SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 86
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८३ बृहत्कल्पसूत्रनी प्रस्तावना हकीकतने सविशेष स्पष्ट करता भाष्यकार भगवते जणाव्युं छे के-“उत्सर्गना स्थानमा एटले के उत्सर्गमार्गना अधिकारी माटे उत्सर्ग ए उत्सर्ग छे अने अपवाद ए अपवाद छे, परंतु अप. वादना स्थानमा अर्थात् अपवाद मार्गना अधिकारी माटे अपवाद ए उत्सर्ग छे अने उत्सर्ग ए अपवाद छ । आ रीते उत्सर्ग अने अपवाद पोत-पोताना स्थान अने परिस्थिति परत्वे श्रेयस्कर, कार्यसाधक अने बळवान् छ " (जुओ गा० ३२३-२४)। उत्सर्ग अपवादनी. समतुलानुं आटलं सक्ष्म निदर्शन ए, जैनदर्शननी महान् तत्त्वज्ञता अने अनेकान्त. दर्शननी सिद्धिनुं विशिष्ट प्रतीक छ । उत्सर्ग अपवादनी समतुलानु निदर्शन कर्या पछी तेने एकधारुं व्यापक अने विधेय मानी लेवु जोईए नहि, परंतु तेमां सत्यदर्शिपणुं अने विवेक होवा जोईए । एटला ज मादे भाष्यकार भगवंते कह्यु छे के ण वि किंचि अणुण्णायं, पडिसिद्धं वा वि जिणवरिंदेहि । एसा तेसिं आणा, कजे सच्चेण होतवं ॥ ३३३० ॥ अर्थात-जिनेश्वरोए कशाय माटे एकांत विधान के निषेध कर्यों नथी । तेमनी आज्ञा एटली ज छे के कार्य प्रसंगे सत्यदर्शी अर्थात् सरळ अने राग-द्वेषरहित थQ जोईए । स्थविर श्रीधर्मदासगणिए उपदेशमालाप्रकरणमां पण आज आशयनी वस्तु कही छे तम्हा सवाणुना, सबनिसेहो य पवयणे नत्थि । आयं वयं तुलिज्जा, लाहाकखि व वाणियओ ॥ ३९२ ॥ अर्थात्-जिनागममां कशाय माटे एकान्त आज्ञा के एकान्त मनाई छ ज नहि । फक्त दरेक कार्य करता लाभनो विचार करनार वाणिआनी माफक आवक अने खर्चनी एटले के नफा-टोटानी सरखामणी करवी । उपर जणाववामां आव्युं ते उपरथी समजी शकाशे के उत्सर्ग अपवादनी मूळ जीवादोरी सत्यदर्शिता छ । ज्यां ए चाली जाय के तेमां ऊणप आवे त्यां उत्सर्ग ए उत्सर्ग नथी रहेतो अने अपवाद ए अपवाद पण नथी रही शकतो । एटलं ज नहि, परंतु जीवनमाथी सत्यनो अभाव थतां पारमार्थिक जीवन जेवी कोई वस्तु ज नथी रहेती। आचा. रांगसूत्र श्रु० १ अ० ३ उ० ३ मां कहेवामां आव्युं छे के-“ पुरिसा! सञ्चमेव समभिजाणाहि, सच्चस्स आणाए उवट्ठिए से मेहावी मार तरइ-अर्थात् हे आत्मन् ! तुं सत्यने बराबर ओळख, सत्यनी मर्यादामा रही प्रयत्न करनार विद्वान ज संसारने पार करे छे"। आनो अर्थ ए छे के-उत्सर्ग-अपवादस्वरूप जिनाज्ञा के जिनप्रवचननी आराधना करनारनुं जीवन दर्पण जेवू स्वच्छ अने स्फटिकनी जेम पारदर्शी होवू जोईए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002515
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Part 06
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorChaturvijay, Punyavijay
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year2002
Total Pages424
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy