Book Title: Aagam 42 Dashvaikalik Choorni
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४२] दशवैकालिक-सूत्रम् नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित - सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः “दशवैकालिक” निर्युक्तिः एवं चूर्णि: [मूलं + भद्रबाहुस्वामी कृत् निर्युक्तिः + भाष्यगाथा: + जिनदासगणि रचिता चूर्णि :] [आद्य संपादक: - पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. ] (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह ) पुनः संकलनकर्ता→ मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि) 01/02/2017, बधवार, २०७३ महा शुक्ल ५ jain_e_library's Net Publications मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [ ४२ ], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक” निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणि-रचिता चूर्णि: [0] Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) =མྦྷོལཱ་=ཡྻཱཡྻ अनुक्रम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + भाष्य | +चूर्णिः) निर्युक्ति: [-], भाष्य[-] अध्ययनं [ - ], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथाः || || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि : प्रसिद्धा श्रीजिनदास गणिमहत्तररचिता श्रीदशवैकालिकचर्णिः श्रुतकेवल भगवच्छय्यं भवसूरिसूत्रितसूत्रा श्रुतकेवलिश्रीमद्भद्रबाहुस्वामिसंदृन्धनियुक्तिका प्रकाशयित्री - माळवदेशान्तर्गत रत्नपुरी ( रतलाम ) य श्री ऋषभदेवजी केशरीमल गीनाम्नी श्वेताम्वरसंस्था, श्रीजामनगरीय श्रीहरजी जैनशाला कार्यवाह कैर्वितीर्णेन द्रव्यसाहाय्येन । इन्दौरनगरे श्री जैनबन्धुमुद्रणालये - श्रेष्ठी जुहारमल मिश्रीलाल पालरेचा द्वारा मुद्रापयित्वा । संवत् २४५९ कि सं० १९८९ सर्वेऽधिकारा: पुनर्मुद्रणादौ आयत्ताः क्राइष्ट १९३२ पण्यं ४-०-० प्रतय: ५०० दशवैकालिक - चूर्णे: मूल "टाइटल पेज" [1] Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम दशवैकालिक-चूर्णे: उपक्रम: (४२) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत श्रीदशवकालिकचूर्णेरुपक्रमः सुत्राक दीप अनुक्रम भगवद्भिः श्रुतकेवलिभिः श्रीमद्भिः शय्यम्भवसरिभिः पूर्वगतश्रुतेभ्य आदेशान्तरेण द्वादशाङ्गाद् गणिपिटकादुद्धृतं, प्रयोजनं सूद्धारेऽस्य स्वतनूजस्य मनकारख्यस्याष्टवर्षीयस्य पाण्मासिकापुष्कस्यागधनासिध्ध्यर्थ सहि भगवतां प्रवज्याकाले गर्भस्थोऽभूत, प्रभुषु प्रजजरस्वाक्रन्दमानेषु स्वजनेषु गर्भोदन्तं पृच्छत्सु च मात्राऽलक्ष्यमाणगर्भवात् मनागिति निरदेशि, जाते च तस्मिन् जननीजल्पानुसारात् कृतं मनकेति नाम, जाताष्टवर्षमान वावगम्य मातुर्मुखादवगतः पितुः प्रवज्याया उदन्ता, अनेक दुर्वचनोदितैरवगताऽस्या अरुचिः श्रामण्ये, अनापृच्स्यैव तां नंवा राजगृहाचम्पामागत्याचार्यसकाशे प्रववाज, कौटुम्बिकैः स्वामित्वस्याव्युत्सृष्टत्वाचातः शैक्षनिष्फेटिकाप्रवृत्तिः प्रवचनधरैरुद्गीर्णा, पण्मासीमवगत्यायुस्तस्य हितायोद्धृतं भगवद्भिः सजिहीर्युभिः, परं श्रीयशोभद्रादिना श्रमणसंघनोपरुन संहतं भगवद्भिः, मगवद्भिर्भद्रबाहुस्वामिभिनियुक्त्याऽलंकृतमेतत् , श्रीमद्भिर्जिनदासगणिभिः सनियुक्तिकस्यास्य विहिता चूर्णिः, सैपोन्मुघमाणा, यद्यपि पूर्वधरासनकालजातैः श्रीहरिभद्रपरिभिः पत्रिताऽस्य वृत्तिरनया, मुद्रिताचागमोदयसमितिसंस्थाप्रयासेन श्रेष्ठिदेवचन्द्रपुस्तकोद्वारसंस्थया सा, सूत्रगाथाकारादेविषयाणां च क्रमस्तसमानः प्राय इति नायास एतद्विषये, उन्मुद्रणे चास्या वितीर्ण साहाय्यं श्री जामनगरीयश्रीहरजीजैनशालाकार्यवाहकैरिति नै विस्म मई, अवगम्यैना सभावार्थी चूर्णि मोक्षमार्गरतयो भान्तु भव्या इत्याशास्महे । आनन्दसागरा: १९८९ फाल्गुन शुक्ल तृतीया । दशवैकालिक-चूर्णे: पूज्यपाद आनंदसागरसूरीश्वरजी लिखित उपक्रम: Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [H] दीप अनुक्रम I [H] मूल संपादकेन लिखीत : अध्ययन-अनुक्रमः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [ ४२ ], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णिः पृष्ठाव ७१ ९२ ३ क्षुल्लकाचारकथा ११७ ४ पजीवतिकायः १६४ नाम १ दुमपुष्पिका २ श्रामण्यपूर्वकं अध्ययनानामनुक्रमः नाम ५ पिण्डेषण (उद्देशइयं) ६ धर्मार्थकामध्ययनं ७ वाक्यशुध्यध्ययनं ८ आचारप्रणिधिः दशवैकालिक - चूर्णे: मूल संपादकेन लिखित: अध्ययन-अनुक्रमः [3] पृष्ठे मात् २०६ २३४ २६५ २९४ नाम पृष्ठे यावत् ९ विनयसमाधिः [उद्देशचतुष्कं ] ३२८ १० विध्ययनं ३३९ ३६७ ३८० १रतिवाक्यला २ विविचर्याचूला Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाङ्का: २१+५१५ मूलांक: ००१ 008 ०१७ ०३२ ०७६ अध्ययन १- द्रुमपुष्पिका २- श्रामण्यपूर्वकं ३- क्षुल्लकाचारकथा ४- षड्जीवनिकाया ५- पिन्डैषणा ५/१- उद्देशक- १ ५/२ उद्देशक- २ पृष्ठांक: ००६ ०७६ ०९७ १२३ १७० ---- ---- दशवैकालिक मूलसूत्रस्य विषयानुक्रम मूलांक: २२६ २९४ ३५१ ४१५ अध्ययन ६- महाचारकथा ७- वाक्यशुद्धिः ८- आचारप्रणिधी ९- विनयसमाधिः ९/१- उद्देशक - १ ९/२- उद्देशक - २ पृष्ठांक: २११ २३९ २७० ३०० [4] मूलांक: ४८५ ५०६ ५२४ दीप- अनुक्रमा : ५४० अध्ययन ९/३- उद्देशक - ३ ९/४- उद्देशक - ४ १०-- सभिक्षुः चूलिका १- रतिवाक्यं २- विविक्तचर्या | उपसंहार-निर्युक्तिः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [ ४२ ], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णिः पृष्ठांक: ३३५ ३५४ ३५५ ३७२ ३८४ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ["दशवैकालिक-चूर्णिः” इस प्रकाशन की विकास-गाथा] यह प्रत सबसे पहले “दशवैकालिक-चूर्णि" के नामसे सन १९३३ (विक्रम संवत १९८९) में रुषभदेवजी केशरमलजी श्वेताम्बर संस्था द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादक-महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब | वृत्ति की तरह चूर्णी के भी दूसरे प्रकाशनों की बात सुनी है, जिसमे ऑफसेट-प्रिंट और स्वतंत्र प्रकाशन दोनों की बात सामने आयी है. मगर मैंने अभी तक कोई प्रत देखी नहीं है। + - हमारा ये प्रयास क्यों? -* आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने उन सभी प्रतो को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसके बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर श्रुतस्कंध-अध्ययन-उद्देशक-मूलसूत्र-नियुक्ति आदि के नंबर लिख दिए, ताकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा अध्ययन, उद्देशक आदि चल रहे है उसका सरलतासे ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके| हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढ़ते हुए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस ] दिए है और जहां गाथा है वहाँ ||-|| ऐसी दो लाइन खींची है। इस आगम चूर्णि के प्रकाशनो में भी हमने उपरोक्त प्रकाशनवाली पद्धत्ति ही स्वीकार करने का विचार किया था, परंतु चूर्णि और वृत्ति की संकलन पद्धत्ति एक-समान नही है, चूर्णिमे मुख्यतया सूत्रों या गाथाओ के अपूर्ण अंश दे कर ही सूत्रो या गाथाओ को सूचित कर के पूरी चूर्णि तैयार हुई है, कई नियुक्तियां और भाष्य दिखाई नही देते, कोइ-कोइ नियुक्ति या भाष्य के शब्दो के उल्लेख है, उनकी चूर्णि भी है पर उस नियुक्ति या भाष्य स्पष्टरूप से अलग दिखाई नहि देते । इसीलिए हमें यहाँ सम्पादन पद्धत्ति बदलनी पड़ी है । हमने यहाँ उद्देशक आदि के सूत्रो या गाथाओ का क्रम, [१-१४, १५-२४] इस तरह साथमे दिया है, नियुक्ति तथा भाष्यो के क्रम भी इसी तरह साथमे दिये है और बायीं तरफ़ उपर आगम-क्रम और नीचे इस चूर्णि के सूत्रक्रम और दीप-अनुक्रम दिए है, जिससे आप हमारे आगम प्रकाशनोंमे प्रवेश कर शकते है। अभी तो ये jain_e_library.org का 'इंटरनेट पब्लिकेशन' है, क्योंकि विश्वभरमें अनेक लोगो तक पहुँचने का यहीं सरल, सस्ता और आधुनिक रास्ता है, आगे जाकर ईसी को मुद्रण करवाने की हमारी मनीषा है। ......मुनि दीपरत्नसागर. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [-], उद्देशक [-], मूलं -1 / गाथा: || || नियुक्ति: [२/१-७], भाष्या-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत श्रीदश बेकालिक अथ दशवैकालिकचूर्णिः ४ मंगलवयं सूत्रांक दीप नमो जिनागमाय । णमो अरहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आयरियाणं, मंगलादीणि सत्याणि मंगलमज्झाणि मंगलावसाणाणिय, IS मंगलपरिग्गहीता य सिस्सा सत्थाणं अवग्रहहावायधारणसमत्था भवंति, ताणि य सत्थाणि लोगे विरायंति वित्थारं च गच्छति। आह॥ १ ॥ मंगलमिति किमर्थमुपादीयत्ती, उच्यते, विशविनायकायुपशमनार्थमुपादीयते, आह-यद्येतन्मंगलत्रयेण किं प्रयोजनी, उच्यते, आदि मंगलग्रहणेन शिष्यस्तच्छाखं धिर्भ गृहाति, मध्यमंगलग्रहणेन तस्य शाखस्य शिष्यो निर्वि नपारं गच्छति, अवसानमङ्गलग्रहणेन ४ तच्छास्त्रं शिप्याशिष्येभ्यो अव्यवच्छित्तिकर भविष्यति, अनेन प्रयोजनेन मंगलत्रयमुपादीयते, आह-यदेतन्मंगलवयापांतरालद्वयं ५ है। तन्नामामंगलिकं प्रामोति, उच्यते, तत्र अंतरालस्याभाबाइंडवच्च सर्वमेव शाख मंगलं निर्जरात्मकत्वात्तपोवत, एवं तर्हि शाखस्याका मंगलत्वं प्रामोति, कस्मावी, अन्येन मंगलेन मंगलीक्रियमाणत्वात् , यदि तावच्छासं मंगलं किमस्यान्यन्मंगलमुपादीयते', अथार्मगलं किमनेनारम्धनी, उच्यते, शास्त्रं हि स्वयमेव मंगलं अन्येषां च मंगलं भवति, स्वपरानुभावात्मकसामर्थ्ययुक्तत्वाद् गुडलवणाग्निप्रदी| पवत्, एवं तर्षनवस्था प्रामोति-यदि मंगलस्यापि मंगलमुपादीयते तस्याप्यन्यत् तस्याप्यन्यद्, एवं मंगल उपादीयमाने भारमाशीर्माला प्रसज्यते, सत्यमतत्, किं तहिं ?, शिष्यस्य मंगलवुद्ध्युत्पादनार्थमिदमुच्यते साधुवत् ।। मंगलमिति का शब्दार्थः, रख णख बख मख अगि बगि मगीति धातुमवस्थाप्य अस्य धातोः 'इदितो नुम् धातो' (पा०७१।५८) रिति नुमायमः, परस्य अवर्ण अनुक्रम ... मंगलम् एवं सूत्र-प्रस्तावना ... यहां नियुक्ति आदि सभी स्थानोमे जहां जहां “२/१-३" इस तरह क्रमांक लिखे है वे सभी स्थानोमे पहेला क्रमांक इस चूर्णि कि प्रत का समझना और (1) 'ओब्लिक' के बाद दिया हुआ क्रम वृत्तिकार का बताया हुआ 'नियुक्ति' आदि का क्रमांक समझना | Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं -1, उद्देशक [-], मूलं [-] / [गाथा:], नियुक्ति: [२/१-७], भाष्यं - मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: A प्रत सूत्राक श्रीदश- परगमने कृते ततःप्रत्ययाधिकारेऽनुवर्तमाने 'मंगरल' चिति (पा० उणा० ५) अलच्प्रत्ययांतस्येदं रूपं मंगलमिति भवति, मंगल-13 मंगलवयं कालिका मिति कोऽर्थः १, मंगेति धर्मस्याख्या, ला आदाने धातुः, अस्य धातोमंगपूर्वस्य द्वितीयस्यायं विग्रहः, मंग लातीति विग्रहा, मंगळू चूर्णी लातीति 'आतोऽनुपसर्गे' कः (पा.३२६३) कात्ययान्तस्य मंगलं, अथवा मामिति आत्मनो निर्देशे 'गृ निगरणेअस्य धातोर्मग१ अध्ययने पूर्वस्य धातोरचित्यच्प्रत्ययान्तस्य में सांसारिकेभ्यो अपायेभ्यः गलतीति मंगलं 'कपो रो लः''यो यङि, (पा. दाश२०) ॥ २ ॥ अचि विभाषे (पा. ८।२।६१) ति लत्वं ॥ तच मंगलं चतुर्विध-नाममंगलं स्थापनामंगलं द्रव्यमंगलं भावमंगलमिति, नामस्थापने पूर्ववत्, 'द्रु द्रु गतौ' द्रवते यते वा द्रोरवयवो विकारो वा द्रव्यं 'द्रव्यं च भव्ये (पा. ५।३१०४) यत्प्रत्ययांतस्य द्रव्यं, तत्र ज्ञातृभव्यशरीराभ्यां व्यतिरिक्तं द्रव्यमंगलं दध्यक्षतसुवर्णसिद्धार्थकपूर्णकलशादि, भावमंगलं भवन, भू सत्तायां परस्मैभाषा, श्रिणोभुवोऽनुपसर्गे (पा. ३।३२४)ति पत्र, अतो णिति वृद्धिभावः, तं पुण भावमंगलं 'धम्मो मंगलमुकिई धम्मग्गहणेण आदिमंगलं कयं भवति, मज्ले मंगलं धम्मस्थकामस्स आदि सुचे 'माणदसणसेंपण्णं, संजमे य तवे रयं' णाणदंसणसंजमतवम्गहणेण मझ मंगलं कयं भवति, अवसाणं मंगलं भिक्खुगुणथिरीकरणं विवित्तचरिगा य वणिज्जह ॥ सब्वेसि परूवर्ण करेंतो जहा आवस्सए जाच सुयणाणणं अधीगारो, कम्हा?, सुतनाणस्स जम्दा उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुयोगो पवत्तइ, तत्थ पढम उदिवसमुदिवाणुण्णातस्सऽणुओगो भवइचिकाउं अणुओगेणं अहीगारो, सो य चउम्विहो, तंजहा-चरणकरणाप्रयोगो धम्माणुयोगो गणियाणुओगो दवाणुओगो, तत्थ चरणकरणाणुयोगो णाम कालियसुर्य, धम्माणुयोगो इसिभासियाई उत्तरायणादि, गणियाणुयोगो घरपण्णची जंबुद्दीवपण्णची एवमादि, दवियाणुयोगो णाम दिवियायो, पुण इहं चरणकरणा दीप अनुक्रम SEVAKER ... चत्वार: अनुयोगा: वर्णयन्ते Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं -1, उद्देशक [-], मूलं [-] / [गाथा:], नियुक्ति: [२/१-७], भाष्यं - मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: सुत्राक आदश गुयोगेण अहिगारो, सिस्सो आह-कि सव्वस्व सुयंणाणस्स अणुयोगो कहेयम्बो, अधिगयस्स कस्सइ सुयखंधस्स', आयरितो बनयोगः वैकालिक आह-सम्बस्सावि सुयणाणस्स कहेतब्बी, इमं पुण पट्टवणं पढच्च दसवेयालियस्स अणुयोयो कहेयब्बो । दसवेयालियं णं भंते ! किं चूर्णी अंग अंगाई सुयखंधी सुयखंधा अज्झयणं अज्झयणा उद्देसो उद्देसा। दसवियालियं गं नो अंग नो अंगाई सुयखंधी नो तुपखंधा १ अध्ययन णो अज्झयणं अज्मयणा नो उद्देसो उद्देसा, तम्हा दसं निक्खिविस्सामि कालं निक्खिविस्सामि मुतं निक्खिबिस्सामि खधं निक्खिविस्सामि अज्झयणा निक्खिबिस्सामि उद्देसा निक्सिविस्सामि, तत्थ पढमं दार दसत्ति, एको एको य दोषिण, दोण्णि एको य तिष्णि, तिणि एको य चत्तारि, चत्तारि एको य पंच, पंच एको य छ, छ एको य सत्त, सत्त एको य अट्ट, अट्ट एको य णब, णव एको य दस, तेण एकस्सवि अभावे दसण्हषि अभावो भवइ, तम्हा पुन्यामेव ताव एफनिक्खेवो भाणियब्बो,। तत्तो पच्छा दसहं, तस्स एगस्स दारगाहा__णामं ठवणादविए, माउगपद संगहेका चब । पज्जव भावे य तहा सत्तेते एकगा भणिया ॥ ८-७५॥ वामठवणाउ जहा आवस्सए भणियाउ तहेव, तत्थ दब्येकगा तिविहा-सचित्तं अचित्रं मीसमं च, तत्थ सचिचं जहा एको धा पुरिसो, अचित्तं जहा एको कासावणो, मीसओ जहा सो चेव पुरिसो अलंकियविभूसिओ, माउगापदेवगं णाम तंजहा-उप्पण्णेति देवा धुवेति वा विगमेति वा, एते दिट्ठिवाए माउगपदा भवंति, अहवा इमे माउगपदा अआ ईई एवमादि, संगहेकग नाम जहा एगोल 15 साली साली चव भण्णाइ तहा बहुओवि सालीओ साली चेष भण्णति, तं च संगहेकगं दुविई, तंजहा-आदिट्ठ अणादिटुं च, तत्व आदिहं णाम विसेसियं, अणादिढ णाम अविसेसियं, अणादिढ णाम जहा साली सालित, आदिहं जहा गंधसालित्ति, पञ्जयेकग PORNSR4 दीप अनुक्रम ॥ ३ ॥ ...'द्रव्य' शब्दस्य सचित्त-आदि भेदा: Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [-], उद्देशक [-], मूलं -1 / [गाथा:], नियुक्ति: [८1८-१०], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: सुत्राक १ अध्ययनला श्रीदश- दुविह-आदिई अणादिटुं च, आदिटुं च पज्जयोति वा मेदोति वा गुणोत्ति वा एगट्ठा, तत्थ अणादिहूँ जहा दसगालियं आदि एककबैंकालिकल दुमपुष्फियं सामण्णपुव्ययं एवमादि, भावेक आदि8 अणादि8 च, अणादिढ भावो, आदिहुँ उदइओ उपसमिओ खइओ खओवस- निक्षेपाः चूणा मिओ पारिणामिओ, तत्थ उदइयभावेकगं दुबिह-अणादिढ उदइओ भावो, आदिट्ठ पसरथमप्पसत्थं च, तत्थ पसत्येकगं तित्थगरनार अध्ययना मगोचस्स कम्मस्स उदओ एवमादी, अप्पसत्येकगं कोहोदओ एवमादि, इयाणि उपसमियखइयखओवसमिया, ते तिण्णिवि भावेक गाणि, ते य छण(समण)स्स पसत्था चेव, एतेसि अपसत्यो पडिवक्खो णत्थि, कम्हा', जम्हा मिच्छदिट्ठीणं केई कम्मंसा खीणा केई उवसंता, खओवसमेण य कल्लाणं बुद्धीपाडवादिणो गुणा संतावि तेसिं विवरीयगाहित्तणेणं उम्मत्तवयणमिव अप्पमाणं चेव, तम्हा उपसमियखवियखओवसमिया भावा सम्मदिडिगो चेच लम्भति, परिणामियभावे एकग दुबिह-आदिटुं च अणादिटुं च, पारिणामिअभावे आइ8 दुविह-सादिअपरिणामिएकग अणाइपरिणामिएकगं च, तत्थ साइअपरिणामिएकगं जहा कसायपरिणओ एवमाइ, अणाइपरिणामिएकगं जहा जीवो जीवभावेण निच्चमेव परिणओ। एत्थ कतरेण इक्कगेण अहिगारो, भदियायरितोबदेसणं जम्हा दस एते पज्जायअज्झयणा संगहेकएण संगहिया तम्हा संगहेक्कएण एस्थ अहिगारो, दत्तिलायरिओवएसेणं जम्हा सुयणाणं खओवसमिए भाये यहइ तम्हा भावेकरण अधिगारो, दोनिवि एते आदेसा अविरूद्धा, भावकएणं अधीगारो ।। इयाणि दुगतिगजाव नव एते दारे मोनूण दस भणति, किं कारणं, दसमु परूविएम दुगादीणि परुवियाणि भविस्संतित्तिकाउं, तम्हा दसगस्स छविहो निक्लेवो त-नामदस ठवणदस दब्बदस खेत्तदस कालदस भाषदस इति, नामठवणाओ गयाओ, इयाणि दबदस दस दव्वाला सचित्ताचित्तमीसगा, तत्थ सचित्तदन्या जहा दस मणूसा, अचित्ता जहा दस काहावणा, मीसगा जहा दस अलंकियविभूसिया। दीप अनुक्रम 197 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [-], उद्देशक [-1, मूलं [-] / [गाथा:], नियुक्ति: [११-३३/११-३४], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: सुत्राक श्रीरा- मणूसा, खेतदसा दस आगासपएसा, कालदसा 'वाला मंदा किडा' जहा तंदुलवेयालिए, भावदसा एते चेव दस अजायणा ।।। कालवैकालिकाइदार्णि कालेत्ति दारं, तत्थ गाहा निक्षेपादि चूर्णी दवे अद्धअहाउय, उवकमे देसकाल काले य । तहय पमाणे वण्णे भावे पगयं तु भाषेणं ॥११-९५०|| एसा & १ अध्ययने गाहा जहा सामाइयनिजुत्तीए तहा परूबेतव्या, एत्थ दिवसपमाणकालेण अधिगारो, तत्थरि ततियपोरुसीए ठविज्जइत्तिकाउं| तेण अधिगारो, आदत्तो य णिज्जहिउँ अवरोहकाले, तस्स पडिसेहो कज्जइ, विगतः कालो चिकाला, अथवा विकालः कालः,18 ॥ ५ ॥ & असकलः खंडचत्यनातर, विकालबेलायां परिसमाप्त वकालिकं, अथवा (एतत् ) विकाले पठ्यत इति वैकालिक, अथवा दशैतानि अध्ययनानि व्यवगते दिने कृतानीति दशवकालिकं ।। दशवकालिकमिति कः शब्दार्थो?, विकालेन निवृत्तं संकाशादिपाठाच्चातुप्रारधिको ठक, 'तद्धिते बचामादि' रित्यादिवृद्धिः वैकालिकं ।। इदाणिं सुतं, तं चउविहं-णाममुतं ठवणसुतं दय्बसुतं भावसुर्य, & जहा अणुयोगदारे। एवं संघस्सबि चउका निक्खवओ, तहब अज्झयणस्स, तहेव णामठवणाी दव्यभावा भाणिऊणं जहा अणुयोगदारे, णवरं भावज्झयणस्स इमाओ निरुत्तिगाहाओ चउरो 'अज्झप्पस्साणयणं'(२९।। प०१६) गाहा, अधिगम्मन्ति य अस्था (३०॥ ५०१६) गाहा 'जह दीवा दीवसयं' गाथा (३१ ।। प०१६) 'अढविहं कम्मरयं' गाथा (॥३॥ पा०१६) चउरोधि कंठाओ, एवं उद्देसगस्सबि चउकओ निक्खेवो तहेव ।। इदाणिं 'जेणव जे च पडुच्च' गाथा, जेण निज्जूढं सो भाणितवो, जं वा पडुच्च निज्जूडं जइ चा णिज्जूढाणि जाए का द परिवाडिए (जद वा) अज्झयणाणि ठवियाणि पचं कारणाणि भाणियव्वाणि, 'जेणं' ति जेण एताणि दस अन्झयणाणि णिज्जूढाणि दीप SCHOREOGRECENTRACT 4%ACANCE अनुक्रम ॥ ५ ॥ CG [10] Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक H दीप अनुक्रम [-] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + भाष्य | +चूर्णि:) अध्ययनं [ - ], उद्देशक [-] मूलं [-] / [गाथा: ], निर्युक्तिः [११-३३/११-३४] भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि श्रदिशवैकालिक चू १ अध्ययन ॥ ६ ॥ सो माणियब्वो, वद्धमाणसामिस्स उप्पत्तिं वण्णेत्ता जहा सामाइयणिज्जुप्तीए गणधरा य एकारस सुधम्मस्स जंबुनामो गणधरो अंबुनामस्स पभवो गणहरो, अमदा कदाइ पुच्चरत्तावरसंसि चिन्ता समुप्पण्णा को मे गणधरो होज्जति, अप्पणो गणे व संधे य सव्वतो उचओगो कओ ण दीसह अय्वोच्छित्तिकरो, ताहे गारत्थेसु उवउत्तो, उपओगे कए रायगिदे सेज्जंभवं जपणं जयमाणं पासइ, ताहे रायगिहं नगरं आगंतूण संघाडगं वावारेह-जण्णवार्ड गंतुं भिक्खट्ठा धम्मलाभेष, तत्थ तुम्भे अतिच्छाविज्जिहिह, ताहे तुम्भे भणेज्जाह-- 'अहो कष्टं तच्चं न ज्ञायते' तओ गया साहू अतिच्छाविया य, तेहिं भणियं अहो कष्टं तत्वं न विज्ञायते, तेण तथा सिज्जंभवेण दारमूलट्ठिएण तं वयणं सुयं, ताहे सो चितेति एते उबसंता तबस्सिणो असच्च ण वदंतित्तिकाउं अज्झावगसगासं गंतु भणइ-किं त?, सो मणड़-वेदाः, ताहे सो असिं कडिऊणं भणइ-सीसं ते छिंदामि जह मे ततं न कहेसि, उवज्झाओ भाइ- पुण्णो मम समयो, भणितमेतं वेदत्वे-परं सीसच्छेदे कहियव्वंति, संपयं कहयामि जं एत्थं तत्तं, एतस्स जुयस्स हेड्डा सब्बरयणामयी पडिमा, अरहंतस्स सा बुच्चर, आरहओ धम्मो तत्रं, ताहे सो तस्स पाएस पडिओ, सो य जणवाडउवक्खेवो तस्स वेव दिष्णो, ताहे सो गंतूर्ण ते साहू गवेसमाणो गओ आयरियसगासं, आयरियं वंदित्ता साहूणो य भगइ-मम धम्मं कहेह, ताहे आयरिया उवउत्ता जहा इमो सोति, ताहे आयरिएहिं साहुधम्मो कहिओ, पण्वइओ, चोइसपुथ्वी जाओ। जदा य सो पव्वइओ तदा तस्स गुब्विणी महिला होत्था, तंमि य पन्वइते लोगो जियल्लओ तंतमस्सर जहा तरुणाए भत्ता पव्वइओ अपुचा य, अवि अस्थि तब किंचि पोईति पुच्छति सा भणइ उवलक्खेमि मणायं, समय तेण दारओ जाओ, ताहे णिब्बत्तवारसाहस्स नियलगेहिं जम्हा पृच्छिज्जंतीय मायाए से भणियं मणगत्ति तम्हा मणओ से नामं कथं, जदा सो अट्ठवरिसो जाओ ताहे मायरं ••• दशवैकालिकसूत्रस्य रचयिता शय्यंभवसूरेः कथानकं [11] शय्यंभववृ ।। ६ ।। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [-], उद्देशक [-1, मूलं [-] / [गाथा:], नियुक्ति: [११-३३/११-३४], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: उद्धार सूत्राक चूर्णी अधिकाराव पुच्छइ-को मम पिया ?, सा भणइ-तुम्भ पिया पथ्बइओ, ताहे सो दारओ नासिऊग पिउसगासं पट्टिओ, आयरिया य तंकाल चपाए विहरत, सो दारओ गओ चपं, आयरिएण य सण्णाभूमीगएणं सो दारओ दिट्ठो, दारएण बंदिओ, आयरियस्स तं दारयं । वैकालिक पेच्छंतस्स हो जाओ, तस्सवि दारगस्स तहेव, आयरिएहिं पुकिछओ-भो दारगा' को आगमणति', सो दारगो भणह-रायगिहाउ, १अध्ययन रामगिहे तो तं कस्स पुत्तो गत्तुओ वा., सो भणइ-सेज्जभवो नाम भणो, तस्स अहं पुत्तो, सो य किर पन्बइओ, तेहि भणिय- तुमं केण कजण आगओऽसि १, सो भणइ-अहपि पब्बइस्सं, पच्छा सो दारो भयवं तं तुम्भे जाणह! आयरिया भणंति-- ॥ ७ ॥ जाणामि, सो कहिंति , ते भणति--सो मम मित्तो एगसरीरभूओ, पब्वयाहि तुम मम सगासे, एवं करेमि, आयरिया आगंतुं| पडिस्मए आलोएंति-सचित्ती पटुप्पणो, सो पब्वइओ, पच्छा आयरिया उपउत्ता-केवर कालं एस जीवति । जाव छम्मासा, | ताहे आयरियाण बुद्धी समुप्पण्णा-इमस्स थोवयं आउं कि कायव्वति?, तं चोहसपुब्बी कर्हिपि कारणे समुप्पण्णे णिज्जूहइ, दादसपुची पुण अपच्छिमो अवस्समेव णिज्जूहह, ममंपि इमं कारणं समुप्पणं, अहमवि निज्जुहामि, ताहे आढचो णिज्जुहिउं, ते य निज्जूहिज्जता वियाले निज्जुढा थोबाबसेसे दिवसे, तेण तं दसवेयालियं भणिज्जतित्ति, 'जं पडच'त्ति दारं गयं ॥ याणि जत्तोत्ति दारं पणिज्जइ, एत्थ गाहाओ तिणि आयप्पवायपुब्वा गाहा (१०५०१३) सच्चप्पबायपुब्धा। है।(१७५. १३) माहा-'वितिओविय आंदसो'(१८५.१३) गाहा, आयप्पवायपुवा णिज्जूढा होइ धम्मपन्नत्तीति, सा एसा चेव छजीवणिया धम्मपण्णत्तिति भण्णति, कम्मप्पवायपुव्वा उ पिंडसणा, सीसो आह-केणाभिसंपंधेण कम्पप्पवादपुग्ये कम्मे पण्णिदुज्जमाणे पिंडेसणा भण्णइ ?, आयरिओ आह-आहाकम भुजमाणे कइ कम्मपगडीओ बंधइ ?' जहा भगवतीए, सुद्धं च पिंडं दीप अनुक्रम ॥७॥ ... दशवैकालिक सूत्रस्य उद्धारस्थानानि एवं अधिकार: [12] Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [-], उद्देशक [-1, मूलं [-] / [गाथा:], नियुक्ति: [११-३३/११-३४], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: चूर्णी %A4% सुत्राक भंजमाणस्स असुहकम्मबंधाण भण्णति, एतेण अभिसंबंधेण कम्मप्पवायपुवाउ, सच्चप्पवायपुबाउ बकसुद्धी, अबसेसा अज्झयणा पत्र-18/ उदारवैकालिक खाणपुव्वस्स तइयवत्थूओ णिज्जूढा, वितियाएसेण दुवालसंगाओ गणिपिडगाओ णिज्जढा । जत्तोत्ति दारं गतं । इदाणि जतिति | स्थानानि दारं कथ्यते, कति एताणि अज्झयणाणि?, आयरिओ आह-दुमपुफियाईणि सभिक्खुपज्जवसाणाणि रतियका विवित्तचरिया लिया| आष १ अध्ययनेय एताउ दो चूलाओ, जतित्ति दारं गयं । जहा ते ठवियत्ति दारं भणिज्जइ, एत्थ पंच गाहाओ 'पढमे धम्मपसंसा वितिए 181 काराश्च ॥८॥ |धिति' गाहा (२०॥ प. १३) 'तहए आयारकहा' गाहा-(२१॥पा १३) भिकूवपिसोही' गाहा (२२२ पा. १३) 'वयणविभत्ती गाहा ( २३ ।। ५१३ ) 'दो अज्झयणा' गाहा (२४ ॥१.१५) ॥ पढमायणे धम्मो पसंसिज्जइ, सो य इमम्हि चेय जिनशासने, नान्यत्र, मा भदभिनवप्रवजितस्य संमोहः ततो द्वितीयाध्ययनमपदिश्यते-धर्मास्थितस्य धृतिः स्यात् प्ररूपणं तदर्थमिति, 'जस्स घिति तस्स तबो जस्स तवो तस्स सोग्गई मुलभा। जे अधितिमंत पुरिसा तवोवि खलु दुल्लहो तेसि ॥१।। तृतीये सा धृतिः कस्मिन् कार्येति?, आचारे, अनेनाभिसंबंधेनाप्याचाराध्ययनमपदिश्यते, स चाचारः पदमु13 लाजीवनिकायेषु भवतीत्यनेन संबंधन पड्जीवनिकायाध्ययनमपदिश्यते, पंचमे आहारादिकमृते शरीरस्थितिन भवति, अशरीरस्य च धर्मो न भवतीत्यनेनाभिसंबंधन पिंडैपणाध्ययनमपदिश्यते, षष्ठे साधु भिक्षागोचरप्रविष्टं केचिदाहुः कीदृशो युष्माकं आचारः,17 तेनाभिहिता:-आचार्यसकासमागच्छथ, ततस्ते आचार्यसकासमागता ब्रुवंति-कथयस्व कथयस्वेत्यनेन संबंधेन धमार्थकामाध्ययनमपदिश्यते, सप्तमे तेपामाचार्येण सावधवचनदोपविधिसंशेन निरवद्येन कथयितव्यमित्यनेनाभिसंबंधेन वाक्यशुद्ध्यध्यय- ८॥ नमपदिश्यते, अष्टमे ते धर्म श्रुत्वा संसारभयोद्विग्नमनसो बुवंति-वयमपि प्रबजामः, ततस्ते आचार्य आह-प्रवजितेनाचारप्रणिधानं दीप अनुक्रम 4%A E [13] Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [-], उद्देशक [-1, मूलं [-] / [गाथा:], नियुक्ति: [११-३३/११-३४], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: सुत्राक चू श्रीदश- कर्त्तव्यमित्यनेनामिसंबंधेन आचारप्राणध्यध्ययनमपदिश्यते, नवमे आचारव्यवस्थितस्य प्रबजितस्य विनयो वर्ण्यते इत्यनेनाभि-16 हुमस्य वैकालिकासंबंधेन विनयसमाधिनामाध्ययनमपदिश्यते, एतेष्वेव नवस्वध्ययनार्थेषु यो व्यवस्थितः स भिक्षुर्भवतीत्यनेनाभिसंबंधन समिक्ष्व- निक्षेपाः ध्ययनमपदिश्यते, द्वावध्ययने चूडा, तत्र प्रथमायां संयमे सीदमानस्य तस्य भिक्षोरवधावनप्रेक्षिणो दोषा वर्ण्यन्ते नरकगमनादि, 2 सिद्धिश्च १ अध्ययन ततः संयमविरागा(ऽग) मद् , अनेनाभिसंबंधन प्रथमचूडामध्ययनमपदिश्यते, द्वितीयचूडायां तस्य भिधोरसीदमानस्य गुणा ब यंते, तेन शिवमचलमसंजननमक्षयमव्यावाधापुनरावर्तकं निर्वाणमुखं भवतीत्यनेनाभिसंबंधन द्वितीयचूडामध्ययनमपदिश्यते, एवं| दसवेयालियरस उ पिंडत्यो वपिणओ समासेणं । एत्तो एकमां पुण अज्झयणं वन्नहस्सामि ॥ १॥ दस एताणि अज्झयणाणि दुमपुफियादीणि सभिक्खुपज्जवासाणाणि, तत्थ पढम अजायणं दुमपुफिया, तस्स चत्तारि | अणुओगदारा, तंजहा-उवकमो णिक्वेवो अणुगमो णयो, तत्थ उवकमो जहा आवस्सए छविहो समवतारितो तहेव | इहइंपि, णिक्खेवो ओहणिप्फण्णो तहेव परूवेऊन गाहाओ, 'अझयणस्साणयणं' गाहाओ पंच भाणियब्वाओ, नामणिप्फण्णो दुमपुफिया दोण्णि पदाणि, दुमं पुफिया दोण्णि पयाणि, दुमेति पदं, एत्थ गाहा 'णामदुमी ठवणदुमो दवदुमा ग्वत्तकाल-17 भावदुमे (॥३४॥ प. १७) णामठवणाओ गयाओ, जहा आवस्सगचुपणीए तहेब इहइंपि, दुम इति कः शब्दार्थः, 28 | अस्मिन् देशे विद्यते तदस्यास्त्यस्मि (पा. ५।२।९४) मिति मतुष्प्राप्ते युद्रुभ्यां मः (पा. ५।२।१०८) प्रत्ययो भवति, प्रातिप-13॥ |दिकार्थस्य रुत्वं विसर्जनीयः द्रुमः, दव्वदुमो दुचिहो-आगमतो णोआगमतो य, आगमओ जाणये अणुवउचो, णोआगमओ पुण तिविहो भवति-जाणगसरीरदव्यदुमो भवियसरीरदव्यदुमो जाणगभवियसरीवतिरितो दबदुमो इति, तत्थ जाणगसरीरदबदुमो X944e. दीप अनुक्रम - न अध्ययनं -१- 'द्रुमपुष्पिका' आरभ्यते .... 'द्रुम' शब्दस्य नाम-आदि निक्षेपा: [14] Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + भाष्य | +चूर्णि:) अध्ययनं [१] उद्देशक [-] भाष्यं [-] मूलं [-] / [गाथा:], निर्युक्तिः [११-३३/११-३४ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [ ४२ ], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक” निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: श्रीदशवैकालिक १ अध्ययने ॥ १० ॥ जो जीवो दुमपदत्थाधिकारजाणओ तस्स जं सरीरगं जीवरहियं सुखरुखो वा पुष्वभावपण्णवणं पटुच्च जहा अयं घयकुंभो आसी एस जाण सरीरव्यदुमो, इयाणिं भवियसरीरदव्यदुमो जो जीवो दुमपद्स्थाधिगारं जाणिहिदू, अणागतभावपण्णवर्ण पटुच्च जहा अयं घयकुंभो भविस्सर अयं मधुकुंभा भविस्सर, एस भवियसरीरदच्चदुमो । इदाणिं जाणगसरीरभवियसरीरवइरितो दब्बदुमो, सो तिविहो भवद्द, तं०- एगभविओ बद्धाउओ अभिमुहणामगोत्तो य, एगभविओ जो ततो भवाओ अनंतरं दुमेसु उववज्जिस्पति, बद्धाउओ नाम ' दुमेसु आउगं विद्धं ण ताथ उबवज्जड, अभिमुदनामगोतो णाम जस्स पुन्वभविए नामगोते पहणयाए पएसा णिच्छूढा इलियादिट्ठेतेणें सो पुव्यभवं जहाय अभिमुहनामगोओ दुमेमु उववज्जिकामो, एस दव्वद्रुमो । भावदुमो दुविहो-आगमओ गोआगमओ य, आगमओ जो दुमाहिगारजाणओ जहा एतेहिं कम्मेहिं करहिं उप्पज्जिस्सइ एस उवउलो, नोआगमओ दुमणामगो चाणि कम्माणि वेदितो भावदुमो भवति । सीसो आह अहो ताव असमंजसं भष्णद्द, कई खु जो जस्स जविस्स उवओगो सो सो चैत्र भविस्सह १, नो खलु लोए अग्गिमि उपउतो देवदत्तो अग्गि चैव भव, आयरिओ भइ अहो बच्छ ! अम्रुद्धोऽसि, णणु णाणंति वा संवेदति वा अधिगमोत्ति वा चेतति वा भावत्ति एते सहा एगट्ठा, जीवलक्खणं चेव णाणं, ण तु णाणातो बतिरित्तो जीवो, तेण जो० स णाया, सो जं अग्गिस्स सामस्थं दहणपयणपगासणाई जाणइ, तओ अग्गिणाणायो सो णाया अय्बइरित्तो, तेण सो अग्निसामत्थजाणओ भावग्ग चैव लम्भ, तम्हा जो जस्स जीवस्स उवओोगो सो चैव भण्णइ । इदाणि दुमस्स एमट्टियाणि जहा सकसहस्सक्खवज्जपाणिपुरंदरादीणि इंदस्स एगडियाणि एवं दुमस्सवि इमाई एगड्डियाई, 'दुमा य पादया चैव रुक्खा गच्छा' (३५-१७) गाहा । तत्थ दुमा नाम भूमीय आगासे य दोस माया दुमा, पादेहिं पिवतीति पादपाः पाएसु वा [15] द्रुमस्य निक्षेपाः सिद्धिब ॥ १० ॥ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / [गाथा:], नियुक्ति: [११-३३/११-३४], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: दमपुष्पिका सुत्राक श्रीदश Ikपालीज्जतीति पादपाः, पादा मूल भणति, रुनि पुहवी खत्ति आगासं तेसु दोसुवि जहा ठिया तेण रुक्खा. अहवा रुः पुढवी तं कालिकाखायतीति रुक्खो, विडिमाणि जेण अस्थि तेण विडिमा, ण गच्छंतीति अगमा, णदीतलागादीणि तेहिं तरिति तेण तरखो, कुत्ति पूर्णी पिथिनी तीए पारिज्जति तेणं कुहा, महीए जेण रहति तेण महीरुहा, पुतणेहेण वा परिगिझंति तेण बच्छा, रुषंति जम्दा तेण १ अध्ययने रोषगा, रुत्ति पृथिवी तीय जी(जा)यंतित्ति रुजगा, दुमेत्ति दारं संमत्तं । इदाणिं पुप्फत्ति दारं, तंपि चउव्विहं, जहा दुमो वक्खा |णिओ तहा धक्खाणेऊण चउन्विहंपि दव्यपुष्फाग अहिगारो, तस्स एगाडयाणि गामाणि 'पुष्पं फलं कुसुम' एवमादीणि, पुफिय6 मिति किं तारकादी पाते ?, पुष्पशब्द एतत्प्रातिपदिक तस्य नपुंसकविवक्षायां प्रातिपदिकार्थलिंगपरिणामवचनमात्रे प्रथमा तस्य एकवचनस्य अतो नित्यमम्भावः अतो गुणः पररूपत्वं पुष्पं, अवयवलक्षणषष्ठीसमासः, सुपो धातुप्रातिपदिकयोरिति सुप्लुक् । इदाणि वाक्यं दुमपुष्पं दुमपुष्पिका, का रूपसिद्धिः, दुमपुष्पशब्दस्य 'प्रागिवात्क' (पा. ५-३-७) इति वर्तमाने 'अज्ञाते' (३) 'कुत्सिते' (७४) संज्ञायां' (७५) कन्प्रत्ययः, नकारलोपः, द्रुमपुष्पप्रातिपदिक, श्रीविषक्षायां 'अजायतष्टा' (पा ४। १-४) पिति टाप्रत्ययो भवति, पकारटकारलोपे कृते 'प्रत्ययस्थात्कारपूर्वस्थात इदाप्यसुपे (पा. ७-३-४४) ति इच्वं, अकः सवर्णदीर्घत्वं परगमने कृते दुमपुष्पिकारूपं सिद्धं । इदाणिं दुमपुष्पिकाध्ययनं, का रूपसिद्धिः १, दुमपुष्पिका चासो M अध्ययनं च समानाधिकरणः, षष्ठीतत्पुरुषः, द्रुमपुष्पिकाध्ययनरूपं सिद्ध. अथवा दुमपुष्फेन यत्र उपमानं क्रियते तदिदं वा दुमपुष्पिकाध्ययनमिति । तस्स य अज्झयणस्स इमे अत्याधिगारा एगट्ठिया, एत्थ गाहा 'दुमपुफिया य आहारपसणा ।(३७-१८) दुमपुफियति वा आहारएसणत्ति बा गोयरेति वा ततेति वा उच्छेत्ति वा मेससरिसेत्ति वा जलोगसरिसेहवा सप्पस ARENDER दीप अनुक्रम KCAM ॥११॥ ...अत्र प्रथम अध्ययनस्य परिचय-नियुक्ति: आरब्धा: ... अत्र 'द्रुमपुष्पिका' शब्दस्य सिद्धिः निर्दिश्यते [16] Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / [गाथा:], नियुक्ति: [३४/३४-३७], भाष्यं -] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: सूत्राक दीप श्रीदश- रिसेत्ति वा वत्ति वा अक्खेत्ति वा उसुत्ति वा गोलेति वा पुत्तेनिषा उदएचिया एतेहिं उवम्म कीरइत्तिका ताणि भण्णति नामाणि अध्ययन तस्स अज्झयणस्स, दुमपुफियत्ति जहा भमरो दुमपुप्फेहितो अकयमकारियं पुष्फ अकिलामेन्तो आहारेति, एवं अकयमकारियंटू कार्थाः चूणा निरुवधं गिहत्थाण अपीलयं आहारं गेहद । आहारएसणत्ति एगग्गहणे तज्जातीयग्गहणं उग्गमादिसुद्धं अरत्तदुद्रुण आहारे शब्दाः १ अध्ययने प18 यवं, गोयरेत्ति जहा सो बच्छओ तंमि सेट्टिकुले ताए बहुगाए सव्वालंकारविभूसियाए उ चारि दिज्जमाण पलोएड, सदादीम | ॥ १२॥तान रते दुट्टो वा, एवं भिक्षुणा हिडतेणं सद्दादीसु इटाणिट्ठविसएमु न रज्जियव्वं न य दुस्सियव्यंति। तदेति जहा चत्तारि घुणा पापण्णत्ता, तंजहा-तयक्खाए छल्लिक्खाए कट्ठक्खाए सारक्खाए, तयक्खाए नामेगे णो सारक्खायी १ सारक्खाइ णामंग णा तया खायी २ एगे तयखायीवि सारक्खायीवि ३ एगे णो तयक्खायी णो सारक्खाया ४, तयक्खायीसमाणस्स णं भिक्खुस्स सारक्खायी। समाणे तवे भवइ, एवं जहा ठाणे तहेच । उंछोत्ति दारं, ते चउम्विहं, णागठवणाउ तहेब, दबुछ जहा केइ तावसादी उंछति, भाषा अण्णायपिंडो । मेसुत्तिदारं, जहा मेसो अणायुगाणितो पिति एवं साहुणावि भिक्षापविद्वेण बीयकमणादि ण तहा हल्लफलयं कायनं जद्दा भिक्खाए दाया मूढो भवइ, सो वा तेण बारेयम्बो जेण परिहरइ । जलूगा, एस्थ चेव समोयारेयब्बो, भणियं चना दोस्तीक्ष्णनिपातर्बन्धमायाति चात्मनः । जलूकापि तदेवार्थ, माइवेनोपसप्पति ॥ १॥ एवमणेसणाए, ण जहा मसओ दुक्खें उप्पाइचा रुधिरं पियति, एवं णिवारेइ जहा तस्स दायगस्स मणो दुहं न भवति, जलोगा व निवारणीयं पसण्णमणसेणं। मा॥१२॥ सप्पोत्ति जहा सप्पो सरत्ति बिले पविसति तहा साहणावि अणासादतेण हणुयं असंसरतणं आहारेयव्वं, अहवा जहा सप्पा | एगदिदी तहा णिग्गथे पवयणे एगदिद्विणा होयच्वं । वणेत्ति जहा वणस्स मा फुट्टिहिति तो से मक्खणं दिज्जा, एवं इमस्सर्वि अनुक्रम SASE [17] Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-1 / [गाथा:], नियुक्ति: [३४/३४-३७], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: सूत्राक S जीवस्स मा भितिक्खयं करेहिइ तो से दिज्जइ आहारो, ण चण्याइहे उ । अक्वत्ति जहा सगडस्स जत्तासाहणट्ठा अन्भगो दिज्जद, अध्ययनश्रीदशवैकालिक एवं संजमभरवहणत्थं आहारेयब्वं । उसुत्ति जहा रहिओ लक्खं विधिउकामो तदुवउत्तो विधर, वक्खित्तचित्तो फिट्टद, एवं साहविश काथों: चूर्णी उपउत्तो भिक्खं हिंडतो संजमलखं विधइ, वक्षिप्पंतो सदाइएसु फिट्टइ । पुत्तिात्त पुसमंसोधमो आहारो भोत्तम्बो । गोलिसि[४ १ अध्ययने जहा जतुमि गोलए कज्जमाणे जइ अग्गिणा अतिल्लियाविज्जइ ता अतिदवत्तणेण न सकद काउं, अह व नेवल्लियाविज्जइ नो चेव । निग्घरति, णातिने णातिआसणे अकए सकइ बंधिउं, एवं भिक्खापविट्ठो साहु जइ अइभूमीए बिसइ तो तेसिं अगारहत्थाणं अप्पत्तिया ॥१३॥ भवह तेणयसंकणादिदोसा, अह दूरे तो न दीसइ एसणाघाओ य भवइ, तम्हा कुलस्स भूमी जाणित्ता णाइरे पासणे ठाइ-II यन्वं । उदएत्ति जहा वाणियएण छ रयणाणि सुंडियाणि दिसाए गंतु, सो य ताणि ण सका नित्थारेउं चोरभया , ताहे सो ठवेऊणं ताणि एगमि पएसे अण्णे जरयाहाणे घेत्तुं पडिओ गहिरूलवेसेण, रयणवाणियउ गच्छतित्ति भाविए विनि बारे जा कोइ न । उठेइ ताहे घेत्तुं पयाओ, अडवीए तिसाय गहिओ जाव कुहियपाणिययं खिल्लरं विणटुं पासइ, तत्थ बहवे हरिणादओ मया, तेणं सव्वं उदगं वसा जाता, तं तेण अणुस्सासियाए अणस्सादंतेणं पीतं, णिस्थारियाणि अण रयणाणि, एत्थं तु रयणस्थाणियाणि |णाणदसणचरिताणि, चोरत्थाणिया विसया, कुहिओदगत्थाणियाणि फासुगेसणिज्जाणि अंतपंताणि आहारेयव्याणि, आहारितेणं 8 Mसाहारेंतपुप्फफलेण जहा वाणियगो इह भवे सुहीजातो एवं साधूवि सुद्दी भविस्सइ अडवित्थाणीयं संसारं नित्थरित्ता ।। गयं यं नामा । १३॥ दुमपुफियत्ति, गती नामनिष्फण्णो। इदार्णि मुत्तालावगणिफणो, सो पत्तलक्षणोविण निक्खिप्पति, कम्हा, जम्हा 14 अस्थि इतो तइयं अणुयोगदारं अणुगमोचि, तम्हा तहि चेव णिक्खिबिस्सामि, तहिं निक्खिप्पमाणे लहुगं भवइ, सीसस्स X दीप अनुक्रम 435 [18] Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + भाष्य |+चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / [गाथा: ], निर्युक्तिः [३४/३४-३७], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्ण : श्रीदशवैकालिक चूर्णां १ अध्ययने ॥ १४ ॥ ॐ मलं छत्रस्य के य असंमोहो भवइ । इदाणिं अणुगमो, सो दुविहो- सुत्ताणुगमो य निज्जुतीअणुगमो य, निज्जुनिअणुगमो तिविहो. * उपोद्घात्दुसबेतालियनिज्जुत्तिअणुगमो १ उचग्धाय निज्जुत्तिअणुगमो२ मुत्तफासियनिज्जुत्ति० ३, दसवेयालियनिज्जुत्तिअणुगमो जो एस हेडा वण्णिओ, उबग्घायनिज्जुत्तिअणुगमो 'उसे निऐसे य' गाहा आव. १४० ) तित्थयरस्स उवग्पायं काऊणं जहा आवस्सए पच्छा अज्जसुधम्मस्स ततो जंगुणामप्पभवार्ण उबरचार्य काउं तओ अज्जप्पभवस्स पुम्वरत्तावरत्तकाले चिंता समुप्पण्णा, तं सब्बं अक्खाणयं हेडा समक्खायं जं तं भाणितब्बं जाव मणगोति ॥ उवग्धायनिज्जुती गया, हूदाणि सुत्तफासियनिज्जुत्ती भण्णइ-सुतेण चैव सह सा मणिहिति सा य इमा'णामं ठवणा धम्मो' गाहा (३९-२१ ) एवमादियाउ गाहाओ सुत्तफासियनिज्जुती भण्णइ । इदाणिं सुत्ताणुगमे सुतमुच्चारयन्वं अक्खलियं अमिलियं अविच्चामेलियं जहा अणुओगदारे जाय दसवैकालिकपदं वा नोदशवेकालिकपदं वा तत्थ 'संहिता च पदं चैव पदार्थः पदविग्रहः । चालना प्रत्यवस्थानं, व्याख्या तंत्रस्य पद्विधा ॥ १॥ तत्र संहितेय- धम्मो मंगलमुहिं, अहिंसा संजमे तवो। देवावि तं नमसंति, जस्म धम्मे सया मणो ॥ १ ॥ संहिताऽतिक्रान्ता, इदानिं पदं ' धारणे' अस्य धातोः मनुप्रत्ययान्तस्येदं रूपं धर्म इति, मंगेति धर्मस्याख्या, 'ला आदाने' अस्य धातोर्मंगपूर्वस्य प्रयान्तस्येदं रूपं मंगलंति, 'कृष विलेखने' अस्य धातोरुपूवस्य निष्ठाप्रत्ययान्तस्येदं रूपं उत्कृष्टमिति, 'तृहि हिसि हिंसायां' अस्य धातोरिदितो नुम्, नुमि कृते अधिकारे अप्रत्ययान्तस्य नव्पूर्वस्येदं रूपं अहिंसेति, 'यम् उपरमे 'अस्य धातोः संपूर्वस्य अप्रत्ययान्तस्येदं रूपं संयम इति, 'तप धूप संतापे' अस्य धातोः सुन्प्रत्ययान्तस्येदं रूपं तप इति 'दिवु क्रीडाविजिगीषाव्यवहारद्युतिस्तुतिकान्तिगतिषु' अस्य धातोरप्रत्ययान्तस्येदं रूपं देवा इति, 'तदि'ति सर्वनाम, अस्य नपुंसकविवक्षायां रूपं ... अथ सूत्रं आरभ्यते ... 'धर्म' आदि पदस्य अर्थः निर्दिश्यते [19] सूत्रानुगमश्व संहितापदे ॥ १४ ॥ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक गाथा ||१|| श्रीदश- तदिति भवति, 'णम ग्रहत्वे शन्दे' अस्य धातोरसप्रत्ययान्तस्येदं रूपं नम इति, यदिति सर्वनाम, अस्य स्वकृतलक्षणां षष्ठीमुत्पादयित्वा पादायत्वापदार्था वैकालिक तस्येदं रूपं यस्येति, धर्मः पूर्वविहित एव, धर्म इति, सर्वस्मिन् काले 'सबैकान्यकिंयत्तदः काले दा' (पा-५-३-१५) प्रत्ययो भवति, चूणों सर्वस्य साऽन्यतरस्यां दि (पा. ५-३-६) स आदेः, तस्येदं रूपं सदा यदा इति, 'मन ज्ञाने' अस्य धातोरस्प्रत्ययान्तस्य चेदं रूपं १ अध्ययने । मन इति, पदमतिकान्तं । इदानि पदार्थ:-यस्मात् जीवं नरकतिर्यग्योनिकुमानुषदेवत्वेषु प्रपतंतं धारयतीति धर्मः, उक्तश्च-'दुर्गति॥ १५॥ प्रसृतान् जीवान , यस्मान् धारयते ततः। धचे चेतान् शुभे स्थाने, तस्माद्धर्म इति स्थितः ॥१॥ मग नारकादिषु पवडतं सो लाति मंगलं, लाति गेहइत्ति बुत्तं भवति, उक्किट्ठ णाम अणुत्तरं, ण तओ अण्णां उकिट्ठयरति, अहिंसा नाम पाणातिवायविरती, संजमो नाम उक्रमो, रागहोसविरहियस्स एगिभावे भवति, तवो णाम तावयति अट्ठयिह कम्मगंठिं, नासेतिचि बुनं भवद, देवा णाम दीवं आगासं तंमि आमासे जे वसंति ते देवा, अवि णाम संभावणा, अहिंसातवसंजमलक्षणे धम्मे ठिओ तस्स देवा पणिवायचंधुरसिरा भवंति, माणुस्सेसु पुण का सण्णत्ति एसा संभावणा, तमिति जो पुष्वमीणओ अहिंसातवसंजमलक्खणे धम्मे ठिओ तस्स एस णिदेसोत्ति, जस्सत्ति अविसेस, यस्य साधुस्स निदेसो, धम्मो पुज्यभणिओ, सदा णाम निच्चकालं, जस्स धम्मे मणो बुद्धी णाम एताणि अज्झवसाणं । इवाणि पदविग्गहो-सो य दोण्हं पदाणं भवइ जेसि परोप्परं अत्थसंबंधो जुज्जद, पत्थ पुण पिहप्पिहाणि चेच पदाणि तेण गओ। चालणपसिद्धीओ उपरि भणिहिति ॥ 'कस्थह पुच्छति सीसो (३८-२१) सीसो कम्हियि संदेहे समुप्पण्णे पुच्छद, आयरिओ य तं तस्स सीसस्स हियवाए तसो पुच्छातो बिउणतरामं परिकहेइ, कत्था पुण आयरिओ अपुच्छिओ चेव सीसस्स बुद्धिवित्थारण निमिन परिकहेइ सयमेव ॥ इदाणि सुत्तफासियनिजुत्ती विस्थारिज्जद,एयपि अपुच्छिो चेव आयरिओ दीप अनुक्रम [20] Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक गाथा ||१|| श्रीदश-131सीसस्स अणुकंपणत्थं वित्थारेणं परिकहर, तत्थ पढमं धम्मपरूवणत्थं भण्णा-'नाम ठवणाधम्मो दव्वधम्मो य भावधम्मो य[ वैकालिक गाथा, (३९-२१) णामठवणाओ तहेच, इदाणि दब्बधम्मो, तस्स इमा गाथा 'दव्वं च अधिकायो' गाथा (४०-२१) चूणों निक्षेयाः दव्वधम्मो तिविही भवह, तंजहा-दव्यधम्मो य अस्थिकायधम्मो य पयारधम्मो य, तत्थ दब्वधम्मो ताव दवपज्जवा, एते है १अध्ययने धम्मा तस्स जीवदन्यस्स अजीवदध्वस्स, उप्पायटिईभंगा पाजाया भवंति, तत्थ जीवदव्वस्स ताव इमे उप्पायठितिभंगा, जह मणुस्सभावेण उप्पण्णस्स मणुस्सस्स मणूसने उप्पायो भवंति, जाओ पण गतितो उच्चदिऊण आगो ताए गतीए विममो, जीव-14 तणे पुण अवडिओ चेव, एवं एयमि भवग्गहणे । इदाणिं अजीवस्स उप्पायठिईमंगा भण्यंति, जहा परमाणुस्स परमाणुभावण विगयस्स परमाणुत्तणे विगमे दुष्पदेसियचेण उपाओ अजीवदवत्तणेण अवडिओ चेव, तहा सुवण्णदव्वस्स अंगुलेज्जगत्तण विगमो कुंडलत्तणेण उप्पाओ सुवण्णदबते अवद्वियं चंव, जहा कालगवण्णविगमे कालत्तेण विगमो नीलत्तेण उपाओ वण्णतेण [3] | अवडिओ चेव । इदाणि अरूविदब्वाणं परपच्चया उष्पायठितिभंगा भणति, जहा घडागासेण संजुत्तस्स आगासस्स घडागास संयोगेण उप्पायो पढागासचेण विगमो आगासनेण अवदिई । इदाणि अस्थिकायधम्मोत्तिदारं 'धम्मस्थिकाय' गाहा|४|| INI(४०-२२) अस्थि वेज्जति काया य अस्थिकाया, ते इमे पंच, तेसिं पंचण्हवि धम्मो णाम सम्भावो लक्षणति एगट्ठा, तत्थ | 15 पढमे धम्मत्थिकाए सो गइलक्षणो, वितिओ अधम्मत्थिकाओ सो ठितिलक्षणो, ततिओ आगासत्थिकायो सो अव-11 लागाइलक्खणी, चउत्थो पोग्गलस्थिकायो सो गहणलक्षणो, पंचमो जीवधिकाओ सो उवओगलक्षणोति नायब्वा । इदाणि [1 पयारधम्मोत्तिदारं, पयारधम्मा णाम सोयाईण इंदियाण जो जस्स विसयो सो पयारधम्मो भवा, तं सोईदियस्स सोयवं दीप SEXSIWALIORAKE अनुक्रम ... अथ 'धर्मस्य निक्षेप-कथनं [21] Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक धमे: गाथा ||१|| श्रीदश चवइंदियस्स दद्व्वं पाणिदियस्स अग्याइयव्यं, एवं सम्वत्थ । इदाणिं भावधम्मोत्ति दारं-'लोइप कुप्पायण' गाहद्ध, लोकोत्ताबैंकालिका (४१-२२) सो य तिविहो-लोइओ लोउत्तरिओ कुप्पावयणीओ य, लोइओ अणेगविहो पण्णनो, तजहा-गम्मपमुदेसरज्जे पुरवर चूर्णी लगामगणगोहिराईणति (४२-२२) तत्थ गंमधम्मो णाम जहा दक्षिणापहे माउलदुहिया गंमा उत्तरापहे अगम्मा, एवं भक्खा-18: दशधा १ अध्ययन भक्खं पेयापेयं भासियब्ब, पसुधम्मो णाम गातभगिणीदहियादीणं गमणं, देसधम्मो णाम दक्षिणापहे अण्णं वत्थं अण्णं उत्तरापहे | श्रमणधर्म: ठा एवमादि, रज्जेवि अण्ण लाडरज्जे करज्जवत्ती अण्णो उत्तरापहे एवमादि, पुरति नगरं तत्थवि अण्णो अण्णो गामवासीणं, गामे 51 एगागिणीवि इस्थिगा गिहतर गच्छइ, नगरे सबितिज्जगा एवमादि, गणधम्मो जहा मल्ला पिवंति समवाएणं एवमादि, गोट्ठिधम्मो || गामसमन्वयाण गोढि भवइ, तेसिं उस्सवादिएमु कारणेसु इट्ठभोयणासणाइसु गोट्ठिओ भवंति, रायधम्मो णाम असणेवि अवराह ण खमिज्जा, सपजाए सुदंडो घेप्पति, एबमादि। इदाणि कुप्पावयणिओ; कुत्थियं पचयर्ण कुप्पवयणं तं सककणादकपिलइस्सरवेदवादी, एवमादि कुप्पावयणियं भवति, सीसो आह-केण कारणेण एताणि कुप्पाबयणाणि भवंति', 'सावज्जो उ कुतित्थियधम्मो ण जिणेहिउ पसत्थो' वज्जो णाम गहिओ, सह बज्जेण सावज्जो भवइ, सावज्जतणेण कुप्पावयाणियो भवइ, अतो य न पसंसिज्जति जिणेहिं, के य ते जिणा?, इमे चउचिहा, तं०-णामजिणा ठवणजिणा दबजिणा भावजिणा य, नामठवणाओ तहेव, दबजिणा जे छउमत्था वाहि वा वेरियं वा जे जिणन्ति ते दबजिणा, भावजिणा जे केवलणाणिणो, तेहिं सो कुप्पावयणीओ सारंभत्तणेण न पसंसितो ॥१७॥ 51 इवाणिं लोउत्तरो भावधम्मो, सो दुविधो-सुयधम्मो चरितम्धमो य, तत्थ सुयधम्मो दुवालसंगं गणिपिडर्ग, तस्स धम्मो जे जाणि-12 | यव्या भावा अहवा असंजमाउ नियत्ती संजमंमि य पवित्ती॥ दाणिं चरित्तधम्मो, सो इमो समणधम्मो दसप्पगारोवि-खमा मद्दवं दीप अनुक्रम ॐ [22] Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक धर्मः देशधा श्रमणधमेः गाथा ॥१८॥ ||१|| श्रीदश-16 अज्जवं सोयं सच्च संजमो तवो चाओ अकिंचणियत्तणं बंभचेरमिति, तत्थ खमा आकुस्स वा तालियस्संवा अहियासेतस्स कम्मक्ख-|| वकालिकाओ भवह, अणहियासितस्स कंमधो भवइ, तम्हा कोहस्स निग्गहो कायचो, उदयपत्तस्स वा विफलीकरणं, एस खमति वा तितिघणाक्खात्त वा कोधनिग्गहेचि या एगट्ठा १श महवं नाम जाइकुलादीहीणस्स अपरिभवणसीलवर्ण, जहाऽहं उत्तमजातीओएस नीयजाती ति मदो न कायथ्वो, एवं च करेमाणस्स कम्मनिज्जरा भवइ, अकरेंतस्स य कम्मोवचयो भवइ, माणस्स उदिनस्स निरोहो उदयपत्तस्स विफलीकरणमिति। अज्जब नाम उज्जुगत्तणति वा अकुडिलत्तणति वा, एवं च कुण्वमाणस्स कम्मनिज्जरा भवा,अकुबमाणस्स | य कम्मोवचयो भवद, मायाए उदितीए णिरोहो कायब्वो उदिण्णाए विफलीकरणंति ॥ सोयं नाम अलुद्धया धम्मोवगरणेसुषि, एवं |च कुब्वमाणस्स कम्मनिज्जरा भवति, अकुव्वमाणस्स कम्मोवचओ, तम्हा लोभस्स उदेंतस्स णिरोहो कायब्यो उदयपत्तस्स वा विफलीकरणमिति ४। सच्चं नाम सम्म चिंतेऊण असावज्ज ततो भासियव्वं सरचंच, एवं च करेमाणस्स निज्जरा भवइ, अकरेमाणस्स कम्मोवचयो भवइ ५। संजमो तवो य एते पच्छा भणंति, किं कारणं?, जेण उवरि 'अहिंसा संजमो तवा एत्थवि सुत्तालाबगे संजमो तवो य भणियब्वगा चेव, तेण लाघवत्थं इह ण भणिया ६-७। इदाणि चागो णाम यावच्चकरणेण आयरियोवज्झायादीण महंती कम्मनिज्जरा भवइ तम्हा बस्थपत्तओसहादीहि साहूण संविभागकरणं कायति ८ अकिंचणिया नाम सदेहे निस्संगता, निम्ममत्तणति ठा तु भवइ, एवं च करेमाणस्स कम्मनिज्जरा भवइ, अकरेमाणस्स य कम्मोवचओ भवड. तम्हा अकिंचणीय साहुणा सब्बपयरेण GI अहिद्वेयन्वं ९। इदाणि चमचेरं, ते अट्ठारसपगार, तंजहा-ओरालियकामभोगामणसाण सेवाण सेवावेह सेवतंणाणुजाणइ. एवं वाया एवि न सेवह न सेवावेइ सर्वतं नाणुजाणइ, एवं कारणावि न सेवेइ न सेवावेह सेवंतं नाणुजाणइ, एवं नवविध गर्य, एवं दिन्चावि दीप अनुक्रम [23] Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक गाथा श्रीदश- कामभोगा मणसावि न सेवेइ न सेवावेद सेवंतं नाणुजाणइ, एवं वायाएपि न सेवेइ न सेवायेद सेवंतं नाणुजाणइ, एवं कारणाविमंगलवैकालिकान सेवइ न सेवावेइ सेवंतं नाणुजाणइ, एवं एप अद्वारसविधं बभचेरै सम आपरंतस्स कम्मनिज्जरा भवइ, अणायरंतस्स कम्मबंधो| महिंसा च चूणों भवइचि नाऊण आसेविय, सविधी समणधम्मो भाणिओ॥ इदाणि एयंमि दसविधे समणधम्म मूलगुणा उत्तरगुणा १ अध्ययन समषयारिजंति-संजमसचआकिंचणियबंभचेरग्गहणेण मलगुणा गहिया भवंति, तंजहा-संजमग्गहणेणं पढमअहिंसा गहिया, सञ्चगहणेणं मुसाबादविरती गहिया, भचेरग्गहणेण मेहुणविरती गहिया, अकिंचणियग्गहणेण अपरिन्गहो गहिओ अदत्तादाण-19 विरती व गहिया, जेण सदेहेवि णिस्संगता कायव्वा तम्हा ताव अपरिग्गदिया गहिया, जो य सदेहे निस्संगो कहं सो अदिण्णं गेहति ?, तम्हा अकिंचणियग्गहणेण अदनादाणविरती गहिया चेव, अहवा एगग्गहणे तज्जातीयाणं गहणं कयं भवतित्ति, तम्हारे अहिंसागहणेण अदिण्णादाणपिरती गहिया चेव । खंतिमद्दवज्जवतवोग्गहणेण उचरगुणाणं गहण कयं भवति, धम्मोत्ति दारं गया। दार्णि मंगलं भण्णइ, तं चउम्बिह णाममंगलं ठवणादव भावमंगलं, नामठपणाउ तहेव, दव्यभावेसु इमा गाहा--15। IVIदव्य भावे य मंगलाणि (४४-३४) तरथ दब्वमंगलं पुण्णकलसादी, आदीगणेण न केवलं पुण्णकलसो एगा मगल, किता। हजाणि दब्वाणि उप्पज्जंतगाणि चेव लोगे मंगलबुद्धीए घेप्पति जहा सिद्धत्थगदहिसालिअक्खयादीण ताणि दथ्वमंगलं, भावमंगलं पुण एसेव लोगुत्तरो धम्मो, जम्हा एत्थ ठियाणं जीवाणं सिद्धी भवइ । सीसो आह-दब्बभावमंगलाण को पइविसेसो ?, आयरिओ ॥१९ आह-दशमंगल अणेगतिगं अणच्छतियं च भवति, भावमंगलं पुष एगतियं अच्चंतियं च भवइ, मंगलंति दारं गयं ।। श्दाणि, उनिहुँ, उकिट्ठ णाम जो एमु लोगुत्तरी धम्मो भणित्रो एसो भावमंगलं उकिहुं भवइ ॥ इदाणि अहिंसा, तत्थ पढम दीप अनुक्रम MERECRUIDAV ... अथ 'मंगल'स्य नाम-आदि निक्षेप-कथनं [24] Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक संयमः वैकालिका चूणों गाथा ||१|| श्रीदश-18| हिंसा वण्णेयवा, हिंसाए परूबियाए अहिंसा परूपिया चेव, सा य मणवयणकाएहिं जोएहिं दुप्पउत्तेहिं जं पाणववरो | वणं कज्जइ सा हिंसा, तत्थ भंगा चचारि-दन्यतोवि एगा हिंसा भावओवि, एगा हिंसा दन्बओ न भावओ, एगा भावओन दबओ, अण्णा ण दब्बओन भावो.सा अहिंसा चेवण भण्णह, तत्थ दबओवि भावओचि जहा केही १ अध्ययने ४/पुरिसे मियवधाते परिणामपरिणए मियवधाय उसु निसिरेज्जा, से य मिए तेण उसुणापि विद्वे, एसा दखओ भावओबि ॥२०॥ हिंसा, तत्थ जा सा दन्वओ न भावओ सा इमा. उक्तं च 'उच्चालियंमि पाए' गाहा, (४-७४९) 'ण य तस्स तण्णिमित्तो' गाहा (४-७५०), एताओ दोवि जहा ओहनिज्जुत्तीए, तत्थ जा सा भावओ न दब्बओ जहा केइ पुरिसे असिणा अहिं छिदिस्सा-13 मिनिकटु रज्जु छिदिज्जा एसा भावओ, एसा हिंसा.विकोवणत्थं वणिया, इह पुण अहिंसाए पयोयणं, साय अहिंसाइ वा अज्जीबाइबातोत्ति वा पाणातिपातविरइत्ति वा एगट्ठा।। सिस्सा आह-णणु जा चेव अहिंसा सो चेव संजमोऽवि, आयरिओ आह- अहिंसागहणे पंच महब्वयाणि गहियाणि भवंति, संजमो पुण तीस चेव अहिंसाए उबग्गहे वट्टाइ, संपुष्णाय अहिंसाय संजमोवि तस्स ! | भवइ, अहिंसा गता। इदाणि संजमो, सोय सत्तरसविही, तंजहा--पूढविकायसंजमो आउकायसंजमो तेउकायसजमो बाउकाय| संजमो वणस्सइकायसंजमो बेइंदियसंजमो तेइंदियसंजमो चउरिदियसंजमो पंचिदियसंजमो पेहासंजमो उपहासजमो अवहरदुसजमा | 31 पमज्जियसंजमो मणसंजमो वयसंजमो कायसंजमो उपकरणसंजमो, तत्थ पुढविकायमजमो णाम पुढविकार्य मणक्यणकाइ- एहि जागाहन हिंसई ने हिंसावा हिंसंतं णाणुजाणइ, एवं आउकायसंजमोवि, जाव पंचिंदियसंजमो, पेहासंजमो णाम ठाणं निसीयणं तुयट्टणं वा जस्थ काउकामो नं पृथ्वं पडिलेहिय पमज्जिय करमाणम्म संजमो भवइ, वितहकरणे असंजमो, उबेहासंजमो दीप अनुक्रम SORRCE:CeKHE २०॥ [25] Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक C गाथा ||१|| श्रीदश- ITणाम संजमतवसमग्गं संभोगियं तं चोदतस्स सैजमो भवइ, असंभोइयं चोदतस्स असंजमो भवद, पावयणं कर्ज काऊण चियत्ता पायेतपसि वकालिका वा से पडिचोयणचिकाउं तत्तो अण्णसंभोइयं चोदेंति, गिहियाण कम्मारंभे पमादपत्ताणं उबेहयंतस्स संजमो भवइ, वावारेतस्स 2 अनशनं चूर्णी असंजमा, अवहटुसंजमो नाम अइरेगोवकरणं विगिचिंतस्स संजमो भवइ, पाणजातीए य आहारादिसु विगिचंतस्स संजमो भवइ, असु१अध्ययन दोवगरणाणि य परिठवेंतस्स संजमो भवइ, पमज्जणासंजमो नाम सागारिए पाए अपमजंतस्स संजमो भवइ, अप्पसागारिए पाए ||२१|| पमज्जतस्स संजमो भवइ, मणसंजमो णाम अकुसलमणनिरोहो कुसलमणउदीरणं वा, वयसंजमो णाम असलवहनिरोहो कुसलबइ उदीरणं वा, कायसंजमो णाम आवस्सगाइजोगे मोत्तुं सुसमाहियपाणिपादस्स कुम्मो इब गुत्तिदियस्स चिट्ठमाणस्स संजमो भवह, उपकरणसंजमो णाम पोत्थएम घेप्पतएसु असंजमो भवइ, महद्धणमुछेसु य वत्थेसु, तर्सि चिवज्जणे संजमो, कालं पुण पड़च चरणकरणट्ठा अयोन्छितिनिमित्तं च गेण्हमाणस्स पोत्थए संजमो भवइ । इदाणिं तवो, सो दुविहो-बज्यो अब्भतरो य, तत्थ पढम बझो भवइ पच्छा अब्भतरो, सीसो आह-केण कारणेण बज्झो अर्भतरो वा भण्णइ', आयरिओ आह-जम्हा मिच्छदिट्ठीहिवि यायरिज्जमाणो नज्जइ विवरीयग्गहणेण कृतित्थियादीहिवि कज्जइ तम्हा पो, अभंतरो पुण कज्जमाणो ण तहा पागडो भवइ तेण अभंतरो भण्णइ , तत्थ जो बज्झो सो छब्बिहो, जहा-अणसणं ऊणोयरिया भिक्खायरिया रसपरिचाओ कायकिलेसो RIसंलोणतत्ति, तत्थ अणसणं नाम न असिज्जह अणसणं, णो आहारिज्जइति पुत्तं भवति, तं च दुविह-इत्तिरियं आवकाहयं च, इच- + ॥२१ ॥ रिय णाम परिमितकालियं, तं चउत्थाउ आरद्धं जाव छम्मासा, आवकहियं जावजीवमेव, तं तिविध-पाओवगमणं होगाणहा मरणं भत्तपच्चक्ताणं च, तत्थ पाओगमणं णाम जो निष्पडिकम्मो पादउच्च जओ पडिओ तओ पडिओ चेव, तं च दुविहं | दीप अनुक्रम [26] Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [-] गाथा |||| दीप अनुक्रम [१] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( निर्युक्तिः + भाष्य | +चूर्णि:) भाष्यं [१-४] अध्ययनं [१], उद्देशक [-] मूलं [-] / गाथा: [१], निर्युक्तिः [३८...९४/३८-९५], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णिः श्रीदशवैकालिक चूण १ अध्ययने ॥ २२ ॥ * भवइ, तं०-याघाइमं निव्वाघाइमं च तत्थ वाघाइमं नाम जो आउगं पहुष्प तमेच मला उचकमे सिंघवग्घतरच्छादि कारणेस वाव अभिदुओ वा पाओवगमणं करेह, एवं वाघातिमं निव्वाषा नाम सुचत्थतदुभयाणि गण्हिऊण अय्वोच्छित्तिनिमित्तं व बाएऊण तओ पच्छा जरापरिणयस्स भवइ, एयं निव्वाषाइमं इंगिणिमरणं णाम सयमेव उल्बत्तणपरियचणादीणि करेति च व्विहाहारविवज्जियं च परपडियरणविवज्जियं च इदाणिं भत्तपच्चक्खाणं तं नियमासपडिकम्मं, सपडिकम्मं णास उच्चचणः परियचणादीषि असद्दुस्स वा सन्धं कीरह, अणसणं समत्तं ॥ ऊमोयरिया णाम ओमभावो नाम, ऊति भवति, साय दुविदादब्वे भावे प तत्थ च्योमोदरिया उपकरणे भचे पाणे य तत्थ उपकरणे ताव एगवत्थधारित भत्तपणे मोदरिया नाम अध्पणा मुप्यमाणेण कवलेणं पंच विकप्पा भवति, तंजा-अप्पाहारोमोयरिया अबड्डोमोयरिया दुभागोमोयरिया प्रमाणोः मोदरिया किंचूणोमोयरिया इति, इयाणिं एतासि अप्पाहारअबदुभागप्रमाणकचूणोमोयरियाणं पंचण्डवि विभागो भ्राणितको, तत्थ चब्बीसं लंबणा पमाणजुत्ता ओमोदरिया, एसोमोदरिया चउत्थान, ताओ पण चातो जोमोदरिया विष अप्पाहारअवदुभागोमोदरियाणं निष्फखी भण्णा, पंचमा नामनिष्ठण्णादेव किंचूणोमोदरियचि भष्णति, एतेर्सि पंचण्डबि उम्रोदरियाणं निदरिसणं, तत्थ अप्पाहारोमोदरिया नाम जेण अप्पमरं कुच्छीए पुष्णं बहुतरं ऊपं, पमाणोमोयरियाए तिभागो, अबडोमोयरिया णाम पमाणजुचोमोदरियाए अवति वा अर्द्धति वा एगट्ठा, दुवामोमोदरिया णाम प्रमाणोमोदरियं तिहा हिंदि एगं भाग छऊण दो भागा गहिया हुभायोमोयरिया भवइ, पमाणोदरिया नाम बत्तीस कवला पुरिसस्स आहारो संपुष्णो, तस्स चउत्थो भागो छज्जिद, सेसा वउदीसं कवला पमाणजुत्तोमोदरिया भवर, किोमोरिया णास किंणो आहारोति वृत्तं [27] चाझेऽवमीदरिका ॥ २२ ॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक गाथा ||१|| श्रीदश-द भवइ, इदाणि एताओ पंचवि ओमोदरियाओ वित्थारेण भण्णइ, तत्थ अप्पाहारोमोदरिया नाम प्रमाणोमोदरियाए तिभागो, ते चाह्येऽवमो. वैकालिक अट्ठ कवला, अट्टविधा य अप्पाहारोमोयरिया भवइ, तंजहा-अप्पाहारोमोदरियाए अट्ठ कवला, एगुणकवला अप्पाहारोमोदरिया जातादरिका, चूर्णी सत्त, चिऊण कवल अप्पाहारोमोदरिया जाता छ, तिचउरोपंचूणकवलअप्पाहारोमोदरिया जाता पंच चउरो विष्णि, छहि ऊणकक्ल अप्पाहारोमोदरिया जाता दोषिण, सत्तूणक्रवलअप्पाहारोमोदरिया जाता एगो अप्पाहारोमोदरिया, जाता सत्तचि कणकवल०,अप्पा | हारोमायरियाए एककवलाहारोमोदरिया जहण्णा अट्ठकवलोमायरिया उकोसा सेसा अजः । इदाणिं अवङ्काहारोमोयरिया वारसकवला ॥२३॥ भण्णति, सा य चउबिहा, तंजहा-बारसकवल अवड्डाहारोमोयरिया, एगक इकारस, बिहूणकवल अवड्डाझरोमोयरिया जाया दस, तिहिऊण कवलअबड्डाहारोमोयरिया जाता नव, अबड्डाहारोमोयरिया जहणिया नव कवला उक्कोसेण बारस, सेसा अजहण्णमणुकोसा। इदाणिं दुभागोमोयरिया सोलसकवला, सा चउविद्दा, तंजहा-सोलकवलदुभागोमोयरिया, एगूणकवल दोभागोमोदरिया जाता | पण्णरस, दोहिऊण दुभागकबलहारमोदरिया जाता चोद्दस, तिहिऊण दुभागकवलाहारोमोयरिया तेरस, दुभागकवलाहारोमोदरि| याए जहण्णा तेरस उकोसा सोलस, सेसा अजहण्णमणुकासा । इदाणि पमाणजुत्ताहारोमोदरिया एग(अठ्ठ)णकवलजुलाहारोमोदरिया चउच्चीसं कवला भवंति, सा य अवविहा, तंजहा-चवीसकवलजुत्ताहारोमोयरिया एगूणकवलजुत्ताहारामोदरिया जाता तेवीस | एवं दोहिऊण जाया पावीस, विहिऊण जाया इकवीस, चउहिं ऊणा जाता बीसं, पंचहिं ऊणा जाता एगूणवीस, छहि ऊणा जाता M ॥२३॥ अट्ठारस, सत्तहिं ऊणा जाता सत्तरस, पमाणजुत्ताहारोमोयरिखा जहण्णण समरस उक्कोसणं चउवीस-कवला, सेसा अजष्टामणुकोसेणं । इदाणि किंचूणाहारोमोयरिया, सा य एकतीस कवला, सचविहा पुण भषणइ, तंज़हा-एकतीसं कबला किंचूणाहारोमोय. दीप अनुक्रम [28] Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक गाथा ||१|| 3. रिया, एगूणकवला किंचूणाहारोमायरिया जाता तीस, एवं दोहिं ऊगा जाया एकूणतीस, तिहि ऊणा जाया अट्ठावीस, चउहि ४ बाये भिक्षा+6 ऊणा जाया सत्तावीस, पंचूणा जाता छब्बीस, छहिं ऊणा जाया पंचवीस, किंचूणाहारोमोयरिया सव्वजहण्णा पणवीस सन्चुकोसाचयाकायची का एकतीसं, अबसेसा अजहण्णमणुकोसा, एवं एसा पुरिसस्त ओमोदरिया । इदाणि इत्थियाए, सावि एवं चेव, गवरं अट्ठाबांस करला १अध्ययन संलीनताः 181 संपुष्णाहारो, तदणुसारेण एवं सेस भाणियय । दब्योमोदरिया गता, इवाणि भावोमोदरिया-कोहादीणं चउण्डं कसायाणं ॥२४॥ उदंताणं निरोहो उदयपत्ताण विफली करणं कायचंति, ओमोदरियागता । इदाणि भिक्खायरिया-सा अणगप्पगारा, तंजहा दवाभिग्गहचरिगा, जहा कोई साहू अभिग्गह गिण्हेज्जा-जइ मे भिक्खं हिंडमाणस्म अमुग दव्यं लबभइ तो गिहिस्सामि, इतरहा न गेण्हामि, एवमादी भिखायरियाए अभिग्गहा माणितब्बा, अहवाइमा चउबिहा भिक्खायरिया, त० पेला अद्धपेला गोमुत्तिया | संयुक्तावति । इदाणिं रसपरिच्चागो, खीरदधिनवणीयादणं रसविगतीणं विवज्जणं । कायकिलेसो नाम वीरासणउक्कुडुगासण भूमीसज्जाकट्ठसेज्जालोयमादियाउ भाणियबाउ, पश्चात्कर्म पुराकर्म, ईयोपथपरिग्रह। । दोपा ह्यते परित्यक्ताः, केश| लोचं प्रकुर्वता ॥ १ ॥ कायक्लेशश्च पूर्वोक्तो, वैरुप्य तु सुसंधितम् । आप्तागमः क्षमा चैव, सूत्रोक्ता कमनिर्जरा ॥२॥ लोचः । इदाणि संलीणया, सा चउविहा भवइ, जहा-इंदियसलाणया कसायसंलीणया जोगसलीणया विविनचरिया, तत्थ इंदियसिलीण या पंचविहा भण्णइ, नंजहा-सोइदियसंलीमाया चक्खिदियसैलीणया घाणिदियसलाणया जिभिदियसलीणया फासिदियअसेलोणया, तस्थ साइंदियसलाणया णाम-सहेगु य भद्दगपावएमु सोयविसयमुवगएमु । तुट्टेण व रुडेण व समर्णण सया ण भवि-11॥२४॥ | यव्यं ॥ १॥ एवं समुीव इंदिगमुवि एसा चेव गाहा चरियन्वा । इदाणिं कसायलीणया, मा चउचिहा, तंजहा कोहोदय दीप अनुक्रम [29] Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक श्रीदश गाथा निरोहो वा उदयपत्सम्म वा काहस्स विफलीकरणभिति, एवं जाव लाभादयनिरोधा वा उदयपत्तरस वा लोहस्स विफलीकरण- अभ्यन्तरे बैंकालिकामिति । इदाणि जोगसंलीणया, सा तिविहा, ते अकुसलमणनिरोधो काययो कुसलमणउदीरणं वा, एवं वायावि भाणियब्वा, तपसि चूर्णी कायसंलोणया णाम ठाणचकमणादीणि अकज्ज न कायबाणि, कम्जेषि पसंतचित्तमणसेण जुगतरपलोयणाइणा कायवाणिति, ट्रिप्रायश्चित्तं १अध्ययने विवित्तरिया नाम आगमज्जाणाइसु इत्थीपसुपंडगविरहियाणि फासुएसणिज्जाणि पीढफलगाणि अभिगिहिऊण बिहरियव्धनि ।।। बज्झो गतो। दाणिं अभितरओ, सो छबिहो, त-पायच्छित्तं विणओ वेयावरच सज्झाा झाणं विउम्सम्मोति, तत्थ पाय-18 ॥२५॥ लीछित्तं दसविडं-आलायणं पडिकमणं तदुभयं विवेगो विउस्सन्गो नबो छदो मूलं अणबदुप्पो पारंचितंति, तत्थ आलोयणाले. नाम अबस्मकरणिज्जेसु भिक्खायरियाई म जइवि अबराहो नत्थि तहावि अणालोइए अविणओ भवइत्तिकाऊण अबस्स आलो-IN एयवं, सो जड किंचि असणाइ अवराहं सरेज्जा, सो वा आयरितो किंचि सारेज्जा तम्हा आलोएयव्यं, आलोयपति वा पगासकरणंति रा अक्खणंति वा चिसोहित्ति वा एगट्ठा । इदाणि परिजमणं, तं च मिच्छामिदुकडेण संजुत्तं भवइ, तंजहा कोई साहू भिक्खायरियाए गच्छंतो विकहापमत्तो इरियं न सोहेइ, अन्नण य माधुणा पडिचोइओ जहा इरियं न सोहेसि, न य तंमि समए किंचिता |पाणविराहणं कयं, ताहे सो मिच्छादुकडेणेव सुद्धो भवइ, एवं भासासमितीएवि सहसा अणाभोगण व काइ अप्पसाबज्जा गिहस्थिभासा भासिया सा मिच्छादुक्कडेणेव सुज्झइ, एवं सेससमितिसुधि जत्थ असमिति तणं समावण्णो अप्पत्तसु इट्ठसु परमगिद्धि- २५॥ मावष्णो रागद्दोसा वेसि कया ण य महंतो अवराहो ताव मिच्छा दुकडेणेव सुद्धी भवइत्ति । तदुभयं नाम जत्थ आलोयणं पडि-16 | कमणं, एगिदियाण जीवाणं संघट्टपरितावणादिसु कएम आउत्तस्स भवंति। विधेगो नाम परिद्वावणं, तं च आहारोवहिसज्जास दीप अनुक्रम *१-CRAC [30] Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक विनयः गाथा ||१|| श्रीदश-कणाणं संसत्ताणं उग्गमादीसु य कारणेसु असुद्धाणं भवद । इवाणिं काउस्सग्गो, सो य काउसम्मोत्ति वा विळस्सग्गाोति वा अभ्यन्तर पकाल एगट्ठा, सो य काउस्सग्गो इमेहि कज्जइ, तंजहा-णावानइसतारे गमणागमयासुमिणदसणवावस्सगादिम् कारणेसु बहुविही भवा । ट्रा साइवाणिं तवो, सो पंच राहदियाणि आदिकाऊण बहुवियप्पो भवत्ति । तथा ऐवो नाम जस्स कस्सवि साहुणो तहारूवं अवराह १ अध्ययन पाऊण परियाओ छिज्जइ, तंजहा-अहोरत्तं वा पक्खं वा मासं वा संवच्छरं वा एवमादि छेदो भवति । मूलं नाम सो चेत्र से ॥२६॥ परियाओ मूलतो छिज्जा । अणवठ्ठप्पो नाम सब्वच्छेदपत्तो किंचिकालं करेऊण तवं चतो पुणोति दिक्खा कज्जह । पारंचो नाम | खेत्ततो देसातो वा निच्छुभइ, छेदअणवट्ठमूलपारंचियाणि देसं कालं संजमविराहणं पुरिसं च पडच दिज्जतिचि, पच्छित्तं गतं । दाणिं विणओ, सो य सत्तविषो भवइ, तंज़हा-णाणविणओ दंसणविणओ चरिचविणशो मणविणओ वायाविणओ कायविणओ उवयारियविणओत्ति, तत्थ नाणविणओ पंचरियो-भिणिबोहियणाणविणओ सुतणापविणओ ओहिणाणविणओ मणपज्जवणाणविणओ केवलणाणविणओत्ति, से गाणविणो कई भवइ !, तंजहा-जस्स एतेसु गाणेसु पंचसुवि भत्ती बहुमाणो वा, जे या एतेहि नाणेहि पंचहि भाषा दिड्डा दीसति दीसिस्संति वा तेसि सदहणतं, एस गाणविणओ। इदाणिं दसणविणओ, सो दुविहो, तंजहा-सुस्वसणविणओ अण्णासातणाविणओ य, तत्थ सुस्मसणाविणओ णाम सम्मईसणगुणाहिए साधुसु कज्जद ४दसणपूपाणिमितं , सो य सुस्मुसाविणओ अणेगविहो भवइ, तंजहा-सक्कारविणओ सम्माणविणो अन्डाणं आसणाभिग्गहो N२६॥ आसणाणुप्पयाणे किइकम अलिपग्गहो एतस्स अणुगच्छणया ठियस्स पज्जुवासण्या गच्छंतस्स अणुबयाणंति, सांसा आहसक्कारसंमाणाणे पुण को पतिवसेसो', आयरिओ भणइ-सक्कारो थुगणाइ, सम्माणो अस्थपचादीहिं कीरह, इदाापी आसणा दीप अनुक्रम 445 N [31] Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [-] गाथा |||| दीप अनुक्रम [8] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र ३ (निर्युक्तिः + भाष्य | + चूर्णि:) भाष्यं [१-४] अध्ययनं (1) उद्देशक [-1, मूलं []/ गाथा: [१] निर्युक्तिः [३८... ९४/३८९५ - मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [ ४२ ], मूलसूत्र [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: श्रीदशवैकालिक चूर्णी १ अध्ययने ॥ २७ ॥ भिग्गहो सो आगच्छंतस्स चेत्र परमादरेण णाम अभिमुहमा वस्नहत्थेहिं भण्णइ एत्थ ओविसाहित्ति, आसणपदाणं णाम ठाणाओ ठाणं संचरंतस्स आसणं गेण्डिऊण इच्छिए ठाणे टवेर, सेसाणि अभुट्टाण किकम्मादीणि पागडाणित्ति काऊण न भणियाणि । इदाणि अणासादणाविणओ सो पण्णरसविहो, जहा-अरहंतस्स अणासादणाए अरहंतपण्णत्तस्त धम्मस्स अणासादणाए आयरियाणं अणासायणाए उवज्झायाणं अणासातणाए थेराणं अशासातणाए कुलस्स अणासादणार गणस्स अणासादणाए संघस्स अणासादणाए किरियाए अणासादणाए, किरिया नाम अस्थिवादो भण्ण, तंजहा अस्थि माया अस्थि पिया अस्थि जीवा एवमादि, जो एवं ण सदहह विवरीयं वा पण्णवे तेण किरिया आसादिता भवई, आभिणिवोहियणाणस्स अणासादपाए जाव केवलनाणस्स अणासादणाए, एतेसिं पण्णरसहं कारणाणं एकैकं विविहं भवइचि, तंजा-अरहंताणं अत्ती अरहंताणं बहुमाणो अरहंताणं वण्णसुजलणया, एवं जाय केवलणाणस्सवि विवि भाणियन् सव्वेवि एते भेदा पंचचचालीस भवंति, दंसणविणओ गओ इदाणिं चरितविणओ कहिज्जर, सो पंचविधो भवइ, तंजहा- सामाइयचरितविणओ छेदोवडावणियचरितविणयो परिहारविमुद्धियचरितविणओ मुदुम संपरागचरितविणओ अहम्खायचरितविणओति एतेसं पंचण्ड चरितार्ण को विणओ है, मण्णति, पंचविहस्स जा सदहणा वा सद्दहियस्स जा कारण फासणया भव्याणं च पुरओ परूवणया, चरिचविणओ वण्णओ इदाणिं मणविणओ, आयरियाईण उवार असलो मणो निरूभिब्बो कुसलमण उदीरणं च कावं, एवं वायाविणओवि । तत्थ कायविणओ नाम तेसिं चेव आयरियादीण अद्वाणपरिस्संताण वा सीसाउ आरम्भ जाव पादतला ताब परमादरेण विस्सामणं । इदाणिं उपयारियविणओ सत्तविधो णिच्चमेव आयरियस्स अम्मासे अच्छर्ण छंदाणुवत्तणं कारियनिमित्त करणं [32] अभ्यन्तरे विनयः ॥ २७ ॥ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [H] गाथा |||| दीप अनुक्रम [3] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( निर्युक्तिः + भाष्य | +चूर्णि:) भाष्यं [१-४] निर्युक्तिः [३८...९४/३८-९५], अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा: [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्ण : श्रीदशवैकालिक चूण १ अध्ययने ॥ २८ ॥ ४ कयपडिका दुक्खत्तस्स गवसणं देसकालण्णुया सव्वत्थेसु अणुलायमति, तत्थ अम्मा से अच्छणं नाम आयरियाण सीसो निज्जरट्ठाए इंगिएण अभिप्पायं नाऊण जहिच्छियं उबवायइस्सामित्ति काउण आयरियस्स अम्मासे अच्छर, तत्थ छंदाणुवत्तणं नाम आयरियाण सीसेग कालं तुलेऊणं आहारउवहिउवस्सगाणं उबवायणं कायध्वं कारियनिमित्तकरणं नाम पसण्णा हु आयरिया सविसेस सुतत्थतदुभयाणि दाहिंतित्तिकाऊणं तारिमाणि अणुकूलाणि करे जेण तेर्सि आयरियाण चित्तप्यसाओ जायइ, कयपडिकइया णाम जइवि निज्जरत्थं करेह ततोचि मम एस कारेहितित्ति काउं विषयं करेइ, सेसाणि दुक्खत्तस्स गवेसणाईणि पसिद्धाणि चैिव काऊण नो भणियाणि, अहवा एसो सच्चो चैव विणओ नाणदंसणचरित्ताणं अव्यतिरित्तोत्तिकाऊण तिविहो चैव भाणियचो, तं० नाणविणओ दंसणविणओ चरितविणओ || विणओ गओ ॥ इदाणिं यावच्च तं च इमेहिं कारणेहिं कज्जर, तं०- अण्णपाणवत्थपत्तपडिस्सय पीढफलगसंथारप्पगादीहिं धम्मस्स साइमेहि, तं च कस्स कज्जइ १, इमेसि दसहं, ते० आयरियउवज्झाया थेर तबस्सि गिलाण सिक्खग साहम्मिय कुलगणसंसु, तत्थ आयरिओ पंचविहो, तं० पब्वावणायरिओ सुत्तस्त उदिसणायरिओ समुदिस० अणुष्णा० वायणायरिओत्ति, उवज्झाओ पसिद्धो चेव, थेरो नाम जो गच्छस्स सथिति करेह, जो तिसु त परियागाइसु वा थेरो, तबस्सणाम जो उम्गतवचरणरतो, गिलाणो णाम रोगाभिभूओ, सिक्खगो नाम जो अहुणा पव्वश्यओ, साहम्मिओ नाम एगो पवयणओ ण लिंगतो, एगो लिंगओ न पचयणओ, कुलगणसंघा पसिद्धा चैव । इदाणिं सज्झाओ, सो पंचविधो, तं०-यायणा पुच्छणा परियट्टा अणुप्पेहा धम्मकहा, चायणा णाम सिस्सस्स अज्झावर्ण, पुच्छणा सुत्तस्स अत्थस्स वा भवति, परिषणं णाम परियट्टांति वा अन्यसति वा गुणणंति वा एगट्टा, [33] अभ्यन्तरे वैयावृत्यस्वाध्यायौ ॥ २८ ॥ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक गाथा ||१|| औदश- अणुप्पेहा णाम जो मणसा परियट्टेह णो वायाए, धम्मकहा नाम जो अहिंसादिलक्खणं सवण्णुपणीयं धर्म अणुयोग वा कहे अभ्यन्तरे वैकालिक एसा धम्मकहा, सझाओ गओ। इदाणिं झाणं, तं च अंतोमुहुत्तियं भवइ, तस्स य इमं लक्षणं, तं०-दढमज्यवसाणंति, केई पुण तपसि चूर्णी आयरिया एवं भणति-एगग्गस्त्र चिन्ताए निरोधो झाणं, एगग्गस्स किर चिन्ताए निरोधी तं झाणमिच्छंति, तं छउमत्थस्स Rध्यानम् १ अध्ययन । जुज्जइ, केवलिणो न जुज्जइत्ति, किं कारण ?, जेण मइति वा मुत्ति (सइ)ति वा सण्णनि बा आभिणियोहियणाणंति वा एगट्ठा, ॥ २९ ॥ केवलिस्स य सबभावा पच्चक्खत्तिकाऊण आभिणिवाहियणाणस्स अभावे को चिन्तानिरोधो भवइ ?, तम्हा एगग्गचितानिरोधी झाणमिति विरुज्झते, दढमज्झवसाओ पुण सव्वाणुवाइत्तिकाऊण, जसि पुण आयरियाण एगग्गचिन्तानिराधो झार्ण तसि इगो वक्खाणमग्गो-एगग्गस्स य जा चिता (निराहो य) तं झाणं भवद, एते दाहाणं, तत्थ एगम्गस्स चिंता एतं झाणं छउमस्थस्स ! भवइ, कह ?, जहा दीवसिहा निवायगिहावस्थियाहिं किंचि कालंतरं निचला होऊण पुणोषि केणइ कारणेण कंपाविज्जा । एवं छउमत्थस्स झाणं, ते कम्भिवि आलंबणे कंचि कालं अच्छिऊण पुणोवि अवत्थंतरं गच्छा, जो पुण एगग्गस्स निरोधो एवं जाणं केयलिस्स भवइ, कम्हा ?, जम्हा केवली सब्वभावेसु केवलोक्योगं णिभिऊण णो चिट्टइ, ते झाणं चउव्विहं भवइ, 12 । तं०-अट्ट रोई धम्म सुकमिति, तत्थ संकिलिट्ठज्जवसायो अट्ट, अइकूरझवसाओ रोई, दसविहसमणधम्मसमणुगतं धम्म, सुक्क असंकिलिट्ठपरिणामं अट्ठविहं वा कम्मरयं सोधति तम्हा सुक्क, परिणामविसेसण णाणतं, परिणामविससेवि फलबिसेसेण णज्जइ, तम्हा-अर्ट्स तिरिक्खजोणी रोइज्माण गंमती नरयं । धम्मेण देवलोग सिद्धगतिं सुक्कझाणेणं ॥ १ ॥ तत्थ अट्टज्माणं | तं चउबिह-अमणुण्णसंपओगसंपउत्तो तस्स विष्पओगाभिकंखी सइसमन्नागते यापि भवइ, अमणुष्णं णाम अप्पियं, समन्तओ दीप अनुक्रम [१] -%AC-TECICIXCX mamRASHTRA [34] Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) ཎྜཡྻཱསྦྲུསྶ |||| अनुक्रम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र ३ (निर्युक्तिः + भाष्य | + चूर्णि:) अध्ययनं (1) उद्देशक [-1, मूलं []/ गाथा: [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [ ४२ ], मूलसूत्र [०३] - श्रीदशवैकालिक चूर्णां १ अध्ययने। ॥ ३० ॥ निर्युक्तिः [ ३८... ९४/३८९५ भाष्यं [१-४] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: जोगो संपओगो तेण अप्पिएण समंततो संपतो तस्स विप्पयोगाभिकखी सविसमण्णागते यावि भवइ, सतिसमण्णागते नाम चित्तनिरोहो काऊं शायद, जहा कह णाम मम एते अणिट्ठेसु विसएम सह संजोगो न होज्जत्ति, तेसु आणि विसयादिसु पओसं समावण्णो अप्पत्तेसु इट्ठेसु परमगिद्धिमावण्णो रागद्दोसवसगओ नियमा उदयकिलिनन्य पात्रकम्मरयं उदचिणाइति अस्स पढमो मेदो गतो । मणुष्णसंपयोगसंपतो तस्स अविप्पयोगाभिकखी सहसमभागए यानि भवह, सदाइसु विससु परमपमोदमावलो आणि पदोसमावण्णो तप्पच्चयस्त रागदोसं० अजाणमाणो गओ इव सलिलउल्लियंगो पावकम्मरयमलं उवचिणोतित्ति अट्टस्स वितिओ भेदो गभ २ आयकसंपयोग संपउचो तस्स विप्पयोगामिकखी सतिसमभागते, तत्थ आतंको णाम आसुकारी, तं जरो अतीसारी सू(सा) से सज्जहूओ एवमादि, आतंकगहणेण रोगोचि सूइओ चैव, सो य दहिकालिओ भवइ, तं गंडी अदुवा कोडी एवमादि, तत्थ वेदणानिमित्तं आकरोगेसु पदोसमावष्णो आरुग्गभिकंखी रागद्दोसवसगओ हाणुगओ निवसतो अशुभकम्मरयमले उपचिणोति, अदृज्ज्ञाणस्स तइओ भेदो गओ ३ परिज्झ कामभोगसंपते तस्स अविष्यजोगभिकखी सतिसमण्णागए याचि भवद, तत्थ परिज्यंति वा पत्थणंति वा गिद्धति वा अभिलासोति वा लेप्पत्ति वा कंखति वा एगट्ठा, तत्थ कामग्गहणेण सरूवा व गहिया. भोगग्गहणेण गंधरसफरिसा गहिया, एतेसिं कामभोगाणं जा पत्थणा सा परिज्झा. परिज्झिउ नाम अणुओ, जहा लोगे अमेहिं अणुगतओ अद्भुत भष्णइ एवं सोवि कामभोगपिवासाए परिभज्झाणगतो परिज्झितो भण्ण, ततो सो रागदोसोबगओ नियमा असुहकम्मबंधउत्ति भवइ, एवं चउव्विपि अहं भणियं एवं पुण अट्टज्झाणं को झायी, अविरयदेसविरय पमतसंजया व झायंति, सीसो आद--कहमेतं नज्जई जह एस अङ्कं झायइति न वा ज्ञायति ?, आयरिओ भणइ [35] अभ्यन्तरे तपसि ध्यानम् ॥ ३० ॥ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक % गाथा ||१|| ॥३१॥ श्रीदश-8 अगुस्सणं झाणस्स चत्वारि लक्खणा पण्णता, तं०-कंदणया सोयणया तिप्पणया बिलवणया, तत्थ कंदणयानाम हिरण्णसुवण्णादी-Itiअभ्यन्तरे वैकालिकाहिं अवहिएहिं वा कंदद हा मात ! हा पित ! हा भागे ! हा पुते ! ति एवमादी, सोयणया नाम जो नीसढं दीणमणसो अंतग्ग-15 तपसि चूर्णी तेण सोगग्गिणा अभिताविज्जमाणो चिट्ठा सा सोयणता, तिप्पणया नाम तीहिंवि मणवयणकाइएहिं जोगेहिं जम्हा तप्पति तेण ध्यानम् १ अध्ययने तिप्पणया, विलवणया नाम अतिसोगाभिभूयचणेण विचित्तचेतसो णाधिट्ठाणि विविधाणि विलवइ विलवणया, (अहवा कूज काणया ककरणया तिप्पणया विलवणया तं०) कूजणया णाम मातिपितिमातिभगिणीपुत्तदुहित्तमरणादीवि (सु) महइमईतेण सदेण लाविहीत कूजणया, ककरणया णाम जो घडीजतगं व वाहिज्जमाणं करगरेइ सा ककरणया, तिप्पणयाविलवणयाउ पुव्ववणियाउ,3 अज्झाणं गतं । इदाणिं रोद्दज्झाणं-तं० चउन्विहं, तं०-हिंसाणुबंधी मोसाणुबंधी तेणाणुबंधी सारक्खणाणुबंधी, तत्थ हिंसाणुबंधी नाम जो गिच्चकालमेव वधपरिणओ अकरेमाणोचि पाणबवरोवणं मज्जारो विव तग्गयमाणसो चिट्ठइ एस हिंसाणु-11 बबंधी१, मोसाणुबंधी णाम जो कम्ममारिययाए निच्चमेव असंतअसम्भूतेहिं अभिरमइ, अदिवाणि य भणइ दिवाणि मए, एवमादि। मोसाणुबंधी २, तेणाणुपंधी णाम जो अहो य राई य परदबहरणपसचो जीवघाती य एस तेणाणुबंधी ३, सारक्खणाणुबंधी णाम जो अस्थसरीरादीणं सारक्खणानिमिन णिच्चमेव आहम्मिएसु कारणेसु पबत्तइ अचोरं चोरमितिकाऊण पाएइ, असंकणिज्जे य संका, है एस सारक्खणाणुवंधी, रोई चउम्विहंपिगतं । इदाणिं एतस्सेव लक्षणाणि भण्णंति, ताणि इमाणि चचारि,तं०-ओसण्णदोसे ॥३१॥ ॐबहुदोसे अण्णाणदोसे आमरणंतदोसे, तत्थ ओसण्णदोसे णाम जो एवं ताणेव हिंसाणुबंधादीणं चउण्डं रुद्दकारणाणं एगतरमा कारणे अभिणिदिवो पुणो २ तं च समायरइ बाहिमोविच अप्पत्थमाइतणणं रोग यह एवं सोऽपि पावकम्मरोग बड्इ एस दीप अनुक्रम [36] Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक श्रीदश- वकालिक चूर्णी अध्ययन -- umanner - STORES गाथा ||१|| ओसण्णदोसो १, बहुदोसो णाम जो एतेसिं चेव हिंसाणुबंधादीणं चउण्हं कारणाणं दोहि वा तिहिं वा दोसेसु बट्टा एस बहुदोसो२, अभ्यन्तरे अण्णाणदोसो णाम एतेसि चव हिसाणुबंधादीणं चउण्डं कारणाणं विवागं अजाणमाणो अधम्मो अधम्माणुगबुद्धी अन्नाणमहामोहाभि तपसि भूतो भूतो विष्वज्झवसाता सचेगु निरणुकंपो धायणाए पवत्तइ जहा दवदादिणो संसारमोयगा य एवमादी३, आमरणंतदोसो णाम व ध्यानम् एतेसु चेव हिंसाणुपंधादिएमु कारणेसु आमरणं पदत्तति जहा पाहाणरेहा, थोयोनि से पच्छाणुवायो मरणकालेवि न भवइ, किं पुण सेसकाले?, एस आमरणंतदोसोट, एयं च रोई कस्त भवइ, अविरयदेसचरित्ताण भवइ । रोई झाणं सम्मत्तं । इदाणिं घम्मझाणं, तंपि च चउचिह-चप्पगारं भवइ. चउप्पगारगहणेण लक्षणालवणअणुप्पेहातीणि बिहाणाणि माझ्याणित्ति, ते य इमे गदा, त-आणाविजए अवायविजए विवागविजए संठाणविजए, आणायिजए णाम तत्थ आणाणाम आणेतिया सुतंति वा वीतरागादेसोनि वा एगट्ठा, विजओ नाम मग्गणा, कई ?, जहा जे गुहमा भाषा अणिदियगिज्झा अवज्झा चक्खुबिसयातीया 8 केवलनाणीपच्चक्खा ते बीयरागवयणंतिकाऊग सहइ, भणितं च-पंचस्थिकाए आणाए, जीवे आपाए छञ्चिहे । सहहे जिणपण्णन, धम्मज्झाणं झियायइ ॥१शा नहा-तमेव सोनीसंक, जे जिणहि पवेदितं, भणितं च "वीपरागो हि सवण्णू, मिच्छ णय उभासइ ।।४ जम्हा तम्हा वई तस्स, तथा भूतत्थदरिसिणी।।१।।" एवं आणाविजयं । अवायविचर्य नाम मिच्छादरिसणाविरइपमादकसायजोगा। संसारपीजभ्या दुखावहा अइभयाणयान वा जाणिऊण सबभावेण बज्जयपत्ति झायह, अवातविजयं गतं २ । इदाणि विवाग-1 विजतं, तस्य विधागविजय नाम एतसि चव मिच्छादसणाविरतिपमादकसायजोगाणं जो फलविवायो तं चिन्तंतरस धम्मज्शाण ला ॥३२॥ । भयर, एयं विषागविजपं ३ । सीसो आह-अवायविधागविजयाणं को पहनिसो, आयरिओ भणइ-अबायो एगतेणं चेव अबाद दीप अनुक्रम 4 -50- 0 --- - [37] Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक Aध्यानम् गाथा ||१|| आंदश हे उहि कम्मेहि भवइ, जेहिं अगुदहि संसारियाई दुक्खाई पायति वाणि चव कम्माणि वावहारिगणयस अवायो भण्णा, कह , अभ्यन्तरे बैंकालिक जहा लोगे आणवेज्जए 'अण्णमया वै प्राणा ' जम्हा किर अण्णेण विणा पाणा ण भवति तम्हा लोगेण अण्णं चव पाणा कया, तपसि ची एवं इहईपि जम्हा मिहादरिसणाविरहपमादकसाय जागेहि विणा णावायो भवई तम्हा वाणि चेव अबातो भण्णइ, भणिया १ अध्ययने च-इहलोइए अवाए, अदुवा पारलोइए । चितवंतो जिणक्याए, धम्म झाणं झियायइ ।। १॥" विधागो पुर्ण सुभासुभाणं कम्मा जो अणुभावो चितह सो विधागो, भणियं च-"सुहाणं अमुहाणं च, कम्माणं जो विवागयं । उदिणाणं च अणुभागं, धम्म।।३३|| हा झाणं शियायइ ।। १ ।। अवायविवागाणं एम बिसमोत्ति गयं ३ । संठाणविजय नाम जहा जीवादीण दीवसमुदाणं संठाणं वणिज्जइ, सीसो आह किं संठाणमेव एवं झियाइयवं? ण बण्णरसगंधफासाइ झाइयव्यनि तेण तेसिं गहणं न कर्य ?, आयरिओ आह-सच्चनं एवं, किन्तु एगग्गहणे तज्जातीयाण सब्वेसि गहणं भवइ, तेणं संठाणगहणणं वण्णरमगंधफरिसा गहिया चेव भवंति, जे अवष्णअगंधअरसअफासमन्ताई दबाई धम्मस्थिकायमाझ्याई ताणिवि महियाणि चेव भवति, अलोगोचि य संठाणग्गहणण घेप्पड़, किं पुण धम्माधम्मागासादाणं गहणं ?, लोगे णं भंते ! किंसंठिए पण्णते ?, मुसिरगोलगमंठिए पण्णते, " चउन्विहंपि धम्मज्झाणं भणिय, एवं पुण धम्मज्झाणं अप्पमत्तसंजओ शायह । इदाणि एयम्स चेव धम्मज्झाणम्स लक्खणाणि भण्णं ति, वाणि इमाणि चत्तारि-आणाई णिसग्गई मुत्तरुई ओगाहरूई, तत्थ आणाई नाम जा तिव्यगराणं आणा तं आणं महतासंवेगसमावज्णो पसंसद, एस आणामई, निसग्गरुई नाम णिसग्गो सहायो, सहावेण चेव जिणप्पणीए भावे रोयज्ञ बहुजणमज्झे य महतासंवेगसमायण्णो पसंसद,एस निसग्गरुई, सुलई णाम 'जह जह सुबमोगाहइ अहसयरमपसरजुयमपुव्वं तु । तह तह पल्दाइ मुणी नव Sea SAIRPORamnimatement -o-e cities दीप अनुक्रम ॥३३॥ । *% ** [38] Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक तपसि ध्यानम् 4-54 गाथा ||१|| - नवसंबेगसद्धाए ॥१॥” एस मुत्तरई, ओगाहरुई णाम अणेगनयवायभंगुरं सुर्य अत्थओ सोऊण महतासंवेगमावज्जइ एस वैकालिकाओगाहरूई । धम्मज्झाणस्स लक्षणाणि सम्मत्वाणि । इयाणि तस्स चेस आलंपणा, जहा कोई पुरिसो गवाए वा विसमंसि वा चूणों पडिओ वेल्लि का रुक्खं वा मूलं वा अवलंबित्ताणं उत्तरइ, एवं धम्मज्झाणज्झायीवि चउण्हं आलंवणाणं अण्णतरं आलंबिऊण झायइ, १ अध्ययने तंजहा- वायण चा पुच्छणं वा परियट्टणं वा धम्मकहं वा, एयाणि हेड्डा वाणियाणि । धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि अणुप्पेहाओ ॥३४॥ | पण्णताओ, जहा-अणिच्चाणुप्पेहा असरणाणुप्पेहा एगत्तणुप्पेहा संसाराणुप्पेहा, तत्थ अणिच्चाणुप्पेहा नाम-सम्बडाणाणि असा-10 | सयाणि इह चेव देवलोगे य । मुरअमुरनरादीणं रिद्धिविसेसा सुभाई च ॥१॥" एवं खु चितर्यतस्स सरीरोवगरणादिसु निस्सं. | गया भवइ, मा पुण तेहिं विजुत्तस्स दोसं भविस्सइ । असरणाणुप्पेहा नाम 'जम्मजरामरणभए अभिदुए विविहवाहिसंतत्ते। लोगमि नत्थि सरणं जिणिदवरसासणं मोतु ॥१॥" एवं खं चिंतियंतस्स जिणसासणे थिरया भविस्सतित्ति, एगवाणुप्पेहा नामजाएगो करेइ कम्म फलमवि तस्सेकओ समणुहोई । एको जायइ मई परलोग इकओ जाइ ॥ १ ॥ एवं खु चितयंतस्स टू तस्स मातापितापुत्तमादिसु संगो न भविस्सइ, सत्तुणो य उवार वेराणुबंधो न भवति, एतेहि गंधेहिं असुहकम्मनिज्जरत्वमुज्ज मतिति, संसाराणुष्पहा णाम 'धी संसारो जहिया जुब्वाणो परमरूवगाम्बियओ । मारिऊण जायइ किमी तत्थेव कलेवरे नियए म॥१॥एए चिंतयंतस्स संसारभउबिग्गया भवइ.मश्विग्गो य तस्स विणासाय उज्जमह| धम्मााणं सम्मत्तं ।।इदाणिं सुक्क झाणं, प्रहत्तवितकं सविचारि एगचवियकमविचारि सुदुमकिरियं अनियईि समुच्छिन्न किरियं अप्पडिवादि, तत्थ पुत्तपितक सविचारिणाम पृथग्भावः पृथक्त्वं, तिहिवि जोगेसु पवत्तइति वुत्तं भवइ, अहवा पुहत्तं णाम वित्थारो भण्णइ, मुयणाणोवउत्तो अणे दीप अनुक्रम ३४॥ % % [39] Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक गाथा ||१|| ॥३५॥ श्रीदश-ट्रागाह पारवाह.सापालन लगेहि परियाएहि झायइत्तिवृत्तं भवइ, वियको सुतं, विचारो नाम अत्यवंजणजोगाण संकमणं, सह विचारेण सविचार, अत्थवजण- अभ्यन्तरे बैकालिका जोगाणं जत्थ संकमणं तं सपियार भण्णा, तं च झायमाणो चोहसपुब्बी सुयनाणोयउत्तो अत्थी अत्यंतरं गच्छइ. बंजणाओस तपास पीलीबंजर्णतरं, बंजणं अक्खरं भष्णइ, जोगाउ जोगतर, जोगो मणवयणकायजोगो भण्णइ, भणियं च. "सुयनाणे उवउत्तो अत्यमिा व्यानम् १ अध्ययनेय बंजणमि सविचारं । झायइ चोइसपुब्बी पढम झाणं सरागो उ ॥१॥ अत्थसंकमणं चेव, तहा बंजणसंकर्म । जोगसंकमणं । |चव, पढमे झाणे णिगच्छइ ॥ २ ॥" इयाणिं एगत्तयषियकं अविचारिनाम, एगभावो एगचं, एगमि चेव सुयणाणपयत्थे उबउत्तो &झायइत्तिबुतं भवइ,अहवा एगमि वा जोगे उवउत्तो झायइ,वितको सुर्य,अविचारं नाम अस्थाउ अत्यंतरं न संकमइ, वंजणाओ वंजणंतरं जोगाओ वा जोगतरं, तत्थ निदरिसण-सुयणाणे उवउत्तो अत्यमि य पंजणमि अविचारिं। शायद चोदसपुब्बी वितिय माणं विगतरागो ॥१॥ अत्थसंकमणं चेव, तहा बंजणसंकर्म । जोगसंकमणं चेब, वितिए साणे न विज्जह ॥ २॥ तइयं सुहुमकिरि-18 यानियहिणाम, त केवलिस्स भवइ, तत्थ केवली परमसुफलेसचणेण अप्पडिहयणाणतणेण य किं तस्स झाइयध्वं ?, जहवि तस्स | केवलिकमाई पडुच्च अंतोमुहुत्तिओ जोगनिरोधो भवइ, तत्थ मणोजोगस्स तात्र केवलिस्स सम्बकालं चेव अब्बावारो मोत्तूण केणइ देवाइणा किंचि सदिव्वं वागरणं पुच्छिओ संतो तं पडुच्च मणेण चेव बागरेइ, परिसेसवइजोगनिरोहं काउं कायस्सवि चादरजोगंद्र निरंभइ, ताहे तस्स सुहुमकिरियाणियट्टि णामझाणं भवति, जम्हा सुहुमकिरियानियट्टि मुहमकिरियं शायद, मणियं च-IN३५॥ " अस्थि णं भंते ! केवलिस्स वयणुप्पण्णा सुहुमकिरिया कज्जइी, हंता अस्थि, एवं जहा पन्नत्तीए,अणियट्टि णाम तस्स जोगनिरोधा | साणं केवलं देवेण वा दाणवेण नियत्तेउं न सकइत्ति, एवं सुहुयकिरियअनियट्टित्ति भण्णहात्त । इदाणि समुच्छिमकिरियं अप्पडि-13 दीप अनुक्रम [१] [40] Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक गाथा ||१|| श्रीदा- या वाति, तं च मेलेसि पडिवण्णयस्स भवइ, समुच्छिण्णकिरियाणाम जस्स मूलाओ चेव किरिया समुच्छिण्णा, अजोयित्रियुतं भवइ,13/अभ्यन्तरे वैकालिक अहवा इमा समुच्छिण्णकिरिया जस्स मूलाउ चेव छिण्णा किरिया, अबंधउत्तिवृत्तं भवति, अपडिवाई णाम जो जोयनिरोघेण अप्प डिएणं चेव केवली कमाई तडतडस छिदिऊण परमणाचाध गच्छद, एवं समुच्छिष्णकिरियमपडियातिति भणाइ, सुक- ध्यानम् अध्ययना माणस्स चउरो मूलभेया वण्णिाया । इदाणि एतेसिं चेव जो जस्स विसयो सो भण्णइ- तस्थ आदिल्लाण दोणि चोदसपुब्बिस्स ॥३६॥ | उत्तमसंघयणस्स उपसंतखीणकसायाणं च भवइ, तत्थ निदरिसणं- 'पढम वितियं च झायंति, पुन्वाणं जे उ जाणमा । उपसंतेहि | कसाएहि, खीणेहिं च महामुणी ॥ १॥ उबरिल्लाणि पुण केवलिस्स भवति, एत्थ णिदरिसणं, उवरिल्लाणि झाणाणि, तातियो गुणसिद्धिओ । खीणमोहा झियायति, केवली दोणि उत्तमे ॥ १॥ जदाज्यं परिणामविसेसेण चिइयज्झाणं बोलीणो तइयं पुण न ताब पावर हाणतरे व बट्टहति, एयंमि अंतरे केवलणाणं उप्पज्जति, एतेसि णिदरिसणं- 'वितियरस तापस्स या अंतरमि उ केवल । उप्पज्जइ अणंत तु, खीणमोहस्स तायिणो ॥१॥ इदाणि जोर्ग पहच्च भण्णइ, तत्थ पढमिलग एकमि वा | जोगे तिसु वा जोगेसु बट्टमाणस्स भवइ, बितियं पुण णियमा तिहं जोगाणं अण्णतरे भवइ, तइयं कायजोगिणो भवा, चउत्थं अजोगिणो भवइ, एत्थ निदरिसर्ण- 'जोगे जोगेसु वा पढम, वितिय जोगमि कम्हिवि । तिय च काइए जोगे, चउत्थं च अजोगिणी 81॥१॥ इदाणि लेस्साओ पहुच भण्णइ, पढमपियाई मुकलेसाए बट्टमाणस्स भवन्ति, तइयं परमसुकलेसाए बढमाणस्स भवति, हाचउत्थं अलेसस्स भवइ, भणिय च- 'पढमवितियाए मुक्के, ततियं परमुक्कयं। लेस्सातीतं तु उपरिवं, होइ शाणं वियाहियं ॥१॥ ४ ॥३ Pइदाणिं कालं पडच्च भण्णइ-पढ़मयिनियाई जइ कहंचि कालं करेइ तओ अणुत्तरेसु उबवज्जइ, उबरिल्लाणि दोणि सिद्धिसाहणाणि, दीप अनुक्रम [41] Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक शुक्ल ध्यानम् १अध्ययन गाथा ||१|| 56115 भणियं च-'अणुत्तरेहिं देवेहि, पढमबितिएहि जायइ । उपरिलहिं प्राणेहि, सिमई णीरओ सदा ॥१॥ चतुम्मेदं सुकं झार्ण श्रीदशबैकालिक सम्मत्तं । इदाणि लक्खणा-विषेगो विउस्मग्गो संबरो असंमोहो, एते लक्खणा मुक्कस्स | इदाणि आलंबणा-खती मुनी अज्जवं| चूणों महवं, एवं जहा हेहा समणधम्मे वणियं तहेब । इदाणि अणुप्पहाओ, त० अमुहाणुप्पेहा अबायाणुप्पेहा अणंतवत्तियाणुप्पहा विप्प|रिणामाणुप्पेहा,एवं सुफझाणं सम्मत्तं । इदाणि विउस्सग्गी, सो य विउस्सग्गोत्ति वा विवेगोत्ति वा अधिकिरणंति वा छह पति वा पोसिरणंति वा एगट्ठा, सो य दुविधा, तं०-दन्वे व भावे य, तत्थ दवे चउबिधो, तं०-गणविउस्सग्गो सरीरविउस्सग्गो। ॥३॥ उवाहीवउस्सग्गा आहाराविउस्सग्गो, भावविउस्सग्गो णाम कोहादीण चउण्डं उदयनिरोहो उदिण्णाण विफलीकरणं, एस वि | उस्सग्गो सम्मत्तो। सम्मत्तीय अन्भंतरओतओ । एयमि दुवालसविहे तवे आयरिज्जमाणे पुन्वउवचितं कम्म णिज्जरिज्जइ | असुइकम्मोवचयो य न भवइ, असुहकम्मस्स य अणासवेणं पुग्योवचितस्स निज्जरणाए परमसुडमाणाचाहस्स सिद्धिसुहस्स संपावगो भवइत्ति जाणिऊण तवे उज्जमो कायब्बो इति तवोसम्मत्तो। सीसो आह-धम्मो मंगलमुकिदुंगहणेण चेव सिद्धी अस्थि, किमत्थं अहिंसासंजमतवाणं गहणं ?, धम्मग्गहणेण चेव अहिंसासंजमतवा घेप्पति, कम्हार, जम्हा अहिंसा संजमे तो व दूधम्मो भवइ, तम्हा अहिंसासंजमतवग्गहणं पुनरुतं काऊण ण भणियव्यं, आचार्याह- अनैकान्तिकमेतत्, अहिंसासजमतवा हि धर्मस्य कारणानि, धर्मः कार्य, कारणाच्च कार्य स्याद्भिध, कथमिति', अत्रोच्यते, अन्यत्कार्य कारणात् अभिधानपत्तिप्रयोजनभेददर्शनात् घडपडवत, इतश्च अन्यत् कार्य कारणात्, वद्विशेषत्वात् मृद्घटवत्, अहवा अहिंसासंजमतवगहणे सीसस्स संदेहो भवाधम्मबहुत्वे कतरो एतेसिं गम्मपसुदेसादीण धम्माणं मंगलमुकिट्ठ भवइ !, अहिंसासजमतवग्गहणेण पुण नज्जइ जो अहिंसा-14 दीप अनुक्रम ASPEECHOCCAL ॥३७॥ [42] Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक गाथा ||१|| श्रीदश- संजमतवजुत्तो सो धम्मो मंगलमुकट्ठ भवद, एवं च ठाविए पक्खे सीसो आह- जो एस भणिओ धम्मो मंगलमुबई .दृष्टान्तः वकालकाता अहिसा संजमो तवोत्ति एस किं आणाए गेण्हेतब्बो, एस्थ उदाहरण वा किंचि, आयरिओ आह-उभयथापि, आणाए गि-लपचावयमाम चूर्णी हियव्यो उदाहरणमीय अस्थि चेब, एत्थ गाहा 'जिणवयणं सिद्धमेव' गाहा (४९-३३) जिणाणं वयणं २, जिणा चउबिहा १ अध्ययने | वण्णेतन्या जहा हेडा बणिया, एत्थ भावजिणेहि अहिगारो, तेसिं भावजिणाणं वयणं सबन्नुतणेण आकप्पं णिवपणिज्ज ॥३८॥ पुख्य सिद्धमेव भवति, भणितं च-"वीतरागो हि सवण्णू, मिच्छं णव पभासह । जम्हा तम्हा वई तस्स भूतत्था तच्चदरिसणी||शा" तहावि सीसस्स पच्चयणिमित्त उदाहरणं भणिज्जइ, जहा उदाहरणं तहा सोतारं पड़च्च हेऊवि भण्णाइ, ण केवलं उदाहरणहेऊण चेव एक मण्णति, किन्तु 'कस्थवि पंचावयवं' (५०-३३) गाहा, कत्थय सीसस्स पच्चयनिमित्तं मइवित्थारणनिमित्तं च पंचावयबोषवेतेण वयणेण वनखाणं भण्णाइ, कत्थइ पुण दसावयवावेतणति, सीसो आह-कि कारणं पुण सम्बकालमेव पंचावयबोक्वेतेण दसापययोषवेएण वा अयणेण वक्खाणं ण मण्णह १, आयरिओ आइ-इंदि सवियारमक्खाय' इंदिसो उप्पदरिसया-एयमि वा पगार अपणमि वा वक्खाणिज्जमाणे सोयारमासज्ज कत्थइ आगममेत्तमेव कहिज्जा कयाइ दिहतो कयाइ | हेऊ कयाइ आगमहेउदिह्रता तिण्णिवि, कदाइ आगमहेउदिहतोवसंथारणिगमणावसाणेण पंचावपण कहिज्जा, कदापि पुण दसावयवेण, तत्व पुचि ताव एतेसि पंचण्हं अवयवाणं लक्षण वणिज्जइ, तत्व साहणियस्स अस्थस्स जो निदेसो एसा पतिण्णा, ॥३८॥ जहा जिणपवयणे पंचस्थिकायो लोगो भण्णइ, एवमादी, कुवित्थियाणवि जो जस्स समए चेव पदण्णाए साहणत्थं दिज्जा, दाणि दिइंतो-यत्र लौकिकाना परीक्षकाणां च बुद्धिसाम्ब स दृष्टान्तः, तत्थ लोइयगहणेण गोवालादी तत्तवाहिरो जणो गहिओ, AGRORॐॐॐॐ दीप अनुक्रम [43] Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक रपंचावयवाः चूणी गाथा X श्रीदश-16 परिक्खगगहणेण जहिं सहसत्थाणि णायादीणि सत्याणि अधीतानि ते परिक्खगा, एतसि लोइयाण परिक्खगाणं च जमि अत्थे बैकालिक पुद्धिविसंवादो न भवइ सो दिकृतो, जहा लोइया उपहं अग्गि पडिबज्जंति, तहा परिक्खगावि, ण उ लोइया उण्हं परिक्खगा | सति, परिक्खगा या उई लोइया सीयंति, एवं जहा लोइयाण पगासणसमत्थी आइच्चा तहा परिक्खगाणपि, न उ लाइया पगासगं १ अध्ययने । | आइञ्च इच्छति परिक्खगा अप्पगासगं, लोइया या अप्पगासंति परिक्खगा वा पगासं, तम्हा जत्व लोइयपरिक्खगाणं पुद्धि | विसंवादो भयह सो दितोति गतो दिलुतो, तथा उबसंहारो नाम जत्थ जहासदो तहासबो व पउंजइ सो उपसंहारो, निगमणं ॥३९॥ नाम जत्थ पसाहिए अत्थे अज्झत्थहेऊणं पुणो कहणं कज्जह एवं निगमण, एतेहि पंचहि अवयवाई दुमपुफियअायणस्स अस्था उवार सुसफासियनिज्जुत्तीए भणिहिई, इई पुणाइ सिस्समातीविकोवणथं पंचावयवोववेयं वयणं भण्णइ, यथा अस्त्यात्मा इति प्रतिज्ञा, कार्यप्रत्यक्षत्वादिति हेतुः, परमाणुवदिति रष्टान्तः, यथा परमाणवोऽप्रत्यक्षा अपि अणुकादिकार्येण प्रत्यक्षेणानु-18 | मीयतेऽस्तीति तथाऽऽत्माऽप्रत्यक्षोऽपि प्राणादिकार्येण प्रत्यक्षेणानुमीयतेऽस्तीत्युपसंहार, तस्मात् प्राणादिमदाबादस्त्यारमा इति निगमन, पंचावयवाणं परूवणा गता, दाणिं दसावयवाणं परूवणं काहामि, तं०-पतिण्णा पढमो अवयवो पदण्णाविसुद्धी वितियो अवयवो एवं हेऊ तइओ अवयवो देउपिसुद्धी चउत्यो अवययो दिलुतो पंचमो अवयवो दिद्रुतविसुद्धी छट्ठो उपसंहारो सत्तमो उपसंहारविसुद्दी अदुमो णिगमणं णवमो णिगमणविसुद्धी दसमो, एए एयंमि चेव अज्झयणे उरि भण्णिाहिति, इदाणि | दिद्रुतस्स एगट्ठियाणि भण्णति-तं. 'नाय आहरणतिय गाहा (५२-३४) नायंति वा दिह्रतोत्ति का आहरणति या ओवम्मति वा निदरिसणंति वा एगट्ठा, नज्जति अणेण अत्था तेण नार्य, आहरिज्जति अणेण अत्था तेण आहरणं, दीसंति अणेण अत्या दीप अनुक्रम नानक [44] Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक दृष्टान्तभेदाः गाथा ||१|| श्रीदश- तेण दिढतो, उवामिज्जति अषण अस्था तेण ओवम्भ, निच्छिये दरिसिति अणेष अत्था तेण निदरिमणं, एगाड्ढया गता । कालिकादणि एतस्स दिदूतम्स दविध विधाण भष्ण, ..'चरियं च कप्पियं च (५३-३४) चरियं नाम जे सबै सदभतं | चूणों व तेण जस्स दिटुंतो कीरइ तं चरिच, कप्पियं नाम ज जस्स असंतेण भावेण दिद्रुतो काजद, एत्थ गाहा--'जह अम्हे १ अध्ययने तह तुम्हे तुम्भेवि य होहिहा जहा अम्हे । अपार पडते पंडअपत्तं किसलयाणं ॥ १ ॥ एवं कप्पियं, एतसिं चरित. टोकप्पियाण एकेक चउब्बिई भवद, तनाय (आहरणं] दिद्रुती ओवम्म निदरिमणति, इदाणि पुणरवि चरितकप्पिय दविहं चउम्बिई भवा, एत्थ गाहा-'चरियं च कपिपर्य च.' गाहा । ५३-३४) कह चउबिदं भवड़ी, नंजहा-आहाणी आहरणदेसे आहरणदोसे उवण्णासो वयणे एतेसिपि एकको भेदो दुविधी, तक- चरियं च करिपयं च, तत्थ आहरणदारं भण्णा, तं चउबिहे पणनं. है। तंजहा-अबाये उवाये ठवणाकम्मे पड़प्पणीचणामी, तन्ध अवायेवि चउबिहे पण्णने, नं दबाबाए खेतावाए काला वाए भावावाए, तत्थ दयावाए उदाहरण दोभायरो, नेहि सुर गंतृण सहस्सिओ नउल ओसवगाण बिदविओ, ते य सयं गार्म दापन्थिया, एयंता उलयं बारएण वहतिः जया एगस्स हत्थे तदा इतरो चितइ-मारेमिण, बरमते स्वमा ममं होत, एवं । बितिओ चिंतह-जहा अहमेयं मारेमि, ने परापर वधपरिणताण य अजमवसिताओ, जाहे (व) मग्गामम्स ममीपं संपत्ता, तत्व | तओ जदतरम्स पूणगवती जाया-धिरधु मर्म जण मए दब्यम्स कए भाउणो विणासो चितिओ. परुग्णो, इतरण पुच्छिी , कहिए | भणड-ममवि एतारिखं बिन होस्सु, ताह ते एतम्स दोसण अम्हाणं एतंति काई तेहि मा नउलओ दहे ढो, ते य घर गया, सा | य नउली तत्थ पडतो मकरण गिीली. मा य मान्छो मेण्ण मारिओ.वीही ग आयारिओ मिच माउगाण मगिणी दीप अनुक्रम W ॥४०॥ [45] Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक श्रीदश-14 चूर्णी गाथा ||१|| IRIमायाए बीपीए पट्टयिया जहा म आणहि जा भागाणं न सिझति,नाए य समावनीए सो व माछो आणिओ, चेडीए काले त्रिकाल कालिकातीए नउला दिट्ठो, चडीए चिन्तियं-एस नउलो मम चर भविस्यहनि उच्छंगे की, धावतो य थेरीए दिहो, माऊय ती कामावापाया। भणित-किमेतं तुमे उच्छंगे कर्य. सावि लोभं गया न साहइ, ताओ दोषि परोप्पर पहनाओ, मा थेरी ताए चेडीए तारिने १अध्ययन मम्मपदेमे आहना जेण तक्षणमेव जीवियाओ नवगविया, तहिं तु दारएहि सो कलहवइबनाओ, सो नउलओ दिट्ठो, थेरिगा प पाणविमुका निसर्दु धरणियले पडिया दिट्ठा, इमा सो अणत्यो अत्थोनिका गं तं दारिप गरम गोहस्स दाउं तस्स अवाण ॥४१॥ दावि भायरा पब्बया, तेहि दारएहि तन्निमिनं अबानो कओ, थरिवाए न कओ, एवमत्यजायम्म कारणगाईयस्म अवाता करणीओ, एतदेव विनाशकारणं भवड़ इह परलोए य, परिस दव्यओ आहरणं भवइ । इदाणिं ग्वत्तावायो, खेत्तावायो नाम जो जतो अवायंति काऊण गच्छइ जहा दसारा महुराओ जरासिंधुरायभयात् बारवई गया, एवं साहुणावि असिवादीहिं कारणेहिं खेनाबाओ कायचो, तो नित्थरहिति, जहा इसारा णित्थिण्णा । कालावायो नाम जो जम्म कालस्स अवार्य करेइ, जहा दीवायणपरिवायओ दारवईमा विणासहामित्ति तेण अवातेण पट्टितो उत्तरापहं गतो, एवं साहुणावि दुभिक्खम्म अवाती असिवाणं च कायब्बो, ण उ अपुण्ण आगंतव्यं मूढत्ताए। भावावाए उदाहरणं खमओ, एको खमओ चेल्लपण समं भिक्खायरियं गओ, तेण नन्थ मंहकलिया मारिया, चलणएण मणिय-मंडुकलिया ते मारिया, अरे दृट्ठसेह! चिरमइया चेव सा, ते गया, पच्छा रनि आवस्सए ॥४१॥ आलाएंताण खमएण सा मडकलिया णालोइया, तनो चेल्लएण भणिय- खमगा! सं मंडुक्कालियं आलोएहि, खमओ रुटुओ तस्स चेल्लणस्स खेल्लमयं घेत्तण उद्धाइओ, अंसिआलयसभे आवडिओ वेगणं एंतो, मओ जोतिसिएमु उचवण्णो, तओ चइता दिट्ठीविसाणं दीप अनुक्रम Clewikipe %-% [46] Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक श्रीदश- बैकालिक चूर्णी १अध्ययने ॥४२॥ गाथा ||१|| कले दिठ्ठीविसो सप्पो जाओ, तत्थ य परिहिंडंते, ण नगरे, तत्थ राहपुत्तो सप्पेण खइओ, आहिडितेण य विज्जाए सम्बे सप्पा क्षेत्रकालआवाहिया, मंडले य पवेसिया, भणियाऽणेण-सवे गच्छंतु, जेण पुण रायपुचो खइओ सो अच्छउ, सव्वे गया, एगो ठिओ, सोभावापाया भणिओ-अहवा विसं आपिव अहवा एत्थ अग्गिमि निवडाहि, सो य अगंधणो, सप्पाणं किल दो जातिओ-गंधणा अगंधणा य, ४ ते गंधणा माणिणो, ताहे सो अग्गिमि पडिओ, न य तेण तं वतयं पच्चावीतं, रायपुत्तोवि मओ, पच्छा रण्णा पदुद्रुण घोसावियं रज्जे-जो मम सप्पसीस आणेइ तस्साह दीणार देमि, पच्छा लोगो दीणारलोभेण सप्पे मारेउं आढतो, तं च कुलं जत्थ सो खमओ उप्पण्णो तं जाइसरति राति हिंडति, दिवसओ न हिंडति, मा जीवे दहिहामित्तिकाउं, अण्णया आहिटगेहि सप्पे मग्गंतहिं रचिचएण परिमलेण तस्स खमगसप्पस्स बिलं दिट्ठति, दारडिओ ओसहीए आवाहेइ, चिंतेइ-दिट्ठो मे कोहस्स विवागो, तो जइ अह अभिसहो निग्गच्छामि तो दहिहामि, ताहे पुंछेण आढत्तो णिफिडिउं, जत्तियं निष्फिडेह तावइयमेव आहितुंडितो छिदइ, जाव सीसं छिण्णं, सो य सप्पो देवयापरिगहिओ, देवताए रण्णो सुमिणए दरिसणं दिण्णं, जहा मा सप्पे मारेहि, पुत्तो ते भविस्सइचि, तस्स दारगस्स नागद नाम करेज्जाह, सो य खमगसप्पो मरित्ता तेण पाणपरिच्चागेण तस्स चेव रथी पुत्तो जाओ, जाए दारए णाम से कयं नागदत्तो, खुडलओ चेच सो पबइओ, सो य किर तेण तिरियाणुभावेण अतीव छुधालुओ दोसीणवेलाए चेव आढयेइ श्रीजउ जाव सूरत्वमणवेला, उबसंतो धम्मसठिओ य, तंमि य गच्छे चत्तारि खमगा, तं०-चाउमासिओ तिमासिओ दोमासिओ मासखवओ य, रतिं च देवता वंदिया आगया, चाउमासिओ पढमठिओ, परओ तिमासिओ, तस्सवि परओ दोमासिओ, ४२॥ तस्सवि परओ मासिओ, ताण परओ खुडलओ सब्वेसि, त सधे खमगा अतिकमित्ता ताए देवताए खुदओ वैदिओ, पच्छा ते 1-964967 दीप अनुक्रम 55 SCREEN * [47] Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक श्रीदश- वैकालिक चूर्णी १ अध्ययने गाथा ||१|| ॥४३॥ SEPEECHECRECa खममा रुद्वा, णिग्गच्छंती य गहिया चाउम्मासियखमएण पोचे, भणिया य तेण कडपूयणि! अम्हे तवच्चरणिणो ण चंदसि, क्षेत्रकालएवं कुरभोयणं वंदसित्ति, सा देवया भणह-अहयं भानखमयं वदामि, न पूयासकारपरे माणिणो वंदामि, पच्छा ते चेल्लगं तेणभावापाया | अमरिसं वहति, देवता चितइ-मा एते चेल्लगं खरंटेहिति, तो सण्णिहिता चेव अच्छामि, से ताहं पडिचोदेहामि, वितियदिवसे यह चेल्लओ संदिसावेऊण गओ तोसीणस्स, पडियागतो आलोएता चाउम्मासियखमयं निमतेइ, तेण पडिग्गहम्मि निच्छुढे, चेल्लो मणइ-मिच्छामि दुकर्ड ज तुज्झमए खेलमल्लओण पणामिओ, तंणेण उप्पराहुत्तो चेव फेडेत्ता खेलमल्लए छूई, एवं जाव मासिएणवि | |णिच्छुई, तं तेणं चेव फेडियं आउगलित्ता, लंबणं गेहामित्तिकाउं खमएण चेल्लो बा१मि गहिओ, तं तेण तस्स चेल्लगस्स अदी णमणसस्स (विसहमाणस्स) विसुद्धपरिणामस्स लेसाहिं विसुज्झमाणीहिं तदावरणिज्जाणं कम्माण खएण उवसमेणं च केवलणाणं | समुप्पण, ताहे सा देवता भणह- कहं तुमे बंदियन्बा ? जेणेव कोहाभिभूयां अच्छह, ताहे ते खवगा संवेगसमावण्णा मिच्छामि || दुकडंति अहो बालो उवसंतो अम्हेहिं पाचकम्मेहिं आसादिओ, एवं तेसिं सुहझवसाणाणं केवलणाणं समुप्पणं, एवं अवायो कातव्या काहादीहि ॥ तहा जीवाचताए सहादाणं अवाओ दरिसिज्जइ, संवेगनिमित्तं सम्मत्तधिरीकरणनिमितंच, जहा जस्स वाहणो जीवो दण्वो खेत्तो कालो भावओ य निच्चो तस्स गुहदुक्खेहि जीवो न संजुज्जइ, संसारमोक्खो वान भवद, कह', सो तेहिं कूडत्यो अचलो मओ, अचलो सुहृदुक्खाइएहिं कारणेहिं ण परिणमइ, जो सुही तेण सुहिणा चेव भबियव्य, तहा जस्स ॥४३॥ वाइणो जीवो एगतेण अणिच्चो खणे खणे उप्पज्जइ विणस्सइ य, तस्स य सव्वसो चेव खणे खणे उप्पण्णस्स विणट्ठस्स य अवथिती वेव नस्थि, अणवद्विपस्स सुहृदुक्खपयोगो न भवइ, जम्हा एते दोण्णिवि निच्चानिच्चपक्खा असवण्णुदिहा तम्हा इह जिण दीप अनुक्रम रा [48] Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [-] गाथा |||| दीप अनुक्रम [8] अध्ययनं [१] उद्देशक [-1, मूलं [-] / गाथा: (१), मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [ ४२ ], मूलसूत्र [०३] - श्रीदश वैकालिक “दशवैकालिक”- मूलसूत्र ३ (निर्युक्तिः + भाष्य | + चूर्णि:) चूर्णां १ अध्ययने ॥ ४४ ॥ भाष्यं [१-४] निर्युक्तिः [ ३८... ९४/३८-१५ “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: पवयणे जीवो दट्टयाए निच्चो पज्जहिं अणिच्चो, एत्थ दितो सोवण्णयंगुलेज्जगं, जहां सुषण्णमयस्त्र अंगुलेज्जगस्स कुंडलनेण उप्पण्णस्स उप्पाओ भवइ, अंगुलेज्जगत्तणेण विगमो, सुवण्णतणेण अबडि चैव जीवदन्यस्यवि मणस्तभावेण उप्पण्णस्स माणुसतेण उपाओ, देवादीण अण्णवरगेण विगमो भव, जीवत्तणे अवडिओ चैव तम्हा जिणपणे जीवो दब्बट्टयाए णिच्चो पज्जवेहिं अणियति, अवाओत्ति दारं गर्न। इदाणि उद्यापत्ति दारं सेो य दव्वादी चउब्विहो, तत्थ दब्बोवायो जहा धातुवाइया उदारण सुवणं करेंति एवं तारिसे संघकज्जे समुप्पण्णे उवायण जोणी पाहुडाइयं परिणीये आसयति, विज्जातिसहि वा एरिसे दरिसंह जेण उवसमेइ वेत्तावाओ जहा नावाए पुख्ववेतालीओ अवराधेयालि सम्मइ, एवं विज्जाइसएहि अद्धाणाइसु नित्थरियच्वं । कालडवाओ जहा नालियाए कालो नज्ज, एवं सुत्नत्थेहिं एत्तिएहिं परियट्टिएहि एतिओ कालो गओ भवइ, एवं जाणियन् । भावडवाए उदाहरणं, सेणिओ गया भज्जाए मण्णइ-जहा मम एगर्थमे पासादं करेहि, तेण बढइयो आणत्ता, गया कलिंगा तेहिं अडवीए महइमहालओ दुम दिडो, जेणेस परिगहिओ सो दरिसावेद जड़ अप्पाणं वा न छिंदामो, अह न देइदरिसावं तो छिंदामोति, तहा तेण रुक्खवासिणा वाणमंतरेण अभयस्स दरिसाओ दिष्णो, अहं रण्णो एगखंभं पासाद करेमि सम्बोउगंच आराम करेमि सव्यवणजातीचवेयं मा छिंदहति एवं तेण कओ पासाओ। अण्णदा एगाए मातंगीए अकाले वडाली. सा भत्तारं भइ मम बयाणि हि तदा य अकालो अबयाणे, ते ओणामणीए बिज्जाए डालं ओणामिय, अह वाणि गहियाणि, पुणो य उष्णाभिणीय उष्णाभिये, पभाए रण्णा दिई, न दीसर को एस मणूसी अइगओ, जस्स एरिसी सती सो ममं अंतरं अवि घरिसेहितिकार्ड अभयं सहावेऊण भणइ- सत्तरत्तस्स अभ्यंतरे जड़ चीरं पाणीस तो ते नत्थ [49] चतुर्विध उपायाः ॥ ४४ ॥ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक चूणीं 2 गाथा ॥४५॥ ||१|| -% श्रीदश- जीविय, तारे अभओ गवसेउमादत्तो, नवरं एगमि परसे गोझो रमितुकामो, मिलइ लोगो, तत्थ गंतुं अभओ भणइ-जावा आहरणे बैंकालिक गोझो मंडेड अप्पाणं ताव ममेग अक्खाणगं सुणेह, जहा कम्मि य नगरे एको दरिहट्ठी परिवसई, तस्स धृता बद्दकुमारी अती उपायद्वार रूवस्सिणी य, सा य बराय कामदेवं अच्चई, सा य एगगि आरामचारियर्ग पुष्पाणि अचइ, आरामिएण दिढे, कटिउमाढता,ताए। अध्ययने । यसो भणिओ-मा मई कुमारि विणासेहि, तुहवि भगिणीभगिणिज्जाउ अस्थि, तेण भणिया-एकदा ते मुयामि,जह नवरं जमि दिवसे। | परिणिज्जसि तं दिवसं चेव भत्तारेण अणुग्घाडिया समाणी मम सगास एहिसी तो मुयामि, तीए भणिओ-एवं भवउत्ति, तेण121 लाविसज्जिया, अण्णदा परिणीया, जाहे अपयरकं पेसिआ ताहे भत्तारस्स सम्भावो कहिओ, मुका, गम्छंतीय अंतरा रक्षसो दिट्ठो। जो छण्हं मासाणं आहारइ, तेण गदिया, कहिए मुका (एत्थंतरा चोरेहि पारद्धा जहावते कहिये मुका) गया आरामियस्स। सगासं, (तेणवि जहावते अक्खाए मुका) अणहसमग्गा गता, ताहे अभओं तं जणं पुल्छह-अक्खाह इत्थ केण दुकरं कर्य?, ताहे इस्सालुगा भणंति-भत्तारेण दुकर, छुयालुया भणंति-रक्खसणं, पारदारिया भणति-मालाकारेणं, हरिएसेण भणिय चोरेहि, पच्छा। गहिओ, जहा एसो चोरेत्ति, सेणियरस उवणीओ, पुच्छिएण सबभायो कहिओ, ताहे रष्णा भणियं-जइ नवरं एयाओ विज्जाओ देहि तो ण मारेमि, देमित्ति अब्भुवगए आसणि ठिओ पढइ, ण ठाई, राया भणइ-किन ठाइ?, ताहे मातंगो भणइ--जहा ॥ अविणएण पढसि, अहं भूमीए, तुर्म आसणे, पीययरे उबविट्ठो, ठियाओ, सिद्धाओ य विज्जाओ, जहा अभएण तस्स चोरस्स ॥४५॥ Hउवाएण भावो गाओ, एवं सेहाणं उबटुंताणं भावो गवेसियच्यो-किं एते पब्यावणिज्जा नवति', 'अहारस पुरिसेसु बीस इत्थीसु दस नपुंसेसु' तओ उवरि पंचक भणिहिति, तहा जीवचिंताएवि सेहादीण ता उनाशो दरिसिज्जइ-जीवो हि पच्चक्खओ Ch दीप अनुक्रम 7-% SCR-5- [50] Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक ची कम गाथा ||१|| आदश- का अणुवलम्भमाणी मुहदुक्खइच्छाओ सपुरिसकारादीहि कारणेहि साहिज्जद, गस्थिति पञ्चक्वं दीसए, लोए विज्जमाणो देवदचो| आहरण वैकालिका दबओ अस्सपट्ठातो हत्थिर्खधं दुरुहइ खितओ गामाओ नगरं गच्छइ कालओ सरदकालाओ हेमंतकालं संकमइ भावे कोहाओ दस्थापना|माण संकमइ, एवं मायाई, जीवोऽवि माणुस्ससरीरं विप्पजहाय देवसरीर उवचिणाइ, एस दब्बओ, खित्तओवि मणुस्सभवे तस्स १अध्ययने अण्णाओ ओगाहणाओ अण्णाओ देवभवे, कालओवि स एव मणुस्समवे परिमितवरिसायू भविता देवभवे पलिओवमट्ठिइओ ॥४६॥ नाजायद, भावओपि अद्भुज्झाणी भवित्ता धम्मज्झाणी भवह, एवमादीहिं किंचि पच्चक्सओ अणुवलम्भमाणोऽवि जीवो लक्षणयो । गेण्हियग्यो, यो उपयोगलक्खणेति भण्णइ, एत्थ दिट्ठतो घडो, जहा अजीवदव्वस्स प.स्स वट्टमाणअतीतानागताए काले उपओगो नस्थि, ण य सो जीया इच्छिज्जइ, कम्हा, उपयोगलक्षणाभायो, जीवस्स य उवयोगो लक्खणं फुडं दसिइ, तम्हा जो उपयोगलक्षणो अस्थो सो जीवोत्ति, भणियं च-"उवयोगजोगइच्छाविलक्खणाणवलचेट्ठियगुणहि । अणुमाणा णायव्यो । अग्गियो इंदियगुणेहिं ॥१जो चिट्ठइ कायगतो जो मुहदुक्खस्स वेदणा णिच्च । विसयसुहजाणओविय सो अप्पा होइ णायब्बो ॥ २॥" एत्थ सीसो आह-जइ उपयोगो जीवलक्षणं तेण एगिदियाणं अजीय भाइ, कह , जम्हा तेर्सि उपयोगस्स । | अभावो, एत्थ दिढतो घडओ, जहा तीयाणागएमु कालेसु न कदावि (तस्स) उपयोगो विज्जद तहा एगेंदियाण जीवाण उपयोगा। वन विज्जइ, तम्हा उपयोगस्स अभावे एगदियाण ते अजीवया आवण्या, आयरिओ आह-अहो! ताव समयबाहिराणि वयणाणि मन्त्रयसि, जणु सच्यण्णुपणीए मग्गे परूवियं, जहा ' सन्यजीवाणपि यण अक्खरस्स अणंतभागो णिग्याडिओ' अथक्खरंट! ॥४ ॥४६॥ Lणाम यण्णंति वा उपयोगोत्ति वा अक्खरत्ति वा एगट्ठा । तत्थ सुयणाणं आभिणिवाहियणाणं च पहुच भण्णति-सबसुद्धोत्र दीप अनुक्रम BesoRCESCHECCANCECASI [51] Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) ཎྜཡྻཱ ཉྙཱཟླ अनुक्रम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( निर्युक्तिः + भाष्य | +चूर्णि:) निर्युक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा: [ १ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [ ४२ ], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्ण: श्रीदशवैकालिक चूण १ अध्ययने ॥ ४१ ॥ उपयोगो अणुत्तरोववाहयाणं, तओ उयरिमगेवेज्जाणं असंखेज्जगुण परिहाणी, एवं अखेज्जगुणपरिहाणीए सेढीए जाय पुढचिकाइया ताब भाणियन्बो, तुम्हा सगिंदियाण उपयोगस्य अनंतभागी निच्चुम्बाडिओ, तओ सो चैव अनंतभागो तेसिं महणाणं सुयणाणं भण्ण, तम्हा जं भणसि जहा तेसिं उपयोगो चैव नत्थि, उपयोगअभावेण य तेसिं अजीवत्तं भवतित्ति तं मिच्छा, उवाउत्तिदारं गतं । इदाणिं ठवणाकम्मित्ति दारं भणति तं च कंचि अत्थं तारिसं परूवैऊणं अचरुइयस्स अत्थस्स परूवणं करेह एवं जहा पुंडरीयज्झयणे पुंडरीयं पुरुषेऊण अष्णाणि मयाणि दूसियाणि, निश्वयणं च सब्बनपविद्धं पवयणमुवदि, एवमादि ठवणाकम्मं भण्ण, अहवा ठेवणाकम्मे उदाहरणं जहा एगंमि नगरे एगो मालागारी सण्णाइओ पुष्फे घेतून वीहीए एह, सो अती बच्चओ, ताहे सो सिग्धं बोसिरिऊन सा पुप्फचितिया तस्सेव उवरि पलत्थिया, ताहे लोगो पुच्छर किमेयं जेणेत्थं पुण्फाणि छसि ताहे सो भगइ अहं ओलोडिओ, एत्थं हिंगुसिवो णाम, एयं तं वाणमंतरं, हिंगुसिवं नाम वाणमंतरं एवं जह किंचि उडाई पावणियं कर्म होज्जा केणह पमायेणं ताहे तहा पच्छादेतच्यं जहां पज्जन्ते पवयणुभावणा भवति, एवं जड़ किंचिदेव जीवचिताएव परप्यवायी निग्गहडाणं भणेज्जा तारिसं किंचि भासमाणस्स फलं होज्जा, तत्थ साहुणा तं तस्स वयं मासिज्जमाणमेवहा कायव्वं णयदिडीए जेण परप्पवादी निप्पदुपसिणवागरणो भवति, दवणाकम्मेति दारं गतं । इदाणिं पट्टप्पण्णविणासी णाम, जहा एगो वाणियओ तस्स बहुगाओ भगिणीओ भागिणेज्जा भाउज्जायाओ य, तस्स घरसमीवे राउलगा गंधविया संगीतं करेंति दिवसस्स तिष्णि वारे ततो वाणियगमहिलाओ तेण गीतसद्देण तेसु गंधविएस अज्झोववण्णाओ किंचि कम्पादाणं न करेंति, पच्छा तेण वाणियएण विचिंतितं जहा विणट्ठा एयाउनि, को उवाओ होज्ज जह ण विणस्संतित्तिकाउं [52] आहरणे प्रत्युत्पन्नविनाशी ॥ ४७ ॥ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक गाथा ||१|| श्रीदश- मित्तस्स कहियं, तेण भणियं- अचणो घरसमीवे वाणमंतर कारावेहि, तेण कयं, ताहे पाडहियाण रूवगा दाउं वाबारेइ. जाहे गंधविया आहरणबैकालिक संगीय आढवेति ताहे ते पाडहिया पडहे देंति, एवं सो दिणे दिणे फुसेंति गायति य, ताहे तेसिं गंधब्बियाणं विग्यो जाओ, पडह- शनाष्ट्र चूर्णी सद्देण न सुव्यइ गंधथ्यो सहो, तओ ते राउले उवट्ठिया, वाणियओ सद्दाविओ, किं विग्धं करेसित्ति, भणइ-मम घरे देवो तस्साह १अध्ययने न तिमिले पडहे दवावेमि, ताहे ते ३ण्णा मणिया-जहा अन्नत्थ गायह, किं देवस्स दिणे दिणे अंतराइयं कज्ज!,एवं आयरिएणावि ।॥१८॥ सीसेसु आगारीसु अज्झोववज्जमाणेसु तारिसो उबाओ कायव्वो जहा तेसि तस्स दोसस्स निवारणा भवद, एवं जीवचिंताएविद्र | नाहियवाइयाणं अदूरसामंते ठिच्चा जीवस्स अस्थिभावो पष्णविज्जमाणो जइ केइ रत्तपडा भणेज्जा-सब्बे भाषा चेव नस्थि, किं पुण जीवोऽवि, तत्थ भणति-जं एतं ते वयणं जहा सबभावा नस्थि एवं वयणं नत्थिी, एसपि भायो, जति भणइ-अस्थि तो जै भणद सध्वभावा नस्थिति न जुज्जर, अह एतं नस्थि तो अम्ह सिद्धो चेत्र पक्खो, केणऽम्ह पक्खो दृसिउत्ति, एवं सो एवमाईहिंदी | हेऊहिं तहा कायब्बो जेण पहाय पहं न एइ,पडप्पण्णविणासित्तिदारं गयं। समत्तं च आहरणत्ति दारं । इवाणिं आहरणे तद्दे-13॥ सत्ति दारं, से चउबिहे,तं०-अणुसिहि उवालंभे पुग्छा णिस्सावयणे, अणुसट्ठीए सुभदा उदाहरणं, चंपाए णगरीए जिणदत्तस्स साव-|| I गस्स सुभद्दा नाम धूया, सा अतीय रूपवती, सा य केणइ उवासएण दिट्ठा, सो ताए अज्झोववष्णो तं मग्गइ, साचओ भणइ-णाई मिच्छादिविस्त धूयं देमि, पच्छा सो साहूणं सगासंगओ, धम्मो यऽणेण पुच्छिओ, कहिओ साहहिं, ताहे कवडसावयधम्म पगहिओ ॥४८॥ लातत्थ से सम्भावण चव उवगतो धम्मो, ताहे तण साहणं सम्भावो कहिओ, जह मए दारियाकए णं (कर्य), णाये जहा कवडण कज्जिहिइ,अण्णाणि मे देह अणुब्बयाणि लोए पगासो सावओ जाओ,तओ काले गए वरगा मालया पट्टवेन्ति, ताहे तेण जिणदत्तेण CCCCCASIC दीप अनुक्रम [53] Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक गाथा ||१|| श्रीदश- सापओत्तिकाऊण सुभदा दिण्णा, पाणिग्गहणं वर्ग, अण्णदा सो भगइ-दारियं घर नेमि, ताहे सो सापओ तं भगइ-तं सम्बं अनुशावैकालिक उवासगकुलं, एसा तं नाणुयत्तिहिद, पच्छा छोभयं वा लभेज्जत्ति, णिबंधे विसज्जिया, णेऊण जुययं घरं कय, सासुयणणंदाओसने सुभद्रा चूर्णी पढाओ भिक्खूण भक्ति न करेइत्ति, अण्णदा ताहिं सुभद्दाए भचारस्स अक्खायं, एसा सेतपडेहिं समं संसत्ता, सावओ न सह१अध्ययने हर, अण्णदा खमगस्स भिक्खागतस्स अच्छिसि कणुओ पबिट्ठी, मुभहाए जिब्भाए सो कणुओ एडिओ, सुभदाए य चीण॥४२॥ पिटेण तिलगो कओ, सो य तस्स खमगस्स निडाले लग्गो, उवासियाहिं सावगस्स दरिसिओ, सावएण पत्तियं, ण तहा अणुवतह, सुभदा चितेइ-कि अच्छेरयं जे अहं गिहत्थि छोभयं लभामि ?, जे पवयणस्स उड्डाहो एवं मि दुक्खइत्ति. सारति काउस्सग्गेण ठिया, देवो आगओ, संदिसाहि किं करेमि ?, सा भणइ एतं मे अजसं पमज्जाहित्ति, देवो भणइ-' एवं भवउ' अहमेतस्स निगरस्स चत्तारिवि दाराई ठएहामित्ति, जा जा पतिब्बया होहिति सा एयाणि दाराणि उग्घाडेहिति, तत्थ तुर्म चेत्र एका | उग्याडिहिसि ताणि कवाडाणि, सयणस्स पच्चयनिमित्तं चालणीए उदगं छोटूण दरिसिज्जासि, ततो य चालणीओ फुसितमवि ण गलहिति, एवं आसासेऊण निग्गओ देवो, णगरदाराणि अणेण ठड्याणि, णगरजणो य अद्दण्णो, इओ य आगासे बाया-भो णागरजणा! मा णिरत्थयं किलिस्सह, जा सीलवती चालणीए से छूटं उदगं न गलइ सा तेण उदगेण दारं अच्छोडइ ततो दारं ५ ॥४२॥ उग्घडिज्जिस्सति, तत्थ बहुयाओ सेट्ठिसत्थवाहादीण ध्यासुण्डाओण सकेंति पिलियं पलभिऊं, ताहे सुभद्दा सयणं आपुच्छइ, IA अविसज्जेताण य चालणीए जया उदर्ग छोणं तेसिं पाटिहेरं दरिसेइ तओ विसज्जिया, उवासिगाओ एवं बोत्तुमाढत्ता-10 जहा एसा समणपडिलोहिया उग्घाडेहिति, ताहे चालणीए उदगं छदं, न गिलइ, पिच्छित्ता विसण्णा, ततो जणणं सकारिजंती -A.GI दीप अनुक्रम [54] Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक उपाडंमे गाथा ||१|| श्रीदश- दारसमीयं मता, ' णमो अरहताणं' भणिऊण उदएण अच्छोडिआ कवाडा, महया सद्देणं कोंकार करमाणा तिष्णिवि गोपुर-1 वैकालिकदारा उग्घाडिया, उत्तरदारं चालणीपाणिएण अच्छोडेऊण भणइ-'जा मए सरिसी सीलवह होहिइ सा एतं दारं उग्घाडिहिई। मृगावती -चूर्णी । तं अज्जवि ढकिय चेव अच्छड, पच्छा जागरजणेण साहुकारो को-अहो महासई, एवं पियदढधम्मा बेयावच्चाइसु अणुसासियच्या, १अध्ययन उज्जमंता अणुज्जमता य संठवेतन्या, जहा सीलवइताण इहलोगे एरिसं फलमिति । वहा जीवचिंताए जेसिं पावादियाणं जीवो। ॥५०॥ अस्थि अम्हवि जिणप्पणीए मग्गे जीवो अस्थि, इदाणि पुण जं भणह सो अकत्ता एवं न जुज्जइ, कम्हा, जेण सुइदुक्खादीणि अणुभवतो दीसइ, जब तेणं ते कम्मं न कयं केण तं की जे सो सुहृदुखं वेदेहित्ति, एवमादीहिं देऊहिं अणुसासियच्चो, अणुसासणा गता। इदाणिं उबालंभोत्ति दारं, तत्थ उदाहरणं-मिगावती, देवीए बत्तव्यया जहा आवस्सए दव्यपरंपरए मणिया तहेब पव्वइया, अज्जचन्दणाए सिस्सिणी दिष्णा, अण्णदा य स भगवं विहरमाणो कोसंबीए समोसरिओ, चंदाइचा सविमाणे हिं आगया, चउपोरसीयं समोसरणं काउं अस्थमणकाले पडिगता, तओ मिगायती संभंता अतिीवकालीकयत्तिभणिऊण साहुणीहि सहिया जाव अजचंदणाए उवालम्भति, जहा एवं उत्तमकुलपसूया होइऊण एवं करेसि, अहो न लट्ठयं, ताहे पणमिऊण पाएहिं पडिया, परमेण विणएण खामेइ, खमह मे अज्जाओ!, णाई पुण एवं करेहामित्ति, अलचंदणा य तमि किर समए संथारोवगवा | पसुचा, इतरीए परमसंबेगगताए केवलणाणं समुप्पण्णं, परमं च अंधकार बढइ, सप्पो य तेणतएण आगच्छइ, पवत्तीणीए य इत्थो लंबमाणो उप्पाडिओ, पडिबुद्धाय अज्जचंदणा, किमयं?, सा भणइ-दीहजातिओ, कहं तुम जाणसि, अतिसएण, पडिवाई अप्पडि-II वाइत्ति ?, अप्पडिवाइत्ति भणिए सावि समंता खामेइ, एवं पमादयंतो सीसो उबालभितघ्यो । तहा जीवचिंताएवि णाहिय-1 AGEACHECREC % दीप अनुक्रम ISH||५०॥ ERE 155] Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक गाथा ||१|| श्रीमावादी उबालमितब्बो. एवं कृसत्थं देवाणुप्पिएण जीवस्स अस्थिभावपडिसेहगं उच्चारियं तं जीवस्सेव पभाषण, कम्हा?, जम्हा पृच्छायां वैकालिक अचेयणा घडादया मावा जीवभावपडिसेहगाणि सत्थाणि न तरंति उच्चारेउ, तम्हा जीवस्सव तं सामत्थं, जं तुम एयं कुसत्या कोणिका चूर्णी जीवभावपडिसेहगं उच्चारेसिन्चि, भणियं च-"जस्सेव पभावुम्मिल्लियाई त चव हयकयग्घाई । कुमुदाई अप्पसंभावियाई चंद उवह१अध्ययनेति ॥१॥ उबालंभत्ति दारं गतं । इदाणिं पुच्छा, जहा कोणिएण रणा सामी पुच्छिओ-चमवाट्टियो अपरिचत्तभोगा काल मासे कालं किच्चा कहिं उपवज्जति?, सामिणा भणिय-अहे सत्चमाते उववज्जति, ताहे भणइ-अई सत्तमीए न कि उववज्जिस्सामि..18 ट्रासामिणा भणियं-तुमं छहपुढवीए, सो भणइ-अंह सत्तमीए किं ण उववाज्जस्सामिा, साभिषा भणिय-सत्तमीए यककट्टी उववज्जतिट सो मण-अहं किंण होमि पक्कबड्डी? ममवि चउरासीई रहाईण सयसहस्साणि, सामिणा भणियं-तव रयणाणि नत्थि, ताहे सो कित्ति-1 माई रयणाई करेत्ता ओयवेउमारदो, तिमिसगुहाए पविसिउं पवतो, कयमालिएण वारिओ, भणिजओ य-बोलीणा चक्कवाद्विणो वारसवि, णस्सिहिसि तुम, चारिजंतो न ठाइ य, पच्छा कयमालिएण आहओ, मओ य छढेि पुढचं गओ, एवं बहुस्सुता पक्षागमा आयरिया अहाणि हेऊणि पुच्छियच्या, पुच्छिता य सक्कणिज्जाणि समारियव्याणि, असक्कणिज्जाणि परिहरियवाणि, भिणियं च-"पुच्छह पुच्छावह य पंडिए साहवो चरणजुत्ते । मा मयलेवविलित्ता पारचहियं ण याणिहिह ॥१॥" तहा जीवचिंताएवि णाहियवादिया भण्णंति-फेण हेतुणा देवाणुप्पिया! एवं भणइ.जहा णत्थि जीवादिया भावा, सोय ण भणेज्ज-अपञ्चक्खपणेणं, जइ पच्चक्खमेव करयल इच आमलगं दीसेज्जा तो नवीर अहं सद्दहेज्जा, एवं भणतो सो वादी पडिभण्णइ-जदि जे तुम्हारिसेहि चखुदंसीहि गोवलब्भइ तं गस्थि एवं हिमवंतस्स पन्चयस्स पलपरिमाणेण गणिज्जमाणस पलग्गपरिमाणं पचते न लब्बाइ, दीप अनुक्रम JABERNET ॥५१॥ [56] Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक गौतमः चूपों। गाथा ॥५२॥ ||१|| श्रीदश-18/ किं तस्स पलग्गपरिमाणस्स अभावो भवउ ? , तम्हा जे भणसि-जं इहं पच्चक्खं नोबलब्भइ तं नस्थिति त मिच्छा, पुच्छत्ति निश्रावचने वैकालिक दारं गतं । इदाणि निस्सावयणे गागलियादोजह पब्वइया ताबसा य एवं जहा बइरस्सामिउप्पत्तीए आवस्सए तहा वष्णेचा गोतमसामिस्स य अद्धिती, तत्थ भगवता भणित-चिरससिट्ठी सि य गोतमा, अण्णे य तष्णिस्साए अणुसासिया दुमपत्तए आइरणतू१अध्ययने अज्झयणे, एवं जे असहणा ते अण्णमद्दवसंपण्णणिस्साए अणुसासियब्बा । तहा जीवचिंताएवि जस्स एस पक्खो जहा नरिथ दाहोये अधर्म ६ सबभावा ते अण्याबदसेणं पण्णविज्जंति, इयरहा रागदोसयत्तिकाऊणं पसेज्जा, तेण इमाए परिवाडीए पण्णविजंति, जस्स | युक्ते ४ नलदामः वादिणो सब्वभावा मुण्णा तस्स दमादीण गुणाणं णस्थि फलं, एवमाइहि कारणेहि अण्णं चेव निस्साए पण्णविज्जइ, आहरणदेसोत्ति दारं गतं । इदाणिं, आहरणतद्दोसेत्ति दारं, से य चउबिहे पनत्ते, तंजहा-अहम्मजुत्ते पडिलोमो अत्तोवण्णासे ५ दुरुवणीए। तत्थ अहम्मजुत्ते उदाहरणं-चाणकेण नंदे उत्थाविते चंदउत्त य रायण पट्ठविए एवं सब्वं चण्णत्वा जहा सिक्खाए, तत्थ नंदसतेहि मणुस्सेहि सह सो चोरग्गाहो मिलिआ नगरं मुसइ, चाणकवि अण्णं चोरग्या ठविउकामो तिदंड महिऊण परिवायगवेसेण जगरं पबिट्ठो, गओ नलदामकोलियसगासं, उवविही करणसालाए अच्छइ, तस्स य दारओ मक्कोडएग खइओ, तेण कोलिएण बिल खणिचा दई, ताहे चाणक्रकेण तं भण्णइ-एते कि डहास? , कालिओ भणइजइ एते समूलजाता न उच्छातिजति 31 तो पुणोवि खाइस्संति, ताहे चाणकण चिीतय-एस मए लदो चोरग्गाहो, एस (चोरे) नंदत्तणे य समुदरिस्सइ, चोरग्याहो कओ, तेण खंडिया विस्संभिया, अम्हे समिीलया मुसामोत्ति, तेण अण्णेवि अक्वाया जे जत्थ मुलगा, बहुगा सुहतरायं मुसीहामोत्ति, ॥५२॥ ताहे ते तेण चोरग्गाहेण मेलिऊण सम्वेवि मारिया, एवमधम्मजुत्तं न भणितवं न कातव्यंति, तहा जीवचिन्ताएवि कयाइ तारिसं 82-% दीप अनुक्रम %9545k% [37] Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक गाथा ||१|| श्रीदश- पावयणियं कर्ज णाऊण तहारूवं सावज्जंपि कज्जेज्जा जहा उलुगेण सो परियाइओ मोरीनउलीवाराहिएबमाइआहि बिज्जाहि प्रतिलोमाबैंकालिकसा बिलकूखीकओ, एवमादि, अधम्मजुत्तेत्ति दारं गतं । इदाणि पडिलोमेत्ति दारं, तत्थ अभयपज्जोया उदाहरणं, एक्कण मापन्यास चों हिओ अबरण पडिहिओ, एयं अक्खाणयं जहा जोगसंगहेसु सिक्खाए तहा चेव भाणियचं, एवं विज्जाएवि, जइ कोऽपि परप्पवादी दुरुपनीताः भणेज्जा-मम दो रासी, तस्थ भणितब्ब-ण याणसि, तिणि रासी, ततियं रासिं ठावित्ता पच्छा बत्तव्य-दो चेव रासिणो, मया एयस्स है बुद्धि परिभ्य भाणियं जहा तिणि रासी एवमादी, पहिलोमेत्ति दारं । इदाणि अत्तुवन्नासे, जहा एगस्स रण्णो तलायं सम्वर॥ ५३ ।। " ज्जस्स आहारभूयते च तलायं वरिसे२ भरियं भिज्जइ, ताहे राया भणइ-को सो उवाओहोज्जा? जेणऽयं न भिज्जेज्जा, तत्थ एगो कबिलिओ मणूसो भणइ-जइ नवरं महाराय ! एत्थ पिंगलो कविलियातो से दाढिया से सिस्स कविलयं, से जीवंतओ चेच मोजीम ठाणे भिज्जर तमि ठाण निक्खिप्पइ तो नवरं न भिज्जद, पच्छा कुमारामच्चेण भणिय-महाराय ! एसो चेव एरिसो जारिसं| भणइ, एरिसो नत्थि अण्णो, पच्छा सो तत्थव निक्खाओ मारिता, एवं एरिस न भणितव्यं जं अप्पवधाए भवइ । तहा जीव-द चिंतापविण तारिसं साहुणा भणियध्वं जेण दुस्साहिओ वेयालो इव अप्पणो चेव बहाए भवा, एत्थ निदरिसणं जहा कोऽपि भणज्जा-एगिदिया सजीवा, कम्हा ?, जेण तेसिं फुडो उस्सासनिस्सासो दीसइ, दिद्वैतो घडो, जहा घटस्स निज्जीवत्तणेण8 उस्सासनिस्सासो नस्थि, ताण उस्सासनिस्सासो फुडो दीसइ, तम्हा एते सज्जीचा, एवमादीहिं विरुद्ध न भासितव्वं, अनुवण्णासी नाम दारं गये । इदाणि दुरुवणीतत्ति दारं, तस्थ उदाहरण-तच्चणिओ मन्छे मारतो रणा दिडा, ताहेरण्या ॥१९॥ मणिओ-कि मच्छे मारेसि, तच्चण्णिओ भणइ अबीलकं न सकेम पातुं, अरे तुम मज पियसि?, भणइ-महिलाए अस्थिओ न लहामि दीप अनुक्रम [58] Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक गाथा ||१|| श्रीदश-18 (ठाउँ), महिलावि ते?, मणइ-जाय पुत्तभंडं कई छड्रेमिः, पुत्तावि ते?, भणइ-किं खु खत्चाई खणाति', खत्तखाणओबि से, अण्णं कि उपन्यासोवैकालिकल खोडिपुत्ताण कम्म, खोडिपुताबि से, किहई कुलपुत्तओ बुद्धसासणे पश्चयही, एरिसं न भणियध्वं जेण अप्पाणतो मंडाविज्जइ पनयने चूणां पवयर्ण च उन्भामिज्जइ। तहा जीवचिवाए बादिणा तहा भणितवं वादे जेण न जिव्बइ परवाइणा, दुरुवणीतंति दारं गयं, तद्वस्तु१अध्ययने आहारणतहोसेत्ति दारं सम्मत्तं । इदाणि उवण्णासोबणयणेत्ति दारं, से य चउम्बिहे पण्णचे,तब्वत्यु अनवत्थु पडिणिमेट्र तदन्यहेऊ, वत्थ तव्वत्थुए उदाहरण-एगमि देवकुले कप्पडिया मिलिया, भणति-केण भे भमंतेहिं अच्छरियं किंचि दिट्ठ १, तत्थ एको | वस्तु च का कप्पडिओ भणइ-मए दिईति, जइ पुण एत्थ समणोवासओ नस्थि तो साहामि, तओ सेसएहिं भाणयं-नत्थि समणोबासओ, पच्छा IXसो भणइ-मए हिंडतेण पुष्ववेतालीए समुदस्स तडे रुक्खो महइमहंतो दिट्ठो, तस्सेगा साहा समुद्दे पइडिया, एगा थले, तत्थ जाणि पत्ताणि जले पडंति ताणि जलचराणि भवंति, जाणि घले ताणि चलचराणि भवंति, ते कप्पडिया भणति-अहो अच्छेरयं देवेण | भट्टारएण निम्मितंति, तत्थेगो सावओ कप्पडिओ सो भणइ-जाणि मज्झे पडंति ताणि कि भवंति !, ताहे सो खुद्धो भणइ-मया पुच्च चेव भणिय-जह साबगो नस्थि तो कहेमि, एवं कुस्सुईसु आपविज्जंतीमु तचो चेव ताओ चेव वत्धुओ किंचि बत्तवं जेणं | तुहिका मबंति । तहा जीवचिताएीव जाहे नाम कोवि वइसेसिगायो मज्जा-जहा एगतेणेव निच्चो जीवो, कम्दा !, जम्दा अरूबी जीबो, एत्थ दिहतो आगास, जहा आगास अरूपी तं च निच्च दीसइ तहा जीवोबि अरूवि सोवि निच्चो भविस्सइ, तम्हा निच्चो जीवोत्ति, एत्थं सो भण्णइ-जं अरूवि ते निच्चं भवदतं कह उकोचणआउंटणपसारणगमणादीणि कम्माणि, वाणिविते ॥५४॥ अरूचीणि अह अपुग्बाणि, तम्हा अणेगीतगो एम हेउत्तिकाऊण विरज्जइ, तब्वत्थुएत्ति दारं गतं । इदाणिं तदपणवत्थुएत्ति Chike दीप अनुक्रम - - - [59] Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक A गाथा ||१|| * दारं, जहा कोइ आरोडणनिमित्तं मणिज्जा-जस्स बादिणो अपणो जीवो अण्ण सरीरं तस्स एगो भवइ-कहं जो य सो अण्णसद्दो एस . प्रतिनिभः वैकालिक तल्लो जीवेहि बद्दइ सरीरेवि, तुल्लतणेण अण्णसहस्स जीवसरीराणं एगत्तं भवइ, एवं चोदिता पक्खे तज्जीवतस्सरीरवाइणा इमो|| चौँ भाणियब्यो, जइ अण्णसद्दतुल्लत्तणण जोवसरीराणं एग (तो सब्वभावाणं एगत्तं) भविस्सइ, कह', जहा अण्णे परमाणू अण्णे १अध्ययने * दुपएसिए खंधे अण्णे देवदत्ते भवइ एवं अण्णसदो सबभावेसु भवइ, ता कि अण्णसद्दो सवभावसु वइत्तिकाउं सब्वभावा चेव | एमीभवंतु, तम्हा सिद्ध अण्णो जीवो अण्णं सरीरति, तदण्णबत्थुपत्ति दारं गयं । इदाणि पडिनिभेत्ति दारं, तत्थ ॥५५॥ उदाहरणं--एगम्मि नगरे एगो परिवायओ सोवणेण खोरएण गहिएणं हिंडति, सो भणइ-जो ममं असुर्य सुणावेइ तस्स एवं देमि खोरयं, तत्थ एगो सावगो, तेण भणियं-'तुज्झ पिया मज्झं पिये, धारेइ अणूणयं सयसहस्सं । जइ सुतपुर्व दिज्जउ, अहन सुर्य खोरयं देहि ॥ १॥ एवं एरिसे कज्जे उप्पण्णे एरिसगं (वत्तव्यं, जीवचिंताएवि एसो मणइ-) अस्थि जीवो, सो बत्तव्योजइ जं अस्थि तं जीयो भवइ, एवं घडाइणोवि भावा अस्थि, ते जीवा भविस्संति, एवमादी पडिणिभं भण्णइ । इदाणिं हेऊ, सो चउव्यिहो पण्णत्तो, सं०-जावतो थावओ यंसओ लूसओ, तत्थ यावकस्य का रूपसिद्धि, यु मिश्रणे धातुः, अस्य भूवादयो धातब (पा. १-३-१) इति धातुसंज्ञायां प्रत्ययाधिकारे 'वुल्तृचा' (पा. ३-१-१३३) विति बुल् प्रत्ययः, अनुबंधलोपे 'पुचोरना-15 का' (पा. ७-१-१) बिति अकादेशः, मिदेर्गुण (पा. ७-३-८२) इति वर्चमाने 'अचामङ्किती' (पा, ७-२-११६ अचो णिति) ति * ॥५५॥ मा वृद्धिः, आवादेशस्य परगमनं यावकः, तत्थ जावए एगो गोहो जवे किणइ, ताहे अण्णेण पुच्छिज्जइ-कि मुल्लेणं किणसि', भणइ-13 महियाए न लहामि । तहा जीचचिंताएवि जब कोई भणेज्जा-कई जीयो न दीसइ ?, जम्हा अणिदियगिशो तेण ण दीसइति । दीप अनुक्रम [60] Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक चणी गाथा ||१|| श्रीदश- दाणिं इत्थं चेव जावए चितियं उदाहरण-एगो वाणियगो भज्ज गहिऊण पच्चंतं गओ, 'पारण खीणदबा धणियपरद्धा कया-मायावकाद्यावैकालिकालावराहा य । पच्चंत सेवते पुरिसा दुरहीयविज्जा य ॥ १॥ सा य महिला उम्भामिया, एगमि पुरिसे लग्गा, तं वाणियगं सा-IGI हेतवः गारियं चिंतऊण भणइ-वञ्च वाणिज्जेण, तेण भणिया-किं घेत्तूण बच्चामि सा भणइ-उडुडियाओ घेत्तृण वच्च उज्जाणिं, अध्ययने ४ पच्छा सो सगडं भरेत्ता गओ उज्जेणि, नाए भणिो य-जहा एकेक्कियं दीणारेण देज्जासत्ति, सा चितइ-वरं खु चिरं खिप्पंतो अच्छउ, तेण ताओ वीपीए उड्डियाओ, कोइ न पुच्छर, मूलदेवेण य दिवो पुग्छिओ य, सिट्ठ तेण, मूलदेवेण चितियं-जहा एस बराओ महिलाए छोमिओ, ताहे मूलदत्रण भण्णइ-अहमेताड ते विकिणामि जइ ममचि मुल्लम्स अद्धं देहि, तेण मणिय देमित्ति, अभुवगते पच्छा मूलदेवेण स हंसो जाएऊया तत्व बिलग्गिऊग आगामेणं उप्पडओ, नगरम्स मज्झे थाइऊण भणइ-जइ चेडरूवम्स गलए उच्चलिंडिया न बद्धा तं मारेमि, अहे देवो. पन्हा सव्वलोपण भीएण दीणारिकाओ उट्टलेंडियाओ गहियाओ विकियाओ य, ताहे तण मूलदेवस्ल अद्धं दिण्णे,मूलदेवण य सा भण्णइ-मंदभग्ग तब महिला धुत्ने लग्गा, ताए तव एवं कयं, न पत्तियइ, मूलदेवेण भण्णइ-एहि वच्चामो जा तए दरिममि जइन पत्तियास, तो गया. अण्णाए लेसाए वियाले ओवासो मम्गिओ, ताए। दियो, नत्थगंमि पएनि ठिया. सी धुचो आगओ, इयरीवि धुनेण सह पिवेउमारद्धा, इमं च गायइ-'इरि-मंदिर पत्तहारओ मह गयड कंतो वणिजारो। वरिसाण सतं च जीवओ मा घर जीयंत कबाइ एयर ||१||, मूलदेवो भण्णइ-कयलीवणपत्नवेडिया, एई लाभणानि देव । ज महलएण गिज्जई मुह मुहुन मेत्र ।।१।। पच्छा मूलदेवेण भण्णइ-किट धुत्ते , तओ पभाए णिग्गंतॄण पुगरवि । आगी. नीय पुरभो ठिओ. सा महसा संभंना अभुट्ठिया, नओबाणपियणे बढ़ने सेण पाणिएण सव्वं नीए गीइपज्जतर्य दीप अनुक्रम 4594-9-4-4Hit [61] Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक स्थापक गाथा श्रीदश- संभारिय, उपालद्धा य, एवं सीसोवि केई पयत्थे असदहतो विज्जादीहिं देवयं आकंपयित्ता सहावतव्यो, तहा वादीवि कृत्तियाववैकालिकणादीहि णिज्जिणियव्यो जहा सिरिगुत्तग छलूकयो, गओ यावकः । इदाणिं धावकः, स्थापकस्य का रूपसिद्धिः, छा गतिनिवृत्ती व्यंसकचूर्गों धातुः, 'धात्वादेः पः स (पा. ६-१-६४) इति सकारादेशः, निमिचाभावे नैमित्तिकस्याप्यभावः ठकारस्य थकारः स्था, भूवादयो लूषकाः १ अध्ययन, धातय ( पा. १.३१) इति धातुसंज्ञा, अस्प विग्रहः-तिष्ठति कश्चित् तिष्ठतमन्योऽनुप्रयुक्त तिष्ठ तिष्ठेत्येवं विगृह्य हेतुमति च. ॥५७॥ (पा. ३-१-३६) ति णिच् प्रत्ययः, अनुबंधलोपे कृते 'अर्पिहील्लीरीक्न्यीक्ष्म्याय्याता पुग्णा' (पा ७-३-३६) विति पुक, अनुबंधलालोपे 'युवोरनाकाविति' (पा.७-१-१) अकादेशः, परनिटी (पा.६-४-५१) ति लोपः, परगमनं, स्थापकः । इदाणि प्रातिपदिकार्थ, लिंगपरिमाणवचनमात्रे प्रथमा सु उकारलोपः रुत्वं विसर्जनीय स्थापकः, जहा एगो परिवाययो भण्णइ, अहं लोगमनं जाणामि, तत्थेगण सावगेण भण्णा-कया लोगभझी, ताहे सो परिवायओ एगमि भूमीपए से खीलयं निखणित्ता भणइ-एयं लोगमनं, पुणो अण्णास्थ पुच्छिओ, तत्थवि खीलयं निहणित्ता भणइ-एयं लोयमझ, पुणो अण्णस्थ पुच्छियो, तत्वधि खीलयं णिहीणचा भण्पर इमं लोगमज्झं, एवं सो सावगो तेण समं अण्णाए लेस्साए बच्चइ, सोविय चउसुचि दिसासु खील णिहणिऊणं भणङ्-एवं लोगxमर्श, जत्थ जत्थ कोई पुरुछा सहि तहि सो खीलयं निहणिऊण भणइ-एयं लोगमज्झं, ततो सावएण भणिओ-जइ पुब्बाए परिदि-18 साए लोगमझं तो अबराए दिसाए ण जुज्जइ, एवं पुब्बावरविरुद्धभासियत्तणेण फुडो मुसाबादो भवइति, सो तेण सावरण * ॥५७॥ निरुवरी कओ। एवं जीवचिंताएवि साहुणा तारिसं भाणियव्वं तारिसो गेण्हि ऊण णयन्वो जस्स पुरो उत्तरं चेव दाउंन तरह ओण पुण्यावरविरुद्धदोसो य न भवइ, एवं स्थावकः । इदाणिं वंसगो सकस्य का रूपसिद्धिः असि समाघाने' धातुः मुरादाद । ||१|| दीप अनुक्रम [62] Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: - प्रत सूत्रांक NEXT गाथा श्रीदश- पठितव्यः, इदितोऽनुबंधीतोरिइ (नुम् विपूर्वस्य विअंस एवं स्थिते 'भवादयो धातव' इति धातुसंज्ञा स्वार्थिको णिच् अनुबंध- स्थापक वैकालिकालोपः परगमनं व्यंसि, सनायंता (पा.-१३२) इति धातुसंजा, प्रत्ययाधिकारे खुलतचा (पा. ३-१-१३३) वि-दा ज्यसकचूर्णी ति बुल् प्रत्यया, अनुबंधलाप, युवारनाका' (पा. ७-१-१) विति अकादेशः, परनिटीति (पा.६.४.५१) णिलोपा, परगमणं, लूपकाः १ अध्ययन व्यसयतीति व्यंसकः, जहा एगो गामेल्लओ सगडे कट्ठाण भरेऊण नगरं पयिहो, गच्छंतेणं अंतराले एगा तित्तिरी मइया दिवा, ॥५८॥ तं गेण्डिऊण सगउस्स उरि पक्विविऊण नगर पविट्ठो, सो एगेण नगरधुत्तेण पुच्छिओ-कह सगडतितिरी लब्भह, तेण गामिल्लएण भण्णइन्तप्पणादुगालियाए लम्मा तता तेण सक्खिणा आहणिचा सगडं सतित्तिरीय गहिय, सतो सो गामिलो दीणमणसो अच्छा, तस्थ य एगो मूलदेवसरिसो दिडो, पुच्छिओ-कि सीयसि? अरे देवाणुप्पिया!, तेण भणिय-अहमेगण गोहेण इमेण पगारेण छलिओ, तेण भणियं-मा बीहाह, तस्स तप्पणादुयालियं तुम सेक्विारं मग्ग, माइठ्ठाणं सिक्खाविओ, एवं भवउत्ति भणिऊण तस्स सगासे गओ, भणियं चणेणं-मम तइ सगडं द्वितं तो मे इदाणि तप्पण्णादुगालियं सोवयारे दवावेहि, एवं होउचि घरं नीओ, महिला संदिद्वा-अलंकियविभूसिया परमेण विणएण एतस्स तप्पणादुगालियं देहि, सा वयणसमं उडिया, ततो सो सागजिओ भणइ-ममंगुली छिण्णो, इमो-चीरेण वेदितो, न सकेमि आबुयालेउ, तुम आदुपालेउं देहि, आयालिया तेण हत्थेणं गहिया, गामिल्लओ सेण सम संपडिओ, लोगस्स य कहा-जहा मए एसा सतिचिरिगेण सगडेण गहिया, ताहे तेण ॥ ५८॥ धुण सगडे बिसज्जियं, तं च पसादेऊण भज्जा नियनिया। तहा जीवचिताएवि कोऽवि कुष्यावयणिओ चाइज्जा जहा जिणप्पणीते मग्गे अस्थि जीयो अस्थि घडो, अस्थि जीवेऽपि घडेषि, दोसुवि अविससेण बट्टत्ता अस्थिसदतुल्लत्तणेण दीवघडाणं एगर्न । its-EsclescitXe% ||१|| दीप % अनुक्रम [63] Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक 15 9- गाथा %2564560 ||१|| %95- IA भवइ, अह पुण भणज्जा-अस्थिभावातो बतिरित्तो जीवो. तेण जीवरस अभावो पावतित्ति, एत्थं इमं उत्तर भाणितव्यं जद जीव-| श्रीदश स्थापकवैकालिक घडा अस्थित्ते बद्देति तम्हा तेसि एगत्तं संभावेहि, एवं सब्वभावाणं एगत्तं भवइ, कह , अस्थि घडो अस्थि पडो अरिथ पर- व्यंसक माणू अस्थि दुपएसिए खंधे, एवं सयभावेसु अस्थिभावो बट्टतित्तिकाउं कि सबभावा एक्कीमवंतु', एत्थ सं.सो आह--कई पुण लूपका: अध्ययने । एवं जाणितब्य, सम्यभाषेसु अस्थिभावो यह न य एगं भवति, आयरिओ आह-अणेगंतओ एतं सिज्झति, एत्थ दिढतो खइरवणस्सइ. जहा नियमा खयरे वणस्सई, वणसई पुण खइरो पलास बा, एवं जीवोवि, तेण णियमा अस्थि, अविभावो पुण ॥ ५९॥ जीवो वा होज्जा अण्णो या धम्माधम्मागासादीर्ण, एवं व्यंसकः।। दार्णि लूसए, लूपकस्य का रूपसिद्धिः?,'लूप हिंसायां' धातुः चुरादौ पठयते, भृवादयो धातव (पा १-३-१) इति धातुसंज्ञा, प्रत्ययाधिकारे 'सत्यापपाशरूपवीणातूलश्लोकसेनालोमत्व-12 चधर्मवर्णचूर्णचुरादिभ्यो णिच्'(पा.३-१.२५) अनुबंधलोपः, 'युबोरनाका' विति (पा.७-१-१) अकादेशः, 'णेरनिटी'(पा ६-४-५१) ति णि लोपः, परममनं, लूषयतीति लूपका, जहा एगो मणूसो तउसाणं भरिएण सगडेण नगरं पविसइ, सो पत्रिसंतो भुत्तेण से भष्णइ-जो य तउसाणं सगड खाएज्जा तस्स तुमं किं देसि, ताई सागडिएण सो धुत्तो भणि भो-तस्साहं तं मोदगं देमि जो नगर II दारेणं न निष्फिडर, धुत्तेण भण्णा इ-ताहे एवं तउससगडं खायामि, तुम पुण मोदगं देज्जासि जो नगरदारेण न निस्सरह, पच्छादा सागडिएण अब्भुवगए धुत्तण सक्षिणो कया, सगडं अधिद्वितो, तेसिं तउसाणं एक्फेक्काउ खंड खर्ड अवणेचा पच्छा ते सागडियं मोदगं मग्गह, ताहे सागडिओ भणइ-इमे तउसा न खहता तुमे, धुचेण भण्णइ-जह न खइया तउसे अग्यवेहि तुमं, अग्धविएसुका कइया आगया, पासीत खंडिया तउसा, ताहे कइया भणंति-को एते खतिए किणति, ततो कारणे ववहारे जाओ, खातयात दीप 258 अनुक्रम - 4%ry 14-1- [64] Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक गाथा ||१|| श्रीदश-15 जितो सागडितो, ताहे धुत्तण मोदगं मम्गिज्जा, अच्चइओ सागडिओ, जतिकरा ओलग्गिता, ने तुट्ठा पुच्छति, तेसि जहावा कालिक सव्वं कहइ, एवं कहिए नेहि उत्तरं सिकखाविओ जहा तुम खुडलगं मोयग नगरदारे ठायेचा भण-एम मोदगो न नीति णगरदारणा वयवाः चणी गिण्हनि, जितो धुनो। एवं जीवचिंतागवि पुव्वं मधमेव सद्यभिचार हे उचारेऊण परविस्संभणानीमन सहमा वा भणिओ १ अध्ययने ध्ययन होज्जा, पच्छा नमेव हेतु अण्णेण निरुत्तवयगण ठाबड, एवं तृषकहेक समत्तो।। इदाणि जो एतहि पक्षहेऊदिटुंतउवण यणनिगम॥६॥लाहिं अस्थो साहिज्जड सो भण्णइ-नन्थ पढमे अझयणे धम्मपससा, सा च धम्मपसंसा पंचावयबोवबेतेण वा दसावययोववेतेण वा। वयोण भण्णइ, तत्थ परमं पंचावयोववेतेण भण्णा-नवेदं प्रमाणमपदिश्यने अहिंसासजमान्मको धम्मो मङ्गलमुस्कृष्ट, कस्माद् ,15 देवादिपूज्जयादहंदादियन , यथा अर्हन पूज्यो मङ्गलमत्कष्टं च, नया धम्भः पूज्यः, तस्मात्पूज्यत्वान्मङगलमुत्कृष्ट, इमे सुत्तफासि। यनिज्जुत्तीए अवयवा भनि, 'धम्मो गुणा अहिंसाइया उ' गाहा (५०-६६) पुबद्धंधम्मो नाम अहिंसाड्या गुणा भवंति, आदिग्रहणेण मंजमतयाचि गहिया, अहिंसासजमनयावयेतो जो धम्मो मो मंगलमुविकटुं भव, एस पइणणा ॥ इदार्णि को हेऊ धम्मो मंगलमुकिलु भवानस्थ सुनेणेव पहमे हे भवाइ-'देवावि तं नममति, जस्म धम्म सपा मणी' देवपुज्जत्नण हऊ. 1 कि कारणं ', जे अम्मिया ते देवेहि न पनि । इदाणि मुनफामियानन्जुलीगाहापदण हे उ. प भण्णा--'देवाचि लोगज्या पणमति वृधम्ममिनिउ, देवावि देवलांके युक्ता, नदव लोग पूजावि होऊण जो अहिंसाइगुणोषयेते धम्मे टिओ। नम्स पणमनि, एन्थ चांदा भाइ-जहा को मा धम्मे हिओ, आयरिओ आइ जस्म धम्म मया मणी, अहिंसादिगुणगुन जम्मा ॥६० ।। पया-अविर्गहय जायजीव 'मणी' मणी चना मणइ एम हे सगा। दाणि द्वितो दिनो अरहना अगारा यहये य। दीप अनुक्रम camuINTERamne [65] Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक गाथा ||१|| श्रीदश- जिणसीसा (९१-६२) शस्थ पुधि अरहतग्गहणं जम्हा ते अनंतबलधिति परकमा अपडिहयवरणाणदसणधरा य धम्मफल-बादशावैकालिकाबिसेमजाणयत्तिकाऊण, अण्णे य गोयमाइणो तिस्थगरमीमा सोभणवस्थितनि देवेहि पूजिया, एस्थ आयरिओ गाहाए पच्छद्रं-IIवयवाः चूणी भणइ-बत्तणुवतं णज्जइजह नरपतिगांचि पणमंति, वसं नाम जे अतीते काले, इदाणि अपचक्खमवि अणुक्त्तण साहि१अध्ययन जा, केण कारणण ?, दाणिभरपतिणो अटुंगमहानिमित्तपादगाण विवेयमद्रियाणं णाणासस्थविमारयाण य साहूणं परमविः णयोनतमिरा नमसंति किंकरा व पज्जुबासमाणा य चिट्ठति, एम दिढतो, सीसा आह-जो पच्चक्खो भावो मोदितो दिज्जइ. ॥६१॥ तिस्थगरा य संपयं णो पच्चक्खमुवलम्भन ते अणुमाणयो गज्जति, जो अणुमाणियो अस्थो सो दिद्रुतो न भण्णइ, आयरिओ। आह-तकालं पच्चक्खा ते आसित्ति ण विरुज्झते, तित्थगरदिदुतणेयमुक्त, इयाणि उप्पणं, दिढतो गओ।इदाणि उपसंहारो। उपसंहारो तत्थ इमं माहापुव्वद्धं ' उपसंहारो देवा जह तह रायवि पणमंति ( ९२-६२ ) सुधम्म, जहा देवा सोहणे । धम्मे ठित पणमंनि तह रायाइणोषि भवियाउ मंति, एस उपसंहारी गओ। इवाणिं निगमणं गाहापच्छद्रेण भण्णइ (वृ धम्मो ) तम्हा मंगलमुषिमिति (वृ० य ) निगमणं होति णाचव्वं तम्हा देवपूजितत्तणण अहिंसासमतवजुत्तो धम्मो | मंगलमुकिट्ठ भवइ । धर्मः मंगलमुत्कृष्ट अहिंसासंजमतपात्मकत्वादहदादिवत्, यथाऽईन् अहसासजमतषात्मको मंगलमुत्कृष्टं च | तथा धर्मः अहिंसासंजमतपात्मकः तस्मान्मंगलमुष्कृष्ट, पंचावयवं सम्मत्तं ॥ इदाणिं दसावयबोबवेतेण बयण एस पहा ६१॥ अस्थो विस्थारिज्जइ, वितियपदण्णा जिणसासणंमि साहति साहयो धम्म (९३-६३) अर्द्ध गाथा, वितियपतिण्णचि जा पंचावयवेसु पतिष्णा भणिया सा पढमुक्ता, इदानि तीए इमा बिइया दसावयबविभावणत्थं पतिण्णा कज्जइ, सा इमा-एतमि imaniraivaussumiawnam दीप अनुक्रम मान [66] Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक दृष्टान्ततद्वि शुद्धि गाथा श्रीदश- चेव ताव जिणाणं सासणे ठिया साघवो धम्ममणुपालयंति एसा पडण्णा गता, इदार्णि पइपणाविसुद्धी-जहा इह ताव जिणाणं बकालिकासासणे ठिया पिसद्ध धम्म अणपालेंतिन एवं परतित्थियसमएम विसुद्धो अणुपालणावायो अस्थि, एत्थ सीसो चोएए-सम्बे चूणा पवादिया अप्पणच्चियं धर्म पसंसंति, धम्मसदा य तेसु तेमुवि उपलब्भइ, आयरिओ आह-नणु हेढा वणिओ सावज्जो उ १अध्ययन कृतित्थियधम्मो जिणेहिं उ अपसत्थो' जोवि सेसिं सासणे धम्मसद्दो सोवि उवचारितो, निच्छययो पुण अहिंसासंजमतवलक्षणो पालाजो सो धम्मति भण्णइ, जहा सिंहसदो सिंहे पाहण्णेण बद, उपचरितो पुण अण्णसुवि भवइ, एसा पहण्णाविसुद्धी गया। तत्थ को स हेउत्ति, अहिंसादिगुणजुत्तत्तणं हेऊ भण्णाइ, तत्थ इमं गाहापच्छद्धं 'हेक जम्हा साभाविएसु अहिंसाइसु जयति' जम्हा ते साहवो अहिंसाइएसु पंचसु महब्बएसु सम्भावेण जयंटि, कह नाम अम्ह अक्खलियचारिताणं मरणं भविज्जचि, | एस हे । दार्णि हेतुविसुद्धी भण्णा'जं भत्तपाणउवगरण' अद्धगाथा, जेण कारणेण साहवो अहिंसादीणं पंचण्डं | महब्बयाणं विसुद्धिनिमित्तं भत्तपाणउवगरणवसहिसयणाइसु संजमोवकरणेसु जतन्ति, किं भणिय होइ जयंति, आयरिओ आइ एत्थ इमं माहापच्छ, फासुयं अकर्य अकारियं अणणुमोइयं अणहिट्ठाणि गेण्हिऊण परिभुजति, अण्णे पुण रत्तपडादिणो * कृतिस्थिया 'ण फासुअकयकारित' गाहा, (भा. ३.६४ ) एसा गाहा पढियसिद्धा, एसा हेउविसुद्धी समत्ता, इदाणि दिहतो, सो इमोजहा दुमस्स पुप्फेसु भमरो आवियती रसं' यथेति येन प्रकारेण, 'प्रकारवचने थार' (पा. ५-३-२३) मल शिलकारलोपः, यथा दुमपुष्पयोः पूर्ववत्, भ्रमर इति 'भ्रम अनवस्थाने' धातुः, अस्य धातोः, प्रत्ययाधिकारे 'ऋच्छर (उ. पाद ३) | इति 'अतिकमित्रमिचमिदेविवासिम्पवित्' इति ( उ. पाद ३) अरप्रत्ययः, परगमन, अमर, प्राम्यति च रोति च भ्रमरः, पाi BASEACHERS ||१|| दीप अनुक्रम + [67] Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा: [२], नियुक्ति : [९५-११६/९६-११६], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक H गाथा ||२|| श्रादर्श- पाने धातुः, अस्य धातोः आरपूर्वस्य प्रत्ययाधिकारेऽनुवर्तमाने वर्तमाने लप्रत्ययो भवति. तस्य पित अनुबंधलोपः, 'कर्तरि शर्ट दृष्टान्तकालिका(पा.३.१-६८ प्राध्राध्मे ति पिचादेशा, परगमनं आपिबति, रस आस्वादनस्नेहनयोः धातु, अस्य धातोः प्रत्ययाधिकार तद्विचूर्णी खाथिको णिच् अनुबंधलोपः परगमन अदंतवाद् वृद्धिनं भवति, रसि इति स्थिते 'सनाधता घातकः' इति (पा. ३.१-३२) धा- शुद्धि १ अध्ययने तुसंज्ञा, प्रत्ययाधिकारे 'नंदिग्रहिपचादिम्य इति (पा. ३-१-१३४ ) अप्रत्ययः अनुबंधलोपः, रनिटी (पा. ६-४-५१) ति परगमनं रसा, तत्थ जहासदो ओवम्मे वगृह, दुमो पुलपणियो, दुमस्स पुष्पाणि दुमपुष्फाणि तेसु दुमपुप्फेसु, भमरो पसिद्धो, | आवियति नाम अपिबति आदियतित्ति एगट्ठो, रसो नाम निज्जासो, तस्स पुष्फस्स, एस दिढतो एगदेसेण दहब्बो, यथा चन्द्रमुखी देवदत्ता, जो तस्थ चंदे परिमंडलभावो सोमताय ताणि गण्डंति. एवं अमरदिईते अनिययवित्तित्तण अकिलावणतं च गाति, दिढतो | गओ। इदाणि दिळते पिसुद्धी सुत्तण भण्णति 'ण य पुप्फ किलामेति सोय पीणेइ अप्पयं' नयेति प्रतिषेधवाची निपातः, न चेति चशब्दो अवधारणपादपूरणव्यतिरेकार्थादिषु निपात्यते च, पुष्पस्य पूर्ववत्, क्लामयति 'क्लम ग्लानी 'धातु: अस्प धाताहेतुमति चीत ( पा. ३-१-१६) मिा, अनुपंधलोपः 'अत उपधायाः (पा. ७.२-११६) इति प्रद्धि, परगमने, क्लामि इति | स्थिते 'सनायता धातव' इति (पा-३-१-३२) धातुसंज्ञा, वर्तमाने लड्, तिप् शप् गुणः अयादेशो परगमनं क्लामयति, तद् प्राति| पदिक, प्रातिपदिकार्थे अस्य त्यदादित्वादत्वं 'तदोः सःसावनंतयो' रिवि (७-९-१०६) तकारस्य सकार:, स चेति चकारो | निपातः, प्रीणाति, 'श्रीण तणे' धातुः, अस्य धातोः 'भूवादवी घातक' (पा. १-३-१) इति धातुसमा, प्रत्ययाअधकार लह तिप् शपि प्राप्ते 'प्रथादिभ्यः इना' (पा. ३-१-८१) अनुबंधलोप: गुणप्राप्ते 'किति चेति (पा. १.१५) प्रतिषेधः, परग ARC-Recom दीप अनुक्रम HTRNAKESPECS E-* -* -* 168] Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा: [२], नियुक्ति : [९५-११६/९६-११६], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: A -- रान्त प्रत सूत्रांक तद्वि गाथा मनं प्रीणाति, आत्मानमिति 'अत सातत्यगमने अस्य धातोः प्रत्ययाधिकारे 'सात्यतिम्पो मनन्मनिणा' विति (उ.पा. ४) ममिण् प्रत्ययः अनुसंधलोपः 'अत उपधाया' इति' (७-२-१९६) वृद्धिः परगमनं आत्मा, कर्मणि द्वितीयकवचनं अम् 'नोपधाया वैकालिका IM (पा ६-४-) सर्वनामस्थाने परे दीर्घत्वं आत्मानं, न य सो भमरो तेसि पुष्फाणं किलावणं करेह अह य अत्ताणं पीणयति, दिद्रुतविसुद्धी मुत्तफासियनिज्जुचीए भण्णइ 'जह भमरत्तिय' (९७-६५) अद्धगाहा, विटुंतो गओ । इदाणिं एयम्स विसुद्धिं निज-13॥ १अध्ययन जीए सयमेव आयरिओ सिस्सहियहाए आह-'तत्थ य भणेज्ज कोई समणाणं कीरइ सुविहियाणं' (९९.६५) एस्थ य कोई ॥६४ामणेज्जा-जमेते गिहत्या पाकं करेंति एवं साहणं अष्टाए कीरइ,तं आरंभमाजीवंति साधबो, एतेण कारणेण साहुणो दोसभागिणी भवति, एतस्स उत्तर आयरिओ भणइ, जम्हा 'वासह व तणस्स कए '(१०६-५)गाहा, एसा गाहा कड्डियन्वा, एत्थतरे सीसो चोए-इजहा मेहा पयापई वडिनिमित्तं वासंति, सो यक्याचई वढि ण तेण चिरहिया भवइ, तम्हा जे भण्णइ-'वासइ न तणम्स कप' तं विरूज्वाइ, एत्थ आयरिओ आह-न एतं एवं भवइ, कम्हा, जम्हा सुतीओ विरुद्धाओ दीसंति, परे कइयंति--जहा मघवं वासइ, अण्णे पुण भणंति गम्भा वासंति, तत्थ जइ इंदो वासति तओ उक्कावातदिसादाहनिग्घायादीहि उवधाओ वासस्स न होज्जा, अह पुण गम्भा वासंति तओ तेसि असणीणं णेवं सण्णा भवति जहा लोगस्स अट्ठाए बरिसामित्ति तणाण वा अढाए, 'किंतु दुमा पुति' गाहा (१९४-६६) कंठया, कदापि सीसस्स बुद्धी भवेज्जा, जहा पयावइणा वित्ती सत्ताणं उप्पाइया, तेण दुमा भिमराए अट्ठाए पूर्फति, तण्ण भवति, कहं त ?, दुमा णाममोत्तस्स कम्मस्स उदएणं ताणि नाणि फलविसेमाणि निव्वचिंति, किं च-'अस्थि यह वणसंडा' गाहा (१०७-६६) जइ पगई एसा पुष्फाणं च दुमाणं कम्दा अकाले न पुष्फति फलंति वा, कZASRA दीप अनुक्रम [69] Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा: [२], नियुक्ति : [९५-११६/९६-११६], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक गाथा ||२|| 454 श्रीदश- आयरिओ भणइ-'पगती एस दुमाणं' गाहा (१०९-६३) पढियव्या, जहा ते दुमा अप्पणो रिउकालेणव पुति य फलति य, उपसंहारवैकालिकन उ भमराण अट्ठाए 'किंतु गिही रंधती समणाणं कारणे मुविहियाणं' गाहा (११०६६)पाठया, कदापि सीसो भणिज्जातद्विशुद्धी चूर्जी जहा समणाणुकंपणढाए पुष्णनिमिचं च पुण्णमेव गिहत्थाणं पागकरणं, तेसि समणाणं अट्ठाए कुब्बंताणं अघपरिहाणी भवइ, अघ-14 १ अध्ययने परिहाणीए य कह तेसिं पाहणं ण भविस्सइ, एत्थ आयरिओ आह-ज भणसि तेसि अट्ठाए साहणं पागकरणं तण्णं भवइ, | कम्हा?, जेण 'कंतारे दुभिक्रये' गाहा (११२-६७) कंठया, किं च 'अत्थि बहुगामनगरा गाहा (१६४-६७) 'पगती एस गिहीण' गाहा (११५.६७) 'तत्थ समणा सुबिहिया' गाथा (११६६७) 'नवकोडीपरिसुद्धं' गाथा (१५०-६७) तत्थ इमाओ नव कोडीओ-न हणइ न हणावेइ हणतं नाणुजाणाइ, ण पयह ण पयावइ पर्यत गाणुजाणाइ, न किणइ ण किणावेइ किणतं नाणुजाणाइ, एताहिं णवहिं कोडीहिं उग्गमउपायणेमणादीहिं सुद्धमाहारिति, तं च किमहूँ आहाति , इमेहिं छहिं कारणांह 'वेदण व्यावच्चे' सिलोगो, एतीसे पदाणं वक्खाणं जहा पिंडनिज्जुत्तीप, विट्ठन्तविमद्धी गता । इदार्णि उवसंहारो, सो सुत्तेण भण्णइ एमेते समणा मुत्ता, जे लोए संति साहुणो । विहंगमाव पुप्फेमु दाणभत्तेसणे रया ।। (३-६८) ॥६५॥ ४एवमिति निपातः एवं एवसदो अबहारणे वट्टइ, किमवधारयति !, अनियतवित्तित्तणं अकिलावणत्तं च अवथारेइ, एतत्सर्वनाम्नः प्रथमाबहुवचन जस्, त्यदायत्वं, जसः शीः (पा. ७.१-१७) आद्गुणः (पा. ६-१-८७) परगमनं, एते-पच्चक्खमेव अनिययवित्ती विहरमाणा दीसंति, श्रमणाः 'श्रम तपसि खेदे च धातुः, अस्य धातोः 'भूवादयो धातव' इति (पा.१-३-१) धातुसंज्ञा, प्रत्ययाधिकारे करणाधिकरणयोश्चेति' (पा. २-३-११७) ल्युट अनुबंधलोपे 'युवोरनाका' (पा. ७-१-१) विति अनादेशः, परगमनं, श्रमणा, दीप अनुक्रम । [70] Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा: [३], नियुक्ति: [११७-१२५/११७-१२४], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक श्रीदशचूणों १अध्ययने ॥६६॥ गाथा ||३|| मुक्ता नाम 'सच मोक्षणे' धातुः, अस्य धातोः 'भूवादयो धातवः (पा. १-३-१) इति धातुसंज्ञा , प्रत्ययाधिकारे प्रत्ययः अनु- उपसंहारबंधलोपः कत्वं परगमनं मुक्ताः, चाहिम्मतरेहिं गंथेहि मुक्ताः संति जे ते अविससियाण गहणं, लोगेति मणुस्सलोगस्स गहणं, तद्विशुद्धा शांतिः 'शमु उपशमे' धातुः अस्य धातोः भूवादयो धातवः' (मा १-३-१) इति धातुसंज्ञा, प्रत्ययाधिकारे खियां क्तिन् । (पा. ३-३९४) अनुबंधलोपः 'अनुनासिकस्य लोः क्छिति चे' (पा.६-४-१५) ति आकारः, परसवर्णः परगमने शान्तिः, शान्तिनाम ज्ञानदर्शनचारित्राण्यभिधीयन्ते, 'साध राध संसिद्धी' साध अस्य धातोः 'कबापाजिमिस्वादिसाधर्म्य उण' प्रत्ययः, अनुबंधलोपः। परगमनं साधुः, तामेव गुणविशिष्टां शान्ति साधयन्तीति साधवः, अहवा सति अकुतोभयं भण्णइ, तं चेव साहुणो अप्पमत्चत्तणणं जीवाणं शांति भणंति, अहवा शान्तिग्रहणेण सिं साधूर्ण अस्थित्वं घेप्पति, एस्थ सीसो आह-नणु एमेते समणा मुत्तत्ति एतेणेव | नज्जति जहा ते जीरथ तो पुणोषि संतिग्रहणेन पुनरुर्त कुन्बहा, आयरिओ भणइ-परियायवयणेण सो चेव अत्यो दारिसिओ, पद एतेण कारणेण दोसो ण भवति, अण्णेचि णिण्हयाइ भणति जहा अम्हेवि बाहिरम्भतरेहि मुका साहुणो, शांतिग्रहणेण पुणो कन्ज-IV |माणेण भावसाधुणो गहिता, ते दव्यसाधुणो न गहिता, जम्हा ते अणुवएसेण सछंदा हया इव उदामा गया इव निरंकुशा हिंडति | तम्हा शांनिगहणं करेइ, साधव एव जोगे साहेति तम्हा साहुणो । 'विहंगमा' 'गम्ल सप्ल गतौ पातुः अस्य धातोहिपूर्वस्य विहमाकाशं उच्यते, 'भूवादयो धातवः' (पा. १-३-१) धातुसंज्ञा 'गमश्चे' ति (पा. ३.२-४७) खद् प्रत्ययः अनुबंधलोपः, 'खियन व्ययस्पे' ति (पा. १.३-१) नुमागमः, पूर्वपदस्य परगमनं, विहे गच्छंतीति विहंगमाः, भमर हयाभिहितं भवति, विहगमेहि Aiतुल्ला नाम जहा विहंगमा सयं विगसितेसु पुप्फेषु अप्पाणं पीणयंति एवं साहबोयि गाणं सअढाए निहिएम अण्ण M.KRITERALIANCECOR दीप अनुक्रम 71] Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [-] गाथा ||3|| दीप अनुक्रम [3] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( निर्युक्तिः + | भाष्य |+चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा: [३] नियुक्ति: [११७-१२५/११७-१२४], भाष्यं [४ ...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [ ४२ ], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: श्री दशवैकालिक चूर्ण १ अध्ययने ।। ६७ ।। मूल पुण पाणादिसु अप्पाणयं पीर्णेति, दाणगहणेण दनं गेव्हंति नो अदर्श, भचगहणेण फासूयं नाम आहाकम्माइदोसविरज्जियं गण्हंति, एसणागमेण दसएसणादास परिसुद्धं गेण्यंति, ते य इमे तं० संकियमक्खियनिक्खच पहिय साहरियदाय गुम्मीसे अपरिमयलिचलडिय एसणदोसा दस हवंति ॥ १॥ एतेर्सि बक्खाणं जदा रिनिज्जुसीए । रता 'रम क्रीडायां' धातुः अस्य धातोः क्तप्रत्ययः अनुबंधलोपः 'अनुदात्तोपदेशेति' (पा ६-४-३७ अनुनासिकलोपः, वरगमनं रता नाम संजमाधिकारेषु जोगेषु रति कृण्वन्ति, न अरतिं । एवं दाणभत्तेपूर्ण स्था, मम्मति वा एगट्ठा, एस उवसंहारो गतो । दार्णि उपसंहारविद्धी पुर्व ताब सुत्तफा सियनिज्जुतीए भण्णइ-तत्थिमा गाहा अवि भमरमधुकरगणा अविदिष्णं आदियंति सुमरसं । समणा भगवंतो णादिष्णं शुमिच्छति। (१२५ ७२) इदाणिं उपसंहारे विमुद्धी सुतेणेव भण्णा, तीसे उपसंहारसुद्धीय संबंधनिमिचं आयरिमो सयमेव चोदेइ, जम्दा ते दाणमत्तेसणे रया तुम्हा सेसि हित्थितवस्त्रिणो साहुगो भिक्खवत्तिणोतिका अणुकंपाए आहाकम्मादी करेंति तं च आहाकम्मादी अण्णाणओ गेण्डमाणा सत्तवधाए वति एत्थं भण्णइ वयं च वित्तिं लभामो य कोइ उपम' वर्ष अस्मद् प्रथमाबहुवचनं जस् 'यूयवयो जसी' ति (पा.७-२-९३) वयआदेशः डेप्रथमयोरमिति (पा. ७-१-२८) जस अम्, परगमनं च कृपापन्ना वयं च आहाकम्मादणि परिहस्ता वयं च तहा वित्ति व सम्भामो जहा तहा न य कोवि सत्तो उपमिदिति तं च इमेण कारण गोवहम्मद, 'वृत् वर्तन' धातुः 'स्त्रियां क्तिन्' (पा.३-३-९६) वृतिः, 'इलभय् प्राप्तौ ' धातुः अस्य घातो लप्रत्ययः, अनुषंधलोपः, लस्य तिवादेश प्राप्ते उत्तमपुरुषबहुवचनं मम् 'स्यतासी लृलुटो' रिति (पा. ३-१-३३ ) स्यप्रत्ययः अनुबंध लोपः 'अलोऽन्त्यस्ये' (पा. १-१-५२) ति मकारस्य 'खरि चेति (पा.८-४-५५) पत्वं 'अतो दीर्घा यत्रीति (पा. ७-३-१०१) पण [72] उपसंहारतद्विशुद्धी ।। ६७ ।। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक , मूलं H/ गाथा: [४], नियुक्ति१२५.../१२४...], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक अध्या मुलं गाथा ||४|| ॥६८ ४ - श्रीदश- दीः, परगमनं लपस्यामः, जहा 'अहाकडेसुरीयंते पुप्फेहिं भमरो जहा' री धातुः अस्य धातोः 'भृवादयो धातवः उपसंहारवेकालिका (पा.१-७-१)धातुसंज्ञा लट् प्रत्ययः, लस्य आत्मनेपदविवक्षायां सटेरेवं अनुबंधलोपः 'दिवादिभ्यः श्यन् (पा.३-१-६) परगमनंतायुद्धा चुणों रयते, जहासहावं पुफिएहिं भमरा अप्पाणं पीणेति, एवं साहुणोषि गिहस्थाण अहागडे सु मिक्खं गेहंति अप्पाणं पणिति। एवं ते मधुकारसमा बुद्धा जे भवंति अणिस्सिया (मू,५-७२) मधु 'मन ज्ञाने' धातुः अस्य धातोः 'भूवादयो धातवः' (पा.१३-१)161 फलिपाटिनमिमनिजनां गुक्पनाकिवत' ति (उपादे) उप्रत्ययः, यः वश्वो देशः ( अलोऽन्त्यादेशः) परगमनं मधुं कुर्वतीति मधुकराा, मधुकरेहि तुल्ला मधुकरसमा, बुद्धाः बुध अवगमने' धातुः अस्य धातोः क्तप्रत्यय, अनुबंधलोपः, 'झलां जशोऽन्ते, इति (पा. ८-२-३९) दत्वं परगमनं, बुद्धा नाम जाणगा, अणि स्सिया नाम अपडिबद्धा, एत्थ सीसो चोदेइ-असंजएहिं भमरेहि होइ समा साधुणो? भमरा अस्सणी अस्संजया य ते साहवोऽपि असणिणो असंजता य भवंतु, एत्ध आयरिओ भणइ, बुद्धग्गहपेण ताव असष्णिको साहवा न मयंति, अणिीम्सयग्गहणेण य असंजतदोसो परिहरिओ भवद । इदाणिं उत्तरं एतस्स सुचफासि-1 यनिज्जुत्तीए भष्याति-जहा 'उवमा खलु एस कपा' (१२७-७२) गाहा, एस उपमा एगदसण द्रष्टच्या, यथा चन्द्रमुखी देवदत्ता, चंदस्स जं परिमंडलं सोमता य तागि गहियाणि, एवं अणिययविचिनिमित्तं हिसाणुपालणढाए य एसा उबमा, किं च-जहा। मादमगणा उ तह नगरजणयया पयणपायणमहावा (१२८-७३) जहा पबिहा दुमा सहावओ चव पुष्फति सहा नगर5ोजणवया व पयपयायसहावाच, जहा य भमरा तहा य मुणिणावि, णवरं पुण अदिग्णं न गिहति, एत्थ सासा चोएइ-कि भणिय होइ ?, जहा भमरा तहा मुणिणाधि ?, आयरिओ-'कुसुमे महापुके' गाहा, जहा सहाव-17 4 दीप अनुक्रम ६८॥ [73] Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक , मूलं H I गाथा: [१], नियुक्ति: [१२७-१५२/१२५-१५१], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक गाथा सामुमित्सु दुमगहनेसु भमरा आवाई अकुबमाणा रसं आइयंति, ए नगरजणवएहिं सदावेण चेव पयणपयावणएहि अपणो श्रीदश उपसंहारकालिक अट्ठाए उनखडियं समणा सुविहिया उग्गमादिसुद्धं गवेसिना आहोन्ति । दाणि जो एस हेट्ठा दोसो भणओविशुचूर्णी सीसेण जहा जइ मधुगारसमा साहवा तो ते असणिणो असंजता य, जद मधुकरसमा साहुणो तो असंजता भवति, एयरस प्यायाः १ अध्ययने दोसस्स परिहरणनिमित्तं आयरिओ अद्धगाहाए भणइ, सा य इमा उपसंहारो भमरा जह तह समणावि अवहजीवात्त। (१३०७३) जहा ते भमरा कुसुमाण किलाम अणुप्पाएना रसमावियति तहा साहणावि आहाकम्मादीणि परिहरंता ण कस्सइ ।। पील उपायंति, किंच-भमराणं साधूण य महतो चेव विसेसो, जहा 'णाणापिंडरया दंता' 'पिडि संघाते' धातुः, अस्य 'इदिता नुम्' (पा. ७.१.५८) नुम्, नंदिग्रहिपचादिभ्यः (पा. ३-१-१२४) अच, अनुबंधलोपः, परसवर्णः परगमनं पिंडा, णाणाडिरया रणाम उक्खित्तचरगादी पिंडस्स अभिग्गहविससेण णाणाविधेसु रता, अहबा अंतपंताईसु नाणाविहेसु भोयणेसु स्ता, ण तेसु अरई करेंति, भणितं चहे-जे व तं च आसिय जत्थ व तत्थ व सुहोवगनिद्दा । जेण व तेण व संतुटु धीर ! मुणिओ तुमे अप्पा ॥१॥" ते णाणापिंडरता दुविधा भवंति, तंजहा-दचओ भावओ यादवओ आसहस्थिमादि, ते पो दंता भावओं, साहवो पुणो) इंदिए । दंता, इदाणिं आयरिओ सयमेव सीसहितट्ठा अपुच्छिो चेव इ8 गाहाए पच्छ« भणह-वंतित्ति पुण पदमी नायब्वं बकसे DI||६९॥ समिण' ज एवं दतित्ति पदं, वकसेस नाम दत्तगहणेण अण्णाणिवि तज्जाइयाणि गहियाणित्ति बुत्तं भवइ, काणि पुण ताणि पदागि'-'जो एल्धेवं ' गाहा (१३२-७३) एयंमि दुमपुफियज्झयणे भमरुवादितपाहणेण एसणासीमई वणिया,तहा इरियासमियाईणि जाणि पदाणि ताणि गहियाणित्ति, दिक्खियपयारो णाम जं दिक्खिएण आयरियब्वति वृत्तं भवइ,उवसंहारविसुबी द्र दीप अनुक्रम 174] Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक , मूलं H I गाथा: [१], नियुक्ति: [१२७-१५२/१२५-१५१], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक गाथा ||५|| श्रीदश- नाम संमत्ता । इवाणि णिगमणं,-'तेग घुच्चंति साहुणो' जेण कारणेण तसथावराण जीवाणं अपणो य हियत्थं च भवद उपसंहारबैंकालिका तहा जयंति अतो य ते साहुणो भणति, निगमणं सम्मत्तं । इदार्ण निगमणविसुद्धीए अभिसंबंधनिमित्त आयरिमो सयमेव चूर्णी १अध्ययने चर्दिक जहा जब कोई मज्जा परिब्बायगरत्तपडादिणो तसथावरभूतहितस्थमपहितत्थं च जयंता साहुनी भविस्संति, ते च णव भवइ, जेण ते सम्भावओ ण जयति, कह न जयंतिी, सत्य सकाणं जे उदिस्स सत्तोवघातो भवरण तस्थ वेसि कम्मबंधो भवइ,४ ॥ ७० ॥ परिवायगा नाम जाकिर तेसि सहाइणो विसयाइदियगोयर हबमागच्छति, भणियं तेसिं 'इंदियविसयपत्ताणं उपयोगोट कायव्यो' एवं ते अण्णाणमहासमुहमोगाढा पडुप्पण्णभारिया जीवा ताणि आलंबणाणि काऊण तमेव परिकिलेसावई गियासं अवलंचयंति, कई ते साहवो', साहयो पुण भगवंतो सम्भावओ जयंति, कई ते ण ', 'कायं वायं च मण' माहा (१३६-७४) काएण ताव समाहियपाणिपादा चिहति गच्छति बा, वायाएवि अकुसलवइनिरोहं करेंति कुसलवाउदीरणं च, मणेणवि अकुसल-16 | मणनिरोह करेंति कुसलमणउदीरणं च, इंदियाणि इवेसु इंदियविसएसु राग न करेंति. आणिद्वेसु दोस, अट्ठारसविहमभं परिवज्जिचा बंभ धारेंति, कसायाण कोहादाणं उदयनिरोधं करेंति, उदिण्णाण विफलीकरणं, 'जं च तवे' गाहा (१३७-७४)४ वारसविहे तवे जहासचीए उज्जुत्तसणं काउ, एतेण कारणेण तेसिं साहुलक्खणं संपुष्णं भवइ, ण तु सकादीणं णियडिबहुलाणं, | तम्हा जिणवयणरया साहुणो भवंति । निगमणसुद्धीसमत्ता। समत्ता दसावयवा इमे, ते जहा 'ते उ पइपणषिसुद्धी' गाहा ॥ ७०॥ (१३८-७५) एवं दुमपुफियजायणं संखेवेण भणिय, वित्थरओ पूण सबक्खरसण्णिवाइणो चोदसपुग्विणी अणगारा कहयंति, 'सेअस्थं एत्थ' गाहा ( )'दुमपुफिय' गाहा, ( ) दाणि नयति गाहा-'णायमि मिडियध्ये अगदियब्वमि | SACCIECAC%ECACC दीप अनुक्रम 175] Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक , मूलं H I गाथा: [१], नियुक्ति: [१२७-१५२/१२५-१५१], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक गाथा श्रीदश-अचव अत्यम्मि । जयन्यमेव इति जो उपदेसो सो नयो णाम ॥ (१५०८०) सम्बेसिपि नयाण बहुविहवत्तत्रयं निसामेत्ता ।।। वैकालिका सम्बनयविसुद्धं जं परणगुणडिओ साहू (१५२-८०) पढियसिद्धाउ चव एयाओ गाहाओ । एवं दसवेयालिपचुपणीए दुमपु- स्वरूपम् चूर्ती फियज्झयणचुपणी समत्ता ।। २ अध्ययने - पढमज्झयणे धम्मपसंसा वष्णिया, इदाणि धम्मे ठियस्स घितिणिमित्त वितियज्झयणं, एतेण संबंधेण आगयस्स अज्झय॥ ७१॥ Nणस्स चत्तारि अणुयोगदाराणि वत्तवाणि,जहा आचस्सगचुण्णीए तहा,नवरं एत्य नामीणफण्णो णिक्खेबो भण्णइ-'सामपण. पुग्धयस्स' गाहा १५४-८२) तत्थ सावणं पुब्धयं च दो पदाणि, तस्थ समणभावो सामर्ण, तस्स समणस्स चउबिहाँ निक्ले-1G यो कायब्बो, पुण्वगयस्स तेरसविहाचि, तत्थ समणस्स ताय निक्खेवं करेमि, सो य इमो- समणस्स उ निक्वेचो' (१५५-८३) अगाहा, तंजहा-णामसमणो ठवणासमणो दब्यसमणो भावसमणों य, नामठवणाउ तहेब, दब्धसमणो इह गाहापच्छदं 'दब्बे सरीरभावियो भावे उण संजओ समणो' दब्बसमणो दुविधो आगमओ णोआगमओ य, जहा दुमे तहेब, नवरं 'समणो' ति अभिलायो भाणितथ्यो, भावसमणो जो जो सजो विरओ अप्पमत्तो भावसमणोत्ति, एत्थ सीसो भणइ-केण कारणेणं समणा भण्णंतिः | आयरिओ भणइ 'जह मम ण पियं दुक्वं जाणिय एमेव सबजीवाणं' गाहा (१५६-८३) पढियन्वा, अहबा 'नधि य से कोई वेसी' गाहा (१५७-९३) पढियन्ना, अहवा इमेण कारणण समणो भवद 'तो समणो जासूमणो भावेण यजइण होइ पाचमणो । समणे य जणे य समो समो य माणावमाणेसु।।(१५८८३)अहवा इमेहिं कारणेहिं समो सो समणो होड, तं. उरगगिरिजलणसागर गाहा (१५५-८३) तत्थ पढमे उर गसरिसेण साहुणा भवियव्यं, एत्थ आह उरगो सभावत एव पिसमंतो दीप अनुक्रम FACEAE अध्ययनं -१- परिसमाप्तं अध्ययनं -२- 'श्रामण्यपूर्वकं आरभ्यते [76] Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [२], उद्देशक , मूलं H / गाथा: [६-१६/६-१६], नियुक्ति: [१५२-१७६/१५२-१७७], भाज्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक" नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक श्रमण श्रीदश- वकालका चूणों गाथा र अध्ययन ||६-१६|| रोसणो अणवरद्धवेरिओ य, किमरिसो साहू भवउ?, भण्णाइ-जं तस्स एगंतदिद्वित्तं परनिलयत्तं च बिलं च अइगच्छंतो ओरयं न ? आसाएइ, एताणि पडुच्च भण्णइ,जहा उरगसमेण होयचं, तत्थ एगंतदिहिचणं धम्म पडुच्च कायध्वं, परकडपरिणिडियासु वसहीसुर सितन्त्र, विलसरिसं भोत्तच, ते विलं नउलयं पविसमाणं न आसादेइ तहा आहारोवि अणासायंतेण आहारयम्बो, किंच- पव्वयसरिसेण साधुणा होयव्यं, तस्स पुण पव्वयस्स अप्णाणभावं खरभावं च उज्झिऊण तेजस्सित्तणं परिगिज्झइ, जहा व सो अगणी ४ इंधणादीहिं न तिप्पड़, एवं सुचेवि अज्झाइअव्वे साहुणा अतिचेण भवितब्ब, जह वा सो अग्गी इंधणादीणि डहमाणे णो कत्थइ | विसेसं करेति-इमं डहितव्यं इमं वा अडहणीय, एवं मणुण्णामणुष्णेसु अण्णपाणादिसु फासुएसणिज्जेसु रागो दोसो वा न कायन्यो, किंच सागरसरिसिण होयध्वं साहुणा, सो य गतीए खारतणेण अपेयो न एय घेष्पद, किंतु जाणि य समुदस्स गंभीरत्तं । अगाहचणं य ताणि घेप्पंति, कह, साहुणा सागरो इव गंभीरेण होयब, नाणदसणचरिचेहि य अगाहेण भवितव्यं, कई , माइपिइमाइएसु नातिसंजोएसु वा रागदोसेहिं आगासमिव निरुवलेवेण भवितव्वं, किंच-तरुसरिसेण भवितवं, कह , जहा रुक्खो | छिज्जमागो भइज्जमाणो राग दोसं न गच्छइ तहा माणषमाणे साहुणा भवितव्वं, किंच-भमरेण व अनियतवत्तिणा भवितव्यं, कही, भमरो जहा एस चेव हेट्ठा उदरं देसं कालं च नाऊण चरइ, एवं साहुणावि गोयरचरियादिसु देसं कालं च नाऊण चरियव्वं, जहा मिगो णिच्चुब्बिग्गो तहा णिच्चकालमेव संसारभउबिग्गेण अप्पमत्तेण भवियचं, किंच-धरणी विच सव्वफासविसहेण साहुणा भवितव्वं, किंच-जलरुहसमेण साहुणा भवियव्यं, जहा पउमं पंके जायं जले समिळू तेहि चेव नोवलिप्पड़, एवं साहुणा-G वि काहिं जाएण भोगेहि संवदिएण तहा काय जहा तेहिं न लिप्पह. किंच-सूरो इव तेयसा जुतेण साहुणा भवितव्यं, जहाण R-Ckcex दीप अनुक्रम [६-१६] ७ ॥ CARRORISit 771 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [२], उद्देशक , मूलं H / गाथा: [६-१६/६-१६], नियुक्ति: [१५२-१७६/१५२-१७७], भाज्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक गाथा % ||६-१६|| श्री सरोदयो समंता अविसेसेण लोग पगामेड़, एवं साहमावि धम्म कयतण राणा दासम्म अविसेसेण को यव्व, भणियं च 'जहा।। बैकालिक पुष्णस्स कत्थर तहा तुच्छस्स कथइ' किंच साहणा पवणसमेण हायब्ध, जहा पवणो कत्थई ण पडिबद्धो तहा साहुणावि अपडि- स्वरूपम् चूणीं बद्वेण होयब्वं, किंच-समणेण विसतिनिसाइम कारणेसु जे गुणा तेनु वट्टियचं, तत्य इमा गाहा (२५०-८३) तत्थ पढम साहुणा २ अध्ययने । विससमेण भवितव्यं, भणिय च वयं मणुस्साण सहा ण पडिया, ण माणिणो व य अत्थगबिया । जणं जणं (तो) पभवामु तारिसा, जहा विसं सबरसाणुवादिणं ।।१।। तिणिसा जड़ा सम्पती नमइ एवं जहागइणिए णमितब्ब, सुत्तत्थं च पट्टाच ओमराइ॥ ७३|| णिएसुवि नमियव्वं वाऊ जहा हेवा, बंजुलो नाम बेतसो, तम्स किल हेतु चिलिया सप्पा निव्विसीभवति, एरिसेण साहुणा भवितव्यं, जहा कोहाइएहि महाबिसेहि अभिभूए जावे उबसामेइ, कणवीरपुप्फ सब्बपुष्पसु पागड णिग्गंधं च, एवं साहुणावि सध्यस्थ पागडेण भवियध्वं, जहा असुहाचि एस निम्गणं असुमंगधो न भवद सीलस्स एवं भविय, उप्पलसरिसेण साहुणा भवियध्वं, कहं , जहा उप्पलं सुगंध तहा साहुणा सीलमुगंधण भवियन्च, नत्ति जहा से बहुरूवि रायवेसं काउं दासवेसं धारेइ एवमाइ, एवं साहुणा माणावमाणेसु नबसरिसेण भवियब्वं, कुक्कुढत्ति कुक्कुडा जं लब्भइ तं पाएण विक्किरइ ताहे अण्णेवि सत्ता चुणंति एवं सीवभागरुइणा भवियवं, अदाए आदरिसपदिताविच पागडभावेण होयव्यं, अहया 'तरुणमि होति तरुणो थेरो धेरेहि डहरए डहरो। अदाओ चिव रूवं अणुपत्नइ जस्स जे सीलं ॥१॥ इदाणिं समणस्स इमाणिं एगट्टियाणि, तं 'पव्यइए अणगारे ॥७३॥ मागाहा (१६१-८४), तत्थ पब्बइओ नाम पापाद्विरतो प्रबजितः, अणगारा नाम अगारं गृहं तद् यस्य नास्ति सः अनगारः, अडवि-17 हाओ कम्मपासाओ टीणो पासंदी, तवं चरतीति चरगो, तवे ठिओ तावसो, भिक्खणसीलो भिक्ख, सच्चसो पावं परिवज्ज % दीप अनुक्रम [६-१६] [78] Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [-] गाथा ||६-१६|| दीप अनुक्रम [६-१६] "दशवैकालिक" - मूलसूत्र - ३ ( निर्युक्तिः + भाष्य | + चूर्णि:) अध्ययनं [२], उद्देशक H मूलं [-] / गाथा: [ ६-१६ / ६-१६] निर्युक्तिः [१५२-१७६/१५२-१७७] भाष्यं [४...] श्रीदशकालिक चूण २ अध्ययने ॥ ७४ ॥ तो परिव्वायओ भण्ण, समणो पुय्वभणिओ चैव, बाहिर मंतरहि गंधेहिं निग्गओ निम्गंथो, सव्यप्पगारेण अहिंसाइएहि जतो संजतो, मुचो बाहिर भंवरगंधेहिं किंच- 'तिष्णो ताली' गाहा (१६१-८४ ) जम्दा य संसारसमुदं तरंति तरिस्संति वा तम्हा तिण्यो ताती य, जम्हा अण्णेवि भविए सिद्धिमहापट्टणं अविग्धपण नयइ तुम्हा नेया, दविओ नाम रागद्दोस विक्को मण्णइ, सावज्जेस मोणं सेवतिति गुणी, खमतीति खतो, इंदियकसाए दमतीति दंतो, पाणवधादीहिं आसवदारेहिं न बढइचि विरतो, अंतपंतेहिं लहेहिं जीवेति लूही, अथवा कोहमाणा दो णेहो मण्णइ, तेसु रहितेसु हे संसारसागरस्स तीरं अत्थयतित्ति वा मग्गइति वा एगट्टा तीरडी, अहवा संसारस्स तीरे ठिओ तेण वीरड्डा, समणस्स एगट्टिया गया । इदाणिं पुब्वयं तं तेरसविहं भण्णइ, तं० 'णामंडवणादविए' गाहा (११२-८४) दुव्यपुण्यं गाहा' ( ) पुब्बिं वीर्य भण्णइ तओ पच्छा अंकुरुप्पत्ती, अहवा पुच्चि खीरं पच्छा दहिं, अहवा पुवि रसो पच्छा फाणितमेवमादि, खेते पुण्ययं णाम पुयि सालीखे समासी पच्छा जवखेचं जायंति, कालपुवं सर्याओ पाउलो रयणीय दिवसो आवलियाए वा समओ, दिसापुव्वं पुब्वा दिसा सा रुयगवेकूखाए, तावखिपु जस्स जओ रोदओ (पण्णवगपुष्वयं) णाम जो जस्स जओ मुद्दो ठियओ पण्णव तं तस्स पुब्वयं, पुव्यपुथ्वयं नाम जं चोदसणं पुव्वाण पढमं पुष्यर्थ, पाहुडपुब्वयं गाम जहा सूरपचसीए पाहुडेसु पढमं तं पाहुडपाहुडेस पाहुडपाडुरपुवं, तस्स वत्थुसुं पढमं वत्युं तं वत्थुपुच्वयं भण्णइ, भावपुव्वयं णाम पंचहे भावाणं उद्भावो भावपुव्यं एवमाइ णामनिष्कण्णो निक्लेवो गओ ॥ इदाणिं भुत्तागमे सुतं उच्चारणीयं अक्खलियं अविध्यामेलियं एवं जहा अणुउओगद्दारे, तं च सुतं जहा 'कहऽहं कुज्जा सामण्णं, जो कामे न निवारते (सू. ६-८५) तत्थ कविचि संखा अह दिवसो भष्णह, कवि पुण सो अहाणि कुज्जा सामण्णं पूर्वनिक्षेपाः [79] ॥ ७४ ॥ सर्वत्र एष: चिन्ह: मूलं दर्शयते (जहां भी ऐसा चिन्ह बनाया है, वहा नई गाथा या सूत्र का आरम्भ होता है ऐसा समझ लेना) Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [२], उद्देशक , मूलं H / गाथा: [६-१६/६-१६], नियुक्ति: [१५२-१७६/१५२-१७७], भाज्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक" नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक गाथा ||६-१६|| श्रीदश- जो कामे ण णिवारए?, अण्णे पुण पति-'कयाऽहं कुज्जा सामण्णं' कदा इति कमि काले अहमिति अत्तानसे वट्टइ, कदा करेमिकामस्यवैकालिक सामण्णं जो काम न निवारर, कसिपि पुण एवं 'कई ग कुज्जा सामणं जो कामे न निवारए' तिनि एते विकप्पा अविरुद्धा, पाएण भेदाः चूणों पुण एवं सुतं एव पढेज्जइ 'कहंणु कुज्जा सामण्णं तत्थ कहणुत्ति-कि-केन प्रकारण 'किमचे' ति (पा.५.३.२५) थमुप्रत्ययः कथं, नु| HR निपातः, कथं नु, कथं नुशब्दः क्षेपे प्रश्ने च वर्तते, तत्र क्षेपः प्रपंचेत्युच्यते यथा कथं नु राजा', यो न रक्षति, कथं नु वैयाकरणः, शब्दं न यात्' प्रश्ने कथं नु अयं दाता ?, द्रव्यैः, अहवा कथं नु भगवन् जीवाः सुखवेदनीय कर्मा बध्नति एवमादि, एथं (पुण सुत्ने केहंणु सद्दो खेव दट्टन्चो, कथं नु स कुर्यात श्रामण्यं ?, यः कामान् न निवारयति, कुर्यात् 'डुकृञ् करणे' धातुः अस्य धातोः 'भूवादयो धातवः (पा. १-३-१) इति धातुसंज्ञा, प्रत्ययाधिकारे 'विधिनिमंत्रणामंत्रणाधीष्टसंप्रश्नप्रार्थनातिसजनेषु लिटु' प्रत्ययः (पा. ३-३-१६१) अनुबंधलोपः लस्य तिष् ‘यासुपरस्मैपदेषदात्तो डिच्चे' ति (पा. ३-४१०३) अनुबंधलोपः 'सार्वधातुकार्द्धधातुकयोरिति (पा. ७-३-८४ ) गुणः 'उरणपर' इति । १-१-५१) स्पररवं 'अत उत्सार्वधातुके' इति (पा. ६-४.११०) अकारस्य उकारः, 'नित्यं हितश्चे' ति (पा. ३-४-९९) अइकारलोपः (ये चेति ६-४-१०९ प्रत्ययोकार-12 सालोपः) परगमनं कुर्याद, सामय यः कामान निवारयति, ते य कामा इमे 'णामंठवणा' गाहा (१५३-८५) ते य कामा चतु-181 विधा पण्याचा, तै०-णामकामा ठवणाकामा दब्बकामा भावकामति, णामठवणाओ तहेब, तत्य दव्बकामा इमे, तं०'सद्दरस' एस ॥७५।। 20 गाहाए पुष्वद्धं (१६४-८५) ते इड्डा सदरसरूवगंधफासा कामिज्जमाणा विसयपसत्तेहि कामा भवति, आणि य मोहोदयकारणाणि | 2 वियडमादीणि दयाणि तेदि अब्भवहरिएहि सद्दादिणो विसया उदिति एते दबकामा, भाषकामा माम ते 'दुविधा य | दीप अनुक्रम [६-१६] SACROSex [80] Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [-] गाथा ||६-१६|| दीप अनुक्रम [६-१६] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र- ३ (निर्युक्तिः + भाष्य | + चूर्णि:) अध्ययनं [२], उद्देशक [-] मूलं [-] / गाथा: [ ६-१६ / ६-१६], निर्युक्तिः [ १५२ - १७६ / १५२ - १७७ ], भाष्यं [४ ...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि : श्रीदशवैकालिक चूण २ अध्ययने ४ ॥ ७६ ॥ भावकामा' दुविधा य 'इच्छाकामा य मदणकामा य' तत्थ 'इच्छा पसस्था अपसत्या य' गाहा पुण्यद्धं ( १६५-८६ ) तत्थ पसत्था इच्छा जहा धम्मं कामयति मोक्खं कामयति, अपसत्था इच्छा रज्जं वा कामयति जुद्धं वा कामयति एवमादि इच्छाकामा, मदणकामा नाम वेदोदयो भण्णह, जहा इत्थी इस्थिवेदेण पुरिसं पत्थे, पुरिसोवि इत्थी, एवमादी, तेणांत तेण मयणकामेण अहिगारो, सेसा उच्चारित सरिस चिकाऊण परुविया, तस्स मदणकामस्स इमाओ दोषि निरुत्तीगाहाओ 'विसयसुहेसु पसतं' गाहा (१६६-८६) माणिवा 'अण्णपिय से णार्म' गाहा (१६७-८६) पडियव्वा, कामा भणिया, एते कामा जो समणो पत्थे, जओ ण शिवारए, सो कई सामण्णं करेइहि? एत्थ सीसो आह-सो साहू कामा अनिवारयंतो सामण्णं कई न करेहिई, एत्थ आयरिओ भणइ- 'पदे पदे विसीदंतो, संकष्परस बसं गओ गम्मंति जेणंति तं पदं मण्णह, जहां हत्थिपदं वग्धपदं सीहपदं एवमादि, अडवा पदंणाम जेण निव्वत्तिज्जइ तं पदं भण्णइ, जहा नहपदं परसुपदं वासिपदं, तं च पदं चउहिं, तं० 'नामपदं 'गाथा (१६८-८६). आउट्टिय नाम जहा रूवओ हेट्ठावि उवरिंपि मुहं काउं उपलम्भर, उक्किण्णं जहा सिलाए णामयं उपरिज्जह कंसभायणं या, उज्जे गाम जहा बउलादीणं पुप्फाणं संठाणणं चिक्खिमयाणि काउं पञ्चति, तेसु मयणं वग्यारेता हुन्, ते य मयणमया उप्पायंति, तं उण्णिज्जं भण्णइ, पीलियं नाम जहा पोत्थं संवेत्ता ठविज्जइ तत्थ भंगा उति तं पीलिये भण्णइ, रंगपदं नाम जहा पोता बद्धगा वित्तगा की रंति तं रंगपदं गंधिमं माला भण्णइ, बेढिमं जहा आणंदपुरे पुष्फमया मउडा कीरंति, पूरिमं वित्तमयी कुंडिया करिता सा पुष्काणं भरिज्जइ, तत्थ छिड्डा भवंति एवं पूरिमं वादिमं पोत रूवा कीरंति कोलिएहि देवहेहिं य, संघाइमं जहा महिलाणं कंचुया संघाइज्जति, छज्जैनाम अम्भपडलएसु, गतं पदपदं इदाणिं भावपदं मण्णह-भावपदीप अणेगविहमेव, [81] पदनिरूपणं ॥ ७६ ॥ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [२], उद्देशक , मूलं H / गाथा: [६-१६/६-१६], नियुक्ति: [१५२-१७६/१५२-१७७], भाज्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक" नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक पदनिरूपणं गाथा ||६-१६|| INT पुण समासेण दुविहं मवइ, 'भावदंपिय दुविहं' गाहा (१७०-८७) ते अपराहपदं गावराहपर्य च, णोअवराहपदं दुविई, 1 कालिक - माउगापदं च नोमाउगापदं च, तस्थ माउगापदं नाम माइआ अक्खगणि. अहवाइमाणि दिहिगादियाणि माउगपदाणि चौँ । भण्यइ-उप्पण्येइ वा धुवेइ वा विगतेइ वा, तत्थ नोमाउगापदे दुषिह भवद, गहियं पदण्णगं च, तस्य गहियं नाम बद्धति वा रइयं २ अध्ययन | इवा गहियं इवा एगट्ठा, तस्थ पतिष्णगं नाम जो पईण्णा कहा कीरइ तं पदण्णग भण्णइ, तत्थ जतं गहियं तं चउम्बिई, गज्ज पज्ज गेयं चुण्णापदं च, एवं चउप्पगारमवि तिसमुट्ठाणं भवइ-अस्थाओ घम्माओ कामांत्रो पा. एतस्स निदरिसर्ण इम, ॥ ७७॥ गाहा 'गज्ज पज्ज' (१७२-८७ तत्थ गजं नाम 'मधुरं हेतु' गाहा, (१७३-८७) महुर णाम तिविहं तं० सुत्तमहुरं अत्थमहुरं भभिहाणमहुरं, हेतुनिउणं नाम सकारणं भण्णाइ, गहियं णाम बद्धं मण्णइ, अपायं नाम पादा से नत्थि, विरामो से अस्थमओ का भवइ, इतरथा ताव ण ठाए जाव समतं, जहा 'जिणवरपदारविंदसंदाणिउकाणम्मलसहस्स' एवमादी गज्ज मवइ । 'पज्जपि दाहोइ तिषिहं' गाहा (१७४-८७) तं च पज्ज तिचिहं तं० समं विसमं असमं च, तत्थ समं नाम चउहिं पाएहिं जस्स समा अक्खरा ते समं भण्णइ, अद्धसमं नाम जस्स पढमो अंतिओ य पायो विइओ चउत्थो य पादो अक्सरेहिं समो, एवं अद्धसम, तं-पुण गुरुहि लहुएहि वा सम विसमं वा भवइ , इदाणं विसमं जस्स चत्तारि पादा गुरुएहि वा लहुएहिं अक्सरेहिं विसमा | |तं विसमं भण्णइ, पज्जं गतं । इदाणिं गीयं गीयत इति गेयं, तं पंचविहं भाइ, 'संतिसम' गाहा,(१७५-८७) तत्थ तंतिसमं Pणाम जहा तंती छिप्पड़ तहा तहा गाइज्जद, ताए तंतीए समं गिज्जबात तंतिसम, वण्णसमं नाम वणगारुसहपंचमादयो जं तेहि समं मण्णा तं वण्यासम, तालसम नाम ताला हत्थेण दिन्जन्ति तालसमं गिज्जतं तालसमं, गहसमं नाम गहो उक्खेवो भण्णइ दीप अनुक्रम [६-१६] ॥७ ॥ [82] Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [२], उद्देशक , मूलं H/ गाथा: [६-१६/६-१६], नियुक्ति: [१५२-१७६/१५२-१७७], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक अपराधपदानिक्षुहक दृष्टान्तः गाथा श्रीद- जेण वत्तेण उक्खेवेण गावह तं गहसमं भण्णइ, लओ नाम काणएण ती छिप्पति ताहे नहेण आमज्जा, तत्थ अण्णारिसी सरी बकालिकउइ, लयसमं भण्णाइ, गीयंति गतं । इदाणि चुण्णपदं भषणइ जहा बंमचरेतराणि, एतस्स चुण्ण पदस्स इमा लक्षणगाहा चूर्णी IT'अस्थबहुलं महत्थं' गाहा (१७६-८६) अस्थबहुलं नाम जस्स पहुअस्था, महत्थं णाम पहाणं भण्णइ तेण जुनं, कारणेण हेउ२ अध्ययन 18 जुर्गति भणइ, निवायता इमे, ते० च वा खलु ण हो एवमादयो अण्णतरो नियातो । इदाणि उबसग्गए, ते य इमेतं० परि उत् श्रुत ॥७८ ॥ अब एवमादि, एतहि निवातावसम्गेहि उववेयं गंभीर भवइ, बहुपादं णाम जहा सिलोगो, गाहादीण विरामो अत्थिन तथा तस्स, गमेहि नयेहि च विमुर्दू गमनयविसुद्धं, एवं चुण्णपदं गहियं सम्मत, सम्म च नोअबराहपदंति, इदाणि अबराहपर्द-1 'इंदियविसया' गाहा (१७१-८८) तत्थ इंदियाणि सोतादीणि तेसिं विसया-सहादयो तेसु सदाइसु इटाणिद्वेसु सोतादीहिं| | इंदिएहि रागदोसं गन्तूणं, कसाया कोहाहयो तेसु कया बढ्तो, परीसहा बाबांस तेसु बावीसाए परीसहेसु उदिण्णेसु बेदणा उब सम्गा भवंति, अण्ण व मज्जप्पमायादयो तेसु एकेकए कारणे सीदंतो नाम पमादयतोति युत्तं भवति. 'संकप्रस वसं गओ', | संकप्पोत्ति वा छंदात्ति या कामझवसायो तस्स संकप्पस्स बसं गओ, एत्थ उदाहरणं जहा एगो खतो सपुतो पच्वइयो, सोय चेल्लओ तस्स अतीव इटो, सीदमाणो य भणइ-खत!न सक्केमि अणुवाहणो हिंडिउँ, अणुकंपाए खतीण दिण्णा उवाहणाओ, ताहे| Mमणइ उवरितला सीतेण फुति, खल्लिया से कपातो, पुणो भणइ-सीस मे अतीव उज्झइ, ताहे सीसवारिया से आणुनाया, ताहे मणइन सक्केभि हिंडिउं. तो से पढिस्सए ठियस्स आणेइ, एवं न तरामि खंता ! भूमिए सुबिउं, ताहे संथारो से अणुण्णातो, पुणो भणइ-न तरामि खंतो! लोयं काउं, तो खुरेण पकज्जिओ, ताहे भणइ-अण्डाणगं न सक्केमि, सओ से फासुगपाणएण RECEReactices ||६-१६|| दीप अनुक्रम [६-१६] ॥७८॥ न EXACTOR [83] Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [२], उद्देशक , मूलं H / गाथा: [६-१६/६-१६], नियुक्ति: [१५२-१७६/१५२-१७७], भाज्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक" नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक गाथा ||६-१६|| श्रीदश-13 कप्पो आयरियपाउग्गं च जुपलं घेप्पड़, एवं जं जं भणइ त त खतओ तस्स नेहपडिबी अणुयाणइ,एवं काले गच्छमाणे पणित कालिकण तरामि अविरतियाए विणा अच्छिउं खतत्ति, ताहे खतो भणइ-सढोऽतोऽजोगोत्तिकाऊण पडिस्सयाओ निषेडिओ, कम्मं न शीलांगचू! याणइ, अयाणतो खणसंखडीए धषिणकाउं अज्जिष्णण मओ विसयवसट्टा मीरउं महिसो आयातो वाहिज्जई य, खतोवि सामण्ण२ अध्ययन परियागं पालेऊण आउक्खए कालगओ देवेसु उववष्णो ओहि पउंजइ, ओहिणा आभोगेउं तं चेल्लगं तेण पुष्यनेहेणं तेसिं गोहाण ॥७२॥ हत्थाओ किणइ. वेउबिए भंडीए जोएइ, वाहेइ व गुरुग, तं अतरेता योदु तीनएण वेहिउँ भणइन तरामि खता! भिक्खं हिंडिउं, एवं भूमिय सयणं लोय काउं, एवं ताणि सध्याणि वयणाणि उरुचरेइ जाव अविरइयाए विणा न तरामि खतसि, ताहे एवं भयंतरस तस्स महिसस्स इमं चित्तं जातं-कहिं एरिसं वचं सुर्य बत्ति, ताहे ईहावूहमग्गणगवेसणं करेइ, एवं चितयंतस्स जातीसरणं समुप्पणं, देवण ओही पउत्तो संबुद्धो, पच्छा भचं पच्चक्खाइय देवलोगं गतो, एवं पदे पदे विसीयंतो संतो संकप्पस्त वसं गच्छइ, जम्हा एस दोसो तम्हा अट्ठारसीलंगसहस्साणं संरक्षणानमित्तं एते अबराहपदे बजेज्जा, सीसो भणइ-कतराणि पुण ताणि, आयरिओ भणइ-इमाणि, तेसिं च सीलंगसहस्साणं इमाए गाहाए अत्थे अणुसारियब्बो-'जोए करणे सण्णा इंदिय भोमादि समणधम्मे य। सीलंगसहस्साणं अट्ठारसगस्स उप्पत्ती॥१॥ तस्थ ताव जोगो तिविहो-कारण वायाए मणेणं, करणं तिविहं-कयं कारावियं अणुमोइयं, सण्णा नउबिहा तं०-आहारसण्णा भयसण्णा मेहुणसण्णा परिग्गहसष्णा, इंदिए पंच, तं०-सोइंदिए चक्खिदिए पाणि IN७९॥ | दिए जिभिदिए फासिदिए, पुढविकाइयाइ पंच बेइंदिया जाव पंचदिया अजीवकाग पंचमो, समणधम्मो दसधा, तैव-खती II मोची अज्जवे मदवे लापवं सच्चे तवे संजमा बभचेरवासे, एमा ठाणपरूवणा, अट्ठारसण्डं सीलंगसहस्साणं परूवणा-कारण न कककका दीप अनुक्रम [६-१६] [84] Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [२], उद्देशक , मूलं H / गाथा: [६-१६/६-१६], नियुक्ति: [१५२-१७६/१५२-१७७], भाज्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक H गाथा ||६-१६|| श्रीदश- चकालका चूर्ण २ अध्ययन ॥॥ करोम आहारसण्णापडिविरए सोइंदियसंबुडे पुढीचकायामारंभपडिविरए खंतिसंपउत्ते एस पढमो गमओ, इदाणि बिइओ भण्णाइ- शीलांगकाएणं न करेमि आहारसण्यापडिविरए साईदियसबुडे पुढविकायसमारंभपाडीवरए मुनिसंपयुत्त, एसो वितिओ गनओ, इदाणि सहस्राण. तइओ, एवं एतेण कमेण जाव दसमो गमओ चमचेरसंपउचो, एस दसमो गओ, एते दस गमगा पुढविकायसजम अमुंचमाणेण । लद्धा, एवं आउक्काएणवि दस चव, तेउकाएणवि दस, एवं जाव अजीवकाएण दस, एवमेतं अणूर्ण सत गमाणं सोईदियसंधुढ181 अमुचमाणणे लद्धं, एवं चक्खिदिएवि सतं वाणिदिएवि सतं निम्भिीदएवि सयं फासिदिएषि सय, एवमेयाणि पंचद भंगसयाणि आहारसण्यापडिविरयं अमुचमाणेण लद्धाणि, एवं भयसण्णाए पंच सयाणि मेहुणसण्णाएवि पंच सताणि परिग्गहसण्णाएवि पंच सवाणि; एवमेताई वीस भंगसयाणि न करेमि अमुंचमाणण लद्धाणि, एवं न कारवमित्ति वीस सयाणि, करेन्तेवि अण्णे न समणुजाणामि पर्सि सयाणि, एवमेताणि छ सहस्साणि कार्य अमुचमाणण लद्धाणि, एवं वायाए छ सहस्साणि मणेणवि छ सहस्साणि, एवमेतागि अट्ठारससलिंगसहस्साणित्ति, जोवि आजीवियाए भएण पब्बइओ जणवायभएण चा ण तरइ उप्पबाउं सो सयमेव कामरागपडिबद्धचिचो अच्छइ, सो अपरिचत्तकामभोगो जाणियब्बोन | RI कई ?, वत्थगंधमलंकारं, इत्थीओ सयणाणि य । सिलोगो । म ७.९१ । 'वस निवासे' धातुः अस्य धातोः 'भृवादय में पा. १-३.१) इति धातुसंज्ञा, 'प्टन सर्वधातुभ्य' ( उणादि पा. ४) परचमनं वस्खें, बत्थग्गहणेण चत्वाणि कंबलरयणपट्टी चीणसुयादीणि गहियाणि, गंधगहणेण कोट्टपुडाइणो गंधा गहिया, 'हग करणे' धातुः अलंपूर्वस्व घनत्ययः अलंकरणं अल- ८०॥ कारः, अलंकारग्रहणेण केसाभरणादिअलंकरणादीनि गहियाणि, 'त्य संघातशब्दयोधातः अस्य 'खायतेड्ड' ( उणादि पादः ४)IMI दीप अनुक्रम [६-१६] [85] Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [२], उद्देशक , मूलं H / गाथा: [६-१६/६-१६], नियुक्ति: [१५२-१७६/१५२-१७७], भाज्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक" नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक गाथा ||६-१६|| श्रीदश- अनुबंधलोपः, 'डिडा' (पा. ४-१-१५) परगमनं स्त्री, इस्थीग्गहणण विरूवरूवाणं इत्थीणं गहणं कर्त, 'शीर स्वमे' अस्य धातोः सुबन्ध्वावैकालिक ल्युट् 'युवोरनाका विति (पा.७-१.१) अन: आधातुके धातोगुणः एकार: अयादेशः परगमनं शयन, सयणग्गहणेण णाणा ख्यान चू! विहा सयणासणप्पगारा गहिया, चकारो निपात, चकारेण सव्व चव इविसयपरिमोगा गहिया, एते बखादयः परिभागाः २ अध्ययने । केचिदच्छंदा न भुजते नासौ परित्यागः, 'छदि अपवारण धातुः णिच् प्रत्ययः पुनः अन् अनुबंधलापः परगमनं नपूर्वस्य, न त्यजति, यदा णदो चंदगुत्तेग णिढो, ततो तस्स दारेण निग्गच्छंतरस दुहिया चंदगुने दिहिं बंधति, एवं अक्खाणयं जहा. आवस्सए। पजाब बिंदुसारो राया जातो, नंदसतीओ य सुबंधूनाम अमच्चो. सा चाणका.स्स पदोसमावणो छिङ्गाणि मग्गइ, अप्णया रायाणं| | विष्णबह जहावि तुमुदि अम्ह विच न देह तहावि अम्हहिं तुझ हियं वचव्यं, भगइ. तुम्ह माया चाणक्केण मारिया, रणा धाती पुष्ठिया, आमंति, कारणं न पूच्छियं, केणवि कारणण रपणा य स गासं चाणक्को आगओ जाच दि९ि न देइ, ताहे| चाणिक्को चिंता-रट्टो, अई गया ऊत्ति काउं दव्वं पुत्तपोताणं दाऊणं संगोबित्ता य गंधा संजाइया, पत्तयं च लिहिऊण सोवि | जागो समुम्गे इढो, समुग्गो पाउसु मंजूसासु हढो, तासु छुभित्ता ततो गंधांव्यरए लूटो, तं यहहिं सीलियाहिं सुपटियं करेचा दव्यजायं णाइवग्गं च कम्मे नियोएत्ता अडीए गोकुले इंगिणिमरणं अन्भुवगओ, रण्णा आपुच्छियं-चाणक्को किं करेइ , &ाघाती य से सव्वं जहाव परिक.इ, गहियपरमरण य भणियं-अहो मया असमिक्खियं कर्य, सवंतेउरओरोहबल समग्गो खाउंट निग्गओ, दिडो यण करिसि मझे ठिओ, खामिओ सबहुमाणं, भणियं चणे-नगरं बच्चामो, मणह-मए सब्बपरिकचागा | उचि, ती सुषुणा राया विष्णपिओ-अहं से पूर्व करेमि, अणुयाणह, अणुप्णाए धूर्व रहिऊण ताम्हि चैत्र एगप्पदंसे करिसरसो दीप अनुक्रम [६-१६] [86] Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [२], उद्देशक , मूलं H / गाथा: [६-१६/६-१६], नियुक्ति: [१५२-१७६/१५२-१७७], भाज्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक" नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक श्रीदश वैकालिक - - R २ अध्ययन गाथा ||६-१६|| ॥८२॥ R ESC- वरि ते अंगारे परिठवेइ, सो य करीसो पहितो, दडो चाणक्को, ताहे सुंचधुणा राया विष्णीवओ-चाणक्कस्स संतियं घरं मम | अणुजाणह, अणुण्णा गओ, पच्चुवेकखमाणेण य घरं दिवो अपवरगो घट्टिओ, सुबंधू चिन्तेइ-किमवि एत्थ, कवाडे भजित्ता उग्धाडिया जाव समुग्गं मतगंध सपत्तय पेच्छइ, ते पचयं वाण्ड, तस्स ब पचगस्स एसो अस्था-जो एवं चुण्य अग्धोत सो जइ महाति वा समालभइ अलंकारेइ सीतोदगं वा पिपति महीए सेज्जाए सुबइ जाणण गच्छद गंधर्व वा सुइ एवमादी अण्णे या इट्ठा विसया सेवइ जहा साहुणो अच्छति तहा सो जइन अच्छद तो मरइ, ताहे सुबंधुणा विष्णासणत्थं अण्णो पुरिसोअग्पाइचा सद्दाइणो विसया झुंजाविओ मआ य, ताहे सुबंधूषि जीवितासाए अकामो साहू जहा तहा अच्छद, कि सुबंधू वहा अकामा अतो साह मण्णइ', एवं वरथं गंधमलंकार इत्थीओ सयणाणि य अच्छंदा अभंजमाणा य जीवा णो परिचत्तमागिणो भवति । इत्थंतरे सीसो भणइअच्छंदाजे न भुजंति एवं बहुवयण भाणियव्यं, कहं पुण एगवयणेण ण दोसो?, जहा न से चाहचि, आयरिओ मणइ-विचित्तो सुत्तनिधो भवति, सुह मुद्दोच्चारणथं गंधलाधवत्थं च काऊण न एस दोसो मवइ । एवम जमाणो कामे संकप्पसकिलिट्टताए बागीन भण्णाइ,कई पुण चागी भवति', भण्ण 'जे यकंते पिए भोए,लद्धे विम्पिट्टिकुब्बा (स.८ सिलोगो चेव बत्तव्यो, जेति अविससियाणं गण, 'कमु कान्ती' धातुः, अस्य निष्ठाप्रत्ययः क्तः अनुबंधलोपः अनुनासिकस्य ती मलोपः आगारः परगमनं, कमनीयाः कान्ताः शोभना इत्यर्थः, पिया नाम इटा, भोगा-सहादयो विसया, एत्थ सीसो पुण चापति गणु जे कंता ते चव पिया भवंति', आचार्यः प्रत्युवाच कंता नामेगे को पिया पिया णामेगे जो कंता २एगे पियावि कंतावि३ एमे जो पिया णो कंता ४, किं कारणं, कस्सवि केतसु तयुद्धी उप्पज्जा, करसह पुण अकसवि कपड़ी उप्पज्जा, अहवा जे चेव अण्णस्स कंवा ते चव %E - दीप अनुक्रम [६-१६] Reles CRECRUC4k% [87] Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [२], उद्देशक , मूलं H / गाथा: [६-१६/६-१६], नियुक्ति: [१५२-१७६/१५२-१७७], भाज्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक" नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक २ अध्ययन गाथा ||६-१६|| % | अण्णस्स अकंता, भणिय च-"चहिं ठाणेहि सन्ते गुणे णासेज्जा, ते रोसेणं पडिणिवेसण अकयण्णुपत्ताए मिच्छत्ताभिणिवेसेण" निस्स्वोऽपि वैकालिका मणियं च-"अनस्स पिया वासी माती अन्नस्स बेसरी किसरा । अन्नस्स फारिया दरिया य पहुनेहलो लोगो॥१॥"लद्धा त्यागी चूणौँ नाम ते विसया सद्दाइणो उवभोगचाए उवणया, 'विप्पिट्टि कुमा' तओ भोगाओ विविइहि संपण्णा विपट्टीओ उ कुष्पइ, परि |चयइत्ति वुत्तं भवद, अहवा विप्पढि कुवंतित्ति दूरओ विवज्जयंती, अहया विप्पद्विन्ति पच्छलो कुबइ, ण मग्गओ, साहीणे चयइ । भोगे, पुणो सीसो आह-लद्धे विधिपट्टि कुपइत्ति लग्गहणण चेव साहीणगहणं कयंति', आयरिओ आह-साहीणग्गहणेग सो ॥८३॥ भोगो साहाणो गेज्झति, साहिणो गाम कल्लसरीरो, मोगसमत्थोति बुत्तं भवइ, न उम्मनो रोगिओ पवसिओ वा, वितिय र मोगग्गबण (किं.) संपुण्णभोगग्गहणस्थ कीरह, आयरिओ आह-संपुष्णेसु भोगेसु चायित्तं तस्स भाइ जे एरिसे मांगे चयइ, एत्थ || दिद्रुतो भरहणामा, जहा सो भरहो जंबूणामो य, नारिसेवि रिद्विविसेस जहिऊण भगवन्तसासणे ठिया ते चागिणो भण्णंति, सीसो आह-जद्द भरहजबुणामाइणो जे संते भागे परिच्चयंति ते परिच्चाइणो, एवं ते मर्णतस्स अयं दोसो भवइ-जे कइ अस्थसारहीणा दमगाइणो पघाइऊणं मावओ अहिंसाइगुणजुत्त सामण्णे अध्भुज्जुय। ते किं अपरिच्चागिणो भवंति, आयरिओ आह-तेभव | तिष्णि रतणकोडीओ परिच्चाऊण पब्बइपा-अग्गी उदगं महिला, तिण्णि रयणाणि लोगसारााण परिच्चइऊण पब्बइया, दिढतोएमो पुरिसो सोहम्मसामिणो सगासे कट्टहारओ पब्बइमओ, सो भिक्खं हिंडतो लोगेण भण्णइ-एसो सो कढहारओ पन्चइओ, सो ॥८३॥ सेहत्तणण आयरियं भणइ-मई अण्णस्य गेह, अहं न सक्कनि अहियासेत्तए, आयरिएहिं अभओ आपुच्छिा -बच्चामो, अभयो भणइ-मासकप्पपायोग्ग खेत्तं किं एवं न भणद, जेण अण्णत्व बच्चह, आयरिएहि मणियं-जहा सेइनिमितं, अभयो भणइ % दीप अनुक्रम [६-१६] [88] Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [-] गाथा ||६-१६|| दीप अनुक्रम [६-१६] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र- ३ (निर्युक्तिः + भाष्य | + चूर्णि:) अध्ययनं [२], उद्देशक [-] मूलं [-] / गाथा: [ ६-१६ / ६-१६], निर्युक्तिः [ १५२ - १७६ / १५२-१७७], भाष्यं [ ४ ...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्ण : श्रीदशवैकालिक २ अध्ययने ॥ ८४ ॥ अच्छह बीसत्था, अहमेतं लोग उपाएणं निवारेमि, बितिय दिवसे विष्णि सुवण्णकोडीओ ठवियाओ, उन्घोसाविय नगरे, जहा अभय दाणं देइ, लोगो आगओ, भणित चणेण तस्साइं एताओ तिष्णि कोडिओ देमि जो एताई तिष्णि परिहरइ-अरिंग पाणियं महिलं, लोगो भाइ एतेहिं विणा किं सुवष्णकोडीहिं १, अभयो भणइ ता किं भगह दमउति पञ्चइओ, जोवि निरस्थओ पण्यइओ तणाव एयाओ तिष्णि सुवणकोडीओ परिचचाओ, सच्चे सामी, ठिओ लोगोति तम्हा अत्थपरिणोऽवि संजमे ठिओ तिष्णि उ लोगसांराणि अरिंग उदगं महिलाओं य परिवज्र्ज्जतो चाइचि लम्भः। एवं तस्म संजमे ठितस्स कस्सर कदाह मणं चंचलतणेण माउग्गामेण सह अभिसंधारणं भवेज्जा तेण कई कायव्यं १, भण्इ- समाए पेहाए परिथ्वयंतो सिया भणो णीसरई वहिदा (९-९३) सिलोगो, समा णाम परमप्पाणं च समं पास, णो विसमं, पेहा णाम चिन्ता भण्णह, परिव्वयंतो णाम जो सच्चप्पगारण संजमाहिगरिहिं उज्जमंतो, परिव्वयंतो णांम गामणगरादीणि उपदेसेणं विचरतोत्ति बुलं भवइ तस्स, एवं पसत्थे हिं झाणठाणंहि वट्टंतस्स मोहणीयस्स कम्मरस उदएणं वहिदा मणो णोसरेज्जा, बहिद्वा नाम संजमाओ चाहिं गच्छइ, कई ?, पुत्रस्याणुसरणेणं वा त्तभेोइणा अनुत्तभोगियो वा कोहलबचियाए, तत्थ उदाहरणं जहा एगो रायपुतो बाहिरियाए उबट्टणसालाए अभिरमंतो अच्छछ, दासी य तेण अंतण जलभरिवघडेण वोलेह, तओ तेण दासीए सो घडो गोलीए भिष्णो, तं च अद्धिति करेंतिं दण पुणरावची जाया, चिंतियं च जे चैत्र रक्खगा ते विलोवगा किंत्थ कुवि रुक्का ? | उदगाओ समुज्ज लिओ क मग्गी विज्झतव्ये ॥ १ ॥ तो पुणवि चिखलगोलीएण तक्खणा चैव लहुत्थयाए तं पछि ढक्के, एवं जर संजतस्स संजम करेंतस्स बहिया मणो णिग्गच्छ तत्थ पसंत्थेण परिणामेण तं असुहसंकम्पछि चरिचजल र खण्डाए ढक्के [89] मनोदमनं ॥ ८४ ॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [२], उद्देशक , मूलं H / गाथा: [६-१६/६-१६], नियुक्ति: [१५२-१७६/१५२-१७७], भाज्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक" नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: - प्रत सूत्रांक H गाथा ||६-१६|| IA तम्ब, कई ?, 'ण सा महं णोवि अहंपि तीसे' तत्थ नगारो पडिसेहे वइ, सा इति पुचभोइणीए ग्रहणं महं, ण य अहमवि आ ताप तीसेति, तत्थ उदाहरण-एगो बणियदारओ सेहो जायं उज्झिय पवइओ, सो य ओहाणुप्पेही, जया इमं च घोसेर 'ण सा मह णो-12 नादि वि अहंपि तीसे' चरित्तजलक्खएक अहमपि तीस सा ममाणुरचा, कहमहं तं छहामित्तिकाउं गहियायारभंडगगेवत्यो घेवा य संपद्रितो, गओ तं गाम जत्थ सा, सो य निवाणतडं संपतो, तत्थ सा पूब्धजाइया पाणियस्स आगया, सा य साविया जाया, पच्वइउकामा, एताए सण्णइओ, इतरो तं ण याणद, तेण सा पुच्छिया-सा अमुगस्स धुया किं मया, सो चिंतेइ-जइ सासंधरा तो ॥८५॥ उपव्वयामि, इयरहा ण, ताए पायं, जहा एस पव्वज्ज पयहिउक्कामो, तो दोवि संसारे भविस्सामोति, भणियं अणाए-सा अण्णस्स दिण्णा, ततो सो चिंतिउमारदा-समचं भगवतेहिं साधूहिं अई पाढितो 'ण सा मह णोवि अहंपि तीसे' परमं संवेग-1 मावण्णो, भणियं चाणेण-पडिणियत्तामि, तीए बेरम्गमगपडिउत्ति गाऊण. अणुसासिओ-'अणिच्चं जीविय, कामभोगा इत्तिरिया | एवं तस्स केवलिपन्नत्तं धम्म कहेइ, अणुसट्ठो, जाणाविओ य, पडिगओ आयरियसगासं, पञ्चज्जाए थिरीभूओ, अप्पा साहारेत ब्बो जहा तेणते, इच्चे तत्थ 'विणएज्ज राग रंज रागे' धातुः अस्य धातोः भावे घबू प्रत्ययः "घीज च भावकरणयो"रिति XI(पा. ६-४-१७) अनुनासिकलोपवृद्धिः, रंजनं रागः एयारिसे चरितरे समुप्पण्णे विविहेहि विणएज्ज रागे, दमेज्जति बुमा भवइ, जहा विणीए सीसे विणीए अस्सेत्ति, एवं ताच मणसो णिग्गहो भणिओ, सो य न सक्का उबचियसरीरेण णिग्गहेडे,ला भणियं च-"चउहि ठाणेहिं मेहुणं समुपज्जिज्जा, तं० चियमंससोणियत्ताए मोहणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं, मतीए, तदवोवओगण" तम्हा कायवलनिग्गहे इमं सुन भष्णइ SAC%5% नामनाNDRAMANRAIL दीप अनुक्रम [६-१६] ८५॥ A समानाम [90] Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [२], उद्देशक , मूलं H / गाथा: [६-१६/६-१६], नियुक्ति: [१५२-१७६/१५२-१७७], भाज्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक H गाथा ||६-१६|| 1 आयावयाही चय सोगमल्लं, कामे कम हि कमियं खु दुवं । छिंदाहि दोस विणएज्ज राग, एवं सुही वैकालिक होहिसि संपराए (सू. १०-९५) आयावयाहि उड्डवाहू, एगग्गहणे तज्जाइयाण गहणंति न केवलं आयावयाहि, ऊणोदरिय-x &ारलंबन Jमवि करेहि, आयरियाईणं काजे समुप्पणे अद्धाण गच्छाहि, जो बहुस्सुओ सो सुत्तस्थाणि दवाविज्जा, चय सोगमल्लं२ अध्ययन ति चयाहित्ति वा छडेहित्ति वा जहादित्ति वा एगट्ठा, सुकुमाल भावो सोकमल्लं, सुकुमालस्स य कामेहि इच्छा भवइ, कमणिज्जो ॥८६॥ठायत्रीणां भवति सुकुमाला, तम्हा एवं सुकुमारभाव छोहिनि, कामे कमाहि एतेण आयावयाणा कायकिलेसेणं अप्पसस्था IN इच्छा. मयणकामा य कमाहि, कमाहि जाम पिदुओ कोहि, अतिक्कमाहिति वृत्तं भवति,ते पुण कया कामा अतिक्ता भवति', पत्थ भण्णा--'कमियं खु दुक्स्वं, कमियं णाम कामहिं अतिक्कतेहि संसारियं दुख कंतमेव भविस्सइत्ति, छिंदादि दोसं विणएज्ज रागमिति, ते य कामा सद्दादयो विसया तेसु अणिद्वेसु दोसो छिदियव्वो, इट्ठसु बढ्तो अस्सो इच अप्पा विणयियब्यो, कारागं न गच्छियव्यंति वुर्स भवति, रागो दोसो य कम्मबंधस्स हेउणो भवति, सम्वपयत्तेण ते वज्जणिज्जन, तओ तेसु विजिएसू दाकि भविस्सतित्ति, एवं भण्णइ-एवं सुही होहिसि संपराए एवं तुम जयंतो संपरातो-संसारो भण्णइ जाव ण परिणेब्वाहिसि ताब दुक्खाउले संसारे सुद्दी देवमणुएसु भविस्सासि, जुस भण्णाइ, जया रागदोसे मज्झत्थो भविस्सति तओ(जिय)परीसहसंपराओ सुही भविस्ससिनि,किंच-संजमे विसीदंत अप्पाणं इमेण आलंबणेण साहारेज्ज,जहा-पकावंदे जलियं जोई, धूमकेउंदुरासयं । दाणेच्छति तयं भोत्तुं, कुले जाया अगंधणा ॥ (सू. ११.९५) 'स्कंदिर गतिशोषणयोः धातुः,अस्य धातोःअल प्रत्ययः अनुला ॥८६॥ बंधलोपः परगमन स्कंदः, तथा प्रातिपदिकार्थे सप्तम्यधिकरणे कि अनुसंधलोपः 'आद् गुणः' (पा. ६-१८-७) सस्य, स्कन्दो, Iti SPRECARXAM-kc- AkCKS दीप अनुक्रम [६-१६] - [91] Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [२], उद्देशक , मूलं H / गाथा: [६-१६/६-१६], नियुक्ति: [१५२-१७६/१५२-१७७], भाज्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक H ARK गाथा ||६-१६|| श्रीदश- अतीच स्कन्दः पर्खदान पुत्री भवइ, जलओ लोगपसिद्धी चेव, जोतिग्गहणेण अग्गिणो गहणं कर्य, जोती अग्गी भण्णइ, धूमौ पातान्मरणं ताप वैकालिकातस्सेव परियायो,केऊ उस्सओ चिर्ष बा, सो धूमे केतू जस्स भवा धूमकेऊ, सीसो आह-जोइगहणे कए जं पुणो जलियगहणं च श्रेय चूर्णी करसि तण्णु पुणरुतं, आयरिओ आहजलियााहणं मुम्मुर दिनिसेहर्थ, धूमग्गहणं उक्कादिपडिसेहत्व, दुरासयो नाम डहणसम२ अध्ययनेस्थतणं, दुक्ख तस्स संजोगो सहिज्जा दुरासो तेण, अतो एवंगुणजातीयं किर अगणि पविसति अगंधणकुलजातिजा य जागा. It मन य इच्छति तयं पुणो पहिआइउं, तत्थ नागाणं दो जातीयो-गंधणा य अगंधणा य, तत्थ गंधणा णाम जे इसिऊण गया ॥८७॥ 11 मंतेहिं आगच्छिया तमेव विसं वणमुहड्डिया पुणो आविय ते ते, अगंधणा णाम मरणं ववसंति ण य वतयं आवियंति, उदाहरणं जहा दुमपुफियाए सब्वं तदेव. एत्थ पुण सुत्तट्ठाणमसुण्णं भवतु, जाव तेण सप्पेण आहिंडियणीयेण मरणमन्वगतं. णय तं विस पडिआतीय, वन्तमितिकाउं, एवं साहुणावि चिंतेयचं जइ णानाविरएण होऊग. धर्म अयाणमाणेण कुलमवलंबतेण य जीवियं परि. च्चत्तं ण य वन्तमावीत, किमंगपुण मणुरसैण जिणवयणं जाणमाणेण जातिकुलमत्तणो अणुगणितेणं, तहा करणीयं जेण सद्देण दोसे पण भवइ अषिय-मरणं अज्झयसियध्वं, ण य सीलविराहणं कुज्जा, किं कारण एवं ववसिय सरीरविणासं करेही, पबझ्या पोरवंते) भोगे पुणो सेचिज्जंता अणाईए अणपदग्गे दीहमद्धे संसारकंतारे तासु तासु जासु बहूणि जम्मणमरणाणि पाचंति,एयंमि अत्थे विनियं सवित्थर उदाहरणं मण्णइ, जदा अरिडनेमी पब्बइओ तदा रहनेमी तस्स जेहस्स भाउओ रायमई उवचरइ, जइ णाम एसा * ॥८७॥ मई इच्छेय्य, सावि भगवती णिविणकाममोगा, णातं च तीए जहा एसो मइ अझाववणी, अण्णया य तदा महुपयजुत्ता पेजा पीया, रहणेमी आगओ, मदणफलं मुहे काऊणं तीए वन्तं, मणियं च एवं पेज पीयाहि, तेणं भाणय-कई बतं पिज्जा, तीए भ XA4% दीप अनुक्रम [६-१६] [92] Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [२], उद्देशक , मूलं H / गाथा: [६-१६/६-१६], नियुक्ति: [१५२-१७६/१५२-१७७], भाज्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक गाथा ||६-१६|| श्रीदश- णिओ-जइन पिज्जइवतयं तो अहंपि अरिडुनेमिसामिणा वन्ता कह पिबिउसि? धिरत्यु ते जसोकामी, जोतं जीवियकारणा। कुलीनकार्य वैकालिकावतं इच्छसि आवेळ, सेतं ते मरणं भवे । (सू.१२.९६) घि निंदायां 'असु भुविधातुः, अस्य विधिनिमंत्रणा' 'लो' (च पा चूण ३-३-१६२) अनुबंधलोपः, लस्य तिप् 'ए' रिति (पा ३-४-८६) उचं शप् 'आदिप्रभृतिभ्यः शपः' (पा. २-४-१२) लुक परग२ अध्ययना मनं, धि पूर्वस्व घिरस्तु, घिरत्थु तुम्भं जसोकामी, जसोकामिणो खनिया भणंति, अहवा धिरत्थु ते अयसोकामी, गंथलाघवत्थं अकारस्स लोचं काऊणं एवं पढिज्जइ 'घिरत्थु तेऽजसोकामी"जो तं जीवियकारणा'जो तुम इमस्स कुसग्गजलबिंदुचंचलस्स जीबियस्सा अट्ठाए भाउणा वन्तं इच्छसि आईउं, एवं पेज्जं णेच्छसि, एवं ते सेयं मरणंति, धम्मो य से कहिओ, संबुद्धो पवइओ य, रायमई-IP |वितं चोएऊण पवाया, पच्छा अण्णदा कदाइ सो रहनेमी बारवईए भिक्खं हिंडिऊण सामिसगासमागच्छंतो वासबद्दलएण अब्भा हतो एक्कं गुहं अणुष्पविट्ठो, राईमई य सामिणो बंदणाए गया, बंदिय पडिस्सयमागच्छइ, अंतर परिसिउमाढतो, तिता य तमेव । | गुहमणुपविट्ठा जत्थ सो रहनेमी, वस्थाणि य पबिसारिया, ताहेतीए अंगपच्चंग दिटुं. सो रहनेमी तीय अज्झविवण्णो, दिवो या णाए, इंगियागारकुसलाए य नाओ अस्सोमणो भावो एतस्स,ताहे सा भणइ-'अहं च भोगरायस्मतं चऽसि अंधगवपिहणो। मा कुले गंधणा होमो,संजम निहुओ चर ।। (१३-९६) भोगा खत्तियाणं जातिविसेसो भण्णाइ, जहा बद्धमाणसामिकुलुप्पण्या: राणाया खत्तिया भण्णति, एवं उग्गसणावि भोगकुलिओ भण्णइ,तस्स अहं भोगराइणो धृया, तुमं च तस्स तारिसस्स अंधयवण्हिणो कुले पसूओ समुद्दविजयस्स पुत्तो, ता एवं दोणिवि महाकुलप्पस्याणि मा गंधणणागसरिसाणि भवामो, हेट्ठा अभिहितं सब्बल रहणेमिस्स कहया, तंजहा-अगंधणकुलप्पसूया सप्पा पचव वंतं पडियाइयंति तहा वयंपि भोगे पयहिऊण सबभावेण मा ते चेवर दीप अनुक्रम [६-१६] । [93] Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [२], उद्देशक , मूलं H / गाथा: [६-१६/६-१६], नियुक्ति: [१५२-१७६/१५२-१७७], भाज्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक" नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक H गाथा ||६-१६|| ॥८॥ श्रीदश-&-पडियाइयामो, अहवा कुलगंधिणो कुलपयमा मा भवामो, तम्हा तुम संजममेव सव्वदुक्खनिवारणं निहुओ चराहि, किंच-सा पुण । बैंकालिकाभणा 'ज-काहिसि भावं, जा जा दिच्छसि नारीओ। वायाइन्द्रोब्ब हढो, अद्विअप्पा भविस्ससि ॥ (सू.१४-९६) तोटा चूर्णी 2'शिर् प्रेवणे' धातुः, अस्य धातोः भविष्यति 'अनयतने लुद्' (पा.३-३-१५) 'स्यतासी ललुटो': पा. ३-१-३३) लट् प्रत्ययःटू २ अध्ययन अनुबंधलोपः मध्यमपुरुषः सिप आनुषानुबंधलोपः स्यतासीस्पप्रत्ययः 'वश्वभ्रस्जसृजमृजाजराजभ्राजमा मा (पाः --२-३६) बापत्वं 'पदोः कस्से (पा. ८-२-४१) कत्वं 'इको ' (पा. ८३-५७) सापेक्षप्रत्यययोः (पा. ८-३-५९) षत्वं सृजिदृशोझल्यमकिति' (पा.६-१-५८) अ,यणादेशः परगमनं द्रक्ष्यसि,संति इत्थीओ दरिसणिज्जाओ ताओ दळूण जइ मावं करेहिसि-प्रार्थना अभिप्राय तो तुम अणंतरयणाए पुढपीय वायाइछोविष हढो अद्वितप्पा भविस्सासि, इढो णाम वणस्सइविसेसो, सो दहतलागादिषु छिण्णमूलो भवति, तथा वातेण य आइद्धो इओ इओ य निज्जइ, तहा तुमंपि एवं करेंतो संजमे अबदमूलो समणगुणपरिहीणो केवलं दम्बलिंगधारी भविस्ससि ।। तीसे सो वयणं सुच्चा, संजयाए सुभासियं । अंकुसेण जहाणागो, धम्मे संपदिवाइओ(सू.१५-९६) 'वैश्रवणे धातुः, अस्य धातोः 'समानकर्तृकयोः पूर्वकाले क्त्वा' (पा.३-४-२१) प्रत्ययः अनुबंधलोपः गुणप्रतिषेधः श्रुत्वा, 'तीसे' ति वीय रायमतीय सो स्थनेमी एवं सुणेऊण वयणं अण्णाणि य धम्मसंताणि सुभासियाणि सोऊणं जहा सो अंकुसेण णामो, एत्थ उदा- ८९॥ हरण-वसंतपुरं गगरं, तत्थ एगा इब्भवहुगा नदीए हायइ, अण्णो य तरुणो दण तं भणइ-'सुण्हायं ते पुच्छइ एस नवी पउरसोहियतरंगा। एते य नदीरुक्खा अहं च पादेसु ते पणतो ॥१॥ ताहे सा पढिमणइ- सुहगा होंतु णदीओ।3। दीप अनुक्रम [६-१६] [94] Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [२], उद्देशक , मूलं H / गाथा: [६-१६/६-१६], नियुक्ति: [१५२-१७६/१५२-१७७], भाज्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक २अध्ययन गाथा BAR ||६-१६|| श्रीदश- चिरं च जीवंतु जे नदीकक्खा । सुण्हायपुच्छयाणं घत्तीहामो पियं काउं ॥२॥ सो य तसे घरं वा वारं ग याणइ,3/नूपुरपंडिवैकालिकालातीसे य बितिज्जगाणि चडरूवाणि रुक्से पलोयंताणि अच्छंति, तेण ताणं पुफफलाणि मुबहणि दिग्णाणि, पुच्छियाणि य-का। तातोदारहणं चूणों एसा, ताणि भणति-अमुगस्स मुण्डा, सो यतीए विरहं न लहइ, तओ परिवाइयं ओलग्गिउमाढत्तो, भिक्खा दिण्णा, सा तट्ठा भणइ- किं करेमि ओलग्गाए फलं , तेण भणिय- अमुगस्स सुण्डं मम करण भणाहि, तीए गंतूण भणिया-अमुगो ते एवंगुण॥९॥लाजातीओ पुण्छद, एसा रुट्ठा, एयाए तुल्लगाणि घोबतीए मसिलित्तएण इत्थंण पट्टीए आहया पंचंगुलयं, अवदारेण निच्छदा। गया तस्स साहद, नामपि सा तव न सुणेइ, तेण णायं-कालपंचमीय अवदारेण अतिगंतब्ब, अतिगओ य, असोगवणियाए मिलियाणि, सुचाणि य जाव पस्सावगएण समुरेण दिट्ठाणि, तेण णायं ण एस मम पुत्तो, पच्छा पायाओ उरं गहिये, चेतियं च, तीए सो भणिओ-पास लहूं, आवइकाले साहेज्जं करेज्जासि, इयरी गंतूण भत्तारं भणइ- एत्थ धम्मो असोगवणिय बच्चामो, गतूण | सुचाणि, खणमेग सुविऊण भत्तारं उद्दघेड, भणइ य-तुभ एवं कुलाणुरूव १ जेण मम पायाओ समुरो उरं काइ, सो भणइ-सुय लापमाए लम्मेहित्ति, पभाए थेरेण सिहूं, सोरुहो भणइ विवरीयं, थेरोवि भणति-मया दिट्ठो अपणो पुरिसो, विवादे जाए सा भणइ| अहं अप्पाणं सोहयामि, एवं करेहि, ततो ण्हाया कयबलिकम्मा गया जक्खघरं, तस्स जक्खस्स अंतररेणं गच्छंतो जो कारी सो लम्गइ, अकारी नीसरइ, ततो सो विडप्पितयमो पिसायरूवं काऊण निरंतरं घणं कंटे गण्डइ, तओ सा गंतूर्ण तं जक्खं मणइ-जो मम मातरपितिदिण्णा भत्तारो तं च पिसायं मोतूण जइ अण्णं पुरिसं जाणामि ता में तुम जाणेज्जासिति, जक्खा विलक्खा | चिंतेह अईपि वंचिओ एताए, णस्थि सतित्तणं धुत्ताए, जाब जक्खो चिंतेइ. ताव सा निष्फिडिया, तो सो थेरो सम्बलोगेण 120 दीप अनुक्रम [६-१६] [95] Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [२], उद्देशक , मूलं H / गाथा: [६-१६/६-१६], नियुक्ति: [१५२-१७६/१५२-१७७], भाज्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक" नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक गाथा ||६-१६|| श्रीदशIN विलक्खीकओ, तो थेरस्स ताए अद्धितीए निदा गड्ढा, रणो य कण्ण गतं, रण्णा सहावेऊण अंतेउरपालओ कओ, अभिसे भसाहनपुरपंडिवैकालिक च हत्थिरयणं वासघरस्स हेट्ठा बद्धं चिट्ठइ, हो य एगा देवी इथिमिथे आसत्ता, णवरं हतं धेरो पेच्छद, चितियं चऽणेण-एवं | तोदाहरणं चीदा रक्खेज्जमाणीओ एताओ एवं विहरंनि किनु पायताओ सदा सच्छंदाउत्ति पसुत्तो, पभाए सबलोगो उडिओ, सोण उड्डेइ, रण्णो २ अध्ययने है कहिय, रण्णा भणिय सुवउ, चिरस्सविय उद्दविओ, पुच्छिो य, कहिय-सव्वं भणेति, भणति- जहा एगा देवी, ण याणामि | कतराचि, तओ राइणा भंडहत्थी कारिओ, भणियाओ- एतस्स अच्चणिय काऊण उलंडेह, सवाहिं उलेंडिओ, एगा णेच्छइ,15 ॥९ ॥ मणइ य- अहं बीइमि, तओ रणा उप्पलेणाया, पडिया, रण्णा जाणिया एसा कारिचि, मणिय चणण- मलंगतआरुहंतीए भंडमयस्स गयस्स बीहेहि (हन्तीए)। तत्थ ण मुच्छिय संकलाहया, एत्थऽसि मुच्छिय उप्पलाइया।।१।। तओ सरीरं जोइय, जाव संकलप्पहारो दिडो, तओ रुद्रुण रण्णा देवी मेंठो य हत्थी य तिण्णिवि छिण्णकडगे चढावियाणि, भणिओ य मिठो-एत्थ बाहेहि, हत्थीस्स दोहि य पासेहिं वेलुअग्गहाओ ठिया, जाव एगो पाओ आगासे ठविओ, जणो भणइ- किं एस तिरिओ जाणइ ?, एताणि मारतव्याणि, तहवि राया रोसन मुबह, तओं तिणि पादा आगासे कया, एगेण ठिओ, लोगेण य फओ अकंदा, कि तं हस्थिरतणं विणासिज्जा, रण्णा मेंठो मणिओ- तरसि नियत्तेउं', भणइ-जइ दुयगाण अभयं देसि, दिण्णो, नियत्तिओ हत्थी अंकुसेण, एवं नहा से णागो तेण मिठेण तमावई पाविओवि एरिसे ठाणे अंकुसण आहओ जेण पादं भमाडेऊण चउसुवि ॥११॥ पादेसुवि धरणितले ठिओत्ति, तहा रहनेमीवि रायमतीए संसारभउब्बेगकरेहिं वयणेहि तहा अणुसासिओ जेण संजर्म पुणरवि संपडिवण्णोति ॥ दीप अनुक्रम [६-१६] [96] Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [२], उद्देशक , मूलं H / गाथा: [६-१६/६-१६], नियुक्ति: [१५२-१७६/१५२-१७७], भाज्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक" नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक वैकालिका H गाथा ||६-१६|| श्रीदश- 15एवं करेंति संपपणा, पंडिया पवियक्खणा। विणियद्वृति भोगेसु, जहा से पुरिसोत्तमोत्ति त्तियोमि (सू१६-९६) मोगनिएक्सदो अवधारणे वइ, किमवधारयति , जहा रहणेमिणा रायमतीचयणाई धम्मियाई सोऊण मणो दुप्पउत्तो नियत्तिओ, एवंद प्रत्तिः चूर्णी साहुणावि संजमातो नीसरमाणो णियत्तेयब्बो, संपण्णा णाम पण्णा-बुद्धी भण्णाइ, तीय बुद्धीय उववेता संपण्णा भण्णंति, पंडिया पाण्डित्यं ३ अध्ययने णाम चत्ताण भोगाणं पडियाइयणे जे दोसा परिजाणती पंडिया, पविक्खणा णामावज्जभीरू भणंति, बज्जगीरुणो णाम संसार॥९२॥ भउम्बिग्गा धोबमविपावं णेच्छति, विणियद्दति णाम विविहेहिं पगारहिं भोगेहिं अभिलसमाणं जीयं नियडेति, जहा पुरिसुत्तमोति स्थनेमित्ति वुत्तं भवति, बेमिणाम मणगपिया भणति-नाई स्वाभिप्रायेण ब्रवीमि, किं तर्हि ?, तीर्थकरस्य सुधर्मस्वामिन उपदेशाद् बवीमि । इदाणिं नया, 'णापंमि गेण्डितब्बे अगिहियवंमि चेव अत्थंमि गाहा||शा'सव्वेसिपि नयाणं बहुबिहवत्तव्वयं णिसामेत्ता । तं सवनयविमुद्धं जं चरणगुणढिओ साह ॥ १ ॥ एताओ गाहाओ पढियथ्याओ। श्रामण्यपूर्व| कस्य चूर्णी समाप्ता॥ वितियजायणं घिईणिमित्तं परूवियं, इदाणि दढधितियस्स आयारो भाणितम्बो, अहवा सा धिती कहिं करेय्या , आयारे, एतेण अभिसंबंधेण खुड़ियायारकहाओ, तस्स चचारि अणुओगद्दारा जहा आबस्सगचुण्णीए नवरं इह नामनिष्फण्णो निक्खेवो खुड़ियायारकहत्ति, महंती आयारकहूं पण इयं खुडियायारकहा भण्णइ, साय महती आयारकहा धम्मत्यकामा भण्णव, तम्हा मण्याइ सुडो निक्खिवियथ्वो आयारो निक्खित्रियम्बो कहा निक्खिवियचा, तत्थ पुचि खुडओ निक्खिवियवो, सो य अचं महत्यं पडच्च खुडओ भष्णइ, सं महतं ताप परूवोम, तं च महंत अवविहं भवइ त नामंठवणादविए खेत्ते काले पहाण पड़ दीप अनुक्रम [६-१६] +OCACCES + अध्ययनं -२- परिसमाप्तं अध्ययनं -३- 'क्षुल्लकाचार' आरभ्यते [97] Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [३], उद्देशक H, मूलं | गाथा: [१७-३१/१७-३१], नियुक्ति : [१८०-२१७/१७८-२१५], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: सूत्राक वैकालिक चूणों २ अध्ययन गाथा ||१७ ॥१३॥ ३१|| भावे । गाहा १९८०-१००) णामठवणाओ गयाओ, तत्थ दव्यमहन्तं अचित्तमहाखंघो भण्णाद, सो किर मुहमपरिणामपरिणओमहालक अणताणत्तपएसिया खंधा तं तहाभावं परिणमति जेण सबलोग पूरेइ, जहा केवलीसमुग्धायादओ, दंडकवाढमर्थतराणि य चउत्थे | PI निक्षेपाः समए पूरेइ, एवं सोऽवि चउत्थे समए सच्चं लोग पूरेचा पडिनिय तह, एयं दब्बमहन्त, खेतमहन्तं नाम सव्वागास, कालमहंतं || सम्बद्धा भण्णइ, पहाणमहतं तिविह, तं०-सचित्तं अचित्तं मीसयं, तत्थ सचित्तं तिविह-दुपदं चउपदं अपदंति, तत्थ दुपदपहाणो तित्थगरो, चउप्पदाणं हत्थी, अपयाणं पणसं, अरविंद वा, अचित्ताणं बेरुलियरयणं पहाणं, मीसगाणं च भगवं तित्थगरो वेरुलियादीहिं विभूसिओ, पहाणमहंत सम्मन, इदाणिं पडुच्चमहंत भण्णइ- आमलगं पडच्च बिल्लं महल्लं बिल्लं पपुच्च कविट्ठ महंत एवमादि, भावमहतं णाम तिविहं पण्णचं, तं- पाहण्णओ कालओ आसययोति, तत्थ पाहण्णतो सम्बमावाणं खाइओ भाको भावमहतो, कालओ पप्प पारिणामिओ भावो पहाणो, किं कारणं, जेण जीवदवा अजीवपरिणामेण अजीवदव्वा य जीवपरि-18 णामेण ण कयाइ परिणमंति, आसयओ उदइओ भावो पहाणो, किं कारणं, जेणेव बहुतरगा जीवा उदइए भावे आवस्सिया, उदइए भावे वदृतिचि बुत्वं भवा, भावमहतं गधं ।। इयाणिं एयरसेव महंतयस्स पढिवक्खो खुल्हयं निक्खिवियच्वं, तंपि। अङ्कविहं एवं चेव भवइ, नामठवणाओ तहेव, दवखुड्डयं परमाणू, खेत्तखुड्यं एगो आगासपएसो, कालखुड्यं समयो, पहाणसुइयं तिविह, त-सचिन अचित्तं मीसग च, तत्थ सचिचं तिविहंन्दुपयं चउप्पयं अपयं च, तत्थ दुपयाणं. पहाणखुड्डयं लब- ॥९३ ।। | सत्तमा देवा, पंचण्हवि सरीराण सब्बसुड्डलयं आहारगसरीराणि, चउप्पयाण पहाणं सब्बखुडलयं सीहो, अपयाणं आगासपुप्फं जाइपुष्कं चा, अचित्ताणं बरं, मीसयं ते व लवसत्तमा देवा सयणिज्जगया,पहाणखुडलयं गयं,इदाणि पडुच्चखुड्डुलय भण्णइ दीप अनुक्रम [१७-३१]] %25ASSOCIAL [98] Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक H गाथा ||१७ |३१|| दीप अनुक्रम [१७-३१] "दशवैकालिक" - मूलसूत्र -3 (निर्युक्तिः + भाष्य | + चूर्णि:) अध्ययनं [३] उद्देशक [-1. मूलं [H]/ गाथा: [१७-३१ / १७-३१] निर्बुक्ति: [ १८०-२१७ / १७८-२१५] आयं [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [ ४२ ], मूलसूत्र [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: - श्रीदशवैकालिक चूर्णां २ अध्ययने ॥ ९४ ॥ - बिलं पडुच्च आमलये खुड्डलयं एवमाई, भावखुड्डलयं खाइयभावो, किं कारणों, सच्वत्थोवा जीवा खाइए भावे वति, खुड्डउत्तिदारं सम्मतं ॥ इदाणिं आयारोतिदारं- 'पतिखुइएण पगते' गाहा ( १८१-१००) सो य आयारो चउब्विहो-नामायारो उप०दष्ब० भावायारो य णामठवणाओ गयाओ, तत्थ दव्वायारो नाम जहा दव्वं आयरस, आयर णाम आयरयतित्ति वा तं तं नावं गच्छ इत्ति वा आयरइति वा एगड्डा, सो य दव्वायारो इमाए गाहाए अणुगतब्बो नामणघोषणवासण गाहा (१८२-१००) तत्थ नामणायारं पडुच्च दुविहं दयं भवति, तं० नामणायारमंतं अणायारमेतं च तत्थ नामणायारमंत दव्वं तिणिसा, सया जो पामिज्जमाणोवि न भज्जद, जति पुण सो भज्जेज्जा अतो अणामणायारमती मवेज्जा, नोनामणायारमंत द एरंडो, सो अवि भज्जेज्जा गवि णमेज्जा, नामणंति भणियं, इदार्णि धोषणं भण्णह, जहा हालिद्दरागरतं वत्थं धावन्तं सुज्झइ, आयारमन्तं भण्ण, किमिरागरचं पुण वत्थं सब्वप्पगारेहिं धोच्यमाणं न सुझइ तं तं नोआयारमन्तं भण्ण, घोषणत्ति गयं, इदाणि वासणत्ति दारं, तत्थ आयारमंतीओ कवेल्छुगाओ इट्ठगाओ वा अणायारमन्तं वरं तं न सकए वासेउं, वासणेति दारं गतं इयाणि सिक्खा| वर्ण पडुच्च आयारमंता णाम भयसलागाओ सुरंगा य, ताणि माणूसप्पलायीणि कीरति, अथायारमंता कागा सकुंता य, सुकरणं पइच्च आगारमंताणि रुष्पसुवण्णाईणि दव्याणि तत्थ इच्छियाणि आभरणाईणि कज्जाणि फीरंति, अणायारमंतं घंटालोई, घंटे | मंजिऊण तंमि चैव लोहे अण्ण किंचि तारिसं णिब्बतेउं न सफेद, अविरोहं पशुच्च आयारमंताणि गुडदहीणि, विरोदं पच्च बुद्धाणि अणायारमेताणि तेल्लदहिकंजियाईणि एवमाईणि, दव्यापारो सम्मत्ता ॥ इदार्णि भावाऽऽयारो तत्थ इमा गाड़ा ... अथ आचारस्य भेदानां वर्णनं आरभ्यते [99] आचाराधिकारः ॥ ९४ ॥ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक H गाथा ॥१७ |३१|| दीप अनुक्रम [१७-३१] अध्ययनं [३] उद्देशक [-1. मूलं [H]/ गाथा: [१७-३१ / १७-३१] निर्बुक्ति: [ १८०-२१७ / १७८-२१५] आयं [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [ ४२ ], मूलसूत्र [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: - श्रीदशबेकालिक "दशवैकालिक" - मूलसूत्र -3 (निर्युक्तिः + भाष्य | + चूर्णि:) ३ चू २ अध्ययने ।। ९५ ।। - 'सणाणचरितं ' गाहा ( १८३-१०१) सोय भावायारो पंचविहो, तं० दंसणायारो णाणावारी चरितायारो तथायारो वीरियायारो, तत्थ दंसणायारो सो अङ्कविहो भवइ, 'निस्संकिय गाहा ( १८४-१०१ ) तत्थ संका दुविहा, तूं० देसका यस संकाय, तत्थ देसका जहा समाणे जीवते कहमेस भविओ इमो अभविउत्ति, व पुण चिंतेइ जहा भावा हेउगेज्झा अहेतुगेज्झा य, तत्थ हेउगेज्झा जहा जीवस्स अत्थितं एवमादी, अहेउगेज्झा जहा मविया अभविया य, (केवलि) नेयो भायोति, एसा देससंका, सव्यमेयं पागयभासाए बद्धं अणेण व कुसलकपिर्य होज्जति एसा सव्वसंका, तस्थ देससंकाएं सध्वसंकाए य इमं उदाहरणं कप्पट्टगा दोणि जहा आवस्सए तहा भणियव्वं, एवं सो जा पेज्जावमणेण मरण संपत्तो, एवं जो जिष्णप्पणीएस भावेसु संक करेइ सो संसारेसु चिरं भमीहिति, तम्हा संका न कायच्या, जे न करेहिंति संकं सो इतरकप्पङ्कगो जहा पंचलक्खणाणं भोगाणं आभागी जाओ तहा सोवि जिणपण्णत्तेसु संकं अकरेमाणे सम्गमोक्खाणं आभागी भविस्सह, तम्हा संका ण कायव्वा । इयाणिं कंवा सा दुविहा- तं० देसे सब्वे य, तत्थ देसकखा जहा कोई एगं कुतित्थियमतं कंखरण सेसाणि मताणि, एसा देसखा भण्णई, अण्यो पुण सव्वपावादियमयाई कंखर सा सव्बकंखा भण्णइ, एताए दुबिहाएवि कंखाए इमं उदाहरणं-राया अमच्चो य आसेण अबहिया अडविं पवेसिया, जहा आवस्सए तम्हा कंखा ण कायव्या । इदाणिं वितिगिच्छा, सा दुविहा- देसे सच्चे य तत्थ देसवितिमिच्छा सोहणं साहूणं जह पुण जीवाउलो न लोगो दिट्ठो होतो तो सुयरं होतंति, एवमाइदेवितिगिच्छा भण्णइ, इदाणिं सम्यवितिमिच्छा-जर सव्वं सुकरं जिणेहिं दिडं होतं तओ सुहं अम्हारिसा करेंता, तत्थ उदाहरणं चोरो उज्जाणे जल | हिमवत्तणं मोत्तूर्णं चिज्जं साहित्ता आगासेणुप्पइओ, इतरो महिओ, जहा आवस्सए तहेव, तहा वितिमिच्छा ण कायच्या, अहवा ••• अत्र भावाचाराणाम् दर्शनादि पंच भेदानां वर्णनं क्रियते | ••• भावाचार-मध्ये दर्शनाचारस्य निःशङ्कित आदि अष्ट-भेदाः कथयते [100] दर्शनाचारः ॥ ९५ ॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [-] गाथा ||१७ ३१|| दीप अनुक्रम [१७-३१] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र- ३ (निर्युक्तिः + भाष्य | + चूर्णि:) अध्ययनं [३], उद्देशक [-] मूलं [-] / गाथा: [ १७-३१/१७-३१], निर्युक्तिः [१८०-२१७/१७८-२१५ ], भाष्यं [४]...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि : श्रीदश वैकालिक चूर्णी ३ अध्ययने वितिभिच्छाए इमं वितियं उदाहरणं- दुर्गुछा ण कायच्या, जहा सावगध्या दुर्गुछं काउं दुब्भिगंधत्तर्ण पत्ता, पच्छा सेणियस्त्र २ दर्शनाचारः भज्जा जाया, एवं एवं अक्खाणयं जहा आवस्सए, वितिगिंधित्ति गतं ॥ इदाणिं मृददीहित्तणं, तावसाणं तवातिसता विज्जातिसया व दट्टणं मिच्छादिङ्कीहिं वा पूइज्जमाणे कुतित्थिए पासिऊण अमूढदिट्टिणा भवियध्वं एत्थ उदाहरणं सुलसा में ४साविया, जहा अंमडो रायगिहं गच्छतो बहूणं भवियाण थिरीकरणनिमित्तं सामिणा भणिओ सुदं संपृच्छेज्जासु, अम्डो चिंतेड़॥ ९६ ॥ ॐ पुण्णमंतिया सा जा अरहा पृच्छिज्जा, तओ अमडेण परिजाणणाणिमित्तं भत्तं मग्गिया, ताए न दिण्णं, तओ तेण बहूणि रुवाणि विगुब्वियाणि, तहवि न दिष्णं, ण य संमूढा, तहा किर कुतित्थियरिडीओ दम अमूढदिट्टिणा भवियन्वं अमूढदिडिक्तिगतं । इदाणि उपबृहपत्ति दारं सम्मले सीयमाणस्स वा असीदमाणस्स वा उबवृहणं कायब्वं एत्थ सेणियराया दितो, जहा रायगिहे नगरे सेणिओ राया, इओ य सको देवराया सम्मत्तं पसंसद, इओ य एगो देवो असतो नगरबाहि निग्गयस्स चेल्लरूवं काऊण अणिमिसे गेण्डर, ताहे तं निवारेह, पुणरचि अण्णस्थ संजई गुब्बिणी पुरओ ठिया, ताहे अपवरगे पेसिऊण जहा न कोइ जाण तहा बड़गिहं कारावियं, जं किंचि बहकम्मं तं सयमेव करे, तओ सो देवो संजईरूवं पयहिऊण दिव्वं देवरूवं दरिसेति भणइ य-भो ! सेणिय ! सुलद्धं ते जम्मजीवियफलं जेण ते पचयणस्सुवरिं एरिसी भत्ती भवतित्ति उबव्हेऊण गओ, एवं उबूहियो, साहम्मियडवबृहत्ति गये । इदाणिं थिरीकरणं, धम्मे सीदमाणस्स थिरीकरणं कायच्यं, जहा उज्जेणीए अज्जासादो काल करेंते संजए अप्पादेयह मम दरिसावं देज्जह, जहा उत्तरायणेसु एयं अक्खाणयं सर्व्वं तहेब, तुम्हा जहा सो अज्जासाढो थिरीकओ तथा जे भविया ते थिरीकरेयब्वा, थिरकिरणंति दारं सम्मतं । इदाणिं वच्छलत्ति दारं तं च संत [101] ४ ॥ ॥ ९६ ॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [३], उद्देशक , मूलं 1 / गाथा: [१७-३१/१७-३१], नियुक्ति: [१८०-२१७/१७८-२१५], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: सूत्राक गाथा ||१७३१|| श्रीदश- बलपिरियपुरिसकारपरकमेण पवयणस्स कायच्वं, एत्थ दिद्वैतो चव अज्जवहरा, जहा तेहिं अग्गिसिहाओ सुहुमकाइयाई आणेऊण जा वैकालिक सासणस्स उम्भावणा कया, एयं अक्खाणयं जहा आवस्सए तहा कहियव्यं, एवं साहुगावि सव्वपयत्तेग सासणं उब्भावेयव्वं, चूर्णी पभावणेतिगयं, सम्मत्तो य दंसणायारो॥ ३ अध्ययन इदाणिं णाणायारो णाम जा णाणागमनिमित्ता चिट्ठा कज्जइ एस णाणायारो, सो य अट्ठविहो पण्णत्तो, तं०-'काले ॥९ ॥ विणय गाहा (१८६-१०१) तत्थ पढमं कालेत्ति दारं, जो जस्स अंगपचिट्ठस्स या अंगवाहिरस्स वा मुयस्स अज्झाइयवि कालो भणिओ तंमि जहोवइडे काले पढंतो पाषायारे वट्टइत्ति, तबिवरीए काले पढेतस्स अणायारो भवइ, लोगेऽवि दि8, करिसयाण कालं पप्प णाणाविहाण बीयाणं निष्फत्ती भवइ, तम्हा साहुणा काले पढियव्यं, अकाले पढते पडिणीयदेवया विराहेज्जा, अत्रो४दाहरणं-एको साह पाउसियं कालं घेत्तुं अइकंताएवि पढमाए पोरिसिए अणुक्योगण पढइ कालियसुत्तं, सम्मदिट्टदेवया या द चिंतेइ-मा पन्तदेवया छलेज्जत्तिकाउं तककूडं घेणं तक तकति तस्स पुरजो अभिक्खं आयागयाई करेइ. तेण य चिरस्स सज्झा यस्स मे वाघायं करेइत्ति भणिया-प्रयाणिए! को इमो तक्कस्स विक्कगणकालो?, वेलें ताव पलोपहि, तीयवि भणियं-अहो! को इमो कालियसुत्तस्स सज्झायकालोति, अविय सूतीछेहमत्ताणि पासइ, तओ सो साहू चिंतेइ-न एस पागझ्यत्तिकाऊण उवउत्तो, णायं | चणण-अडरत्तो जाओ, मिच्छादुक्कडेति, देवयं भणइ- इच्छामि संता पडिचोयणा, देवयाए भण्णति- अकाले कालिय मा पढे-1&॥९॥ ज्जासि, मा ते अण्णा काइ पंतदेवया छलेहिति, तम्हा कालेणाहीयव्वं, अहवा अकाले सज्झाय करेंतस्स इमं उदाहरणं-धमे धमे णातिधमे, अतिधत ण साभई। जं अज्जियं धर्षतेणं, तं हारियं अइधर्मतेण ॥ १॥ जहा एगो समाविओ छेत्तं रक्खा मगरभया, दीप अनुक्रम [१७-३१] 44CRAkRROCES ... भावाचार-मध्ये ज्ञानाचारस्य काल आदि अष्ट-भेदा: कथयते [102] Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [३], उद्देशक H, मूलं | गाथा: [१७-३१/१७-३१], नियुक्ति : [१८०-२१७/१७८-२१५], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: सुत्राक ज्ञानाचारः H गाथा ||१७ ३१|| श्रीदश- सिंग धमइ सो य, अण्णदा तेण समावतीए धंत सिंगयं, चोरा य तेण समीवेण गावो हरंति, तेहिं णाय-कुढो आयो, गावो वेकालिकालाईऊण णवा, पभाए तेण दिहातो, घरं णीयातो, तओ चितइ-धमंतो चेवच्छामि छेत्तस्स अदरसामंतो, एवं सो दिणे दिणे धर्मतो चूणी धर्मतो अच्छइ गावो चारितोय, ते य चोरा अण्णाया तेणेव अतण वोलिंति, तेहिं सो परिजाणिओ जाव न कोइत्ति, ताहे रुडेहिं ३ अध्ययनबंधाविओ गायो य से हटाओ, एवं साहुणावि ज काले पढिज्जइ तमि चेव संतोसो कायव्यो, जो पुण लाभणं पढंतो अच्छ। H९८ला अकालेवि सो तहा विणस्सइ, एयंमि पेव अत्थे इमो रितिओ संखधमओ-एगो राया दंडयचाए पडिओ, एक्केण य समावचीए संखो वाइओ, रन्ना य तुट्टेणे थके धंतीत सयसहस्सं दिण्णां, सो पच्चूसे निच्चमेव धर्म० अच्छइ, अण्णया य राइणा विरेयओ पीओ, सण्णाभूमी अतीति, तेणं संखो हओ, परवलमासणं सुत्तं राइणा पुवं, तओ राइणो संतासेण वेगो ठिओ, असुहो जाओ, लट्ठीभूओ अ, सो य संखवाइणो दंडिओ, तह अकाले ण सज्झाएअच्च, मा तहा विणस्सिहित्ति, अहवा इमं तइयं उदाहरणं-सिरीए मतिमं तुस्से, अइसिरिं तु न पत्थए। अतिसिरिमिच्छंतीए, धेरीए विणासिओ अप्पाशाएगा छाणधारिया थेरी, ताए एगो वाणर्मतरी तोसिओ, सा जाणि छाणाणि पल्लत्थइ ताणि रयणाणि हॉति, सा इस्सरी जाया, चाउस्सालं घर कारिय, समोसियाए पुच्छिय- किमयंति, एताए सिट्टे, ताहे सावि एवं चेव वाणमंतर आराहेउं पवत्ता, आराहिओ भणइ- किं करेमि', ताए थेरीए भणिय- जइ पसाओ जे समोसियथेरीए वरं देह सो मम दुगुणो भवउ, एवं होउ, सा चिंतेह तं तीसे दुगुण होइ, तओताए पढमधेराए णायं जहा एताए वरा लद्धा ममाहिंतो दुगुणो, सा असहती पुणो भणह-मम चाउस्सालि गह फिट्टउ, तणकुडिया मे भवउ, तो इपरीए दो तणकुडीयाउ, चाउस्सालाणि फिड्ढाणि, पुणो चिता-एकमच्छि काणं होउ, इयरीए दीप अनुक्रम [१७-३१]] [103] Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [३], उद्देशक H, मूलं | गाथा: [१७-३१/१७-३१], नियुक्ति : [१८०-२१७/१७८-२१५], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: सूत्राक बानाचारः गाथा चाँ ||१७३१|| श्रीदश Hदोवि काणिभ्याणि, पुणो विचितेह- मम एगो हत्थो भवउ, समोसियाए दोवि नट्ठा, पुणो चितह- मम एगो पाओ होउ, समो- मालिकासियाए दोवि नद्रा, ताहे पडिया अच्छद, एसो असंतोसस्स दोसो. तहावि अतिरिते काले समाएण कायथ्यो, मा तहा विाण-| स्सिहिद जहा थेरित्ति, कालित्तिगयं दारं-इयाणिं विणओ, विणएण पढियव्व, अविणएण अधेज्जमाणो विज्जाफलं ण लमह, ३ अध्ययने एत्थोदाहरण-सेणिओ राया भज्जाए भण्णा- ममेगखभं पासायं करहि, एवं दुमपुफियज्झयणे वक्खाणियं, तम्हा विणएण अधिज्जेयब, णो अविणएण, विणओ गओ। दार्णि बहमाणात दारं, जे णाणमंता तेसु णाणमंतेसु भावओ नेहपडिबंधी। ॥ ९९॥ एस बहुमाणा, भत्ती पुण अमुट्ठाणकिरिया जा कज्जइ, एस्थ चउभंगी-एगस्स भत्ती णा बहुमाणो१ एगस्स बहुमाणो णो भत्तार एगस्स बहुमाणोवि भत्तीयि ३ एगस्स णो बहुमाणो णो भनी ४, एत्थ वहुमाणभाचविसेसनिदरिसणत्थं इम उदाहरण-एगमि गिरिकंदरे सिबो, तं च बंभणो पुलिंदो य अच्चेति, बंभणो उबलेवणसंमज्जणणावारिसावणपयतो सुतीभूओ अच्चिणित्ता घृणा भत्तिजुत्तो, ण पुण बहुमाणेण, पुलिंदो पुण तमि सिवे भावपडिबद्धो गल्लोदएण पहावेइ, णामिऊण उबविट्ठो, सियो य तेण सम । आलावसंकहाहि अच्छइ, अनया तेसि बंभण उल्लावणसहो सुओ, तेण परियरिऊण उवालद्धो- तुर्मपि एरिसो चेव कडप्यण४ सियो जो एरिसएण उच्छिट्ठएण सम मंतेसि, तओ सिबो भणइ- एसो में बहुमाणे इत्ति, तुमं पुणाई ण तहा, अण्णया य अच्छीण ओखणिऊण अच्छइ सियो, भयो य आगंतु रदिउमाढतो उपसंतो य, पुलिंदो य आगओ, सिवस्स अच्छि ण पेच्छा, तओ अप्पाणयं अक्खि कंडफलेण उक्खिणित्ता सिवस्स लाएइ, तओ सिवेण बंभणो पत्तियाविओ, एवं नाणमंतेसु भत्ती बहुमाणो य दोवि कायन्याणि, बहुमाणोत्ति दारं गतं ।। श्याणि उवहाणदारं- उबहाणं णाम तबो जो जस्स अज्झयणस्स जोगो आगाढ - दीप अनुक्रम [१७-३१] ॥ ।। ९९ - - -- -- [104] Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [३], उद्देशक H, मूलं | गाथा: [१७-३१/१७-३१], नियुक्ति : [१८०-२१७/१७८-२१५], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: सूत्राक गाथा ||१७ ३१|| श्रीदश- मणागाढो तहेव अणुपालेयब्यो, एत्थ दिटुंतो- एगे आयरिया ते वायणाए संता परितंता सझाएवि असज्झाइयं घोसेउमारद्धाज्ञानाचारः वकालिकानाणंतराय बंधिऊण काल काऊण देवलोगं गया, तओ देवलोगाओ आउखएणं चुओ, आभीरकुले पच्छायाओ, भोगे भुंजइ, चूर्णा अण्णदा से घृया जाया, सा य अतिरूवस्सिणी, ताणि य पच्चतिगाणि गोचारिणिमित्तं अन्नत्यं गच्छति, तीय दारियाए पिउणो ३ अध्ययने नादासगडं पुरओ गच्छइ, सा य दारिया तस्स सगडस्स धुरतुंडे ठिता बच्चइ, तरुणइब्मेहिं चितिय- समाणाई काउंसगडाई दारियं १२०० पेच्छामो, तेहिं सगडा उप्पहेण खेडिया, विसमेण भग्गा, तो लोगेण तीए दारियाए णाम कयं-असगडा, ताए असगडाए पिया अरागडपियत्ति, तओ तस्स तं चव वेरग्गं जाय, तं दारिय एगस्स दाऊण पब्वइओ, जाव चाउरंगिज्जताव पढिओ, असंखए उद्दिहे हतं नाणावराणिज्जं से कम्म उदिण्णं, पढंतस्स न किंचि ठाइ, आयरिया भणंति-छडेण अणुण्ण विहिद, तओ सो भणइ-एतस्स केरिसो जोगो?, आयरिया भणीत-जाव न ठाइ ताव आयविलं कायव्वं, तओ सो भणइ-तो एवं चेव पढामि, नेण य तहा पढतेण बारस रूवाणि वारसहि संवच्छरेहिं अधीयाणि, ताव से आयंबिल कयं, तं च णाणावरणिज्ज कम्म खीण, एवं जहा असगडपिताए आगाढो जोगो अणुपालिओ तहा सम्म अणुपालियब्वं, उवहाणित्ति गयं ॥ इदाणिं अनिण्हवणेत्ति, जं जस्स सगासे किंचि सिक्खिय तं तहेव भाणियव्यं, जो बाणायरियं निण्हवइ सो ण इमं परं च लोगमाराहेइ, एत्थ उदाहरणं एगस्स हावियस्स खलुरभंड विज्जासामथेण आगासे अच्छइ, तं च एगो परिवायओ (विज्जत्थमुवयरइ । बहहिं उपसंपज्जिऊण तेण सा विज्जा लद्धा, नाहे अण्णत्थ गंतुं तिदंडेणागासगएण महाजणेण पूइज्जइ, रण्णा पुच्छिओ- भगवं ! किमेस विज्जातिसउनि !, सो भणइ 1 ॥१०॥ विज्जातिसओ, कस्स सगासाओ गहिओ, सो भणइ-हिमवंतफलाहारस्त रिसिणो सगासे अहिज्जिओ, एवं वुत्ते समाणे तं तिदंडी RECESSAGESMActik दीप अनुक्रम [१७-३१] [105] Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [३], उद्देशक , मूलं गाथा: [१७-३१/१७-३१], नियुक्ति: [१८०-२१७/१७८-२१५], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: सूत्राक गाथा ||१७३१|| खंडत्ति पडियं, एवं जो अप्पागमो आयरिओ सोप निण्हवेयब्बो, आणिण्हवत्ति गयं याणि वंजणेसि दारं, तस्थ वंज- चारित्राश्रीदश राणाणि अक्खराणि भण्णति, तेहिं अक्खरेहिं णिफण्णं मुर्ग, तं च मुत्तं पागल सकय कोइ, यथा धर्मो ममलमुत्कृष्ट, एवमादि, अहया चार: चूर्णी | तस्स अण्णाणि बंजणाणि करेइ. जहा 'पुण्णं कल्लाणमुक्कोस, दयासवरनिज्जरा, बंजणभेदे अस्थमेओ तओ मोक्खाभावी निरत्थाG ३ अध्ययने वा |य तो दिक्खा, तम्हा अण्णाणि वंजणाणि ण कायवाणि, बंजणोत्त दारं गयं । इयाणिं अस्थति दारं, तेसु चच वंज-14 णेसु अण्णमत्थं वियप्पति, जहा 'आवती केयावती लागसि विपरामुसंती' एतस्स सुत्तस्स अत्थं विसंवयावेइ जहा आवती-विसयो।४ ॥१०॥ तत्थ केयावती नाम (रज्ज) बंता णाम कूबे पडिया, तं लोगो चिप्परामुसइति युत् भवइ, एरिसो अत्यविसंवादो ण कायचा, अत्थेत्तिगयं ॥ इदाणि उभयत्ति, जस्स सुचपि अत्थोवि गस्सइ तं उभयं भण्णाइ,जहा-धम्मो मंगलमुक्किट्ठ,अहिंसा संजमो 1 | तवो । देवावि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो ॥१॥ अहागडेसु रीयंति' एवमाइ मुत्तत्थविसंवादो इमो-इहाकडेहि रंधति, कडेहि रंधगारिओ। 'रावी भत्ते सिणाणे य एतस्स इमो 'रण्यो मतसिणो जत्थ, भदगो तत्थ विज्जति' एवमाइसु अत्यविसं-पट वाओ ण कायव्वो, सम्मत्तो य णाणायारो॥ इयाणि चरित्तायारो, सो य अट्ठविहो, तं०-'पणिहाणजोगजुत्तो',गाहा (१८७-१०१ ) तस्थ पणिघाणं णाम अज्झष-18 IN साणं, तेण अज्झवसाणयजोगेण जुत्तो, मेररक्षणति बुत्तं भवइ, अहवा तिबिहेणवि करणणं जुत्तो पणिहाणजोगजुचोति, १०१॥ मणियं च गोविंदवायएहि-कायेविय अज्झप्पं सरीरवायासमषिणयं चेव । कायमणसंपउत्तं अज्झायं किंचिदाहंसु ॥१॥ तत्थ समितीओ इरियासमितिमाइयाओ पंच गुत्तीओ तिष्णि मणगुती वयगुनी कायगुत्ती, सीसो आह- समिइगुचीण द्र दीप अनुक्रम [१७-३१] ॐॐॐ ... भावाचार-मध्ये चारित्राचारस्य प्रणिधान आदि अष्ट-भेदा: कथयते [106] Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक H गाथा ॥१७ |३१|| दीप अनुक्रम [१७-३१] "दशवैकालिक" - मूलसूत्र -3 (निर्युक्तिः + भाष्य | + चूर्णि:) अध्ययनं [३] उद्देशक [-] मूलं [-] / गाथा: [ १७-३१ / १७-३१], निर्बुक्तिः [१८०-२१७/१७८-२१५], आष्यं [४... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [ ४२ ], मूलसूत्र [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: - श्रीदशवैकालिक चूर्णी ३ अध्ययने ॥१०२॥ - को पतिविसेसो ?, आयरिओ भणइ जं जिणोवदिद्वेग विहिणा मणवयणकायजोगेहि य पवत्तणं तमिरियासमितिमाझ्याओ पंच समितिओ निष्फज्जति, गुत्तीओ पुण मणत्रयणकाइएहिं जोगेहिं अप्पवत्तमाणस्ण संजमो निव्वणो भवद्द, एस चरितायारो सम्मतो ॥ इयाणि तवायारी 'पारसविहंमिवि तवे सभितर बाहिरे सलदिडे । (अगिलाइ अणाजीवी नायब्वो सो तवायारो) गवि अस्थि णविय होहिति सज्झायसमं तवोकम्मं ।। १ ।। ( १८९-९०१ ) तवो बारसविहो जहा दुमपुष्फि याए तहा भाणियों, कुसलदिट्ठो नाम तित्थगरदिडोनि वृत्तं भवद्द, अगिलाए नाम न रायवेट्ठी व मण्णह, अणाजीवी नाम तमेव तवं णो आजीवद्द, कहं नाम एतेण अण्णपाणं उप्पज्जेज्जत्ति, एस तवायारो भणिओ ! इदाणिं वीरियायारो भण्णइ, जं छत्तीसाए कारणेंहिं असढ उज्जमइ एस वीरियायारो, ताणि पुण छत्तीस कारणाणि इमाणि नं०अडविहो दंसणायारो अट्ठविहो जाणायारो अडविहो चरितायारो बारसविहो तबायारोति, एत्थ वीरियायारे इमा गाहा' अणिगृहियबलविरएण गाहा (१८९-१०१) पठियसिद्धा चैव वीरियायारो समतो, तेण समत्तो य आयारो ॥ , इदाणिं कहा, साय कहा भउव्विहा, तं- 'अत्थकहा कामकहा धम्मका एव मीसिया य कहा' (१९० १०६ ) एतेसिं चउदं कहाणं एकेका अणेयविद्या भवति, तत्थ अत्थकहा नाम जा अत्थनिमित्तं कहा कहिज्जर, सा अत्थकदा इमाए गाहाए अणु गंतव्या, तं० 'बिज्जा सिप्पे' गाहा, (१९११०६) तत्थ पढमं विज्जति दारं, जो विज्जाए अत्थं उपज्जिणिज्जइ, जहां एगेण विज्जा साहिया सा तस्स पंचगं विहाइयं देह, जहा या सच्चस विज्जाहरचकवद्विस्स विज्जापहावेण भोगा उब ... अत्र कथानां अर्थकथादि चत्वारः भेदानां वर्णनं क्रियते [107] तपोवीर्याचारौ ॥१०२॥ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक H गाथा ॥१७ ३१|| दीप अनुक्रम [१७-३१] "दशवैकालिक" - मूलसूत्र -3 (निर्युक्तिः + भाष्य | + चूर्णि:) अध्ययनं [३] उद्देशक [-1. मूलं [H]/ गाथा: [१७-३१ / १७-३१] निर्बुक्ति: [ १८०-२१७ / १७८-२१५] आयं [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [ ४२ ], मूलसूत्र [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: - श्रीदशवैकालिक चूर्णां ३ अध्ययने ॥१०३॥ - ६ गया, सच्चइस उप्पची जहा य सडकुले बडिओ जहा य महिस्सरो णामं कयं एवं निरवसेसं जहा आवस्सए जोगसंगहेसु तहा भाणियन्यं, विज्जत्तिगयं ॥ इदाणिं सिप्पति, सिध्येण अस्थो उवज्जिणिज्जई, एत्थ उदाहरणं कोकासो, जहा आवस्सए, सिप्पत्ति गयं । इदाणिं उवाएत्ति, तत्थ दितो चाणको, जहा चाणकेण णाणाविदेहि उवाएहिं अत्थो उवज्जिओ, कहं ? 'दो मज्झ धाउरताओ' एपि अक्खाणयं जहेब आवस्सर तहा भाणियब्वं, उवापत्ति गयं । इदाणिं अणिव्वेदे संच य एकमेव उदाहरणं मम्मणो पणिओ, सोऽवि जहा आवस्सए तहा इद्दपि वत्तब्बो || इयाणिं दस्खत्तं एत्थ गाहा दक्ख क्षणये पुरिसस ( १९३-१०७ ) एत्थ उदाहरणं जहा बंभदत्तो कुमारो अमच्यपुत्तो सिट्टिपुत्तो सत्थवाहपुत्तो य एते चउ रोवि परोप्परं उद्यावेंति, जहा को मे केण जीवई ?, तत्थ रायपुत्त्रेण भणियं-अहं पुण्णेणं जीवामी, अमच्चपुत्रेण भणियं अहं बुद्धिए जीवामि सिद्धिपुत्तो भणई-अहं रूपस्सित्तणेणं जीवामि सत्थवाहपुत्रेण भणियं अहं दक्खत्तणेण जीवामि तं भणति अण्णत्थ गंतु विष्णासेमो, ते गया अष्णं नगरं जत्थ न नज्जंति, उज्जाणे आवासिया, दक्खस्स आएसो दिण्णो, सिंग्धं भत्तपरिव्ययं आणेहि, सो बीहिं गंतुं एगस्स घेरवाणियगस्स आवणे थिओ, तस्स बहुगा कइया ऐति, तद्दिवसं कोवि ऊसवो, सोण पहुप्पति पुढए बंधे, तत्थ सत्थवाहपुत्तो दक्खत्तणेण जस्स जं उबजुज्जइ लक्ष्णतेचयगुडसुंठिमिरिय एवमादि तस्स तं दिति, पदविसिद्धो लाभो लद्धो, तुट्ठो भगइ-तुम्भे आगंतुगा उदाहु वत्थष्वया?, जइ आगया तो अम्छ गिहे आसणपरिग्ग करेज्जह, सो भइ- अण्णे मम सहाया उज्जाणे अच्छंति, तेहिं विणा न गुंजामि, तेण भणियं सच्चे एंतु, तेण य तेर्सि भत्तसमालहणतंत्रोलाइ उवउत्तं तं पंचण्डं रूवयाणं, वियदिवसे रुवस्सी वणियपुत्तो बुतो अज्ज तुमे दायव्वो भत्तपरिव्वयओ, एवं भवउत्ति सो उट्ठेऊण गणियापाडगं गओ अप्पयं [108] अर्थकथा ॥१०३॥ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [३], उद्देशक H, मूलं | गाथा: [१७-३१/१७-३१], नियुक्ति : [१८०-२१७/१७८-२१५], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: - सुत्राक श्रीदशवैकालिक चूर्णी ३ अध्ययने गाथा ||१७ ॥१०४|| मंडेउ, तत्थ य देवदत्ता णाम गणिया पुरिसवेस्सिणी बहहिं रायसेष्टिपुत्सादीहि मग्गिता, णेच्छद, तस्स तं रूवसमुदयं दटुं खुभिया, अर्थ कथा पडिपदासियाए गंतूण तीय माऊए कहियं जहा दारिया सुंदरजुवाणे दिहि देह, तओ सा भणइ-एयं मम गिहं अणुवरोहेण एज्जह, इहेब भत्तबेलं करेजह, तहेवागया. सतियो उपयोगो कओ, तइयदिवसे बुद्धिमंतो अमच्चपुत्तो सीदट्ठो-अज्ज तुमे भत्तपरिब्धयओं दायनो, एवं भवउत्ति सो गओ करणसालं, तत्थ य ततिओ दिवसो बबदारम्स छिज्जंतस्स, परिच्छेद ण गच्छइ. दो सबत्तीओ, तार्सि भत्ता उबरओ, एकाए सुओ अथि, इतरी अपुत्ता, सा तं दारय नेहेणं उपनरइ, भणइ य-मम पुत्ती, पुत्तमाया भणइ-मम, तासिं न परिकिछज्जर, तेण भणिय- अहं छिदामि ववहारं, दारगं दुहा कज्जउ, देवपि दुहा एय, पुत्तमाया भणइ न मे दध्येण कज्ज, दारगो तीएपि भवउ, जीवंत पासीहामि तं. इयरी तुसिणीया अच्छइ, पुनो ताहे पुत्तमायाए दिण्णो, तहेय सहस्सं उपयोगो, चउत्थे दिवसे रायपुत्तो भपिओ- अज्ज रायपुत्त ! तुम्भेहिं पुष्णाहिएहि जोगचरणं बहियव्य, एवं भवउत्ति, तओ रायपुत्तो तेसि अंतियाओ निग्गंतुं उज्जाणे ठिओ, तम्मि य नगरे अपुतो राया मओ, जमि रुक्खछायाए रायपुतो निवण्णो सा ण ओयत्तति, तभा आसण वस्सावार टाइऊण हिसमय, राया य अभिसिनो, अणेगाणि सतसहस्साणि जाताणि, एवं अन्धुपती भवइ, दावत्तणेत्ति दारं गतं । इयाणि सामभेददंडउयप्पयाणेहि चाउहिगि जहा अस्थी विढप्पड, एरथ उदाहरणं सियालो, तेणा भमैतण हन्थी मओ दिट्ठो, सो चिंतेइ-लद्धो मए, उपाएण ताव णिच्छदेण खाइयन्वो जाय सीहो आगओ, तेण चिंतिय- सचिदृण ठाइयब्ब एतम्स, तण भणिय- अरे भानिणज्ज ! अनिछज्जति ?, सियालेण भणियं- आमं माम!, सीहो भणइ-किमयं मयंति, १०४॥ सियालो भणइ- हन्दी, वेण मारिओ, बग्घेण, माहो चितइ- कदमहं ऊण नातीएण मारियं भक्खयामित्ति गओ सीहो, नवरं SCHEMICC ३१|| -- दीप अनुक्रम [१७-३१]] --- [109] Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [-] गाथा ॥१७ ३१|| दीप अनुक्रम [१७-३१] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र- ३ (निर्युक्तिः + भाष्य | + चूर्णि:) अध्ययनं [३], उद्देशक [-] मूलं [-] / गाथा: [ १७-३१/१७-३१], निर्युक्तिः [१८०-२१७/१७८-२१५ ], भाष्यं [४]...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्ण : श्रीदशवैकालिक चूर्णों ३ अध्ययने ॥१०५॥ वग्ध आगओ, तस्स कहिये सीहेण मारिओ, भणिओ य-सो पाणिय पाउं णिग्गओ, बग्यो नही, एस भेओ, जार कागो आगओ, तेण चिंतिय जइ एतस्स न देमि तो का काउति वासियसद्देण अण्ण कामा एहिति, तेसि काऊरगस देणं सियालादि अण्णे य बहवे एहिंसि ते केतिया बारेहामि ?, तो एतस्स उवप्पयाणं देमि, तेण तओ तस्स खंड घेण दिव्णं, सो तं घेतु गओ जाव सियालो आगओ, तेण णायमेतस्स हढेण मारणं करेमि, तेण भिउडिं काऊण वेगो दिष्णो णट्टो सियालो, उक्तंच 'उत्तमं प्रतिपातेन, शूरं भेदेन योजयेत् । नीचमल्पप्रदानेन समतुल्यं पराक्रमैः ॥ १ ।। अत्थकहा गता । इदाणिं कामकहा- 'रूवं वयो य वैसो' गाहा (१९४-१०९ ) रूपकहाए बसुदेवबंभदत्ता, रूवेत्तिगयं ॥ इयाणि वएत्ति, तत्थ जर तरुणे वए बट्ट तो, कामिज्जह, इतरहा न कामिज्जर, वएत्तिगतं । इदाणिं बेसोति, बेसो नाम वस्थाभरणादीहिं कीरह, तेहिं जइ उबवेओ तो कमणीओ भवति, एत्थ उदाहरणं- राया पासादगओ पलोएतो अच्छद, तेण य कालमहिला कुसुंभरतेहि पाउएहिं हरियसले चमकती दिडा, तओ सो अबवण्णो, मणुस्सा पेसिया आणेह एवं सा आणिया जाब विरुवा, पडिविसज्जिया, राइणा भणियं-'सुमह ग्योवि कुसुंभा घेत्तव्यो पंडिएण पुरिसेण । जस्स गुणेण महिलिया, होइ सुरुवा कुरुवाचि ॥१॥' बेसोत्तिगयं । इदाणिं दक्विण्णन्ति, दा णं देतो राया दाहिं विरूवो अवयस्थोऽवि कामिज्जइ, एस दक्खिण्णकहा, एत्थ अयलमूलदेव उदाहरणं, अयलो मूलदेवो व देवदत्ताए गणियाए लग्गा, अयलो देह, मूलदेवो एमेव विसयसिक्खाहिं, कुणी विपरिणामे ताए वणिज्जंत, तीए कुट्टिणी भणिया-अयलं ता भणासु-उच्छु मे देहि, तेण से सगडं भरेऊण पेसियं, तओ सा भणइ किं मण्णे हरिणी जेण सगडं मज्झ भरियं पेसेह, मूलदेवस्स पेसियं, तेण उच्छुगंडियाओ छोडेऊणं चाउज्जाएणं वासेत्ता तत्थेव सूर्य लाएता पेसियाओ एवं कुट्टिणी पत्तियाविया, गंध [110] कामकथा ॥१०५॥ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [३], उद्देशक H, मूलं | गाथा: [१७-३१/१७-३१], नियुक्ति : [१८०-२१७/१७८-२१५], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: सूत्राक श्रीदश धर्मकथा चूर्णी ३अध्ययन गाथा ॥१०६॥ ||१७ ३१|| बाईणि सिक्खाए चेत्र पडति, सिक्वत्ति गयं । इदाणि दिवत्तिदारं, जहा कोई कस्सई कामससियं कहं कहेइ जहा मए एवंविधा नारी दिट्ठा जहा णारओ कण्हस्स रूविणीं कहयइ, दित्ति गयं ॥ इदाणि सुयंति, पउमनाभो राया णारयस्स सुणे-टू ऊणं पुबसंगइयं देवमाराहेऊण तस्स परिकहेइ-एचगुणजुत्ता द्रौपदी पंडवेहिं सद्धि कीडति, मुएत्ति गतं ॥ इदाणिं अणुभू-11 येत्ति दारं,जहा तंरगवतीए अप्पणो चरितं कहिय, अणुभूएत्ति गतं । इदाणिं संथवो,सो इमाए गाहाए अणुगंतव्यो-'संद-18 । तपाउ पेम्म पेम्माउ रती रतीउ वासभा । वीसभाओ पणओ पंचविहं बड्डए पेम ॥१॥" संथवो गओ, गया कामकहा। इदाणि धम्मकहा-'धम्मकहाबौद्धब्बा' गाहा(१९५-११०)तत्थ धम्मकहा चउबिहा,तं०-अक्खेवणी विक्खेवणी संवयणी निवे-12 यणी यचि, तत्थ जाए कहाए सोयारो अक्खिप्पड़ सा अक्खेवणी, विविहमनेकप्रकारं क्षिपति या कथा मतिं सा विक्षेपणी,संवेगजगणी संवेदणी,निब्बेयजणणी निव्वेयणी, तत्थ अक्षणी कहा चउबिहा,तक-'आयारे गाहा'(१९६-११०)आयारक्षेवणी बचहार खेवणी पण्णत्तिक्खेवणी दिडिवायक्खेवणी, तत्थ आयारक्खेवणी णाम आयारेण अक्खिवंतिजओ साहुको अण्हाणलोयलद्धावल द्वित्त एवमाईणि परमदुकराणि आयरति अट्ठारसीलंगसहस्सधारिणो भगवंतोत्ति, आयारक्खेवणी कहा गता ॥ श्याणि ववहारक्खेवणी,जाहे सोतारस्स आयारेण अक्खिचा भती भवति ताहे ववहारक्खेवणीकह कहेइ,जहा एवमपि दुरणुचरे आयारे ठियप्पाणो साहुणो जइ कहवि किंचिदणायारमायरंति इयाणि ताहे जहा लोगे अववहारिस्स दंडो कीरइ ताहे तेसिपि पायच्छित्ता दंडो कीरइ, एसा ववहारक्वेवणी, जहा कस्सइ कहिंचि अत्थे संसओ उप्पण्णो तत्थ साहुणा णिध्वियारं महर सउवायं च पण्णवणमग्गं अणुम्मुयंतण पण्णसीवागरणेहिं सोयारो अक्खिवियब्वा पण्णत्तीक्वेवणी कहा गला ॥ इयाणि विहिवायक्खेवणी, जाहे 12 KAE%EKAHANIRAMCHECIACOM दीप अनुक्रम [१७-३१]] [111] Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [३], उद्देशक H, मूलं | गाथा: [१७-३१/१७-३१], नियुक्ति : [१८०-२१७/१७८-२१५], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: धर्मकथा गाथा RECAKROCES-4- CAUSES ||१७ ३१|| श्रीदश-1 कोइ सोतारो सुहुमाए दवचिंताए वा सोउमरिहे ताहे तस्स सोयारस्स मती वादेहि अक्सिप्पड़, जेण वा दिद्विचाएण देउणावैकालिका अक्खिप्पइ सा य दिहिवायक्खेवणी, एसा अक्खेवणी कहा, तारिसेण अण्णेण वियप्पेण इमाए गाहाए भण्णति 'विज्जा चरण चूर्णी चतवो 'गाहा, (१९७-११०) तत्थ नाणस्स सामत्थं कहयइ, जहा अंधगारे बरमाणा भावा पदीवेण सचक्खू पासइ, एवं ३ अध्ययने नाणं पुरिसस्स दीवभूतंति, भणियं च--'पेच्छइ जहा सचक्खू पुरिसो दीवेण अंघयारेवि । जिणसासणदीवेण उ पासति (नाणी सयल भावे)॥१॥" एवं गाणसमत्थदीवएण सोयारस्स मती अक्खिप्पड़, एसा विज्जाअावेवणी गया । इदाणि ॥१०७ चरणअक्खेवणी २ णाम एवं साहुणो सरीरवि अपडिबद्धा भवंति, (साहुणो मुटुमदसमदुवालसाई तवो जीए वणिज्जइ) पुरिसगारो णाम अणिमूहियबलवीरिएहिं संजमजोगो कायब्वो, समितीओ पंच गुत्तीओ तिण्णि, एवाओ विज्जाचरणाणि पुरिस-1 कारसमितीगुचीपज्जवसाणाणि पंचवि कारणाणि जाए कहाए उवदिस्संति सो कहाए अक्खेवणीए रसोति, रसो नाम लक्षणं मण्यते, एवं अक्वेषणी कहा गता । इदाणि विक्वेवणी, सा चउम्विहा, तं०- ससमयं कहेता परसमयं कहेइ परसमय कहेता ससमयं कहेइ (पढमा विखेविणी, सम्मावादं कहेचा गुणे य से उवदंसइ (मिच्छावार्य कहेसा दोसे य तस्स उवदसइ) | एसा वितिया विक्खेवणी गया, इदाणि तझ्या विक्खेवणी भण्णति, परसमयं कहेचा तेसु चेव परसमएसु जे भाषा जिणप्पणी तेहि भावहिं सह विरुद्धा असंता चेव वियप्पा ते पुखि कहेता दोसाइ तेसि भणिऊण पुणो जिणप्पणीयभावसरिसा घुणक्खरमिव केवि सोहणा भणिया ते कहेइ, अबा मिच्छावादो नस्थिर भण्पाइ,सम्मावादो अत्थितं भण्णति तत्थ पुब्धि नाहियवाईणं दिडीओ कहित्ता पच्छा अस्थित्तपक्खवाईणं दिहीओ कहेइ, एसा तइया विक्खेवणी गया, इयाणि चउत्थी विक्खेत्रणी, सावि दीप अनुक्रम [१७-३१]] 2-kot [112] Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [३], उद्देशक H, मूलं | गाथा: [१७-३१/१७-३१], नियुक्ति : [१८०-२१७/१७८-२१५], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: सूत्राक वैकालिका H गाथा ||१७ ३१|| श्रीदश- एवं चेच, णवरं पुरिव सोमणे कहेइ पच्छा इयरेति, एवं विवेवणी गया । इयाणि इहलोगसंवयणी, जहा सम्यमेव । धर्मकथा माणुसत्तण असारमधुवं कदलीथंभसमाण परिसं कह कहेमाणो धम्मकही सोतारस्स संवेगमुप्पाएइ,इहलोगसंवेयणी गता। इदाणिं चूर्णी परलोगसंवेदणी,जहा इस्सापिसादमदकोहमाणलोमादिएहिं दोसेहि। देवावि समभिभूया,तेसुचि कत्तो सुहं अत्थिी॥१॥इट्ट जणविष्प३ अध्ययने र ओगो चेव चयं पेप देवलोगाउ।एतारिसा णिसग्गे देवावि दुहाणि पावंति॥१॥जइ देवेसु एयारिसाई दुक्खाई पाविअति नरगतिरिएमु पुण ॥१०॥ का कहा?, एसा परलोगसंवेदणी कहा गया।इदाणिं सुभाण कम्माण विवागदरिसावणेणं संवेग सोयारस्स उप्पाएइ, जह इहलोएवि तेयाइओ लद्धीओ भवति सुभेसु कम्मेसु बट्टमाणस्स,तं. 'बीरिय विउब्वण गाहा(२०२-११०)तवोजुत्तस्स साहुणो आगास| गमणादीवीरियमुप्पज्जति जंघाचारणलद्धी विज्जाचारणलद्धी वा एवमादी, तहा विउवणलद्धीवि तवसामत्येण भवति, णाणड्डी | इह लोए भवइ, भणिय च-'पभू भंते ! चोदसपुची घडाओ घडमहस्सं विउम्बित्तए' एवमादी, तहा चरणद्धीवि जहा 'ज अनाणी कम्म खवेह पहुयाहि वासकोडीहिं । तं नाणी तिहिं गुत्तो खवेइ उस्सासमेत्तेण ॥ १॥ देसणिद्धी जहा-'सम्मदिट्ठी जीवो विमाण:12 | वज्जन वैधए आउं | जइ य न सम्मत्तजढो अहव न बद्धाउओ पुचि ॥१॥ एवमादीयाओ कहाओ कहेंतो संवेगणि कह कहेतित्ति,संवेगणी कहा गया । इदाणि णिव्वेयणी, सा चउबिहा-त-इहलोए दुच्चिण्णा कम्मा इहलोए दुहविवागूसंजुत्ता |* भवति, चउभंगी, ५ है इह लोए दुच्चिण्णा कम्मा इहलोए दहविवागसंजुत्ता भवंति,जहा चोराणं परदारियाणं, एवमाडे, एसा पढमा निब्वेदणी गता।। इदाणिं वितिया णिब्वेदणी, इहलोए दचिण्णा कम्मा परलोए दुहविवागसंजुत्ता भवंति, जहा ॥१०८॥ Mणेरइयाण अण्णमि कय कर्म निरयमये फलं देह, एसा पितिया निब्बेयणीकहा, याणिं तइया णिब्वेदणी कहा--परलोगे2 CON दीप अनुक्रम [१७-३१] [113] Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [३], उद्देशक H, मूलं | गाथा: [१७-३१/१७-३१], नियुक्ति : [१८०-२१७/१७८-२१५], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: सूत्राक H गाथा ||१७ ३१|| श्रीदश- दुच्चिण्णा कम्मा इहलोगे दुहविवागसंजुत्ता भवंति , कहं १, जहा पावपसत्तिमंतो वालपमितिमेव अंतकुलेसुधकथा वैकालिक उप्पण्णा रेवययकोढाईहिं रोगेहिं दारिदेण य अभिभूया दीसंति , एसा तइया निव्वेयणी ॥ इयाणि चउत्था चूर्णौ ।णिव्वेदणी, परलोए दुञ्चिण्णा कम्मा परलोए चेव दुहविवागसंजुत्ता भवति, कह , जहा पुवि दुच्चिण्णेहिं कम्मेहिं ३ अध्ययने । | जीवा संडासतुंडेहिं उप्पज्जंति, तओ ते नरयपाउग्गाणि कम्माणि असंपुण्णाणि ताए जातीए पूरेति, पूरेऊण नरगभवे वेदेति, एसा चउत्थी णिव्वेदणी॥ एत्थं इहलोगो बा परलोगो वा पण्णवगं पडुच्च भवति, तत्थं पण्णवगस्स मणुस्सभवो इहलोगो, अवससाआ12 ॥१०॥ | तिष्णि पगडीओ परलोगो, एताए निव्वेयणीए कहाए इमा रसगाहा- 'पावाणं कम्माण" गाहा (२०३-११०) पढियव्वा, दा चउण्हं कहाणं कस्म का पढमं कहेयब्बा, एत्थ भण्णइ-वेणइय णइगस्स कहा. वेयणियगो नाम जो पढमताए उबट्टाइ ममं धम्म कहेह, तस्स अक्खेवणी कहेयव्या, तो ससमयगहियस्स पच्छा विक्खेवणी कहिज्जद, किं कारणं, जम्हा अक्खवणीए जीवा अक्खिता समाणा सम्मत्तं लभेज्जा, विक्खेवणीए पुण भयणिज्जा, गाढतरागं च मिच्छ भवइ, कह 1, जो आगाढमिच्छदिट्ठी तस्सा ससमयो वणिज्जतो रोयइ, गाढावगयत्तणण पुण तस्स दोसा कहिज्जमाणाण रोयंति, पण य सद्दहइ, सुहुमत्तणेण य दोसे अबुझमाणो अदोसे चेव मण्णज्जा, इच्चेएण कारणण मष्णति जहा गाढतराग मिच्छति, धम्मकहा सम्मत्ता ॥ इवाणि मीसिया कहा भण्णा-'लोइयवेड्य' गाहा (२०८-११४) लोइयोइयसामइएसु सस्थेसु जहिं धम्मस्थकामा तिष्णिवि कहि-1 ज्जंति सा मीसिया कहा, तत्थ लोइएसु जहा भारहरामायणादिसु चेदिगेसु जन्नकिरियादीसु सामइमेसु तरंगवइगाइसु धम्मस्थकामसहिताओ कहाओ कहिज्जंति, मीसिया कहा संमत्ता ॥ इदाणिं कहापसंगेण चैव चिकहा भण्णइ- जहा विणड-ला. दीप अनुक्रम [१७-३१]] ... अत्र मिश्रकथा एवं विकथाया: स्वरुपम् वर्णयते [114] Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक H गाथा ॥१७ |३१|| दीप अनुक्रम [१७-३१] "दशवैकालिक" - मूलसूत्र -3 (निर्युक्तिः + भाष्य | + चूर्णि:) अध्ययनं [३] उद्देशक [-1. मूलं [H]/ गाथा: [१७-३१ / १७-३१] निर्बुक्ति: [ १८०-२१७ / १७८-२१५] आयं [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [ ४२ ], मूलसूत्र [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: - श्रीदशवैकालिक चूण ३ अध्ययने! ॥११०॥ - सीला नारी बिनारी एवं कहालक्खणाओ दिणदृत्ति विकहा भवसाय इमा विकदा, तं० 'इस्थिकहा' गाहा (२०९-११४) मणितत्रा, विकहा गता ॥ जातो विक्खेवणादिया तो चत्तारिवि कहाओ ताओ पुरिसंतरं पप्प अकहाओ व कहाओ भवंति कहं १, जहा दुबालसंगं गणिपिडगं मिच्छादिहिं पप्य सुतअन्राणभाषेण परिणमह, सम्मदिहिं पप्य सुतनाणभावेण परिणमति, तहा कहाओषि पण्णवयं पच्च एवं विविहाउ भवंति एत्थ गाहा-'एता चैव कहाओ गाहा ( २१० ११४ ) भणितम्बा, तत्थ अकदा दाव एवं भवंति 'मिच्छतं वेदेनो जं अन्नाणी कहं परिकति' गाहा (२११-११४) कहा पुणेवं भवति 'तबसंजम' गाहा (२१२ ११४) पढियब्बा, विकहा पुण एवं भवइ- 'जा संजमो (ओ) पत्तो गाहा (२१३-११४) भणियण्वा ॥ इदाणिं संजमगुणद्विण फेरिसा ण कयव्वा, केरिसा वा कद्देययाति, तत्थ इमा न कहेयव्यासंगाररसुतइया' गाहा ( २१४-११४) भाणितम्बा, इमा पुण कहेबच्या 'समणेण कहेयञ्चा' गांहा (२१५-११४) पतिया, 'अत्थमहंती' गाहा (२१६-११४) गणितच्या 'खेत्तं देस काले' गाहा ( २१७-११४) कंठ्या कहा सम्मता, समत्तो य णामणिफण्णो णिक्खेवो ॥ इयाणि सुत्ताणुगमे सुत्तमुच्चारयन्धं, अक्खलियं अमिलिये अविच्चामेलिये जहा अणुयोगद्वारे, तं चिमं सुतं संजये सुट्टियप्पाणं, विप्यमुक्काण ताइणं । तेसिमेयमणाइण्णं, णिग्गंधाण महंसिणं (१७-११५) 'यम उपरमे' धातुः अस्य धातुसंज्ञा, संपूर्वस्य अप्प्रत्ययः, अनुबंध लोपः परगमनं संयमः, तत्थ संयम सुत्तरसविहो हेडा दुमपुष्फियाए वणिओ, 'अत सातत्यगमने' धातुः धातुसंज्ञा, सात्य तिभ्याम्मनिन्मनिणाविति ( उणादि ४) मनि‍ प्रत्ययः, अनुबंधलीपः वृद्धिः आत्मा तस्मिन् संयमे शोभनेन प्रकारेण स्थितः आत्मा येषां ते भवंति संयमे सुस्थितात्मानः, 'मुल मोक्षणे' धातुः अस्य निष्ठाप्रत्ययांतस्थ विप्रपूर्वस्य च विप्रयुक्तः विमुका विवि [115] मिश्रा कथाविकथाsकथास्वरूपं च 2 ॥११०॥ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [३], उद्देशक H, मूलं | गाथा: [१७-३१/१७-३१], नियुक्ति : [१८०-२१७/१७८-२१५], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: सूत्रांक चूर्णी गाथा ||१७ ३१|| श्रीदश-IAण वाहिरम्भतरेण गंथण मुकाणं, निग्गंथाणति पुन भवइ, 'त्रै पालने धातुः, 'आदेच उपदेशेऽशिति' (पा६-१.४५) आकार, मिश्रा कालिक अस्य तृच् प्रत्ययः, शत्रोः परमात्मानं च त्रायंत इति त्रातारस्तेषांत्रातृणा, तारेतित्ति तारिणो, ते य तारिणो तिविहा भवति, तं०- कथा आततायारो परतायारो उभयतातारोचि, तत्थ आयतातारो पचेयबुद्धा, परतावारो तित्थकरा, कई ?, ते कयकिच्चावि भगवंतोविकथाs३अध्ययन मबियाणं संसारसपारकंखिणो धम्मोवएमेण तारयति, चांदी भणह-असवावि पब्वया संता नो फितातिणो भांतिकथास्वरूप ॥११॥ आयरिओ भणइ-तेहि अंघलगपदीवधारितुल्लेहिं ण एत्थ अधिकारी, उभयतातिणो थेरा भण्णंति, 'तेसिमेयमणाइवणं' तेसि पुबनिद्दिढाणं संजमेठिताणं वाहिभंतरगंथविमुकाणं आयपरोभयतातीणं एयं नाम 'उपरि एयंमि अज्झयणे मण्णिाहिति एवंद जेसिमणाइण्णं, अणादणं णाम अकप्पणिज्जति वुनं भवइ, अणाइण्णग्गहणेण जमेतं अतीतकालग्गणं करेइ त आयपरोभयतातीण। R कीरइ, किं कारण?, जइ ताव अम्ह पुथ्वपुरिसेहिं अणातिण्णं तं कहमम्हे आयरिस्सामाोनी, निग्गंधग्गहणेण साहण णिद्देसो कओ, महान्मोक्षोऽभिधीयते, महत्पूर्वः 'इषु इच्छायां' धातुः महांत एपितुं शील येषां 'सुप्यजातो णिनिस्ताच्छील्ये' (पा. ३२-२८)। इति णिनि प्रत्ययः, उपपदसमासे अनुवन्धलोपः, उपधागुणः'वृद्धिरची' ति (पा. ५-१-८८) वृद्धि, ते महापणा, मग्ग1xणेति वा एसपंति वा एगट्ठा, तेषां महेषिणां एतत्सर्वमनाचीर्ण यदित ऊध्र्वमनुक्रमिष्यामो, आह च उद्देसियंरकीयगडं२,णियागं३अभिहडाणिश्य रायभत्ते५सिणाणेय,गंधमल्ले८यवीयणे९॥(१८११६)उद्दिस्स है कज्जइ तं उद्देसियं, साधुनिमित्र आरंभौत्ति चुत्तं भवति, 'डुक्रीन द्रव्यविनिमये' धातुः अस्य तुम्प्रत्ययः अनुबंधलोषः गुणः केतुम् । । अन्यसत्कं यत्क्रेतुं दीयते की तकृतं, नियागं नाम निययत्ति बुत्तं भवति, तं तु यदा आयरेण आमंतिओ भवइ, जहा भगवं ! दीप अनुक्रम [१७-३१]] ... अत्र औदेशिक-आदि दोषाणां वर्णनं क्रियते [116] Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [३], उद्देशक H, मूलं / गाथा: [१७-३१/१७-३१], नियुक्ति : [१८०-२१७/१७८-२१५], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: - सूत्रांक अनाची जोनि गाथा %%%AR ||१७ ३१|| श्रीदश- TAIतुम्भेहिं मम दिणे दिणे अणुग्गहो काययो तदा तस्स अब्भुवमच्छतस्स नियागं भवति, ण तु जस्थ अहाभावेण दिणे दिणे। चैकालिक भिक्खा लब्भइ,'णी प्रापणे' धातुः, निष्ठाप्रत्ययान्तस्य नीतं, अभिहर्ड णाम अभिमुखमानीतं. कह , सग्गामपरग्गामनिसीहा३ अध्ययन भिहढं च नोनिसीह च, अमिहडं जहा उवस्सए एव ठियस्स गिहतराओ आणीय एवमादी, एत्थ सीसो आह- अभिहडाणि यत्ति | एत्थ बहुवयणअभिधाणं विरुद्ध चेव, आह च-अभिहडाणिति बहुपयणण अभिहडभेदा दरिसिता भवंति, कह?, 'सग्गामपरम्गामे ॥११॥ाला निसीहाभिहडं च णोनिसीहं च । निसीहाभिहडं धेष णोणिसीहं तु चोच्छामि ॥ १ ॥' एयाए गाहाए वक्खाणं जहा पिंड-11 णिज्जुत्तीए,चकारेण अण्णाणिवि एवमाइयाणि सहयाणि भवंति, रायभत्ते सिणाणे य'तत्थ रायमचं चउन्विहं, तं०-दिया गेण्हित्ता | | वितियदिचसे भुजति१ दिया घेत्तुं राई मुंजार राई घेत्तुं दिया संजह राई घेत्तु राई भंजइट, सिणाणं दुविहं भवति,त०-देससिणाणं 8 सबसिणाणं च, तत्थ देससिणाण लेवाडयं मोत्तूण सेसे अच्छिपम्हपक्खालणमेत्तमवि देससिणाणं भवइ, सबसिणाणं जो ससीसतो, पाण्हाइ, 'गंधमल्ले य बीयणे' तत्थ गंधग्गहणेण कोदपुडाइणो गंधा गहिया, मल्लग्गहणेण गथिमवेढिमपूरिमसंघाइमं चउब्धिहंपि मल्लं गहितं, पीयणं णाम घम्मचो अनाणं ओदणादि वा तालवेंटादीहिं वीयति, एयं तेसिमणाइण्ण । किं च- 'सपिणही १० गिहिमत्ते११य,रायपिंडे १२किमिच्छए १३॥ संवाहणार४दंतपहोवणा१५य,संपुरुछणावदेहपलोषणा१७य।। १५-११६) 'दुधाव धारणे' धातुः अस्य सन्निपूर्वस्य 'उपसर्गे घोः किः (पा.३-३-९२)इति किः प्रत्ययः, 'आतो लोप इटि चेति (पा ६ ४-५४)। | आकारलोपः सनिधिः, तत्थ सन्निही णाम गुडघयादीणं संचयकरणं, गिहिमतं गिहिभायणंति, 'राज दीप्लो' धातुः अस्य 'कनिन् । युवृषितक्षिराजिन्विद्युप्रतिदिवः' ( उणादि १ पादः ) कनिन् प्रत्ययः अनुबन्धलोपः परगमनं राजन् , तत्थ रायग्गहणेण मुद्धा-17 दीप अनुक्रम [१७-३१] ROWiki ॥११२। ... अत्र संनिद्धि आदि दोषाणां वर्णनं क्रियते [117] Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [-] गाथा ||१७ ३१ || दीप अनुक्रम [१७-३१] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र- ३ (निर्युक्तिः + भाष्य | + चूर्णि:) अध्ययनं [३], उद्देशक [-] मूलं [-] / गाथा: [ १७-३१/१७-३१], निर्युक्तिः [१८०-२१७/१७८-२१५ ], भाष्यं [४]...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्ण : श्रीदश वैकालिक चूर्णां ३ अध्ययने ॥११३॥ भिसित्तरण्णो गहणं, 'पिडि संघाते' धातुः 'इदितो नुम् ' प्रत्ययः, अनुबन्धलोपः पिंड: राजपिंडः, सोय किमिच्छतो जति भवति, किमिच्छओ नाम राया किर पिंड देतो गेण्हंतस्स इच्छियं दलेइ, अतो सो रायपिंडो गेहिपडिसेहमत्थं एसणारक्खणत्थं च न कप्पड़, संवाहणा नाम चउब्विहा भवति, संजहा- अट्टिमुहा समुहा तयासुहा रोमसुहा, एवं संवाहणं सयं न करेइ परेणं न कारवेद करें तंपि अन्नं न समणुजाणामि (इ) दंतपहोयणं णाम दंताण कट्ठोदगादीहिं पक्खालणं, संपुच्छणा णाम अप्पणी अंगावयवाणि आपुच्छमाणो परं पुच्छर, पलोयणा नाम ( अद्दागे रूवनिरिक्खणं 'अट्टावयं' गाहा (२०-११६) अट्ठावयं) जूयं भण्णइ, १८ नालियाए पासाओ छोट्टण पाणिज्जंति, मा किर सिक्खागुणेण इच्छतिए कोई पाडेहिति१९, छतं नाम बासायवनिवारणं तं अकारणे धरिडं न कप्पर, कारणेण पुण कप्पति २०, तिमिच्छा णाम रोगपडिकम्मं करेइ२१, उवाहणाओ लोगसिद्धाओ चैव, सीसो आह-पाहणाग्रहणेण चैिव नज्जइ-जातो पाहणाओ ताओ पाएसु भवंति ण पुण ताओ गलए आविधिज्ञ्जति, ता किमत्थं पायग्गहणंति, आयरिओ भणड़पायरगहणेण अकल्लसरीरस्स गहणं कथं भवइ, दुब्बलपाओ चक्खुदुब्बलो वा उवाहणाओ आविंधेज्जा ग दोसो भवइति, किंचपादग्गहणणं एवं दंसेति परिग्गहिया उवाहणाओ असमत्थेण पयणे उप्पण्णे पाएस कायब्वा, ण उण सेसकाल २२, जोई अग्गी भण्णह, तस्स अग्गिणो जं समारम्भणं एतमवि तेसिमणाइणं २३ । किंच सिज्जातरपिंड च सिलोगो ( २१-११६) शी स्वप्ने' धातुः क्यप्प्रत्ययान्तस्य शय्या, आश्रयोऽभिधीयते, तेण उ तस्स य दाणेण साहूणं संसारं तरतीति सज्जातरो तस्स पिंडो, भिक्खत्ति वृतं भवइ२४, आसंदिग्गहणेणं आसंदगस्स गहणं कर्म, सो य लोगे पसिद्धो २५ पलियंको पछेको भण्णह, सोवि लोगे पसिद्धो चेव२६, अहवा एतं सुतं एवं पढिज्जइ 'सिज्जातरपिंडं च •••अत्र शय्यातर पिण्डस्य वर्णनं क्रियते [118] अनाचीगोनि ॥११३॥ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [३], उद्देशक H, मूलं | गाथा: [१७-३१/१७-३१], नियुक्ति : [१८०-२१७/१७८-२१५], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: अनाचीणोनि B श्रीदशवैकालिक चूर्णी ३ अध्ययन ॥११ ॥ गाथा ||१७ ३१|| आसन्नं परिवज्जए' सेज्जातरपिंडं च, एतेण चव सिद्धे जं पुणो आसनग्गहणं करेइ नै जाणिवि तस्स गिहाणि सत्त अणंतरासण्णा-1 णि ताणिवि सेज्जातरतुल्लाणि दट्ठयाणि, तेहितोवि परओ अाणि सत्त वज्जयव्वाणि 'गिहतरनिसे ज्जा यत्ति गिह चेव गिह| तरं तमि गिहे निसज्जा न कप्पह, निसज्जा णाम जमि निसत्थो अच्छद, अहया दोई अंतरे, एस्थ गोचरग्गगतस्स णिसज्जाणIA कप्पद, चकारग्गहणेण निवेसणवाटगादि सइया, गोयरग्गगतेण न णिसियव्वति २७, गातं णाम सरीरं भण्णद, तस्स उबरणं ण| कप्पड़, एतमवि तेसिमणाइण्ण २८ । किं च *गिहिणो वेयावडियं 'सिलोगो (२२-११६) तत्थ गिहिवेयावडिय जं गिहीण अण्णपाणादीदि विसरंताण विसंविभागकरण, एयं वेयावडिय भण्णा २९, आजीवविचिता नाम पंचविषा भवह, त'जाती कुल गण कम्मे सिप्पे आजीवणा उ |पंचविहा' एताए गाहार वक्खाणं जहा पिंडमिजुत्तीए ३०, 'तत्तानिबुडभोद [य] त्तं तत्तं पाणीयं तं पुणो सीतलीभूतमनिब्बुडं भण्ाइ, तंच न गिण्हे, रतिं पज्जुसियं सचित्तीभवइ, हेमंतवासामु पुबण्हे कर्य अवरोहे सचित्तीभवति, एवं सचिवं जो सुजइ सो तत्तानिव्वुडभोई भवाद, अहबा तत्तमवि जाहे तिणि चाराणि न उब्वतं भवह ताहेते अनिम्बुडं, सचिर्तति वुत्ते भवइ, जो अपरिणयपि भुजह सो तत्ताणिवुडभोइत्ति ३१, 'आउरस्सरणाणि य' आउरीभूतस्स पुण्यभुनाणुसरणं, अहबा सत्ताह अभिभूतस्स सरणं देइ, सरणणाम उवस्सए ठाणंति वुत्तं भवइ, तत्थ उवस्सए ठाणं देंतस्स अहिकरणदोसो भवति सो वा तस्स सत्तु पासमावज्जेज्जा, अहवा आउरसरणाणित्ति आरोग्यसालाओ भण्णंति, सत्थ न कप्पड गिलाणस्स पविसिउँ, एतमवि तीस 1C अणाइण्ण३२। 'मूलए सिंगवरे य उच्छुखंडे अनिम्बुडे' सिलोगो(२३-११६)मूलओ लोगपसिद्धो३३सिंगबेरं अल्लगं३४, एताणि REAK दीप अनुक्रम [१७-३१] ११४॥ ... अत्र गृहस्थ-वैयावच्च वर्णयते ...अथ अन्य अनाचिर्णानि वर्णयते [119] Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [३], उद्देशक H, मूलं | गाथा: [१७-३१/१७-३१], नियुक्ति : [१८०-२१७/१७८-२१५], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: सुत्राक अनाचीपोनि गाथा ||१७ ३१|| श्री- अनिव्वुढाणि ण कप्पति,उच्छुखडमवि दोसु पोरेसु वट्टमाणेसु अनिव्युर्ड भवइ,निन्खुडं पुण जीवविष्पजदं भण्णह, जहा निष्यातो| वैकालिकाजीवो, पसंतोत्तिवृत्तं भवइ३५, कंदा३६मूलावि३७ जे अपरिणया ते ण कप्पति, फला तबुसाइणो३८ वीजा गोधमतिलादिणा,३९ चूर्णी एयमवि तेर्सि परिभोर्नु अगाइण्यां च 'सोवच्चले सिंघवेलोणे' सिलोगो (२४-११६) सोबच्चलं नाम सेंघवलोणपन्वयस्स ३ अध्ययने | अंतरंतरेसु लोणखाणीओ भवति४०, सेंधयं नाम सिंघवलोणपन्चए तत्थ सिंधवलोणं भवइ४१, रुमालोणं रुमाविसए भवइ४२, समु इलोणं समुदपाणीयं तं खट्टीए निग्गंतूण रिणभूमीए आरिज्जमाणं लोणं भवइ४३, पंमुखारो ऊसो भण्णइ४४, कालालोणं नाम तस्सव ॥११५॥ सेंधवपध्वयस्स अतरंतरेमु काला लोणखाणीओ भवति, आमगं भवति असस्थपरिणयं एतमवि तेसिमणाइण्यां४५ कि-'धूवण. त्ति वमणे य' सिलोगो ( २५.११६) तत्थ धूवणेनि नाम आरोग्यपडिकम्मं करेइ धर्मपि, इमाए सोगाइणो न भविस्संति, अहवा अनं वत्थाणि वा धूर्वेई४६, वमणं लोगपसिद्धं घेव४७, वत्थीकम्म नाम वत्थी दइओ भाइ, तेण दइएण घयाईणि अधिट्ठाणे दिज्जति४८, विरेयणं लोगपसिद्धं चेव४९, एयाणि आरोग्गपरिकम्मनिमित्तं या ण कप्पड़, अंजणे दन्तवणे य गायब्भंगविभूसणाण लोगपसिद्धाणि चेव,५० तेसिमेयमणाइण्णं 'तेसिमेयमणाइणं निग्गंधाण महेसिणं' २६-११६) तेसिमेयमणाइण्णामिति जे हेडा उद्देसियाओ आरम्भ जाव गायम्भंगविभूसणेति अणाइण्णमेतं निग्गंथाण महेसिणं , ' संजमं अणुपालंता लहभूयविहारिणो'। संजमो पुष्पमणिओ, अणुपालयंति णाम तं संजमं रक्खयंति, भूता णाम तुल्ला, लहुभूता लहु वाऊ तेण तुल्लो बिहारो जेसि ते लहुभूतीवहारिणो, चाउरिव अप्पडिबद्धा विहरति । पंचासवपरिणाया' सिलोगो (२७-११८) 'श्रु गतौ' धातुः अवतीति अच्प्रत्ययः आश्रवः, 'पंच'त्ति संखा,आसवगहणेण हिसाईणि पंच कम्मरसासत्र ACCISCENRCHROS दीप अनुक्रम [१७-३१]] ११५॥ -CA [120] Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [-] गाथा ||१७ ३१ || दीप अनुक्रम [१७-३१] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र- ३ (निर्युक्तिः + भाष्य | + चूर्णि:) अध्ययनं [३], उद्देशक [-] मूलं [-] / गाथा: [ १७-३१/१७-३१], निर्युक्तिः [१८०-२१७/१७८-२१५ ], भाष्यं [४]...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि : श्रीदश वैकालिक चूणौं ३ अध्ययने ॥११६ ॥ ४ दाराणि गहियाणि, ताणि दुविहपरिण्णाए परिण्णाताणि, जाणणापरिण्णाए पच्चक्खाणपरिष्णाए य ते पंचासवा परिष्णाया भवंति, तत्थ जाणणापरिष्णा णाम जो जं किंचि अत्थं जाणह सा तस्स जाणणापरिष्णा भवति, जहा पडं जाणंतस्स पडपरिण्णा भवति, घडं जाणतस्स घडपरिण्णा भवति, लोगेवि दिट्ठे- अहं भवंतं परिजानामि, ण ताव भवं परिजाणसि, एसा जाणणापरिण्णा, पच्चक्खाण परिष्णा नाम पावं कम्मं जाणिऊण तस्स पावस्स जं अकरण सा पञ्चकखाणपरिष्णा भवति, किंच तेण चैवक्केण पार्व कम्मं अप्पा य परिण्णाओ भवद्द जो पाव नाऊण न करेइ, जो पुण जाणित्तावि पावं आयर तेण निच्छयवृत्तव्वयाए पावं न परिणायं भवह, कहूं ?, सो वालो इव अआणओ दट्ठब्यो, जहा बालो अहियं अयाणमाणो अहिए पवत्तमाणो एगंतेणेव जयाओ भवइ तहा सोवि पावं जाणिऊण ताओ पावाओ न णियत्तह तंमि पावे अभिरमइ, तिगुत्तो नाम 'गुपू रक्षणे' धातुः निष्ठाप्रत्ययः गुप्तं, तिविहेण मणवयणकायजोगे सम्म निग्गहपरमा, छसु संजया णाम छसु पुढविक्कायाइसु सोहणेणं पगारेण जता संजता, पंचणिग्गहणा णाम पंचदं इंदियाणं निग्गहणता, घीरा णाम धीरत्ति वा सूरेति वा एगट्ठा, निग्गंथा उज्जु-संजमा भष्णइ तमेव एगं पासंतीति तेण उज्जुदक्षिणो, अहवा उज्जुति समं भण्णइ, सममप्पाणं परं च पासंतित्ति उज्जुदेसिणो, ते एवंगुणजुत्ता काले इमं तवविसेसं कुब्वैति, तंत्र आयावयंति गिम्हेसु' सिलोगो, (२८-११८) गिम्हेसु उड्डबाहु उक्कडगासणाईहिं आयावेंति, जेवि न आयावेति ते अण्णं तचविसेसं कुच्चति, हेमंते पुण अपंगुला पडिमं ठायंति, जेवि सिसिरे गावगुंडिता पडिमं ठायंति तेवि विधीए पाउणति, वासासु पडिल्लीणा नाम आश्रयस्थिता इत्यर्थः, तबविसेसेसु उज्जमंती, नो गामनगराइसु विहरंति, संजतगहणेण साधुत्ति वृत्तं भवति, सुसमाहिया नाम नाणे दंसणे चरिने वठु आहिया सुसमाहिया (किंच- 'परीस हरिबु ••• अत्र संयतस्य स्वरूपम् एवं फ़लम् वर्णयते [121] संयतस्वरूपं ॥ ११६ ॥ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [३], उद्देशक H, मूलं | गाथा: [१७-३१/१७-३१], नियुक्ति : [१८०-२१७/१७८-२१५], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: सूत्राक चूणों गाथा ||१७३१|| श्रीदश★ दन्ता' (२९-११८) परीसहा बावीसं 'सह मर्षण' धातुः,अस्य परिपूर्वस्य अप्रत्ययः, परीपहा,ते परीपहा रिपको भणति, ते जेहि संयतसादमिता ते परीसहरिवुदन्ता, धूयमोहा नाम जितमोहत्तिचुत्तं भषह, जिीतदिया णाम जिताणि इंदियाणि-सोचाईणि जेहिं ते जिई-12 स्वफलं | दिया, सव्वदुक्खप्पहीणड्ढा नाम सब्वेर्सि सारीरमाणसाणं दुक्खाणं पहाणाय, खमणनिमिति बुतं भवइ, परक्कमीत विविहेहि | ४ पदजीच. पगारेहि परक्कम्मतित्ति वुत्तं भवइ । इदाणिं एवं तेसि जतंताण जं फल त भाइ-बुक्कराई करेत्ताण' सिलोगो, (२०-११८) 'दुकृञ् करणे' धातुः दुर्वस्य अस्य 'ईपत्सुदुष्षु कुच्छाकृच्छार्थेषु खल (पा. ३-३-१२६ ) प्रत्ययः दुक्कराणि, त एवं परक्कम्म ॥११७| दुक्कराणि आतापनाअकंड्यनाक्रोशतर्जनाताडनाधिसहनादानि, दूसहाई सहिउं केइ सोहंमाईहि चेमाणिएहिं उप्पज्जति, केइ पुण तेण भवग्गहणण सिझति, णीरया नाम अट्ठकम्मपगडीविमुक्का भणंति, तत्थ जे तेणेव भवग्गहणेण न सिझंति ते वेमाणिएम उववज्जंति, तत्तोवि य चइऊणं धम्मचरणकाले पुब्बकयसावसेसेणं सुकुलसुं पच्चाययंति, तओ पुणोवि जिणपष्णनं धम्म पडिचज्जिऊण जहण्णेण एगेण भवग्गहणेणं उक्कोसेणं सत्चहिं भवग्गहणेहिं-खवेत्ता पुब्बकम्माइं, संजमेण तवेण य | सिद्धिमग्ग-16 मणुप्पत्ता, ताइणो परिनिब्बुडेत्ति (३१-११८) जाणि तेसि तत्थ सावसेसाणि कम्माणि ताणि संजमतवेहिं खविऊणं सिद्धि| मग्गमणुपत्ता नाम जहा ते तवनियमेहिं कम्मखवणट्ठमन्भुज्जुत्ता अओ ते सिद्धिमग्गमणुपत्ता भण्णंति, तायंतीति तायिणो, | परिनिन्बुड़ा नाम जाइजरामरणरोगादीहिं सबप्पगारेणवि विष्पमुक्कत्ति वुत्तं भवइ, बेमिनाम नाहमात्मीयेनाभिप्रायेण, किं| ॥११७॥ तहि?, तीर्थंकरोपदेशाद् ब्रवीमि ।। इयाणि नया व्याख्यायंते 'णायाम गिहियम्बे अगण्डिअन्वंमि चेव अत्थंमि । जइतब्वमेव इति जो उबएसो सो नयो नाम ॥ ९॥ सब्वेसिपि नयाणं बहुविहवत्तव्वयं निसामेत्ता । तं सवनयविसुद्धं जं चरणगुणडिओ साह AA% CE%ACECAR दीप अनुक्रम [१७-३१]] [122] Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H, मूलं [१-१५] / गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति: [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१-१५] गाथा I૮ાા ||३२ ५९|| श्रीदश-IT॥२॥ इति दशवकालिकों क्षल्लकाचाराध्ययनचूर्णी परिसमाप्ता॥ पट्पदस्थवैकालिका इयाणिं सो आयारो जीवाजीवेहि अपरिष्णाएहिं न सक्को काउंति एतेण अभिसंबंधेण चउत्थं अज्झयणं आढप्पइ, तत्थ इमेद Mar निक्षेपाः चूणा अहिगारा भाणिकव्वा, सं०-'जीवाजीवाभिगमे' गाहा (२२०-१२०) तत्थ पढ़मो जीवाभिगमो भाणितब्बो, ततो अजीवाभि४ पद्जीव गमो तओ चरित्तधम्मो तओ जयणा तओ उवएसो तओ धम्मफलं, एतस्स अज्झयणस्स चत्तारि अणुयोगदारा भाणियव्या जहा 18 आवस्सगचुण्णीए, इह नामनिष्फण्णो भणिज्जइ 'छज्जीवनिकाए' गाहा ( २१९-१२०) सो य इमो नामनिष्फष्णो निकखेबो ट छज्जीवणिया, षट् पदं, 'जीव प्राणधारणे' धातुः, अस्य अच् प्रत्ययः जीवः, चिञ्-चयने धातुः अस्य निपूर्वस्य 'निवासचितिशरीरो-IP पसमाधानेष्वादेश्व कः' (पा. ३-३-४१) घञ्प्रत्ययः आदेशश्च ककारः निकायः, तत्थ पढम एको निक्खिवियच्चो, एकगस्स अमावे छह अभाषो, तम्हा एक्कग ताव . निक्खिविस्सामि, तत्थ एकगो सत्तविहो, तंजहा- 'नामं ठवणादविए गाहा ( २२०-१२०) अत्थो जहा दुमपुफियाए तहा इहवि, इह पुण संगहेक्कएण अहिगारो, तत्थ दुग तिग चत्तारि पंच एते मोत्तण छक्कग भणामि, किं कारण , छसु परुपिएसु दुगादीणि परुवियाणि चेव भविस्सतित्तिकाऊंण, तम्हा छक्कस्स छविहो निक्खेदो, तं०- नामठवणा' गाहा (२२१-१२०) नामछक्कं ठवणाछक्कं दबछक्कं खेतछक्क कालछक्कं भावछक्क, णामठवणाओ गताओ, दब्बछक्क तिविह, तं०-सचित्तं अचित्तं मीसयं च, तत्थ सचित्तं जहा छ मणूसा, अचित्तं छ काहावणा,मीसर्य ते चेष छ मणूसा अलंकियविभूसिया, खेचछक्कं छ आमासपएसा, कालछक्कयं छ समया छ वा रिया, भावछक्कयं उदायउपसमियखाइयसआसमिय ॥११८॥ पारिणामियसण्णिवाइया भावा छ, इह पुण सचित्तदब्बछक्कएण अहिगारो, षडिति पदं गतं ॥ दीप अनुक्रम [३२-७५] अध्ययनं -३- परिसमाप्तं अध्ययनं -४- 'षड् जीवनिकाय' आरभ्यते [123] Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H, मूलं [१-१५] / गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति: [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१-१५] गाथा ||३२५९|| ARCRA जीवपदनिक्षेपाः श्रीदश . इयाणि जीवपदमाभिधीयते- तस्स इमाओ दो दारगाहा- 'जीवस्स उ णिक्वेवो' गाहा (२२२-१२१) वैकालिक गति उद्धगतित्ते या' गाहा (२२३-१२१) तत्थ पढमं दारं जीवस्स निक्खेवो, सो य इमो-'णामं ठवणा' चूर्णी अगाहा (२२४-१२१) णामंठवणाओं गयाओ, तत्थ दब्यजीवो जस्स अजीपदव्यस्स जीवदब्वत्तणण परिणामी भविस्सइ, ४ षड्जीव ण ताव भवति, एस पूण भावो चरणस्थि, अहया जे जीवदब्बस्स पज्जया ते ताओ जीवाओ बुद्धीए पिहोकाऊणं एग केवलं जीबदवं जीवपज्जवे हि विहीणं भविस्सह, दब्यजीवो गओ || याणि भावजीवो. जीवदव्यं ॥११९|| पज्जवसहियं भावजीवो भवति, अहवा भावजीवो तिबिहो भवइ, 'ओहभवग्गहणंमि' गाहा पच्छद्धं, तत्थ ओहजीवो णाम 'सते आउयकम्मे' गाहा (भा.७-१२१) 'सते आउयकम्मे' नाम आउयकम्मे दवे विज्जमाणे जाव ते आउय कम्मपोग्गला सव्यहा अपरिखीणा ताव चाउरते संसारे धरइ, न मरइनिबुतं भवद, तस्सव य आउगस्स कम्मस्स जया उदो है भवइ तया ओहजीवचणं भण्णाइ, जया ण त आउयकम्मं निरवसेसं खीणं भवई तदा सिद्धो भवइ, जया य सिद्धत्तर्ण पत्तो तदा सब्बनयाणे हि ओहजीवियं पडुच्च उ मी भण्णइ, एतेण कारणेणं सध्यजीपा आउगसम्भावताए जीयंति, एवं आहओं जीवति । इयाणि भवजीवियंति,भवजीवियंति एगाए गाहाए मण्णइ-'जेण य धरह भवगओ'गाहा (भा.८-१२२) जस्स उदएण जीवो नरगतिरियमणुयदेवभवेसु धरइ, जीबइत्ति वृत्तं भवइ, जस्स उदएण भवाओ भवं गच्छद एवं भवजीविय भण्णइ ॥ इयाणि तम्भवीवियं, तं दुविहं तिरियाणं मणुयाण च भवद, अह जेण तिरिया मणुया सट्ठाणाओ उग्वट्टा समाणा पुणो तस्थेव उववज्जति जाव य ते नत्थेव पुणरवि उपपजंति वाव तब्भवजीवियं भण्णइ, तम्भवजीवियं गतं,निक्खेवो यत्ति दारं गतं ।। इयाणि परूवणा EASEA. ॥११९॥ दीप अनुक्रम [३२-७५] .. ... अत्र 'जीव' पदस्य निक्षेपा: कथयते [124] Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H, मूलं [१-१५] / गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति: [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: श्रीदश प्रत सूत्रांक [१-१५] गाथा ||३२ वैकालिक चूर्णी ४ षड्जाव ॥१२॥ भण्णइ-'दुविधा य होति जीवा' गाहा, सुहुमा बादरा य, तत्थ सुहुमा सव्वलोगे परियावण्णा णायल्या, बायरा पुण दुविहा जीवस्यपज्जत्तगा अपज्जनगाय,परूवणेति दारं गतं ।इयाणि लक्खणेत्ति दारं लावणं नाम जेण जीवो पच्चक्खमणुचलम्ममाणोविदा प्ररूपणज्जइ जहा अस्थिति तं लक्षण भण्णइतं च लक्षणं इमाहिं दोहिं गाहाहिमणुगंतव्वं, तंजहा 'आदाणे परिभोगे' गाथा | कणादीनि (२२५-१२३) 'चित्तं चेयण सन्ना' गाहा (२२६-१२३ ) तत्थ पढमं आयाणेत्ति दारं, जहा अग्गिणो दहणादीणि लक्खणाणि एवं जीवस्सवि आदाणं, आदाणं णाम गहणं, जहा संडासएण आदाणेण लोहकारो आदेयं लोहपिंडं गेहइ, एवं जीवो संडास. स्थाणिएहिं सोईदियाइएहि पंचहि इंदिएहिं लोहपिंडत्थाणीया सदरूवरसगंधफासे गेण्हइ, नासदात्मा आदानेनादेयग्रहणसामध्ययुक्तत्वाद् अयस्कारादिवत्, आदानेत्ति दारं गतं । इदाणिं परिभोगेत्ति दारं, परिमोगेण नज्जइ जहा अस्थि जीवो, कह , जम्हा सद्दाइणो पंच विसया जीवो परिभुजअइ णो अजीबो, एत्थ दिद्रुतो ओदणवड्डियजं, जहा ओदणवडियाओ भोत्ता अण्णो अत्यंतरभूओ. एवं सरीराओ अत्यंतरभूतेन अण्णेण भोत्तारेण भविय, सो य जीवो सदादीणं उवर्भुजओति, विज्जमानभोक्तृकमिदं सरीरं भोग्यत्वात् ओदनबड्डीतकवत्, परिभोगेत्ति दारं॥ इदाणिं जोगेत्ति दारं, सो तिविधो-मणजोगो वयजोगो कायजोगो, सो तस्स तिविहस्सवि जोगस्स जीवो णायगोचि, अन्यप्रयोक्तका मनोवाकाययोगाः करणत्वात्परश्वादिवत् । । जोगेत्ति दारं गतं ॥ इदाणिं उपयोगेत्ति दारं, सोय जीवोत्ति दारं, नाणति दारं, नाणंति वा उपयोगेति वा एगट्ठा, मुहृदु-18| लाक्खोवयोग निचकालमेबोषउत्तो, उपयोगी लक्षणं जीवस्येति, नासदात्मा स्वलक्षणापरित्यागादग्निवत्, उवयोगति दारं गतं ॥हा॥१२०॥ तहा इयाणि कसायलक्खणं जीवस्स भण्णइ, जहा सुवण्णदब्बस्स कडगकुंडलाईणि लक्षणाणि भवति तहा जीवस्स को-| +%AERCASEARCH ५९|| दीप अनुक्रम [३२-७५] [125] Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H, मूलं [१-१५] / गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति : [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: आनप्राणा प्रत सूत्रांक [१-१५] गाथा ||३२५९|| चूर्णी श्रीदश-ल हाइपरियाया लक्खणं भवति, किं कारण, जम्हा अचेयणाणं घडपडगाणं कोहादाणो कसाया ग भवंति, जीयस्सेव भवंति, वैकालिक तम्हा सिद्ध कसायलक्खणं जीवस्स, कसायओत्ति वा भावोति वा परियाओचि वा एगठ्ठा, नासदात्मा पर्यायात्पर्यायान्तरगमनसद्भा वात् सुवर्णद्रव्यवत् , कसायेत्ति दारं गतं ॥ इदाणिं जीवस्स लेसालवण भण्णा, लेसा नाम परिणामविसेसो भण्याइ ४ षड्जीव जहा धासमे जीवधाए अण्णो अत्ताणं जिंदतो पाएति,अण्णो हरिसं वच्चमाणो पाएइ,एरिसा परिणामविसेसा जीवस्सेव भवंति, नो ॥१२॥ अजीबस्स, नासदात्माऽन्यस्मादन्येन परिणामेन सद्भावात् क्षीरद्रव्यवत् , लेस्सत्ति दारं गतं । इदाणिं आणपाणू दोबि समय भण्णंति, तत्थ आणू उस्सासो भण्णइ, पाणू णीसासो, एते जम्हा जीवस्स दीसंति, अजीवस्स न, तम्हा ते जीवलक्खणं, आ णापाणुत्ति दारं गतं । इदाणिं इंदियलक्रवणं जीवस्स भण्णइ, इंदियाणि जीवस्स भवंति, नो अजीवस्स, तम्हा ताणि जीवस्स | पलक्खणं भवति, सीसो आद--ननु आयाणग्गहणेणं एसेव अत्थो भणिओ, आयरिओ भणइ-जहा वासीए जा संठाणागिई स निबत्ती भण्णइ, जहा वा रुक्खाइछेदणसमत्था सा उवकरण भण्णा, एवं तत्थ सद्दाइविसयग्गहणसमस्थाणि कलंबुगपुप्फ|संठाणमादीणि उपकरणाणि गहियाणि, इह पुण कण्णचक्खुफासीहापाणिदियाण निव्वत्तणा भणिया, पराण्येवानींद्रियाणि करणत्वात्संदंशकादिवत, इंदियत्ति दारं गतं । इदाणि कम्मबन्धो कम्मोदयो कम्मनिज्जरा य तिष्णिवि समय व जीव-| लक्खणाणि भणति, जहा आहारो आहारिओ सरीरेण सह संबंधं गच्छइ, पुणो व तेण पगारेणं बलादिणा उदिज्जंति, कालाMतरेण य णिज्जिण्णो भवइ,एवं जीवोषि विसयकसाय(जुत्त)त्तणेण कम्मं बंधइ कमस्स उदओ भवइ, जे पुण वेदितं भवद सा निज्जरणा, विज्जमानमोक्तृकामदं शरीरं कर्मग्रहणवेदनानिर्जरणस्वभावादाहारवत् , बंधोदयनिर्जरेति दारं गतं, पढमाए गाहाए अस्थो RECE%BC%CER दीप अनुक्रम [३२-७५] KASAGAR ॥१२॥ [126] Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H, मूलं [१-१५] / गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति: [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१-१५] गाथा ||३२५९|| श्रीदश- मणिओ । इयाणि वितियाए गाहाए अत्थो भण्णइ, तत्थ पढम चिचति दारं, चित्तं (नाम मणो तं जीवस्स लक्खणं) चेयणा अस्तित्ववैकालिकानाम पमाणे काले घडोत्ति जहा एरिसो घडोति, एवमायि चेयणा, संजाणतीति सग्णा, जं पुच्चण्हे मावि दट्टण अवरण्हे द्वार चूर्ण पुणो पच्चभिजाणइ जहा सा चेव एसा गावित्ति, अहवा आहारसण्णादि चउबिहा सण्णात्ति, जीवलक्षणं विविहेहि पगारेदि । ४ पद्जापाजेण मज्जह से विण्णाणं, धारणा नाम जो सस्थं अज्झाइऊणं सुचिरं काले धरेइ, एवमादिधारणा, बुद्धी नाम अपणो पुद्धिसाम-1 ॥१२२॥ &ास्थेणं अरथे उब्बेलइ सा बुद्धी, ईहा नाम किमेसो पुरिसो खाणु पनि पुरिसलक्खणाणि खाणुलक्षणाणि य ईहयति, एवमादी ईहा, मई णाम अवगमो, 'जहा एस पुरिसो को खाणुत्ति एसा मती, वितका णाम एगमत्थं अणेगहि पगारेहिं तकयति, संभावयतित्ति वुत्तं भवति, एसो अत्थो एवमवि भवइ एवमवि अविरुद्धति, एताणि सन्चाणि जम्हा जीवस्स दीसंति तम्हा सिद्धाणि | एताणि जीवस्स लक्षणाणि,चित्तचेयणसण्णाविण्णाणादयो जीवस्स गुणा,नासदात्मा गुणप्रत्यक्षत्वात् घटवत्, लक्खणेति दारं गतं ।। इदा अस्थित्तंति दारं, "सिद्ध जीवस्स अस्थित्वं' गाहा (भा०२५-१२६) पुब्बद्धं, जीवस्स अत्थितं जीवसदाओ चेव सिझाइ, कहं ?, असंत जीवे जीवसहस्सवि अभावो, पसिद्धा य सद्दो लोग, तम्हा अस्थि जीवा जस्स एस निईसो जीवाति,सासा आइ-खरविसाणकच्छभरोमाइणवि सद्दा लोगे पसिद्धा, ण पुण ताणि अस्थि, आयरिओ इमं गाहापच्छद भणइ-'नासभा भाव। भावस्स सद्दो भवति केवलो',ण हि सब्बहा असंतस्स भावस्स लोगे केवलो सदो पसिद्धत्ति,केवलो नाम सुद्धो, अण्णेण सह असंजु-11 ॥१२२॥ तात्ति बुतं भवति, सार्थकोऽयं जीवशब्दः शुद्धपदत्वाद् घटवत, खरविसाणकच्छभरोमसदा पुण न केवला उबलन्भति, कहा खरसहे। गद्दभे वट्टइ, विसाणसहो गक्लादिसु, कच्छभसद्दो कच्छमे, रोमसद्दो एलगाइसु,गद्दभकच्छभेसु विज्जमाणेसु णस्थिति सभा COCOCCARE+ दीप अनुक्रम [३२-७५] ... अत्र जीवस्य अस्तित्वं नाम दद्वारम् कथयते [127] Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H, मूलं [१-१५] / गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति: [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१-१५] गाथा ||३२ G ५९|| श्रीदश-| विज्जइ, ण पुण तहा जीवसदो। जोगोषयोगइच्छावितकादिलक्खणं जीवदच्वं मौतृण अण्णामि कम्हि य न पसिद्धन्ति, सुण्णवादी अस्तित्व आह-जति जीवसदाओ जीवस्स अत्थितं साहेसि, अहमवि सुण्णसहेण सुण्णवाय साहयामि, कह, सुनसदो य लोगे पसिद्धत्ति- द्वार ४ काऊणं, तम्हा अस्थि सुनयति, आयरिओ भणइ-विज्जमाणेण दब्वेण अण्णत्थगएण सुगंति भण्णइ, विज्जमाणस्स दबस्स णासो १ पदजीव. पट्ठति भणति, किंच-इमेण अहिगारण णज्जइ जहा अस्थि जीवोत्ति, 'मिच्छाभावे उ सव्वत्था' गाहा (भा० २८-१२६) जओ | नस्थि जीवो तम्हा दाणधम्मब्भवसच्चभचेरवासादीणं नत्थि फलं, नव य सुकडदुक्कडाणं कारओ बेदओ वा कोइत्ति, किंच ॥रशाटाइयो य जीवो अस्थिति, कह?,'लोगसत्थाणि'गाहा लोहगा वेइगा चेव'(भा.३०-१२७)तत्र लौकिकास्तावदेव अवते-'अच्छेज्जा नयमभेजोऽयमविकार्योऽयमुच्यते । नित्यस्सततग स्थाणुरचलोऽयं सनातनः॥१॥ नैनं छिन्दन्ति शखाणि, नैनं दहति पावकः। | न चैनं क्लेदयन्त्यापो, न शोषयति मारुतः ॥२॥" वैदिका अप्याहुः "भृगालो वै एष जायते यस्सपुरीषो दयते, अथ सपुरीपो|४ न दयते लोकस्य प्रजाः प्रादुर्भवन्ति' समयेऽपि बुद्धेनोक्तं 'अहमासीद्भिक्षवो हस्ती,पदतः शरवसनिमः। शुकः पजरवासी चू, शकुनो जीवजीवकः ॥ १॥ इत्येवमादीति, कापिला अप्याहु:-'आत्माकर्ता भोक्ता निर्गुणे त्यादि, कणादा अपि अस्तित्व सर्वे-10 गतत्वमित्यादि संप्रतिपन्नाः, तस्माल्लोकवेदसमयसंप्रतिपमन्यामहेऽस्त्यात्मा इति, सीसो आह-सो जीवो पच्चक्खओ अणुवलन्भमाणो कह जाणियच्यो जहा अस्थितिः, आयरिओ भणइ- 'फरिसेण' गाहा (भा. ३३-२२७) जहा वाऊ पच्चक्खयो- मंसच- * ॥१२३॥ खुणा अणुवलब्ममाणोषि फरिसेण णज्जइ, एवं जीवोवि णाणदंसणाईहिं अकायगुणेहिं कायओ मिनो साहिज्जइ जह अस्थि, | भणियं च- "उपयोगजोगइच्छाविवक्खणाणवलचेहियगुणेहिं । अणुमाणा गायब्बो पच्चक्खमदीसमाणोवि ॥१॥" सीसो भणइ दीप अनुक्रम [३२-७५] CHORG [128] Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H, मूलं [१-१५] / गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति : [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१-१५] गाथा अन्यत्वादीनि ||३२ ॥१२॥ ५९|| श्रीदश- भगवं! तुम्भे भणह जहा अणुमाणओ जीवो साहेतव्यो जहा अवित्ति, तं च अणुमाणं पच्चक्यपुष्वगं भवइ, प य अप्पा केणइ वैकालिकापच्चक्खमुवलद्धपुष्वोत्ति जओ अम्हेहि अणुमाणयो साहेयम्वोत्ति, आयरिओ भणइ-' अणिदियगुणं' गाहा (भा.३४.१२७) चूण इंदियपच्चक्षेण जीवो न पच्चक्खयो उपलब्भइ, पतिण्णा, अरूविचणं हेऊ, दितो आगासं, अरूवितणेणं इंदियपच्चक्रेण जाणे४ षड्जाबमाण ण गेज्झइ, तहा जीवोत्ति, अरूबी, सव्वाण सिद्धा य साहूणो पासंति,तहा अरुवित्तणेण जीवो मंसचक्खुहि पच्चक्खयो गोबल-18 ब्भति, सार्थकामदमात्मवचनं शुद्धपदत्वाद् घटाभिधानवत् , अथवा अरूपित्वादाकाशवदिति, अस्थितंति दारं गतं ॥ इदार्णि अण्णत्तं अरूवित्तं निचत्तं च तिष्णिवि समयं इमाहिं दारगाहाहि भण्णंति-तंजहा 'कारणविभाग' (२२७-१२८) गाहा, 'निरामय' गाहा, 'सव्वष्णुवदित्ता' गाहा (२२९-२२२)। तत्थ पढर्म कारणविभागअभावोत्ति दारं, निच्चो जीवो. कह', जम्हा तस्स कारणविभागस्स अभावो, जहा आगासस्स, वइधम्मो दिलंतो पढो, जहा पडस्स कारणं तंतवो, ते य तंतवो, जइ कोइ एगमेगं तंतुं गहाय उकेल्लेज्जा अओ पडो अचिरेण कालेण विणासमावज्जेज्जा,एवं जीवस्स जति तंतुसरिसाणि कारणाणि होज्जा तो जहा पडो अणिच्चो तहा जीवोवि अणिच्चो होज्जा, ण य तस्स कारणविभागो अत्थि, तम्हा निच्चो जीबो, जम्हा य निच्चो तओ अस्वी सरीराओ अण्णो जाणियब्यो, नित्यः आत्मा कारणविभागाभावादाकाशवत् । इदाणिं विणासकारणाभायोति दारं, कह, जम्हा तस्स विणासकारणस्स अभावो जहा आगासस्स, इ दिद्रुतो जहा पडस्स अग्गिपादीणि विणा| सकारणाणि भवति, सो य अणिच्चो, ण पुण तह जीवस्स विणासकारणाणि अस्थि, तम्हा विणासकारणअमावा निच्चो जीवो, जम्हा य निच्चो तओ अरूवी सरीराओ अण्णो, नित्य आत्मा विनाशकारणाभावादाकाशवत्, विणासकारणाभावोत्ति गतं दीप अनुक्रम [३२-७५] ॥१२४॥ [129] Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H, मूलं [१-१५] / गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति : [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: वैकालिका प्रत सूत्रांक [१-१५] गाथा ||३२५९|| श्रीदश- इदाणिं बंधपच्चयअभावोत्ति दारं-णिच्चो जीवो, कई ?, बंधपच्चयाभावपसंगा जहाऽज्गास, जम्हा खणविणदुस्स अभावोद निरामय भवति, दिलुतो घडो, जहा अविषट्ठो घडो जलादीणं आहारकिच्चं करेइ,एवं जीवो जइ निच्चोणाणखणे ण विणस्सइ तो अवस्थि- सामयाचूर्णी हि यस्स बंधो मोक्खो य भवइ, अणवस्थियम्स अण्णमि खणे उप्पण्णस्स बंधपच्चयअभावो भवइ, तम्हा निच्चो जीवो, जम्हा यादीनि४ षड्जीव-निच्चो अतो अरूबी सरीराओऽवि अण्णो, नित्य आत्मा बंधप्रत्ययाभावादाकाशवत्,बंधपच्चयअभावोत्ति दारं गतं। इदाणि द्वाराणि ॥१२५॥ विरुद्ध अस्थऽपादुभावेशि दारं, निच्चो जीवो, कह', विणासि दव्वं भवति तंमि विणद्वे विरुद्धस्स पाउम्भावो दीसई, दिद्रुतो 51 16 कट्टछाणादीणि, जहा कट्टछाणादीणि विणासिदश्वाणि तेसि विणासमागच्छंताणं छारईगालाईणि विरुद्धदव्याणि पाउन्मवंति, जहा वा घडस्स कवालाईणि विरुद्धदब्वाणि पाउब्मबंति, एवं जइ जीवस्स विणासे किंचि तारिस विरुद्धदव्वं पाउन रोज्जा तो अणिच्चो होज्जत्ति, जम्हा य णिच्चो अतो अरूवी सरीराओ अण्णो, अविनाशी आत्मा बिरोधिविकारासंभवादाकाशवत्, निचित्तंति दारं गतं ॥ नित्यः आत्मा द्रव्यामत्वादाकाशवत, अरुवित्ता, अण्णतान्ति दारं गतं । इदाणि विड्याए गाहाएट अत्थो भण्णति, तत्थ परम दारं निरामयभाचोनि, कह, जम्हा निरामयो सामयो य भवति, दिडतो घडओ, जहा घडस्स ॥१२५।। राविणहस्सण केणइ संजोगा भवद, एवं जीवोचि जइ खणे उप्पज्जइ विणसह य तओ तस्स अभावीभूयस्स निरामयभावो ण जुत्तो, विज्जमाणो अच्पा निरामयो वा होज्जा सामयो वा, निरामओ-निरोगी भण्णइ,सामयो सरोगी,निरोगो होऊण सरोगो भवइ, सरोगो होऊण निरोगो भवति, तम्हा निरामयसामययोगेण णज्जइ जहा अप्पा णिच्चोति,जम्हा य निच्चो अओ अरूवी सरीराओ अण्णो, निरामयसामयभावोत्ति दारं गतं ।। इयाणि चालकयाणुसरणंति, नानिच्चो जीयो, कह , जम्हा पुवाणुभूतं सरह, दीप अनुक्रम [३२-७५] [130] Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक , मूलं [१-१५] / गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति: [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१-१५] गाथा ||३२ १२६॥ ५९|| श्रीदश- दिढतो बालो, जहा पालो पालभावे जाणि कताणि ताणि जोब्बणस्थो सरद, पाले य जो अटो दिवोतं पच्चभिजाणा, एवं जोव्य- जातिस्मरवैकालिक दाणस्थेचि जे कयं तं वुड्डभावे सरति, जदा पुण खणविणासी होजा ता को सरेज्जनि, तम्हा बालकयाणुसरणेण गज्जइ जहा निच्चो राणादान चूर्ण जीवोत्ति, जम्हा य निच्चो अओ अरूवी सरीराओ य अण्णो, बालकयाणुसरणनि दारं गतं । इदाणिं उबट्ठाणंति दारं, ४पजीवी निच्चो जीयो, कई", जम्हा अनंमि काले कर कम्म अन्नामि काले उवट्ठाइणय अणिच्चस्स भावो जुज्जद, दीसति य इममि लोए चेव पुण्यसुकयकारिणो इडे महफरिसरसरूपगंधादिविसए उवभुजंता पुबदुकयकारिणो य अच्चंतपरिकिलेसमागिणो भतियादीणि कम्माणि उक्वेवमाणा मरणमभुवगन्छति तम्हा सुभामुभं कम्भ, उबट्टाणत्ति दारं गतं । इदाणि सोयाईहिं अग्ग-1 हणति दारं, णिच्चो जीवोत्ति, कर, जम्हा सोयादीहिं इंदिराहि न सकं घेतुं जहा आमासं, जहा आगास अमुचितं न सकं पेतं सांवादीहि इंदियहि नियं च तहा जीवाऽपि सोयादीहदिणि ती घेतं, तन्हा सोनिच्चो, जम्हा निकचो अओ अरूबी सरीराओ अण्णेनि, सीतादीहिं अरगहणनि दारं गतं । इदाणिं जानिसरणति हार, णिच्चो जीवोत्ति, कह, जम्हा जातिस्मरणागि लोगे विजंति, जति य जीयो न होज्जा तो कस्स जाइसरणमुप्पजेज्जा, मुब्बति य वहूणि जाईसरणाणि लोग। उप्पण्णाणि, गोवालाइणोनि सस्थवाहिस पडियन्जति जहा जातिसरणमन्थिनि,सम्हा जातिसरणेणवि णज्जइजहा जीवो निच्चाति अतो य अस्या सरीचओ य अण्णोत्ति, जासरति दारं । इदाणि थणालासनि दारं, निच्चो जीयो, कह, जम्हा जाय-15 ॥१२६॥ मेना चा थण महिलसति, दिहतो देवदत्तो, जहा देवदचस्स पुग्वभक्खितं अब वा अंबिलं वा अण्णेण फेणइ भक्विजमाणं ददळूण मुह संदह, किं कारण, जम्हा जेण जानि ताणि 'फलाणि पुरिब भक्खियाणि तम्स मुखस्क्लेिदो भववि. न पुण अंतरदीतवासीणं -RREARRECReate दीप अनुक्रम [३२-७५] k ... अत्र जातिस्मरण द्वारम् कथयते [131] Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [१-१५] गाथा ||32 ५९|| दीप अनुक्रम [३२-७५] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र- ३ (निर्युक्तिः + भाष्य | + चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-] मूलं [१-१५] / गाथा: [ ३२-५९ / ४७-७५ ], निर्युक्तिः [२२०-२३४ / २१६- २३३], भाष्यं [ ५-६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: श्रीशवैकालिक चूर्णां ४ पदजीव. ॥१२७॥ जत्थ ताणि फलाणि सव्वसो गत्थि, तहा जीवस्सवि पुवं अम्भत्थं थणपाणं जं जातस्सेव बालस्स उवएसमंतेरणीव धणं पति अहिलासो भवति, घणाभिलासकरणेण णज्जइ जहा निच्चो जीवोति, धणाभिलासोत्ति दारं गतं । इदाणिं तयाए गाथाए अत्थो भण्णह, तत्थ पढमं दारं सव्वण्णुदित्ता, णिच्चो जीवो, कहं ?, जम्हा सव्वष्णूर्हि एवमुवदिट्ठो, ते य भगवंतो ण तं भासति जस्स पुण्यावरदोसो भवति, भणियं च 'बीतरागा हि सव्वण्णू०' तम्हा निच्चो ततो अरुवी सरीराओ य अण्णोति, सव्वण्णुवदिट्ठत्तत्ति दारं गयं । इयाणिं सकम्मफलभोयणंति दारे, णिच्चो जीवो, कहं ?, जम्हा सर्व कडाणि सुकयदुक्कयाणि कम्माणि अणुभवइ, जति निच्चो न भवेज्जा तो खणविणासिस्स सुकडकडाणं फलाणुभवणं न होज्जा, दीसति य फलमणुमवंतो पच्चक्खमेव, तम्हा सकयफलभोयषेण णज्जर जहा णिच्चो जीवोत्ति, जम्हा णिच्चो तम्हा अरूवी सरीराओ य अष्णोति, सकम्मफलभोयणेत्ति दारं गतं अण्णतं, इयाणि अमुत्तानि दारं, णिच्चो जीवो, कहं १, जम्हा सो अरूवी, दितो आगासं, जहा आगास अमुत्तिमंतं निच्च तहा जीवोवि अमुत्तिमंतो निच्ची भविस्सति, अमुत्तत्तअण्णत्तनिच्चत्ताणि गयाणि || हयाणि कार रओत्ति दारं, कारओ जीवो, कहं?, जम्हा सुभाशुभफलमणुभवइ, दितो वाणियकिसिबलाइ, जहा वाणिजादयो फलभोइणो कतारो, एवं जीवो भोत्ता कारओ, गयं कार ओत्ति दारं, इदाणिं देहवावित्ति दारं, जीवो देहवावी, कहं ?, जम्हा तस्स परिमिए देसे लिंगाणि उबलते, दिहंतो अग्गी, जहा अग्गी जंमि ठाणे वट्टर तंमि चैत्र डहणपयणपयासणादीणि भवंति एवं जीवो जीम चैव परिमिते देसे अपस्थिओ तंमि चैव आकुंचणपसारणादीणि दीसंति, तुम्हा परिमिते देसे लिंगदरिसणेण णज्जइ जहा जीवो देवावी, सरीरमात्रव्यापी एवमात्मा परिमितदेसे लिंगदर्शनादग्निवत्, देहवाबित्ति दारं गतं । इयाणिं चितियाए [132] सर्वज्ञोपदि|टत्वादीनि ॥१२७॥ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H, मूलं [१-१५] / गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति: [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१-१५] गाथा श्रीदश- बैंकालिक चूर्णी ४ षड्जीव. I दापरिमाणं. ||३२ ॥१२८॥ ५९|| अत्थो भण्णाइ, तत्थ पढमं दारं गुणित्ति, गुणी जीवो, कह ?, जम्हा दबाणं एस सहावोनि, एत्थ दिट्ठतो घडो, जहा घडस्स IP रूवरसगंधाइणो गुणा भवंति तहा जीवस्सवि णाणदंसणाइणो बहवे गुणा भवंति, तम्हा गुणी जीवो, गुणित्ति दारं । इयाणि उड्डगतित्ति दारं, उड्डगती जीवो, कह , जम्हा सो अगुरुलहुउत्ति, दिलुतो अलाउर्य, अट्ठहि मट्टियालेवेहि लितं मुकं समार्ण | उदगे पक्खित्तं तलेवगुरुययाए अहे धरणितले पहाडियं भवइ, तहा जीवोधि अट्टकम्मगरुपयाए अगादीष्णवदग्गे संसारजले पइट्ठाणो | भवति, निरवसेसकम्मक्खएण य अगुरुलहुदव्यताए उई गच्छद जाव धम्मत्थिकायदब्बस्स विसओत्ति, उड्डगइओति दारं गतं । इदाणि निम्मएत्ति दारं, निम्मयं णाम जस्स कारणं नत्थि, निम्मयो-अमयो, जहा मिम्मयो घडो तंतुमयो पडो वीरणामयो कडो,एवं जीवस्स मयत्तं नत्थि तम्हा अमयो जीवो, नित्य आत्मा अमयत्वादाकाशवत् , निम्मयोत्ति दारं गतं। पुव्वकयकम्मसाफल्लता दारं जहा हेट्ठा बनिय तहा बनेयध्वं । इदाणि परिमाणेत्ति दारं, अनेन विधानेन सिद्धमात्मनो अस्तित्वं, तस्मिन् सिद्धे तत्प्रमाणनिधारणार्थमिदमुच्यते- 'एगस्स अणेगाण य( -१३४ गाहा) परिमाणं दुविहं भवइ, तंजहा-एगस्स अणेगाण य, तत्य एगस्स ताव परिमाणं भष्णइ--'जीवस्थिकायमाणं' गाहा (५६-१३४) एगजीवस्स | परिमाणं भष्णइ, तं च इम-जया केवली केवलिसमुग्धारण समोहणइ तया सव्वलोग पूरेइ जीवपएसेहि, ओगाहणमुहुर्म एकको जीवपएसो पिहप्पिहो भवइ, नो उप्परोपरि, इहरहा असमुग्धायजीवप्पएसा उप्परोपरि भवति । केत्तिया सचजीचा परिमाणओ होज्जत्ति, एत्थ गाहा 'पत्थेण व कुलवेण व गाहा ( ५७१३४ ) जहा कोइ सम्बधमाणि एगट्ठीकरेचा पत्थेण व कुल ५ एण व मवेज्जा, तत्व कुलवो लोगपसिद्धो, पत्थो पुण चत्तारि कुलवा भष्णति, एवं असम्भावट्ठवणाए कोई लोग कुलवं वा पत्थं | दीप अनुक्रम [३२-७५] ॥१२ ॥ [133] Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [१-१५] गाथा ||32 ५९|| दीप अनुक्रम [३२-७५] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र- ३ (निर्युक्तिः + भाष्य | + चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१-१५] / गाथा: [ ३२-५९/४७-७५], निर्युक्तिः [२२० - २३४ / २१६- २३३], भाष्यं [५-६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [ ४२ ], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: श्रीदशवैकालिक चूर्णी ४ पदजीव. ॥ १२९॥ ४ वा काउं अजहण्णमणुकोसियाए ओगाहणाए लोगं पुणो पुणो पूरेता अलोगे पक्खिवेज्जा, तओ एगो दो तिष्णि एवं गणिज्जमाणा अनंता लोगा भवेज्जा, अहवा लोगस्स एकेक्कंमि आगासपए से एक्केक्कं जीव बुद्धीए ठवेता जीवलोगो भरिओ ताहे अलोगे परिकप्पर एवं एगो दो तिष्णि मविज्जमाणा अनंता लोगा भवेज्जा, परिमाणंति दारं गतं, जीवोत्ति य पदं । इयाणि निकायेशि दारं, 'णामंठवण सरीरे ' गाथा ( २३०-१३४ ) नामठवणाओ गयाओ, सरीरकाओ नाम सरीरमेव मण्णइ, गइनाम जेहिं सरीरेहिं भवन्तरं गच्छइ ताणि तेयाकम्माणि, जो वा जाए गईए कायो भवइ, सरीरंति वृत्तं भवद, जहा नेरइयाण तिमि सरीराणि वेउन्वियतेयाकम्मगाणि, एवं सेसियाणवि गतीण भाणियव्वाणि निकायो नाम छज्जीवनिकायो भण्ण, तं० पुढविकाइया आउकाइया तेउकाइया वाउकाइया वणस्सइकाइया तसकाइया, अस्थिकाओ नाम धम्माधम्माइया पंच अस्थिकाया, दवियकाओ नाम तिप्पभिई दव्वाणि एगत्थ मिलियाणि दव्यकाओ मण्णइ, जहा तिनि घडा, एवमादी, माउकायो नाम तिप्पभिई माउअक्खरा माउयकायो भण्णद, पज्जवकायो दुविहो, तं० अजीवपज्जवकायो य जीवपज्जवकाओ थ, तत्थ अजीवपज्जवकाओ नाम तिप्पभिर्ति अजीवपज्जवा अजीवपज्जवकायो भण्णइ, जहा घडस्स वण्णरसंगंधफरिसचि एवमादी, जीवपज्जरकायो नाम तिष्यभिई जीवपज्जवा जीवपज्जवकायो भण्णइ, जहा नाणदंसणचरिचाणि एवमादि, संगहकायो नाम जहा तिप्पभिई दव्वाणि एगेण सद्देण संगहियाणि, जहा तिगड तिफला एवमादी, जहवा जहा जाओ सालिति एवमादी, भारकायो णाम 'एको कायो दुहा' गाहा ( ) एत्थ उदाहरणं एगो काहारो तलागे दो घडा पाणियस्स भरिऊण कावोडीए वहइ, सो एगो आउकायकाओ दोसु घडेसु दुहा कओ, तत्थ सो काहारो गच्छंतो पक्खलिओ, एगो घडो भम्मो, [134] अध्ययनोपोवृषातः ॥१२९॥ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H, मूलं [१-१५] / गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति: [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: अध्ययनोपोद्घातः प्रत सूत्रांक [१-१५] गाथा ||३२५९|| श्रीदश- तम्मि जो आउकाओ सो मओ, इतरंमि जीवद, तस्स अभाने सोऽवि भग्मो, ताहे तेण पुब्धमएण मारिओति भण्णइ, अहवा| वैकालिकाएगो पडो आउकायमरिओ, ताहे तमाउकार्य दुहा काऊण अद्धो तावित्रओ, सो मओ, अतो पीओ जीवह ताहे सोवि तत्थेव चूणा पक्खिचो, तेण मरण जीवतो मारिउसि, एसो भारकाओ गओ। पाणि भाषकाओ भण्णइ-भावकाओ नाम तिप्पभिई ४ अ० उदइयाइया भावा भावकाओ, 'इत्थं पुण अहिगारो' गाहा ( २३१-१३५) इत्थं पुण अहिगारो अज्झयणे निकायकारण अहि॥१३०॥ गारो, सेसा पुण उच्चारियत्थसरिसत्तिकाऊण परूवियाणि, कायोत्ति दारं गतं, गओ य णामणिप्फण्णो णिक्खेवो, इदार्णि मुत्ताणुगमे सुत्तमुच्चारेयव्वं अक्खलियं जहा अणुओगदारे, तं च सुतं इमं ॥ मूलं सुतं मे आउसं तेणं भगवया एवमक्वार्य (सू०१-१३६) श्रु श्रवणे' धातुः, अस्य निष्ठा प्रत्यय:-श्रयते स्म श्रुतं, एतस्स सुतस्स इमो अभिसंबंधो- 'अस्थं भासह अरहा मुत्तं गुंधति गणहरा णिउणा। सासणस्स हियट्ठाए तओ सुतं पवत्तइ ॥१॥ भगवतो अनिए अत्थं सोऊण गणहरा तमेव अस्थं सुतीकाऊण पत्तेय अप्पणो सीसेहिं जिणवयणसोतब्वगाभिमुहेहि पुच्छिज्जमाणा एवमासु- 'सुतं मे आउसंतण' अहवा मुहम्मसामी जंबुनाम पुच्छमाणं एवं भणइ, अस्मत्सर्वनाम्नः कतेकरगणार्थे तृतीयकवचन टाङसी (पा. ७-१-१२) त्याचे प्राप्त 'योऽची ति (पा.७-२-८५) यकार: 'स्वमावेकवचने (पा.७.२८०) इति मादेशः परगमनं मया, श्रुतं मया आयुष्मन् ! तेन भगवता, सुत मताच जो निहेसो एस खणिगवादिपडिसेहणत्थं कज्जइ, I कहं , अहमेव सो जो तदा भगवती तित्थगरस्स सगासे सोऊण णिविट्ठो, अक्खणिउनि बुचं भवइ, आयुस प्रातिपदिक प्रथमा G | सुः,आयुः अस्यास्ति मतुष्प्रत्ययः,आयुष्मान्!, आयुष्मनित्यनेन शिष्यस्यामन्त्रण गुणाश्च देशकुलशीलादिका अन्वाख्याता भवंति, ॐ दीप अनुक्रम [३२-७५] 2NR4545% ॥१३॥ ... अथ अध्ययनस्य सूत्राणि आरब्धा: [135] Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H, मूलं [१-१५] / गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति : [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१-१५] गाथा श्रीदश अध्ययनो. पोद्घातः चूर्णी । ||३२ ५९|| दीर्घायुष्कत्वं च सर्वेषां गुणानां प्रतिषिशिष्टतम, कहं , जम्हा दिग्घायू सीसा तं नाणं अमेसिपि भबियाणं दाहिति, ततो य बैकालिक अब्बाच्छिची सासणस्स कया भविस्सइचि, तम्हा आउसंतग्गहणं कयंति, तेन सर्वनाम्नतृतीयैकवचनं त्यदायत्वं' (पा.७-२-१०२) अतो गुणः (पा. ६-१-८७) पररूपत्वं 'टाऊसिङसामिनात्स्या ' इति (पा. ७.१-१२) टावचनस्य इनः आदेशा, 'आर गुणः । ४ अ. (पा. ६-१-८७) परगमनं तेन भगववा-तिलोगवंधुणा, एगो विगप्पो गोइयाणि वितियो विकप्पो मण्णइ-सुयं मे आउर्स तेणं, सुयं मयाऽऽयुषि समेतेन तीर्थकरण-जीवमानेन कथित, एष द्वितीयः विकल्पः २, इयाणि वइओ पिकप्पो सुर्य मे आउसं॥१३॥ दिनेणं श्रुतं मया गुरुकुलसमीपावस्थितेन तृतीयो विकल्पः ३, इयाणि चउत्थो बियप्पो, सुयं मया एयमज्झयणं आउसंतेण भगवतः पादी आमृपता, एवं सुत्ते वक्वाणिज्जमाणे विणयपुब्बे सीसायरियसंबंधो परूविओ, चउत्थो विगप्पो गओ, इयार्णि भगवता इति, भगः प्रातिपदिक स भगः तद) स्यारत्यास्मान (पा. ५.२-९४)ति मतुप प्रत्ययः, अनुवन्धलोपः (मादुपधायाश्च) मतोर्वोऽयवादिभ्यः (पा.८-२.९) इतिवत्वं भगवत् कतकरणयोस्तृतीया, टा अनुबंधलोपः परगमनं भगवता, अथवा भगशब्देन ऐश्वर्यरूपयशम्श्रीधर्मप्रयत्ना अभिधीयते, ते यस्यास्ति स भगवान , मगो जसादी भष्ण, सो जस्म अस्थि सो भगवं भण्णइ. उक्त प."ऐश्वर्यस्य समग्रस्प, रूपस्य यशसः श्रियः। धर्मस्याथ प्रयत्नस्य पण्णां भग इवीरगना ॥१॥' अतस्तेन भगवता एवंशब्दो निपात: अवधारणे पर्चते, किमवधारयति', एतस्मिन् षड्जीवनिकायाध्ययने योऽर्थोऽभिधास्पते तमवधारयति, अक्खायं नाम कहियं, 'चवि. व्यक्तायां वाचि' धातु: आइपूर्वः अस्य निष्ठाप्रत्ययः क्तः अनुवन्धलोपः चक्षिका ख्यादेशः नपुंसक सु अम् आख्यातं, इहीत नाम इह पवयणे लोगे वा, खलुसदो विसेसणे, किं विसेसयति , न केवलं महावीरेण एयमज्झ 86 % 4 दीप अनुक्रम [३२-७५] ॥१३१॥ 50 4 [136] Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H, मूलं [१-१५] / गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति: [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१-१५] गाथा ||३२ ५९|| श्रीदश| यणं कहिये, किंतु सेसेहिवि तित्थकरहिं एवमाख्यातं, छहं जीवस्स निकायस्स तिहवि दाराणं अस्थो जहा नामनिष्फणे अध्ययनोवैकालिका निक्खेबे भणिओ तहेव इहवि भाणितब्बो, अज्झाइ जम्हा तम्हा अज्झयणं, ततो समणो जहा सामण्णापुब्बए तहेव इहवि, पोद्घात: चूणों भगवया इति एयस्स जहा हेडतो भणिओ, महंतो यसोगुणेहि वीरोति महावीरो, एत्य सीसो भणइ- णणु 'सुयं मे आउसंतेण' ४ आ. एवं गज्जति समणेण भगवया महावीरेणं एयमज्झयणं पनत्तामिति किं पुण गहणं कयमिति , आयरिओ भणइ-समणो चउब्बिहो,1% ॥१३२॥ तं०-णामसमणो ठवणसमणो दब्बसमणो भावसमणोत्ति, एवं भगवमवि चउब्बिहो, एवं महावीरोवि चउब्विहो भवति, तत्थ नामठवणादब्वाणं पडिसेहनिमित्तं भावसमणभावभगवंतमहावीरग्गहणनिमित्तं पुणोगहणं कयं, 'पा'पाने' धातुः, अस्य धातोः काश्यपूर्वस्य 'आतोऽनुपसर्गे' (पा. ३-२-३) इति का प्रत्ययः, काश्यं पिबतीत्येवं विगृह्य उपपदसमासे सुलुक् अनुषन्धलोपः 'अतो लोपे' (पा. ६-४-४८) त्याकारलोपः परगमने काश्यपः, काशो नाम इक्खु भण्णद, जम्हा तं इक्खु पिचंति तेन काश्यपा अभिधीयत, अथवा काश्यप गोतं कुलं यस्य सोऽयं काशपगोतो तेण काशपगोत्तेण, प्रवेदिता नाम विविहमनेकपकारं कथितेत्युक्तं भवति, सुपक्खाया नाम सोभणेण पगारेण अक्खाता सु? वा अक्खाया, सुपपणत्ता णाम जद्देव परूविया तहेव आइण्णावि,इतरहा जब उबईसिऊण न तहा आयरंतो तो नो सुपण्णता होतिति,सेय नाम पत्थं, 'मेति अत्तमो निसे, अहिजिउं नाम अज्झाइउं, अज्झयणं नाम 'अज्मप्पस्साणयणं कम्माण अवचयो उबचियाणं | अणुवचयो य नवाणं तम्हा अज्झयणीमच्छीत ता॥१॥ धम्मो पण्णविज्जमाणो बिज्जति जत्थ सा धम्मपन्नत्ती. एत्व सीसो तमज्नयणमजाणमाणो आह- 'कयरा खलु सा छज्जीवणिया णामज्झयणं समणेणं भगवया महावीरेण कासवण जाव पन्नत्ती, आयरिओ भण्णा-'इमा खस्लु सा ॥१३२॥ SACREAKAAREE दीप अनुक्रम [३२-७५] SHARE [137] Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [१-१५] गाथा ||32 ५९|| दीप अनुक्रम [३२-७५] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र- ३ (निर्युक्तिः + भाष्य | + चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-] मूलं [१-१५] / गाथा: [ ३२ ५९ / ४७-७५ ], निर्युक्तिः [ २२०-२३४ /२१६-२३३], भाष्यं [५-६० ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [ ४२ ], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्ण : श्रीदशबैकालिक चूर्णां ४ अ० ॥१३३॥ छज्जीवणियाणाम जब पत्ती, तं० पुढवीकाइया आउक्काया तेउकाइया वाउकाइया वणस्सइकाइया तसकाइया,' 'प्रभु प्रत्याख्याने' धातुः अस्य धातोः 'प्रथेः पिवन् संप्रसारणं चे' (उपादि २ पादः) ति पिवन्प्रत्ययो भवति संप्रसारणं च अनुबन्धलोपः परगमनं पृथिवः त्र्यधिकारे 'पिगौरादिभ्यथेति (पा. ४-१-४१ ) ङीप्रत्ययः पृथिवी, 'चिव चयने' धातुः अस्य 'निवास चितिशरीरोपसमाधानेध्यादेश्व क ' इति (पा. ३-३-४१ ) घन् प्रत्ययः आदेश्व ककारः अनुबन्धलोपः परगमनं कायः पृथिवीकायः, मध्ये शेषलक्षणा पर्छ। उ, 'अण् नया' (पा. ७-३-११२) अडागमः 'इको यणचि' (पा. ६-१-७७) इति यणादेशः, कायशब्दस्य प्रथमासोर्विसर्जनीयः पृथिव्याः कायः षष्ठी' (पा. २-२-८) सुबन्तेनोचरपदेन सह समस्यते तत्पुरुषश्च समासो भवति 'धातुप्रतिपदिकयो 'रिति (पा. २-४-७१) सुबूलुक एकपदमेकस्वरविभक्तित्वं च पृथिवी कायः निवासोऽस्य 'तस्य निवासे 'ति (पा. ४-२-६९ ) अणि प्राप्ते ठक् प्रत्ययः तस्य इकादेशः' 'यस्येति चे 'ति (पा. ६-४-१४८) अकारलोपः, पृथिवीकाका:, 'आप प्राप्ती' धातुः अस्य धातो: 'आप्नोतेईस्वश्वे 'ति ( उपादि २-५८ ) कि प्रत्ययः हस्वश्च भवति, अनुबन्धलोपः परगमनं अष्कायः, मध्ये प्रथमाबहुवचनं जस, कायशब्दस्य, पुनरपि कायशब्दः, अष्कायः कायो येषां 'अनेकमन्यपदार्थ' इति (पा. २२-२४ ) बहुब्रीहिसमासः, 'सुपो धातुप्रातिपदिकयोरिति (पा. २४-७९) सुब्लुक् एकस्य कायशब्दस्य लोपः परगमनं एकपदमेकस्वरविभक्तित्वं च अष्कायः, अष्कायः निवासोऽस्य 'तस्य निवासे 'ति ( पा. ४-२-६९ ) अणि प्राप्ते ठक् प्रत्ययः तस्य इकादेशः 'यस्येति चे 'ति (पा. ६-४-१४८ ) अकारलोपः अपकायिकाः, आउक्काओ सरीरं जेसिं जीवाणं ते जीवा आउक काइया, 'तिज निशामने' धातुः अस्य धातोः असुन् प्रत्ययः अनुबन्धलोपः गुणः परगमनं तेजस्कायः, मध्ये षष्ठी जसू कायशब्दात्सुः, [138] अध्ययनोपोद्घातः ॥१३३॥ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H, मूलं [१-१५] / गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति: [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१-१५] गाथा ||३२ श्रीदश- तेजसः कायः 'पष्टी'(पा. २-२-८) सुबन्तेनोत्तरपदेन सह समस्यते अधिकारातत्पुरुषच समासः 'सुपो धातुप्रातिपदिक्यों-15 अध्ययनोंवकालका (पा. २-४-७१) रिति सुम्लुक परगमन एकपदमेकस्परविभक्तित्वं च, तेजस्कायः निवासोऽस्य सोऽस्य निवासे'ति (पा. ४-२-६९) चूणों | अणि प्राप्ते ठक् प्रत्ययः तस्य इकादशः परगमनं तजस्कायिका, 'वा गतिगन्धनयाः धातः, अस्य धातोः 'कवापाजिमिस्वादिसा४ अ० अभ्य उण' स्यण प्रत्ययः (उणादिपा.१-१) 'आतो युकचिणकुतो रिति (पा. ७-३-३१) यक परगमन बायकाया, मध्ये पष्ठी असा ॥१३॥डा'परी' ति (पा. ७-३-१११) गुणा, 'उसिडसोध'ति (पा-६-१-११०) परपूर्वस्व कायशम्दस्य प्रथमासः, वायोः कायः षष्ठीसमासा, लि। 'सुपो धातुप्रातिपदिकयो (पा. २-४-७१) रिति सुब्लुक एकपदमेकस्वरविभक्तित्वं च, पायोः कायः वायुकायःवायुकायः निवासोऽस्य 'तस्य निवास' इति (पा. ४-२-६९) अणि प्राप्ते ठक् प्रत्ययः, अस्य इकादेशः, परगमनं वायुकायिकाः, 'बन पण संभक्तौ' धातुः, अस्य धातोः 'नन्दिग्रहिपचादिभ्य' इति (पा ३-१-१३४) अच प्रत्ययः अनुषन्धलापः परगमनं वनः, 'पा रक्षणे' धातुः, अस्य धातोः 'पातेडती'ति (उणादि ४-५७) इतिः प्रत्ययः, डकारादकारमपकृष्य डकारस्य ''(पा. ६-४-१४३) रिति टिलोपः, दितभ्यः (प्रत्ययः)स्याप्यनुबन्धकरणसामथ्योद्दीप(दाकार) लोप: परगमनं पतिः। इदाणि समासम्वन पति, मध्ये षष्ठी उस्, पतिशब्दस्य प्रथमा*सु रुत्वं विसर्जनीयः वनस्पतिः षष्ठी' (पा. २-२-८) सुबन्तेनोत्तरपदेन सह समस्यते तत्पुरुषच समासो भवति, समासे 'सुपो! धातुप्रातिपदिकयो रिति (पा २-४-३१) सुन्छुक मुलुकि कृते 'तबृहताः करपत्याचौरदेवतयोः तलोपश्च' (पा.६-१-१२७) 1DI वासुद, बनस्य च पती परतः सुद, टकारब 'आद्यन्ता टाकतागवति (पा.१-१-४६) विशेषणार्थ:, उकार उच्चारणार्थ, परगमनं ॥१३॥ बनस्पतिकायः, मध्ये षष्ठी, 'विन्तीति (पा. ७-३-१११) गुणः 'सिसोधेति (पा.६.१-११०) परपूर्वत्वं कायः प्रथमासुः RECA ५९|| दीप अनुक्रम [३२-७५] [139] Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [१-१५] गाथा ||32 ५९|| दीप अनुक्रम (३२-७५] (निर्युक्तिः+|भाष्य|+चूर्णिः) "दशवैकालिक" - मूलसूत्र -3 (निर्युक्तिः + भाष्य | + चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-] मूलं [१-१५] / गाथा: [ ३२-१९/४७-७१] निर्युक्तिः [२२०-२३४/२१६-२३३] भाष्यं [ ५०-६० ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [ ४२ ], मूलसूत्र [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: - श्रीदशवैकालिक चूर्णां ४ अ० ॥१३५॥ - वनस्पतेः कायः षष्ठीसमासः 'सुपो धातुप्रातिपदकयो रिति (पा. २-४-७१) सुन्छु वनस्पतिकायः २ निवासः एषां सोऽस्य निवासेति अणि प्राप्ते ठक् प्रत्ययः ठस्य इकादेशः 'यस्येति चेति (पा. ६-४-१४८ ) इकारलोपः परगमनं वनस्पतिकायिकाः, 'सी उद्वेजने' धातुः अस्य धातोः 'नन्दिग्रहिपचादिभ्य' इति (पा ३-१-१३४) अच्प्रत्ययः अनुबन्धलोपः त्रसः, त्रस काय इति स्थिते मध्ये षष्ठीवचनं आम् 'इस्वनयापो जुडिति ( पा. ७-१-४) नुड् अनुबन्धलोपः, नामि दीर्घत्वं, कायशब्दस्य प्रथमा सुः त्रसानां कायः स च षष्ठीसमासः 'सुपो धातुप्रातिपदिकयो 'रिति (पा. २-४-७९) सुन्लुक् सकायः २ निवासः एषां 'सोऽस्य निवासे 'ति अणि प्राप्ते ठक् तस्य इकादेशः 'यस्येति चे 'ति ( पा. ६-४-१४८ ) अकारलोपः परगमनं त्रसकायिका, त्रसंति सरीराणि जेसिं ते सकायिकाः ॥ तत्थ पढमं पदविकाओ, किं कारणं १, जम्हा पुढविकाओ सव्वभूताणं सरणं पट्टाणं च तम्हा पुढविकाओं भणिओ, तत्थ अनंतरं पुढविपट्टिओत्तिकाऊ आउकाओ भणिओ, ततो तस्सेव पडिवक्त्रोचिकाऊण तेडकाओ भणिओ, सोय ते उकाओ बाउकारण विषाण संजलइ तओ वाउक्काओ भणिओ, वाउकाओ जम्हा वणप्फइउवग्ग बढ्छ तओ वणष्फइकाओ भणिओ, वणफई तसाणं उबग्गहे वट्टइ तओ तसकाओ मणिओ, तत्थ पुढवी 'चित्तमंता अक्खाया ' चिचं जीवो भण्ण, तं चित्तं जाए पुढवीए अस्थि सा चित्तमंता, चयणाभावो भण्णइ सो चेयणाभावो जाए पुढवीए अस्थि सा चित्तमंता, अड्वा एवं पडिज्जइ 'पुढवि चित्तता अक्खाया' चित्तं चेयणाभावो चैत्र भण्णइ, मत्तास दो दोसु अत्थेसु वट्ट, तं० धोवे वा परिणामे वा, थोवओ जहा | सरिसवतिभागमत्तमणेण दत्तं परिमाणे परमोदी अलोगे लोगप्पमाणमेचाई खंडाई जाणइ पासह, इह पुण मत्तास दो थोवे वह ... षड़ जीवनिकाय मध्ये पृथ्वीकायस्य प्रथमत्वस्य कारणं [140] अध्ययनोपोद्घातः ॥१३५॥ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H, मूलं [१-१५] / गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति : [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१-१५] गाथा श्रीदश- चूर्णी ४ अ० ||३२ ॥१३६॥ ५९|| CARE चिचमात्रमेव तेषां पृथिवीकायिनां जीवितलक्षणं, न पुनरुच्छवासादीनि विद्यन्ते, अहवा चिचमता नाम जारिसा पुरिसस्स अध्ययनो. & मज्जपीतविसोवनुत्तस्स अहिमक्खियमुच्छादीहिं अभिभूतस चिचमत्ता तओ पुढविकाइयाण कम्मोदएणं पावयरी, तत्थ सम्ब- पोधात: | जहण्णयं चित्तं एगिदियाणं, तओ बिसुद्धयरं घेईदियाण, तओ विसुद्धतराग तेइंदियाण, तओ विसुद्धयरागं चउरिदियाण, तओ अस-17 णीणं पंचेंदियाणं समुच्छिममणुयाण य, तओ सुद्धतरागं पंचिंदियतिरियाणं, तओ गब्भवतियमणुयाणं, तओ वाणमंतराणं, तओ | भवणवासीणं ततो जोइसियाणं, ततो सोधम्माणं जाव सब्बुकोस अणुत्तरोषवाइयाणं देवाणति, अक्खाया णाम तित्थगरेहिं परू-८ | विया, न अम्हारिसेहि इच्छाए परूवितत्ति, अणेगे जीवा नाम न जहा वेदिएहि एगो जीयो पुढविचि, उक्तं-'पृथिवी देवता आपो | देवता" इत्येवमादि, इह पुण जिणसासणे अणेगे जीवा पुढवी भवति, सीसो भणति-केवइया पुण होज्जा?, आयरिओ भणइ-अर्स|खेज्जाणं पुण पुढविजीवाणं सरीराणि संहिताणि चक्खूविसयमागच्छंतित्ति, पुढो सत्ता नाम पुढविकम्मो दएण सिलेसेण वडिया 2वढी पिहप्पिह चऽवस्थियाति युत्त भवह, सीसो आह-जह पुढवी चित्तमतमक्खाया उच्चाराईणि सव्वााण पुढवीए कीस कीरति|त्तिकाऊणं अहिंसग साहर्ण कहं भविस्सद , आयरिओ आह- 'अण्णत्थ सस्थपरिणएण' अण्णत्थसहो परिवज्जणे वट्टइ, किं परिवज्जइयइ, सत्थपरिणय पुढवि मोचूर्ण जा अण्णा पुढवी सा चितमंता इति तं परिषज्जयति, सीसो आह-तं सत्थं ण जाणामो जेण सत्येण परिणामिया पुढवी चित्तमंता न भवइ, आयरिओ भणइ- सत्यं दुविहं, तं०- दव्यसत्थं भावसत्थं च, तत्थ दवसत्थं- 'सत्यग्गिविस' माहा ( २३२-१३९) तत्थ सत्यं णाम परसुवासिमादी अग्गिविसाणि लोगपसिद्धाणि हसत्थं च है सघयतेल्लादी अंपिलं लोगपसिद्ध खारसत्थं नाम जे खाररुक्खा निवपीलुकरीराई सं खारसत्थं, तं च भावो य दुप्पउत्तो संजमस्स 2 दीप अनुक्रम [३२-७५] CALCAR [141] Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H, मूलं [१-१५] / गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति: [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: अदिश प्रत सूत्रांक [१-१५] गाथा ||३२५९|| चूर्णी. | सत्यं भवइ, दुप्पउत्तो नाम अकुशलमणाति वुत्तं भवइ, एवं काया वायावि दुप्पउत्ता संजमस्स सस्थाणि भवंति, तथा अविरती | संजमस्स सत्थं भवति. न तेण भावसत्थेण अधिगारो, दब्वसत्येण अधिगारो, तस्स दब्बसत्थस्स तिमि पगारा भवंति, सं0- निरूपणं | 'किंची सकायसत्थं' गाहा ( २३३-२३९) किंची ताव दध्वसत्थं सकायसत्थं किीच परकायसत्थं किंचि उभयकायसत्थंति, ४ अ० तत्थ सकायसत्थं जहा किण्हमट्टिया नीलमट्टियाए सत्थं, एवं पंचवण्णावि परोप्परं सत्थं भवति, जहा य वण्णा तहा गंधरसफासावि ॥१३७॥ भाणियन्वा, परकायसत्थं नाम पुढविकायो आउक्कायस्स सत्थं पुढविकायो तेउक्कायस्स पुढविकाओ चाउकायस्स पुढविकाओ वणस्सइकायस्स पुढविकाओ तसकायस्स, एवं सब्वे परोप्पर सत्थं भवंति, उभयसत्थं णाम जाहे किण्हमट्टियाए कलुसियमुदगं] भवइ जाव परिणया, ण य लोगे करीसादिणा उवघातो दीसइ सावि परिहरिज्जइ, कम्हा ?, जम्हा सो केवलिपच्चक्खो भावोचि, | तम्हा साहवो सस्थपरिणयाए पुढवीए उच्चाराईणि कुब्वमाणा अहिंसगा भवतीति, कश्चिदाह- अचेतना पृथिवी, कस्माद् !, 18| उच्छ्वासनिश्वासगमनाद्यभावाद् घटवत, असदेतद्, अनेकान्तिकत्वादण्डकादिवत, प्राणिनामंडकावस्थायां कललाबुदायवस्थायां वा उच्छ्वासाघभावः तदभावानेपामचेतनत्वं प्रसज्यते, अनिष्ट चैतन, तस्मादनैकान्तिकादिदोषः, शिष्य आह- तावदेपामेकन्द्रि-12 | याणां चैतन्यमाञया ग्रहीतव्यमाहोश्चित् काचिदुपपत्तिस्ति ?, अस्तीति, उक्तं च- 'आगमश्ोपपत्तिश्च, संपूर्ण दृष्टिलक्षणम् । अती|न्द्रियाणामर्थानां, सद्भावप्रतिपादने ॥ १॥ आचार्याह- उभयथापि, आज्ञया तावदाप्तवचनप्रामाण्यादिति, आह च- 'आगमो ॥१३७॥ का बाप्तवचनमाप्तं दोषक्षयाद्विदुः। वीतरागोऽनृतं वाक्यं, न वयात हेत्वसंभवात ।।१।' उपपत्तिमप्यंगीकृत्येदमुच्यते-सात्मिका पृथ्वी विद्रुमलतासमानजातीयरूपांकुरोत्पत्युपलंभाद् देवदत्तमांसांकुरवत् । इदार्णि आऊ-आउ चित्तमंतमक्खाया जाव अण्णत्थ CARKAcky दीप अनुक्रम [३२-७५] ... अत्र पृथ्वीकाय-आदीनां सचेतनत्व निरूप्यते [142] Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H, मूलं [१-१५] / गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति : [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१-१५] गाथा ॐGRESS ॥१३॥ ||३२ श्रीदश- सत्यपाहणएणं, सात्मक जलं भूमिखातस्वाभाविकसंभवाद् ददुरवत् , तेज चित्तमंतमक्खाया जाध अण्णस्य सत्थपरिणपणं पृथ्व्या वैकालिका दीनांसात्मकोऽनिः आहारेणाभिवृद्धिदर्शनाबालकशरीरवत्, वाऊ चित्तमंतमक्खाया जाव अण्णस्थ सस्थपरिणएण सारमको | RI चूणी सचेतनता | वाघुम्नपरप्ररिततियगनियमितानगमनागोवत् । इदाणि वणस्सती भण्णह, तत्थ अग्गवीया नाम अम्ग-बीयाणि जेसि ते अग्गवीया ४ अ० जहा कोरेंटगादी, तेसि अग्गाणि कप्पति,मूलबीया नाम उप्पलकंदादी, पोरबीया नाम उक्खुमादी, खंघषीया नाम अस्सोरथकविसह्यादिमायी,बीयरुहा नाम सालीवीहीमादी, समुच्छिमानाम जे विणा बायण पुढविवारसादीणि कारणाणि पप्प उद्रेति,तत्थ तणग्गहणेण तणमेया गहिया, लवागहणण लताभेदा गहिया, वणस्सइकाइयगहणण जावंति के पत्तेयसरीरा सादारणसरीरा य सुहमा या बादराय सबलोगे परियावण्णा ते सव्वे गहितत्ति, घणस्सहकायभेददरिसणेष य सेसाणंपि पुढविकाइयाईणं भेदा पइया भवति, तत्थ | | पुढवीय सकरा वालुगा य एवमादी आउस्स हिमादी अगणिकायस्स इंगाले जलण एचमादी वाउफायस्स उफलियावाए मंडलियावाए l | एचभादी, सचीयग्गहणेण एतस्स चेव वणस्सइकाइयस्स बीपपज्जवसाणा दस भेदा गहिया भवंति-'तमले कंदे खंधे तपा य साले तहप्पवाले या पचे पुप्फे य फले बीए दसमे य नायव्वा ॥१॥ सीसो आह-जो बीए जीवो आसी तेमि बोकते समाणे किं # अण्णो तस्थ उववज्जइ अह सोचव य जीवो विरोहइ ?, आयरिओ भणइ- 'जोणिभूए य पीए' (बीए जोणि २३४-१४०) गाहा, बीयं दुविहं- जोणिम्भूयं अजोणिभूयं च, तत्थ जोणिभूयं नाम अविद्धत्थजोणीयं, जहा लोगे पंचपंचासिया नारी अजोणि भूया भवइ, नो पजणेश, एवं पीयाणिवि कालंतरेण अबीयीभवंति, जंच अजोणीभूतं तं नियमा निज्जीव, जोणीभूतं सजीव होज्जा "१२८॥ IAणिजीवं बा, तमि जोणिम्भूए वीए सो चेव चीयजीबो मरित्ता उववज्जति अण्णो वा उबवज्जेज्जा, पुणोवि तत्थ अण्णेवि जीवा ५९|| दीप अनुक्रम [३२-७५] - [143] Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H, मूलं [१-१५] / गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति: [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: पृष्व्या प्रत सूत्रांक [१-१५] गाथा ||३२ SSROSCOMCN ५९|| श्रीदश-16 वकमंति, माणियं च सम्वोऽविकिलसओ खलु उग्गममाणो अणं तओ मणिओ। सो चेव य वहंतो होह अणंतो परिचो वा ॥१॥" जो सो । वैकालिका बीयसरीरी जीयो सो जहा जहा वह कायो तहा तहा पत्तं निवत्तेइ मूल खधं, साहाओ पुण अण्णे पहोववष्णगा निवति, चूणों सेसं सुत्तफासं गाहा (६०-१४१) सेसं जमतमु छसु कायेसु सुत्तफासियनिज्जुत्तीए भणियं सुतं काये अणुफासंतेहि अह- सचेतनता ४ अ क र्म भाणियचं, पगरणे पदेहि वंजणेहि य सुविसुद्धति, तस्थ पगरणं अहिगारो जेण भण्णति, पदं लोगपसिद्ध चेव, बंजणं| अक्षरं मण्णइ, ते य पंच अज्झयणस्था इमे, १०- जीवाभिगमे अजीवामिगमो धम्मो जयणा उवदेसी धम्मफलमिति छट्ठी, जीवा-18 ॥१३९।। | भिगमो फहं इमाए गाहाए ण भणिओ', आयरिओ भणइ-णणु 'काए काए अहणम्म खूया' इति एतेण व छट्ठो अधिगारो भणिउत्ति, सचेतनास्तरवः अशेषत्वगपगमे मरणोपलंभादेवदत्तवत, श्रोत्रस्पवान् अशोकः सनुपुरविभूषिताङ्गनाङ्गसस्पर्शनेन विकारदर्शनात प्रतनुरागपुरुषवत्, चक्षुरिंद्रियवती चिता आदित्योदयास्तमयाम्यां स्वमप्रबोधदर्शनाद्देवदत्तवत्, रसनाचान्वकुल: संपर्कण विकारदर्शनान्मद्यपपुरुषवत्, प्राणवत्यो कर्कटिकादयः पशुकरीपास्थिधूपगंधेन दौईदापगमानारीवत् । इयार्णि 'तसा चित्तमंता अक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नत्य सत्थपरिणएणं' एतेसि चक्खाणं जहा पुढवीए तहा भाणि यव्वं, 'से' ति निदेसो 'जे ति य विसेसियाणं गहणं, पुणसद्दो विसेसणे, 'इमे' ति सबलोगपसिद्धा बालादीणमवि है पच्चक्खा अणेगमेदभिण्णा द्विदियादिपरिणणो णायव्या, अणेगे नाम एकमि चेव जातिभेदे असंखेज्जा जीवा इति, तसंतीति ॥१९॥ सा, पाणा नाम भूतेति वा एगट्ठा, ते य इमे, २० अंडया पोतया जराउया रसया संसइमा समुच्छिमा उभिदया उवाइया, तस्थ अंडसंभवा अंडजा अहा इसमयूरायिणो, पोतया नाम वग्गुलिमाइणो, जराउया नाम जे जरवेढिया जायंति SEARCARE दीप अनुक्रम [३२-७५] [144] Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H, मूलं [१-१५] / गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति: [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: श्रीदश- पृथ्व्या बैकालिका दीना प्रत सूत्रांक [१-१५] गाथा ||३२ सचंतनता ४ अ० ॥१४॥ ५९|| जहा गोमहिसादि, रसया नाम तकबिलमाइसु भवंति, संसेयणा नाम जूयादी, समुच्छिमा नाम करीसादिसमुच्छिया, उब्भिया नाम भूमि भेत्तूर्ण पंखालया सत्ता उप्पज्जति, उबवाइया नाम नारगदेवा,एते अंडयादयो अट्ठविहाए जोणीए उप्पण्णा तसा भवंति, तेसिं च तसाणं लक्खणाणि लोगपसिद्धाणि तहावि थिरीकरणणिमित्तं भण्णइ-जेसिं केसिंचि पाणाणं' जेसि केसिंचित्ति अविससियाणं गहणं, पाणा पुब्वभणिता, इदााणिं जाणि लक्षणाणि भणिहिंति ताणि जेसि अस्थि ते जीवा तसा | जाणियव्या, सीसो आह-काणि पुण ताणि लक्खणाणि', आयरियो भणइ, इमाणि, तं- 'अभिकांत परिकतं संकुचिय पसारियं रुयं भंत तसिय पलाइयं' आलावगा उच्चरियष्वा, अभिकतं णाम अभिमुख कंत अभिकंत, पण्णवर्ग पडुच्च | अभिमुखमागमणति बुच भवति, परम्मुहं कत परकंत, गमणंति बुत्तं भवइ, संकुचियं णाम हत्थपादादीणं अंगाणं, पसारियं जं | आउण्टणं तं संकुचितं भण्णइ, तेसिं चेच आकुंचियाणं जं विमोक्खणं तं पसारियं भण्णइ, रुयं नाम सहकरणं भण्णा, भंत नाम जे देसाओ देसतरं भमइ, तसिय नाम जे सारीरमाणसाणं दुक्खाणं उब्बियणं, पलाइयं णाम जे भयाभिभूयस्स नासणं, आगमणं आगई, गमणं गती, एत्थ सीसो आह-- अभिकंतं सा चेव आगती जं पडिकल सा चेव गइत्ति, एत्थ पुणरुत्तदोसो भवइ, आयरिओ भणइ-जोर्स अभिकतादाणि लक्षणाणि अधि तेहिं ताण जति विण्णायाणि जहा वयं अभिकमामो एपमादी तो सो तसो भण्णइ, इतरहा अलावुतबुसादिणोषि बल्लिविसेसा रुक्ख चाडि वा अभिमुहा अभिकर्मति, सिं रुक्षवाडीयाईण अग्गं हापाविऊण पुणो पडिकमंति, तओं तेसिपि तसत्तं पापति, अतो पुणरुत्तं न भवइ, जे व अभिकमणाणि जाणति ते चा तसा | | भण्णंति, न पुण अलावुतबुसाईणो विततिविसेसा ओहसमाए बड़माणा अभिकमणादीणि कुळता तसा भवंति, सीसो आह-- RECE+ दीप अनुक्रम [३२-७५] ॥१४॥ [145] Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [१-१५] गाथा ||32 ५९|| दीप अनुक्रम [३२-७५] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र- ३ (निर्युक्तिः + भाष्य | + चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-] मूलं [१-१५] / गाथा: [ ३२ ५९ / ४७-७५ ], निर्युक्तिः [ २२०-२३४ /२१६-२३३], भाष्यं [५-६० ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि : श्रीदशवैकालिक चूर्णां ४ अ० ॥ १४१ ॥ विगलिंदियावि न जाणीत जहा अम्हे अभिकमणपडिकमणादीणि कुन्वामो तहा पंचिदियावि अव्वसव्वयत्तणेण केइ ण जाणति जहा वयं अभिकमणपण्डिकमणादीणि कुब्वामोत्ति तो किं ते तसा न भण्णंति ?, आयरिओ भगह-सतिषिय सण्णिभावे ते आहारादीसु इंदियत्थेसु सु अभिकमीत अभिलसंतित्ति वृत्तं भवर, अणिट्ठेसु य परिकर्मति, उब्बियंतित्ति वृत्तं भवइ, न पुण तहा एगेंदियाण फुडाणि ताणि अभिकमणपडिकमणादणि लक्खणाणित्ति, तम्हा सिद्धाणि अभिकमणपडिकमणादणि ताणि लक्खपाणि तसाणांति, ते य इमे तसा पचेयं भण्णंति, तत्थ कीडग्गहणण किमियाण, 'एगग्गहणे- तज्र्जाईयाणं गद्दणं भवइ' त्ति न केवलं किमिस्सगस्स, किंतु सव्वेसिं बेइंदियाणं गहणं कयमिति, पतंगगहणेण सम्बेसि चउरिंदियाणं ग्रहणं कर्म, कुंथुपिपलियागहणणं तेइंदिया गहिया, सव्वे नेरइया सब्बे पंचेंदिया सब्वे तिरिक्खजोणिया सच्चे मनुया सब्वे देवा सब्बे पाणा परमाहम्मिया जमेतं सव्वगहणं एवं अपरिसेसनिमित्तं कथं, कहं १, जे एते भणिया ते सच्चे तसा भवंति तओ जहा तिरिक्खजोणि-याणं मेदा भणिता तं० तसा थावरा य, किंतु एते सब्बे तसा भण्णंति, परमाहम्मिया नाम अपरमं दुक्खं परमं सुहं भण्णह, सव्वे पाणा परमाधम्मिया-सुहाभिकंखिणोत्ति वृत्तं भवद्द, अहवा एवं सुतं एवं पढिज्जइ 'सध्ये पाणा परमाहम्मिया' इकिकस्स जीवस्स सेसा जीवभेदा परा, ते य सब्बे सुहाभिकखिणोत्ति दुतं भवति, जो तेर्सि एकस्स धम्मो सो सेसाणंपितिकाऊण सच्चे पाणा परमाहम्मिया, जे एते अभिकमणादिलक्खणा जीवा भणिया एतेसिं ते पुढविका तियाईं पंच कामा छट्टो जीवनिकायो तसकायोति पच्चर, पबुच्चह नाम विविहेहिं पमारेहिं तुच्चर, एस जीवाभिगमो भणिओ, विद्यमानकर्तृकमिद शरीरं आदिमत्प्रतिनियताकारत्वाद् घटवत् । [146] पृथ्व्या दीनांसचेतनता ॥१४९॥ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक , मूलं [१-१५] / गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति: [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१-१५] गाथा ||३२ | अजीवाभिगमः चारित्रधर्मः ५९|| श्रीदश इयाणिं अजीवाभिगमओ भण्णइ-अजीवा दुविहा, तं०-पोग्गला नोपारंगला य, पोग्गला छचिहा,त-मुहुममुहमा मुहमा | बैकालिका सुहुमबादरा बादरमहुमा बादरा बादरबादरा, सुहमसहुमा परमाणुपोग्गला, सुहमा दुपएसियाओ आढचा जाच सहमपरिणओ। चूर्णी अर्णतपएसिओ खधो, सुहुमबादरा गंधपोग्गला, बादरमुडमा बाउकायसरीरा, बादरा आउकायसरीरा उस्सादीण, पादरपादरा तेउवणस्सइपुढवितससरीराणि, अहवा चउचिहा पोग्गला, तं-स्कंधा स्कंधदेशा खंधपएसा परमाणुपोग्गला य, एस पोग्गल॥