________________
बृहत्कल्पसूत्रनी प्रस्तावना निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीसंघ
प्राचीन काळमां जैन साधु-साध्वीओ माटे निर्मन्थ निम्रन्थी, भिक्षु भिक्षुणी, यति यतिनी, पाषंड पापंडिनी वगेरे शब्दोनो प्रयोग थतो। आजे आ बधा शब्दोनुं स्थान मुख्यत्वे करीने साधु अने साध्वी शब्दे लीधु छ । प्राचीन युगना उपर्युक्त शब्दो पैकी यतिशब्द यतिसंस्थाना जन्म पछी अणगमतो अने भ्रष्टाचारसचक बनी गयो छे । पाषण्डशब्द पण दरेक सम्प्रदायना मान्य आगमादि ग्रन्थोमां वपरावा छतां आजे ए मात्र जैन साधुओ माटे ज नहि पण दरेक सम्प्रदाय माटे अपमानजनक बनी गयो छ ।
निर्मन्थ निग्रन्थीसंघनी व्यवस्था अने बंधारण विषे, भयंकर दुष्काळ आदि कारणोने लई छिन्नभिन्न दशामां आवी पडेलां आजनां मौलिक जैन आगमोमां पण वैज्ञानिकढंगनी हकीकतोनां जे बीजो मळी आवे छे अने तेने पाछळना स्थविरोए विकसावीने पुनः पूर्ण रूप आपवा जे प्रयत्न कयों छे, ए जोतां आपणने जणाशे के ते काळे निम्रन्थनिर्मन्थी संघनी व्यवस्था अने बंधारण केटलां व्यवस्थिन हतां अने एक सार्वभौम राजसत्ता जे रीते शासन चलावे तेटला शुद्ध निर्ग्रन्थताना गौरव, गांभीर्य, धीरज अने दमामपूर्वक तेनुं शासन नभतुं हतुं । आ ज कारणथी आजनां जैन आगमो श्वेतांबर जैन श्रीसंघ,-जेमा मर्तिपूजक, स्थानकवासी अने तेरापंथी त्रणेयनो समावेश थाय छे,-ने एक सरखी रीते मान्य अने परम आदरणीय छ । ___ दिगंबर जैन श्रीसंघ "मौलिक जैन आगमो सर्वथा नाश पामी गयां छे" एम मानीने प्रस्तुत आगमोने मान्य करतो नथी । दिगंबर श्रीसंघे आ आगमोने गमे ते काळे अने गमे ते कारणे जतां कयां हो; परंतु एथी तेणे घणुं खोयुं छे एम आपणने सहज भावे लागे छे अने कोई पण विचारकने एम लाग्या विना नहि रहे । कारण के जगतनी कोई पण संस्कृति पासे तेना पोताना घडतर माटेनू मौलिक वाङ्मय होवु ए अनिवार्य वस्तु छ । एना अभावमा एना निर्माणनो बीजो कोई आधारस्तंभ ज न बने । आजे विगंबर श्रीसंघ सामे ए प्रश्न अणउकल्यो ज पडयो छे के जगतभरना धर्मों अने संप्रदायो पासे तेना आधारस्तंभरूप मौलिक साहित्य छिन्न-भिन्न, अपूर्ण के विकृत, गमे तेवा स्वरूपमा पण विद्यमान छे, ज्यारे मात्र दिगंबर संप्रदाय पासे तेमना मूल पुरुषोए एटले के तीर्थकरभगवंत अने गणधरोए निर्मित करेल मौलिक जैन आगमनो एक अक्षर सरखो य नथी रह्यो ।
आ जातनी कल्पना बुद्धिसंगत के युक्तिसंगत नथी एटलं ज नहि, पण गमे तेवा श्रद्धालुने पण अकळामण पेदा करे के मुझवी मके तेवी छ । कारण के समग्र जैनदर्शनमान्य अने जैनतत्त्वज्ञानना प्राणभूत महाबन्ध (महाधवल सिद्धान्त) वगेरे महान् ग्रंथोनुं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org