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________________ वृहत्कल्पसूत्रनी प्रस्तावना नमस्कार करे अथवा पोताना शिष्यने " भगवं पि थूलभदो एम व्यक्तिगत नाम लई " भगवं" तरीके लखे ए क्यारे पण बनी न शके अने ए पद्धति विनयधर्मनी रक्षा खातर कोई पण शास्त्रकारने के श्रुतधरने मान्य न ज होई शके. ३१ ܕܪ (ख) चतुर्दश पूर्वविद् भगवान् भद्रबाहुस्वामी, जेमणे अनुयोगनी अपृथक् दशामां निर्युक्तिग्रंथोनी रचना कर्यानुं कहेवामां आवे छे तेओश्री १ पोता पछी लगभग चार सैका बाद बननार अनुयोगपृथक्त्वनी घटनानो उल्लेख करे, २ तेमना पोताना पछी थनार स्थवि - रोनी जीवनकथा अने मान्यताओनी नोंध ले अने ३ केटलाक निह्नवो अने दिगंबरमत, जे तेमना पोतानाथी केटलेय काळांतरे उत्पन्न थएला छे तेमनी उत्पत्ति अने मान्यताओने निर्युक्तिग्रंथोमां वर्णवे ए कोई पण प्रकारे स्वीकारी के कल्पी शकाय तेम नथी. जो उपर्युक्त घटनाओ बन्या अगाउ ज तेनो उल्लेख निर्युक्तिग्रंथोमां करी देवामां आवे तो ते ते मान्यता के मत अमुक पुरुषथी रूढ थयानुं कहेवामां आवे ए शी रीते कही शकाय ?. (ग) जे दश आगमो उपर निर्युक्तिओ रचायानो उल्लेख आवश्यक निर्युक्तिमा छे, ए पैकीनां आचारांग अने सूत्रकृतांग ए वे अंगआगमो चौदपूर्वधर आर्य भद्रबाहुस्वामीना जमानामां जैन साम्प्रदायिक मान्यतानुसार अतिमहान् अने परिपूर्ण हतां, तेमज एना प्रत्येक सूत्र पर एकी साथै चार अनुयोग प्रवृत्त हता, ए स्थितिमां उपरोक्त अंगआगमो उपर गूंथा - एल निर्युक्तिग्रन्थो अति विशाल अने चार अनुयोगमय होवा जोईए, तेमज वीजा आग - मग्रन्थो उपर निर्माण करेल निर्युक्तिग्रन्थो पण चार अनुयोगमय अने विस्तृत होवा जोईए, अने ते उपरांत एमां उपर निर्देश करेल अनुयोगनी पृथक्तानो के अर्वाचीन स्थविरोनी जीवकथा साथै संबंध धरावती कोई पण बाबतनो उल्लेख सदंतर न होवो जोइए. आ कथन सामे ' निर्युक्तिकार चतुर्दशपूर्वघर श्रीभद्रबाहुस्वामी होवा 'नी मान्यता तरफ वलण धरावनारा विद्वानोनुं कहेतुं छे के - " नियुक्तिकार, चतुर्दशपूर्वविद् भद्रबाहु - स्वामी ज छे. तेओश्रीए ज्यारे नियुक्तिग्रंथोनी रचना करी त्यारे ए नियुक्तिग्रंथो चार अनुयोगमय अने विशाळ ज हता; पण ज्यारे स्थविर आर्यरक्षिते पोताना दुर्बलिका पुष्यमित्र नामना विद्वान् शिष्यनी विस्मृतिने तेमज तेमनी पाछळ भविष्यमां थनार शिष्य - प्रशिष्या दि संततिनी अत्यन्त मंदबुद्धिने ध्यानमा लई अनुयोगने पृथक् कर्या त्यारे उपरोक्त चार अनुयोगमय नियुक्तिप्रन्थोने पण पृथग् अनुयोगरूपे व्यवस्थित करी लीधा. 77 जो के, जेम स्थविर आर्यरक्षित भगवाने अनुयोगने पृथक् कर्याना तेमज आर्यस्कंदिल आदि स्थविरोए माथुरी प्रमुख भिन्न भिन्न वाचनाओ द्वारा आगमोनी पुनर्व्यवस्था कर्याना Jain Education International १ आवस्यस्स दसकालियस्स तह उत्तरज्झमायारे । सूयगडे पिज्जुत्तिं वोच्छामि तहा दसाणं च ॥ ९४ ॥ कप्पस य णिज्जुत्तिं ववहारस्सेव परमनिउणस्स | सूरियपण्णत्तीए, वुच्छं इसिभा सिआणं च ॥ ९५ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002515
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Part 06
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorChaturvijay, Punyavijay
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year2002
Total Pages424
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size20 MB
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