भवन्ति 'तान्' द्वितीयादीनपि भङ्गान् वर्जयन्ति । इयमत्र भावना-यः सेनापति-मन्त्रि-पुरोहित-श्रेष्ठि-सार्थवाहसहितो राज्यं भुङ्क्ते तस्य पिण्डो वर्जनीयः, अन्यत्र तु भजनेति ॥ ६३८३ ॥ गतं कीदृशो राजा ?' इति द्वारम् । अथ 'के तस्य भेदाः' इति द्वारं चिन्तयन्नाह असणाईआ चउरो, वत्थे पादे य कंबले चेव । पाउंछणए य तहा, अट्ठविधो रायपिंडो उ ॥ ६३८४ ॥ 30 'अशनादयः' अशन-पान-खादिम-खादिमरूपा ये चत्वारो भेदाः ४ यच्च वस्त्रं ५ पानं ६ १ परेणं इति पाठानुसारेण टीका, न चासौ पाठः कस्मिंश्चिदप्यादर्शे उपलभ्यते । कां• पुस्तके तु परेणं इति परेहिं इति पाठद्वयानुसारेण टीका, दृश्यतां टिप्पणी २ ॥ २ °ज्ञा 'परैर्वा' प्रधानपुरुषै राज्येऽ. भिषिक्तः स मूर्धाभिषिक्तः, यो वा स्वयं कां० ॥ ३ एतेषु चतुर्ध्वपि भङ्गेषु विधि का० ॥ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 भाष्यगाथाः ६३८०-८९] षष्ठ उद्देशः। १६८५ कम्बलं ७ 'पादप्रोच्छनक' रजोहरणं ८ एषोऽष्टविधो राजपिण्डः ॥ ६३८४ ॥ अथ 'के तस्य दोषाः ?' इति द्वारमाह अट्ठविह रायपिंडे, अण्णतरागं तु जो पडिग्गाहे । सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्त विराहणं पावे ॥ ६३८५ ॥ अष्टविधे राजपिण्डे 'अन्यतरत्' अशनादिकं यः प्रतिगृह्णाति स साधुराज्ञाभगमनवस्था । मिथ्यात्वं विराधनां च प्राप्नुयात् ॥ ६३८५ ॥ एते चापरे दोषाः ईसर-तलवर-माडंबिएहि सिट्ठीहिँ सत्थवाहेहिं । [उ.नि. ३१५] जिंतेहिं अतितेहि य, वाघातो होति भिक्खुस्स ॥ ६३८६ ॥ ईश्वर-तलवर-माडम्बिकैः श्रेष्ठिभिः सार्थवाहैश्च निर्गच्छद्भिः 'अतियद्भिश्च' प्रविशद्भिभिक्षोभिक्षार्थ प्रविष्टस्य व्याघातो भवति ॥ ६३८६ ॥ एतदेव व्याचष्टे .. ईसर भोइयमाई, तलवरपट्टेण तलवरो होति । [जी. २००२] - वेट्टणवद्धो सेट्ठी, पचंतऽहिवो उ माडंबी ॥ ६३८७॥ ईश्वरः 'भोगिकादिः' ग्रामखामिप्रभृतिक उच्यते । यस्तु परितुष्टनृपतिप्रदत्वेन सौवर्णेन तलवरपट्टेनाङ्कितशिराः स तलवरो भवति । श्रीदेवताध्यासितः पट्टो वेष्टनकमुच्यते, तद् यस्य राज्ञाऽनुज्ञातं स वेष्टनकबद्धः श्रेष्ठी । यस्तु 'प्रत्यन्ताधिपः' छिन्नमडम्बनायकः स माडम्बिकः । 15 सार्थवाहः प्रतीत इति कृत्वा न व्याख्यातः ॥ ६३८७ ॥' जा णिति इंति तो अच्छओ अ सुत्तादि-भिक्खहाणी य । इरिया अमंगलं ति य, पेल्लाऽऽहणणा इयरहा वा ॥ ६३८८ ॥ एते ईश्वरादयो यावद् निर्गच्छन्ति प्रविशन्ति च तावद् असौ साधुः प्रतीक्षमाण आस्ते, तत एवमासीनस्य सूत्रार्थयोर्भेक्षस्य च परिहाणिर्भवति । अश्व-हस्त्यांदिसम्मर्दैन चेयों 20 शोधयितुं न शक्नोति । अथ शोधयति ततस्तैरभिघातो भवति । कोऽपि निर्गच्छन् प्रविशन् वा तं साधुं विलोक्यामङ्गलमिति मन्यमानस्तेनैवाश्व-हस्त्यादिना प्रेरणं कशादिना वाऽऽहननं कुर्यात् । "इतरहा व" ति यद्यपि कोऽप्यमङ्गलं न मन्यते तथापि जनसम्म प्रेरणमाहननं वा यथाभावेन भवेत् ॥ ६३८८ ॥ किञ्च लोमे एसणघाते, संका तेणे नपुंस इत्थी य । इच्छंतमणिच्छंते, चाउम्मासा भवे गुरुगा ॥ ६३८९ ॥ राजभवनप्रविष्टः 'लोभे' उत्कृष्टद्रव्यलोभवशत एषणाघातं कुर्यात् । 'स्तेनोऽयम्' इत्यादिका च शङ्का राजपुरुषाणां भवेत् । नपुंसकः स्त्रियो वा तत्र निरुद्धेन्द्रियाः साधुमुपसर्गयेयुः । तत्र चेच्छतोऽनिच्छतश्च संयमविराधनादयो बहवो दोषाः । राजभवनं च प्रविशतः शुद्धशुद्धेनाऽपि चत्वारो मासा गुरुकाः प्रायश्चित्तम् ॥ ६३८९ ।। एनामेव गाथां व्याख्यानयति- 30 अन्नत्थ एरिसं दुल्लभं ति गेण्हेजऽणेसणिजं पि। १ अथ तैर्यथा व्याघातो भवति तथा दर्शयति इत्यवतरणं का० ॥ २ तावऽच्छए उ सुत्ता तामा०॥ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ कल्प ० प्रकृते सूत्रम् २० अणेण वि अवहरिए संकिजति एस तेणो त्ति ॥ ६३९० ॥ अन्तःपुरिकाभिरुत्कृष्टं द्रव्यं दीयमानं दृष्ट्वा 'नास्त्यन्यत्रेदृशम्, दुर्लभं वा' इति लोभवशतोषणीयमपि गृह्णीयात् । राज्ञश्च विप्रकीर्णे सुवर्णादौ द्रव्येऽन्येनाप्यपहृते स एव साधुः शक्यते एष स्तेन इति ॥ ६३९० ॥ संका चारिग चोरे, मूलं निस्संकियम्मि अणवट्ठो | परदारि अभिमरे वा, णत्रमं णिस्संकिए दसमं ।। ६३९१ ।। चारिकोऽयं चौरो वाऽयं भविष्यति इति शङ्कायां मूलम् । निःशङ्कितेऽनवस्थाप्यम् । पारदारिकशङ्कायामभिमरशङ्कायां च 'नवमम्' अनवस्थाप्यम् । निःशङ्किते 'दशमं' पाराञ्चिकम् ॥ ६३९१ ॥ 10 5 १६८६ तत्र ‘प्रविचारं' बहिर्निर्गममलभमानाः स्त्री-नपुंसका बलादपि साधुं गृह्णीयुः । तान् यदि प्रतिसेवते तदा चारित्रविराधना । अथ न प्रतिसेवते तदा ते उड्डाहं कुर्युः । ततः प्रान्तापनादयो दोषाः । अथवा राजा रुष्ट आचार्यस्य कुलस्य गणस्य वा सङ्घस्य वा 'प्रस्तारं ' 15 विनाशं कुर्यात् ॥ ६३९२ ॥ 25 to वि होंति दोसा, आइण्णे गुम्म रतणमादीया । तणिस्साऍ पवेसो, तिरिक्ख मणुया भवे दुट्ठा ॥ ६३९३ ॥ अन्येऽपि तत्र प्रविष्टस्य दोषा भवन्ति । तद्यथा - रत्नादिभिराकीर्णे "गुम्म" त्ति 'गौल्मिकाः' स्थानपालास्ते 'अतिभूमिं प्रविष्टः' इति कृत्वा तं साधुं गृह्णन्ति प्रान्तापयन्ति वा, एवमादयो 20 दोषाः । अथवा ' तन्निश्रया' तस्य - साधोर्निश्रया रत्नादिमोषणार्थं स्तेनकाः प्रवेशं कुर्युः । ' तिर्यञ्चः' वानरादयः 'मनुजाश्च' म्लेच्छादयो दुष्टास्तत्र राजभवने भवेयुस्ते साधोरुपद्रवं कुर्वीरम् ||६३९३॥ एनामेव निर्युक्तिगाथां व्याख्याति - 30 अलता पवियारं, इत्थि - नपुंसा बला वि गेण्हेजा । आयरिय कुल गणे वा, संघे व करेज पत्थारं ।। ६३९२ ॥ आइण्णे रतणादी, गेहेज सयं परो व तन्निस्सा । गोम्मियगहणा - SSहणणं, रण्णो व णिवेदिए जं तु ॥ ६३९४ ॥ रत्नादिभिराकीर्णे स प्रविष्टः स्वयमेव तद् रत्नादिकं गृह्णीयात् परो वा तन्निश्रया गृह्णीयात् । गौल्मिकाश्च ग्रहणमाहननं वा कुर्युः । राज्ञो वा ते तं साधुं निवेदयन्ति उपढौकयन्ति ततो निवेदिते सति 'यत्' प्रान्तापनादिकमसौ करिष्यति तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम् || ६३९४ ॥ चारि चोरा-ऽभिमरा, कामी व विसंति तत्थ तण्णीसा । वाणर-तरच्छ बग्घा, मिच्छादि णरा व घातेजा ।। ६३९५ ।। चारिकाश्चौरा अभिमराः कामिनो वा तत्र तस्य - साधोर्निया प्रविशेयुः । तथा वानर-तरक्षु १ 'चारिकाः' हेरिकाः 'चौराः' स्तेनाः 'अभिमराः' घातकाः 'कामिनो वा' अन्तःपुर'लुब्धाः एते 'तंत्र' राजभवने तस्य - साधो' कां० ॥ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ६३९०-६४०१] षष्ठ उद्देशः । १६८७ व्याघ्रा म्लेच्छादयो वा नरास्तत्र साधु घातयेयुः ॥ ६३९५ ॥ अथ कीदृशे कार्ये कल्पते ? कया वा यतनया ? इति द्वारद्वयमाह दुविहे गेलण्णम्मी, णिमंतणे दव्वदुल्लभे असिवे । ओमोयरिय पदोसे, भए य गहणं अणुण्णायं ॥ ६३९६ ॥ तिक्खुत्तो सक्खित्ते, चउद्दिसि मग्गितण कडजोगी। दव्वस्स य दुल्लभया, जयणाए कप्पई ताहे ॥ ६३९७ ॥ . गाथाद्वयं शय्यातरपिण्डवद् द्रष्टव्यम् (गा० ६३७९-८०)। नवरम् आगाढे ग्लानत्वे क्षिप्रमेव राजपिण्डं गृह्णाति । अनागाढे तु त्रिकृत्वो मार्गयित्वा यदा न लभ्यते तदा पञ्चकपरिहाण्या चतुर्गुरुकप्राप्तो गृह्णाति । 'निमन्त्रणे तु' राज्ञा निर्वन्धेन निमन्त्रितो भणति-यदि भूयो न भणसि ततो गृह्णीमो वयम् नान्यथा । अवमेऽशिवे चान्यत्रालभ्यमाने राजकुलं वा 10 नाशिवेन गृहीतं ततस्तत्र गृह्णाति । राजद्विष्टे तु अपरस्मिन् राज्ञि कुमारे वा प्रद्विष्टे बोधिकम्लेच्छभये वा राज्ञो गृहादनिर्गच्छन् गृह्णीयात् ॥ ६३९६ ॥ ६३९७ ॥ गतं राजपिण्डद्वारम् । अथ कृतिकर्मद्वारमाह कितिकम्मं पि य दुविहं, अब्भुट्ठाणं तहेव वंदणगं । समणेहि य समणीहि य, जहारिहं होति कायव्वं ॥ ६३९८ ॥ 15 __ कृतिकर्मापि च द्विविधम्-अभ्युत्थानं तथैव वन्दनकम् । एतच द्विविधमपि तृतीयोद्देशके सविस्तरं व्याख्यातम् । उभयमपि च श्रमणैः श्रमणीभिश्च 'यथार्ह' यथारत्नाधिकं परस्परं कर्तव्यम् ॥ ६३९८ ॥ तथा श्रमणीनामयं विशेषः सव्वाहिँ संजतीहिं, कितिकम्मं संजताण कायव्वं । पुरिसुत्तरितो धम्मो, सव्वजिणाणं पि तित्थम्मि ॥ ६३९९ ॥ 20 सैर्वाभिरपि संयतीभिश्चिरप्रव्रजिताभिरपि संयतानां तदिनदीक्षितादीनामपि कृतिकर्म कर्तव्यम् । कुतः ? इत्याह-'सर्वजिनानामपि' सर्वेषामपि तीर्थकृतां तीर्थे पुरुषोत्तरो धर्म इति ॥ ६३९९ ॥ तुच्छत्तणेण गव्वो, जायति ण य संकते परिभवेणं । अण्णो वि होज दोसो, थियासु माहुजहजासु ॥ ६४००॥ 26 स्त्रियाः साधुना वन्द्यमानायास्तुच्छत्वेन गर्वो जायते । गर्विता च साधुं परिभवबुद्ध्या पश्यति । ततः परिभवेन 'न च' नैव साधोः 'शङ्कते' बिभेति । अन्योऽपि दोषः स्त्रीषु 'माधुर्यहार्यासु' मार्दवग्राह्यासु वन्द्यमानासु भवति, भावसम्बन्ध इत्यर्थः ॥ ६४०० ॥ अवि य हु पुरिसपणीतो, धम्मो पुरिसो य रक्खिळ सत्तो। लोगविरुद्धं चेयं, तम्हा समणाण कायव्वं ॥ ६४०१॥ 30 १युः। यत एवं ततो न ग्रहीतव्यो राजपिण्डः ॥ ६३९५ ॥ कां०॥ २'सर्वाभिरपि' प्रथम-पश्चिम-मध्यमतीर्थकरसम्बन्धिनीभिः संयतीभि कां० ॥ ३ 'कृतिकर्म' वन्दनका-5. भ्युत्थानलक्षणं द्विविधमपि कर्त्त का० ॥ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८८ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ कल्प०प्रकृते सूत्रम् २० 'अपि च' इति कारणान्तराभ्युच्चये । पुरुषैः-तीर्थकर-गणधरलक्षणैः प्रणीतः पुरुषप्रणीतो धर्मः । पुरुष एव च तं धर्म 'रक्षितुं' प्रत्यनीकादिनोपद्रूयमाणं पालयितुं शक्तः । लोकविरुद्धं च 'एतत्' पुरुषेण स्त्रिया वन्दनम् । तस्मात् श्रमणानां ताभिः कर्तव्यम् ॥ ६४०१ ॥ गतं कृतिकर्मद्वारम् । अथ व्रतद्वारमाह पंचायामो धम्मो, पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स । __मज्झिमगाण जिणाणं, चाउजामो भवे धम्मो ॥ ६४०२॥ पञ्च यामाः-व्रतानि यत्र स पञ्चयामः, "दीर्घ-हूखी मिथो वृत्तौ” (सिद्ध० ८-१-४) इति प्राकृतलक्षणवशात् चैकारस्य दीर्घत्वम् । एवंविधो धर्मः पूर्वस्य च पश्चिमस्य च जिनस्य । मध्यमकानां जिनानां पुनश्चतुर्यामो धर्मो भवति, मैथुनव्रतस्य परिग्रहव्रत एवान्तर्भाव10 विवक्षणात् ॥ ६४०२॥ कुत एवम् ? इति चेद् उच्यते पुरिमाण दुव्विसोझो, चरिमाणं दुरणुपालओ कप्पो । मज्झिमगाण जिणाणं, सुविसोझो सुरणुपालो य ॥ ६४०३ ॥ पूर्वेषां साधूनां दुर्विशोध्यः कल्पः, 'चरमाणां' पश्चिमानां दुरनुपाल्यः, मध्यमकानां तु जिनानां तीथे साधूनां सुविशोध्यः सुखानुपाल्यश्च भवति । इयमत्र भावना-पूर्वे साधव 15 ऋजु-जडाः, ततः परिग्रहव्रत एवान्तीवं विवक्षित्वा यदि मैथुनव्रतं साक्षान्नोपदिश्यते ततस्ते जडतया नेदमवबुध्यन्ते, यथा-मैथुनमपि परिहर्तव्यम् ; यदा तु पृथक् परिस्फुटं मैथुनं प्रतिषिध्यते ततः सुखेनैव पर्यवस्यन्ति परिहरन्ति च । पश्चिमास्तु वक्र-जडाः, ततो मैथुने साक्षादप्रतिषिद्धे परिग्रहान्तस्तदन्तर्भावं जानन्तोऽपि वक्रतया परपरिगृहीतायाः स्त्रियाः प्रतिसेवनां कुर्वीरन् , पृष्टाश्च ब्रवीरन्-नैषाऽस्माकं परिग्रह इति । तत एतेषां पूर्व-पश्चिमानां पञ्चयामो 20 धर्मो भगवता ऋषभखामिना वर्द्धमानस्वामिना च स्थापितः । ये तु मध्यमाः साधवस्ते ऋजु-प्राज्ञाः, ततः परिग्रहे प्रतिषिद्धे प्राज्ञत्वेनोपदेशमात्रादपि अशेषहेयोपादेयविशेषाभ्यूहनपटीयस्तया चिन्तयेयुः-नापरिगृहीता स्त्री परिभुज्यते अतो मैथुनमपि न वर्तते सेवितुम् ; एवं मैथुनं परिग्रहेऽन्तर्भाव्य तथैव परिहरन्ति ततस्तेषां चतुर्यामो धर्मो मध्यमजिनैरुक्त इति ॥ ६४०३ ॥ अमुमेवार्थ समर्थयन्नाह जड्डत्तणेण हंदि, आइक्ख-विभाग-उवणता दुक्खं । सुहसमुदिय दंताण व, तितिक्ख अणुसासणा दुक्खं ॥ ६४०४ ॥ सर्वेषां (पूर्वेषां) साधूनां जडतया 'हन्दि' इत्युपप्रदर्शने वस्तुतत्त्वस्याख्यानं 'दुःखं' कृच्छ्रेण, महता वचनाटोप (ग्र० ९०००) प्रयासेन कर्तुं शक्यमित्यर्थः । एवमाख्यातेऽपि वस्तुतत्त्वे विभागः-पार्थक्येन व्यवस्थापनं महता कष्टेन कर्तुं शक्यते । विभक्तेऽपि वस्तुतत्त्वे 30 उपनयः-हेतु-दृष्टान्तः प्रतीतावारोपणं कर्तुं दुःशकम् । ते च प्रथमतीर्थकरसाधवः 'सुखसमु १'श्रमणानां' साधूनां संयतीभिः कृतिकर्म कर्त्त कां० ॥ २ चकाराकारस्य का० ॥ ३ सुहणु तामा० ॥ ४ 'पूर्वेषां' प्रथमतीर्थकरसम्बन्धिनां साधूनां दुर्विशोधः कल्पः, 'चरमाणां' चरमतीर्थकरसाधूनां दुरनुपालो भवति । मध्य° कां ॥ 25 . Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ६४०२-८] षष्ठ उद्देशः । १६८९ दिताः' कालस्य स्निग्धतया शीतोष्णादीनां तथाविधदुःखहेतूनामभावात् सुखेन सम्पूर्णास्ततः 'तितिक्षा' परीषहादेरघिसहनं तेषां 'दुःखं ' दुष्करम् । तथा दान्ताः - एकान्तेनोपशान्तास्ते ततः क्वचित् प्रमादस्खलितादौ शिष्यमाणानामनुशासनाऽपि कर्तुं दुःशका ॥ ६४०४ ॥ मिच्छत्तभावियाणं, दुवियडुमतीण वामसीलाणं । आइक्खि विभइउं, उवणेउं वा विदुक्खं तु ॥ ६४०५ ॥ दुक्खेहि मंत्थिताणं, तणु-धितिअवलत्तओ य दुतितिक्खं । एमेव दुरसा, माणुकडओ य चरिमाणं ।। ६४०६ ॥ ये तु चरमतीर्थकर साधवस्ते प्रायेण मिथ्यात्वभाविता दुर्विदग्धमतयो वामशीलाश्च, ततस्तेषामपि वस्तुतत्त्वमाख्यातुं विभक्तमुपनेतुं वा 'दुःखं ' दुःखतरम् || ६४०५ ॥ तथा कालस्य रूक्षतया ‘दुःखैः' विविधाऽऽधि-व्याधिप्रभृतिभिः शारीर-मानसैः 'भसितानाम्' 10 अत्यन्तमुपतापितानां तनुः - शरीरं धृतिः - मानसोऽवष्टम्भः तद्विषयं यद् अबलत्वं - चला भाव - स्ततः कारणाद् दुस्तितिक्षं तेषां परीषहादिकं भवति । एवमेव मानस्य - अहङ्कारस्य उपलक्षणत्वात् क्रोधादेश्चोत्कटतया दुरनुशासं चरमाणां भवति, उत्कटकषायतया दुःखेनानुशासनां ते प्रपद्यन्त इत्यर्थः । अत एषां पूर्वेषां च पञ्चयामो धर्म इति प्रक्रमः ॥ ६४०६ ॥ एए चैव य ठाणा, सुप्पण्णुज्जुतणेण मज्झाणं । सुह- दुह उभयबलाण य, विमिस्सभावा भवे सुगमा ।। ६४०७ ॥ 'एतान्येव' आख्यानादीनि स्थानानि मध्यमानां 'सुगमानि' सुकराणि भवेयुरिति सम्बन्धः । कुतः ? इत्याह-- सुप्रज्ञ-ऋजुत्वेन, प्राज्ञतया ऋजुतया चेत्यर्थः, खल्पप्रयलेनैव प्रज्ञापनीयास्ते, तत आख्यान - विभजनोपनयनानि सुकराणि । " सुह-दुह" ति कालस्य स्निग्ध- रूक्षतया सुख-दुःखे उभे अपि तेषां भवतः, तथा “उभयचलाण य" चि शारीरं मानसिकं चोभयमपि 20 बलं तेषां भवति, तत एव सुख-दुःखोभयबलोपेतानां परीषहादिकं सुतितिक्षं भवति । “विमिसभाव" त्ति नैकान्तेनोपशान्ता न वा उत्कटकषायास्ते, ततो विमिश्रभावादनुशासनमपि सुकरमेव तेषां भवति, अतश्चतुर्यामस्तेषां धर्म इति ॥ ६४०७ ॥ गतं व्रतद्वारम् । अथ ज्येष्ठद्वारमाह १ भच्छियाणं ताभा० ॥ पुव्वतरं सामइयं, जस्स कयं जो वतेसु वा ठविओ । एस कितिकम्मट्ठो, ण जाति-सुततो दुपक्खे वी ॥ ६४०८ ॥ यस्य सामायिकं 'पूर्वतरं' प्रथमतरं 'कृतम्' आरोपितम् यो वा 'व्रतेषु' महात्रतेषु प्रथमं स्थापितः स एष कृतिकर्मज्येष्ठो भण्यते, न पुनः 'द्विपक्षेऽपि संयतपक्षे संयतीपक्षे च जातितः- बृहत्तरं जन्मपर्यायमङ्गीकृत्य श्रुततः प्रभूतं श्रुतमाश्रित्य ज्येष्ठ इहाधिक्रियते । इह च मध्यमसाधूनां यस्य सामायिकं पूर्वतरं स्थापितं स ज्येष्ठः, पूर्व-पश्चिमानां तु यस्य प्रथममुपस्थापना 30 कृता स ज्येष्ठ इति ॥ ६४०८ ॥ अथोपस्थापनामेव निरूपयितुमाह सा जेसि उबवणा, जेहि य ठाणेहिं पुरिम चरिमाणं । 5 ―――― 15 25 Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६९० सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [कल्प०प्रकृते सूत्रम् २० पंचाया धम्मे, आदेसतिगं च मे सुणसु ॥ ६४०९॥ ___ सा उपस्थापना येषां भवति ते वक्तव्याः । येषु वा 'स्थानेषु' अपराधपदेषु पूर्व-चरमाणां साधूनां पञ्चयामे धर्मे स्थितानामुपस्थापना भवति तान्यपि वक्तव्यानि । तत्र येषामुपस्थापना ते तावदभिधीयन्ते, तत्रादेशत्रयम्-दश वा षड् वा चत्वारो वा उपस्थापनायामीं भवन्ति । 5 तच्चाऽऽदेशत्रिकं “मे” इति मया यथाक्रमं वक्ष्यमाणं शृणु ॥ ६४०९॥ तओ पारंचिया वुत्ता, अणवट्ठा य तिण्णि उ । दंसणम्मि य वंतम्मि, चरित्तम्मि य केवले ॥ ६४१० ॥ अदुवा चियत्तकिच्चे, जीवकाए समारभे। सेहे दसमे वुत्ते, जस्स उवट्ठावणा भणिया ॥ ६४११ ॥ 10 ये चतुर्थोद्देशके 'त्रयः' दुष्ट-प्रमत्त-अन्योन्यंकुर्वाणाख्याः पाराश्चिका उक्ताः ३ ये च 'त्रयः' साधर्मिका-ऽन्यधार्मिकस्तैन्यकारि-हस्तातालरूपा अनवस्थाप्याः ६ येन च 'दर्शन' सम्यक्त्वं 'केवलं' सम्पूर्णमपि वान्तं ७ येन वा चारित्रं 'केवलं' सम्पूर्ण मूलगुणविराधनया वान्तम् ८॥ ६४१०॥ अथवा यः 'त्यक्तकृत्यः' परित्यक्तसकलसंयमव्यापारः आकुट्टिकया दर्पण वा 'जीवकायान्' 15 पृथिवीकायादीन् समारभते ९ यश्च 'शैक्षः' अभिनवदीक्षितः स दशमः १० उक्तः । एतद् दशकं मन्तव्यं यस्योपस्थापना प्रथम-चरमतीर्थकरैर्भणिता ॥ ६४११ ॥ द्वितीयादेशमाह जे य पारंचिया वुत्ता, अणवट्टप्पा य जे विदू। .. दसणम्मि य वंतम्मि, चरित्तम्मि य केवले ॥ ६४१२ ॥ अदुवा चियत्तकिच्चे, जीवकाए समारभे । सेहे छठे वुत्ते, जस्स उवट्ठावणा भणिया ॥ ६४१३ ॥ ये च पाराञ्चिकाः सामान्यत उक्ताः १ ये च विद्वांसो अनवस्थाप्याः २ येन च दर्शनं केवलं वान्तं ३ येन वा चारित्रं केवलं वान्तम् ४ ॥ ६४१२ ॥ अथवा यस्त्यक्तकृत्यो जीवकायान् समारभते ५ यश्च शैक्षः षष्ठः ६ । एते पट्कं प्रति. पत्तव्यं यस्योपस्थापना द्वितीयादेशे भणिता ॥ ६४१३ ॥ तृतीयादेशमाह दसणम्मि य वंतम्मि, चरित्तम्मि य केवले ।। चियत्तकिच्चे सेहे य, उवट्टप्पा य आहिया ॥ ६४१४॥ दर्शने 'केवले' निःशेषे वान्ते यो वर्तते १ यो वा चारित्रे केवले वान्ते २ पाराश्चिका-ऽनवस्थाप्ययोः अत्रैवान्तर्भावो विवक्षितः, यश्च 'त्यक्तकृत्यैः' षट्कायविराधकः ३ यश्च शैक्षः ४ एते चत्वारः 'उपस्थाप्याः' उपस्थापनायोग्या आख्याताः ॥ ६४१४ ॥ 30 अथ तेषां मध्ये क उपस्थापनीयः ! न वा ? इति चिन्तायामिदमाह केवलगहणा कसिणं, जति वमती दंसणं चरित्तं वा । तो तस्स उवट्ठवणा, देसे वंतम्मि भयणा तु ॥ ६४१५ ॥ १°णुत ॥ ६४०९ ॥ तद्यथा-तओ का० ॥ २ 'त्यः' दर्पण पट्का का० ॥ 25 Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ६४०९-२०] षष्ठ उद्देशः । १६९१ दर्शन-चारित्रपदयोर्यत् केवलग्रहणं कृतं तत इदं ज्ञाप्यते-यदि 'कृत्स्नं' निःशेषमपि दर्शनं चारित्रं वा वमति ततस्तस्योपस्थापना भवति, 'देशे' देशतः पुनदर्शने चारित्रे वा वान्ते 'भजना' उपस्थापना भवेद्वा न वा ॥ ६४१५ ॥ भजनामेव भावयति एमेव य किंचि पदं, सुयं व असुयं व अप्पदोसेणं ।। अविकोवितो कहिंतो, चोदिय आउट्ट सुद्धो तु ॥ ६४१६ ॥ 5 'एवमेव' अविमृश्य 'किञ्चिद्' जीवादिकं सूत्रार्थविषयं वा पदं श्रुतं वाऽश्रुतं वा 'अल्पदोषेण' कदाग्रहा-ऽभिनिवेशादिदोषाभावेन 'अविकोविदः' अगीतार्थः कस्यापि पुरतोऽन्यथा कथयन् आचार्यादिना 'मा एवं वितथप्ररूपणां कार्षीः' इति नोदितः सन् यदि सम्यगावर्तते तदा स मिथ्यादुष्कृतप्रदानमात्रेणैव शुद्ध इति ॥ ६४१६ ॥ तच्च दर्शनमनाभोगेनाभोगेन वा वान्तं स्यात् , तत्रानाभोगेन वान्ते विधिमाह- 10 अणाभोएण मिच्छत्तं, सम्मत्तं पुणरागते । ___ तमेव तस्स पच्छित्तं, जं मग्गं पडिवजई ॥ ६४१७ ॥ एकः श्राद्धो निहवान् साधुवेषधारिणो दृष्ट्वा यथोक्तकारिणः साधव एते' इतिबुद्ध्या तेषां सकाशे प्रव्रजितः । स चापरैः साधुभिर्भणितः-किमेवं निवानां सकाशे प्रव्रजितः । स प्राह-नाहमेनं विशेषं ज्ञातवान् । ततः स मिथ्यादुष्कृतं कृत्वा शुद्धदर्शनिनां समीपे 15 उपसम्पन्नः । एवमनाभोगेन दर्शनं वमित्वा मिथ्यात्वं गत्वा सम्यक्त्वं पुनरागतस्य तदेव प्रायश्चित्तं यदसौ सम्यग् मार्ग प्रतिपद्यते, स एव च तस्य व्रतपर्यायः, न भूय उपस्थापना कर्तव्या ॥ ६४१७ ॥ आभोगेन वान्ते पुनरयं विधिः आभोगेण मिच्छत्तं, सम्मत्तं पुणरागते । जिण-थेराण आणाए, मूलच्छेजं तु कारए ॥ ६४१८॥ यः पुनः 'आभोगेन' 'निह्नवा एते' इति जानन्नपि मिथ्यात्वं सङ्क्रान्त इति शेषः, निहवानामन्तिके प्रव्रजित इत्यर्थः, स च सम्यक्त्वमन्येन प्रज्ञापितः सन् 'पुनर्' भूयोऽपि यदि आगतस्ततस्तं 'जिन-स्थविराणां' तीर्थकर-गणभृतामाज्ञया मूलच्छेद्यं प्रायश्चित्तं कारयेत् , मूलत एवोपस्थापनां तस्य कुर्यादिति भावः ॥ ६४१८॥ एवं दर्शने देशतो वान्ते उपस्थापनामजना भाविता । सम्प्रति चारित्रे देशतो वान्ते तामेव भावयति छण्हं जीवनिकायाणं, अणप्पज्झो तु विराहओ। आलोइय-पडिकंतो, सुद्धो हवति संजओ ॥ ६४१९ ॥ घण्णां जीवनिकायानां "अणप्पज्झो" 'अनात्मवशः' क्षिप्तचित्तादिर्यदि विराधको भवति ततः 'आलोचित प्रतिक्रान्तः' गुरूणामालोच्य प्रदत्तमिथ्यादुष्कृतः संयतः शुद्धो भवति ॥ ६४१९ ॥ छण्हं जीवनिकायाणं, अप्पज्झो उ विराहतो। आलोइय-पडिकतो, मूलच्छेजं तु कारए ॥ ६४२० ॥ पण्णां जीवनिकायानां "अप्पज्झो" त्ति खवशो यदि दर्पणाऽऽकुट्टिकया वा विराधको १°हणं नियुक्तिकृता कृतं का० ॥ 25 30 Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 १६९२ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ कल्प०प्रकृते सूत्रम् २० भवति तत आलोचित-प्रतिक्रान्तं तं मूलच्छेद्यं प्रायश्चित्तं कारयेत् । वाशब्दोपादानाद् यदि तपोऽहप्रायश्चित्तमापन्नस्ततः तपोऽर्हमेव दद्यात् , तत्रापि यद् मासलघुकादिकमापन्नस्तदेव दद्यात् ॥ ६४२० ॥ अथ हीनादिकं ददाति ततो दोषा भवन्तीति दर्शयति जं जो उ समावन्नो, जं पाउग्गं व जस्स वत्थुस्स । 5 तं तस्स उदायव्वं, असरिसदाणे इमे दोसा ॥ ६४२१ ॥ 'यत्' तपोऽहं छेदाह वा प्रायश्चित्तं यः समापन्नः, यस्य वा 'वस्तुनः' आचार्यादेरसहिष्णुप्रभृतेर्वा 'यत्' प्रायश्चित्तं 'प्रायोग्यम्' उचितं तत् तस्य दातव्यम् । अथासदृशम्-अनुचितं ददाति तत इमे दोषाः ॥ ६४२१॥ . अप्पच्छित्ते य पच्छित्तं, पच्छित्ते अतिमत्तया। धम्मस्साऽऽसायणा तिव्वा, मग्गस्स य विराहणा ॥ ६४२२ ॥ 'अप्रायश्चित्ते' अनापद्यमानेऽपि प्रायश्चित्ते यः प्रायश्चित्तं ददाति प्राप्ते वा प्रायश्चित्ते यः 'अतिमात्रम्' अतिरिक्तप्रमाणं प्रायश्चित्तं ददाति सः 'धर्मस्य' श्रुतधर्मस्य तीव्रामाशातनां करोति, 'मार्गस्य च' मुक्तिपथस्य सम्यग्दर्शनादेः विराधनां करोति ॥ ६४२२ ॥ किश्च ___ उस्सुत्तं ववहरंतो, कम्मं बंधति चिक्कणं । संसारं च पवड्वेति, मोहणिजं च कुव्वती ॥ ६४२३ ॥ 'उत्सूत्र' सूत्रोत्तीर्णं राग-द्वेषादिना 'व्यवहरन्' प्रायश्चित्तं प्रयच्छन् 'चिक्कणं' गाढतरं कर्म बध्नाति, संसारं च 'प्रवर्द्धयति' प्रकर्षेण वृद्धिमन्तं करोति, 'मोहनीयं च' मिथ्यात्वमोहादिरूपं करोति ॥ ६४२३ ॥ इदमेव सविशेषमाह उम्मग्गदेसणाए य, मग्गं विप्पडिवातए । [आव.नि. ११५२] 20 . परं मोहेण रंजितो, महामोहं पकुव्वती ॥ ६४२४ ॥ ___ 'उन्मार्गदेशनया च' सूत्रोत्तीर्णप्रायश्चित्तादिमार्गप्ररूपणया 'मार्ग' सम्यग्दर्शनादिरूपं विविधैः प्रकारैः प्रतिपातयति-व्यवच्छेदं प्रापयति । तत एवं परमपि मोहेन रञ्जयन् महामोहं प्रकरोति । तथा च त्रिंशति महामोहस्थानेषु पठ्यते"नेयाउयस्स मग्गस्स, अवगारम्मि वट्टई ।" (आव० प्रति० अध्य० संग्र० हरि० टीका पत्र ६६१) यत एवमतो न हीनाधिकं प्रायश्चित्तं दातव्यमिति ॥ ६४२४ ॥ गतं ज्येष्ठद्वारम् । अथ प्रतिक्रमणद्वारमाह सपडिक्कमणो धम्मो, पुरिमस्स इ पच्छिमस्स य जिणस्स । मज्झिमयाण जिणाणं, कारणजाए पडिक्कमणं ॥ ६४२५ ॥ 30 'सप्रतिक्रमणः' उभयकोलं षड्विधावश्यककरणयुक्तो धर्मः पूर्वस्य पश्चिमस्य च जिनस्य तीर्थे भवति, तत्तीर्थसाधूनां प्रमादबहुलत्वात् शठत्वाच्च । मध्यमानां तु जिनानां तीर्थे 'कारण १°क्रान्तो गुरुसमीपे आलोच्य प्रदत्तमिथ्यादुष्कृतो यदि जायते तदा तं साधु मूल कां०॥ २ °लं नियमेन षड्वि का० ॥ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ उद्देशः । १६९३ भाष्यगाथाः ६४२१-३० ] 'जाते' तथाविधेऽपराधे उत्पन्ने सति प्रतिक्रमणं भवति, तत्तीर्थसाधूनामशठत्वात् प्रमादरहितत्वाच्च ॥ ६४२५ ॥ अथास्या एव पूर्वार्द्धं व्याचष्टे - गमणाऽऽगमण वियारे, सायं पाओ य पुरिम-चरिमाणं । नियमेण पडिकमणं, अतियारो होउ वा मा वा ॥ ६४२६ ॥ 'गमनाऽऽगमने' चैत्यवन्दनादिकार्येषु प्रतिश्रयाद् निर्गत्य हस्तशतात् परतो गत्वा भूयः 5 प्रत्यागमने, “वियारे" त्ति हस्तशतमध्येऽप्युच्चारादेः परिष्ठापने कृते, तथा 'सायं' सन्ध्यायां ''प्रातश्व' प्रभाते पूर्व-चरमाणां साधूनामतिचारो भवतु वा मा वा तथापि नियमेनैतेषु स्थानेषु प्रतिक्रमणं भवति ॥ ६४२६ ॥ परः प्राह- 10 अतिचारस्स उ असती, णणु होति णिरत्थयं पडिकमणं । ण भवति एवं चोदग !, तत्थ इमं होति णातं तु ॥ ६४२७ ॥ अतिचारस्य 'असति' अभावे ननु निरर्थकं प्रतिक्रमणं भवति । सूरिराह - हे नोदक ! ‘एवं' त्वदुक्तं प्रतिक्रमणस्य निरर्थकत्वं न भवति' न घटते, किन्तु सार्थकं प्रतिक्रमणम् । तत्र च सार्थकत्वे इदं 'ज्ञातम् ' उदाहरणं भवति ॥ ६४२७ ॥ सति दोसे होअगतो, जति दोसो णत्थि तो गतो होति । बितियस्स हणति दोसं, न गुणं दोसं व तदभावा ॥ ६४२८ ॥ दोसं हंतूण गुणं, करेति गुणमेव दोसरहिते वि । ततियसमाहिकरस्स उ, रसातणं डिंडियसुतस्स ॥ ६४२९ ॥ जति दोसो तं छिंदति, असती दोसम्म णिज्जरं कुणई । कुसलतिगिच्छरसायणमुवणीयमिदं पडिकमणं ।। ६४३० ॥ एगस्स रनो पुत्तो अईव वल्लहो । तेण चिंतियं – अणागयं किंचि तहाविहं रसायणं 20 करावेमि जेण मे पुत्तस्स कयाइ रोगो न होइ ति । विज्जा सहा विया - मम पुत्तस्स तिच्छिं करेह जेण निरुओ होइ । ते भांति - करेमो । राया भणइ – केरिसाणि तुम्ह ओसहाणि ! | एगो भइ - मम ओसहमेरिस - जइ रोगो अत्थि तो उवसामेइ, अह णत्थि तं चैव जीवंतं मारेइ । बिइओ भइ – मम ओसहं जइ रोगो अत्थि तो उवसामेइ, अह णत्थि तो न गुणं न दोसं करेइ । तइओ भणइ – जइ रोगो अत्थि तो उवसामेइ, अह णत्थि तो वण्ण-रूव- 25 जोव्वण-लावण्णत्ताए परिणमइ, अपुत्रो य रोगो न पाउब्भवइ । एवमायण्णिऊण रण्णा तइयविज्जेण किरिया कारिया । एवमिमं पि पडिक्कमणं जइ अइयारदोसा अत्थि तो तेसिं विसोहिं करेति, अह नत्थि अइयारो तो चारितं विसुद्धं करेइ अभिनवकम्मरोगस्स य आगमं निरुंभइ ॥ -- - अथाक्षरगमनिका – प्रथमवैद्यस्यैौषधेन 'सति दोषे' रोगसम्भवे उपयुज्यमानेन 'अगदः ' नीरोगो भवति, यदि पुनर्दोषो नास्ति ततः प्रत्युत 'गदः' रोगो भवति । द्वितीयस्य तु वैद्यस्योषेधं 30 'दोष' रोगं हन्ति, ' तदभावात्' दोषाभावाच्च गुणं न वा दोषं करोति ॥ तृतीयस्य तु दोषं हत्वा गुणं करोति, दोषरहितेऽपि च 'गुणमेव' वर्णादिपुष्ट्य भिनव रोगा१ 'तणं दंडिय° ताभा० ॥ २ 'षधमुपयुज्यमानं 'दोपं' कां० ॥ 15 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६९४ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [कल्प०प्रकृते सूत्रम् २० भावात्मकं करोति । ततः 'तृतीयसमाधिकरस्य' तृतीयस्य वैद्यस्य रसायनं दण्डिकसुतस्य योग्यमिति कृत्वा राज्ञा कारितम् ॥ ____ एवं प्रतिक्रमणमपि यदि अतिचारलक्षणो दोषो भवति ततस्तं छिनत्ति, अथ नास्ति दोषस्ततोऽसति दोषे महतीं कर्मनिर्जरां करोति । एवं 'कुशल चिकित्सस्य' तृतीयवैद्यस्य रसायनेन 5 'उपनीतम्' उपनयं प्रापितमिदं प्रतिक्रमणं मन्तव्यम् ॥ ६४२८ ॥ ६४२९ ॥ ६४३० ॥ गतं प्रतिक्रमणद्वारम् । अथ मासकल्पद्वारमाह दुविहो य मासकप्पो, जिणकप्पे चेव थेरकप्पे य । एकेको वि य दुविहो, अट्ठियकप्पो य ठियकप्पो॥ ६४३१ ॥ द्विविधो मासकल्पः, तद्यथा-जिनकल्पे चैव स्थविरकल्पे च । पुनरेकैको द्विविधः10 अस्थितकल्पः स्थितकल्पश्च । तत्र मध्यमसाधूनी मासकल्पोऽस्थितः, पूर्व-पश्चिमानां तु स्थितः । ततः पूर्व-पश्चिमाः साधवो नियमाद् ऋतुबद्धे मासं मासेन विहरन्ति । मध्यमानां पुनरनियमः, कदाचिद् मासमपूरयित्वाऽपि निर्गच्छन्ति कदाचित्तु देशोनपूर्वकोटीमप्येकत्र क्षेत्रे आसते ॥ ६४३१ ॥ गतं मासकल्पद्वारम् । अथ पर्युषणाद्वारमाह पजोसवणाकप्पो, होति ठितो अद्वितो य थेराणं । 10 एमेव जिणाणं पि य, कप्पो ठितमट्टितो होति ॥ ६४३२ ॥ __ पर्युषणाकल्पः स्थविरकल्पिकानां जिनकल्पिकानां च भवति । तत्र स्थविराणां स्थितोऽस्थितश्च भवति । एवमेव जिनानामपि स्थितोऽस्थितश्च पर्युषणाकल्पः प्रतिपत्तन्यः ॥६४३२॥ इदमेव भावयति चाउम्मासुक्कोसे, सत्तरिराइंदिया जहण्णेणं । 20 ठितमद्वितमेगतरे, कारणवच्चासितऽण्णयरे ॥ ६४३३ ॥ उत्कर्षतः पर्युषणाकल्पश्चतुर्मासं यावद् भवति, आषाढपूर्णिमायाः कार्तिकपूर्णिमा यावदित्यर्थः । जघन्यतः पुनः सप्ततिरात्रिन्दिवानि, भाद्रपदशुक्ल पञ्चम्याः कार्तिकपूर्णिमां यावदित्यर्थः । एवं विधे पर्युषणाकल्प पूर्व-पश्चिमसाधवः स्थिताः । मध्यमसाधवः पुनरस्थिताः । ते हि यदि वर्षारात्रो भवति मेघवृष्टिरित्यर्थः, तत एकत्र क्षेत्रे तिष्ठन्ति अन्यथा तु विहरन्ति । पूर्व26 पश्चिमा अपि 'अन्यतरस्मिन्' अशिवादौ कारणे समुत्पन्ने 'एकतरस्मिन्' मासकल्पे पर्युषणा कल्पे वा 'व्यत्यासितं' विपर्यस्तमपि कुर्युः । किमुक्तं भवति ?–अशिवादिभिः कारणैर्ऋतुबद्धे मासमूनमधिकं वा तिष्ठेयुः, वर्षाखपि तैरेव कारणैश्चतुर्मासमपूरयित्वाऽपि निर्गच्छन्ति परतो वा तत्रैव क्षेत्रे तिष्ठन्ति ॥ ६४३३ ॥ इदमेवाह थेराण सत्तरी खलु, वासासु ठितो उडुम्मि मासो उ । बच्चासितो तु कजे, जिणाण नियमऽट चउरो य ॥ ६४३४ ॥ १°नां महाविदेहसाधूनां च मास' कां ॥ २°णां स्थविरकल्पिकानां स्थि° का० ॥ ३ मपि जिनकल्पिकानां स्थि° को० ॥ ४°मात आरभ्य कार्ति कां० ॥ ५ म्या:प्रारभ्य कार्ति का०॥ ६ ग्रन्थाग्रं १०००० को० ॥ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६९५ 10 भाष्यगाथाः ६४३१-३९] षष्ठ उद्देशः । 'स्थविराणां' स्थविरकल्पिकानां प्रथम-पश्चिमतीर्थकरसत्कानां सप्ततिर्दिनानि, खलुशब्दो जघन्यत इत्यस्य विशेषस्य द्योतनार्थः, वर्षासु पर्युषणाकल्पो भवति । तेषामेव ऋतुबद्धे मासमेकमेकत्रावस्थानरूपो मासकल्पः स्थितो भवति । 'कार्ये पुनः' अशिवादी 'व्यत्यासितः' विपर्यस्तोऽपि भवति, हीनाधिकप्रमाण इत्यर्थः । 'जिनानां तु' प्रथम-चरमतीर्थकरसत्कजिनकल्पिकानामृतुबद्धे नियमादष्टौ मासकल्पा वर्षासु चत्वारो मासा अन्यूनाधिकाः स्थितकल्पतया मन्तव्याः, निरपवादानुष्ठानपरत्वादेषामिति भावः ॥ ६४३४ ॥ दोसाऽसति मज्झिमगा, अच्छंती जाव पुचकोडी वि । विचरंति अ वासासु वि, अकद्दमे पाणरहिए य ॥ ६४३५॥ भिण्णं पि मासकप्पं, करेंति तणुगं पि कारणं पप्प । जिणकप्पिया वि एवं, एमेव महाविदेहेसु ॥ ६४३६ ॥ ये तु 'मध्यमाः' अस्थितकल्पिकाः साधवस्ते दोषाणाम्-अप्रीतिक-प्रतिबन्धादीनां असतिअभावे पूर्वकोटीमप्येकत्र क्षेत्रे आसते । तथा वर्षाखपि 'अकर्दमे' प्रम्लानचिक्खल्ले प्राणरहिते च भूतले जाते सति 'विचरन्ति' विहरन्ति; ऋतुबद्धेऽपि यदि अप्रीतिकावग्रहो वसतेाघातो वा भवेत् ॥ ६४३५॥ तत एवमादिकं 'तनुकमपि' सूक्ष्ममपि कारणं प्राप्य मासकल्पं भिन्नमपि कुर्वन्ति, अपूर-15 यित्वा निर्गच्छन्तीत्यर्थः । जिनकल्पिका अपि मध्यमतीर्थकरसत्का एवमेव मासकल्पे पर्युषणा. कल्पे च अस्थिताः प्रतिपत्तन्याः । एवमेव च महाविदेहेषु ये स्थविरकल्पिका जिनकल्पिकाश्च तेऽप्यस्थितकल्पिकाः प्रतिपत्तव्याः॥६४३६ ॥ गतं पर्युषणाकल्पद्वारम् । अथैतस्मिन् दशविधे कल्पे यः प्रमाद्यति तस्य दोषमभिधित्सुराह एवं ठियम्मि मेरं, अट्ठियकप्पे य जो पमादेति । सो वट्टति पासत्थे, ठाणम्मि तगं विवजेजा ॥ ६४३७॥ _ 'एवम्' अनन्तरोक्तनीत्या या स्थितकल्पेऽस्थितकल्पे च 'मर्यादा' सामाचारी भणिता तां मर्यादां यः 'प्रमादयति' प्रमादेन परिहापयति सः 'पार्थस्थे' पार्श्वस्थसत्के स्थाने वर्तते; ततस्तकं विवर्जयेत् , तेन सह दान-ग्रहणादिकं सम्भोगं न कुर्यादिति भावः ॥ ६४३७ ॥ कुतः ? इत्यत आह 25 पासत्थ संकिलिटुं, ठाणं जिण वुत्तं थेरेहि य ।। तारिसं तु गवसंतो, सो विहारे ण सुज्झति ॥ ६४३८ ॥ 'पार्श्वस्थ' पार्श्वस्थसत्कं 'स्थानम्' अपराधपदं 'संक्लिष्टम्' अशुद्धं 'जिनैः' तीर्थकरैः 'स्थविरैश्च' गौतमादिभिः प्रोक्तम् , ततस्तादृशं स्थानं गवेषयन् 'सः' यथोक्तसामाचारीपरिहापयिता विहारे न शुध्यति, नासौ संविनविहारीति भावः ॥ ६४३८ ॥ पासस्थ संकिलिहँ, ठाणं जिण वुत्तं थेरेहि य । तारिसं तु विवजेतो, सो विहारे विसुज्झति ॥ ६४३९ ॥ पार्श्वस्थं स्थानं संक्लिष्टं जिनैः स्थविरैश्च प्रोक्तम् , ततस्तादृशं स्थानं विवर्जयन् 'सः' यथो 20 30 Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६९६ सामाचारीकर्ता विहारे 'विशुध्यति' विशुद्धो भवति ॥ ६४३९ ॥ यतश्चैवमतःजो कप्पठिति एयं, सद्दहमाणो करेति सट्टाणे | तारिसं तु गवेसेजा, जतो गुणाणं ण परिहाणी || ६४४० ॥ यः 'एनाम्' अनन्तरोक्तां कल्पस्थिति श्रद्दधानः स्वस्थाने करोति । स्वस्थानं नाम-स्थित5 कल्पेऽनुवर्तमाने स्थितकल्पसामाचारीम् अस्थितकल्पे पुनरस्थितकल्पसामाचारीं करोति । ‘तादृशं’ संविग्नविहारिणं साधुं ' गवेषयेत्' तेन सहैकत्र सम्भोगं कुर्यात्, 'यतः' यस्माद् 'गुणानां ' मूलगुणोत्तरगुणानां परिहाणिर्न भवति ॥ ६४४० ॥ इदमेव व्यक्तीकर्तुमाहठिक पम्म दसविधे, ठवणाकप्पे य दुविहमण्णयरे । उत्तरगुणकप्पम्मि य, जो सरिकप्पो स संभोगो ॥ ६४४१ ॥ 'स्थितकल्पे' आचेलक्यादौ देशविधे 'स्थापनाकल्पे च वक्ष्यमाणे द्विविधान्यतरस्मिन् उत्तरगुणकल्पे च यः 'सहकल्पः ' तुल्यसामाचारीकः सः 'सम्भोग्यः' सम्भोक्तुमुचितः ॥ ६४४१ ॥ अत्र दशविधः स्थितकल्पोऽनन्तरमेवोक्तेः । स्थापनाकल्पादिपदानि तु व्याख्यातुकाम आह— auraप्पो दुविहो, अकप्पठवणा य सेहठवणा य । पदमो अकप्पिएणं, आहारादी ण गिण्हावे ।। ६४४२ ॥ 15 स्थापनाकल्पो द्विविधः - अकल्पस्थापनाकल्पः शैक्षस्थापनाकल्पश्च । तत्र 'अकल्पिकेन ' अनघीतपिण्डेषणादिसूत्रार्थेन आहारादिकं 'न ग्राहयेत्' नाऽऽनाययेत् तेनानीतं न कल्पत इत्यर्थः । एष प्रथमोऽकल्पस्थापनाकल्प उच्यते ॥ ६४४२ ॥ अट्ठारसेव पुरिसे, वीसं इत्थीओं दस पुंसा य । दिक्खेति जो ण एते, सेहट्टवणाऍ सो कप्पो ॥ ६४४३ ॥ अष्टादश भेदाः 'पुरुषे' पुरुषविषयाः, विंशतिः स्त्रियः, दश नपुंसकाः, एतानष्टचत्वारिंशतमनलान् शैक्षान् यो न दीक्षते से एष कल्प-कल्पवतोरभेदात् शैक्षस्थापनाकल्प उच्यते ॥ ६४४३ ॥ आहार - उवहि- सेजा, उग्गम-उप्पादणेसणासुद्धा | [पि.नि. ६२१] जो परिगिण्हति णिययं, उत्तरगुणकप्पिओ स खलु ॥ ६४४४ ॥ आहारोपधि-शय्या उद्गमोत्पादनैषणाशुद्धाः 'नियतं ' निश्चितं परिगृह्णाति स खलूत्तरगुणकल्पिको मन्तव्यः ॥ ६४४४ ॥ एतेषु सदृशकल्पेन सह किं कर्तव्यम् ? इत्याह 10 20 25 सनिर्युक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके वृहत्कल्पसूत्रे [ कल्प०प्रकृते सूत्रम् २० " १ 'दशविधे' दशप्रकारे ' स्थापनाकल्पे च' वक्ष्यमाणलक्षणे 'द्विविधान्यतरस्मिन् ' द्वयोः प्रकारयोरेकतरस्मिन् तथा 'उत्तरगुणकल्पे च' पिण्डविशुद्ध्यादौ यः 'सहक्कल्पः' कां• ॥ २ 'क्तः । अतः स्थापनाकल्पादिपदानि शेषाणि यथाक्रमं व्याख्या कां० ॥ ३ स एषः 'शैक्षस्थापनायां' योग्याऽयोग्य शैक्षदीक्षणाऽदीक्षणव्यवहाररूपायां 'कल्प्यः' कल्पिक उच्यते, अर्थात् तद्विषयो य आचारः स शैक्षस्थापनाकल्पः ॥ ६४४३ ॥ उक्तो द्विविधो ऽपि स्थापनाकल्पः । सम्प्रत्युत्तरगुणकल्पमाह - आहार कां० ॥ ४°ल्पिको अर्थात् तद्विषया या व्यवस्था स उत्तरगुणकल्पो मन्त° कां० ॥ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ६४४०-५०] षष्ठ उद्देशः । १६९७ सरिकप्पे सरिछंदे, तुल्लचरिते विसिट्टतरए वा । साहूहिं संथवं कुजा, णाणीहि चरित्तगुत्तेहिं ॥ ६४४५ ॥ 'सदृकल्पः' स्थितकल्प-स्थापनाकल्पादिभिरेककल्पवर्ती 'सदृक्छन्दः' समानसामाचारीकः 'तुल्यचारित्रः' समानसामायिकादिसंयमः 'विशिष्टतरो वा' तीव्रतरशुभाध्यवसायविशेषेणो. त्कृष्टतरेषु संयमस्थानकण्डकेपु वर्तमानः, ईदृशा ये ज्ञानिनश्चारित्रगुप्ताश्च तैः सह 'संस्तवं' 5 परिचयमेकत्र संवासादिकं कुर्यात् ॥ ६४४५ ॥ सरिकप्पे सरिछंदे, तुल्लचरित्ते विसिट्टतरए वा । आदिज भत्त-पाणं, सतेण लाभेण वा तुस्से ॥ ६४४६॥ यः सदृक्कल्पः सदृक्छन्दस्तुल्यचारित्रो विशिष्टतरो वा 'तेन' एवंविधेन साधुनाऽऽनीतं भक्त-पानमाददीत, 'खकीयेन वा' आत्मीयेन लाभेन तुष्येत् , हीनतरसत्कं न गृह्णीयात् 10 ॥ ६४४६ ॥ तदेवमुक्ता छेदोपस्थापनीयकल्पस्थितिः। अथ निर्विशमान-निर्विष्टकायिककल्पस्थितिद्वयं विवरीपुराह-- परिहारकप्पं पवक्खामि, परिहरंति जहा विऊ । आदी मज्झऽवसाणे य, आणुपुबि जहकमं ॥ ६४४७ ॥ परिहारकल्पं प्रवक्ष्यामि, कथम् ? इत्याह-यथा 'विद्वांसः' विदितपूर्वगतभुतरहस्यास्तं 15 कल्पं 'परिहरन्ति' धातूनामनेकार्थत्वाद् आसेवन्ते । कथं पुनः वक्ष्यसि ? इति अत आह'आदौ' तत्प्रथमतया प्रतिपद्यमानानां 'मध्ये' प्रतिपन्नानाम् 'अवसाने' प्रस्तुतकल्पसमाप्तौ या 'आनुपूर्वी सामाचार्याः परिपाटिः तां यथाक्रमं प्रवक्ष्यामीति सण्टङ्कः ॥ ६४४७ ।। तत्र कतरस्मिन् तीर्थे एष कल्पो भवति ? इति जिज्ञासायामिदमाहभरहेरवएसु वासेसु, जता तित्थगरा भवे ।। 20 पुरिमा पच्छिमा चेव, कप्पं देसेंति ते इमं ॥ ६४४८॥ भरतैरावतेषु वर्षेषु दशखपि यदा तृतीय-चतुर्थारकयोः पश्चिमे भागे पूर्वाः पश्चिमाश्च तीर्थकरा भवेयुः तदा ते भगवन्तः 'इम' प्रस्तुतं कल्पं 'दिशन्ति' प्ररूपयन्ति, अर्थादापन्नम्मध्यमतीर्थकृतां महाविदेहेषु च नास्ति परिहारकल्पस्थितिरिति ॥ ६४४८ ॥ आह यदि एवं ततः 26 केवइयं कालसंजोगं, गच्छो उ अणुसजती । तित्थयरेसु पुरिमेसु, तहा पच्छिमएसु य ॥६४४९ ॥ कियन्तं कालसंयोग परिहारकल्पिकानां गच्छः पूर्वेषु पश्चिमेषु च तीर्थकरेषु 'अनुसजति' परम्परयाऽनुवर्तते ? ॥ ६४४९ ॥ एवं शिष्येण पृष्टे सति सूरिराह - पुव्वसयसहस्साई, पुरिमस्स अणुसजती । [आव.नि. २८३] 30 वीसग्गसो य वासाइं, पच्छिमस्साणुसजती ॥ ६४५०॥ १°नकल्पस्थिति-निर्विष्टकायिककल्पस्थितिद्वयं युगपदेव विव' का० ॥ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६९८ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ कल्प०प्रकृते सूत्रम् २० पूर्वशतसहस्राणि 'पूर्वस्य' ऋषभस्वामिनस्तीर्थे परिहारकल्पोऽनुसजति । 'पश्चिमस्य तु' श्रीवर्द्धमानस्वामिनस्तीर्थे 'विंशत्यग्रशः' कतिपयविंशतिसङ्ख्यापरिच्छिन्नानि वर्षाणि परिहारकल्पोऽनुसजति । तत्र ऋषभस्वामिनस्तीर्थे यानि पूर्वशतसहस्राण्युक्तानि तानि देशोने द्वे पूर्वकोटी मन्तव्ये । कथम् ? इति चेद् उच्यते-इह पूर्वकोट्यायुषो मनुष्या जन्मत आरभ्य 5 सञ्जाताष्टवर्षाः प्रवजिताः, तेषां च नवमे वर्षे उपस्थापना सञ्जाता, एकोनविंशतिवर्षपर्यायाणां च दृष्टिवाद उद्दिष्टः, तस्य वर्षेण योगः समाप्तिं नीतः, एवं नव विंशतिश्च मिलिता एकोनत्रिंशद् वर्षाणि भवन्ति, एतावत्सु वर्षेषु गतेषु ऋपभस्वामिनः पार्थे परिहारकल्पं प्रतिपन्नाः, तत एकोनत्रिंशद्वर्षन्यूनां पूर्वकोटी परिहारकल्पे तैरनुपालिते सति येऽन्ये तेषां मूले परिहारकल्पं प्रतिपद्यन्ते तेऽप्येवमेवैकोनत्रिंशद्वर्षन्यूनां पूर्वकोटीमनुपालयन्ति, एवं देशोने द्वे पूर्वकोटी 10 भवतः । पश्चिमस्य तु यानि विंशत्यग्रशो वर्षाण्युक्तानि तानि देशोने द्वे वर्षशते भवतः ॥ ६४५०॥ तथा चाह पव्वज अट्ठवासस्स, दिहिवातो उ वीसहि । इति एकूणतीसाए, सयमणं तु पच्छिमे ॥ ६४५१ ॥ पालइत्ता सयं ऊणं, वासाणं ते अपच्छिमे । 15 काले देसिंति अण्णेसिं, इति ऊणा तु बे सता॥ ६४५२ ॥ श्रीवर्द्धमानखामिकाले वर्षशतायुषो मनुष्याः, तत्र 'अष्टवर्षस्य' जन्मनः प्रभृति सञ्जातवर्षाष्टकस्य कस्यापि प्रव्रज्या सञ्जाता, पूर्वोक्तरीत्या च विंशत्या वर्षैदृष्टिवादो योगतः समर्थितः, ततः श्रीमन्महावीरसकाशे परिहारकल्पं नव जनाः प्रतिपद्य देशोनवर्षशतमनुपालयन्ति इत्येवमेकोनत्रिंशता वरूनं शतं 'पश्चिमे' पश्चिमतीर्थकरकाले भवति ॥ ६४५१ ॥ 20 ततस्ते वर्षाणां शतमूनं तं कल्पं पालयित्वा 'अपश्चिमे काले' निजायुषः पर्यन्तेऽन्येषां तं __ कल्पं 'दिशन्ति' प्ररूपयन्ति, प्रवर्तयन्तीति भावः । तेऽप्येवमेवैकोनत्रिंशद्वर्षन्यूनं शतं पाल. यन्ति । 'इति' एवं द्वे शते ऊने वर्षाणां भवत इति ॥ ६४५२ ॥ किमर्थं तृतीया पूर्वकोटी तृतीयं वा वर्षशतं न भवति ? इत्याह पडिवना जिणिंदस्स, पादमूलम्मि जे विऊ । ठावयंति उ ते अण्णे, णो उ ठावितठावगा ॥ ६४५३ ॥ जिनेन्द्रस्य पादमूले ये विद्वांसः प्रस्तुतं कल्पं प्रतिपन्नास्त एवान्यास्तत्र कल्पे स्थापयन्ति, न तु 'स्थापितस्थापकाः' जिनेन स्थापिता स्थापका येषां ते स्थापितस्थापकास्तेऽमुं कल्पमन्येषां न स्थापयन्ति । इदमत्र हृदयम्-इयमेवास्य कल्पस्य स्थितियत् तीर्थकरसमीपे वाऽमुं प्रति पद्यन्ते, तीर्थकरसमीपप्रतिपन्नसाधुसकाशे वा, नाऽन्येषाम् । अतस्तृतीये पूर्वकोटि-वर्षशते न 30 भवत इति ॥ ६४५३ ॥ अथ कीदृग्गुणोपेता अमी भवन्ति ? इत्याह सव्वे चरित्तमंतो य, दंसणे परिनिहिया। णवपुधिया जहन्नेणं, उकोस दसपुविया ॥ ६४५४॥ १ ह ऋषभनाथकाले पूर्व का० ॥ २ नं परिहारकल्पं शतं कां ॥ 25 Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ६४५१-५९ ] षष्ठ उद्देशः । पंचविहे ववहारे, कप्पे त दुविहम्मि य । दसव य पच्छित्ते, सव्वे ते परिणिट्टिया ॥ ६४५५ ॥ सर्वेऽपि ते भगवन्तश्चारित्रवन्तः 'दर्शने च' सम्यक्त्वे 'परिनिष्ठिताः' परम कोटिमुपगताः । ज्ञानमङ्गीकृत्य तु नवपूर्विणो जघन्येन, उत्कर्षतः 'दशपूर्विणः' किञ्चिद् न्यूनदशपूर्वरा मन्तव्याः || ६४५४ ॥ तथा १६९९ 'पञ्चविधे व्यवहारे' आगम- श्रुताऽऽज्ञा - धारणा - जीतलक्षणे 'द्विविधे च कल्पे' अकल्पस्थापना-शैक्षस्थापनाकल्परूपे जिनकल्प - स्थविरकल्परूपे वा 'दशविधे च प्रायश्चित्ते' आलोचनादौ पाराञ्चिकान्ते सर्वेऽपि ते 'परिनिष्ठिताः' परिज्ञायां परां निष्ठां प्राप्ताः ॥ ६४५५ ॥ अपणो आउगं से, जाणित्ता ते महामुणी । परकमं च बल विरियं, पच्चवाते तहेव य ॥ ६४५६ ॥ 5 आत्मन आयुःशेषं सातिशयश्रुतोपयोगेन ज्ञात्वा ते महामुनयः, 'बलं' शारीरं सामर्थ्यम्, 'वीर्य' जीवशक्तिः, तदुभयमपि दर्शितखफलं पराक्रमः, एतान्यात्मनो विज्ञायामुं कल्पं प्रतिपद्यन्ते । 'प्रत्यपायाः जीवितोपद्रवकारिणो रोगादयस्तानपि 'तथैव' प्रथममेवाभोगयन्ति, किं प्रतिपन्नानां भविष्यन्ति ? न वा ? इति । यदि न भवन्ति ततः प्रतिपद्यन्ते, अन्यथा तु नेति ॥ ६४५६ || 15 आपुच्छिऊण अरहंते, मग्गं देखेंति ते इमं । पमाणाणि य सव्वाई, अभिग्गहे य बहुविहे || ६४५७ ॥ 'अर्हतः' तीर्थकृत आपृच्छ्य ते तेषामनुज्ञयाऽमुं कल्पं प्रतिपद्यन्ते । 'ते च' तीर्थकृतस्तेषां प्रस्तुतकल्पस्य 'इमम्' अनन्तरमेव वक्ष्यमाणं 'मार्ग' सामाचारी देशयन्ति । तद्यथा— प्रमाणानि च सर्वाणि, अभिग्रहांश्च बहुविधान् ॥ ६४५७ एतान्येव व्याचष्टे - गोवहिपमाणाई, पुरिसाणं च जाणि तु । दव्वं खेत्तं च कालं च, भावमण्णे य पजवे ॥ ६४५८ ॥ गणप्रमाणान्युपधिप्रमाणानि पुरुषाणां च प्रमाणानि यानि प्रस्तुते कल्पे जघन्यादिभेदादनेकधा भवन्ति, यच्च तेषाँ 'द्रव्यम्' अशनादिकं कल्पनीयम्, यच्च 'क्षेत्रं' मासकल्पप्रायोग्यं वर्षावासप्रायोग्यं वा, यश्चैतयोरेव मासकल्प - वर्षावासयोः प्रतिनियतः कालः, यश्च 'भावः ' 25 क्रोधनिग्रहादिरूपः, ये च ' अन्येऽपि' निष्प्रतिकर्मतादयो लेश्या ध्यानादयो वा पर्यायास्तेषां सम्भवन्ति तान् सर्वानपि भगवन्तस्तेषामुपदिशन्ति ॥ ६४५८ ॥ पंचहिं अग्गहो भत्ते, तत्थेगीए अभिग्गहो । उवहिणो अग्गहो दोसुं, इयरो एकतरीय उ ॥ ६४५९ ॥ १ ते परिहारकल्पिका भगवन्तः 'चारित्रवन्तः ' निरतिचारचारित्राः 'दर्शने च' कां० ॥ २ कथं पुनरमुं कल्पं प्रतिपद्यन्ते ? इति अत आह इत्यवतरणं कां० ॥ ३ पां परिहारकल्पि कानां 'द्रव्य' कां० ॥ ४ 'नपि मासकल्पप्रकृतोक्तनीत्या तीर्थकृतो भगवन्तस्तेषा' कां० ॥ 10 20 Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७०० सनिर्युक्ति-लघुभाप्य वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ कल्प०प्रकृते सूत्रम् २० भक्ते उपलक्षणत्वात् पानके च संसृष्टा ऽसंसृष्टाख्यमाद्यमेपणाद्वयं वर्जयित्वा पञ्चभिः उपरितनीभिरेषणाभिः ' आग्रह : ' स्वीकारः । तत्रापि 'एकस्याम् ' एकतरस्यामभिग्रहः, एकया कयाचिद् भक्तमपरया पानकमन्वेषयन्तीत्यर्थः । आह च वृहद्भाष्यकृत् - संस माइयाणं, सत्तहं एसणाण उ । आइल्लाह उ दोहिं तु, अग्गहो गह पंचहिं ॥ तत्थ वि अन्नयरीए, एगीए अभिग्गहं तु काऊणं । ति । उपधिः- वस्त्रादिरूपस्तस्य उद्दिष्ट - प्रेक्षा - अन्तरा - उज्झितधर्मिकाख्याः पीठिकायां व्याख्याता याश्च षणास्तत्र 'द्वयोः ' उपरितनयो: 'आग्रह : ' स्वीकार: । ' इतर : ' अभिग्रहः स एकतरस्यामुपरितन्यां भवति, यदा चतुर्थ्यां न तदा तृतीयायाम् यदा तृतीयायां न तदा चतुर्थ्यां 10 गृहन्तीति भावः ॥ ६४५९ ॥ कदा पुनस्तेऽमुं कल्पं प्रतिपद्यन्ते : इत्याहअइरोग्गयम्मि सूरे, कप्पं देसिंति ते इमं । 5 आलोय - पडिक्कता, ठावयंति तओ गणे ॥ ६४६० ॥ अचिरोद्गते सूर्ये 'ते' भगवन्तः कल्पमिमं 'देशयन्ति' स्वयं प्रतिपत्त्याऽन्येषां दर्शयन्ति । ततः ‘आलोचित-प्रतिक्रान्ताः' आलोचनाप्रदानपूर्वं प्रदत्तमिथ्यादुष्कृतास्त्रीन् गणानूं स्थापयन्ति 15 || ६४६० ॥ तेषु च त्रिषु गणेषु कियन्तः पुरुषा भवन्ति ? इत्याह सत्तावीस होणं, उक्कोसेण सहस्तसो । निग्गंथरा भगवंतो, सव्वग्गेणं वियाहिया || ६४६१ ॥ सप्तविंशतिपुरुषा जघन्येनं भवन्ति, एकैकस्मिन् गणे नव जना भवन्ति इति भावः उत्कर्षतः ‘सहस्रशः' सहस्रसङ्ख्याः पुरुषा भवन्ति, शताग्रशो गणानामुत्कर्षतैः वक्ष्यमाणत्वात् । 20 एवं ते भगवन्तो निर्ग्रन्थसूराः 'सर्वाग्रेण ' सर्व सख्यया व्याख्याताः ॥ ६४६१ ॥ गणमङ्गीकृत्य प्रमाणमाह सयग्गसो य उक्कोसा, जहणणेण तओ गणा । गणो य णवतो वृत्तो, एमेता पडिवत्तितो ॥ ६४६२ ॥ 'शताग्रशः' शतसङ्ख्या गणा उत्कर्षतोऽमीष भवन्ति, जघन्येन त्रयो गणाः । गणश्च 'नवकः ' 25 नवपुरुषमान उक्तः । एवमेताः 'प्रतिपत्तयः' प्रमाणादिविषयाः प्रकारा मन्तव्याः ॥ ६४६२ ॥ एगं कप्पट्ठियं कुञ्जा, चत्तारि परिहारिए । अणुपरिहारिगा चेव, चउरो तेर्सि ठाव ॥ ६४६३ ॥ नवानां जनानां मध्यादेकं कल्पस्थितं गुरुकल्पं कुर्यात् । चतुरः परिहारिका कुर्यात् । तेषां शेषांश्चतुरोऽनुपहारिकानूँ स्थापयेत् ॥ ६४६३ ॥ १ न् जघन्यतोऽपि स्था कां० ॥ २ न त्रिषु गणेषु समुदितेषु भव" कां० ॥ ३ 'तः प्रथमतः प्रतिपद्यमानकानां वक्ष्य' कां० ॥ ४ षां प्रथमतः प्रतिपत्तारो भव' कां ० ॥ ५ एवं प्रतिपन्ने सति कल्पे यो विधिर्विधेयस्तं दर्शयन्नाह इत्यवतरणं कां० ॥ प्रपन्नान् कु ̊ कां० ॥ ७ 'नू तदीयवैयावृत्यकरकल्पान् स्था° कां० ॥ ६°नू तपः Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ६४६०-६८] पष्ठ उद्देशः । १७०१ ण तेसिं जायती विग्धं, जा मासा दस अट्ट य । ण वेयणा ण वाऽऽतंको, णेव अण्णे उवद्दवा ॥६४६४ ॥ अट्ठारससु पुण्णेसु, होज एते उवद्दवा।। ऊणिए ऊणिए यावि, गणे मेरा इमा भवे ॥ ६४६५ ॥ 'तेषाम्' एवं कल्पं प्रतिपन्नानां न जायते 'विघ्नः' अन्यत्र संहरणादिः, यावद् मासा दशाष्टौ च, अष्टादश इत्यर्थः । न वेदना न वा आतङ्कः नैवान्ये केचनोपद्रवाः प्राणव्यपरोपणकारिण उपसर्गाः । अष्टादशसु मासेषु पूर्णेषु भवेयुरपि एते उपद्रवाः । उपद्रवैश्व यदि तेषामेको द्वौ त्रयो वा नियन्ते, अथवा तेषां कोऽपि स्थविरकल्पं जिनकल्पं वा गतो भवति, शेषास्तु तमेव कल्पमनुपालयितुकामास्तत एवमूनिते ऊनिते गणे जाते इयं 'मर्यादा' सामाचारी भवति । इहोनिते ऊनिते इति द्विरुच्चारणं भूयोऽप्यष्टादशसु मासेषु पूर्णेषु एष एवं 10 विधिरिति ज्ञापनार्थम् ॥ ६४६४ ॥ ६४६५॥ एवं तु ठाविए कप्पे, उवसंपजति जो तहिं । एगो दुवे अणेगा वा, अविरुद्धा भवंति ते ॥ ६४६६ ॥ 'एवम्' अनन्तरोक्तनीत्या कल्पे स्थापिते सति यदि एकादयो म्रियेरन् , अन्यत्र वा गच्छेयुः, ततो यस्तत्र उपसम्पद्यते स एको वा द्वौ वाऽनेके वा भवेयुः । तत्र यावद्भिः पारि-15 हारिकगण ऊनस्तावतामुपसम्पदर्थमागतानां मध्याद् गृहीत्वा गणः पूर्यते । ये शेषास्ते पारिहारिकतपस्तुलनां कुर्वन्तस्तिष्ठन्ति । ते च पारिहारिकैः सार्द्ध तिष्ठन्तोऽविरुद्धा भवन्ति, पारिहारिकाणामकल्पनीया न भवन्तीत्युक्तं भवति । ते च तावत् तिष्ठन्ति यावदन्ये उपसम्पदर्थमुपतिष्ठन्ते । तैः पूरयित्वा पृथग् गणः क्रियते ॥ ६४६६ ॥ इदमेव व्याख्यातितत्तो य ऊणए कप्पे, उवसंपजति जो तहिं। 20 अँत्तिएहिं गणो ऊणो, तत्तिते तत्थ पक्खिवे ॥ ६४६७ ॥ 'ततश्च' पूर्वोक्तकारणाद् ‘ऊनके' एक-यादिभिः साधुभिरपूणे कल्पे यस्तत्रोपसम्पयते तत्रायं विधिः-'यावद्भिः' एकादिसङ्ख्याकैः स गण ऊनः 'तावतः' तावत्सङ्ख्याकानेव साधून 'तत्र' गणे 'प्रक्षिपेत्' प्रवेशयेत् ॥ ६४६७ ॥ तत्तो अणूणए कप्पे, उवसंपजति जो तहिं । उवसंपज्जमाणं तु, तप्पमाणं गणं करे ॥ ६४६८॥ अथ कोऽप्युपद्रवैर्न कालगतस्तत एवमन्यूनके कल्पे ये तत्रोपसम्पद्यन्ते ते यदि नव जनाः पूर्णास्ततः पृथग् गणो भवति । अथापूर्णास्ततः प्रतीक्षाप्यन्ते यावदन्ये उपसम्पदर्थमागच्छन्ति । ततस्तमुपसम्पद्यमानं साधुजनं मीलयित्वा 'तत्प्रमाणं' नवपुरुषमानं गणं 'कुर्यात्' स्थापयेत् ॥ ६४६८॥ 30 १ न 'वेदना' चिरघातिरोगरूपा न वा 'आतङ्कः' सद्योघातिशूलादिलक्षणः नैवा कां०॥ २ कारिणो देवादिकृता उप° कां० ॥ ३ वा जिनकल्पादौ गच्छे° कां० ॥ ४ जत्तिएण गणो कां. विना ॥ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७०२ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [कल्प०प्रकृते सूत्रम् २० पमाणं कैप्पद्वितो तत्थ, ववहारं ववहरित्तए । अणुपरिहारियाणं पि, पमाणं होति से विऊ ॥ ६४६९ ॥ तेषां पारिहारिकाणां तत्र' कल्पे क्वचित् स्खलितादावापन्ने 'व्यवहारं' प्रायश्चित्तं 'व्यवहाँ' दातुं कल्पस्थितः प्रमाणम् , यदसौ प्रायश्चित्तं ददाति तत् तैर्वोढव्यमिति भावः । एवमनुपारि5 हारिकाणामप्यपराधपदमापन्नानां स एव 'विद्वान्' गीतार्थः प्रायश्चित्तदाने प्रमाणम् ॥ ६४६९॥ आलोयण कप्पठिते, तवमुजाणोवमं परिवहंते । अणुपरिहारिऍ गोवालए, व णिच उजुत्तमाउत्ते ॥ ६४७० ॥ ते परिहारिका-ऽनुपरिहारिका आलोचनम् उपलक्षणत्वात् वन्दनकं प्रत्याख्यानं च कल्पस्थितस्य पुरतः कुर्वन्ति । "तवमुज्जाणोवमं परिवहंते" ति यथा किल कश्चिदुद्यानिकां गत 10एकान्तरतिप्रसक्तः खच्छन्दसुखं विहरमाण आस्ते एवं तेऽपि पारिहारिका एकान्तसमाधिसिन्धुनिमममनसस्तत् तपः 'उद्यानोपमम्' उद्यानिकासदृशं परिवहन्ति, कुर्वन्तीत्यर्थः । अनुपारिहारिकाश्च चत्वारोऽपि चतुर्णी परिहारिकाणां भिक्षादौ पर्यटती पृष्ठतः स्थिता नित्यम् 'उद्युक्ताः' प्रयत्नवन्तः 'आयुक्ताश्च' उपयुक्ता हिण्डन्ते, यथा गोपालको गवां पृष्ठतः स्थित उद्युक्त आयुक्तश्च हिण्डते ॥ ६४७० ॥ पडिपुच्छं वायणं चेव, मोत्तणं णत्थि संकहा । आलावो अत्तणिदेसो, परिहारिस्स कारणे ॥ ६४७१ ॥ तेषां च पारिहारिकादीनां नवानामपि जनानां सूत्रार्थयोः प्रतिपृच्छां वाचनां च मुक्त्वा नास्त्यन्या परस्परं सकथा । पारिहारिकस्य च 'कारणे' उत्थान-निषदनाद्यशक्तिरूपे आलाप आत्मनिर्देशरूपो भवति, यथा-उत्थास्यामि, उपवेक्ष्यामि, भिक्षां हिण्डिष्ये, मात्रै प्रेक्षिष्ये 20इत्यादि ॥ ६४७१ ॥ बारस दसऽ8 दस अट्ठ छ च अद्वेव छ च चउरो य । उक्कोस-मज्झिम-जहण्णगा उ वासा सिसिर गिम्हे ॥ ६४७२ ॥ परिहारिकाणां वर्षा-शिशिर-ग्रीष्मरूपे त्रिविधे काले उत्कृष्ट मध्यम-जघन्यानि तपांसि भवन्ति । तत्र वर्षाराने उत्कृष्टं तपो द्वादशम् , शिशिरे दशममुत्कृष्टम् , ग्रीष्मे उत्कृष्टमष्टमम् ; 25 वर्षारात्रे मध्यमं दशमम् , शिशिरेऽष्टमम् , ग्रीष्मे षष्ठम् ; वर्षाराने जघन्यमष्टमम् , शिशिरे पष्ठम् , ग्रीष्मे चत्वारि भक्तानि, चतुर्थमित्यर्थः ॥ ६४७२ ॥ आयंबिल बारसमं, पत्तेयं परिहारिगा परिहरंति ।। अभिगहितएसणाए, पंचण्ह वि एगसंभोगो ॥ ६४७३ ॥ परिहारिका उत्कर्षतो द्वादशं तपः कृत्वा आचाम्लेन पारयन्ति । ते च परिहारिकाश्चत्वा१ कप्पितो तत्थ ताभा० ॥ २ °तां गोपाला इव गवां पृष्टतः स्थिता नित्यम् 'उद्युक्ताः' प्रयत्नवन्तः 'आयुक्ताश्च' उपयुक्ता हिण्डन्ते ॥ ६४७०॥ पडिपुच्छ कां० ॥३°त्रकं प्रेक्ष्ये इ. कां० विना ॥ ४ गिभे ताभा० ॥ ५ एवमनन्तरोक्तनीत्या परि कां० ॥ ६ °त्वा पारणकदिने आचा कां० ॥ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 भाष्यगाथाः ६४६९-७८] षष्ठ उद्देशः। १७०३ रोऽपि 'प्रत्येकं' पृथक् पृथक् परिहरन्ति, न परस्परं समुद्देशनादिसम्भोगं कुर्वन्तीत्यर्थः। ते च परिहारिका अभिगृहीतया पञ्चानामुपरितनीनामन्यतरैषणया भक्त-पानं गृह्णन्ति । ये तु चत्वारोऽनुपारिहारिका एकश्च कल्पस्थितस्तेषां पञ्चानामप्येक एव सम्भोगः, ते च प्रतिदिवसमाचाम्लं कुर्वन्ति । यस्तु कल्पस्थितः स खयं न हिण्डते, तस्य योग्यं भक्त-पानमनुपारिहारिका आनयन्ति ॥ ६४७३ ॥ परिहारिआ वि छम्मासे अणुपरिहारिआ वि छम्मासा । कप्पट्टितो वि छम्मासे एतें अट्ठारस उ मासा ॥ ६४७४॥ परिहारिकाः प्रथमतः षण्मासान् प्रस्तुतं तपो वहन्ति, ततोऽनुपरिहारिका अपि षण्मासान वहन्ति, इतरे तु तेषामनुपारिहारिकत्वं प्रतिपद्यन्ते । तैरपि व्यूढे सति कल्पस्थितः षण्मासान् वहति, ततः शेषाणामेकः कल्पस्थितो भवति एकः पुनरनुपरिहारिकत्वं प्रतिपद्यते । एवमेते-10 ऽष्टादश मासा भवन्ति ॥ ६४७४ ॥ अणुपरिहारिगा चेव, जे य ते परिहारिगा। अण्णमण्णेसु ठाणेसु, अविरुद्धा भवंति ते ॥ ६४७५ ॥ अनुपरिहारिकाश्चैव ये च ते परिहारिकास्तेऽन्यान्येषु स्थानेषु कालभेदेन परस्परमे कैकस्य वैयावृत्यं कुर्वन्तोऽविरुद्धा एव भवन्ति ॥ ६४७५ ॥ ततश्च गएहिं छहिं मासेहि, निविट्ठा भवंति ते । ततो पच्छा ववहारं, पट्ठवंति अणुपरिहारिया ॥ ६४७६ ॥ गएहिं छहिँ मासेहि, निविट्ठा भवंति ते । वहइ कप्पट्टितो पच्छा, परिहारं तहाविहं ॥ ६४७७ ॥ ते परिहारिकाः षभिर्मासैर्गतैस्तपसि व्यूढे सति 'निर्विष्टाः' निर्विष्टकायिका भवन्ति । ततः 20 पश्चादनुपरिहारिकाः 'व्यवहारं' परिहारतपसः समाचारं 'प्रस्थापयन्ति' कर्तुं प्रारभन्ते॥६४७६॥ तेऽपि पद्भिर्मासैर्गतैर्निर्विष्टा भवन्ति । पश्चात् कल्पस्थितोऽपि तथाविधं परिहारं तावत एवं मासान् वहति ॥ ६४७७ ॥ एवं च अट्ठारसहिं मासेहिं, कप्पो होति समाणितो । मूलढवणाएँ समं, छम्मासा तु अणूणगा ॥ ६४७८ ॥ १'परिहरन्ति' यथोक्तां सामाचारीमासेवन्ते' न पर' का० ॥ २ 'न् तदेव तपो वह कां० ॥ ३°वति, शेषाः पुनरनुपरिहारिकत्वं परिहारिकत्वं वा यथायोग्यं प्रतिपद्यन्ते । एवमेतेऽष्टादश मासा भवन्ति ॥ ६४७४॥ आह-य एव परिहारिकास्त एवानुपरिहारिकाः य एवानुपरिहारिकास्त एव परिहारिका इति कथं न विरोधः? इति अत्रोच्यते-अणु' कां ॥ ४ 'त्यं तपश्च कु कां० ॥ ५ °वन्ति । यदि हि तेपामित्थमन्योन्यविधि विधानानां कालभेदो न स्यात् तदा स्याद् विरोधः। तच नास्तीति ॥ ६४७५॥ कां ॥ ६ ततो पच्छा ववहारं, पट्टवेति कप्पट्टितो ताभा० ॥ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 १७०४ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [कल्प०प्रकृते सूत्रम् २० अष्टादशभिर्मासैरयं कल्पः समापितो भवति । कथम् ? इत्याह--"मूलठ्ठवणा" इत्यादि । मूलस्थापना नाम-यत् परिहारिकाः प्रथमत इदं तपः प्रतिपद्यन्ते, तस्यां पण्मासा अन्यूनास्तपो भवति, एवमनुपारिहारिकाणां कल्पस्थितस्य च मूलस्थापनया 'समं' तुल्यं तपः प्रत्येकं ज्ञेयम् , षण्मासान् यावदित्यर्थः । एवं त्रिभिः षट्कैरष्टादश मासा भवन्ति ॥ ६४७८ ॥ 5 ते च द्विधा-जिनकल्पिकाः स्थविरकल्पिकाश्च । उभयेषामपि व्याख्यानमाह एवं समाणिए कप्पे, जे तेसिं जिणकप्पिया। तमेव कप्पं ऊणा वि, पालए जावजीवियं ॥ ६४७९ ॥ 'एवम्' अनन्तरोक्तविधिनाऽष्टादशभिर्मासैः कल्पे समापिते सति ये तेषां मध्याद् जिनकल्पिकास्ते तमेव कल्पमूना अप्यष्टादिसङ्ख्याका अपि यावज्जीवं पालयन्ति ॥ ६४७९ ।। 10 अट्ठारसेहिं पुण्णेहि, मासेहिं थेरकप्पिया । पुणो गच्छं नियच्छंति, एसा तेसिं अहाठिती ॥ ६४८० ॥ ये स्थविरकल्पिकास्तेऽष्टादशभिर्मासैः पूर्णैः 'पुनर्' भूयोऽपि गच्छं नियच्छन्ति, आगच्छन्तीत्यर्थः । एषा तेषां 'यथास्थितिः' यथाकल्पः ॥ ६४८० ॥ अथ षड्विधायां कल्पस्थितौ का कुत्रावतरति ? इत्याह तइय-चउत्था कप्पा, समोयरंति तु वियम्मि कप्पम्मि । पंचम-छट्ठठितीसुं, हेडिल्लाणं समोयारो ॥ ६४८१ ।। 'तृतीय-चतुर्थो' निर्विशमानक-निर्विष्टकायिकाख्यौ कल्पौ 'द्वितीये' छेदोपस्थापनीयनाम्नि कल्पे समवतरतः । तथा सामायिक-च्छेदोपस्थापनीय-निर्विशमानक-निर्विष्टकायिकाख्या आद्याश्चतस्रः स्थितयोऽधस्तन्य उच्यन्ते, तासां प्रत्येकं 'पञ्चम-षष्ठस्थित्योः' जिनकल्प-स्थविर20 कल्पस्थितिरूपयोः समवतारो भवति ॥ ६४८१ ॥ गतं निर्विशमानक-निर्विष्टकायिककल्पस्थितिद्वयम् । अथ जिनकल्पस्थितिमाह णिज्जुत्ति-मासकप्पेसु वण्णितो जो कमो उ जिणकप्पे । सुय-संघयणादीओ, सो चेव गमो निरवसेसो ॥ ६४८२ ॥ नियुक्ति:-पञ्चकल्पस्तस्यां मासकल्पप्रकृते च यः क्रमः ‘जिनकल्पे' 'जिनकल्पविषयः 35 श्रुतसंहननादिको वर्णितः स एव गमो निरवशेषोऽत्र मन्तव्यः ॥ ६४८२ ॥ ... स्थानाशून्यार्थं पुनरिदमुच्यते गच्छम्मि य णिम्माया, धीरा जाहे य मुणियपरमत्था । ___ अग्गह जोग अभिग्गहें, उविति जिणकप्पियचरित्तं ॥६४८३॥ यदा गच्छे प्रव्रज्या-शिक्षापदादिक्रमेण 'निर्माताः' निष्पन्नाः, 'धीराः' औत्पत्तिक्यादि30 बुद्धिमन्तः परीषहोपसर्गरक्षोभ्या वा, 'मुणितपरमार्थाः' 'अभ्युद्यतविहारेण विहर्तुमवसरः साम्प्रतमस्माकम्' इत्येवमवगतार्थाः, तथा ययोः पिण्डैषणयोः असंसृष्टा-संसृष्टाख्ययोरग्रहस्ते १यरंते तु वितियकप्प° ताभा० ॥ २ जो गमो ताभा० ॥ ३ “णिज्जुत्ती पंचकप्पे' इति चूर्णी विशेषचूर्णौ च ॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ६४७९-८७] षष्ठ उद्देशः । १७०५ परिहर्तव्ये, यास्तु उपरितन्यः पञ्चैषणास्तासाम् 'अभिग्रहः' 'एता एव ग्रहीतव्याः' इत्येवंरूपः, तत्राप्येकदैकतरस्यां 'योगः' व्यापारः परिभोग इत्यर्थः । एवं भावितमतयो यदा भवन्ति तदा जिनकल्पिकचारित्रम् ‘उपयान्ति' प्रतिपद्यन्ते ॥ ६४८३ ॥ घितिबलिया तबसूरा, णिति य गच्छातो ते पुरिससीहा । बल-वीरियसंघयणा, उवसग्गसहा अभीरू य ॥ ६४८४ ॥ धृतिः-वज्रकुड्यवदभेद्यं चित्तप्रणिधानं तया बलिकाः-बलवन्तः, तथा तपः-चतुर्थादिकं षण्मासिकान्तं तत्र शूराः-समर्थाः, एवंविधाः पुरुषसिंहास्ते गच्छाद् निर्गच्छन्ति । बलं-शारीरं वीर्य-जीवप्रभवं तद्धेतुः संहननम्-अस्थिनिचयात्मकं येषां ते तथा । बल-वीर्यग्रहणं च चतुर्भङ्गीज्ञापनार्थम् , सा चेयम्-धृतिमान् नामैको न संहननवान् , संहननवान् नामैको न धृतिमान् , एको धृतिमानपि संहननवानपि, एको न धृतिमान् न संहननवान् । अत्र तृतीय-10 भङ्गेनाधिकारः । उपसर्गाः-दिव्यादयस्तेषां सहाः-सम्यगध्यासितारः, तथा 'अभीरवः' परीषहेभ्यो न बिभ्यति ॥ ६४८४ ॥ गता जिनकल्पस्थितिः, सम्प्रति स्थविरकल्पस्थितिमाह संजमकरणुजोवा, णिप्फातग णाण-दसण-चरित्ते । दीहाउ वुड्डवासो, वसहीदोसेहि य विमुका ॥ ६४८५ ॥ संयमः-पञ्चाश्रवविरमणादिरूपः पृथिव्यादिरक्षारूपो वा सप्तदशविधः, तं कुर्वन्ति-यथावत् 15 पालयन्तीति संयमकरणाः, नन्द्यादिदर्शनात् कर्तरि अनप्रत्ययः, उद्योतकाः-तपसा प्रवचनस्योज्वालकाः, ततः संयमकरणाश्च ते उद्योतकाश्चेति विशेषणसमासः । यद्वा सूत्रा-ऽर्थपौरुषीकरणेन संयमकरणमुद्योतयन्तीति संयमकरणोद्योतकाः । तथा ज्ञान-दर्शन-चारित्रेषु शिष्याणां निष्पादकास्तेषां वा ज्ञानादीनामव्यवच्छित्तिकारकाः, एवंविधाः स्थविरकल्पिका भवन्तीति शेषः । यदा च ते दीर्घायुषो जङ्घाबलपरिक्षीणाश्च भवन्ति तदा वृद्धावासमध्यासते । तत्रैक- 20 क्षेत्रे वसन्तोऽपि 'वसतिदोषैः' कालातिक्रान्तादिभिः चशब्दाद् आहारोपधिदोषैश्च 'विमुक्ताः' वर्जिता भवन्ति, न तैर्लिप्यन्त इत्यर्थः ॥ ६४८५ ॥ मोत्तुं जिणकप्पठिई, जा मेरा एस वणिया हेवा। एसा तु दुपदजुत्ता, होति ठिती थेरकप्पस्स ।। ६४८६ ॥ जिनकल्पस्थितिग्रहणेन उपलक्षणत्वात् सर्वेषामपि गच्छनिर्गतानां स्थितिः परिगृह्यते, 25 ततस्तां मुक्त्वा या 'अधस्ताद्' अस्मिन्नेवाध्ययने 'मर्यादा' स्थितिः 'एषा' अनन्तरमेवे वर्णिता; यद्वा सामायिकाध्ययनमादौ कृत्वा यावदस्मिन्नेवाध्ययने इदं षड्विधकल्पस्थितिसूत्रम् , अत्रान्तरे गच्छनिर्गतसामाचारीमुक्त्वा या शेषा सामाचारी वर्णिता सा 'द्विपदयुक्ता' उत्सर्गा-ऽपवादपदद्वययुक्ता स्थविरकल्पस्य स्थितिर्भवति ।। ६४८६ ॥ गता स्थविरकल्पस्थितिः । सम्प्रति प्रस्तुतशास्त्रोक्तविधिवपरीत्यकारिणामपायान् दर्शयन्नाह 30 पलंबादी जाव ठिती, उस्सग्ग-ऽववातियं करेमाणो। अववाते उस्सग्गं, आसायण दीहसंसारी ॥ ६४८७ ॥ १°सते, तदानीं चैकत्र क्षेत्रे को० ॥२ °व षनिरुद्देशकैर्वणि कां० ॥ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७०६ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [कल्प प्रकृते सूत्रम् २० प्रलम्बसूत्रादारभ्य यावदिदं पड्विधकल्पस्थितिसूत्रं तावद य उत्सर्गा-ऽपवादविधिः सूत्रतोऽर्थतश्चोक्तस्तत्रोत्सर्गे प्राप्ते आपवादिकी क्रियां कुर्वाणोऽपवादे च प्राप्ते उत्सर्गक्रियां कुर्वाणोऽर्हतामाशातनायां वर्तते, अर्हत्पज्ञप्तस्य धर्मस्याशातनायां वर्तते, आशातनायां च वर्तमानो दीर्घसंसारी भवति, तस्मात् प्रलम्बसूत्रादारभ्य षड्विधकल्पस्थितिसूत्रं यावद् उत्सर्गे 5 प्राप्ते उत्सर्गः कर्तव्योऽपवादे प्राप्तेऽपवादविधिर्यतनया कर्तव्यः ॥ ६४८७ ॥ एवंकुर्वतां गुणमाह___ छव्विहकप्पस्स ठिति, नाउं जो सद्दहे करणजुत्तो। पवयणणिही सुरक्खितों, इह-परभववित्थरप्फलदो ॥६४८८ ॥ 'षड्विधकल्पस्य' सामायिकादिरूपस्य प्रस्तुतशास्त्रार्थसर्वखभूतस्य 'स्थिति' कल्पनीयाचरणा10ऽकल्पनीयविवर्जनरूपां 'ज्ञात्वा' गुरूपदेशेन सम्यगवगम्य यः 'श्रद्दधीत' प्रतीतिपथमारोपयेत् , न केवलं श्रद्दधीत किन्तु 'करणयुक्तः' यथोक्तानुष्ठानसम्पन्नो भवेत् , तस्याऽऽस्मा एवं सम्यग्ज्ञानश्रद्धान-चारित्रसमन्वितः साक्षात् प्रवचननिधिर्भवति, यथा समुद्रो रत्ननिधिः एवमसावपि ज्ञानादिरत्नमयस्य प्रवचनस्य निधिरित्यर्थः । स च प्रवचननिधिः सुष्ठु-प्रयलेनाऽऽत्म-संयमविरा धनाभ्यो रक्षितः सन् इह-परभवविस्तरफलदो भवति । इहभवे विस्तरेण चारण-वैक्रिया15 ऽऽम!षधिप्रभृतिविविधलब्धिरूपं फलं ददाति, परभवेऽप्यनुत्तरविमानाद्युपपात-सुकुलप्रत्यायातिप्रभृतिकं विस्तरेण फलं प्रयच्छति ॥ ६४८८ ॥ अथेदं कल्पाध्ययनं कस्य न दातव्यम् ? को वाऽपात्राय ददतो दोषो भवति ? इत्यत आह भिण्णरहस्से व गरे, णिस्साकरए व मुक्कजोगी य । छविहगतिगुविलम्मि, सो संसारे भमति दीहे ॥ ६४८९ ॥ 20 इहापवादपदानि रहस्यमुच्यते, भिन्न-प्रकाशितमयोग्यानां रहस्यं येन स भिन्नरहस्यः, अगीतार्थानामपवादपदानि कथयतीत्यर्थः, तत्रैवंविधे नरे । तथा निश्राकरो नाम-यः किञ्चिदपवादपदं लब्ध्वा तदेव निश्रां कृत्वा भणति-यथा एतदेवं करणीयं तथाऽन्यदप्येवं कर्तव्यम् , तत्र । तथा मुक्ताः-परित्यक्ता योगाः-ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तपोविषया व्यापारा येन स मुक्तयोगी । ईदृशेऽपात्रे न दातव्यम् । यस्तु ददाति सः 'पड्विधगतिगुपिले' पृथिवी25 कायादित्रसकायान्तषटकायपरिभ्रमणगहने 'दीर्धे' अपारे संसारे भ्राम्यति ॥ ६४८९ ॥ अथ कीदृशस्य दातव्यम् ? को वा पात्रे ददतो गुणो भवति ? इति अत आह अरहस्सधारए पारए य असहकरणे तुलासमे समिते । कप्पाणुपालणा दीवणा य, आराहण छिन्नसंसारी ॥ ६४९० ॥ नास्त्यपरं रहस्यान्तरं यस्मात् तद् अरहस्यम् , अतीवरहस्यच्छेदशास्त्रार्थतत्त्वमित्यर्थः, तद् 30 यो धारयति-अपात्रेभ्यो न प्रयच्छति सोऽरहस्यधारकः । 'पारगः' सर्वस्यापि प्रारब्धश्रुतस्य १°कसंयम-च्छेदोपस्थापनीयसंयमादिरूप कां० ॥ २ कस्मै न कां० ॥ ३ 'नरे' न-रव्यअनमात्रधारके । तथा कां० ॥ ४ स्यभूतं छेद कां० ॥ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ६४८८-९०] षष्ठ उद्देशः। १७०७ पारगामी, न पल्लवग्राही । 'अशठकरणो नाम' माया-मदविप्रमुक्तो भूत्वा यथोक्तं विहितानुष्ठानं करोति । 'तुलासमो नाम' यथा तुला समस्थिता न मार्गतो न वा पुरतो नमति एवं यो रागद्वेषविमुक्तो माना-ऽपमान-सुख-दुःखादिपु समः स तुलासम उच्यते । 'समितः' पञ्चभिः समितिभिः समायुक्तः । एवंविधगुणोपेतस्येदमध्ययनं दातव्यम् । एवं ददता कल्पस्य-भगवदुक्तस्य श्रुतदानविधेरनुपालना कृता भवति; अथवा कल्पे-कल्पाध्ययने यद् भणितं तस्यानु-5 पालनां यः करोति तस्य दातव्यम् । एवंकुर्वता दीपना-अन्येषामपि मार्गस्य प्रकाशना कृता भवति, यथाऽन्यैरपि एवंगुणवते शिष्याय श्रुतप्रदानं कर्तव्यम् ; अथवा "दीवण" ति यो योग्यविनेयानां 'दीपनाम्' अनालस्येन व्याख्यानं करोति तस्येदं दातव्यम् ; यदि वा दीपना नाम-उत्सर्गयोग्यानामुत्सर्ग दीपयति, अपवादयोग्यानामपवादं दीपयति, उभययोग्यानामुभावपि दीपयति, प्रमादिनां वा दोषान् दीपयति, अप्रमादिनां गुणान् दीपयति । य एतस्यां कल्पानु-10 पालनायां दीपनायां च वर्तते तस्य ज्ञान-दर्शन-चारित्रमयी जघन्या मध्यमा उत्कृष्टा चाऽऽ. राधना भवति । ततश्चाराधनायाः 'छिन्नसंसारी' भवति संसारसन्ततेर्व्यवच्छेदं करोति । तस्यां च व्यवच्छिन्नायां यत् तद् अक्षयमव्याबाधमपुनरावृत्तिकं उपादेयस्थानं तत् प्रामोतीति ॥६४९०॥ ॥ कल्पस्थितिप्रकृतं समाप्तम् ॥ - - उक्तोऽनुगमः । सम्प्रति नयाः–ते च यद्यपि शतसङ्ख्यास्तथापि ज्ञाननय-क्रियानयद्वयेऽन्त-15 र्भाव्यन्ते । तत्र ज्ञाननयस्यायमभिप्रायः-ज्ञानमेव प्रधानमैहिका-ऽऽमुष्मिकफलप्राप्तिकारणम् । तथा च तदभिप्रायसमर्थिकेयं शास्त्रान्तरोक्ता गाथा नायम्मि गिहियव्वे, अगिहियव्वम्मि चेव अत्थम्मि । जइयव्वमेव इइ जो, उवएसो सो नओ नाम ॥ अस्या व्याख्या-'ज्ञाते' सम्यक् परिच्छिन्ने 'ग्रहीतव्ये' उपादेये 'अग्रहीतव्ये' हेये 20 चशब्दाद् उपेक्षणीये च । एवकारस्त्ववधारणार्थः, तस्य चैवं व्यवहितः प्रयोगः-ज्ञात एव ग्रहीतव्येऽग्रहीतव्ये उपेक्षणीये च, नाज्ञातेऽर्थे ऐहिकामुष्मिकरूपे । तत्रैहिको ग्रहीतव्यः स्रक्. चन्दनादिः, अग्रहीतव्यो विष-शस्त्र-कण्टकादिः, उपेक्षणीयः तृणादिः । आमुष्मिको ग्रहीतव्यः सम्यग्दर्शनादिः, अग्रहीतव्यो मिथ्यादर्शनादिः, उपेक्षणीयो विवक्षयाऽभ्युदयादिः । तस्मिन्नथें यतितव्यमेवेति । अनुखारलोपाद् 'एवम्' अमुना क्रमेण ज्ञानपूर्वकमैहिका-ऽऽमुष्मिकफल-25 प्राप्त्यर्थिना सत्त्वेन 'यतितव्यं' प्रवृत्त्यादिलक्षणः प्रयत्नः कार्यः । इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यम् , सम्यग्ज्ञानमन्तरेण प्रवर्तमानस्य फलविसंवाददर्शनात् । तथा चोक्तमन्यैरपि Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७०८ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे विज्ञप्तिः फलदा पुंसां, न क्रिया फलदा मता। मिथ्याज्ञानात् प्रवृत्तस्य, फलासंवाददर्शनात् ॥ तथाऽऽमुष्मिकफलार्थिनाऽपि ज्ञान एव यतितव्यम् , आगमेऽपि तथाप्रतिपादनात् । उक्तं च पढमं नाणं ततो दया, एवं चिट्टइ सवसंजए । अन्नाणी किं काही ?, किं वा नाही य छेय-पावगं ? ॥ इतश्चैतदेवमङ्गीकर्तव्यम् , यस्मात् तीर्थकर-गणधरैरगीतार्थानां केवलानां विहारक्रियाऽपि निषिद्धा । तथा चागमः-- गीयत्थो य विहारो, बीतो गीयत्थमीसतो भणितो। 10 ___एतो तइय विहारो, नाणुन्नाओ जिणवरेहिं ॥ न खलु अन्धेनान्धः समाकृष्यमाणः सम्यक्पन्थानं प्रतिपद्यते इत्यभिप्रायः । एवं तावत् क्षायोपशमिकं ज्ञानमधिकृत्योक्तम् , क्षायिकमप्यङ्गीकृत्य विशिष्टफलसाधकत्वं तस्यैव प्रतिपत्तव्यम् , यस्मादर्हतोऽपि भवाम्भोधितटस्थस्य दीक्षाप्रतिपन्नस्योत्कृष्टचरणवतोऽपि न तावद् अपवर्गप्राप्तिरुपजायते यावद् जीवा-ऽजीवाद्यखिलवस्तुपरिच्छेदरूपं केवलज्ञानं नोत्पन्न15 मिति । तस्माद् ज्ञानमेव प्रधानमैहिका-ऽऽमुष्मिकफलप्राप्तिकारणमिति स्थितम् । “इति जो उवएसो सो नओ नाम" 'इति' एवम्-उक्तेन प्रकारेण य उपदेशो ज्ञानप्राधान्यख्यापनपरः स नयो नाम, ज्ञाननय इत्यर्थः ॥ उक्तो ज्ञाननयः । सम्प्रति क्रियानयावसरः, तद्दर्शनं चेदम्-क्रियैव ऐहिका-ऽऽमुष्मिकफलप्राप्तिकारणं प्रधानम् , युक्तियुक्तत्वात् । तथा चायमप्युक्तस्वरूपामेव खपक्षसिद्धये गाथा20 माह-"नायम्मि गिहियव्वे०" इत्यादि ।। अस्याः क्रियानयदर्शनानुसारेण व्याख्या-ज्ञाते ग्रहीतव्येऽग्रहीतव्ये चार्थे ऐहिका-ऽऽमुष्मिकफलप्राप्त्यर्थिना यतितव्यमेव । यस्मात् प्रवृत्त्यादिलक्षणप्रयतव्यतिरेकेण ज्ञानवतोऽपि नाभिलषितार्थावाप्तिरुपजायते । तथा चोक्तमन्यैरपि क्रियैव फलदा पुंसां, न ज्ञानं फलदं मतम् । यतः स्त्री-भक्ष्यभोगज्ञो, न ज्ञानात् सुखितो भवेत् ॥ ___ आमुष्मिकफलार्थिनाऽपि क्रियैव कर्तव्या, तथा च भगवद्वचनमप्येवमेव व्यवस्थितम् । यत उक्तम् चेइय कुल गण संघे, आयरियाणं च पवयण सुए य । __ सबेसु वि तेण कयं, तव-संजममुज्जमंतेणं ॥ 30 इतश्चैवमङ्गीकर्तव्यम् , यस्मात् तीर्थकर-गणधरैः क्रियाविकलानां ज्ञानमपि विफलमेवोक्तम् । तथा चागमः सुबहुं पि सुयमहीयं, किं काही चरणविप्पहीणस्स ? । अंधस्स जह पलिचा, दीवसयसहस्सकोडी वि ॥ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ उद्देशः। १७०९ दृशिक्रियाविकलत्वात् तस्येत्यभिप्रायः । एवं तावत् क्षायोपशमिकं चारित्रमङ्गीकृत्योक्तम् , चारित्रं क्रियेत्यनर्थान्तरत्वात् क्षायिकमङ्गीकृत्य विशिष्टफलसाधकत्वं तस्यैव ज्ञेयम् , यस्मादर्हतो भगवतः समुत्पन्नकेवलज्ञानस्यापि न तावद् मुक्त्यवाप्तिः सम्भवति यावदखिलकर्मेन्धनानलभूता हूस्वपञ्चाक्षरोच्चारणकालमात्रा सर्वसंवररूपा चारित्रक्रिया नावाप्यते, ततः क्रियैव प्रधानमैहिका-ऽऽमुष्मिकफलप्राप्तिकारण-5 मिति । "इति जो उवदेसो सो नओ नाम" 'इति' एवम्-उक्तेन प्रकारेण य उपदेशः क्रियाप्राधान्यख्यापनपरः स नयो नाम, क्रियानय इत्यर्थः । उक्तः क्रियानयः ।। __ इत्थं ज्ञान-क्रियानयखरूपं श्रुत्वा विदिततदभिप्रायो विनेयः संशयापन्नः सन् आहकिमत्र तत्त्वम् ? पक्षद्वयेऽपि युक्तिसम्भवात् । आचार्य आह__सव्वेसि पि नयाणं, बहुविहवत्तव्वयं निसामित्ता। 10 तं सव्वनयविसुद्धं, जं चरण-गुणद्वितो साहू ॥ सर्वेषामपि मूलनयानाम् अपिशब्दात् तद्भेदानामपि नयानां द्रव्यास्तिकादीनाम् 'बहुविधवक्तव्यता' 'सामान्यमेव, विशेषा एव, उभयमेव वा परस्परनिरपेक्षम्' इत्यादिरूपाम् , अथवा 'नामादिनयानां मध्ये को नयः कं साधुमिच्छति ?' इत्यादिरूपां 'निशम्य' श्रुत्वा तत् 'सर्वनयविशुद्धं' सर्वनयसम्मतं वचनम्-यत् 'चरण-गुणस्थितः' चारित्र-ज्ञानस्थितः साधुः, यस्मात् 15 सर्वेऽपि नया भावनिक्षेपमिच्छन्तीति । गतं नयद्वारम् ॥ ॥ इति श्रीकैल्पटीकायां षष्ठ उद्देशकः समायः॥ नन्दीसन्दर्भमूले सुदृढतरमहापीठिकास्कन्धबन्धे, तुङ्गोद्देशाख्यशाखे दल-कुसुमसमैः सूत्र-नियुक्तिवाक्यैः । सान्द्रे भाष्यार्थसार्थामृतफलकलिते कल्पकल्पद्रुमेऽस्मि न्नाक्रष्टुं षष्ठशाखाफलनिवहमसावङ्कुटीवाऽस्तु टीका ।। ॥ समाता चेयं सुखावबोधा नाम कल्पाध्ययनटीका ॥ १ अस्या अपि शास्त्रान्तरोक्ताया गाथाया व्याख्या-सर्वेषां का० ॥ २'कल्पाध्ययनटी कां० ॥ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ प्रशस्तिः ॥ 10 सौवर्णा विविधार्थरनकलिता एते षडदेशकाः, श्रीकल्पेऽर्थनिधौ मताः सुकलशा दौर्गत्यदुःखापहे । दृष्ट्वा चूर्णिसुबीजकाक्षरततिं कुश्याऽथ गुर्वाज्ञया, खानं खानममी मया ख-परयोरर्थे स्फुटार्थीकृताः ॥ १ ॥ श्रीकल्पसूत्रममृतं विबुधोपयोग योग्यं जरा-मरणदारुणदुःखहारि । येनोद्धृतं मतिमथा मथिताच्छ्रुताब्धेः, ___श्रीभद्रबाहुगुरवे प्रणतोऽस्मि तस्मै ॥२॥ येनेदं कल्पसूत्रं कमलमुकुलवत् कोमलं मञ्जुलाभि___ोभिर्दोषापहाभिः स्फुटविषयविभागस्य सन्दर्शिकाभिः । उत्फुल्लोद्देशपत्रं सुरसपरिमलोद्वारसारं वितेने, तं निःसम्बन्धबन्धुं नुत मुनिमधुपाः ! भास्करं भाष्यकारम् ॥ ३ ॥ श्रीकल्पाध्ययनेऽस्मिन्नतिगम्भीरार्थभाष्यपरिकलिते । विषमपदविवरणकृते, श्रीचूर्णिकृते नमः कृतिने ॥ ४ ॥ श्रुतदेवताप्रसादादिदमध्ययनं विवृण्वता कुशलम् । यदवापि मया तेन, प्राप्नुयां बोधिमहममलाम् ॥ ५॥ गम-नयगभीरनीरश्चित्रोत्सर्गा-ऽपवादवादोमिः ।। युक्तिशतरत्नरम्यो, जैनागमजलनिर्जियति ॥ ६॥ श्रीजैनशासननभस्तलतिग्मरश्मिः, __ श्रीसद्मचान्द्रकुलपद्मविकाशकारी । खज्योतिरावृतदिगम्बरडम्बरोऽभूत् , श्रीमान् धनेश्वरगुरुः प्रथितः पृथिव्याम् ॥ ७ ॥ श्रीमच्चैत्रपुरैकमण्डनमहावीरप्रतिष्ठाकृत स्तस्माच्चैत्रपुरप्रबोधतरणेः श्रीचैत्रगच्छोऽजनि । तत्र श्रीभुवनेन्द्रसूरिसुगुरुर्भूभूषणं भासुर ज्योतिःसद्गुणरत्नरोहणगिरिः कालक्रमेणाभवत् ॥ ८॥ तत्पादाम्बुजमण्डनं समभवत् पक्षद्वयीशुद्धिमान् , नीर-क्षीरसदृक्षदूषण-गुणत्याग-ग्रहैकव्रतः । कालुष्यं च जडोद्भवं परिहरन् दूरेण सन्मानस स्थायी राजमरालवद् गणिवरः श्रीदेवभद्रप्रभुः ॥ ९॥ 30 Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७११ षष्ठ उद्देशः। शस्याः शिष्यास्त्रयस्तत्पदसरसिरुहोत्सङ्गशृङ्गारभृङ्गा, विध्वस्तानङ्गसङ्गाः सुविहितविहितोत्तुङ्गरङ्गा बभूवुः । तत्राद्यः सच्चरित्रानुमतिकृतमतिः श्रीजगचन्द्रसूरिः, श्रीमद्देवेन्द्रसूरिः सरलतरलसच्चित्तवृत्तिर्द्वितीयः ॥ १० ॥ तृतीयशिष्याः श्रुतवारिवार्धयः, परीषहाक्षोभ्यमनःसमाधयः । जयन्ति पूज्या विजयेन्दुसूरयः, परोपकारादिगुणौघभूरयः ॥ ११ ॥ प्रौढं मन्मथपार्थिवं त्रिजगतीजैत्रं विजित्यैयुषां, येषां जैनपुरे परेण महसा प्रक्रान्तकान्तोत्सवे । स्थैर्य मेरुरगाधतां च जलधिः सर्वसहत्वं मही, सोमः सौम्यमहर्पतिः किल महत्तेजोऽकृत प्राभृतम् ॥ १२ ॥ वापं वापं प्रवचनवचोबीजराजी विनेय क्षेत्रवाते सुपरिमलिते शब्दशास्त्रादिसीरैः । यैः क्षेत्रज्ञैः शुचिगुरुजनाम्नायवाक्सारणीभिः, सिक्त्वा तेने सुजनहृदयानन्दि सज्ज्ञानसस्यम् ॥ १३ ॥ यैरप्रमत्तैः शुभमन्त्रजापै बेतालमाधाय कलिं खवश्यम् । अतुल्यकल्याणमयोत्तमार्थ सत्पूरुषः सत्त्वधनैरसाधि ॥ १४ ॥ किं बहुना ? ज्योत्स्नामञ्जुलया यया धवलितं विश्वम्भरामण्डलं, या निःशेषविशेषविज्ञजनताचेतश्चमत्कारिणी । तस्यां श्रीविजयेन्दुसूरिसुगुरोर्निष्कृत्रिमाया गुणश्रेणेः स्याद् यदि वास्तवस्तवकृतौ विज्ञः स वाचांपतिः ॥ १५ ॥ तत्पाणिपङ्कजरजःपरिपूतशीर्षाः, शिप्यास्त्रयो दधति सम्प्रति गच्छभारम् । १°तधीपयोधयः, भा० ॥२ °त्येयु भा० ॥ ३ °ल लसत्तेजो भा० ॥ ४ यैश्चान्द्ररिव धामभिर्धवलितं विश्वम्भरामण्डलं, ये निःशेष विशेषविज्ञजनताचेतश्चमत्कारिणः । तेषां श्रीविजयेन्दसूरिसुगरोनिष्क्रत्रिमाणां गण ग्रामाणां यदि वास्तवस्तवकृतौ विज्ञो भवेद् गीपतिः ॥१५॥ भा०॥ ५ तत्पादपङ्कजरजःपरिपिञ्जराङ्गाः, शिप्या भा० ॥ 25 Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 15 १७१२ इह च - ततः--- सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिकं वृहत्कल्पसूत्रम् ! - श्रीवज्रसेन इति सद्गुरुरादिमोऽत्र, श्रीपद्मचन्द्रगुरुस्तु ततो द्वितीयः ॥ १६ ॥ तार्तीयकस्तेषां विनेयपरमाणुरनणुशास्त्रेऽस्मिन् । श्री क्षेमकीर्तिसूरिर्विनिर्ममे विवृतिमल्पमतिः ॥ १७ ॥ श्रीविक्रमतः क्रामति, नयनामिगुणेन्दुपरिमिते १३३२ वर्षे । ज्येष्ठश्वेतदशम्यां समर्थितैषा च हस्तार्के ॥ १८ ॥ प्रथमादर्शे लिखिता, नयप्रभप्रभृतिभिर्यतिभिरेषा । गुरुतरगुरुभक्ति भरोद्वहनादिव नम्रतशिरोभिः ॥ १९ ॥ सूत्रादर्शेषु यतो, भूयस्यो वाचना विलोक्यन्ते । विषमाश्च भाष्यगाथाः, प्रायः खल्पाश्च चूर्णिगिरः ॥ २० ॥ सूत्रे वा भाष्ये वा, यन्मतिमोहान्मयाऽन्यथा किमपि । लिखितं वा विवृतं वा, तन्मिथ्या दुष्कृतं भूयात् ॥ २१ ॥ ॥ समाप्तोऽयं ग्रन्थः ॥ ॥ ग्रन्थाग्रम् - ४२६०० ॥ १ ज्येष्ठे श्वेतनवम्यां, भा० ॥ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टानि प्रथमं परिशिष्टम् मुद्रित स्य नियुक्ति-भाष्य-वृत्त्युपेतस्य बृहत्कल्पसूत्रस्य विभागाः गाथाः विभाग अधिकारी पत्राणि प्रथमो विभागः १-८०५ पीठिका १-२५४ द्वितीयो विभागः ८०६-२१२४ प्रलम्बप्रकृत-मासकल्पप्रकृतपर्यन्तो नवसूत्रात्मकः प्रथम उद्देशकः २५५-६१० तृतीयो विभागः २१२५-३२८९ मासकल्पप्रकृतानन्तरवर्ती समग्रः प्रथम उद्देशकः ६११-९२२ चतुर्थो विभाग ३२९०-४८७६ द्वितीय-तृतीयाबुद्देशको ९२३८-१३०६ पञ्चमो विभागः ४८७७-६०५९ चतुर्थ-पञ्चमावुद्देशको १३०७-१६०० षष्ठो विभागः ६०६०-६४९० षष्ठ उद्देशकः उपोद्घात-परिशिष्टादिकं च १६०१-१७१२ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयं परिशिष्टम् .. बृहत्कल्पसूत्रस्य नियुक्ति-भाष्य-चूर्णि-विशेषचूर्णि-वृत्तिकृद्भिनिर्दिष्टानां प्रकृतनाम्नां सूत्रनाम्नां चानुक्रमणिका । विभागः पत्रादि १६३३ م सूत्रनाम अक्षिसूत्र अग्निसूत्र अटुजाय (सुत्त) अधिकरणसूत्र सूत्रस्थलम् उ० ६ सू० ६ उ० २ सू० ६-७ उ० ६ सू० १८ उ०१ सू० ३.४ ه 444 م س ک १६५९ (गा० ६२८५) ९०६ १५१५ (टि. १) । १४७३ ३२१,३३१ ک उ० ४ सू० ३० उ० १ सू० ४६ अध्वसूत्र له س ه م س م م م م १२८८ १४८७ ६७२ १५८६ १६५९ १३८१ चू० विचू० (टि० २) १५३४,१५३७ १५३७ . .. ९०६ विचू० (टि. २) ९०६ चू० (टि. २) ९०६ (गा० ३२४१) १५८८ م س م अपावृतद्वारोपाश्रयस्त्र अभ्यङ्गनसूत्र अर्थजातसूत्र अविणीयसुत्त असंस्तृतनिर्विचिकित्ससूत्र असंस्तृतविचिकित्ससूत्र अहिकरणसुत्त अहिगरणसुत्त आदिसुस्तआलेपनसूत्र आहारसूत्र आहृतसूत्र भाहृतिकासूत्र इंदिय (सुत्त) इन्द्रियसूत्र उडु (सुत्त) उदकसूत्र उन्मादृप्राप्तासूत्र س उ०१ सू०१४-१५ उ० ५ सू० ४० उ० ६ सू० १८ उ० ४ सू० १० उ० ५ सू०८ उ० ५ सू० ९ उ०१ सू० ३४ उ० १ सू० ३४ उ० १ सू० १-५ उ. ५ सू० ३९ उ० ५ सू० ११ उ. २ सू०१७ ॐ २ सू० १८ उ० ५ स० १३ उ० ५ सू० १३ उ० ४ सू० ३४-३५ उ० २ सू० ५ उ०६ सू० १३ م م ه به نگر نگر १००५. १००८ १५६१ (गा० ५९१९) १५६१,१५६२ १४९९. (गा० ५६६५) ९५२,९५६,९५९ १६५२ کی به م Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयं परिशिष्टम् । विभागः s ss 5 w पत्रादि १४९९,१५०१ १५६३ १५६३ १५६३ (गा० ५९२९) १६७६ १४०५ ११९२,१२३० १६४७ १६३६,१६४४ सूत्रनाम ऋतुबद्धसूत्रद्वय एकपार्श्वशायिसूत्र एकाकिसूत्र . एगपाससायि (सुत्त) कल्पस्थितिसूत्र कालातिकान्तसूत्र कृतिकर्मसूत्र शिप्तचित्तानिर्ग्रन्थीसूत्र क्षिप्तचित्तासूत्र क्षिप्त-दीप्तचिसासूत्र क्षेत्रातिकान्तसूत्र गिलाणसुत्त ग्लानसूत्र g सूत्रस्थलम् उ. ४ सू० ३४-३५ उ० ५ सू० ३० . उ० ५ सू० १५ उ० ५ सू० ३० उ० ६ सू० २० उ० ४ सू० १६ उ. ३ सू. १८ उ० ६ सू० १० उ० ६ सू० १० उ०६ सू० १०-११ उ० ४ सू० १७ उ० ४ सू० १४-१५ उ. ४ सू०१४-१५ o w w w s १४००,१४०५ १३९२ (गा० ५२३६) s 5 w m घटीमात्रसूत्र घडीमत्त (सुत्त) उ. १ सू० १६-१७ उ० १ सू. १६-१७ m m m चरमग (सुत्त) चिलिमिणी (सुत्त) चिलिमिलिकासुत्र छविहकप्पसुत्त ज्योतिःसूत्र m ६६९,९०६ ६६९ (गा० २३६२), ९०६ (गा० ३२४१) ९०६ (गा० ३२४२) ९०६ (गा० ३२४१) ९०६ १३८१ ( गा० ५१९६) ९५१ (टि० २-३-४), ९५२,९६६ १७०५ (गा० ६४८७) उ० १ सू० ५० उ० १ सू. १८ उ० १ सू०१८ उ०४ सू०४-९ उ० २ सू० ६ 5 2 w m उ० ६ सू० २० उ० १ सू० १९ उ० १ ० १९ उ०६ सू० ७ m w w 5 ठिति (सुत्त) दकतीरसूत्र दगतीरग (सुत्त) दुग्गसुत्त दुर्गसूत्र दुस्सन्नप्प (सुत) दुःसंज्ञाप्यसूत्र देवसूत्र देवीसूत्र धान्यसूत्र निर्लोमैसूत्र ९०६ (गा० ३२४२) १६३३ (गा० ६१८२) १६३३ १३८४( गा० ५२११) १३८५ १५१२ १५१२ उ०४ सू० १२ उ० ४ सू० १२ उ० ५ सू०१ उ० ५ सू० ३ उ० २ सू० १-३ 5 5 5 2 2 (?) 1 १ यद्यपि वृत्तिकृता श्रीमता क्षेमकीर्तिप्रभुणा द्वितीयोद्देशके "णेगेसु एगगहणं." इति ३३१७ गाथा. व्याख्यायाम् ( ९३२ पत्रे) "कानिचित्तु सूत्राणि साधूनां साध्वीनां च प्रत्येक विषयाणि । यथेहैव कल्पाध्ययने सलोमसूत्रं निर्लोमसूत्र वा। तद्यथा-नो कप्पइ निग्गंथाणं अलोमाई चम्माईधारितए ( Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयं परिशिष्टम् । विभागः पत्रादि सूत्रस्थलम् उ० २ सू० १८ सूत्रनाम निहतसूत्र । नीहडसुत्त नौसूत्र पङ्कसूत्र परिमन्थसूत्र परिहारिकसूत्र परिहारियसुत्त पलंब (सुत्त) उ० ६ सू० ९ उ० ६ सू० ८ उ० ६ सू० १९ उ. ४ सू० ३१ उ० ४ सू० ३१ उ० १ सू० १ 20rururr mmm उ० ४ सू० २ उ० १ स० ३४ उ. २ सू० ८-१० पाराञ्चिकसूत्र पाहुड (सुत्त) पिंड (सुत्त) पिण्डसूत्र पुरुषसूत्र प्रतिबद्धशय्यासूत्र प्रतिबद्धसूत्र प्रदीपसूत्र २००४,१००५ १००४ ( गा० ३६१६) १६३३,१६३५ १६३३ १६७६ १४८१ १४८१ (गा० ५५९४) २७४ १७०५ ( गा० ६४८७) १३३५ (दि. ३), १३८५ ९०६ (गा० ३२४२) ९६९ (गा० ३४७४) ९५१,९५२,९६९ १५१२ ७३९ ९७६ ९५१ (टि. २-३-४),९५२, ९५९ ३२१,३३१ उ० ५ सू० ४ उ० १ सू० ३०-३१ उ० १ सू० ३१ उ०१ सू० ७ و प्रलम्बप्रकृत उ० १ सू० १-५ به سم प्रलम्बसूत्र उ० १ सू० १ به ९२४ م سم م प्राभृतसूत्र प्रायश्चित्तसूत्र मरणसूत्र मासकप्प (सुत्त): मासकल्पप्रकृत उ० १ सू० ३४ उ० ६ सू० १६ उ. ४ सू० २९ उ० १ सू० ६-९ उ०१ सू० ६-९ م م ९०६ १६५७ १४८१ १७०४ ( गा० ६४८२) ३२२,५९४ ६१२,७७५,७७६,९०६ ९२५,९७४,११६२,१२९४ १६९९ (टि० ४), १७०४ له س ه م | कप्पइ निग्गंथाणं सलोमाइं चम्माइंधारित्तए (उ. ३ सू. ४)। नो कप्पइ निग्गंथीणं सलोमाई चम्माई धारितए (उ० ३ सू० ३)। कप्पर निग्गंधीणं अलोमाइं चम्माई धारित्तए ( इत्येवंरूपेण निर्लोमसूत्रयुगलमुल्लिखितं वरीवृत्यते । किञ्च नैतत्सूत्रयुग्मं कस्मिंश्चिदपि सूत्रादर्श निरीक्ष्यते, नापि भाष्यकृता चूणिकृता वृहद्भाष्यकृता चाप्यङ्गीकृत व्याख्यात वा विभाव्यते। अपि च द्वितीयोद्देशके भगवता वृत्तिकृता सकृन्निष्टङ्कितमपि निर्लोमसूत्रयुगं नैव तृतीयोद्देशके चर्मप्रकृतव्याख्यानाघसरे स्थानापन्नमपि स्वीकृतं व्याख्यातं संसूचितं वेति किमत्रार्थे प्रमादः सूरेः उतान्यत् किमपि कारणान्तरमिति न सम्यगाकलयामः । अत एव च नैतत्सूत्रस्थलं निर्दिष्टमत्रास्माभिरिति । Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयं परिशिष्टम् । विभागः م सूत्रनाम मोकसूत्र मोय (सुत्त) म्रक्षणसूत्र सूत्रस्थलम् उ० ५ सू० ३७ उ० ५ मू०३७ उ० ५ सू० ४० م पत्रादि १५७८ १५७८ (गा० ५९७६) १५८७,१५८८,१५९० (टि०२) १६५१,१६५२ ९०६ (गा० ३२४२) م م م यक्षाविष्टासूत्र रच्छा (सुत्त) रथ्यामुखापणगृहादिसूत्र रात्रिभक्तसूत्र उ० ६ भू० १२ उ० १ सू० १२-१३ उ० १ सू० १२-१३ उ० १ ० ४२-४३ م ९०६ س ८४०,८६२,८७५ (दि. २-४); १३२७ ک ک १३०८ रोधकसूत्र वगडा (सुत्त) उ० ३ सू० ३० उ०१ सू० १०-११ س س ७४८ (गा० २६६७), ९०६ (गा० ३२४२) ६४९,७४८,९०६ ९०६ (गा० ३२४१) १४९९,१५०१ १२३० س उ. म. م ه वगडासूत्र वस्यादिचत्तारि (सुत्ताणि) उ० १ सू० ३८-४१ वर्षावाससूत्रद्वय उ० ४ सू० ३६-३७ वस्त्रपरिभाजनसूत्र उ. ३ सू० १६ वनादिसूत्र उ०१ सू० ३८-४१ विकटसूत्र उ. २ सू० ४ विष्वरभवनसूत्र उ. ४ सू० २९ विसुंमणसुत्त उ. ४ सू० २९ س ه م م ९५२,९५६ १४५८,१४८१ १४५८ (गा० ५४९७), १४८१ (गा० ५५९५) १४५८ (गा०५४९७ टि०३) ७७८ (गा. २७५९) م س س م ع م م विस्संभणसुत्त वेरजविरुद्धसुत्त उ०१ सू० ३७ वैराज्यविरुद्धराज्यसूत्र उ०१ सू० ३७ श्रोतःसूत्र उ० ५ स० १४ षड्विधकल्पसूत्राणि उ. ४ सू० ४-९ षड्विधकल्पस्थितिसूत्र पट्टिधसचित्तद्रव्यकल्पसूत्राणि उ०४ सू० ४-९ समवसरणसूत्र उ. ३ सू० १५ समोसरणसुत्त . सलोमसूत्र उ. ३ सू० ३-४ संस्तृतनिर्विचिकित्ससूत्र उ० ५ सू०६ संस्तृतविचिकित्ससूत्र उ० ५ सू० ७ सागारिकसूत्र उ. १ स. २२-२९ १५६१,१५६२ १३८१ १७०५,१७०६ १३८० ११४९,११६४ ११४९ (गा०४२३५) ९३२ ه ه ه ک کی سم १५३३,१५३४ ६९६,९०६ १३२२ تم Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयं परिशिष्टम् । सूत्रस्थलम् विभाग: س م उ. ६ सू०१५ उ०१ सू० २५-२९ उ. ३ सू० ३० س ه सूत्रनाम सागारियसुत्त साधिकरणसूत्र सारिय (सुत्त) सेणासुत्त सेनासूत्र सोय (सुत्त) स्त्रीसूत्र हरियाहडिया (सुस) हृताहृतिकासूत्र पत्रादि ९०६ विचू० (टि० २) १६५७ ९०६ (गा० ३२४२) १२८८ (गा० ४७९५) १२८८ १५६१ (गा० ५९१९) १५१२ १०९४ (गा० ३९९३) ८५६ (दि. २) १०९४ ه گر م उ० ५ ० १४ उ०५ सू०३ उ०१ सू० ४५ उ० १ सू० ४५ ه س به - Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयं परिशिष्टम् समग्रस्य बृहत्कल्पसूत्रस्य प्रकृतनानां सूत्रनाम्नां तद्विषयस्य चानुक्रमणिका । प्रथम उद्देशकः सूत्रम् प्रकृत-सूत्रयो नी विषयश्च पत्रम् प्रलम्बप्रकृतम् २५६-३४० १ निम्रन्थ-निर्ग्रन्थीविषयकम् अभिन्न-आमतालप्रलम्बसूत्रम् २ निर्ग्रन्थ-निम्रन्थीविषयकं भिन्न-आमतालप्रलम्बसूत्रम् ३ निर्ग्रन्थविषयकं भिन्न-अभिन्नपक्वतालप्रलम्बसूत्रम् ४ निम्रन्थीविषयकं अभिन्नपक्वतालप्रलम्बसूत्रम् ५ निम्रन्थीविषयकं भिन्नपक्वतालप्रलम्बसूत्रम् मासकल्पप्रकृतम् ३४१-६१० ६-७ निम्रन्थविषयके मासकल्पसूत्रे ८-९ निर्ग्रन्थीविषयके मासकल्पसूत्रे १०-११ वगडाप्रकृतम् ६११-५० १०-११ निर्ग्रन्थ-निम्रन्थीविषयके वगडासूत्रे १२-१३ आपणगृहरथ्यामुखादिप्रकृतम् ६५१-५९ १२ निर्ग्रन्थीविषयकम् आपणगृहरथ्यामुखादिसूत्रम् १३ निर्मन्थविषयकम् आपणगृहस्थ्यामुखादिसूत्रम् १४-१५ १४-१५ अपावृतद्वारोपाश्रयप्रकृतम् पावर ६५९-६९ १४ निम्रन्थीविषयकम् अपावृतद्वारोपाश्रयसूत्रम् १ यद्यपि भाष्यकृता वृत्तिकृता चापि ३२४१-४२ भाष्यगाथायां तद्याख्यायां च एतत्प्रकृतसूत्र 'रथ्यामुखापणगृहादिसूत्र'त्वेनोल्लिखितं (दृश्यतां पत्रं ९०६ ) तथाप्यस्माभिरिदं प्रकृतं प्रथमोद्देशकसत्क १२-१३ सूत्र-२२९७-९८ भाष्यगाथा-तद्व्याख्यादिप्रामाण्यमधिकृत्य 'आपणगृहरथ्यामुखादि. प्रकृत'तया निर्दिष्टमिति ॥ २ एतत्प्रकृताभिधानस्थलेऽस्माभिर्विस्मृत्या अपावृतद्वारोपाश्रय प्रकृतम् इति मुदितं वर्तते तत्र स्थाने आपणगृहरथ्यामुखादिप्रकृतम् इति वाचनीयम् ॥ ३ एतत्प्रकृतस्यारम्भः २३२५ भाष्यगाथावृत्तेरनन्तरं सूत्रम् इत्यस्य प्राग् विज्ञेयः । अत्रान्तरे॥ आपणगृहरथ्यामुखादिप्रकृतं समाप्तम् ॥ अपावृतद्वारोपाश्रयप्रकृतम् इति ज्ञेयम् ॥ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् पत्रम् २०-२१ तृतीयं परिशिष्टम् । प्रकृत-सूत्रयोर्नाम्नी विषयश्च १५ निम्रन्थविषयकम् अपावृतद्वारोपाश्रयसूत्रम् १६-१७ घटीमात्रकप्रकृतम् ६६९-७२ १६ निम्रन्थीविषयकं घटीमात्रकसूत्रम् १७ निम्रन्थविषयकं घटीमात्रकसूत्रम् चिलिमिलिकाप्रकृतम् ६७२-७६ १८ निम्रन्थ-निर्ग्रन्थीविषयकं चिलिमिलिकासूत्रम् दकतीरप्रकृतम् ६७६-८९ १९ निम्रन्थ-निर्ग्रन्थीविषयकं दकतीरसूत्रम् चित्रकर्मप्रकृतम् । ६८९-९१ २० निम्रन्थ-निर्ग्रन्थीविषयकं सचित्रकर्मोपाश्रयसूत्रम् २१ निर्मन्थनिर्मन्थीविषयकम् अचित्रकर्मोपाश्रयसूत्रम् सागारिकनिश्राप्रकृतम् ६९१-९५ २२-२३ निम्रन्थीविषयके सागारिकनिश्रास्त्रे २४ निर्मन्थविषयकं सागारिकनिश्राऽनिश्रासूत्रम् सांगारिकोपाश्रयप्रकृतम् ६९५-७२६ २५ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीविषयकं सागारिकोपाश्रयसूत्रम् २६ निर्ग्रन्थविषयकं स्त्रीसागारिकोपाश्रयसूत्रम् २७ निर्मन्थविषयकं पुरुषसागारिकोपाश्रयसूत्रम् २८ निर्ग्रन्थीविषयकं पुरुषसागारिकोपाश्रयसूत्रम् २९ निर्ग्रन्थीविषयकं स्त्रीसागारिकोपाश्रयसूत्रम् प्रतिबद्धशय्याप्रकृतम् ७२७-३८ ३० निम्रन्थविषयकं प्रतिबद्धशय्यासूत्रम् ३१ निम्रन्थीविषयकं प्रतिबद्धशय्यासूत्रम् गृहपतिकुलमध्यवासप्रकृतम् ७३८-५० ३२ निर्ग्रन्थविषयकं गृहपतिकुलमध्यवाससूत्रम् ३३ निर्ग्रन्थीविषयकं गृहपतिकुलमध्यवाससूत्रम् . १ एवत्प्रकृतं निधाप्रकृतम् इति नाम्नाऽपि उच्येत ॥ २ एतत्प्रकृतसत्कसूत्राणि सूत्र-भाष्य विशेषचूर्णि-वृत्तिद्भिः 'सागारिकसूत्र' नाम्ना निर्दिष्टानि वरीवृत्यन्ते । दृश्यता पत्रम् ६९६, ९०६ ( गाथा ३२४२), ९०६ (टि० २), १३२२ प्रमृति ॥ ३ यद्यप्यत्र स्थाने मूले गाथापति० इति मुद्रितं वर्तते तथापि तत्र गृहपति० इत्येव ज्ञेयम् ॥ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् पत्रम् ३५-३६ ४२-४३ तृतीयं परिशिष्टम् । प्रकृत-सूत्रयोर्नाम्नी विषयश्च व्यवशमनप्रकृतम् ३४ भिक्षुविषयकं व्यवशमनसूत्रम् चारप्रकृतम् ७७०-७८ ३५-३६ निम्रन्थ-निर्ग्रन्थीविषयके चारसूत्रे वैराज्यविरुद्धराज्यप्रकृतम् ७७८-८७ ३७ निम्रन्थ-निर्ग्रन्थीविषयकं वैराज्यविरुद्धराज्यसूत्रम् अवग्रहप्रकृतम् ७८८-८०१ ३८-३९ निर्ग्रन्थविषयके वस्त्राद्यवग्रहसूत्रे ४०-४१ निर्ग्रन्थीविषयके वस्त्राद्यवग्रहसूत्रे रात्रिभक्तप्रकृतम् ४२-४३ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीविषयके रात्रिभक्तसूत्रे रोत्रिवस्त्रादिग्रहणप्रकृतम् | ८३९-४७ ४४ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीविषयकं रात्रिवस्त्रादिग्रहणसूत्रम् हरियाहडियाप्रकृतम् ८४८-५६ ४५ निर्मन्थ-निम्रन्थीविषयकं हरियाहडियासूत्रम् अध्वप्रकृतम् ८५६-८० ४६ निम्रन्थ-निर्ग्रन्थीविषयकम् अध्वसूत्रम् सङ्घडिप्रकृतम् ८८१-९७ ४७ निम्रन्थ-निर्ग्रन्थीविषयकं सङ्खडिसूत्रम् विचारभूमीविहारभूमीप्रकृतम् ८९७-९०५ ४८ निम्रन्थविषयकं विचारभूमीविहारभूमीसूत्रम् ४९ निम्रन्थीविषयकं विचारभूमीविहारभूमीसूत्रम् आर्यक्षेत्रप्रकृतम् ९०५-२२ ५० निम्रन्थ-निर्ग्रन्थीविषयकम् आर्यक्षेत्रसूत्रम् ४४ ४८-४९ १ एतत्प्रकृतसूत्रं भाष्यकृता 'प्राभृतसूत्र' नाम्नाऽज्ञापि (दृश्यतां गाथा ३२४२), चूर्णि-विशेषचूर्णियां पुनः 'प्राभृतसूत्र' समानार्थकेन 'अधिकरणसूत्रम्' इति नाना उदलेखि, अस्माभिस्तु सूत्राशयौचित्यमनुसृत्य व्यवशमनप्रकृतम् इति नाम्ना निरटङ्कि इति ॥ २ यद्यप्यत्र वस्त्रप्रकृतम् इति मुद्रितं वर्तते तथाप्यत्र रात्रिवस्त्रादिग्रहणप्रकृतम् इति बोद्धव्यम् ॥ ३ हरियाहडियाप्रकृतम् इत्यस्मिन् प्राकृतनामनि हृताहृतिकाप्रकृतम् हरिताहृतिकाप्रकृतम् चेत्युभे अपि शासकृदभिमते नानी अन्तर्भवतः ॥ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० सूत्रम् तृतीयं परिशिष्टम् । प्रकृत-सूत्रयो नी विषयश्च द्वितीय उद्देशकः पत्रम ' उपाश्रयप्रकृतम् ९२३-७९ १-३ निम्रन्थ-निम्रन्ध्युपाश्रयोपघातविषयाणि बीजसूत्राणि . ४ निम्रन्थ-निर्ग्रन्ध्युपाश्रयोपघातविषयकं विकटसूत्रम् ५ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्ध्युपायोपघातविषयकम् उदकसूत्रम् ६ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्ध्युपायोपघातविषयकं ज्योतिःसूत्रम् ७ निर्मन्थ-निर्ग्रन्ध्युपाश्रयोपघातविषयकं घंदीपसूत्रम् ८-१० निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्ध्युपाश्रयोपघातविषयाणि पिण्डादिसूत्राणि ११ निम्रन्थीविषयम् आगमनगृहादिसूत्रम् १२ निर्ग्रन्थविषयम् आगमनगृहादिसूत्रम् सागारिकपारिहारिकप्रकृतम् ९८०-१००४ ५३ सागारिकपारिहारिकसूत्रम् १४ निम्रन्थ-निर्ग्रन्थीविषयम् अनिहतसागारिकपिण्डसूत्रम् १५-१६ निम्रन्थ-निर्ग्रन्थीविषये निहतसागारिकपिण्डसूत्रे आहृतिकानिहतिकाप्रकृतम् . १००४-१०११ १७ [ निम्रन्थ-निर्ग्रन्थीविषयकम् ] आहृतिकासूत्रम् १८ [ निम्रन्थ-निम्रन्थीविषयकम् ] निर्हतिकासूत्रम् __ अंशिकाप्रकृतम् १०१२-१४ १९. [ निम्रन्थ-निर्ग्रन्थीविषयकम् ] अंशिकासूत्रम् पूज्यभक्त-उपकरणप्रकृतम् २०-२३ [ निम्रन्थ-निर्ग्रन्थीविषयाणि ] पूज्यभक्तोपकरणसूत्राणि उपधिप्रकृतम् १०१७-२० २४ निम्रन्थ-निम्रन्थीविषयकम् उपधिसूत्रम् .. रजोहरणप्रकृतम् १०२१-२२ २५ निम्रन्थ-निर्ग्रन्थीविषयकं रजोहरणसूत्रम् १७-१८ १ प्रकृतमिदं सोपघातोपाश्रयप्रकृतम् इत्यभिधयाऽपि निर्दिश्येत ॥ २ सूत्राण्येतानि वृत्तिकृता 'धान्यसुत्र' नानोकानीति ( दृश्यता पत्रं ९५२) ॥ ३-४ ज्योतिःसूत्रम् प्रदीपसूत्रम् चेति सूत्रयुगलं वृत्तिकृता 'अग्निसूत्र'लेनापि ज्ञापितं वर्तते (दृश्यतां पत्रं ९५९)॥ ५-६ एतत्सूत्रयुगलं वृत्तिकृता क्रमशः आहृतसूत्रम् निर्दृतसूत्रम् इति संज्ञाभ्यामप्युल्लिखितं दृश्यते ॥ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ तृतीयं परिशिष्टम् । प्रकृत-सूत्रयोर्नाम्नी विषयश्व पत्रम् तृतीय उद्देशकः उपाश्रयप्रवेशप्रकृतम् १०२३-५० १ निम्रन्थविषयकं निर्ग्रन्थ्युपाश्रयप्रवेशसूत्रम् २ निम्रन्थीविषयकं निर्ग्रन्थोपाश्रयप्रवेशसूत्रम् - चर्मप्रकृतम् १०५०-६६ ३ निम्रन्थीविषयक सलोमचर्मसूत्रम् ४ निर्ग्रन्थविषयकं सलोमचर्मसूत्रम् ५ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीविषयकं कृत्स्नचर्मसूत्रम् ६ निम्रन्थ-निर्मन्थीविषयकम् अकृत्स्लचर्मसूत्रम् - कृत्ला -कृत्लवस्त्रप्रकृतम् . . १०६७-७४ ७ निम्रन्थ-निर्ग्रन्थीविषयकं कृत्स्ना-ऽकृत्स्नवस्त्रसूत्रम् भिन्ना-ऽभिन्नवस्त्रप्रकृतम् १०७५-१११८ ८ निम्रन्थ-निर्ग्रन्थीविषयकम् अभिन्नवस्त्रसूत्रम् ९ निम्रन्थ-निम्रन्थीविषयक भिन्नवस्त्रसूत्रम् अवग्रहानन्तका-ऽवग्रहपट्टकप्रकृतम् १९९८-२८ १० निर्ग्रन्थविषयकम् अवग्रहानन्तका-ऽवग्रहपट्टकसूत्रम् ११ निम्रन्थीविषयकम् अवग्रहानन्तका-ऽवग्रहपट्टकसूत्रम् निश्राप्रकृतम् १९२८-३७ १२ निर्ग्रन्थीविषयकं निश्रासूत्रम् त्रिचतुःकृतलप्रकृतम् १३ निम्रन्थविषयकं त्रिकृत्लसूत्रम् १४ निर्ग्रन्थीविषयकं चतुःकृत्स्नसूत्रम् समवसरणप्रकृतम् १९४९-६७ १५ निम्रन्थ-निर्ग्रन्थीविषयकं समवसरणसूत्रम् १ अत्र स्थले निर्ग्रन्थ्युपाश्रयप्रवेशप्रकृतम् इति मुद्रितं वर्तते तत्स्थाने उपाश्रयप्रवेशप्रकृतम् इत्येतावदेव ज्ञातव्यम् ॥ २ अत्र स्थाने कृत्स्नाकृत्स्नप्रकृतम् इति मुद्रितमस्ति तत्स्थाने कृत्स्नाकृत्तवस्त्रप्रकृतम् इत्यवगन्तव्यम् ॥ ३ १०७५ पृष्ठशिरोदेशे सूत्रम् इत्यस्योपरिष्टात् भिन्नाभिन्नप्रकृतम् इत्युल्लेखितव्यम् ॥ ४ अत्र मूले त्रिकृत्स्नप्रकृतम् इति मुदितं वरीयते तत्स्थाने त्रिचतुःकृत्स्नप्रकृतम् इति बोध्यम् ।। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् पत्रम् तृतीयं परिशिष्टम् । प्रकृत-सूत्रयो नी विषयश्च वस्त्रपरिभाजनप्रकृतम् १६ निम्रन्थ-निर्ग्रन्थीविषयकं वस्त्रपरिभाजनसूत्रम् शंय्यासंस्तारकपरिभाजनप्रकृतम् ११८१-९२ १७ निम्रन्थ-निर्ग्रन्थीविषयकं शय्यासंस्तारकपरिभाजनसूत्रम् कृतिकर्मप्रकृतम् ११९२-१२२९ १८ निम्रन्थ-निर्ग्रन्थीविषयकं कृतिकर्मसूत्रम् अन्तरगृहस्थानादिप्रकृतम् १२३०-३३ १९ निम्रन्थ-निर्ग्रन्थीविषयकम् अन्तरगृहस्थानादिसूत्रम् २०-२१ - अन्तरगृहाख्यानादिप्रकृतम् १२३३-४१ ___२०-२१ निम्रन्थ-निर्ग्रन्थीविषयके अन्तरगृहाख्यानादिसूत्रे २२-२४ शय्यासंस्तारकप्रकृतम् १२४२-५३ २२-२४ निम्रन्थ-निर्ग्रन्थीविषयाणि शय्यासंस्तारकसूत्राणि २५-२९ अवग्रहप्रकृतम् १२५४-८७ २५-२९ निम्रन्थविषयाणि अवग्रहसूत्राणि १२८७-९८ ३० निम्रन्थ-निम्रन्थीविषयकं सेनासूत्रम् क्षेत्रावग्रहप्रमाणप्रकृतम् १२९८-१३०६ ३१ निम्रन्थ-निम्रन्थीविषयकम् क्षेत्रावग्रहप्रमाणसूत्रम् सेनाप्रकृतम् चतुर्थ उद्देशकः aurauerm अनुद्धातिकप्रकृतम् १३०७-२९ १ अनुद्वातिकसूत्रम् १ यद्यप्यत्र यथारत्नाधिकवनग्रहणप्रकृतम् इति मुद्रितं विद्यते तथापि तत्स्थले पत्र १२३० मध्ये वृत्तिकृन्निर्दिष्टं वस्त्रपरिभाजनप्रकृतम् इत्यभिधानं समीचीनतममिति तदेवात्र ज्ञेयम् ॥ २ अन स्थाने यथारत्नाधिकशय्यासंस्तारकग्रहणप्रकृतम् इति मुद्रितं वर्तते तथापि शय्यासंस्तारकपरिभाजनप्रकृतम् इत्येवात्रावबोद्धव्यम् ॥ ३ वृत्तिकृता 'रोधकसूत्र'वेनापि निर्दिष्टवाद् रोधकप्रकृतम् इति नाम्नाऽपीदं प्रकृतमुच्येत ॥ ४ भत्र अवप्रहक्षेत्रप्रमाणप्रकृतम् इति मुद्रितं वर्तते तत्स्थाने क्षेत्रावग्रहप्रमाणप्रकृतम् इत्यवगन्तव्यम् ॥ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ पत्रम् तृतीयं परिशिष्टम् । सूत्रम् प्रकृत-सूत्रयोर्नाम्नी विषयश्च पाराश्चिकमकृतम् १३२९-४९ २ पाराश्चिकसूत्रम् अनवस्थाप्यप्रकृतम् १३४९-६७ ३ अनवस्थाप्यसूत्रम् पंडिधसचित्तद्रव्यकल्पप्रकृतम् १३६७-८१ ४ सचित्तद्रव्यकल्पविषयकम् प्रव्राजनासूत्रम् ५ सचित्तद्रव्यकल्पविषयकम्-मुण्डापनासूत्रम् ६ शिक्षापनासूत्रम् ७ उपस्थापनासूत्रम् ८ सम्भोजनासूत्रम् ९ संवासनासूत्रं च वाचनाप्रकृतम् १३८१-८४ १० वाचनाविषयम् अविनीतादिसूत्रम् ११ वाचनाविषयं विनीतादिसूत्रम् १२-१३ संज्ञाप्यप्रकृतम् १३८४-९२ १२ दुःसंज्ञाप्यसूत्रम् १३ सुसंज्ञाप्यसूत्रम् ग्लानप्रकृतम् १३९२-९९ १४ निर्ग्रन्थीविषयकं ग्लानसूत्रम् १५ निर्ग्रन्थविषयकं ग्लानसूत्रम् १६-१७ कालक्षेत्रातिक्रान्तप्रकृतम् .. १३९९-१४११ १६ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीविषयकं कालातिकान्तसूत्रम् १७ निम्रन्थ-निम्रन्थीविषयकं क्षेत्रातिक्रान्तसूत्रम् अनेषणीयप्रकृतम् १४१२-१७ १८ निम्रन्थविषयकम् अनेषणीयसूत्रम् कल्पस्थिता-अकल्पस्थितप्रकृतम् १४१७-२४ १९ कल्पस्थिता-ऽकल्पस्थितसूत्रम् २०-२८ गणान्तरोपसम्पत्प्रकृतम् १४२४-५८ २० भिक्षुविषयकं गणान्तरोपसम्पत्सूत्रम् १ अत्र मूले प्रवाजनादिप्रकृतम् इति मुद्रितमस्ति तत्स्थले षड्विधसचित्तद्रव्यकल्पप्रकृतम् इति समवगन्तव्यम् ॥ २ प्रकृतमिदम् उपसम्पत्प्रकृतम् इत्यनेनापि नाम्नोच्येत ॥ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ सूत्रम् २९ ३० ३१ ३२-३३ ३४-३७ १-४ तृतीयं परिशिष्टम् ।. प्रकृत-सूत्रयोर्नाम्नी विषयश्च २१ गणावच्छेदकविषयं गणान्तरोपसम्पत्सूत्रम् २२ आचार्य-उपाध्यायविषयं गणान्तरोपसम्पत्सूत्रम् २३ भिक्षुविषयं सम्भोगप्रत्ययिकं गणान्तरोपसम्पत्सूत्रम् २४ गणावच्छेदकविषयं सम्भोगप्रत्ययिकं गणान्तरोपसम्पत्सूत्रम् २५ आचार्य-उपाध्यायविषयं सम्भोगप्रत्ययिकं गणान्तरोपसम्पत्सूत्रम् २६ भिक्षुविषयकम् अन्याचार्योपाध्यायोद्देशनसूत्रम् २७ गणावच्छेदकविषयम् अन्याचार्योपाध्यायोद्देशनसूत्रम् २८ आचार्य-उपाध्यायविषयम् अन्याचार्योपाध्यायोद्देशनसूत्रम् विष्वग्भवनप्रकृतम् पत्रम् ब्रह्मापायप्रकृतम् १४५८-७३ २९ भिक्षुविषयकं विष्वग्भवनसूत्रम् अधिकरणप्रकृतम् ३० भिक्षुविषयकम् अधिकरणसूत्रम् परिहारिकप्रकृतम् ३१ भिक्षुविषयकं परिहारिकसूत्रम् महानदीप्रकृतम् ३२-३३ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीविषयके महानदी सूत्रे उपाश्रयविधिप्रकृतम् ३४-३५ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीविषयकम् ऋतुबद्धोपाश्रयविधिसूत्रद्वयम् ३६-३७ निर्प्रन्थ-निर्ग्रन्थीविषयकं वर्षावासोपाश्रयविधिसूत्रद्वयम् पञ्चम उद्देशकः १४७३-८० १४८०-८६ १४८७-९८ १४९८- १५०२ १५०३-१३ १ निर्ग्रन्थब्रह्मापायविषयकं देवस्त्रीसूत्रम् २ निर्मन्थब्रह्मापायविषयकं देवीस्त्रीसूत्रम् ३ निर्ग्रन्थीब्रह्मापायविषयकं देवी पुरुषसूत्रम् ४ निर्मन्थीब्रह्मापायविषयकं देवपुरुषसूत्रम् अधिकरणप्रकृतम् ५ भिक्षुविषयकम् अधिकरणसूत्रम् १ अत्र मूले उपाधयप्रकृतम् इति मुद्रितं तथापि तत्र उपाश्रयविधिप्रकृतम् इति ज्ञेयम् ॥ १५१३-२३ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् ६-९ १० ११ १२ १३-३६ तृतीयं परिशिष्टम् । प्रकृत-सूत्रयोर्नाम्नी विषयश्च संस्तुतनिर्विचिकित्सप्रकृतम् ६ भिक्षुविषयकं संस्तृत निर्विचिकित्ससूत्रम् ७ भिक्षुविषयकं संस्तृतविचिकित्ससूत्रम् ८ भिक्षुविषयकम् असंस्तुतनिर्विचिकित्ससूत्रम् ९ भिक्षुविषयकम् असंस्तृत विचिकित्ससूत्रम् उद्गारप्रकृतम् १० निर्ग्रन्थ-निर्मन्थीविषयकम् उद्गारसूत्रम् आहारविधिप्रकृतम् ११ निर्ग्रन्थविषयकम् आहारविधिसूत्रम् पानकविधिप्रकृतम् १२ निर्मन्थविषयकं पानकविधिसूत्रम् ब्रह्मरक्षाप्रकृतम् १३ निर्मन्थीविषयकम् इन्द्रियसूत्रम् १४ निर्ग्रन्थीविषयकं श्रोतः सूत्रम् १५ निर्मन्थीविषयकम् एकाकिसूत्रम् १६ निर्मन्थीविषयकम् अचेलसूत्रम् १७ निर्ग्रन्थीविषयकम् अपात्रसूत्रम् १८ निर्मन्थीविषयकं व्युत्सृष्टकायसूत्रम् १९ निर्मन्थीविषयकम् आतापनासूत्रम् - २० निर्मन्थीविषयकम् - स्थानायतसूत्रम् २१ प्रतिमास्थायिसूत्रम् २२ निषद्यासूत्रम् २३ उत्कटुकासनसूत्रम् २४ वीरासनसूत्रम् २५ दण्डासनमूत्रम् २६ लगण्डशायिसूत्रम् २७ अवाङ्मुखसूत्रम् २८ उत्तानसूत्रम् २९ आम्रकुब्जसूत्रम् ३० एकपार्श्वशायिसूत्रं च ३१ निर्प्रन्थ-निर्ग्रन्थीविषयकम् आकुञ्चनपट्टसूत्रम् ३२ निर्मन्थ-निर्ग्रन्थीविषयकं सावश्रयासनसूत्रम् ३३ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीविषयकं सविषाणपीठफलकसूत्रम् ३४ निर्मन्थ-निर्ग्रन्थीविषयकं सवृन्तालावुसूत्रम् ३५ निर्मन्थ-निर्ग्रन्थीविषयकं सवन्तपात्रकेस रिकासूत्रम् १५ पत्रम् १५२४-३७ १५३७-४५ १५४६-५४ १५५५-६० १५६०-७८ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् पत्रम् ३७ १५७८-८३ तृतीयं परिशिष्टम् । प्रकृत-सूत्रयो नी विषयश्च ३६ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीविषयकं दारुदण्डकसूत्रम् . मोकप्रकृतम् ३७ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीविषयकं मोकसूत्रम् परिवासितप्रकृतम् ३८ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीविषयकम् आहारसूत्रम् ३९ निम्रन्थ-निर्ग्रन्थीविषयम् आलेपनसूत्रम् ४० निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीविषयं म्रक्षणसूत्रम् व्यवहारप्रकृतम् ४१ परिहारकल्पस्थितभिक्षुविषयं व्यवहारसूत्रम् पुलाकभक्तप्रकृतम् ४२ निर्ग्रन्थीविषयकं पुलाकभक्तसूत्रम् १५९२-९५ १५९५-१६०० षष्ठ उद्देशकः वचनप्रकृतम् १६०१-१९ १ निर्मन्थ-निर्ग्रन्थीविषयकं वचनमूत्रम् प्रस्तारप्रकृतम् १६१९-२७ २ प्रस्तारसूत्रम् कण्टकाद्युद्धरणप्रकृतम् १६२७-३३ ३ निर्ग्रन्थसम्बन्धि कण्टकायुद्धरणविषयकं पादसूत्रम् ४ निर्ग्रन्थसम्बन्धि प्राण-बीज-रजआयुद्धरणविषयकम् अक्षिसूत्रम् ५ निम्रन्थीसम्बन्धि कण्टकायुद्धरणविषयकं पादसूत्रम् ६ निर्ग्रन्थीसम्बन्धि प्राण-बीजाद्युद्धरणविषयकम् अक्षिसूत्रम् दुर्गप्रकृतम् १६३३-३६ ७ निम्रन्थीविषयं दुर्गसूत्रम् ८ निर्ग्रन्थीविषयं पङ्कसूत्रम् ९ निर्ग्रन्थीविषयं नौसूत्रम् क्षिप्तचित्तादिप्रकृतम् १६३६-६५ १० निर्ग्रन्थीविषयं क्षिप्तचित्तासूत्रम् १०-१८ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ सूत्रम् पत्रम् तृतीयं परिशिष्टम् । प्रकृत-सूत्रयो नी विषयश्च ११ निम्रन्थीविषयं दीप्तचित्तासूत्रम् १२ निर्ग्रन्थीविषयं यक्षाविष्टासूत्रम् १३ निम्रन्थीविषयं उन्मादप्राप्तासूत्रम् १४ निम्रन्थीविषयम् उपसर्गप्राप्तासूत्रम् १५ निर्ग्रन्थीविषयं साधिकरणासूत्रम् १६ निम्रन्थीविषयं सप्रायश्चित्तासूत्रम् १७ निर्ग्रन्थीविषयं भक्त-पानप्रत्याख्यातासूत्रम् १८ निर्ग्रन्थीविषयम् अर्थजातसूत्रम् परिमन्थप्रकृतम् १९ परिमन्थसूत्रम् कल्पस्थितिप्रकृतम् २० कल्पस्थितिसूत्रम् १६६६-७६ १६७६-१७१२ १ षविधकल्पस्थितिसूत्रनाम्राऽप्येतत्सूत्रं वृत्तिकृता निर्दिष्टमस्ति ( दृश्यता पत्रं १७०५)॥ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिशिष्टम् बृहत्कल्पसूत्रचूर्णि-विशेषचूर्णि-वृत्तिकृद्भिर्विभागशो निर्दिष्टानां नियुक्तिगाथा-सङ्ग्रहगाथा-पुरातनगाथादीना मनुक्रमणिका Occccccccc [प्रस्तुतस्यास्य बृहत्कल्पसूत्राख्यस्य महाशास्त्रस्य नियुक्तिर्भाष्यं चैकग्रन्थत्वेन परिणते स्त इति श्रीमद्भिर्मलयगिरिपादैरस्य बृहत्कल्पसूत्रस्य वृत्तेरुपोद्धाते आवेदितं वरीवृत्यते (दृश्यतां पत्रं २ पतिः १२), अत एव ४६०० श्लोकपरिमितोपलभ्यमानतद्वृत्त्यंशमध्ये न कापि नियुक्तिगाथादिको विभागो निर्दिष्टो विभाव्यते । किञ्च आचार्यश्रीक्षेमकीर्तिपादविहितवृत्त्यंशमध्ये नियुक्तिगाथा-पुरातनगाथा-सङ्ग्रहगाथा-द्वारगाथादिको विभागोऽस्माभिः संशोधनार्थ सञ्चितासु ताटी० मो० ले० त० डे० भा० कां० संज्ञकासु सवृत्तिकस्यास्य बृहत्कल्पसूत्रस्य हस्तलिखितासु सप्तसु प्रतिषु वैषम्येण निरीक्ष्यते, चूर्णी विशेषचूर्णी चाप्येतन्निर्देशो वैषम्येणाकल्यत इति । एतत् सर्वमस्माभिः तत्र तत्र स्थले टिप्पणीरूपेणोल्लिखितमपि विद्वद्वर्गसुखावगमार्थं पुनरत्र सङ्गृह्यत इति] . पत्रम् गाथा गाथाङ्कः मूले मुद्रितो नियुक्तिगाथा- प्रत्यन्तरादिगतो नियुक्तिगाथा ___दिको निर्देशः दिको निर्देशः १८० उद्दिसिय पेह अंतर ६०९ नियुक्तिगाथा सर्वासु प्रतिषु १८६ समणे समणी सावग ६२६ सङ्ग्रहगाथा त० डे० भा० का० नियुक्तिगाथा मो० ले० (टि. ६) १८८ दमए दूभगे भट्टे ६३२ . त० डे० भा० का नियुक्तिगाथा मो० ले० (टि. २) १८९ इत्थी पुरिस नपुंसग ६३७ . त० डे. भा. कां. निर्यक्तिगाथा मो० ले. (टि. ५) १९९ देविंदरायगहवइ. ६६९ सङ्ग्रहगाथा सर्वासु प्रतिषु २०६ गीयस्थो य विहारो ६८८ नियुक्तिगाथा सर्वासु प्रतिषु २०८ एगविहारी भ अजाय. ६९४ नियुक्तिगाथा सर्वासु प्रतिषु (टि. २) २१२ अबहुस्सुए भगीयत्थे ७०३ नियुक्तिगाथा त० डे० . मो० ले. भा. कां० (टि०९) २१३ सत्तरत्तं तवो होइ ७०५ नियुक्तिगाथा सर्वासु प्रतिषु २२७ अभिगए पडिबद्धे ७३३ नियुक्तिश्लोक मो० ले० त० डे. का. सङ्ग्रहगाथा भा० (टि. २) २३२ आहारे उवकरणे ७४७ सङ्ग्रहगाथा सर्वासु प्रतिषु २४९ परिणाम अपरिणामे । ७९२ नियुक्तिगाथा मो.ले.त. डे. का द्वारगाथा भा० (टि. २) राम अजाय. ६९४ नियुक्तिगाथा सवासु प्रतिषु सङ्गगाथा पत्र २१० भा. Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिशिष्टम् । १९ पत्रम् गाथा गाथाङ्कः मूले मुद्रितो नियुक्तिगाथा. प्रत्यन्तरादिगतो नियुक्तिगाथा दिको निर्देश दिको निर्देशः २६० पडिसेहम्मि उ छकं ८१४ नियुक्तिगाथा सर्वासु प्रतिषु २८५ पडिसेहणा खरंटण ८९६ सङ्ग्रहगाथा सर्वासु प्रतिषु २९३ सोऊण य घोसणयं ९२५ भद्रबाहुखामिविरचिता गाथा सर्वासु प्रतिषु २९४ तं काय परिचयई ९३० नियुक्तिगाथा सर्वासु प्रतिषु २९६ देसो व सोवसग्गो ९३७ सङ्ग्रहगाथा सर्वासु प्रतिषु ३०० भायं कारण गाढं ९५१ नियुक्तिगाथा मो. ले. त. डे. का० भा० (टि. १) ३०२ खेतोयं कालोयं ९५८ नियुक्तिगाथा मो० ले. त. डे० का. भा० (टि. ३) ३१८ मरुएहि य दिहतो १०१२ नियुक्तिगाथा सर्वासु प्रतिषु ३२२ विजे पुच्छण जयणा १०२७ नियुक्तिगाथा सर्वासु प्रतिषु ३२३ पउमुप्पल माउलिंगे १०२९ नियुक्तिगाथा सर्वासु प्रतिषु पुरातना गाथा चूर्णी पत्रं ३२५ (पत्रं ३२५ गाथा १०३३ टीकान्तः) (टि०१) ३४४ गावो तणाति सीमा १०९६ नियुक्तिगाथा मो० ले० त० डे० कां० सङ्ग्रहगाथा मा० (दि. ३) ३४७ पढमेस्थ पडहछेदं ११०९ नियुक्तिगाथा मो० ले० त० ____ डे० का० . भा० (टि. १) ३६८ तित्याइसेससंजय ११८५ सङ्ग्रहगाथा सर्वासु प्रतिषु ३९१ उवएसो सारणा चेव १२६६ नियुक्तिश्लोक सर्वासु प्रतिषु ३९९ कंदप्पे ककहए १२९५ सङ्कहगाथा त. डे. भा. का० नियुक्तिगाथा मो० ले. (दि.६) ४०१ नाणस्स केवलीणं १३०२ नियुक्तिगाथा सर्वासु प्रतिषु ४०४ अणुबद्धविग्गहो चिय १३१५ नियुक्तिगाथा सर्वासु प्रतिषु ४०५ उम्मग्गदेसणा मग्ग- १३२१ नियुक्तिगाथा मो० ले० त० डे. मा० का० (टि. १) ४०७ तवेण सत्तेण सुत्तेण १३२८ नियुक्तिगाथा मो० लेत. डे. भा. कां. (टि.१) ४३६ वेयावचगरं बाल १४६४ सङ्ग्रहगाथा सर्वासु प्रतिषु ४४३ देउलिय अणुण्णवणा १४९६ सङ्ग्रहगाथा सर्वासु प्रतिषु ४६४ किं कारणं चमढणा १५८४ नियुक्तिगाथा सर्वासु प्रतिषु ४७३ दवप्पमाण गणणा १६११ सङ्ग्रहगाथा सर्वासु प्रतिपु ४७४ एगो व होज गच्छो १६१५ द्वारगाथा सर्वासु प्रतिपु पुरातनगाथा चू० विचू० (टि० २) ४९२ निरवेक्खो तइयाए १६७० नियुक्तिगाथा मो० ले० त० डे. का० . भा० (दि. १) ४९९ दोन्नि अणुनायाभो १६९७ नियुक्तिगाथा मो० ले० त० डे० पुरातना गाथा भा० चू० विचू० का (टि०१) ५०४ विगई विगइभवयवा १७०८ नियुक्तिगाथा मो० ले० त० डे० . भा० चू० विचू० (टि. ३) ५०८ लेवकडे कायन्नं १७१९ नियुक्तिगाथा मो० ले० त० डे० . भा. (टि. १) कां० क० Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० चतुर्थं परिशिष्टम् । पत्रम् गाथा गाथाङ्कः मूले मुद्रितो नियुक्तिगाथा- प्रत्यन्तरादिगतो नियुक्तिगाथा दिको निर्देशः दिको निर्देशः ५१० संघाडएण एगो १७२६ पुरातनगाथा सर्वासु प्रतिषु ० चू० विचू० (टि. १) ५११ बिइयपय मोय गुरुगा १७३१ नियुक्तिगाथा मो० ले० त० डे० द्वारगाथा भा० (टि० ६) पुरातना कां. गाथा विचू० (टि. ५) ५१९ संजयकडे य देसे १७६१ नियुक्तिगाथा मो० ले० त० दे० पुरातना गाथा भा० का विचू० . (टि० २) ५२४ साहम्मियाण अट्रा १७७४ नियुक्तिगाथा मो० ले० त० डे. पुरातना गाथा भा०का (टि०२) ५३१ एएहिं कारणेहिं १८०१ नियुक्तिगाथा सर्वासु प्रतिपु ५३७ दाऊण अन्नदव्वं १८२६ नियुक्तिगाथा मो० ले० त० डे० . भा० (टि० २) कां० ५४२ गंतूण पडिनियत्तो १८५० नियुक्तिगाथा मो० ले० त० डे० पुरातना गाथा भा० कां० विचू० ___(टि० २) ५४३ दन्वेण य भावेण य १८५४ । नियुक्तिगाथाद्वय मो. ले० तडेको ५४३ सुन्नो चउत्थ भंगो १८५५ . भा० (टि. ४) ५४५ किं उवघातो धोए १८६५ नियुक्तिगाथा मो० ले० . त० डे० भा० कां० (दि. ३) ५६५ कोई मजणगविहिं १९३८ नियुक्तिगाथा मो० ले० पुरातना गाथा त० डे० भा० कां० विचू० (टि. ४) ५६८ उसिणे संसटे वा १९५१ नियुक्तिगाथा मो० ले० सनहगाथा त० डे. मा० कां० (टि. २) ५६९ तिगसंवच्छर तिग दुग १९५४ नियुक्तिगाथा सर्वासु प्रतिषु ५७५ विज्जस्त व दचस्लव १९७३ नियुक्तिगाथा मो० लेत. डे भा० कां० (दि.१) ५८५ मासस्सुवरि वसती २०२३ नियुक्तिगाथा मो० ले. . त० डे० भा० का. (टि. २) ५९७ जत्तो दुस्सीला खलु २०६५ नियुक्तिगाथा मो० ले० त० डे. क० भा० (टि०१) ५९८ जहियं च अगारिजणो २०७२ नियुक्तिगाथा मो० ले० . त० ३० भा० का. (टि. २) ६०१ तरुणीण अभिवणे २०८३ नियुक्तिगाथा मो० ले० त० डे० . भा० का० (टि०१) ६०७ गच्छे जिणकप्पम्मि य २१०१ नियुक्तिगाथा मो० ले.. .. त० डे. भा. कां. (टि०१) ६०७ दिलुतो गुहासीहे २११३ नियुक्तिगाथा मो० ले० त० डे० . भा० का ० (दि. २) ६१४ सोऊण य समुदाणं २१३४ नियुक्तिगाथा ताटी० मो० ले. त. डे. कां. . भा० (टि. १) ६१६ दुविहो य होइ अग्गी २१४५ नियुक्तिगाथा ताटी० मो० ले. त. डे० कां० . भा० (टि. २) ६१७ भावस्मि होइ वेदो २१४९ . ताटी० मो० ले० भा० नियुक्तिगाथा त. डे० का ० (टि. १) ६१८ कोई तस्थ भणिज्जा २१५७ नियुक्तिगाथा ताटी. मो. ले. त० डे० का० . भा० (दि. ३) Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिशिष्टम् । २१ पत्रम् गाथा गाथाङ्कः मुले मुद्रितो नियुक्तिगाथा. प्रत्यन्तरादिगतो नियुक्तिमाया दिको निर्देशः दिको निर्देशः ६२१ इत्थीणं परिवाडी २१६७ नियुक्तिगाथा मो० ले० त० डे० कां० भा० (टि० २) ६२८ वीयाराभिमुहीओ २१९५ नियुक्तिगाथा मो० ले० का० . त० डे० भा० (टि०१) ६३० अद्धाण निग्गयाई २२०७ नियुक्तिगाथा मो० ले० त० डे. कां० . भा० (टि. ४) ६३१ सामायारिकडा खलु २२१० नियुक्तिगाथा सर्वासु प्रतिषु ६३६ एगा व होज साही २२३४ नियुक्तिगाथा मो० ले० द्वारगाथा त० डे० भा० कां. (टि०२) ६४० दोहि वि रहिय सकामं २२४९ नियुक्तिगाथा मो० ले० पुरातनगाथा त. डे० भा० कां० चू० विचू० (टि. ७) ६४२ चिंता य दटुमिच्छह २२५८ नियुक्तिगाथा मो० ले० . त.डे. भा० कां० (टि०७) ६४३ धम्मकहासुणणाए २२६४ नियुक्तिगाथा मो० ले. सङ्ग्रहगाथा त० डे० भा. कां० (टि० ३) पोरातना गाथा विचू० (टि०३) ६५५ ओभावणा कुलघरे २३१३ नियुक्तिगाथा मो० ले० का द्वारगाथा त० डे० भा० (टि. ४) ६६१ पत्थारो अंतो बहि २३३१ नियुक्तिगाथा मो० ले० त० डे. कां. द्वारगाथा भा० (टि०५) ६६६ भद्धाणनिग्गयादी २३५० नियुक्तिगाथा मो० ले० त० डे० का० . भा० (टि०३) ६६७ निग्गंथदारपिहणे २३५३ नियुक्तिगाथा मो० ले० त० डे. भा० का ० (टि०२) ६६७ सिय कारणे पिहिजा २३५५ निर्यक्तिगाथा मो० ले. त० डे. कां. सङ्ग्रहगाथा भा० (दि. ५) ६७४ सागारियसज्झाए २३७८ नियुक्तिगाथा मो० ले० त० डे० सङ्ग्रहगाथा भा० कां० (टि. ७) ६७८ दट्टण वा नियत्तण २३८८ नियुक्तिगाथा मो० ले० त० डे० सङ्ग्रहगाथा भा० का० (टि०६) ६८१ चंकमणं निलेवण २३९५ नियुक्तिगाथा मो० ले० त० डे० द्वारगाथा का० (टि०१) भा० (पत्र ६८० टि०७) ६८६ आयावण तह चेव उ २४१६ नियुक्तिगाथा मो० ले० त० डे० . भा० कां० (दि. ४-५) ६८७ आउट्टजणे मरुगाण २४१८ नियुक्तिगाथा मो० ले० त० डे० . भा० कां० (टि० ३) ६८८ पढमे गिलाण कारण २४२० नियुक्तिगाथा मो० ले० त० डे० . भा० का ० (दि. १) ६९० निहोस सदोसे वा २४२८ नियुक्तिगाथा मो० ले० त० डे० . कां० . भा० (टि. २) ६९६ रूवं आभरणविही २४५१ . मो० ले० त० डे० भा० नियुक्तिगाथा कां० (टि. २) ७०३ पडिसेवणाए एवं २४८२ सङ्ग्रहगाथा मो० ले० त० डे० • भा० नियुक्तिगाथा का ० (टि. ३) ७२९ भावम्मि उ पडिबद्धे २५९२ पुरातना गाथा सर्वासु प्रतिषु चू० च (टि. ४) ७३३ परियारसद्दजयणा २६०८ . सर्वासु प्रतिषु पोराणा गाहा विचू० (टि. २) ७३४ पासवण मत्तएणं २६११ नियुक्तिगाथा सर्वासु प्रतिपु Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ चतुर्थं परिशिष्टम् । पत्रम् गाथा गाथाङ्कः मूले मुद्रितो नियुक्तिगाथा. प्रत्यन्तरादिगतो नियुक्तिगाथा दिको निर्देशः दिको निर्देशः ७५५ अहतिरियउद्दकरणे २६८२ नियुक्तिगाथा सङ्ग्रहगाथा पुरातनगाथा सर्वासु प्रतिषु ७५८ सञ्चित्ते अञ्चित्ते २६९३ नियुक्तिगाथा मो० ले० त० डे० कां० भा० (दि. ५) ७६३ तावो भेदो अयसो २७०८ नियुक्तिगाथा कां० . मो० ले. त० डे० भा० (दि. ३) ७६६ नाम उवणा दविए २७१९ नियुक्तिगाथा सर्वासु प्रतिपु ७७६ आयरिय साहु वंदण २७५२ . मो० ले० त० डे० भा० नियुक्तिगाथा कां० (दि.२) ७९३ एकस्स व एकस्स व २८०६ . मो० ले० त० डे० भा० नियुक्तिगाथा का ० (टि. २) ७९६ लोभेभ आभिओगे २८१७ सङ्घहगाथा सर्वासु प्रतिपु ७९८ कावालिए य भिक्खु २८२२] सहगाथे सर्वासु ७९८ माता पिया य भगिणी२८२३ प्रतिघु ८०५ तं पिय चउन्विहं राइ-२८४९ नियुक्तिगाथा मो० ले. कां० ० त० डे० भा० (टि० ४) ८०७ संखडिगमणे बीओ २८५४ नियुक्तिगाथा मो० ले० त० डे० का . भा० (टि. ३) ८१६ नाण? दंसणट्ठा २८७९ नियुक्तिगाथा सर्वासु प्रतिषु ८१९ एक्के कम्मि य ठाणे २८९३ . मो० ले० त० डे० भा० नियुक्तिगाथा कां० (टि० ३) ८२० अप्पत्ताण निमित्तं २८९५ नियुक्तिगाथा कां० . मो० ले० त० डे. भा० (टि० १) ८२३ असई य गम्ममाणे २९०६ नियुक्तिगाथा मो० ले० त० ___ डे० कां० सङ्ग्रहगाथा भा० (टि० १) ८२४ अद्धाणासंथरणे २९११ . सर्वासु प्रतिषु पुरातना गाथा विचू० (टि. १) ८३१ सब्वे वा गीयत्था २९३६ सङ्ग्रहगाथा सर्वासु प्रतिषु ८३६ भूमिघर देउले वा २९५८ नियुक्तिगाथा मो० ले. त. डे० कां० सङ्ग्रहगाथा भा० (टि. ४) ८४० सत्थे विविधमाणे २९७४ सङ्ग्रहगाथा मो० ले० त० डे० नियुक्तिगाथा का ० (दि. ४) भा० ८४१ सट्टाणे अणुकंपा २९७९ सङ्ग्रहगाथा मो० ले० त० डे. नियुक्तिगाथा कां० (दि. ३) भा० ८४४ खुड़ी थेराणऽप्पे २९८८ . मो० ले० त० डे० भा० नियुक्तिगाथा कां० (टि. ४) ८५१ पंतोवहिम्मि लुद्धो ३०१४ . मो० ले० त० डे० भा० नियुक्तिगाथा कां० (टि० ४) ८५५ अन्नस्स व पल्लीए ३०३३ . मो० ले० त० डे० भा० नियुक्तिगाथा कां० (टि० २) ८६३ रागहोसविमुक्को ३०६६ . मो० ले० त० डे० भा० नियुक्तिगाथा कां० (टि. १) ८६९ भगवयणे गमणं ३०९० . मो० ले० त० डे० भा० नियुक्तिगाथा कां० (टि० २) ८७६ सच्छंदेण य गमणं ३१२३ नियुक्तिगाथा ताटी० मो० ले. सहगाथा भा० (टि. ५) त. डे. कां. ८८३ आदेसो सेलपुरे ३१४९ पुरातनगाथा सर्वासु प्रतिषु ८८८ बहिया य रुक्खमूले ३१६८ नियुक्तिगाथा ताटी० मो० ले० सङ्घहगाथा भा० (टि. १) त० डे० कां० Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिशिष्टम् । पत्रम् गाथा गाथाङ्कः मूले मुद्रितो नियुक्तिगाथा- प्रत्यन्तरादिगतो नियुक्तिगाथा . दिको निर्देशः दिको निर्देशः ८८९ दोसेहिं एत्तिएहिं ३१७३ पुरातना गाथा सर्वासु प्रतिषु ८९० पडिलेहियं च खेत्तं ३१७८ . ताटी० मो० ले० त० डे. भा० नियुक्तिगाथा कां(टि.४) ८९२ जावंतिया पगणिया ३१८४ द्वारगाथा ताटी० मो० ले० त० डे० भा० नियुक्तिगाथा का ० (टि० २) ८९३ कप्पड गिलाणगट्ठा ३१९० . ताटी. मो० ले. त. डे० भा० नियुक्तिगाथा कां० (टि. २) ८९५ न वि लब्भई पवेसो ३१९८ . ताटी० मो० ले० त० डे. भा० नियुक्तिगाथा कां० (टि. ३) पुरातना गाथा विचू० (टि. १) ८९६ भद्धाणनिग्गयादी ३२०२ सङ्ग्रहगाथा ताटी० मो० ले० त० डे० भा० नियुक्तिगाथा कां० (टि० १) ९०८ जो एतं न वि जाणइ ३२४४ . ताटी. मो० ले० त० __डे० भा० नियुक्तिगाथा का ० (टि० ३) ९२६ सालीहिं वीहीहिं ३३०० भद्रबाहुखामिकृता गाथा सर्वासु प्रतिषु पुरातना गाथा विचू० (टि० ७) ९४५ परपक्खम्मि विदारं ३३७६ सङ्ग्रहगाथा सर्वासु प्रतिषु ९५४ गहियम्मि विजा जयणा३४१३ नियुक्तिगाथा ताटी० मो० ले० सङ्ग्रहगाथा भा० (टि. १-३) त० डे० कां० गाहा पुरातना विचू० (टि. २) ९६४ पासे तणाण सोहण ३४५० . सर्वासु प्रतिषु पुरातना गाथा विचू० (टि. १) ९७३ काइय पडिलेह सज्झाए ३४८९ नियुक्तिगाथा ताटी० मो० ले. द्वारगाथा भा० (टि. १-२) त० डे० कां० .(पत्र.९७५ टि०१) (पत्र ९७५ मध्ये ३४९५ गाथाटीकायाम्) ९७८ सुत्तनिवाओ पोराण ३५११ नियुक्तिगाथा सर्वास प्रतिषु ९८६ तिस्थंकरपडिकुट्ठो ३५४० नियुक्तिगाथा ताटी० मो० ले. त० डे० कां. सङ्ग्रहगाथा भा० (दि. ३) ९८९ दुविहे गेलनम्मी ३५५० नियुक्तिगाथा सर्वासु प्रतिषु ९९० पित पुत्त थेरए या ३५५७ . सर्वासु प्रतिषु पुरातना गाथा विचू० (टि. २) ९९१ एगे महाणसम्मी ३५६३ चिरन्तनगाथा सर्वासु प्रतिषु ९९३ दोस विभवोच्छिपणे ३५६८ नियुक्तिगाथा ताटी० मो० ले. सङ्ग्रहगाथा भा० (टि. २) त० डे. कां. पुरातना गाथा विचू० (टि. २) ९९७ वाडगदेउलियाए ३५८६ सङ्ग्रहगाथा सर्वासु प्रतिपु १००० बहिया उ असंसढे ३५९६ ) . सर्वासु प्रतिषु पुराणियाओ गाहाओ नीस?मसंसहो ३५९७ चू० विचू० (टि० ३) अहिटस्स उ गहणं ३५९८ । पाहुणगा वा बाहिं ३५९९) १००३ अद्धामणिग्गयादी ३६१२ सङ्ग्रहगाथा सर्वासु प्रतिधु Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ चतुर्थं परिशिष्टम् । पत्रम् गाथा गाथाकः मूले मुद्रितो नियुक्तिगाथा- प्रत्यन्तरादिगतो नियुकिगाथा दिको निर्देशः दिको निर्देशः १००५ आहडिया उ अभिघरा ३६१७ नियुक्तिगाथा सर्वासु प्रतिषु १००६ संकप्पियं व दवं ३६२१ नियुक्तिगाथा सर्वासु प्रतिषु १०१२ सागारियस्स असिय ३६४४ नियुक्तिगाथा सर्वासु प्रतिषु १०१८ पंच परूवेऊणं ३६६४ पुरातना गाथा सर्वासु प्रतिषु १०३१ पयला निद्द तुय? ३७१४ पुरातना गाथा सर्वासु प्रतिषु १०५१ कुंथुपणगाइ संजमे ३८०९ नियुक्तिगाथा सर्वासु प्रतिषु १०५३ बिइयपय कारणम्मि ३८१५ नियुक्तिगाथा सर्वासु प्रतिषु १०५६ पोस्थग जिण दिéतो ३८२७ नियुक्तिगाथा सर्वासु प्रतिषु १०५८ सुत्तनिवाओ वुड्डे ३८३६ सङ्ग्रहगाथा सर्वासु प्रतिषु १०६० सगल पमाण वण्णे ३८४६ सङ्ग्रहगाथा सर्वासु प्रतिषु १०६५ अकसिणमहारसगं ३८७३ पुरातना गाथा सर्वासु प्रतिषु १०७१ भावकसिणम्मि दोसा ३९०२ सङ्ग्रहगाथा सर्वासु प्रतिषु १०७३ देसी गिलाण जावो. ३९१० सङ्ग्रहगाथा सर्वासु प्रतिषु १०७६ तम्हा उ भिदियव्वं ३९२१ पुरातनगाथा सर्वासु प्रतिषु १०८४ भिन्नम्मि माउगंतम्मि ३९५२ सङ्ग्रहगाथा सर्वासु प्रतिषु १०९८ गुरु पाहुण खम दुब्बल ४००८ सङ्ग्रहगाथा सर्वासु प्रतिषु ११०४ भागर नई कुडंगे ४०३४ सङ्ग्रहगाथा सर्वासु प्रतिषु ११२४ एक्का मुक्का एका ४१२९ नियुक्तिगाथा ताटी० मो० ले. त० डे० का० सङ्ग्रहगाथा भा० (टि. १) ११३० मिच्छत्ते संकादी ४१५३ सङ्ग्रहगाथा सर्वासु प्रतिषु ११३२ नाऊण या परीतं ४१६५ सङ्ग्रहगाथा सर्वासु प्रतिषु ११४५ उजेणी रायगिहं ४२१९ पुरातनगाथा सर्वासु प्रतिषु ११५१ समोसरणे उद्देसे ४२४२ नियुक्तिगाथा ताटी० मो० ले. तडे. कां. सङ्ग्रहगाथा भा० (टि०१) ११६३ गच्छे सबालवुड्ढे ४२९३ सङ्ग्रहगाथा सर्वासु प्रतिषु ११६७ संघाडएण एकतो ४३०९ सङ्ग्रहगाथा सर्वासु प्रतिषु ११७० णेगेहिं आणियाणं ४३१९ सङ्ग्रहगाथा सर्वासु प्रतिषु ११७९ उवरि कहेसि हिहा ४३६१ चिरन्तनगाथा सर्वासु प्रतिषु ११८९ बीभेत एव खुड्डे ४४०२ सङ्ग्रहगाथा सर्वासु प्रतिषु १९९० समविसमा थेराणं ४४०५ पुरातनगाथा सर्वासु प्रतिषु सङ्ग्रहगाथा (११९१ पत्रे) ११९४ आयरिए अभिसेगे ४४२१ सङ्ग्रहगाथा सर्वासु प्रतिषु १२१५ सेढीठाणठियाणं ४५०३ पुरातनगाथा सर्वासु प्रतिषु १२३१ अहवा ओसहहेउं ४५५९ द्वारगाथा ताटी० मो० ले० डे० ___ का सङ्ग्रहगाथा भा० (दि. १) १२३६ एग नायं उदगं ४५७६ नियुक्तिगाथा सर्वासु प्रतिषु १२४३ माइस्स होति गुरुगो ४६०४ सङ्ग्रहगाथा सर्वामु प्रतिपु १२४९ खंते व भूणए वा ४६२६ सङ्ग्रहगाथा सर्वासु प्रतिषु Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ चतुर्थ परिशिष्टम् । पत्रम् गाथा गाथाङ्कः मूले मुद्रितो नियुक्तिगाथा. प्रत्यन्तरादिगतो नियुक्तिगाथा दिको निर्देशः दिको निर्देशः १२५० विजादीहि गवेसण ४६३२ पुरातनगाथा सर्वासु प्रतिषु १२५१ असतीय भेसणं वा ४६३६ पुरातनगाथा सर्वासु प्रतिषु १२५७ चत्तारि गवग जाणंत. ४६६३ सङ्ग्रहगाथा सर्वासु प्रतिषु १२७६ पुटिव वसहा दुविहे ४७४४ नियुक्तिगाथा सर्वासु प्रतिषु १२८१ अब्वावडे कुटुंबी ४७६८ नियुक्तिगाथा सर्वासु प्रतिषु १२८५ देविंदरायउग्गह ४७८४ सङ्ग्रहगाथा सर्वासु प्रतिषु १२८६ भणुकुई भित्तीसुं ४७९० नियुक्तिगाथा सर्वासु प्रतिषु १२८९ संवट्टम्मि तु जयणा ४८०१ नियुक्तिगाथा सर्वासु प्रतिषु १२९१ हाणी जावेकट्ठा ४८११ नियुक्तिगाथा सर्वासु प्रतिषु १२९७ भत्तट्टणमालोए ४८३५ नियुक्तिगाथा ताटी. मो० ले० भद्रबाहुस्वामिकृता गाथा डे. कां. भा० (टि. १) १३०३ जेणोग्गहिता वगा ४८६० सङ्ग्रहगाथा सर्वासु प्रतिषु १३२० पढमाए पोरिसीए ४९३१ नियुक्तिगाथा ताटी. मो० ले. डे. कां . भा.(टि०१) १३२५ सुदुल्लसिते भीए ४९५२ . ताटी० मो० ले० डे० भा० नियुक्तिगाथा कां० (टि० ३) १३३३ सासवणाले मुहणतए ४९८७ नियुक्तिगाथा सर्वासु प्रतिषु १३३६ सब्वेहि वि घेत्तन्वं ४९९८ नियुक्तिगाथा सर्वासु प्रतिषु १३५० साहम्मि तेण्ण उवधी ५०६३ नियुक्तिगाथा सर्वासु प्रतिषु १३५३ पवावणिज बाहिं ५०७३ सङ्ग्रहगाथा सर्वासु प्रतिषु १३६० आयरिय विणयगाहण ५१०६ नियुक्तिगाथा सर्वासु प्रतिपु १३६२ भणुकंपणा णिमित्ते ५११४ नियुक्तिगाथा सर्वासु प्रतिषु १३६४ तइयस्स दोन्नि मोत्तुं ५१२० पुरातना गाथा सर्वासु प्रतिपु १३७६ असिवे ओमोयरिए ५१७२ . ताटी. मो० ले० डे. ____ भा० नियुक्तिगाथा का ० (टि० ३) १३८२ विगह अविणीए लहुगा ५१९१ नियुक्तिगाथा सासु प्रतिपु १३८७ राया य खंतियाए ५२१९ सङ्ग्रहगाथा सर्वासु प्रतिपु १३९५ असईय माउवग्गे ५२४८ पुरातनगाथा सर्वासु प्रतिषु विचू० च (टि०१) १३९७ कुलवंसम्मि पहीणे ५२५४ निर्यक्तिगाथा सर्वासु प्रतिषु १४१६ सेहस्स व संबंधी ५३३२ पुरातनी गाथा सर्वासु प्रतिषु १४३० वच्चंतो वि य दुविहो ५३८६ सङ्ग्रहगाथा ताटी० मो० ले० डे० ___ भा० नियुक्तिगाथा का ० (टि. १) १४८३ विउलं व भत्तपाणं ५६०२ . ताटी० मो० ले० डे. भा० नियुक्तिगाथा का ० (टि. २) १४९० संघट्टणा य सिंचण ५६३१ सङ्घहगाथा सर्वासु प्रतिषु १४९२ संकमथले य णोथल ५६४०। . सर्वासु प्रति पु पुरातनं गाथाद्वयम् विचू० उदए चिक्खल परित्त ५६४१ (टि. १) Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिशिष्टम् । पत्रम् गाथा गाथाङ्कः मूले मुद्रितो नियुक्तिगाथा- प्रत्यन्तरादिगतो नियुक्तिगाथा दिको निर्देशः दिको निर्देशः १५०६ धम्मकह महिड्डीए ५६९१ सङ्ग्रहगाथा सर्वासु प्रत्पुि १५३९ उद्दद्दरे वमित्ता ५८३० नियुक्तिगाथा सर्वासु प्रतिषु (५८३२ गाथाटीकायाम् ) १५४३ तत्तऽस्थमिते गंधे ५८४८ सङ्ग्रहगाथा ताटी० मो० ले० डे. भा० नियुक्तिगाथा कां0 (टि०६) १५५० तम्हा विविंचितव्वं ५८७७ . ताटी. मो० ले० डे. भा० नियुक्तिगाथा का ० (दि. ३) १५५२ बियपद अपेक्खणं तू ५८८५ सङ्ग्रहगाथा ताटी० मो० ले. __ डे० भा० नियुक्तिगाथा का ० (टि० ४ ) १५५३ आउट्टिय संसत्ते ५८९१ सङ्ग्रहगाथा ताटी० मो० ले० डे० ___भा० नियुक्तिगाथा का० (दि. ५) १५८२ दीहाइयणे गमणं ५९९० सङ्ग्रहगाथा ताटी० मो० ले० डे० ___ मा० नियुक्तिगाथा का ० (टि० ३) १६१२ फरसम्मि चंडरुद्दो ६१०२ नियुक्तिगाथा सर्वासु प्रतिपु १६१८ पढम विगिंचणट्टा ६१२१ द्वारगाथा ताटी मो० ले० डे. भा० नियुक्तिगाथा कां० (टि. २) १६५९ सेवगमजा ओमे ६२८७ नियुक्तिगाथा सर्वासु प्रतिषु १६६९ ठाणे सरीर भासा ६३१९ | नियुक्तिगाथाद्वयम् सर्वासु प्रति आणाइणो य दोसा ६३२० १६७२ बिइयपदं गेलण्णे ६३३५ . ताटी० मो० ले० डे० भा० नियुक्तिगाथा कां0 (टि०१) १६८६ अण्णे वि होंति दोसा ६३९३ नियुक्तिगाथा सर्वासु प्रतिषु । १६९१दसणम्मि य वंतमि ६४१४ . ताटी० मो० ले० डे० भा० नियुक्तिगाथा को० (टि. १) उपरिनिर्दिष्टातिरिक्तं प्रभूतेषु स्थलेषु चूर्णि-विशेषचूर्णि-वृत्तिविधातृभिः णिज्जुत्तिणिज्जुत्तिअत्थो-सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिः-नियुक्तिविस्तरःप्रमुखैः पदैः स्थानस्थानेषु नियुक्तिगाथादिको निर्देशः सम-वैषम्येण विहितो निरीक्ष्यते । किञ्च न सम्यक्तया ज्ञायते यत् क यावदेता नियुक्तिगाथा इति तत्तत्स्थानादिको निर्देशोऽत्र विभाग-पत्राङ्क-टिप्पणाङ्कोल्लिखनद्वारेणोड्रियतेणिजुत्ति २-३४३ टि० १ (चू० विचू०); ४-९५३ टि. १ (चू० विचू०), ११२९ टि० ४ ( विचू०) , वृत्तिप्रतिष्वत्र भाष्यकारनिर्देशः ।। णिजत्तिभरथो २-३२५ टि. २ (चू०)। नियुक्तिः ३-६७० (भा० की. भाष्यम् टि०१),६७०.( भा. कां. भाष्यम् टि. ३);४-१२४५ सर्वासु वृत्तिप्रतिषु । Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिशिष्टम् । नियुक्तिगाथाः ३-६१३ सर्वासु वृत्तिप्रतिपु चू० विचू० च (टि०१)। नियुक्ति-भाष्यविस्तरः ४-१०६७ ५-१५९६ सर्वासु वृत्तिप्रतिषु । नियुक्तिविस्तरः २-३२५, ३४३, ३-६९६, ७२७, ७७०, ७७५, ८२८, ८९८, ४-९२४, १००५, १०१२, १११८, १९३९, ११६६, १२४५, १२४७, १२५४, १२७५, १२८०, १२८६, ५-१३०८, १३८२, १३९३, १४००, १४१३, १४१८, १४२५, १४५२, १४५९, १४८१, १४८७, १४९२, १५०१, १५२६, १५३८, १५४७, १५५५, १५६४, १५७८, १५८४, १५९६, ६-१६२१, १६२९; एतेषु स्थानेषु सर्वासु वृत्तिप्रतिषु अयं निर्देशो वर्तते। नियुक्तिविस्तरः ३-६७७ सर्वासु वृत्तिप्रतिषु चू० च (टि० ३), ७३९ टि० २ (चू० विचू०), ७७८ टि० ३ (चू०), ७८९ टि० २ (चू०), ९०७ (भा० भाष्यकृत् टि. ३); ४-९९७ टि० २ (चू०), १०.१ टि० २ (चू. विचू० च) वृत्ति प्रतिषु भाष्यविस्तरः; ५-१५४७ कां० (टि.३);६-१६६७ कां० भाष्यकारः (टि०१), १६६८ का० (दि. ३)। सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिः २-२५७ भा० (टि०१), २६० टि० १ (चू०), २६१ सर्वासु वृत्तिप्रतिषु ; ३-७५३ मो० ले. त. डे. कां. विचू० च (टि.३)। Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमं परिशिष्टम् बृहत्कल्पसूत्रस्य नियुक्ति-भाष्यगाथानामकारादिवर्ण क्रमेणानुक्रमणिका। ه س م مه به गाथा विभागः गाथाङ्कः गाथा विभागः गाथाङ्क: भइगमणमणाभोगे अक्खाइयाउ अक्खा ३ २५६४ अइगमणं एगेणं ५ ५५६२ अक्खाण चंदणे वा ५ ४९०९ अइगमणे अविहीए ३ २९३५ भक्खा संथारो या ४ ४०९९ अइप्पसत्तो खलु एस अस्थो ४ ४५६६ अक्खित्ते वसधीए अइभणिय अभणिए वा ३ २७०९ अक्खुन्नेसु पहेसुं ३ २७३७ भइभारेण य इरियं ४ ४३७० अक्खेवो सुत्तदोसा १ ३२८ अइमुद्धमिदं वुच्चइ ४४५८ अगडे पलाय मग्गण ६ ६२१७ अइय अमिला जहन्ना २५३५ अगणि गिलाणुचारे ५ ५२६५ अइया कुलपुत्तगभोइया ३ २४४१ अगणिं पि भणाति गणिं ६ ६१२४ अइरोग्गयम्मि सूरे अगणी सरीरतेणे ४ ४३५२ अइ सिं जणम्मि वन्नो ४ ३७६१ अगमकरणादगार ४ ३५२२ भउणत्तीसं चंदो २११२९ अगम्मगामी किलिबोऽहवाऽयं ४ ३५९५ अकयमुहे दुप्पस्सा अगविट्ठो मि त्ति अहं ४ ४७२१ भकरंडगम्मि भाणे अगिलाणो खलु सेसो ५ ६०२३ अकसायं खु चरितं २७१२ अगीयत्था खलु साहू ४ ३३३४ अकसायं निव्वाणं ३ २७२९ अगीयस्थेसु विगिंचे ३ २९९८ अकसिणचम्मग्गहणे ४ ३८७२ अगुत्ती य बंभचेरे ३ २५९७ अकसिण भिण्णमभिण्णं ३९१८ टि. ५ भकसिणमट्ठारसगं ३८७३ अग्गहणं जेण णिसिं ४ ३५३७ भकारणा नथिह कजसिद्धी ४ ४४४० अग्गहणे कप्पस्स उ ३ ३०९२ भकारनकारमकारा अग्गहणे वारत्तग ४ ४०६४ अकोविए! होहि पुरस्सरा मे ३२५० अग्गिकुमारुववातो ३ ३२७४ अकुह तालिए वा ३ २७१० भग्गी बाल गिलाणे १ २२४ ५ ५७४३ अग्गीयस्स न कप्पह ४ ३३३२ भक्कोस-तजणादिसु ४९७८ भचियत्तकुलपवेसे ५ ५५६७ अक्खरतिगरूवणया अञ्चंतमणुवलद्धा भक्खरपयाइएहिं १ २९० अच्चंता सामना अक्खर-वंजणसुद्धं ५ ५३७३ । अच्चाउरकजे वा ६ ६३३९ अक्खर सण्णी सम्म अच्चाउर सम्मूढो ५ ५८८६ س ه ه ه س کی یی هه هه Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमं परिशिष्टम् । m 4 4 A n m m m ở to Ý गाथा विभागः गाथाङ्कः गाथा विभागः गाथाङ्क: अच्चाउरं वा वि समिक्खिऊणं ४ ३४१८ अट्टण्हं तु पदाणं ५६०० अच्चाउरे उकजे ५ ६०१७ अट्टविह रायपिंडे ६३८५ अच्चागाढे व सिया २ २०१२ अट्ट सुय थेर अंधल्ल ११५३ अञ्चित्तस्स उगहणं अटुं वा हे वा ६२८२ अञ्चित्तेण अचित्तं अट्ठाइ जाव एकं २ २०३१ अञ्चित्तेण सचित्तं अट्ठाण सद्द आलिं ५ ५९२८ अञ्चित्तेणं मीसं अट्ठारस छत्तीसा अञ्चित्ते वि विडसणा ९८४ अट्ठारस पुरिसेसुं ४३६५ अच्चुक्कडे व दुक्खे ५ ५९८३ अटारसविहऽबंभं २४६५ अञ्चसिण चिकणे वा २ १८२५ अट्ठारस वीसा या ४ ३८९३ अच्छउ महाणुभागो ५ ५०४५ ४ ३८९५ अच्छउ महाणुभावो ५ ५.४५ ४ ३८९७ टि.३ अट्ठारससु पुण्णेसु ६४६५ अच्छंती वेगागी अट्ठारसहिं मासेहिं ६४७८ अच्छंतु ताव समणा अट्ठारसेव पुरिसे ६४४३ अच्छिरुयालु नरिंदो २ १२७७ अट्ठारसेहिं पुण्णेहिं अच्छे ससित्थ चम्विय ५ ५८५५ अट्ठावयम्मि सेले ४७८३ अजहन्नमणुक्कोसो अट्ठिगिमणटिगी वा २६४८ अजंतिया तेणसुणा उति ४ ३५०१ अद्विसरक्खा वि जिया ५९८१ अजियम्मि साहसम्मी अहिं व दारुगादी ३५०३ अजुयलिया अतुरिया १ ४४१ अट्ठी विजा कुच्छित ३ २८२४ अज अहं संदिहो ५ ५०८६ अटेण जीए कजं ६ ६२८६ अजकालिय लेवं १ ४७२ अटेण जीत कर्ज अज्जसुहत्थाऽऽगमणं ३ ३२७७ (दि.१) अजसुहस्थि ममत्ते ३ ३२८२ अडयालीसं एते ४ ४३६६ अज्जस्स हीलणा लजणा अडवीमज्झम्मि गदी ४ ४८७४ भज्जं जक्खाइहूँ ४ ३७३२ अड्डाइजा मासा ५७५७ अजाण तेयजणणं ४ ३७५८ अड्डोरुगा दीहणियंसणादि ४ ४११४ अजाणं पडिकुटुं ४ ३७२४ टि.२ अजियमादी भगिणी ३ २६१० । अड्डोरुगा दीहणियासणादी ४ ४११४ अजो तुम चेव करेहि भागे अड्डोरुगो वि ते दो ४ ४०८६ अज्झयणं वोच्छिजति ५ ५४०२ अड्डोरुतमित्तातो ५ ५६४९ अज्झाविओ मि एतेहिं ५१८४ अणगारा वेमाणिय- पत्र ३६९ प्र० गा०१ अझुसिर झुसिरे लहुओ अणट्ठादंडो विकहा ३ २४९२ अयुसिरऽणंतर लहुओ ५ ४९०३ अणणुण्णाए निकारणे २ १५६० अट्टगहेडं लेवा१ ५२० अणत्थंगयसंकप्पे ५ ५७९७ अट्ठ उ गोयरभूमी अण दंस नपुंसिस्थीअट्ठग चउक्क दुग एकगं २ ८७४ अणप्पज्झ अगणि आऊ ४ ३७२३ अटुट अद्वमासा ५ ५७५२ अणभुट्ठाणे गुरुगा & م ه م م س Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चमं परिशिष्टम् । विभागः गाथाङ्क: م ५ ५७९१] ه س गाथा अणभिगयमाइयाणं अणभोगेण भएण व अण मिच्छ मीस सम्म अणराए जुवराए अणरायं निवमरणे अणवटुंते तह विउ अणवढं वहमाणो अणवटिया तहिं होंति अणवस्थाए पसंगो अणवायमसंलोए س ६ ६४७५ २ १२८१ १२०० م م ه م अणवायमसंलोगा ه ४ ३३९७ ४ ३३४२] ४ ३४२१ ४ ३४८० २ १९७२ २ १९०० . १८७ م م अणहारो मोय छल्ली अणहारो विन कप्पड़ अणाढियं च थद्धं च अणाभोएण मिच्छत्तं अणावायमसंलोए ه م م ३ २८२८ विभागः गाथाङ्कः गाथा अणुदियमणसंकप्पे ३ २८४८ अणुनाए वि सव्वम्मी ३ २७६३ अणुपरिहारिगा चेव ३ २७६४ अणुपालिओ य दीहो ५२४ अणुपुष्यी परिवाडी अणुबद्धविग्गहो चिय ४ ४७७८ अणु बायरे य उंडिय ३ २४९९ अणुभूआ मजरसा अणुभूता धण्णरसा १ ४४३] २०६३ अणुभूया उदगरसा टि.