१४२॥ स्थिकाओ गहणलक्षणो। णोपोग्गलस्थिकायो तिविहो, तं०-धम्मत्थिकायो अधम्मस्थिकायो आगासस्थिकायो, तत्थ धम्मस्थिकायो गतिलक्षणो अधम्मस्थिकाओ ठिइलक्षणो पागासस्थिकाओ अवगाहलक्षणो, अजीवामिगमो भणिओ ॥ इयाणि चरित्तधम्मो 'इच्चेएहि छर्हि जीवनिकाएहिं' (२-१४३) इतिसद्दो अणेगेसु अत्थेसु बट्टा, तं०-आमंतणे परिसमसीए उपप्पदरिसणे य, आमतणे जहा धम्मएति वा उचएसएति वा एवमादी, परिसमत्तीए जहा 'इति खलु समणे भगवं । महावीरे' एयमादी, उपप्पदरिसणे जहा 'इच्चेए पंचविहे ववहारे' एत्थ पुण इच्चेतह एसो सद्दो उचप्पदरिसणे दृष्यो। किं उपप्पदरिसयति, जे एते जीवाभिगमस्स छ भेया भणिया इच्चेएहिं छह जीवनिकाएहिं 'णेव सयं इंई समारभेम्जा' तत्थ नकारो पडिसेहे वइ, एक्सहो पायपूरणे, सयमिति-अत्तणो णिदेसे, डंडो संघद्वणपरितावणादि, समारमण नाम तस्स संघट्टगादिडंडस्स पवत्तण, एवं णेवण्णेहि डंडं समारंभावेज्जा उंड समारंभतेवि अनेन समणजाणेज्जा, सीसो भणइ-केच्चिरं कालं, आयरिओ मणइ-जावजीवाए,ण उ जहा लोइयाणं विचवओ होऊण पच्छा पडिसेवइ, किंतु अम्हाणं जावजीवाए बद्दति, 'तिविहं तिविहेणं'ति सर्य मणसा न चितया जहा बहयामिनि, वायाएविन एवं भणइ-जहा एस बहेज्जउ, कारण सर्व न HEREKHESAR SARKABAD दीप अनुक्रम [३२-७५] ॥१४२॥ [147] Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [१-१५] गाथा ||32 ५९|| दीप अनुक्रम [३२-७५] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र- ३ (निर्युक्तिः + भाष्य | + चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-] मूलं [१-१५] / गाथा: [ ३२ ५९ / ४७-७५ ], निर्युक्तिः [ २२०-२३४ /२१६-२३३], भाष्यं [५-६० ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: श्रीदशवैकालिक चूर्णी. ४ अ० ॥ १४३ ॥ परिणति, अन्नस्सवि सादीहिं णो तारिसं भावं दरिसयह जहा परो तस्स माणासयं णाऊण सत्तोवघायं करे, वायारवि संदेस न देइ जहा तं घाहित्ति, कापणचि णो हत्थादिणा सण्णेह जहा एयं मारयाहि, घातंतंपि अण्णं दणं मणसा तु न करेइ, वायाएव पुच्छिओ संतो अणुमई न देइ, काएणावि परेण पुच्छिओ संतो हत्धुक्खेवं न करेह, तस्स भते ! परिक्रमामित्ति 'तस्स'ति नाम जो सो परितावणादि दंडो, 'भंते !' ति भयवं भवान्त एवमादी भगवतो आमंतणं, कई १, गणहरा भगवओ समासे अत्थं सोऊण वाणि परिवज्जमाणा एवमाहु, पढिकमामि नाम ताओ दंडाओ नियत्तामित्ति वृत्तं भवह, जं पुण पुब्बि अन्नाणभावेण कयं तं जिंदामि नाम 'हा ! दुट्छु कथं हा ! दुइठु कारिगं अणुमयपि हा दुछु । अतो २ उज्झइ हिययं पच्छाणुतावेण ॥ १ ॥' गरिहामि णाम विविधं तीतानागतवट्टमाणसु कालेसु अकरणयाए. अच्युद्वेमि, आइ-जो एसो दंडनिक्खेयो एवं महव्ययारुहणं तं किं सब्वेसिं अविसेसियाणं महव्ययारुहणं कीरति उदादो परिक्खिऊणं १, आयरिओ मणइ-उ जो इमाणि कारणाणि सदहर , जीवे पुढविकाए न सद्दद्दद्द जे जिणेहिं पष्णते अणा भगयपुण्णपावो ण सो उवडावणे जोगो || १ || एवं आउकाइए जीवे एवं जाव तसकाइए जीवे, एयारिसस्स पुण समारुभिज्जति, तं० पुढविकाइए जीवे सदहद्द जे जिणेहिं पण्णचे अभिगतपुण्णपावो सो उचठ्ठावणाजोगो ॥ १ ॥ एवं आउकाइए जीवे एवं जाब तसकाइए जीवे, अभिगतपुण्णपाचो सो उवद्वावणाजोगो, छज्जीवनिकाए पढि याए ताहे परिक्खिज्जइ, कि-परिहरइ ण परिहरइति, जह परिहरद्द तो उवद्वाविज्जर, इतरो न उबडाविज्जति, कहूं ?, जह महलो पडो रंगिओ न सुंदरो भवइ सो, इयरो रंगिज्जमाणो सुंदरो भवइ, एवं जइ असदहियाए छज्जीवनियाए उबट्ठाविज्जह तो मह ब्वयाणि न धरेह, सद्दहियाए छज्जीवणियाए उबडाविज्जमाणे थिरया भवंति सुंदरो य भवर, जहा वा पासादो कज्जमाणो जह [148] उप स्थापनाई: ॥१४३॥ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [१-१५] गाथा ॥३२ ५९|| दीप अनुक्रम [३२-७५] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र- ३ (निर्युक्तिः + भाष्य | + चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-] मूलं [१-१५] / गाथा: [ ३२ ५९ / ४७-७५ ], निर्युक्तिः [ २२०-२३४ /२१६-२३३], भाष्यं [५-६० ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [ ४२ ], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: श्रीदशवैकालिक चूर्णी कयवरं सोहित्ता कज्जइ तो सुंदरो य थिरो य भव, असोहिए पुण अधिरो भव, एवं कयवरथाणीए मिच्छत्ते असोहिए उनहाविज्जह तो महब्वयाणि न थिराणि मर्वति, जहा आउरस्स ओसहं वियरिज्जइ तं जह वमणविरेयणाणि काऊण दिज्जह तो लग्मइ, | एवं जह सदहितादिसु उबडाविज्जति ता घरेइ महश्वर, असद्दहितासु अधिराणि भवति, जम्हा एते दोसा तुम्हा पढियार कहि४ या सद्दहियाए परिक्खिते परिहरिए, अभिगते णाम जति अपव्वावणिज्जाणं गण्णतरो ण भवति ताहे विसुद्धो उबट्ठाविज्जति, ४ ० ॥१४४॥ तस्स य महन्वयाणि अभणियाणि न णज्जंति तओ ताणि मण्णति जहा- 'पढमे भंते ! महत्वए ति (३-१४४ ) पढमंति नाम सेसाणि मुसावादादीणि पडच्च एतं पढमं भण्णइ, मंते । सि आमंतणं सांसो वएसु उच्चारिज्जंतेसु गुरुणो करेइ, महन्वर्य 6 नाम महंतं वर्त, महन्वयं कथं १, सावगवयाणि खुट्टग़ाणि, ताणि पड़च्च साहूण वयाणि महंताणि भवंति, एत्थ निदरिसणे 'सीयाल मंगसर्य' गाहा, न करेइ न कारवेद करतं नाणुजाण मणसा वयसा कायसा १, न करेइ न कारवेश करत नाणुजाणह मणसा वयसा २ अहवा न करेह न कारवेद्द करतं नाणुजाes arer कायसा ३ न करेह न कारनेह करतं नाणुजाण मणसा कायसा ४ एते तिष्णिवि मंगा पायसो सुष्णा, तिविहं एगविण न करेह न कारवर करतं नानुजाण मणसा ५ अथवा न करेइ न कारवेश करंत नाणुजाण वयसा ६ अहवा न करेइ ण कारवेद करते नाणुजाणह कायसा ७ एते तिष्णिवि गंगा पायसो सुष्णा, एते सत्त मंगा तिविह अणमुयतेण लद्धा, इयाणिं दुविदं तिविहेण न करेह न कारवेर मणसा वयसा कायसा अहवा न करे करतं नाणुजाण मणसा वयसा कायसा अहवा न कारवेह करतं नाणुजाण मणसा वयसा कायसा, एते तिष्णि मंगा दुविहं तिविण लद्धा, इदाणिं दुविहं दुविणण करेइ ण कारवेह मणसा वयसा १ अहवा न करेह ण कारवेद वयसा कायसा २ न करेइन कारवेइ ... प्रथम महाव्रतस्य निरूपणं [149] व्रतभंगाः ॥ १४४ ॥ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H, मूलं [१-१५] / गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति: [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: श्रीदशबैंकालिक प्रत सूत्रांक [१-१५] गाथा ||३२ चूर्णी. ४ अ० ॥१४५|| - ५९|| मणसा कायसा ३ अहवान करेइ करत नाणुजाणइ मणसा वयसा ४ अहवान करेह करत नाणजाणइ मणसा कायसा ५ अहवा न करे। प्रत्याकरत नाणुजाणइ वयसा कायसा ६ अहवा न कारवइ करत नाणुजाणइ मणसा वयसा अहवा न कारवेइ करत नाणुजाणइ मणसा ख्यानकायसा८न कारखेद करते नाणुजाण वयसा कायसा ९, एते नव भंगा विहं दविधेण लद्धा, इदाणिं दुबिई एकविधण, न करे| मंगाः न कारवेइ मणसा अहवा न करेइ न कारवेद वयसा अहवा न करेइ न कारवेद कायसा अहवा ण करेइ करेंत णाणुजाणइ मणसा अहवा न करेइ करत नाणुजाणइ वयसा अहवा न करेइ करेंतं नाणुजाणइ कायसा अहवा न कारखेद करतं नाणुजाणइ मणसा अहवा न कारवेइ करेंतं नाणुजाणइ वयसा अहवा न कारवेइ करेंत नाणुजाणइ कायसा, एते नव भंगा दुविहं एकविहेण लद्धा, इयाणि एकविहं तिबिहेण-ण करेइ मणसा वयसा कायसा अहवा न कारवेद मणसा वयसा कायसा अहवा करत नाणुजाणइ मणसा वयसा कायसा, एते तिष्णिवि भंगा एकविहं तिविहेण लद्धा, इयाणि एकविहं दुविधेण-न करेह मणसा वयसा अहवा न करेह वयसा कायप्ता अहवा न करेइ मणसा कायसा अहवा न कारवेद मणसा वयसा अहबा न कारवेद मणसा कायसा अहवा न कारबेइ वयसा कायसा अहवा करेंत नाणुजाणइ मणसा वयसा अहवा करेंतं नाणुजाणइ मणसा कायसा अहवा करेंतं नाणुजाणइ वयसा कायसा, एते नव भंगा एगविहं दुबिहेण लद्धा, इदाणि एकविहं एकविहेण न करेइ मणसा अहवा न करेइ वयसा|४ । अहवा न करेइ कायसा अइया न करावेइ मणसा अहवा न करावेद वयसा अहवा न करावेइ कायसा अहवा करत नाणुजाणइट। मणसा अहवा करतं नाणुजाणइ वयसा अहवा करेंत नाणुजाणइ कायसा, एते नव भंगा एक्कविहं एकविहेण लद्धा, इयाणि एते सब्वेवि एगो पिडिज्जंति, तत्थ तिविई अणुमुयंतेण सच लद्धा, तिविहेण तिणि लद्धा, एते संपिडिया जाया दस, - दीप अनुक्रम [३२-७५] CALCO2 [150] Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H, मूलं [१-१५] / गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति: [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१-१५] गाथा ||३२५९|| प्राणाति पातविरमणम् ४० श्रीदश- दुविहं दुविहेण णव लद्धा, ते दससु पक्खिना, जाया एगूणवीस, तिविहं एगविहेण णब लद्धा, एते एगूणवसिाए पक्खित्ता, चकालिकानाजाया अट्टवीस, एकविध तिविहेण तिणि लद्धा, ते अड्डाबीसाए पक्खित्ता, जाया एषतीसा, एकविहं ३३३२२२१११ से चूणा दुविहेण णव लद्धा, ते एकतीसाए पक्खिचा जाया चत्तालासं, एकविहं एकविहेण लद्धा णव, तेवि चत्ताली ३२१३२|| साए पक्खित्ता, जाया एगूणपण्णं, एते पडप्पण्णे काले पच्चक्खायतण लद्धा, अतीतेवि एत्तिया चेब, | ९९३९९ ॥१४६॥ अणागएवि एत्तिया चेव, एयाओ तिणि एगणपण्णाओ सत्तचत्तालं भगसयं भवइ, एत्थ य जो - साहणं भगो जुज्जह तेण अधिगारो, सेसा उच्चारियसरिसत्तिकाऊणं परूविया. जम्हा य भगवती साधवो तिविहं तिविहण पच्चक्खायति तम्हा तेसि महब्बयाणि भवति, साचयाणं पुण तिविहं दुविह पच्चखायमाणाणं देसविरईए खुडलगाणि | वयाणि भवंति, पाणाइवाओ नाम इंदिया आंउप्पाणादिणो छविहो पाणा य जेसि अस्थि ते पाणिणो मणति, तेसिं पाणाणमइवाओ, तेहिं पाणीह सह विसंजोगकरणन्ति वुत्तं भवइ, तओ पाणाइवायाओ वेरमणं, पाणाइवायवेरमणं नाम नाउं सद्दहिऊण पाणातिवायस्स अकरण भण्णइ, सव्वं नाम तमेरिसं पाणाइवायं सव्व-निरवसेसं पच्चक्खामि नो अद्धं ति| भाग वा पच्चक्खामि, संपइकालं संवरियप्पणो अणागते अकरणणिमित्तं पच्चक्खाणं, सीसो आह-सो पुण पाणाइवाओ केसु भवइ जओ सो साह पच्चक्खाणं करेह ?, आयरिओ भणइ-से सहम वा वायरं वा तसं वा धावरं वा' 'से'त्ति निद्देसे वइ, किं निदिसति !, जो सो पाणातिवाओ ते निइसेइ, से य पाणाइचाए सुहुमसरीरेसु वा बादरसरीरेसु वा होज्जा, सहमं नाम जं सरीरावगाहणाए सुट्ठ अप्पमिति, बादरं नाम धूलं भण्णइ, तत्थ जे ते सुहुमा बादरा य ते दुविहा तं-तसा य थावरा वा, REACHERS दीप अनुक्रम [३२-७५] 3 ॥१४६॥ [151] Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H, मूलं [१-१५] / गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति: [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१-१५] गाथा ||३२ पात ५९|| श्रीदश-८ तत्थ नसंतीति तसा, जे एगमि ठाणे अवट्ठिया चिटुंति ते थावरा भण्णति, तसा वा थावरा वा जीवा पाणेहि णो विसंजोएज्जा, प्राणातिवैकालिक सुहुमवादरगणेण दव्यओ गहणं कप, एगगहणे महणं तज्जाइयाणमितिकाउंतिण्णिवि खत्तकालभावा गहिया, श्याणिं एस एव 121 चूर्णी विरमणम् पाणाइवाओ चम्विहो सवित्थरो भण्णइ,तं०-दवओ खेत्तओ कालओ भावओ, दब्बओ छसु जीवनिकाएमु सहुमबादरेसु भवति, [8 खत्तओ सबलोगे, किं कारणं, जेण सबलोए तस्स पाणाइवायरस उपपत्ती अस्थि, कालओ दिया था राआवात चव सुहमवादरा ॥१४७॥ जीवा बवरोविजंति, भावओ रागेण वा दोसेण वा, तत्थ रागेण मसादीणं अट्ठाए, अहवा रागण कोई कंचि अणुमरति, दासण वितियं मारे, जी पुण रागदोसचिरहिओ अप्पमत्तो सत्तं पाएइ तस्स पाणाइवाओण भवइ, कई, जम्हा दबा नामंग। | पाणाइवाते णो भावओ१ भावी नामेगे पाणाइबाते नो दन्यतो २ एगे दल्लऑवि भावओबि ३एगे णो दब्बओं णो भावओं ४, एतेसि भंगाण णिदरिसणं जहा दुमपुफियाए, तमतं पाणाइवायं णेव सय मणसा फरेज्जा एवं पायाए कारणवि, णो मणसा | अण्णं कारवेज्जा णो वायाए अण्णं कारवेज्जा णो कारणं अनं कारवेज्जा, पाणावार्य करतपि णो समणुजाणेज्जा मणेणं वायाए कारणं, 'तस्स भंते ! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं बोसिरामि' एतेसि पयाणं वक्खाण जहा हेट्ठा, सीसो आह -किमत्थं पाणाइवायवेरमणं कीरह, आयरिओ आह-इहलोगे चेव पाणाइवायं कुब्वमाणो गहिरो होइ बंधवहादिणो य दोसे कयाइ पावेज्जा, परलोगेसु णियमा दोग्गय गच्छति, तम्हा पाणाइवायचेरमणे कायचंति,सीसो आह-किं कारणं सेसाणि वयाणि ॥१४७॥ मोचूण पाणावायवेरमणं पढम भणियति , आयरिओ भणइ-एयं मूलवयं 'अहिंसा परमो धम्मोनि, सेसाणि पुण महब्बयाणि उचरगुणा, एतस्स चैव अणुपालणत्थं परूवियाणि, 'पढमे भत्ते! महन्थए उबडिओमि सध्याओ पाणाइयायाआ धरमण ALSO HOCKROACCO दीप अनुक्रम [३२-७५] CREAM [152] Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H, मूलं [१-१५] / गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति: [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: श्रीदश प्रत सूत्रांक [१-१५] गाथा ||३२५९|| ४अ 'अहावरे दोच्चे भंते! महब्बए मुसायायाओ बेरमण'(४-१४६) तत्थ अहसहो अणंतरभावे बद्दड, कह १, पढम- मृपावाद वैकालिक करमहब्बआ इमं विगं अणंतरति, संस तहेब जहा पाणाइवायवेरमणे, गवरं जो बिसेसो सो भष्णइ, तत्थ मुसाबाओ चउबिहो, तं०-11 चूणों सम्भावपडिसेहो असम्भृयुत्भावणं अत्यंतरं गरहा, तत्थ सब्भावपीडेसहो णाम जहा णस्थि जीयो नत्थि पुण्णं नस्थि पावं नास्थित बंधो णस्थि मोक्खा एवमादी, असम्भूयुब्भावणं नाम जहा अस्थि जीवो(सब्बवावी) सामागतंदुलमेचो वा एवमादी, पयत्यंतरं नामा ॥१४८|| जो गावि भणह एलो आसोत्ति, गरहा णाम 'तहेव काणं काणित्ति' एवमादी, सो य मुसाबाओ एवीह कारणीह भासिज्जइ-से कोहा वा लोहा या भया वा हासा वा' कोइगहणण माणस्सवि गहणं कर्य, लोभगहणेण माया गहिया, भयहासगहणेण पेज्जसादासकलह अब्भक्खाणाहणो गहिया, कोहाइग्गहणण भावओ गहणं कर्य, एगग्गहणेण गहणं नज्जातीयाणमितिकाउ ससावि दिव्यखेत्तकाला गहिया । इयाणिं एस चउबिहो मुसाबाओ सवित्थरी मण्णइ, तं०-दचओ खेत्ताओ कालओ भावओ, तत्थ दव्वओ। गसब्बदब्बेसु मसाबाओ भवाइ, खनओ लोग वा अलोगे वा, पो भणेज्जा अणतपएसिओ लोगो एवमादी, अलोगे अस्थि जीवा पोग्गला एवमादी, कालओ दिया वा राओ या मुसाचार्य भणेज्जा, भावओ कोहेणं अज्झक्याणं देज्जा एवमादी, तत्थ दच्यओ।। नामंगे मुसाबाद ना भावजीर भावओ नामेग मुसाबादे नो दबओ २ एगे दबओवि भावोचि३एगे णो दबओ णो भाव । मा मुसाबाओ, तत्थ दब्बओ मुसाबाओ णो भावओ, जहा कोई भणिज्जा-अस्थि ते कई पसभिगाइणो दिट्ठा', ताहे भणइ-पत्थि, सएस दबओ मुसावाओ पो भावओ, भावओ नो दबओ जहा मुसं भणीहामिति, तो तस्स वंजणाणि सहसनि सच्चगाणि ॥१४८॥ पणिग्गवाणि ताणि, एस भावओ नो दव्य आ, दबओऽपि मावओऽपि जहा मुसाबादपरिणओ कोयि वमय मुसाबाद यदिजा, दीप अनुक्रम [३२-७५] ... द्वितिय महाव्रतस्य निरूपणं [153] Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [१-१५] गाथा ||32 ५९|| दीप अनुक्रम [३२-७५] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र- ३ (निर्युक्तिः + भाष्य | + चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-] मूलं [१-१५] / गाथा: [ ३२-५९ / ४७-७५ ], निर्युक्तिः [२२०-२३४ / २१६- २३३], भाष्यं [ ५-६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [ ४२ ], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्ण : वउत्थो मंगो सुण्णे, सीसो आह-मुसावादे भासिज्जमाणे को दोस्रो भवइ ?, आयरिओ मणइ - इहलोगे ताब गरहिणिज्जो भवद्द, सव्यस्त अविस्ससणिज्जो य जिन्भा छेदणाणि य इहलोगे पांवेज्जा, परलोगे पुण नियमा दोग्गइगमणभयं भवति, 'दो जाव वेरमणं । 'अहावरे तवे भंते! महत्वए अदिण्णादाणाओ वेरमणं' (५-१४१) एतस्सवि महव्ययस्स जो विसेसो सो भण्णइ, सेसं तब जहा पाणावायरस, सीसो भणइ-तं अदिण्णादाणं केरिस भवई, आयरिओ भणइ जं अदिष्णादाण बुद्धीए परोरोहें परिगहियस्स ॥ १४९ ॥ ॐ वा अपरिग्गहियस्स वा तणकट्ठाइदव्यजातस्स गहणं करेइ तमदिष्णादाणं भव से य अदिण्णादाणे खेचं पडुच गामे वा नगरे रण्णे वा होज्जा, अप्पबहुगणेण दव्वओ अदिष्णादाणस्स ग्रहणं कयंति, एगगहणेण गहणं तज्जातियाणमितिकाउं खेत्तकालभावा गहिया, एयं चैव चउव्विपि अदिष्णादाणं वित्थरओ भण्णति, तं० दव्यओ खेत्तओ कालओ भावओ, तत्थ दव्वओ ताब अप्पं वा बहुं वा अणुं वा धूलं वा चिचत वा अचित्तमंतं वा गण्हेज्जा, अप्पं परिमाणओय मुलओय, तत्थ परिमाणओ जहा एगं एरंडक एवमादि, मुलओ जस्स एगो कबड्डओ पूणी वा अप्पमुलं, बहुं नाम परिमाणओ मुल्लओ य, परिमाणओ जहा तिष्णि चत्तारिवि बहरा वेरुलिया, मुल्लओ एगमवि वेरुलियं महामोल्लं, अणु मूलगपत्तादी अहवा कठ्ठे कलिंचं वा एवमादि, धूलं सुवणखोडी वेरुलिया वा उवगरणं, चिचमतं वा अवित्तमंतं वा सव्यंपेयं सचित्तं वा होज्जा अचित्तं वा होज्जा मिस्सर्य वा तत्थ सचित्तं मणुयादि अचित्तं काहावणादि मीसगं ते चैव मणुयाइ अलंकियविभूसिया, खेतओ जमेतं दव्वओ भणियं एवं गामे वा नगरे वा मेण्जा अरण्णे वा, कालओ दिया वा राओ वा गेव्हेज्जा, भावओ अप्यग्धे वा अप्परवस्स रायकुलमंडीए महग्धं मोह्यं करेई, श्रीदशवैकालिक चूर्णी. ... तृतिय् महाव्रतस्य निरूपणं [154] अद तादान विरमणं ॥१४९॥ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [१-१५] गाथा ||32 ५९|| दीप अनुक्रम (३२-७५] ... "दशवैकालिक" - मूलसूत्र -3 (निर्युक्तिः + भाष्य | + चूर्णि:) (निर्युक्तिः+|भाष्य|+चूर्णिः) अध्ययनं [४], उद्देशक [H] मूलं [१-१५] / गाथा: [ ३२०५९/४७-७१] निर्युक्तिः [ २२०-२३४/२१६- २३३] भाष्यं [५-६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [ ४२ ], मूलसूत्र [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: - श्रीदशवैकालिक चूण ४ अ० ॥ १५०॥ - महग्घमुलं वा अप्पेण अश्षेण राउलमंडीए किणइ अहवा जं अदिनं गण्हह तं अप्यग्धं वा महग्धं वा होज्जा, तं च अदिष्णादाण कोई दुव्यओ गेण्हेज्जा नो भावओ? मावओ गेण्हेज्जा नो दुब्बओर दब्बओवि भावओवि३ एगे नो दध्वओ नो भावओो४, तत्थ दन्तओ नो भावओ जहा तणकट्ठादणि कोई साहू अरतदुट्टो अणणुण्णविठण गेण्हेज्जा तस्स दब्बओ अदिण्णादाणं नो भावओ, भावओ नो दव्बओ जहा चोरबुद्धीए पविसिऊण ण किंचि तारिखं लद्धति तं भावओ अदिष्णादाणं नो दव्वओ, दव्यओवि भावओवि जहा चोरबुद्धिए पविट्टो तारिसं अणेण लद्धं, एवं दुव्यओवि भावओवि अदिण्णादाणं भवति, चउत्थो भंगो सुष्णो, सीसो आह— एयस्स अदिष्णादाणस्स को दोसो ?, आयरिओ भणइ इहलोगे ताथ गरहणिज्जो भवइ बंधवहादीणिय पावर, परलोगे य दोग्गइगमणं भवइ, 'तच्चे भंते ! महत्वए उबडिओमि सव्वाओ अदिण्णादाणाओ वेरमणं । 6 अहावरे चथे भंते! महत्वए मेहुणाओ बेरमणं ' ( ६-१४१) एयस्सवि महव्वयस्स जो विसेसो सो भण्णइ, सेसं तहव जहा पाणातिवायवेरमणस्स, 'से दिव्यं वा माणुस वा तिरिक्खजोणियं वा' होज्जा, एगग्गहणे गहणं तज्जाईयाणमितिकाउं खेतकालभावा तिष्णिवि गहिया । इयाणि एयं चउबिपि मेहुणं वित्थरओ भण्णह, तं०-दव्यओ खेचओ कालओ भावओ य तत्थ दव्बओ मेहुणं रूस वा रूपसहगएसु वा दय्येसु तत्थ रूवेति णिज्जीवे भवइ, पडिमाए वा मयसरीरे वा रुवसहायं तिविहं भवति, त० दिब्वं माणुस तिरिक्खजोणियति, अहवा रूपं भूसणवज्जियं, सहगयं भृसणेण सह खेचओ उडुमहोतिरि एस, उपव्वतदेवलगासु अहे गड्डाभवणादिसु तिरियं दीवससुदेसु कालओ मेहुणं दिया वा राओ वा भावओ रागेण वा दोसेण वा होज्जा, रागेण मदणुब्भवे होज्जा, दोसेण जहा कोइ हाइ तव्वणिणिगाए महन्वयाणि से भेजामित्तिकाउं चतुर्थ महाव्रतस्य निरूपणं [155] मैथुनविरमणं ॥ १५० ॥ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H, मूलं [१-१५] / गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति : [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१-१५] गाथा ||३२ ॥१५१॥ ति, ५९|| श्रीदश मेहुणं सेवेज्जा, तत्थ दोससमुत्थो रागो, रागो पुण णियमा अस्थि, तं च मेहुणं दव्यओ सेवेज्जा णो भावओ, पढमो मंगोटा परिग्रहबैकालिक | मेहुणे णस्थि, कि कारणं १, जेण भावेण विणा तस्स संभवो नत्थि, भणियं च- " कामं सवपदेसुवि उस्सग्गववायधम्मया | विरमणं घूर्णी | दिट्ठा । मोत्तु मेहुणभाष ण विणा सो रागदोसेहि ॥१॥" अण्णे पुण आयरिआ भणंति, जहा इरिथयाए अकामियाए पुरिसेण | सेविज्जमाणीए दबओ मेहुणं णो भावओ भवइ, तत्थ जे से भावओ ण दव्यओ सो मेहुणसत्रापरिणयस्स असंपत्तीए लम्मतिचि, दम्बओवि भावओवि मेहुणसम्मापरिणयस्स मेहुणसंपत्तीए भवइ, चउत्थों मंगो सुग्णो,'सीसो आह-मेहुणे को दोसो , आयरिओ भणइ-विम्भमुम्भन्तचित्तयस्स पकिनिदियस्स ताव सुहं चेव णिच्छययो त्थि, रागद्दोसा य तमि अवस्समेव उदि-प| ज्जंति, ते य रागदोसा संसारहेउणो भणिया, अतो सव्वपयचेण ते वज्जेयव्यंति, 'चउत्थे भंते! महव्वए उवडिओ मि सव्वाओ मेहुणाओ बेरमणं'। • अहावरे पंचमे भंते ! महव्वए परिग्गहाओ वेरमणं (७-१४८) एतस्सवि महव्वयस्स जो विसेसो सो मण्णइ, सेस तहेव जहा पाणाइवायवेरमणे, सो य परिम्गहो चेयणाचेयणेसु दन्वेसु मुच्छानिमित्तो भवइ, से गामे वा इति एतेण खेत्तगहणं कयं, अप्पं वा एचमादिग्गहणणं एगग्गहणे गहर्ष तज्जातीयाणमितिकाउँ कालभावावि गहिया,इदाणि एसो चाउम्बिहोवि परिग्गहो वित्थरओद्रा भण्णइ-दयो खेतओ कालो भावओ, तत्थ दव्यओ सम्बदब्बेहि, मुत्ताणऽमुत्ताण य समुदायो लोगो भवइ, तेपि अनियत्ततणह-18॥१५॥ ४ाचणेण पत्थयति, खेत्तओ सब्बलोगे, सब लोग ममायति, (कालओ दिया था राओ बा) भावओ अप्पर वा महन्धं वा ममाएज्जा, सो य परिग्गहो कस्सइ दबओ होज्जा णो भावओ १ कस्सइ भावओ णो दबो २ कस्सइ भावओवि दबओवि ३ करसह न दीप अनुक्रम [३२-७५] ... पंचमं महाव्रतस्य निरूपणं [156] Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H, मूलं [१-१५] / गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति : [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१-१५] गाथा ||३२ ५९|| श्रीदश- भावओ न दव्वओ४, तत्थ पढमे भंगे साहुणो मुच्छमगच्छंतस्स दब्बओ परिग्गहो भवइ णो भावओ, भणियं च'ण सो परिग्यहो । रात्रिभोजन लिका वुत्तो, इइ वुत्तं महेसिणा। विहओ भंगो मुच्छियस्स असंपत्तीए भवति, तइओ भंगो उवकरणे मच्छियस्स जइणो संपत्तीए विरमण व्वओवि भावओवि परिग्गहो भवइ, चउत्थो भंगो सुण्णो, सीसो आह-परिग्गहे परिगिज्झमाणे को दोसो', आयरिओ आह-। ४ अ. | जो परिगिण्हतो भवइ सो जहा सउणो मंसपेसीगहियहत्थो अन्नेहि मंसासीहि सउणेहिं णिव्बुई न लहति तहा सोवि रायतकरमा॥१५शादीएहिं णिव्युई न लहइ, अज्जणरक्खणनिमित्तं च दोससहस्साई पावइ, परलोगे य दोग्गयं साहेइ, 'पंचमे भंते ! महब्धए। उवडिओ मि सब्वाओ परिग्गहाओ रमणं'। अहावरे छट्टे भंते ! वए राईभोयणाओ बेरमण (८-१४९) सेस तहेव जहा पाणाइवायवेरमणे, णवरं इह जो & बिसेसो सो भण्णइ, तत्थ राई पसिद्धा, तीए राईए भाषणं राईभोवणं, तं पुण राई घेत्तुं दिवसओ भुंजइ ४, से असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा, असणादिग्गहणेण दवओ गहणं कयं भवइ, एगग्गहणे गहणं तज्जातीयाणमितिकाउं सेसा तिण्णिवि खेत्त| कालभावा गहिया, इयाणि चउचिदंपि राई भोयणं वित्थरओ भण्णइ, तं०- दवओ खेत्तओ कालओ भावओ, तत्थ दबओ असणं वा, असिज्जइ खुहितेहिं जं तमसणं जहा कूरो एवमादीति, पिज्जतीति पाणं, जहा मुहियापाणर्ग एवमाइ, खज्जतीति 1 खादिम, जहा मोदओ एबमादि, सादिज्जति सादिम, जहा सुंठिगुलादी, खेत्तओ समयखेते, समयो कालो भण्णइ, सो जम्मि | अस्थि तं समयखेतं, सो य अढाइज्जेसु दीवसमुद्देसु भवइ, कालओ राई मुंजेज्जा, भावओ चउभंगो, तस्थ दवओ नो भावओ८॥१५२॥ जहा उग्गओ वा मरिओ अणत्यमिओ वत्तिकाऊणं अरचो अदुट्ठो वा भुजेज्जा, अहवा आगाडे कारणे तस्स दव्यओ राईभायणं । %ER दीप अनुक्रम [३२-७५] ... षष्ठं व्रतं 'रात्रिभोजनस्य' निरूपणं [157] Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H, मूलं [१-१५] / गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति: [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: षष्ठस्योत्तर गुणता प्रत सूत्रांक [१-१५] गाथा ||३२५९|| श्रीदशवैकालिक चूणी. ४ अ० ॥१५३॥ नो भावओ, भावओ नो दव्यओ जहा कोऽपि चिंतेति-को जाणइ कयावि सूरो उद्वेद याणि चेव भुंजामि, सो य सूरो पुचि चैव उढिओ मेहादिणा आवरिओ नावधारिज्जइ जहा उढिओत्ति, अहवा रात् भुंजामित्ति संकप्पेति, न चैव संपची जाया, तस्स भावओ राईभोयणं णो दव्वओ, दबओवि भावओवि आउद्वियाए राई भुंजइ, चउत्थो भंगो मुबो, 'छठे भंते! वए उवडिओमि सवाओ राईभोयणाओ वेरमण' एत्थ सीसो आह-पंच महन्वयाणि जिणपचयणे सिद्धाणि, तो किमयं राईभोयणं महम्वएसु वणिज्जमाणेसु भणियंति ?, आयरिय आह-पुरिमपच्छिमगाण जिणवराणं काले पुरिसविसेसे पप्प पट्टवियं, तत्थ पुरिमजिण| काले पुरिसा उज्जुजडा पच्छिमजिणकाले पुरिसा वंकजडा, अतो निमित्तं महब्बयाण उवरि ठवियं, जेण तं महन्वयमिव मन्त्रता पिल्लेहिंति, मज्झिमगाणं पुण एवं उत्तरगुणेसु कहिये, किं कारणं !, जेण ते उज्जुपण्णतणेण सुहं चेव परिहरति 'इच्चेयाति' (९-१४९) इतिसद्दे। परिसमत्तीए बट्टइ, एयाई नाम जाणि इयाणि चेव हेडा भणियाणि एताणि पंचवि रातीमोयणवेरमण४ छट्ठाणि 'अत्तहियट्ठाए उपसंपज्जिचाण विहरामि अत्ताहियं नाम मोक्खो भण्णइ, सेसाणि देवादीणि ठाणाणि बहुदुक्खाणि अप्पसुहाणि य, कही, जम्हा तत्थवि इस्सरो इस्सरतरो इस्सरतमो एवमादी हीणमझिमउत्तिमविसेसा उबलन्भति, अणेगंति-11 याणि य सोक्खाणि, मोक्खे य एते दोसा नस्थि, तम्हा तस्स अट्ठयाए एयाणि पंच महब्बयाणि राईभोयणवेरमणछट्ठाई M अचहियड्ढाए उवसंपज्जित्ताणं विहरामि, उपसंपज्जित्ताणं विहरामि नाम ताणि आरुहिऊण अणुपालयतो अन्भुज्जएण विहारेण * अणिस्सियं गामनगरपट्टणाईणि विहरिस्सामि, अहवा गणहरा भगवतो सगासे पंचमहब्बयाणं अत्थं सोऊग एवं भणति- 'उबसंपज्जिताणं विहरिस्सामि ।। दीप अनुक्रम [३२-७५] ॥१५३॥ [158] Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक , मूलं [१-१५] / गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति: [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: श्रीदश प्रत सूत्रांक [१-१५] गाथा ||३२५९|| ४ अ० 1-% ॥१५४॥ JI इदार्णि जयणा भण्णइ-से भिक्खु वा भिक्खुणी वा'(१०-१५१)मृतं उच्चारेयव्यं, 'से'त्ति निदेसे, किं निहिस्सति?, म.पृथ्वीकायः जो तेसु महब्बएसु जहोवइसु अवडिओ से भिक्खू वा मिक्सुणी वा इति, संजओ नाम सोभणेण पगारेण सत्तरसविहे संजमे अब-दा डिओ संजतो भवति, विरओ णामऽणेगपगारेण बारसबिहे तवे रओ, पावकम्मसहो पत्तेयं पत्तेयं दोमुवि वट्टइ, तं०-पडिहयपावकम्मे | पच्चक्खायपावकम्मे य, तत्थ परिहयपावकम्मो नाम नाणावरणादीणि अट्ठ कम्माणि पत्तेय पचेयं जेण हयाणि सो पडिहयपायकम्मो, पच्चक्खायपावकम्मो नाम निरुद्धासबदुवारो भण्णति, अहया सव्वाणि एताणि एगडियाणित एवंगुणसंपण्णेण भिक्खुणा भिक्खुणीए वा दिवसओ जागरमाणण राईए निद्दामोक्खं कुव्यमाणेण सेसं कालं जागरमाणेण कारणिएण या एगेण परिसामणुग-I ६ एण बाजं दाणि भणिहिति तं ण कायवं, 'से पुढविवा' जो सो पुढविकायो हेट्ठा भणिओ तस्सेयं गहणंति, तत्थ पुढविग्गहणेणं पासाणलेठुमाईहि रहियाए पुढवीए गहणं भित्ती नाम नदी भाइ, सिला नाम विच्छिण्णो जो पाहाणो स सिला, लेलु। लेछुओ, सरक्खो नाम पंस् भण्णाइ, तेण आरण्णपंसुणा अणुगतं ससरखं भण्णाइ, ससरक्खं वा वत्थ पुढविकायं विराहइत्ति-ol काऊण सहत्षेण, 'सेचि निदेसे पुज्वमणिए भिकाजू वा भिक्खुणी वा, हत्थो पायो अंगुली य तिण्णिवि कंठाणि, सलागा पडि-11 याओ तैवाईणं कहूँ पसिद्धमेव कलिंचं कारसोहिसादीणं खंड, सलागाहत्यओ बहुपरिआयो अहवा सलागातो घडिल्लियाओ। तासि सलागाणं संघाओ सलागाहत्थो भण्णति, एतेहिं पुढविस्काइयाणं ण आलिहेज्जा, नकारो पंडिसेहे बट्टइ, किं पडिसेइयइ, हत्थादीहिं पुढवीए आलिहणादीणि, आलिहणं नाम इसि, विलिहणं विविहेहि पगारहिं लिहणं, घट्टणं बहूर्ण, भिंदण दुदा वा ॥१५४॥ तिहा बा करणंति, एवं ताव संयतो आलिहणादी ण करेज्जा, जहा सयं न करेज्जा तहा अण्णणवि णालिहावेज्जा जाव न दीप अनुक्रम [३२-७५] ... अत्र 'जयणाया:' स्वरुपम् दर्शयते [159] Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H, मूलं [१-१५] / गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति : [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१-१५] गाथा ||३२५९|| श्रीदश- कालिक चूर्णी ४ अ० ॥१५५॥ D भिंदाविज्जा, तहा अपि आलिहतं वा जाव मिदंत वाण समणुजाणेज्जा जावज्जीवाए विविहं तिविहेण मणसा वयसा कायसा अकायः तस्स भते । पटिकमामि निंदामि गरिहामि जाब बोसिरामि ॥ से भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजयविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे दिया वाराओवा मुत्ते वा जागरमाणे | है वा जाव परिसागओवा' इमं परिहरेज्जा'से उदगं वा' 'से'त्ति जो सो आउकाओ हेड्डा भणिओ तस्स निदेसो, उदगग्गहणेण* भामस्स आउक्कायस्स गहणं कयं, उस्सा नाम निसि पडइ, पुचण्हे अवरण्हे वो, सा य उस्सा तेहो भण्णइ, हिम लोगपसिद्ध, जो सिसिरे तुसारो पडइ सो महिया भण्णइ, करगा लोगपसिद्धा, हरतणुओ भूमि मेत्तूण उवइ, सो य उखुगाइसु तिताए भूमीएल ठविएसु हेट्ठा दीसति, अंतलिक्खपाणियं सुद्धोदर्ग भण्णइ, जे एतेसिं उदगभेएहिं विंदुसहियं भवइ तं उदउल्लं भन्नइ, ससिणिद्धं जं जन गलति तितयं तं ससणिद्धं भण्णइ, एतेहिं उदउल्लससणिद्धेहिं अणुगत कार्य वा बत्थं वा णामुसेज्जा, आरसणं नाम ईपत्पर्शनं |3|| आमुसनं अहवा एगवार फरिसणं आमुसणं, पुणो पुणो संफुसणं, इसि निपीलणं आपीलणं, अच्चस्थं पीलणं पवीलणं, एगं वारं जद VIअक्खाइ, ते बहुवारं पक्खोडण, इसित्ति तावर्ण आतावणं, अतीव तावणं पतावण, एवं ताव सर्व णो आमुसाईणि करेज्जा, जहा ४ सयं न करेज्जा तहा अण्णेणावि नामुसावेज्जा जाब न पयावेज्जा, तहा अण्णंपि आमुसंतं वा जाब पयावंत वान समणुजाणेज्जा है जावज्जीवाए तिविईतिविहेण बोसिरामि ।। ||१५५॥ 'से भिक्खू वा भिक्षुणी संजतविरतपडिहतपच्चक्खायपावकम्मे जाव परिसागओ वा इमं परिहरेज्जा 'से अगणिं वा' (१२-१५३ ) 'सेति निदेसे पट्टति, जो जो अगणिकाओ देवा भणिओ तस्स निदेसो, अगणी नाम दीप अनुक्रम [३२-७५] [160] Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H, मूलं [१-१५] / गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति : [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: चूौँ । प्रत सूत्रांक [१-१५] गाथा ||३२५९|| श्रीदश- जो अयपिंडाणुगयो फरिसगझो सो आयपिंडो भण्णइ, इंगाळो नाम जालारहिओ, मुम्मुरो नाम जो छाराणुगो अग्मी सोतेजाकायः कालिका मुम्मुरो, अच्ची नाम आगासाणुगआ परिच्छिण्णा अग्गिसिहा, अलायं नाम उम्मुआहियं पंज(पज्ज)लियं, जाला पसिद्धा चेव, वायुकाया इंधणरहिओ सुद्धागणी उक्काविज्जुगादि, एतारिस अगणिक्कायं ण उजेज्जा, उंजणं णाम अवमंतुअणं, घट्टणं परोप्परं उम्मुमाणि ४ अ०५ घट्टयति, अण्णेण वा तारिसेण दबजाएण घट्टयति, उज्जलणं नाम वीयणमाईहिं जालाकरणमुज्जालणं. निव्वावर्ण नाम विज्झावणे, ॥१५६॥ एवं ताव सयं णो उजणाईणि करेज्जा, जहा य सयं न करेज्जा तहा अनं न उंजावेज्जा, जहा न उजावेज्जा तहा अण्णं उजेत | वा जाव निब्वायेंतं वा ण समणुजाणेज्जा जावज्जीवाए तिविहं तिबिहेण मणसा बयसा कायसा तस्स भते ! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ॥ •से मिक्खू वा भिक्खुणी वा संजयविरयपडिहयपच्चक्खाय जाव परिसागो वा इमं परिहरेज्जा 'से सीएण या विधुवP ण वा' (१३-१५४) से'ति निद्देसे वह, जो बाउकाओ हेट्ठा भणिओ तस्स निद्देसे, सीतं चासर भण्णइ, बिहुवर्ण बीयनं| जाम, तालियंटो नाम लोगपसिद्धो, पत्तं नाम पोमिणिपत्चादी, साहा रुक्खस्स डालं, साहाभंगओ तस्सव एगदेसो, पेहुई मोरपिच्छग वा अण्ण वा किंचि तारिस पिच्छं, पिहुणहत्थओ मोरिगकुच्चओ, गिद्धपिच्छाणि वा एगओ बद्धाणि, चेलं नाम सगलं वत्थं, चेलकण्णो तस्सेव एगदेसो, हत्यमुहादीणि लोगपासद्धाण, एतेहि कारणभूएहि अप्पणो वा कार्य बाहिरं चावि ★ ॥१५६॥ पापागलं- उसिणोदगं वा सयं ताव न फुमेज्जान बीएज्जा, जह सयंतहा अण्णं ण फुमावेज्जा न बीयावज्जा, अण्ण फुमत वाला kवीयंत वा न समजाणज्जा जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणमा वयसा कायसा जाब बोसिरामि ।। दीप अनुक्रम [३२-७५] [161] Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H, मूलं [१-१५] / गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति: [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१-१५] गाथा ||३२५९|| चूणों. हा श्रीदशसे भिक्षु वा भिक्खुणी चा संजयविश्यपडिहयपच्चक्खाय जाव परिसागओ वा इमं परिहरेज्जा से पीएसु वा बीय-1 तेजाकायः बेकालिका पढेसु वा' (सू.१४-१५४) 'सेत्ति निदेसे बट्टा, जो सो वणस्सइकाओ हेवा भणिो तस्स निदेसो. बीयं नाम सालिबीहादीणं वायुकाय: | भण्णइ, पइडियं नाम आहारसेज्जाफलगादीण पीयाणं उपरिडियाणिनि, रूढ णाम पीयाणि पेव फुडियाणि, ण ताव अंकुरो ४ अ० निष्फज्जइ, रूढपइडियं नाम जे तेर्सि उवरिं आहारसेज्जाऽऽसणफलगपीढगादि ठवियं तं रूढपतिट्ठियं भण्णइ, जायं नाम एताणि चेव थंबीभूयाणि, जातपतिट्ठियं नाम तेसु चेव थंवेसु ज किंचि आहारसेज्जास्णफलगपीढगाई ठवियंति, हरिताणि नाम ब-12 ॥१५॥ लाचादीणि, हरियपतिट्ठियं नाम जं किंचि आहारसेज्जासणफलगपीढगादि ठवित, छिण्णाग्गहणणं बाउणा भग्गस्स अण्णेण वा परसु-15 माइणा छिण्णस्स अद्दभावे वढमाणस्स अपरिणयस्स गहणं कयमिति, छिण्णपइद्वियं नाम तमि चेव अपरिणए किंचि आहारस-1 सज्जासणफलगपीढगादी ठवितं, सचित्तकोलपडिणिस्सियसदो दोसु वः सचित्तसद्दे य कोलसद्दे य, सचित्तपडिणिस्सिया-१ णि दारुयाणि सचित्तकोलपडिनिस्सिताणि, तत्थ सचित्तगहणेण अंडगउद्दहिगादीहि अणुगताणि जाणि दारुगादीणि सचित्त|णिस्सियाणि, कोलपडिनिस्सियाणि नाम कोलो घुणो भण्णति, सो कोलो जेसु दारुगेसु अणुगओ ताणि कोलपडिनिस्सियाणि, तेसु सचिचेसु कोलपडिनिस्सितेमु णो सयं गच्छेज्जा जाव न तुबद्देज्जा, तत्थ गमणं आगमणं वा चंकमण भण्णइ, चिट्ठण नाम तेसिं उरि ठियस्स अच्छणं, निसीयणं उवडियस्स जं आवेसणं, तुयट्टणं निवज्जण, जहा य सयं गमणादीणि न करेज्जा तहा | अब न गच्छावेज्जा जाव न तुपट्टावेज्जा तहा अन्नमवि गच्छंतं वा जाव तुयदृतं वा न समणुजाणेज्जा जावज्जीवाए जाव वोसिरामि ।। CONCEBCABRDAR दीप अनुक्रम [३२-७५] १५७ [162] Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H, मूलं [१-१५] / गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति: [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१-१५] गाथा ||३२५९|| । श्रीदश- 'से भिक्म पा भिक्षुणी वा संजयाविरयपडिहयपच्चखाय जाव परिसागओ वा से कार्ड वा पयंगं वा' (स.१५.१५५) प्रसकाय: वैकालिकासति निदेसे यच्चा, जो सो तसकायो हेड्डा भणिओ तस्स निद्देसे, कीडपयंगा कुंथुपिपीलियाओ य पुष्वणिया, तेसि अनतरो यतनाचूर्णी * कीडगाइर्ण जहद्वाज्जा हथमि वा जाव सथारगाम वा, तस्य पादा बाहू ऊरूता पसिद्धाओ, सेज्जा सव्यंगिया, संथारो अडा-मा पदेशः ४ अ० इज्जा हत्था आयता हत्थं सचउरंगुलं विच्छिण्णो, अण्णतरम्गहणण बहुावहस्स तहपगारस्स संजतपायोग्गस्स उवगरणस्स गहण ४ Musकयंति, एतेहिं बस्थादीहि पुण्यभणियाणं कीडाण अण्णतरो पाणो उबलिएज्जा, तओ से उनहीण जाणिऊर्ण संजयामेवीत्त जहा तस्स पीडाण भवति तहा घेचूर्ण एर्गते नाम जस्थ तस्स उवघाआन भवह तस्थ एगते अवर्णज्जा, जहा णोणे संघातमावज्जर, संघात नाम परोप्परतो गत्ताणं संपिंडणं, एगग्गहणेण गहणं तज्जाइयाणतिकाऊण सेसावि परितावणफिलावणादिभेदा गहिया, आवज्जणा नाम नो तहा गिण्हेज्जा जहा संघातणाइ दोसो संभवति, एसा पुढविमादीणि पडुच्च पाणतिवातवरमणअणुपालणत्थं जयणा भणिया, चउत्थो छज्जीवणियाए अधिगारो गओ।। इयाणिं उयएसोत्ति पंचमी अहिगारो भग्णद, तं. 'अजयं चरमाणो उ, पाणभूयाई हिंसओ। बंधई पावतं कम्म, तं से होइ कडुयं फलं (३२-१५६ ) अजयं नाम अणुवएसेण, चरमाणो नाम गच्छमाणो, द्रुतं गच्छमाणो संतो वग्याइयं करेज्जा, कदाइ सरीरविराहणावि होज्जा, पाणाणि चेच भूयाणि, अड्या पाणगणेण तसाणं गहण, सत्ताणं विविहेहिं पगारेहि हिंसमाणो बंधए पावगं कम्म, बंधइ नाम एफेकं जीवप्पदेसं अट्ठहि कम्मपगडीहिं आवेढियपरिवेढियं करेति, पावगंटू ४ ॥१५८॥ नाम असुभकम्मोवचयो घणचिकणो भण्णइ, परतित्थियाण य गच्छमागाणं चिट्ठमाणाण य कम्मवंधो न भवति, अतो तप्पडि दीप अनुक्रम [३२-७५] K [163] Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक , मूलं [१-१५] / गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति: [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१-१५] गाथा श्रीदश- वैकालिक चूर्णी ५ अ० ||३२ ॥१५॥ ५९|| सेहनिमित्तं सीसस्स भयुबेयनिमित्तं पावगहणंति, कडुयं फलं नाम कुदेवत्तकुमाणुसत्तनिव्वत्तकं पम तस्स भवइ, एवं 'अजय यवनोचिट्ठमाणो उ, पाणभूयाई हिंसई। बंधती' सिलोगो (३३-१५६) चिट्ठमाणो णाम ठिती, सो अजओ अच्छमाणो || पदेशः हत्थपादादीणि छुभति, ताणि नित्थुब्भमाणो सत्तोवरोहे बट्टइ, सेसं तहेव । एवं 'अजयं आसमाणो उ, पाणभूयाइ हिंसईद सिलोगो (३४-१५६) आसमाणो नाम उबडिओ, सो तत्थ सरीराकुंचणादीणि करेइ हत्थपाए विच्छुभाइ, तओ सो उवरोधे वट्टइ, सेसं तहेव, एवं 'अजय सुयमाणो उ, पाणभूयाइ हिंसई' सिलोगो ( ३५-१५६ ) अजयति आउँटमाणो पसारेमाणो य ण द पडिलेहइ ण पमज्जा, सवराई सुबह दिवसओपि सुयइ, पगाम निगाम वा सुबइ, सेस तदेव । अजयं भुंजमाणो उ, पाण: भूयाई हिंसई । बंधई सिलोगो (३६-१५६ ) अजयं कायसिगालखड्याईहिं भुजह तं च खद्धं एवम्हादि, सेसं तहेव 'अजय भासमाणो उ, पाणभूयाई हिंसई । बंधई' सिलोगो ( ३७-१५६ ) अजयं गात्थियभासाहिं भासई दरेण बेरचियासु एवमादिसु, सेसं तहेव । सीसो आह- कहं चरे कहं चिढे, कहमासे कहं सए। कहं भुजतो भासतो,पावकम्मं न बंधइ ! (२८-१५५) जइ एवं गमणादीणि कुब्बमाणस्स पावओ कडगफलविवागो भवह तो कई जीवाउले लोगो कायर्वति, आयरिओ| भणइ-सइ जीयवाहालि ओवाएण सकर अत्तणो हियं काउं, दिट्ठतो नावा, जहा जलमज्झे गच्छमाणा अपरिस्सवा नावा जलकंतारं ४ वीईवयइ, न य विणासं पावइ, भणिय च- "जलमज्झे जहा नावा, सबओ निपरिस्सया । गच्छंति चिह्नमाणा वा, न जलं परि- १५९।। गिण्हइ ॥१॥" एवं साहूवि जीवाउले लोगे गमणाीणि कुव्वमाणो संवरियासबदुवारतणेण संसारजलकतारं वीयीक्यइ, संवरियासववारस्स न कुओवि भयमस्थि, भणियं च- "एवं जीवाउले लोगे, साहू संवरियासवो। गच्छंतो चिट्ठमाणो वा, पाच नोट्र SECORRESPECAUSERS 14 दीप अनुक्रम [३२-७५] [164] Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H, मूलं [१-१५] / गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति: [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: जीवा प्रत सूत्रांक [१-१५] गाथा ||३२५९|| ॥१६॥ % श्रीदश- परिगण्डइ ॥ १॥" सो य उवाओ इमो, तं- 'जय चरे जयं चिट्टे, जयमासे जयं सए। जयं भुजतो भासंतो, पावकम्म कालिकान बंधइ ॥ (३९-१५६) तत्थ पढमं जयं चरे, जयं नाम उबउत्तो जुगतरदिट्ठी दट्टण तसे पाणे उद्धटु पाए रीएज्जा, एवं भिगमे चूणा जयणं कुब्बतो कुम्मो इव गुचिदिओ चिट्ठज्जा, एवं आसज्जाधि, एवं निद्दामोक्खं करेमाणो आउंटणपसारणाणि पडिलहिय। ४० |पमज्जिय करेज्जा, एवं दोसवज्जियं भुजेज्जा, एताणि गमणचिट्ठणादीणि जयणाए कुब्बमाणो पावं कम्म न बघह। किंच- 'सब्बभूयप्पभूयस्स, सम्मं भूताई पासओ। पिहियासवस्स दंतस्स, पावं कम्मं न पंधह। (४०-१५६), सव्वभूता- सव्वजीवा तेसु सबभूतेमु अप्पभूतो, कह ?, जहा मम दुक्खं अणिटुं इह एवं सव्वजीवाणंतिकाउं पीडा णो उप्पायइ, एवं जो सव्वभूएसु अप्पभूतो तेण जीवा सम्म उवलद्धा भवंति, भणियं च "कट्ठण कंटएण व पादे विद्धस्स वेदणा तस्स । जा होइ अणेव्वाणी णायव्वा सव्वजीवाणं ॥१॥" पिहियाणि पाणिवधादीणि आसवदाराणि जस्स सो पिहियासवदुवारो तस्स पिहियासवदुचारस्स, दंतो दुविहो- इंदिएहि नोइंदिएहि य, तत्थ इंदियदतो मोइदियपयारनिरोहो सोइंदियविसयपत्तेस य सिद्देस रागदोसविनिग्गहो, एवं जाव फार्सिदिय विसयपत्तेमु य फासेमु रागदोसविनिग्गहो, नोइंदियदंतो नाम कोहोदयनिरोहो IMI उदयपत्तस्स य कोहस्स विफलीकरणं, एवं जाव लोभोति, एवं अकुसलमणनिरोहो कुसलमणउदीरणं च, एवं वयीवि काएवि माणियब्ब, एवंविहस्स इंदियनोइंदियदंतस्स पावं कम्मं न बंधइ, पुवपद्धं च पारस विहेण तवेण सो झिज्झइ। सीसो आह-चरित्तदधम्मो अणुढेतब्बो किं कारणं अहिज्जिएणंति, आयरिओ भणइ- 'परमं नाणं तओ दया,एवं चिठ्ठह सब्बसंजए । अन्नाणीदा किं काहिति, किंवा णाहिति व्यपावर्ग। (४१-२५७) पढमं ताव जीवाभिगमो भणितो, तओ पच्छा जीवेसु दया, एव- १५०॥ %A1 दीप अनुक्रम [३२-७५] [165] Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H, मूलं [१-१५] / गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति: [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१-१५] गाथा ||३२ चूर्णी. ५९|| श्रीदश- सदोऽवधारणे, किमयधारयति , साधूर्ण चेव संपुण्णा दया जीवाजीवविसेसं जाणमाणाणं, ण उ सकाणं जीवाजीवविसेस 14 वैकालिका | अजाणमाणाणे संपुण्णा दया भवन्ति, चिइ नाम अच्छइ, सब्बसद्दो अपरिसेसवादी, संजओ पसिद्धो चेप, सम्वसंजताणं अपरि-17 IXसेसाणं जीवाजीवादिसु गातेसु सतरसविधो संजमो भवइ, जो पुण अन्नाणी सो किं काहिई १, कह वा सो ठेयपावगाणं विसेसला ४ अ० Xणाहिति । तत्थ छयं नाम हितं, पावं अहियं, ते य संजमो असंजमो य, दिद्रुतो अंधलओ, महानगरदाहे नयणविउत्तो ण याणाति केण दिसाधारण मए गंतवंति, तहा सोवि अनाणा माणस्स विसेसं अपाणमाणो कहं असंजमदवाउ णिग्गच्छिहिति?, ॥१३॥ किंच- 'सोच्चा जाणइ कल्लाणं, सोच्चा जाणइ पावमं । उभयपि जाणई सोच्चा, जंछेयं तं समायरे (४२-१५७) सोच्चा नाम सुत्तस्थतदुमयाणि सोऊण गाणदंसणचरित्ताणि वा सोऊण जीवाजीवादी पयत्था वा सोऊण जाणइ कल्लाणं पावयं डाच, कई नाम नीरोगया, साय मोक्खो, तमणेइजतं कल्लाणं, ताणि य णाणाईणि, जेण य करण कम्म बज्झाइ तं पावं सोय। असंजमो, तंपि सोऊण जाया. उभयं नाम कल्लाणं पाचयं च दोवि सोच्चा जाणइ, केद पुण आयरिया कल्लाणपावयं च देसविरयस्स पावयं इच्छंति, तमवि सोऊण जाणति, एवं सोच्चा जाणिऊण किं कायवंति आह- 'जं छेयं तं समायरे एताणि कल्लाणपापयाणि जाणिऊण जमिह परंमि य लोए हितं तं समायरिव्यंति । किंच- 'जो जीवेवि न याणाइ, अजीवेवि न या-1 णई । जीवाजीवे अयाणतो, कहं से णाहिति संजम (४३-१५७) जो जीवेवि वियाणाइ, अजीवेवि बियाणइ । ॥१६१।। जीवाजीचे बियाणलो, सो हुनाहिति संजमं (४४-१५७) एत्थ निदरिसणं जो साहूं जाणइ सो तप्पडिपक्षमसाधुमवि जाणइ, एवं जस्स जीवाजीवपरिण्णा अस्थि सो जीवाजीवसंजम घियाणइ, तत्य जीषा न हतया एसो जीवर्सजमा भण्णद दीप अनुक्रम [३२-७५] [166] Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [१-१५] गाथा ||३२ ५९|| दीप अनुक्रम [३२-७५] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र- ३ (निर्युक्तिः + भाष्य | + चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-] मूलं [१-१५] / गाथा: [ ३२ ५९ / ४७-७५ ], निर्युक्तिः [ २२०-२३४ /२१६-२३३], भाष्यं [५-६० ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [ ४२ ], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्ण : श्रीदशवैकालिक चूर्णी ४ अ० ॥ १६२॥ अजीवावि मैसमज्जहिरण्णादिदव्या संजमोषधाइया ण घेराव्या एसो अजीवसंजमो, तेण जीवा य अजीवा य परिण्णाया जो तेसु संजम । किंच "जीवा जस्स परिषाया, बेरं तस्स न विज्जह। न हु जीवे अयाणंतो, बहूं बेरं च जाण ॥ १ ॥ तहा 'नाणं पगासगं सोहओ तवो संजमा य गुतिकरो । तिपि समाओगे, मोक्खो जिणसासणे भणिओ ॥ २ ॥ इयाणं फलं भणड़' जया जीव अजीवे य, दोषि एए बियाणइ । तया गई बहुविहं सव्वजीवाण जाणइ । (४६।५०--१५७) गतिं बहुविहं नाम एकेका अणेगभेया जाणति, अवा नारगादिसुगतिसु अणेगाणि तित्थगरादिउवएसेण जाह, जया गतिं बहुवि जगति तदा पुष्णपावादीनं विसेस जाणइ, सीसी आह कई सो गई बहुवि जाणति तदा पुण्णपावादणिं विसेसं जाणइ, आयरिओ भष्णइ-बहुविधग्गहणेण नज्जह जहा समाणे जीवते पण विणा पुण्णपावादिणा कम्मविसेसेण नारगदेवादिविसेसा ་ भवतीति । जया पुण्णपावाईणि जाणह तदा निडिंबदई भोए जे दिव्ये जे य माणुसे । भुजंतीति मोगा, गिच्हियं विंदतीति णिचिदति विवहह्मणे गप्पगारं वा बिंदु निव्बिद्इ, जहा एते किंपागफलसमाणा दुरंता भोगत्ति, ते य निव्विदमाणी दिव्या वा निविदर माणुस्सावा, सीसो आह- किं तैरिच्छा भोगा न निविदह १, आयरिओ आह-दिव्यगहणेण देवनेरहया गहिया, माणुस्सग्गहणेण माणूसा, चकारेण तिरिक्खजोणिया गहिया, जदा य भोगे गिविंदर तदा जहति संजोग, जहर नाम छड़ई, किं तं जहाति १, बाहिरं अभ्यंतरं च ग्रंथ, तस्थ बाहिरं सुवनादी अम्मंतरं कोहमाणमायालो भाई, जदा संजोगं जहर 'तदा मुंडे भावचाणं पञ्चइए अणगारियं ' अणगारियं नाम अगारं-गि भण्णह से जोस नत्थि ते अणगारा, ते य साहुणो, ण उद्देसियादीणि झुंजमाणा अन्नतिस्थिया अणगारा भवंति, जया मुंडे भविताणं पव्वाति अणमारियं तदा संवरमु कि, संवरो नाम पाणवहादीण •••• अत्र धर्मफलम् कथयति [167] धर्मफल ॥ १६२ ॥ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H, मूलं [१-१५] / गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति: [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: A प्रत सूत्रांक [१-१५] गाथा ||३२ ५९|| श्रीदश- आसवाणं निरोहो भण्णइ, देससंबराओ सव्वसंवरो उकिट्ठो, तेण सम्बसंवरेण संपुण्णं चरित्तधम्म फासेइ, अणुत्तरं नाम न ताओं सदतेलभ धम्माओ अण्णो उत्तरोत्तरो अस्थि, सीसो आह-णणु जो उकिट्ठो सो चेव अणुचरो?, अयरिओ भणइ--उकिट्ठगहणं देसविरइपडि-1 सुलभते चूर्णी सेहणत्थं कयं, अणुत्तरगहणं एसेव एको जिणप्पणीओ धम्मो अणुत्तरोण परवादिमताणिति, जदा संवरमुकिई, धम्म फासे अणुत्तरं। तदा धुणइ कम्मरयं, अबोहिकलुसंकर्ड (५१-१५८) तदा सम्बन्धगं नाणं, सणं चाभिगच्छद (५२-१५८) ॥१६॥ सब्वत्थ गच्छत्तीति सम्वत्थग त केबलनाणं दरिसणं च, यदा य सव्वत्थगाणि नाणदरिसणाणि भवति तदा लोगमलोगं च दोषि एते वियाणइ, यदा लोग अलोगं च दोवि एए वियाणइ तदा जोगे निरुभिऊण सेलेसि पडिवज्जइ, भवधारणिज्जकम्मक्खयहाए, जदा जोगे निकभिऊण सेलसिं पडिवज्जति तदा भवधाराणिज्जाणि कम्माणि खबेउं सिद्धिं गच्छद, कह ?, जेण सो नीरओ, नीरओ नाम अबगतरओ नीरओ, जया य खांणकम्मंसो सिद्धिं गच्छद तदा लोगमुद्धे ठिओ सिद्धो भवति सासयोति, जाव य ण परि ग्वाति ताव अकुच्छियं देवलोगफलं मुकुलुप्पत्तिं च पावतित्ति, छजीवनिकाए छट्ठो अधिगारो धम्मफलं। PL इयाणि एतं धम्मफलं जहा दुल्लहं सुलहं च भवइ तहा भणामि, तत्थ दुखहं जहा 'सुहसातगस्स समणस्स, सायाउलगस्स निगामसायरस । उच्छोलणापहोतिस्स, दुलहा सोग्गती तारिसगस्स (५४-१५९) सात मुई भण्णइ,18 टैि सुई सायतीति सुहसाययो, सायति णाम पत्थयतिनि, जो समणो होऊण सुहं कामयति सो सुइसायतो भण्णइ, सायाउलो नाम ॥१६॥ तेण सातण आकुलीकओ, कह सुहीहोज्जामित्ति ? सायाउलो, सीसो आइ-मुहसायगसायाउलाण को पतिविसेसो, आयरिओ आह-सुहसायगहणेण अप्पत्तस्स मुहस्स जा पत्थणा सा गहिया, सायाउलग्गहणेण पत्ते य साते जो पडिधो तस्स गहणं कर्य, * SSAUCEOPLECTROctoCa दीप अनुक्रम [३२-७५] [168] Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H, मूलं [१-१५] / गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति : [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: L- REC प्रत सूत्रांक [१-१५] गाथा ||३२५९|| श्रीदश- वकालिका चूर्णी ४ अ० ॥१६॥ निगाम नाम पगाम भण्णइ, निगामं सुयतीति निगामसायी, उच्छोलणापहावी णाम जो पभूओदगेण हत्थपायादी अभिक्ख- सद्गतेदुर्लभ पक्खालयह, थोषण कुरुकुचियत्तं कुब्बमाणो (ण) उच्छोलणापहोषी लव्मइ, अहया भायणाणि पभूतेण पाणिएण पक्खालयमाणो सुलभते उच्छोलणापहोची, तस्स सुहसायादिदोसे वट्टमाणस्स दुल्लमा सोग्गती भवति । इयाणि जहा सुलभा सोग्गती मपति तहा भण्णा'तवोगुणपहाणस्स उज्जुमतीखतिसंजमरयस्स। परीसहे जिणतस्स सुलभा सोगती तारिसगस्स (५८-१५९), तबोगुणप्पहाणो, अज्जवा मती जस्स सो उज्जुमती, अज्जवखंतिगहणेण दसविधो समणधम्मो गहिओ, एगग्गहणे गहणं तज्जातीयाणमितिकाउं, संजमग्गहणेण सत्तरसविहस्स संजमस्स गहण कयंति, अज्जवखंतिसंजमेसु रओ सो उज्जुमती खतिसंजमरओ, परीसहा-दिगिच्छादि बावीस ते अहियासंतस्स, एवं तमोगुणाइजुत्तस्स सुग्गई सुलभा भवति । इयाणि एक्स्स छज्जीवनिका-1 यस्स एगट्ठियाणि भण्णति-'जीवाजीवाभिगमो' गाथा पढियच्चा , इच्चेयं छज्जीवणियं सम्मदिडी सया जए । दुल्लहं लभित्तुं सामन्नं, कम्मुणा न विराहज्जासि ॥ (५९-१६७) तिमि । इतिसद्दो परिसमत्तीए बट्टइ, एतं नाम जं मया हेट्ठा भणियं, छज्जीवणिया नाम पुढविकायआउकायतेउकायवाउकायवणस्सइकायतसकाय छहि जीवनिकाएहितो जो अण्णा सत्तमो जीवनिकाओ अस्थिति जाणिऊण सम्मादिट्ठी सया जएज्जा, जएज्जा नाम जयणाए पयद्वेज्जा, दुल्लह सामण्ण लण कम्मुणा णाम जहोवएसो भण्णइ त छज्जीवणियं जहोवइदि© तेण णो विराहेज्जा, वेमि णाम वित्था गरोचदेसेण बेमि, ण पुण अप्पणा इच्छाएत्ति । इयाणि णया-'णामि गणिहयग्वे जगेण्हियव्बमि चेच अत्थंमि' गाथा--'स-II ॥१६॥ बेसिपि नपाणं बहुविहवत्तब्बयं निसामेचा। त सम्बनपविसुद्धं जं चरणगुणद्विओ साह॥१॥ उज्जीवनिकायजायणचुण्णी॥४॥ दीप अनुक्रम [३२-७५] अध्ययनं-४- परिसमाप्तं [169] Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [६०-१५९/७६-१७५], नियुक्ति : [२२०-२३४/२३४-२४४], भाष्यं [६१-६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||६० ५ .12 ॥१६५॥ १५९|| एते ताव मूलगुणा भणिया , इदाणि उत्तरगुणा भणति, एतेणाभिसंबंधेणागतस्स पंचमायणस्स चत्तारि अणु-। CI पिण्डकालिकाओगदारा भाणियब्वा, जहा आवस्सए, नवरं इहं नामनिष्फण्णा भण्णइ-नाम ठवणापिंटो दब्यपिंडो य भावपिंडो य15 स्वरूपं चणी गाथा, णामनिप्फणे पिंडनिज्जुत्ती माणियचा, सा य सव्वावि नवहिं कोडीहिं समोयरइ, तं-ण हणइ ण हणावेइ हणतं नाणु जाणह ण पयति ण पयावेइ पयंतं नाणुजाण न किणइ न किणावेइ किणते नाणजाणइ, एत्थ गाथा 'कोडीकरणं' गाथा | (६२-१६१ भा०) एता नवकोडीओ दुहा कीरति उग्गमकोडी य विसुद्धिकोडा य, तत्थ उग्गमकोडी नाम अविसोहिकोडी, तत्थ | हाजा सा जगमकोडी सा छबिहा, तं०-आहाकम्म पढमा उम्गमकोडी, उद्देसिया पासंड समणनिरगंथाण य कम्मं समोयरइ विति-161 या उग्गमकोडी, पूती कम्म भत्तपाणपूतियं ततिया, मीसजाए घरमीसपासंडाणं चउत्था, बादरपाहुडियाए पंचमी, अज्झायरए11 ५॥छट्ठा, एसा छब्बिहा अविसोधिकोडी, सेसा विसोधिकोडी, तत्थ जा सा अविसोधिकोडी सा न हणइ न हणावेद हणत नाणु जाणइ न पयति न पयावेइ पयंतं नाणुजाणइ न पयंति एतेमु समोयरह, नव चेवट्ठारस' गाहा (२६।५-१६१) नव कोडीओ दोहिं रागदोसेहिं गुणिया अट्ठारस भवंति, ताओ चेव नव तिहि मिच्छत्ताण्णाणअविरतीहिं गुणियाओ सत्तावीस भवंति, सत्तावीसा पदोहिं रागदोसेहि गुणियाओ चउप्पण्णा भवंति, ताओ चव नव दसविधेण धम्मेण गुणियाओ विसुद्धाओ नउई भवंति, सा हैनउई तिहिं नाणदंसणचरित्तेहिं गुणिया दो सत्तरा भवंति, गओ नामनिफण्णो निक्खेवो, सुत्तायुगमे सुत्तमुच्चारेयचं, अक्खलियं ॥१६५।। अमिलियं अविच्चामेलियं जहा अणुयोगदारे, तं च सुतं इमउद्देशक-१ संपत्ते भिक्खुकालंमि असंभंतो अमुच्छिओ। इमेणं कम्मजोगेण, भत्तपाणं गवेसए (६०-१६३) 'आप्ल व्याप्तौ' दीप अनुक्रम [७६ १७५] र अध्ययनं -५- "पिंडैषणा'आरभ्यते [170] Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [६०-१५९/७६-१७५], नियुक्ति: [२३५-२४४/२३४-२४४], भाष्यं [६१-६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत % E पणा सूत्रांक [१५...] गाथा ॥६०१५९|| श्रीदश- धातुः,अस्य धातोः संपूर्वस्य प्रपूर्वस्य च तक्तवतू निष्ठे' ति (पा.१-१-२६)क्तः प्रत्ययः अनुबन्धलोपः परगमन 'अक: सवर्णे दीर्घः' (पा.६.१-१०१) संप्राप्त इति स्थिते प्रातिपदिकार्थे सप्तम्यधिकारे तस्य एकवचनं कि अनुबन्धलोपः 'आद् गुणः चूणी IRI(पा. ६-१-८७) संप्राप्ते, तत्थ संपत्ते नाम सोभणेण पगारेण पत्ते संपत्ते 'भिक्ष भिक्षायामलाभे लाभेच' धातुः, अस्य धातोः | अधिकारे अप्रत्ययान्ते 'गुरोध हल' इति (पा. ३-३-१०१) अप्रत्ययः अनुवन्धलोपः परगमने भिक्ष इति स्थिते 'अजायतष्टापू ॥१६६॥ (पा. ४-१-४)सुभिक्षा, भिक्षा पसिद्धा चेच, ताए भिक्खाए कालो मिक्खाकालो तमि भिक्खकाले संपते अण्णस्स अट्टाए गच्छेज्जा, जइ पुण भिक्खाकाल ऊणे अहिगे वा ओवरह तो भिक्खं न लभइ, 'भ्रम अनवस्थाने' धातुः, अस्य धातोः 'तक्तवतू निष्ठे' ति (पा.१-१-२६ ) क्तः प्रत्ययः अनुवन्धलोपः 'अनुनासिकस्य क्विझले दिसति (पा. ६-४-१५) अनुनासिकस्याङ्गस्य आकारो भवति परगमनं संभ्रान्तः, असंभंतो नाम सव्वे भिक्खायरा पबिट्ठा तेहिं उच्छिए भिक्ख न लभिस्सामित्तिकाउंमा तुरेज्जा, तुरमाणो य पडिलेहणापमाद करेज्जा, रियं वा न सोधेज्जा, उपयोगम्स ण ठाएज्जा, एवमादी दोसा भवति, तम्हा असंमतेण पडिलहण काऊण उपयोगस्स ठायित्ता अतुरिए भिक्खाए गंतव्वं, 'मूर्छा मोहसमुच्छाययोः' धातुः, अस्य धातोः क्तप्रत्ययः, अस्य धातोः सेदहलादिति इडागमः अनुवन्धलोपः परगमने मूर्षिछतः न मूर्षिछतः अभूञ्छितः, अमूछितो नाम समुयाणे मुच्छ | अकुबमाणो सेसेमु य सद्दाहोवसएस, इदं प्रातिपदिक, अस्य प्रातिपदकस्य 'कर्तृकरणयोस्तुतीयेति (पा. २-३-१८) तृतीया, तस्या | एकवचनं टा, अनुबन्धलोप: स्यदायत्वं अतो गुणः परः पूर्वः 'टाकसिङसामिन्सत्स्याः (पा. ७-१-१२) टा इत्येतस्य इनादेशः 'अनाप्यक' इति (पा. ७-२-११२) इदमः अनादेशः परगमनं अनेन, इमेण नाम जो इदाणि भन्निहिति, 'क्रम पादविक्षपे' दीप अनुक्रम [७६१७५] LORCAMECCANCERS १६६॥ ... भोजन-पानस्य गवेषणा वर्णयते [171] Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [६०-१५९/७६-१७५], नियुक्ति: [२३५-२४४/२३४-२४४], भाष्यं [६१-६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: श्रीदश-४ भक्तपान वैकालिक चूणी. ५ अ० ॥१६७|| RECEKAR पणा धातुः, अस धातोः अच् प्रत्ययः अनुबन्धलोपः परगमने क्रमः, क्रमो नाम परिवाडी भण्णाइ, 'युजिर जोगे' धातुः, अस्य धातोः अकरि च कारके संज्ञायां (पा. ३-३-१९) पञ् प्रत्ययः अनुबन्धलोपः 'चजोः कुधिण्यतो' रिति (पा. ७-३-५२) कुत्वेन ! जकारस्य गकारः, 'पुगंतलघूपधस्य चेति (पा. ६-३-८६) गुणः योगः, तस्स कमस्स जोगो कमजोगो, मत्सपाणाणि लोगपसिद्धाणि, 'इषु इच्छायां' धातुः, 'हेतुमति चेति (पा. ३-३-२६ ) णिच् प्रत्ययः अनुबन्धलोपः, 'पुगन्तलघूपधस्य पे' ति। (पा.६-३-८६) गुणः एप 'सनाचन्ता धातव' इति (पा. ३-१-३२) धातसंज्ञायां न्यूद 'युवारनाका'बिति (पा. ७-२-२) अनः एषण खीविवक्षायां 'अजायत्तष्टाप् (पा. ४-१.४) एपणा, गोः एषणा (पा.३-३-१७) अवर स्फोटायनस्य (पा.६-१-१२३) गोशब्दस्य अचमदेशः गवेषणा, गवेसणा मग्गणा भण्णइ, सा य भिक्खा कत्थ गरेसियव्यत्ति ?, भष्णति- 'से गामे वा नगरे वा, गोयरग्गगओ मुणी । चरे मंदमणुब्विग्गो, अव्बक्वित्तेण चेयसा ।।(६१-१६३ ) 'से'त्ति निदसे, किं निद्दिसति?, जो सो संजयविश्यपडिहयपच्चक्खायपावकम्मो भिक्खू तस्स निदेसोत्ति, गामनगरगहणेण सेसावि खेडकबडमचनिगमादिभेदा गहिया, गोयरो नाम भ्रमण चर गत्यर्थः धातुः, अस्य धातो: 'पुसि संज्ञाया'मिति (पा. ३-३-१२८) घप्रत्यये वत्तेमाने 'गोचरसंचरवहनजव्यजापणनिगमायेति (पा.३-३-११९) घनत्ययान्तः निपात्यते, गावधरंति अस्मिन् देशे गोचरः। जहा गावीओ सदादिसु विसएसु असज्जमाणीओ आहारमाहारेंति, दिईतो बच्छओ वाणिगिणीए अलंकियविभूसियाएं चारुबे- सायषि गोभत्तादी आहार दलयतीति तंमि गोभत्तादिम्मि उवउत्तो ण ताए इस्थियाए रूबेण वा तेसु वा आमरणसदसु ण वा| गंधफासस मुच्छिओ, एवं साधुणावि विसएमु असज्जमाणेण समुदाणे उग्गमउपायणासुद्धे निवेसियबुद्धिणा अरसदुद्वेण भिक्खा | १७॥ [172] Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा |६० १५९|| दीप अनुक्रम [७६ १७५] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + | भाष्य | +चूर्णि:) अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [ १५...] / गाथा: [ ६०-१५९/७६-१७५], निर्युक्तिः [ २३५-२४४/२३४-२४४] भाष्यं [६१-६२ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्ण : श्रीदश वैकालिक चूण ५ अ० ॥१६८॥ हिंडियव्यत्ति, गोयरो चेव अग्ग २ तंमि गओ गोयरग्गगओ, अगं नाम पहाणं भण्णइ, सो य गोयरो साहूणमेव पहाणो भवति, न उ चरगाईणं आहाकम्मुदेसियाइ भुंजगाणंति, सुणीणाम णाणित्ति वा मुणित्ति वा एगडा, सोय मुणी चउन्विहो भणिओ, णामणी ठवणामुणी दव्वमुणी भावमुणी, नामठवणाओ गयाओ, दव्वमुणी जहा रयणपरिक्खगा एवमादि, भावमुणी जहा ४ संसारसहाव जाणमा साहुगो सावगा वा, एत्थ साहूहिं अधिगारो, सेसा उच्चारियसरिसचिकाऊण परूविया, चरसदो गमणे वट्टइ, मंदो चउब्विहो- नाममंदो ठवणामंदी दव्यमंदो भावमंदो य, नामठवणाओ गयाओ, दुख्यमंदो जो तणुयसरीरो एवमाइ, भावमंदो जस्स बुद्धी अप्पा एवमादी, एते उच्चारियस रिसचिकाऊणं परुविया, इह पुण गतिमंदेण अहिगारो, उब्बिग्गो नाम मीतो, न उब्बिग्गो अणुब्बिग्गो, परीसहाणं अभीउति वृत्तं भवति, अव्यक्खित्तेण चेतसा नाम णो अट्टज्झाणोवगओ उक्खेवादिणुवउत्तो, कहं गंतव्वं ?, भण्णइ- 'पुरओ जुगमायाएं, पेहमाणां महिं चरे । वज्जेतो बीयहरियाणि, पाणे य दगमहियं (६२-१६३) पुरओ नाम अग्गओ, जुगं सरीरं भण्णह, तावमेतं पुरओ अंतो संकुडाए वाहिं वित्थडाए सगडुद्धिसंठियाए दिडीए, दूरनिपायदिट्ठी पुण विष्पगि सहुमसरीरं वा सर्च न पास, अतिसन्निकिदिडीवि सहसा दद्दण ण सकेइ पार्द पडिसाहरिडं, चकारेण य सुणमादीण रक्खणडा पासओवि पि ओवि उपओगो कायव्यो । अन्ने पद्धति- 'सव्वत्तो जुगमायाएं' नातिदूरं गंतूर्ण पासओ पिटुओ य निरिक्खियच्वं, पेहमाणो णाम गिरिक्खमाणो, महिं पुढवीं चरे नाम गच्छे, पुरओ जुग्मेत्तं पेहमाणेण किं परिहरियच्वं ?, भण्णइ- 'बज्जेतो बीयहरियाई' वज्जैंतो नाम परिहस्तो, बीयगहणेण बीयपज्जवसाणस्स दसभेदभिण्णस्स वणष्फइकायस्स गहणं कयं अहवा हरियगहणेण सव्वचणप्फई गहिया, पाणरगहणेणं बेइंदियाईणं तसाणं गहणं, [173] गमन विधिः ॥१६८॥ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [६०-१५९/७६-१७५], नियुक्ति: [२३५-२४४/२३४-२४४], भाष्यं [६१-६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत श्रीदश वैकालिक सूत्रांक [१५...] गाथा ॥६०१५९|| आत्मसंयम राधना पृथ्वीयतना चूणों ५ अ० ॥१६९॥ दगग्गहणेण आउकाओ समेदो गहिओ, मट्टियागहणणं जो पुढविकाओ अडवीओ आणिओ संनिवेसे वा गामे वा तस्स गहणं, एगरगहणे गहणं तज्जाईयाणामितिकाउं अगणिवाउणोवि गहिया, संजमविराहणा भणिया। इदाणि आतविराहणा संजमविराहणा य दोवि भणीत- 'ओवायं विसमं वाणुं, विज्जलं परिवज्जए। संकमेण न गच्छेज्जा,विज्जमाणे परचमे (६३-१६३)। ओवार्य नाम खड्डा, जत्थ हेवाभिमुहेहिं अवयरिज्जइ, बिसम नाम निष्णुण्णय, खाणू नाम कट्ठ उद्धाहुल, विगयं जलं जत्थ तं | विजलं, सो य चिक्खल्लो, परिवज्जए नाम सम्वेहिं पगारेहिं बज्जए परिवज्जए, संकमिज्जति जेण संकमो, सो पाणियस्स व गड्ढाए वा भण्णइ, तेण सकमेण विज्जमाणे परिकमे णो गच्छेज्जा, असई पुण गच्छेज्जा, विसमे य पंथे गच्छमाणस्स इमे दोसा भवंति, त-पवईत व से तत्थ, पक्वलंते व संजए। हिंसिज्ज पाण भूते य, तसे अदुव थावरे (६४.१६३) ते तत्थ पवडत वा पक्खलंते वा हत्थाइल्सण पावेज्जा, तसथावर वा जीवे हिंसेज्जा, एवं पाऊण साधुणा किं कायवंति !, भण्णइ- 'तम्हा तेण न गच्छेज्जा, संजए सुसमाहिए । सति अपणेण मग्गेण, जयमेव परक्कमे (६५-१६३ ) जम्हा एते दोसा तम्हा | विज्जमाणे गमणपहे ण सपच्चवाएण पहेण संजएण सुसुमाहिएण गंतव्वं, 'सति चि जदि अण्णो मग्गो अस्थि तो तेण न | गच्छेज्जा, जयमेव परकमे णाम जति अण्णो मग्गो णस्थि ता तेणवि य पहेण गच्छेज्जा जहा आयसंजमविराहणा ण भवइ, भिक्खायारयाए गच्छमाणो इमं पुढविक्कायजयणं करेज्जा- इंगालं छारियं रासिं, तुसरासिं च गोमयं । ससरक्वेहिं पारहि, संजओ तं नइलमे (६६-१६६) ससरस्खेहि- सचित्तस्याइण्णेहिं मा तस्स सचिचरयविराहणा भवइ, अतो एयाणि अपरिहरिजंति, एवं किण्हमट्टियाता परिहरियव्वाओ, नीलमट्टियामएण सेसमट्टियाओ परिहरियच्चाओ, एवं सेसावि वण्णा दीप अनुक्रम [७६ १६९॥ १७५] ... आत्म-संयम विराधना वर्णयते [174] Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [६०-१५९/७६-१७५], नियुक्ति: [२३५-२४४/२३४-२४४], भाष्यं [६१-६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ॥६० १५९|| श्रीदश-15माणियबा, जहा वण्णा एवं गंधरसफासावि परोप्परविरुद्धा परिहराणिज्जा, जत्थ य अण्णो मग्गो नत्थि तत्थ पादपंकणेण अपकायावैकालिक पमज्जित्ता गच्छद, जा सागारियं तो ताव अच्छद्द जाव तं गतं ताहे पमज्जइ, अह थिरं सागारियं ताहे पमज्जिता पादपंछणेण दियतना चूर्णी काय असता ताव अच्छह जाय अप्पसागारिय जाति, एसा पुढाबक्कायजयणा भणिया । इयाणि गोयरग्गगयरस जयणा- Iबमब्रवरक्षा ५ अ० हिकारे वढमाणे इमावि जतणा एव भण्णइ।।१७०॥1 ण चरेज्ज वासे वासंते, महियाए व पडतिए । महावाए व वार्यते, तिरिच्छसंपाइमेसुवा (१७-१६४) नकारोल | पडिसहे वट्टइ, चरज्ज नाम भिक्खस्स अहा गच्छज्जत्ति, बार्स पसिद्धमंव, तमि वासे परिसमाणे ण उ चरियथ्ये, उत्तिण्णेण य पढे। अहाछमाणि सगडगिहाईणि पविसित्ता ताव अच्छइ जावडिओ ताहे हिंडइ, महिया पायसो सिसिरे गम्भमासे भवइ, ताएपि पडतीए नो परेज्जा, महावातो रय समुद्भुणइ, तत्थ सचित्तरयस्स विराहणा, अचित्तोवि अच्छीणि भरेज्जा एवमाई दोसचिकाऊण ण चरज्जा, तिरिच्छे संपयंतीति तिरिच्छसंपाइमा, ते य पर्यगादी, तस्स तसु नो चरज्जा, गोयरग्गगतस्स पढमन्वयजयणाहिकारे बद्रमाणे इमा चउत्थमयजवणा-'ण चरेज्ज वससामंत, पंभचरवसाणुए । भयारिस्स दन्तस्स, होज्जा तत्थ विसोत्तिया (६८-१६५) णकारी पडिसेधे वइ, चरेज्ज णाम गच्छज्जा, बेसाओ दुवक्वरियाओ, अण्णाओवि जाओ दुवक्ख जापा ॥१७॥ रियाकम्मेसु बकृति ताओवि वेसाओ चेव, सामन्तं नाम तासि मिहसमीवं, तमवि वज्जणीयं, किमंग पुण तासि गिहाणि?, जम्हा लातमि वेससामंते हिंडमाणस्स बंभचेरवयं वसमाणिज्जतिाच तम्हा ते वेससामंत बंभचेरवसाणुग भण्णइ, तमि बंभचेखसाणुए नो चरेज्जा, बेसाओ इंदियणोइंदिएहिं दंतस्सवि बंभचारिस्स विसोचिया भवति, सा विसोतिया चविहा-णामविसोचिया ठवणा दीप अनुक्रम [७६१७५] %ASGANGANAGAR [175] Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [६०-१५९/७६-१७५], नियुक्ति: [२३५-२४४/२३४-२४४], भाष्यं [६१-६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||६० १५९|| श्रीदश * विसोत्तिया दबविसोचिया भावविसात्तिया, नामठयणाओं गताओ. दयविसोतिया जहा सारणिपाणियं कयवराइणा आगमसोते || शुन्यादि मालिकामानिरुद्ध अण्णतो गच्छइ, तओ तं सस्सं सुक्खइ, सा दबविसोतिया. तासिं वेसाणं भावविप्पेक्खियणहसियादी पासंतस्स णाण- परिहार चूर्णी. हादसणचरिचाणं आगमो निरंभति, तओ संजमसस्सं सुक्खह, एसा भावषिसोलिया। सीसो आह-को तत्थ दोसा, आयरिया भणइ, अणायपणे चरंतस्स, संसग्गीय अभिववर्ण । होज्ज बयाणं पीला, सामनमि य संसओ। (६९.१६५) तणं है। काबेससामंतं अभिक्खणं अभिक्खणं एंतजंतस्स ताहि सम संसग्गी जायति, भणियं च-“सदसणाओ पीई पीतीओ रती रती य ॥१७॥ | वीसंभो । बीसभाओ पणओ पंचविहं बद्धए पेम्मं ॥१॥" तओ तस्स बयाणं महणविरमणादाण पीडा नाम विणासो, सामण नाम समणभावो, तमि समणभाचे संसयो भवइ, किं ताव सामणं घरेमि ? उदाहु उप्पव्वयामित्ति? एवं संसयो भवइ, जइ उणिक्यमह तो सव्वक्या पीडिया भवंति, अहवि ण उष्णिक्खमा तोपि तग्गयमाणसस्स भावाओ मेहुणं पीडियं भवइ, तग्गयमाणसो य एसणं न रक्खर, तत्थ पाणाइवायपीडा भवति, जोएमाणो पुच्छिज्जइ-कि जोएसि ?, ताहे अवलवइ, ताहे मुसाबायपीडा भवति, ताओ य तित्थगरेहि णाणुण्णायाउत्तिकाउं अदिपणादाणपीडा भवइ, तासु य ममत्तं करेंतस्स परिग्गहपीडा भवति । तम्हा | एयं वियाणित्ता, दोसं दोग्गइवतणं । वज्जए बेससामन्तं, मुणी एगंतमस्सिए (७०-१६५) तेण य भिक्खाए पविटेणं इमाणि परिहरियवाणि 'साणं सूबियं गावि, दित्तं गोणं हयं गयं । संडिब्भं कलहं जुद्धं, दूरओ परिवज्जए (७१-१६५) साणो लोगपसिद्धो, मविया गावी पायसो आहणणसीला भवइ, दित्तो कसाओ मत्तो वा, आह च- "दिचो दप्पिओ" ते य इमे ४ दित्ता परिहरणिज्जा, तं०-गोणो यो गयोचि, गोणो बलिवदो, हयो-आसो, गयो-इत्थी, सो दिनो परिहरणिज्जो, संडिब्म नाम RECAKKARAAR दीप अनुक्रम [७६ १७५] [176] Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [६०-१५९/७६-१७५], नियुक्ति: [२३५-२४४/२३४-२४४], भाष्यं [६१-६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत - ---- सूत्रांक [१५...] गाथा ||६० -95% AA% E १५९|| E0%A श्रीदश- बालरूवाणि रमंति धणुहिं, कलहो नाम बाइओ, जुद्धं नाम जं आउहकट्ठादीहिं, एताणि साणादाण दूरओ परिवज्जेज्जा, सीसो उनतत्वाबैकालिक आह-तत्थ-को दोसो ? जेण परिवज्जिजति, आयरिओ आह-सुणओ पाएज्जा, गावी मारिज्जा, गोणो मारेज्जा, एवं हय- दिनिषेधः चूर्णी गयाणवि मारणादिदोसा भवंति, बालरूवाणि पुण पाएमु पडियाणि भाणं भिदिज्जा, कट्ठाकढिवि करेज्जा, धणुविष्पमुकेण वा कंग आहणेज्जा, कलहे किं १, तारिस अणहियासंतो भणिज्जा, एवमादि दोसा भवंतिति । इदाणि आतगया दोसा जहान भवति ते | ॥१७२॥ | भण्णा- अणुण्णए णावणए, अप्पहिहे अणाउले । इंदियाणि जहाभाग, दमइत्ता मुणी चरे।। (७२-१७५) अकारो & पडिसेधे बट्टाइ, उण्णतो चउबिहो, तं०- णामुण्णओ ठवण दब्ब० भावुण्णओ, णामठवणाओ गयाओ, दब्बुण्णओ जो उण्णतेण |P । मुहेण गच्छइ, भावुण्णओ हिट्ठो बिहसियं करेंतो गच्छइ, जातिआदिएहिं वा अट्ठहि मदेहिं मनो, एवं ओणोवि चउविधो, है तं- णामोणयो ठव० दग्य भावोणयोत्ति, तत्थ नामठवणाओ गयाओ, दबोणओ जो ओणयसरीरो खुज्जो वा, भावोणयो जो दीणदुम्मणो, कीस गिहत्था मिक्खे न देंति, णवा सुंदरं देंति ?, असंजते वा पूयति. सीसो भणइ-उन्नतेऽवनते वा को दोसो ?, आयरिओ भणइन्दबुन्नतो इरियं न सोहेइ, लोगोवि भण्णइ- उम्मत्तओविव समणओ वजइ सविगारोचि, भावेवि अस्थि से माणो, तुट्टत्तेणं अस्थि, संबंधो अस्थित्ति, अहया मदावलितोण सम्मं लोग पासति, सो एवं अणुवसंतत्तणेण न लोमसंमतो भवति, दब्बोजाणतणवि उडुवंति जहा अहो जीवरक्खणुवउत्तो सुव्बत्तं एस (तेण) गो, अहवा सवपासंडाणं नीययरं अप्पाणं जाणमाणो वक्कमति एवमादि, एवं करेज्जा, भावोणते एवं चेवेति, जहा किमेतस्स पब्बइतेण? कोहोऽणण न णिज्जिओत्ति एवमादी, जम्हा एए ते दोसा तम्हा | 12॥१७२॥ दव्यओ अणुण्णतेण अणवणतेण य भमियब्वं, भावओवि 'अप्पहिहिति अप्पसहो अमावे यहाइ, थोवे य, इहं पुण अप्पसद्दो 5 % दीप अनुक्रम [७६ % १७५] FREk. e [17] Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [६०-१५९/७६-१७५], नियुक्ति: [२३५-२४४/२३४-२४४], भाष्यं [६१-६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत श्रीदश-12 सूत्रांक [१५...] गाथा ||६० १५९|| Nअभाव दट्टब्बो, अहसंतोत्ति बुत्तं भवति, मज्झत्थभावमहिदिऊण समदाणस्स गच्छेज्जा, अणाउलो नाम मणवयणकायजोगेहिता अणाउलो माणसे अट्टदुइटाणि सुत्तस्थतदुभयाणि वा अचितंतो एसणे उवउत्तो गच्छेज्जा, वायाए वा जाणिवि ताणि अट्टम- विधिः वैकालिक चौं. हाणि ताणि अभासमाणेण पुच्छणपरियट्टणादीणि य अकुबमाणेण हिंडियव्यं, कायेणापि हस्थणट्ठादीणि अकुखमाणो संकुचिय५ अ०हत्थपाओ हिंडेज्जा, इंदियाणि-सोयादीणि जहाभावो नाम तेसिंदियाणं पत्तेयं जो जस्स विसयो सो जहभावो भण्णइ, जहा हा सोयरस सोयन्वं चक्खुस्स ददुष्यं घाणस्स अग्याशियब्वं जिब्भाए सादेयन्न फरिसस्स फरिसणं, एवं जहाभावं इंदियाई दमइना ॥१७॥ मुणी चरे, चरे नाम गच्छेज्जत्ति, ण यसका सई असुणितेहिं हिंडिउं, किंतु जे तत्थ रागदोसा ते वज्जेयव्वा, भणियं च- "न सक्का सहमस्सोउं, सोतगोयरमागयं । रागहोसा उजे तत्थ, ते बुहो परिवज्जए ॥ १॥" एवं जाय फासोत्ति , किं च- गीयरग्ग-|| गतो इमाणि बञ्जजा, तं०- दवदवस्स न गच्छेजा, भासमाणो य गोयरे। हसंतो णाभिगच्छेज्जा, कुलं उच्चावयं । सया (७३-१६५) दवदवस्स नाम दुयं दुर्य, सीसो आह-गाणु असंभेतो अमुच्छिओ एतेण एसो अत्थो गओ, किमत्थं पुणो गहणं, आयरिओ भणइ-पुब्बभणियं तु जे भण्णति तस्य कारणं अत्थि, जे न हट्ठा भणियं ते अविसेसियं पंथे वा गिहतरे वा, तस्थ संजमविराहणा पाहण्णण भणिया, इह पुण गिहाओ गिहतरं गच्छमाणस्स भण्णइ, तत्थ पायसो संजमविराहणा भणिया, इह पुण पवयणलाघवसंकणाइदोसा भवंतित्ति ण पुणरुतं, किंच- जहा चेव दवदम्बस्स न चरेज्जा तहा भासमाणो तहा लोग-1 ॥१३॥ का विरुद्धं काउं हसंतोषि णो, कुलं उच्चावयं पवेसेज्जा, कुलं पसिद्ध चेव, उच्च चउम्पिध, तं०-णामुरुचं ठबन्दन्न भावउच्चं च, णाम-10 ठवणाओ गयाओ, दबुच्चंपि भूमादि, भावुच्च जातिधणविज्जादी हट्टतुट्ठीवयसियमूहो जाति , तत्थ अंतेपुरहस्साइKI दीप अनुक्रम [७६१७५] namayan ...अत्र गोचर-विधि वर्णयते [178] Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [६०-१५९/७६-१७५], नियुक्ति: [२३५-२४४/२३४-२४४], भाष्यं [६१-६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत 194 वजेनीयस्थाना चूणों सूत्रांक [१५...] गाथा ॥६०१५९|| NI । श्रीदश- दोसा, अवचंपि चउवि, तं०- णामठवणदब्वभावाक्यं, णामठवणाओ गयाओ, दब्यवर्च तणकुडी, भाववचं जातिधणविज्जादी- बैंकालिकादाहीण, सदा नाम सबकाल, किंच-वज्जणाधिकारे बढमाणे इदमवि बज्जणियं- 'आलोयं धिग्गलं दारं, संधिं दगमय- INणाणि य । परंतो न विनिज्झाए, संकट्ठाणं विधज्जए (१४-१६५) आलोग नाम चोपलपादी, थिग्गलं नाम जे परस्स 13 दारं पुव्यमासी तं पडिपूरिय, दारं दारमेव, संधी खत्तं पडिढकिययं, दगमवणाणि-पाणियघराणि हाणगिहाणि वा, एताणि १२७ भिक्खं हिंडमाणो ण णिज्झाएजा ।। विवज्जणाहिगारे वट्टमाणे इमाणि बक्जिज्जा-रपणो गिहवतीणं च, रहस्सारक्खियाणि य। संकिलेसकरं ठाणं दूरओ परिमाए (७५-१६५) रणो रहस्सट्ठाणाणि गिहवाईणं रहस्सट्ठाणाणि आराजखयाण रहस्सट्ठाणाणि, संकणादिदोसा भवंति, चकारेण अण्णेवि पुरोहियादि गहिया, रहस्सट्ठाणाणि नाम गुज्झोवरगा, जत्थ वा राहस्सिर्य मैतेति, एताणि ठाणाणि संकिलेसकराणि भवंति, भवणगएत्थ इत्थियाइए हियणढे संकणादिदोसा भवंति, तम्हा दूरं परिवज्जए । जापडिकुहकलं म पविसे, मामगं परिवजए। अचियत्तकुलं न पविसे, चियर्स पविसे कुलं (१७-१६१) तत्थ पिटिकुटुं दुविध-इत्तिरिय आवकहियं च, इत्तिरिय मयगमतगादी, आवकहियं अभोज्जा डॉगमायगादी, मामयं नाम जत्थ गिहपती भणति- मा मम कोई घरमपिउ, पन्नत्तणेण मा कोई ममं छिडं लहिहेति, इस्सालुगदोसेण वा, अधिपतकुल नाम न सकेति वारेउं, अचियत्ता पुण पविसंता, तं च इंगिएण णज्जति, जहा एयरस साधुणो पविसंता अचियत्ता, अहवा अचियचकुलं जत्थ बहुणावि कालेण भिक्खा न लम्भइ, एतारिसेसुं कुलेसु पविसंताणं पलिमंथो दीहा य भिक्खायरिया भवति, चियर्न पविसज्जत्ति, चिय, नाम जत्थ चियचो निक्खमणपयेसो चागसीलं वा, एयारिसाणि पविसेज्जा । 'साणीपावारपिहियं, अप्पणा णावपंगुरे । दीप अनुक्रम [७६१७५] ... अत्र गौचरी विषयक वर्जनिय स्थानानि दर्शयते [179] Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||६० १५९|| दीप अनुक्रम [७६ १७५] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र- ३ (निर्युक्तिः + भाष्य | + चूर्णि:) अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [ १५...] / गाथा: [ ६०-१५९/७६-१७५], निर्युक्तिः [ २३५-२४४/२३४-२४४] भाष्यं [६१-६२ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि श्रीदशवैकालिक चूण ५ अ० ॥१७५॥ कथा णो पणीलेञ्जा, उग्गहंसी अजाइया (७८- १६६) साणी नाम सरणवकेडि वि (इ)ज्जह अलसिमयी वा पाचारओ लोग सिद्धो, एतेर्हि चिलिमिली कज्जइ, ते काउं ताणि गिहत्थाणि वीसत्थाणि अच्छंति, खायंति पिर्यति वा मोहंति वा तं नो अवपंगुरेज्जा, किं कारण है, तेसि अप्पत्तियं भवद्द, जहा एते एतिलपि उपचारं न याति जहा णावगुणियच्यं, लोगसंयबहारबाहिरा बरामा, एवमादि दोसा भवंति कवाडं लोगपसिद्धं, समचि कवाडं साहुणा णो पोलयन्वं, तत्थ पुन्त्रभणिया दोसा सविसेसयरा भवति, एवं उग्गहं अजाइया पविसंतस्स एते दोसा भवंति, जाहे पुण अवस्सकय भवति, धम्मलाभो, एत्थ सावयाणं अस्थि जति अणुवरोधो तो पविसामो । गोयरग्गपविहो उ वच्यमुत्तं न घारए । अडेवास फासूयं नच्चा, अणुन्नवित्त बोसिरे (७८-१६७) पुवि चैत्र साधुणा उबओगो कायब्बी, सण्णा वा काइया वा होज्जा गव चि विषाणिऊण पविसियन्वं, जह वावडयाए उपयोगो न कओ का ओतिष्णस्स जाया होज्जा ताहे भिक्खायरियाए पबिद्वेण पञ्चमुतं न धारयव्वं, किं कारणं १, मुन्तनिरोधे चक्वाषाओ भवति वच्चनिरोहे य तेयं जीवियमवि संघेज्जा, तुम्हा व्यम्यमुत्तनिरोधो न कायज्योति, ताहे संघाडयस मायजाणि ( दाऊण ) पडिस्सयं आगच्छित्ता पाणयं गहाय सण्णाभूमि गंतुण्ड फासूयमवगासे उग्गहमशृण्णावेऊण वोसिरियब्वंति वित्थारो जहा ओहनिज्जतीए । किंच 'णीयदुवार' सिलोगो (७९-१६७) णीयदुवारं दुविहं बाउडियाए पिहियस्स वा, जाओ उच्चरगाओ भिक्खा निक्कालिज्जइ तत्थ पलिए उवद्वियस्स बाउडियदासो भवः, साणमादी वा खाएज्जा, जओ भिक्खा निक्का लिज्जइ तं तमसं, तत्थ अचक्खुविस पाणा दुक्खं पच्चुवेनिखज्जैतित्तिकाउं नीयदुवारे तमसे कोडओ वज्जेयन्वी । 'जस्थ पुष्फाणि' सिलोगो ( ८०-१८७ ) जरथ कोडगे दुधारे वा पुष्कारण उप्पलकणवीरादीणि अमिलाणाणि चीयाणि वीहिमा कार्यव्या 1 1: [180] वर्जनीयस्थानानि ॥१७५॥ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [६०-१५९/७६-१७५], नियुक्ति : [२३५-२४४/२३४-२४४], भाष्यं [६१-६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||६० १५९|| श्रीदश-पाणि, विप्पइण्णाणि नाम विविहेहि पगारोहिं पतिण्णाणि णाणाबिहाणि वा पक्खिताणत्ति परिहरिउं घणतणेण ण सक्कतित्ति- कुलभूमिः वैकालिक काउं बज्जेज्जा, जं च उल्लं अहुणोवीलचं तं सरसं ददळूण संपातिमसत्तविराहणत्थं अपरितावियाओ वा आउक्काओत्तिकाउं चूर्णी बज्जेज्जा । 'एलग दारगं' सिलोगो ( ८१-१६७) एलओ छागो, सो कोट्ठगद्दारे बद्धओ, दारओ दिक्करादिरूवं, साणो-सुणी, बच्छउ-बच्छउ, गोणमहिसीणं भवति, उलंघणा उल्लंडणा भण्णाति, विऊहणा पेलणा, पेल्लिो सिंगेहिं आहणेज्जा, पई वा बहेज्जा, ॥१७६॥ दारए अप्पत्तियं सयणो करेज्जा, उप्फासण्हाणकोउगाणि वा, पदोसेण वा पंताविज्जा, पडिभग्गो वा होज्जा ताहे भणेज्जा-समण एण ओलंडिओ एवमादी दोसा, सुणए खाएज्जा, वच्छओ आहणज्जा वित्तसेज्ज वा, वितत्थो आयसंजमविराहणं करेज्जा, विऊ-12 |हणे ते चेव दोसा, अण्णे य संघट्टणाइ, चेडरूबरस हत्थादी दुक्खावेज्जा एवमाइ दोसा भवंति । किं च ' असंसत्त' सिलोगो (८२-१६०) असंसत्तं पलोएज्जा नाम इत्थियाए 'दिढि न बंधेजा, अहया अंगपच्चंगाणि अणिमिस्साए दिट्ठीए न जोएज्जा । कि कारण !, जेण तत्थ बंभव्ययपीला भवइ, जोएतं वा दट्टण अविरयगा उड्डाह करेज्जा-पेच्छह समणयं सबियारं, तत्थ य ठिएण णातिदूर पलोएयव्यं, तायमेव पलोएह जाच उक्लेवनिक्खेवं पासई, तओ परं घरकोणादी पलोयंत दळूण संका भवति, किमेस चोरो पारदारिओ वा होज्जा एवमादि दोसा भयंति,उप्फलं नाम विगसिएहि णयणेहिं इत्थीसरीरं रयणादी चा णनिज्झा- | माइयवं, जदा य पडिसेहिओ भवति तदा अयंपिरेण णियत्तियवं, अझंखमाणेणंति बुत्तं भवति । किंच- 'अतिभूमि न गच्छेज्जा' सिलोगो ( ८३-१६८) अणणुण्णाता भूमी गोयरग्गगओ साह न पविसेज्जा, केवड्याए पुण पबिसियव्वं ?, कुलस्स IC|॥१७॥ साभूमि नाऊणं, जत्थ तेसिं गिहत्थाणं अपत्तियं न भवइ, जत्थ अण्णेवि भिक्खायरा ठायंति, ताहे एवं नाऊण मियं भूमि परकमे | CRACKERA दीप अनुक्रम [७६ १७५] [181] Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [६०-१५९/७६-१७५], नियुक्ति : [२३५-२४४/२३४-२४४], भाष्यं [६१-६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||६० • चूणी. १५९|| श्रीदश KI मियं नाम अणुमायं, परकमे नाम पविसेज्जा, किंच-तत्व पडिलेहेज्जा' सिलोगो, (८४-१६८) तत्थ तत्तियाए मियाए | बैकालिक भूमीए उपयोगो कायब्बो पंडिएण, कत्थ ठातियच्चं कत्थ न बत्ति, तत्थ ठातियध्वं जत्थ इमाई न दीसंति, आसिणाणस्सा संलोयं परिवज्जए, सिणाणसंलोगं बच्चसंलोग व, तत्थ आसिणाणं णाम जंमि ठाणे अविरतिया अविरतगा वा पहायति, सलांग ५ अ० जत्थ ठिएण हि दीसति, ते वा तं पासति, तत्थ आयपरसमुत्था दोसा भवंति, जहा जत्थ अम्हे ण्डाओ जत्थ य मातिवग्गो अम्हं पहायइ तमेसो परिभवमाणो कामेमाणो वा एत्थ ठाइ, एवमाई परसमुत्था दोसा भवंति, आयसमुत्था तस्सेव हायंतिओ ॥१७७॥ अबाउडियाओ अविरतियाओ दट्टण चरित्तभेदादी दोसा भवंति, वचं नाम जत्थ चोसिरंति कातिकाइसन्नाओ, तस्सवि सलांग, यज्जेयष्यो, आयपरसमुत्था दोसा पवयणविराहणा य भवति, तम्हा संलोगं आसिणाणवच्चाणं परिवज्जेज्जा। किंच- 'दगमाट्टय' सिलोगो (८५-१६८) दर्ग पाणिय, मट्टिया अडवीओ सचित्ता आणीया, आदाणं नाम गहणं, जेण मग्गेण गंतूण दगमट्टियहरियादीणि घेप्पति तं दगमडियआयाणं भण्णइ, तं च विवजेजा, वीयाणि वीहिमाइणि, हरियग्गहरेणं सब्बे रुक्वगुच्छाइणो| घणप्फइविसेसा गहिया, एताणि दगमट्टियाईणि गिहदारे ठियाणि पविजेतो चिट्ठजा, सबिदियसमाहितो नाम नो सहरूबा-17 | इंहिं अक्खिनो, एवं तस्स कालाइगुणसुद्धस्स अणिट्टकुलाणि वजेंतस्स चियत्वकुले पविसंतस्त जहोवदिढे ठाणे ठियस्स आयसमुत्था दोसा बजेतस्स दायगसुद्धी भण्णइ । 'तत्थ से चिट्ठमाणस्स' सिलोगो (८६-१६८) तत्थति तीए मिताए भूमीएल॥१ से 'चिनिद्देसो दगमडीयादीणि परिहरंतो चिट्ठह तस्स निदेसो, आहरे नाम आणेजा, पाणगं भोयणं च पसिद्धं चेव, अक-15 प्पियं न इच्छेज्जा, जं पुण बापालीसदोसपरिसुद्धं तं कप्पियं पडिग्गहेज्जा । किंच-'आहरती' ति मिलोगो (८७-१६८) RECSCRIGARELCACHECK दीप अनुक्रम [७६ १७५] [182] Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [६०-१५९/७६-१७५], नियुक्ति: [२३५-२४४/२३४-२४४], भाष्यं [६१-६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ॥६०१५९|| हाजा कदाइ मोयणमाणती परिसाडयइ तं देतिय पडियाइक्खे-न मे कप्पइ तारिस, पायसो इत्थियाओ भिक्खं दलपति तेणअकल्प्यकालिकातात्थियाए निदेसो कओ, पढिया इक्खे णाम पडिसहेजआ, जहेरिस मम ण कप्पइति, जइ सा भणेआ अण्णो वा कोड-भगवं! को निषेधः चूर्णी दोसो एस्थति, तओ देस काल पुरिस च पडच दास कहज्जा, पडिसडतण ताव सचाणि वहिति, पडिए य तमवजीविणो ५अ० सत्ता अणगे घातिअंति, एवमादिणो दोसा भाणितचा। किंच' सम्ममाणी' सिलोगो (८६-१६८) सम्ममाणी गामXI R. अम्ममाणी, पाणाणि-कीडियादीणि, पायाणि-सालिमाईणि, हरियग्गहणेण सेसस्स वणफदकायस्खगहणं, एगगहणे महर्ण तमा इयाणमितिकाउं सेसाबि एगिदिया, असंजमं करेंतीति असंजमकरी तं, असंजमं साधुणिमित्तं आगच्छंती य करेइति, वारिस भनपाणं तु परिवजए। किं च 'साहटु' सिलोगो (८९-१६९) साहदटु नाम अनंमि भायणे साहरिउं देति तं फासुगपि। विवज्जए, तस्थ फामुए फासुयं साहरद १ फासुए अफासुयं साहरइ २ अफासुए फासुयं साहरइ ३ अफासुए अफासुर्य साहरति ४, तत्थ फासयं फासुएम साहरति तं थेवं थेवे साहरति बहुए थे साहरइ थेवे बहुयं साहरद पहुए पहुयं साहरह, एतेसि भैयाणं जहा पिंडनिज्जुत्तीए, णिक्खिावचा साचत, अलार्य पुष्फफलादी वा घडऊण देश, तव समणटाए उदगं संपणोलिया नाम आउकार्य छडेऊण दलयइ, 'आगाहयित्ता चलयित्ता. आहरे पाणभायणं । तियं पडियाइवरचे, न मे कप्पड तारिस 1(९०-१६९) तमेव आउकार्य आगाहदत्ता नाम समणड्ढाए अत्तणो जतो आयरिसचा भिक्खं दलपति, चलयिचा नाम चलेऊण देहे. एयाणि आगाहणादीणि काऊण दतिय पडियाइक्खन मे कप्पइ तारिसे । 'पुरेकम्म' सिलोगो, (९१-१६९) परे- I ७८॥ कम्मं नाम जे साधूर्ण दट्टण हत्थं भायणं धोवइ तं पुरेकम्मं भण्णइ. तेण पुरकम्मकरण हत्येण दवीए भायणेण वा, तथा दीप अनुक्रम [७६ १७५] ... अत्र अकल्प्य आहारादिनां निषेध: प्रदर्शयते [183] Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [६०-१५९/७६-१७५], नियुक्ति: [२३५-२४४/२३४-२४४], भाष्यं [६१-६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||६० अकल्प्य १५९|| श्रीदश-८ हत्थो पसिद्धो, दबी-कडच्छुओ, भायणं कसभायणादि, दिज्जमाणि पडिसे हेज्जा न मे कप्पइ तारिस । 'एवं उदउल्ले' सिलोगो बैकालिक (९२-१६९) उदउल्लं नाम जलतितं उदउलं, सेसं कंठ्यं, एवं ससिणिद्धं नाम जं न गलइ, सेसं केल्यं, ससरक्खेण ससरक्खं नाम चूणौँ सु रजगुंडियं, सेसं कंठयं । मट्टिया कडउमट्टिया चिखल्लो, सेस कंट्य, एतण पगारेण सव्वत्थ भाणियब, ऊसो णाम पंसुखारो, ५ अ० हरियालहिंगुलमणोसिलाअंजणाण पुहविभेदा, लोणं सामुदसेंधवादि, गेरूअ सुवण्ण (रसिया), वणिया पीयमाट्टया, सेढिया॥१७९|| गडरिया, सोरदिया उबरिया, जीए सुवण्णकारा उप्पं करेंति मुवष्णस्स पिंड, आमलोट्टो सो अप्पंधणो पोरिसिमिचेण परिणमइ बहुइंधणो आरतो परिणमइ, कुक्कुसा चाउलातया, उकिट्ठ नाम दोद्धियकालिगादीणि उक्खले छुम्भंति, 'असंस?ण' सिलोगो (९४.१७०) असंसट्टो णाम अण्णपाणादीहिं अलिसो, तेण अलेवेणं दब्बं दधिमाइ देज्जा, तत्थ पच्छाकम्मदोसोत्तिकाउं न पेप्पा, मुक्खपूयलिया दिज्जह तो घेप्पइ । 'संसट्टेण ' सिलोगो ( ९५-१७०) एत्थ अट्ठ भंगा- हत्थो संसत्तो मत्तो संसट्टो निरवसेसं दबं एवं अट्ठ भंगा कायव्वा, एत्थ पढमो भंगो सम्बुकिट्ठो, अण्णेमुवि जत्थ साबसेसं दव्यं तत्थ गेण्हति । किं च ' दोण्हं तु भुंजमाणाणं' सिलोगो (९६-१७०) दोनि संखा, तुसहो विसेसणे, किं विससियंति, भुजसद्दो पालणे अम्भवहारे च एवं विसेसयति, तत्थ पालने ताव एगस्स साहुपायोग्गस्स दोन्नी सामिया, तत्थ एगो निमंतयति, एगो तुहिको | अच्छइ, तस्स छंद पडिलेहए, छंदो नाम इच्छा, णेत्तादीहिं विगारेदि अभणंतस्सवि नज्जई जहा एयस्स दिनमाणं चियत्तं न बा का इति, अचियरी तो णो पडिगेहेजा, अब्भवहारे दो जघा एकमि पट्टियाए चे जणा भोत्तुकामा, ते ण ताव कवलगहण करेंति, साहू य आगओ, तस्थ एगो निमंतयद, सेसं तहेव । 'दोण्हं तु मुंजमाणाणं ' सिलोगो (९७-१७० ) जत्थ दोवि निमंतेजा। दीप अनुक्रम [७६१७५] नरवाल ॥१७९॥ [184] Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा |६० १५९|| दीप अनुक्रम [ ७६ १७५] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र- ३ (निर्युक्तिः + भाष्य | + चूर्णि:) अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [ १५...] / गाथा: [ ६०-१५९/७६-१७५], निर्युक्तिः [ २३५-२४४/२३४-२४४] भाष्यं [६१-६२ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि श्रीदशवैकालिक चूर्णी ५ अ० ॥१८०॥ तत्थ फासुएसणिअं णाऊण पडिगाहेजा । किंच 'गुब्विणी उवन्नत्थं सिलोगो ( ९८-१७१) गन्भो जीए अस्थि सा गुब्विणी, तीय दोहलगादीणिमित्तं विविहमणगप्पगारं, उवनत्थं नाम उबकप्पियं तं पुण भोयणं पाणं वा होज्जा, तत्थ जं सा मुंजइ कोइ ततो देह तं ण गेण्डिययं को दोसो ?, कदाइ तं परिमियं भवेजा, तीए य सढा ण विणीया होजा, अविणीये य डोहले गम्भपडणं मरणं वा होखा, भुतसे पढिच्छड़ जं से भुतुब्बरियं तं पडिच्छेजा। किं च ' सिया य समणट्टाए सिलोगो ( ९९-१७१) सिया णाम कदायि गुब्विणी समणडाए- समणनिमित्तं, कालमासिणी नाम नवमे मासे गन्भस्स वट्टमाणस्स, जइ उड़िया संजतङ्काए निसीएआ, जहा निसण्णा सुहं भिक्खं दाहामित्ति निसीयह, निसण्णा संजतट्ठाए ४ उट्ठेति समेतेण पगारेण देतियं पंडियाइक्खे न मे कप्पर तारिसं, जा पुण कालमासिणी पुञ्छुट्टिया परिवेसेंती य थेरकप्पिया गण्हंति, जिणकप्पिया पुण जद्दिवसमेव आवनसत्ता भवति तओ दिवसाओ आरद्धं परिहरति, तम्हा देतियं पडियाइक्लेन मे कप्पर तारिसं । किच- 'धणगं पेजमाणी ' सिलोगो (१०१-१७१) थणे अद्धदिने जड़ सा तं साहुणो अट्ठाए दारगं वा दारिगं वा अद्धपञ्जियं निक्खिविऊण पाणगं भत्तं वा आहरेज, तत्थ गच्छवासी जति थणजीवी णिक्खितो तो ण गण्हति रोवतु वा मा वा, अह अपि आहारेति तो जति न रोवर तो गेण्हंति, अह अभियंतओ णिक्खितो थणजीवी रोवह तो ण गेव्हंति, गच्छनिग्गया पुण जाव थणजीवी ताब रोवड वा मा वा अभियंतओ पिर्यदिओ वा न गेव्हंति, जाहे अनंपि आहारेडं पयतो भवति ताहे जह पिर्यतओ तो रोवइ मा वा ण गेण्डंति, अपियन्तओ जदि रोवइ परिहरति अरोवंते गेण्डंति, सांसो आह को तत्थ दोसोचि १, आयरिओ आह-तस्स निक्खिप्यमाणस्स बरेहिं इत्थेहिं घेप्यमाणस्स य अपरित्तत्तणेण परितावणादोसो मजारा [185] १ बालस्तन्ययाने विधिः ॥१८०॥ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [६०-१५९/७६-१७५], नियुक्ति: [२३५-२४४/२३४-२४४], भाष्यं [६१-६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत पाने विधिः सूत्रांक [१५...] गाथा ||६० BACCASION १५९|| हावा अवधरेज्जा, तम्हा देंक्तियं पडियाइखे-न में कप्पइ तारिस । किंच कित्तियं भणीहामि- 'जं भवे भत्तपाणं तु' सिलोगो बालस्तन्यबैकालिका (१०३-१७१ ) जं भचपाणं उग्गमउप्पायणेसणेहिं सुदं वा निस्संकियं न भवइ, सम्बेहि पगारेहिं गविस्समाणं संकियं, चूर्णौ । तमेवप्पकारं कप्पाकप्पे संकियं दंतियं पडियाइक्खे न मे कप्पा वारिसं। किं च 'दगवारएण' सिलोगो (१०४-१७२) दगवारओ ५ अ० पाणीयगड्डयओ, जत्थ अन्नपाणं भायणे छूटं तं तेण दगवारएण पिहियं, निस्सा-पेसणी तीय पिहियं होजा, पीठेण कट्ठादिम-2 ॥१८॥ तेणवि पिहियं होज्जा, लोढो सिलापुत्तओ जंतगं वा लोढो मटियादी सिलेसो-जउमयणादी, जे एवमादीहि लित्तं तं च उभिदिया' सिलोगो (१०५-१७२) पिहितमेतेहिं वारगादीहिं लेबेहिं वा लित्तं दारयं उभिदिऊण समणट्ठा देइ, दतिय ८ पडियाइक्खे- न मे कप्पइ तारिसं । किं च-'असणं पाणगं वापि, खादिम सादिमं तहा'। सिलोगो (१०६-१७२) दाणडापगडं नाम कोति वाणियगमादी दिसामु चिरेण आगम्म घरे दाणं देतित्ति सव्वपासंडाणं तं दाणहूं पगडं भण्णइ, | सा पुण तं साहुं सड्डियत्तणेण देइ धम्मनिमित्तं, तं पुण सयं वा जाणेज्जा अनओ वा सोच्चा, सेसं कंठयं । किं च- 'असणं | पाणगं वावि, खातिमं साइमं तहा' सिलोगो (१०८-१७३), पुन्नत्थापगडं नाम जं पुण्णानिमिचं कीरइ तं पुण्णई पगडं भण्णाइ, सेस कंठ्यं । किं च-' असणं पाणगं' सिलोगो (११०-१७३) वणिमट्ठापगडं नाम सक्काइभचेसु जे अप्पाणं वण्णेति, सेस कंठयं, तहा ' असणं पाणगं' सिलोगो (११२-१७३) समणडापगड नाम समणा पंच, तेसिं अट्ठाए ॥१८॥ | कयं तं समणट्ठापगडं, सेस कंठ्यं । तं च इमेसि एगतरं होज्जा तं० 'उद्देसियं ' सिलोगो (११४-१७६ ) कंठयो, जति 120 संकितं, किंच 'उग्गमं से य पुच्छेज्जा' सिलोगो (११५-१७४ ) उग्ममं जा पभूयं तो पुच्छेज्जा जहा कस्सा पकयंति, दीप अनुक्रम [७६ १७५] 4. [186] Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [६०-१५९/७६-१७५], नियुक्ति: [२३५-२४४/२३४-२४४], भाष्यं [६१-६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ॥६० बालस्तन्यपानावाचा चूर्णी. १५९|| श्रीद- जन बहुंच पासेज्जा तस्थ जो देति सो चेय पुच्छिज्जर जहा कस्सट्ठा पकडंति, केण वा कडति, सा पुच्छिओ जइ भणइ- तुज्झ- बकालिकादाहाए, साहे ण पटिगाहिज्जति, अह भणइ- अण्णस्स कस्सह पाहुणगादिस्स अट्टाए, तमेवं सोच्चा निस्संकियं सुई साहुणा पडिगाहे- यब्बति, तहा 'असणं पाणगं' सिलोगो (११६-१७६ ) पुप्फेहि उम्मिसं नाम पुप्फाणि कणवीरमंदरादीणि तेहिं बलिमादि ५ अ० असणं उम्भिसं होज्जा, पाणए कणवीरपाडलादीणि पुष्पाणि परिकप्पति, अहवा पीयाणि जहिं छाए पडियाणि होज्जा, अक्ख१८दायमीसा वा घाणी होज्जा, पाणिए दालिमपाणगाइसुचीयाणि हाज्जा, हरिताणि विरबसयाणेनु अल्लगमूलगादीणि पक्खिचाणि होज्जा, जहा य असणपाणाणि उम्मिस्सगाणि पुफादीहिं भवंति एवं खाइमसाइमाणिवि भाणियव्याणि । किन 'असणं पाणगं' सिलोगो (११८-१७६) उदगंमि मिक्खि दुबिह, तं०- अणंतरणिक्षितं जचा नवनीतपोग्गलियमादि, परंपरनिक्खित्तं दहिपिडो संपातिमादिभयेण छोहण जलकुंडस्स उपरि ठवितं, एवं परंपरनिक्खितं, एवमादि, उत्तिगो नाम कीडिया नगरयं, सस्थवि अणंतरं भाणियध्वं, पणओ उल्ली भष्णइ, उछिए फलए वा भूमीए वा अणंतरपरंपरठवियं देतिय पडियाइक्खे-न दमे कप्पइ तारिर्स ।। तहा 'असणं पाणगं' सिलोगो (१२०-१७६ ) संघट्टिया नाम जाय अहं साहूर्ण भिक्खं दमि ताव मा उम्भराइऊण छद्दिजिहिति तेण आपढेऊण देइ, हत्थपादादीहि उम्मुगाणि संघरता देह, सेसं कंठयं । तहा 'असणं सिलोगो (१२२-१७६ ) उस्सकिया नाम अवसंतुइय साधुनिमित्तं उस्सिक्किआ तहा जहा अहं भिक्खं दाहामि ताव मा उन्मा। वेतित्ति, दंतिय पडियाइक्खे न मे कप्पइ तारिस । तहा 'असणं पाणगं' सिलोगो (१२२) उज्जालिया नाम तणाईणि इंधणाणि परिक्सिविऊण उज्जालयह, सीसो आह- उस्सक्कियउज्ज्जालियाण को पइविसेसो ?, आयरिओ आह-उस्सक्केति दीप अनुक्रम [७६१७५] १८२॥ KERRANCHRSCIE [187] Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [६०-१५९/७६-१७५], नियुक्ति: [२३५-२४४/२३४-२४४], भाष्यं [६१-६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक" नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा हायाने विधिः ||६० १५९|| श्रीदश-| वैकालिका ५अ० जलंतमथि, उज्जालयइ पुण संजतहाए उद्विता सम्बदा विज्झायं अगणिं तणाईहिं पुणो उज्जालेति, सेसं कठ्यं । तहा । ' असणं बालस्तन्यपाणगं' सिलोगो (१२२) णिवाविया नाम जाव भिक्खं देमि ताव उदणादी डज्झिहिति ताहे तं अगणिं विझवेऊण देइ, ॥१८॥RI सेसं कंठ्यं । तहा ' असणं पाणगं वा' सिलोगो (१२२) उस्सिचिया नाम तं अइभरियं मा उन्भूयाएऊण छद्धिज्जिहिति ताहे थोवं उक्कड्डीऊण पासे उबेह, अहवा तओ चेव उक्किटिकणं उण्होदगं दोच्चगं वा देइ, सेस कंख्यं । तहा 'असणं पाणगं वा' सिलोगो (१२२)निस्सिचिया णाम तं अद्दहियं दव्वं अष्णस्थ निस्सिचिऊण तेण भायणेण ऊणं देइतं अहवा तमद्दहियगं उदणपत्तसागादी जाव साहूणं मिक्खं देमि ताव मा उम्भूयावेउत्तिकाऊण उदगादिणा परिसिंचिऊण देइ, सेसं कंठ्य । तहा ' असणं पाणगं' सिलोगो (१२२) उव्यचिया नाम तेणेव अगणिनिक्खिचं ओयत्तेऊण एगपासेण देति, सेसं कंठ्यं । तहा ' असणं पाणगं' सिलोगो (१२२) ओयारिया नाम जमेतमद्दहियं जाब साधूणं भिक्खं देमि ताव नो उज्झिहितित्ति उचारेज्जा, तं वा दवं अन्नं वा न कप्पड़, सेसं कंठ, दाणहाए पविसंतस्स 'हुज कह सिलं० ॥१२४ ॥ सिलोगो, कहूँ वा सिलं वा कयाइ संकमद्वाए ठवियं होज्जा, तं कहाइ चलाचलं नाऊण 'ण तेण भिक्खू गच्छेज्जा' ॥ १२५ ।। तं च होज्जा चलाचलं, तेहि कहादीहिं भिक्खुणा ण गच्छियव्वं, किं कारणं , तत्थ असंजमदोसो दिहोत्ति, जहा|8.. कठ्ठादीहिं न गच्छेज्जा तहा गंभीरज्वसिराणिवि सबिदियसमाहिओ वज्जेज्जा, गंभीरं-अप्पगास ज्युसिरं-अंतोसुण्णयं तं जंतुआलओ भवति, सविदियसमाहिओ नाम नो सद्दाइउवउत्तो । किञ्च-'निस्सणि कलगं पीढं' ।। १२६ ॥ सिलोगो, णिस्सेणी लोगपसिद्धा फलग-महल्लं सुवणयं भयह पीढय पहाणपीढाइ, उस्सचिचा नाम एताणि उडाचाणि काऊण तिरिच्छाणि वा आरु-18 RECEx-k दीप अनुक्रम [७६१७५] ॥१८॥ [188] Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [६०-१५९/७६-१७५], नियुक्ति: [२३५-२४४/२३४-२४४], भाष्यं [६१-६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||६०१५९|| HDHI 1% E% C श्रीदश-18 हेज्जा, मंचो-लोगपसिद्धो, कीलो उडं व खाणुं, पासाओ पसिद्धो, एतेहिं दायये संजतढाए आरुहेचा मत्तपाणं आयेज्जा तं नाबालस्तन्यवैकालिक साधुणा पडिगाहेयव्यं, किं कारणं , जेण तत्थ इमे दोसा भवन्ति- 'दुरूहमाणी पबडिज्जा, हत्थं पायं व लसएनयान चूणों ॥१२७ ॥ सिलोगो, सा कदाइ दुरुधमाणी पवडिज्जा, पंडतीए य हत्थपादादी लूसेज्जा, पुढविकाइयादी विराज्जा , ण केवलं | पुढविकाइयादी, किन्तु जे अतन्निसिया जगे 'तेऽवि हिंसेज्जा, जगा नाम जीधा । 'एआरिसे महादोसे.' ॥१२८ ॥ ॥१८ सिलोगो, सेसं कण्ठय, वज्जणाधिकारो अणुवइ । 'कंद मूलं पलंब वा०' ॥१२९ ।। सिलोगो, कन्दमूलफला पसिद्धा, पलंब-फलं भन्नति, सन्निरै पत्तसागं, तुंचागं नाम जं तयामिलाणं अन्मंतरओ अद्दय, सिंगवर-अल्लयं भन्नइ, आमग-सचित्वं, परिवज्जए नाम सव्वेहिं पगारेहिं वज्जए परिवज्जए। किं च 'तहेव सनुचन्नाई, कोलचुन्नाई आवणे ॥ १३०॥ सिलोगो, जहेब कंदमूलादीणि वज्जेयवाणि तहेब इमाणिवि, सत्तुचुण्णाणि नाम सत्तुगा, ते य जवविगारो, कोलाणि- बदराणि तेसिं चुण्णो कोलचुण्णाणि, आवणे पसिदो चेव, सक्कुलीति पप्पडिकादि, फाणिों दवगुलो, पूयओ पसिद्धो, एताणि सत्तुचुण्णाणि अळवा किंचि मोयगादि आवणे ' विधायमाणं० ॥१३१ ॥ सलोगो, ते पसढं नाम जे बहुदेवसिय दिणे दिणे विक्कार्यते तं, तत्थ वायुणा उ एण आरण्णेण सचित्तेण रएण सम्वओ गुडिय-पडिफासियं भण्णइ तमेवप्पगारं दिति मापडिआइक्खे-न मे कप्पड़ तारिस । किं च 'बहुट्टियं ॥ १३२ ।। सिलोगो, मंसं वा णव कप्पति साहणं, काच कालं ॥१८४॥ देस पहन इमै सुत्तमागतं, बहुअट्ठियं व मंसं मच्छं वा बहुकंटयं परिहरितव्बा, किं च- अच्छियतिंदूगादीणि वज्जेयवाणि,८। अच्छियं नाम रुक्खस्स फलं, तिदुर्य-टिंबरुयं, 'बिल्लं ' यिल्लमेव, उच्छुखंडं लोगपसिद्ध, सिंघालि-सिंगा, सीसो आह-णणु पलंब C दीप अनुक्रम [७६१७५] %E% ERRACK [189] Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [६०-१५९/७६-१७५], नियुक्ति: [२३५-२४४/२३४-२४४], भाष्यं [६१-६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||६० TAKA १५९|| गहणेण एयाणि गहियाणि, आयरिओ भणइ. एताणि सत्यावहताणिवि अनमि समुदाणे फासुए लब्भमाणे ण गिहियव्याणि पानककालिकाकिं कारण- अप्पे सिआ.' ॥१३३ ।। सिलोगो कठो चेय. भोयणं भाणियब्बं । दाणि पाणगं भन्नइ- 'तहेबुचावयं विधिः 'चूर्णी पाण' ।। १३४ ॥ सिलोगो, 'तहेब' ति जहा भोयणं अकप्पियं पडिसिद्ध कप्पियमणुण्णायं तहा पाणगमवि भण्णइ, उच्च ५ अ० INच अवचं च उचायचं, उचं नाम जं वण्णगंधरसफासेहि उववेयं, तं च मुदिवादिपाणगादी,घउत्थरसियं वापि जे यण्णओ सोभणं गंधओ अपूर्ण रसओ परिकप्परसं फासओ अपिच्छिल तं उच्च भण्याइ त कप्पइ, अवयं णाम जमेतेहिं यण्णमंधरसफासेहिं विणिं, ॥१८५।। तं अवयं भन्नति, एवं ता वसतीए घेप्पति, अहबा उच्चावयं णाम जाणापगारं भन्नइ, वारयो नाम घडओ, रकारलकाराणमेग-18 तिमितिकाउं बारओ वालओ भन्नइ, सो य गुलफाणियादिभायणं तस्स घोवणं वारधोवणं । किंच-ससेइमं नाम पाणियं अद्द-1 देऊण तस्सोवरि पिटे संसेइज्जति, एवमादितं संसेदियं मन्नति, तमवि अनमि लन्भमाणे ण पउिगाहेज्जा, चाउलोदगादीण धोवं विवज्जए । किंच-'जं जाणेज चिरोधायं, मईए दसणेण वा। सोच्चा निस्संफियं सुद्धं, पडिगाहेज्ज संजए ॥१३५॥ तं च पाणयं चिराधोयं इमेहि कारणेहि जाणेज्जा, तं- मतीए व जाणेज्जा, पच्चक्खं पासित्ता व जाणेज्जा, मतीए नाम जे कार 101 राणेहिं जाणइ, तत्थ केई इमाणि तिण्णि कारणाणि भणंति, जहा जाब पुफोदया विरायति ताव मिस्सं, अण्णे पुण भणति- जाव || है कुसियाणि सुकंति, अण्णे भणति- जाव तंदुला सिमंति, एचइएण कालेण अचित्र भवइ, तिष्णिवि एते अणाएसा, कई !, १८५|| पुप्फोदया कयायि चिरमच्छेज्जा, फुसियाणि परिसारते चिरेण सुकंति, उहकाले लहु, कलमसालितंदुलावि लहुं सिझंति, । एतेण कारणेण, तम्हा जदा पडिपुच्छ्यिं तेण य से दायएण कहियं ताहे सोऊण जे निस्संकियं भवति, अपुग्छिए चण्णगंधरस दीप अनुक्रम [७६ ks-k+ १७५] [190] Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [६०-१५९/७६-१७५], नियुक्ति: [२३५-२४४/२३४-२४४], भाष्यं [६१-६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ॥६०१५९|| PLA फासेहि णज्जति, जया य पाणस्स य कुक्कुसावया हेट्ठीभूया सुठु य पसण्णं भवति, फासुयं भवति, उसिणोदगमवि जदा तिमि पारिष्ठाबैकालिकादाबारे उम्बनं ताहे कापड । तहा। अजीवं परिणयं नच्चा०॥१३६ ॥ अद्धीसलोगो, अजीयभावे परिणयं नाऊण साहुणा पनविधिः चूणों पाणयं गहेयब्ध। इयाणि चउत्थरसियरस पडिगाहणविहि भण्णति, तत्थ इमं सिलोगो पच्छद्धं-- 'अह संकियं भवेज्जा, ५ अ० आसाइत्ताण रोय।' तत्थ एसो जाहे ण याणइ किमयं सुभि दुभि बा, ताहे संकिय भवे, इमेण उवाएण-'थोवमा॥१८६ ॥ासायणढाए, हत्थगंमि दुलाहि मे। मा मे अच्चषिलं पूअं, नालं तहं विणित्तए । १३७॥ तं च अच्चपिलं पूर्य, नालं तण्हं विणित्तए । दितिअं पडिआइक्खे, न मे कप्पड तारिसं ॥ १३८॥ तं च पाणियं अचंचिलत्तणेण पूय तणेण य तण्हाछेदणे असमस्थंति नाऊण देतियं पडियाइक्खे-न मे कप्पइ तारिसं । 'तं च होत.॥१३८॥ सिलोगो, तमेरिस दुभिगुणेहिं जुनं जहा अकामेण पढिगाहियं होज्जा, अकामेण नाम तुहारिययाए ण पडिसहियं होज्जा, बलाभियोगेण वा से दिणं होज्जा, 'विमणेण पडिच्छिशं' विमणेण वा अणुवउत्तेण, तं अप्पणो णो पियेज्जा, न वा असि साहूणं दलएज्जा, |कि कारणं न, तेसिं असमाधिमरणादयो दोसा भवेज्जा, एवं भोयणंपि अतीच बावणं ण गिव्हियव्वंति, तं च अकामेण: अणुवउत्तेण वा गहिय होज्जा तओ इमाए परिवाडीए परिहायचं, 'एगंतमबमित्ता, अचित्ते पहफासुए। जयं परविजा, परिठ्ठप्प पडिकामे ॥ १४०॥ [एगंतमवकभित्ता, अचित्तं०॥ १४०॥] सिलोगो, अचिन नाम जं सत्थोवार । अचि, तं च आगमणथंडिलादी, पडिलहणागहणेण पमज्जणावि गहिया, चक्खुणा पडिलेदणा, रयहरणादिणा पमज्जणा, जयं नाम अतुरिय, अप्पक्खो.तो विहिणा तिष्णि पुंजे काऊण योसिरामि उचारेना परिडवेज्जा, परिवेऊण उपस्सयमागंतूण ईरिया-17 %ESCRECE5AEXECRKAR दीप अनुक्रम [७६ CResCE%E9ASAKAL ॥१८६॥ न १७५] [191] Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||६० १५९ || दीप अनुक्रम [७६ १७५] "दशवैकालिक" - मूलसूत्र -3 (निर्युक्तिः + भाष्य | + चूर्णि:) अध्ययनं [५], उद्देशक [१] मूलं [१५] / गाथा: [ ६०-१५२/७६- १७५] निर्युक्तिः [२३१-२४४/२३४-२४४] भष्यं [ ६१-६२ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [ ४२ ], मूलसूत्र [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: - श्रीदशवैकालिक चूण ५ अ० ॥ १८७॥ - 4 चहियाए पडिकमेज्जा । इदानीं भोषणविही भण्णह, तं च भोषणं गोयरे वा होजा सष्णियस्स वा तत्थ गोयरे जहा 'सिआ अ गारग्गगओ० ' ॥ १४९ ॥ सिलोगो, जो य सो गोयरग्गगओ भुजइ सो अनं गामं गओ वालो बूढो छाआलू खमओ या अहवा तिसिओ तो कोई विलंबणं काऊण पाणयं पिवेज्जा, एवमादि, इच्छेजा नाम अभिकंखेज्जा पढमालियं काउं, तं पुण अण्णसाधुउबस्स गऽसतीए कुट्टए भित्तिमूले वा समुदिसेज्जा, कोहओ नाम बडुमढ़ो सुनओ, एवमादि, भिती नाम कुठो कुट्टो, एवमादि, तथा फासूर्य अप्पपाणप्पवीयादि, तं च चक्खुणा पडिलेहेज्जा, भुज्जो रयहरणादिणा पमज्जित्ता तत्थ ठायंति, किं च अणुन विन्तु मेहावी० ' ॥ १४२ ॥ सिलोगो, तेण तत्थ ठायमाणेण तत्थ पहु अशुभवेयच्वो धम्मलाभो ते सांवगा ! एत्थ अहं मुहुचागंमि विस्समामि ण य भगयति जहा समुद्दिस्सामि आययामि वा कोउरण पलोएहिंति तेण य भत्तपाणं पडिलेहिता तारिसे पडिच्छपणे संबुडे ठातियन्वं जहा सहसाच न दीसती, जहा य सागारियं दूरओ जं न पासति तहा ठातियवं हत्थगं मुहपोत्तिया भण्णइति तेण इत्थएण सीसोवरियं कार्य पमज्जिऊण साधुणा भुंजियां किं - 'तत्थ से अंजमाणस० ॥ १४३ ॥ सिलोगो, जइ तस्स साहूणो तत्थ भुंजमाणस्स देसकालादणि पडुच्च गहिए मंसादीए अनपाणे अट्टीकंटका वा हुज्जा इयरंमि वा अमपाणे तणं कई सकरा वा हुज्जा ' अनं वाचि तहाविहं' पयरककड़गाइवि हुज्जा ' तं उक्खिचित्तु ॥ १४४ ॥ सिलोगो, तं अद्विगादि इत्यादिणा णो उक्खिविऊण णिक्खिवेज्जा, असिज्जते जेण तं आसयं, तं च मुहं तेण आसएणावि ण छड्डेज्जा, ताणि य अजयणाए खिविज्जमाणाणि जत्थ पद्धति तत्थ पाणविराहणा होज्जा, मुहेण छड़ेजा तस्स सत्तधायो भवति वाउकायसंघट्टो य, तणकट्टाईणि घेत्तृण मतिमा यिए दट्टण कोइ भणेज्जा एतेहिं चैव वह्निकरेहि " 3 , ••• अत्र भोजन - विधिः दर्शयते [192] भोजनविधिः ॥ १८७॥ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [६०-१५९/७६-१७५], नियुक्ति: [२३५-२४४/२३४-२४४], भाष्यं [६१-६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||६०१५९|| श्रीदश- बकालिक चूणों. आलोच विधिः ॥१८८|| चो एसत्ति, तम्हा हत्थेण अप्पसागारियं गहेऊण एगतमवक्कमेज्जा 'गंतमवकमित्ता' ॥१४५ ॥ सिलोगो, जाहे एग- तमवतो ताहे निरुवरोहे अवगासे पडिलेहिय पमज्जिय अचित्ते घडिले जयणाए पडिवेज्जा, जई अतिच्छिउंकामो विस्समणहूँ | ताहे इरियाए पडिक्कमेइ, किंच-जत्थ परिदृविज्जह तत्थ हत्थसयभंतरे पडिकमियध्वं । इदाणिमागतस्स समुद्दिसंतस्स विधी भण्णइ- 'सिआ य भिक्खू इच्छिज्जा ॥१४६ ॥ सिलोगो, कयाति तस्स साधुणो चित्तं भवेजा उवस्सए गंतूणं भोक्खामि, तओ'सपिंडपातमागम्म' सह पिंडवाएण पडिस्सयं गतूण, उंडयं ठाणं भवइ, तं पडिलेहइ, तत्य विहिणा ठाविऊण भत्तपाणं पडिलोहिता- 'विणएणं पविसित्ता ॥ १४७ ।। सिलोगो, विणओ नाम पविसंतो णिसीहियं काऊण 'नमो खमासमणाणं' ति भणंतो जति से खणिओ हत्थो, एसो विणओ भण्णइ, एतेण विणएण सो मुणी पविसिऊण गुरुसगासे ठाणं ठाइउं, इरियावहियमादाय णाम जाहे गुरुसगासमागओ ताहे पडिकमामि इरियावहियाए विराहणाए० तत्थ अरहं उच्चारेत्ता काउस्सगं ठिओ- 'आभोइत्ताण' ॥१४८॥ सिलोगो, आभोएत्ताण णाम णाऊणं, जो अइआरो कओ तमतियार अहहा कम तमि काउस्सग्गे ठितो हियए ठविज्जा, सो य अतियारो साधुणो गमणागमणे पहुच होज्जा भवपाणे वा घेप्पमाणे, जो है अतियारो तमणुचिसेऊण उस्सारेइ, ताहे 'लोगस्सुज्जोयगरं कडिऊण तमतियारं आलोएइ, तं च इमेण पगारेण आलोएज्जा । उज्जुप्पन्नो०॥ १४९ ॥ सिळोगो, उज्जु पण्णा तस्स सोऽयं उज्जुप्पण्णो, अणुचिग्गो णाम ण नीयं तुरिय वा आलोएइ, दा अन्वक्खित्वेण चेतसा नाम तमालोर्यतो अण्णेण केणइ समं न उल्लावद, अवि वयणं वा अमस्स न देई, ततो बंदिचा जं जहा गहियं तं तहा एव हत्थं चा मर्ग वा बावारं वा आलोएइ 'न सम्ममालोय.॥१५०॥ सिलोगो, जाहे आलोइयं भवा KIECCECRECCC CERIA दीप अनुक्रम [७६ ॥१८८॥ १७५] | अत्र गौचरी-आलोचना विधि: दर्शयते [193] Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [६०-१५९/७६-१७५], नियुक्ति: [२३५-२४४/२३४-२४४], भाष्यं [६१-६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक" नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत हए सूत्रांक [१५...] गाथा ||६०१५९|| जी-1 वाहे जइ किचि अजाणयाए ण सम्ममालोइयं पुरेकम्मपच्छाकम्मादि तस्स पुण पटिकमज्जा, तत्थ य पडिक्कमाणेण बोसट्ठ- कालिका देहेन काउस्सग्गे चिंतेज्जा 'अहो जिणेहिं असावज्जा० ॥११॥ सिलोगो, ताहे- णमुकारेण ॥१५२॥ चूर्णी | सिलोगो" नमोकारेण" "नमो अरिहंताणं" तिएतेण नमोक्कारेण काउस्सगं उस्सारेता जिणसंथवो 'लोगस्स उज्जा-डू ५० अगरे' भनइ, तं काडऊण जइ पुथ्वं ण पट्टवियं ताहे पटुविऊण सज्झायं करेइ, जाव साधुणो अमे आगच्छंति, जो पुण खमणी IN अत्तलाभिओ वा सो मुहत्तमेतं वा सज्झो (बीसत्थो) इमं चिंतेज्जा-'बीसमंतो हम ॥१५॥ सिलोमो, साहसु य आगएम आयरिय ॥१८९॥ आमंतेहि (ति), जेण परिग्गहण सोहणं, अहन गहियं ताहे भणइ-खमासमणो! देह इओ जस्स दायव्वं इच्छाकारेण, ताहे जइ तेहि दिन तो सोहणं, अह भणति-तुमं चेव देहि, ताहे 'साहवो तो चिअत्तेणं' ।। १५४ ।। सिलोगो, चिअत्तं णाम अन्नपाणे अप-11 डिबद्धो सम्वभावेण, जहाव_ भणइ-इच्छाकारेण अणुग्गहं करेह, न रायवेडिमिह मण्णमाणो निमंतति, जब कोई इच्छइ सोहर्ण, तेहि सद्धिं भुजिज्जा । 'अह कोई न इच्छिज्जा.॥१५९ ॥ सिलोगो, अह पुण तेर्सि साहणं कोईवि न इच्छेज्जा ताहे एक्कPओ उ मुंजज्जा, किंच- तेण साहुणा आलोय भायणे समुद्दिसियर्व, जयं नाम तदुवउत्तेण, अपरिसाडियं दुबिई-लंबणाओ (हत्थाओ, मुहाओ य, उवायं चेव जतं जं न परिसाउद, तं पुण भोयणं--'तित्तगं व ॥१५६ ।। सिलोगो, तत्थ तित्तग एल-18 गवालुगाइ, कडुमस्सगादि, जहा पभृएण अस्सगेण संजुत्तं दोद्धगं, कसायं निष्फावादी, विलं तक्कंपिलादि, मधुरं जलखीरादि, लवणं पसिद्धं चेब, एताणि कस्सइ हितइच्छिताणि जहा पुष्यमुसिणभावियसरीरस्स सीताहितत्तणे या उसिणं मधुरमेव पडिहाइ, ट्रा एवं सम्वत्थ जाणियव्यं, तम्हा साहुणा सम्भावाणुकूलेसु रागो ण काययो, पडिकूलेसु य दोसो, 'एयलद्धमन्नस्थपउत्त'-मिति दीप अनुक्रम [७६ SHARESUSHMDCOMSANCHAR ॥१८९॥ १७५] -CA [194] Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [६०-१५९/७६-१७५], नियुक्ति : [२३५-२४४/२३४-२४४], भाष्यं [६१-६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत उद्देशः २ सूत्रांक [१५...] गाथा ||६० बकालिक चूणों. ५अ० ॥१९॥ १५९|| | अण्णो-मोक्खो तष्णिमित्तं आहारेयव्वंति, तम्हा साहुणा सब्भावाणुकूलेसु २ साधुति ( न ) २ जिभिदिय उवालभइ, जहा ज-|| |मेतं मया लडूं एतं सरीरसगडस्स अक्खोवंगसरिसन्तिकाऊण पउर्स,नवण्णरूबबलाइनिमित्तंति, तं मधुषयमिव भुजियवंत Vासाहुणा, जहा मापयाणि भुजति तहा तं असाहणमवि भुजियवं, अहवा जहा महुवयं हणुगाओ हणुगं असंचारहि भुजितव्व। | 'अरसं विरसं० ॥