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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भौंरा बताया है । इससे लगता है कि यह रचना उन्हीं अमरविजय की है या दोनों रचनाओं में कुछ घालमेल हो गया है। इनके गुरु श्री विजयराज का स्वर्गवास सं० १७४२ में हुआ था अतः यह निश्चित है कि ये १८वीं शती के लेखक थे पर इनकी रचना का निश्चय नहीं हो पाया है। पाश्र्वनाथ स्तुति यदि इन्हीं की रचना हो तो इसका रचनाकाल भी सं० १७४२ के आसपास होगा।
अमरसागर --- तपा० धर्मसागर>गणसागर>भाग्यसागर> पुण्यसागर के आप शिष्य थे। इनकी रचना 'रत्नचूड चौपइ' मधुमास ? चैत्र शुक्ल १० गुरुवार को मालवा के खिलजीपुर में पूर्ण हुई थी। यह रचना विजयरत्न सूरि के सूरिकाल में लिखी गई । वह कालावधि है सं० १७३२ से १७४९। अतः इसी बीच यह रचना किसी वसंत ऋतु में की गई प्रतीत होती है । इसे कवि ने 'उपदेश रत्नाकर' नामक ग्रंथ के आधार पर लिखा है। इसमें रत्नचूड़ की कथा के व्याज से दान की महिमा बताई गई है । प्रमाण स्वरूप पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं --
कहीश कथा मौतिक मणी, सांमलिज्यो नरनारि । रत्नचूड गुणवंत नी, दान तणै अधिकार । उपदेश रत्नाकर ग्रंथ थी मे जोंई रे संवंध । बासठि ढाल दूहे करी लोकभाषाई रच्यो अह संबंध ।' कवि ने अपनी भाषा को लोकभाषा कहा है अर्थात् काव्यभाषा का यही रूप कम से कम जैन साधू लेखकों में प्रचलित था। यह ग्रंथ काफी विस्तृत है, यथा ...
तीन सहस्र नव सत्तर ऊपरे, सत्तसठि श्लोका जाणि,
मधुमास दिन दसमी दिने गुरुवारे रे चोपईचढ़ी प्रमाण । उन दिनों अमर सागर जी खिलजीपुर में चौमासा करने गये थे, वहीं पर शिष्यों के आग्रह पर यह रचना उन्होंने पूरी की थी, वे लिखते हैं
मालव देस में अति भलु, खिलजीपुर पुण्यवास । शिष्य तणां आदर थकी, कीधी चोपइ रे तिहां रही चोमास ।
१. श्री देसाई -जैन गुर्जर कविओ भाग ३ प० १२८६-८७ (प्र० संस्करण) २. वही भाग ३ पृ १२८७ ( प्र० संस्करण)
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