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पट्टमहादेवी ही नहीं, सन्निधान भी साथ पधारे। पद्मलदेवी भी उठ खड़ी
"मैंने अब दूसरी बार दवा दी है। उन्हें आराम की आवश्यकता थी। ध्वनितन्तु सचेत होकर फिर से क्रियाशील हो गये हैं। अभी-अभी सचेत हुए हैं अत: अधिक काम देने पर फिर से थकावट आ जाएगी। मुझे लगा कि वे लगातार बोलती रहेंगी इसलिए यह आवश्यक हुआ। प्रकारान्तर से पट्टमहादेवी और सन्निधान को कुछ विश्राम करने के लिए इससे अवकाश भी मिल जाय, यही विचार था। एक प्रहर और वे आराम से सोएंगी।" पण्डितजी ने निवेदन किया।
___ "हमारी बात रहने दीजिए। थोड़ा-बहुत आराम मिल ही जाता है। दूर से यात्रा कर महाराजी गयी हैं। हमसे अधिक आराम की इन्हें जरूरत है। अब उठिए, यहाँ कोई और आ जाएंगी।" शान्तलदेवी ने बताया।
"यह तो प्रसिद्ध है कि मैं जिद्दी-हठीली हूँ। महामातृश्री का स्वास्थ्य जब तक नहीं सुधरता, मैं उनकी सेवा में यहीं रहूँगी। इस जगह से हटूंगी नहीं, यही मैंने निश्चय कर लिया है। उनके साथ कभी एक दिन भी योग्य रीति से मैंने व्यवहार नहीं किया है। उसके प्रायश्चित्त के रूप में अब मैं उनकी सेवा करूंगी। इसके लिए मुझे मौका दें। आराम की जब मेरी इच्छा होगी, तब मैं आराम कर लूँगी। पण्डितजी ने धीरज बंधाया। सन्निधान और आप पहले वेलापुरी जाएँ और हेम्गड़ेजी को देख - आएँ यही उचित है। आप लोग मुझ पर विश्वास रखें।" पद्मलदेवी ने कहा। उसके कहने में एक उद्वेग था. प्रार्थना थी, पश्चात्ताप था।
"हाँ, अभी वहाँ से खबर है कि घबड़ाहट का ऐसा कोई कारण नहीं। अब आप जो आ गयी तो हमारा बोझ कम हुआ-सा लगने लगा है। इस राजघराने के लिए महामातृश्री के अनन्तर आप ही तो बड़ी हैं।"
"इस बड़प्पन को रहने दें। महामातृश्री के समक्ष हम सब बच्चे ही हैं। पण्डित जी इन्हें बचा लें, यही काफी है।"
"सोमनाथ पण्डितजी एक बार नब्ज देख लें, बस। सारा रोग उन्हें मालूम हो जाता है। उनका चिकित्सा क्रम भी वैसा ही अचूक । परन्तु वे जो कहते हैं सो सब महाभातृश्री की इच्छा पर निर्भर है। पता नहीं क्यों उन्हें इस दुनिया से ही उचाट पैदा हो गयी है। इसे अपने मुंह से कहती नहीं। कम-से-कम आप जानेंगी तो अच्छा होगा।"
"अपने मन की जब आपसे ही नहीं कहती तो मुझसे कहेंगी?'' ''उनके लिए तो हम सब बराबर हैं।''
"ऐसा हो तो देखें। आप आराम करने जा सकती हैं। मैं रहुँगी। पण्डितजी भी घर जा सकते हैं। फुरसत हो तो चट्टला रहे। उसे कोई दूसरा काम हो तो
40 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन