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मामुख
१८ पूज्य श्रीसागरानन्दसूरि महाराजे प्रसिद्ध करेल चूर्णी करतां जुदी अने प्राचीनतम होवा उपरांत जैन आगम साहित्य अने तेना इतिहासमां भात पाडनार तेम ज केटलीये महत्त्वनी हकीकतो उपर प्रकाश नाखनार छ । सौ करतां अतिमहत्त्वनी वात तो ए छे के-स्थविर आर्य देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमणे वल्लभीमां वीर संवत् ९८० अथवा ९९३ मां जे अंतिम सूत्रव्यवस्था अने पुस्तकलेखनरूप आगमवाचना करी ते पहेलां आ चूर्णी रचाएली छे । अने ए ज कारणसर प्रस्तुत चूर्णीमां, दशवकालिकसूत्रमा आपणी चालु परिपाटी करतां घणा घणा गाथाभेदो अने पाठभेदो छे के जे पाछळथी रचाएली दशवैकालिकसूत्रनी नवीन चूर्णीमां के याकिनीमहत्तरापुत्र आचार्य श्रीहरिभद्रनी टीकामां नथी । आचार्य श्रीहरिभद्रसूरिए तो पोतानी टीकोमा जणावी ज दीधुं छे के " कइ हं, कया हं, कह " इत्यादि अदृश्य-अलभ्य पाठभेदोने जता करी दृश्य-लभ्य पाठोनी ज व्याख्या करवामां आवे छे। आनो अर्थ ए थयो के-बार वरसी दुकाळ आदि कारणोने लई छिन्नभिन्न थई गएला आगमोना पाठोए निर्णीत पाठन स्वरूप लीधुं न हतुं त्यांसुधी तेना उपर व्याख्या लखनार व्याख्याकारो पोता पासे जे पाठपरंपरा होय तेने ज मुख्य मानीने काम लेता अने तेना उपर व्याख्याग्रंथो रचता हता । स्थविर श्रीअगस्त्यसिंह. विरचित प्रस्तुत दशकालिकचूर्णिग्रंथ ए जातनो अलभ्य-दुर्लभ्य ग्रंथ छे के जे वल्लभीमां श्रीदेवर्द्धिगणि क्षमाश्रमणे संघ एकत्र करी पाठनिर्णय कर्यो ते पहेलाना प्राचीन काळमां जैन आगमोना पाठोमां केवी विषमता थई गई हती तेनो आछोपातळो ख्याल आपणने आपे छ । आजे पण बृहत्कल्पसूत्र, निशीथसूत्र, भगवतीसूत्र वगेरेना प्राचीन आदर्शो जे आपणा समक्ष विद्यमान छे ते जोता आपणने पाठभेदोनी विविधता अने विषमतानो तथा भाषास्वरूपनी विचित्रतानो ख्याल आवी शके छे । अस्तु दशवैकालिकसूत्र उपरनी स्थविर श्रीअगस्त्यसिंहनी चूर्णी जोतां आपणने ख्याल आवी जाय छे के वल्लभी पाठनिर्णय थवा अगाउ जैन आगमो उपर व्याख्याग्रंथो अथवा वृत्ति-चूर्णीग्रंथो रचावा शरू थई चूक्या हता । स्थविर श्रीअगस्त्यसिंह पण पोतानी चूर्णिमां अनेक स्थळे प्राचीन वृत्तिपाठोनो उल्लेख करे छे । आ उपरांत " हिमवंतर्थरावली "मां नीचे प्रमाणेनो उल्लेख छ
१ प्रस्तुत चूर्णिने आचार्य श्रीहरिभद्रे दशवकालिकमूत्रनी पोतानी टीकामा "वृद्धविवरण "ना नामथी ज ओळखावी छे, जेने पूज्य श्रीसागर नंदसूरिए संशोधन करीने छपावी छे ।।
२ " कहं गु कुज्जेत्यादि । अस्य व्याख्या-इह च संहितादिक्रमेण प्रतिसूत्रं व्याख्याने ग्रन्थगौरवमिति तत्परिज्ञाननिबन्धनं भावार्थमात्रमुच्यते । तत्रापि 'कत्यहं. कदाऽइं, कथमहं' इत्याद्यदृश्यपाठान्तरपरित्यागेन दृश्यं व्याख्यायते ।" दशव० हारि० वृत्ति पत्र ८५-१ ॥
३ " एत्थ इमातो वृत्तिगतातो पदुद्देसमेतगाथाओ । तंजहा-“दुक्खं च दुस्समाए." इत्यादि रतिवक्कचूलिकायाम् ॥
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