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________________ ५७ वृहत्कल्पसूत्रनी प्रस्तावना कुलनी ज प्रति छे । अमे पण अमारा प्रस्तुत संपादनमा मुख्यत्वे करीने आ कुलने ज आदिथी अंत सुधी स्थान आप्यु छे अने मौलिक कुल पण आ ज छे। आम छतां भा० प्रति के जेमा टीकाना संदर्भोना संदर्भोर्नु वधारेपणुं, व्याख्याभेदो, गाथाओर्नु ओछावत्तापणुं होवा छतां जेमा संख्याबंध स्थळे पाठोनी अखंड परंपरा जळवायेली छे के जे परंपरा अमारी पासेनी भा० सिवायनी वधीये प्रतिओमां तेम ज उपर जणावेली श्रीविजयनेमिसूरि म० अने जेसलमेरना श्रीजिनभद्रीय जैन ज्ञानभंडारनी ताडपत्रीय प्रतिओ सुद्धामां नथी, जेनी नोंध अमे आगळ उपर आपीशु, ए प्रतिनुं कुल पण प्राचीन छे । जो के अमारा पासे जे भा० प्रति छे ते संवत् १६०७ मां लखायेली छे, तेम छतां अमारा प्रस्तुत मुद्रण बाद पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यभगवान् श्रीसागरानंदसूरिप्रवरना सुरतना जैनानंद ज्ञानभंडारने जोतां तेमांथी विक्रमना चौदमा सैकाना उत्तरार्धमा अथवा पंदरमा सैकाना प्रारंभमां लखाएली नियुक्तिभाष्यटीकायुक्त बृहत्कल्पनी प्रतिनो एक खंड मळी आव्यो छे जे भा० कुलना पूर्वज समान प्रति छ। आ प्रति भा० प्रति साथे अक्षरशः मळती छे, एटले आ कुलनी प्रतिमां मळती पाठोनी समविषम परंपरा अति प्राचीन छ । आ ज प्रमाणे डे० त० प्रतिनी परंपरा अर्वाचीन तो न ज गणाय अने कां० प्रतिनी परंपरा पण अर्वाचीन नथी । आ हकीकत विचारतां आटलं बधुं विषमताभर्यु परिवर्तन प्रस्तुत टीकामां शा कारणे थयुं ? कोणे कयु ? विगेरे प्रश्नो अणउकल्या ज रही जाय छे । ___ संपादनपद्धति अने प्रतिओना परिचय विषे उपलक दृष्टिए आटलं जणाव्या पछी ए प्रतिओनी विविध विषमतानो ख्याल आपवो सविशेष उचित छे । जेथी विद्वानोने ग्रंथना संशोधनमा प्रत्यंतरोनुं शुं स्थान छे ? ए समजाय अने पाठोनो विवेक केम करवो तेनुं मार्गदर्शन थाय। सूत्रविषयक पाठभेदो। प्रस्तुत प्रकाशनमा कल्पनुं (बृहत्कल्पसूत्रनुं ) मूळ सूत्र छपाएलु छे। जेनी अमारा सामे उपर जणावेल कल्पलघुभाष्य अने कल्पचूर्णीनी ताडपत्रीय प्रतिओ पाछळ लखाएली वे प्रतिओ छे । आनी अमे तामू० अथवा ता० संज्ञा राखी छे । एमां अने नियुक्तिभाष्यटीकायुक्त बृहत्कल्पसूत्रनी दरेक प्रतिओमा मुद्रितना क्रम प्रमाणे सत्र लखाएलुं छे एमां, तथा कल्पभाष्य, कल्पचूर्णी अने कल्पविशेषचूर्णीमां जे समविषम सूत्रपाठभेदो छे तेनी नोंध आपवामां आवे छे । १ तामू० माथी मळेल सूत्रपाठभेद-पृ. १०२३ टि. १ (विचू० सम्मत) । २ भाष्यकारे नोंघेल सूत्रपाठभेद-पृ. ३४१ दि. १। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002515
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Part 06
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorChaturvijay, Punyavijay
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year2002
Total Pages424
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size20 MB
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