३ अणुभूया पिंडरसा अणुयत्तणा उ एसा अणुयत्तगा गिलाणे ४४७१ अणुयोगो य नियोगो अणुरंगाई जाणे अणुसट्ठाई तत्थ वि अणुसही धम्मकहा २ २०६३ अणुसासण कह ठवणं १ २३४ अणुसासियम्मि अठिए ४ ४०१९ अणुसिट्ठिमणुवरंतं ४ ४६९१ अणुहूया धषणरसा २५० अण्णगणं वचंतो ५११४ अण्णगणे भिक्खुस्सा ५६२२ अण्णगहणं तु दुविहं ४७९१ अण्णत्तो च्चिय कुंटसि ४ ४७९० अण्णं व एवमादी अण्णाइट्टसरीरे ३२८५ ४ ३५२७ अण्णाणे गारवे लुद्धे अण्णेण णे ण कर्ज टि.. अण्णे पाणे वत्थे अण्णोण्णे अक्कमिडं ४ ३३३० ५ ५७९१ अण्णोपणे अंकम्मी . ५ ५७९०] भतडपवातो सोचेव ५ ५८१६ । भतरंतबालवुड्ढे . ६ ६२७२ ६ ६२९१ अणावायमसंलोगा अणिउत्तो अणिउत्ता भणिगूहियबलविरिओ अणिदिट्ट सण्णऽसपणी अणुओगम्मि य पुच्छा अणुओगो य नियोगो अणुकंपणा णिमित्ते भणुकंपा पडिणीया अणुकुहूं उवकुहूं अणुकुड्डे भित्तीसुं अणुग्गयमणसंकप्पे अणुजाणे अणुजाती अणुणविय उग्गहंगण अणुणा जोगऽणुजोगो. ४ ३३९७] ५ ५७८४ ५ ५७५६ २ ८६४ ६ ६१६७ ५ ४९७७ ५५२५ ५५४६ ४०७४ ४ ४१७५ ४ ३५३४ १ ५१२ टि.१ अणुणा जोगो भणुजोगो भणुण्णवण अजतणाए अणुदितमणसंकप्पे ३ २३९० २ १६७२ भणदिय उदिओ किं नु हु Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमं परिशिष्टम् । ३१ विभागः गाथाङ्कः विभाग: गाथाङ्कः । २ १६२० गाथा अस्थि हु वसभग्गामा अत्थुरणट्ठा एगं भरथेसु दोसु तीसु व अदुवा चियत्तकिच्चे ४ ३६६३ ६ ६४२७ ५७४२ ५ ५८४७ mc mms गाथा अतरंतस्स उ जोगाभतवो न होति जोगो अतसीवंसीमादी अतिचारस्स उ असती भतिभणित अभणिते वा अतिभुत्ते उग्गालो अतिरेगगहणमुग्गाअतिसेसदेवतणिमित्तभतेणाहडाण नयणे अत्तट्टकडं दाउं अत्तट्ट परट्ठा वा अत्तट्टियतंतूहिं अत्तणि य परे चेवं अत्तागमप्पमाणेण अत्ताण चोर मेया भत्ताणमाइएK ६ ६४११ ६ ६४१३ ४ ३९२८ ३ २६३९ २६६० ८२ २५७ ४ ४७९८ २ २०४४ mro-2 ४ ४२५० २ १७६६ २ १२५० अदोसवं ते जति एस सद्दो अदाइय ने वयणं अदागदोससंकी भद्दागसमो साहू अद्दारगं अनगरं अद्दिट्ठसड कहणं अहिट्ठस्स उ गहणं अद्दिट्टाओ दिटुं अद्धट्ठ मास पक्खे अद्धद्धं अहिवइणो अद्धाण-ओमादि उवग्गहम्मि अद्धाणणिग्गवादी ३५९८ २४८४ ५७५९ १२१५ ५२१० ४२५३ ३ २७६७ ३ २७६८ ३ २७६९ अद्धाणणिग्गयादी ५ ३६१२ ४ ४२५७ भत्ताणमाइयाणं अत्ताभिप्पायकया अत्थवसा हवई पयं अस्थस्स उग्गहम्मि वि अस्थस्स कल्पितो खलु अस्थस्स दरिसणम्मि वि अस्थस्स वि उवलंभे अस्थस्सुवग्गहम्मि वि अद्धाण निग्गतादी अद्धाण निग्गयाई ४०८ १४७ 00PMr mmmmm NAG १५१५ १८३० २२०७ २२७२ टि. २ १९९१ अस्थंगए वि सिम्वसि भत्थंगयसंकप्पे ३ २६५८ २९८९ ४ ३४४२ ४ ३४४३ ५ ५७९५ ५ ५५०४ २ २०१८ १ १९३ १४० ५ ५१२८ अद्धाण निग्गयादी भरथंडिलम्मि काया भत्थं दो व अदाउं अस्थं भासइ अरिहा अस्थाणंतरचारिं भस्थादाणो ततिओ अस्थाभिवंजगं वंजणअस्थित्ते संबद्धा अस्थि मे घरे वि वत्था अस्थि य मे पुवदिट्ठा अस्थि व से योगवाही mmm २ १८१४ ३ २३२० ३ २३५० ३ २४२३ २४४३ २५४८ २५५० ३ २५८९ १ ६३६ २ १८८० Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ पञ्चमं परिशिष्टम् । गाथा विभाग: गाथाङ्कः गाथा अद्धाणनिग्गयादी ३ ३२०२ ४ ३५०४ विभाग: गाथाङ्कः ४ ३७२७ ६ ६३९० २ ८६३ ३७१७ ३ २३९६ ४ ३५३० अद्धाण पविसमाणा अद्धाण पविसमाणो س ه २ १०२१ टि.१ ३०९६ ३००२ س ه س ه له २ १०४७ १७५० ५७६५ م م م م س ه ه ३ ३०३३ ه ه अनत्थ अप्पसत्था अन्नस्थ एरिसं दुल्लभ अन्नत्थतत्थगहणे अन्नरथ मोय गुरुओ अन्नस्थ व चंकमती अन्नत्थ व सेऊणं अन्नस्थ वा वि ठाउं अन्नत्थ वि जत्थ भवे अन्नन्न दवोभासण अन्नम्मि वि कालम्मि अन्नस्स व असतीए अन्नस्स व दाहामी भन्नस्ल व पल्लीए अन्नस्स वि संदेह अन्नं अभिधारेतुं अन्नं इदं ति पुट्ठा अन्नं च देइ उवहिं अन्नं पिताव तेन्नं अन्नाए आभोगं. अन्नाए तुसिणीया अजाए परलिंग अन्नाण मती मिच्छे अन्नाणे गारवे लुद्धे अनेण घातिए दडुअन्ने दो आयरिया अन्ने वि विद्दवे हिइ अन्ने वि होति दोसा به سم م ५६१८ ३१०५ २८७७ ३४५७ ४८५४ १०२१ ३०४१ ३४५६ ५६६५ ५८२२ २९११ ५३३८ २७५५ ५८९० ५ ५३७८ ४ ४१७२ ३ ३०३१ अद्धाणमणद्धाणे अद्धाणमाईसु उ कारणेसुं अद्धाणमेव पगतं अद्धाणम्मि महंते अद्वाणम्मि व होजा अद्वाणविवित्ता वा अद्भाणसीसए वा अद्धाणं पविसंतो अद्धाणं पि य दुविहं अद्धाणाई अइनिद्दअद्धाणातो निलयं अद्धाणासंथडिए अद्वाणासंथरणे भद्धाणाऽसिव ओमे अद्वाणे उव्वाता अद्धाणे ओमे वा अद्धाणे जयणाए अद्धाणे वत्थवा अद्धाणे संथरणे अद्ध समत्त खल्लग अधवण देवछवीणं अनियताओ वसहीओ अनियत्ता वसहीओ په م م س م سه ت ४ ३७५१ ४ ३४७३ ४ ४८२५ १ १२६ ४ ४०१६ ६ ६१३६ ५ ५७७४ ३ २९५६ له هه ५ ५८३४ ३ २९१३ ३८५४ ४१९३ १४११ یه له ६ ६३९४ ४ ४५०२ २ १५८७ له १४११ टि०२ ६३३३ २०३६ م अन्नेसिं गच्छाणं अन्नो चमढण दोसो अन्नो दुझिहि कलं अन्नोन्नकारेण विनिजरा जा अन्नोन समणुरत्ता अन्नोन्नं णीसाए अन्नो वि अ आएसो به مه अनियाणं निवाणं अन्नउवस्सयगमणे अन्नकुलगोत्तकणं अन्नठवण? जुन्ना अन्नतरझाणऽतीतो अन्नतरऽणेसणिज अन्नतरस्स निओगा भन्नत्तो व कवाडं س २८२५ १६४३ ४ ४४०१ ६ ६१०० ४ ४८६३ ४ ३७४९ ४ ३९६७] ३ २३४६ ४ ३९६७ ४ ३७४९] له م अन्नो वि नूणमभिपड अन्नो वि य आएसो ३ २१४४ ३ २३५१ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा अपच्छिणेतरेसिं अपहिता सोड अपमज्जणा अपचिलेहणा अपरपरिग्गहितं पुण अपराइ मार्ण अपरायत्तं नाणं अपरिग्गहा उ नारी अपरिग्गहिय अभुत्ते अपरिग्गहिय पलंबे अपरिग्गहियागणिया अपरिमिए आरेण वि अपरिस्साई मसिणो अपरिहरतस्से ते अपुब्वपुंसे अवि पेहमाणी अप्पक्खरमसंदिद्धं अप्पगंध महस्थं अप्पचओ अकिती अप्पचय णिग्भयया " अप्पचय वीसत्थ अप्पच्छित्ते य पच्छित्तं अप्प चिरपरिचरणे अप्पडिलेहिय कंटा अप्पडिलेहियदोसा अप्पडिसेधे लडुगा अप्पणी आज से सं अप्पणो की तकडे वा अप्पण्या व गोणी अप्पत्ताण उदितेण अप्पत्ताण निमित्तं अप्पत्ते अकहित्ता 99 39 39 " अप्पत्ते जो उ गमो अप्पत्ते वि भलंभो विभागः गाधाङ्कः ४७१४ १९३० ४५४ ४७७२ ४ २ ง ४ १ २९ टि०१ 9 २९ ५ ५०९९ ३ ३१०४ २ ९२१ ६ ६२८९ २ १६१३ २३६४ ४२९८ ३२३१ ३ ४ पञ्चमं परिशिष्टम् । ३ ง १ २८५ २७७ ७८५ ५०३४ ५१३४ ५७८१ ६४२२ ४७५३ ४ ४३७८ २ १४५३ ५ ५३६७ टि०२ १ ५ ५ ५ ६ ४ ६ ६४५६ ४ ४२०० ५ २३.६ १ ७२४ ३ २४९५ १ ४११ ง ४१५ १ ४७१ 9 ५३१ 9 ६४९ २ ९१३ २ १५९५ गाथा अप्पपरत्तिएणं अप्पपरपरिक्षाओ अप्पविति अप्पतितिया अप्पभुणा उ विदिष्णे अप्पभु लहुओ दिव णिसि अप्पमभि व अध्यरिणामगमरणं अपस्सुवा जे अविकोविता वा अप्पा असंथरंतो अप्पाहारस्स न हूंअप्पुण्यमतिहिकरणे अप्पुन्य विवित्स बहु अप्पुव्वस्स अगणं अप्पुत्रेण तिपुंज अप्पेव सिद्धतमजानमाणो अप्पे वि पारमाणि अप्पोदगा व मग्गा अप्पो व गच्छो महती य साला अप्पोलं मिदुप म्हं च अफासुरण देखे अबहुस्सुअस देह व अब हुस्सुए अगीयत्थे भबहुस्सुताऽविसुद्धं अभत्थितो व रण्णा अभरहियस्स हरणे अम्भ-हिम-वास महिया अब्भासे व वसेज्जा अभितरमज्झबहिं अभितर मालेवो अभितरं च बज्झं अभितरं व बाहि अम्भुजयं बिहार अट्ठाणे असण अट्ठाणे गुरुगा अम्भुट्टा लडुगा अम्भे नदी तलाए अम्भोगमा ओवक्रमा अमणितो कोइ न इच्छ अभतद्वीणं दा विभागः गाधाङ्कः ४ ४४८१ ४ ४०१० ३७४४ ३५६१ ३५५९ १३९० ३०५९ ३६३१ ३९८५ १३३१ ४ ४ ४ २ ३ ४ ४ २ १ ३ 9 9 ૪ ५ २ ५ ४ ง ง १ ४ ५ ३ ५ ४ २ ५ ४ ४ ३३ ५ २ २ ४ २ ५६८ २७५३ ६९९ १०८ ३५३२ ५२०७ १५४० ४९२० ३९७८ ५८५ ७०४ ७०३ ४७३५ ५०५४ २७९० ५८११ ३७८१ ११७८ ६०१४ ३६०४ ३६६६ ४९८१ १९३३ १९३४ ४४१६ १२३९ २ १३८८ २ 1663 9 ५१३ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ पञ्चमं परिशिष्टम् । अभिओगपरज्झस्स हु अभिकंखंतेण सुभाअभिगए पडिबद्धे अभिगमणमणाभोगे विभागः गाथाङ्कः ५ ५३२४ ८०४ ७३३ टि.. १४०१ ५०७८ ४७०३ ५३८१ ५३२८ ५ ३ २२३२ १०४५ ६२७७ ५ ५२१८ ५ ५३७२ २ ११३० ४ ३५१२ ४ ४३१२ ३ २९८३ गाथा विभाग: गाथाङ्क: अयमपरो उ विकप्पो ४ ४४६५ अयसो य अकित्ती या ५१६२ अरहस्सधारए पारए ६ ६४९० भरहंतपइट्ठाए २ १७७६ अरिसिल्लस्स व अरिसा ४ ३८६४ अरे हरे बंभण पुत्ता अलग्भमाणे जतिणं पवेसे भलभंता पवियारं ६ ६३९२ अलऽम्ह पिंडेण इमेण अजो! ४ ३५९४ अलसं घसिरं सुविरं २ १५९२ अलंभऽहाडस्स उ अप्पकम्म ४ ३६७१ अलायं घट्टियं ज्झाई ५ ५९६३ अलियमुवघायजणयं १ २७८ अवणाविंतिऽवणिति व ३ २६६१ भवताणगादि णिलोम ४ ३८३९ अवधीरिया व पतिणा ५ ४९६३ अवयक्खंतो व भया ६ ६३४१ अवरज्जुगस्स य ततो ५ ५५५४ अवरण्हे गिम्ह करणे २ १६८८ अवराह तुलेऊणं ३ २२३३ अवराहे लहुगतरो २ ९२४ भवराहे लहुगयरो ३ २४८८ अवरो फरुसग मुंडो ५ ५०२० अवरो वि धाडिओ मत्तअवरो सुच्चिय सामी ४ ४७६७ अववायाववादोवा ४ ३९०९ अवस्सकिरिया जोगे ४ ४४४७ अवस्सगमणं दिसासु ६ ६०६७ अवहारे चउभंगो ३ २६५७ अवहीरिया व गुरुणा ६ ६२०५ अवाउडं जं तु चउदिसिं पि ४ ३५०० भविओसियम्मि कहुगा अवि केवलमुप्पाडे ५०२४ अविकोविआ उ पुढा ३७८९ अविगीयविमिस्साणं ३ २९४५ अवि गीयसुयहराणं २ १२६४ अवि गोपयस्मि वि पिके ३४९ अविजाणतो पविट्ठो ३ २६६५ अविणीयमादियाणं ५ ५२०० अभिगय थिर संविग्गे अभिग्गहे दटुं करणं अभिधारत वयंतो अभिधारिंतो वञ्चति अभिधारेतो पासस्थअभिनवधम्मो सि अभा. अभिनवनगरनिवेसे अभिनिदुवार[ऽभि] निक्खमगअभिमे महव्वयपुच्छा अभिभवमाणो समणिं अभिभूतो सम्मुज्झति अभिलावसुद्ध पुच्छा अभिवड्डि इकतीसा मभुजमाणी उ सभा पवा वा अमणुण्णकुलविरेगे अमणुण्णेतर गिहिसंजइसु अमणुण्णेयरगमणे अममत्त अपरिकम्मा अमिलाई उभयसुहा अमुइचगं न धारे अमुगरथ अमुगो वच्चति अमुगस्थ गमिस्सामो अमुगदिणे मुक्ख रहो भमुगं कालमणागए अमुगिनगं न भुंजे अम्हच्चयं छूढमिणं किमट्ठा अम्हट्ठसमारद्धे अम्ह वि होहिह कर्ज अम्हं एस्थ पिसादी अम्हं ताव न जातो अम्हे दाणि विसहिमो अम्हे मो निजरट्टी अम्हेहि अभणिओ अप्पणो भम्हेहिं तहिं गएहिं سر م २ १३९१ ३ २५४५ م مه ५३७१ گر سر س ३ २२७० مه له १६१२ ४ ३६११ २ १८४५ २ १७५२ ६ ६२१३ ३ ३०२७ ५ ४९२५ २ १८९० ३ २९४६ २ १८८९ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमं परिशिष्टम् । विभागः गाथाङ्कः ४ ४०५३ २ १६१८ ४ ३५३१ سم २८२१ गाथा भवितहकरणे सुद्धो अविदिपणमंतरगिहे अविदिण्णोवधि पाणा अविदिय जण गम्भम्मि य अविधिपरिटवणाए भविभत्ता ण छिजंति भविभागपलिच्छेदं अविभागपलिच्छेया अविभागेहिं अणंतेहिं سم سم ه س س م ک به २३३२ २९०६ ४१११ २९८७ २९४२ २६०६ ५२४८ ३५१५ २९९५ ३१३४ ३. ३१८२ टि.३ ३१८२ ४४९९ १६१२ س س س ه ه विभागः गाथाङ्कः गाधा असइ तिगे पुण जुत्ते असइ वसहीए वीसुं ४ ३८११ असइ वसहीय वीसुं ४ ४१४० असइ समणाण चोयग ५ ५५४९ असईय कवाडस्सा ४ ३९०८ असईय गम्ममाणे असईय गंतगस्स उ ४ ४५०९ असईय निग्गया खुड असईय पईवस्सा दि. ३ असईय मत्तगस्सा ३ २१७१ भराईय माउवग्गे ३२९२ असईय रुक्खमूले ५ ५६८३ असईय लिंगकरणं ४ ४३४४ असढस्स अपडिकारे ३ २५३२ ३ २५१२ असढस्सऽप्पडिकारे ६ ६४०१ असढेण समाइण्णं २ ९९५ असणाइदब्वमाणे ४ ३८६० असणाईआ चउरो ३ २७६५ असती अधाकडाणं ३ २७९२ असतीए व दवस्स व २ १३०६ असती पवत्तिणीए ३ २५५१ ४ ३६५४ असतीय भेसणं वा २ १५३५ असतोणि खोमिरज २६२६ असरीरतेणभंगे असहातो परिसिल्ल१ ७८८ असहीणे पभुपिंडं ४६५९ असहीणेसु वि साहम्मि४७६८ असहू सुत्तं दातुं ४६८३ असंपाइ महालंदे ५९१७ असंफुरगिलाणट्ठा असंविग्गमाविएसुं ४ ४०७८ असंसयं तं अमुणाण मांग ११३५ असिद्धी जइ नाएणं २ १२८० असिवम्मि णस्थि खमणं ४ ४७५८ असिवं ओम विहं वा ५ ५६६२ | असिवाइकारणेहिं ه ه ه ه अविभूसिओ तवस्सी अवि य अणंतरसुत्ते भवि य तिरिओवसग्गा अवि य हु असहू थेरो अवि य हु इमेहिं पंचहिं अवि य हु कम्मद्दण्णा अवि य हु कम्मदण्णो अवि य हु पुरिसपणीतो अवि य हु सवपलंबा अवि यंबखुजपादेण अविरुद्धा वाणियगा अविरुद्ध भिक्खगतं भवितहणाऽतुरियगई भविसिटुं सागरियं भविसेसिओ व पिंडो भविहीपुच्छणे लहुओ अवि होज विरागकरो अम्वत्तमक्खरं पुण अम्बत्ते अ अपत्ते भब्वाधाए पुणो दाई भवावडे कुटुंबी भन्वाहए पुणो दाति अम्वुकंते जति चाउभन्बोगडा उ तुझं भन्बोगडो उ भणितो अब्बोच्छित्तिनया अब्बोच्छित्ती मण पंचअन्वोच्छिन्ने भावे असइ गिहि णालियाए ه ه م م १६२१ ४१८१ ४१८२ ४६३६ २३७६ _५७६ ५ ५३८४ ४. ३५६५ ४७४० ५०४० २४०३ ३९०७ २९९५ ३२५५ ه م م ه س س له کم ک مه . Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ गाथा असिवाकारणेहिं विभागः गाथाडू ४ ૨૩ ५ ४९२१] ५ ५५४५ २ ५ ५ ५ ४९२१ [ दृश्यताम् " असिवाहूकारणेहिं" गाथा ] असिवादि मीससत्थे ५ ५९३४ ५ ५८९३ ३ ३०६४ ३ ३०६२ ४ ४०५७ २ १०१९ २ १६६५ २ २००२ ' २०३८ ३ २७४१ ५ ५१७२ ६ ६३७४ ५ ५११२ ३ २२६५ ४ ४७०० २ ८८७ २ १२०० ४ ४२८७ ३ २३०१ ३ २६८२ [ असिवाई बहिया कारणेहिं 93 असिवाईसुंकरथा असिवाईहिं गता पुण असिवादिएहिं तु तहिं असिवादिकारणेहिं असिवादी संस असिवे अगम्ममाणे असिवे ओमोदरिए "" असिवे ओमोरिए "" "" 93 "" >> "" असिवे पुरोवरोधे असुमेण अहाभावेण अस्सनी उवसमितो अस्संजयलिंगी हिं सायमाइयाओ अह अत्थि पदवियारो अह अंतरायणो पुण अतिरियउडकरणे 33 अह ते सवालो अहभावविष्परिण अभावेण पसरिया अह माणसिगी गरहा अहमेगकुलं गच्छे अह रन्ना तुरंते अहव अभं जसो अहव जइ अस्थि थेरा अहवण उचावेडं अवण कत्ता सत्था २ ४ 9 ४ पञ्चमं परिशिष्टम् । ६ ५ ३ ५ ३ २ ९५३ ५४४२ ५८६८ ५७३२ १३७१ ३६३२ १०० ४७३७ ६०८६ ५९८८ २४६६ ર २२५२ ९६० गाथा अहवण किं सि अहवण थेरा पत्ता [ अहवण देवरवीणं अहवण पुट्ठा पुवेण अहवण वारिजंतो 19 33 अहवण सविद अहवण सद्वाविभवे अहवण समतलपादो अवण सुते सुते अहव न दोसीणं चिय अहवा अखामियम्मि अहवा अरणा अहवा अणिग्गयस्सा अहवा अणिष्माणमवि अहवा अणुवाओ अहवा अद्वाणविही अहवा अभिश्वसेयी अहवा अविसिद्धं चिय अहवा अंबीभूए अहवा भाणाइविरा अहवा आयाराइसु या आयावाओ अहवा आहारादी अहवा उद्दिस्स कता अहवा एगग्गहणे अहवा भसह हेर्ड अहषा गुरुगा गुरुगा अहवा चडगुरुग चिय अहवा चरिमे लहुओ अहवा घुमेज कोयी अवाज एस कप्पो अहवा जं भुक्खत्तो अहवा जं वा तं वा अहवा जिणप्पमाणा अहवा ततिए दोसो अहवा तत्थ अवाया अहवा तेसि ततियं विभागः गाथा ३ २१३९ ३ २२०५ ४४१९३] २८०७ ४ ३४०५ ४ ३४३२ ४ ३४६० ५ ५३१६ २ १६१० ३ २२५१ ३ २ ३ ४ ५ १ ५ ५ ५ ४ ४ ३ 9 ५ ५ ३ ५ ३२४३ १४८३ ३ ५ २७३३ ++ ५७२० २३८ ५१२५ ५६६६ ५१२७ ४४२५ ४२५४ २४८५ १६८ २ ४ २ ३ २१९१ ३ २१८९ ४ ४७४९ ६ ५ ४ ४४२६ २३५७ ५१७० ३०३९ ५८२७ ५६८४ ५२७८ ४२३९ ८५५ ४५५९ १०४२ ६३५५ ६००२२ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमं परिशिष्टम् । ३७ गाथा विभागः गाथाङ्कः विभाग: गाथाङ्क: गाथा अहिगो जोग निजोगो به ३२९१ २४०६ سر به अहवा निग्गंथीओ अहवा पढमे सुत्तम्मि अहवा पंचण्हं संजईण अहवा पालयतीति अहवा पिंडो भणिओ अहवा बायरबोंदी अहवा बालादीयं अहवा भय-सोगजुया भहवा भिक्खुस्सेयं سع سع २०३७ २६८७ ४ ३९४९ ६२५७ २४०५ २४७६ ५९४२ टि.१ १९४ ४ ३९२३ ४ ३७५५ ४ ४०७२ २ १९४४ ४ ४४३३ ३०३३ २३६.० १ २८८ م س ع م مه مه به س २ १६६८ १ ५११ ४ ३८५३ ५ ४९७१ ३ २०३२ ४५३९ २७९३ ९४१ २०४० ४०५५ १२५२ ه ه ه अहिगो जोगो निजोगो अहिच्छसे जंति न ते उदूरं अहिणा विसूहका वा अहियस्स इमे दोसा अहिरण्णग स्थ भगवं अहिराया तिस्थयरो अहि विचुगविसकंडग अहिसावयपचस्थिसु अहीणक्खरं अणहियमअंगाऽणंगपविलु अंगारखडुपडियं अंगुठ्ठपएसिणिमज्झिमाअंगुलिकोसे पणगं अंचु गतिपूयणम्मिय अंजणखंजणकद्दमलित्ते अंजलिमलिकयाओ अंतद्धाणा असई अंतरिम व मज्झम्मि व अंतर पडिवसभेवा अंतरपल्लीगहितं अंतरमणंतरे वा अंतरितो तमसे वा अंतं न होइ देयं अंतिमकोडाकोडीए अंतो अलब्भमाणे अंतो भावणमाई अंतो घरस्सेव जतं करेती अंतोजले वि एवं अंतोनियंसणी पुण अंतो नूण न कप्पड़ अंतो बहि कच्छउडियादि अंतो बहि चतुगुरुगा ه ه م ه महवा महापदाणिं अहवा मुच्छित मत्ते महवा रागसहगतो अहवा लिंगविहाराओ अहवा लोइयतेणं अहवा वि अगीयस्थो अहवा वि असिढम्मी अहवा विकतो णेणं अहवा वि गुरुसमीवं अहवा वि चकवाले अहवा वि दुग्ग विसमे अहवा वि मालकारस्स अहवा वि विभूसाए अहवा वि सउवधीओ अहवा वि सो भणेजा अहवा समणाऽसंजयअहवा सन्यो एसो अहवा संजमजीविय महाऽऽगतो सो उ सयम्मि देसे अहिकरणं पुन्वुत्तं अहिकारो वारणम्मि अहिगरण गिहत्थेहिं अहिगरणमंतराए अहिगरण मारणाऽणीअहिगरणम्मि कयम्मि अहिगरणं काऊण व अहिगरणं तेहि समं अहिगरणं मा होहिति भहिगारो असंसते م ४ ३७६६ ४८१६ २०२० ५३१२ ११७३ ४४९० ४०२० ६१८७ ३६५१ ४९० ४२३६ २००४ ه به له ६ ६३१२ ४ ४८२८ کی ५ ५५६९ ३ २३८७ १ ५५२ ६ ६२७९ ४ ४०८७ ४ ३५०५ ४ ३५७२ ७८९ टि.४ ३ ५ ५ २६३८ ५५५२ ५८६६ अंतोबहिसंजोअण अंतो बहिं च गुरुगा अंतो बहिं न लब्भ २ १८९५ २ १८९७ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ गाथा अंतो बहिं न लब्भइ अंतो बहिं निवेसण तो भयणा बाहिं अंतोमुहस्स असई अंतोवियार असई 99 अंतो वि होइ भयणा अंतो हवंति तरुणी अंधकारी पदीवेण अंधलगभत्त पस्थिव अंबगचिभिडमाई अंबट्टा य कलंदा अंबसणेण जिन्भाए अंबसणेण जीहाइ अंबाडक विट्ठे अंबा वि होंति सित्ता अंसो ति व भागो ति व आ तादी भाइतिए चउगुरुगा आइनकारे गंथे आइवता ण चोरादी आइम्मि दोनि छक्का इलाणं दुहव भाउक्कार लहुगा आउज्जोवणमादी आउ जोवण वणिए "" आउ जणे मरुगाण आउहि गमण संसत्त आउहिय संसत्ते आउ तो सो भगवं आउयवज्जा उठिई आऊ तेऊ वाऊ s आपसह विसेसे विभागः गाथाङ्कः २ १८९८ ५ ५०६६ ४५२२ ४ ३ २३२१ ३ २१९४ ३ २२७९ * ४५३५ ३ २३५२ २ १००७ ५ ५२२६ २ ८४३ ३ ३२६४ 9 ३४७ टि० २ 9 २ ४ पञ्चमं परिशिष्टम् । ४ ३४७ १७१२ ४१८७ ३६४५ ६ ६३९४ २ १४६५ २ ८१५ ४ ३९१३ ६ ६३१३ 9 २५४ ३ २४१५ ३ २६१७ ३ २५६० ३ २५८७ ३ २४१८ ५ ५८९२ ४ ५ ५८९१ २ १७१५ १ ९२ ३ २७४२ ४ ३६१८ टि० १ ३६१८ गाथा आकर णकार-मकरा आगमभ सुयनाणी आगमगिहा दिए सुं आगमणगिहे अजा आगमणे वियडगिहे आगमिय परिहरता आगर नई कुडंगे आगर पलीमाई आगरमादी असती आगंतारठियाणं आगंतु एयरो वा भगंतु गमादी आगंतुगाणि ताण य आगंतुगारत्थिजणो जहिं तु आगंतु पुढ आगंतु तदुब्भूया आगंतु पण जाण आगंतुमहागडयं आगंतुदन्व विभूसियं आगंतु वाहिखोभो साहुभावम कार आगाढमणा गाढं भगाढमिच्छदिट्ठी आगाढम्म उ कज्जे आगाढे अणागाढं आगाढे अण्णलिंग आगाढे अहिगरणे 33 आगार विसंवइयं आगारिंगियकुसलं आचंडाला पढमा आचेलकुद्देसिय 33 आचलको धम्मो आढणमभुट्टा आणायणे जा भयणा आनंद अंपाय विभागः गाथाङ्कः २ ८०६ टि० २ १७६ ३४८५ ३४८७ 9 ४ ४ ४ ३४८४ २ ९२७ ४ ४०३४ ૪ ४०३५ ५ ५८८३ ४ ४७५४ ५ ४ ५६०५ ४३२१ ४ ४०५८ ४ ४ ४ २ ५ ३ ง ३५९ २ १२३७ २ ११५२ २ १०२६ 9 ५९२ २ ८७६ ५ ६०२२ ३ ३१३६ ३ २७१३ ५ ५७४५ ६ ६०९८ ง २६४ ३ ६ ६ ६ ३ ४ ४६०६ २ १३६९ ३४८६ ४२६९ ३८१२ १९६५ ५४६१ २१७० ३१८५ ६३६२ ६३६४ ६३६९ २७२८ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमं परिशिष्टम् । . विभाग: गाथा ५ ५७२८ م س م ه २९९९ १३७७ ४६३३ ६ ६४१८ ८९९ ४ ३४११ ४ ३३६७ ३. २७०३ له " " गाथा विभागः गाथाङ्कः : गाथा आणाइणो य दोसा २ १७७१ भाभत्रमदेमाणे ४ ४७९७ आभिणियोहमवायं आमीराणं गामो भाभोएर खेतं [दृश्यताम् "आणादिणो य दोसा" गाथा] आभोगिणीय पसिणेग आणाइस्सरियसुहं २ २११६ आभोगेण मिच्छत्तं भाणाए जिणिंदाणं ५ ५३७७ आमफलाणि न कप्पंति आणाऽणवस्थ मिच्छा आम ति अन्भुवगए आणादणंतसंसा आमं ति अब्भुवगते आणादिणो य दोसा ३ ३२७१ आय? उवउत्ता ५ ५५७० आय पर तदुभए वा [श्यताम् "आणाइणो य दोसा" गाथा] भायपरसमुत्तारो आणादि रसपसंगा २ १०३७ आणा न कप्पा त्तिय ३ ३०५४ आयपरे उवगिण्हह भाणा विकोवणा बुज्झणा १७२७ आयपरोभयतुलणा आणुग जंगल देसे २ १०६१ आयपरोभयदोसा आतुरचिण्णाई एयाई २ १८१२ मादिपदं निसे २ १०८८ भायरकरणं आढा आदिमयणाण तिण्हं आयरतरेण हंदि भादियणे भोत्तूणं भायरिए अभिसेए भादिलेसुं चठसुवि आयरिए अभिसेगे भादी अदिट्ठभावे आदेसो सेलपुरे ३ ३१४९ आधत्ते विकीए आधाकम्माऽसतिं घातो आयरिए असषीणे भाधारिय सुत्तस्थो १ ८०५ भायरिए उवज्झाए भाधारो आधेयं आयरिए कालगते भाधावसी पधावसी २ ११५७ आयरिए गच्छम्मिय भापुच्छण आवासिय भायरिएणाऽऽलत्तो आपुच्छमणापुच्छा ४ ३६८२ आयरिए य गिलाणे आपुच्छिऊण अरहते ६४५७ आयरिए य परित्रा आपुच्छित आरक्खित आयरिए सुत्तम्मि य भापुच्छिय भारक्खिय. ३ २७८६ भापुच्छिय उग्गाहिय ४ आयरिभो एग न भणे ३५३६ आपुच्छियमुग्गाहिय टि.३ आयरिभो गणिणीए आबाहेव भये वा आयरिभो गीतो वा २७३९ आयरिओ पवत्तिणीए आभरणपिए जाणसु ३ २५६३ आमन्वमदेमाणे ३ २६९४ । आयरिमोवहि बाला McMM5cm.ccmms २ ११७१ १७९५ ४. ४३४५ २ १२५३ १७२४ २५९५ ४४७६ ४४८४ ६३७७ ४३३६ ४४२१ ५३५९ ६०६५ ४१७८ ४१७७ ५४०६ २९६३ २५९० Com " २ १६६५ १ ३३७ ૫ ૫૭૪૪ ३ २७१६] ४ ११५२ ५ ५५१६ २ १०४३ २ १५५३ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० पञ्चमं परिशिष्टम् । गाथा विभागः गाथाङ्क: .१ ४४६ आया पवयण संजम गाथा आयरिगिलाण गुरुगा [ " आयरियअणुटाणे आयरियअवाहरणे आयरियउवझाए ५ ५९०३ ५ ५८८४ विभागः गाथाङ्कः ५ ५०८७ ४४७११] २ १५७० २ १४६० ४४९६ ५४७४ ५ ५४७९ ३ २७८० ३ २०१६ ५ ५७४८]] ه ت आयरियउवज्झायं भायरिय उवज्झाया भायरिय एगु न भणे ه भायरिय गणी इड्डी भायरियगमणे गुरुगा भायरियगिलाणे गुरुगा १६९३ २ १३८५ ३ २४१६ ३ २४१९ ५ ५९४५ १७९४ २ ११८३ १००९ ३ २७८७ ६१७२ २८०९ ४ ३९२७ ه आयाम अंबकंजिय आयामु संसटुसिणोदगं वा आयारदिष्टिवायस्थआयारपकप्पधरा आयारवस्थुतइयं आयावण तह चेव उ आयावण साहुस्सा आयावणा य तिविहा आयाविंति तवस्सी आयाहिण पुन्वमुहो. आयुहे दुनिसट्टम्मि भारक्खितो विसजा आरक्खियपुरिसाणं आरंभनियत्ताणं आरंभमिट्रो जति आसवाय भाराम मोलकीए आराहितो रज सपबंध आरुहणे ओरुहणे आरोवणा उ तस्सा आरोहपरीणाहा आलंबणमलहंती भालंबणे विसुद्धे आलाव गणण विरहिय. आलावण पडिपुरछण ४ ४७११ ५ ५०८७] ५ ५७६९ २ १२२५ م س ه ه २ س له ९७५ २८५३ २०५१ १२० ३९८९ ४५१० १०७० ५ ५१०६ २७५२ ४ ४४२२ ४ ४४६८ ९५५ ه ४ ४ م م आयरिय चउरो मासे भायरियत्तममविए आयरियत्तणतुरितो भायरिय दोणि भागत भायरियवण्णवाई भायरियवयण दोसा आयरियवसभअभिसेगमायरिय विणयगाहण आयरिय साहु वंदण आयरियस्सायरियं आयरियाइचउण्हं आयरियाई वत्) आयरियादभिसेगो आयसमणीण नाउं आयसमुत्था तिरिए आयसरीरे आयरियभायहिय परिपणा भावभायहियमजाणतो आयहियं जाणतो भायंकविप्पमुक्का आयं कारण गाढं भायंबिल बारसमं भायंबिलं न गिण्हइ आयाणगुत्ता विकहाविहीणा आयाणतिरुद्राओ ३ २२७७ ه ५५९८ ४४९२ ५९२३ م م ३ २५२६ م २ २१२१ २ ११६२ २ ११६३ २ ११६४ ४ ३७९७ २ ९५१ ६ ६४७३ २ १३९० ४ ४५६४ आलिट्ठमणालिटे आलिंगणादिगा वा आलिंगणादी पडिसेवणं वा आलिंगते हत्थाइ. आलेवणेण पउणइ आलोइऊण य दिसा आलोएंतो वति आलोग पिय तिविहं आलोयण कप्पठिते आलोयणसुत्तहा आलोयणं पजह १४४२ ६ ६३३० م ६ ه ६४७० ४५३६ ३९२ ३९४ १ १ " Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमं परिशिष्टम् । ४१ गाथा भालोयणं पउंजइ ४ ४२८० भालोयणा य कहणा भालोयणा सुणिजति आवडा खंभकुड्डे भावढणमाइएK भावणगिह रच्छाए श्रावण रच्छगिहे वा आवरितो कम्मे हिं भावलियाए जतिद्वं भावसि निसीहि मिच्छा आवस्सिगानिसीहिग 0000000mmsm. आवाय चिलिमिणीए आवायदोस तइए भावासगकयनियमा आवासगमाईया भावासगमादी या (जा) आवासग सज्झाए विभागः गाथाङ्क | गाथा विभागः गाथाङ्कः आसाढपुण्णिमाए ४ ४२४८ १ ३९७ ६ ६३२९ आसादेउं व गुलं १२८ ५ ५६९० आसायण पडिसेवी ४१७२ ६ ६३२१ ५०५९ २ १९२४ आसायणा जहण्णे ___५०३२ ३ २२९७ ३ २३०२ आसासो वीसासो ४ . ३७७१ ५ १९२७ आसित्तो ऊसित्तो ५ ५१५१ ४ ४३२३ आसुकार गिलाणे ५५१४ २ १३७९ आसे रहे गोरहगे य चित्ते ३ ३१७१ ४ ३४३८ आहच्च हिंसा समितस्स जा तू ४ ३९३३ ५ ५६९५] आहचुवाइणाविय भाहडिया उ अभिधरा '४ ३६१७ भाहणणादी दित्ते भाहरति भत्तपाणं ५ ५०३८ आहा अधे य कम्मे ६ ६३७५ १ ३८४ आहा अहे य कम्मे ५ ५३४२ ३ २६३५ आहाकम्मियमादी ३ ३१६३ आहाकम्मियसघर २ १७५३ आहाकम्मुदेसिय ४ ४२७५ ३ ३१६४ आहारउवहिपूयासु २ १३१७ आहारउवहिसयणा१ ६१९ आहारउवहिसिज्जा ६ ६२२२ ५ ५६९५ आहारउवहिसेजा ६ ६४४४ आहार एव पगतो ५ ५६९३ आहारणीहारविहीसु जोगो २ १३८० आहारविही वुत्तो ५ ५८९७ ५ ३८५७ आहारस्स उ काले ५ ५०२६ आहाराइ अनियओ २ १२५६ ६३७१ आहाराई दम्वे ३ २५८८ आहारा नीहारो ३ ३२०७ ३ ३२२० आहारिया प्रसारा ५ ६०५० आहारे उवकरणे १७४७ आहारे उवहिम्मि य भाहारे नीहारे ३ २६३६ २ १२५९ आहारे पिट्ठाती ३ २६५१ आहारो उवही वा ४ ४७४१ ४. ३७४५ | आहारो ति य ठाणं ६ ६३५० س به ه आवासगं करिता आवासगं तस्थ करेंति दोसा आवास बाहि असई भावाससोहि अखलंत आवासिगानिसीहिग[ , आवासिगाऽऽसजदुपहियादी भावासियं निसीहियं आसगता हथिगतो आसगपोसगसेवी आसज खेत्तकप्पं आसज निसीही वा आसन्नगेहे दियदिट्टभोम्मे आसनपतीभत्तं आसन्न मज्झ दूरे आसन्नो य छणूसवो भासरहाई ओकोभासंकितो व वासो आसंदग कट्ठमओ م سم مه ه ه Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ पञ्चमं परिशिष्टम् । गाथा विभागः गाथाङ्क: आहारोवहि दुनिहो विभागः गाथाङ्कः २ ९४० ३ ..२१६७ ३ २९३३ इइ ओभण सत्तविही इह चोयगदिटुंतं इह सपरिहास निबंध इह संकाए गुरुगा इओ गया इओ गया इकडकढिणे मासो ५ ५८८१ ४ ४६४४ ३ . २१४० ३ २१७७ २. ११५८ १ ६८७ २ १४९८ ४ ४७८८ १९२ १७८५ ४१५४ २५५२ ३ गाथा इत्थी जूयं मज इस्थीणं परिवाडी इत्थी नपुंसओ वा इस्थी पुरिस नपुंसग इत्थी विउब्वियाओ इस्थी वि ताव देंति इत्थी सागरिए उवइमाउ त्ति सुत्तउत्ता इय अविणीयविवेगो इय एसाऽणुण्णवणा इय दोसगुणे नाउं इय दोसा उ अगीए इय पोग्गलकायम्मी इय रयणसरिच्छेसुं इय सत्तरी जहण्णा इय संदंसणसंभास २ १२७८ ३५६२ ७२८ ९५० २७२ इकं वा स्थपयं इकिकं तं धउहा इक्खागा दसभागं इचेवमाइलोइयइच्छागहणं गुरुणो इच्छाणुलोम भावे इच्छा न जिणादेसो इच्छामिच्छातहकारे इच्छा मिच्छा तहकारो इटकलत्तविओगे इडित्तणे आसि घरं महलं इडिरससातगुरुगा इति एस असम्माणा इति भोहविभागेणं इति काले पडिसेहो इति ते गोणीहिं समं इति पोग्गलकायम्मी ५ ५२५७ ५ ५२३३ २ १५२५ २ १९२९ ३ २६७९ २ ९६२३ २ १३७८ ४ ३७११ ४७७० ४९८० ६२४२ ३ २५८३ ३ ३२४० ३ २२०२ २१२४ ४२८५ २१५२ ३७१३ ४५८७ ६३३४ ९५७ ४ ३ ४ ४ ६ २ इरियावहियाऽवण्णो इहपरलोगनिमित्तं इहपरलोगे य फलं इहरह वि ताव अम्हं ४ ३३४७] ४ ४१६८ इहरह वि ताव मेहा इहरा कहासु सुणिमो ४ ३४०८ ४ ३४२३ ३ २०१२ टि.५ इहरा परिट्ठवणिया इहरा वि ता न कप्पड़ इहरा वि ताव अम्हं [ २ ५ १४२८ ५०३३ " इहरा वि ताव तम्मति इति भावम्मिणियत्ते इत्तरियाणुवसग्गा इत्तिरियं णिक्खेवं इत्तिरिय निक्खेवं इत्थ पुण अधीकारो इस्थ वि मेराहाणी इत्थं पुण अहिगारो इत्थं पुण संजोगा इथिकहाउ कहिता इस्थिनपुंसावाए इस्थिनपुंसावाते ४ ३३४७ ४ ३४०१] ५ ५२.१ टि.३ ५ ५२०१ ४ ३७९१ ३ ३११४ ४९९७ इहरा वि ताव थम्भति ४ ४४६३ इहरा वि ताव सहे १४८ इहरा वि मरति एसो २ २०३२ इहरा वि मरिउमिच्छं ५ ५१५९ इह वि गिही अविसहणा ४५३ इंतं महल्लसत्थं १ ४६७ | इंतं महिड्डियं पणि. ५ ५५७८ ४ ४८७३ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा इंदवीलमणोग्गहो इंदमहादी व समा इंदि कसा जोगा इंदिपमाददोसा इंदिय मुंडे मा किंचि इंदे बंभवज्झा इंधण धूमे गंधे इंधणसाला गुरुगा ईसर णिक्खतो वा ईसरतलवरमाडं बिईसर भोइयमाई ईसरियता रज्जा "" उउवासा समतीता उक्कच्छिय वेकच्छिय उकडयाससमु उक्कोसओ जिणाणं कोसगाव दुक्खं उक्कोसतिसामासे उक्कोस माठभजा उक्कोस सनिजोगो उको विगईओ उकोसो अट्ठविहो उकोसो थेराणं उक्कोसोव हिफलए उक्खित्त भिन्नरासी उक्खत्तमाइए उक्खित्तमाइचरगा उक्खिन्न भिन्नरासी उन्माइए afterपऊ गिलाणो उक्खवितो सो हत्था उग्गमउपायणएसणा कोडी हु मदोसाईया पचमं परिशिष्टम् ।. विभागः गाथाङ्कः ४८५३ २७४५ ४ ३ २ १२८६ ५ ५०२८ ३ ३१६० २ १८५८ २ ८४१ ४ ३४४७ ४ ४०१८ ६ ६३८६ ६ ६३८७ ३ २५१० ३ २५३० 9 ५९५ ४ ४०८३ २ १३६४ ४ ४०९३ ४ ४२०५ ४ ३ ५ ३ ४ ४०१४ २५१७ ५०७२ २९१२ ४०९५ ४ ४०९४ २ २०२६ ४ ३३०२ 8 ३३०५ २ १६५२ ४ ४ ३३०२ टि० ४ ३३०५ टि० १ २ १९७८ ४ ४५९४ , ६०१ ४ ४२०४ २ ८४६ गाथा उग्गमविसोधिकोडी उग्गयमण संकष्पे उम उग्गय वित्तीमुत्ती उग्गह एव उपगतो उग्गहण धारणाए उग्गहणमादिहिं त उग्गहधारणकुले उगमादीहि विणा ठग्गा भोगा राइष्ण उगम गुरुगो उग्वाइया परित्ते 93 ठग्वायमणुग्धाया उच्चसरेण वंद उच्चं सरोस भणियं चारचे गातसु उच्चारपासवणखेल उच्चारविहारादी उच्चारं पासवर्ण उच्चारे पावणे "" 91 93 उच्चारणम्मि सुहा उच्चे नीए व ठिआ उच्छंगे अनिच्छाए उच्छुकरणो को ग उच्छुद्धसरीरे वा उच्छुयय गुलगोरसउच्छू बोलिंति व उज्जयमग्गुग्गो उज्जयसग्गुसग्गो उज्जलवे से खुड़े जाण आरएणं जाणतो परेण विभागः गाथाङ्कः ४२११ ५७९३ ५८२३ ५७८८ ४६५० ७५९ ४१२० ४०८२ १९१९ ४११२ ३२६५ ५१०४ ८६२ ४ ५ ५ ५ ४ 9 ४ ४ २ ४ ३ ५ २ ५ ६ ५ ४ ५ ४ ५ २ ४ २ २ P ४ ५ ३ ४ 9 ४ ४३ ३ २ ง ४८९० ६१३१ ४८९१ ४४९४ ५७५१ ४६५६ ५५५१ १६७३ ३७५३ १३८९ १५०० १५७५ ३७७७ ५९४१ २२४५ ३६१९ ७२१ ४५५८ २४४२ १५३९ ३१९ टि० ४ 9 ३१९ २ १८११ ५ ५२८९ ५ ५३०२ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ पञ्चमं परिशिष्टम् । गाथा विभागः गाथाङ्कः विभागः गाथाङ्क: ५ ५६४१ س उजाणाऽऽयुध णूमण उज्जालितो पदीवो उजु कहए परिणतं उजुत्तणं से आलो. ३ ३२४५ ४ ४७०४ ه ک २ १२४६ ३ २१६१ २४२२ ५ ५३५७ له ३ २७४४ ५ ४ गाथा उदए चिक्खल्ल परित्तउदएण वादियस्सा उदए न जल अग्गी उदगघडे विकरगए उदगंतेण चिलिमिणी उदगाऽगणि तेणोमे उदगागणिवायाइसु उदगाणंतरमग्गी उदयं पत्तो वेदो उदाहडा जे हरियाहडीए उदिओऽयमणाहारो उदिपणजोहाउलसिद्धसेणो उदितो खलु उक्कोसो उद्दद्दरे वमित्ता उद्दहरे सुभिक्खे س ३ २१५० س ५११५ ४२१९ ३१९२ २९५२ ४१२५ ५५१३ ३६७८ ४४३५ ३ ه نگی ه ه ५ ५९९७ ३ ३२८९ ४ ३६७३ ५ ५८३० २ १०१८ ३ २८७८ ३ २९७२ م उज्जुसुयस्स लिभोओ उजेणी ओसणं उजेणी रायगिह उजेत णायसंडे उजोविय मायरियो उज्झसु चीरे सा यावि उज्झाइए अवण्णो उद्दसणा कुच्छंती उट्ठाणसेजाऽऽसणमाइएहिं उढाणाई दोसा उटुिंत णिवेसंतो उठेइ इत्थि जह एस एति उटेज निसीएजा उठेत निवेसिंते उडुबद्धम्मि अईते उडुबद्धम्मि अतीए उड्डाहं व करिजा उडाहं व करेजा उड्डाहो वोसिरणे उडमहे तिरियं पिय उडम्मि वातम्मि धणुग्गहे वा उद्दाती विरसम्मि ه د ४४८० ४ ४४१७ ५६०८ ३ २४४७ ४ ३४८३ س ه उद्दवणे निग्विसए उद्दाण परिटविया उद्दावण निधिसए ४ ३४१० ३ ३०५३ २ ९०५ ३ २६०९ ३ २५०१ ३ २७७७ ५ ५०९४ ३ २३६८ ४८४१ له १ ६१० ه م ५४७७ مه उद्दिट्ट तिगेगयरं टि.१ ४७७ उद्दिसइ व अण्णदिसं ३ २७४७ उद्दिसिय पेह अंतर उदिसिय पेह संगय उहूढसेस बाहिं ६ ६२४७ उडूढे व तदुभए ४५७ उद्देसग्गहणेण व ३ २९९४ उद्धृट्ठाणं ठाणायतं उद्धप्फालाणि करेंति ६०४७ उद्धंसिया य तेणं २ ११०३ उन्नयमविक्स निस्स ५ ६००१ । उशिक्खंता केई १ ६५४ ३ २९१६ ३ २९८२ उड्डादीणि उ विरसम्मि उत्तण ससावयाणि य उत्तरगुणनिफना उत्तरणम्मि परुविते उत्तरतो हिमबंतो उत्तर पुम्वा पुजा उत्तर मूले सुद्धे उत्तरिए जह दुमाई उत्तरियपचयट्ठा उत्ताणग ओमंथिय उदए कप्पूराई ه ५ ५९५३ ३९५५ ه ه १ ३२१ ३ २४६३ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा उन्नियं उट्टियं चैव उप्पण्णे उवसग्गे उप्पण्णे णाणवरे उपपत्तिकारणाणं उप्पत्तियं वा वि धुवं व भोजं उत्पन्न कारणम्मि उत्पन्न कारणाssगंतु उपपन्ने अहिगरणे 99 39 39 उपपरिवाडी गुरुगा उप्पल पडमाई पुण उपायग उप्पण्णे तु मुकम उभामगऽणुभामगउब्भ/मग वडसा लेण उन्भावियं पवयणं उभए वि संकियाई उभओ पडिबढाए 33 उभभो पासिं छिज्जउ उभओसहकज्जे वा उभयगणी पेहे उभयद्वाइनिविट्ठ उभयद्वाय विणिग्गए उभयग्मि वि अविसिट्ठ उभयविसुद्धा इयरी उभयस्सऽकारगम्मी उभयं पि दाऊण लपा डिपुच्छं उभयं वा दुदुवारे उभयेगराए उम्मदेसणार य उम्मग्गदेसणामग्ग उम्मग्गेण वि गंतुं उम्मत्तगा तत्थ विचित्तवेसा उम्मत्तवायसरिसं उम्मतो खलु दुविध उवकारो हतिय पञ्चमं परिशिष्टम् । विभागः गाथाङ्कः ४ ३९७९ ५ ५७०१ ३ ३२६७ ३ २१५९ ४ ३५८७ ४ ४५४० ४ ३ ३ ४ ४३०३ २२२३ २२२८ ३७३० ६ ६२७८ ३ ३०६८ २ ९७८ ६ ६११९ ५ ५६८० २ १८३९ ५ ५०२२ ५ ६०४६ २ १२३३ ३ २६१४ ३ २६१५ ४ ३९५३ ३ २३८० २ १०६४ २ २०७१ ३ २६४७ ४ ४१०० ३ २३३७ ३ २२१४ ५ ५०३९ ३ २१८४ ३ २२३६ ६ ६४२३ २ १३२१ ४ ४१४७ ३ ३१७० ४ ३३२९ ६ ६२३३ 9 २८७ गाथा उल्लत्तिया भो ! मम किं करेसि उल्लेऊण न सका उलोम लहू दिय णिसि उलोमा गुण्णवणा वरसेण सयं वा उarसो संघाडग "" उवएस सारणा चेव गंदुवरं उवगरणगेण्हणे भार उवगरण पुण्यभणियं उवगरणमहाजाते उवगरणं चिय पगयं उवगरणं वामगऊरु उवगरणे पडिलेहा 99 उवगरणे इत्थम्मि व उवचरद्द को sतिनो उवचियमंसा बतियाउवठाविओ सिय ती उवाविरस गहणं उवदेस अणुवदेसा उवमाइ अलंकारो मारूवगदोसो उवयंति डहरगामं वार अनिर उवयोगसरपयत्ता उवयोगं च अभिवखं उari आयरियाणं safi कहेसि हिट्ठा उवरिंतु अंगुलीओ उवरिं पंचमपुणे उहभया कीरद्द उवलक्खिया य धण्णा उवलजलेण तु पुग् उवलद्धी भगुरुलहू उववारण व सायं उवसग पडिसग सेजा उवसम पढे विभागः गाथाङ्कः ३ ३२५२ १ ३३५ ४ ४ 9 ३ ३ २ ५ १ ४५ २९९९ २९९३ १२६६ ३ २३६१ ३ ३०५७ ३ ३०६५ ५ ५५३७ ४ ३६५९ 9 ४५९ ४ ४ ४ २ ५ ५ ४ 9 ५ ง ง १ ३५७८ ३५७७ ९८ ३४३४ ३४६२ ४४७९ १८७६ ४८८० ५१९३ ४३५८ ५८२५ २८४ २८१ ५६१२ ३१६ १४१ ५२२ ५ ५५३४ ४ ४३६१ ४ ३८५० ४ ४३०० ४ ४७९५ ४ ३३७० ५ ५६४७ १ 9 ४ ४ ७१ १२.४ ३२९५ ३५५४ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ पञ्चमं परिशिष्टम् । गाथा विभाग: गाथाङ्क: गाथा १ १२७ उचरगरस उ असती विभागः गाथाङ्क: २ १९०५ ६ ६२१५ ३ २२०८ टि.१ م " س उवसमसम्मा पडमाणउवसमियं सासायण उवसंतोऽणुवसंतं उवसंतो वि समाणो उवसंतो सेणावह उवसंपज गिलाणे उस्वाणा वेला वा م २७१८ ५०१३ ३०२५ س ه ه २ १९५१ ه उवसंपज गिलाणो उवसंपज थिरतं उवसामग सासाणं ه م १२४१ ९० टि. ३ उवाया वेला वा उज्वेलिए गुज्झमपस्सतो से उसिणे संस? वा उस्सगभो नेव सुतं पमाणं उस्सग्गगोयरम्मी उस्सग्गट्टिई सुद्धं उस्सग्गलक्खणं खलु उस्सग्गसुतं किंची उस्सग्गं एगस्स वि उस्सग्गाई वितहं उस्सग्गेण निसिद्धा उस्सम्गेणं भणियाणि उस्सनं सबसुयं उस्सनेण असत्रीण ४ ३३१९ ४ ३३१८ ५ ५१४८ ४ ३३१६ ५ ५२०५ . ६२१ م ه م उवसामगसेढिगयस्स उवसामिओ णरिंदो उवसामितो मिहत्यो उवस्सए उवहि ठवेतु उवस्सए एरिसए ठियाणं उवस्सए य संथारे उवस्सग गणियविभाइय उस्सय कुले निवेसण उवस्सय निवेसण साही م ه ३९०३ ५५८० ५०९१ ३४८८ ४ ३७२२ ५ ५३५१ ५ ५०१२ १९९६ ५५४२ ५ ५१५४ ५२३६ ४ ३३२६ १ २६९ १ ५४ م टि. २ ه उस्ससियं नीससियं م टि. २ م م उस्सासाओ पाणू उस्सुत्तं ववहरतो उस्सेइम पिटाई उंडिय भूमी पेढिय उंबर कोष्टिनेसु व ६ ६४२३ २ ८४० १ ३३० ه ه ३८२४ १९६७ ३५४६ ५०६४ ه ५ م उवहय उपकरणम्मि उवहयभावं दव्वं उवहयमहविज्ञाणे उवहाण दूलि आलिंउवहिम्मि पडगसाडग उवहि सरीरमलाघव उवहिस्स भासिमावण उवहीलोभ भया वा उवेहडप्पत्तिय परितावण उवेहोभासण करणे अवेहोभासण उवणे उवेहोभासण परितावण उब्वत्तखेलसंथारउव्वत्तण परियत्तण उम्वत्तणमप्पत्ते उम्वत्तेति गिलाणं उन्द्ररए कोणे वा सुब्वरए पलमीदव ه २ १२५७ २ १५९८ ५ ५२१७ १९८४ १९८७ ه जणाइरित्त चासो ऊणाणुट्ठमदिने उणाधिय मनंतो ऊणेण न पूरिस्सं असरदेसं दड्ढेलयं ऊसवछणेसु संभारियं ऊससियं नीससियं ه १९८६ ه १९८५ १८८६ १ १२२ ४ ३४२६ ه ه م ५३७० م एअगुणविप्पमुके एआओ भावणाओ एईए जिता मि अहं २ २ ६ १९२० १३२७ ६२०८ م ३ २६४५ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा एए अण्णेय बहू एए अ तस्स दोसा एए उ अधिष्यते एए दवाती एए चैव दुवास एए एए चैव य ठाणा चैव य दोसा "" 33 19 39 99 एएण सुख न गवं 93 [ "" एए न होति दोसा ९] सामग्र एएस परूवणया असई " [ एएसिं असतीए 33 33 एएसि तिन्हं पी एहि व अण्णेहि व एहि कारणेहिं "" "" 99 33 "" 93 "3 "" एक दुर्ग चर्क एकतरे पुण्वगते एकदुगतिणि मासा एकम्मि दोसु तीसु व एकवीस जहणेणं पचमं परिशिष्टम् । विभागः गाथाङ्कः ५ ५७१२ ४ ४२४० १ ६२९ ४ ४६३० ४ ३९६४ ६ ६४०७ ३ २३१९ ३ ३२१२ ४ ३४९९ ४ ४४१९ ६ ६१६९ ६ ६१७३ ५ ५८४६ ५ ५९०९ ५५५६० ] ३ २७५० ४ ४०३९ ४ *૨૧૬ ३ २३२४ ३ २९६० ३२१९३ ] ४ ४१४१ ६ ६२०६ ३ २५६५ ४ ४८०० २ १०२० २ १८०१ २ २००३ २ २०५५ ३ २७५७ ३. ३०६३ ४ ૨૭૭૨ ५ ५१७५ ४४६०८] २ १९२१ ३ २६५४ ५ ५८१८ ३ २२६३ ४ ४८५२ गाथा एक्कस्स ऊ अभावे एकस मुसावादो एकरस व एकस्स व एक्कं भरेमि भाणं एकाइ विवसही एका बसही एका मुक्का एक्का य एका य तस्स भगिणी एका विता महली एकिकम्म उ ठाणे एक्किकम्मि य ठाणे एक्किम य भंगे एकिको सो दुविहो एकेकपडिग्गहगा एक्केकमक्खरस्स उ एकेकम्म उ ठाणे ,, 29 32 एकेकमिव ठाणे एक अतिठं एकं तं दुविहं एक्वेक्कं ताव तवं एकं सत्त दिणे एक्केका पयाओ [ "" एकेका ते तिविहा 23 एकेकातो पदातो [ 39 एकेका सा दुबिहा एकेकीए दिलाए एक्केको जियदेसो एक्केको पुण उवचय एक्केको सो दुबिहो एफेणं एकद एकोनि सोति दोष्णी एको वजहणं एको य दोनि दखि य विभागः गाथाङ्कः ५४८८२ ६ ६१४१ ३ २८०६ २८९० २०३३ १४१२ ४१२९ ६१९९ ३ २ २ ४ ४७ ६ ४. ४५६८ २ १७४७ ३ २४५४ ३ २१८६ ३ ३००६ २ १४४२ १६० २ १५१० ३ २३५९ ३ २५५८ ५५५५९ ३ २८९३ ५ ४९६४ ४९०० १३३० ७०६ ५. २ १ ३ २२५५ ५ ४९०७ ] ३२५६६ ३ २५७१. ५४९०७ २. २२५५ ] .३ ३१४३ २ ११८८ 3 १ ५ ७३ ६९७ ४९१४ १९७ ४ ३६६५ १५२३ ५ ५०५५ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ पञ्चमं परिशिष्टम् । गाथा विभाग: गाथाङ्कः २ १३०४ سع एको वा सवियारो एगम्बुरदुखुरगंडीएगग्गया सुमह निजरा एगग्गामे अतिच्छंते एगट्टियाई तस्स उ ४५७६ ه ४ ४८४२ سر م م م एगत्तभावणाए एगस्थ कहमकप्पं एगथ रंधणे भुंजणे एगस्थ वसंताणं एगस्थ सीयमुसिणं एगस्थ होइ भत्तं एगरथे उवलद्ध एगदुतीचउपंचगएगपए उ दुगाई एगपए दुतिगाई .५ ५७१९ ५७२६ ५७२६ टि०१ ५ ५९३० १७०२ ५ ५९३३ گه له س एगपएसोगाढादि एग पणगऽद्धमासं एगपुड सकलकसिणं एगमणेगे छेदो एगमरणं तु लोए एगम्मि भणेगेसु व एगम्मि दोसु तीसुव विभागः गाथाः । गाथा २ २०२२ एगंतरमुप्पाए ३ २१६८ एग तासिं खेत्तं २ १३४३ एगं नायं उदगं ४ ४६६१ एगं व दो व तिन्नि व १ ३११ एगा उ कारण ठिया टि. ६ एगागित्तमणट्टा २ १३५२ एगागिरस हि चित्ताई ३ २६७३ एगागी मा गच्छसु ४ ३५६६ एगागी मा पुच्छसु ४ ४८५४ २ २०९७ एगागी वच्चंती एगाणियस्स दोसा एगाणियाए दोसा १ ४४५ एगापनं च सता एगालयटियाणं एगा व होज साही टि.४ एगाह पणय पक्खे ३ . २७२२ : एगाहि अणेगाहि व एगाहि अणेगाहिं एगे अपरिणए या ४ ३३६० ३ २४९. एगे अपरिणते या ६. एगेण कयमकर्ज ३ २२७१ एगेण विसइ बीएण ३ २४६४ एगेण समारद्धे ४ ..४५६. : एगे तू वचंते ३ ..२१३२ एगे महाणसम्मी ३ २९२९ एगो एगदिवसियं ३ २१३३ एगो करेति परसुं १ ६९४ एगो खओव्रसमिए ३ ३१४७ एगो गिलाणपासे २ १८३६ एगोऽस्थ नवरि दोसो . १८४२ एगो व होज गच्छो एतद्दोसविमुकं ५ ५६४२ एतविहिआगतं तू ४ ३५८२ एतं चेव पमाणं ४ ४५९७ एतं तु पाउसम्मी ! एतं तुभं अम्हं in n s s 5 norr 5 ४.४८५७ ३ २२३४ ५ ५४७६ ३ ३२३५ ३ ३१५४ ५, ५४३७ ५ ५४४६ ५३९९ ९२० ३४४ १८४३ २ १८४६ ५ ५३९१ ४ ३५६३ ३ ३१४२ ४ ३९४३ ४ ३९४० ३ ३२१६ एगयर उभयओ वा एगयर निग्गओ वा एगवगडं पडुला एगवगडेगदारा एगवगडेगदारे एगविहारी भ अजाय. एगस्स अणेगाण व एगस्स पुरेकम्म एगस्स बीयगहणे एग कप्पट्टियं कुजा एगंगिय चल थिर पारिएग ठवे णिव्विसए एग णायं उदगं एगतरमायंबिल २ १६१५ २ १२०० ३ २७४० ५ ५३१९ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चमं परिशिष्टम् । ४९ विभागः गाथाः ५ ५४५० ५ ५४७० ५ ५२४४ १ ५६५ १ ३६३ ५६४ ३ २९५० ३ २८७४ ३ २१८५ ३ ३२८१ ४ ४२२३ २८०० २ .१०८० ५ ५८९९ २ १०४० ५. ५८०६ १. ६४७ टि०९ ব্যাথা विभागः गाथाङ्कः । गाथा एतं पि मा उज्झह देह मझं ४ ४२०३, एमेव गणायच्छे एताई अकुव्वतो ४ ४५४९ । एताणि य अण्णाणि य ४७३८ । एमेव गिलाणाए एतारिसं विओसज एमेव गिलाणे वी एतेण सुत्त न गतं ५ ५५६० एमेव गोणि भेरी • [दृश्यताम् "एएण सुत्त न गतं" गाथा] एमेव चारण भडे एते तिन्नि वि भंगा ३ २२८७ : एमेव जइ परोक्खं एते पदे न रक्खति एमेव तइयभंगो एते सब्वे दोसा ४ ४२७७ एमेव ततो गिते एतेसिं अग्गहणे ५ ५५१२ एमेव तेलिगोलियएतेसिं असईए ३ ३१९३ एमेव तोसलीए ["एएसिं असईए" गाथा तथा "एएसि । एमेव पउत्थे भोअसतीए" गाथा द्रष्टव्या] एमेव पउलियापउलि. एतेसिं तु पयाण ३ ३०८२ । एमेव बितियसुत्ते ३ ३०८४ एमेव भावतो विय ४ ३६८९ एमेवऽभिक्खगहणे एतेहिं कारणेहिं एमेव मजणाइसु ["एएहिं कारणेहिं" गाथा दृश्यताम्] एस्थ उ पणगं पणगं ४ ४२८४ एमेव मजणाई एत्थ किर सणि सावग ३ ३२७० एमेव मामगरस वि एस्थ य अणभिग्गहियं ४ ४२८२ एमेव मासकप्पे एत्थं पुण अधिकारो ५ ४९६८ एमेव मीसए वि एत्थं पुण अहिगारो ५ ५०१५ एमेव य अच्चित्ते एमाइ अणागयदोस ३ २८९४ एमेव य अच्छिम्मि एमेव अजीवस्स वि १ १५५ एमेव य इत्थीए एमेव अणत्ताए ६ ६३०७ एमेव य उदिउ त्तिय एमेव अधाउं उज्झिऊण १ २१८ एमेव य एकतरे एमेव अप्पलेवं २ १७४२ एमेव य किंचि पदं एमेव भमुंडिस्स वि ४ ४६६८ एमेव य खंधाण वि एमेव असंता विउ एमेव य गेलने एमेव असिहसपणी एमेव य जसकित्ति एमेव अहाछंदे एमेव य पहाणासु एमेव उगमादी ५ ५३५३ एमेव य नगरादी एमेव उत्तिम? ३ २८७६ एमेव य निज्जीवे एमेव उवहि सेजा १ ७६६ एमेव य परिभुत्ते एमेव ओवसमिए ४ ३९४१ एमेव य पिहियम्मी एमेव कइयवा ते एमेव य पुरिसाण वि एमेव गणाऽऽयरिए ५ ५७७५ एमेव य भयणा वी ५ ५८०४ एमेव य भूमितिए १ ६२८ ४ ४८६९ ४ ४३४७ ४६८८ ६१८१ ५०८० ५८०९ २२४४ ६ ६४१६ ३ २७२१ ५८२१ ४ ४६८७ २. १६७९ २ ११२० १८६७ २ १०७१ ३ २९४३ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० पञ्चमं परिशिष्टम् । गाथा. . विभागः गाथाङ्क: ४ ४०१५ ३ २७९५ به تی له एमेव य वसिमम्मि वि एमेव य वीयारे एमेव य सञ्चित्ते एमेव य सन्नीण वि एमेव य संजोगा एमेव य संसर्ट एमेव य हीलाए एमेव य होइ गणी एमेव लेवगहणं एमेव सघरपासंडएमेव समणवग्गे एमेव संजईण वि विभागः गाथाङ्कः । गाथा ३ २९९९ एवं चेव पमाणं ४ ..४३९५ एयं जायणवत्थं एयं दुवालस विहं २ १७९२ एयं पि ताव जाणह एवं पि सघरमीसेण १ ६६३ एयाणि गारवट्ठा ६०८८ एयाणि मक्खणट्ठा ५ ५७५४ एयाणि य अन्नाणिय १ ७४९ एयारिसए मोत्तं २ १७५८ एयारिसखेत्तेसुं ५ ५३४७ एयारिस गेहम्मी एयारिसम्मि रूवे २१०८५ एयारिसम्मि वासो २ १०७३ एयारिसं विभोसज م م م س س س س ه م एमेव संजईणं एमेव सेसएसुवि م س . م ५ ४९०४ ५ ५२६७ ५ ५६४८ ३ २७७८ ४ ४२५५ ५ ५५०९ एयारिसे विहारो एयारिसो उ पुरिसो एयासि णवण्हं पी एयासिं असतीए ४२०९ १३१४ ६०३२ ६२४८ २३१० २२९५ २६१९ २६२७ ३३१४ ५४०० ५४४७ २७८२ ५११८ ५९५० ३७९४ ५२४६ ५६३९ ५६५३ ५६३८ २९२६ ३२९० ३ २४५७ २४३४ ५१६३ ३८७६ م ه م " एमेव सेसएहि वि एमेव सेसम्मि एमेव सेसियासु वि एमेव होइ उवारे م م نگر س و एमेव होति तेणं एमेव होति वगडा एमेव होंति इत्थी एमेव होति दुविहा एमेवोगाहिमगं एयगुणसंपउत्तो एयगुणसंपजुत्तो एयहोसविमुकं ५ ५०९६ ४. ३२९६ ३ २५७६ ३ २५७० २ १४०८ ५ ५१३३ ५०३१ २. १६०१ ३ २८०८ ३ २२८८ एरवइ कुणालाए एरवइ जत्थ चकिय एरवइ जम्हि चकिय एरंडइए साणे एरिसए खेत्तम्मी एरिसओ उवभोगो एरिसदोसविमुक्तरिम एरिससेवी सब्वे एवइयाणं गहणे एव खलु भावगामो टि०३ एयहोसविमुके एयविहिमागतंतू एयविहिमागयं तू एयस्स णस्थि दोसो एयस्स नस्थि दोसो एयस्स नाम दाहिह एवं चरित्तसेटिं ५३४९ ५५१५ 00-ram एवमुवज्झाएणं एवमुवस्सय पुरिमे एव य कालगयम्मि एवं अपरिवडिए एवं अवातदंसी एवं उग्गमदोसा एवं एकेक तिगं ५ -५४४५ ५ ५५७२ ३ २५०२ ५२७६ २५६९ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमं परिशिष्टम् । विभागः गाथाङ्क: ५ ५०८१ २ १०७४ २ ९१४ ५ ५७६६ ६ ६३६८ ४ ४२७३ '२ १२७९ ५ .५८५३ ५ ५४८१ १ . ६१७ २ १९१० ५ . ५२५३ ५ ५३०७ ५ .५२९४ गाथा एवं एक्वेक्कदिणे एवं एसा जयणा एवं खओवसमिए एवं खलु अच्छिन्ने एवं खलु संविग्गे एवं खु थूलबुद्धी एवं खु भावगामो एवं खु लोइयाणं एवं गहवइसागारिए एवं गिलाणलक्खेण एवं च पुणो ठविए एवं च भणित मित्तम्मि एवं च भणियमेत्ते एवं चिय निरविक्खा एवं चिय मे रति एवं ठियम्मि मेरं एवं तस्थ वसंतीएवं ता अदुगुंच्छिए एवं ता अहिटे एवं ता असहाए एवं ता गिहवासे एवं ता गेण्हते एवं ता जिणकप्पे एवं ता तिविहजणे एवं ता दप्पेणं एवं ता पमुहम्मी एवं ता पंथम्मि एवं ताव दिवसतो एवं ता सविकारे एवं तु अगीतत्थे एवं तु अगंतेहिं एवं तु असंभो. एवं तु असढभावो एवं तु इंदिएहिं एवं तु केह पुरिसा एवं तु गविढेसुं एवं तु चिट्ठणादिसु एवं तु ठाविए कप्पे एवं तु दियागहणं विभागः गाथाङ्कः गाथा ५ ५७७१ एवं तु सो अवधितो २ २०६८ एवं तेसि ठियाणं एवं दबतो छण्हं ४ ४७२२ एवं दिवसे दिवसे ५ ५४६३ । एवं दुग्गतपहिता १ २२६ । एवं नामं कप्पति २ ११७ एवं पडिच्छिऊणं ३ २२८४ एवं पमाणजुत्तं १ ६८३ एवं पि अठायते २ १८९१ । एवं पि अलब्भंते १५९१ एवं पि कीरमाणे ३३६९ २००८ एवं पिपरिचत्ता ३ २२०४ एवं पि भाणभेदो ३ २८४६ एवं पि हु उवघातो एवं पीईवड्डी २ २०८२ एवं पुच्छासुद्धे २ ८६७ एवं फासुमफासुं ५ ५०६७ एवं बारस मासे २ ८८५ एवं भवसिद्धीया २ १९४७ एवं भायणभेदो ३ २८०२ ५ ५२७० एवं मणविसईणं ४ ४२१७ एवं लेवग्गहणं ३ २२०६ एवं वासावासे ३ २६४३ एवं वितिगिच्छो वी ५ ५६१६ __ एवं विसुद्धनिगमस्स ५ ५८३२ एवं सड्ढकुलाई २५५९ एवं समाणिए कप्पे एवं संसारीणं ७० एवं सुत्तविरोधो १६१७ एवं सुत्तं अफलं ५६१० ५९२६ ५ ५१५६ एवं सुनीहरो मे ६४८ एस उ पलंबहारी ३ २४१२ एसणदोसे व कए ६ ६४६६ एसणदोसे सीयह ३ २९८४ | एसणपेलण जोगाण mann 20 or my w or a 5 s sms 20 ar २ ..१८१८ ५ . ५७७० २ ११३७ ..टि.३ س م مه نم ४ ..४६८९ ५ . ५८१५ २ १०९९ २ . १५८६ ६ ६४७९ १ १०४ ४.४२४१ ३ . २५६१ ५ . ५२९० ६ ६१७४ ६ ..६३४४ २. ९२३ २ .१६०३ ४.४५२० ५..५५०० نمک می Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ गाथा एस तवं परिवज्जति एसा अविही भणिया एसा बिही उ निगाए एसा विही तु दिट्ठे एसा विही विसजिए सुरसग्गठिया एसेव कमो नियमा 99 39 99 39 99 99 29 AR::: "3 एसेव गमो नियमा 99 " 99 99 33 39 33 39 "" " 2222 - 93 99 93 99 पचमं परिशिष्टम् । विभागः गाथा: ५ ५५९७ २ १८४१ ५ ५७६० ५ ५८७५ ५ ५४३४ १ २४८ २ १४२५ २ १६७७ २ २०३४ २ २०४७ २ २१०६ ३ २३२५ ३ २५४७ ३ पृ० ७२४ टि० ३ ३ २५७८ ३ २६१६ ३ २६६८ ४ ४०४६ ५ ४९४० २ १००० २ १०३३ २ १४२५ डि०१ २ २०४५ ३ २६६८ टि०१ ४ ३५१० ४ ३७९६ ४ ३८०३ ४ ४२३३ ४ ४६०९ ५ ४९४० fto 1 ५२६० ५४५१ ५ ५ ५ ५५८७ ५ ५७२१ ५ ६०५९ गाथा एसेव गमो नियमा एसेव गिलाणम्म वि सेव गुरु निविट्ठे एसेव य णवगमो एसेव य दितो 99 एसेव व नूज कमो एसो वि तत्थ वचइ एसो विताय दमयतु एसो वि ताव दम्मउ एसो बिही उ अंतो एहि भणिओ उ वच एर्हिति पुणो दाई ओअत्तंतरिम वहो ओगाहिमा विगई ओपित्थयणाऽसद् ओदरियमओ दारेसु ओमामिओ उ महओ ओभामिओ हि सवासमो ओभावणा कुरुघरे 93 अभावणा पवयणे ओभासद वीराई ओभासणा य पुच्छा 95 ओभासिय धुव ओभासियं जं तु गिलाणगट्ठा ओमम्मि तोसलीए ओमंथ पाणमाई ,, लंभो ओमंथिए वि एवं ओमाणपेहितो बेलओमाणस्स व दोसा ओ ओमादिकारणेहि य ओमासिवदुद्वे ओमासिवटुडेस् ओमासि माईहि व विभागः गाथाः ६२४१ १९६३ २२४८ ४६७० ८१ ६ २ ३ ४ 9 २ २ ३ ५ ५७३५ ३ २७०४ ३ २९५७ 9 ७७४ ४ ४३७३ २ २ १००८ ११४१ २१९६ ३ २११२ ३ ३२७९ २ १७१६ ४ ३५९१ ३ २३१३ ४ ३४९६ ४ ४४१८ १७२८ २०७७ २ १५९९ 9 ६६० ४ ४०३९ २ १५२४ ५ ३ ३१९६ २ १०६० १ ६६५ ४ ४०४० २ ५ ४ २ ४ ५ ११०५ ५८८७ ३७०८ ५४१९ २०२९ ३९१६ ५१२३ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ओमे एसणसोहिं ओमो चोदिज्जंतो ओमोदरियाग ओमोदरिया य जहिं ओमो पुण आयरिओ ओमो समराणिओ ओयणमीले निम्मी ओयभूतो खित्ते ओयारण उत्तारण ओरोहधरिसणाए ओलिंपिऊण जहि अक्खरा ओली निवेसणे वा ओलोयण निगमणे ओलोयणं गवेसण ओवगाहियं चीरं ओवरए कोणे वा ओवरगस्स उ असती ओवासे तणफलए ओवासे संथारे ओवुज्झती व भया ओसक्कण भहिसकण ओसकते दहुँ ओ 99 ओसण असन्नी ओपिणी दो ओसरणे सवयंसो ओसह भैसजाणि य ओसह विजे देमो ओहविभागुद्दे से ओहाडियचिलिमिलिए ओहाडियदाराओ ओहाणाभिमुहीणं ओहारमगरादीया ओहाविय ओसने ओहानिय कालगते ओहि मणपज्जवे या विभागः गाथाङ्कः ३ ३११८ ६ ६१३५ ३ ३११९ २ ९३८ ४ ४४१२ २ १३७३ २ १०७५ ૨ ९५९ ६ ६१९० ३ ३१२० ४ ३३९५ २२१६ २४२४ ५०३६ ५ ५८९४ १ ३ ३ ५ पचमं परिशिष्टम् । २ ५ १ ५७० टि० ४ १९०५ टि० २ २ १३८३ २ १६२५ २ २०२५ ६ ६१९४ २ १६५३ ४ ४५३८ ६ ६०७६ 9 ५४ २ १४१६ ६ ६१०३ २ १४८६ ६ ६२२१ १ ५३४ ३ २३६२ ३ २३३६ ४ ३७२६ ५ ५६३३ ५ ५४९० ५४८९ ३० गाथा ओहे उवगाहम्मि य ओहेण तु सागरिय ओहेण दसविहं पिय ओहे सबनिसेहो ओहो उवग्गहो वि य कक्वं तरुक्खवेगच्छि कविवदि कट्ठे व सुतेण व चित् " 33 कडओ व चिलिमिणी वा कडओ व चिलिमिली वा 99 कडकरणं दवे सा कडजोगि एक्कओ वा कडजोगि सीप रिसा कडपलाणं सण्णा कडमकड त्ति य मेरा कडं कुणंतेऽसति मंडवस्सा कडपट्टए य छिली aises अभिनवे कडवेयणमवतंसे विणा वरं कणएण कण्णम्मिएस सीहो कतारं दिसं गमिस्स सि कतरो मे णत्थुवधी कतरो सो जेण निसि कतिएण सभावेण व कतिठाण ठितो कप्पो कर देगहणं करथ व न जलइ अग्गी कन्नंतेपुर भोलोय कप अपरिग्गहिया ary गिलाणगा क "" विभागः गाथाङ्कः ४ ४३५४ ३ २५५१ टि० १ २ १६२७ २५५५ ४८४५ ३ ४ ર १०६७ १ ७५४ २ १०५६ ३ २४६९ ३ २५०४ ५ ४९१५ ४ ३ ३ ง ३ ५३ ४ ३ ४ ५ ५ ६ ५ ६ ६ ४ ३ १ ६ ४ २ २ ४ ३ ३ ३४५१ २२७४ २६६६ १८४ २९९७ २८९६ ३२९८ २२११ ३५१६ ५१७७ ५१७८ ६३३६ ५६८७ ६२०६ ६०८५ ४१६४ २२६६ ५५७ ६३५८ ३३२१ १२४५ ९९१ ३६२५ ३०५० ३१९० Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमं परिशिष्टम् । विभागः गाथाङ्कः टीकापाटा. २ १०५२ GAME २ १८२१ २ २०३८ २ ९३६ · गाथा कप्पह समेसु तह सत्तकप्पटिइपरूवणता कप्पट्ट खेलण तुअट्टणे कप्पट्टिय परिहारी कप्पम्मि अप्पम्मिय कप्पा आयपमाणा कप्पाकप्पविसेसे कप्पातो व अकप्पं कप्पासियस्स असती कप्पेऊणं पाए कप्पे सुत्तस्थविसारकप्पो च्चिय सेहाणं कबट्टदिढे लहुओ कमजोगं न वि जाणइ कमभिन्न वयणभिनं कम्म घरे पासंडे कम्मम्मि अदिखते कम्मवसा खलु जीवा कम्मं असंकिलिटुं कम्म चिणंति सवसा कम्मारणंतदारगकम्मे आदेसदुर्ग कम्मे हिं मोहियाणं कम्मोदय गेलने कयउस्सग्गाऽऽमंतण कयकरणा थिरसत्ता कयकिइकम्मो छंदेण कयमकए गिहिकजे कयरी दिसा पसत्था कयलीखंभो व जहा करगोफणधणुपादाकरणं तु अण्णमण्णे करणाणुपालयाणं करणे अधिकरणम्मि य करपायदंडमाइसु करपायंगुट्टे दोकरमिव मन्नइ दितो कलमोदणो य खीरं कलुस दवे असतीय व ५ ५०५२ १२३० ३ ३२८४ .१ २२१ विभागः गाथाङ्कः गाथा कलुसफलेण न जुजई कलं से दाहामी ४ ४६०२ कवड्गमादी तंवे ५६१७ कसाए विकहा विगडे कसिणस्स उ वस्थस्सा ४ ३९६९ कसिणं पि गिण्हमाणो ४ ४२३२ कसिणा परीसह चमू कसिणाविहि भिन्नम्मि य ४४० कस्सइ विवित्तवासे कस्स त्ति पुरेकम्म कस्सेते तणफलगा २ ८६५ कस्सेयं पच्छित्तं कहकहकहस्स हसणं ६ २७९ कहणाऽऽउट्टण आगम- १७५४ कहयति अभासियाण वि ४२२१ कहिओ य तेसि धम्मो कंकडुए को दोसो ४९११ जिय उल्होदग चाउ२६८९ कंजियउदगविलेवी कंजियचाउलउदए कंजुसिण चाउलोदे ५ ५३२० कंटगकणुए उद्धर १५८२ कंटग तेणा वाला ३ २४४५ कंटगमादीसु जहा कंटऽट्टि खाणु विजल कंटऽटिमाइएहिं २ १४६३ कंटाई देहंतो कंटाऽहिसीयरक्खट्ट६३२३ कंटाऽहिसीयरक्खाए ५०२५ कंदप्प देवकिब्धिस कंदप्पे कुक्कुइए २ ९०० । कंदाइ अभुंजते ५ ५५२४ कंपद वाएण लया काइय पडिलेह सज्झाए २. १९२८ काई सुहवीसत्था १ ४३५ काउस्सग्गंतु टिए 200r... - mmmrrm or or rrrrrrrrrrrrrrr. टि.१ १९५८ २ १७०६ ६ ६१६८ २ १४७५ ५५९६ ८८१ ८८३ ४ ३८५८ ४ ३८६३ टि. १ २ १२९३ २ १२९५ ३ ३११३ ४ ३६९५ ५ ५६७९ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमं परिशिष्टम् । गाथा विभागः गाथाङ्कः गाथा कारणगमणे वि तहिं ६२९९ काठस्सग्गे सज्झाकाउं णिसीहियं अट्ठकाउं सरयत्ताणं काऊण अकाऊण व काऊण नमोकारं काऊणमसागरिए काऊण मासकप्पं ५५८९ ४ ४७५६ विभागः गाथाङ्क: ५ ६०५८ ५ ५९२४] ३ २८५१ ५ ५०८४ ४ ३७२० १ ३७७ ५ ५९६४ ६ ६१२२ ५ ५७८३ ४ ३९९२ ५ ५९२४ ५६०५८] ६ ६०६० कारणगहिउवरियं कारणजाय अवहितो कारणतो अविधीए कारण निसेवि लहुसग कारणमकारणम्मिय कारणिय दिक्खितं तीरिकारणे अगले दिक्खा कारणे अणुन्न विहिणा कारणे गमणे वि तहिं १६८७ ४२८६ " २३३४ १६६३ ५८९ ३१८८ wo go o 2 in 2 5 m n o in nis m m w mo n ns. 2 कारणे गंधपुलागं कारणे सपाहुडि ठिया कारणे सपाहुडियाए २४९५ ३१५८ २६२० ६२२६ टि.. ४ ३६०८ ५ ५३८५ १ २८० ३:०० काऊण य प्पणाम काएण उवचिया खलु काएसु अप्पणा वा काएमु उ संसत्ते काएहऽविसुद्धपहा काणच्छिमाइएहिं का भयणा जइ कारणि कामं अखीणवेदाण कामं अहिगरणादी कामं आसवदारेसु कामं कम्मं तु सो कप्पो कामं खलु भणुगुरुणो कामं खलु पुरसहो कामं खलु सव्वन्नू कामं जहेव कत्थति कामं तवस्सिणीओ कामं तु एअमाणो कामं तु सरीरबलं कामं परपरितावो कामं पुरिसादीया कामं विपक्खसिद्धी काम विभूसा खलु लोभदोसो कामं सकामकिच्चो काम सम्वपदेसु वि कायं परिचयंतो कायादि तिहिकिक काया वया य ते च्चिय कारावणमण्णेहिं कालगयं सोऊणं कालजइच्छविदोसो कालतवे आसज्ज व कालमकाले सन्ना कालम्मि ओममाई कालम्मि पहुचंते ९९६ १८१९ ___ ९६३ २ १२५५ ४ ४७५१ टि.१ ४ ४७५१ १ १६४ ५ ४८९२ ५ ५३६१ 5 5 5 ४ ४ ३६९९ ४५७४ 0 0 5 n n ons on २१०१ कालम्मि पहुप्पंते ४४४८ कालम्मि बिइयपोरिसि १३५४ कालम्मि संतर णिरंतरं ५१०० कालसरीरावेक्खं ५२३७ कालस्स समयरूवण ५२३४ कालाइक्कमदाणे ३९९५ ४४०० कालातिकतोवाण४९४४ कालातीते लहुगो ९३१ कालिय पुब्वगए वा १६४२ कालियसुआणुओगम्मि १३०३ कालुहाई कालनिवेसी ५ ४९७९ कालुट्ठाईमादिसु ३२७ काले अपहुच्चंते ४ ३९४५ | काले अभिग्गहो पुण १ ५ १ ५९५ ५४२५ ७४४ कारगकओ चउत्थे कारगकरेंतगाणं ३ ३१०२ ५ ४८०५ २ १६५० Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमं परिशिष्टम् । विभागः गाथाङ्कः गाथा काले उ अणुण्णाए कालेण अपत्ताणं कालेण असंखेण वि कालेणुवकमेण व कालेणेवदिएणं कालेणेसणसोधि कालो सिं अइवत्तइ कावालिए य भिक्खू कावालिए सरक्खे कास तऽपुच्छियम्मी कासाइमाइ जं पुच. काहिइ अब्बोच्छित्ति काहीयातरुणीसु ६ ६०८३ ४ ४५७५ ४ ३६३७ ३ २३३० टि.१ २ ५४१० ६ ६०७० ४ ३७१२ काहीयातरुणेसु वि काहीयातरुणेसुं किइकम्म भिक्खगहणे किइकम्मं तीए कयं किहकम्म पि य दुविहं किच्चिरकालं वसिहिह C विभाग: गाथाङ्कः गाथा ५ ५२८२ किंचिम्मत्तग्गाही ४ ४२६२ किं छागलेण जपह २ १२०२ १ ११० किं जाणंति वरागा ४ ४२६० किं तं न होति अम्हं किं तुज्झ इक्कियाए किं ते पित्तपलायो ३ २८२२ किं दमओ हं भंते! किं देमि त्ति नरवई १ ६२३ किं नागओ स्थ तइया १ ६३ २ १२४२ किं नागओ सि समणेहिं ३ २५७४ किं नागय स्थ तइया २५७९ किं नीसि वासमाणे २५८० किं परिहरंति णणु खाणु २५६७ किं पिच्छह सारिक्खं २ १५०४ किं पित्ति अन्नपुट्ठो ३ २१८० किं पेक्खह सारिक्खं ४४१५ किं मण्णे निसि गमणं किं लक्खणेण अम्हं ५ ५३२५ किं वन कप्पइ तुम्भ ४ ४६१२ किं वा मए न नायं ४ ३०६८ कीयस्मि अणिद्दिद्वे ६ ६३९८ कीवस्स गोन्न नाम २ १२८२ कीस न नाहिह तुम्भ ५ ५५६४ कुओ एवं पल्लीओ ४ ३७७८ कुच्छण आय दयट्ठा २ १९०८ कुहिमतलसंकासो ३८६१ कुट्ठिस्स सकरादीहि ६१३९ कुडमुह डगलेसु व काउ २७८७ कुडूंतर भित्तीए १८६५ कुद्दुतरस्स असती २ १८६३ कुडूंतरियस्सऽसती १५८४ १८८५ कुड्डाइलिंपणट्टा २ १९७५ कुणइ वयं धणहे ४ ३७६४ कुणमाणा वि य चेठा २ ९६१ - कुणमाणो वि य कडणं ४ ३७१२ टि.१ ३ ३०४४ ४ ३९५७ ४ ४६७१ ४ ४३६४ ४ ४२०१ 04cccccc ६२४ किच्छाहि जीवितो हैं किडु तुभट्टण बाले किण्हं पि गेण्हमाणो कितिकम्मं पि य दुविहं किन्नु विहारेणऽभुजकिमियं सिट्टम्मि गुरू किरियातीतं गाउं किह उप्पो गिलाणो किह भूयाणुवधातो किं आगओ सि णाई किं आगय स्थ ते बिति किं उवघातो धोए किं उवघातो हत्थे किं कारणं चमढणा किं काहामि वराओ किं काहिह मे विजो किं काहिंति ममेते किं गीयस्थो केवलि rrrrrrurrrrrrr ५ ५९७२ २ १७१४ ४ ३८६५ २३४२ ४ ४५५६ ४ ३७५० ४ ३७५० टि.४ ३ २६४२ ४ ४५३० ६ ६२२९ ४ ४५२६ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमं परिशिष्टम् । ५७ विभाग: गाथाङ्कः विभागः गाथाङ्कः गाथा कु त्ति पुढवीय सण्णा कुत्ति य पुढवीसण्णा ६ ६१२३ w ه ६ ६४४९ ४ ४८३३ ६४१५ w ४ ४२१४ ४ ४२१४ टि. ४२१३ ४ ४०३३ १ ३४१ २ १२४८ ५ ५९३७ २ २०६२ ३८६६ १८०० ४९४८ ५२५४ कुत्तीयपरूवणया कुत्तीय सिद्धनिण्हगकुप्पवयणओसन्ने हिं कुमुओयररसमुद्धा कुलडा वि ताव णेच्छति कुलपुत्त सत्तमंतो कुलमाइकज दंडिय कुलमादीकजाई कुलवंसम्मि पहीणे or x ४५०८ r به ५ ५०२३ २ १६०६ له o م م ३ २१५७ ४ ४२७२ م م or or १३०८ w कुलं विणासेइ सयं पयाता कुवणय पत्थर लेहू कुवणयमादी भेदो कुवियं नु पसादेती कुविया तोसेयव्वा कुव्वंताणेयाणि उ कुसपडिमाइ णियत्तण कुसमुट्टिएण एक्केणं कुंकुम अगुरुं पत्तं कुंकुम तगरं पत्तं ५ ४९०५ ३ २१७६ १ ३८३ ५६०१ ५५०१ गाथा केणावि अभिप्पाएण केणेस गणि तिकतो केरिसगु त्ति व राया केवइयं कालसंजोगं केवतिय आस हत्थी केवलगहणा कसिणं केवलविनेयत्थे केवलिणा वा कहिए केवलिणो तिउण जिगं केसवअद्धबलं पण्णकेसिंचि अभिग्गहिया केसिंचि इंदियाई कोई तत्थ भणिजा कोई तत्थ भणेजा कोई मजणगविहिं कोउअ भूई पसिणे को कल्लाणं निच्छह कोकुइओ संजमस्स उ को गच्छेजा तुरियं को गेण्हति गीयत्थो को जाणइ को किरिसो कोगमाई रन्ने कोढग सभा व पुव्वं कोटाइबुद्धिणो अस्थि कोट्टाउत्ता य जहिं कोढ खए कच्छु जरे को तुभं आयरितो कोतूहल आगमणं कोतूहलं च गमणं को दोसो एरंडे को दोसो को दोसो को दोसो दोहिं भिन्ने कोद्दवपलालमाई को नाम सारहीणं को नियमो उ तलेणं को पोरुसी य कालो कोमुइभूया संगामिया بک بک کر n سر سم ه ه ه ६ ६३१७ ६ ६३२८ ४ ४०२९ ३ २४५५ २ ८७२ ४ ४३८५ २ ११७५ ४ ३३९३. ५ ५२४२ ३०१५ ४ ४३७३ ५ ४९१८ ५ २१६ ३ २८७१ २ ९८९ २ ८४२ २ १२७५ २ ८५७ कुंथुपणगाइ संजमे कुंभारलोहकारेकुंभी करहीए तहा कूरो नासेइ छुहं केइत्थ भुत्तभोगी केइ पुण साहियव्यं केइ सरीरावयवा केह सुरूव दुरूवा केई भणंति पुटिव केई सव्वविमुक्का केण कयं कीस कयं केण हवेज निरोहो m ३०७४ टि. १ ३८०९ ३८३८ ३४८२ ५ ५९९९ ३ २४५६ ५ ५३२७ ४५८१ ६१५९ १४६२ ه م له له کی ५५६६ टि. ३ केण हवेज विरोहो केणाऽऽणीतं पिसिय ३५६ टि. ३५६ ६ ६१०१ । कोमुइया संगामि [य] या य ५ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्नम परिशिष्टम् । गाथा कोयव पावारग दाकोलालियावणो खलु कोल्लुपरंपर संकलि को वोच्छिइ गेलण्णे कोसग नहरक्खट्टा कोसंबाऽऽहारकते कोसाऽहिसलकंटग कोहाई अपसत्थो कोहो माणो माया 9-rar Nur we & विभागः गाथाङ्कः गाथा विभागः गाथाङ्क: ४ ३८२३ खामित-वोसविताई ६ ६११८ ४ ३४४५, [ , ६ ६१२८] खामिय वितोसिय विणा- ३ २६७८ खामिय-वोसवियाई ६ ६१२८ ३ २८८५ ६६११०] खामिंतरस गुणा खलु २ १३७० २८८९ खित्तबहिया व आणे २ १९०४ ४ ४२४५ खित्तम्मि उ अणुयोगो १ १६२ २ ८३१ खित्तरिम उ जावइए १ ३४ खित्तम्मि जम्मि खित्ते ४ ४२४४ खित्तस्स उ पडिलेहा २ २०५२ खित्तं वत्थु सेतुं ४ ४७६४ ४ ४३३२ खित्ताइ मारणं वा ५ ५७२४ ४३३० खित्ताऽऽरक्खिणिवेयण ५ ५४३२ २९६८ खित्ते काल चरित्ते ૨ ૧૬૩૪ [श्यतां "खेत्ते काल चरित्ते" गाथा ] खित्तेण य कालेण य ४ ४२४६ ३ २८५० खित्ते भरहेरवए १ १४० खित्तेहिं बहू दीवे १ १६१ खित्तोग्गहप्पमाणं ४ ४६५३ खिवणे वि अपावंतो २ ९१६ ६१५७ खिंसाए होंति गुरुगा ४१४६ ५७५० खिसावयणविहाणा ६ ६१२५ ६ ६१२६ खिसिजइ हम्मइ वा २ १२६० ३ २९५४ खीणकसाओ अरिहा २ १७८१ २५२८ खीणम्मि उदिन्नम्मी १ १२१ २९७ खीणेहि उ निव्वाणं ३ २६८४ १ २९९ खीरदहीमादीण य ५ ५३०० १ ४७९ खीरमिउपोग्गलेहिं १ २२८ ३ २९८६ खीरमिव रायहंसा १ ३६६ ४ ४६२९ खीरं बच्छुच्छि8 २ १७४५ ४६२६ खुड़ग! जणणी ते मता . ६ ६०७५ ४०९१ खुडुं व खुडियं वा ५ ५०९५ खुड्डी थेराणऽप्पे ३ २९८८ खुड्डो धावण युसिरे खुद्दो जणो णस्थि ण यावि दूरे ३ ३२३९ ६ ६३७३ खुरअग्गिमोयगोच्चार १ ५८ खुलए एगो बंधो ४ ३८७० खुहिया पिपासिया वा d d m खजूरमुद्दियादाखणणं कोण ठवणं खमएण आणियाणं खमए लक्ष्ण अंबले खमओ व देवयाए खमगस्साऽऽयरियस्सा खमणं निमंतिते ऊ खमणं मोहति गिच्छा खमणे य असज्झाए खर अयसिकुसुंभ सरिसव खरए खरिया सुण्हा खरओ त्ति कहं जाणसि खरफरुस निटुराई खरसझं मउयवई खरंटण वेंटिय भायण खरिया महिड्डिगणिया खलिए पत्थरसीया खलिय मिलिय वाइद्ध खंडम्मि मरिगयम्मी खंडे पत्ते तह दब्भखंताइसिटऽदिते खंते व भूणए वा खंधकरणी उ चउहस्थखंधारभया नासति खंधारादी नाउं खंधेऽणंतपएसे खंधे दुवार संजति खाणुगकंटगवाला खाणू कंटग विसमे = 40 x 4 q ở tô ở « « Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमं परिशिष्टम् । विभागः गाथाङ्कः गाथा गाथा खेत्ततो निवेसणाई विभागः गाथाहः ६ ६०८४ ५ ५७६२ टि. ک २०९ به همه खेत्तबाहि भद्धजोयण खेत्तम्मि खेत्तियस्सा खेत्तम्मि य वसहीय य खेत्तस्संतो दूरे खेत्तं चलमचलं वा खेत्तं तिहा करिता खेतंतो खेतबहिया cccc ४२९३ ७४० ५७६८ ३ २१९७ ک س له गच्छसि ण ताव गच्छं गच्छा अणिग्गयस्सा गच्छे जिणकप्पम्मि य गच्छे सबालवुड्ढे गच्छो अ अलद्धीओ गच्छो य दोन्नि मासे गड्डा कुडंग गहणे गणओ तिन्नेव गणा गणगोट्टिमादिभोजा गणचिंतगस्स एत्तो गणणाए पमाणेण य गणधर एव महिड्डी गण निक्खेवित्तरिओ गणमाणओ जहन्ना गणहर आहार अणुत्तरा गणहरथेरकयं वा गणि आयरिए सपदं ५ ५३९४ ४६५४ ४ ४८४६ ४ ४८४४ २ १४८२ ५ ५८३८ ५८४२ २ ८२५ २ ८२६ ३ २७३१ २ १४१३ २ १४२९ २१६३४] ه ه ه खेत्तं वत्थु धण धन्न खेत्तं सेउं केलं खेत्तादकोविओवा खेत्ते काल चरित्ते نگی له له له مه ३६४९ ३९८८ ४००२ ४९८२ १२८५ १४४३ १९९७ १ १४४ ३ २१४३ ५ ५८३३ २ १३६७ १ २६२ २ २०८४ ३ २४१ २ १०३० खेत्ते जबावादी खेत्ते निवेसणाई खेत्ते भरहेरवएसु खेत्तोयं कालोयं खेत्तोवसंपयाए खेयविणोओ साहस खेयविणोओ सीसगुणखोलतयाईसु रओ "" mrrrrrrr . १२८९ गइठाणभासभावे गह भास वस्थ हत्थे गएहिं छहिं मासेहिं ४ ४४८९ ६ ६४५८ ५ ५१४५ २ १४३१ गणि गणहरं ठवित्ता २ ९५८ गणिगा मरुगीऽमचे ५ ५४०८ गणिणिभकहणे गुरुगा गणिणिसरिसो उ थेरो १२१५ गणिवसभगीतपरिणाम९१२ गणि वायए बहुस्सुए गणि! वायग! जिटुज! १ ७५१ गणोवहिपमाणाई ५ ५१४६ गती भवे पच्चवलोइयं च ६ ६४७६ गमणं जो जुत्तगती ६ ६४७७ गमणाऽऽगमण वियारे २ १२६५ गमणाऽऽगमणे गहणे ५ ५६८९ ३ २०६५ गमणे दूरे संकिय ४ ४५४२ गम्मइ कारणजाए १६५६ गब्बो अवाउडतं गब्वो हिम्मदवता १५८३ गहणं च गोम्मिएहिं ४ ४५३४ गणं तु अहागडए ५ ५२५१ गहणं तु संजयस्सा ६ ६४८३ | गहणे चिटणिसीयण १४७५ ५ ५८६९ ४ ३६८४ ३७२१ गच्छइ वियारभूमाइ गच्छगय निग्गए वा गच्छगहणेण गच्छो गच्छपरिरक्खणट्ठा गच्छम्मि उ एस विही गच्छम्मि उ पट्टविए गच्छम्मि एस कप्पो गच्छम्मिणियमकजं गच्छम्मि पिता पुत्ता गच्छम्मि य णिम्माया ३८५६ ३ २३७० ४ ३८०० Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० पञ्चमं परिशिष्टम् । गाथा गाथा विभागः गाथाङ्क: विभाग: गाथाङ्क: १ ६७६ ५ ५५४७ ३ २५०० गहवइणो आहारो गहिए भिक्खे भोत्तं गहिए व अगहिए वा गहिओ भ सो वराओ गहियमणाभोएणं गहियम्मि वि जा जयणा गहियं च महाघोसं गहियं च णेहिं धणं गहियं च तेहिं उदगं गहियाऽऽउहप्पहरणा गहियाऽगहियविसेसो गंडी कच्छति मुट्ठी गंडी कच्छभ मुट्ठी गिण्हह णामं एगस्स गिण्हणे गुरुगा छम्मास गिण्हंतगाहगाणं गिण्हंति वारएणं गिण्हंति सिझियाओ गिण्हामि अप्पणो ता गिम्हासु चउरो पडला occccm ४२६१ ३ २२८१ ५ ६०५७ ४ ३४१३ ६ ६०९१ ३३५६ ४ ३४२७ ४ ३३९१ ४५१० ३८२२ ३८२२ टि.१ २ १०२४ गिम्हास तिन्नि पडला गिम्हासु पंच पडला गिम्हासु होति चउरो गिरिजन्नगमाईसु व गिरिनइतलागमाई गिरिनतिजमातीसु व mr0200mmm or aur ४ ३५८४ २ १७२५ १५९६ ३९७५ टि०२ ४ ३९७४ ४ ३९७६ ४ ३९७५ ३ २८५५ ३ २९६० ३ २८५५ टि.४ ३ ३१५३ १ ४९७ १५२२ ३ ३१६७ १ ३८८ ه م ه س ه गंडीकोढखयाई गंतव्वदेसरागी गंतुमणा अन्नदिसिं गंतुं दुचक्कमूलं गंतूण गुरुसगासं गंतूण पडि नियत्तो गंतूण पुच्छिऊण य गंतूण य पण्णवणा गंधड्ड अपरिभुत्ते गंभीरमहुरफुडविसयगाउअ दुगुणादुगुणं गाउय दुगुणादुगुणं गाथा अद्धीकारग गामनगराइएसुं गामऽभासे बदरी गामाइयाण तेसिं गामाणुगामियं वा गामेणाऽऽरण्णेण व गामेय कुच्छिएऽकुच्छिए ३ २६०१ ३४४० गिरिनदि पुण्णा वालागिरिसरियपत्थरेहिं गिलाणतो तत्थऽतिभुंजणेण गिहवासे अस्थसत्थेहिं गिहवासे वि वरागा गिहि अण्णतिथि पुरिसा गिहि उग्गहसामिजढे गिहि एसु पच्छकम्म गिहिगम्मि अणिच्छंते गिहि जोई मग्गंतो गिहिणं भणंति पुरओ गिहिणिस्सा एगागी गिहियाणं संगारो गिहिलिंग अन्नलिंग गिहिलिंगस्स उ दोणि वि गिहिसंति भाण पेहिय गीएण होइ गीई गीतऽजाणं असती गीयस्थम्गहणेणं ه ६ ६१७७ ४ ४७६३ ५ ५२४३ २९५३ २९४९ ३ २९४७ ५ ५९२७ ४ ४७१७ mammy ه ه ३ २१२५ ५ ५२९८ ४ ४८४० ३ ३१५२ ६ ६२७६ ३ २३९१ टि. ७ ३ २३९१ १ ६९० ६ ६२८३ २ १८२७ २ १८६६ ३ २९०८ गामेय कुच्छियाउकुच्छिया गारविए काहीए गावो तणाति सीमा गावो वयंति दूरं गाहिस्सामि व नीए २ १०९६ २ १०९७ ३ २७५४ गीयस्थपरिग्गहिते गीयत्थे आणयणं गीयत्थे ण मेलि.