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प्रस्तावना
६१
यागसूत्रमा
पृ. २०२-३ ) आदिमें इन आठों ऋद्धियोंका निर्देश उसी क्रमसे किया गया है तथा स्वरूप भी प्रत्येकका वैसा ही कहा गया है।
योगसूत्रमें अणिमा आदिके साथ जिस तद्धर्मानभिघातका निर्देश किया गया है, पूर्वोक्त तिलोयपण्णत्ति (४-१०३१ ) और तत्त्वार्थवार्तिक ( ३, ३६, ३ ) में उसके समानार्थक अप्रतीघातका निर्देश किया गया है। अभिप्राय दोनोंका सर्वथा समान है।
इसी योगसत्र में जिस कायसम्पतका निर्देश किया गया है उसका स्पष्टीकरण करते हुए अगले सूत्र ( ३-४६ ) में उससे रूप-लावण्य, बल और वज्रसंहननत्वको ग्रहण किया गया है।
तिलोयपण्णत्ति (४-१०३२ ) और तत्त्वार्थ वार्तिक (३,३६,३ ) में रूपलावण्यके समानार्थक कामरूपित्व ऋद्धिका निर्देश किया गया है। इन्हीं दोनों ग्रन्थोंमें जो बल-ऋद्धिका निरूपण किया गया है उसके अन्तर्गत कायबलमें बल और वज्र संहननत्वका भी समावेश होता है।
८. योगसूत्र ( ३-४९ ) में सत्त्व और पुरुषको अन्यताख्याति ( भेदविज्ञान ) मात्र स्वरूपसे स्थित योगीके प्रादुर्भूत सर्व भावोंके अधिष्ठातृत्व और सर्वज्ञातत्वका निर्देश किया गया है। इस सत्रके भाष्य में फलितार्थको प्रकट करते हुए यह कहा गया है कि यह विशोका नाम की सिद्धि है जिसे पाकर योगी सर्वज्ञ क्षीणक्लेशबन्धन व वशी होकर विहार करता है।
___ जैन दर्शन के अनुसार शरीर और आत्माके भेद-विज्ञानपूर्वक ध्यानमें निरत हुआ योगी उत्तरोत्तर कर्मबन्धनसे रहित होता हुआ एकत्ववितर्क नामक शुक्लध्यानको, जिसे संप्रज्ञात समाधि कहा जा सकता है, प्राप्त करता है व उसके प्रभावसे वीतराग एवं सर्वज्ञ होकर विहार करता है।
९. इस तीसरे विभूतिपादको समाप्त करते हुए अन्तिम योगसूत्र ( ३-५५ ) में यह कहा गया है कि सत्त्व और परुषकी शद्धिकी समानताके हो जानेपर कैवल्यका प्रादुर्भाव होता है-मोक्ष हो ज कर्तृत्वविषयक अभिमानके हट जानेपर सत्त्वका जो स्वकारण ( प्रकृति ) में अनुप्रवेश होता है, यह उस-उस सत्त्वकी शुद्धि है तथा पूर्व में जो उपचरित भोग था उसका अभाव हो जाना, यह पुरुषकी शुद्धि है। इस शुद्धिसाम्य में मोक्ष होता है।
जैन सिद्धान्त के अनुसार विचार करनेपर तेरहवें गुणस्थानमें योगोंका निरोध करते हुए केवलोके सूक्ष्म काययोगमें स्थित होनेपर सूक्ष्म-क्रियाप्रतिपाती शुक्लध्यान होता है। उसके परिणामस्वरूप सूक्ष्म काययोगका भी निरोध हो जाने पर अशुद्धिके कारणभूत योगास्रवका जो सर्वथा अभाव हो जाता है, यही पुरुष या आत्माकी शुद्धि है। इस प्रकारसे अयोग अवस्थामें शैलेशीभाव-शैलेश (मेरु) के समान स्थिरता को प्राप्त होकर योगी अनुदीर्ण (७२ या ७३) और उदीर्ण (१३ या १२) कर्म प्रकृतियों का क्षय करता हुआ मुक्तिको प्राप्त कर लेता है।
निष्कर्ष-इस प्रकार जैन और योग दोनों ही दर्शनोंमें ऋद्धि-सिद्धिविषयक पर्याप्त समानता पायो जाती है। साथ ही दोनों दर्शनोंने इन सिद्धियोंको आत्माके चरमोत्कर्षका कारण नहीं माना, व्यवहार अवस्थामें ही उन्हें उपादेय माना गया है । योगसूत्र में यह कहा भी गया है
ते समाधावुपसर्गा व्युत्थाने सिद्धयः । यो. सू. ३-३७ । अर्थात् पूर्वोक्त प्रातिभ आदि विभूतियाँ व्युत्थानावस्थामें-व्यवहारदशामें-भले ही सिद्धिस्वरूप हों, पर अन्ततः हर्ष-विषादादिकी कारण होनेसे उन्हें समाधिमें उपसर्गस्वरूप-विघ्न करनेवाली ही बतलाया गया है।
१. इत्येषा विशोका नाम सिद्धिर्या प्राप्य योगी सर्वज्ञःक्षीणक्लेश-बन्धनो वशी विहरति । यो. स. भाष्य ३-४९ ।
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