१५७॥ सिलोगो, अरसं नाम असंपचरसं, हिंगुलवणादीहिं संभारेहिं रहियं, बिरसं नाम सभावओ विगतरसं४ विरसं भण्णइ, तं च पुराणकण्हबानियसीतोदणादि 'सूचियं तं पुग मंथुकुमासा ओदणो वा होज्जा, मंधू नाम बोरचुनजवचुनादि, कुम्मासा जहा गोल्लविसए जवमया करति, तेन तप्पगारं भोयणं ।' उप्पण्णं णाई.' ॥ १५८ ।। सिलोगा, उप-10 पणं नाम जे अप्प चा बहुं वा फासुग लद्धं तं णातिहीलेज्जा, णगारो पडिसेहे पट्टइ, अतिसहो अतिक्कमे, हीलणाजिंदणा, तत्थ साहुणा इमं आलवणं कायव्य, जहा मम संथवपरिधारिणो अणुवकारियस्स अप्पमवि परो देति ते बहु मणियवं, जं विरसमवि मम लोगो अणुवकारिस्स देति तं बहु मन्नियन्वं, अहवा इमं आलंवर्ण कायर्व- 'मुहालवं मुहाजीची' |सिलोग, महालद्धं नाम जे कांटलवटलादणे, मोचूणमितरहा लई ते महालद्ध, महाजीवि नाम जे जातिकुलादाहि आजावणVIबिसेसेहि परं न जीवति तेण मुहालद्धं आहाकम्माईहिंदोसेहि वज्जियं भोत्तब्बति । किंच-'बलहा उ मुहादाई ॥१५९ ।। | सिलागो, सोम! महादायि एरिसो, जहा एगो परिवायगो, सो एग भागवतं उवडिओ-अहं तव गिद्दे वासारत्नं करेमि, मम उद्त वहाहि, तेण भणिओ-जा मम उदंतं न बदसि, एवं होउनि, से सो भागवओ सेज्जभत्तपाणाहणा उर्दत वाद, अण्णता यावरस घाडओ चोरेहि हिओ, अतिप्पभायंतिकाऊण जालीए बद्धो, सो य परिवायओ तलाए हायओ गओ, तेण सो घोडओ दिहो, दीप अनुक्रम [७६ EARNATAKAKAR ॥१९॥ १७५] [195] Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र- ३ (निर्युक्तिः + भाष्य | + चूर्णि:) (४२) अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [ १५...] / गाथा: [ ६०-१५९/७६-१७५], निर्युक्तिः [ २३५-२४४/२३४-२४४] भाष्यं [६१-६२ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्ण : sahas प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||६० १५९|| दीप अनुक्रम [७६ १७५] श्रीदशवैकालिक चूर्णौ ५ अ० ॥१९१॥ उद्देशक-२ ४ आगंतुं भाई--मम पाणियतडे पोती विस्सरिया, गोहो विसज्जिओ, तेण घोडगो दिट्ठो, आगन्तुं कहिये. तेण भागवरण णायंजहा परिव्वायएण उवाएण कहियं, तेण परिव्वायओ भण्णइ- जहा जाहि, णाई तब निधि उदतं वदामि, निबिड अप्पफलं भवइ, एरिसो मुहादायी दुल्लभो । महाजीविंमि उदाहरणं- एगो राया धम्मं परिक्खति, को धम्मो ?, जो अनिब्बिई जई, तो तं परिक्खेमित्तिकाउं मणुस्सा संदिडा राया मोदए देति तत्थ बहवे कप्पाडियादयो आगया, पुच्छिज्जेति तुम्भे (केण ) झुंजह ?, अण्णो भणति--अहं मुहेण गुंजामि, अण्णो-अहं पाएणं, अभो-अहं हत्थेहिं, अण्णो- अहं लोगाणुग्गण, सच्चे ते रनो कहिज्जेति चेन्नओ आमओ, सो पुच्छिओ तुम केण जाहि ?, भगइ- ' अहं हा भुजामि, रण्णो कहियं, ताहे रण्णा चेल्लओ पुच्छिओ भणइजो जेण उल्लग्गा सो तेण भुंजर, कहं १, जेण जे ताव भवतं आउहेहिं आराति ते आउषेहिं भुंजति, लेहगाहिणो करेहिं, दूता पाएहि, गंधब्विया गीएण, सूयमागधादिणो वायाए, कुतित्थियावि मुहममलादीहिं, अहं मुहाए मुंजामिति, ताहे सो राया एस धम्मोतिका ऊणं आयरियसगासे धम्मं सोऊण पब्बइओ, एरिसो मुहाजीवी भण्णह, जो यह मुहादायी जो ग मुहाजीवी ते दोऽवि सिज्यंति, जाब य ण परिणिव्यायति ता देवलोगेसु य पच्चायायंति, बेमि नाम तीर्थकरस्य सुधर्मस्वामिनो (वो) पदेशाद् ब्रवीमि न स्वा भिप्रायेणेति । ॥ पिण्डेषणाध्ययनप्रथमोदेशकचूर्णी समाप्ता ॥ पिंडेपणाअध्ययनस्य पढमउद्देसर ण जं भणियं तमिदाणिं भष्णति, तंजहा- 'पडिग्गहं संलिहित्ताणं ॥ १६० ॥ सिलोगो, 'ग्रह उपादाने ' धातुः, अस्य धातोः प्रतिपूर्वस्य 'अदोरपि' ( पा ३-३-५७) त्यनुवर्त्तमाने 'प्रहरनिश्चिगमधे 'ति (पा. ३-३-५८) अप्प्रत्ययः, पकार: 'अनुदात्तौ सुष्पिता' (पा. ३-१-४) विति विशेषणार्थः, परगमनं प्रतिग्रहं परिगिज्झति [196] उद्देश। २ ॥१९१॥ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [५], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा: [५१-२०९/१७६-२२५], नियुक्ति : [२४४.../२४४...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||१६०२०९|| श्रीदश-1 जम्मि भायणे असणादिदा सो पडिग्गहो, 'लिह आस्वादने' धातुः, अस्य धातोः संपूर्वस्य 'अलखखोः प्रतिषेधयोः प्राक्क्त्वे'त्य-11 उद्देशः२ वकालिका(पा. ३-४-१८) नुवर्तमाने 'समानकर्तृकयोः पूर्वकाल' (पा. ३-४.२१) इति क्या प्रत्ययः, ककारः 'किङतिचे ति (पा.१-१-५)त चूणों | गुणवृद्धिप्रतिषेधार्थः, 'हो' इति (पा. ८-२-३१) हकारस्य ढकारः 'झषस्तथो धोऽधः' इति (पा.८-२-४०) तकारस्य धकारः। ६० | 'पटुना टु'रिति (पा. ८-४-४१) ष्टुत्वेन धकारस्य ढकार', 'ढोढे लोप:' इति (पा. ८-३-१३) ढकारस्य लोपः, 'दलीपे । ॥१९२|| पूर्वस्य दीर्घोऽण' इति (पा. ६-३-१११) दीर्घत्वं, समेकीभावेन लीदत्वा इति 'प्रादय' इति (पा.१-४-५८) समासः | । 'गतिकारकोपपदानां कृद्भिः समासवचन मिति (पा. ६.२-१३९) 'सुपो धातुप्रातिपदिकयो रिति (पा. २-४-७१) सुचलक, अकृतम्यूहाः पाणिनीयाः कार्य दृष्ट्वा प्रतिनिवर्तत इति निमित्ताभावे नैमित्तिकस्याप्यभावः, संलिह इति स्थिते 'समासे नश्पूर्व । त्वो ल्यापति (पा. ७-१-३७) क्वाप्रत्ययस्य ल्यपू आदेशः, पकारः पूर्ववत्, लकारः लिहतिप्रत्ययात्पूर्व उदाचा, परगमन, संलिध, तं पडिग्गहं सलिहिता नाम पदेसणीए भत्तावयवाणमसेसाणं वयणे पक्खेबो, 'लिप उपदेहे' धातुः, अस्य धातोः भावे | (पा. ३-३-१८) घञ्प्रत्ययः अनुबन्धलोपः पुगंतलघूपधगुणपरगमनानि, लिप्यते तस्य लेपः, लेवमायाए नाम जाव लेपदेशावसेस ताव संलिहेज्जा, यम उपरमे धातुः, अस्य धातोः सम्पूर्वस्प 'तक्तवतू निष्ठे'ति (पा. १-१.२६) क्तप्रत्यया, ककारः 'किकति चेति (पा.१-१-५) विशेषणार्थः, 'अनुदान.पदेशवनतितनोत्यादीनामनुनासिकलोपो झलि कितीति (पा.६-४-३७) | अनुनासिकान्तस्य झलि किरुति परतः अनुनासिकस्य लोपो भवति, परगमनं, संजओ नाम अप्पमत्तो, दुष्टो गन्धः दुर्गन्धः अशी- IAL॥१९२॥ भनः अग्रीतिकरः अमनोज्ञो, दुर्गन्धं च सुगन्ध वा, सर्वशब्दो अशेषवाची, सर्व प्रातिपदिक, नपुंसकविवक्षायां सु 'स्वमोनपुसका दीप अनुक्रम CARRIER [१७६ २२५] [197] Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [५], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा: [५१-२०९/१७६-२२५], नियुक्ति : [२४४.../२४४...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत उद्देशः२ सूत्रांक [१५...] गाथा ||१६०२०९|| चूर्णी -16 दिति (पा. ७-१-२३) वर्चमाने 'अतोऽम् (पा. ७-१-२४', अतः अकारान्तात्प्रातिपदिकार अम्, अतो गुणा, परपूर्वत्वं, सर्व, श्रीदश-द भुज पालनाम्यवहारयोः धातुः, अस्य धातोः 'वर्तमाने लटि'ति (पा.३२-१२३) लट् प्रत्ययः, टकारलकारयोरनुवन्धलोपः, लस्य तिपादयो भवन्तीति सर्वतिप्यतिप्रसंगे प्राप्ते 'अनुदात्तङित आत्मनेपदं' (पा.१-३-१२) भवति, किं पुनरात्मनेपदं । ५01भवति १, तङानावात्मने (पा. १-४-१००) तत्र सर्वात्मनेपदप्रसंग प्राप्ते तिङस्त्रीणि त्रीणि प्रथममध्यमोत्तमानि (पा.१-४-१०१) ४) प्रथमपुरुषस्यैकस्मिन्नर्थे एकवचनम्रपादीयते, तं तकारादकारमपकृष्य 'टित आत्मनेपदानां टेरेत्व'मिति (पा. ३-४-७९) अका॥१९॥ रस्य एकारः कर्तरि शपि' ति (पा. ३-१-६८) शपि प्राप्ते 'रुधादिभ्यः श्रम्' (पा. ३-१-७८) मकारः 'मिदचोऽन्त्यात्परः'। (पा.१-१-४७) इति विशेषणार्थः, अकार उच्चारणार्थः, लस्य तिपादयो भवन्तीति प्रातिपदिकप्रसंगे प्राप्ते शेषात् करि परस्मै| पर्द' (पा.१.३७८) भवति, किं पुनः परस्मैपदं भवति , प्रातिपदिकसकः इत्येवमादि, तत्र प्रथमपुरुषस्य एकस्मिन्नर्थे एक-1 है बचनमुपादीयते, तिपू, पकारलोपः इकारा नित्यं ङित्त' (पा. ३-४-९९) इतश्चेति (पा.३-४-१००) इकारलोपः 'कर्तरि शपिति | (पा. ३-१-६८) शप् प्राप्ते 'तुदादिभ्यः शः' (पा ३-१-७७ ) प्रत्ययः, शकारादकारमपकृष्य शकारः सार्वधात्वर्थः यासुर | परस्मैपदेपदाचा किच्चेति (पा. ३-४-१०३) यासु, टकारस्य 'आयन्ती दकिती' इति (पा.१.१-४६) विशेषणार्थः, उकार उच्चारणार्थः, 'लिङः सलोपोऽनन्त्यस्यै' वेति सकारलोपः, 'अतो या इय' अत:-अकारान्तादगादुत्तरस्य या इत्येतस्य इय आदेशः, 'लोपो व्योबली'ति (पा. ६-१-१६) यकारलोपः 'आदू गुण' इति (पा. ६-१-८१) गुणः भवत्येकश्च पूर्वपरयो, परगमनं, उत्सृजेत्, नकारादकारस्य उकारेण सह आदू गुण (पा. ६-१-८७) नोत्सृजेत्-न छडए, ण सुम्भि सुभि भोच्चा दीप अनुक्रम CSCARRIE ॥१९३॥ [१७६ २२५] [198] Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [५], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा: [५१-२०९/१७६-२२५], नियुक्ति : [२४४.../२४४...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक श्रदिशवकालिक - - [१५...] गाथा ||१६०२०९|| ॥१९४|| दुभि परिठवेज्जा, एगग्गहणे गहणं तज्जातीयाणमितिकाउं दुग्गंधगहणेण दुवण्णदुरसादीवि भेदा गहिया, सुगन्धमहणेणावि 81 पसत्थवष्णरसाइभेदा गहिया । सीसो आह-जइ एवं सिलोगपच्छद्धं पुचि पढिज्जइ पच्छा पडिग्गई सलिहिताणं, तो अस्थो | सुहगेज्झयरो भवति, आयरिओ भणइ-मुहमुहोच्चारणस्थ, वाचता य सुत्तबन्धा, पसत्थं च पडिग्गहगहणं उद्देसगस्स आदितो भण्णमाणं भवतित्तिजतो एवं सुर्य एवं पढिज्जति, तं पुण दुगंध वा सुगन्धं वा कत्थ भत्तं होज्जा', 'सेज्जा निसीहियाए.' ॥ १६१ ।। सिलोगो, सेज्जा-उवस्सतादि मट्ठकोट्ठयादि, तहा निसीहिया जत्थ सज्झायं करेंति, अहवा सेज्जाए वा निसीयाहिएति, तासु सज्जानिसीहियासुची होज्जा गोयरग्गसमावण्णो बालचुखबगादि मट्ठकोहगादिसु समुदिंडो होज्जा, ततो सो अया-| चयटुं नाम ण यावयहूं, उहुँ(ऊणं)ति बुत्तं भवति, 'जइतेण न संथरे' सिलोगो, सो पुण खमओवा होज्जा दोसीणो वा गंधितो, एए वा बालकेसु विधरेसु एतेहिं गंधियं, तेच अयावयÉ 'ततो० ॥१६२॥ पुण भत्तपाणगवेसणहाए उत्तरद, उत्तरमाणो य तेणेव | विहिणा पुब्वभणिएण जो पढमुद्देसएणं 'संपत्ते भिक्खकालीम' एतो आरम्भ जो विही भणिओ तेण विहिणा इमेण उत्तरेण य गवेसेज्जा, उत्तरो नाम पुष्वभणियातो इदाणि जो विधी भणिहिति, सो य उत्तरो इमो- 'कालेण निक्खमे भिक्खू०' ॥ १६३ ॥ सिलोगो, 'कालेणं ति गामनगराइसु भिक्खावेलाए उवस्सयाओ निक्खमेज्जा, तहेव य कालेण चेव उच्चे जोतिसिए (चिओ जो तमि) पडिकमज्जा, पडिकमज्जा नाम नियचेज्जा, णियं च खेत्तं पहुप्पति, कालो पहुप्पति, भायणं दा पहुप्पति, त हिडिउँ, एत्थ अट्ठ भंगा, 'अकालं च विवज्जेचा' णाम जहा पडिलहणवेलाए समायस्स अकालो, सज्झायवेलाए ॥१९४॥ | पडिलेहणाए अकालो एवमादि अकालं विवज्जित्ता 'काले कालं समायरे' तं भिक्खावेलाए मिक्वं समायरे, पडिलेहणवेलाए CALCANOARDAHARASAR दीप अनुक्रम [१७६ CREAAKAAS २२५] ...अत्र 'जयणा' वर्णयते [199] Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [५], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा: [५१-२०९/१७६-२२५], नियुक्ति : [२४४.../२४४...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक उदेश २ [१५...] गाथा ||१६०२०९|| श्रीदश | पडिलहण समायरे, एवमादि, भणियं च-'जोगो जोगो जिणसासणमि दुक्खक्खया पउजतो | अण्णोऽण्णमबाईतो असवनो होइ कायव्वो ॥१॥ किंच 'अकाले चरसी० ॥१६४ ॥ सिलोगो, तमकालचारि आउरीभूतं दट्टण अण्णो साहू भणेज्जा, लद्धा चूर्णी ते एयांम निबेसे भिक्खात्त,सो भणइ-कुओ एस्थ डिल्लगामे भिक्खत्ति, तेण साहुणा भण्णा- तुम अप्पणो दोसे परस्स उवरि ५० निवाङहि, नुम पमाददोसेण सज्झायलोभेण वा कालं न पच्चुवेक्खसि, अप्पाणं अइदिंडीए ओमोदरियाए किलामसि, इम सनिवर्स ॥१९५॥ च गरिहसि, जम्हा एते दोसा तम्हा-'सइ काले चरे भिक्खू०॥ १६५ ।। सिलोगो, सति नाम विज्जमाणे काले हिंडियब, पुरिसकारो नाम जंघावलादिमु बलं ताव हिंडियन्वं, अण्णायपिंडेसणयस्स पूरिसकारेण विणा वित्ती तु ण भवति, कयाइ पुरिसकारे कीरमाणेवि भिक्खं न लभेज्जा, तत्थ इमं आलंबणं कायच्वं- 'अल्लाभुति न सोइज्जा' हा न लहामित्ति, निद्धम्मो उ खरंटइ लोगे, परिसं न भाणियव्यं न चिंतेयचति, किन्तु 'तवुत्ति अहियासप' ओमोयरिया अणसणाइ पारसविहतवअभतरत्तिकाउणं अधियासेयचं, कालजयणा गता । इदार्ण खेत्तजयणा भण्णा'तहेवुच्चावया पाणा०॥ १६६ ।। सिलोगो, 'तव चि जहा अकालो बज्जेयचो तहा इमंपि यज्जयव्य, उच्चावया नाम नाणापगारा, अहवा उपचावया पसरथजातिदहरूपवं-1 ससरीरसंठाणादीदि उपवेता, अवया नाम जे एतेहिं चेव परिहीणा, ते उच्चावया पाणा पंथे वा पंथम्भासे भत्तढाए पलिपाहुडियादिसु समागया दट्टण णो उज्जुयं गच्छेज्जा, किन्तु 'जयमेव परक्कमे जयं नाम परिहरह, अवा नो उज्जुयं गच्छति, एत्तो। संयतस्स अन्तराइयअधिकरणादयो दोसा भवंति । 'गीअरग्गपविट्ठो अ०' ॥ १६७॥ ॥ सिलोगो, गोयरग्गगएण भिक्खुणा हणो णिसियध्वं कत्था घरे वा देवकुले वा सभाए वा पचाए वा एवमादि. जहा य न निसिएज्जा तहा ठिओऽवि धम्मकहाबाद %ES+ दीप अनुक्रम CCCRACTICAL +S ॥१९५॥ [१७६ २२५]] [200] Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [५], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा: [५१-२०९/१७६-२२५], नियुक्ति : [२४४.../२४४...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत श्रीदशवैकालिक चूर्णी सूत्रांक [१५...] गाथा ||१६०२०९|| ॥१९६॥ कहा-विग्गहकहादि णो 'पपंधिज्जा' नाम ण कहेज्जइ, गणत्य एगणाण वा एगवागरणेण वा, 'संजए ति आसंतण, खेतजयणा गता। इदाणि दव्बजयणा भषणइ-'अग्गलं फलिहं० ॥१६८॥ सिलोगो, अर्गला-गोवाडादीदारेसु भवति, फलिहो। नगरदुवारादिषु, दारं-दारमेव, कवाडं- पारत्तव, एताणि अग्गलादीणि 'अवलंबिया ण चिट्ठज्जा' अवलंबिया नाम अवथंभिऊर्णति चुचे भवति, मुणिसद्दो आमंतणे वट्टइ, इमे दोसा-कयाति दुब्न्ढे पडेज्जा, पडतस्स य संजमबिराहणा आयविराहणा वा होज्जत्ति, दब्बजयणा गया। याणिं भावजयणा भण्णइ, तं- 'समणं माहणं वावि०॥ १६९ ।। सिलोगो, समणा पंच, माहणा धिज्जाइया. किविणा- पिंडोलगा, वणीमगा पंच, एतेसिं पुब्वं कंचि पविई पुरओ वा पविसमाणं पासित्ता अइकमिऊण ण पविसेज्जा, य तेसिं दायगपडिच्छमाण चक्षुफासे चिट्ठज्जा, किं कारण, इमे दोसा भवन्ति 'वणीमगस्स वा०' ॥ १७०।। सिलोगो, वणीमगगहणेण सेसावि माहणादिणो एगग्गहणे गहणं तज्जातीयाणमितिकाउं गहिया भवन्ति, तस्स भिक्खागस्स दायगस्स वा दोण्हपि वा दायगपडिगाहगाणं अप्पत्तियं कदायि भवेज्जा पबयणलाघवं चा, एवमादि दोसा भवति तम्हा'पहिसेहिए व दिने वा ॥ १७२ ॥ सिलोगो, जाहे समणमाहणादीणं अण्णतरो पडिसेधिओ भवइ, दिणं वा से, सयं वा विणियत्ता भवंति, ताहे साहुणो भत्तपाणड्डाए उवसंकमियव्वति, सत्तपीडाधिकारोऽणुवा- 'उप्पलं पउम० (१७३) सिलोगो, उप्पलनीलोत्पलादि पउने पसिद्धमेव कुमुद- गद्दभुप्पलं मदगंनिआ-मेचिया, अण्ण भणंति-धियइल्ला मदगतिया भण्णइ, न केवलमेतीण जो संलुंचिऊणं देति तस्स हत्थाओ ण घेप्पड़, किंतु अण्णपि जे पुर्फ सचिन संलुचिऊण देह तमपि न पेप्पर, संलुंचिया णाम छिदिऊण, तमेवंपगार दितिय पडियाइक्खे न मे कप्पड़ तारिसं॥ १७४ ॥ सीसो आह दीप अनुक्रम [१७६२२५] ॥१९॥ [201] Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||१६० २०९ || दीप अनुक्रम [१७६ २२५] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + भाष्य | +चूर्णि:) अध्ययनं [५], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा: [ ५१-२०९/१७६-२२५], निर्युक्तिः [ २४४ / २४४...], भाष्यं [ ६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [ ४२ ], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णिः श्रीदशवैकालिक चूण ५ अ० ॥१९७॥ जणु एस अत्थो पुव्वि चैव भणिओ जहा 'सम्मदमाणी पाणाणि बीयाणि हरियाई ति हरियम्गहमेण वर्णप्फई गहिया, किमत्थं. पुणो ग्रहणं कर्यति १, आयरिओ माइ तत्थ अविसेसियं वणकरगहणं कर्य इह पुण सभेदद्भिण्णं वर्ण फरकायच्चारियं, जं जहा अकप्पियं भवति तं तहा इमा पडिसेहेर, तहा 'उप्पलं पडर्म वादि ० ॥ १७५ ॥ सिलोगो, सम्मदिया नाम पुव्वच्छि व्याणि जाणि ताणि अपरिणयाणि संमद्दणसंघट्टणाणि काऊण देश, समेवेपणारं दितियं पंडिया इक्स्त्रे न मे कप्पइ तारिसं । किंच जहा उप्पलादीणि सत्ताथि परिवज्जिज्जति तहा इमाणिविसालुअं वा विरालिये० ।। १७७ ।। सिलोगो, 'सालुगं' नाम उप्पलकन्दो भण्णह, 'विरालियं' नाम पलासकंदो मण्णह, जहा बीए बस्सी जायंति, तीसे पत्ते, पत्ते कंदा जागति, सा बिसलिया भण्णर, कुमुदा उप्पला य पुग्वमणिया, तेसिं दोन्हचि णाली-गालिया भण्णइ, एयाणि लोगो खायति अतो पडिसेहणनिमित्तं नालिया महणं कयंति, सुणालिया गवदंतसनिभा पउमिणिकंदाओ निरगच्छति, 'सासवनालिअं' सिद्धत्थयणांलो, तमवि लोगो उपसंतिकाऊण आमगं चैव खायति, उच्छुखंडमवि पव्वेसु धरमाणेसु ता नेव अनवगतजीवं कप्पर । किंच- 'तरुजगं वा पाल० ' ॥१७८॥ सिलोगो, 'तरुण' नाम अहुणुट्टियं 'पवालं' पल्लवो, सो रुक्खस्स वा हरियस्स वा होज्जा, रुक्खे जहा अलियाईणे, तणस्स जहा अज्जगमूलादीर्ण, आमगं नाम सचित्तं, परिवज्जए (परितो) वज्जए परिवज्जए। 'तरुणिअं वा छिवाडि' ॥ १७९ ॥ सिलोगो, 'तरुणिया' नाम कोमलिया, 'छिवाडी' नाम संगा, 'आभिया' नाम सचेतणा, 'सहं भज्जिया' नाम एकसिं मज्जिया, तं तहप्पगारं छिवार्डि देतियं पडियाइक्ले० । किंच तिहा कोलमसिन्न' ० ॥ १८० ॥ सिलोगो, कोलं बजरं मण्ण, अष्ण पुण भणति सकिरिल्लो वेलुयं तमवि अणुस्सिमं न कप्पड़, 'कासवनालिये' सीवणिफलं मण्ण, समवि [202] उद्देशः २ ॥ १९७ ॥ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [५], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा: [५१-२०९/१७६-२२५], नियुक्ति: [२४४.../२४४...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||१६०२०९|| ५अ. दिश-18| अणुस्सिणं न कप्पड़, "तिलपप्पडगं जो आमहिं तिलहिं कीरह, तमवि आमगं परिवज्जेरजा, 'नीम' नीमरुक्खस्स फलं, है| उद्देशः२ बैकालिक तमवि आमग परिवज्जए । किंच 'तहेव चाउलं पिटुं' ॥ १८१ ॥ सिलोगो, चाउलं पिहूं भट्ठ भण्णह, तमपरिणतधम्म • चूर्णी. सचित्तं भवति, सुद्धमुदयं वियर्ड भण्णइ, 'तिलपिटुं' नाम तिलवट्ठो, सो य अद्धाइहिं तिलेहिं जो कओ तत्थ अभिष्णता तिला होज्जा दरभिन्ना वा, एवमादी नो पडिग्गहेज्जा, 'प्रतियं' नाम सिद्धत्वपिंडगो, तत्थ अभिन्ना वा सिद्धत्थगा भोज्जा, दर॥१९॥द मिना वा, एवं चाउलपिंडादी आमगं परिवज्जए । 'कविहमाउलिंग च.'॥१८२॥ सिलोगो, कविट्ठमाउालेगाणि पसिद्धाणि, मूलओ सपत्तपलासा, मूलकचिया-मलकंदा चित्तलिया भण्णइ, एतेसि कविट्ठाईणं अनतरं लब्भमाणं आमग-असत्थपरिणतं मणसावि न पत्थए, किमंग पुण अकप्पमाणा पडिगाहेत्तए। किंच-'तहेव फलमणि' ।। १८३ ॥ सिलोगो, मंधू-बदरचुण्णो | भण्णइ, फलमंथू बदरओंबरादाणं भण्णइ, 'बीयमंथू' जबमासमुग्गादीणि, एवमादि, बिहेलगरुक्खस्स फलं बिहेलग, पियालो। | रुक्खो तस्स फलं पियालं, एवं फलमंथु लब्भमाणमवि परिवज्जेज्जा, सांसो आह-किमम्हेहि घेत्तच्च ?, भन्नइ-समुआणं चरे भिक्ख०॥ १८४ ॥ सिलोगो, समुदाया णिज्जइति, थोवं थोवं पडिवज्जइति च भवइ, 'चरे' नाम हिंडेज्जा, भिक्खु-| | गहणेण साधुणो णिहेसो कओ, साहुणा समुयाणट्ठा पविद्वेण उच्चावयं कुलं सदा पविसियवं, 'उच्च' नाम जातितो णो सारतो, सारतो णो जातीतो, एग सारतोवि जाइओवि, एग णो सारओ नो जाइओ, अवयमवि जाइओ एर्ग अवयं नो सारओ | सारओ एग अवयं नो जाइओ एग जाइओऽवि अवयं सारओऽपि एर्ग नो जाइओ अवयं नो सारओ, अहवा उच्चं जत्थ मणु-16||१९८॥ | पाणि लब्भति, अवयं जत्थ न तारिसाणिति, तहप्पगारं कुलं उच्चं वा भवउ अवयं वा भवउ, सब परिवाडीय समुदाणितव्वं, CAERAPEkaca दीप अनुक्रम [१७६ २२५] [203] Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [५], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा: [५१-२०९/१७६-२२५], नियुक्ति : [२४४.../२४४...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||१६०२०९|| श्रीदश-₹ण पुण नीयं फुलं अतिकमिऊण ऊसद अभिसंधारिज्जा, 'णीयं' नाम णीयंति वा अवयंति वा एगट्ठा, दुगुंछियकुलाणि बज्जेबैंकालिकाऊण जं सेसं कुलं तमतिकमिउरणं नो ऊसढं गच्छेज्जा, ऊसदं नाम ऊसढति वा उच्चंति का एगहुँ, तंमि ऊसढे उकोस लभीहामि चूर्णी हा बहुं वा लम्भीहामित्तिकाऊण णो णीयाणि अतिकमज्जा, किं कारणं , दीहा भिक्खायरिया भवति, सुत्तत्थपीलमंथो य, जड़५० | जीवस्स य अण्णे न रोयंति, जे ते अतिकमिज्जति ते अप्पत्तियं करोति जहा परिभवति एस अम्देति, पब्वइयोवि जातिवायं ण मुयति, जातिवाओ य उवचूहिओ भवति । तम्हा-'अदीणो चित्ति' ।। २८५ ।। सिलोगो, 'अदीणो' नाम अविमणो, तेसु ॥१९९।। | उच्चनीयेसु कुलेसु वित्तिमेसेज्जा, एसज्जा नाम गवेसेज्जा, णो विसीएज्जा णाम विसादो न कायच्यो, जहा हिंडंतस्सऽवि में जो (नो सं) पडइ, घरसयमवि गतुं एगमवि मिक्खं न लहामि, पडिस्सयं गच्छामित्ति, पंडिते'ति आमंतणं, मुच्छिओ इव मुच्छिओ 8 (मुच्छिओ) न किंचि कज्जाकज्जं जाणइ तहा सोऽवि अम्रपाणगिद्धो हरियाईसु उवयोग न करेइ,तम्हा अमुच्छिएण भोयणे भवियव्बंति, मायणि नाम 'बाध्वयोधने धातुः अस्य धातोः मात्रापूर्वस्य मात्राब्दस्य 'कमणि द्वितीयेति (पा. २-३-३) कर्मणि उपपदे द्वितीया विभक्तिर्भवति, का पुनर्द्वितीया, अम्, प्रथमयोः पूर्वः सवर्णदीर्घः, मात्रां जानातीत्येवं विगृह्य 'आतोऽनुपसगोत् क' इति (पा. ३-२-३) कप्रत्ययः, ककारादकारमपकृष्य ककारः 'किती' ति विशेषणार्थः, 'आतो लोप इति च' 'छिति चे'(पा. ६-४-६४) त्याकारलोपः, गतिकारकोपपदानां कृद्भिः समासवचनं प्राक् सुष्प्रत्ययः, उपपदमिदं तं सुपा सह समस्यते तत्पुरुषव समासो भवति, सति समासे 'सुपो धातुप्रातिपदिकयो' रिति (पा. २-४-७१) सुप् लुक, 'जयापार संज्ञाछन्दसाबहुल' मिति (पा. ६-३.२३) मात्राशन्दो हस्वः मात्रज्ञः इत्तिएण पजच भवति, तमेव नाऊण गेण्देह, एसणारएण होयव्यं, AUTORRORSESEX CRECACACARE दीप अनुक्रम ॥१९९। [१७६ २२५]] [204] Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [५], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा: [५१-२०९/१७६-२२५], नियुक्ति : [२४४.../२४४...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत श्रीदशबैकालिक उद्देशः २ चणों सूत्रांक [१५...] गाथा ||१६०२०९|| %C4656 ॥२००|| एगम्गहणे गहणं तज्जातीयाणमितिकाउं उम्गमउप्पायादिणोऽवि गहिया, अलभमाणेण किमालवणं काय?, 'यहूं परघरे ॥१८६॥ सिलोगो, बहुंनाम परिमाणओ तं दवं बहुतं, 'विविह' नाम अगष्पगारं, खज्जतित्ति खादिम, सातिज्जतीति सातिमाद एतमि खाइम साइमे वा अलम्भमाणे ण तत्थ पंडिओ कुप्पेज्जत्ति, कि कारणी, इच्छा देज्जा परो न वा, परो नाम असंजओ। सावओ वा, अण्णो वा कोइवि वितकिज्जति सो परो. तमि ओ (अदी) यमाणे एवं चितेयन्वं जयं, एतस्स अप्पज्जत्तियं पहुंच से अणुवकारा, एतेण त इच्छा दिज्ज परोन वा देज्जत्ति । किंच-'सयणासण॥१८७॥ सिलोगो, पठितसिद्धो चेव, किंच 'पस्थिों पुरिसं वावि०॥ १८८॥ सिलोमो, मग्गिज्जेज्जा पुरिसे वा, सा य इस्थिया नवतरा वा होज्जा थेरी वा, एवं पुरिसोऽबि, तं इरिथ पुरिसं वा डहरभावे वठ्ठमाण थेरभाव वट्टमाणं 'बंदमाणं न जाहज्जा' जहा अहमेतेण वंदिउत्ति अवस्समेसो दाहेति, तत्थ विपरिणामादिदोसा संभवति, पुरिसे पुण बंदमाणं २ अ किंचि वक्खे काऊण अण्णतो वा मग्गिऊण पुणी तत्थेव गंतूण मग्गइ, जइ ताहे पुणो वंदति तो मग्गिओ जइ कदापि पडिसेहज्जा तत्थ नो अण्णं फरुसं वए, जहा-हाण त वैदितं, तुम अबंदओ चव, एवमादि, अथवा एस आलावओ एवं पढिज्जइ 'बदमाणो ण जाएज्जा' वंदमाणो णाम बंदमाणा WIसिराकंप पंजलियादीहि णो जाएज्जा, वायाएवि वंदणसरिसाए ण जातिवा, जहा सामि भट्टि देवए वाऽसि, केणीत बंदणसालण |पमादयो अणाभोगओ वा चंदिओ न होज्जा तस्थ-'जन बंदे न से कुष्पे ॥१८९॥ सिलोगो, तस्थ जो न चंदप्ति तस्स | उचरिं कोहो ण कायचो, बंदिओऽपि रायादीहिं णो समुफसेज्जा, नहा को मए समाणो संपतित्ति , धमन्नसमाणस्स' ति ऐवसद्दो अवधारणे वट्टर, किमबधारयति , पुचोपडे विधि अवधारयति. सो एसो विही भष्णा--एतेण विहिणा पुवायरिएहि | छाRAKA * दीप अनुक्रम [१७६२२५] ॐ ॥२००३ [205] Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [५], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा: [५१-२०९/१७६-२२५], नियुक्ति : [२४४.../२४४...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||१६०२०९|| श्रीदश-16 समुदाणमेसितं, तमणुएसमाणस्स णाम तमेव जिणुवदिढ मेरमणुलंबमाणस्स सामण्णमणुचिट्ठह नाम अहित चिट्ठति । इदाणि स-18 उद्देशः२ कालिक पक्खे तेणियां पडिसहिज्जति- 'सिआ एगइओ लढुं॥ १९॥ सिलोगो, सिया नाम कदाइ, एगो नाम सतेसु जति एगो। चूणों कोइ एरिस करेज्ज, सो य वणगंधरसादीहि उववेयं भोयणं लण 'लोभेण विणिगृहति लामण नाम तंमि भोयण गिद्धो IHIमुच्छिओ, विविहिं पगारहिं गृहति विणिगृहीत, अप्पसारियं करेइ, अन्नण अतपन्तेण ओहाडति, मा मेयमुपस्सयं आयरिओ | * ॥२०॥ अण्णा वा कोइ दणं सर्य आइएज्मा नाम गेण्हेज्जा, जइ पुण पच्छ करेमि तो पढमालियामिसण मंडीए वा तातो अवगासाओ31 दागिण्हामिीत्त, तस्सवै कुन्चमाणस्स इमे दोसा भवंति, तं. 'अत्तट्ठा गुरुओ लुद्धों' ।। १९ ।। सिलोगो, अत्तणो अस्थो गुरुश्री, लुद्धो पसिद्धो चंच, तओ सो अत्तद्वगुरुयत्तं कुव्यमाणो सपक्खे तेणिया मायापच्चचियं 'बहुं पावं पकुव्वति' नाम अतीच | का कुबह पकुम्बइ, तस्स ते सैसारंगमणाय भवइ, एस ताव परलोइओ अवाओ भण्णइ, इमो पुण इहलोडओ जहा दुत्तोसओ भवति । कह , तस्स मणुग्णाहारसमुतस्स उक्कोसो दब्बअलामो पायसी, भत्तस्सावि ण तुट्ठी उप्पज्जा, अपरितुट्ठो य कह णिन्युति लभिPस्सति , अहवा "णिब्याण च न गच्छई' एसोऽचि परलोगावायो, णिवार्ण सम्बकम्मक्खयो, मोक्खो सव्वकम्मपगडीण, गणण्णभवे गच्छइ, तमेवंगुणविशिष्ट निव्वाणं न गच्छइ, एस ताव पच्चक्खो अपच्चक्खमवहरति । इयाणि अपच्चक्खो पच्चक्खहामवहरति सो भण्णइ 'सिआ एगहओ लढुं० ॥१९२ ॥ सिलीगो, कदाचि कोइ लुद्धो मिक्खायरियाए अउमाणो विविहं पाण- २०१॥ भोयणं लद्धणं जं भदगं तं मीत्तुं विवष्णं विरसं च तमाहरइ, तत्थ भदगंति वा कल्लाणति वा सोभणंति वा एगहा, 'विवष्ण बिक्खलगकबडंडकुरादीयं विवन, विरसं नाम समावओ विगतं रस तं विरसं भष्णह, तं च सीतोदणादी, सो पुण क्रिमस्थं | दीप अनुक्रम [१७६ २२५] [206] Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [५], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा: [५१-२०९/१७६-२२५], नियुक्ति : [२४४.../२४४...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत श्रीदच सूत्रांक [१५...] गाथा ||१६०२०९|| 18भद्दगं भोत्तूर्ण विषण्णविरसाणि आहरइ, 'जाणतु ता इमे ॥१९३।। सिलोगो, जाणंतु ता इमे समणा जहा एस साधू आयबैंकालिकातो -मोक्खो भण्णाइ, ते आययं अत्थयतीति आययड्डी, अहोऽयं संतुट्ठो नाम जइ अस्थि तो झुंजति, अलम्ममाणेऽपि समो चेव, चूर्णी. अहो य अंततै निसेवइ, लूहाइ से वित्ती, एतस्स ण णिहारे गिद्धी अस्थि, 'सुतीसओ' नाम थोवेणवि आहारण लद्धेण ण चेव ५ अ० 8 आउलीभवति । किंच-पूअणट्ठा जसो० ॥ १९४ ॥ सिलोगो, सो पच्छवाई पूयणढी जसोकामी य इमं महंत अवार्य ॥२०२॥ दपावइ, तत्थ पूयणड्डी जहा जइ अहमेव करेमि वो सपक्खपरपक्खो मे पूया भविस्सइ, 'जसोकामी' नाम एवं कुबमाणस्स जसा में भविस्सइ, जहा अहो महप्पा एसत्ति, एवमादी, 'माणसम्माणकामए' माणा पंदणअन्मुडाणपञ्चयओ, सम्माणा ताह बंदणादीहिं पत्थपत्तादीहि य, अहवा माणो एगदेसे कीरइ, सम्माणो पुण सम्बप्पगारेहिं इति, माणसम्माण कामयाति मानसमाणकामए, कामयति नाम पत्थयति, सो एवंविहसहावो बहुं 'विविहं' अणेगपगारं पापं पसवति, पसवति नाम प्रत्ययति, कम्मगरुपयाए वा सो लज्जाए वा अणालोएंतो मायासल्लमवि कुम्वति । कई, 'सुरं वा मेरगं वाबि० ॥ १९५ ॥ सिलोगो, तत्थ सुरं पिट्ठकम्मादि दब्बसंजोगओ भवति, मेरगो पसनो मुरापायोग्गेहिं दबहिकीरह, ण केवल सुरमेरमा परिहरियव्वा, | किन्तु अण्णेवि जे मज्जप्पगारा तेऽवि परिहरणिज्जति, जति नाम गिलाणनिमित्तं ताए कज्ज मविज्जा ताहे 'ससक्खं नो अपिज्जा' ससक्खं नाम सागारिएहि पप्पाइयमाणं, किं कारणं ससक्खं ण पिज्जा, भणति- जसं सारक्षमप्पणों' CI जसा संजमा भण्णइ कित्ती वा, तेण य पीएण मनो भवति, मनोय संजम णो पेक्खदा याणि ससक्खं ण पायने, एगागिणार॥२०२॥ पायवमितिी, अतो भष्णति-'पियए एगओ तेणो० ॥ १९६ ॥ सिलोगो, पियति नाम पियतित्ति वा आपियति वा एगढ्ढा, दीप अनुक्रम [१७६ RECE+: Care २२५] [207] Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||१६० २०९|| दीप अनुक्रम [१७६२२५] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + भाष्य | +चूर्णि:) अध्ययनं [५], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा: [५१-२०९/१७६-२२५], निर्युक्तिः [ २४४ / २४४...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [ ४२ ], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्ण : श्रीदशमैकालिक चूर्णां ५ अ० ॥२०३॥ ● असा एगइओ नाम कोइ रसलोलुयाए गिलाणादीहिं कारणह तेणियाए 'ण मे कोई विजाणयि'त्तिकाऊणं सुरमरगादीणि पिएज्जा; अहवा गिहत्थे तेणियं इमेणप्पगारेण करेज्जा, आयरियस्स गिलाणस्स वा दाहामि मा नाम कोइ वियाणति चिकाऊण आइएज्जा, तस्सेवपगारस्स दोसा इहलोइयाइया भण्णमाणा सुणसुत्ति, तत्थ नियडी माया भण्णइ, ते य दोसा इमे 'वड्डर सुंडिआ तस्त०' ॥ १९७ ॥ सिलोगो, सुंडिया नाम जा सुरातिसु गेही सा सुंडिआ भण्णति, ताणि सुरादीणि मोत्तूर्ण ण अन्नं रोयह, मायामासं च बहुई, कहीं, जाहे सो पुच्छिओ भवति ताहे मग चाल्लोबाउलोऽवि एसो नस्थि, किंच-अयसो य से सपकखे परपक्खे य भवति, जहा एस सो विडपाउ एवमादि, 'अनिव्वाणी' नाम जाहे ताणि सुरादक्षीणे ण लम्भति ताई तेर्सि जमावे परमं दुक्खं समुप्पज्जतित्ति, अहवा अणिवाणी मोक्खाभावो भण्णति, तहा असाधुता से भवति, असाधुया नाम असंजततं भण्णइ, साय हुआ सययं भवति, सययं णाम सव्वकालं, सो य 'निच्चुच्विग्गो जहा तेणो० ॥ १९८ ॥ सिलोगो, किंच-'आयरिए नाराहेइ०' ॥ १९९ ॥ सिलोगो, हृदाणिं तद्दासविसुद्वाणं भत्तपाणादीनं जो भोत्ता सो भण्ण, जहा तवं कुबह महावी ॥ २०१ ॥ सिलोगो, मेघावी दुविहो, तं०- गंथमेधावी मेरामेधावी य, तत्थ जो महंतं गंथं अहिज्जति सो गंथमेधावी, मेरामेधावी णाम मेरा मज्जाया भण्णति तीए मेराए धावातीत मेरामेधावी, पणीतस्स नाम नेहविगतीओ भण्णति, ते पणीए रसे विवज्जति, न केवलं पणीतरसं वज्जति, किन्तु मज्जप्पमादविरओ, तबस्सीति वा साहुत्ति वा एगड़ा, 'अइउकसो' ण तस्स एवमुक्करिसो भवइ जहाऽहमेव एगो साहू, को अण्णो ममाहिंतो सुंदरोति १, एवमाइगुणजुत्तस्स साधुणी इहलोइए पर लोइए य गुणे भणिहामि, तं०'तस्स पस्सह०' ॥ २०२ ॥ सिलोगो, 'तस्स'त्ति वस्त्र अमाइणो, कल्लाणंति वा सोहणंति वा एगट्ठा, 'कल्लाणं' मोक्खो [208] उद्देशः २ ॥२०३॥ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [५], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा: [५१-२०९/१७६-२२५], नियुक्ति : [२४४.../२४४...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक उद्देशः२ Bara [१५...] गाथा ||१६०२०९|| % श्रीदश- | भण्णति कल्लाणं, सो य संजमो, अणेगं नाम इहलोइयपरलोइयं, जं च साहिं पूजियं, पूजिये नाम आतिण्णंति पूजितंति का वैकालिक अण्णेहि वा साहहिं पूजियं भण्णइ, ' घिउलं अस्थसंजत्तं' नाम विपुलं विसाल भण्णति, सो य मोक्खो, तेण विउलेण अस्येण | चूणों संजुत्तं विउलथसंजुर्च, अत्थसंजु णाम सभावसजुत्तं, ण पुण णिरत्थियंति, 'कित्तिज्जमाणं सुणेह य' ति । एवं तु गुणप्पेही०' ॥२०३।। सिलरोगो, गुणा अट्ठारससीलंगसहस्साणि ते पेहमाणो णाम सेक्माणो, तहानागज्जुणिया तु एवं पढति-'एवं तु अगुण-15 ॥२०॥ प्पेही अगुणाणं विवज्जए अगुणा एव अणं अगुणाणं, अणंति वा रिणति वा एगट्ठा, तं च अगुणरिणं अकुब्बती, सोय सम्बकालमेव मोक्खहेउमाराहयमाणो तारिसो आराहेइ परिकम्मवितगुणेण मरणतेऽवि संपत्ते संघरो णाम संजमो तमाराधयात 1# किंच-'आयरिए.' ॥ २०४ । सिलोगो, तेणाधिगारे वट्टमाणे इमं भष्णइ-तवतेणे वय० ॥ २०५॥ सिलोगो, तत्थ तबतेणी णाम जहा कोइ खमगसरिसो केणावि पुच्छिओ-तुम सो खमओत्ति ?, तत्थ सो पूयासकारनिमित्तं भणति-ओमिति, अहवा Pा भणइ--साहूणो चेव तवं करेंति, तुसिणो संविखइ, एस तपतेणे, वयतेणे णाम जहा कोइ धम्मकहिसरिसो बाईसारसी अण्णण पुच्छिओ जहा तुमे सो धम्मकहि वादी वा ?, पूयासकाराणिमि भण्णाइ-आम, तोहिको वा अच्छइ, अहवा भणइ-साधुणा चव । धम्मकहिणो वादिणो य भवंति, एस बयतेणे, रूवतणे णाम रुवस्सी कोई रायपुत्तादी पबहो, तस्स सरिसो केणइ पुच्छिओं, का जहा तुम सो अमुगोत्ति , ताहे भण्णति-आमंति, तुसिणीओ वा अच्छा, रायपत्तादयो एरिसा वा, एस रूवतेणे, आयारभावतेण Gणाम जहा महुराए कोउहतति जहा आवस्सयचुपणीए स आयारतणो, भावतेणो णाम जो अणभुवगतं किंचि सुतं अर्थ वाद ॥२०४। Mमाणावलेवेण न पुच्छर, चक्खाणतं वाएंतस्स वा सोऊण गेष्हा, एवं तवतेणादि भावीयनचरेण इहलोगे व अयसादिदोसा । दीप अनुक्रम NROE5%25 % [१७६ २२५] [209] Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||१६० २०९ || दीप अनुक्रम [१७६ २२५] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + भाष्य | +चूर्णि:) अध्ययनं [५], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा: [ ५१-२०९/१७६-२२५], निर्युक्तिः [ २४४ / २४४...], भाष्यं [ ६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि ॥ २०५ ॥ पावह, परलोगेऽवि सो अणालोइयपडिक्कतो कालगओ देवकिव्विसियत्ताए कम्मं पकरेति । सीसो आह-जइ तारिसेहिं देवतं लम्भइ, किमेवङ्गेण जत्तेणं, भण्णइ-तारिसस्स वंभवयाइयाण पालणादणिं तं फलं, तहवित्थ असोहणं । अतः 'लहूणवि देवतं' ॥ २०६ ॥ सिलोगो, किं तेण देवतेण जत्थ सो ओहिनाणलडीए न जाणइ-कोऽहं पुव्वं आसी १ किं वा कयंति ?, अहवा सो इमे न याणइ जहा इमं दुक्कडं कयं जेणाहं देवत्तणेवि सति अभियोगो अंतस्थो वा जातोति, एस ताव देवलोगे अवायो मणि५ ओ । इदाणिं ताओ देवलोगाओ चुतस्स भण्णइ 'तत्तोऽवि से चहत्ताण' ० ॥ २०८ ॥ सिलोगो, जहवि कवि सो तओ चचा देवलोगाओ माणुस्सेसु उववज्जह जत्थ बहुणावि काले बोधिलाभो न भवति । 'एअ च दोर्स दडणं, नायपुत्तेण | 'मासिअं० ॥ २०८ ॥ सिलोगो, एवं नाम जो हेडा इयाणि देवकिव्विसादि दोसो भणिओ, एयं दणं, चकारेण सूच्चति जहां कित्तियं भणिहामि १, अण्णेऽवि भगवया णायपुत्त्रेण एत्थ बहवे दोसा भासिया, तम्हा तेर्सि दोसाणं परिहरणानिमित्तं 'अणुमायेपि मेहावी, मायामोसे विचज्जए' तत्थ अणुसहो थोत्रे वट्टर, घोषमवि मायामांसं विवज्जए, किमंग पुण बहुयंति १। इदाणिं दोन्ही उद्देसमाणं उवसंहारो कीरह, जहा- 'सिक्खिऊण भिक्वेसण सोहिं ० ' ॥ २०९॥ सिलोगो, सिक्खिऊणपाऊणं, भिक्खाए एसणा भिक्खसणा, भिक्खमग्गणत्ति वृत्तं भवति, ताए भिक्खाए उम्ममुप्पावणेसणादीहिं सिक्खिऊण संजता साधुणो भण्णन्ति बुद्ध नाम अरहंतो भगवतो, तेसिं संजतबुद्धाणं समासे पिंडेसणज्झयणं सिक्खिऊणं 'तत्थ' ति ताए भिक्खेसणसुद्धीए साहुणो 'सुप्पणिहिइंदिए तिब्बलज्जेण गुणवया चिहरियन्वं' सुट्ट पणिहिताणि इंदियाणि जस्स सो सुप्पणिहिइंदिओ, लज्जसंजमो-तिब्बज्ञयो, तिब्बसदो पकरिसे वट्ट, उकिडो संजमो जस्स सो तिब्बलज्जो भष्णइ, गुणो जस्त अत्थि सो श्रीदश वैकालिक चूण ५ अ० [210] उद्देशः २ ॥२०५॥ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||१६० २०९|| दीप अनुक्रम [१७६ २२५] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + भाष्य | +चूर्णि:) अध्ययनं [५], उद्देशक [२] मूलं [ १५...] / गाथा: [ ५१-२०९/१७६-२२५], निर्युक्तिः [ २४४... /२४५ ], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [ ४२ ], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: श्रीदशवैकालिक चूर्णां ६ धमो. 8 ॥२०६॥ गुणवं, विहरेज्जासि, शित्रीम नाम तीर्थकरोपदेशात् सुधर्म्मस्वामि न स्वाभिप्रायेण त्रवीमि । इदाणिं णामि गिहियवे, afrotect मेव अत्यंमि । जहतव्यमेव इइ जो उवएसो सो गयो णाम ॥ १ ॥ सब्वेसिंपि नयाणं बहुविहवत्तव्वयं निसामेत्ता । तं सव्वनयविसुद्धं जं चरणगुणडिओ साह ॥ २ ॥ पिण्डेषणाध्ययनकुण्णी संमत्ता | अथ आचारकथा धर्मार्थकामाध्ययनं ॥ दाणि भिक्खु भिक्खापविट्ठ जह कोइ पुच्छेज्जा केरिसो तुम्ह धम्मोति १, ततो सो तेण भाणियब्बो, जहा-आयरियो उज्जाणे अण्णत्थ वा जत्थ, चित्ता, ते कहेयव्वं, ततो ते धम्मसेायब्वनिमित्तमागच्छंति, एतेण संबंधणागस्स अज्झयणस्स चचारि अणुयोगद्वारा भाणिया, जहा आवस्सगषुण्णीए, नवरं इह नामनिष्फलो महान्तियायारकहा, महंतं णिक्खिवियव्यं, आयारो क्खिवियो, कहा निक्खि वियन्वा, एते तिष्णि जहा खुड्डयावारकहाए, इत्थ इमा जिदरिसणगाहा भाणियन्वा, पुष्यं 'जाय' ( जो वि० पृ० २४७) गाहा कण्ठया, इदाणिं सुत्ताणुगमे सुतं वक्खाणितव्यं तं अक्खलियं अमिलियं अविचामेलियं जहा अणुयोगद्वारे तं च इमं सुतं नाणदंसणसंपन्न, संजमे अ तवे रयं । गणिमागमसंपन्न, उज्जाणंमि समोसढं || सू० २१० || 'झा अवबोधने' धातुः अस्य लट् वर्त्तमाने, 'करणाधिकरणयाचे ति ( पा. ३-३-११७ ) करणे ल्युदप्रत्यये टकार उच्चारणार्थः लकारः लिटि प्रत्ययात्पूर्व उदात्तार्थः, 'युवोरनाका' विति (पा. ७-१-१) अनादेशः, अकः सवर्णदीर्घत्वं, ज्ञायते अनेन ज्ञान स्थिते न इति नपुंसकविवक्षायां प्रातिपदिकार्थ लिङ्गपरिमाणवचनमात्रे प्रथमा, तस्य एकवचनं सु, 'अतोऽमि ति अध्ययनं -५- परिसमाप्तं ... अत्र धर्म-कथकस्य स्वरुपम् वर्णयते अध्ययनं -६- 'महाचारकथा' आरभ्यते [211] धर्म कथकस्य रूपं ॥ २०६ ॥ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) | “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [२१०-२७७/२२६-२९३], नियुक्ति: [२४७-२६८/२४५-२६८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||२१० धर्म रूप - २७७|| - तापा . ७-१-२४ ) अम् भवति, 'अमि पूर्व': (पा..६-१-१०७) अमि परतः पूर्वसवर्णः, शान, तच्च पश्चप्रकारं, ततोऽसौ श्रुतवैकालिक मानेन वा सम्पन्नः त्रिभिर्वा चतुर्भिर्वा पञ्चभिवा इति, दृशिर प्रेक्षणे धातुः, अस्य धातोः इकाररकारलोपाम्यां लोपे 'इरितो वे तिकथकस्थचूर्णों पा. ३-१-५७) विशेषणार्थः, ल्युटिति बत्तमाने 'करणाधिकरणयोथे' ति (पा ३३११७) स्पुट् प्रत्ययः पूर्ववत , 'मिदर्गुण'18 ६ धमो. इति (पा. ७.३-८२) वर्तमाने 'सर्वधातुकार्धधातुकयो' रिति (पा. ७.३-८४ ) 'पुगतलघूपधस्य चे ति ( ७.३-८६ ) गुणः २०७II'अदे गुणः' (पा. १-१-२) ऋकारस्य स्थान 'इको गुणयुद्ध।' इति (१-१-१) पचनातइका स्थाने अकारे गुणः, उरण रपर। द इति (पा.१-१-५१) रफपरो भवति, परगमनं, रश्यते अनेन दर्शन इति स्थिते नपुंसकविवक्षायां पूर्ववत, दर्शनं द्विप्रकार| क्षायिक क्षायोपशामकं च, अतस्तेन क्षायिकेण क्षायोपशमिकेन वा संपन्न, 'पद गती' धातुः, अस्य 'तक्तवतू निष्ठे' ति | (पा. १-१-२६) निष्ठा प्रत्ययः, ककार उच्चारणार्थः, 'रदाभ्यां निष्ठातो नः पूर्वस्य च द' (पा. ८२४२) इति रेफदकारादुत्तरस्य निष्ठातकारस्य नकारो भवति, पूर्वस्य च दकारस्य नकारः, परगमनं, सम्पन इति स्थिते नपुंसकविवक्षायां पूर्ववत्, संयमतपसी पूर्ववद् वाव्ये, ते, 'रम क्रीडायो' धातुः सैव निष्ठाक्तप्रत्ययः अनुबन्धलोपः 'अनुदात्तापदेशवनतितनोत्यादीनामनुनासिकलोपो, | झलि क्तिी ति (पा. ६-४-३७) [अनुनासिकान्तस्य गस्य अनुदोत्तापदेशानां तकारादौ किति प्रत्यये परतः अनुनासिकस्य लोपो भवति रतं, तयोः संयमतपसो रत, 'गुण गण संख्याने' धातुः चुरादौ पठ्यते, अस्य धातोः स्वार्थिको णिच्, अचश्च प्रत्ययः ॥२०७॥ परगमनं च गणः, गण इति स्थिते प्रथमैकवचनं मुरुत्वविसर्जनीयौ गणः अस्यास्ति तदस्यास्त्यस्मिन्निति (पा.५.२-९४)12 हमतुपि प्रा स्थिते 'अत इनि ठनी' (पा. ५-२-११५) अतः अकारान्तात् प्रातिपदिकाद् इन् प्रत्ययो भवति, 'सुपोटू - - दीप अनुक्रम [२२६२९३] [212] Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||२१० २७७|| दीप अनुक्रम [२२६ २९३] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र- ३ (निर्युक्तिः + भाष्य | + चूर्णि:) अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [ २१०-२७७/२२६-२९३], निर्युक्तिः [ २४७-२६८ / २४५-२६८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्ण: श्रीदश बैकालिक चूर्णां ६ धर्मा. ||२०८|| धातुप्रातिपदिकयो' (पा. २४-७१ ) रिति सुप्लुक, नकारस्य 'हलन्त्य' मिति (पा. १-३-३ ) ( हल्ल्याविति ) संज्ञाप्रयोजनं निञित्यादिर्निमित्यादुदार्थः (तव्युदासार्थः) 'यस्येति चे' ति (पा. ६-४-१४८) अकारलोपः, गणिन् इति स्थिते 'कर्मणि द्वितीया' (पा. २-३२) अम् परगमनं गणिनं, 'गम्लु गती,' अस्य धातोः आपूर्वस्य 'करणाधिकरणयोथे' त्यनुवर्त्तमाने 'पुंसि संज्ञायां घः प्रायेणेति (पा. ३-३-११८) घप्रत्ययो भवति, षकारादकार मपकृष्य घकारस्य 'लशक्तद्धिते इदिती' (पा. १-३-८)संज्ञा, प्रयोजनं 'चजोः कु विध्यतो रिति (पा.७-३-५२) विशेषणार्थः प्रायेण आगम्यतेऽनेनेति आगमः, तं गणिमागमसंपन्नं नाम वायगं, एकारसंगं च, अनं वा ससमयपरसमयवियाणगं, उज्जाणे, सतुः स्वरादौ पठ्यते, सरमाचष्टे तत्करेति तदाचष्ट तेनातिक्रामति धातुरूपं चेति चूर्णं, [ सत्या०] 'चुरादिभ्यो णिः' (पा. ३-१-२५) अणुबन्धलोपः 'अत उपधाया' ★ इति (पा. ७-२-११६) वृद्धिः प्राप्ता अदन्तत्वान्न भवति, सर्वे अदन्ताः अज उपदेशाः तेनोपधावृद्धिप्रतिषेधः, 'अतो लोप आईधातुके' (पा. ६-४-४८) अत (पा. ६-४-४६) अकारस्य लोपो भवति अर्द्धधातुके परतः सति 'सनाद्यन्ता धातव' इति धातुसंज्ञा, अस्य धातोः संपूर्वस्य अवपूर्वस्य च 'क्तक्तवतू निष्ठे' ति ( पा. १-१-२६ ) क्तः प्रत्ययः ककारः किति विशेषणार्थः, 'आर्द्धधातुकस्येद् वलादे रिति (पा. ७-२-३५ इडागमः, टकारः उच्चारणार्थः 'सार्वधातुकार्द्धधातुकयो' रिति (पा. ७-३-८४ ) अङ्गस्य गुणः प्राप्तः किन्वात्प्रतिषेधे 'निष्ठायां सेडि' ति (पा. ६-२-४५) लोपः परगमन समबसरितं तं च, ते आगं तूर्ण रायाणां रायकच्चा य० ॥ ३११ ॥ सिलोगो, तस्थ रायाणो बद्धमउडा, रायमच्या अमच्चा, डंडणायगा सेणावइप्प1. भितयो, माहणा धीयारा, तेसिं उप्पत्ती जहा सामाइयनिज्जुतीय, 'अदुव खत्तिया' नाम कोइ राया भवइ ण खत्तियो अनो [213] धर्म कथकस्परूपं ॥२०८॥ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [२१०-२७७/२२६-२९३], नियुक्ति: [२४७-२६८/२४५-२६८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||२१० ॥२०९।। २७७|| श्रीदश #खनियो भवति, ण उ राया, तत्थ जे खत्तिया ण तेसि गहणं कर्य, तं तमायरियं विणय प्रवर्ग उनकमिऊर्ग णिहुयपाणिपाया इम:|| कालिकापुच्छति-भगवं, कई तुम्भं आयारगोयरो जिणेहिं उवदिहोति । तओ-तेसिं सो निहुओ दंतो० ॥ २१२ ॥ सिलोगो, तेसिकथकस्य बारायादीणं सो णाणदंसणादिगुणसंपन्नो णिहुअणाम इत्यादीहिं संजओ, दंतो इंदियनाईदिएहि, सब्वाणि भूयाणि २ तसि सब-15 ६ धमो. भूयाणं सुहमावहतीति सयभूतमुहावहो, सबभूतसुहावहो नाम सबसत्तदयावरो, सिक्खा दविधा, तंजहा-गहणसिक्खा आसे IN वणासिक्खा य, गहणसिक्खा नाम सुत्तत्थाणं गहणं, आसेवणासिक्खा नाम जे तत्थ करणिज्जा जोगा तेर्सि कारणं संफासणे,13 अकरणिज्जाण य वज्जणया,एताए दुबिहाए सिक्खाए सुट्ट समाउत्तो, आइक्वह विपक्षणोत्ति, चक्षिद् व्यक्तायां वाचि धातुः,16 अस्य धातोः विपूर्वस्य चलनशब्दाथोंदकम्मेकायुचि (पा. ३-३-१४८) त्यनुवर्तमाने 'गश्च (अनुदात्तेतच) हलादे"रिति (पा. 81३-२-१४९) युप्रत्ययः, अनुबन्धलोपः 'युवोरनाका' विति (पा.७१-७) अनादेशः 'रषाभ्यां नो णोऽसमानपद' इति (पा.18 ८-४.१) 'अकुप्वानुम्व्यवायेऽपीति' (पा. ८-४-२) नकारस्य णकारः परगमन, विविधमनेकप्रकारमाचष्टे विचक्षणः, आचष्टेट | इति कथयति, विचक्षणः पंडितः । 'हंदि धम्मत्यकामाणं ॥२१३॥ सिलोगो, हंदिशब्द उपप्रदर्शने वर्तते, किमुपप्रदर्शयति । ये भवन्तः श्रोतव्याभिकांक्षितयोपस्थिताः ते कथ्यमानं धर्म शृण्वंतु, धृञ् धारणे धातुः, अस्प 'आतो मनिनक्वानिप्वनिपथे(पा. ३.२-७४) त्यनुवर्तमाने 'अन्येभ्योऽपि दृश्यन्त' इति (पा. ३.२-७५) मनिन् प्रत्ययः, नकारेकारलोपः' 'सार्वधातुकार्द्ध- ॥२० ॥ धातुकयों रिति (पा. ७-३८४) गुणः परच, नरकतिर्यग्योनिकुमानुपकुदेवत्वे पततं धारयतीति धमे, 'ऋगतो' धातुः,। अस्य धातोः 'उषिकुपिगार्निभ्यः थानति ( उ०२) अः थन् प्रत्ययः, नकारलोपः अर्द्धधातुकत्वाद् गुणः, अकारो गुणः र-16 दीप अनुक्रम [२२६२९३] SECRE KARNA [214] Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [२१०-२७७/२२६-२९३], नियुक्ति: [२४७-२६८/२४५-२६८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत श्रीदश सूत्रांक [१५...] गाथा ||२१० चूणी ६धमो. ॥२१ ॥ २७७|| SICROSSESIRE परश्च 'अनचि चेति (पा. ८-४-४७) द्वित्वेन थकारः 'झलां जशोऽन्त' इति (पा. ८-२-३९) जस्त्वेन थकारस्य दकारः, धर्म मेदाः 'स्वार चे (पा. ८-४-५५) तिं बंधे थकारस्य तकारः, परगमनं, इयर्तीति अर्थः, कम कान्ती धातुः, अस्य धातोः 'पदज-टू विप्सस्पृशो घबू (ण. ३-३-१५) इत्यनुवर्तमाने 'भावे (३-३-१८)ति घञ् प्रत्यया, अनुबन्धलोपा परगमनं कामा, अथवा काम्यते स्म कामः, धर्मः अर्थों द्वावपि प्रथमतो वेति निपात्यन्ते, धर्मश्च अर्थश्च 'चाथै द्वन्द्व (पा. २.२-२९) समासः, सति | समासे 'सुपो धातुप्रातिपदिकयो' रिति (पा. २-४७१ ) सुप्लुक 'अकः सवर्णे दीर्घः' (पा. ६-१-१०१) धार्थ 'सर्वो द्वन्द्वी विभाषया एकवद्भवतीति' एकवद्भावः, 'स नंपुसक' मिति (पा. २-४१७) नपुंसकत्वे च धर्मार्थ, सतः तद्धार्थ ये कामयन्ति, मौधमित्युक्तं भवति, ते धर्मार्थकामा के च ते, निग्रन्थाः, ग्रथिं कौटिल्ये धातुः, अस्य धातोः निमपूर्वस्य 'इदितो नुम् धातोरिति (पा. ७-१-५८) नुमि कृते 'पुंसि संज्ञायां घ प्रायेणे'ति ( पा. ३-३-११४ ) घल् प्रत्ययः अनुबन्धलोपः परगमन, ग्रंथन ग्रन्थः, स च बायः सुपर्णहिरण्यवैदर्यमणिमौक्तिकादिः, अभ्यन्तरः क्रोधमानमायालोमेल्यादि, निर्गतो ग्रन्थः सपायाभ्यन्तरो बेषां ते निग्रन्थाः अतस्तेषां निग्रेन्धानां महर्षीणामाचारगोचरमभिधीयमानं दुरहिट्टियं शृण्वन्तु, तत्थ धम्मत्थकामाणति एयस्स आलावयस्सवि पुरओ अत्थं भणामि, तत्थ तिणि इमे भाणियव्या. तं०-धम्मो अत्थी कामोति, तत्थ पढ़म धम्मोचि दार भण्णइ, सो चउम्विधो, जहा दुमपुफियाए, णवरं इह लोगुत्तरी भण्णइ, सो य इमो-धम्मो बाचीसविहो ।। २४८ ॥ गाथा, लोगु-1 २१०॥ | तरी धम्मो ओहेण बाबीसविधो भवति, सो पुण विभज्जमाणो दुविधो भवइ, तं०- अगारधम्मो अणगारधम्मो य, अगारधम्मोदा वारसविधो अणगारधम्मो दसविहो, दुविहोंडवि मेलिज्जमाणो बाबीसइविहो. भवर, तत्थ जो सो बारसविहो भवह अगारधम्मो दीप अनुक्रम [२२६२९३] - - - - ... अत्र धर्मस्य भेदा: वर्णयन्ते [215] Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [२१०-२७७/२२६-२९३], नियुक्ति: [२४७-२६८/२४५-२६८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||२१० २७७|| श्रीदन ! सो इमो-पंच य अणुब्बयाई०॥ २४९ ॥ गाथा, पंच अणुवया थलाओ पाणातिवायाओ बेरमणे यलाओ मसावायाओ वेरमणं अथवा बैकालिकाधूलाओ अदिण्णादाणाओ बेरमण सदारसंतोसो इच्छापरिमाण, तिण्णि गणव्ययाणि, तं०-दिसिवयं उपमांगपारमागपरिमाण चूणों अणस्थदंडपरिहारी, चत्तारि सिक्खाववाणि, तजहा-सामाइयं देसावगासिअंपोसहाववासी अतिथिसंविभागों, अपच्छिममारणातयन ६ धमो. | संलेहणाअसणाराहणा, एतस्स बारसविहस्स सावगधम्मस्स यक्वाणं जहा पच्चक्वाणनिज्जुत्तीप, तत्थ जो सो दसविधोवि साहर्ण, सो य इमो, तं- खनी अ मद्दवजय' ।। २५० ॥ गाथा, कण्ठया, एसो दसविधोंडवि समणधम्मो जहा दुमपुषिक॥२१॥ ICयाए,धम्मागा.श्वाणि अत्थी मण्णाइ-'धम्मा एसुवाडोर ॥२५१।। गाथा,धम्मो, दाणि च अत्थो भवइ, चांथ्वहा, त जहा-नामस्थो ठवणत्थो दव्बत्थो भावत्यो य, नामठवणाओ गयाओ, दवे हिरण्णादि, भावत्थो दुविहो-पसत्थो अप्पसत्थो य, तत्थ पसत्थो णाणदसणचरित्ताणि, अप्पसत्थो अबाणअविरतिमिच्छत्ताणि, तत्थ जो सो दव्वत्थो सो संखेतेण छव्धिहो भवति,8 वित्थरओ पुण चउसट्टिीवघोत्ति, तत्थ जो सो छविधो सो इमो-धन्नाणि रयण ॥ २५२ ।। (वृत्ता समग्रेय) गाथा, धमाणि रयणाणि थावरं दुपदं चउप्पदं कुवियंति, एत्थ ओहेणे छविधा अत्थो गतो । इदाणिं पयाणती चव छबिहातो अत्थाओ चउसद्विविधो अत्थो निष्फज्जइ, सो य इमेण गाथापच्दारेण भष्णइ-'चउवीसा चउवीसा॥ २५२ ॥ (वृत्ती समग्रेयं) । है गाथापच्छा , तत्थ धनाणि चउब्धिसं रयणाणि चउबीस थावरं तिविहं दुपये दुविहं चउप्पयं दसविहं कुविय अणेगविहं, तं च ॥२११॥ अणेगविहमवि एग चेव गणिज्जति, सब्वे ते भेया पिाडया चउसट्ठी भवति । तत्थ धनाणि चउसिं इमाहि दोहिं गाहाहिं मण्णन्ति-धन्नाणि चउव्वीस०॥ २५४ ।। गाथा, अयास हरिमन्थ तिउडग० ॥२५५ ॥ गाथा, तत्थ जवगोधूमसालिबीहि दीप अनुक्रम [२२६२९३] [216] Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [२१०-२७७/२२६-२९३], नियुक्ति: [२४७-२६८/२४५-२६८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||२१० २७७|| श्रीदश-18 सालि (सहि) णो पसिद्धा, सट्ठीगा सालिभेओ, कोहवअणुया पसिद्धा, कंगूगहणण उड़कंगूए गहणं, जे पुण अवसेसा कंगूमेया|४अर्थभेदाः वैकालिकालते रालओ भण्णा, तिल्लमुग्गमासा अतसी य एताणि पसिद्धाणि, हरिमन्था कालचणया, तिउडया लंगचनया, णिप्फावा बल्ला, चूणों. मसूरा मालवविसयादिसु चवलगा, रायमासा इक्खतुंडगादि, सासियो राइआतो, तुवरी आढगी, कुलत्था पसिद्धा, धण्णया ६ धो . कुंकुभरीओ, कलाया वट्टचणया, चउवीसं धण्णा भणिया । इदाणि दोहि गाहाहिं चउवासं स्यणाणि भणंति-रयणाणि चउ॥२१॥ वीसं० ॥२५६ ।। गाहा, 'संखो तिणिसागुरु० ॥२५७ ॥ गाहा, सुवण्णतउयतंबा पसिद्धा, रययं-रुप्पयं भण्णइ, लोह |सीसगाणि पसीयाणि, हिरणं रूवगादि, पासाणग्गहणण विवातिपासाणग्गहर्ण कयं, 'वहरं' बहरमेव, मणिग्गहणण जाति केह पासाणभेदा एए सवे गहिया, मोत्तियपवालसंखा लोगप्पसिद्धा, तिणिसरुक्खोऽवि रयणं, अगरुचंदणा पसिद्धा, वत्थगहणेण | सोत्थियवागयादीणि, अमिलागहणे सम्बेसि उनियाणं गहणं कयं, कठगहणणं सागरुक्खादाणं गहणं कर्य, दंता इत्थीणं, चम्मा महिसिगाईणं, वाला चमरीणं, गंधा सोगंधियाणि दवाणि दब्बोसही पिप्पिलीमिरियादी, चउर्वासइविहाणिवि रयणाणि भाणिदयाणि, इयाणिं थावरं भण्णइ--भूमि घरा०॥२५८ अद्धगाथा, तिविहं थावरं भवति, 'भूमिघर तरुगणा' इति तत्थ भूमिखेर तिविध-सेतु बेतु उभयं, घरं तिविह-खातं उस्सितं खाओसितं, तत्थ खायं जहा भूमिघरं, उस्सितं जहा पासाओ, खातउस्सितं जहा भूमिघरस्स उवरि पासादो तरुगणा जहा नालिकेरिकदलीमादी, थावरं गतं। इयाणि दुपदं भषणइ 'चक्कारपद्धमाणुस' दागाधापच्छर्दू, दुपदं दुविह-चकारबद्धं माणुसं च, चक्कारबर्दू णाम सगडरहादीणि, माणुसे पहुसादासभयदादी, गर्य दुपदं । इयाणि | पदं । याणि ॥२१२॥ चउप्पदं भण्णइ, तं दसविध, गावी महिसी उहा अयएलग॥२५९॥ गाथा (गावीमाइआओ) पसिद्धाओ, आसो नाम दीप अनुक्रम [२२६२९३] CHECOACC [217] Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [२१०-२७७/२२६-२९३], नियुक्ति: [२४७-२६८/२४५-२६८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||२१० २७७|| श्रीदश- जच्चस्सा जे पक्खलिविसयादिसु भवन्ति, अस्सतरा नाम जे विजातिजाया जहा महमदएण दीलबालियाए, जे पुण अज्जवजाति- कामभेदाः बंकालिकामा |जाता ते घोडगा भवति, चउप्पदं गयं । इदाणिं कृवियं भष्णा-'नाणाविहोवगरणं.'॥२६० ।। गाथा, तत्थ कुवियं नाम 12 चूणौ घडघडिउदुंचणियं सयणासणभाषणादि गिहवित्थारो कुचियं भण्णइ, कुवियं गतं, एसो य अस्थो छविहो चउसडिपडीयारोवि ६ धर्मा. गतो । इयाणि कामो भण्णद, तत्थ इमा सुत्तफासियनिज्जुनी, तं०-'कामो चउचीसविहो॥२६१ ॥ माथा, ओहेण ताब ॥२१३॥ चउचीसइविधो कामो भवति, सो पुण विभज्जमाणो दुविधो-संपत्तो असंपत्तो य, तत्थ संपत्तो चउदसषिधी, एते दोऽपि मिलिया | चउवीसइविधो कामो भवति, तत्थ असंपत्तो बायरउसिकाऊणं पढम भन्नइ, सो इमाए गाथाए अद्धगाथाए व भण्णइ, तं०-६ 'तत्य असंपत्तो अस्थी चिंता॥ २६२ ।। गाथा, तब्मावणा, मरणं दसमो, अद्धमाथा, सो य असंपत्तो दसविधो इमो, तंत्र अस्थी चिंता सद्धा संसरणं विक्कवया लज्जानासो पमायो उम्मायो मरण कभावणा, तत्थ अस्थो नाम अभिप्पाओ जहा कस्सह | अदट्ठणवि इत्थीरूवं सोऊणं वा इच्छा उष्पज्जा, एवमादी, चिंतानाम तत्थेव अभिनियेसो पच्छओ वा भवह इहेव रूबाइगुणा | इति, सद्धा नाम तेहिं रूवादीहिं अक्खित्तो तमेव कंखइ, कह नाम मम तीए सह समागमो होज्जा, समरणं णाम जो तमेव इच्छितभुत्तं समाणि भुज्जो विप्पयोगे सरइ, विक्कवया नाम तीए विप्पयोगे विक्कवी भवति, सोमाभिभूयो य जहोचियाणि आहाराच्छायणादीणि णाभिलसइ, लज्जपासो बाम मुहुत्ते २ तीए नामगहणं करेइ, मातिपितिनातिमादीयाणवि गुरुण पुरओ ॥२१॥ तीए नामगहणं करेमाणो पलज्जइ, पमादो नाम सब्बारंभपवत्तणपरिच्चागो अभिनिवेसेणं, उम्मादो नाम कज्जाकज्जवच्चावच्चाणं अजाणया, मरण नाम उम्मादस्स अंते मरणं भवति, तब्भावणा नाम रागवसगचणेण तमिस्थियं मण्णमाणो धमादीणि दीप अनुक्रम [२२६२९३] [218] Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||२१० २७७|| दीप अनुक्रम [२२६ २९३] "दशवैकालिक" - मूलसूत्र -3 (निर्युक्तिः + भाष्य | + चूर्णि:) अध्ययनं [६], उद्देशक [-] मूलं [ १५...]/ गाथा: [ २१०-२७७/२२६-२९३] निर्युक्तिः [ २४७-२६८/२४५-२६८], आष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४२], मूलसूत्र [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: श्रीदशवैकालिक चूर्णी ६ धर्मा. ॥२१४॥ - - उवगूहइ आयासोवराहं वा करेइ (मरणवद्भावयोः क्रमविपर्यांसो वृत्त) असंपतो गओ । इदाणिं संपतो इमेण गाहाए पच्छद्वेग गाहाए य भण्ण, तं०- दिडीए संपाओ' अद्धगाथा, हसिअललि अवगृहिअ० || २६४ ॥ गाथा, चोइसविहो संपतो, नं० दिट्टिसंपातो दिट्टिसेवणं सभासो हसितं ललिये उपगूहणं दंतनधनिवातो चुंबणं आलिंगण आदाणं करणं आसेवर्ण अगंगकिड्डा य, तत्थ दिट्ठिसंपाठो नाम जमित्थियाए जंगे दिट्ठि णिवाडेऊण पडिसाहरणं, दिट्ठिसवणं णाम जं दिट्टीए दिट्ठि निवेसयर, संभाषणा नाम दिडिआदिविगारेहिं भावाणुरचं नाउं संभासर, जहा एवं कज्जं भवउत्ति, हसियं नाम पणए कोवपसादेसु हासो पवचर, ललिये नाम कमाइ जुद्ध कमाइ गंधव्वं कदाइ नहंति एवमादि, अहवा अगुडफोडगादीहिं उबललणातो सहि वा उवललति उवगृहं णाम परिष्वक्तं, दंतनिवातो णाम दसणेहिं दसणाधरादि लुंपणं, णहनिवाओ णाम जं नहेर्हि छेदणं, अवा नहग्गेहिं थणोदररोमराइमा - दीणं आसुअणं, चुंबणं नाम अवरोप्परतो बदणसमागमों, आलिंगणं णाम ईसित्ति संफरिसणमालिंगणं, आयाणं णाम गहणं, तं च सिरकरचरणथणउदरादिसु भवति, करणं नाम अवाओणीकरणं, जेण वा पगारे कार्ड पाविहिति तं करणं, आसणं नाम मेहुणासेवर्ण, अगंग किड्डा नाम जो आसणा-गोस्या- पोसयादिसु भवति, संमत्ता य कामकहा। इदाणिमेतेसिं सवत्ता असवचया य भण्णइ, ०- 'धम्मो अत्थो कामी' || २३५ || गाथा पाठ्या, धम्मत्थं कामादि एगओ पिंडिज्जमाणा पडिसवत्तया भवन्ति, अवरोप्परओ विभज्जैतित्ति वृत्तं भव, कहं ?, 'अर्थस्य मूलं निकृतिः क्षमा च, कामस्य वित्तं च वपुर्वयश्च । धर्मस्य दानं च दया दम, मोक्षस्य सर्वोपरमः क्रियासु ॥ १ ॥ ' निवडी तोव घम्मेण सह विरुज्झर, दाणदमादीणि अत्थेण कामेण य सह विरुज्यंति, एत्थं वित्थरओ विरोहो भावियथ्यो, एवं गिहत्थेसु कुपासंडेसु य विरुद्धा घम्मत्थकामा भवंति, 'जिणवयणं [219] जिनमते धर्माथकामाविरोधः ॥२१४॥ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [२१०-२७७/२२६-२९३], नियुक्ति: [२४७-२६८/२४५-२६८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||२१० श्रीदश- बैंकालिक चूर्णी ६ धमो. ॥२१५॥ २७७|| उत्तिना असवत्ता होति नायब्वा', जिणाणं वयंणं जिणवयणतिवृत्तं भवइ, ते धम्मत्यकामा जिणपवयणमोइण्णा अविरुद्धा | अन्यत्रा| भवति, कह १, जम्हा- 'धम्मस्स फलं मोक्यो ' गाथा, सो य सासओ अतुलो सिबे अणाचाहो, सो चेव अरथो अहिप्पाएतीति चाराभाव: धम्मत्थकामा, अभिप्पायति नाम अभिलसंति वा पत्थयंति वा कामयांत वा अभिप्यायति वा एगट्ठा, लोगाइयाइणो एवं मणति, जहा 'परलोगु मुत्तिमग्गो' ।। २६८ ॥ गाथा, ज ते लोगाययमादि एवं पनावयंति, जो परलोगो मुत्तिमग्गो मोक्खो य नस्थिति, तत्थ परलोगमोक्खा पसिद्धा, मुत्ति (मग्गो) नाणदसणचरित्ताणि भवंति, अवितहा इहेब जिणवयणे, णो अन्नेसु कुप्पाबयणेसुत्ति, सीसो आह-कई नज्जति जहा जीवो न(अ)स्थि, जीवे पसिद्धे सेसा परलोगादिभावा भविस्संति, आयरिओ भणइ धम्मस्थकामग्गहणाओ णज्जइ जहा जीवो अत्थि, ण जीवाभावे धम्मत्थकामाणं सिद्धी इच्छिज्जइ, पसिद्धा य लोगे धम्मत्थकामा, | तम्हा अस्थि जवित्ति । 'हंदि धम्मत्यकामाणति एतस्स वक्वाणं सम्मत्तम् । इयाणि 'निग्गंधाण सुणेहि त्ति, विगओ बाहिरभतरो ग्रन्थो जेसि ते निग्गथा तोसणं मह 'आयारगोय'ति आयारस्स गोयरो आयारगोयरो, गोयरो णाम विसओ, भीमं णाम सो आयारगोयरो कहिज्जमाणो सोआरस्स रोमहरिसं करेइ, किमंग पुण कीरमाणोत्ति?, 'सकलं' णाम संपुण्ण, सो ४ाय आयारो मयलो दुवं अहिद्विज्जइति दुरहिद्वियं, अओ एवं दुरहिट्टियं मुणेहत्ति। इदाणिं नवधम्माणं पच्चयनिमित्तं परवादि-15 मतिनिरहरणनिमित्तं च इमं भन्नइ- 'नन्नत्य एरिसं। २१४ ॥ सिलोगो, णकारी पडिसेधे बट्टइ, अन्नत्थसदो परिवज्जे, ॥२१५॥ कुतित्थाणि परिवज्जयाति, जहा जमिदाणि भन्नति ते एरिसं न अनेसु कुप्पावणेसुत्ति एवं परिवज्जयति, परमं नाम अणुत्तर, दुक्खं चरिज्जतिति दुच्चर, सच्चदुच्चराणि अविकम्म वतीति परमदुच्चर, विउलं नाम विच्छिचंति वा अर्णतंति वा विउलंति दीप अनुक्रम [२२६२९३] [220] Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [२१०-२७७/२२६-२९३], नियुक्ति: [२४७-२६८/२४५-२६८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा बैंकालिक ||२१० आदश- या एगट्ठा, विउलं ठाणं भावयतीति विउलट्ठाणभावी, विउलठाणमाइस्स, भावयति नाम निच्चत्तातत्ति वुत्तं भवति, विउलट्ठाण-ID अष्टादश भाइस्स सील चरित्तं वा जिणपवयणं मोतुं अन्न न भविस्सति, कहं , जेण हरिहरहिरनगम्भसकोलुगादिसु कहावि एसा णत्थि, स्थानानि चूर्णी तत्थ सकाणं ताव सक्ककारणेणं असुते असुते राउले पब्बइए वहाण अकप्पियाणि अणुण्णायाणि, तहा अण्णसिपि बालो दुकवतो ६ धमो. या हिंसादीणि आयरंतो अबंधओ, तम्हा कुतित्थियाणं सच्छेदपरिष्ड्डयाणं संपुष्णस्स अभावो भवइ, इई पुण जिणसासणे'सखुड्डगविअत्ताणं' ॥ २१५ ॥ सिलोगो, सह खुड्डगहि सखुडगा, वियत्ता नाम महल्ला, तसिं 'सखुहगवियत्ताणं' बालवुड्डाणति बुत्तं भवइ, वाही जेसिं अस्थि ते वाहिया, चकारेण अवाहियाणवि गहणं, तेर्सि सबालवुवाणं वाहियावाहियाणं जे गुणा ते इयाणि भनिहिति, ते तेहिं अक्खंडफुडा कायध्वचि, तत्थ तोस पडिवक्खभृता अगुणा भन्नति, तेसु य परिहरिएसु गुणा अखंडफुडा कया चेव, ते इमे- 'दस अट्ट य ठाणाई ॥२१६ ।। सिलोगो, एताई वाई अट्ठारसट्ठाणाई जाई बालयाए अवरज्झइ, अवरज्झति नाम आयरइ, तस्थ एगतरमवि आयरंतो निग्रन्थमाचाओ भण्ण (स्सति, एस चेव अत्थो सुत्तफासियनिज्जुत्तीए भण्णति, तं- 'अट्ठारस ठाणाइं० ॥२६९ ।। गाथा भाणियब्वा, कयराणि पुण अट्ठारस ठाणाई, एल्थ इमाए सुत्तफासियनिज्जुत्तीए || | भण्णइ- 'वयछक कायछक्कं, अकप्पो० ॥ २७० ॥ गाथा, क्यछकं रातीभोयणछकाणि वयाणि पंच, काया पुढविकाइयमामाइणो छ, 'अकप्पो गिहिभायणं पलियंको गिहिणिज्जा सिणाणं सोहबज्जणं' वाजणसदो एतेसु सब्बेसु पत्तेयं पत्तेयं । ला दहब्बो, तं०- सोहवज्जणं सिणाणवज्जणं गिहिनिसज्जवज्जणं एवं सब्बत्थ भाणियन्त्र, भणियाणि अद्वारसयि ठाणाणि, जाईल अखंडफुल्लाणि कायवाणि, न सो विधी भणिओ जेण विहिणा वाणि अखंडफुल्लाणि कीरंति, अओ वयछक्कस्स ताव विधि भणामि.IMI *SHREE २७७|| दीप अनुक्रम [२२६२९३] CCCARRI [221] Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [२१०-२७७/२२६-२९३], नियुक्ति: [२४७-२६८/२४५-२६८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||२१० २७७|| श्रीदश- त- 'तस्थिमं पढम ठाणं० ॥ २१७ ॥ सिलोगो, 'लस्थिम' नाम मि अट्ठारसविहे ठाणे वयछक्के वा इमं नाम जमिदाणिमा व्रतपदकम् बैंकालिक IN भपिणहिति पढमणाम सुत्तक्कमपढिवाडीए इमं पढमं चिटृति जत्थ साहणो तं ठाणं 'महावीरेण देसि तेण भगवया | घूर्णी १ तिलोगबंधुणा देसिब, ण अहमेव अप्पणो इच्छाए भणामित्ति, 'अहिंसा निउणा दिह' ति निउणा' नाम सब्यजीवाणं, सब्वे ६ धमो. चाहिं अणववाएण, जेणं उद्देसियादीणि भुजंति ते तहेव हिंसगा भवन्ति, जीवाजीवेहिं संजमोति सव्वजीवेसु अविसेसेण संजमो ॥२१७|| जम्हा अओ अहिंसा जिणसासणे निउणा, ण अण्णत्थ, आह- कह सो सम्बजीयेसु संजमो भवति ? कहमेव ते जीवा', भण्णंति'जाति लोए पाणा' ।। २१८ ॥ सिलोगो, 'जाति लोए पाणा' कयमेव, तसथावरपाणे जाणमाणो अजाणमाणो वा नो हज्जा नेव अभिण पाएज्जा. 'जाणमाणो' नाम जेसि चिंतऊण रागदोसाभिभूओ पाएइ, अजाणमाणो नाम अपदुस्समाणो अणुयओगेण इंदियाइणावी पमातेण घातयति, एवं ते तसपाणा थावरा पाणा जाणमाणा अजाणमाणा वा नो पाएज्जा, सो। जाणओ वा अजाणो या होज्जा, सन्नी वा असबी वान बुत्तं भवइ, तं सयं जोगतिएण व हणेज्जा व अमेण हणावेज्जा, 'एगग्गहणे गद्दणं तज्जाईयाण' मितिकाउं हर्णतमवि अब न समणुजाणेज्जा, किं पुण कारण?, मणइ-सब्वे जीवावि इच्छति ॥ २१९ ॥ सिलोगो, सब्बजीवा अपरिसंसा जीपिउं इच्छति, ण मरिज्जिउ, भणियं च "जो जाए जातीए जीवो आयाति सोx तहि रमइ । इच्छेइ जीवियं जो वेग अहिंसं पसंसेमि ॥१॥" तम्हा पाणवहं घोरं नाम भयाणगंणाऊण बहुमवापरं पाणबह २१७।। वगयगंधा बज्जयंतिचि पढम पाणाइवायतिरती भष्णति। अप्पणट्ठा परहा बा ॥२२०॥ सिलोगो, 'अप्पणट्टा वार जहा कोई अगिलाणो गिलाणो अहमितिकाऊण किंचि हादीति नियएमु वा उवसंतएसु वा अमेसु वा एवंधिहसु मग्गर, दीप अनुक्रम [२२६२९३] ...अत्र षड़ भेदे व्रत-वर्णनं क्रियते [222] Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [२१०-२७७/२२६-२९३], नियुक्ति: [२४७-२६८/२४५-२६८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत श्रीदश सूत्रांक [१५...] गाथा चूर्णी ६ धमो. ||२१० ॥२१८॥ का परढाए सत्रियगादिसु परस्स अट्ठाए ओभासद, 'कोहा' जहा तुम दासो जुंगितो एवमादि, कोहगहणेण माणमायालोभाषि बतषट्कम् गहिया, तत्थ माणेणं जहा अबहुस्सुतो भणति बहुस्सुए उ अहमिति, मायाए अलसियत्तणेण पादो दुक्खिस्सइत्ति गामे ण हिंडइन । एवमादि, लोभेण जहा कोइ भ घेत्तूर्ण धुवं अर्ण लाभ चेतिमाणो एसणिज्जपि भणइ. इमं मायाए जाह (अणेसणिज्जति, अहवाभयओ वितह काऊण पच्छित्तभया न कयमिति, एगग्गहणे गहणं तज्जातीयाणति हासा दिणोऽवि गहिया)गहियं, तओ एते 'हिंसगं, न मुसं बूआ' 'हिंसग नाम जेण सच्चेण भणिएण पीडा उप्पज्जइ तं हिंसर्ग,जहा अस्थि ते केऽवि मिया वा पसुया वा दिवा, तित्थ भाषियब्ब-ण पस्सामित्ति, सच्चमेव तं अपि, अपि च न तच्चवचनं सत्यमतच्चवचनं न च, यद् भूतहितमत्यन्तं तत्सत्यमितरं मृषा, जहा सयं मुसाबाय नो ब्रूयात् तहा नोवि अन्न वयावए, 'एगग्गहणे गहणं तज्जाइयाण' मितिकाउं वदंतमवि अब न ६ समणुजाणेज्जा, किं कारणं, भण्णइ-मुसाबाओ उ लोगम्मि, सब्वसाहहिं ॥ २२१ ।। सिलोगो, जो सो मुसाबाओ एस सब्बसाहहिं गरहिओ, सक्कादिणावि मुसाबादं गरहति, तत्थ सक्काण पंचण्हं सिक्खाबयाणं मुसाबाओ भारियतरोत्ति, एत्थ उदाहरणं- एगण उवासएण मुसायायवज्जाणि चत्तारि सिक्खावयाणि गहियाणि, तओ सो ताणि भंजिउमारद्धो, अण्ण य भणिओ, जहा-किमेयाणि भंजसि, तओ सो भणइ-मिच्छा, णाहं भंजामि, ण मए मुसावायस्स पच्चक्खाय, तेसिपि सव्वा ॥२१८॥ दियया णिच्छिता, एतेण कारणेणं तेसिपि मुसाबाओ अज्जो सबसिक्खापदेहितो. किंच- 'अविस्सासीय भूतार्ण' मुसाबादो।की । भवई, यथा किमनेन यत्किचित्प्रलापिनेति', तम्हा एते दोसा जाणिऊण मम्म सम्वषयत्नण बज्जेज्जा । मुसावादावरता गता, GिI इदाणि अदिनादाणचिरती भण्णइ, तं०- चित्तमंतमचित्तं वा०॥ २२२ ।। सिलोगो, चिन नाम चेतण। भण्णइ, सा च S--%CatCROCHA २७७|| दीप अनुक्रम [२२६२९३] KAL [223] Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [२१०-२७७/२२६-२९३], नियुक्ति: [२४७-२६८/२४५-२६८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||२१० २७७|| श्रीदश- चेतणा जस्स अस्थि तं वित्तमंत भण्णइ, तं दुपये चउप्पयं अपयं वा होज्जा, 'अचित्तं' नाम हिरण्णादि, अप्पं नाम पमाणओबतपटकम् कालिक मुल्लओ य, बहुमपि पमाणओ माओ य, किंबहुणा, दंतसोहणमित्तमवि उगई अणुण्णबेऊण कप्पह पडिगाउं, जस्सत चू! दवं परिम्गहे व ते अणुजाणेविऊणं पडिगाहेज्जा, दंता सोहिज्जति जेण ते दंतसोहर्ण-सणगादि तं दंतसोधणमेत्तमवि ६ धर्मा- IIअदिष्णं ण कापड । किंच-'तं अप्पणा ण गिण्हंति नोऽपि गिपहावए परं॥ २२३ ।। सिलोगो पाठ्यो, अदिपणादाण-1 बिरती गता । इदाणिं अबभविरती भष्णइ, तं-अर्थभचारअं घोरं ॥२२४॥ सिलोगो, अबंभचारियं घोरं नाम निरणुकोस, ॥२१९॥ CI कई, अबभपपत्तो हिण किंचितं अकिच्चे जे सोन भणद, जम्हा एतेण पमत्तो भवति अतो पमादं भणदतं च मध्यपमादाणं। आदी, अहवा सम्यं चरणकरण तमि यदृमाणे पमादेतित्ति पमादं भणइ, दुराहटियं नाम दुगुम्छ पाबइ तमहिट्ठियतोत्ति दुरहि-14 ४ ट्ठियं, अहया तेण संजतवेसेण दुक्खं अच्छिज्जतीति दुरहिडियं, अथवा कामा चउविधा, तं०- सिंगारा कलुणा धीमच्छा रोदा, तस्थ सिंगारकामा देवाणं, कलुणाकामा माणुसाणं, बीभच्छाकामा तिरियाणं, रोहा कामा गैरइयाणं, अतो ते बीभच्छा कामाला सबसी अवि हेढा, तहप्पगारं 'नायरंति' णाम णासेवति, मुणिग्गहणण साधुम्गहणं कर्य, लोगग्गहणेण समयखेत्तस्स गहर्ण कर्य। अभिज्जह जेण चरित्नपाली सो भेदो तस्स भेदस्स पसूती आयतणं मेहुणंति, भेदायतणं बज्जति- साधवो सच्चपगारेण णायरंतिलिकिंच. 'मलमेयमहम्मस्स०॥ २२५ । सिलोगो मलं नाम बीयति वा पहाणंति वा मूलंति वा एगट्ठा, अधम्मो ||२१९॥ लपसिद्धा, महन्ताणं महन्ताण दोसाणं समुस्सयं, समुस्सयोति वा रासिति वा एगट्ठा, तत्थ दोसा कलहबरपहारमारणादाया, जम्हा एते दोसा तम्हा एवं नाऊण निर्ग्रन्था सब्बपयत्तेण मेहुणसंसग्गी बज्जयंतित्ति, मेहुणविरती गता। इदाणि परिग्गहविरई दीप अनुक्रम [२२६२९३] [224] Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||२१० २७७|| दीप अनुक्रम [२२६ २९३] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + भाष्य | + चूर्णि:) अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [ २१०-२७७/२२६-२९३], निर्युक्तिः [ २४७-२६८ / २४५-२६८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि श्रीदशबेकालिक चूर्णां ६ धर्मा. ॥२२० ॥ 'बिडमुभेइमं लोणं०' || सिलोगो, तत्थ लोणं दुर्विधं तं०- विडं च उम्मेदमं च तत्थ बिलं ( ं) गोमुतादीहिं पविऊण कित्तिमं कीरह, उम्मेदमग्गहणेण सामुद्दादीण ग्रहणं कथं, अहवा विलग्गहणेण फासुगलोणस्स गहणं कर्य, उन्मेइमरगहणेण अफासुगस्स लोणस्स, ते लोगपसिद्ध, सप्पी वयं भष्णइ, फाणियगहणेण सव्वस्स गुडस्स ग्रहणं कयंति, एतेसिं लोणादीणं गहणं सारोऽधवा आधारोति गहिऊण कयांत, एताणि अविणासिदव्वाणि न कप्पंति, किमंग पुण रसादीणि विणा सिदव्वाणिति है, एवमादि सविधिं न ते साधवो भगवन्तो णायपुत्तस्स चयणे रया इच्छंति, 'सभिधि' नाम एतेसिं दव्वाणं जा परिवासणा सा सन्निधी भण्णति, परिवासंतस्स य इमे इमे दोसा भवन्ति-लोहस्सेस अणु० ॥ २२७ ॥ सिलोगो, अणुफासो नाम अणुभावो भण्णति, जहा सुकाला फासो, एवं एसोऽचि लोभाणुभावोत्ति वृत्तं भवति, मन्त्रेणाम तित्थंकरो वा एवमाह-जहा जमेताणं बिलसुभेहमादीणं सन्निही णामेसो महालोहाणुफासो मन्नामित्ति, अन्नतरं णाम तिलतुसतिभागमेत्तमचि, अहवा अन्नयरं असणादी, अविसदो संभावणे, किं सम्भावयति ?, जहा जह ताव धोवमवि असणार गण्हमाणे दोसाणमायतणं भवति, किं पुण जे बहुगण्हति ? सव्वाणि वा असणादीणि गिव्हात ? एवं सम्भावयति, 'जे' चि अविससिताणं गृहणं भवति, सिया कदापि, सणिहि कामयतीति समिहिकामी, गिर्ह जेसिं अस्थि ते गिट्टी, पव्बइयाचि होऊण गिट्टी व गितुल्ला वा, आह--जइ ताब लबगाणं संचए गिट्टी भवड़ तो कहं चत्यादी गिण्हमाणा साधुणो गिहिणो व भविस्संति ?, भण्णह जंपि वत्थं व पायं वा० ।। २२८ ॥ सिलोगो, जमितिसद्दो निदेसे बगृह, अविसदो संभावणे, किं सम्भावयति १, वत्थादीणं निरत्थयगहणेण दोसा भयंति संजमाणुपालयत्थं लज्जानिमित्तं वा वेप्यमाणाणि ण दोसकराणि भवंति एवं संभावयति, वस्थपाया पसिद्धा, कंबलग्गहणेण [225] व्रतपदकम् ॥२२० ॥ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [२१०-२७७/२२६-२९३], नियुक्ति: [२४७-२६८/२४५-२६८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||२१० २७७|| श्रीदश- पायणिज्जोगो (गहिओ) भवति उभियकप्पो वा, पादपुंछण-स्यहरणं, एतेसिं वत्थादाणं जं धारणं तमवि, संजनिमित्तं वा JAI व्रतपटकम् वैकालिक बत्थस्स महणं कीरइ, मा तस्स अभावे अग्गिसेवणादि दोसा भविस्संति, पाताभावेऽपि संसत्तपरिसाहणादी दोसा भविस्संति, | कंबलं वासकप्पादी ते उदगादिरक्षणढा घप्पति, लज्जानिमित्तं चोलपट्टको घेप्पति, अहया संजमा चेव लज्जा, भाणितं च "इह ६ धर्मा. लो लज्जा नाम लज्जामतो भण्णाइ, संजममंतोनि वुत्तं भवति," एताणि वत्थादीणि संजमलज्जडा 'धारयंति परिहरंति य', ॥२२१॥ धारणापरिहरणाण को पइविसेसो, तत्थ धारणा णाम संपयोअणत्थं धारिज्जइ, जहा उप्पणे पयोयणे एतं परि जिस्सामित्ति, एसा | धारणा, परिहरणा नाम जा सयं वत्थादी परिभुजइ सा परिहरणा भण्णइ, तं पुण घेपमाणं परिभुजमाणं वा कह, ण परिगहोद भविस्सइचि, भन्नइ, (अ) परिगहणभोगतो असारमुल्लरगहणायो य अधिभृतसाधारणतो य देसकालानभोगेण य परिग्गहदोसो न भविस्सइति । किंच--'न सो परिगहो चुत्तोगार२९|| सिलोगो, णकारी पडिसेहे वट्टइ, 'सो' ति जो सी वस्थादीण भपिओ, बुत्तं नाम युतंति वा भणितंति वा, धारयति वा संजमंति वा निमित्तंति वा एगट्ठा, णाया नाम खतियाणं जातिबिसेसो, तम्मि संभूओ सिद्धत्थो, तस्स पुत्तो णायपुत्तो, अन्नाणं अप्पं च तारयतीति तायी तेण तायिणा, ण सो पडिग्गहो भणिओत्ति, जा पुण | तेसु वत्थादी मुच्छा मो परिग्गहो भवति, अरचद्दुस्स परि जतस्स ण परिग्गहो भवइ, इतिसदी उपप्पदरिसणे पट्टर, गणधरा मणगपिया वा एचमाहुः-जहा एतेसु परिरगाहिएयु अपरिग्गहिएम या वयादिसु जा गेही सो परिग्गहो महसिणा मणियो, न ॥२२॥ MI केवळ नायपुत्तेण उवाधिगहणं कयं, किंच-सम्बत्थुवहिणा० ॥ २३० ।। सिलोगो. सम्येसु अतीताणागतेसु सबभूमिएमुत्ति, ते दादा-तिस्थयरा उबहिणा--एगदूसेण सचेलो धम्मो पनवेयवेत्तिकाऊणं णिग्गता, 'एगग्गहणे गहणं तज्जातीयाण' मितिकाउं % दीप अनुक्रम [२२६२९३] -- - [226] Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||२१० २७७|| दीप अनुक्रम [२२६ २९३] "दशवैकालिक" - मूलसूत्र -3 (निर्युक्तिः + भाष्य | + चूर्णि:) अध्ययनं [६], उद्देशक [-] मूलं [ १५...]/ गाथा: [ २१०-२७७/२२६-२९३] निर्युक्तिः [ २४७-२६८/२४५-२६८], आष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४२], मूलसूत्र [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: श्रीदशबैकालिक चूण ६ धर्मा. ॥२२२॥ - - 4 " पत्तेयबुद्धणिकप्पियादिणो सो अधियो भवति संरक्खण परिग्गहो' नाम संजमरक्खणणिमित्तं परिगिति ण दप्पपरिभूसणादिणिमिति । किंच 'अवि अप्यणोऽवि देहम्मि तेहिं भगवंतेहिं, ते हि भगवंतो सदेहेवि 'नायरंति ममाइयं" णायरंति' नाम न करेंति, 'ममाइयं ममतं, ते कओ वाहिरे उवगरणे मुच्छं करेहिंति ?, अमुच्छियस्स परिग्गहो कहं भविस्साई १, जहेब सरीरं धम्मसाइणत्थं अमुच्छिया धारयति तहा वत्थादणिवि । परिग्गहविरई गया, इयाणि राईमोयणविरती भण्ण, तं० अहो निच्च तवो कम्मं० ॥२३१॥ सिलोगो, अहो सदो तिसु अत्थेसु बढ्छ, तंजहा -दणिभावे विम्हए आमंतणे, तत्थ दीणभावे जहा अहो अहमिति, जद्दा विम्हए अहो सोहणं एवमादी, आमंतणे जहा आगच्छ अहो देवदत्तति एवमादि, एत्थ पुण अहोसहो विम्हए दथ्यो, गणधरा मणमपिता वा एवमाहु-जहा अहो कटुं निच्च तवो कम्मं ति णिच्चं नाम निययं तवोकम्मं तवो कीरमाणो, कथं तवो भवति। 'सव्वबुद्धेहिं वणियं' वणियं नाम वण्णियंति या देसियंति वा एगडा, किंच तेहिं बष्णियं १, भण्णइ ' जा य लज्जासमावित्ती जा' इति अविसेसिया, चकारो सावेक्खे, अस्थि च वृत्ति, किमवेकखइ ? जमेगभत्तं उचरिं भणिहिति एवं अवेक्ख लज्जा संजमो भण्णइ, जाए वित्तीए सो संजमो स समो भण्णइ, न विरुज्झइति वृत्तं भवइ, किं च-' एगभत्तं च भोअणं एगस्स रागदोसरहियस्स भोअणं अहवा इकवारं दिवसओ मोयांति । अहो राईभोयणे को दोस्रो ?, इत्थ भण्णह--' संतिमे मुहुमा पाणाο ॥ २३२ ॥ सिलोगो, 'संति' नाम विद्यन्ते इमे नाम जे पच्चक्खमेवोपलम्भन्ते, सुहुमा, तसा थावरा य, तत्थ तसा कुंथुमाई, थावरा बीयपरागादी, 'एगग्गहणेण गहणं तज्जातीयाण' मितिकाउं सुहुमरगहणेण वादराणचि, तसाणं गधणेण वणष्फइमाई गहिया, सो ताणि सुहुमबादराणि पाणाणि राओ अपास्तो कथमेपणीयं चरिष्यतीति । एषणीयं , [227] तपट्कम् ॥२२२॥ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||२१० २७७|| दीप अनुक्रम [२२६२९३] "दशवैकालिक" - मूलसूत्र -3 (निर्युक्तिः + भाष्य | + चूर्णि:) (निर्युक्ति:+|भाष्य|+चूर्णिः) अध्ययनं [६], उद्देशक [-] मूलं [ १५...]/ गाथा: [ २१०-२७७/२२६-२९३] निर्युक्तिः [ २४७-२६८/२४५-२६८], आष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४२], मूलसूत्र [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: श्रीदशवैकालिक चूर्णी ६ धर्मा. ॥२२३॥ হ% % ১৩6 - ••• अत्र पृथ्वीकायादि षट् कायानां वर्णनं क्रियते - नाम सत्वोपघातमकुर्वन् कथं गमिष्यतीति एवं ताव सो सयं तसथावरजंगमे विराधयति । किंच एसणमवि सोहे न तरह, कई - ' उदउल्लं०' ।। २३३ || सिलोगो, उ उल्लं पुब्वभणियं 'एगग्गहणे गहणं वज्जातीयाण' मितिकाउं ससिणिद्धादणिचि गांध्याणि, 'बीपसंसत्तं' नाम जाणि सालिमादीणि मीयाणि तेहिं संसतं बीयसंसतं, बीयमिस्सियति वृत्तं, अहवा बीयगणं पिदं संसतगहणमवि पिहं, तत्थ बीयाणि चैव दलिज्जा अहवा ताणि बीयाणि असणादि लाएज्जा, तकसोवीरादणि दलेज्जा, जे य तीए महीए पाणा णिवतिता संपातिमादी, अनादीसु वा पडिया, तेऽचि न पासह. एताणि उदउलादीणि दिवसओ सचक्खुचिसए विवरजेज्जा, राओ तत्थ कहं हिंडियन्वंति । अतो- एअं व दोसं दणं, नापपुत्तेण भासिअं । सव्वाहारं न भुंअंति, निग्गंधा राइ मोजणं ||२३४|| सिलोगो, एवं नाम जो एसो हुमपाणातिवायदोसो एवं दणं, चकारेण य भूमीअरिंगणे (पण ) गाहिसावयादिणो दोसा गहिया भवन्ति, सेसं कण्ठ्यं ॥ राती भोयणविरती गता, गतं वयछक्कं । इदाणिं कायछक्कं भण्णइ तत्थ पढमं पुढविक्कायविरती भण्णति 'बुढविकार्य०' ॥ २३५ ॥ सिलोगो, पुढवि चेव कायो पुढविक्कायो तं पुढविकार्य सच्चिचं भगवंतो साधुणोति णो हिंसंति नाम जो आलिहविलिहणादी कुब्र्व्वति, तं च इमेहिं तिर्हि जोगेहिं ण हिंसंति-मणसा वयसा कायसा तिविणण करेंति, एवं कार्य (अग्ने) णवि, संजता साधुणो भण्णन्ति, तिभि करणजोगा पण्णत्ता, सं०-करणं कारावणं अणुमोदणंति, तत्थ मणसा हिंसे न करेंति न कारवेति करेंतं न समणुजाणंति, एवं वायाएव हिंसं न करेंति न कारवेंति करेंतं नाणुजाणंति, एवं कायेणवि, संजता साधुणो भण्णंति, सुसमाहिया णाम सोभणेण पगारेण संजमोवकारीएहिं समाहिया, सुसमाहिया नाम उज्जुत्ता, पुढविकायसमारंभे को दोसो १, भण्णति- ' पुढविकायं ० ' ॥ २३६ ॥ [228] व्रतषट्कम् ॥ २२३ ॥ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [२१०-२७७/२२६-२९३], नियुक्ति: [२४७-२६८/२४५-२६८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||२१० बैकालिक २७७|| दिश- सिलोगो, पुढविकार्य विविह अणेगप्पगारं हिंसंतो भणइ तन्निसिया आउकायादि थावरे विहिंसंति तुसद्दो बिसेसणे, किं. विसेसमति, मोविनिमयति?. कायषट्कम् चूर्णी, दान केवलं सचित्तमेव पुढीव हिंसेज्जा, किंतु इतरमवि हिंसेज्जा, जहा य सचिचाए पुढविए हिंसिज्जमाणिए थावरा जीवा आउ६ धर्मा. कायादि तण्णिस्सिता हिसिज्जति तहा अचित्ताएवि एवं विसेसयति, न केवलं सचित्तं वा पुढवि हिंसमाणो थावरा हिसति, किंच'-तसे येईदियाई अणेगप्पगारे चाखसाऽचक्खसे हिंसति । 'तम्हा एवं विआणित्ता.॥२३७ ।। सिलोगो,18 ॥२२४|| पुढविक्कायविरतीगता। इदाणिं आउक्कायविरईएऽवि तिण्हं सिलोगाणं एस चेव अत्थो, नवरं आउकायं॥२३८।। २३९ ।। २४० ॥ आउकायामिलावो भाणियबो, एवं आउक्कायविरई गया। इदाणि तेउक्कायविरई. भण्णति, तं, 'जायतमा ६॥ २४१ ॥ सिलोगो, जायतेजो जायते तेजमुप्पचीसमकमेव जस्स सो जायतेयो भवति, जहा सुवण्णादाणं परिकम्मणाविससेण | तेयाभिसंबंधो भवति, ण तहा जायतेयस्स, नकारो पडिसेधे बट्टति, इच्छा रुई भण्णति, लोइयाणं पुण जं यह तं देवसगास(पावइ। अओ पावगो भण्णा, तमेरिसं पावगं भगवंतो साधवो नो इच्छंति जालित्तएति। ' तिक्वमन्नयरं सत्य' मिति, सासिह जेण तं सत्थं, किंचि एगधार दुधार तिधारं चउधार पंचधारं, सवतो धार नस्थि मोत्तुमगणिमेगं, तत्थ एगवार परसु, दुधार | कणयो, तिधार असि, चउधार तिपडतो कणीयो,पंचधारं अजाणुफलं, सब्बओ धार अग्गी, एतेहिं एगधारदुधारविधारचउधारपचः धारहिं सत्थेहि अण्णं नस्थि सत्थं अगणिसत्थाओ तिक्खतरमिति, सबओवि दुरासयं नाम एतं सत्थं सब्बतीधारचणेण दुक्खमाश्रयत इति दुराश्रयं, कहं पुण दुरासयं, 'पाइणं पदिणं वावि०॥ २४२ ॥ सिलोगो, तत्थ पडिक अवर, ससाणि पसि- ॥२२४॥ द्वाणि, एतेसु पुष्यावरेसु उड्डे य विद्रिसासु य ' अहे दाहिणओ' पणाम विणासयति, न केवलं पाईणाइसु डहद, किन्तु उत्तरओ दीप अनुक्रम [२२६२९३] [229] Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [२१०-२७७/२२६-२९३], नियुक्ति: [२४७-२६८/२४५-२६८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||२१० २७७|| वि डहइ । सव्वओ दाहिचणेण य 'भूआणमेसमाधाओ०॥ २४३ ॥ सिलोगो, भता सम्पातिमादी, तेसि भूताणं आपादे कायषट्कम् बैंकालिक भाषातो गाम जावतो भूता अगणिसगासमल्लियते ते सच्चे घातयताति आघातो, हवं बहतीति हव्यवाहो, तत्थ लोगसिद्धते हव्वं चूर्णी देवाणं अहावरं दिव्या तिप्पंतीति, रहतीति वाही, वहति गाम णेति, हव्यं नाम जं हूयते घयादी हव्वं भाइ, अम्ह पुण ६ धर्मा. जम्हा हव्याणि जीवाणं जीवियाणि वधति अजीवदवाण व मुत्तिमंताणं विणासं बहतीति हावाहो, ण संसओ णाम एत्थ संसओन कायब्बो, जहा-एसोहब्बवाहो भूपाणं आघायं न करेतित्ति, पदीवनिमित्तं पयावणानिमित्तं वा काय आरभेज्जा, ॥२२५॥ तत्थ पवीवनिमिचं जहा अन्धकारे पगासत्थं पदीयो कीरई, पयावणनिमित्तं दिमागमे परिसासु वा अप्पाणं ताति, वत्थाणि । वा ओदणादीणि वा पयावंति, एतेहिं कारणेहिं स हन्यवाह-अग्गि, किंचि पाम संघवण परितावणाणिग्यवणादि । जम्हा भूयाण | एस आघातो 'तम्हा एवं विआणित्ता, दोस दुग्गडबढणं तेउकायसमारंभ, जावजविाइ वज्जए' ।। २६.४ तेउक्कायविरति गता । इदाणि वाउकायविरती भण्णति- आणिलस्स समारंभ० ॥२४५ ।। सिलोगो, निलओ जस्स नाथ सो अणिलो तस्स अनिलस्स समारंभ, 'समारंभ' नाम उक्खेवतोयतालियंदादीहिं भवति , 'बुद्धा' तित्थगरगणधरादी, 'तारिसं' नाम ते बुद्धा 'अनिलसमारंभ आणिल(वाउस)मारंभ. असरिसं ४ भति,कथं, सो विराधिज्जमाणो अमेगे विराधेति संपाइमे असंपाइमे य, अओ 'सावज्जबहुलं चयति सह बज्जेश सावज्ज ॥२२५।। बज्ज नाम वजंति वेरति वा परवि वा एगट्ठा, बहुले नाम सावज्जदोसाययणं, चकारः पादपूरणे, 'एअं' नाम जमेर्य वाउकाय-10 Mसमारंभ भणिय, तारयन्तीति ताइणो तेहिं तातीहि, प एवं बाउकायसमारंभाणं सेवितंति, तं च बाउकार्य भगवंतो साधवो णो CESCHECRECEx-kSCRtSCRe दीप अनुक्रम [२२६२९३] [230] Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||२१० २७७|| दीप अनुक्रम [२२६ २९३] "दशवैकालिक" - मूलसूत्र -3 (निर्युक्तिः + भाष्य | + चूर्णि:) ३ अध्ययनं [६], उद्देशक [-] मूलं [ १५...]/ गाथा: [ २१०-२७७/२२६-२९३] निर्युक्तिः [ २४७-२६८/२४५-२६८], आष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४२], मूलसूत्र [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: श्रीदशवैकालिक चूण ६ धर्मा. ॥२२६॥ - - इमेहिं उदीरंति, तं० तालिअंटेण पत्तेण० ' ॥ २४६ ॥ सिलोगो, तालियंटादीणि जहा छज्जीवणियाए, न केवलं तालियंटादीहिं बाउकार्य न उदीरयंति, किन्तु -' जंपि पत्थं व पार्य वा, कंबलं पायपुंछणं० ॥ २४७ ॥ सिलोगो, जमवि बरथादि तेणावि वाउजीवसंपाइमरक्खणडा णो वाउकार्य अविहिपक्खोडणादीहिं उदीरंति भगवंतो साधवो, किन्तु जयणाए परिभोगपरिहारेण धारणापरिहारेण य परिहरन्तीति । तम्हा एवं विआणित्ता, दोसं दुग्गड़बडणं वाउकायसमारंभ, जावजीवाइ वज्जए ॥ २४८ ॥ सिलोगो कण्ठथः, बाउकायविरती गता । इदाणिं वणष्ककायचिरई भण्णइ तं० वणस्स न हिंसंति० ॥ २४९ ॥ सिलोगो, ' तम्हा एअं विआणित्ता० ' ।। २५१ ॥ सिलोगो, एएसि सिलोगाणं अत्थो जहा पुढविकायस्स, एवं तसकाएवि तिन्दवि सिलोगाणं वक्खाणं भाणियध्वं 'तसकार्य० ' ।। २५२ ।। २५३ ।। २५४ || जहा पुढविकाए, कायछकं गतं, गया य मूलगुणा, इदाणि उत्तरगुणा, अकप्पादिणि छट्टाणाणि, ताणि मूलगुणसारक्खयभूताणि, तं ताथ जहा पंचमहव्यमाणं रक्खणनिमित्तं पत्तेयं पंच पंच भावणाओ तह अकप्पादरिण छहाणाणि वयकायाणं रक्खणत्थं भणियाणि, जहा वा गिहस्स कुडकवाडजुत्तस्सवि पदीवजागरमाणादि रक्खणाविसेसा भवन्ति तह पंचमथ्ययजुत्तस्सवि साहुणो तेसिमणुपालणथं इमे उत्तरगुणा भवन्ति, तत्थ पढर्म उत्तरगुणो अंकप्पो, सो दुविधो, तं० सेहवणाकप्पो अकप्यवणाकप्पो य, तत्थ सेहवणाकप्पो नाम जेण पिण्डणिज्जुत्तीण सुता तेसु आणियं न कप्पइ भोतुं जेण सेज्जाओ ण सुयाओ तेण वसही उग्गमिता ण कप्पर, जेण वत्थेसणा ण सुया तेण वत्थं, उडबद्धे अणला ण पब्चाविज्जति, वासासु सव्वेऽचि, अकप्पठवणा गया, कप्पो इमो, जहा-जाई तारि भुजाई, इसिणाऽऽहारमाहाणे । ताई तु विवज्र्ज्जतो, संजम अणुपालए || २२५ ।। (सूत्रं ) [231] कायषट्कम् ॥२२६॥ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [२१०-२७७/२२६-२९३], नियुक्ति: [२४७-२६८/२४५-२६८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||२१० SARK २७७|| श्रीदश-16 'जाणि' चि अनिद्दिट्ठाण गहणं, 'चत्तारित संखा, 'अमोजाणि' अकप्पियाणि 'इसिणा' पाम साधुणा, आहारो आई अकल्पगृहि जसि ताणि आहारमादीण ताणि अ भोज्जाणि विवज्जयंतो साधु संजम सचरसविह अणुपालयेत्, सीसो आह-काण पुण ताणि: भाजनाचूर्णी आहारादीणि, भण्णति, इमाणि--'पिंड सिज्जं च वत्थं च ॥ २५६ ॥ सिलोगो पठितसिद्धो, एतसिं आहारादणिं जेदा दीनि ६ धमो. नियागं ममायंति, कीयमुद्दोसियाहडं । वह ते समणुजाणति, इअ उत्तं महसिणा ॥ २५७।। नियाग कीयमुद्देसियाहडं च जहा खुड्डयायारकहाए जे एताणि कीयादीणि 'ममायति' नाम परिगण्हंति ते तसथावराणं वह समणुजाणांतीच, न याई ॥२२७॥ अप्पणो इच्छाए एवं भणामि, किंतु ' इति बुत्तं महोसणा' इतिसद्दो परिसमाए वइ, कह, ण एयाओ विसिट्टयरं अश्रेण केणवि भणियं, जम्हा तसथावरोवघातादि दोसा णियागादिसु भवन्ति । तम्हा असणपाणाई' (दि) ।। २५८, सिलोगो जम्हा तसथावराणं वधो नियागादिसु भवति तम्हा असणपाणार्दाणि तमुद्देसियाहडादीहिं दृसियाणि वज्जयंति(ति) भण्णइ, ठियप्पाणो निग्गधा धम्मजीविणांति, सोमणो सुडिओ अप्पा जोर्स ते ठिअप्पाणो, जर्सि गंधो गस्थि ते निग्गंथा, धमेण जीवति तदा। गिहिभायणदारं त०-'कंसेसु कंसपारसुगा२५९॥ सिलोगो, कसेसु नाम कसाओं जायाणि कसाणि, ताण पूर्ण थालाणि हवा खोरगाणि वा तेसु कसमुत्ति, कंसपाएमु नाम कंसपत्तीओ भण्णंति, जं वा किंचि अन्न तारिसं कसमयं तं कंसपाएण सव्यं गहियंति, 'कुंज मोयो' नाम हत्थपदागितीसंठियं कुंडमोय, पुणोसद्दो विससणे वति, किं बिसेसयति , जहा ॥२२७॥ अबेसु सुवमादिभायणेसुत्ति, अने पुण एवं पठति 'कुंडकोसेसु वा पुणो' तत्थ कुण्डं पुढविमयं भवति, कोसग्गहणेण सरावादीण | ट्र गहियाणि, एतेसु जो भंजद असणपाणाइ सो आयाराओ परिभस्सइ-सब्बहा भस्सइ, कई पुण सो आयाराओ भस्सह, भन्नति-- दीप अनुक्रम [२२६२९३] A ROADC R -4 ... अत्र गृहिभाजनस्य अकल्प्यत्वं दर्शयते [232] Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||२१० २७७|| दीप अनुक्रम [२२६ २९३] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + भाष्य | + चूर्णि:) अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [ २१०-२७७/२२६-२९३], निर्युक्तिः [ २४७-२६८ / २४५-२६८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि श्रीदश बैकालिक चूण ६ धर्मा. ॥२२८॥ सीतोरण परिरंभ (सीओदगसमारम्भे (६०) || २६० ।। सिलोगो, एतेसु भागणे संजता समुद्दिस्तिकाऊन ते स मा रत्था सीएण उदगेण पक्खालेति, सीतग्गहणेण सचेयणस्स उदगस्स गहणं कर्य, समारंभग्गहणेण सो चेक पक्खालगादि दोस्रो घेप्पर, 'मत्तघोअणणे' नाम तत्थ मत्तं भायणं भण्णइ तं मतं धोविऊप जत्थ छड्डेइ तत्थवि घारड, अहवा घावणमेव छडणं, जे तत्थ पुष्वण्णत्थं तं छड्डेऊण देति, 'जाणि' ति अणिहिद्वार्थ गहणं, छष्णसदो हिंसाए हट्ट, भूयाणि नाम पाणी वा भूयाणि वा एगड्डा, 'से' ति अणिद्दिट्ठस्स असंजमस्स गहणं कथं, सो य इमो-नेण आउकाएण धोन्वति सो आकाओ विराहिओ भवति, कदापि पूयरगादिवि तसा होज्जा, घोषित्ता य जत्थ छडिज्जति तत्थ पुढविआउने उहरियतसविराहणा वा होज्जा, बाउकाओ अस्थि चैव, अजयणाए वा छडिज्जमाणे वाउकाओ विराहिज्जइ एवं छण्डं पुढविमाईणं विसणा भवति, यसो अमो तित्थगरेहिं दिट्ठो । किंच- 'पच्छेकम्मं पुरेकम्मं' ।। २६१ ॥ सिलोगो, पच्छाकम्मं जमिदाणि हेट्ठा भ्राणियं, 'पुरेकम्म' पुच्यमेव संजयङ्काए धाविऊण ठेवेति, अवा पच्छाकम्मं भुजंतु ताव समणा क्यं पच्छा भोक्खामा ततो भोक्खति साधवोत्ति एवं उसक यंतस्स पुरेकम्मं भवति, सियासहो आसंकाए बट्टर, जहा कदापि एते पच्छाकम्मपुरकम्माइ दोसा भवेज्जाचे तत्थ न कप्पद । किंच 'अमन भुंजंति' एयसो पच्चक्खीकरेइ, जम्हा एस पच्छा कम्मा दिदो ससमुदयो भवति तम्हा भगवंतोपि णिगंधा विहिभ्रायण ण भुंजंति, आसंदिग्गहणेण आसंदिग्रहणं कर्त, पलियंको पल्लेको भण्णह, आसालओ नाम ससारंग (सा) असणं, तत्थ किर अबट्ठा आणि वाणिगा ववहरति, अनेसु वा एवमादिसु 'अणाग्ररियमज्जाणं'ण आयरियं अगात्त्रियांति वृत्तं भण, अज्जा आयरिया भण्णति, अहवा, अज्जा-उज्जुयं भण्णह, आसणं उववेसणं, सयणं सुवणं भष्ण | अहवा इदाणिं इमं सुतं भवइ [233] अकल्पगृहि दीनि भाजना ॥२२८॥ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||२१० २७७|| दीप अनुक्रम [२२६ २९३] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + भाष्य | + चूर्णि:) अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [ २१०-२७७/२२६-२९३], निर्युक्तिः [ २४७-२६८ / २४५-२६८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्ण: श्रीदशवैकालिक चूर्णो ६ धमो. ॥२२९॥ नासंदीपलि अंके || २६३|| सिलोगो आसंदीपलियंका पुण्यभणिता'निसिज्जा' नाम एगे कप्पो अणेगा वा कप्पा, पडिगं पलाल पीठगादि एतेसुण साधवो आसणसयणादििण कुब्बति, जया पुण कारणं भवs तदा निम्गंथा पडिलेहाणन्ति (एत्ति) धम्मकहारायकुलादिमु पडिलेहेऊण निसीयणादीणि कुब्वंति, पडिलहाए णाम चक्खुणा पडिलेहऊण सयणादीणि कुब्वंति, 'बुद्धयुत्तमहिगा' नाम बुद्वेण वृत्तमहिगा, अधिट्ठेति नाम आयरंति वा, आह-तेसु आसंदगादिसु को दोसो ?, 'गंभीरविजया ए१० ।। २६४ ॥ सिलोगो, गंभीरं अपगासं भण्णइ, विजओ नाम मग्गणीत वा पिथकरणंति या विवैयति वा विजओति वा एगड्डा, गंभीरविजयत्तणेण जे तस्थ पापा ते दुप्पडिलेहगा दुब्बिसोहगा भवति, अहगा विजओ उबस्सओ भण्णs, जम्हा तेसिं पाषाण गंभीरी उस्सओ तओ दुब्विसोधगा, कहं ?, चसुषा (आसंदिया ) दीनं अण्णतरेसु मंकुणकुंथुनादिणो जीवा भवति ते दुक्खं बिसोधिज्जति, विसोधिर्ज्जति नाम अवणिज्र्ज्जति, अवकमंते व ते जीवा जंतएव पीलिज्जति, जम्हा एवमादी दोसा भवंति अतो साधूर्ति आसंदीपलियंकादी विवज्जिता । किंच 'गोअरग्गपविहस्स० ॥ २६५ ॥ सिलोगो, णिसीयंति जत्थ सा णिसिज्जा, गोयरग्गपविट्ठस्स साहुणो ण कप्पर, साहु 'इमेरिसमणायारं आयजंति अपोहिये' इमेरिस नाम जो इदाणि अणायारो मणिहिति समादज्जति, ण आयारो अणायारो, आवज्जति नाम पावति, अवोहियं नाम मिच्छतं, कोऽसौ अणायारो ?, भण्णति'विवत्ती भवेरस्स०' ।। २६६ ॥ सिलोगो. कहूं बंभचेरस्स वित्ती होज्जा १, अवरोप्परओसं भासजनोऽनदंसणादीहिं भचरविवती भवति, पाणाणं अवधे वहो भवति, तत्थ पाणा णाम सत्ता, तेसिं अवधे वधो भवेज्जा, कहं ? सो तत्थ उल्ला करेइ, तत्थ य तित्तिरओ आणीओ जीवंतओ विकाणओ, सो चिंतेति कहमेतस्स अग्गओ जीवंतं गेहिस्सामि, ताहे ताए सण्णा [234] निपया निषेधः ।।२२९।। Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [२१०-२७७/२२६-२९३], नियुक्ति : [२४७-२६८/२४५-२६८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक चूणी. 18 [१५...] गाथा ||२१० २७७|| श्रीदश-1कया, दसिया पलिया, आगलियं, सेवि जा गिहामि ताहे मारिज्जेज्जा, एवं पाणाण अवधे वधो भवति, धणीमगपडिग्याओ'11 निषद्या वैकालिकय इमेण पगारेण होज्जा, सो ताए समं उल्लाबेइ, तत्थ य बहवे भिक्खायरा एंति, सा चिंतेति- कहमेतस्स सगासाओ उट्टेहामित्ति निषधः अपत्तिय से भविस्सति, ताहे ते अतिस्थाविति, तत्थ अंतराइयदोसो भवति, ते तस्स अवण भासंति, 'पडिकोहो यस ६ धमा.G अगारिणं' समंता कोहो पडिकोहो, समंता नाम सम्बत्तो, तकारडकारलकाराणामेयचमितिकाउं पडिकोहो पढिज्जइ, सोय ४ ॥२३०॥ पडिकोधो इमेण पगारेण भवति-जे तीए पतिससुरपुत्तादी ते अपडिगणिज्जमाणा मण्णेज्जा-एसा एतेण समणएण पंसुलाए है कहाए अक्खिचा अम्हे . आगच्छमाणे वा भुक्खियतिसिए वा गाभिजाणइ, न वा अपणो णिच्चकरीणज्जाणि अणुढेइ, अतो ६ पडिकोथो अगारिणं भवइ । किंच-'अगुत्ती भचेरस्स' ॥२६७।। सिलोगो, इत्थीण अंगपच्चंगसु दिडिनिवेसमाणस्स इंदियाणि 8 मणुमाणि निरिक्खेतस्स बंभवतं अगुत्तं भवइ, जाओ संकणिज्जाओ, इत्थी वा पप्फुल्लवयणा कडक्खविीक्खत्तलोयणा सकिज्जेज्जा, जहा एसा एवं कामयति, चकारेण तथा सुभणियसुरूवादीगणेहि उववेत संकेज्जा, उभयं व संकेज्जा; जम्हा एते दोसा 'कुसीलवणं ठाणं दूरओ परिवज्जए'कुच्छियं सीलं जीम ठाणे वा ते कुसीलवड्डणं,दूरओ साहुणा परिबज्जियष्वमिति । इयाणि 8 | एताण चैव अयवाता भण्णति--'तिहमन्नयरागस्स० ॥ २६८ ॥ सिलोगो. तिण्ड इति संखा, अनतरातस्स नाम जे इदाणि जातयो भणिहिति तेसि, अनतरस्सत्ति जस्स अविसेसियगहर्ण. ते य इमे तिष्णि, तं०-जराभिभओ 'वाहिअस्स तवास्सणो' ति151 ॥२३०॥ भिभूयग्गहणं जो अतिकट्ठपत्ताए जराए यजइ,जो सो पुण वुड्भावऽवि सति समत्थोण तस्स गहण कयंति, एते तिनिधि नहिडाविVाज्जति,तिमि हिंडाधिज्जति सेधो अत्तलाभिओं वा अविकिट्टतयस्सा वा एवमादि, तिहि कारण हिंडेज्जा,तेसि चतिहं णिसज्जा अणु दीप अनुक्रम [२२६२९३] 4442947 [235] Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [२१०-२७७/२२६-२९३], नियुक्ति: [२४७-२६८/२४५-२६८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||२१०२७७|| निषद्या निषेधः श्रीदश- माया, तत्थ धेरस्स बंभचेरस्स विवत्तीमादि दोसा नस्थि, सो मुहुर्त अच्छद, जहा अन्तरातपडिघातादओ दोसा न भवति, वाहिवैकालिक ओऽवि मग्गति फिीच ते जाब निकालिज्जइ ताव अच्छा, विस्समपार्दु बा, तबस्सीवि आतवेण किलामिओ विसमिज्जा, णिसे चूणी जत्ति दारं गयं । इदाणि सिणाणंति दारं भण्णइ-तस्स इमो अभिसंबंधो-मा जराभिभूतादीणि सेज्जाणुण्णापसगेण सिणाणादीषि ६ धर्मा. आयरियस्संति घम्मना तिसापरिगता बा, अओ इमं मण्णाइ-जढो होइ, 'बाहिओ वा अरोगी वा ॥ २६९ ।। सिलोगो, ॥२३॥ वाधीपरिगओ वाधितो, अवगतो रोगा अरोगो, सिणाणति चा हाणति वा एगट्ठा, जोत्ति अणिदिट्ठस्स गहणं, इच्छए नाम दि सेवए, 'बोकतो होइ आयारो' तेण सिणार्यतण विचिह-अणेगप्पगार उकता बोकतो अतिकतोत्ति वुत्तं भवइ, जयमारियण्वयं सो आयारो भण्णइ, 'जढो होइ संजमो' जढो नाम छडिउत्ति वा जढोत्ति वा एगट्ठा, संजमो पुखभणिओ, आह-आयारसजमाणं 18 को पइविसेसो ?, भण्णइ, आयारग्गहणेण कायकिलपादिणो बाहिरतवस्स गहणं कयं, संजमगहणेणं सत्तरसविहस्सवि संजमस्स गणं कर्य, सिणातंतस्स इमो असंजमो भवइ, तं- ' संतिमे सुहमा पाणा.' || २७० ।। सिलोगो, संति नाम विज्जते 'इमे' त्ति पच्चक्खा अतीव सण्डा मुहमा पाणा-जीवा, ते य दुविधा, तं- तसा थावरा य, तसा कुंथुपिप्पीलियादि थावरा बीयपणगादि, ते पुण घसाहि मिलुगाहि य होज्जा, घसा नाम जस्थ एगदेसे अक्कममाणे सो पदेसो सथ्यो चलइ सा घसा भण्णइ, भिलुगा राई, अनेस वा गंभीरेसु अबगासेसु 'जे' नि अणिदिदुस्स गहणं, तुसद्दो बिसेसणे, किं बिसेसयति ?, जहा पायसो घसाइमु सत्ता विज्जति एवं विसेसयइ, वियर्ड पाणयं भण्णइ, तेण पाणएण जीवे उप्पिलावइ, उप्पिलावद णाम उप्पिलावणंति || चा प्लावणंति वा एगट्ठा, जम्हा एस दोसो ' तम्हा ते न सिणायंति०' ॥ २७१ ।। सिलोगो, उप्पिलावणादिदोसपरिहरणत्थं दीप अनुक्रम [२२६२९३] २३१॥ 1440x [236] Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [२१०-२७७/२२६-२९३], नियुक्ति: [२४७-२६८/२४५-२६८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||२१० % चूणा % % २७७|| श्रीदश- साहवो सीएण उसिणेण दवेण व णेह सिणायांतित्ति, आह- जइ उप्पीलावणादिदोसा न भवंति , तहावि अने हापमाणस्स। निषद्या वैकालिका दोसा भवंति, कई ?, हायमाणस्स बभचेरे अगुत्ति भवति, असिणाणपच्चयो य कायकिलेसो तवो सो ण हबइ, विभूसादोसोय निषेधः भवतित्तिकाऊण जावजीचं वयं घोरं असिणाणमहिट्टेयव्वंति, जहेव साहणं हाणं पडिसिद्धं, तहा 'सिणाणं अदुवा ६ धमो. ककं ॥२७२ ॥ सिलोगो, सिणाणं पहाणं भण्णइ, कको लवन्तयो कीरइ, वण्णादी कको बा, उज्वलयं अट्टगमादि कको ॥२३॥ भण्णइ, लुई कसाओ जं घासेडयादी कीरइ, पउमं कुंकुम भण्णाइ, चकारेण अण्णाणि वि एवमादि गहियाणि, ताणि गायस्स उश्व-ला दृण्णत्थं णायरंति साधवो, कयाइवित्ति कयाइगहणेण गज्जइ जाव आउ तार सेस नायरंति, को पुण सिणाणादिसु दोसो ?, | भण्णइ, विभूसाइ दोसा भवंतित्ति, एतेण अभिसम्बन्धेश सोभवज्जणं दारं पत्तं, ते०, 'नगिणस्म बावि मुंडस्स० ॥ २७३ ।। |सिलोगो, णगिणो जग्गो भण्णद, मुंडो चउविधो, तं०- नाममुंडो ठवणामुंडो दवमुंडो भावमुंडो यचि, णामठवणाओ | गयाओ, दम्प मुंडो आइय मुंडाई, भावमुंडो जस्स इंदियणोइंदिया देता सो भावमुंडो भवति, दीहाणि रोमाणि फक्खीवत्थजंघादीसु जस्स, पहावि अलत्तयपाडणपायोगा, ण छज्जति ते दीहा धारेउं, जिण कधियादीण दीहावि, एवंविहरूवस्स मेथुन गोवरयस्स साहुणो न किंचि विभूसा साधयइ, केवलं विडचेदुणं करेइ, अतो- विभूसावातियं भिक्ख, कम्मं बंधइ चिकणं । संसारसायरे घोरे, जेण पडई दुरुत्तरे ।। २७४ ॥ सिलोगो, 'विभूसावत्तियं' नाम विभूसा बनियं पच्चइयं रागाणु ॥२३२॥ गयस्स भिक्खुणो चिकणो कम्मचंधो भवइ, चिकणंति वा दारुणंति वा एगहा, तं कम्मं बंधई जेण कम्मेण बढेण संसारसागरे । ममति, इदाणि गणधरा मणगपिता वा एवमाहु, विभूसावत्तिय नाम विभूसावत्तियं पच्चइयं, जमेयं विभूसावचियं कम्म हेट्ठा। दीप अनुक्रम [२२६२९३] ल [237] Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [२१०-२७७/२२६-२९३], नियुक्ति : [२४७-२६८/२४५-२६८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||२१० निषद्या निषेधः - २७७|| - मणिय तयं तित्थगरादि बुद्धा मअंति, मन्नति वा जाणति वा एगवा, तारिस नाम जमिदाणि चिकणंति भणियं तहप्पगार वैकालिकासंसारसागरमडयं बज्झतीति, न किंचन केवलं विभूसादोसो सो एगो, किन्तु सावज्जं बहुलं चेतंति, सहऽवज्जेण सावज्ज, जा चूर्णी सस्थ बहाणादीणि मग्गमाणस्स-गवीसमाणस्स सावज्जकिरियाए सावज्जबहलं चेव विभुसावत्तियं कम बंधइचिकाऊण ६ धर्मा. मा एवं तिस्थकराईहि ताईहिं सपियंति, सोभणवज्जणन्ति दारं गतं । संमत्ता य उत्तरगुणा अट्ठारसट्ठाणाणि य, उत्तरगुणाधिकारे इम भण्णा- खबंति अप्पाणममोहदंसिणो० ॥ २७६ ॥ सिलोगो, अहबा जो सो अट्ठारसम ठाणेसु संजमो उपदिट्ठो, ॥२३३॥ जे य तम्मि संजमे ठिया ते खवंति अप्पाणं अमोहदंसिणोनि, आह-किं ताव अप्पाणं खति उदाहु सरीरंति?, आयरिओ भणइ-1 अप्पसदो दोहिवि दीसइ-सरीरे जीचे य, तत्थ सरीरे ताव जहा एसो संतो दीसई मा णं हिंसिहिसि, जीवे जहा गओ सो जीवो, जस्सेय सीरं, तेण भणितं सवेति अप्पाणंति, तत्थ सरीरं औदारिकं कम्मगं च, तत्थ कम्मएण अधिगारो, तस्स य तवसा खए कीरमाणे औदारियमवि खिज्जइ, अमोहं पासंतित्ति अमोहदंसिणो सम्मदिट्ठी, सम्मवन्ताण वुत्तं भवति, तबो वारसविहो तम्मि तवे रया, संजमा सत्तरसविहो, उज्जुताभावो अज्जब, अज्जवगहणेण अणासंसओ संजमतवे कुब्वाति, गुणग्रहणेण एते चेव गुणा गहिया, एवं ते चरणगुणसंजमतवेसु अवडिया चिरसंचिताणि पावाणि पुरेकढाणि कम्माणि धुणंति, अण्णाणि नवाणि ण साहवो कति ॥ 'सओवसंता अममा० ॥२७७ ।। सिलोगो, सदा-सच्चकालं उवसंता सदोवसंता, अममा णाम बज्झन्भनरेहिं गंथेहि विष्पमुक्का अममा भण्णति, किंचणं चउब्बिई, तं०-णामकिंचणं ठवणाकिंचणं दबकिंचणं भावकिंचणं च, तत्थ नाम | तहा ठवणाओ गयाओ, दव्याकिंचणं हिरण्णादि, भावकिंचणं अनाणकिंचणं अविरईमिच्छत्वाईणि, अप्पणो विज्जा सविज्जा तया SEKASKAR - 2- -% दीप अनुक्रम [२२६२९३] २३३॥ 7 9 % 4 [238] Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [२१०-२७७/२२६-२९३], नियुक्ति: [२४७-२६८/२४५-२६८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक" नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक 3 [१५...] गाथा ||२१० २७७|| अप्पणिज्जया विज्जया अणुगया सविज्जविज्जणुगया, केवलसुयणाणादिसु उवउत्तत्ति युत्तं भवति, बीर्य विज्जागहणं लोइयविज्जा-18 वैकालिकापडिसेहणत्थं कतं, जसो जेसिं अस्थि ते जसंसिणो, ते भगवंतो 'उउप्पसन्ने बिमले व चंदिमा' उउगहणेण छण्हवि रिऊर्णा निषेधः चूणों गहणं, पसण्णगहणेण सरओ विसीसज्जति, जहा सरए चंदिमा विससेण निम्मलो भवति एवं ते विमल सिद्धि गच्छति, साबसेस७वाक्य | कम्माणो य विमाणेसु उवचज्जति, विमाणगहणेण विमाणियगहणं कर्य, उति वा वयंति वा एगहा, ताइणों पुष्यभणिता, एता शुद्धि अ० अ फलं तेसि अट्ठारसण्ई ठाणाणं सम्ममणुपालियाण, ति बेमि नाम तीर्थकरोपदेशात् ब्रवीमि, न स्वाभिप्रायेणेति ॥ इदाणिं णया,ाल णागमि गिहियम्'॥ ॥ गाथा, 'सब्वेसिपि नयाणं बहुवियत्तव्ययं.'॥ ॥ गाथा, एताओ पढितसिद्धाओ। षष्ठधर्मार्थकामाध्ययनचूर्णिः समाप्ता॥ तेण णाणदंसणादिगुणजुत्तेण आयरिएण धम्म कहतेण भासा जाणियब्बा, केरिसा वत्तव्याण केरिसा वा बत्तया , गुणदोसे य जाणमाणे सुई धम्म कहिस्सतीतिएतेण अभिसंबंधेणागतस्स अज्झयणस्स चत्तारि अणुओगदाराणि जहा आवस्सगचुनीए, नवरं नामनिष्फने वक्कसुद्धी भण्णइ, वक्कं निक्खिवियचं सुद्धी निक्खिवियव्या, तत्थ पढ़मं वकं भण्णइ- 'निक्खेवो उ चउको' ।। २७१ ॥ गाथा, चउन्धिई बक, तं०-णामवकं ठवणावकं दबवकं भाववकं च, णामठपणाओ गयाओ, दन्यवर्क नाम जाणि दन्वाणि भासत्ताए गहियाणि ण ताद उच्चारिज्जंति सा भासा, तेण चेव उच्चारिज्जमाणाणि तमत्थं मासयंती भावभासा भवति, तस्स वकरस एगडियाणि इमाणि- 'चकं वयणं च गिरा०॥ २७२ ।। गाथा, वाच्यत इति वाक्यं ॥२३॥ यणिज्जं वयणं, गिजाति गिरा, मरो जीसे अस्थि सा सरस्सति, भारो णाम अत्थो, तमत्थं धारयतीति भारही, पुरच्छिमातो दीप अनुक्रम [२२६२९३] CCC + अध्ययनं -६- परिसमाप्तं अध्ययनं -७- 'वाक्यशुद्धि' आरभ्यते [239] Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [२७८-३३४/२९४-३५०], नियुक्ति: [२७१-२९३/२६९-२९२], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||२७८३३४|| लोगताओ पञ्चस्थिमिडं लोगत गच्छतीति गो, बदिजते वयणिज्जा वा पाणी, भणिज्जतीति भासा, पणविजती जीए सा श्रीदश-18 भाषा पण्णवणी, अत्थं देसयतीति देसणा, पायापरिणामेण जीवस्स जोगो तेण कडुगफरुसादिपरिणामजोयणं जोगो । तत्थ जा सा कालिक निक्षेपा: चूणों पुखुट्ठिा दबभासा सा इमा-'दब्वे भावे तिबिहा गहणे अनिसिरणे ॥ २७३ ॥ गाथापुबद्धं, तिविहा भासा, ७वाक्य संजहा- गहणं निसिरणं परापातोति, तत्थ गहणं नाम क्यजोगपरिणओ अप्पा भासादयाणि गिण्हेउं ण जाव निसिरह । হ্রাস | सांच गहणं भण्णइ, निसिरणं नाम ताणि चेव उरकंठसिरजिम्भमलदंतनासिकातालुउद्देहिं जहा विभागओ णिसिरिज्जमाणा णि सरणं मण्णति, पराघाओ जाणि तेहिं भासादब्वेहिं निस्सह्रहिं तप्पयोगाणि अनाणि पेलिज्जमाणाणि भासाविसयसमत्थाणि | मवेति सा पराघातदव्वमासा भष्णइ, दव्यभासा गया। इयाणि भावभासा इमेण गाथापच्छद्रेण भष्णइ-'भावे दब्वे य सुते। ।। २७३ ॥ अद्धगाथा, 'भावभासा' नाम जेणाहिप्पारण भासा भवइ सा भाक्मासा, कहं , जो भासिउमिच्छइ सो पुब्वामेव अचाणं पत्तियावइ जहा इमं मए बत्तव्यंति, भासमाणो परं पत्तियावेइ, एवं भासाए पयोयणं, परमप्पाणं च अत्थे अवबोधयति, साय भावमासा तिविधा, तं- दब्बभावभासा, सुयभाववासा चरितभावभासा य, तत्थ दग्वभावभासा नाम दवं पडुच्च जा भासिज्जइ सा दन्वभावमासा, जहा घडे जे गाणं तं घडनिमिचंतिकाउं घडनाणं भण्णइ, एवं जा दव्यं पडुच्च भासिज्जा सा दबभावभासा, साय आराहणादिया चाउविधा दबभावभासा भवति, तं०-दव्याराहणी सा य भवति सच्चा,दबविराधणी सा य ॥२३५।। 18. मोसा भवति, सच्चामोसा आराधणविराधणी भण्णति, असच्चामोसा पुण पडिसेद्दे, पडिसेहे णाम णो आराधणा णो विराहणि-15 त्ति, तत्थ दवाराहणी नाम जं जहावत्थियं दवं तं तहेव आरायति, जहाभाविं भावि चेव सच्चं भासतिति वुत्तं भवति, तं दीप अनुक्रम [२९४३५०] ...अत्र भाषाया: निक्षेपा: दर्शयते [240] Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [२७८-३३४/२९४-३५०], नियुक्ति: [२७१-२९३/२६९-२९२], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||२७८ जनपदादिसत्यं ॥२३६॥ ३३४|| श्रीदश-18|च सच्चं दसविध----'जणषयसम्मयठवणा ॥२७५ ॥ तत्थ जणवयसच्चं नाम जहा एगम्मि चेव अभिधेए अत्थे वैकालिक अयाणं जणबयाण विप्पडिवत्ति भवति, ण च तं असच्चं भवति, तं०-पुन्बदेसयाणं पुग्गलि ओदणो भण्णइ, लाडमरहट्ठाणां चूर्णी. IN रो, द्रविडाणां चोरो, अन्ध्राणां कनायु, एवमादि जणवयणसच्चं भवति, सम्मतसच्चं नाम अहा अण्णाणि णलिनकुमुदनीलुप्प लसालिमादीणि पंके जायंति तहावि न तेसिं पंकयसन्ना सम्मया जहा अरविंदस्स, अरविंदे आगोपालादि सम्मतं जहा पैकयंति, ४ शुद्धि अ० एवमादि सम्मतसच्चं भण्णइ, ठवणासच्चं नाम जहा अक्खं निक्खिवइ, एसो च मम समयो एवमादि, नामसच्च नाम जे जीवस्स अजीवस्स वा सच्चीमति नाम कीरइ, जहा सच्चो नाम कोइ साधु एवमादि, रूबसच्च णाम जो असाधु साहुरूवधारिणं | दर्दु भणइ दीसह वा, पड्डुच्चसच्चं नाम दिग्धं पट्टच्च हस्व सिद्ध हवं पडुच्च दिग्धं सिद्धं जहा कणिद्वंगुलियं पहच्च अणामिया दीहा अणामियं पड़च्च काणगुलिया इस्खा एवमादि, वैचहारसच्च नाम जहा अम्ह गामो, पिदुस्स वा सच्चमिति कहण , छत्तएण आगमणं उज्झति गिरी गलइ भायणं लोगप्पसिद्धाणि, तहा गावी पिज्जइ, गावीए खीरं पिज्जइ, ण गावी सव्वा पिज्जइत्ति, एवमादि, भावसच्चं नाम जमहिप्पायतो, जहा घडमाणहित्ति अभिप्पाईते घडमाणेहित्ति भणियं, गावीअभिप्पायेण गावी, अस्सो वा अस्सो भणिओ, एवमादि, जोगसच्चं नाम जहा छनेण छत्ती मउडेण मउडी एवमादि, ओवम्मसच्चं नाम चन्द्रमुखी देवदत्ता, समुद्र इच तडाग भणितमित्येवमादि, सरचं गतं । इदाणि मोसं भण्णा , तं०-कोहे माणे माया लोभे०। २७६ ॥ गाथा, तत्थ काहस्सिया जे काहाभिभूया भासति भासं सामोसा भण्णह, आह-णणु आराधणी सच्चा विराधणी मांसा भणिया, कई इदाणि भणह-ज कुद्धो भासइ सा मोसा, कुद्धोऽपि कोवि गावी गाविमेव भणइ, अस्स अस्समेव. सा कहं मोसा भविस्सतीति ?, AISECCIECCRock 44 २३६॥ दीप अनुक्रम [२९४३५०] R-655 ... अत्र सत्य, मृषा, सत्यामृषा आदि भाषाया: भेदानां वर्णयन्ते [241] Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [२७८-३३४/२९४-३५०], नियुक्ति: [२७१-२९३/२६९-२९२], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||२७८ ३३४|| श्रीदश- आयरिओ आह- तस्स कोहाउलचित्तचणणं घुमक्खरभिव त अप्पमाणमेव भवति, जहा पुणखर सच्चमवि पंडियाणं चित्तगाहगं वैकालिक न भवति, कोवाकुलचित्तो जे संतमवि भासति तं मोसमेव भवति, तत्व कोहेण लाव अनेन प्रकारेण मृषामाभिधास्यते, जहा कोई चूणौँ साहुणा धीमाराई पुच्छिओ-असुगं नगरं कतरो पंधो बच्चद, तओ सो अपवरद्धबद्धो अन्नमेव पंथं बवदिसइ, ण याणामि वादा "वाक्य- भणति, पिया कुद्धो पुतं भणइ-न तुम मम पुत्तोत्ति, एवमादि, माणनिस्सिया जहा गामनगरसमवाएसु कस्स कत्तिओ अत्थोति शुद्धि अ018 पुच्छिए अप्पधणोऽवि भणइ-जहाऽहं कोणी(डी)धणोति एवमादि,मायाणिस्सिता जहा मायाकारो चाबुमोहर्ण काउं भणइ-आगासा लोगओ पविट्ठो, एवमादि, लोभगिस्सिता जहा कूडमाणवचहारिणो वाणियगा, कोई लोभेणं मोस भासेज्जा एवमादि, पेज्ज॥२३७|| पिस्सिया जहा हाणुरागेण भणह-दासोऽहं तव एवमादि, दोसणिस्सिता जहा भगवओ बद्धमाणसामिणो संता गुणा केही पावकम्मा छादयंति,जहा न एसो सवण्णू ,ण एवं सक्कमादी सुरा पज्जुवासंति, किन्तु एसो इंदियालियप्पयोगो विजातिसओ) वा एवमादि, हासणिस्सिया जहा कस्सइ किंचि तारिस गोवेऊण पुच्छिज्जमाणो भणइ-न याणामिति, एवमादि, भयाणस्सिया जहा चोरो तालिज्जमाणोऽवि मरणभयाभिभूओ भषइ- गाई चोरोत्ति एवमादि, अक्खाइयानिस्सिया अहा मारहरामायणादि, २३७॥ | उवधायनिस्सिया जहा अचारं चारेमिति एवमादि। मोसागता।इदाणि सच्चामोसा भण्णइ,किंचि तीए सच्चं किंचि मोसंति, र सा इमा दसविधा, तं०- उप्पन्नविगयमीसगः ॥ २७७ ।। गाथा, उप्पण्णमीसिया विगतमीसिया उपबविगतमीसिया जीव४ मीसिया अजीममीसिया जीवाजीवमीसिया अणंतमीसिया परिसमीसिया अद्धामीसिया अद्धद्धामीसिया इति, तत्थ उप्पनमीसिया। जहा कोइ भणेज्ज-एयंमि नगरे दस दारगा बाता, तत्थ कदाइ ऊणा अधिमा वा होज्जा एवमादि उप्पण्णमीसिया, विगयमी C दीप अनुक्रम [२९४३५०] CA [242] Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [२७८-३३४/२९४-३५०], नियुक्ति: [२७१-२९३/२६९-२९२], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||२७८३३४|| श्रीदश ४ सिया जहा एतमि नगरे दस दारगा मया, तत्थ कयाइ अहिमा ऊणा वा होज्जा एवमादी विगतमीसिया, उप्पनविगतमीसिया ४॥ सत्यावैकालिक दिनहा एतम्मि नगरे दस दारगा जाया दस मया, तरथ कदाइ ऊणा अहिगा वा होज्जा एवमादी उप्पण्णाविगतमीसिया, जीव-दाम्पाभदा। चूर्णी मिस्सिया जहा काह किमिरासिं दइट्टण भणज्जा-अहो जीवरासिचि जण सब्बे जीवंति, तत्थ जे जीवंति तेसु सच्चा,जे मया ७वाक्य तेसु मोसा भवइ, अतो जीवमिस्सिया भण्णइ, अजीवमिस्सिया जहा तमेव किमिरासिं पायसो मयं पासिऊण भणेज्जा-अहो शुद्धि अन इमे सम्बे मया, तत्थ के जीवंति, जे ण जीवंति तेसु सच्चा, जे जीवंति तेसु मोसा, अओ अजीवणिस्सिया भण्णइ, जीवाजीवमि स्सिया जहा मयाण अमयाणं च रासि दट्टण भणेज्जा, जहा-सम्बो एस रासी जीवइ मोबा, एवमादि, अणतमीसिया जहा कोइमलगणछोटे दहणं अथवा किंचि तारिस भणेज्जा-जहा-सब्बो एस अणंतकायोति,तस्स मूलपचाणि जिण्णत्तणेण परिभूयाणि,केवलं तु जलसिंचणगुणेण केइ तस्स किसलया पाउम्भूता, अओं अर्णतपरित्तचेण मिस्सिया भण्णइ, परितमीसिया जहा अभिनवउक्खये मूलग कोवि परिमिलाणंतिकाऊण भणेज्जा जहा सव्यो एस परिचो, तत्व अंता परित्तीभ्या मज्झपएसो अणंतो चेब, एसा परितमीसिया, अद्धामीसिया नाम अद्धा कालो भण्णइ, सो य रायि वा होज्जा दिवसो वा तत्थ बट्टमार्ण काल अणागएण कालेण सह मिस्सीकरेइ, जहा कोयि पंथं बच्चमाणो थेवावसेसे दिवसे सेहए भणइ, जहा-तुरियमागच्छह, ण ता पेच्छह इम कालिय रति एवमादि अद्धामीसा भण्णइ, अद्धद्धामीसिया नाम तेसिं चेच दिणरातीण एगदेसो अवद्धा भण्णइ, तं बढमाणं कालं अणागतकालेण सह मीसीकरेइ जहा पुचपोरिसीए भण्णाइ-मज्झण्हीभूतं तहावि बर्य न झुंजामोति एवमादि अद्धामीसिया, ४ ॥२३८॥ सच्चामोसा गता। इवाणिं असच्चमोसा भण्णा, सा नेव सच्चा व मोसा, केयलं ययणमेव, सा दुवालसविहा दोहिं | Wiciaeo ॥२३८॥ दीप अनुक्रम [२९४३५०] [243] Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [२७८-३३४/२९४-३५०], नियुक्ति: [२७१-२९३/२६९-२९२], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक" नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत पर्याप्ता सूत्रांक [१५...] गाथा ||२७८ पयोप्समापे भीदवा-दागाहाहि भण्णइ, तं- 'आमंतणि' ।। २७८ ।। गाथा, 'अणभिग्गहिआ भासा || २७९ ।। गाथा, तस्थ 'आमंतणि' बैकालिक जहा हे देवदत्त। एवमादि, आणवणी णाम जो जस्स आणत्तियं देह सा आणवणी भवति, जहा गच्छ, पच पठ, कुरु, मुख पूर्णी एवमादि, जायणि मग्गणी भणति, यथाऽस्माकं भिक्षां प्रयच्छ एवमादि, पुच्छणी जहा कओ आगच्छसि', कत्थ वा गच्छ७वाक्य | सित्ति, तथा-'कतिविधाण भैते! जीवा पण्णता' एवमादि, 'इच्छाणुलोमा नाम जहा केणइ भणिया जहा साधुसगासं शुद्धि अ. गंतव्बंति, ततोऽसौ भणति-ता सोभणं भवइ गच्छामो इन्चेवमादि, 'अणभिग्गहिया' णाम जा मासा अत्यं अभिगेण्हिऊण: केवलं वायमिसमेव उदाहरिज्जति जहा डित्थो डवित्थो अमट्टो पार्थेन इति, अहवा-ऊससियं नीससियं निच्छूटं खासियं च ॥२३९॥ छीयं च । णिस्सिघियमणुस्सारं अणक्खरं छेल्लियादीयं ॥१॥ जा पुण. भासा अत्थं अभिागिज्य भासिया सा अभिग्गहिया, जहा घयं रसं एवमादि, संसयजयणी णाम जहा सेन्धवमाणहित्ति भणिए ण णज्वइ किं तावत्पुरिसो सिंधयो आणतब्बो उदाहु लवणं आसो वा एवमादि, बोयडा नाम जा पगडत्था, भावियत्थत्ति बुतं भवइ, जहा एस भाया देवदत्तस्स एवमादि, अब्बोयडा नाम जा सोतारेहि भासिज्जमाणा ण संविज्जइ जहा बागाणं एवमादि, एवमसच्चामोसाधारसविधा गता। इयाणि 'सच्चाविअसादुविधा' ।। २८० ।। गाथा, जा एसा दुविधा चउविधावि भासा भणिया सा सव्वावि दुविथा भवइ, तं०-पाजत्तिगा अपज्जसिगा य, तत्थ आदिल्लियाओदोणि पज्जत्तिगाओ. इतरा दोवि अपज्जत्तिगाओ, पज्जत्तिगाणाम जा अवहारिउं सक्कही जहा सच्चा मोसा चा, एसा पज्जत्तिगा, जा पुण सच्चावि मोसावि दुपक्खगेवि सा न सक्कर विभावर्ड जहा एसा सच्चा मांसा वा, अओ सा अपज्जत्तिमा भण्णइ, जहा समइए सच्चामोसा अवहारेउं न सक्कड़ तहा असच्चामोसावित्ति साऽवि अपज्जचा CAMEREKes ३३४|| दीप अनुक्रम [२९४३५०] ॥२३९॥ [244] Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [२७८-३३४/२९४-३५०], नियुक्ति: [२७१-२९३/२६९-२९२], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||२७८ श्रीदशवैकालिक चूर्णी. ७ वाक्य शुद्धि अ० ३३४|| ॥२४०॥ चेच भणिया, ब्वभावभासा गया । इयाणिं सुतभावभासा भण्णइ, तं च-'सुअधम्मे पुण तिविहा०॥ २८१ ॥1॥ श्रुतमाव| अद्धगाथा, जा सुतधम्मोवउत्तस्स भासा सा तिविधा-सच्चा मोसा असच्चमोसा, सचा इमेण गाहापच्छद्रेण भष्णइ- सम्म-16 भाषा हिट्ठी सुते उवउत्तो भासं भासद सा णियमा सच्चा । इयाणि मोसा भण्णइ, तं०-'सम्मदिही उ सुअमि० ॥२७२।। गाया, शुद्धि सो चेव सम्मदिही सुते अणुवउत्तो जया अहेउज्जुत्तं भासइ तया मोसा भण्णइ, जहा तंतूहिं घडो निकाइजर मट्टियापिडाओ निक्षेपाः पडो एवमादि मोसा, सा सम्महिद्रिस्स भवति, मिच्छादिट्टी पुण उपउत्तो अणुवउत्तो वा चढविधपि भासं भासमाणो मोसामेव भासद, कई , तस्स वयणं उम्मचवयणमिव सञ्चासच्चत्तणेण अप्पमाणं भण्णा । इयाणि असच्चामोसा भण्णइते-हवह। उ असच्चोसा.' ५ २८४ ॥ गाथा, सच्चा मोसा य, एतातो दोऽवि भासाओ चरिते भवति, तत्थ सच्चा नाम जे भासं भासंतस्स सरचं मोस वा चरित्तं विसुज्झइ, सवावि सा सच्चा भवति, जं पुण भासमाणस्स चरितं न सुज्झति सा मोसा भवति, I* | अथवा जं भासं भासमाणो सचरित्तो भवति सा सच्चा, जं भासं भासमाणो सो अचरित्तो भवह सा मोसा, असच्चामोसा एवं 15 दुबिहा भण्णइ, चकं गतं । इयाणि सुद्धी भण्णइ–णामंठवणासुद्धी ॥२८५।। गाथा, चउबिहा सुद्धी भवइ, तंजहाणामसुद्धी ठवणसुद्धी दब्बसुद्धी भावसुद्धित्ति, तत्थ नामठवणाओ गताओ । दब्बसुद्री इमा, तंजहा-तिधिहा उ (य) दब्ब-1 सुद्धी० ॥ २८६ ।। गाथापुब्बद्धं, तिविधा दब्बमृद्धी भवइ, तंजहा--दब्बसुद्धी आदेसमुद्री पहाणसुद्धी य, तत्थ दब्बसुद्धी आदेस-18 मुद्धी य इमेण गाथापच्छद्रण भण्णाइ, त०-तरण्यगमारसो अणण्णमीसा हा सुद्धी ।। २८६ ।। अद्धगाथा, तत्थ दग्य- २४०॥ सुद्धी नाम जं दक्ष अत्रेण दवेण सह असंजुत्तं सुद्धं भवइ जहा खीरं दधिवा, आदेसदब्बसुद्धी दुविधा अण्णसे य अणण्णत्ते य, Ill दीप अनुक्रम [२९४३५०] ... शुद्धेः नाम-आदि निक्षेपा: दर्शयते [245] Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [२७८-३३४/२९४-३५०], नियुक्ति: [२७१-२९३/२६९-२९२], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||२७८ Cat चूणों ॥२४॥ ३३४|| | अण्णत्ते जहा सुद्धवंसो सो देवदत्तो, अणणचे जहा सुद्धदेतो, आदेसब्बसुद्धी गता। वण्णरसगंधफासे ॥२८७|| माथा, वाक्य: । पहाणदब्बसद्धी इमेसु ठाणेसु भवइ, तं०-वष्णेसु गंधेस रसेस फासेसु जा समणुनया सा पहाणवकसुद्धी भवति, समणुना नाम | दरिसणिजत्ता, तस्थ बन्नेसु सुकिल्लो बनो पहाणो गंधेसु सुरभी पहाणो रसेसु महुरो पहाणो फासेसु मउयलहुयउण्हणिद्धा पहाणा, अहवा वारसंगधफासेसु जो जस्स संमतो सो तस्स पहाणो, संमओ नाम अभिप्रेतो, पहाणसुद्धी गता, गया य दब्व निक्षेपाः सुद्धी । इयाणि भावसुद्धी भण्णइ, तंजहा- 'एमेव भावसुद्धी ॥२८॥ गाथाषुब्बद्धं, 'एवमेव' ति जहा दव्यसुद्धी। तिविधा दग्बादि एवं आवसुद्धीवि तिविधा, तं०-सम्भावसुद्धी आदेसभावसुद्धी पहाणभावसुद्धी य, तत्थ तब्भावसुद्धी आदेस-13 भावसुद्धी य इमेण माथापच्छद्रेण भण्णंति, तजहा-तम्भावगमाएसो अणण्णमीसा हवइ सुद्धी० ॥ २८८ ॥ गाथापच्छर्दू, तस्य तब्भावसुद्धी जहा तमि गतो भावे सो अहिकंखर, जहा बुभुक्खिओ अनंतिसिओ पाणं एवमादि । इदाणिं आदेसभावसुद्धी, सा दुविधा, तंजहा-अण्णाचे अणण्णत्ते य, तत्थ अण्णचे जहा सुद्धभावस्स साहुस्स एस आयरिओ, अणण्णत्ते जो जेण भावेण आदिस्समाणो न विरुज्झइ, जहा सुद्धसभावो साहू । इयाणि पहाणभावसुद्धी भण्णइ, तंजहा- 'दसणनाणचरित्ते ।। २८९ ।। गाथा, पहाणभावसुद्धी जं दसणादीण आदिस्समाणाणं सा पहाणभावसुद्धी भण्णइ, तत्थ दसणपहाणसुद्धी खाइन्। दसणं, नाणपहाणसुद्धी खाइगं गाणं, चरित्तपहाणसुद्धी य अहक्खायं चरितं, तवपहाणसुद्धी य अम्भितरतवस्स सम्ममाराहणाए,I||२४१॥ तेहिं दसणाईहिं परिसुद्धेहिं जम्हा साहू विसुद्धकम्ममलो भवद अओ अविसुद्धो सुद्धो भवइत्ति , एत्थ भावविसुद्धीय अधिकारो, | सेसा उच्चारितसरिसत्तिकाऊण परूविया, मुद्धी गया । सीसो आह- बकसुद्धीए कि पओयणति !, आयरिओ भणइ- सुद्धेण दीप अनुक्रम [२९४३५०] ARAK [246] Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [२७८-३३४/२९४-३५०], नियुक्ति: [२७१-२९३/२६९-२९२], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||२७८ गुण ३३४|| श्रीदश-18 वकण आयारसुद्धी भवति , बकसुद्धीए इमा णिरुत्तगाथा भवइ, 'जं वकं बदमाणस्स.१॥२९०॥ जे वकं वयमाणस साधुणो वकालिक संजमे सुद्धी भवइ, णय सच्चेण भणिएण हिंसा जायइ, ण य अत्तणो कलुसमावो भवइ, जहा कि मए एतं एवंविहं मणियं विभक्तः फलं तेण बकसुद्धी भण्णाह, किं कारणं बकसुद्धीए एत्तिओ आयरो कीरह, आयरिओ आह-'वषणविभत्तीकुसलस्स.' ।। २९१ ।। ॥२४॥ माथा, वयणविभचीए कुसलया जस्स अस्थि सो वयणविभचाकुसलो, तस्स बयणविभतीकुसलस्स, न केवलं पयणविभत्तीकुसलस्सेब, किंतु 'संजमंमि उपठितमतिस्स' तत्थ सम्म नाम संजमो, तमि संजमे उवट्टिया मती जस्स, उचट्ठिया नाम थिरी| भवा, जम्हा तस्स ययणविमतीकुसलस्स संजमंमि य उपट्टितमइस्स साहुणों एकेणावि दुम्भासिएण बिराधणा होज्जा, अओ12 |वद्यासुद्धीए सब्वपयतेण जसितमति, आह-जह भासमाणस्स दोसो तो मोणं कायव्य, आयरिओ भण: मोणमवि अणुवाएणx कुबमाणस्स दोसो भवइ, कह', 'वयणविभत्ति अकुसलो० ॥ २९२ ॥ गाथा, कोयि वयणविभची अकुसलो सो वओगतं बहुविध-अणे गप्पगारं अयाणमाणी जद दिवसं पहन किंचि भासइ 'तहाधिन बयिगुत्तयं पत्तो'त्ति, जो भासागुणदोसविहिण्णू तस्स इमो गुणो भवइ, तंजहा- 'वयणविभत्तीकुसला ॥२९३ ॥ गाथा, जो कोइ वयण विभत्तीकुसलो वओगतं पहुविध अणेगप्पगार जाणमाणा-जह दिवसमणुबद्धं भासह तहावि वयगुत्तत् पत्तोत्ति । इयाणि सुचाणुगमे मुचमुच्चारयव्य। अक्खलियं अमिलियं जहा अणुयोगद्दारे, तं च सुत्नं इम-'चउण्हं खलु भासाणं, परिसंवाय पन्नवं । (दो) दुण्हं तु विणय २४२॥ | सिक्ख, दाम भासिज्ज सव्वसो (२३८)सिलोगो, चतुर, प्रातिपदिका, षष्ठी शेपे' विभक्तिर्मवति शेषे कारक, तस्या बहुवचनंद आम्, पष्ठी चतुर्थी बेसिनुर आगमः परगमनं चतुण, भाषाणां चतुणों, खलनिपातः परकीयमर्थमयोते, (मारूयाति) खलुसदो CCCC दीप अनुक्रम [२९४३५०] ® अत्र सप्तमं अध्ययनस्य सूत्र (गाथा:) आरभ्यते [247] Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ॥२७८ ३३४|| दीप अनुक्रम [२९४ ३५० ] "दशवैकालिक" - मूलसूत्र-3 (निर्युक्तिः + भाष्य | + चूर्णि:) (निर्युक्तिः+|भाष्य|+चूर्णिः) अध्ययनं [७], उद्देशक [-] मूलं [१५] / गाथा: [ २७८-३३४/२९४-३५०] निर्युक्तिः [ २७१-२९३ / २६९-२९२], आष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [ ४२ ], मूलसूत्र [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: - श्रीदशवैकालिक चूण ॥२४३॥ - " बिसेसणे, किं विसेसग्रह ?, जश चउरो भासाओ मोसूण अष्णो वायागोयरो गत्वित्ति एवं विसेसयति, 'भाष व्यक्तायां वाचि' भ्रातुः अस्य धातोः 'अः प्रत्यया 'दित्यनुवर्तमाने 'गुरोश्च हल' इति अकारः, प्रत्ययः, स्त्रीविवक्षा, वर्त्तमाने चक्षिं, ख्याङ् आदेशः, ङ्कार उच्चारणार्थः, अनुबन्धलोपः, 'युवोरनाका' विति अनादेशः, अकः सवर्णे दीर्घः' (पा० ) इति दीर्घत्वं, परिसंख्यानं, परिसंख्याय नाम परिजाणिऊण, ज्ञा अवबोधने धातुः अस्य धातोः प्रपूर्वस्य षिद्भिदादिभ्यः इत्यनुवर्त्तमाने 'आतश्चोपसमें' इति अदप्रत्ययः टकार उच्चारणार्थः, 'आतो लोप इटि च क्ङिति चे' ति आकारलोपः, [ अनुस्वारस्य ] स्त्रीविवक्षायां अजाद्यतष्टापि ति टापू प्रत्ययः, अनुबन्धलोपः, 'अकः सवर्णे दीर्घत्वं प्रज्ञा बुद्धिरभिधीयते सा जस्स अस्थि सो पण्णवं प्रज्ञावतु इति स्थिते प्रथमैकवचनं सु, उकारः उच्चारणार्थः 'उगिदचां सर्वनामस्थानेऽधातो:' ( पा. ७-१-१० ) इति नुम् मकार उच्चारणार्थः, 'नथापदान्तस्य झली ' ( पा. ८-३-२६ ) त्यनुस्वारः, अनुस्वारस्य यपि परसवर्णः परगमनं च 'ल्यान्भ्यो दीर्घात् सुतिस्यपृक्तं हलि'ति सुलोपः, 'संयोगान्तस्य लोपः' ( पा. ८-२-२३) नोपधाया ' इति (पा. ६-४-७) दीर्घत्वं स प्रज्ञावान् तेन बुद्धिमता, एताओ चचारि भासाओ य परिगणऊण दोन्हं द्वि सर्वनाम चिनाभिधायी 'कर्तृकरणयोस्तृतीये' ति ( पा. २-३-१८) तृतीया विभक्तिः, तस्या द्विवचनं स्यात्, त्यदाद्यमिति ( त्यदादांनामः पा. १२-१०२ ) इकारस्य अकारः सुपि चे 'ति ( पा० ७-३-१०२ ) दीर्घत्वं, द्वाभ्यां ' अय वय नय तय गतौ ' नय धातुः, तस्य धातोः विपूर्वस्य पुंसि संज्ञायां घः प्रायेणेति ( पा० ३-३-११८ ) घप्रत्ययः अनुबन्धलोपः, विनयनं इति विनयः, दोघं विनयं 'सिक्खेज्ज ' ति 'शक्ल शक्ती' धातुः अस्य ' धातोः 'कर्मणः समानकर्तृकादिच्छायां (पा. ३-१-३) सन् प्रत्ययः, शक्तमि " 4 [248] भाषा धिकारः ॥२४३॥ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [२७८-३३४/२९४-३५०], नियुक्ति: [२७१-२९३/२६९-२९२], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||२७८ चूणों ३३४|| श्रीदश- छतीत्येवं विगृह्य सनः अनुवन्धलोपः आर्द्धधातुकस्येवलाद' रिति (पा. ७-२-३५) इटू प्राप्तः । एकाजनुपदेशेऽनुदात्ता- भाषावेकालका दिति (पा. ७.२-१०) प्रतिषिद्धः, 'सन्यङो' रिति (पा.६-१-९) द्विवचनं, शशक अत्र लोपोऽभ्यासस्य, तिप वर्तमाना, धिकार 'सनि मीमाधुरभलभशकपदपदामच इस्' इति (पा. ७-४-५४) शकारस्य अकारस्य इस् आदेशो भवति, अस्य सलोपश्च, सकार उच्चारणार्थः, इको 'आदेशप्रत्ययो रिति (पा. ९-३-५९) सकारस्य ककारः परगमनं शिक्षे इति स्थिते 'सप्तम्यधिकरणे' इति ॥२४४॥ (पा.२-३-३६) सप्तमी, तस्या एकवचनं डि, इन्कारलोप 'आद् गुण' इति (पा.६-१-८१) गुणो भवति 'एकच पूर्वपरयो।' एकारः, शिक्षे, दोत्ति संख्या, सा य इमा सच्चा असच्चामोसा य, एतासि दोण्हं विणयं सिक्खेज्जा, विणयो नाम किमेताण दोहवि बत्तव्य |ज भासमाणो धम्म णातिकमद, एसो विणयो भण्णइ, सिक्खेज्जा नाम सबप्पगारहि उपलभिऊण दो विसुद्धाओ भासेज्जा, दोन भासिज्जा सब्वसो' ति बितियततियाओदोवि सव्वावस्थासु सब्बकाल नो भासेज्जा । इगाणि सो विणओ भण्णइ. |जा असच्चा अवत्तम्चा, असच्चामोसा सच्चा य अवत्तब्दा, सच्चामोसा अजा मुसा । जा अ युद्धेहिं नाइमा, न त भासिज्ज पनव्वं ।। १७९ ॥ 'जा अ' इति अणिद्दिड्डा 'अव्वत्तव्वा' पुन्वभणिया, ण वत्तव्वा सावज्जत्ति चुत्तं भवइ, ते अवत्तव्वं मोसं सच्चामोसं च, एयाओ तिणिवि, चउत्थीवि जा अ बुद्धेहि गाइबागहणणं असच्चामोसावि गहिता, उकमकरणे मोसावि गहिता, मा एवं बंधानुलोमत्थं, इतरहा सच्चाए उवरिमा भाणियच्या, गथाणुलोमताए विभात्तिभेदो होज्जा बयणभेदो बसु(थी पुमलिंग ॥२४४॥ लाभेदों व होज्जा अत्थं अमुंचतो, जा य युद्धहऽणाइण्णा ण तं भासज्ज पण्णवं, तो तासिं चउहं भासाणं वितियततियाआ नियमाल IMIन वतन्याओ, पढमचउत्थीओ जा य हेहष्णाइण्णन्ति, तत्थ 'बुद्धा' तित्थकरगणधरादी तेहिं णो आइण्णा अणाइण्णा, अणा दीप अनुक्रम [२९४३५०] Sex [249] Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [२७८-३३४/२९४-३५०], नियुक्ति: [२७१-२९३/२६९-२९२], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||२७८ ३३४|| श्रीदश-1 चिमा णाम नोवदिवा भासिया वा, बुद्धा हि भगवंतो सच्चं सच्चमायरंति, जहा अस्थि केइ गाहा पक्खी वा दिवा', तत्थ भण्णंति । भाषाकालिकणस्थ, असच्चामोसाए य जाओ सावज्जाओ आर्मतणादीणीओ डाओ अणाचित्राओ बुद्धाणंति, उच्चेण वा सहेण परियट्टणं धिकार: चूर्णी रातीए, एवमादि, जे सावज ण ते बुद्धिमता भासियव्यंति, जाओ अभासणिज्जाओ ताओ भणियाओ, जाओ भणियवाओ ताओ भण्णति, तं च- असच्चमोस सच्चं च' ।।२८० ।। सिलोगो, असच्चमोस सच्चं च, एतासि अण्णतरं भासमाणो. अणवज्ज | ॥२४५।। अकसं च, सम्म उपहिया समुपहिया, किंमए बत्तव्यमिति एवं मणसा संचितिऊणं जाहे णिस्संदिळ जाय जहा अणवज्जमेत-४ मककस च ताहे गिरं भासज्जा पण्णवात, आह-अणवज्जअककसाण को पतिविसेसो, भण्णइ-वज गरहित भण्णात, या बजट अणवज्ज, अथवा बज्ज कम्मं भण्णइ, जाए भासियाए कम्मरस आगमो भवइ सा सावज्जा, तम्हा अणवज्ज भासेज्जा, (ककस) किस कार्य भासिया करेइ, कही, तस्स लोगविरुद्धं धम्मविरुद्धं च भासिऊण पच्छा तु भावेण तप्पमाणस्स किसो कायो भवइत्ति, अओ ककसा भण्णइ, अहवा जो भण्णइ तस्स तं फरुसवयणं अचिंतयंतस्स किसो कायो भवइत्ति कफसा, तमककसं भासिज्जति । | इयाणिं असच्चासच्चामोसापडिसेहणत्थं इमं भण्णइ, तं०-'एअंच अट्ठमन्नं वा॥ २८१ ॥ सिलोगो, जो इयाणि अणवज्ज-12 मककसो अत्थो भणिओ तस्स पडिचक्खभूओ सावज्जो ककसो य तेण भणिएण भणिओ चव, तमेयं सावज्ज अकक्कसं च अत्थं | अण्णं वा एयप्पगारंति, 'ज' मिति अविससितस्स गहणं तुसदो विसेसणे, किं विसेसवति', जहाजं थोवमवि धुणणादि तं च २४५।। सोयारस्स अप्पियं भवइ, नामइ पाडिज्जइ, जहा नामिओ मल्लो नामिओ रुक्खो, अओ 'स भासं सचमोसंपिस इति भिक्खुताणोणिद्देसो, स भिक्खू ण केवलं जाओ पुव्वभणियाओ सावज्जमासाओ बज्जेज्जा, किन्तु जाबि असच्चमोसा भासा तमवि धीरो दीप अनुक्रम [२९४३५०] [250] Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ॥२७८ ३३४|| दीप अनुक्रम [२९४ 340] "दशवैकालिक" - मूलसूत्र-3 (निर्युक्तिः + भाष्य | + चूर्णि:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-] मूलं [१५] / गाथा: [ २७८-३३४/२९४-३५०] निर्युक्तिः [ २७१-२९३ / २६९-२९२], आष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [ ४२ ], मूलसूत्र [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: - श्रीदशवैकालिक चूण ॥२४६॥ - 4 विवि अणे गप्पगारं वज्जए विवज्जएत्ति इयाणि मोसरक्खणनिमित्तं इमे भण्णह-' वितर्हपि तहा मुसिं० ॥ २८२ ॥ सिलोगो, वितहं नाम जं वस्थं न तेण सभावेण अस्थि तं वित भण्ण, मुत्ती सरीरं मण्णइ तत्थ पुरिसं इत्थिमेवत्थियं इरिथ वा पुरिसनेवत्थियं दण जो भासह-हमा इत्थिया गायति णच्च वाएह गच्छद, हमो वा पुरिसो गाय गच्चह वाएति गच्छति, अविसदो संभावणे, किं संभावयति ?, जहा पुरिसं जो जुवाणं बुवत्थं भइ इत्थि वा जोब्वणत्थं वुडनेवत्थियं बुद्धिर्त भइ सोवि वितहा ती भण्ण, एवं संभावयति, 'तम्हा सो पुट्ठो पावेणं' ति, तम्हा वितहमुतिभासणाओ सो भासओ पुण्यामेव पुडो, पच्छा ताणि अक्खराणि उच्चारिषाणित्ति, जइ ताव सो पत्तभावमवि भासमाणो पावेण पुडो, किं पुण जो जीवोबधाइयं मुसं वदेति, मुसावायवज्जणाहिगारे इमे भण्णइ 'तम्हा गच्छामो० ॥ १८३ ॥ सिलोगो, जम्हा बेसविरुद्धमवि आलवंतस्स दोसो भवइ तम्हा साहुणा ण एगंतेण एवं भासियव्यं, जहा 'गच्छामो वक्खामो' त्ति, 'निज्मतु (चमच ) जो गुरुमु य बहुबयणम विरुद्ध ' ति, अवा न एगस्स साहुगो निकारणे कप्पद गंतु ते वयणं उपात्तमिति, तस्थ गच्छामो नाम जहा अहं अण्णं अमुकं गामं अवसरसं गमिस्सामि एवमादि, वक्खामो नाम जहा कल्ले अनुगं वयणं भणीहामि मग्गीहामो वा, एवमादि, अमुगं वा कज्जं एवं भविस्सर, ' अहं वाणं करिस्सामि नाम जहा कोइ किंचि तारिसं करेति सो न एवं बतब्धो, जहा-अच्छाहि तुम कल्ले हुने वा करिस्सामित्ति, जहा संथारगं बज्झमाणं पासित्ता कोइ भणेज्जा-किं संथारगं वावि (बज्झसि) अहमेयं कल्ले मुडुचे वा बंधी, एवं लोगं ते करिस्सामि, वेयावच्चं ते करिस्सामि, एवमादि, एसो वा णं करिस्सइ ' णाम जहा कोथि किंचि तारिसं करेह तं करें अण्णो भणिज्जा-मा एयं तुमं करेह, एसो अनुगो कहे करिस्सतीति एयाणि ण भाणितव्याणि किं कारणं ?, + [251] भाषाधिकारः ॥२४६ ॥ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ॥२७८ ३३४|| दीप अनुक्रम [२९४ ३५० ] "दशवैकालिक" - मूलसूत्र-3 (निर्युक्तिः + भाष्य | + चूर्णि:) (निर्युक्तिः+|भाष्य|+चूर्णिः) अध्ययनं [७], उद्देशक [-] मूलं [१५] / गाथा: [ २७८-३३४/२९४-३५०] निर्युक्तिः [ २७१-२९३ / २६९-२९२], आष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [ ४२ ], मूलसूत्र [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: - श्रीदवैकालिक चूर्णी ॥२४७॥ - जम्हा बहुविग्धा उ मुहुत्ता अहोरत्ता य भवंति । अतो-' एवमाई उ जा भासा० ॥ २८४ ॥ सिलोगो, एवमादिगहणेण दादामि पढीहामित्ती एवमादि, एस्सकालमि जा संकिया भासा सा गहिया, एस्से नाम आगमिस्सतीति, एस्सकाले संकिया नाम तहा या होज्जा वितदा वा होज्जा, ण केवलं जं संक्रियं तमेसकाले ण भाणियचं, किंतु संपयमवि जो अतीते या काले संकिओ सोऽविन निस्संकिओ भाणिएब्यो, तत्थ संपइकाले जहा गच्छामो वक्खामो अमुगं दव्वं अनुगस्स अस्थि कहं करोमि एवमादि, अतीतेऽवि ण निरुतं संभर, तहावि भणति अहं तुम्भेहिं समं अनुगत्थ गओ तदा य मते इमं वयणं भणियं जेण सो परपवादी णडे, भए तव तहा आदेसो दिष्णो तेण तवस्स फली संपत्ती जहा, एवमेतप्यगारं संकिय भास तीताणा गएसु कालेसुन मासेज्ज, वहा जावि परणिस्सिया सावि संकिया, जहा देवदत्तो इदाणि आगमिस्सर, इमं वा सो करिस्सइ, एवं तिसुवि कालेसु परणिस्सिया ण भाणियन्त्रा, कहं पुण बत्ती, जहा सो एवं भणियाइओ, ण पुण णज्जइ-किमागभिस्सइ (ण वा आगमिसइ) ? इमं काहिति न काहिति वा ? एवमाइया, एवं पच्चयाण मिहन्याण य सामण्णेण य भणितं, तत्थ गिहस्थाणं पुख्वभावमाणाणं कहिंचि सावज्जे (न) कहणीयं, भणियं च उवरिं- 'नक्वत्तं सुमिण जोगं' सिलोगो, कारणजाए पुण जया भणिज्ज तदा इमेण पगारेण. जहा जहेत्थ निमित्तं दी सह तहा अज्ज वासेण भवियन्त्रं, अमुको वा आगमिस्सह, एवमादि, जदा पुर्णा [अणा] गंतुकामो तदा ण निस्संकियं भाणियां-जहा अहं कल्ले गमिस्सामि किं कारणं १, तत्थ वाघातो भवेज्जा, तओ तेर्सि गिहत्थाणं एवं चित्तमुप्पज्जह, जदा मुसावादी एसति, अहवा वायगेण गणीणा वा आपुच्छिओ ताहे वेसि गिहत्थाणं एवं चितया भवेज्जा, जहा एत्तिलगमवि एते ण जाणंति जहा बाघाओ भविस्सा न वा भविस्सइति, न कोऽवि एतेसिं गाणविसओ अस्थिति एवमाइ बहवे दोस्रा भवतिचिकाऊण संसदद्ध [252] भाषा धिकारः ॥२४७॥ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [२७८-३३४/२९४-३५०], नियुक्ति: [२७१-२९३/२६९-२९२], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत II भाषा श्रीदशवैकालिक सूत्रांक [१५...] गाथा ||२७८ चूणी. ॥२४॥ SAMACHAR ३३४|| | मेव आपुच्छियव्र्व, तहा वक्खामो अमुर्ग वा णो भविस्सङ अहं वा णं करिस्सामि एसो वा णं करिस्सह, पतेसु. पएसु अण्णेसु या एवमादिसु, एतेसु विसेसदोसा भाणियन्वा । इयाणि एतस्स अत्थस्स उपसंहारसुत्तं भण्णइ,'तहेव अहमि अतं कालंमि०२८५10धिकार (१ अस्या अपेतना आश्च स्थाने गाथायुगळमीदृशं संभाव्यते-तं तहेव अईयमि, कालंमिऽणवधारियं । जे चणं संकियं वावि, एवमेवंति नो वए ॥१॥ तहेवाणागयं अद्धं, जं होइ उनहारियं । निस्संकियं पदुष्पन्ने, एवमेयंति निरिसे ॥२॥ न च धृत्तिबुतपुस्तकादिषु दृश्यते इयमेवं सत्र तु अईअंमी' त्यादि गाथात्रयं दृश्यते ) सिलोगो, 'तं तहेव' ति जेणपगारेण जहा हेहा भाणियं गच्छामो वक्खामो तहप्पगारमणागयकालीयं अत्थं णो वएज्जा, 'जं वणं' ति जमिति अणिदिहस्स गहणं, अण्णम्गहणेण तीयाणागयकालगहणं कय, अणवधारियं णाम जं सव्वहा अपरिणायं तं अणवधारियं भवइ, तत्थ अणागतं जहा जो सध्यधा | अणवधारिओ अणागओ अत्थो सो विधिणा णिमित्ताईहिंण अप्पणो इच्छाए वत्तम्वो, जहा अमुगे काले अमुग भविस्सइनि, तहा 8 अतीतमवि अणवधारियं तहावि णो वदेज्जा, जहा परेण पुट्ठो कि तेण माणय! उदाह भणितंति वओ मे सुतं , तत्व असर-1 माणो भणइ-ण सरामि, एवं तुर्म रूवं दिढ, ण दिट्ठति बा, तत्थ असरमाणो भणइ-ण सरामि, एवं गंधरसफासा भाणियव्वा, पद्ध|प्पण्णेऽवि जइ कोऽवि भणेज्जा जहा सहो तुमे सुतो न सुओ वा ?, तत्थ स अणुवलम्भमाणं णो अपणो इच्छाए भासज्जा. ४ किंतु तत्थ एवं भाणियध्वं-जहा न विभावयामिति, एवं रूवं पुच्छिओ-किमयं दीसइ, तत्थवि अणुवलम्भमाणो ॥२८॥ ताण जाणामित्ति बूया, गंधेवि कस्सेस गंधोति ?, (तत्थ अणुवलम्भमाणो ण जाणामिति, रसेवि कस्सेस रसत्ति, तत्थवि अणुवलब्भमाणो न जाणामिति, फासे) जहा अंधकारे अप्पणिज्जअन्नाथफरिसा आसंसिओ, केणवि पुच्छिओ। दीप अनुक्रम [२९४३५०] [253] Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [२७८-३३४/२९४-३५०], नियुक्ति: [२७१-२९३/२६९-२९२], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||२७८ वृणा ३३४|| श्रीदशजहा- कस्स एतं वत्थं ! कि तब उदाहु ममत्ति, तत्थ सम्भावओ अयाणमाणेण वत्तव्यं, जहा-च याणामिति, एवं भाषाबैंकालिकाताव अणवधारिए अस्थे भणियं । इदाणि जो निस्तंकिओ अत्थो तत्थ मण्णा-'संकियं वा पडप्पन्नं ' ति, जं संकियं पडप्पाने । धिकार काले तमवि णी भाणियव्वं जहा ' एवमेअं' ति, पडुप्पण्णगहणेण अतीतणागएसुवि कालेसु संकियं तं न क्त्तव्यंति । इदाणि एतेसु कालेसु जमेगंतण उवधारियं भवइ, तत्थ का पडिवत्ती, भण्णइ--'तहेवाणाग अळू०' । सिलोगो, तहेवत्ति जहा हेट्ठा ॥२४९।। 18 भणियं एवमणागयकालिय अण्णं वा तीतमढे उवधारियं जाहे भवइ ताहे भासेज्जा-एवं एतंति, पड़प्पनमवि निस्संकियं जाहे | | भवति ताहे भणेज्जा जहा 'एवमे अं' ति, जे पुण संकियमेव अप्पंतरितमितिकाउंण वत्तव्वंति, आह-अवधारितनिस्संकि याण कोई पइविसेसी, आयरिओ भणइ-अवधारियमुबलद्धं ण सध्वप्पगारेण, निस्संकियं जं सबप्पगारेहि उपलद्धं, थोवथोवाए 8 निद्देसे णाम अतिकंतवट्टमाणीणमणागयं वा अत्थं हियए ठाविय दिसेज्जा । किंच-तहेव फरुसा भासा.' ॥ २८८ ॥ हासिलोगो, जहा दोसपरिहरणनिमित्तं थोषधोवाए निहिसियध्वं, तहेव जा फरुसा भासा सा दोसपरिहरणनिमित्तमेव न वक्तव्या, 'फरुसा'णाम हबज्जिया, जीए भासाए भासियाए मुरुओ भूयाणुवघाओ भवइ, सा 'गुरुभूओवघाइणी' जहा दासो। एसोनि, सो तत्थ कुलपुत्तओत्तिकाऊण संजोगं कुल पुत्तेहिं समं करेयाइओ, तेण य साधुणा पुढेणऽपुढेण वा मणिओ होज्जा, पू ताहे सो तत्थ मारेज्जेज्ज वा, एवमादि सच्चावि भासा ण बत्तबा जाए भासाए पावगमो भवति, किमंग पुण मोसंति, सोय पाव-1 ॥२४९॥ गमी इहलोइओ पा होज्जा, पारलोइओ बा, तत्थ इहलोइआ ताव अयसादि दोसा भवंति, पारलोइयावि जम्ममरणादी दोसा18 साभवति । किं च तहेव काणं काणति ॥ १८९ ।। सिलोगो, मिष्णक्खोऽवि काणो न माणियन्यो, किमंग पुण पुफियरखोद दीप अनुक्रम [२९४३५०] [254] Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [२७८-३३४/२९४-३५०], नियुक्ति: [२७१-२९३/२६९-२९२], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||२७८ यू ३३४|| श्रीदश- 18| केकरक्खो वा ?, पंडगो नपुंसगो भण्णइ, सो पंडगो पंडगं चैव न भाणियव्यो, तहा वाधितमवि णो रोगिणं आलावेज्जा, जहा| भाषावैकालिक कोढी गडी बा एवमादि, तहा तेणमवि चोरमिति नो ब्रूयात् , तत्थ काणपंडगा अप्पतियादिदोसा भवेज्जा, एवमादि । तिहे- धिकार व होले गोलित्ति०' ॥ २९० ॥ सिलोगो, आमतर्ण देसीभासाए विच्छूट भवइ, तहा साणेवसुलादीणिवि निहुराणि, वसुलो ॥२५॥ भूतत्थो भण्णइ, दमगसिया पसिद्धा, एताणि होलादीणि पण्णवगो णो भासेज्जा, इत्थिपुरिसो अविससेण वत्तव्यो । इयाणि इत्थि-18 यामंतणनिद्देसो भण्णइत्ति-'अज्जिए पज्जिए वाविना२९२||सिलोगो, अज्जिया माऊ पिऊ वा जा माता सा अज्जिया भण्णति, पज्जिता अज्जियाए माया सा पज्जिता भण्णाइ, अम्मोत्ति माऊए आमंतणं, माउस्सया जा माओ भगिणिओ, पिउस्सिया पिऊ भगिणी, धूया पसिद्धा, णत्तुगा पोती भण्णइ, एयाणि अज्जियादीणि णो भासेज्जा, किं कारणं?, जम्हा एवं मणंतस्स हो जायइ परोप्पर, लोगो य भणेज्जा.एवं वा लोगो चिंतेज्जा,एसज्जवि लोगसन ण मुपद, चाटुकारी वा,संगो वा परोप्परं होज्जा, नियगा पा जाणेज्जा, एस खोहितुकामोत्ति, रूसेज्ज वा जहा समणाया एवं भगइ, को जाणइ-कोवि एसोत्ति, एवमादि दोसा भवेज्जा । किंतु 'हले हलिति ॥२९३॥ सिलोगो, 'हले हलिति अनि ति एयाणिवि देस पप्प आमंतणाणि, तत्थ वरदातडे हलेत्ति आमंतणं, लाडविसए समाणवयमण्णं वा आमंतणं जहा हलिति, अण्णत्ति मरहठ्ठविसए आमंतणं, दोमूलक्खरगाण चादुवयणं | अण्णेति, मझेति लाडाणं पतिभगिणी भण्णइ, सामिणी गोमिणिओ चाटुए बयणं, होलेत्ति आमंतणं, जहा-होलवणिओ ॥२५॥ ते पुग्छद, सयकऊ परमेसाणो इंदो । अण्णपि किर चारसा इंदमहसतं समतिरेकं ।। १॥ एवं गोलवसुगावि महुरं सप्पिवास आमंतणं, एतेहि हलहलादीहिं इत्थीतो न आलबेज्जा, कि कारणं , जम्हा तस्थ चटुमादिदोसा भवंति, उक्तंच--"अनिश्चिम(त) दीप अनुक्रम [२९४३५०] D ALSO [255] Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [२७८-३३४/२९४-३५०], नियुक्ति: [२७१-२९३/२६९-२९२], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||२७८ RIES ३३४|| श्रीदशमतीवर्जुमल्पमात्रमपि प्रियम् । नैतत् प्राशेन वक्तव्यं, बुद्धिस्तेषां विशारदा ॥१॥" जइ पुणो कारणे अवस्सवत्तव्यं तया एवं वत्तच भाषाबैंकालिकानामधिज्जेण णं आ०' ॥२९४॥ सिलोगो, जे तीए नाम तेण नामधिज्जेण सा इत्थी आलवियचा, जाहे नाम न सरेञ्जा। धिकार चूर्णी ताह गांचण आलवेज्जा. जहा कासवगोने ! एवमादि, 'जहारिहं' नाम जा चुड्डा सा अहोत्ति वा तुज्झेति वा भाणियचा, जा समाणवया सा तुमति वा वत्तवा, पच्छे पुणो पप्प ईसरीति वा, समाणवया ऊणा वा तहावि तुम्भत्ति भाणियब्वा, जेण-17 ॥२५॥ प्पगारेण लोगो आभासह जहा भट्टा गोमिणिति वा एवमादि, अभिगिज्झ नाम पुश्वमेव दोसगुणे चिंतेऊण तओ पच्छा आल-11 वेज्जा संलविज्जा वा, सित्ति लवणं आलवर्ण, संलवर्ण आभासणं भण्णइ, एवमादि इत्थीआर्मतणनिसो भणिआ । इदाणा पूरिसामंतणनिदेसो भष्णा, तं' अजए पज्जए वावि०' ॥ २९५ ।। सिलोगो, चुल्लपिता पित्तियओ भण्णइ, किंच-'हे भो हलित्ति अनि 'त्ति० ॥ २९६ ।। एते सहा देस पप्प आमंतणाणि भवति, भट्टा सामिया गोमिया एते पुण आमंतणे पपईति । णिसे य, तत्थ आमंतणे जहा भो भट्ठी सामिया, णिइसे जहा भट्टी चिट्ठति, सामि चिति, गोमीओ चिट्ठति होले गोले वसु-18 लादि देस देस पप्प आमंतणाणि भवंति, एत्थवि ते चेव बहुवयणे लाघवाइ बहवे दोसा भवतीति नो एवमालवेज्जा, बदा पुण किंचि कारण भवेज्जा, ताहे इमेणप्पगारण बत्तव्य, तं-- नामधिज्जेण णं बूआ०' ।। २९७ ।। सिलोगो, निगदसिद्धो, । भणिओ परिसार्मतपणिडेसो । दार्णि तिरियनिसो भण्णा ते यतिग्यिा पंचविधा-भगिदियमादि. तत्थ पंचिदिया पहाणा.* ॥२५॥ इतरंसु पुरिसिरिथविससो मस्थितिकाऊणं पंचिदियाण निदेसो भण्णइ, तं०-'पंचिंदिआण पाणाणं.' ॥२९८ ॥ सिलोगो, सोयादी पंच इंदिया जेसि अस्थि ते पंचिंदिया, पाणा णाम पाणत्ति वा भूयत्ति वा एगट्ठा, तेसु पंचिदिएम पाणेसु दूरओ अब दीप अनुक्रम [२९४३५०] [256] Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [२७८-३३४/२९४-३५०], नियुक्ति: [२७१-२९३/२६९-२९२], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत श्रीदश सूत्रांक [१५...] गाथा ||२७८ वैकालिका चूर्णी. ॐ ॥२५२॥ ३३४|| थिएसु जई ताब कारणं णस्थि ततो अब्बावारी चेच साहणं, (अह पओयणं) किंचि भवइ, तं पंथं वा ण जाणइ उवदिसहा भाषाजाहे वा तेसिं पाणाणं इत्थीपुरिसविसेसे अजाणमाणो वा णो एवं वदेज्जा, जहा-एसा इत्थी अयं पुरिसोचि, पायसो य लोगो अवि धिकारः सेसियं आलबेइ, अभिहाणेण माणियव्वं जहा गोजातियाइ चरंति कागजातिया या हरंति, एवं महिसपसुआदिवि भाणियव्वा | | आह--जति एवं तो कम्हा एगिदियविगलिंदिएमु सह णपुंसगभावे इस्थिणिदेसो पुरिसनिदेसो य दीसह, तत्थ एगिदिएम। | पुढविकाए पासाणे पुरिसणिदेसो, जा सा महिया इत्थिाणदेसो, आउकाएवि करओ पुरिसनिदेसो उस्सा इत्थीनिदेसो, अग्गिकाएवि अग्गी पुरिसणिदेसो, जाला इस्थिणिद्देसो, वाउकाएवि वाओ पुरिसनिद्देसो बाउलाए इत्थिणिदेसो, वणस्सइ-12 |काएवि पुरिसणि सो जहा णग्योहो उनिरो, इस्थिनिद्देसोऽवि जहा सिसवा आंघलिया पाडला एवमाथि, बेईदिएमु पुरिसणिदेसी टू जहा संखो संखाणओ, इस्थिणिदेसो जहा असुगा सिप्पा एवमादि,तेइंदिएसु पुरिसणिदेसो जहा मकोडा, इस्थिणिदेसो जहा उवचिका पिपीलिका एवमादि, चउििदएमु पुरिसणिदेसो जहा भमरो पतंगो इस्थिणिद्देसो जहा मधुकरी मच्छिया एवमादि,आयरिओ आह-| सइविह नपुंसगभावे जणवयसच्चेण ववहारसच्चेण य एस दोसपरिहारओ भवइत्ति, पंचिदिएमु पुण सतिवि एवमादि जणवयसच्चादीहिं तहावि जाईओ चेव वत्तब्वा, कई ?, गोवालादीणमचित्तिया भवेज्जा, जहा एते ण सुदिवधम्मा जम्हा इस्थिपुरिसविसेसमजाणाणा एगयरनिस कुब्वंति एवमादि दोसा भवंतित्तिकाऊण पंचिदियाण एगतरनिइंसे एस पडिसेहो सब्वपयत्तण कीरइत्ति, फिंच'तहेव ॥२५२।। माणुसं पक्खि पसुं ।।२९९।। सिलोगी, जहेब हिडा भणिताणि अवयणिज्जाणि वयणिज्जाणि य तहा इमाणि न भाषि-16 यच्चाणि, तत्थ मनुस्सा पक्खिणी पसिद्धा, पसुगहणेण य महिसमयएलगादीणं गहणं कर्त, सिरीसषगहणेण जयगरादाणं, एते। CHECROCHROCCCCCCAMS दीप अनुक्रम [२९४३५०] [257] Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||२७८ ३३४|| दीप अनुक्रम [२९४ ३५० ] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र- ३ (निर्युक्तिः + | भाष्य | + चूर्णि:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [ २७८- ३३४ / २९४- ३५० ], निर्युक्तिः [ २७१-२९३ / २६९-२९२], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [ ४२ ], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि श्रीदशवैकालिक चूण ॥२५३॥ मस्साह परिवृढकाये दण महत्पाणा पासिता णो एवं बस, जहा धूलो अयं मस्सो धूलो महिसो धूलो पक्खी धूलो अइकरो, तहा पमेइलो मणुस्सो, 'पमेइलो' नाम अतीव मेदो जस्स सो पहलो महिसो, एवं पक्खी अइकरो, वणिज्जो पुरिसो वहणिज्जो महिसो, किंच- 'तदेव गाओ बुझाओ० ॥३०१ ॥ सिलोगो,'तहेब' ति जहा हट्ठिल्लाणि अवत्तव्वाणि तव इमाणिच, तस्थ गोगहणेण महिसीउट्टमादीण गहणं कर्त, दोहणिज्जा दुज्झा, जहा गावीणं दोहणवेला वट्टड, दमणीया दम्मा, दमणपयोग्यत्ति वृत्तं भवइ, गाओ जे (रहजोरगा ) रहमिव वा धावति ते गोरहगा भण्यंति, अहवा गोयरगा य पसवसमण्णा भवति, वाहिमा नाम जे सगडादीभर समत्था, वे य साधू दट्ठे णो एवं भणेज्जा, जहा एते सगडादिसु बाहेउति, रथजोग्गा णाम अहिणवजोन्वणचणेण अप्पकाया, पण ताव बहुभारस्स समत्था, किन्तु संपयं रहजोग्गा एतेति, तेसु इमे दोसा भवति, तत्थ गाधीसु जहा साधुणा भणियंति गावीओ दुहेज्जा, ततो अधिकरणपवत्तणादि दोसा भवति, दम्मे सुवि साहू जाणंति एवमादि, वाहिमावि सगडादिसु समरे णिजुजिज्जा, रहजोग्गोवि रहेसु बहणिज्जो, पक्खा वह णिज्जो अइगिरी, तहा पाइगो एस मणुस्सो, पागपत्तोति वृत्तं भवइ, तहा पागपायोगो आयगरो, तत्थ मणुस्सो अध्पत्तियं करेज्जा, अक्कोसेज्ज वा, लुणणरहणाणि वा करेज्जा, एवमादि, महिसादि तिरिया तस्स वयणं सोऊण मंसादीणं अट्ठाए मारेजेज्जा, न केवलमेतं धम्मविरुद्धं, किन्तु लोगविरुद्धमवि, कहं १, तमेरिसं भासमाणं सोऊण लोगस्स चिन्तिया सवेज्जा, जहां किमेतस्स पव्वतियस्त एयारिसाए अहिद्रोहाए बयाए निसिरियाए ?, जहा य पुण कारणं भवेज्जा ताहे इमेणप्पगारेण भणेज्जा, जहा- 'परिवृढत्ति णं बूआ०' ॥ ३०० ॥ सिलोगो, पयणे उप्पण्णे परिवृढं वा उपचितदेहं वा संजातदेहं वा पाणितदेहं वा पीणितदेहं वा आलवेज्जा, तहा कस्सर साधुणो किंचित् तारिसं [258] भाषा धिकार: ॥२५३॥ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [२७८-३३४/२९४-३५०], नियुक्ति: [२७१-२९३/२६९-२९२], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत श्रीदश भाषा धिकारः सूत्रांक [१५...] गाथा ||२७८ % कालिक चूर्णी. ॥२५॥ ३३४|| वतन ताहे भण्णइ, जहा- जो एस परिवूढसरीरो एवं मग्याहि पुच्छाहि वा, तिरिक्खजोणियस्स वा एवं मग्गाहि, अहया एवं तिरिक्खजोणियं परिबूढं दुरओ परिवज्जत्ति, मारणादिसु णिउज्जेरजा तओ परितावणादि दोसा पायेज्जत्तिकाउंण एवं भासिज्जा - पष्णवंति, कारणे पुण एवं भासेज्जा तं०-'जुवं गवित्ति णं धूआ० ।। ३०२ ॥ सिलोगो, तत्थ जो दम्मा तं जुवं गवमालवेज्जा, जुग गवो नाम जुबाणगोणोति, चउहाणगो वा, गावी तहा रसदा एसा गोणिति भणेज्जा, जो गोरहगो तं हु हस्समालवेज्जा, हस्सो णाम पोतलओ, जो बाहिमोतं महव्यय भणज्जा, जो रहजोगो तं संवहणं मज्जा, किंच-तहेव गन्तुमुज्जाणं०॥३०॥ सिलोगो, 'तहेव' ति जहा हेडिल्लाणि ण भाणियब्वाणि साधुणा तहा एताईपि, मंतु नाम गच्छिऊण, तत्थ पव्वतउज्जाणवणसंडा पसिद्धा, तंमि पब्बए तमि उज्जाणे तंमि वा वणसंडे. गंतूणं जइ रुक्खो महालयों साहू पासेज्जा, तं दण णो एवं पण्णदेनो भासेज्जा, जहा अलं पासादस्स एगक्खंभस्स करणाएत्ति, पसीयंति मि जणस्स णयणाणि पासादो भण्णइ, अलं खंभाणं एते रुक्खा, अलं तोरणकट्ठाणं एते रुक्खा, अलं पुरवरफलिहाणामेते रुक्खा . अलं दारयकट्ठाणमेते रुक्खा, अलं णावाकट्ठाणमेते रुक्खा, अलं उदगदोणीपमेते रुक्खा, उदगदोणी अरहस्स भवति, जीए उपरि घडीओ पाणियं पाडेति, अहवा उदगदोणी घरांगणए कट्ठमयी अप्पोदएसु देसेसु कीरइ, तत्थ मणुस्सा हातंति आयमंति वा, तयो दोसा भवंतिति । तहा-'पीढए चंगवेरे अ० ॥ ३०५ ।। सिलोगो, अलं पीढगस्स एते रुक्खा होज्जा, पीढगं- मिसियादि उवेसणयं भवति, अथवा पहाणं पीद, अलं181 चंगचेरस्स एते रुक्खा होज्जा, 'चंगबरे ति चंगधेरै कट्ठमयभायणं भण्णइ, अहवा चंगरी समयी भवति, अलं नंगलस्स एए रुक्खा होज्जा, गंगलं णाम लंगलंति या हलंति वा एगट्ठा, अलं एते रुक्खा मइयाय, मझ्या नाम बाहेऊण बीयाणि पच्छा ताए दीप अनुक्रम [२९४३५०] ॥२५४॥ । [259] Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [२७८-३३४/२९४-३५०], नियुक्ति: [२७१-२९३/२६९-२९२], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||२७८ श्रीदशवैकालिक चूर्णी ॥२५५॥ ३३४|| का ऊहाडिज्जंति, जंतलट्ठी पसिद्धा, णामी सगडरहाईण भवति, गंडिया णाम सुवष्णगारस्स भण्णइ जत्थ सुवण्णगं कुद्देइ । किंच| 'आसणं सयणं जाणं॥३०६।। सिलोगो, आसणं आसंदगादी तप्पायोग कहूँ एतेसु रुक्खेसु होज्जा, सयणं-पल्लंकादि तप्पा- धिकार! ओग्गं कट्ठ एतेसु रुक्खेसु होज्जा, जाण णाम जुग्गादि, तप्पयोगं कहूँ एतेसु रुक्खेसु होज्जा, तहा उपस्सयपायोग्ग वा किंचि कट्ठा एतेसु रुक्खेसु होज्जा. तत्थ उबस्सयो-पडिस्सयो, अहबा उवस्सए फलिहाइ कीरइ, सम्बर्ग वा आसणं उबस्सयो भष्णइ, एवमादि 'भूओवघाइणि भासं भूयाणि उवहम्मवि जाए भासाए भासियाए सा भूतोवघाइणी भण्णद, तं भूओवघाइणी भासं ण मासेज्जा पण्णवंति, तत्तण्णिवासिणी या देवया रूसेज्जा, जो वा तस्स वणस्से साभी सो पा रूसज्जा, साहु वा (णा) एस रुक्खो पसंसिओ नियमा लक्खणविउत्तिकाऊण सो चेव साहू घेषेज्जा, एवमादि, रुक्खे जया आलबेज्जा ताहे इमेहि उवाहिं. ते-'तहेव गंतुमुज्जाणं० ॥३०७॥ सिलोगो, 'तहेब' ति जहा हेडिल्लगाण पंडगाईणं सुसावायो भणिओ सेस कंण्ठ्यं, सो या उवायो इमो- 'जाइमंता हमे रुक्या०॥ ३०८॥ सिलोगो, जाइमंता नाम जाए जातीए उत्तमाए जाइमंता भणंति, बहवे तू जत्य रुक्खप्पगारा अस्थिति, इमेचि नाम जे पच्चक्खैण दीसंति, दीहा जहा नालिएरतालमादी, बट्टा जहा असोगमाई, महालया नाम बडमादि, अहवा महसदो बाहुल्ले बट्टइ, बहणं पक्खिसिंघाण आलया महालया, 'पयायसाला' अतीब जाताणि । सालाणि जेसिं ते पयायसाला, अणे गप्पगाराणि 'चिडिमा बिडिमाणि जेसि ते बिडिमा, तत्थ जे खंघओ ते साला भष्णति, २५५" सालाहिती जे णिग्गया ते विडिमा भण्णति, दरिसणिज्जा वा एते रुक्खत्ति भणेज्जा, ते य निक्कारणे न कप्पंति भासिऊण, जाहे पुण' कारण फिींचे भवइ जहा साहवो पचा, कारणेण इमं भज्जा , जहा अम्हे एतेसि जाइमंताणं हेवा विस्समामो, एतेसि दीप अनुक्रम [२९४३५०] [260] Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [२७८-३३४/२९४-३५०], नियुक्ति: [२७१-२९३/२६९-२९२], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत M - सूत्रांक [१५...] गाथा ||२७८ पूणों ARCA4-% ३३४|| श्रीदश- IN वा अरेण पंथा गच्छद । किंच- 'तहा फलाणि पकाणि ॥ ३०९ ॥' सिलोगो, 'तहेव' ति जहा हेट्ठा भाणय, फलाणि-14 भाषावकालक अंबादीणि पक्काणि दट्टणं णो एवं भासज्जा-पक्काणि इमाणि फलाणित्ति, तह घाई(पाइ खज्जाणिवि णो वएज्जा, पाइखज्जाणिवाधिकारा णाम जहा एताणि फलाणि बद्धडियाणि संपयं कारसपलादिसु पाइऊण खाइयवाणित्ति, 'वेलोइयाणि' नाम बेला-कालो, तं जा णिति बेला तेसि उरिचणिऊणति, अतिपक्काणि एयाणि पडंति जान उच्चिणिज्जंति, टालाणि नाम अबडिगाणि भन्नंति, ॥२५६॥ 'वैहिर्म' नाम वेधा कीरति तं वेहिम, अबद्धडिगाणं अंचाणं पेसियाओ कीरति, तत्थ इमो अवायो तप्णिस्सिया देवया कुष्पेज्जा, पक्काणि वा फलाणित्तिकाऊग कोए(रा)को तेहिं पओयण कुज्जा, एवमादि, इमेण पुण उवाएण भणेज्जा, तं०-'असंथहा इमे | अंबा०॥३१०॥ सिलोगो, साहूणं अहावरे रुक्षेहिं कज्जे पुण पत्ते जहा तेण पंथोत्तिकाऊण ताहे अन्नस्स साहुस्स इमेण पगारेण | उवदिसेज्जा, तं०-असंथडत्ति वा बहुणिबडिमाफलति वा बहुसंभूतति भूतरूपति बा, तत्थ असंथडा अतीवकारणे(मारेण)ण संथरंति, फलाणि धारेउं न तरंतित्ति बुत्तं भवइ, 'इमे' सि जे इमे लोगपच्चक्खा, अंबगहणं पहाणा लोगसंमता य (त्ति) काऊण अतो तेसिं गहणं कयंति, बहूणि नियडियफलाणि, 'बहुसंभूया' णाम बहुणिप्फमफलाणि, "भूतरूवा' णाम फलगुणोववेया, पुणसद्दो विसेसणे, किं बिसेसयति', जहा एतेसिमष्णतरेण परियायसदेण कारणे भासेज्जा एवं विसेसयति । किंच-'तहेवोसहिओ पकाओ०॥ ३११ ।। सिलोगो, 'तहा' णाम जहा हेवा भणिय, तत्थ सालिबीहिमादियातो ताओ पक्काओ नीलियाओ वा २५६॥ |गो भणेज्जा, छविग्गहणेण णिप्पवालिसेंदगादीण सिंगातो छविमताओ णो भणेज्जा, लुणणपायोग्गाओ लाइमा, भुज्जणपायोग्गाओ भुज्जिमा, पिहुखज्जाओ नाम जबगोधूमादीणं पिहुगा कीरति ताधे खजति, एताए अविधीए भणमाणस्स इमे दीप अनुक्रम [२९४३५०] 50% [261] Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||२७८ ३३४|| दीप अनुक्रम [२९४ ३५० ] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र- ३ (निर्युक्तिः + | भाष्य | + चूर्णि:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [ २७८- ३३४ / २९४- ३५० ], निर्युक्तिः [ २७१-२९३ / २६९-२९२], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि : श्रीदश वैकालिक चूर्णां ||२५७॥ दौसा मंति, सं० पक्कत्तिकाऊण भणेज्जा समयो, साहुगा भणियाओत्तिकाऊण थालीपागं करेज्जा, एवमादि दोसा भवंति इमेण पगारेण ओसहिओ आलवेज्जा, तंजहा- 'विरूढा बहुसंभूया० ' ॥ ११२ ॥ सिलोगो, 'विरूढा' जाम जाता, बहुसंभूया णाम निष्पचा, थिरा णाम निम्भयीभूया, उवगया यत्ति उस्सिया भण्णंति, गन्मिया णाम जार्सि ण ताव सीसयं निष्फिडइनि, निष्का डिएस पसूताओ भण्णंति, संसारातो नाम सह सारेण संसारातो, सतंदुलाओति वृतं भवइ, एवमादीहिं नामेहिं वचव्या४ ओति । किंच 'तहेव संम्बर्डि नच्या' सिलोगो, टहासदो पुत्रभणिओ, एवसहो पायपूरणे, छण्हं जीवनिकायाणं आउयाणि संखंडिज्जति जीए सा संखडी भण्णइ, तं संखडि किर णाऊण साहुणा किं करणिज्जं १, ण एवं बसव्वं- जहा किञ्चमेयं जंपि तीण देवयाण य अड्डाए दिज्जह, कर णिज्जमेयं जं पियकारिये देवकारियं वा किज्जइ, एवमादि पणियट्ठे तेण उ भण्ण, सं०पणिय वज्झ गीणिज्जमाणं दट्टणं णो एवं वएज्जा, जहा एसो वज्झोति, किं कारणं १, तस्स एवं मणिमस्स अप्पचियं होज्जा, निस्सासी भवेज्जा वा जाब एतेसिं चोरग्गाहाणं एवं चिन्तायां भवेज्जा जहा एस साधुणा बन्झो भणिओ, अवस्सं पत्तावराहोलिकाऊण मारिज्जा । 'सुतित्थित्ति अ आवगा' आवगाओ नदीओ भण्णंति, तत्थ गिरिनई वा सुकगड्डा वा जह पारिपहिया पुच्छेज्जा जहा कि सुतित्था एसा नदी त्रिसमतित्था वचि है, तत्थ न बत्तब्वयं जहा एता ण सुतित्था विसम तिरथा कहा ?, तत्थ अधिगरणमादयो बहवे दोसा भवंति, कज्जे पुण संपते संखडियमाईण इमेण कारणेण भणेज्जा, तं० ॥२५७॥ 'संखद्धिं संखडि बूआ०' ॥ ३१४ ॥ सिलोगो, ना संखडी सा कारणे संखडी चैव वत्तब्बा, जहा सा बहुआबाया संखडी, मा तत्थ साधवो गच्छंतु एवमादि, तहा चोरोवि बज्झो- जीनिज्जमाणो पणियको मणियन्बो, जहा सो वा तेणो अष्णो वा कोइ [262] भाषा धिकारः Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [७], उद्देशक , मूलं [१५...] / गाथा: [२७८-३३४/२९४-३५०], नियुक्ति : [२७१-२९३/२६९-२९२], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत श्रीदबैंकालिका सूत्रांक [१५...] गाथा ||२७८ भाषाधिकार चूण्या વારકા भगिए एवं ण विमासह, किमेस भणइतिी, सो पुण सेहस्स वा तं दाएज्जा, जहा एस पावकारिणो विपाकात्ति, अहवा एतेण पहेण पणियट्ठो णिज्जइ, जणाउले एस पहो ण एतेण मंतव्वं एवमादि, जत्थ आवगाणं तित्वाणि पुच्छिज्जंति तत्थ भाणितच्वंजहा बहुसमाणिति, काणि समाणि तित्थाणि काणि विसमाणित्ति भाणियच्याणि तहा स दूओं परिवज्जति, मा एयामु णदिसु णिउज्जेज्जा, तओ परितावणादि दोसा हवेज्जत्तिकाऊण न एवं भासिज्जा पण्णवंति, कारणे पुण एवं भासेज्जा, 'तहा नईओ पुण्णाओ' सिलोगो,(३१५)तहासदो पुब्बभणिओ, नदीओ पसिद्धाओ, पूरागयाओ पुनाओ, कारण तरिजंतित्ति कायनिज्जाशो, अण्णे पुण एवं पढ़ति, जहा-कायपेज्जति नो बदे, काआ तडत्था पियंतीति कायपेज्जातो, नावाहि तारिमात्ति नावातारिमा, सडस्थिहि पाणीदि पिज्जतीति पाणिपिज्जाओ, तत्थ इमे दोसा, तं०- नदीओ पूनाओत्ति सोऊण कारणेहि पधाइया गिहित्था पणियचेज्जा तओ कट्ठादीणं वा उदीरणं कुज्जा कारण, एया तारिमाओत्ति सोऊण णियचिउकामावि न नियोज्जा, तंजहा 'बहुबाहडा अगाहा ॥३१६ ॥ सिलोगो, 'यहुवाहडा' णाम पाय सोभणियातो भणति, बहु अगाहाओ वा भणेज्जा, बहुसलिलाओ भणेज्जा, बहुउप्पिलोदगा वा भणेज्जा, 'बहुउप्पिलोदगा' नाम जासिं परनदीहि उप्पीलियाणि उदगाणि, | अहवा बहुउप्पिलोदओ जासिं अइभरियतणेण अण्णओ पाणियं बच्चइ, बहु वित्थरिय जासु नदीम उदगं ताओ बहुवित्थडोदिगाओ भति, ए पनवं भासेज्जा, जइ पुण भणइ-न याणामि ताहे उड्डाई करेंति, पउसेज्ज था जहा पुसावादी एसोत्ति, इदाणि चेव उचिष्णो तहवि भणइ न जाणामिचि एवमाइ बहवे दोसा भवंतीति, तम्हा बहुबाहडा भणेज्जा, तमवि तुरियमवक्कवो भणेज्जा, जहा ण विभावर किमवि एस भणतित्ति। किंच- 'तहेब सावज्जं जोग' ॥३१७ ॥ सिलोगो, वहसदो। C4%ARiti k31 ३३४|| दीप अनुक्रम [२९४३५०] ॥२५८|| 29-36 4567% [263] Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [२७८-३३४/२९४-३५०], नियुक्ति: [२७१-२९३/२६९-२९२], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||२७८३३४|| श्रीटा- वैकालिक चूर्णौ ॥२५९॥ बभणिओ, एक्सहो पादपूरणे, सह वज्जेणं सावज्जो, जोग- आरंभो भण्णा, जहा मम अमुगो कम्मजोगो कायब्योति, त भाषासावज्ज जोग परस्स अट्टाए णिट्ठियं सावज्जाए भासाए णालवेज्जा, किमंग पुणो अट्ठाए अप्पणोति, णिट्ठियं णाम परिसमस, ण केवलं परिसमत्रमेय सावज्जाए भासाए नालवेज्जा, किन्तु कीरमाणमपि न सावज्जाए, सुइट लट्ठी कोबो चिक्कदोरिया है एवमादि, एत्थ अणुमोदणादि दोसा भवंति, एयप्पगारं सावज्ज बज्जेयन्य साहुणा इति, अणबज्ज पुण आलवेज्जा, तत्थ सुकडं जहा सुदृछु साहुणो लोयो कडो, सुठु भायणं लेहिय एवमादि, सुपकं जहा सुविपकं घंभचारिणो बभचेरफलंति, एवमादि, द्रा सुछिणं जहा मुछिण्णा णहपासा इमेण साहुणा एवमादि, सुहडे जहा सुहरितो सण्णायगादीहिं उवसिक्खिज्जमाणो सेहोचि एवमादि, सुमए जहा सुमतं तस्स अमुकणामस्स साधुस्स पंडितमरणेणंति एवमादि, सुनिहित णाम जहा मुणिद्वितं एतस्स। साहुस्स कम्ममढविधति एवमादि, सुलट्ठ नाम सुलहूं कहं कथयतिचि एवमादि, किंच, एवं बत्तब- 'पयत्तपकत्ति व पक्क-15 मालवे ॥ ३१९ ।। वृतं, गिलाणणिमित्नमेवमालवेज्जा, जहा-जे तुभ पयनपक्कं तेल तं दलयह एवमादि, तत्थ छिन्नमविद् कारणेण एवं भणेज्जा, सो य अत्थो मणिओण य अणुमइदोसो अप्पत्तियदोसो वा भवति, पयत्तयं जहा पयत्तलट्ठी य संभार-17 घया दीयंति, अहवा एवमेवं अत्थं 'कम्महेतुति मणेज्जा, कम्महेउयं नाम सिक्खापुबगीत बुत्तं भवति, 'पहारगाढत्ति या गाढमालवे' ति जो गाढपहारीको सो गाढप्पहारित्ति भाणियचो, इतरहा अप्पचियमादि दोसा भवति । किंच- 'सव्वुकसं परग्धं वा।। ३२० ।। सिलोगो, तत्थ पणिधीए अण्णत्थ वा विकिज्जमाणे जति कोइ साई आपुच्छेज्जा, जहा- एतेसिं कतरं सुंदरंति', तत्थ न बत्तवं-इमं सुंदरंति, 'परग्छ' नाम जहा एतस्स को अग्घोत्ति पुच्छिए ण चत्तव्यं, जहा एयस्स एवं मोठं दीप अनुक्रम [२९४३५०] ॥२५॥ [264] Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [२७८-३३४/२९४-३५०], नियुक्ति: [२७१-२९३/२६९-२९२], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||२७८ श्रीदश- वैकालिक चूौ. ॥२६॥ ३३४|| पतो, जहा एपस्स पर कवाड़ियपि ण लम्भइ, एय (सो) परमो अग्घाोति 'अतुलं नस्थि एरिसं' तिण एतेहितो अनं विसिद्धृतरंति भाषाएवं गिण्हाहि, अहवा विक्किणमाणं ण भणेज्जा-ण अण्णत्थ विक्किणमाणो तुम मोल्लं लग्भसि. अविक्कियं नाम असक्क, जहा धिकारः | कइएण विक्कायएण वा पुच्छिओ इमस्स मोल्लं करेहिनि, ताहे मणियब्ध को एतस्स मोल्लं करेउं समत्थोत्ति, एवं अविक्किये भण्णइ. अवतव्वं नाम जहा को एतस्स गुणे समत्थो वोत्तुं ?, एवं विहमवत्तव्वं भण्याइ, अचिअनं णाम ण एतस्स गुगा अम्हारि-18 सहि पागएहिं चिंतिज्जति, एताणि सन्नुकसादीणि अधिगरणमंतराइयादीदोसवज्जणट्ठा णो चएज्जा, किंच- 'सबमेअं वह स्सामि० ॥ ३२१ ॥ सिलोगो, जहा कोइ कत्थइ गच्छमाणो केणइ भणेज्जा, जहा-मम वयणेण देवदत्त इमं भणेज्जासित्ति, । तत्थ न पचव्वं, जहा सबमेयं वइस्सामित्ति, किं कारणं , जेण सो सर्व सरपंजणमधुरकइयादीहिं गुणेहिं उपवयं तहेव अवि-1 सेसियं सव्वं भणिउं ण समत्थोत्ति, तहा सबमेतंति णो वएज्जा, जहा सबमेतं मम वयणेण अमुकं नामधेयं भणिज्जासित्ति एवमादि भासं णो बदेज्जा, अणुवीयि सब नाम जहा कोइ पुच्छेज्जा, ते सने साधवो गता, तहा अणुबीइ चिंतिय माणियब्वं, जहा सव्वे गता अगता था, सब्बे नाम सव्वेसु कारणेसु सव्वं कालं अणुचिंतेऊण बुद्धिमतेण भासियचं, 'सुकी या सुविकी' ॥ ३२२ ॥ सिलोगो, ह जति कोथि कइओ भणेज्जा, जहा- इमं मए एत्तिएण मोल्लेण गहियं, किं सुगहियं । दुग्गहियंति , तत्थ न एवं वत्तव्यं, जहा-जति एएण मोल्लेण लहूं तो सुक्कीयंति, जहा अक्केजति कीयं न एवं किंचिबि8 ॥२६॥ अग्घर, अहो मुद्धोऽसि. एवंपि णो वएज्जा, जहा किज्जमेयंति एवमवि णो भासेज्जा, जहा अहो सारं मंडं लद्धं ते, काया सुहोऊन सि अज्ज सइतोत्ति, किंच इमं गिण्ह इमं मुंच इमं अप्पीहात्ति एवं सुवाहित्ति पणियमेवं नो बदेज्जा, पुच्छज्जा ताहे इमो उवाओ दीप अनुक्रम [२९४३५०] SASRCE RECENCCC [265] Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||२७८ ३३४|| दीप अनुक्रम [२९४ ३५० ] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र- ३ (निर्युक्तिः + | भाष्य | + चूर्णि:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [ २७८- ३३४ / २९४- ३५० ], निर्युक्तिः [ २७१-२९३ / २६९-२९२], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [ ४२ ], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि : श्रीदश ॥२६१॥ 'अप्परधे वा महग्घे वा०' || ३२३ || सिलोगो, अप्पर बहुअर्थ भण्णह बहुअग्धं अप्पम्धं भण्णइ, तं तु किणमाणो वा वैकालिक एयं मनेज्जा, तओ एवारिसे पणियडे समुप्पण्णे जमणवज्जं तं साहुणा वियाकरेयध्वं अहवा सव्यमेयं पण्णं णो वियाकरेयध्वं चूणौं ५ अहवा सव्वमेयं पण्णं अप्पग्धं किज्जमाणं विकिज्जमाणं पणियडे समुप्पण्णे अणवज्जं भवति, तंजहा- नाहं भंडमोल्लविसंस जाणामि, न वा इहं देमि, कयविक्कयविरयाणं किं अम्हाण एरिसेण वा परेणेति १, किंच- 'तहेवासंजयं धीरो० ॥ ३२४ ॥ सिलोगो, तहासदो पुव्वभणिओ, एवसहो पायपूरणे, ण संजतो असंजतो, धीरो पसिद्धो, तेण धीरादिगुणजुत्तेण साहुणा सो असंजओ न एवं वतव्बो, जहा एत्थ आस नाम उबेहाहि, तहा इत्थं एहि, इमं वा करेहि, एत्थ वा सुवयाहि, चिट्ठाहि वा किंचिकालं पच्छा गमिस्सखि, किंची अच्छाहि इय वयाहित्ति णो एवं भासेज्जा पण्णवं, किं कारणं १, अस्संजतो सव्वतो दोसमावहति चितो तचायगोलो, जहा तचायगोलो जओ छिवह ततो डहर तहा असंजओवि सुयमाणोऽवि णो जीवाणं अणुवरोधकारओ भवति, किं पुण जागरमाणोति । किंच- 'बहवे हमे असाह० ॥ ३२५ ॥ सिलोगो, तुत्थ साधू ताव चउग्विधो भवइ, तंजहा- णामसाहू ठवणसाहू दव्वसाहू भावसाहू य, नामठवणाओ गयाओ, दव्बसाहू घडपडाईणि साधयंतो दव्यसाहू भण्णइ, तहा वोडियणिण्डवगादि दब्बसाधू, जे णिव्वाणसाहए जोगे साधयंति ते भावसाधवो भण्णंति, तत्थ यहवे नाम बहवेत्ति वा अणेगेति वा एगहा, इमे णाम जे इसे इदाणिं पञ्चकखा आजीवगादि असाधवो भवति, तमेवंविधं साहुं साहुं णालवेज्जा, सो य भावसाधू इमेण सुत्तेणेव भण्णइ, तंजहा- 'नाणदंसणसंपन्नं० ' सिलोगो, नाणदंसणसंपन्नं संजमभावेसु जो रतो सो सुसाधू भण्णइ 'एवं गुणसमाउस' ति जो एतेहिं णाणादीहिं गुणेहिं समाउसो भवति, समाउत्तो नाम सोभणेण [266] भाषा धिकारः ॥२६२॥ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ॥२७८ ३३४|| दीप अनुक्रम [२९४ ३५० ] "दशवैकालिक" - मूलसूत्र-3 (निर्युक्तिः + भाष्य | + चूर्णि:) (निर्युक्तिः+|भाष्य|+चूर्णिः) अध्ययनं [७], उद्देशक [-] मूलं [१५] / गाथा: [ २७८-३३४/२९४-३५०] निर्युक्तिः [ २७१-२९३ / २६९-२९२], आष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [ ४२ ], मूलसूत्र [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: - श्रीदशवैकालिक चूर्णी. ॥२६२॥ - पगारेण जुत्तो, तमेरिसं संजयं साधुमालवेज्जा, किंच- 'देवाणं मणुआणं च०' ।। ३२७ ।। मिलोगो, तत्थ देवाणं देवासुरसंगा मो मणुयाणं जहा रायादीणं, तिरियाणं जहा गोमहिसकुक्कडलावगादीणं, एतेसि बुग्गहे समुप्पण्णे, तत्थ बुग्गहो णाम बुग्गहोत वा विवादोति वा कलहोति वा एगट्ठा, एयंमि बुम्गहे बट्टमाणे ण वट्टद एवं बोतुं देवा जयंतु मा वा, एवं मणुस्सेसुवि अनुयो राया जयतु मा वा एवमादि, तहा तिरिएस एसो महिसो जयतु मा वा एवमादि, तत्थ अनुयाणं जतो होउति भणिए अणुमइए दोसो भवति, तप्पक्खिओ वा पओसमावज्जेज्जा, अओ एरिसं मासं णो वएज्जा, किंच- 'वाओ वुद्धं च सीउण्हं० ॥३२८॥ सिलोगो, तत्थ पमतो मणेज्जा, जहा जह बाओ वाएज्जा तो सुंदरं दोउति णो वदेज्जा, किं कारणं १, जम्दा अणिट्टवाओ णाम सोवघाओ होज्जा, रुक्खादिभंगो वा होज्जा, एवमाई दोसा भवंति, बुट्टेगवि पिपीलिगादि विषासेज्जा, उण्हजोणिओ वा वणप्फइ कुहेज्जा एवमादि, सीएण तिरियावि मणुयावि पायसो परिताविज्जंति, अगणि वा उज्जालेज्जा एवमाई, उण्हेणवि तिरियमणुवाणं परितावणादि दोसा भवंति खेमेऽवि चोरसेवगादीणं अंतराइयदोसा भवंति एते य निन्भया तेसु कम्मेसु पवचमाणा एगिंदियाईणं भयङ्करा भवति, घातेऽवि संनिचयकारिणो वाणियगा पीलिज्र्ज्जति, ण य एताणि तस्स वयषेण मति, मोतृणं अतिसयपयत्ते, इतरस्स केवलं भवंतस्त्रवि दोसा भवंति । किंच 'तहेव मेहं व नहं व माणवं० ॥ ३२९ ॥ सिलोगो, तहासक्षे पुण्वभणिओ, एवसो पायपूरणे, मेहं णभं माणवं एतेसि तिन्हवि अम्णतरं नो अदेवं देवचे आलवेज्जा, तत्थ मेहं समुप्पनं दण ण एवं वदेज्जा-समुण्णतो देवो परिवसइ वा देवाइ, एवमादी, णभं आगासं, तमत्रि ण एवमालवेज्जा, तहावि रामादीवि माणवो ण देवो यत्तव्यो, किं कारणं ?, तत्थ मिच्छतथिरीकरादि दोसा भवति, तत्थ मेदमेवं आलवेज्जा, समुच्छिओ [267] भाषा धिकारः ॥२६२॥ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||२७८ ३३४|| दीप अनुक्रम [२९४ ३५०] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र- ३ (निर्युक्तिः + भाष्य | + चूर्णि:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [ २७८- ३३४ / २९४- ३५० ], निर्युक्तिः [ २७१-२९३ / २६९-२९२], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्ण: श्रीदश ।।२६३ ।। काइ मेदो निययं पयोदो, पयोदो नाम पर्य-पाणीयं भण्णति तं पओ ददातीति पयोदो, अहवा बुट्टे बलाहए िवएज्जा, पवरसिओ कालिका बलाहगोत्ति वएज्जा, आह- कई पुण नभं वत्तव्यं १, भण्णइ- 'अंतरिक्खत्ति णं बूआ० ॥ ३३० ॥ सिलोगो, तत्थ नभं पण | अंतरिक्खति वा वदेज्जा, गुज्झाणुचरितंति वा तं अंतियं अतलिक्खं अभियं 'गुज्झणुचरियं' ति, मेहोवि अंतरिक्खो भण्णा, गुज्झमाणुचरिओ भण्णइ, महामाणवरायादि दद्दून रिद्धिमंतमालवेज्जा, भणियाणि अवयणिज्जाणि वयणिज्जाणि य । सब्वसंखेवो इमो, जहा- 'तहेब सावज्जणुमोअणीगिरा०' ।। ३३१ ।। वृत्तं, 'तहेब' चि जहा देहिलाषि अवयणिज्जाणि परिहरियवाणि वहा सावज्जणुमोअणी भासा ण भाणियच्या, इह सा सव्वपय तेण वज्जेयय्था, जहा सुद्नु हडो गमो, सुट्ट सेणा णिघातिया एवमादि, ओहारिणी णाम संकिपा, भणिय से नूणं भंते! मन्नामीति ओहारिणी मासा ?, आलावगो, परोवधातिणी नाम जीवोवपातसहिता, जीवए चा परो हालिज्ज सा परोवधाहणी ॥ किंच- 'से कोह लोह भय हास माणवो, न हासमाणो' तत्थ सेति साहुस्स विदेसो, तत्थ कोहो आदी लोभो अंते, आईअंतरगहणेण मज्झे वट्टमाणा माणमाया गहिया, भयहासगहणेण पेज्जादिदोसा गहिता, माणवा इति मणुस्सजातीए एस साहुघम्मोत्तिकाऊण मणुस्सामंतणं कयं, जहा हे माणवा ! अवि इतोऽवि मा अभास भासेज्जा, किं पुण कोहादीहिंति, इयाणि वक्कसुद्धीय फलं भण्ण, तंजहा- 'सबकसुद्धिं समुपेहिआ सुणी० ॥ ३३२ ॥ सिलोगो, 'सवसुद्धि' ति स इति साधुणो गिद्देसो, जहा कोइ सभिक्खू, एवं विविध वकसुद्धी, समं उबेहिया समुपेहिया, अहवा सकारी सोहणअत्थे वट्टर, सोहणं वक़्कसुद्धिसमं उबेहिया अहवा सगारो अतणो जिसे बहद्द, जहा अत्तणो वक्कसुद्धि समं उबेदिया समुपेहिया, 'मुणी' नाम मुणित्ति वा णाणिनि वा एगट्ठा, जा य गिरा दुट्ठा हेट्ठा भणिया, [268] भाषा विकारः •॥२६३॥ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [२७८-३३४/२९४-३५०], नियुक्ति: [२७१-२९३/२६९-२९२], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||२७८ ॥२६॥ ३३४|| श्रीदश-18| बुट्टा नाम विरुद्धा, तहेव वक्कसुद्धिं जाणमाणेण दुर्ल्ड गिरं वज्जयतेण सता मितं अदुई अणुवीइ भासियध्वंति, मितं दुविधति-12 भाषाबकालिकाता सहओ परिमाणओ य, तस्थ सहओ अणुच्च उच्चारिज्जमाण मित भवद, परिमाणओ कारियं मानमितं भवइ, अवुई नाम धिकारा चूर्णी | देसकालोववादी, अणुवीह णाम पुन्धि बुद्धीए अणुचिंतिय भासियव्यंति, स एवं भासमाणो 'सयाण मज्झे लहई पसंसण'| मिति तत्थ सया णाम जे गुणदोसविहण्णू तेसिं सयाण मज्झे पसंसणं लन्भइत्ति, जहा अहो सुसिलिट्ठसुअधीयवयणोति, | एवमाइ, जम्हा य पसंसणमादी गुणा लभंति अतो 'भासाइ दोसे य गुणे य० ॥३३३।। जम्हा भासदोसगुणण्णे साधू, तीसे भासाए जा दुट्ठा मासा तां विवज्जेज्जा, सा पुढविमादिएसु छसुकाएसु, संजए, समाणभावे अवस्थिए सामणिए, सदा सव्यकाल जए, स एवंगुणसमाउने, वदेज्जा 'बुद्धे हिअमाणुलोमि तत्त्व हितं नाम अपीडाकर, अणुलोमियं नामाकडुगं फरिसादिदोसवज्जिय, अहवा अणुलोमियं नाम तं भासं भासेज्जा जं भासमाणो अभासओ लब्मइ, एस ताव इह लोए पसंसणादी| गुणो भणिओ । इपाणि इहलोइओ पारलोइओ य भण्णइ- 'परिक्खभासी॥३३४ ॥ वृत्तं, 'परिज्जभासी' नाम परिज्ज-| भासित्ति वा परिक्खभासित्ति वां एगढा, सुट्ट सम्म सोतादीणि इंदियाणि अहियाणि जस्स सो सुसमाहिइंदिओ, चउरो | कोहादिकसाया अवगता जस्स उबसंता वा सो चउक्कसायावगए, 'अणिस्सिओं नाम न निस्सिए अणिस्सिए, सब्बपडिबंधविष्पमुक्केचि वृत्तं भवति, स एवंविहो साहू 'निहणिऊण धुन्नमलं पुरेकर्ड' ति, तत्थ धुणंति वा पार्वति वा एगट्ठा, धुण्ण-15 मेव मलो, पुचि कयं पुरेकर्य, धुणिऊण इमं लोग आराहइ, न केवल इम लोग आराहयति, परलोगाराहणाओ मोक्खो, तमवि MINIMIHIP॥२४॥ आराहयति, सावसेसकम्माणा पुण देवलोगसुकुलपञ्चायाति लण पच्छा सिझति । ति बेमि नाम तीर्थकरोपदेशाद् प्रवीमि, PIRATOR SRO दीप अनुक्रम [२९४३५०] 1549 [269] Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||२७८ ३३४|| दीप अनुक्रम [२९४ ३५० ] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र- ३ (निर्युक्तिः + | भाष्य | + चूर्णि:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [ २७८- ३३४ / २९४- ३५० ], निर्युक्तिः [ २७१-२९३ / २६९-२९२], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्ण: श्रीदशवैकालिक चूर्णं ८ आचार प्रणिधी ।।२६५।। न स्वाभिप्रायेणेति । इदाणिं नया 'णायंमि गिहियच्चे० ' गाहा, 'सब्वेसिपि नयाणं बहुविश्व सव्वयं निसामित्ता०' गाहा, पूर्ववद् ॥ ॐ इन्द्रियादि॥ वाक्यशुद्धयध्ययन चूर्णः समत्ता ॥ प्रणिधिः एवं सो मासासमिओ धम्मं कहे, तो तस्स सोऊण जर कोई पच्चएज्जा ताहे तस्स इमं आयारपणिधिं उवइसेज्जा, अहवा तेण धम्मं कहतेण अपसत्थपणिधाणं वज्जयंतेण पसत्थेण आयारपणिधाणेण कहेयव्वंति एतेणभिसंबंधेणागतस्स अज्झयणस्स चचारि अणुयोगदाराणि बत्तव्याणि, जहा आवस्सए, णवरं इह णामनिप्फनो भण्णइ, सोय णामणिष्फण्णो दुविधो, तं०-आमारो पणिही य, तत्थ पढमं आयारो भण्णइ सो पुव्वि उद्दिशे० ' ।। २९५ ।। गायापुब्बद्धं, जहा जो खुड्डियायारए भणिओ एत्थ सो चेव अहीणाइरित्तो भवतित्ति । इयाणि पणिधी भण्णइ, सो य चउब्विहो, तंजा-णामपणिही ठवण ०दव्य० भावपणिहीति, गामठवणाओ गताओ, दव्बपणिही य इमेण गाथापच्छद्वेण भण्णइ दुविधो य होइ पणिधी ' सो इमो, तं०-- 'दव्बे निहाणमाई • ' ॥ २९६ ॥ गाथा, पुव्यर्द्ध दण्वपणिधी जहा णिहाणगं, पणिहि णाम निक्खिविर्यति वा पणिहाणति वा एगट्ठा, आदिगहणेण अनाणिवि गहियाणि मायापक्खित्ताणि दव्वाणि, दव्यपणिधी जहा पुरिसो आयापच्छादणनिमित्तं इत्थवेसं काऊण णासेज्ज वा पविसेज्ज वा, जहा मायाकारो चक्खुमोहणं काऊण सव्यमेकतरं व पक्खिवइ एवमाइ दव्यपणिधी भावे इंदिअनोइंदिअ पच्छद्धं, भावपणिधी दुविधो, तंजहा- इंदियपणिधी नोइंदियपणिधी य, इंदियपणिधी दुविधो-पसत्थो अप्पसत्थो य, तत्थ पसत्थो इंदियपणिधी इमो' सदेसु अ रूवेसु अ० ' ॥ २९७ ॥ गाथा, सोयचक्खुघाणजीहाफासाणं पंच | अध्ययनं -७- परिसमाप्तं अध्ययनं -८- 'आचार प्रणिधि' आरभ्यते [270] ॥२६५॥ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||३३५ ३९८|| दीप अनुक्रम [३५१ ४१४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + | भाष्य | +चूर्णि:) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [ ३३५-३९८/३५१-४१४], निर्युक्ति: [ २९५-३१०/२९३-३०८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्ण : श्रीदशकालिक चूणी ८ आचार प्रणिधी ॥२६६॥ इंदियाणं सद्दरूवरसगंधफासा पंच विसया, तेसु सदादिसु विससु मणुश्रामणुन्नेसु जो रागोसविणिग्गहो सो पत्थो इंदियपणिघी, आह को दोस्रो अपसत्थइंदियपणिधिस्स १, आयरिओ मणः--' सोइंदिअरस्सोहि० ' ॥ २९८ ॥ गाथा, समि अतीव ' मुडिओ गिद्धो जीवो सोइदियरस्सीहि सदगुणसमुट्टिए दोसे आययदाचे, तस्थ, सहो चैव गुणो सदगुणो, गुण नाम गुणोति वा पञ्जतोचि वा एगडा, सदो जीवस्स इंदियगुणो तेण सदगुणेण मारणादि बहवे दोसा समुडाविज्र्ज्जति, ते 'आदिअति'ति आदिति नाम आदियतिति वा गण्डितित्ति वा तेर्सि दोसाणं आयरणंति वा एगड्डा, न केवलं सद्गुणमुच्छिओ दोसायविणं भवई, कि-" जहा ऐसी सद्देसुं० ॥ २९९ ॥ गाथा, जहा सोइंदियरज्जूहिं पावमादियह वहा से हैं बहिनि इंदिप है अप्पणी जे दोसा ते समुति आदियतित्ति, किंच- 'जस्स पु० || २०० । गाथा, जस्स पुण तपमधि चरंतस्स दुप्पणिधिया इंदिया भवंति सो जहा सारही तुरंगहि अनओ असाही हार, असाहीणेहिं णाम दुद्दतेहि, तहा सोऽधि इंदियतुरंगेहिं आइंडिया मोक्खसुहाओ अन्न ओ हीरवित्ति । ट्र्याणि णोईदियपणिधी भवति 'कोहं माणं माथ लोहं च०' ॥ ३०९ ॥ गाहा, एतानि चउरो संसारकारणाणि मह भयाणि जाणिऊण जो मुद्धप्पा ताणि निरंभह, तत्थ जा सा सम्म णिरुमणकिरिया सो * गोइंदियपणिधी आह- कहं पुण कोहादीणि चत्तारि कारणाणि महन्मयाणित्ति ?, आयरिओ भण- अनंतबंध कोमामायालोभाणं उदरणं भवसिद्धिओऽवि सम्मतं न लहइ, अपच्चक्खाणकसायाण उदगं देवविरति न लहर, पञ्चकखाणोदणं सम्वरिति न लमह, संजलग कसायाणोदपणं अहक्वायचरितलामो ण भव, अओ महन्भयाणि, एतेणष्पगारेण काहादीहिं निरंभियव्वा, वं०- कोहोदय निरोधो उदयपचस्स वा कोधस्स विफलीकरणं, एवं जाय लोभोदयनिरोधो उदयपचस्स वा लोभस्स [271] ४ इन्द्रियादिप्रणिधिः ||२६६ ॥ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [८], उद्देशक , मूलं [१५...] / गाथा: [३३५-३९८/३५१-४१४], नियुक्ति : [२९५-३१०/२९३-३०८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||३३५ R-55%ESCE% ३९८|| दिश-पट विफलीकरणंति, तेसि च कसायाण दुप्पणिहियाण दोसो भण्णइ- 'जस्सकि अ दुप्पणिहिआ०॥ ३०२ ॥ गाथा, जो तब वैकालिक इन्द्रियादिकुन्चमाणो कोहादीहिं कारणेहिं कुच्वइ, तत्थ कोहेण जहा एयस्स साचं दिस्सामिति तवं कुब्बइ, एवं माणेणावि तवे मज्जद, चूणौँ । प्रणिधिः ८ आचार जहा को मए समाणो, मायाची छट्टे कर भणइ- जहा वयं अट्ठमभत्तिया एवमादि, लोभेणावि पूवापसंसादिअट्ठाए तब कुवंति, एवं ते कोहादि तवं कुथ्वमाणस दुप्पणिहिया, सो बालतबस्सीवि य गयोहाणपरिस्समं कुणइ, कहं बालतबस्सीओ, अण्णाणदोसेण उपवास काऊण पारणए बहूर्ण जीवाणं आउया विराहेऊण झुंजइ, तस्स तं गवण्डाणसरिसं भवइ, एवं तबसेंजमा-13 ॥२६७॥ पस्थिओ कसायनिग्गहे अबट्टमाणो बालतपस्सीविय गयण्हाणसरिसं परिस्सम करेइक्षि। किंचा सामरमणुचरंतस्म'० ॥३०३॥ | गाथा कण्ठ्या, एताए पसत्थाए विविधाए पणिधीए य वडयवं, एयमि अत्थे इमं गाहापुब्बई भण्णाइ, तंजहा- 'एसो दुविहो पणिही०' ।। ३०४ ॥ अद्धगाथा, एसा इति इदाणिं जा भणिया, दुविधा णाम इंदियपणिधी गोइंदिपणिधी य, सुद्धा णाम: अदोससंजुत्ता, जइसरो असंकिते अत्थे बट्टा, जहा जइ एवं भणेज्जा तो पसत्था पणिधी भवेज्जाति, दोसु नाम अम्भितरओ। बाहिरओ य, दियपणिधी णोइंदियपणिधी य वत्ति, तस्स नाम इदियमंतस्स कसायमंतस्स य, वसि इंदियाण, वाचकारा, समुच्चये, किं समुचिणा, जहा बाहिरम्भंतराहिं चिट्ठाहिं इंदियकसायमंतेण इंदियकसायाणं णिग्मद्दो पसत्यपणिही भण्णाइ एवं समुच्चिणइ । इदाणि पसत्थं अप्पसत्थं च लक्खणं अज्झत्थनिष्पन्नं भवद, तत्थ इमं गाथापच्छङ्घ, तंजहा-'एतो य पसत्यः ॥२६७॥ अगाथा, दुविहं तित्थकरेहिं भणियं, तं-बाहिरं अमितरं च, जं अभितरं एत्तो पणिधीए पसत्थं अपसत्थं च लक्खणनिष्फबंति, निष्फण्णं णाम अज्झवसाणप्पं भवति, तंजहा- अपसत्थं पसत्थं च लपखणं अज्झत्थनिष्फण्णा भवइ, तत्थ अप्पसत्थं इमेण दीप अनुक्रम [३५१४१४] CORE AC-AA [272] Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [८], उद्देशक , मूलं [१५...] / गाथा: [३३५-३९८/३५१-४१४], नियुक्ति : [२९५-३१०/२९३-३०८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत इन्द्रियादिप्रणिधिः SESTIGES सूत्रांक [१५...] गाथा ||३३५३९८|| श्रीदश- गाहापुव्वर्ण भण्णा, तंजहा- 'मायागारवसाहिओ० ॥३०५ ॥ अद्धगाथा, जोऽवि मायासहिओ य इंदियणोइंदियाण निग्गह करेइ सो अप्पसत्थे पणिधी, तत्थ मायासहिया इंदियपणिही इमा, तंजहा- मुणमाणोऽविण आलवेज्जा, बरं लोगो जाणतो जहा अहो झाणोवगओ एसोत्ति, उक्तं च-"निमीलयेदक्षि निमीलितेन, आकुप्यमानो बधिरा(म)भावात् । प्रत्यक्षवादी न ८ आचार भवेत् कदाचित, (सं) प्राप्तकाले असिवस्थिते य ( छिनत्ति) ॥१॥" तहा चोरो व दव्वकारणा य गोविच पसंतदिड्डी अच्छा, प्रणिधौः |मा मे हुन्तं दिदि पासिऊण कोइ गिण्हेज्जा, तहा कोइ पुरिसो माहलाए संसत्तो पागडं दिविविगारंण दरिसयह जो घेप्पति, ॥२६८॥ भणियं च- 'विरहे अंजलिकरे परे, जणाउले अणवयक्ख वच्चतं । वीर! विणीय! वियक्खणा, को णाम तुमे न कामेज्जा ॥१॥ तहा अग्यायमाणोऽवि कोइ परतित्थियाई जितिदियोऽहमिति लोगपस्थि(न्ति)णिमित्रं दुब्भिगंधस्स गो उब्बियइ, तहा उक्कडोऽवि | रसे लब्भमाणे मायाए णो गेण्हइ, गोमयं सेवालं च भक्खेइ, तहा कडमुच्छिओ कोयि फरिसमाणोउवि ण बेतिचि, एवमादि मायासीवस्स पंचविधा इंदियपणीधी अप्पसत्था भवति, तथा गारवेणावि, कोयि मणुस्सो सद्दे सुणमाणेवि ण आयर करेइ, वरं लोगो जाणतो अणुभूयकल्लाणो एसोति, एवं कंताणि स्वाणि वा पासंतो गारवण अणादरं करेइ, वरं लोगो जाणतो बहा एतस्स एतेसु जहा न विम्हयत्ति, एवं गंधरसफासावि भाणियन्धा, भणिया इंदियपणिधी । इदाणि णोईदियपणिधी भण्णइ, तत्थ मायाए सीकट्ठोऽवि आकासं दरिसइ, मा सो पडिसंवादी णासिहित्ति उत्तरं वा देहिति एवमादि, गारखे जहा मा मे अमुगो । जाणिहित्ति जहा एसो कोवित्तिकाऊण संकिट्ठभावो अच्छइ ण आकारं करेति, माणेवि, मायाए, कोऽवि कुलवंसउद्धरणनिमित्त कणीयछिद्दण्णसी बक्कमइ, गारये उदाहरणं नत्थि, जम्हा जो चेव माणो सो चेव गारखो, लोमे जब कोई पुत्वं मायासहिये जिणा दीप अनुक्रम [३५१४१४] ॥२६८॥ SACCC CCC [273] Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [८], उद्देशक , मूलं [१५...] / गाथा: [३३५-३९८/३५१-४१४], नियुक्ति : [२९५-३१०/२९३-३०८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत प्रशस्त: सूत्रांक [१५...] गाथा ||३३५ ३९८|| श्रीदश- ति ताहे लोमविवयं इतरं तहा कुठवांत जहा बहुयं सेकाले अविसरिस भवइ, गारवेणवि अणुवसंतभानो होऊण पुव्वं माऽहं- कालिकासहिंतो ऊणओ होहिमिति पसंतसम्भा काऊण लोहेण अत्थं अज्जिणा, एवमादि, मायागारवसहिए जीवे इंदियणी-| चूणी इंदियपणिधी अप्पसत्या मणिता, सो पुण बाहिरकरणसुद्धो, बो वा अम्भितरो संकिकिरणेण संसारगमणाभिमुहो भवति, आचजहा य बाहिं विसुद्धो अम्भितरओ असुद्धत्तणेण,अपसत्था पणिही भयसि तहा भणियं, पणिही अपसत्था गया। इदाणि पसत्या MIइमेण गाहापच्छद्रेण भण्णइ, तंजहा-'धम्मत्था अ पसस्थो० ॥ अगाथा, जो धम्माणामित्तं इंदियविसयपयारनिरोधी ॥२६९॥ इंदियविसयपत्ताणं च अत्थाणं रागदोसविणिग्गहो कसायोदयनिरोधो उदयपचाण कसायाण विणिग्गहो सा पसत्था | पणिधी भण्णइ, आह--अरहंतपूयाइसु कह इंदियणोइंदियपणिधी भवति ।, आयरिओ आह-अरहंतसगासे दिन्वतुडियसद्दा यसोऊण जइवि कोइ साधू हरिसं गच्छद, जहा अहो अयं तित्थगरो उवगिज्जर, तहावि सो धम्माणुरामेण हरिसुप्फुल्लणयणोवि 5 हतं कालं मणुण्ण सद्दे सुणमाणो णच्चमाणो य तगराइसमाणा मणुष्णा य गंधा अम्घायमाणो, जत्थ गंधा तस्थ रसावि, सुगंधजुत्चपु. तसंघडिए य भूमीए इ8 फरिसे वेदेमाणो पणिहीतइंदियो लम्भइ, कई पुण, तस्स (अप्पसस्था) नस्थि, किंच-'अरहतेसु य रागो रागो साहसु बंभयारीसु । एस पसस्थो रागो अज्ज ससगाण साहूणं ॥ १ ॥' तहा जोइदिएमुवि, जह सोऽपि कोई 8 वीतरागवयणं अकोसइ हीलेइ वा, तत्थ कोइ पयणुअकसायो साहू तस्स मिच्छदिहिस्स उत्तम धम्म दसयंतस्स कुप्पेज्जा, निरु- चरे वायंमि कीरमाणे उन्नतिणिमित्तं माणोऽवि होज्जा, तहा परवादिविस्सासणणिमित्तं सबमियारं हेउं उच्चारेउं तंओ पच्छा IIणिग्गजा, तहा परवादि सब्बं पणिहिं णाऊण अंतो तबिमिचं मायावि होज्जा, एवं चेयपूयादीहिं लोभोऽवि होज्जा, तस्स एवं + दीप अनुक्रम [३५१४१४] २६९|| [274] Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||३३५ ३९८|| दीप अनुक्रम [३५१ ४१४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + | भाष्य | +चूर्णि:) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [ ३३५-३९८/३५१-४१४], निर्युक्ति: [ २९५-३१०/२९३-३०८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि : श्रादश वैकालिक चूण ८ आचार प्रणिधौः ॥२७०॥ विधे परिणामंतरे वट्टमाणस्स पुनोषधयो भवइ एवं पसत्थे अप्पणोऽवि होज्जा, तहा परवादि सव्वं पणिहिं णाऊण अप्पसत्थं पणिहिं बज्जेत्ता पसत्थाए पणिहीए पणियोएज्जा अप्याणं, तत्थ अप्पसत्यपणिहीए दोसा पसत्थपणिहीए य जे गुणा ते इमाए गाहाए भण्णंति, तं अडविहं० ॥ ३०६ ॥ गाहा, इह अटुष्पगार कम्मं अपसत्थपणिधिसमाउतो जीवो समादियतित्ति, जो पुण पसत्थपणिहिसमाउत्तो भवइ सो तमेव अट्टष्पगारं परमचिकणं कम्मं खयतिति, सोय पत्यो पणिधी इमस्स अत्थस्स ५ निमित्तं परंजियव्यति, 'दंसणनाणचरिताणि० ॥ ३०७ ॥ गाहा, दंसणं च नाणं च चरितं च दंसणणाणचरिचाणि समुदिताणि संजमो भव, तर संजमस्स साइट्ठा मवद पणिधी पउंजियब्बत्ति, अणाययणाई च ययाि "यता मिच्छादरिसणाणि, जो य दुष्पणिहितो भव तस्स इमो दोसो - " दुष्पाणि३ हिअजोगी पुण० ॥ ३०८ ॥ गाहा, जो जीव दुपहियजोगी सो दुप्पणिहियति दोसो नस्थिति संभावयति, तो सो " दुरे हे माणो विष्णए पदेसे पक्खलिओ पडमाणो तिक्खकंटगपागडादीहिं लेडिज्जर, एवं सोऽवि संजमभूमीतले इंदिएहि आवडिओ गावरणादी कम्मटहिं लछिज्जइति । जी पुण सुनिहिअप्पा तस्स इमो गुणी, तं०- सुप्पणिहि अजोगी पुण० ' ॥ ॥ ३०९ ॥ गाहा, जो पुण सुपणिहियजोगी सो सुभासुमविवागं जाणह, जाणमाणो सुप्पणिधियजोगी विहरमाणो तेहिं पुव्यमणिएहि दोसेहिं गोपलिप्पति, सुसंवारियासवदुवारत्तणेण बारसविधे तवे अन्भुज्जुतो पुव्योवचिताणि कम्माणि णाणावरणादीणि सुकतणामेव अग्गी ses, जम्दा दुप्पणिहियस्स दोस्रो सुपणिहियस्स गुणो भवति तओ 'तम्हा०' ॥ ३१० ॥ गाथा कण्व्या । [275] प्रणिधे दोषागुणाव ॥२७०॥ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [८], उद्देशक , मूलं [१५...] / गाथा: [३३५-३९८/३५१-४१४], नियुक्ति : [२९५-३१०/२९३-३०८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||३३५३९८|| बकालिक चौं श्रीमानामनिष्फण्णो गओ, इदाणिं सुत्ताणुगमे सुचमुच्चारेषण्यं अकखलियं जहा अणुयोगदारे, तंजहा-'आयारप्पणिहि लहूं." आचार।। ३३५ ।। सिलोगो, 'अभ्रवभ्रमभ्रचर' गत्यर्थाः, चरधातुः, अस्य धातोः आपूर्वस्य 'पदरुजविशस्पृशो धमिति (पा. ३-३-१६) प्रणिधे घञ् प्रत्ययः, अकारः ' अचो अणिती' ति (पा. ७-२-११५) वृद्ध्यर्थः, धकाः 'चजोः कृर्घण्यतो' रिति (पा. रुपक्रमः ८ आचार ७-३-५२) विशेषणार्थः, धातोः 'अत उपधाया '(पा. ७-२-११६) वृद्धिः, आचर्यतेऽसावित्याचारः, तत्थ आयारो पुषभप्रणिधों णिओ, डधान् धारणपोषणयोः, अस्य धातोः प्रपूर्वस्य निपूर्वस्य च ' उपसर्गे घोः कि' रिति (पा. ३-३-९२) उपपदे ' पुसंझ-131 केम्पः धातुभ्यः किप्रत्ययो भवति, ककारादिकारमपकप्य ककारः ' किति चेति लोपः, 'आतो लोप इति किति चे' ति (पा. ॥२७॥ ६-४-६४) आकारलोपः, 'नेगेदनदपदपतपदधुमास्यतिहन्तियातिवातिद्रातिप्सातिवपतिवहतिशाम्यतिचिनोतिदेग्धिषु चेति णित्वे, तस्य उपसर्गस्थानिमित्चात् णकारो भवति परगमनं च, प्रणिधीयते प्राणिधिः, प्रणिधिरभिहिता, आचारे प्राणधिः४ आचारप्रणिधिः तस्मिन्नाचारप्रणिधौ अध्यवसायः, 'डुलभप प्राप्ती' धातुः, अस्य धातोः 'समानकर्तृकेषु तुमुन् प्रत्ययः (पा. ३-३-१५८) अनुबन्ध लोपः, 'आईधातुकस्येद् बलादे (पा. ७-३-३५) रिद प्राप्तः 'एकाचनुपदेशोऽनुदात्ता' दिति (पा. ७-२-१०) प्रतिषिद्धः, 'झपस्तथो!ऽधः' इति (पा. ८-२-४७) तकारस्य धकारः, 'झला झसोऽन्ते ' इति (पा. ८-२-३९) जस्त्वेन दकारलोपः, 'सुपो धातुप्रातिपदिकयो रिति (पा २-४-७१ ) सुषु लुक ( लब्धं ) प्राप्तये, यद् 'प्रकारवचने घालू' (पा.18| ५-३-२३) 'प्राग दिशो विभक्ति' रिति (पा. ५-३-१) विभक्तिसंज्ञा, सत्यां विभक्तिसंज्ञायां 'त्यदायत्वं (पा. १.९-१०२) अतो गुणः परपूर्वत्वं, तथा 'इक करणे' धातुः, अस्य धातोः ' तव्यत्तव्यानायर ' इति (पा.३-१-६६) तव्यप्रत्ययः, 'सावे- दीप अनुक्रम [३५१४१४] ॥२७१॥ ... अत्र अष्टम अध्ययनस्य सूत्राणि आरब्धा: [276] Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [३३५-३९८/३५१-४१४], नियुक्ति: [२९५-३१०/२९३-३०८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत आचार सूत्रांक [१५...] गाथा ||३३५३९८|| रुपक्रमः ८ आचार +%95% % % श्रीदश-18/धातुकार्द्धधातुकयो ' रिति (७-३-८४) गुणः ''उरण रसरति ( 1) परवमनपरकर्तव्यं, श्रीविवक्षायां 'अजाबैंकालिकाचसष्टापू' इति (पा.४-१-४) टाप् प्रत्ययः कर्त्तव्यः, भिक्ष भिक्षायामलामेलामे च धातुः, सनाशंसमिक्ष उः' इति । (पा. ३-२-१६८) उः प्रत्ययः भिक्षु इति स्थिते 'कर्तृकरणयोस्तृतीये'ति (पा. २-३-१८) तृतीया, टकारलोपः, (आडने | प्रणिधी | नाखियाम् (पा. ७-३-१२०) इदितो नुम्धातो' (पा. ७-१-५८) रित्यनुवर्चमाने 'इकोऽचि विभक्ता' विति (पा. ५-१-४३) नुम् , मकारस्य उकारस्य च लोपः, 'पाभ्यां नो णः समामपद' इति (पा.८-४-१) अकुष्पाक्नुम्ध्यवायेऽपीति' (पा. ॥२७॥ ४-२) नकारस्य गकारः भिक्षुणा, तत् प्रातिपदिकं स्वीविवक्षायां 'कर्मणि द्वितीये' ति (पा. २-३-२) अम् ' स्यदायत्वम् (पा.७-२-१०२) अजाद्यतष्टाप् (पा. ४-१-४ ) अनुबन्धलोपः, त्रयाणामपि 'अकः सवणे दीर्घत्वं (पा.६-१-१०१) ताम्, 'हब हरणे' धातुः, अस्य धातोः उत्पूर्वस्य आछपूर्वस्य च भविष्यती ' त्यनुवर्तमाने (३-३.३) लट् क्षेपे चे' ति | (पा. ३-३-१३) लट् प्रत्ययः, टकारस्य ' हलन्त्य ' मिति संज्ञा प्रयोजन, टेरेत्वार्थः, लकाराट्टकारमपकृष्य अकारस्य उपदेशी-1 ताजनुनासिक ' इति (पा. १-३-२) संज्ञा प्रयोजनं, 'लटः सद्देति (पा. ३-३-१४) विशेषणार्थः, लस्य विपदियो भवतीति । तिपादिप्रसने प्राप्ते 'शेषात् कचेरि परस्मैपदं ' (पा. १-३-७८) भवति, अस्मयुपपदे समानाधिकरणे प्रयुज्यमाने उत्तम४iपुरुषो भवति, तस्य उत्तमपुरुषस्य एकस्मिन्नर्थे एकवचनमुपादीयते मिप, पकारलोपः कर्तरि शपि प्राप्ते 'स्यतासी लुखुटो' रिति (पा. ३-१-३३) स्यप्रत्ययः 'आर्द्धधातुकस्येद् वलादे' रिति (पा.७-२-३५ ) इर् प्राप्तः 'एकाच उपदेशेऽनुदात्तेत इति (पा.15 1७-२-१०) प्रतिषेधः, तत 'ऋद्धनोः स्ये स्य ' (पा. ७-२-७०) ति इडागमः, ' सार्वधातुकार्धधातुकयो' रिति (पा. ७-३-६४) e0- दीप अनुक्रम [३५१४१४] % ॥२७२॥ 5Ck [277] Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||३३५ ३९८|| दीप अनुक्रम [३५१ ४१४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + | भाष्य |+चूर्णि:) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [ ३३५-३९८/३५१-४१४], निर्युक्ति: [ २९५-३१०/२९३-३०८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्ण: श्रीदशवैकालिक चूर्णी ८ आचार प्रणिधौ ॥२७३॥ गुणः टथ लोपः ' आदेङगुणः ' ( पा. १-१-२) सकारस्य स्थाने, 'इको गुणवृद्धि ' रिति (पा. १-१-३) वचनात् इकः स्थाने ऋकारस्य आकारो गुणः, 'करण रपरः (पा. १-१-५१ ) इति रपरः 'अतो दीर्घा वमी ' ति ( पा. ७-३-१०१) दीर्घत्वं, ततः तकारजस्त्वेन दकारस्य परगमनं उदाहरिष्यामि, गणहरा अप्पणी से मणगपिता वा आहुः जहां सामिसमासे नाऊणं तं मे उदाहरिस्सामि, उदाहरिज्ज माणं च अनुपूर्व प्रातिपदिकं ब्राह्मणादौ पठ्यते, अनुपूर्वस्य भावः तस्य भाव (पा. ५-१-११९) इ. त्यनुवर्त्तमाने 'गुणवचना ब्राह्मणादिभ्यः कर्मणि चे 'ति (पा. ५-१-१२४ ) ध्यन् प्रत्ययः नकारः तद्वितेष्वचामादे ' रिति (पा. ७-२-११७) आदिवृद्धयर्थः, पकारः ' पिङ्गौरादिभ्यश्रे ' ति ( पा. ४-१-४१ दीर्घत्वार्थः, पलुकि कृते तद्वितेष्वचामादे'रिति ( पा. ७-१-११७) आदौ वृद्धिः आकार:, ' यस्येति चेति (पा. ४-४-१४८) लोपः, परगमनं, आनुपूर्व्य इति स्थिते स्त्रीविवक्षायां पिद् गौरादिभ्यश्चेति (पा. ४-१-१४१) ङीप् प्रत्ययः, अनुबन्धलोपः, 'यस्येति चे 'ति ( पा. ६४ १४८) अकारलोपः, हलस्तद्धितस्य (पा. ६-४-१५० ) हल उत्तरस्य प्रत्यययकारस्य लोपो भवति ( नद्वितयकारस्य ) इकारे परतः आनुपूर्वी 'कर्तृकरणयोस्तृतीये' ति ( पा. २-३-१८ ) तृतीया, टकारलोपः 'इको यणची 'ति (पा. ६-१-७७ ) यणादेशः आनुपूर्व्या, 'आणुपुच्चि, सुणेहन्ति, आनुपूर्वी नाम जहाणुकमो, जहा परिवाडीए सुणेहत्ति वृत्तं भवति, 'श्रु श्रवणे ' धातुः अस्य धातोः 'विधिनिमन्त्रणामन्त्रणाधीष्ठसंप्रश्नप्रार्थनातिसज्जनेषु लिङिति ( पा. ३-३-१६१ ) लोट् प्रत्ययः टकारस्य पूर्ववछोप:, लकारादकारमपकृष्य उकारस्य लुप्तस्य प्रयोजनं 'लोटो लवदिति ( पा. ३-४-८५ ) विशेषणार्थस्य लक्ष्य तिपादयो भवतीति, 'शेष प्रथम' इति ( पा. १४-१०८ ) प्रथमः पुरुषो भवति, तस्यापि त्रिके प्राप्ते बहुष्वर्थेषु बहुवचनमुपादीयते शिः, क्षिप्रत्ययादि [278] प्राणातिपातविरति। ॥२७३॥ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) __ “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [८], उद्देशक , मूलं [१५...] / गाथा: [३३५-३९८/३५१-४१४], नियुक्ति: [२९५-३१०/२९३-३०८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||३३५ श्रीदशबैकालिक चूणौं. ८ आचार प्रणिधौः ॥२७४|| ३९८|| कारमपकृष्य 'शोऽन्त' इति (पा. ७-१-३) अन्तादेशः, अन्तशब्दादकारः उच्चारणार्थः, एरु' इति (पा. ३-४-८६), इकारस्य उकारः, विशित्सार्वधातुकसंज्ञायां 'सार्वधातुके यकि'ति (पा. ३--१-६७ ) कर्तरि शपि प्राप्ते 'स्वादिभ्यः नुरिति (पा. ३-१-७३ ) नुप्रत्ययः 'श्रुवः भृ चे' त्ययं (पा. ३.१-७४ ) श्रादेशः, मुणः किति प्रतिवः, इणो याणि (पा.६-४-८१)त्यनुवर्त्तमानो 'हुश्रुवोः साधाधुके' इति (पा-६-४-८१) यणादेशः, उकारस्य वकारः परगमनं भृण्वंतु, तामाचारप्रणिर्षि कथ्यमानां भवन्तः मे शृण्वन्तु, तत्थ आयारपणिधीए सुत्तेणं पूर्व आयारो भण्णइ, तत्थ पढम चरिचायारो मण्णइ, चरिचायारेण गरिएण देसणणाणायारा गहिया चेव, कहं , जम्हा 'नादसणस्स नाणं' गाथा, तत्व पाणातिवातवेरमणत्यमिदं मगाइ, तं०'पुढविदगः ॥३३६।। सिलोगो, पुढवि आउ अगणिमारुजवणरुक्खगहणेण रुक्खस्स गुच्छादिदुवालसरगारस्स क्णप्फइणो गहणं, सचीयगणेण मूलकन्दादिबीयपज्जवसाणस्स पुब्वभणितस्स दसपगारस्स वणफतिणो गहणं, एते पुढविदगादि पंच काया तसा । य ईरियावहियादि पाणा जीवत्ति णायचा, इतिसद्दो परिसमतीए वट्टर, जहा ण एतेहिं छाह काएहिं बतिरित्तो अण्णो कायो अत्यित्ति, वृत्तं नाम मणियंति वा वुत्चति वा एगट्ठा, महरिसिगणं सत्थगोरवनिमित्तं कर्य, जहा अरइंतेहिं एते पुढविमादिर छज्जीवनिकाया मणिया, णाहं अप्पणो इच्छाए भणामित्ति, एतेसु पुढविमादिएमु छज्जीवनिकाएसु इर्म साहुणा काययंति, 'तेसिं अच्छणजोएण' ॥ ३३७ ॥ सिलोगो, तेर्सि नाम जे एते भणितत्ति, अकारो पडिसेहे वट्टइ, ४ालण्णसहो हिंसाए कट्टइ, जोगो मणवयणकाइओ तिविधी, पछणजोगो अच्छणजोगो तेण अच्छणजोएण निव्वग्याए । होअव्ययं भिक्खुणा इति, ते य जीचे इमेहिं मणवयणकाइएहिं णो सयं हिंसेज्जा, 'एगमाहणे गहणं तज्जातीयाण' भितिकाउं दीप अनुक्रम [३५१४१४] ॥२७॥ ... प्राणातिपात विरते: वर्णनं मध्ये पृथ्वीकायादिनाम् विरति: निरूप्यते [279] Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) | “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [३३५-३९८/३५१-४१४], नियुक्ति: [२९५-३१०/२९३-३०८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक" नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||३३५ प्रणिधा ३९८|| ॥२७॥ श्रीदश | परेणाबि न हिंसेज्जा, हिंसतंपि अण्ण न समणुजाणेज्जा, एवं च कुव्वमाणस्स संजतत्तं भवति । याणिमेतसि छहं जीवनिका-13 अप्कायवैकालिक याणं पत्तेयं वेरमण भण्णइ, तत्थ पुढविकायचरमण पुर्व भण्णाइ, तं- 'पुढविं भितिः ॥ ३३८ ॥ सिलोगो, तत्व पुढविगहणे काविरतिः चूर्णी 14 लेढुगादिविकप्परहियाए पुढविए गहणं कयंति, मितिमादि णदितडीतो जपोवदलिया सा भित्ती मन्नति, सिला नाम जो ८ आचार विच्छिण्णो पासाणो सा सिला भण्णइ, लेल लेटुओ भण्याइ, एयाणि पुढविमादीणि जो जिंदज्जा, णो व संलिहेज्जा, तत्थ मिंदर्ण | दुहा का तिहा वा अणेगहाकरणं भिंदणं मण्णइ, संलिहण अंगुलीसलागादीहिं, तत्थ अचिचाए तनिस्सिया विराधिज्जत्ति, | सचित्ताए पुढवी जीवा तृष्णिस्सिया य चिराहिन्जति, तिविहेण करणजोएण संजए सुसमाहिए, अप्पणा गो भिंदणं संलिहणं का भकायव्वंति । किंच- सुद्धपुडबिए ण मिसिए ( सुद्धपुडी न निसीए) ॥ ३३९ ॥ सिलोगो, सुदपुढवी नाम न सत्यावहता, असत्योबड्यावि जा णो वत्तरिया सा सुबूपुरवी मण्णाइ, तीए सुद्धपुढवीए न निसीएज्जा, 'एगग्गहणे गहण तज्जातीयाण'मितिकाउं ठाणविषज्जणादीणिवि गहियाणि, तहा ससरक्खंमि जमासणं पीढमादी, तंमि ससरक्खे ण वकृति णिसिउ उलं, समस्क्वं नाम मि सच्चित्तरतो वाउछुतो तमासणं ससरक्खं मण्णइ, तत्त्व सचित्तपुढवीए गायउण्डाए विराधिज्जर, अच्चिचाए एवाए । पति(माया)सणायी गुखिज्जति, हड्डिल्ला वा तष्णिस्सिता त्वा उपहाए विराधिज्जीत, ससरक्खाए सचिचरको विराधिवधि[त्तिकाऊग- मुखपुढषीमादिसु पसज्जिऊण निसीइज्जति जाणिऊण जहा एसा अचित्तजयणा, अगणिमाई उपहवस्स व जस्ता २७५॥ सो परिम्गडो तस्स उम्गहं अणुजापाऊण निसीपणादीणि कुन्जा इति पुरविक्कापचिरती मया। इयाणि आउक्कायविस्ती। मण्णा, तं- 'सीजोवर्ग न सेविज्जा० ॥ ४० ॥ सिलोगो, सोतोदगगहणेण सचेतपस्स उदयस्स गाणं कर्य, सिता करवा दीप अनुक्रम [३५१४१४] [280] Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [८], उद्देशक , मूलं [१५...] / गाथा: [३३५-३९८/३५१-४१४], नियुक्ति : [२९५-३१०/२९३-३०८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||३३५ अनिकायविरातः प्रणिधौ ३९८|| ॥२७६॥ श्रीदश-18 भति, वुहुग्गहणेण सेसअंतरिक्खोदगस्स गहणं कयं, हिमं पाउसे उत्तरापहे भवति, चकारेण फुसारादीण गहणं कयंति, ताणि वैकालिक | सीतोदगादीणि नो से सेविज्जा, तं पुण उण्होदर्ग जाहे तत्तं फासुगं भवति ताहे संजतो पडिग्गाहिज्जत्ति, आद-उण्होदगमेव वतन्वं चूणी तत्तफासुगगहणं न कायब, जम्हा जे उण्होदगं तमवसं तत्तं फासुयं च भविस्सइ, आयरिओ आह-न सव्वं उण्डोदर्ग तत्त८ आचार | फासुयं भवति, जाहे सध्यत्वा डंडा ताहे फासुयं भवति, अतो तत्तफासुरगहण कयं भवति, जया भिक्खादी णिग्गतो बरिसेणं तिमेज्जा गदिमाईणि वा उत्तरंतो ताहे इमे जो कुज्जा, तंजहा- 'उदउल्लं' ॥ ३४१॥ सिलोगो, तत्थ उदउल्लं बिन्दुसहित भन्नइ, 'एगग्गहणे गहणं तज्जातीयाण'मितिकाउं ससिणिमचिरट्ठियं, उदउल्लं ससणिर्दू वा कार्य को पुञ्छज्जा ण वा संलिहेज्जा, तत्थ पुंछणं वत्थेहि तणादीहि वा भवइ, संलिहणं जं पाणिणा सेलिहिऊण णिच्छोडेइ एवमादि, समुप्पेहे नाम सम्म उवहे, संम णिरिक्खतित्ति बुत्तं भवइ, तहाभूअं णाम जं उदउल्लं ससनिळू वा जाहे अपरिणतं जाणिऊण णो हत्थादीहि संघट्टेज्जा, मणिनि या जाणिचि वा एगट्ठा, उदउल्लेण कारण जाव सो आउक्काओ ण परिणओ ताव निरासणादीणि न कुज्जा, आउ: क्कायविरती गता । इदाणि अगणिकायवेरमणं भण्णाइ... 'इंगालं अगणिं अनिच०॥ ३४२ ।। सिलोगो, तत्थ इंगाला | जालारहिओ, अगणिं नाम जो अयपिंडाणुगओ फरिसगेझा, अच्ची णाम आगासाणुगता परिच्छिना अग्मिसिहा, अलाय । नाम उम्मुययं, तं जइ सजाइयं भवति तो उजणादाीण णो कुज्जा, सजोतिय नाम अपिज्झायंत, सजोइअमलायं इंगालादीणि लीय णो उजेज्जा, णो वा घट्टेज्जा, ण वा णिवावेज्जा, तत्थ उंजर्ण अवसंतुयाण, घट्टणं पराप्परं उम्मुवणं, अष्फोडणं निव्वावणं, मुणिति वा गाणित्ति वा एगट्ठा, उजणादीणि जहा नो असयं कुज्जा 'एगग्गहणे गहणं तज्जातीयाण' मितिकाउं परेणवि ण दीप अनुक्रम [३५१४१४] बE [281] Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [८], उद्देशक , मूलं [१५...] / गाथा: [३३५-३९८/३५१-४१४], नियुक्ति : [२९५-३१०/२९३-३०८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||३३५३९८|| प्रणिधौ श्रीदश कारवेज्जा करतेपि अन न समणुजाणेज्जा, अगणिकायविरई गया। इदाणि वाउकायविरई मण्णइ-'तालिअंटेण' ॥३४३ वायुवनस्पवैकालिक | सिलोगो, तत्थ तालिअंटो लोगपसिद्धी पत्तं पोमिणिपत्तादी, साहा रुक्खडाणं, बिहषणं वियणग, एतेसि अमतरेण 'न बीइज्ज तिविरती चूणौँ ४ अप्पणी काय बाहिरं वापि पोग्गलंति' तत्थ अप्पणो कार्य नाम अत्तणो सरीरं, बाहिरपोग्गलग्गहणेणं उसिणोदयादीण ८ आचारगहणं, जहा णो सयं बीइज्जा 'एगग्गहणे गहणं तज्जातियाण'मितिकाउं परेणावि न बीइज्जा, पीयंतमवि अब न समणुजाणेज्जा, वाउकायविरई गया। इदाणि वणफइबेरमणं भण्णइ-तणक्खं न छिदिज्जा०॥ ३४४ ।। सिलोगो, वत्थ सणं दब्भादि, रुक्खगहणेण एगट्ठियाण बहुपीयाण य गहणं, 'एगग्गहणे गहणं तज्जातीयाण'मितिकाउं सेसावि गुच्छगुम्मादि गहिया, ॥२७७|| आमग नाम असस्थुवहतं, विविध अणेगप्पगारं 'बीय' सालिमाइ मणसावि न पत्थए, किमंग पुण कंगणा, गहणेसु न चिहिज्जा' ।। ३४५ ।। सिलोगो, तत्थ गहणं गुविल भण्णइ, तत्थ उव्वत्तमाको परियत्तमाणो वा साहादीणि पट्टेड ते गहणं, सत्थ नो चिट्ठज्जा, जत्थ चीयाणि हरियाणि य आकिवाणि तत्थवि न चिट्ठज्जा, तत्थ उदगं नाम अणंतवणफई, से भणिया च- 'उदए अवए षणए सेवाले' एवमादि, अहवा उदगगहणेण उदगम्स गहणं करेंति, कम्हा, जेण उदएण वणफइकाओ। | अस्थि, उचिंगगहणेणं सपछत्सादीण गहणं, पाणगो पसिद्धो, एतेसु गहणादिसु पणगपज्जवसाणेसु वणप्फइजीवणवाए गो181 बिंदुज्जा, 'एगग्गहणे गहणं तज्जातीयाणमितिकाउं अमंपि मो चिट्ठावज्जा, चिट्ठतमवि अब न समणुजाणेज्जा किंच-'तसे ॥२७॥ पाणे न हिंसिज्जा' ॥३४६ ।। सिलोगो, 'तसे पाणे कुंथुमादी ण हिंसज्जा, ते पायाए कम्मुणा या णो हिंसेज्जा, मणो। ततम्गओ दहब्बो, न केवलं तसे पाणे न हिंसेज्जा, किंच-विविहेण मणवयणकाइएण करणकारावणुमोदणेहिं सब्वभूपसु वधो EMORRENCEACCOR S दीप अनुक्रम [३५१४१४] 4 - CAL [282] Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [३३५-३९८/३५१-४१४], नियुक्ति: [२९५-३१०/२९३-३०८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||३३५३९८|| ८ आचार Iयक्ष्माष्टकं श्रीदश-18 वरतो भवेज्जा, 'पासेज्ज विविहं जगं' गामनगरतिरियमणुयदेवेसु विविहं कम्ममलमणुभवमाणति इमं जगं पासेज्जा, पासिऊण कत्रिसपानवैकालिंकाल य उवरतो भवेज्जा, एसा वाव धूलसरीरेसु घिरती भणिया । इयाणि सुहमाण भण्णति-'अट्ट सुहुमाइ (णि०)॥३४७|| सिलोगो. & विरतिः अट्ठचि संखा, अतीव सहाणि सुहुमाणि, ताणि पेहाए णाम उपयोग दाऊण, 'जाई' ति अणिदिट्टाणि, जाणित णाम उवल भिऊण, संजए साधू, तत्थ आस णाम दयाहिकारी निसीए, चिट्ठ नाम उडिओ दयाहिकारी अच्छेज्जा, सए णाम दयाहिकारी प्रणिधौ णिहामोक्खं करेज्जा, अब कतराणि अट्ठ मुहमाणि', भण्णइ-सिहं पुष्फसुहुम च०॥ ३४९ ॥ सिलोगो, सिणेहसुहम पुष्फ॥२७८॥ मुहुम पाणसुहुमं उनिंगमुहूं पणगसुहुमं बीयसुहुमं हरितसुहुमं अंडगसुहुमंति, तत्थ सिणेहसुहुम पंचपगारं, ०-ओसा हिमए महिया करए हरतणुए, पुष्फमुहुम नाम वडउम्परादीनि संति पुष्फाणि, तेसि सरिवाणि दुबिभावणिज्जाणि ताणि सुहुमाणि, पाणसुहुम अणुद्धरी कुंधू जा चलमाणा विभाचिज्जा थिरा दुम्बिमावा, एवं तं पापासुहम, उत्तिंगसुहुम कीडियानगरं, तत्थ पिपीलियाणा(ण्डादिअणायमुहुमा सचा दुविभावणिज्जा भवंति, पणगसुहुमं णाम पंचवमो पणगी वासामु भूमिकट्टउवगरणादिसु तबसमयमो पणगसुहुमं, बीयसुहुमं नाम सरिसवादि सालिस्स वा मुहमूले जा कणिया सा बीयसुदुम, सो य लोगेण उ सुमहु(धुम)त्ति भण्णा, हरितमुहुमं णाम जो अहणुट्टियं पुढविसमाणवण्णं दुबिमावणिज्जतं हरियसुहुमं, अंडमुहुर्म पंचप्पगारं, तंजहा उद्दसियंडो पिीलियंडो उक्कलियंडे हलियंडा हलिहोलियंडो, तत्थ उइंसिया मच्छिया तीए अंडे उदसियडं,। पिपीलियाअंडयं नाम कीडियअंडगं, उक्कलियाअंडे बक्खोइलियाअंडगं, हलियंडग भणियाअंडयं, इलाहलिअंडं सरडीअंडगति।ल॥२७८॥ 'एवमेआणि जाणित्ता०' ॥ ३५० ।। सिलोगो, एवमेयाणि अट्ठ सुहुमाणि सबष्पगारहिं वण्णसंठाणाईहिं णाऊणति, अहवा ण SANSAR दीप अनुक्रम [३५१४१४] [283] Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||३३५ ३९८|| दीप अनुक्रम [३५१ ४१४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + | भाष्य | +चूर्णि:) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [ ३३५-३९८/३५१-४१४], निर्युक्ति: [ २९५-३१०/२९३-३०८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [ ४२ ], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि श्रीदशवैकालिक चूर्णां आचार प्रणिधौ ॥२७९ ॥ ४ सव्यपरियारहिं उमस्थो सक्केह उवलभिउं, किं पुण जो जस्स विसयो १, तेण सव्वेण भावेण जाणिऊर्णति, संजय साधू 'अप्पमत्तो जए निच्चं 'ति तत्थ अप्पमत्तो जए नाम निद्दाकसायाईहिं पमादविवज्जओ अप्पमत्तो, जए नाम मणवयणकायजोगेहिं तेसिं सुद्धमाण रक्खणत्थं पयत्तमंतो, णिच्चं णाम सव्वं कालं, 'सविदि असमाहिए' नाम सद्दादिसु विसएस अपडिबज्झमाणो । इयाणि सुहुमाण धूलाण य जीवाणमणुपालणत्थमिदमुच्यते- 'ध्रुवं च पडिले हिज्जा०' || ३५१ ॥ सिलोगो, ध्रुवं धुव गाम जो जस्स पच्चुवेक्खणकालो तं तमि णिच्च पडिलेहिज्जा, जोगसा नाम सति सामत्थे, अहवा जोगसा णाम जं प्रमाणं मणितं ततो माथाओं ण हीणमहितं वा पडिलेहिज्जा, जहा जोगरत्ता साडिया पमाणरत्तित्ति वृत्तं भव तहा पमाणपडिलेहा जोगता भण्णइ, पायग्गहणेण दारुअला उपमट्टियपायाणं गहणं, कंबलग्रहणेण उन्नियसोत्तियाण सब्बेसि गद्दणं, सज्जाओ यसइओ भण्णइ, तमवि दुकालं तिकालं वा पडिलेहिज्जा, उच्चारभूमिमवि अणावायमसंलोयादिगुणेहिं जुतं गयमाणो गामनगरादिसु पडिलेहिऊण पाए पविसे, जाहे उच्चारभूमी ताद्दे पडिलेहिय पमज्जिय वा पविसिज्जा, तहा संधारभूमिमवि पडिलेहिय पमज्जिय अत्थुरेज्जा, तहा आसणमवि पडिलहिऊण उवविसेज्जति । किंच उच्चारं पासवर्ण० ॥ २५२॥ सिलोगो, उच्चारपासवण खेल सिंघाणगा पसिद्धा, जलिये नाम मलो, णो कप्पइ उबडेडं, जो पुण निम्काले पस्सेयो भवति, अण्णांम गिलाणादिकारणे मलत्थे के (ओ क ) रियो कीरद्द तस्स तं गहणं कयंति, एवं वा उरादी अनं वा सरीरावयवं आहारोव करणादि फासुयं ठाणं वा, 'पडिलेहिऊण परिद्ववेज्ज संजए' ति, एस उवस्सए विधी भणिओ । इदाणिं भिक्खागतस्स भण्णइ, तं० 'पविसितु परागारं ० ' ।। ३५३ || सिलोगो, अगारं गिद्द भण्णइ, परस्स अगारं परागारं साधू पविट्टो मोयण अभेसु वा कारणेसु पचि ... अत्र प्रतिलेखना आदि विधिः उपदर्शयते [284] प्रति लेखनादि * भिक्षागतविधिः ॥२७९॥ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||३३५ ३९८|| दीप अनुक्रम [३५१ ४१४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + | भाष्य |+चूर्णि:) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [ ३३५-३९८/३५१-४१४], निर्युक्ति: [ २९५-३१०/२९३-३०८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [ ४२ ], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि श्रीदशवैकालिक चूण. ॥ २८०॥ सिऊण 'अयं चिद्वेज्जा ण य रूवेस मणं करेज्जा' तत्थ जयं चिट्टे नाम तंमि गिहदुबारे चिडे, णो आलोयत्विगलाईणि, वज्जयेति अक्खेयं सोहयंतो चिट्ठेज्जा, मितं भासेज्जा णाम पुच्छिओ संजओ जयणाए एक्के वा दो वा बारे भासेज्जा, कारणणिमितं वा मासह, अणसणं वा पडिसेहयह, 'ण य रूयेसु मणं करे रूवं दायगस्स अण्णसिं वा दट्टणं तेसु मणं ण कृज्जा, ८ आचार ४ जहा अहो रूवं, जति नाम एतेण सह संजोगो होज्जत्ति एवमादि, 'एगग्गहणे गहणं तज्जाइयाण' मितिकाउं सदा रसा गंधा प्रणिधौः फासा गहिया, तेसुबि मणं णो कुज्जा । इदाणिं असावज्जसावज्जकहणे अकणत्थमिदमुच्यते- 'बहुं सुणेइ कन्नेहिं०' ।। ३५४ ।। सिलोगो, बहु णाम अणेगप्पगार भण्णह, तं च असावज्जं सावज्जं च तत्थ असावज्जे अत्थि ते अज्ज सुतं जहा तित्थगरो अमुर्ग देसमागओ, परवादी वा अज्झावरण वादिणा पराजिओ, अनुगनामधेयो वा साधू कत्थइ सुओ तस्लाई सगासे पव्बउकामो, दिद्वेषि अत्थि ते अज्ज कोवि संतुट्टप्पा साहू दिट्ठो जाणं परिलाभयामि, अहवा तमहं पज्जुनासिकामो आगओ, णिक्खमिउकामो वा, एवमादि असावज्जं पुट्ठो वा अपुट्ठो वा मासेज्जा, सावज्जं पुण सव्यप्यगारेण परिहरिज्जद, तं व सावर्ज हमं जहा कोइ पुच्छज्जा हे साहु ! किमेय घोसणिज्जं घोसिज्जति, एवमादि दिडेवि जहा तुमए राया अण्णेण परेण गच्छंतो दिडतो, मंसविकीओ वा मातंगा वा तित्तिरहत्थक्रया दिट्ठा, एत्थ उदाहरण-एक्को घीयारो उन्मामय बिलपाए समं मोगे झुंजतो दिडो एगेण साहूणा, लज्जिओ सो असि कद्देहिति ताणं मारेमि सो अग्गओ पंथं बंधिऊण अच्छड, आगओ तस्स ओगासं, भणिज अणेण भो साधु! अज्ज भर्मवेण किं दिई साहु?ि साहू भण-अहं भणियं 'बहुं सुणेहि कमेही, बहुं अच्छी हिं पिच्छ । न य दिहं अं सब्वं, भिक्खु अक्खाउमरिह || १|| ततो मारणज्झवसायाओ णियत्तो घीयारो, धम्मपरंतु शिक्तो य, जइ पुण [285] सावधा कथनं ॥ २८० ॥ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [८], उद्देशक , मूलं [१५...] / गाथा: [३३५-३९८/३५१-४१४], नियुक्ति : [२९५-३१०/२९३-३०८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||३३५३९८|| श्रीदश-ल अक्खा IR अक्साय होते तो मारिओ होतो, जहा(ओ) एवमादि दोसा अतो 'सुअंवा जइ वा दि०॥४५५॥ सिलोगो, तत्थ सुतं जहा-TRIगृहया वैकालिका तुम मए सुओ अट्ठाबद्धो चोरो एवमादि, दिट्ठो-दिहासि मए परदव्वं हरमाणो एवमादि, एरिसं परोवग्याइयं पुट्ठी अपुट्ठो वा त्यागादि चौँ लोगविरुद्ध धम्मविरुद्धं च णो मासेज्जा, तह 'ण य कोइ उवाएण गिहिजोगं समायेर त्ति, गिहीहि समं जाग पिाहजाग, ८ आचार- संसाग्गिति बुत्तं भवति, अहबा गिहिकम्म जोगो भण्णइ, तस्स गिहीकम्माण कयाणं अकयाणं च तत्थ उवेक्षणं सर्व वाऽकरण, प्रणिधो| जहा एस दारिया किं न दिज्जइ ? दारगो वा किन निवेसिज्जद , एवमादि. किंच-'निहाणं रसनिज्जूदं० ॥ ३३५६ ।। ॥२८॥ सिलोगो, णिहाणं णाम जं सम्वगुणोबवेयं सबसंभारसंभियं तं णिहाणं भण्णा, रसणिज्जूढ णाम ने कदसणं ववगयरस त IP रसणिज्जूढे भण्णइ, एतसिं रसणिज्जूह, जाहे निट्ठाणं लद्धं ताहे पुट्ठो वा हरिसागओ ण लाभ मिसेज्जा, जहा पसोहिया मो | केरिसं अद्दभांग लद्ध, तणं बालस्थितिलएण अज्ज इमं भद्दगं दिन, जाहे रसनिज्जूढं लद्धं भण्णइ ताहे णो दीणगमणसो होज्जा, ण अलाभ णिदिसज्जा, जहा पसोहियामो केरिस पावगं लद्धं दिवसं हिंडतेणी, तेण वाजंममरणपावकम्मेण केरिसं पावगं दिण्णंति, ॥ एवमादि, किंच. 'न य भोअणमि गिद्धो ॥ ३५॥ सिलोगो, गोयरग्गगओ साधू भोयणे गिद्धो उंछ अयंपिरो चरेज्जा' तत्थ नकारो पडिसह बट्टइ, भोयणगहणेण चउम्बिहस्सवि आहारस्स गहणं कर्य, तस्स भोयणस्स गेहीए ण णीयकुलाणि अतिक्कममाणो उच्चकुलाणि पविसेज्जा, चरे नाम हिंडेज्जा, उंछ चउन्धिधं, तणामुछ ठवणुछ दबुछ भावुछ च, णामठव R ॥२८॥ पाओ गयाओ, दबुछ तावसादीण, भावुछ जे अण्णमण्णातणव गीयमज्झिमेण हिंडंति तं भाछ, एत्थ भावउँछेण अधिगारो, सेसा उच्चारियसरिसत्तिकाऊण परूविया, अयंपिरो नाम अजपणसीलो, तहा जं अफासुर्य कीयमुद्देसियं आहडं च तं णो दीप अनुक्रम [३५१४१४] [286] Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [८], उद्देशक , मूलं [१५...] / गाथा: [३३५-३९८/३५१-४१४], नियुक्ति : [२९५-३१०/२९३-३०८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत वृत्यादि सूत्रांक [१५...] गाथा ||३३५ ३९८|| श्रीदश- भुजेज्जा, 'एगग्गहणे गहणं तज्जतीयाण'मितिकाउं सेसावि अफासुएसु दोसा गहिया। किंच-'संनिहिं च न कुन्विज्जा वैकालिका ॥३५८ ।। सिलोगो, समिहिज्जताति सविधी-गुलधयतिल्लादीणं दब्बाणं परिवासणंति, अणुसहो थोवत्थे वट्टह, तं थोषमवि णो चूर्णी. परिवसेज्जा, किमंग पुण बहुयति', मुद्दाजीची जहा पढमाए पिंडेसणाए, असंबद्ध णाम जहा पुक्खरपत्रं तोएणं न संबज्झाइ आचार एवं गिहीहि समं असंबद्रेण भवियव्वंति, 'जगनिनिस्सिए' णाम तत्थ पत्ताणि लभिस्सामोत्तिकाऊण गिहत्थाण णिस्साए प्रणिधीर | विहरेज्जा, न तेहि सम कुंटलाई करेज्जा । किंच- 'लूहवित्ती मुसंतुढे ॥ ३५९ ॥ सिलोगो, तत्थ लूई चउबिह, तंजहा॥२८॥ शणामठवणादब्ब०भावलूहंति, णामठवणाओ गयाओ, दब्बलूह निप्फावकोद्दवादी, भावलूहं कलई अब्भक्खाणमादि, एत्थ पुण| दव्वलूहेण अधिगारो, सेसा उच्चारियसरिसत्तिकाउण परूपिया, ते णिफावकोदवातिलहदबे वित्ती जस्स सो लूहवित्ती भण्णइ, णिच्च साहुणा लूहवित्तिणा भवियध्वं, सुसंतुट्ठो णाम जो जेण वा तेण वा आहारिएण संतोस गच्छह सो सुसंतुट्ठी भण्णइ, सब्बकालं संतुट्ठो भवेज्जा, न दीणमणसोत्ति, भणियं बेहं- 'जं च तं च आसिया' गाहा, तहा अप्पिच्छोवि होज्जा, अप्पिच्छो णाम जो जस्स आहारो ताओ आहारपमाणाओ ऊणमाहारेमाणो अप्पिच्छो भवति, सुभगे नाम अप्पिच्छित्तणेण सुभगो भवइ, सिया नाम भविज्जति दुतं भवति, तहा 'आसुरत्तमांव न गच्छिज्जा' तत्थ आसुरो कोहो भण्णइ, तस्स आसुरस भावा आसुरत, तमासुर साहूहि गिहीहिं वा आसाइओ न गच्छेज्जा, 'मुच्चा णं जिणसासणं' ति, जिणस्स सासणं जिणसासणं, तमि जिणसासणे कोहविकार सोऊण, जहा"चाहिं ठाणेहिं जीवा आसुरत्ताए कम्मं पकरेंति, तं०-कोहसीलयाए तहा माणा जावज मए एस पुरिसे अन्नाणी मिच्छादिट्ठी अकोसवधरई वा तंण मम एस किंचि अवरज्झति, किन्तु मम एयाणि वेदणिज्जाणि कम्माणि अवरज्झंतित्ति दीप अनुक्रम [३५१४१४] GADAKCE LEDGE २८२॥ [287] Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||३३५ ३९८|| दीप अनुक्रम [३५१ ४१४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र- ३ (निर्युक्तिः + भाष्य | + चूर्णि:) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [ ३३५-३९८/३५१-४१४], निर्युक्ति: [ २९५-३१०/२९३-३०८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्ण: श्रीदशवैकालिक चूर्णां ८ आचार प्रणिधी ४ ॥२८३॥ सम्म महियासेमाणस्स णिज्जरा एव भविस्यति'चि एवमाह जिणस्स सासणं सोऊण न आसुरतं गच्छियव्वंति । किंच 'कन्नसुखेहिं सहेहिं ॥ ३६० ॥ सिलोगो, कृष्णा पसिद्धा तेर्सि कन्नाणं सुहा कन्नसोक्खा तेसु कन्नसोक्खसु वंसीवीणाइस 'पेमं णाभिणिवे सएत्ति' पेमं नाम पेमंति वा रागोत्ति वा एगट्ठा, दारणंणाम दारुणसलिं दारुणं, ककसं नाम जो सीउण्डकोसादिफासो सो सरीरं कसं कुब्बति ककसं, तं ककसं फार्स उदिष्णं कारण अहियासएत्ति, अहवा दारुणसदो ककससद्दोऽविय एगड्डा, अच्चत्थनिमित्तं | पउज्ञ्जमाणा णो पुणरुतं भवइ, तत्थ कण्णसोक्खेर्हि सद्देहिंति एतेण आदिल्लस्स सोइंदियस्स गहणं कर्य, दारुणं कसं फासंतिएतेण अंतिहस्स फासिंदियस्स गहणं कर्म, आदिले अंतिले य गहिए ससावि तस्स मज्झपडिया चक्षाणजीहा गहिया, कनेहिं विरूवर्हि रागंण गच्छेज्जा, एवं गरहा, सेसेसुवि रागं न गच्छेज्जत्ति, जहा एतेसु सद्दाइसु मणुण्णेसु रागं न गच्छेज्जा तहा अमणुष्णेवि दोसं न गच्छेज्जा, जहा बाहिर दोन कम्म . तहा कम्मखवणत्थमेव अन्तबद्वियमपि दुक्खं सहियवं, तंजहा - ' खुहं पिवासं० ॥ ३६१ ॥ सिलोगो, खुहा-भुक्खा भण्णइ, पिवासा नाम पाउमिच्छा पिबासा, दुखिज्जा नाम विसमभूमि फलगमादी, सीउन्हा पसिद्धा, अरती एतेहि खुप्पियासादीहि भवर, 'भयं' सप्पसी हवाघादि वा भवति एयाणि खुष्पिवासादीणि अहियासेज्जा, 'अव्यहिए (ओ)' ति अव्वदिओ नाम अहीणो अविकीयो असीयमाणोति वृत्तं भवति, 'देहदुक्तं महाफलं ' तत्थ देहो सरीरं भग्रह, तंमि देहे दुक्खं महाफलं -महा मोक्खो मण्ण, सं मोक्पज्जवसाणं फलमितिका ऊण खुहादिउण्ड (दुक्ख ) मधियासेज्जा, सा पुण खुहा कहं सहियव्यत्ति, ? 'अत्थंगयंमि आइच्चे० ' ॥ ३६२ ॥ सिलोगो, अत्थो णाम पब्बओ, तंमि गतो आदिच्चो अत्थगओ, अहवा अचक्खुबिसयपत्थो, अत्थंगते आदिच्चे, [288] विषयपरिहारः क्षुदादि सहनं ॥२८३॥ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [३३५-३९८/३५१-४१४], नियुक्ति: [२९५-३१०/२९३-३०८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत श्रीदन सूत्रांक [१५...] गाथा ||३३५३९८|| पुरत्थाय अणुदिते , 'आहारमाइयं सव्वं मणसावि ण पत्थए' जहा कहमेवंविहं आहारं लब्भए, किमंग पुण याया- मदत्यागः वैकाालकला ए कम्मुणा इति, जहावि इच्छियं आहारं नो लभेज्जा'अतिंतिणे अचवले.॥३६३ ॥ सिलोगो, अलब्भमाणे आहारे पंते Vवा लम्भमाणे णो टिंचरुयदारुगमिव तिन्तिणो भवेजा, कहं , जहा टिंबरुदयदारु अगणिमि पक्खितं तडतडेती ण प्रणिधौ साहुणा तहावि तडतडियवं, तहा भासियव्वे य कारणे साहुणा अचवलेण भणियध्वंति, अप्पवादी नाम कज्जमे सभासी, मितासणे नाम मियं असतीति मियासणे, परिमितमाहारतित्तिवृत्तं भवति, अहवा मियासणे भिक्खडाए णिग्गओ ॥२८॥ कारणे उवट्ठातुं मितं इच्छइ, 'भवेज्ज उदरे दंते' उदरं पोट्ट, तमि दंतेण होयब्वं, जेण तेणेव संतुसियव्वंति, 'थोवं लद्धं न खिंसए' तं वा अण्णं पाणं दायगं वा नो खिसेज्जा । इयाणिं मदवज्जणट्ठा इमं भन्नइ-'न बाहिरं परिभवे ॥३६४ ॥ सिलोगो, णकारो पडिसेधे वट्टइ, बाहिरो नाम अत्ताणं मोत्तूण जो सो लोगो सो बाहिरो भण्णइ, बाहिर णो परिभवेज्जा, अत्तुकरिसं च इमेहिं ठाणेहिं न कुज्जा, तं० सुत पाटवं लाभ लद्धं जाति तयं बुद्धि, तत्थ मुएण| उक्करिसं गच्छेज्जा, जहा बहुस्सुतोऽहं को मए समाणोत्ति, (पाटवेण) लाभणवि को मए अण्णो', लद्धीएचि जहा को मए समाणोति एवमादिएअहियत्ति लज्जा (डी) संजमो भण्णइ, तेणवि संजमेण उकारिस गच्छेज्जा, को मए संजमेण सरिसोतिर, जातीएवि जहा उत्तमजातीओऽहं, तवेण को अण्णो बारसविधे तवे समाणो मएति !, बुद्धीएवि जहा को मए समाणोति दी एवमादि, एतेहिं सुयादीहिं णो उकरिसं गच्छेज्जा । इदाणिं आभोगणाभोगासेवियस्थमिदमुच्यते- “से जाणमजाणं वा०'। 1॥ ३६५ ॥ सिलोगो, सोचि साधुनिसे, तेण साहुणा जाहे जाणमाणेण रागद्दोसवसएण मूलगुणउत्तरगुणाण अण्णतरं आधम्मियं 12 दीप अनुक्रम [३५१४१४] 45ECRE [289] Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [८], उद्देशक , मूलं [१५...] / गाथा: [३३५-३९८/३५१-४१४], नियुक्ति : [२९५-३१०/२९३-३०८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||३३५ श्रीदश-16 ३९८|| हैपयं पडिसेवियं भवइ, अजाणमाणेण वा अकप्पिय बुद्धी ए पडिसेबियं होज्जा, तओ आसवदारेहि उग्घाडिएहि कम्मममुहं आदि- आलोवैकालिकायमाणमप्पाणं संपरे नाम पितितं च वारं तमल्चिं नो समायरेज्जा । इयाणिं तस्स सेवियरस सोदणस्थमिदमुच्यते-'अणायारा चनादि चूर्णी परक्कम्म.' ।। ३६६ ॥ सिलोगो, ण आयारो अणायारो उम्मग्गोचिवुत्तं भवइ, तं परक्कम पडिसेबिऊण तं पडिविरओ ८ आचार गुरुसगासे आगओ आलोएज्जा, ण पुण गूहेज्जा णिहवेज्ज वा, तत्थ गृहणं किंचि कहणं भण्णइ, णिण्हवो णाम पुच्छिओ संतो। प्रणिधी सव्वहा अबलबह । 'सुथी सया वियडभावे असंसत्ते जिइंदिए' ति सुरीणाम अकलुसमयी, अहवा सो चेव मुई जो सदा दि वियडभावो, जिइंदिओ णान जिताणि सोयाइणि इंदियाणि जेण सो जिइंदिओ, गिहीहि संवसणदाणकारणाईहिं वद्यमाणो संसनो, ट्र ॥२८५४ न संसतो असंसतो, जियाणि सोईदियादीणि जेण सो जिइंदिओ, सो य साहू आयरियकुले वसमाणो-'अमोहं वयणं कुज्जा ॥३६७ ।। सिलोगो, अमोहं णाम अवंति वुत्तं भवति, आयरिया पसिद्धा, महप्पणो नाम महतो अप्पा सुयादीहि जेसि ते 5 महप्पा तेसि महप्पणो, अमोहं वयणं कुजात्त, तेहिं जया संदिट्ठो भवइ, जहा मम अगुगं कज्ज करहि, तओ तसि वयणं सिरसा । पणमिऊण तहत्ति वायाए परिगिपिहऊण कम्मुणा उववाएज्जा, आह-किमत्थमयं पयासो:-आयरिओ भणइ--'अधुवं जीवि नच्चा०' ।। ३६८ ॥ सिलोगो, अधुवं असासयं जीविअंजाणिऊण, सिद्धिमग्गं च णाणदंसणचरित्तमइयं तित्थंकरोबएसेण जाणि-18 ऊण, परिमितं च आउं अत्तणो णाउं भोगेहि कहयफलविवागेहिं विविह-अणेगप्पगारं णिब्बिसेज्जा, किंच-'जाव जरा न ॥२८५।। पीडेई०॥३७० ॥ सिलोगो, जाव जरा विरूवकारिया नागच्छति, जाव वाधी दुरंतो ण जायति, जाब सोतादि इंदिया | अपणो पडुरुच बिसयं ण हायति ताव जिणोवदिई धम्ममायरेज्जाति, तस्स य धम्मस्स विपरिजाणणस्थमिदमुच्यते--'कोहं माणं दीप अनुक्रम [३५१४१४] - [290] Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [३३५-३९८/३५१-४१४], नियुक्ति: [२९५-३१०/२९३-३०८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||३३५३९८|| श्रीदश- च मायं च ॥ ३७१ ॥ सिलोगो, तेसि कोहादीणमणिग्गहियाणं [च ] इहलोइओ इमो दोसो भवइ, तंजहा-'कोहो पीतिक क्रोधादेपणासेइ०१॥ ३७२ ॥ सिलोगो, कुद्धो तारिस जोग जुजई जेण चिराणुगतावि पाति भाइमाइपितादीण णासइ, 'माणी जेयः चुणा विणयनासो' आयरियाईणं अन्मुडाणादीविणयं नासेइ, मायाए उपचरमाणो सहदारदरिसिणमवि मित्त, किं पुण जे सेस- वनयादि ८आचार-6. प्रणिधौ 18. मित्तत्ति, लोभो पुण सव्वाणि एयाणि पीतिविणयमित्ताणि नासेइति, तं-मिउणोविय तायस्स पुत्तो लोभेण रूसेह, लोभे य अदिज्ज माणेण पडिण्णमारुभेज्जा, जहा अवस्सं मए भार्ग दवावेमि, मायाए तमत्थं गिहिऊण अवलवेज्जा, अओ लोभो सबविणासणो, ॥२८६॥ अहवा इमं लोगं पर वा लोग दोऽपि लोभेण णासयइति सबविणासणो य. जहा एते दोसा कोहादीणं अओ-'उवसमेण हणह कोहं० ॥३७२।। सिलोगो. उपसमो खमा भण्णइ तीए कोहस्स उदयनिरोधो कायव्यो, उदयपत्तस्स (वा) विफलीकरण, माणमवि मद्दवयाए जिणेज्ज, महवया अणुस्सित्तया भण्णइ, तीए मदवयाए माणोदयनिरोधो कायव्यो, उदयपत्तस्स विफलीकरणं, मायमपि अज्जवभावणं, लोभमवि 'संतुहिये जिणे''संतुही' णाम संतप्याए लोभोदयनिरोहो कायम्बो, उदयपत्तस्स विफलीकरण । || इदाणि तास काहादीणं परलोगापायाचदरिसणस्थमिद पव्यते--'कोहो अमाणो अ अणिग्गहीआ०॥३७४ ।। सिलागा। कोहादि अणिग्गहिता विवढंति, विवढमाणाय चउरोऽवि एते पच्चक्खा 'कसिणा कसाया सिंचंति मूलाई पुणब्भवस्स। 5 कसिणा नाम संपण्णत्ति, अहवा संकिलिट्ठा कसिणा भवंति, पुणभवो संसारी भण्णा, तस्स पुणम्भवदुमस्स मूलाणि सिंचंति त्ति, तेण य साहुणा कसायनिग्गहपरेण इमं काय-रायाणिएम विणयं पउंजे ॥ ३८५ ।। सिलोगो, रायाणिा पुव्वदि- ॥२८६॥ क्खिया सम्मावोबदेसगा वा, जे वा अन्ने पूया, ते सब्बरायाणिएसु विणयं पउंजेज्जा, तहा धुवसीलयमवि णो हावएज्जा, धुवसी दीप अनुक्रम [३५१४१४] CRACT [291] Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [३३५-३९८/३५१-४१४], नियुक्ति: [२९५-३१०/२९३-३०८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||३३५३९८|| चूर्णी श्रीदा-3लयं णाम अट्ठारससीलंगसहस्साणि, तेसु समयं उज्जुत्तो भवेज्जा, 'कुम्मोव्व अल्लीणपलीणगुत्तो, परक्कमिज्जा तवसं-भिमणधर्म वैकालिकाजमंमि' ति, जहा कुम्मो सए सरीरे अंगाणि गोवेऊण चिट्ठाइ, कारणेवि सणियमेव पसारेइ, तहा साहवि अल्लीणपलीणगुचो। म फल 19 परकमेज्जा तवसंजमंमित्ति, आह-आलीणार्ण पलीणाणं को पइविससो, भण्णइ, इसि लीणाणि आलीणाणि, अच्चस्थलीणाणि | पलीणाणित्ति, किंच-णि च न बहुमन्निज्जा.' ॥ ३७६ ।। सिलोगो, णि च न बहुमन्निज्ज' ति बहुमनिज्जा नाम | प्रणिधौ नो पकामसायी भवेज्जा, तहा 'सप्पहासं विवज्जए' सप्पहासो नाम अतीव पहासो सप्पहासो, परवादिउद्धसणादिकारणे ॥२८७॥ जइ इसेज्जा तहावि सप्पहासं विवज्जए, तहा-'मिहोकहाहिं न रमे' तिमिहोकहाओ रहसियकहाओ भण्णंति, ताओ इस्थिसंबद्धाओ वा होज्जा अण्णाओं वा भत्चदेसकहादियायो तासु ण रमेज्जा, 'अज्झयणमि रओ सया' अज्झयणं सज्झाओ। भण्णा, तंमि सजमाए सदा रतो भबिज्जत्ति, 'जोगं च समणधम्ममि० ॥ ३७७॥ सिलोगो. जोगी विविहो तस्स जत्तस्थि दसविहे समणधम्मे उपयोगो तत्थ जुजज्जा । इदाणि समणधम्मफलोवदरिसणस्थमिदमुच्यते-जुत्तो अ समणधम्ममि'ति, जुत्तो दसविधे समणधम्म साहू. इहलोइयं परलोइयं अर्थ अणुत्तरं णाम अणुचरति अणुत्तमंति वा एगट्ठा, तं च फलमिमेण भण्णा, 10--'इहलोगपारत्तहिअं॥ ३७८ ।। सिलोगई, इहलोमपरलोइयं सुहनिवई फलं पावर सो, जेण सुगतिमरणं भवतित्ति, किंच-'बहुस्सुयं पज्जुबासिज्जा० ॥ ३७८ ।। सिलोगपच्छद्ध, बहुमुयगहणेणं आयरियउबज्झायादीयाण २८७॥ का गहर्ण, एवंविहं बहुस्सुयं पज्जुवासेज्जा, पज्जुवासमाणो य अत्थविणिच्छये पुच्छिज्जा, विणिन्छओ णाम विणिच्छ ओत्ति वा अवितहभावोत्ति वा एगढ़, सो य पज्जुवासणोबायो इमो, तं०-'हत्थं पायं च० ॥ ३७९ ॥ सिलोगो, दीप अनुक्रम [३५१४१४] % % ... अत्र श्रमणधर्मस्य फलम् वर्णयते [292] Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [३३५-३९८/३५१-४१४], नियुक्ति: [२९५-३१०/२९३-३०८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||३३५३९८|| श्रीदश- हत्थो पायो कायो य पसिद्धा, ते हत्था पाया काया पणिहाय 'जिइंदिए' ति, पणिहाय णाम हत्थेहि हत्थवट्ट- कार्यवाग्मवैकालिका गादीणि अकरं पाएहि पसारणादीणि अकुव्वतो काएण सासणगादीणि अकुर्वतो, जियाणि इंदियाणि जेण सो जिइंदिओ,अल्लीणोनाप्राणाया चूणा. नाम ईसिलीणो अल्लीणो, णातिदूरस्थो ण वा अच्चासण्णो, गुत्तो णाम मणसा असोभणं संकप्पं वज्जयंतो बायाए कज्जमेतं भासंतो वाराणिसीएज्जा णाम उवविसेज्जति,सकासे नाम समीचे, गुरू पसिद्धो, मुणित्ति वा णाणित्ति वा एगट्ठा। किंच-'न पक्खओन पुरओ प्रणिधौला ॥ ३८० सिलोगो, णकारो पडिसेहे वइ, पक्खओ नाम पासओ,पासओ चिमाणस्स इमे दोसा भवंति, तं-कबसमं भासमाणस्सा ॥२८८॥ सहा पारंगला क अणुपविसति, तसि च कण्णं अणुपविसमाणेहि अणगता भवइ, एवमादि, तहा पुरओऽविन बट्टा, पुरओ नामा अग्गओ, तत्थवि अविणओ बंदमाणाणं च बग्घाओ, एवमादि दोसा भयंतिनिकाऊण पुरओ गुरूण नवि चिट्ठज्जत्ति, 'णेव किच्चाण' किचा आयरिया तेसिपि पिडओ न चिट्ठणादीणि कुज्जा, तत्थ अविणयदोसा भवंतित्ति, 'ण य ऊर्फ समा-1d मिज्जा'णाम ऊग ऊसास उरिं काऊण ण गुरुसगास चिदुज्जत्ति. तत्धवि अविणयढोसा भवतित्ति, कायपणिधी गया। इदाणि वायाए पणिधी भण्णइ-'अपुच्छिओ न भासेज्जा०' ॥ ३८१ ॥ सिलोगो, 'अपुच्छिओ' णिकारणे ण भासज्जा, भासमाणस्स अंतरा भास ण कुज्जा, जहा जं एयं ते भणितं एवं न, एवं 'पिष्टिमसं ण खाएज्जा', परंमुहस्स अवबोलिज्जा तं तम्स पिडिमंसभक्षणं भवा, सहा-'मायामोसं विचज्जए' मायाए सहमोसं भायामोसं. न मायामंतरेण मोसं भासद, कह लब्धि भास डिलीकरइ पच्छा भासइ, अहवा जे मायासहिय मोसं तं विवज्जए, जे पुण इतरहा भासेज्जा, जहा जे एवं ते भणित २८८|| एवं न, एवं पिडिमंसाण अह अप्पत्तियआसुकोवाण को पतिविसेसो, भण्णा-'अप्पसियं' ।। ३८२ ।। सिलोगो, अप्पत्तियमेव दीप अनुक्रम [३५१४१४] [293] Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||३३५ ३९८|| दीप अनुक्रम [३५१ ४१४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + | भाष्य |+चूर्णि:) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [ ३३५-३९८/३५१-४१४], निर्युक्ति: [ २९५-३१०/२९३-३०८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्ण: श्रीदशवैकालिक चूण ८ आचार प्रणिधौ ५ ॥२८९ ॥ आसुकोहो पुणा तक्खणमेच अक्कोसह आहणति वा, 'सव्वसो तं न भासेज्जा, भासं अहिअगामिणि' ति, सभ्यसो नाम सव्वकाल सध्यावत्थासु, अहितगामिणि भासं ण भासेज्जा, अहियगामिणी नाम इहलोगपर लोग महितगामिणी । इदाणि भासणोबायो मन्नति- 'दिहं मितं ॥ ३८२ ॥ सिलोगो, दिडं नाम जं चक्खुणा सयं उबलद्धं, मितं दुविहं-सदओ परिमाणओ य, सदओ अणउब्वं उच्चारिज्जमाणं मितं, परिमाणओ कज्जमेतं उच्चारिज्जमाणं मितं, असंदिद्धं णाम निस्संकिर्य, पडुप्पनं णाम सरवंजणपयादीहिं उबवेअं, वियंजितं णाम वियंजितंति वा तत्थंति वा एगहा, अर्जपिरं नाम जं नो अलग्गविलग्गं, अणुध्वगं नाम अवलं अभीयं, मासा पसिद्धा णिसिरे णाम भासतित्ति वृत्तं भवति, अत्तवं नाम अतवंति वा विभवंति वा एगड्डा, एस वपणिधी अविसेसेण भणिता, इमा सपक्खे भण्णइति 'आधारपन्नत्ति घरं० ॥ ३८४ ॥ सिलोगो, 'आवारपन्नतिधरं' ति आयारधरो इरिथपुरिसणपुंसगलिंगाणि जाणह, अधिज्जियगहणेण अधिज्जमाणस्स वयणखलणा पायसो भवद्द, अधिज्जिए पुण निरवसेसे दिडिवाए सव्वपयोपजाणबसणेण अप्पमत्तणेण य वतिविक्खलियमेव नत्थि, सव्ववयोगतवियाणया असदमवि सदं कुज्जा, वायविक्खलियं नाम विविधमनेगप्पगारं वहणं खलियं भण्णह, जहा घडं आणेहित्ति (भाणियन्ने घढं आणेमित्ति भणियं पुष्वाभिहाणं वा पच्छा उच्चारयह, जहा सोमसम्मोति भणियन्वे सम्मसोमोति मणियं च, एवमादि वायविक्खलियं नाऊण न तं उवहसे मुणित्ति, जइ आयारपत्रत्तिधरा दिडिवायमधिज्जगा य भाणियच्चे स्खलति किमंग पुण सेसमा १ । किंच -- 'नक्खतं सुमिणं ॥ ३८५ ॥ सिलोगो, गिहत्थाण पुच्छमाणाण णो णक्खतं कहेज्जा, जहा चंदिमा अज्ज अमुकेण णक्खतेण जुत्ताोरी, अहातचे पदाणे चिंता, सुमिणे अव्यचदंसणे, एतेसिं सुमिणादीणं विवागं फलं च, जोगो जहा ' दो घयपला मधु [294] कार्यवाग्मनोप्रणिधिः ॥२८९॥ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [३३५-३९८/३५१-४१४], नियुक्ति: [२९५-३१०/२९३-३०८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||३३५ ३९८|| श्रीदश-18| पलं दहियस्स य आढयं मिरीय वीसा । खंडगुला दो भागा एस रसालू निवजोगो ॥१॥ अहवा निदेसणवसीकरणाणि मनोगुप्तिः वकालिक जोगो भण्णइ, तं जोग न कहेज्जा, निमिर्च तीतादी, मंतो- असाहणो 'एगग्गहणे गहणं तज्जातीयाण' मितिकाउं विज्जा चूणी गहिता, भेस ओसह भण्णइचि, अनं एवंविहं नाइक्खज्जा, किं कारणं', 'भूताधिकरणं पदंति भूताणि-एगिदियाईणि तेसिं ८ आचार संघट्टणपरितावणादीणि अहियं कीरति मि तं भूताधिकरणं 'पदं पदं णाम पदंति वा भूताधिकरणांति या हणणंति वा एगट्ठा, प्रणिधौ बइगुत्तया गया । इयाणि मणगुत्तया भण्णइ, सा य मणगुत्या उवस्सयगुणेण सुहं कीरइत्ति अतो उपस्सयो भण्याइ, तंजहा-1& ॥२९ ॥ 'अन्नई पगडं लयर्ण ॥ ३८६ ॥ सिलोगो, 'अन्नहूँ पगडं' अनट्ठगहणेण अनउस्थिया गहिया, अडाए नाम अमनिमिन, पगडं पकप्पियं भण्णइ, लयणं नाम लयर्णति वा गिहंति वा एगट्ठा, तमन्नहूँ पगडं लयणं साधू, भाइज्जा णाम सेवेज्जा, सयणं संधारओ, आसणं कट्ठपीठगादी, ताणि आसणसयणाणि अचस्स अट्ठाए कप्पियाणि णो भइज्जा, तं च लणं जइ उच्चारभूमिसंपनं भवति, 'एगग्गहणे गहर्ण तज्जातीयाण'मितिकाउं पासवणइभूमी गहिया, जत्थ ताओ उच्चारपासवणभूमीओ | वारिसे ठाइयव्य, तहा इत्थीहि विवज्जियं पसूहि य महीसुडियएडगगवादीहिं, 'एगग्गहणे गहणं तज्जातीयाण मिति काउं णपुंसगविवज्जियांप, विवज्जियं नाम जत्थ तेसिं आलोयमादीणि णस्थि तं विवाज्जियं भष्णइ, तत्थ आतपरसमुत्था दोसा ४ामवंतित्तिकाउंण ठाइयव्वं । किंच-विविता अभवे सिज्जा ॥३८७॥ सिलोगो, तीए विवित्ताए सेज्जाए णारीणं णो कहा ॥२९॥ ला कहज्जा, कि कारणं, आतपरसमुत्था भचेरस्स दोसा भवंतितिकार्ड, भणियं च-'आसावा(सइ देसणा)ी पम्मति सिलागा, एवमादि, तहा 'गिहिसंथवं न कुज्जति गिहीहिं सह संघव न करेज्जा, गिहिसंथवो नाम गिहिसंथवर्ण, मचेरस्स विराह दीप अनुक्रम [३५१४१४] वचन-मनो-कायगुप्ते: वर्णनं क्रियते [295] Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||339 ३९८|| दीप अनुक्रम [३५१ ४१४] "दशवैकालिक" - मूलसूत्र-3 (निर्युक्तिः + भाष्य +चूर्णि:) (निर्युक्तिः+|भाष्य|+चूर्णिः) अध्ययनं [८], उद्देशक [-] मूलं [१५] / गाथा: [ ३३१-३९८/३११-४१४] निर्युक्तिः [ २९५-३१०/२९३-३०८], आष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४२], मूलसूत्र [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: श्रीदशवैकालिक चूर्णे ८ आचार प्रणिध ॥२९१॥ - - णादि दोसा मर्वतित्ति, तं गिहिसंथवं वज्जयंतो कुज्जा साहूहिं संथवं समणाणं संथवंति, ( वज्जणिज्जा) बसहीसु सव्यपगारेण इत्थीओ, कम्हा?, 'जहा कुक्कुडपोअस्स०|| ३८८|| सिलोगो, कुक्कुडो पसिद्धो, पोतो णाम अपक्खजायओ, जहा तस्स कुकुकुडपोतस्स निच्च सव्वकालं ' कुललओ भयं ' तत्थ कुललो मज्जारो भण्णइ एवं वंभयारिस्स सव्वकालं इत्थीविग्गहओ भयंति, विग्गहो सरीरं भण्ण, आह- इत्थीओ भयंति भाणियब्वे ता किमत्थं विग्गहगहणं कथं ?, भण्ण, न केवलं सज्जीवद्दत्थीसभीवायो भयं किन्तु बवगतजीवापवि सरीरं ततोऽवि भयं भवइ, अओ विग्गहगहणं कयंति। किंच 'चित्तभित्तिं न णिज्झाए० ॥ ३८९ ॥ सिलोगो, जाए भित्तीए चित्तकया नारी तं चितभित्तिं ण णिज्झाएजा जीवति च जाहे सोभणेण पगारेण हारहाराईहिं अलंकिया दिट्ठा भवद्द ताहे तं नारि सुगलंकितं तं वा तं वा चित्तभित्तिगयं 'भक्खरंपिव दणं दिहिं पडिसमा - हरे ति तत्थ मक्खरो भाइच्चो मण्णह, जहा तंमि भक्खरे निवइया दिट्ठी उवधायभया पडिया साइरिअर तहा चित्तकम्म गयंकं नारी सजीव वा अभूसियं भूसियं वा दणं चंभचेरविराहणमया दिट्ठी पकिसाहरेजा । ' हत्थपादपलिच्छिन्नं० सिलोगो, जीए नारीए इत्थपाया पलिच्छिन्ना सा इत्थपायपलिच्छिन्ना, न केवलं हत्थपादपलिच्छिना, किन्तु कण्णनासा विविधं अणे गप्पगारं कप्पिया जीए सा कन्ननासाविकप्पिया, तमेवप्पारं हत्थादिछिन्नं अवि वाससयमवि नारिं दूरओ परिवज्जए, अविसदो संभावणे बट्ट, किं संभावयति है, जहा जइ हत्थादिछिन्नावि वासस्यजीवी दूरओ परिवञ्जणिज्जा, किं पुण जा अपलिच्छिन्ना वयत्था वा१, एवं संभावयति । किंच - 'विभूसा इत्थिसंसग्गी० ' ॥३९२॥ सिलोगो, विभूसा नाम पहाणुव्वल उज्जलवेसादी, इत्थिसंसग्गी नाम अक्खाइमउलाबादी, पणियं निद्धपेसलं वण्णादिउववेयं, पणीय एव रसो जस्त " [296] ब्रह्मरक्षा ॥२९१॥ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||३३५ ३९८|| दीप अनुक्रम [३५१ ४१४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + | भाष्य | + चूर्णि:) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [ ३३५-३९८/३५१-४१४], निर्युक्ति: [ २९५-३१०/२९३-३०८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [ ४२ ], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि श्रीदशवैकालिक चूण. ८ आचार प्रणिधौः ॥२९२॥ भोयणस्स तं पणीतरस मोयणं, एताणि विभूसाईणि 'धारस्तत्तगवेसिस्स ' त्ति तत्थ अत्तगबेसणो णाम परगेसु पडमाणं अत्ताणं गवसतीति अत्तगवेसिणो, अहवा मरणभयभीतस्स अत्तणो उपायगवेसितेण अत्ता सु वा गवेसियो जो एएहिंतो अप्पाणं विमोएड तस्स नरम्स हियगवेसियस्स एताणि विभूसाईणि 'विसं तालपुढं जहति तालपुडं नाम जेणंतरेण ताला संपूडिज्जति तेणंतरेण मारयतीति तालपुढं जहा जीवियर्कखिणो नो तालपुडविसभक्खणं सुहावहं भवति तहा धम्मकामिणो नो विभूसाईणि सुहावहाणि भवतित्ति तहा- 'अंगपचंगठा ॥ ३९२ ॥ खिलोगो, तत्थ अंगाणि हत्थपायादीणि, पचगाणि णयणदसणाईणि, संठाणं समचउरंसाई, अहवा तेसिं चेत्र अंगाणं पञ्चगाण य संठाणग्रहणं कर्यति, चारुसो सोहणस्थे बद्दर, लवियं भासियं पेहिये, एतेहि जे अंगपच्चंगसंठाणादीनं अण्णतरं तं णो इत्थी निज्झाएज्जा, किं कारणं ?, जम्दा -- 'कामरागविवङ्गणं' ति । किंच - 'विसएस मणुण्णेसु० ' ॥ ३९३ ॥ सिलोगो, सहादिसु बिसएस मणुभेण पेमं अभिनिवेसेज्जा, पेमं नाम पेमंत वा रागोत्ति वा एगहा, 'एगग्गहणे गहणं तज्जा| तीयाण' मितिकाउं श्रमण सुवि दोर्स न गच्छेज्जा, आइ-ननु कृष्णसोहि चैत्र एस अत्थो मणिओ, किमत्थं पुणो गहणं कर्यति?, आयरिओ आह--' पुय्वभणियं तु जं भण्णइ तन्थ कारणं अस्थि, पडिसंधो अणुण्णा कारणं च विसेसोवलंभत्थं, पुणरुत्तदोसो न भवइ सोय विसावलंभो इमो, ० अणिच्चं तेर्सि विनाय, परिणामं पुग्गलाण उ सद्दादणं इंदियविसयाणं जे | पोग्गला तेसि जो परिणामी, मणुना नाम निच्चं नाऊण रागो ण कायच्यो, अमणुन परिणामे य दोसो न कायय्यो, भणियं च ' ते चैव सुम्भसा पांगला दुमसहनाएं परिणमंति, दुम्मिसदा पांगला सुम्मसत्ता परिणमंति, ण पुण जे मणुना ते मणुना ... अत्र 'विषय'वर्जनं वर्णयते [297] विषयवर्जनं ॥२९२॥ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||३३५ ३९८|| दीप अनुक्रम [३५१ ४१४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + | भाष्य |+चूर्णि:) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [ ३३५-३९८/३५१-४१४], निर्युक्ति: [ २९५-३१०/२९३-३०८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्ण: श्रीदशवैकालिक चैव भवति, अमणुना वा अच्चतममणुन्ना एव भवंति एवं रूवादिसुवि भाणियव्वं,' अतो 'पोग्गलाणं तु परिणामं ० ' ॥ ३९४ ॥ सिलोगो, पोग्गला पसिद्धा, परिणामो भावंतरगमणं, तेसिं पुत्रभणियाणं ग्रहणं कथं, णच्चा णाम णाऊणंति, जहा तहा णाम जहा तेसिं वण्णगंधादीण परिणामो जिणेहि भणिओ तहा पाऊणं, 'विणीयतण्हो विहरेज्जा' तेसु सद्दादिसु विसएस ८ आचार स विशेऊण विहरेज्जा, 'सीईभूषण अप्पणा' इति, तत्थ सीओ विज्झाओ भण्णइ, जहा अगणी सीतो अदाहगो भवइ, प्रणिधी ४ विणतो विरेत्ति, कोहादीहिं सीतभूअप्पणा विहरियन्वंति । आह-केवइयं विहरियव्य, मंष्णह- 'जाए(इ) सङ्ग्राह निक्खतो." चूर्णौ ॥२९३॥ ॥ ३९५ ॥ सिलोगो, ' जाए ' त्ति अणिदिट्ठाए गहणं, सद्धा परिणामो भन्नई, निक्खतो णाम विवखतोत्ति वा पव्वइओति वा एगट्ठा, ' परियायद्वाणं ' णाम पव्वज्जाठाणं, उत्तमं णाम पधाणं, तमेव अणुपालिज्जत्ति, तमेव परिआयडाणमणुपालेज्जा, तं च परियायद्वाणं मूलगुणा उत्तरगुणा य, ते गुणा अणुपालेज्जा, 'आयरिअसंमओ' चि आयरिया नाम तित्थकरगणधराई तेसिं समए नाम संमजचि वा अणुमओति वा एगड्डा । इयाणि आयारपणिधीए फलं भण्णइ ' तवं चिमं संजमजोगयं च ' सिलोगो, तयंपि संजमई, जो खुहपिवासाई तवो मणिओ तं तवं पुढविकायादिसंजमजोगो तं च, पंचविहसज्झायजोगं च सदा अडिए, आह-गणु तवगहणेण सज्झाओ गहिओ, आयरिओ आह सच्चमेयं, किन्तु तवभेदोपदरिसणत्थं सज्झायगहणं कर्य, सो एवं तवसंजमस्स य जोगजुत्तप्पा 'सूरे व सेणाह समत्तमाउहे, अलमप्पणो होह अलं परेसिं' ति, जहा कोई पुरिसो चउरंगबलसमन्नागताएं सेणाए अभिरुद्धो संपन्नाउदो असं (सूरो अ) सो अप्पाणं परं च ताओ संगामाओ नित्थारेउन्ति अलं नाम समत्थो, तहा सो एवंगुणजुतो अलं अप्पाणं परं च इंदियकषायसेणाए अभिरुद्धं नित्थारेउति । तहा 'सज्झापसज्झा [298] विषयवर्जनं ||२९३ ॥ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||३३५ ३९८|| दीप अनुक्रम [३५१ ४१४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + | भाष्य | +चूर्णि:) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [ ३३५-३९८/३५१-४१४], निर्युक्ति: [ २९५-३१०/२९३-३०८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि : श्रदिशवैकालिक चूण ८ आचार प्रणिधौ ॥२९४॥ रतस०] ' ॥ २९७ ॥ सिलोगो, सज्झाओ चैव सज्झाणं तंमि रतस्स अहवा सज्झाए य झाले व सज्झायज्झाणे व रयस्सचिताइणो ' तायतीति ताया तस्स ताइणोति, अपावो भावो जस्त सो अपावभावो तस्स अपावभावस्सति तवो बारसविहो तंमि रतस्स गहणं, सित्ति साहुणो निदेसो, मलति वा पार्वति वा एगट्टा, पुच्चि कथं पुरेकयं तस्स पिहियासवस्स नवं न उवचिज्जह, पुरेकर्ड विमुज्झर, 'समीरियं रुप्पमलं व जोइणा' ( जहा रुप्पमलं जोइणा ) समीरिअं भवद्द, तस्थ जोती अगणी भण्णइ, समीरियं नाम सामं, अग्रणी मलावकरिसणसमत्थेण ताव तं ' से तारिसं ' (स) ० || ३९८|| सिलोगो, सेत्ति साधुणो निद्देसो, तारिखो जो इदाणिं हेडा तवसंजमादिजुत्तप्पा मणिओ, दुक्खं सारीरं वा सहतीति दुक्खसहे, सोतादीणि जियाणि इंदियाणि जेण सो जिईदिए, सुतं दुवालसँग गणिपिडगं तेण जुत्तेण, तस्स ममत्तं कत्थ भवतीति अतोऽममे अकिंचणे, किंचणं चउब्विधं सं०-णाम० ठवण० दव्य० भाव० मेदात्, तत्थ दव्वकिंचणं हिरण्णादि, भावकिंचणं मिच्छत्तअविरतीमादि, तं दध्वकिंचणं भाव किंचणं च जस्स णत्थि सो अचिणो, एवंगुणजुतो साहू विमुचर पृथ्वकडेण कम्मुचि, अहविषेण कम्मुणा विसेसेण मुच विमुचद्द। कई ?, जहा- 'कसिणञ्भपुडावगमे व चंदिमि' ति कसिणाणं अम्भाणं पुढं कसिणन्भ पुढं कसिणम्भपुडमुको जहा सरए ससी सोभति सोऽवि कम्ममेहपुडावग्गमे विरायतित्ति, बेमि नाम तीर्थंकरोवदेशात् सुधर्म्मस्वामिन उपदेशाच नवीमि न स्वाभिप्रायेणेति । इयाणि गया-' णामि गिण्डियन्वे अगिण्डियन्वंमि चैव अत्यंमि । जइतव्यमेव इ जो उवएसो सो गयो नाम ||१|| सव्वैसिपि नयाणं बहुविश्वत्तथ्वयं निसामेत्ता । तं सव्वनयविसुद्धों, जं चरणगुणडिओ साहू ||२|| इति दशवेकालिकचूर्णो आचारप्रणिध्यध्यन चूर्ण सम्मत्ता ॥ अध्ययनं -८- परिसमाप्तं [299] आचार प्रणिधेः फलम् | ॥२९४॥ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [९], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [३९९-४१५/४१५-४३१], नियुक्ति: [३११-३२९/३०९-३२७], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||३९९४१५|| एतेण य आयारविणयो नायब्बो, नाऊण य जेसिं पभावेण आयारे ठिओ तेसि संबंधेणागयस्स अज्झयणस्स चत्वारि अणु- लोकोपचार वैकालिका योगदारा भाणियन्या जहा आवस्सए णवरं णामाणिप्फन्ने विणयसमाधी, दो पदा-विणओ समाधी य, दोण्ईपि पदाणं इमो निक्खेवो विनयः लाविणयस्स समाहीए.' ॥ ३११ ।। गाथापुन्बद्धं, विणयस्स समाहीए य दोहवि चउको निक्खेवो भवइ, तत्थ विणयस्स ९ अध्य. ताव चउको निक्खेवो भन्नड, तणामविणओ ठवणाविणओ दयविणओ भावविणओति, नामठवणाओ गयाओ, दव्यविणओ | इमेण गाहापच्छद्रेण भण्णइ-तं. दब्बविणयंमि तिणिसो, जे दबं इच्छिएण परिणामेण परिणमहतं दयविणयं भष्णइ,18 ॥२९५॥ & जहा तिणिसो रहंगेसु जत्थ जत्थ पडिहायह तस्थ तत्थ परिकम्मेऊण कीरद, तहा सुवण्णदग्बमवि विणयं, तत्थवि जै जै कुंडलाई। पडिहायति तं तं कीरइ, आदिग्गहणेण अाणिवि रूप्पमाईणि गहियाणि, दव्वविणओ गओ। इदाणि भावविणओ भण्णइ-13 'लोगोवयारविणओ०' ॥ ३१२ ।। गाथा, लोकोपचारविणओ अस्थविणओ कामविणओ भयविणओ मोक्खविणओ य, तत्थवि लोगोपचारविणओ इमो, त०- 'अब्भुट्ठाणं अंजलि.' ॥ ३१३ ।। गाहा, अन्भुट्ठाणं णाम जं अन्भुट्ठाणरिहस्स आगयस्स अभि-16 मुई उट्ठाण, अंजलियं उडिओ वा निसनो वा कुज्जा, आसणदाणं पायसो सव्वस्स गिहमागयस्स कीरइ, तहा अतिहिस्स आगतस्स दिवसं दो वा दिवसे भत्तवसहिमादीहिं संपूर्ण कीरइ, तहा जो जस्स देवो तस्स धुव्वं बलिवइस्सदेवाति काउं जहाविभवे-18 ॥२९५॥ ण पच्छा झुंजइ, एस अब्भुट्ठाणाइ देवयपूयापवज्जसाणो लोगोपचारविणओ भणिओ । इदाणिं अत्यविणओ भण्णइ- 'अभासवित्तिछंदाणुवत्तणं ॥३१४।। गाहा, जे अत्थ भावे निवेसिऊण रायाईणं विणयं करेइ सो अत्थविणओ भण्णइति, तत्थ पढमं अब्भासे विणओ भण्णइ-अन्भासं णाम आसन, तंमि आसन्ने बट्टतीति अम्भासवची, जहा अमच्चो रायादीण, किंकरा आणत्तिय दीप अनुक्रम [४१५४३१] Ca.. अध्ययनं -९- 'विनय-समाधि' आरभ्यते ... अत्र विनयस्य विविध-भेदा: वर्णयते [300] Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [९], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [३९९-४१५/४१५-४३१], नियुक्ति: [३११-३२९/३०९-३२७], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक" नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||३९९ श्रीदश- वैकालिक चूर्णी. ९ अध्य. अर्थादिविनयाः ॥२९६॥ ४१५|| पडमाणं पडिल्छमाणा अच्छंति ज त छदाणुवतणं, छंदाणुवत्तणं णाम छन्दो अभिष्पाओ भण्णइ, तस्स अणुवतण छन्दाणुबत्तण, जहा एकको रायाण उलग्गइ, रम्ना भणिय- निप्पयोयणाणि एताणि वातिगणाणि, ओलगएण भणियं-देव ! छड्डियन्वनिमिच एतेसिं एतेंडा कया, अन्नया रमा भणियं-लहाणि वातिंगणाणि, ततो ओलग्गएण भणियं--देव! अहट्ठगा एते तरंति, एवमादि। छंदाणुवत्तणविणओ भवइ, 'देसकालवाणं णाम जदा रण्णो विदेसगतस्स कालं वा तारिसं पप्प णाणएण कज्जं भवइ तदा भण्णति-सामि! तुभचएणं पभावेण इमं अस्थि एवं पप्पउ, सो तं गिहिउँ पच्छा बहतरगं देह, णिआए वा तारिसे या पयति, तत्थ बहुतरं उप्पज्जति, एवमादि, सहा अस्थनिमितमेव राइसराइणं उलग्गया अम्भुहाणं कुबति, तहा 'अजलि' दवाच अंजलि कुर्वति, तहा उबेसिउकामस्स आसण उवर्गति, एयाणि अब्भासयत्तिमादीणि आसणपदाणपज्जवसाणाणि अस्थस्स कारणे कुन्यतित्ति, अत्यविणओ गओ । इदाणि कामविणओ भण्णइ, कामविणो य इमेण गाहापुब्बद्धण भण्णइ, संजहा- 'एमेव कामविणओ' ।। ३१५ ।। गाहा, जहा अत्यनिमित्त अब्भासवत्तिमाईणि कुति तहा कामनिमित्तं इत्थीण अम्भासपत्तिषण कुय्यंति, भणियं च- "अंब वा नि चा अभासगुणेणं तु नूणमल्लियह। बल्लिसमा किर महिला मा हु पयास चिरं कासी ॥१॥ । ततो माहुज्जेण महिलाजणो हारहत्तिका छन्दाणुवनणमपि कुवति, देसे काले च वासादीणि अत्थं दलयंति, एवं अन्भुट्ठाण । अंजलिपग्गहासणप्पदाणेण गणियादीहि हानि, भयविणए दासभयगादि अन्भासवत्तिनणमादीणि कुवंति, कामधिणयभय-12 दाविणया गया दोऽवि । इदाणि मोक्खविणओ भण्णइ-त०'मोक्खंमिबि पंचविधो०॥ गाथापच्छ , मोक्खविणओ पंचविधो भवति, तस्स इमा परूवणा-तंजहा-'दसणनाणचरित्ते०॥३१६।। गाहा, सो पंचविहो मोक्खविणओ इमो, संजहा-दसणविणओ दीप अनुक्रम [४१५ २९६॥ ४३१] [301] Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [९], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [३९९-४१५/४१५-४३१], नियुक्ति: [३११-३२९/३०९-३२७], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: श्रीदश प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||३९९४१५|| नाणाणओ चरित्तविणओ तबविणओ उवयारविणोति, तत्थ नाईसणिस्स नाणं चरितं च भवतित्तिकाउँ दसणविणओ पुर्व भणइ दशर्नादि सोय हमो, तंजहा-'दब्वाण सव्वभावा' गाहा, (३१७) दवा दुविधा, जहा-जीवदव्या अजीवदया य, तेसि दवाण|2 'सव्वभावा' सबभावा णाम सव्वपज्जायत्ति, ते दब्बओ खेतओ कालो भावओ य, जे जहा जिणवरहिं दिहा भावा ते तहा[४ ९ अ.उ. सहहमाणस्स देसणविणओ भवति, दंसणविणओ गओ । इदाणिं णाणविणओ भण्णइ, तंजहा-माणं सिक्खइ० ॥३१८| गाहा, जे नाणं साहू सिक्खेइ(अ)पुण्यागर्म करेइ, तमेव सिक्खितं गुणाति, गुणाति णाम गुणेतित्ति वा परियतित्ति वा एगट्ठा ॥२९७11 लातेण णाणेण किच्चाणि -संजममाइयाणि कुबति, तदुबएसेणंति बुत्तं भवति, तदुवउत्तो य नाणी णवं अट्ठविध कर्म न बंधई, पुराणं च निज्जरेइ, जतो य एवं अतो णाणविणो भण्णइ, णाणविणओ गओ। इयाणि चरित्तविणओ भण्णइ--अट्टविहं कम्मचर्य ४(रयं)॥ ३१९ ॥ गाथा, जम्हा चरिते जयमाणो अद्वविहकम्मचर्य--पुंज जाव रित्तं करेइ, अन्नं च नवं न बंधति, तम्हा | चरित्तमेव विणओ भण्णतित्ति, चरित्तविणओ गओ । इदाणि तवविणओ भण्णइ, तंजहा-'अवणेति ॥ ३२० ॥ माथा कण्ठ्या, तबविणओ गओ । इदाणि उवयारविणओ भष्णइ, तंजहा-'अह ओवयारिओ खलु (पुण)' ।। ३२१ ॥ गाहा, IP अहसदो अधिगारे बट्टइ, जहा तवविणआ ओवयारिओ अणतरोनि, सोय ओवयारियविणओ दुविधो, तंजहा–'पडिरूवजोग-४॥२९७॥ जुजण तहय अणासायणाविणओ' चि, तत्थ पडिरूबजोगजुंजणाविणओ भण्णइ, तंजहा-'पडिरूवो खलु विणओ ॥ ३२२ ।। गाहा, पडिरूवविणओ विविधो, तंजहा-काइओ बाइशे माणसिओ, तत्थ काइओ अट्ठविधो, चउब्धिहो वाइओ, A माणसिओ दुविधी, एतेसिं विण्ह परूवणा कायचा, तत्थ काइयस्स इमा परूवणा, तंजहा-'अब्भुट्टाणं अंजलि.' ॥३२३॥ ASSESCRIP दीप अनुक्रम [४१५ ॐ - ४३१] * CA *- [302] Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [९], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [३९९-४१५/४१५-४३१], नियुक्ति: [३११-३२९/३०९-३२७], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||३९९४१५|| श्रीदश- गाहा, सो य अट्टप्पगारो कायविणओ, तंजहा-अम्भुट्ठाणं अंजलि आसणदाणं अभिग्गहो किईकम्म सुस्वसणा अणुगच्छणं l प्रतिरूप बैंकालिका संसाहणंति, तत्थ अग्भुट्ठाण अभिमूहमागच्छतस्स उहाण अन्झट्ठाणं, अंजली हत्थुस्सेहो भण्णइ, आसणदाणं कठ्ठपीढमाईण : विनयः चूणों. अणुप्पयाण मण्णइ, अभिग्गहो जहा आयरियाण अमुगं कायर्व एवमादि, किइकम्मं वंदणयं भण्णइ, तस्स णातिदूरे ठाइउं जै ९अउ.१ |पज्जुयासण सा सुस्मुसा भण्णइ, अभिमुहमागच्छंतस्स आसणपच्चुग्गहणं तमणुगच्छण भवति, गच्छमाणस्स जं अणुचयणं तं ॥२९८॥ | संसाहर्ष भण्णइ, कायविणओ अट्टविहो गओ। इयाणि वाइयविणओ इमेण गाहापुब्बद्धण भण्णइ, जहा-'हिअमिअ." ॥३२४ ॥ अद्धगाथा, सो पुथ्वसइओ चउचिदो विणओ इमो, तंजहा-हियभासी मितभासी अफरुसभासी अणुवीयिभासी, तत्थ हिअं जहा आयरियमाई इहलोगहितं भन्नइ, इह लोगे ताव अपत्थं भुंजमाणं निवारेइ, अनं वा किंचि उवइस्सइ, परलोगहियं सीदंतं दितुंनो देइ, एवमादि, मितं नाम परिमितिएहिं अक्सरेहिं अणुच्चेण सदेण भणइ, अफरुसवादी णाम तं चैव पियं भयंतो भणइ जहाऽहं तव सीसो, आह ( तुम्हे ) य वक्खाया वरं तो मा अमेण केणइ, एवं सिणेहजुत्तं उल्लावंतो अफरुसवादी भवइ, एवमादि, अणुवीइभासी नाम देसकालादीणि अणुचिंतिय २ भणइ, बाइअविणओ गओ। इयाणि मणविणओ इमेण गाहापच्छद्धेण| भण्णइ, तंजहा-'अकुसल०॥ गाहापच्छद्धं, ' अकुसलमणनिरोहो कुलमणउदारणा चेव ' एसो दुविहो मणविणयो भवातिचि, मणविणओ गणो। आह-किं निमि एस पडिरूवविणओ कस्स वा एस भवा?, भण्णइ-'पडिरूवो खलु विणओ' । ३२५ ॥ गाथा, पडिरूवो णाम जो वत्थु वत्धुं पडुच्च अणुरूवो पउंजह सो पडिरूबो भण्णाइ, सो य छउमत्थाणं पायसो | S २९८॥ पराणुवचिणिमित्र अब्भुट्ठाणादी कीरइ, केवलीणं पुण अप्पडिरूवो णायवो. णो पराणुवचिणिमित्चन्ति वुत्वं भवति, ण ते | RA+N REC%ARCANCERTR SARKARATORS दीप अनुक्रम [४१५४३१] [303] Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [९], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [३९९-४१५/४१५-४३१], नियुक्ति: [३११-३२९/३०९-३२७], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत श्रीदश- बैकालिका सूत्रांक [१५...] गाथा ||३९९४१५|| चूर्णी ९अ.उ.१ ॥२९ ॥ अणुबत्तिनिमित्त विणयं कुर्वति, पुवपउचं पुण उवयारं जाव न केणइ पच्चभिण्णाओ ताप करेंति । इदाणिं एयस्स तिवि-18 अनाशाहस्स पडिरूवविणयस्स इमो उपसंहारो-गाहापुबद्धं, भगवंतो तित्वकरा चावण्णभेदभिन्न अणच्चासातणाविणयं कहेंति, ते य तनाविनय बावण्ण भेदा इमेहिं तेरसहि कारणेहिं भवति, तंजहा-'तित्थगरासिद्धकुलगण० ॥ ३२७ ॥ गाहा, वित्थकरा सिद्धा कुलं भेदाः ५२ गणो संघो किरिया नाम अस्थित्तं भण्णइ, तं०-अस्थि माया अस्थि पिया अस्थि जीवा अस्थि अजीवा एवमादि, धम्मो गाणं | समाधि निक्षेपाः णाणी आयरिया धेरा उवज्झाया गणी, एतेमि तित्थगराइणं गणिपज्जबसाणाणं तेरसई पयाणं मचिमादीणि चउरो कारणाणि कीरमाणाणि अणासायणाविणओ पावणाविधी भवति, ते य भत्तिमादी चउरो कारणा इमे, जहा-'अणासायणा य०' ॥ ३२८ ।। गाहा, अणासातणा भत्ती बहुमाणो बनसंजलया, एतेहि चउहि कारणेहिएते बावण्णा भवति, तित्थकराणं अणासायणाए जाव गणिणं अणासायणाए, एको तेरसओ अणासायणाए गओ, इदाणि भनीए भण्णइ, तंतित्थकराणं भत्ती जाव गणीणं मची, वितिओ तेरसओ, एते दोऽवि मिलिया छन्चीसा भवंति, इदाणि बहुमाणेण भण्याइ, तित्थगरेसु बहुमाणो जाव गणीणो बहुमाणो, ततितो तेरसओ, पुचिल्लाए छब्बीसाए तेरस मिलिया जाया एकूणचचालीस, इदाण वण्णसजलणयाए भण्णइ, वण्णसंजलणा णाम गुणकित्तणे, तं तित्थगराणं वनसंजलणा जाव गणीण वण्णासंजलणा, पुबिलाए एगूणचत्तालीसाए तेरस मिलिया जाया बावणति । अणासायणाविणओ गओ, गओ य ओबयारिओ विणओ ॥ इदाणि समाधी भण्याइ-सा य| ॥२९९॥ चउविधा-णामसमाधी ठषण समाधी दश्वसमाधी भावसमाधी, नामठवणाओ पूर्ववत्, दव्यसमाधी इमेण गाथापुचढूण भण्णइ, तंजहा“दब जेण व दम्वेण । ३२९ ॥ अद्धगाथा, दब्वसमाधी णाम जहा समाहिमत्तओ, जाण व दवाण मिलियाणं। दीप अनुक्रम [४१५४३१] Che + ... अत्र 'समाधि' शब्दस्य निक्षेपाः, भेदा: आदि वर्णयन्ते [304] Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [३९९-४१५/४१५-४३१], नियुक्ति : [३११-३२९/३०९-३२७], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||३९९४१५|| श्रीदश-15 अविरोधो भवति, जहा खीरगुडाणं एचमादि, जेण दवेण आहारिएण समाधी भवति, जहा खुहियस्स अण्णेण, आहियं जं दव्यं | विन्याचकाालक सावि दवसमाधी, आधियं नाम आरुहिय, जेण दब्वेण तुलाएवि आरुहितेण ण इओ ण इओ तुला णमती समाहेइ य सारण चूणों दवसमाही, दवसमाही गया । इदाणि भावसमाही इमेण गाहापच्छद्रेणं भण्णाइ, तं०-'भावसमाधी अद्धगाहा, चउविधा ९अ.उ.१ भावसमाधी भवर, तंजहा-दसणसमाही णाणसमाही तवसमाधी चरित्तसमाधी, णामणिफणी गओ। इदाणि मुत्ताणुगमे 15 ॥३०॥ मुत्तं उच्चारेयच्वं तं जहा अणुओगदारे, तं च सुत्तं इ थंभा व कोहा बगा३९९।। वृत्त, स्तंभु स्तंभे, अस्य धातोः अच् सार्वधातुकेभ्य इति, 'नंदिगृहिपचादिभ्यो वा न्युणिन्यचः' (पा. ३-१.१३४ ) इति सर्वे धातवः पचादी पठ्यन्ते, तेन पचादिपाठात् अच् प्रत्ययः, चकार: 'चित' इति (पा. ६-१-१६३) अन्तोदात्तार्थः, स्तम्नातीति स्तम्भः एवमयस्थिते 'ध्रुवमपायेऽपा-11 दान' मिति (पा. १-४-६४) अपादानसंज्ञा, सत्यामपादानसंज्ञायां अपादाने पंचमी विभाक्तिर्भवति, तस्या एकस्मिन्नर्थ एकवचनं ङसि, अनुबन्धलोप: 'टाङसिङसामिनास्युः ' इति (पा.७-१-१२ ) हसेरात आदेशः, 'अक: सवर्णे दीर्घत्वं' स्तम्भाव, थेभो नाम जेण थंभो.पण नमति जातितो सरीरओत्ति सो थंभो भण्णति, माणोति युतं भवइ, सो य धंभो जाति | मयादीण अन्नतरावट्ठभेण गुरूण सगासे विणएं ण चिहद, जहाऽहं उत्तमजातीयस्स विणयं करेहामिति एवमादि, 'क्रुध क्रोध' धातुः, अस्य धातोः 'पदरुजविशस्पृशो प'जिति (पा. ३-३-१६) अकरि च कारके संज्ञाया' मिति (पा.३-३-१९)। पञ् प्रत्ययः, अनुबन्धलोपः, अस्य धातोः, 'पुगंतलघूपधस्येति (पा. ७-३-८६ ) गुणः, उकारस्य ओकारो गुणः, परगमन, ॥३०॥ क्रुध्यन्ति तमिति क्रोधः, एवं स्थिते पंचमीविधानं स्तम्भवत् क्रोधात , क्रोधा हि विणए जिणमइदिढे ण चिट्ठइ, 'मी हिंसाया। दीप अनुक्रम [४१५४३१] ASIABAR ... अत्र नवमं अध्ययनस्य सूत्राणि आरब्धा: [305] Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [९], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [३९९-४१५/४१५-४३१], नियुक्ति: [३११-३२९/३०९-३२७], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||३९९ ४१५|| श्रीदश- धातुः, "हेतुमति चे' ति (पा. ३-१-२६) विच् प्रत्ययः, अनुबन्धलोपः, अतो णितीति वृद्धिः, इकारस्य ऐकारः धातु वैकालिका एचोऽयवायाव' इति (पा.६.१-७८ ) आय आदेशः परगमनं मायि, इदानीं ' सनायन्ता धातव' इति (पा. ३-१-३२) चूर्णी धातुसंज्ञा खथधिकारे 'ण्यासश्रन्थो युचि प्राप्ते (पा. ३-३-१०७) भिदादि (पा. ३-३.१०४) पाठात् अङ् प्रत्ययो निपा-10 स्यते कारलोप: रनिटी' ति (पा. ६-४-५१) णेर्लोपः परगमनं माय 'अजायतष्टापि' ति (पा. ४-१-४) टाप चिनयाध्य. प्रत्ययः, अनुबन्धलोपः, 'अकः सवर्णे दीर्घत्वं ' माया, मयगहणेण मायागहणं, मयकारहस्सनं बंधाणुलोमकर्य, तीए मायाए गुरूणं विणए ण यहाइ, मा अभट्ठाणं कायव्यं भविस्सइत्ति भण्णाइ-कडी मे दुक्खड़, मूल सीस वा एवमादि, 'मद हर्ष' धातुः ॥३०॥ अस्य धातोः प्रपूर्वस्य 'अकर्तरि च कारके संज्ञाया' मिति (पा. ३-३-१९) घञ्प्रत्ययः, अनुबन्धलोपः, 'अत उपधाया (पा. १-२-११६) इति वृद्धिः, आकारस, प्रमाद्यति तमिति प्रमादः, एवमवस्थिते स्तम्भवमेयं प्रमादाद, प्रमादग्रहणेण णिहावि| कहादिपमादडाणा गहिया, जो एतेहिं कारणेहिं गुरूणं आयरिअउवज्झायाईणं सगासे, 'णीय प्रापणे' धातुः, अस्य धातोः 'विपूर्वस्य पचादेरचिति इवणान्तधातोः अच् प्रत्ययः, अनुबन्धलोपः, 'सार्वधातुकार्धधातुकयो' रिति (पा. ७-३-८४ ) अस्य गुणः, इकारस्य एकारो गुणः 'एचोऽयवायाव ' इति (पा. ६-१-१८) अय आदेशः परगमनं विनयः, विणये दुविहे-गह| णविणए आसेवणाविणये, नकारो निपातः, प्रतिषेधे वर्तते, ष्ठा गतिनिवृत्ती धात्वादेः पस्स ' इति (पा. ६.१.६४) सकारः, R३०१॥ निमित्ताभावे नैमित्तिकस्याप्यभावः इति तकारस्प थकारः, स्था अस्य धातोः 'वर्तमाने लटि' ति (पा. ३-२-१२३) लट् | दिप्रत्ययः, अनुबन्धलोपः, अंगस्पेत्यधिकृत्य' पाघ्रामास्थाम्नादाण्दृश्यर्तिसतिंसदसदां पिबजिघ्रधमतिष्ठमनयच्छपश्यच्छेधी दीप अनुक्रम [४१५४३१] ELE+ [306] Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [९], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [३९९-४१५/४१५-४३१], नियुक्ति: [३११-३२९/३०९-३२७], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||३९९४१५|| श्रीदश- शीयसीदा' इति (पा. ७-३-१८) स्था इत्येतस्य दिष्ट आदेशो भवति, परगमनं तिष्ठति इति, 'आधारोधिकरण' मिति उद्देशकः वकालिका (पा.१-४-४५) अधिकरणसंज्ञा, सत्यां अधिकरणसंज्ञायां 'सप्तम्यधिकरणे चे' ति (पा. ३-३-३६) सप्तमी विमक्तिर्भवति, चूणा तस्या एकवचनं डि, कारलोपः, तिष्ठति न पूर्वः, तस्मिन् गुरुमूले विनयेन न विष्ठति, तत् प्राप्तिपदिक, अस्य प्रातिपदिकस्यार्थे विनयाध्य. | प्रथमैकवचनं सु, अकारलोपः त्यदायत्वेन दकारस्याकारः, अतो गुणः पररूपच्च तदोः सः सावनंतयों' रिति (पा. १-२-१०६) तकारस्य सकार'ससजुषोः (पा.८३-३६) 'विसर्जनीयस्य सः' (पा. ८-३-३४) चकार: समुच्चयाथै, सोद ॥३०२।। चव तु तस्य, अम भूवि धातुः, अस्य धातोः खियामित्यधिकृत्य खियां तिन् प्रत्ययो भवति, नकारस्य लोपः, ककार: गुणवृद्धि ४ प्रतिषेधार्थः, 'आर्द्धधातुकस्पेइपलादे' रिति (पा १-२-२५) इर् प्राप्तः 'तितुत्रतयसिसुसरकसेषु चे' ति (पा. ७-२-९) प्रतिषिद्धा, ' अस्तेर्भूः' (पा. ४-४-५२) अस्तेर्धातोः भू इत्ययमादेशो भवति आर्द्धधातुके परतः, गुणः प्राप्तः किता प्रतिषिद्धा, भूतिः, नत्र पूर्वः न भूतिः 'न' (पा. २-२-६) सुपा सह समस्पति तत्पुरुषश्च समासः, नकारादकारमपकृष्य नकारस्य नलोपो, 'न' इति विशेषणार्थः, अभूतिः, सा चैवं-विनयः आचार्योपाध्यायादीनामक्रियमाणः तस्यैव साधोः अभूतिभावो 1 भवति, अभूतिभावो नाम अभूतिभावोत्ति वा विणासभावोत्ति वा एगट्ठा, आह-कह तस्स अभूतिभावो भवह', भण्णइ.-'फलं व कीअस्स बहाय होइन हिसागस्योर्धातः, 'दोरपि'(पा. ३-३-५७) स्यनुवर्तगाने इन पध' इति (पा. ३-३-७६) ॥३०२॥ हन्तेधोतो. अप् प्रत्ययो भवति वध इत्यये पादेशः वध, एवमवस्थिते ' अधद्वयासूयार्थानां यं प्रति काप' इति (पा. १-४-३७) संप्रदानसंज्ञा, 'चतुर्थी सम्प्रदाने' (पा. २-३-१३ ) संप्रदाने कारके चतुर्थी विभक्तिर्भवति, तस्याः एकवचनं 25AECOMESAR दीप अनुक्रम [४१५ ४३१] [307] Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [९], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [३९९-४१५/४१५-४३१], नियुक्ति: [३११-३२९/३०९-३२७], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||३९९४१५|| २ श्रीदश लडे, उकारादेकारमपकप्य सकार: W' इति (पा. ७-१-१३) विशेषणार्थः, डेयः इति एकारस्य यकारः 'सुपि चेति है। उद्देशक: (पा. ७.३-१०२) दीर्घत्वं वधाय, फल व कीयस्त वहाय होतित्ति, कीयो नाम बसो, जहा फलेति तदा युक्त इति, उक्तंचRI' पक्षाः पिपीलिकानां फलानि तदकलमिवणवेत्राणाम् । ऐश्वर्य चापि विदुषां उत्पद्यन्ते विनाशाय ॥ १॥' जहा तस्स कीयस्स | ★ फलं वधाय भवति एवं सो बंभादीहिं आयसमुत्थेहिं इहभवे परभये विणासं पावति । किंच 'जे आवि मंदित्ति०' ॥४०॥ विनयाध्य. वृत्तं, जेत्ति अणिद्दिदुस्स गहणं, चकारो पादपूरणे, अविसहो संभावणे बट्टइ, किं संभावयति, जहा आदिल्ले अभूइभावो दोसो भणिओ तहा एत्थवि सो चेव अभूतिभावदोसो भवइ एवं संभावयति, मंदो चउन्विहो, तंजहा-नाममंदो ठवणमंदो दन्वमंदो ॥३०३॥ भावमंदो यत्ति, नामठवणाओ गयाओ, दव्वमंदो दुविहो, तंजहा-उवचए अवचए य, जहा धूलो सरीरेण उवचए, तणुओ सरीरेण अवचए, भावमंदो दुविधा, तं-उवचए अवचए य, जस्स बहुइ बुद्धि उवचए, अवचए जस्स थोवा बुद्धि, एवमादि, | तत्थ दबभावेहि अधिगारो, सेसा उचारियसरिसत्तिकाऊण परूविया, तत्थ दबमंदे जहा कोई पालो आयरिओ सम्बलक्षणोबवेओचिकाऊण ठविओ होज्जा, तमेवप्पगारं विडचा नाम जाणिऊणंति, ते मिच्छ पडिवज्जमाणो सूयाए हीलति, 'मिच्छ पडिपज्जमाणो' नाम तं गुरूहि कर्य मेरै आतिकमंतोनि, सूयाए जहा जइ वयं डहरया न होता तो ण एवं करेंता, अहवा किं| ॥३०॥ वर्य बालमिव न जाणामो । एवमादि, असयाए फुड चेव भण्णइ, जहा डहरो इमो होऊण अम्हे एवं करेइ, जदा य तुट्ठो भविस्सइ तदा न नज्जा किंपि काहिति', अजातपंखो उड्डेउमिच्छइ एवमादि, तहा भावमन्दोवि कोऽपि अप्पसुओ किंचि कारणं लक्खेऊण ठविज्जति, तमवि अप्पसुर्य नच्चा मिच्छ पडिबज्जमाणा स्याए असूयाए वा हलिंति, सूपाए जहा जइ वयं बहुस्सुया होता तो दीप अनुक्रम [४१५ tecoiroti ४३१] r [308] Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [९], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [३९९-४१५/४१५-४३१], नियुक्ति: [३११-३२९/३०९-३२७], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||३९९४१५|| पीदश- तुम्भेहि समं अहं अप्पसुताणं ण आलावेंतोनि एवमादि, अग्याए जहा अज्जवि ताव तुम अप्पमुओ न जाणासि साहूणमकर्जा उदेशका बैकालिकादकज्ज वा, पदाधेि ताव पच्छा अहं उपरि गच्छ मा ठवेज्जाहि एवमादि, एवं ते हीलमाणा जमायरिएहि पमाण कयं तमहकमचूर्णी. माणा तेसिं गुरूण आसावणं करेंति, गुणेहि य गुरू भवंतित्तिकाउं एगमवि गुरुं आसादेंतेहिं सब्बे हि अतीताणागतवट्टमाणा य गुणासविणी गुरवो आसाइया भवतीति, जावि गुरू मंदा बुद्धीमादीहि कारणेहिं बालो वा तहावि णो हीलियम्ब, कह ?, चिनयाध्य. जम्हा-'पगईइ मंदावि० ॥ ४०१॥ वृत्तं, केवि आयरिया पगतीए बुद्धिमादीहि कारणेहिं मंदावि भवंति, अबरा उहरा ॥३०४॥ चेव सुओवषेया बुद्धिउववेया य भवंति, ते यणाणदंसणादीहिं आयारमंता संगहादिमु य आयारगुणे ठिअप्पा, किंबहुना, ज हीलिया संता भगवंतो सिहिरिख भासकरणसमन्था ते कह हीलणिज्जत्ति?, तत्थ य सिही अग्गी भण्णइ, जहा सो अग्गी सुमहल्लमवि कयवरादिरासि खण च्छारीकरेइ, तहा तेवि भगवंतो आयरियाइगुण जुत्तप्पा हीलिया संतो भासकरणसमत्था नाऊण | बुद्धिमंताण न हीलणिज्जा, किंच-जहा अप्पयोऽविहीलिओ अभ्यभावाय भवति तदुपद रिसणस्थमिदमुपते--'जे आदि नाग। Gडहरांति नरुचा० ॥ ४०२ ॥ सिलागा, जात अनिहिट्ठस्स गहणं, चकारी पायपूरणे, अविसही संभावण वद कि सम्भाव-14 यति ?. जहा जाइ नाव डहरे वहयो दोसा भयंति, कि पुण महल्लेति ?, एये संभावयति, तत्थ णागो सप्पो, तं वाल णाऊण जो परिभवह, जहा कि मम एसो पालो परायो काहितिनित करेग वा अंगलीए वा आसातयति. आसानो सो तस्स अहियाया ॥३०४॥ भवति, एमेवायरिओ हलिमाणो 'नियच्छती जाइपहं वु मंदो' नियच्छई नाम अत्थनं ( गच्छड ) येइंदियाईसु जाती। गच्छद निगन्छ तीति, मंदगहणण मंदबुद्धिगहणं कसं, किंच- गुरुणो आसातना गुरुगी भाई, जहा--- आसीविसो बाचि०' RECX दीप अनुक्रम [४१५४३१] । RELAX. [309] Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [९], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [३९९-४१५/४१५-४३१], नियुक्ति: [३११-३२९/३०९-३२७], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत उद्देशकः सूत्रांक [१५...] गाथा ||३९९४१५|| श्रीदश- ॥४०३ ।। वृचं, जोत्ति अणिदिदुस्स गहणं, पावगो अगणी भण्णइ, आसीविसो पसिद्धो, तं पावगं पभूतिधणं जलमाणं जो वैकालिक कोह कारण अकम्म चिट्ठज्जा, आसीविसं वा जो पसनभावं अच्छमाण कोवएज्जा, जो वा जीविहामित्ति कामओ विसं खाएज्जा, चूर्णी जहा एते अगणिमादि न मुहावहा ' एसाथमा आसातणया गुरूण' ति, उपमा नाम उवम्मत्ति वा सरिसत्ति वा एगट्ठा, | अवि य-'सिआ हुसे०॥ ४०५ ।। वृत्तं, सियासहो आसंकाए बट्टइ, जहा कयाइ मन्तपयोगसच्चतवदेवयाकारणण पावगा विनयाध्य. णो डहेज्जा, कयाइ कुविओवि आसीविसो मंतपयोगादिकारणेण ण भक्खेज्जा, तथा कदायि. हालाहलमवि विसं पो मारेज्जा, | हालाहल नाम विसजातिभेओ, आसेविताणि पावगादीणि खमंकराणि भवंति, ण व गुरुआसायणं कुब्बमाणो मोक्खपज्जवसाणाणं ॥३०५॥ गुणाणं आभागीभवह । किंच-'जो पब्वयं सिरसा०' ॥४०६॥ वृत्तं, जोचि अणिद्दिदुस्स गहणं कयं, कोइ पञ्चयं सिरसा 181 मेत्तुमिच्छड चा, कोइ सीह गुहाए सुतं पडिबोहेज्जा, जो बा सत्तिअम्गे-सचिआयुहस्स अग्गे हत्यतलाहीहि पहारं दलएज्जा, 'एसोवमाऽऽसायणया गुरूण ति जहा ते पब्बयाईणि विणासकारणाणि सिरादीहि कुबमाणो विणासं पावति दहा गुरुआसानणावि अणाइयं अणवद्ग्ग संसारं संपावया भवंतित्ति । अवि य--'सिआ हुए ॥ ४०७ ।। वृत्तं, सियासदो आसकिए अत्थे बट्टइ, जहा कदाइ चकाट्टी बलदेवा वासुदेवा बिज्जाहरतवोसिज्झा वा पच्चयं सिरसा भिंदेज्जा, तहा कयाई य सुत्तोऽवि सीहो पडिचोहिओ कुविओ विज्जयंभणावि नो भक्खेज्जा, तहा सत्तिअग्गमवि कयाइ पहारे दिज्जमाणेऽवि ण तस्स किंचि पीडं। उप्पाएज्जा, ण यावि आयरियहीलणेण मोक्खो भवइत्ति । किंच, जा एसा पावगादिसायणा एस एगभविया अप्पविवागा, गुरुआसायणा य पूण अणेगमविया बहुविषागा, तदुपदरिसणस्थमिदमुच्यते-'आयरिय० ॥ ४०८ ॥ वृत्तं, आयरियपाया दीप अनुक्रम [४१५४३१] ॥३०५॥ - [310] Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [९], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [३९९-४१५/४१५-४३१], नियुक्ति: [३११-३२९/३०९-३२७], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||३९९४१५|| विनयाध्य. श्रीदश पुण अप्पसमा अबोधिकरा, आसायणा दोसायहा मोक्खाभावकरा य काऊण 'तम्हा अणावाहसुहाभिकखी गुरुप्पसायाभि-21 उद्देशकः वैकालिक मुहो रमिज्ज' चि तत्थ अणाचाहो मोक्खो भण्णइ, 'जहादिअग्गी॥४०९॥ तं, जहा आहियअग्गी भणो णाणाविहेण चूर्णी | धयादिणा मंतं उच्चारेऊण आहुई दलया, पर्य खीर भण्णइ, तेण अभिमुद्दो सित्तो अभिसित्तो, जहा तं पयसि सो आहितग्गी| उवयरइ, एवं आयरियमवि वेयावच्चविणयमाईहिं अणतनाणातिगमातिसयजुत्तोऽवि उवचिद्वेज्जा, किमंग पुण सेसोति,13 अणतनाणाइगओ नाम अणतं जेण नजदणाणेण तं अणतनाणं तं उबगओ तो सो अणतणाणावगओ भण्णा, उबगओ णाम ॥३०६॥जातीसे णाणलद्धीए उववेयोति, उबचिट्ठज्जा णाम सुस्सेज्जारी। किंच--'जस्संतिए.' ।। ४१० ॥ चं, जस्संतियं आयरियस्स वा सगासे धम्मियाणि सिक्खेज्जा तस्स सगासे घेणइयं पउंजेज्ज' ति, तत्थ विणयस्स भावो वेणइयं, पउजेज्जा नाम पउंजेज्जत्ति वा कुम्बिज्जत्ति पा एगट्ठा, तं च वेणइयं इम-सकारए नए सिरसा पंजलीग्गहणेण पंचगियस्स बंदणस्स गहणं कयं, तमायरियं पुव्वभणिएण अम्भुट्टाणाणा विणएण सकारए, इमेण पंचगीएण बंदणिएण, तंजहा--जाणुदुर्ग भूमीए निवडिएण हत्थदुरण भूमीए अवटुंभिय ततो सिरं पंचमं निवाएज्जा, तेण अब्भुट्टाणाइणा इमेण य सिरपंचमेण कारण गिराए बंदणनिमिचं आसमाणो, भो इति सीसामंतणं, मणसा तदुवउत्तेण, णिच्चं णाम सब्वकालं, ते गुरवो पूयणिज्जा, तंजहा-'लज्जा दया.' ॥४१शावृत्तं तत्थ लज्जा अववादभयं, दया अणुकंपा, संजमो सचरसविधो. बंभचर मेहणविरई.'एगग्गहणे गहणं तज्जातियाण' ॥३०६॥ मितिकाऊणं सेसाण मूलगुणउत्तरगुणाण गहणं, 'कल्लाणभागिस्स विसोहिठाणं' ति कल्लार्ण-मोक्खी भन्मद, तस्स आभागी जो जीवो तस्स इमाणि लज्जाईणि पावाण कम्माण विसोधिहाणति, जे मे गुरु--आयरिया सततं-सव्वकाल लज्जादीणि, दीप अनुक्रम [४१५४३१] [311] Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [९], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [३९९-४१५/४१५-४३१], नियुक्ति: [३११-३२९/३०९-३२७], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत श्रीद सूत्रांक [१५...] गाथा ||३९९४१५|| %AC% बैंकालिक +RCHICE5% ध्य. ॥३०॥ अणुसासयति णाम जहा लज्जा ताव संजतत्तं, उवदीसति, तीए य फलं, तहा दयं दयाए फलं, एवमादीणि अणुसासिज्जमाणा &| उद्देशकः सीसा पायसो अत्तणो निस्सेसपारगा भवंतित्तिकाऊण ते अह गुरू सतत पूययामिति ॥ इतो य गुरू पूणिज्जा, कई, जम्हा ते भगवंतो--'जहा निसते.॥ ४१२ ।। वृत्तं, 'जहा निसंते तवचिमाली' ति, तथ जेणपगारेण ६ जहा, णिसा णाम रत्ती भण्णइ, तीए निसाए अंतो निसंतो दिवसोति युतं भवइ, तबइ नाम पगासेइ, अच्चिओ व रस्सीओ भण्णति, तासि रस्सिणं माला जस्स अस्थि, सो य णाइचो पभासई भारह केवल तु, पभासती णाम पभासइत्ति वा उज्जोएइत्ति बा एगट्ठा, भारई पसिद्धं, केवलं णाम संपुण्णं, तुसहो विसेसणे वइ, किं बिसेसयति', न केवलं भारहं पगासइ, किंतु सबमेन जम्बूदीपदाहिण९ एवं विसेसयति, एवं आयरिओऽपि सुएण सीलेण बुद्धीए य उबवेओ वियलीकयअण्णाणपडलो जीवाजीवादओ य पदत्था पगासति इति ॥ किंच-'विरायई सुरमझे व इंदी' त्ति, जहा इंदो सामाणियादिपरिखुडो समंतओ विरायइ एवं आयरिओऽवि सीसगणसंपरिचुडो सपक्खाणं परतिस्थियाणं च पुरओ विरायइति । किंच-जहा ससी कोडजोगजुत्तो० ॥ ४१३ ।। 'जहा ससी कोमुदिजोगजुत्तो' त्ति, तत्थ जहा णाम जेण पगारेण जहा, ससी चंदो भाइ, 'कोमुइजोगजुत्तो' नाम कत्तियपुनिमाए उइओ, 'नक्षत्ततारागणपरिवुडप्पा' णाम णक्खत्तेहिं तारागणेण य 18॥३०७॥ | परिचुडो अप्पा जस्स सो णक्खत्ततारागणपरिवुडप्पा, 'खे 'ति आगासस्स गहणं, जेण पगारेण आगासे विमले अम्भमुक्को ससी सोभइ एवं गणी सोभइ सीसमझे । किंच'महागरा आयरिया०'॥४१४ ।। वृत्त, महंताणं णाणाईणं गुणाणं आगरा महागरा, महागरा चउबिहा भवति, तंजहा-नाममहागरा ठवण व्ब० भावमहागरत्ति, नामठवणाओ गयाओ, दव्वमहागरा दीप अनुक्रम [४१५४३१] AGEciki [312] Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [९], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [३९९-४१५/४१५-४३१], नियुक्ति: [३११-३२९/३०९-३२७], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||३९९४१५|| श्रीदश- लवणादीया समुदा, भावमहागरा महताणं णाणदसणचरिचाणं आगरा आयरिया तेसिं गहणं कर्य, सेसा उच्चारियसरिसत्तिवैकालिका | काऊण परूविया, 'महेसी' नाम महतमसतीति महेसीणो, सो य मोक्खो, ते य आगरा समाधिजोगाणं सुयस्स बारसंगुस्स | सीलस्स य-अट्ठारससीलंगसहस्समध्यस्स बुद्धीए--उप्पत्तियादियाए, न एयपगारगुणजुन आयरिए अणुचराणि-अतिसयमाईणि संपाविउकामो उवाट्टियभावो आराहेज्जा आयरियं जाव तुडे, उपट्टिो नाम उवडिओत्ति वा अम्भुट्टिओचि वा एगट्ठा, 'धम्मकामे' विनयाध्य. नाम धम्मनिमित्तं आराहेज्जा, पण पुण भएण वित्तिहेवा, जाणि एवंमि अज्झयगे भणियाणि ताणि सुच्चाण मेहावि०' ॥३०॥ 2॥४१५/ वृत्तं, सोच्चा णाम सोउ, मेहावी मेहाची भण्णइ, सोभणाणि भासि याणि सुभासियाणि, सुस्सए णाम तस्स आणलिइसे चिडेज्जत्ति, आयरिओ पसिद्धो, अप्पमत्तो णाम णो णिहादीहि पमादेहिं बक्खित्तो, तेसि सगासेणं बसमाणो गुणा आराहेऊण |णिरवसेसखीणकम्मो सिद्धिमणुत्तरं पाबद्द, सेसकम्मोदया देवलोगसुकुलपच्चायाति लण पच्छा अट्ठभवग्गणअंतरतो सिज्झतित्ति, बेमि णाम तीर्थकरोपदेशात् , न स्वाभिप्रायेणेति । विणयसमाहीए पढमी उद्देसो समत्ती॥. वितिय उद्देसगाभिसंबंधो-विणयमूलो धम्मो काऊण तग्गोरखोपदरिसणस्थमिदमुच्यते-'मूलाउ बंधप्पभवी वुमस्स.' ॥ ४१६ ।। धृतं, जहा दुमस्स जाहे मूलो उप्पण्णो भयह ताहे ताओ मूलाओ खधो भवर, ताओ खंधाओ पच्छा साला, हासमुविति नाम जाति, साला नाम सालत्ति वा साहति या एगद्रा, तास साहास साहप्पसाहाविकप्पा, विरुहति नाम विविध का३०८॥ अणगप्पगारं फलाणि, रुहंति बिरुहति, जायंतिनि वृत्तं भवइ, तासु पसाहामु पना चिकहति, तओ उत्तरकाल पुष्का, पुष्कसु तेसिं परिपकाण रसो भवति, जहा य एसो मूलादी रसपज्जवसाणो अणुपरियाडिको एवं धम्मस्स विणओ०॥४१७॥ दीप अनुक्रम [४१५४३१] अत्र नवमे अध्ययने प्रथम उद्देशक: परिसमाप्त: तथा दवितीय उद्देशक: आरब्ध: [313] Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||४१६ ४३८|| दीप अनुक्रम [४३२ ४५५] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + भाष्य | + चूर्णि:) अध्ययनं [९], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा: [ ४१६-४३८ / ४३२-४५५ ], निर्युक्ति: [ ३२९ / ३२७...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [ ४२ ], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्ण: ९ सिलोगो, इमस्स जिणपणीयस्स संधुयस्स भगवओ धम्मस्स विणओ 'मूलं, परमो से मुक्बो' परमो णाम तस्स विषयमूलस्स मोक्खोति वा फलति वा, कहं १, जहा दुमस्स फलं, तस्स कालंतर विपक्स्स जो रसो सो परमा, अपरमाणि उ खंधो साहा पत्तपुप्फफलाणिति, एवं धम्मस्स परमो मोक्खो, अपरमाणि उ देवलोग मुकुल पच्चायायादीनि खीरा सवमधुयासवादी ि * कथं च सो विषयो कायथ्यो ?, जेण विणण किचि पावति, 'एगग्गहणे गहणं तज्जातीयाण' मितिकाउं जसमवि पावड़, विनयाध्य.) आह- कित्तिजसाण को पतिविसेसो ?, आयरिओ आह- किती अविसेसिया, जहा अमुगनामधेयो साधू विणीओत्ति, जसो विसेसिओति, जहा अमुगं विषयं अनुगो साधू कुब्बइति, तहा दुवालसंग सिग्धं पावइ, सिग्धं नाम सलाहणिज्जं, सलाहणिज्जो ||३०९|| वा जेण सुरण भवइ तं मुयं सिग्धं भण्णति, जहा अहो बहुस्सुओ ण एतस्स किंचि अविहितंति, एवमादि, निस्सेसं अभिगच्छतीति, इदाणिं णीसेसा अविणीयस्स दोसा भन्नंति, बरं ते दोसा णाऊण तेसु उब्वेगं गच्छंतोति, लोगेऽवि दि-पुत्रं आतुरस्य अपत्थाहारो निवारिज्जह, दोसा य से कहिज्जेति ते तेर्सि दोसाणं उब्विज्जमाणो परिहरतोत्ति, ते य अविणीयदोसा हमे, जहा'जे अ चंडे० ' ॥ ४१८ ।। सिलोगो, जेत्ति अणिदिट्ठस्स गहणं, चकारो पादपूरणे, चंडो रोसणो भण्णइ, जहा इमं एवं करेहि, इमं मा एवं करेहित्ति भणिओ रूसइ, मिगभूतो मिगो, जहा मिगो णिबुद्धी तहा सोऽवि हितोवएसं ण पुच्छत्तिकाऊण मिग इव दडब्बों, थद्धो नाग अहिं जातिमदादीहिं मट्ठाणेहिं मत्तो विनयं न पडिवज्जह 'दुव्बाई' दुड्डा वाया जस्स सो दुब्बायी, अकारणे साहवो कडुगफरुसाणि ण भणति, 'णियडी' नाम माइलो, जाणमाणोऽवि अप्पणी अवराहं पडिचोइओ भगइ ण मए णायें जहा एयं न कायन्वंति, गिलाणमाइयाओ नियडीओ पउंजड़, अहियं विणयं भंसेति, 'सदो' नाम सिढिलो संजमाइसु श्री दशवैकालिक पण [314] १२ उद्देशकः ॥ ३०९ ॥ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [९], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा: [४१६-४३८/४३२-४५५], नियुक्ति : [३२९.../३२७...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत श्रीदशबैंकालिक चूर्णी. सूत्रांक [१५...] गाथा ॥४१६४३८|| विनयाध्य. 'चुज्झइ से अविणीअप्पा' एवं सो विणेओ चंडादिसु वट्टमाणो अविणीअप्पा बुज्झइ, कहं !, जहा नदीसोयमझगये कहूँ २ उद्देशकः नदीए सोतेण चुज्म एवं सो संसारसोतेण बुज्झतित्ति । किंच-विणयंपि जो उबाएण.' ॥४१९ ॥ सिलोगो, सोx डाइदोससंजुत्तों उवाएण देसकालोववन विणयं 'चोइओ कुप्पई नरो' चि, देसे ताव विराहओ भणिओ, कालो-बेला तक्षणमेच, तपि परिमितं अफरुस मणिओ कुष्पत्ति, ततो सो एवं कुष्यमाणो दिव्वं सिरिमागच्छमाणां डंडेण पडिसेहयइ, |एत्थ उदाहरणं-दसारपमुहा किर महासुरा सभागता अप्पप्पणो कज्जाणि संपहारेमाणा अच्छंति, इओ य सिरी देवी परिणयवयवेसा होउं विकृतशरीरा मच्छियावन्दाणुगयमग्गा तं सभमागता, ते सम्बे समुद्दविजयउग्गसेणपमुहा पचेयं २ एवमाहु-जहा एतेण अहं तबसंतएण देवकुमारातिरेगेण रूपेण उम्माहिया समाणी लज्ज मोत्तूगं भवंतं सरणमुवगतत्ति भण्णमाणा | कंठे लग्गड, तेहिं सव्वेहि पत्तेय पत्तेयं पडिसेहिया, सम्वेहिं णिप्पणीकया णारायणमुवट्ठिया, तेण गाया जहा एसा णो पागते- | नति अहिलसिया, दिव्वं रूवं दंसेऊण तमणुपविट्ठति, एवं सो विणयं उबाएण बोहिओ समाणो इहलोगपरलोगहियं किर विणयसिरिं अवमन्नइ, ण तं तस्स आयतिक्खमं भवइ, जहा तेसिंतो ताण । इदाणि अविणयदोसोपदरिसणत्वमिदमुच्यते तहेब अविणीअप्पा० ॥ ४२०॥ सिलोगो, 'तहेव' चि, जहा हेट्ठा अविणीयदोसा भणिया, एक्सदो पादपूरणे, 'अविणीअप्पा' णाम णो विणीओ अप्पा जेसिं ते अविणीअप्पा, 'उववज्झा' नाम कारणमकारणे वा उवेज्ज वाहिज्जेतिर ID॥३१॥ उववज्झा हया गया य, 'एगग्गहणे गहणं तज्जातीयाणमितिकाउं' गलिबलिबद्दावि गहिया, तेण अविणयकम्मदोसण वाहिजति इहभवे गलित्तणदोसेण, अन्नेसि आसाणं हत्थीण व आहार बहायिज्जति, अन्ने य बहुविहप्पगारे विणयंति, सहा महिस-17 ॐAAA%% ॥३१०॥ दीप अनुक्रम [४३२ ४५५] 9FASE [315] Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [९], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा: [४१६-४३८/४३२-४५५], नियुक्ति: [३२९.../३२७.., भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत उदेशका सूत्रांक [१५...] गाथा ॥४१६४३८|| चूणौँ श्रीदश- माइणोवि केइ अब्बत्तभागभूया पच्चक्खमेव दीसंति दुई 'एहंता' नाम अणुभवत्ता, सारीरमाणसाणि दुक्खाणि, ते य आभि- वैकालिकाकाओगभावं सुदूसह उबडिया, तेण य इहभाविएण पच्चक्खेण अविणयदोसेण दिद्रेण अदि साहिण्जह-जहा ते आसादिणो पुखभये। अविणयमंता आसी जेण आमिओगं 'उवाहिया' नाम पत्ता, तह विणयगुणो तिरिएसु इमो, जहा-'तहव सुविणी अप्पा' ।। ४२१ ।। सिलोगो, 'तहेव ' ति जहा हेवा विणयगुणा भणिया, एवसद्दो पायपूरणे, सुट्ट विणीओ अप्पा जेसि ते विनयाध्य. | सुविणीअप्पा, ते चेव हयादी पुब्बसुकयगुणेण इहमविएणय विधेलगादिणा विणीयभावेण इट्ठाणि जवसजोगासणादीणि |॥३१॥ | जमाणा चिट्ठति, निवायपवायादियायो वसहीओ पार्वति, अलंकिया य रायमग्गमोगाढा केइ बहुजणणयणहरमहुरवयण| परिगीयमाणा णिग्गच्छति, एवमाईहिं इड्डेि पचा पच्चक्खमेव सुहमेहता महायसा दीसंति, सुभासुभं तिरिएसु विणयाविणयफलं भणियं । इदाणिं मणुएसु भन्नइ, तत्थवि पुवं अविणयफलं भण्णइ, तं च इम, तंजहा-'तहेव आविणीअप्पा०॥४२२।। सिलोगो, 'तहेब' ति जहा हेट्टा तिरियाणं अविणयदोसो भण्णाइ, एवसहो पादपूरणे, णो विषीओ अप्पा जेसि ते अविणीअप्पा, | लोगग्गहणेण मणुयलोगग्गहणं कर्य, तमि मणुयलोगमि, अविणीयनरनारीओ य पुर्व अविणयदोसेण इहभविएण य कमावण दीसति दुक्खाणि सारीरमाणसाणि एधमाणया नाम कसादीहिं पहारेहिं वणसंजातसरीरा भन्नति, विगलितेंदिया णाम हत्थपायाईदि छिना, उद्धियणयणा य विगलिदिया भन्नति, ते पुण चोरपारदारिकिञ्चयाई । 'दंडसत्थपरिजुन्ना० ॥४२॥ | सिलोगो, दंडग्गहणेण लट्ठिमाईण गहणं कयं, सत्थगहणेण भल्लगमादिआउहस्स गहणं कतंति, तेवि दंडेहि तालिया सत्यहि काय आहया 'परिजुण्णा' णाम परि-समंतओ जुण्णा परिजुण्णा दुबलभावमुवगतति तु भवइ, न केवलं दंडसत्धेहिं परिजुण्णा, AGRORSCRED दीप अनुक्रम [४३२ AKASEASON 25 ॥३१ ४५५] EOCO- [316] Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [९], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा: [४१६-४३८/४३२-४५५], नियुक्ति: [३२९.../३२७.., भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ॥४१६४३८|| श्रीदश- वेकालिक चूर्णी विनयाध्य. ॥३१२॥ किंतु असम्भवेहि-असरिसेहिं वयणेहिं सरीरपरिहाणी भवति, कलुगा' णाम दीणति वा कलुणति वा एगट्ठा, "विवण्णछंदाला उद्देशक: नाम परवसा, 'खुप्पिवासाइपरिगया' परिगता णाम खुहापिपासाभिभूता, ते य भत्तपाणनिरूद्धा वा होज्जा, परिमितभत्तपाणभोगी वा, जहा एयरस एग भत्तं दायव्वं एग उदयसरावंति, एवं ताव तेसिं अविणीयाणं इहभवे पुप्फ, फलं पुण नरगादिसु, णाऊण अविणयो न कायबोति । इदाणि विणयमूलं तेमु चेव मणुएसु भण्णइ, तंजहा-'तहेव सुविणीअप्पा ॥४२४॥3 सिलोगो, 'तहेव' त्ति जहा हेट्ठा विणयफलं तहेव भणियं इहमबि, एक्सहो पादपूरणे, सुट्ट विणीओ अप्पा जेसिं ते सुविणीअप्पा, लोगगहणेण मणुस्साण गहणं कर्य, तमि लोए णरा णारीयो य रायादी दासविणयजुत्ततणेण भोगसंविभत्ता दीसति ।। गंधव्याझ्याओ कलाओ उबज्झाएहि गाहिना दीसति, सुहाई एहंता मण्या इडि पचा महाजसा, इति सुभासुभं मणुएम फलं| भणिय । इदाणि देवेसु भण्णइ-तस्थ अविणयं पुव्वं भण्णइ, तं च इम, तंजहा--' हेव अविणीअप्पा' ।। ४२५ ।। सिलोगो, तिहासदो एक्सद्दी य पुब्बभणिया, ण विणीअप्पा अविणीअप्पा, देवग्गहणेण जोतिसियवेमाणियाण देवीसहियाण गहणं कर्य, जक्खग्गहणेण वंतराण गहणं कयं, गुज्झगगहणणं भवणवासीणं गहणं कर्य, ते तित्थगरकाले एरावणादि पचक्खमेव दुक्खाइ एमाणा आभिओगभावमुवाडिया दीसति, इदाणि विज्जाभिचारुगेहि अभिउनकम्मे हि अभिउत्ता दीसंति, अणुमाणेण साहिति, का जहा इई मणुयलोए अविणयफलाई पावेति तहा पूर्ण अविणयदेवा पुब्वेण दुकरण आभिओगा भवंति, भणियं च--' चहि | ॥३१२॥ ठाणहि जीवा आभिओगिय जणयति कोहणसीलयाए पाहुडसीलयाए कोउयकम्मेण महकम्मेण य । इदाणि विणयफलं तेमाल चव देवेमु भण्णइ, तंजहा- सहेय सुविणीअप्पा० ॥ ४२६ ॥ मिलोगो, सुविणीअप्पा पुथ्यविणयमुभकम्मोदएण इमेमु । EXRECTORXX दीप अनुक्रम [४३२ ४५५] [317] Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [९], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा: [४१६-४३८/४३२-४५५], नियुक्ति: [३२९.../३२७.., भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत श्रीदश सूत्रांक [१५...] गाथा ॥४१६४३८|| है। ईदसामाणियतायतीसगादिठाणेसु उववष्णा,तित्थगरकाले पायसो दीसंति, सेसं तस्स सिलोगस्स कंव्यं । एवमादीणि तिरियमणुय- २ उद्देशकः IIदेवलोगे सुभासुभाणि विणयाविणयफलाणि भणियाणि, नरयेसु सुमासुमा कहा णस्थि, ते हि एगतेण पुब्बोधज्जियं अविणय-II चूर्णी कलमसुभमणुभवति, ण य ते पच्चक्खमुक्लभंति, सवष्णुवएसेण ते छउमत्थेहि जंति । इदाणि लोगुत्तरस्स विणयस्स फलं | भण्णइ, तंजहा-'जे आयरिउवझायाण'. ॥ ४२७ ॥ सिलोगे, 'जे ति अणिहिवाणं गहणं कय, आयरियउवज्झाया* विनयाध्य. | पसिद्धा, जे केइ आयरियाण उवज्झायाणं च सुस्मुसाकरा वयणकरा य भवति, अहंवा सुस्मसाणाम (ए) आयरियउवज्झाएहिं वयणं ॥३१॥ भण्णतं कुब्बति सुस्मसावयणकरा, तेसिं एवंविहसीसाणं साहूणं सिक्खा दुविहा-गहणसिक्खा आसवणसिक्खा य, विविहमणेगप्पगारं वड्ढेति, दिडतो----'जलसित्ता इव पायवा' जलेण सिचा समाणेव जहा पायवा वदति तहा तेसिमवि सिक्खा विवड्ढतित्ति ।। किंच -इओ य आयरियोवझायाणं विणओ काययो, कह , जइ वाव असंजया 'अप्पणद्वया' ।। ४२८ ॥ सिलोगो, 'अप्पणट्ठया' नाम ईत एतेण जीविहामोत्तिकाऊण सिप्पाणि-कुंभारलोहारादीणि सिक्खंति, णेउणिआणि लोइयाओ कलाओ सिक्खंति, परट्ठाएवि पब्ययितुकामा पुत्तं गेहे ठामोत्ति सिक्खंति, कदाइ पुण अपणो परस्स य दोण्ह य अट्ठाइ सिक्खति गिहिणोति, एसो असंजयणिद्देसो कओ, 'उवभोगट्ठा' णाम अण्णपाणवत्थसयणासणस्यणकुवियाइयउवभोगस्स अट्ठाए सिक्खंति, ते च इहलोगस्स इह जललवबिन्दहि संनिभस्म कारणाणि सिक्खति, ते य एवं सिक्खावास वसमाणा | जण पंधं ॥४२९।। सिलेागो, 'जेणं' ति जेण सिक्खापडिबंधेण बंधादीणि पावंति, तमवि सिपाणि उणियाणि य कारणाणि सिक्खावासमावसंतारी, तत्थ निगलादीहिं बंध पावेंति, वेत्तासयादिहि य बंधं घोरं पावेंति, तो तेहि धेहि वधेहि य | दीप अनुक्रम [४३२ ४५५] [318] Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [९], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा: [४१६-४३८/४३२-४५५], नियुक्ति: [३२९.../३२७.., भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ॥४१६४३८|| श्रीदश-15 परिताबो सुदारुणो भवाहानि. अहवा परितावो निटरचायणज्जियस्स जो मणि संताचो सो परितायो भण्णह, ते च परितावं २ उद्देशक: चकालिक सुदारुणं 'निअच्छति' नाम निग्गच्छति वा पार्वति वा एगट्ठा, जुत्ता नाम तमि सिक्खियब्वे निजुज्जतित्ति, ललिईदिया णाम | चूणों आगम्भाओ ललियाणि इंदियाणि जर्सि ते ललिइदिया, अञ्चन्तसुहितत्ति चुतं भवति, ते य रायपुत्तादि, किंच, तेऽवि तंगुरू' .॥ ४३० ।। सिलोगे, तेऽबि ताव सच्छंदलालिया रायपुत्तादि तमुवरोहपहारादि विस हति, तमायरियं च | विनयाध्य. है। पूजयंति 'तस्स सिप्पस्स कारणा, ते य प्याइया तं 'सकारेंति नमसति तुट्टा निदेसवत्तिणो' अहवा पूया महुरवयणा॥३१४॥ भिनदणी भन्नइ सक्कारी भाजणाच्छादणादिसंपादणओ भवइ, णमंसणा अन्भुहाणजलिपग्गहादी, तुहा णाम पराक्खमान णमोक्कारादीहि णमंसंति, ' निदेसवत्तिणो णाम जमाणवेति तं सब कुवंतीति णिसवत्तिणो, जति तावेवं लोइया सुहलि|च्छाए कारणाए कुब्बति । किं पुण जे सुअग्गाही'. ॥ ४३१॥ सिलेोगे, किमिति एसो पुच्छाए चट्टद, पुणसहो Piविसेसणे, किं विसेसयति?, जहा गाहयति भगवंतो साधवो सीसाण उबट्ठावणादीण कुव्वंतित्ति एवं विसेसयति, सुज दुवालसंग गणिपिडगं, सुतं गाइयंतीति सुयम्गाही, अणंतं हितं कामयतीति अणतहितकामए, मोक्खसुहकामएत्तिवृत्तं भवति, जम्हा ते इह| लोगे परलोगे हितं सुर्य गाहयंति तम्हा ते आयरिया बदेज्जा ते भिक्ख नाहवत्तए'णाम णातिकमेज्जति । इदाणि विणीवाआ भण्णइ-'नीय सिज्जं गई ठाण' ॥ ४५२॥ सिलोगो, सेज्जा संधारओ भण्णाइसो आयरिवरसतियाा णीयतरी। P३१४॥ कायन्यो, तदा णीया गति कायव्या, 'णीया' नाम आयरियाण पिढओ गतब्ध, तमविणो अच्चासण्ण, नवा अतिदूरत्येण गंतव्य, *अच्चास ताव पादरेणुण आयरियसंघट्टणदोसो भवइ, अइदरे पडिणीयासायणादि बहवे दोसा भवतात, असा पच्चासणे। 4 दीप अनुक्रम 9-25 kGEN--- [४३२ ४५५] % [31] Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [९], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा: [४१६-४३८/४३२-४५५], नियुक्ति: [३२९.../३२७.., भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ॥४१६ ४३८|| श्रीदश रेणातिदूरे य चंकमितव्ब, तहा जैमिवि ठाणे आयरिया उबचिट्ठा अच्छंति तत्थ ज नीययरं ठाणं तमि ठाइयवं, तहा नीयबरे पीढगा- उद्देशकः इंमि आसणे आयरिअणुन्नाए उपाविसेज्जा, जइ आयरियो आसणे इतरो भूमिए नीययरे भूमिप्पदेसे वंदमाणो उवडिओ चूणों न वंदेज्जा, किन्तु जाब सिरेण फुसे पादे ताव णीयं वंदेज्जा, तह। अंजलिमवि कुब्वमाणेण णो पहाणमि उवाविहेण अंजली कायब्वा, किंतु ईसिअवणएण कायब्बा, एसो काइगो विणयसमाधी भवइ । इदाणि काइया बाइया य भण्णइ, तंजथा-'संघट्टइत्ता विनयाध्य. कारणं' ॥ ४३३ ।। सिलोगे, जाहे परिसमाणेण वा णिक्खममाणेण वा गुरू हत्थपादाइणा कारण तहा वासकप्पपडलाइणा वा उवादिणा संपारओ भवर, अविसदो संभावणे वट्टर, किं संभावयति ?, जहा दोहिंवि कार्यावहीहिं जया जमगसमगं घट्टिओ। ॥३१५॥ भवद, तहा जो इदाणि उवाओ भणिहिति सो कायब्बो त संभावयति, सो य उवाओ हमो-सिर भूमीए निवाडेऊण एवं वएज्जा, जहा-अबराहो मे, मिच्छामि दुकडं, खेतब्वमेयं, णाई भुज्जो करिहामित्ति, जो सुद्धो भवइ सो अभणिओ आयरियस्स एताणि | इंगियाईणि णाऊण करेति, जो पुण मंदबुद्धी सो-'दुग्गओ व पओएणं' ॥ ४३४ ।। सिलोगो, दुग्गओ णाम दुग्गवोचि वा | दुट्ठगोणोत्ति वा गलिबद्दोनि वा एगट्ठा, पयोषो तेजणो भष्पाइ, जहा सो दुग्गवो तिक्खेणं तोतएण पुणो २ चोइज्जमाणो रहे बहद, एवं दुम्बुद्धी जाणि आयरियउवझायाईणं किच्चाई मणरुइयाणि ताणि युत्तो युनो पकुम्बद । आह को तेसि अणे-18| ॥३१॥ गगुणसंपावगाणं आयरियाणं किरुचाई से साहू कुब्वइचि, भगइ-काल छंदोबयार च०॥ ४३५ ॥ सिलोगो, तत्थ काल पडच्च आयरियो बुडवयस्थो तस्थ सरदि वाताप चहराणि दब्बाणि आहरवि, हेमंते उहाणि, वसंत हिंभरहाणि (सिंमह-IN राणि) गिम्हे सीयकराणि, पासासु उण्हवण्णाणि, एवं ताव उई उई पप गुरूण अट्ठए दबाणि आहरिज्जा, तहा उई पप्पा दीप अनुक्रम ISRAE%% [४३२ ४५५] [320] Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [९], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा: [४१६-४३८/४३२-४५५], नियुक्ति: [३२९.../३२७.., भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ॥४१६४३८|| श्रीदश-18 सेज्जमवि आणज्जा, एवमादि, छन्दो णाम इच्छा भण्णा, कयाइ अणुदप्पयोगमपि दख इच्छति, भणियं च-'अण्णास्स पिया | उद्देशका वैकालिकाद छासी मासी अण्णस्स आसुरी किसरा । अण्णस्स घारिया पूरिया य बहुढोहलो लोगो ॥ १ ॥ तहा कोई सत्तुए इच्छइ कोति चूणी. एगरस इच्छइ, देसं वा पप्प अण्णस्स पियं जहा कुदुक्काण कोंकणयाण पेज्जा, उत्तरापहगाणं सत्तुया, एवमादि, 'उवयार' णाम विधी भण्णाइ, जहा कोई धम्मकाहणो कोई वेयावच्चकरस्स केइ भासिणो केह आसन्नसेविणो एवमादि, उपचारछन्द-1 विनयाध्य. काल 'पडिलेहिताण हेउहिं' ति, पडिलेहित्ता णाम जाणिऊण, हेउणा नाम कारणण, एतेसि कालछन्दोवयाराणं जेण २ ॥३१६॥ | उवारण कालछन्दपाउग्गा दव्वा लब्भात जेण वा उवायकरणण तूसइ तेण तेण उवाएण तं तं संपडिवायान्त। किंच-'विवत्ती अविणीअस्स' ॥४३६ ।। सिलोगो, विधत्ती नाम विगया संपत्ती नाणादिगुणेहि अविणीयस्स भवइ, अद्वेहिं विणीयस्स संपदा | भवति, 'जस्सेयं दुरओ णायं' 'जस्स' ति अविससियस्स गहणं, दुहओ णाम उभओत्ति वा दुहओत्ति वा एगट्ठा, अविणयायो || |गुणविवत्ती विणयाओ गुणसंपत्ती भवइति णाय, दुविधं सिम्ख-गहणीसक्ख आसेवणासिक्खं च अभिगच्छइ, सिक्खातो य. हमोक्खं, अभिगच्छह नाम अभिगच्छतित्ति वा पावइति एगट्ठा, भणिया विणीया। इदीणि अविणीया भन्नति, तेसिणं अविर्णायाणं अविणयफलं भण्णइ, जहा-'जे आवि चंडे' ॥ ४३७ ॥ वृत्तं, 'जे' नि अणिद्दिदुस्स गहण, चकार पादपूरणे, अविसहो। सभावणे वट्टर, जहा सुट्ठ दुलहं नियणिज्जगुणजुत्तमवि जिणाणुवयणाणुवयणं लघृण केऽपि सत्ता मेसु दोसेसु बट्टतित्ति 12॥३१६॥ एवं संभावयति, चंडो काहणो भण्णइ, जातीए इडिगारवं वहति, जहाऽहं उत्तमजातीओ कहमेतस्स पादे लग्गिहामित्ति मति इशी गारयो भणति, पीतिसुण्णं करोतित्ति पिसुणो, सो य जो पच्छा अगुणकित्तण करई, नरेसु मोक्खो भवत्तिकाऊण गरग दीप अनुक्रम [४३२४५५] [321] Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||४१६ ४३८|| दीप अनुक्रम [४३२ ४५५] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + भाष्य | + चूर्णि:) अध्ययनं [९], उद्देशक [२], मूलं [ १५...] / गाथा: [ ४१६-४३८ / ४३२-४५५ ], निर्युक्ति: [ ३२९ / ३२७...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि श्रीदवैकालिक चूर्णं. ९ विनयाध्य यने ॥३१७॥ हर्ण, साहसो णाम जं किंचि तारिस तं असं किओ चैव पडि सेवतिचिकाऊण साहस्सिओ भण्णा, 'हणिपेसणं' नाम जो य पेसणसं आयरिएहिं दिन्नं तं देसकालादीहिं हीणं करेतित्ति हीणपेसणे 'अदिधम्मे' नाम सुतधम्मचरित्त धम्म अजाणए भण्ण विणए जिणोवइट्टे अकोविए, जहा हमें आयरियस्स कायन्त्र, इमं पाहुणगगिलाणादीति, 'असंविभागी' नाम संविभागणारसीलो संविभागी ण संविभागी असंविभागी, एवंविहसीलस्स तस्स सुचिरेषुव कालेण च मोक्खो न अत्थित्ति । इदाणिं विणीओ विणयफलं च दोन्नि भण्णंति, तंजहा - 'निद्देसवित्ती पुर्ण' ० ॥ ४३८ ॥ वृत्तं निद्देसो नाम आणा भण्णइ, पुणसदो विसेसणे वट्टर, किं विसेसयइ ?, जहा विसेसेण आयरियस्स विणयो कायव्वो, सेसाणवि जहाणुरूवो कायव्यात्ति एवं विसेसयति, जेति अणिङ्किाण गहणं, गुरवो पसिद्धा, सुयोऽत्थधम्मो जेहिं ते सुतत्थधम्मा, गयिन्थित्ति वृत्तं भवर, अहवा सुओ अत्थो धम्मस्स जेहिं ते सुतत्थधम्मा, विणए जहारिछे पउंजियन्ने कोविदा, जम्हा एवंगुणजुत्ता अतो 'तरंति ओघमिणं दुरुत्तरं - ति, तरंतिगहणेण तिन्हं गहणं कर्य, तं०-तरगस्स तरणयस्स तरियव्यस्सत्ति, एतेसिं निदरिसणं जहा दव्वतरओ देवदत्तो, दर नावा, तरियब्वयं समुद्दो, एवं भावतरओ साहू तरणं णाणदंसणचरिताणि तरियब्वयं इमो पञ्चकखो संसारोति, ते य भगवंतो ॐ साधवो खवित्तु कम्माणि णाणावरणाईणि संसारसागरं तरंतीति, तरिऊण य 'गइमुत्तमं गया' आह-पुव्विं 'खावत्तु कम्ममिति' बत्तव्त्रे कहं तरितु ते ओहमिणं दुरुत्तरंति पुण्यभणियं ?, आयरिओ आह----पच्छादीवगो णाम एस सुत्तबंधोत्तिकाऊण न दोसो भवइ, सावसेसकम्मुणो य देवलोगे सुकुलेसु पयायंति, पुणो य बोर्डि लजूण पण्छा गतिमुत्तमं गच्छतीति, बेमि नाम तीर्थकरोपदेशाद, न स्वाभिप्रायेण ब्रवीमीति ॥ विणग्रसमाहिअज्झयणे बिईओ उद्देसो सम्मत्तो ॥ अत्र नवमे अध्ययने द्वितीय उद्देशकः परिसमाप्तः [322] २ उद्देशकः ॥३१७॥ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||४३९ ४५३|| दीप अनुक्रम [ ४५६ ४७०] अध्ययनं [९], उद्देशक [३] मूलं [१५...]/ गाथा: ४३९-४५३/४५६-४७०२ निर्युक्तिः [३२९../३२७...]. भाष्यं (६२...J मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [ ४२ ], मूलसूत्र [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: - श्रीदश वैकालिक चूर्णी. "दशवैकालिक”- मूलसूत्र -3 (निर्युक्तिः + भाष्य + चूर्णि:) (निर्युक्तिः+|भाष्य|+चूर्णिः) विनयाध्य यने ॥३१८॥ - - ततिअउद्देसगस्साभिसंबंधो, जहा सीसो विणीओ भवइ तदुपद रिसणत्थमिदमुच्यते 'आयरिअं अग्गिमिवाहिअग्गी० ॥ ४३९ ॥ वृतं, आयरिओ मुत्तत्थतदुभअविऊ, जो वा अम्भोऽवि सुत्तस्थतदुभयगुणेहि अ उबवेओ गुरुपए ण ठाविओ सोडवि आयरिओ चेव, तमायरियं जहाऽऽहियग्गी बंभणो अगणिं परमाए मत्तीए 'सुस्सूसमाणो पडिजागरिजा ' पडिजागरह णाम मा विज्झाद्दितित्तिकाऊण तस्स समीवं अमुंचमाणो अभिक्खणं इंधणाणं साहरमाणो अच्छर, एवमयमवि सीसो सुस्समाणो पडिजागरिज्जा, आह- गणु एस अन्थो पढमुद्देसए 'जहाऽऽहिबग्गी जलणं णमंसि' त्ति भणिओ, आयरिओ मणइ तत्थ आयरिय चैव पडच मणियं, इह पुण आयरियं च सुअवसर्ग च पच भष्णह, जहा आयरियवयणं अणतिकमणिअं एवं सुतोवदेसगस्सवि णातिकमणिअंतिकाऊण पुणरुतदोसो न भवतीति । पडियरणोवायो इमो, जहा- आलोइएणमिंगितेण वा छंद आराहेजा, तत्थ छंदो नाम अभिष्याओं से छंद इंगिएण आलोइएण य आराधेज्जा, तत्थ आलोइएण य जहा आयरिएण पाउरणं आलोइयं सीयं च पड, कत्थ वा गंतव्वं ? तमेवप्पगारमालोइयं णचा तस्स आयरियस्स तमभिप्पायं पाउरणं उबवाएज्जा, एवमादि, तहा इंगिएणचि णाऊण आयरिस्सभिप्पायमुवबाएज्जा, तं च इंगित इमं ' सेति ' आयरिएण गातकंपो कओ, अहो वा सीयमिति भासितं, पाउरणमाणेज्जा, जो पुण तेणऽऽगारेण आलोइयं इंगितं वा णाऊण छन्दमारादेइ स पुज्जो भवइ, स पुज्जो णाम पूणिज्जोति वा एगडा, सो य विणओ किमत्थं परंजितव्योति १ अतो भण्ण- C आयारमठ्ठा० ॥ ४४० ॥ वृत्तं पंचविधस्स णाणाइआयारस्स अट्टाए साधु आयरियस्स विजयं परंजेन्जा, सुस्वरमाणोति सोउमिच्छा मुस्सा, जहा किमहं आणपहिमिति पज्जुवासमाणो अच्छह, जाहे य आणतो भवति जहा इमे ते कायचं, ताहे वयणं परिगिहिऊण जहेव तेणायरिएण अत्र नवमे अध्ययने तृतीय उद्देशक: आरब्धः [323] ३ उद्देशकः ।। ३१८|| Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [९], उद्देशक [३], मूलं [१५...] / गाथा: [४३९-४५३/४५६-४७०], नियुक्ति : [३२९.../३२७...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||४३९४५३|| +%464% % श्रीदश उपदिई तहेव अविकपमाणो कुज्जा, अविकंपमाणो णाम णियडि अकुव्यमाणोत्ति, जो एतेण पगारेण गुरूणो छन्दमाराधेति ३ उदेशका बैंकालिका ख पुज्योति, ण केवलं आयरियस्सेव विणओ कायव्यो । किन्तु- 'रायाणिएसु०॥४४१ ॥ पूतं, जे रायणिया अप्पमुतावि चूर्णी तेसु विणयं पउंजेज्जा, तहा चालावि जे परियायजेट्टा तेसु विणयं पठजज्जा, जो य जातीपुट्ठो तेसु परियाएमु य बुढेसु 'णीयत्तणे सच्चवादी' णाम जहा बादी तहाकारी, जो 'उबायर्वस पूज्जोति बक्ककरो भवति, तस्थ उ उवातो नाम पिनयाध्य- आणानिइसो, उवायजुर्च वयणं कुव्वतीति उषायवं वक्ककरो भण्णइ, सो एवं पगारगुणमुत्तो पूणिज्जो भवति । किञ्च | यने 'अन्नायउंछं ॥४४२।। वृत्तं, उंछ चउविहे भवइ, तंजहा-नामुंछ ठवण दब्बुछ माबुछ च, णामठवणाओ गयाओ, दग्छं द जहा ताबसादीणं, भाबुछ अन्नायेण, तमन्नाय उंछ चरति, चरति णाम चरातत्ति वा भकूवातत्ति वा एगट्ठा. विसुद्धं णाम | उग्गमादिदोसबज्जियं, 'जवणट्टया' णाम जहा सगडस्स अभंगो जत्तत्थं कीरइ, तहाँ संजमजत्तानिव्धहणत्यं आहारयन्नति, 'समुआणं तु (च)णिकच ' णाम भिक्ख विवित्तं निययं कायव्य, तं च समुदाणं कदायि लमज्जा कदायिण लभेज्जा, जाहे न लद्धं भवइ ताहे अलधुआं णो परिदेवहज्जा, जहाऽहं मंदभागो न लभामि, अहो पंतो एस जणो, एवमादि, सालमवि णो विकत्थेज्जा, तत्थ विकस्था णाम सलाषा भण्णति, जह अहो एसो सुग्महियणामो जणी, जहा वा अई लभामि, को। अन्नो एवं लमिाहिति । एवमादि, जो अन्नातउद्धं चरगादिगुणजुत्तो साधू स पुज्जो भवतित्ति । किंच-'संथारसिज्जासणभत्तपाणे॥ ४४३॥ सिलोगो, संथारया अड्डाइज्जा इत्था दीहत्तणेण, वित्थारो पुण हत्थं सचउरंगुलं, सेज्जा सम्बगिया, ॥३१९॥ | अहवा सेज्जा संथारओ, आसणं-पीढगादि, भनपाणा पसिद्धा, तेसु संथारगादिसु लम्भमाणेसु तमि लामेषि संते || ॥३१९॥ दीप अनुक्रम [४५६४७० [324] Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [९], उद्देशक [३], मूलं [१५...] / गाथा: [४३९-४५३/४५६-४७०], नियुक्ति : [३२९.../३२७...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत ३ उद्देशक: सूत्रांक [१५...] गाथा ||४३९४५३|| 44 श्रीदश- अप्पिच्छया' अप्पिच्छया णाम णो मुच्छे करेइ, ण वा अचिरित्तााण गिण्हइ, जो एएणप्पगारेण 'अप्पाणं आभिओस- वेकालिका एज्जा' अभितोसएज्जा पाम जेण च तेण व संतुट्ठमप्पाणं कृविज्जत्ति वृत्तं भवति, भाणयं च-हे जं च तं च आसित जत्थ व चूणी HD तत्थ व सहोवगयानिह । जेण व तेण व संतुह धीर मुणिओ हु ते अप्पा ॥१॥'संतोसपाहन्नरए' ति संतोसो सव्वपहाणं पहाणे एयंमि संतोसपाहणे जो रतो स पूषणिज्जो भवइति । इदाणि इंदिवसमाही भण्णइ, तंजहा-'सक्का सहेउं आसाइ विनयाध्य कंटया० ॥४४४ ॥ वृत्तं, सक्का णाम सक्कत्ति वा सहयत्ति वा एगट्ठा. सहिउँ णाम अधियासेई, आसाए | Aणाम एतेण करण इमा अत्यसिद्धी भवइत्ति, जहा कोयि लोहमयकंटया पत्थरऊण सयमेव उच्छहमाणा ण पराभियोगेण वेसि ॥३२०॥ लोहकंटगाणं उवरि णुविज्जति, ते य अण्णे पासित्ता किवापरिगयचेतसा अहो बरागा एते अत्थहेउं इमं आवई पतत्ति भन्नति जहा उद्वेह उढेहानि, जे मग्गह ते मे पयच्छामो, तओ तिक्खकंटाणिभिन्नसरीरा उडेति, अविय ते आसापडिबद्धा सक्का सहिउँ, |णाइक्कर, दुक्करं तु आणासाए जो उ सहेज्ज कंटए बयोमए कन्नसरे स पुज्जोति, 'अणासाए' णाम विणा आसाए, सण आसाए अणासाए, 'जो उ' अणिदिट्ठस्स गहणं, तुसदो विसेसणे बट्टइ, किं विसेसयति , जहा सो महंतो पसंसियवो जो अणासाए सहतित्ति एवं विसेसयति, 'सहिज्ज' णाम अहियासेज्जत्ति, कंटगा पसिद्धा, के य, वतीमया, वाया कडगफ18 रुसा कंटगा भवंति, ते य वतीमए कंटए सहइ, कन्नं संरतीति कन्नसरा, कन्नं पविसंतीति वृत्तं भवा, जहा ते कंटगा कायाणुगया | 13| दुरुद्धरा भवंति तहा अणासया वायाक टगा कण्णसोयमणुगया दुरुद्धरा भवतीति । 'मुहत्तदुक्खा उ भवंति कंटया . ४४५॥ वृत्तं, ते य वओमया कंटगा मुहत्तदुक्खा भवंति मुहं च उद्धरिजंति, वणपारकम्मणादीहि य उवाएहि रुज्झविज्जति दीप अनुक्रम [४५६४७० ॥२०॥ [325] Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [९], उद्देशक [३], मूलं [१५...] / गाथा: [४३९-४५३/४५६-४७०], नियुक्ति : [३२९.../३२७...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत वैकालिक सूत्रांक [१५...] गाथा ||४३९४५३|| वायादुरुत्वाणि पुण दुरुद्धराणि भवंति, वेराणुबंधीणि य भवंति, 'महन्भयाणि य' भणियब्बति सोयारस्स कहमाणस्स य दोण्हविः | उद्देशक श्रीदश तत्थ सोयारस्स जहा चोरोत्ति भणिए कि परेण सुतं होज्जति भयमुप्पज्जति, तहा भासगस्सवि एवं गिरा दोसादि महतं भव तित्ति । ते एवं 'समावयंता ॥ ४४६ ।। वृत्तं, 'समावयंता' नाम अभिमुहमावर्यताणि वयणाणि कडगफरुसाणि गहचूों विवज्जियाणि अभिघाया वयणाभिधाता 'कन्नं गया दुम्माणअंजणति' चि, दुम्मणि' नाम दोमणसति। विनयाध्या वा दुम्मणियति वा एगट्ठा, वयणाभिघाए कोयि असतिओ सहइ कोइ धम्मोत्ति, जो पुण धम्मोत्तिकाऊण सहइ सो य 'परमग्गसूरे' भवइ, परमग्गसरे णाम जुद्धसूर-तवसूर-दाणसूरादीणं सूराणं सो धम्मसद्धाए सहमाणो परमग्गसूरो भवइ, ॥३२१|| सव्वसूराणं पाहण्णयाए उवरि वट्टहात्ति बुत्तं भवति. 'जिइंदिए ' ति साहुस्स गहणं, जो एवं बयणाभिघाए सहइ सो पूणिज्जो 1 भवति । एते वयणदासे णाऊण 'अवण्णवायं ॥ ४४७ ॥ वृत्त, अवन्नो नाम अयसा, तस्स अबन्नस्स बयणं अव|न्नवाओ भण्णइ, ते अवन्नबादं परम्मुहस्स नो भासेज्जा, पच्चक्खमवि जाय पडिणीयभासा, जहा तुमं चोरो पारदारिओ वा, तहा ओहारिणि अप्पियकारिणिं च मासं नो भासेज्जा, तत्थ ओहारिणी संकिया भण्णति, जहा एसो चोरो पारदारिओ, |एवमादि, भाणियं च..से मंते! मण्णामिति ओहारिणी भासा' आलावगो, 'अप्पियकारिणी' नाम भासिज्जमाणी अदे-18 ॥३१॥ | सकालपयत्तचेण अण्णण वा कणइ कारणण सोतारस्स णो पीइमुप्पाएइ सा अधि(प्पिय)कारिणी भण्णहत्ति, तमेवप्पगार जोणEL | भासह सदा सो पूयाणज्जो भवइति । ' अलोलुए.' ॥ ४४८ ॥ वृत्तं, 'अलोलुए' नाम उक्कोसेसु आहारादिसु अलुद्धो भवइ, - अहवा जो अप्पणोवि देहे अप्पडिबद्धो सो अलोलुओ भण्णइ, तथा कुहर्ग--इंदजालादीयं न करेहात्ति अक्कुहएति, अहवा वाइ CA%A9%E5%AGAR दीप अनुक्रम [४५६४७० [326] Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [९], उद्देशक [३], मूलं [१५...] / गाथा: [४३९-४५३/४५६-४७०], नियुक्ति: [३२९.../३२७.., भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||४३९४५३|| । ॐॐ ACCIDENT श्रीन- चादि कुइंग मण्णद, तं न करेइ अङ्गहएनि, अन्जवसंपपणो अमाई भण्णाह, सहा आपसुणे यादि 'अपिसुणे'णाम नो मनोपीति- 18/२ उद्देशकः वैकालिका भेदकारए, अदीण वित्ती नाम आहारोवहिमाइसु अलब्ममाणेसु णो दीणभावं गच्छइ, तेसु लद्धसुवि अदीणभावो भवइत्ति पूणा 'अदाणवित्ती नो भावए' नाम नो अन्न एवं पएज्जा, जहा तुम मए अन्नउत्थियाण गिहत्थाण य पुरी ठविज्जासे, जहा। अहो तवस्सी विजातिसयपत्तो नेभित्तिओ एवमादि य,सयमवि अप्पणो नो एवं वएजा जहा धम्मी समओ नाणी वा मित्तिओ वा विनयाध्य. विजासिद्धो वा असुगकालगो वा एवमादि, तहा नडनहगादिसुणो कूउहल करेइ. जो एयगुणजुत्तो साहु सो सदा पूणिज्जो भवइ ।। किंच-'गुणेहि साधू०४४६॥ वृत्त, जे एते विणयगुणा भणिया जो एतेहिं गुणेहिं जुत्तो सो साधू भवइ, तबिबरीएहिं अगुणेहिं असाधु भवइतिणाऊण साहणं जे गुणा ते गेण्हाहि, मुंचहि असाहअगुणे गधलाघवत्यमकारलो काऊण एवं पढिाइ जहा मुंबडसाधुत्ति. विविध-अणेगप्पगारं अप्पगं कम्मुणा अहविषेण बज्झमाण अप्पणो विजाणिय जो रागदोसेहि समो से पूणिज्जो भवति|त्ति । आह-वियाणिया अप्पगंति भाणियब्बे सह किमत्थं अप्पगणति भण्णात ?, आयरिओ आह-केसिंचि उलूगादीण पाणस्स जाणिणोऽविहु अभावो, तप्पडिसहणथं अपकहणति, किंच-'तहेब इहरं च महल्लगे वा०॥४५०॥ वृत्तं, 'तहेब' चि जहा अवष्णवायादी ण कप्पंति आयरिउं तहा इदमवि, एक्सद्दो पायपूरणे, डहरो-बालो भण्णइ, 'महल्लो' थेरो भण्णइ, चकारगहणेण मझिमवओऽवि गहिओ, एतेसि एक्केको इत्थी पुरिसो वा होज्जा, 'एगग्गहणे गहण तज्जातीयाण' मितिकाउ ३२२॥ नपुंसगोऽवि गहिओ, तत्थ इत्थी गिहत्था वा होज्जा पब्वइगा वा, एवं पुरिसोऽवि, नपुंसगोऽवि, सो ण कप्पद पवावंडं, जाहे अणाभोगादिणा कारेणण पवाविओहोज्जा ताहे सबप्पगारेण विगिचणिज्जो, अहवा सोऽवि चरगादिपब्बज्जाए पचइओ होज्जा, ॥३२२॥ दीप अनुक्रम [४५६४७० C+ ACCE9ी [327] Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [९], उद्देशक [३], मूलं [१५...] / गाथा: [४३९-४५३/४५६-४७०], नियुक्ति: [३२९.../३२७.., भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५...] गाथा ||४३९४५३|| साहू एक्केक्कओ डहर मज्झिम महल्ले वा इत्थि वा पुरिसंवा नपुंसग वा पब्बइयं गिहत्थं वा न हीलेज्जा, तस्थ हीलणा जहा सूया उद्देशक बैकालिक| अणीसरं इसरं भण्णइ, दुहुँ भरग भण्णाइ, एवमादि, खिसीद असूयाइ जाइतो कुलओ कम्मायो सिप्पयो वाहिओ वा भवति, जाइओ चूर्णी नहीं तुम मचछजाइजाती, कुलओ जहा तुम जारजाओ, कम्मओ जहा तुम जडेहिं भयणीजी, सिप्पली महा तुर्म सो चम्ममारो. वाहिओ जहा तुम सो को ढिओ, अहबा हीलणाखिसणाण इमो विसेमो-हाँलणा नाम एक्कवारं दुब्बयणियस्स भवइ, पुणो २ विनयाध्य. खिसणा भवइ, अहवा होलणाऽतिफरुस भणियस्स भवइ, सुख निठुरं मासितस्स खिसणा भवइ, सा य हीलना खिसणा य ॥३२३॥ थंभाओ कोहाओ वा हयेज्जा, तेहि थंभकोहेहि पुख्यमेव हीलणाखिसणाओ जढाओ भवंति, जो अहीलणो अखिंसणो य सो य पूयणिज्जोति । किंच-'जे माणिया०॥४५१।। वृत्तं, 'जे' चि अणिहिट्ठाणं गहणं, 'माणिया नाम अमुट्ठाणसकारादीहिं, सययंति वा अणुबद्धति वा एगट्ठा, अणुवमेव ते आयरिया तेसु सीसेसु उबएसपंरिचोदणाहि पडिमाणयत्ति, वहा' जत्तेण कन्नं व निवसयंति' जहा मातापितरो कन्नं आबालभावाओ आरम्भ महता पयचेण संवढेऊण सारक्खिऊण पयत्तेष निवसंति, निवासो नाम भत्ताराणुप्पयाण भण्णइ, एवं ते आयरियावि तं सीसं विणयमूलं धम्मं सिक्खायेऊण सुत्तत्थतदुभोववए य| आयरियत्ते ठायति, जम्हा ते एवंविधं पच्नुवगारं कुबंति अतो ते अब्भुट्ठाणण माणणोवाएण भाणेज्जा , 'माणरिहे| नाम जो सो अम्भदाणसकारादिसंमाणो तस्स परमत्थओ ते अरहा, ण तिथियार्डण आयरियत्ति. तबस्सी णाम तवो बारसविधोर॥३५३॥ सो जेसि आधारियाणं अस्थि ते तवस्सियो, जिइदिए णाम जियाणि सोयाईणि इंदियाणि जेहिं ते जिइंदिया, सचं पुण भाणय जहा विकसुद्धीए तमि रओ सबरओ, ते एवंगुणजुत्ता माणणिज्जत्ति, जो ते माणियइ स पूणिज्जो भवतित्ति । इदाणं सपूयाणज्जेसु जं| दीप अनुक्रम [४५६४७० [328] Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [९], उद्देशक [३], मूलं [१५...] / गाथा: [४३९-४५३/४५६-४७०], नियुक्ति: [३२९.../३२७.., भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत श्रीदश २ सूत्रांक [१५...] गाथा ||४३९४५३|| भण्णाइ, तंजहा- 'तेसिं गुरूणं ॥४५२॥ वृत्तं, तेसि णाम जे ते विणओवएससकारादिगुणजुत्ता भणिया, गुरवो पसिद्धा, बैंकालिका गुणेहि सागरो विव अपरिमिया जे ते गुणसागरा तेसिं गुणसागराणं, सोच्चाग णाम सोऊण वा सोच्थाण था एगट्ठा, चूणों मेहावी पुधभाणओ, सोभणाणि भासियाणि सुभामियाणि, 'चरे ‘णाम आयीरओबएसमायरिजा, मुणिगहण मुणित्ति वा विनयाध्य. नाणित्ति वा एगट्ठा, पंचसु महबएसु जयणाए रो भवेज्जा, सारक्खणजुत्तोत्ति वुत्त भवदात्त, गुत्ते-मणवयणकाइएहि गुत्तो भवज्जा, कोहाईहि चउहि कसाएहि उवसंतेहि चत्तीह आयरियाणं सुभासियाई गहिऊणमायरेज्जाति, जो एयपगारगुणजुत्तो ॥३२॥ साहू सपूणिज्जो भवइ, इदाणि विणयफल भण्णइ- 'गुरुामह सययं०॥४५३।। वृत्तं, तस्थ गुरू पसिद्धो, इहग्गहणेण मनुस्सलोगस्स गहणं, कम्मभूमीए या गहणं कयंति, सययनाम सययंति वा सन्चकालंति वा एगहा, 'पडियरिय ' नाम जिणोव- । चइटेण विणएण आराहेऊणति चुतं भवइ, 'मुणी 'नाम मुणित्ति वा णाणित्ति वा एगहा, जिणाणं वयणं तमि जिणवयणे णिउणो जिणवयणणिउणे, तहा 'अभिगमकुसले ' अभिगमो नाम साधूणमायरियाणं जा विणयपाडवत्ती सो अभिगमो भण्णइ, त। मामि कुसले, वितिय कुसलगहर्ण कुत्थियाओ कारणाओ स लसइत्ति कुसलो, अहबा अच्चस्थानाम बा पुणो भण्णमाणो | कुसलसद्दो पुणरुत्तं ण भवतीति, सो एयप्पगारेण धुनिउं अट्ठविहं कम्मरयमले पुचकयं नवस्स आगमं पिहिऊणं ' भासुरमउलं P गई वई' ति नत्थ पभासतीति भासुरा, अउला नाम अण्णण केणवि कारणेण समाणगुणेहि न तीरइ तुलेउं सा अतुला भण्णइ. सा सिद्धी, ते भामुरं अतुलं गई वयंतीति, बहंति नाम बयंतिति वा गछतिति वा एगट्ठा, साबसेसकम्माणो देवलोग सु-11 दीप अनुक्रम [४५६४७० ॥३२४ [329] Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+भाष्य +चूर्णि:) (४२) । अध्ययनं [१], उद्देशक [४], मूलं [१-५/४७१-४८४] / गाथा: [४५४-४६०/४७१-४८४], नियुक्ति : [३२९.../३२७...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: % प्रत सूत्रांक [१-५] गाथा ||४५४ ES ४६०|| लपच्चालाई लतूषण पच्छा सिमिज्जा, बेमि नाम तीर्थकरोपदेशात, न स्वाभिपायेण ब्रवीमि । श्रीदश उद्देशक वैकालिक विणयज्झयणसमाहीए तइओ उद्देसो सम्मत्चो चूर्णी. -चउत्थउद्देसगत्थाभिसंबंधो-विणयसमाधी अविसेसिया भाणया, तम्भओवदरिसणस्थमिदमुच्यते--सुतं मे आउसंतण[81 ९ भगवया एवमक्वायंति' (सूत्रं १६)एयस्त अत्थो जहा छज्जीवनियाए, इहत्ति नाम इह सासणे, खलसदो बिसेसणे, किं विवे-IN विनयाध्यायति. न केवल गोयमाईहिं थेरेहि तित्थगरसगासओ सोउं चउचिहा विणयसमाही भण्णइ, किन्तु तीयाणाययथरतहिषि अप्पणी गुरुसगासे सोऊण एते चेव चचारि विणयसमाधिट्ठाणा अतीता पन्नति या, अणागया पण्णवेस्संति एवं विसेसमंति, थेरगहणण ॥३२५॥ गणहराणं गहणं कय, भगवतेहिं नाम भयो-जसो भण्णइ, सो जेसि आस्थ ते भगवतो, अतो तेहि भगवंतेहि, चत्तारित्ति संखा, विणयो चेव समाही विणयसमाही, समाही वा गाम ठाणं ति वा भेदोत्ति वा एगट्ठा, पण्णत्ता नाम परूपिया, आह-कयर खलु जाव पत्ता, आयरिओ भणइ-'इमे खलु जाव पन्नत्ता, तंजहा- विणयसमाही सुयसमाही तवसमाही आयारस-1 |माही विणय एव समाही विणयसमाधी, सुतमेव समाधी सुतसमाधी, तब एव समाही तवसमाही, आधार एव समाही। आयारसमाही, एसो पदअत्थो, अत्यो इमाए संगहणीए भण्णइ-'विणए सुते या४५४॥ सिलोगो, अहवा तत्थेवतेसिं चेक अत्था-11 लणं कुडीकरणाणिमित्तं अविकप्पणानिमित्तं च पुणो महणं कथंति, उक्तंच-"यदुक्तो यात्र) पुनः श्लोकैरवस्समनुगीयते । तद् ब्यक्त-ल ॥३२॥ व्यवसायार्थ, दुरुक्तो वाऽथ गृह्यते ॥शा" तम्हा एतेण कारणेण सो चेव अत्थो पुणो सिलोगेण भण्इ--बिणए सुए अ.तवे, ट्राआयारे निच्चपंडिआ। अभिरामयति अप्पाण' अभिरामयंति नाम एतेहि कारणेहि अप्पाण जोतति ति बुत्तं भवा के 4- * दीप अनुक्रम [४७१४८४] अत्र नवमे अध्ययने तृतीय उद्देशक: परिसमाप्त: तथा चतुर्थ उद्देशक: आरब्ध: [330] Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) (४२) । अध्ययनं [१], उद्देशक [४], मूलं [१-१/४७१-४८४] / गाथा: [४५४-४६०/४७१-४८४], नियुक्ति : [३२९.../३२७...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक वैकालिका [१-५] गाथा ||४५४ श्रीदश- चूर्णी. विनयाध्ययने AAA-GE ४६०|| पुण ते अमिरामयंति ?, एत्थ भण्णइ--'जे भवंति जिईदिय 'ति, जेत्ति अणिदिड्डाण गहणं कयंति, एतेसु चउसु ठाणसु ते ४ उद्देशकः अप्पाणं अभिरामयंति जे य जिइंदिआ भवंति, न पुण अजितिदियत्ति, विणयमूलो एस जिणप्पणीओ धम्मोत्तिकाऊण अगे पुलि विणयसमाही माणिया, तमि विणए अवास्थओ सुतं गेण्हइत्ति, अतो विणय (समाहीए परओ) सुयसमादी भणिया, तमि य सुए तवो वाणिज्जातचि अओ तवसमाही भणिया, तवो य आयारादुवस्थियस्स सुद्धो भवइत्ति अतो आयारस्स समाधी भाणया । इदाणि एतेसि एककं चउन्विहं भण्णइ, तत्थ ' पउचिहा खलु विणयसमाही भवइत्ति (सूत्रं १७)'चउम्विहा ' नाम चउब्विहति वा चउभेदत्ति वा एगट्ठा, खलुसहो पायपूरणे, विणओ चेव समाधी विणयसमाधी, अहवा विणयसमाधी भवति । णाम हवहात्ति वा एगट्ठा, साय चउबिहावि इमा, तंजहा अणुसासिज्जतो सुस्वसइ, पढमं विणयसमाधीए पदं, सम्म संपडिवज्जतित्ति बितियं पदं, वेयमाराहइत्ति ततियं पयं भवति, जय भवद अत्तसंपग्गहिए, चउत्थं पदं भवति, तत्थ अणुसासिज्जंतो | सुस्सूसइ णाम अणुसासणा पडिचोदणा भण्णइ, पडिचोइज्जतो ममेव हितमुबइसतित्ति सुस्मुसइ, 'सुस्सूसइ' नाम तदेव | ll |पडिचोवणं पुणो पुणो सोउमिच्छति,' संमं संपड़िवज्जई' नाम तं पाडिचोदणं तत्तओ पाडिबज्जा, 'वेयमाराहद' नाम वेदो-नाणं भण्णइ, तत्थ जं जहा माणितं तहेव फुच्चमाणो तमायरइत्ति, न य भवइ अत्तसंपग्गहिए 'नाम नो अत्तुकारसं करेइत्ति, जहा विणीयो जानकारी य एवमादि, मुत्तकमपरिवाडीए चउस्थमेयं पदं भयह । भवह य एष विणय ॥३२६॥ समाहीए सिलोगो, तंजहा पेहेइ हिआणुसासणं, सुस्सूसई तं च पुणो अहिडए । न य माणमएण मज्जई, विणप-10 समाही आययहिए ॥ ४५५।। 'पहेई' नाम पेहतिान्ति वा पेच्छतित्ति वा एगहा, 'हिआणुसासणं' नाम जे इहलोगहिये ॥३२६॥ दीप अनुक्रम [४७१४८४] - - [331] Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [४], मूलं [१-५/४७१-४८४] / गाथा: [४५४-४६०/४७१-४८४], नियुक्ति : [३२९.../३२७...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [[१-५] गाथा श्रीदश- वकालिका चूर्णी. ||४५४ ४६०|| विनयाध्ययने ॥३२७॥ परलोमहियं चौइज्जइ त हियति, आयरियउवज्झायादओ य आदरेण हिओवदेसगत्तिकाऊण सुस्सूसइ, तमेव पुणो तेसि हिओवएस | ४ उद्देशका संम आहियतीति, अहिवेति नाम अहिट्ठयतित्ति वा आयरइत्ति वा एगट्ठा, 'ण य माणमएण मज्जईन मा (ण कुणइ) जहा विणयसमाहीए पहुच्च को मए समाणो अण्णोत्ति, 'आयपडिए' नाम आयओ मोक्खो भण्णइ, ते आययं कंखयतीति | आययट्ठए, अथवा विणयसमाधीए आययढाए अच्चत्थं आदरो जस्स सो विणयसमाधीआययाद्विआ भण्णइ, विणयसमाधी भाणया। इदाणि सुयसमाधी भण्णा, तंजहा-'सुअं मे भविस्सइत्ति अज्झाइअव्वं भवइ, पदम सुतसमाधीए पदं, एगग्गचित्तो भविस्सामित्ति अज्झाइअव्वयं भवइ, वितिय सुयसमाधीए पद, अप्पाणं ठावइस्सामित्ति अज्झाइअव्वयं भवह, तइयं सुयसमाहीए पदं, ठिओ परं ठावइस्सामित्ति अज्झाइअब्धयं भवइ, चउत्थं सुयसमाहीए पयं भवतित्ति ॥ (सूत्रं १८) अज्झाइयब्वयं भवइ 'सुयं' नाम दुधालसंग गणिपिडग, तं मे णाय भविस्सतित्ति एवं आलंवण काउं साहुणा अज्झाइयत्वं भवति, एगग्गचित्तं अज्झायंतस्त भाविस्सतित्ति एवं आलंयण काउं साधुणा अज्झाइयव्यं भवइ, तहा सुहविरागंजाणमाणो सुई अप्पाण धम्मे ठाबेहामिति एवं आलंवणं साहुणा काऊण अज्झाइयव्वं भवइ,सुयं कमपरिवाडीए, चउत्थमेयं पदं भवइ । भवइ य एत्थ सुयसमाहीए सिलोगो, तजहा-नाणमेगग्गचित्तो, ठिओ अ ठावई परं । सुआणि अ अहिज्जित्ता. रओ सुअसमाहीए ॥४५६।। अज्झाइए णाणमंतो भवइ, गणणगुणण एगग्गचित्तो, एगग्गचित्तो य धम्मे है ॥३२॥ निच्चलो, ठिओ सो सम्म समत्वो परमवि ठावेउंति, नाणाबिहाणि य सुयाणि अहिज्जमाणो रओ सुयसमाधीएत्ति । इदाणं तवसमाधी भण्णइ- चउब्बिहा खलु तवसमाही भवइ, तंजहा-नो इहलोगट्ठयाए तवमहिडिज्जा (सूत्रं १९)४ दीप अनुक्रम [४७१४८४] [332] Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [1-4] गाथा ||४५४ ४६०|| दीप अनुक्रम [४७१ ४८४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + | भाष्य | +चूर्णि:) अध्ययनं [९], उद्देशक [४], मूलं [१-५/४७१-४८४] / गाथा: [ ४५४-४६०/४७१-४८४] निर्युक्तिः [ ३२९.../३२७...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि तवो बारसविधो, तं इहलोगकारणा जो अहिडेज्जा, जहा ममं तवोजुतं गाउं सपक्खो परपक्खो य वत्थादीहिं एइ, इहलोइया वा कामभोगा माणुस्सगा लभिस्सामिति, तत्थ उदाहरणं धम्मिलो, पढमं तवसमाधीपदं गतं । तहा णो परलोगट्टयाए तवमहिद्वेज्जा, जहा देवलोगे मे असुगा रिद्धी भवउ, अमुगे विमाणे उवबज्जेज्जा, अम्रुगं वा चक्कवट्टिमादि माणुस्सर्य रिद्धि परभवे लभेज्जा, एत्थ उदाहरणं बंभदत्तो, चितियं तवसमाधि पदं गतं । तहाणी कित्तिवण्णसहसिलोगठ्याए तवमहि| विनयाध्यः द्विज्जा' कित्तिवण्णसदास लोगडया एगट्ठा, अच्चत्थनिमित्तं आयरनिमित्तं च पजमाणा पुणरुतं न भवतीति, ततियं यने ॥३२८॥ समाधि पदं गतं । नन्नत्थ कम्मनिज्जरट्टयाए तब महिईज्जत्ति' णगारो पडिसेध बढ्इ, अन्नत्थसदो परिवज्जणे वट्ट, जहा कम्मनिज्जरामेगां मोत्तूण अण्णस्स न कस्सह, अत्थस्स अट्ठाए तत्रमहिडिज्जा, तवकमपीरवाडीए चउत्थमेयं पदं भवतिति । भवइ य एत्थ तवसमाधीए इमो सिलोगे, तंजहा 'विविहगुणत बोरए य निच्च, भवइ निरासए निज्जरट्ठिए । तवसा धुणइ पुराणपावर्ग, जुत्तो सया तवसमाहिए ||४५७ || विविधेषु अणे गप्पगारेसु गुणसु तवे य बारसविधे रओ णिच्ं भवद्द, णिरामण णाम निम्गता आसा अप्पसत्था जस्स जस्स साहू अट्टप्पारं पावं तवसमाधीए जुतो धुणतित्ति चउब्विा तवसमाही भणिता । एवमायारसमाधी चटबिहा भाणियच्चा णिरवसेसा, नवरं णष्णस्थ आरहंतेहिं हेऊहिं आयारमहिहिज्जा, एयंमि आलावगे सिलोगे व विसेसो, जे आरहंतेहिं अणासवत्तणकम्मणिज्जरणमादि भोक्तवो भणिता आचिन्ना वा ते आरहतिए हेऊ मोसूण णो अन्नस्त साहणडा मूलगुणउत्तरगुणमयीय आयारमहिट्टिज्जति । सो य पुव्यहओसिलोगे इमो, तंजहा- 'जिणवयणरण ० ४५८ ॥ सिलोगो, जिणा पुब्वभणिया, श्रीदशवैकालिक चूण. [333] ४ उद्देशकः ॥३२८|| Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) (४२) । अध्ययनं [१], उद्देशक [४], मूलं [१-१/४७१-४८४] / गाथा: [४५४-४६०/४७१-४८४], नियुक्ति : [३२९.../३२७...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१-५] गाथा ||४५४४६०|| १० श्रीदश- जहा दुमपुस्फियाए, एतेसि जिणांण वयणं तमि रती जस्स से जिणवयणरए, 'रए' नाम रुइयंति या सेयति वा एगहा, ४ उदेशका घकालिक 'अतितिणे' अचवले वा ( पडिपुण्णाययमाययहिए ) पडिपुन्न' नाम पडिपुनति वा निरवसेसंति वा एगट्ठा. मुतत्थेहिं पडिपुण्णो, चूर्णी. आयया (अच्चत्थं, आयओ मोक्खो तमत्थेइ अभिलसतित्ति) सुयाइ आयोर चैव समाही आयारसमाही, ताए आयारसमाहीए संवुडे | भवति, संवुडे णाम संवरियासबदुवारे, चकारो समुच्चये बट्टइ, न केवलं आयारसमाधिसंखुडे, किन्तु पुचिल्लाहिं समाहीहि उवेए 12 सभिक्ष्यध्या देते विहे-इंदिएहि य नोइंदिएहि य, नोइंदिएहि 'भावसंधए' णाम भायो मोक्खो तं दत्थमष्यणा सह संबंधए । इदाणी एयाए। ॥३२९॥ चउम्विहाए समाहीए फलं भण्णइ, तंजहा--' अभिगम चउरो समाहिओ ॥४५९॥ एतं, आभगयाओ समेयातो IPाविणयसमाधिमादियाआ चउरो समाहीओ जस्स सो अभिगम चउरो समाधीओ, 'सविसद्धो नाम तेहिं मणवयणकाएहिं जोगेहिं | मुटु विसुद्धो सुविसुद्धो, मुटु सत्तरसविहे संजमे समाहिओ अप्पा जस्स सो सुसमाधिअप्पा. विउल विच्छिदं भण्णह, विपुलं तं हितं || च विपुलहित, सुहमावहतीति मुहावह, पुणसद्दो विसेसणे वट्टइ, किं विसेसयति ?, जहा एयाओ चउरो समाहिओ समणा आयरिऊण य पच्छा अयं विपुलं हितं मुहमावहति णाम कुव्वात्त वा घडइत्ति वा एगट्ठा, सेत्ति साधुस्स निदेसा, पर्द-ठाणं 'खेम' णाम खेमति वा सिवंति वा एगट्ठा, सो य मोक्खो, अत्तणो गहणेण एवं परूवियं भवइ, जहा चेचो कम्मं करेइ, सो|| वेष अविणट्ठो अण्णण परियाएण जुजइ, 'जाइमरणाओ'०॥ ४६० ।। वृत्तं, जाती मरणं संसारो ताओ संसारातो मुच्चइत्ति, ॥३२९॥ 'इत्थत्थं ' णाम जेण भण्णइ एस नरो वा तिरिओ मणुस्सो देवो वा एवमादि, सच तं सो जहातीति, सब्यसो नाम ण पुणो सरीरं गेहइत्ति, सो एतप्पगारगुणजुत्तो सिद्धो भवइ, सासयो, अप्परए वा देवे, तेण थोवावसेसेसु कम्मत्तणण देवो लवसत्तमेसु 65% दीप अनुक्रम [४७१४८४] [334] Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [९], उद्देशक [४], मूलं [५...] / गाथा: [४५४-४६०/४७१-४८४], नियुक्ति: [३२९.../३२७...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१-५] गाथा ||४५४ SEAREE ४६०|| श्रीदश-18| परममहिढिएमु भवइ, अनेसु वा चेमाणिएम इंदसामाणियादिसु महिडिओ भवा, पेमि नाम तीर्थकरोपदेशात्, न स्वाभि-181. सकार: वैकालिका प्रायेणेति, इदाणी णया-'णायंमि गिपियव्वे०॥ गाहा, 'सब्वेसिपि णयाणं.'॥ गाहा, पूर्ववदिति ॥ चूणों. वामपदया 18 निक्षेपाः विणयसमाहीअज्झयणं सम्मत्तम् सभिवष्य एतेसु नवसु अझयणत्थेसु जो पढ़ा सो मिक्खू , एतेण अभिसंबंधेणागतस्त दसमायणस्स चत्तारि अणुयोगदारा जहा। आवस्सए, नवरं नामनिष्फण्णो निक्खेबो सभिक्खू, सगारो निक्विवियवो, भिक्स य निक्खिावियबो, तत्थ पुव्वं सगारो | भण्णइ, सो बिहो, संजहा-नामसकारो ठवण दव्य भावसगारो यत्ति, णामठवणाओ गयाओं, दवसगारा दुबिहा, तंजहा-आगमओ जोआगमओ य, आगमओ जाणए अणुवउत्ते, नोआगमओ विविहो, तंजहा-जाणयसरीरदब्यसगारो मवियसरीरदब्यसगारो जाणयसरीरमबियसरीरवहरित्तो दवसगारोति, तत्थ जाणगसरीरदब्बसगारो जीवो सगारजाणओ तस्स जे सरीरगं जीवरहियं पुब्वभावपण्णवर्ण पहुच, जहा अयं घयकुंभे आसि, एस जाणगसरीरदब्बसगारो, इयाणी भवियससरदब्बसगारो जो जीवो सगारं जाणिहित्ति अणागयभावपण्णवर्ण पडुच्च, जहा अयं षयकुंभे भविस्सइ अयं महुकुम मावस्सह, इदाणि जाणगसरीरभवियसरीरबहरित्तो इमेण गाथापुम्बद्धण भण्णइ-'निसपसंसाए.॥३३१॥ अद्धगाथा, सगारो तिसु अस्थेसु परह-निदेसे पसंसाए अस्थिभावे य, निदेसे जहा से गं तो अणंतरं उच्चट्टित्ता हेव जंबुद्दीवे एवमादि, पसंसाए । | जहा पुरिसा सप्पुरि सेहि सम वसंता भवति पुरित्तिमा वरिंदनीलमरगयमणिणो व जच्चकणमसहसंबद्धा एवमादि) आस्थ ॥३३०|| भावे जह सबर्ष अमुर्ग कज्जति एवमादि, दध्वसगारो भपिओ, भावसगारो णाम जो जीवो सगारोवउचो सो भावसगारो। GACASANA-KARAN दीप अनुक्रम [४७१४८४] -9 अध्ययनं -९- परिसमाप्तं अध्ययनं -१०- 'स-भिक्षु' आरभ्यते [335] Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [१०], उद्देशक -1, मूलं [५...] / गाथा: [४६१-४८१/४८५-५०५], नियुक्ति : [३२९-३५८/३२८-३५८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक गाथा ||४६१ सभिक्ष्यभ्या ४८१|| ॥३३॥ भण्णइ, एते नामठपणभावसगारा उच्चारितसरिसत्तिकाऊण परूविया, इह पुण दब्बसगारेण पओयणं, तत्थवि जे इमेहिं दोहिंसकारवढूति तेण अहिगारो, तंजहा-'णिहेसपसंसाए.॥ ३१ ॥ गाथापच्छद्ध, णिइसे पसंसाए य एतेहिं दोहि कारणेहि भिक्षुपदया निक्षेपाः इमंमि दसमज्झयणे पयोयणं, कई', 'जे भाषा दसवेआलिअंमि.'॥ ३३२ ।। गाथा, जे भावा दसयालिए कराणज्जा भगवतेहिं जिणेहिं वणिया तेसि भावाणं जेण समावज्जणं कयं सो भिक्खू भण्णइ, सो भिक्खुत्ति सोमणो घा मिक्सुत्ति, तत्थ। समावज्जणं णाम जे तेसि गुणाणं करणं तं भण्णाइ, सगारो भणिओ। इदाणिं भिक्ख भण्णइ, तस्स मा दारगाहा 'भिक्खुस्स य निक्खेबी० ॥ ३३४ ॥ दारगाहा, भिक्खुस्स य णिक्खेवो भाणियब्बो, णिरुतं माणियब, एगडियाणि भाणियव्याणि, लिंगाणि भाणियन्बाणि, अगुणेमु ठितो भिक्खू न भवइ, अगुणेमु य अद्वितो भिक्खू भवइ, एयाणि पयाणि, एतेहिं दारेहिं | भिक्खुस्स वक्खाणं कायध्वंति, तत्थ निक्खेवो इमो, तंजहा-'णामं ठवणा भिक्खू०॥ ३३५ ॥ गाथापुव्वद्धं, चउब्बिहो भिक्खू भवति, तंजहानामाभिक्खू ठवण दय० भावभिक्सुत्ति, नामठवणाओ गयाओ, दब्बाभिक्ख इमो, संजहा-दवमि आगमाई.'॥ ३३५॥ गाहापच्छदं, दव्यभिक्खू दुविधा, तंजहा--आगमओ णोआगमओ य, आगमओ जाणए उवउत्ता, णोआगमओ तिषियो-जाणगसरीरदयभिक्खू भवियसरीरदबभिक्खू जाणगसरीरभवियसरीरबहरित्तो दधभिक्खू तत्थ हा जाणगसरीरबभिक्खू भिक्खुपदत्याहिगारे जाणगस्स मयसरीरो, जहा अयं घयकुंभे आसि अयं महु कुंभे आसि, मवियसरीर| दवभिक्स् जो भिक्खुपदस्थाहिगारं जाणिहिति, जहा अयं घयकुमे भविस्सति अर्य मधुकुंभे भविस्सइ, जाणगसरीरभवियसरीर-13॥२९ वहरिचो दव्यभिक्यू तिविधो, तंजहा-एगभविओ जो अणंतरभवे भिक्खू भविस्सइ, बद्धाउओ णाम जेण आउयं बर्ख, अमिमुहनामगुतो दीप अनुक्रम [४८५५०५] HERECEIG [336] Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [१०], उद्देशक -1, मूलं [५...] / गाथा: [४६१-४८१/४८५-५०५], नियुक्ति : [३२९-३५८/३२८-३५८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक" नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक 245 चूणी. गाथा ||४६१ ४८१|| ॥३३॥ श्रीदश- जेण पएसा णिच्छूटा, अथवा इमो दवभिक्ख भण्णा-भइओ भेअणं चेव०॥३३६॥ गाथा, दय भिंदतीति दव्यभेदओ, सो सकारकालिका दबभेदो परवेयब्बो, दबभेदणं परवेयवं, दवं मिंदियब्वं तंच, परूवणं एतेसि तिण्डवि पत्तेयं २ वोच्छामि, सा य परूवणामपदया IA इमा-'जह दारुकम्मगारो० ॥३३७॥ गाहापुम्बद्ध, जहासद्दो पुग्वसहमतिविहपरूवणअभिनिदेसओ, दारुकम्मकारो बडति, निक्षेपाः | सो दब्बभेदओ भण्णइ, भेदणं परम, भेत्तब्वयं कहूँ, सो य दारुकम्मकारो एतेहिं भिदएहिं सजुत्तो दवभिक्खू भवद । किंच। सभिक्ष्वध्य । 'अन्नेवि दवभिक्खू ॥३३७।। माथापच्छङ्घ, न केवल दारुकम्मकारो दबभिक्खू भवइ, किन्तु , अन्नेवि दवभिक्खयो जे मूलगुणउत्तरगुणेहिं चिरहिया लोगमुवजीदति ते दग्धभिक्खनो भण्णंति, देवा अम्हे तिलोगनित्थारणत्थं मणुस्सलोए अवयरिया || |ते एवं बभणा णाम कोधी माणी मायी मिच्छादिट्ठी उज्जुपन्ने धम्ममि अविकोबिया मता याजणगा दुपदादीणि मग्गमाणा | दबभिक्खवो भणति, तहा अनेऽवि जीवाणियनिमित्तं तारिसा कप्पाडयादणि दाणा किविणा सिप्पतो भिक्खमडमाणाविज्जा दबभिक्खयोति पासंडिणोऽवि ' मिच्छट्टिी०१॥३३९ ॥ गाहा, रत्तपउपरिवायगमादीवि मिच्छादिट्ठी वधपरा तसाणं | बेइंदियादीणं थावराण य पुढविमाईणं णिच्चमेव वधकारगे रचा, अबभचारितणेण संघइयदोसेण य दन्यभिक्खनो भवंति, आहकहं ते अबभचारी भवंति , आयरिओ आह-सक्काण ताच जे तत्थ असीलमंता तेसु मग्गणा णस्थि, जे पुण सीलमंता ते मणवदओ पहुच्च पेसदासिपरिग्गहा कह बंभचारी भविसति, संखावि पत्ताणं सहादीण विसयाण उपभोगो कायच्वोत्ति एवं | ॥३३२।। उवासंता कहं बंभचारी भविस्संति', एवं अण्णेमुवि आजीवगाइम पासंडेसु जहा संभवं भाणियब्वं, तहा इमेण संचएण संचइया, | | तंजहा-'दुपयचउप्पय० ॥ ३४० ॥ गाथा, दुपदं दासी दासा य, चउप्पयं गोमहिसादी, धणं- हिरण्णसुवण्णादी, धणं दीप अनुक्रम [४८५५०५] [[337] Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [...] गाथा ||४६१ ४८१|| दीप अनुक्रम [४८५५०५ ] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + भाष्य | + चूर्णिः) अध्ययनं [१०], उद्देशक [-], मूलं [ ५...] / गाथा: [४६१ - ४८१ / ४८५- ५०५ ], निर्युक्ति: [ ३२९-३५८/३२८-३५८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्ण: जमानामा सालीवीद्दिमादि कुवियं घडघडियउडचणिय आसणसणाइयंति, तेसु च दुप्पयादिसु तिगतिअपरिग्गहे णिरया सचितागि उभित्ताणि य सूजमाणा व्यक्त्रिो भवंति कई पुणे ते तिगतिगपरिग्गहे निरयत्ति ?, एतस्स अन्थस इमा वक्खाणगाथा-' करणतिए जो अतिए० ॥ ३४१ ॥ गाहा, करण कारावणअणुमोदणमहरण तिविघेण करणेण विविषेण मणवकाएण जोएण सावज्जे आरंभ आहे सरीर भोगकारणे पचत्तमाणा तह परहेतुगमवि करणतिएण भिक्षु अ० 8 जोगतिएण य सावज्जे पवत्तमाणा, एयस्स उभयस्स अड्डाए पवत्तमाणा भणिया, अण्डाएवि कंलक विधीहामित्ति अनतरं सत्तं विधति पक्खिवाए वा एवमादि, एवं अणद्वाए पवत्तमाणा तेऽवि जाय दव्वभिक्खुत्ति 'विज्जा' नाम जाणेज्जा, दव्यभि ॥३३३॥ क्खू भणिओ । इदाणि भावमिक्स इमेण गाथापुव्यद्वेण भण्णइ, तंजहा--'आगमओ उबडत्तो० ॥ ३४३ ॥ गाथा, भावभिक्खु दुविधो, जहा- आगमओ पोआगमाओं य, आगमओ जाणए उबउंचो, गोआगमओ तग्गुणसंवेदए नाम जे भिक्खगुणे संवेदय सोतरगुणसंवेदओ भण्णइ, तेण भावभिक्खुणा इहमधिगारो, सेसा उच्चारियसरिसत्तिकाऊणः परुविया, भावसिकावू भणिओ, गयं णिक्षत्तिदारं । इदाणिं णिरुत्तमिति, 'तस्स णिरुत्तं भेद० ॥३४३॥ गाथा रच्छद्धं, 'तस्स' दिवस व्यभणितस भिक्खुरस निरुतं भेदगेण भेदमेण भित्तव्वएण य तिविधं भवति, एतेसिं तिष्हविं इमं निदरिसणं- 'भत्तागमवतो.' ||३४४|| गाहा, भेता) साधू, भेदणं दुविहं बाहिरमंतरओ, मेत्तव्यं अडविहं कम्, ते च खुहं भण्णा, जम्हातं भिदइ अतो निरुतं स. भिक्खुति । किच-भितो अजुह खुदं० ॥ ३४५ ॥ गाथा, जहा खुदितो अगद भिक्ख सहा जयमाणो साधू जई भाइ, तहा संजम सत्तरसपणारं चरमाणो चरओ भग्गड़, तहा भवं चप्पगारं खमाणो खवणो मण्णइ, अहया भिक्खुसदस्स श्रीदश वैकालिक चूण १० [338] मिक्षुनिक्षेपाः ||३३३॥ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [१०], उद्देशक -1, मूलं [५...] / गाथा: [४६१-४८१/४८५-५०५], नियुक्ति : [३२९-३५८/३२८-३५८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक -मनमा गाथा ||४६१४८१|| न श्रीदश- इमेण अमेण पज्जाएण निरुतं मण्णइ, तंजहाज भिक्खणमेचवित्ती० ॥३४६॥ गाहा, जम्हा भिक्षणमेतविधी अतो सकारवकालिकाभिराव भण्णाइ, अणं कम भण्णा, जम्हा अर्ण खवयइ तम्दा खवणो भण्णइ, तबसंजमेसु बट्टमाणो तवस्सी भण्णइ,णिकतं गयं । सोयामिक्षपदयों चूर्णी. इदाणं एगडियाणि भिक्खुस्स तिहिं गाहाहि भण्णंति-'तिने नाती०(ताइ वृ०॥३४७|| गाथा, पवाए अणगार॥३४८॥ Instanनिक्षपा: १० | एत्तो परं तु (साह लूहे अतहा) गाहा॥३४९।। तत्थ 'तिण्णो' नाम जम्हा संसारसमुदं तरिंसु तरति तरिस्सति य इति तिणे, भिक्षु अ. | जम्हा अण्णेऽपि भविए सिद्धिमहापट्टणं अविग्ण णाणाइणा पहेण नयति तम्हा नेया, दविए नाम रागदासविमुको भवइ, क्याणि ॥३३४॥ एतस्स अस्थि अतो वती, खमतीति खंतो, दियकसाया दमतीति देतो,पाणवहादीहि आसवदाहि न पविरमाहात विरए, मुणा । मुणिति वा नाणित्ति वा एगट्ठा, अहवा सावज्जेसु मोणमासेवातिचि मुणी, तवे ठियो तावसो, पनवयतीति पनवआ, 'उज्ज'। मायाविरहओ अहवा उज्जु-संजमो तमि अवस्थिओ उज्जु भवइ,भिक्खू पुषभणिओ, बुझइति घुद्धी,जयणाजुत्तो जती, विदू नाम | विदुर्ति वा नाणित्ति एगट्ठा,(पढमाए) गाहाए अत्थो भणिओ । इदाणि विदयाए भण्णइ, तत्थ पन्बाए णाम यो वा पाणवधादीओ प्रवांजतो, अणगारोणाम अगारं परं भष्णइ, तं जस्स नस्थि सो अणमारो, अट्टविहाओ कम्मपासाओ डीणो पासडी, तब चरतीति चरओ, अट्ठारसविहं बंभ धारयतीति भणो, भिक्खणसीलो मिक्ख, सम्बसो पार्य परिवज्जयतो परिवायगो भण्णइ, सममणो | भासमणो, बाहिरम्भतरेहि गंथींह विरओ निग्गंधो, अहिंसादीहि संमं जुओ संजतो, जे बाहिरम्भतरेहि विष्पमुको सो मुचो । चितियाए| 3|अत्यो भणिओ । इदाणित.याए गाहाए अत्थो भन्नति, तत्थ णिवाणसाहए जोगे पहे साधयतीति साधू, अंतपतेहि लहेहिं । जीवतित्ति लूहे, अहबा कोहादिणा हासो तस्स नरिथ सोलहो, संसारसागरस्स तीरं अस्थयतीति तरिडी, अत्थयति नाम अत्थ दीप अनुक्रम [४८५५०५] RECASEXI ज । [339] Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [१०], उद्देशक -1, मूलं [५...] / गाथा: [४६१-४८१/४८५-५०५], नियुक्ति : [३२९-३५८/३२८-३५८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक चूर्णी, गाथा ||४६१४८१|| श्रीदश- यतित्ति वा पत्थयति वा एगडियाणि । इदाणिं तस्सेव मिक्बुस लिंगाणि दोहिं गाहाहि भण्णंति-संबगो निव्वेओ०॥३५०४ उद्देशकः कालिक गाहा, 'खेती यमवऽज्जब० ॥ ३१॥ गाहा, तत्थ जिणप्पणीए धम्मे कहिज्जमाणे परसमए य पुवावरविरुद्ध दुसेज्जमाणे हजो संवेगं गच्छद सो तस्स संवेगो भिक्खुलिंगं णायब्बति, तहा नरगमयगम्भवासादिभयमादिसु जो निषेयं गच्छद सोवि तेण| पिव्वेयमतिएण लिंगण भावभिक्खु णायव्यो, तहा सदाइसु विसएसु जो विवेगो सो भिक्खलिंगमेव भवर, तहा सोभणसीहि मिक्षु अ.18 | समाण संसग्गी भिक्खुलक्खणं भवइत्ति, तहा इह (पर) लोगाराहणावि भिखुलक्षणं णायब, एवं तवो बाहिरब्भतरो, गाणं॥३३५|| लाआभिणिवाधियमादि पंचविध, सणं दुबिह, त-णिसग्गर्दसणं अभिगमुष्पबदसणं च, चरिच अट्ठारससीलंगसहस्समयियं, विणओं| ITIविणयसमाधीए पुग्वं मणिओ, एते सम्बंऽवि भेदा भिक्खुस्स लिंगाणि भवंति, पगाए गाहाए अस्थो भणिी। णाणादीणि खमणा (मा)णं च दहण नज्जर जहा एस भावभिनुत्ति, तहा अज्जवजुत्तो अकुडिलभावत्तणेण नज्जइ जहा एस भायभिक्खुत्ति, आहारोवहिमादिसु विमुत्त लक्खिऊण साहिज्जए जहा एस भावभिक्खुत्ति, तहा अलब्भमाणेसुषि आहारोबहि(माईसु) अहीणं पासिऊण | नज्जइ जहा एस अद्दीणभावो भावडिओ भिक्खू, तहा बावीस परीसहा तितिक्खमाणं दवण साहिज्जति जहा एस भावभि-18 क्खुत्ति, जेध्यस्सकरणिज्जा जोगा तेसु सम्म पवचमाणं उवलभिऊण णज्जह जहा एस आघस्सगसुद्धि हुन्बमाणो भावभिक्खू | भवइ, एताणि य संवेगमादियाणि तस्स भिक्खुस्स लिंगाणि भणियाणि, इयाणि जेसु ठाणेसु अपहिओ भिक्खू मवह जेसु बन भवइ ॥३३५॥ पियंमि य अत्थे जहा पंचावया मनति तहा माणियब्वं, तं०-'अज्झयणगुणी ॥ ३५२ ॥ गाथापुन्बद्ध, जे एतमि अज्झयणे भिक्खुगुणा भण्णिहिन्ति तेहि गुणेहि जो जुतो सो भिक्खू, न सेसगाइ, न एतव्यतिरित्तगुणजुत्तो भिक्खू भवइत्ति एस पइन्ना, दीप अनुक्रम [४८५५०५] 487% [340] Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [१०], उद्देशक [-1, मूलं [५...] / गाथा: [४६१-४८१/४८५-५०५], नियुक्ति: [३२९-३५८/३२८-३५८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक चूगी. गाथा ||४६१४८१|| १० श्रीदश-1 आह-को एत्थ हेऊत्तिा, अओ हेऊ दिहतो य इमेण गाहापच्छद्रेण भण्णइ-'गुणत्ता इइ हेऊ॥३५२।। गाहापच्छद्धं, तीए भिक्षुगुणे कालिका पुखभणिताए पदमाए गुणजुनता हेऊ, दिलुतो सुकृष्णं, सुवनस्स ताब गुणा भण्णति, जंतं दिडतो सुवर्य भणियं तस्स इमे गुणापचावयवार अट्ट, २०-'विसघाइ' गाहा ॥३५३॥ विसधाइत रसायणसामस्थजुत्तं मंगलसाहगं, विणिरणाम जे जे अभिष्पाइज्जइ तं तं | भिक्षु अ कडगकुंडलादी णियविज्जतित्ति अतो विणीयया तस्स गुणो, पंचमो ‘पयाहिणाबत्तया' पाम जाहे आवट्टियं भवइ तयार दापयाहिणं आवनइ, दहा गुरुयत्तं छट्ठो गुणो, अडझनणं सत्तमो गुणो, अकुडभावो अहमो गुणो भवइ, भगिता य सुवण्णगुणा ।। ॥३३६॥ इदाणि उपसंहारो भण्णइ-'चउकारणं' ।। ३५४॥ गाहा, जहा 'चउहिं कारणेहि ति कसच्छेदतावतालणादीहि (निहसताव छहतालगादीहिं ) परिसुद्धं सुधष्णं भवइ, तं विसघात रसायणं गरुपं अड-झग अकुहणाइगुण जुनं भवति, 'तं निहसगुणोवेयं है टीकायां तु 'तं कसिणगुणोदे'०) ३५५ ॥ गाथा, जहा तं णिहसादिगुण जुत्तं भुवनं भवति न सेसं जु सुवनं, न य 1 णामरूवमेनणेव मुबन्नं भवइ, तहा अगुगजुली सो भिक्खू ण भवइत्ति, 'जुत्तीसुवणयं पुण' ।। ३५६ ।। गाथा, जा पुण केणइ तारिसंग उवाएण जुत्तीसुरम्भ कीरजा न हुतं सुवण वणं चिरणघि कालण मेसीह गुणहि निहसाईहिं असन्तेहिं सुवर्ण । भवइ, तहा-जे अज्झवणे भणिआ०' ॥ ३५७ ॥ गाथा, जे एयमि अज्झयणे भिक्खुगुणा भणिया, रो सम्भं फासेमाणो सोही भिव भयति, जस्स भिक्खुत्ति नाम कयं तं भावं पहुच, न नाम ठवणं दति, कई, सुबास्सवत्थंण जहा सोमणवा विसघातादिगुणजुनं च काऊण सुवनस्स सुबन्नति नामं कर्य, तहा जे मुभित्रस्म अज्झयणे गुणा भणिया तमु पहमाणा जा ॥३३६॥ भिक्खीवनी सो भिक्ख भण्णइ. न जो भिक्षणसीलो सो मिका रागवसो भवइ, कह?, 'जो भिक्खू गुणरहिओ' गाथा।।३५८।। दीप अनुक्रम [४८५५०५] [341] Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [१०], उद्देशक [-1, मूलं [५...] / गाथा: [४६१-४८१/४८५-५०५], नियुक्ति: [३२९-३५८/३२८-३५८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रस्त [pan]] गारवा IPer ४४४ आदश-18|जो भिक्खू गुणरहिओ ठाऊण भिक्वं हिंदद सो भिक्खू न भवत्ति, कई 1, जहा एगेण वश्रेण जुतीमुवन असइ सेसेसु विसघा-I दिक्षा वादिगुणवित्थरेसु(न)मवयं भवद । किंच, कह सो भिक्ख भविस्सति? जो इमेहि कारणेहि बटर' तंजहा-'उठ्ठिकई॥३५९।।1।। गाहा, जो उहिट्ठकढं भुजइ, पुढधिमादीणि य भूताणि पमद्दमाणो य घरं कुब्बइ, पञ्चक्खं जलगए-पूयरगादीए जीवे जो पिबति, कहं सो भिक्खू भविस्सइत्ति ?, उपसंहारो भणिओ । इदाणि निगमणं भण्णा-'तम्हा जे अजायणे.' ॥ ३६० ॥ गाथा, तम्हा अगुणजुत्तो भिक्खू न भवइ, जे एयमि दसमज्झयणे मूलगुणा भिक्खुस्स भणिया तेहि समण्णिओ भिक्खू भवति, तहा ॥३३७।। उत्तरगुणेहि-पिंडपिसोधीपडिमाभिम्गहमाईहिं सो मिक्खू भावियतरो भवइत्ति, नामनिष्फण्णी गती। इदाणि मुत्ताणुगमे सुत्तं उच्चारेयच्च, अक्खलियं जहा अणुओगदारे, तं च सुत्तं इमं-'णिक्खममादाय० ॥४६॥ वृत्तं, 'क्रम पादविक्षेपे' धातु अस्य धातोः निसपूर्वस्य 'समानकर्तकयोः पूर्वकाले' इति (पा. ३.४-२१) क्वाप्रत्ययः, क्वाकारादाकारमपकृष्य ककाराविति लोपः 'प्रार्धधातुकस्येवलादे'रिति (पा. ७.२-३५) इडागमः, निसः सकारस्य 'इदुदुपधस्य चाप्रत्ययस्येति' (पा. ८-४-४१)ट्रिी सकारस्य षकारः, परगमनं निष्क्रम, वा 'कुगतिप्रादय' इति (पा. २-२-१८) समासः, मुलुक समासे नअपूर्वो क्या ल्यपिति ल्यप्प्रत्ययः, सुषलुक आदेशः, निमित्ताभावे नैमिचिकस्याप्यभावः इडादीनामभावः, पकारलकारयोर्लोपः, परगमन, निष्क्रम्प,४ ॥३३७|| तीर्थकरगणधराजया निष्क्रम्य सर्वसंगपरित्यागं कृत्वेत्यर्थः, अथवा निष्क्रम्य-आदाय, 'बुद्धवयणं' बुद्धाः-तीर्थकराः तेषांला वचनमादाय गृहीत्वेत्यर्थः, निक्खम्म नाम गिहाओ गिहत्थभावाओ वा दुपदादीणि य चहऊण, णिकखमिज्जा, 'शा अवबोधन | धातुः, अस्य धातोः आपूर्वस्य 'इगुपधज्ञाप्रीकिर क इति' (पा. ३-१-१३५) का प्रत्ययः, ककारादकारमपकृप्य ककारः किति | % देषम अनुक्रम [१८044402] [342] Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [१०], उद्देशक -1, मूलं [५...] / गाथा: [४६१-४८१/४८५-५०५], नियुक्ति : [३२९-३५८/३२८-३५८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक सान्तिः गाथा ||४६१ ४८१|| श्रीदश-18| लोपः 'आतो लोप इटि च किति चेति' (पा. ३-४-६४) आकारलोपः परगमनं आज्ञा इति स्थिते स्त्रीविवक्षायां 'अजायतष्टापू' विषयवकालिक द्रा इति (पा. ४.१-४ ) टाप् प्रत्ययः अनुबन्धलोपः 'अकः सवर्णे दीर्घः (पा०६-१-१०१) परगमने आज्ञा इति स्थिते ' कर्तृ करणयोस्तृतीयेति' (पा०२-३.१८) तृतीया, तस्या एकवचनमुपादीयते टा, टाकारादाकारमपकृष्य टकारस्य लोपः, 'आडि चाप १] इति (पा०७-३-१०५) आकारस्य इकारो भवति आङि परतः, 'एचोऽयवायाव' इति (पा०६-१-१८) अय आदेश:, परगमनं मिक्षु अन आज्ञया, आणा वा आणत्ति नाम उववायोति वा उवदेसोत्तिवा आगमोति वा एगढ़ा, तित्थगराणाए णिक्खमिऊण, 'बुध अवगमने।। ॥३३८।। धाता तक्तवतू निष्ठति' (पा०१-१-२६) क्तप्रत्ययः, ककार: किङति लोपः इद् च प्राप्तः 'एकाच उपदेशेऽनुदाचादिति' प्रारपा०७-२-१०) प्रतिषेधः, गुणः प्राप्तः किवाद प्रतिषेधः 'झपस्तथोझैध' इति (पा०८-२-४) तकारस्य धकारः, 'झलो। शिशोऽन्तस्पेति' इति (पा०८-२-३७) जस्त्वेन धकारस्य दकारा, परगमन, बुद्ध, बुद्धानां वचनं बुद्धवचनं तस्मिन बुद्धवचने नित्यं, चित्तसमाहितात्मा भवेत् सर्वकालं द्वादशाङ्गे गणिपिटके चित्र पसिद्धं तं सम्मं आहितं जस्स सो चित्तसमाहिओ, | समाधितं नाम आरुहितं, जहा समाहित भार देवदचो आरुहेति, समाहितं घडं गेण्हइ, सोभणेण पगारेणेति वुत्तं भवति, आह-16 कहमसमाहियचित्तो भवति ?, आयरिजो आह-विसयाभिलासातो, ते च वितया सद्दाती, तेमुवि डंडणागयभूतो इत्यिअहिला-IN सोत्तिकाऊण तनिवारणस्थमिदमुच्यते-'इत्थीण वसंन आवि गच्छे'त्ति, 'थै स्त्यै शब्दसंघातयोः धातु, 'धात्वादेः18 दापासः' इति (पा०४-१-६४ ) पकारस्य सभावे 'स्त्रायतेमुटू' इति (३-६-१६६) टू डकारानेफमपकृष्य डकार 'डिति || रेरिति' (पा०४-६-१४१) भालोपः, डिति स्यात् भस्यापि, अनुबन्धलोपः, [ण सामानि लोपः] 'लोपो थ्योर्वली-11 दीप अनुक्रम [४८५५०५] SAGARMERCCES [[343] Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [१०], उद्देशक [-1, मूलं [५...] / गाथा: [४६१-४८१/४८५-५०५], नियुक्ति: [३२९-३५८/३२८-३५८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक गाथा ||४६१४८१|| श्रीदश- बैकालिक चूर्णी. १० भिक्षु अ ॥३३॥ ति (पा ६-१-१६) यकारलोपः, परगमनं स्त्र सु इति स्थित स्त्रीविवक्षायां 'टिड्ढाणबि' ति (पा०४-१-१५) की प्रत्यया, 1 पकाय | अनुबन्धलोपा, परगमनं स्त्री, स्त्रीणां वशं न गच्छेदिति, ताभिस्सह यः संगस्तस्य परित्याग इत्यर्थः, इत्याओ पसिद्धाओ, तार्सि |वसं न यावि गच्छज्जा, अविसदो संभावणे, किं संभावयति, जद्दा जो एयंमि इत्थीवसकारणे दढब्बती सो सससुवि पायसी ठाणेसु दढो भवति एवं समावयति, तासिं च इत्थीर्ण वसं गच्छमाणो वतं सावज्ज असमाहिकारियं पुणो पडिआयइ, जो एवं निक्खम्म आणाए बुद्धवयणे निचं चित्तसमाहिओ इराण वसं न गच्छति वंतं नो पडिआयति स मिक्खू मवति, सोभणे य से 6 भिक्खू भवा, आह-णणु बुद्धग्गहणेण य सकाइणो गहणं पावइ, आयरिओ आह-न एत्थ दबघुद्धाणं दव्यभिक्खूण य गहण कयं, H | कहं ते दव्यबुद्धा दबभिक्खुया, जम्हा ते सम्मइंसणामावण जीवाजीवबिसेसं अजाणमाणा पुढविमाई जीवे हिंसमाणा दव्यधुद्धा दबभिक्खू य भवति, कहं तेहिं चित्तसमाधियत्तं भविस्सइ जे जीवाजीवविसेस ण उबलमंति,जे पुढविमादि जीवे णाऊणं परिहरति ते भावबुद्धा भावभिक्व य भन्नति, छज्जीवनिकायजाणगो य रक्खणपरो य भायभिक्खू भवति, तदुपरिसणस्थमिदमुच्यते-'पुढर्षि न खणे न खणावए.' ॥ ४६२॥ सिलोगो, तसथावरभूओवधाओत्तिकाऊंण पुढषि णो सर्य खणेज्जा, न वा परेण खणावेज्जा, 'एगग्गहणे गहणं तज्जातीयाण' मितिकाउं खणंतमवि अनंन समणुजाणज्जा, 'सीओदर्ग' नाम उदगं असस्थहयं सजीव सीतोदगं भण्णइ तं नो पिज्जा, ण वा हत्थपायभायणधोवणादीहिं तिविहेण मणवयणकाय ४॥३३९॥ जोगण करणकारावणअणुमायणादीहि समारभेज्जत्ति, किंच-'अगणिसत्यं जहा सुनिसि ति, जहा असिखेडगपरसुआदि सत्थं सुणिसितं दोसायहं णाऊण तंणो सयं उज्जालेज्जा नो अग्नेहिं उज्जालावेज्जा, 'एगग्गहणेण गहणं तज्जातीयाण मिति AAAA%ERSATARA दीप अनुक्रम [४८५५०५] [344] Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [१०], उद्देशक -1, मूलं [५...] / गाथा: [४६१-४८१/४८५-५०५], नियुक्ति : [३२९-३५८/३२८-३५८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक श्रीदश- चूर्णी. पटकाय रक्षा CE -- गाथा ||४६१४८१|| भिक्षु अ. ॥३४॥ N - काउं उज्जालणं ण समणुजाणेज्जा, जो एते पुढाविमादिकाए सारक्खइ स भिक्बू भवइ । आइ-णणु छज्जीवणियाए एसो अत्थो । मणिओ, जहा से पुढवि वा भित्ति वा सिलं वा लेलं वा' एवमादि, पिंडेसणाए 'पुढविजावे ण हिंसेज्जा, उदउल्लेण' एवमादि, धम्मत्थ कामाएवि वयछक्कं कायछ जहा रक्खियब्ब तहा अणि, आयारप्पणिहीए 'पुढवि भित्ति सिलं लेलु' एवमादि, सेसेसुवि अज्झयणेसुमावि पायसा एतासि परिहारो भणिओ, तो किमस्थं पुणो दसमझयणे ते चेव काया भण्णति, आयरिओं आह-अविस्सरन्ताण। होवदरिसणथं कायाण वाण पुणो पुणो गहणं कज्जा, नेण ण पुणरुतं भवइ, पितापुत्रायौषधमन्वादिवत, जहा पुतं विदसार गच्छमाणे मायापियरी अस्पाल पुत्त! अकालचरियाट्ठसंसम्गिमाइ सवपयनण परिहरेज्जत्ति, अहारतं आपसरणाणाम |चा तेहि पुणो पुणा भण्णइयतं पुणरुत्तं भना, जहाचा कोई जहण भण्णा-पुत्त ! अवसर अवसर एस सप्पोति, वाहिआ पुणा समस्थं आंसह पुणो पुणो दीज्जा, मंतो या ताब पढिज्जति जाव विसं यणा वा उपसंता, आगामिफलनिाम कारसणादिकम्म पुणा पुणा कज्जमाणं न पूणरुतं भवद एवं ताव लोगे, वेदेऽपि यथा सुत्रामण्ये-इंद्र आगच्छ हरि आगच्छ मेघातिमेष वृषणचस्ययमन गौरवास्कन्दिनाहल्याचे जार कौशिक ब्रामणगौतम व वाणसुख नामा गच्छ मपर्व स्वाहा,जहेवाणि पुणरुत्तााण नभवात है। तदा सांसस्स थिरीकरणनिमिन पुणो पुणो कायावयाणि य भत्रमाणाणि पुणरुत्ताणि न भवति, इदाणि पुण्यपस्थियं मण्णइPI'अनिलेण न बीएनपीयायए' ।। ४३३ ।। वृत्तं, अनिलो बाऊ भण्णइ तेण अनिलेण अप्पणो कार्य अचं वा किंचि तारिस राणा वियावेज्जा, 'एगग्गहणे गहणे सज्जातीयाण'मितिकाउ वीर्यपि अण्णं ण समणुजाणेज्जा, बीयम्गहणेण एका चर मूलकअन्दादी बीयपज्जवसाणो दमभेदो कक्षो भवतित्ति तम्स गहणं कयं, ताणि मुलकन्दाहोण बीयपज्जबसाणाणि हरियग्गहणण दुवा दीप अनुक्रम [४८५५०५] fhC [345] Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रां [...] गाथा ||४६१ ४८१|| दीप अनुक्रम [४८५ ५०५ ] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + भाष्य | + चूर्णिः) अध्ययनं [१०], उद्देशक [-], मूलं [ ५...] / गाथा: [४६१ - ४८१ / ४८५- ५०५ ], निर्युक्ति: [ ३२९-३५८/३२८-३५८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्ण: कपायवमनं ॥ ३४९ ॥ लसविहस्सवि वणप्फइकाइयस्स गहणं कयं तं हरियं न सयं छिंदेज्जा न परेण छिंदावेज्जा, 'एगग्गहणे गहणं तज्जातीयाणं' ति- मैं वधविरतिः काउं छिन्दतंपि अण्णं न समनुजाणेज्जा विवज्जयंतोत्ति, सचित्तम्गहणेण सव्वस्स पत्तेयसाहारणस्स सभेदस्स वणफइकाय स गहणं कर्म तं सचित्तं नो आहारेज्जा, एताणि हरितछेदणादीणि जो न कुच्चइ सो भिक्खु भवति । इदाणिं बीयग्गतसाण परिहारो भण्णइ - 'वहणं तसधावराण होइ०' || ४६४ ।। वृत्तं, 'वहणं' णाम मारणं तं तसथावराणं पुढवितणकटुणिस्लि भिक्षु अयाण भवतित्तिकारण तम्हा उद्देसियन जेज्जा, तहा सयमवि श्रोदणादी नो पएज्जा णो वा पयावेज्जा, 'एगग्गहणे गहणं तज्जातीयाण' मितिकाउं पर्यंतमवि अण्णं न समणुजाणेज्जा । 'रोइअ नायपुत्तवयणे० ' ॥ ४६५॥ वृतं णायपुचस्स भगवओ बद्धमाणसामिस्स वयणं गोविऊण अत्तसमं पुढविवादी माणेज्जा छप्पि काए, अत्तसमे णाम जहा मम अप्पियं दुक्खं तहा छवि कायाति णाऊण ते कहं हिंसामित्ति, एवं अत्तसमे छप्पि काए मण्णेज्जा, पंच चेह पाणवहवेरमणादीणि महन्वयाणि फासेज्जा आसेविज्जा 'पंचा सवसंवरे' नाम पंचिदियसंबुडे, जहा 'सद्देसु य मध्यपावसु, सोयविसयं उबगएसु । तुट्ठेण व रुट्ठेण व समषेण सया न होयवं ।। १ ।।' एवं सब्वेसु भाणियब्वं, सो य एवं गुणजुतो भवति, एते ताव मूलगुणा भणिया * इदाणि उत्तरगुणा भष्णति, तंजहा - 'चत्तारि वमे सया कसाए०' || ४६६ ॥ वृत्तं चत्तारि कोहादिकसाया सया वमेज्जा, तत्थ मणं छडणं भण्णइ, तहा 'धुवजोगी इविज्ज' धुवजोगी नाम जो खणलवमुडुतं पढिबुज्झमाणादिगुणजुत्तो सो धुवजोगी भवद्द, अहवा जे पडिलहणादि संजमजोगा तेसु धुवजोगी भवेज्जा, ण ते अण्णदा कुज्जा अण्णदा न कुज्जा, अहवा मणवयणकायए जोगे जुजमाणो आउत्तो जुजेज्जा, अहवा बुद्धाण वयणं दुवालसँगं तंमि धुवजोगी भवेज्जा, सुअवउत्तो सव्यकालं भवेज्जत्ति, धुवगहणेण श्रीदशबैकालिक चूर्णे १० [346] ॥३४१॥ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [१०], उद्देशक -1, मूलं [५...] / गाथा: [४६१-४८१/४८५-५०५], नियुक्ति : [३२९-३५८/३२८-३५८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक अमूढता गाथा ||४६१४८१|| श्रीदश- कालिक चूर्णी. १० भिक्षु अ० 4%-9454 ॥३४२॥ च उप्पादादिधुवस्स गहणं कयं, तं जस्स नत्थि से अहणे 'निज्जायरूबरयए' णाम जे णो केणइ उवाएण उप्पाइयं ते जात-8 रूवं भण्णइ, तं च सुवणं, स्ययग्गहणेण रुप्पगस्स गहणं कयं, तं जातरूवं रजतं च सव्वप्पगारेहिं णिग्गतं जस्स स णिज्जातरूव-1 रयते भण्णति, तिलतुसमागमेपि से नस्थित्ति वुत्तं भवह, तहा 'गिहिजोगमवि परिवज्जए' गिहिजोगो नाम पयणविकया। मादि भण्णा, एयाणि कसायवमणादीणि जो कुन्बद्द सो भिक्खू भवइत्ति । 'सम्मदिडी सया अमूढे ॥४६७ ॥ वृत्तं, अण्णतिथियाण सोऊण अण्णेसिं रिद्धीओ दहण अमूढो भवेज्जा, अइवा सम्मदिविणा जो इदाणी अत्थो भण्णइ तंमि अत्थि सया अमटा टिटी अमूढा दिही कायच्या, जहा अस्थि हु जोगे नाणे य, तस्स णाणस्स फलं संजमे य, संजमस्स फलं, ताणि य इममि व जिणवणे संपुण्णाणि, णो अण्णेसु कुष्पावयणमुचि, सो एवं गुणजुत्तो तवसा पारसप्पगारेण पुराण पाय धुणति ण च णादीयति, मणवयणकायजोंगे मुह संखुडत्ति , कहं पुण संपुढे , तत्थ मणेणं ताव अकुसलमणणिरोध करेह, कुसलगणोदीरणं च, वायाएवि पसत्थाणि वायणपरियद्याइीण कुव्यइ, मोण वा आसेवई. कारण सयणासणादाणणिखेवणहाणचंकमणाइसु कायचेढाणियम कुव्यात, सेसाणि य अकरणिज्जाणि य ण कुम्बइ, सो एवं. गुणजुत्तो भिक्खू भवइ । किंच 'तहेव असणं ॥ ४६८ ॥ वृत्तं, 'तहेव' तिर जहा पुग्वं भणिय, एक्सहो पायपूरणे, असणपाणखाइमसाइमा पुचभणिया, तज्जतो भिक्खू भवर, तेसि अण्णतर लाभिऊप तत्थ जे भुत्तसेस उन्बरियं तस्स विही भन्नइत्ति, सं०-होहीद अहो सुए परे वा, तं न निहे न निहावए जे स भिक्खू'ति, तस्थ सुए नाम कल्लत्ति बुत्तं भवतिति, परम्गहणेण सइयचउत्थमादीण दिवसाण गहणं कर्य, तंमि वा परे अट्ठो होहितित्ति- काऊण सयं 'न निहे न निहायए' णाम न परिवासिज्जत्तिवृत्तं भवति, न वा परेण निधावएजजा, एगग्गहणे गहर्ण तज्जाती दीप अनुक्रम [४८५५०५] kottock- ३४२॥ meani [347] Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [१०], उद्देशक -1, मूलं [५...] / गाथा: [४६१-४८१/४८५-५०५], नियुक्ति : [३२९-३५८/३२८-३५८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक tran गाथा ||४६१ ४८१|| श्रीदश- याणमितिकाउं णिहन्तपि अयं न समणुजाणज्जा, सो एवं गुण जुत्तो भिक्खू भवतिचि । किंच-'तहेव० ॥ ४६९ ॥ वृत्, विग्रहर्जन वैकालिकतहेवति तेणेव पगारेण, एनसहो पायपूरणे, असणपाणखादिमसादिमा पुवं भणिया, तेसिमण्णयर विविध-अणेगप्पगारंक्षान्तिः चूर्णी लभेजा अणुग्गहमिति मनमाणो धम्मयाते साहम्मियाते छंदिया अँजेजा, छंदिया पाम निमंतिऊण, जइ पडिगाहता तओxi १० तसिं दाऊण पच्छा सयं झुंजेजा, एतेण पगारेण भुजेआ, सज्झायरए य जेस भिक्खू भवति । भुत्तो य समाणो–'नय चुग्ग-18 भिक्षु अ हिअंकहं कहिज्जा.॥ ४७० ॥ वृत्तं, नकारो पडिसेधे चट्ट, चकारो समुच्चये, किं समुरिषणोति?, जो हेट्ठा अत्यो । १३ मणिओ तं समुच्चियोति, बुग्गहिया नाम कुसुम(कलह)जुत्ता, तं बुग्गहियं कई णो कहिज्जा, जयावि केणई कारणेण वादकहा जल्पकदादी कहा भवेज्जा, ताहेतं कुव्वमाणो नो कुप्पेज्जा, निहुयाणि पसंताणि अणुद्धताणि इंदियाणि काऊण संजमकहा कायग्वा, तहा 'पसंते' पसंते नाम रागदोसवज्जिए, एवं पसंतो संजमधुवजोगजुत्तो भषेज्जा, संजमो पुब्वभणिओ, 'धुवं' नाम सव्वकालं, जोगो मणमादि, तमि संजमे सवकालं तिविहेण जोगेण जुत्तो भवेज्जा, 'उबसंते' नाम अणाकुलो अबक्खिनो भवेज्जत्ति, 'अविहेडए ' णाम जे परं अकोसतेप्पणादीहिं न विधेडयति से अविहेडए, सो एवं गुणजुत्तो भिक्खू भवतीति । किं च-'जो सहह हु गामकंटए.' ॥ ४७१ ॥ वृत्तं, जोत्ति अणिद्दिवस्स गहणं कर्य, सहति नाम अहियासेइ, ||३४३॥ गामगहणेण इंदियगहणं कर्य, कंटगा पसिद्धा, जहा कंटगा सरीरानुगता सरीरं पीडयंति तथा अणिवा विषयकंटका सोताईदियगामे अशुप्पबिट्ठा तमेव ईदियं पीडयति, हे य कंटगा इमे अकोसपहारतज्जणाओ भिक्खू य' अकोसपहारा पसिद्धा तज्जणाय जहा एते समणा किवणा कम्ममीवा पबतिया एवमादि, मयं पसिद्ध, भयं च मेरवं, न सत्यमेव भयं मेरवं, किन्तु, c दीप अनुक्रम [४८५५०५] e [348] Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [...] गाथा ||४६१ ४८१|| दीप अनुक्रम [४८५ ५०५ ] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + भाष्य | + चूर्णिः) अध्ययनं [१०], उद्देशक [-], मूलं [ ५...] / गाथा: [४६१ - ४८१ / ४८५- ५०५ ], निर्युक्ति: [ ३२९-३५८/३२८-३५८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्ण: श्रीदशवैकालिक चूण. १० भिक्षु अ० ॥ ३४४॥ 56956-962 तत्थवि जं अतीव दारुणं भयं तं भैरवं भण्णइ, बेतालगगादयो भयभैरवकायेण महता सद्देण जत्थ ठाणे पसंति सप्पहासे, तं ठाणं भयभेरवसप्पहासं भण्ण, तंमि भयमेरवसदसप्पहासे, उवसम्मेसु अणुलोमपडिलोमेसु कीरमाणेसु 'समसुहदुक्खस हे | अ जे स भिक्त० ' सो एवं समसुहदुक्खो होऊण। पडिमं पडिवज्जिआ सुसाणे० ' ॥ ४७२ ॥ वृत्तं, सुसाणं पसिद्धं, तंमि सुसाणे पडिमं पडिवज्जिया चिठ्ठति, तत्थ से दिव्वाणि माणुसाणि तिरियाणि वा बेयालअद्भवेयालमादियाणि भयाणि (अणेग)भेयाणि उप्पज्जंति, ताई दट्ठूण ण भाएज्जा, पास सम्मचित्तयो भवेज्जा, जहा रत्तपडादीवि सुसाणेसु अच्छेति ण य बीहिंति, तपांडेसंघणत्थमिदं भण्णइ, तं- 'विविहगुणतवोरए अ निचं तेसिं रतपडादीणं भणियं, सुसाणे अच्छीयब्वं, ण पुण तेसिं विविहप्पगारं मूलगुणा उत्तरगुणा वा तवो वारसप्पमारो अत्थिति जंमि रया तंमि मसाणे चिठ्ठति, ( एसो ) पुण जहोवइद्वेण विहिणा वासी, विविहं-- अणगप्पगारं समूलगुणउत्तरगुणेसु तवे व बारसविहे रतो णिच्वं सव्वकालं भवतित्ति, ण य सरीरं तेहि उवसग्गेहिं बाहियमाणोऽवि अभिकखइ, जहा जहु मम एवं सरीरं न दुक्खा बिज्जेज्जा, न वा चिणस्जेिज्जा, सो एवं गुणजुत्तो भिक्खू भवतित्ति । किंच-' असई बोसट्टचत्त देहे ० ॥ ४७३ ॥ वृत्त 'असई ' नाम सव्वकालं, 'बोस' नाम बोसइंति वा वोसिरियति वा एगट्टा, चतं नाम जेण सरीरविभूषादीणिमित्तं हत्वपादपक्खालणादीहिं परिकम्मं ण वट्टति तं चतं भण्णइ, देहगहणेण सरीरगहणं कथं, ' अक्कुडे ' णाम मातिपितिवयणादीहिं हीलणादीहिं, 'हए णाम डंडादीहिं तालिए 'लूसिए' नाम सुणगादीहिं भक्खिए, सो एवं अकस्समाणो हम्ममाणो मक्खिमाणो वा 'पुढवीसमो मुणी भवेजा ' जंहा पुढवी अक्कुस्समाणी हम्ममाणी भक्खिमाणां च न य किंचि पओ बहर, तहा भिक्खणावि सन्त्रासविसघेण होयव्वं, [349] व्युत्सृष्टत्यक्तदेद्दः ॥ ३४४॥ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [१०], उद्देशक [-1, मूलं [५...] / गाथा: [४६१-४८१/४८५-५०५], नियुक्ति: [३२९-३५८/३२८-३५८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक गाथा ||४६१ ४८१|| श्रीदश मुणी णाम मृणिनि या णाणिचि या एगट्ठा, जो सो माणुसरिद्धिनिमित्तं तवसंजमं न कुन्चह, से अनियाणे, गादिसु अकोउ- परीषहजया वैकालिक ANCE हल्ले भवेज्जा, सो एवंविहगुण जुत्तो भिक्खु भवातत्ति । किंच-सक्काणं चेत्तवेतसिमा धम्मा इति संणिसेहणत्थमिदमुच्यते-15 हस्तादि हल भवः अभिभूअ कारण.' ॥४४॥ वृत्तं, कायो सरीर भण्णाइ, ण केवलं मणसा, परीसहे ' अभिभूय' ति अभिमुहं जातिऊण | संयतता १. समुद्धरे' णाम सम्म उद्धरे, सम्मं पासे करेजत्ति वुत्तं भवति, जातिग्गहणेण जम्मणस्स गहणं कर्य, धगहणेण मरणस्स । भिक्षु अ गणं कयं, ताओ जम्मणमरणाओ समुद्धरे अप्पाणंति, कह पूण समुद्धरोति', 'अतो भण्णा "विदित्तु जाती मरणं महब्भयं' पुवं भणियं, जातिमरणं महन्मयं विदित्ता नाग जाणिऊण सामण्णिए रते भवेजा, समणभावो सामणियं भन्नइ, सो एवंगुण-18 जुत्तो भिषखू भवतित्ति । ' समणभावो सामष्णिवमिति । तदुपरिसणस्थमिदमुच्यते- 'हत्थसंजए०' ॥ ४७५ ॥ वृत्त, हत्थपाएहि कुम्मो इव णिकारणे जो गुत्तो अच्छइ. कारणे पडिलेहिय पमअिय वाचारं कुख्यद, एवं कुबमाणो हत्थसंजओ पायसंजओ भवइ । वायाएदि संजओ, कई, असलवइनिरोधं कुब्बइ, फुसलबहउदीरणं च कजे कुबड, 'संजइंदिए' नाम इंदिरविसयपयार-18/ गिरोधं कुन्यइ, विसयपत्तेसु इंदियत्थेसु रागदासविणग्गई च कुवतित्ति, 'अज्झप्परए' नाम सोभणज्झाणरए, 'सुसमाहि-le अप्पा' नाम णाणदंसण चरिते सुटु आहिओ अप्पा जस्स सो सुसमाहिअप्पा भण्णइ, सुत्त्थगहणेण सुत्तस्स अस्थस्स तदु ॥३४५॥ भयस्स गहणं कयं, तत्व गुसरथं विजाणति पुम्बिहाणि य जो कारणाणि कवति सो भिक्ख भवइति । किंच-उचहिमि । अच्छिए । ४८६ ॥ कृतं, उवही वस्थपनादी, ताए उवहिए अमुच्छिए अगिद्धिए य भवेज्जा, मुच्छासदो य गिद्धिसद्दो य दीप अनुक्रम [४८५ ५०५] FEN [350] Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [१०], उद्देशक -1, मूलं [५...] / गाथा: [४६१-४८१/४८५-५०५], नियुक्ति : [३२९-३५८/३२८-३५८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक १० गाथा ||४६१ ४८१|| श्रीदश- दोऽवि एगठा, अच्चत्यणिमित् आयरणिमित्तं च पउंजमाणा ण पुणरुत्तं भवति, अहवा मुच्छियगहियाणं इमो विसेसो भण्णइ, मूत्र वैकालिकाका तत्थ मुच्छासदो मोहे दहलो, गहियसद्दो पडिबंधे ददुबो, जहा कोइ मुच्छिओ तेण मोहकारणेण कज्जाकजं न याणइ, तहान चू. HI त्याग | सोऽवि भिक्खू उपहिमि अज्झविषण्णो मुच्छिो किर कज्जाकज्ज न याणइ, तम्हा न मुच्छओ अमुच्छिओ, अगिदिओ अबद्धो | भिक्षु अ. भण्णइ, कहं, सो तमि उचहिमि निचमेव आसन्नभवचणेण अबद्धो इव दहब्बो, णो गिद्धिए अगिद्धिए, 'अन्नायउंछ णाम || उंछं चउन्विहं णामठवणदब्वभावउंछंति, नामठवणाओ गयाओ, दव्छ तावसादीण, माबुछ जमण्णायमण्णाएण उपातिज्जति । ॥३४६॥ तं भावुछ भण्णति, एत्थ भाचुछेण अधिगारो, सेसाओ उच्चारितसरिसत्तिकाऊण परूविया, तं भाबुछ अन्नायउंछ भण्णइ, पुला-18 एवि चउबिह, तं०- नामभुलाए ठवण. दव्य भावपुलाएचि, णामठवणाओ गयाओ, दवपुलाओ पलंजि भण्णइ, भावपुलाए जेण मूलगुणउत्तरगुणपदेण पडिसेबिएण णिस्सारो संजमो भवति सो भावपुलाओ, एत्थ भावपुलाएण अहिगारो, सेसा 1 उच्चारियसरिसतिकाऊण परुविया, तेण भावपुलाएण निपुलाए भवेज्जा, णोतं कुब्वेज्जा जेण पुलागो भवेज्जत्ति, कय-18 विकया पसिद्धा, संनिही' असंणादीणं परियासणं भण्णइ, तातो कयविकयातो सनिधीतो य विरए भवेज्जा, 'सव्वसंगाविगए'त्ति तत्थ संगाधगते नाम संगोत्ति वा इंदियथोनि वा एगहा, सो य संगो दुवालसविहस्स तबस्स सत्तरसविहस्स व संजमस्स विघायाय होज्जा, सो सम्बो संगो अवगओ जस्स सो संगावगओ भण्णइ, सो एवंगुणजुनो मिक्स भवतित्ति ।। किंच 'अलोलभिक्खू०' ॥ ४७७ ।। पूर्व, जइ तितकड अकसायाई रसे अप्पत्ते णो पत्थेइ से मालोले, भिक्युति वा दीप अनुक्रम [४८५५०५] - [351] Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [१०], उद्देशक [-1, मूलं [५...] / गाथा: [४६१-४८१/४८५-५०५], नियुक्ति: [३२९-३५८/३२८-३५८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक श्रीदश- - साधुप गाथा ||४६१४८१|| साधुत्ति या एगट्ठा, तहा तेसु रसेमु नो गेधि गच्छेज्जा, तं च अण्णायउँछं चरेज्जा, आह-णणु अण्णायउंछ पुलागणिपुलाएनि लोलताकालिका मणियमेव , आयरिओ आइ- उहि पदुच्च तं भणियं, इमं पुण आहार पहुच्च भणियंति पुणरुत्तं न भवइ, तहा 'जीवियंदित्यागः चूर्णी. गणाभिक खेला,' जहाऽहं जइ (जी), तहा इविविउरणमादि सकारपूयणं च, एताणि तिष्णिवि जहेज्ज णाम छड्डेज्जत्ति, इड्डीवाक्यभिक्षु अ आगासगमणादि, सकारो नत्थपत्तादि, पूया य शुबहुमाणादि, णापदंसणचरित्तेसु ठिओ अप्पा जस्स सो ठियप्पा, 'अणिहे ' शुद्धिः णाम अकुडिलेति वा अणि होति या एगट्ठा, सो एवं गुणजुत्तो भवति । 'न परं बहज्जासि.'॥ ४७८ ॥ वृत्त, परो णाम | PL: धर्माख्यान ॥३४७॥ निहत्था लिंगी वा, जपि सो अपणो कम्मेसु अब्बयरिथो तहावि न बत्तव्यो जहाऽयं कुत्थियसीलोति, किं कारणं, तत्व अपत्तियमादि यह दोसा भवति, कदायि पुण सपक्वं सदितं वदेज्जा, जहा कुसीलोऽसि ?, छड्केहि एवं कुसीलतं, अतो निमित्तं परग्रहणं कर्य, साधुगुणे सेवा हि एवमादि, तहा 'जेणं नो कुपेज्जा तं वएज्ज'ति, 'जेण' ति जेण कम्मजातिसिप्पाइणा भणिओ पसे कुप्पइ, तं नो बदेजा, आह-किं कारण परो न वत्सयो , जहा जो चेव अगणिं गिण्हइ सो चेव डझइ, एवं नाऊण पत्ते पत्तेयं पुष्णपावं अत्ताणं ण समुक्कसइ, जहाई सोभणो एस असोभणाति एवमादि । अत्तुकरिसपतिसंहणस्थमिदमुध्यते-'न जाइयले० ॥ ४७९ ।। वृत्तं, जाई पकुच्च मओ न काययो, लाभेणपि मदो न कायव्यो, ३४७॥ जहाऽई आहारोबहिमाईणि लभामि, न एवं अप्णो कोई लभइत्ति, एवमादि लाभमओ न कायब्बो, जहाऽहं सिद्धतनीतिकुसलो को एवं अण्णोत्ति, एवमादि सुयाओ न कायव्यो, जाणि य न भणियाणि इस्लरत्तचिन्तणादाणि मदहाणाणि ताणि मदाणि -- - दीप अनुक्रम [४८५५०५] - -- [352] Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [...] गाथा ||४६१ ४८१|| दीप अनुक्रम [४८५ ५०५ ] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + भाष्य | + चूर्णि:) अध्ययनं [१०], उद्देशक [-], मूलं [ ५...] / गाथा: [४६१ - ४८१ / ४८५- ५०५ ], निर्युक्ति: [ ३२९-३५८/३२८-३५८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्ण: ॥ ३४८ ॥ सव्वाणि विगिच धीरत्ति, विगिंच णाम छडेज्जात, धी-बुद्धी तीए अणुगओ धीरो, वहा धम्मज्झाणरए भवेज्जा, जो एवं गुणजुत्तोस भिक्खू भज्जति । किंच 'पवे० ' ॥ ४८० ॥ वृतं, 'वेद' नाग आइक्खेति वा पवेदइति वा एगट्ठा, अज्जवग्गहण अहिंसाइलक्खणरस एवाtिeen घम्मस्त ग्रहणं कर्य, तं आयरियं धम्मपदं गिणं साधूण य पवेदेज्जा, महाभिक्षुणी वा मदानानीति वा एगट्टा, महंतो जसो सीलादिगुणेहिं मुणी य महागुणी, सुयधम्मे चरित्तधम्मे य स एवठओ साधू धम्मं कहेमाणो परमवि धम्मे टावर, तं च परमं पावेहिं कस्मेहिं पचतं पियमाणो सोयारं अत्ताणं च धम्मफलेण संजोएर, भणियं च - " निक्तिसत्यस्स हसलो सोता जह किंची कालं सोउं वज्जति नियतति वा तं कहगस्स हियं भवति " तम्हा एवं आलंच काऊण धम्मो कहेथ्यो, तहा निम्म बज्जिज्ज कुसीललिंगंति, जहा पापाओ गित्यभावाओं वा निक्खम्म निकारणे कुसीलाणं पंडुरंगाईण लिंगं वज्जेज्जा, अथवा जेण आयरिएण कुसालो संभाविज्जति तं सदा वज्जेज्जा, तहान आणि हासं हए भवेज्जा' हासकहए णाम ण ताणि कुड़गाणि कुज्जा जेण अत्रे इतीति, सो एवं गुणजुत्तो भिक्खु भवइति । इदाणिं एयस्त्र एवंविधस्स भिक्खुस्स फलं भण्णइ, संजहा- 'तं देहवासं० ॥ ४८० ॥ वृतं देहवासगहणेण ससरीरया भण्ण, तं जो इममि पञ्चकले देहवासे दीसह एवं असुती असासयं सदा जहे, जहे णाम चएज्जत्ति वृत्तं भवति, व (सो) य तं छड्डयति (ज) स्स निचरिअप्पा भवति, ण पुणे सेसोति, सो एवंपगारो भिक्खु 'छिंदित्तु जाईमरणस्स बंधणं' जात मरणं संसारो तस्स बंधणं अडविधं कर्म तं संसारबंधणं कम्मं चिंदिऊण 'उवेश भिक्खु अपुणागमं गई'ति, उचेति नाम उबेइति श्रीदश वैकालिक चणी १० [353] भिक्षुभावफलं ॥३४८ ।। Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [...] गाथा ||४६१ ४८१|| दीप अनुक्रम [४८५५०५] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + भाष्य | + चूर्णिः) अध्ययनं [१०], उद्देशक [-], मूलं [ ५...] / गाथा: [४६१ - ४८१ / ४८५- ५०५ ], निर्युक्ति: [ ३२९-३५८/३२८-३५८], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्ण: श्रीदशवैकारिक चूणीं १रतिवाक्य चूला ॥ ३४९ ॥ वा गच्छति वा एगट्टा, भिक्खुगहणेण पुत्रवभणियभिक्खुस्स गहणं कर्य, अनुगागमा गती सिद्धी भण्णति, तं सो भिक्खू उबेइति, सावसेसकम्मो य देवलोगेसु. पुण सुकुलपच्चायासिं लदूण पच्छा सतद्बभवग्गहण भंवरतो सिज्झतित्ति, बेमि नाम तीर्थकरोपदेशात्, न स्वामिप्रायेण ब्रवीमीति । इदानीं गया णामि गिव्हियन्वे अगियिमि०॥ गाहा, सम्बेसिंपि जयाणं बहुविह यत्तव्यं णिसामेत्ता । तं सन्वनयविद्धं जं चरणगुणडिओ साहू ॥ १ ॥ अर्थः पूर्ववदिति भिक्खू अज्झयणचुणी सम्मत्ताः । एवं ताव भिवखुस्स संजमावत्थियस्स जड़ कहंचि संजमे अरती भवेज्जा, तीए अरतीए निवारणनिमित्तं विविकचरियानिमित्तं च इमाओ दो चूलाओ मण्णंति, तस्थ चूलापदस्स ताव चक्खाणं भण्णइ, संजहा-'दब्वे खेत्ते काले० ' । ३६१ ।। गाहा, चूला छविहा, जहा नामचूला ठरण० दव्य० भाव० खित्त० कालचूलति तं पुण चूलियदुर्ग उत्तरं तंतं नायन्यं, जहा आयारस्स उत्तरं तं पंच चूलाओ एवं दसवेयालियस्स दोणि चूलाओ उत्तरं तंतं भवद्द, तत्थ चूलासहस्स वक्खाणं भण्णति, तंजहा-दब्बे खेत्ते काले दसवेयालियं जाहे पढियं होति ताहे उत्तरकालं पढिज्जंति, जाहे दसवेयालियं सुतं ताहे चूलाओ सुणिज्जति, अतो उत्तरं तंतं भण्णह, तंतं नाम तंतंति वा सुत्तोति वा गंधोति वा एगट्ठा, चूलादुगं उत्तरं तंतं सुतगहियत्थं संगहणी नायब्बा, तेसिं दसवेयालिओवरड्डाणं सुतपदत्थाणं समासओ संगहिवत्थमेतं चूलादुगं, ते चेत्र संखेबओ सुत्तत्था अने य संगहिया, अतो एवं चूलादुगं तस्स दसवेयालियस्स संग्रहणी नायव्त्रा । इयाणिं पत्तेयं पत्तेयं छन्ना चूला भण्णइ, तत्थ नाम | अध्ययनं -१०- परिसमाप्तं चूलिका -९- 'रतिवाक्य' आरभ्यते [354] चू निय ॥३४० Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) (४२) | | चूलिका [१], उद्देशक - मूलं [१/५०६-५२४] / गाथा: [४८२-४९९/५०६-५२४], नियुक्ति : [३६१-३६९/३५९-३६७], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्राक * - निक्षपाः * - चूी . [१] गाथा ||४८२४९९|| श्रीद- ठवणाओ गयाओ, दब्बचूला इमण गाथापुबद्धेण भण्णइ, तंजहा-'बब्वे सचित्तादी ॥३६२।। अद्धगाथा, (सा तिविहा) तं०॥ घकालिक सचिता अचित्ता मीसिया, सस्थ सचित्ता कुक्डस्स चूला सा मस्थए भवह, अचित्ता घूलामणी, सा य सिरे कोरई, मीसिया मयू. चुना. रस्स भवति, एवमादि दब्बचूला भणिया । इदाणि खत्तचूला भण्णइ-'खेतमि लोगनिक्कुड०॥३६२ ॥ गाहापच्छ , तिवाक्य खेचचूला लोगणिकृडाणि, मंदरस्स पव्ययस्स चूला कूडा य एवमादि खेचचूला भण्णाइ, अहवा अहे लोगस्स सीमंतओ अचिचूला टातो, तिरियलोगस्समंदरो। याणि भाषचूला भण्णाइ सा य इमा, तंजहा-'भावे वओवसमिए०॥३६३ ।। गाथापुष्वद्धं, ॥३५॥ भावचूलाओ इमाओ चेव दोष्णिण चूलाओ, कई, जम्हा सुतं खओवसमिए भावे, एयाओं दोचि चूलाओ खओवसमियाओ काऊण भावचूलाओ भवंति, तत्थ परमं रतियक्कचि अज्झयणं, तस्स चत्वारि अणुयोगदारा जहा आवस्तए णवरं णामणिफण्णे २६वक्क, दोऽपि पया रती य वक्कं च, तत्थ रतीइ चउक्कनिक्खेबो, तंजहाणामरती ठवण दब० भाचरती थ, नामठवणाओ गयाओ, दब्बरती भावरती य तप्पसंगेण अरती इमाए गाहाए भण्णाइ, संजहा-(चूणी तु) 'दब्बरसगंध (दम्वे बुहा उकम्मे०) ॥३६४॥ गाहा, दब्बरती दुविहा, तंजहा-कम्मदवरती णोकम्मदवरती य, तत्थ कम्मदब्बरती नाम रतीवयणिज्जं कम्मं बद्धं न ताव उदिज्जइ एस कम्मदग्धरती, नोकम्मदमाती-सहरसरूवगंधफासदध्याणि रतीकराणि णोकम्मदवरती भण्णइ, पदचरती गता। इदाणि भावरती भण्णइ, साय उदएण भवइ, कह', तमेव रतिवेयणिज्जं कर्म जाई उदिन दाताह भावरती भण्णाइ, एवं अरइवि चउचिहा, जहा-नामअरहे ठरण दर भावअरइत्ति, नामठवणाआ तहब, दमारा दुविधा, तंजहा-कम्मदव्वअरती णोकम्मदबअरती, अरईवेयणिज्ज कम्मं चद्धं न ताव उदिज्जइ एसा कम्मदब्बअरती RHI+-- -CCC दीप अनुक्रम [५०६५२४] ॥३५०|| ... 'रति' शब्दस्य निक्षेपा: दर्शयते [355] Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) (४२) | चूलिका [१], उद्देशक - मूलं [१/५०६-५२४] / गाथा: [४८२-४९९/५०६-५२४], नियुक्ति : [३६१-३६९/३५९-३६७], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्राक गाथा चूर्णौ ॥३६६॥गाथा,आउरी-गला ॥४८२ ४९९|| श्रीदशभोकम्मदव्यअरती-अणिहा सद्दादयो दब्बा पोकम्मदवअरई भण्णा, जाहे अरती वेदणिज्ज कम्म उदिणां ता। भावअरई भवइ। आतुर कालिकाइदाणि वध भण्णदतं च जहा वक्कसुद्धीए भणियंतहा इहपि भावियन, यतिदारंगतं। सा य अरती जाहे परीसहाणा इष्टान्त: उदएण उदिज्जति ताहे सा निच्छयओ सुहाविवागत्तिकाऊण सरीरपीटाकरावि सम्म अहियासेयव्या । एत्थे दिट्ठतो, 'जहा नाहिताहित१रतिवाक्य । आउस्सिह॥३६६॥गाथा,आउरो-गिलाणो, सो य वणेण केणइ आगंतुगेण सरीरसमुत्धेण वा आउरीको होज्जा, जहा णाम कारिचेष्टाः चूला आउरस्स तस्स इह लोगो 'सीवणज्जेसुक (बी) २माणेसु जतणा अपत्यकुच्छा आमदोसपरिहारो विरई हियकारी| भवई' तत्थ जंतणा पसिद्धा, 'अपत्थकुच्छा' णाम अपत्थपरिहारो भण्णइ, 'आम' अजिण्णं भण्णइ, आमदोसमवि परिहरति । 'विरती' णाम विलोभीमादियाणि अलभणाणि आहारतस्स भवति, एयाणि पच्छा सुहाणित्तिकाऊण विरती भन्नति, हियकारीणि र य से पच्छा भवंति, एवं-'अट्टबिहकम्मरोगा०॥३६७ ।। ग.था, अढविधेण कम्मरोगेण आउरस्स जीवस्स तस्स कम्मस्स तिगिच्छाए आरद्वाए अणेगअदव्यषमणेण भूमीसेज्जाकदुसज्जादी उक्त अवाबाहसुहकारणं ईहमाणस जा धम्मे रती अधम्मे य | अरती सा हियकारिया भवइ । किंच-सज्झाय० ॥३६८।। गाथा, सज्ज्ञाओ वायणापुच्छणादी पंचविधो, तंमि सज्झाए सत्तरसर्विधे य संजमे तवे व चारसविध वेयावच्चे दसप्पगारे, झाणजोगे दुविधे, तं०-धम्मे सुक्के य, जो एतेसु सज्शायादिसु रमति | हिंसाइंमि य असंजमे न रमती सो पावति सिद्धिं । आह-णणु तवग्गहणेण राज्झाययेयावच्चमाणा गहिया चेब, आयरियो ३५१॥ आइ-जमतेसिपि गहणं तं पाइणवताउपपदारसणत्थं कय, सत्थंमि बारसविहमिाष नवे एते पहाणतरा, तत्थवि सज्झाओ पहाणतरो, भणियं च-'वारसविहमिवि तवे सम्भितरबाहिरे जिणक्खाए । णत्रि अस्थि णवि य होही सज्झायसमे तयो कर्म ॥१॥ दीप अनुक्रम [५०६५२४] AE%%ACE [356] Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) (४२) | चूलिका [१], उद्देशक - मूलं [१/५०६-५२४] / गाथा: [४८२-४९९/५०६-५२४], नियुक्ति : [३६१-३६९/३५९-३६७], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्राक [१] गाथा चूणों % ॥४८२ ४९९|| श्रीदश- 1 तहा यावच्चमवि अपडिवाइसणादिगुणेण पहाणं, भणिय च-'वेयावच्चं निच्च करेह तवसंजमे जयंताण । सर्व किल पडिवाई 131 उपक्रमः वकालिका यावच्च अप्पडिवाति ॥१॥'झाणं पुण पहाणमेव, कम्हा ,जेण तदायत्ता यावच्चसझायावि भवंति, अतो एतेसि पि-16 धग्गहणं कयं । 'तम्हा धम्ममि (धम्मे०), ॥३६९ ॥ गाथा, जम्हा एतेहि गुणेहि जुचो सिद्धि पावइ, तम्हा धम्म रइकारप गाणि अहम्मे अरहकारगाणि अट्ठारसट्ठाणाणि इमंभि अज्झयणे भणियाणि य साधू जाणेज्जति, णामणि फण्णा गतो । इदाणी चूला हा सुचाणुगमे सुत्समुच्चारेयचं, त च अखलियं जहा अणुओदारे, तं च मुत्तं इम, जहा-'इह खलु भो! पब्वइएण.. ॥३५२।। सूत्रं २१) इहगहणेण जिण पवरणस्स गहणं कयं, खलुसद्दो विसेसणे, किं विसेसयति , जहा जो अबधावणही वधम्मो भवइ तस्स थिरीकरणाणिमित्तं पायसो एतं अज्झयणं भासितंति विसेसयति, भो! इति आमंतण, ब्रज गतौ धातुः, अस्य धातो: ताप्रपूर्वस्य 'तक्तवतू निष्ठ' (पा. १-१-२६ ) ति क्तप्रत्ययः, ककारात स्किति लोप:' आर्द्धधातुकस्येद् बलादे' रिति (पा. ७२-३५) इडागमः परगमनं प्रवजितः, प्राणवधानृतवचनपरद्रव्यापहारेभ्यो ब्रजितः अपगतः निष्कान्तः निर्गत इत्यर्थः, प्रत्र । जितः अतस्तेन, 'उत्पन्नदुखन ''पद गती' घातुः, अस्य धातो: उत्पूर्वस्य 'तक्तवतू नि?' ति (पा. १-१-२६ ) क्तप्रत्ययः, अनुबन्धलोपः, 'रदाम्यां निष्ठातो नः' इति (पा. ८-२-४२) तकारस्य दफारस्य च नकारः, परगमनं उत्पन्ना, उप्प- नदुक्खणीत, दुक्खं दुविध-सारीरं माणसे वा, तत्थ सारीरं सीउण्हदसमसगाइ, माणसं इत्थीनिसीहियसकारपरीसहादीणं, ॥३५२॥ द एयं दुविहं दुक्खं उत्पर्म जस्स तेण उप्पण्णदुक्खेण सचरसविधे संजमे, 'अरहसमावन्नचित्तण ' समावनं नाम तमि गतं चित्तं ।। मणो अभिप्पाओ वा, संजमे अरतिसमावनचित्तो तेण संजमे अरइसमावनचित्रेण, अवहावर्ण अबसप्पणं अतिकमणं, संजमातो %4.-.-- E5%A दीप अनुक्रम [५०६५२४] % 4-2450- [357] Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [?] गाथा ||४८२ ४९९|| दीप अनुक्रम [५०६५२४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + | भाष्य |+चूर्णिः) चूलिका [१], उद्देशक [-] मूलं [ १/५०६-५२४] / गाथा: [ ४८२-४९९/५०६-५२४], निर्युक्तिः [३६१- ३६९/३५९-३६७], भाष्यं मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: श्रीदशवैकालिक चूर्णां रतिवाक्ये ॥३५३॥ अवक्रमणमहावणं, तं अवहावणं अणुत्पेहिउं सलिं जस्स सो अवहावणाणुप्पेही, अब इति एतस्स पागए ओगारो भवद्द, एवं ओहाणुप्पेही तेण ओहाणुप्पेहिणा, एवं कयसंकप्पेण पुर्व ओहावणाओ 'अणोहाइएण' एवसदो अवधारणे, किमवधारयति १, नियमा अणोहाइएण अड्डारसङ्काणाणि चिंतणीयाणि, पच्छा चिंतणं अणत्थर्ग, तेसिपि भावोपदरिसणत्थमिदमुच्यते-' हयर स्गियंसपोथपडागाभूआई ' हयो अस्सो तस्स रस्सी - खलिणं, सो य सुदम्पिओऽवि खलिणेण नियमिज्जर, गयो-इत्थी तस्सवि लोहमयं न (म) त्थयखणणमंकुसो, तेण सुमत्तोऽवि (वि गतं गाधिज्जर, जाणवतं-पोतो तस्स पड़ागा सीतपडो पोतोऽवि सीयपडेण तेण वीर्याहिं न खोहिज्जर, इच्छियं च दे पाविज्जर, हयादीणं रस्सिमादओ नियामगा अत्तो पत्तेयं ते सह पढिज्जति'हयरस्सिग यंकुस पोत पडागाभूआई' भृतसद्दो इह सारिस्सवाची, जहा को ऊहलभूयंमिवि लोए आसि पन्चयंत, अओ तम्भूताणि ते इयरस्सि०सरिसाणि एवं हयरस्गियंकुसपोयपडागाभूताई, इमाई अङ्कारस द्वाणाणिति, 'इमाणि'त्ति जाणि य नियमिताणि तानि दिए काऊण पच्चक्खाणि व भणति, अट्ठारस इति संखा, णामंति वा ठाणंति या भेदति वा एगट्ठा, भणियं च - " इच्चे एहिं चउएहिं ठाणेहिं जीवा रतियत्ताए कम्मे पकरेंति," अतो इमाणि अट्ठारहाणाणि जहा हयादीणं रस्सिमादीणि नियामगाई तहा जीवस्स ओहावणं कुव्ययओ अहिनिन्य सेऊण भिक्खुभावे नियामगाई, तत्थ पढमं ताव दुकरजीवियत्तं दंसे- 'हंभो' इत्यादि, हंति भोति संबोधनद्वयमादराय, दूसमाए दुप्पजीवी नाम दुक्खेण प्रजीवणं, आजीविआ, एत्थ संजमे रयाणं तु न सेति, जतो य एवं तम्हा धम्मे रई करणीया, तत्थ कामरथी विसया भोगा सद्दादिविसया, अधिय कुसग्गा इव इयरकाला, कदलीगन्भा वडसारमा जम्दा गिइत्थधम्मे, भोगे चइऊण कुणह रई [ धम्मे ] ॥ २॥ वितियं ठाणं गतं । किंच 'भुज्जो य सातिबहुला मणुस्सा' गुज्जो पुणोर, साति [358] स्थान त्रिवj ॥ ३५३॥ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) (४२) | चूलिका [१], उद्देशक - मूलं [१/५०६-५२४] / गाथा: [४८२-४९९/५०६-५२४], नियुक्ति : [३६१-३६९/३५९-३६७], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक" नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्राक [१] गाथा ||४८२४९९|| श्रीदश-1 कुटिला, बहुला इति पायसो, कुडिलहियओ पाएण सुज्जो य साइबहुला मणुस्सा काममोगनिीमतं गिद्देसुषि पितिपुत्तप्पभि-18 चतुर्थी निसु सातिसंपयोगपरा अवीसत्यहियया, तेसु किं सुहमिति धम्मे रती करणीया, अविय-लहूसगभोगनिमित्तं पराइयधणंपरा जो चूगों मणुया । विसयसुहविप्पमुका य इअ भो धम्मे रतिं कुणह ॥शा ततियं ठाणं गयं। तहा-'इमे अ मे दुक्खेन चिरकालोवट्ठाई। रतिवाक्ये | भविस्सई तेण ओहाणुप्पहिणा एवं चितयव्य, जहा इमेत्ति जं सारीरमाणसं परीसहोदएण दुक्खमुष्पर्ण त पचखं काऊण, चसद्दो न इमं दुक्खं निहिसद सुहेण विससयति, 'म' इति अप्पाणं निद्दिसह, दुक्खं अरइकराणज्ज, चिर-पभूतो काले, ण चिरं ॥३५४॥ चिरं, अचिरसवडाणं जस्स तं अचिरकालोवट्ठाती तं च, अब्भासा जोगोपचिएण घिइबलेण परीसहाणीतं जिणिऊण सानि-12 ४ हियसामंतमंडलो इव राया सुई संजमरज्जे पभुतणं करेइ, इह पुण परीसहपराजियस्स नरगादिसु दुक्खपरंपरगतो अतो धम्मे | रमियन्वं, अविय-परीसहा उदिज्जंति, नवधम्माणं विसेसओ। जम्हा दुक्खमणा तमनिग्छमाणा रमह धम्मे ॥१॥ चउत्थं पर्दा।। गयं । किच-'ओमजणपुरसकारे' ओमो नाम पागयजणो, ओमजणा सकार इव सकारो, ओमजणस्स आमजणाओ पुर । सकारी आमजणपुण र)सकारो, धम्मे हिओ पभूणवि पुज्जो भवइ, तओ वयडिओ पुणमन्ताणमवि अन्मुडाणासणंजलिपग्गहादीहि सेवाविससहि पुकारइ, एवं ओमजणपुरकारो, अहवा अग्गओ करणं पुरकारो, धम्मचुओ रुडेहिं रायपुरिसेहि पुरी कलओ बढाइमाण काराविज्जद, एवं ओमजणाओ परिभवकर्य अपुरस्कार पावइ, एस ओमजणाओपुरकारो ओमजणपुरकारी धम्माओ |चुयस्स जणं संभवइ परं परिभवधरणाय तेण धम्मे रती करणिज्जा, पंचमं पदं गयं । तहा-'वंतस्स पडिआयण' अम्भव- ॥३४॥ हरिऊण मुहेण उग्गिासयं तं तस्स पडिपीयण ण तहा विहियं भवति, ते अतीव रसे न चलं, न उच्छाहकारी, विलीगतया या दीप अनुक्रम [५०६५२४] [359] Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + भाष्य | +चूर्णि:) (४२) चूलिका [१], उद्देशक [-] मूलं [१/५०६-५२४] / गाथा: [४८२-४९९/५०६-५२४], निर्युक्ति: [ ३६१-३६९ / ३५९-३६७ ], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि : प्रत सूत्रांक [?] गाथा ||४८२ ४९९|| दीप अनुक्रम [५०६ ५२४] श्रीदश वैकालिक चूर्णी ॐ रतिवाक्ये * ॥ ३५५॥ पडिएति, बम्गुलिं वा जणयति, ततो कोढं वा जणयति, लोगे य गरहित, तस्स पाणं वंतस्स य पडिआयणमिति तस्स, चकारस्स अत्थो पवयणकाले सव्वापरिचत्ताणं पुणरासेवणं वंत भोयण आदिएणसरिसं ओमजणपुर कारगका (२) हादिदो सद् सिय, अविच-सुजसा कुलप्पसूता अगंधणा रायदो समुग्विण्णा । उच्चि नउ पगा पिवेति पाणञ्चरवि विसं ॥ १ ॥ अतो वंतस्स पंडियातमणसरिसं भोगाभिलास मोतूण धम्मे रती करणीया, छ पदं गतं । तहा- 'अहरगइवासोवसंपया' अधोगति अहरगई, अहरगई- जरथ पडतो कम्मादिभारगोरखेणं ण सका साहारेउ अधरगती, सा गं चैव तत्थ बोसो अहरगतिवासो, तंमि उवसंपज्जणा-उवणमणं अहरगतीवासोवसंपया, सा कई १, पुत्तदारस्स कष्ट हिंसादीहिं कम्माणि - अहरगइपाओग्गाणि कम्माणि उवसंपज्जा, इह च सीउण्डभयपरिस्समे विप्पयोगपराहाणतणादि नारगदुक्खसहस्त्राणि वेदेति, अविय- 'निरयाल ( उ यं निबंधह नरगसमाणि उ उ दुक्खाणि । पाति गिही बराओ जं तेण रई व जं तेज रई वरं धम्मे ॥१॥ सत्तमं पर्व गतं । 'बुल्लहे खलु भो! गिहीणं धम्मे गिहवासमज्झे वसंताणं' दुक्खं लभइ दुल्लभो, पमादबडुलजणणेति, 'भो' इति तद्देव आमंतणं, गहाण संति जेसि ते गिट्टी तेर्सि, दुग्गडपडणधारओ धम्मो, दुल्लभो पुर्ण बोधिरूवो धम्मो पर लोगे व सोक्खपरंपरा इति सुहनिमित्तं धम्मे रई करणीया, आविय 'दुलहा गिहीण धम्मे गिही (ण) वासे पमाद बहुलंमि । मोसून मिहेसु रहे रतिपरमा होह धम्मंमि ॥ १ ॥ अट्ठ मं पदं गतं । अयमवि गिहिवासमझे वसंताणं दोसो, तं० 'आर्यके से बहाय होइ' मूलाइ आमुकारी सरीरे बाधाविसेसो आयको, समाणजातीयवयणेन रोगम्गहणमवि, सो कुट्ठादीयो रूपाविसेसो, गिद्दीवासमझे वसंताणं आहारबिसमकरादि भारवहणावणा, आर्यके से बहाय होइ, रोगायका य जहिं तं सुहाशुभवणविग्वभूता इति धम्मे रवेण भवियव्यं, अविय - 'दुलमं गिट्टीण धम्मे सुहमातं [360] सप्तमादीनि चत्वारि ॥३५५॥ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + भाष्य | +चूर्णि:) (४२) चूलिका [१], उद्देशक [-] मूलं [१/५०६-५२४] / गाथा: [४८२-४९९/५०६-५२४], निर्युक्ति: [ ३६१-३६९ / ३५९-३६७ ], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [ ४२ ], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णिः प्रत सूत्रांक [?] गाथा ||४८२ ४९९|| दीप अनुक्रम [५०६ ५२४] श्रीदश वैकालिक चूर्णो रतिवाक्ये ॥३५६॥ hit विप्पियसमग्गो तम्हा धम्मंमि रति करह विरता अधम्माओ ॥ १ ॥ नवमं पदं गतं । 'संकप्पे से वहाय होइ' आर्यको सारीरं दुक्खं, संकप्पो माणसं, तं च पियविप्पयोगमय संवाससोगभयविसादादिकमणगहा संभवति, 'इट्ठाणवि * सज्जा (व्वाणं सद्दफरिसरसरूवगंधाणं । कम्माणुसमि रती धम्मे भयवियोगविरसंमि ||१|| दसमं पदं गतं । एवं विसेसेण धम्मे ४ रती करणीया, जतो 'सोवकैसे गिहवासे' सह उबकेसेहिं सोबकेसो, सो पुण सीउण्डभयपरिस्सह कि सिपसुपालवाणिज्जसेवादयो हलवणतंदुलछायणसमुपयणं बहु परिकेसह इति सोबके से गिडवासे, तमेवंभूतं जाणिऊण धम्मे रती करणीया, अविय 'वित्तिविहाणममत्तं सावके सेण जओ य सोकसो मोत्तूण घरावास, तम्हा धम्मे रतिं कुज्जा ॥ १॥ एकारसमं पदं गये। किंच'निरुव से परियार' निग्गओ उनकोसा जओ निरुकेसे सो पुब्वभणिओ, उबके से विहरिओऽलं सव्वओ अओ सारयाओ वा गमणं पव्वज्जापरियाओ, तत्थ उकसा पण संभवतीति धम्मे रती करणीया । णिरुवकेसो वासो परियाओ जं इहेव पञ्चक्खं परियाए तेण रति करेह विरया अहम्माओ || १ || बासरमं पदं गतं ॥ किंच - बंधे गिहवासे' बंधणं बंधो, गिहेसु बासो गिहवासो, सो पुण तदारंभणपत्र तस्स को सिगारकीडगस्सेव कोसगण अट्ठविहकम्म महाकोसेणं संभवइ बन्धो, तओ तेण बंधदेउभूतातो गिहवासाओ विरएण धम्मेरती सया करणीया, अविय - 'थे (घ) रचारगवद्धाओ कम्मट्ठगबंधहेतुभूताओ। विरमह रती य धम्मे करेह जिणवीरमनियंमि ||१|| तेरसमं पदं गतं । किंच 'मोक्त्रे परियाए परिआओ पुण्यभणिओ, तंमि परियार सति अहविहकम्मनिगलकलासु झाणपयोग पर द्विच्छिन्नासु जीवस्स सतो भवति मोक्खा, जेण परियाओ (अविकम्मनिगला साहू छेएइ सुद्धझाणाओ सो) मोक्खो तेण रई धम्मे जिणदेसिए कुणइ || १ || चोदसमं पदं गतं । किच- 'सावज्जे गिहवासे' सह वज्जेण सावज्जो, [361] एकादश दीनि पर ॥३५६॥ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+भाष्य+चूर्णि:) चूलिका [१], उद्देशक ], मूलं [१/५०६-५२४] / गाथा: [४८२-४९९/५०६-५२४], नियुक्ति: [३६१-३६९/३५९-३६७], भाष्यं मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्राक [१] गाथा चूर्णी ||४८२ ४९९|| श्रीदश- वजं गरहितं, अविय-'पाणबंध मुसाबादे अदत्तमेहुण परिग्गहे चेय। एवं बज्ज सह तेण होति तम्हा उ सावज्ज॥१पषणरसमसप्तदशावेंकालिकापगतं किंच. अगवाजे परियार पाणाइवायादिरहिनो अणवज्जो परियाओ, अविय-'सावज्जो गिहवासी अणपज्जा ML जण होइ परियाओ । तेण ण रज्जे मोक्खं ताती धम्मेऽह रहे कुणह।।१॥ सोलसमं पदं गतं! 'बहु साधारणा गिहीण कामरतिवाक्ये भोगा' साहारणं सामण्णं, पहहि चोरदुहरायकुलादीहिं सामण बहुसाहारणा, एवंविधा गिहीण कामभोगा, अविय 'ण य तित्ति | कामभोगा, बहुजणसाधारणा य(इमे कामा। तम्हा णीसामने होउ रती ते घिरा धम्मे।।१।सत्तरसमं पदं गतं । 'पत्तेय पुन्नपावं ॥३५७॥ला पत्तेय नाम जै परनिमि पुत्तदाराहे, संविभागणण य, एवं पुर्णमि “दाराहणं अत्थे कमस्स पचयमेष संबंध । मोनूग दारमाइणि । तेण धम्मे रई कुणह ॥१॥ कामभोगाण आहारभूषा आउधम्माणो. य जीविघ, अओ 'अणिच्चे मणुयाण जीविए' | अपणोऽपि रोगा नियतं निच्च अणिच्चं मणुयायाए, ण(णु च तेसि जीवितमणिच्च, खणिकया विसेसो दिढतेण निदरिसिज्जा 'कुसग्गजलविन्तु चंचले दभजाइया तणविसेसा कुसा, तेसिं अग्गाणि कुसग्माणि सुसहासुसहुमाणि भवतीति, तेसिं ओसाजलबिन्दवो अतिचंचला, मंदेणावि वाउणा पेरिता पडंति, तहा मणुयाण जीविए, अप्पणोऽवि रोगाइणा उवक्कमविसेसेणं संखोभिए विलयमुपयाति, अतो कुसग्गजलबिन्दुचंचले, एवं गते जीविए को कामभोगामिलासं करेज्जति धम्म ठिती करणीया, अविय "जीवियमपि जीवाणं कुसग्गजलबिंदुचंचलं जम्हा। का मणुयभवंमि रई धम्ने य तहा रई कुणह ॥१॥ कुसग्गजलबिन्दु- ॥३५७) चंचलरसावि अत्थे 'बहुं च पावं कम्म पगड, पावाणं च खलु भो! कडाणं कम्माणं पुचि दुछिचन्नाणं दुप्पडिकताण वेइत्ता मोरखो, मस्थि अवेत्ता , तवसा वा झोसत्ता' बहु-पभूतं, चसद्दो समुच्चये, खलुसद्दो बिसेसणे, किं विसेप *-k -- दीप अनुक्रम [५०६५२४] 40... +-La-C [362] Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) (४२) | चूलिका [१], उद्देशक - मूलं [१/५०६-५२४] / गाथा: [४८२-४९९/५०६-५२४], नियुक्ति : [३६१-३६९/३५९-३६७], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्राक वकालिका गाथा ||४८२ चूणों. रतिवाक्ये ४९९|| ॥३५८॥12 यति', सव्वं पावं कम्म, पुण्णं पावं च, एवं विसेसगति, पावं कम्मै, पगट पकारिसेण कई पगडे, पावाण च खलुसदो पादपूरणे पति भो' इति सीसामंतणे, कडाणं कम्माण मुवचित्राणं पुबि-पढमकालं रोगहोसबसगएण दुछ चिण्णाणं पुश्वमेव मिच्छादरिसण: स्थानानां बिरहपमादकसायजोगेहिं दुठु परिकताण, तेसि वेयर्णण मोक्खो, अतो वेदत्ता मोक्खो, पा अस्थि अवेयइत्ता, फुडाभिधाणत्थं। अपुणरुतं, जहा कोडिल्लप-"क्रिया हि द्रव्यं विनयति, माद्रव्यं" तहा वेदयिता मोक्खो, नत्थि अवेदयित्ता इति न पुणरुतया, बारसविधेण जिणोवइट्वेण 'तवमा झोसदत्ता झोसणं णिहहणं तवसा, मोक्खो, तरथ जे दयिना मोकखो, [ग] तमुदयपत्तस्तम कम्पुणेण महापरिकिले सेण, तपसा अझसियणा, अणुदीण्णोदीरणदो रासीनीहरणमिव लहुतरं अणुभवणेण विमोक्खणं, असन्तगणेण दरिसणं, समुलुबरणमिव अणमोकल एप, अओ कम्पनिज्जरणस्थ तयासि समासतो समणधम्मे करणीया रती । अविया "गुणभवणे रिणमोक्खो जइवा तवसा कडाण कम्माणं । तम्हा तयोवहाणे अज्जयब्बे रई कुणह ॥ १ ॥ एवं तरति जेण वीर्ण, अहारसमनि ठाणं, एस्थ इमाओ वृत्तिगाहाओ,उक्तंच-दुसमाए जीओ जे इयरा व लहस्सगा पुणो कामासाविबाहुला मणुस्सा अरहट्ठाण इमं उत्तं?|| 'ओमज्जणाम खिमा५वंतं च पुणो णिमेवितं होइ६। अहरोबसेपदावि य७धम्मोऽविय दुलहो गिहिणाशाह निबत्तंति किलेसेवाधा' सावज्जजोग गिहिवासो१शएते तिण्णिवि दोन ण होति अणगारवासंमि१४॥२॥साहारणाय भोगा१५ पनेर्य पुष्णपावफलमव १६। जीविनमधि मणुयाण कुसम्गजलचंचल मणिकचं १७॥३।। नस्थि य अवेयहत्ता मोक्खो कम्मरस निच्छयोहा । एसारा पदमहारसमयंबीरचयणसासण भणियं ।। ४ ।। सबिसेससु च देस राषकपदेस परिमाणरथमचरपडिसवायणस्थं च सदा भाई अट्ठारसमं पद, 'भवा य एस्थ सिलोगों "भवनि' निविज्जति, पशब्दो मपुरचये, 'एश्थ' निजं एतमि चेय रतीव दीप अनुक्रम [५०६५२४] 545 [363] Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) (४२) | चूलिका [१], उद्देशक [-], मूलं [१/५०६-५२४] / गाथा: [४८२-४९९/५०६-५२४], नियुक्ति : [३६१-३६९/३५९-३६७], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्राक गाथा ||४८२ चूणों ४९९|| श्रीदश वणे अट्ठारसपओबाटो अत्थो, सेसे तस्सोबदरिसणथं, सिलोगो इमो, तंजहा-'जदा य जहती धम्मं० ॥४८२ ॥ सिलोगो, स्थानवैकालिका 'जदाय' इति जैमि चा काले, चसदो पुवमणियकारणसमुच्चये, धम्मो यतं जहाति-परिचयति, ण अज्ज अणज्जे, अणज्जा II श्लोकाः मेच्छादयो, जो तहाठिओ अणज्ज हय अणज्जो, से किमत्थं परिचयह', माणुसगादिभोगणिमितं "भोगकारणे से तस्था रतिवास्ये से इति जो धम्मपरिच्चागकारी 'तत्थे' ति तीए लहुसगकामभोगलिच्छाए मुच्छिते महिते अज्झोचवण्णो से जया जहइ बाले। इति जे मंदविण्णाणे 'आवती' आगामिको कालो ते णावयुज्झइ, अथवा आयतीहितं आत्मनो हितमित्यर्थः, 'णावयुज्झइत्तिणावपुज्झा, भणंति आयतीगौरवं ते नावबुज्झती, जहा मम सामण्णस्स परिसुद्धस्त मंदा आयती भविस्सइ, अबुद्धायती काममोगा। मुच्छिओ धर्म परिचइऊण-'जया ओहाविआ० ॥ ४८३॥ सिलोगो, जया मि काले, चसहो पृथ्वकारणसमुच्चय, ओहा. वर्ण-अवसप्पणं तं पुण पवज्जाओ अबसरओ भवइ, तस्स ओधायितस्स सओ अवत्थंतरनिदरिसणस्थं भष्णइ-'इंदो वा पडिओ छमंदो-सको, वा इति उपमा, पडिओ पडिभट्ठो, छमा भूमी, तत्थ पडितो जहा दस्स महंतातो दिवातो पचुतस्स भूमी पडणं, तहा तस्स परमसुहहेऊभूताओं जिणोवट्ठाओ धम्माओ अवधावणं, एवं च सखधम्मपरिवमट्ठी जे चिरकालं तवधारणं कयं जावज्जीवाए परणारोहणा से निष्फलं कर्य, पुष्वं सब्वं परिभई भवइ, अथवा जे लोइया परिकप्पणाविसेसा तेहिपि भट्ठो सब्बधम्मपरिभट्ठो, पमादित्तणेण वा सावगधम्माओऽवि भट्ठो, कामभोगविरहिओ रोगोदयावसाणे 'स पच्छा परितप्प ॥३५९।। स इति परिच्चागी, पच्छा उत्तरकालं, सारीरमाणसेहिं दुक्खेहि सबओतप्पह परितप्पा । किंच 'जया य पंदिमी होइ०॥४८४।। सिलोगो, 'जया' इति एस णिवातो यस्मादर्थे वर्तते, चसदो इंदस्स छमापडणसमुच्चये, दिमो चंदणिज्जो, सीलत्य इति ok दीप अनुक्रम [५०६५२४] * k [364] Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) (४२) । | चूलिका [१], उद्देशक - मूलं [१/५०६-५२४] / गाथा: [४८२-४९९/५०६-५२४], नियुक्ति : [३६१-३६९/३५९-३६७], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्राक [१] श्रीदशवकालिक aa चूर्ण.. --- गाथा ||४८२ रतिवाक्ये ॥३६॥ ----- ४९९|| %ERIEW4 काऊण रायामच्चादीनामवि वंदणारिहो होऊण सीलपरिक्खलणाणतरं पच्छा सीलगुणरहित इतिकाऊग अवंदिओ (मो) सफारस स्थानम्माणरहिओ 'देवया व युआ ठाणा' देवता इति पुरंदरं गांजूण अण्णो देवविससो, सट्ठाणाओ परिवडतो माणुसं महादुक्खम MEERHश्लोकाः णुभवइ, वासद्दो उवमाणरथस्स इवसहस्स अत्थे, जहा सा देवता ठाणाओ चुया एवमेव सो संजमावसप्पणातो अणं तर पच्छा मणसा सब्यो तप्पइ परितप्पइ ।। किंच-'जया अ पूइमो होइ०॥४८५|| सिलोगो, जयासदो चसद्दो य पुब्वभाणिया, 'पूइभो' पूषणारिहो सीलमंतोत्तिकाऊण रायादीण पुज्जो होऊण ओहावणाओ अणंतर सीलसुभा(ओ)तिकाऊग अपूइमो भवइ अ, तहा व. अपूहमो पूयणसहलासिओ तस्सऽभावे 'राया व रज्जपन्भट्टो' राया इय राया, जहा कोई मंडलियो महामंडलियो वा सबभूमि पस्थिवत्तणं पाविऊण पुणो अपुण्णोदयमणुभवमाणो केणावि कारणेण रज्जाओ अच्चत्य पभट्ठो परितप्पद तहा य सो पूयणिओ अपुज्जत्तमुवगओ समणधम्मपरिभट्ठो पच्छा तप्पइ ।। 'जया अ माणिमो होइ.' ॥४८६॥ सिलोगो, जदा इति सहो चसहो । |य पुर्व व वणियबा, 'माणिमो' माणजोगो माणणीओ, माणिमो जहा सीलप्पसाएण मझ्यामवि माणणीओ होऊण ओधाइओ18 | अतहाभूओ पच्छा असन्माननीयभावाधिगमात्, 'सिडिब्ब कब्बडे छूढो रायकुललद्धसंमाणो समाथिद्धचिट्ठणो वणिगममहतरा । सेही, वाडवोपमकूडसखिसम्भावियदुक्खछलम्बबहारतं कब्बई, जहा सिट्ठी मि छटो विभयहरणाइससिओ परितप्पद, अहया कब्बडं कुनगरं, जत्थ जलस्थलसमुभवविचित्तभंडविणियोगो णस्थि, तंमि बसियब, रायकुलनियोगेण छटो कयविक्याभावे विभवोपयोगपरिहीणो, जहा सो तहा साधू धम्मीहि बंदणदाणेहिं पुब्धि माणितो धम्मपरिग्भट्ठो माणणाभावे स पच्छा[ ३६०॥ परितप्पद, अंजलिपग्गहसिरिकंपासणप्पदाणादिजोगं बंदणं, वत्थपचादीणा य पयाणगुवजोग पूषणं, बंदणपूयणाणं अह -10- दीप अनुक्रम [५०६५२४] % ॐ. [365] Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) (४२) | चूलिका [१], उद्देशक - मूलं [१/५०६-५२४] / गाथा: [४८२-४९९/५०६-५२४], नियुक्ति : [३६१-३६९/३५९-३६७], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्राक [१] गाथा ||४८२४९९|| श्रीद- विसेसो। 'जया य धेरओ होइ० ॥ ४८७ ॥ सिलोगो, जदा जीम काले, चसदो पुनभणिओ, पच्छातावकारणसमुच्चये, M arवित वैकालिका पढमवयपरिणामेण धेरओ होइ, रं 'समइकंतजुब्वणो' निदरिसणं स 'मच्छोव्व गलं गिलित्ता' जहा जलयरसत्तविससो| पश्चाताप दमच्छो से थोवोपजीवी पडिसामिसलुद्धो आमिसलोभेण गलमम्भवहरिऊण गलए तिक्खलोहखीलगविद्धो बलसु प णीऔ रतिवाक्येमा पच्छा परितप्पड़, एवं सो विडिसामिसत्थाणीयमदकामभोगाभिलासेण धम्मपरिचागी परितप्पा । इहावि तस्स थेरभावे जाणि फलंच दक्खाणि संभवंति तदुवपदरिसणत्थं भण्णइ-'पुत्तदारपरीकिन्नो' ॥१८९॥ सिलोगो, पुचा-अवच्चाणि, दारं-भज्जा ॥३६॥ दुबिधादीहि संबंधेहि परीकिण्णो-परिवेडिओ, तेहि परिकिण्णो, देसणचरित्तमोहमणेगविई कम्मायाणं अमआण-मोहो तस्स संताणो अविच्छित्ती तेण मोहसंताणण समाहिद्विषो मोहसंताणसंतओ, निदरिसणं 'पंकोसन्नो जहा णागों' पंको चिक्खिल्लो तमि खुत्तो पंकोसण्णो, जहा इति जेणप्पगारण, 'नाग' इति हत्थी, अप्पोदकं पंकब हुलं पाणि हत्थी अवगाढो, अणुवलम-13 पाणितं खुत्तो चिंतइ-किमहमत्थऽवतिम इति परितप्पइ, तहा सो ओधाइय थेरभावे पुत्तदारमरेण पोसणासमत्थो धाउपरिक्खयपरिहिणकामभोगपिवासो पच्छाऽऽगतसंवेगो संजमाहिकारणट्ठचेट्ठो बहुविहं तप्पमाणो विसेसेण इमं ओहावणपच्छाणुतावगयं चिंता-'अज्ज आहं गणी इंतो० ॥ ४९० ॥ सिलोगो, अज्ज इति इमंमि दिवसे, तावसदो अवधारणे, इमं दिवसमद-1 कमिऊण, अहमिति अप्पणो णिसे, अने पति-'अज्जत्नेह' अज्जत्ते अहं विच्छूढपइनजोगी गणी, 'अज्जत्ते अहं ।ज्ज हुतो अहवा गणो जस्स अस्थि सो गणी-पूरीपदमणुप्पत्ते गाणदंसणचरिततिर चावि)विधगुणतवोविहाए जोगीह अणिच्चयादिभावणाहि य| "भाविअप्पा बहुस्सुओ' ति जब ण ओहावतो तो दुवालसंगगणिपिडगाहिज्जणेण अज्ज बहुस्सुओ, किं पुण 'जइ अहं रमतो दीप अनुक्रम [५०६५२४] [366] Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) (४२) | चूलिका [१], उद्देशक [-], मूलं [१/५०६-५२४] / गाथा: [४८२-४९९/५०६-५२४], नियुक्ति: [३६१-३६९/३५९-३६७], भाज्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्राक चूर्णा र गाथा ॥४८२ S ४९९|| श्रीदश- परिआए' जदीति अतिक्रान्तां क्रियामाकांक्षति, अहमिति अप्पाणमेव णिदिसति, रमंतो इति रई विदंतो, परियायो णामा रवारतवैकालिक पष्वज्जा, बहुत्तमितिकाउं सा विसोसिज्जति 'सामण्णे', सोय समणभावो तत्थ विसेसो जिणदेसिए, न बोडियनिहगाइसच्छ दगहणं । ओहाणुप्पेहिस्सेव मतीथिरीकरणस्थमिदमुच्यते-'देवलोगसमाणो०(अ.)॥४९॥ सिलोगो, देवाणं लोगो देवलोयो, रतिवाक्ये देवलोगेण समाणो देवलोगसमाणो, समाणो तुलो, जहा तंमि देवलोगे देवा रतिसागरोगाढा गतंपि कालं न याणति, विविहाणि य माणसाणि दुक्खाणि ण संभवति, तहा पव्यज्जाए विधिइ अप्पमओ तेण देवलोगसमाणो, तुसद्दी विसेसयति, किं विसेसेति ? ॥३६॥ अरतीतो रति, परियागरइयाण, तबिवरीयरताण य, तुसहो तहेव रतीओ अरई विससयति, निदरिसणं मणुस्सो, दुक्खाणुगमेण 'महानरयसारिसों' महानिरओ जो सम्भावनिरओ तउ मणुस्सदुक्खो उपयारमतं, अहवा सत्तमादिमहानिरमो, तेण सरिसो-स| माणो दुक्खो जस्स सो महानिरयसारिसो, एवं अरयस्स सामण्णपरियाए, सामष्णे रयाणं च सुहृदखसहाणोपमाणं भणिय अरयाण, एयस्स चेव अत्थस्स उपसंहरणोषदेसो समुण्णीयते -'अमरोवमं जाणिअ०॥४९॥सिलोगो, मरणं मारो न जेसि मारो अस्थि ते अमरा, अमराणं सोक्खं अमरसाक्खअमरसोक्खेण उवमा जस्स तं अमरसोक्खोवम, उत्तरपदलोपे को अमरावम, 'जाणिय' जाणिऊण, सोक्खस्स भावो सोक्वं 'उत्तम' उकिडे, देवलोगसरिसं सोक्खं भवइ रताण परियाए, एवं जाणिऊण अति च विवप्रोजेऊण परियाए रमियब्वति, तदा 'अरयाण' ति उत्तरपदेण संबज्झा. तं पुण दम "णिरयोचर्म जाणिअ बुक्खमुत्तमा तहात | तेणाप्पगारण जहा रयाण सुरसुक्खसरिस, वह अरमाणं नरगदोसोवमं दुक्ख पुनम जाणिऊण रमेज्ज-सामने चिति उपाएज्जा, I'तम्हा' इति हउवयण, रयारयाणं सुदुक्खपरिणाणहेऊ, एतेण कारणेण परियार रमिज्ज, एवं पंडिओ भवद एवं परियाय SHRSNEHRADESH दीप अनुक्रम [५०६५२४] प३६२१ AKCE [367] Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) (४२) | चूलिका [१], उद्देशक [-], मूलं [१/५०६-५२४] / गाथा: [४८२-४९९/५०६-५२४], नियुक्ति : [३६१-३६९/३५९-३६७], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्राक [१] श्रीदशकालिक 591 गाथा रतिवाक्ये C ॥४८२ ४९९|| ॥३६३।। ताणं सुहं भरयाण दुक्खं जाणिऊण इह मवे चैव परभवपरिहारिया धम्मे रई करणीयति। तदस्यमवयुपदिसति-'धम्माउ भह अवधा| सिरिओ ॥४९शा वृत्तं, दसविहो साहुधम्मो पुव्यवण्णिओ, उभयधम्माओ भई. सिरी सग्ली सोमा वा, सा पुण जा समण-12वनफल | मावाणुरूवा सामण्णासिरी ताए परिम्मट्ठ, सिरिओऽववेयं तं धम्मसिरीपरिच्चन, सिरिविरहे एस दिळतो-'जन्नग्गिविज्झाअमिबऽपते' जहा मथसहे सुसमीहासमुदये वसारुहिरमहुघयाइहि हुयमाणो अग्गी संभवदितिओ आहेतं दिप्पा, इवणावसाणे परिविज्झाणेसु अंगारावत्थो अप्पतेयो भवति,एवं ओहाविओ समणधम्मपरिच्चत्तो अपपतेओ भवइ,अओ तमेवविध संत हीलयंति णं दुब्विाहअंकुसीला' ही इति लज्जा, लज्जं वयंति हीलंति-हेपयंति, विहिओ णाम उप्पाइओ, सो सिरिध्वयेयो होलणाय उप्पाइओ, दुठ्ठ विहिओ, किं तेण उप्पातितण ! जो एवं निन्दाभायणं, तमेवंविधं संतं हीलयंति , तमेवं गयं इलिति, कुच्छियसील कुसीलं, जहा कोइ पयावहीणो हीलिज्जडान्ति, निदारिसणं 'दाढाड घोरविसं व नागं' अग्गदंते परियस्स गतो दूसणविसेसो दाढा, ता य अवणीया जस्स सो दाढढिओतं, घोरं रिसं जस्स सो घोरविसो, जहा घोराविसं अहितुंडिगादि साहिबा विसादाद, बासदो उवमारूवस्स हवसहस्स अत्थे, जहा घोरविसं उत्तरकालमुड्डियदाढं निच्चिसोऽयमिति जणो परिभवह नाग, णागो। णाम सप्पो, तं दुविहि कुसौल समणधम्मपच्चोगलितं दुब्बयणेहिं हीलति, ओहायस्स इह भवे लज्जणादोसो भणिओ ।। दाणि इह भवे परत्थ याणगदोससंभावणत्थं उण्णीयते, जहा-'इहेवऽधम्मो अयसो अकित्ती ॥ ४९४ ॥ वृत्तं, इह इममि | ॥३६॥ का मणुस्समवे, एवसदो अवधारणे, एवं अवधारयति-अच्छउ ताव परलोगो, इहेब दोसो अहम्मो अयसो अकिची, जे समणधम्मपरिचचो छकायारंभेण अपुनमायइ-स्यए, अधम्मो-सामग्णपरिच्चागो अयसो य, से जहा समणभूतपुल्यो इति दोसकिन्चणं, टू दीप अनुक्रम [५०६५२४] BAE%ERICA [368] Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) (४२) | चूलिका [१], उद्देशक [-], मूलं [१/५०६-५२४] / गाथा: [४८२-४९९/५०६-५२४], नियुक्ति : [३६१-३६९/३५९-३६७], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्राक [१] अवधावनफलं गाथा ॥४८२ दिश- अकित्ती, अकित्ती जहाणुरूवभूमिभागऽगुणवयणं, जसो अणुमुई, परेण अगुणसंकितणं किती तं, जसकित्तिविसेसो, किंचचूर्णी. 'दुण्णामगोत्तं च पिहुजणमि' कुच्छितं नाम दुण्णाम पुराणादिक जोणियमारूढो तं गूयइ-अवस्स णीयजातीओ विति, दुसद्दो रतिवाक्ये कुच्छिअत्थे पउत्तो, उभयगामी विसिट्ठनाणविरहिओ सामनजणवओ पिहुजणो, एते अधम्मादयो उद्धावियस्स पिहुजणेण दोसा संभाविज्जति, किं पुण उत्तमजणे?, तस्स दोसदसियस धम्माओ परिन्मदुम्स सरीरसुदारासएण मूढस्स विसेसेण पाणातिवाय| अधम्मसेविणो 'संभिन्न वित्तस्स' सरीरसील सामयभिण्णं, चसद्दो पुवानिदिद्वकारणसमुच्चये, तस्स धम्मपरिच्चत्तस्स, अहम्म-1 | सविणो, समवलंबितसभिन्नचारित्तस्स य रयणापभिइसु कम्मसंभारगरुययाए अहो गमणमिति हिडओगती, अयं च समणधम्मो | ४ा परिच्चागे अहम्माय, अजसाकित्तीदनामगोयदग्गइगमणेहिंतो पावयरो पच्चवाओति, तब्भासणत्थमुत्रीयते 'अँजित्तुभोगाई ॥४९५।। वृत्तं, भुंजित्तु-अब्भवहरणादिणा उवर्जीविऊण, दाराभरणभायणाच्छादणादीणि मात्तवाणि भोगाणि, तो दाणदायादग्गि रायाण एकदव्याभिनिविट्ठाणं बलात्कारेण 'पसज्झचेअसा' णाम जाणतोऽवि विवागं छिनालमरालो इव घायसवर्ण कार्ड वेगेण दगासभवणमिव चेअसा तस्स अणुरूवं तहाविहं करेऊण कडुअपुण्यामसंजमं तेसु च जाणिऊण बहुं, मरणसमए गई च गच्छेज्जा, अणभिझियं गतिं च नरगादि एतेण सीलेण गच्छेज्जा, आभिलासो-अभिज्झिअंसो जत्थ समुप्पण्णो तं अभिनितं, अणाभिलसितमणभिप्पेयं गई च गच्छे, तस्स माइणो 'बोधी य से नो सुलहा पुणो पुणों' अरहतस्स धम्मस्स उवलद्धी बोधी, सा से णो | मुलमा, चसदेणं अणभिमअगतिगमणादि संख्यण, पुणो पुणो इति न केवलमणतरभवे, किन्तु', भवसएसुवि, जाणि ओहाणुप्पेहिमतिथिरीकरणथमहारस एयाणि दुस्समाए दुप्पजीविमाइणि समासओऽभिहिताणि तेसि पिस्थरणभया 'जया य चयइ धर्म ए-1 ACE5 ४९९|| दीप अनुक्रम [५०६५२४] ॥३४॥ SAKCkce %A5% [369] Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+भाष्य +चूर्णि:) चूलिका [१], उद्देशक [-], मूलं [१/५०६-५२४] / गाथा: [४८२-४९९/५०६-५२४], नियुक्ति: [३६१-३६९/३५९-३६७], भाष्यं मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्राक [१] गाथा ||४८२ ४९९|| श्रीदश- वादी य सिलोगा भणिता, जे पुण इमं न मे दुक्खं चिरकालोपट्टायी भविस्सहात्त आलंबणं, तदुपदेशार्थ इदमारभ्यते-'इमस्स ता वैकालिक नेरइ अस्स०४९६।।कृत्वं, इमस्स'चि अप्पणो अप्पनिदेसो, तासद्दो अवधारणे, इमस्स ताव किमुत बहणं संसारीण?,'नेरइअस्स चूर्णी. द्रजंतुणो' ति, जहा अहमेव नेरइएसूचवमो तस्स दुक्खाणि नरओवमाणि दुक्खेहि वा तप्पायोग्गेहि मरणमुवणीतस्स दुहोवणी२ चूला तस्स निमसमेत्तमवि नस्थि सुहमतिकिलसवत्तिणो, तहचेव तस्स पलिओवमद्वितीएसूववनस्स तप्पभूओ कालो तहाचि सहिज्जइ, किं पहुणा, तओऽपि पभूततरं सागरोवर्म, किपुण-किंमगंतु, अहया अरबमन्तआमंतणं, संजमे अरइसमावनं अयाणमामन्त्रयति. ॥३६५॥ दि थिरीकरेह य, 'मज्झ' इति ममं 'इम' इति जं अरतीमयं अपणो पच्चक्खेण 'मणोदुह' मिति मणोमयमेव, न सारीरदुक्खाणु-| गर्य, ओहाणुप्पेहिस्स चित्तथिरीकरणालंबणस्थमिदमुपदिसते-'न मे चिरं दक्वमिणं भविस्सइ० ॥ ४९७ ।। धृतं, 'न| इति पडिसेधे, 'मे' इति अप्पणो निदेसे, न ममं चिरं-दहिकालं, दुक्खमिति संजमे अरइसमुप्पत्तिमय, भविस्सतीति आगामिकालनिदसो, तं एवं मम संजमे अरइमयं दुक्खं न चिरकाली मिणं' ति जंनिमित्तं चं अहं संजमाओऽवसप्पितुं वयसामि, 'असासया भोगपिवास जंतुणो' इमस्स मम जीवस्स, 'ण चे (मे) सरीरेण इमेणऽविस्सई' ति, एत्थ काकू गम्मो, जइसहस्स मा अत्थो जइ दुक्खमिण इमेण उप्पाइयेण सरीरेण न अवगच्छिज्जद, परगमन पज्जाओ अन्तगमणं, ते पुण जीवस्स पज्जाओ मरण-1|| MI मेव, जइ इमेण सरीरेण तस्स अरइदक्खस्स अन्तो न कन्जिहिति तहावि वित्तियमेव परिसाउमिति तदन्ते अरतीवक्खस्स ||३६५।। अन्त एवेति अरातिमाहियासेज्जा सरीरत्ति, एवमिदं सर्व जाणिऊण रमेज्जा तम्हा परियाए पंडिते, संजमे रहनिमितं आलंपणा-12 तरसवाहियस्स सुद्धस्सालवणस्स फलोपदरिसणस्थमिदमुच्यते-'जस्लेवमप्पा उ हविज्ज निच्छिओ०॥४९८॥ वृत्तं, जस्लेतिर 661-44-4 16-24-30-40 दीप अनुक्रम [५०६५२४] [370] Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) (४२) | चूलिका [१], उद्देशक [-], मूलं [१/५०६-५२४] / गाथा: [४८२-४९९/५०६-५२४], नियुक्ति : [३६१-३६९/३५९-३६७], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्राक [१] गाथा -५ ८ ॥४८२ ४९९|| श्रीदश- |आणहिदुस्स, एवमिति पगारोपदरिसणत्थं, भगवं अज्जो सज्जभवो आह-एतण पगारेण अभिरएणवि संजमे अरइआहियासम् प्रति अवधा कालिक | अप्पा इति चित्तमेव, तुसद्दो संजमं विसेसयति, भवेज्ज, जति एवं होज्ज णिच्छयो-एकग्गकयो ववसायो, सो एवं कयनिच्छयोग चूर्णी. | "चइज्ज़ देहं नहु धम्मसासणं' चएजत्ति वा जइज्जति वा एगट्ठा, देहो-शरीरं,'ने' ति प्रतिषेधः,चशब्दो अवधारणे, सासिज्जति रतिवाक्ये जीवादि पदत्था जेण तं सासणं, धम्मस्स वा सासणं धम्मसासणं, एवं कयववसाओ जो देहसंदहे धम्मसासणं न छड्डेज्ज ॥३६६॥ धम्मठियाणयानच्छओ'तं तारिसं नो पहलेंति इंदिआ'तमिति निसवयण विम्हए वा. तारिसमिति देहविणासेऽबि धम्म । अपरिच्चागिणं, इंदियत्था जो पयलेंति-णवि कंपयंति, धम्मचरणाओ न चलेंतीति, सोयाझ्या इंदिया, सद्दादयो इंदियस्था, ४ आह-कहं किं चालयतीति?, भण्णइ 'उर्वितवाया उ (4) सुदंसणं गिरि ' उवागच्छंता वाया प्राणादयो, वा इति उवमाअत्थे, &ासुदंसणसेलराया मेरू, जहा वाया उता भेलं ण य चालयति तहात सुणिच्छितमाणसं इन्दियत्था ण पचालेति । इदाणि सुविादPा यहारसट्ठागणं संजमे अर, उज्झिाऊण घिदसंपत्रण करणीयं तदुपदेसत्थं भण्णा-इचव संपास्सिा बुद्धिम नरी० ॥४९९।। पचं, इतिसद्दो उपदरिणत्थे, जं अज्झयणे आदावारब्भ उवदिई तमवलोकयति, एक्सहो पायपूरणे, पच्चवलोकणनियममाह*संपस्सिअ-एकीभावण अवलोगऊण, पुद्धि जस्स अस्थि सो बडिमान नरो. मणस्सोनीया धम्मा इति तस्स गहणे, IR का एवमालोकेऊण 'आर्य उवायं विवि बियाणिया' आओ बिमाणादाण आगमो, उवायो तस्स साहणं अणुव्यात, आय उवाय विविध-अणेगप्पगारं च जाणिऊण, एवं संपस्सिऊण आयोवायकुसलेन सबह करणीय 'कायेण वाया अदु माण-T ॥३६६।। सेणं' कायो सरीरं, वाया अभिषायणे, माणसं माणसमेव, एतेहि कारणाई जहावद सेण पवत्रण सुनिमितेदि 'लिगुत्तिगुती दीप अनुक्रम [५०६५२४] [371] Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) (४२) | चूलिका [१], उद्देशक - मूलं [१/५०६-५२४] / गाथा: [४८२-४९९/५०६-५२४], नियुक्ति : [३६१-३६९/३५९-३६७], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] "दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्राक [१] गाथा ||४८२ चूणा. ४९९|| जिणवणमाहिहिज्जासि' तिगुतिगुतो जिणस्स भगवतो तित्थकरस्स बयण-उवदेसणं जिणषयणमचिए, अहिद्वयति कालिक DIL तत्थ अवस्थाणं करेहअहिट्ठए इति सूत्रकारस्य उवएसवयण, तिबेमिसहो पुब्बवत्रियत्धो नया बद्देव ।। सजमाघातपाडवा गिरथं अट्ठारसस्थ पडिलह । जिणवयणावत्थाणं च होइ रहयपिंडत्था ॥१॥ रतिवकण्णी सम्मत्ता॥ २ घूला -धम्म चितिमा२खुडियायारावस्थितस्स३ विदितडकायाच स्थियस्स४ एसपियपिंडधारियसरीरस्स५ समत्तायावास्थयस्सल का बयणविभागकुसलस्सपणिहितजोगजुचस्सरविणीयस्स९दसमज्झयणस्स समणसयल भिक्खभावस्स१०विससथिरकरणस्थप उत्तर ॥३६७॥ढ़ातंतं व दिट्ठचूलितादुतं, तिषकाचूलिया य तत्थ धम्मे थिरीकरणथं रतिवकणामायणे पढमचूलिपा भणिया । विवित्तचरिया VIउपदेसस्था वितिययूला भण्णा, तीसे पढमपओ सीकण्णतणे चूला इति णाम, एएण अणुकमणागतं वितियाप चूलियज्झयण, RI हातस्स इमा उ उवधासनिज्जुत्ती, पढमगाथा, तं-'अहिगारो पुखपत्ती॥ ९३ ।। गाथा, जे तस्स वत्थुस्स अगाकरण, सागर |पुण चउव्यिहो नामादि, इहावि तहेव माणियन्यो, तमि परूविये तओ'वितिए चलियजायणे' सेसाणं नामाईण निदेसाईण च 'दाराण अहकम फासणा होति' अहकममिति जो जो अणुकमो तेण, फासणमिति जतसिं दारार्ण अर्थन स्पशन, गता नाम | निफण्णो, दो मुत्तफासियगाहाओ सुते चेव भण्णिा हिंति, एतेण पुणा ओघाइएण इममि चूलिपज्झयणे पढमसुत्तमागते, तंजडा-1 ॥३६७॥ टालिशं तु पवक्खामि ॥ ५०० ।। सिलोगो, तत्थ अप्पचूला चलिया, सा पुण सिहा चउम्बिहा अनतरेऽज्यापर्ण चचा। वभिषा, तुसहो भावचूलं बिसे सेह, तं पगरिसेण वक्खामि पवक्खामिश्र श्रवणे' धातः, अस्य धातोः नपुंसके भावे क्तप्रत्यया। [अनुबन्धलोपा, आदू गुणः (पा० ६-१-१७) प्रतिषेधः, श्रयते इति श्रुतं, तं पुण सुतनाणं केवलिभासित, अतिविशिष्टतम ज्ञान । दीप अनुक्रम [५०६५२४] चूलिका -१- परिसमाप्ता चूलिका -२- "विविक्तचर्या' आरब्धा: [372] Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [?] गाथा ||५०० ५१५|| दीप अनुक्रम [५२५ ५४०] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र- ३ (निर्युक्तिः + | भाष्य | + चूर्णि:) चूलिका [२], उद्देशक [-], मूलं [१...] / गाथा: [ ५०० ५१५/५२५-५४० ], निर्युक्ति: [ ३७० / ३६८-३६९ ], भाष्यं [ ६३ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [ ४२ ], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: श्री वैकालिक चूण. २ चूला ॥३६८ ॥ ॐ सकललोकालोकावभासकं केवलशब्देनाभिधीयते, केवलं, नपुंसकविवक्षायां सु, अतोत्रम् (पा० ७-१-२४ ) इत्यम्भावः केवलमस्यास्तीति 'अत इनिठना' विति ( पा० ५-२-११५ ) इनि प्रत्ययः सुपलुक 'यस्येति ( पा० ६-४-१४८) अकारलोपः, परगमनं, केवलिना 'कर्तकरणया' रिति ( पा० २-३-१८) तृतीया, तस्या एकवचनं टा, अनुबन्धलोपः, परगमनं केवलिना, अतस्तेन भगवता, शास्त्रगौरवसमुत्पादनार्थं, भाषितं अभिहितं व्याख्यातमिति, न केणह तव्यत्तणं पुष्णसमुप्पायनत्थमिति, 'जं सुणिन्तु 'के', चूलियत्थवित्थरं सोऊण 'सपुण्णाणं' सह पुत्रेण सपुत्रो तं सपुत्रं, पुनाति सोधयतीति पुष्णं, सो सह तम्मि सम्मदंसणाह 'धम्मे उप्पज्जए मई' तम्मि चरितघम्मे य उप्पज्जइ-संभवति मती चितमेव तं सद्भाजणणं चूलिया सुयनाणं (सुणित्तु ) सपुन्नाणमेव विसेसेण चरितम्मे मती भवति, परिण्णा पढमसिलोगेण भणिया, चूलियासुयं केवलिभासियं पवक्खामि, अहिणवधम्मस्स सद्धाजणणत्थं, तत्थ चरियागुणा य नियमा णेगे भाणियच्या, एवं तु सुहुमत्थपाडपायणमिति निदरिसणत्थं ताव इमं भण्णइ'अणुसोअपट्टि०' || ५०१ ॥ गाथा सूत्रं तत्थ अणुसहो पच्छाभावे, सोतमिति पाणियस्स निण्णपदेसामिसप्पणं, सोतो पाणियस्स निष्णपदे गमणपबत्ते जं तत्थ पडियं कट्ठाई तंनिसितं से सोयमणुगच्छतीति अणुसोतपट्ठिए, एवं अणुसोयपट्टियति सव्वलोए एत्थ दट्टब्वो, अणुसोयपट्ठित इव जहा कट्ठादणं नदिपट्टिवाणं निनपएसपट्टिए तब्बेगाहयाणं, अणुस्साए लोए अणुकूले पच्चणुसुहगमणं, एवं बहु सोऊण, सोवि बहुजणो, जेण संजएहिंतो असंजता अनंतगुणा, जहा तेसिं पाणियवेगाहियाणं महावहणं तहा बहुजणस्सवि सफरिसरसरूपगंध अनुगयाणं अणादिविसयाणुकूलपवणणेणाणुसोतवेगेण संसारमहापायाल- पडणमेव अणुसोयपडिओ बहुजणो, तंमि अणुसोयपट्टिबहुजणंमि किं करणीयमिति ? 'पडिसोअलदलक्खेणं पडिसोयें [373] अनुश्रोतः प्रतिश्रोतसी ||| ३६८|| Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+भाष्य +चूर्णि:) चूलिका [२], उद्देशक [-], मूलं [१...] / गाथा: [५००-५१५/५२५-५४०], नियुक्ति: [३७०/३६८-३६९], भाष्यं [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्राक [१] गाथा ||५०० नमेव अप्पा दायब्वे' प्रतीपं श्रोतं प्रति श्रोतं, जे पाणियस्स थलं प्रति गमन, ते पुण न सामावित, देवतादिनियोगेण होज्जा, आचार जहा है असकं एवं सद्दादीण विसयाण पडिलोमा प्रकृनिः दुक्करा, पडिसोये लदं लक्खो जहा सत्य उसु सिक्षतो, सुशिक्षिता पराक्रमादि सुसण्डमवि वालादीयं लक्षं लभते, तहा कामसुहभावणाभाविए लोगे तप्परिच्चागेण संजमलखं लब्भर, सो पडिसायलद्धलक्खे - पण पुणो पुणो णियामज्जा, पडिसोयमेव अप्पा दायब्बो, इह पडिसोतो रागविणयं, एक्सद्दो अवधारणे, तमवघारेइ, जहाण अण्णहा, ने | अप्पा इति सो एस आहिकयो, 'दायच्यो' इति पवतेतब्बो दायब्बो, णिवाणगमणारुहो 'भविउकामो होउकामो तेण होउकामेण, &पडिसायं अप्पा दायब्वो, एतस्सेव उदाहरणस्स बिससेण शिरुमणत्यं मण्णइ-'अणुसोअसुहो लोओ ॥५०२।। सिलोगो. ॥३६९॥ अणुसोयं पुब्ववण्णिायं, तं जस्स मुभं जहा पाणिय स्सानेणाभिपस्सवं मुहं एवं सद्दादीवि संगो सुहो लोगस्स, सोयसुहो लोगो, एताप्रोवि पवरो, तहा अणुसोतसुहमुच्छिओ लोगो पवत्तमाणो संसारे निवडइ, संसारकारणविवरांतो 'पडिसोओ आसवो सुविहियाणं' पडिसोयगमणमिव दुकर, संसारे विसयमावियस विसयविनियतणं, आसवो नाम इंदियजओ, सोमणं विधाणं जेसिं ते सुविहिया Vतेसि, विसयविरत्तार्ण मुविहियाणं आसवो पडिसोओचि, उभयफल निदरिसणत्थं अणुसोभो संसारा तहा अणुसोतसुहमुच्छिओ लोगो पवत्तमाणो संसारे निवडा, संसारकारणं सद्दादयो अणुसोता इति कारण कारणोवयारो, तन्निवरीयकारणे य पुण पडिसोश्रो, है तस्स निग्घाडो, जहा पडिलोम गच्छतो ण पाडिज्जा पायाले गदीसोएण तहेच सद्दादिसु अमुच्छिओ संसारपायाले ग पडइ. ॥३६९॥ संसारस्थितिमोक्खस्स य कारणमुइसेण भणियं । इदाणं विमुत्तिकारणोवदरिसणथमिदमुच्यते 'एवं (तम्हा) आयारपर-2 कमेण ॥ ५०३ ॥ गाथा, एक्सद्दो पकारोबदरिसणे, संसारपडिकूलायरणेण वित्तिभावं दरिसेइ, ते पुण आयारपरकमेणं, WRICAE%% ५१५|| दीप अनुक्रम [५२५५४०] % [374] Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) चूलिका [२], उद्देशक [-], मूलं [१...] / गाथा: [५००-५१५/५२५-५४०], नियुक्ति: [३७०/३६८-३६९], भाष्यं [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्राक a. अनि वासादि गाथा ||५००५१५|| बादश- आयारो-मूलगुणो परकमो-बलं, आयारधारणे सेमत्थं, आयारे परकमो जस्स अस्थि सो आयारपरकमवान, ननु लोए कर आयारकालिका | परिक्कमो साधुरेव, तेण आयारपरकमण संवरसमाधिबहुलेण, संवरो इंदियसंबरो णोईदियसंबरो य, 'संवरसमाहिबहुलेण' चूर्णी. संवरे समाहाणं तओ अबकप्पणं बहु लाति-बहुँ गिण्डइ, संवरे समाहि बहुं पडिवज्जइ, संवरसमाधिचहुले, तेण संवरसमाधिबहु२ चूला लेण किं करणीयमिति भण्णात-चरिआ गुणाअ नियमा अ हुँति सारण दडव्वा' चरिया चरित्तमेव, मूलुत्तरगुणसमुदायो गुणा तेसि सारक्वणीनीमत्तं भावणाओ नियमा-पडिमादयो अभिग्गहविससा दनवा इति भणिहामि, उसही चरियानियमा॥३७०|| गमेदविकप्पणथं होति ददृश्योत्ति, संभवतीति, साधुणा एस तृतीया, तेण आयारपरकमवया संवरसमाधिबहुलेण चरिया णियमा गुणा साहुणा अभिक्खणं आलोएऊण विनाणेण जाणियब्वा, जहोवएसं च कायव्वा, तेण आयारपरकमवया संवरसमा|धिबहुलेण साहुणा चरिया गुणा णिययं दट्ठचा इति, सिं चरियानियमागुणाणं विसेसणोबदरिसणस्थमिदमुपदिसति 'अनि असो समुआण.'॥ ५०४ ।। वृत्तं, 'अणिएयवासों नि 'समुदाणचरित' चिपद एवमादि, पदत्थो अयं४ अणिएयवासाचि निकेत-घरं तमिण वसिषव्यं, उज्जाणाइवासिणा होय, अणियवासो वा अनिययनासो. निच्चं एगते न वसियन्त्र, समुदाणचरिया इति मज्जादाए उग्गमितं तमेगीभावेणभुवणीयामति समुदाणं, तस्स विसुद्धस्स चरणं समुदाणचरिया, साउंछं दुविहं-दबओ भावओ य, दबओ ताबसाईण जं तो, पुचपच्छासथवादीहि ण उप्पाइयमिति भावओ, अन्नायं उछ परिकं | विवि भण्णइ,दव्ये जे विजणं भावे रागाह विरहितं, सपक्सपरपक्खे माणबज्जियं वा, तम्भाषा परिकयाओ पहाणमुबद्दी जे एगवस्थ-15 परिच्चाए एवमादि, भावओ अप्पं कोहादिवारण सपक्खपरपक्खे गतं, कोहाविद्धस्स भंडणं कलहो, तस्स विविधा वज्जणा कलह दीप अनुक्रम [५२५५४०] RECRECRUARRSCIENCREGA ३७॥ [375] Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक - मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) चूलिका [२], उद्देशक [-], मूलं [१...] / गाथा: [५००-५१५/५२५-५४०], नियुक्ति: [३७०/३६८-३६९], भाष्यं [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्राक [१] अनि वासा गाथा ||५००५१५|| श्रीदश- विवज्जणा, तुसहो अणिएपवासादि चरिया बिसेसेइ, अणुकरिसणत्यो, सब्यावि एसा 'विहारचरियाईसिणं पसत्या' विहरणं वैकालिक विहारो, सोय मासकप्पाइ, तस्स विहारस्स चरणं विहारचरिया, 'इसिणं पसत्या' इति रिसिओ-गणहराइयो तेसिं भगवंताणं चरिया चूर्णी पसरथा कहिया पसंसिया वा, एवमायरंतोऽवि सयं भवातत्ति, इसिणं पसत्यात्ति' विग्गहे समासए भवइ, तदिह नस्थि, विहारचरिया-1 २ चूला | बिसेसोपदरिसणमुवदिस्सते-'आइपणो (पणओ.) ॥ ५०५ ।। इन्द्रवज्जा, 'आइण्ण' मिति अश्वत्थं आइत्र, तं पुण राय कुलसंखडिमाइ, तत्थ महाजणविमदो पविसमाणस्स हत्थपादादिलूसणभाणभदाई दोसा, उकडगमणा इंदिये दायगरस सोहे॥३७॥ | इचि, ओमाणविवबज्जणं नाम अवर्म-ऊणं अवमाणं ओमो वा मोणा जत्थ संभवइ तं ओमाणं, एत्थ य पुण सपक्षेण असजतादिणा परपक्षेण वा घरगादीण बहूर्ण पविसमाणाणं दायब्वामिति तमेव भिक्खादाणं ऊणीकोद दायारो ओमाणं, कओ दाई, अनेमणति81 अहमाणं वा भवइ, अओ तस्स विवज्जणं, चसदेण विहारचरिया इति अणुकरिसिज्जइ, उस्सण्णसहो पायोवित्तीए पर, जहा-13 है|'देवा ओसण्णं सातं वेदणं वेदेति' दिवाइडं जं जत्थ उपयोगो कीरइ, तिआइपरंतराओ परतो, णाणिसि(दि)हामिड्डकरण, एवं ओसणं दिवादडमनपाणं गहिज्जचि, 'संसकप्पेण चरिज्ज भिक्खू सं8 संगु ईसिहत्यमत्तादि कप्पोऽपि संसट्टविधी तेण संरुकप्पेण संगहुविधिणा चरज्ज, एस उवएसो, संसदमेवटीसेसिज्जइ-'तज्जायर जई जएग्जा' 'रज्जाय' | मिति तस्स आयति तज्जाती जातसद्दो सजागविभेदपकारवाचको, तज्जातं न जहा आमगोरसस्स एव(करी,तज्जाओ ऊसणस्स कुसणमेव, एवं सिणहगुलकट्टराइसुवि, तस्थ असंसट्टे पच्छाकम्मपुरेकम्माइ दीसा हवेज्जा, अथ संसढे संसज्जिमदोसा, असंसट्ठमवि तज्जातसंसहूं चरेज्जा, जतीति साधू, जएज्जति, एवं भंगा अणुकरिसिज्जति, तं०-संसड्डो हस्थो संसट्ठी मत्तो सेसं दव्यं, ticketNG *% दीप अनुक्रम [५२५५४०] ॥३७१॥ C4- A [376] Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+भाष्य +चूर्णि:) चूलिका [२], उद्देशक [-], मूलं [१...] / गाथा: [५००-५१५/५२५-५४०], नियुक्ति: [३७०/३६८-३६९], भाष्यं [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्राक गाथा शत्वादि 4 ||५०० % ५१५|| श्रीदश-1 एवं अट्ठ भंगा, तत्थ पढमो भंगो पसस्था, सेसे निवारेऊण गहणं, गमणं वा, एवं जई जएज्जा, आइमोमाणविवज्जणा, वियडस्सा अमघमावैकालिका संग पारणे य णियमेण कुच्छिया बमणे सदोसा इति तदुपदारसणस्थमिदमुण्णीयते-'अमज्जमंसासि अमच्छरी ॥५०॥ साशिचूणा सिलोगो, चंडवं जो जातिमयणीयं मयकारि वा मज्ज-महुसीधुपसण्णादो, प्राणिनां सरीरावयवो मांस, तं पुण जलथलखहचराणं| २ चूला १ सत्ताणं, तमुभयं जो अंजा सो मज्जमसासि, अकारेण पडिसेहो कीरइ, अमज्जमंसासिणा भवितवं, मच्छरो-कोहो सोऽवि से म ज्जपाणे संभवइ, विणावि महुमज्जेण अमच्छरी भवेज्जा चक्कसेस, विकृति विगति चाण विमति णिविगति, मज्जमंसा पुण| ॥३७॥ विगती, तदनुसारेण सेसविगइओ नियमिज्जंति, अभिक्खणं निम्विगइंगया ये ति अप्पो कालविसेसो अभिक्खणमिति, आभि-1 ४ खणं णिब्विययं करणीयं, जहा मज्जमसाणं अच्चंतपडिसेधोन)तहा बीयाणं, केई पढति-'अभिक्खणं णिन्वितीया जोगो पडिव| ज्जिययो' इति, अभिक्खणं काउस्सग्गकारी, काउसग्गे ठियस्स कम्मनिज्जरा मवइ, गमणागमणविहाराईसु अभिक्खणं काउसग्गे 'सऊसियं नीससियं' पढियब्वा वाया, तहा 'सज्झायजोगे पयतो भवेज्ज' वायणादि बझो सज्झाओ तस्स जै विहाणं आयंबिलाइजोगो तमि वा जो उज्जमे एस जोगो, तत्थ पयत्तेण भवियचं, भवेज्जा इति अंतदीवर्ग सब्वेहि अभिसंवा | ज्झते, अमज्जमंसासी भवेज्जा एवमादि, आह-गणु पिंडेसणाए मणिय 'बहुअद्वियं पोग्गलं आणिमिसं वा बहुकंटक, आयरिओ आह-तत्थ बहुआवियं णिसिद्धमितिऽथ सव्वं णिसिद्ध, इम उस्सगं सुत्र, तं तु कारणीय, जदा कारणे गहणं तदा पडिसाडिपरिहरणत्थं सुर्त घेतव्य-न बहुपडि अद्वि)यामिति, मज्जं पातुकामस्स पीए य समायादि परिहाणि, इमसिं च अकारणे सेवानिसहण ॥३७॥ णिमित्तं भण्णइ- 'ण पडिन्न बिज्जा सयणःसणाई.' । ५०७ ॥ सिलोगो, णकारो पडिसेधे वट्टइ, पडिबवणं पडिसेहणमिति, दीप अनुक्रम [५२५ ARHAAL%AS ॐ ५४०] [377] Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+भाष्य +चूर्णि:) चूलिका [२], उद्देशक [-], मूलं [१...] / गाथा: [५००-५१५/५२५-५४०], नियुक्ति: [३७०/३६८-३६९], भाष्यं [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्राक [१] गाथा ||५०० ५१५|| -% श्रीदश- जो आगार्माकालपणिं संपतिकालविसओ, आगामीकालियपडियरणपडिसेहने एक, न पडिण्णवेज्जा, जहा मम इह पर है | गृहिवैयाबैकालिक सावरिसारत्तो भविस्ता, ममेव दायव्वाणि, अण्णस्स(मा)देह, किं पुषण पडिबविज्जतिर, सयणासणाईसज्जं निसेज्जतह भत्त-कृत्यनिषेधः चूर्णी. पाणं' सय संधारयादि, आसणं पीढगादि, सेज्जा सज्झायादी भूमि, 'तहे' ति तेण पगारेण, न पडिविज्जति जहा सुए परे । २ चूला मन-ओदशादी पाणं चउत्थरसियादी, तं पायं कालं परिमाणं वएज्जा तहत्ति वदेज्जा, एवं पडिवनयं ममत्तेण, अतो सब्वहा : 'गामे कुले वा नगरे च देसे ममत्तभावं न कहिंचि कुज्जा, तत्थ कुलसमुदायोगामो, कुलमेगं कुटुं, महामणुस्ससंपरिग्गहो। | पंडियसमवाओ नगर, विसयस्स किंचि मंडलं देसो, एतेसु जहुद्दिढेसु मम इति मावं न कुज्जा, 'कहिची ति विसयहरिसरागादिसु सव्वेसु, किंबहुणा, धम्मोवकरणेसुवि जा सा मुच्छा(सोपरिग्गहो वुत्तो महेसिणा, ममत्तनिवारणं अणतरसुत्ते भणिय,इमंपि ममत्त-- निवारणत्थमेव भण्णइ-'गिहिणो वेआचडियं न कुज्जा०५०८॥ गिहे-पुत्तदारं तं जस्स अस्थि सो गिही, एगवयणं जातीअस्थमवदिस्सति, तस्स गिहिणो 'वेयावडियं न कुज्जा' बेयावडियं नाम तथाऽऽदरकरणं, तेसिं वा पतिजणणं, उपकारक | असंजमाणुमोदणं ण कुज्जा, 'अभिवायणा बंदण पूयणं चेव' वयणेण नमोकाराइकरणं अभिवायणं, सिरप्पणामादि बंदणं, | वत्थादिदाणं पूर्वणं, एताणि असंजमाणुमोदणाणि ण कुज्जा, जहा गिहीणं एताणि अकरणीयाणि, तहा सपक्खेऽपि 'असंकिलि दुहिं समं वसेज्जा' गिहिवेयावडियादिरागदोसविवाहितपरिणामा संकिलिट्ठा, तहा भूते परिहरिऊण असंकिलेद्वेहि बसेज्जा, ३७३॥ | संपरिहारी संवसेज्जा, तेहिं संचासो चरित्ताणुपरोधकरेति भण्णइ-'मुणी चरित्तस्स 'जओन हाणी' मुणी-साहू चरिच-11 मूलगुणा तस्स, जओ हेऊतो तं म उपहम्मइ सम्विधेहि असकिलिवहिं सह वसियन्वं, अणागतकालीयमिदं सुनं, जो तित्थ-141 दीप अनुक्रम [५२५ ५४०] [378] Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [?] गाथा ||५०० ५१५|| दीप अनुक्रम [५२५ ५४० ] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र- ३ (निर्युक्तिः + | भाष्य | + चूर्णि:) चूलिका [२], उद्देशक [-], मूलं [१...] / गाथा: [५०० ५१५/५२५-५४० ], निर्युक्ति: [ ३७० / ३६८-३६९], भाष्यं [ ६३ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि श्रीदशकालिक चूण. २ चूला ॥ ३७४॥ गरकाले पासस्थादयो सकिलिड्डा णासीति, अतो अणागतमिदं परामस्सह, संवासपराधीणं चरितधारणमिदं तमुदिई, अप्पणो मिच्छयबला हाणत्थमुण्णीयते- 'ण या लभेज्जा निउर्ण सहायं ०१ || २०९॥ सिलोगो, '' ति पडिसंह वट्टद्द, णकाराणंतरो चकार इति जइसदस्स अत्थे, 'लाभेज्जत्ति' पावेज्ज, जर न लभेज्जा, किं जइ न लभेज्जति १, निउणं-सहाय, आह- केणाहिकी, भण्णइ-संजमगुणाहिकं, संजमगुणसमं वा, जो अप्पाओ संजमगुणेहिं अधिको समोवा, तव्विहगुणाहिकं जड़ ण लभेज्जा गुणाओ संजमओ वा जो य गुणेहिं हेऊभूएहिं समभागतो तच्विहं वा जड़ (न) लभेज्जा गुणेहिं तं समं वा तओ एकोऽवि पावाई विवज्जयंतो' 'एम' इति असद्दाओं, अविरुद्द संभावणे, अत्रि जोडचालणीयसंभावियगुणों सो एकोऽवि, पातयतीति पार्क, पुण अणताणि, विवज्जयंतो-परिहरतोति 'पिहरेज्जत्ति' अप डबद्धो जहोबएसं गामनगादिसु किन्तु 'कामेसु असज्जमाणी' कामा-नृत्थीविसया, तरगहणेण भोगाधि परिसरसरूवगंधावि सूइया, तेसु असज्जमाणो संग अगच्छमाणो, विहरेज्जतिउवएसवयणं कामेसु असज्जमाणोति विहरणमुवएसानंतर कालनियमणत्थमिदमुच्यते - संवच्छरं वाऽपि परं पमाण० ' ॥ ५१० ॥ सिलोगो, संवच्छ इति कालपरिमाणं भण्णद, स नेह संवाद, किन्तु वरिसारतं चाउम्मासियं, स एव जेडुग्गहो, वं संबच्छरं, वासदों पुब्वभणियविविचचरियसमुच्चये, अविसदो संभावणे, कारणे अच्छितव्वंति एवं संभावयति, परमिति परसहो उकरिसे बट्ट, एतं मडिकं पमाणं, एत्तितं कालं पासिऊण वितियं च तओ अनंतरं, चसदेण वितियमिति, जओ भणियं "तं दुगुणं दुगुणे परिहरंता बद्द" वितियं तदयं च परिहरिऊण चउत्थो होज्जा, एवं ज अभिक्खणदरिणसिणेहादि दोसा ते परिहरिया भवति, अओ न वसेज्जति उवएसवयणं, एयस्स नियमणत्थं दसज्झयण भणितस्स सव्वस्त अकलुसणत्थं भण्णइ - 'सुत्तस्स मग्गेण चरिज्ज [379] बिहारविधिः ॥ ३७४॥ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [?] गाथा ||५०० ५१५|| दीप अनुक्रम [५२५ ५४० ] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र- ३ (निर्युक्तिः + | भाष्य | + चूर्णि:) चूलिका [२], उद्देशक [-], मूलं [१...] / गाथा: [ ५०० ५१५/५२५-५४० ], निर्युक्ति: [ ३७० / ३६८-३६९ ], भाष्यं [ ६३ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: श्रीदशबँकालिक चूर्णो. २ चूला ॥३७५॥ भिक्खू' तं पुण अत्थपणेण अत्थप्पवतो वा सुतं तस्स मग्गेणेति तस्स उपरसेण, जं तत्थ भणियं वहा चरेज्जा, एवं मिक्म्बू भवह, भुमनाम मेसेण स न बुज्झतित्ति विसेसो कीरह, 'सुत्तस्स अत्थो जह आणवेति' तस्स सुत्तस्स मासकप्पादि सउस्सग्गापवादो गुरूहिं, ण सुविचितिओ (पण्ण विओ) अत्थो जह आणवेति जहा करणीयमग्गं निरूबेड, जम्हा 'वक्खाणओ विसेसे परिवज्जह' सि अत्थस्स मग्गेणेति सुयहणेति, जओ सुत्तमम्गेणऽज्झहरण अत्यो पच्छा पवत तेण सुत्तविवित्तचरिया असीयणफलं चेति वितियचूलियाहिगारी, तत्थ त्रिवित्तचरिया भणिया, असीयणे पुणे जहा भणियं कालमवसमाणे नस्थि मणुस्से इति । 'जो पुब्बरता वररत्तकाले० ' ॥ ५११ ॥ इन्द्रवज्रोपजातिः, 'जो' इति अणिदिट्ठस्स उद्देसो, रत्तीए पढमो जामो | पुच्चरतो संभि जो अवररचो पच्छिमजामो तंमि अवरते, एवं अवरतो एगस्स रगारस्स अलक्खणिगो लोबो, एत्थ कालिकपहोति कालो हति वर्ण, धम्मजागरियाकालो इति, एतेसु भण्णइ खणलवपडिबोधं पटुच्च सम्यकाल सु कि वरावरका करणीयमिति, 'सारस्वह अपगमपरणं' पालयति, संसद्दस्स साभावो अपगमेव कम्मभू [म] यं अध्यगिज्मेण कारंगण, जहा अप्पाणं पातीकरोति, सारक्खणोवाओ पुण स इमो-जहुद्दिदुकालयमाणं पडिसतो एवं चिंतेज्जा- 'किं मे कई अवस्सकरणीयं जोएसु बारसविहस्स वा तवस्स जं कथं लडुमिति, किं मम कडी, किंसदो अन्तगते विचारणे, मे इति अध्यणो णिदेसे, कडमिति निव्यतियं, 'किं च मे किव्वसेस' किमिति वा सद्दहितं सविकप्पं करणीयं विचारयति, किं करणीयं सेसं जायंति उज्जमामि करणीयसेसे, एसा अत्थविचारणा, 'किं सकणिज्जं न समायरामि', बलाबलकालानुरूपं सकं वत्युं किमहं न समायरामि ?, बलाबल| कालानुरूपं सकं वत्युं पमाददोसेण, जाब छड्डेऊण पमादं तमहं करोमि, पुष्यरत्तावररतकालेसु सारक्खणमप्पणो भणियं, [380] धर्मजागरिका ॥३७५॥ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+भाष्य +चूर्णि:) चूलिका [२], उद्देशक [-], मूलं [१...] / गाथा: [५००-५१५/५२५-५४०], नियुक्ति: [३७०/३६८-३६९], भाष्यं [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्राक गाथा चूर्णी. ||५०० ५१५|| श्रीदश- 1 सीदंतस्सवसेसीमदमुण्णीयते-'किं मे परो पासह किंच अप्पा ॥११॥ इन्द्रवजा, कयकिच्चसेसेसु किं मे परो पस्सतीति, कालका अप्पगयमेव विचारणं, मे इति मम, पर इति अप्पगवइरिचो. सो परो किं मम पाम पमादजातं ! सपक्खो वा सिद्धतविरुद्ध परपक्खो वा लोगविरुद्धं, 'किं च अप्पा' इति पमादबहुलत्तणेण जीवस्स किंमए निहाइपमाए नालोइयं जे इदाणि कओवओगो २ चूला पस्सामि, एवं किं परो अप्पा वा मम पासइ, 'किं चाऽहं खलियं न विवज्जयामि' किंसदो तहेव, वासदो विकप्पे, धम्मा बस्सए जोगविकप्पेण, अहमिति अप्पणो निदसे, किंवा मम पमादगलितं बुद्धिखालतं. पुण विचालणं सम्भावत्थानाओ, सोऽहं कि ॥३७६12 अकरणीयं बुद्धिखलियं विवज्जयामि न-समायरामि, केई पढ़ति-किं वाऽहं तं खलियं न विवज्जयामि, तं किमहं संजमखलियं न परि हरामि', 'इच्चव सम्म अणुपासमाणों' इतिसद्दो उपप्पदरिसणे, किं कडं किचसेर्स एपमादीणं अत्याण उपप्पदरिसण | 24 जा एवसद्दो अप्पगतकिरियाउपपदरिसणे, अवहारणत्यो बा, किमवधारयति ?, एवमेवं, ण अण्णहा, सम्ममिति तत्थ अणुपस्समाणी नाम पढम भगवया दिटुं च पच्छा बुद्धिपुच्च पस्समाणो अणुपस्समाणो 'अणागतं णो पहिबंध कुज्जा' अणागतमिति आगामिए काले, 'णो' इति पडिसेधे, सो इच्छियफललामविग्यो तं असंजमपडिबंध णो कुज्जा, इदाणि च एवं पुन्वावररत्चाइसु अप्पा परोबएसेण सम्म समभिलोअमाणो-जत्थेव पासे कह दुप्पउत्तं०॥५१३ ॥ इन्द्रवजोपजाति: 'जत्थेव' जमि संज-14 | मखलणावगासे, एक्सद्दो तदवगासावधारणेण कालांतरेण संचरणं कहमिति पदेण अंतरिय, पासे इति जत्थ पेक्खेज्जा, 'कई' इति | 51 दिकमि संजमठाणे, किं में परो पस्सइ किं च अप्पा इति, सपरोभयदिढे दुपणीयसजमजोगे विरोघेण पत्तियं, आह-केण दुपीया ॥३७॥ भण्णइ-'कारण वाया अदु माणसं कारण इरियाऽसमितित्तणं वायाए भासाए असमिति, मणसा अणुचिंतियाइ, अदु । दीप अनुक्रम [५२५ ५४०] [381] Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) चूलिका [२], उद्देशक , मूलं [१...] / गाथा: [५००-५१५/५२५-५४०], नियुक्ति: [३७०/३६८-३६९], भाष्यं [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्राक 45 संयमा [१] गाथा २चूलासनिदरिसणं सुहुमत्था -% ||५००५१५|| % श्रीदश-४ ला इति अहवसदस्स अत्थे, मण एव माणसो राएहि कायवायमाणसेहिं जत्थ दुप्पणीय पामेजा 'वस्थेव धीरो पहिसाहरिज्जा' वैकालिका'तस्थे तिमि चव, कायवायमाणसावकासे, तंमि वा काले, न कालंतरण, एचसो उभयकारणे, धीरो पंडिओ, तवकरणचूणों 18/रो वा, उझियपडिसंगहणं पडिसाहरणं, तं कायवायदुप्पणीयादि तमि चेव विराहितावकासे तमि च काले पडिसाहरेज्जा, सनिदरिसणं सुहुमत्थो घेप्पदाति निदरिसणं भष्णइ-'आइनओ खिप्प(त्तमिवक्खलीणं' गुणेहि जयविजयाईहिं आपूरिओ आइण्णो, सो पुण अस्सो जातिरेव आइण्णो, जत्थ कोइ जहाऽस्सोपडिसाहरइ पडिवज्जियओखितं खलिणं, ओखित्तमिति उच्छुळे, ॥३७७॥ खधदेसमागय नातिकमइ, अहवा खिप्पं जं सारहिणा आकढियं. साहिणा ईसदवि खितं णातिकमइ, अहवा खिप्पमिव खलियं, &ाखिप्पीमति सिग्घति, वसहो उवम्मे, भलोहसंडेसादयो हयवेगणिरुंभगा खलिणं, जहा सो परमविणाओ आइण्णो सयमेव महेण खिप्पं पडिवज्जइ, आसावरिछंदेण, न खालणवसेण पवत्तइ, तदभिप्पाईयं पडिवज्जइ, एवं तब्बसेण वेगपडिसाहरणादि खलिणमेव पडिसाहरियं भवइ, जहा आइण्णो खिप्पं खलिणं पडिसाहरइ तहा काइयादि दुप्पणीयं कारण वाया अदु माणसेणंति। दिकाइयवाइयमाणसाण जोगाणं णियमणउवएसणसमुकरिसतो भगवं अज्जसज्जंभवो सिस्सा आमंतऊण आणवेइ-'जस्सेरिसा जोगजिइंदियस्स.' ।। ५१४ ॥ सिलोगो, सर्व वा धम्मो मंगलाइयं उबएसजाय पज्जवलोगा उवदरिसिता भगवं सेज्जंभ- वसामी आणवइ, सकलदसवेयालियसत्थोवएसत्थनियमिया 'जस्सेरिसा जोगजिइंदियस्स', जस्सेति आणिदिउस्स निसेण जोगसंवैध दरिसयति, 'एरिसा' इति पकारोवदरिसणं, एवं नियमियजोगा इति काइयवाइयमाणसियवादारो सदाइविसयणियति दीप अनुक्रम [५२५५४०] ३७७।। [382] Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+भाष्य +चूर्णि:) चूलिका [२], उद्देशक , मूलं [१...] / गाथा: [५००-५१५/५२५-५४०], नियुक्ति: [३७०/३६८-३६९], भाष्यं [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्राक % -4- गाथा ||५०० ५१५|| |दिओ जिइंदिओ, घिई जस्स आत्थि सो घिइमंतो, सोभणो पुरिसो पडिबुद्धो, पडिबुद्धस्स जीवित-सीले जस्स भवति स पडिबुद्धजीवी, मोक्षपथः वकालिका चूर्णी. | सो एवंगुणो जीवइ संजमजीविएणं, तमेव जीवितमसारे माणुसत्तणे, धिईमंतो सप्पुरिसस्स जिइंदियस्स संजम जस्सेरिसा जोगा २ चूला स जीवई संजमजीविएणं भणियं च, अणंतरजीवियफलापदरिसणत्थं भण्णइ 'अप्पा खलु' अथवा सम्बदसवेयालियसत्थस्स धम्मपसंसाइकस्स उवदेसस्स सम्बदुक्खाबमोक्खणेण फलमिदमिति भण्णइ–'अप्पा खलु सययं रक्खियव्यो ५१५॥ इन्द्रवज्जो पजातिः, जो धम्मपसंसा १ धितिगुण २ संजम ३ जीवाभिगम ४ भिक्ख विसोहणा ५ धम्मत्यकाम ६ वषणविहि . यार ॥३७८॥ पणिधाण ८ विणये ९ हवति य भिक्खुमारे १० चूलियअज्झयणविनिव्वत्तिभंगो उवएससजमो, जओ भणियं 'सो जीबई संजमजीविएणं', एवंगुण' अप्पा, खलु विसे सणे तित्थकरणियकज्जकरणबद्धा परमभणिया कज्जकप्पणे हितो अ संजमप्पाणं [विसेसयति, सययमिति आमहन्वयारोवणा मरणपज्जत सव्वकाल, रक्खियम्वमिति परिपालनीयो, तस्स रक्षणोवाओ भण्णइ'सब्वेदिएहिं सुसमाहिएहिं सोतचक्खुगंधकासरसाण सम्बाणि इंदियाणि सब्वे इंदिया, तेहिं सुट्ठ समाहिएहिं विसयच यणेणं आयभावमकमन्तेण आरोबियाणि समाहियाणि य, एबविहेहि अरक्खणे पच्चवायोपदरिसणत्थं भण्णइ-अरक्खिओ 51जाइपहं उबेई' ण रक्खिओ सो अरक्खिओ, 'जाइवह उवेई' जाती-जणणं उप्पत्ति बधो-मरणं जाइ य वो य जाइबहो, 131 ॥३७८॥ अरक्खिओ जाइपहं जमणमरणमुबेइ, पढ़ति-'जाइपई' तं पुण संसारमग्गं चउरासीतिजाणीलक्खं परमगंभीरभयाणगमुवेइ, रक्खणगुणोववष्णणनिमिचं समस्थफलोपदरिसणरत्थं भण्णइ-'सुरक्खिओ सम्पदुहाण मुबई' मुटु सम्बपयचेण पावनियचाए s-in- IMCOCCANCERCESCA-% दीप अनुक्रम [५२५ koirCEO E ५४०] % [383] Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [?] गाथा ||५०० ५१५|| दीप अनुक्रम [५२५ ५४०] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र- ३ (निर्युक्तिः + | भाष्य | + चूर्णि:) चूलिका [२], उद्देशक [-], मूलं [१...] / गाथा: [ ५०० ५१५/५२५-५४० ], निर्युक्ति: [ ३७० / ३६८-३६९ ], भाष्यं [ ६३ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४२], मूलसूत्र - [०३] “दशवैकालिक" निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: श्रीदश- जोइओ सुरक्खिओ, वहा नियमिओ सम्बदुहाणं सारीरमाण साणं मुच्चतीति स सम्बदुक्खरहिओ णिव्वाणमणुतरं संतिमुवेति, वैकालिक 2 इतिसो अज्झयणपरिसमतीए, बेभि तित्थगरवयणानुगरिसणे । वितियचूलियज्झयणमेवं सम्मत्तम् || २ || चूर्णी २ चूला ॥ विवित्तचरिआ चला समत्ता ॥ चरिया य परिविवित्ता असीयणं जो य तस्स फललाभो । एते विसेसभणिया पिंडत्था चूलियज्झयणे ॥ १ ॥ सयलदसवेयालियस्स अत्योवदरिसणत्थं तु । जं आदिओं उद्दि 'जेण व जं वा पहुंचे ||२|| ॥३७९ ।। - सुत्तकारगस्स पडिणिरस्सणणिमित्तं इमा णिज्जुची गाद्दा भणिया- 'छहिं मासेहिं अधीतं' गाथा, 'छहिं' ति परिमा सद्दे 'मासेहिं' ति कालपरिसंखाणं, तेहिं छहिं मासेहिं धीतं एचिएण कालेन पढिये, अज्झयणसो सम्बंमि दस (वे) यालिए वट्टर, अहवा अज्झयणमिदं तु जं इमं अपच्छिमं चूलियज्झयणं, एयंमि अणुपुन्बीए अधीते सकलं सत्थं अधीतं भवति, 'अज्जमणगेणं' अज्जसदो सामीपज्जायत्रयणो, मणओ पुव्यमणिओ, तेण एचिउवेओ छम्मासपरियाओं अह कालगओ, अहसदो अज्झणाणतरं, 'कालगओ समाधीए' जीवनकालो जस्स गतो समाहीएत्ति, जहा तेण एतिएण चैव आराइणा भण्यतिति ॥ ग्रन्थानं ७९७० (७५७६ ) ।। चूलिका -२- परिसमाप्ता अथ उपसंहारः क्रियते [384] उपसंहारः ॥३७९॥ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [-] गाथा II-II दीप अनुक्रम [-] श्रीदशकालिक चूण २ चूला ॥३८० ॥ “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + | भाष्य | +चूर्णि:) गाथा ||२|| उपसंहारः ROSA दसवेया लियचुण्णी संभा जिल मुनिश्री दीपरत्नसागरेण पुन: संपादिता (आगमसूत्र ४२ ) “दशवैकालिक-चूर्णिः” परिसमाप्ताः [385] ॥३८०५ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः 42 पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधिता: संपादिताश्च / “दशवैकालिक सूत्र” [नियुक्ति: एवं जिनदास गणि-रचिता चूर्णिः] | (किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलिता "दशवैकालिक” नियुक्ति: एवं चूर्णि: नामेण परिसमाप्ता: Remember it's a Net Publications of 'jain_e_library's' [386]