जह २ १९३६ ५ ५०६२ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमं परिशिष्टम् । ० ० G rrry mrrrr . गाथा विभागः गाथाङ्कः । गाथा विभाग: गाथाङ्क: गीयत्थेण सयं वा २ १०२२ गुरु पच्चक्खायासहु २ १६६४ गीयत्थे पन्चावण टीका पाठा. गीयस्थेसु वि एवं ४ ३३६१ गुरु पाहुण खम दुब्बल ४ ४००८ गीयत्थेसु वि भयणा १८४७ गुरुभत्तिमं जो हिययाणुकूलो गीयस्थो जतणाए ५ ४९४६ गुरुमादीण व जोग्गं गीयत्थो य विहारो ६८८ गुरुयं लहुयं मीसं २६८५ गीयमगीतो गीते ५ ५४५९ गुरुसज्झिलओ सझं. ५४२१ गीयमगीया अविगीय गुरुसारक्खणहे गीयं मुणितेगटुं १६८९ गुरुस्स आणाए गवेसिऊणं ४१६६ गीयाण विमिस्साण व ५ ५४६० गूढछिरागं पत्तं गीयाणि य पढियाणि य ३ २६०० गूढसिणेहं उलं ५ ६००९ गीया पुरा गंतु समिक्खियम्मि ४ ३३०९ गूहइ आयसभावं २ १३०७ गुज्झंगम्मि उ वियर्ड ६ ६२६७ गेण्हण गहिए आलोयण गुज्झंगवदणकक्खोरु ४ ३७७६ गेण्हण गुरुगा छम्मास २ ९०४ गुणदोसविसेसन्नू गेण्हणे गुरुगा छम्मास ५ ५०९३ गुणसुट्टियस्स वयणं ३ २७७६ गेण्हंतीणं गुरुगा गुत्ता गुत्तदुवारा २ २०५० २ १०४४ गुत्ते गुत्तदुवारे गेण्हंतु पूया गुरवो जदिढे ४ ४३२० ३ ३२२५ ३ ३२३६ गेण्हंतेसु य दोसु वि ३३७८ गेलण्णमाईसु उ कारणेसू ३६५२ गुम्मे हि आरामघरम्मि गुत्ते गेलण्णेण व पुट्ठा गुरुओ गुरुअतराओ गेलण्णण व पुढो ५ ५०४१ ६ ६२३५] गेलन तेणग नदी ४ ४७२७ गुरुओ चउलहु चउगुरु ५ ५०७७ गेलनन्द्राणोमे गुरुगं च अट्ठम खलु ५ ६०४३ गेलन रोगि असिवे ४७९९ ६ ६२३९ गेलनं पिय दुविहं २ १०२५ गुरुगा अचेलिगाणं ५ ५९३८ गोउल विरूवसंखडि २ १७२० गुरुगा अहे य चरमतिग १ ५३३ गोच्छक पडिलेहणिया गुरुगा आणालोवे ३ ३१२२ गोजूहस्स पडागा ५ ५२०२ गुरुगा पुण कोडंबे २ ८९४ गोडीणं पिट्रीगं ३४१२ गुरुगा बंभावाए १ ५९० गोणाइहरण गहिओ १२७० गुरुगा य गुरुगिलाणे ४ ४००९ गोणादीवाघाते ४८०८ गुरुगा य पगासम्मि उ गोणे य तेणमादी २८४२ गुरुगो गुरुगतरागो ६ ६२३५ गोणे य साणमाई ४ ३४४१ ५६०३९] गोणे य साणमादी ३३५२ गुरुगो य होइ मासो गोणे साणे व्य वते ५ ५९४० गुरुणो (i) भुत्तुवरियं गोमंडल धनाई गुरुणो व अप्पणो वा ५ ५१७४ गोम्मिय भेसण समणा गुरुतो य होइ मासो ६ ६२३७ . गोयर साहू हसणं mccccwc Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ गाथा विभागः गाथा गाथा विभागः गाथाङ्कः गोरसभाविय पोत्ते गोवाइऊण वसहिं गोवालवच्छवाला ३ २८५२ ४ चरभंगो गहण पक्वे. चरभागऽवसेसाए २ १६६४ टीका पाठा० २ १०१३ ४ ३४२९ ४ ३८२८ ४ ३९८२ १ ६८४ سه १७८८ 000000४ ه ه च उमरुग विदेसं साहचउमूल पंचमूलं चउरंगवग्गुरापरिचउरंगुलं विहत्थी चउरो ओदइअम्मी चउरो गुरुगा लहुगा चउरो चउगुरु अहवा चउरो चउत्थभत्ते चउरो य अगुग्धाया चउरो य दिग्विया भागा चउरो य हंति भंगा चउरो लहुगा गुरुगा ८२८ २३६३ २ २०५९ ه घटिजंतं वुच्छं घडं सच्चित्तं घट्टाइ इयरखुड्डे घडसद्दे घ-ड-ऽकारा घडिएयरं खलु धणं घडिमत्तंतो लितं घणकुड्डा सकवाडा घण मसिणं णिरुवहयं घणं मूले थिरं मज्झे घम्मम्मि पवायट्ठा घयकिट्टविस्सगंधा घयघट्टो पुण विगई घरकोइलिया सप्पे घुन्नह गई सदिट्टी घेतव्वगं भिण्णमहिच्छितं ते घेत्तुं जहक्कमेणं घेत्तण णिसि पलायण धेप्पंति चसहेणं घोडेहि व धुत्तेहि व घोसो त्ति गोउलं ति य ه ک ४ ३९७७ ३ २२४२ ५९१६ १७१० ३ २३५४ ५ ६०५३ rrrr २७०० ५ ५३६० ४ ३६८६ ३ २८३३ ६ ६२२४ १ ५०२ १९९१ २ १९९३ २ १९९५ २ १९९७ ३ २५३८ ४ ३४७९ له ه ه تک سر ५८५८ २६७७ ३७३५ ४८७८ مه به ه १०७२ گ س चउरो विसेसिया वा चउलहुगा चउगुरुगा चउवग्गो वि हु अच्छउ चउहाऽलंकारविउठिवए चउहि ठिता छहि अठिता चक्कागं भजमाणस्स चड्डग सराव कंसिय चत्तारि अहाकडए चत्तारि छ च लहु गुरु ل चउकण्णं होज रहं चउगुरुका छग्गुरुका चउगुरुग छ च्च लहु गुरु ६ ६३६० २ ९६८ २ १९५९ م س به س २००८ २५२१ २४७८ ३८९८ ६३५९ २ २१०७ ३ २५८६ २४७७ ه م له चत्तारि णवग जाणंत. चत्तारि दुवाराई चत्तारि य उक्कोसा चत्तारि य उग्वाता चत्तारि य उग्घाया ه م चउठाणठितो कप्पो चउण्हं उवरि वसंती चउत्थपदं तु विदिनं चउथो पुण जसकित्ति चउदसपुच्ची मणुओ चउदसविहो पुण भये चउधा खलु संवासो चउपादा तेगिच्छा चउपाया तेगिच्छा चउभगो अणुण्णाए س ४ ३८९४ ४ ४६६३ १ २५६ ४ ३९६६ २४७३ २४७१ ३ २५३६ ४ ४२६४ ३०५८ ४०९८ له س به له २ ५ चत्तारि समोसरणे १९७४ चम्मकरगसत्थादी ७९१ | चम्मतिगं पदुगं Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमं परिशिष्टम् । ६३ गाथा विभागः गाथा गाथा विभागः गाथा ४ ३८०७ चिट्टित्त णिसीइत्ता ५ ३८४.३विहित निसीइत्ता mr टि०३ ४ १५७९ चिरपब्वइओ तिविहो चिरपाहुणतो भगिणि चितंतो वहगादी चिंताइ दट्टमिच्छह ४ ४४६२ ३ २२५८ टि.५ चम्मम्मि सलोमम्मि चम्मं चेवाहिकयं चम्माइलोहगहणं चरगाई बुग्गाहण चरणकरणप्पहीणे चरणकरणसंपन्ना चरणोदासीणे पुग चरमे पढमे विइए चरमे विगिंचियव्यं चरमे वि होइ जयणा चरित्तट्ट देसे दुविहा चरिमे परिताविय पेज चरिमो बहिं न कीरइ चलचित्तो भावचलो चर जुत्तवच्छमहियाचंकमणं निल्लेवण चंकमणाई सतो चंकमणे पासवणे चंकमणे पुण भइयं चंकम्मियं टियं जंपियं चिंता य द मिच्छइ चितेइ दटुमिच्छइ ३ २२५८ ३ २२५० टि. ५ २ ४ 1 १४८५ ४४.३ ७६७ २ ३ १०५१ २२१९ २३९५ १३१२ ४ ४४४३ ४ ४४५७ ३ २५९८ दि. चिंतेइ वादसत्थे चिंधट्टा उवगरणं चिंधेहि आगमे चीयत्त कक्कडी कोउ चुण्णाइविंटलकए चेघरुवस्सए वा चेइदुम पेढ छंदग चेझ्य आहाकम्म चेइय कडमेगढ़ चेइय पूया रायाचेयणमचित्त मीसग चेयणमचेण भाविय २ १७७३ २ १७९० चंकम्मियं ठियं मोडियं चंगोड णउलदायण चंदगुत्तपपुत्तो य ७९८ टि. १ ७९० ६ ६२३१ चंदुजोवे को दोसो चंपा अणंगसेणो चाउम्मासुकोसे ३ २८६६ २ १८३० ४ ४१४९ २ १७६८ २ ९८६ ५२७५ ४ ४०३७ ३२९९ २ २०६६ चेयणमचेयण भाविय चेयणमचेयणं वा चेयण्णस्स उ जीवा चेल४ पुष भणिते चेलेहि विणा दोसं चोअग जिणकालम्मि चोएइ अजीवत्ते चोएइ धरिजते चोएइ रागदोसा चोएइ रागदोसे चोएई वणकाए चोदगवयणं अप्पाचोदणकुविय सहम्मिणि चोहसग पपणवीसो चाउल उण्होदग तुयरे चाउस्सालघरेसु व चारभड घोड मिंटा चारिय चोराऽभिमरा चारियसमुदाणट्ठा चारो त्ति अइपसंगा चिक्खलवासअसिवाचिट्टण निसीयणे या ५ ५७६१ २ ९७६ ५ ५३०६ ४ ४७४७ ३ २७५९ ३ २३९९ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ पञ्चमं परिशिष्टम् । गाथा चोइस दस य अभिने चोयग! एताए चिय चोयग! कन्नसुहेहिं चोयग! गुरुपडिसिद्ध चोयग! तं चेव दिणं चोयग! दुविहा असई चोयग! नियतं चिय चोयग पुच्छा उस्साचोयग पुच्छा गमणे चोयग पुच्छा दोसा चोयगवयणं गंतूण चोयगवयणं दीहं चोयावेह य गुरुणा चोरु त्ति कडुय दुम्बो. م م छक्काय गहणकडण छक्काय चउसु लघुगा छकाय उसु लहुगा ه ه م विभागः गाथाङ्क गाथा विभागः गाथाङ्क: १ १३२ छण्हं जीवनिकायाणं ४ ४०५४ छत्तंतियाए पगयं १ ३९९ ३ २८१३ छन्नवहण? मरणे ३ २३८१ १४०९ छनालयस्मि काऊण १ ३७४ छप्पयपणगरक्खा ९८३ छप्पुरिसा मज्झ पुरे छब्भागकए हत्थे ४०४४ २ १९१४ छम्मास अपूरित्ता ७६८ छम्मासे आयरिओ १९९८ ४८३ २००१ २ १४८७ छम्मासे पडियरिङ ६२१८ ५ ५४५५ छलहुए ठाइ थेरी २४१० ४ ३३५० छल्लहुगा उणियत्ते ६०७७ छविहकप्पस्स ठिति ६४८८ ३ २७७० छग्विह सत्तविहे वा १ २७४ २ ८७९ छब्बीहीओ गाम १४०० छहिं निफजह सोज ९७७ ३ २७७१ छंदिय गहिय गुरूणं ५१५८ ३ २७३६ छंदिय सयंगयाण व २८५६ ३ २९२५ । छादेति अणुकुयिते . ३ ३०५६ छायाए नालियाइ व २६१ ३६९८ छाया जहा छायवतो णिबद्धा ४ ३६२८ ४ ४१०७ छारेण लंछिताई ४ ३३१२ ५ ६०५४ छिकस्स व खायस्स व १३३७ ६ ६२१० छिजते विन पावेज ६ ६३३१ छिण्णावात किलंते ४ ३३९४ छिन्नमछिन्ना काले १६८३ ६ ६०६३ | छिन्नममत्तो कप्पति ३६४३ ६ ६१३३ छिन्नम्मि माउगते ५ ६०४४ छिनाइबाहिराणं २३१५ ६ ६२४० छिनेण अछिन्त्रेण व ३ ३०५२ ५४८७ छिहलिं तु अणिच्छंते ५ ५१७९ ५४८८ छिंडीइ पञ्चवातो ३ २६५३ ४९३५ छिंडीए अवंगुयाए २६५५ छिंदंतस्स अणुमई १७८९ छुभणं जले थलातो ५६२३ छुभमाण पंचकिरिए २ ९१० १ ५५३ छेओ न होइ कम्हा छकायाण विराहण م ه م ه ه ه ه ه ه छगणादी ओलित्ता छ चेव अवत्तम्वा छ वेव य पत्थारा छटुं च चउत्थं वा ه س س छटाणविरहियं वा छट्ठाणा जानियगो छट्टो य सत्तमो या छडुणिका उड्डाहो छड्डावियकयदंडे छड्डे भूमीए छड्डेउं व जइ गया له گه که Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमं परिशिष्टम् । ६५ विभागः गाथाङ्कः गाथा छेदणे भैयणे चेव छेदो छग्गुरु छल्लहु छेदो मूलं च तहा विभागः गाथाङ्कः २ १०८२ ३ २५४६ २ १५१४ छेलिय मुहवाइत्ते छोडें अणाहमडयं ३ २९१४ ३ २५२२ ३ २५३९ ६ ६३२४ ५ ५२२१ टि०२ ५ ५२२१ २ १०.४ ३ २९७६ छोदणाणाहमयं छोदण दवं पिजह ४ ३८७४ जइ अकसिणस्स गहणं जइ अगणिणा उ वसही जइ अभितरमुक्का जइ अंतो वाघाओ जइ इच्छसि सासेरा जह उस्सग्गे न कुणह जइ एगत्थुवलद्धं जइ एगस्स वि दोसा जइ एयविप्पहूणा २ २ ६ ८३८ २०६८ ६२३० गाथा जइ ताव पिहुगमाई जइ ता सणप्फईसुं जइ तिनि सम्बगमणं जह तेसिं जीवाणं जइ दिटुंता सिद्धी जइ देंतऽजाइया जा जह धम्मं अकहेत्ता जइ नस्थि को नाम जइ नाणयंति जोई जइ नाम सूइओ मि जइ निल्लेवमगंधं जह नीयमणापुच्छा जइ पज्जणं तु कम्म जह परो पडिसेविजा [ , जइ पवयणस्स सारो जइ पंच तिन्नि चत्तारि जइ पुण अणीणिओ वा. जइ पुण अस्थिता जइ पुण खद्धपणीए जइ पुण जुन्ना थेरा जइ पुण तेण ण दिट्ठा जइ पुण पवावेती जइ पुण पुरिमं संघं जइ पुण सव्वो वि ठितो जह पुण संथरमाणा जइ पुण होज गिलाणी जह पोरिसित्तया तं जह बारस वासाई जइ बुद्धी चिरजीवी जइभागगया मत्ता जह भुत्तुं पडिसिद्धो जइ मे रोयति गिण्हध जइ भोयणमावहती जइमं साहुसंसगिंग जह मूलऽग्गपळंबा जइ रजाओ भट्ठो जइ रनो भजाए जइ वा कुडीपडालिसु ३ २९४१ ४ ४५४६ २ १७४० ५ ५५६३ २ १७६० ३ २७०२ ५ ५७३०] १ २४३ २ १५१८ ५५४० ४ ४४०७ १४८८ २ १५२९ ४ ४५८२ २ १८४० ५ ५३०४ ५ ५२८०] १ ३०५ or marrr mr- rrrrrmurrr pm00r. س जइ एव सुत्तसोवीरजइ एवं संसर्ट जह ओदणो अधोए जह कप्पादणुयोगो जह कालगया गणिणी जइ किंचि पमाएणं जइ कुट्टणीउ गायंति जह कुसलकप्पिताओ जइ कूवाई पासम्मि जइ जग्गंति सुविहिया जइ जं पुरतो कीरह जइ णेउं एतुमणा जइ तत्थ दिसामूढो जह ता अचेतणम्मि जह ता दंडस्थाणं जह ता दिवा न कप्पड़ जइ ताव तेसि मोहो जइ ताव दलंतऽगालिणो जह ताव पलंबाणं १०६३ ५३४६ ३ २४८३ ४ ४८४९ ६ ६२७४ ५ ५२७२ २ १२२० ४३४३ २५१५ ६०१३ م ه م १३६८ ३ २६६३ २ १०११ ११०६ ३५२९ २ १८१७ ५३८९ ३१०८ ३८१४ ४४२९ २८४० ३ २१५६ ४ ४३२५ २ १०५३ س ४०७३ ه ه س ८५३ ६३५ ३४ ४ ४८६७ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ पन्ना परिशिष्टम। विभागः गाथा विभागः गाथा ३ ३२१३ १ ४८६ १००१ १२२३ १३८७ ३ २८३९ -rrrram Favorror गाथा जति दोणि तो णि वे दिन जति दोसो तं विंदति जति ने तो पुणरवि जति परो पडिसेविजा | " जति पुण सो दि वरिजेज जति मं जागह सामि जति रिक्को तो दवमत्तजति या ण णिवहेजा जति वि य तिट्टाणकयं गाथा जइ वा सम्वनिसेही जइ वा हत्थुवघाओ जइ वि अणंतर खेत्तं जइ वि निबंधो सुत्ते जइ वि पगासोऽहिगओ जइ वि य उप्पजते जइ वि य न प्पडिसिद्ध जइ वि य पिपीलियाई जइ वि य पुवममत्तं जइ वि य फासुगदवं जइ वि य भूयाबादे जइ बि य महत्वयाई जइ वि य वत्थू हीणा जइ वि य सनाममिव परिजइ वि य होज वियारो जइ वि हु सम्मुप्पाओ जइ स चेव य इत्थी जइ समगं दो वइगा जइ सव्वं वि य नाम जइ सच्चे गीयत्था जइ संजमो जइ तवो जइ सीसम्मि ण पुंछति जह से हवेज सत्ती जइ होहिति बहुगाणं १ ७४ ३ ३२८६ ५ ५३१० ६ ६२८४ १ २२ टि०३ ४९४७ ५. ५३४५ २८६३ ४ ३८५५ जति सब्बसो अभावो १ २०६। जति सवं उहिसि २ १३४० । जति सिं कजसमत्ती जत्तियमित्ता वारा जत्तिय मेत्ता वारा जत्तो दिसाए गामो जत्तो दुस्सीला खलु जत्तो पाए खेत्तं जत्थ अचित्ता पुढवी . २ २०११ जत्थ अपुरोसरणं २ २०६५ २ १५३० ५. ५६५० ११९५ mmccwwwc १६६७ ४२२८ टि.५ जत्थ उ जणेण णातं जत्थ उ देसग्गहणं जस्थऽपतरा दोसा जस्थऽप्पयरा दोसा जत्थ मई ओगाहइ जस्थऽम्हे पासामो जत्थऽम्हे वचामो ३३२५ २२७६ ૨૩૨૨ २३२ २ १३०५ जक्खो चिय होइ तरो जच्चाई हिं अवन्नं जच्चेव य जिणकप्पे जडत्तणेण हंदि जडादी तेरिच्छे जड्डे खग्गे महि से जड्डे महिसे चारी जड्डो जं वा तं वा जणरहिए वुजाणे जणलावो परगामे जति एयविप्पहूणा romar or orammar - टि.२ ६ ६२०४ ३ २९२३ १५८९ १५९० ३ २५९१ ५ ५२९५ ५ ५२८० ५ ५३०४] जस्थ य नस्थि तिणाई जत्य वि य गंतुकामा जत्थ विसेसं जाणंति जत्थाहिबई सूरो जत्थुप्पजति दोसो जमिदं नाणं इंदो जमियं पगयं नाणं ३ २९१० २ २०५६ ५ ५०११ जति ताव लोइय गुरुस्स जति दिवसे संचिक्खति टि.१ १२२७ ५ ५५५६ । जम्मणनिक्खमणसु य २ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्च परिशिष्टम। विभागः गाथाहः विभागः गाथा गाथा ३ ३२६६ । जह चेव अगारीणं जह चेव अन्नगहणे जह चेव इत्थियासुं गाथा जम्मणनिक्खमणेस य जम्मणसंतीभावे जम्हा उ मोयगे अभिजम्हा खलु पडिसेहं जम्हा तु हत्थमत्तेहिं जम्हा धारइ सिज जम्हा पढमे मूलं २२९४ ८९० २५७५ टि०३ २५७५ २६२९ २५७२ २२६९ " or rarrorm ५६८६ अम्हा य एवमादी जय गमणं तु गतिमतो जयवि य तिट्टाण कयं जलजा उ असंपाती जलथलपहेसु रयणाजलपट्टणं च थलपट्टणं जलमलपंकियाण वि जवमझ मुरियवंसे जव राय दीहपट्टो जस्स मूलस्स कटातो arrwmorror arrrrrrrror ११४७ ४४३४ ५१५५ १०१७ २०९९ ५८४५ १८७३ जस्स मूलस्स भग्गस्स २ १८६४ जह चेव य इत्थीसुं ४ ३५२४ जह चेव य पडिबंधो जह चेव य पडिसेहे जह चेव य पुरिसेसुं २५९० । जह जह करेसि नेहं जह जह सुयमोगाहइ ६ ६३५३ जह जाइस्वधातुं १ २२ जह व्वणिंदो थुब्वइ ३ २४०२ जह हाउत्तिषण गओ जह ते अणुट्टिहंता १०९० । जह पढमपाउसम्मि जह पारगो तह गणी ३ ३२७८ जह फुफुमा हसहसेइ जह भणिय चउत्थस्स य २ ९७१।जह भमरमहुयरिगणा जह मयणकोद्दवा ऊ २ ९६९ जह वा णिसेगमादी जह वा तिणि मणूसा ३६४२ जह वा सहीणरयणे ४ ४२०७ जह सपरिकम्मलंभे ५४९५ जह सव्वजणवएसुं १५१७ जह सूरस्त पभावं जह सेजाऽणाहारो ५४९५ जह सो वीरणसढओ टि.१ जह हासखेड्डुआगार जह हेमो उ कुमारो ४२१० जहा जहा अप्पतरो से जोगो १७०१ जहितं पुण ते दोसा जहियं एसणदोसा ५ ६०११ जहियं च अगारिजणो जहियं तु अणाययणा ३८४० जहियं दुस्सीलजणो २५७३ जहिं अप्पतरा दोसा ६ ६०९२ जहिं एरिसो आहारो ४ ४४५० । जहिं गुरुगा तहिं लहुगा 99 SSCcwwwww १०२ २१५१ अस्सेव पभावुम्मि. जह अत्तट्ठा कम्म जह अप्पगं तहा ते जह अम्हे तह अन्ने जह अरणी निम्मविओ जह अहगं तह एते २०५ २९६९ ४ ४२३० ३ २५४३ ५१५३ अह इंदो ति य एत्थं जह उ कडं चरिमाणं जह एस एस्थ वुड्डी जह कारणम्मि पुपणे जह कारणे अणहारो जह कारणे तदिवस जह कारणे निल्लोमं जह कारणे पुरिसेसुं जह कोति अमयरुक्खो जह गुत्तस्सिरियाई me mmrar MMS ५४४१ २०७२ ५९२१ २०५७ २५४९ ६०५६ ४ ३८२५ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमं परिशिष्टम् । गाथा. जहिं नस्थि सारणा वारणा जहिं लहुगा तहिं गुरुगा जहुत्तदोसेहिं विवजिया जे जं भजियं चरितं जं अजियं समीख जं अनाणी कम्म जं अम्भुविच्च कीर जं आवणमज्झम्मी जं आहडं होइ परस्स हत्थे जं इच्छसि अप्पणतो जं इत्थं तुह रोयह जं एस्थ अम्हे सवं जं कट्टकम्ममाइसु जंकल्ले कायव्वं जं किंचि होइ वस्थं जं केणई इच्छइ पजवेण जंगमजायं जंगिय जं गहियं तं गहियं जं गालयते पावं जंघद्धा संघट्टो जं चउदसपुत्रधरा जं चिजए उ कम्म जं चिय पए णिसिद्धं जं जस्स नस्थि वाथं जं जह सुत्ते भणितं जं जंतु अणुन्नायं जं जं तु जम्मि कालम्मि विभागः गाथाङ्क: गाथा. विभागः गाथाङ्क: ४ ४४६४ | जं दिसि विगडितो खलु ५ ५५५५ २ ८८. जं दिसि विगड्डियं खलु टि०२ ३ २७१५ जंदेउलादी उणिवेसणस्सा ४ ३५०५ ५ ५७४७ जंपिन वञ्चति दिसिं ३ २७१४ जंपिय दारुं जोग्गं ५ ५७४६ जंपिय पए णिसिद्ध ४ ३३२८ २ ११७० टि. २ १ १८३ जं पुण खुहापसमणे ५ ६००० ३ २२९० जं पुण तेण अदि ४ ३६२६ जं पुण तेसिं चिय भायणेसु ४ ४५८४ जं पुण दुहतो उसिणं ५ ५९१३ ५ ६०४५ जं पुण पढम वस्थं ३ २८३० १९४० जं पुण सञ्चित्ताती २४५२ जं पुण संभावेमो ४६७४ जंबुद्दीवपमाणं ३ २८३५ जं मंडलिं भंजइ तस्थ मासो ३ ३१६५ जं वत्थ जम्मि कालम्मि ४ ३८८५ जं वत्थ जम्मि देसम्मि ४ ३८८४ जं वंसिमूलऽण्णमुहं च तेणं २ ८०९ जं वा असहीणं तं ४ ३५५२ ५६३६ जं वा पढम काउं २ ९६५ जं वा भुक्खत्तस्स उ २ १६४६ जं वा भुजंतस्सा ५ ६००३ ४ ३३२८ टि०१ जं वेलं कालगतो ५ ५५१८ जं सिलिपई निदायति २ ११४८ २ १४९७ जं होइ पगासमुहं १ ६६४ जं होहिति बहुगाणं ४ ४२२८ टि.३ जाइकुल रूवधणबल २ १७९७ ___७५५ . जा ओ [जो आ] वणे वी य बहिं ४ ३५०२ २ १७६३ जा खलु जहुत्तदोसे६ ६४२१ जागरणटाए तहिं १ १७७ जागरह नरा! णिचं ५ ५९७० जागरिया धम्मीणं ४ ३३८६ जा गंठी ता पढमं . ९५ जाणइ य पिहुजणो वि हु ५ ५२३१ जाणह जेण हडो सो ५ ५५०३ । जाणं करेति एको rrrrrruporn-rrrror जं जं सुयमत्थो वा जं जीवजुयं भरणं जं जो उ समावन्नो जं तं दुसत्तगविहं जंतु न लब्भइ छेत्तुं जं तु निरंतर दाणं जंते रसो गुलो वा जं तेहिं अभिग्गहियं जंदवं घणमंसिणं Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चमं परिशिष्टम्। विभाग: गाथाङ्कः । विभागः गाथाङ्कः ३ ३१८४ ४ ४४५५ गाथा जाणंतमजाणता जाणंतमजाणंते जाणता माहप्पं जाणता वि य इस्थि जाणंति जिणा कर्ज जाणंति तम्बिह कुले जाणंतिया अजाणंतिया जाणं तु आसमाई जाणं तू रहमाई ४ ४६५५ ४६८४ ५ ५०४४ ३ २२८२ ३ २३५६ २०९२ ३६४ गाथा जावंतिया पगणिया जा वि य ठियस्स चेट्ठा जा सम्मभावियाओ जा संजयणिहिट्ठा जा सालंबण सेवा जासि एसि पुणो चेव mmu-rrrr ४ ४२०६ ६ ६३४३ २ ११५७ टि. २ ४ ३७४३ २ १६९२ २ ११७२ ३ ६९१ जाहे वि य कालगया जिणकप्पिअभिग्गहिएजिणकप्पिएण पगयं जिगकप्पिओ गीयस्थो जिणकप्पियपडिरूवी जाणामि दूमियं मे जाणाविए कहं कप्पो जा णिति इंति वा अच्छओ जा णिति इंति वावऽच्छए ८३० टि०१ २२२५ ४ ४६६० ६ ६३८८ ६ ६३८८ टि.२ " ५ ५०३५ ४ ४०६२ जिणकप्पे तं सुतं जिणलिंगमप्पडिहयं जिण सुद्ध अहालंदे سه ه २६८६ ३४७७ ४४९७ ६१४६ १७३० ه ه २ ه ه ه २ ११३१ २ १२८३ ३९६५ ५ ५५२२ १ १२३ १ २४२ ५ ५२५५ ६ ६१९८ १७७८ ११४० १०९५ १ ४१२ १ ७१८ ३ २७२५ ه ५९९५ १९०१ ه ه जा ताव ठवेमि वए जा तेयगं सरीरं जा दहिसरम्मि गालियजा दुचरिमो तिता हो? जा फुसति भाणमेगो जा मुंजह ता वेला जा मंगल त्ति ठवणा जायण निमंतणुवस्सय जायति सिणेहो एवं जायंते उ अपसत्थं जा यावि चिट्टा इरियाइभाओ जारिसएणऽभिसत्तो जारिसग आयरक्खा जारिस दव्वे इच्छह जारिसयं गेलनं जावह काले वसहिं जावइयं वा लम्भ जावइया उस्सग्गा जावइया रसिणीओ जाव गुरूण य तुम्भ य जाव न मंडलिवेला जाव न मुक्को ता अण. जावंतिगाए बहुगा जावंतिया उ सेजा م ک जिणा बारसरूवाई जितणिढुवायकुसला जिम्हीभवंति उदया जियपरिसो जियनिहो जियसत्तुनरवरिंदस्स जियसत्त य णरवती जीवं उहिस्स कडं जीवा अन्भुष्टुिंता जीवाऽजीवसमुदओ जीवाऽजीवाभिगमो जीवाऽजीवे न मुण जीवा पुग्गल समया जीवो अक्खो तं पइ जीवो उ भावहत्यो जीवो पमायबहुलो जीहादोसनियत्ता जुगलं गिलाणगं वा जुत्तपमाणस्सऽसती जुत्त विरयस्स सययं जुत्तं सयं न दाउं जुत्ती उ पत्थरायी जुन्नमएहिं विहूणं له له مو ६१३२ ५०४९ १९८० १९३२ ५८७८ १०७७ १. ३२२ २ १७५६ १५०१ २ १६८२ १९०९ ३१८६ له به ५ ४८९६ २ १६५५ ३ ३१५६ ६ ६१९३ ४ ४०२१ २ ११४६ २ १९४१ १ ५२६ २ १४५९ له س مه Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० पञ्चमं परिशिष्टम् । गाथा विभागः गाथाङ्कः गाथा विभागः गाथाङ्कः जुन्नेहि खंडिएहि य ६ ६३६७ जेसिं एसुवासो जुवाणगा जे सविगारगा य ४ ३५०६ जेसिं चाऽयं गणे वासो ५ ५७१७ जे उ अलक्खणजुत्ता १ २२२ जे सुत्तगुणा खलु लक्ख १२२२ जे खलु अभाविया कु जे सुत्तगुणा भणिया जे खेत्तिया मोति ण देंति ठागं ४ ४८५० जेसु विहरंति तातो ५ ५०१४ जे चित्तभित्तिलिहिया जेहिं कया उ उवस्सय २ १४९० २ १४९१ जे चित्तभित्तिविहिया ८ । जेहिं कया पाहुडिया २ १४९२ जे चेव कारणा सिक्क२८८७ २ १४९३ जे चेव दोन्नि पगता ४७८९ जे होंति पगयमुद्धा जे जम्मि उउम्मि कया १ ४४८ [जाओ [जो आ] वणे वी य बहिं ४ ३५०२] जे जरिम जुगे पवरा १ २०१ जो इत्थं भूतत्थो ५ ५२२८ जे जह असोयवादी ४ ४८२० जोइसिय-भवण-वणयर २ पृष्ठ ३६९ जे जे दोसाययणा २ १८६० प्रक्षिप्तगाथा २ जेट्टजेण अकजं ६ ६१५० जोइसिय भवण वणयर २ पृष्ठ ३६९ जेठो कणेटभजाए ६. ६२६१ प्रक्षिप्तगाथा ३ जेहो मज्झ य भाया जोइंति पकं न उ पक्कलेणं ४ ४४१० जेण असुद्धा रसिणी २ १७५९ जो उ उदिने खीणे जेण उ भायाणेहिं २ १२८८ जो उ उवेहं कुज्जा २ १९८३ जेण उ सिद्धं अत्यं ११७९ जेण खवणं करिस्सति जो उ गुणो दोसकरो ४ ४०५२ जेणऽधियं ऊणं वा जो उजिओ आसि पभू व पुवं ४ ३६१५ जेण विसिस्सइ रूवं १ २५९ जो उत्तमेहिं पहओ १ २४९ जेणोग्गहिओ अत्थो ४८७१ जो उ परं कंपंतं २ १३२० जेणोग्गहिता वगा जो उ महाजणपिंडेण ४ ३६०० जे ते देवेहिं कया २ ११८४ जो एतं न वि जाण ३ ३२४४ जे पुण अभाविया ते जो कप्पठिति एवं ६ ६४४० जे पुण उजयचरणा ४४६१ जो खलु सतत सिद्धो १ १८१ जे पुटिव उवकरणा ३ ३०९८ जो गणहरो न याणति ३ ३२४६ जे मज्झदेसे खलु देसगामा ३ ३२५७ जोगमकाउमहागडे १ ६०७ जे मज्झदेसे खलु भिक्खगामा ३२५७ जोगिदिएहिं न तहा २ १२८७ टि०२ जोग्गवसहीइ असई २ २१०८ जे य दंसादओ पाणा ५ ५९५८ जो चरमपोग्गले पुण १ १३० जे य पारंचिया वुत्ता ६४१२ जो चंदणे कडुरसो ५९१५ जे रायसरथकुसला जो चेव गमो हेटा ४ ४३५६ जे लोगवेयसमएहिं जो चेव बलीए गमो १ ५५८ जे विभन सम्वगंथेहिं २ ८३६ जो चेव य हरिएसु १ ५०६ जे वि य पुचि निसि नि- २ १३३३ जो जस्स उ उवसमई ३ २६९८ जेसि पवित्तिनिविसी जो जस्स उ उवसमनी ५ ५७३३ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमं परिशिष्टम् । ७१ विभागः गाथा ३ २९०५ ३ ३००० ४ ४१२१ १ ६८० २ १६४१ २ १६४० २ ८५१ टि.७ गाथा विभाग: गाथाङ्कः । गाथा जो जह कहेइ सुमिणं १ २२३ जो सो उवगरणगणो जो जह व तह व लद्धं ६ ६२०३ जो होइ पेलतो तं जो जहा वट्टए कालो जोहो मुरुडजडो जो जहियं सो तत्तो जो जेण अणभस्थो १३२९ भाणट्टया भायणधोवजो जेण गुणेणऽहिओ २ १७९८ झाणं नियमा चिंता जो जेण जम्मि ठाणम्मि . ५ ५४९१ झाणेण होइ लेसा जो जेण पगारेणं १ २६३ झिझिरिसुरभिपलंबे जो जेण विणा अस्थो १ २१ झीमीभवंति उदया जो गाते कतो धम्मो ६ ६३०८ जोणीखुब्मण पेलण जोण्हामणीपदीवा २८५८ टिट्टित्ति नंदगोवस्स जो तं जगप्पदीदेहिं ३६४१ जोतिसणिमित्तमादी जो दम्बखेत्तकयकाल ठवणकुलाई ठवे उवणकुले व न साहा ठवणाकप्पो दुविहो जो पुण उभयभवत्तो ५ ५४८४ ठवणाघरम्मि लहुगो जो पुण कायवतीमो ४४५२ उवियगसंछोमादी जो पुण जहत्थजुत्तो ठाइमठाई भोसरण जो पुण तमेव मग्गं २ १३२४ टाणटिइणाणत्तं जो पुण तं अच्छं वा ५ ५८५४ ठाणपडिसेवणाए टि. २ ठाणस्स होति गमणं जो पुण मोहेइ परं १३२६ जो पुण सभोयणं तं ५८५४ ठाणं गमणाऽऽगमणं जो पेल्लिओ परेणं ६२३३ ठाणं वा ठायंती जो मागहो पत्थो ४ ४०६७ ठाणासईय बाहिं जो य अणुवायछिनो २ ९४६ ठाणे नियमा रूवं जोयणसयं तु गंता २ ९७३ ठाणे सरीर भासा जो रयणमणग्धेयं ठायंते अणुण्णवणा जो वा दुब्बलदेहो ठितो जया खेत्तवहिं सगारो जो वा वि पेल्लतोतं ३ ३०८८ ठियकप्पम्मि दसविधे टि.८ ठियगमियविट्ठऽदि? जो वि तिवस्थ दुवस्थो ठियमट्टियम्मि कप्पे ४ ३९८४ जो वि दटुिंधणो हुजा ५ ५९६२ जो वि पगासो बहुसो २ १२२४ डगलससरक्खकुडमुहजो विय तेसिं उवही ३ ३०१३ डझाइ पंचमवेगे जो वि य होतऽकंतो ५ ५६४५ उज्झतं तिबुरुदारुयं जो संजओ वि एयासु २ १२९४ बहरस्सेमे दोसा वृ० २२५ ४ ३७२८ २ १४६६ ६४४२ ५०८५ ૨ ૧૭૮૪ १७८३ ६ ६ ६३५१ ६३५२ १६०५ ३३७३ २९४५ २५९५ ३ ४ ४७४३ ६४४१ ४२३१ ३ २२६० १ ७६५ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ गाथा बहरो अकुलीणो त्ति य डोंहिं च धरिसणा कुणपि सुगादि वहिं ण ण उण्णियं पाउरते तु एकं ण गोयरो णेव य गोणिपाणं णशु सो चेव विसेसो ण तेसिं जायती विग्धं ण भूसणं भूसयते सरीरं ण वि किंचि अणुण्णायं ण वि जोइस ण गणियं तक असती राया णंतगवतगुलगोरस तपसाणं पिय ढ जाणं तु भक्खरं जेण णाणाणत्तीए पुणो णाभोग पमादेण व पासेति मुत्तिमगं णिग्गंथिचे लग्रहणं णिच्छयतो सम्वगुरुं णिच्छंति व मरुगादी णिति मासकपे णिभये गारस्थीणं fusati च खेमं च णीणेति पवेसेति व गतियं अणचंतियं णेगा उहिस्स गतो सु एगगहणं गेसु पियापुत्ता गेहिं आणियाणं च्छंतमगीतं एतिणेव णोतरणे भभत्तट्ठी विभागः गाथाङ्कः 9 ७७२ ४ ४१२४ ५ ४ ४ पचमं परिशिष्टम् । ३६६९ ४८६१ ६ ६२३२ ६ ૬૪૬૪ ४ ४११८ णाऊण य वोच्छेदं ५ ५४०४ [ दृश्यतां "नाऊण य वोच्छेद" इति गाथा "नाऊण य वोच्छेयं" इति च गाथा ] जागा ! जलवासीया ! ५ ५७३९ 9 ७२ २ ११६८ ४४१३२ ६३१८ ४१८९ १ ६५ ४ ३६०७ ६ ६४८२ ५ ५६६० ५ ४९६२ ५ ५६०९ १ १० ४ ४६९४ ४ ३३१७ ४ ३५५६ ४ ४३१९ ४ ३६४० ५ ५७६४ ५३७६ ४ ३३३० ४ ३३६५ ५ ५५२० ४ ४१९८ 2 पृष्ठ २४ टि० ३ ६ ४ गाथा हाणा समोसरणे [ 39 पहाणाऽणुजाण माइसु पहाणादिसमोसरणे E वइए वि होति जतणा तइभ एयमकिञ्च तइभ जावज्जीवं "" तइभो त्ति कथं जाणसि वइभ संजमभट्ठी तयचउत्था कप्पा वयस्स जांवजीवं वयस्स दोन मो तयं पहुच भंगं वयं भावतो भिनं वइयाइ भिक्खचरिया asure दो सुद्धा तइयादेसे भोत्तूण तओ पारंचिया वृत्ता तचित्ता तलेसा वजायजुत्तिलेवो वजाय मतजायं ताणं वा वृत्तं aण कटु नेह धरणे तणगहण अग्गिसेवण वणगहणाऽऽरण्णतणा तणगहणे झुसिरेतर तणडगलछारमल्लग 37 वणपणगम्मि वि दोसा aण विणण संजयट्ठा तणुकयम्मि पुष्वं तणुनिया पडिहारी तण्हाओ गिलाणो तत पाइयं वियं पिय वतियताए गवेसी ततिया गवसणाए ततstयमिते गंधे त विभागः गाथाङ्कः २ १२५१ ૪ ૪૭૨૬] २ १७६९ ४ ४७२६ २ १२५१] ३ २ २ ६ ४ ६ २ 335 १०१५ ५ -३ २१३० २ ८६० २ ५ ३ ६ ३ १ ४ ૧૨૪ ६१५३ ३७६५ ६४८१ ૧૮૩૨ ५१२०. २८६७ ६४१० २४५९ ५२५ ૩૮૭૮ ६१६५ ५ ५११७ २ ९२० ५ ५६६७ २ ९०३ ४ ३५३५ ४ ४८४७ १३९७ ५७९२ ३ ४ २ ५ ४ ३८३२ ¡9 ६२५ २ १३४७ २३४१ ३४२५ १७६५ ५७९४ ५ ५७९६ ५ ५८४८ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमं परिशिष्टम् । विभाग: गाथाङ्क: ३ ३२२१ ५ ५५८१ ४ ३५६४ १ ३६९७ ४ ३९१९ 0000000 गाथा तत्तो अणूणए कप्पे तत्तो इस्थिनपुंसा तत्तो य उणए कप्पे तत्तो य वग्गणाओ तस्थ अकारण गमणं तस्थ उ हिरण्णमाई तस्थग्गहणं दुविहं तस्थ चउरंतमादी.. तस्थऽनतमो मुक्को तस्थऽवस्थ व दिवसं तत्थ पवेसे लहुगा तस्थ पुण होइ दब्दे तस्थ भवे जति एवं तस्थ य अतिंत तो तस्थ वि पढमं जं मीसुतस्थ विय होति दोसा तस्थावायं दुविहं तत्थेगो उ नियत्तो तत्येव अणुवसंते तत्थेव अन्नगामे वस्थेव आणवावेइ तस्थेव गंतुकामा तस्थेव भायणम्मी तत्थेव य निटुवर्ण तत्थेव य निम्माए तत्थेव य पडिबंधो ६ ६३१० ४५८३ ४ ४२५९ ५ ५२६९ १ २५३ ४ ३९२१ ३ २७५१ विभागः गाथाङ्का गाथा ६ ६४६० तम्भावियं तं तु कुलं अदूरे तमतिमिरपडलभूतो तम्मि असाहीणे जेट तम्मि य अतिगतमित्ते ४ ३६८१ तम्मि वि सो चेव गमो ३ २६५२ तम्मूल उवहिगहणं २ ८९१ तम्हा अपरायत्ते ३ २३०७ तम्हा उ भणेगंतो २१६९ तम्हा उ गेण्हियव्वं ३७५४ तम्हा उ जाहिं गहितं ५३७५ तम्हा उ निक्खि विस्सं २१४६ तम्हा उ भिंदियब्वं ४५२८ तम्हा उ विहरियव्वं ३१६२ तम्हा खलु अब्बाले तम्हा खलु दहब्वो ३ २१३१ तम्हा खलु पट्ठवणं १ ४२० तम्हां गुब्बरपुढे तम्हा ण सम्वजीवा ३ २२२२ तम्हा तु ण गंतवं २ १९०२ तम्हा दुचक्कपतिणा ३ ३०३४ तम्हा न कहेयव्वं तम्हा पडिलेहिय साहि. ५ ५९०१ तम्हा पुदि पडिलेहिजण तम्हा विविंचितवं ५४१८ तरच्छचम्म अणिलामइस्स ३ २५०३ तरु गिरि नदी समुद्दो ४ ४११६ तरुणाइन्ने निचं तरुणादीए दुटुं तरुणा बाहिरभावं ४ ४१९९ तरुणावेसिथिविवाह तरुणीउ पिंडियाओ २ १५४३ तरुणीण अभिवणे ६ ६२५२ तरुणीण य पक्खेवो ५ ६०२६ तरुणीण य पन्वज्जा ५ ६०२८ तरुणी निष्फन परिवारा तरुणे निष्पन्न परिवारे २ १२६९ तरुणे मज्झिम थेरे तरुणे वेसिस्थि विवाह ४ ३४१७ । तरणे वेसिस्थीओ Mmm orr mo. mum ५ ५८७२ ५ ५५७३ तत्थेव य भोक्खामो सदभावे न दुमुत्तिय तदसति पुम्वुत्ताणं तदुभयकप्पिय जुत्तो सदुभय सुत्तं पडिलेहतहवस्स दुगुंछण तदिवसमक्खणम्मि तदिवसमक्खणेण उ तदिवसं पहिलेहा तदिवसं विइए वा तप्पुग्विया भरहया तम्भाविषट्ठा व गिलाणए पा ५ ५३०३ ४९९ ७९. २ १५६४ २ १४५४ ५ ५८७७ ३८१७ ३ २४२९ ५ .५२५६ ३ २३१० २ १४५८ ४ ३४९५ १८४८ २०८३ १९५० ४ ४१६० ४ ४३४१ ४ ४३३० ४ ४६८१ ३ २३०४ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ पञ्चमं परिशिष्टम् । गाथा له به س س س س س له له م तलगहणाउ तलस्सा तल नालिएर लउए तलिय पुडग वझे या तलियाउ रत्तिगमणे तवगेलनऽदाणे तव छेदो लहु गुरुगो तवभावणणाणत्तं तवभावणाइ पंचिं. तवसोसिय उव्वाया तवेण सत्तेण सुत्तेण सवो सो उ अणुण्णाओ तसउदगवणे घट्टण तसपाणविराहणया तस बीयम्मि वि दिटे तसबीयरक्खणट्ठा तसबीयाइ व दिटे तस्स जई किहकम्म तस्स य भूततिगिच्छा तस्सऽसइ उदृवियडे तस्संबंधि सुही वा तस्सेव उगामस्सा तस्सेव य मग्गेणं तह अनातिथिगा वि य . तह चेव भन्महा वा तह वि भठियस्स दाउं तह विय भठायमाणे بگره به له विभागः गाथाङ्कः गाथा विभाए गाथाङ्कः । तं छिंदओ होज सतिं तु दोसो ४ ३९२९ ८५२ तं जाणगं होहि अजाणिगा हं ३ ३२४९ २८८३ तं तु न जुजइ जम्हा २ १३६५ ३ २८८४ तं तेण छुढं तहिगं च पत्ता ४ ३६०६ ५८१७ । तं नस्थि गामनगरं ३ २२९० २४७९ तं पासिउं भावमुदिण्णकम्मा ४ ४१०९ १४२६ । तं पिय चउम्विहं राइ ३ २८४९ १३३२ तं पुण गम्मिज दिवा ३ ३०४२ १५५६ तं पुण चेयनासे १३२८ तं पुण जहस्थनियतं ५९५७ तं पुण रच्छमुहं वा ३ २२९९ ५६३२ तं पुण रूवं तिविह ३ २४६७ ३८१० तं पुण सुण्णारपणे ६ ६१७८ ४०४२ तं पूयइत्ताण सुहासणस्थं ५ ५०४८ १६६६ तं मणपजवनाणं १ ३५ १ ६६७ तं वयणं सोऊणं ४ ४७८१ २ २०२१ ४ ४७८५ ६ ६२६२ सं वयणं हिय मधुरं २ २०१० ४ ३५०८ संवा अणकमंतो २ १६६९ ५५७४ तं वेल सारविंती २ १६९० १९०२ तं सचित्तं दुविहं २ ९०८ ३ २९५३ तं सिव्वणीहि नाउं ३ ३०३२ ४ ४२५२ तं सोचा सो भगवं २२३३ ता अच्छह जा फिडिओ २ १५९४ ४३२७ ताई तणफलगाई २ २०३७ २०८५ ताई विरूवरूवाई ४ ३६६० ४८८१ साणि वि उवस्सयम्मि ६२०९ ता बेंति अम्ह पुण्णो ३ २२१९ ४९३० तारेह ताव मंते! २ २००७ १९५० तालं तलो पलं २ ८५० तालायरे य धारे ४ ४२६८ ५५८६ तावसखउरकढिणयं . ३४५ २८८६ तावोदगं तु उसिणं ५ ५९०८ ५ ५२७३ तावो भेदो भयसो २७०८ ९३० ५७४१ तासिं कक्खंतरगुजा ३ २२५७ ५५८३ तासिं कुचोरुजघणा ३ २६५० ३ २४९९ तासेऊण अवहिए ४ ३३८८ ४ ४८२१ । ताहे उवगरणाणिं rrr memorrrrrrrrrrm. तह समणसुविहिताणं तह से कहिंति जह होइ तहियं पुन्वं गंतुं तहिं वचंते गुरुगा तहिं सिक्कएहिं हिंडति तं काट कोहन तरह तं काय परिचयई तं चेव अभिहणेजा तं चेव णिटुवेती तं चेव लिट्टवेई तं चेव पुग्वभणियं mmm Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा तिक्खछुहाए पीडा तिक्खुतो सक्खित्ते तिक्खुत्तो सक्खेत्ते 39 तिगमाईया गच्छा तिगमाद संकणिजा तिगसंवच्छर तिग दुग ति चिय संचयदोसा तिट्ठाणे अवकमणं तिणि य असती तिष्णेव य पच्छाया [ "" तिन्ह वि कतरो गुरुतो तिन्ह वि करो गुरुओ तिन्हं एक्केण समं तिण्हाssरेण समाणं तिण्हेरायरे गमणे तिकडुओ सहाई तित्ति त्ति नंदगोवस्स तिरथकर पवयण सुते [ तिरथगरा जिण चउदस तिस्थपणामं काउं तिरथयरनाम गोयस्स "" तित्थयरपढमसिस्सं तिरथयर पवयण सुते [ 39 तिथयरस्स सभीवे तिरथविवडी य पमातिथं करपरि कुट्ठो 33 तिरथाइसेस संजय तिरथाणुसज्जणाए तिमि कसिणे जहणणे तिनि विहस्थी चउरंगुलं तिनेव गच्छवासी तिब्रेव य चउगुरुगा विभागः गाथाङ्कः २ १६९४ ६ ६३९७ ४ ३५५५ ६ ६३८० २ १६३० २ २०९० २ १९५४ ५ ६०२० ५ ५३६३ ४ ४२२४ ४ ४०८१ ४ ३९६३ ] ३ २५०९ ३ २५२९ २ १६१९ १ ७८१ ३ ३१२५ २८९ ७७ टि०४ ४९७५ ५५०६० ] १ ง पञ्चमं परिशिष्टम् । ५ २ १११४ २ ११९३ २ १७८० ४९८४ ५ ५ ५०६० ५ ४९७५] २ १२१८ ५ ५३३७ ४ ३५४० ६ ६३७८ २ ११८५ २ ११४२ ४ ३९८६ ४ ४०१३ २ १४७२ २ १७६० गाथा तिन्नेव य पच्छागा [ 39 तिपयं जह भवम्मे तिपरिरयमणागाढे तिप्पभि भडतीभो तिरिए वि एवं चिय तिरिय निवारण अभिहणण तिरियमणुइरिथयातो तिरियमणुयदेवीणं तिरियामरनरइत्थी तिलतुसतिभागमित्तो 39 तिविह निमित्तं एकेक तिविह परिग्गह दुब्वे तिविम्मि कालछेए तिविहं च अहालंद तिविहं च भवे वत्थं तिविहं च होइ करणं तिविहं च होइ गहणं तिविहं च होइ पायं तिविहं च होति दुग्गं तिविहं च होति विसमं तिविहं होइ निमित्तं तिविहं होइ पुलागं तिविहाऽऽमय मे सज्जे तिविहा होह निवण्णा तिविहित्थि तत्थ थेरेिं तिविहे परुवियम्मि तिविहे य उवस्सग्गे तिविहोत्रिय असतीए तिविहो बहुस्सुभो खलु तिब्वकसायपरिणतो 93 तिब्वकसायसमुदया तिब्बाभिग्गहसंजुत्ता तिब्वे मंदे णातम तिब्वेहि होति तिब्वो तिसमय तद्वितिगं वा विभागः गाथाङ्कः ४ ३९६३ ४ ४०८१] १ ३०४ ४ २ १ ४ ४ २ १ ४ ४ ६ ६ २ ७५ १ ३ २४३० २ १११३ ५ ५ २ २ ४ ४ 9 ५ ५ ३ ५ ४ ४ ३५५१ २०९३ ४२८ ५ ३३५४ ५९१ ५०३० ५१३० १३१८ ८९२ ३९७३ ३३०३ ८२७ ६१८३ ६१८५ १३१३ ५ ६०४८ ३ ३०९५ ५ ५९४६ १ ६३८ ४ ४०२८ ६ ६२६९ ३६७७ ४०२ ४९९३ ५००५ ९४ ४३३३ ४०२७ २६८३ ५९६० ३९३६ ३९३७ ४८८९ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ पञ्चमं परिशिष्टम् । गाथा तिसु छलहुगा छग्गुरु तिसु लहुओ गुरु एगो तिसु लहुओ तिसु लहुया तिहिकरणम्मि पसत्थे तिहिं कारणेहिं अन्न तिहिं थेरेहिं कयं जं तितिणिए चलचित्ते तितिणिए पुव्व भणिते तितिणिया वितदट्ठा तीस दिणे मायरिए तीसा य पण्णवीसा rururrrrrrr- m तीसु वि दीवियकज्जा तुच्छत्तणेण गम्वो तुच्छमवलंबमाणो तुज्छा गारवबहुला तुच्छेण वि लोभिज्ज तुम्म चिय णीसाए तुम्मट्ठाए कयमिणं तुम्भ वि पुण्णो कप्पो तुम्भे गिण्हह भिक्खं तुम्भे वि कहं विमुहे तुम्भे वि ताव मग्गह तुमए किर दुहुरो तुमए समगं आमं तुम्हऽटाए कयमिणं विभागः गाथाङ्कः गाथा विभागः गाथाङ्कः ५ ५८४१ तुल्ले वि समारंभे २ १८२९ ५ ५८४० तुवरे फले य पत्ते ३ २९२२ १५९३ १५४५ तुसधन्नाई जहियं ४ ३३६४ ५ ५४९७ तुसिणीए चउगुरुगा ५ ५९९२ ३ २८६० तुसिणीए हुंकारे ६ ६१०५ १ ७६२ तूरपइ दिति मा ते १ ६४० ६३३२ तूरह धम्म काउं ४ ४६७५ ६ ६३४० तूरंतो वन पेहे २ १४६९ तेइच्छियस्स इच्छा २ १९६१ ६ ६२३८ तेउवाउविहूणा ૬ પરંપર ५ ६०४२ ते कित्तिया पएसा ४. ४५१२ ५ ५४९२ ते खिंसणापरद्धा ६ ६०९३ ते गंतुमणा बाहिं ५ ५७००-- ४ ४५३१ तेगिच्छ मते पुच्छा १ १४६ ते गुरुलहुपजाया २०५४ ते चेव तत्थ दोसा ३ २५२५ ४६८५ ३ २५४२ ४०३६ ते चेव दारुदंडे ५ ५९७५ २१३७ ते चेव विवडुंता २२९ २२१५ ते चेव सवेंटम्मि ५ ५९७३ ४१८६ तेण?म्मि पसजण ३ २७७९ ४६४५ तेण परं आवायं १ ४६५ तेण परं चउगुरुगा ४ ४१४४ ५१८९ तेण पर निच्छुमणा २ १२७२ ४०३६ तेण परं पुरिसाणं १ ४६४ टि.३ ३ २९५५ तेणभय सावयभया ४ ४३०५ ६ ६३३८ तेण भयोदककजे ३ ३०६० तेणाऽरक्खियसावय ३ ३२०९ २ १४३२ तेणाऽऽलोग णिसिजा ३९०४ २९१७ तेणा सावय मसगा २ १४५५ ४९७४ ३ २४५८ ५ ५१२६ तेणिच्छिए तस्स जहिं भगम्मा भगम्मा ३ ३२३३ ६१२९ तेणियरं व सगारो ३ २३४७ तेणियं पडिणियं चेव ४ ४४७३ तेणे देवमणुस्से ८८२ ३ २५१४ तेणेव साइया मो २ १९८२ ३ २५३३ । तेणे सावय ओसह م ६१४० urmer तुम्ह य अम्ह य भट्ठा तुरियगिलाणाहरणे तुरियं नाहिजते तुल्ल जहन्ना ठाणा तुल्लम्मि अदत्तम्मी तुल्लम्मि वि अवराधे तुल्लम्मि वि अवराहे तुल्लहिकरणा संखा तुल्ला चेव उठाणा तुल्ले छेयणभावे तुले मेहुणभावे Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमं परिशिष्टम् । ७७ س م س م ه م ه ه س गाथा विभाग: गाथाङ्क: गाथा विभाग: गाथाङ्क: तेणेसु णिसटेसुं ४ ३३८१ थद्धे गारव तेणिय ४ ४४९५ तेणेहि अगणिणा वा ४ ३७४७ थलकरणे वेमाणितो तेणेहिंऽगणिणा वा ४ ३७४७ थल देउलिया ठाणं ४ ३५४९ टि.. थलसंकमणे जयणा ५ ५६५८ ते तत्थ सण्णिविट्ठा ३३४१ थलि गोणि सयं मुय भक्खते तत्थ सग्निविट्ठा ४ ३३७२ थंडिलवाघाएणं ५ ५५२८ थंडिल्लस्स अलंमे ५ ५९१० ४ ३४६८ थंडिल्लाण अनियमा २ १७४१ ते तिणि दोण्णी अहविकतो उ ३२१९ थाइणि वलवा वरिसं ४ ३९५९ ते दोऽवुवालभित्ता ५३७९ थाणम्मि पुच्छियम्मि ६ ६०९५ ते नक्खिवालिमुहवासि २३०९ थाणं च कालं च तहेव वस्| ४ ४५६५ ते निग्गया गुरुकुला ५७०२ थीपडिबढे उवस्सए २ २०७३ ते पत्त गुरुसगासं १५२१ थी पंडे तिरिगीसु व ३ ३२० ते पुण आणिजते ५८६३ थीपुरिसअणायारे ३ २३९४ ते पुण होति दुगादी ४.०४ थी पुरिस णालऽणाले ५ ५२४९ तेमाल तामलित्तीय ३९१२ थीपुरिसा जह उदयं ५ ५१६९ टि.२ थीपुरिसाण उ फासे २ १७८६ तेरिच्छगं पि तिविहं २५३४ थीपुरिसा पत्तेयं ५ ५१७१ टि.२ थी पुरिसो अ नपुंसो २ २०९८ तेरिच्छं पिय तिविह २५३४ थुइमंगलमामंतण २ १४६१ तेलोकदेवमहिता ६२०० थुइमंगलम्मि गणिणा ४ ४५०१ तेलोकदेवमहिया थूभमह सविसमणी ६ ६२७५ तेलगुडखंडमच्छं४ ३४८१ थूलसुहुमेसु वुत्तं ४ ४०५० तेलुन्वट्टण व्हावण २ १९५२ थूला वा सुहुमा वा ४ ४०४९ ते वि असंखा लोगा २ १४३३ थेराइएसु अहवा २५८१ ते वि य पुरिसा दुविहा ३ २५६२ थेराण सत्तरी खलु ६४३४ तेसामभावा अहवा वि संका ३२.१ थेराणं नाणत्तं १४४१ तेसि अवारणे लहुगा थेरादितिए अहवा ३ २५८३ तेसिं तस्थ ठिताणं ४ ४२६५ टि. ४ तेसिं पचय ५ ६०३८ थेरा परिच्छंति कधेमु तेसिं ते सीदितुमारद्धा २४६२ थेरा पुण जाणंती ५ ६०३६ तेसु अगिण्हतेसुय थेरी कोटगदारे २ २०११ तेसु ठिएसु पउत्थो ४ ३३३९ थेरी मज्झिम तरुणी ३ २६१० तेसु सपरिग्गहेसुं १०८७ थेरे व गिलाणे वा ५ ५९६७ तो कुजा उवओगं ५८८८ थोवम्मि अभावम्मि य ५ .५६७० तो पच्छिमम्मि काले थोवं जति भावपणे ५ ५५९० वोसलिए वग्घरणा ४ ३४४६ थोवं पि धरेमाणी ६ ६३०१ थोवं बहुम्मि पडियं ५ ५९१२ थवा निरोवयारा २ १५७१। थोवा नि हणति खुहं ३ ३०९४ Succ ४%20rrrrrrr m ३५८९ , Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ पश्चमं परिशिष्टम् । विभाग: गाथाङ्क: गाथा थोवे घणे गंधजुते भभावे ४ ४१९० १७५ ११५३ ५ ५९०२ ४ ३७७९ २७२४ ३८८९ २१४७ १३६६ दगतीर चिटणादी दगतीरे ता चि? दगदोद्धिगाइ जं पुत्र दगभाणूणे दढे दगमेहुणसंकाए वह निमंतण लुद्धोदहूँ पिणे न लब्भामो दटुं विउब्वियाओ दट्टण जिणवराणं दट्टण तं विससणं दट्टण नडं काई दटूण निहुयवासं दटूण य अणगारं द₹ण य राइडिं दट्टण य सहकरणं दट्टण वा गिलाणो द?ण वा नियत्तण दड्डे पुप्फगभिन्ने ददुर सुणए सप्पे दप्पेण जो उ दिक्खेति दमए दूभगे भट्टे दमए पमाणपुरिसे - दरहिंडिएव भाणं दविउ त्ति ठिओ मेहो २ २११५ १४५० विभागः गाथाङ्कः । गाथा ३ ३१६६ दन्चम्मि य भावम्मि य दव्ववती दवाई ३ २३८४ दध्वसुयं पत्तगपुस्थए ५ ५६६१ दुवस्स उ अणुओगो दव्वं तु उण्हसीतं ४ ३४२८ दव्वं तु जाणियन्वं ३ २३९७ । दवाइ उज्झियं दवओ ५ ५०६९ । दवाइ कमो चउहा ५७२। दवाइचउकं वा ३ २३०६ दवाइतिविहकसिणे दम्बाइ दब्य हीणा४९५१ दवाइसनिकरिसा ६ ६२६५ दुब्वाई अणुकूले २०७९ दवाई एकेको १४०२ दवाण दवभूमओ दब्वाणं अणुयोगो ३७६२ दन्वादिकसिणविसयं २४६४ दवावइमाईसुं ३३४४ दब्वासनं भवणा३ २३८८ दब्वे एगं पायं ४०२६ दधे छिण्णमछिण्णं ६ ६१३४ दब्वेण य भावेण य ६ ६३११ दवेणं उद्देसो दम्वेणिकं दव्वं २ १८२२ दन्वेणेगं दव्वं ५ ५३१३ १ ३३६ दम्वे तणडगलाई टि.५ दवे तिविहं एगिदि४ ४७५० २ १५८८ दब्वे तिविहं मादुक२ १५८८ दब्वे नाणापुरिसे टीका पाठा. दवे नियमा भावो ५ ५२१४ दवे पुण तल्लदी ४ ३९६१ दब्वे भवितो निव्वत्तिओ ४ ३९९९ दृब्वे भावऽविमुत्ती १६११ दवे भावे य चलं ३ २६८१ दुग्वे सचित्तमादी ४ ३२९४ दग्वे सचित्तादी ६ ६३१६ दुब्योवक्खरणेहा ४ ३६५३ २ १८५४ ४२४३ १५४ १५४ टि.३ १४९९ १ ६०४ १ ६५१ . दविय?ऽसंखडे वा दब्वक्खएण पंतो दन्वक्खएण लुद्धो १४२ १६९ १ दग्व दिसि खेत्त काले दम्वप्पमाण अतिरेग २ ११२७ ३५४४ दब्वप्पमाण गणणा दवम्मि उ अहिगरणं दवम्मि ऊ उवस्सओ व्वग्मि मंचितो खलु ३ २७२६ ૬ ૪૮૮૭ ४. ४२५० Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमं परिशिष्टम् । ७९ गाथा दस एयस्स य मा य दसठाणठितो कप्पो दससु वि मूलाऽऽयरिए दहिअवयवो उ मंथू दहितेल्लाई उभयं दहितेल्लाई दन्वे " ه दंडपडिहारवजं दंतपुरे आहरणं दंतिक्कगोरतिल्लगुलदसणचरणा मूढस्त दसणनाणचरितं दसण नाण चरित्ते दसण नाणे माता दंसणनिंते पक्खो दसणमोग्गह ईहा दसणमोहे खीणे दसणम्मि य वंतम्मि दसणवादे लहुगा दसणसोही थिरकरणदसिय छंदिय गुरु सेसए दाइयगणगोट्ठीणं दाउं व उहुरुस्से दाउं हिहा छारं दाऊण अन्नदवं दाऊण वंदणं मथदाऊणं वा गच्छह दाणे अभिगम सड्ढे ه विभागः गाथाङ्कः गाथा विभागः गाथाङ्क: दारे अवंगुयम्मी ३ २३२० ६ ६३६३ दावद्दविओ गइचंचलो १ ७५२ ५ ५९६८ दाहामो गं कस्सा ३ २८२७ २ १७०९ दाहामो ति य गुरुगा १९४२ २०९५ दाहिणकरेण कण्णं ४०११ २०९५ टि०३ टि.६ दाहिणकरेण कोणं ३ २९७७ ४ ४०४१ २ २०४३ दिजंते वि तयाऽणि३ ३०७२ दिजंतो वि न गहिओ ४. ४६४२ ९३२ दिट्ठमदिट्ठ विदेसस्थ ४ ४७२९ दिट्टमदिदं च वहा ४ ४४७४ २११० दिट्टमदिखे दिटुं १.६६१ ३ २७८४ दिट्ठमुवस्सयगहणं ३ २२९६ ५ ५४३५ दिट्ट सलोमे दोसा १ १३३ दिहं अदिट्ठन्च महं जणेणं ४ ४१०८ दिटै अनस्थ मए ३ २४३२ दिटुं च परामुटुं दिटुंत पडिहणेत्ता ४ १६४० २ १२२६ दिटुंतो गुहासीहे २ २११३ १ ५१० दिटुंतो घडगारो ४ ४७६५ दिटुंतो दुवक्खरए १ ६२२ दिलुतो पुरिसपुरे २२९१ ४ ४५१७ दिद वस्थग्गहणं ४ १२३५ २. १८२६ ४ ४३०० दिट्टा अवाउडा है ३ २२५६ २ १८८१ दिछिनिवायाऽऽलावे २ १३४६ २ १४८९ दिट्ठीसंबंधो वा २२५३ दिट्टे संका भोइय २ १५८० ३ २१७५ २ १५८१ ६ ६१७१ ४ ४८१५ दिट्रोभास पडिस्सुय ३ २१९२ ३ २६६७ दिणे दिणे दाहिसि थोव थोवं ३ ३१९७ ३ २१२० दित्तमदित्ता तिरिया १ ४२४ २ १३९२ दिनो भवम्विहेणेव ४ ४६२३ टि. २ दियदिने वि सचित्ते ३ ३०४६ ४ ३३७५ दिय राओ पचवाए २ १४७६ १ २१५ दियराओ लहुगुरुगा २ ८७८ ३ २३२७ । [ " . ५ ५८५६] ه ه س س س दारदुयस्स तु असती दारमसुझं काउं दारस्स वा वि गहणं दारं ण ढक्क्रति न खजमाणि اس به दारं न होइ एत्तो दारुं धाउं वाही दारे अवंगुयम्मी Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० पञ्चमं परिशिष्टम् । गाया विभागः गाथाङ्क: -SSM ६ ६०६१ २६७५ ५ ५२१३ ४ ४२४९ ५ ५४९३ ५ ४०९० ५४५६ ३८४९ ३८४३ CSC ३ ३२११ ३ २२३० ४ ४१८३ विभागः गाथाङ्कः । गाथा दियरातो अण्ण गिण्हति ५ ५८६० दुग्घासे खीरवती दियरातो लहुगुरुगा ५ ५८५६ दुचरिमसुत्ते वुर्त ८७८] दुजणवज्जा साला दिवसओ सपक्खे लहुगा । ५९८० दुढे मूढे वुग्गाहिए दिवसट्ठिया वि रति ३ २९३१ दुण्ह जओ एगस्सा दिवसं पिता ण कप्पड़ ५ ५९७८ दुण्हऽटाए दुण्ह वि दिवसेण पोरिसीए ६ ६२५१ दुण्ह वि तेसिं गहणं दिवसे दिवसे गहणं ५ ६०२१ दुण्डं अणाणुपुव्वी दिवसे दिवसे व दुलमे ४ ३८१९ दुनि तिहस्थायामा दिब्वेसु उत्तमो लामो ३ २८३४ दुन्नि वि विसीयमाणे दिग्वेहिं छंदिमोह ६ ६०६२ दुपुढादि अखल्ला दिस अवरदक्षिणा दक्खि. २ १५०६ दुप्पडिलेहियदूसे ५ ५५०५ दुष्पडिलेहियमादिसु दिसिपवणगामसूरिय १४५६ दुप्पभिड पिया पुत्ता दिसिमूढो पुष्वाऽवर ५ ५२१६ दुप्पभिई उ अगम्मा दितगपडिच्छगाणं २ १६५१ दुबलपुच्छेगयरे दिति पणीयाहारं १७५० दुब्भूइमाईसु उ कारणेसुं दीणकलुणेहि जायति ६१४३ दुरतिवमं खु विधियं दीवा असो दीवो २ २११२ दुरहियविजो पञ्चंत. दीसति य पाडिरूवं ६ ६१५४ दुरुहंत ओरुभंते दीहाइमाईसु उ विजबंध ५६८१ दुल्लभदव्वं व सिया दीहाइयणे गमणं ५९९० दुल्लभदब्वे देसे दीहे ओसहभावित ५९८७ दुल्लभवत्थे व सिया दीहे ओसहरचितं ५९८७ दुविक्रप्पं पजाए टि०२ दुविधो उ परिचाओ दुओणयं भहाजायं ४४७० दुविधो य होह दुट्टो दुक्खं च मुंजंति सति द्वितेसु दुवियडबुद्धिमलणं दुक्खं ठिओ व निजइ । दुविहकरणोवधाया दुक्खं ति भुंजंति सति द्वितेसु दुविह चउठिवह छविह टि.१ दुविह निमित्ते लोभे दुक्खं विसुयावेळ २०७४ दुविहपमाणतिरेगे दुक्खेहि भत्थिताणं दुविहम्मि भेरवम्मि दुक्खेहिं भच्छियाणं ६४०६ दुविहं च फरुसवयणं टि.१ दुविहं च भावकम्म दुगमादीसामण्णे ४३११ दुविहं च भावकसिणं दुगसत्तगकिइकम्मस्स दुविहं च होइ वत्थं दुगुणो चतुग्गुणो वा ३९८१ दुविहं तु दवकसिणं दुग्गट्ठिए वीरअहिटिए वा दुविहं पि वेयणं ते दुग्गूढाणं छन्नंग. ३ २५९६ दुविहाए विचउगुरू ३ २६४४ Sap ६२५३ ४ ४१६९ ५ ४८८५ ५ ५२०० ५ ४९४६ ४ ५३९६ १ ५८. wccccmm ३ २३६६ ३ ३१३५ ६ ६०९९ ४८९८ ४ ३८८६ ३ २७९४ ४ ३८८१ २ १६२९ ३ ३१४४ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमं परिशिष्टम् । ८१ गाथा गाथा दुबिहाओ भावणाओ दुविहा णायमणाया दुबिहा य होइ वुड्डी दुविहा य होति सेजा विभागः गाथाङ्क: २ १२९१ ४ ४१३४ ५ ५८१९ १ ५४१ टि०१ देउलियअणुण्णवणा देवाणुवित्ति भत्ती देवा हुणे पसना देविंदरायउग्गह देविंदरायगहवइदेवे य इरिथरूवं देवेहि मेसिभो विय देसकडा मज्झपदा देसकहापरिकहणे दुविहा य होति पाता दुविहाऽवावा उ विहे दुविहा सामायारी दुविहा हवंति सेजा दुविहे किहकम्मम्मि दुविहे गेलण्णम्मि दुविहे गेलण्णम्मी दुविहे गेलनम्मी ७७७ ५४१ ४५४१ विभाग: गाथाङ्कः २ १४९६ २ १२१० २ १९८१ ४ ४७८४ १६६९ ५ ५६८८ २ १३३९ २ १७६२ ३ २६९७ ५ ५७३० १२४१ ४ ३३२२ ४ ४४६७ ३ २८२६ ३९९८ ४ ३९१० ४ ३९११ ४ ३३०४ ६३९६ ३५५० ३६३० देसकुलजाहरूवी देसराहणे बीएहि देसिय राइय पक्खिय देसिय वाणिय लोभा देसिल्लगं वबजुयं मणुकं देसी गिलाण जावो. ५१४९ ५१७६ ६४३१ २१४५ ३४३३ .m0SMS4500500000. दुबिहो म होइ छेदो दुविहो उ पंडओ खलु दुविहो जाणमजाणी . दुविहो य मासकप्पो दुविहो य होइ भग्गी दुविहो य होइ जोई दुविहो य होह दीवो दुविहो य होइ पंथो दुविहो लिंग विहारे दुविहो वसहीदोसो दुविहो होति अचेलो दुन्धियडदुण्णिसण्णा दुस्सन्नप्पो तिविहो दुस्संचर बहुपाणादि दुहतो थोवं एकेकएदूइजंता दुविधा दूमिय धूविय वासिय दूरम्मि दिहि लहुओ दूरम्मि दिढे लहुओ दूरागयमुटेर्ड दूरेण संजईओ दूरे तस्स तिगिच्छी रमझ परिजणो दूरे व अमगामो दूसियवेओ दूसिय देसीभासाइ कयं देसीभासाएं कयं देसीभासाय कयं देसो व सोवसग्गो ७५७ देहबलं खलु निरियं ४९१३ देहस्स तु दोबल्लं ६ ६३६५ देहऽहिओ गणणेको ४१३९ देहे अभिवते ५ ५२१२ देहेण वा विरूवो ३ २७४८ देहोवहीण डाहो ५ ५९१० देहोवहीतेणगसावतेहिं ५ ५८२४ दोचं पि उग्गहो त्तिय १ ५८४ दोच्चेण भागतो खंदएण २१७४ दो जोयणाई गंतुं २१९८ दोण्णि य दिवड्डखेत्ते दोणि वि वयंति पंथं ३ २१६३ दोण्ह वि कतरो गुरुओ दोण्ह वि चियत्त गमणं ५ ५७०७ दोण्ह उवरि वसंती ३ २९२८ । दोण्हं उवारे वसती ५ ५१५० । दोण्हं पि अ जुयलाणं २ ९३७ २ ९४२ ४. ३९४० ५ ५६०४ ३ २३७७ १ २२७ ६ ६१५८ ४ ३४७४ ३ ३२५८ ३ २०११ ३ ३२७२ ५६५७ ५५२७ ५ ५२५२ ५ ५८०१ ३ ३०८६ २ २१०५ २ २०४६ १ ६४० کر م م Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमं परिशिष्टम। به مه ه ه ه م ه مه له يه ه م गाथा विभागः गाथाङ्कः । गाथा विभागः गाथाङ्कः दोण्हेगयरं नहूँ धम्मोदएण रूवं २ १२०१ दो थेरि तरुणि थेरी २ २०८७ धारणया उ अभोगो ३ २३६७ दो दक्षिणावहा तु ४ ३८९२ ३ २३७२ दोलि अणुन्नायाओ २ १६९७ धारोदए महासलिल ३४२२ दोन्नि उपमजणाओ धावंतो उवाओ ३२० दोनि वि अनालबद्धा उ ५ ५२४७ धिइधणियबद्धकरछो १३५६ दोनि विदाउं गमणं २ २०१७ धिइबलजुत्तो वि मुणी दोन्नि वि समागया स३ ३०८७ धिइबलपुरस्सराओ २ १३५७ दोनि वि ससंजईया ३ २२१० धिइसंघयणादीणं ४ ४४९० दोन्नि वि सहू भवंती ४ ३७६८ धिइ सारीरा सत्ती ९५६ दो मासे एसणाए ५ ५४४३. धितिबलिया तवसूरा ६४८४ दोरेहि व वज्झेहि व धिद्धिकतो य हाहकतो ४१२६ दोसं हंतूण गुणं ६ ६४२९ धियसंघयणे तुल्ला २०३ दोसा खलु अलियाई . २८३ घी मुंडितो दुरप्पा २ ८९८ दो सागरा उ पढमो १६८२ धीरपुरिसपन्नत्तो १४४८ दोसा जेण निरुभंति ४ ३३३१ धुवणाऽधुवणे दोसा १०१२ दोसाणं परिहारो ६०२७ दोसा तु जे होंति तवस्सिणीणं ४ ३८२० धूमनिमित्तं नाणं १ २८ दो साभरगा दीवि ४ ३८९१ धूमादी बाहिरतो दोसा वा के तस्सा ४ ३५२० धोयस्स व रसस्स व २९७८ दोसाऽसति मज्झिमगा दोसु वि भलद्धि कण्णे ३ २६१३ नहपूरेण व वसही ४ ३७३४ दोसु वि अन्वोच्छिण्णे ४ ३५६८ नउईसयाउगो वा ३ २६२३ दोसु वि परिणमह मई न करिति आगमं ते .२ १४२० दोसे चेव विमग्गह न केवलं जाउ विहम्मिा सती ४ ४११७ दोसेहिं एत्तिएहिं ३ ३१७३ नक्खत्तो खलु मासो ११२८ दोहि वि अरहिय रहिए ३ २२५४ नक्खेणावि हु छिजह . ९४५ दोहि वि गुरुगा एते ४ ४४२४ नगराह निरुद्ध घरे दोहि वि पक्खेहिं सुसं ३ २४३८ न चित्तकम्मस्स विसेसमंधो ३ ३२५३ दोहि वि रहिय सकामं ३ २२४९ नचा नरवणो सत्त २ ११२५ नजइ अणेण अस्थो ४५७७ धणियसरिसं तुकम्म ३ २६९१ नजंतमणजंते ५१४२ धम्मकह महिड्डीए ५ ५६९० नह होइ अगीयं २४५३ धम्मकहा चुण्णेहि व ३ ३०२१ न उविजई वएसुं ५१३८ धम्मकहा पाढिज्जति ५ ५१८२ नडपेच्छं दट्टणं ५३५२ धम्मकहासुणणाए २२६४ नडमाई पिच्छंतो १६०० धम्मस्स मूलं विणयं वयंति ४४४१ नणु दम्बोमोयरिया ४ ४०६३ धम्मं कहेइ जस्स उ ४५९६ न तरिजा जति तिण्णि उ ५१४ धम्मेण उ पडिवजह २ १४२२ । न तस्स वस्याइसु कोह संगो . ४ ३९९६ ५२१५ ه ی س ک ک له به م Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा aftथ अगीतत्थो वा after अनदाण होइ न कहाली मे नस्थि खलु अपच्छित्ती नत्थ घरे जिणदत्तो नत्थि पवत्तणदोसो नथिय मामागाई नरयेरथ करो नगरं नदिकोप्पर वरणेण व नदि पद जर वस्य जले नदिपूरण वसही न पारदोचा गरिहा व छोए नमणं पुब्वभासा न मिळति लिंगक न य अप्पगासगत्तं न व करम निम्माठो मयणे दिट्ठे गहिए नयणे दिट्ठे सि नयणे पूरे विद्वे न य बंध हेडविगलत्त न लभइ खरेहिं निहं न भर पमाणं नवदसचउदसओही मवधम्मस्स हि पाएण नवधम्माण पिरसं नव पेहातो अदिट्ठे नवभागकए वस्थे नवमे न याणइ किंची म वि इंदियाई उबलदि न वि एवं तं वत्थं न वि कुप्पसि न पसीयसि न वि को विकंचि पुच्छति न वि खाइयं न वि वहूं न विउ म्मम्वया नेव न वि जाणामो निमित्तं न वि ते कति अमुगो न विय समत्यो सन्चो न वि य ह होयऽणवस्था हु पञ्चमं परिशिष्टम् । विभागः गाथाडू ४ ३३१३ २ १०४९ 9 ५७१ ३ २४८६ २ ८१९ ३ २ २ ५ १ ४ ३१८० २०९६ १०८९ ५६४३ ९६ ३०३४ टि० 1 ४ ३९०५ २ २०१६ २ १८१३ २ १२४९ · ३७१ २ २०४१ २ २०३९ ३ २३८५ ६ ६२२७ ४ ३९१५ २ २१०० ५ ६०३० ५ ५७१८ २ १०९३ ५८८२ ५ ३ ३ १ ४ ४१७४ ४ ४४८७ ४ ४८२६ २ ९८८ २ १०४६ ३ २८०५ ५ ५९९४ ४ २७८७ २३ २८३१ २२६१ २७ गाधा न वि डभई पवेसो वच्छ सति न वि न विवित्ता जाथ सुणी नहदंवादिनंतर न हि जो घडं वियाणह नहु ते संजमहे न हु होइ सोइयच्चो न हु होति सोतियन्वो नंदंति जेण तवसंग मेसु नंदि चकं दबे नंदी चक्क दवे नंदीतूरं पुण्णस्स "" 39 नंदी मंगल हेड नंदी य मंगलट्ठा नाउमगीयं बलिणं नाऊण किंचि अनस्स नाऊण तस्स भावं 33 नाऊणय अइगमणं नाऊणय माणुसं नाऊण व चोच्छेदं 93 39 नाऊण य घोच्छेयं नाऊण या परी नाओ मिचि पणासह नागरगो संबो नागा जळवासीया नागाढं पडणिस्सइ नाणट्ट दंसणट्टा 33 99 नाणदंसणसंपन्ना नाणम्मि तिष्णि पक्खा नाणस्स केवलीणं नाणस्स होइ भागी विभागः गाथाडूः ३ ३१९८ २ २१२० ३ २९८० ५ ४९०१ १ १६ ४ ४५२९ ३७३९ ६२०२ २९२० ४ ६ ३ १ २ २ २ ง , ३ १ ४ ८३ ५ २ ४ २४ टि० ४ २४ १५४९ १५६७ १९२३ ४ ३ २९६२ ... ४७८२ ५३३१ ૧૮૦૨ ३०६३ ५ ५०८३ ५ ५१०२ ५ ५४०३ ५ ५२८३ ४ ४१६५ ५५१४३ ४ ४८७६ ३ २७०६ ४ ४७१३ ३ २८७९ ३ २९७३ ३ ३००४ १ ३९६ ५ ५३९७ २ १३०२ ५ ५७१३ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ पञ्चमं परिशिष्टम् । गाथा नाणाइ भदूसिंतो नाणाइतिगस्सऽट्टा नाणाइतिगं मुत्तुं नाणाई तिट्टाणा नाणादि तिहा मग्गं नाणादिसागयाणं नाणादी दूसेतो विभाग: गाथाङ्क: २ ८५८ १ ६०३ ५ ४८९५ १ २७३ ४ ४७०९ . २०४ ४ ३३८५ ५ ५६५६ ४ ४०८४ १ २६० ५ ५६२४ २ २०६० ६ ६३०२ १७७७ नाणादेसीकुसलो नाणुजोया साहू नाणेण दंसणेण य नाणेण सब्वभावा नाणे दसण चरणे नाणे महकम्पसुतं नातिकमती आणं नाभिप्पायं गिण्हसि नाम निवाउवसर्ग नामसुयं ठवणसुयं नाम ठवणपलंब नामंठवणा भामं नाम उवणा कम्म नाम ठवणागामो नाम ठवणा तालो ४ ३३३३ विभागः गाथाङ्कः गाथा नाम उवणा भिन्न २. ९५४ नामं ठवणा वत्थं ४ ४४८३ नाम ठवणा हत्थो नामिजइ थोवेणं २ १३२३ नामे छविह कप्पो नायगमणायगा पुण २ १३२२ नायज्झयणाहरणा टि.२ नालस्सेण समं सुक्खं २ १२२९ नाव थल लेवहेट्टा नाव निमो उग्गहणंतओ नावाए उवक्कमणं २ ११६६ नावितसाधुपदोसो ४ ४७३३ नासन्ने नातिदूरे ५ ५४७२ नाहं विदेसयाऽऽहरण. ५८१४ नियाई सुरलोए निउणे निउणं भत्थं १ ३२५ निउणो खलु सुत्तस्थो - २५५ निउत्ता अनिउत्ताणं ८४९ निउत्तो उभोकालं ३ ८३९ निकारणगमणम्मि ४८९७ १०९४ निकारणपडिसेवी निकारणमविहीए टि.१ निकारणम्मि एए निकारणम्मि एवं १ १५१ निकारणम्मि गुरुगा १ ६५० निकारणम्मि दोसा २ ८४७ निकारणम्मि नाम ११२१ निकारणिगाऽणुवदे. निकारणिगि चमढण २५८४ निकारणे विधीय वि ३ २६८० ३ २७१९ निक्खमण पिडियाणं ३ २७६२ निक्खमणे य पवेसे ३२६३ निक्खमपवेसवजण ४ ३२९३ निक्खेवा य निरुत्ताणि ५ ४८८३ निक्खेवेगट्ठ निरुत्त ५ ४८८६ निक्खेवो तयाए २ १०३४ । निक्खेवो नासो त्तिय नासं उवणा दविए १ २४० ३ २७५८ ४ ३६८७ ५ ६०३३ ३६९० ४ ४०४७ ४ ३३६६ ४ ३६९२ ४ ३३६२ १ ७३० ५ ५८२६ ४ ३७८६ ४ ३७१८ له س س ३ ३२२८ २ १२३६ ४ ३३७१ س १ १४९ २ १६७० १ १५० नाम ठवणा पकं Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमं परिशिष्टम् । ८५ विभागः गाथाङ्कः १ २७१ २ १०९१ ४ ३५६९ १४५० ३ २२९३ ५ ४९२८ २ १८८२ ४२२६ २ १८५९ ३ २३५३ ४ ३८२१ ४ गाथा निक्खेवो होइ तिहा निगम नेगमवग्गो निग्गमगाइ बहि ठिए निग्गमणम्मि उ पुच्छा निग्गमणं च अमच्चे निग्गमणं तह चेवा निग्गमणे चउभंगो निग्गमणे बहुभंडो निग्गय पुणो वि गिण्हे निग्गंथदारपिहणे निग्गंथाण सलोमं निग्गंथाणं पढम निम्गंथिवस्थगहणे निग्गंथीण अगिण्हणे निग्गंथीणं गणहरनिग्गंथीणं भिनं निग्गंथी थी गुरुगा निग्गंयोगगहधरणे निग्गंथो निग्गंथि निग्गंधं न वि वायह निग्गंधो उग्गालो निग्रोलियं च पलं निचनियंसण मजण निश्चनियंसणियं ति य निच्चं पिदव्वकरणं निच्चं विम्गहसीलो गाथा विभागः गाथाङ्कः निट्टियकडं च उक्को ३६५७ निण्हयसंसग्गीए ५ ५४३३ निण्हवणे निण्हवणे निदरिसणं अघडोऽयं २ ८१७ निइंन विंदामिह उन्वरेणं . ४ ४४०९ निद्दापमायमाइसु २ १२६७ निहाविगहापरिवजिनिहिट्ठमणिहिटुं ४६९५ निट्टि सन्नि अग्भुव. ४ ४६९७ निद्दिढे अस्सपणी निहोस सदोसे वा ३ २४२० निहोसं सारवंतं च १ २८२ निदोसा आदिण्णा ३ ३१८३ निद्धमनिद्धं निळू २ १७३४ निद्ध महुरं च भत्तं ६ ६२१६ निद्धं भुत्ता उववासि ५९९१ निद्धे दवे पणीए ६००७ له ३ २०१५ ४ ४१०५ २ २०४८ २ १०५९ ५२४० ४ ४१०१ م م २ २०७० १४२४ ३ २२२६ ५ ५८५० ३३९९ १४४७ ه مه مه ३ २४६३ २ १३१६ टि. १ ४ ३ ६०४९ ३६३९ २१७२ ४७६९ له निप्पञ्चवाय संबंधि निप्पडिकम्मसरीरा निप्फत्तिं कुणमाणा निप्फावकोदवाईणि निफावचणकमाई निफावाई धन्ना निब्बंधनिमंतेंते निम्भयया य सिणेहो निम्मवणं पासाए निम्मा घर वह थूभिय नियएहिं ओसहेहिं नियणाइलुणणमद्दण नियताऽनियता भिक्खानियमा सचेल इत्थी नियमा सुयं तु जीवो नियमा होइ सतित्थे निययं व अणिययं.वा निरवयवो न हु सक्को निरुतस्स विकडुभोगो निरुवहयजोणिथीगं निरुवह्य लिंगभेदे १९३१ २१५५ निचं वुग्गहसीलो निञ्चल सचेले वा निच्छयओ दुन्नेयं निच्छिण्णा तुज्झ घरे निच्छियमुत्त निरुतं निच्छुभई सस्थाओ निच्छूढ पदुट्ठा सा ३ ४ ४५०६ ६ ६२९४ १८८ ५ ५१८२ ४१३३ टि.३ ४ ३५०० ४ ४६२१ ४ ४९४८ १ १३९ २ १४१९ ४ ३५६७ १ २१३ निजतं मोत्तूणं निजंताऽऽणिजंता निजूद पदुहा सा निजूढो मि नरीसर ५ ४९५३ ६ ६३७२ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमं परिशिष्टम् । विभागः गाथाङ्क: ४ ३९१२ टि. २ ८२१ २ १५६१ سر به به २४२७ ३३२० ८०७ ३७०१ ८४५ १४१७ به २ २ ه ا गाथा विभागः गाथाङ्क: गाथा निल्लोमसलोमऽजिणे २ १०४८ । नेपाल तामलित्तीय निववल्लह बहुपक्खम्मि ५ ५१८८ निवसरिसो भायरितो ४५१९ नेमालि तामलित्तीय निवेसण वाडग साही नेरुत्तियाई तस्स उ निव्वत्तणा य संजोयणा ४ ३९४७ नेवाऽऽसी न भविस्सइ निविसउ ति य पढमो नेहामु त्ति य दोसा निग्वीइय एवया २ २०७० नेहि जितो मि त्ति अहं निब्वेद पुग्छितम्मि ६ ६११३ नो कप्पड जागरिया निसि पढमपोरिसुम्भव ५ ४९३२ नो कप्पति व अभिन्नं निसिभोयणं तु पगतं नोकारो खलु देसं निस्सकडमनिस्से वा २ १८०४ नोलेऊण ण सका निस्सकडे ठाइ गुरू २ १८०५ नोवयणामं दुविहं निस्सत्तस्स उ लोए ५ ५६७१ नोसपिणिउस्सप्पे निस्स त्ति अइपसंगण ३ २४४९ निस्संकमणुदितोऽति ५ ५८०८ पइदिणमलन्भमाणे निस्संकियं च काहिद १७९६ पउणम्मि य पच्छित्तं निस्संचया उ समणा ५ ५२६६ पउमसर वियरगो वा निस्साणपदं पीहह पउमसरो विरगो वा निस्साधारण खेत्ते निंता न पमजंती ४ ३४५२ पउमुप्पले अकुसलं नितेहिं तिषिण सीहा ३ २९६६ पउमुप्पले माउलिंगे नीउमा उच्चतरी ३ २६६२ पउरणपाणगमणे नीएहिं उ भविदिनं ५ ५०९८ पउरन्नपाण पढमा नीयल्लएहि तेण व ६ ६२९६ पक्कणकुले वसंतो नीयलगाण तस्सव पक्के भिन्नाभिने नीयं दट्टण बहिं ३ ३०१० पक्खीव पत्तसहिओ नीयं पि मे ण घेच्छति ४ ३६३३ पगई पेलवसत्ता नीया व केई तु विरूवरूवं ५३३३ पगयम्मि पण्णवेत्ता नीरोगेण सिवेण य पगयं उवस्सएहिं नीलकंबलमादी तु ४ ३९१४ पगरणओ पुण सुत्तं नीस?मसंसट्ठो ४ ३५९७ पञ्चक्ख परोक्खं वा नीसट्टेसु उवेहं ४ ३३७९ पञ्चक्खेण परोक्खं नीहडसागरिपिंडस्स पच्चंत तावसीओ नीहम्मियम्मि पूरति पचंतमिलक्खेसुं नूणं न तं वट्टइ जं पुरा मे ३ २२२१ पञ्चोनियत्तपुट्ठा नूगं से जाणंति कुलं व गोत्तं ४ ३५९० पच्चोरहणट्ठा खाणुनेच्छंति भवं समणा ६ ६३४८ पच्छण्ण पुब्वभणियं नेच्छंतेण व असे पच्छस भसति निण्हग ३ २०७३ १९७१ २२७८ ३ २२७८ टि.१ ४०२५ १०२९ ४८२७ १५०७ ४ ४५२३ १०३६ १३७४ ३ २८१८ ६ ६२५४ ४ ३४०२ १ ३१८ २ १७७० २ १४५६ २ २००५ ४ ४७५९ १०१ ४ ४८२४ ४ ४८१८ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमं परिशिष्टम् । ८७ विभागः गाथाङ्क: गाथा विभागः गाथाङ्क: ५ ४४८०४ २ १९४५ २ १९२६ ४ ४.४३ ५ ५२६८ ५ ५०५८ ५ ५५९४ ६ ६२८१ २ १०१६ १ २६८ ४९३४ ४९३७ ५२७१ १६५८ १५७४ गाथा पच्छनासति बहिया पच्छाकडाइ जयणा पच्छाकडे य सन्नी पच्छित्त पण जहणं पच्छित्तपरूवणता पच्छित्तमणंतरियं पच्छित्तमेव पगतं पच्छित्तं इत्तिरिओ पच्छित्तं खु वहिजह पजव पुवुद्दिट्टा पजायजाईसुततो य वुड्डा पजोए णरसीहे पजोसवणाकप्पो पहऽड्डोरुय चलणी पट्ट सुवले मलए पट्टो वि होइ एक्को पट्टीवंसो दो धारणाउ पडणं अवंगुतम्मि पडिकते पुण मूलं पडिकुट देस कारण पडिगमणमन्त्रतिस्थिग पडिलंबणा पलं पडिलाभणऽट्टमम्मि पडिलाभणा उ सड्डी पडिलाभणा बहुविहा पहिलेहण निक्खमणे पडिलेहण संथारग पडिलेहणा उ काले पडिलेहणा दिसा णंपडिलेह दियतुभट्टण पडिलेह पोरुसीओ पडिलेहंत चिय दें. पडिलेहा पलिमंथो पडिलेहियं च खित्तं पडिलेहियं च खेतं ५५०० १९०३ १५४४ ३८७७ २०६९ ४ ४२२० ६५३२ ४ ४११९ २. १५१ ३ २३७९ ४ १०८५ १ ५८२ १ ४०७१ ५ ५७७२ ३. २८८१ २ १०५४ ३ २६०३ २ १८७८ पडिलेहोभयमंडलि पडिवक्खेणं जोगो पडिवजमाणगा वा परिवजमाण भइया १४४४ २ १७३७ २ १६४७ ३ ३२३४ ه ه ه ४ २ ३५९ ९४७ २३२६ نه पडिचरिहामि गिलाणं पडिजग्गंति गिलाणं पडिजग्गिया य खिप्पं पडिणीय णिवे एंते परिणीय तेण सावय पडिणीय मेच्छ मालव पडिपह नियतमाणम्मि पडिपुच्छं वायणं चेव पडिपुण्णा पडुकारा पडिबद्धा इभरे विय पडिबद्धे को दोसो पडिमाए झामियाए पडिमाए पाउता वा पडिमाझामण भोरुमण पडियरिङ सीहेणं पडियं पम्हुटुं वा पडिरूववयस्थाया पडिवत्तिकुसल अजा पडिवचा जिणिदस्स पडिवेसिग एकघरे पडिसहगस्स सरिसं पडिसामियं तु अच्छा पडिसिद्ध त्ति तिगिच्छा पडिसिद्धविवक्खेसुं पडिसिद्धं खलु कसिणं पडिसिद्धा खलु लीला पडिसेधे पडिसेधो पडिसेवणअणवट्ठो पडिसेवणपारंची पडिसेवणाए एवं ४५६३ ३ २३५८ ३७५६ ३ २३८९ ६ ६४७१ ४१९६ २ १४४० २ २०१४ ४ ३४६५ ६ ६३७० २ ५ mcccmm ९८२ ५५६८ ५०६२ १९८५ २४८२ २५२४ २५४१ ४९५८ १९४३ २८९९ ३ ३ १ ७२२ पडिसेवंतस्स तहिं ४ ३७२५ पडिसेह भजयणाए ५ ५७०० । पहिसेह अलंभे वा ३ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमं परिशिष्टम् । ८८ विभाग: गाथाङ्क: سر ४ ४८२२ ه ه ५९१९ ३ २४७५ ३ २५१८ ३ २५३७ ४ ३६१० ३ २५२० ३ २४२० २ ११०९ ४ ३५२८ २ १८६९ २ १४१८ ३ २२५९ गाथा विभाग: गाथाङ्क: । गाथा पडिसेहगस्स लहुगा ५ ५३६७ पढमाए पोरिसीए पडिसेहण णिच्छुभणं पढमाए बितियाए पडिसेहणा खरंटण २ ८९६ पढमासइ अमणुण्णे. पडिसेहम्मि उ छर्क २ ८१४ पढमासति वाघाए पडिसेहिअवञ्चंते ४६६२ पढमिलुगततियाणं पडिसेहेण व लद्धो ४ ४६२२ पढमिलुगम्मि ठाणे पडिसेहो उ भकारो पडिसेहो जम्मि पदे ३ २१७९ पडिहाररूवी! भण रायरूविं ५ ५०४७ पडिहारिए पवेसो ४ ३७७३ पढमिल्लुगम्मि तवरिह पडुपनऽणागते वा ५ ५८५२ पढमिल्लुगसंघयणा पढमगभंगे वजो पढमिल्लुगस्स असती पढमचउत्थवयाणं ३ २४२६ पढमे गिलाणकारण पढमचउत्था पिंडो ४ ३६३५ पढमेत्थ पडहछेदं पढमचरिमाड सिसिरे १ ५२१ पढमे बितिए ततिए पढमतइयमुक्काणं २७७४ पढमे भंगे गहणं पढमदिणे सग्गामे ४६६७ पढमे भंगे चरिम पढमदिणे समणुण्णा २ १५५७ पढमे वा बीये वा पढमदिवसम्मि कम्म २ १४०५ पढमे सोयइ वेगे पढमबिइएसु पडिवज २ १६३७ पढमो एस्थ उ सुद्धो पढमबिइयाउरस्सा ३ २८७५ पढमो जावजीवं पढमबियाए तम्हा ४ ४३८१ पढिए य कहिय अहिगय पढमबिइयातुरो वा ३ २१८१ पढमबितिए दिया वी ५ ५८५१ पढिते य कहिय अहिगय पढमबितिएसु चरिमं ४९८३ पढिय सुय गुणिय धारिय पढमबितिएसु णवमं ५०६१ पढिय सुय गुणियमगुणिय पढमबितिततियपंचम ४६९८ पढमम्मि य चउलहुगा ४६१७ पढमम्मि य चउलहुया पणगं खलु पडिवाए पदमम्मि समोसरणे ४२३७ पणगं च भिषणमासो ४२७८ पणगं च भिन्नमासो पढमस्स तइयठाणे २५१९ पढमस्स होइ मूलं ५७१० पणगं लहुओ लहुया पढमं तु भंडसाला ४ ३४४८ पणगं लहुगो लहुगा पढम राइ ठविते २ १८९६ पणगाइ असंपाइम पढमं विगिचणट्ठा ६ ६१२१ पणगाइ मासपत्तो पढमा उवस्सयम्मी २ १३३५ पणतो पागतियाणं पढमाए गिण्हितूणं ५ ५२८३, पण दस पनरस वीसा पढमाए नस्थि पढमा २ १५२३ पणपनगरस हाणी १८३३ ५३२ ४१६ .. or marrrm mr.09.2mrrurr ४७० .. ५३० .. .. १३७ . ४ ५ ४४४४ ५८४३ c ४ ३४६३ ३ २४०९ २ १०७९ ४२१५ ३ २४०८ २ १५२८ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चमं परिशिष्टम् । ८९ विभाग: गाथाङ्कः २ १६९६ २ ११९९ २ ११७४ ६ ६०६८ टि. ४ ६ ६०६८ ३ २८९१ ४ ४७०१ ५ ५३३० गाथा विभागः गाथाङ्कः गाथा पणयाल दिणा गणिणो ५ ५७७६ पमाणातिरेगधरणे पणयालीसं दिवसे ४ ४०३२ पमाणे काले आवस्सए पणहीण तिभागऽन्द्ध पयडीणं भन्नासऽवि टि.१ पयपायमक्खरेहि पणिए य भंडसाला ४ ३४४४ पयला उल्ले मरुए पण्णवितो उ दुरूवो ६ ६२६६ पयला निद्द तुअट्टे पण्हो उ होइ पसिणं २. १३११ पतिट्ठा ठावणा ठाणं पयलायसि कि दिवा ण पत्तमपत्ते रिक्खं २ १४५१ पत्तं पत्ताबंधो पयलासि किं दिवा ण परउत्थियउवगरणं पत्ताणं पुप्फाणं २ ९८० परखित्ते वसमाणो पत्ताबंधपमाणं परतिस्थियपूयातो पत्ते अइच्छिए वा १४५२ परदेसगते नाउं पत्तेग वडुगासति ४ ४८०६ परधम्मिया वि दुविहा पत्ते य अणुण्णाते परपक्ख पुरिस गिहिणी पत्तेयबुद्ध जिणकप्पिया ४ ४५३३ परपक्खम्मि अजयणा पत्तेय समण दिक्खिय ४ ४८१७ परपक्खम्मि वि दारं पत्तेयं पत्तेयं २ १६४५ परपक्खं दूसित्ता पत्तो जसो य विउलो २ २०१३ परपक्खे य सपक्खे पत्तो वि न निक्खिप्पह १ २७५ परपक्खे वि य दुविहं पत्थारदोसकारी ३ २५११ परपत्तिया ण किरिया ३ २५३१ परपत्तिया न किरिया पत्थारो अंतो बहि परमद्धजोयणाओ ३ ३२२६ परमद्धजोयणातो परथारो उ विरचणा परमाणुपुग्गलो खलु पस्थितो वि य संकह परमाणुमादियं खलु पदूमिता मि घरासे परवयणाऽऽउट्टेड पन्नत्ति जंबुदीवे परवावारविमुक्का पारसकम्मभूमिसु परसीमं पि वयंति हु पारस दस य पंच व ४ ४२९६ परिकम्मणि चउभंगो पसवणिज्जा भावा २ ९६४ परिणमइ अंतरा अंतरा पप्पं खु परिहरामो ४ ४५७८ परिणमइ जहत्थेणं पभु अणुपभुणो आवेदणं १ ५७४ परिणयवय गीयस्था टि०२ परिणाम अपरिणामे पभु अणुपभु[ णो व]निवेयणं १ ५७४ । परिणामओऽत्थ एगो पमाणं कप्पट्टितो तस्थ ६ ६४६९ परिणामजोगसोही पमाणं कप्पितो तत्थ ६ ६४६९ । परिणामो खलु दुविहो टि.१ । परितावणाइ पोरिसि ५ ५०८८ ६ ६१७९ ४ ३३५१ ४ ३३७६ १ २७० ४ ४४३९ १ ४२२ ५ ५७३७ ३ २७०१ ५ ५२८७ rmr ३ २७२० ४६४१ २११७ २ १०९८ १ ७९६ १ ७९२ २ १०१४ २ १३५९ ५ ५९०५ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमं परिशिष्टम् । गाथा पव्वइहं ति य भणिते पच्वइहं ति य वुत्ते विभागः गाथाङ्कः ४ ४६६५ विभागः गाथाङ्क: २ १८९९ २ १५९७ ३ २९२१ ४ ४४७८ २९४० ५८९८ ५२९३ ४२७६ २६०८ १५५० टि०१ ६४५१ ५४२० २ १५४२ س م ک نه पव्वज अट्ठवासस्स पव्वज्जएगपक्खिय पञ्चज सावओ वा पञ्चजाए अभिमुहो पवज्जाए असत्ता पन्बजाए मुहुत्तो पञ्चज्जाए सुएण य पवजा य नरिंदे पवजा सिक्खापय سر به م ه گر ५ ५४२२ २ १३५१ २ ११३२ २ १४४६ ११५६ ४ ४७३४ م له पन्चयणं च नरिंदे पग्वयसि भाम कस्स पञ्चावण मुंडावण گه له २ २ م गाथा परिताव महादुक्खे परिताविजइ खमओ परिनिट्टिय जीवजढं परिपिंडिए व वंदइ परिभुजमाण असई परिमाणे नाणतं परिमियभत्तपदाणे परियहिए अभिहडे परियारसहजयणा परिवार परिस पुरिसं परिवारपूयहे परिवारो से सुविहितो परिवासिय आहारस्स परिसाइ अपरिसाई परिसाडिमपरिसाडी परिसिल्ले घटलहुगा परिहरणा अणुजाणे परिहरणा वि य दुविहा परिहारकप्पं पवक्खामि परिहारिओय गच्छे परिहारिओ वि छम्मासे परिहारियमठवते परिहारियमठविते परिहीणं तं दव्वं पलंबादी जाच ठिती पलिमंथविप्पमुकस्स पलिमंथे मिक्खेवो पलियंक अद्ध उकुडुग पवत्तिणि अभिसेगपत्ता पवर्यणघाति व सिया पक्यणघाया अन्ने पक्यणवोच्छेए वट्टपविटुकामा व विहं महंत पब्रिमणुवयारं पत्रिसण मगण ठाणे पविसंते भायरिए पविसंते जा सोही पब्वइओ हंसमणो पब्बयस्सय सिक्खा ४५५१ ५९९८ ७६० २०२४ ५३६६ १६५९ २ १८३७ ६ ६४४७ ६०३४ ६४७४ २६९६ ५७३० १९७७ ६४८७ १४१४ १४३० १६३५ ५०७३ م م هم १३१२ یک .0mmmms... ل पवावणिज बाहिं पवाविओ सिय त्ति उ .. पसिणापसिणं सुमिणं पस्संतो वि य काए परसामि ताव छिई पहरणजाणसमग्गो पंकपणएसु नियमा पंकसलिले पसाओ पंको खलु चिक्खल्लो पंच उ मासा पक्खे पंचण्हं एगयरे م ३ २२३७ २१६० ६ ६१८९ ६ ६३१४ ४३३९ ५८७१ ६ ६१८० ५ ५७५८ ५४५२ ५४६७ ५ ५६२० ४ ३८८७ ४ ३६७० २६ पंचण्हं गणेणं ३ ३२०३ पंचण्डं वण्णाणं ४ ४४७७ पंचण्हं वस्थाणं ४३७५ पंच परूवेऊणं २ १५६९ पंच परूवेतूणं पंचमगम्मि वि एवं २ ११४४ पंचम छ स्सत्तमिया २ ११४३ । पंचमहब्वयतुंगं MSC5 ५६२१ २४७४ ४ ४५९१ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमं परिशिष्टम् । विभागः गाथाङ्कः २ १५०८ ३ ३०४७ गाथा पंचमहन्वयमेदो पंचमियाए असंखड पंचमे अणेसणादी पंचविहम्मि परूविए पंचविहम्मि परूविते पंचविहम्मि विकसिणे पंचविहं पुण दग्वे पंचविहं पुण सुतं विभागः गाथाङ्क: ४११२७ ३ २६७२ १ ४२७ २९२ ५ ५७०५ ३ २२९२ ४ ४७८७ ४ ३८६७ १. १७८ १ १७८ टि.