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कोई दूसरी नौकरानी रहे. इतना काफी है।"
"चट्टला! पोचिकब्जे को मेरे विश्रामागार में भेजो और तुम यहाँ रहो।" कहकर शान्तलदेवी वहाँ से निकल गर्यो। बिट्टिदेव भी उनके साथ चले गये।
विश्रागागार में पहुँचने बाद लिहितेन ने प्रपन किया, "देनी, अब तुमने जो काम किया है, उसके बारे में तुम्हारा मन कह रहा है कि सही किया?"
"दुनिया के सब तरह के राग-व्यामोह आदि से परे रहनेवाली महारानी के मन को बुरा लग सकता है। उसके लिए मौका नहीं देना चाहिए। उनके अनेक कष्टों का कारण यही है कि उन पर दूसरों को विश्वास नहीं है। एक के बाद एक चोट लगने के कारण उनका मन निश्चित और सुलझी स्थिति के लिए उपयुक्त बन रहा है। मायण ने उनके मन को तौलकर देखा है। इतना ही नहीं, उनके मन को उस पुरानी लीक से बदलकर दूसरी ओर मोड़ दिया है। अब वे सही रास्ते पर चलने लगी हैं। ऐसे मौके पर उनकी आशा-आकांक्षाओं को जो मूल्य दें, उसका फल महत्तर ही होगा।"
"तुम्हारी रीति ही विचित्र है!"
"बीमारी के लिए जैसी दवा होती है वैसे ही मानसिक परिवर्तन के लिए भी रास्ते हैं। महारानी इस सिंहासन पर बैठी थीं। उनके दुःख को हम दूर न करेंगे तो यह सिंहासन हमारे लिए आग बन सकता है। वे जब तक दण्डनायकजी के साध रहीं तब तक कुछ और ही ढंग से सोचती-विचारती थीं। अब अकेली बनी रहीं तो सोचने-विचारने का ढंग ही अलग है। इसलिए उनका ध्यान इस तरफ होना प्रकृत सन्दर्भ में आवश्यक है। इससे उन्हें अब तक जो मानसिक शान्ति नहीं मिली, वह मिलेगी।"
दरवाजे पर खट-खट आवाज सुन पड़ी। शान्तलदेवी ने कहा, "अन्दर आओ, रेविमय्या।"
__ अन्दर प्रवेश करते ही रेविमय्या ने कहा, "कल सूर्यास्त से पहले हेग्गडजी और हेग्गड़तीजी यहाँ आ पहुँचेंगे। बेलापुरी से रवाना हो चुके हैं। साथ में गुणराशि पण्डितजी भी आ रहे हैं।"
"यात्रा के कारण अप्पाजी को कोई कष्ट तो नहीं होगा न. रेविमय्या?''
"वेलापुरी से रवाना होते समय सन्निधान का जैसा स्वास्थ्य रहा उससे कई गुना अच्छा है हेगड़ेजी का स्वास्थ्य। जो आहार लेते वह अंग न लगने के कारण बहुत कमजोर हो गये थे। अब एक सप्ताह से धीरे-धीरे आहार का सेवन करते हैं, हजम भी हो रहा है। पण्डितजी ने भी यह राय दी कि अब यात्रा कर सकते हैं। इसके बाद ही यात्रा की व्यवस्था की गयी।"
"ठीक, अब तुम आराम करो।" शान्तलदेवी बोली।
पद्रमहादेवो शान्तला : भा| तीन :: 41