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________________ आन्तर परिचय ५ रत्नाधिक ए निग्रंथ-निपंथीसंघमांना विशिष्ट आगमज्ञानसंपन्न, विज्ञ, विवेकी, गंभीर, समयसूचकता आदि गुणोथी अलंकृत निग्रंथो छ । ज्यारे ज्यारे निग्रंथ-निग्रंथी. संघने लगतां नानां के मोटां गमे ते जातनां विविध कार्यो आवी पडे त्यारे तेनो निर्वाह करवाने आचार्य आदि संघस्थ विरोनी आज्ञा थतां आ महानुभावो इनकार न जतां हम्मेशाने माटे खडे पगे तैयार होय छ। वृषम तरीके ओळखाता बळयान् अने धैर्यशाळी समर्थ निग्रंथो के जेओ गंभीर मुश्केलीना प्रसंगोमा पोताना शारीरिक बळनी कसोटीद्वारा अने जीवनना भोगे पण आखा निग्रंथ-निग्रंथीसंघने हम्मेशा साचववा माटेनी जवाबदारी धरावे छे, ए वृषभोनो समावेश आ रत्नाधिक निर्ग्रथोमां ज थाय छे । ____ उपर सामान्य रीते संघस्थविरोनी जवाबदारी अने तेमनी फरजो विपे ढूंकमा उल्लेख करवामां आव्यो छे, ते छतां कारण पडतां एकबीजा एकमेकने कोई पण कार्यमा संपूर्ण जवाबदारीपूर्वक सहकार आपवा माटे तैयार ज होय छे अने ए माटेनी दरेक योग्यता एटले के प्रभावित गीतार्थता, विशिष्ट चारित्र, स्थितप्रज्ञता, गांभीर्य, समयसूचकता आदि गुणो ए प्रभावशाळी संघपुरुषोमां होय छे-होवा ज जोईए । उपर आचार्यने माटे जे अधिकार जणाववामां आव्यो छे ते मात्र शिक्षाध्यक्ष वाचनाचार्यने अनुलक्षीने ज समजवो जोईए । एटले वाचनाचार्य सिवाय दिगाचार्य वगेरे बीजा आचार्यों पण छे के जेओ निग्रंथ-निग्रंथीओ माटे विहारप्रदेश, अनुकूळ-प्रतिकूळ क्षेत्र वगेरेनी तपास अने विविध प्रकारनी व्यवस्थाओ करवामां निपुण अने समर्थ होय छे । गच्छ, कुल, गण, संघ अने तेना स्थविरो मात्र गणतरीना ज निर्ग्रन्थ-निर्गन्थीओनो समुदाय होय त्यारे तो उपर जणाव्या मुजबना पांच संघस्थविरोथी काम चाली शके । परंतु ज्यारे हजारोनी संख्यामां साधुओ होय त्यारे तो उपर जणावेला मात्र गणतरीना संघपुरुषो व्यवस्था जाळवी न शके ते माटे गच्छ, कुल, गण अने संघनी व्यवस्था करवामां आवी हती अने ते दरेकमां उपर्युक्त पांच संघस्थविरोनी गोठवण रहेती अने तेओ अनुक्रमे गच्छाचार्य, कुलाचार्य, गणाचार्य अने संघाचार्य आदि नामोथी ओळखाता। ___ उपर जणावेला आचार्य आदि पांच संघपुरुषो कोई पण जातनी अगवड सिवाय नेटला निर्ग्रन्थ-निग्रंथीओनी दरेक व्यवस्थाने जाळवी शके तेटला निम्रन्थ-निम्रन्थीओना संघने गच्छ कहेवामां आवतो । एवा अनेक गच्छोना समूहने कुल कहेता । अनेक कुलोना जूथने गण अने अनेक गणोना समुदायने संघ तरीके ओळखता । कुल-गण-संघनी जवाबदारी धरावनार आचार्य उपाध्याय आदि ते ते उपपदनामथी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002515
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Part 06
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorChaturvijay, Punyavijay
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year2002
Total Pages424
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size20 MB
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