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बृहत्कल्पसूत्रनी प्रस्तावना आयरियत्तणतुरितो, पुवं सीसत्तणं अकाऊणं ।
हिंडति चोप्पायरितो, निरंकुसो मत्तहस्थि व ।। ३७३ ।। अर्थ-पोते पहेलां शिष्य बन्या सिवाय ( अर्थात् गुरुकुलवासमा रही गुरुसेवापूर्वक जैन आगमोनो अभ्यास अने यथार्थ चारित्रनुं पालन कर्या विना ) आचार्यपद लेवाने माटे तलपापड थई रहेल साधु ( आचार्य बन्या पछी ) मदोन्मत्त हस्तीनी पेठे निरंकुश थईने चोक्खा मूर्ख आचार्य तरीके भटके छे ॥ ३७३ ॥
छन्नालयम्मि काऊण, कुंडियं अभिमुहंजली सुढितो ।
गेरू पुच्छति पसिणं, किन्नु हु सा वागरे किंचि ।। ३७४ ।। अर्थ-जेम कोई गैरूकपरिव्राजक त्रिदंड उपर कुंडिकाने मूकीने तेना सामे वे हाथ जोडी ऊभो रही पगे पडीने कांई प्रश्न पूछे तो ते कुंडिका कोई जवाब आपे खरी ? । जेवू आ कुंडिकानुं आचार्यपणु छे तेवू ज उपरोक्त आचार्यनु आचार्यपणुं छे ॥ ३७४ ॥
सीसा वि य तूरंती, आयरिया वि हु लहुं पसीयंति ।
तेण दरसिक्खियाणं, भरिओ लोओ पिसायाणं ।। ३७५ ।। अर्थ-[ मानभूख्या ] शिष्यो आचार्य आदि पदवीओ मेळववा माटे उतावळा थाय छे अने जिनागमोना मर्मोनो विचार नहि करनार आचार्यों एकदम शिष्योने मोटाईनां पूतळां बनाववा महेरबान थई जाय छ । आ कारणथी कशु य नहीं समजनार अनघड जाचार्यपिशाचोथी आखो लोक भराई गयो छे ॥ ३७५ ॥
प्रस्तुत भाष्यगाथाओथी जणाशे के भाष्यकारना जमाना पहेला ज जैन संघबंधा. रणनी अने निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीओना ज्ञाननी केवी दुर्दशा थई गई हती ? । इतिहासनां पानां उथलावतां अने जैन संघनी भूतकालीन आखी परिस्थितिनुं दिग्दर्शन करतां जैन निग्रंथोनी ज्ञानविषयक दुर्दशा ए अतिसामान्य घरगथ्थु वस्तु जेवी जणाय छ । चतुर्दशपूर्वधर भगवान् श्रीभद्रबाहुस्वामी अने श्रीकालिकाचार्य भगवान् समक्ष जे प्रसंगो बीती गया छे, ए आपणने दिग्मूढ बनावी दे तेवा छे । भगवान् श्रीभद्रबाहुस्वामी पासे विद्याध्ययन माटे, ते युगना श्रीसंघनी प्रेरणाथी "थूलभहस्सामिपमुक्खाणि पंच मेहावीणं सताणि गताणि " अर्थात् स्थूलभद्रस्वामी आदि पांच सो बुद्धिमान् निर्ग्रन्थो गया हता, परंतु आवश्यक पूर्णिमा पूज्यश्री जिनदासगणि महत्तरे जणाव्या मुजब " मासेण एके ग दोहिं तिहिं ति सव्वे ओसरिता" ( भा. २, पत्र १८७ ) एटले के एक, वे अने त्रण महिनामां तो भावी संघपुरुष भगवान् श्रीस्थलभद्रने बाद करतां बाकीना बधा य बुद्धिनिधानो पलायन थई गया । भगवान् श्रीभद्रबाहुस्वामीने “ जो संघस्स आणं अतिकमति तस्स को दंडो ? " पूछनार जैनसंधे
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