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अमरविजय(गणि) या अमर गणि
धर्मदत्त चौपइ में कवि ने अपना नाम अमर विजय लिखा है। पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं
थया परंपर रतनसुरिंदा, श्री जिणचंद मुणिंदा रे,
उदयतिलक पाठक सुखकंदा, अमरविजय आणंदा रे ।' इससे स्पष्ट होता है कि उदयतिलक के शिष्य प्रसिद्ध कवि अमरविजय ही अमर और अमरगणि हैं। इन्होंने धर्मदत्त चौपइ का रचनाकाल इस प्रकार बताया है
गुण पूरण वसु चंद्र संवच्छर, कीनों चोमास रहासर रे ।
कातिक मास धनतेरस वासर, रचीयो रास सुवास रे । इनकी अक्षरबत्तीसी नामक रचना में हिन्दी भाषा का स्पष्ट और स्वच्छ प्रयोग मिलता है। शेष रचनाओं की भाषा मरुगुर्जर या राजस्थानी मिश्रित हिन्दी है। आपका रचनाकाल १९वीं शती के प्रथम दशक तक फैला है अतः कुछ रचनाओं को छोड़ दिया जा रहा है। परन्तु जितनी रचनायें देखी गई उनके आधार पर ये क्षमतावान् सर्जक सिद्ध होते हैं।
प्रमरविनय II तपागच्छीय विजयराज सूरि के भी एक शिष्य अमरविजय हो गये हैं उन्होंने भी 'पार्श्वनाथ स्तुति' लिखी है। पूर्ववर्णित खरतरगच्छ के उदयतिलक के शिष्य अमरविजय की पार्श्वस्तवन नामक तीन रचनायें सं० १७६२, ६६ और ६९ की प्राप्त हैं, लगता है कि इनमें से एक रचना प्रस्तुत अमर विजय की है। निम्न पंक्तियों से यह कथन प्रमाणित भी होता है
भट्टारक श्री विजय राज सूरि तप गच्छ केरो राय जी। तस पद पंकज मधुकर सरीखो अमर विजय गुण गाय जी।'
ठीक ऐसी ही उपमा सुप्रतिष्ठ चौपइ में खरतरगच्छीय अमरविजय ने भी दी है और स्वयंको गुरु के चरणकमलों में निवास करने वाला १. मो० द० देसाई ---जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० १४५७ (प्र० संस्करण)
तथा भाग ५ पृ. २१४ (नवीन संस्करण) २. राजस्थान का जैन साहित्य प० १७८ और २८० ३. श्री देसाई ---जैन गुर्जर कविओ भाग २ प० ३६२ (प्रथम संस्करण) और
भाग ५ पृ० ३९ (नवीन संस्करण)
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