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ग्रंथकारोनो परिचय थाओ बनावीने पण तेमा दाखल करी छे एटले वसुदेवहिंडि . प्रथम खंडना प्रणेता श्रीसंघदासगणि वाचक तो निर्विवाद रीते तेमना पूर्वभावी आचार्य छे. परंतु भाष्यकार श्रीसंघदासगणि क्षमाश्रमण तेमना पूर्वभावी छे के नहि ए कोयडो तो अणउकल्यो ज रही जाय छे. आम छतां प्रासंगिक होय के अप्रासंगिक होय तो पण आ ठेकाणे ए वात कहेवी जोईये के
भाष्यकार आचार्य एक नहि पण अनेक थई गया छे. एक भगवान् श्रीजिनभद्रगणि क्षमाश्रमण बीजा श्रीसंघदासगणि क्षमाश्रमण जीजा व्यवहारभाष्य आदिना प्रणेता अने चोथा कल्पबृहद्भाष्य आदिना कर्ता, आ प्रमाणे सामान्य रीते चार भाष्यकार आचार्य थवानी मारी मान्यता छे. पहेला बे आचार्यों तो नामवार ज छे. चोथा कल्पवृहद्भाष्यना प्रणेता आचार्य, जेमनुं नाम जाणी शकायुं नथी ए आचार्य तो मारी धारणा प्रमाणे कल्पचूर्णिकार अने विशेषचूर्णिकार करता य पाछळ थएला आचार्य छे. तेनुं कारण ए छे के-मुद्रित कल्पलघुभाष्य, जेना प्रणेता आचार्य श्रीसंघदासगणि क्षमाश्रमण छे, तेनी १६६१ मी गाथामा प्रतिलेखनाना काळy-वखतनुं निरूपण करवामां आव्युं छे. तेनुं व्याख्यान करतां चूर्णिकार अने विशेषचर्णिकारे जे आदेशांतरोनो अर्थात् पडिलेहणाना समयने लगती विध विध मान्यताओनो उल्लेख कर्यो छे ते करता य नवी नवी वधारानी मान्यताओनो संग्रह कल्पबृहद्भाष्यकारे उपरोक्त गाथा उपरना महाभाष्यमां को छे; जे याकिनीमहत्तरासूनु आचार्य श्रीहरिभद्रसूरि विरचित पंचवस्तुक प्रकरणनी स्वोपज्ञवृत्तिमां उपलब्ध थाय छे आ उपरथी ए वात निश्चित रीते कही शकाय के कल्पबृहद्भाष्यना प्रणेता आचार्य, कल्पचूर्णि-विशेषचूर्णिकार पछी थएला छे अने याकिनीमहत्तरासूनु आचार्य श्रीहरिभद्रसूरिथी कांईक पूर्ववर्ती अथवा समसमयभावी छे. आ उपरथी एक बीजी वात उपर सहेजे प्रकाश पडे छे के-याकिनीमहत्तरासूनु आचार्य श्रीहरिभद्र भगवानने अति प्राचीन मानवानो जे आग्रह राखवामां आवे छे ते प्रामाणिकताथी दूर जाय छे.
आटलुं जणाव्या पछी एक वात ए कहेवी बाकी छे के-व्यवहार भाष्यना प्रणेता कोण आचार्य छे ते क्यांय मळतुं नथी; तेम छतां ए आचार्य एटले के व्यवहारभाष्यकार, श्रीजिनभद्रगणि क्षमाश्रमणथी पूर्वभावी होबानी मारी दृढ मान्यता छे. तेनुं कारण ए छे के-भगवान श्रीजिनभद्रगणि क्षमाक्षमणे पोताना विशेषणवती ग्रंथमां
सीहो सुदाढनागो, आसग्गीवो य होइ अण्णेसि । सिंहो मिगद्धओ ति य, होइ वसुदेवचरियम्मि ॥ ३३ ॥
१ प्रतिलेखनाना आदेशोने लगता उपरोक्त कल्पचूर्णि. विशेषचूर्णि, महाभाष्य अने पंचवस्तुक स्वोपज्ञ टीकाना उल्लेखो जोवा इच्छनारने प्रस्तुत मुद्रित सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिसहित वृहत्कल्पसूत्र द्वितीय विभाग पत्र ४८८-८९ गाथा १६६१ नो टीका अने ते उपरनी टिप्पणी जोवा भलामण छे.
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