३ १ २४३ ६ ६४५५ کر ه ه م هه مم ه गाथा पाए वि उक्खिवंती पाएसु चेडरूवे पागय कोडुंबिय दंडिए पाडलऽसोग कुणाले पाडलिपुत्ते जम्म पाडलि मुरुंडदूते पाडिच्छगसेहाणं पाणगजाइणियाए पाणगहणेण तसा पाणट्टा व पविट्ठो पाणदय सीयमत्थुय पाणवह पाणगहणे पाणवहम्मि गुरुम्विणि पाणसमा तुज्झ मया पाणाइवायमादी पाणाइ संजमम्मि पाणी पडिग्गहेण व पादेहिं अधोतेहि वि पायग्गहणम्मि उ देसियपायच्छित्ते दिपणे पायच्छित्ते पुच्छा पायठिओ दोहिं नयणेहि पायस्स जं पमाणं पायं भवाउडाओ पायं गता अकप्पा प्रायं तवस्सिणीओ पायं पायं मझंपायं सकजग्गहणालसेयं पायावचपरिग्गहे ه ه २ १७४९ ५८६२ १६२२ ४३६० २८४३ ५५९२ २६७० ३६९३ ५८७० १३६१ ४ ४५८० १८१ ६२८० ९८५ २२५० १ ३८४८ ३ २३९३ पंचविहे आयारे पंचविहे ववहारे पंचसयदाणगहणे पंच सय भोइ अगणी पंचहिं भग्गहो भत्ते पंचंगुल पत्तेयं पंचायामो धम्मो पंचूण तिभागढे पंचुणे दो मासे पंचेगतरे गीए पंडए वाइए कीवे पंडादी परिकुट्ठा पंता उ असंपत्ती पंता व गं छलिजा पंतो दटूण तगं पंतोवहिम्मि लुद्धो पंथम्मि अपंथम्मि व पंथम्मि य मालोए पंथ सहाय समस्थो प्रथं च मास वासं पंथुच्चारे उदए पंथे धम्मकहिस्सा प्राउग्गमणुषणवियं प्राउग्गोसह उब्वत्तप्राउयमपाड़या घट्ट प्राउं थोवं थोवं पाए अच्छि विलग्गे पाएण बीयभोई पाएण होति विजणा पाएणिद्धा एंति महाणेण समं ه ३ २५०७ ६ ६४५९ ४ ३८७५ ६ ६४०२ .५ ५८०५ ४ ४२९५ ५४६८ ५१६६ ५ ५१९७ ३ २४९७ ५ ५७०३ ४ ४१८५ ३ ३०३४ ५ ५२५० १ ४५२ ५ ५३९३ २ १४७० १४७३ ४ ४७२४ ४ ४७६२ ه ४ ४४२० ४ ४७४५ ३३२३२ २४७२ २४८० ५ ५९५३ पाया व दंता व सिया उ धोया प्रायासइ तेणहिए पारणगपट्टिया आपारंचीणं दोण्ह वि पालहत्ता सयं ऊणं पालकलहसागा ५ ५३७४ ६ ६३६६ २ ९३३ ५ ५६८२ ५ ४४४६ ५ ५०५७ ६४५२ २ २०१४ टि०३ २ २०९५ .: ५९५० पालंकलट्टसागा मालीहिं जत्थ दीसह Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ गाथा पावं अमंगलं ति य पावंते पत्तम्मि य पावाणं पावयरो पावाणं समणुण्गा पासगंतेसु बद्धेसु पासट्ठिए पडाली पासस्थ संकिलिहूं विभागः गाथाङ्क: २ २०५० ४ ४८३२ ४ ३७७४ ४ ४६६४ ६ ६२८८ पासस्थाईमुंडिए ३ २२८९ ३ २२७५ २ १७३९ ४ ३४७८ ४ ३४७५ १ ७७५ rrrrrrrrrrrr-r0urr पञ्चमं परिशिष्टम् । विभागः गाथाङ्कः गाथा २ ८११ पियधम्मे दढधम्मे २ ९११ पियधम्मो दढधम्मो पियमप्पियं से भावं ४ ३९०६ पियविप्पयोगदुहिया २ ११०७ पिसियासि पुन्य महिसं ६ ६४३८ पिहगोअरउच्चारा ६ ६४३९ पिहदारकरण अभिमुह ६२६२ पिह सोयाई लोए पिंडाई आइण्णे २६२१ पिंडो जे संपन्न २५८५ पीईसुण्णण पिसुणो ३ २६११ पीढग णिसिज दंडग पीयं जया होजऽविगोविएणं पीलाकरं वताणं ४ ४८१९ पीसंति ओसहाई ६ ६३०५ पुच्छ सहुभीयपरिसे २ १२३ पुच्छंतमणक्खाए पुच्छाहीणं गहियं १ ३१२ पुच्छिय रुइयं खेत्तं पुट्ठा व अपुट्ठा वा २६७४ पुढवि दग अगणि हरियग ३४५० पुढवी आउकाए २ १९४८ २ १९१५ पुढवीह तरुगिरिया २ १३९५ पुढवी ओस सजोती ५ ४९७६ पुणरवि गुरुस्समीवं २ १६७४ ३ २००४ पुणरवि दवे तिविहं ५ ५००४ पुणरावत्ति निवारण ४ ३५९९ पुणरुत्तदोसो एवं ४ ३५६० पुण्णम्मि निग्गयाणं पुण्णम्मि मासकप्पे ३ २२२९ पुण्णाऽपुण्णदिणे हिं ५ ५९८५ पुण्णे अनिग्गमे लहुगा ४ ३५५७ । पुण्णे जिणकप्पं वा ३ २८८८ | पुण्णेहिं पि दिणेहिं २ १२३३ । पुत्तादीणं किरियं ४ ३४१४ ४ ४७८० ४ ४५६० २ १०६२ ५ ४९८९ ३ २००३ २ १५१२ ६ ६२९७ ४ पासवणठागरूवा पासवण ठाण रूवे पासवण मत्तएणं पासंडकारणा खलु पासंडिणिरिथ पंडे पासंडीपुरिसाणं पासंडे व सहाए पासाणिदृगमट्टियपासामि णाम एतं पासुत्तसमं सुत्तं पासुत्ताण तुयहूं पासेण गंतु पासे पासे तणाण सोहण पाहिजे नाणतं पाहुडिय ति य एगो पाहुडिय दीवओ वा माहुडियं अणुमण्णति पाहुडिया वि य दुविहा पाहुणएणऽण्णेण व पाहुणगट्ठा व तगं पाहुणगा वा बाहिं पाहुणयं च पउत्थे पाहुणविसेसदाणे पाहुन्नं ताण कयं पिट्ट को वि य सेहो पिटेण सुरा होती पितपुत्त थेरए या पिप्पलओ विकरणट्ठा पियधम्मऽवजभीरू ४६३९ ५ ४९२४ २ १२५२ टि.२ ४ ३९२० ४ ४२८८ ४ ४७२५ टि०१ ३ २७४९ २ १४२७ ४७२५ ६ ६२२० Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमं परिशिष्टम् । गाथा विभागः गाथाङ्कः पुत्तो पिया व भाया ४ ३७४१ पुत्तो वा भाया वा ४ ३७३६ पुप्फपणिएण आरा ४ ३६५० पुप्फपुर पुप्फकेऊ पुया व घस्संति अणस्थुयम्मि पुरकम्मम्मि कयम्मी २ १८४९ गाथा पुचण्हे लेपगहणं पुग्वण्हे लेवगमं पुव्वण्हे लेवदाणं विभागः गाथाङ्क: १ ४९२ ४९१ टि.. ४४०७७ ६ ६४०० १५०२ १४४५ २ १८०८ २ १३७२ २ पुत्रतरं सामइयं पुनहिडेविच्छह पुव्वपडिवनगाण वि पुवपविटेहिं समं पुब्बपवित्तं विणयं पुन्वन्भासा भासेज पुब्वभणिए य ठाणे पुवभणियं तु जं एस्थ १८५६ ३ ३ २२१७ २५५४ ا टि०१ س س ५ ५६६४ ४ ३६२४ ३ २९०२ २ २०८९ २९०१ २ २१११ २ १८२८ ४ ३५४१ ३ ३२०० ४ ३६१३ ३ ३०८० ४ ४२१७ ६ ६२५८ १ ४१० ه ه पुवभणियं तु पुणरवि पुधभविगा उ देवा पुन्वभवियवेरेणं पुवभवे वि अहीयं पुवमभिन्ना भिन्ना पुत्वविराहियसचिवे पुग्वसयसहस्साई पुब्वं चरित्तसेढीपुच्वं चिंतेयव्वं पुव्वं ति होइ कहओ पुव्वं पच्छा जेहिं पुवं पच्छुद्दिष्टे س ه पुरकम्मम्मि य पुच्छा पुरतो दुरुहणमेगतो पुरतो पसंगपंता पुरतो य पासतो पिटुतो पुरतो य मग्गतो या पुरतो वचंति मिगा पुरतो व मग्गतो वा पुरतो वि हु जं धोयं पुरपच्छिमवज्जेहिं पुराणमाईसु व णीणति पुराण सागं व महत्तरं वा पुराण सावग सम्मपुराणादि पण्णवेळ पुरिमाण दुम्विसोझो पुरिमाणं एकस्स वि पुरिमेहिं जइ वि हीणा पुरिसजाओ अमुगो पुरिसम्मि दुन्विणीए पुरिससागारिए उवपुरिसा य भुत्तभोगी पुरिसावायं ति विहं पुरिसिस्थिगाण एते पुरिसुत्तरिओ धम्मो पुरिसेसु भीरु महिलापुरिसे हिंतो वत्थं पुव्वगता भे पडिच्छह पुवघरं दाऊण व पुवटिए व रतिं पुवटियऽणुण्णवियं पुचण्हे अपट्टबिए पुवण्हे अवरहे ي ६ ६४५० ४५०५ ५३६९ २ ११३८ १ ३८७ یک ६ ६४०३ ५ ५३४८ १ २०७ २ १६८६ १७८२ ३ २५५६ ३ २६०२ १४२३ ४६८२ २२८५ ५ ५१४७ گر م ५४१३ م ५ ५४१६ مه orrm Merr पुवं पि अणुवलद्धो पुव्वं भणिया जयणा पुव्वं व उवक्खडियं पुव्वं सुत्तं पच्छा पुवाउत्ते अवचुल्लि पुन्यावरसंजुत्तं पुवावरायया खलु पुचि अदया भूएसु पुस्ति छिन्नममत्तो ३ ३०९१ ३ ३१२८ १ १९० २ १९५६ ५ ५१८५ १६७८ २९३२ ४७७१ مه ४ ३८५९ २ १३४८ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ पञ्चम परिशिष्टम् । विभाग: गाथाङ्क: विभागः गाथाङ्कः ३ ३१९१ ५ ५१५२ गाथा पुचि ता सक्खेत्ते पुचि दब्वोलोयण पुब्बि दुञ्चिण्णाणं पुब्धि पि वीरसुणिया पुचि मलिया उस्सारपुचि वसहा दुविहे पुचि बुग्गाहिया केई पुवुद्दिष्टुं तस्सा पुव्वुद्दिढे तस्सा गाथा पेहिय पमजिया णं पेहिंति उड्डाह पवंच तेणा पेहुणतंदुल पञ्चय पोग्गल असुभसमुदयो पोग्गल मोयग फरुसग पोग्गल लड्डग फरुसग ७१७ ४७४४ ५ ५२२४ ५ ५४१२ ४ ३४९१ ४ ४६३० ६ ६२५६ ५ ५०१७ ५ ५०१७ टि०५ ५ ५२२३ ४ ३८२७ ४ ४५७१ २ ८८४ पोतविवत्ती आवण्णपोस्थग जिण दिह्रतो पोत्थगपञ्चयपढियं पोरिसिनासण परिताव ५ ५४१४ ६२२३ ४७१० २ १०६९ ३ ३२०६ ५ ५६६८ ४६१३ पुन्वुहिटो य विही पुव्वुप्पन्न गिलाणे पुब्बोगहिए खेत्ते पुग्वोदितं दोसगणं च तं तू पुंजा उ जहिं देसे पुंजे वा पासे वा पुंजो य होति चट्टो पूएंति पूइयं इस्थियाउ पूयलसिगा उस्सए पूयलियलग्ग अगणी पूयाईणि वि मग्गह पूयाभत्ते चेतिए पूरंतिया महाणो पूरंती छत्तंतिय पूरिति समोसरणं पूर्वलियलग्ग अगणी more ४४४५ ४१०३ ४ ه २ १९६० फडुगपइए पंते फडुगपइपेसविया ३ २१३५ फरुसम्म चंडरुहो ६ ६१०२ फलएणेको गाहाय टि.८ फलगिको गाहाहिं फल्लो अचित्तो भह आविओ वा ५ ५९६८ फासुग गोयरभूमी ४८७० फासुग जोणिपरित्ते ३ २९१० ३ ३११५ फासुगमफासुगेण व २ १९०६ फासुगमफासुगे वा २ १८९२ ५ ६०२४ फिडियऽनोनागारण ४ ४३७७ फिडियं धपणटुं वा ४ ३३७४ फुडरुक्खे अचियत्तं २ १२६० फेडित वीही तेहिं २ १४०४ फेडिय मुद्दा तेणं ४ ३३४६ م م ه १८०७ ४८० م टि.१ ه س ३ ه पूलियसत्तुओदणपूवलियं खायंतो पूवो उ उल्लखजं पेच्छह उ अणायारं पेच्छह गरहियवासा पेच्छामि ताव छिदं سم سم سم ४८०३ २६२४ ३४७६ २०७० २३१६ २२३७ टि०४ २७९१ ४५३७ ५०४३ ३४३६ २ १०७६ बत्तीसाईजा एक्क बलसमुदयेण महया बलि धम्मकहा किड्डा سم ه पेसवियम्मि अदेंते पेसविया पच्चंतं पेसेइ उवज्झायं पेह पमजण वासग अग्गी पेहाऽपेहादोसा ४ ४६१९ २ १२१३ ४ ४२७१ बलिपविसणसमकालं बहि अंतऽसण्णिसपिणसु बहिया उ असंसट्टे ४ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमं परिशिष्टम् । ९५ गाथा विभागः गाथाङ्कः विभागः गाथाङ्कः ४ ४ ४०७५ ४७०८ बहिया य रुक्खमूले बहिया व निग्गयाणं बहिया वि गमेतूणं बहिया वियारभूमी ه ३ २०१४ ४ ४८३१ ३२१८ ३ ३२२३ ه م ه ४२८१ ३५८१ २ १५६३ س ه ه ४ ४८५५ ४ ४१७३ १७०० ه ३ ه له २०२८ ه ४५४३ २९३९ ३५७१ ४८३९ ३५७९ ته गाथा बाले वुड्ढे सेहे बावीस लभति एए बाहाइ अंगुलीइ व बाहि ठिया वसमेहि बाहिरखेत्ते छिपणे बाहिरगामे वुच्छा बाहिरमलपरिछुद्धा बाहिं आगमणपहे बाहिं काऊण मिए बाहिं ठिय पठियस्स उ बाहिं तु वसिउकामं बाहिं दोहणवाडग बाहुल्ला गच्छस्स उ बिइए वि होइ जयणा बिइओ उवस्सयाई बिइयदिवसम्मि कम्म बियपए असिवाई बिइयपएण गिलाणस्स बिइयपद अपेक्खणं तू बिइयपदगिलाणाए बिइयपदमणाभोगे बिइयपदमसंविग्गे ४ له १८८४ ه مه बहि बुडि अद्धजोयण बहुजणसमागमो तेसु बहु जाणिया ण सका बहुदेवसिया भत्ता बहुदोसे वऽतिरित्तं बहुसो उवट्टियस्सा बहुसो पुच्छिज्जंता बहुस्सुए चिरपब्वइए बहुस्सुय चिरपब्वइओ बंधद्वितीपमाणं बंधं वहं च घोरं बंधाणुलोमया खलु बंधित्तु पीए जयणा ठवेंति बंधुजणविप्पओगे बंधो त्ति णियाणं ति य बंभवयपालणट्ठा ه مه م م ب ३ २७८३ م ३ ३१२९ ५ ५०२७ २ १४०६ ३ २७५६ ५ ५२८६ ५ ५८८५ ३३२२९ ه २ ६ २००६ ६३४७ ३८०५ ५९६५ ه ه کو ५ ५४०१ تم م बंभवयरक्खणट्ठा बंभवयस्स अगुत्ती बंभन्वयस्स गुत्ती बंभी य सुंदरी या ५ ५४४ ५ .५१०० م م له २ १९७० बारस दसऽ? दस अह बारसविहम्मि वि तवे बालत्त अच्छिरोगे ५ ५९२९ ३ २५९७ बिइयपदं आहारे ३ २३८२ बिइयपदं गेलण्णे ४ ३७३० बिहयपदं तस्येवा ६ ६२०१ बिइयपदे कालगए ६ ६४७२ बियपदे तेगिळं ५ ५२२० बिइयपयकारणम्मि टि.१ ४२९४ बिइयपय कारणम्मी १६०४ बिइयपय गम्ममाणे १५५२ बिइयपय झामिते वा ४ ४३४२ बिइयपय तेण सावय २ १४८१ बिइयपयमणप्पज्झे २ १६९३ , बियपयमणाभोगे ५२२० बालऽसहुवुडअतरंतबालस्स अच्छिरोगे बालाई परिचत्ता बालाईया उवहिं बाला य वुड्डा य अजंगमा य बाले बुड्ढे सेहे ५ ५६१४ ३ २६२२ ३ ३०६१ ४ ४६०७ ५ ५६६३ ४ ३८०३ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ गाथा विषय मो गुरुगा बियपयं गेलने बिग्मि श्वणदेवय वियम्मि विह विवित्ता बिइयम्मि समोसरणे वियम्मि होंति तिरिया बिइयं ताहे पत्ता विइयं वसहमतिते विइयं विविवित्ता बिइयं सुलगाही चियादे से भिक्खू विति एणोकोयंती बितिय णिसाए पुच्छा वितयततिसु नियमा वितियदनुक्षण जतणा बितियपदे उ गिलाणरस वितियमहसंथडे वा बितियम्मि वि दिवसम्मि वितियं अच्छतिकरो वितियं पहुचं वितियं उपाए वितियं पभुनिसिए बितियाड पदम पुव्वि बियमहिषासु लगा बिले न उति न खजमाणि विले मूर्ख गुरुगा वा वीए वि नत्थि खीरं बीएहि उ संसत्तो बीएहि कंद्रमादी श्रीभेज बाहिं उचितो उ सुट्टो बीत एव खुड्डे बीयमबीए नाउं बीयमबीयं नाउं बाई आइ बुद्धीवलं हीणबला वयंति बेई दिअमाईणं बोरी यदितो विभागः गाथाङ्कः २ १७३१ ३ २८७२ ३ २५०८ ३ २९७१ टि०२ ४ ४२९७ २ ११९० ४ **** ५ ५५४४ २९७१ २ १५२६ ३ २८६६ २ ९९२ ४ ४ ४१९४ ४०५९ ५ ४९१० ३ ३२१५ ४ ४६१४ ५ ४९३३ ५ ५७२५ ५ ५३९० ५ ५५९२ ४ ४६४९ ५ ५२६४ ५ ५६७२ २ १३९२ २८५२ ३ १ ४ पञ्चमं परिशिष्टम् । ४ ४ ४ १ २३७ ३६८० ૩૩૨૧ ४४०३ ४४०२ २२० टि०७ १ २२० ४ २२०४ ३ ३२५४ ३ २९०९ ५ ५२९७ गाथा बोलं पभायकाले बोलेण झायकरणं 39 बोहिक तेणभयादिसु बोहिमिच्छादिभए भइया उ दव्त्रलिंगे भगंदर्क जरसरिसा व निलं भग्गऽम्ह कडी अम्भुडभगविभग्गा गाहा भट्टि ति अमुगभट्टि भडमाइभया णट्टे भइ जइ एस दोस्रो 39 भइ जहा रोगतो भइ य दिट्ट निवत्ते भणति जति ऊणमेवं भणमाणे भणाविंते भणिओ आलिद्धो या भण्णइ न अण्णगंधा भण्णइ न सो सयं चिय भण्णति उवेच्च गमणे भण्णति सज्झमसझं भगमालोए भत्तट्टण सज्झाए भट्टणा य विहि भत्तट्ठिय बाहाडा भट्टिया व खमगा 33 भत्तपरिष्ण गिलाणे भत्तमदाणमते भत्तस्स व पाणस्स व भतं वा पाणं वा भत्तादि संकिलेसो भ भत्तिविभवाणुरुवं भत्ते मे ण कर्ज भत्तेण व पाणेण व भत्ते पण्णवण निगू भत्ते पाणे विस्सामणे विभागः गाथाङ्कः ४ ४७५२ ३ २३२३ ३ २६५९ ५ ५१११ ३ ३१३७ २ ४ ४ ४ ६ ४ २ २ २ ६ ५ ५ ५ २ २ ३ ५ ४ ४ २ ४ २ २ ३ ४ ५ २ २ १६३९ ४१०२ ५ ३ ५ ३ ४४६० ४५७० ६१२७ ४७६० १७२२ १७३३ ११४९ ६०८० ५८४९ ५४५७ ५७०९ १७३७ ११५० ३१७७ ५२७९ ४ ૩૮૨ २४८९ '' ४३७२ २०४९ ४८३७ १५६२ १५७६ ४०६९ ५६०७ १८८८ १२०९ ५३२२ २९०७ ५०७६ २९०४ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमं परिशिष्टम् । विभाग: गाथाङ्कः गाथा भावस्स उ संबंधो و टि.१ १ १६६ २ ८४४ २ १७२७ १ ३३९ ३ २४२५ २ १०३२ ४ ३५४५ २६५ س به هه م له م له م مه भावस्सेगतरस्स उ भावामं पि य दुविहं भावितकुलेसु धोवित्तु भाविय इयरे य कुडा भाविय करणो तरुणो भावियकुलेसु गहणं भावे उक्कोसपणीयभावे उवक्कम वा भावेण संगहाईभावेण य दब्वेण य भावो उ अभिस्संगो भावो उ णिगतेहिं भावोग्गहो अहव दुहा भावो जाव न छिजाइ भावो देहावस्था भावोवयमईओ भासह दुयं दुयं गच्छए भासाचपलो चउहा भिक्ख गय सत्थ चेडी भिक्खयरस्सऽनस्स व भिक्खस्स व वसहीय व भिक्खं चिय हिंडता मिक्खं पिय परिहायति भिक्खं वा वि अडतो भिक्खाइ गयाए निग्गयं भिक्खादिवियारगते भिक्खा पयरणगहणं भिक्खायरियाईया भिक्खायरिया पाणग کی २ ८५९ २ १३५३ ४ ४२९२ १ ६८५ ४ ३६२३ ५६०३ २ १३२५ २ १२९९ १ ७५३. ५७०४ २ १८५२ ४ ४८१३ له गाथा विभागः गाथाङ्कः भगवयणे गमणं भद्द तिरी पासंडे १४२९ भहमभई अहिवं ३ ३०२३ भइतर सुरमणुया २८९५ भद्दो तन्नीसाए ४ ३५८८ भद्दो पुण अग्गहणं ४ ४६४३ भन्नइ दुहतो छिन्ने ४ ३९५४ भमरेहिं महुयरी हिं य २ १२४४ भयओ सोमिलबडुओ ६ ६१९६ भयति भयस्सति व मर्म ४४८२ भयतो कुटुंबिणीए ६२६० भयसा उठूतुमणा ४८६५ भरहेरवएसु वासेसु ६४४८ भवणवई जोइसिया २ ११८७ भवियाइरिओ देसाण १२३४ भंगगणियादि गमियं भंजंतुवस्सयं णे ३ २३४९ भंडीबहि लगभरवाहिभाइयपुणाणियाणं १२१२ भाणऽप्पमाणगहणे ४००४ भाणस्स कप्पकरणं ४८०७ भाणस्स कप्पकरणे १७०५ भायऽणुकंप परिणा ५२५९ भारेण खंधं च तो य बाहा ४२२७ भारेण वेदणाए ५२८८ भारेण वेयणाए ४३७४ भारेण वेयणा वा भारो भय परितावण ३८१३ भारो भय परियावण ३९०० भावकसिणम्मि दोसा ३९०२ भावचल गंतुकामं ५०४ भावऽ?वार सपदं भावम्मि उ पडिबद्ध २५९२ २५९३ भावम्मि उ संबंधो ३६८५ भावम्मि ठायमाणा २६०५ भावम्मि होइ वेदो २१४९ भावम्मि होंति जीवा ८४८ भावस्स उ अतियारो ه ه ه ه که له ه فه ه ه مه ه ه ه ه ه م ه ५ ४९५७ १ ७४३ ४ ४१०६ ५ ५२७७ ४ ३५४८ २ १४२३ १३८४ २ १६२६ ३ २८६० १ ७४२ ६ ६१११ ५८२० ५५८० ५४२६ ५ ५०८९ ه ع سم ه س भिक्खुणो अतिक्कमंते भिक्खु विह तण्ह बद्दल भिक्खुसरिसी तु गणिणी भिक्खुस्स ततियगहणे भिक्खुस्स दोहि लहुगा भिक्खूगा जहिं देसे भिक्खूण संखडीए کی بیک س س کو تم کر Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ पञ्चमं परिशिष्टम् । م م م ه ه ه ل ه ه ک ک m गाथा विभाग: गाथाङ्कः । गाथा विभागः गाथाङ्क: भिक्खू वसभाऽऽयरिए ३ २८६९ भोइयमहतरगाई ३ २४४४ भिक्खू साहइ सोर्ड ३ २१४१ भोइयमहतरगादी २ २०६१ भिजिज लिप्पमाणं १ ५२८ भोइयमादीणऽसती ४ ४६३७ भिण्णरहस्से व णरे ६४८९ भोगजढे गंभीरे २ १३३६ भिण्णं पि मासकप्पं भोगत्थी विगए कोउ ३ २४९८ भिन्नम्मि माउगंतम्मि ३९५२ भोत्तव्वदेसकाले ३ २६४१ भिन्नस्स परूवणया १०५५ भोत्तूण य आगमणं ३ २८५९ भिन्नं गणणाजुत्तं ४ ३९८७ भोयणमासणमिटुं ४ ३५७६ भिज्ञाणि देह भित्तण भिमासति वेलातिकमे १०६६ मइल कुचेले अभं २ १५४७ भिंगारेण ण दिण्णा ३ ३१६१ २ १५६५ भिंदेज भाणं दवियं व उज्झे ३६०५ २ १९२२ भीएण खंभकरणं ४२२२ महल दरसुद्ध सुद्ध ९९ भीओ चिंतेंतो वह ५३६४ मउबंधेहिं तहा संज. ६ ६२१४ टि.४ टि. १ भीतावासो रई धम्मे ५७१४ मक्खेऊणं लिप्पह भीरू पकिच्चेवऽबला चला य ३२२४ मगदंतियपुप्फाई २ ९७९ भीरू पकिच्चेवऽबलाबला य ३ ३२२४ मगहा कोसंबी या ३ ३२६२ टि०२ मगंति थेरियाओ ३ २८२८ भुत्तस्स सतीकरणं ३८३५ मग्गंतो अन्नखित्ते ४७०२ भुत्ताऽभुत्तविभासा ५ ५९२२ मच्छरया अविमुत्ती १ २१२ भुत्तियरदोस कुच्छिय २३९२ मच्छिगमाइपवेसो ६ ६३२५ भुत्ते भुंतम्मि य ३ १७४८ मच्छुब्वत्तं मणसा ४ ४४७२ भुमनयणवयणदसण२ १२९७ मजणगतो मुरुडो ५६२५ मुंजसु पचक्खातं ६ ६०७१ मजणगादिच्छंते २ १९४९ भूईए मट्टियाए व २ १३१० मजण निसिज अक्खा १ ७७९ भूणगगहिए खंतं ४६२७ मजणवहणटाणेसु ३ २३९८ भूतिं आणय आणीते ६१०४ मजणविहिमजतं ३ २६४९ भूमिधर देउले वा २९५८ मजति व सिंचंति व २४१७ भूमीए असंपत्तं ६१८६ मजायाठवणाणं २ १५७३ भूमीए संथारे ४९२२ मज्झच्चगाणि गिण्हह ४ ४२०२ भूयाइपरिगहिते ४७७३ दि.१ भूसणभासासद्दे २६०७ मज्झण्हे पउर भिक्खं १४८४ मेदो य परूवणया २३७३ मज्झस्थ पोरिसीए ४४३७ भेदो य मासकप्पे ५४६ मज्मस्थं अच्छंतं ३ २२२७ भेया सोहि अवाया मज्झामिणमण्णपाणं ५ ५०७५ भोमणपेसणमादीसु २७२३ मज्झम्मि ठाओ मम एस एत्यं १४०८ भोइय उत्तरउत्तर ४६२८ ममंतिगाणि गिण्हह ४२०२ मोइयकुले व गुत्ते ३५०७ मझुकोसा दुहभो ५ ५९४७ سر به م س mmrorm ummer - ه ه ه Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमं परिशिष्टम् । ९९ गाथा मज्झे गामस्सऽगडो मज्झे जग्गंति सया मज्झेण तेसि गंतुं मज्झे व देउलाई गाथा मंडलियाए विसेसो मंतखेण ण इच्छति س س س विभाग: गाथाङ्कः २ ११०४ २६६४ २६३० २९३० ३४७२ ४५१४ ५७९८ ११७९ ११९२ ४२५ ه ه م विभागः गाथाङ्कः ४ ४३२४ ५ ५३३५ टि०२ ४६२४ ५ ५३३५ ४ ४७२३ २ २१०४ ४ ४६७९ ४ ४६०४ ४ ४६०७ २ ११५४ २ १७५१ ३९१७ २५१६ दि.२ ३ २५१६ मंत णिमित्तं पुण रायमंदक्खेण ण इच्छति मंदटिगा ते तहियं च पत्तो मंसाइपेसिसरिसी माइल्ले बारसगं माइस्स होति गुरुगो माउम्माया य पिया मा एवमसग्गाहं मा काहिसि पडिसिद्धो माणाहियं दसाधिय माणुस्सयं पि तिविहं م ه م م ४ ४४४९ १४१ ४ ४०६५ ५ ५९८४ ३ ३२३४ १ ७८३ २ १७४३ ५ ५६१५ ६११४ ९१८ माणुस्सं पिय तिविहं माणे हुज अवनो माता पिया य भगिणी माता भगिणी धूता ३ २८२३ ५ ५२४५ ६ ६१७६] मज्झे वा उवरि वा मण एसणाए सुद्धा मणिरयणहेमया वि य मणुए चउमन्नयर मणुयतिरिएसु लहुगा मणुयतिरियपुंसेसुं मणो य वाया काओ अ मतिविसयं मतिनाणं मत्तभगेण्हणे गुरुगा मत्तग मोयाऽऽयमणं मत्तासईए अपवत्तणे वा मदवकरणं नाणं मन्नंतो संसर्ट मयण च्छेव विसोमे मयं व जं होइ रयावसाणे मरणगिलाणाईया मरणभएणऽभिभूते मरिसिजइ अप्पो वा मरुएहि य दिदंतो मलेण घत्थं बहुणा उ.वस्थं मसगो व्च तुदं जच्चामहजणजाणणया पुण महज्झयण भत्त खीरे महतर अणुमहतरए महद्धणे अप्पधणे व वस्थे महिहिए उट्ट निवेसणे य महिमाउस्सुयभूए महिलाजणो य दुहितो महिलासहावो सरवन्नमेओ महुणो मयणमविगई महुराऽऽणत्ती दंडे मंगलसद्धाजणणं मंडलिठाणस्सऽसती मंडलितकी खमए ३ २८४५ २ १२६१ १०१२ मा निण्हव इय दाउं मा निसि मोकं एजसु मा पडिगच्छति दिण्णं मा पयल गिण्ह संथारगं मा मरिहिह त्ति गाढं मा मं कोई दच्छिह मा य अवणं काहिह माया पिया व भाया माया भगिणी धूया १ ४३९७ ३ २९६७ rrrrrrrrrrrrrrrrr ९२२ ६२५० ३५७४ ४ ४१३७ ४ ४७०६ ६ ६१७६ ५ ५२४५] ६२१२ २ १७७२ ५ २२०० ५६७७ २२४६ ४८३० मालवतेणा पडिया माला लंबति हत्थं माले सभावओवा मा वच्चह दाहामि मा सब्वमेयं मम देहमन्नं मासस्सुवरि वसती मासादी जा गुरुगा मा सीदेज पडिच्छा मासे पक्खे दसरायए ५१४४ १७११ ६२४४ ४४४२ २०७६ १७२१ । २ २०२३ ५९३० ४९५४ १६८४ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० पञ्चमं परिशिष्टम् । गाथा गाथा विभाग: गाथाङ्क: मासे मासे वसही मासो लहुओ गुरुओ विभाग: गाथाङ्कः २ २०३० २ १५५९ ४ ३४९८ ६ ६०८१ ६ ६१०६ ६ ६१३८ ६ ६१४५ ६ ६१४८ ६ ६१५२ ६ ६१५६ मीसगगहणं तत्थ उ मुइए मुद्धभिसित्ते मुक्तधुरा संपागडमुक्कं तया अगहिए मुक्का मो दंडरुइणो मुच्चंते पलिमंथो ६ ६३८२ ४५४४ १ ३६० २ १२७४ मुच्छाए निवडताए मुच्छाए विवडियाते w मासो लहुओ गुरुगो मासो विसेसिओ वा मा होज अतो इति दोसजालं मिउबंधेहिं तहाणं मिच्छत्सऽदिन्नदाणं मिच्छत्त पवडियाए मिच्छत्त बडुग चारण टीकापा० ५ ५९५२ ५ ५९५२ टि.१ ४ ४३८० ४ ३५७३ १ २९८ ४ ४५१८ २९३ ३ २४८७ ३ २२६२ ३ २१९० ३ ३१६९ ६ ६२१४ ५५६१ । १ ५४४ मुत्तनिरोहे चक्खं मुत्तूण गेहं तु सपुत्तदारो मुत्तूण पढमबीए मुई अविद्दवंतीहिं मुरियाण अप्पडिया मुरियादी आणाए मुल्लजुयं पि यतिविह मुसिय त्ति पुच्छमाणं मुहकरणं मूलगुणा मुहणंतगस्स गहणे मुहमूलम्मि उचारी मुहरिस्स गोण्णणाम मुंडाविओ सिय ती मूगा विसंति निंति व मूयं च ढड्डरं चेव मूयं हुंकारं वा मूलगुण उत्तरगुणे ६. ६४०५ मिच्छत्तभाषियाणं मिच्छत्तम्मि अखविए टि.२ ३ ३०२४ १६६८ ५ ४९९० १४९५ ६ ६३२७ ५ ५१९१ ४ ३४५५ ४ ४४७५ १ २१० मिच्छत्तरिम अखीणे मिच्छत्तम्मी भिक्खू मिच्छत्त सोच्च संका मिच्छत्तं गच्छिजा . ror- मिच्छत्तं गच्छेजा मिच्छत्ताओ अहवा मिच्छत्ताओ मीसे मिच्छत्ता संकंती मिच्छत्ताऽसंचइए मिच्छत्ते उड्डाहो ३ २८४१ ३ २७९७ ३ पृ० ७९१ टि.४ ३ २७९९ ११३ ११२ ११४ ६००५ मूलग्गामे तिन्नि उ मूलतिगिच्छं न कुणह मूलभरणं तु बीया मूलं वा जाव थणा मूलं सएज्झएसुं ४ ४५२१ ३ २७४३ ३ २२३९ १७५७ ४१४२ ma ५ ५१९५ ५२४१ मूलातो कंदादी ६ ६१७० मूलुत्तरचउभंगो ६ ६१८४ मूलुत्तरसेवासुं २ ९२९ मूलेण विणा हु केलिसे ४ ४१५३ - मेरं ठवंति थेरा मिच्छत्ते सतिकरणं मिच्छत्ते संकाई मिछत्ते संकादी १९४२ ५ ५६९४ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Trm. पञ्चमं परिशिष्टम् । १०१ गाथा विभागः गाथाङ्कः गाथा विभागः गाथाङ्क: मेहाईछनेसु वि १३४२ रयहरणेण विमझो ४ ४१९५ मेहुणसंकमसंके ३ २८०१ स्यहरणेणोल्लेणं ४ ४२५३ मेहुण्णं पि य तिविहं १ ४९४१ रविउ त्ति ठिओ मेहो १ ३३६ मेहुण्णे गम्भे भाहिते ११४५ रसगंधा तहिं तुला २ १०५० मोएण अण्णमण्णस्स ५ ५९७७ रसगिद्धो व थलीए ५४२८ मोक्खपसाहणहेतू ५ ५२८१ रसता पणतो व सिया ५८६४ मोत्तुं जिणकप्पठिई ६ ६४८६ रसलोलुताइ कोई ५२०४ मोत्तण गच्छनिग्गते ६९५ रहपडण उत्तमंगादि १ ४७५ मोत्तण वेदमूढ़ ५ ५२३० रहहस्थिजाणतुरए २ १९१६ मोयगभत्तमलढुं ५ ५०१९ रंधंतीओ बोटिंति १७४६ मोयस्स वायरस य सण्णिरोहे ३४९० राइणिओ य अहिगतो ४५५४ मोयं ति देइ गणिणी राईण दोगह भंडण ३ २७८९ मोयं तु अन्नमन्नस्स ५९८६ राओ दिया वा वि हुणेच्छुभेजा ४ ३५९२ मोझं णस्थऽहिरण्णा ४६४६ रामओ व दिवसतो वा ३ ३१४१ मोसम्मि संखडीए ६१४२ रागहोसविमुक्को ३ ३०६६ मोहग्गिाहुइनिभाहि ३ २२४० रागहोसाणुगया ५ ४९४३ मोहतिगिच्छा खमणं ६ ६२२८ मोहुन्भवो उ बलिए २ १५२७ रागम्मि रायखुड़ी ६ ६१९७ मोहेण पित्ततो वा ६ ६२६० रागेण वा भएण व ६ ६१९५ मोहोदएण जइ ता ३ २६२८ रागो य दोसो य तहेव मोहो ४ ३९३५ रातिणितवाइतेणं ६ ६१४९ रक्खण गहणे तु तहा १ ५४२ रातो य भोयणम्मि ५ ४९६१ रक्खिजइ वा पंथो २७७५ रातो वस्थग्गहणे २९७० रज्जे देसे गामे ५ ५५७१ रातो व दिवसतो वा ५ ५८३३ रपणो य इस्थिया खलु ३ २५१३ रातो व वियाले वा ३ २०३८ टि.२ रातो सिज्जासंथारगाहणे २९२४ रत्तपड चरग तावस २ १५४८ रायकुमारो वणितो ५ ५२२९ २ १५६६ रायणिओ भायरिओ .४ ४४१३ रतिं न चेव कप्पड़ २ १५५४ रायणिओ उस्सारे १ ६२० रत्तिं वियारभूमी ३ ३२०८ रायडुट्ठभएसुं रख्ने वितिरिक्खीतो ३ २१६४ रायवधादिपरिणतो ४९९४ रनो जुवरको वा रायामच्चे सेट्री ३७५७ रनो निवेइयम्मि ६ ६२१९ राया य खंतियाए ५ ५२१९ रनो य इस्थियाए ३ २५१३ राया व रायमच्चो २ १२११ रमणिजभिक्ख गामो रायोवणीय सीहासणो. २ १२१६ रयणायरो उ गच्छो २१२२ रासी ऊणे दहें ४ ३३५७ रयणेसु बहुविहेसुं २१२३ रासीकडा य पुंजे. ४ ३३१० रयताणस्स पमाणं ४ ३९७२ रिक्खस्स वा वि दोसो स्यहरणपंचगस्सा ४ ३६७६ ! रिण वाहिं मोक्खेउं ४ ४७२० occa.com Censes. Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ पञ्चमं परिशिष्टम् । गाथा गाथा रीढासंपत्ती वि हु रीयादसोहि रतिं रुक्खासणेण भग्गो रुद्ध वोच्छिन्ने वा रूवं आभरणविही विभागः गाथाङ्क: ३ २१६२ ३ ३०४८ २२६७ ४८३८ २४५१ २५५७ ६२६४ २ २१०२ wwcom विभाग: गाथाङ्क: ६ ६१०८ १०४१ ४ ४५७२ ८६१ २ ८७७ २ १६६२ २४३१ ३८९६ रूवंगं दट्टणं रूवं वनो सुकुमारया रूवे जहोवलद्धी रूवे होउवलद्धी टि०३ ४ ४८१२ रोहेड अट्ट मासे ५ ६०४० ६ ६२३६ २ ११३८ ३ २३६९ लक्खणभो खलु सिद्धी लक्खणहीणो उवही लग्गे व अणहियासम्मि लजं बंभं च तित्थं च लत्तगपहे य खलुए ه ५ ५ ५९६१ ५६४४ टि०२ ५६४४ ५६४४ ५९७४ ६२४३ ५१७ ५१५ १ १ लहुगाई वावारिते लहुगा तीसु परित्ते लहुगादी छग्गुरुगा लहुगा य दोसु दोसु य लहुगा य निरालंबे लहुगा लहुगो पणगं लहु गुरु चउण्ह मासो लहुगो लहुगा गुरुगा लहुतो लहुगा गुरुगा लहुया य दोसु गुरुओ लहुसो लहुसतराओ लहुसो लहुसतरागो लंदो उ होइ कालो लाउय असइ सिणेहो लाउय दारुय मट्टिय लाउयपमाणदंडे लाभमएण व मत्तो लित्ते छाणिय छारो लिस्थारियाणि जाणि उ लिंगट्ट भिक्ख सीए लिंगत्थमाइयाणं लिंगस्थस्स उ वजो लिंगत्थेसु अकप्पं लिंग विहारेऽवडिओ लिंगेण निग्गतो जो लिंगेण लिंगिणीए लुक्खमरसुण्हम निकामलुद्धस्सऽभंतरतो लूया कोलिगजालग लेवकडे कायध्वं लेवकडे वोस? लेवडमलेवर्ड वा लेवाड विगइ गोरस लोइयवेइयसामाइएसु लोउत्तरं च मेरं लोएण वारितो वा लोए वि अ परिवादो लोए वेदे समए लोगच्छेरयभूतं लत्तगपहे य खुलए लत्तगपहे य खुलुए م २ १९१७ م टि.२ १ ६२७ م ه लण अमपाए लण अन्न वत्थे लडूण णवे इतरे लद्रूण माणुसत्तं लद्धे तीरियकज्जा लहुओ उ उवेहाए ه १ ६१४ ४२७० ४ ३७४० ४६४० ३ २६९९ ५७३४ ५ ४९५५ ५ ५८४४ ६ ६११२ ६१२० ४ ४५१६ ५ ५००० ३ २१५४ २ १८९३ २ १७८७ २ १७१९ م लहुओ उ होति मासो लहुओ गुरुओ मासो लहुओ य लहुसगम्मि लहुओ लहुगा गुरुगा लहुओ लहुगा दुपुडा लहुओ लहुया गुरुगा लहुगा अणुग्गहम्मि २ १६४८ २ १७१७ १ ३८५ م ه ३८५२ ه २०४२ ४ ३३५८ ५ ५०७० ४ :४१३१ ५ ५४२७ ४ ४५४७ ३ ३२६८ लहुगा अणुग्गहम्मी Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमं परिशिष्टम् । १०३ م م ه من سم ه ه ه م م به س गाथा विभागः गाथाङ्कः गाथा विभागः गाथाङ्कः लोगपगतो निवे वा ४ ४५५२ वच्छनियोगे खीरं १ १९५ लोगविरुद्धं दुष्परि२ १९६२ वच्छो भएण नासति १ ५०५ लोभेअ आभिओगे ३ २८१७ वट्टइ उ समुहेसो ६ ६०७४ लोमे एसणघाते ६३८९ वई समचउरंसं ४ ४०२२ लोभेण मोरगाणं ५२२७ वट्टागारठिएहिं २ ११०८ लोलंती छगमुत्ते ५ ३७७० वडपादव उम्मूलण ५ ४९२९ लोलुग सिणेहतो वा वहति हायति उभयं ६ ६२२५ वणसंड सरे जलथल ३ २७०७ वइअंतरियाणं खलु २२३५ ५ ५७४० वहगा अद्धाणे वा वणिओ पराजितो मारिओ ४ ४१२२ वइगाए उठियाए ४८६६ वणियस्थाणी साहू ५८५९ वइगा सत्थो सेणा ४८५९ वणिया ण संचरंती ४ ४२५१ वहणि त्ति णवरि जेम्म ५ ५२३८ वण्णड्ड वण्णकसिणं वइणी पुन्वपविट्ठा ३ २१८३ वण्णरसगंधफासा २ १६४४ वइदिस गोबरगामे ६०९६ ५ ५९१४ वयासु व पल्ली व ४८०२ वण्णरसगंधफासेसु ३ २७२७ वकाझ विकएण व २ १५१६ वतिणी वतिणिं वतिणी ३. २२२५ वकंतजोणितिच्छड२ १९५५ वतिभित्तिकडगकुडे ४ ४७९२ वकंतजोणि थंडिल २ ९९८ वतिसामिणो वतीतो वगडा उ परिक्खेवो ३ २१२७ वत्तकलहो उ ण पढति ५ ५७४४ वगडा रच्छा दगतीरगं ३ ३२४२ वत्तकलहो वि न पढह ३ .२७११ वचइ भणाह आलोय ६ ६१४४ वत्तम्मि जो गमो खलु ५ ५४९४ ६ ६१४७ वत्तवओ उ भगीओ ५ ५४८३ वचक मुंज कत्तंति ४ ३६७५ वत्तवा उ अपाणा ५ ५६६९ वञ्चति भणाति आलोय ६ - ६१३७ वत्तस्स वि दायम्वा ५ ५३८८ ६ ६१५१ वत्ता वयणिजो या ६ ६०६४ ६ ६१५५ वत्तीए अक्खेण व १ १५८ ६ ६१६० वत्ते खलु गीयत्थे ५ ५४७५ वञ्चसि नाहं वच्चे ६ ६०७२ वस्थम्मि नीणियम्मि ३ २७९० बच्चह एगं दग्वं ६ ६०८७ वस्थव्व जतणपत्ता ५ ५८३५ वचंतकरण अच्छंत२ १५.१ वत्थव्व जयणपत्ता ५ ५८३९ वचंतस्स य दोसा २ ८७३ वस्थव्व पउण जायण २ १९६६ बच्चंते जो उ कमो वस्थब्वे वायाहर ४ ४६७० वचंतेण य दिद्वं वस्थं व पत्तं व तहिं सुलभ ३ ३२.४ वचंतेहि य दिहो .२ १५५५ वस्थाणाऽऽभरणाणि य वचंतो वि य दुविहो ५ ५३८६ वस्थाणि एवमादीणि ४ ३६७९ बच्चामि वञ्चमाणे ५ ५५८२ वस्था व पत्ता व घरे विहुजा ४ ४२१२ वत्स(च्छ)ग गोणी खुजा . १ . १७१ वस्थेण व पाएण व ३ २९८५ बच्छगगोणीसहेण ३. २२०३ । वत्येहि वचमाणी ४ ११५६ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमं परिशिष्टम् । १०४ विभाग: गाथाङ्क: ३ २४६० २ १९१० गाथा प्रत्येहिं आणितेहिं बम्मा य अवम्मा वि य बम्मिव कवाय बलवा बय माहिगारे पगए व्य इगठवणनिभा ववर्णन दिगम्बमालियं बयणेणाऽऽयरियाई वयसमितो धिय जायह बलया कोठागारा ववहार णस्थवत्ती बहारनयं पप्प उ वहारो विहु बलवं वसमाण होंति लहुगा वसमा सीहेसु मिगेसु बसमे य उवज्झाए वसहि निवेसण साही वसहिफलं धम्मकहा वसहि भणुपणवितो वसहीए असझाए वसहीए ने दोसा वसहीए दोसेणं ४ ४६७७ ५५२१ ५९२० ४१५७३ ३ ३०५५ ४ १४२७ ५०४२ ५४२९ ५०७ ५४५६ ४५४८ ४५४५ २७०५ ५ ५७३६ २ १२९० विभागः गाथाङ्क: गाथा . ५३१३ वाणंतरिय जहवं वातावपरितावण वातादीणं खोभे ३ २०३६ वाताहडे वि गवगा ३३३ वातेण अणकंते ३६२ वानर छगला हरिणा वामद्दति इय सो जाव १४४५५ वाय खलु वाय कंडग ५ ३२९७ वायणवावारणधम्म वायपरायण कुवितो ३ २६८८ वायपरायण कुविया ४५०७ वायम्मि वायमाणे ४४५९ बायाई सट्ठाणं ३ २९०३ वायाए कम्मुणा वा ३ २१८८ वायाए नमुकारो ५ ५५४१ वायाए हत्थेहि व २ १५७२ वायाकोकुइभो पुण ५ ३७२९ वायाहडो तु पुट्ठो वायाहडो वि एवं ५ ४९१२ वारत्तग पवजा ५ १९५९ वारत्तगस्स पुत्तो ५ ६०५२ वारिखलाणं बारस २ १५३४ चारेड एस एवं ५ ३३३६ [ ॥ ५९५९ वारेति भणिच्छुमणं वारेति एस एतं ५ ५३५० ५ ५८६१ वाले तेणे वह सावए टि०२ वाले तेणे वह सावते ३ २१३७ वावार मट्टियाअसु. वावारिय आणेहा ५ ५९२५ वावारिय सच्छंदाण वासत्ताणे पणगं ४४५३ वासस्स य आगमणं ५२०९ वासाखित्त पुरोखड ४ ३५८६ । वासाण एस कप्पो वसहीए वि गरहिया वसहीए वोच्छेदो वसाहीरक्खणवग्गा वसिजा बंभचेरंसी वसिमे वि विवित्ताणं वंका उण साहंती वंतादियणं रति वंदणयं तीय कयं ४ ४६५८ ४ १०६६ २ १७७५ २ १७३० ३ २७१७ ५ ५७४९] ५ ५५६५ ५ ५५४९ ३ २०१७] م ه ه ३ ३१५७ ४ ३६२० ५०६० १४७४ ४०९७ २ १५५६ २२८० ४ ४२४७ ४ ४२६६ वंदामि उप्पलजं वंदेण इंति निंति व वंदेण दंडहत्था वंसग कडोकंचण वाइगसमिई बिड्या वाइजति अपत्ता वाघायम्मि ठवेलं वाडादेउलियाए ه ه سر cs... Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा वासावाणे पणगं वासारते अइपाणियं वासावजविहारी वासावास विहारे वासावासातीए वासावासो दुविहो वासाविहारखे तं वासासु व वासंते वासासु वि गिन्ती वासेण नदीपूरेण वासोदगस्स व जहा वाहि नियाण विकारं वाही असन्वछिनो वाहीण मि यभिभूतो वाहीण व अभिभूतो बिलकुले पन्वते विठलं व भत्तपाणं विरसम्ग जोग संघाड बिक भ्रमग्गणे दीहं विकिंतगं जधा पप्प बिगइ अविणीए लहुगा विगई विगइअवयवा विगयम्मि कोडयम्मी विमयम्मि कोउहले 99 विगुरुग्विऊण रूवं विगुरुवियोंदणं घोवसमोसा बिद्या मेलण अनुखविश्वामेण सुत्ते 19 विच्छिण कोहिमतले विदूरमोगा विच्छिनय पुरोहडो विजणम्मि वि उज्जाणे विज्जद वियट्टयाए पञ्चमं परिशिष्टम् । विभागः गाथाङ्कः ४ ४०९७ टि० १ २ ११२४ २ १२४३ ३ २७३५ २ १४४९ ३ २७३४ ३ ३१७९ ४ 8 ३ ४५६२ ४२८९ ३०७३ १२०४ १९२७ ११९ २ २ 9 ३ ३०१८ टि० ९ ३ ३०१८ ५ ५२६१ ५ ५६०२ ३ २७९६ २ ९९४ ४ ४२१६ ५ ५१९९ २ १७०८ ४ ३४२४ ३ ૪૨૨:૩ ४ ३४०५ ५ ५७२२ ३ २२०१ १ १ ३ ५ २० २९६ २६९५ ५७२९ ४ 9 ३ २२१३ ३ २५९१ ४३९८ ५४४ गाथा विज्जस्स व दब्वस्स व विजं न चैव पुच्छइ विजाए मंतेण व विजा ओरस्सबली विजादs भिभोगो पुण विज्जादसई भोया विजादी हि गवेसण चिज्जामंत निमित्ते विजाहर रायगि विजे पुच्छण जयणा विणयस्स उ गाइणया विणयाहीया विज्जा विणा उ ओभासितसंथवे हिं विण्हवणहोम सिरप रिविव ववहरमाणं वितिगिन्छ अब्भसंथड वितगिट्ठ तेण सावय वित्तासेज रसेज व बित्ती व सुवन्नस्सा विस्थाessया मेणं 22 विदुक्खमा जे य मणाणुकूला बिदु जाणए विणीए विवि के तिव विद्धंसण छायण लेवणे विज्ञाय आरंभमिणं सदोसं विपरिणम सयं वा विष्परिणया वि जति ते विष्परिणामित्यभावो विष्परिणामो अप्पचओ विभंगी उ परिणमं विवडण पञ्चक्खाणे वियरग सभीवारामे विरसभाव चरणं विरतो पुण जो जाणं विरहम्मि दिसाभिग्गह विरिच्चमाणे अहवा विरिके टि० १ विलभोलए व जायइ २४२१ विवरीयवेधारी विभागः गाथाङ्कः १९७३ १९०७ ६२७० ५५९३ ६२७१ २ २ ६ ५ ६ ४ ४ ५ ५४७३ २९१ १०२७ 1 २ ५ ५ ३ १०५ २ 1 ५. ६ ५ ३ 9 ४६३४ ४६३२ ५१०७ ५२०३ ३१९५ १३०९ ३९० ५८२८ २९३४ ५५२६ .१२०७ * ५५१० ४३१४ ७३१ ६२४९ २ ૪ " ४ 9 ६ २ ४ ४ ४ ४ ३ 9 ४ ४५०० ३ २८१९ २ ९३४ · ३९३९ ง ३९३ ४ ४३२२ २९१५ ३१ १६७५ ३९२४ ४७१८ ४३७२ *૭* १९३८ १२५ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ पञ्चमं परिशिष्टम् । विभागः गाथाङ्कः १ ४४७ م ه ه س गाथा विसम पलोहणि या विसमा जति होज तणा विसमो मे संथारो विसस्स विसमेवेह विसोहिकोडिं हवइत्तु गामे विस्ससह भोइमित्ताविह भतराऽसहु संभम विह निग्गया उ जइडं विहवससा उ मुरुडं विहं पवना धणरुक्खहेतु विहिभाविही भिन्नम्मि य विहिणिग्गता उ एका विहिमित्रं पिन कप्पड़ बिहुवण गंतकुसादी बीमंसा परिणीयट्ठया बीमंसा पडिणीया वीयारगोयरे थेरवीयार मिक्खचरिया ४४०६ ६ ६२७३ ३५१७ ३ २१७८ ४ ३८६२ ३ २६०४ ४ ४१२३ urrr ه ه س له २ १०३९ ४ ४१३० २ १०५७ ५ ४९०६ २४९४ २४९६ ५१८० २ ११८० ३ २१७३ -30 س م ک गाथा विभाग: गाथाङ्कः वीसुंभणसुत्ते वा ५ ५५९५ वीसुंभिओ य राया ४ ३७६० वीसुं वोमे घेत्तुं ५ ५३३६ वुच्छिण्णम्मि मडंबे ५ ६०१२ वुट्टे वि दोणमेहे १ ३३८ वुड्डोऽणुकंपणिजो वुत्तं हि उत्तमटे ६ ६२८५ वुत्ता तवारिहा खलु ५ ४९६९ वुत्तुं पिता गरहितं वुत्तो अचेलधम्मो ५ ५९३५ वुत्तो खलु माहारो वुब्मण सिंचण बोलण ५ ५६२७ बूढे पायच्छित्ते १ ७१२ वेउवऽवाउडाणं ५ ५६७५ वेगच्छिया उ पट्टो ४ ४०८९ वेजऽटग एगदुगादि २ १०२८ वेजस्स एगस्स अहेसि पुत्तो ३ ३२५९ वेयावञ्चगरं बाल २ १४६४ वेयावच्चे चोयण २ २११० वेरग्गकरं जं वा ३ २६१२ वेरग्गकहा विसया ५१८१ वेरं जस्थ उरजे ३ २७६० वेलइवाते दूरम्मि वेलाए दिवसेहिं व वेवहु चला य विट्ठी ४ ४१८८ वेसह लहुमुटेइ य ४ ४४२८ वेसत्थी आगमणे वेसवयणेहिं हासं २ १३०० वेस्सा भकामतो णिज ६ ६२५९ वेहाणस मोहाणे २ १९८८ वोच्चत्थे चउलहुभा वोवस्थे चउलहुगा २ १९१३ वोच्छिजई ममत्तं वोच्छेदे लहुगुरुगा वोस? काय पेल्लण ५९४४ वोसटुंपि हु कप्प ४४०४८ له ه به س ४४६६ २१९५ २०६४ ३६९६ _ ५६२८ ५९५६ ل army mr00 مه گر گر م ک वीयारभोमे बहि दोसजालं बीयारसाहुसंजइ पीयाराभिमुहीओ वीयारे बहि गुरुगा वीरलसउणवित्ताबीरवरस्स भगवतो वीरासण गोदोही वीरासणं तु सीहावीसजियम्मि एवं वीसजिया य तेणं वीसजिया व तेणं वीसस्थमप्पिणते बीसस्थया सरिसए वीसस्थडवाउडयोबीसस्था य गिलाणा वीसं तु अपवजा वीसं तु भाउलेहा वीसंभटाणमिणं वीसुं उपस्सए वा घीसुंधेप्पइ असरंत ३ ३२८७ ३ ३०२२ ३ ३०११ ک س २२४३ ३६९४ ه م ه ४०४५ ४४८८ ه م सइकरण कोउहल्ला सइकालफेडणे एसणा ३ ४ २३४० ३७०२ کی Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चमं परिशिष्टम् । १०७ गाथा सइमेव उ निग्गमणं सकवाडम्मि उ पुचि सकुडंबो मधुराए सक्कपसंसा गुणगाहि सक्कमहादी दिवसो सक्कयपाययभासासक्कयपाययवयणाण सकरपतगुलमीसा सकारो सम्माणो सक्खेत्ते जदा ण कभति सक्खेत्ते परखेत्ते वा सखेदणीसढविमुक्कगत्तो सगडदहसमभोमे सगणम्मि पंचराइं. م ه م ه م م م م 2005-000000000000..... م विभागः गाथाङ्कः गाथा विभाग: गाथाङ्क: २ १६९० सज्झाए पलिमयो ३ २९५९ सज्झाए वाघातो ६ ६२९२ सज्झाय काल काइय ४ ४८५८ १ ३५७ सज्झायट्ठा दप्पेण ४ ४२७९ ५ ५६०६ सज्झायमसज्झाए ७४५ सज्झायमाइएहिं ५७७९ सज्झायलेवसिव्वण ५ ५२८४ ३ ३०९३ सज्झाय संजमहिए १२४० २ १५०३ सज्झायं जाणतो २ १९९५ ५ ५२९१ सट्ठाण परहाणे ४ ४४२३ ४ ४२९० सट्टाणे अणुकंपा सट्ठाणे पडिवत्ती २ १४३४ सटाणे सट्टाणे ५७५३ सडियपडियं ण कीरइ ५ ४७६६ सट्टा दलता उवहिं निसिद्धा ४ ३८४६ सद्देहि वा वि भणिया ३५८३ १०८१ सण्णातिगतो अद्धाणितो ५ ५०७४ सण्णायगा वि उजु ५ ५३५४ १ ६४२ सणी व सावतो वा सतिकरणादी दोसा २ १८७० सतिकालद्धं नाउं २ १६१४ २०८० सतिकोउगेण दुण्णि वि ३ २४५८ ६ ६२४६ सति दोसे होअगतो ६ ६५२८ ५ ५७२७ सतिलंभम्मि भणियया १ ५६७ २ १६५४ सति लंभम्मि वि गिण्हति सत्त उ वासासु भवे ५ ५६५४ २५८ सत्तऽट्ट नवग दसगं ५ ५४८० सत्तण्हं वसणाणं २ १२२ सत्त त्ति नवरि नेम्म २. १७५५ ३ २६९३ सत्त दिवसे ठवेत्ता ३ २८२० ५ ५०९२ ३ २०२९ ३१२६ सत्त पदा गम्मते ५८७६ ५ ५७१६ सत्तरत्तं तवो होइ ७०५ ३ ३१२५ - ૨ ૧૫૮ ५ .५४८६ २ ९०९ सत्तरत्तं तवा होति ४ ४६८० ३ २७६१ सत्ताधीस जहण्णेणं ६ ६४६१ ३ ३२३८ । सत्तावीस जहन्ना २१४३६ ४ ३७१६ । सवय मूलगुणे ه ه सगल पमाण वण्णे सगलासगलाइन्ने सगुरु कुल सदेसे वा सग्गाम परग्गामे सग्गामभिह डि गंठी सग्गामे सउवसए सच्चं तवो य सीलं सचं भग गोदावरि ! सच्चित्तचित्त मीसे सञ्चित्तदवियकप्पं सच्चित्तं पुण दुविह सचित्ताई तिविहो सचित्तादि हरंती सञ्चित्तादी दब्वे सचित्ते अचित्ते सचित्ते खुड्डादी सच्छंदओ य एवं सच्छंदवत्तिया जेहिं सच्छंदेण उ गमणं सच्छंदेण य गमणं सजियपयट्ठिए लहुगो सजग्गहणा तीयं सज्झाइयं नस्थि उवस्सएडम्हं सज्झाएण शु खिण्णो ه م س Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ पञ्चमं परिशिष्टम् । गाथा विभाग: गाथाङ्क: ६ ६२०७ समणभडभाविएK समणं संजयं दंत सस्थडगी मे] सत्थपणए वसुदे सस्थपरिणादुक्मे सत्यं च सत्यवाह सरवाह अट्टाणिया सस्थिति पंच मेया साथे प्रहप्पयाणा सम्ण नेण गया सरने विविधमाणे ३ ३.८५ समणाण उते दोसा समणाणं पडिरूवी समणा समणि सपक्खो समणीणं जाणत्तं समणी समण पविढे समणुनमसमणुले समणुचापरिसंकी समणुनाऽसह अने समणुबेतर गिहि विभाग: गाथाङ्क: ३ १२०० २ १५५० २ १५६० ५ ५९७१ ५ ५०५० ३३०७७ ४ ४२३४ ४ ३७५२ २ १२६३ २ १८६२ २ १८१५ ३ २९८३ । २९७४ ५ ५४३१ २ ४ १ २ १७६४ ४५८९ ६२६ १८४४ समणे घर पासंडे समणेण कहेयम्बा समणे समणी सावग समणेहिं अमणंतो समयाइ ठिति असंखा समवाए खरसिंग समविसमाइन पास समविसमा थेराणं समहिंदा कप्पोवग ५ ६०२९ २ ८२० ५ ५३९० . ४५०५ २५.३६९ प्र. मा०४ २ १५०१ है सत्यो बहू विवित्तो खारिस हरणवस्थासईच हेतुसत्यं सानोइयाओ को सहि सुच्छति खेदणावा सदगोडणुग्गाहियम्मि सदाकुटी स्वो साहुत्त ससमय साईकयको समानणं सपणी सरकारले पकसमान महामणे समायोहि बीते सावपछि जेहिं [] सधिकारिसहे परो होह सहि सस्कमिको वा समस्सीणं सचीव असन्त्री वा, सही पढमवग्गे स्वादिकमणो धम्मो सम्पषिद्वारे उवस्सए समिहजए मुंचति सम्भावमसम्भावं सम्भावमसबभावे २०६२ ५ १९३८ समाही में भत्तपाणे . ७५५ २५८३ है २५६८ ६ ६४२५ ३ २२४१ ४ ५ समिइंसतुगगोरस समिचिंचिणिमादीणं समितीसु भावणासु य समितो नियमा गुत्तो समुदाणं पंचो वा समुदाणओदणो मत्तओ समोसरणे उसे समोसरणे केवइया सम्मजण आवरिसण सम्मतपोग्गलाणं सम्मत्तरिम अभिगओ सम्मसम्मि उ लद्धे सम्मत्ते पुण लद्धे ५५५१ ५६५९ १९५३ ४२४२ १६८१ सम्माविक इयरे विय सभए सरमेदादी सभयाऽसति मत्तस्सर समाणगुणविदुऽस्य जणो ३ ३२१४ ३ ३२६९ दि.४ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमं परिशिष्टम् । १०९ ه ه ه ه ه ه ه ه ه गाथा विभागः गाथाङ्क: गाथा विभाग: गाथाङ्कः सम्मत्ते वि अजोग्गा सम्वत्थामेण ततो ३ ३१०७ सम्महिट्ठी देवा सवनुपमाणाओ सम्मं विदित्ता समुवटियं तु सध्वत्रुप्पामण्णा सम्मिस्सियं वा वि अमिस्सियं वा ४ ३६१४ टि०२ सम्मेतर सम्म दुहा २ ८९३ सव्वसुप्पामा सम्मोहो मा दोण्ह वि सब्वपयत्तेण अहं सयकरणे चउलहुगा सब्वभूतऽप्पभूतस्स ४ १५८६ सयगहणं पडिसेहति ४ ४१५० सम्वम्मि उचउलहुया २ १६०० सयग्गसो य उक्कोसा ६ ६४६२ सव्वम्मि पीए अहवा बहुम्मि सयपाग सहस्सं वा सव्वसुरा जहरूवं २ १९९६ सयमवि न पियह महिसो सव्वस्स छड़ण विगि. सयमेव भाउकालं २ १२८४ सव्वस्स वि कायब्वं ५४२५ सयमेव उ करणम्मी ४ ३६०४ सम्वस्सं हाऊणं ४४३२ सयमेव कोह लुदो २०४७ सध्वंगिओ पतावो ५९४९ ४५९५ सम्बगियं तु गहणं सयमेव कोति साहति ५ ५१४१ सध्वं नेयं चउहा २ ९६२ सयमेव दिवपाढी सब्वं पिय संसट्ट १७४४ सयमेव य देहि अबले ४ ५३३१ सव्वं व देसविरई सरगोयरो अतिरियं सवाउबपि सोया २ १२०६ सरमेद वपणभेदं ६ ६२९० सव्वाणि पंचमो तहिणं ६ ६३०४ सव्वारंभपरिग्गह ४५८५ सरवेहमासहस्थी २ १२९० सव्वा वि तारणिज्जा ४ ४३४० सरिकप्पे सरिछंदे सध्वासु पविद्यासुं ६ ६४४६ सम्बाहिं संजतीहिं ६ ६३९९ सरिसावराधे दंडो सम्वेगाथा मूलं ६०८२ सरिसाहिकारियं वा ५६८५ सम्वे चरित्तमंतोय ६ ६४५४ सादर णक्खेण व ६ ६१८० सम्वे दटुं उग्गाहिएण सलुद्धरणे समणस्स सम्वे वा गीयस्था ६१८ सवणषमाणा वसही ५ ५६७३ ५६७४ सब्वे वि तत्थ भति सविसाणे उड्डाहो सम्बे वि तारणिजा सविसेसतरा बाहिं १३३० सम्वे वि पडिग्गहए २ १२३८ सन्वचरितं भस्सति सम्वे वि मरणधम्मा ५ ५५१७ सम्वजईण लिसिद्धा सब्वे समणा समणी ५ ५३५० सम्बजगजीवहियं सम्वेसि गमणे गुरुगा सम्वज्झयणा नामे सम्वेसि तेसि आणा ४ ३५४२ सम्वत्थ अविसमत्तं २ १२०३ सम्वेसु वि चउगुरुगा ३ २३०३ सम्वस्थ पुच्छणिज्जो ४ ३५७५ सम्वेसु वि संघयणेसु २ १६२८ सन्वस्थ वि आयरिओ ४ ५३४९ ! सम्वेहि वि गहियम्मी ५ ४९९९ ه १८३५ ه ه ३ ه २३३१ "rrrror 92 Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० पञ्चमं परिशिष्टम् । गाथा विभाग: गाथाङ्क: विभागः गाथाङ्क: ५ ४९९८ गाथा संगं अणिच्छमाणो संघट्टणाऽऽयसिंचण من ५६३१ به ३ ४६९९ ३२४८ २४४ संघडमसंघडे या ه ५७८५ टि.२ ११९८ ५०२९ م संघयणरूवसंठाणसंघयणविरियआगम م ५ ५४०५ ५ ६०२५ م س २३३४ م م م ه ६२११ २ ८२९ ३ २६९२ २ १३५० ४ ४२०८ ६३७६ ३८२६ ५३४४ م ه ه س م संघस्स पुरिमपच्छिमसंघस्सोह विभाए संघस अपडिलेहा संधं समुद्दिसित्ता संघाडएण एकतो संघाडएण एगो संघाडए पनिटे संघाडग एगेणं संघाडगाओ जाव उ संघाडगादिकहणे संघाडेगो उवणासंघाडो मग्गेणं संघातिमेतरो वा संघिया य पयं चेव . १७२६ २८१० ४६६६ ५ ५५९९ ه २ २ ९४८ ८२४ م عمر सम्वेहि वि घेत्तन्वं सव्येहिं पगारेहि सम्वो लिंगी असिहो ससकरे कंटइले य मग्गे ससमयपरसमयविऊ ससरक्खे ससिणिद्धे ससहायअवत्तेणं ससिणेहो असिणेहो ससिपाया वि ससंका सस्स गिहादीणि दहे सहजायगाइ मित्ता सहणोऽसहणो कालं सहवडियाऽणुरागो सहसाणुवादिणातेण सहसा दडं उम्गाहिसहसुप्पइअम्मि जरे सहिरबगो सगंथो सहु असहुस्स वि तेण वि संकप्पियं व दवं संकप्पियं वा अहवेगपासे संकप्पे पयभिंदण संकम जूवे अचले संकम थले य णोथल संकलदीवे वत्ति संकतो अण्णगणं संका चारिग चोरे संकापदं तह भयं संकिशवराहपदे संकियमसंकियं वा संकुचिय तरुण आयसंखडिए वा अट्ठा संखडिगमणे बीओ संखडिमभिधारेता संखडि सण्णाया वा संखडिजति जहिं संखाईए वि भवे संखा य परूवणया संखुमा जेणंता संगहियमसंगहिओ نگر ५ ५२९२ २०१९ م ه م له ४ . ३६२१ ४ ३६२२ ५ ५८६७ ३ २४१३ ५ ५६४० ३४७० ५७७८ ६ ६३९१ ३ २३४४ ४ ४५२४ ३ २३४८ ३९७० ४ ४७१५ ३ २८५४ ५ ५८३७ ४७१९ टि०३ ५ ५०५३ १६०९ १७१८ ६ ६३२२ २ २०५३ له संघो न लभइ कज्ज संचइयमसंचइयं संचयपसंगदोसा संचारो वतिगादि संजहगमणे गुल्ला संजइभावियखेत्ते संजइ संजय तह संपसंजओ दिट्ठो तह संजई संजतगणे गिहिगणे संजति कप्पट्ठीए संजमअभिमुहस्स वि संजमआयविराहण संजमकरणुजोवा संजमचरित्तजोगा संजमजीवितहेर्ड संजममहातलागस्त ३ २४०७ ३. २१८२ ५५८४ muTorr به س २ १२१७ २ १२९२ २ १६९९ २. १११. ३७०५ ४८४३ ६४८५ २ १०३५ ५ ४९४५ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमं परिशिष्टम् । १११ गाथा विभागः गाथाङ्कः। ३ ३ ३.४५ २३१२ سم به संजमविराहणाए संजमविराहणा खलु संजमहेउं अजतत्तणं संजमहेडं लेवो संजयकडे य देसे संजयगणो तदधिवो संजयगिहितदुभयभइया संजयजणो य सम्वो संजयपंता य तहा संजयभद्दगमुक्के संजयभद्दा गिहिमहंगा संजाणणेण सन्नी १ ५२७ २ ७६१ ५ ५५८५ ३ २७७२ ३ ३१०६ ३ ३००० ३ २७७३ ३ २९७५ Wc00000 به مه २ १८७९ १ ५४० २ ८१० ६ ६३४२ ४ ३९४६ १४४ ४ ४०२३ ४ ३९६८ ३ ३१८१ ३ २२४७ ४ ३७५९ गाथा विभागः गाथाङ्कः संथारट गिलाणे ४ ३८३७ संथारभूमिलुद्धो संथारविप्पणासो ४६२० संथारं दुरुहंतो ४४१४ संथारुत्तरपट्टा संथारेगमणेगे ४ १६०५ संथारेगंतरिया ३ १२२७ संथारो नासिहिती ४ ४६१६ संदसणेण पीई ३ २२६० संदसणेण बहुसो २ १७२३ संपत्ति तस्सेव जदा भविजा संपत्तीइ वि असती २ १८५७ संपत्ती य विपत्ती २ ९४९ संपाइमे असंपाइमे संपाइमे वि एवं ३ २४०१ संबद्धभाविएसू ४ ४२७४ संबंधी सामि गुरू संभिच्चेण व भच्छह संभुंजिओ सिय ती ५ ५१९४ संभोगो वि हु तिहिं का. ५४५३ संलवमाणी वि अहं ३७९२ संलिहियं पि य तिविहं ३७४२ संलेह पण तिभाए संवच्छरं गणो वी २००० संवच्छरं च रुटुं ५७७३ संवच्छराई तिन्नि उ ५४१७ संवच्छराणि तिन्नि य १९९९ संवदृणिग्गयाणं ४८१० संवट्टमेहपुप्फा १७७९ संवट्टम्मि तु जयणा ४ ४८०१ संवासे इत्थिदोसा २०२७ संवाहो संवोढुं २ १०९२ संविग्गनीयवासी संविग्गभावियाणं १६०० संविग्गमगीयस्थ संविग्गमणुमाए २ १६१६ संविग्गमसंविग्गा संविगमसंविग्गे २ १९११ संविग्गविहाराओ ५ ५४५८ گ ه ه ه ه संजुत्ताऽसंजुत्तं संजोगदिट्टपाढी संजोग सइंगाले संजोगे समवाए संजोयणा पलंबातिगाण संजोययते कूडं संठाणमगाराई संठियम्मि भवे लाभो संडासछिड्डेण हिमादि एति संतऽन्ने वऽवराधा संतर निरंतरं वा संतविभवा जइ तवं संति पमाणातिं पमेयसंथडमसंथडे या संथडिओ संथरेंतो संथरओ सट्टाणं संथरणम्मि असुद्धं संथरमाणे पच्छा संथवमादी दोसा संथारएहि य तहिं संथार कुसंघाडी संथारगअहिगारो संथारग भूमितिगं संथारगं जो इतरं व मत्तं संथारगहणीए ه ه ५ ५७८५ ه ه १ ३२४ ه ه ه १९९२ م ४ ४७१२ ६ ६११७ ४ ३३४० ४ ३७६७ ४ ४६१० ४ ४३८७ ४ .४४०४ ४ ४३८९ ४ ४३९१ م مه Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ११२ गाथा संविग्ग संजईओ संविग्गा गीयस्था विभागः गाथाङ्कः गाथा २ १९९० सागारियमप्पाहण सागारिय सज्झाए २ १९८९ २ ८८६ सागारिय सव्वत्तो १९९४ सागारिकाए संविग्गाsसंविग्गा संविग्गा सिज्जातर संविग्गेतर भाविय संविग्गेतर लिंगी संविग्गेहि य कहणा संविग्गो दव मिभो २ ३ २ १९१२ २ 9 २९९० सागारिय संदिट्ठे सागारियरस अंसिय १८०६ सागारियरस णामा ७३५ सागारियं अनिस्सा ५११० सागारियं अनीसा १२२८ सागारियं निरिक्खति संविग्गो मद्दविओ संवेगं संविग्गाण संसजिमम्मि देसे संसज़िमेसु लुग्भइ ५ २ ५ ५ ५८७३ ५२७४ २ १८६८ सा जेसि उबटूषणा संस संसस्स उ करणे संसस्स उ गणे ४ ४ ५ १ ५८९५ ३ ४७४२ 1 ११३५ संसत्त गोरसस्सा संसत्तगगणी पुण संसत्ताइ न सुज्झइ संसत्ताssसव पिसियं संसारदुक्ख महणो संसारमणवयग्गं संसादगस्स सोउं संहिकड्डूणमादिसंहिया य पयं चैव साऊ जिणपरिकुट्ठो सायमि पुरवरे ४ २ ५ ५०१० ५ ४ ४५६७ सामन्न विसेसेण य 9 ३०२ २ ९८७ ३ ३२६१ ५४९ ४ ४१६२ सागरिय संजयाणं सागरकडे लहुग सागारिणापुच्छ सागारिअ पुच्छरमणम्मि सागारिउ ति को पुण २ १५३२ २ ४ ३५१९ सामितकरण अहिगरण २ २०८६ २ २०७५ ४ ४७७७ सागारिए असंते सागारिए परम्मुह सागारिगी उग्गहमग्गणेयं सागारिपच्चया सागारिपुत्तभाउगसागारिय आपुच्छण सागारिय उन्ह ठिए सागारिय निक्खेवो पञ्चमं परिशिष्टम् । सागारिसहिय नियमा सागारिसंति विकरण साडs भंगण वळण ३६०३ ३५९३ साप भिक्खट्ठा साधारण आवलिया ४५८ साधारणे वि एवं २८५७ साभाविय तनीसाए साभाविया व परिणामि सामग्गइ साधम्मि सामत्थण परिवच्छे ५३६८ सामरथ णिव अ सामन्ना जोगाणं सा मंदबुद्धी अह सीसकस्स सामाइए य छेदे सामाइयस्स अत्थं सामायारिकडा खलु सामायारिमगीए १५३३ सामायारी पुणरवि सामिद्धिसंदंसणवावडेण सामी अणुण्ण विजइ सारक्खह गोणाई सारिक्खण जंपसि ३ २३७१ ३५४७ सारिक्ख विवक्खेहि य ४ २ १५३१ सारुवि गिरथ [ मिच्छे ] ५ ५८८० सारुविए गिहत्थे ३ २४५० विभागः गाथाङ्कः २३९ २३७८ ५८९६ १ ३ ५ ४ ४६६९ ४ ३५२६ ४ ४ ३ ३ ५ ५ ४ ६ २ २ १ २ १ ५ ४ ३ ५ १ 9 ७०१ ३ ३२५६ ६ ६३५७ 9 १९९ ३ २२१० २ १४७१ २ १६५७ १ १५२ ३ ३१७२ ४ ४७७४ २ ३६४४ ३५२१ २४३६ २४३५ ५१६० ५९९६ ४६११ ६४०९ १९२५ १९७६ ६७३ १०८३ ५५५ ५९०६ ३८०४ २१४२ ४९४९ ४५ ६ 9 ५ ५ १३९४ ६३०३ ५० ४९३९ ४९३९ टि०८ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमं परिशिष्टम् । ११३ गाथा सालाए कम्मकरा " सालाए पञ्चवाया साला मज्झे छिंडी کی साला य मज्झ छिंडी सालिजव अच्छि सालुग साली घय गुल गोरस सालीणं वीहीणं सालीहिं व वीहीहिं व सालीहिं वीहीहिं सालुक्खूहि व कीरति mmmmm.200000 که به مه सालुच्छूहि व कीरति सावगभजा सत्तवइए सावगसण्णिट्ठाणे सावजगंथमुक्का ه सावजेण विमुक्का सावय अण्णटुकडे सावयतेणपरद्धे विभागः गाथाङ्कः गाथा विभागः गाथाङ्क: ३ २६३४ साहू गिण्हइ बहुगा ३ २६६९ साहू जया तस्थ न होज कोई ४ ४१८० २६३३ साहूण देह एवं ३ ३२८० २६३२ साहूणं पिय गरिहा ३ २३१७ टि०३ साहूणं वसहीए ४ ३३८० ३ २६३२ साहू निस्समनिस्सा ३ २४४६ ४ ३३०७ सिक्खावणं च मोत्तं ५३४१ सिक्खाविओ सिय ती ५ ५१९२ ३३६० सिक्खियध्वं मणूसेणं २ १९६० ४ ३३०१ सिग्धतरं ते आता ५ ५२९९ सिजायरपिंडे या ६ ६३६१ ३४०३ सिजायरेऽणुसासह २ १५५१ टि.१ सिजा संथारो या ४५९९ सिम्मि न संगिण्हति ५ ५५७९ सिद्धस्थए वि गिण्हइ २३१ ४८३६ सिद्धस्थगजालेण व ४ ३८२९ सिद्धस्थग पुप्फे वा ३ २८९७ टि०२ सिद्धी वीरणसढए ४ ४२२९ २ ८३२ सिप्पंणेउणियट्ठा ५ ५१०९ सिय कारणे पिहिजा ३ २३५५ ३ ३१०४ सिहरिणिलंभाऽऽलोयण ५ ४९९२ ३ ३११० सिंगक्खोडे कलहो १४९४ ४ ४३७६ सिंगाररसुत्तुइया ४ ४५८० ५६३४ सिंगारवज बोले ३ २२७३ ३४५८ सिंघाडगं तियं खलु सिंचणवीईपुट्ठा ३ २३८६ ४९८८ सिंचति ते उवहिं वा ५ ५६३० ४९८७ सीउपहवासे य तमंधकारे ३ ३२४७ ४ ४७४६ सीतजलभावियं अवि ४ ४०३८ सीतजलभावियं तं ५०६३ टि.१ ५ ५१२४ सीतंति सुवंताणं ४ ३३८३ २ १७७४ सीताइ जन्नो पहुगादिगा वा २ १७९९ सीतोदे उसिणोदे ४ ३४२० २ १६०२ सीया वि होंति उसिणा ५ ५९०७ २ ११८१ सीलेह मंखफलए १८१० ४ ३३०६ सीसगता वि ण दुक्खं ५६२९ ५ ५४०७ सीसं इतो य पादा ४३८८ २ १२०५ । सीसा पदिच्छगाणं س نگر له ه س ه ه یک ک گره به १७८२ सावय तेणा दुविहा सावय तेणे उभयं सावयभय आणिति व साविक्खेतर णट्टे सासवणाले छंदण सासवणाले मुहणंतसाहम्मि अण्णधम्मिय साहम्मिओ न सस्था साहम्मि तेण्ण उवधी साहम्मियऽनधम्मियसाहम्मियाण अहा साहम्मिवायगाणं साहति य पियधम्मा साहारण ओसरणे साहारणम्मि गुरुगा साहारणं तु पढमे साहारणासवत्ते تگ کر Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ गाथा सीसा वि य तुरंती सीसावेढियपुत्तं सीसे जइ आमंते सीसोकंपण गरिहा सीसोकंपण हत्थे सीहगुहं वग्वगुहं सहम्मि व मंदरकंदराओ सीहं पाले गुहा सुभवतो वतवत्तो सुकुमालग! भद्दलया ! सुधिमि दिप्प सुक्खिधणवा उबलासुक्खोदणो समितिमा सुक्खोल ओदणस्सा सुचिरेण वि गीयरथो हु कथं आभरणं सुठु कया अह पडिमा सुणतीति सुयं तेणं सुणमाणा वि न सुणिमो सुण सावग ! जं वत्तं सुतीति सुयं णं सुण्णघरादीनसती सुतब्वत्तो अगीतो सुतजम्मणमहुरापाडणे सुतजम्म म हुरपाडणसुवितो थेरी सुतस्तदुभयविऊ सुसत्थतदुभयविसा "" सुदु सुथरीकरणं सुत्तरथपोरिसीओ सुत्तरथ सावलेसे सुत कहतो सुत्तस्थानं गहणं तथाणि करिते विभागः गाथाङ्कः १ ३७५ ६ ६३६६ २ १४५७ ४ ४ पञ्चमं परिशिष्टम् । ४७३२ ४७३६ ५ ५४६४ २ १३७५ २ २११४ ५ ५४७८ २ ११५९ २ १२४७ २१५३ ३०९९ ४०६८ ३ ३ ४ २ ३ ३ 9 ४ ४ S १६९५ २४६० २४९३ १४७ ४८३४ ३३८९ १४७ टि० ३ ५ ५८७९ ५ ५३८७ ६ ६२४५ टि० १ ६२४५ ४१७९ ६ ४ ५ ५५३० ३ २७८५ ४ ४६५१ ง ७८६ २ १२३२ २ १४७८ २ २०१५ १ २१४ टि० ७ ६ ६०९४ २ १४७७ गाथा सुत्तस्थे अइसेसा सुत्थे करिंता सुत्थे कहतो सुतर पलिमंथो सुखलु म सुत्तनिवाओ पासेण सुत्तनिवाओ पोराण सुत्तनिवाओ बुढे सुत्तभणियं तु निद्धं सुतमई रज्जुमई मिडियम "" सुत्तम्मि कड्डियम्मी सुत्तम्मिय गहियम्मी सुत्तम्मि होइ भयणा सुत्तस्स कपितो खलु सुतं भरथोय बहू सुत्तं कुणति परिजितं सुतं कुणति परिणतं सुतं णिरत्थगं खलु सुत्तं णिरस्थयं कार [ "" सुतं तु सुत्तमेव उ सुतं तू कारणियं सुतं निरस्थगं कारणियं सुपडुच्च गहि सुतं प्रमाणं जति इच्छितं ते सुतं पयं पयस्थो सुत्ताइ अंबकंजियसुताइरज्जुबंधो सुते तदुभय सुत्तेणेव उ जोगो सुतेणेव य जोगो vasaवाओ सुत्ते सुतं बज्झति सुम्मि य गहियम्मी दुलसिते भीए विभागः गाथाङ्क: १२३५ १४७९ १ २१४ ५ ง ३ ४ ४ २ २ ५६२६ २०९ २६७३ ३५११ ३८३६ ६००८ २३७४ ५८६५ ६०१८ ५४७१ १२१९ ७७८ ४०६ ५६९० ४०७ ४०७ टि०१ ४१५९ १००२ टि० १ ३ २९२७] 9 ३१० ५ ३ ५ ५ ५ २ ง १ ५ 9 १ ४ २ २ १००२ ३ २९२७ ५ ५८१२ ४ १ ३६२७ ३०९ ५९०४ २३३३ ४०५ B 9 ५ ५३३९ ३ ३००१ ५ ५९८९ ५ ४८७७ ५ ५९०० ५ ४९५२ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा सुदुलसिते भीए सुद्धे सड्डी इच्छकारे सुनंद बडगा सुन्ना पसु संघाया सुनो चत्थ भंगो सुखंधो अझयणा सुभावणाए नाणं सुय संघयणुवसग्गे 99 सुय सुत गंथ सिद्धंत सुय सुहदुक्खे खेत्ते सुरजालमा इएहिं सुवइ य अयगर भूओ सुवति सुवंतस्स सुतं सुन्वन्त झामि अवधि सुपsaint निद्दा सुहमेगो निच्छुभह सुहविज्ञप्पा सुमोगा "3 सुहविजवणा सुहमोयगा सुहसज्झो जत्तेणं सुहसागं पिकजं सुहिया मोति य भणती कादीपरिसु सूज्जइ सुत्ते सूईसु पि चिसेसो सूरस्थमणम्मि उ णिग्गसूरमणी जलकंतो सूरुग्गए जिणाणं सूरुदय पच्छिमाए सूरे अणुमातम्मि लेजायरकप्पट्टी सेज्जायराण धम्मं सेज्जायरि माइ सए सेज्जायरो पभू वा सेवारो य भणती सेज्जायरो व सण्णी सेज्जासंथासे या सेड रूए पिंजिय विभागः गाथाङ्कः ५ ४९६५ २ १८७४ १ ५४७ ३ २४४० २ १८५५ २५२ १.३४४ १३८२ १६२४ १७४ ५४२३ १३०१ ४ ३३८७ ४ ३३८४ ร २ २ पञ्चमं परिशिष्टम् । 9 ५ २ ५ ५०७१ ३ २४०० २ १२७३ ३ २५२७ ३ २५४४ ३ २५०५ १ २१९ २ ९४४ २ २ ง ४ ४ ३५३८ , ३१४ २ १६६१ २ ११८२ ५ ५७८९ ५ ५४४९ ४ ३७४८ ५ ५४४४ ४ ४ ४ ૪ ४३६८ ३ २९९६ १८८७ ९५२ ३१३ ३९४४ ३५२५ ३३९२ ४१८४ गाथा सेढी दाहिणं सेढी ठाणठियाणं "" "" सेढीठाणे सीमा सेणा जरथ राया सेणाणुमाणेण परं जणोऽयं सेणादी गम्मिहिई सेणावतिस्स सरिसो सेयं व सिंधवण्णं सेलकुड छिद्दचालिणि सेलघण कुडग चालिणि सेलपुरे इसितलागम्मि सेले य छिद्द चालिणि सेवगभज्जा ओमे से विज्यंते अणुमए साणं संस सेसे वि पुच्छिणं सेसे सकोस मंडल सेसेसु उ सम्भावं सेसेस फासु सेह गिहिणा व दिट्ठे सेहस्स व संबंधी सेहस्स विसीयणया सेहं विदित्ता अतितिब्वभावं सेहाई वंदतो सेहो त्ति अगीयत्थो सो अहिगरणो जहियं सोउं अणभिगताणं सोठं तुट्ठो भरहो सोऊन अट्ठजायं सोऊण अहिसमेच्च व सोऊण ऊ गिलाणं 39 33 39 " सोऊन कोइ धम्मं सोऊण दोन जामे विभागः गाथाङ्कः ६७४ ४५०३ ४५०४ ४ ४ ४ ११५ ง ३ ง ६ ४ ४ ४ ३ ४ ४७९६ ५ ५२२२ ४ ४१७० १ ३६२ ३३४ ४५१५ ४५३२ ४८७५ २२२० ३३५० ३४३ ६२८७ ४१४३ ५ ५००३ ง ४९४ 85 ४८४५ ४ ४७३१ ง ५८६ ५ २ २ ४ ४ ३ ६००६ ५ ५३३२ ४ ३४३९ ३ ३२०५ ५ ५१३५ ५ ५०६५ १ ૧૮૩ १ ७८४ 8 ४७८६ € ६२९८ , ११३ २ १८७१ २ १८७२ १८७५ १८७७ ३७६९ ४१९७ २३४३ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ पञ्चमं परिशिष्टम् । गाथा له به س م م م م م م ५०१ सोऊण भरहराया सोऊण य घोसणयं सोऊण य पण्णवणं सोऊण य पासित्ता सोऊण य समुदाण सोगंधिए य आसित्ते सो चरणसुटियप्पा सो चेव य पडियरणे सो चेव य संबंधो सोचा उ होइ धम्म सोचा गत त्ति लहुगा सोचा पत्तिमपत्तिय सोचाऽभिसमेचा वा सोचाव अभिसमेच्च व सोणियपूयालित्ते सो तस्य तीए अन्नाहि सो तं ताए अन्नाए सो निच्छुभति साहू सो निजई गिलाणो सो निजराए वट्टति सो परिणामविहिण्णू सोपारयम्मि नगरे सो पुण आलेवो वा सो पुण इंधणमासज सो पुण दुग्गे लग्गेज सो भणइ को लद्धो सो भविय सुलभबोही सो मग्गति साहम्मि सोयसुयघोररणमुहसो रायाऽवंतिवती सो वट्टइ ओदइए सो वि य कुटुंतरितो सो वि य गंथो दुविहो सो वि य नत्तं पत्तो सो वि य सीसो दुविहो सो समणसुविहितेसुं विभागः गाथाङ्क: गाथा विभागः गाथाङ्क: ४ १७७९ हत्थद्धमत्त दारुग २ १९५७ २ ९२५ हस्थपणगं तु दीहा ३ २३७५ ३ २९६४ हत्थं वा मत्तं वा १८२० ४ ३७८८ हत्थं हत्थं मोत्तं ४७९४ ३ २१३४ हत्थाईभक्कमणं २६४० ५ ५१६७ हस्थाताले हस्थालंबे २ १२५० हस्थातालो ततिभो ५१२१ ५ ५२६२ हत्थायामं चउरस ३२२२ हत्थेण व पादेण व ५१०५ २ ११३४ हत्थे य कम्म मेहुण ४८९४ ४ ४६०० हस्थो लंबइ हत्थं ५६७७ १ ५४५ हस्थोवधाय गंतूण १४८२ २ ११३३ हयनायगा न काहिंति ३ ३००७ हरंति भाणाइ सुणादिया य ४ ३४९४ ४ ३८४० हरिए बीए चले जुत्ते ३ २६७१ ४०७६ २ १८२३ हरिए बीए पतिटिय ५ ५५७५ हरिते बीएसु तहा १९७९ टि.१ ४ ३७८४ हरियच्छेअण छप्पइ. . २ १५३७ ४ ३७७५ हरियाल मणोसिल पिप्पली २ ९७४ ३ २५०६ हरियाहडियट्ठाए २ १०३१ हरियाहडिया सुविहिय ३ ३०२९ ३ २१४८ हंत म्मि पुरा सीहं ३ २९६५ ६ ६१८२ हंतुं सवित्तिणिसुयं २८४४ ४ ४४८५ १ हाउं परस्स चक्खं ७१४ ४ ३७९३ हाउं व जरे वा ४ ४७४८ ५ ५२३२ हाउं व हरेउवा ४ ४७४८ ३ टि.३ ३२८३ ३ २७३० हाणी जावेकट्ठा ३ २६२५ हायंते परिणामे ६०५५ २ हिजो अह सक्खीवा ८२३ हिट्ठाणठितो वी ४५२५ हिहिला उवरिल्लाहि ५ ५१६१ हिटिल्ला उवरिल्लेहि हिमतेणसावयभया ५ ५५१९ हियसेसगाण असती ३ ३१३३ ५ ५२५८ । हिरनदारं पसुपेसवग्गं ४ ४३२८ ह णु ताव असंदेहं हतमहितविप्परद्धे Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमं परिशिष्टम् । ११७ विभाग: गाथाङ्कः ४ ३४७१ ३ ३२४१ गाथा हिंडउ गीयसहाओ हिंडामो सच्छंदा हिंडाविंति न वाणं हीणप्पमाणधरणे हीणाऽदिरेगदोसे हीरेज व खेलेज व हुंडादि एकबंधे हुंडे चरित्तभेओ हेढउवासणहे हेट्ठाणंतरसुत्ते विभागः गाथाङ्कः ॥ गाथा ७४१ हेट्ठा तणाण सोहण ४ ४१५७ हेट्ठा वि य पडिसेहो १ ७४८ होइ असीला नारी ४ ४००५ होइ पयस्थो चउहा ४०१७ होज न वा वि पभुत्तं २ १४६७ होहिह व नियंसणियं होहिंति णवग्गाई ४ ४०२४ होहिंति न वा दोसा २ २०६७ होति बिले दो दोसा ५ ४८७९ । होंति हुपमायखलिया ३ २१६६ ४ ४७१६ ३ ३१७५ १ ४५१ २ १२७६ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ गाथाद्याद्यपदम् अकाले चरसी भिक्खू अक्खरमुच्च नाणं अक्खरलंभेण समा अङ्गानि वेदाश्चत्वारो अच् ६ षष्ठं परिशिष्टम बृहत्कल्पसून्नवृत्त्यन्तः वृत्तिकृद्भ्यामुद्धृतानां गाथादिप्रमाणानामनुक्रमणिका । अ २ ५०१ [ दशवैकालिके अ० ५ उ० २ गा० ५ ] १ २२ [ कल्पवृहद्भाष्ये ] २ ३०४ [ विशेषावश्यकभाष्ये गा० १४३ ] विभागः ४ १२२२ [ याज्ञवल्क्यस्मृती १ । ३ । विष्णुपुराणं ३ । ६ । ] २ २६९ अचित्तं ति जं नावि अच्छिद्रा अखण्डा वारिपरिपूर्णाः अज्जए पज्जए वा वि अज्झत्थविसोही ए भट्टे लोए अण्ड वि पगडी भट्ट संघाड त्ति जो जोव्हा अनंतं नाणं जेसिं ते अतिरागप्रणीतान्य पत्राङ्कः [ सिद्धहैमे ५-१-४९ ] ३ ८२७ [ कल्पचूणी ] १ ६ [ २ २६० [ दशवैकालिके भ० ७ गा० १८ ] २ २७० [ ओघनिर्युक्तौ गा० ७४५ ] ३८७ २ ] [ आचाराने श्रु० १ ० १०२] १ [ ३१ [ कल्पवृहद्भाष्ये ] ३ ८११ [ कल्पचूर्णौ ] २ ४२२ [ कल्पचूणी ] २ ४३५ ] गाथाद्याचपदम् अत्थंगयम्मि आइचे अस्थिपञ्चत्थti अथ प्रक्रियाप्रश्नानन्तर्य विभागः गाथाङ्कः २ २६० [ दशवैकालिके अ० ८गा० २८ ] ง ४ [ व्यवहारभाष्यपीठिकायां गा० ५] ३४१ अध्यात्मादिभ्य इकण् ] 33 अनशनमूनोदरता अनुपयोगो द्रव्यम् अभणता वि हु [ अनुवादादरवीप्सा अन्नं भंडेहि वर्ण अन्यत्र द्रोणभीष्माभ्यां ] ४७३ अपरिमिए पुण भत्ते २ [ कल्प चूर्णौ ] अपि कर्दमपिण्डानां ५ १५८४ ] अप्पोवही कलह विवज्जणा य ४ ११०९ [ दशवैकालिके द्वितीयचूलिकायां गा० ५] अभितरसंबुका बाहि २ ४८५ [ पञ्चवस्तुकटीकायां गा० २९९ ] नज्जति २ ३८५ ] [ सिद्ध है मे ६- ३-७८ ] २ ३६३ [प्रशमरतो आ० १७५] १ १२ [ अनुयोगद्वारसूत्रे ] २ ४०१ [ २ ] 9 १६६ [ कल्पवृहद्भाष्ये ] ३ ८२८ [ ] २ ३४२ २ ५६८ [ [ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठं परिशिष्टम् । ११९ गाथाचाद्यपदम् विभागः पत्राङ्कः । गाथाद्याद्यपदम् विभागः पत्राः भभिक्खणं निश्विगई २ ३७८ आन्ध्यं यद् ब्रह्मवत्ते ३ ७५८ [दशवैकालिके द्वितीयचूलिकायां गा०७] टि०२ अम्हाणं पुण धीसंदणं २ ५०५ [कस्पचूर्णी ] आपुच्छिऊण गम्मह २ .. ४५१ अवसावणं लाडाणं कजियं [कल्पचूणों ] भापो द्रवाश्चलो वायुः अविपक्कदोसा नाम जे ३ ८९४ [ कल्पचूणौँ] भायारे वट्टतो अशासितारं च गुरु ५ १५०७ आरं दुगुणेणं पारं एगगुणेणं] . ९६ भसंसट्ठा संसट्टा उद्घडा ४ ९३४ २ ३७८ " आलोगो मणुएसुं " १२३ [कल्पबद्भाव्ये ] आहाकम्म भुंजमाणे [प्राप्तिसूत्रे श०१ उ. १] इतरो वि य तं गेहूं ३ ९१० असियसयं किरियाणं २२६५ [सूत्रकृताङ्गनियुक्तौ गा० ११९] अहमा गइरागइति २ ५५८ [कल्पविशेषचूर्गों ] अहवा जस्थ एगा किरिया २ २९० [निशीथचूर्णी ] महवा वि रोगियस्सा ५ १३६१ [कल्पवृहद्भाष्ये] महावरा तथा पडिमा से] १८० १ १९५ [भाचाराने श्रु० २ भ०१ उ०१] अहावरे छटे मंते ! वए . ३ ८०२ [दशवकालिके अ०४] अहिगारो तीहि भोस ५ १३९१ [आवश्यकनियुक्ती गा० ७६०] भहिंसा संजमो तवो . ९० [दशवकालिके भ० १ गा० १] आ भाकंपितम्मि तह पा. ३ ९१० इदु परमैश्वर्ये इय भवरोगत्तस्स वि ५ १३६१ [कल्पवृहद्भाष्ये] इयरं तु जिण्णभावाइ. २ ४२५ [पश्चवस्तुके गा० १५०२] इरियासमिए सया जए ४ १२३९ [आवश्यके प्रतिक्रमणाध्ययने संग्र० ५० ६५८-२] इष्टानामर्थानाम् [नाट्यशाले अ० २२ श्लो० २१] इह फासुगं एसणिजं २ ५५२ [निशीथचूणौँ] भाणा भनिदेसकरे ५ १३९१ [उत्तराध्ययने म०१ गा० ३] आणानिदेसकरे ५ १३९१ [उत्तराध्ययने म०१ गा० २] भादेसन्तरेण वा दुण्ह वि [निशीथचूर्णी ] उत्पद्यत हि साऽवस्था [भिषग्वरशास्त्र-माधवनिदाने ] उदए जस्स सुरासुर २ ५२५ [बहकर्मविपाके गा० १४९] उसे निोसे २ २५५ आवश्यकनियुक्ती गा० १४.] Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० षष्ठं परिशिष्टम् । उपयोगी मायनिकमा गाथाघाद्यपदम् विभाग: पत्राङ्क गाथाद्याद्यपदम् विभागः पनाङ्कः उपदेशो न दातव्यो एगो साहू गोयरनिग्गतो ५ १३४१ [पञ्चतत्रे मित्रमेदे श्लो. ४२१] [निशीथचूर्णों ] उपयोगो भावनिक्षेपः। एगो हं नस्थि मे को वि २ ४११ [संस्तारकपौरुष्यां गा० ११] एतावानेव लोकोऽयं उप्पन्ने वा [षड्दर्शनसमुच्चये लो० ८१] उप्पन्ने इ वा विगते इ वा एस्थ हसामि रमामि य ३ ९१० उभे मूत्रपुरीषे तु एयम्मि गोयराई [पञ्चवस्तुके गा० १५१०] उवसमसेटीए खलु एवं अञ्चित्तेणं [पञ्चवस्तुके गा० १४९८ ] [कल्पवृहद्भाष्ये] उवसामगसेढीए एवं च कुसलजोगे [विशेषावश्यके गा० १२८५] [पञ्चवस्तु के गा० १५०६] उवेहित्ता संजमो वुत्तो ३ ७६१ एवं तु गविहेसुं [ओषनियुक्तौ भा० गा० १७०] उस्सग्गेणं ण चेव पाउरियध्वं ४ १०९२ [कल्पविशेषचूर्णी] कागदी [कल्पवृहद्भाष्ये] एएसिं गं भंते ! जीवाणं पोग्ग- ३ ७६८ कण्णसोक्खेहिं सहेहिं २ २७४ [न्याख्याप्रशप्तौ श० २५ उ० ३ सू० ७६३] । [दशवकालिके १० ८ गा. २६ ] ए-ओकारपराई १ ३ कण्हलेसा ण भते! आसाएणं २ १८३ [ भरतनाट्यशास्त्रे अ० १७ श्लो०६ ] [प्रशाफ्नोपाङ्गे ५० १७ उ० ४ पत्र ३६४-१] एक्कग पंचग पन्नर १ १३० कण्हलेसा गं भंते ! केरिसया व. २ ४८३ [कल्पवृहद्भाष्ये] [प्रज्ञापनोपाङ्गे पद १७ उ० ४ पत्र ३६०-१] एकगसंजोगादी १ १३० कन्नसोक्खेहिं सद्देहिं २ २७४ [कल्पबृहद्भाष्ये] एकेक सत्तवारा २ ४५८ कप्पह चउत्थभत्तियस्स २ १९९ [कल्पवृहद्भाध्ये ] [दशाश्रुतस्कन्धे अ० ८५० ६.] एगमेगस्स णं भंते ! जीवस्स ६ १६०६ कप्पइ चउवासपरियायस्स . २४५ [प्रशप्तौ श० उ० ] [व्यवहारे उ. १० सू० २२] एगवयणं वयमाणे २ ३७९ कप्पम्मि कपिया खलु [आचाराने भाषाध्ययने पत्र ३८६-१ ] [व्यवहारभाष्यपीठिकायां गा. १५४ ] एग पायं जिणकप्पियाण कम्ममसंखेजभवं १ २२५ [ओघनिर्युक्ती गा० ६७९] [ व्यवहारभाष्ये उ० १० गा० ५१०] एगिदिय सुहुमियरा २ ३४८. कम्मे सिप्पे सिलोगे य [पञ्चसङ्ग्रहे गा० ११६] [अनुयोगद्वारे एगे वरथे एगे पाए चिय- ४११०९ करणे जोगे सण्णा [औपपातिकसूत्र सू० १९ प० ३७] । Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठं परिशिष्टम् । १२१ गाथाद्याद्यपदम् विभागः पत्राङ्कः गाथाघाद्यपदम् विभागः पत्राङ्क: करेमि भंते ! सामाइयं २ ३७८ [सामायिकाध्ययने] | खंती य मवऽजव २ ३५६ तू सघृणहृदयः २ ३३ [दशवैकालिके अ० ६ नियु० गा० २४८] [ ] खित्तोग्गहो सकोसं १ २०२ कर्मचाम्ति फलं चास्ति [कल्पबृहद्भाष्ये] खिदेर-विसूरी ३ ९०८ कल्पते तृतीये कल्पे [ सिद्धहमे ८-४-१३२] [पञ्चवस्तुके १४६६ गाथा टीकायाम् ] कंखियस्स कंखं पविणित्ता ३ ८९७ गच्छनिग्गयाणं चउरंसा ४ १०९० [ दशाश्रुतस्कन्धे गणिसम्पद्वर्णनाप्रक्रमे] कायाणमुवरि पडणे ५४३ गमियं दिटिवाओ ५ १३९२ [ कल्पवृहद्भाष्ये] [नन्दी सूत्रे पत्र २०२-१] कायोवरि पवडते गम्ययपः कर्माधारे ४ १.४४ [कल्पवृहद्भाष्ये ] [सिद्धहमे २-२-७४ ] काहीए सणि थेरे गाम सु त्ति देसभणिती २ ५२४ [कल्प विशेषचूर्णी ] [ कल्पचूर्णी ] किञ्च कलायकुलस्थौ २ २६४ गामो त्ति वा निओउ ति वा २ ३४५ कल्पविशेषचू! ] किह पुण विराहणाए २ २९६ गिरिजनो मतबालसंखडी ३८०७ [कल्पबृहद्भाध्ये] [ कल्पविशेषचूणौँ] किह सरणमुवगया पुण २ २९६ गिरियज्ञः कोङ्कणादिषु [ कल्पबृहद्भाध्ये] किह होइ अणंतगुणं [कल्पचूर्णी ] १ २२ [कल्पवृहद्भाध्ये] गीयस्थो य विहारो ६ १७०८ [ओपनियुक्तौ गा० १२१] किं कइविहं कस्स कहिं २ २५५ [आवश्यकनियुक्ती गा० १४१] गुणोच्चये सत्यपि सुप्रभूते ३ ८९० किं कारणं तु गणिणो २ २९६ [कल्पबृहद्भाध्ये] गृहस्थस्यानदानेन २ ५७४ कृष्णादिद्रव्यसाचिच्यात् २ ४०० गोणी चंदणको पडिलेहणाकालो ? एगो २ [भावश्यकनिर्युक्तौ गा० १३६ ] ४८८ [पञ्चवस्तुकवृत्तौ] कोहं माणं च मायं च २ २६० [दशवैकालिके म०८ गा० ३७] घृतेन वर्द्ध ते मेधा ५ १५९३ कोहो य माणो य अणिग्गहीया ४ ९३४ [दशवकालिके अ० ८ लो० ४० ] क्रियैव फलदा पुंसां ६ १७०० चउरंगुलदीहो वा ४ १०५४ [प्रवचनसारोद्धारे गा.६६६] Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठं परिशिष्टम् । १२२ गाथाधाद्यपदम् विभागः पत्राङ्कः जस्थ मतिनाणं तत्थ सुयनाणं . ३९ गाथाचाद्यपदम् विभागः पत्राङ्क: चउहिं ठाणेहिं कोहु. ३ ६१९ [स्थानाने स्था० ४ पत्र १९३-१] चकवहिउग्गहो जहण्णेणं . २०४ जस्थ य जं जाणिजा [अनुयोगद्वारसूत्रे पत्र १०] जयति जईणं पवरो चक्खुसोक्खेहिं रूवे हिं २ २७४ चत्तारि अप्पणो से [कल्पवृहद्भाष्ये] चम्म मंसं च दलाहि चाउकोणा तिति पागारा २ ३६७ [करूपविशेषचूर्णी ] चेहय कुल गण संधे [भावश्यकनियुक्तौ गा०११०१] चोरस्स करिसगस्स य छकायादिमचउसू १३४ [कल्पबृहद्भाष्ये] छट्रभत्तियस्स वि वार २ ५०० [कल्पचूणा ] छट्ठाणगअवसाणे ४ १२१८ [पञ्चसंग्रहे गा०४४४] छट्ठाणा उ असंखा १ १२१८ [पिण्डनियुक्तौ भा० गा. २९] छट्ठिविभत्तीए भनाइ जयं चरे जयं चिट्टे [दशवैकालिके अ० ४ गा०८] जह करगयस्स फासो २ ४८३ [उत्तराध्ययने अ० ३४ गा० १८] जह गोमडस्स गंधो [उत्तराध्ययने अ० ३४ गा० १६] जह बूरस्स व फासो [उत्तराध्ययने अ०३४ गा० १९] जह सरणमुक्गयाणं २ २९६ [ कल्पवृहद्भाष्ये ] जह सुरभिकुसुमगंधो २ ४८३ [उत्तराध्ययने अ० ३४ गा०१७] जहा कप्पियाकप्पियनिसीहाईणं १ २२० [कल्पचूर्णी ] जहा दुमस्स पुप्फेसु [दशवकालिके भ० १ गा० २] जहा पुनस्स कत्थई तहा ५ १५०६ [भाचाराने भु० १ ० २ उ० ६] जहियं पुण सागारिय [ कल्पवृहद्भाष्ये ] जं जुजइ उवयारे ३ ६७० [ओपनियुक्ती गा. ७४१] जंतं सेसं तं सम्मत्ते २ २६७ [कल्पचूर्णी ] जा एगदेसे अदढा उ भंडी २ ३२३ [व्यवहारपीठिका गा० १८१ कल्पवृहद्भाष्ये च] जाए सखाए निक्खंतो २ ३६३ [आचाराङ्गे श्रु० १ ० १ उ० ३] जा भिक्खुणी पिउग्गामं छदेणेणुमणूम [सिद्धहमे ८-४.२१] छेतूण मे तणाई जह सेणेव मग्गेण ५ १४६५ [आवश्यकपारिठापनिकानिर्युक्तो गा. ४७ ) ज चिय मीसे जयणा [कल्पबृहद्भाष्ये ] जस्थ पचयकोहाइसु [करूपविशेषचूरें] जावइय पजवा ते [ कल्पवृहद्भाष्य ] Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथाद्याद्यपदम् जावइया नयवाया जाव णं एस जीवे सया जावतिया तिसमयाहार गरस जावं च णं से जीवे सया ४ १०७६ [ व्याख्याप्रप्तौ श ० ३ उ० ३ १० १८२ ] १४ १ [ आवश्यकनिर्युक्तौ गा० ३] जीमूते इति वा अञ्जणे इति वा [ जीवदय पेहा जुगमासेहिं उ भइए जे उग्वाइए अणुग्धा इयं देह ४ १२०१ [ व्याख्याप्रप्तौ श ० ३ उ० ३ १० १८२ ] १ १५५ जावतिय उसो [ पिण्डनिर्युक्तौ गा० २३० जीतकल्पभाष्ये गा० ११९९ ] जे गिलाणं पडियर से जे विभागः [ जे छेए से सागारियं ण सेवे पुण अभाविया ते षष्ठं परिशिष्टम् । पत्राङ्कः २ २६५ ] [ 9 २ ४८९ [ पञ्चवस्तु के गा० २५८ ] २ ३५२ ५ १४७९ [ निशीथसूत्रे उ० १० सू० १७-१८ ] जे भिक्खू हस्थकम्मं करेइ } ८४ २ ५४९ [ भगवत्याम् ] २ ३७८ [ आचाराने श्रु० १ अ० ५० १] ] जे छेए से सागारियं परियाहरे १ ९६ [ आचाराने ० १ अ० ५ उ० १ समम् ] जे दक्खिणेण इंदा १ २०१ [ देवेन्द्रप्रकरणे गा० २११] ง १०३ [ विशेषावश्यके गा० १४६२ ] जे भिक्खू गणाइरितं वा ३ ६७१ १६ सू० ३९ ] [ निशीथसूत्रे उ० जे भिक्खू तरुणे जुगवं बलवं ४ ११०९ [ आचाराने श्रु० २ चू० १ भ० ६ उ० १] जे भिक्खू माउग्गामं २ ३४८ [ आचारप्रकल्पाध्ययने उ० ६ सू० १] १ ५ ९१ १३९१ [ निशीथसूत्रे उ० १ सू० १] गाथाद्याद्यपदम् जे वि न वाविज्जं ति जो एगदेसे अदढो उ पोतो जो जीवे वि न याणेइ २ ३२३ [ व्यवहारपीठिका गा० १८२ कल्पवृद्दद्भाष्ये च ] जोगो दुविहो भगाढो भना १ २२० [ निशीथसूत्रचूण ] १ २१९ [ दशवैकालिके भ० ४ गा० १२] ४ ९२५ [ कल्पवृहद्भाष्ये ] १ २४६ J जो समाए कभ ज्ञानं मददर्पहरं ठाणदिसिपगासणया ठाणेसु वोसिरंती तभी आगम्म चेहयघरं ततं वीणाप्रभृतिकं ततो हिट्ठाहुत्त ण ण व सि मम मयहरिया णिन् चावश्यकामये तस्थ पुण थेरसहिया तस्थ व अन्य ए तद्दिवसं अणुदिअहे विभागः पत्राङ्कः ४ १०७९ [ ओधनिर्युक्ती गा० ७५३ ] तद्वज्जीवहितार्थ तमि भवे निव्वाणं ठ [ ५ १४४६ [ ओघनिर्युक्तो गा० ५६३ ] त १२३ 9 १३७ [ कल्पवृहद्राध्ये ] [ ४ १०८३ [ सिद्धह मे ५-४-३६ ] [ ३ ९१० ] ५ १४६९ [ कल्पविशेषचूर्णौ ] ३ ६९६ J २४ 9 [ कल्पबृहद्भाष्ये ] ง १३७ [ कल्पबृहद्भाष्ये ] ६ १७०० [ कल्पबृहद्भाष्ये ] २ ५५६ [ देशीनाममालायां वर्ग ५ गा० ८ ] ४ १०७८ [ J २ २६७ [ विशेषावश्यके गा० १३०८] Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ गाथाचाचपदम् तम्मि मओ जाइ दिवं तरुणीओ अंते वा ठवि तसकाये चतुल हुगा तस्सेव य थेजरथं तह दोचं तह त तं आढगं तंदुलाणं सिद्धं तं च कहं बेइज्जइ } "" विभागः पत्राङ्कः २ २६८ [ विशेषावश्यके गा० १३१७] तं चिय विसुज्झमाणं तं मङ्गलमादी ए ता... • उद्विग्नवासा तावदेव चलत्यर्थी "" तिगिच्छं नाभिनंदेजा [ तिसु वरिसेसु पुण्णेसु तिर्हि नावाए पर एहिं तुला सूत्रेऽश्वादिरश्मौ ते ताणं भळंमे [ १ १ [ विशेषावश्यके गा० १४ ] ९१० ] २ ३७६ [ कल्पचूर्णौ ] ४ १२९२ [ वृद्धविवरणे ] จ [ आवश्यक निर्युक्तौ गा० १८३,७४३ ] [ षष्ठं परिशिष्टम् । ३ [ २ २ १५७ [ ] ง २७ [ कल्पवृहद्भाष्ये ] १ 9 [ विशेषावश्यके गा० १३ ] २ ५९३ ] ३७१ ५२५ २ २ २९९ ३७९ [ उत्तराध्ययने अ० २ गा० ३३ ] २ ३१८ ] तिण्हमन्नयरागस्स २ ३७८ [ दशवैकालिके अ० ६ गा० ५९ ] तिन्हं दुप्पडियारं सम ५ १४५५ [ स्थानाङ्गसूत्रे स्था० ३ उ० १] ४ १२६६ [ कल्प चूर्णौ ] १ १३३ [ कल्पचूर्णौ ] १ २११ ] ४ ११५६ [ कल्पविशेष चूर्णी ] गाथाद्याद्यपदम् ते च्चिय लहु कालगुरू ते डगले टिट्टि ते परं पुराणं वेण परं सुहुमाओ तेषां कटत ते साहुणो चेइयघरे तेसिं जो अंतिमओ श्रयः शल्या महाराज ! थंभा कोहा अणाभोगा दवा दानमनीश्वर दंतपुर दंतचके विभागः १२४ [ कल्पभाष्ये ] ง १२८ [ कल्पचूर्णौ ] १ १३६ [ कल्पबृहद्भाष्ये ] १ २४ कल्पवृइद्भाष्ये ] ง [ २ ५०३ [ ओघनिर्युक्तौ गा० ६२३ समा ] ध २४ [ कल्पनाये ] [ पत्राङ्क ३ ६२० [ आवश्यके मू० भा० गा० २५७ ] द ५ १४६९ [ कल्पचूणौं ] ง [ ८५ ] दन्तानामञ्जनं श्रेष्ठं ४ १०६३ ] roars भावथओ २ ३८० [ आवश्यकनिर्युक्तौ भा० गा० १९२] दब्वस्स चैव सो पजातो ง १४ दव्वं खेत्तं कालं दब्वाई अविसिद्धं दव्वापरिणते चल इंडिय असोय ति चिय [ ४ १२५३ ] २ ४ 1 ३२८ ] १०७५ [ कल्पवृद्भाष्ये ] १ १५७ [ कल्पवृहद्भाष्ये ] ง १२४ [ कल्पवृइद्भाष्ये ] २ ५९१ [ आवश्यक निर्युक्तौ गा० १२८० ] Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठं परिशिष्टम् । १२५ विभाग: पत्राङ्क: गाथाचाधपदम् दंदे य बहुव्वीही [अनुयोगद्वारे ] १ १०५ दंसो तिक्ख निवाएण दातुरजतचित्तस्य दिगिच्छापरीसहे २ ३७८ [उत्तराध्ययने अ० २ गद्यम् ] दिट्ठा सि कसेरुमई ६ १६१० गाथाद्याद्यपदम् विभागः पत्राङ्कः नरिथ न निचो न कुणइ [कल्पवृहद्भाष्ये] नन्यादिभ्योऽनः १ २२० [सिद्धहैमे ५-१-५२] न मांसभक्षणे दोषः [मनुस्मृतौ १. ५लो. ५६] न य बहुगुणचाएणं [पञ्चवस्तुके गा०.३८१] न या लभेजा निउणं सहायं २ ३७९ दशवकालिके चू० २ गा० १.] न वि लोणं लोणिजह [ कल्पवृहद्भाष्ये] नाम्नि पुंसि च [सिद्धहैमे ५-३-१२१] मायम्मि गिण्हियब्वे ६ १७०७ [आवश्यकनिर्युक्तौ गा० १०५४,१६२२] नालस्पेन समं सौख्यं दीर्घहसौ मिथो वृत्तौ ६ १६८८ सिद्धहैमे ८-१-४] दीहो वा हस्सो वा ४ १०५४ [प्रवचनसारोद्धारे गा०६६८] हमाशो ब्रह्मदत्ते दो असईओ पसई। दोहिं दिवसेहिं मासगुरुए नियमा अक्खरलंभो निसीहियाए परिविओ ५ १४६० [वृद्धसम्प्रदायः] २ ४५७ धम्मऽस्थसस्थकुसला नीयदुवारं तमसं] धर्मो यमोपमापुण्य [ हैमानेकार्थे द्विस्व० श्लोक १३५ ] धूवि धूनने [दशवकालिके अ० ५० १ गा० २.] नेयं कुल क्रमायाता नेयाउयस्स मग्गस्स न करेह सयं साहू न चिरं जणि संवसे मुणी २ ५८६ [ऋषिभाषिते अ० २७ गा.११ नटुम्मि उ छाउमथिए नाणे । १ ४२ नेरईएणं भंते! नेरईएस ४ ११३९ [भगवत्या श० ४ उ० ९ प्रशापनायां प०१७ उ०३] नैवास्ति राजराजस्य ५ १५११ प्रशमरतो आ० १२८] नो कप्पइ निग्गंथाण वा पुढवीका- २ ३०७ [आवश्यकनियुक्तौ गा० ५३९] नत्थि नएहिं विहूर्ण [आवश्यकनियुक्ती गा० ७६१] नो दुष्कर्मप्रयासो न २ ३५६ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ षष्ठं परिशिष्टम् । गाथाद्याधपदम् विभागः पत्राङ्कः । गाथाद्याद्यपदम् विभागः पत्राङ्क: पाउसो साषणो भहवओ ३ ७७१ पक्खिए पंच अवस्स ४ १२१३ [ कल्पचूर्णी ] [भावश्यकचूणौँ] पाएण खीणदव्वा १ २२२ पच्छा तिरिपुरिसाणम[कल्पबृहद्भाध्ये ] पागइयऽसोयवादी . १२४ पडिग्गहगे चउलहुं मत्सगे ४ १०९७ [कल्पबृहद्भाष्ये ] [ निशीथचूर्णी ] पायग्गहणेणं पायभंडयं पडिवत्तीए अविरय२ २६७ । [कल्पचूर्णी ] विशेषावश्यके गा० १३१४] पिच्छामु ताव एए २ ३९६ पढमतइयभंगे ठायंतस्स [ पञ्चवस्तुके गा० १३८०] [निशीथचूर्णी ] पिता रक्षति कौमारे ५ १३५९ पढममचित्तपहेणं ११३७ [कल्पबृहद्भाष्ये ] पुढवी आउक्काए पढमसरिच्छो भासगो [ओषनिर्युक्तौ गा० ३३६] [कल्पवृहद्भाप्ये ] पुढवी आऊ तेऊ १ १५७ पढमं नाणं तओ दया ६ १७०८ [कल्पवृहद्भाष्ये [दशवकालिके म० ४ गा० १०] पुप्फपुडियाइ जं पह पत्रपुष्पफलोपेतो पुप्फा य कुसुमा चेव परमाणपोग्गलाणं भंते! दुपएसि-१ ४८ [ ] [अनुयोगद्वारे ] पुप्फेसु भमरा जहा परमाणु संखऽसंखा [दशवैकालिके अ० १ गा० ४ ] [ कल्पवृहद्भाष्ये] पुव्वं तसेसु थिराइसु ५ १४९५ परिधाणवस्थस्स भभंतर [निशीथचूर्णी ] [ निशीथचूणों ] पुग्वेण पच्छिमेण य १ २०१ परिनिट्रियं तिजं पर३ ८२७ [देवेन्द्र प्रकरणे गा. २१३] [कल्पचूर्णी] पूर्व सूत्रं ततो वृत्ति . ६२ पवयणसंगयरे २ ५२६ पूर्वाह्ने वमनं दद्या-] पंचखंधे वयंतेगे २ ३७८ ४ १९७९ . [सूत्रकृताङ्गे भु० १ ० १ उ० १] [ ] पंचहिं ठाणेहिं सुयं वाइजा १ ५१ पृषोदरादयः २ ३६३ [स्थानाले स्था० ५ उ० ३ सू० ४६८ ] सिद्धहै मे ३-२-१५५] पंचेए निजोगा ४ ११४९ पेडा अद्धपेडा गोमुत्तिया ४ ९३४ [कल्पबृहद्भाध्ये पंडए वाइए कीवे पेहेत्ता संजमो वुत्तो ३ ७६१ [निशीथाध्ययने] [ओघनियुक्ती भा० गा० १७०] पाउसो आसाढो सावणो ३ ७७१ पोस्थग-तण-दूसेसु ४ १०५५ [ कल्पविशेषचूर्णी ] [ कल्पचूणौँ] Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथाद्याद्यपदम् प्रत्युषसि हता मार्गाः प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं प्रमाणानि प्रमाणस्यैः प्राणा द्वित्रिचतुः प्रोक्ता प्राप्तराज्यस्य रामस्य प्रायश्वित्तध्याने प्रवचनी धर्मकथी फेडियाणि ताणि कु बढाऊ परिवन्नो बहुलम् बहुवणेण दुवणं बारवई य सुरट्ठा बारसविहे कसाए बाले बुढे नपुंसे य बाहुलपुहहिं बुद्धिरुत्पद्यते ताक फ भन्वा वि ते अनंता गमाणायामो विभागः ब [ ४ १०७९ [ तत्त्वार्थे अ० ७ सू० ८ ] २ ३१४ ] २० [ [ [ भ [ २ २६८ [ विशेषावश्यके भा० गा० १३१६ ] ५ १३६९ [ सिद्ध है मे ५ - २ - १] १ २ [ २ ३६३ [प्रशमरतौ आ० १७६] २ ५३० ] १ ง षष्ठं परिशिष्टम् । [ पत्राङ्कः ५७६ [ ] ३ ९१३ [ प्रवचनसारोद्धारे गा० १५८९ ] ] ८७ ] २ ४३३ [ कल्पचूणौं ] २ २६९ [ आवश्यकनिर्युक्तौ गा० ११३ ] ४ ११८० [ निशीथाध्ययने] २ ४ १०५४ [ प्रवचनसारोद्धारे गा० ६६५ ] ३ ९११ ] ३ } ३५४ J २ २८० [ कल्पवृहद्भाष्ये ] गाथाद्याचपदम् भंगाणयणे करणं भंभा मुकुंद मद्दल भारे हथुवघातो भावादिमः भाषापरिणते लघुग भिक्खू अ इच्छिज्जा अन्न भूतस्य भाविनो वा भूमीगतम्मि तोणि भेषजेन विना व्याधिः भोजं ति वा संखडित्ति वा मउडो पुण दो रयणी मट्ठा तुप्पोट्ठा पंडुरपड - मणसहिएण उ कारण मयूरव्यंसकेत्यादयः महुराय सूरसेणा म मात्रा स्वस्रा दुहित्रा वा मसानंतर लहुग मुच्छा परिग्गहो वुत्तो मुहपुत्ति रहरणं विभागः पत्राङ्कः 9 १२९ [ कष्पबृहद्भाष्ये ] १ १२ [ ง १४२ [ कल्पबृहद्भाष्ये ] २ २७० [ सिद्धहेमे ६-४-२१] १५७ [ [ [ [ [ [ [ [ १२७ १ ३ ] २ ३७९ ] ८ २ ] ५ १४९९ [ कल्पवृहद्भाष्ये ] २ ५२८ 1 ३ ६९८ [ आवश्यक निर्युक्तौ गा० १४८६ ] २ ५८१ ] ३ ९१३ [ प्रवचनसारोद्धारे गा० १५९१ ] ३ ७१७ ] १ १५७ [ कल्पवृहद्भाष्ये ] २ २७० [ दशवैकालिके भ० ६ गा० २१ ] २ ४८९ ] } ९१० ] ५७५ ] ३ ८९० [ कल्पचूर्णौ ] Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • १२८ षष्ठं परिविक्षा। विभामा पत्रकार विभागा प्राधा गाथापाचपदम मुले कंदे खंधे गायाबायपदम् लिंगेण लिंमिणीए [कल्पवृहद्भाष्ये] मेवच्छन्नो यथा चन्द्रो . २ [ ] - वत्तीभबंदि दवा मैमिमोदकारुण्य [तस्वाथें अ० ७ सू०६] | वरं प्रवेष्टुं ज्वलितं हुताशनं सहस तदपि विलसित- २ ३८५ वर्तमानासन्ने वर्तमाना मोम पशम एकस्मिन् कल्पहनाये] ४ १२७७ ५ १४१४ Ere] वर्ष देव! कुणालाय सत्र प्राणिवधो बाति ४ १२३८ बंजुल पुप्फुम्मीसा यथाऽऽवश्यके कृते एकमद्वत् सस्थहितार्य २ १८९ करसचूणौं] ४ १०७८ वंदामि भइबाहुं २ २५९ दशास्त्रनियुक्ती गा०१ पश्चकाल्पभाष्ये गा०१] बंदामु खंति ! पढपंदुरसुद- ३ ७४९ E वारनपुरे अभयसेण [भावश्यकनियुको गा० १३०३] काम सन्दे ६ १६०५ रति दवपरिवासे [करुपबृहद्भाष्ये] रयणगिरिसिहरसरिसे [करपडझाये ४ ११७३ [मिकामे ८-४-१८८] रहग्गतो य विविहफले ३ ९२० निशीषचूरें] रामाद्वा द्वेण्डा रसोईयो विशतिः फलदा पुंसां ६ १७१८ वितहं पि हामुन्ति २ २६० दशवकालिके म० ७ गा०५] विद्युत्पत्रपीतान्धाः सिद्धहैमे ८-२-१७३] बिनयः शिक्षा-प्रणत्योः ४११९६ " रागेण सइंगालं ४ ९६९ [पिण्डनियुक्ती मा.० ६५९] रायगिहममाया [प्रवचनसारोद्धारे गा९१५८७] रूपिष्ववधेः [तत्त्वार्थे भ० १ २० २८] रूसट वा परो मा वा [महानिशीथे म. २] [हैमानेकार्थे विस्वरकाण्डे लो० ११०५] विभूसा इस्थिसंसरगी ४ १०९५ [दशवैकालिके म० ८ गा० ५७ ] वीतरागा हि सर्वज्ञाः १ १०४ किंगतियं वयणतियं वीसंदणं भद्धनिहघय- २ ५०५ [पञ्चवरतुके गा० ३७९ टीकायाम् ] वेराड वच्छ वरणा [प्रवचनसारोदारे गा० १५५० ] Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथायाद्यपदम् वेलियवरविदुम व्रत-समिति कषायाणां 33 व्रीहिर्यवो मसूरी शङ्खः कदस्यां कदली शरीरं धर्मसंयुक्तं शीलाद्यर्थस्येरः शुष्यतस्त्रीणि शुष्यन्ति शृणोति बहु कर्णाभ्या शेषाद्वा 39 'श्रूयतां धर्मसर्वस्वं "श्वः कार्यमद्य कुंचीत श विभागः २ ४६१ [करूपबृहद्भाष्ये ] [ स [ [ [ [ 8 १२३४ ४ १२३८ २ 9 ८२१ ] २ ४६७ [ सिद्धहमे ८-२-१४५ . ] २ ५५७ परिशिष्टम् । [ ३ ] २ २ २६४ J ८४ २७० २९८ [ सिद्ध हैमे ७-३-१७५ ] १ ९० [ इतिहाससमुच्चये ] ४ १२६० ] ] J ४ १२९७ ] *संह सामरथे आयंबिलं ५ ૬૮ [ कल्पचूर्णौ ] सच्चा विसा न वत्तध्वा १ २२० [ दशवैकालिके अ० ७ गां० ११] 'सत्सङ्गेऽई त्यहिंसा दौ 9 १८० [ हैमानेकार्थे द्विस्वरका ० लो० ३३६ ] सामीप्ये सा सत्स्वपि फलेषु यत्र सन्दर्भबीजवपनानघकौशलस्य ५ १४८२ [ सिद्धहै में ५-४-१ ] ४ ९३६ 1 २ - ३५५ [ सिद्धसेनीयद्वितीयद्वात्रिंशिकाया श्रो० १३] विभोगः पत्राहः terranea 'समणोवसिंगल्स णं भंते ! २ 800 [ भगवत्यां श० ८ उ० ६ ० ३७३-२] सम्प्राप्तिश्व विपत्तिश्व २९९ 'सम्मत्तचरिता सम्मदिट्ठी सनी 'सरसो चंदणपंको सर्वस्य सर्वेकारी 'संवियाति वित्थनो 'सव्वजीवाणं पि य णं अक्ख २६ [ नन्दी सूत्रे सू० ४२ प० १९५ ] सम्वजीवा वि इच्छंति ९१ ३ ७५९ [ दशवैकालिके अ० ६ गा० १०] सव्वबहुभगणिजीवा १ २४ [ भावश्यक निर्युक्तौ गा० ३१] १९० [ दशवैकालिके म० ४ गा० ९ ] ง 'सम्वत्स केवलिस्सा જન્મ [ विशेषावश्यक मो० गा० ३०९६ ] "सागासपएसग्गं सब्वागास- *9 ८२ 33 'सम्व भूयऽप्प भूयस्स 'सव्वा मगं परिज्ञाय "" "9 सव्वे जीवा न तब्वा 'सब्वे पाणा पियाउँगा 19 [ [ [ [ 9 १२९ २९ [ कल्पबृहद्भाष्ये ] १ १८१ २ [ ] ૩૪ ] ५५१ २ २७२ २ રૂછું. [आचाराने श्रु० १ अ० २ उ० ५ ] २ २५९ ] J २ ५८५ [ कश्पचूणौ ] [ नन्दी सूत्रे प० १९५] ક્ १ ३ ७५९ [ आचाराङ्गे श्रु० १ अ० २ उ० ३] सब्वेसि पि नयाणं [ आवश्यक निर्युक्तौ गा० १०५५, १६२३] ६ १७०९ จ๋า Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० षष्ठं परिशिष्टम् । गाथाचाचपदम् विभागः पत्राङ्कः । गाथाचाद्यपदम् विभाग: पत्राः सहसुप्पमं रोगं २ २९९ । सुद्धपुढवीए न निसिए २ ४१४ [दशवकालिके म०८ गा०५] संचर कुंथुद्देहिय ५ १५७५ सुबहु पि सुयमहीयं ६ १७०८ [ओपनियुक्तौ गा० ३२३] [भावश्यकनिर्युक्तौ गा. ९८] संजमजोगा एल्थं ४१०२१ सुयनाणं महिड्डीयं [पश्चवस्तुके गा०१३३] संजमहेज लेवो १ १५३ सुहपडिबोहो निहा [कल्पबृहद्भाष्ये] संजयगिहिचोयणऽचोयणे ३ ७६१ सुहुमं पि हु अचियत्तं २ ४२० . [ोधनियुक्तौ भा० गा० १७१] [पञ्चवस्तुके गा० १४५०] संजुत्तोऽणंतेहिं १ २२ सूरेव सेणाइ समत्तमा हे [कल्पवृहद्भाष्ये] संपुडगो दुगमाई ४ १०५४ सेजायरपिंडम्मी [प्रवचनसारोद्धारे गा०६६७] [पञ्चाशके पञ्चा० १७ गा० १.] संवच्छरबारसएण सेयविया वि य नयरी [ओघनिर्युक्तौ भा० गा० १५] [प्रवचनसारोद्धारे गा० १५९०] संविग्गमसंविग्गा सोइंदियस्सणं भंते! केवइए ६६ [प्रशापनायां पदं १५ उ० १ ० १९५] संसट्रकप्पे ण चरेज सो पुण लेवो खर[दशवकालिके चूलिका २ गा०६] संसट्ठमाइयाणं स्थानासनगमनाना [कल्पबृहद्भाष्ये] [नाट्यशाने म० २२ श्लो० १५] संहिता च पदं चैव स्पृशः फासफंसफरिसछिब. [ ] [टि..] साकेत कोसला गय [सिद्धहमे ८-४-१८२] [प्रवचनसारोद्धारे गा० १५८८ ] स्वप्रतिष्ठितमाकाशम् सामनमणुचरंतस्स [दशवैकालिकनियुक्तौ गा० ३०१] स्वरेभ्य इ. सामध्ये वर्णनायां च [सिद्धहमे उणादि सू०६०६] ई सा वि य णं भगवओ अद्ध- २ ३७३ [समवाया) समवाये ३४] सिय तिभागे सिय तिभा- २ ३०० [प्रशापनायां पदं ६ पत्र २१६-२] सुत्तत्तं सेयं जागरियत्तं वा सेयं । ८१ [म्याख्याप्रशप्तौ २०१२ उ० २ सू० ४४३] सुत्तप्फासियनिज्जुत्ति २ २५६ [विशेषावश्यके मा० गा० १.१०] सुत्तं सुत्ताणुगमो हस्तपादाङ्गविन्यासो ३ ६५३ [नाट्यशास्त्रे अ. २२ वो. २२] हास्यो हासप्रकृतिः [रुद्रटकाव्यालंकारे म. १५ श्लो०११] हे हो हले ति अग्ने त्ति २ २६० [दशवैकालिके म०७ गा. १९] होह कयस्थो वोत्तुं २ २५६ [विशेषावश्यके भा० गा० १००९] हस्वदीर्घनुतस्वार Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायः भनानुपूर्व्यपि व्याख्याङ्गम् भाद्यन्तग्रहणे मध्यस्यापि ग्रहणम् २ ४ 99 एकग्रहणे तजातीयग्रहणम् 39 39 ७ सप्तमं परिशिष्टम् बृहत्कल्पसूत्रभाष्य-वृत्त्यन्तर्गता लौकिकन्यायाः । विभागः पत्राङ्कः ४ ९३२ २७४ ११५० २६३ ४८८ ११५० एकग्रहणे तज्जातीयानां सर्वेषां ग्रहणम् २ "2 "" एकग्रहणेन तजातीयानां सर्वेषा कोल्लुकचक्रपरम्परन्यायःघुणाक्षरन्यायः छागकन्यायः ( गा० ६०७९ ) पाठान्तर सूत्रपाठान्तर भाष्यपाठान्तर २ २ ४ २७४ ४ १०८७ मपि ग्रहणम् ५ १३७४ ง १६७ ६१९ १६०७ १६०७ ३ ६ ६ न्यायः तन्मध्यपतितस्तग्रहणेन गृह्यते ३ तुलादण्ड मध्यग्रहणन्याय 9 २ ง ३ 39 दशदाडिम भीमो भीमसेनः मात्रयाsपि च सूत्रस्य लाघवं महा नुत्सवः यथोद्देशं निर्देशः 39 "" वणिग्न्यायः सत्यभामा भामा इति न्यायः सर्व वाक्यं सावधारणम् 99 सूचनात् सूत्रम् विभागः पत्राङ्क: ૧૨ २५० ५८७ ६२ ८९६ अष्टमं परिशिष्टम् बृहत्कल्पसूत्रस्य वृत्तौ वृत्तिकृत्यां निर्दिष्टानि सूत्र - भाष्यगाथापाठान्तरावेदकानि स्थलानि । २ २ २ २ ६ ३ २ ४ १३१ २६१ ४१८ ४८८ ५४८ १६६५ १०२९ २३२ ५८२ ९७६ विभाग-पत्रादि ३-६५२, ६७७९५- १३४९, १५२५६६-१६६७ १-३३,२४६२-२८७, २८९, २९१, २९८, ३४३, ३६९, ३८१,४०३, ४६५, ४९०१३-६२०,८२७, ८३३, ८५७६४-९३०, १०६४, १०६६, १०७४ ११०१५ - १३२४, १५२६, १५६९,१५७०,१५८०६६-१६१६, १६६७ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ नवमं परिशिष्टम् बृहत्कल्पसूत्रवृत्त्यन्तर्गतानां ग्रन्थकृतां नामानि । १-४४ Soccc0000 ग्रन्थकृत्राम विभाग-पन्नाकादिकम् ग्रन्थकृनाम विभाग-पत्राकादिकम् भन्ये ३-८५७ जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण २-२५६,४०२ भाचार्य २-५२१ धम्मगणिखमासमण ३-७२६ टि० ३ आचार्यदेशीय ३-८७२ टि. १ नियुक्तिकृत् १-४४ टि.५ ४-१००७टि. ३ निशीथचूर्णिकार २-२८९ आर्यमङ्गु निशीथचूर्णिकृत् १-२२०,२४१:२-२८७, भार्यसमुद्र २९०,३३४,५५२,५७४३-१२० आर्यसुहस्तिन् १-४४ ४-९५६,१०९७५-१३४१,१४९५ आवश्यकचूर्णिकृत् २-३६७ टि. १७४-१२१३ परमर्षि १-२१९९२-३७३ कल्पाध्ययनचूर्णिकृत् १-२२० बृहद्भाष्यकार (कल्पस्य.) ४-९३३,११४९ केविदाचार्यदेशीयाः ३-८७१ टि. ६ बृहद्भाष्यकृत् (कल्पस्य) ४-९२५,१०७५, केचिदाचार्या ३-८५७; ५-१४९९,१५८०,१५८६ टि. २ ४-१०३१,१०८९,११५८ भगबाहु १-२,१७७१२-२५९ केषाश्चिदाचार्याणां ३-७८१,८०२४-१२६३ मलयगिरि १-३९ टि. २,१७७,१७८ गुरुनियोग २-६०१ मलयवतीकार चुपिणकार (कल्पचूर्णिकारः) १-२३ टि० ६ | लाटाचार्य ४-९८३ चूर्णिकार (कल्पचूर्णिकारः) -२७; लाडाचार्य ४-९८३ टि०२ ४-१०७४।५-१५०२ वादिमुख्य २-३५५ चूर्णिकृत् (कल्पचूर्णिकृत्) १-१,२०५, विशेषचूर्णिकार (कल्पस्य) ३-८०७ २४१२-२६७,२८९,३७६, विशेषचूर्णिकृत् (कल्पस्य) २-३४५,३८१, ४२२,४३३,४७३,४८१,५००, ४९०,५५८३-७२६,७७१४-११५६ ५०५,५२४,५५८,५८५) ३-७६८ ३-७७०,७८८,८०७,८११,८२७, सङ्घदासगणिक्षमाश्रमण १-१७७ ८४५,८७१,८९०,८९४ हरिभवसरि २-३९६,४८५ ४-१०५५,१२६६३५-१४६८ । हेमचन्द्रसूरि (मलधारी) १-१७ टि० ५ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभ्थनाम अजिवशा विस्तव अज़ियसं तिथय १० दशमं परिशिष्टम् बृहत्कल्पसूत्रभाष्य- वृत्त्यन्तः प्रमाणत्वेन निर्दिष्टानां ग्रन्थानां नामानि । ५-१४६९ ५- १४६९ अरथसरथ १- ११४ ( गा० ३८८ ) अनुयोगद्वार १-८ टि० १,७८,८३१२-३४८ अनुयोगद्वारचूर्णि १-४५ टि०६ १-४६ अपात अर्थशास्त्र १-११४ आचार ३-९१३ २-३४८ आचारप्रकल्पाध्ययन आचारसूत्र ४-११०९ आचाराङ्गसूत्र १-९६ टि० १,९७ टि०३, १२१ टि० १,१३८ टि० ३,१८०, १९५२-२७२,३७९;३-७५९टि० २; ४-९३३ टि० १ विभाग-पत्राङ्कादिकम् आदेशान्वर १-४५ टि०६२-५७४९३ - ७२९ आदेसन्तर २-५७५ आवश्यक १-७८, १७७, २४४३२-२६७, ५२४, ५९१३ - ६९८ टि० ३,७०६, ७१७४ - १०५९, १०६३, १२२२, १२६०१५- १४८९१ ६-१६६० टि० २ १-४५ टि०६ १- १४;४ - ११२६; ५- १४६६, १५४९ ६-१६६० टि० १ १-५२ टि० ३ १-४५ टि०६, ५६ टि० ४,८५ टि० २ १-२ टि० १ आवश्यकचूर्णि आवश्यकटीका भावस्लय आवश्यक नियुक्ति - चूर्णि-वृत्ति आवश्यक मलयगिरि-वृत्ति चूर्णि आवश्यक हारिभद्रीटीका ग्रन्थनाम इसि भासिय उक्खित्तनाय उत्क्षिप्तज्ञात उत्तराध्ययन ऋषिभाषित ऐन्द्र ओघ नियुक्ति कप्प कल्पविशेषचूर्णि कल्पसूत्र कुलकरगण्डिका कौटिल्य क्रियाविशाल पूर्व गोविन्द नियुक्ति १३३ १-६६१२-५८६ ५-१४४१ १ - १४०; २-४९०,५०३ टि०१; ३-७६१, ८६२,८६९,८७७३ ४-९३४, ९३५, १२९४६-१६६१ विभाग- पत्राक्कादिकम् १-६५ ( गा० २०४ ) ३. २-५८६ ( गा० २०२७ ) १-६२ ( गा० १९२ ) १-६२, ६३ १- ९७ टि० १३३-७८४ टि० ११ ५- १३७८ टि० २,१३९१ २-२५९ ३-८४५ १-२ १-२३१ १-११३ १-४४ ३-८१६; ५- १४५२ चरक २-५४९ चूडामणि २-४०४ चूर्णि ( कल्पस्य ) १ - १७७, १७८, २०४, २४२; २- २९७,३२० टि० २,३४०, ३९८ टि० ४, ३९९,६०१,६१०; ४- ११४४, ११४९, ११६९, १२३२,१३०६५- १३४१, १४६९, १५८५, १५९९ चूर्णिद्वय ( कल्पचूर्णि कल्प विशेष चूर्णी ) ५१३८८ टि० १ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ एशमं परिशिष्टम् । प्रन्थनाम विभाग-पत्राङ्कादिकम् ग्रन्थनाम विभाग-पत्राङ्कादिकम् चेटककथा ३-७२२ निशीथाध्ययन ४-१९८० जंबुद्दीवपत्ति १-४९ (गा० १५९) पज्जोसवणाकप्प ४-११५६ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति १-४९ पञ्चकल्प १-७८,८३,२-२५९,४-११२६, जीवाभिगम १-६ टि०६ ५-२३६७६-१६५९,१७०४ जोणिपाहुन ३-७५३ टि०४ पञ्चवस्तुक २-३९६,४२० ज्ञाताधर्मकथाज १-६२ (टि० ४-५); पञ्चवस्तुकटीका २-४२२,४८५,५०५ ३-७०९ टि० २ पञ्चवस्तुकवृत्ति २-४८८ ज्ञाताध्ययन पण्णत्ति ४-९४७ णिजत्ति ५-१३६८ (गा० ५१३९); पर्युषणाकल्प ४-११५६ ६-१७०४ (गा० ६४८२) पंचाएससय १-४५ टि०६ तावार्थ ३-८१६ पंचकप्प १-८३ टि. ४५-१३६८ टि. २ वरावती १-१६५३-७२२९५-१४८९ पाक्षिकसूत्र ५-१५८६ तीर्थकरगण्डिका १-२३१ पारिष्ठापनिका नियुक्ति ४-१२९४,५-१५५६ त्रिंशतिमहामोहस्थान (आवश्यके) ६-१६९२ पिण्डनियुक्ति १-१५४,२-४७१,५३० दशवकालिक २-२७३,४-९३४,११०९ प्रज्ञप्तिसूत्र १-९६५-१३८३६-१६०६ दशवकालिकटीका १-११९ प्रज्ञापना २-४८२,४८३ दशवैकालिकनियुक्ति १-७५:२-४९५:३-७५२ प्रज्ञापनोपाङ्ग १-४८ (दि. ३-४) दशाश्रुतस्कन्ध २-४९९३-८९७ प्रत्याख्याननियुक्ति (भावश्यकनि०) ३-८०६ ६-१६७५ टि०१ प्रत्याख्यानपूर्व १-२,१७७:२-२५९ दसा (दशाश्रुतस्कन्धः) २-२५९ प्रश्नव्याकरणाङ्ग ४-१२३९ दीवसमुहपत्ति १-४९ ( गा० १५९) बृहद्भाष्य (कल्पस्य) १-२२,२०२७ देशी (देशीनाममाला) २-५५६ २-२९६,४५८,५५७१४-११६९; देशीनाममाला २-५५६ टि. ४ ५-१३६१६-१७०० द्वयोरपि चूर्योः (कल्पचूर्णि-विशेषचूर्योः) २- ब्रह्मदत्तहिण्डि (उत्तराध्ययन नियुक्तौ)६-१६६० भगवती १-८६ टि० २४-११३९,१२०० द्वीपसागरप्रज्ञप्ति भगवतीटीका ३-७६८ धूर्ताख्यान ३-७२२ भस्सं (सं० भाष्यम्) १-२ टि. १ १-३९ टि. २ भारत ५-१३८५,१३९०,१३९१ नन्दीवृत्ति १-३९ टि० २ भाष्य (कल्पलघुभाष्यम्)१-१,२,१७७,१७८ नन्धध्ययन १-१५:५-१३९२ टि. १ भासं (सं० भाष्यम्) १-२ टि०१ नाव्यशास्त्र ३-६९६ भिषग्वरशास्त्र ४-९३६ नायझयण १-६५ (गा० २०४) मलयगिरिव्याकरण नियुक्ति १-१७७४-१०५९,६-१७०४ मलयवती ३-७२२ निशीथ १-४४३-६७१५-१३२२, महापरिज्ञा १३२७,१४४१,१४७९ मूलचूर्णि ४-९८३ निशीथचूर्णि१-४५ टि० ६,२४२,२४८% मूलावश्यक ५-१३९१ टि. १ २-२९१,२९८,३२० टि० २,३४०% मूलावश्यकटीका २-२५५ ३-७८१,८४५४-९८३०५-१५८५ मौनीन्द्रवचन २-३९१ निशीथपीठिका ५-१३३९ । योगसङ्ग्रह (भावश्यके) ५-१३५१ नन्दी Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमं परिशिष्टम् । १३५ प्रम्थनाम विभाग-पत्राकादिकम् । ग्रन्थनाम विभाग-पत्राक्षादिकम् योनिप्राभूत २-४०१३-७५३ व्यवहारसूत्र १-२,७८७६-१६४४ राजप्रश्भीय १-६ टि०६ व्यवहाराध्ययन १-२४५,४-१९७८ रामायण - ५-१३८५ व्याख्याप्रज्ञाति ३-७६८४-१०७६ ववहार २-२५९ शब्दानुशासन (मलयगिरीयम्) वसुदेवचरित १-१७८ ३-७२२ वारस्यायन १-२११ शत्रपरिज्ञाध्ययन (भाचाराने) ४-९३४ वासवदत्ता ३-७२२.टि. ४ परजीवनिका (दशवैकालिके) ३-८०२ विपाकटीका १-४५ टि०६ सबाट (द्वितीयं ज्ञाताध्ययनम्) १-६२ विशाखिल १-२११ सम्म(न्म)ति ३-८१६:५-१४३९, विशेषचूर्णि २-३६७,३९८ टि० ४, १४४१,१५१० १९९,४५८,५०२ टि. १,५५७) सिद्धप्राभृतवृत्ति १-४५ टि.६ ३-८१९,८३३४-९८३,१०७४, सिद्धान्तविचार १-४५ टि.६ १०९०,१०९२,११४४,१२३२; सुश्रुत २-५४९ ५-१४६९ विशेषणवती सूत्रकृता १-४४ टि. ५,६-१६२९ १-४५ टि०६ विशेषावश्यक १-४५ टि० ६२-४०१ सूत्रकृताङ्गटीका ६-१६३० टि.१ विशेषावश्यकटीका सूत्रकृदङ्ग १-१७टि०५ १-९७ टि. २ वृद्धभाष्य २-६१० सूर्यप्रज्ञप्ति २-४०१ वृद्धविवरण ४-१२९२ स्थानाज १-५१ टि०१३-६१९ वृद्धसम्प्रदाय १-४५ टि.६२-४८८ खोपज्ञपञ्चवस्तुकटीका २-४८५ ३-८३८:४-१२०६:५-१४६८ | हैमानेकार्थसाह १-२११र०४ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ ११ एकादशं परिशिष्टम् बृहत्कल्पसूत्र-नियुक्ति-भाष्य-वृत्ति-टिप्पण्याद्यन्तर्गतानां विशेषनानामनुक्रमणिका। " अच्छ. गिरिः अवात विशेषनाम किम् ? पत्रादिकम् । विशेषनाम किम्? पत्रादिकम् अभय राजकुमारो मत्री च ५८,८८, भग्गिकुमार भवनपतिभेदः गा०३२७४,९१६ अभयसेण राजा भग्निकुमार ९१६ अम्बष्ठ शातिविशेषः अङ्ग-मगध जनपद: ९०७ अयोध्या नगरी ३८१ ९०७ अरहमक जैनश्रमणः ७१७ जनपदो नगरं वा अरहनग ७१७ गा० २५४५ अजापालवाचक जैनोपाध्यायः १२२५ भरिट्टनेमि तीर्थकरः अजितनाथ तीर्धकरः १४२४ टि. ३ अर्धमागध भाषा ९१४ अजितस्वामिन् १४१९ ॥ अर्बुद ८८४ भजकालग पूर्वधरस्थविरः ७३,७४ अवन्तीसुकुमार जैनश्रमणः १०६३ अजसुहस्थि , ९१७ गा० ३२७५, अवंति नगरी १६१२ गा० ६१०२ ९१९ गा० ३२८२ अवंती जनपदः ९१९,११४५,१६१२ अट्ठावय गिरिः १२८५ अशिवोपशमनी मेरी १०६,१०७ गा० ४७८३ अशोकश्रि राजा ९१७,९१८,९१९ भडोलिका राजकुमारी ३५९ भष्टापद गिरिः १२८४,१२८५ अडोलिया ३६०,३६१ असिवोवसमणी भेरी १०६ गा० ३५६, भडोलीया १०७ " ३५९ गा० ११५५ असोकसिरि राजा ८८ गा० २९४,९१७ भट्टभरह क्षेत्रम् १३९७ गा० ३२७६ अणंग राजकुमारः १३८७ असोग ८८ गा० २९२,८९ अणंगसेण सुवर्णकारः १३८८ गा० ५२२५ असोगसिरि ९१७ अगंध १३८९ अहिछत्ता नगरी अनङ्गसेन ७०६,१३८८ अंग-मगह जनपदः ९०५ उ० १ ० ५० अनिल ३५९ गा० ११५४ अंगा " अन्ध्र जनपदः २०,९१९ : अंध ९२१ गा० ३२८९ अनिकापुत्र जैनाचार्यः १६४६ अंधकुणाल राजकुमारः भन्बुय गिरिः ८८३ गा० ३१५०, अंधपुर नगरम् १३८९ ८८४ टि. ७ अंबह कातिविशेषः ९१३ गा० ३२६४ राजा " Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषनाम आनन्दपुर आभोगिनी आजीवक दर्शनी आणंदपुर आर्द्रकुमार आर्यसपुर इक्खाग इक्ष्वाकु इन्द्रपद जैनाचार्य: आर्यचन्दना जैन श्रमणी आर्यमहागिरि पूर्वपरस्थविरः इन्द्रमह इसितलाग इसिवाल आर्यवज्र आर्यसुहस्तिन् 33 दर्शनम् आईत आवर्तनपीठिका यत्रम् भावाह उत्सवः इसी लाग इंद इंदाण इंदपद इंदमह किम् ? उकुरुड उगा उग्गसेण उम्र उज्जयन्त १८९ नगरम् ८८४ टि० ७,१३८७ 39 विद्या जैन श्रमणः आ 29 वंश: 99 गिरिः सरः उत्सवः इ सरः यक्षः चैत्यम् गिरिः उत्सवः वानव्यन्तरः राजा वंशः गिरिः उ जैन श्रमणः बंशः एकादशं परिशिष्टम् । पत्रादिकम् ३४२, ८८४ १२५० ३४९ १४८० १०३६ ९१९ ११९ ११७, ११८, ११९ ६० ९४० टि०१ १२६९ गा० ४७१६ ९१४ गा० ३२६५, १३९७ गा० ५२५७ ७५,९१४, १३९८ १२९१ १३७१,१४८१ ८८३ गा० ३१५० ११४५ गा० ४२१९,१२४६ गा० ४२२३ ११४६ गा० ४२२३ १३७१ १३७१ १२९८ गा० ४८४१ १३७० गा० ५१५३, १३७१ ४५ टि० ६ ९१४ गा० ३२६५ ५३,५७ ९१४ ३८१,८२७, ८९३,९५७ विशेषनाम उज्जयिनी ਬਹਿਰ उणी उज्जेत उक उत्तरमथुरा उत्तरमहुरा उत्तराध्ययन उत्तरापथ उत्तरापह उत्तरावह उदायन ऋषितडाग ऋषिपाक पुरवई ऐरावती किम् ? पत्रादिकम् ८९,३५९,९१८, ११४५, ११४६, १४६६, १५०९, १६१२ ९५७ टि० २ ७३,८८गा० २९२, ३५९, ३६०, ९१७, ११४५ गा० ४२११-१०, १३६२,१३६३ गा० ५११५, १४६६ गा० ५५३७, १५०९ गा० ५७०६ ८९३ गा० ३१९२ नगरी गिरिः नगरी गिरिः ऋषिः नगरी "" योग: जनपद: राजा उदायिनुपमारक राजकुमारः अमणध ऋषभनाथ तीर्थंकरः ऋषभसेन गणधरः ऋषभस्वामिन् तीर्थंकर " 39 सरः वानव्यन्तरः ए नदी नदी १३७ ५४३ १६४८ १६४८ २२० ३८३, ५२४, १०६९,१५१६ १०६९ गा० ३८९१ ५२४,९१५ पे ३१४ ३८३ ४७८, १२८४, १४१९, १४२०, १४२४ टि० २, १६८८,१६९८ ८८२, ११४५, ११४६ ११४५,११४६ ९१४ २०६ टि०३, ४७८, १०२६ २०६ टि०२, १४९१ उ० ४ सू० ३३ गा० ५६२८, १४९२ मा० ५६३९,१४९५ गा० ५६५३ १४९१,१४९२,१४९५ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ एकादशं परिशिष्टम। विशेषनाम किम् ? पत्रादिकम् । विशेषनाम किम् ? पत्रादिकम् श्रेष्ठी जैनश्रमणश्च ८०५,१५४९ जनपद: ९१३ वणिक् ३७३ गा० १२०५, ओकुरुड जैनश्रमणः काष्ठ कासी किढि ४५ टि०६ जनपद: कृदुक कुणाल राजकुमार ८८ गा० २९२, له و कच्छ जनपदः ३८४ टि० २ । कणाद दर्शनी २१० कण्ह वासुदेवः ५७,१०६ कपिल राजकुमारः ३५४ जैनश्रमणः कप्पियाकप्पिय योगः २२० कमलामेला राजकुमारी ५४ गा० १७२, ५६,५७ कम्बल देवः १४८९ करकण्ड राजकुमारः जैनश्रमणः ४५टि०६ कर्णाट जनपदः ३८२ कर्मकारभिक्षु अमणविशेष: ११७० कळंद शातिविशेषः ९१३ गा० ३२६४ कलिन्द कलिंग जनपदः ९१३ कल्पिकाकल्पिक योगः कविल जैनश्रमण: १३७१ गा०५१५४ कंचणपुर नगरम् कंची नगरी १०६९ गा. ३८९२ कपिल नगरम् कंबल देवः १४८९ गा० ५६२७-२८ काकिणी नाणकविश्वेषः काची नगरी १०६९ कानन द्वीप: ३८४ कामियसर सरः कार्पटिक श्रमणविशेषः काल नरकावास: ४५ टि.६ कालक पूर्वधरसविरः १४७८ कालकज र १४८. गा० ५५९३ कालकाचार्य ७३,१४८० कागज ७३,७४ काकसौकरिक शौकरिकः ३५५ कालिकाचार्य पूर्वधरसविरः १२१४ कालोदाई डमिनुः कुणाला जनपदः ९०५ उ० १ सू० ५०, ९०७,९१३ नगरी ४५ टि. ६,१४९१ उ. ४ सू० ३३,१४९२ गा० ५६३९, १४९५ कुण्डलमेण्ठ वानव्यन्तरः कुण्डलमेत ८८३ टि०६ कुण्डलमेंत ८८३ टि० ६ कुण्डलमैत ८८३ टि०७ कुसिय आपणः ११४५ गा० ४२२० कुनिकापण ११४३ कुमारनन्दी सुवर्णकारः १३८८ कुम्भकारकृत नगरम् . ९१६ जनपद: ९१३ कुरुक्षेत्र कुरुखेस " ५४४ गा० १८५८-५९ कुसह कुसुमनगर नगरम् १०६९ गा० ३८९२ कुसुमपुर १०६९,११२३ गा० ४१२४ कुंकणग जनपद: ५४ गा० १७२ कुंभकारकक्खर नगरम् ९१६ टि. १ कुंभकारकड , ९१५,९१६ कुंभारकक्खड ९१६ टि. १ कुंभारकड ९१६ टि०१ कूलवाल ६२० गा० २१६४ कूलवालक जैनश्रमण: ४०२,६१० कृष्ण वासुदेवः १०६,१०७,७५८ केगइअद्ध जनपदः माणकविशेषः ५७४ ५७४ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशं परिशिष्टम् । विशेषनाम किम् ? पत्रादिकम् । विशेषनाम किम् ? पत्रादिकम् केवडिय नाणकविशेष: ५७३ गा० १९६९ केशि गणधरः गङ्गा नदी ९५७,१३८६,१३८८, केसि ११२६ गा० ४१३७ १४८७ उ० ४ सू० ३२ कोकण जनपदः ३८४,८०७ गा० ५६१९,१४८८ कोडिवरिस नगरम् ९१३ गजसुकुमाल जैनश्रमण: कोमुइया भेरी १०६ गा० ३५६ गजानपद गिरिः १२९९ कोरव्व वंशः ९१४ गा० ३२६५ गइभ राजपुत्रः ३५९ गा० ११५५कोल्हुक इक्षुयन्त्रम् १०१३ ५६,३६० कोशला नगरी १५३६ गयपुर नगरम् ९१३ कोशिका नदी १४८७ गर्दभ राजा ३५९,३६१ कोसला जनपदः गर्दभिल्ल १४८० कोसंबी नगरी ९०५ उ०१ सू० ५०, गान्धारी मातङ्गविद्यादेवी ९१३,९१७ गा. गिरिजा प्रकरणम् १५३९ गा० ५८३३ ३२७५,९४७ गिरियज्ञ १३०८,१५३९ कोसिआ नदी १४८७ उ० ४ सू० ३२ गोदावरी नदी १६४८ गा० ६२४६ कोंकणग जनपदः गोब्बर ग्रामः १६११ गा० ६०९६ कोंडलमिंट गोयावरी ग्रामः १६४७ कोंडलमेंट वानव्यन्तरः ८८३ टि० ७, गोबर प्राम: गा० ३१५० जनपदः ६०३ टि. ४,६७२, कौमुदिकी भेरी ६७५ टि. ३ कौरव वंशः ९१४ गोष्ठामाहिल निहवः २४५ टि०१ कौशाम्बी नगरी गौड ९०७,९१३,९१७ जनपदः ३८२ क्षणिकवादिन दर्शनी गौतम गणधरः ३१३,१०३६,१३३२ क्षत्रिय वंश: ९१४ गौतमस्वामिन् १६३८ जैनश्रमणः गौरी मातङ्गविद्यादेवी ८८३ टि. ७ नदी गोल घ बणिक यक्षः १३८७,१३९० . ४०४ खत्तिय खरम खरक खरग खल्लाड खल्लाडग खल्वाट खसहुम खसद्म खंदा वंशः ९१४ गा० ३२६५ घटिकावोद्र अमात्यः १६४७,१६४८ घण्टिकयक्ष १६४९ " १६४९ गा० ६२४८ कोलिकः १६११ गा० ६०९४ चक्रचर " १६११ गा०६०९६ चचुयारक १६११ चण्डप्रद्योत शृगाल: चण्डरुद्र चन्द्र जैनाचार्यः ९१५,९१६ चन्द्रगुप्त राजकुमारः ९१५ गा० ३२७२ । चमर तिलयत्रम् २०१३ श्रमणविशेष: ८१८ यत्रम् ९४० राजा २१४५ जैनाचार्यः १६१२,१६१३ जैनश्रमणाकुलम् ४१२ राजा ८९,९१७,९१८ असुरेन्द्रः १३४० ९०९ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किम् ? पत्रादिकम् जनपदः शातिविशेषः ३८३ ४०४ राजा ५६ टि० ४ वंशः ९१४ गा० ३२६५ तीर्थम् ८९३ गा० ३१९२ नाणकविशेषः गा० ३८९२ चुञ्जण चेदि ८९२ राज्ञी १४० एकादशं परिशिष्टम् । विशेषनाम किम् ? पत्रादिकम् | विशेषनाम चम्पा नगरी ३८१,७०६,९०७, ९१३,१३८८ डिम्मरेलक गा० ५२२५,१६३३ डोम्बी घरकचीरिक दर्शनी २१. टि. ४ चरग २१. गा० ७०० णभसेण चंडरुद्द जैनाचार्यः १६१२ णाव गा० ६१०२-३ णायसंड चंदगुत्त राजा ८८ गा० २९४, णेल ७०४,९१७ गा० ३२७६ चाणक मत्री ७०४,७०५ चिलातीसुत श्रेष्ठिपुत्रः ७५८ तञ्च निक चीन जनपद: १०१८ तञ्चन्निक शातिविशेषः ९१३ टि. ४-५ तच्चनिय जनपद: तटिका चेल्लणा ५७,५८ तडागमह तन्तुवाय तापस जउणा नदी १४८७ उ० ४ सू० ३२ तामलित्ति जनार्दन वासुदेवः . १६३७ जमालि निहवः केवली स्थविरः जम्बू ताम्रलिप्ती ३१३,५२३ तुण्णाक जयन्ती राजकुमारी ९४७ गा० ३३८६ तुन्तुण जराकुमार राजा १३९७ तुरमिणि जय जैनश्रमणः ३५९ गा० ११५४५५-५६,३६० तेमाल जंगला जनपदः तोसलि जंबवती राशी जितशत्रु राजा १३९८,१६३७,१६३८ जितारि १३८७ जिनदास १४८९ जियसत्तु राजा ९१५,१३९७ गा० ५२५५,१६३७ गा० ६१९८ जीवन्तस्वामि-तीर्थकरप्रतिमा ७७६,७९८, प्रतिमा १५३६ थंभणी जैन दर्शनम् थावच्चसुत ज्ञात वंशः ११४ थूणा तीधम् दर्शनी १३७४ ६५०,१०४१ दर्शनम् ५९४ श्रमणविशेषः उत्सवः १२६९ शिल्पी ९१४ श्रमणविशेष: ९८९ नगरी ९१३,१०७३ गा० ३९१२ ३४२,२०७३ शिल्पी ९१४ शातिविशेषः ९१३ गा० ३२६४ नगरी १३९७ गा०५२५८, जनपदः १०७३ टि० २ " ३३१ गा० १०६० ६१,३३२,३३३,३८४ टि.१,८८३ गा० ३१४९, ९५९,९६३ गा० ३४४६, १५३९ गा० ५८३३ नगरम् ११४५ गा० ४२१९, ११४६ गा० ४२२३ श्रेष्ठी विद्या १२९१ गा० ४००९ अष्ठिपुत्रः १६६३ गा० ६३०३ जनपदः १०५ उ० १ ० ५०, १०७२ गा० ३९०५ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशं परिशिष्टम् । १४१ विशेषनाम किम्? पत्रादिकम् किम्? पत्रादिकम् । विशेषनाम उत्सवः १६५६ गा० ६२७५ धारिणी शूभमह राशी ९१५ नदीमह दक्षिणमहुरा नगरी दक्खिणावह जनपदः ९१७,१०६९ गा० ३८९२ दक्षिणमथुरा नगरी १६४८ दक्षिणापथ जनपदः ५७३,८०८,८१८, ८८६,१०६९ दन्तपुर नगरम् ५९१ गा० २०४३ दमिल जनपदः ९२१ गा० ३२८९ दसम्म " ९१३ दसार राजा ९१५,९१६ दीनार नाणकविशेषः ५७४ दीर्घपृष्ठ मन्त्री २-३५९ दीव जलपत्तनम् १०६९ गा० ३८९१ दीहपट्ठ मत्री ३५९ गा० ११५५, ३६०,३६१ दुभूतिया मेरी १०६ गा० ३५६ १०६ दृढमित्र सार्थवाहः ५९१ द्रमिल जनपदः २० द्रम्म नाणकविशेष: द्रविड जनपदः ३८२,३८३,९१९, १०३८,१०६१ द्वारिका नगरी ३५१ द्वीप जलपत्तनम् ३४२,१०६९ नन्दपुर नरवाहण नंद नंदिपुर नाग नागकुमार नागेन्द्र नारद नारय नारायण निशीथ निसीह नेपाल नेमाल उत्सवः १२६९ गोपः २७ नगरम् ३५१ राजा ५२ टि. ३ गोपः २७ गा. ७७ नगरम् वंशः देवजाति: १४८९ गा०५६२७ जैनश्रमणकुलम् ४९२ ऋषिः ७५८ ५६,५७ वासुदेवः ५७ योगः २२० २२० जनपदः १०७३,१०७४ १०७३ गा० ३९१२ तीर्थकरः १०६,१०७ नाणकविशेष: १०६९ : नेमि नेलक दुर्भूतिका प पट्टाण पजुन्न पजोय पञ्चशील नगरम् ५२ राजकुमारः राजा ११४५ गा० ४२२० १३८८ टि. ४, १३८९ टि. १-२ १३८७,१३८८, १३८९,१३९० नगरम् १६४७ पञ्चशैल घ धणदेव धनमित्र ५६,५७ राशी राजपुत्रः सार्थवाइः मत्री नापितदामी धनु धसाग पतिद्वाण पद्मावती पन्नत्ति पन्नत्ति पभास गा०६०९४ धनिका धनिय धन्वन्तरि धर्मचक्र तीधन् धर्मचक्रभूमिका , विद्या योगः २२० तीर्धम् ८८३ गा० ३१५०, ८८४ टि. ७ श्रमणविशेषः उत्सवः १२६९ १२६९ गा० ४७१६ जनपद: ५७४ टि. १ वैद्यः १६११ गा०६०९३ ३०२ । १५३६ १०२२ परिव्राजक पर्वतमह पव्वयमह पश्चिमदेश Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ एकादशं परिशिष्टम् । विशेषनाम विशेषनाम पंचसेल पंचाला पाटलिपुत्र पाटलिपुत्रक पाडल पाडलि पाडलिपुत्त किम् ? दीपः जनपदः नगरम् पत्रादिकम् । १३८७ गा० ५२१९ ८९,६५०,१५०९ पुरुषपुर पुष्करसारी पुष्पकेतु पुष्पचूल पुष्पचूला पुष्पपुर पुष्पवती पुष्यभूति पुस्सभूति किम् ? पत्रादिकम् नगरम् ६५० लिपिः १७ टि.६ राजा ४११ राजकुमारः राजकुमारी ४११ नगरम् राशी जैनाचार्यः १६६०,१६६४ " १६६० गा० ६२९०, १६६४ गा० ६३०४ " १६६० टि.१ जनपदः परिव्राजकः २३५ नगरम् १६३७ गा० ६१९८ १६३७,१६३८ योगः १४८६ राजा ५८६ पूर्वधरस्थ विरः ३१३ तीर्धम् ८८४ व्यन्तरी ७०६ टि. १,१३८९ तीर्थम् ८८४ ८८ गा० २९२ ६५० गा० २२९२ ८८,७०४,९१७, १०६९ गा० ३८९१, १४८८,१५०९ गा० ५७०५ पाण्डुमथुरावासिनः जनपदः श्रमणविशेषः ७७३ जैनाचार्यः तीर्थम् ८८३ गा. ३१५० ८८४ टि०७ जनपदः १०८५ पाण्ड पाण्डमथुरा पाण्डुराज पादलिप्त पादीणवाह पायीणवाह पारस पारसीक पार्श्वनाथ पुस्समित्त पूर्वदेश पोदृशाल पोतण पोतनपुर प्रज्ञप्ति प्रद्योत प्रभव प्रभास प्रहासा प्राचीनवाह फलाहाररिसि तापसः २४७ पार्श्वस्वामिन पालक पालय पालित्तग पालित्तय पालित्तायरिय पावा पुष्फकेउ पुष्फचूल नदी तीर्थकरः ११४३,१४२५ टि. १ १४१९ पुरोहितः ९१६,१३३५,१४७८ ९१५,९१६ जैनाचार्यः , १३१५ गा० ४९१५ १३१६ नगरी ४१०,४११ राजकुमारः ४१० गा०१३४९ ५०,४११ राजकुमारी नगरम् ४१० गा० १३४९, ५६ बन्नासा बलदेव बंभदत्त बभी राजा पुप्फचूला पुष्फपुर बारवई बाहुबलिन् बिंदुसार ३८३ राजा चक्रवती २०४ जैनश्रमणी १०३६ गा० ३७३८, १६३८ गा० ६२०१ नगरी ५६,५७,१०६,९१३ १४८० " ८८ गा० २९४,९१७ गा० ३२७६,९१८ दिगम्बरदर्शनी पाश्चात्यम्लेच्छजातिविशेषः १८ चक्रवती १०४,७५८,१४८० जैनश्रमणी १०३६ पुप्फवइ राशी पुरंदरजसा पुरिमताल पुरिसपुर राजकुमारी नगरम् ४१० गा० १३४९, बोटिक बोधिक ब्रह्मदत्त ब्राह्मी ६५० गा० २२९१, २२९२ । भगवती भ योगः २२० Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४३ किम् । नगरी विशेषनाम भण्डीर भहिलपुर भरत भरत पत्रादिकम् १४८९,१५३६, १६४८,१६५५, १६६०,१६६१ १६५४ गा० ६२७०, १६६० गा. ६२९२ १०४९ ८६९ टि. ११ भरह भरह गिरिः जनपदः ४५ टि.६ ९१३,१०१८ नगरम् एकादशं परिशिष्टम् । किम्। पत्रादिकम् । विशेषनाम यक्षः १४८९ मथुरा नगरम् क्षेत्रम् ११५१,१२८५ चक्रवती २०४,५२४, मथुरापुरी ७५८,११४५,१२८४, मधुरा १२८५ क्षेत्रम् १२८५ गा०.४७८६ मन्दर चक्रवत्ती २०४,५२४ मरहट्ट गा. १७७७,१२८४ मरु गा. ४७७९,१२८५ मरुदेवा गा० ४७८३ मलय ५९४ ८८३,११४६ मल्लिनाथ ५२,५९४ महरट्ट गा० २०५४,८८४ महाकप्पसुय टि. ७,११४५ महागिरि गा० ४२२०-२१ १९९७,१३९८ महाराष्ट्र १३९७ - गा० ५२५४-५५-५८ महावीर जनपद: ११३ ५७३ राजकुमार १३९७ टि.१ महिरावण १३९७ टि.१ सरः महुरा ११४५ गा०४२२२ ११४५ नगरम् ३४२,५९४ मालव वंशः ९१४ गा०३२६५ मासपुरी मिहिला मीमांसक जनपद: ३८२,५८१, मुणिसुन्वय मुरिय २०,९०७,९११, ऋषभजिनमाता जनपदः गण: तीर्थकरः जनपद: योगः पूर्वधरस्थविरः भरुकन्छ भल्यच्छ ७५८,१३३१ ६.३ टि. ४ २२. ९१७ टि. १, भसक भसय " मही मंगी मिल्लमाल भिसक भिसय भूततडाग भूततळाग भूयतळाग भृगुकच्छ भोग जनपदः १६७,३८२,३८४, ६.३,७१०,७४१,७५९, __९१९,९८५,१०७४,१६७० तीर्थकरः ४५ टि.६, ३१४,४८५, ५२२,१६६७,१६९० नदी " १४८७ ३0 ४ सू० ३२ नगरी ५२४ गा० १७७६, ९१३,१६४७ गा. ६२४४,१६४८,१६५६ जनपदः ३८२,७५९,१६७० नगरी ९१३ दर्शनी तीर्थकरः बंशः ८८ गा. २९३, ७०४ गा० २४८७, ९१८ गा० ३२७८ राजा ६५० गा० २२९१-९२, ११२३ गा. ४१२३, १४८८ गा. ५११५ १७ मगध मगधा मगह मचियावई मधुरा ९१३ ११३ नगरी जनपदः Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ विशेषनाम मूलदेव मृगापती मेरु मोरिय मोहणी मोहनी मौर्य यमुना यव यशोभद्रा रकपटदर्शन रखदेवता द्वीप रवोचय य यथाघोषत- जैनाचार्यः ग्राहक रयणुचय राहण राजगृह राजन्य रायगिह रेवय रोगुप्त रोहा काट लाड काढा किम् ? द्यूतकार : जैन श्रमणी गिरिः / वंशः विद्या 11 वंशः नदी राजा राशी दर्शनी देवी द्वीप: गिरिः 39 वंश: नगरम् र वंश: नगरम् 22 "" ल जनपद: एकादशं परिशिष्टम् । पत्रादिकम् विशेषनाम २३८ १०२६ १०४९, ११४३ ટ १२९१ गा० ४८०९ १२९१ उद्यानम् निह्नवः परिक्षानिका ८९,७०४,९१८ १६१० १४८७ १५९,१६१ ११५९ ६५० ७०९ ७०९ टि० २ ११४३ ११४२ गा० ४२०९ ९१४ गा० ३२६५ ८८, ११४,१०७, ९१२,१५९, ११४५, ११४६,१२८१ ९१४ ५७,८८ गा० २९१, ९१२, ११४५ गा० ४२१९, ११४६ गा० ४२२३,१२८२ ५६,५७ २३५ १६३०,१६२९ गा० ६१६९ २०, ३८२, २८३,८७१ ८०७,८७१,९१२ टि० ३ ९१३ वइदिस वच्छ वच्छा चज्जा वज्रस्वामिन् बहु वणवासी वहि वदमाण वरण वरधशुग वरधनु वर्तनपीठिका वर्धमान वंगा वाणारसी वारत्तक वारत्तक वारतग वारतम वारत्तगपुर वासुदेव विण्डु विक विदर्भ विदेह विदेह किम् ? य नगरम् जनपदो नगरं वा ९११,९४७ जनपद: ९४७ गा० ३३८६ श्रेष्ठिनी पूर्वरस्यविर जनपद: नगरी वंशः तीर्थंकरः वल्कलचीरिन् तापसो जैनममण जनपद: नगरी जैन श्रमणः "" जनपदो नगरं वा मत्रिपुत्र: यत्रम् तीर्थंकर : १६११ गा० ६०६९ पनादिकम् ८०५ ११७४ ९१३ १३९७ १३९७ गा० ५२५७ ५७,९१२ गा० ३२६१,९४७ अमात्यः जैनश्रमण: गा० ६२९०,१६६४ गा० ६३०४ १६६०, १६६४ ९४० टि० २ ९१२,९१५, १४७, ११६५, १४१९, १४२५ टि० १,१६८८, १६९८ ३५४ ९१३ રી ९१३ १६६० ५२४,५८६ ११११ ५२४ गा० १७७५,१११० गा० अमात्यः नगरम् अर्द्धचक्रती ४०६४,४०६६ १११० १११० ५७, १०७, १३९७, १६६१ जेनक्षमणः ४५ टि०६ हातिविशेषः ९१३ गा० ३२६४ जनपद: ३८२ ९१३ " विविशेषः ११३०२१६४ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " " वंशः एकादशं परिशिष्टम् । १४५ विशेषनाम किम् ? पत्रादिकम् । विशेषनाम किम् ? पत्रादिकम् विवाह उत्सवः १२६९ गा० ४७१६ सम्प्रति ५२८,९०७,९१५, विष्णुकुमार जैनश्रमणः ८७९,८८० ९१७,९१८,९१९, विसस्था राशी १३८७ ९२०,९२१ वीतभय नगरम् सम्ब राजकुमारः ५६,५७,१०७ वीयभय सम्मेत गिरिः ३८१ वीरजिन तीर्धकरः सयंभूरमण समुद्रः ४५ टि.६ वीरवर १४८९ गा. ५६२८ सयाणि राजा ९४७ वृष्णि १३९८ सरऊ नदी १४८७ उ० ४ सू० ३२ वेराड जनपदो नगरं वा सरयू १४८७ शातिविशेषः सरस्वती " ३४२ टि. १,८८४ बैरस्वामिन् पूर्वधरस्थविरः २२९ सरस्सती ८८४ टि० ७ वैशेषिक दर्शनी १२,२३ टि. २,८५ ससय राजकुमारः १३९७ व्याख्याप्रज्ञप्ति योगः २२० गा० ५२५४-५५-५८ सहसाणुवादि विषम् ११४२ गा० ४२०८ शक राजा १४७८ सहस्रानुपातिन् , . ११४२ शक्रमह उत्सवः संगामिया मेरी १०६ गा० ३५६ शतानीक राजा. ९४७ संडिब्भ जनपदः राजकुमारः राजा ८९,९१७ बाथ्यम्भव पूर्वधरसविरः ३१३ संपति ९१७ गा० ३२७७ शसक जैनश्रमणो राजकुमारश्च संब राजकुमार ५४ गा० १७२ १३९७, १३९० संभूत जैनश्रमणः १४८० दर्शनी साएतग नगरम् १५०९ गा० ५७०५ सातवाहन राजा १६४७ साएय ४५ टि.६,९१२ कालिभद्र भेष्ठिपुत्रः ११४५,११४६ गा० ३२६१ विव वानव्यन्तर: साकेत ९१२,९१३ टि. १, अलकाचार्य जैमाचार्यः १२२९ १५०९ शैलपुर नगरम् सागर कालिकचार्यप्रशिभ्यः ७३,७४ श्रावस्ती नगरी ९१३ सागरचंद राजकुमारः ५६,५७ श्रीयक जैनश्रमणः ८१५ श्रेणिक सागरदत्त वणिम् राजा १५४५ वेताम्बर जैनसम्प्रदायः २१८ साथ दर्शनी ६०,२१० सातवाहन राजा २६४० सङ्घामिकी मेरी साताहण , १६४८ गा० ६२४६ १०६ सषद विद्याधरः ११२६ गा० ४१३७ साभरक नाणकविशेषः १०६९ सत्यकिन् ११२६ गा०३८९१ सबल १४८९ सायवाहण राजा १६४७ गा० ६२४३ गा० ५६२७-२८ सारस्वंत गणः १६६३,१६६४ सभूमिभाग उद्यानम् ९१२ गा० ३२३१ सालवाहण राजा ५२,१६४७,१६४८ शम्ब संपह ८८३ देवः Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ एकादशं परिशिष्टम् । विशेषनाम किम् ? पत्रादिकम् । विशेषनाम किम् ? पत्रादिकम् सालिमह श्रेष्ठिपुत्रः ११४५ गा. सुवन्न जनपदः ७३ गा० २३९ ४२१९,११४६ गा. सुवर्णभूमी ४२२३ सुव्रतस्वामिन् तीर्थकरा ९१६ सालिवाहण राजा १६४८ गा० ६२४७ सूरसेण जनपदः सावस्थी नगरी ९१३,९१५ सेणिभ राजा ५४ गा० १७२, सिद्धशिला तीर्थम् ८९३ ५७,५८ सिद्धसेनाचार्य जैनाचार्यः सेयविया नगरी सिद्धिसिला तीर्थम् ८९३ गा० ३१९२ सेलपुर नगरम् ८८३ गा०३१४९-५० सिन्धु जनपदः ३८३,३८४, सोपारय ७७५,८१६,१०७२,१०७३, सोपारक ७०८ गा० २५०६ १०७४ गा० ३९१३, सोमिल मामणः ३५९,१६३७ १४४२,१६८१ गा०६१९६ . सिन्धु नदी ९५७,१४८७ टि० २ सोरिय नगरम् सिन्धुसोवीर जनपदः ९१३,१०७३ गा. सौगत दर्शनी २१०,१३७७ ३९१२ स्कन्दक जैनाचार्यः ९१५,९१६, सिन्धुसौवीर , ३१४,१०७३, १३३५,१४७८ २०७४ क्षम्भनी विद्या ७७३,१२९१ सिव पानम्यन्तरः २५३ टि. १ स्थापत्यापुत्र अष्ठिपुत्रः १६६१,१६६३ सीता देवी स्थूणा जनपद: ९०७,९१३, सुकुमारिका २०७२,२०७३ राजकुमारी १३९७,१३९८, स्थूलभद्रस्वामिन् पूर्वपरस्थविरः १२०,८१५ सुकुमालिया १३९७ गा. ५२५४-५५ हरिकेशबल चण्डालः १४८० जैनाचार्यः हरिवंश बंशः : नगरी हकपद्धतिदेवता देवी हारित शातिविशेषः ९१३ देवः १४८९ हारिय ९१३ गा० ३२६४ सुधर्मस्वामिन् गणपर: ५२३ हासा ज्यन्तरी ७.६ टि०१ सुन्दरी जैनममणी १०३६ गा० ३७३८, १३८९ १६३८ गा०६२०१ हिमवत् गिरिः १९४८ सुभद्रा छिपुत्री १६३३ हिमवंत २४७,१९४८ सुभूमिभाग उचानम् ९१२ टि.३ गा० ६२४७ सुमनोमुख नगरम ३५१ राजकुमार १३७० सुरहा जनपदः ९१३ गा.५१५३,१३०१ सुराष्ट्रा २९८,७१०,१०६९, हेमकूट राजा ११५१ । हेमपुर नगरम् सुवण्णभूमी ७३,७४ | हेमसम्भवा राशी jhullu falli ni ile lilin il suo सुट्टिय सुत्तीवई सुदाढ .. Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४७ १२ द्वादशं परिशिष्टम् बृहत्कल्पसूत्र-तनियुक्ति-भाष्य-वृत्त्याचन्तर्गतानां विशेषनानां विभागाशोऽनुक्रमणिका। [परिशिष्टेऽस्मिन्नस्माभिर्विशेषनानां ये विभागाः स्थापिताः सन्ति तेऽधस्तादुलिख्यन्त इति तत्तद्विभागविक्षुभिस्तत्तद तितो विभागोऽवलोकनीयः] तीर्थकराः १९ बणि-धि-सार्थवाहाः ३७ दीपा क्षेत्राणि च २ जैनगणघर-पूर्वधरस्थविर | सपन्यत्र ३५ जनपदाः आचार्य-उपाध्याय-प्रमण- 20 विद्याधराः ३१ प्राम-नगर-नगरीप्रभूवया श्रमणीप्रभृतयः १४ाह्मणाः ३७ तीर्थस्थानानि १ जैनश्रमणकुलानि १९ स्वर्णकाराः २८ गिरयः ५ वर्शनानि दर्शनिनश्च २० वैद्याः ३९ समुद्राः १० नमः ५ श्रमणविशेषाः २१तकाराः जैननिझवा २२ गोपाः १. सरांसि ७ बौद्धमिक्षवः १२ उचानानि २१ नापितदासः तापस-परिव्राजका. २४ कोलिकाः ५५ भापणाः भृतयः ४५ उत्सवाः २५शौकरिकाः ४५ प्रतिमा: ९ देवजावयः 1२६ चण्डालाः ४६ नाणकानि (सिक्का) ..देव-मसुर-व्यन्तर-वानव्य- |२७ गाला: ४७ यत्राणि तर-व्यन्वरीप्रभृतयः |२८ वंशाः ४८ मेयः . "चक्रवर्ति-वासुदेव-बलदेवाः | २९ ज्ञातयः १९ शिल्पानि १२ राजानो राजकुमारास |३० प्रजाः ५. प्रकरणानि (मेमनानि) ३ राक्ष्यो राजकुमार्य |३१ गणाः ५. भाषा: "मत्रिणोऽमात्यावरपुत्राब ३२ योगा। ५२ लिपयः १५ पुरोहिताः 1३३ विद्या ५५ विषाणि Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ द्वादशं परिशिष्टम् । १ तीर्थकरा: अजितनाथ ऋषभनाथ पार्श्वनाथ महावीर भजितस्वामिन् ऋषभस्वामिन् पार्श्वस्वामिन् मुणिसुम्वय भरिट्टनेमि नेमि मल्लिनाथ वडमाण वर्धमान वीरजिन वीरवर सुव्रतस्वामिन् महागिरि २ जैनगणधर-पूर्वधरस्थविर-आचार्य-उपाध्याय श्रमण-श्रमणीप्रभृतयः अजापालवाचक आर्यसुहस्तिन् कालिकाचार्य चंडरह शसक भजकालग काष्ठ जम्बू मृगापती शैलकाचार्य अजसुहत्यि उदायिनृपमारक कूलवाल जव यथाघोष-1 श्रीयक अन्निकापुत्र ऋषभसेन कूलवालक पादलिप्त श्रुतग्राहक सम्भूत भरहनक ओकुरूद्ध पालित्तग वज्रस्वामिन् सागर अरहमग कपिल केसि पालित्तय वल्कलचीरिन् सिद्धसेनाचार्य भवम्तीसुकुमार कर क्षुल्लककुमार पालित्तायरिय वारत्तक सुट्टिय आर्द्रकुमार कविल खंदय पुष्यभूति वारत्तग सुभमस्वामिन् भायखपुट कालक गजसुकुमार पुस्सभूति सुन्दरी मार्यचन्दमा कालकज गौतम पुस्समित्त विष्णुकुमार स्कन्दक आर्यमहागिरि कालकाचार्य गौतमस्वामिन् प्रभव वैरस्वामिन् स्थूलभद्रस्वामिन् भार्यवन कालगज . धण्डरुन पाही शव्यम्भव विण्हु ३ जैनश्रमणकुलानि चन्द्र नागेन्द्र - आजीवक आईत कणाद कपिल ४ दर्शनानि दर्शनिनश्च क्षणिकवादिन् तच्च निक मीमांसक तच्चशिक रक्तपटदर्शन चरकचीरिन् तचमिय वैशेषिक जैन बोटिक शाक्य श्वेताम्बर सालय. सौगत ५श्रमणविशेषाः चक्रधर परिव्राजक कर्मकारभिक्षु कार्पटिक पाण्डुसङ्ग ६ जैननिर्वाः जमालि गोष्ठामाहिल रोहगुप्त ७ बौद्ध भिक्षवः काकोदाइ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशं परिशिष्टम् । १४९ - उडंक नारद ८ तापस-परिव्राजकमभृतयः नारय फलाहाररिसि वल्कलचीरिन पोहसाल रोहा ९ देवजातयः भग्निकुमार भरिंगकुमार नागकुमार इसिवाल सीता इंद १० देव-असुर-व्यन्तर-वानव्यन्तर-व्यन्तरीप्रभृतयः कंबल कुण्डलमैत घण्टिकयक्ष रखदेवता कुण्डलमेण्ठ कोडलमेंट चमर शिव कुण्डलमेत गौरी प्रहासा सबल कुण्डलमेंत गान्धारी भंडीर सिव सुदान ऋषिपाल कम्बल हकपद्धतिदेवता हासा कण्ड कृष्ण भरत ११ चक्रवर्ति-वासुदेव-बलदेवाः बंभदत्त वासुदेव ब्रह्मदत्त भरह जनार्दन नारायण पुष्पकेतु शक अणंग अणंध अनिल अभय अभयसेण अशोकश्रि असोकसिरि करकण्णु कुणाल खंदय गहभ गर्दभ चण्डप्रयोत चन्द्रगुप्त १२ राजानो राजकुमाराश्च जियसन्तु णमसेण पुष्पचूल शतानीक दसार प्रद्योत शम्ब बाहुबलिन् शसक धणदेव बिन्दुसार शातवाहन नरवाहण भसक श्रेणिक नहवाहण भसय सम्प्रति (१० ५२ टि०३) पजुन्न भिसक पजोय भिसय सयाणि ससभ पुप्फचूल यव संपति संब सागरचंद सातवाहन साताहण सायवाहण सालवाहण चंदगुत्त सालिवाहण सेणि असोग असोगसिरि उदायन कपिल जराकुमार जितशत्रु जितारि पुष्फकेट मुरुण्ड संपद अडोलिका चेल्लणा अडोलिया जयन्ती अडोलीया जंबवती कमलामेला धारिणी १३ राश्यो राजकुमार्यश्च पद्मावती पुष्पचूला पुप्फचूला पुष्पवती पुप्फवई मरुदेवा पुरंदरजसा यशोभद्रा य विसस्था सुकुमारिका सुकुमालिया हेमसम्भवा Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० द्वादशं परिशिष्टम् । १४ मत्रिणोऽमात्यास्तत्पुत्राश्च चाणक दीहपट्ट वरघणुग दीर्घपृष्ठ वरधनु अभय वरभ खरग धनु १५ पुरोहिताः पालक पालय काष्ठ किति घटिकावोद्र १६ वणिक्-श्रेष्ठि-सार्थवाहाः तत्पत्नयश्च चिलातीसुत हदमित्र शालिभद्र सुभद्रा जिनदास धनमित्र सागरदत्त स्थापध्यापुत्र थावसुत वजा सालिमद्द १७ विद्याधरा: सह सत्याकन १८ ब्राह्मणाः सोमिल १९ स्वर्णकाराः अनङ्गसेन कुमारनन्दिन् २० वैद्याः धन्वन्तरि भणंगसेण २१ द्यूतकाराः २२.गोपाः नन्द २३ नापितदास्यः धनिका धमाग धनिय २५ शौकरिकाः - २४ कोलिकाः खल्लाड खल्लाडग २६ चण्डाला: हरिकेशवल खल्वाट काल २७ गाला: खसहुम खसम २८ वंशाः मुरिय इक्खाग मोरिय - वण्डि कोरब्व कौरव क्षत्रिय खत्तिय णात नाग मौर्य वृष्णि भोग राइण्ण हरिवंश २९ शातयः विदक विदेह वैदेह हारिम तुन्तुण बोधिक बट्ट ककंद डोम्बी हारित Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० प्रजाः ३१ गणाः पाण्ड ३३ विद्याः आभोगिनी पन्नत्ति मोहनी थंभणी मोहणी स्तम्भनी कासी कुडुक कुणाला कुरुक्षेत्र अंगमगह कुरुखेत्त अङ्गमगध अङ्गा अन्ध्र अवंती उत्तरापथ कुसह उत्तरापह कुंकण उत्तरावह के अद्ध कोण कोसला कोंकणग कच्छ कर्णाट कलिंग मल सारस्वत अच्छ अयोध्या भवंति अहिछत्ता अंधपुर आणंदपुर आनन्दपुर कुंभारकक्खड जमिनी कुंभारकड उज्जेणी कोडिवरिस उत्तरमथुरा कोशला कंची कंपिल कावी उत्तर महरा कोसंबी कंचनपुर कोंडलमिंढ कौशाम्बी गयपुर गोब्बर गोल गौड चीन चेदि कुणाला कुम्भकारकृत कुसुमनगर ज्ञातखण्ड णायसंड कुसुमपुर कुंभकारकक्खड तामलित्ति कुंभकारकड ताम्रलिप्सी तुरमिणि तोसलि डिम्भरेलक तेमाल तोसलि धूणा दक्खिणावह दक्षिणापथ दमिल उत्तराध्ययन कप्पियाकप्पिय निशीथ गोबर चम्पा द्वादशं परिशिष्टम् । ३२ योगाः कल्पिarकल्पिक निसीह दक्खिण महुरा दक्षिणमथुरा दन्तपुर दीव द्वारिका द्वीप धर्मचक्र ३५ जनपदाः दसन्न द्रमिल द्रविड नेपाल नेमाल पश्चिम देश पंचाला प्राण्डुमथुराः पारस पारसीक पूर्वदेश अनुभरह पञ्चशील पञ्चसेल काननद्वीप पञ्चशैल भरत ३६ ग्राम-नगर-नगरीप्रभृतयः नन्दपुर नन्दिपुर पट्ठाण पतिट्ठाण पभास पाटलिपुत्र पाटलिपुत्रक प्रज्ञप्ति महाकप्पसुय पनत्ति भगवती व्याख्याप्रज्ञप्ति ३४ द्वीपा क्षेत्राणि च पाडल पाडलि पावा पुप्फपुर भंगी भिल्लमाल मगध मगधा मगह मधुरा मरहट्ट मरु मलय महरट्ठ महाराष्ट्र पुरुषपुर पुष्पपुर पोतण मालव लाट लाड लाढा वच्छ वच्छा १५१ धर्मचक्रभूमिका पुरिमताल मधुरापुरी वेराड पुरिसपुर मधुरा शैलपुर महुरा श्रावस्ती मासपुरी साएतग मिहिला साएय पोतनपुर राजगृह साकेत प्रभास रायगह सावस्थी प्राचीनवाह वदिस सिद्धशिला बारवई वच्छ सुत्तीवई वणवासी सुमनोमुख भद्दिलपुर पाडलिपुत्त भरुंअच्छ भरुकच्छ वरण सेयविया पादीणवाह घाणारसी सेलपुर पायीणवाह भरुयच्छ वारत्तगपुर सोपारक वीतभय सोरिय भृगुकच्छ मत्तियावई वीयभय हेमपुर भरह लद्वीप संडिब्भ सिन्धु सिन्धुसो वीर सिन्धुसौवीर सुरट्ठा सुराष्ट्रा सुत्रण भूमी चट्ट वंगा विदर्भ विदेह वेराड स्थूणा सुवन सुवर्णभूमी सूरसेण Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ द्वादशं परिशिष्टम् । ३८ गिरयः भट्ठावय इंदपद अम्बुय उजयन्त उजित अष्टापद गजानपद इन्द्रपद ३७ तीर्थस्थानानि ज्ञातखण्ड पादीणवाह णायसंड पायीणवाह धर्मचक्र प्रभास धर्मचक्रभूमिका प्राचीनवाह पभास सिद्धशिला ३९ समुद्राः सयंभूरमण अर्बुद रखोच्चय रयणुच्चय सम्मेत हिमवत् हिमवंत मेरु ४० नद्यः महिरावण एरवई ऐरावती कोशिका कोसिआ गङ्गा गोदावरी गौयावरी जउणा बन्नासा सरऊ सरयू सरस्वती सरस्सती सिन्धु मही यमुना ४१ तडाग-सरांसि ४२ उद्यानानि ४३ आपणा: ४४ उत्सवाः इसितलाग कामियसर रेवय कुत्तिय आवाह तडागमह इसीतलाग भूततडाग सभूमिभाग कुत्रिकापण इन्द्रमह थूभमह ऋषितडाग भूयतलाग सुभूमिभाग इंदमह नदीमह पर्वतमह विवाह शक्रमह ४५ प्रतिमाः जीवन्तस्वामि. प्रतिमा ४६ नाणकानि (सिक्ककाः) काकिणी केवडिय गम्म केतर णेलअ नेलक केवडिक दीनार - साभरक ४७ यन्त्राणि आवर्तनपीठिका कोल्हुक चचुइयारक वर्तनपीठिका चक्र ४८ मेर्यः अशिवोपशमनी कौमुदिकी असिवोवसमणी दुग्भुतिया कोमुइया दुभूतिका सङ्ग्रामिकी संगामिया ४९ शिल्पानि तन्तुवाय तुण्णाक ५० प्रकरणानि गिरिजन्न गिरियज्ञ ५१ भाषा: अर्धमागधी ५२ लिपयः पुष्करसारी ५३ विषाणि सहसाणुवादि सहस्रानुपातिन् Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૬૨ પ્રાથન. બૃહકલ્પસૂત્ર એ જૈન સાધુ-સાવીઓના આચારવિષયક વિધિ-નિષેધ અને ઉત્સર્ગ–અપવાદોનું નિરૂપણ કરતા એક મહાકાય આધારભૂત ગ્રંથ છે. એને વિષય જ એ છે કે એમાં અનેક સમકાલીન તેમ જ ભૂતકાલીન ઐતિહાસિક ઘટનાઓ, ભારતવર્ષના વિવિધ પ્રદેશનાં સીધાં કે આડકતરાં વર્ણને, સાધુસાધ્વીઓના નિત્યજીવન સાથે સંબંધ ધરાવતી અનેક વસ્તુઓના વિસ્તૃત ઉલ્લેખે, તત્કાલીન ધાર્મિક, સામાજિક સંસ્થાઓ અને ઉત્સ, અર્ધ-એતિહાસિક લેકકથાઓ તથા બીજી પણ વિવિધ પ્રકારની વિપ્રકીર્ણ માહિતીઓને યથાપ્રસંગ સમાવેશ કરવામાં આવ્યા છે. આ પ્રાચીન આધારભૂત ગ્રંથમાંથી મળતી કેટલીક સામગ્રી પુરાવિદ્દ, ઈતિહાસકાર તેમ જ સમાજશાસ્ત્રીને માટે ઘણું મહત્ત્વની હોઈ એ સર્વને વિષયવાર વ્યવસ્થિત કરી અને મૂળ ગ્રંથના તેરમા પરિશિષ્ટરૂપે આપી છે. એ ઉપગી અંશને વિદ્વાનોની સરળતા ખાતર જુદી પુસ્તિકા રૂપમાં પણ પ્રસિદ્ધ કરવામાં આવે છે. હવે આપણે પ્રસ્તુત પુસ્તિકામાંનાં થોડાંક ઉદાહરણો જોઈએ તે– (૧) પાદલિપ્તાચાર્યે રાજાની બહેનના જેવી યંત્રપ્રતિમા બનાવી હતી, જે જોઈને રાજા પોતે પણ બ્રાન્તિમાં પડી ગયો હતો (પૃ. ૧૨). પ્રાચીન ભારતમાં અનેક પ્રકારનાં યત્રવિધાને થતાં, એમ બીજાં સાધને ઉપરથી પણ આપણને જાણવા મળે છે. (૨) નગરના કિલ્લાઓ અનેક પ્રકારના હોય છે. જેમ કે દ્વારિકામાં છે તે પાષાણમય, આનંદપુરમાં છે તે ઇટ, સુમને મુખનગરમાં છે તે માટીને. આ ઉપરાંત કેટલાંક નગરોને લાકડાના પ્રકાર હોય છે. કેટલાંક ગામની આજુબાજુ કાંટાની વાડ પણ પ્રકારની ગરજ સારે છે. (પૃ. ૨૦-૨૧) (૩) લાટ જેવા કેટલાક દેશોમાં વરસાદના પાણીથી અનાજ નીપજે છે, સિન્ધમાં નદીના પાણીથી, દ્રવિડ દેશમાં તળાવના પાણીથી તથા ઉત્તરાપથમાં કૂવાના પાણીથી ધાન્ય થાય છે. બનાસ નદીના અતિપૂરથી જ્યારે ખેતરે રચી જાય છે ત્યારે Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ ઘાદથR. તેમાં ધાન્ય વવાય છે. ડિભરેલક પ્રદેશમાં પણ અહિરાવણ નદીમાં પૂર આવ્યા પછી એમ જ કરવામાં આવે છે. (પૃ. ૨૦ ). (૪) પશ્ચિમ દિશામાં રહેનારા પ્લે ફણસને તથા પાંડ્યો-પાંડુમથુરાના રહેવાસીઓ સકતુને જાણતા નથી, કારણ કે એ વસ્તુઓ તેમને અપરિચિત છે. (પૃ. ૨૭). (૫) તસલિ દેશમાં અષિતડાગ નામના સરોવર આગળ દરવર્ષે અષ્ટહિકામહોત્સવ થાય છે તથા કુંડલમેંઠ નામના વાનમંતરની યાત્રામાં ભરુચ આજુબાજુના લેકે ઉજાણ કરે છે. પ્રભાસમાં તથા અબુંદ તીર્થમાં યાત્રામાં લેકો ઉજાણી કરે છે. પ્રાચીનવાહી સરસ્વતીને પ્રવાહ છે ત્યાં આગળ જઈને આનંદપુરના લેકે શરદઋતુમાં ઉજાણી કરે છે. (પૃ. ૩૪-૩૫). (૬) “કુત્રિકાપણ” એટલે સ્વગ –મર્ય–પાતાલ ત્રણે લેકમાં મળતી સર્વ વસ્તુઓ જેમાં વેચાતી હોય એવી દુકાન (સરખા અત્યારના Departmental stores). એમાં પ્રત્યેક વસ્તુનું મૂલ્ય તે ખરીદનારના સામાજિક દરજજા પ્રમાણે હોય છે. દાખલા તરીકે કુત્રિકાપણમાંની કોઈ ચીજનું મૂલ્ય સામાન્ય માણસ માટે પાંચ રૂપિયા હોય, તે શાહુકારો માટે અને સાર્થવાહ જેવા મધ્યમ વર્ગના પુરુષ માટે હજાર રૂપિયા હોય અને ચક્રવર્તી માંડલિક આદિ ઉત્તમ દરજજાના પુરુષ માટે એક લાખ રૂપિયા હોય. પ્રાચીન કાળમાં ઉજ્જયિની તથા રાજગૃહમાં આવાં કુત્રિકપણે હતાં. (પૃ. ૩૫-૩૬-૩૭.). (૭) મહારાષ્ટ્ર દેશમાં દારૂની દુકાન ઉપર નિશાની તરીકે ધજા બાંધવામાં આવતી. (પૃ. ૩૭ ). (૮) દક્ષિણાપથમાં કાકિણી એ ત્રાંબાનાણું છે. ભિલ્લમાલમાં દ્રશ્ન એ રૂપાનાણું છે. પૂર્વ દેશમાં દીનાર એ સોનાનાણું છે. (૯) સૌરાષ્ટ્રની દક્ષિણે સમુદ્રમાં આવેલ “દ્વિીપ (દીવ બંદર)ના બે રૂપિયા ઉત્તરાપથના એક રૂપિયા બરાબર થાય છે. અને ઉત્તરાપથના બે રૂપિયા બરાબર પાટલિપુત્રને એક રૂપિયે થાય છે. દક્ષિણાપથના બે રૂપિયા દ્રવિડ દેશમાં આવેલા કાંચી નગરના એક રૂપિયા–નેલક બરાબર થાય છે, જ્યારે કાંચીના બે રૂપિયા પાટલિપુત્રના એક રૂપિયા બરાબર થાય છે. (પૃ. ૩૮). આ વિશાળ ગ્રંથમાંના ઉલેખે પૈકીનાં આ શેડાંક ઉદાહરણે માત્ર વાનગીરૂપે જ જણાવ્યાં છે. પ્રસ્તુત પુસ્તિકામાં વિષયવાર ગોઠવેલા ઉલ્લેખમાંથી અભ્યાસી વાચક પિતાની વિશિષ્ટ દષ્ટિએ જોઈતી વસ્તુ શોધી લે એવી અમારી વિનંતી છે. મુનિ પુણ્યવિજ્ય. Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५५ त्रयोदशं परिशिष्टम् वृहत्कल्पसूत्र-तनियुक्ति-भाष्य-टीकादिगताः पुरातत्त्वविदा मुपयोगिनो विभागशो विविधा उल्लेखाः। [१ वृत्तिकृतोर्मङ्गलादि] (१) श्रीमलयगिरिमरिकृतं मङ्गलमुपोद्घातग्रन्थश्च प्रकटीकृतनिःश्रेयसपदहेतुस्थविरकल्प-जिनकल्पम् । नम्राशेषनरा-ऽमरकल्पितफलकल्पतरुकल्पम् ॥१॥ नवा श्रीवीरजिनं, गुरुपदकमलानि बोधविपुलानि । कल्पाध्ययनं विवृणोमि लेशतो गुरुनियोगेन ॥ २॥ भाष्यं क्व चाऽतिगम्भीरं ?, क्व चाऽहं जडशेखरः ? । तदत्र जानते पूज्या, ये मामेवं नियुञ्जते ॥ ३ ॥ अद्भुतगुणरत्ननिधौ, कल्पे साहायकं महातेजाः । दीप इव तमसि कुरुते, जयति यतीशः स चूर्णिकृत् ॥ ४ ॥ विभागः १ पत्रम् १ अथ कः सूत्रमकार्षीत् ? को वा नियुक्तिम् ? को वा भाष्यम् ? इति, उच्यते-इह पूर्वेषु यद् नवमं प्रत्याख्याननामकं पूर्व तस्य यत् तृतीयमाचाराख्यं वस्तु तस्मिन् विंशतितमे प्राभृते मूलगुणेषत्तरगुणेषु चापराधेषु दशविधमालोचनादिकं प्रायश्चित्तमुपवर्णितम् , कालक्रमेण च दुःषमानुभावतो धृति-बलवीर्य-बुद्ध्या-ऽऽयुःप्रभृतिषु परिहीयमानेषु पूर्वाणि दुरवगाहानि जातानि, ततो 'मा भूत् प्रायश्चित्तव्यवच्छेदः' इति साधूनामनुग्रहाय चतुर्दशपूर्वधरेण भगवता भद्रबाहुस्वामिना कल्पसूत्रं व्यवहारसूत्रं चाकारि, उभयोरपि च सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिः । इमे अपि च कल्प-व्यवहारसूत्रे सनियुक्तिके अल्पग्रन्थतया महार्थत्वेन च दुःषमानुभावतो हीयमानमेधा-ऽऽयुरादिगुणानामिदानीन्तनजन्तूनामल्पशक्तीना दुर्घहे दुरवधारे जाते, ततः सुखग्रहण-धारणाय भाष्यकारो भाष्यं कृतवान् , तच्च सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्यनुगतमिति सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिर्भाष्यं चैको ग्रन्थो जातः । विभागः १ पत्रम् २ (२) श्रीक्षेमकीर्तिमूरिकृतं मङ्गलमुपोद्घातग्रन्थश्च नतमघवमौलिमण्डलमणिमुकुटमयूखधौतपदकमलम् । सर्वज्ञममृतवाचं, श्रीवीरं नौमि जिनराजम् ॥ १॥ चरमचतुर्दशपूर्वी, कृतपूर्वी कल्पनामकाध्ययनम् । सुविहितहितकरसिको, जयति श्रीभद्रबाहुगुरुः ॥२॥ कल्पेऽनल्पमनर्घ, प्रतिपदमर्पयति योऽर्थनिकुरुम्बम् । श्रीसङ्घदासगणये, चिन्तामणये नमस्तस्मै ॥ ३ ॥ शिवपदपुरपथकल्पं, कल्पं विषममपि दुःषमारात्रौ । सुगमीकरोति यञ्चूर्णिदीपिका स जयति यतीन्द्रः ॥ ४ ॥ आगमदुर्गमपदसंशयादितापो विलीयते विदुषाम् । यद्वचनचन्दनरसैमलयगिरिः स जयति यथार्थः ॥ ५ ॥ श्रुतलोचनमुपनीय, व्यपनीय ममापि जडिमजन्मान्ध्यम् । यैरदर्शि विवमार्गः, खगुरूनपि तानहं वन्दे ॥६॥ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशं परिशिष्टम् ऋजुपदपद्धतिरचनां, बालशिरः शेखरोऽप्यहं कुर्वे । यस्याः प्रसादवशतः श्रुतदेवी साऽस्तु मे वरदा ॥ ७ ॥ श्रीमलयगिरिप्रभवो यां कर्त्तुमुपाक्रमन्त मतिमन्तः । सा कल्पशास्त्रटीका, मयाऽनुसन्धीयतेऽल्पधिया ॥ ८ ॥ १५६ इह श्रीमदावश्यकादिसिद्धान्तप्रतिबद्ध निर्युक्तिशास्त्रसंसूत्रणसूत्रधारः परोपकारकरणैकदीक्षादीक्षितः सुगृहीतनामधेयः श्रीभद्रबाहुस्वामी सकर्णकर्णपुटपीयमानपीयूषायमाणललितपदकलितपेशलालापकं साधु-साध्वीगतकल्प्या-ऽकल्प्यपदार्थसार्थविधि प्रतिषेधप्ररूपकं यथायोगमुत्सर्गा ऽपवादपदपदवी सूत्रकवचनरचनागर्भं परस्परमनुस्यूताभिसम्बन्धबन्धुरपूर्वापरसूत्रसन्दर्भ प्रत्याख्यानाख्यनवमपूर्वान्तर्गताऽऽचार नाम कतृतीयवस्तुरहस्यनिष्यन्दकल्पं कल्पनामधेयमध्ययनं निर्युक्तियुक्तं निर्यूढवान् । अस्य च स्वल्पग्रन्थमहार्थतया प्रतिसमयमपसर्पदवसर्पिणीपरिणतिपरिहीयमानमति मेधा धारणादिगुणग्रामाणामैदंयुगीनसाधूनां दुरवबोधतया च सकलत्रिलोकीसुभगङ्करणक्षमाश्रमणनामधेयाभिधेयैः श्री सङ्घदासगणि पूज्यैः प्रतिपदप्रकटितसर्वज्ञाज्ञाविराधनासमुद्भूतप्रभूतप्रत्यपायजालं निपुणचरण-करणपरिपालनोपायगोचरविचारवाचालं सर्वथादूषणकरणेनाप्यदूष्यं भाष्यं विरचयाच्च । इदमप्यतिगम्भीरतया मन्दमेधसां दुरवगममवगम्य यद्यप्यनुपकृतपरोपकृतिकृता चूर्णिकृता चूर्णि सूत्रिता तथापि सा निबिडजडिमजम्बालजालजटालानामस्मादृशां जन्तूनां न तथाविधमवबोधनिबन्धनमुपजायत इति परिभाव्य शब्दानुशासनादिविश्वविद्यामयज्योतिःपुञ्जपरमाणुघटितमूर्त्तिभिः श्री मलयगिरिमुनीन्द्रर्षिपादैर्विवरणकरणमुपचक्रमे । तदपि कुतोऽपि हेतोरिदानीं परिपूर्ण नावलोक्यत इति परिभाव्य मन्दमतिमौलिमणिनाऽपि मया गुरूपदेशं निश्रीकृत्य श्रीमलयगिरिविरचित विवरणादू विवरीतुमारभ्यते । विभागः ९ पत्रम् १७७-७८ [२] वृत्तिप्रान्तगता वृत्तिकृतः श्रीक्षेमकीर्त्तः प्रशस्तिः ] सौवर्णा विविधार्थरत्नकलिता एते षडुद्देशकाः, श्री कल्पेऽर्थनिधौ मताः सुकलशा दौर्गत्यदुःखापहे । दृष्ट्वा चूर्णि सुबीजकाक्षरततिं कुश्याऽथ गुर्वाज्ञया, खानं खानममी मया ख- परयोरर्थे स्फुटार्थीकृताः ॥ १ ॥ श्री कल्पसूत्रममृतं विबुधोपयोगयोग्यं जरा-मरणदारुणदुःखहारि । येनोद्धृतं मतिमथा मथिताच्छ्रुतान्धेः, श्रीभद्रबाहुगुरवे प्रणतोऽस्मि तस्मै ॥ २ ॥ येनेदं कल्पसूत्रं कमलमुकुलवत् कोमलं मञ्जुलाभिगोभिर्दोषापहाभिः स्फुटविषयविभागस्य सन्दर्शिकाभिः । उत्फुल्लोद्देशपत्रं सुरसपरिमलोद्वारसारं वितेने, तं निःसम्बन्धबन्धुं नुत मुनिमधुपाः ! भास्करं भाष्यकारम् ॥ ३ ॥ श्री कल्पाध्ययनेऽस्मिन्न तिगम्भीरार्थ भाष्य परिकलिते । विषमपदविवरणकृते, श्रीन्चूर्णिकृते नमः कृतिने ॥ ४ ॥ श्रुतदेवताप्रसादादिदमध्ययनं विवृण्वता कुशलम् । यदवापि मया तेन प्राप्नुयां बोधिमहममलाम् ॥ ५ ॥ गम-नयगभीरनीरश्वित्रोत्सर्गा ऽपवादवादोर्भिः । युक्ति शतरनरम्यो, जैनागमजल निधिर्जयति ॥ ६ ॥ श्री जैनशासननभस्तलतिग्मरश्मिः, श्रीसद्मचान्द्र कुलपद्मविकाशकारी । स्वज्योतिरात दिगम्बर डम्बरोऽभूत्, श्रीमान् धनेश्वरगुरुः प्रथितः पृथिव्याम् ॥ ७ ॥ श्रीमच्चैत्र पुरैकमण्डनमहावीर प्रतिष्ठाकृतस्तस्माच्चैत्रपुर प्रबोधतरणेः श्रीचैत्रगच्छोऽजनि । तत्र श्रीभुवनेन्द्रसूरिगुरुर्भूभूषणं भासुरज्योतिः सद्गुणरत्न रोहणगिरिः कालक्रमेणाभवत् ॥ ८ ॥ तत्पादाम्बुजमण्डनं समभवत् पक्षद्वयीशुद्धिमान्, नीर-क्षीरसदृक्ष दूषण- गुणत्याग - ग्रह कत्रतः । कालुष्यं च जडोद्भवं परिहरन् दूरेण सन्मानसस्थायी राजमरालवद् गणिवरः श्रीदेवभद्रप्रभुः ॥ ९ ॥ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशं परिशिष्ठम् १५७ शस्याः शिष्यास्त्रयस्तत्पदसरसिरहोत्सङ्गशृङ्गारभृङ्गा, विध्वस्तानङ्गसजा सुविहितविहितोत्तुगरणा बभूवुः । तत्रायः सच्चरित्रानुमतिकृतमतिः श्रीजगञ्चन्द्रसूरिः, श्रीमद्देवेन्द्रसूरिः सरलतरलसचित्तवृत्तिर्द्वितीयः ॥ १० ॥ तृतीयशिष्याः श्रुतवारिवार्धयः, परीषहाक्षोभ्यमनःसमाधयः । जयन्ति पूज्या विजयेन्दुसूरयः, परोपकारादिगुणौधभूरयः ॥ ११॥ प्रौढं मन्मथपार्थिवं त्रिजगतीजैत्रं विजित्यैयुषां, येषां जैनपुरे परेण महसा प्रक्रान्तकान्तोत्सवे । स्थैर्य मेरुरगाधतां च जलधिः सर्वसहवं मही, सोमः सौम्यमहपतिः किल महत्तेजोऽकृत प्राभृतम् ॥ १२ ॥ वापं वापं प्रवचनवचोबीजराजी विनेयक्षेत्रवाते सुपरिमलिते शब्दशास्त्रादिसारैः । यैः क्षेत्रज्ञैः शुचिगुरुजनानायवाक्सारणीभिः, सिक्वा तेने सुजनहृदयानन्दि सज्ज्ञानसस्यम् ॥ १३ ॥ यैरप्रमत्तैः शुभमन्त्रजापैतालमाधाय कलिं खवश्यम् । अतुल्यकल्याणमयोत्तमार्थसत्पुरुषः सत्त्वधनैरसाधि ॥ १४ ॥ किं बहुना? ज्योत्स्नामञ्जलया यया धवलितं विश्वम्भरामण्डलं, या निःशेषविशेषविज्ञजनताचेतश्चमत्कारिणी। तस्याः श्रीविजयेन्दुसूरिसुगुरोर्निष्कृत्रिमाया गुण श्रेणेः स्याद् यदि वास्तवस्तवकृतौ विज्ञः स वाचांपतिः ॥ १५॥ तत्पाणिपङ्कजरजःपरिपूतशीर्षाः, शिष्यास्त्रयो दधति सम्प्रति गच्छभारम् । श्रीवज्रसेन इति सद्गुरुरादिमोऽत्र, श्रीपद्मचन्द्रमुगुरुस्तु ततो द्वितीयः ॥ १६॥ तातीयीकस्तेषां, विनेयपरमाणुरनणुशास्त्रेऽस्मिन् । श्रीक्षेमकीर्तिसूरिर्विनिर्ममे विवृतिमल्पमतिः ॥ १७ ॥ श्रीविक्रमतः कामति, नयनाग्निगुणेन्दुपरिमिते १३३२ वर्षे । ज्येष्ठश्वेतदशम्यां, समर्थितैषा च हस्तार्के॥१८॥ प्रथमादर्श लिखिता, नयप्रभप्रभृतिभिर्यतिभिरेषा । गुरुतरगुरुभक्तिभरोद्वहनादिव नम्रितशिरोभिः ॥ १९ ॥ इह च--सूत्रादर्शेषु यतो, भूयस्यो वाचना विलोक्यन्ते। विषमाश्च भाष्यगाथाः, प्रायः स्वल्पाश्च चूर्णिगिरः ॥ २० ॥ ततः-सूत्रे वा भाष्ये वा, यन्मतिमोहान्मयाऽन्यथा किमपि। लिखितं वा विवृतं वा, तन्मिथ्या दुष्कृतं भूयात् ॥ २१ ॥ विभागः ६ पत्रम् १७१०-१२ [३ जैनशासनम् ] जं इच्छसि अप्पणतो, जं च ण इच्छसि अप्पणतो। तं इच्छ परस्स वि या, एत्तियगं जिणसासणयं ॥ ४५८४ ॥ विभागः ४ पत्रम् १२३७ [ ४ जैनचैत्य-धर्मचक्र-स्तूपादि] (१) साधर्मिक-मङ्गल-शाश्वत-भक्तिचैत्यानि साहम्मियाण अट्टा, चउब्धिहे लिंगओ जह कुटुंबी। मंगल-सासय-भत्तीइ जं कयं तत्थ आदेसो ॥ १७७४ ॥ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ त्रयोदशं परिशिष्टम् चैत्यानि चतुर्विधानि, तद्यथा-साधर्मिकचैत्यानि मङ्गलचैत्यानि शाश्वतचैत्यानि भक्ति. चैत्यानि चेति । तत्र सार्मिकाणामर्थाय यत् कृतं तत् साधर्मिकचैत्यम् । साधर्मिकश्चात्र द्विधा-लिङ्गतः प्रवचनतश्च । तत्रेह लिङ्गनो गृह्यते । स च यथा कुटुम्बी, कुटुम्बी नाम-प्रभूतपरिचारकलोकपरियुतो रजोहरणमुखपोतिकादिलिङ्गधारी वारत्तकप्रतिच्छन्दः । तथा मथुरापुर्या गृहेषु कृतेषु मङ्गलनिमित्तं यद् निवेश्यते तद् मङ्गलचैत्यम् । सुरलोकादौ निवस्थायि शाश्वतचैत्यम् । यत्तु भक्त्या मनुष्यैः पूजा-वन्दनाद्यर्थ कृतं कारितमित्यर्थः तद् भक्तिचैत्यम् । 'तेन च' भक्तिचैत्येन 'आदेशः' अधिकारः, अनुयानादिमहोत्सवस्य तत्रैव सम्भवादिति । एषा नियुक्तिगाथा ॥ १७७४ ॥ अथैनामेव बिभावयिषुः साधर्मिकचैत्यं तावदाह वारत्तगस्स पुत्तो, पडिम कासी य चेइयहरम्मि ।। तत्थ य थली अहेसी, साहम्मियचेइयं तं तु ॥ १७७५ ॥ इहाऽऽवश्यके योगसङ्ग्रहेषु "वारत्तपुरे अभयसेण वारत्ते” (नि० गा० १३०३ पत्र ७०९) इत्यत्र प्रदेशे प्रतिपादितचरितो यो वारत्तक इति नाना महर्षिः, तस्य पुत्रः स्वपितरि भक्तिभरापूरिततया चैत्यगृहं कारयित्वा तत्र रजोहरण-मुखवस्त्रिका-प्रतिग्रहधारिणी पितुः प्रतिमामस्थापयत् । तत्र च 'स्थली' सत्रशाला तेन प्रवर्तिता आसीत् , तदेतत् साधर्मिकचैत्यम् । अस्य च साधर्मिकचैत्यस्यार्थाय कृतमस्माकं कल्पते ॥ १७७५ ॥ अथ मङ्गलचैत्यमाह अरहंत पइट्टाए, महुरानयरीए मंगलाई तु । गेहेसु चचरेसु य, छन्नउईगामअद्धेसु ॥ १७७६ ॥ मथुरानगर्यो गृहे कृते मङ्गलनिमित्तमुत्तरङ्गेषु प्रथममहत्प्रतिमाः प्रतिष्ठाप्यन्ते, अन्यथा तद् गृहं पतति, तानि मङ्गलचैत्यानि । तानि च तस्यां नगर्यां गेहेषु चत्वरेषु च भवन्ति । न केवलं तस्यामेव किन्तु तत्पुरीप्रतिबद्धा ये षण्णवतिसयाका ग्रामार्दास्तेष्वपि भवन्ति । इहोत्तरापथानां ग्रामस्य प्रामार्द्ध इति संज्ञा । आह च चूर्णिकृत्-गामद्धेसु त्ति देसभणिती, छन्नउइगामेसु त्ति भणियं होइ, उत्तरावहाणं एसा भणिइ त्ति ॥ १७७६ ॥ शाश्वतचैत्य-भक्तिचैत्यानि दर्शयति निइयाई सुरलोए, भत्तिकयाइं तु भरहमाई हिं । निस्सा-ऽनिस्सकयाई, जहिं आएसो चयसु निस्सं ॥ १७७७ ॥ 'नित्यानि' शाश्वतचैत्यानि 'सुरलोके' भवनपति-व्यन्तर-ज्योतिष्क वैमानिकदेवानां भवन-नगर-विमानेषु, उपलक्षणवाद् मेरु शिखर-वैताढ्यादिकूट-नन्दीश्वर-रुचकवरादिष्वपि भवन्तीति । तथा भक्त्या भरतादिभिर्यानि कारितानि अन्तर्भूतण्यर्थत्वाद् भक्तिकृतानि । अत्र च 'जहिं आएसो' ति येन भक्तिचैत्येन 'आदेशः प्रकृतम् तद् द्विधा-निश्राकृतमनिश्राकृतं च । निश्राकृतं नाम-गच्छप्रतिबद्धम्, अनिश्राकृतंतद्विपरीतम् सहसाधारणमित्यर्थः । “चयसु निस्सं" ति यद् निश्राकृतं तत् 'त्यज' परिहर । अनिश्राकृतं तु कल्पते ॥ १७७७ ॥ विभागः२ पत्रम् ५२३-२४ (२) धर्मचक्रम् चके थूभाइता इतरे ॥ ५८२४ ॥ ये पुनरुत्तरापथे धर्मचक्रं मथुरायां देवनिर्मितस्तूप आदिशब्दात् कोशलायां जीवन्त. स्वामिप्रतिमा तीर्थकृतां वा जन्मादिभूमय एवमादिदर्शनार्थ द्रवन्तो निष्कारणिकाः ॥ ५८२४ ॥ विभागः ५ पत्रम् १५३६ (३) स्तूप: थूभमह सवि-समणी०॥ ६२७५॥ महुरानयरीए थूभो देवनिम्मितो। विभागः ६ पत्रम् १६५६ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशं परिशिष्टम् १५९ (४) जीवन्तस्वामिप्रतिमाः चैयानि 'पूर्वाणि वा' चिरन्तनानि जीवन्तखामिप्रतिमादीनि 'अभिनवानि वा' तत्कालकृतानि, 'एतानि ममादृष्टपूर्वाणि' इति वुद्ध्या तेषां वन्दनाय गच्छति ॥ २७५३ ॥ विभागः ३ पत्रम् ७७६ जीवन्तस्वामिप्रतिमावन्दनार्थमुज्जयिन्यामार्यसुहस्तिन आगमनम् । तत्र च रथयात्रायां राजाह्मणप्रदेशे रथपुरतः स्थितानार्यसुहस्तिगुरून् दृष्ट्वा नृपतेातिस्मरणम् । विभागः ३ पत्रम् ९१८ कोशलायां जीवन्तस्वामिप्रतिमा विभागः ५ पत्रम् १५३६ [५ जैनस्थविराचार्या राजानश्च] (१) श्रेणिकराजः दिक्खा य सालिभद्दे, उवकरणं सयसहस्सेहिं ॥ ४२१९ ॥ तथा राजगृहे श्रेणिके राज्यमनुशासति शालिभद्रस्य सुप्रसिद्धचरितस्य दीक्षायां शतसहस्राभ्याम् 'उपकरणं' रजोहरण-प्रतिग्रहलक्षणमानीतम् । अतो ज्ञायते यथा राजगृहे कुत्रिकापण आसीदिति पुरातनगाथासमासार्थः ॥ ४२१९ ॥ विभागः ४ पत्रम् ११४५ (२) चण्डप्रद्योतराजः पजोए णरसीहे, णव उजे गीए कुत्तिया आसी ॥ ४२२० ॥ x x x चण्डप्रद्योतनाम्नि नरसिंहे अवन्तिजनपदाधिपत्यमनुभवति नव कुत्रिकापणा उजयिन्यामासीरन् । विभागः ४ पत्रम् १९४५ (३) मौर्यपदव्युत्पत्तिश्चन्द्रगुप्तश्चाणक्यश्च मुरियादी आणाए, अणवत्थ परंपराए थिरिकरणं । मिच्छत्ते संकादी, पसजणा जाव चरिमपदं ॥ २४८७ ॥ अपराधपदे वर्तमानस्तीर्थकृतामाज्ञाभङ्गं करोति तत्र चतुर्गुरु । अत्र च मौर्यः-मयूरपोषकवंशोद्भवैः आदिशब्दादपरैश्चाज्ञासारै राजभिदृष्टान्तः । xxxx तथा चात्र पूर्वोद्दिष्टं मौर्यदृष्टान्तमाह भत्तमदाणमडते, आणढवणंव छेत्तु वंसवती। गविसण पत्त दरिसए, पुरिसवइ सवालडहणं च ॥ २४८९ ॥ पाडलिपुत्ते नयरे चंदगुत्तो राया । सो य मोरपोसगपुत्तो त्ति जे खत्तिया अभिजाणंति ते तस आणं परिभवंति। चाणकस्स चिंता जाया-आणाहीणो केरिसो राया? तम्हा जहा एयस्स आणा तिक्खा भवइ तहा करेमि ति । तस्स य चाणकस्स कापडियत्ते भिक्खं अडंतस्स एगम्मि गामे भत्तं न लद्धं । तत्थ य गामे बहू अंबा वंसा य अस्थि । तओ तस्स गामस्स पडि निविटेणं आणाठवणानिमित्तं इमेरिसो लेहो पेसिओ-आम्रान् छित्त्वा वंशानां वृतिः शीघ्रं कार्येति । तेहि अ गामेअगेहिं 'दुल्लिहियं' ति काउं वंसे छेत्तुं अंबाण वई कया । गवेसावियं चाणकेण-किं कयं ? ति । तओ सत्थागंतूग उवालद्धा ते गामेयगाएते वंसगा रोगादिसु उवउवजंति, कीस मे छिन्न ? त्ति । दंसियं लेहचीरियं-अन्नं संदिटुं अन्नं चेव करे। त्ति । तओ पुरिसेहिं अधोसिरेहिं वइं काउं सो गामो सव्वो दहो॥ अथ गाथाक्षरगमनिका-चाणक्यस्य भिक्षामटतः क्वापि ग्रामे भक्तस्य 'अदानं' भिक्षा न लब्धेत्यर्थः । तत आज्ञास्थापनानिमित्तमयं लेखः प्रेषितः-"अंब छेत्तु वंसवइ" ति आम्रान् छित्त्वा वंशानां Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयोदशं परिशिष्टम् कर्तव्या। ततो गवेषणे कृते प्रामेण च पत्रे दर्शिते 'अन्यदादियं मया अन्यदेव च भवद्भिः कृतम्' इत्युपालभ्य ते पुरुषैतिं कारयित्वा सबाल-वृद्धस्य प्रामस्य दहनं कृतम् ॥ २४८९ ॥ विभागः ३ पत्रम् ७०४-५ (४) मौर्यचन्द्रगुप्त-बिन्दुसारा-ऽशोक-कुणाल-सम्प्रतयः पाडलऽसोग कुणाले, उजेणी लेहलिहण सयमेव । अहिय सवत्ती मत्ताहिएण सयमेव वायणया ॥ २९२॥ मुरियाण अप्पडिहया, आणा सयमंजणं निवे णाणं । गायग सुयस्स जम्मं, गंधवाऽऽउट्टणा कोइ ॥ २९३ ॥ चंदगुत्तपपुत्तो य, बिंदुसारस्स नत्तुओ। असोगसिरिणो पुत्तो, अंधो जायइ कागिणिं ॥ २९४ ॥ पाडलिपुत्ते नयरे चंदगुत्तपुत्तस्स बिंदुसारस्स पुत्तो असोगो नाम राया । तस्स असोगस्स पुत्तो कुणालो उज्जेणीए । सा से कुमारभुत्तीए दिना । सो खुडलओ । अन्नया तस्स रन्नो निवेइयं, जहा-कुमारो सायरेगढवासो जाओ। तओ रन्ना सयमेव लेहो लिहिओ. जहा-अधीयतां कुमारः । कुमारस्स मायसवत्तीए रन्नो पासे ठियाए भणियं-आणेह, पासामि लेहं । रन्ना पणामिओ। ताहे तीए रनो अन्नचित्तत्तणओ सलागाप्रान्तेन निष्ठयूतेन तीमिला अकारम्योपरि अनुखारः कृतः। 'अन्धीयताम्' इति जायं। पडिअप्पिओ रन्नो लेहो । रन्ना वि पमत्तेण न चेव पुणो अणुवाइओ। मुदित्ता उज्जेणिं पेसिओ । वाइओ । वाइगा पुच्छिया-किं लिहियं ? ति । पुच्छिया न कहिंति । ताहे कुमारेण सयमेव वाइओ।चिंतियं च णेणंअम्हं मोरियवंसाणं अप्पडिहया आणा, तो कहं अप्पणो पिउणो आणं अइक्कमेमि? । तत्तसिलागाए अच्छीणि अंजियाणि । ताहे रना नायं । परितप्पित्ता उजेणी अन्नकुमारस्स दिन्ना । तस्स वि कुमारस्स अन्नो गामी दिन्नो । अन्नया तस्स कुणालस्स अंधयस्स पुत्तो जाओ। सो य अंधकुणालो गंधव्वे अईवकुसलो। अन्नया अन्नायचजाए गायतो हिंडइ । तत्थ रन्नो निवेइयं, जहा-एरिसो तारिसो गंधव्विओ अंधलओ। रन्ना भणियं-आणेह । आणिओ। जवणिअंतरिओ गायइ । ताहे अईव राया असोगो अक्खित्तो । ताहे भणइ-किं देमि? । इत्थ कुणालेण गीयं-"चंदगुत्तपपुत्तो य” इत्यादिगाथा। ताहे रन्ना पुच्छियं-को एस तुमं? । तेण कहियं-तुभं पुत्तो। जवणियं अवसारेउं कंठे घेत्तुं अंसुपाओ कओ। भणियं च णेण-किं कागिणीए वि नारिहसि जं कागिणिं जायसि? । अमचेहिं भणियं-रायपुत्ताणं रजं कागिणी । रन्ना भणियं-किं काहिसि अंधगो रजेणं?। कणालो भणइ-मम पुत्तो अस्थि । कया जाओ? । संपइ भूओ। आणीओ। संपत्ति से नाम कयं । रज दिन्नं ॥ विभागः१ पत्रम् ८८-८९, (५) सम्प्रतिराज आर्यमहागिरि-आर्यसुहस्तिनौ च अनुयानं गच्छता चैत्यपूजा स्थिरीकृता भवति । राजा वा कश्चिदनुयानमहोत्सवकारकः सम्प्रतिमरेन्द्रादिवत् तस्य निमन्त्रणं भवति ॥ विभागः २ पत्रम् ५२८ ___ अथ “यत्र ज्ञान-दर्शन-चारित्राण्युत्सर्पन्ति तत्र विहर्त्तव्यम्" (गा० ३२७१) इति यदुक्तं तद्विषयमभिधित्सुः सम्प्रतिनृपतिदृष्टान्तमाह कोसंबाऽऽहारकते, अजसुहत्थीण दमग पव्वजा। अव्वत्तेणं सामाइएण रणो घरे जातो ॥ ३२७५ ॥ कौशाम्ब्यामाहारकृते आर्यसुहस्तिनामन्तिके द्रमकेण प्रत्रज्या गृहीता । स तेनाव्यक्तेन सामायिकेन मृला राज्ञो गृहे जात इत्यक्षरार्थः । भावार्थस्तु कथानकगम्यः । तचेदम् कोसंबीए नयरीए अजमहत्थी समोसडा । तया य अंचितकालो। साधुजगो य हिंडमाणो फन्वति । तत्थ एगेण दमएग ते दिवा । ताहे सो भनं जायति । तेहिं भणियं-अम्हं आयरिया जाणंति । ताहे सो गतो Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशं परिशिष्टम् १६१ आयरियसमासं । आयरिया उवउत्ता । तेहिं णायं - एस पवयणउवग्गहे वट्टिहिति । ताहे भणिओ-जति पव्वयसि तो दिजए भत्तं । सो भणइ - पव्वयामि त्ति । ताहे पव्वाइतो, सामाइयं कारिओ । तेण अतिसमुद्दिनं तओ कालगतो । तस्स अव्वत्तसामाइयस्स पभावेण कुणालकुमारस्स अंधस्स रण्णो पुत्तो जातो ॥ ३२७५ ॥ को कुणालो ? कर्हि वा अंधो ? त्ति - पाडलिपुत्ते असोगसिरी राया । तस्स पुत्तो कुणालो । तस्स कुमारभुत्तीए उज्जेणी दिण्णा । सो य अट्ठवरिसो । रण्णा लेहो विसज्जितो - शीघ्रमधीयतां कुमारः । असंवत्तिए लेहे रण्णो उद्वितस्स माइसवत्तीए कतं 'अन्धीयतां कुमारः' । सयमेव तत्तसलागाए अच्छीणि अंजियाणि । सुतं रण्णा । गामो से दिव्णो । गंधव्वकलासिक्खणं । पुत्तस्स रज्जत्थी आगतो पाडलिपुत्तं । असोगसिरिणो जवणियंतरिओ गंधव्वं करेइ । आउट्टो राया भणइ-मग्गसु जं ते अभिरुइयं ति । तेण भणियंचंदगुत्तपत्तय, बिंदुसारस्स नत्तुओ । असोगसिरिणो पुत्तो, अंधो जायति काकणि ॥ ३२७६ ॥ चन्द्रगुप्तस्य राज्ञः प्रपौत्रो विन्दुसारस्य नृपतेः 'नप्ता' पौत्रोऽशोकश्रियो नृपस्य पुत्रः कुणालनामा अन्धः 'काकणी' राज्यं याचते ॥ ३२७६ ॥ तओ राइण भणितो - किं ते अंधस्स रज्जेणं ? । तेण भणियं पुत्तस्स मे कज्जं ति । राइणा भणियंकहिं ते पुत्तो ? ति । तेण आणित्ता दाइओ - इमो मे संपइ जाओ पुत्तो त्ति । तं चेव नामं कयं । तओ संवडिओ । दिन्नं रज्जं । तेण संपइराइणा उज्जेणि आई काउं दक्खिणावहो सव्वो तत्थट्ठिएणं ओविओ । सव्वे पंचतरायाणो वसीकया । तओ सो विउलं रज्जसिरिं भुंजइ । किञ्च - अज्ञसुहत्थाऽऽगमणं, दहुं सरणं च पुच्छणा कहणा । पावयणम्मि य भत्ती, तो जाता संपतीरण्णो ॥ ३२७७ ॥ जीवन्तस्वामिप्रतिमावन्दनार्थं मुज्जयिन्यामार्य सुहस्तिन आगमनम् । तत्र च रथयात्रायां राजाङ्गणप्रदेशे रथपुरतः स्थितानार्यसुहस्तिगुरून् दृष्ट्वा नृपतेर्जातिस्मरणम् । ततस्तत्र गला गुरुपदकमलमभिवन्द्य पृच्छा कृता — भगवन् ! अव्यक्तस्य सामायिकस्य किं फलम् ? । सूरिराह - राज्यादिकम् । ततोऽसौ सम्भ्रान्तः प्रगृहीताञ्जलिरानन्दोदकपूरपूरितनयनयुगः प्राह - भगवन् ! एवमेवेदम्, परमहं भवद्भिः कुत्रापि दृष्टपूर्वो न वा ? इति । ततः सूरय उपयुज्य कथयन्ति - महाराज ! दृष्टपूर्वः, त्वं पूर्वभवे मदीयः शिष्य आसीरित्यादि । ततोऽसौ परमं संवेगमापन्नस्तदन्तिके सम्यग्दर्शनमूलं पञ्चाणुत्रतमयं श्रावकधर्मं प्रपन्नवान् । ततश्चैवं प्रवचने सम्प्रतिराजस्य भक्तिः संजाता ॥ ३२७७ ॥ किञ्च - जवमज्झ मुरियवंसे, दाणे वणि-विवणि दारसंलोए । तसजीवपडिक्कमओ, पभावओ समणसंघस्स || ३२७८ ॥ यथा यवो मध्यभागे पृथुल आदावन्ते च हीनः एवं मौर्यवंशोऽपि । तथाहि-- चन्द्रगुप्तस्तावद् बलवाहनादिविभूत्या हीन आसीत्, ततो बिन्दुसारो बृहत्तरः, ततोऽप्यशोकश्रीबृहत्तमः, ततः सम्प्रतिः सर्वोत्कृष्टः, ततो भूयोऽपि तथैव हानिरवसातव्या, एवं यवमध्यकल्पः सम्प्रतिनृपतिरासीत् । तेन च राज्ञा 'द्वारसंलोके' चतुर्ध्वपि नगरद्वारेषु दानं प्रवर्त्तितम् । 'वणि विवणि' त्ति इह ये बृहत्तरा आपणास्ते पणय इत्युच्यन्ते, ये तु दरिद्रापणास्ते विपणयः; यद्वा ये आपणस्थिता व्यवहरन्ति ते वणिजः, ये पुनरापणेन विनाऽप्यूर्द्धस्थिता वाणिज्यं कुर्वन्ति ते विवणिजः । एतेषु तेन राज्ञा साधूनां वस्त्रादिकं दापितम् । स च राजा वक्ष्यमाणनीत्या सजीवप्रतिक्रामकः प्रभावकश्च श्रमण संघस्याऽऽसीत् ।। ३२७८ ॥ अथ "दाणे वणि-विवणि दारसंलोए" इति भावयति ओदरियमओ दारेसु, चउसुं पि महाणसे स कारेति । पिताऽऽणिते भोयण, पुच्छा सेसे अभुत्ते य ॥ ३२७९ ॥ औदरिकः-द्रमकः पूर्वभवेऽहं भूला मृतः सन् इहाऽऽयात इत्यात्मीयं वृत्तान्तमनुस्मरन् नगरस्य चतुर्ष्वपि Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ त्रयोदशं परिशिष्टम् द्वारेषु स राजा सत्राकार-महानसानि कारयति । ततो दीना-ऽनाथादिपथिकलोको यसत्र निर्गच्छन् वा प्रविशन् वा भोक्तुमिच्छति स सर्वोऽपि भोजनं कार्यते । यत् तच्छेषमुद्धरति तद् महानसिकानामाभवति । ततो राज्ञा ते महानसिकाः पृष्टाः-यदु युष्माकं दीनादिभ्यो ददतामवशिष्यते तेन यूयं किं कुरुथ । ते ब्रूवते-अस्माकं गृहे उपयुज्यते । नृपतिराह-यद् दीनादिभिरभुक्तं तद् भवद्भिः साधूनां दातव्यम् ॥ ३२७९ ॥ एतदेवाह साहूण देह एयं, अहं मे दाहामि तत्तियं मोल्लं । णेच्छंति घरे घेत्तुं, समणा मम रायपिंडो त्ति ॥ ३२८० ॥ साधूनामेतद् भक्त-पानं प्रयच्छत, अहं 'मे' भवतां तावन्मानं मूल्यं दास्यामि, यतो मम गृहे श्रमणा राजपिण्ड इति कृत्वा ग्रहीतुं नेच्छन्ति ॥ ३२८० ॥ एमेव तेल्लि-गोलिय-पूविय-मोरंड-दुस्सिए चेव ।। जं देह तस्स मोल्लं, दलामि पुच्छा य महगिरिणो ॥ ३२८१ ॥ एवमेव तैलिकास्तैलम् , गोलिकाः-मथितविक्रायिकास्तकादिकम् , पौपिका अपूपादिकम् , मोरण्डकाःतिलादिमोदकाः तद्विक्रायिकास्तिलादिमोदकान् , दौयिका वस्त्राणि च दापिताः । कथम् ? इत्याह-यत् तैल. तक्रादि यूयं साधूनां दत्थ तस्य मूल्यमहं भवतां प्रयच्छामीति । ततश्चाऽऽहार-वस्त्रादौ किमीप्सिते लभ्यमाने श्रीमहागिरिरार्यसुहस्तिनं पृच्छति-आर्य ! प्रचुरमाहार-वस्त्रादिकं प्राप्यते ततो जानीष्व 'मा राज्ञा लोकः प्रवर्तितो भवेत् ॥ ३२८१ ॥ अजसुहत्थि ममत्ते, अणुरायाधम्मतो जणो देती। संभोग वीसुकरणं, तक्खण आउट्टणे नियत्ती ॥ ३२८२ ॥ आर्यसुहस्ती जानानोऽप्यनेषणामात्मीयशिष्यममत्वेन भणति-क्षमाश्रमणाः ! 'अनुराजधर्मतः' राजधर्ममनुवर्तमान एष जन एवं यथेप्सितमाहारादिकं प्रयच्छति । तत आर्यमहागिरिणा भणितम्-आर्य! खमपीदृशो बहुश्रुतो भूखा यद्येवमात्मीयशिष्यममत्वेनेत्थं ब्रवीषि, ततो मम तव चाद्य प्रभृति विष्वक् सम्भोगःनैकत्र मण्डल्यां समुद्देशनादिव्यवहार इति; एवं सम्भोगस्य विष्वक्करणमभवत् । तत आर्यसुहस्ती चिन्तयति'मया तावदेकमनेषणीयमाहारं जानताऽपि साधवो ग्राहिताः, स्वयमपि चानेषणीयं भुक्तम् , अपरं चेदानीमहमिस्थमपलपामि, तदेतद् मम द्वितीयं बालस्य मन्दवमित्यापन्नम् ; अथवा नाद्यापि किमपि विनष्टम् , भूयोऽप्यहमेतस्मादर्थात् प्रतिकमामि' इति विचिन्त्य तत्क्षणादेवाऽऽवर्त्तनमभवत् । ततो यथावदालोचना दत्त्वा खापराधं सम्यक क्षामयिला तस्या अकल्पप्रतिसेवनायास्तस्य निवृत्तिरभूत्। ततो भूयोऽपि तयोः साम्भोगिकत्वमभवत् ॥३२८२॥ अथ “त्रसजीवप्रतिकामकः” (गा० ३२७८ ) इत्यस्य भावार्थमाह सो रायाऽवंतिवती, समणाणं सावतो सुविहिताणं । पच्चंतियरायाणो, सव्वे सद्दाविया तेणं ॥ ३२८३॥ 'सः' सम्प्रतिनामा राजा अवन्तीपतिः श्रमणानां 'श्रावकः' उपासकः पञ्चाणुव्रतधारी अभवदिति शेषः । ते च शाक्यादयोऽपि भवन्तीत्यत आह-'सुविहितानां' शोभनानुष्ठानानाम् । ततस्तेन राज्ञा ये केचित् प्रात्यन्तिकाः-प्रत्यन्तदेशाधिपतयो राजानस्ते सर्वेऽपि 'शब्दापिताः' आकारिताः ॥ ३२८३ ॥ ततः किं कृतम् ? इत्याह कहिओ य तेसि धम्मो, वित्थरतो गाहिता य सम्मत्तं । अप्पाहिता य बहुसो, समणाणं भद्दगा होह ॥ ३२८४ ॥ कथितश्च 'तेषां प्रात्यन्तिकराजानां तेन विस्तरतो धर्मः । ग्राहिताश्च ते सम्यक्त्वम् । ततः स्वदेशं गता अपि ते बहुशस्तेन राज्ञा सन्दिष्टाः, यथा-धमणानां 'भद्रकाः' भक्तिमन्तो भवत ॥ ३२८४ ॥ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशं परिशिष्टम् अथ कथमसी श्रमणसङ्घप्रभावको जातः ? इत्याह अणुजाणे अणुजाती, पुप्फारुहणाइ उकिरणगाई। पूयं च चेइयाणं, ते वि सरजेसु कारिंति ॥ ३२८५ ॥ अनुयानं-रथयात्रा तत्रासो नृपतिः ‘अनुयाति' दण्ड-भट-भोजिकादिसहितो रथेन सह हिण्डते । तत्र च पुष्पारोपणम् आदिशब्दाद् माल्य-गन्ध-चूर्णा-ऽऽभरणारोपणं च करोति । 'उक्किरणगाई' ति रथपुरतो विविधफलानि खाद्यकानि कपर्दक-वस्त्रप्रभृतीनि चोत्किरणानि करोति । आह च निशीथचूर्णिकृत्-रहरगतो य विविहफले खजगे य कवडग-वत्थमादी य ओकिरणे करेइ त्ति ॥ अन्येषां च चैत्यगृहस्थिताना 'चैत्यानां' भगवद्धिम्बानां पूजां महता विच्छर्दैन करोति । तेऽपि च राजान एवमेव खराज्येषु रथयात्रामहोत्सवादिकं कारयन्ति ॥ ३२८५ ॥ इदं च ते राजानः सम्प्रतिनृपतिना भणिताः जति मं जाणह सामि, समणाणं पणमहा सुविहियाणं। व्वेण मे न कजं, एयं खु पियं कुणह मज्झं ॥ ३२८६ ॥ यदि मां स्वामिनं यूयं 'जानीथ' मन्यध्वे ततः श्रमणेभ्यः सुविहितेभ्यः 'प्रणमत प्रणता भवत । 'द्रव्येण' दण्डदातव्येनार्थेन मे न कार्यम् , किन्खेतदेव श्रमणप्रणमनादिकं मम प्रियम् , तदेतद् यूयं कुरुत ॥ ३२८६ ॥ वीसजिया य तेणं, गमणं घोसावणं सरजेसु। साहूण सुहविहारा, जाता पञ्चंतिया देसा ॥ ३२८७ ॥ एवं 'तेन' राज्ञा शिक्षा दत्त्वा विसर्जिताः । ततस्तेषां खराज्येषु गमनम् । तत्र च तैः स्वदेशेषु सर्वत्राप्यमाघातघोषणं कारितम् , चैत्यगृहाणि च कारितानि । तथा प्रात्यन्तिका देशाः साधूनां सुखविहाराः साताः । कथम् ? इति चेदुच्यते-तेन सम्प्रतिना साधवो भणिताः-भगवन्तः! एतान् प्रत्यन्तदेशान् गवा धर्मकथया प्रतिबोध्य पर्यटत । साधुभिरुक्तम्-राजन् ! एते साधूनामाहार-वस्त्र-पात्रादेः कल्प्या-ऽकल्प्यविभागं न जानन्ति ततः कथं वयमेतेषु विहरामः ? । ततः सम्प्रतिना साधुवेषेण खभटाः शिक्षा दत्त्वा तेषु प्रत्यन्तदेशेषु विसर्जिताः ॥ ३२८७ ॥ ततः किमभूत् ? इत्याह समणभडभाविएसुं, तेसू रज्जेसु एसणादीसु । साहू सुहं विहरिया, तेणं चिय भद्दगा ते उ॥ ३२८८ ॥ श्रमणवेषधारिभिर्भटैरेषणादिभिः शुद्धमाहारादिग्रहणं कुर्वाणैः साधुविधिना भावितेषु तेषु राज्येषु साधवः सुखं विहृताः । तत एव च सम्प्रतिपतिकालात् 'ते' प्रत्यन्तदेशा भद्रकाः सजाताः ॥ ३२८८ ॥ इदमेव स्पष्टयति उदिण्णजोहाउलसिद्धसेणो, स पत्थिवो णिजियसत्तुसेणो। समंततो साहुसुहप्पयारे, अकासि अंधे दमिले य घोरे ॥ ३२८९ ॥ उदीर्णाः-प्रबला ये योधास्तैराकुला-सङ्कीर्णा सिद्धा प्रतिष्टिता सर्वत्राप्यप्रतिहता सेना यस्य स तथा, अत एव च निर्जितशत्रुसेनः' खवशीकृतविपक्षनृपतिसैन्यः, एवंविधः स सम्प्रतिनामा पार्थिवः अन्ध्रान् द्रविडान् चशब्दाद् महाराष्ट्र-कुडुक्कादीन् प्रत्यन्तदेशान् 'घोरान्' प्रत्यपायबहुलान् समन्ततः 'साधुसुखप्रचारान्' साधूनां सुखविहरणान् 'अकार्षीत्' कृतवान् ॥ ३२८९ ॥ विभागः ३ पत्रम् ९१७-२१ (६) आर्यसुहस्ती आर्यसमुद्रः आर्यमङ्गुश्च गणहर-थेरकयं वा, आदेसा मुक्कवागरणतो वा। धुव-चल विसेसतो वा, अंगा-ऽणंगेसु णाणत्तं ॥ ३४४ ॥ यत् गणधरैः कृतं तदङ्गप्रविष्टम् । यत्पुनर्गणधरकृतादेव स्थविरैर्निर्मूढम् ; ये चादेशाः, यथा-आर्यमङ्गु. Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ त्रयोदशं परिशिष्टम् राचार्य स्त्रिविधं शङ्खमिच्छति-एकभविक बद्धायुष्कमभिमुखनामगोत्रं च, आर्यसमुद्रो द्विविधम्-बद्धायुष्कमभिमुखनामगोत्रं च, आर्यसुहस्ती एकम्-अभिमुखनामगोत्रमिति; यानि च मुक्तकानि व्याकरणानि, यथा-"वर्ष देव ! कुणालायाम्" इत्यादि, तथा "मरुदेवा भगवती अनादिवनस्पतिकायिका तद्भवेन सिद्धा" इत्यादि; एतत्स्थविरकृतम् । आदेशा मुक्तकव्याकरणतश्च अनङ्गप्रविष्टम् । अथवा ध्रुव-चलविशेषतोऽशा-ऽनङ्गेषु नानालम् । तद्यथा-ध्रुवं अङ्गप्रविष्टम् , तच द्वादशाङ्गम् , तस्य नियमतो नि!हणात् ; चलानि प्रकीर्णकानि, तानि हि कदाचिनियूद्यन्ते कदाचिन्न, तान्यनङ्गप्रविष्टमिति ॥ ३४४ ॥ विभागः १ पत्रम् ४४-४५ (७) आर्यवज्रखामी अत्रौपम्यमार्यवत्रैः, स बालभावे कर्णाभ्याहृतं सूत्रं कृतवान् । पश्चात् तस्योद्दिष्टं समुद्दिष्टमनुज्ञातम् अर्थश्च तदैव द्वितीयपौरुष्यां कथितः। विभागः१ पत्रम् ११९ (८) कालिकाचार्याः तत्प्रशिष्यः सागरश्च सागारियमप्पाहण, सुवन्न सुयसिस्स खंतलक्खेण । कहणा सिरसागमणं, धूलीपुंजोवमाणं च ॥ २३९ ॥ उजेणीए नयरीए अजकालगा नामं आयरिया सुत्त-ऽत्थोववेया बहुपारेवारा विहरति । तेसिं अजकालगाणं सीसस्स सीसो सुत्त-ऽत्थोववेओ सागरो नाम सुवनभूमीए विहरइ । ताहे अजकालया चिंतेंति-एए मम सीसा अणुओगं न सुणंति तओ किमेएसि मज्झे चिट्ठामि ?, तत्थ जामि जत्थ अणुयोगं पवत्तमि, अवि य एए वि सिस्सा पच्छा लजिया सोच्छिहिति । एवं चिंतिऊण सेजायरमापुच्छंति-कहं अन्नत्थ जामि? तओ मे सिस्सा सुणेहिंति, तुमं पुण मा तेसिं कहेजा, जइ पुण गाडतरं निबंधं करिजा तो खरंटेउ साहेजा, जहा-सुवन्नभूमीए सागराणं सगासं गया। एवं अप्पाहित्ता रत्तिं चेव पसुत्ताणं गया सुवण्णभूमि । तत्थ गंतुं खंतलक्खेण पविठ्ठा सागराणं गच्छं। तओ सागरायरिया खंत' त्ति काउं तं नाढाइया अब्भुट्ठाणाइणि । तओ अत्थपोरिसीवेलाए सागरायरिएणं भणिया-खंता ! तुभं एवं गमइ । आयरिया भणति-आमं । 'तो खाई सुणेह' त्ति पकहिया। गव्वायंता य कहिंति । इयरे वि सीसा पभाए संते संभंते आयरियं अपासंता सव्वत्थ मग्गिउं सिज्जायरं पुच्छति । न कहेइ, भणइ य-तुभं अप्पणो आयरिओ न कहेइ, मम कहं कहेइ। ततो आउरीभूएहिं गाढनिबंधे कए कहियं, जहा-तुभच्चएण निव्वेएण सुवन्नभूमीए सागराणं सगासं गया । एवं कहित्ता ते खरंटिया । तओ ते तह चेव उच्चलिया सुवनभूमि गंतुं । पंथे लोगो पुच्छइ-एस कयरो आयरिओ जाइ?। ते कहिंति-अज्जकालगा। तओ: सागराणं लोगेण कहियं, जहा-अजकालगा नाम आयरिया बहुस्सुया बहुपरिवारा इहाऽऽगंतुकामा पंथे वट्ठति । ताहे सागरा सिस्साणं पुरओ भणंति-मम अजया इंति, तेसिं सगासे पयत्थे पुच्छीहामि त्ति। अचिरेणं ते सीसा आगया। तत्थ अग्गिल्लेहिं पुच्छि नंति-किं इत्थ आयरिया आगया चिट्ठति ? । नत्थि, नवरं अन्ने खंता आगया । केरिसा ? । वंदिए नायं ‘एए आयरिया' । ताहे सो सागरो लजिओ-बहुं मए इत्थ पलवियं, खमासमणा य वंदाविया। ताहे अवरोहवेलाए मिच्छा दुक्कडं करेइ ‘आसाइय' ति। भणियं च णेणकेरिसं खमासमणो! अहं वागरेमि ? । आयरिया भणंति-सुदरं, मा पुण गव्वं करिजासि । ताहे धूलीपुंजदिद्वंतं करेंति-धूली हत्थेण घेत्तुं तिसु हाणेसु ओयारेति-जहा एस धूली ठविजमाणी उक्खिप्पमाणी य सव्वत्थ परिसडइ, एवं अत्थो वि तित्थगरेहिंतो गणहराणं गणहरेहिंतो जाव अम्हं आयरिउवज्झायाणं परंपरएणं आगयं, को जाणइ कस्स केइ पजाया गलिया ? ता मा गवं काहिसि । ताहे मिच्छा दुकडं करित्ता आढत्ता अज्जकालिया सीसपसीसाण अणुयोगं कहेउं । विभागः १ पत्रम् ७३-७४ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशं परिशिष्टम् १६५ (९) कालकाचार्यों गर्दभिल्लच विजा ओरस्सबली, तेयसलद्धी सहायलद्धी वा । उप्पादेउं सासति, अतिपंतं कालकजो वा ॥ ५५९३ ॥ यो विद्याबलेन युक्तो यथा आर्यखपुटः, औरसेन वा बलेन युक्तो यथा बाहुबली, तेजोलब्ध्या वा सलब्धिको यथा ब्रह्मदत्तः सम्भूतभवे, सहायलब्धियुक्तो वा यथा हरिकेशबलः । ईदृशोऽधिकरणमुत्पाद्य 'अतिप्रान्तम्' अतीवप्रवचनप्रत्यनीक शास्ति, 'कालिकाचार्य इव' यथा कालकाचार्यो गर्दभिल्लराजानं शासितवान् । कथानकं सुप्रतीतत्वान्न लिख्यते ॥ ५५९३ ॥ विभागः ५ पत्रम् १४८० (१०) शालवाहननृपः पइट्ठाणं नयरं । सालवाहणो राया । सो वरिसे वरिसे भरुयच्छे नहवाहणं (नरवाहणं प्रत्यन्तरे) रोहेइ । जाहे य वरिसारत्तो भवति ताहे सयं नयर पडियाइ । एवं कालो वच्चइ। विभागः १ पत्रम् ५२ महुराऽऽणत्ती दंडे, सहसा णिग्गम अपुच्छिउँ कयरं । तस्स य तिक्खा आणा, दुहा गता दो वि पाडेउं ॥ ६२४४ ॥ सुतजम्म महुरपाडण-निहिलंभनिवेदणा जुगव दित्तो। सयणिज खंभ कुडे, कुट्टेइ इमाइँ पलवंतो ॥ ६२४५॥ गोयावरीए णदीए तडे पतिढाणं नगरं । तत्थ सालवाहणो राया । तस्स खरओ अमचो । अन्नया सो सालवाहणो राया दंडनायगमाणवेइ-महुरं घेत्तूर्ण सिग्घमागच्छ । सो य सहसा अपुच्छिऊण दंडेहिं सह निग्गओ। तओ चिंता जाया का महरा घेत्तव्वा ? दक्खिणमहरा उत्तरमहुरावा? । तस्स आणा तिक्खा, पुणो पुच्छिउंन तीरति । तओ दंडा दुहा काऊण दोसु विपेसिया । गहियाओ दो वि महराओ। तओ वद्धावगो पेसिओ। तेण गंतूण राया पद्धाविओ-देव। दो वि महराओ गहियाओ। इयरो आगओ- . देव । अग्गमहिसीए पुत्तो जाओ। अण्णो आगतो-देव! अमुगत्थ पदेसे विपुलो निही पायडो जातो। तओ उवरुवार कल्लाणनिवेयणेण हरिसवसविसप्पमाणहियओ परव्वसो जाओ। तओ हरिसं धरिउमचायतो सयणिजं कुट्टइ, खंमे आहणइ, कुठे विद्दवइ, बहूणि य असमंजसाणि पलवति । तओ खरगेणामचेणं तमु वाएहिं पडिबोहिउकामेण खंभा कुछा बहू विद्दविया। रमा पुच्छियं-केणेयं विद्दवियं । सो भणेइ-तुम्भेहिं । ततो 'मम सम्मुहमलीयमेयं भणति' रुटेणं रना सो खरगो पाएण ताडितो। तओ संकेइयपुरिसेहिं उप्पाडिओ अण्णत्थ संगोवितो य । तओ कम्हिइ पओयणे समावडिए रण्णा पुच्छिओ-कत्थ अमच्चो चिट्ठति ? । संकेइयपुरिसेहि य 'देव ! तुम्हें अविणयकारि' त्ति सो मारिओ। राया विसूरियु पयत्तो-दुढ कयं, मए तया न किं पि चेइयं ति । तओ समावत्यो जाओ ताहे संकेइयपुरिसेहिं विनत्तो-देव । गवेसामि, जइ वि कयाइ चंडालेहि रक्खिओ होजा। तओ गवेसिऊण आणिओ। राया संतद्रो। अमच्चेण सम्भावो कहिओ । तुटेण विउला भोगा दिना॥ साम्प्रतमक्षरार्थों विवियते-सातवाहनेन राज्ञा -सातवाहनन राज्ञा मथुराग्रहणे "दंडि"ति दण्डनायकस्याज्ञप्तिः कृता। ततो दण्डाः सहसा 'कां मथुरां गृह्णीमः ?' इत्यपृष्ट्वा निर्गताः । तस्य च राज्ञ आज्ञा तीक्ष्णा, ततो न भूयः प्रष्टुं शक्नुवन्ति । ततस्ते दण्डा द्विधा गताः, द्विधा विभज्य एको दक्षिणमथुरायामपर उत्तरमथुरायां गता इत्यर्थः । द्वे अपि च मथुरे पातयित्वा ते समागताः ॥ ६२४४ ॥ सुतजन्म-मथुरापातन-निधिलाभानां युगपद् निवेदनायां हर्षवशात् सातवाहनो राजा 'दीप्तः' दीप्तचित्तोऽभवत् । दीप्तचित्ततया च 'इमानि' वक्ष्यमाणानि प्रलपन शयनीय-स्तम्भ-कुड्यानि कुट्टयति ॥ ६२४५॥ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ त्रयोदशं परिशिष्टम् तत्र यानि प्रलपति तान्याह सञ्चं भण गोदावरि !, पुव्वसमुद्देण साविया संती। साताहणकुलसरिसं, जति ते कूले कुलं अस्थि ॥ ६२४६ ॥ उत्तरतो हिमवंतो, दाहिणतो सालिवाहणो राया। समभारभरकंता, तेण न पल्हत्थए पुहवी ॥ ६२४७ ॥ हे गोदावरि ! पूर्वसमुद्रेण 'शपिता' दत्तशपथा सती सत्यं 'भण' ब्रूहि-यदि तव कूले सातवाहनकुलसदृशं कुलमस्ति ॥ ६२४६ ॥ 'उत्तरतः' उत्तरस्यां दिशि हिमवान् गिरिः, दक्षिणतस्तु सालवाहनो राजा, तेन समभारभराकान्ता सती पृथिवी न पर्यस्यति, अन्यथा यदि अहं दक्षिणतो न स्यां ततो हिमवगिरिभाराकान्ता नियमतः पर्यस्येत् ॥ ६२४७ ॥ एयाणि य अन्नाणि य, पलवियवं सो अणिच्छियव्वाई। कुसलेण अमञ्चेणं, खरगेणं सो उवाएणं ॥ ६२४८ ॥ 'एतानि' अनन्तरोदितानि अन्यानि च सोऽनीप्सितव्यानि बहूनि प्रलपितवान् । ततः कुशलेन खरकनानाडमात्येनोपायेन प्रतिबोधयितुकामेनेदं विहितम् ॥ ६२४८ ॥ किम् ? इत्याह विदवितं केणं ति व, तुम्मे हिं पायतालणा खरए। कत्थ त्ति मारिओ सो, दुट्ट त्ति य दरिसिते भोगा ॥ ६२४९ ॥ 'विद्रावितं' विनाशितं समस्तं स्तम्भ-कुख्यादि । राज्ञा पृष्टम्-केनेदं विनाशितम् ? । अमात्यः सम्मुखीभूय सरोषं निष्ठुर वक्ति-युष्माभिः । ततो राज्ञा कुपितेन तस्य पादेन ताडना कृता । तदनन्तरं सङ्केतितपुरुषैः स उत्पाटितः सङ्गोपितश्च । ततः समागते कस्मिंश्चित् प्रयोजने राज्ञा पृष्टम्-कुत्रामात्यो वर्तते ? । सङ्केतितपुरुषरुक्तम्-देव ! युप्मत्पादानामविनयकारी इति मारितः । ततः 'दुष्टं कृतं मया' इति प्रभूतं विसूरितवान् । खस्थीभूते च तस्मिन् सङ्केतितपुरुषरमात्यस्य दर्शनं कारितम् । ततः सद्भावकथनानन्तरं राज्ञा तस्मै विपुला भोगाः प्रदत्ता इति ॥ ६२४९ ॥ विभागः ६ पत्रम् १६४७-४९ (११) पादलिप्ताचार्याः कढे पुत्थे चित्ते, दंतोवल मट्टियं व तत्थगतं । एमेव य आगंतुं, पालित्तय बेट्टिया जवणे ॥ ४९१५॥ याः काष्ठकर्मणि पुस्तकर्मणि वा चित्रकर्मणि वा निर्वर्तिता स्त्रीप्रतिमा यद्वा दन्तमयमुपलमयं मृत्तिकामयं वा स्त्रीरूपं यस्यां वसती वसति तत् तस्यां तत्रगतं मन्तव्यम् । तद्विषयो दोषोऽप्युपचारात् तत्रगत उच्यते । एवमेव चागन्तुकमपि मन्तव्यम् । आगन्तुकं नाम यद् अन्यत आगतम् । ततो यथा तत्रगताः स्त्रीप्रतिमा भवन्ति तथाऽऽगन्तुका अपि भवेयुः । तथा चात्र पादलिप्ताचार्यकृता 'बेटिक' त्ति राजकन्यका दृष्टान्तः । स चायम् पालित्तायरिएहिं रन्नो भगिणीसरिसिया जंतपडिमा कया । चंकमणुम्मेसनिमेसमयी तालविंटहत्था आयरियाणं पुरतो चिट्ठइ । राया वि अईव पालित्तगस्स सिणेहं करेइ । धिजाइएहिं पउडेहिं रन्नो कहियंभगिणी ते समणएणं अभिओगिया। राया न पत्तियति, भणिओ अ-पेच्छ, दंसेमु ते। राया आगतो। पासित्ता पालित्तायरियाणं रुट्ठो पच्चोसरिओ य। तओ सा आयरिएहिं चड त्ति विगरणी कया। राया सुट्टतरं आउट्टो ॥ एवमागन्तुका अपि स्त्रीप्रतिमा भवन्ति । 'जवणे' त्ति यवनविषये ईदृशानि स्त्रीरूपाणि प्राचुर्येण क्रियन्ते । ४९१५ ॥ विभागः ५ पत्रम् १३१५-१६ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशं परिशिष्टम (१२) मुरुण्डराजः दिटुंतो पुरिसपुरे, मुरुडदूतेण होइ कायव्वो। जह तस्स ते असउणा, तह तस्सितरा मुणेयव्वा ॥ २२९१ ॥ दृष्टान्तोऽत्र पुरुषपुरे रक्तपटदर्शनाकीर्णे मुरुण्डदूतेन भवति कर्तव्यः । यथा 'तस्य' मुरुण्डदूतस्य 'ते' रक्तपटा अशकुना न भवन्ति, तथा 'तस्य' साधोः 'इतराः' पार्श्वस्थ्यादयो मुणितव्याः, ता दोषकारिण्यो न भवन्तीत्यर्थः ॥ २२९१ ॥ इदमेव भावयति पाडलि मुरुंडदूते, पुरिसपुरे सचिवमेलणाऽऽवासो। भिक्खू असउण तइए, दिणम्मि रनो सचिवपुच्छा ॥ २२९२ ॥ पाटलिपुत्रे नगरे मुरुण्डो नाम राजा । तदीयदूतस्य पुरुषपुरे नगरे गमनम् । तत्र सचिवेन सह मीलनम्। तेन च तस्य आवासो दापितः। ततो राजानं द्रष्टुमागच्छतः 'भिक्षवः' रक्तपटा अशकुना भवन्ति इति कृत्वा स दूतो न राजभवनं प्रविशति । ततस्तृतीये दिने राज्ञः सचिवपार्श्व पृच्छा-किमिति दूतो नाद्यापि प्रविशति? ॥ २२९२ ॥ ततश्च निग्गमणं च अमच्चे, सब्भावाऽऽइक्खिए भणइ दूयं ।। अंतो बहिं च रच्छा , नऽरहिंति इह पवेसणया ॥ २२९३॥ अमात्यस्य राजभवनान्निर्गमनम् । ततो दूतस्यावासे गला सचिवो मिलितः । पृष्टश्च तेन दूतः-किन प्रविशसि राजभवनम् ? । स प्राह-अहं प्रथमे दिवसे प्रस्थितः परं तच्चन्निकान् दृष्ट्वा प्रतिनिवृत्तः 'अपशकुना एते' इति कृत्वा, ततो द्वितीये तृतीयेऽपि दिवसे प्रस्थितः तत्रापि तथैव प्रतिनिवृत्तः । एवं सद्भावे 'आख्यावे' कथिते सति दूतममात्यो भणति-एते इह रथ्याया अन्तर्बहिर्वा नापशकुनवमर्हन्ति । ततः प्रवेशना दूतस्य राजभवने कृता । एवमस्माकमपि पार्श्वस्थादयस्तदीयसंयत्यश्च रध्यादौ दृश्यमाना न दोषकारिण्यो भवन्ति ॥ २२९३ ॥ विभागः ३ पत्रम् ६५० विहवससा उ मुरुंडं, आपुच्छति पव्वयामऽहं कत्थ । पासंडे य परिक्खति, वेसग्गहणेण सो राया ॥ ४१२३ ॥ डोंबेहिं च धरिसणा, माउग्गामस्स होइ कुसुमपुरे। उब्भावणा पवयणे, णिवारणा पावकम्माणं ॥ ४१२४ ॥ उज्झसु चीरे सा यावि णिवपहे मुयति जे जहा बाहिं। उच्छरिया गडी विव, दीसति कुप्पासगादीहिं ॥ ४१२५ ॥ धिद्धिकतो य हाहक्कतो य लोएण तजितो ठो। ओलोयणट्टितेण य, णिवारितो रायसीहेण ॥ ४१२६ ॥ कुसुमपुरे नगरे मुरुण्डो राया। तस्स भगिणी विहवा । सा अन्नया रायं पुच्छइ-अहं पव्वइउकामा, तो आइसह कत्थ पव्वयामिति । तओ राया पासंडीणं वेसग्गहणेण परिक्खं करेइ । हरिथमिंठा संदिदा जहा–पासंडिमाउग्गामेसु हत्थिं सनिजाह, भणिज्जाह य-पोत्तं मुयाहि, अन्नहा इमिणा हत्थिणा उवहवे. स्सामि त्ति, एक्कम्मि य मुक्के मा ठाहिह, ताव गहग्गहावेह जाव सव्वे मुक्का । तओ एगेण मिठेण चरियाए रायपहे तहा कयं जाव नग्गीभूया । रन्ना सव्वं दिहूं। नवरं अजा विहीए पविट्ठा । रायपहोत्तिण्णाए हत्थी सन्निओ-मुयसु पुत्तं त्ति । तीए पढम मुहपोत्तिया मुक्का, ततो निसिजा, एवं जाणि जाणि बाहिरिल्लाणि चीवराणि ताणि ताणि पढमं मुयइ, जाव बहूहिं वि मुक्केहिं नडी विव कंचुकादीहिं सुप्पाउया दीसइ ताहे लोगेण अकंदो कओ-हा पाव। किमेवं महासइतवस्सिणिं अभिद्दवेसि ? त्ति। रना वि आलोयणहिएण वारिओ, चिंतियं च-एस धम्मो सव्वन्नुदिट्ठो। अनेण य बहुजणेण कया सासणस्स पसंसा ॥ विभागः ४ पत्रम् ११२३ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ (१३) सिद्धसेनाचार्याः तत्र योनिप्राभृतादिना यदेकेन्द्रियादिशरीराणि निर्वर्तयति, यथा सिद्धसेनाचार्येणाश्वा उत्पादिताः । विभागः ३ पत्रम् ७५३ (१४) लाटाचार्याः त्रयोदशं परिशिष्टम् असइ वसहीय वीसुं, बसमाणाणं तरा तु भयितव्वा । तत्थऽण्णत्थ व वासे, छत्तच्छायं तु वर्जेति ॥ ३५३१ ॥ यत्र सङ्कीर्णायां वसतौ सर्वेऽपि साधवो न मान्ति तत्र 'विष्वग्' अन्यस्यां वसतौ वसतां साधूनां शय्यातरा भक्तव्याः, तत्र हि यदि साधवः पृथग्वसतावुषित्वा द्वितीयदिने सूत्रपौरुषीं कृत्वा समागच्छन्ति ततो द्वावपि शय्यातरौ अथ मूलवसतिमागम्य सूत्रपौरुषीं कुर्वन्ति तत एक एव मूलवसतिदाता शय्यातरः । लाटाचार्याभिप्रायः पुनरयम् - शेषाः साधवः 'तत्र वा' मूलवसतौ 'अन्यत्र वा' प्रतिवसतौ वसन्तु न तेषां सम्बन्धिना सागारिकेणेहाधिकारः, किन्तु सकलगच्छस्य च्छत्रकल्पवात् छत्रः - आचार्यस्तस्य च्छायां वर्जयन्ति, मौलशय्यातरगृहमित्यर्थः इति विशेष चूर्णि निशीथचूण्योरभिप्रायः । विभागः ४ पत्रम् ९८३ “अहवा लाडाचार्यानामादेशेन जत्थ आयरिओ वसति सो सेज्जायरो । छत्तो आयरिओ ।" कल्पविशेषचूर्णो ॥ विभागः ४ पत्रम् ९८३ टि०२ [ ६ वारिखलादिपरिव्राजकादयः ] ( १ ) वारिखलपरिव्राजकाः वानप्रस्थतापसाच वारिखलाणं वारस, मट्टीया छ च्च वाणपत्थाणं । ॥ १७३८ ॥ वारिखलाः- परिव्राजकास्तेषां द्वादश मृत्तिकालेपा: भोजनशोधनका भवन्ति । षट् च मृत्तिकालेपा वानप्रस्थानां तापसानां शौचसाधकाः सञ्जायन्ते । विभागः २ पत्रम् ५१३ (२) चक्रचरः चक्रचरादिसम्बन्धिपरलिङ्गेन वा भक्त- पानग्रहणे प्राप्ते सिक्ककेन पर्यटितव्यम् । विभागः ३ पत्रम् ८१८ (३) कर्मकार भिक्षुकाः 'कर्मकारभिक्षुकाणां' देवद्रोणीवाद्दकभिक्षुविशेषाणां ( ४ ) उडङ्कर्षिः ब्रह्महत्याया व्यवस्था च ईदेण उडंकरि सिपत्ती रूववती दिट्ठा। तओ अज्झोववन्नो तीए सम अहिगमं गतो । सो तओ निग्गच्छंतो रिसिणा दिट्ठो। रुद्वेण रिसिणा तस्स सावो दिलो-जम्हा तुमे अगम्मा रिसिपत्ती अभिगया तम्हा ते बंभवज्झा उवट्ठिया । सो तीए भीओ कुरुखेत्तं पविडो । सा बंभवज्झा कुरुखेत्तस्स पासओ भमइ । सो वि तो तब्भया न नीति । इंदेण विणा सुन्नं इंदद्वाणं । ततो सव्वे देवा इंदं मग्गमाणा जाणिऊण कुरुखेत्ते उवट्ठिया, भणितं - एहि, सणाहं कुरु देवलोगं । सो भणइ - मम इओ निग्गच्छंतस्स बंभवज्झा लग्गड् । तओ सा देवेहिं बंभवज्झा चउहा विहत्ता - एको विभागो इत्थीणं रिउकाले ठिओ, बिइओ उदगे काइयं निसिरंतस्स, तइओ वंभणस्स सुरापाणे, चउत्थो गुरुपत्तीप अभिगमे । सा वंभवज्झा एएस ठिया । इंदो वि देवलोगं गओ । एवं तुब्भं पि पुरेकम्मकओ कम्मबंधदोसो ब्रह्महत्यावद् वेगलो भवति ॥ १८५६ ॥ विभागः २ पत्रम् ५४३-४४ विभागः ४ पत्रम् ११७० Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशं परिशिष्टम् [ ७ वानमन्तर पक्षादि ] ( १ ) ऋषिपालो वानमन्तरः उज्जेणी रायगिहं, तोसलिनगरे इसी य इसिवालो |० ॥ ४२१९ ॥ उज्जयिनी राजगृहं च नगरं कुत्रिकापणयुक्तमासीत् । तोसलिनगरवास्तव्येन च वणिजा ऋषिपालो नाम वानमन्तर उज्जयिनी कुत्रिकापणात् क्रीत्वा खबुद्धिमाहात्म्येन सम्यगाराधितः । ततस्तेन ऋषितडागं नाम सरः कृतम् । xxx एमेव तोसलीए, इसिवालो वाणमंतरो तत्थ । णिज्जित इसीतलागे, ० ॥ ४२२३ ॥ ‘एत्रमेव’ तोसलिनगरवास्तव्येन वणिजा उज्जयिनीमागम्य कुत्रिकापणाद ऋषिपालो नाम वानमन्तरः क्रीतः । तेनापि तथैव निर्जितेन ऋषितडागं नाम सरश्च । विभागः ४ पत्रम् ११४५-४६ (२) कुण्डलमेण्ठो वानमन्तरः कोंडलमेंढ पभासे, ० ॥ ३१५० ॥ तथा कुण्डल मेण्ठनाम्नो वानमन्तरस्य यात्रायां भरुकच्छपरिसरवर्ती भूयान् लोकः सङ्घडिं करोति । विभागः ३ पत्रम् ८८३-८४ "अहवा कोंडलमिंढे कोंडलमिंढो वाणमंतरो, देवद्रोणी भरुयच्छाहरणीए तत्थ यात्राए बहुजणो संखडिं करेइ × × ×” इति चूर्णो विशेषचूर्णौ च ॥ विभागः ३ पत्रम् ८८३ टि०७ (३) घण्टिकयक्षः परिणापसिणं सुमिणे, विज्जासिद्धं कहेइ अन्नस्स । अहवा आइंखिणिआ, घंटियसिद्धं परिकहेइ ॥ १३१२ ॥ १६९ xxx अथवा " आई खिणिआ" डोम्बी, तस्याः कुलदैवतं घण्टिकयक्षो नाम, स पृष्टः सन् कर्णे कथयति सा च तेन शिष्टं कथितं सद् अन्यस्मै पृच्छकाय शुभाशुभादि यत् परिकथयति एष प्रश्नप्रश्नः ॥ १३१२ ॥ विभागः २ पत्रम् ४०३-४ ( ४ ) भण्डीरयक्षः मथुरायां भण्डी रक्षयात्रायां कम्बल -शबलौ वृषभौ घाटिकेन - मित्रेण जिनदासस्यानापृच्छया वाहितौ, तन्निमित्तं सञ्जातवैराग्यौ श्रावकेणानुशिष्टौ भक्तं प्रत्याख्याय कालगतौ नागकुमारेपपन्नौ ।। ५६२७ ॥ विभागः ५ पत्रम् १४८९ (५) सीता हलपद्धतिदेवता सीताइ जनो पहुगादिगा वा, जे कप्पणिज्जा जतिणो भवंति । साली - फलादीण व णिक्कयम्मि, पडेज तेल्लं लवणं गुलो वा ॥ ३६४७ ॥ सागारिकस्यान्येषां च साधारणे क्षेत्रे 'सीतायाः' हलपद्धतिदेवतायाः 'यज्ञः' पूजा भवेत् तत्र शाल्यादि द्रव्यं यद् उपस्कृतं पृथुकादयो वा ये तत्र क्षेत्रे यतीनां कल्पनीया भवन्ति, यद् वा तत्र शालीनां - कलमादीनां फलानां -चिर्भटादीनाम् आदिशब्दाद् योवारिप्रभृतीनां धान्यानां विक्रीयमाणानां निष्क्रये तैलं वा लवणं गुडो वा पते, एषा सर्वाऽपि क्षेत्रविषया सागारिकांशिका ॥ ३६४७ ॥ विभागः ४ पत्रम् १०१३ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० त्रयोदशं परिशिष्टम् [८ विद्यादि] (१) आभोगिनी विद्या आभोगिनी नाम विद्या सा भण्वते या परिजपिता सती मानसं परिच्छेदमुत्पादयति । विभागः ४ पत्रम् १२५० (२) अश्व-महिष-दृष्टिविषसर्पोत्पादनादि तत्र योनिप्राभृतादिना यदेकेन्द्रियादिशरीराणि निर्वर्त्तयति, यथा सिद्धसेनाचार्येणाश्वा उत्पादिताः। जहा वा एगेणायरिएण सीसस्स जोगो उवदिट्ठो जहा महिसो भवति । तं च सुतं आयरियाणं भाइणिजेण । सो निद्धम्मो उन्निक्खंतो महिसं उप्पाएर सोयरियाण हत्थे विक्किणइ । आयरिएण सुतं । तत्थ गतो इ-कि एतेणं? अहं ते रयणजोगं पयच्छामि, दव्वे आहराहि। ते अ आहरिया । आयरिएण संजोइया । एगते निक्खित्ता भणितो-एत्तिएण कालेण उक्खणिज्जासि, अहं गच्छामि । तेण उक्खतो दिट्टीविसो । सो तेण मारितो। एवं अहिगरणच्छेदो। सो वि सप्पो अंतोमुहत्तण मओ त्ति ॥ विभागः ३ पत्रम् ७५३-५४ (३) यत्रप्रतिमा ___एमेव य आगंतुं, पालित्तयबेट्टिया जवणे ॥ ४९१५॥ xxx आगन्तुकं नाम यदन्यत आगतम् । xxx तथा चात्र पादलिप्ताचार्यकृता 'बेट्टिक' त्ति राजकन्यका दृष्टान्तः । स चायम् पालित्तायरिएहिं रन्नो भगिणीसरिसिया जंतपडिमा कया। चंकमणुम्मेस-निमेसमयी तालविंटहत्था आयरियाणं पुरतो चिट्ठइ । राया वि अइव पालित्तगस्स सिणेहं करेइ । धिज्जाइएहिं पउडेहिं रनो कहियंभगिणी ते समणएणं अभिओगिआ। राया न पत्तियति । भणिओ य-पेच्छ, दंसेमु ते । राया आगतो। पासित्ता पालित्तयाणं रुटो पच्चोसरिओ य । तओ सा आयरिएहिं चड त्ति विकरणी कया। राया सुट्टतरं आउट्टो॥ एवमागन्तुका अपि स्त्रीप्रतिमा भवन्ति । 'जवणे' त्ति यवनविषये ईशानि स्त्रीरूपाणि प्राचुयेण क्रियन्ते ॥ ४९१५ ॥ विभागः ५ पत्रम् १३१५-१६ [९ जनपद-ग्राम-नगरादिविभागः] (१) आर्या-ऽनार्यजनपद-जात्यादि कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा पुरत्थिमेणं जाव अंग-मगहाओ एत्तए, दक्खिणेणं जाव कोसंबीओ, पञ्चत्थिमेणं जाव थूणाविसयाओ, उत्तरेणं जाव कुणालाविसयाओ एत्तए । एताव ताव कप्पइ । एताव ताव आरिए खेत्ते णो से कप्पइ एत्तो बाहिं । तेण परं जत्थ नाण-दसण-चरित्ताई उस्सप्पति त्ति बेमि ॥ (उद्देशः १ सूत्रम् ५०) अस्य व्याख्या-कल्पते निम्रन्थानां वा निम्रन्थीनां वा पूर्वस्यां दिशि यावदङ्ग-मगधान् ‘एतुं' विहर्तुम् । अका नाम चम्पाप्रतिबद्धो जनपदः, मगधा राजगृहप्रतिबद्धो देशः । दक्षिणस्यां दिशि यावत् कौशाम्बीमेतुम् । प्रतीच्यां दिशि स्थूणाविषयं यावदेतुम् । उत्तरस्यां दिशि कुणालाविषयं यावदेतुम् । सूत्रे पूर्व-दक्षिणादिपदेभ्यस्तृतीयानिर्देशो लिङ्गव्यत्ययश्च प्राकृतत्वात् । एतावत् तावत् क्षेत्रमवधीकृत्य विहर्तुं कल्पते। Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशं परिशिष्टम् १७१ कुतः ? इत्याह-एतावत् तावद् यम्मादार्य क्षेत्रम् , नो "से" तस्य निर्ग्रन्थस्य निर्ग्रन्थ्या वा कल्पते 'अतः' एवंविधाद् आर्यक्षेत्राद् बहिविहर्तुम् । 'ततः परं' बहिर्देशेषु अपि सम्प्रतिनृपतिकालादारभ्य यत्र ज्ञान-दर्शनचारित्राणि 'उत्सर्पन्ति' स्फातिमासादयन्ति तत्र विहर्त्तव्यम् । 'इतिः' परिसमाप्तौ । ब्रवीमि इति तीर्थकर-गणधरोपदेशेन, न तु खमनीषिकयेति सूत्रार्थः ॥ विभागः ३ पत्रम् ९०५-७ साएयम्मि पुरवरे, सभूमिभागम्मि वद्धमाणेण। सुत्तमिणं पण्णत्तं, पडुच्च तं चेव कालं तु ॥ ३२६१ ॥ साकेते पुरवरे सभूमिभागे उद्याने समवसृतेन भगवता, वर्द्धमानस्वामिना सूत्रमिदं 'तमेव' वर्तमानं कालं प्रतीत्य निर्मन्थ-निर्ग्रन्थीनां पुरतः प्रज्ञप्तम् ॥ ३२६१ ॥ कथम् ? इत्याह मगहा कोसंबी या, थूणाविसओ कुणाल विसओ य । एसा विहारभूमी, एतावंताऽऽरियं खेत्तं ॥ ३२६२ ॥ पूर्वस्यां दिशि मगधान दक्षिणस्यां दिशि कौशाम्बी अपरस्यां दिशि स्थूणाविषयं उत्तरस्यां दिशि कुणालाविषयं यावद् ये देशा एतावदार्यक्षेत्रं मन्तव्यम् । अत एव साधूनामेषा विहारभूमी। इतः पर निम्रन्थ-निर्ग्रन्थीनां विहर्तुं न कल्पते ॥ ३२६२ ॥ अथार्यपदस्य निक्षेपनिरूपणायाऽऽह नाम ठवणा दविए, खेत्ते जाती कुले य कम्मे य । भासारिय सिप्पारिय, णाणे तह दसण चरित्ते ॥ ३२६३॥ नामार्याः स्थापनार्याः द्रव्यार्याः क्षेत्रार्याः जाल्यार्याः कुलार्याः कार्याः भाषार्याः शिल्पार्या ज्ञानार्या दर्शनार्याश्चारित्रार्याश्चेति । तत्र नाम-स्थापने सुप्रतीते । द्रव्यार्या नामनादियोग्याः तिनिशवृक्षप्रभृतयः । क्षेत्रार्या अर्द्धषविंशतिजनपदाः तद्वासिनो वा । ते च जनपदा राजगृहादिनगरोपलक्षिता मगधादयः । उक्तञ्च रायगिह मगह १ चंपा, अंगा २ तह तामलित्ति वंगा य ३ । कंचणपुरं कलिंगा ४, वाणारसि चेव कासी य ५॥१॥ साकेत कोसला ६ गयपुरं च कुरु ७ सोरियं कुसहा य ८ । कंपिल्लं पंचाला ९, अहिछत्ता जंगला चेव १० ॥ २ ॥ वारबई य सुरट्ठा ११, विदेह मिहिला य १२ वच्छ कोसंबी १३ । नंदिपुरं संडिब्भा १४, भद्दिलपुरमेव मलया य १५ ॥३॥ वेराड वच्छ १६ वरणा, अच्छा १७ तह मत्तियावइ दसन्ना १८ । सुत्तीवई य चेदी १९, वीयभयं सिंधुसोवीरा २० ॥ ४ ॥ महुरा य सूरसेणा २१, पावा भंगी य २२ मासपुरि वट्टा २३ । सावत्थी य कुणाला २४, कोडीवरिसं च लाढा य २५॥५॥ सेयविया विय नगरी, केगइअद्धं च आरियं भणियं । जत्थुप्पत्ति जिणाणं, चक्कीणं राम-कण्हाणं ॥६॥ ३२६३ ॥ सम्प्रति जात्यार्यानाहअंबट्ठा य कलंदा य, विदेहा विदका ति य।। हारिया तुंतुणा चेव, छ एता इन्भजातिओ॥ ३२६४ ॥ इह यद्यप्याचारादिषु शास्त्रान्तरेषु बहवो जातिभेदा उपवर्ण्यन्ते तथापि लोके एता एवाम्बष्ठ-कलिन्दवैदेह-विटक-हारित-तन्तणरूपाः 'इभ्यजातयः' अभ्यर्चनीया जातयः प्रसिद्धाः। तत एताभिर्जातिभिरुपेता जात्यार्याः, न शेषजातिभिरिति । ॥ ३२६४ ॥ अथ कुलार्यान् निरूपयति उग्गा भोगा राइण्ण खत्तिया तह य णात कोरव्वा । इक्खागा वि य छट्ठा, कुलारिया होंति नायव्वा ॥ ३२६५॥ 'उग्राः' उपदण्डकारिखादारक्षिकाः । 'भोगाः' गुरुस्थानीयाः । 'राजन्याः' वयस्याः । 'क्षत्रियाः' Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशं परिशिष्टम् सामान्यतो राजोपजीविनः । 'ज्ञाताः' उदारक्षत्रियाः, 'कोरवाः' कुरुवंशोद्भवाः, एते द्वयेऽप्येक एव भेदः । 'इक्ष्वाकवः' ऋषभनाथवंशजाः षष्टाः । एते कुलार्या ज्ञातव्याः ॥ ३२६५ ॥ __ 'भाषाः ' अर्धमागधभाषाभाषिणः । 'शिल्पार्याः' तुण्णाक-तन्तुवायादयः । ज्ञानार्याः पञ्चधा--आभिनिरोधिक-श्रुता-ऽवधि-मनःपर्यय-केवलज्ञानार्यभेदात् । दर्शनार्या द्विधा-सराग-वीतरागदर्शनार्यभेदात् । तत्र सरागदर्शनार्याः क्षायोपशमिकोपशमिकसम्यग्दृष्टिभेदाद् द्विधा । वीतरागदर्शनार्या उपशान्तमोहादयः । चारित्रार्याः पञ्चविधाः-सामायिक-च्छेदोपस्थाप्य-परिहारविशुद्धिक-सूक्ष्मसम्पराय-यथाख्यातभेदात्। अत्र च क्षेत्रायैरधिकारः॥ विभागः ३ पत्रम् ९१२-१४ (२) मण्डलम् मण्डलमिति देशखण्डम् , यथा पण्णवतिमण्डलानि सुराष्ट्रादेशः। विभागः २ पत्रम् २९८ (३) जनपदप्रकारौ आणुग जंगल देसे, वासेण विणा वि तोसलिग्गहणं। पायं च तत्थ वासति, पउरपलंबो उ अन्नो वि ॥ १०६१ ॥ देशो द्विधा-अनूपो जङ्गलश्च । नद्यादिपानीयबहुलोऽनूपः, तद्विपरीतो जङ्गलः निर्जल इत्यर्थः । यद्वा अनूपो अजङ्गल इति पर्यायौ । तत्रायं तोसलिदेशो यतोऽनूपो यतश्चास्मिन् देशे वर्षेण विनाऽपि सारणीपानीयैः सस्यनिष्पत्तिः, अपरं च 'तत्र' तोसलिदेशे 'प्रायः' बाहुल्येन वर्षति ततोऽतिपानीयेन विनष्टेषु सस्येषु प्रलम्बोपभोगो भवति; अन्यच्च तोसालिः प्रचुरप्रलम्बः, तत एतैः कारणैस्तोसलिग्रहणं कृतम् । अन्योऽपि य ईदृशः प्रचुरप्रलम्बस्तत्राप्येष एव विधिः ॥ १०६१ ॥ विभागः २ पत्रम् ३३१-३२ (४) ग्राम-नगर-खेट-कर्बट-मडम्ब-पत्तनादि गम्मो गमणिजो वा, कराण गसए व बुद्धादी ॥ १०८८ ॥ गम्यो गमनीयो वा अष्ठादशानां कराणामिति व्युत्पत्त्या, असते वा बुद्ध्यादीन् गुणानिति व्युत्पत्त्या वा पृषोदरादिखाद् निरुक्तविधिना ग्राम उच्यते ॥ १०८८ ॥ नत्थेत्थ करो नगरं, खेडं पुण होह धूलिपागारं । कब्बडगं तु कुनगरं, मडंबगं सव्वतो छिन्नं ॥ १०८९॥ 'नास्ति' न विद्यतेऽत्राष्टादशकराणामेकोऽपि कर इति नकरम् , नखादित्वाद् नोऽकाराभावः । खेटं पुनधूलीप्राकारपरिक्षिप्तम् । कटं तु कुनगरमुच्यते । मडम्बं नाम यत् 'सर्वतः' सर्वासु दिक्षु च्छिन्नम् , अर्द्धतृतीयगव्यूतमर्यादायामविद्यमानग्रामादिकमिति भावः । अन्ये तु व्याचक्षते-यस्य पार्श्वतो अर्धतृतीययोजनान्तर्यामादिकं न प्राप्यते तद् मडम्बम् ॥ १०८९ ॥ जलपट्टणं च थलपट्टणं च इति पट्टणं भवे दुविहं। अयमाइ आगरा खलु, दोणमुहं जल-थलपहेणं ॥ १०९० ॥ पत्तनं द्विधा-जलपत्तनं च स्थलपत्तनं च । यत्र जलपथेन नावादिवाहनारूढं भाण्डमुपैति तद् जलपत्तनम् , यथा द्वीपम् । यत्र तु स्थलपथेन शकटादौ स्थापितं भाण्डमायाति तत् स्थलपत्तनम्, यथा आनन्दपुरम् । अयः-लोहं तदादय आकरा उच्यन्ते । यत्र पाषाणधातुधमनादिना लोहमुत्पाद्यते स अयआकरः, आदिशब्दात् ताम्र-रूप्याद्याकरपरिग्रहः । यस्य तु जलपथेन स्थलपथेन च द्वाभ्यामपि प्रकाराभ्यां भाण्डमागच्छति तद् द्वयोः पथोर्मुखमिति निरुक्त्या द्रोणमुखमुच्यते, तञ्च भृगुकच्छं ताम्रलिप्ती वा ॥ १०९० ॥ निगम नेगमवग्गो, वसइ जहिं रायहाणि जहि राया। तावसमाई आसम, निवेसो सत्थाइजत्ता वा ॥ १०९१ ॥ Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशं परिशिष्टम् १७३ निगमं नाम यत्र नैगमाः-वाणिजकविशेपास्तेषां वर्ग:-समूहो वसति, अन एवं निगमे भवा नैगमा इति व्यपदिश्यन्ते । यत्र नगरादौ राजा परिवसति सा राजधानी । आश्रमो यः प्रथमतस्तापसादिभिरावासितः, पश्चादपरोऽपि लोकन्तत्र गत्वा वसति । निवेशो नाम यत्र सार्थ आवासितः, आदिग्रहणेन ग्रामो वा अन्यत्र प्रस्थितः सन् यनान्तरावासमधिवसति, यात्रायां वा गतो लोको यत्र तिष्टति, एप सर्वोऽपि निवेश उच्यते ॥ १०९१॥ संबाहो संवोढुं, वसति जहिं पव्वयाइविसमेसु । घोसो उ गोउलं अंसिया उ गामद्धमाईया ॥ १०९२॥ सम्बाधो नाम यत्र कृषीवललोकोऽन्यत्र कर्पणं कृत्रा वणिग्वर्गो वा वाणिज्यं कृत्वाऽन्यत्र पर्वतादिषु विषमे स्थानेषु “संवोढुं” इति कणादिकं समुह्य कोष्टागारादौ च प्रक्षिप्य वसति । तथा घोषस्तु गोकुल भिधीयते। अंशिका तु यत्र ग्रामस्यार्धम् आदिशब्दात् त्रिभागो वा चतुर्भागो वा गला स्थितः सा ग्रामस्यांश एवांशिका ॥ १०९२॥ नाणादिसागयाण, भिजंति पुडा उ जत्थ भंडाणं । पुडभेयणं तगं संकरो य केसिंचि कायव्वो ॥ १०९३॥ नानाप्रकाराभ्यो दिग्भ्य आगतानां 'भाण्डानां' कुङ्कुमादीनां पुटा यत्र विक्रयार्थ भिद्यन्ते तत् पुटभेदनमुच्यते । केषाश्चिदाचार्याणां मतेन सङ्करश्च कर्त्तव्यः, “संकरंसि वा" इत्यधिकं पदं पठितव्यमित्यर्थः । सङ्करो नाम-किञ्चिद् ग्रामोऽपि खेटमपि आश्रमोऽपीत्यादि ॥ १०९३ ॥ विभागः २ पत्रम् ३४२-४३ (५) सूत्रपातानुसारेण ग्रामस्य प्रकाराः उत्ताणग ओमंथिय, संपुडए खंडमल्लए तिविहे । भित्ती पडालि वलभी, अक्खाडग रुयग कासवए ॥ ११०३॥ अस्ति ग्राम उत्तानकमल्लकाकारः, अस्ति ग्रामोऽवामुखमल्लकाकारः, एवं सम्पुटकमल्ल. काकारः। खण्डमल्लकमपि त्रिविधं वाच्यम् । तद्यथा-उत्तानकखण्डमल्लकसंस्थितः अवाड्मुखखण्डमल्लुकसंस्थितः सम्पुटकखण्डमल्लकसंस्थितश्च । तथा भित्तिसंस्थितः पडालिकासंस्थितः वलभीसंस्थितः अक्षपाटकसंस्थितः रुचकसंस्थितः काश्यपसंस्थितथेति ॥ ११०३ ॥ अथैषामेव संस्थानानां यथाक्रमं व्याख्यानमाह मझे गामस्सऽगडो, बुद्धिच्छेदा ततो उ रजूओ। निक्खम्म मूलपादे, गिण्हतीओ वई पत्ता ॥ ११०४॥ इह यस्य ग्रामस्य मध्यभागे 'अगडः' कूपस्तस्य बुद्ध्या पूर्वादिषु दिक्षु च्छेदः परिकल्प्यते, ततश्च कूपस्याधस्तनतलाद् बुद्धिच्छेदेन रजवो दिक्षु विदिक्षु च निष्काम्य गृहाणां मूलपादान् उपरि कृत्वा गृहत्यस्तिर्यक् तावद् विस्तार्यन्ते यावद् ग्रामपर्यन्तवर्तिनी वृति प्राप्ता भवन्ति. तत उपर्यभिमुखीभूय तावद् गता यावद् उच्छ्रयेण हर्म्यतलानां समीभूताः तत्र च पटहच्छेदेनोपरताः, एष ईदृश उत्तानमल्लकसंस्थितो ग्राम उच्यते, ऊर्वाभिमुखस्य शरावस्यैवमाकारत्वात् ॥ ११०४ ॥ ओमंथिए वि एवं, देउल रुक्खो व जस्स मज्झम्मि । कूवस्सुवरि रुक्खो, अह संपुडमल्लओ नाम ॥ ११०५॥ अवाङ्मुखमल्लकाकारेऽप्येवमेव वाच्यम् , नवरं यस्य ग्रामस्य मध्ये देवकुलं वृक्षो वा उच्चस्तरस्तस्य देवकुलादेः शिखराद् रजवोऽवतार्य तिर्यक् तावद् नीयन्ते यावद् वृति प्राप्ताः, ततोऽधोमुखीभूय गृहाणां मूलपादान् गृहीला पटहच्छेदेनोपरताः, एषोऽवाड्मुखमल्लकसंस्थितः । तथा यस्य ग्रामस्य मध्यभागे कूपः, तस्य चोपर्युचतरो वृक्षः, ततः कूपस्याधस्तलाद् रजवो निर्गत्य मूलपादानधोऽधस्तावद् गता यावद् वृति Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशं परिशिष्टम् प्राप्ताः, तत ऊद्धभिमुखीभूय गत्वा हर्म्यतलानां समश्रेणीभूताः, वृक्षशिखरादप्यवतीर्य रज्जवस्तथैव तिर्यग् वृति प्राप्नुवन्ति, ततोऽधोमुखीभूय कूपसम्बन्धिनीनां रज्जूनामग्रभागः समं सङ्घयन्ते, अथैष सम्पुटकमलकाकारो नाम ग्रामः ॥ ११०५॥ जइ कृवाई पासम्मि होंति तो खंडमल्लओ होइ। पुवावररुक्खेहिं, समसेढीहिं भवे भित्ती ॥ ११०६॥ यदि 'कृपादीनि' कूप-वृक्ष-तदुभयानि 'पार्श्व' एकस्यां दिशि भवन्ति ततः खण्डमलकाकारस्त्रिविधोऽपि ग्रामो यथाक्रम मन्तव्यः । तत्र यस्य ग्रामस्य बहिरेकस्यां दिशि कूपः तामेवैको दिशं मुक्खा शेषासु सप्तसु दिक्षु रजवो निर्गत्य वृतिं प्राप्योपरिहर्म्यतलान्यासाद्य पटहच्छेदेनोपरमन्ते, एष उत्तानकखण्डमल्लकाकारः । अवाङ्मुखखण्डमल्लकाकारोऽप्येवमेव, नवरं यस्यैकस्यां दिशि देवकुलमुच्चैस्तरो वा वृक्षः । सम्पटकखण्डमलकाकारस्तु यस्येकस्यां दिशि कूपस्तदुपरिष्टाच वृक्षः, शेषं प्राग्वत् । “पुव्वावर" इत्यादि, पूर्वस्यामपरस्यां च दिशि समश्रेणिव्यवस्थितक्षेर्भित्तिसंस्थितो ग्रामो भवेत् ॥ ११०६ ॥ 'पासट्ठिए पडाली, वलभी चउकोण ईसि दीहा उ। चउकोणेसु जई दुमा, हवंति अक्खाडतो तम्हा ॥ ११०७ ॥ पडालिकासंस्थितोऽप्येवमेव, नवरमेकस्मिन् पार्श्व वृक्षयुगलं समश्रेण्या व्यवस्थितम् । तथा यस्य ग्रामस्य चतुर्वपि कोणेषु ईषद्दीर्घा वृक्षा व्यवस्थिताः स वलभीसंस्थितः । 'अक्षवाटः' मल्लानां युद्धाभ्यासस्थानम् , तद् यथा समचतुरस्रं भवति एवं यदि ग्रामस्यापि चतुर्पु कोणेपु द्रुमा भवन्ति ततोऽसौ चतुर्विदिग्वतिभिवृक्षैः समचतुरस्रतया परिच्छिद्यमानवादक्षपाटकसंस्थितः ॥ ११०७ ॥ वहागारठिएहिं, रुयगो पुण वेढिओ तरुवरेहि। तिकोणो कासवओ, छुरघरगं कासवं विती ॥ ११०८ ॥ यद्यपि प्रामः स्वयं न समस्तथापि यदि रुचकवलयशैलवद् वृत्ताकारव्यवस्थितेर्वेष्टितस्तदा रुचकसंस्थितः । यस्तु ग्राम एव त्रिकोणतया निविष्टो वृक्षा वा त्रयो यस्य बहिरूयस्राः स्थिताः, एकतो द्वावन्यतस्वेक इत्यर्थः, एष उभयथाऽपि काश्यपसंस्थितः । काश्यपं पुनर्नापितस्य संबन्धि क्षुरगृहं ब्रुवते, तद् यथा त्र्यसं भवत्येवमयमपि ग्राम इति ॥ ११०८ ।। विभागः २ पत्रम् ३४५-४६-४७ (६) प्राकारमेदास्तत्स्थानानि च पासाणिग-मट्टिय-खोड-कडग-कंटिगा भवे व्वे । खाइय-सर-नइ-गड्डा-पव्वय-दुग्गाणि खेत्तम्मि ॥ ११२३ ॥ पापाणमयः प्राकारो यथा द्वारिकायाम् , इष्टकामयः प्राकारो यथाऽऽनन्दपुरे, मृत्तिकामयो यथा सुमनोमुखनगरे, “खोड" त्ति काष्ठमयः प्राकारः कस्यापि नगरादेर्भवति, कटकाः-वंशदलादिमयाः कण्टिका:-बुब्वूलादिसम्बन्धिन्यः तन्मयो वा परिक्षेपो ग्रामादेर्भवति, एष सर्वोऽपि द्रव्यपरिक्षेपः । क्षेत्रपरिक्षेपस्त खातिका वा सरो वा नदी वा गर्ता वा पर्वतो वा दुर्गाणि वा-जलदुर्गादीनि पर्वता एव दुर्गाणि वा, एतानि नगरादिकं परिक्षिप्य व्यवस्थितानि क्षेत्रपरिक्षेप उच्यते ॥ ११२३ ॥ विभागः २ पत्रम् ३५१ (७) भिन्नभिन्नजनपदेषु धान्यनिष्पत्तिप्रकाराः तत्रायं तोसलिदेशो यतोऽनूपो यतश्चास्मिन् देशे वर्षेण विनाऽपि सारणीपानीयैः सस्यनिष्पत्तिः । विभागः २ पत्रम् ३३२ अब्भे नदी तलाए, कूवे अइपुरए य नाव वणी। मंस-फल-पुप्फभोगी, वित्थिन्ने खेत्त कप्प विही ॥ १२३९ ॥ स देशदर्शनं कुर्वन् जनपदानां परीक्षां करोति-कस्मिन् देशे कथं धान्यनिष्पत्तिः । तत्र क्वचिद् देशेऽत्रैः सस्यं निष्पद्यते, वृष्टिपानीयरित्यर्थः, यथा लाटविषये । क्वापि नदीपानीयैः, यथा सिन्धुदेशे । Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदश परिशिष्टम् क्वचित्तु तडागजलैः, यथा द्रविडविपये । वापि कृपपानीयः, यथा उत्तरापथे । कचिदतिपूरकेण, यथा वन्नासायां पूरादवरिच्यमानायां तत्पूरपानीयभावितायां क्षेत्रभूमी धान्यानि प्रकीर्यन्ते; यथा वा डिम्भरेलके महिरावणपूरेण धान्यानि वपन्ति । “नाव" इति यत्र नाचमारोप्य धान्यमानीतमुपभुज्यते, यथा काननहीपे। "वणि" ति यत्र वाणिज्येनैव निरुपजायते न कपणेन, यथा मथुरायाम । 'मंस' ति यत्र दुर्भिक्षे समापतिते मांसेन कालोऽतिवाह्यते । तथा यत्र पुष्प-फलभोगी प्राचुर्येण लोकः, यथा कोकणादिषु । तथा कानि विस्तीर्णानि क्षेत्राणि? कानि वा सङ्क्षिप्तानि?। 'कप्पे' त्ति कस्मिन् क्षेत्रे कः कल्पः?, यथा सिन्धुविपये निमिषाद्याहारोऽगर्हितः । 'विहि' ति कस्मिन् देशे कीदृशः समाचारः ? यथा सिन्धुपु रजकाः सम्भोज्याः, महाराष्ट्रविषये कल्पपाला अपि सम्भोज्या इति ॥ १२३९ ॥ विभागः २ पत्रम् ३८३-८४ "उत्तरापधे अरघटेहिं” इति चूर्णी ॥ विभागः २ पत्रम् ३८३ टि० १ (८) पणित-भाण्ड-कर्म-पचन-इन्धनशालाः व्याधरणशाला च कोलालियावणो खलु, पणिसाला भंडसाल जहिं भंडं । कुंभारकुडी कम्मे, पयणे वासासु आवाओ ॥ ३४४५॥ तोसलिए वग्घरणा, अग्गीकुंडं तहिं जलति निच्चं । तत्थ सयंवरहेडं, चेडा चेडी य छुब्भंति ॥ ३४४६॥ कौलालिकाः--कुलालक्रय-विक्रयिणः तेषामापणः पणितशाला मन्तव्या । किमुक्तं भवति? यत्र कुम्भकारा भाजनानि विक्रीणते, वणिजो वा कुम्भकारहस्ताद् भाजनानि क्रीला यत्रापणे विक्रीणन्ति सा पणितशाला। भाण्डशाला यत्र घट-करकादिभाण्डजातं संगोपितमास्ते । कर्मशाला कुम्भकारकुटी, यत्र कुम्भकारो घटादिभाजनानि करोतीत्यर्थः । पचनशाला नाम यत्राऽऽपाकस्थाने वासु भाजनानि पच्यन्ते । इन्धनशाला तु यत्र तृण-करीष-कचवराम्तिष्ठन्ति ॥ ३४४५ ॥ व्याघरणशाला नाम--तोसलि विषये ग्राममध्ये शाला क्रियते, तत्राग्निकुण्डं स्वयंवरहेतोनित्यमेव तत्र च बहवश्वेटकाः एका च स्वयंवरा चेटिका प्रक्षिप्यन्ते प्रवेश्यन्ते इत्यर्थः । यस्तेषां मध्ये तस्यै प्रतिभाति तमसो वृणीते एषा व्याघरणशाला।। विभागः ४ पत्रम् ९६३ [१० विशिष्टग्राम-नगर-जनपदादि] (१) अन्ध्रजनपदः _ 'देशतः' नानादेशानाश्रिल्यानेकविधम् , यथा--मगधानां ओदनः, लाटानां कूरः द्रमिलानां चौरः, अन्ध्राणां इडाकुरिति । विभागः१ पत्रम् २० (२) अवन्तीजनपदः पजोए णरसीहे, णव उजेणीए कुत्तिया आसी ॥ ४२२० ॥ xxx चण्डप्रद्योतनाम्नि नरसिंहे अवन्तीजनपदाधिपत्यमनुभवति नव कुत्रिकापणाः उज्जयिन्यामासीरन् । विभागः ४ पत्रम् ११४५ (३) आनन्दपुरम् यत्र तु स्थलपथेन शकटादौ स्थापितं भाण्डमायाति तत् स्थलपत्तनम्, यथा आनन्दपुरम् । विभागः २ पत्रम् ३४२ इष्टकामयः प्राकारो यथाऽऽनन्दपुरे,। विभागः २ पत्रम् ३५१ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशं परिशिष्टम् sage पादीणवाहम्मि ॥ ३१५० ॥ 'प्राचीनवाहः' सरस्वत्याः सम्बन्धी पूर्वदिगभिमुखः प्रवाहः, तत्राऽऽनन्दपुरवास्तव्यो लोको गला यथाविभवं शरदि सङ्घडिं करोति ॥ ३१५० ॥ विभागः ३ पत्रम् ८८३-८४ " पायीणवा हो सरस्सतीए, तत्थ आणंदपुरगा जधाविभवेणं वच्चति सरए” इति चूर्णो विशेषचूर्णै विभागः ३ पत्रम् ८८३ टि०७ च । (४) उज्जयिनी नगरी १७६ जीवन्त स्वामिप्रतिमावन्दनार्थमुज्जयिन्यामार्यसुहस्तिन आगमनम् । तत्र च रथयात्रायां राजाङ्गणप्रदेशे रथपुरतः स्थितान् आर्यसुहस्तिगुरून् दृष्ट्वा नृपतेर्जातिस्मरणम् । विभागः ३ पत्रम् ९१८ तोस लिनगरे इसी य इसिवालो |० ॥ ४२१९ ॥ तोसलिनगर वास्तव्येन च वणिजा ऋषिपालो नाम वानमन्तर उज्जयिनीकुत्रिकापणात् कीला स्वबुद्धिमाहात्म्येन सम्यगाराधितः, ततस्तेन ऋषितडागं नाम सरः कृतम् | X X X एमेव तोसलीए, इसिवालो वाणमंतरो तत्थ । णिज्जित इसीतलागे, ० ॥ ४२२३ ॥ 'एवमेव' तोसलिनगरवास्तव्येन वणिजा उज्जयिनीमागम्य कुत्रिकापणाद् ऋषिपालो नाम वानमन्तरः क्रीतः । तेनापि तथैव निर्जितेन ऋषितडागं नाम सरश्च । विभागः ४ पत्रम् ११४५-४६ पजोए णरसीहे, णव उज्जेणीए कुत्तिया आसी ॥० ॥ ४२२० ॥ चण्डप्रद्योतनानि नरसिंहे अवन्तिजन पदाधिपत्यमनुभवति नव कुत्रिकापणाः उज्जयिन्यामासीरन् । विभागः ४ पत्रम् ११४५ (५) उत्तरापथः विभागः २ पत्रम् ३८३ विभागः २ पत्रम् ३८३ टि०४ छन्न उइगामअद्धेसु ॥ १७७६ ॥ इहोत्तरापथानां ग्रामस्य गामार्ध इति संज्ञा । आह च चूर्णिकृत् - गाममुनि देसभणिती, छन्नउइगामेसु त्ति भणियं होइ, उत्तरावहाणं एसा भणिइति ॥ १७७६ ॥ विभागः २ पत्रम् ५२४ क्वापि कूपपानीयैः सस्यं निष्पद्यते, यथा उत्तरापथे । “उत्तरापधे अरघट्टेहिं” इति चूर्णौ । दो सामरगा दीविञ्चगा तु सो उत्तरापथे एको । दो उत्तरापहा पुण, पाडलिपुत्तो हवति एको ॥ ३८९१ ॥ द्वीपं नाम सुराष्ट्राया दक्षिणस्यां दिशि समुद्रमवगाह्य यद् वर्त्तते तदीयौ द्वौ 'साभरको ' रूपको स उत्तरापथे एको रूपको भवति । द्वौ न उत्तरापथरूपकों पाटलिपुत्रक एको रूपको भवति ॥ ३८९१ ॥ विभागः ४ पत्रम् १०६९ चक्रे धूमाइता इतरे ॥ ५८२४ ॥ ये पुनरुत्तरापथे धर्मचक्रं मथुरायां देवनिर्मितस्तूप आदिशब्दान कोशलायां जीवन्तस्वामिप्रतिमा तीर्थकृतां वा जन्मादिभूमयः एवमादिदर्शनार्थं द्रवन्तो निष्कारणिकाः ।। ५८२४ ॥ विभागः ५ पत्रम् १५३६ (६) कच्छदेश: “बिहि नि जम्मि देसे जो जारिस आयारो, जधा सिंधुविसर विग्रडभायणे पाणयं अगरहितं भवति, कच्छविसए गिहृत्थसंसङ्के वि उबस्सए वसंताणं नन्दिोनो" इति विशेषचूर्णो । विभागः २ पत्रम् ३८४ टि०२ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७७ प्रयोदशं परिशिष्टम् (७) काञ्चीनगरी दो दक्षिणावहा तु, कंचीए णेलओ स दुगुणो य । एगो कुसुमणगरगो, ॥ ३८९२॥ दक्षिणापथौ द्वौ रूपको 'काञ्चीपुर्याः' द्रविडविषयप्रतिबद्धाया एकः 'नेलकः' रूपको भवति । 'सः' काञ्चीपुरीरूपको द्विगुणितः सन् कुसुमनगरसत्क एको रूपको भवति । विभागः ४ पत्रम् १०६९ (८) काननद्वीप: "नाव" इति यत्र नावमारोप्य धान्यमानीतमुपभुज्यते, यथा काननद्वीपे। विभागः २ पत्रम् ३८३-८४ (९) कुणालाजनपदः या ऐरावती नदी कुणालाजनपदे योजनार्धविस्तीर्णा जङ्घार्धमानमुदकं वहति तस्याः केचित् प्रदेशाः शुष्काः न तत्रोदकं वहति ॥ विभागः ५ पत्रम् १४९५ (१०) कुणालानगरी ऐरावती नाम नदी कुणालाया नगर्याः समीपे जवार्धप्रमाणेनोद्वैधेन वहति । विभागः ५ पत्रम् १४९१ (११) कुसुमनगरम् दो दक्षिणावहा तु, कंचीए णेलओ स दुगुणो य । एगो कुसुमनगरगो, ॥३८९२॥ दक्षिणापथौ द्वौ रूपको 'काञ्चीपुर्याः' द्रविडविषयप्रतिबद्धाया एकः 'नेलकः' रूपको भवति । 'सः' काञ्चीपुरीरूपको द्विगुणितः सन् कुसुमनगरसत्क एको रूपको भवति । विभागः ४ पत्रम् १०६९ (१२) कोकणदेशः तथा यत्र पुष्प-फलभोगी प्राचुर्येण लोकः, यथा कोङ्कणादिषु । विभागः २ पत्रम् ३८४ "पुष्फ त्ति जधा पुप्फविकएणं वित्ती भवति, एवं फलविक्कएण वि; अधवा पुष्फ-फलभोयणं जत्थ, जधा तोसलि-कोङ्कणेसु” इति चूर्णी। विभागः २ पत्रम् ३८४ टि०१ गिरिजनगमाईसु व, संखडि उक्कोसलंमे विइओ उ। अग्गिट्टि मंगलट्ठी, पंथिगवइगाइसू तइओ ॥ २८५५ ॥ गिरियज्ञो नाम-कोकणादिदेशेषु सायाह्नकालभावी प्रकरणविशेषः । आह च चूर्णिकृत्-गिरियज्ञः कोकणादिषु भवति उस्सूरे त्ति । विशेषचूर्णिकार पुनराह-गिरिजनो मतबालसंखडी भन्नइ, सा लाडविसए वरिसारत्ते भवइ त्ति । विभागः ३ पत्रम् ८०७ (१३) कोण्डलमिण्डपुरम् "अहवा कोंडलमिढे कोंडलमेंढो वाणमंतरो, देवद्रोणी भरुयच्छाहरणीए, तत्थ यात्राए बहुजणो संखडिं करेइ ।” इति चूर्णी विशेषचूर्णौ च । विभागः ३ पत्रम् ८८३ टि०७ (१४) कोशलापुरी .. वक्के थूभाश्ता इतरे ॥ ५८२४॥ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ त्रयोदशं परिशिष्टम् __ ये पुनरुत्तरापथे धर्मचक्र मथुरायां देवनिर्मितस्तूप आदिशब्दात् कोशलायां जीवन्तखामिप्रतिमा तीर्थकृतां वा जन्मादिभूमय एवमादिदर्शनार्थ द्रवन्तो निष्कारणिकाः ॥ ५८२४ ॥ विभागः ५पत्रम् १५३६ (१५) गोल्लविषयः पालङ्कशाकं महाराष्ट्रे गोल्लविषये च प्रसिद्धम् । “पालकं मरहट्टविसए गोल्लविसए य सागो जायइ" इति विशेषचूर्णी । विभागः २ पत्रम् ६०३ टि०४ (१६) चीनाजनपदः पट्ट सुवने मलए, अंसुग चीणंसुकै च विगलेंदी । ॥ ३६६२ ॥ चीनांशुको नाम-कोशिकाराख्यः कृमिः तस्माद् जातं चीनांशुकम् , यद्वा चीना नाम जनपदः तत्र यः श्लक्ष्णतरः पट्टः तस्माद् जातं चीनांशुकम् । विभागः ४ पत्रम् १०१८ (१७) डिम्भरेलकम् क्वचिदतिपूरकेण सस्यं निष्पद्यते, यथा बन्नासायां पूरादरिच्यमानायां तत्पूरपानीयभावितायां क्षेत्र. भूमौ धान्यानि प्रकीर्यन्ते; यथा वा डिम्भरेलके महिरावणपूरेण धान्यानि वन्ति। · विभाग: २ पत्रम् ३८३ (१८) ताम्रलिप्तीनगरी यस्य तु जलपथेन स्थलपथेन च द्वाभ्यामपि प्रकाराभ्यां भाण्डमागच्छति तद् द्वयोः पयोर्मुखनिति निरुत्या दोणमुखमुच्यते, तच्च भृगुकच्छं ताम्रलिप्ती वा। विभागः२ पत्रम् ३४२ नेमालि तामलित्तीय, सिंधूसोवीरमादिसु । सन्वलोकोवभोजाई, धरिज कसिणाई वि ॥ ३९१२ ॥ नेपालविषये ताम्रलिप्त्यां नगर्या सिन्धुसौवीरादिषु च विषयेषु सर्वलोकोपभोज्यानि कृत्वान्यपि वस्त्राणि धारयेत् ॥ ३९१२ ॥ विभागः ४ पत्रम् १०७३-७४ (१९) तोसलिदेशः आणुग जंगल देसे, वासेण विणा वि तोसलिग्गहणं । पायं च तत्थ वासति, पउरपलंबो उ अन्नो वि ॥ १०६१ ॥ देशो द्विधा-अभूपो जङ्गलश्च । नद्यादिपानीयबहुलोऽनुपः, तद्विपरीतो जालः निर्जल इत्यर्थः । यद्वा अनूपो अजङ्गल इति पर्यायौ । तत्रायं तोसलिदेशो यतोऽनूपो यतश्चास्मिन् देशे वर्षेण विनाऽपि सारणीपानीयैः सस्यनिष्पत्तिः, अपरं च 'तत्र' तोसलिदेशे 'प्रायः' बाहुल्येन वर्षति ततोऽतिपानीयेन विनष्टेषु सस्येषु प्रलम्बोपभोगो भवति, अन्यच्च तोसलिः प्रचुरप्रलम्बः, तत एतैः कारणैस्तोसलिग्रहणं कृतम् । अन्योऽपि य ईदृशः प्रचुरप्रलम्बस्तत्राप्येष एव विधिः ॥ १०६१॥ . विभागः २ पत्रम् ३३१-३२ "पुप्फ" त्ति जधा पुप्फविकएणं वित्ती भवति, एवं फलविकएण वि; अधवा पुप्फ-फलभोयणं जत्य, जधा तोसलि-कोङ्कणेसु” इति चूर्णी। विभागः२ पत्रम् ३८४ टि०१ आदेसो सेलपुरे, आदाणऽटाहियाए महिमाए । तोसलिषिसए विण्णवणट्ठा तह होति गमणं वा ॥ ३१४९ ॥ 'आदेशः' संखडिविषये दृष्टान्तोऽयम्-तोसलिविषये शैलपुरे नगरे ऋषितडागं नाम सरः । तत्र वर्षे वर्षे भूवान् लोकोऽष्टाहिकामहिमां करोति।x x x॥३१४९ ॥ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशं परिशिष्टम् १७९ सेलपुरे इसितलागम्मि होति अट्टाहिया महामहिमा। ॥ ३१५० ॥ तोसलिदेशे शैलपुरे मगरे ऋषितडागे सरसि प्रतिवर्ष महता विच्छनाष्टाहिकामहामहिमा भवति । विभागः ३ पत्रम् ८८३ तोसलिए वग्घरणा, अग्गीकुंडं तहिं जलति निश्चं। तत्थ सयंवरहेडं, चेडा चेडी य छुब्भंति ॥ ३४४६॥ व्याधरणशाला नाम तोसलिविषये ग्राममध्ये शाला क्रियते, तत्राग्निकुण्डं स्वयंवरहेतोनित्यमेव प्रज्वलति, तत्र च बहवश्चेटका एका च स्वयंवरा चेटिका 'प्रक्षिप्यन्ते' प्रवेश्यन्ते इत्यर्थः । यस्तेषां मध्ये तस्यै प्रतिभाति तमसौ वृणीते, एषा व्याघरणशाला । एतासु तिष्ठतां चत्वारो लघुकाः ॥ ३४४६ ॥ विभागः ४ पत्रम् ९६३ (२०) तोसलिनगरम् उजेणी रायगिहं, तोसलिनगरे इसी य इसिवालो। ॥४२१९ ॥ उज्जयिनी राजगृहं च नगरं कुत्रिकापणयुक्तमासीत् । तोसलिनगरवास्तव्येन च वणिजा ऋषिपालो नाम वानमन्तर उजयिनीकुत्रिकापणात् क्रीला खबुद्धिमाहात्म्येन सम्यगाराधितः, ततस्तेन अषितडागं नाम सरः कृतम्। विभागः ४ पत्रम् १९४५ (२१) दक्षिणापथः कपर्दकादयो मार्गयित्वा तस्य धीयन्ते, ताम्रमयं वा नाणकं यद् व्यवडियते, यथा दक्षिणापथे काकिणी। विभागः२ पत्रम् ५७३ तथा दक्षिणापथे कुडवार्द्धमात्रया समितया महाप्रमाणो मण्डकः क्रियते, स हेमन्तकालेऽरुणोदयवेलायां अमिष्टिकायां पक्त्वा धूलीजङ्घाय दीयते, तं गृहीला भुञानस्य तृतीयो भङ्गः। श्राद्धो वा प्रातर्गन्तुकामः साधु विचारभूमौ गच्छन्तं दृष्ट्वा मङ्गलार्थी अनुगते सूर्ये निमश्रयेत् , पथिका वा पन्थानं व्यतिव्रजन्तो निमन्त्रयेयुः ब्रजिकायां वाऽनुगते सूर्ये उचलितुकामाः साधुं प्रतिलाभयेयुः, एवमादिषु गृहीला भुञानस्य तृतीयो भनो भवति ॥ २८५५॥ विभागः ३ पत्रम् ८०८ दो दक्षिणावहा तु, कंचीए णेलओ स दुगुणो य। दक्षिणापथौ द्वौ रूपको काञ्चीपुर्याः द्रविडविषयप्रतिबद्धायाः एकः 'नेलकः' रूपको भवति । विभागः ४ पत्रम् १०६९ (२२) द्रविडजनपद 'देशतः' नानादेशानाश्रियानेकविधम् । यथा-मगधानामोदनः, लाटानां कूरः, द्रमिलानां चौरः, अन्ध्राणामिडाकुरिति । विभागः१ पत्रम् २० क्वचित्तु तडागजलैः [ सस्यं निष्पद्यते, ] यथा द्रविडविषये। विभागः २ पत्रम् ३८३ दो दक्षिणावहा तु, कंचीए णेलओ स दुगुणो य। दक्षिणापथौ द्वौ रूपको काञ्चीपुर्याः द्रविडविषयप्रतिवद्धायाः एकः 'नेलकः' रूपको भवति । विभागः ४ पत्रम् १०६९ (२३) द्वारिकापुरी पाषाणमयः प्राकारो यथा द्वारिकायाम् , विभागः २ पत्रम् ३५१ (२४) द्वीपवेलाकूलम् यत्र नम्पपेन नावादिनाना भाण्डमुपैति तज्जलपत्तनम्, यथा द्वीपम् । विभागः २ पमम् र Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० त्रयोदशं परिशिष्टम् 'द्वीपं नाम' सुराष्ट्राया दक्षिणस्यां दिशि समुद्रमवगाह्य यद् वर्त्तते तदीयौ द्वौ 'साभरको' रूपको स उत्तरापथे एको रूपको भवति । • विभागः ४ पत्रम् १०६९ (२५) धर्मचक्रभूमिका क्वचिद् धर्मचक्रभूमिकादौ देशे 'वचकं' दर्भाकारं तृणविशेषं 'मुजं च' शरस्तम्बं प्रथमं 'चिप्पिला' कुट्टयित्वा तदीयो यः क्षोदः तं कर्त्तयन्ति । ततः तैः वच्चकसूत्रैर्मुञ्जसूत्रैश्व 'गोणी' बोरको व्यूयते । प्रावरणा - Ssस्तरणानि च 'देशी' देशविशेषं समासाद्य कुर्वन्ति । विभागः ४ पत्रम् १०२२ (२६) नेपालविषयः मालि तामलित्तीय, सिंधूसोवीरमादिसु । सव्वलोकोवभोज्जाई, धरिज कसिणाइँ वि ॥ ३९१२ ॥ नेपालविषये ताम्रलिप्त्यां नगर्यो सिन्धुसौवीरादिषु च विषयेषु सर्वलोकोपभोज्यानि कृत्स्नान्यपि यत्राणि धारयेत् ॥ ३९१२ ॥ कुतः ? इत्याह आइन्नता ण चोरादी, भयं णेव य गारवो । उज्झाइवत्थवं चेव, सिंधूमादीसु गरहितो ॥ ३९१३ ॥ नेपालादी देशे सर्वलोकेनापि तादृग्वस्त्राणामाचीर्णता, न च तत्र चौरादिभयम् नैव च 'गौरवम्' 'अहो ! अमीदृशानि वस्त्राणि प्रावृणोमि' इत्येवंलक्षणम् अपि च उज्झाइतं विरूपं यद् वस्त्रं तद्वान् सिन्धुसौवीकादिषु गर्हितो भवति, अतस्तत्र कृत्नान्यपि परिभोक्तव्यानि ॥ ३९१३ ॥ विभागः ४ पत्रम् १०७३-७४ (२७) पाटलिपुत्रनगरम् पाडलिपुत्ते नगरे चंदगुत्तपुत्तस्स बिंदुसारस्स पुत्तो असोगो नाम राया । तस्स असोगस्स पुतो कुणालो उज्रेणीए । सा से कुमारभुत्तीए दिना । विभागः १ पत्रम् ८८ पाडलिपुत्ते नगरे चंदगुत्तो राया । सो य मोरपोसगपुत्तो ति जे खत्तिया अभिजात आणं परिभवन्ति ॥ विभागः ३ पत्रम् ७०४ को कुणालो ? कहं वा अंधो ? ति - पाडलिपुत्ते असोगसिरी राया । तस्स पुतो कुणालो । तस्स कुमारभुत्तीए उज्जेणी दिन्ना । सो य अट्ठवरिसो । रन्ना लेहो विसज्जितो - शीघ्रमधीयतां कुमारः । असंवत्तिए लेहे रण्णो उट्ठितस्स माइसवत्तीए कतं 'अन्धीयतां कुमारः सूयमेव तत्तसलागाए अच्छीणि अंजियाणि । सुतं रण्णा । गामो से दिण्णो । गंधव्वकलासिक्खणं । पुत्तस्स रजत्थी आगतो पाडलिपुत्तं असोगसिरिणो जवणियंतरिओ गंधव्वं करेइ । विभागः ३ पत्रम् ९१७ दो साभरगा दीविच्चगा तु सो उत्तरापथे एक्को । दो उत्तरापहा पुण, पाडलिपुत्तो हवति एक्को ॥ ३८९१ ॥ 'द्वीपं नाम' सुराष्ट्राया दक्षिणस्यां दिशि समुद्रमवगाह्य यद् वर्त्तते तदीयौ द्वौ 'साभरकौ' रूपकौ स उत्तरापथे एको रूपको भवति । द्वौ च उत्तरापथरूपको पाटलिपुत्रक एको रूपको भवति ॥ ३८९१ ।। अथवा दो दक्खिणावा तु, कंचीए णेलओ स दुगुणो य । एगो कुसुमणगरगो, तेण पमाणं इमं होति ॥ ३८९२ ॥ दक्षिणापथौ द्वौ रूपकौ काञ्चीपुर्या द्रविडविषयप्रतिबद्धाया एकः 'नेलकः ' रूपको भवति । 'सः' काञ्चीपुरीरूपको द्विगुणितः सन् कुसुमनगरसत्क एको रूपको भवति । कुसुमपुरं पाटलिपुत्रमभिधीयते । विभागः ४ पत्रम् १०६९ Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशं परिशिष्टम् १८१ (२८) पाण्डुमथुरा पाश्चात्यजनपदश्च अत्थस्स दरिसणम्मि वि, लद्धी एगंततो न संभवइ । दुटुं पि न याणते, बोहिय पंडा फणस सत्तू ॥४७॥ अर्थस्य दर्शनेऽपि कस्यचित् तदर्थविषया 'लब्धिः' अक्षराणां लब्धिरेकान्ततो न सम्भवति । तथा च 'बोधिकाः' पश्चिमदिग्वर्तिनो म्लेच्छाः पनसं दृष्ट्वाऽपि 'पनसः' इत्येवं न जानते, तेषां पनसस्यात्यन्तपरोक्षवात् , नहि तद्देशे पनसः सम्भवति । तथा 'पाण्डा' पाण्डुमथुरावासिनः सक्तून् दृष्ट्वाऽपि 'सक्तवोऽमी' इति न जानते, तेषां हि सक्तवोऽत्यन्तपरोक्षाः ततो न तद्दर्शनेऽपि तदक्षरलाभः ॥४७॥ विभागः १ पत्रम् १८ (२९) पूर्वदेशः ___ कवडुगमादी तंबे, रुप्पे पीते तहेव केवडिए । ॥ १९६९ ॥ कपर्दकादयो मार्गयिला तस्य दीयन्ते । ताम्रमयं वा नाणकं यद् व्यवहियते, यथा-दक्षिणापथे काकिणी । रूपमयं वा नाणकं भवति, यथा-भिल्लमाले द्रम्मः । पीतं नाम-सुवर्ण तन्मयं वा नाणकं भवति, यथा-पूर्वदेशे दीनारः। 'केवडिको नाम' यया तत्रैव पूर्वदेशे केतराभिधानो नाणकविशेषः । विभागः २ पत्रम् ५७३-७४ पूर्वदेशजं वस्त्रं लाटविषयं प्राप्य महाय॑म् । विभागः ४ पत्रम् १०६८ (३०) प्रतिष्ठानपुरम् पइट्टाणं नयरं । सालवाहणो राया । सो वरिसे वरिसे भरुयच्छे नहवाहणं (नरवाहणं प्रत्य०) रोहेइ । जाहे य वरिसारत्तो भवति ताहे सयं नयर पडियाइ । एवं कालो वच्चइ । विभागः १ पत्रम् ५२ (३१) प्रभासतीर्थम् कोंडलमेंढ पभासे, अब्बुय० ॥ ३१५०॥ प्रभासे वा तीर्थे अर्बुदे वा पर्वते यात्रायां सङ्घडिः क्रियते। विभागः ३ पत्रम् ८८३-८४ "पभासे अब्बुए य पव्वए जत्ताए संखडी कीरति" इति चूर्णी विशेषचूर्णौ च । विभागः ३ पत्रम् ८८३-८४ टि०७ (३२) भिल्लमालदेशः __ कवडुगमादी तंबे, रुप्पे पीते तहेव केवडिए । ॥ १९६९ ॥ कपर्दकादयो मार्गयिला तस्य दीयन्ते । ताम्रमयं वा नाणकं यद् व्यवहियते, यथा-दक्षिणापथे काकिणी । रूपमयं वा नाणकं भवति, यथा-भिल्लमाले दम्मः । पीतं नाम-मुवर्ण तन्मयं वा नाणकं भवति, यथा-पूर्वदेशे दीनारः । 'केवडिको नाम' यथा तत्रैव पूर्वदेशे केतराभिधानो नाणकविशेषः। विभागः २ पत्रम् ५७३-७४ (३३) भृगुकच्छपुरम् यस्य तु जलपथेन स्थलपथेन च द्वाभ्यामपि प्रकाराभ्यां भाण्डमागच्छति तद् द्वयोः पथोर्मुखमिति निरुक्त्या द्रोणमुखमुच्यते, तच्च भृगुकच्छं ताम्रलिप्ती वा। विभागः२पत्रम् ३४२ कोंडलमेंढ पभासे, ॥३१५०॥ तथा कुण्डलमेण्ठनानो वानमन्तरस्य यात्रायां भरकच्छपरिसरवती भूयान् लोकः सङ्घडिं करोति । विभागः ३ पत्रम् ८८३-८४ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशं परिशि "अहवालमिंढे कोंडलमेंढो वाणमंतरो देवद्रोणी भरुयच्छाहरणीय, तत्थ यात्राए बहुजणो संखार्ड करेइ ।” इति चूर्णौ विशेषचूर्णौ च । विभागः ३ पत्रम् ८८३ टि० ७ १८२ पजोए णरसीहे, णव उज्जेणीय कुत्तिया आसी । भरुयच्छवणियऽसद्दह, भूयऽट्ठम सयसहस्सेणं ॥ ४२२० ॥ कम्मम्मि अदिजंते, रुट्ठो मारेइ सो य तं घेतुं । भरुयच्छाऽऽगम वावारदाण खिष्पं च सो कुणति ॥ ४२२१ ॥ मीएण खंभकरणं, पत्थुस्सर जा ण देमि वावारं । णिज्जित भूततलागं, आसेण ण पेहसी जाव ॥ ४२२२ ॥ चण्डप्रद्योतनान्त्रि नरसिंहे अवन्तिजनपदाधिपत्यमनुभवति नव कुत्रिकापणा उज्जयिन्यामासौरन् । तदा किल भयरुच्छाओं एगो वाणियओ असद्दहंतो उज्जेणीए आगंतूण कुत्तियावणाओ भूयं मग्गइ | सेण कुत्तियावणवाणिएण चिंतियं - 'एस ताव मं पवंचेइ ता एवं मोलेण वारेमि' त्ति भणियं - जइ सय सहस्से देसि तो देमि भूयं । तेणं तं पि पडिवन्नं ताहे तेण भन्नइ - पंचरत्तं उदिक्खाहि तओ दाहामि । तेण अट्टमं काऊण देवो पुच्छिओ । सो भणइ - देहि, इमं च भणिहिज - जइ कम्मं न देसि तो भूओ तुमं उच्छाएहिइ । 'एवं भवउ' त्ति भणित्ता गहिओ तेण भूओ भगइ कम्मं मे देहि । दिनं तं खिप्पमेव कयं । पुणो मग्गइ, अन्नं दिनं । एवं सव्वम्मि कम्मे निट्ठिए पुणो भणइ - देहि कम्मं । तेण भन्नइ -- एत्थं खंमे चडुत्तरं करेहि जाव अन्नं किंचि कम्मं न देमि । भूओ भणइ --- अलाहि, पराजितो मि, चिंधं तें करेमि, जाव नावलोएसि तत्थ तलागं भविस्सइ । तेण अस्से विलग्गिऊण बारस जोयणाईं गंतूण पलोइयं जाव तक्खणमेव कयं तेण भरुयच्छस्स उत्तरे पासे भूयतलागं नाम तलागं । विभागः ४ पत्रम् ११४५ ३४) मगधाजनपदः 'देशतः ' नानादेशानाश्रित्यानेकविधम्, यथा - मगधानां ओदनः, लाटानां कूरः, इमिलानां चौरः, अन्ध्राणाम् इडाकुरिति । विभागः १ पत्रम् २० (३५) मथुरानगरी “वणि” त्ति यत्र वाणिज्येनैव वृत्तिरुपजायते न कर्षणेन, यथा मथुरायाम् । विभागः २ पत्रम् ३८४ तथा मथुरापुर्या गृद्देषु कृतेषु मङ्गलनिमित्तं यद् निवेश्यते तद् मङ्गलचैत्यम् । x x x अरहंतपइट्टाए, मडुरानयरीए मंगलाई तु । गेहेसु चश्चरेसु य, छन्नउईगाम अद्धेसु ॥ १७७६ ॥ मथुरानगर्या गृहे कृते मङ्गलनिमित्तमुत्तरङ्गेषु प्रथममर्हत् प्रतिमाः प्रतिष्ठाप्यन्ते, अन्यथा तद् गृहं पतति, तानि मङ्गलचैत्यानि । तानि च तस्यां नगर्या गेहेषु चत्वरेषु च भवन्ति । न केवलं तस्यामेव किन्तु तत्पुरी प्रतिबद्धा ये षण्णवतिसङ्ख्याका ग्रामार्द्धास्तेष्वपि भवन्ति । इहोत्तरापथानां ग्रामस्य ग्रामार्द्ध इति संज्ञा । आह च चूर्णिकृत् — गामद्धेसु त्ति देसभणिती, छन्नउईगामेसु त्ति भणियं होइ, उत्तरावहाणं एसा भणिइति ॥ विभागः २ पत्रम् ५२४ मथुरायां भण्डीरक्षयात्रायां कम्बल- शबलौ वृषभौ घाटिकेन मित्रेण जिनदासस्यानापृच्छया वाहितौ, तन्निमित्तं सञ्जातवैराग्यौ श्रावकेणानुशिष्ठौ भक्कं प्रत्याख्याय कालगतौ नागकुमारेषूपपन्नौ ॥ ५६२७ ॥ विभागः ५ पत्रम् १४८९ चक्के धूभाइता इतरे ॥ ५८२४ ॥ ये पुनरुत्तरापथे धर्मच मथुरायां देवनिर्मितस्तूप आदिशब्दात् कोशलायां जीवन्तस्वामिप्रतिमा तीर्थकृतां वा जन्मादिभूमय एवमादिदर्शनार्थं द्रवन्तो निष्कारणिकाः ॥ ५८२४ ॥ विभागः ५ पत्रम् १५३६ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयोदशं परिशिडम् महुराणत्ती दंडे, सहसा णिग्गम अपुच्छिउं कयरं । तस्स य तिक्खा आणा, दुहा गता दो वि पाडेउं ॥ ६२४४ ॥ गोयावरीए णदीए तडे पतिढाणं नगरं । तत्य सालवाहणो राया । तस्स खरओ अमञ्चो । अन्नया सो सालवाहणो राया दंडनायगमाणवेइ-महुरं घेतणं सिग्घमागच्छ । सो य सहसा अपुच्छिऊण दंडेहिं सह निग्गओ । तओ चिन्ता जाया--- का महुरा घेत्तव्वा ? दक्षिणमहरा उत्सरमडुरा वा ? । तस्स आणा तिक्खा, पुणो पुच्छिउं न तीरति । तओ दंडा दुहा काऊण दोसु वि पेसिया। गहियाओ दो वि महुराभो। विभागः६पत्रम् १६४७ थूभमह सविसमणी, बोहियहरणं तु णिवसुताऽऽतावे। मज्झेण य अक्कंदे, कयम्मि जुद्धेण मोएति ॥ ६२७५ ॥ महुरानयरीए थूभो देवनिम्मितो । तस्सं महिमानिमित्तं सवीतो समणीहि समं निग्गयातो । रायपुत्तो य तत्थ अदूरे आयावंतो चिट्ठइ । ताओ सड्डी-समणीओ बोहिएहिं गहियाओ तेणंतेणं आणियाओ । ताहिं तं साहुं दट्टणं अकंदो कओ । तओ रायपुत्तेण साहुणा जुद्धं दाऊ ण मोइयाओ ॥ विभागः६ पत्रम् १६५६ (३६) मलयदेशः पट्ट सुवन्ने मलए,०॥ ३६६२ ॥ मलयो नाम देशः, तत्सम्भवं मलयजम् । विभागः ४ पत्रम् १०१८ (३७) महाराष्ट्रदेश: अथ प्रभूतमुपकरणं न शक्नोति सर्वमेकवारं नेतुं तदा त्रिषु चतुर्पु वा कल्पेषु बद्धा 'कोल्लुकपरम्परकेण' महाराष्ट्रप्रसिद्धकोछुकचक्रपरम्परन्यायेन निष्काशयति । विभागः १ पत्रम् १६७ “विहि" त्ति कस्मिन् देशे कीदृशः समाचारः ? यथा सिन्धुषु रजकाः सम्भोज्याः, महाराष्ट्रविषये कल्पपाला अपि सम्भोज्या इति ॥ १२३९ ॥ विभागः २ पत्रम् ३८४ पालङ्कशाकं महाराष्ट्रादौ प्रसिद्धम् , विभागः २ पत्रम् ६०३ "पालकं महरटुविसए गोल्लविसए य सागो जायई" इति विशेषचूर्णी। विभागः २ पत्रम् ६०३ टि०४ अथवा विकुर्वितं नाम-महाराष्ट्रविषये सागारिकं विद्धवा तत्र विण्टकः प्रक्षिप्यते, विभागः३पत्रम् ७३० कस्यापि महाराष्ट्रादिविषयोत्पन्नस्य साधोरङ्गादानं वेष्टकविदम्। विभागः ३ पत्रम् ७४१ ___रसावणो तत्थ दिटुंतो ॥ ३५३९ ॥ अत्र 'रसापणः' मद्यहट्टो दृष्टान्तः । यथा-महाराष्ट्रदेशे रसापणे मद्यं भवतु वा मा दा तथापि तत्परिज्ञानार्थ तत्र ध्वजो बध्यते, तं ध्वजं दृष्ट्वा सर्वे भिक्षाचरादयः परिहरन्ति । विभागः ४ पत्रम् ९८५ नीलकंबलमादी तु, उणियं होति अच्चियं । सिसिरे तं पि धारेज्जा, सीतं नऽण्णेण रुब्भति ॥ ३९१४ ॥ नीलकम्बलादिकमौर्णिकं महाराष्ट्रविषये 'अर्चितं' महाग्रं भवति, तदपि तत्र प्राप्तः 'शिबिरे शीतकाले 'धारयेत्' प्रावृणुयादित्यर्थः, शीतं यतो नान्यन वस्त्रेण निरुध्यते ॥ ३९१४ ॥ विभागः ४ पत्रम् १०७४ (३८) यवनविषयः एमेव य आगन्तुं, पालित्तयबेट्ठिया जवणे ॥ ४९१५॥ xxx आगन्तुकं नाम यद् अन्यत आगतम् । xxx तथा चात्र पादलिताचार्यकृता 'बेट्टिक' ति राजकन्यका दृष्टान्तः । स चायम् Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ त्रयोदर्श परिशिष्टम् पालित्तायरिएहिं रनो भगिणिसरिसिया जंतपडिमा कया। चंकणुम्मेसनिम्मेसमयी तालविंटहत्था आयरियाणं पुरतो चिट्ठइ। राया वि अइव पालित्तगस्स सिणेहं करेइ । धिजाइएहिं पउद्वेहिं रन्नो कहियं-भगिणी ते समणएणं अभिओगिया। राया न पत्तियति । भणिओ य-पेच्छ, दंसेमु ते। राया आगतो । पासित्ता पालित्तयाणं रुट्ठो पञ्चोसरिओ य । तओ सा आयरिएहिं चड त्ति विकरणीकया । राया सुट्टतरं आउट्टो ॥ एवमागन्तुका अपि स्त्रीप्रतिमा भवन्ति । 'जवणे' त्ति यवनविषये ईदृशानि स्त्रीरूपाणि प्राचुर्येण क्रियन्ते ॥ ४९१५॥ विभागः ५ पत्रम् १३१५-१६ (३९) राजगृहनगरम् दिक्खा य सालिभद्दे, उवकरणं सयसहस्सेहिं ॥ ४२१९ ॥ तथा राजगृहे श्रेणिके राज्यमनुशासति शालिभद्रस्य सुप्रसिद्धचरितस्य दीक्षायां शतसहस्राभ्याम् 'उपकरणं' रजोहरण-प्रतिग्रहलक्षणमानीतम् , अतो ज्ञायते यथा राजगृहे कुत्रिकापण आसीदिति पुरातनगाथासमासार्थः ॥ ४२१९॥x x x x रायगिहे सालिभहस्स ॥ ४२२३॥ तथा राजगृहे शालिभद्रस्य रजोहरणं प्रतिप्रहश्च कुत्रिकापणात् प्रत्येकं शतसहस्रेण क्रीतः ॥ ४२२३ ॥ विभागः ४ पत्रम् ११४५-४६ (४०) लाटविषयः 'देशतः नानादेशानाश्रित्यानेकविधम् , यथा-मगधानां ओदनः, लाटानां कूरः, द्रमिलानां चौरः अन्ध्राणाम् इडाकुरिति । विभागः १ पत्रम् २० तत्र क्वचिद् देशेऽत्रैः सस्यं निष्पद्यते, वृष्टिपानीयरित्यर्थः, यथा लाटविषये। विभागः२ पत्रम् ३८३ गिरिजन्नगमाईसुव, संखडि उक्कोसलंमे बिइओ उ। अग्गिट्टि मंगलट्ठी, पंथिग-वइगाइसू तइओ ॥ २८५५॥ गिरियज्ञो नाम-कोङ्कणादिदेशेषु सायाह्नकालभावी प्रकरणविशेषः । आह च चूर्णिकृत्-गिरियज्ञः कोकणादिषु भवति उस्सूरे ति। विशेषचूर्णिकारः पुनराह-गिरिजनो मतबालसंखडी भन्नइ, सा लाडविसए वरिसारत्ते भवइ त्ति। विभागः ३ पत्रम् ८०७ "कंजुसिणोदेहि” त्ति इह च लाटदेशेऽवश्रावणं काञ्जिकं भण्यते । यदाह चूर्णिकृत्__अवसावणं लाडाणं कंजियं भण्णइ ति। विभागः ३ पत्रम् ८७१ पूर्वदेशजं वस्त्रं लाटविषयं प्राप्य महाय॑म् । विभागः ४ पत्रम् १०६८ (४१) शैलपुरम् __ आदेसो सेलपुरे, ॥३१४९॥ ___ आदेशः सङ्खडिविषये दृष्टान्तोऽयम्-तोसलिविषये शैलपुरे नगरे ऋषितडागं नाम सरः। तत्र वर्षे वर्षे भूयान् लोकोऽष्टाहिकामहिमां करोति । x x x सेलपुरे इसितलागम्मि होति अट्टाहियामहामहिमा ० ॥ ३१५० ॥ तोसलिदेशे शैलपुरे नगरे ऋषितडागे सरति प्रतिवर्ष महता विच्छर्देनाष्टाहिकामहामहिमा भवति । विभागः ३ पत्रम् ८८३ (४२) सिन्धुदेशः ___ कापि नदीपानीयः [ सस्यं निप्पद्यते, ] यथा सिन्धुदेशे। विभागः २ पत्रम् ३८३ । Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशं परिशिष्टम् १८५ "कप्पे" त्ति कस्मिन् क्षेत्रे कः कल्पः ?, यथा सिन्धुविषयेऽनिमिषाद्याहारोऽगर्हितः। “विहि" ति कस्मिन् देशे कीदृशः समाचारः? यथा सिन्धुषु रजकाः सम्भोज्याः, महाराष्ट्रविषये कल्पपाला अपि सम्भोज्या इति ॥ १२३९ ॥ विभागः २ पत्रम् ३८४ "मंस त्ति जत्थ मंसेण दुब्भिक्खे लंधिज्जति कालो, जधा सिंधूए सुभिक्खे वि।" इति चूर्णी।। विभागः २ पत्रम् ३८४ टि०१ "विहि त्ति कम्मि देसे केरिसो आयारो ? जधा सिंधूए णिल्लेवगा संभोइया" इति चूर्णौ । “विहि त्ति जम्मि देसे जो जारिसो आयारो, जधा सिंधुविसए वियडभायणेसु पाणयं अगरहितं भवति, कच्छविसए गिहत्थसंसढे वि उवस्सए वसंताणं नत्थि दोसो” इति विशेषचूर्णौ । विभागः २ पत्रम् ३८४ टि०२ गोरसधातुको वा कश्चित् सिन्धुदेशीयः प्रव्रजितः। विभागः ३ पत्रम् ७७५ पडिकुट्ट देस कारणगया उ तदुवरमि निति चरणट्ठा ।० ॥ २८८१ ॥ सिन्धुदेशप्रभृतिको योऽसंयमविषयः स भगवता 'प्रतिक्रुष्टः' न तत्र विहर्त्तव्यम् । परं तं प्रतिषिद्धदेशमशिवादिभिः कारणैर्गताः ततो यदा तेषां कारणानाम् 'उपरमः' परिसमाप्तिर्भवति तदा चारित्रार्थ ततोऽसंयमविषयाद् निर्गच्छन्ति, निर्गत्य च संयमविषयं गच्छन्ति। विभागः ३ पत्रम् ८१६ किञ्चिद् वस्त्रं प्रथमत एव दुर्बलम् ततः पार्था-ऽन्तेषु दशिकाभिर्बद्धेषु 'दृढं' चिरकालवहनक्षम भविष्यतीति कृला तेन कारणेन दशिकास्तस्य न कल्पयेत् । यद्वा 'देशीतः' सिन्ध्वादिदेशमाश्रित्य यन्नातिदीर्घदशाकं वस्त्रं तन्न छिन्द्यात् , तस्य दशिका न कल्पयितव्या इति भावः ॥ ३९०६ ॥ विभागः ४ पत्रम् १०७२ (४३) सिन्धुसौवीरदेशः यदा भगवान् श्रीमन्महावीरस्वामी राजगृहनगराद् उदायननरेन्द्रप्रव्राजनाथ सिन्धुसौवीरदेशवतंसं वीतभयं नगरं प्रस्थितस्तदा किलापान्तराले बहवः साधवः क्षुधातास्तषार्दिताः संज्ञाबाधिता यत्र च भगवानावासितस्तत्र तिलभृतानि शकटानि पानीयपूर्णश्च ह्रदः 'समभौमं च' गर्ला-बिलादिवर्जितं स्थण्डिलमभवत् । अपि च विशेषेण तत् तिलोदकस्थण्डिलजातं 'विरहिततरं' अतिशयेनाऽऽगन्तुकैस्तदुत्थैश्च जीवैर्वर्जितमित्यर्थः। विभागः २ पत्रम् ३१४ नेमालि तामलित्तीय, सिंधूसोवीरमादिसु । सव्वलोकोवभोजाई, धरिज कसिणाइँ वि ॥ ३९१२॥ नेपालविषये ताम्रलिप्त्यां नगर्या सिन्धुसौवीरादिषु च विषयेषु सर्वलोकोपभोज्यानि कृत्स्नान्यपि वस्त्राणि धारयेत् ॥ ३९१२ ॥x x x x उज्झाइवत्थवं चेव, सिंधूमादीसु गरहितो ॥ ३९१३॥ अपि च उज्झाइतं-विरूपं यद् वस्त्रं तद्वान् सिन्धुसौवीरकादिषु गर्हितो भवति, अतस्तत्र कृत्स्नान्यपि परिभोक्तव्यानि ॥ ३९१३ ॥ विभागः ४ पत्रम् १०७३-७४ (४४) सुमनोमुखनगरम् पाषाणमयः प्राकारो यथा द्वारिकायाम् , इष्टकामयः प्राकारो यथाऽऽनन्दपुरे, मृत्तिकामयो यथा सुमनोमुखनगरे, “खोड" त्ति काष्ठमयः प्राकारः कस्यापि नगरादेर्भवति, कटकाः-वंशदलादिमयाः कण्टिकाः-बुब्बूलादिसम्बन्धिन्यः तन्मयो वा परिक्षेपो ग्रामादेर्भवति, एष सर्वोऽपि द्रव्यपरिक्षेपः । विभागः २ पत्रम् ३५१ (४५) सुराष्ट्रादेशः मण्डलमिति देशखण्डम् , यथा-पण्णवतिमण्डलानि सुराष्ट्रादेशः। विभागः २ पत्रम् २९८ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशं परिशिष्टम् दो साभरगा दीविश्चगा तु सो उत्तरापथे एको। 'द्वीपं नाम' सुराष्ट्राया दक्षिणस्यां दिशि समुद्रमवगाह्य यद् वर्त्तते तदीयौ द्वौ 'साभरको' रूपको स. उत्तरापथे एको रूपको भवति । विभागः पत्रम् १०६९ (४६) स्थूणानगरी न पारदोच्चा गरिहा व लोए, थूणाइएसुं विहरिज एवं । भोगाऽइरित्ताऽऽरभडा विभूसा, कप्पेज मिञ्चेव दसाउ तत्थ ॥ ३९०५॥ 'पारदोच्च' त्ति चौरभयं तद् यत्र नास्ति, यत्र च तथाविधे वस्त्रे प्राब्रियमाणे लोके गर्दा नोपजायते तत्र । स्थणादिविषयेषु 'एवं' सकलकृत्स्नमपि वस्त्रं प्रावृत्य विहरेत् , परं तस्य दशाश्छेत्तव्याः । कुतः ? इत्याह “भोग" त्ति तासां दशानां शुषिरतया परिमोगः कर्तुं न कल्पते, अतिरिक्तश्वोपधिर्भवति, प्रत्युपेक्ष्यमाणे च दशिकाभिरारभडादोषाः, विभूषा च सदशाके वो प्राब्रियमाणे भवति । 'इत्येवम्' एभिः कारणैस्तत्र दशाः 'कल्पयेत्' छिन्द्यात् ॥ ३९०५॥ विभागः ४ पत्रम् १०७२ [११ गिरि-नदी-सरः-तडागादि] (१) अर्बुदपर्वतः कोंडलमेंढ पभासे, अब्बुय० ॥३१५०॥ प्रभासे वा तीर्थे अर्बुदे वा पर्वते यात्रायां संखडिः क्रियते। विभागः ३ पत्रम् ८८४ "पभासे अब्दुए य पव्वए जत्ताए संखडी कीरति” इति चूर्णी विशेषचूर्णौ च । विभागः ३ पत्रम् ८८३ टि०७ (२) इन्द्रपद:-गजाग्रपदगिरिः इन्द्रपदो नाम-गजांग्रपदगिरिः, तत्र ह्युपरिष्टाद् ग्रामो विद्यते अधोऽपि ग्रामो मध्यमश्रेण्यामपि ग्रामः । तस्याश्च मध्यमश्रेण्याश्चतसृष्वपि दिक्षु ग्रामाः सन्ति, ततो मध्यमश्रेणिग्रामे स्थितानां षट्सु दिक्षु क्षेत्रं भवति। विभागः४ पत्रम् १२९९ (३) उज्जयन्तगिरिः सिद्धिशिला च उजेत णायसंडे, सिद्धिसिलादीण चेव जत्तासु। सम्मत्तभाविएसुं, ण हुंति मिच्छत्तदोसा उ ॥ ३१९२॥ उजयन्ते ज्ञातखण्डे सिद्धिशिलायामेवमादिषु सम्यक्त्वभावितेषु तीर्थेषु याः प्रतिवर्ष यात्राःसंखडयो भवन्ति तासु गच्छतो मिथ्यावस्थिरीकरणादयो दोषा न भवन्ति ॥ विभागः ३ पत्रम् ८९३ __ 'धारोदकं नाम' गिरिनिर्झरजलम् , यथा उज्जयन्तादौ । विभागः ४ पत्रम् ९५७ (४) ऐरावती नदी एरवइ कुणालाए (उद्देशः ४ सूत्रम् ३३) ऐरावती नाम नदी कुणालाया नगर्याः समीपे जङ्घार्द्धप्रमाणेनोद्वेधेन वहति तस्यामन्यस्यां वा यत्रैवं "चकिया" शक्नुयात् उत्तरीतुमिति शेषः ।xxx एरवइ जम्हि चक्किय, जल-थलकरणे इमं तु णाणत्तं । एगो जलम्मि एगो, थलम्मि इहइं थलाऽऽगासं ॥ ५६३८ ॥ ऐरावती नाम नदी, यस्यां जल-स्थलयोः पादकरणेनोत्तरीतुं शक्यम् ॥ विभागः ५ पत्रम् १४९१ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशं परिशिष्टम् १८७ या ऐरावती नदी कुणालाजनपदे योजना विस्तीर्णा जङ्घार्धमानमुदकं वहति तस्याः केचित् प्रदेशाः शुष्काः न तत्रोदकमस्ति ॥ विभागः ५ पत्रम् १४९५ (५) गङ्गा - सिन्धू नद्यौ तथा महासलिलाः–गङ्गा-सिन्धुप्रभृतयो महानद्यः तासां जलं महासलिलाजलम् ॥ (६) प्राचीनवाहः सरस्वती च अब्बु पादीणवाहम्मि ॥ ३१५० ॥ 'प्राचीनवाहः' सरस्वत्याः सम्बन्धी पूर्वदिगभिमुखः प्रवाहः, तत्राऽऽनन्दपुरवास्तव्यो लोको गला यथाविभवं शरदि सङ्घडिं करोति ॥ ३१५० ॥ विभागः ३ पत्रम् ८८४ (७) बन्नासा - महिरावणनद्यौ क्वचिदतिपूरकेण सस्यं निष्पद्यते, यथा बन्नासायां पूरादवरिच्यमानायां तत्पूरपानीयभावितायां क्षेत्रभूमौ धान्यानि प्रकीर्यन्ते; यथा वा डिम्भरेलके महिरावणपूरेण धान्यानि वपन्ति । विभागः २ पत्रम् ३८३ (८) ऋषितडागं सरः विभागः ४ पत्रम् ९५७ आदेसो सेलपुरे, आदाणऽट्ठाहियाए महिमाए । तोसलिविस विण्णवणट्टा तह होति गमणं वा ॥ ३१४९ ॥ ‘आदेशः’ सङ्घडिविषये दृष्टान्तोऽयम् —तोसलिविषये शैलपुरे नगरे ऋषितडागं नाम सरः । तत्र वर्षे वर्षे भूयान् लोकोऽष्टाहि कामहिमां करोति । x X X सेलपुरे इसितलागमि होति अट्ठाहिया महामहिमा 10 ॥ ३१५० ॥ तोसलिदेशे शैलपुरे नगरे ऋषितडागे सरसि प्रतिवर्षं महता विच्छुर्देनाष्टाहि कामहामहिमा भवति । विभागः ३ पत्रम् ८८३ एमेव तोसलीए, इसिवालो वाणमंतरो तत्थ । णिज्जित इसीतलागे, ० 'एवमेव ' तो सलिनगरवास्तव्येन वणिजा उज्जयिनीमागम्य कुत्रिकापणाद् ऋषिपालो नाम वानमन्तरः क्रीतः । तेनापि तथैव निर्जितेन ऋषितडागं नाम सरश्चक्रे । विभागः ४ पत्रम् ११४६ ( ९ ) भूततडागं (१०) ज्ञातखण्डम् ॥ ४२२३ ॥ णिज्जित भूततलागं, ० ॥ ४२२२ ॥ भूओ भइ-अलाह, पराजितो मि, चिंधं ते करेमि - जाव नावलोएसि तत्थ तलागं भविस्सइ । तेण अस्से विलग्गिऊण वारस जोयणाइं गंतूण पलोइयं जाव तक्खणमेव कयं तेण भरुयच्छस्स उत्तरे पासे भूयतलागं नाम तलागं ॥ विभागः ४ पत्रम् ११४५ उज्जेत णायसंडे, सिद्धिसिलादीण चेव जत्तासु । सम्मत्तभाविएसुं, ण हुंति मिच्छत्तदोसा उ ॥ ३१९२ ॥ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशं परिशिष्टम् उज्जयन्ते ज्ञातखण्डे सिद्धिशिलायामेवमादिषु सम्यक्त्वभावितेषु तीर्थेषु या: प्रतिवर्षं यात्रा :सङ्घडयो भवन्ति तासु गच्छतो मिथ्यात्वस्थिरीकरणादयो दोषा न भवन्ति ॥ ३१९२ ॥ विभागः ३ पत्रम् ८९३ १८८ [ १२ सङ्घडी यात्रा - अष्टाहिकामहादि ] (१) सङ्घडिशब्दस्यार्थः “भोज्यं” सङ्खडी भवति । आह च चूर्णिकृत् - "भोजं ति वा संखडि त्ति वा एगई । " विभागः ३ पत्रम् ८९० (२) देशविदेशेषु जैनेतरसङ्घडियात्रादि गिरिजन्नगमाईसु व, संखडि उक्कोसलंभे बिइओ उ । अग्गट्टि मंगलट्ठी, पंथिंग वइगाइसू तइओ ॥ २८५५ ॥ गिरियज्ञो नाम - कोङ्कणादिदेशेषु सायाहकालभावी प्रकरणविशेषः । आह च चूर्णिकृत् - “गिरियज्ञः कोङ्कणादिषु भवति उस्सूरे” त्ति । विशेषचूर्णिकारः पुनराह - " गिरिजनो मतबालसंखडी भन्नइ, सा लाडविसए वरिसारत्ते भवइ त्ति । [ गिरिक (ज) न्नत्ति भूमिदाहो त्ति भणितं होइ ।" ] तदादिषु सङ्घडिषु वाशब्दादन्यत्र वा क्वापि सूर्ये ध्रियमाणे उत्कृष्टम् - अवगाहिमादि द्रव्यं लब्ध्वा यावत् प्रतिश्रयमागच्छति तावदस्तमुपगतो रविः ततो रात्रौ भुङ्ग इति द्वितीयो भङ्गः । तथा दक्षिणापथे कुडवार्द्धमात्रया समितया महाप्रमाणो मण्डकः क्रियते स हेमन्तकालेऽरुणोदयवेलायां अनिष्टिकायां पक्त्वा धूलीजङ्घाय दी, ( स गुडघृतोन्मिश्रोऽरुणोदय वेलायां धूलीजङ्घाय दीयते एषोऽनिष्टिका ब्राह्मण उच्यते, प्रत्यन्तरे ) तं गृहीत्वा भुञ्जानस्य तृतीयो भङ्गः । श्राद्धो वा प्रातर्गन्तुकामः साधुं विचारभूमौ गच्छन्तं दृष्ट्वा मङ्गलार्थी अनुगते सूर्ये निमन्त्रयेत् पथिका वा पन्थानं व्यतिव्रजन्तो निमन्त्रयेयुः, व्रजिकायां वाऽनुगते सूर्ये उच्चलितुकामाः साधुं प्रतिलाभयेयुः, एवमादिषु गृहीत्वा भुञ्जानस्य तृतीयो भङ्गो भवति ॥ २८५५ ॥ विभागः ३ पत्रम् ८०७ अथ सङ्खडी कथं कुत्र वा भवति ? इत्युच्यते - आदेसो सेलपुरे, आदाणऽट्ठाहियाए महिमाए । तोसलिविसए विष्णवणट्ठा तह होति गमणं वा ॥ ३१४९ ॥ "आदेशः " सङ्घ डिविषये दृष्टान्तोऽयम् तोसलिविषये शैलपुरे नगरे ऋषितडागं नाम सरः । तत्र वर्षे वर्षे भूयान् लोकोऽष्टाहिकामहिमां करोति । तत्रोत्कृष्टावगाहिमादिद्रव्यस्यादानं - ग्रहणं तदर्थं कोऽपि लुब्धो गन्तुमिच्छति । ततः स गुरूणां विज्ञपनां सङ्घडिगमनार्थ करोति । आचार्या वारयन्ति । तथापि यदि गमनं करोति ततस्तस्य प्रायश्चित्तं दोषाश्च वक्तव्या इति पुरातनगाथासमासार्थः ॥ ३१४९ ॥ अथैनामेव विवृणोति --- सेलपुरे इसितलागमि होति अट्ठाहियामहामहिमा | कोंडलमेंढ पभासे, अब्बुय पादीणवाहम्मि ॥ ३१५० ॥ तोसलिदेशे शैलपुरे नगरे ऋषितडागे सरसि प्रतिवर्षं महता विच्छदेंनाऽष्टाहिकामहामहिमा भवति । तथा कुण्डलमेण्ठनाम्नो वानमन्तरस्य यात्रायां भरुकच्छपरिसरवत्र्त्ता भूयान् लोकः सङ्खडिं करोति । प्रभासे वा तीर्थे अर्बुदे वा पर्वते यात्रायां सङ्खडिः क्रियते । 'प्राचीनवाहः' सरस्वत्याः सम्बन्धी पूर्वदिगभिमुखः प्रवाहः, तत्राऽऽनन्दपुरवास्तव्यो लोको गत्वा यथाविभवं शरदि सङ्खार्ड करोति ॥ ३१५० ॥ विभागः ३ पत्रम् ८८३-८४ "अहवा कोंडलमिंढे कोंडलमेंढो वाणमंतरो | देवद्रोणी भरुयच्छाहरणीए, तत्थ यात्राए बहुजणो Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८९ त्रयोदशं परिशिष्टम् संस्खडि करेइ । पभासे अव्वुए य पव्यए जत्ताए संखडी कीरति । पायीणवाहो सरस्सतीए, तत्थ आणंदपुरगा जधाविभवेणं वज्रति सरए ।" इति चूर्णी विशेपचूर्णी च ॥ विभागः ३ पत्रम् ८८३ टि०७ (३) देशविदेशेषु जैनदर्शनसङ्खडियात्रादि ताश्च सङ्खडयो द्विधा-सम्यग्दर्शनभाविततीर्थविषया मिथ्यादर्शनभाविततीर्थविषयाश्च । तत्र प्रथममाद्यासु गन्तव्यम् , यत आह उजेत णायसंडे, सिद्धसिलादीण चेव जत्तासु । सम्मत्तभाविएसुं, ण हुंति मिच्छत्तदोसा उ ॥ ३१९२॥ उजयन्ते ज्ञातखण्डे सिद्धशिलायामेवमादिषु सम्यक्त्वभावितेषु तीर्थेषु याः प्रतिवर्ष यात्रा:सङ्खडयो भवन्ति तासु गच्छतो मिथ्यावस्थिरीकरणादयो दोषा न भवन्ति ॥ ३१९२ ॥ विभागः ३ पत्रम् ८९३ (४) आवाहमहादि होहिंति णवग्गाई, आवाह-विवाह-पव्वयमहादी 10 ॥४७१६ ॥ आवाह-विवाह-पर्वतमहादीनि प्रकरणानि 'नवाग्राणि' प्रत्यासन्नानि भविष्यन्ति। आवाहः-वध्वा वरगृहानयनम् , विवाहः-पाणिग्रहणम् , पर्वतमहः प्रतीतः, आदिशब्दात् तडाग-नदीमहादिपरिग्रहः । विभागः ४ पत्रम् १२६९ मथुरायां भण्डीरयक्षयात्रायां कम्बल-शवलो वृषभी घाटिकेन-मित्रेण जिनदासस्यानापृच्छया वाहिती, तन्निमित्तं सञ्जातवैराग्यौ श्रावकेणानुशिष्टौ भक्तं प्रत्याख्याय कालगतौ नागकुमारेषूपपन्नों ॥५६२७॥ विभागः ५ पत्रम् १४८९ थूभमह सहिसमणी, वोहियहरणं तु निवसुताऽऽतावे । मज्झेण य अकंदे, कयम्मि जुद्धण मोएति ॥ ६२७५॥ महुरानयरीए थूभो देवनिम्मितो, तस्स महिमानिमित्तं सट्टीतो समणीहिं समं निग्गयातो । रायपुत्तो य तत्थ अदूरे आयावंतो चिट्ठइ । ताओ सड्ढी-समणीओ बोहिएहिं गहियातो तेणंतेणं आणियाओ । ताहिं तं साहुं दट्ठणं अकंदो कओ। तओ रायपुत्तेण साहुणा जुद्धं दाऊण मोइयाओ ॥ विभागः ६ पत्रम् १६५६ [१३ आपणा:-हहाः] (१) पणि-विपणी दाणे वणि-विवणि दारसंलोए। ॥ ३२७८ ॥ "वणि-विवणि" त्ति इह ये बृहत्तरा आपणास्ते पणय इत्युच्यन्ते, ये तु दरिद्रापणास्ते विपणयः; यद्वा ये आपणस्थिता व्यवहरन्ति ते वणिजः, ये पुनरापणेन विनाऽप्यूर्द्धस्थिता वाणिज्यं कुर्वन्ति ते विवणिजः । विभागः३ पत्रम् ९१८ (२) कुत्रिकापणाः तत्र च मूल्य विभागादि कुत्ति पुढवीय सण्णा, जं विजति तत्थ चेदणमचेयं । गहणुवभोगे य खमं, न तं तहिं आवणे णत्थि ॥ ४२१४ ॥ 'कुः' इति पृथिव्याः संज्ञा, तस्याः त्रिकं कुत्रिकं-स्वर्ग-मर्त्य-पाताललक्षणं तस्यापण:-हट्टः कुत्रिकापणः। किमुक्तं भवति? इत्याह-तत्र' पृथिवीत्रये यत् किमपि चेतनमचेतनं वा द्रव्यं सर्वस्यापि लोकस्य ग्रहणो Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० त्रयोदशं परिशिष्टम् पभोगक्षम विद्यते तत् तत्र' आपणे न नास्ति, "द्वौ नी प्रकृत्यर्थं गमयतः” इति वचनाद् अस्त्येवेति भावः ॥ ४२१४ ॥ अथात्कृष्ट-मध्यम-जघन्यमूल्यस्थानानि प्रतिपादयति पणतो पागतियाणं, साहस्सो होति इब्भमादीणं । उक्कोस सतसहस्सं, उत्तमपुरिसाण उवधी उ ॥ ४२१५ ॥ प्राकृतपुरुषाणां प्रव्रजतामुपधिः कुत्रिकापणसःकः ‘पञ्चकः' पञ्चरूपकमूल्यो भवति । 'इभ्यादीनां' इभ्यश्रेष्ठि-सार्थवाहादीनां मध्यमपुरुषाणां 'साहस्रः' सहस्रमूल्य उपधिः । 'उत्तमपुरुषाणां' चक्रवत्ति-माण्डलीकप्रभृतीनामुपधिः शतसहस्रमूल्यो भवति । एतच मूल्यमानं जघन्यतो मन्तव्यम् । उत्कर्षतः पुनस्त्रयाणामप्यनियतम् । अत्र च पञ्चकं जघन्यम् , सहस्रं मध्यमम् , शतसहस्रमुत्कृष्टम् ॥ ४२१५॥ कथं पुनरेकस्यापि रजोहरणादिवस्तुन इत्थं विचित्रं मूल्यं भवति ? इत्युच्यते-- विकिंतगं जधा पप्प, होइ रयणस्स तम्विधं मुलं । कायगमासज्ज तधा, कुत्तियमुल्लस्स निकं ति ॥ ४२१६॥ यथा 'रत्नस्य' मरकत-पद्मरागादेविक्रेतारं 'प्राप्य' प्रतील तद्विधं मूल्यं भवति, यादृशो मुग्धः प्रबुद्धो वा विक्रेता तादृशमेव खल्पं बहु वा मूल्यं भवतीति भावः । एवं 'क्रायक' ग्राहकमासाद्य कुत्रिकापणे भाण्डमूल्यस्य 'निष्क' परिमाणं भवति, न प्रतिनियतं किमपीति भावः । इतिशब्दः स्वरूपोपदर्शने ॥ ४२१६ ॥ एवं ता तिविह जणे, मोल्लं इच्छाए दिज बहुयं पि। सिद्धमिदं लोगम्मि वि, समणस्स वि पंचगं भंडं ॥ ४२१७ ॥ एवं तावत् 'त्रिविधे' प्राकृत-मध्यमोत्तमभेदभिगो जने 'मूल्यं' पञ्चकादिरूपकपरिमाणं जघन्यतो मन्तव्यम् इच्छया तु 'बह्वपि' यथोक्तपरिमाणादधिकमपि प्राकृतादयो दद्युः, न कोऽप्यत्र प्रतिनियमः। न चैतदत्रैवोच्यते किन्तु लोकेऽपि 'सिद' प्रतीतमिदम् , यथा-श्रमणस्यापि 'पञ्चकं' पञ्चरूपकमूल्यं भाण्डं भवति । इह च रूपको यस्मिन् देशे यद् नाणकं व्यवह्रियते तेन प्रमाणेन प्रतिपत्तव्यः ॥ ४२१७ ॥ अथ कुत्रिकापणः कथमुत्पद्यते ? इत्याह पुव्वभविगा उ देवा, मणुयाण करिति पाडिहेराई। लोगच्छेरयभूया, जह चक्कीण महाणिहयो ॥ ४२१८॥ 'पूर्वभविकाः' भवान्तरसङ्गतिका देवाः पुण्यवतां मनुजानां 'प्रातिहार्याणि' यथाभिलषितार्थोपढौकनलक्षणानि कुर्वन्ति । यथा लोकाश्चर्यभूताः 'महानिधयः' नैसर्पप्रभृतयः 'चक्रिणां' भरतादीनां प्रातिहार्याणि कुर्वन्ति । वर्तमाननिर्देशस्तत्कालमङ्गीकृत्याविरुद्धः । एवं कुत्रिकापणा उत्पद्यन्ते ॥ ४२१८ ॥ ते चैतेषु स्थानेषु पुरा बभूवुः इति दर्शयति उजेणी रायगिहें, तोसलिनगरे इसी य इसिवालो। दिक्खा य सालिभद्दे, उवकरणं सयसहस्सेहिं ॥ ४२१९ ॥ उज्जयिनी राजगृहं च नगरं कुत्रिकापणयुक्तमासीत् । तोसलिनगरवास्तव्येन च वणिजा ऋषिपालो नाम वानमन्तर उज्जयिनीकुत्रिकापणात् क्रीला स्वबुद्धिमाहात्म्येन सम्यगाराधितः, ततस्तेन ऋषितडागं नाम सरः कृतम् । तथा राजगृहे श्रेणिके राज्यमनुशासति शालिभद्रस्य सुप्रसिद्धचरितस्य दीक्षायां शतसहस्राभ्याम् 'उपकरणं' रजोहरण-प्रतिग्रहलक्षणमानीतम् , अतो ज्ञायते यथा.राजग्रहे कृत्रिकापण आसीदिति पुरातनगाथासमासार्थः ॥ ४२१९ ॥ साम्प्रतमेनामेव विवृणोति पजोए णरसीहे, णव उजेणीय कुत्तिया आसी। भरुयच्छवणियऽसद्दह, भूयऽट्ठम सयसहस्सेणं ॥ ४२२० ॥ कम्मम्मि अदिजते, रुटो मारेइ सो य तं घेतुं । भरुयच्छाऽऽगम, वावारदाण खिप्पं च सो कुणति ॥ ४२२१ ।। Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशं परिशिष्टम् भीएण खंभकरणं, एत्थुस्सर जा ण देमि वावारं । णिज्जित भूततलागं, आसेण ण पेहसी जाव ॥ ४२२२ ॥ चण्डप्रद्योतनानि नरसिंहे अवन्तिजन पदाधिपत्यमनुभवति नव कुत्रिकापणा उज्जयिन्यामासीरन् । तदा किल भरुयच्छाओ एगो वाणियओ असद्दहंतो उज्जेणीए आगंतूण कुत्तियावणाओ भूयं मग्गइ । तेण कुत्तियावणवाणिएण चिंतियं - 'एस ताव मं पवंचेइ ता एयं मोल्लेण वारेमि' त्ति भणियं— अइ सयसहस्से देसि तो देमि भूयं । तेण तं पि पडिवनं ताहे तेण भन्नइ—- पंचरत्तं उदिक्खाहि तओ दाहामि । तेण अकाऊण देवो पुच्छिओ । सो भणइ - देहि, इमं च भणिहिज्ज - जइ कम्मं न देसि तो भूओ तुमं उच्छा एहि । 'एवं भवउ' त्ति भणित्ता गहिओ तेण भूओ भइ कम्मं मे देहि । दिन्नं, तं खिप्पमेव कयं । पुणो मग्गइ, अन्नं दिनं । एवं सव्वम्मि कम्मे निट्टिए पुणो भणइ - देहि कम्मं । तेण भन्नइ - एत्थं मे चडुत्तरं करेहि जाव अन्नं किंचि कम्मं न देमि । भूओ भणइ अलाहि, पराजितो मि, चिंधं ते करेमि — जाव नावलोएसि तत्थ तलागं भविस्सइ । तेण अस्से विलग्गिऊण बारस जोयणाई गंतूण पलोइयं जाव तक्खणमेव कथं तेण भरुयच्छस्स उत्तरे पासे भूयतलागं नाम तलागं ॥ १९१ अमुमेवार्थमभिधित्सुराह - "भरुयच्छ" इत्यादि । भरुकच्छवणिजा अश्रद्दधता 'भूतः ' पिशाचविशेषः कुत्रिकापणे मार्गितः । ततोऽष्टमं कृत्वा शतसहस्रेण भूतः प्रदत्तः, इदं च भणितम् — कर्मण्यदीयमाने अयं 'रुष्टः' कुपितो मारयतीति । स च भूतं गृहीत्वा भरुकच्छे आगमनं कृत्वा व्यापारदानं तस्य कृतवान् । स भूतस्तं व्यापारं क्षिप्रमेव करोति । ततः सर्वकर्मपरिसमाप्तौ वणिजा भीतेन भूतस्य पार्श्वात् स्तम्भ एकः कारयाञ्चक्रे । ततस्तं भूतमभिहितवान् — यावदपरं व्यापारं न ददामि तावद् 'अत्र' स्तम्भे 'उत्सर' आरोहाSवरोहक्रियां कुरु इति भावः । ततः स भूत उक्तवान् — निर्जितोऽहं भवता, अत आत्मनः पराजयचिह्नं करोमि । अश्वेन गच्छन् यावद् 'न प्रेक्षसे' न पश्चादवलोकसे तत्र प्रदेशे तडागं करिष्यामि इति भणित्वा तथैव कृते भूततडागं कृतवान् ॥ ४२२० ॥ ४२२१ ॥ ४२२२ ॥ एमेव तोसलीए, इसिवालो वाणमंतरो तत्थ । णिजित इसीतलागे, रायगिहे सालिभद्दस्स || ४२२३ ॥ " एवमेव" तोसलिनगरवास्तव्येन वणिजा उज्जयिनीमागम्य कुत्रिकापणाद ऋषिपालो नाम वानमन्तरः क्रीतः । तेनापि तथैव निर्जितेन ऋषितडागं नाम सरश्चक्रे । तथा राजगृहे शालिभद्रस्य रजोहरणं प्रतिग्रहश्च कुत्रिकापणात् प्रत्येकं शतसहस्रेण क्रीतः ॥ ४२२३ ॥ विभागः ४ पत्रम् ११४४-४६ (३) कौलालिकापणः - पणितशाला ॥ ३४४५ ॥ कोलालियावणो खलु, पणिसाला० कौलालिकाः-कुलालक्रय-विक्रयिणस्तेषामापणः पणितशालां मन्तव्या । किमुक्तं भवति ? — यत्र कुम्भकारा भाजनानि विक्रीणते, वणिजो वा कुम्भकारहस्ताद् भाजनानि क्रीला यत्रापणे विक्रीणन्ति सा पणितशाला । विभागः ४ पत्रम् ९६३ ( ४ ) रसापणः रावणो तत्थ दितो ॥ ३५३९ ॥ अत्र ‘रसापणः' मद्यहट्टो दृष्टान्तः । यथा - महाराष्ट्रदेशे रसापणे मद्यं भवतु वा मा वा तथापि तत्परिज्ञानार्थं तत्र ध्वजो बध्यते, तं ध्वजं दृष्ट्वा सर्वे भिक्षाचरादयः परिहरन्ति । विभागः ४ पत्रम् ९८५ ( ५ ) कोट्टकम् ‘जनः' लोकः प्रचुरफलायामटव्यां गत्वा फलानि यावत्पर्याप्तं गृहीत्वा यत्र गत्वा शोषयति पश्चाद् गन्त्रीपोट्टलकादिभिरानीय नगरादौ विक्रीणाति तत् कोट्टकमुच्यते । विभागः २ पत्रम् २७९ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ त्रयोदशं परिशिष्टम् [१४ नाणकानि-सिक्ककाः] कवडुगमादी तंबे, रुप्पे पीते तहेव केवडिए । ॥ १९६९ ॥ कपर्दकादयो मार्गयित्वा तस्य दीयन्ते । ताम्रमयं वा नाणकं यद् व्यवहियते, यथा-दक्षिणापथे काकिणी । रूपमयं वा नाणकं भवति, यथा-भिल्लमाले द्रम्मः। पीतं नाम-सुवर्ण तन्मयं वा नाणकं भवति, यथा-पूर्वदेशे दीनारः। 'केवडिको नाम' यथा तत्रैव पूर्वदेशे केतराभिधानो नाणकविशेषः। विभागः २ पत्रम् ५७३ अथ कतमेन रूपकेणेदं प्रमाणं निरूप्यते ? इत्याह दो साभरगा दीविञ्चगा तु सो उत्तरापथे एको। दो उत्तरापहा पुण, पाडलिपुत्तो हवति एक्को ॥ ३८९१ ॥ 'द्वीपं नाम' सुराष्ट्राया दक्षिणस्यां दिशि समुद्रमवगाह्य यद् वर्तते तदीयौ द्वौ 'साभरको' रूपको स उत्तरापथे एको रूपको भवति । द्वौ च उत्तरापथरूपको पाटलिपुत्रक एको रूपको भवति ॥३८९१ ॥ अथवा दो दक्षिणावहा तू, कंचीए णेलओ स दुगुणो य। एगो कुसुमणगरगो, तेण पमाणं इमं होति ॥ ३८९२ ॥ दक्षिणापथौ द्वौ रूपको काञ्चीपुर्या द्रविड विषयप्रतिबद्धाया एकः 'नेलकः' रूपको भवति । 'सः' काञ्चीपुरीरूपको द्विगुणितः सन् कुसुमनगरसत्क एको रूपको भवति । कुसुमपुरं पाटलिपुत्रमभिधीयते । तेन च' रूपकेणेदमनन्तरोक्तमष्टादशकादिप्रमाणं प्रतिपत्तव्यं भवति ॥ ३८९२ ॥ विभागः ४ पत्रम् १०६९ [१५ वस्त्रादिसम्बद्धो विभागः] (१) वस्त्रपञ्चकम् कम्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा इमाइं पंच वत्थाई धारित्तए वा परिहरित्तए वा । तं जहा-जंगिए भंगिए साणए पोत्तए तिरीडपट्टे नामं पंचमे ॥ (उद्देशः २ सूत्रम् २४) ___ कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा इमानि पञ्च वस्त्राणि 'धारयितुं वा' परिग्रहे धर्तुं 'परिहर्तु वा' परिभोक्तुम् । तद्यथा-जङ्गमाः-त्रसाः तदवयवनिप्पन्नं जाङ्गमिकम् । सूत्रे प्राकृतत्वाद् मकारलोपः । भङ्गाअतसी तन्मयं भाङ्गिकम् । सनसूत्रमयं सानकम् । पोतकं-कापासिकम् । तिरीट:--वृक्षविशेषः तस्य यः पट्टः-वल्कलक्षणः तन्निष्पन्नं तिरीटपट्टकं नाम पञ्चमम् ॥ एष सूत्रसङ्केपार्थः । अथ विस्तरार्थ भाष्यकृद् बिभणिघुराह जंगमजायं जंगिय, तं पुण विगलिंदियं च पंचिंदी। एकेकं पि य एत्तो, होति विभागणऽणेगविहं ॥ ३६६१ ॥ जङ्गमेभ्यो जातं जङ्गिकम् , तत् पुनर्विकलेन्द्रियनिष्पन्नं पञ्चेन्द्रियनिष्पन्नं वा । अनयोर्मध्ये एकैकमपि विभागेन चिन्त्यमानमनेकविधं भवति ॥ ३६६१ ॥ तद्यथा पट्ट सुवन्ने मलए, अंसुग चीणंसुके च विगलेंदी । उण्णोट्टिय मियलोमे, कुतवे कि त पंचेंदी ॥ ३६६२ ॥ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९३ त्रयोदशं परिशिष्टम् जम्, "पट्ट" त्ति पट्टसूत्रजम् “सुवन्ने” त्ति सुवर्णवर्णं सूत्रं केषाञ्चित् कृमीणां भवति तन्निष्पन्नं सुवर्णसूत्रमलयो नाम देशस्तत्सम्भवं मलयजम्, अंशुकः- श्लक्ष्णपट्टः तन्निष्पन्नमंशुकम्, चीनांशुको नामकोशिकाराख्यः कृमिः तस्माद् जातं चीनांशुकम्, यद्वा चीना नाम जनपदः तत्र यः श्लक्ष्णतरः पट्टस्तस्माद् जातं चीनांशुकम् एतानि विकलेन्द्रियनिष्पन्नानि । तथा और्णिकमौष्ट्रिकं मृगरोमजं चेति प्रतीतानि, कुतपो जीणम्, किटं-तेषामेवोर्णारोमादीनामवयवाः तन्निष्पन्नं वस्त्रमपि किहं, एतानि पञ्चे - न्द्रियनिष्पन्नानि द्रष्टव्यानि ॥। ३६६२ ॥ अथ भाङ्गिकादीनि चत्वार्यप्येकगाथया व्याचष्टे अतसी-वंसीमादी, उ भंगियं साणियं च सणवक्के | पोत्तय कप्पासमयं तिरीडरुक्खा तिरिडपट्टो || ३६६३ ॥ अतसीमयं वा “वंसि” त्ति वंशकरीलस्य मध्याद् यद् निष्पद्यते तद् वा, एवमादिकं भाङ्गिकम् । यत् पुनः सनवृक्षवल्काद् जातं तद् वस्त्रं सानकम् । पोतकं कर्पासमयम् । तिरीटवृक्षवल्काद् जातं तिरीटपट्टकम् विभागः ४ पत्रम् १०१७-१८ ॥ ३६६३ ॥ वच्चक मुंजं कत्तंति चिप्पिउं तेहि वूथए गोणी । पाउरणत्थुरणाणि य, करेंति देसिं समासज ॥ ३६७५ ॥ कचिद् धर्मचक्रभूमिकादौ देशे 'वच्चकं' दर्भाकारं तृणविशेषं 'मुजं च ' शरस्तम्वं प्रथमं 'चिप्पित्वा' कुट्टयित्वा तदीयो यः क्षोदस्तं कर्त्तयन्ति । ततः 'तैः' वचकसूत्रैर्मुञ्जसूत्रैश्च 'गोणी' वोरको व्यूयते, प्रावरणा-SSस्तरणानि च 'देशी' देशविशेषं समासाद्य कुर्वन्ति । अतस्तन्निष्पन्नं रजोहरणं वञ्चकचिप्पकं मुञ्जचिप्पकं वा भण्यते ॥ ३६७५ ॥ विभागः ४ पत्रम् १०२१-२२ ( २ ) सुरायाः प्रकाराः अथ सुरा - सौवीरकपदे व्याचष्टे पिट्टेण सुरा होती, सोवीरं पिट्ठवज्जियं जाणे । ठायंतगाण लहुगा, कास अगीयत्थ सुत्तं तु ॥ ३४०६ ॥ व्रीह्यादिसम्बन्धिना पिष्ठेन यद् विकटं भवति सा सुरा । यत्तु पिष्टवर्जितं द्राक्षा-खर्जूरादिभिर्दव्यैर्निप्पाद्यते तद्मयं सौवीरकविकटं जानीयात् । एतद् द्विविधमपि यत्रोपनिक्षिप्तं भवति तत्रोपाश्रये तिष्ठतां चतुर्लघुकाः । विभागः ४ पत्रम् ९५३ गोडीणं पिट्टीणं, वंसीणं चैव फलसुराणं च । दिट्ठ मए सन्निचया, अन्ने देसे कुटुंबीणं ॥ ३४१२ ॥ 'itsari' गुडनिप्पन्नानां 'पैष्टीनां' श्रीह्यादिधान्यक्षोदनिष्पन्नानां 'वांशीनां' वंशकरीलकनिष्पन्नानां 'फलमुराणां च' तालफल- द्राक्षा-खर्जूरादिनिष्पन्नानाम् एवंविधानां सुराणां सन्निचया अन्यस्मिन् देशे मया कुटुम्विनां गृहेषु दृष्टाः ॥ ३४१२ ॥ विभागः ४ पत्रम् ९५४ (३) सहस्रानुपातिविषम् सहस्रानुपातिविषं भक्ष्यमाणं सहस्रान्तरितमपि पुरुषं मारयति । विभागः ४ पत्रम् ११४२ [ १६ प्राकृतव्याकरणविभागः ] काऊण नमोक्कारं, तित्थयराणं तिलोगमहियाणं ॥० ॥ १ ॥ 'कृत्वा' विधाय 'नमस्कारं ' प्रणामम्, केभ्यः ? इत्याह- 'तीर्थकरेभ्यः' तीर्यते संसारसमुद्रोऽनेनेति तीर्थद्वादशाङ्गं प्रवचनं तदाधारः सङ्घो वा, तत्करणशीलास्तीर्थकरास्तेभ्यः । गाथायां पष्ठी चतुर्थ्यर्थे प्राकृतत्वात् । उक्तं च - "छट्टिविभत्तीए भन्नइ चउत्थी" इति । x X X सक्कयपाययत्रयणाण विभासा जत्थ जुजते जं तु |० ॥ २ ॥ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यो परिशिष्टम मलयगिरिप्रभृतिव्याकरणप्रणीतेन लक्षणेन संस्कारमापादितं वचनं संस्कृतम्, प्रकृतौ भवं प्राकृतं स्वभावसिद्धमित्यर्थः तेषां संस्कृत-प्राकृतवचनानां 'विभाषा' वैविकत्वेन भाषणं कर्त्तव्यम् । तचैवम्ए-अकारपराई, अंकारपरं च पायए नत्थि । व-सगारमज्झिमाणि य, कन्चवग्ग-तवन्गनिहणाई ॥ १९४ अस्या इयमक्षरगमनिका - एकारपर ऐकारः, ओकारपर औकारः, अंकारपर अः इति विसर्जनीयाख्यमक्षरम्, तथा वकार सकारयोर्मध्यगे ये अक्षरे श-पाविति यानि च कवर्ग-चवर्ग-तवर्गनिधनानि ड-ज-ना इति एतान्यक्षराणि प्राकृते न सन्ति ॥ तत एतैरक्षरैर्विहीनं यद् वचनं तत् प्राकृतमवसातव्यम् । एभिरेव ऐ औ अः शप ङ जन इत्येवंरूपैरुपेतं संस्कृतम् । एषां संस्कृत - प्राकृतवचनानां विभाषा "जत्थ जुजते जं तु" 'यत्र' प्राकृते संस्कृते वा ‘यद्' वचनम् - एकवचन द्विवचनादि 'युज्यते' घटामटति तद् वक्तव्यम् । तत्र संस्कृते एकवचनं द्विवचनं बहुवचनं च भवति, यथा-- वृक्षः वृक्ष वृक्षाः प्राकृते लेकवचनं बहुवचनं वा, न तु द्विवचनम्, तस्य बहुवचनेनाभिधानात् "वहुवयणेण दुवयण" मिति वचनात् । ततः 'कप्पव्ववहाराण मित्यदोषः ॥ विभागः १ पत्रम् ३. सक्कय-पाययभासाविणियुक्त्तं देसतो अणेगविहं । अभिहाणं अभिधेयातो होइ भिष्णं अभिण्णं च ॥ ५७ ॥ अथवा द्विप्रकारम् - संस्कृतभाषाविनिर्युक्तम्, यथा--- वृक्ष इति, प्राकृतभाषाविनिर्युक्तं च यथा— रोक्खो इति । ‘देशतः’ नानादेशानाश्रित्वानेकविधम्, यथा— मगधानाम् ओदनः, लाटानां कुरः, द्रमिलानां चौरः, अन्ध्राणाम् इडाकुरिति । तथा तद् 'अभिधानं' व्यञ्जनाक्षरम् अभिधेयाद् भिन्नमभिन्नं च । तत्र भिन्नं प्रतीतम्, तादात्म्याभावात् ॥ ५७ ॥ विभागः ९ पत्रम् २० [ १७ मागधभाषामयाणि पद्यानि ] जइ ताव दलंतगालियो, धम्मा-ऽधम्मविसेलवाहिला । बहुसंजयविंदमज्झके, उक्कलगे सि किमेव मुच्छितो || ४३२५ ॥ विभागः ४ पत्रम् ११७१ खमए लडूण अंबले, दाउ गुण य सो वलिट्ठए । बेइ गुलुं एमेव सेसए, देह जईण गुलूहिँ बुच्चइ ॥ ४३३० ॥ सयमेव य देहि अंबले, तब से लोयइ इत्थ संजए । इ छंदिय-पेसिओ तर्हि, खमओ देइ लिसीण अंबले || ४३३१ ॥ विभागः ४ पत्रम् ११७२ वयणं न वि गव्वभालियं, एलिसयं कुसलेहिँ पूजियं । अहवा न वि एत्थ लूसिमो, पगई एस अजाणुए जणे ॥ ४३६२ ॥ मूलेण विणा केलिसे, तलु पवले य घणे य सोभई । न सूलविभिन्न घडे, जलशाहीणि वलेइ कन्हुई || ४३६३ ॥ विभागः ४ पत्रम् ११७९-८० [ १८ लौकिकाः न्यायाः ] (१) कोकचक्र परस्परन्यायः ‘कोहुकपरम्परकेण' महाराष्ट्र प्रसिद्धको लुक चक्र परम्परन्यायेन × × × कोलुपरंपर संकलि, आगासं नेह वायपडिलोमं । अच्छुढा जलणे, अक्खाई सारभंडं तु ॥ ५७५ ॥ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशं परिशिष्टम् १९५ ज्वलने प्रवर्द्धमाने सर्वमुपकरणमेकवारमशनुवन् कल्पेषु चतुषु पञ्चसु वा बध्नाति, वर्धा च कोल्लुकचक्रन्यायेन परम्परया 'संकलि' ति तान् पोटलकान् दवरकेण सङ्कलय्य यत्र न तृणादिसम्भवस्तत आकाशं तदपि दातप्रतिलोमं तत्र नयति । अथ ज्वलनेनातिप्रसरता ते 'अच्छुढाः' खस्थानं लाजितात्ततो यत् सारं भाण्डमक्षादि तद् निष्काशयन्ति ॥ ५७५ ॥ विभागः ६ पत्रम् १६७० (२) छागलन्यायः किं छागलेण जंपह, किं मं होप्पेह एवऽजाणंता। बहुपहिं को विरोहो, सलभेहि व नागपोतस्स ॥ ६०७९ ॥ किमेवं छागलेन न्यायेन जल्पथ ? वोकटवन्मूर्खतया किमेवमेव प्रलपथ ? इत्यर्थः । किं वा मामेवमजानन्तोऽपि “होप्पेह" गले ला प्रेरयथ? । अथवा ममापि बहुभिः सह को विरोधः? शलभैरिव नागपोतस्येति ॥६०७९ ॥ विभागः ६ पत्रम् १६०७ (३) वणिन्यायः स प्राह-कः पुनर्वणिग्यायो येनेषा शुद्धा क्रियते ? साधवो ब्रुवते वत्थाणाऽऽभरणाणि य, सव्वं छड्डेउ एगवत्थेणं । पोतम्मि विवण्णम्मि वापितधम्मे हवति सुद्धो॥ ६३०९ ॥ यथा कोऽपि वाणिजः प्रभूतं ऋणं कृत्वा प्रवहणेन समुद्रमरगाढः, तत्र 'पोते' प्रवहणे विपन्ने आत्मीयानि परकीयानि च प्रभूतानि वस्त्राण्याभरणानि चशब्दात् शेषमपि च नानाविधं क्रयाणकं सर्व 'छर्दयित्वा' परित्यज्य 'एकवस्त्रेण' एकेनैव परिधानवाससा उत्तीर्ण: 'वणिग्धर्मे' वणिक्याये 'शुद्धो भवति' न ऋणं दाप्यते । एवमियमपि साध्वी तव सत्कमात्मीयं च सारं सर्व परित्यज्य निष्क्रान्ता, संसारसमुद्रादुत्तीर्णा इति वणिग्धर्मेण शुद्धा, न धनिका ऋणमात्मीयं याचितुं लभन्ते, तस्माद् न किञ्चिदत्र तवाभाव्यमस्तीति करोलिदानीमेषा खेच्छया तपोवाणिज्यम, पोतपरिभ्रष्टवाणिगिव निर्ऋणो वाणिज्यमिति ॥ ६३०९॥ विभागः ६ पत्रम् १६६५ [१९ आयुर्वेदसम्बद्धो विभागः] (१) महावैद्यः अष्टाङ्गायुर्वेदस्य निर्माता च 'योगीव यथा महावैद्यः' इति, 'यथा' इति दृष्टान्तोपन्यासे, 'योगी' धन्वन्तरिः, तेन च विभङ्गज्ञानबलेनाऽऽगामिनि काले प्राचुर्येण रोगसम्भवं दृष्ट्वा अष्टाङ्गायुर्वेदरूपं वैद्यकशास्त्रं चक्रे, तच्च यथाम्नायं येनाधीतं स महावैद्य उच्यते। विभागः२ पत्रम् ३०२ (२) रोग-औषधादि पउमुप्पले माउलिंगे, एरंडे चेव निंबपत्ते य । पित्तुदय सन्निवाए, वायकोवे य सिंभे य ॥ १०२९ ॥ पित्तोदये पद्मोत्पलमौषधम् , सन्निपाते 'मातुलिङ्गं' बीजपूरकम् , वातप्रकोपे एरण्डपत्राणि 'सिमेत्ति लेष्मोदये निम्बपत्राणि ॥ १०२९ ॥ विभागः२पत्रम् ३२३ तथा श्लीपदनाना रोगेण यस्य पादौ शूनौ-शिलावद् महाप्रमाणौ भवतः स एवंविधः लीपदी । विभागः २ पत्रम् ३५८ उक्तञ्च भिषग्वरशास्त्रउत्पद्येत हि साऽवस्था, देश-काला-ऽऽमयान् प्रति । यस्यामकार्य कार्य स्वात् , कर्म कार्य च वर्जयेत् ॥ विभागः ४ पत्रम् ९३६ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ os argura १९६ त्रयोदशं परिशिष्टम् दन्तानामञ्जनं श्रेष्ठ, कर्णानां दन्तधावनम् । शिरोऽभ्यङ्गश्च पादानां, पादाभ्यङ्गश्च चक्षुषोः ॥ __विभागः ४ पत्रम् १०६३ पूर्वाह्न वमनं दद्यादपराह्ने विरेचनम् । वातिकेष्वपि रोगेषु, पथ्यमाहुर्विशोषणम् ॥ विभागः ४ पत्रम् १९७९ [२० शकुनशास्त्रसम्बद्धो विभागः] चोरस्स करिसगस्स य, रित्तं कुडयं जणो पसंसेइ । गेहपवेसे मन्नइ, पुन्नो कुंभो पसत्यो उ ॥ विभागः १ पत्रम् ७ मइल कुचेले अभंगियल्लए साण खुज वडमे या।। एए तु अप्पसत्था, हवंति खित्ताउ णितस्स ॥ १५४७ ॥ 'मलिनः' शरीरेण वा मलीमसः 'कुचेलः' जीर्णवस्त्रपरिधानः 'अभ्यङ्गितः' स्नेहाभ्यक्तशरीरः श्वा ( दक्षिणपार्श्वगामी 'कुब्जः' वक्रशरीरः 'वडभः' वामनः । 'एते' मलिनादयोऽप्रशस्ता भवन्ति क्षेत्रान्निर्गच्छतः ॥ १५४७ ॥ तथा रत्तपड चरग तावस, रोगिय विगला य आउरा वेजा। __ कासायवत्थ उद्धूलिया य जत्तं न साहति ॥ १५४८॥ 'रक्तपटाः' सौगताः, 'चरकाः' काणादा धाटीवाहका वा, 'तापसाः' सरजस्काः, 'रोगिणः' कुष्ठादिरोगाक्रान्ताः, "विकलाः' पाणि-पादाद्यवयवव्यङ्गिताः, 'आतुराः' विविधदुःखोपद्रुताः, 'वैद्याः' प्रसिद्धाः, 'काषायवस्त्राः' कषायवस्त्रपरिधानाः, 'उद्धलिताः' भस्मोद्धलितगात्रा धूलीधूसरा वा। एते क्षेत्रान्निर्गच्छद्भिदृष्टाः सन्तो यात्रागमनं तत्प्रवर्तकं कार्यमप्युपचाराद् यात्रा तां न साधयन्ति ॥ १५४८ ॥ उक्ता अपशकुनाः । अथ शकुनानाह नंदीतूरं पुण्णस्स दसणं संख-पडहसदो य । भिगार-छत्त-चामर-वाहण-जाणा पसत्थाई ॥१५४९॥ समणं संजयं दंतं, सुमणं मोयगा दधिं । मीणं घंटे पडागं च, सिद्धमत्थं वियागरे ॥ १५५० ॥ 'नन्दीतूर्य' द्वादशविधतूर्यसमुदायो युगपद् वाद्यमानः, 'पूर्णस्य' पूर्णकलशस्य दर्शनम् , शङ्ख-पटहयोः शब्दश्च श्रूयमाणः, भृङ्गार-च्छत्र-चामराणि प्रतीतानि 'वाहन-यानानि' वाहनानि-हस्तितुरङ्गमादीनि यानानिशिबिकादीनि, एतानि 'प्रशस्तानि' शुभावहानि ॥ १५४९ ॥ 'श्रमणं' लिङ्गमात्रधारिणम् , 'संयत' पटकायरक्षणे सम्यग्यतम् , 'दान्तम्' इन्द्रिय-नोइन्द्रियदमनेन, 'सुमनसः' पुष्पाणि, मोदका दधि च प्रतीतम् , 'मीनं' मत्स्यम् , घण्टां पताकां च दृष्ट्वा श्रुत्वा वा 'सिद्ध' निष्पन्नम् 'अर्थ' प्रयोजनं व्यागृणीयादिति ॥ १५५० ॥ विभागः २ पत्रम् ४५५-५६ दिटुंतो पुरिसपुरे, मुरुडदूतण होइ कायव्वो। जह तस्स ते असउणा, तह तस्सितरा मुणेयव्वा ॥ २२९१ ॥ दृष्टान्तोऽत्र पुरुषपुरे रक्तपटदर्शनाकीर्णे मुरुण्डदूतेन भवति कर्त्तव्यः । यथा 'तस्य' मुरुण्डदृतस्य 'ते' रक्तपटा अशकुना न भवन्ति, तथा 'तस्य' साधोः 'इतराः' पार्श्वस्थ्यादयो मुणितव्याः, ता दोषकारिण्यो न भवन्तीत्यर्थः ॥ २२९१ ॥ इदमेव भावयति पाडलि मुरुडदूते, पुरिसपुरे सचिवमेलणाऽऽवासो। भिक्खू असउण तइए, दिणम्मि रन्नो सचिवपुच्छा ॥ २२९२॥ पाटलिपुत्रे नगरे मुरुण्डो नाम राजा । तदीयदूतस्य पुरुपपुरे नगरे गमनम् । तत्र सचिवेन सह मीलनं । तेन च तस्य आवासो दापितः । ततो राजानं द्रष्टुमागच्छतः 'भिक्षवः' रक्तपटा अशकुना Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशं परिशिष्टम् १९७ भवन्ति इति कृत्वा स दूतो न राजभवनं प्रविशति । ततस्तृतीये दिने राज्ञः सचिवपार्श्वे पृच्छा-किमिति दूतो नाद्यापि प्रविशति? ॥ २२९२ ॥ ततश्च निग्गमणं च अमच्चे, सब्भावाऽऽइक्खिए भणइ दूयं । अंतो बहिं च रच्छा, नऽरहिंति इह पवेसणया ॥ २२९३ ॥ अमात्यस्य राजभवनानिर्गमनम् । ततो दूतस्यावासे गला सचिवो मिलितः । पृष्टश्च तेन दूतः-किं न प्रविशसि राजभवनम् ? स प्राह-अहं प्रथमे दिवसे प्रस्थितः परं तच्चन्निकान् दृष्टा प्रतिनिवृत्तः 'अपशकुना एते' इति कृत्वा, ततो द्वितीये तृतीयेऽपि दिवसे प्रस्थितः तत्रापि तथैव प्रतिनिवृत्तः। एवं सद्भावे 'आख्याते' कथिते सति दूतममात्यो भणति-एते इह रथ्याया अन्तबहिर्वा नापशकुनत्वमर्हन्ति । ततः प्रवेशना दूतस्य राजभवने कृता । एवमस्माकमपि पार्श्वस्थादयस्तदीयसंयत्यश्च रथ्यादौ दृश्यमाना न दोषकारिण्यो भवन्ति ॥ २२९३ ॥ विभागः ३ पत्रम् ६५० [२१ कामशास्त्रसम्बद्धो विभागः] चीयत्त ककडी कोउ कंटक विसप्प समिय सत्थे य । पुणरवि निवेस फाडण, किमु समणि निरोह भुत्तितरा ॥ २०५१ ॥ एगस्स रन्नो महादेवी। तीसे ककडियाओ पियाओ। ताओ अ एगो णिउत्तपुरिसो दिणे दिणे आणेति । अण्णया तेण पुरिसेण अहापवित्तीए अंगादाणसंठिया ककडिया आणिता। तीसे देवीए तं ककडियं पासेत्ता कोतुयं जायं-पेच्छामि ताव केरिसो फासो त्ति एयाए पडिसेवियाए ? । ताहे ताए सा ककडिया पादे बंधिउं सागारियाणं पडिसेविउमाढत्ता। तीसे ककडियाए कंटओ आसी, सो तम्मि सागारिए लग्गो । विसप्पियं च तं । ताहे वेजस्स सिटुं । ताहे वेजेगं समिया मद्दिया, तत्थ निवेसाविया, उट्ठवेत्ता सुसियप्पदेसं चिंधियं । तम्मि पदेसे तीए अपेच्छमाणीए सत्थयं उप्परामुहधारं खोहियं । पुणो तेणेवागारेण णिवेसाविया ।। पूएण समं निग्गओ कंटओ। पउणा जाया । जति ताव तीसे देवीए दंडिएण पडिसेविजमाणीए कोउयं जायं, किमंग पुण समणीणं णिचणिरुद्धाण भुत्तभोगीणं अभुत्तभोगीण य?॥ विभागः २ पत्रम् ३२९ एका सीही रिउकाले मेहुणत्थी सजाइपुरिसं अलभमाणी सत्थे वहंते इकं पुरिसं चित्तुं गुहं पविट्ठा चाटुं काउमाढत्ता । सा य तेण पडिसेविता । तत्थ तेसिं दोण्ह वि संसाराणुभावतो अणुरागो जातो । गुहापडियस्स तस्स सा दिणे दिणे पोग्गलं आणे देइ । सो वि तं पडिसेवइ । जइ एवं जीवितंतकरीसु वि सणप्फईसु पुरिसो मेहुणधम्म पडिसेवइ x x x विभागः३ पत्रम् ७१७ जहा-एगा अविरइया अवाउडा काइयं वोसिरेती विरहे साणेण दिद्रा । सो य साणो पुच्छं लोलितो चाडूणि करेंतो अल्लीणो। सा अगारी चिंतेइ-पेच्छामि तावइ एस किं करेइ ? त्ति । तस्स पुरतो सागारियं अभिमुहं काउं जाणुएहिं हत्थेहि य अहोमुही ठिया। तेण सा पडिसेविया । तीए अगारीए तत्थेव साणे अणुरागो जातो। एवं मिग-छगल-वानरादी वि अगारिं अभिलसंति ॥ विभागः ३ पत्रम् ७१८ अथवा विकुर्वितं नाम-महाराष्ट्रविषये सागारिकं विद्ध्वा तत्र विष्टकः प्रक्षिप्यते ॥ विभागः ३ पत्रम् ७३० कस्यापि महाराष्ट्रादिविषयोत्पन्नस्य साधोरङ्गादानं वेण्टकविद्धम् ॥ विभागः ३ पत्रम् ७४१ उवहय उवकरणम्मि, सेजायरभूणियानिमित्तेणं । तो कविलगस्स वेओ, ततिओ जाओ दुरहियासो ॥ १५५४ ॥ शय्यातरभ्रूणिकानिमित्तेन पूर्वम् 'उपकरणे' अङ्गादानाख्ये 'उपहते' छिन्ने सति ततः क्रमेण कपिलस्य दुरधिसहस्तृतीयो वेदो जात इत्यक्षरार्थः । भावार्थस्तु कथानकेनोच्यते सुट्टिया आयरिया । तेसिं सीसो कविलो नाम खुडुगो । सो सिज्जायरस्स भूणियाए सह खेडं करेति । तस्स तत्थेव अज्झोववाओ जाओ। अन्नया सा सिज्जातरभूणिया एगागिणी नातिदूरे गावीणं दोहणवाडगं गया। Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ त्रयोदशं परिशिष्टम् सा तओ दुद्ध-दहिं घेत्तूणाऽऽगच्छति । कविलो य तं चेव वाडगं भिक्खायरियं गच्छति । तेणंतरा असारिए अणिच्छमाणी बला भारिया उप्पाइया । तीए कब्बट्ठियाए अदूरे पिया छित्ते किसिं करेइ । तीए तस्स कहियं । तेण सा दिट्ठा जोणिब्भेए रुहिरोक्खित्ता महीए लोलिंतिया य । सो य कोहाडहत्थगओ रुट्ठो । कविलो य तेण कालेण भिक्खं अडितुं पडिनियत्तो, तेण य दिट्ठो। मूलाओ से सागारियं सह जलधरेहिं निकंतियं । सो य आयरियसमीवं न गओ, उन्निक्खंतो । तस्स य उवगरणोवघाएण ततिओ वेदो उदिण्णो। सो जुन्नकोट्टिणीए संगहिओ । तत्थ से इत्थीवेओ वि उदिनो॥ विभागः ५ पत्रम् १३७१ [२२ ग्रन्थनामोल्लेखाः]] मलयगिरिप्रभृतिव्याकरणप्रणीतेन लक्षणेन संस्कारमापादितं वचनं संस्कृतम् । विभागः १ पत्रम् ३ शब्दानुशासनादिविश्वविद्यामयज्योतिःपुञ्जपरमाणुघटितमूर्तिभिः श्रीमलयगिरिमुनीन्द्रर्षिपादैविवरणकरणमुपचक्रमे। विभागः१ पत्रम् १७८ संव्यूहतो यथा मलयवतीकार इत्यादि विभागः१ पत्रम् ९९ जे रायसत्थकुसला, अतकुलीया हिता परिणया य ॥ ३८२ ॥ ये 'राजशास्त्रेषु' कौटिल्यप्रभृतिषु कुशला राजशास्त्रकुशलाः, विभागः १ पत्रम् ११३ योऽपि च व्यक्तः सोऽपि यदि निद्रालुभवति तरङ्गवत्यादिकथाकथनव्यसनी वा तदा न रक्षति, प्रमादबहुलवात् ॥ ५६५ ॥ विभागः १ पत्रम् १६५ विशाखिल वात्स्यायनादिपापश्रुतान्यभ्यस्यतस्तेषु बहुमानबुद्धिं कुर्वतो ज्ञानमालिन्यम् , विभागः १ पत्रम् २११ तत्र योनिप्राभृतादिना यदेकेन्द्रियादिशरीराणि निवर्तयति । यथा सिद्धसेनाचार्येणाश्वा उत्पादिताः । विभागः ३ पत्रम् ७५३ अक्खाइयाउ अक्खाणगाइँ गीयाइँ छलियकव्वाई। कहयंता य कहाओ, तिसमुत्था काहिया होंति ॥ २५६४ ॥ तथा 'आख्यायिकाः' तरङ्गवती-मलयवतीप्रभृतयः, 'आख्यानकानि' धूर्ताख्यानकादीनि 'गीतानि' ध्रुवकादिच्छन्दोनिबद्धानि गीतपदानि, तथा 'छलितकाव्यानि' शृङ्गारकाव्यानि, 'कथाः' वसुदेवचरित-चेटककथादयः, 'त्रिसमुत्थाः' धर्म-कामा-ऽर्थलक्षणपुरुषार्थत्रयवक्तव्यताप्रभवाः सङ्कीर्णकथा इत्यर्थः । एतान्याख्यायिकादीनि कथयन्तः काथिका उच्यन्ते, कथया चरन्तीति व्युत्पत्तेः ॥ २५६४ ॥ विभागः ३ पत्रम् ७२२ दसणजुत्ताइअत्थो वा ॥ २९९० ॥ "दंसणजुत्ताइअत्थो व” त्ति दर्शनविशुद्धिकारणीया गोवि आदिशब्दात् सम्म तत्त्वार्थप्रभृतीनि च शास्त्राणि तदर्थः-तत्प्रयोजनः प्रमाणशास्त्रकुशलानामाचार्याणां समीपे गच्छेत् ॥ विभागः ३ पत्रम् ८१६ उक्तं च भिषग्वरशास्त्रेउत्पद्येत हि साऽवस्था, देशकालामयान् प्रति । यस्यामकार्य कार्य स्यात् , कर्म कार्यं च वर्जयेत् ॥ विभागः ४ पत्रम् ९३६ Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કિંમત = • જેન આત્માનંદ સભા પ્રાપ્ય પુસ્તકો ક્રમ વિગત ૧ ત્રિશષ્ટિ શલાકા પુરૂષ પર્વ ૨-૩-૪ પુસ્તક .. ત્રિશષ્ટિ શલાકા પુરૂષ પર્વ .. ૩ દ્વાદશારે નયચક્રમ્ ભાગ-૧..... બાદશારે નયચક્રમ્ ભાગ-૨..... દ્વાદશારે નયચક્રમ્ ભાગ-૩ સ્ત્રીનિર્વાણ કેવળ ભક્તિ પ્રકરણ......... જિનદત્ત આખ્યાન... સાધુ-સાધ્વી આવશ્યક ક્રિયા સૂત્ર પ્રત... કુમાર વિહાર શતક પ્રતાકારે...... ૧૦ પ્રાકૃત વ્યાકરણ ......... ૧૧ આત્મક્રાંતિ પ્રકાશ ....... ૧૨ નવસ્મરણાદિ સ્તોત્ર સંદોહ, ૧૩ જાયું અને જોયું..... . ૧૪ સુપાર્શ્વનાથ ચરિત્ર ભાગ-૨ ... ૧૫ કથાર– કોષ ભાગ-૧ .... ૧૬ જ્ઞાન પ્રદિપ ભાગ ૧-૨-૩ સાથે..... ૧૭ સુમતિનાથ ચરિત્ર ભાગ-૧ .......... ૧૮ સુમતિનાથ ચરિત્ર ભાગ-૨..... ૧૯ શત્રુંજય ગિરિરાજ દર્શન.... ૨૦ વૈરાગ્ય ઝરણા ............. ૨૧ ઉપદેશમાળા બાપાંતર.... ૨૨ ધર્મ કૌશલ્ય ....... ૨૩ નમસ્કાર મહામંત્ર.. ૨૪ પુણ્યવિજય વિશેષાંક ... ૨૫ આત્મવિશુદ્ધિ ............. ૨૬ જૈનદર્શન મીમાંસા ......... ૨૭ શત્રુંજય તીર્થનો ૧૫મો ઉદ્ધાર ૨૮ આત્માનંદ ચોવિસી. ૨૯ બ્રહ્મચર્ય ચારિત્ર પૂજાદિત્રયી સંગ્રહ ... ૩૦ આત્મવલ્લભપૂજા ... ૩૧ નવપદજી પૂજા.... ૩૨ ગુરુભક્તિ ગહુંલી સંગ્રહ.............. ૩૩ ભક્તિ ભાવના... ૩૪ જૈન શારદાપૂજન વિધિ... ૩૫ જંબૂસ્વામી ચરિત્ર .......... ૩૬ ચાર સાધન ...... .•••••••••••••• ૩૭ શ્રી તીર્થકર ચરિત્ર (સચિત્ર) ..... ...... ૫0-00 .......... ૫૦-૦૦ ... પ૦૦-૦૦ ૩પ૦-૦૦ ૩પ૦-૦૦ . ૨૫-૦૦ .. ૧૫-૦૦ . ૨૦-૦૦ ૨૦-૦૦ પ૦-૦૦ .. પ-00 ૭-00 ૧૦-૦૦ ૨૦-૦૦ . ૩૦-૦૦ ૪૦-૦૦ ૪૦-00 -00 ૧૦-૦૦ ..૩-૦૦ .. ૩૦-૦૦ ૧૦-૦૦ .. પ-00 ૧૦-૦૦ .. ૧૦-૦૦ ૧૦-૦૦ ૨-૦૦ ૨-૦૦ . ૫-00 પ-00 ૫-૦૦ ... ૨-૦૦ ૨-૦૦ .... પ-00 ... ૧પ-00 . ૨૦-૦૦ ....... ૧૫૦-૦૦ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E Tejas Printers AHMEDABAD PH. (079) 5601045